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अ  : देव-नागरी वर्ण-माला का पहला अक्षर और पहला स्वर। संस्कृत व्याकरण और भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह ह्वस्व, दीर्घ और प्लुत तीन प्रकार का होता है, जिसके अठारह अवांतर भेद हैं। उच्चारण की दृष्टि से यह अर्द्ध-विवृत मिश्र स्वर है। व्यंजनो का उच्चारण करते समय उनके अन्त में इसका उच्चारण अपने आप हो जाता है। जब किसी व्यंजन का उच्चारण इसके बिना होता है तो वह हलन्त कहलाता है और नहीं तो स-स्वर होता है। अव्य० एक संस्कृत अव्यय जो व्यंजनों से आरम्भ होने वाली संज्ञाओं और विशेषणों के पहले उपसर्ग की तरह लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है। (क) प्रतिकूल का विपरीत, जैसे—अधर्म, अनीति असत् अहित आदि। (ख) रहित विहीन या शून्य, जैसे—अकच, अकाम, अदृश्य, अपर्ण, अलस अशोक आदि। (ग) सामान्य आकार, रूप या स्थिति से भिन्न, जैसे—अपूर्व, अभारतीय (भारत से भिन्न देश का) आदि। (घ) निषेध या वारण, जैसे—अकथ्य अपेय आदि। और (च) दूषित या बुरा, जैसे—अकर्म, अकाल आदि। प्रायः यह शब्द से पहले लगकर नहिक रूप देता है। परन्तु कहीं-कहीं यह बहुत अधिकता का सूचक होता है। जैसे—अघोर, असेचन आदि। जब यह स्वर से आरम्भ होने वाले संस्कृत शब्दों के पहले लगता है तब इसका रूप अन् (अँगरेजी और जर्मनी की तरह) हो जाता है। जैसे—अंग से अनंग, अंत से अनंत, आदि से अनादि, उपस्थित से अनुपस्थित आदि। हिन्दी में इसी सं० अन् का रूप अन हो जाता है। जैसे—अनगिनत, अनजान, अनपढ़, अनबोल आदि। पुं० [सं॰√अव (रक्षा आदि)+ड] १. विष्णु। २. ब्रहा। ३. इन्द्र। ४. वायु। ५. अग्नि। ६.कुबेर। ७. अमृत। ८. कीर्ति। ९. ललाट। १. विश्व। वि० १. उत्पन्न करने वाला। २. रक्षक।
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अ-चरम  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी चरम सीमा या पराकाष्टा न हो। २. जिसका अंत न हो। अनंत।
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अ-चीन्हा  : वि० (हिं० अ+चीम्हना=पहचानना) जो चीन्हा (पहचाना) हुआ न हो। अपरिचित
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अ-नमी  : वि० [सं० अनम्र] १. न झुकनेवाला। २. (ल० अ०) अपने मान० प्रतिष्ठा आदि के विचार से किसीसे न दबनेवाला। स्वाभिमानी ३. जिद्दी। हठी।
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अ-परतंत्र  : वि० [सं० न० त०] १. जो परतंत्र न हो। २. जो किसी के वश या शासन में न हो। स्वाधीन।
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अ-पित्र्य  : वि० [न० त०]— अपैतृक।
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अ-रव  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें रव या शब्द न हो। बिना रव या शब्द का। २. जो शब्द न करता हो, अर्थात् चुप, मौन या शान्त। पुं० रव या शब्द का अभाव।
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अ-सम्मित  : वि० [सं० न० त०] १. जो सम्मित न हो। २. जिसके सब अंग ठीक अनुपात से या उचित स्थान पर न हो। (अन-सिम्मेट्रिकल)
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अइना  : पुं०=आईना (दर्पण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अइया  : स्त्री० दे० ‘ऐया'।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अइसन  : वि० =ऐसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अइसा  : वि० =ऐसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अइहइ  : कि० वि०=ऐसे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अउ  : अव्य=और।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अउझक  : क्रि० वि० =औचक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अउठा  : पुं० [?] जुलाहों का एक प्रकार का गज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अउत  : वि० [सं० अयुक्त] जो युक्ति संगत या ठीक न हो। अर्थात् अनुचित या अनुपयुक्त। उदाहरण—अउत होइ घड़ि छोड़ौ हो राम- नरपति नाल्ह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अउधू  : पुं०=अवधूत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अउर  : अव्य=और।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अउरौ  : पद [हि० अउर=और] १. और भी। २. इसके अतिरिक्त या सिवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अउलगना  : अ० [सं० उल्लंघन] १. उल्लघंन करना। उलाँघना। २. प्रवास या यात्रा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अउहेर  : स्त्री०=अवहेलना। (अवज्ञा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अउहेरना  : अ०[सं० अवहेलन] अवज्ञा या अवहेलना करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अऊत  : वि० [सं० अपुत्र, प्रा० अउत] (स्त्री० आऊती) जिसे पुत्र या संतान न हो। निःसंतान।
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अऊलना  : अ०=औलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अएरना  : स० [सं० अग्डीकरण, प्रा० अंगिअरण, हि० अँगेरना] अग्डीकार या ग्रहण करना। स० दे० ‘अटेरना'।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंक  : पु० [सं०√अंक चिन्ह करना) +अच्; लै ०
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अक  : पुं० [सं० अ=नहीं-क=सुख, न० त०] १. सुख का अभाव। २. सुख का विरोधी भाव। कष्ट, दुःख, विपत्ति आदि। पुं० [सं० अघ] पाप। उदाहरण—बरबस करत बिरोध हठि, होन चहत अक हीन—तुलसी। पुं० =आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँक रोरी  : स्त्री०- अँक-रोरी।
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अंक-करण  : पुं० [ष० त०] =अंकन।
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अंक-कार  : पुं० [सं० अंक√ कृ करना+अण्] १. वह व्यक्ति जो खेलों (आज-कल विशेषत गेंद-बल्ले आदि के खेलों) में खिलाड़ियों से नियम पालन कराने और विवादास्पद बातों का निर्णय करने के लिए नियुक्त होता है। (अम्पायर) २. वह जो अंक दे।
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अंक-गणित  : पुं० [ष० त०] गणित की वह शाखा जिसमें १, २, ३ आदि संख्याओं तथा जोड़, बाकी, गुणा, भाग आदि की सहायता से प्रश्नों के उत्तर निकाले जाते हैं। हिसाब। (एरिथमेटिक)
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अंक-गत  : भू० कृ० [द्वि० त०] १. जिसे गोद में लिया गया हो। गोद में लिया हुआ। २. पकड़ में आया हुआ।
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अंक-तंत्र  : पुं० [ष० त०] १. अंक गणित। २. बीज-गणित।
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अंक-धारण  : पुं० [ष० त०] त्वचा से गरम धातु से सांप्रदायिक चिन्ह (चक्र, त्रिशूल, शंख आदि) छपवाना या दगवाना।
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अंक-धारी  : (रिन्)-वि० [सं० अंक√घृ (धारण करनाः+ णिनि] [स्त्री० अंकधारिणी] जिसने अपनी त्वचा पर अंक या चिन्ह छपवाये या दगवाये हों।
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अंक-पत्र  : पुं० [ष० त० भू० कृ० अंक-पत्रित] १. कागज का वह छोटा टुकड़ा जिस पर चिन्ह छाप आदि लगे हों। २. शासन द्वारा छापा हुआ कागज का वह टुकड़ा जो कुछ निश्चित मूल्य का तथा इस बात का सूचक होता है कि कर शुल्क आदि की उतनी रकम चुकती कर दी गयी है, जो उस पर अंकित होती है। टिकट (स्टाम्प)।
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अंक-पत्रित  : भू० कृ० [सं० अंकपत्र√इतच्] जिस पर अंक-पत्र चिपकाया या लगाया गया हो। (स्टाम्प्ड)।
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अंक-पद्धति  : स्त्री०- [सं० त ०] १. अंकित करने, चिन्ह बनाने आदि का कोई ढंग या पद्धति। २. दे० ‘अंकनी’।
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अंक-परिवर्तन  : पुं० [ष० त०] १. करवट लेना या बदलना। २. नाटक मे एक अंक की समाप्ति के पर दूसरे अंक का प्रारम्भ होना।
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अंक-पलई  : स्त्री० [सं० अंक-पल्लव] लिखने का एक गोपनीय प्रकार जिसमें अक्षरों या वर्णों को स्थान पर अंको का प्रयोग किया जाता है।
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अंक-पाल  : वि० [सं० अंक पाल (पालन करना)+ ण्चि+अच्] गोद में खिलानेवाला। पुं० दास। सेवक।
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अंक-पालि  : (का) स्त्री० [सं० अंक√पाल+ण्चि+इन्, अंकपालि+कन्-टाप] १. आलिंगन। २. गोद में खिलाने वाली स्त्री०। दाई।
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अंक-पाली  : स्त्री० [सं० अंकपालि-डीष] १. अंक पालि। २. एक गन्ध द्रव्य का नाम।
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अंक-पाश  : पुं० [कर्म० स०] बाहु-पाश।
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अंक-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. बहुत से अंकों का समूह। जैसे—एक से सौ तक की अंक माला। २. छोटी माला।
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अंक-मालिका  : स्त्री० [ष० त०] अंक-माला।
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अंक-मुख  : पुं० [ष० त] नाटक के आरम्भ का भाग, जिसमें कथानक अत्यन्त्र संक्षेप में दिया जाता है।
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अंक-रौरी  : स्त्री० [हि०अँकरा, सं० इष्टक+रोरी। सं० लोष्ट] कंकड़ी। उदा० काँट न गड़े न गड़े अंकरौरी।—जायसी।
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अंक-लोप  : पुं० [ष० त०] अंको के घटने या घटाने की क्रिया या भाव।
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अंक-शायिनी  : स्त्री० [सं० अंक√ शी+सोना] +णिनि-डीप] स्त्री, जो पुरुष के साथ शयन करती हो।
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अंक-शायी (यिन्)  : [सं० अंक√ शी+णिनि] बगल में सोनेवाला।
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अंक-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह विद्या या शास्त्र जिसमें संख्या सम्बन्धी तथ्यों का निरूपण, वर्गीकरण, संग्रह आदि किया जाता है। (स्टैटिस्ट्-इक्स्)
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अंकक  : वि० [सं०√अंक+ण्वल्-अक (स्त्री० अंकिका)] १. अंको की गिनती करने वाला। २. चिन्ह, छाप या निशान लगाने वाला। पुं० वह करण जिससे चिन्ह या छाप लगाई जाती है। मोहर। (स्टाम्प)
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अंकखरी  : स्त्री०=कंकड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकच  : वि० [न० ब०] जिसके सिर पर कच या बाल न हों। गंजा। पुं० केतु ग्रह का एक नाम।
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अकचकाना  : अ० [सं० चकित] आश्चर्य में आना। चकित होना।
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अकच्छ  : वि० [सं० अ=रहित√कच्छ वा कक्ष=काछा या धोती] १. जिसके शरीर पर कपड़ा न हों, नंगा। २. दुराचारी। लंपट।
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अकंटक  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें काँटे न हों। कंटक-रहित। २. विघ्न-बाधा आदि से रहित।
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अँकटा  : पुं० [सं० इष्टका] कंकड़, पत्थर आदि का बहुत छोटा टुकड़ा।
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अँकटी  : स्त्री० [अँकटा का अल्पा० रूप] छोटी कंकड़ी।
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अकटुक  : वि० [न० त०] १. जो कटु अथवा कडुवा न हो। २. जो थका न हो। अक्लांत। ३. जो जल्दी थके नहीं।
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अकड़  : स्त्री० [सं० आ=अच्छी तरह+कड्ड=कड़ा होना] १. अकड़ने अथवा ऐठनें की क्रिया या भाव। तनाव। ऐंठ। २. अभिमान, शेखी। ३. धृष्टकता। ढिठाई।
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अकड़  : पुं०=अकड़बाज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकड़-फों  : पुं० हि० अकड़+फों (अनु] बहुत ही अभिमान भरा आचरण और व्यवहार।
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अकड़ना  : अ० [हि० अकड़+ना प्रत्य०] १. कड़े होने या सूखने के कारण खिंचना या तनना। ऐंठना। २. अभिमान या घमंड दिखाना। इतराना। ३. अभिमान। मूर्खता आदि के कारण दुराग्रह या धृष्टता करना। ४. सरदी के कारण ठिठुरना या स्तब्ध होना।
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अकड़बाई  : स्त्री० [सं० कड्ड=कड़ापन+हिं० बाई=बात] एक बात रोग जिसमें नसें तन जाती हैं और शरीर में पीड़ा होने लगती है।
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अकड़बाज  : वि० [हिं० अकड़+फा० बाज] १. अकड़ अथवा ऐंठ दिखलाने वाला। घमंडी। २. लड़का। पुं० वह जो अनुचित हठ या अभिमान करता हो। शेखीबाज।
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अकड़बाजी  : स्त्री० [हि० अकड़√फा० फाजी] अकड़ने, ऐंठने या अभिमान दिखाने का भाव। शेखी।
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अकड़म  : पुं० [सं० अ, क० ड, म, +अच्] एक प्रकार का तांत्रिक चक्र।
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अँकड़ा  : पुं०=अँकटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकड़ा  : पुं० [सं० कड्ड=कड़ापन] चौपायों को होनेवाला छूत का एक रोग।
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अकड़ाव  : पुं० [हिं० अकड़] अकड़ने की क्रिया या भाव। ऐंठन। तनाव।
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अँकड़ी  : स्त्री० [सं० इष्टका] १. छोटी कंकड़ी। २. कँटिया। हुक। ३. मछली फँसाने वाला हुक। ४. टेढ़ा या मुड़ा हुआ फल। ५. फल तोड़ने का बाँस जिसके सिर पर एक छोटी लकड़ी बँधी रहती है। लग्गी। ६. बेल। लता।
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अकड़ैत  : वि० =अकड़बाज।
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अकत  : वि० [सं० अक्षत] १. पूरा। समूचा। २. बिलकुल। सब। क्र० वि० एकदम से। बिलकुल।
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अंकति  : पुं० [सं०√अञ्च् (जाना)+अति, कुत्व] १. अग्नि। २. वायु। ३. ब्रहा। ४. अग्निहोत्री।
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अकत्थ  : वि०=अकथ्य(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकथ  : वि० [सं० अकथ्य] १. जो कहा न जा सके। २. जो कहे जाने के योग्य न हो। ३. जिसका वर्णन करना बहुत कठिन या असंभव हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकथनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जो कहा न जा सके। २. जिसका वर्णन न हो सके।
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अकथह  : पुं० [सं० अ क छ ह+अच्] दे० ‘अकड़म'।
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अकथित  : भू० कृ० [सं० न० त०] १. जो कहा न गया हो। अनुक्त २. गौण (कर्म्०)।
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अकथ्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो कहे जाने के योग्य न हो। २. दे० ‘अकथनीय’।
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अकधक  : पुं० [अनु०] १. आगा-पीछा। सोच-विचार। २. आशंका। डर। भय। ३.शक। संदेह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंकन  : पुं० [सं०√अंक्+ल्युट-अन्] भू० कु० अंकिता] १. अंक या चिन्ह बनाने की क्रिया या भाव। २. सांप्रदायिक चिन्ह गरम धातु आदि से छपवाने की क्रिया या भाव। ३. कलम या कूची से चित्र बनाना। ४. लिखना। ५. गिनती करने की क्रिया या भाव। ६. अंक लगाना या देना। ७. श्रेणी विशेष में किसी की गिनती करना।
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अकनना  : सं० [सं० आकर्णन=सुनना] १. सुनना। २. ध्यान लगाकर सुनना। ३. कान लगाकर या चोरी से सुनना। ४. आहट या थाह लेना। उदाहरण—अविनय अकनि राम पगु धारे।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंकना  : सं० [सं० अंकन] १. अंक देना, बनाना या लगाना। २. अंकन या चित्रण करना। ३. मूल्य स्थिर या निर्धारित करना। ४. श्रेणी विशेष आदि में किसी की गिनती करना। अ० १. आँका या कूता जाना। २. अंकित किया या लिखा जाना।
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अकना  : [सं० आकुल] १. उकताना। ऊबना। २. घबराना। पुं० ज्वार की ऐसी बाल जिसके दाने निकाल लिये गये हों। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकनिष्ठ  : वि० [सं० न० त०] १. जो कनिष्ठ या छोटा न हो। २. सब से छोटा। पुं० १. गौतम बुद्ध। २. बौद्ध देवताओं का एक वर्ग।
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अंकनी  : स्त्री० [सं० अंकन+ड्रीप] १. अंक, मान, संख्या आदि कुछ विशिष्ट प्रकार के चिन्हों के द्वारा अंकित करने या लिखने का ढंग या पद्धति अंकन पद्धति। (नोटेशन) जैसे—संगीत में किसी धुन, लय या राग की अंकनी।
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अंकनीय  : वि० [सं०√अक्+अनीयर्] १. अंकन या चित्रण किये जाने योग्य। २. जिसका अंकन या चित्रण किया जाने को हो।
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अकंप  : वि० [सं० न० ब०] (भाव० अकंपत्व) जिसमें कंपन न हो स्थिर।
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अकंपन  : पुं० [सं० न० त०] १. कंपन का अभाव। २. (न० ब०) रावण की सेना का एक राक्षस।
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अकंपित  : भू० कृ० [सं० न० त०] जिसमें कंपन न हुआ हो। पुं० बौद्ध-गणाधिपों का एक भेद या वर्ग।
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अकंप्य  : वि० [सं० न० त०] जिसे कँपाया न जा सके, अटल।
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अकबक  : पुं० [हि० अक (बक का अनु०) +बकना का बक] १. इधर-उधर की और निरर्थक बात। असंबद्ध प्रलाप। २. घबराहट या विकलता की ऐसी स्थिति जिसमें मनुष्य उक्त प्रकार की असंबद्ध बातें करता है। वि० असंबद्ध। बे-सिर-पैर का। उदाहरण—अकबल बोलत बैन कह्वौ हम तुन्हैं बिकैहैं—रत्नाकर।
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अकबकाना  : [अ० हिं० अकबक] १. अकबक या वयर्थ की बातें करना। २. चकित या भौचक्का होना। ३. घबराना।
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अकबर  : वि० [अ०] बहुत बड़ा महान्। पुं० प्रसिद्ध मुगल सम्राट जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर का संक्षिप्त नाम। (सन् १५४२-१६॰५)
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अकबरी  : वि० [अ०] अकबर नामक मुगल बादशाह से संबंध रखने वाला। जैसे—अकबरी अशरफी। स्त्री० १. एक प्रकार की मिठाई। २. लकड़ी पर की जाने वाली एक प्रकार की नकाशी।
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अकबाल  : पुं० दे० ‘इकबाल'।
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अकर  : वि० [सं० न० त०] १. जो करने योग्य न हो। अनुचित। बुरा। २. जो कुछ न कर रहा हो। अक्रिय। निष्क्रिय ३. जिसके कर (हाथ) न हों। बिना हाथों वाला। कर-विहीन। ४. जिस पर कर (शुल्क) न लगता हो या लगा हो। कर-रहित।
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अकरकरा  : पुं० [अ० अक़रक़ईः, सं० आकरकरभ] उत्तरी अफ्रीका का एक पौधा जिसकी जड़ दवा के काम आती है।
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अकरखना  : स० [सं० आकर्षण] १. आकृष्ट करना। खींचना। २. तानना। ३. चढ़ाना (धनुष पर तीर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरण  : वि० [सं० न० ब०] करण या इंद्रियों से रहित। पुं० ईश्वर या परमात्मा का एक नाम। वि० १. [कार्य] जो किये जाने के योग्य न हो। २. अनुचित। बुरा। ३. कठिन। दुष्कर। पुं० [सं० न० त०] १. कुछ भी न करने की क्रिया या भाव। २. जो काम किया जाना चाहिए वह न करना। कर्त्तव्य कर्म न करना। (ओमिशन) ३. किसी किये हुए काम को ऐसा रूप देना कि वह न किये हुए के समान हो जाए।
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अकरणीय  : वि० [सं० न० त०] (काम) जो किये जाने के योग्य न हो। अनुचित। बुरा।
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अकरन  : वि० =अकारण। उदाहरण—कर-कुठार मैं अकरन कोही—तुलसी। वि० [सं० अकरण] १. न किये जाने के योग्य। अकरणीय। उदाहरण—रीतौ भरै, भरौ ढरकावे अकरन करन करै-सूर। २. अनुचित। निन्दनीय। बुरा। ३. कठिन। दुष्कर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरनीय  : वि०=अकरणीय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरब  : पुं० [अ०] १. बिच्छू। २. वृश्चिक राशि। ३. वह घोड़ा जिसके मुँह पर के सफेद रोओं के बीच में दूसरे रंग के रोएँ हों। (ऐसा घोड़ा दोषयुक्त या खराब माना जाता है।)
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अँकरा  : पुं० [सं० अंकुर] १. अंकटा (कंकड़) २. खेतों में एक प्रकार की होने वाली घास जिसके दाने गरीब लोग खाते हैं।
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अकरा  : वि० [सं० अक्रय्य] १. जो महँगा अथवा अधिक मूल्य का होने से मोल लेने योग्य न हो। कीमती। २. अधिक मूल्य का महँगा। ३. अच्छा। बढ़िया। श्रेष्ठ। स्त्री० [सं० ] आमलकी। आँवला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकराथ  : वि०=अकारथ।
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अकराम  : पुं० [अ०करम (=कृपा) का बहु०] कृपा। अनुग्रह। पद—इनाम-अकराम=पारितोषिक और अनेक प्रकार के अनुग्रह।
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अकरार  : पुं० [हिं० अ+अ० करार=निश्चय, स्थिरता आदि] १. निश्चय या स्थिरता का अभाव। वि० जिसका कोई रूप या मर्यादा न हो। अनिश्चित या अ-स्थिर। पुं० १. दे० ‘इकरार’। २. दे० ‘करार’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकराल  : वि० [सं० न० त०] १. जो कराल या भयंकर न हो। सौम्य। २. सुन्दर। वि० =कराल (भीषण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरावना  : वि० १. डरावना। भयानक। २. मन में घृणा उत्पन्न करनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँकरास  : पुं०=अकरास।
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अकरास  : पुं० [सं० अकर] १. आलस्य। सुस्ती। २. अँगड़ाई।
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अकरासू  : पुं० स्त्री० (हिं० अकरास] जिसे गर्भ हो। गर्भवती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँकरी  : स्त्री० (अंकरा का अल्पा०) छोटी ककड़ी।
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अकरी  : स्त्री० [सं० आ=अच्छी तरह+किरण=बिखरना] १. बीज बोने के लिए लकड़ी का एक प्रकार का चोंगा जो हल में लगा रहता है। २. एक प्रकार का क्षुप या पौधा। वि०=अक्रिय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरुण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें करुणा या दया न हो। करुणा-रहित। २. निर्दय। निष्ठुर।
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अकरूर  : पुं०=अक्रूर।
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अकर्ण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके कान न हो। बिना कानोंवाला। २. जिसके कान छोटे हों। ३. बहरा। ४. (नाव) जिसमें पतवार न हो। पुं० साँप।
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अकर्तव्य  : वि० [सं० न० त०] (काम) जो करने योग्य न हो। अनुचित। बुरा। पुं० वह कार्य जिसे करना उचित न हो। अनुचित काम।
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अकर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० न० त०] १. जो कर्ता (करनेवाला) न हो। २. जो किसी काम में लगा न हो। सब कर्मों से अलग और आलिप्त। जैसे—सांख्य में पुरुष अकर्ता माना गया हैं।
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अकर्तृक  : वि० [सं० न० ब०] १.जिसका कोई कता या रचयिता न हो। कर्ताविहीन। २. जो (किसी का) किया हुआ न हो।
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अकर्तृत्व  : पुं० [सं० न० त०] १. अकर्ता होने की अवस्था या भाव। २. कर्तृव्य (या उसके अभिमान) का अभाव।
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अकर्म (र्मन्)  : पुं० [सं० न० त०] १. कर्म का अभाव। काम न करने का भाव। २. कर्म या कार्य का न होना। ३. न करने योग्य काम। अनुचित या बुरा काम।
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अकर्मक क्रिया  : स्त्री० [सं० अकर्मक० ब०, कप् अकर्मिका-क्रिया, क्रम०स०] व्याकरण में, क्रिया के दो मुख्य भेदों में से एक, जिसके साथ कोई कर्म नहीं होता अथवा जिसमें कर्म की अपेक्षा नहीं होती। (इन्ट्रान्जिटिव वर्ब) जैसे—दौड़ना, भटकना, सोना आदि।
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अकर्मण्य  : वि० [सं० कर्मन+यत्, न त०] [भाव० अकर्मण्यता] १. (व्यक्ति) जो कोई काम ठीक तरह से न कर सकता हो। निकम्मा। २. (पदार्थ) जो किसी काम का या उपयोगी न हो। व्यर्थ।
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अकर्मण्यता  : स्त्री० [सं० अकर्ण्यय+तल्-टाप्] अकर्मण्य होने की अवस्था या भाव।
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अकर्मा (र्मन्)  : वि० [सं० न० ब०] १. दे० अकर्ता। २. दे० ‘अकर्मण्य'।
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अकर्मी (र्मिन्)  : पुं० [सं० कर्मन्+इन्, न० त०] (स्त्री० अकर्मिणी] १. अकर्म या बुरा कर्म करने वाला। पापी। २. अपराधी। दोषी।
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अकर्षण  : पुं०=आकर्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कल (अवयव या अंग) न हों। २. जिसके खंड या टुकड़े न हुए हों। पूरा। समूचा। ३. उक्त कारणों से परमात्मा का एक विश्लेषण। ४. जिसमें कोई कला या विशेषता न हो। ५. बेचैन। विकाल। व्याकुल। स्त्री०=अक्ल (बुद्धि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकल-खुरा  : वि० [हि० अकेला+फा० खोर अकेला खानेवाला अर्थात् स्वार्थी या मतलबी। जैसे—अकल खुरा, जग से बुरा।—कहा०।
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अकलंक  : वि० [सं० न० ब०] [भाव० अकलंकता] १. जिसमें कलंक अथवा दोष न हो। कलंक रहित। २. सब तरह से निर्मल। पुं० दे० ‘कलंक’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकलंकता  : वि० [सं० अकलंक+तल्-टाप्] कलंक अथवा दोष से युक्त न होने का भाव। निर्दोषता।
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अकलंकित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें कोई कलंक न लगा हो। २. निर्दोष और शुद्ध।
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अकलंकी (किन्)  : वि० [सं० न० त०] जिसमें कोई कलंक या दोष न हो। निष्कलंक। वि० दे० ‘कलंकी’।
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अकलबीर  : पुं० [सं० करवीर ?] एक पौधा जिसकी जड़ रेशम रँगने के काम आती है।
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अकला  : वि०=अकेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकलीम  : स्त्री० [अ० इकलीम] १. ऊपर के लोकों में से सातवाँ लोक। २. सातों लोक। उदाहरण—औ सातूँ अकलीम में चावोगढ़ चीतोड़-बाँकीदास। ३. राज्य। ४. देश। प्रान्त।
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अकलुष  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें कलुष न हो। कलुष से रहित। २. पवित्र। शुद्ध। ३.निर्मल। साफ।
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अकल्प  : वि० [सं० न० ब०] १. नियंत्रण या नियम को मानने वाला। २. जिसमें क्षमता न हो। अक्षम। ३. कमजोर। दुर्बल। ४. अतुलनीय।
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अकल्पित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी कल्पना न की जा सके। कल्पना से बाहर। २. जो कल्पित अथवा मन-गढ़त न हो, बल्कि जिसका कुछ आधार हो। वास्तविक। ३. पहले से जिसकी कल्पना या अनुमान न किया गया हो। अतर्कित।
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अकल्मष  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कोई कल्मष न हो, निर्दोष। २. पवित्र। शुद्ध। पुं० कल्मष (दोष आदि) का अभाव।
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अकल्याण  : पुं० [सं० न० त०] १. कल्याण का अभाव। अशुभ अमंगलजनक स्थिति। २. अहित। खराबी। हानि। वि० [सं० न० ब०] कल्याण-रहित।
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अकवना  : पुं० दे० ‘मदार’। (पौधा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँकवाई  : स्त्री० [हि० आँकना+वाई प्रत्यय] १. अँकवाने की क्रिया का भाव। २. अँकवाने का पारिश्रमिक।
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अँकवाना  : सं० [हि० आँकना क्रिया का प्रे० रूप] १. अन्य व्यक्ति से आँकने का काम करवाना। २. किसी से जाँच करवाना। ३. दूसरे व्यक्ति से अंकन करवाना। ४. मूल्य या दर निश्चित करवाना।
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अँकवार  : स्त्री० [सं० अंकपालिका, प्रा० अंकवारिया] १. वक्ष-स्थल। २. हदय। ३. गोद। मुहा०—अँकवार देना या भरना-गले लगाना। भेंट अँकवार=आलिंगन।
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अँकवारना  : सं० [हि० अँकवार] गले लगाना। आलिंगन करना।
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अँकवारि  : स्त्री०=अँकवार।
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अंकस  : पुं० [सं०√अञ्च् (गति) +असुन, कुत्व, अंकस्+अच्] १. शरीर। २. चिन्ह। वि० चिन्ह-युक्त।
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अकस  : पुं० [सं० आकर्ष] १. किसी के प्रति मन में होनेवाला ऐसा दुर्भाव जो उसे अलग या दूर करने की प्रवृति उत्पन्न करता है। मन-मुटाव। २. वैर। शत्रुता। ३. ऐंठ। अकड़। पुं० [अ० अक्स, मि० सं० आकर्ष] १. छाया। परछाँही। २. प्रतिबिम्ब।
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अकसना  : अ० [सं० आकर्ष, हि० अकस] १. मन में दुर्भाव, द्वेष या बैर रखना। २. अकड़ या ऐंठ दिखाना। ३. विरोध, वैर या शत्रुता करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकसर  : वि० [हिं० अक=एक+सर (प्रत्यय)] जिसके साथ कोई न हो। अकेला। उदाहरण—कौन हेतु मन व्यग्र अति, अकसर आएतु नाथ—तुलसी। क्रि० वि० बिना किसी को अपने साथ लिए। अकेले। अव्य [अ०अक्सर] बीच-बीच में। अधिक अवसरों पर। प्रायः।
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अकसीर  : स्त्री० [अ० अक्सीर] वह रस या भस्म जो किसी निम्न कोटि की धातु कोसोना या चाँदी के रूप में परिवर्तित कर दे। रसायन। वि० निश्चित रूप से अपना गुण, प्रभाव या फल दिखानेवाला। अचूक। अव्यर्थ।
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अंकस्  : गु० अंक, आंक आकड़ों; सि० अंगु, का० आँख; सिंह० अंक; मरा० अंक] [वि० अंकनीय, अंकित अंक्य, भाव अंकन] १. बैठे हुए। मनुष्य का, सामने का कमर से घुटनों तक का उतना अंश, जितने में बच्चों आदि को बैठाया जाता है। कोड़। गोद। मुहा०—अंक देना, भरना या लगाना=(क) बच्चे आदि को प्रेमपूर्वक गोद आदि में बैठाना। (ख) गले लगाना, आलिंगन करना। अंक में नमाना या नमावना=अति प्रसन्न होना। फूले अंगों न समाना। उदा०—फूले फिरत अंक नहिं मावत।—सूर। २. कटि प्रदेश। कमर। ३. चिन्ह, छाप या निशान। ४. लेख। लिखावट। ५. संख्या के सूचक चिन्ह। (फिगर) जैसे—१, २, ३, ४ आदि। ६. खेल, परीक्षा आदि में योग्यता, सफलता आदि की सूचक इकाइयाँ। नम्बर जैसे—कबड्डी में सात अथवा गणित में दस अंक हमें मिले हैं। ७. अंश। उदा० एकहु अंक न हरि भजे रे सठ सूर गँवार।—तुलसी। ८. भाग्य। प्रारब्ध। ९. धब्बा। दाग। १. बच्चों को नजर लगने से बचाने के लिए उनके माथे पर लगाई जाने वाली बिन्दी। ११. शरीर। देह। १२. नाटक का एक खण्ड या भाग जिसमें कई दृश्य होते है। १३. रूपक के दस भेदों में से एक। १४. नौ की संख्या। १५. पत्र-पत्रिकाओं आदि का कोई निश्चित समय पर या समय विशेष पर होने वाला प्रकाशन (नम्बर)। १६. पर्वत। १७. दुःख। १८. पाप।
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अकस्मात्  : क्रि० वि० [सं० न-कस्मात्, अलुक् स०] १. एकदम से। अचानक। सहसा। २. दैव योग से और अतर्कित रूप में।
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अकह  : वि० १. दे० ‘अकथ्य'। २. दे० ‘अकथनीय’।
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अकहुआ  : वि० दे० ‘अकथनीय'। पुं०=आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंकाई  : स्त्री० [सं० अंकन] १. आँकने की क्रिया या भाव। अंकन। २. आंकने या अँकन् करने का पारिश्रमिक। ३. फसल में से जमींदार और काश्तकार के हिस्सों का ठहराव। दानाबंदी।
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अंकांक  : पुं० [अंक-अंक, ब० स०] जल। पानी।
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अकाज  : पुं० [सं० अकार्य] १. खराब या बुरा काम। २. किसी काम में होने वाली देर, बाधा या हानि-हरज। क्रि० वि० बिना किसी फलया लाभ के। निष्प्रयोजन। व्यर्थ। उदाहरण—बीते जाये है, जनम अकाज रे—नानक।
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अकाजना  : अ० [हिं० अकाज] १. अकाज, हरज या हानि होना। २. निष्प्रयोजन या व्यर्थ हो जाना। किसी योग्य न रह जाना। उदाहरण—मानहुँ राज अकाजेउ आजू।—तुलसी। स० अकाज [हरज या हानि] करना। अ० [हिं० काल) मर जाना।
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अकाजी  : वि० [हिं० अकाज] [स्त्री० अकाजिनि] १. जिसे कोई काम न हो। २. अकाज या हरज करने वाला। ३. कार्य में रोड़ा अटकानेवाला।
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अकाट  : वि० दे० ‘अकाट्य'।
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अकाट्य  : वि० [हिं० अ+काटना, असिद्ध रूप] १. जो काटा न जा सके। २. तर्क, युक्ति आदि से जिसका खंडन न किया जा सके। जैसे—अकाट्य प्रमाण।
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अकांड  : वि० [सं० न० ब०] १. (वृक्ष) जिसमें कांड या शाखाएँ न हों। शाखाओं से रहित (वृक्ष)। २. अचानक या असमय में होने वाला। क्रि० वि० [सं० न० त०] अचानक। सहसा।
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अकांड-तांडव  : पुं० [सं० त०] बहुत ही छोटी बात को बहुत बढ़ाकर उसके संबंध में व्यर्थ की जाने वाली उछल-कूद और हो-हल्ला।
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अकाथ  : वि०=अकथनीय। क्रि० वि० [सं० अकृत] निष्फल। व्यर्थ। उदाहरण—कर्म धर्म तीरथ बिनु राधन, ह्वै गए सकल अकाथा।—सूर।
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अकादमी  : स्त्री० [यू० एकौडेमी] १. उच्च कोटि का विद्यालय। २. विद्वानों की वह संघटित संस्था जो किसी कला, विज्ञान, शास्त्र आदि की उन्नति, प्रचार और विवेचन के लिए बनी हो। (एकैडेमी) जैसे—साहित्य एकादमी, हिन्दुस्तान एकादमी।
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अँकाना  : सं० =अँकवाना।
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अकाम  : वि० [सं० न० ब०] जिसे किसी प्रकार की कामना या वासना न हो। निष्काम। क्रि० वि० [हि०अ+काम] बिना किसी काम के या प्रायोजन के। व्यर्थ। पुं० अनुचित, बुरा या व्यर्थ का काम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकामतः (तस्)  : क्रि० वि० [सं० अकाम+तस्] १. बिना किसी कामना के। २. बिना इच्छा या प्रयत्न के। अनजान में। यों ही।
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अकामा  : स्त्री० [सं० न० ब० टाप्] १. (किशोरी) जिसमें काम वासना अभी उत्पन्न न हुई हो। २. (स्त्री०) जिसमें काम वासना न रह गई हो।
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अकामिक  : वि० [सं० अकाम से] जिसके लिए कामना या चेष्ठा न की गई हो। आप से आप हो जाने वाला। उदाहरण—अति पुलकित तनु विहसि अकामिक।—विद्यापति।
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अकामी (मिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके मन में किसी प्रकार की कामना या वासना न हो। अकाम। २. जिसमें काम वासना न हो या न रह गई हो।
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अकाय  : वि० [सं० न० ब०] १. जो बिना काया या शरीर के हो। काया रहित। २. जिसका कोई आकार या रूप न हो। निराकार।
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अकार  : पुं० [सं० अ+कार] अ अक्षर और उसकी उच्चारण—ध्वनि। पुं० दे० ‘आकार’। पुं०=आकाश। उदाहरण—दान मेरू बढ़ि लाग अकाराँ—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकारज  : पुं०=अकाज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकारण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके मूल में कोई कारण न हो। जैसे—अकारण वैमनस्य। २. जो आपसे आप उत्पन्न हुआ हो। स्वयंभू। क्रि० वि० बिना किसी कारण या वजह के। आप से आप। यों हीं।
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अकारथ  : वि० [सं० अकार्यार्थ] जिसका कोई अच्छा फल या परिणाम न हो। बे-फायदा। जैसे—सारा परिश्रम अकारथ गया। क्रि० वि० बिना किसी उपयोग या फल के। यों ही। व्यर्थ।
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अकारन  : वि०=अकारण।
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अकारांत  : वि० [सं० अकार-अंत, ब० स०] जिसके अंत में ‘अ’ हो।
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अकारादि  : वि० [सं० अकार-आदि, ब० स०] जिसके आदि या आरंभ में ‘अ’ या अकार हो।
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अकारिय  : वि० =अकारथ। उदाहरण—गौर मुख्य वपु स्याम गिरन सम नख्य अकारिय।—चन्दबरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकार्य  : वि० [सं० न० त०] १. (काम) जो किये जाने के योग्य न हो। अकर्तव्य। २. अनुचित। बुरा। पुं०=अकर्म।
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अकाल  : पुं० सं० न० त०] १. ऐसा काम या समय जो किसी विशिष्ट कार्य के लिए उपयुक्त न हो। कु-समय। २. ऐसा समय जिसमें अन्न बहुत कम और बहुत कठिनता से मिलता हो। दुर्भिक्ष। ३. किसी चीज की बहुत कमी या अभाव। जैसे—कपड़े या नमक का अकाल। वि० [सं० न० ब०] १. जिसका काल न आ सके अथवा मृत्यु न हो सके। अविनाशी। २. जो उचित या उपयुक्त समय पर न हो। असामयिक। जैसे—अकाल मृत्यु, अकाल वृष्टि।
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अकाल जात  : वि० [स० त०]=अकालज।
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अकाल-कुसुम  : पुं० [ष० त] १. उपयुक्त अथवा नियत समय से बहुत पहले या पीछे किसी वृक्ष में लगने वाला फूल जो उपद्रव, दुर्भिक्ष आदि का लक्षण माना जाता है। २. वह वस्तु जो अपने उपयुक्त समय से पहले या पीछे हो।
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अकाल-जलद  : पुं० [ष० त०] वर्षा ऋतु से पहले या बाद (अकाल) में आने वाले बादल।
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अकाल-पक्व  : वि० [स० त०] उचित समय से पहले या पीछे अर्थात् बिना मौसिम के पकनेवाले (फल)।
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अकाल-पुरुष  : पुं० [अकाल, न० ब०, अकाल-पुरुष, कर्म० स०] परमेश्वर।
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अकाल-प्रसव  : पुं० [ष० त०] स्त्री० को निश्चित समय या ठीक पहले से या पीछे से होनेवाला प्रसव।
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अकाल-मृत्यु  : स्त्री० [स० त०] १. बुरे समय में होने वाली मृत्यु। २. असामयिक मृत्यु। साधारणतः उचित या नियत समय से पहले होने वाली मृत्यु।
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अकाल-वृद्ध  : वि० [स० त०] जो उचित या नियत समय से पहले ही वृद्ध या बुड्डा हो गया हो।
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अकाल-वृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] उचित या नियत समय से पहले या पीछे होनेवाली वर्षा।
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अकालज  : पुं० [सं० अकाल√जन् (उत्पन्न होना) +ड] उचित समय से पहले या बाद (अकाल) में उत्पन्न होने वाला।
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अकालिक  : वि० [सं० कालिक, काल+ठन्, अकालिक, न० त०] अपने उचित या नियत समय से पहले या पीछे होने वाला। असामयिक।
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अकाली  : पुं० [सं० अकाल+हिं० ई] १. सिख्खों का एक संप्रदाय विशेष। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी। वि० जिसका संबंध उक्त संप्रदाय से हो।
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अँकाव  : स्त्री० [हि० आँकना) आँकने की क्रिया या भाव।
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अकाव  : पुं० [सं० अर्क] आक। मदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंकावतार  : पु० सं० अंक-अवतार, ष० त०) नाटक में एक अंक की समाप्ति पर पात्रों का संकेत से यह बतलाना कि अगलें अंक में क्या-क्या बातें होंगी।
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अकाश-द्वीप  : पुं० [सं० आकाश-दीप] १. प्राचीन काल में नदी या समुद्र के किनारे रात के समय ऊँचे बाँस में बाँधकर जलाया जाने वाला दीया जिसका उद्वेश्य जल-पोतों का मार्ग दर्शन करना होता था। २. बाँस में बाँधकर जलाया जानेवाला दीप।
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अकास  : पुं०=आकाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकास बौर  : पुं०=अकासबेल।
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अकास-दीया  : पुं०=अकाश-दीप।
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अकास-नीम  : पुं० [सं० आकाश निम्ब] एक प्रकार का पेड़।
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अकासकृत  : पुं० [सं० आकाशकृत) बिजली
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अकासबानी  : स्त्री०=आकाशवाणी।
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अकासबेल  : स्त्री० [सं० आकाशबेलि़] अमर-बेल।
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अकासी  : वि० [सं० आकाश] १. आकाश-सम्बन्धी। २. आकाश में रहने या उड़ने वाला। स्त्री० १. चील (पक्षी)। २. ताड़ का रस। (ताड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकि  : अव्य (हिं० कि०) कि/या/अथवा। उदाहरण—आगि जरौं अकि पानि परों कैसि करौं हिय का बिधि धीरौं—घनानन्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकिंचन  : वि० [सं० मयू० स०] १. जिसके पास कुछ भी न हो दरिद्र। २. जो अपने कर्मों का भोग पूरा कर चुका हो। ३. दे० अपरिग्रही। पुं० १. वह जिसके पास अपने निर्वाह के लिए कुछ भी धन न हो। परम दरिद्र। (पाँपर) २. वह जैन साधु जो परिग्रह धन पत्नी बच्चे और ममता से रहित हो चुका हो।
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अकिंचनता  : स्त्री० [सं० अकिंचन+तल्-टाप्) १. अकिंचन होने की अवस्था या भाव। २. परम दरिद्रता या निर्धनता। ३. परिग्रह और ममता का त्याग। (जैन)
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अकिंचित्कर  : वि० [सं० किंचित√ कृ (करना) +ट, न० त०] १. जो कुछ न कर सके। अयोग्य असमर्थ। २. तुच्छ। नगण्य। ३. जिसका कुछ भी फल न हो। व्यर्थ का। निरर्थक।
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अंकित  : भू० कृ० [सं० अंक+क्त] १. जिसका अंकन किया गया हो। जैसे—अंकित चित्र। २. जिसपर अंक या चिन्ह बना हो। ३. लिखा हुआ लिखित। ४. चित्र के रूप में बना हुआ चित्रित। ५. जिस पर अंकक या मोहर लगाई गई हो।
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अंकित मूल्य  : पुं० [कर्म सं० ] किसी वस्तु का वह मूल्य जो उस पर अंकित होता है (आंतर मूल्य से भिन्न) (फेस वैल्यू)।
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अंकितक  : वि० [सं० अंकित +कन्] कागज का वह छोटा टुकड़ा जिस पर किसी वस्तु, व्यक्ति आदि का नाम, विवरण आदि लिखे हों। (लेबुल)।
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अकित्तौ  : स्त्री०=अकीर्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंकिनी  : स्त्री० [सं०√अंक+इनि-डीप] १. चिन्हों का समूह। २. चिन्होंवाली स्त्री०।
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अंकिल  : वि० [सं०√अंक+इच्] चिन्ह या दागवाला। पुं० दागा हुआ साँड़।
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अकिल  : स्त्री०=अक्ल
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अकिलदाढ़  : स्त्री० (हिं० अकिल=बुद्धि+दाढ़) वह दाढ़ अथवा दाँत जो मनुष्यों की युवावस्था में निकलता है और उनमें समझदारी आने का सूचक होता है।
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अंकी  : स्त्री० [सं० अंक√अच्-डीष्] छोटा नगाड़ा।
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अकीक  : पुं० (अ० अकीक) एक प्रकार का लाल पत्थर या रत्न।
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अकीरति  : स्त्री०=अकीर्ति।
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अकीर्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] बुरी कीर्ति। अपयश। निन्दा। बदनामी।
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अकीर्तिकर  : वि० [सं० अकीर्ति√ कृ (करना) +ट) (ऐसी बात) जिससे कीर्ति या यश घटे या बदनामी हो।
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अकुंठ  : वि० [सं० न० ब०] १. जो कुठिंत न हो। २. तीव्र। तेज। ३. तीखा। तीक्ष्ण। ४. अच्छा। बढ़िया। ५. खुला हुआ। ६. स्थिर। ७. जो विघ्न-बाधाओं के सामने न झुकता हो।
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अकुंठित  : वि० [सं० न० त०] दे० ‘अकुठ'।
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अकुंठिल  : वि० [सं० न० त०] (भाव० अकुटिलता) १. जो टेढ़ा न हो। सीधा। २. जिसमें घुमाव न हो। ३. जिसमें कपट न हो। निष्कपट। भोला। सीधा।
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अँकुड़ा  : पुं० [सं० अंकुरक] स्त्री० अल्पा० अँकुड़ी] १. कोई चींज टाँगने, निकालने या फँसाने के लिए बना हुआ टेढ़ा काँटा। टेढ़ी कटिया। हुक। २. गाय, बैल के पेट में होने वाला मरोड़, ऐंठन। ३. रेशमी कपड़ा बुनने वालों का एक रेशमी औजार।
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अकुताना  : अ०=उकताना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंकुर  : पुं० [सं०√अंक+उरच्] १. गुठली, बीज आदि में से निकलने वाला नया डंठल, जिसमें छोटी-छोटी पत्तियाँ लगी होती है। २. पौंधों, वृक्षों आदि की जड़, डाल या तने में से उगनेवाला ऐसा नया पत्ता। कि प्र० आना। जमना। निकलना। फूटना। ३. फूल का आरम्भिक तथा अध खिला रूप, कली। ४. घाव भरने के समय उसमें दिखाई देने वाले माँस के छोटे-छोटे दाने जो घाव के ठीक तरह से भरे जाने के सूचक होते हैं। अंगूर। ५. आगे का नुकीला भाग, नोक। ६. ऐसे लक्षण जो किसी की भावी उन्नति, विकास आदि के सूचक होते हैं। ७. रहस्य-सम्प्रदाय में (क) अहंकार और (ख) उच्च कोटि के. ज्ञान का आरंभिक रूप। ८. खून, रक्त। ९. शरीर का रोआँ। लोम। १॰. जल, पानी। ११. बाल-बच्चे, संतान।
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अंकुरक  : पुं० [सं०√अञ्च् जाना+घुरच्, अंकुर+क] पशु-पक्षियों के रहने का स्थान।
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अंकुरण  : पुं० [सं० अंकुर+ क्विन् + ल्युट्-अन् ?] [भू० कृ० अंकुरित] अंकुर के रूप में आने की क्रिया या भाव। बोये हुए बीज आदि का अँकुरित होना। (जरमिनेशन)
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अँकुरना  : अं० [सं० अंकुर] अंकुर निकलना या फूटना।
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अँकुराना  : सं० [सं० अंकुरण] अंकुरित होने में प्रवृत करना। अंकुर उत्पन्न राना। अ०=अँकुरना।
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अंकुरित  : भू० कृ० [सं० अंकुर+इतच्] १. अंकुर के रूप में निकला हुआ या फूटा हुआ। २. उत्पन्न, उद्भूत ३. (गुठली या बीज) जिसमें से अंकुर निकले हों।
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अंकुरित-यौवना  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] वह लड़की जिसका यौवनकाल आरम्भ हो रहा हो।
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अँकुरी  : स्त्री० [हि० अंकुर+ई प्रत्यय] १. अन्न के दाने जिनमें अंकुर या गाभ निकले हुए हों। २. इस प्रकार के अन्न की घुँघनी।
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अकुल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई कुल या वश न हो। २. जिसके कुल में कोई न रह गया हो। ३. निम्न या तुच्छ वंश का। अकुलीन। पुं० १. [सं० न० त०] बुरा, तुच्छ या नीच कुल। २. [सं० न० ब०] शिव का एक नाम।
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अकुलाना  : अ०[सं० आकुलन) १. आकुल होना। घबराना। जल्दी मचाना। ३. ऊबना। उकताना
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अकुलाहट  : स्त्री० (हिं० अकुलाना) आकुल या विकल होने की अवस्था या भाव।
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अकुलिनी  : वि० [सं० अकुलीना) जो उत्तम कुल की न हो। जो निम्न कुल की हो। स्त्री० व्यभिचारिणी स्त्री०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकुलीन  : वि० [सं० न० त०] १. जो किसी उच्च कुल या परिवार का न हो। निम्न या नीच वंश का। २. पृथ्वी से संबंध न रखने वाला। अपार्थिव।
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अंकुश  : पुं० [सं० √अंक्+उशच्] (भू० कृ० अकुशित) १. भाले की तरह का वह दो मुहाँ अँकुड़ा या काँटा जिससे हाथी चलाया और वश में किया जाता है, गज-बाग। २. वह अधिकार, तत्त्व या शक्ति जिससे किसी को अधिकारपूर्वक किसी कार्य के लिए अग्रसर किया जा सके अथवा रोका जा सके। ३. नियंत्रण या वश में रखने की क्रिया या भाव। ४. दबाव, नियंत्रण या रोक। क्रि० प्र० —मानना। रखना।—लगाना।
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अंकुश  : (ा) पुं०=अंकुशा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंकुश-ग्रह  : पुं० [ष० त०] महावत, हाथीवान।
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अंकुश-दंता  : पुं० [सं० अंकुश+हि० दाँत] वह हाथी जिसका एक दाँत सीधा और दूसरा झुका हुआ या टेढ़ा होता है।
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अंकुश-धारी  : (रिन्)- पुं० [सं० अंकुश√धृ (धारण करना) + णिनि] १. वह जिसके हाथ में अंकुश हो। २. महावत, हाथीवान।
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अंकुश-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० सं० ] तंत्र में उँगलियों की अंकुश जैसी बनी हुई आकृति या मुद्रा।
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अकुशल  : वि० [सं० न० त०] १. जो कुशल न हो। २. गुणहीन। ३. आलसी। ४. अशुभ। पुं० १. अमंगल। बुराई। २. अशुभ या बुरा शब्द।
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अंकुशा  : स्त्री० [सं० अंकुश√अच्-टाप्] चौबीस जैन देवियों में से एक।
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अंकुशित  : भू० कृ० [सं० अंकुश+इतच्] अकुश द्वारा चलाया या बढ़ाया हुआ।
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अंकुशी  : (शिन्) वि० [सं० अंकुश+इनि] १. अंकुश युक्त। अंकुशवाला। २. अंकुश की सहायता से वश में करने वाला। स्त्री०-अंकुशा।
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अँकुसी  : स्त्री० [सं० अंकुश] १. अंकुश के आकार की कोई छोटी चीज। २. कोई चीज टाँगने या फँसाने का छोटा अँकुड़ा या काँटा। ३. चूल्हे आदि में से कोयला या राख निकालने का छोटा टेढ़ा छड़। ४. पेड़ों से फल तोड़ने की लग्गी।
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अकूट  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कपट या छल न हो। २. जो अच्छे कुल या नसल का हो। ३. जो वास्तविक और विशुद्ध हो। (जेनुइन)
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अकूत  : वि [सं० अ०+हिं० कूतना) १. जो कूता न जा सके। जिसका अनुमान न हो सके। २. जो मात्रा में अत्यधिक हो। क्रि० वि० अकस्मात्। अचानक।
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अकूपार  : पुं० [सं० कूप√ ऋ (गति) +अण्, न० त०) १. समुद्र। सागर। २. कच्छप। कछुआ। ३. वह महाकच्छप जिसपर पृथ्वी आश्रित मानी जाती है। ४. बड़ा और भारी पत्थर। चट्टान। ५. सूर्य। वि० १. जिसका परिणाम अच्छा हो। २. अपार। असीम।
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अँकूर  : पुं० =अंकुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकूर  : पुं०=अंकुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकूल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कूल या किनारा न हो। कूलरहित। २. जिसकी कोई सीमा न हो। सीमा-रहित।
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अंकूष  : पुं० [सं०√अंक् चिन्ह करना)+ऊषच्] १. अंकुश। २. नकुल। नेवला।
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अकूहल  : वि० (हिं० अकूत) बहुत। अधिक।
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अकृच्छ्र  : पुं० [सं० न० त०] १. क्लेश का अभाव। २. सुगमता आसानी। वि० (न० ब०) १. कष्ट, दुख आदि से रहित। २. सुगम सहज।
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अकृत  : वि० [सं० √कृ (करना)+ क्त, न० त०) १. जो किया न गया हो। (अन्डन) २. जो ठीक प्रकार से न किया गया हो। ३. जो किसी का बनाया न हो। स्वयंभू। ४. प्राकृतिक। ५. निकम्मा। व्यर्थ का। ६. जो अभी ठीक या पूरा न हुआ हो। ७. जिसका पूरा विकास न हुआ हो। पुं० १. अधूरा काम। २. कारण। ३. मोक्ष। ४. स्वभाव।
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अकृत-कार्य  : वि० [सं० न० ब०] जिसे अपने कार्य में सफलता न हुई हो। विफल-मनोरथ।
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अकृतज्ञ  : वि० [सं० न० त०] (भाव० अकृतज्ञता) जो कृतज्ञ न हो। उपकार न माननेवाला।
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अकृतज्ञता  : स्त्री० [सं० अकृतज्ञ+तल्-टाप्) अकृतज्ञ होने की अवस्था या भाव।
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अकृता  : स्त्री० [सं० कृ (करना)+क्त-टाप्, न० त०) ऐसी कन्या जिसे पिता ने पुत्रिका न बनाया हो। वि० दे० ‘पुत्रिका'।
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अकृतात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० न-कृत-आत्मन्, न० ब०) १. अज्ञानी। २. (साधक) जिसे ईश्वर के दर्शन न हुए हों।
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अकृति  : वि०=अकृती।
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अकृती (तिन्)  : वि० [सं० न०.त०) १. काम न करने योग्य। निकम्मा। २. जो दक्ष या पटु न हो। अनाड़ी। ३. जिसने कुछ भी न किया हो।
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अकृत्य  : वि० [सं० न० त०] जो करने के योग्य न हो। पुं० दुष्कर्म। बुरा काम।
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अकृत्यकारी (रिन्)  : वि० [सं० अकृत्य√कृ+णिनि) बुरे काम करने वाला। कुकर्मी।
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अकृत्रिम  : वि० [सं० न० त०] १. जो कृत्रिम या बनावटी न हो। असली। सच्चा। २. स्वाभाविक। ३. जिसमें छल-कपट या दिखावट न हो। जैसे—अकृत्रिम प्रेम।
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अकृत्स्न  : वि० [सं० न० त०] जो पूरा न हुआ हो। अधूरा या अपूर्ण।
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अकृपा  : स्त्री० [सं० न० त०] कृपा या अनुग्रह का न होना।
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अकृषिक  : वि० [सं० न० ब० कप्) जिसका संबंध कृषि या खेती से न हो। (नाँन-एग्रिकल्चरल)
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अकृषित  : वि० [सं० अकृष्ट) (खेत) जो जोता-बोया न गया हो। (अन-कल्टिवेटेड)
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अकृष्ट  : वि० [सं० कृष्+क्त, न० त०) १. जो खींचा या खिंचा हुआ न हो। २. दे० ‘अकृषित’।
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अकृष्ण  : वि० [सं० न० त०] १. जो कृष्ण या श्याम न हो। उज्जवल। २. निर्मल। शुद्ध।
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अंकेक्षक  : पुं० [सं० अंक-ईक्षण, ष० त०] १. वह जो लेखा लिखता हो। २. बही खाते, लेखे-जोखे की जाँच करने वाला व्यक्ति (आडिटर)।
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अंकेक्षण  : पुं० [सं० अंक-ईक्षण, ष० त०]) १. लेखा तैयार करना। २. बही-खाते, लेखे-जोखे या हिसाब-किताब का आधिकारिक रूप से जांच करना। (आडिड)
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अकेतन  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई ठिकाना या घर-बार न हो। २. जिसका घर नष्ट हो चुका हो। गृह-हीन।
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अकेल  : वि० =अकेला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकेला  : वि० [सं० अकाकिन्, गु० एकल एकलु, रा० एकला० पं० इकल्ला) १. जिसके साथ और कोई न हो। २. जिसे किसी का सहयोग या सहायता न प्राप्त होती हो। ३. जो ढंग-गुण, विशेषता आदि के विचार से सब से भिन्न हो। ४. जो वर्ग विशेष में सब से उत्तम हो। सर्वश्रेष्ठ। ५. बे जोड़। ६. खाली (मकान)। पुं० एकान्त या निर्जन स्थान। यौ० अकेला-दम-=एक ही प्राणी। अकेला-दुकेला=जो या तो अकेला हो या जिसके साथ एकाध कोई और हो।
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अकेले  : क्रि० वि० [हिं० अकेला] १. बिना किसी साथी के। २. केवल। सिर्फ।
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अकेहरा  : वि० =एकहरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकैया  : पुं० [सं० अक्ष=संग्रह करना] लादने के लिए सामान भरने का थैला या गोन।
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अंकोट  : (क) पुं० [सं०√अंक् (चिन्ह करना)+ओट, अंकोट+कन्-अंकोल]।
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अकोट  : वि० [सं० कोटि] करोड़ों। अगणित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकोत्तर सौ  : वि० [सं० एकोत्तरशत] सौ से एक अधिक। एक सौ एक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँकोर  : पुं० [सं० अंक] स्त्री० अल्पा अँकोरी १. गले लगाने की क्रिया, भाव या मुद्रा। २. भेंट। नजर। ३. घूस रिश्वत। उदा०—हाकिम होई की खाई अँकोर—तुलसी। ४. खेत में काम करने वाले को भेजा जाने वाला कलेवा। छाक।
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अकोर  : पुं० [सं० उत्कोच] १. घूस। रिश्वत। २. भेंट। उपहार। पुं० दे० ‘अँकोर'।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँकोरना  : सं० [हि० अँकवार] झोली या गोद में लेना। उदा०—निज व्यंजन पक्ष से तू अँकोर सुध खोती-मैथिलीशरण गुप्त।
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अंकोल  : पुं० [सं०√अंक+ओलच्] पहाड़ी क्षेत्रों में होने वाला एक पेड़ जिसके पत्ते शरीफे के पेड़ के पत्तों-जैसे होते है और फल बेर के बराबर तथा काले होते हैं। इस पेड़ के फल तथा छाल कई रोगों के उपचार में काम आती है।
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अंकोल-सार  : पुं० [ष० त०] अंकोल वृक्ष से निकला हुआ विष।
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अंकोला  : पुं० अंकोल।
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अकोला  : पुं० [सं० अकडोल] अंकोल वृक्ष।
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अकोविद  : वि० [सं० न० त०] १. जो कोविंद या जानकर न हो। २. मूर्ख।
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अकोसना  : स० [सं० आकोशन] कोसना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकौआ  : पुं० [सं० अर्क] १. आक। मदार। २. गले के अन्दर का कौआ या घंटी। ललरी। पुं०=आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकौटा  : पुं० [सं० अक्ष=अटन=घूमना] गड़ारी का डंडा। धुरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकौता  : पुं० दे० ‘ उकवत'।
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अकौशल  : पुं० [सं० न० त०] कौशल का अभाव। अयोग्यता।
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अक्क  : पुं०=आक (मदार)।
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अक्कड़  : पुं० [शामी] १. प्राचीन मौसोपोटामिया देश की एक प्रसिद्ध नगरी। २. उसके आस-पास का प्राचीन प्रदेश।
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अक्कड़ी  : वि० [शामी अक्कड़] १. अक्कड़ नगरी से संबंध रखनेवाला। २. अक्कड़ नगर या प्रदेश का रहने वाला। स्त्री० उक्त प्रदेश की पुरानी भाषा।
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अक्का  : स्त्री० [सं०√अक् (टेढ़ी चाल) +कल्, टाप्] माता। माँ।
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अक्खड़  : वि० [सं० अक्षर=न टलने वाला, प्रा० अक्खड़] (भाव० अक्खड़पन) न मुड़नेवाला। शिष्टता और सौजन्य का ध्यान छोड़कर मनमाना और अनियंत्रित आचरण करनेवाला। उद्धत और उद्दंड।
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अक्खड़-पन  : पुं० [हिं० अक्खड़+पन] अक्खड़ होने की अवस्था या भाव।
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अक्खड़ता  : स्त्री० अक्खड़पन के लिए भूल से प्रचलित असिद्ध रूप। (क्व०)
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अक्खर  : पुं०=अक्षर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्खा  : पुं० दे० ‘अकैया'।
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अक्खो-मक्खो  : पुं० [सं० अक्ष् + मुख) (नजर से बचाने के लिए) दीपक की लौ तक हाथ ले जाकर बच्चे के मुँह पर ‘अक्खो-मक्खों' कहते हुए फेरना।
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अक्त  : वि० [सं० अंज् (मिलना, गति आदि) +क्त) १. जो किसी में मिला, साथ लगा या चिपका हो। २. पोता या रँगा हुआ।
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अक्तूबर  : पुं० (अं०) अँगरेजी साल का दसवाँ महीना।
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अंक्य  : वि० [सं०√अंक+ण्यत्] १. जिसका अंकन हो सकता हो। २. जिसका अंकन किया जाने को हो। ३. अंकित किये जाने योग्य। पुं० [सं० अंक+य) गोद में रखकर बजाये जानेवाले तबला मृदंग आदि बाजे।
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अक्रम  : वि० [सं० न० ब०] १. जो क्रम से न हो। २. जिसे क्रम से न रखा गया हो। पुं० १. क्रम या सिलसिले का अभाव। क्रम हीनता। २. अव्यवस्था। पुं०=अकर्म (या दुष्कर्म)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्रम-सन्यास  : पुं० [सं० कर्म० स०] बीच के आश्रमों का अतिक्रमण करके धारण किया जानेवाला सन्यास।
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अक्रमातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० अक्रम-अतिशयोक्ति, कर्म० स०) साहित्य में अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें कारण के आरंभ होते ही कार्य के पूरा हो जाने का उल्लेख होता है।
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अक्रांत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके आगे और कोई न निकला हो। सब से आगे बढ़ा हुआ। २. जो दबाया या हराया न गया हो।
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अक्रांता  : स्त्री० [सं० अक्रांत-टाप्] बृहती नामक पौधा। भटकटैया।
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अक्रित  : वि० दे० ‘अकृत'।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्रिय  : वि० [सं० न० ब०] १. जो कुछ भी न कर रहा हो। क्रियाहीन। २. जो अभी अपना प्रभाव या फल न दिखा रहा हो। ३. सब प्रकार की चेष्टाओं से रहित। जड़।
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अक्रिया  : स्त्री० [सं० न० त०] अक्रिय होने की अवस्था या भाव। क्रियाहीनता।
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अक्रियावाद  : पुं० [सं० क्रियावाद, ष० त० अक्रियावाद, न० त०] बौद्ध दर्शन का एक सिद्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि मनुष्य की क्रियाओं का कोई अच्छा या बुरा फल नहीं होता।
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अक्री  : वि०=अक्रिय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्रूर  : वि० [सं० न० त०] जो क्रूर या निर्दय न हो। दयालु स्वभाववाला। पुं० एक यादव जो श्रीकृष्ण के चाचा थे।
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अक्ल  : स्त्री० [अ०] बुद्धि। समझ। मुहावरा—अक्ल के घोड़े दौड़ाना=अनेक प्रकार की बौद्धिक कल्पनाएँ करना। (व्यंग्य) अक्ल के पीछे लट्ठ लिये फिरना=हर समय मूर्खता के कार्य करते रहना। अक्ल गुम हो जाना=बुद्धि का सहसा अभाव हो जाना। अक्ल चकराना=इतना चकित होना कि बुद्धि कुछ काम न करे। अक्ल चरने जाना=बुद्धि या समझदारी का अभाव होना। अक्ल ठिकाने होना=हानि आदि होने पर मूर्खता दूर होना। अक्ल दौड़ाना या लड़ाना=सोचने-समझने का प्रयत्न करना। अक्ल पर पत्थर पड़ना=सहसा ऐसी स्थिति होना कि बुद्धि कुछ भी काम न करे। अक्ल मारी जाना=बुद्धि नष्ट होना। हतबुद्धि होना। अक्ल सठियाना=बुद्धि भ्रष्ट होना। पद—अक्ल का दुश्मन=मूर्ख। बेवकूफ। अक्ल का पुतला=बहुत बुद्धिमान। अक्ल का पूरा=मूर्ख, जड़। (व्यंग्य) अक्ल का मारा=मूर्ख।
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अक्लम  : पुं० [सं० न० त०] क्लांति या थकावट का अभाव। वि० (न० ब०) न थकनेवाला।
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अक्लमंद  : पुं० [अ०√फा०] बुद्धिमान। समझदार।
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अक्लमंदी  : स्त्री० [अ०√फा०] बुद्धिमता। समझदारी।
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अक्ष  : पुं० [सं०√अक्ष् (व्याप्ति) +अच् या घञ्] १. खेलने का पासा। २. चौसर नामक खेल। ३. वह कल्पित रेखा जिसके आधार पर वस्तुएँ परिभ्रमण अथवा अपने सब कार्यों का संचालन करती हुई मानी जाती हैं। जैसे—पृथ्वी के दोनों धुरों में मिलानेवाली कल्पित रेखा, जिस पर पृथ्वी घूमती हुई मानी जाती है। ४. किसी चीज का धुरा या धुरी। जैसे—गाड़ी का अक्ष। (ऐक्सिल, उक्त दोनों अर्थों में)। ५. गाड़ी। ६. अक्षांश के विचार से भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण में किसी स्थान का गोलीय अंतर। ७. तराजू की डंडी। ८. व्यवहार लेन-देन। ९. मुकदमा। १. कानून। ११. इंद्रिय। १२. तूतिया। १३. साँभर नमक। १४. सुहागा। १५. आँख। नेत्र। १६. बहेड़ा। १७. रुद्राक्ष। १८. साँप। १९. गरुण। २॰. आत्मा। २१. कर्ष नामक तौल जो १६ माशे की होती है। २२. दे० ‘अक्षकुमार'।
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अक्ष-कर्ण  : पुं० [कर्म०स०] समकोण त्रिभुज की सबसे लंबी भुजा। (ज्यामिति)
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अक्ष-कुमार  : पुं० [सयू० स०] रावण का एक पुत्र।
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अक्ष-क्रीड़ा  : स्त्री० [ष० त०] पासे या चौसर का खेल।
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अक्ष-दर्शक  : पुं० [ष० त०] १. न्यायाकोश। २. धर्माध्यक्ष। ३. जूएखाने का मालिक।
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अक्ष-द्यूत  : पुं० [ष० त०] पासों से खेला जाने वाला जुआ।
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अक्ष-धर  : वि० [ष० त०] धुरा धारण करने वाला। पुं० १. विष्णु। २. गाड़ी का पहिया। ३. शाखोट नामक वृक्ष।
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अक्ष-धुर  : पुं० [ष० त०] पहिए की धुरी।
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अक्ष-पटल  : पुं० [ष० त०] १. प्राचीन भारत के राज्य के आय-व्यय के लेखों का प्रधान विभाग। २. उस विभाग का प्रधान अधिकारी।
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अक्ष-पाद  : पुं० [ब० स०] १. न्याय शास्त्र के प्रवर्तक गौतम ऋषि। २. तर्क या न्याय शास्त्र का पंडित। तार्किक। नैयायिक।
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अक्ष-बंध  : पुं० [सं० ष० त०] नजर बाँधने की विद्या। नजरबंदी।
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अक्ष-मापक  : पुं० [ष० त०] ग्रह-नक्षत्र आदि देखने का एक यंत्र।
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अक्ष-माला  : स्त्री० [ष० त०] १ वसिष्ठ की पत्नी अरुंधती। २. रुद्राक्ष की माला। ३. वर्णमाला।
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अक्ष-माली (लिन्)  : वि० [सं० अक्षमाला+इनि] रुद्राक्ष की माला धारण करने वाला। पुं० शिव।
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अक्ष-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] वह सीधी रेखा जो किसी गोले के केन्द्र से उसके तल के किसी बिन्दु तक सीधी पहुँचती है धुरी की रेखा।
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अक्ष-वाट  : पुं० [ष० त०] १. अखाड़ा। २. जूआखाना।
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अक्ष-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] १. जुए से संबंध रखनेवाली सब बातों का ज्ञान। २. जूआ।
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अक्ष-शाला  : स्त्री० [ष० त०] प्राचीन भारतीय राज्यों का वह विभाग जिसके अधिकार में सोने, चाँदी, टकसाल आदि का प्रबंध रहता था।
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अक्ष-सूत्र  : पुं० [ष० त०] १. रुद्राक्ष की माला। २. जयमाला।
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अक्ष-हीन  : वि० [तृ० त०] जिसे आँखों से दिखाई न दे। अंधा।
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अक्षक  : पुं० [सं० अक्ष√ कै+क] तिनिश का पेड़।
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अक्षकूट  : पुं० [ष० त०] आँख की पुतली।
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अक्षज  : वि० [सं० अक्ष√जन् (उत्पन्न होना) +ड] अक्ष से उत्पन्न हुआ या बना हुआ। पुं० १. विष्णु। २. हीरा। ३. वज्र। ४. प्रत्यक्ष ज्ञान।
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अक्षत  : वि० [सं०√क्षण् (हिसा) +क्त, न० त०] १. जो क्षत या टूटा-फूटा न हो अर्थात् पूरा। २. जिसके खंड या टुकड़े न हुए हो। अखंडित। ३. क्षत या घाव से रहित। पुं० १. कच्चा चावल जिसका उपयोग देव-पूजन में किया जाता है। २. धान का लावा। ३. जौ। ४. शिव का एक नाम। ५. नपुसंक। हिजड़ा।
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अक्षत-योनि  : वि० [ब० स०] (कन्या या स्त्री०) जिसका पुरुष से संबंध या मैथुन न हुआ हो। (वर्जिन)
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अक्षत-वीर्य  : वि० [न० ब०] (पुरुष) जिसका वीर्य स्खलित न हुआ हो। पुं० १. शिव। २. नपुंसक। (क्व) ३. क्षय का अभाव।
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अक्षंतव्य  : वि० [सं० क्षम्+तव्यत्, न० त०]=अक्षम्य।
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अक्षता  : वि० [सं०√क्षण्+क्त-टाप्, न० त०]=अक्षत योनि। स्त्री०१. वह स्त्री० जिसका पुनर्विवाह तक किसी पुरुष से संयोग न हुआ हो। २. काकड़ा सींगी।
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अक्षपद  : पुं०=अक्षपाद।
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अक्षम  : वि० [सं०√क्षम् (सहसा)+अच्, न० त०] १. जिसमें क्षमता या शक्ति न हो। अशक्त। असर्मथ। २. जिसमें कार्य करने की योग्यता न हो। अयोग्य। ३. जो साधारण दोषों के लिए भी किसी को क्षमा न करे। जिसमें सहनशीलता न हो। असहिष्णु। ४. जो किसी का उत्कर्ष या सुख अच्छी दृष्टि से न देख सके। ईर्ष्या करनेवाला।
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अक्षमता  : स्त्री० [सं० अक्षम+तल्-टाप्] १. अक्षम होने की अवस्था या भाव। २. अशक्तता। असमर्थता। ३. ईर्ष्या। डाह।
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अक्षम्य  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिसे क्षमा न किया जा सकता हो। २. (अपराध या दोष) जिसके लिए कर्ता को क्षमा न किया जा सकता हो।
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अक्षय  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका क्षय या नाश न हो। अविनाशी। २. गरीब। निर्धन। पुं० परमात्मा का एक नाम या विश्लेषण।
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अक्षय-तृतीया  : स्त्री० [कर्म० स०] वैशाख शुल्क-तृतीया। आखातीज। (पर्व)
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अक्षय-पद  : पुं० (कर्म० स०) मोक्ष। वि० दे० ‘परमपद'।
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अक्षय-लोक  : पुं० (कर्म० स०) स्वर्ग।
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अक्षय-वट  : पुं० (कर्म० स०) प्रयाग और गया के प्रसिद्ध वटवृक्ष जो हजारों वर्ष पुराने कहे जाते है।
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अक्षय-वृक्ष  : पुं०=अक्षयवट।
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अक्षयकुमार  : पुं०=अक्षकुमार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्षया  : स्त्री० [सं० अक्षय+टाप्] गणित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट ऐसी तिथियाँ जो कुछ विशिष्ट दिनों में पड़ती हों। जैसे—रविवार को होने वाली सप्तमी, सोमवार को होने वाली अमावस्या या मंगलवार को होने वाली चौथ।
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अक्षयिणी  : स्त्री० [सं० क्षयिणी, क्षय+इनि-डीप्, अक्षयिणी, न० त०] पार्वती।
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अक्षयी (यिन्)  : वि० [सं० क्षय+इनि, न० त०] [स्त्री० अक्षयिणी] जिसका क्षय या नाश न हो। अक्षय।
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अक्षय्य  : वि० [सं०√क्षि (क्षय) +यत् नि०न० त०] जिसका किसी प्रकार क्षय न किया जा सके। प्रायः सदा एक सा बना रहनेवाला।
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अक्षर  : वि० [सं०√क्षर्+अच्, न० त०] १. जिसका क्षय या नाश न हो। अविनाशी। नित्य। २. अच्युत। ३. स्थिर। पुं० १. ध्वनिगत लघुतम इकाई। वर्ण (एलफाबेट) २. वह चिन्ह या संकेत जो उक्त ध्वनि का सूचक होता है। (लेटर) मुहावरा—अक्षर घोंटना=अक्षर लिखने का अभ्यास करना। पद—विधना के अक्षर=भाग्य का लेख जो बदल या मिट नहीं सकता। ३. आत्मा। ४. परमात्मा या ब्रह्वा का वह आध्यात्मिक स्वरूप जिसके आश्रय से उनके प्रकृति और पुरुष का रूप धारण किया है। ५. आकाश। ६. धर्म। ७. तपस्या। ८. मोक्ष। ९. जल। पानी। १. चिचिड़ा।
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अक्षर-क्रम  : पुं० [ष० त०] नामों, शब्दों आदि की सूची बनाते समय, उन्हें रखने या लगाने का वह क्रम जिसमें उनके आरंभिक अक्षर उसी क्रम से रहते हैं जिस क्रम से वे वर्णमाला में होते है। (एल्फाबेटिकल आर्डर)
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अक्षर-गणित  : पुं० [ष० त०] बीजगणित।
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अक्षर-जीवक  : पुं० [सं० अक्षर√जीव्+ण्वुल्-अक्]=अक्षर-जीवी।
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अक्षर-जीवी (बिन्)  : पुं० [अक्षर√जीव्+णिनि,] पढ़ाई-लिखाई के काम से जीविका चलानेवाला व्यक्ति।
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अक्षर-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] अक्षरों के पढ़ने-लिखने का ज्ञान। साक्षरता।
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अक्षर-धाम (न्)  : पुं० [ष० त०) ब्रह्यलोक।
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अक्षर-न्यास  : पुं० [ष० त०] १. लिखावट। २. लेख। ३. तांत्रिक पूजन में वह क्रिया जिसमें मंत्र के एक-एक अक्षर का उच्चारण करते हुए शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का स्पर्श किया जाता है।
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अक्षर-पंक्ति  : स्त्री० [ष० त०] चार चरणों का एक वैदिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २॰ वर्ण होते हैं।
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अक्षर-बंध  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त।
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अक्षर-माला  : स्त्री० [ष० त०] वर्णमाला।
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अक्षर-योजना  : स्त्री० [ष० त०] किसी विशेष उद्देश्य से अथवा कोई विशेष रूप देने या विशेष अर्थ निकालने के लिए किसी विशेष क्रम से कुछ अक्षर बैठाना। जैसे—मुक्तर की अक्षर-योजना।
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अक्षर-विन्यास  : पुं० [ष० त०] १. लिखावट। २. शब्दों के वर्णों का विन्यास। अक्षरी। हिज्जे।
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अक्षरच्छंद  : पुं० [तृ० त०]=वर्णवृत्त।
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अक्षरशः (शस्)  : क्रि० वि० [सं० अक्षर+शस्] कथन या लेख के) एक-एक अक्षर का ध्यान रखते हुए अथवा उनका अनुकरण या पालन करते हुए। ठीक ज्यों का त्यों।
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अक्षरा  : स्त्री० [सं० अक्षर+अच्, टाप्] १. शब्द। २. भाषा।
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अक्षराक्षर  : पुं० [सं० अक्षर-अक्षर, ब० स०] योग में एक प्रकार की समाधि। क्रि० वि० [अव्य० स०] अक्षरशः।
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अक्षरारंभ  : पुं० [सं० अक्षर-आरंभ, ष० त०] (किसी को) पहले पहल अक्षरों का ज्ञान या परिचय कराना। पढ़ाना आरंभ करना।
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अक्षरार्थ  : पुं० [सं० अक्षर-अर्थ, ष० त०] १. शब्द के प्रत्येक अक्षर का अर्थ। शब्दार्थ। (भावार्थ से भिन्न)
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अक्षरावस्थान  : पुं० दे० ‘अपश्रुति'।
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अक्षरी  : स्त्री० [सं०√अश्+ (व्याप्ति) सरन्, डीष्] १. शब्दों के अक्षरों का उनके ठीक क्रम के अनुसार उच्चारण करना अथवा लिखना। वर्तनी। हिज्जे। २. वर्षा ऋतु।
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अक्षरौटी  : स्त्री० १. दे० अखरावट। २. दे० ‘अखरौटी’।
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अक्षर्य  : वि० [सं० अक्षर+यत् अक्षर-संबंधी। पुं० एक वैदिक साम का नाम।
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अक्षार  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें क्षार न हो। क्षार-रहित। २. जो स्वयं क्षार न हो। क्षार से भिन्न। पुं०=अक्षार-लवण।
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अक्षार-लवण  : पुं० [सं० क्षार-लवण, कर्म० स० न०-क्षार लवण, न० त०] वह लवण (नमक) जिसमें खार न हो। प्राकृतिक नमक।
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अक्षावाप  : पुं० [सं० अक्ष-आ√ वप् (फेंकना)+अणु) जुआरी।
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अक्षांश  : पुं० [सं० अक्ष-अंश, ष० त०] १. किसी चीज के बड़े बल का या चौड़ाई की ओर का विस्तार या परिणाम। २. भूगोल में वह कल्पित रेखा जो याम्योत्तर वृत्त को ३६॰ अंशों या भागों में विभक्त करके उसमें से किसी अंश से भूमध्य रेखा के समानांतर खींची जाती है। ३. उक्त रेखा के आधार पर किसी स्थान की वह स्थिति या दूरी जो भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण होने के विचार से स्थिर की जाती और संख्या सूचक अंशों में बतलाई जाती है। (लैटीच्यूड) ४. कांतिवृत्त के उत्तर या दक्षिण होने के विचार से किसी नक्षत्र का कोण बनाने वाला अंतर।
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अक्षि  : स्त्री० [सं०√अश् (व्याप्ति) + क्सि] १. आँख। नेत्र। २. दो की संख्या।
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अक्षि-कूट (कूटक)  : पुं० [ष०त०] आँख की पुतली।
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अक्षि-गोलक  : पुं० [ष० त०] आँख का डेला जिसके बीच में पुतली होती है। (आई-बाल)
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अक्षि-तारक  : पुं० [ष० त०] आँख का तारा।
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अक्षि-तारा  : स्त्री० [ष० त०]=अक्षितारक।
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अक्षि-पटल  : पुं० [ष० त०) आँख का ऊपरी भाग या परदा।
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अक्षि-लोम (मन्)  : पुं० [ष०त०] बरौनी।
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अक्षि-विक्षेप  : पुं० [ष० त०] तिरछी नजर। कटाक्ष।
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अक्षिक  : पुं० [सं० अक्ष + ठन्-इक] आल का पेड़।
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अक्षित  : वि० [सं० अक्षीण] १. जिसका क्षय न हुआ हो। २. न छीजने वाला। ३.जिसे चोट न लगी हो। पुं० १. जल। २. दस लाख की संख्या।
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अक्षिति  : वि० [सं० न० ब०] जिसका क्षय या नाश न हो। स्त्री० (क्षि√क्तिन्, न० त०) नश्वरता।
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अक्षी  : वि० =अक्षीय।
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अक्षीण  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षीण (या दुबला-पतला) न हो। २. मोटा। हष्ट-पुष्ट। ३. जो किसी तरह घटा न हो।
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अक्षीय  : वि० [सं० अक्ष + छ-ईय] १. अक्ष से संबंध रखने वाला। (ऐक्सिअल) २. किसी वस्तु के उदर या भीतरी भाग में होने या उससे संबंध रखने वाला। (वेन्ट्रल)
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अक्षीव  : वि० [सं०√क्षीव् + क वा क्त, न० त०] जो मतवाला या मत न हो। अमत्त। पुं० १. समुद्री नमक। २. सहिंजन का पेड़।
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अक्षुण  : वि० =अक्षुण्ण।
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अक्षुण्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षुण्ण, खंडित या टूटा-फूटा न हो। पूरा। समूचा। २. जो कम न हुआ हो। बिना घटा हुआ। ३. जो कुशल या चतुर न हो। अनाड़ी। ना-समझ। ४. जो हारा हो। अपराजित।
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अक्षुध्य  : वि० [सं० न० त०] (पदार्थ) जिसे खाने से भूख न लगे या बहुत कम लगे। भूख बंद करनेवाला।
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अक्षेत्र  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षेत्र न हो। २. जो क्षेत्र बनने के लिए उपयुक्त न हो। जैसे—अक्षेत्र भूमि, अक्षेत्र छात्र आदि। ३. जिसे प्रकृति शरीर आदि के स्वरूप का ज्ञान न हो, अर्थात् तत्त्व-ज्ञान से रहित या शून्य। पुं० १. क्षेत्र का अभाव। २. ऐसी भूमि जिसमें खेती न हो सकती हो। ३. ज्यामिति में वह आकृति जो ठीक या शुद्ध न हो।
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अक्षेत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० क्षेत्र + इनि, न० त०] जिसके पास खेत न हो।
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अक्षेम  : पुं० [सं० न० त०] १. क्षेम का अभाव। २. अशुभ हानि कारक आदि होने की अवस्था। अमंगल।
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अक्षोट  : पुं० [सं०√अक्ष् + ओट्] अखरोट।
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अक्षोनि  : स्त्री०=अक्षौहिणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्षोभ  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें क्षोभ या उद्वेग न हो। फलतः शान्त। २. हाथी बाँधने का खूँटा।
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अक्षोभ्य  : वि० [सं० क्षुभ् (विचलित होना)+णिच्+यत्, न० त०] १. जिसमें क्षोभ न उत्पन्न किया जा सके। २. जो कभी क्षुब्ध न होता हो। सदा धीर और शान्त बना रहने वाला पुं० गौतम बुद्ध का एक नाम।
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अक्षौहिणी  : स्त्री० [सं० ऊह+इनि, अक्ष-ऊहिनी, ष० त०] प्राचीन काल की चतुरंगिणी सेना जिसमें १,॰९,३५॰ पैदल, ६५,६१॰ घोड़े, २१,८७॰ रथ और २१,८७॰ हाथी होते थे।
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अक्स  : पुं० [अ०] [वि० अक्सी] १. छाया। परछाई। २. प्रतिबिंब। ३. चित्र। तस्वीर। ४. मन में छिपा हुआ द्वेष या शत्रुता।
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अक्सर  : क्रि० वि० [अ०] अनेक अवसरों पर। प्रायः। बहुधा। वि० दे० ‘अक्सर’।
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अक्सी  : वि० [अ०] १. अक्स या छाया से संबंध रखनेवाला। अक्स या प्रतिबिंब के रूप में पड़नेवाला। जैसे—अक्सी तसवीर=छाया-चित्र। ३. मनमें अक्स (अकस) या द्वेष रखनेवाला।
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अक्सीर  : वि० [अ०] निश्चित रूप से अपना गुण, प्रभाव या फल दिखाने वाला। पुं० वह कल्पित रासायनिक पदार्थ जिसके योग से दूसरी धातुएँ चाँदी या सोना बन जाती हों। रसायन। कीमिया।
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अख  : पुं० [?] बाग। बगीचा। (डि०)
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अखंग  : वि० [सं० अखंड] न खँगने वाला। जो जल्दी क्षीण न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखगरिया  : पुं० [अ० अखगर=चिनगारी+इया प्रत्य०] वह घोड़ा जिसके शरीर से मलने के समय चिनगारियाँ निकलती हों।
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अखंज  : वि० [सं० अखाद्य] १. न खाने योग्य। अखाद्य। २. निकृष्ट। बुरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अखंड  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके खंड या टुकड़े न हुए हो अथवा न हो सकते हों। फलतः पूरा या समूचा। जैसे—अखंड भारत। २. जिसका क्रम बीच में न टूटे। निरंतर चलनेवाला जैसे—अखंड पाठ। ३. जिसके बीच या मार्ग में कोई बाधा या विघ्न न हो। निर्विघ्न। बे-रोक-टोक। ४. जिसका खंडन न हो सके।
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अखंड-द्वादशी  : स्त्री० [कर्म० स०] अगहन-शुक्ल द्वादशी। (पर्व)
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अखंडन  : पुं० [सं० न० त०] १. खंडन का अभाव। खंडन न होना। २. स्वीकार। ३. परमात्मा। ४. काल। वि० [सं० न० ब०] १. जिसका खंडन न हुआ हो। अखंडित। २. जिसका खंडन न हो सके। अखंडनीय। ३. पूरा। समूचा।
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अखंडनीय  : वि० [सं० न० त०] १. (पदार्थ) जिसके खंड या टुकड़े न हो सकें। २. (मत या सिद्वान्त) जिसका खंडन न हो सके। जिसे अन्यथा सिद्ध न किया जा सके।
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अखंडल  : वि० [सं० अखण्ड] १. अखंड। २. पूरा। समूच। पुं० [सं० अखंडल] इन्द्र। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखड़ा  : पुं० [सं० आखात] ताल के बीच का वह गड्ढा जिसमें मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। चँदवा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अखंडित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके खंड या टुकड़े न हों। जो खंडित न हुआ हो। २. पूरा। समूचा। ३. जिसका क्रम बीच में न टूटा हो। लगातार चलता रहनेवाला।
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अँखड़ी  : स्त्री०=आँख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अखड़ैत  : वि० [हि० अखाड़ा + ऐत (प्रत्य०)] बलवान। (डि०) पुं० दे० ‘अखाड़िया'।
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अखती  : वि० =अखाद्य। स्त्री०=अक्षय तृतीया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखतीज  : स्त्री०=अक्षय तृतीया।
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अखनी  : स्त्री० [अ० अखनी] उबाले हुए मांस का रसा।
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अखबार  : पुं० [अ० खबर का बहु०] समाचार पत्र।
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अखबार-नवीस  : पुं० दे० ‘पत्रकार'।
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अखबार-नवीसी  : स्त्री० दे० ‘पत्रकारिता'।
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अखबारी  : वि० [अ० अखबार] समाचार-पत्र से संबंध रखने वाला। जैसे—अखबारी कागज।
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अँखमिचनी  : स्त्री०=आँख-मिचौनी।
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अखय  : वि० =अक्षय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखर  : वि० पुं०=अक्षर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखरताली  : स्त्री० [सं० अक्षर+तल) हस्ताक्षर। दस्तखत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अखरना  : अ० [सं० खर=तीव्र या कटु] अप्रिय या बुरा लगना। खलना। २. कष्टदायक या दुःखदायी जान पड़ना।
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अखरा  : वि० [सं० अ+हिं० खरा=सच्चा] जो खरा या सच्चा न हो। झूठा या बनावटी। पुं०=अक्षर। पुं० बिना छाना हुआ जौ का आटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखरावट  : स्त्री० [सं० अक्षरावर्त्तन पा० अक्खरावट्टन] १. वर्ण-माला। २. लिखने का ढंग। लिखावट। ३. वह कविता जिसमें चरण या पद वर्ण-माला के अक्षरों के क्रम से आरंभ होते हों।
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अखरावटी  : स्त्री०=अखरावट।
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अखरोट  : पुं० [सं० अक्षोट] १. एक प्रसिद्ध वृक्ष जो भूटान से अफगानिस्तान तक होता है। २. उक्त वृक्ष को छोटा गोल फल जिसकी गिनती मेवों में से होती है। (वाँलनट)
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अखरौटी  : स्त्री० [सं० अक्षरार्त्तन] १. अखरावट। २. सितार आदि बाजों पर राग के बोल अलग-अलग और साफ निकालने की क्रिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अखर्व  : वि० [न० त०] १. जो खर्च या छोटा न हो। बड़ा। २. लंबा।
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अखसता  : पुं०=अक्षत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अखां  : पुं०=आखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अखाँगना  : स० [हिं० खाँग ?] प्रहार करना मारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अखाड़  : वि० [सं० अखंड] बहुत अधिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अखाड़ा  : पुं० [सं० अक्षवाट, प्रा० अक्खआडो] १. कुश्ती या कसरत करने का स्थान। व्यामशाला। मुहावरा—अखाड़े में आना या उतरना=प्रतिद्वंद्विता करने या लड़ने के लिए सामने आना। २. साधुओं की सांप्रदायिक मंडली। जमायत। ३. उक्त के रहने का विशिष्ठ स्थान। ४. तमाशा दिखाने या बजाने वालों की मंडली। जयामत। ५. नाचघर। नृत्यशाला। ६. रंगशाला। ७. आँगन। ८. विशिष्ठ प्रकार के लोगों के इकट्ठे होने का स्थान।
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अखाड़िया  : वि० [हि०अखाड़ा+इया (प्रत्य०)] १. अखाड़े में पहुँचकर कुश्ती लड़ने वाला। २. प्रतिद्वंद्विता में बड़ें-बड़ों का सामना करने और बहुतों को परास्त करने वाला। दंगली। पुं० पहलवान। मल्ल।
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अखात  : पुं० [सं० खन् (खोदना) +क्त, न्० त०] १. समुद्र का वह भाग जो स्थल से तीन ओर घिरा हो। खाड़ी। २. प्राकृतिक जलाशय।
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अखाद  : वि० =अखाद्य।
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अखाद्य  : वि० [सं० खद् (खाना) +ण्यत्, न० त०] १. (पदार्थ) जो खाये जाने के योग्य न हो या जिसे खाना उचित न होय २. (पदार्थ) जो खाया न जा सके।
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अँखाना  : अ०=अनखाना।
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अखारना  : स० दे० ‘पखारना’।
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अखारा  : पुं०=अखाड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँखिगर  : वि० [सं० अक्षि+फा० गर] १. आँखवाला। २. दूरदर्शी।
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अखित  : वि० , पुं०=अक्षत।
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अँखिया  : स्त्री० [सं० अक्षि] १. आँख। २. नकाशी करने की कलम।
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अखियात  : वि० , पुं०=आख्यात।
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अखिल  : वि० [सं०√खिल् (एक-एक कण लेना) +क, न० त०] १. पूरा। समूचा। सारा। २. सर्वागपूर्ण। अखंड। ३. खेती-बारी के योग्य भूमि। पुं० जगत्। संसार।
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अखिलात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० अखिल-आत्मा, ष० त०] सारे विश्व और उसके सब अंगों में व्याप्त रहने वाली आत्मा। विश्वात्मा।
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अखिलेश  : पुं० [सं० अखिल-ईश, ष० त०] सब का स्वामी। परमेश्वर।
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अखीन  : वि० =अक्षीण।
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अखीर  : पुं० [अ० आखिर] १. अंत। समाप्ति। २. छोर। सिरा।
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अखीरी  : वि० [अ०] अन्त का। आखिरी अन्तिम।
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अँखुआ  : पुं० [सं० अक्ष) क्रि० अँखुआना] पौधे का नया कल्ला, अकुर।
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अँखुआ  : पुं०=अँखुआ।
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अँखुआना  : अ० [हि० अँखुआ से] अँखुआ निकलना। अंकुरित होना।
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अखुटना  : अ० [?] १. समाप्त न होना। खतम न होना। २. लड़-खड़ाना। उदाहरण—अखुटत परत, सुबिहवल भयो-नन्ददास।
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अखुटित  : भू० कृ० दे० अखूट। क्रि० वि० [हिं० अखुटना] निरंतर। लगातार। उदाहरण—अखुटित रटत सभीत, ससंकित, सुकृत सब्द नहिं पावै-सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखूट  : वि० [हिं० अ=नहीं+खुटना=समाप्त होना] १. जो जल्दी खतम या समाप्त न हो। २. अखंड। अक्षुण्ण। उदाहरण—साधन भोग सजोग रज मंडन आउ अखूट-चन्द्र्वरदाई। ३. बहुत अधिक।
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अखेट  : पुं०=आखेट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखेटक  : पुं०=आखेटक।
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अखेलत  : वि० [हिं० अ+खेलना] १. जो खेलता हुआ न हो। जो चंचल न हो। शांत। स्थिर।
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अखै  : वि० =अक्षय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखैतीज  : स्त्री०=अक्षय तृतीया।
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अखैबट  : पुं०=अक्षयवट।
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अखैबर  : पुं०=अक्षयवट।
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अखैवर  : पुं०=अक्षयवट।
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अखोटा  : पुं (देश०) कान में पहनने का गहना। (राज) उदाहरण—कान अखोट जान जुगत को, झूटणों—मीरा।
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अखोर  : वि० [हिं० अ+खोर=खोट] १. जिसमें कोई खोर या दोष न हो। अच्छा। भला। २. भद्र। सज्जन। ३. सुन्दर। वि० (फा०आखूर वा आखोर) पुं० १. कूड़ा-करकट २. निकम्मी और रद्दी चीज। ३.घास पात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अखोला  : पुं० =अंकोल (वृक्ष)।
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अखोह  : पुं० [सं० क्षोभ=असमानता] ऊबड़-खाबड़ जमीन। असम भूमि।
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अखौटा  : पुं० [सं० अक्ष+हिं० औटा (प्रत्य०)] १. चक्की के बीच की खूँटी। २. कुएँ पर का वह डंडा जिसमें गराड़ी लगी रहती है।
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अख्खाह  : अव्य० [सं० अहह] प्रसन्नता और आश्चर्यसूचक शब्द।
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अख्तावर  : पुं० [फा० आख्ता] वह घोड़ा जिसके अंडकोश में कौड़ी या गाँठ न हो।
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अख्तियार  : पुं० [अ० इख्तियार]=अधिकार।
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अख्यात  : वि० [सं० न० त०] १. जो कहा न गया हो। २. जो ख्यात या प्रसिद्ध न हो। वि० पुं०=आख्यात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अख्यान  : पुं० =आख्यान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अख्यायिका  : स्त्री०=आख्यायिका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंग  : पुं० [सं०√अम् गति आदि+गन्] १. शरीर के विभिन्न अवयव। जैसे—हाथ, पैर, मुँह आदि। मुहा०—(किसी का) अंग छूना=शपथ खाने के लिए उसके शरीर पर हाथ रखना। अंग लगाना- छाती से लगाना, गले लगाना। २. शरीर, देह। मुहा—अंग उभरना- जवानी आना। यौवन का प्रारम्भ होना। अंग ऐड़ा करना—ऐठ, बल या शेखी दिखाना। अंग करना=(क) ग्रहण या स्वीकार करना (ख) अपना या आत्मीय बनाना। अंगों में अंग चुराना-लज्जा से संकुचित होना। अंग टूटना—थकावट आदि के कारण विभिन्न अंगों में पीड़ा होना जिसके फलस्वरूप अँगड़ाई आती है। अंग ढ़ीले होना—(क) थक हो जाना (ख) वृद्ध हो जाना। अंग तोड़ना—(क) अंगड़ाई लेना (ख) शारीरिक पीड़ा या कष्ट के कारण बार-बार अंग फटकना। छट पटाना। अंग देना- थोड़ा आराम करना। अंग में न माना—अति प्रसन्न होना। उदाहरण—पुलकि न मावति अंग।—सूर। अंग मुस्कराना—(क) अति प्रसन्न दिखाई पड़ना (ख) प्रसन्नता से रोमांचित हो जाना (ग) शारीरिक सौन्द्रर्य का खिलना। अंग मोड़ना—(क) शरीर के अंगों को लज्जावश छिपाना (ख) भय या संकोच के कारण पीछे हटना। उदाहरण—खेलै फाग अंग नहिं मोड़े सतगुरु से लपटानी। किसी के अंग लगाना—(क) गले लगाना (ख) संभोग करना (खाद्य पदार्थों का) अंग लगना— खाद्य पदार्थों के उपभोग से शरीर की पुष्टि या वृद्धि होना (रोगी के)। अंग लगना—बहुत दिनों से बिस्तर पर पड़े रहने से शरीर में घाव या शय्या-व्रण होना। अंग लगाना—गले लगाना (कन्या को) अंग लगाना—(कन्या को वर के सुपुर्द करना, सौंपना या विवाह में देना। फूले अंग न समाना—बहुत ही प्रसन्न होना। ३. कार्य सम्पादन करने का उपाय या साधन। ४. व्यक्तित्व। उदाहरण—राउरे अंग जोग जग को है—तुलसी। ५. वे अवयव, तत्त्व या सदस्य जिनके योग से किसी वस्तु, संस्था आदि का निर्माण होता है। अंश। जैसे—आप भी तो इस संस्था के अंग हैं। ६. संगीत में राग के स्वरूप या उसके प्रादेशिक प्रकार के विकार से होनेवाला विशिष्ट वर्ग या विभाग। जैसे—पूर्वी अंग का राग। ७. बड़ी तथा महत्त्वपूर्ण संस्थाओं के उपविभाग जैसे पूर्वी अंग का राग। ८. व्याकरण में प्रत्यय युक्त शब्द का प्रत्यय रहित अंश या भाग। जैसे—रम्+घञ (=राम) में रम् अंग है। ९. भागलपुर के समीपवर्ती प्रदेश का प्राचीन नाम जहाँ की राजधानी चम्पानगरी (आधुनिक चम्पारन) थी। १॰ अंग देश के निवासी। ११. नाटक में अंगी (नायक) के सहायक पात्र। १२. मध्य प्राचीन साहित्य में प्रेम या आपसदारी का सूचक एक संबोधन। १३. छः की संख्या (छः वेदांग होते है) १४. ओर तरफ १५. पक्ष पहलू। वि० १. अंगो वाला। २. अप्रधान। गौण। ३. संलग्न। ४. उलटा।
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अग  : वि० [सं०√गम्+ड, न० त०] १. जो चलता न हो। अचल। स्थावर। २. दे० ‘अगम'। पुं० १. वृक्ष। २. पर्वत। पहाड़। ३. सूर्य। ४. साँप। ५. घड़ा। ६. सात की संख्या। वि० =अज्ञ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)क्रि० वि० =आगे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० अंग] अंग। शरीर। (डि०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं० दे० ‘अगोरा'।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंग बीन  : पुं० [फा० अंगबी=शहद] एक प्रकार का बढ़िया आम और उसका वृक्ष।
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अंग संचालन  : पुं० [ष० त०] अंगों को संचालित करने या हिलाने-डुलाने की क्रिया।
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अंग संहति  : स्त्री० [ष० त०] अंगों की गठन या बनावट। अंगलेट।
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अंग-कद  : पुं० [सं० अंग+फा० कद्] चित्रकला में इस बात का विचार कि चित्रित आकृति के सब अंग उसके कद या ऊँचाई के अनुसार ठीक हों।
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अंग-कर्म  : (न्) स्त्री०=अंग-क्रिया।
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अंग-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. यज्ञ में अपने किसी अंग का बलिदान देना। २. शरीर में उबटन आदि लगाना।
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अंग-ग्रह  : पुं० [ष० त] १. आघात रोग आदि के कारण अंगों में होने वाली पीड़ा। २. लोहे व ताँबे का वह टुकड़ा जो दो पत्थरों को एक साथ जोड़ने में उन पर जड़ा जाता हैं।
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अंग-घात  : पुं० [ ब० स०] शरीर की बात नाड़ियों तथा स्नायु-संस्थान के विकार के कारण होने वाला एक रोग, जिसमें शरीर का कोई एक अथवा कई अंग अक्रिय, अचेष्ट या सुन्न हो जाते हैं। (पैरालिसिस)।
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अंग-चालन  : पुं० [ष० त०] अंगों को हिलाना डुलाना या चलाना।
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अंग-जाई  : स्त्री० अंगजा।
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अंग-जात  : वि० पुं० [अंगजा+टाप्] दे० ‘अंगज’।
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अंग-जाता  : स्त्री० [ष० त०] दे० अंगजा।
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अंग-जाया  : स्त्री० [सं० अंगजात] [स्त्री० अंगजाई] औरस पुत्र। लड़का।
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अंग-त्राण  : पुं० [ष० त०] १. अंगो की रक्षा करने वाली चीज। जैसे—कवच, जिरह, बकतर आदि। २. अँगरखा, कुरता या ऐसा ही कोई पहनने का कपड़ा।
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अंग-दान  : पुं० [ष० त०] १. युद्ध में आत्मसमर्पण करना। २. (स्त्रियों का रतिकाल में) अपना शरीर पुरुष को समर्पित करना। ३. स्त्री० से संभोग करना। ४. पीछे हटना, पीठ दिखलाना, भागना।
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अंग-द्वार  : पुं० [प० त०] शरीर के छेद या द्वार इस प्रकार हैं—दोनों कान, दोनों आँखे, नाक के दोनों रन्ध्र, मुख, गुदा, लिंग और ब्रह्माण्ड। विशेष—गीता के अनुसार शरीर में केवल नौ द्वार (ब्रह्मांण्ड को छोड़कर हैं)।
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अंग-द्वीप  : पुं० [ष० त०] पुराणों के अनुसार छः दीपों में से एक द्वीप।
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अंग-न्यास  : पुं० [ष० त०] संध्या-पूजा आदि धार्मिक कृत्यों के समय मंत्रों का उच्चारण करते हुए विधिपूर्वक विभिन्न अंगों को स्पर्श करना।
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अंग-पाक  : पुं० [ष० त०] अंगों के पकने या सड़ने की क्रिया या रोग।
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अंग-प्रत्यंग  : पुं० [द्व० सं० ] शरीर के सभी बड़े व छोटे अंग।
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अंग-भंग  : पुं० [ष० त०] १. शरीर के किसी अंग का भंग या खण्डित होना। अंग का टूट जाना। २. दे अंग भंगी। वि० [ब० स०] १. जिसका कोई अंग टूटा या खंडित हो। २. अपाहज।
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अंग-भंगिमा  : (मन्) स्त्री० [ष० त०]=अंग-भंगी।
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अंग-भंगी  : स्त्री० [ष० त०] १. पुरुष या स्त्री० की कोमल और मनोहर चेष्टाएँ। २. पुरुष को मोहित करने के लिए स्त्री० का अपने विभिन्न अंगों (आँख, कान, मुँह हाथ आदि) को कौशलपूर्वक इस प्रकार हिलाना कि देखनेवाले प्रेमपूर्वक आकृष्ट हों। अदा। हाव-भाव।
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अंग-भाव  : पुं० [ष० त०] १. नृत्य या संगीत में शरीर के विभिन्न अंगों द्वारा मनोभाव प्रकट करने की क्रिया।
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अंग-भू  : वि० [अंग√ भू (होना)+क्विप्] शरीर या अंग से उत्पन्न। हो। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. कामदेव।
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अंग-भूत  : भू० कृ० [पं० त०] १. जो शरीर या अंग से उत्पन्न हुआ हो। २. जो किसी के अंग के रूप में उसके अन्तर्गत या अन्दर हो अथवा साथ लगा हो। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. कामदेव।
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अंग-मर्द  : पुं० [ष० त०] १. हड्डियों में दर्द होना। २. दे० ‘अंगमर्दक'।
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अंग-मर्दक  : पुं० [ष० त०] शरीर दबाने व उसमें मालिश करनेवाला।
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अंग-मर्दन  : पुं० [ष० त०] १. अंगों को मलने का कार्य। मालिश करना। २. देह दबाना।
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अंग-मर्ष  : पुं० [ष० त०] गठिया नामक रोग।
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अंग-रक्षक  : पुं० [ष० त०] वे सैनिक या सेवक जो बड़े शासकों आदि की रक्षा के निर्मित उनके साथ रहते हैं। (बाडीगार्ड)
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अंग-रक्षा  : पुं० [ष० त०] शरीर के अंगों की रक्षा या बचाव।
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अंग-रक्षी क्षिन्  : पुं० [ष० त०] स्त्री० अंग-रक्षिणी १. अंग रक्षक २. कवच।
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अंग-रस  : पुं० [ष० त०] किसी वनस्पति के फलों, फूलों, पत्तियों आदि को कूटकर तथा निचोड़कर निकाला हुआ रस।
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अँग-राग  : पुं० [ष० त०] १. उबटन, विशेषतः केसर, कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों का। २. मेंहदी, महावर आदि सामग्री जिससे स्त्रियाँ अपने अंग विशेष रगती हैं। ३. शरीर की सजावट की सामग्री। ४. स्त्रियों के पाँच अंगों की सजावट—माँग में सिन्दूर, माथे पर रोली, गाल पर तिल, केसर का लेप और हाथ-पैर में महावर या मेंहदी लगाना। ५. सुगन्धित बुकनी जो मुँह तथा शरीर पर लगाई जाती है। (पाउडर)
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अंग-राज  : पुं० [ष० त०, टच्] १. अंगदेश का राजा कर्ण। २. राजा दशरथ के सखा लोमपाद।
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अंग-लेप  : पुं० [ष० त०] शरीर पर सुगन्धित द्रव्य या लेप।
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अंग-विकृति  : स्त्री० [ष० त०] १. शरीर या अंगो के रूप में विकार होना। २. मिरगी का रोग। अपस्पार।
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अंग-विक्षेप  : पुं० [ष० त०] १. हाव-भाव दिखलाना। चमकना-मटकना। २. नाच-नृत्य। ३. कलाबाजी।
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अंग-विभ्रम  : पुं० [ष० त०] एक रोगी जिसमें रोगी अपने किसी या कई अंगो की सुधि भूल जाता है।
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अंग-शोष  : पुं० [ ष० त०] अंगों के सूखने का रोग। सुखंडी।
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अंग-सख्य  : पुं० [ष० त०] गहरी या गाढ़ी मित्रता।
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अंग-संग  : पुं० [ष० त०] मैथुन। संभोग।
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अंग-संगी  : (गिन्) वि० [ष० त०] मैथुन या संभोग करनेवाला।
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अंग-संधि  : स्त्री० [ष० त०]=संध्यंग
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अंग-संस्कार  : पुं० [ष० त०] अंगों का श्रृंगार। शरीर की सजावट।
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अंग-संस्थान  : पुं० [ष० त०] दे० ‘रूप विधान’ (मारफालोजी)।
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अंग-सिहरी  : स्त्री० [स० अंग+दे सिहरना] १. अंगों का सिहरना। कँपकपी। २. जूड़ी बुखार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंग-सेवक  : पुं० [ष० त०] १. शारीरिक सेवाएँ करनेवाला नौकर। २. निजी सेवक।
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अंग-हानि  : स्त्री० [ष० त०] १. अंग का कटकर अलग हो जाना या नष्ट हो जाना। २. अंग की विकृति। ३. किसी प्रधान कार्य के किसी अंग विशेष को उचित ढ़ंग से या बिल्कुल ना करना या न होना।
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अंग-हार  : पुं० [ष० त०] १. चमकना मटकना। २. नृत्य, नाच।
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अंग-हीन  : वि० [तृ० त०] १. जिसके शरीर का कोई अंग खंडित हो। लुंज। २. जिसके शरीर का कोई अंग निष्किय हो, लूला। पुं० कामदेव।
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अगई  : पुं० [?] एक प्रकार का वृक्ष जिसके फलों की तरकारी और लकड़ी से कोयला बनता है।
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अँगऊँ  : पु० दे० ‘अँगोगा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगक  : पुं० [सं० अंग+कन्] शरीर का कोई छोटा अंग।
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अंगचारी  : (रिन्)- पुं० [सं० अंग√चर् (गति) +णिनि] सहचर सखा। उदाहरण—मेरे नाथ आप सुधि लीनी, कीन्हीं निज अँगचारी। आनन्दघन।
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अगच्छ  : वि० [सं०√गम्+श, न० त०] न चलने वाला। पुं० १. पर्वत। पहाड़। २. पेड़। वृक्ष।
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अंगच्छेद  : पुं० [ष० त०] १. शरीर का कोई अंग काटने की क्रिया या भाव। २. अपराधी को उक्त रूप में दिया जाने वाला दण्ड। ३. रोगी के शरीर का कोई अंग काटकर अलग करने की क्रिया या भाव। (ऐम्प्यूटेशन)।
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अंगज  : वि० [अंग√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जो अंग से उत्पन्न हुआ हो। जैसे—पसीना, रोएँ आदि। पुं० १. पुत्र। २. पसीना। ३. बाल। ४. काम, क्रोध आदि मनोविकार। ५. कामदेव। ६. रोग। ७. खून। ८. साहित्य में वर्णित सात्त्विक विकारों में से ये तीन-हाव, भाव हेला।
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अंगज  : वि० [सं० गज=गंजन] जिसे जीता न जा सके। अजेय। उदाहरण—आवन अवनि अगंज हुआ, जानि उल्कापात—चन्द्रबरदाई।
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अगज  : वि० [सं०√अग जन् (उत्पन्न होना) +ड) (स्त्री० अगजा] १. पर्वत या वृक्ष से पैदा होने वाला। २. पर्वत पर होने वाला पहाड़ी। पुं० १. शिलाजीत। २. हाथी।
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अगजग  : वि०, पुं०=चराचर।
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अंगजा  : स्त्री० [अंग √जन्+ड-टाप] पुत्री। बेटी।
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अगजा  : स्त्री० [सं० अगज+टाप्] पार्वती।
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अगट  : पुं० [?] वह दूकान जहाँ मांस बिकता हो।
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अगटना  : अ० [सं० एकत्र, दे० इकट्ठा] इकट्ठा या जमा होना।
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अगंड  : वि० [सं० न० ब०] ऐसा धड़ जिसके हाथ पैर कट गये हो।
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अगड़  : स्त्री०=अकड़।
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अंगड़-खंगड़  : वि० [अनु] १. टूटा-फूटा (समान)। २. गिरा-पड़ा अथवा इधर-उधर बिखरा हुआ सामान। ३. बचा-खुचा और निर्रथक। पुं० व्यर्थ की चीजें जो टूटी-फूटी इधर-उधर बिखरी पड़ी हो।
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अगड़-बगड़  : वि० [अनु० या सं० अकटा-विकटा (देवियाँ)] १. बे-सिर पैर का। ऊलजलूल। २. जिसका कोई क्रम न हो। क्रम विहीन। ३. निकम्मा। व्यर्थ का। स्त्री० १. बे-सिर पैर की बात। २. ऐसा काम जिसका कोई क्रम निर्धारित न हो। ३. व्यर्थ का प्रलाप या काम। अनुपयोगी कार्य।
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अगड़म-बगड़म  : वि०, पुं० =अगड़-बगड़।
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अगड़वत्ता  : वि० [सं० ग्रोद्वत=बढ़ा-चढ़ा] बहुत ऊँचा बड़ा या भारी।
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अगड़ा  : पुं० [?] ज्वार-बाजरे की ऐसी बाल, जिसके दाने निकाल लिए गये हों। खुखड़ी। पुं०=अगण (पिंगल का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगड़ाई  : स्त्री० [हि० अंगड़ाना] १. शरीर की एक स्वाभाविक क्रिया जो आलस्य या थकावट के कराण होती है और जिसके फलस्वरूप सारा शरीर कुछ पलों के लिए ऐंठ, तन या फैल जाता है। २. अँगड़ाई की क्रिया या भाव, २- हाव-भाव। मु०—अँगड़ाई लेना आलस्य आदि के कारण अंगो को ऐंठना तानना या फैलाना।
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अँगड़ाना  : अ० [सं० अंग] आलस्य, शिथिलता आदि के कारण शरीर के अंगों को तानने या फैलाने की क्रिया अँगड़ाई लेना।
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अंगण  : प० [सं०√अंग (गति आदि)+ल्युट्-अन-णत्व] आँगन।
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अगण  : पुं० [सं० न० त०] छंद-शास्त्र के ये चार निषिद्ध और बुरे गण-जगण तगण और रगण सगण। (छंद के प्रारंभ में इनका प्रयोग निषिद्ध माना गया है।)
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अगणनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जो गिना न जा सके। बहुत अधिक। २. दे० अगण्य।
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अंगणि  : स्त्री० [सं० अंगना] औरत, स्त्री।
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अगणित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी गिनती न हो सके। असंक्य। बेशुमार। २. जो किसी गिनती में न हो। नगण्य। ३. उपेक्षणीय।
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अगण्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो गिने जाने योग्य न हो। तुच्छ। नगण्य। २. दे० ‘अगणनीय'।
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अगत  : वि० [सं० न० त०] १. जो गया न हो। २. जो बीता न हो। स्त्री०=अगति। पद—[सं० अग्रत, प्रा० अग्गतो) (हाथी के लिए विधि सूचक पद) आगे चलो। (महावतों की भाषा में।)
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अगता  : वि० [सं० अग्र, हिं० आगे] १. नियत समय से आगे या पहले होने वाला। (अर्ली) जैसे—अगता अनाज या फल। २. अग्रिम। पेशगी। पुं० [अ० आख्त] वह घोड़ा जिसके अंडकोश नष्ट कर दिये गये हों। आख्ता।
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अगंता (तृ)  : वि० [सं०√गम् (जाना) +तृच्, न० त०] जो चलता न हो। न चलने वाला। वि० [हिं० आगे] १. आगे चलने रहने या होने वाला। २. अग्रिम।
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अंगति  : पुं० [सं० अंग (गति आदि) +अति] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. अग्निहोत्री। ४. अग्नि। ५. यान, सवारी।
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अगति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. गति का न होना। ठहरा या रुका हुआ न होना। स्थिरता। २. अत्येष्टि, श्राद्ध आदि न होने के कारण मृतक की आत्मा की वह स्थिति जिसमें उसका मोक्ष नहीं होता और वह इधर-उधर भटकती फिरती है। ३. उचित दशा या स्थिति का अभाव। दुर्दशा। वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें गति न हो। अचल। स्थिर। २. जिसके पास तक पहुँच न हो। ३. जिसके लिए और कोई गति या उपाय न रह गया हो। निरुपाय।
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अगतिक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जिसकी कहीं गति या ठिकाना न हो। अशरण। निराश्रय। २. जिसके लिए कोई गति या उपाय न रह गया हो। निरुपाय। ३. अंत्येष्टि, श्राद्ध आदि न होने के कारण जिसकी गति या मोक्ष न हुआ हो।
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अगती  : वि० [सं० अगति] १. मरने के बाद जिसकी गति (मोक्ष प्राप्ति) न हुई हो। २. कुकर्मी, दुराचारी या पापी। स्त्री० [हिं० अगता का स्त्री०] अग्रिम। पेशगी। क्रि० वि० आगे या पहले से। स्त्री० [?] चकवँड या चक्रमर्द नाम का पौधा।
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अगत्तर  : वि० [सं० अग्रतर) आगे आने वाला। भावी। क्रि० वि० आगे या पहले से।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगत्या  : क्रि० वि० [सं० अगति का तृतीयांत रूप] १. कोई गति या उपाय न रह जाने की दशा में। लाचारी की हालत में। विवश होकर। २. सबके अंत में। ३. अकस्मात्। अचानक। सहसा। (क्व०)।
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अगत्री  : पुं० [सं० अग्रतर] उपद्रवी। नटखट।
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अंगद  : पुं० [सं० अंग√दै (सोधना) या दा (दान) +क ] [वि अंगदीय] १. बाँह पर पहनने का बाजूबंद (गहना)। २. राम की सेना का एक बंदर जो बालि का पुत्र था। ३. लक्ष्मण के दो पुत्रों में से एक।
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अगद  : वि० [सं० न० ब०] १. गद या रोग-रहित। नीरोग। २. कष्टों, बाधाओं आदि से रहित। निष्कंटक। उदाहरण—रीझि दियौ गुरु जाहि अगद बृन्दावन पद कौं-सहचरिशरण। पुं० (न० त०) १. ओषधि। दवा। २. आरोग्य। स्वास्थ्य।
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अगद-तंत्र  : पुं० [ष० त०] आयुर्वेद के आठ अंगों में से एक जिसमें साँप, बिच्छू आदि के विष के प्रभाव दूर करने के उपायों का वर्णन है।
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अंगदीय  : वि० [सं० अंगद+छ-ईय] [स्त्री० अंगदीया] अंगद-संबंधी, अंगद का।
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अंगधारी  : (रिन्) पुं० -[ अंग√ धू (धारण) +णिनि] अंग अथवा शरीर धारण करनेवाला प्राणी।
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अंगन  : पुं० [√अंग् (गति)+ल्यूट-अन]=आँगन। स्त्री०=अंगना
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अगन  : वि० [सं० अगण] १. न चलने वाला। स्थावर। उदाहरण—अगन गगन-चर देखत तमासौ सब-सेनापति। २. जो गण रहित हो। ३. जिसकी गणना न हो सके। अगणित। पुं० दे० ‘अंगण'। स्त्री०=अग्नि।
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अगनइता  : पुं०=आग्नेय (कोण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगनत  : वि० =अगणित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगना  : पुं० -आँगन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगना  : स्त्री० [सं०√अंग् (गति आदि) +न—टाप्] १. सुन्दर अंगों वाली स्त्री०, सुन्दरी। जैसे—देवांगना, नृत्याँगना आदि। २. उत्तर दिशा में सार्वभौम दिग्गज की हथिनी का नाम। ३. रहस्य समप्रदाय में अन्तकरण। हृदय। सं० [सं० अंग) अपने ऊपर लेना। अंगीकृत करना। उदाहरण—दो जग तो हम अंगिया, यह उर नाहीं मुज्झ—कबीर।
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अंगना-प्रिय  : पुं० [ष० त०] अशोक का वृक्ष।
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अँगनाई  : स्त्री०-आँगन।
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अगनि  : स्त्री०=अग्नि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगनिउ  : पुं०=आग्नेय। (कोण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगनित  : वि० =अगणित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगनी  : वि०=स्त्री० [?] घोड़े के माथे पर के घूमे हुए बाल या भौरी। स्त्री०=अग्नि। वि० =अगणित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगनू  : पुं०=आग्नेय (कोण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगनेउ  : पुं०=आग्नेय (कोण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगनेत  : पुं०=आग्नेय (कोण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगनैत  : पुं० [हि० आँगन ऐत (प्रत्यय)] आँगन का स्वामी या घर का मालिक। गृहपति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगनैया  : स्त्री०-आँगन।
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अंगपालिका  : स्त्री०, [अंग√पाल् (पालन करना)+ण्वुल्-अकटाप् इत्व] धाय। दाई।
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अंगपाली  : स्त्री० [सं० अंग√पाल्+इअंगपालि+डीष्] आलिंगन। गले लगाना।
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अंगपोछा  : पुं० =अँगोछा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगम  : वि० [सं०√गम् (जाना)+अच्, न० त०] १. जो न चले। २. अचल। स्थावर। पुं० १. पर्वत। पहाड़। २. पेड़। वृक्ष। पुं०=आगम। वि० [सं० अगम्य] [भाव० अगमता] १. जहाँ कोई पहुँच न सके। दुर्गम। उदाहरण—यह तो घर है प्रेम का, मारग अगध अगाध-कबीर। २. जो जल्दी समझ में न आवें। कठिन, दुर्बोध। ३. जो जल्दी प्राप्त न हो सके। दुर्लभ। ४. जिसकी थाह न मिले। अथाह। ५. विकट। ६. बहुत अधिक।
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अगमति  : वि० [सं० अगम और अति] १. बहुत अधिक विस्तृत। २. बहुत अधिक। उदाहरण—मोहन मूर्च्छन-बसीकरन पढ़ि अगमति देह बढ़ाऊँ—सूर।
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अगमन  : क्रि० वि० [सं० अग्रवान्] १. आगे। पहले। २. आगे से। पहले से। ३. आगे बढ़कर। उदाहरण—तद् अगमन ह्वै मोक्ष मिला—जायसी।
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अगमना  : अ० [सं० आगमन] आगमन होना। आना। क्रि० वि० =अगमन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगमनीया  : वि० स्त्री० [सं०√गम्+अनीयर्, न० त०)=अगम्या।
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अगमानी  : पुं० [सं० अग्रगामी) अगुआ। नायक। सरदार। स्त्री० दे० ‘अगवानी'।
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अगमासी  : स्त्री० दे० ‘अगवाँसी'।
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अगम्य  : वि० [सं०√गम्+यत्, न० त०] [भाव० अगम्यता] १. जिसके अन्दर या पास न पहुँच सके। जहाँ जाना कठिन हो। पहुँच के बाहर। २. जिसका आशय, तत्त्व या रहस्य न समझा जा सके। अज्ञेय। ३. जिसके साथ गमन न किया जा सके। जैसे—स्त्री० के लिए पुरुष अगम्य है। ४. जो किसी प्रकार प्राप्त किया न जा सके। अप्राप्य। ५. जिसकी थाह या पता न लग सके। अथाह।
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अगम्या  : वि० स्त्री० [सं० अगम्य+टाप्) (वह स्त्री०) जिसके साथ मैथुन करना विधिक या शास्त्रीय दृष्टि से वर्जित हो। जैसे— गुरुपत्नी, राजपत्नी, सौतेली माँ आदि। स्त्री० १. स्त्री० जो गमन या मैथुन के योग्य न हो। २. अंत्यजा।
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अगम्या-गमन  : पुं० [तृ० त०] १. शास्त्रीय दृष्टि से वर्जित स्त्री० के साथ किया जाने वाला गमन या संभोग जो महापातक माना गया है। २. अपने ही कुल या गोत्र की स्त्री० के साथ किया जाने वाला गमन या संभोग। (इन्सेस्ट)।
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अगर  : अव्य (फा०) यदि। जो। मुहावरा—अगर मगर करना=(क) बहस या तकरार करना। (ख) आगा-पीछा करना। क्रि० वि० [सं० अग्र) आगे। पुं० [सं० अगरू, गुज० बँ० मरा० अगर) एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत सुगन्धित होती है। ऊद।
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अगर-बगर  : क्रि० वि० दे० ‘अगल-बगल'।
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अँगरखा  : पुं० [सं० अंग रक्षक] एक प्रकार का लंबा पहनावा जिसमें बाँधने के लिए बंद रहते हैं। अंगा। अचकन।
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अगरना  : अ० [सं० अग्र) १. आगे बढ़ना। २. आगे-आगे चलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगरपार  : पुं० [सं० अग्र] क्षत्रियों की एक जाति या शाखा।
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अगरबत्ती  : स्त्री० [सं० अगरुवर्तिका] वह बत्ती जो सुगंधि के निमित जलाई जाती है।
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अगरवाला  : पुं० [दे० अगरोहावाला अथवा आगरे वाला] वैश्यों का भेद। अग्रवाल।
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अगरसार  : पुं० [सं० अगरु) अगर नामक वृक्ष।
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अँगरा  : पुं० [सं० अंगार] १. बैलों के पैर में होने वाला एक रोग। २. दे० ‘अंगारा'।
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अगरा  : वि० [सं० अग्र) १. आगे या सामने का। आगे वाला। अमल। २. औरों से बढ़कर। अच्छा। बढ़िया। ३. अधिक। ज्यादा। जैसे—बैल लीजे कजरा, दाम दीजे अगरा।—कहा०। ४. कुशल। निपुण। ५. उग्र। विकट। वि० [सं० अनर्गल) अनुचित और व्यर्थ का। उदाहरण—केलि परयौं रस को झगरौ, अरि ही अगरौ निबरै न चुकाएँ—घनानन्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगराई  : स्त्री०=‘अँगड़ाई'। उदा०—करुणा की नव अँगराई सी।—प्रसाद।
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अगराई  : वि० [सं० अगरु] अगर की लकड़ी की तरह कालापन लिए सुनहले रंग का।
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अँगराना  : अं०=अँगड़ाना।
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अगराना  : सं० [सं० अंग] १. दुलार या प्यार से छूना। २. अधिक दुलार करके सिर चढ़ाना। ढ़ोठ बनाना। अ० दुलार के कारण बिगड़ कर धृष्टता करना। अ०=अंगड़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगरी  : स्त्री० [सं० अंग+रक्ष या अंगुलीयक] १. कवच, जिरह, झिलम आदि। २. गोह के चमड़े का दस्ताना जो धनुष चलाते समय हाथ में पहना जाता था। उदाहरण—अँगरी पहिरि कूंड़ सिर धरहीं—तुलसी।
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अगरी  : स्त्री० [सं० अग्र] फूस की छाजन का एक ढंग। स्त्री० [सं० अगिर=अवाच्य) १. अंड-बंड या बुरी बात। अनुचित बात। २. घमंड या धृष्टता से भरी बात। ३. घमंड या धृष्टता का व्यवहार। ढिठाई। स्त्री० [सं० अर्गल) वह डंडा जो किवाड़ बंद करके उसको खुलने से रोकने के लिए अन्दर की ओर लगाया जाता है। अर्गल। स्त्री० [सं० ) १. एक प्रकार का विष-नाशक पदार्थ। २. देवताड़क नामक वृक्ष। ३. एक प्रकार की घास।
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अगरू  : पुं० [सं०] अगर नामक वृक्ष और उसकी सुगंधित लकड़ी। ऊद।
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अगरे  : क्रि० वि० [सं० अग्र=आगे) १. समझ। सामने। २. आगे। पहले।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगरेज  : पुं० [पुर्त इंग्लेज] इंग्लैण्ड देश का निवासी।
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अँगरेजियत  : स्त्री० [दे० अंगरेज] अँगरेजी रंग-ढंग या चाल-ढाल। अँगरेजीपन।
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अँगरेजी  : वि० [दे० अँगरेज] १. अंगरेजों का या उनसे संबन्ध रखने वाला। २. अंगरेजों जैसा। स्त्री० १. अंगरेजों की भाषा। २. पुरानी चाल की एक प्रकार की तलवार।
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अगरो  : वि० [सं० अग्र)=अगरा (अगला या अच्छा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगल-बगल  : क्रि० वि० (अगल अनु०+फा० बगल) १. दाहने और बाएँ। दोनों तरफ। २. इधर-उधर। ३. आस-पास।
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अगलहिया  : स्त्री० (देश०) एक प्रकार की चिड़िया।
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अगला  : वि० [सं० अग्र+ल, प्रा० अग्गल (?) अप-अग्गलउ आगलो, गु०आगलू, सिं० आगरो, वं० आगलि, ओ० आगलि मरा० अगला) १. जो सबसे आगे या पहले हो। आगे वाला। जैसे—घर का अगला भाग। पिछला का विपर्याय। २. पहले या पूर्व का। प्रथम० ३. पुराने जमाने का। जैसे— अगला जमाना, अगले लोग। ४. भविष्य में आने या होने वाला। आगामी। ५. प्रस्तुत के बाद वाला। जैसे—पहला मकान उनका और अगला हमारा है। ६. आगे चलकर या बाद में पड़नेवाला। किसी के उपरान्त या होनेवाला। ७. (व्यक्ति) अपर या दूसरा, जिससे काम पड़ा हो। (बोलचाल) जैसे—(क) अगला अपना काम निकाल ही लेता हैं। (ख) अगला कहता है तो चुपचाप सुन लो। पुं० गाँव और उसकी सीमा के बीच में पड़ने वाले खेत या मैदान। माँझा।
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अंगलेट  : पुं० [सं० अंग] शरीर की गठन, ढाँचा या बनावट। (फिजीक)
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अगवड़ा  : पुं०=अग्रिम (पेशगी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगवना  : सं० [सं० अंग] १. अंगीकार करना। ग्रहण करना। २. आलिंगन करना। गले लगाना। ३. सहना। बर्दाश्त करना। ४. किसी प्रकार अपने ऊपर लेना।
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अगवना  : अ० [हिं० आगे+ना (प्रत्य०)] १. कोई काम करने के लिए आगे बढ़ना या उद्यत होना। २. किसी काम के स्वागत के लिए आगे बढ़ना। अगवानी करना। स०=अँगवना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगवनिहारा  : वि० [हि० अंगवना+हारा (प्रत्यय)] १. अंगीकार या ग्रहण करने वाला। २. अपने ऊपर लेने वाला या सहनेवाला। (क्व०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगवाई  : स्त्री० दे०‘अगवानी'। पुं० दे०‘अगुआ'।
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अगवाड़ा  : पुं० [सं० अग्रवाट् अथवा अग्र+वार (प्रत्यय०)] १. घर के आगे का भाग। २. घर के आगे की भूमि। ‘पिछवाड़ा’ का विपर्याय।
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अगवान  : पुं० [सं० अग्र-यान] १. आगे बढकर किसी का स्वागत करना। २. अगवानी। ३. वह जो अगवानी या स्वागत करता हो। ४. कन्या पक्ष के वे लोग जो आगे बढ़कर बारात का स्वागत करते हैं।
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अँगवाना  : सं० हि० अंगवाना का प्रे०।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगवानी  : स्त्री० [सं० अग्र-यान] १. किसी आदरणीय अतिथि का अभिनंदन और स्वागत करने के लिए अपने स्थान से चलकर कुछ आगे पहुँचना। स्वागत पेशवाई। २. विवाह में कन्या-पक्ष के लोगों का बारात के स्वागत के लिए उक्त प्रकार से आगे बढ़ना। पुं० अगुआ। नेता। सरदार।
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अगवार  : पुं० [हिं० आगे+वार (प्रत्यय०)]१. खेतों की उपज का वह अंश जो देवता, ब्राह्यण आदि के उद्देश्य से पहले ही निकाल कर रख दिया जाता है। २. अनाज का वह अंश जो ओसाने के समय भूसे के साथ चला जाता है। पुं०=अगवाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगवारा  : पुं० [सं० अंग=अंश] १. ग्राम के किसी छोटे भाग का स्वामी। २. खेत की जुताई में एक-दूसरे को दी जाने वाली सहायता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगवासी  : स्त्री० [सं० अग्रवासी] १. हल की लकड़ी का वह भाग जिसमें फाल लगा होता है। २. दे० ‘अगवार’।
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अंगविद्या  : स्त्री० सामुद्रिक।
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अंगशुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] १. शरीर के अंगों की शुद्धि या सफाई। २. मंत्रों आदि के द्वारा की जानेवाली शरीर की शुद्धि।
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अगसरना  : अ० [सं० अग्रसर] अग्रसर होना। आगे बढ़ना।
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अगसार  : क्रि० वि० [सं० अग्र] आगे। सामने।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगसारना  : स० [हिं० अगसरना] अग्रसर करना। आगे बढ़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगस्त  : पुं० [अं० आँगस्ट] ईसवी सन् का आठवाँ महीना। पुं० [सं० अगस्त्य) एक प्रसिद्ध बड़ा वृक्ष जिसके फूलों की तरकारी और अचार बनते हैं।
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अगस्ति  : पुं०=अगस्त्य।
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अगस्तिया  : पुं० [सं० अगस्त्य] अगस्त्य नामक वृक्ष।
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अगस्त्य  : पुं० [सं० अग√ स्त्यै (शब्द करना) +क] १. एक प्रसिद्ध ऋषि जो मित्र और वरुण के पुत्र (उर्वशी के गर्भ से) कहे गये हैं। कहते है कि एक बार इन्होंने सारा समुद्र पी डाला था। २. दक्षिणी आकाश का एक प्रसिद्ध और बहुत चमकीला तारा। ३. अगस्त नामक प्रसिद्ध वृक्ष। ४. शिव का एक नाम।
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अगस्त्य-कूट  : पुं० [ब० स०] दक्षिण भारत का एक पर्वत।
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अगस्रर  : क्रि० वि० [सं० अग्रसर] १. आगे या निश्चित समय से पहले। उदाहरण—अगसर खेती, अगसर मार।—घाघ। २. समक्ष। सामने।
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अगह  : वि० [सं० अग्राह्य] १. जिसे ग्रहण करना या पकड़ना कठिन हो। २. जिसे धारण करना, समझना या कहना कठिन हो। ३. कठिन। दुस्तर। ५. दे० ‘अग्राह्य'।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगहन  : पुं० [सं० अग्रहायण] कार्तिक और पूस के बीच का महीना। मार्गशीर्ष।
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अगहनिया  : वि०=अगहनी।
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अगहनी  : वि० [सं० अग्रहायणी] अगहन महीने में होनेवाला। जैसे— अगहनी धान या फसल। वि०=अगह।
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अगहर  : क्रि० वि० [सं० अग्र० पा० अग्ग+हि० हर (प्रत्यय) १. आगे। २. पहले।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगहाट  : वि० [सं० अग्र या हिं० आगे] १. बहुत दिनों का। पुराना। २. जो बहुत दिनों से किसी के अधिकार में चला आ रहा हो। जैसे—अगहाट खेत या भूमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगहार  : वि०=अगहाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगहु  : क्रि० वि० =आगे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगहुँड़  : वि० [सं० अग्र, पा० अग्ग+हुँत (प्रत्यय) आगे चलने या होने वाला। क्रि० वि० —अगले भाग में। ‘पिछहुँड़’ का विपर्याय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगा  : पुं० [सं० अंगक)=‘अँगरखा’।
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अगा  : पुं०=आगा (अगला भाग) क्रि० वि०=आगे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगाउनी  : क्रि० वि० दे० ‘अगौनी'।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगाऊँ  : वि० , क्रि० वि० =अगाऊ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगाऊ  : वि० [सं० अग्र, प्रा० अग्ग+हि० आऊ] आगे का। अगला। क्रि० वि० आगे या पहले से। पुं० अग्रिम। पेशगी।
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अंगाकड़ी  : स्त्री० [सं० अंगार+कड़ी (प्रत्यय)] अंगारों पर सेंककर बनाई हुई मोटी रोटी। बाटी।
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अंगांगीभाव  : पुं० [सं० अंगांगिभाव, अंग अंगी, द्ध० स० अंगांगि-भाव ष० त०] १. वह भाव या संबंध जो शरीर और अंग से होता है। २. किसी प्रधान या बड़ी वस्तु आदि का उसके गौण या लघु भाग से होनेवाला संबंध। ३. संकर अलंकार का एक भेद, जहाँ एक ही छन्द में कुछ अलंकार प्रधान रूप में और कुछ उससे आश्रित रूप में आते हैं।
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अगाड़  : पुं० [हिं० आगा] १. आगे का भाग। आगा। २. ढ़ेकली के सिर पर छोटी पतली लकड़ी। ३. हुल्ले की नली। क्रि० वि० १. आगे। सामने। २. पहले। पूर्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगाड़ा  : पुं० [हिं० आगा] १. वह सामान जो चलने से पहले वहाँ भेज दिया जाता है, जहाँ टिकना या पड़ाव करना होता है। २. कछार। तरी। ३. दे० आगा। (अगला भाग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगाड़ी  : स्त्री० [हिं० आगा+आड़ी (प्रत्यय०)] १. आगे या सामने का भाग। ‘पिछाड़ी का विपर्याय’। २. घोड़े की गर्दन में बाँधी जाने वाली दो रस्सियाँ जो दोनों ओर खूटों में बँधी रहती है। क्रि० वि० १. आगे। सामने। २. आगे चलकर। भविष्य में।
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अगाड़ी-पिछाड़ी  : स्त्री० (हिं० आगा+पीछा) १. किसी चीज के आगे और पीछे के भाग। २. वे रस्सियाँ जिनमें एक ओर घोड़े की गरदन और दूसरी ओर उसके दोनों पैर बाँधे जाते है।
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अगात्मजा  : स्त्री० [सं० अग-आत्मजा, ष० त०) पार्वती।
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अगाद  : वि० =अगाध।
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अगाध  : वि० [सं० गाध् (थाह लेना) +घञ्, न० ब०] १. जिसकी गहराई की थाह या पता न लग सके। अथाह। जैसे—अगाध, समुद्र। २. जिसकी गंभीरता, गहनता, सीमा आदि का पता न चल सके। बहुत अधिक। जैसे—अगाध, पांडित्य। ३. जिसे जानना या समझना बहुत ही कठिन या प्रायः असंभव हो। पुं० बहुत बड़ा गड्डा।
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अंगाधिप  : पुं० [सं० अंग-अधिप, ष० त०] १. अंग देश का राजा कर्ण। २. किसी लग्न का स्वामी गृह। (ज्योतिष)।
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अंगाधीश  : [सं० अंग-अधीश, ष० त०]=अंगाधिप।
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अगान  : वि० =अज्ञान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगाना  : सं० [सं० अंग] अपने अंग में या अपने ऊपर लेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) उदाहरण—मनहुँ एक कौ रंग एक निज अँग अँगाए।—रत्ना।
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अगामै  : क्रि० वि० [सं० अग्रिम) आगे।
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अंगार  : पुं० [सं०√अंग (गति आदि) +आरन्] १. जलता हुआ कोयला या लकड़ी का टुकड़ा। मुहा०—अंगार उगलना—उद्धण्डतापूर्वक बहुत कड़ी बात कहना। जली-कटी सुनाना। २. चिनगारी। ३. मंगल गृह। ४. हितावली नामक पौधा। ५. लाल रंग। वि० जलते हुये कोयले की तरह लाल।
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अगार  : क्रि० वि० (हिं० आगे) १. आगे। सामने। २. पहले। पुं०=आगार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगार-धानिका  : स्त्री० [ष० त०] अँगीठी।
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अंगार-धानी  : स्त्री० [ष० त०] अँगीठी।
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अंगार-पर्ण  : पुं० [ब० स०-अंगारपर्ण (-वन तथा उसका स्वामी) +अच्] चित्ररथ नामक गंधर्व का एक नाम।
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अंगार-पाचित  : पुं० [सं० त०] अँगारों पर पकाया हुआ भोजन। जैसे—बिस्कुट, कबाब, नानखटाई आदि। भू० कृ० अंगारों पर पकाया हुआ।
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अंगार-पुष्प  : पुं० [ब० सं० ] हिंगोट का पेड़, जिसके फूल अँगारे की तरह लाल होते हैं।
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अंगार-बल्ली  : स्त्री०=अंगारबल्ली।
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अंगार-मंजरी  : स्त्री० [ब० स०] करौंदा।
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अंगार-मणि  : पुं० [मध्य सं० ] मूंगा।
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अंगार-मती  : स्त्री० [सं० अंगार+मतुप्-डीप्] १. कर्ण की स्त्री० का नाम। २. हाथ की उँगलियों में होनेवाला गलका नाम का रोग।
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अंगार-वल्ली  : स्त्री० [मध्य सं० ] १. घुंघची की लता। २. करंज की लता।
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अंगारक  : पुं० [सं० अंगार+कन्] १. जलता या दहकता हुआ कोयला आदि। २. मंगल गृह। ३. भँगरैया नामक वनस्पति। ४. कटसरैया नामक पेड़। ५. एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अधातवीय तत्त्व जिसका परमाण्वीय भार। १२ और परमाण्वीय संख्या ६ है। (कार्बन)
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अंगारकाम्ल  : पुं० [सं० अंगारक+अम्ल, कर्म, सं,०] एक अम्ल जो आक्सीजन और कार्बन के मेल से बनता है।
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अंगारकारी (रिन्)  : पुं० [सं० अंगार√कृ (करना) +णिनि] बेचने के लिए कोयला बनानेवाला।
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अंगारकित  : भू० कृ० [सं० अंगारक+इतच्] १. आग से जलाया हुआ। २. अंगारों पर भूना हुआ।
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अँगारा  : पुं० [सं० अंगार, मरा अंगार, गु० अंगारी, अंगिरा] जलता तथा दहकता हुआ कोयला या लकड़ी का टुकड़ा। मुहावरा— अँगारा बनाना—आवेश तथा क्रोध के कारण लाल होना। अंगारा होना—अंगारा बनना। अंगारे उगलना-अप्रिय, जलीकटी या चुभती हुई बातें कहना। अंगारे फाँकना- ऐसा काम करना जिसका बुरा फल हो। अंगारे बरसना-(क) अत्यधिक गरमी पड़ना। (ख) धूप का बहुत तेज होना। (ग) तेज लू चलना। अंगारे सिर पर धरना- बहुत कष्ठ सहना। अंगारों पर पैर रखना—जानबूझकर अपने को खतरे में डालना। अंगारों पर लोटना—(क) अत्यधिक क्रोध से अभिभूत होना। (ख) अत्यधिक ईर्ष्या या आत्म ग्लानि से जलना। पद—लाल अंगारा बहुत अधिक लाल। वि० गरम तथा तपा हुआ।
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अंगारिका  : स्त्री० [सं० अंगार+ठन्-इक्-टाप्] १. अंगीठी। २. ऊख या उसका टुकड़ा। ३. किंशुक की कली।
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अंगारिणी  : स्त्री० [सं० अंगार+इनि-डीप] १. अँगीठी। २. डूबते हुए सूर्य की लालिमा से रंजित दिशा।
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अंगारित  : भू० कृ० [सं० अंगार+क्विप्+क्त] जला हुआ। दग्ध। पुं० पलाश की कली।
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अंगारी  : स्त्री० [सं० अंगार+ठन्-इक, पृषो०-कलोप-डीष्] १. छोटा अंगारा। २. चिनगारी। ३.अंगारों पर पकाई हुई छोटी रोटी। बाटी। ४. अंगीठी। स्त्री० [सं० अंगारिका) १. गन्ने के कटे हुए छोटे टुकड़े। गँडेरी। २. गन्ने के सिरे पर की पत्तियाँ। गोंडी।
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अगारी  : क्रि० वि० =अगाड़ी। वि० [सं० ) मकान का मालिक।
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अंगारीय  : वि० [सं० अंगार√छ-ईय] १. अंगार-संबंधी। २. कोयला बनाने के काम में आने योग्य (वृक्ष आदि)।
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अगावा  : पुं०=अगौरा।
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अगास  : पुं० [सं० अग्र०प्रा०अग्ग+आस (प्रत्यय)] घर के आगे का चबूतरा। पुं०=आकाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगासी  : स्त्री०=अकासी।
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अगाह  : वि० [फा० आगाह] जाना हुआ। ज्ञात। विदित। उदाहरण—तबहि कमल मन भएहु अगाहू।—जायसी। क्रि० वि० (हि० आगे) आगे या पहले से। वि०=अगाध।
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अगाहु  : वि० १. =अगाह। २. =अगाध।
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अगि-लाई  : स्त्री० [हिं० आग+लाना (लगाना)] १. आग लगाने की क्रिया या भाव। २. दो पक्षों में झगड़ा कराने की क्रिया या भाव। वि० आपस में लोगों में झगड़ा करानेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगिआह  : वि० (हिं० आग+इआह (प्रत्यय) १. आग की तरह तपा हुआ। २. दूसरों का सुख देखकर जलने वाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगिका  : स्त्री० [सं०√अंग् (गतिआदि) +इनि+कन्-टाप्] स्त्रियों की अँगिया। चोली।
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अगिदधा  : वि० [सं० अग्नि+दग्ध] १. आग से जला हुआ। दग्ध। २. बहुत अधिक संतप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगिदाह  : पुं०='अग्निदाह'।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगिन  : स्त्री० [सं० अग्नि) १. आग। अग्नि। (विशेष दे० अग्नि)]। २. चंडूल की जाति का एक तरह का पक्षी। अगिया। ३. अगिया नामक घास। वि० =(हिं० अ+गिनना) जो गिना ना जा सके। संख्या में बहुत अधिक। स्त्री०[सं० अगांरिका) ईख का ऊपरी भाग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगिन-गोला  : पुं० [सं० अग्नि+हिं० गोला] १. वह गोला जिसके फटने से आग लग जाती है। २. एक प्रकार का फूल और उसका पौधा।
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अगिन-झाल  : पुं० दे० 'जलपिप्पली'।
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अगिन-बाव  : पुं० [हिं० अगिन√बाव=वायु] चौपायों विशेष कर घोड़ों को होनेवाला एक रोग।
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अगिन-बोट  : पुं० [सं० अग्नि+अं० बोट) भाप से चलने वाली एक प्रकार की बहुत बड़ी नाव (स्टीमर)।
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अगिनत  : वि० =अनगिनत।
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अगिनित  : वि०=अगणित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगिया  : स्त्री० [सं० अंगिका] १. कुरती के आकार का परन्तु उससे छोटा पहनावा, जिससे स्त्रियाँ अपने स्तन ढकती हैं। (बाडी) २. आटा छानने की चलनी।
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अगिया  : वि० [हिं० आग+इया (प्रत्यय)] १. आग की तरह जलता हुआ या चमकता हुआ। २. आग की सी जलन उत्पन्न करने वाला। जैसे—अगिया कीड़ा, घास या ज्वर। स्त्री० [सं० अग्नि, प्रा० अग्नि) १. एक प्रकार की घास जो आस-पास के पौधों और वनस्पतियों को जलाकर सुखा देती है। २. नीली चाय। ३. एक पहाड़ी पौधा जिसके पत्तों में जहरीले रोएँ होते है। ४. अग्नि। आग। पुं० (हिं० आग) १. एक जहरीला कीड़ा। २. एक रोग जिसमें पैरों में छाले पड़ जाते हैं। ३. घोड़ो और बैलों को होनेवाला एक रोग।
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अगिया कोइलिया  : पुं० (हिं० आग+कोयला) लोक में उन दो बैतालों के कल्पित नाम जिनके संबंध में यह माना जाता है कि वे विक्रमादित्य के अनुचर थे।
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अगिया बैताल  : पुं० (हिं० अगिय+बैताल) १. दे० अगिया कोइलिया। २. वह कल्पित प्रेत या भूत जो मुँह से आग उगलता है। ३. क्रोधी व्यक्ति। ४. दे० ‘छलावा’।
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अगियाना  : अ० [हिं० आग] १. आग से जलने की सी पीड़ा होना। जलन होना। २. बहुत अधिक क्रोध में आना या होना। सं० १. आग लगाना। २. आग के योग से जलाना, तपाना या पकाना। ३. जलन उत्पन्न करना। ४. बहुत अधिक कुद्ध होना। ५. धातु आदि के बर्तन शुद्ध करने के लिए उनमें आग डालना।
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अगियार  : वि० [हिं० आग+√इयार (प्रत्यय)] जो अधिक देर तक जलने वाला हो या अधिक देर तक जल सके।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगियारी  : स्त्री० (हिं० आग+इयारी (प्रत्यय) १. दे० धूपदानी। २. धूप आदि सुगंधित द्रव्य जलाने की क्रिया। ३. वह पात्र जिसमें उक्त वस्तुएँ डालकर जलाई जाती है। ४. पारसियों का मन्दिर जहां उनकी पवित्र अग्नि सदा जलती रहती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगियासन  : पुं० [हिं० आग+सन (पौधा)] एक प्रकार का पौधा जिसे छूने से शरीर में जलन होने लगती है।
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अंगिरस  : पुं० [सं० छान्दस प्रयोग] १. परशुराम के अवतार के समय का विष्णु का एक शत्रु। २. दे० ‘अंगिरा’।
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अंगिरा (रस)  : [सं०√अंग्√असि, इरूट्] १. एक ऋषि जिनकी गणना दस प्रजातियों में होती है और जो अथर्ववेद के मंत्र-द्रष्टा माने जाते हैं। २. बृहस्पति। ३. साठ संवत्कारों में से छठा। ४. गुल्लू नामक वृक्ष का गोंद।
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अँगिराना  : अ० दे० ‘अँगड़ाना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगिरी  : स्त्री०=अगरी।
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अगिला  : वि० =अगला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगिहर  : पुं० [हिं० आग+हर (प्रत्य०)] शव जलाने की चिता। उदा०—मोहि देहिं अगिहर साजि।—विद्यापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगिहाना  : पुं० [सं० अग्निधान] आग रखने या जलाने का स्थान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगी  : (गिन्)- पुं० [सं० अंग+इनि] १. अंग या शरीरवाला। देहधारी। २. वह जिसके साथ और अंग भी लगे हुए हों। ३.समष्टि। ४.चौदह विद्याएँ। ५. नाटक का प्रधान नायक। ६. नाटक का प्रधान रस। वि० जिसने शरीर धारण किया हो।
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अंगीकरण  : पुं० [सं० अंग√च्वि+कृ(करना)+ल्युट्-अन्] वि अंगीकार्य, भू० कृ० अंगीकृत अंगीकार करने की क्रिया या भाव।
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अंगीकार  : पुं० [सं० अंग+च्वि√ कृ+घञ वि० अंगीकार्या, भू० कृ० अंगीकृत] १. अपने अंग पर या अपने ऊपर लेने की क्रिया या भाव। ग्रहण करना। २. स्वीकार करना।
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अंगीकार्य  : वि० [सं० अंग+च्वि√कृ+घञ] [वि० अंगीकार्य, भू० कृ० अंगीकृत] १. अपने अंग या अपने ऊपर लेने की क्रिया या भाव। ग्रहण करना। २. जो अंगीकर किया जाने के को हो।
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अंगीकृत  : भू० कृ० [सं० अंग+च्वि√कृ+क्त] १. जिसका अंगीकरण हुआ हो। ग्रहण किया हुआ। २. स्वीकृत किया हुआ। ३. अपने ऊपर लिया हुआ।
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अंगीकृति  : स्त्री० [सं० अंग+च्वि√ कृ+क्तिन्]=अंगीकरण।
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अँगीठ  : पुं० अँगीठा।
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अँगीठा  : पुं० [सं० अग्नि] बड़ी अँगीठी।
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अगीठा  : पुं० [सं० अग्र, प्रा० अग्न+सं० इष्ट, प्रा० इट्ठ (प्रत्य०)] मकान का अगला भाग। पुं० [?] एक पौधा जिसकी पत्तियाँ पान की तरह की पर उससे कुछ बड़ी होती हैं।
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अँगीठी  : स्त्री० [सं० अग्निष्ठिका] मिट्टी, लोहे आदि का वह प्रसिद्ध पात्र जिसमें आग सुलगाते हैं।
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अंगीत पछीत  : क्रि० वि० [सं० आग्रतः पश्चात्] १. आगे-पीछे। २. अगवाड़े-पिछवाड़े। पुं० आगे और पीछे के भाग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगीय  : वि० [सं० अंग+छ-ईय] अंग-सम्बन्धी। अंग का।
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अगु  : पुं० [सं० न० ब०] १. राहु ग्रह। २. अंधकार। अँधेरा।
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अगुआ  : पुं० [सं० अग्रगुः] १. वह जो दूसरों के आगे चले। वह जिसके पीछे और लोग चलें। उदा०—अगुआ भयऊ शेख बुरहाना।—जायसी। २. दूसरों का पथ-प्रदर्शन करने वाला। ३. वह जो सबसे आगे बढ़कर किसी काम में हाथ बँटाये। ४. वह जो औरों का प्रतिनिधायन करे। ५. नेता। सरदार।
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अगुआई  : स्त्री० [हिं० आगा+आई (प्रत्य०)] १. आगे होने या आगे चलने की क्रिया या भाव। २. पथ-प्रदर्शन करने की क्रिया या भाव।
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अगुआड़  : पुं० [सं० अग्र] अगवाड़ा।
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अगुआना  : स० [सं० अग्र] अगुआ बनाना या निश्चित करना। अ० आगे होना या बढ़ना।
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अगुआनी  : स्त्री०=अगवानी।
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अँगुठी  : स्त्री० [सं० अंगुष्ठ]=अँगूठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगुण  : वि० [सं० न० ब०]=निर्गुण। पुं० [न० त०] अवगुण।
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अगुणज्ञ  : वि० [सं० न० त०] जो गुणज्ञ न हो।
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अगुणवादी (दिन्)  : वि० [सं० अगुण√वद् (बोलना)+णिनि] जो दूसरों के अवगुण या दोष निकालता हो। छिद्रान्वेषी।
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अगुणी (णिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो गुणों से रहित हो। २. मूर्ख।
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अगुताना  : अ०=उकताना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगुन  : वि० =निर्गुण। पुं० =अवगुण।
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अगुमन  : क्रि० वि० दे० ‘अगमन’।
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अंगुर  : पुं०=अंगुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगुरि  : स्त्री०=अंगुलि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगुरिया  : स्त्री०=उँगली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगुरी  : स्त्री०=उँगली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगुरीय  : पुं० [सं० अंगुरि+छ-ईय] अँगूठी।
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अंगुरीयक  : पुं० [सं० अंगुरीय+कन्] अँगूठी।
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अगुरु  : वि० [सं० न० त०] जो गुरु अर्थात् भारी न हो। हल्का। २. जिसने गुरु से उपदेश या शिक्षा न पायी हो। ३. मात्रा या वर्ण जो गुरु न हो। लघु। पुं० १. अगर वृक्ष। २. शीशम।
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अंगुल  : पुं० [सं०√अंग् (गति आदि) +उल] १. उँगली। २. एक नाप जो उँगली की चौड़ाई के बराबर होती है। ३. नक्षत्र का बारहवाँ भाग। (ज्यो०) ४. वात्यायन मुनि।
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अंगुलि  : स्त्री० [सं०√अंग्+उलि] १. उँगली। २. अंगुल की चौड़ाई के बराबर नाप। ३. हाथी के सूड़ का अगला भाग जिससे वह उँगलियों का काम लेता है। ४. गजकर्णिका नामक वृक्ष।
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अंगुलि-त्र  : पुं० [सं० त्रै (बचाना) +क, ष० त०] १. मिजराब आदि से बजाए जाने वाले सितार आदि बाजे। अंगुलि-त्राण।
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अंगुलि-त्राण  : पुं० [ष० त०] १. गोह के चमड़े का दस्ताना जो बाण चलाते समय पहना जाता था। २. दस्ताना।
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अंगुलि-निर्देश  : पुं० [तृ० त] किसी की ओर उँगली से इशारा करने की क्रिया जो उसकी निंदा या बदनामी का सूचक होता है।
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अंगुलि-पंचक  : पुं० [ष० त०] हाथ की पाँचों उँगलियाँ।
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अंगुलि-पर्व  : (न्) पुं० [ष० त०] उँगलियों के पोर।
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अंगुलि-प्रतिमुद्रा  : स्त्री० [ष० त०] किसी व्यक्ति विशेषता अपराधी आदि की पहचान के लिए ली जाने वाली उँगली के अगले भाग की छाप। (फिंगर-प्रिंट)
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अंगुलि-मुद्रा  : स्त्री० [ष० त०] १. ऐसी अंगूठी जिसपर जिसका नाम खुदा हो। २. नाम खोदी हुई अंगूठी जो मोहर लगाने के काम आती है। ३. दे० ‘अंगुलि-प्रतिमुद्रा’।
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अंगुलि-वेष्टन  : पुं० [ष० त०] दस्ताना।
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अंगुलि-संदेश  : पुं० [तृ० त०] उँगली की मुद्रा अथवा चुटकी बजाकर कोई बात कहना या संकेत करना।
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अंगुलिका  : स्त्री० [सं० अंगुलि+कन्-टाप्] १. उँगली २. एक प्रकार की च्यूँटी।
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अँगुली  : स्त्री०=उँगली।
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अंगुल्यादेश  : पुं० [सं० अंगुलि आदेश, तृ त०] अंगुलि-निर्देश।
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अंगुल्यानिर्देश  : पुं० [सं० असमस्तपद] अंगुलि-निर्देश।
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अगुवा  : पु०=अगुआ।
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अंगुश्ताना  : पुं० [फा०] १. सिलाई करते समय उंगली के बचाव के लिए उँगली पर पहनने के लिए लोहे या पीतल की एक टोपी। २. तीर चलाते समय हाथ के अँगूठे के रक्षा के लिए पहनीं जाने वाली सींग या हड्डी की बनी एक विशेष प्रकार की अँगूठी।
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अंगुष्ठ  : पुं० [सं० अंगु√ स्था (ठहरना) +क] (हाथ या पैर का) अँगूठा।
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अगुसरना  : अ० [सं० अग्रसर+ना (प्रत्य०)] आगे बढ़ना। उदा०—एका परग न सो अगुसरई।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगुसा  : पुं० [सं० अंकुश=टेढ़ी नोंक] अँखुआ अंकुर।
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अँगुसाना  : अ० [हि० अँगुसा] अंकुरित होना। अँखुआ निकलना। सं० अंकुरित करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगुसारना  : स० [सं० अग्रसर) आगे करना या बढ़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगूठना  : सं० दे० ‘अगूठना’ घेरना।
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अगूठना  : स० [सं० आगुंठन) चारों ओर से घेरना। घेरा डालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगूठा  : पुं० [सं० अंगु+स्थ, अंगुष्ठ, प्रा० अंगुट, जल्द० अंगुस्त, फा० अंगुस्त, सिंह० अंगुष्ट, सिं० अँगूठी, प० अँगूठो, मरा० अंगठा] १. मनुष्य के हाथ की पाँच उँगलियों में से वह छोटी तथा मोटी उँगली जिसके दोपोर होते हैं। (बाकी चारों उँगलियों के चार-चार पोर होते हैं।) मुहावरा—अँगूठा चूमना—(क) चापलूसी करना। (ख) अत्यधिक विनम्रता दिखाना। (ग) पूर्णता अधीन होना। अंगूठा चूसना—बड़े होकर भी बच्चों की सी नादानी करना। अँगूठा दिखाना—अभिमान पूर्वक अस्वीकृति सूचित करना। (ख) किसी कार्य को करने से हट जाना। अँगूठे पर मारना—परवाह न करना। पद—अँगूठे का निशान या अँगूठे की छाप-बाएँ हाथ के अँगूठे का वह निशान व छाप जो किसी व्यक्ति की ठीक पहचान के लिए लेख्यों आदु पर ली जाती है। (थम्ब इम्प्रेशन)। २. मनुष्य के पैर की सबसे मोटी उँगली।
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अँगूठी  : स्त्री० [दे० अँगूठा+ई] १. उँगलियों में पहना जाने वाला धातु का एक गोलाकार गहना। मुँदरी मुद्रा। पद—अँगूठी का नगीना=बहुत महत्त्वपूर्ण पदार्थ या व्यक्ति। २. पाई को राछ में छोड़ते समय उँगली में लपेटे हुए तागों का लच्छा। स्त्री० (हि० अँगूठना-घेरना) १. घेरने की क्रिया या भाव। २. घेरा उदारहण—जेहि कारन गढ़ि कीन्ह अँगूठी—जायसी।
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अगूठी  : स्त्री० (हिं० अगूठना) अगूठने की क्रिया या भाव। चारों ओर से घेरने या घेरा डालने की क्रिया। उदाहरण—जेहि कारन गढ़ कीन्ह अगूठी—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगूढ़  : वि० [सं० न० त०] १. जो गूढ़ या छिपा न हो। प्रकट। २. जो समझने में कठिन न हो। सहज या स्पष्ट। पुं० अलंकार में गुणीभूत व्यंग्य के आठ भेदों में से एक।
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अगूता  : पुं० (हिं० आगे) १. आगे। उदाहरण—बाजन बाजहिं होइ अगूता-जायसी। २. सामने। समझ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंगूर  : पुं० [फा] [वि० अंगूरी] १. कश्मीर, अफगानिस्तान आदि देशों में होने वाली एक प्रसिद्ध लता जिसके मीटे छोटे फल खाये जाते हैं। किशमश, दाख, मुनक्का इसी के भेद और रूप हैं। २. उक्त लता के फल। मुहावरा—अंगूर खट्टे होना—किसी अच्छी चीज का अपनी पहुँच के बाहर होना। पद— अंगूर की टट्टी-पतली लकड़ियों की बनी हुई वह टट्टी या परदा जिस पर अंगूर की बेलें चढ़कर फैलती है। पुं० [सं० अंकुर) घाव के भरने के समय उसमें दिखाई पड़ने वाले मांस के छोटे लाल दाने। मुहावरा—अंगूर तड़कना या फटना—भरते हुए घाव पर बंधी हुई मांस की झिल्ली का तड़क या फट जाना। अँगूर बँधना=घाव के ऊपर मांस की नई झिल्ली जमना।
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अंगूरशेफा  : पुं० [फा०] एक प्रकार की जड़ी जो हिमालय पर होती है।
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अँगूरिया  : स्त्री०=अँगूरी।
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अंगूरिया बेल  : स्त्री०=अंगूरी बेल।
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अंगूरी  : वि [फा० अंगूर+ई] १. अंगूर से बना हुआ। जैसे—अंगूरी शरबत। २. अंगूर के रंग का। जैसे—अंगूरी कपड़ा। ३. अंगूर की लता की तरह का। जैसे—कपड़ों पर बनी हुई अंगूरी बेल। पद—अंगूरी बेल—कपड़ों आदि पर तागे से काढ़ी जाने या रंग से छापी जाने वाली बेल जो देखने में अंगूर की बेल जैसे होती है।
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अंगूरी शराब  : स्त्री० [फा०] अंगूर के रस से बनाई हुई शराब।
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अँगूसी  : स्त्री० [सं० अंकुश] १. हल का फाल। २. दे० ‘अँकुसी’।
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अँगेजना  : सं० [सं० अंग+?] अपने ऊपर लेना। २. ग्रहण या स्वीकार करना। 3. सहन करना। झेलना। उदा०—मैं तो बाबा की दुलारी दरद कैसे अँगेजब हो।—ग्रामगीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगेट  : स्त्री० सं० [सं० अंग+?] अंग की या शरीर की शोभा या दीप्ति। उदा०—एड़ी तैं सिखा लौं है अनूठिए अंगेट आछी रोम रोम नेह की निकाई में रही है सनी।—घनानन्द।
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अँगेठा  : पुं० [स्त्री० अंगेठी]=अँगीठा।
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अगेय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका गान या वर्णन न हो सके। २. जो गाये जाने या वर्णन किये जाने के योग्य न हो।
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अगेर  : क्रि० वि० =आगे।
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अँगेरना  : सं० =अँगेजना।
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अगेला  : वि० [सं० अग्र) अगला। पुं० मिट्टी या लाख की बनी हुई चूड़ियाँ।
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अगेह  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई घर न हो। २. जिसका घर नष्ट हो चुका हो। ३. जिसने घर त्याग दिया हो।
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अगोई  : वि० स्त्री० हिं० ‘अगोया' का स्त्री० रूप। दे० ‘अगोया'।
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अगोचर  : वि० [सं० न० त०] १. जो इन्द्रियों के द्वारा न जाना जा सके। इन्द्रियातीत। जैसे—आत्मा, ईश्वर आदि। २. जो अस्तित्व में होने पर भी देखा, सुना या समझा न जा सके। (इम्पर्सष्टिबुल्) पुं० ब्रह्य।
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अँगोछना  : अ० [हि० अंगोछा से] कपड़े या अँगोछे से शरीर पोंछना।
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अँगोछा  : पुं० [सं० अंगवस्त्र; गु० अंगुछो, हि० अंगोछा, सि० अगोचा, मरा, अंगुचें, का० अंगोस] [स्त्री० अल्पा० अँगोली] शरीर पोछने का एक प्रकार का छोटा कपड़ा। गमछा।
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अँगोजना  : सं०=अँगेजना।
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अँगोट  : स्त्री०=अंगेट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगोट  : स्त्री० (हिं० आगा+ओट) १. वह चीज जिसे आगे या सामने रखकर अथवा उसमें छिपकर रक्षा की जाए। आड़। रोक। उदाहरण—रहिंहैं चंचल प्राण ए कहि कौन की अगोट-बिहारी। पुं० हिंसक पशुओं के शिकार का वह प्रकार जो आड़ में रहकर या किसी स्थान पर किया जाता है। क्रि० वि० निश्चित रूप से। अवश्य। उदाहरण—जब लगि जीवन जगत में, सुख-दुख मिलन अगोट—रहीम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगोटना  : स० (हिं० अगोट) १. आड़ करना। २. छिपाना। ३. चारों ओर से घेरना। ४. घेर या बंद करके रखना। ५. अधिकार या पहरे में रखना। स०[सं० अंग+हिं० ओट) १. अंगीकार करना। स्वीकार करना। २. ग्रहण करना। लेना। ३.पसंद करना। चुनना। अ० ठहरना। रुकना।
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अगोढ़  : पुं०=अगाऊ (अग्रिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगोया  : वि० [सं० अ+गोपन) (स्त्री० अगोई) १. जो छिपाया गया न हो। २. प्रकट या स्पष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगोरदार  : पुं० (हिं० अंगोरना+फा-दार) (भाव अगोरदारी) अगोरने या रक्षा करनेवाला।
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अगोरना  : स० [सं० आगूरण) १. रखवाली करना। पहरा देना। उदाहरण—जो मैं कोटि जतन करि राखति घूँघट ओट अगोरि-सूर। २. प्रतीक्षा करना (पूरब)।
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अगोरबाह  : पुं०=अगोरदार।
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अँगोरा  : पुं० [सं० अंग+ ?] मच्छर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगोरा  : पुं० (हिं० अगोरना) कोई चीज (मुख्यतः खेत की फसल) अगोरनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगोराई  : स्त्री० (हिं० अगोरना) १. अगोरने की क्रिया या भाव। २. अगोरने के बदले में मिलने वाला पारिश्रमिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगोरिया  : पुं०=अगोरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगोरी  : स्त्री०=अँगारी।
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अगोही  : पुं० [सं० अग्र) ऐसा बैल जिसके सींग आगे निकले हुए हों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगौंगा  : पुं० [सं० अग्र-अगला+अंग-भाग] अन्न आदि की राशि में किसी देवी या देवता के नाम पर निकाला हुआ अंश या उसके बदले में कुछ धन।
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अंगौटी  : स्त्री०=अँगेट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँगौड़ा  : पुं०=अंगौंगा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगौनी  : क्रि० वि० [सं० अग्र० प्रा० अग्ग) १. आगे। सामने। २. आगे से पहले। स्त्री०=अगवानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अगौरा  : पुं० (हिं० आगे=औरा (प्रत्यय) [स्त्री० अगौरी] ऊख के ऊपर का पतला और नीरस भाग। नई फसल में की पहली आँटी।
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अँगौरिया  : पुं० [सं० अंग=भाग] वह हलवाहा जो मजदूरी के बदले किसान से हल बैल लेकर अपना खेत जोतता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अगौली  : स्त्री० (देश०) एक प्रकार की ईख।
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अग्ग  : वि० =अगला। क्रि० वि० =आगे।
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अग्गई  : स्त्री० (देश०) एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ हाथ भर लंबी होती है।
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अग्गर  : पुं० [सं० आगार) घर। निवास स्थान। वि० [सं० अग्रणी) १. जो सबसे आगे हो। २. उत्तम। श्रेष्ठ।
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अग्गैं  : क्रि० वि० (हिं० आगे) आगे। उदाहरण—पकरि लोह पव्वय गह्यौ लहै को अग्गैं जान—चन्दवरदाई।
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अग्नायी  : स्त्री० [सं० अग्नि+ऐड़-डीष्) १. अग्नि की स्त्री० स्वाहा। २. त्रेता युग।
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अग्नालि  : पुं० [सं० अकाल) अकाल। उदाहरण—कइँ तू सीचीं सज्जणे कँइ तू बूठइ अग्गालि।— ढो० मारू।
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अग्नि  : स्त्री० [सं०√अंग् (वक्रगति) +नि,नलोप) १. दे० आग। विशेष—कर्मकाण्ड में गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि, सम्याग्नि, आवसध्य और औपसनाग्नि छः प्रकार की अग्नियां मानी जाती है। २. शरीर का वह ताप जिससे शरीर के अंदर पाचन आदि क्रियाएँ होती हैं। जठराग्नि। वैद्यक में इसके तीन भेद हैं—भौम, दिव्य और जठर। ३. पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा या कोना। ४. कृत्तिका नक्षत्र। ५. क्षत्रियों का एक प्रसिद्ध वंश या कुल। ६. रहस्य संप्रदाय में (क) ज्ञान-प्राप्ति की प्रबल इच्छा या उससे होने वाली आकुलता, (ख) काम क्रोध आदि मनोविकार। (ग) सुषुम्ना नाड़ी। ७. सोना। ८. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ९. भिलावाँ। १. नीबू।
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अग्नि-कण  : पुं० [ष० त०] चिनगारी।
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अग्नि-कर्म (न)  : पुं० [तृ० त० या स० त०] १. मृत व्यक्ति का जलाया जाना। अग्नि-दाह। २. हवन। ३. गरम लोहे से दागना।
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अग्नि-कला  : स्त्री० [ष० त०] अग्नि के ये दस अथवा या कलाएँ—धूम्रा, अर्चि, रूक्ष्मा, जलिनि, ज्वालिनि, विस्फुलिंगिनि, सुश्री, सुरूपा, कपिला और हव्यकव्यवहा।
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अग्नि-कवच  : वि० [ष० त०]=अग्नि-सह।
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अग्नि-कांड  : पुं० [ष० त०] दूर तक फैलनेवाली ऐसी आग जो अत्यधिक नाशक हो। जैसे—गाँव, शहर या वन में लगने वाली आग। (कॉनफ्लेगरेशन)
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अग्नि-कीट  : पुं० [ष० त०] १. जुगनूँ (कीड़ा) २. एक प्रकार का कल्पित कीड़ा जिसके संबंध में यह माना जाता है कि वह अग्नि में रहता है।
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अग्नि-कुंड  : पुं० [ष० त०] वह कुंड जिसमें आग जलाई जाए। हवन-कुंड।
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अग्नि-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. कार्तिकेय। षडानन। २. एक प्रकार आयुर्वेदिक औषध जो मन्दाग्नि, श्वास आदि में लाभदायक माना जाता है।
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अग्नि-कुल  : पुं० [ष० त०] क्षत्रियों का एक वंश जिसकी उत्पत्ति अंश से मानी जाती है।
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अग्नि-केतु  : पुं० [ष० त०] १. शिव का एक नाम। २. रावण की सेना का एक राक्षस।
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अग्नि-कोण  : पुं० [ष० त०] पूर्व और दक्षिण दिशाओं के बीच का कोना।
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अग्नि-क्रिया  : स्त्री० (तृ० त०) मृतक का दाह-कर्म। मुरदा या शव जलाना।
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अग्नि-क्रीड़ा  : स्त्री० (तृ० त) आतिशबाजी।
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अग्नि-गर्भ  : वि० [ब० स०] जिसके गर्भ या भीतरी भाग में अग्नि हो। जैसे—अग्नि पर्वतन=ज्वालामुखी। पुं० १. आतिशी शीशा। २. सूर्यकान्त मणि। ३. शमी वृक्ष।
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अग्नि-चक्र  : पुं० [ष० त०] १. आग का चक्कर या गोला। २. हठ योग में एक त्रिकोण चक्र जो पायु और उपस्थ के मध्य भाग में है। इसी में वह स्वयंभूलिंग है, जिससे कुंडलिनि साँप की तरह लिपटी रहती है।
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अग्नि-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [ब० स०]=अग्निजात।
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अग्नि-जात  : वि० [पं० त०] अग्नि या आग से उत्पन्न। पुं० १. अग्निजार वृक्ष। २. सुवर्ण। ३. कार्तकेय। ४. विष्णु।
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अग्नि-जिह्या  : स्त्री० [ष० त०] १. आग की लपट। २. पुराणों के अनुसार अग्नि की सात जिह्वाएँ या ज्वालाएँ। यथा—काली, कराली, मनोजवा, लोहिता, धूम्रपर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरूपी।
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अग्नि-जिह्व  : वि० [ब० स०] अग्नि ही जिसकी जीभ हो। पुं० [ब० स०] १. देवता। २. वराह रूपधारी विष्णु।
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अग्नि-दग्ध  : वि० (तृ० त०) आग से जलाया हुआ। पुं० पितरों का एक वर्ग।
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अग्नि-दंड  : पुं० (तृ० त०) १. अपराधी को आग में चलाने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार का दिया जाने वाला दंड या सजा।
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अग्नि-दमनी  : स्त्री० [ष० त०] १. एक प्रकार का क्षुप। २. मकोय।
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अग्नि-दाता (तृ)  : पुं० [ष० त०] मृतक का दाह कर्म करनेवाला व्यक्ति। जैसे—पुत्र, भाई आदि।
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अग्नि-दान  : पुं० [ष० त०] मृतक को जलाने के लिए उसकी चिता में आग लगाना। दाह-संस्कार
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अग्नि-दिव्य  : पुं० [तृ० त०]=अग्नि-परीक्षा।
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अग्नि-दीपक  : वि० [ष० त०] पाचन-शक्ति या भूख बढ़ानेवाला।
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अग्नि-दीपन  : पुं० [ष० त०] पाचन-शक्ति को बढ़ानेवाली औषधि, उपचार या क्रिया।
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अग्नि-दूत  : पुं० [ब० स०] १. देवता। २. यज्ञ।
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अग्नि-नेत्र  : पुं० [ब० स०] देवता।
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अग्नि-पक्व  : वि० [स० त०] आग पर रखकर पकाया हुआ (खाद्य पदार्थ)।
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अग्नि-परिग्रह  : पुं० [ष० त०] अग्निहोत्र का व्रत लेना।
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अग्नि-परीक्षा  : स्त्री० [तृ० त०] १. आग को हाथ में लेकर अथवा आग में से निकलकर अपने को निर्दोष सिद्ध करने की क्रिया या भाव। (सत्यासत्य की परीक्षा का एक पुराना प्रकार) २. धातुओं को आग में तपाकर उनकी शुद्धता की जाँच करना। ३. बहुत ही कठिन तथा विकट परीक्षा।
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अग्नि-पर्वत  : पुं० [मध्य० स०] ज्वालामुखी पहाड़।
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अग्नि-पुराण  : पुं० [मध्य० स०] अठारह पुराणों में से एक जिसमें अग्नि और उसके देवता का माहात्म्य वर्णित है।
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अग्नि-पूजक  : पुं० [ष० त०] १. वह जो आग की पूजा करता है। २. पारसी।
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अग्नि-प्रतिष्ठा  : स्त्री० [ष० त०] धार्मिक कृत्यों के आरम्भ में पूजा के लिए अग्नि की स्थापना करना।
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अग्नि-प्रवेश  : पुं० (स० त०) १. अग्नि-परीक्षा के लिए अग्नि में प्रवेश करने की क्रिया या भाव। जैसे—सीता जी का अग्नि-प्रवेश। २. स्त्री० का मृत पति की चिता पर बैठना। सती होना।
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अग्नि-प्रस्तर  : पुं० [ष० त०] चकमक पत्थर।
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अग्नि-बाण  : पुं० [मध्य० स०]=अग्नि-बाण।
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अग्नि-बाव  : पुं० [सं० अग्नि-वायु] १. घोड़ों तथा दूसरे चौपायों को होनेवाला एक रोग। २. जुड़-पित्ती नामक रोग।
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अग्नि-बाहु  : पुं० [ष० त०] १. धूआँ। धूम। २. [सं० ब० स०] मनु का एक पुत्र। स्वायंभुव।
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अग्नि-बिन्दु  : पुं० [ष० त०] चिनगारी। स्फुलिंग।
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अग्नि-बीज  : पुं० [ष० त०] सोना। स्वर्ण।
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अग्नि-मणि  : पुं० (मध्य० स०) १. सूर्यकान्त मणि। २. चकमक पत्थर। ३. आतशी शीशा।
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अग्नि-मथ्  : पुं० [सं० अग्नि√ मन्थ्+क्विप्] १. यज्ञ में वह व्यक्ति जो रगड़ से अग्नि उत्पन्न करता था। २. यज्ञ के लिए रगड़ से अग्नि उत्पन्न करते समय पढ़ा जाने वाला मंत्र। ३. अरणी नामक वृक्ष की लकड़ी जिसकी रगड़ से अग्नि उत्पन्न की जाती थी।
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अग्नि-मांद्य  : पुं० [ष० त०] भूख कम लगने का रोग। मंदाग्नि।
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अग्नि-मित्र  : पुं० [ष० त०] शुंग वंश का एक राजा जो पुष्यमित्र का पुत्र था।
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अग्नि-मुख  : पुं० [ब० स०] १. देवता। २. ब्राह्मण। ३. प्रेत। ४. भिलावाँ। ५. चित्रक वृक्ष। चोता। ६. जवाखार, सज्जी, चित्रक आदि से बनाया हुआ एक चूर्ण। (वैद्यक)
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अग्नि-युग  : पुं० (मध्य० स०) ज्योतिष-संबंधी पाँच वर्षों का एक युग। ज्योतिष में पाँच-पाँच वर्षों के बारह युगों में से एक।
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अग्नि-रेता (तस्)  : पुं० (ष० त०) सोना। स्वर्ण।
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अग्नि-लिंग  : पु० [ष० त०] अग्नि की लपटें देखकर शुभाशुभ फल बताने की विद्या।
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अग्नि-लोक  : पुं० [ष० त०] पुराणों के अनुसार सुमेरू पर्वत के आस-पास का प्रदेश।
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अग्नि-वधू  : स्त्री० (ष० त०) अग्नि की पत्नी, स्वाहा।
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अग्नि-वर्चस्  : वि० [ब० स०] जिसमें आग जैसी चमक हो। पुं० अग्नि का तेज।
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अग्नि-वर्ण  : वि० [ब० स०] आग के समान लाल वर्णवाला।
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अग्नि-वर्त्त  : पुं० [सं० अग्नि√ वृत् (बरतना) +णिच्+घञ्) पुराणानुसार एक प्रकार का मेघ।
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अग्नि-वर्द्धक  : वि० [ष० त०] पाचन शक्ति बढ़ानेवाला।
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अग्नि-वर्द्धन  : पुं० [ष० त०] पाचन शक्ति बढ़ाने की क्रिया या भाव।
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अग्नि-वर्षा  : स्त्री० [ष० त०] १. आग या जलती हुई वस्तुएँ बरसाना। २. अत्यधिक गोलियाँ आदि चलना।
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अग्नि-वाण  : पुं० [मध्य० स०] बाण जिसे चलाने से आग बरसती हो।
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अग्नि-वाह  : वि० [अग्नि√ वह्+अण्] अग्नि ले जाने वाला। पुं० १. धुआँ। २. बकरा। ३. अग्नि को ले जाने वाली वस्तु।
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अग्नि-विद्या  : स्त्री० (ष० त०) १. अग्निहोत्र। २. सूर्य, मेघ, पृथ्वी पुरुष और स्त्री० संबंधी बातों का ज्ञान या विद्या। (उपनिषद्)
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अग्नि-वीर्य  : वि, [ब० स०] १. जिसमें अग्नि के समान तेज हो। २. शक्तिशाली। पुं० [ष० त०] १. अग्नि की शक्ति या तेज। २. सोना। स्वर्ण।
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अग्नि-शाला  : स्त्री० [ष० त०] स्थान, जहाँ यज्ञ की अग्नि स्थापित की जाए।
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अग्नि-शिख  : पुं० [ब० स०] १. कुसुम का पौधा। २. केसर। ३.सोना। स्वर्ण। ४. दीपक। ५. तीर।
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अग्नि-शिखा  : स्त्री० [ष० त०] १. अग्नि की ज्वाला, लपट या लौ। २. कलियारी नामक पौधा।
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अग्नि-शुद्धि  : स्त्री० (तृ० त) १. अग्नि के संयोग या स्पर्श आदि से किसी वस्तु को शुद्ध या पवित्र करना। २. दे० ‘अग्नि-परीक्षा’।
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अग्नि-ष्वात्ता  : पुं० [ब० स०] १. पितरों का एक वर्ग। २. वह जो अग्नि, विद्युत आदि की विद्याएँ जानता हो।
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अग्नि-संस्कार  : पुं० (तृ० त०) १. मृत व्यक्ति का जलाया जाना। शव-दाह। २. परीक्षा या शुद्धि के लिए किसी वस्तु आदि का तपाया जाना।
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अग्नि-सह  : वि० [सं० अग्नि√ सह् (सहन करना) +अच्] (पदार्थ) जो अग्नि में पड़ने पर भी न जलता हो। अथवा जिस पर अग्नि का प्रभाव न पड़ता हो। (फायर प्रूफ)
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अग्नि-साक्षिक  : वि० [ब० स० कप्] १. जिसका साक्षी अग्नि हो। २. (कार्य) जो अग्नि को साक्षी बनाकर किया गया हो।
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अग्नि-सात्  : वि० [सं० अग्नि+साति] जो आग से जलकर भस्म हुआ हो।
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अग्नि-सेवन  : पुं० (ष०त०) जाड़े से बचने के लिए आग के पास बैठना। आग तापना।
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अग्नि-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] १. वह मंत्र या औषधि जो अग्नि की दाहक शक्ति को रोकती है। २. उक्त काम के लिए मंत्र आदि का किया जानेवाला प्रयोग।
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अग्नि-स्फुलिंग  : पुं० [ष० त०] आग की चिनगारी।
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अग्नि-होत्र  : पुं० [सं० होत्र√ हु (देना-लेना) +त्र, अग्नि-होत्र, च० त०] एक प्रकार का वैदिक होम जो नित्य सबेरे और संध्या किया जाता है तथा जिसकी अग्नि सदा जलती हुई रखी जाती है।
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अग्निक  : पुं० [सं० अग्नि कै (शब्द) +क] १. बीरबहूटी नामक कीड़ा। २. एक प्रकार का पौधा। ३. एक प्रकार का साँप।
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अग्निज  : वि० [सं० अग्नि √जन्+ड] १. जिसका जन्म आग से हुआ हो। २. पाचन शक्ति बढ़ाने वाला। अग्नि-दीपक। ३. अग्नि या उसके ताप से बनने वाला। (इग्नियस)
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अग्निजीवी (विन्)  : पुं० [सं० अग्नि √जीव् (जीना)+णिनि] वे व्यक्ति जिनकी जीविका अग्नि संबंधी कार्यों से चलती है। जैसे—सुनार, लोहार, रसोइया, शीशा बनानेवाला आदि।
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अग्निभ  : पुं० [सं० अग्नि√भा (दीप्ति) +क] १. सोना। स्वर्ण। २. कृत्तिका नक्षत्र। वि० अग्नि की तरह काला रंग का।
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अग्निभू  : पुं० [सं० अग्नि√भू (होना) +क्विप्] १. रगड़ से अग्नि उत्पन्न करने की क्रिया। २. जल। पानी। ३.सोना। स्वर्ण।
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अग्निमंथ  : पुं० [सं० अग्नि√मन्थ् (मथना+घञ)] १. रगड़ से अग्नि उत्पन्न करने की क्रिया। २. अरणी नामक वृक्ष जिसकी लकड़ियों को रगड़कर आग जलाई जाती है।
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अग्निमंथन  : पुं० [सं० अग्नि√मन्थ्+ल्युट्] दो चीजों को रगड़कर उनसे अग्नि उत्पन्न करना।
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अग्निरोहिणी  : स्त्री० [सं० अग्नि√रुह् (उत्पन्न होना) +ल्युट्-डीप्) एक रोग जिसमें संधि स्थान में फफोले निकल आते है। (वैद्यक)
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अग्निवंश  : पुं०=अग्निकुल।
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अग्निविद्  : पुं० [सं० अग्नि√ विद् (लाभ) + क्विप्] अग्निहोत्री।
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अग्निष्टोम  : पुं० [ब० स०] वह यज्ञ जो स्वर्ग की कामना से किया जाता है।
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अग्निहोत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० अग्निहोत्र+इनि] वह जो नियमित रूप से अग्नि-होत्र करता हो।
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अग्नीध्र  : पुं० [सं० अग्नि√ धृ (धारण) +क, दीर्घ] १. यज्ञ में यज्ञाग्नि को रक्षा करनेवाला ऋत्विक्। २. होम। हवन। ३. ब्रह्वा। ४. स्वायंभुव मनु के एक पुत्र।
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अग्नीय  : वि० [सं० अग्नि+छ-ईय] अग्नि-संबंधी। अग्नि का।
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अग्न्य  : वि० =अज्ञ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अग्न्यगार  : पुं०=अग्न्यागार।
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अग्न्यस्त्र  : पुं०=आग्नेय अस्त्र।
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अग्न्यागार  : पुं० [सं० अग्नि-आगार, ष० त०] यज्ञानि रखने का स्थान।
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अग्न्याधान  : पुं० [सं० अग्नि, ष० त०] पेट में जठराग्नि का स्थान। पेट के अन्दर का वह स्थान जिसमें भोजन पचाने वाली अग्नि रहती है। पक्वाश्य। (पैनक्रियास)
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अग्न्युत्पात  : पुं० [सं० अग्नि-उत्पात, ष० त०] १. ऐसी आग लगाना जिससे बहुत उत्पाति या हानि हो। अग्निकांड। २. आकाश से उल्काएँ गिरना।
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अंग्य  : वि० [सं० अंग+यत्] अंग संबंधी, अंगो का।
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अग्य  : वि० =अज्ञ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अग्या  : स्त्री०=आज्ञा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अग्यात  : वि० =अज्ञात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अग्यान  : पुं०=अज्ञान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अग्यारी  : स्त्री०=अगियारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अग्यौन  : पुं० [सं० अग्र+वान)=अगुआ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अग्र  : वि० [सं०√अंग् (गति) +रक्, नत लोप] १. जो सबसे आगे हो अगला। २. श्रेष्ठ। ३. प्रधान। मुख्य। क्रि० वि० आगे। सामने। पुं० १. आगे का भाग। २. सिरा। नोक। ३. आरंभ। ४. अपने वर्ग का सबसे उत्तम पदार्थ। ५. शिखर। चोटी। ६. उत्कर्ष। ७. लक्ष्य। ८. समूह।
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अग्र-गव्य  : वि० [स० त०] १. (व्यक्ति) जो गिनती में सबसे पहले हो। २. श्रेष्ठ। प्रधान।
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अग्र-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [ब० स०]=अग्रज।
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अग्र-दान  : पुं० [स० त०] १. कोई चीज उचित या उपयुक्त समय से पहले देना। २ अग्रिम। पेशगी।
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अग्र-दीप  : पुं० [कर्म० स०] इंजनों, गाड़ियों आदि में सबसे आगे और ऊपर रहने वाला दीप जो उसके मार्ग पर प्रकाश डालता है। (हेड लैम्प)
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अग्र-दूत  : पुं० [क्रम० स०] १. वह जो किसी से पहले आकर किसी के आने की सूचना दे। २. राजाओं के आगे चलने वाला वह कर्मचारी जो सबको सचेत करते हुए चलता है। (हेरल्ड)
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अग्र-पश्चात्  : पुं० [द्व० स०] आगा-पीछा। असमंजस। सोच-विचार।
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अग्र-पूजा  : स्त्री० [स० स०] किसी की वह पूजा जो औरों से पहले की जाए।
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अग्र-बीज  : पुं० [ब० स] १. ऐसा वृक्ष जिसकी डाल काटकर लगाई जा सके २. कलम (वृक्षों की)।
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अग्र-भाग  : पुं० [कर्म० स०] १. किसी वस्तु का आगे वाला भाग या हिस्सा। २. सिरा। ३. श्राद्ध आदि में किसी उद्देश्य से सबसे पहले निकाली या दी जानेवाली वस्तु।
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अग्र-भू  : पुं० [सं० अग्र√भू (होना) +क्विप्]=अग्रज।
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अग्र-महिषी  : स्त्री० [क्रम० स०] पटरानी।
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अग्र-यान  : पुं० [स० त०] १. सबसे आगे चलने की क्रिया या भाव। २. सेना का आगे बढ़कर पहले आक्रमण करना।
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अग्र-लेख  : पुं० [कर्म० स०] सामयिक पत्र का मुख्य संपादकीय लेख। (लीडर, लीडिंग आर्टिकल)
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अग्र-शोची (चिन्)  : पुं० [सं० अग्र√ शुच् (सोचना) +णिनि] वह जो करने या होने वाली बात पहले से ही सोचे या समझे।
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अग्र-हायण  : पुं० [ब० स०] अगहन (महीना)। मार्गशीर्ष।
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अग्रग  : वि० पुं० [सं० अग्र√ गम् (जाना) +ड]=अग्रगामी।
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अग्रगामी (मिन्)  : वि० [सं० अग्र√गम् (जाना) +णिनि] [स्त्री० अग्रगामिनी] आगे चलने वाला। जो सबसे आगे हो। पुं० १. वह जो सबसे आगे चलता हो। २. नेता।
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अग्रगामी दल  : पुं० [सं० व्यस्त पद) वह दल जिसकी विचार धारा अन्य दलों की अपेक्षा आगे बढ़ती हुई अर्थात् उग्र या तीव्र हो।
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अग्रज  : पुं० [सं० अग्र√ जन् (जन्म लेना) +ड] [स्त्री० अग्रजा] १. बड़ा भाई। २. नायक। नेता। ३. ब्राह्यण। ४. विष्णु। वि० १. जिसका जन्म अपने वर्ग के औरों से पहले हुआ हो। २. श्रेष्ठ।
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अग्रजा  : स्त्री० [सं० अग्रज+टाप्] बड़ी बहन।
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अग्रजात  : वि० [स० त०]=अग्रज।
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अग्रणी  : वि० [सं० अग्र√ नी (ले जाना) +क्विप्] १. सबसे आगे चलने वाला। २. श्रेष्ठ। पुं० १. प्रधान व्यक्ति। २. अगुआ।
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अग्रत  : क्रि० वि० [सं० अग्र+तस्] १. आगे। पहले। २. आगे से पहले से।
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अग्रभागी (गिन्)  : वि० [सं० अग्रभाग+इनि] वह जो यज्ञ श्राद्ध आदि में अग्र भाग आदि पाने का अधिकारी हो।
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अग्रवर्ती  : (तिन्) वि० [सं० अग्र√वृत् (बरतना)+णिनि] सबसे आगे रहने या होने वाला। अगुआ। पुं० लेता।
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अग्रवाल  : पुं० [हिं० अगरोहा या आगरा (स्थान) +वाला (प्रत्यय)] वैश्यों का एक प्रसिद्ध वर्ग।
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अग्रश  : क्रि० वि० [सं० अग्र+शस्] आगे या पहले से।
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अग्रसर  : वि० [सं० अग्र√सृ(गति) +ट) १. आगे जाने वाला अगुआ। २. किसी काम में औरों से आगे बढ़ने वाला। आरंभ करने वाला। पुं० १. आगे जाने या बढ़ने वाला व्यक्ति। २. नेता। प्रधान। ३. वह व्यक्ति जो समाजिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि विचारों तथा व्यवहारों में औरों से अधिक उदार तथा प्रगतिशील हो।
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अग्रसारण  : पुं० [सं०√सृ+णिच्+ल्युट्-अन, अग्रसारण, स० त०) १. आगे की ओर बढ़ने का कार्य। २. किसी के आवेदन पत्र आदि को अपने से उच्च अधिकारी के पास विचारार्थ भेजना या आगे बढ़ाना। (फारवर्डिंग)
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अग्रसारित  : भू० कृ० (स०सारित√ सृ√णिच्+क्त, अग्र-सारित, स०त०) जो विचारर्थ आगे बढ़ाया गया हो।
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अग्रह  : पुं० [सं० न० त०] १. ग्रहण करने का भाव या क्रिया। २. (न० ब०) गार्हस्थ्य धर्म को स्वीकार न करने वाला व्यक्ति। ३. वानप्रस्थ। ४. सन्यासी।
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अग्रहार  : पुं० [सं० अग्र√हृ (हरण करना) +घञ्) १. ब्राह्यण को जीविका निर्वाह के लिए राजा से मिली हुई भूमि। २. खेत की उपज का वह भाग जो ब्राह्यण व गुरु आदि के निमित्त पहले ही निकाल दिया जाता है।
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अग्रांश  : पुं० [सं० अग्र-अंश, कर्म० स०)=अग्रभाग।
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अग्राशन  : पुं० [सं० अग्र+अशन, क्रम० स०) देवता, ब्राह्यण को जीविका निर्वाह निकाला हुआ अन्न या भोजन का भाग।
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अग्रासन  : पुं० [सं० अग्र+आसन, क्रम० स०) सम्मान का आसन या स्थान।
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अग्राह्य  : वि० [सं० न० त०] (बात या वस्तु) जो ग्रहण या स्वीकृत किये जाने के योग्य न हो।
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अग्राह्य-व्यक्ति  : पुं० [कर्म० स०] किसी दूतावास का कोई ऐसा विदेशी जिसे उस देश का शासन ग्रहण या मान्य न करे, जिसमें वह आकर रहता है। (परसना नान-ग्रैटा)
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अग्रिम  : वि० [सं० अग्र+डिमच्] १. (धन) जो कोई देन या पारिश्रमिक निश्चित होने पर उसके मद्वे से पहले से बात पक्की करने के लिए दिया जाता है। पेशगी। (एडवान्स)। २. आगे चलकर या बाद में आनेवाला। ३. श्रेष्ठ। उत्तम। ४. सबसे बड़ा। ५. पहला। अगला।
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अग्रे  : क्रि० वि० [सं० अग्र का सप्तम्यन्त] १. आगे। पहले। सामने। २. आगे से। पहले से।
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अंग्रेज  : पुं० =अंगरेज।
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अँग्रेजी  : स्त्री०=अंगरेजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अग्र्य  : वि० [सं० अग्र+यत्] १. सबसे आगे रहने वाला। २. प्रधान। ३. उत्तम।
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अघ  : वि० [सं०√अघ् (पाप करना) +अच्] १. अपवित्र। २. दूषित। पुं० १. पाप। २. दुख। ३. व्यसन। ४. अघासुर।
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अघ-कृच्छू  : पुं० [मध्य० स०] दुष्कर्म के प्रायश्चित के लिए किया जाने वाला एक व्रत।
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अघ-मर्षण  : वि० [ष० त०] पाप नाशक (मंत्र)। पुं० १. एक मंत्र जो संध्योपासना के समय पापों से छुटकारा पाने के लिए पढ़ा जाता है। २. पापों के नाश के लिए छिड़का जाने वाला जल।
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अघट  : वि० [सं० अ=नेहीं०+घट्=होना] १. जो घटित न हो। न घटने या न होनेवाला। २. सदा एक सा रहने वाला। ३. कठिन। ४. बेमेल। ५. अयोग्य। वि० (हिं० अ० +घटना। (=कम करना) कम न होने वाला। जो घटे नहीं।
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अघटन  : पुं० [सं० +घट् (चेष्टा) +ल्युट्-अन्, न० त०) घटित होने की क्रिया या भाव। घटित न होना।
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अघटित  : वि० [सं० न० त०] जो घटना के रूप में न हुआ हो या न हो सकता हो। जो घटित न हुआ हो या न हो।
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अंघड़ा  : पुं० [सं० अंघ्रि] पैर के अँगूठे में पहनने का काँसे का छल्ला।
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अघध्न  : वि० [अघ√ हन् (हिसा) +क] अघ या पाप नष्ट करने वाला। पाप नाशक। पुं० विष्णु।
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अघन  : वि० [सं० न० त०] १. जो घना या ठोस न हो। २. जो गाढ़ा न हो। पतला।
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अघभोजी (जिन्)  : वि० [अघ्√भुज् (खाना) +णिनि] १. पाप कर्मों की कमाई खाने वाला। २. देवताओं पितरों आदि को बिना उत्कर्ष किये भोजन करने वाला।
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अघमर्षण-कृच्छ्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] दे० अघ-कृच्छू।
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अँघराई  : स्त्री० [देश] पशुओं पर लगने वाला एक प्रकार का कर।
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अघवाना  : स० [सं० आघ्राण=नाक तक] १. अघाते में प्रवृत्त करना। २. अघाने का काम किसी दूसरे से कराना।
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अँघस्  : पुं० [सं०√अँध् (गति आदि)+असुन्] १. पाप। २. अपराध।
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अघाट  : पुं० [देश०] १. वह घाट जो ठीक न हो। २. वह भूमि जिसे बेचने का अधिकार उसके स्वामी को न हो।
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अघाड़ा  : पुं० [?] एक प्रकार का विष नाशक पौधा।
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अघात  : पुं०=आघात। वि० [हिं० घाना] १. पेट भर। २. बहुत अधिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अघाती (तिन्)  : वि० [सं० घात+ इनि, न० त०] घात या प्रहार न करनेवाला।
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अघाना  : अ०[सं० आघ्राण=नाक तक] १. भर-पेट भोजन करना। छकना। मुहावरा—अघाकर=खूब जी भरकर। उदाहरण—रहिमन मूलहिं सींचिबो फूलहिं फलहिं अघाय-रहीम। २. संतुष्ट या तृप्त होना। इच्छा पूरी होना। ३. जी भरना। ऊबना। स० १. किसी को अघाने (पूरी तरह से तृप्ति या संतुष्ट होने में) प्रवृत करना। २. थकाना। (क्व०)।
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अघारि  : पुं० [सं० अघ-अरि, ष० त०] १. पाप का नाश करने वाला। २. अघ नामक दैत्य को मारने वाले, श्रीकृष्ण।
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अघाव  : पुं० [हिं० अघाना] १. अघाने (पूरी तरह से तृप्त या संतुष्ट होने) की क्रिया या भाव। पूर्ण तृप्ति। २. किसी बात से जी भर जाने और फलतः उससे जी ऊबने का भाव।
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अघासुर  : पुं० [सं० अघ-असुर, मध्य० स०] कंस के सेनापति का नाम। अघ नामक दैत्य।
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अघी (घिन्)  : नि० [सं० अघ+इनि) अघ अथवा पाप करनेवाला। पातकी।
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अघेरन  : पुं० (देश०) जौ का मोटा आटा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अघोर  : वि० [सं० न० त०] जो घोर या भयानक न हो। २. [न० ब०] घोर से भी बहुत अधिक और बुरा। अत्यन्त घोर। पुं० १. शिव का एक रूप। २. इस रूप का उपासक एक पंथ या संप्रदाय। दे० ‘अघोरपंथ'।
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अघोर-नाथ  : पुं० [ष० त०] शिव।
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अघोर-पंथ  : पुं० [सं० अघोरपथ] शिव का उपासक एक संप्रदाय जो मद्य-मांस आदि का भी सेवन करता है।
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अघोरपंथी  : पुं० [हिं० अघोर पंथ] अघोरपंथ का अनुयायी। औघड़।
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अघोरा  : स्त्री० [सं० अघोर+अच्, टाप्) भाद्रकृष्ण चतुर्दशी।
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अघोरी  : पुं० [सं० अघोर+हिं० ई (प्रत्य)] अघोर-पंथ का अनुयायी। औघड़। वि० घृणित वस्तुओं का सेवन करने वाला।
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अघोष  : वि० [सं० न० ब०] १. शब्दरहित। नीरव। २. जिसमें ध्वनि अल्प हो। ३. जहाँ अहिरों की बस्ती या अहीर न हो। पुं० (न० त०) व्याकरण का वर्ण-समूह जिसमें क ख च छ ट ठ त थ प फ श स और ष हैं।
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अघौघ  : पुं० [सं० अघ-ओघ, ष० त०) वह व्यक्ति जिसने अत्यधिक पाप किये हों।
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अघ्न्य  : पुं० [सं०√हन् (हिंसा] +यत् नि०न० त०) ब्रह्या।
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अघ्रान  : पुं० दे० 'आघ्राण'।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अघ्रानना  : स० [सं० आघ्राण) सूँघना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँघ्रि  : पुं० [सं०√अंघ्र+किन्] १. पाँव। पैर। २. पेड़ की जड़, मूल। ३. छंद का चरण।
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अचक  : वि० [सं० चक्र=समूह ढेर) १. अधिक से अधिक। २. बहुत अधिक। भरपूर। ३. जितना चाहिए उतना। पुं० [सं० चक्र=भ्रांत होना) आश्चर्य। विस्मय।
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अचकन  : पुं० [सं० खञ्चुक, प्रा०अंचुक) अंगे या अंगरखे की तरह का एक लंबा पहनावा।
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अचकाँ  : क्रि० वि० =अचानक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचकित  : वि० [सं० न० त०] जो चकित न हुआ हो।
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अचक्का  : पुं० (हिं० अ+√चक्) अचानक होने की स्थिति या भाव। मुहावरा— अचक्के में=औचक में। अचानक।
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अचक्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें चक्र न हो। चक्र रहित। २. जो हिले नहीं। फलतः स्थिर।
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अचक्षु (स्)  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे चक्षु या आँखें न हो। नेत्र रहित। २. अंधा।
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अचक्षुदर्शन  : पुं० [सं० अचक्षुर्दर्शन) चक्षुओं या नेत्रों से भिन्न परन्तु किसी और साधन या अन्य इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान।
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अचक्षुविषय  : वि० [सं० अचुक्षुर्विषय) १. (विषय) जो चक्षुओं के द्वारा गृहीत न हो। २. जो दिखाई न देता हो या न दे रहा हो। अदृश्य। पुं० ऐसा विषय जिसका ज्ञान चक्षुओं के न होता हो।
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अचगर  : वि० [सं० अत्याचार] [भाव० अचगरी] उत्पाती। नटखट।
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अचगरी  : स्त्री० [हिं० अचगरा] १. अचगर अर्थात् दुष्ट या पाजी होने की क्रिया या भाव। २. छेड़-छाड़। ३. दुष्टता। शरारत।
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अचंचल  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अचंचला, भाव० अचंचलता] जिसमें चचलता न हो। फलतः गंभीर, धीर, शांत या स्थिर। उदाहरण— भये विलोचन चारु अचंचल-तुलसी।
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अचछरा  : स्त्री०=अप्सरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचछरी  : स्त्री०=अप्सरा।
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अचंड  : वि० [सं० न० त०] जो उग्र या चंड न हो। फलतः शांत या सौम्य।
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अचतुर  : वि० [सं० न० त०] १. जो चतुर न हो। २. बुद्धू। मूर्ख। ३. सीधा या भला।
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अचना  : स० दे० ‘अचवना'।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचपल  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें चपलता या चंचलता न हो। फलतः जो गंभीर, धीर, शांत या स्थिर हो। २. कहना न मानने वाला ३. जिद्दी। हठी।
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अचपलता  : स्त्री० [सं० अचपल+तल्-टाप्) १. चंचल या चपल न होने की अवस्था या भाव। २. =चपलता।
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अचपली  : स्त्री० (हिं० अचपलता+ई)=अचपला।
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अचंभव  : पुं०=अचंभा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचंभा  : वि० [सं० स्कम्प, पा०चंभेति, गु० अचंबो, मरा० अचंबाहिं० अचंभव, अचंभो) (भू० कृ० अचंभित) अद्भुत। विलक्षण। (क्व०) पुं० १. आश्चर्य। अचरज। २. आश्चर्यजनक बात।
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अचंभित  : भू० कृ० [हिं० अचंभा] जिसे अचंभा हुआ हो। आश्चर्यचकित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचंभो  : पुं०=अचंभा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचंभौ  : पुं०=अचंभा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचभौन  : पुं०=अचंभा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचमन  : पुं०=आचमन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचयना  : स०=अचवना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचर  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अचरता] १. जो चर न हो। न चलने वाला। २. जो चल न सकता हो। पुं० वह जो न चलता हो या न चल सकता हो।
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अचरज  : पुं० [सं० आशचर्य, प्रा० अच्चरिय] १. किसी बात या वस्तु के अप्रत्याशित रूप से या सहसा होने पर मन में होने वाला कुतुहल-जनक भाव। आश्चर्य। २. चकित करने वाली कोई विलक्षण बात या वस्तु। वि० आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला। अनोखा। विलक्षण।
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अचरा  : स्त्री० [सं० अंचल] कपड़े का आँचल। दे० आँचल। मुहावरा— (किसी का) अचरा गहना=(किसी का) पल्ला पकड़ना। (दे०)
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अचरित  : भू० कृ० [सं०√चर् (गति)+क्त, न० त०) १. (क्षेत्र या भूमि) जिस पर कोई चला न हो। २. सदा अपने स्थान पर बना रहने वाला। अचर। अचल। ३. सदा बना रहने वाला। शाश्वत। जैसे—आत्मा या ब्रह्म। ४. जिसका आचरण या व्यवहार न किया गया हो। ५. जो खाया न गया हो।
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अंचल  : पुं० [सं०√अंञ्च (गति)+अलच्] १. सीमा के आस पास का प्रदेश। २. किसी क्षेत्र का कोई पार्श्व। ३. किसी चीज के सिरे पर पड़ने वाला भाग, सिरा। ४. दे० ‘आँचल’।
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अचल  : वि० [सं० न० त०][स्त्री० अचला] १. जो चल न सकता हो अथवा चलाया न जा सकता हो। २. जो अपने स्थान पर बना रहता हो, इधर-उधर न हटता हो० स्थावर। (इम्मूवेबुल) ३. सदा एक सा बना रहना वाला। ४. अटूट। दृढ़। जैसे—अचल संबंध। पुं० १. पर्वत। २. खूँटा। ३. सात की संख्या। ४. ब्रह्मा। ५. शिव। ६. आत्मा।
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अचल-कीला  : स्त्री० [सं० ब० स०] पृथ्वी।
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अचल-धृति  : स्त्री०[कर्म ०स०] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में पाँच नगण और अन्त में एक लघु होता है।
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अचल-पति  : पुं० [ष० त०] पर्वतों का राजा अर्थात् हिमालय।
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अचल-राज  : पुं० [ष० त०] पर्वतराज हिमालय।
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अचल-व्यूह  : पुं० [कर्म० स०] असंहत नामक सैनिक व्यूह का एक भेद।
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अचल-संपत्ति  : स्त्री० [क्रम० स०] वह संपत्ति जो अपने स्थान से हटाई-बढ़ाई या इधर-उधर न की जा सकती हो। (इम्मूवेबुल प्रापर्टी)
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अचल-सुता  : स्त्री० [ष० त०] पार्वती।
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अचलजा  : स्त्री० [सं० अचल=पर्वत√ जन् (उत्पत्ति) ड टाप्] पार्वती।
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अँचला  : पुं० [सं० अंचल] १. कमर में धोती के स्थान पर लपेटा जाने-वाला कपड़े का टुकड़ा। (साधु) २. दे० ‘आँचल’।
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अचला  : स्त्री० [सं० अचल+टाप्] पृथ्वी।
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अचला सप्तमी  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] माघ शुक्ला सप्तमी।
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अचलाधिक  : पु० [सं० अचला-अधिप, ष० त०] पर्वतों का राजा हिमालय।
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अंचलिक  : वि० [सं० अंचल+ठन्-इक्] अंचल-संबंधी। जैसे—अंचलिक उपन्यास।
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अचवन  : पुं० [सं० आचमन] १. आचमन २. भोजन के उपरान्त हाथ-मुँह धोना और कुल्ला करना।
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अँचवना  : अ० [सं० आचमन] १. आचमन करना। २. भोजन के बाद मुँह-हाथ धोना।
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अचवना  : पुं० [सं० आचमन] १. आचमन करना। पी जाना। उदाहरण—दावानल अचयो ब्रजराज—सूर। २. भोजन के उपरान्त हाथ-मुँह धोना और कुल्ला करना। ३. छोड़ना त्यागना या दूर हटना। ४. धोना। साफ करना। उदाहरण—रूप सरूप सिंगार सवाई। उप्सर कैसी रहि अचवाई।—जायसी।
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अँचवाना  : सं० अंचवाना का प्रे० रूप।
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अचवाना  : स० (हिं० ‘अचाना' का प्रे०) १. दूसरे का आचमन कराना। २. (भोजन किये हुए व्यक्ति का) हाथ-मुँह धुलाना तथा कुल्ला कराना।
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अचाक  : क्रि० वि० =अचानक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचाका  : क्रि० वि० =अचानक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अचाक्षुष  : वि० [सं० न० त०]१. जो चक्षुओं का विषय न हो। २. जो आँखों से देखा न जा सके।
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अचांचक  : क्रि० वि० =अचानक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अचातुर्य  : पुं० [सं ० न० त०] चतुर न होने की अवस्था या भाव।
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अचान  : क्रि० वि० =अचानक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचानक  : क्रि० वि० [सं० अज्ञानात्] १. बिना पूर्व सूचना के। २. एकाएक या एकबारगी। सहसा।
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अँचाना  : सं०=अँचवाना। अँ=अंचवना।
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अचापल  : वि० =अचपल।
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अचापल्य  : पुं० [सं० न० त०] चपल न होने की अवस्था या भाव।
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अचार  : पुं० (फा०) वह खट्टा और चटपटा व्यंजन जो किसी कच्ची तरकारी या कच्चे फलों को कई प्रकार के मसालों तथा तेल या सिरके में मिलाकर तैयार किया जाता है। कचूमर। अथाना। पुं० [सं० चार) चिरौंजी का पेड़। पुं०=आचार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचारज  : पुं०=आचार्य।
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अचारी  : वि० दे० ‘आचारी’। पुं० दे० आचारी। स्त्री० (फा० अचार) कच्चे तथा छिले हुए आम की फाँको का अचार जो धूप में रखकर तैयार किया जाता है।
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अचारू  : वि० [सं० न० त०] जो चारु या सुन्दर न हो। अर्थात् असुन्दर या कुरूप।
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अचालक  : वि० (स० न० त०) (पदार्थ) जिसमें विद्युत का संचार न हुआ हो। (नान कन्डक्टर) जैसे—रबर, सूखी लकड़ी आदि।
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अचालू  : वि० [हिं० अ+चालू] १ जो चालू या प्रचलित न हो। २. [मुद्रा या चल-पत्र] जो अब चलन में न हो। ३. जो चलता न हो अथवा बहुत कम या बहुत धीरे चलता हो। जैसे—अचालू जहाज।
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अचाह  : वि० [हिं० अ+चाहना] जिसे चाह न हो। न चाहनेवाला। स्त्री० इच्छा, कामना या चाह न होने का भाव।
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अचाहा  : वि० [हिं० अ+अचाह] [स्त्री० अचाही] १. (व्यक्ति, वस्तु या विषय) जिसे चाहा न गया हो। अनिच्छित। आवांच्छित। २. जिसके प्रति प्रेम, रुचि या लगन न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचाही  : वि० (हिं० अ +चाह) वह व्यक्ति जिसे किसी प्रकार की इच्छा या कामना न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अचिकित्स्य  : वि० [सं० न० त०] (रोग या रोगी) जो चिकित्सा करने पर भी किसी तरह अच्छा न हो सके। असाध्य। (इन्क्योरेबुल)
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अचिज्ज  : पुं०=आश्चर्य।
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अंचित  : भू० कृ [सं०√अञ्च्+क्त] १. जिसकी पूजा या अराधना की गयी हो। २. गया हुआ। ३. सिकोड़ा हुआ। ४. गूंथा हुआ। ५. सिला हुआ। ६. व्यवस्थित। ७. कुटिल। टेढ़ा। बंक। ८. घुँघराले बाल। ९. सुंदर।
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अचित्  : वि० [सं० न० ब०] चेतना रहित। अचेतन। जड़। पुं० (स०न० त०) रामानुजाचार्य के अनुसार तीन पदार्थों में से एक जो अचेतन या जड़ और दृश्य तथा भोग्य माना गया है।
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अचित्त  : वि० [सं० न० ब०] १. बिना सोच विचार के किया हुआ। २. जिसमें चेतना न हो अचेतन। ३. जिसे ज्ञान न हो। ज्ञान रहित।
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अचित्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] चित्ति अथवा ज्ञान का अभाव। अज्ञान।
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अचिंत्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका किसी प्रकार से चिंतन हो ही न सके। जो चिंतन का विषय न हो सकता हो। जैसे—ईश्वर का स्वरूप हमारे लिए अचिंत्य है। (इन्कन्सीवेबुल) २. जिसका अनुमान न लगाया जा सके। अकूत।
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अचित्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई चित्र या रूप न हो। २. जिसमें कोई चित्र न हो। चित्र रहित।
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अचिर  : वि० [सं० न० त०] (भाव० अचिरता) १. जो पुराना न हो। अर्थात् नया। २. हाल का ताजा। ३. जो तत्काल या तुरन्त होने को हो। ४. कुछ ही समय में होने वाला। अल्प। थोड़ा। (केवल समय के संबंध में प्रयुक्त) क्रि० वि० १. तुरन्त। २. शीघ्र। जल्दी।
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अचिर-द्युति  : स्त्री० [सं० ब० स०] बिजली।
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अचिर-प्रभा  : स्त्री० [सं० ब० स०] बिजली।
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अचिरात्  : क्रि० वि० [सं० अचिर√-अंत्(गति) +क्विप्) १. बिना विलंब किए हुए। तुरन्त। २. इसी समय। तत्काल।
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अचिराभा  : स्त्री० [सं० अचिर-आभा, ब० स०) बिजली।
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अचिरांशु  : पुं० [सं० अचिर-अंशु, ब० स०] बिजली।
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अचिरेण  : क्रि० वि० [सं० चिर्+एनप्, न० त०) १. बिना देर लगाए जल्दी। तुरंत। इसी समय तत्काल।
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अचीता  : वि० [सं० अचिंतित) १. जो पहले से सोचा या समझा न गया हो। २. जिसके संबंध में पहले से कोई कल्पना या अनुमान न किया गया हो। ३.चिन्तारहित। निश्चित। वि० =अचेत।
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अचीर  : वि० [सं० न० ब०] जिसके शरीर पर चीड़ या कपड़ा न हो। नंगा। वस्त्रहीन।
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अचूक  : वि० [सं० अच्युत) १. जिसमें कोई चूक, भूल या भ्रम न हो। २. जो बिना चूके अपना उद्देश्य सिद्ध करे या अपने लक्ष्य तक पहुँचे। क्रि० वि० १. बिना चूक या भूल किये। २. निश्चित रूप से।
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अचेत  : वि० [सं० अचेतस्) १. जिसकी चेतना शक्ति कुछ देर के लिए न रहे। चेतना रहित। मूर्छित। (अन्काँन्शस) २. जिसका होश हवाश ठिकाने न हो। उदाहरण—अबहूँ चेत अचेत, अब अधचरा बचाइ ले-तुलसी। ३. असावधान।
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अचेतन  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें चेतना या ज्ञान न हो। २. जिसमें जीवन या जीवनी शक्ति न हो। पुं० [सं० न० त०] १. जड़ पदार्थ। २. मनोविज्ञान में मन का वह नीचे दबा हुआ सुप्त-प्राय अंश जिसमें ऐसी धारणाएँ, भाव-विचार, संस्कार आदि पड़े-पड़े अपने कार्य करते रहते हैं, जिनका पूरा प्रत्यक्ष और स्पष्ठ भान मनुष्य को नहीं होता। (सबकाँन्शेन्स) विशेष— (क) वस्तुतः यह होता तो चेतन (मन) का बहुत बड़ा अंग या अंश ही है परन्तु लोक व्यवहार में चेतन का प्रयोग उसके उसी थोड़े से अंग या अंश के लिए होता है जिसका सब लोगों को सदा और सहज में अनुभव और परिज्ञान होता रहता है। शेष सारा अंश अचेतन ही कहलाता है। (ख) इसका प्रयोग प्रायः मन के पहले रूप में होता हैं।
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अचेतनक  : वि० [सं० अचेतन+क्विप्+ण्वुल्-अक) अचेत या बेहोश रहने वाला। (एनीस्थेटिक)
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अचेतना  : स्त्री० [सं० न० त०] चेतना न होने या न रहने की अवस्था या भाव।
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अचेतनीयकरण  : पुं० [सं० अचेतन√ कृ+च्वि+ल्युट्-अन) चिकित्सा में, औषधि से शरीर के किसी अंग या भाग को निश्चेष्ट या सुन्न करने की क्रिया या भाव। (एनीसथेस्सि)
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अचेता (तस्)  : वि० [सं० न० ब०] १. चेतना अथवा चित्त से रहित। अचेतन। २. जड़। ३. निर्जीव।
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अचेलपरीसह  : पुं० [सं० अचैलपरिसह] शास्त्रों में बतलाए हुए वस्त्र पहनने अथवा उनके दोषों पर ध्यान न देना। (जैन और बौद्ध)
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अचेष्ट  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें किसी प्रकार की चेष्ठा या गति न हो। चेष्ठा से रहित या हीन। २. संज्ञा से रहित। बेहोश। ३. जिसमें कोई चेष्ठा या क्रिया न की जाए।
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अचेष्टित  : वि० [सं० न० त०] (कार्य) जिसके लिए चेष्ठा या प्रत्यन न किया गया हो।
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अचैतन्य  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें चेतना शक्ति न हो। २. जड़। ३. बेहोश या मूर्छित। पुं० [सं० न० त०] १. चेतना का अभाव। २. बेहोशी। ३. जड़ पदार्थ।
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अचैन  : वि० [हिं० अ+चैन] जिसे चैन या शान्ति न मिल रही हो। व्यकुल। बेचैन। पुं० बेचैन, विकल या व्याकुल हानि की अवस्था या भाव।
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अचैना  : पुं० [?] १. जमीन में गाड़ा हुआ लकड़ी का वह कुन्दा जिस पर चारा काटा जाता है। २. लकड़ी का वह कुन्दा जिस पर बढ़ई लकड़ियाँ गढ़ते व छीलते है।
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अचोन  : स०=अचवना।
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अचोना  : पुं० [सं० आचमन]=आचमन का पात्र।
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अच्छ  : वि० [सं०√छो (काटना) +क, न० त०) १. अच्छा। निर्मल। २. स्वच्छ। स्त्री० [सं० अक्षि) आँख। नेत्र। पुं० १. दे० अक्ष। २. स्वच्छ जल। ३. शिव का नेत्र विशेषतः तीसरा नेत्र। ४. रावण का पुत्र, अक्षय कुमार।
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अच्छत  : वि० , पुं०=अक्षत। क्रि० वि० निरंतर। लगातार।
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अच्छय  : वि० =अक्षय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अच्छर  : वि० , पुं०=अक्षर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अच्छरि  : स्त्री० [सं० अप्सरा) अप्सरा।
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अच्छरिअ (य)  : पुं० [सं० आश्चर्य) आश्चर्य।
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अच्छा  : वि० [सं० अच्छ=स्वच्छ] [स्त्री० अच्छी, भाव, अच्छाई। अच्छापन] १. जो अपने वर्ग में उपकारिता, उपयोगिता, गुणपूर्णता आदि के विचार से औरों से बढ़कर और फलतः प्रशंसा या स्तुति के योग्य हो। जैसे—अच्छा आचरण, अच्छा उपदेश, अच्छा लड़का, अच्छा स्वभाव आदि। मुहावरा—अच्छा लगना=भला या सुन्दर लगना। पद—अच्छा खासा=(क) बहुत अधिक। (ख) बढ़ा-चढ़ा। २. आकार, रचना, प्रकार रूप आदि के विचार से देखने योग्य या सुन्दर। जैसे—अच्छा कपड़ा, अच्छा चित्र, अच्छा मकान। ३. प्रामाणिकता स्थिति आदि के विचार से जो किसी मानक के अनुरूप या प्रसम स्तर पर हो। जिसमें कोई खोट या मेल न हो। खरा। जैसे—अच्छा दूध, अच्छा सोना। ४. प्रसन्न और संतुष्ठ करने वाला। प्रिय या संतोषजनक। जैसे—अच्छी खबर, अच्छा खेल, अच्छा दृश्य आदि। ५. कल्याण या मंगल करनेवाला। शुभ। जैसे— अच्छा लग्न, अच्छा दिन, अच्छा मुहूर्त आदि। ६. लाभदायक या श्रेयस्कर। जैसे—(क) अच्छा हो कि आप भी चलें। (ख) कोई अच्छी नौकरी मिल जाए तो इसे छोड़ दें। ७. जैसा होना चाहिए ठीक वैसा। ८. परिस्थितियों आदि के विचार से उपयुक्त। फबनेवाला। जैसे—इस रंग की साड़ी पर काली गोट अच्छी रहेगी। ९. त्रुटि, दोष आदि से रहित। जैसे—अच्छा स्वास्थ्य या अच्छी तरकारी। १. रोग-रहित। नीरोग। जैसे—रोगी का अच्छा होना। मुहावरा—(रोगी को) अच्छा करना=तंदुस्त या नीरोग करना। ११. जो उच्चकोटि का या उत्तम न होने पर भी सन्तोषदनक हो। जैसे—अच्छी फसल। अच्छी पुस्तक। क्रि० वि० १. भली भाँति। उत्तम प्रकार से। २. ठीक या उपयुक्त अवसर पर। मुहावरा—अच्छे आना=(क) ठीक या उपयुक्त अवसर पर आना। (ख) ठीक प्रकार से बोना या बनना। ३. यदि यहीं बात है तो। जैसे—अच्छा, हम भी उनसे समझ लेगे। अव्य, आश्चर्य, उपेक्षा स्वीकृति आदि का सूचक अव्यय। जैसे—(क) अच्छा ! वह भी चले गये। (ख) अच्छा ! जाने दो। और (ग) अच्छा ! ऐसा ही सही।
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अच्छा-बिच्छा  : वि० [हिं० अच्छा] १. अच्छा समझ कर चुना या छाँटा हुआ। २. उत्तम। श्रेष्ठ। ३. चंगा। स्वस्थ।
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अच्छाई  : स्त्री० [हिं० अच्छा] १. अच्छे होने की अवस्था या भाव। अच्छापन। २. विशेषता। खूबी। ३. सुन्दरता। ४. लाभ। फायदा।
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अच्छापन  : पुं० [हिं० अच्छा+पन (प्रत्यय)] अच्छे होने की अवस्था या भाव। अच्छाई। श्रेष्टता।
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अच्छावाक  : पुं० [सं० अच्छ √वच् (बोलना)+घञ् नि० दीर्घ] सोम यज्ञ में होता का सहायक ऋत्विक्।
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अच्छि  : स्त्री० [सं० अक्षि) आँख। उदाहरण—अच्छिनि उधार ऊधौ करहु प्रतच्छ लच्छ इति पसु पच्छिनि हूँ लाग है लगन मैं—रत्नाकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अच्छिद्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें छेद या छिद्र न हो। २. जिसमें त्रुटि, दोष आदि न हों। निर्दोष। ३. जो भग्न न हो। अखंडित। पुं० १. ऐसा कार्य जिसमें कोई त्रुटि या दोष न हो। २. एक-सी बनी रहने की दशा या स्थिति।
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अच्छिन  : अव्य० [सं० अस्मिन्वने श्रणे) १ शीघ्रता पूर्वक। २. अभी। उदाहरण—दरस हेत तिय लिखति पीय सियरावहु अच्छिन-सेनापति।
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अच्छिन्न  : वि० [सं० न० त०] १. जो छिन्न (काटा, तोड़ा, फोड़ा) न गया हो। २. जिसे विभक्त न किया गया हो। ३. जिसके टुकड़े न किये जा सकते हो। अवियोज्य। (इनसेप, रेबल) ४. जो किसी एक ठीक या निश्चित क्रम से चलें। ५. अटूट।
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अच्छिन्न-पत्र  : पुं० [सं० न० ब०] १. वह वृक्ष जिसकी पत्तियाँ किसी ऋतु में झड़ती न हों। सदा बहार पेड़। २. ऐसे पक्षी जिनके पर कटे न हों या काटे न गये हों।
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अच्छिन्नपर्ण  : पुं०=अच्छिन्न-पत्र।
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अच्छिय  : वि० =अच्छा।
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अच्छिर  : पुं० [सं० अक्षर) १. अक्षर। २. निमन्त्रण पत्र। उदाहरण—वंचि विचारिए दाहिमा निमित्त अच्छिर नूत-चन्द्रवरदाई।
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अच्छुप्ता  : स्त्री० [सं० अक्षुप्ता) १. सोलह जैन देवियों में से एक। २. निष्पाप या शुद्ध आचरणवाली स्त्री०।
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अच्छे  : क्रि० वि० [हिं० अच्छा] १. अच्छी या ठीक तरह से। २. उपयुक्त या ठीक समय अथवा अवसर पर। जैसे—आप अच्छे आये, आप से भी सलाह ले लो। अव्य० एक अव्यय जिसका प्रयोग आश्चर्य, उपेक्षा आदि सूचित करने के लिए होता है। जैसे—आप भी अच्छे मिले जो पुस्तक ही हड़प गये। पुं० १. बड़े आदमी। श्रेष्ठ पुरुष। २. किसी के संबंध के विचार से श्रेष्ठ व्यक्ति या गुरुजन। जैसे—तुम्हारी क्या गिनती है। मैं तो तुम्हारें अच्छों से रुपये वसूल कर लूँगा।
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अच्छेदिक  : वि० [सं० छेद√ठन्+इक, न० त०)=अच्छेद्य।
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अच्छेद्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे छेदा या भेदा न जा सके। २. जो छेदे या भेदें जाने के उपयुक्त या योग्य न हो।
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अच्छोत  : वि०=अक्षत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अच्छोद  : वि० [सं० अच्छ-उदक, ब० स०) स्वच्छ या निर्मल जल वाला। पुं० हिमालय में कैसाल के पास का एक सरोवर। (कादंबरी)
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अच्छोदा  : स्त्री० [सं० अच्छोद+अच्-टाप्) एक नदी जो अच्छोद सरोवर से निकली हुई मानी जाती है।
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अच्छोहिनी  : स्त्री०=अक्षौहिणी।
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अच्युत  : वि० [सं० न० त०] १. अपने स्थान या स्थिति से न गिरने या हटने वाला। अटल। २. जिसका नाश न हो। शाश्वत। ३. जिसने भूल या त्रुटि न की हो। जो पथ भ्रष्ठ न हुआ हो। पुं० विष्णु और उनके अवतारों का नाम। २. जैनियों के एक देवता।
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अच्युत कुल  : पुं० [ष० त०] वैष्णवों का एक संप्रदाय।
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अच्युत- पुत्र  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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अच्युत-गोत्र  : पुं०=अच्युत कुल।
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अच्युत-मध्यम  : पुं० (कर्म० स०) संगीत में मध्यम स्वर का एक विकृत रूप।
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अच्युत-मूर्ति  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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अच्युत-वास  : पुं० [ब० स०] १. वट वृक्ष। १२. अश्वत्थ वृक्ष।
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अच्युत-षड्ज  : पुं० (कर्म० स०) संगीत में षड्ज स्वर का एक विकृत रूप।
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अच्युतज  : पुं० (अच्युत√ जन् (उत्पन्न होना) +ड) जैम देवताओं का एक वर्ग।
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अच्युतांगज  : पुं० (अच्युत-अंगज, ष०त०) कामदेव।
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अच्युतात्मज  : पुं० (अच्युत-आत्मज, ष० त०) कामदेव।
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अच्युतानंद  : वि० (अच्युत-आनंद, ब० स०) जो सदा आनंदित या प्रसन्न रहें। पुं० आनंद स्वरूप परमात्मा।
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अच्युतावास  : पुं० [सं० अच्युत-आवास, ब० स०)=अच्युतवास।
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अंछ  : स्त्री० [सं० अक्षि]=आँख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अछक  : वि० (हिं० अ+छकना=तृप्त होना) १. जिसने भर पेट भोजन न किया हो। भूखा। २. जो तृप्त न हुआ हो। अतृप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अछकना  : अ० [हिं० अछक] तृप्त या संतुष्ट न होना। अभाव-ग्रस्त रहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अछग  : वि० =अछक।
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अछत  : वि० [हिं० अ+छत (छतना) =होना] जो उपस्थित या वर्तमान न हो। उदाहरण—गनती गनबै तैं रहे, छत हू अछत समान-बिहारी। क्रि० वि० (हिं० अछना का कृदंत रूप) उपस्थित या विद्यमान रहते हुए। (किसी के) रहते या होते हुए। उदाहरण—तोर अछत दसकंधर मोर कि अस गात होइ—तुलसी।
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अछताना  : अ० हिं० पछताना का अनु०। जैसे—अछता-पछता कर चले आये।
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अछन  : पुं० [सं० अ√क्षण) बहुत दिन। दीर्घकाल। क्रि० वि० १. धीरे-धीरे। २. रुक रुक कर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अछना  : अ० [सं० अस्, प्रा० अच्छ=होना) उपस्थित या वर्तमान होना। मौजूद रहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अछप  : वि० (हिं० अ+छिपना) १. जो छिप न सके। २. प्रकट। स्पष्ट।
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अछभी  : पुं०=अचंभा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अछय  : वि० =अक्षय।
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अछयकुमार  : पुं०=अक्षयकुमार।
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अंछर  : पुं० [सं० अक्षर] १. अक्षर। २. टोना-टोटका या मंत्र। मुहावरा—अंछर पढ़कर मारना—जादू टोना करना। पुं० एक रोग जिससे मुँह में काँटे निकल आते हैं।
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अछरा  : स्त्री०=अप्सरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अछरी  : स्त्री०=अप्सरा। स्त्री०=अक्षरी।
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अछरौटी  : स्त्री० दे० ‘अखरौटी'।
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अछल  : वि० [सं० अच्छल] १. जिसमें छल-कपट न हो। सीधा और सरल। २. भला। सुशील।
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अछवाई  : स्त्री०=अच्छापन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अछवाना  : स० [सं० अच्छ=साफ] १. साफ या स्वच्छ करना। २. सँवारना या सजाना। स० १. किसी से साफ या स्वच्छ कराना। २. सँवारने तथा सजाने का काम किसी से कराना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अछवानी  : स्त्री० (हिं० अछवाना या अजवायन) प्रसूता स्त्रियों को पिलाने के लिए तैयार किया हुआ एक प्रकार का शक्तिवर्धक तरलपदार्थ जिसमें अजवाइन, सोंठ आदि मसाले पड़े रहते हैं।
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अछाम  : वि० [सं० अक्षाम्) जो दुबला-पतला या क्षीण-काय न हो। फलतः मोटा या स्थूल। काय।
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अछिद्र  : वि० =अच्छिद्र
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अछियार  : वि० [हिं० अच्छा+इयार (प्रत्यय)] १. जो देखने में अच्छा भला या प्रिय लगे। २. अच्छे रंग-रूपवाला। पुं० गजी या गाढ़े की तरह एक प्रकार का मोटा कपड़ा। जिसमें प्रायः लाल रंग का किनारा होता था।
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अछूत  : वि० [हिं० अ+छूत (छूना)] १. जो छुआ न जा सके। २. जो छुए जाने के योग्य न माना जाता हो। जिसे स्पर्श करना वर्जित हो। ३. दे० ‘अछूता'। पुं० कोई ऐसी जाति (अथवा उस जाति का व्यक्ति) जिसे धार्मिक या सामाजिक मर्यादा के विचार से छूना या उससे संपर्क रखना निषिद्द या वर्जित हो। (अन्-टचेबुल)
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अछूता  : वि० [सं० अ+छुप्त=छुपा हुआ] १. जिसे अभी तक छुआ न गया हो। २. जिसका अभी तक कोई उपयोग न हुआ हो। काम में न लाया हुआ। ३. जिसके संबंध में अभी तक विचार न किया गया हो। जैसे—अछूताविषय। ४. पवित्र। शुद्ध।
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अछूतोद्वार  : पुं० [हिं० अछूत+सं० उद्धार] अछूतों या अस्पृश्य जातियों के उद्धार का काम, प्रयत्न या भाव।
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अछेद  : वि० [सं० अच्छेद्य) १. जिसमें छेद न हो। २. जिसमें त्रुटि दोष या भूल न हो। ३. दे० अछेद्य।
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अछेद्य  : वि० [सं० अच्छेद्य) १. जो छेदा या भेदा न जा सके। २. जो तोड़ा या खंडित न किया जा सके। अखंडनीय।
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अछेरा  : पुं० [सं० आश्चर्य) १. आश्चर्य (राज०) उदाहरण—ग्रहियों म्है चीतोड़ गढ़ किसूँ अछेरा कत्थ।—बाँकीदास।
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अछेव  : वि० [सं० अच्छेद्य वा अछिद्र) १. (वस्तु) जिसमें छिद्र या त्रुटि न हो। २. (व्यक्ति) जिसने दोष या अपराध न किया हो।
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अछेह  : वि० [सं० अछेय) बहुत अधिक अत्यंत। क्रि० वि० बिना किसी रुकावट या बाधा के। निरंतर उदाहरण—आठौं याम अछेह दृग जु बरत बरषत रहत—बिहारी।
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अछोप  : वि० [सं० अ+छुप्) १. जो ढाका न गया हो। २. आच्छादन रहित। ३. दीन। ४. नंगा। ५. निर्लज्ज।
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अछोभ  : वि० , पुं०=अक्षोभ।
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अछोर  : वि० (हिं० अ० +छोर=किनारा) १. जिसका किनारा छोर या सिरा न हो। असीम। २. अत्यधिक। बहुत अधिक। ३. बहुत लंबा चौड़ा और विस्तृत।
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अछोह  : वि० (हिं० अ+छोह=प्रेम) १. जिसमें छोह (प्रेम या ममता) न हो। २. निर्दय। निष्ठुर। पुं० १. छोह (प्रेम या ममता) का अभाव। २. उदासीनता। अद्दोही वि०=अछोह।
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अंछ्या  : पुं० [सं० वाञ्छा] १. लोभ। लालच। २. कामना, लालसा, वासना।
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अंज  : पुं० [सं०√अंबुज या अब्ज] कमल।
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अज  : वि० [सं०√जन्+ड, न० त०) १. जो जन्मा न हो। २. जिसका अस्तित्व आदि काल से बना हो। अनादि। पुं० १. वह जिसका अस्तित्व आदि काल से बना हो। जैसे—ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कामदेव आदि। २. राजा दशरथ के पिता का नाम। ३. भेड़। ४. बकरा। ५. माया। ६. चंद्रमा। ७. मेघ राशि। ८. एक प्रकार का धान्य। ९. अग्नि या सूर्य का रथ। १. नक्षत्र बोथी जिसमें तीन नक्षत्र होते है। (ज्यों) क्रि० वि० [सं० अद्य, प्रा० अज्ज) १. इस समय। अब। २. अभी तक। अज=प्रत्यय (फा० से (विभक्ति) जैसे—अज-खुद=आप से आप। स्वतः।
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अज-कर्ण  : पुं० [ब० स०] असन नामक वृक्ष।
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अज-गंधा  : स्त्री० [ब० स०] अजमोदा।
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अज-देवता  : पुं० [सं० ष० त०) १. पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र। २. अग्नि।
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अज-पति  : पुं० [सं० ष० त०] मंगल ग्रह का एक नाम।
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अज-मीढ़  : पुं० [सं० अजो मीढ़ो यज्ञे सिक्तः यत्र, ब० स०] १. अजमेर का प्राचीन नाम। २. पुरुवंशीय हरित का बड़ा पुत्र। युधिष्ठिर।
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अज-मुख  : वि० [सं० ब० स०] जिसका मुँह बकरे या बकरे जैसा हो। पुं० दक्ष प्रजापति का एक नाम।
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अज-मोदा  : स्त्री० [सं० ब० स०] अजमोद नामक पौधा या उसका बीज।
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अज-लोमा  : स्त्री० [सं० ब० स०] केवांच। कौंछ।
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अज-वल्ली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०) मेढ़ासिंगी नामक ओषधि।
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अज-वाह  : पुं० [सं० ब० स०) कच्छ-काठियावाड़ का पुराना नाम।
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अज-वीथी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०) आकाश का वह छायापथ जिसमें हमारा सौर जगत् है।
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अज-श्रंगी  : स्त्री० [सं० ब० स०) मेढ़ासिंगी नामक पौधा।
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अजक  : पुं० [सं० अज+कन्) राजा पुरुरवा का एक वंशज।
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अजकर्णक  : पुं० [सं० अजकर्ण √कै (शब्द)+क्) १. आँख का एक रोग। फूलो (देखें)। २. साल वृक्ष।
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अजका  : स्त्री० [सं० अजक+टाप्) १. कम उमर की बकरी। २. अजागलस्तन। ३. आँख का एक रोग। फूली (देखें)। वि० (हिं० अ+फा० जक=पराजय) उद्धत। उद्दंड। उदाहरण—देख सहेली नो धणी, अजको बाग उठाया—कविराज सूर्यमल।
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अजकाव  : पुं० [सं० अजका+ वा (गति) +क) १. शिव का धनुष। २. बबूल का पेड़। ३. एक प्रकार का यज्ञपात्र। ४. फूली नामक नेत्र रोग।
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अजग  : पुं० [सं० अज√ गम् (जाना) +ड) १. शिव का धनुष। २. विष्णु। ३. अग्नि का रथ। ४. सूर्य की किरण।
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अजग़बी  : वि० (फा० +अ०) १. आकाश से अथवा आकस्मिक रूप से आने या होने वाला। २. दैवी। ३. आकस्मिक।
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अजंगम  : पुं० [सं० न० त०] छप्पय नामक मात्रिक छंद का एक भेद।
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अजगर  : पुं० [सं० अज=बकरी√गृ (निकलना) +अच्) एक प्रकार का बहुत मोटा और भारी साँप जो भेड़ बकरियों तक को निगल जाता है। (इसकी अनेक जातियाँ होती हैं।)
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अजगरी  : वि० [सं० अजगरीय) अजगर-संबंधी। जैसे—अजगरी वृत्ति। स्त्री० अजगर की सी वृत्ति, जिसमें कोई काम-धंधा किये बिना आदमी चुपचाप खाता रहता है।
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अजगव  : पुं० [सं० अजग+व) शिव का धनुष। पिनाक।
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अजगुत  : वि० [सं० अयुक्त) १. जो युक्तिसंगत न हो। बेमेल। २. अद्भुत। विलक्षण। ३. अनुपम। बेजोड़।
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अजगुतहाया  : वि० (हिं० अजगुत+हाया (प्रत्यय) (स्त्री० अजगुतहायी) आश्चर्यजनक और अनोखा। विचित्र। विलक्षण।
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अजगूता  : वि० दे० ‘अजगुत'।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजगैब  : क्रि० वि० (फा० अज (=से) +अ०गैब=परोक्ष, आकाश) १. अलक्षित या परोक्ष स्थान से। २. आकाश से। ३. दैव की ओर से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजटा  : स्त्री० [सं० न० ब०] भूम्या आमलकी। भुँइ आँवला। (पौधा)
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अजड़  : वि० [सं० न० त०] जो जड़ न हो अर्थात् चेतन।
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अजदहा  : पुं० (फा०) अजगर नाम का मोटा और बड़ा साँप।
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अंजन  : पुं० [सं०√अञ्च् (आँजना)+ल्युट-अन्] १. आँखों में लगाने का काजल या सुरमा। २. काजल या सुरमा लगाने की क्रिया या भाव। ३. हलके नीले रंग का एक प्रसिद्ध खनिज पदार्थ जिससे सुरमा बनता है। (एण्टिमनी) ४. स्याही। ५. रात। ६. पश्चिम दिशा के दिग्गज का नाम। ७. व्यंजना वृत्ति। ८. बगले की एक जाति। ९. नीलगिरि पर्वत का एक नाम। १॰. दीपक, दीया। ११. वह कार्य या बात जो कोई दूसरी बात बतलाने या समझाने में सहायक हो। १२. दे० सिद्धांजन। वि० काला या सुरमई रंग का। पुं० (अं इंजन) इंजन।
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अजन  : वि० [ब० स०] १. जनहीन। निर्जन (स्थान)। २. देय ‘अजन्मा'। पुं० (न० त०) १. वह जो अच्छा आदमी न हो। बुरा या नीच आदमी। २. ब्रह्मा।
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अंजन केश  : पुं० [ष० त०] दीया। चिराग। पुं० [ब० सं० ] अंजन के समान वाले बालवाला व्यक्ति।
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अंजन-केशी  : स्त्री०- [सं० अंजनकेश+डीप्] १. नख नामक सुगन्धित द्रव्य। २. अंजन के समान काले बालोंवाली स्त्री०।
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अंजन-गिरि  : पुं० [मध्य० त०] नीलगिरि पर्वत का एक नाम।
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अंजन-शलाका  : स्त्री० [ष० त०] अंजन या सुरमा लगाने की सलाई, सुरमचू।
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अंजन-सार  : वि० [सं० अञ्जनसारण] (आँखे) जिनमें अंजन या सुरमा लगा हो। उदा—एक तो नैना मद भरे, दूजे अंजनसार।
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अजनबी  : वि० (फा०) (ऐसा नया आदमी) जो स्थान आदि से परिचित न हो। अथवा जिससे लोग परिचित न हो।
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अंजनहारी  : स्त्री० [सं० अञ्जनहार] १. बिलनी नाम का आँख का रोग। २. एक प्रकार का कीड़ा जिसे बिलनी या भृंगी भी कहते हैं।
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अंजना  : स्त्री० [सं० अंजन-टाप्] १. हनुमान की माता का नाम। २. आँख की पलक पर होने वाली फुँसी, बिलनी। ३. स्त्री० जिसने अंजन या सुरमा लगाया हो। ४. छिपकली। ५. व्यंजना वृत्ति। पुं० पहाड़ी प्रदेश में उपजने वाला एक प्रकार का मोटा धान। सं० =अंजन लगाना। आँजना। उदा—यथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान—तुलसी।
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अंजना नन्दन  : पुं० [ष० त०] अंजना के पुत्र, हनुमान।
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अंजनाद्रि  : पुं० [अंजन-आदि, मध्य० सं० ] पुराणानुसार पश्चिम दिशा का एक पर्वत।
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अंजनावती  : स्त्री० [अंजन+मतुप्, वत्व, दीर्घ-डीप्] १. उत्तर-पूर्व दिशा के दिग्गज सुप्रतीक की स्त्री० का नाम। २. कालांजन नाम का वृक्ष।
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अंजनिका  : स्त्री० [सं० अंजन+ठन्-इक-टाप्] १. एक प्रकार की छिपकली। २. चुहिया। ३. दे० ‘अंजनावती’।
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अंजनी  : स्त्री० [सं०√अंजू (आँजना, गति आदि)+ल्युट्-अन्-डीप्] १. हनुमान की माता अंजना। विशेष—इस शब्द के साथ पुत्र वाचक शब्द लगने पर उसका अर्थ हनुमान हो जाता है। जैसे—अंजनी-नंदन। २. माथा। ३. आँख पर की फुंसी, बिलनी। ४. कुटकी नामक औषधि। ५. कालांजन का वृक्ष। ६. स्त्री०, आँखों में अंजन लगाया हो या शरीर में चन्दन आदि का लेप किया हो।
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अजन्म  : वि० [सं० न० त०] १. जो उत्पादन के योग्य न हो। २. जो मानवता के लिए अहितकर या अशुभ हो।
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अजन्मा (न्मन्)  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका जन्म न हुआ हो। जिसने जन्म न लिया हो। २. बिना जन्म लिए ही जो अस्तित्व में आया हो। ३. जो जन्म के बंधन से मुक्त हो चुका हो। ४. जारज। दोगला।
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अजन्य  : वि० दे० ‘अजन्मा'।
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अजप  : पुं० [सं० जप् (जपना) +अच्, न० त०) १. शास्त्र द्वारा प्रतिपादित रीति से न पढ़ने वाला। २. शास्त्र या धर्म विरोधी ग्रंथों का पाठ करने वाला। वि० (न० ब०) जो जपा न जाए। दे० ‘अजपा'।
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अजपह  : पुं० [सं० अदपा] मन ही मन सोचना। उदाहरण—षिन तलपह अजपह मन कीनों-चन्द्रवरदाई।
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अजपा  : वि० [सं० अ+हिं० जपना] १. जिसका जप न किया गया हो अथवा न किया जाए। २. जप न करनेवाला। पुं० [सं० √जप्+अच्, टाप्, न० त०) मंत्र जपने का वह प्रकार जिसमें मन ही मन जप किया जाता है, मुँह से उच्चारण नहीं किया जाता।
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अजपाल  : पुं० [सं० अज√पाल्+अण्] १. बकरा पालने वाला। गड़ेरिया। २. दशरथ के पिता का नाम।
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अजब  : वि० [अ०] अनोखा। विचित्र। विलक्षण।
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अंजबार  : पुं० [फा०] ओषधि के काम में आने वाला एक प्रकार का पौधा।
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अजंभ  : वि० [सं० न० ब०] १. (बच्चा) जिसके दाँत न निकले हो। २. (व्यक्ति) जिसके दाँत न रह गये हो। दंत रहित। पुं० १. बच्चे की वह अवस्था जिसमें दांत अभी नहीं निकले होते। २. सूर्य। ३. मेढ़क।
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अजम  : पुं० [अ० अज्म] १. अरब के आस पास के ईरान, तूरान आदि देशों का पुराना नाम। २. अरब जाति से भिन्न व्यक्ति।
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अज़माइश  : स्त्री०=आजमाइश।
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अजमाना  : पुं०=आज़माना।
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अजमी  : वि० (हिं० अजम (देश) अजम देश का। पुं० अजम का रहने वाला। ईरानी या तूफानी। स्त्री० अज्म या अजम देश की भाषा।
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अजमूदा  : वि० दे० ‘अजमोद'।
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अजमोद  : स्त्री० [सं० अजमोदा] अजवाइन की तरह का एक पौधा जिसके बीज मसाले के काम आते हैं।
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अजय  : पुं० [सं० न० त०] जय का विरोधी भाव या विपर्याय। पराजय। हार। वि० [सं० न० ब०] जिसे जीत न सकें। अजेय। पुं० १. विष्णु। २. अग्नि। ३. छप्पय नामक छंद का एक भाग।
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अजयपाल  : पुं० [सं० अय√ पाल् (रक्षा करना) +अणु, न० त०] १. जमाल-गोटा। २. संगीत में एक राग जो भैरव राग का पुत्र माना गया है।
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अजया  : स्त्री० [सं० न० ब०] १. भाँग। २. माया। ३. दुर्गा की एक सहचरी। स्त्री०=अजा (बकरी)।
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अजय्य  : वि० [सं०√जि (जीतना)+यत्, न० त०]=अजेय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंजर  : वि० [सं० उज्ज्वल] सफेद और स्वच्छ। उज्ज्वल।
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अजर  : वि० [सं० न० ब०] जिसे जरा या बुढ़ापा न आवे। सदा एक सा बना रहने वाला। पुं० १. परब्रह्वा। २. देवता। वि० [सं० अ=नहीं+जृ=पचना) जो पचाया न जा सके।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंजर-पंजर  : पुं० [सं० पंजर का अनु० अंजर+सं० पंजर] १. शरीर की ठठरी और उसके अंग या जोड़। मुहावरा—अंजर-पंजर ढीले होना=झटके, श्रम आदि के कारण सब अंगों और जोड़ों का हिलकर शिथिल हो जाना। २. किसी चीज का ढाँचा।
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अजरा  : स्त्री० [सं० न० ब०, टाप्] १. घृतकुमारी। घीकुआँर। (पौधा) २. विधारा। (पौधा) ३. छिपकली।
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अजरायल  : वि० [सं० अजर] १. जो कभी जीर्ण या पुराना न हो। २. सदा एक-सा रहने वाला। चिरस्थायी। ३. दृढ़। पक्का। ४.बलवान। शक्तिशाली। वि० [सं० अ (=नहीं) +दर=डर) निर्भय। निःशंक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजराल  : वि० [सं० अ=नहीं+जू=पुराना पड़ना] बलवान। शक्तिशाली। (डिं०)
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अजरावन  : वि० [सं० अजर+हिं० आवन (प्रत्यय) अजर करने या सदा एक-सा बनाये रखनेवाला। स्त्री० अजर होने की अवस्था या भाव। (पूरब)
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अजरावर  : वि० [सं० अजर+अमर) १. जिसका नाश न हो। नष्ट न होनेवाला। २. दृढ़ या पक्का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंजरि  : स्त्री०=अंजलि।
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अजर्य  : वि० [सं०√जृ (वयोहानि) +यत्, न० त०)=अजर।
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अंजल  : पुं० [अन्न+जल]=अन्न जल (दाना पानी)। स्त्री०=अंजलि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजल  : वि० [सं० न० ब०] १. (पदार्थ) जिसकी रचना में जल का तत्त्व या जलीय अंश न हो। (एनहाइड्रस) जैसे—नमक या किसी चीज का रवा। २. जल रहित। निर्जल। क्रि० वि० बिना जल के। निर्जल।
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अजल  : स्त्री० [अ०] मृत्यु। मौत।
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अंजलि  : स्त्री० [सं०√अंज्+अलि; प्रा० गुज० अंजली; मरा० ओंजल] १. हथेली का वह रूप जो उँगलियों को कुछ ऊपर उठाने से बनता है। २. दोनों हथेलियों को उक्त रूप में एक साथ मिलाने से बनने वाला गड्ढा, जिसमें कुछ भरकर लिया या दिया जाता है।
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अंजलि-गत  : भू० कृ० [द्वि० त०] १. अंजलि में आया हुआ या रखा हुआ। २. प्राप्त या हस्तगत किया हुआ।
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अंजलि-पुट  : पुं० [(ष० त०] दे० ‘अंजलि २'।
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अंजलि-बद्ध  : वि० [ब० स०] जो हाथ जोड़े हुए हो करबद्ध।
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अंजली  : स्त्री० [सं० अंजलि-डीष्]=अंजलि।
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अजवाइन  : स्त्री०=अजवायन।
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अँजवाना  : सं० ‘आँजना' का प्रे० रूप। आँख में काजल या सुरमा लगवाना।
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अजवायन  : स्त्री० [सं० यवानी, ब०यमानी, पं० अजवैन, मरा० ओवा) १. एक पौधा जिसके बीज ओषधि तथा मसाले के काम आते हैं। २. उक्त पौधे के बीज।
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अंजस  : वि० [सं०√अंज्+असच्] १. सीधा, सरल। २. ईमानदार।
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अजस  : पुं० [सं० अयश) यश या कीर्ति का अभाव। यश न होना। पुं०=अपयस।
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अजसी  : वि० (हिं० अजस) जिसे अच्छा काम करने पर भी यश न मिलता हो।
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अजस्र  : वि० [सं०√जस् (हिंसा) +र, न० त०] [भाव० अजस्रता] बराबर या लगातार चलता रहनेवाला। जिसका क्रम न टूटे। क्रि० वि० निरंतर। लगातार।
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अजहति  : स्त्री० दे० अजहत् लक्षण।
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अजहत्  : वि० [सं०√हा (त्याग) +शतु, न० त०) न त्यागने वाला।
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अजहत्-लक्षणा  : स्त्री० [सं० न० ब०] लक्षण के तीन भेदों में से एक जिसमें लक्षण शब्द अपना वाच्यार्थ प्रकट करने के अतिरिक्त कुछ और आशय भी प्रकट करता है। जैसे—तोपों के पहुँचते ही शत्रु भागने लगे। मैं तोपों के साथ उन्हें चलाने वाले तोपचियों का भी भाव आ जाता है। अजहत्-स्वार्था।
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अजहत्-स्वार्था  : स्त्री०=अजहत् लक्षण।
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अजहल्लिंग  : पुं० [सं० न० ब०] (संस्कृत व्याकरण में) वह संज्ञा जो विश्लेषण के रूप में प्रयुक्त होने पर भी अपने लिंग को न छोड़े।
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अंजहा  : वि० [हि०अनाज+हा (प्रत्यय) स्त्री०अंजही]=अनाजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंजही  : स्त्री० [हिं० अनाज] अनाज की मंडी।
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अजहुँ (हूँ)  : क्रि० वि० [सं० अद्यतन, अप० अजूहँ, प्रा० अज्जउण, मरा० अजनू) १. आज तक। २. अभी तक। इस समय तक।
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अजा  : वि (स० अज+टाप्) जो पैदा न हुआ हो। जिसने जन्म न लिया हो। स्त्री० १. बकरी। २. सांख्य के अनुसार प्रकृति या माया। ३. दुर्गा।
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अजा-गल-स्तन  : पुं० [सं० ष० त०) १. बकरी के गले में थैली की तरह लटकनेवाला वह अंश जो देखने में स्तन के समान जान पड़ता है। २. (लाक्षणिक रूप में) ऐसी वस्तु जो देखने में उपयोगी जान पड़ने पर भी निर्थक हो।
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अजागर  : वि० [सं० न० ब०] न जागने वाला। पुं० भृगंराज। भँगरैया।
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अजाचक  : वि० [सं० अयाचक) जो माँगता न हो। जो याचक न हो। न माँगनेवाला।
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अजाची  : वि० [सं० अ-याचिन) जिसने याचना न की हो। न माँगने वाला।
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अजात  : वि० [सं० न० त०] १. जो उत्पन्न न हुआ हो। जिसने जन्म न लिया हो। जैसे—अजात-पक्ष=पक्षी जिसके पक्ष न निकले हों। २. जो जन्म के बंधन से मुक्त हो चुका हो। वि० (हिं० अ+जात) १. जिसकी कोई जाति न हो। २. छोटी जाति का। ३. जो जाति से निकाल दिया गया हो।
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अजात-रिपु  : वि० =अजात-शत्रु।
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अजात-शत्रु  : वि० [सं० न० ब०] जिसका कोई विरोधी, वैरी या शत्रु न हो। पुं० १. युधिष्ठिर। २. शिव। ३. मगध के राजा बिंबसार का पुत्र।
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अजातारि  : पुं० [सं० अजात
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अजाति  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसकी कोई जाति न हो० २. जिसका किसी जाति से कोई संबंध न हो। ३. नीच जाति का। ४. जाति से निकाला हुआ।
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अजाती  : पुं० [सं० अ+जाति) वह जो अपनी जाति या बिरादरी से (किसी अपराध के कराण) निकाल दिया गया हो।
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अजाद  : वि० =आजाद (स्वतंत्र)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजान  : वि० (हिं० अ+जानना) १. न जाननेवाला अथवा जिसे कोई न जानता हो। २. (बालक) जिसे ज्ञान या बोध न हुआ हो। ३. (व्यक्ति) जिसे ज्ञान, बोध या समझ न हो। ४. (विषय या व्यक्ति) जिसके संबंध में विशेष जानकारी प्राप्त न हुई हो। उदाहरण—(क) आये आगे किसी अजाने दूर देश से चलकर-निराला। (ख) मुस्कानों में उछल मृदु बहती वह किस ओर अजान-पन्त। पुं०=अज्ञान। पुं० (?) १. एक पेड़ जिसके नीचे जाने पर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। २. एक प्रकार का धान।
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अजान  : स्त्री० (अ० अजान) मसजिद में से मुल्ला की वह पुकार जो मुसलमानों को नमाज पढ़ने के लिए आमंत्रित करती है।
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अजान-बीरो  : पुं० [सं० अजान+बीरो=पौधा) एक प्रकार का पौधा।
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अजानता  : स्त्री०=अजानपन।
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अजानपन  : पुं० [सं० अज्ञान प्रा० अञ्जान+हिं० पन) ज्ञान न होने की अवस्था या भाव।
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अँजाना  : सं०=अँजवाना। वि० १. अनजान। २. अनजाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अजानि  : वि० [सं० नास्ति जाया यस्य, न० ब० जाया-नि आदेश) १. जिसकी पत्नी न हो। २. जिसकी पत्नी मर गयी हो। विधुर।
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अजानिक  : वि० [सं० अज-आन, ब० स०, अजान+ठन्-इक) बकरियों का व्यवसाय करने वाला। वि० १. दे० अजान। २. दे० अजानि।
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अजाने  : क्रि० वि० १. अनजान में। २. बिना जाने।
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अंजाम  : पुं० [फा०] १. परिणाम, फल। २. अंत, समाप्ति।
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अजामिल  : पुं० [सं० ) पुराणानुसार एक प्रसिद्ध पापी जो मरते समय अपने पुत्र नारायण का नाम लेने के कारण ही मोक्ष का अधिकारी हुआ था।
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अजाय  : वि० (अ=नहीं+फा० जाय=जगह) १. जो अपने उचित या ठीक स्थान पर न हो। न फबने वाला। २. अनुचित या अनुपयुक्त। ३. ना-मुनासिब। बेजा।
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अजायब  : पुं० (अ०) अजब का बहुवचन विलक्षण बातों या पदार्थों का वर्ग या समूह।
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अजायबखाना  : पुं०=अजायबघर।
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अजायबघर  : पुं० [अ० अजायब+घर] वह भवन या उसका भाग जिसमें पुराकालीन कला-कौशल संबंधी और विभिन्न प्रकार की अद्भुत तथा विलक्षण वस्तुएँ संगृहीत, परिरक्षित तथा प्रदर्शित की जाती हैं। (म्यूजियम)
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अजायाँ  : वि० [स्त्री० अजाई] दे० ‘अजाय'।
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अजार  : पुं० [फा० आजार] १. रोग। बीमारी। २. कष्ट। संकट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजारा  : पुं० दे० इजारा।
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अजि  : वि० [सं०√अज् (गति)+इन] जाने वाला। गमन करने वाला। स्त्री० १. गति। २. गतिशीलता। ३. फेंकने की क्रिया या भाव।
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अजिऔरा  : पुं० [सं० आर्या-दादी, प्रा०अज्जा+सं० पुर) आजी या दादी के पिता का घर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजिगर्त  : पुं० [सं० अजी (गमन)-गर्त, ब० स०) १. एक ऋषि जो शुनः शेफ के पिता थे। २. साँप।
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अंजित  : भू० कृ० [सं० √अंज्+क्त] १. जिसमें अंजन लगाया गया हो अंजनयुक्त। २. आराधित। पूजित।
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अजित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे जीता न जा सके। २. जिस पर किसी ने विजय न पाई हो। पुं० १. विष्णु। २. शिव। ३. चतुर्दश मन्वंतर के देवताओं का एक वर्ग। ४. बुद्ध। ५. एक प्रकार का जहर-मोहरा। ६. एक विषैला चूहा।
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अजित-नाथ  : पुं० (कर्म० स०) जैनियों के दूसरे तीर्थकर का नाम।
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अजित-बला  : स्त्री० (ब० सं० ) एक जैन देवी।
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अजिता  : स्त्री० [सं० अजित=टाप्) भादों बदी एकादशी।
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अजितेन्द्रिय  : वि० [सं० अजित-इंद्रिय, ब० स०) जिसने अपनी इंद्रियों को वश में न किया हो। फलतः असंयमी तथा इंद्रिय-लोलुप।
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अजिन  : पुं० [सं० √अज् (फेंकना) +इनच्) १. खाल। चर्म। २. चीते शेर, हिरण आदि का चमड़ा जो ओढ़ा या बिछाया जाता है। मृगछाला। ३. मृग (शेर, चीते, हिरण आदि पशु) ४. चमड़े का थैला। ५. धौंकनी।
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अजिया  : वि० (हिं० आजा=दादा) जो संबंध के विचार से आजा के पद का हो। जैसे—अजिया ससुर, अजिया सास आदि।
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अजिर  : पुं० [सं०√अज्+किरन) १. आँगन। सहन। २. खुली हुई जमीन या मैदान। ३. हवा। ४. शरीर। ५. मेढ़क। ६. छछूंदर। वि० १. तीव्र। तेज। २. चंचल। चपल।
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अजिरवती  : स्त्री० [सं० अजिर+मतुप्-वत्व-डीप्) वह नदी जिसके किनारे श्रावस्ती नगर बसा था, तथा जिसे आजकल राप्ती कहते हैं।
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अजिरा  : स्त्री० [सं० अजिर=टाप्) १. अजिरवती। २. दुर्गा।
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अजिरीय  : वि० [सं० अजिर+छ-ईय) अजिर-संबंधी।
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अंजिष्ठ  : पुं० [सं०√अंज्+इष्ठच्] सूर्य।
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अंजिष्णु  : पुं० [सं०√अंज्+इष्णुच्] सूर्य।
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अजिह्व  : वि० [सं० न० ब०] जिसे जीभ न हो। जैसे—मेढ़क।
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अंजी  : स्त्री० [सं०√अंज्+इन्-डीष्] १. आशीर्वाद। २. शुभकामना। पुं० एक प्रकार का बढ़िया चावल।
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अजी  : अव्य० [सं० अयि या हिं० ऐ जो) संबोधन का शब्द। ऐ जी का संक्षिप्त रूप।
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अजीज  : वि० (अ० अजीज) १. जिससे प्रेम हो। प्रिय। २. जो निज का या अपना हो। आत्मीय। ३. समीपी। निकट-संबंधी। रिश्तेदार।
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अजीत  : वि० दे० अजित।
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अजीब  : वि० (अ०) १. जो अपनी सामान्य स्थिति से चकित कर दे। विलक्षण। २. जिसे देखकर आश्चर्य भी हो और प्रसन्नता भी। अद्भुत। ३. जो अनूठा या उत्कृष्ट हो। पद—अजीब वो गरीब-(क) परम विलक्षण। (ख) अति उत्कृष्ट।
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अजीम  : वि० (अ०) (भाव० अजमत्) १. बहुत बड़ा। विशालकाय। २. वृद्ध और पूज्य।
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अंजीर  : पुं० [सं०√अंज्+ईरन्] गूलर जाति का एक प्रसिद्ध फल और उसका वृक्ष।
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अजीरन  : पुं०=अजीर्ण।
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अजीर्ण  : वि० [सं०√जृ (वयोहानि) +क्त, न० त०) १. जो जीर्ण या पुराना न हो। फलतः जो नया या अच्छी हालात में हो। २. जो टूटा-फूटा न हो। अक्षुण्ण। ३. जो पचा न हो। पुं० १. एक रोग जिसमें पाचन-शक्ति बिगड़ जाने के कारण भोजन नहीं पचता। अपच। बदहजमी। २. किसी बात या वस्तु की ऐसी अभिव्यक्ति जो उसके निरर्थक बाहुल्य की सूचक तथा हास्यास्पद हो। जैसे—धन या बुद्धि का अजीर्ण।
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अजीव  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें जीवन या जीवन शक्ति न हो। निर्जीव। २. जिसकी जीवन शक्ति नष्ट हो गयी हो। मृत। ३. जिसमें चेतना या चेतन शक्ति न हो। अचेतन। पुं० [सं० न० त०] १. जड़ पदार्थ। २. जैनों के अनुसार धर्म, नीति आदि तत्त्व।
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अजु  : अव्य [?] और। जो (डिं०)
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अजुगति  : स्त्री० [हिं० अजगुत] अज होने की अवस्था, गुण या भाव।
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अजुगुत  : वि० दे० ‘अजगुत’।
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अंजुबार  : पुं० [फा०] अंजबार (दे०)।
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अंजुमन  : पुं० [फा०] १. सभा। २. समाज।
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अँजुरी  : स्त्री०=अंजलि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंजुल  : स्त्री०=अंजलि।
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अँजुली  : स्त्री०=अंजलि।
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अजू  : अव्य० दे० अजी। (ब्रज और बुन्देल०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजूजा  : पुं० (देश) मुर्दे खाने वाला एक जानवर जो बिच्छू की तरह होता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजूबा  : वि० [अ० अजूब] [स्त्री० अजूबी] अनोखा। विलक्षण।
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अजूरा  : वि० [सं० अ+युज्=जोड़ना] १. जो जुड़ा न हुआ हो। अलग या पृथक्। २. जो प्राप्त न हुआ हो। अप्राप्त। पुं० (अ०) १. मजदूरी। २. वेतन। ३. भाड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजूह  : पुं० [सं० सुद्ध,प्रा० जुज्झ] युद्ध। लड़ाई। समर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजे  : अव्य [सं० अद्य) इस समय। अब। उदाहरण—सत्र साबतौ अजे लगिं साथ।—प्रिथीरज। पुं०=अजय।
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अजेइ  : वि०=अजेय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजेत्वय  : वि० [सं० न० त०]=अजेय।
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अजेय  : वि० [सं०√जि (जीतना) +यत्, न० त०] १. जो जीता न जा सकता हो। २. जो हारा न हो। अपराजित।
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अजै  : वि० =अजेय। पुं० =अजय।
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अजैकपाद  : पुं० [सं० ब० स०) १. विष्णु। २. एक रुद्र का नाम।
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अजैव  : वि० (संजीव+अणु, न० त०) १. जिसमें जीवों के से अंग या अवयव न हों। २. रसायन में ऐसा तत्त्व या मिश्रण जो जीवों वाली क्रियाओं या व्यापारी से रहित हो। जड़। जैसे—धातु, पत्थर आदि। ३. जो जीव जन्तुओं से निकला या बना हो।
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अजोग  : वि०=अयोग्य। पुं० [सं० अ+योग) अनुपयुक्त, अशुभ या बुरा योग।
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अजोघा  : स्त्री०=अयोध्या।
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अजोता  : पुं० [सं० अयुक्त, प्रा० अजुत) चैत्र की पूर्णिमा का दिन। (देहातों में इस दिन बैल नहीं जोते जाते।)
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अँजोर  : पुं० [सं० उज्ज्वल] उजाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँजोरना  : सं० [हिं० अँजोरा] १. उजाला या प्रकाश करना। २. दीया जलाकर घर में प्रकाश करना। ३. उज्ज्वल या स्वच्छ करना। सं० [सं० अँजलि) १. अंजुली में भरना या लेना २. निकाल या ले लेना। उदाहरण—पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि—तुलसी।
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अजोरना  : स०=अँजोरना।
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अँजोरा  : पुं० [हिं० उजाला] प्रकाश, उजाला, रोशनी। वि० प्रकाशमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँजोरी  : स्त्री० [हिं० अँजोर+ई] १. चन्द्रमा की चाँदनी। २. चाँदनी रात। ३. उजाला, प्रकाश। ४. आभा, चमक, दीप्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अजोरी  : क्रि० वि० [फा० जोर, हिं० जोराजोरी] १. बलपूर्वक। जबरदस्ती। २. बरबस। अनायास। उदाहरण—टोना सी पढ़नावत सिर पर जो भावत सो लेत अजोरी।—सूर।
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अजौं  : क्रि० वि० [सं० अद्य, प्रा० अजुत्त] चैत की पूर्णिमा का दिन। (देहातों में इस दिन बैल नहीं जोते जाते।)
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अज्ज  : क्रि० वि०, पुं०=आज।
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अज्ञ  : वि० [सं०√ज्ञा (जानना) +क, न० त०) (भाव० अज्ञता) १. जिसे ज्ञान या समझ न हो। २. जो जानकार न हो। ३. अज्ञानी।
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अज्ञत  : वि० [सं० न० त०] १. जो जाना गया न हो। जिसके संबंध में कुछ ज्ञात न हो। जैसे—अज्ञात व्यक्ति। २. जिसे ज्ञान या भान न हो। जैसे—अज्ञात-यौवना। ३. जिसे कोई न जानता हो। (अनुनीन)। ४. जो ऐसे रूप या वेष में हो कि कोई उसे पहचान न सके। ५. जो प्रकट या विदित न हो। क्रि० वि० अनजान में० बिना जाने।
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अज्ञा  : स्त्री०=आज्ञा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अज्ञात-कुल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके कुल या वंश का ठीक पता न हो। २. जो अपने अनिश्चित या अस्पष्ट गुण, रूप आदि के कारण किसी वर्ग में न रखा गया हो।(नॉन-डेस्कि्रप्ट
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अज्ञात-चर्या  : स्त्री० [सं० क्रम० स०]=अज्ञातवास।
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अज्ञात-नामा (मन्)  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका नाम विदित न हो। २. अप्रसिद्ध। अविख्यात।
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अज्ञात-पितृक  : वि० [सं० न० ब, कप्] १. जिसे अपने पिता या जनक का पता न हो। २. वेश्या का पुत्र।
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अज्ञात-यौवना  : स्त्री० [सं० न० ब०] साहित्य में वह मुग्धा नायिका जिसे अपने यौवन के आगमन का अभी तक ज्ञान या भान न हुआ हो।
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अज्ञात-वास  : पुं० [सं० कर्म० स०] समाज से बिल्कुल अलग होकर ऐसे स्थान पर रहना जहाँ किसी को पता न लग सके। सब कि दृष्टि से छिपकर रहना।
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अज्ञातक  : वि० [सं० अज्ञात+कन्] १. अज्ञात। २. अप्रसिद्ध। (क्व)
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अज्ञाता  : स्त्री० [सं० अज्ञात+टाप्, न० त०]=अज्ञात-यौवना।
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अज्ञान  : वि० [सं० न० त०] (भाव० अज्ञानता) १. जिसे ज्ञान न हो। २. मूर्ख। पुं० (न० त०) १. सामान्य ज्ञान न होने की अवस्था या भाव। २. किसी विषय-विशेष का ज्ञान न होने की अवस्था या भाव। ३. मिथ्या ज्ञान। ४. मूर्खता। जड़ता। ५. जीवात्मा के गुण और गुण के कार्यों से विभिन्न तथा पृथक न समझने का अविवेख। (अधायत्म) ६. न्याय में निग्रह का एक स्थान।
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अज्ञानतः  : क्रि० वि० [सं० अज्ञान+तस्) १. अज्ञान के कारण। अज्ञता-वश (किया हुआ) २. बिना जाने बुझे या समझे।
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अज्ञानता  : स्त्री० [सं० अज्ञान+तल्-टाप्) १. ज्ञान न होने की अवस्था या भाव। २. किसी वस्तु का ज्ञान कन होने की अवस्था या भाव। ३. मिथ्या ज्ञान। ४. मूर्खता। ना समझी।
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अज्ञानपन  : पुं०=अज्ञानता।
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अज्ञानी (निन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे ज्ञान न हो। ज्ञान-शून्य। २. मूर्ख। न-समझ।
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अज्ञेय  : वि० [सं० न० त०] जिसे अथवा जिसके संबंध की बातें किसी प्रकार जानी ही न जा सकती हों। ज्ञानातीत। (अन्-नोयबल) जैसे—ब्रह्म का स्वरूप अज्ञेय है।
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अज्ञेय-वाद  : पुं० [ष० त०] वह सिद्धांत जिसके अनुसार यह माना जाता है कि इस दृश्य जगत से परे जो कुछ है वह अज्ञेय है।
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अज्ञेयवादी (दिन्)  : पुं० [सं० अज्ञेयवाद+इनि] उक्त सिद्धांत का अनुयायी या समर्थक।
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अज्यों  : क्रि० वि० दे० ‘अर्जी’।
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अझर  : वि० [सं० अ=नहीं+झर] १. न झरने या न गिरने वाला। २. न बरसनेवाला (बादल)
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अँझा  : पुं० [सं० अनध्याय, पा० अनज्झा] १. बीच में पड़नेवाला अभावात्मक अन्तर, नागा। २. अवकाश। छुट्टी। ३. लोप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अझूना  : वि० [अ+सं० जीर्ण] १. जो जीर्ण या पुराना न हो। २. सदा एक दशा में या ज्यों का त्यों बना रहनेवाला। स्थायी। उदाहरण—तुम्हें बिन साँवरे ये नैन सूने। हियै मैं लै दियै बिरहा अझूनै—घनानंद।
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अझोरी  : स्त्री०=झोली।
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अट  : स्त्री० [हिं अटक] प्रतिबंध। शर्त।
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अट-खट  : वि० १. =अट-पट। २. =अट्ट-सट्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अट-पट  : वि० [अनु०] १. बे-सिर-पैर का। २. बे-डोल। बेढ़ंगा। जैसे— अट-पट बात। ३. असंबद्ध। ४. विकट। ५. पाजीपन या शरारत से भरा हुआ (आचरण)।
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अट-सट  : वि० [अनु०] इधर-उधर का अनावश्यक अथवा निरर्थक (कार्य, बात आदि)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अटक  : स्त्री० [हिं० अटकना] १. अटकने की क्रिया या भाव। २. कोई ऐसी बात जिसके कारण रुक जाना पड़े। अड़चन। बाधा। रुकावट। ३.ऐसी स्थिति जिसके कारण आगे न बढ़ा जा सके। ४. उलझन। ५. संकोच। ६. परहेज। बचाव। पद—अटक-भटक=भूल-भुलैयाँ।
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अटकन  : स्त्री० =अटक। पद—अटकन-भटकन=भूल-भुलैयाँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अटकना  : अ० [सं० आटक्डन] १. चलते-चलते अथवा कोई काम करते रुकना या ठहरना। उदाहरण—यहि आसा अटक्यो रहै, अलि गुलाब के मूल।—बिहारी। २. किसी कार्य, सोच-विचार, अभिदेश आदि के लिए रुकना। ३. किसी कठिनाई या बाधा के कारण किसी कार्य या क्रिया का रुकना। जैसे—उच्चारण या बात करते समय अटकना। ४. झगड़ा करना। उलझना।
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अटकर  : स्त्री०=अटकल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अटकल  : स्त्री० [सं० अर्ध+कल् किंवा अन्तर+कल्गु० अठकल, सिं० अट्कल्, मरा० अटकल] (भाव० अटकलबाजी) १. बिना किसी निश्चित परिकलन या माप के कल्पना द्वारा बताई हुई लगभग ठीक गणना या मात्रा। २. गुण-दोष का अनुमान या कल्पना करने की शक्ति। पहचान। (गेस)
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अटकल-पच्चू  : वि० [हिं० अटकल+पच्चू ?] केवल कल्पना या अनुमान के आधार पर जाना या सोचा-समझा हुआ (फलतः ऊट-पटाँग या बिना सिर पैर का)।
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अटकलना  : स० [हिं० अटकल] अटकल लगाना। अंदाज या अनुमान करना।
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अटका  : पुं० [उड़ि० आटिका=हाँड़ी] जगन्नाथ जी को भोग के रूप में चढ़ाया हुआ भात और उसकी दक्षिणा। पुं० १. अटक। २. कमी।
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अटकाना  : स० [हिं० ‘अटकना' का स०] १. किसी को जाने, बढ़ने या कोई काम न करने देना। रोकना। २. ठहराना। ३. अडंगा लगाना। बाधा पहुँचाना। ४. किसी के साथ अस्थायी रूप से लगाये रखने के लिए कुछ जोड़ना, बाँधना या लगाना।
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अटकाव  : पुं० [हिं० अटक] १. अटकने या अटकाने की क्रिया या भाव। २. रुकावट। रोक ३. अड़चन। बाधा। ४. विघ्न।
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अटखेली  : स्त्री०=अठखेली।
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अटट  : अ० [?] कोरा। निरा। बिलकुल। जैसे—वह तो अटट गँवार है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अटन  : पुं० [सं० अट् (गति) +ल्युट्-अन] १. घूमने-फिरने की क्रिया या भाव। २. भ्रमण। यात्रा। सफर।
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अँटना  : अ० [देश०] १. अन्दर आना। भरना या समाना० २. पूरा पड़ना। यथेष्ठ होना। ३. उपयोग में आने के कारण समाप्त होना। अ० दे० ‘अटकना'।
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अटना  : अ० [सं० आर्त्त, पा० अट्टा ?] १. घूमना-फिरना। २. यात्रा करना। भ्रमण करना। अ० [हिं० ओट] आड़ करना। ओट करना। अ० [हिं० अँटना] १. पूरा पड़ना। २. भर जाना। ३. समाना।
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अटनि  : स्त्री०१. =अटन। २. =अटनी।
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अटनी  : स्त्री० [सं०√अट्+अनि, वा डीष्] धनुष के आगे का वह भाग या सिरा जिस पर रस्सी बँधी होती है।
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अटपटा  : वि० [स्त्री० अटपटी]=अटपट।
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अटपटाना  : अ० [हिं० अटपट] १. अटकना। २. लड़खड़ाना। ३. चूकना। ४. घबराना। ५. संकोच करना।
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अटपटी  : स्त्री० [हिं० अटपट] १. नटखटपन। पाजीपन। शरारत। २. नियम या रीति के विरुद्ध आचरण या बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अटंबर  : पुं० [सं० अट्ट=अधिक+फा० अबार=ढर] ढेर। राशि।
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अटब्बर  : पुं० [पं०टब्बर, राज०टाबर] घर के सब लोग। परिवार। पुं० =आडंबर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अटमबम  : पुं० दे० ‘अणुबम'।
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अटरूष  : पुं० [सं०√अट्+अच्-अट√रूष् (हिंसा) वा√रूष् (योग)+क] अडूसा नामक एक क्षुप।
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अटल  : वि० [सं० अ०=नहीं+टल्=व्याकुल या चंचल होना।] १. अपने स्थान से न टलने वाला। २. जिसे बदला या हटाया न जा सके। दृढ़। पक्का। जैसे—अटल-विधान। ३. अवश्यंभावी।
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अटवाटी-खटवाटी  : स्त्री० [हिं० खाट्] गृहस्थी का सामान। जैसे—खाट, बिस्तर आदि। बोरिया-बँधना।
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अटविक  : पुं० =आटविक।
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अटवी  : स्त्री० [सं०√अट्+अवि-डीष्] १. जंगल। वन। २. मैदान।
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अटवीबल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. जंगल में रहने वाली सेना। वनसेना। २. जंगली लोगों की सेना।
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अंटसंट  : वि० =अंडबंड।
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अटहर  : पुं० [सं० अट्ट=अटाला,ऊँचा ढेर] १. अटाला। ढेर। राशि। २. पगड़ी। ३. अटका। बाधा। रुकावट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंटा  : पुं० [सं० अण्ड] [स्त्री० अल्पा अँटिया, अंटी] १. बड़ी गोली। २. बड़ी कौड़ी। ३. सूत रेशम आदि का लच्छा। ४. एक प्रकार का अँग्रेजी खेल। (बिलियर्ड)।
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अटा  : स्त्री० [सं०√अट्+अङ, टाप्] १. भ्रमण। २. भ्रमण करने की क्रिया, भाव या वृत्ति। स्त्री०=अटारी। जैसे—ठाढ़ी अटापै कटा करती हौ।—कोई कवि।
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अँटा-गुड़गुड़  : वि० [हि० अंटा+गुड़गुड़] नशे में चूर या बे-सुध।
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अंटा-घर  : पुं० [हि० अंटा+घर] वह स्थान जहाँ लोग अंटा (बिलियर्ड) नामक खेल खेलते हैं।
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अंटा-चित्त  : भू० कृ० [हि० अंटा+चित] १. पीठ के बल पड़ा हुआ या लेटा हुआ। २. पूरी तरह से हारा हुआ पराजित। ३. स्तब्ध स्तंभित। ४. नशे आदि के कारण अचेत या बेसुध पड़ा हुआ। ५. जो शक्ति आदि से रहित किसी योग्य न रह गया हो।
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अटाउ  : पुं०=अटाव।
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अटाटूट  : वि० [सं० अटृटृ] बहुत ऊँचा या भारी। क्रि० वि० १. एकदम से। २. बिलकुल।
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अँटाना  : सं० [हि० अँटना का सं० ] १. अवकाश या स्थान निकालकर किसी को भरना, रखना या लेना। २. ऐसा काम करना कि कोई चीज यथेष्ट हो जाए।
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अटारी  : स्त्री० [सं० अट्टाली=कोठा] १. घर के ऊपरवाला कमरा या कोठा। चौबारा। २. एक से अधिक खण्डोंवाला पक्का मकान।
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अटाल  : पुं० [सं० अट्टाल] घरहरा। मीनार। (डिं०) पुं०=अटाला।
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अटाला  : पुं० [सं० अट्टाल] १. ढेर। राशि। २. कसाइयों की बस्ती या मुहल्ला। ३. मुहल्ला।
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अटाव  : पुं० [सं० अट्ट] १. द्वैष। वैमनस्य। २. दुष्टता। पाजीपन। पुं० [हिं० अँटना] अँटने या समाने की क्रिया या भाव। समाई।
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अटित  : [वि० अटन] घुमावदार। वि० [हिं० अटा] (नगर) जिसमें अटारियाँ अर्थात् कई खण्डोंवाले बहुत से मकान हों। उदाहरण—उन्नत अनिल अवास अटित आकाम अटारी।—रत्नाकर।
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अंटिया  : स्त्री० [हि० अंटी] १. किसी वस्तु की छोड़ी राशि जो एक में ठीक प्रकार से बंधी हो। जैसे—पुदीने या सूत की अंटिया। २. छोटा गट्ठर, गठरी।
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अँटियाना  : सं० [हि० अंटी] १. अंटी में रखना या लेना। २. छिपाना या गायब करना। ३. अँटिया (पूला, लच्छी आदि) बाँधना।
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अंटी  : स्त्री० [सं० अष्टि) १. दो उंगलियों के बीच की जगह। मुहावरा—अंटी मारना—(क) जुआ खेलते समय (बेईमानी से) उँगलियों से कौड़ी छिपा रखना। (ख) चालाकी से कोई चीज छिपा लेना या दबा लेना। २. वह मुद्रा जिसमें हाथ की उँगली पर दूसरी उँगली (विशेष तर्जनी पर मध्यमा) चढ़ी हो। ३. कमर पर पड़ने वाली धोती की लपेट जिसमें लोग रूपये पैसे आदि रखते हैं। ४. सूत आदि की लच्छी अंटिया। ५. लकड़ी का वह चक्का जिस पर सूत आदि लपेटते हैं। अटेरन। ६. कान में पहनने की एक प्रकार की बाली। ७. मन में पड़ने वाली गाँठ, आँट। ८. कुश्ती का एक पेच। मुहावरा—अंटी देना या मारना=प्रतिद्धंती को गिराना या हराना।
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अटी  : स्त्री० [सं० आडि] टिटिहरी की जाति की बहुत तेज उड़ने वाली एक चिड़िया।
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अंटी-बाज  : वि० [हि० अंटी+बाज] छल या धूर्त्तता से दूसरे का धन उड़ा लेनेवाला।
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अटूट  : वि० [सं० अ=नहीं+हिं० टूटना] १. जो टूटा न हो। २. जो टूट न सके। ३. जो तोड़ा या फोड़ा न जा सके। ४. जिसका क्रम बीच में न टूटे। ५. बहुत अधिक।
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अटृ  : पुं० [सं० हटृ=बाजार] हाट। बाजार। (हिं० ) पुं० [सं० √अटृ (अतिक्रन) +घञ्] १. बड़ा भवन। महल। २. मकान का सबसे ऊपरी भाग। अटारी। ३. धरहरा। बुर्ज। ४. खाद्य पदार्थ। ५. भात। ६. रेशमी वस्त्र। ७. वध। ८. किले का वह भाग जहाँ सेना रहती थी। वि० १. ऊँचा। २. बहुत अधिक। ३. शुष्क। सूखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अटृ सटृ  : वि० [अनु०] १. ऊटपटाँग। २. निरर्थक। व्यर्थ। पुं० ऊल-जलूल या निरर्थक बात।
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अटृ हास्य  : पुं०=अटृहास।
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अटृक  : पुं० [सं० अटृ+कन्] ऊँचा और बड़ा मकान। अटारी।
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अटृन  : पुं० [सं० अटृ(बध) +ल्युट्-अन] १. एक प्रकार का हथियार जो पहिए के आकार का होता था। २. अपमान, उपेक्षा या बेइज्जती।
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अटृहास  : पुं० [सं० तृ० त०, प्रा० अटृ (ट्ठ) हास, अप-अटृहास] [वि० अटृहासक, अटृहासी] खूब जोर की हँसी। ठकाहा। (लाँफ्टर)
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अटेरन  : पुं० [सं० अति-ईरण] १. लकड़ी का एक चौखट जिस पर सूत लपेटकर उसकी आँटी या लच्छी बनाई जाती है। २. नये घोड़े को दौड़ाने का अभ्यास कराने के लिए उसे एक वृत्त में चक्कर खिलाना। कावा। ३. कुश्ती का एक दाँव।
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अटेरना  : स० [हि० अटेरन] १. सूत की आँटी या लच्छी तैयार करने की क्रिया या भाव। २. अधिक शराब पीना। (व्यंग्य)
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अटोक  : वि० [सं० अ-तर्क, पा० तक्क] १. जो बीच में रोका या टोका न गया हो। २. जिसकी गति या प्रवाह में कोई बाधा न पड़ी हो। बराबर चला चलनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँटौतल  : पुं० [कोल्हू के] बैल की आँखों पर लगाया जाने वाला ढक्कन या बाँधी जानेवाली पट्टी।
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अट्टाल  : पुं० [सं० अटृ√ अल् (पर्याप्ति) +अच्] १. अटारी। २. धरहरा। बुर्ज। ३. महल।
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अट्टालक  : पुं० [सं० अट्टाल√कन्] अट्टाल।
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अट्टालिका  : स्त्री० [सं० अट्टाल+कन्-टाप्, इत्व अटृ, अट्टाल, अट्टालिका, प्रा० अट्टालग, कान, अटृ, तेल० अट्टालकमु, सिं० अटहली, सिं० अटहली, आटहलो, गु० पं० अटारी] १. बड़ा और ऊँचा मकान। २. महल।
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अट्टी  : स्त्री० [सं० अट्=गूमना, बढ़ाना] अटेरन पर लपेटकर तैयार किया हुआ सूत या ऊन का लच्छा।
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अट्ठा  : पुं० [सं० अटृ=बुर्ज] १. मकान का ऊपरी भाग। २ ०मचान। पुं० [सं० अट्=घूमना] लपेटकर बनाया हुआ सूत का बड़ा लच्छा। बड़ी अट्टी।
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अट्ठा  : पुं० [सं० अष्ट, प्रा० अट्ट] आठ बूटियोंवाला ताश का पत्ता।
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अट्ठाइसवाँ  : वि० [हिं० अट्ठाईस] गिनती में जिसका स्थान सत्ताइसवें के बाद और उन्तीसवें के पहले हो।
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अट्ठाईस  : वि० [सं० अष्टाविंशति, पा० अट्ठावीसा, प्रा० अट्ठाईस, अपअट्ठाइ] जो गिनती में बीस और आठ हो। पुं० १. सत्ताइस के बाद और उन्तीस के पहले पड़नेवाली संख्या। उक्त संख्या का सूचक अंक-।२८-।
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अट्ठानबे  : वि० [सं० अष्टानवति, पा० अट्ठानवति, प्रा० अट्ठाणवइ] जो गिनती में ९॰ से ८ अधिक हो। पुं० १. सत्तानबे के बाद और निन्यावबे के पहले पड़नेवाली संख्या। उक्त संख्या का सूचक अंक-।९८।
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अट्ठारह  : वि०=अठारह।
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अट्ठावन  : वि० [सं० अष्टपंचाशत, प्रा० अट्ठावण्ण] जो गिनती में पचास और आठ हो। पुं० १. सत्तावन के बाद तथा उनसठ के पहले पड़नेवाली संख्या० २. ५८ का सूचक अंक या संख्या।
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अट्ठावनवाँ  : वि० [हिं० अट्ठावन] गिनती के ५८ के स्थान पर पड़ने वाला।
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अट्ठासिवाँ  : वि०=अठासिवाँ.
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अट्ठासी  : वि० दे० ‘अठासी’।
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अठ  : वि० [सं० अष्ट प्रा० अट्ठा] आठ का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक शब्दों के आरम्भ में लगाने पर प्राप्त होता है। जैसे—अठपहला, अठ-मासा आदि०
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अठ-कौशल  : पुं० [सं० अष्ट-कौशल) १. गोष्ठी। पंचायत। २. मंत्रणा। सलाह। ३. चतुरता। चालाकी।
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अठ-कौसल  : पुं०=अठ कौशल।
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अठइसी  : स्त्री० [हिं० अठाईस] फलों की गिनती का वह प्रकार जिसमें अठाईस गाहियों अर्थात् १४॰ का सैकड़ा माना जाता है।
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अँठई  : स्त्री० [सं० अष्टपदी] चौपायों के शरीर पर चिपटने वाले कीड़े जिनके आठ पैर होते हैं। चिचड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अठई  : स्त्री० [सं० अष्टमी] अष्टमी तिथि।
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अठकरी  : स्त्री० [हिं० अठ+कहार ?] वह पालकी जिसे आठ कहार ढोते हैं।
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अठखेल  : स्त्री० [हिं० अठखेली] १. अठखेलियाँ करनेवाला (अर्थात चंचल या चुलबुला) २. खेलखाड़ी। (क्व०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अठखेलपन  : स्त्री० [हिं० अठखेल-पन] १. हाव-भावपूर्ण चंचलता। चुलबुलापन। २. चोचला।
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अठखेली  : स्त्री० [सं० अष्टकेलि, प्रा० अट्ठाखग, अड्डखेल्ल] १. अल्हड़पन, मस्ती और विनोद से भरी चंचलता। चुलबुलापन। २. उक्त प्रकार की चंचलता के कारण दूसरों के की जाने वाली छेड़छाड़। चोचला।
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अठंग  : पु० [सं० अष्टांग] १. वह जिसके आठ अंग हों। २. योग जिसके आठ अंग माने गये हैं। वि० १. आठ अंगोंवाला। २. अष्टांग योग से संबंध रखनेवाला।
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अठत्तर  : वि०=अठहत्तर।
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अठन्नी  : स्त्री० [हिं० आठ+आना] आठ आने मूल्य का छोटा सिक्का। अधेली।
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अठपतिया  : वि० [सं० अष्ट पत्रिका, पा० अटृपत्तिका, प्रा० अटृपत्तिका] आठ पत्तों या पत्तियोंवाला। पुं० चित्रकारी और पत्थर की नक्काशी का वह प्रकार जिसमें आठ पत्तोंवाले फूल बनाये जाते हैं।
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अठपन्ना  : पुं० [सं० अट्=घूमना+बंधन)] वह बाँस जिस पर करघे की लंबाई से बढ़ा हुआ ताने का सूत लपेटा जाता है। (जुलाहे)
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अठपहला  : वि० [सं० अष्ट पटल, पा० अटृपटल, अटृपअल] जिसके आठ पहल या पार्श्व हों। अठ-पहिया
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अठपाव  : पूं० [सं० अष्टपाद, पा० अट्ठापाद, प्रा० अट्ठापाव] उपद्रव। पाजीपन। शरारत।
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अठपेजी  : वि० [दे० आठ+अ० पेज=पृष्ठ] जिसके आठ पन्ने या पृष्ठ हों। पुं० छापे में, पुस्तक के पृष्ठों का वह आकार जिसमें कागज का ताव इस प्रकार मोड़ा जाता है कि उसके आठ पृष्ठ बन जायँ। (आँक्टेवो)
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अठमासा  : वि० [सं० अष्टमास] १. जो आठ महीने का हो। २. (बच्चा) जो गर्भ से आठ महीने में उत्पन्न हुआ हों। पुं० १. सीमान्त संस्कार जो गर्भाधान के आठवें महीने में होता है। २. ईख का खेत जिसमें आठ महीने (आषाढ़ से माघ तक) फसल रहती है।
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अठमासी  : वि० [सं० अष्टमाश] तौल में आठ माशे वजन का। स्त्री० गिन्नी नाम का सोने का एक अँगरेजी सिक्का जो तौल में लगभग आठ माशे का होता है।
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अठलाना  : अ० [हिं० अठखेली] १. अठखेलियाँ करना। चोंचले दिखाना। २. इतराना। ३. उक्त प्रकार से जानबूझ कर अनजान बनना या खिलवाड़ करना। ४. ऐंठ या शेखी दिखाना।
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अँठली  : स्त्री०=अंठी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अठवना  : अ० [सं० स्थान, पा० ठान=ठहराव] १. आगे बढ़ना। २. इकट्ठा या जमा होना। स० (झगड़ा, लड़ाई आदि) ठानना।
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अठवारा  : पुं० [सं० अष्ट, पा० अटृ+सं० वार] १. आठ दिनों के बीच का सारा समय। २. सप्ताह। हफ्ता।
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अठवारी  : स्त्री० [सं० अष्टबार, पा० अटृवार] वह प्रथा जिसमें असामी को प्रति आठवें दिन अपना हल-बैल जमींदार को खेत जोतने के लिए देना पड़ता है। (क्व०)
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अठवाली  : स्त्री० [हिं० आठ+वाली (प्रत्यय) ] १. वह पालकी जिसे आठ कहार ढ़ोते हैं। अठकारी। २. वह मोटा मजबूत बाँस जो भारी पत्थर ढोने के समय सेंगरे के ऊपर बाँधा जाता हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अठवाँस  : पुं० [सं० अष्टपार्श्व] आठ पहलोंवाली या अठपहली कोई चीज। वि० दे० ‘अठ-पहला’।
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अठवाँसा  : वि० पुं०=अठ-मासा।
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अठसिल्या  : स्त्री० [सं० अष्टशिला] राजा, देवता आदि का सिंहासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अठहत्तर  : वि० [सं० अष्ट सप्तति, प्रा० अटृहत्तरि] जो गिनती में सत्तर और आठ हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या-७८
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अठहत्तरवाँ  : वि० [हिं० अठहत्तर] क्रम या गिनती में ७८ के स्थान पर पड़नेवाला।
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अठाई  : वि० [हिं० अठान] १. अनुचित हठ ठानने वाला। झगड़ा या तकरार करने वाला। २. उपद्रवी, नटखट। पाजी।
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अठान  : पुं० [हिं० अ=अनुचित+ठानना में का ठान] १. अनुचित हठ ठानने की क्रिया या भाव। दुराग्रह। २. बहुत ही कठिन या दुष्कर कार्य। ३. पाजीपन शरारत। ४. झगड़ा। ५. वैर-विरोध। शत्रुता।
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अठाना  : अ० [हिं० आठ] आठ (प्रथाओं या बातों) से युक्त होना। उदाहरण—मामा पियै इनकी तरी माइको है हरि आठहूँ गाँठ अठाये।—केशव। स० [हिं० आठ (से युक्त होना) या अठान=अनुचित हठ] १. अनुचित हठ ठानना। २. उपद्रव या शऱारत करना। ३.तंग या परेशान करना। ४. पीड़ित करना। सताना। उदाहरण—आजु सुन्यौ अपने पिय प्यारे को काम महा रघुनाथ अठाए।—रघुनाथ बन्दीजन। स० ठानना। मचाना। जैसे—युद्ध अठाना।
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अठार  : वि० पुं०=अठारह।
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अठारह  : वि० [सं० अष्टादशन्, प्रा० अटृदह, अट्ठारस, अप० अट्ठारह, पं० अठाराँ, उड़िअठर, गु० अठार, अडार, सि० अडहं, का० अर्दह, सिंह अटकोस] जो गिनती में दस से आठ अधिक हो। पुं० १. उक्त की सूचक संख्या। २. चौसर के पासे का एक दाँव, जिसके पड़ने पर गोटी अठारह घर चलती है।
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अठारहवाँ  : वि० [सं० अष्टादश, प्रा० अट्ठारसम, अप० अट्ठारहम, हिं० अठारह] क्रम या गिनती में १८. के स्थान पर पड़नेवाला।
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अठाव  : पुं० दे० ‘अठपाव’। (बुन्देल)
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अठासिवाँ  : वि० [हि० अठासी] क्रम या गिनती में ८८ के स्थान पर पड़नेवाला।
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अठासी  : वि० [सं० अष्ट, सीति, प्रा० अट्ठासीइ, अप० अट्ठासि] जो गिनती में अस्सी से आठ अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या।-८८
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अठिलाना  : अ०=इठलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँठी  : स्त्री० [स्त्री० अष्ठि=गुठली, गाँठ] १. किसी गीली चीज की बँधी हुई गाँठ या जमा हुआ थक्का। २. बीज, गुठली। ३. गिलटी। ४. नवेली के निकलते हुए स्तन।
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अठी  : पुं० [हिं० हठी ?] योद्धा। सैनिक। (राज०)
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अँठुली  : स्त्री०=अंठी।
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अठेल  : वि० [सं० अ=नहीं+हि० ठेलना] जो ठेला अर्थात् आगे बढ़ाया या हटाया न जा सके। पुं० बलवान। शक्तिशाली। (डिं०)
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अठोंगर  : पुं० [सं० अष्ट-अंग-ईर=चलाना] १. ब्याह की एक रस्म जिसमें वर तथा अन्य सात व्यक्ति एक साथ मूसल पकड़कर धान कूटते हैं। (मिथिला) उदाहरण—धरिअऊ मूसर सम्हारि अठोंगर विध भारी है।—मैथिली लोक-गीत।
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अठोठ  : पुं० [हिं० आठ+ओठ या हिं० ठाटी] आडंबर। पाखंड।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अठोतर-सौ  : वि० [सं० अष्टोत्तरशत, पा० अठुत्तररसत] जो सौ से आठ अधिक हो। एक सौ आठ।
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अठोत्तरी  : स्त्री० [सं० अष्टोत्तरी] एक सौ आठ दानों की माला।
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अठौड़ी  : पुं [सं० अष्टपदी] चौपायों के शरीर में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा जिसके आठ पैर होते है।
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अँठौतल  : पुं० [?]=अँटौतल।
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अठौरा  : पुं० [सं० अष्ट, प्रा० अटृ√हिं० औरा (प्रत्यय०)] एक पत्ते में बँधे हुए पान के आठ बीड़े।
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अंड  : पुं० [सं०√अम् (गति)+ड] १. पक्षियों आदि का अंडा। डिबा। २. अंडकोश फोता। ३. वीर्य। ४. विश्व ब्रह्मांड। उदाहरण—अंड अनेक अमल जसु छावा-तुलसी। ५. मृग की नाभि जिसमें कस्तूरी रहती है। ६. कामदेव। पुं० दे० ‘रेंड़’ (पौधा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अड़  : स्त्री० [हिं० अड़ना] १. अड़ने की क्रिया या भाव। रुकना। २. जिद। हठ। मुहावरा—अड़ पकड़ना=जिद या हठ करना। ३. अड़ या रुककर बैठने की जगह। मुहावरा—(किसी की) अड़ पकड़ना=किसी के आश्रय का शरण में जाकर रहना।
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अंड-कटाह  : पुं० [उपमित सं० ] सारा विश्व या ब्रह्मांड जो एक बड़े कड़ाहे के रूप में माना गया है।
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अंड-कोश  : पुं० [ष० त०] १. फोता। २. दूध पीकर पलने वाले जीवों के नरों या पुरुषों की इन्द्रिय के नीचे की थैली जिसमें दो गुठलियाँ होती हैं। ३. सारा विश्व-बह्मांड, अंड कटाह। ४. फल का ऊपरी छिल्का।
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अंड-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] एक रोग जिसमें अंडकोश की थैली एक प्रकार के सौम्य या विकृत रूप से भर जाती है। (हाइड्रोसील)।
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अड़काना  : स० १. दे० 'अड़ाना'। २. दे० ‘अटकाना'।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अड़खीसा  : स्त्री० [ हिं० अड़=हठ+खीस ?] वैर। शत्रुता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अडंग  : वि० दे० ‘अडिग’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अडग  : वि० [हिं० अ+डग] १. आगे कदम या डग न बढ़ाने वाला। २. अपने विचार या स्थान से न हटने वाला। ३. दे० अडिग।
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अडंग-बडंग  : वि० [अनु०] १. क्रम रहित और बेढंगा। अंड-बंड। २. अनावश्यक तथा अनुचित। व्यर्थ।
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अड़गड़ा  : पुं० [हिं० अड़ना+गड़ना ?] १. बैल-गाड़ियों आदि के ठहरने का स्थान। २. घोड़ों बैलों आदि की बिक्री का स्थान।
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अड़ंगा  : पुं० [सं० अ=नहीं+सं० टिक्=चलना या डग] १. किसी को चलने से रोकने या गिराने के लिए उसकी टाँगों में फँसायी जाने वाली अपनी टाँग। २. उक्त क्रिया करके प्रतिद्वन्द्वी को गिराने के लिए कुश्ती का एक दाँव या पेंच। ३. लाक्षणिक अर्थ में बाधा या रुकावट। मुहावरा—अड़ंगा डालना या लगाना=कार्य में अड़चन डालना। अड़ंगे पर चढ़ाना=चाल या दाँव से अपने अधिकार में करना। ४. छत, खपरैल आदि को गिरने से रोकने के लिए उसके नीचे लगाई जाने वाली लकड़ी।
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अड़ंगेबाज  : पुं० [हिं० अड़ंगा+फा० बाज] वह जो दूसरों के कामों में अड़ंगा लगाया करता हो।
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अड़ंगेबाजी  : स्त्री० [हिं० अड़ंगा+फा० बाजी] दूसरों के कार्यों में अड़ंगे लगाने की क्रिया या भाव।
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अड़गोड़ा  : पुं० [हिं० अड़=रोक√गोड़=पाँव] पशुओं आदि को भागने से रोकने के लिए उनके पैर या गले में बाँधी जानेवाली भारी लकड़ी।
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अड़चन  : स्त्री० [हिं० अड़ना+चलना, पुं० हिं० अड़चल] ऐसी छोटी मोटी कठिनाई या बाधा जो मार्ग में आकर विघ्न डालती हो। (हिन्डरेन्स)
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अड़चल  : स्त्री०=अड़चन।
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अंडज  : वि० [सं० अंड√जन् (उत्पत्ति)+ड] अंडे में जन्म लेनेवाला। अंडे से उत्पन्न (जीव)। पुं० वे जीव जो अंडे से उत्पन्न होते हैं।
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अंडजा  : स्त्री० [सं० अंडज-टाप्] कस्तूरी।
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अड़ंड  : वि० [सं० अ-दंडञ] १. जिसे दंड न दिया जा सकता हो। २. जिसे दंड देना उचित न हो। ३. जिसे दंड का भय न हो। फलतः निर्भीक या स्वच्छन्द।
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अड़ड़ पोपो  : पुं० [अनु०] १. सामुद्रिक विद्या का ज्ञाता। सामुद्रिक शास्त्री०। २. पाखण्डी। आडंबरी। ३. बकवादी।
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अडडंडा  : पुं० [हिं० अड़ (=टिकाव) +डंडा] लकड़ी या बाँस का वह डंड़ा जिसके दोनों सिरो पर लट्ठ रहते है और जिसकी सहायता से मस्तूल पर पाल बाँधे जाते है।
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अड़तल  : स्त्री० [हिं० आड़+तल (प्रत्यय)] १. आड़। ओट। २. बहाना। ३. शरण। मुहावरा—(किसी को) अड़तल पकडना=किसी की शरण में जाकर रहना। ४. दे० अड़चन। स्त्री०=अड़ (हठ)।
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अड़तालिस  : वि० दे० अड़तालीस।
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अड़तालिसवाँ  : वि० [हिं० अड़तालीस] सैतालीसवें के उपरान्त पड़ने वाला या होने वाला।
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अड़तालीस  : वि० [सं० अष्टचत्वारिशत्, पा० अटृच-तालीसें, अटृतालीस] जो गिनती में चालीस और आठ हो। पुं० उक्त का सूचक अंक या संख्या।-४८
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अड़तीस  : वि० [हिं० अष्टत्रिशंत० प्रा० अट्ठातीस] जो गिनती में तीस और आठ हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या।-३८
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अड़तीसवाँ  : वि० [हिं० अड़तीस] क्रम या संख्या में जिसका स्थान ३८. वाले अंक पर पड़े।
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अड़दार  : वि० [हिं० अड़+फा० दार (प्रत्यय)] १. बीच में चलते चलते रुक जाने वाला। अड़ियल। जैसे—अड़दार घोड़ा। २. हठी। ३. अभिमानी। घमंडी।
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अड़न  : स्त्री० [हिं० अड़ना] १. अड़ने की क्रिया या भाव। २. जिद। हठ। ३.खड़े होने बैठने आदि की स्थिति। ठवन। मुद्रा।
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अँडना  : अ०=अड़ना।
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अड़ना  : अ० [सं० अलं=वारण करना या हिं० हठ ?] १. चलते-चलते किसी कारण से बीच में रुक जाना और आगे न बढ़ना। २. बीच में पड़कर रुकना या फँसना। ३. किसी बात के लिए जिद या हठ करना।
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अड़पना  : स०=डपटना (डाँटना)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अड़पायल  : वि० [?] बलवान। बलिष्ठ। (डिं०)।
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अड़बंग  : वि० [हिं० अड़+सं० वक्र] १. उल्टा-सीधा या टेड़ा-मेड़ा। २. विचित्र। विलक्षण। ३. कठिन। विकट
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अड़बंगा  : पुं० [हिं० अड़बंग] बाधा। विघ्न। वि० =अड़बंग।
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अंडबंड  : [अनु०] १. असंबद्ध प्रलाप। अनाप-शनाप। २. गाली गलौज, वि० १. व्यर्थ का। बे सिर पैर का। २. भद्दा और अनुचित। ३. इधर उधर का और अनावश्यक या अनुपयुक्त।
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अंडबर  : पुं० (हिं० अंबर-डंबर) सूर्यादय या सूर्यास्त के समय सूर्य की किरणों के कारण बादलों में दिखाई देनेवाली लाली। पुं० दे० आडंबर।
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अडर  : वि० [सं० अ+हिं० डर] जिसे डर न हो। निडर। निर्भय।
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अँडरना  : अ० [सं० अवतरण] धान के पौधे में बाल निकलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अडराना  : अ० [अनु०] १. डहाँ-तहाँ बाते करते फिरना। २. दर्प या अभिमान दिखाना। ३. व्यर्थ इधर-उधर घूमना।
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अड़व  : पुं०=ओड़व (संगीत)
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अंडस  : स्त्री० [सं० अंतर=बीज में, दाब में] ऐसी कठिन परिस्थिति जिसमें से सहज में निकलना न हो सके।
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अड़सठ  : वि० [सं० अष्टशषष्टि, प्रा० अटृषट्ठि] जो गिनती में साठ और आठ हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या।-६८
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अड़सठवाँ  : वि० [हिं० अड़सठ] जो क्रम में सड़सठवें के उपरान्त हो।
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अँडसना  : अं० [सं० अंतरण=बीच में पड़कर दबना] बीच में इस प्रकार अटकना या फँसना कि चारों ओर से दबाव पड़ने के कारण सहज में न निकल सकें। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंडसू  : वि० [सं०√अंड सू (प्रसव) +क्विप्] अंडे से उत्पन्न होने वाला अंडज।
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अड़हुल  : पुं० [सं० ओण+पुल्ल, हिं० ओणहुल्ल] एक प्रकार का छोटा वृक्ष जिसमें लाल फूल लगते हैं। देवी पुष्प। जवा कुसुम।
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अंडा  : पुं० [सं० अंड] १. कुछ विशिष्ट मादा जीवों के गर्भाशय निकलनेवाला वह गोल या लम्बोतरा पिंड जिसमें से उनके बच्चे जन्म लेते हैं। जैसे—चिड़िया, मछली, मुर्गी या साँप का अंडा। मुहावरा—अंडा खटकना—अंडा फूटना। अंडा ढीला होना=काम करते करते या चलते चलते थकावट आना। अंडा सरकाना=हाथ पैर हिलाना। अंडा सेना=(क) पक्षियों का अपने अंडों पर बैठना। (ख) इस प्रकार बैठकर उसमें गरमी पहुँचाना ताकि वे जल्दी फूटें। (ग) घर में बैठे रहना। घर से बाहर न लिकलना। २. देह, शरीर (क्व०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अड़ा  : पुं० [हिं० अड़ा] ठहरने, बैठने या रुकने का स्थान। उदाहरण—निचिंत बैठे तेहि अड़ा।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अड़ा-अड़ी  : स्त्री० [हिं० अड़ना] आपस में एक दूसरों से बढ़ने का प्रयत्न। होड़।
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अंडाकर्षण  : पुं० [सं० अंड आकर्षण, ष० त०] नर चौपाये को बधिया करना।
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अंडाकार  : वि० [सं० अंड-आकार, ब० स०] अंडे के आकार का लम्बोतरा गोल (ओवल)।
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अंडाकृति  : स्त्री० [सं० अंड-आकृति, ष० त०] अंडे जैसी आकृति होने की अवस्था या भाव। वि० =अंडाकार।
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अड़ाड़  : पुं०=अराड़।
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अड़ान  : पुं० [सं० अडृ=समाधान] १. अड़ने की अवस्था या भाव। २. अड़ने, ठहरने या रुकने का स्थान। पड़ाव।
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अड़ाना  : स० [हिं० आड़] १. बीच में कोई चीज इस प्रकार फँसाना या लगाना कि किसी की गति या मार्ग रुक जाय। फँसाने या रोकने के लिए बीच में कुछ लगाना। २. बाधा या विघ्न उपस्थित करना। ३. उलझाना। ४. गिरती हुई चीज रोकने के लिए उसके नीचे टेक लगाना। पुं० वह लकड़ी जो गिरती हुई छत या दीवार आदि को गिराने से बचाने के लिए उसके नीचे लगाई जाती है। चाँड। टेक। पुं० [?] सम्पूर्ण जाति का एक राग जो आधी रात के समय गाया जाता है।
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अड़ानी  : स्त्री० [हिं० अड़ाना=अटकाना] १. वह चीज जो किसी क्रिया को रोकने के लिए उसके मार्ग में रखी या लगाई जाए। २. लकड़ी की वह गुल्ली जो खिड़कियों, दरवाजों आदि को बन्द होने से रोकने के लिए चौखट और पल्ले के बीच में लगाई जाती है। ३. कुश्ती का अडंगा नामक दाँव या पेच।
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अड़ायता  : वि० [हिं० अड़ाना या आड़] १. आड़ या ओट करनेवाला। २. शरण देनेवाला रक्षक।
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अड़ार  : वि० [सं० अराल] तिरछा। टेढ़ा। पुं० [सं० अट्ठाल=बुर्ज, ऊँचा स्थान] १. समूह। ढेर। २. बिक्री के लिए रखा हुआ ईधन का ढेर। ३.लकड़ी या ईधन की दुकान।
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अड़ारना  : स०=डालना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अड़ाल  : पुं० [सं० ] एक प्रकार का नाच, जिसे मयूर नृत्य भी कहते हैं।
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अंडालु  : वि० [सं० अण्ड+आलुच्]=अंडज।
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अंडाशय  : वि० [सं० अण्ड-आशय=घर, ष० त०] स्त्री० जाति के जीवों, पौधों आदि का वह अंग जिसमे अंड या डिंब पहुँचकर स्थित और विकसित होता है और उस वर्ग के नये जीवों, पौधों आदि का प्रजनन करता है। डिबांशय (ओवरी)।
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अंडिका  : स्त्री० [सं० अंड+कन्-टाप्, इत्व] चार जौ की एक तौल।
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अडिग  : वि० [सं० अ=नहीं+हिं० डिगना) १. जो अपने से डिगे या हिले नहीं। अचल। २. अपनी प्रतिज्ञा या प्रण से पीछे न हटनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अडिगरध  : वि० [?]=अडिग। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंडिनी  : स्त्री० [सं० अंड+इनि-डीप्] योनि में होने वाला एक रोग।
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अड़ियल  : वि० [हिं० अड़ना=रुकना] १. चलते समय बीच-बीच में रह-रह कर अड़ने या रुकनेवाला। जैसे—अड़ियल घोड़ा। पद—अड़ियल टट्टू=ऐसा व्यक्ति जो काम करते समय बीच-बीच में रुक जाए और बिना प्रेरणा के आगे न बढ़े। २. निकम्मा और सुस्त। वि० (हिं० अड़=हठ) दुराग्रही। हठी।
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अँडिया  : पुं० [सं० अंड या अण्ठि] १. बाजरे की पकी हुई बाल। २. अटेरन जिसपर सूत लपेटते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अड़िया  : स्त्री० [हिं० अड़ना या आड़] १. साधुओं में टेककर बैठने का लकड़ी का चौखट। आधारी। २. वह बरतन जिसमें गारा चूना आदि ढोकर राज-मजदूरों या मिस्तरियों तक पहुँचाया जाता है। अढ़िया। ३. वह रस्सी जिसमें जहाज का लंगर बँधा रहता है।
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अड़िल्ल  : पुं०=अरिल्ल।
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अंडी  : स्त्री० [सं० एरण्ड] १. रेंड का वृक्ष, फल या बीज। २. एक प्रकार का मोटा रेशम। ३. इस रेशम की बनी हुई चादर या कपड़ा।
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अड़ी  : स्त्री० [हिं० अड़ या अड़ना] १. ऐसी स्थिति जिसमें आगे बढ़ना कठिन हो। पद—अड़ी-घड़ी=कठिन, चिन्ताजनक या संकट की स्थिति। २. बाधा। रुकावट। ३. जिद। हठ।
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अड़ी-खंभ  : वि० [हिं० अड़ी+खंभ] बलवान्। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अडीठ  : वि० (हिं० अ+डीठ) १. जो दिखाई न दे। अदृश्य। २. जिसे किसी ने देखा न हो। अदृष्ट। ३. छिपा हुआ। गुप्त। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँडुआ बैल  : पुं० [हि० अँडुआ+बैल] १. वह बैल जो बधिया न किया गया हो साँड। २. (लाक्षणिक) सुस्त आदमी।
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अँडुआना  : स्० [सं० अण्ड] नर चौपाये का बधिया करना।
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अँडुवा  : पुं० वि० =आँड।
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अंडुवारी  : स्त्री० [सं० अणु=छोटा टुकड़ा] एक प्रकार की छोटी मछली।
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अडूलना  : स० [सं० उत्=ऊँचा+इल=फेंकना] जल आदि उड़ेलना, गिराना या डालना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अडूसा  : पुं० [सं० अटृरूष, प्रा० अटृलुस, गु० अरडुशी, अडुसी, ल० आधातोदा] एक प्रकार का पौधा और उसका फल। विशेष—वैद्यक में इस पौधे के पत्तों और फलों के रस को खाँसी और दमे के रोगियों के लिए बहुत उपयोगी बतलाया गया है।
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अडैतो  : वि० दे०‘अड़ायता'।
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अंडैल  : स्त्री० [हि० अंडा] मादा जन्तु, जिसके पेट में अंडे हों।
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अडोर  : पुं०=अँदोर (शोर-गुल)।
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अडोल  : वि० [सं० अ=नहीं+हिं० डोलना] १. न हिलने वाला स्थिर। २. जिसमें गति न हो। गतिहीन। ३. शान्त तथा स्तब्ध। ४. जिसे विचलित न किया जा सके। फलतः दृढ़ या पक्का।
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अड़ोस-पड़ोस  : पुं० [सं० पार्श्व=पड़ोस] आस पास के घर, स्थान आदि।
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अड्डन  : पुं० [सं० ] ढाल।
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अड्डा  : पुं० [सं० अड्डा=ऊँची जगह] १. टिकने, ठहरने या बैठने का स्थान। जैसे—बाज या बुलबुल का अड्डा। २. वह स्थान जहाँ कुछ लोग टिक कर बैठते है और अपना काम करते हैं। जैसे—कई तरह के कारीगरों का अड्डा, जुलाहों या रेशम बटनेवालों का अड्डा आदि। २. किसी वर्ग के लोगों, सवारियों आदि के इकट्ठे होने का स्थान। जैसे—जुवारियों का अड्डा, बैलगाड़ियों या मोटरों का अड्डा। ४. कबूतरों की छतरी। ५. करघा। ६. एक प्रकार का औजार। ७. लकड़ी का चौखठा। ८. खँडसाल में काम आने वाली बाँस की टट्टी। ९. एक प्रकार का मोटा गद्दा।
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अड्डी  : स्त्री० [हिं० अड्डा] १. एक प्रकार का बरमा। २. लकड़ी का एक प्रकार का चौखूटा ढाँचा। ३. एड़ी।
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अढ़  : स्त्री०=अड़।
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अढ़उल  : पुं०=अड़हुल।
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अढतिया  : पुं० [हिं० आढ़त+इया (प्रत्यय)] १. वह व्यापारी जो दूसरों का माल अपने यहाँ ब्रिकी के लिए अमानत के रूप में रखता और बिक जाने पर उसका दाम चुकाता हो। २. वह मध्यवर्ती व्यापारी जो माँग आने पर बाजार से माल खरीद कर बाहर भेजता हो।
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अढ़न  : स्त्री० [?] १. महत्ता। श्रेष्टता। २. मर्यादा। ३. धाक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अढ़वना  : स० [सं० आ+ज्ञा (बोध करना)] —आज्ञापन, पा० अम्भापन, प्रा० आगवन। १. आज्ञा या आदेश देना। २. निर्देश करना। ३. नियुक्त करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अढ़वायक  : पुं० [हिं० अढ़वना] १. वह जो आज्ञा या आदेश दे। २. वह जो निर्देश करे। ३.वह जो दूसरों को काम पर नियुक्त करे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अढ़वैया  : पुं०=अढ़वायक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अढ़ाई  : वि० [सं० अर्धतृतीय, मा० अडाइज्ज, अर्धभा, पं० ढाई, सि० अढ़ाई, बै० अड़ा] जो संख्या में दो और आधा हो। ढाई।
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अढ़ार  : वि० [सं० अ√हिं० ढरना=ढलना] १. जो किसी पर ढले या ढरे नहीं। अनुरक्त, आकृष्ट या प्रवृत्त न होने वाला। २. निर्दय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अढ़ार टंकी  : पुं० [?] धनुष। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अढ़िया  : स्त्री० [?] कड़ाई के आकार का वह बरतन जिसमें मजदूर गारा, चूना आदि ढ़ोते हैं।
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अढ़ुक  : पुं० [?] १. बाधा। रुकावट। २. बाधा पहुँचाने वाली बात या वस्तु।
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अढ़ुकना  : अ० [सं० अ+हिं० ढुकना] १. घुस पैठ या प्रवेश न कर सकना। २. अटकना। रुकना। ३. ठोकर खाना। ४. सहारा या टेक लगाकर बैठना। ५. लेटना (पूरब)।
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अढ़ेकरी  : वि० [?] निरपराध। निर्दोष।
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अढ़ैया  : पुं० [हिं० अढ़ाई] १. अढ़ाई सेर का बाट। २. अड़ाई या अढ़ाई गुने का पहाड़ा।
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अणक  : वि० [सं० अण् (शब्द)√अच्०अण+क] १. अधम। नीच। २. तुच्छ। निंदनीय। पुं० वह जिसमें शब्द न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अणकीय  : वि० [सं० अणक+छ-ईय] १. सत्वहीन। निरर्थक। २. तुच्छ हीन।
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अणचूक  : वि० =अचूक। उदाहरण—ऊँगा दन समै करे आषाड़ा, चौरंग भुवण हसत अणचूक।—पृथ्वीराज।
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अणंद  : पुं० =आनन्द।
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अणद  : पुं० =आनन्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अणमण  : वि० =अनमना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अणसंक  : वि० [सं० अन्=नहीं+शंका=डर] निःशंक। निडर। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अणास  : पुं [हिं० अँडसना या अंडस] १. कठिनता। २. झंझट। परेशानी। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अणि  : स्त्री० [सं√०अण् (शब्द)√इन] १. सूई अथवा किसी भी नुकीली वस्तु का अगला भाग। नोंक। २. धार। ३. पहिए की धुरी की कील। ४. घर का कोना या भाग। ५. सीमा। ६. किनारा।
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अणिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० अणु+इमनिच्] अष्ट सिद्धियों में से पहली सिद्धि, जिसे सिद्ध कर लेने पर योगी अति सूक्ष्म रूप धारण कर सकते हैं जिसमें उन्हें लोग देख न सकें।
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अणिमादिक  : स्त्री० [सं० अणिमा-आदि, ब० स०कप्) योग की अष्ट सिद्धियाँ, यथा अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व।
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अणियाला  : वि० [सं० अणि+धार] [स्त्री० अणियाली] १. अणि से युक्त। २. अणि की तरह नुकीला। (डिं०) उदाहरण—अणियाला नयन बाण अणियाली-पृथ्वीराज।
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अणियाली  : स्त्री०[सं० अणि+धार] १. सूई। २. कटारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अणी  : स्त्री० [अणि√डीष्]=अणि। अव्य स्त्रियों में प्रचलित संबोधन का शब्द। अरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अणीय  : [स्] वि० [सं० अणु+ईयसुन] १. तीक्ष्ण नोक या धार वाला। २. सूक्ष्म। ३. महीन या झीना (वस्त्र)
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अणु  : पुं० [सं०√अण्+उन्] [भाव० अणुता] १. किसी तत्त्व या धातु आदि का वह बहुत छोटा टुकड़ा या अंश जिसमें उसके सभी संयोजक अंश वर्तमान हों। (मोलोक्यूल) विशेष—आजकल भूल से इस शब्द का उपयोग परमाणु के स्थान पर होने लगा है। विशेष दे० परमाणु। २. साठ परमाणुओं का एक प्राचीन नाम। ३. धूल का छोटा टुकड़ा। रजकण। ४. अत्यन्त्र सूक्ष्म मात्रा या वस्तु। ५. संगीत में तीन काल के काल के चतुर्थांश।
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अणु-तरंग  : स्त्री० [ष० त०] (विज्ञान में) बिजली या विद्युत से निकलने वाली एक प्रकार की बहुत छोटी लहर या तरंग। (माइक्रोवेश)
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अणु-दर्शन  : पुं० [ष० त०] विद्या या शास्त्र जिसमें विभिन्न अणुओं, उनकी रचना, स्वरूप आदि के संबंध में विचार होता है।
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अणु-भा  : स्त्री० [ब० स०] बिजली।
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अणु-भाष्य  : पुं० [कर्म० स०] ब्रह्मसूत्र पर वल्लभाचार्य का भाष्य।
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अणु-रेणु  : पुं० [कर्म० स०] अत्यंत सूक्ष्म कण। (जैसे सूर्यरश्मि में दिखाई देते हैं।)
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अणु-वाद  : पुं० [ष० त०] १.=अणु-दर्शन। २. वह दर्शन या सिद्धान्त जिसमें जीव या आत्मा अणु माना गया हो। (रामानुज) ३. वैशेषिक दर्शन।
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अणु-वीक्षण  : पुं० [ष० त०] १. सूक्ष्म बातों या वस्तुओं को देखने या जानने की क्रिया या भाव। २. बालों की खाल निकालना। ३. छिद्रान्वेषण।
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अणु-वीक्षण यंत्र  : पुं० [सं० ष० त०]=सूक्ष्म-दर्शक यंत्र।
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अणु-व्रत  : पुं० [कर्म० स०] जैन शास्त्र के अनुसार गृहस्थ के ये पाँच धर्म या मूल-व्रत-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्त, दान, अनुचित या निषिद्ध मैथुन और परिग्रह से बचना, जिन्हें योग शास्त्र में यम कहा गया है।
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अणु-व्रीहि  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का बढ़िया धान और उसका चावल।
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अणुक  : वि० [सं० अणु+कन्] १. अणु-संबंधी। २. सूक्ष्म। ३. क्षुद्र। ४. चतुर।
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अणुबम  : पुं० [सं० अणु+अ० बाम्ब] एक प्रकार का बम (गोला) जिसमें रसायनिक क्रियाओं द्वारा अणु का विस्फोट होता है तथा जिसके फलस्वरूप भीषण तथा व्यापक संहार होता है। (एटम-बाम्ब)
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अणुवादी (दिन्)  : वि० [सं० अणुवाद+इनि] अणुवाद के सिद्धान्त माननेवाला या उसका अनुयायी। पुं० वल्लभाचार्य का अनुयायी वैष्णव।
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अणोरणीयान्  : वि० [सं० व्यस्त पद] १. सूक्ष्म से सूक्ष्म। अत्यंत सूक्ष्म। २. छोटे से छोटे।
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अंतः  : अव्य=अंतर्।
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अंत  : पुं० [सं०√अम् (गति आदि)+तन्] १. वह स्थान जहाँ किसी चीज के अस्तित्व, विस्तार आदि का अवसान या समाप्ति होती हो। २. पूरे या समाप्त होने की अवस्था या भाव। ३. छोर सिरा। ४. मरण, मृत्यु। ५. नाश। ६. परिणाम, फल, नतीजा। ७. प्रलय। क्रि० वि० अंतिम अवस्था या दशा में आखिरकार। उदाहरण—उघरेहिं अंत न होहि निबाहू—तुलसी। कि० वि० [सं० अन्यत्र, पुं० हिं० अनत] वक्ता के स्थान से अलग या दूर। दूसरी जगह पर। उदाहरण—गोप सखन संग खेलत डोलौं, ब्रज तजि अंत न जैहों—सूर। पुं० [सं० अंतस्] १. अंतःकरण। हृदय। २. भेद। ३. रहस्य आदि की थाह। मुहावरा—किसी का अंत लेना=यह पता लगाना कि किसी के मन में क्या बात है या किसी विषय में उसकी कितनी जानकारी है। स्त्री० [सं० अंत्र] आँत। अँतड़ी। उदाहरण—इक दंत गज गिद्धि उतरि लै अंत अलझि झअ-चन्द्र वरदाई।
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अतः (तस्)  : अ० य० [सं० इदम्+तसिल्] १. इससे। २. यहाँ से। ३. इस कारण से। इसलिए (हेन्स)
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अंत-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘अंत्येष्टि’।
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अंत-गति  : स्त्री० [ष० त०) मृत्यु। मौत।
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अंत-दीपक  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का काव्यालंकार जो दीपक अलंकार का एक भेद है।
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अतः-परम्  : क्रि० वि० [सं० व्यस्त पद] १. इससे आगे। २. इससे बढ़कर।
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अंत-पाल  : पुं० [ष० त०] १. द्वारपाल। दरबान। २. सीमा प्रदेश का रक्षक अधिकारी
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अंत-लघु  : पुं० [ब० स०] १. वह चरण जिसके अन्त में लघु वर्ण या मात्रा हो। २. वह शब्द जिसका अन्तिम वर्ण या मात्रा लघु हो।
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अंत-वर्ण  : पुं० [ष० त०] अन्तिम वर्ण का शूद्र।
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अंत-विदारण  : पुं० [ब० स०] ग्रहण के दस प्रकार के मोक्षों में से एक।
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अंत-वेला  : स्त्री०=अंत-काल।
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अंत-व्यापत्ति  : स्त्री० [ष० त०] शब्द के अंतिम अक्षर में होने वाला परिवर्तन।
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अंत-शय्या  : स्त्री० [ष० त०] १. मृत्युशय्या। २. मृत्यु। ३. श्मशान।
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अंत-सद्  : पुं० [सं० अंत√सद् (प्राप्ति, बैठना) +क्विप] शिष्य। चेला।
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अंत-स्नान  : पुं० [ष० त०] यज्ञ की समाप्ति पर किया जानेवाला स्नान।
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अंत-हीन  : वि० [तृ० त०] [भाव० अंतहीनता] १. जिसका अन्त न हो, अनंत। २. जिसकी सीमा न हो, निस्सीम।
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अतएव  : अ० य० [सं० व्यस्त पद] इसी कारण से। इसी लिए।
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अंतक  : वि० [सं०√अंत् (नाश करना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. अंत या नाश करने वाला। पुं० १. मृत्यु। मौत। २. यमराज। ३. शिव। ४. एक प्रकार का सन्निपात (रोग)।
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अतंक  : पुं०=आतंक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंतकर  : वि० [सं० अंत√ कृ (करना)+ट] अंत या नाश करने वाला। पुं० दे० ‘अंतक’।
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अंतःकरण  : पुं० [ष० त०] १. अन्दर की इन्द्रिय। २. मन की वह आन्तरिक वृत्ति या शक्ति जिसके द्वारा हम भले बुरे, सत्य-मिथ्या, सार असार की पहचान करते हैं। विवेक (कान्शेस)। हमारे यहाँ मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार चारों इसी के अंग माने गये हैं। ३. हृदय, जो इस शक्ति के रहने का स्थान माना गया है।
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अंतकर्त्ता  : [सं० अंत√ कृ+तृच्]=अंतकर।
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अंतकर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] १. मृत्यु। २. नाश। ३. दे० ‘अंत्येष्टि’।
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अंतःकलह  : पुं० [ष० त०]=गृह-कलह।
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अंतकारी (रिन्)  : [सं० अंत√ कृ+णिनि]=अंतकर।
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अंतकाल  : पुं० [ष० त०] १. अंतिम समय। २. मृत्यु का समय।
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अंतःकालीन  : वि० [सं० अंचकाल, मध्य सं० +ख-ईन] दो कालों या घटनाओं के बीच का और फलता अस्थाई समय। (इन्टेरिम)।
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अंतःकुटिल  : वि० [सं० त०] जिसके मन में कपट हो। कपटी छली।
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अंतकृत्  : पुं० [सं० अंत√ कृ+क्विप्-तुक्] यमराज। वि० अंत या नाश करने वाला अंतकर।
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अंतःकोण  : पुं० [ष० त०] अन्दर की ओर का कोना।
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अंतःक्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. अन्दर ही अन्दर होने वाली क्रिया या व्यापार। २. मन को शुद्ध करने वाला शुभ कर्म।
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अंतग  : वि० [सं० अंत√ गम् (जाना)√ड] १. अंत तक जाने वाला पारगामी पारंगत।
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अतगत  : वि० [सं० अतिगत] अति तक पहुँचा हुआ। बहुत अधिक। उदाहरण—मैं तो करती हूँ दुगान से भलाई अतगत। वह करती है बंदी से बुराई अतगत।—रंगी। क्रि० वि० अनावश्यक या अनुचित रूप से।
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अंतघाई  : वि० [सं० अंत√घात] अंत में घात करने या धोखा देने वाला। अंतघाती।
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अंतघाती  : वि० =अंतघाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंतचर  : वि० [सं० अंत√ चर् (गति)+ट] १. अंत तक पहुँचाने या सीमा पर जाने वाला। २. कार्य पूरा करनेवाला।
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अंतछद्  : पुं० [सं० अंत+छद् (ढाँकना)+घ] ऊपर से ढकने वाली वस्तु आच्छादन।
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अंतज  : वि० [सं० अंत√ जन् (उत्पत्ति)+ड] सब के अंत या बाद में उत्पन्न होनेवाला।
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अतट  : वि० [सं० न० ब०]१. जिसका तट या कूल न हो। २. (पर्वत इत्यादि) जिसमें तट या ढालुआँ किनारा न हो। पुं० १. पर्वत की चोटी। २. ऐसी ऊँची भूमि जिसके इधर-उधर ढाल न हो। ३.=अतल।
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अँतड़ी  : स्त्री० [सं० अन्त्र] आँत। मुहावरा—(किसी की)—अँतड़ी टटोलना=भीतरी बातों की थाह लेने या पता लगाने का प्रयत्न करना। अँतड़ी जलना=भूख के मारे बुरा हाल होना। अंतड़ियों के बल खोलना=बहुत दिन बाद भोजन मिलने पर तृप्त होकर खाना।
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अंतत  : अव्य [सं० अंत+तस्] १. सब उपाय कर चुकने पर। अन्त में (लास्टली) २. और नहीं तो इतना ही सही। कम से कम (एटलीस्ट)। ३. भीतर।
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अतंत  : वि० =अत्यन्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंततम  : वि० [सं० अंत+तमप्] १. जो किसी कम या श्रंखला में सब के अंत में हो। २. सबसे बादवाला। बिल्कुल हाल वाला (लेटेस्ट)।
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अंततर  : वि० [सं० अंत+तरप्] किसी काल विभाग के अंत या बाद वाले अंश में होने वाला। (लेटर)
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अंततोगत्वा  : कि० वि० [सं० अन्ततः-गत्वा, व्यस्तपद] सब बातें हो जाने के उपरान्त उनके अंत में। (अल्टिमेटली)।
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अतत्पर  : वि० [सं० न० त०] जो तत्पर न हो।
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अतंत्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसपर किसी का तंत्र, नियंत्रण या शासन न हो। २. जिसमें तंतु या रेशे न हों।
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अतथ्य  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें तथ्य या सच्चाई न हो। अवास्तविक। पुं० (न० त०) तथ्य का अभाव।
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अतद्गुण  : पुं० [सं० न० ब०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी वस्तु या व्यक्ति का अपने पास वाली वस्तु या व्यक्ति के गुण न ग्रहण करने का उल्लेख होता है।
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अतंद्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जो तंद्रा में न हो। तंद्रा से रहित। २. जागता हुआ और सचेष्ट। ३. जो थका हुआ या शिथिल न हो।
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अतंद्रिक  : वि० [सं० तंद्रा√ठन्-इक, न० त०]=अतंद्र।
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अतंद्रित  : वि० [सं० तंद्रा+इतच्, न० त०] १. जो तंद्रा या निन्द्रा में न हो। २. जागा हुआ।
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अतंद्रिल  : वि० [सं० तंद्रा+इलच्, न० त०]=अतंद्र।
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अतंद्री (द्रिन्)  : वि० [सं० तंद्रा+इनि, न०त] १. जिसे तंद्रा या निंद्रा न आती हो। २. बराबर जागता रहनेवाला।
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अतद्वत्  : वि० [सं० न० त०] १. जो रूप, रंग, गुण आदि में किसी (अभिप्रेत) के समान न हो। २. जो उसके समान न हो। तद्वत् का विपर्याय।
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अतद्वान्  : वि० =अतद्वत।
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अतन  : वि० पुं०=अतनु।
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अतन-जतन  : पुं०=यत्न (प्रयत्न)।
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अतनु  : वि० [सं० न० ब०] १. बिना शरीर का। शरीर रहित। २. [सं० न० त०] जो दुबला-पतला न हो। फलतः स्थूल। पुं० [सं० न० ब०] कामदेव।
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अंतप  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें ताप न हो। २. न तपनेवाला। ३. जो तप (तपस्या) न करता हो। पुं० १. वह जो तपस्या की अवहेलना करता हो। २. वह जो तपस्वी न हो।
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अंतःपटी  : स्त्री० [ष० त०] १. चित्रपट पर बना हुआ प्राकृतिक दृश्य। २. रंगमंच पर परदा।
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अतपी (पिन्)  : पुं० [सं० आतप+इनि] सूर्य। वि० १. आतप या धूप से संबंध रखनेवाला। २. कष्ट या दुःख देनेवाला। ३. मन ही मन जलनेवाला। ईष्यार्लु।
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अंतःपुर  : पुं० [ष० त०] घर या महल का वह भीतरी भाग जिसमें स्त्रियाँ रहती हैं। रनिवास जनानखाना।
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अंतःपुरिक  : पुं० [सं० अंतःपुर+ठक-इक] अंतःपुर का रक्षक। कंचुकी।
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अंतःपुष्प  : पुं० [मध्य० स०] स्त्रियों का रज।
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अतप्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो तप्त या गरम न हो। २. जो पका न हो।
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अतप्ततनु  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसने घोर तपस्या न की हो। २. जिसके शरीर पर तृप्त मुद्रा के चिन्ह न बनें हों। ३. जिसने शंख, चक्र, गदा पद्य आदि के चिन्ह अपने शरीर पर न धारण किये हों। ४. बिना छाप का।
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अंतःप्रकृति  : स्त्री० [मध्य० स०] १. मूल स्वभाव। २. हृदय। ३. प्राचीन भारत में राजा का मंत्रिमंडल।
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अंतःप्रज्ञ  : पुं० [ब० स०] आत्मज्ञानी।
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अंतःप्रवाह  : पुं० [मध्य सं०] अन्दर की अन्दर बहने वाली धारा। भीतरी प्रवाह।
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अंतःप्रांतीय  : वि० [सं० अंतःप्रात,मध्य स०√छ-ईय] किसी प्रांत के भीतरी भाग या बातों से सम्बन्ध रखने वाला। वि० दे० अंतर-प्रांतीय।
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अंतःप्रादेशिक  : वि० [सं० अंतः प्रदेश, मध्य स०+ठञ्-इक]=अंतःप्रांतीय। वि० दे० अंतर-प्रांदेशिक।
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अंतःप्रेरणा  : स्त्री० [ष० त०] मन में आपसे आप उत्पन्न होने वाली सहज प्रेरणा।
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अंतभव  : वि० [सं० अंत√ भू (होना)+अप्] जो अंत में उत्पन्न हुआ हो।
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अंतभौम  : वि० [सं० भूमि+अण्-भौम, अंतभौम, मध्य०स०] पृथ्वी के अंदर का। भूगर्भ का।
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अतमस्  : वि० [सं० न० ब०] बिना अंधेरे का। अंधकार रहित।
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अतमिस्र  : वि० [सं० न० ब०] जो अंधकारपूर्ण न हो।
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अंतर  : पुं० [सं० अंत√रा (देन)+क] [कि अँतराना] १. किसी वस्तु का भीतरी भाग। २. बीच मध्य। ३. दो वस्तुओं के बीच की दूरी। ४. दो घटनाओं के बीच का समय। ५. दो वस्तुओं को आपस में पृथक् या भिन्न करने वाला तत्त्व या बात, भेद, फरक। (डिफरेन्स)। ६. दो वस्तुओं के बीच रहने वाला आवरण, आड़, ओट। ७. छिद्र, छेद। ८. आत्मा। ९. परमात्मा। १. वस्त्र, कपड़ा। अव्य- १॰. अंदर, भीतर। २. अलग, दूर। वि० १. अंदर का, भीतरी। २. पास आया हुआ। आसत्र। ३. बाहरी। ४. दूसरा। भिन्न। [यौ०के अंत में] जैसे— देशांतर। पुं० [सं० अंतस्) अंतःकरण। मन। हृदय। वि० दे० अंतर्धान। उप० (अं० इन्टर से ध्वनि साम्य के आधार पर) एक नया हिन्दी उपसर्ग जो कुछ यौगिक पदों के आरम्भ में लगकर यह अर्थ देता है—एक ही प्रकार या वर्ग के दो या अधिक स्थानों आदि में सामान्य रूप से होने या उनके पारस्परिक व्यवहार से सम्बन्ध रखनेवाला। जैसे—अंतर-प्रांतीय, अंतर-राष्ट्रीय आदि। विशेष—कुछ लोग इसे भूल से सं० अव्यय अंतर् का ही रूप मानकर अंतर्जिला और अंतराष्ट्रीय आदि रूप भी बना लेते हैं, जो ठीक नहीं है। यह संस्कृत के अंतर (संज्ञा) से भी भिन्न हैं, पर प्रायः सं० अंतर (विशेषण) की तरह प्रयुक्त होता है। पर इसका मूल विदेशी ही है, भारतीय नहीं। (दे० ‘अंतर्’ और ‘अंतर’)।
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अतर  : पुं० [अ० इत्र] वह सुगंधित तरल पदार्थ जो फूलों का आसवन करने से तैयार होता है। पुष्प-सार।
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अंतर-अयन  : पुं० [कर्म० स०] १. किसी तीर्थ स्थान के भीतर पड़ने वाले मुख्य देव स्थानों की यात्रा। २. किसी तीर्थ के चारों ओर की जाने वाली परिक्रमा। ३. एक प्राचीन देश का नाम।
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अंतर-आणविक  : वि० [कर्म० स०] (तत्त्व) जो दो या अधिक पदार्थों के अणुओं में समान रूप से पाया जाता हो। (इण्टर-मोलक्यूलर)।
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अंतर-चक्र  : पुं० [कर्म० स०] १. किसी दिशा और उसके पास वाली विदिशा के बीच के अतर का चतुर्थाश। २. हठयोग के अनुसार शरीर के अंदर के मूलाधार आदि चक्र या कमल। विशेष—दे० षट्चक्र। ३. आत्मीय या स्वजन लोगों का वर्ग। ४. भीतरी चक्र या मनुष्यों का वर्ग जो अंदर के सब काम करता हो और जो बाहर वालों या जन साधारण से भिन्न हो। (इनर-सरकिल) ५. पशु-पक्षियों की बोली के आधार पर शुभाशुभ फल जानने की विद्या।
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अंतर-छाल  : स्त्री० [सं० अंतर+हिं० छाल] छाल के भीतर की कोमल छाल या नरम भाग।
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अंतर-जातीय  : वि० [सं० अंतर-जाति, कर्म० स० +छ-ईय] दो या दो से अधिक जातियों से पारस्परिक संबंध रखने वाला या उनमें होनेवाला।
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अंतर-दिशा  : स्त्री० (ष० त०] दो दिशाओं के बीच की दिशा। विदिशा।
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अंतर-देशीय  : वि० [अंतर-देश, कर्म० स०√छ-ईय] दो या कई देशों के पारस्परिक व्यवहार से संबंध रखनेवाला।
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अंतर-धातुक  : वि० [ब० स०, कप्] (तत्त्व) जो दो या अधिक धातुओं में समान रूप से पाया जाता हो। (इन्टर-मेटेलिक)।
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अंतर-पट  : पुं० [ष० त०] १. आड़ करने का कपड़ा। परदा। २. हृदय पर पड़ा हुआ अज्ञान का परदा। ३. विवाह के समय वर और वधू के बीच में आड़ करने वाला कपड़ा। मुहावरा—अंतर-पट साजना=छिपकर बैठना। ओट में रहना। ४. दुराव। छिपाव। भेद-भाव। ५. गीली मिट्टी से लपेटकर औषध आदि फूँकने या भस्म करने की क्रिया। कपड़-मिट्टी।
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अंतर-पतित  : वि० [स० त०] बीच में आने, पड़ने या होनेवाला।
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अंतर-पतितआय  : स्त्री० [अंतरपतित-आय, कर्म० स०] किसी व्यवहार या व्यापार के बीच में पड़नेवाले व्यक्ति को यों ही होनेवाली आय। (इण्टरमीडिअरी प्राँफिट) जैसे—दलाली या दस्तूरी।
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अंतर-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] १. आत्मा। २. परमात्मा।
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अंतर-प्रश्न  : पुं० [मध्य०स०] वह प्रश्न जो पहले कही हुई बात में ही निहित हो या उसके कारण उत्पन्न हो।
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अंतर-प्रातीय  : वि० [अंतर-प्रांत, कर्म० स०,+छ-ईय] दो या अधिक प्रांतों के पारस्परिक व्यवहार से संबंध रखने या उनमें होने वाला। (इण्टर प्राँविन्शल)। वि० दे० ‘अंत-प्रांतीय’।
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अंतर-प्रांदेशिक  : वि० =अंतर-प्रांतीय।
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अंतर-रति  : स्त्री० [कर्म० स०] दे० ‘अंतर्रति'।
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अंतर-राष्ट्रीय  : वि० [स० अंतर-राष्ट्र, क्रम० स०√छ-ईय] दो या अधिक राष्ट्रों के पारस्परिक व्यवहार से संबंध रखने या उनमें होने वाला। (इण्टरनेशनल)।
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अंतर-स्थित  : वि० [स० त०]=अंतरस्थ।
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अतरक  : वि० =अतर्क्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंतरकालीन  : वि० [सं० अंतर-काल, कर्म० स०+ख-ईन] दो काल विभागों या समयों के बीच पड़ने वाले काल या समय से संबंध रखने अथवा उस बीच वाले काल या समय में होने वाला। (प्रॉविजनल)।
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अंतरंग  : वि० [अंतर्-अंग ब० स०] १. जो अन्दर हो अथवा जिसका संबंध अन्दर से हो। भीतरी। बहिरंग का विपर्याय। २. भीतरी या गुप्त बातों को जानने या उनसे संबंध रखने वाला। जैसे—अंतरंग सभा। पुं० [मध्य सं० ] १. शरीर के भीतरी अंग। जैसे—मन, मस्तिष्क आदि। २. आत्मीय, स्वजन। ३. बहुत घनिष्ट मित्र।
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अतरंग  : पुं० [देश०] जहाज या नाव के गिराये हुये लंगर को उठाने की क्रिया।
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अंतरंग-मंत्री  : (त्रिन्)- पुं० [कर्म स०] किसी बहुत बड़े अधिकारी का निजी सचिव (प्राइवेट सेक्रेटरी)।
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अंतरंग-सभा  : स्त्री० [कर्म० स०] १. किसी संस्था के भीतरी बातों की व्यवस्था करने और उसकी नीति आदि स्थिर करने वाली सभा। २. कार्य-कारिणि या प्रबन्ध-कारिणि समिति।
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अंतरंगी (गिन्)  : वि० [सं० अंतरंग+इनि] १. भीतरी। २. दिली, हार्दिक। पुं० घनिष्ट मित्र, गहरा दोस्त।
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अंतरग्नि  : स्त्री० [सं० अंतर्-अग्नि, ष० त०] पेट के अंदर की अग्नि व जठरानल।
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अंतरजामी  : पुं० =अंतर्यामी।
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अंतरज्ञ  : वि० [सं० अंतर√ज्ञा (जानना) +क] १. अंतर या हृदय की बात जानने वाला। २. जिससे हृदय की बात कही गई हो। ३. भेद या रहस्य जाननेवाला।
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अंतरण  : पुं० [सं० अंतर+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अंतरित] १. किसी वस्तु या सम्पत्ति का दान, विक्रय आदि के द्वारा एक स्वामी के हाथ से निकलकर दूसरे स्वामी के हाथ में जाना, हस्तांतरण। २. किसी अधिकारी या कर्मचारी का एक विभाग या स्थान से दूसरे विभाग में या स्थान पर भेजा जाना। बदली। ३. धन या रकम का एक खाते या मद से दूसरे खाते या मद में जाना या लिखा जाना। (ट्रान्सफरेन्स, उक्त तीनों अर्थों में)।
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अंतरण-कर्ता (र्तृ)  : पुं० दे० ‘अंतरितक’।
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अंतरण-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसके द्वारा कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति, स्वत्व आदि दूसरे के हाथ सौंपता है।
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अंतरतम  : पुं० [सं० अंतर+तमप्] १. किसी वस्तु का सबसे भीतरी भाग। २. विशुद्ध अंतःकरण। वि० १. बिलकुल या ठेठ अंदर का। २. आत्मीय।
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अतरदान  : पुं० (फा० इत्रदान) वह पात्र जिसमें अतर रखे जाते है। अतर रखने का पात्र।
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अंतरप्रभव  : पुं० [सं० अंतर-प्र√ भू (होना)+अच्] दोगला। वर्णसंकर।
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अंतरय  : पुं० [सं० अंतर√ इ (गति) +अच् वा अंतर या (गति) +क]=अंतराय।
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अंतरयण  : पुं० [सं० अंतर्-अयन, स० त०] १. अन्दर या नीचे जाने की क्रिया या भाव। २. अदृश्य या लुप्त होने की क्रिया या भाव।
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अतरल  : वि० [सं० न० त०] जो तरल या पतला न हो।
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अतरवन  : पुं० [सं० अन्तर] १. पत्थर की वह पटिया जिससे छज्जा पाटते हैं। २. एक प्रकार की घास जो छप्पर छाने के समय खपरैल के नीचे दी जाती है।
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अंतरशायी (यिन्)  : पुं० [सं० अंतर√शी (सोना)+णिनि] जीवात्मा। वि० अंदर पड़ा रहनेवाला या सोनेवाला।
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अंतरसंचारी (रिन्)  : पुं० [सं० अंतर-सम् √चर् (गति)+णिनि] काव्य में रस की सिद्धि करने वाले अस्थिर मनोविकार। संचारी भाव।
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अतरसो  : क्रि० वि० [सं० इतर+श्वः] बीते हुए परसों से एक दिन पहले का दिन। २. आने वाले परसों से एक दिन बाद का दिन।
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अंतरस्थ  : वि० [सं० अंतर√स्था (ठहरना)+क] १. जो किसी के भीतरी भाग में स्थित हो। अंदर या बीच का। (इन्टर्नल) २. दे० अंतरिक। पुं० जीवात्मा।
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अँतरा  : पुं० [सं० अंतर] १. बीच का अवकाश। अंतर। २. अंतराल। ३. कोना। पद— अँतरे-खोंतरे=(क) इधर-उधर या किसी कोने में। (ख) कभी-कभी। ४. एक-एक दिन के अंतर पर आने वाला ज्वर। पारी का बुखार। वि० बीच में एक छोड़कर दूसरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंतरा  : पुं० [सं० अंतर] किसी गीत के पहले पद या टेक को छोड़कर दूसरा पद या चरण। (पहला पद या चरण स्थायी कहलाता है)। क्रि० वि० [सं० अन्तर्√ इ (गति) +डा] १. बीच या मध्य में। २. निकट, पास। ३. अतिरिक्त। सिवा। ४. अलग। पृथक्। ५. बिना। बगैर।
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अंतराकाश  : पुं० [सं० अंतर-आकाश, मध्य० स०] १. बीच में पड़ने वाला खाली स्थान। २. मनुष्य के हृदय में रहने वाला ब्रह्य।
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अंतरागम  : पुं० [सं० अंतर्-आगम, स० त०] बाहर से अधिक मात्रा में आकर अन्दर भरना। (इनफ्लक्स)।
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अंतरागार  : पुं० [सं० अन्तर्-आगार, मध्य० स०] किसी बड़े भवन का भीतरी भाग।
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अंतराणुक  : वि० =अंतर-आणविक।
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अंतरात्मा (त्मन्)  : स्त्री० [सं० अंतर्-आत्मन्, कर्म० स०] [वि० अंतरात्मिक] १. जीवात्मा। २. जान। प्राण। ३. अंतःकरण। ४. किसी बात या विषय का भीतरी या मूल तत्त्व। (स्परिट)।
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अँतराना  : स० [सं० अंतर] १. बीच में अंतर या अवकाश उपस्थित करना। बीच में खाली जगह छोड़ना। २. दूर या पृथक करना। ३. ठीक अन्दर की ओर ले जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंतराय  : पुं० [सं० अंतर√ अय् (गति) +अच्] १. बाधा। विघ्न। रुकावट। २. ज्ञान की प्राप्ति, योग की सिद्धि आदि में बाधक होने वाली बात। ३. जैन दर्शन में नौ मूल कर्मों में से एक।
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अंतरायण  : पुं० [सं० अंतर अय्+णिच्+ल्युट्-अन] १. युद्ध के समय युद्ध-रत देशों के सैनिकों, जहाजों आदि का तटस्थ देश की सीमा में जाने पर निरस्त्री०करण करके रोक रखा जाना। २. राज्य या शासन द्वारा किसी व्यक्ति को उसके घर या किसी स्थान में पहरे-चौकी में इस प्रकार रखा जाना कि वह कहीं आ न जा सके। नजरबंदी (इन्टर्नमेंट)
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अंतराल  : पुं० [सं० अंतर-आ√रा (दान)+क, लत्व] १. दो रेखाओं बिन्दुओं आदि के बीच में पड़ने वाला अवकाश, विस्तार या स्थान। बीच की जगह, समय आदि। २. एक सिरे पर मिली दो रेखाओं के बीच का स्थान।
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अंतराल-दिशा  : स्त्री० [ष० त०] दो दिशाओं के बीच की दिशा। विदिशा।
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अंतराल-राज्य  : पुं० [मध्य० स०]=अन्तःस्थ राज्य।
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अंतरालन  : पुं० [सं० अंतराल+णिच्+ल्युट्-अन्] दो चिन्ह्नों, वस्तुओं आदि के बीच में आवश्यक या उचित अंतर स्थापित करना। दो या कई चीजों के बीच में खाली जगह छोड़ना। (स्पेसिंग)
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अंतरावरोधन  : पुं० [सं० अंतर-अवरोदन, मध्य स०] [वि० अंतरावरूद्ध, भू० कृ० अंतरावरोधित] एक जगह से दूसरी जगह जाने वाली चीज को बीच में पकड़कर रोक लेना। (इन्टरसेप्शन)
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अंतरावरोधित  : भू० कृ० [सं० अंतर-अवरोध, कर्म० स०+णिच्+क्त] जो चलने या जाने के समय बीच में पकड़ या रोक लिया गया हो। (इन्टरसेप्टेड)
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अंतःराष्ट्रीय  : वि० [स० अंतः राष्ट्र मध्य स०+छ-ईय] किसी राष्ट्र के भीतरी भाग से सम्बन्ध रखने या उसमें होनेवाला। वि० दे० ‘अंतर-राष्ट्रीय’।
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अंतरिक्ष  : पुं० [सं० अंतर्√ईक्ष (देखना) +घञ्-पृषो० ह्वस्व] १. पृथ्वी तथा अन्य गृहों या लोकों के बीच का स्थान। आकाश। २. स्वर्ग। ३. तीन प्रकार के केतुओं में से एक। वि० जो आड़ या ओट में हो गया हो। आँखों से ओझल।
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अंतरिक्ष-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विद्या या विज्ञान जो वातावरण संबंधी गतियों, विक्षोभों आदि की विवेचना करके मौसम-संबंधी बातें पहले से बतलाता है। (मीटियोरॉलोजी)
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अंतरिक्षचर  : वि० पुं० [सं० अंतरिक्ष चर् (गति) +ट]=अंतरिक्ष-चारी।
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अंतरिक्षचारी (रिन्)  : वि० [सं० अंतरिक्ष√ चर्+णिनि] आकाश में चलने वाला। पुं० पक्षी। चिड़िया।
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अंतरिख  : पुं०=अंतरिक्ष।
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अतरिख  : पुं०=अंतरिक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंतरिच्छ  : पुं०=अंतरिक्ष।
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अंतरित  : भू० कृ० [सं० अंतर+णिच्+क्त] १. जिसका अंतरण हुआ हो। २. एक क्षेत्र या विभाग से दूसरे क्षेत्र या विभाग में गया या भेजा हुआ। संक्रमित। ३. अन्दर रखा, छिपाया, ढका या छिपा हुआ। ४. अंदर किया या पहुँचाया हुआ।
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अंतरितक  : पुं० [सं० अंतरिक+कन्] जो अपनी संपत्ति तथा उससे संबंधित अधिकार आदि दूसरे के हाथ अंतरित करे या दे। (ट्रान्सफरर)
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अंतरिती (तिन्)  : पुं० [सं० अंतरित+इनि] दूसरे की संपत्ति तथा उसके संबंध के अधिकार या स्वत्त्व आदि प्राप्त करने वाला। वह जिसके पक्ष में अंतरण हो। (ट्रान्सफरी)
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अंतरिंद्रिय  : स्त्री० [सं० अंतर्-इन्द्रिय, मध्य० स०] मन। अंतःकरण।
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अंतरिम  : वि० [सं० अंतर+डिमच्] १. दो विभिन्न कालों के बीच का। मध्यवर्ती। २. बीच के इतने समय में। इस बीच में। (इण्टेरिम)
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अंतरिम-आज्ञा  : स्त्री० [कर्म० स०] मध्यवर्ती आदेश। बीच के समय के लिए आज्ञा। इस समय या इतने समय के लिए दी हुई आज्ञा। (इन्टेरिम आर्डर)
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अँतरिया  : पुं० [हिं० अँतरा नामक ज्वर।
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अंतरीक  : पुं० [सं० अंतरिक्ष] अंतरिक्ष। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंतरीक्ष  : पुं० [सं० अन्तर्√ईक्ष् (देखना) घञ]=अंतरिक्ष।
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अंतरीख  : पुं०=अंतरिक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंतरीप  : पुं० [सं० अंतर्-आप, ब०, स०, अच्, ऊत्व] १. द्वीप। टापू। २. भूमि का वह पतला सँकरा अंश या विस्तार जो समुद्र में दूर तक चला गया हो। रास। (केप)
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अंतरीय  : पुं० [सं० अन्तर्+छ-ईय] कमर पर से नीचे की ओर पहनने का कपड़ा। अधोवस्त्र (धोती आदि)। वि० अन्दर या भीतर का। भीतरी।
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अंतरेंद्रिय  : स्त्री० [सं० अंतर-इंद्रिय, कर्म० स०] अंतःकरण।
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अँतरौटा  : पुं० [सं० अंतपट] कपड़े का वह छोटा टुकड़ा जो ब्रज में स्त्रियाँ प्रायः (चोली आदि के ऊपर) पेट और पेड़ू पर लपेटती हैं। उदाहरण—श्री भामिनि कौ लै अंतरौटा मोहन सीस ओढ़ायो।—गोविन्द स्वामी।
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अतरौटा  : पुं० [हिं० अतर+औटा (प्रत्यय) (स्त्री० अल्पा० अतरौटी] अतर रखने की छोटी डिबिया। पुं० दे० ‘अंतरौटा'।
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अंतर्  : अव्य० [सं०√अम् (गति)+अरन्, तुट्] १. भीतरी भाग में अन्दर। २. बीच में। विशेष—(क) इसका प्रयोग केवल यौगिक पद बनाने के समय (उपसर्ग या विश्लेषण के रूप में) उनके आरम्भ में होता है। जैसे—अन्तर्ज्योति, अंतर्दशा, अंतर्वर्ग आदि। (ख) संस्कृत व्याकरण के नियमों अनुसार कुछ अवस्थाओं में इसका रूप अंतः या अतस् भी हो जाता है। जैसे—अंतःपुर, अंतस्सलिला आदि। (ग) कुछ लोग इसका प्रयोग भूल से उस अंतर की तरह और उसी के अर्थ में कर जाते हैं, जो अँगरेजी इन्टर के ध्वनि-साम्य के आधार पर इधर कुछ दिनों से हिन्दी में चल पड़ा है। जैसे—अंतर्जिला, अंतर्राष्ट्रीय, पर इनके अधिक संगत रूप अंतर-जिला और अंतर राष्ट्रीय होने चाहिए।
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अतर्क  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें या जिसके संबंध में तर्क न हो। तर्क-रहित। पुं० [सं० न० त०] तर्क का अभाव।
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अंतर्कथा  : स्त्री० [संस्कृत के ढ़ंग पर गढ़ा हुआ असिद्ध शब्द] किसी बड़ी कथा के अन्तर्गत आई हुई कोई छोटी कथा।
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अतर्कित  : वि० [सं० तर्क√इतच्,न० त०] १. तर्क, कल्पना या अनुमान के द्वारा पहले से जिसकी आशा या विचार न किया गया हो। अचानक आ पड़नेवाला। आकस्मिक।
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अतर्क्य  : वि० [सं०√तर्क् (ऊह करना) +ण्यत् न० त०] १. जिसके विषय में तर्क-वितर्क न हो सके। २. जो तर्क-वितर्क का विषय न हो। अचिंत्य।
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अंतर्गत  : वि० [द्वि० त०] १. जो किसी के अंदर पहुँचकर उसमें मिल या समा गया हो और उसका अंग बन गया हो। २. जो किसी के साथ मिलकर एक हो गया हो। (इन्कलूडेड) जैसे—फ्रान्सीसी बस्तियाँ अब भारतीय संघ के अन्तर्गत हो गयी हैं।
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अंतर्गतक  : भू०कृ० [सं० अंतर्गत+क) जो किसी के अन्तर्गत हो गया हो। अन्तर्गत होकर रहनेवाला। पुं० दे० ‘समावरण'।
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अंतर्गति  : स्त्री० [ष० त०] मन की वृत्ति या भावना।
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अंतर्गर्भ  : वि० [ब० स०] जिसे गर्भ हो। गर्भयुक्त।
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अंतर्गांधार  : पुं० [ब० स०] संगीत में एक विकृत स्वर जिसका आरम्भ प्रसारिणि श्रुति से होता है।
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अंतर्गिरि  : स्त्री० [मध्य० स०] हिमालय का वह भीतरी भाग जिसमें १८-२॰ हजार फुट से अधिक ऊँची चोटियाँ (जैसे—गौरीशंकर, धवलगिरि, नंगा पर्वत आदि) हैं।
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अंतर्गृह  : पुं० [मध्य स०] १. गृह का भीतरी भाग। २. [सं० अव्यस०) तहखाना।
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अंतर्गृही  : स्त्री० [ब० स०, डीष्] किसी नगर के भीतरी भागों में स्थित देव स्थानों, तीर्थों आदि की विधिवत् की जानेवाली यात्रा।
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अंतर्गेह  : दे० अंतर्गृह।
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अंतर्ग्रस्त  : वि० [स० त०] अपराध, संकट आदि में पड़ा फँसा या लगा हुआ। (इन्वाल्वड)
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अंतर्घट  : पुं० [मध्य सं० ] अंतःकरण हृदय।
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अंतर्चित  : पुं० दे० ‘अंतर-जातीय’।
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अंतर्जात  : वि० [सं० त०] वह जो किसी वस्तु के अन्दर या भीतरी भाग से उत्पन्न हुआ या निकला हो। (एन्डोजेन) जैसे—वृक्ष की जड़ से निकलने वाले रोएँ अंतर्जात होते हैं।
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अंतर्जातीय  : वि० दे० ‘अंतर-जातीय’।
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अंतर्जानु  : क्रि० वि० [ब० स०] हाथों को घुटनों के बीच किए हुए।
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अंतर्जामी  : वि० =अंतर्यामी।
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अंतर्ज्ञान  : पुं० [ष० त० या मध्य सं० ] १. मन में रहने या होने वाला ज्ञान। २. मन में होने वाला या स्वाभाविक ज्ञान जो प्रकृति की ओर से जीवों को आत्मरक्षा, जीवन निर्वाह आदि के लिए प्राप्त होता है। अंतर्बोध। (इन्ट्यूशन)
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अंतर्ज्योति  : स्त्री० [मध्य० स०] भीतरी प्रकाश। वि० [ब० स०] जिसके अंदर प्रकाश हो।
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अंतर्ज्वाला  : स्त्री० [मध्य सं० ] १. भीतरी आग। २. संताप। ३. चिंता।
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अंतर्दर्शी  : स्त्री० [मध्य० स०] फलित ज्योतिष में जन्मकुण्डली के अनुसार किसी एक गृह के भोग-काल के अंतर्गत पड़ने वाले अन्य ग्रहों के भोग-काल।
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अंतर्दर्शी (शिन्)  : वि० [सं० अंतर√दृश् (देखना) +णिनि] १. अंदर या अंतःकरण की ओर देखने वाला। २. हृदय की बात जानने वाला।
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अंतर्दशाह  : पुं० [अव्य० स०] मृत व्यक्ति की आत्मा की सद्गति के उद्देश्य से मृत्यु के बाद दस दिन तक किये जानेवाले कृत्य।
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अंतर्दाह  : पुं० [मध्य० स०] हृदय की दाह या जलन। घोर मानसिक कष्ट।
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अंतर्दृष्टि  : स्त्री० [मध्य० स०] कोई बात देखने या समझने की भीतरी दृष्टि या शक्ति।
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अंतर्देशीय  : वि० [अंतर्देश मध्य० स० +छ-ईय] किसी देश के आन्तरिक भागों में होने या संबंध रखनेवाला। (इन्लैंड) जैसे—अंतर्देशीय जल-मार्ग।
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अंतर्द्वद्व  : पुं० [मध्य० स०] दो या कई विपरीत विचारों का मन में होने वाला संघर्ष। मानसिक संघर्ष।
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अंतर्द्वान  : पुं०=अंतर्धान।
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अंतर्द्वार  : पुं० [मध्य० स०] भीतरी या गुप्तद्वार। चोर दरवाजा।
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अंतर्धान  : पुं० [सं० अंतर√ धा (धारण, पोषण)+ल्युट्-अन] (भू० कृ० अंतर्हित) अचानक आँखों से ओझल हो जाने की क्रिया या भाव। वि० जो अचानक आँखों से ओझल हो गया हो। लुप्त।
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अंतर्धारा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. नदी, समुद्र आदि में पानी की ऊपरी सतह से बहने वाली धारा। २. किसी वर्ग या समाज में अंदर ही अंदर फैली हुई ऐसी धारणा या विचार जिसका पता साधारणतः ऊपर से न चलता हो। (अन्डर करेन्ट, उक्त दोनों अर्थों में।)
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अंतर्धि  : पुं० [सं० अतर् वा+कि] वह राज्य जो दो युद्ध-रत राज्यों के बीच में स्थित हो।
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अंतर्नयन  : पुं० [ष० त०] भीतरी आँख। ज्ञान चक्षु।
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अँतर्नाद  : पुं० [ष० त०] वह शब्द जो आत्मा के बराबर उत्पन्न होता रहता है और जो समाधि की अवस्था में सुनाई देता है। (रहस्य-संप्रदाय)
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अंतर्निविष्ट  : वि० [स० त०]=अंतर्निष्ठ।
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अंतर्निष्ठ  : वि० [ब० स०] जो किसी के अंदर दृढ़ता पूर्वक रक्षितरूप से वर्तमान या स्थित हो। (इन्हेरेन्ट) जैसे—शासन में सभी प्रकार के अधिकार अंतर्निष्ठ होते हैं।
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अंतर्निहित  : भू० कृ० [स० त०] किसी के अंदर छिपा हुआ।
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अंतर्पट  : पुं० [सं० अंतःपट, मध्य० स०] १. आड़, ओट या परदा। २. ढकनेवाली चीज (आच्छादन, आवरण आदि)। ३. वह परदा जो दो व्यक्तियों (यथा वर और कन्या, गुरु और शिष्य) के बीच में कोई विशिष्ट कार्य (यथा विवाह या दीक्षा) सम्पन्न होने से कुछ पहले तक पड़ा रहता है।
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अंतर्पत्रण  : पुं० [स० अंतःपत्रण, अंतर्-पत्र, मध्य० स०+णिच्+ल्युट्-अन] (भू० कृ० अंतर्पत्रित) छपी हुई या लिखी हुई पुस्तकों आदि में पृष्ठों के बीच-बीच में इसलिए सादे कागज के टुकड़े या पृष्ठ लगाना कि उन पर संसोधन, परिवर्तन, परिवर्द्वन आदि किए जा सकें। (इन्टरलीविंग)
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अंतर्पत्रित  : भू० कृ० [स० अंतःपत्र, मध्य० स०, +इतच्] (पुस्तक) जिसमें बीच-बीच में सादे कागज लगे हों। जिसमें अंतर्पत्रण हुआ हो। (इन्टरलीव्ड)
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अंतर्बोध  : पुं० [ष० त०] १. मन में होनेवाली आध्यात्मिक चेतना या ज्ञान। आत्मज्ञान। अंत ज्ञार्न। मन में होनेवाली वह अनुभूति या ज्ञान जिसके अनुसार हम सब बातों के प्रकार, रूप आदि समझकर अपना काम चलाते हैं।
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अंतर्भवन  : पुं० दे० ‘अंर्तगृह’।
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अंतर्भाव  : पुं० [मध्य० स०] [भू० कृ० अंतर्भावित, अंतर्भुक्त, अंतर्भूत] १. किसी का किसी दूसरे में समा या आ जाना। सम्मिलित, समाविष्ट या अंतर्गत होना। (इन्कलूजन) २. छिपाव, दुराव। ३. अभाव। ४. जैन दर्शन में कर्मों का क्षय जो मोक्ष का सादक होता है। ५. नात का आशय। मतलब।
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अंतर्भावना  : स्त्री० [मध्य० स०] [भू० कृ० अंतर्भावित] मन ही मन किया जानेवाला चिंतन या ध्यान।
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अंतर्भावित  : भू० कृ० [सं० अंतर भू (होना) +णिच्+क्त] १. जो अंदर मिलाया गया हो या मिल गया हो। २. विशिष्ट क्रिया से किसी के साथ दृढ़तापूर्वक मिलाया या लगाया हुआ।
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अंतर्भुक्त  : भू० कृ० [स० त०] १. जो किसी के अंदर जाकर उसमें मिल गया हो और अपना स्वतंत्र रूप या सत्ता छोड़कर उसमें पूरी तरह से समा गया हो।
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अंतर्भूत  : वि० [सं० अंतर√ भू+क्त] जो किसी दूसरी वस्तु में जाकर मिल गया हो, फिर भी अपना स्वतंत्र सत्ता या रूप रखता हो। पुं० जीवात्मा। प्राण।
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अंतर्भौमि  : स्त्री० [सं० वि० अंतभौम] पृथ्वी की भीतरी भाग। भूगर्भ।
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अंतर्मना (नस्)  : वि० [ब० स०] १. घबराया हुआ। २. उदास। ३.अपने ही विचारों में डूबा रहनेवाला।
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अंतर्मल  : पुं० [मध्य० स०] १. अंदर रहने वाला मल या मैल। २. चित्त या मन में होने वाला बुरा विचार या विकार।
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अंतर्मुख  : वि० [ब० स०] १. जिसका मुँह अन्दर की ओर हो। पुं० चीर-फाड़ के काम में आने वाली एक तरह की कैंची। क्रि० वि० अंदर की ओर प्रवृत्त।
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अंतर्मृत  : पुं० [स० त०] (शिशु) जिसकी गर्भ में ही मृत्यु हो गयी हो। मृतजन्मा।
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अंतर्यामिता  : स्त्री० [सं० अंतर्यामिन्+तल्-टाप्] अंतर्यामी होने की अवस्था या भाव।
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अंतर्यामी (मिन्)  : वि० [सं० अतर्√ यम् (प्रेरित करना) +णिच्+णिनि] १. अंतःकरण या मन की बात जानने वाला। २. मन पर अधिकार रखने वाला। पुं० ईश्वर। परमात्मा।
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अंतर्योग  : पुं० [मध्य स०] मानसिक अराधना या पूजा।
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अंतर्रति  : स्त्री० [मध्य० स०] मैथुन। संभोग। विशेष दे० रति २।
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अंतर्राष्ट्रीय  : वि० [सं० अंतर्राष्ट्र मध्य० स० +छ-ईय] १. अपने राष्ट्र के बीतरी बातों से संबंध रखने वाला। २. अपने राष्ट्र में होने वाला। वि० दे० ‘अंतर-राष्ट्रीय’।
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अंतर्लब  : पुं० [मध्य स०] वह त्रिकोण क्षेत्र जिसके अन्दर लंब गिरा हो।
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अंतर्लापिका  : स्त्री० [मध्य० स०] ऐसी पहेली जिसका उत्तर उसकी पद योजना में ही निहित होता है। जैसे—एक नारि तरुवर से उतरी, सिर पर उसके पाउँ। ऐसी नारि कुनारि को मैं न देखन जाउँ। का उत्तर ‘मैना' (पक्षी) इसके दूसरे चरण की पद—योजना में आया है।
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अंतर्लीन  : वि० [स० त०] १. अन्दर छिपा हुआ। २. डूबा हुआ मग्न।
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अंतर्वर्ग  : पुं० [मध्य० स०] किसी वर्ग या विभाग के अन्दर होने वाला कोई अन्य छोटा वर्ग या विभाग। (सब-आर्डर)
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अंतर्वर्ण  : पुं० [मध्य०स०] अंतिम या चतुर्थ वर्ण का, अर्थात् शूद्र।
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अंतर्वर्ती (र्तिन्)  : वि० [अंतर्√ वृत् (बरतना) +णिनि] १. अंदर या भीतर रहने वाला। २. जो अंतर्गत या अंतर्भूत हो। ३. दो तत्त्वों, बातों, वस्तुओं आदि के बीच में रहने या होनेवाला। (इण्टरमीडिएट)
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अंतर्वश  : पुं० [मध्य० स०] (वि० अंतर्वशिक) अंतःपुर और उसमें रहने वाली स्त्रियाँ।
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अंतर्वंशिक  : पुं० [सं० अंतर्वश+ठन्-इक] अंतःपुर (महिला निवास) का निरीक्षक। वि० अंतर्वश से संबंध रखने वाला।
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अंतर्वस्तु  : स्त्री० [मध्य० स०] १. किसी वस्तु के अंदर होने या रहने वाली वस्तु। (कन्टेन्ट्स) जैसे—सागर के अंदर होने तथा रहने वाली मछलियाँ, दवात के अन्दर रहनेवाली स्याही आदि।
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अंतर्वस्त्र  : पुं० [मध्य० स०] अंदर या अन्य कपड़ों के नीचे पहने जाने वाले वस्त्र। जैसे—कच्छा, पेटीकोट, बनियाइन, लंगोट आदि।
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अंतर्वाणिज्य  : पुं० [मध्य सं० ] वाणिज्य या व्यापार से जो किसी देश की सीमा के अंतर्गत, भीतरी भागों में होता है। (इन्टर्नल ट्रेड)
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अंतर्वाणी (णि)  : वि० [ब० स०] शास्त्र जानने वाला। पुं० विद्वान। पंडित।
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अंतर्वास (स)  : पुं० [मध्य० स०] दे० अंतर्वस्त्र।
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अंतर्वासक  : पुं० [ब० स० कप्] दे० ‘अंतर्वंशिक’।
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अंतर्वासन  : पुं०=अंतरायण।
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अंतर्विकार  : पुं० [मध्य० स०] १. मन में होनेवाला विकार। २. भूख, प्यास आदि शारीरिक धर्म।
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अंतर्वृत्त  : पुं० [मध्य० स०] ज्यामिति में वह वृत्त जो किसी आकृति के बीच में इस प्रकार बनाया जाए कि उसकी आकृति की सभी भुजाओं या रेखाओं को कहीं न कहीं स्पर्श करता हो। (इन्-सर्किल, इन्सका-इब्ड सर्किल)
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अंतर्वेग  : पुं० [मध्य० स०] १. मन में उत्पन्न होने वाला कोई कष्टकारक विकार। जैसे—अशांति, चिन्ता आदि। २. एक प्रकार का ज्वर जिसमें शरीर में जलन, तथा सिर में दर्द होता है और प्यास अधिक लगती है।
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अंतर्वेद  : पुं० [सं० अंतर्वेदि] १. यज्ञ की वेदियों से सम्पन्न देश। २. गंगा और यमुना के मध्यवर्ती प्रदेश का प्राचीन नाम। ब्रह्वावर्त। ३. दो नदियों के मध्य का देश। दोआबा।
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अंतर्वेदना  : स्त्री० [ष० त०] मन के अन्दर छिपी हुई वेदना।
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अंतर्वेदी  : वि० [सं० अंतर्वेदी से] १. अंतर्वेद का निवासी। २. दोआबा में रहनेवाला।
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अंतर्वेशन  : वि० [सं० अंतर√विश् (प्रवेश)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० अंतर्वेशित] १. किसी के वर्ग या समूह के बीच में उसी तरह की और कोई चीज बाहर से लाकर जमाना, बैठाना या लगाना। (इन्टरपोलेशन) जैसे—किसी कविता में किसी नई पंक्ति या किसी वाक्य में किसी नये शब्द या पद का अंतर्वेशन। २. वह अंश या वस्तु जो इस प्रकार कहीं बैठाई या लगाई जाए। (साहित्य में इसे क्षेपक कहते हैं।)
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अंतर्वेशिक  : पुं० [सं० अंतर्वेश+ठक्-इक] दे० ‘अंतर्वंशिक’।
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अंतर्वेशित  : भू० कृ० [सं० अंतर्√विश्+णिच्+क्त] जिसका अंतर्वेशन हुआ हो।
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अंतर्वेश्म (न)  : पुं० [मध्य० स०] १. अंतःपुर। जनानखाना। २. मकान का कोई भीतरी कमरा। ३. तहखाना। तलघर।
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अंतर्वेश्मिक  : पुं० [सं० अन्तर्वेश्मन्+ठन्-इक] दे० ‘अंतर्वंर्शिक'।
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अंतर्व्याधि  : स्त्री० [मध्य स०] भीतरी या गुप्त रोग।
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अंतर्व्रण  : पुं० [मध्य० स०] शरीर का भीतरी घाव या चोट।
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अंतर्हस्तीन  : वि० [सं० अन्तर्हस्त अव्य० स० +ख-ईन] जिस तक हाथ की पहुँच हो या हो सके।
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अंतर्हास  : पुं० [मध्य० स०] मन ही मन मुस्कराने की क्रिया या भाव।
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अंतर्हित  : भू० कृ० [सं० अन्तरे√धा (धारण करना) +क्त, हि आदेश] जो अंतर्धान हो गया हो।
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अंतर्हृदय  : पुं० [मध्य० स०] हृदय की भीतरी भाग।
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अतल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका तल या पेंदा न हो। तल रहित। २. जिसकी गहराई आदि की थाह न हो। अथाह। पुं० पृथ्वी के नीचे माने हुए सात पातालों या लोकों में से पहला लोक।
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अतलस  : स्त्री० [अ०] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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अतलस्पर्शी (शिन्)  : वि० [सं० तल√स्पृश् (छूना)+णिनि, न० त०] जिसके तल या गहराई तक पहुँचा न जा सके। बहुत गहरा। अथाह।
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अतलांत  : वि० [सं० अतल-अन्त, ब० स०] १. जिसका अंत अतल नामक लोक तक पहुँचकर होता हो। बहुत अधिक गहरा।
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अतलांतक  : पुं० [सं० एटलान्टिक के अनुरूप पर अथवा सं० अतलान्त+कन्] अफ्रीका और यूरोप के पश्चिमी तटों से अमेरिका के पूर्व तट तक विस्तृत महासमुद्र। (एटलान्टिक)
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अतवान  : वि० [सं० अतिवान्] बहुत अधिक। अत्यन्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अतवार  : पुं०=एतवार (रविवार)।
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अंतःशरीर  : पुं० मध्या स०]=लिंग शरीर।
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अंतःशुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] चित्त या अतःकरण की पवित्रता और शुद्धि। मन को विकारों से दूर या अलग रखना।
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अंतश्चित  : पुं० [मध्य स०] अंतःकरण। मन।
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अंतश्छद  : पुं० [मध्य सं०] १. भीतरी तल। २. भीतर का आवरण।
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अतस  : पुं० [सं० √अत् (गति) +असच्] १. वायु। २. आत्मा। ३. अतसी के रेशे से बना हुआ कपड़ा। ४. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ५. क्षुप। पौधा।
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अंतःसंज्ञ  : पुं० [ब० स०] वह जो अपने मन के दुखः सुख के अनुभव मन में ही रखें दूसरों पर प्रकट न कर सके। जैसे—वृक्ष।
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अंतःसत्त्व  : वि० [ब० स०] जिसके अन्दर शक्ति या सत्त्व हो। पुं० भिलावाँ (वृक्ष और फल)।
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अंतःसत्त्वा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] गर्भवती।
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अंतःसर (स्)  : पुं० [कर्म स०] १. हृदय रूपी सरोवर। उदाहरण—बढ़ी सभ्यता बहुत किन्तु अंतःसर अभी तक सूखा है—दिनकर। २. अंतःकरण में रहने वाले दया, प्रेम आदि मानवोचित्त भाव।
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अंतःसलिल  : स्त्री० [ब० स०] जिसकी धारा अन्दर ही अन्दर बहती हो, ऊपर दिखाई देती हो।
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अंतःसलिला  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. सरस्वती नदी। २. फल्गुनदी।
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अंतःसार  : पुं० [ष० त०] [वि० अंतः सारवान्] १. भीतरी तत्त्व। २. मन बुद्धि और अहंकार का योग। ३. अंतरात्मा। वि० [ब० स०] १. जिसमें तत्त्व या सार हो। २. पक्का, पुष्ट। ३. दृढ़, बलवान्।
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अतसी  : स्त्री० [सं० अतस√डीष्] १. अलसी। तीसी। २. पटसन।
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अंतस्  : पुं०=अंतःकरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंतस्तल  : पुं० [ष० त०] १. हृदय या मन। २. अचेतन या सुप्त मन।
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अंतस्ताप  : पुं० [मध्य स०] मन में होने वाला दुख, व्यथा आदि। मनस्ताप।
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अंतःस्थ  : वि० [स०अंतस्√स्था (ठहरना)+क] भीतर या बीच में स्थित। दे० अंतःस्थित। पुं० स्पर्श और ऊष्मा वर्णों के बीच में पड़नेवाले य, र, ल, व-ये चार वर्ण।
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अंतस्थ  : वि० [सं० अंत√स्था (ठहरना)+क] अंत या अंतिम अंश में रहने या होनेवाला। अंतिम। जैसे—अंतस्थ वर्ण। विशेष—दे० ‘अंतःस्थ’।
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अंतस्थ-वर्ण  : पुं० [क्रम० स०] देवनागिरी लिपि में य, र, ल, और व यो चार वर्ण है।
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अंतःस्थराज्य  : पुं० [कर्म स०] दो बड़े राज्यों के बीच में या उनकी सीमाओं पर स्थित होने वाला वह छोटा राज्य जो उन दोनों राज्यों के बीच में संघर्ष न आने देता हो। (बफर-स्टेट)
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अंतःस्थित  : वि० [स० त०] १. अंतःकरण में स्थित मन या हृदय में होने वाला। २. अन्दर का। भीतरी।
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अंतःस्वेद  : वि० [ब० स०] जिसके अन्दर स्वेद हो। पुं० हाथी।
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अंतस्सलिला  : स्त्री० [ब० स०]=अंतः सलिला।
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अंतस्सार  : वि० [ब० स०] १. भीतर से ठोस। पोढ़ा। २. बलवान। पुं० (मध्य स०) १. ठोसपन। २. अंतरात्मा। ३. मन, बुद्धि और अहंकार का समन्वित रूप।
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अंतहपुर  : पुं०=अंतःपुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अता  : स्त्री० [?] १. बड़ो की ओर से छोटों को मिलने वाला दान। प्रदान। २. इस प्रकार प्रदान की हुई वस्तु। प्रदत्त वस्तु।
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अता-नामा  : पुं० [अ० +फा०] दानपत्र। बख्शिशनामा।
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अता-पता  : पुं० [हिं० पता और इसका अनु०अता] ऐसा चिन्ह, पता या लक्षण जिससे कोई बात जानी जा सके या किसी तक पहुँचा जा सके।
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अताई  : वि० [अ०] १. जो अपनी प्रतिभा से कोई काम सीख ले। बिना शिक्षक की सहायता से काम करने वाला। २. जो बहुत जल्दी कोई काम सीख लेता हो।
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अताना  : पुं० [?] संगीत में एक रागिनी का नाम।
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अँताराष्ट्रीय  : वि०=अंतर-राष्ट्रीय।
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अंतावरि (री)  : स्त्री० [हिं० अंत + सं० आवली] अँतड़ी। आँत।
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अंतावसायी (यिन्)  : पुं० [सं० अन्त-अव√ सो (अंत करना) +णिनि, युक्] १. नाई, नापित, हज्जाम। २. चांडाल। वि० हिंसा करने वाला हिंसक।
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अति  : अव्य० [सं०√अत् (गति) +इ] १. चरम सीमा तक पहुँचा हुआ। बहुत अधिक। विशेष—शब्दों के पहले उपसर्ग रूप में लगकर यह निम्नलिखित अर्थ देता है। (क) मात्रा, मान आदि के विचार से बहुत अधिक। जैसे—अति उत्पादन, अति शीतल। (ख) नियम मर्यादा सीमा आदि से बढ़ा हुआ,जैसे—अतिक्रमण, अतिजीवन। (ग) साधारण से बहुत अधिक बढ़कर, जैसे—अतिकाय (मानव)। २. बहुत अधिकता से। ३.कुछ भी। बिलकुल। उदाहरण—भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग जाल-तुलसी। स्त्री० मर्यादा या सीमा का उल्लंघन करनेवाली अधिकता। बहुत ज्यादती। जैसे—अति किसी काम में अच्छी नहीं होती।
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अति बरवै  : पुं० [सं० अति+हिं० बरवै] वह छंद जिसके पहले और तीसरे चरणों में बारह-बारह तथा दूसरे और चौथे चरणों में नौ-नौ मात्राएँ हो।
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अति-दंतुर  : वि० [सं० प्रा० स०] जिसके दाँत बहुत बड़े हों। बड़े-बड़े दाँतोवाला।
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अतिउक्ति  : स्त्री०=अत्युक्ति।
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अतिउत्पादन  : पुं० [सं० प्रा० स०] देश या समाज में जितने उत्पादन की खपत या उपयोग हो सकता हो, उससे बहुत अधिक उत्पादन होना। (ओवर-प्रोडक्शन)
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अंतिक  : वि० [सं०√अंत् (बाँधना) घञ्+ठन्-इक] १. समीप या पड़ास में होने या रहने वाला। २. अंत तक जानेवाला। पुं० वह जो समीप या पड़ोस में रहता हो या स्थित हो।
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अतिकथ  : वि० [सं० अत्या० स०] बहुत बढ़ाचढ़ा कर कहा हुआ। पुं० १. बहुत बढ़ा-चढा कर कही हुई बात। २. वह जो जाति या समाज के नियम या बंधन न मानता हो।
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अतिकथन  : पुं० [सं० प्रा० स०]=अतियुक्ति।
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अतिकथा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बढ़ा-चढ़ा कर कही हुई बात। २. इधर-उधर की फालतू बात
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अतिकंदक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] हस्तिकंद नामक पौधा।
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अतिकर  : पुं० [सं० प्रा० स०]=अधि-कर।
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अंतिका  : स्त्री० [सं०√अंत्+इ,अंति+क-टाप्] १. बड़ी बहन। २. चूल्हा, भट्ठी। ३.सातला नामक पौधा।
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अतिकान्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक सुन्दर और प्रिय।
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अतिकाय  : वि० [सं० ब० स०] भारी डीलडौल वाला। विशालकाय। पुं० रावण का एक पुत्र जो लक्ष्मण के द्वारा मारा गया था।
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अतिकाल  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी कार्य के उपयुक्त या नियत समय के बीत जाने के बाद का समय।
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अतिकृच्छ  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक या विकट। २. बहुत अधिक कष्ट देने वाला। पुं० [सं० प्रा० स०) छः दिनों में पूरा होने वाला एक प्रकार का व्रत।
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अतिकृत  : वि० [सं० अति√ कृ (करना) +क्त] जिसे पूरा करने में मर्यादा का अतिक्रमण किया गया हो।
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अतिकृति  : स्त्री० [सं०√अति कृ+क्तिन्] १. मर्यादा का अतिक्रमण या उल्लंघन। २. पचीस वर्णों का एक वर्णवृत्त।
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अतिक्रम  : पुं० [सं० अति√ कम् (गति) +घञ] १. सीमा से आगे बढ़ना। २. किसी के ऊपर से पैर ले जाते हुए पार जाना। लाँघना। ३.सबसे आगे बढ़ना। ४.अतिक्रमण का उल्लंघन करना।
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अतिक्रमण  : पुं० [सं० अति√क्रम+ल्युट्-अन्] १. उचित मर्यादा या सीमा से आगे बढ़ना। २. अपने अधिकार, कार्य-क्षेत्र आदि की सीमा पार करके ऐसी जगह पहुँचना जहाँ जाना या रहना अनुचित, मर्यादा-विरुद्ध या अवैध हो। सीमा का अनुचित उल्लंघन। (एन्क्रोचमेन्ट) ३. प्रबल आक्रमण। ४. समय का बीतना। ५. सबसे आगे निकलने या बढ़ने की क्रिया या भाव।
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अतिक्रांत  : भू० कृ० [सं० अति√क्रम+क्त) (भाव० अतिक्रान्ति)] १. जिसका अतिक्रमण या उल्लंघन किया गया हो। २. बीता हुआ अतीत। गत। पुं० बीती हुई बात या घटना।
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अतिक्रामक  : पुं० [सं० अति√ कम् +ण्वुल-अक] १. अपने अधिकार या मर्यादा या सीमा का अतिक्रमण का उल्लंघन करने वाला। २. दूसरों के अधिकारों या क्षेत्रों में हस्तक्षेप करनेवाला।
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अतिक्षिप्त  : वि० [सं० अति√क्षिप् (प्रेरणा) +क्त] बहुत दूर या सीमा के बाहर फेंका हुआ। पुं० शरीर के किसी नस के इधर-उधर हटने के कारण पड़नेवाली मोच।
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अतिगंड  : वि० [सं० आत्या० स०] जिसके कपोल या कपोल के ऊपर वाली हड्डी बड़ी हो। पुं० १. सत्ताईस योगों में से छठा योग। २. एक तारा। ३. बहुत कपोल। ४. वह जिसके बड़े-बड़े कपोल हों।
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अतिगत  : वि० [सं० अति√गम् (जाना) +क्त] १. अति तक पहुँचा हुआ। २. बहुत अधिक।
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अतिगति  : स्त्री० [सं० अति√गम्+क्तिन्] १. उत्तम गति। मुक्ति। मोक्ष।
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अतिगंध  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी गंध या उग्र तीव्र हो। पुं० १. चंपा का पेड़ या फूल। २. गंधक।
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अतिगव  : वि० [सं० अत्या० स० अच्] १. बहुत बड़ा मूर्ख। २. जिसकी व्याख्या या प्रशंसा न की जा सके। वर्णनातीत।
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अतिगुण  : वि० [सं० ब० स०] बहुत अच्छे गुणों वाला। पुं० [सं० प्रा० स०) अच्छा गुण।
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अतिगुरु  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत भारी।
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अतिघ  : पुं० [सं० अति√ हन् (हिंसा) +क] १. क्रोध। गुस्सा। २. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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अतिघ्न  : वि० [सं० अति√हन्+टक्] बहुत अधिक नाश करनेवाला।
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अतिचरण  : पुं० [सं० अति√चर्(गति) +ल्युट्अन] १. दे०अतिचार। २. दे० ‘अतिक्रमण’।
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अतिचार  : पुं० [सं० अति√चर् (गति) +घञ] १. औचित्य या सीमा का उल्लंघन करके इधर उधर चलना या आगे बढ़ना। २. अपने अधिकार या अधिकृत सीमा के बाहर अनुचित रूप से अपने सुख सुभीते के लिए इस प्रकार आगे बढ़ना कि दूसरे के अधिकार या सुख सुभीते में बाधा पहुँचे। (ट्रान्सग्रेशन) ३. बौद्ध भिक्षुओं का अपने नियमों और विधानो का पालन छोड़कर इधर-उधर की अनुचित बातों में पड़ना या जाना।
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अतिचारी (रिन्)  : वि० [सं० अतिचार+इनि] १. अतिचार अथवा अतिक्रमण करनेवाला। २. सीमा का अनुचित रूप से उल्लंघन करनेवाला।
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अतिच्छत्र  : पुं, [सं० अत्या सं० ) तालमखाना।
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अतिच्छादन  : पुं० [सं० अति√छद् (ढकना)+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अतिछादित] (विषय सिद्धान्त आदि का) अपनी सीमा से इस प्रकार आगे बढ़ा हुआ होना कि आस-पास की मिलती-जुलती बातें भी उसके क्षेत्र में आ जाये। (ओवरलैपिंग)
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अतिजगती  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] तेरह वर्णों के वृत्तों की संज्ञा। जैसे—तारक, मंजुभाषिणी, माया आदि।
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अतिजन  : वि० [सं० प्रा० ब०] (स्थान) जहाँ मनुष्य न रहते हो। उजाड़। विरान।
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अतिजागर  : वि० [सं० ब० स०] १. सदा जागते रहने वाला। २. बहुत अधिक जागने वाला। ३. जागरुक। पुं० एक प्रकार का काला बगला।
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अतिजात  : वि० [सं० ब० स०] अपने कुल या वंश में बहुत श्रेष्ठ।
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अतिजीवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] साधारणतः अपने वर्ग के औरो का अंत हो जाने पर भी बना, वचा या जीवित रहना। (सरवाइवल)
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अतिजीवित  : भू० कृ० [सं० ब० स०] जिसने अति जीवन प्राप्त किया हो।
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अतिजीवी (विन्)  : पुं० [सं० अति√ जीव्(जीना) +णिनि] वह जिसने अतिजीवन का भोग किया हो। साधारण वय से अधिक समय तक जीता रहनेवाला प्राणी।
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अतितरण  : पुं० [सं० अति√तृ (तैरना, पार करना) +ल्युट्-अन] १. पार करना। २. पराभूत करना। हराना।
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अतितारी (रिन)  : वि० [सं० अति√तृ+णिनि] १. पार करनेवाला। २. विजयी।
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अतिथि  : पुं० [सं० अत्√(गति) +अथिन्] [वि० आतियेय, भाव, आतिथ्य] १. बिना पहले से तिथि, समय आदि की सूचना दिए हुए घर में ठहरने के लिए अचानक आ पहुँचनेवाला कोई प्रिय अथवा सत्कार योग्य व्यक्ति। २. किसी के यहाँ कुछ दिनों के लिए बाहर से आकर ठहरा हुआ व्यक्ति। अभ्यागत। मेहमान। पाहुन। (गेस्ट) ३. वह सन्यासी या साधु जो किसी स्थान पर एक रात से अधिक न ठहरे। ४. अग्नि। ५. यज्ञ के लिए सोमलता लानेवाला व्यक्ति।
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अतिथि क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] =आतिथ्य।
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अतिथि-गृह  : पुं०=अतिथिशाला।
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अतिथि-धर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] आवश्यक और उचित रूप से अतिथि की सेवा या सत्कार करने की क्रिया या भाव।
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अतिथि-पूजा  : स्त्री० [ष० त०] अतिथि का आदर सत्कार। मेहमानदारी।
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अतिथि-यज्ञ  : पुं० [ष० त०] अतिथि का आदर-सत्कार जो पाँच महायज्ञों में से एक है। अतिथि-पूजा।
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अतिथि-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह भवन जो विशेष रूप से अतिथियों के ठहरने के लिए नियत हो। (गेस्ट हाउस)।
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अतिथि-सत्कार  : पुं० [सं० ष० त०] अतिथि की सेवा और स्वागत।
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अतिथिदेव  : वि० [ब० स०] जिसके लिए अतिथि देव स्वरूप हो। जो अतिथि को देवता स्वरूप मानकर उसका सत्कार करे।
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अतिदर्शी (शिन्)  : वि० [सं० अति√ दृश् (देखना) +णिनि] दूरदर्शी।
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अतिदिष्ट (शिन्)  : वि० [सं० अति√दिश् (बताना)+क्त] १. जिसमें या जिसका अतिदेशन हुआ हो। २. अवधि, क्षेत्र, सीमा आदि से आगे बढ़ा हुआ। ३.किसी और या दूसरे के स्थान पर रखा हुआ।
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अतिदेव  : पुं० [सं० आत्या०स०] वह जो सब देवताओं में श्रेष्ठ हो। जैसे—विष्णु, शिव आदि।
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अतिदेश  : पुं० [सं० अति√ दिश् (बताना) +घञ्] [वि० अतिदेशिक, अतिदिष्ट] १. प्रस्तुत विषय का अतिक्रमण करके दूसरे विषय पर जाना। २. एक विषय की किसी बात, नियम या धर्म का दूसरे विषय में किया जानेवाला आरोप। ३.किसी कार्य या बात की सीमा या अवधि आगे बढ़ाने की क्रिया या भाव। विस्तारण। (एक्स्टेंशन) ४. कई भिन्न या विरोधी बातों या वस्तुओं में कुछ विशेष तत्त्वों की होनेवाली समानता। (एनॉलोजी)
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अतिदेशन  : पुं० [सं० अति√दिश्+ल्युट्-अन] अतिदेश करने की क्रिया या भाव।
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अतिधन्वा (न्वन्)  : पुं० [सं० प्रा०ब०] १. बहुत बड़ा योद्धा। २. एक वैदिक आचार्य।
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अतिधृत्ति  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] १. धृति छंद से अधिक अक्षर अर्थात् उन्नीस अक्षरवाला छंद-जैसे—शार्दूल, विक्रीड़ित आदि छंद। २. १९ की संख्या।
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अतिनाठ  : पुं० [सं० प्रा० स०] संकीर्ण राग का एक भेद।
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अतिनिर्वात  : पुं० [सं० निर्वात, निरा० स०, अतिनिर्वात, प्रा० स०] वह स्थिति जब किसी आधान के अंदर कहीं नाम को भी बात या वायु का कोई अंश नहीं रह जाता। (हाई वैक्यूम)
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अतिपत्ति  : स्त्री० [सं० अति√ पद् (गति) +क्तिन्] १. अतिक्रमण। २. समय का व्यतीत होना।
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अतिपत्र  : पुं० [सं० ब० स०] हस्तिकंद नामक पौधा।
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अतिपद  : वि० [सं० अत्या०स०] वह छंद जिसमें नियत चरणों या पदों से एक चरण या पद अधिक हो।
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अतिपन्न  : भू०कृ० [सं० अति√पद् (गति) +क्त] १. अतिक्रान्त। २. बीता हुआ। ३. भूला या छूटा हुआ।
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अतिपर  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली हो।
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अतिपात  : पुं० [सं० अति√पत् (गति) +घञ्] १. हिंसा, विशेषतः गृहस्थों द्वारा अनजान में नित्य होनेवाली जीव हिंसा। २. अव्यवस्था। ३. विघ्न। ४. नियम या मर्यादा का उल्लंघन। ५. (समय का) बीत जाना। ६. घटना। ७. दुर्व्यवहार। ८. विरोध। ९. दुष्प्रयोग।
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अतिपातक  : पुं० [सं० अत्या० स०] धर्मशास्त्र में बताये नौ पातकों में से सबसे बड़ा पातक।
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अतिपाती (तिन्)  : वि० [सं० अति√पत्+णिनि] अतिपात करनेवाला या आगे बढ़ जानेवाला।
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अतिपात्य  : वि० [सं० अति√पत्+णिच्+यत्] स्थगित किए जाने के योग्य।
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अतिपावन  : वि० [सं० अति√पत् (गिरना) +ल्युट्-अन] बहुत अधिक पावन या पवित्र।
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अतिपुरुष  : पुं०=महापुरुष।
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अतिप्रजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अतिप्रजनित] देश या स्थान में जितनी जनता का निवास स्थान अच्छी तरह हो सकता हो, उससे कहीं अधिक जनता या जन संख्या होना। (ओवर पापुलेशन)।
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अतिप्रभंजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] अत्यन्त प्रचंड या तीव्र वायु।
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अतिप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ऐसा प्रश्न जिसके पूछने से मर्यादा या अतिक्रमण हो। २. अनावश्यक प्रश्न।
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अतिबल  : वि० [सं० ब० स०] अत्यधिक बलवाला।
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अतिबला  : स्त्री० [अतिबल+टाप्] १. एक प्राचीन अस्त्र विद्या। २. ककही नामक एक पौधा। ३. एक पीली लता। शीतपुष्पा।
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अतिभव  : पुं० [सं० अति√भू० (होना)+अप्] १. वृद्धि। २. पराजय। हार।
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अतिभार  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यधिक भार या बोझ। २. अर्थ की दृष्टि से वाक्य के बोझिल होने की अवस्था या भाव।
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अतिभारग  : वि० [सं० अतिभार√गम् (जाना) +ड] बहुत अधिक बोझ ढ़ोनेवाला। पुं० खच्चर।
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अतिभी  : स्त्री० [सं० अति√भी (डरना)+क्विप्] कड़कड़ाती हुई बिजली।
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अतिभू  : वि० [सं० अति√भू०+क्विप्] सबसे आगे बढ़ जानेवाला। पुं० विष्णु का एक नाम।
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अतिभूमि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अधिकता। २. श्रेष्टता। स्त्री० (अव्यय० स०) १. मर्यादा का उल्लंघन। २. सीमा का अतिक्रमण।
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अतिभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. उचित या नियत समय के उपरान्त भी किसी वस्तु या विषय का भोग करते चलना। २. बहुत दिनों तक किसी सम्पत्ति का इस रूप में भोग करना कि उसपर एक प्रकार का अधिकार या स्वत्व हो जाए। (प्रोस्क्रिफ्शन)
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अतिभोजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] आवश्यकता से अधिक भोजन करनेवाला।
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अंतिम  : वि० [सं० अंत+डिमच्] १. एक ही वर्ग की घटनाओं, वस्तुओं आदि के क्रम में सबके अंत में रहने या होने वाला। जिसके उपरान्त या बाद में उस क्रम या वर्ग की ओर कोई घटना या बात न हो। (लास्ट) जैसे—(क) किसी के जीवन का अंतिम दिन। (ख) किसी का लिखा हुआ अंतिम पत्र या पुस्तक।। ३. हद दरजे का परम।
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अंतिम-यात्रा  : स्त्री० [क्रम० स०] मृत्यु।
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अतिमत  : पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा मत, विचार या सिद्धान्त जो सब जगह आदरपूर्वक मान्य समझा जाता हो। (डाँग्मा)
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अतिमति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक घमंड। अहंकार। २. हठ। जिद।
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अतिमर्त्य  : वि० [सं० अत्या० स०] १. मर्त्य लोक से परे का। पारलौकिक। २. जो इस लोक में न होता हो। अलौकिक।
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अतिमर्श  : पुं० [सं० अति√मृश् (स्पर्श)+घञ] बहुत ही निकट का संबंध। नजदीकी नाता।
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अतिमा  : स्त्री० [सं० अति से (कालिमा, महिमा आदि के अनुकरण पर] १. अति अथवा चरम सीमा तक पहुँचे हुए होने की अवस्था, गुण या भाव। २. अलौकिक तथा लोकोत्तर होने की ऐसी अवस्था जो आध्यात्मिक दृष्टि से आदर्श और सर्वोच्च हो तथा दैवी विभूतियों से युक्त हो।
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अतिमात्र  : वि० [सं० अत्या० स०] उचित मात्रा या परिमाण से अधिक। बहुत अधिक।
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अतिमानव  : पुं० [सं० , प्रा० स०] ऐसा कल्पित और आदर्श मनुष्य जिसमें साधारण मनुष्यों की अपेक्षा बहुत अधिक तथा अलौकिक गुण तथा शक्तियाँ हों। (सुपरमैन)
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अतिमानुष  : पुं०=अतिमानव।
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अतिमाय  : वि० [सं० अत्या० स०] माया से रहित। वीतराग।
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अतिमित  : वि० [सं० अति√मा (परिमाण)+क्त] १. जो नापा न जा सकता हो। २. आवश्यकता या उचित से अधिक नापा हुआ।
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अतिमुक्त  : वि० [सं० प्रा० स०] १. मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त। जीवन्मुक्त। २. विषय वासना से रहित। पुं० [सं० अत्या०स०) १. माधवी लता। मोगरा। २. मरूआ नामक पौधा। ३. तिनिश का वृक्ष।
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अतिमुक्तक  : पुं० [सं० अतिमुक्त+कन्]=अतिमुक्त।
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अतिमुशल  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक वक्र योग जिसमें मंगल एक नक्षत्र में अस्त होकर सत्रहवें या अठारहवें नक्षत्र पर अनुवक्र होता है। (ज्योतिष)
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अतिमूत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुमूत्र (रोग)।
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अतिमृत्यु  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. महामारी। २. [सं० अत्या० स०) मुक्ति। मोक्ष।
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अंतिमेत्थम्  : पुं० [अं० अल्टिमेटम के अनुकरण पर बना सं० रूप, अंतिम-इत्थम्, कर्म० स०] एक राज्य या दूसरे राज्य से यह कहना कि यदि हमारी इन शर्तों को नहीं मानोगें तो तुम पर चढ़ाई कर देगें।
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अतियोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी मिश्रण में कोई चीज आवश्यकता या नियत मात्रा से अधिक मिलाना।
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अतिरंजन  : पुं० [सं० अति√रञ्जू (राग) +ल्युट्-अन] [भू० कृ० अतिरंजित] कोई बात बहुत अधिक बढा-चढ़ा कर कहने की क्रिया या भाव।
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अतिरंजना  : स्त्री० [सं० अति√रञ्जू णिच् +युच्-अन-टाप]=अतिरंजन।
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अतिरंजित  : भू० कृ० [सं० अति रञ्जू√णिच्+क्त] बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कहा हुआ।
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अतिरथ  : पुं० [सं० अत्या० स०] बहुत बड़ा रथी या योद्धा।
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अतिरात्र  : पुं० [सं० प्रा० स० अच्] १. ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का एक गौण अंग। २. वह यज्ञ जो एक ही रात्रि में किया जाए। ३. चाक्षुष मनु के एक पुत्र का नाम।
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अतिरिक्त  : वि० [सं० अति रिच् (अधिक होना) +क्त] १. साधारणतः जितना होता हो या होना चाहिए, उससे अधिक। २. जितना काम में आता हो या आया हो उससे अधिक। (एक्स्ट्रा) ३.नियत, प्रचलित या साधारण से अधिक। जैसे—अतिरिक्त आय। (एक्सेस) ४.जो आवश्यकतावश बाद में जोड़ा या बढ़ाया गया हो। (एडिशनल) जैसे—अतिरिक्त कर। ५. अलग। भिन्न। क्रि० वि० किसी को छोड़कर। उसके सिवा। अलावा। (एकसेप्ट)
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अतिरिक्त पत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह विज्ञापन, समाचार या सूचना आदि जो अलग छापकर किसी समाचार पत्र के साथ बाँटी जाए। कोड़पत्र। (सप्लीमेंन्ट)
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अतिरिक्त-लाभ  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह लाभ जो साधारण या उचित लाभ से अतिरिक्त या अधिक हो। (एक्सेस प्राफिट)
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अतिरूप  : वि० सं० ब० स०) बहुत अधिक सुन्दर रूपवाला। परम सुन्दर।
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अतिरेक  : पुं० [स० अति√रिच्+घञ्] १. आवश्यकता से अधिक होने की अवस्था गुण या भाव। २. अनावश्यक अनुपयुक्त या व्यर्थ की अधिकता। जैसे—बुद्धि का अतिरेक। ३. उग्रता, गंभीरता विकटता आदि का आधिक्य या वृद्धि। (एग्रेवेशन) जैसे—औषध के प्रभाव के कारण रोग का होने वाला अतिरेक।
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अतिलंघन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० अतिलंघी] सीमा या मर्यादा का बहुत अधिक अतिक्रमण। उल्लंघन।
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अतिलंघी (घिन्)  : वि० [सं० अति√लंघ् (लांघना) +णिनि] अतिलंघन करनेवाला।
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अतिवक्रा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] बुध ग्रह की चार प्रकार की गतियों में से एक।
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अतिवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० अति√वृत् (बरतना) +णिनि] बहुत अधिक आगे बढ़ा हुआ।
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अतिवर्त्तन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक आगे बढ़ने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज का बहुत अधिक होनेवाला वर्त्तन या व्यवहार।
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अतिवात  : पुं० [सं० प्रा० स०) वेगपूर्ण वायु (चण्डवात,तूफान और महावात) का सबसे अधिक उग्र, प्रचंड और सहायक रूप। (टेम्पेस्ट)
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अतिवाद  : पुं० [सं० अति√वद् (बोलना) +घञ्] [वि० अतिवादिक, अतिवादी] १. किसी विषय में औचित्य की सीमा या मर्यादा से बहुत आगे बढ़ जाने का अभ्यास या सिद्धान्त जो आतुरता, उग्रता आदि का सूचक है। (एक्स्ट्रीमिज्म) २. राजनीतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में यह मत या सिद्धांन्त की चाहे जैसे हो, सब प्रकार के दोष अभी दूर कर देने चाहिएँ। (रैडिकैलिज्म) ३. व्यर्थ की बकबक। ४. डींग।
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अतिवादिक  : वि० [सं० अतिवाद+ठन्-इक] अतिवाद-संबंधी। अतिवाद का।
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अतिवादी (दिन्)  : पुं० [सं० अतिवाद+इनि] वह जो अतिवाद के सिद्धान्त मानता और उसके अनुसार चलता हो। (एक्स्ट्रीमिस्ट)
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अतिवाह  : पुं० [सं० अति√वह (ढोना) +घञ्] १. आत्मा का एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाना। २. परलोकवास। ३. वह नल या नाली जो आवश्यकता से अधिक पानी को बाहर निकालने के लिए होती है। ४. किसी नहर या नदी के बाँध से आवश्यकता से अधिक पानी को बाहर निकालने का मार्ग।
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अतिवाहित  : भू०कृ० [सं० अति√वह्+णिच्+क्त] बिताया हुआ।
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अतिविष  : वि० [सं० प्रा० ब०] जिसमें बहुत अधिक विष हो। बहुत जहरीला। पुं०=अतिविषा।
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अतिविषा  : स्त्री० [सं० अतिविष+टाप्] जहरीली औषधि। जैसे—वत्सनाग, अतोस आदि।
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अतिवृष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] इतनी अधिक वर्षा जो खेती बारी या धन-जन के लिए अनिष्टकारी सिद्ध हो।
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अतिवेध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत निकट का संबंध। २. एक ही दिन में दशमी और एकादशी दोनों होना।
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अतिवेल  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसकी सीमा बहुत दूर हो। अपार। असीम।
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अतिवेला  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अधिक विलंब। देर। २. अनुचित या अनुपयुक्त समय। कु-समय।
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अतिव्याप्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी लक्षण या कथन के अन्तर्गत लक्ष्य के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के आ जाने का दोष। (साहित्य और तर्क) जैसे—सींगवाले पशु को गौ कहते हैं। में इसलिए उक्त दोष है। कि भेड़-बकरियों आदि को भी सींग होते हैं।
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अतिशय  : वि० [सं० अति√शी (सोना) +अच्] [भाव० अतिशयता, अतिशय्य] १. बहुत। ज्यादा। २. यथेष्ट। ३. आवश्यकता से बहुत अधिक। (एक्सेसिव) पुं० एक अलंकार जिसमें किसी वस्तु की उत्तरोत्तर सम्भावना या असम्भावना दिखलाई जाती है।
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अतिशयता  : स्त्री० [सं० अतिशय+तल्-टाप्] ‘अतिशय होने की अवस्था या भाव। परम अधिकता
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अतिशयनी  : स्त्री० [सं० अति शी+ल्युट्-अन-डीष्] एक प्रकार का छंद या वृत्त।
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अतिशयी (यिन्)  : वि० [सं० अति √शी+णिनि] १. प्रधान। श्रेष्ठ। २. अत्यधिक। बहुत ज्यादा।
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अतिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० अतिशय-उक्ति, तृ० त०] १. बढ़ा-चढ़ाकर तथा अपनी ओर से बहुत कुछ मिलाकर कही हुई बात। (एग्जैजरेशन) २. एक अलंकार जिसमें किसी की निंदा, प्रशंसा आदि करते समय कोई बात साधारण से बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कही जाती है। (हाइपरबोल) जैसे—आपके मुँह से जो कुछ निकलता था, वही ब्रह्य वाक्य हो जाता था। (इसके रूपकातिशयोक्ति आदि कई भेद हैं।)
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अतिशयोपमा  : स्त्री० [सं० अतिशय-उपमा, तृ० त०] उपमा अलंकार का वह प्रकार या भेद जिसमें किसी वस्तु की उपमा एक चीज को छोड़कर और दूसरी किसी चीज से दी ही न जा सके।
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अतिशर्करी  : स्त्री० [सं० अत्या०स०] पंद्रह वर्णों के वृत्तों की संज्ञा।
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अतिशीतन  : पुं० [सं० अतिशीत, प्रा० स०,√णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अतिशीतित] आवश्यकता से अधिक शीतल या ठंडा करना। (ओवरकूलिंग)
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अतिशेष  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत कम बचा हुआ।
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अतिसंघ  : वि० [सं० अत्या० स०] १. प्रतिज्ञा का वचन भंग करनेवाला। २. आदेश, विधि आदि का उल्लंघन करनेवाला।
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अतिसंधान  : पुं० [सं० अति-सम धा√(धारण करना) +ल्युट्-अन] [कृ०अति-संधानित] जहाँ संधान करना, निशाना लगाना या वार करना हो, उससे अधिक या आगे बढ़कर आघात या वार करना। (ओवर हिटिंग) २. अतिक्रमण। ३.धोखा। छल।
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अतिसर  : वि० [सं० अति√सृ (गति] +अच्] अपनी गति से अधिक तीव्र चलनेवाला। पुं० प्रयत्न।
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अतिसर्जन  : पुं० [सं० अति√सृज् (सिरजना) +ल्युट्-अन] १. दान। २. त्याग। ३. विसर्जन। ४. वध। हत्या।
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अतिसर्पण  : पुं० [सं० अति√सृप् (गति) +ल्युट्-अन] १. तीव्र गति। तेज चलना। २. गर्भ में शिशु का जल्दी-जल्दी इधर-उधर हटना-बढ़ना।
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अतिसर्व  : वि० [सं० अत्या०स०]=अतिश्रेष्ठ। पुं० ईश्वर।
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अतिसामान्य  : वि० [सं० प्रा० स०] अत्यन्त साधारण। मामूली। पुं० ऐसी बात जिसका भाव या अर्थ सामान्य से कुछ अधिक और भिन्न हो। वह उक्ति जो वक्ता के उद्दिष्ट अर्थ से कुछ बढ़-चढ़कर या बाहर हो। (न्याय)
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अतिसार  : पुं० [सं० अति√सृ (गति) +घञ) एक रोग जिसमें भोजन न करने के कारण पेट में दर्द होता और पतले-पतले दस्त आते हैं। (डायरिया)
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अतिसारी (रिन्)  : वि० [सं० अतिसार+इनि] १. जो अतिसार रोग से पीड़ित हो। २. अतिसार संबंधी।
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अतिसांवत्सर  : वि० [सं० अत्या०स०] एक वर्ष से अधिक दिनों का।
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अतिसै  : वि० =अतिशय।
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अतिस्थूल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत मोटा। २. मोटी बुद्धिवाला। पुं० शरीर में चरबी बढ़ने का रोग।
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अतिस्पर्श  : वि० [सं० अत्या०स०] १. कंजूस। २. नीच। कमीना। पुं० (व्याकरण में) य,र,ल,व तथा स्वर वर्ण जिनका उच्चारण करते समय जीभ का तालु से बहुत कम स्पर्श होता है।
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अतिहत  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो पूर्ण रूप से नष्ट हुआ हो या नष्ट किया गया हो। २. अचल। स्थिर।
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अतिहसित  : पुं० [सं० अति√हस् (हँसना) +क्त] हास के छः भेदों में से एक। बहुत जोरों की हँसी।
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अतिहायन  : पुं० [सं० अति√हा (त्याग) +ल्युट्-अन, नि० सिद्धि] १. वृद्धावस्था के कारण होनेवाली ऐसी स्थिति जिसमें कुछ काम-धंधा न हो सके। २. बहुत अधिक पुराना या जीर्ण होना। ३. पतन या ह्वास होना। (सुपरएनुएशन)
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अंती  : स्त्री० [सं०√अन्त्+इ, अन्ति+डीष्] चूल्हा।
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अती  : अव्य० वि० स्त्री०=अति।
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अतीचार  : पुं० [अति√चर्(गति) +घञ्, दीर्घ] मर्यादा या सीमा का उल्लंघन। विशेष दे० ‘अतिचार’।
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अतीत  : वि० [सं० अति√चर् (गति) +क्त] [क्रि० अतीतना] १. समय के विचार से जो गत बीत या समाप्त हो चुका हो। २. बीते हुए समय से संबंध रखनेवाला। जैसे—अतीत, स्मृतियाँ। ३. जिसका अस्तित्व या सत्ता नष्ट हो चुकी हो। मृत। ४. माया-मोह आदि से रहित। क्रि० वि० परे। बाहर। दूर। पुं० [सं० अतिथि] १. एक प्रकार के साधु या त्यागी भिक्षुक। २. सभी साधु सन्यासी, योगी आदि। ३. संगीत में वह स्थान जो सम से दो मात्राओं के उपरान्त आता है। ४. तबले के किसी बोल या टुकड़े की सम से आधी या एक मात्रा से पहले समाप्ति।
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अतीतना  : अ० [सं० अतीत] गुजरना। बीतना। सं० १. व्यतीत करना। बिताना। छोड़ना। त्यागना।
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अतीथ  : पुं० [सं० अतिथि] १. एक प्रकार के गोसाई या साधु की प्रायः गृहस्थ होते हैं। २. अतिथि। मेहमान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अतींद्रिय  : वि० [सं० अति-इंद्रिय, अत्या० स०] १. जिसका ज्ञान इंद्रियों से न हो सकता हो। जो इंद्रियों की पहुँच से बाहर हो। २. अलौकिक। पारलौकिक। पुं० १. आत्मा। २. प्रकृति। ३. मन।
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अतीव  : वि० [सं० अति-इव प्रा० स०] १. बहुत अधिक। बहुत ज्यादा। २. बढ़ा-चढ़ा। क्रि० वि० बहुत अधिकता से। अत्यन्त।
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अतीस  : स्त्री० [सं० अतिविषा] एक पौधा जिसकी जड़ दवा के काम आती है।
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अतीसार  : पुं०=अतिसार।
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अतुकांत  : वि० [हिं० अ+तुकांत] (कविता) जिसके अंतिम चरणों का तुक या काफिला न मिलता हो। बिना तुक का। पुं० आधुनिक कविता का लय तथा संगीत प्रधान एक रूप जिसमें न तो छंदशास्त्र के नियमों का ही पालन होता है और न अनुप्रास या तुक का ही। (ब्लैंक वर्स)
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अतुरा  : वि० =आतुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अतुराई  : स्त्री० [सं० आतुर] १.=आतुरता। २. घबराहठ। ३. चंचलता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अतुराना  : अ० [सं० आतुर] १. आतुर या उत्सुक होना। २. उतावला होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अतुरी  : स्त्री०=आतुरता।
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अतुल  : वि० [सं० न० ब०] [भाव० अतुलता] १. जिसकी तौल या अन्दाज न हो सके। अमित। असीम। २. बहुत अधिक। ३. जिसकी तुलना, बराबरी, या समानता किसी से न हो सके। पुं० १. तिलका पेड़। २. तिलपुष्पी। ३. कफ। बलगम।
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अतुलनीय  : वि [सं०√तुल् (परिणाम) +अनीयर्, न० त०] १. जिसकी तुलना या समानता न की जा सके। बेजोड़। २. अपरिमित। बेहद।
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अतुलित  : वि० [(सं√तुल्+क्त, न०त]) १. बिना तौला हुआ। २. अपरिमित। ३. असंख्य। ४. अनुपम। बेजोड़।
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अतुल्य  : वि [सं० न० त] १. जो तुल्य न हो। असमान। २. जिसकी तुलना या उपमा न हो सके। (इन्कम्पेरेबुल)
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अतुल्य-योगिता  : स्त्री० [सं० अतुल्य-योग, कर्म० स०, अतुल्ययोग+इनि, ततः तल् टाप्] तुल्य-योगिता काव्यालंकार का एक भेद जिसमें उपमेय और उपमान के कई सामान गुणों या धर्मों के रहते हुए भी किसी एक गुण या धर्म में असमानता या विरोध होने का वर्णन होता है।
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अतुष  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें तुष [छिल्का या भूसी] न हो। बिना छिल्के या भूसी का।
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अतुहिन  : वि० [सं० न० त०] जो ठंड़ा न हो। गर्म। पुं० [सं० न० ब०] सूर्य।
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अतूथ  : वि० [सं० अति=अधिक√उत्थ=उठा हुआ] १. बहुत अधिक। २. अनुपम। बेजोड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अतूल  : वि० =अतुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अतृप्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो तृप्त न हुआ हो। जिसका मन न भरा हो। २. जिसकी कामना या भूख अभी तक बनी हो।
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अतृप्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] अतृप्त होने की अवस्था या भाव।
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अतृष्ण  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें तृष्णा न हो। तृष्णा से रहित।
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अंते  : अव्य० [सं० अंत=अलग, दूर] किसी और या दूसरी जगह। अन्यत्र।
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अंतेउर, (वर)  : पुं० [सं० अंतःपुर] अंतःपुर जनानखाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अतेज  : वि० [सं० अतेजस्] १. जिसमें तेज (ताप या प्रकाश) न हो। २. जो तीक्ष्ण या तीखा हो। जिसमें प्रखरता न हो। ३. जिसमें उग्रता, प्रचंडता न हो। ४. जिसकी श्री, प्रभा या शक्ति नष्ट हो चुकी हो।
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अंतेवासी (सिन्)  : पुं० [सं० अंते√वस् (बसना) +णिनि] १. शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु के पास या साथ रहने वाला शिष्य। २. गाँव के बाहर रहने वाला वर्ग या समाज। ३. चांडाल। वि० पास या साथ रहने वाला।
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अतोर  : वि० [सं० अ०=नहीं+हिं० तोड़] १. जो टूट न सके या तोड़ा न जा सके। २. घनिष्ट पक्का या चिरस्थायी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अतोल  : वि० [सं० अ=नहीं+हिं तोल] १. जो तौला न गया हो। २. जिसकी तौल या अन्दाज न हो सके। ३. जिसकी तुलना या बराबरी का और कोई न हो। ४. जो गिना ना जा सके। बहुत अधिक।
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अतौल  : वि० =अतोल।
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अत्क  : पुं० [सं√०अत् (गति) +कन्] अचकन की तरह का एक पुराना पहनावा।
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अत्त  : वि० [सं० आप्त] प्राप्त। मिला हुआ। स्त्री० [सं० अति) अति। अधिकता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अत्तवार  : पुं० [सं० आदित्यवार, पा० आदिच्चवार, प्रा० आइत्तवार) एतवार। रविवार।
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अत्ता  : पुं० [सं√अद् (भक्षण) +तृच्] चराचर का ग्रहण करनेवाले ईश्वर का एक नाम। स्त्री० [सं० अत् (बंधन) +तक्-टाप्) १. माता। २. सास। ३. मौसी। ४. बड़ी बहन।
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अत्तार  : पुं० [अ०] १. इत्र या सुगन्धित तेल आदि बनाने या बेचनेवाला। २. यूनानी दवाएँ बनाने और बेचनेवाला।
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अत्ति  : स्त्री० [सं० √अत्+क्तिन्] १. बड़ी बहन। २. माता। स्त्री० दे० अत्त।
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अत्तिका  : स्त्री० [सं० अत्ति+कन्-टाप्] १. बड़ी बहन। २. माता।
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अत्थि  : स्त्री० [सं० अस्ति] अस्तित्व में आने की क्रिया, अवस्था या भाव। अस्ति। सत्ता।
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अंत्य  : वि० [सं० अंत + यत्] सब के अंत में आने, रहने या होने वाला। अंतिम। पुं० १. पद्य की संख्या (१,॰॰,॰॰,॰॰,॰॰,॰॰,॰॰,॰॰॰)। २. मोधा नामक पौधा। ३. चांडाल, अंत्यज। ४. ज्योतिष में अंतिम नक्षत्र या लग्न।
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अंत्य-कर्म (न)  : पुं० [कर्म० स०] अंत्येष्टि क्रिया।
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अंत्य-क्रिया  : स्त्री० [कर्म० स०]=अंत्येष्टि।
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अंत्य-गमन  : पुं० [तृ० त०] उच्च वर्ण की स्त्री० का अंतिम वर्ण (शूद्र आदि) के पुरुष के साथ संभोग करना।
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अंत्य-पद  : पुं० [कर्म० स०] गणित में, वर्ग का सबसे बड़ा मूल।
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अंत्य-भ  : पुं० [कर्म० स०] १. अंतिम या रेवती नक्षत्र। २. मीन राशि।
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अंत्य-मूल  : पुं० [कर्म० स०]=अंत्य-पद।
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अंत्य-युग  : पुं० [कर्म० स०] अंतिम युग। कलियुग।
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अंत्य-लोप  : पुं० [ष० त०] शब्द के अंतिम अक्षर के लोप होने की क्रिया या भाव। (व्या०)
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अंत्य-वर्ण  : पुं० [कर्म० स०] १. अंतिम वर्ण, शूद्र। २. वर्णमाला का अंतिम अक्षर ‘ह’। ३. कविता के चरण या पद का अंतिम अक्षर।
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अंत्य-विपुला  : स्त्री० [ब० स०] आर्याछंद का एक भेद।
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अंत्यक  : पुं० [सं० अंत्य+कन्]=अंत्यज।
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अत्यग्नि  : वि० [सं० अति-अग्नि अत्या० स०] जिसमें या जिसका ताप अग्नि के ताप से भी अधिक हो। स्त्री० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक तीव्र या प्रबल पाचन-शक्ति।
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अंत्यज  : वि० [सं० अंत्य√जन् (उत्पत्ति)+ड] (स्त्री० अन्त्यजा) १. जो अंतिम वर्ण से उत्पन्न हो। २. जिसका संबंध निम्न या अछूत जाति से हो। पुं० १. छोटी या नीच जाति। २. अस्पृश्य जाति। ३. शूद्र या अछूत।
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अत्यंत  : वि० [सं० अति-अन्त, अत्या० स०] १. जो उचित अंत या सीमा से बहुत आगे बढ़ा हो। (इन्टेन्स) २. जिसका अंत या सीमा न हो। ३. अत्यधिक। बहुत अधिक। अव्य० बहुत अधिकता से।
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अत्यंत-भाव  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा अस्तित्व या भाव जो सदा बना रहे। कभी नष्ट न होने वाला अस्तित्व।
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अत्यंतग  : वि० [सं० अत्यंत√गम् (जाना) +ड] बहुत तेज चलनेवाला।
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अत्यंतगामी (मिन्)  : वि० [सं० अत्यंत गम्+णिनि] अंत या सीमा तक या उसके बाहर जानेवाला।
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अत्यंतता  : स्त्री० [सं० अत्यंत√तल् टाप्] १. अत्यंत होने की अवस्था या भाव। २. उग्रता। प्रचंडता।
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अत्यंतातिशयोक्ति  : स्त्री०[सं० अत्यंत-अतिशयोक्ति, कर्म० स०] साहित्य में अतिशयोक्तिलंकार का एक भेद, जिसमें कारण के आरंभ होने से पूर्व ही कार्य हो जाने का उल्लेख होता है। जैसे—अभी शिव का तीसरा नेत्र खुलने भी न पाया था कि उधर कामदेव जलकर भस्म हो गया।
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अत्यंताभाव  : पुं० [सं० अत्यंत-अभाव, कर्म० स०] १. (किसी बात या वस्तु में होनेवाला) ऐसा अभाव जो नित्य या स्थायी हो। जैसे—वायु या आकाश में रूप का अत्यंतभाव है। (तर्कशास्त्र में यह ५ प्रकार के अभावों में से एक है) २. ऐसी बात जो कभी संभव न हो। जैसे—आकाश-कुसुम, वन्ध्यापुत्र। ३. बहुत अधिक कमी। जैसे—आज कल अन्न का अत्यंतभाव है।
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अत्यंतिक  : वि० [सं० अत्यंत√ठन्-इक] १. निकट का। समीपी। २. बहुत अधिक चलने या घूमनेवाला।
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अत्यधिक  : वि० [सं० अति-अधिक, प्रा० स०] बहुत अधिक। हद से ज्यादा। (एक्सेसिव) क्रि० वि० बहुत अधिकता से। प्रचुरता से।
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अत्यन्तवासी (सिन्)  : पुं० [सं० अत्यंत√वस् (बसना) +णिनि] सदा आचार्य के पास या साथ रहनेवाला विद्यार्थी।
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अत्यम्ल  : पुं० [सं० अति-अम्ल प्रा० स०] बहुत अधिक खट्टा। पुं० [सं० ब० स०) १. इमली। २. बिजौरा नीबू।
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अत्यय  : पुं० [सं० अति√ इ(गति) +अच्] १. मृत्यु। २. नाश। ३. अभाव। ४. अतिक्रमण। ५. मार्ग। रास्ता। ६. दण्ड। ७. कष्ट। ८. बुराई। ९. खतरा।
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अत्ययिक  : वि० दे० आत्ययिक।
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अत्ययी (यिन्)  : वि० [सं० अत्यय+इनि] १. अत्यय करनेवाला। २ ०सबसे आगे निकल जानेवाला।
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अत्यर्थ  : वि० [सं० अति-अर्थ, अत्या० स०] उचित अर्थ, अर्घ या परिणाम से बहुत अधिक। क्रि० वि० बहुत अधिक परिमाण में। बहुतायत से।
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अत्यष्टि  : स्त्री० [सं० अति-अष्टि अत्या०स०] १७ वर्णों की वृत्तों की संज्ञा। जैसे—शिखरिणी, पृथ्वी आदि।
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अंत्या  : स्त्री० [सं० अंत्य-टाप्] अंत्यज जाति की स्त्री।
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अत्याकार  : वि० [सं० अति-आकार, ब० स०] जो आकार में बहुत बड़ा या विशाल हो। पुं० [सं० अति-आ√ कृ (विक्षेप) +घञ्] १. अवज्ञा। २. अवक्षेप।
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अंत्याक्षर  : पुं० [सं० अंत्य-अक्षर, कर्म०स०] १. किसी शब्द या पद का अंतिम अक्षर। २. वर्ण माला का अंतिम अक्षर ‘ह'।
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अंत्याक्षरी  : स्त्री० [सं० अंत्याक्षर+अच्-डीष्] किसी के द्वारा कहे हुए पद्य या श्लोक के अंतिम अक्षर य शब्द से प्रारम्भ किया हुआ नया पद्य या श्लोक।
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अत्याचार  : पुं० [सं० अति-आचार, प्रा० स०] १. आचार का अतिक्रमण। २. रीति, नीति प्रथा आदि का उल्लंघन। ३. अधिकार का दुरुपयोग। ४. किसी के साथ किया जानेवाला अनुचित तथा अमानुषिक व्यवहार। ५. किसी के सताने या कष्ट देने के लिए किया जाने वाला व्यवहार। (टिरेनी)
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अत्याचारी (रिन्)  : वि० [सं० अत्याचार+इनि] १. अत्याचार करनेवाला। २. अपने अधिकार या बल के कारण दूसरों को बहुत कष्ट पहुँचानेवाला। जालिम। (टायरेण्ड) ३. पाखण्डी।
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अत्याज्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसको छोड़ना उचित न हो। २. जो त्यागा या छोड़ा न जा सके।
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अत्यानंद  : पुं० [सं० अति-आनंद, प्रा० स०] आनंद का वह चूंड़ांत और परम उत्कृष्ट रूप जो आध्यात्मिक चिंतन, ईश्वर के ध्यान में मग्न या लीन होने पर प्राप्त होता है। परमानंद। (एक्सटेसी)
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अत्यानंदा  : स्त्री० [सं० अति-आनंद, प्रा० स० +अच्-टाप्] योनि का एक रोग जिससे स्त्रियाँ अत्यंत मैथुन-प्रिय हो जाती हैं।
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अंत्यानुप्रास  : पुं० [सं० अंत्य-अनुप्रास, कर्म० स०] अनुप्रास शब्दालंकार का एक भेद जिसके अनुसार किसी पद्य के चरणों के अंतिम अक्षर या अक्षरों में सादृश्य होता है।
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अत्याय  : पुं० [सं० अति√अय् (गति)+घञ्] १. सीमा का अतिक्रमण। मर्यादाभंग। २. अत्यधिक आय का लाभ।
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अत्यारूढ़ि  : स्त्री० [सं० अति-आ√रूह्(छढ़ना) +क्तिन्] १. अत्यंत ऊँचे पद पर पहुँचना। २. प्रसिद्धि।
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अंत्यावसायी (यिन्)  : वि० [सं० अंत्य-अव√ सो (नष्ट करना) +णिनि] अत्यन्त छोटी या नीच जाति का (आदमी)।
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अंत्याश्रम  : पुं० [सं० अंत्य-आश्रम, कर्म० स०] वर्णाश्रम में अंतिम अर्थात् चौथा आश्रम। सन्यास आश्रम।
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अंत्याश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० अंत्याश्रम+इनि] अंतिम आश्रम में रहने वाला। पुं० सन्यासी।
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अत्याहित  : वि० [सं० अति-आ√ धा (धारण, पोषण) +क्त] अरुचिकर। पुं० १. अरुचि। अप्रियता। २. भय। खतरा। ३. दुःसाहसिक। कार्य।
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अत्युकता  : स्त्री० [सं० अत्युक्त+टाप्] एक प्रकार का छंद, जिसमें चार पद होते हैं और प्रत्येक पद के दो खण्ड होते हैं।
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अत्युक्ति  : स्त्री० [सं० अति-उक्ति, प्रा० स०] १. कोई बात बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कहना। २. इस प्रकार बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कहीं हुई कोई बात (एग्जैजरेशन) ३. एक अलंकार जिसके अनुसार किसी के बल, उदारता, यश आदि का झूठ-मूठ या औचित्य से बहुत अधिक मात्रा में वर्णन किया जाता है। जैसे—हे राजन् ! आपके दान से याचक भी कल्प-तरु हो गये।
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अत्युक्था  : स्त्री० [सं० अति-उक्थ अत्या० स०] एक प्रकार के वृत्त जिनमें दो वर्ण होते हैं। इसके चार भेद हैं—कामा, मही, सार और मधु।
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अत्युग्र  : वि० [सं० अति-उग्र, प्रा० स०] बहुत अधिक उग्र, तेज या विकट।
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अत्युतपादन  : पुं० दे० अति-उत्पादन।
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अत्युत्तम  : वि० [सं० अति-उत्तम, प्रा० स०] १. सबसे उत्तम। २. बहुत ही उत्कृष्ट तथा सुन्दर।
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अत्युपध  : वि० [सं० अति-उपधा, अत्या० स०] १. परीक्षित आजमाया हुआ। २. विश्वसनीय।
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अत्यूक्त  : वि० [सं० अति√वच् (बोलना) +क्त] जो बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया हो। अत्युक्ति के रूप में कहा हुआ।
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अत्यूह  : पुं० [सं० अति√ऊह् (वितर्क) +अच्] १. बहुत अधिक होनेवाला ऊहा-पोह या तर्क-वितर्क। २. जोर-जोर से बोलने वाला पक्षी। मोर। ३. हरसिंगार। ४. सेवती।
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अंत्येष्टि  : स्त्री० [सं० अंत्या-इष्टि, कर्म०स०] किसी की मृत्यु हो जाने पर किए जाने वाले कर्म-कांड संबंधी धार्मिक कृत्य या संस्कार। जैसे—हिन्दुओं में दाह कर्म या ईसाइयों, मुसलमानों आदि में मुरदा गाड़ना।
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अंत्र  : पुं० [सं०√अन्त् (बाँधना) +ष्ट्र्न] आँत, अँतड़ी। पुं० [सं० अन्तर] मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का समन्वित रूप अंतःकरण। उदाहरण
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अत्र  : अव्य [सं० इदम् वा एतद्+बल् अ आदेश] १. यहाँ से। इस स्थान से। २. इस अवस्था से। पुं० १.=अस्त्र। २. अतर।
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अंत्र-कूज  : पुं० [ष० त०] आँतों की गुड़गुड़ाहट।
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अंत्र-कूजन  : पुं०=अंत्र-क्रूज।
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अंत्र-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] आँत उतरने का रोग।
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अत्रक  : वि० [सं० अत्र+कन्] १. यहाँ का। २. इस लोक का। लौकिक।
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अत्रभवान (वत्)  : वि० [सं० अत्र (यहाँ प्रथमार्थ में बल् प्रयत्न) अत्रभवत्, कर्म० स०] [स्त्री० अत्रभवती] बहुत अधिक महान या श्रेष्ठ।
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अत्रस्थ  : वि० [सं० अत्र√स्था (ठहरना) +क] इस लोक में रहनेवाला।
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अंत्रांडवृद्धि  : स्त्री० [सं० अंड-वृद्धि, ष० त०, अंत्र-अंडवृद्धि, तृ० त०] अंडकोश या फोते में आँत का उतरना और इस कारण उसका फूल जाना। (रोग)
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अंत्राद  : पुं० [सं० अंत्र√अद् (खाना)+अण्] आँतों में उत्पन्न होने वाले कीड़े।
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अत्रि  : पुं० [सं० √अद्(बंधन) +त्रिन्] १. सप्तऋषियों में से एक ऋषि का नाम। २. सप्तऋषि मंडल का एक तारा।
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अत्रिगुण  : वि० [सं० न-त्रिगुण, न० ब०] जो त्रिगुण (सत्, रज, और तम) से रहित या परे हो। त्रिगुणातीत।
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अत्रिज  : पुं० [सं० अत्रि√जन्(उत्पत्ति) +ड] अत्रि के पुत्र-चन्द्रमा, दत्तात्रेय तथा दुर्वासा।
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अंत्री  : स्त्री० [सं० अंत्र ] अँतड़ी आँत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अत्रेय  : पुं० दे० आत्रेय।? (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अत्रैगुण्य  : पुं० [सं० न० त०] सत् रज और तम इन तीन गुणों का अभाव।
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अथ  : अव्य० [सं० √अर्थ(याचना) +ड, पृषो० रलोप] १. कथन, प्रश्न लेख आदि के आरंभ में आनेवाला एक मंगल सूचक अव्यय। २. आरंभ। शुरू। जैसे—अथ से इति तक, अर्थात् आदि से अंत तक।
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अँथऊँ  : पुं० [सं० अस्त] सूर्यास्त होने से कुछ पहले किया जाने वाला भोजन। (जैन)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अथऊ  : पुं० [सं० अस्त, प्रा० अत्थ] सूर्य के अस्त होने से पहले किया जाने वाला भोजन। (जैन)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अथक  : वि० [सं० अ=नहीं+हिं० थकना] १. जो कभी न थके। अश्रांत। २. जिसमें थकावट या रुकावट न आई हो। जैसे—अथक परिश्रम।
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अथच  : अव्य० [सं० द्व० स०] १. और। २. और भी।
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अथना  : अ० [सं० अस्त+ना (प्रत्यय०)] १. सूर्य, चन्द्र आदि का अस्त होना। डूबना। २. कम होना। घटना। ३.नष्ट या समाप्त हो जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अथमना  : पुं० [सं० अस्तमन] उगमना के सामने की दिशा। पश्चिम दिशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंथयना  : अ० दे० अथना [अस्त होना]
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अथरा  : पुं० [सं० स्थिता] [स्त्री० अल्पा० अथरी] मिट्टी का बना हुआ एक प्रकार का चौड़ा तथा खुले मुँह का बरतन। नाँद।
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अथर्व (वेद)  : पुं० [सं० अथ√ऋ(गति) +वनिप्, शक० पररूप अथर्व-वेद, कर्म० स०] आर्यों या हिन्दुओं के चार वेदों में से अंतिम या चौथा वेद, जिसके मंत्रद्रष्टा या ऋषि लोग भृगु और अंगिरा गोत्र वाले थे। विशेष—कहा जाता है कि इसमें ऐसे मंत्रों का संग्रह है जिनसे रोगों और विपत्तियों का निवारण होता है।
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अथर्वण  : पुं० [सं० अथर्वन+अच्] १. शिव। २. अथर्ववेद।
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अथर्वणि  : पुं० [सं० अथर्वन+इस् (वा)] १. वह ब्राह्मण जो अथर्ववेद का ज्ञाता हो। २. यज्ञ कराने वाला पुरोहित।
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अथर्वनी  : पुं० [सं० अथर्वणि]-यज्ञ करानेवाला आचार्य। पुरोहित।
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अथर्वन्  : पुं० [सं० अथ√ ऋ+वनिप् शक० पररूप] १. एक मुनि जो ब्रह्या के पुत्र और अग्नि को उत्पन्न करनेवाले माने जाते है। २. दे० ‘अथर्व’।
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अथल  : पुं० [सं० स्थल] खेती करने के लिए लगान पर दी जानेवाली जमीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अथवना  : अ० दे० ‘अथना (अस्त होना)।
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अथवा  : अव्य० [सं० अथ√वा (गति) +का] एक अनुकल्प वाचक अव्यय जो यह सूचित करता है कि कही हुई दो या दो से अधिक बातों, वस्तुओं आदि में से कोई एक ली जानी चाहिए। यदि यह नहीं तो वह सही। या। वा। जैसे—कोई कविता, कहानी अथवा लेख लिखकर लाओ।
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अथाई  : स्त्री० [सं० अथायी=जगह, पा० ठानीय, प्रा० ठाइअँ] १. बैठने की जगह। चबूतरा। २. घर की बाहरी चौपाल। बैठक। ३.वह स्थान जहाँ लोग बैठकर पंचायत करते है। ४. मंडली। जमावड़ा। ५. दरबार।
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अथाना  : सं० [सं० स्थान] १. थाह लेना। २. गहराई नापना। ३. ढूँढ़ना। पुं० [सं० स्थालु) आम आदि फलों का अचार।
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अथार  : वि० [सं० अ+स्तर] इधर-उधर फैला हुआ या बिखरा हुआ।
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अथावत  : भू० कृ० [सं० अस्तवत्] जो अस्त हो चुका हो। डूबा हुआ।
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अथाह  : वि० [सं० अस्ताघ] १. जिसकी थाह या गहराई का पता न चल सकें। जैसे—यहाँ अथाह जल है। २. गम्भीर। गूढ़। ३. जो जानने या समझने योग्य न हो। पुं० १. गहराई। २. जलाशय। ३. समुद्र। मुहावरा
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अथाही  : स्त्री० [?] बाकी रुपये वसूल करना। उगाही। (बुंदेल)
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अथिर  : वि० =अस्थिर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अथैया  : स्त्री० दे० ‘अथाई।
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अथोर  : वि० [सं० अ=नहीं+सं० स्तोक, पा० थोक, प्रा० थोअ=थोड़ा] [स्त्री० अथोरी] जो थोड़ा या कम न हो। बहुत अधिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदंक  : पुं०=आतंक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदक्ष  : वि० [सं० न० त०] १. जो दक्ष या कुशल न हो। २. कुरूप। भद्धा।
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अदक्षिण  : वि० [सं० न० त०] १. जो दक्षिण न हो। २. बायाँ। ३. प्रतिकूल। विरुद्ध। ४. अकुशल। अनाड़ी। ५. जिसमें या जिसके साथ दक्षिण न हो।
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अदक्षिणीय  : वि० [सं० दक्षिणा√छ-ईय, न० त०] जो दक्षिणा का अधिकारी न हो।
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अदक्षिण्य  : वि० [सं० दक्षिणा√यत्, न० त०]=अदक्षिणीय।
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अदख  : वि० [सं० अ=नहीं√हिं देखना] १. जो दिखाई न दे। २. जिसने न देखा हो अथवा जो न देख रहा हो। उदाहरण—देखति सो मानति है सूधो न्याव जानति है, ऊधौ तुम देखिहूँ अदेख रहिबौ करौ।—रत्नाकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदग  : वि० [सं० अदग्ध, पा० अदग्ध] १. बेदाग। निष्कलंक। २. निरपराध। निर्दोष। ३. जिसे किसी का हाथ न लगा हो। अछूता।
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अदग्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो दग्ध या जला हुआ न हो। २. (मृत शरीर) जिसका दाह संस्कार न हुआ हो।
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अदंड  : वि० [सं० न० ब०] १. जो दण्ड दिये जाने के योग्य न हो। अदंडनीय। २. निडर। निर्भय। ३. (माल) जिस पर कर या महसूल न लगता हो। ४. (भूमि) जिसका राजस्व न देना पड़े। माफी।
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अदंडनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जो दंड पाने के योग्य न हो। अदंड्य। २. दंड से मुक्त।
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अदंडमान  : वि० =अदंडनीय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदंड्य  : वि० [सं० न० त०]=अदंडनीय।
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अदंत  : वि० [सं० न० ब०] जिसके दाँत न हो। बिना दाँत वाला। पुं० १. एक आदित्य का नाम। २. जोंक।
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अदत्त  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अदत्त] १. जो दिया गया न हो। बिना दिया हुआ। २. जो नियम या विधि के अनुसार न दिया गया हो। ३. जो किसी तरह दिया न जा सकता हो और देने पर भी जिसे कोई पा या रख न सकता हो। ४. जिसका मूल्य आदि न चुकाया गया हो। (अनपेड) ५. कंजूस। कृपण।
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अदत्त-दान  : पुं० [सं० ष०त०] अनुचित रूप से और बिना दी हुई वस्तु लेना। (जैन)।
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अदत्त-पूर्वा  : स्त्री० [सं० दत्त-पूर्वा, सुप्सुपा समास, अदत्त-पूर्वा, न० त०] वह कन्या जिसकी मँगनी न हुई हो। कुँवारी कन्या।
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अदंत्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका संबंध दाँतों से न हो। २. जो दाँतों के योग्य न हो। ३. दाँतो के लिए हानिकारक।
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अदद  : स्त्री० [अ०] १. संख्या। गिनती। २. संख्या-सूचक चिन्ह या संकेत। ३. गिनती के काम के लिए कोई पृथक और स्वतंत्र इकाई या मापक। (यूनिट) जैसे—दस अदद कपड़े।
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अदन  : पुं० [सं०√अदद् (खाना)√ल्युट्-अन] [वि० अदनीय] भोजन करना। खाना। भक्षण। पुं० [अ०] ईसाइयों, यहूदियों आदि के अनुसार स्वर्ग का उपवन या वाटिका जिसमें ईश्वर ने पहले-पहल आदम और हौआ को रखा था।
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अदना  : वि० [अ०] बहुत ही तुच्छ या सामान्य। स० [सं० अधि√वद=कहना] दृढ़ता या निश्चय-पूर्वक कोई बात कहना। मुहावरा—अद-बदकर या अद-बदाकर=जान-बूझकर और दृढ़तापूर्वक। जैसे—अद-बदाकर किसी को चिढ़ाना या मारना। पद—अदा-बदा=(क) पहले से आपस में निश्चय किया हुआ। (ख) भाग्य में लिखा हुआ।
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अदनीय  : वि० [सं० √अद्(खाना)√अनीयर्] खाने योग्य। खाद्य।
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अदब  : पुं० [अ०] १. छोटों के द्वारा बड़ों का किया जाना वाला उचित आदर सम्मान। जैसे—बड़ों का अदब और लिहाज करना सीखो। २. शिष्ट सम्भत आचरण या व्यवहार। शिष्टाचार। ३. साहित्य और उससे संबंध रखनेवाला शास्त्र।
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अदबुद  : वि० =अद्भुत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदब्ब  : पुं० १. दे० अदब। २. दे० ‘आदाब’।
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अदंभ  : वि० [सं० न० ब०] [भाव०अदंभता] १. दंभ रहित। फलतः निश्छल और सच्चा। २. जिसमें आंडबर न हो। पुं० [सं० न० त०] १. दंभ का अभाव। फलतः सच्चापन या सच्चाई। २. शिव का एक नाम।
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अदभ्र  : वि० [सं० न० त०] १. अनंत। अपार। २. बहुत अधिक।
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अदम  : पुं० [अ०] १. अभाव। अनस्तित्व। जैसे—अदम तामील अदम पैखी आदि। २. अनुपस्थित। ३. परलोक। स्वर्ग।
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अदम-तामील  : पुं० [अ०] [आज्ञा समन आदि का] तामील या पालन न होना।
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अदम-पैरवी  : स्त्री० [फा०] किसी मुकदमें में आवश्यक कारवाई या पैरवी का न होना।
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अदम-मौजूदगी  : स्त्री० [अ०] अनुपस्थिति।
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अदम-सबूत  : पुं० [सं० ] सबूत या प्रमाण का अभाव।
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अदम्य  : वि० [सं०√दम्(दबाना)√यत् न० त०] १. जिसका दमन न हो सके। २. न दबनेवाला। ३. उत्कट। प्रचंड।
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अदय  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके मन में दया न हो। दया रहित। २. निष्ठुर। कठोर-हृदय (व्यक्ति)।
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अंदर  : क्रि० वि० [सं० अन्तर, पा० अन्तो, प्रा० अन्त, आंत, फा० अन्तर, गु० अंतर, मरा० आँत, अन्तर] [वि० अंदरी=भीतरी] भीतरी भाग में भीतर की ओर। पुं० १. वह जो किसी में स्थित हो या रहे। २. मकान, प्रदेश, स्थान आदि का भीतरी भाग।
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अदरक  : पुं० [सं० आक, प्रा० अल्लय, अद्दअ, गु० आँदु, बं० आदा मराठी अले] एक छोटा पौधा जिसकी जड़ तीक्ष्ण और चरपरी होती तथा मसाले की तरह खाद्य पदार्थो में डाली जाती है। आदी।
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अदरकी  : स्त्री० [सं० आर्द्रक] सौंठ और गुड़ का बना हुआ व्यंजन। सोंठौरा।
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अदरख  : पुं०=अदरक।
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अदरस  : वि० [सं० अदृश्य] जो दिखाई न दे। अदृश्य।
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अदरसा  : पुं० [सं० इंद्राश] चौरेठे या पिसे हुए चावल से बनी हुई एक प्रकार की मिठाई।
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अदरा  : स्त्री०=आर्द्रा (नक्षत्र)
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अदराना  : अ० [सं० आदर] बहुत आदर पाने पर घमंड से भरा आचरण करना। इतराना। वि० किसी का बहुत आदर या दुलार करके उसे इतराने में प्रवृत्त करना।
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अंदरी  : वि० [फा० अंदर+ई] १. अंदर या भीतर का। भीतरी। २. जिसका संबंध अन्दर से हो।
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अदर्श  : पुं० [सं० न० त०] १. वह दिन जिसकी रात में चन्द्रमा दिखाई न दे। २. आदर्श। ३. दर्पण। शीशा।
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अदर्शन  : पुं० [सं० न० त०] १. (किसी वस्तु के) दर्शन का अभाव। दिखाई न देना। २. लोप। विनाश। ३. उपेक्षा। वि० [न० ब०] अदृश्य। गुप्त।
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अदर्शनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जो दर्शन के योग्य न हो। न देखने के लायक। २. अशुभ। बुरा। ३. कुरूप। भद्दा।
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अदल  : वि० [सं० न० ब०] [स्त्री० अदला] १. बिना दल या पत्ते का। २. जो किसी दल में न हो अथवा जिसका कोई दल न हो। पुं० [सं० ] हिज्जल नामक पौधा। पुं० [अ०] न्याय। इन्साफ।
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अदल-बदल  : पुं० [हिं० बदलना√अनु अदलना] १. एक के स्थान पर दूसरा करना, रखना या लाना। परिवर्त्तन। हेर-फेर। २. दे० ‘अदला-बदली’।
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अदलतिहा  : वि० [हिं० अदालत] अदालत या कचहरी में जाकर प्रायः मुकदमें लड़नेवाला। मुकदमेबाज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अदला-बदली  : स्त्री० [हिं० अदल-बदल] १. चीजों को हटाकर परस्पर एक दूसरे की जगह रखना। २. एक चीज लेने के लिए उसके बदले दूसरी चीज देना। (बार्टर)
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अदली  : वि० [अ० अदल] न्यायशील। न्यायी। वि० [सं० अदलिन्) जिसमें पत्तें न हो। बिना पत्तों का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदलीय  : वि० [सं० दल√छ-ईय, न० त०] १. व्यक्ति जो किसी दल में सम्मिलित न हो। २. विषय जो दल विशेष से संबंधित न हो।
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अदवाइन  : स्त्री० दे० ‘अदवान’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अदवान  : स्त्री० [सं० अधः=नीचे√दाम=रस्सी] चारपाई के पैताने बाँधी जाने वाली रस्सी। उनचन।
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अँदवार  : घुं० दे० ‘अंधड़’।
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अदंष्ट्र  : वि० [सं० न० ब०] जिसके दाँत न हो। दंतहीन। पुं० वह साँप जिसका जहरीला दाँत न हो या निकाल दिया गया हो।
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अदहन  : पुं० [सं० आ दहन=खूब जलाना] दाल, चावल आदि पकाने के लिए आग पर चढ़ाकर गरम किया जानेवाला पानी। क्रि० प्र०—चढ़ाना—देना—रखना।
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अदह्य  : वि० [सं० अदाह्य] न जलनेवाला। अदाह्य। पुं० १. एक प्रकार का अदाह्य रेशेदार खनिज पदार्थ जो बुना भी जाता है। २. उक्त पदार्थ से बिने हुए वस्त्र। (एस बेस्टेस)
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अदह्य  : वि० [सं० अदाह्य] जो जल न सकता हो। न जलनेवाला (इनकम्बश्यबुल)
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अदा  : स्त्री० [अ०] १. (विशेषतः युवती स्त्रियों का) मोहित करनेवाला। हाव भाव। मनोहर अंग-भंगी चेष्टा। २. ढंग। तर्ज। वि० १. (देन या धन) जो चुकाया या दे दिया गया हो। चुकता किया हुआ। २. प्रत्यक्ष कार्य अथवा क्रिया के रूप में पालित या संपन्न किया हुआ। कार्य रूप में करके दिखलाया हुआ। जैसे—फर्ज अदा करना=कर्त्तव्य पालन करना।
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अदाई  : वि० [अ०] १. चतुर। चालाक। २. चालबाज। धूर्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदाकार  : पुं० [अ० अदा√फा० कार] १. अभिनेता। कलाकार।
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अदाग  : वि० [सं० अ=नहीं√अ० दाग] १. जिसे या जिसमें दाग या कलंक न लगा हो। निष्कलंक। बेदाग। २. पवित्र। शुद्ध। ३. निर्मल। स्वच्छ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदागी  : वि० दे० ‘अदाग’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंदाज  : पुं० [फा०] १. अनुमान, अटकल। २. नाप-जोख। ३ डब, ढंग। ४. हाव-भाव, कोमल चेष्टाएँ। वि० फेंकने वाला (संज्ञा के अंत में) जैसे—तीरंदाज।
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अंदाजन  : अव्य० [फा०] १. अंदाज से, अटकल से, अनुमानतः। २. प्रायः। लगभग।
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अंदाजपट्टी  : स्त्री०=कनकूत।
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अंदाजपीटी  : स्त्री० [फा० अंदाज+हिं० पिटना] सदा बनाव-सिंगार में लगी रहने वाली और अंदाज नखरे दिखाने वाली स्त्री। (गाली)
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अंदाजा  : पुं० [फा०] १. अटकल, अनुमान। २. कूत।
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अदाँत  : वि० [सं० अदंत] बिना दाँत का। (प्रायः पशुओं के संबंध में)
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अदांत  : वि० [सं० न० त०] जिसने इंद्रियों का दमन न किया हो। अजितेंद्रिय।
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अदाता  : (तृ) वि० [सं० न० त०] १. जो दाता न हो। न देनेवाला। २. कंजूस। कृपण।
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अदान  : पुं० [सं० न० त०] १. दान न देने की क्रिया या भाव। २. अनुचित या बुरा दान। वि० (न० ब०) (हाथी) जिसका मद न निकल रहा हो। वि० =अज्ञान (अनजान)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँदाना  : पुं० [सं० आदि=बाँधना, बँधन करना] संपर्क न होने देना। बचाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदानी  : वि० [सं० न० त०] १. जो दानी न हो। २. कंजूस। कृपण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदाय  : वि० [सं० न० ब०] जो दाय या सम्पत्ति का अंश पाने का अधिकारी न हो।
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अदायगी  : स्त्री० [अ० अदा० से फा०] १. अदा करने की क्रिया या भाव। २. ऋण, देन व्यय आदि चुकाने या धन देने की क्रिया या भाव। (डिफ्रेइंग)
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अदायाँ  : वि० [सं०√हिं० दायाँ=दाहिना]। १. प्रतिकूल। वाम। विरुद्ध। २. अशुभ। बुरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदाया  : स्त्री० [हिं० अ√दया] १. दया या कृपा का अभाव। २. अवकृपा। नाराजगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अदायाद  : वि० [सं० न० त०] १. जो सपिन्ड या सगोत्र न हो। २. जो उक्त कारण से संपत्ति का उत्तराधिकारी न हो सके।
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अदायिक  : वि० [सं० दाय√ठन्-इक,न० त०] जिसका दाय या उत्तरादिकार से संबंध न हो। वि० [सं० न० ब०] जिसका कोई उत्तरादिकारी न हो। ला-वारिस।
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अदार  : वि० [सं० न० ब०] दारा या पत्नी से रहित। अर्थात् अविवाहित या विधुर।
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अदालत  : स्त्री० [अ०] दे० ‘न्यायालय’।
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अदालती  : वि० [अ० अदालत] १. न्यायालय संबंधी। २. न्यायालय में या न्यायालय की ओर से होने वाला। जैसे—अदालती कारवाई, अदालती फैसला।
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अदाँव  : पुं० [सं० अ=नहीं√हिं० दाँव] १. बुरा दाँव या अनुचित चाल। २. कठिन या विकट स्थिति।
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अदावत  : स्त्री० [अ०] १. दुश्मनी। वैर। शत्रुता। २. द्वेष।
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अदावती  : वि० [अ० अदावत] १. अदावत करने या रखनेवाला। वैरी। शत्रु। २. अदावत या द्वेष के कारण होनेवाला। ३. अदावत संबंधी।
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अदास  : वि० [सं० न० त०] १. जो दास न हो। २. स्वतंत्र।
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अदाह  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें दाह (जलन या ताप) न हो। दाह-रहित। स्त्री० (अ०अदा) स्त्रियों का हाव-भाव। नखरा। मोहित करने की चेष्टा। उदाहरण—एतो सरूप दियो तो दियो पर एती अदाह तैं आनि धरी क्यौं ? (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदाहक  : वि० [सं० न० त०] जो दाहक न हो। न जलानेवाला।
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अदाह्य  : वि० [सं० √दह√ण्यत्, न० त०] १. जो जलाया न जा सकता हो। २. जिसे लाना उचित या संगत न हो।
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अंदिका  : स्त्री० [सं० √अन्द (बाँधना)+ण्विल्-अक, टापू, इत्व] १. चूल्हा। २. बड़ी बहन।
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अदिठा  : वि० [सं० अदृष्ट]=अदीठा।
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अदित  : पुं० [सं० आदित्य] १. दे० ‘आदित्य’। २. दे० ‘आदित्य-वार’।
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अदिति  : स्त्री० [सं० दो(काटना)√क्तिच्, न० त०] १. असीम होने की अवस्था या भाव। असीमता। २. दक्ष प्रजापति की पुत्री और कश्यप ऋषि की पत्नी जो सूर्य आदि तैंतीस देवताओं की माता कही गई है। ३. माता। ४. प्रकृति। ५. पृथ्वी। ६. वाणी। ७. पुनर्वसु नक्षत्र। ८. गरीबी। निर्धनता। ९. स्वतंत्रता। १. गाय। पुं० १. प्रजापति। २. देवताओं का विश्वेदेवा नामक गण।
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अदिति-नंदन  : पुं० [सं० ष०त०] देवता।
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अदिति-सुत  : पुं० [सं० ष०त०] १. देवता। २. सूर्य।
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अदितिज  : पुं० [सं० अदिति√ जन् (जन्म लेना)√ड] अदिति से उत्पन्न, देवता।
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अदिदर्शक  : पुं० [सं० अधि√दृश् (देखना) +णिच्+ण्युल्-अक) एक प्रकार का यंत्र जिसमें इसलिए एक या अधिक ताल लगे होते हैं कि कोई छोटी चीज या उसके अंश बहुत बड़े दिखाई पड़ें। (माइक्रोस्कोप)
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अदिन  : पुं० [सं० न० त०] १. बुरा दिन। २. अशुभ समय।
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अदिव्य  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अदिव्या] १. जो दिव्य न हो। लौकिक। साधारण। २. बुरा। ३. स्थूल। ४. जिसका दमन इंद्रियों द्वारा हो। पुं० साहित्य में वह नायक जो दिव्य या देवता न हो, बल्कि लौकिक या मनुष्य हो।
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अदिशयित  : वि० [सं० अधि√शी+क्त) १. (किसी चीज पर) सोया या लेटा हुआ। २. लेटने य़ा सोने के काम में आनेवाला।
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अदिष्ट  : पुं०=अदृष्ट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अदिष्टी  : वि० [सं० अ=नहीं√दृष्टि=विचार] १. जिसकी दृष्टि दूर तक न जाए अर्थात् जो दूर तक न सोच सके। २. मूर्ख। ३. दुष्ट। वि० [सं० दिष्ट√इनि, न० त०] अभागा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदीक्षित  : वि० [सं० न० त०] जिसने दीक्षा न ली हो। जो दीक्षित न हो।
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अदीठ  : वि० [सं० अदृष्ट,प्रा०अदिटृ] १. बिना देखा हुआ। अदृष्ट। २. छिपा हुआ। गुप्त।
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अदीठा  : वि० [सं० अदृष्ट] जो देखा न गया हो।
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अदीत  : पुं०=आदित्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अदीन  : वि० [सं० न० त०] १. जो दीन न हो। दीनता-रहित। २. न झुकनेवाला। ३. प्रचंड। उग्र। ४. निडर। ५. उदार।
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अदीनवृत्ति  : वि० [सं० न० ब०] जिसकी आंतरिक वृत्ति कुंठित न हो। तेजस्वी।
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अदीब  : पुं० [अ०] विद्या और साहित्य का ज्ञाता। वि० १. अदब करनेवाला। २. सुशील। नम्र।
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अदीयमान  : वि० [सं० न० त०] न दिया जानेवाला या न दिया जा सकनेवाला।
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अदीह  : वि० [सं० अ=नहीं√दीर्घ, पा० दीघ, प्रा० दीह] जो दीर्घ या बड़ा न हो। छोटा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंदु  : पुं० [सं० √अन्द्+कु] दे० ‘आँदू'।
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अँदुआ  : पुं० [सं० अंदुक] हाथियों के पिछले पैर में डालने के लिए काठ का बना हुआ एक प्रकार का काँटेदार चक्कर।
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अंदुक  : पुं० [सं० अन्द्+कन]=दे० ‘आँदू'।
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अदुतीय  : वि० =अद्वितीय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदुंद  : वि० [सं० अद्वन्द्व, प्रा० अदुंद] १. द्वन्द्व-रहित। निर्द्वंद्व। २. शान्त। निश्चित। वि० =अद्वितीय। (बेजोड़)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंदू  : पुं० [सं०√अन्दू+कन्]=आँदू।
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अंदूक  : पुं० [सं० अन्द्+कन]=‘आँदू'।
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अदूजा  : वि० [सं० अद्वितीय]=अद्वितीय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदूर  : क्रि० वि० [सं० न० त०] जो दूर न हो। समीप। पुं० सामीप्य।
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अदूर-दर्शी (शिन्)  : वि० [सं० अदूर√ दृश् (देखना)√णिनि] १. जो दूर तक की बात न सोच सके। २. अविचारी।
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अदूषण  : वि० [सं० न० ब०] दूषण-रहित। निर्दोष। बेऐब।
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अदूषित  : वि० [सं० न० त०] जो दूषित न हो। अर्थात् जिस पर दोष न लगा हो। निर्दोष।
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अदृढ़  : वि० [सं० न० त०] १. जो दृढ़ न हो। दृढ़ता रहित। जैसे—अदृढ़ संबंध। २. जो स्थिर न हो। चंचल।
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अदृप्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो दृप्त न हो। २. दर्प या अभिमान से रहित। निरभिमान। ३. सरल। ४. सौम्य।
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अदृश्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो कभी दिखाई न देता हो। अलक्ष्य। २. जो आवरण या ओट में होने के कारण दिखाई न दे। (इन्विजिबुल) ३. जो गायब हो गया हो। लुप्त।
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अदृष्ट  : वि० [सं० न० त०] १. जो देखा न हुआ हो। २. जो दिखाई न पड़ा हो। ३. गायब। लुप्त। ४. अवैध। ५. अमान्य या अस्वीकृति पुं० १. प्रारब्ध। भाग्य। २. अग्नि, जल आदि का दैवी प्रकोप।
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अदृष्ट-कर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०] १. जिसका कर्म या कार्य न देखा गया हो। २. कार्य के अभ्यास या अनुभव से रहित।
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अदृष्ट-गति  : वि० [ब० स०] १. जिसकी गति या चाल समझ में न आवे। २. चालबाज। कूटनीति परायण।
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अदृष्ट-पूर्व  : वि० [दृष्ट-पूर्व, सहसुपा स० न० त०] १. जो पहले न देखा गया हो। २. अद्भुत। विलक्षण।
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अदृष्ट-फल  : वि० [ब० स०] जिसका फल अज्ञात हो। पुं० (कर्म०स०) १. पुण्य-पाप का वह फल जो भविष्य में प्राप्त होने को हो। २. भाग्य।
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अदृष्ट-वाद  : पुं० [ष० त०] वह वादा या सिद्धान्त जिसमें पाप-पुण्य आदि का फल परलोक में मिलना माना जाता है।
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अदृष्टाक्षर  : पुं० [अदृष्ट-अक्षर, कर्म०स०] नीबू आदि के रस से लिखे जानेवाले वे अक्षर जो साधारण अवस्था में अदृश्य रहते हैं, परन्तु आँच पर रखने अथवा किसी प्रकार की रासायनिक क्रिया करने पर पढ़ने योग्य हो जाते हैं।
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अदृष्टार्थ  : पुं० [अदृष्ट-अर्थ, ब० स०] न्याय-दर्शन के अनुसार एक प्रकार का शब्द प्रमाण। वि० १. आध्यात्मिक या गूढ़ अर्थ रखनेवाला। २. जिसका ज्ञान इंद्रियों का विषय न हो।
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अदृष्टि  : वि० [सं० न० ब०] जिसे दृष्टि न हो। दृष्टि-हीन। अंधा। स्त्री० [सं० न० त०] १. दिखाई न पड़ने की अवस्था। अंधता। २. क्रोध, दुर्भाव आदि से युक्त बुरी दृष्टि।
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अदृष्टिका  : स्त्री० [सं० अदृष्टि√कन्-टाप्]=अदृष्टि।
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अदेखा  : वि० [सं० अ√हिं० देखना] [स्त्री० अदेखी] जो अभी तक देखा न गया हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदेय  : वि० [सं० न० त०] १. जो नीति, न्याय, विधि आदि के अनुसार दिया न जा सकता हो। २. जो दिये जाने के योग्य न हो। देने के लिए अनुपयुक्त।
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अदेव  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका संबंध देवता से न हो। २. देव रहित। ३. अपवित्र। ४. अधार्मिक। पुं० [न० त०] १. वह जो देवता न हो। २. राक्षस। ३. जैनों के अनुसार उनके देवताओं से भिन्न देवता।
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अदेवक  : वि० [सं० न० ब०] जो देवता के निमित्त न हो।
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अदेवता  : पुं० [सं० न० त०]=अदेव।
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अदेश  : पुं० [सं० न० त०] अनुपयुक्त अयोग्य या बुरा देश।
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अंदेशा  : पुं० [फा०]=खटका।
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अदेश्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका संबंध देश से न हो। २. जो निर्देश प्राप्त करने के योग्य न हो।
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अँदेस  : पुं०=अंदेशा (खटका)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अदेस  : पुं० [सं० आदेश=आज्ञा, शिक्षा] १. आज्ञा। आदेश। २. शिक्षा। ३. प्रणाम। दंडवत। उदाहरण—औ महेश कहँ करौ अदेसू। जेहि यह पंथ कीन्ह उपदेसू।—जायसी। पुं०=अँदेस (अंदेशा)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंदेह  : पुं० [हिं० अंदेशा] १. खटका। २. सन्देह। उदाहरण—सब कोई कहै तुम्हारी नारी मोको यही अंदेह रे—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदेह  : वि० [सं० न० ब०] बिना देह या शरीर का। विदेह। पुं० कामदेव।
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अदैन्य  : वि[०सं० न० ब०] जिसमें दीनता न हो। पुं० [सं० न० त०] दैन्य या दीनता का अभाव या विपरीत भाव।
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अदैव  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका संबंध देवताओं या उनके कार्यों से न हो। २. देव-रहित। ३. अपवित्र। ४. अथार्मिक। वि० [सं० न० ब०] दैव या भाग्य के द्वारा जिसक पहले से निर्धारण न हुआ हो।
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अदोख  : वि० =अदोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदोखिल  : वि० [सं० अदोष] निर्दोष। बे-ऐब।
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अदोमंडल  : पुं० [सं० अधस् मंडल, कर्म० स०) पृथ्वी सा साढ़े सात मील तक ऊँचा वायुमण्डल। (बादल, बिजली, आँधी आदि इसी में होती है)
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अंदोर  : पुं० [सं० आंदोलन] १. कोलाहल। हुल्लड़। २. हलचल।
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अंदोरा  : पुं० =अंदोर।
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अदोष  : वि० [सं० न० ब०] १. दोष-रहित। बे-ऐब. २. निरपराध। पुं० [सं० न० त०] दोष का अभाव। दोष न होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदोस  : वि० पुं०=अदोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अदोह  : वि० [सं० अदीर्घ] छोटा। वि० [सं० न० ब०] (समय) जो (गौएँ आदि) दुहने के लिए उचित या उपयुक्त न हो।
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अदौरी  : स्त्री० [सं० ऋद्ध,पा०उद्द,हिं० उर्द√सं० बटी,हिं० बरी] उर्द की सुखाई हुई बरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अद्ध  : वि० =अर्द्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अद्धयना  : स० [सं० अध्ययन] अध्ययन करना। पढ़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अद्धरज  : पुं०=अध्वर्यु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अद्धा  : पुं० [सं० अर्द्ध, प्रा० अद्ध=आधा] १. किसी वस्तु का आधा अंश, तौल या नाप। २. वह बोतल जो पूरी बोतल की आधी हो। ३. आधे घंटे पर बजने वाला घंटा० ४. चार मात्राओं का एक ताल जो कौवाली का आधा होता है। ५. एक छोटी नाव। ६. रसीद आदि का आधा भाग जो देने वाले के पास रह जाता है। मुसन्ना। क्रि० वि० [अत्√धा (धारण करना)√क्विप्] १. साक्षात्। प्रत्यक्ष। २. विश्चयपूर्वक। निसंदेह।
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अद्धी  : स्त्री० [[सं० अर्द्ध, प्रा० अंद्ध√हिं० ई (प्रत्यय)] १. दमड़ी का आधा। पैसे का सोलहवाँ भाग। २. एक प्रकार की महीन, चिकनी और बढ़िया मलमल।
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अद्बुतता  : स्त्री० [सं० अद्भुत√तल्-टाप्] अद्भुत होने की अवस्था गुण या भाव। अनोखापन। विलक्षणता।
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अद्बुतालय  : पुं० [अद्बुत-आलय,प० त०] वह स्थान जहाँ अद्बुत वस्तुओं कासंग्रह हो। अजायबघर।
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अद्भुत  : वि० [सं० अत्√भा (दीप्ति)√डुतच्] जो अपनी अपूर्वता विचित्रता या विलक्षणा से हमें मुग्ध और स्तब्ध कर दे। विचित्र। अजीब। आश्चर्यजनक। (वन्डलफुल) पुं० १. आश्चर्य। २. विस्मयकारक पदार्थ का घटना। ३. काव्य के नौ रसों में से एक जिसका स्थायी भाव विस्मय है।
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अद्भुत-कर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०] आश्चर्यजनक कर्म करनेवाला।
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अद्भुत-दर्शन  : वि० [ब० स०] जो देखने में अद्बुत हो। अनोखा लगनेवाला।
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अद्भुत-रस  : पुं० [कर्म० स०] काव्य के नौ रसों में से एक। दे० ‘अद्भुत’ ३.।
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अद्भुतत्त्व  : पुं० [अद्बुत√त्व] अद्बुतता।
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अद्भुतोपमा  : स्त्री० [अद्बुत-उपमा कर्म० स०] उपमा अलंकार का वह भेद जिसमें उपमान के ऐसे गुणों का उल्लेख होता है जिनका होना उपमेय में कभी संभव न हो।
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अद्य  : क्रि० वि० [सं० इदम् शब्द के सप्तम्यर्थ में नि० सिद्धि] इस समय। अब। पुं० १. वह दिन जो वर्तमान हो या बीत रहा हो। आज का दिन। २. वर्तमान समय।
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अद्य-पूर्व  : अव्य० [सं० सुप्सुपा स०] अब या आज से पहले।
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अद्यतन  : वि० [सं० अद्य√ट्यु-अन,तुडागम] =अद्यावत्। पुं० बीती हुई आधी रात से लेकर आगामी आधी रात तक का समय।
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अद्यापि  : क्रि० वि० [सं० अद्य-अपि, द्व० स०] १. आज भी। २. अब भी। ३. आज तक। ४. अभी तक।
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अद्यावत  : क्रि० वि० [सं० अद्य-यावत्] इस समय तक। अब तक। वि० १. आज के दिन का। आज से संबंध रखने वाला। २. आज-कल की उपयोगिता, जानकारी, प्रचलन० रुचि आदि के विचार से जो ठीक या पूरा हो। दिनाप्त। (अप-टू-डेट)
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अद्यावधि  : क्रि० वि० [सं० अद्य-अवधि, सुप्सुपा स०] १. इस समय तक। अभी तक। २. आज तक।
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अद्यावधिक  : वि० [सं० अद्य-अवधि, ब० स० कप्] =अद्यावत।
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अद्यैव  : अव्य० [सं० अद्य-एव,द्व० स०] १. आज ही। २. इसी समय। अभी।
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अद्रव्य  : वि० [सं० न० त०] (पदार्थ) जो द्रव्य न हो,बल्कि उससे भिन्न हो। फलतः अवास्तविक, असत्य या असार। वि० [सं० न० ब०] (व्यक्ति) जिसके पास धन-सम्पत्ति न हो। गरीब। दरिद्र।
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अंद्रसस्त्र  : पुं० [सं० इन्द्रशस्त्र] वज्र। (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अद्रा  : स्त्री०=आर्द्रा। (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अद्रि  : पुं० [सं०√अद् (खाना, रक्षा करना आदि)√क्रिन्] १. पर्वत। पहाड़। २. पत्थर। ३. वृक्ष। पेड़। ४. सूर्य। ५. बिजली। ६. बादल। मेघ। ७. एक प्रकार की पुरानी नाप। ८. काव्य में सात की संख्या का सूचक शब्द।
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अद्रि-कन्या  : स्त्री० [ष० त०] पार्वती।
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अद्रि-कर्णी  : स्त्री० [ब० स० डीष्] अपराजिता का फूल।
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अद्रि-कील  : पुं० [ष० त०] विष्कुंभ नामक पर्वत।
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अद्रि-कीला  : स्त्री० [ब०स] पृथ्वी।
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अद्रि-तनया  : स्त्री० [ष० त०] १. पार्वती। २. गंगा। ३. तेईस वर्णों का एक वृत्त जिसे अश्वललित भी कहते है।
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अद्रि-द्रोणी  : स्त्री० [ष० त०] १. पहाड़ की घाटी। २. नदी का उद्गम।
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अद्रि-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त०] पार्वती।
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अद्रि-पति  : पुं० [ष० त०] पर्वतों का राजा। हिमालय।
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अद्रि-भिद्  : पुं० [सं० अद्रि√भिद्(तोड़ना)+क्विप्] इंद्र का एक नाम।
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अद्रि-श्रंग  : पुं० [ष० त०] पहाड़ की चोटी।
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अद्रि-सानु  : पुं० [ष० त०] १. पहाड़ के ऊपर की चौरस भूमि। २. पहाड़ की चोटी।
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अद्रि-सार  : वि० [ब० स०] पर्वत की तरह अचल, कठोर या दृढ़। पुं० (ष०त०) १. लोहा। २. शिलाजीत।
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अद्रि-सुता  : स्त्री० [ष० त०] पार्वती।
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अद्रिज  : वि० [सं० अद्रि√जन् (उत्पत्ति)+ड] पर्वत से उत्पन्न। पुं० १. गेरू। २. शिलाजीत।
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अद्रिजा  : स्त्री० [सं० अद्रिज√टाप्] १. पार्वती। २. गंगा। ३. सिंहली। पीपल।
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अद्रीश  : पुं० [अद्रि-ईश, ष० त०] पर्वतों का राजा। हिमालय।
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अद्रोह  : पुं० [सं० न० त०] द्रोह या द्वोष का अभाव।
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अद्रोही (हिन्)  : वि० [सं० अद्रोह√इनि] जो किसी से द्रोह या द्वेष न करता हो।
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अद्वंद्व  : वि० [सं० न० ब०] द्वंद्व (कलह, संघर्ष आदि) से रहित। पुं० [सं० न० त०] द्वंद्व या विरोध का अभाव।
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अद्वय  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके जोड़ या बराबरी का कोई न हो। अद्वितीय। अनुपम। २. विलक्षण। ३. प्रधान। मुख्य। पुं० [सं० न० त०) द्वैत का अभाव। अद्वैत। पुं० [सं० न० ब०] १. बुद्ध का एक नाम। २. पर-ब्रह्म।
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अद्वय-वादी (दिन्)  : वि० [सं० अद्वय√वद् (बोलना)√णिनि] अद्वैतवाद के सिद्धान्त मानने वाला। अद्वैतवादी।
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अद्वितीय  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके जोड़ या बराबरी का कोई न हो। अनुपम। (यूनीक) २. विलक्षण। ३. प्रधान। मुख्य। पुं० [सं० न० त०] १. द्वैत का अभाव। अद्वैत। २. (न० ब०) बुद्ध का एक नाम। ३. पर-ब्रह्म।
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अद्वेष  : वि० [सं० न० ब०] १. द्वेष या बैर न करने वाला। २. शांत। द्वेष-रहित। पुं० [सं० न० त०] द्वेष का अभाव।
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अद्वेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० न० त०] द्वेष या वैर न करने वाला। द्वेष-रहित।
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अद्वैत  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें द्वैत या भेद का अभाव न हो। २. जीव और ब्रह्वा या जड़ और चेतन की एकता का सिद्धांत। दे० पुं० १. ब्रह्वा। २. दे० ‘अद्वैतवाद’।
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अद्वैत-वाद  : पुं० [ष० त०] (वि० अद्वैतवादी) वेदान्त का वह सिद्धांत जिसमें आत्मा और परमात्मा को एक माना जाता है और ब्रह्म के सिवा बाकी सब वस्तुओं या तत्त्वों की सत्ता अवास्तविक या असत्य मानी जाती है। (मॉनिज्म)
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अद्वैत-सिद्धि  : स्त्री०[ष० त०] इस मत या सिद्धांत की सिद्धि कि ब्रह्म ही सब कुछ है और उससे भिन्न जगत् की सत्ता नहीं है।
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अद्वैतवादी (दिन्)  : पुं० (ष० अद्वैतवाद+इनि) वह जो अद्वैतवाद का सिद्धांत मानता हो अथवा अद्वैतवाद का अनुयायी हो।
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अद्वैती (तिन्)  : पुं० [सं० अद्वैत+इनि)=अद्वैतवादी।
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अद्वैध  : वि० [सं० न० ब०] १. जो दो या कई भागों में बँटा न हो। २. जो अलग या वियुक्त न हो। ३. जिसमें असद्भावना न हो। अच्छा। ४. ठीक और साफ। खरा।
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अद्वैषी (षिन्)  : वि० [सं० न० त०] जिसे किसी से द्वेष न हो। द्वेष रहित।
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अंध  : वि० [सं० अंध् (अंधा होना) +अच्] १. नयन ज्योति से रहित २. विचार और विवेक से रहित। ३. अविवेकी। ४. जो आँख मूँदकर किया गया हो। आँख बंद करके किया हुआ। जैसे—अंध-अनुकरण, अंध परम्परा। ५. जिसे आगा पीछा या भला बुरा कुछ भी न दिखाई दे। जो असमंजस में पड़ा हो। ६. मूर्ख ना समझ। पुं० १. वह जिसे दिखाई न दे। अंधा आदमी। २. अंधकार, अँधेरा। ३. उल्लू पक्षी। ४. चमगादड़। ५. जल, पानी। ६. एक प्रकार के परिव्राजक। ७. पिंगल या छंद शास्त्र के नियमों के विरुद्ध रचना करने का दोष।
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अध  : वि० [सं० अर्द्ध) आधा का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदो के आरंभ में लगाने पर प्राप्त होता है। जैसे—अधखुला, अधमरा। अव्य० नीचे। तेल।
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अधः (धस्)  : अव्य० [सं० अधर+असि, अधादेश) नीचे। तले। उप० अपेक्षित, निम्नतर या निचाई का सूचक एक उपसर्ग। (सब) जैसे—अधोभूमि (सब-सॉयल)
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अध-कचरा  : वि० (हिं० अध=आधा√कचरना) १. आधा कूटा या पीसा हुआ। दरदरा। २. ज्ञान, योग्यता आदि के विचार से अधूरा या अपूर्ण। ३. अकुशल।
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अध-कच्चा  : पुं० [सं० अर्द्धकच्छ) नदी के किनारे की वह भूमि जो ढालुई होती हुई नदी की सतह तक चली गई हो।
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अध-कछार  : पुं० [सं० अर्द्धकच्छ) पहाड़ की तराई की ढालुई भूमि।
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अध-कपारी  : स्त्री० [सं० अर्द्ध=आधा+कपाल=सिर) आधे सिर का दर्द। आधा सीसी नामक रोग। सूर्यावर्त्त।
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अंध-कूप  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा सूखा हुआ कूँआ जिसके अन्दर अँधेरे के सिवा और कुछ भी दिखाई न देता हो। २. पुराणानुसार एक नरक का नाम। ३. घोर अंधकार। गहरा अँधेरा। ४. अज्ञान।
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अंध-खोपड़ी  : वि० [सं० अंध+हिं० खोपड़ी] जिसके मस्तिष्क में कुछ भी बुद्धि न हो। जिसे बुद्धि में मतलब न हो। मूर्ख, जड़
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अध-गो  : पुं० [सं० अधः =नीचे√गो=इंद्रिय) १. नीचे की इंद्रियाँ। जैसे—जननेन्द्रिय, मल-द्वार। २. मलद्वार से निकलने वाली वायु। पाद।
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अध-गोहुआँ  : पुं० (हिं० अध+सं० गोधूम) आधे गेहूँ और आधे जौ का मिश्रण। गोजई।
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अध-घट  : वि० (हिं० अध=आधा+घटना=पूरा उतरना) १. जो पूरा न घटे। अधूरा। २. अटपट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अध-चना  : पुं० (हिं० अध+चना) गेहूँ और चने का मिश्रण रूप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अध-जर  : वि० =अध-जला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अध-जल  : वि० (हिं० अध+सं० जल) (बरतन) जो पानी से आधा ही भरा हो। जैसे—अध-जल गगरी छलकत जाए।—कहा०।
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अध-जला  : वि० (हिं० अध+जलना) जो कभी आधा ही जला हो। जो पूरी तरह से भस्म न हुआ हो।
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अंध-तमस  : पुं० [कर्म० स० अच्] घोर अंधकार। गहरा अँधेरा।
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अंध-तामिस्र  : पुं० [सं० तमिस्र्+अण्, अंध-तामिस्र, कर्म० स०] १. घोर या निविड़ अंधकार। २. पुराणओं के अनुसार एक नरक जिसमें घोर अंधकार है। ३. सांख्य दर्शन के अनुसार इच्छा के विधान या विपर्यय के पाँच भेदों में से एक। जीने की इच्छा रहते हुए भी मरने का भय। ४. योग के अनुसार पाँच क्लेशों में से एक जिसमें मृत्यु का भय होता है।
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अध-पई  : स्त्री० (हिं० अध+सं० पाद=चौथाई) आधा पाव का बटखरा या बाट।
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अध-पका  : वि० (हिं० अध+पकना) (फल या खाद्य पदार्थ) जो अभी आधा ही पका हो पूरी तरह से न पका हो। जैसे—अधपका आम। अधपका चावल आदि।
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अंध-परंपरा  : स्त्री० [ष० त०] बिना सोचे-समझे पुरानी चाल का अनुकरण। भेड़िया-धँसान। बिना सोचे समझे मानी जाने वाली पुरानी प्रथा या रूढ़ि। परंपरा या प्रथा का होने वाला अंध-अनुकरण।
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अंध-पूतना  : स्त्री० [कर्म० स०] सुश्रुत के अनुसार एक बालग्रह (रोग)।
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अध-फर  : पुं० [सं० अर्द्ध=आधा+फलक=तख्ता) १. आकाश और पृथ्वी के बीच का स्थान। अतंरिक्ष। अधर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अध-बर  : पुं० [सं० अर्द्ध=आधा+बल=आधार) १. आधा रास्ता। २. बीच। मध्य। ३. अंतरिक्ष। उदाहरण—तुलसी अध घर के भये ज्यों बधूर के पान।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंध-बिन्दु  : पुं० [कर्म० स०] आँख के भीतरी परदे का वह बिन्दु जहाँ किसी आंतरिक कारण से प्रकाश या बाहरी वस्तु का प्रतिबिंब न पहुँचता हो।
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अध-बीच  : पुं० (हिं० अध+बीच) १. किसी विस्तार का मध्य भाग या उसमें होने की अवस्था या भाव। २. मँझधार।
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अध-बुध  : वि० [सं० अर्द्ध-बुध=बुद्धिमान) १. जिसकी बुद्धि अभी आधी ही विकसित हुई हो। २. अर्द्ध-शिक्षित। अधकचरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अध-बैसू  : वि० [सं० अर्द्धवयस्=उम्र) जिसने अपने जीवन का आधा ही वयस पार किया हो। अधेड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अध-मरा  : वि० (हिं० अध+मरना) जिसके प्राण निकल रहे हों, पर पूरी तरह से न निकले हों। अध मरा हुआ। मृतप्राय। जैसे—किसी को मारते-मारते अधमरा कर देना।
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अध-मुआ  : वि० =अध-मरा।
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अध-मुख  : क्रि० वि० [सं० अधोमुख) १. नीचे की ओर मुँह किये हुए। २. मुँहके बल। औंधे। वि० उलटा। औंधा।
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अध-रंगा  : पुं० (हिं० अध+सं० रंग) एक प्रकार का फूल।
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अंध-विश्वास  : पुं० [ष० त०] बिना सोचे-समझे किया जाने वाला निश्चय अथवा स्थिर किया हुआ भय। विवेक शून्य धारणा। जैसे—किसी परंपरागत रीतियों किसी विशिष्ट धर्माचार्यों के उपदेशों अथवा किसी राजनैतिक सिद्धान्त के प्रति होने वाला अंधविश्वास। (सुपर्सटिशन)
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अंध-श्रद्धा  : स्त्री० [ष० त०] बिना सोचे-समझे, केवल अंधविश्वास के कारण की जानेवाली श्रद्धा।
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अध-सेरा  : पुं० (हिं० अध+सेर) आधे सेर का बटखरा।
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अंधक  : वि० [सं० अंध+कन्]—अँधा। पुं० [सं०√अन्ध् (अंधा होना)+ण्वुल्-अक] १. अंधा आदमी। २. कश्यप का एक पुत्र जो शिव के हाथों मारा गया था। ३. बृहस्पति के बड़े भाई उतथ्य का एक पुत्र। ४. बौद्ध काल की एक प्राचीन भाषा।
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अंधक-रिपु  : पुं० [ष० त०] १. दे० ‘अंधघाती'। २. अंधकार का शत्रु।
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अधकट  : वि० (हिं० आधा√कटना) १. आधा कटा हुआ। २. जो साधारण या नियत दूरी या विस्तार से आधे मान का ही हो।
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अधकहा  : वि० (हिं० अध+कहना) १. (कथन) जो आधा ही कहा गया हो। २. (बात) जिसका पूरा और स्पष्ट उच्चारण न हुआ हो।
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अधःकाय  : पुं० [सं० एकदेशि स०) कमर के नीचे का अंग।
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अंधकार  : पुं० [अंध√ कृ (करना) +अण्] १. प्रकाश, रोशनी का न होना। २. अज्ञान। ३. मोह। ४. उदासी।
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अंधकार-युग  : पुं० [ष० त०] किसी देश या विषय के इतिहास का वह समय जिस की विशेष बातें अभी अज्ञात हों। (डार्क एज)
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अंधकारि  : पुं० [सं० अंधक-अरि० ष० त०]=अंधक-रिपु।
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अंधकारी  : स्त्री० [सं० अंधकार√डीष्] एक रागिनी जो कहीं-कहीं भैरव राग की रागिनियों में मानी गई है।
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अधकिरी  : स्त्री० [सं० अर्द्ध-कर) मालगुजारी, महसूल या किराये की आधी किस्त।
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अधःक्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०) अपमान। तिरस्कार।
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अधखिला  : वि० (हिं० अध+खिलना) (फूल) जो आधा ही खिला हो। पूरा न खिला हो। अर्द्ध-विकसित।
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अधखुला  : वि० (हिं० अध+खुलना) (स्त्री० अधखुली) आधा खुला हुआ। अर्धोन्मीलित। उदाहरण—चले अधखुले द्वार लौं, खुली अधखुली पीठि-पद्याकर।
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अधगति  : स्त्री० अधोगति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधगोरा  : पुं० (हिं० अध+गोरा) (स्त्री० अधगोरी) वह व्यक्ति जो गोरे (अर्थात् यूरोपीय) और काले (अर्थात् एशियाई या भारतीय) माता-पिता से उत्पन्न हो। (एंग्लो-इंडियन)
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अंधघाती (तिन्)  : पुं० [सं० अंध√हन् (मारना) +णिनि] १. शिव। २. सूर्य। ३. चन्द्रमा। ४. अग्नि।
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अधचरा  : वि० (हिं० अध+चरना) आधा चरा या खाया हुआ। जैसे—अध-चरा खेत।
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अंधड़  : पुं०=आँधी।
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अधड़ा  : वि० (हिं० अध+ड़ा (प्रत्यय) या सं० अधर) (स्त्री० अधड़ी) १. जो अधर में या बिना किसी आधार के हो। वि० [सं० अ√हिं० धड़) १. जिसका सिर-पैर न हो। २. असंबद्ध। ऊट-पटाँग।
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अधंतरी  : स्त्री० [सं० अधः+अंतरी) मालखंभ की एक प्रकार की कसरत।
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अंधता  : स्त्री० [सं० अंध+तल्-टाप्] १. अंधे होने की अवस्था या भाव। अंधापन। २. मूर्खता।
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अंधतामस  : पुं० [सं० तमस्+अण्, अंध-तामस, कर्म० स०] घोर अंधकार।
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अंधधुंध  : क्रि० वि०=अंधाधुंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधन  : वि० [सं० अ+धन) निर्धन। धनहीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधनियाँ  : वि० (हिं० अध+आना+इया (प्रत्यय) आधे आने का। जैसे—अधनियाँ टिकट (डाक का)
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अधन्ना  : पुं० (हिं० अध+आना) आधे आने का ताँबे का पुराना सिक्का।
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अधन्नी  : पुं० (हिं० अधन्ना) आधे आने का निकिल छोटा चौकोर सिक्का।
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अधन्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो धन्य न हो। २. अभागा। ३. निंदनीय। ४. जो धान्यदि से रहित हो।
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अधःपतन  : पुं० [सं० स० त०) (भू० कृ० अधः पतित) १. नीचे की ओर गिरना। अवनति। २. दुर्गति। दुर्दशा। ३. क्षय। विनाश।
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अधःपतित  : भू० कृ० [सं० स० त०) १. जिसका अधःपतन हुआ हो। बहुत नीचे गिरा हुआ। २. दुर्दशा-ग्रस्त।
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अधःपात  : पुं० [सं० स०त०) =अधःपतन।
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अधःपुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०) १. नीले फूलों वाली एक जड़ी। २. अनतमूल नामक औषधि।
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अंधबाई  : स्त्री०=आँधी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधम  : वि० [सं० अव (रक्षा आदि) +अम, ध आदेश) (भाव० अधमता) (स्त्री० अधमा) १. बिलकुल निकृष्ट या निम्न कोटि का। गया बीता और बहुत बुरा। २. बहुत बड़ा दुराचारी, दुष्ट या पापी। ३. नीच। पुं० ग्रहों का एक अनिष्टकारक योग। (ज्योतिष)
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अधमई  : स्त्री०=अधमता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधमता  : स्त्री० [सं० अधम+तल्-टाप्) अधम होने की अवस्था, गुण या भाव। नीचता।
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अधमर्ण  : पुं० [सं० अधम-ऋण, ब० स०) वह जिसने किसी से ऋण लिया हो। कर्जदार।
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अधमा  : वि० स्त्री० [सं० अधम+टाप्) अधम स्वभाव या आचरणवाली। दुष्ट प्रकृति की। जैसे—अधमा दूती, अधमा नायिका। (देखें) स्त्री० कर्कशा स्त्री०।
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अधमा-दूती  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद) साहित्य में वह दूती जो कटु बातें कहकर या ताने देकर संदेश सुनावे।
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अधमा-नायिका  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद) साहित्य में वह नायिका जो सज्जन नायक के साथ भी दुर्व्यवहार करती हो।
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अधमाई  : स्त्री०=अधमता।
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अधमाँग  : पुं० [सं० अधम-अंग, कर्म० स०) १. शरीर का निचला भाग या नीचे वाला अंग। २. पाँव। पैर।
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अधमाधम  : वि० [सं० अधम-अधम, स० त०) अधमों में भी परम अधम। महानीच।
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अधमारा  : वि० (हिं० अध√मारना) जो आधा ही मारा गया हो। जो पूरी तरह से मार न डाला गया हो।
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अधमार्द्ध  : पुं० [सं० अधम-अर्द्ध,कर्म०स०) नाभि के नीचे का आधा भाग।
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अधमोद्वारक  : वि० [सं० अधम-उद्धारक, ष० त०) अधमों या पापियों का उद्धार करनेवाला।
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अंधर  : पुं० =१ अंधड़। २. अँधेरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधर  : वि० (हिं० अ+धृ=धारना) १. जिसे धरा या पकड़ा न जा सके। २. जिसे किसी ने धारण न किया हो। ३. जो किसी आधार पर न हो। जिसके नीचे आधार या आश्रय न हो। बिना आधार का। पुं० आकाश और पृथ्वी के बीच का वह अंश जिसमें टिकने या ठहरने के लिए कोई आधार या आश्रय नहीं होता। अंतरिक्ष। मुहावरा—अधर में चलना=बहुत अधिक इतराना या इठलाना। अधर में झूलना,पकड़ा या लटकना=अनिश्चय और प्रतिक्षा की अवस्था में रहना। वि० [सं० +धृ (धरना) +अच्, न० ब०) १. जिसका निचले भाग से संबंध हो। नीचे का। २. जो नीचे झुका हो या जिसका झुकाव नीचे की ओर हो। ३. तुच्छ या हल्का। ४. दुष्ट। नीच। पुं० [सं० न० त०] १. नीचे का होंठ। २. होंठ (ऊपर या नीचे का)। मुहावरा—अधर चबाना=क्रोध के कारण ओंठो को चबाना। (बहुत अधिक क्रोध प्रकट करने का लक्षण) ३. योनि के दोनों पार्श्व। ४. पाताल। ५. शरीर का निचला भाग। ६. दक्षिण दिशा।
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अधर-पान  : पुं० [ष० त०] प्रिय के होंठ प्रेमपूर्वक अच्छी तरह चूमना और उनका रस लेना।
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अधर-बिंब  : पुं० (उपमि० स०) कुंदरू के पके फल की तरह के लाल होंठ।
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अधर-रस  : पुं० (ष० त०) अधरों का रस जो प्रिय को होंठ चूमने पर प्राप्त होता है।
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अधर-स्वास्तिक  : पुं० (कर्म०स०) दे० ‘अधोबिन्दु’।
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अधरज  : पुं० [सं० अधर-रज) १. होंठों की ललाई या सुर्खी। २. होंठों पर की पान या मिस्सी का धड़ी।
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अधरम  : पुं०=अधर्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधरमकाय  : पुं० दे० ‘अधर्मास्तिकाय’।
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अँधरा  : पुं० [सं० अंध] [स्त्री० अँधरी] अंधा, नेत्र-हीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधरांग  : पुं० [सं० अधर-अंग, कर्म० स०) कमर के नीचे के अंग या भाग।
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अधरांग-घात  : पुं० (स०त०) एक प्रकार का रोग जिसमें कमर से नीचे अंग बिलकुल सुन्न और बेकाम हो जाते हैं। (पैराप्लेजिया)
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अधरात  : स्त्री० (हिं० आधी+रात) संध्या और सबेरे का मध्य भाग। आधी रात।
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अधराधर  : पुं० (अधर-अधर कर्म०स०) नीचे का होंठ।
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अधरामृत  : पुं० (अधर-अमृत ष० त०) अमृत का-सा वह रस या स्वाद जो प्रिया के अधर या होंठ चूमने या चूसने पर प्राप्त होता है।
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अधरासव  : पुं० (अधर-आसव, ष० त०) अधर-रस जिसका पान आसव या मदिरा के समान आनंददायक होता है।
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अधरीण  : वि० [सं० अधर+ख-ईन) १. नीच और तिरस्कृत। २. निंदित या निंदनीय।
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अधरोत्तर  : वि० (अधर-उत्तर, द्व० स०) १. ऊँचा-नीचा। ऊबड़-खाबड़। २. भला-बुरा। ३. न्युनाधिक। कम-ज्यादा। थोड़ा बहुत। क्रि० वि० ऊँचे-नीचे।
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अधरोष्ठ  : पुं० (अधर-ओष्ठ, द्व० स०) नीचे और ऊपर के होंठ।
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अधर्म  : पुं० [सं० न० त०] १. धर्म के सिंद्धान्तों या धर्म-शास्त्र की आज्ञाओं के विरुद्ध आचरण या कार्य। पातक। पाप। २. निंदनीय और बुरा काम। ३.एक प्रजापति का नाम।
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अधर्मास्तिकाय  : पुं० [सं० अधर्म-अस्तिकाय, ष० त०) द्रव्य के छः भेदों में से एक जो अरूपी और नित्य माना गया है। (जैन)
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अधर्मी (मिन्)  : पुं० [सं० अधर्म+इनि) १. वह जो अधर्म करता हो। २. वह जो अपने धर्म के विरुद्ध आचरण करता हो। पापी।
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अधर्म्य  : वि० [सं० धर्म√यत्,न० त०) १. जो धर्म से युक्त न हो। २. जो धर्म की दृष्टि से उपयुक्त या न्याय संगत न हो। जो धर्म-विरुद्ध हो। ३. अधर्मी। ४. अवैध। ५. अन्यायपूर्ण।
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अधर्षणीय  : वि० [सं०√धृष् (डाँटना फटकारना) +अनीयर, न० त०) १. जिसका धर्षण न किया जा सके। जो डरा-धमका कर डराया न जा सके। २. निडर। निर्भय।
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अंधला  : वि० =अंधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधवट  : वि० (हिं० अध+औटना) (दूध) जो औटा या उबालकर आधा अर्थात् सब गाढ़ा कर दिया गया हो।
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अधवा  : स्त्री० [सं० न० ब०टाप्) (स्त्री०) जिसका पति न हो अथवा जीवित न हो। पति-रहित।
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अधवाना  : पुं० (हिं० हिंदवाना) तरबज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अधवारी  : स्त्री० (?) एक वृक्ष जिसकी लकड़ी मकान और खेती बारी के समान बनाने के काम आती है।
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अंधवाह  : पुं०=आँधी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधःशयन  : पुं० [सं० स० त०) भूमि पर या नीचे सोना।
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अधश्चर  : वि० [सं० अधस्√चर्(चलना)+ट) नीचे झुककर या रेंगकर चलने वाला। पुं० सेंध लगाकर चोरी करने वाला चोर। सेंधिया चोर।
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अंधस्  : पुं० [सं० अद् (खाना) +असुन्, नुम्, ध] १. भात। २. खाद्य। ३. सोम नामक वनस्पति या उसका रस।
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अधस्तन  : वि० [सं० अधस्+ट्यु-अन, तुट्) अधीन या नीचे रहने अथवा होने वाला। अधीनस्थ (लोअर) जैसे—अधस्तन न्यायालय।
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अधस्तल  : पुं० [सं० ष० त०) १. नीचे का तल या तह। २. भूमि के नीचे का कमरा या कोठरी। तहखाना।
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अधस्थ  : वि० [सं० अधःस्थ) १. किसी के नीचे रहकर काम करने वाला। (सबाँडिनेट) २. किसी नियम या व्यवस्था आदि के अधीन। (अंडर)
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अधःस्वस्तिक  : पुं० [सं० मध्य०स०) वह कल्पित बिन्दु जो देखने वाले के ठीक नीचे माना जाता है। अधोबिन्दु। ख-स्वस्तिक का विपर्याय (नेडर)
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अधस्वस्तिक  : पुं० [सं० ष०त०) दे० ‘अधोबिन्दु’।
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अंधा  : पुं० [सं० अंध] वह जो आँख के दोष या विकार के कारण कुछ भी न देख सकता हो। दृष्टि-शक्ति से रहित प्राणी। वि० १. जिसकी आँखों में देखने की शक्ति न हो। २. जिसके अन्दर कुछ भी न दिखाई दे। जैसे—अंध कोठरी। ३. बिना सोचे-समझे काम करने वाला। ४. जिसमें कोई विशिष्ट तत्त्व न हो, या न रह गया हो। जैसे—अंधा शीशा। अंधा दिया। मुहावरा—अंधा बनना=जानबूझकर किसी बात पर ध्यान न देना। अंधा बनाना=बुरी तरह से या मूर्ख बनाकर धोखा देना। पद—अंधा भैंसा=लड़कों का एक खेल जिसमें वे आँखों पर पट्टी बाँधकर एक दूसरे को छूकर उसका नाम बताते और तब उसे भैंसा बनाकर उस पर सवारी करते हैं। अंधे की लकड़ी या लाठी=असहाय का एक मात्र सहारा।
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अंधा-कुआँ  : पुं० [हिं० अंधा+कुआँ] १. वह गहरा कुआँ जिसमें का पानी सूख गया हो और जिसमें मिट्टी भर गई हो। २. बहुत गहरा और अँधेरा कुआँ। ३.उदर पेट (लाक्ष०)।
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अंधा-धुंध  : स्त्री० [हि० अंधा+धुंध] १. गहरा अँधेरा। घोर अंधकार। २. ऐसी अवस्था या व्यवस्था जिसमें कम, वितार, संगति आदि का नाम भी न हो। धींगा-धींगी। ३. अन्याय, अत्याचार, दुराचार। वि० १. विचार, विवेक आदि से रहित। २. बहुत अधिक। जैसे—अंधाधुंध दौड़ना। २. बहुत अधिकता से। जैसे—अंधाधुंध पानी बरसना।
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अधाँगा  : पुं० [सं० अर्द्धाग) खाकी रंग की एक चिड़िया।
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अधातु  : स्त्री० (सं० न० त०) १. वह जो धातु न हो। २. वह तत्त्व जिसमें धातु के गुण न हों। (नान-मैटल)
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अधात्विक  : वि० [सं० अदातविक) जो या जिसमें धात्विक तत्त्व न हों। (नान-मैटेलिक)
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अधात्वीय  : वि० [सं० अधातवीय)=अधात्विक।
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अधाधुंध  : क्रि० वि० =अंधाधुंध।
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अधाना  : पुं० [सं० अर्द्ध) संगीत में खयाल का एक भेद।
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अंधानुकरण  : पुं० [सं० अंध-अनुकरण, ष० त०] बिना सोचे-समझे किया जाने वाला किसी का अनुकरण।
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अँधार  : पुं० [सं० अंधकर, प्रा० अंधयार] १. अँधेरा, अंधकार। वि० जिसमें या जहाँ अँधेरा हो। अंधकारपूर्ण। पुं० (?) रस्सियों का वह जाल जिसमें घास, भूसे आदि के गट्ठर बाँधते हैं।
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अधार  : पुं०=आधार।
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अंधारा  : पुं० [हिं० अंधेरा] १. अंधकार, अंधेरा। २. कृष्ण पक्ष। वि० =अंधेरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अधारा  : वि० (हिं० अ+धार) (शस्त्र) जिसमें धार न हो। बिना धार का। अशित (जैसे—लाठी, छड़ी आदि)।
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अधारिया  : पुं० [सं० आधार) बैलगाड़ी में गाड़ीवान के बैठने का स्थान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँधारी  : स्त्री० [हिं० अंधार+ई] १. आँधी। अंधड़। (डिं०) २. दे० ‘अँधियारी’।
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अधारी  : स्त्री० [सं० आधार) १. आधार। आश्रय। २. काठ का वह ढ़ाँचा जो साधु लो गबैठने के समय सहारे के लिए बाँह के नीचे रखते हैं। टेवकी। उदाहरण—ऊधो योग सिखावन आये, श्रंगी भस्म अधारी मुद्रा दै यदुनाथ पठाये।—सूर। ३. यात्रा के समय समान रखने का झोला। पुं० (हिं० अ+धारना) वह बैल जो अभी गाड़ी या हल में जोतकर निकाला न गया हो।
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अधार्मिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो धार्मिक न हो। धर्म से संबंध न रखने वाला। २. पापी। दुराचारी। ३.धर्म-विरुद्ध।
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अधावट  : वि० =अधवट।
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अंधाहुली  : स्त्री० [सं० अधःपुष्पी] चोर नामक पुष्पी पौधा।
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अधि  : उप० [सं० √धा (धारण करना) +कि,न० त०) एक संयुक्त उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगाया जाता है और जिसके ये अर्थ होते हैं।—(क) ऊपर, ऊँचा। जैसे—अधिराज, अधिकरण। (ख) प्रधान,जैसे—अधिनायक,अधिपति। (ग) अधिक, जैसे—अधिमास। (घ) संबंध में जैसे—अध्यात्मिक। (च) साधारण अथवा या मध्यम से अधिक, जैसे—अधिप्रचार। अब यह कुछ शब्दों के आरंभ में अधिकार के वाचक और संक्षिप्त रूप की भाँति भी लगने लगा है। जैसे—अधिक्षेत्र=अधिकार क्षेत्र, अधिपत्र=अधिकार पत्र, अधिग्रहण=अधिकार पूर्वक ग्रहण आदि। स्त्री० १. चिन्ता। २. वह स्त्री० जिसका मासिक स्राव चल रहा हो
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अधि-कर  : पुं० [सं० प्र० स०) १. कोई ऐसा कर जो विशिष्ट अवस्था में किसी लगे हुए कर के साथ अतिरिक्त रूप से अथवा और अधिक जोड़ा या लगाया लगा हो। (सरचार्ज) २. निश्चित मात्रा से अधिक आय होने पर लगनेवाला अतिरिक्त कर। (सुपरटैक्स) ३. दे० ‘अधिशुल्क’।
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अधि-क्षेत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. किसी के विधिक अधिकार या कार्य का क्षेत्र। (ज्यूरिसूडिक्शन) २. किसी प्रकार के कार्य, व्यवहार प्रयोग आदि का क्षेत्र। (रेंज)
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अधि-मत  : पुं० [सं० प्रा० स०) किसी विषय से संबंध रखनेवाला। ऐसा निश्चित मत या सिद्धान्त जिसे सब लोग आदर-भाव या पूज्य-बुद्धि से मानते हों। (कैनन) जैसे—धार्मिक या नैतिक अधिमत।
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अधि-युक्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वेतन, मजदूरी आदि पर या जीविका-निर्वाह के लिए किसी काम में लगे रहने की अवस्था या भाव। काम पर लगा होना। (एम्प्लॉयमेंट)
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अधिक  : वि० [सं० अध्यारूढ़+कन्, आरूढ़ का लोप) १. बहुत। विशेष। २. औचित्य, सीमा आदि से बढ़ा हुआ। समधिक। (एक्सीडिग) ३.बचा हुआ। फालतू। ४. असाधारण। ५.बाद का। ६.गौण। पुं० साहित्य में एक जिसमें आधार और आधेय में से किसी एक के बहुत बड़े होने पर भी दोनों का इस प्रकार उल्लेख होता है कि वे एक दूसरे के उपयुक्त और समान ठहरते है। (एक्सीडिग) जैसे— उदर उदधि बलि बलित अधाहा। जीव जन्तु जहँ कोटि कटाहा। में शक्कर का उदर (आधार) है तो छोटा ही,पर उसमें करोड़ो ब्रह्वांडों (आधेय) के होने का उल्लेख है।
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अधिक-कोण  : पुं० [सं० कर्म० स०) भूमिति में वह कोण जो समकोण से बड़ा हो। (आँबट्यूज एंगिल)
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अधिक-तिथि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०) हिन्दू पंचांग में वह तिथि जो एक दिन में पूरी न होकर दूसरे दिन भी चले और मानी जाए।
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अधिक-मास  : पुं० [सं० कर्म०स०) हिन्दू पंचांग में हर चौथे वर्ष बढ़ने वाला एक चंद्र मास जो दो संक्रान्तियों के बीच में पड़ता है। लौंद का महीना। मल-मास।
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अधिकतम  : वि० [सं० अधिक+तपम्) १. मात्रा मान, संख्या आदि में सबसे अधिक। २. अधिक से अधिक जितना हो सकता हो। ३. दे० ‘महत्तम’। (ग्रेटेस्ट)
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अधिकतर  : वि० [सं० अधिक+तपम्) १. किसी वस्तु या समूह में का आधे से अधिक (अंश या भाग)। जैसे—अधिकतर लोग उठकर चले गये। २. किसी की तुलना में अधिक। जैसे—उसका रोष अधिक से अधिकतर हो गया। क्रि० वि० बहुत करके। जैसे—अधिकतर ऐसा ही होता है।
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अधिकता  : स्त्री० [सं० अधिक+तल्-टाप्) १. अधिक होने की अवस्था,गुण या भाव। बहुतायत। २. बढ़ती। वृद्धि। ३. विशेषता।
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अधिकरण  : पुं० सं० अधि√कृ (करना)+ल्युट्-अन) १. आधार। २. व्याकरण की क्रिया के आधार पर बोधक रूप संज्ञा जो सातवाँ कारक है। ३. प्रकरण। ४. न्यायालय। ५. किसी विशिष्ठ उद्वेश्य अथवा कार्य के लिए नियुक्त किया हुआ कोई न्यायालय। (ट्रिब्यूनल) ६. दर्शन के आधार का विषय। ७. सीमांसा और वेदान्त के अनुसार वह प्रकरण जिसमें विषय, संशय, पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष और निर्णय इन पाँच अवयवों की विवेचना की जाए।
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अधिकरण-शुल्क  : पुं० (ष० त०) किसी न्यायालय में कोई प्रार्थना उपस्थित करते समय स्टाम्प या अंक-पत्रक के रूप में दिया जाने वाला शुल्क या फीस। (कोर्ट फी)
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अधिकरण-सिद्धान्त  : पुं० (ष० त०) न्याय शास्त्र में ऐसा सिद्धान्त जिसके सिद्ध होने पर कुछ अन्य सिद्धान्त या अर्थ आप से आप सिद्ध हो जाते हों।
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अधिकरणिक  : पुं० [सं० अधिकरण+ठन्-इक) १. न्यायाधीश। फैसला करनेवाला। २. अधिकारी।
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अधिकरणी (णिन्)  : वि० [सं० अधिकरण+इनि) निरीक्षण करने वाला। पुं० १. अध्यक्ष। २. स्वामी। मालिक।
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अधिकरण्य  : पुं० [सं० अधिकरण) १. वह संस्था या समिति जिसे कोई कार्य करने का विशेष रूप से अधिकार प्राप्त हो। (आथॉरिटी)
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अधिकर्म (न्)  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. निरीक्षण। २. [सं० ब० स०) निरीक्षक।
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अधिकर्मिक  : पुं० [सं० अधिकर्मन+ठन्-इक) प्राचीन भारत में, व्यापारियों से चुंगी वसूल करनेवाला एक अधिकारी।
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अधिकर्मी (मिन्)  : पुं० [सं० अधिकर्मन+इनि, टिलोप) कुछ लोगों के ऊपर रहकर उनके कार्यो की देखभाल करनेवाला अधिकारी। (ओवरसियर)।
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अंधिका  : स्त्री० [सं० √अंध् (दृष्टि-नाश या प्रेरणा)+ण्वुल्-अक-टाप्, इत्व] १. रात, रात्रि। २. एक प्रकार का खेल, कदाचित् आँखमिचौनी। ३. आँख का एक रोग। ४. स्त्रियों का एक भेद या वर्ग।
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अधिकाई  : स्त्री० [सं० अधिक+हि० आई (प्रत्यय) १. अधिकता। ज्यादती। उदाहरण—लहहिं सकल शोभा अधिकाई-तुलसी। २. विशेषता। ३. बड़प्पन। बड़ाई। उदाहरण—उमा न कछु कपि की अधिकाई—तुलसी।
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अधिकांग  : पुं० [सं० अधिक-अंग, कर्म० स०) नियत संख्या में विशेष अवयव। अतिरिक्त अंग। वि० जिसके शरीर में कोई अंग साधारण से अधिक न हो।
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अधिकाधिक  : वि० [सं० अधिक-अधिक पं०त०) अधिक से अधिक। बहुत ज्यादा।
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अधिकाना  : अ० [सं० अधिक) अधिक होना। ज्यादा होना। बढ़ना। स०अधिकता उत्पन्न करना। बढ़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधिकाभेदरूपक  : पुं० [सं० अधिक-अभेद, कर्म० स० अधिकाभेद रूपक, ष०त०) चंद्रालोक के अनुसार रूपक अलंकार के तीन भेदों में से एक जिसमें उपमान और उपमेय में अभेद बतला चुकने पर भी उपमेय में कुछ विशेषता बतलाई जाती है।
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अधिकार  : पुं० [सं० अधि√कृ(करना) +घञ्) १. वस्तु, संपत्ति आदि पर होने वाला ऐसा स्वामित्व जो अपने स्वामी को उस वस्तु या संपत्ति के संबंध में सब कुछ कर सकने में समर्थ बनाता है। आधिपत्य (पजेशन) २. किसी वस्तु पर उक्त प्रकार का स्वत्व या स्वामित्व जताने की ऐसी क्रिया जिसके साथ उसकी प्राप्ति के प्रयत्न का भी भाव लगा रहता है। अध्यर्थन। (क्लेम) जैसे—वास्तविक अधिकार। (राइटफुलक्लेम) ३. वह योग्यता या सामर्थ्य जिसके अनुसार किसी में कोई विशिष्ट कार्य कर सकने का बल आता है। शक्ति (पावर) जैसे—अब राज्यपाल को और कई नये अधिकार दिये गये हैं। ४. प्रभुत्व (अथाँरिटी ५. किसी कार्य, वस्तु या विषय में किसी व्यक्ति का ऐसा पूर्ण ज्ञान जिसके आधार पर उसका कथन या विचार प्रामाणिक या मान्य माना जाता है। पूरी जानकारी। (अथाँरिटी) ६. साहित्य में किसी ग्रन्थ का कोई प्रकरण अथवा उसका शीर्षक। ७. नाट्य शास्त्र में किसी रूपक के अन्तर्गत नायक या और किसी पात्र की वह विकसित स्थिति जिसमें वह प्रधान फल प्राप्त करने के योग्य होता है। ८.पद। ९.प्रयत्न। १. स्थान। ११. राज्य। १२. ज्ञान। १३. कर्म विशेष की पात्रता। १४. वह मुख्य नियम जिसका और नियमों पर भी प्रभाव हो। (व्या०)
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अधिकार-क्षेत्र  : पुं० (ष० त०) १. वह या उतना क्षेत्र जिसमें या जितने में किसी विशिष्ट व्यक्ति या सत्ता का अधिकार चलता हो अथवा प्रतिफल होता हो। (डोमिनियन) २. दे० ‘अधिक्षेत्र’।
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अधिकार-त्याग  : पुं० [ष० त०] अपना अधिकार छोड़कर अलग हो जाना। (ऐबडिकेशन)
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अधिकार-पत्र  : पुं० (ष० त०) १. वह पत्र जिसमें किसी को कोई काम करने के लिए दिये गये अधिकार का उल्लेख हो। (आथॉरिटी लेटर) २. विधिक क्षेत्र में राज्य या शासन की ओर से किसी संस्था या समाज को मिलने वाले अधिकारों का सूचक पत्र। (बिल आँफ राइट्स)
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अधिकार-विधि  : स्त्री० (ष० त०) मीमांसा के अनुसार वह विधि जिसमें किसी व्यक्ति को कर्म विशेष करने का अधिकार ज्ञात हो।
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अधिकार-सीमा  : स्त्री० (ष० त०) दे० ‘अधिकार-क्षेत्र’।
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अधिकारा  : वि० [सं० अधिक+हिं० आरा (प्रत्यय) बहुत अधिक या बढ़ाह हुआ। उदाहरण—चढ़े त्रिपुर मारग कौं सारे। हरि हर सहित देव अधिकारे।—तुलसी।
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अधिकारि-राज्य  : प० [सं० ष०त०) वह राज्य जिकी शासन-व्यवस्था मुख्य रूप से अधिकारियों की परंपरा पर आश्रित हो। (ब्यूरोक्रैसी)
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अधिकारिक  : वि० =आधिकारिक।
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अधिकारिकी  : स्त्री०=आधिकारिकी।
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अधिकारिता  : स्त्री० [सं० अदिकारिन्+तल्-टाप्) अधिकार या अधिकारी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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अधिकारी (रिन्)  : वि० [सं० अधिकार+इनि) १. अधिकार युक्त। जैसे—अधिकारी तौर पर इस बात का खंडन किया गया है। २. अधिकार संबंधी। ३. जिसे अधिकार प्राप्त हो। अधिकार रखनेवाला। ४. जिसे कुछ पाने या करने का अधिकार हो। (एंटाइटिल्ड) जैसे—वे इसका निर्णय करने के अधिकारी हैं। ५. जो किसी बात का औचित्य के विचार से उपयुक्त पात्र हो। जैसे—सम्मान का अधिकारी। ६. जो ठीक अवस्था में रहने के लिए किसी बात की अपेक्षा रखता हो। जैसे—ताड़ना का अधिकार। पुं० १. मालिक। स्वामी। २. वह व्यक्ति जिसे कोई स्वत्व प्राप्त हो। ३. वह जिसमें किसी विषय या कार्य की विशेष योग्यता या क्षमता हो। ४. वह कर्मचारी जो किसी पद पर रहकर कोई कार्य करता हो। (आँफिसर) ५. साधारणतः कोई अधिकार प्राप्त व्यक्ति। (अथाँरिटी) ६. नाटक का वह पात्र जिसे प्रधान फल प्राप्त हो। ७. वेदान्त का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति।
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अधिकार्थ  : पुं० [सं० अधिक-अर्थ, ब० स०) ऐसा वाक्य या शब्द जिससे किसी पद के अर्थ में विशेषता आ जाए।
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अधिकांश  : पुं० [सं० अधिक-अंश, कर्म० स०) १. अधिक अंश या भाग। २. किसी वर्ग समुदाय या समूह का आधे से अधिक या बड़ा अंश या भाग। (मेजाँरिटी) जैसे—खेतिहरों का अधिकांश दरिद्र और ऋण-ग्रस्त है। क्रि० वि० १. विशेषकर। २. प्रायः।
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अधिकृत  : वि० [सं० अधि√कृ (करना) +क्त) १. अधिकार में आया या किया हुआ। २. जो किसी के अधिकार में हो। ३. जिसे कोई काम करने का अधिकार दिया गया हो। (अँथराइज्ड) ४. जिसको कोई काम करने का अधिकार हो।
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अधिकृत-गणक  : पुं० (कर्म०स०) सरकार द्वारा वह प्रमाणित व्यक्ति जो हिसाब-किताब की जाँच इत्यादि का काम भली-भाँति जानता हो। (चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट)
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अधिकृत-लेखपाल  : पुं० (कर्म० स०) सरकार द्वारा प्रमाणित वह व्यक्ति जो हिसाब किताब की जाँच इत्यादि का काम भली-भाँति जानता हो (चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट)
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अधिकृति  : स्त्री० [सं० अधि√कृ (करना) +क्तिन्) १. अधिकृत होने की अवस्था, गुण या भाव। २. अधिकार स्वत्व।
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अधिकोष  : पुं० [सं० अधि√कुष् (निचोड़ना)√घञ्) दे० बंक।
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अधिकौहाँ  : वि० (हिं० अधिक+औहाँ (प्रत्यय) बराबर बढ़ता रहनेवाला। जो उत्तरोत्तर बढ़ रहा हो।
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अधिक्रम  : पुं० [सं० अधि√कम् (गति) +घञ्) १. आरोहण। २. चढ़ाई। आक्रमण।
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अधिक्रमण  : पुं० [सं० अधि√कम्√ल्युट्-अन) १. अधिक्रम। २. किसी व्यक्ति या संस्था को दबा या हटा देना और उसके अधिकार अपने हाथ में ले लेना या किसी दूसरे को दे देना। (सुपरसेशन)
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अधिक्रांत  : वि० [सं० अधि√कम्√क्त) (भाव०अधिक्रान्ति) (संस्था या संघ) जिसे वरिष्ठ शक्ति या अधिकार के द्वारा हटा या दबाकर अपने अधिकार में ले लिया गया हो। (सुपरसीडेड) जैसे—अधिक्रांत नगरपालिका।
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अधिक्रान्ति  : स्त्री० [सं० अधि√कम्+क्तिन्) राज्य शासन आदि का अपनी विशिष्ट शक्ति या अधिकार के द्वारा किसी संस्था या संघ को हटा या दबाकर उसका कार्य-भार अपने ऊपर ले लेना या किसी दूसरे को दे देना। (सुपरसेशन)
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अधिक्षिप्त  : भू० कृ०[सं० अधि√क्षिप् (फेंकना) +क्त) १. फेंका हुआ। २. भेजा हुआ। ३. नियत किया हुआ। ४. अपमानित।
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अधिक्षेप  : पुं० [सं० अधि√क्षिप् (फेंकना)+घञ्) १. अलग करना। दूर हटाना। २. फेंकना। ३. तिरस्कार। ४. व्यंग्य।
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अधिगणन  : पुं० [सं० अधि√गण् (गिनना) +ल्युट्-अन) १. अच्छी तरह गिनना। २. किसी चीज का अधिक दाम लगाना। ३. किसी चीज या बात को अधिक महत्त्व देना।
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अधिगत  : भू० कृ० [सं० अधि√गम् (जाना) +क्त) १. हाथ में आया हुआ। प्राप्त। २. जाना हुआ। ज्ञात। ३. पढ़ा हुआ।
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अधिगता (तृ)  : वि० [सं० अधि√गम् (जाना) +तृच्) १. प्राप्त करने वाला। २. सीखनेवाला।
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अधिगम  : पुं० [सं० अधि√गम्+अप्) १. आगे बढ़ना या ऊपर पहुँचना। २. प्राप्त करना। ३. अध्यवसाय आदि के द्वारा शिक्षा आदि में कोई योग्यता या विशेषता अर्जित तथा प्राप्त करने की क्रिया। जैसे—विद्या या संपत्ति का अधिगम। ४. इस प्रकार प्राप्त की गई योग्यता, विद्या, सिद्धि आदि। (अटेन्मेंट) ५. विधिक क्षेत्रों में किसी अभियोग या वाद की पूरी सुनवाई हो चुकने पर न्यायालय या न्यायाधीश द्वारा निकाला हुआ निष्कर्ष। (फाइंडिग) ६. दे० ‘अधिग्रहण’।
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अधिगमन  : पुं० [सं० अधि√गम्+ल्युट्-अन) १. किसी वाक्य की पद योजना के आधार पर की जाने वाली व्याख्या या व्याकृति। २. अध्ययन। ३. आविष्कार। ४. प्राप्ति।
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अधिगम्य  : वि० [सं० अधि√गम्√यत्) १. अधिगमन के योग्य। २. जिस तक अधिगम या पहुँच हो सके। ३. जो समझ में आ सके।
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अधिगुण  : वि० [सं० ब० स०) विशिष्ट गुण से युक्त। सुयोग्य। पुं० [सं० प्रा० स०) विशिष्ट गुण।
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अधिगुप्त  : वि० [सं० अधि√गुप् (छिपाना, रक्षा करना) +क्त) १. छिपाया हुआ। २. सुरक्षित।
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अधिग्रहण  : पुं० [सं० अधि√ग्रह (पकड़ना लेना) +ल्युट्-अन) अधिकार या अभियाचन द्वारा किसी की संपत्ति आदि लेना। (एक्वीजिशन)
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अधिग्राहक  : पुं० [सं० अधि√ग्रह+ण्वुल्-अक) वह व्यक्ति जो किसी वैध उपाय से किसी पर अधिकार करता हो। (एक्वायरर)
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अधिचरण  : पुं० [सं० अधि√चर्(गति) +ल्युट्-अन्) १. किसी के ऊपर या अंदर चलना। २. अपने अधिकार या सीमा से आगे बढ़कर चलना।
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अधिज  : वि० [सं० अधि√जन् (जन्म लेना) +ड) १. जनमा हुआ। २. उत्तम वंश में उत्पन्न।
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अधिजिह्व  : पुं० [सं० ब० स०) १. एक से अधिक जीभोंवाला जीव। जैसे—साँप आदि। २. एक रोग जिसमें रक्त से मिले हुए कफ के निकलने के कारण जीभ के ऊपर सूजन हो जाती है।
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अधिजिह्वा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०) गले का कौआ। पुं०=अधिजिह्व।
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अधितीधिति  : वि० [सं० ब० स०) बहुत अधिक प्रभा या किरणोंवाला।
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अधित्यका  : स्त्री० [सं० अधि+त्यकन्-टाप्) पहाड़ के ऊपर की समतल भूमि। उपत्यका का विपर्याय। (टेबुल लैंड)
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अधिदंत  : पुं० [सं० अत्या०स०) एक दाँत के ऊपर निकलनेवाला दूसरा दाँत।
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अधिदिन  : पुं० [सं० प्रा० स०)=अधिक तिथि।
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अधिदेय  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. वह जो साधारण से अतिरिक्त या अधिक दिशा जाने को हो। २. साधारणतः दिये जाने वाले वेतन या वृत्ति से भिन्न वह अतिरिक्त धन जो किसी को उत्साहित करने के लिए किसी काम के बदले में दिया जाए। ३. वह धन जो बीमा कराने वाला उसके बदले में बीमा मंडली को देता है। (प्रीमियम)
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अधिदेव  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. इष्टदेव। २. कुलदेवता।
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अधिदैव  : वि० [सं० प्रा० स०) दैव योग से होने वाला। दैविक। दैवी।
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अधिदैवत  : वि० [सं० प्रा० स०) देवता-संबंधी। पुं० वह मंत्र या प्रकरण जिसमें अग्नि, वायु आदि देवताओं के नाम-कीर्तन से ब्रह्म विभूति अर्थात् सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो।
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अधिधारण  : पुं० [सं० प्रा० स०) किसी वस्तु का बाहरी तत्त्वों, बातों आदि को आत्मसात् करके इस प्रकार धारण करना कि वे बाहर से न निकल सकें। (आक्कल्यूजन)
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अधिनाथ  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. सब का स्वामी। २. प्रधान। अधिकारी।
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अधिनायक  : पुं० [सं० प्रा० स०) (स्त्री० अधिनायिका) १. सरदार। मुखिया। २. विशेष अवस्थाओं या परिस्थितियों के लिए नियत किया हुआ सर्वप्रधान और पूर्ण अधिकार प्राप्त शासक या अधिकारी। (डिक्टेटर)।
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अधिनायक-तंत्र  : पुं० (ष० त०) १. अधिनायक के अधीन चलनेवाला शासन-प्रबंध। २. वह राज्य जिसके सब काम केवल अदिनायक की आज्ञा से होते हैं।
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अधिनायकी  : स्त्री० [सं० अधिनायक) अधिनायक का कार्य या पद। वि० अधिनायक-संबंधी।
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अधिनियम  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. वह नियम जो किसी प्रकार की व्यवस्था या प्रबंध के लिए बना हो। (रेगुलेशन) २. वह महत्त्वपूर्ण नियम जो किसी विधान के अधीन न बना हो, फिर भी उसकी परिभाषा में आता हो। (रेगुलेशन) ३. दे० ‘विधान’।
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अधिनियमन  : पुं० [सं० प्रा० स०) अधिनियम या विधान बनाने का काम या भाव।
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अधिनिर्णय  : पुं० [सं० प्रा० स०) वह निर्णय जो पंच या न्यायाधीश बनकर किया गया हो। (एडजुडिकेशन)
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अधिनिर्णयन  : पुं० [सं० प्रा० स०,निर्√नी (ले जाना आदि) +ल्युट्-अन) किसी झगड़े या विवाद में पंच या निर्णायक बनकर उसका फैसला करना। (एडजुडिकेशन)
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अधिनिष्कासन  : पुं० [सं० प्रा० स०) विधि आदि के आधार पर किसी को भूमि, मकान आदि से बाहर निकलना या बेदखल करना। बेदखली। (इविक्शन)
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अधिप  : पुं० [सं० अधि√पा (रक्षा करना) +क) १. स्वामी। २. नायक। ३. राजा।
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अधिपति  : पुं० [सं० प्रा० स०) (भाव आधिपत्य, स्त्री० अदिपत्नी) १. वह जो किसी भूखण्ड (खेत, मकान देश आदि) का स्वामी हो। २. जमीन या भू-संपत्ति का मालिक। ३. किसी चीज का मालिक। स्वामी। ४. किसी कार्य, विभाग, विषय आदि का प्रधान अधिकारी। (मास्टर) ५. आजकल न्यायालय आदि का प्रधान विचारक या कार्याधिकारी। (प्रिसाइडिंग आँफिसर)।
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अधिपत्नी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०) १. स्वामिनी। २. शासिका।
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अधिपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. वह पत्र जिसके द्वारा किसी को कोई काम करने का अधिकार या आज्ञा दी गई हो। २. किसी को पकड़ने या उसका माल जब्त करने की न्यायालय की लिखित आज्ञा। (वारेन्ट)
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अधिपद  : पुं० [सं० प्रा० स०) नियमावली, विधान आदि में का कोई स्वतंत्र पद या भाग। (आर्टिकल)
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अधिपुरुष  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. परम पुरुष परमात्मा। २. कारखाने संस्था आदि का मालिक या सर्वप्रधान अधिकारी। (बाँस)
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अधिप्रचार  : पुं० [सं० प्रा० स०) वह संघठित प्रयत्न या विचार जो किसी सिद्धान्त, मत, प्रचार आदि के पोषण या प्रसार के निमित्त किया जाता है। (प्रोपैगैंडा)
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अधिप्रचारक  : प० [सं० प्रा० स०) किसी मत, सिद्धान्त या विचारों का संघटित रूप से प्रचार करने वाला व्यक्ति। (प्रोपैगैंडिस्ट)
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अधिप्रज  : वि० [सं० ब० स०) बहुत अधिक बच्चे या संतान उत्पन्न करने वाला (प्राणी)।
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अधिबल  : पुं० [सं० ब० स०) गर्भसंधि के तेरह भेदों में से एक जिसमें किसी वेश बदलते हुए व्यक्ति को देखकर धोखा खाने का उल्लेख या प्रदर्शन होता है।
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अधिभार  : पुं० [सं० प्रा० स०) किसी विशिष्ट कार्य के लिए या किसी विशेष परिस्थिति में अलग से अधिक लिया जाने वाला कर या शुल्क। (सरचार्ज)
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अधिभू  : पुं० [सं० अधि√भू (होना) +क्विप्) १. स्वामी। प्रभु। २. श्रेष्ठ व्यक्ति।
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अधिभूत  : वि० [सं० सहसुपा स०) भूत-संबंधी। पुं० १. ब्रह्म। २. ब्रह्म का वह मूल सूक्ष्म रूप जो सभी तत्त्वों या भूतों और प्राणियों में समान रूप से और सर्वत्र व्याप्त है। ३. सभी प्रकार के भौतिक पदार्थ और जीव-जन्तु।
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अधिभूतिक  : वि० =आधिभौतिक।
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अधिभोजन  : पुं० [सं० प्रा० स०) बहुत अधिक खाना। अतिभोजन।
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अधिभौतिक  : वि० =आधिभौतिक।
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अधिमंथ  : पुं० [सं० अधि√मन्थ्(मथना) +घञ्) १. अभिष्मंद नामक नेत्र रोग। २. दे० ‘अधिमंथन’।
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अधिमंथन  : पुं० [सं० अधि√मन्थ्+ल्युट्-अन) यज्ञ कुंड की अग्नि उत्पन्न करने के लिए अरणी की लकड़ियों को आपस में रगड़ना।
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अधिमात्र  : वि० [सं० ब० स०] उचित मात्रा या मान से अधिक। बहुत ज्यादा।
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अधिमान  : वि० [सं० प्रा० स०] [वि० अधिमानिक, भू० कृ० अधिमानित] किसी व्यक्ति या वस्तु का वह आदर या मान जो औरों की अपेक्षा उसे अधिक अच्छा समझकर किया जाता है। किसी को औरों से अच्छा समझकर ग्रहण करना। वरीयता। (प्रिफरेंस)
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अधिमानिक  : वि० [सं० अधिमान] जिसे या जिसमें (किसी को) अधिमान दिया गया हो। (प्रिफरेन्शल)
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अधिमानित  : भू० कृ० [सं० अधिमान+इतच्] जो औरों से अच्छा समझकर लिया गया हो। (प्रिफर्ड)
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अधिमान्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो अधिमान के योग्य हो। जो औरों से अच्छा होने के कारण ग्रहण किया जा सके। वरीय (प्रिफरेबुल)
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अधिमान्यता  : स्त्री० [सं० अधिमान्य√तल्-टाप्]=अधिमान।
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अधिमांस  : पुं० [सं० ब० स०] एक रोग जिसमें मसूड़े के पृष्ठभाग में या आँख के श्वेत भाग में पीड़ा और सूजन होती है।
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अधिमास  : पुं० [सं० प्रा० स०] दे० ‘अधिकमास’।
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अधिमित्र  : वि० [सं० सहसुपा स०] ज्योतिष में दो परस्पर मित्र ग्रहों का योग।
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अधिमुक्ति  : स्त्री० [सं० अधि√मुच्(छोड़ना) +क्तिन्] १. प्रवृत्ति। झुकाव। २. विश्वास।
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अधिमुक्तिक  : पुं० [सं० ब० स०कप्] महाकाल (बौद्ध)
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अधिमुद्रण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अधिक छापना। २. किसी ग्रन्थ या सामयिक पत्र-पत्रिका में मुद्रिण लेख या प्रकरण को किसी कार्य के लिए (केवल वही अंश, लेख या प्रकरण को) छापना। (आँफ प्रिन्ट)।
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अधिमूल्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी वस्तु का साधारण से अधिक वह मूल्य आदि जो विशेष परिस्थितियों में लिया जाए। २. दे० ‘अधिभार’।
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अधियज्ञ  : वि० [सं० प्रा० स०] यज्ञ-संबंधी। पुं० [प्रा० स०] प्रधान यज्ञ।
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अधियल  : वि० [हिं० आधा] आधी दमड़ी में मिलनेवाला अर्थात् निकम्मा और रद्दी।
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अंधिया  : स्त्री०=अंगियाँ (चलनी)।
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अधिया  : वि० [सं० अर्द्धिका] आधा। पुं० १. आधा भाग या हिस्सा। २. गाँव में आधी पट्टी की हिस्सेदारी। ३. खेत जोतने-बोने की वह व्यवस्था जिसके अनुसार उपज का आधा भाग जमीन के मालिक को और आधा जोतने-बोनेवाले को मिलता है।
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अधियाचक  : वि० [सं० प्रा० स०] अधियाचन करनेवाला।
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अधियाचन  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी से कोई चीज अधिकारपूर्वक माँगना। जैसे—सदस्यों द्वारा सभा का अधिवेशन करने के लिए अधियाचन करना। (रिक्विजिशन)
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अधियान  : पुं० [सं० अर्धयाया] १. गोमुखी।जपनी। २. छोटी माला। सुमिरनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधियाना  : सं० [हि० आधा] दो बराबर हिस्सों में बाँटना। अ०आधा बच या रह जाना। आधा होना।
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अँधियार  : पुं० [सं० अंधकार, प्रा० अंधयार] अँधेरा। अंधकार। वि० अंधकारपूर्ण।
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अधियार  : पुं० [हिं० आधा] [स्त्री० अदियारी] १. किसी संपत्ति का आधा हिस्सा। २. आधे हिस्से का मालिक। ३. वह जमींदार या असामी जो गाँव या जोत में आधे का हिस्सेदार हो।
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अँधियारा  : पुं०=अँधेरा। वि० १. अंधकारपूर्ण। २. धुंधला। ३. उदास और सुनसान।
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अधियारिन  : स्त्री० [हिं० आधा+इयारिन (प्रत्यय)] १. आधे हिस्से की हकदार स्त्री०। २. सप्तनी। सौत।
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अँधियारी  : स्त्री०=अँधेरी।
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अधियारी  : स्त्री० [हिं० अधियार] १. किसी अधिकार या संपत्ति में आधी हिस्सेदारी।
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अंधियाली  : स्त्री०=अँधियारी।
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अधियुक्त  : वि० [सं० अधि√युज् (जोड़ना)√क्त] जो वेतन मजदूरी आदि पर किसी काम में लगा हो। (एम्प्लाँयड) पुं०=अधियुक्ती।
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अधियुक्ती  : पुं० [सं० अधियुक्त] वह जो किसी काम पर लगा हो और वेतन या पारिश्रमिक पाता हों। काम पर लगा हुआ। (एम्प्लायर)
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अधियोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] यात्रा के लिए ग्रहों का एक शुभ योग।
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अधियोजक  : पुं० [सं० अधि√युज्+ण्वुल्-अक]=अधियोक्ता।
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अधियोजन  : पुं० [सं० अधि√युज्+ल्युट्-अक] १. वेतन, मजदूरी देकर किसी को किसी काम पर लगाना या लगवाना। २. वेतन आदि पर किसी काम पर लगा रहना। (एम्प्लाँयमेंट)
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अधियोजनालय  : पुं० [सं० अधियोजन-आलय, ष० त०] लोगों को काम या नौकरी दिलाने में सहयता करनेवाला दफ्तर। नियोजनालय। (एम्प्लामेंट ब्यूरो)
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अधिरक्षी (क्षित्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह आरक्षी या पुलिस विभाग का कर्मचारी जिसके अधीन कुछ सिपाही रहते है। (हेड कांस्टेबुल)
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अधिरथ  : वि० [सं० अत्या० स०] रथ पर चढ़ा या बैठा हुआ। रथ पर आरूढ़। पुं० १. वह जो रथ हाँकता हो। सारथी। २. अंग देश का एक राजा जिसने कर्ण को अपने यहाँ रख कर पाला था।
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अधिराज  : पुं० [सं० प्रा० स० टच्] सम्राट। बादशाह।
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अधिराज्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अधिराज या महाराज होने की अवस्था या भाव। २. आजकल, वह बड़ा राज्य जिसके अधीन कुछ हों, जो उस बड़े राज्य की आज्ञा और शासन में रहते हों। साम्राज्य। ३. ऐसी प्रधान और बड़ी सत्ता जिसके अधीन छोटी-छोटी सत्ताएँ हों। (सॉवरैनिटी)
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अधिराट्  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह जो किसी अधिराज्य का प्रधान शासक और स्वामी हो। २. वह जिसकी प्रमुख सत्ता औरों पर अधिष्ठित या विद्यमान हो। (सॉवरेन)
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अधिरात  : स्त्री० (हिं० आधी+रात) आधी रात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधिरूढ़  : वि० [सं० अधि√रूह् (चढ़ना, प्रादुर्भाव) +क्त) १. चढ़ा हुआ। २. बढ़ा हुआ।
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अधिरूप  : पुं० [सं० प्रा० स०) किसी चीज या बात का वह रूप जो वास्तविक से बहुत अधिक बढ़ाकर प्रस्तुत किया हो।
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अधिरूपण  : पुं० [सं० अधि√रूप+णिक्+ल्युट्-अन) कृत्रिम उपाय से किसी चीज या बात का वास्तविक से बहुत कुछ बढ़ा हुआ रूप प्रस्तुत करना। (मैग्निफिकेशन)
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अधिरोप  : पुं० [सं० अधि√रूह्+णिच्, पुक्+घञ्) किसी पर अपराध का आरोप। अभियोग या दोष लगाया जाना। (चार्ज)
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अधिरोपण  : पुं० [सं० अधि√रूह्+णिच्,पुक्+ल्युट्-अन) दे० ‘अधिरोप’।
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अधिरोपित  : भू० कृ०[सं० अधि√रूह्+णिच्-पुक्+क्त) १. जिसपर अपराध आदि का अधिरोप हुआ हो। (चार्ज्ड) २. (अपराध) जिसका अधिरोप किया गया हो।
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अधिरोह  : पुं० [सं० अधि√रूह्+घञ्) १. हाथी,घोड़ें आदि पर चढ़ना। २. सवार होना। ३. सीढ़ी।
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अधिरोहण  : पुं० [सं० अधि√रूह्+ल्युट्-अन) १. ऊपर चढ़ना। २. सवार होना। ३. धनुष पर प्रत्यंचा या चिल्ला चढ़ाना।
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अधिरोहणी  : स्त्री०=अधिरोहिणी।
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अधिरोहिणी  : स्त्री० [सं० अधिरोह+इनि, डीष्) सीढ़ी। जीना।
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अधिरोही (हिन्)  : वि० [सं० अधिरोह+इनि) अधिरोहण करने या चढ़नेवाला।
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अधिलंबन  : पुं० [सं० अधि√लंब्+णिच्-अन) (भू०कृ०अधिलंबित) १. कोई काम चीज या बात आवश्यकता से बहुत अधिक बढ़ाना। २. जानबूझकर देर लगाने के उद्देश्य से किसी काम या बात में अनावश्यक रूप से अधिक समय लगाना। (प्रोट्रैक्शन)
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अधिलाभ  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. अतिरिक्त या विशिष्ट रूप से होनेवाला अधिक लाभ। २. उद्योग-धंधों या व्यापार में यथेष्ट लाभ होने पर उस लाभ का वह अंश जो उसके हिस्सेदारों को उनके लाभांश के अतिरिक्त अथवा कर्मचारियों को वेतन आदि के अतिरिक्त (प्रसन्न या सतुष्ठ करने के लिए) दिया जाता है। (बोनस)
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अधिलाभांश  : पुं० [सं० अधिलाभ-अंश, ष० त०) १. अधिलाभ का अंश जो दिया जाए या मिले। २. दे० अधिलाभ।
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अधिलोक  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. संसार। २. ब्रह्माण्ड।
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अधिवक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० अधि√वच् (बोलना) +तृच्) १. न्यायालय आदि में किसी पक्ष का समर्थन करनेवाला। वकील। २. वक्ता। ३. अभिभाषक।
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अधिवचन  : पुं० [सं० अधि√वच्+ल्युट्-अन) १. बढ़ा-चढ़ाकर कही हुई बात। अत्युक्ति। २. किसी के पक्ष का समर्थन।
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अधिवर्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०) १. वह चांद्र वर्ष जिसमें मलमास पड़ता हो। २. वह ईसवीं सन् जिसमें फरवरी २९ दिन का हो। ३. वह सौर वर्ष जिसमें फाल्गुन ३१ दिन का हो। (लीप ईयर)
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अधिवसित  : भू० कृ० [सं० अध्युषित) आबाद। बसा हुआ।
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अधिवाचन  : पुं० [सं० अधि√वच्+णिच्+ल्युट्-अन) निर्वाचन। चुनाव।
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अधिवास  : पुं० [सं० अधि√वस् (बसना) +घञ्) १. रहने का स्थान। २. एक देश से चलकर दूसरे देश में इस प्रकार बस जाना कि उसकी नागरिकता के अधिकार प्राप्त हो जाएँ। (डोमिसाइल) ३. सुगंध। ४. चादर का दुपट्टा। ५. विवाह के पहले तेल, हल्दी चढ़ाने की एक रीति। ६. सुगंधित उबटन। ७. दूसरे के घर जाकर रहना। ८. हठ। ९. यज्ञारंभ के पहले देवता का आवाहन, पूजन आदि। १॰. लबादा। ११. निवासी। १२. पड़ोसी। १३. ऊपर रहनेवाला।
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अधिवासन  : पुं० [सं० अधि√वस्+णिच्+ल्युट्-अन) १. सुगंधित करना। २. यज्ञ के आरंभ आदि में देवता का आवाहन पूजन आदि करना। ३. मूर्ति में देवता की प्राण-प्रतिष्ठा करना। ४. धरना देना।
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अधिवासित  : भू० कृ० [सं० अधि√वस्+णिच्+क्त) १. सुगंधित किया हुआ। बसाया हुआ। २. (मूर्ति) जिसकी प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी हो।
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अधिवासी (सिन्)  : वि० [सं० अधि+वस्+णिनि) १. निवासी। २. दूसरे देश में जाकर बसा हुआ। (डोमिसाइल्ड)
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अधिविकर्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०) किसी खाते में जितना धन जमा या प्राप्त हो उससे अधिक निकालना, माँगना या लेना। (ओवरड्राफ्ट।
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अधिवृद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०) जो उचित मात्रा या सीमा से आगे बढ़कर होनेवाली निष्प्रयोजन वृद्धि। (आउट-ग्रोन)
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अधिवृद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०) आवश्यक और उचित मात्रा या सीमा से आगे बढ़कर होनेवाली निष्प्रयोजन वृद्धि। (आउट-ग्रोथ)
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अधिवेता (तृ)  : पुं० [सं० अधि√विद्+ (लाभ) +तृच्) एक स्त्री० के रहते दूसरा विवाह करनेवाला व्यक्ति।
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अधिवेद  : पुं० [सं० अधि√विद्+घञ्) दे० ‘अधिवेदन’।
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अधिवेदन  : पुं० [सं० अधि√विद्+ल्युट्-अन) एक स्त्री० के रहते दूसरा विवाह करना।
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अधिवेशन  : पुं० [सं० अधि√विश् (घुसना बैठना) +ल्युट्-अन) १. बहुत से लोगों का इकट्ठे होकर बैठना। २. किसी बड़ी सभा या महासभा की लगातार होनेवाली बैठकों का सामूहिक नाम। (सेशन) जैसे—राष्ट्रीय महासभा का अगला अधिवेशन कलकत्ते में होगा।
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अधिशय  : पुं० [सं० अधि√शी (सोना) +अच्) १. पीछे मिलाई या दी जाने वाली वस्तु। २. जोड़। योग। ३. लेटना या सोना।
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अधिशयन  : पुं० [सं० अधि√शी+ल्युट्-अन) लेटना या सोना।
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अधिशस्त  : वि० [सं० अधि√शंस्(कहना) +क्त) जिसकी कुख्यात हुई हो। बदनाम।
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अधिशिक्षक  : पुं० [सं० प्रा० स०) कुछ शिक्षण संस्थाओं में उसका सर्वप्रधान अधिकारी या मुख्य अधिष्ठाता। (रेक्टर)
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अधिशुल्क  : पुं० (स०प्रा० स०) विशेष परिस्थिति में लिया जानेवाला अतिरिक्त शुल्क।
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अधिशोषण  : पुं० [सं० प्रा० स०) (भूं० कृ० अधिशोषित) घन पदार्थों का बाहरी गैसों या बातों को इतना अधिक सीख लेना कि उनके तलों पर उन गैसों के कण दानों के रूप में जम जाएँ।
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अधिश्रय  : पुं० [सं० अधि√श्रि (सेवा) +अच्) १. आधार। २. पात्र। ३. चूल्हे आदि पर चढ़ाने की क्रिया या भाव।
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अधिश्रयण  : पुं० [सं० अधि√श्रि+ल्युट्अन) १. आग पर चढ़ाना या रखना। २. अँगीठी या चूल्हा।
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अधिश्राम  : पुं० [सं० अधि√श्रम्+घञ्) नियमित रूप से सबको (कुछ विशिष्ठ अवसरों पर) मिलनेवाली ऐसी लंबी छुट्टी जिसमें सब काम बंद रहते हैं। (वैकेशन) जैसे—गरमी के दिनों में न्यायालयों में एक महीने का (अथवा विद्यालयों में दो महीने का) अधिश्राम होता है।
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अधिश्रावक  : पुं० [सं० अधि√श्रु(सुनना) +णिच्+ल्युट्-अक) एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से साधारण या सूक्ष्म शब्द भी अधिक जोर से और दूर तक सुनाई पड़ते हैं। (माइक्रोफोन)
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अधिश्रित  : भू० कृ० [सं० अधि√श्रि+क्त) १. आग पर चढ़ाया या रखा हुआ। २. किसी पर चढ़ा हुआ। आरूढ़।
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अधिष्ठाता (तृ)  : पुं० [सं० अधि√स्था (ठहरना) +तृच्) १. किसी कार्य की देखभाल करने वाला व्यक्ति। २. मुखिया। ३. अध्यक्ष। मालिक। स्वामी। ४. ईश्वर।
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अधिष्ठान  : पुं० [सं० अधि√स्था+ल्युट्-अन) १. वास स्थान। रहने का स्थान। २. नगर। ३. पड़ाव। ४. वह वस्तु जो किसी आरोपित तत्त्व या धर्म का आधार हो। जैसे—यदि रज्जु में सर्प का या सीपी में चाँदी का आरोप या भ्रम हो तो रज्ज या सीपी अधिष्ठान मानी जाएगी। ५. संस्था। ६. किसी संस्था के अधिकारियों और कार्य-कर्ताओं का वर्ग या समूह। (एस्टैब्लिश्मेन्ट) ७. शासन और उसके नियम, व्यवस्था आदि। ८. किसी वस्तु में स्वामित्व आदि का अधिकार प्राप्त होना अथवा ऐसा अधिकार किसी को दिया जाना। (वेस्टिंग) ९. लाभ आदि के लिए व्यापार में धन लगाना। (इन्वेस्टमेन्ट) १. गच जिसपर खंभा या पाया आदि बनाया जाए (वास्तु) ११. सांख्य में, भोक्ता और भोग (आत्मा, देह, इन्द्रिय-विषय) का संयोग।
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अधिष्ठान-शरीर  : पुं० (ष० त०) वह सूक्ष्म शरीर जो मरण के उपरान्त जीव को मिलता है। प्रेत शरीर।
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अधिष्ठापक  : पुं० [सं० अधि√स्था+ण्वुल-अक, पुक्) १. वह जो शासन व्यवस्था या प्रबंध करता हो। २. दे० अधिष्ठता।
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अधिष्ठित  : भू० कृ० [सं० अधि√स्था√क्त) १. ठहरा हुआ। स्थित। २. स्थापित। ३. अधिकृत। ४. नियोजित। ५. (अधिकार या स्वत्व) जो किसी में स्थापित हो या किया गया हो। ६. (पूँजी या धन) जो व्यापार संपत्ति आदि में लगा या लगाया गया हो। (वेस्टेड, अंतिम दोनों अर्थों के लिए)।
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अधिष्ठित-स्वार्थ  : पुं० [सं० कर्म० स०) वह स्वार्थ जो कहीं धन व्यय करके या व्यापार आदि में लगाकर स्थापित किय़ा जाए। (वेस्टेड इन्टरेस्ट)
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अधिसंख्य  : वि० [सं० प्रा० ब०) जो उचित, नियत, प्रख्यापित या विहित संख्या से अधिक और अतिरिक्त हो। (सुपर न्यूमरेरी) जैसे—(क) हाथ की छठी उँगली अधिस्ख्य होती है। (ख) शिक्षाविभाग में आजकल ३॰॰ अधिसंख्य अधिकारी लगे हुए हैं।
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अधिसूचना  : स्त्री० [सं० अधि√सूच्+णिच्+युच्-अन-टाप्) किसी बात की ओर से विशिष्ट रूप से ध्यान आकृष्ट करने के लिए किसी को दी जाने वाली सूचना। (नोटिपिकेशन)
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अधिसूजन  : पुं० [सं० अधि√सूच् (जताना) +णिच्+ल्युट्-अन) लेख विज्ञापन आदि के द्वारा किसी काम या बात की ओर विशिष्ट रूप से लोगों का ध्यान आकृष्ट करना। विशेष रूप से सूचना देना। (नोटोफिकेशन)
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अधिस्वर  : पुं० [सं० प्रा० स०) बहुत अधिक या ऊँचा स्वर उत्पन्न करने की क्रिया या भाव। (ओवरटोन)।
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अधी  : अव्य०=अधः।
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अधीक्षक  : पुं० [सं० अधि√ईक्ष् (देखना) +ण्युल्-अक) किसी कार्यालय या विभाग का वह प्रधान अधिकारी जो अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की निगरानी करे। (सुपरिंटेंडेंड)
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अधीक्षण  : पुं० [सं० अधि√ईक्ष्+ल्युट्-अन) अधीनस्थ कर्मचारियों के काम-काज की देखभाल करना। (सुपरिंटेंडेंड)
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अधीत  : भू०कृ० [सं० अधि√इ (पढ़ना) +क्त) (ग्रन्थ लेख या विषय) जिसका अध्ययन किया गया हो। जो अच्छी तरह पढ़ा हुआ हो।
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अधीति  : स्त्री० [सं० अधि√ई+क्तिन्) अध्ययन। पठन। पढ़ना।
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अधीती (तिन्)  : वि० अधीन+इनि) (वह) जिसने अच्छी तरह किसी विद्या या विषय का अध्ययन किया हो।
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अधीन  : वि० [सं० अधि-इन, अत्या० स०) १. जो किसी के अधिकार शासन या वश में हो। वशीभूत। २. जिसे किसी बड़े अधिकारी की आज्ञा, आदेश, समादेश आदि के अनुसार चलना पड़ता हो। आज्ञाकारी। ३. जो किसी नियम, विधि आदि में बँधा या जकड़ा हो। विवश। ४. किसी पर अवलंबित या आश्रित। पुं० दास। सेवक।
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अधीन  : वि० (हिं० आधा+ऊन) किसी वस्तु का आधा अंश या भाग। उदाहरण—सेर को दूध अधौन को पानी। घमर-घमर फिरे मथानी।—कहावत।
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अधीन-अधिकारी  : पुं० [सं० कर्म० स०) बड़े या मुख्य अधिकारी की अधीनता में काम करनेवाला अफसर। मातहत अफसर। (सबाँरडिनेट आफिसर)
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अधीनता  : स्त्री० [सं० अधीन√तल्-टाप्) १. किसी के अधीन, वश में होने की अवस्था, भाव या स्थिति। परवशता। २. विवशता। ३. दीनता।
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अधीनना  : स० [सं० अधीन+हिं० ना (प्रत्यय) अपने अधीन करना। अ० किसी के अधीन होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधीनस्थ  : वि० [सं० अधीन√स्था+क) जो किसी के अधीनता में हो। किसी के अधीन या नीचे रहनेवाला। (सबॉरडिनेट)
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अधीनस्थ-न्यायालय  : पुं० [सं० कर्म० स०) उच्च न्यायालयकी दृष्टि से उससे छोटा और उसके अधीन रहनेवाला न्यायालय। (सबॉरडिनेट कोर्ट)
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अधीनी  : स्त्री०=अधीनता।
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अधीनीकरण  : पुं० [सं० अधीन+च्वि√कृ (करना) +ल्युट्-अन, ईत्व) किसी को अपने अधीन करना। अधिकार या वश में लाना। (सबगुजेशन)
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अधीर  : वि० [सं० न० त०] १. जो धीर या शान्त न हो। अस्थिर चित्त। २. जिसाक धैर्य टूट गया हो या न रह गया हो।
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अधीरा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. वह नायिका जो नायक में नारी विलास सूचक चिन्ह देखने से अधीर होकर प्रत्यक्ष कोप करे। २. बिजली।
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अधीश  : पुं० [सं० अधि-ईश, प्रा० स०) १. मालिक। स्वामी। २. राजा।
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अधीश्वर  : पुं० [सं० अधि-ईश्वर, प्रा० स०) (स्त्री० अधिश्वरी) दे० ‘अधीश’।
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अधीस  : पुं०=अधीश। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अधुना  : क्रि० वि० [सं० इदम्√धुना, अ आदेश नि०) वर्तमान समय में। आजकल।
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अधुनातन  : वि० [सं० अधुना√ट्यु अंन,तुट्) आजकल का। आधुनिक।
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अधुर  : वि० [सं० न० ब०अच्) १. जिसपर कोई भार न हो। २. चित्ता से रहित।
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अंधुल  : पुं० [सं०√अंध्+उलच्] सिरिस का पेड़।
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अधूत  : वि० [सं०√धू (काँपना) +क्त, न० त०) १. जो हिलता डुलता न हो। अकंपित। २. निर्भय। ३. ढीठ।
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अधूत  : भू० कृ० [सं० न० त०] (भाव० अधृति) १. जिसे धारण न किया गया हो। २. जो पकड़ में न आया हो। ३. जो नियंत्रण या वश में न हो।
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अधूरा  : वि० (हिं० ‘आधा’ से ‘पूरा’ के अनु०पर) (स्त्री० अधूरी) १. जो अभी आधा या आशिंक रूप में ही हुआ हो। जो पूरा न बना हो। अपूर्ण। (इन्कम्पलीट) २. जिसमें किसी अंग या बात की कमी हो। अपरिपूर्ण। (इम्परफेक्ट) ३. खंडित। ४. असमाप्त। ५. अस्पष्ट।
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अधेड़  : वि० ( सं० अर्द्ध+हिं० ऐर (प्रत्यय) जिसकी जवानी ढल रही हो। जवानी और बुढापे के बीच की अवस्थावाला।
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अधेनु  : स्त्री० [सं० न० त०] वह गौ जो दूध न दे रही हो। ठाँठ गाय।
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अंधेर  : पुं० [सं० अंधकार, प्रा० अंधयार] १. ऐसी व्यवस्था, स्थिति या शासन जिसमें औचित्य, न्याय आदि का कुछ भी विचार न होता हो। २. अशान्ति या विप्लव की स्थिति।
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अंधेर-खाता  : पुं० [हिं० अंधेर+खाता] १. औचित्य, न्याय आदि विचार का पूरा अभाव। २. मनमानी कार रवाई या व्यवस्था।
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अंधेर-गरदी  : स्त्री०=अंधेर-खाता।
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अंधेर-नगरी  : स्त्री० [हिं० अंधेर=अन्याय+नगरी] ऐसा स्थान जहाँ नियम, न्याय, व्यवस्था आदि का पूरा अभाव हो। जहाँ अनीति अव्यवस्था और कुप्रबन्ध हो।
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अँधेरना  : स० [हिं० अंधेर] १. अधंकार फैलाना। अंधेरा करना। २. बहुत ही मनमाना व्यवहार या अंधेर करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँधेरा  : पुं० [सं० अंधकार, पा० अंधकारो, प्रा० अंधयार>अंधार, ब० आंधार, ओ० अधार, गु० अंधारू, अंधेरू, सिं अंधारू, पं ०अन्हेरा, मै० अन्हरिया, सिंह अन्दुर] १. वह समय या स्थिति जिसमें प्रकाश या रोशनी न हो। अंधकार। पद—अंधेरा गुप्प (घप्प)=ऐसा अंधकार जहाँ कुछ सूझता ही न हो। अंधेरा पाख या पक्ष=चांद्र मास का कृष्ण पक्ष। अँधेरे घर का उजाला=(क) वह जो अन्धकार को दूर कर दे। (ख) कीर्ति बढ़ाने वाला शुभ। (ग) अंधेरे उजले=उपयुक्त-अनपयुक्त समय में समय कुसमय। अँधेरे मुँह या मुँह अँधेरे=पौ फटते समय। बहुत तड़कें। २. धुंधलापन। ३. उदासी की स्थिति। ४. ऐसी अवस्था जिसमें मनुष्य हताश होकर यह न समझ सके कि अब क्या करना चाहिए। वि० (स्त्री० अँधेरी) जिसमें प्रकाश बहुत कम हो न हो या।
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अँधेरा-पक्ष  : पुं० [हिं० अंधेरा+पक्ष] पूर्णिमा से अमावस्या तक के १५ दिन। चांद्र मास का कृष्ण पक्ष।
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अँधेरिया  : वि० [हिं० अंधेरा] जिसमें बहुत अँधेरा हो। जो अंधकार पूर्ण हो। स्त्री० १. अँधेरी रात। २. अँधेरा पक्ष। ३. अँधेरा, अंधकार।
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अँधेरी  : स्त्री० [हिं० अँधेरा+ई] १. अंधकार। तम। २. अँधेरी रात। ३. आँधी। अंधड़। ४. चौपायों, पक्षियों आदि की आंखों पर बाँधी जाने वाली पट्टी। ५. लोहे की वह जाली जो युद्ध-क्षेत्र में जानेवाले घोड़ों के मुँह पर लगाई जाती है। ६. वह पट्टी जो पशुओं की आँखों पर बाँधी जाती है। मुहावरा—अंधेरी डालना या देना=(क) किसी की आँखे बंद करके उसकी दुर्गति करना। (ख) धोखा देना।
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अँधेरी कोठरी  : स्त्री० [हिं०] १. पेट। २. ऐसा स्थान या स्थिति जिसमें अन्दर की बातों का पता न चलें। ३. स्त्रियों का गर्भाशय।
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अधेला  : पुं० (हिं० अध+एला (प्रत्यय) एक पैसे के आधे मूल्य का सिक्का। आधा पैसा।
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अधेली  : स्त्री०=अठन्नी।
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अधैर्य  : [सं० न० त०] १. धैर्य न होने की अवस्था या भाव। २. उतावलापन।
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अधोक्षज  : पुं० [सं० अक्ष√जन् (उत्पन्न होना) +ड अक्षज=प्रत्यक्ष ज्ञान, अधः अक्षज,ब,०स०) १. विष्णु का एक नाम। २. कृष्ण।
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अधोगति  : स्त्री० [सं० अधस्√गति, स० त०) १. नीचे जाना। २. महत्त्व या प्रतिष्ठा मान आदि न रह जाने की स्थिति या भाव। ३. अवनति या पतन होना। ४. दुर्दशा या दुर्गति होना। ५. मृत्यु। ६. नरक में जाना।
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अधोगमन  : पुं० [सं० अधस्-गमन, स, त०)=अधोगति।
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अधोगामी (मिन्)  : वि० [सं० अधस्-√गम् (जाना) +णिनि) १. नीचे जाने वाला। २. जिसकी अवनति या पतन हो रहा हो।
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अधोछज  : पुं० दे० ‘अधोक्षज’।
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अधोड़ी  : स्त्री० (हिं० आधा+औड़ी (प्रत्यय) १. पूरे चमड़े का सिझाया हुआ आधा टुकड़ा। २. मोटा चमड़ा। स्त्री० [सं० अधोर्द्ध) १. शरीर का नीचे वाला अंग। २. उदर। पेट। मुहावरा—अधोड़ी तनना=अच्छी तरह पेट भर जाना। अधोड़ी तानना=खूब पेट भर कर खाना।
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अधोत्तर  : पुं० [सं० अधस्-उत्तर) दोहरी बुनावट या एक प्रकार का देशी कपड़ा।
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अधोदेश  : पुं० [सं० अधस्-देश कर्म०स०) १. निम्न या निम्नतर स्थान। २. नीचे का भाग।
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अधोद्वार  : पुं० [सं० अधस्-द्वार, कर्म० स०) गुदा। मल-द्वार।
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अधोबिंदु  : पुं० [सं० अधस्-बिंदु,कर्म० स०) दे० ‘अधःस्वस्तिक’।
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अधोभुवन  : पुं० [सं० अधस्-भुवन, मध्य स०) १. पाताल। २. नीचे का लोक।
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अधोभूमि  : स्त्री० [सं० अधस्-भूमि, मध्य० स०) १. नीची भूमि। २. पर्वत के नीचे की भूमि। ३. भूमि या जमीन के ऊपरी स्तर के नीचे वाला स्तर या भाग। (सब-सॉयल)
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अधोमार्ग  : पुं० [सं० अधस्-मार्ग, कर्म० स०) १. नीचे का रास्ता। २. सुरंग का मार्ग। ३. मल त्याग करने की इंद्रिय। गुदा।
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अधोमुख  : वि० [सं० अधस् मुख, ब० स०) १. लज्जा, संकोच आदि के कारण जिसका मुँह नीचे झुका हो। २. औधा। उलटा। क्रि० वि० मुँह के बल। मुँह लटकाये हुए। उदाहरण—अधोमुख रहित उरध नहिं चितवति, सोधन जाति मरी।—सूर।
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अधोमूल  : वि० [सं० अधस्-मूल,ब० स०) जिसकी जड़ या मूल नीचे हो।
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अधोरथ  : क्रि० वि० सं० (अधऊर्ध्व) नीचे-ऊपर।
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अधोरेखन  : पुं० [सं० अधोलेखन, स० त० ल० को र) (भू० कृ० अधोरेखित्) लेख आदि में किसी महत्त्वपूर्ण शब्द पद या वाक्य के नीचे रेखा खीचना। (अन्डरलाइनिंग)
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अधोरेखा  : स्त्री० [सं० अधस्-रेखा, मध्य० स०) किसी शब्द या वाक्य के नीचे खींची जाने वाली रेखा, जो उस शब्द या वाक्य की ओर पाठक का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करती है। (अन्डरलाइन)।
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अधोर्द्ध  : क्रि० वि० [सं० अधस्-ऊर्ध्व, द्व० स०) नीचे ऊपर। तले-ऊपर।
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अधोलंब  : पुं० [सं० अधस्-लंब, मध्य० स०) १. वह सीधी रेखा जो किसी दूसरी सीधी रेखा पर इस प्रकार गिरे कि उसके पार्श्ववर्ती दोनों कोण बराबर या मसकोण हों। लंब। २. कारीगरों के काम में आनेवाला सूत में बँधा हुआ एक प्रकार का लोहे के पत्थर का गोला। साहुल।
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अधोलोक  : पुं० [सं० अधस्-लोक, मध्य० स०) १. नीचे की ओर का लोक। २. पाताल।
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अधोवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० अधस्√वृत् (बरतना) +णिनि) १. नीचे की ओर रहने या होनेवाला। २. निम्नकोटि का। हलका। (इन्फीरियर)
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अधोवस्त्र  : पुं० [सं० अधस्-वस्त्र, कर्म० स०) धोती, लुंगी आदि वस्त्र जो कमर में पहने जाते हैं।
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अधोवायु  : पुं० [सं० अधस्-वायु, मध्य० स०) अपान वायु। पाद।
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अधोही  : स्त्री० (हिं० आधा+ओही (प्रत्यय) मरे हुए जानवर की खाल का आधा हिस्सा जो लाश ढ़ोने वाले चमारों को मिलता है।
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अंधौटा  : स्त्री० [सं० अन्ध+पट, प्रा० अंधवटी] [स्त्री० अँधौटी] घोड़ों, बैलों आदि की आँखों पर बाँधा जानेवाले कपड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अँधौरी  : स्त्री०=अम्हौरी (पित्ती) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अधौरी  : स्त्री० (देश) हिमालय की तराई में होने वाला एक प्रकार का वृक्ष। बकली। धौरा।
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अध्मान  : पुं० [सं० न० ब०] पेट का अफरना या फूलना।
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अध्यक्ष  : पुं० [सं० अधि-अक्ष, अत्या० स०) १. स्वामी। मालिक। २. किसी संघ, संस्था, समिति आदि का वह प्रधान व्यक्ति जो निश्चित अवधि तक कार्य-संचालन के लिए उसके सदस्यों द्वारा निर्वाचित होता है। (प्रेजीडेण्ट) ३. दे० ‘राष्ट्रपति’।
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अध्यक्षता  : स्त्री० [सं० अध्यक्ष+तल्-टाप्) १. अध्यक्ष होने की अवस्था या भाव। २. अध्यक्ष का आसन या पद।
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अध्यक्षर  : क्रि० वि० [सं० अधि-अक्षर, अव्य० स०) अक्षरशः। अक्षर-अक्षर। पुं० ओम मंत्र या शब्द।
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अध्यच्छ  : पुं०=अध्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अध्ययन  : पुं० [सं० अधि√इ (पढ़ना) +ल्युट्-अन) १. पढ़ने की क्रिया या भाव। पठन या पढ़ाई। (रींडिग) २. किसी विषय के सब अंगो या गूढ़ तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसे देखना, समझना तथा पढ़ना। पठन-पाठन। पढ़ाई (स्टडी) जैसे—दर्शन या विज्ञान का अध्ययन। ३. किसी उद्देश्य की सिद्धि की लिए किसी विषय की सब बातों पर विचार करना। जैसे—समाज की आर्थिक स्थिति का अध्ययन।
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अध्ययनीय  : वि० [सं० अधि√इ+अनीयर्) १. (विषय) जो अध्ययन किये जाने के योग्य हो। २. जिसका अध्ययन होने को हो।
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अध्यर्थ  : पुं० [सं० अधि-अर्थ अत्या०स०) वह वस्तु जिसपर अधिकार जतलाया जाए। (क्लेम)
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अध्यर्थ  : वि० [सं० अधि अर्ध ब० स०) पूर एक और उसका आधा। पुं० वायु।
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अध्यर्थन  : पुं० [सं० अधि-अर्थ (माँगना) +ल्युट्-अन) (भू० कृ० अध्यर्थित) अपने अधिकार या प्राप्त वस्तु से रहित या वंचित होने पर उसके संबंध में ऐसे व्यक्ति के सामने अपनी माँग रखना जो वह अधिकार या वस्तु दे अथवा दिला सकता हो। दावा। (क्लेम)
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अध्यर्थित  : भ० कृ० [सं० अधि√अर्थ√क्त) (अधिकार या वस्तु) जिसके संबंध में अध्यर्थन उपस्थित किया गया हो।
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अध्यवसाय  : पं० [सं० अधि-अव√सो (अंत करना) +घञ्) १. कोई काम अच्छी तरह मन लगाकर तथा परिश्रमपूर्वक निरंतर करते रहने का गुण या योग्यता। २. उत्साह और प्रतीतिपूर्वक किसी काम में लगना। (परसीवीयरेंस)
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अध्यवसायी (यिन्)  : वि० [सं० अधि-अव√सो√णिनि ]हर काम में अध्यवसायपूर्वक लगनेवाला
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अध्यवसित  : वि० [सं० अधि-अव√सो+क्त] जिसने अध्यवसायपूर्वक किसी काम में लगने का संकल्प किया हो।
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अध्यवसिति  : स्त्री० [सं० अधि-अव√सो+क्तिन्]=अध्यवसाय।
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अध्यशन  : पुं० [सं० अधि-अशन, प्रा० स०] १. आवश्यकता से अधिक भोजन करना। २. अजीर्ण। अनपच।
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अध्यस्त  : वि० [सं० अधि√अस् (फेंकना) +क्त] १. ऊपर रखा या लगाया हुआ। आरोपित। २. भ्रमवश जिसकी अनुभूति हुई हो।
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अध्यस्थि  : स्त्री० [सं० अधि-अस्थि, अत्या० स०] हड्डी के ऊपर निकलनेवाली हड्डी।
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अध्यात्म  : पुं० [सं० अधि-अस्थि, अत्या० स०] [वि० अध्यात्मिक] १. परमात्मा। २. आत्मा। ३. आत्मा तथा परमात्मा के गुणों और उनके पारस्परिक संबंधों के विषय में किया जानेवाला दार्शनिक चिंतन निरूपण या विवेचन।
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अध्यात्म शास्त्र  : पुं० [मध्य० स०] दे० ‘अध्यात्म विद्या’।
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अध्यात्म-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] अध्यात्म अर्थात् परमात्मा तथा आत्मा से संबंध रखनेवाला ज्ञान।
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अध्यात्म-विद्या  : स्त्री० [मध्य० स०] वह विद्या या शास्त्र जिसमें आत्मा तथा परमात्मा के गुणों, स्वरूपों, पारस्परिक संबंधों आदि का विचार, विवेचन तथा निरूपण होता है।
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अध्यात्मदर्शी (शिन्)  : वि० [सं० अध्यात्म+दृश् (देखना) +णिनि] जिसे आत्मा तथा परमात्मा का सूक्ष्म दर्शन अर्थात् ज्ञान हुआ हो।
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अध्यात्मवाद  : पुं० [ष० त०] [वि० अध्यात्मवादी] १. दे० अध्यात्म-विद्या। २. अध्यात्म संबंधी सिंद्धान्तों को मानना, उनका अनुकरण तथा प्रचार करना।
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अध्यात्मवादिक  : वि० [सं० अध्यात्मवाद+ठन्-इक] अध्यात्मवाद से संबंध रखनेवाला। (स्पिरिचुअलिस्टिक)
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अध्यात्मवादी (दिन्)  : पुं० [सं० अध्यात्मवाद+इनि] वह जो अध्यात्मवाद का अनुयायी तथा ज्ञाता हो। (स्पिरिचुअलिस्ट)
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अध्यात्मिक  : वि० दे० ‘आध्यात्मिक’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अध्यादेश  : पुं० [सं० अधि-आदेश, प्रा० स०] वह आधिकारिक आदेश जो किसी कार्य, व्यवस्था आदि के संबंध में राज्य के प्रधान शासक द्वारा दिया या निकाला गया हो। (आडिंनेंस)
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अध्यापक  : पुं० [सं० अधि√इ(पढ़ना) +णिच्,पुक्+ण्युल्-अक] [स्त्री० अध्यापिका] वह जो दूसरों, विशेषतः विद्यार्थियों को पढ़ाता हो।
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अध्यापकी  : स्त्री० [सं० अध्यापक+हिं० ई(प्रत्यय)] पढ़ाने का काम।
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अध्यापन  : पुं० [सं० अधि√इ+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] १. विद्यार्थियों को पढ़ाने की क्रिया या भाव। २. विद्यार्थियों को पढ़ाने की वृत्ति या पेशा।
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अध्यापिका  : स्त्री० [सं० अध्यापक+टाप्, इत्व] वह स्त्री० जो पढ़ाने का काम करती हो।
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अध्याय  : पुं० [सं० अधि√इ√घञ्] ग्रन्थ या पुस्तक का खंड या विभाग जिसमें किसी विषय का अथवा विषय के विशेष अंग का स्वतंत्र विवेचन हो। प्रकरण। (चैप्टर)
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अध्यायी (यिन्)  : वि० [सं० अधि√इ+णिनि] अध्ययन करने या अच्छी तरह पढ़नेवाला। पुं० विद्यार्थी।
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अंध्यार  : वि० =अँधेरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंध्यारी  : स्त्री०=अँधेरी।
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अध्यारूढ़  : वि० [सं० अधि-आ√रुह् (चढ़ना) +क्त] १. किसी पर चढ़ा हुआ। आरूढ़। २. आक्रांत। ३. बहुत अधिक। ४. किसी की तुलना में श्रेष्ठ या अच्छा।
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अध्यारोप  : पुं० [सं० अधि-आ√रुह्+णिच्, प० आदेश+घञ्] १. ऊपर उठना। २. वेदान्त में कोई कल्पना, धारणा या सिद्धान्त। ३. मिथ्या या निराधार कल्पना। ४. कोई चीज या बात दूसरी चीज या बात पर लादना या रखना। ५. ज्यामिति में दो आकृतियों की समरूपता या समानता सिद्ध करने के लिए एक को दूसरी पर या उसके स्थान पर रखना। ६. समान आकृति वाली वस्तुओं का समानता सिद्धि के विचार से एक दूसरी पर रखा जाना या होना। (सुपरपोजीशन)
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अध्यारोपण  : पुं० [सं० अधि-आ√रूह्+णिच्, प आदेश+ल्युट्-अन] १. भ्रमवश एक वस्तु का गुण-धर्म दूसरी वस्तु में लगाना या समझना। २. दोष या कलंक लगाना।
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अध्यावकाशन  : पुं० [सं० अध्ययन-अवकाश, च० त०) किसी विषय का विशेष रूप से अध्ययन करने के लिए किसी कर्मचारी या अधिकारी को मिलनेवाली छुट्टी। (स्टडी लीव)।
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अध्यास  : पुं० [सं० अधि√अस् (फेंकना) +घञ्] १. एक वस्तु में दूसरी वस्तु का होने वाला आभास या मिथ्या ज्ञान। कुछ का कुछ दिखाई पड़ना या जान पड़ना। भ्रम। धोखा। (इल्यूजन) २. मिथ्या का भ्रमपूर्ण ज्ञान।
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अध्यासन  : पुं० [सं० अधि√आस् (बैठना) +ल्युट्-अन] १. आसन। २. स्थान। ३. आसन ग्रहण करना। बैठना। पुं० [सं० अधि-आ√अस् (फेंकना) +ल्युट्-अन] आरोपण।
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अध्यासीन  : वि० [सं० अधि√आस् (बैठना) +शानच्, ईत्व] किसी समाज या वर्ग में सब से ऊँचे स्थान पर बैठा हुआ। (प्रेसाइडिंग) जैसे—न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में अथवा सभा में सभापति के रूप में अध्यासीन होना।
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अध्याहरण  : पुं० [सं० अधि-आ√हृ (हरण करना) +ल्युट्-अन] [भू० कृ० अध्याहृत] १. किसी बात या विषय की छान-बीन या जाँच पड़ताल करना। २. किसी कथन में या लेख में का विवक्षित अर्थ या आशय जान या समझकर उसके आधार पर कुछ निष्कर्ष निकालना या मत स्थिर करना। (इन्फरेन्स) विशेष दे० अध्याहार।
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अध्याहार  : पुं० [सं० अधि-आ√ह्व+घञ्] [भू०कृ०अध्याह्वत] १. ऊहापोह। २. छान-बीन। ३. किसी वाक्य में ऐसे शब्दों का न होना या न रहना जो उसका आशय स्पष्ट करने के लिए आवश्यक हों। ४. किसी वाक्य का कुछ ऐसा आशय ढूँढ़ निकालना जो उसके शब्दों से स्प्षट न होता हो, फिर भी जो आशय साधारणतः उसमें निहित हो अथवा हो सकता हो। (इन्फरेन्स)
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अध्याहृत  : भू० कृ० [सं० अधि-आ√हृ+क्त] [भाव० अध्याहृति] १. (शब्द या पद) जो किसी वाक्य में न आया हो, फिर भी उस वाक्य की पूरी व्याख्या करने के लिए जिसकी आवश्यकता बनी रहे। (अण्डरस्टुड) २. (आशय) जो किसी वाक्य के अनुमान की सहायता से (केवल शब्दों के आधार पर नहीं) निकाला गया हो। (इन्फर्ड)
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अध्युषित  : वि० [सं० अधि√वस् (बसना) +क्त] बसा हुआ। निवसित।
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अध्युष्ट  : वि० [सं० अधि√वस्+क्त] १. बसा हुआ। आबाद। २. साढ़े तीन।
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अध्यूढ़  : पुं० [सं० अधि√वह (ढोना) +क्त] किसी स्त्री० का वह पुत्र जो विवाह से पहले ही उसके गर्भ में आया हो। वि० १. उन्नत। २. समृद्ध। ३. उच्च। ४. अत्यधिक।
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अध्यूढ़ा  : स्त्री० [सं० अध्यूढ़+टाप्] १. वह स्त्री० जिसे विवाह से पहले गर्भ हो गया हो। २. वह स्त्री० जिसके पति ने दूसरा विवाह कर लिया हो।
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अध्येतव्य  : वि० [सं० अधि√इ (पढ़ना) +त्व्यत्] पढ़ने तथा अध्ययन करने के लिए उपयुक्त या योग्य।
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अध्येता (तृ)  : पुं० [सं० अधि√इ+तृच्] १. वह जो अध्ययन करता हो। २. विद्यार्थी।
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अध्येन  : पुं० दे० ‘अध्ययन’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अध्येय  : वि० [सं० अधि√इ+यत्] १. (विषय) जो अध्ययन किये जाने के योग्य हो। पढ़े जाने के योग्य। २. जिसका अध्ययन होने को हो।
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अध्येषणा  : स्त्री० [सं० अधि√इष् (प्रेरण) +युच्-अन-टाप्] १. निवेदन। २. प्रार्थना। याचना।
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अंध्र  : पुं० [सं०√अंध्+रन्] १. बहेलिया। व्याध। २. शास्त्रों के अनुसार एक प्राचीन संकर जाति। ३. दक्षिण भारत का आँध्र राज्य। ४. मगध का एक प्राचीन राजवंश।
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अंध्र-भृत्य  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन राजवंश जिसने अंध्रवंश के पश्चात् मगध का शासन किया था।
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अध्रि  : वि० [सं०√धृ (धारण करना) +कि, न० त०] १. जो निश्चित न हो। अनिश्चित। २. जो रोका न सके। अरोध्य।
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अध्रियमाण  : वि० [सं०√धृ+शानच्,यक् मुक्, न० त०] १. जिसे धारण न किया जा सके। २. मृत। मरा हुआ।
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अध्रुव  : वि० [सं० न० त०] १. जो ध्रुव निस्चित या स्थिर न हो। अनिश्चित या स्थिर। २. जो नित्य या शाश्वत न हो। अनित्य। ३. संदिग्ध। ४. जो थक् किया जा सके।
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अध्रेय  : वि० [सं०√घ्रा (सूघना) +यत्, न० त०] जो घ्रेय या सूँघने योग्य न हो।
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अध्व (न्)  : पुं० [सं०√अद् (खाना) +क्वनिप् धादेश] १. पथ। मार्ग। २. यात्रा। ३. दूरी। ४. काल। (बौद्ध) ५. साधन। ६. वेद की शाखा। ७. स्थान। ८. आक्रमण। ९. हवा। १॰ तरीका।
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अध्व-गामी (मिन्)  : वि० [सं० अध्व√गम् (जाना) +णिनि] १. यात्रा करने वाला। २. मार्ग पर चलनेवाला।
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अध्व-पति  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य। २. मार्गों का अधिकारी या निरीक्षक।
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अध्वग  : पुं० [सं० अध्व√गम् (जाना) +ड] १. बटोही। पथिक। यात्री। २. ऊँट। ३. खच्चर। ४. सूर्य।
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अध्वगा  : स्त्री० [सं० अध्वग+टाप्] गंगा नदी।
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अध्वर  : वि० [सं०√ध्व् (टेढ़ा होना) +अच्, न० त०] १. सरल। सीधा। २. लगातार चलने वाला। ३. अबाध। ४. सावधान। ५. ठीक और पुष्ट। पुं० [सं० अध्वन्√रा (देना)√क] १. यज्ञ। २. आकाश। ३.वायु।
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अध्वर्य्यु  : पुं० [सं० अध्वर√क्यच्+युच्-अकारलोप] यजुर्वेद में बतलाये हुए कर्म करनेवाला ऋत्विक्।
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अध्वर्य्युवेद  : पुं० [ष० त०] यजुर्वेद।
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अध्वांत  : पुं० [सं० न० त०] १. मंद अंधकार। २. छाया। ३. यात्रा का अंत। ४. मार्ग की सीमा।
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अध्वाति  : पुं० [सं० अध्वन्√अत् (सतत चलना) +इ] १. पथिक। यात्री। २. चतुर व्यक्ति।
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अध्वाधिप  : पुं० [सं० अध्व-अधिप, ष० त०] मार्गों का निरीक्षक या अधिकारी।
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अध्वायन  : पुं० [सं० अध्व-अयन, ष० त०] यात्रा। सफर।
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अध्वेश  : पुं० [सं० अध्व-ईश, ष० त०] दे० ‘अध्वाधिप’।
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अन  : उप० [सं० अनं] एक हिन्दी उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है—(क) अभाव, जैसे—अनधिकार, अनध्याय आदि। (ख) राहित्य या हीनता, जैसे—अन-छेद, अनगढ़, अन-देखा आदि। (ग) किसी क्रिया से अतीत या परे,जैसे—अनगिनत, अन-मोल, आदि। और (घ) अनुचित विरुद्ध या विपरीत होने का भाव, जैसे—अन-ऋतु, अन-रीति आदि। क्रि० वि० बिना। बगैर। उदाहरण—कहि जु चली अनहीं चितैं, ओठनिहीं में बात।—बिहारी। क्रि० वि० =अन्यत्र (और कहीं)। वि० =अन्य (और कोई)। पुं०=अन्न (अनाज)। पुं० [सं० अनन] श्वास-प्रश्वास। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-अहिवात  : पुं० [हिं० अन+अहियात] १. अहियात या सौभाग्य का न होना। २. वैधव्य।
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अन-ऋतु  : स्त्री० [हिं० अन√सं० ऋतु] १. बे-मौसिम। २. ऋतु। विपर्य्य। ३.ऋतु विरुद्ध कार्य।
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अन-कल  : वि० [हिं० अन+कल (कलन)] १. जिसका अनुमान या कल्पना न की जा सके। २. बहुत अधिक।
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अन-खुला  : वि० [हिं० अन (उप०)+खुलना] १. जो खुला न हो। बंद। जिसका कारण या रहस्य प्रकट न हो। फलतः गम्भीर या गहन।
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अन-गढ़  : वि० [सं० अन्=नहीं+हिं० गढ़ना] १. जो अभी अपने प्रकृति या मूल रूप में हो और गढ़ा, छीला या तराशा जाने को हो। बिना गढ़ा, छिला या तराशा हुआ। अ-संस्कृत या अ-परिष्कृत। (क्रूड) जैसे—अनगढ़ पत्थर या लकड़ी का कुंदा। २. बे-डौल और भद्दा। ३. बे-सिर पैर का। बेतुका। ४. अक्खड़। उजडु।
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अन-गिनत  : वि० [हिं० अन+गिनना] जो इतना अधिक हो कि गिना न जा सके। बहुत अधिक।
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अन-गुना  : वि० [हिं० अन+गुनना] १. जो सोचा, समझा या जाना न गया हो। २. जिसपर विचार न किया गया हो। वि० [हिं० अन+सं० गुण] सब गुणों से रहित। निर्गुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-चाखा  : वि० [हिं० अन+चखना] जिसे चखा न गया हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-चाहत  : वि० [हिं० अन=नहीं+चाहना] १. न चाहनेवाला। जो न चाहे। २. जिसे चाहा न गया हो। स्त्री० चाह या प्रेम का न होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-चाहा  : वि० [हिं० अन+चाहना] जिसकी चाह या इच्छा न की गई हो। अवांछित।
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अन-चीता  : वि० [हिं० अन+चीतना=सोचना] १. जिसके संबंध में पहले से कुछ न सोचा गया हो। २. अचानक या सहसा होने वाला। ३. अन-चाहा।
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अन-चीन्ह  : वि० =अन-चीन्हा (अपरिचित)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-चैन  : स्त्री० [हिं० अन=नहीं+चैन] १. चैन या शान्ति न होने की अवस्था या भाव। बेचैनी। २. घबराहट। विकलता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-जन्मा  : वि० [हिं० अन+सं० जन्म] जिसने जन्म न लिया हो। जो जन्मा न हो। पुं० ईश्वर।
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अन-देखा  : वि० [हिं० अन+देखना] [स्त्री० अन-देखी] १. अभी तक जिसे पहले कभी देखा न गया हो। बिना देखा हुआ। (अन्-सीन) २. अपरिचित।
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अन-पच  : पुं० [हिं० अन=नहीं+पचना] भोजन न पचने की दशा या रोग। अजीर्ण। बद-हजमी।
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अन-पढ़  : वि० [हिं० अन+पढ़ना] जो कुछ पढ़ा-लिखा न हो। अशिक्षित।
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अन-पास  : पुं० [हिं० अन=नहीं+सं० पाश] १. पाश या बंधन का अभाव। २. छुटकारा। मोक्ष।
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अन-बन  : वि० [हिं० अन=नहीं+बनना] १. जो साथवाले के मेल का न हो। अन-मेल। २. दूसरे प्रकार का। भिन्न। ३. अनेक प्रकार का। विवध। उदा०—कंदमूल, जल-फल रुह अगनित अनबन भाँति।—तुलसी। ४. भद्दा या बेढंगा। स्त्री० दो पक्षों या व्यक्तियों में आपस में न बनने की अवस्था या भाव। बिगाड़।
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अन-माया  : वि० [हिं० अन+माय(माप)] १. जो नापा न जा सके। जिसकी थाह न हो। २. जिसकी सीमा न हो। असीम। बेहद। उदाहरण—भेंटी मातु भरत भरतानुज क्यों कहौं प्रेम अमित अनमायौ।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-मीच  : स्त्री० [हिं० अन+मीच=मृत्यु] आकस्मिक या असमय में होनेवाली मृत्यु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-रितु  : स्त्री० [हिं० अन+रितु (ऋतु) या सं० अनृतु] प्राकृतिक कारणों से वातावरण का ऐसा विपर्याय जिसमें किसी ऋतु में किसी दूसरी ऋतु की स्थिति का भान हो। जैसे—जाड़े में बहुत पानी बरसना या गरमी में अधिक सरदी पड़ना। वि० जो अपनी उपयुक्त ऋतु में न होकर उससे पहले या पीछे हो। जैसे—अन-रितु फल या अन-रितु वर्षा।
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अन-सखरा  : वि० [हिं० अन+सखरा] (भोजन) जो सखरा न हो। पक्का। जैसे—अन सखरी रसोई=पूरी तरकारी आदि पकवान (दाल, भात रोटी आदि से भिन्न)।
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अन-सहन  : वि० [हिं० अन+सहना] १. जो सहा न जा सके। २. जो सहनशील न हो। स्त्री० १. सहनशीलता का अभाव। २. असह्म होने की अवस्था या भाव।
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अन-सिखा  : वि० [सं० अशिक्षित] [स्त्री० अन-सिखी] १. जिसने कुछ सीखा न हो। २. अशिक्षित।
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अन-सुना  : वि० [हिं० अन+सुनना] [स्त्री० अन-सुनी] १. जो कहा जाने पर सुना न गया हो या जिस पर ध्यान न दिया गया हो। मुहावरा—अन-सुनी करना=(क) सुनकर भी सुनने के समान करना। (ख) आज्ञा या आदेश की उपेक्षा करना। २. जो या जैसा आज तक कभी सुना न गया हो। अभूत-पूर्व।
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अन-होता  : वि० [हिं० अन=नहीं+होना] १. जो कभी होता हुआ दिखाई न दे। अनोखा। २. जिसके पास कुछ न हो। निर्धन।
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अन-होना  : वि० [हिं० अन+होना] [स्त्री० अन-होनी] १. जो जल्दी न तो हुआ हो और न हो सकता हो। सहसा न होनेवाला। २. अलौकिक।
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अन-होनी  : स्त्री० [हिं० अन+होना] १. सहसा न होनेवाली और प्रायः असंभव बात। अलौकिक घटना। २. अस्तित्व का अभाव। उदाहरण—होनि सों मढ़ों पै, अनहोनि जाकै बीच भरी, जामें चली जायवे बनाई रहि ठानी है।— घनआनंद।
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अनइत  : क्रि० वि० [सं० अन्यत्र] दूसरी जगह। उदाहरण—ओ ओ अनइते जाइ।—विद्यापति।
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अनइस  : पुं० दे० ‘अनैस’।
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अनइसा  : वि० दे० ‘अनैसा’ ।
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अनक  : वि० [सं० अणक] तुच्छ। कमीना। पुं०=आनक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनकदुंदंभ  : पुं० [सं० ] कृष्ण के पितामह का नाम।
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अनकना  : स० [सं० आकर्ण, प्रा० आकणन, हिं० अकनना] १. सुनना। २. चुपचाप या छिपकर सुनना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनकंप  : वि० [सं० अकम्प] १. जिसमें कंपन न हो। कंपन रहित। २. स्थिर। ३. दृढ़। पक्का। पुं० कंपन न होने की अवस्था। स्थिरता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनकस्मात्  : अव्य० [सं० न-अकस्मात् न० त०] जो अकस्मात् अचानक, या अकारण न हो।
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अनकहा  : वि० [सं० अन्=नहीं+कथ्=कहना] १. (भाव या विचार) जो कहा न गया हो। बिना कहा हुआ। २. (व्यक्ति) जो कहना न मानता हो। बे-कहा।
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अनकही  : वि० [हिं० अनकहा] १. जो पहले कभी न कही गयी हो। मुहावरा—अनकही देना=चुपचाप रहना। २. (बात) न कहने योग्य। फलतः अनुचित या अश्लील।
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अनकाढ़ा  : वि० [हिं० अन (उप०) +काढ़ना=निकालना] जो निकाला न गया हो।
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अनक्ररीद  : क्रि० वि० [अ०] १. करीब-करीब। लगभग। २. जल्द। शीघ्र। ३. नजदीक। पास। ४. प्रायः।
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अनक्रा  : पुं० दे० ‘उनका’।
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अनक्ष  : वि० [सं० न०-अक्ष, न० ब०] १. अक्ष-रहित। २. अंधा। नेत्रहीन।
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अनक्षर  : वि० [सं० न०-अक्षर, न० ब०] १. जो कहने योग्य न हो। जिसे अक्षरों का ज्ञान न हो। निरक्षर। ३. मूर्ख। ४. गूंगा। पुं० गाली। दुर्वचन।
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अनक्षिक  : वि० [सं० न०-अक्षि, न० ब० कप्]=अनक्ष।
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अनख  : वि० [सं० न० त०] जिसे नख या नाखून न हों। स्त्री० [सं० अन-अक्ष] १. मन में छिपा हुआ हलका क्रोध या गुस्सा। नाराजगी। २. खिन्नता के कारण होने वाली उदासीनता। ३.ईर्ष्या। ४.झंझट। ५.डिठौना।
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अनखना  : अ० [हिं० अनख] १. अप्रसन्न या रूष्ट होना। २. किसी पर क्रोध करना या बिगड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनखा  : पुं० [हिं० अनख] काजल की बिन्दी। डिठौना।
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अनखाना  : सं० [हिं० अनख] अप्रसन्न करना। नाराज करना। अ०=अनखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनखाहट  : स्त्री० [हिं० अनखाना+आहट (प्रत्यय)] अनखने की क्रिया या भाव। अनख।
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अनखी  : वि० [हिं० अनख] जल्दी अप्रसन्न या रुष्ट होने अथवा बिगड़नेवाला।
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अनखी (खिन्)  : वि० [सं० न० त०] जिसे नख या नाखून न हों।
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अनखीहाँ  : वि० [हिं० अनख] [स्त्री० अनखौहीं] १. क्रोध से भरा हुआ। कुपित। २. जल्दी बिगड़ जाने वाला। गुस्सैल और चिड़चिड़ा। ३. अनुचित। बुरा। (क्व०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंग  : वि० [सं० न-अंग, न० ब०] जिसका अंग या शरीर न हो। अशरीरी। देह-रहित। पुं० १. कामदेव। २. आकाश। ३. मन। वि० अनंग।
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अनंग-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. काम-क्रीड़ा। रति। २. छंद शास्त्र में, मुक्तक नामक विषय वृत्त के दो भेदों में से एक।
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अनंग-शत्रु  : पुं० [ष० त०] कामदेव के शत्रु, शिव।
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अनंग-शेखर  : पुं० [ब० स०] दंडक नामक वर्ण-वृत्त का एक भेद जिसमें ३२ वर्ण होते हैं।
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अनंगद  : वि० [सं० अनंग√दा (देना) +क] काम-वासना उत्पन्न करनेवाला।
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अनगन  : वि० [सं० अन√गणन]=अनगिनत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंगना  : अ० [सं० अनंग=शरीर रहित] शरीर की सुधि छोड़ना। सुध-बुध भूलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनगना  : अ० [सं० अन्√अगवना=आगे बढ़ना] जान-बूझकर किसी काम को टालने के लिए किसी काम में देर लगाना। विलंब करना। उदाहरण—मुँह धोवति, एड़ी घसति हँसति अनगवित तीर।—बिहारी। स० [सं० अनग्न=ढका हुआ] टूटे या टपकते हुए खपरैल की मरम्मत करना। खपड़ा फेरना। वि० =अनगिनत। पुं० [?] गर्भ का आठवाँ महीना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनगनिया  : वि० [सं० अगणित]=अन-गिनत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंगवती  : स्त्री० [सं० अनंग√मतुप् ,वत्व, डीष्] काम-वासना से युक्त स्त्री०। कामवती। कामिनी।
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अनगवना  : अ० स०=अनगाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनगाना  : अ० [हिं० अन+अगवना=आगे बढ़ना] देर लगाना। विलंब करना। स० १. टाल-मटोल करना। २. (केशादि) सँवारना या सुलझाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनगार  : वि० [सं० न-अगार, न० ब०] १. जिसके पास घर न हो। गृहहीन। २. (साधु या संन्यासी) जो घर बनाकर न रहे। बराबर घूमता-फिरता रहनेवाला।
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अनंगारि  : पुं० [सं० अनंग-अरि, ष० त०] कामदेव के शत्रु, शिव।
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अनगिन  : वि० = अनगिनत।
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अनगिना  : वि० [हिं० अन+गिनना] १. जो गिना न गया हो। अन-गिनत। बहुत अधिक।
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अनगिनित  : वि० =अनगिनत।
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अनंगी (गिन्)  : वि० [सं० अनंग√इनि] [स्त्री० अनंगिनी] बिना अंग, देह, शरीर का। अंग-रहित। पुं० १. ईश्वर। २. कामदेव। ३. कामुक व्यक्ति। उदाहरण—सूरदास यह विरद स्रवन सुनि, गरजत अधम अनंगी।—सूर।
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अनंगीकरण  : पुं० [सं० न०-अंगीकरण, न० त०] [भू० कृ० अनंगीकृत] १. अंग-रहित या अनंगी करने की क्रिया या भाव। २. अंगीकार न करने की क्रिया या भाव। ३. उत्तरदायित्व न लेते हुए अग्राह्वा करना। (रिप्यूडिएशन)
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अनगुत्ते  : क्रि० वि० [सं० अग्रोदित] सूर्य निकलने से पूर्व। तड़के।
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अनंगुरि  : वि० =अनंगुलि।
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अनंगुलि  : वि० [सं० न-अंगुलि, न० ब०] जिसे उँगलियाँ न हों।
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अनगैरी  : वि० [अ० गैर] गैर। अपरिचित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनग्नि  : वि० [सं० न-अग्नि, न० ब०] १. जिसके पास या जिसमें अग्नि न हो। २. अग्निहोत्र न करने वाला। ३. अग्निमांद्य नामक रोग से ग्रस्त। ४. अविवाहित।
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अनघ  : वि० [सं० न-अघ, न० ब०] १. अघ से रहित। निष्पाप। निर्दोष। २. पवित्र। शुद्ध। ३.सुन्दर। ४. निरपराध। ५. शोकहीन। पुं+० [न० त०] १. वह जो पाप न हो। पुण्य। २. [न० ब०] विष्णु। ३. शिव। ४. उजली सरसों।
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अनघरी  : स्त्री० [हिं० अन=विरुद्ध+घरी=घड़ी] बुरी घड़ी या समय। कु-समय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनघैरी  : वि० [हिं० अन+घेरन] १. अपरिचित। २. जिसे बुलाया न गया हो। अनिमंत्रित। ३. जो बिना बुलाये कहीं पहुँचा हो। अनाहूत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनघोर  : वि० [हिं० अन+सं० घोर] जो घोर न हो। पुं० [सं० घोर ?] १. चुपके से। चुपचाप। २. अचानक। अकस्मात्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनचहा  : वि० [हिं० अन+न चाहना]=अन-चाहा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनचीन्हा  : वि० [हिं० अन+चीन्हना=पहचानना] १. जिसे पहले न चिन्हते (पहचानते) न हों। अ-परिचित। २. जिसकी चीन्ह (पहचान) न हुई हों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनच्छ  : वि० [सं० न-अच्छ, न० त०] १. जो अच्छा या स्वच्छ न हो। मलिन। २. जो अच्छा न हो। ३. असुन्दर।
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अनच्छता  : स्त्री० [हिं० अनच्छ] अच्छा न होने की अवस्था या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंजन  : वि० [सं० न-अंजन, न० ब०] १. जिसे काजल, रंग या लेप न लगा हो। २. जिसे दाग या धब्बा न लगा हो। पुं० १. विष्णु। २. परब्रह्म। ३. आकाश।
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अनजान  : वि० [हिं० अन+जानना] १. जिसे किसी प्रकार का ज्ञान न हो। २. जो किसी विषय विशेष का जानकार न हो। ३. (व्यक्ति) जिसके संबंध में अभी जानकारी प्राप्त न हुई हो। (स्ट्रेंजर) पुं० १. एक प्रकार का लंबी घास जिसे प्रायः भैसें खाती हैं। २. अजान नामक वृक्ष। ३. अज्ञान।
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अनजाने  : क्रि० वि० [हिं० अनजान] बिना जाने या समझे हुए। अनजान में।
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अनजोखा  : वि० [हिं० अन+जोखना] १. जिसका तौल या वजन न किया गया हो। २. जिसकी जाँच या पड़ताल न की गई हो।
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अनट  : पुं० [सं० अनृत] १. झूठ। २. अन्याय। ३. अपद्रव। ४. अत्याचार। ५. झंझट। बखेड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनड़  : वि० [सं० अनभ्र] १. जो नम्र सभ्य या सुशील न हो। उजड्ड या फूहड़। उदाहरण—दाटक अनड़ दंड नह दीधो, दोयण घड़ सिर दाव दियो।—दुरसाजी। पुं० पर्वत। पहाड़।
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अनडीठ  : वि० [सं० अन्-दृष्ट, प्रा० डिट्ट, हिं० डीठ] जो पहले कभी देखा न गया हो, फलतः अनोखा या बिल्कुल नया। अभूतपूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनडुह (ह्)  : पुं० [सं० अनस्=शकट√वह् (वहन करना)+क्विप् नि० सिद्धि] बैल।
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अनडुही  : स्त्री० [सं० अऩुह्+ड़ीप्] गाय।
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अनड्वान्  : पुं० [सं० दे० अनडुह्] १. बैल। साँड। २. सूर्य। ३. वृष राशि।
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अनणु  : वि० [सं० न-अणु, न० त०] जो सूक्ष्म या चारू न हो,फलतः स्थूल या रूक्ष। पुं० मोटा अन्न।
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अनंत  : वि० [सं० न-अंत, न० ब०] १. जिसका कहीं अंत छोर या सिरा न होता हो।(अन्- इंडिंग) जैसे—अनंत सागर २. जिसका अंत या समाप्ति न हो। अंतहीन। (नेवर-इंडिंग) ३. जिसका कहीं आदि अंत न हो। सदा बना रहने वाला। नित्य। शाश्वत (इन्फाइनाइट) ४. जिसके मान, विस्तार आदि की कल्पना न की जा सके। ५. जिसका नाश न हो। अविनाशी। ६. बहुत अधिक। पुं० १. विष्णु। २. कृष्ण। ३. शिव। ४. शेषनाग। ५. लक्ष्मण। ६.बलराम। ७.आकाश। ८. जैनों के एक तीर्थकर का नाम। ९. अभ्रक। अबरक। १. बाँह पर पहनने का एक गोलाकार आभूषण या गहना। ११. अनंत चतुदर्शी के व्रत में पहनने का एक गंडा। १२. अनंत चतुदर्शी का व्रत। १३. मोक्ष। १४. बादल। १५. श्रवण। नक्षत्र।
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अनत  : वि, [सं० न० त०] १. न झुकनेवाला। २. जो झुका न हो। फलतः सीधा। ३. जो नम्र न हो। अनम्र। ४. हठी। ५. दृढ़। क्रि० वि० [सं० अन्यत्र] अन्य स्थान पर। किसी और या दूसरी जगह। उदाहरण—अति रस-लुब्ध स्वान जूठनि ज्यों, अनत नहीं चित्त राख्यौ।—सूर।
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अनंत-काय  : पुं० [ब० स०] १. जैन मत के अनुसार ऐसी वनस्पतियाँ जिनका भक्षण या सेवन निषिद्ध हो। वि० बहुत बड़ी काया या शरीरवाला।
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अनंत-चतुर्दशी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] भाद्र शुल्क चतुर्दशी, जिस दिन अनंत भगवान का व्रत और पूजन होता है।
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अनंत-जित्  : पुं० [सं० अनंत√जि (जीतना) +क्युप् तुक्] १. वासुदेव। २. चौदहवें जैन अर्हत्।
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अनंत-टंक  : पुं० [ब० स०] एक राग जो मेघराग का पुत्र माना गया है।
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अनंत-दर्शन  : पुं० [ष० त०] सब बातों का पूरा ज्ञान या सम्यक् दर्शन। (जैन)
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अनंत-दृष्टि  : वि० [सं० न० ब०] जो बहुत दूर तक देखता हो। दूर-दर्शी। पुं० १. इंद्र। २. शिव।
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अनंत-देव  : पुं० [कर्म० स०] १. शेषनाग। २. शेषशायी विष्णु।
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अनंत-नाथ  : पुं० [कर्म० स०] जैनों के चौदहवें तीर्थकर।
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अनंत-मूल  : पुं० [ब० स०] सारिवा नामक एक रक्तशोधक औषधि।
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अनंत-रूप  : वि० [ब० स०] जिसके अनंत रूप हों। पुं० विष्णु।
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अनंत-विजय  : पुं० [ब० स०] युधिष्ठिर के शंख का नाम।
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अनंत-वीर्य  : वि० [ब० स०] बहुत अधिक बल या पराक्रमवाला। पुं० जैनों के २३वें अर्हत् का नाम।
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अनंत-व्रत  : पुं० [ष० त०] अनंत चतुर्दशी का व्रत जो भाद्रप्रद शुक्ल १४ को होता है।
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अनंत-शक्ति  : वि० [ब० स०] जिसकी शक्ति अनंत हो। सर्वशक्तिमान। पुं० परमेश्वर।
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अनंत-शीर्षा  : स्त्री० [सं० अनंतशीर्ष-टाप्] वासुकि नाग की पत्नी।
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अनंत-श्री  : वि० [ब० स०] असीम ऐश्वर्य या शोभावाला। पुं० परमेश्वर।
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अनंतक  : वि० [सं० अनंत+कन्] १. सीमा-रहित। २. नित्य। पुं० अनंतदेव। (जैन)
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अनंतक  : वि० [सं० अनंत√गम् (जाना) +ड] अनंत काल तक चलने या विचरण करनेवाला।
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अनंततरित  : वि० [सं० अंतर+इतच्, न० त०] १. जिसमें अंतर या व्यवधान न पड़ा हो। २. जिनके बीच में कोई अंतर या व्यवधान न हो। ३. अखंडित। अटूट।
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अनंतता  : स्त्री० [सं० अनंत+तल्-टाप्] अनंत होने की अवस्था या भाव। असीमता।
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अनंतर  : जात-वि० [पं०त०]=अनंतरज।
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अनंतरज  : पुं० [सं० अनंतर√जन् (उत्पन्न होना) +ड] १. वह व्यक्ति जिसके पिता का वर्ण माता के वर्ण से एक दर्जा ऊँचा हो। जैसे—माता शूद्रा और पिता वैश्य। २. ऐसे भाई-बहन जिनका जन्म ठीक एक दूसरे के आगे-पीछे हुआ हो।
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अनंतरीय  : वि० [सं० अनंतर+छ-ईय] १. बाद का। २. जन्म०विकास आदि के क्रम में ठीक बाद का।
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अनंतर्हित  : वि० [सं० न-अंतर्हित, न० त०] १. मिला, लगा या सटा हुआ। २. क्रमबद्ध। श्रंखलाबद्ध ३. अखंडित।
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अनंतवान् (वत्)  : वि० [सं० अनत+मतुप् व आदेश] १. असीम। २. नित्य। पुं० ब्रह्मा के चार चरणों में से एक।
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अनंतशीर्ष  : पुं० [ब० स०] १. विष्णु। २. शेषनाग।
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अनंता  : वि० स्त्री० [सं० अनंत+टाप्] जिसका अंत या पारावार न हो। स्त्री० १. पृथ्वी। २. पार्वती। ३. कलियारी नाम का पौधा। ४. अनंतमूल। ५. दूर्वा। दूव। ६. छोटी पीपल। ७. जावासा। ८. अरणी नाम का वृक्ष। ९. सूत का बना हुआ वह अनंत जो अनंत चतुर्दशी को पहना जाता है।
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अनंतात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० अनंत-आत्मन्, कर्म० स०] परमात्मा।
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अनंतानुबंधी (षिन्)  : पुं० [सं० अनंत-अनुबंधिन्, कर्म० स०] जैनमतानुसार ऐसा दोष या दुष्ट स्वभाव जो कभी न छूटे।
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अनंताभिश्रेय  : पुं० [सं० अनंत-अभिधेय, ब० स०] परमेश्वर। वि० अनंत या असंख्य नामोंवाला।
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अनति  : वि० [सं० न-अति, न० त०] जो अति (अधिक या बहुत) न हो। कुछ। थोड़ा। जैसे—अनति दूर (=थोड़ी दूर)। स्त्री० [सं० न-नति, न० त०] १. न झुकने की क्रिया या भाव। २. अनम्रता। ३. घमंड।
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अनतिक्रमणीय  : वि० [सं० न-अतिक्रमणीय, न० त०] १. जिसका अतिक्रमण या उल्लंघन न हो सकता हो। २. जिसका अतिक्रमण करना उचित न हो।
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अनंती  : स्त्री० [सं० अनंत+हिं० ई (प्रत्यय)] १. अनंत या अंत-हीन होने की अवस्था,गुण या भाव। (इन्फिनिटी) २. छोटा या पतला अनंत। ३. बाँह पर बाँधने का गंडा।
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अनंत्य  : पुं० [सं० अनंत+यत्] १. अनंत होने की अवस्था, गुण या भाव। नित्यता। २. हिरण्यगर्भ का चरण।
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अनंद  : वि० [सं० ब० स०] आनन्द रहित। बिना प्रसन्नता का। पुं० [सं० नन्द् (समृद्धि) +घञ्, न० त०] १. आनन्द या प्रसन्नता का अभाव। २. हरी नामक छंद का दूसरा नाम। ३. [सं० नन्द्+णिच्+अच्, न० त०] एक प्रेत लोक का नाम। पुं० -=आनन्द। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंदना  : अ० [सं० आनन्द] आनंदित खुश या प्रसन्न होना। स० आनंदित या प्रसन्न करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनदसर  : पुं० [सं० न-अवसर, न० त०] १. ऐसा अवसर जो किसी विशिष्ट कार्य के लिए उपयुक्त न हो। कुसमय। बे-मौका। २. एक काव्यालंकार जिसमें किसी कार्य के अनवसर होने या करने का वर्णन किया जाए। वि० [न० ब०] जिसके अवसर या अवकाश न हो। व्यस्त।
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अनदिटृय  : वि० [सं० अदृष्टि से] १. जो दिखाई न पड़ता हो। उदाहरण—मंत्र जप्प सब भूलि, करून कारून अनदिटिय।—चन्द्रवरदाई। २. जो पहले कभी न देखा गया हो।
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अनंदी  : पुं० [सं० ] एक प्रकार का धान। वि० =आनंदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनद्य  : वि० [सं० अद्य√अद् (खाना) +यत् न-अद्य, न० त०] १. जो खाये जाने के योग्य न हो। अखाद्य। २. जिसे खाया न जा सके। पुं० सफेद सरसों।
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अनद्यतन  : वि० [सं० न-अद्यतन, न० त०] १. जो अद्यतन (आज के दिन का) न हो, बल्कि उससे पहले या बाद का हो। २. जो आज के दिन से संबंद्ध न हो। जैसे—अनद्यतन भविष्य या अनद्यतन भूत। ३. जो उन्नति, विकास की दृष्टि से वर्तमान की सीमा तक न पहुँचा हो। दिनातीत। पुराना। (आउट आफ डेट) पुं० आज के या वर्तमान दिन को छोड़कर, उससे भिन्न अर्थात् पहले या बाद का कोई दिन।
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अनद्यतन-भविष्य  : पुं० [कर्म० स०] १. आनेवाली आधी रात के बाद का समय। २. व्याकरण में, भूतकाल का एक भेद।
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अनधिक  : वि० [सं० न-अधिक, न० त०] १. जो अधिक न हो। २. जिससे आगे बढ़ा हुआ और कोई न हो। सब तरह से ठीक और पूरा। ३. सीमा-रहित।
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अनधिकार  : वि० [सं० न-अधिकार, न० ब०] १. जिसे अधिकार प्राप्त न हो। अनधिकारी। २. जिससे अधिकार छीन लिये गये हों। ३. अपात्र। पुं० [सं० न० त०] १. अधिकार का अभाव। अधिकार, प्रभुत्व या स्वत्व न होना। २. बे-बसी। लाचारी। ३. अयोग्यता। क्रि० वि० अधिकार न होते हुए। बिना अधिकार के। पद—अनधिकार चर्चा=जिस विषय का ज्ञान न हो, उस पर बोलना। अनधिकार चेष्टा=ऐसे काम या बात के लिए की जानेवाली चेष्टा या प्रयत्न जो अपने अधिकार के बाहर हो। जैसे—किसी दूसरे के घर में अकारण या बलपूर्वक जाना।
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अनधिकारिता  : स्त्री० [सं० अनधिकारिन्+तल्-टाप्] अनाधिकारी होने की अवस्था या भाव।
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अनधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० न-अधिकारिन्, न० त०] १. वह जिसे अधिकार प्राप्त न हो। अधिकारी या विपर्याय। २. वह जो किसी विषय का विशेषज्ञ या अधिकारी न हो।
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अनधिकृत  : वि० [सं० न-अधिकृत, न० त०] १. जिसके लिए अधिकार न मिला हो। २. जो अधिकार या वश में न किया गया हो। जो आधिकारिक न हो। जैसे—अनधिकृत विज्ञप्ति।
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अनधिगत  : वि० [सं० न-अधिगत, न० त०] १. जो अधिगत (प्राप्त या हस्तगत) न किया गया हो। २. जो अधिकार या वश में न आया हो। ३. जिसपर विचार न किया गया हो।
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अनधिगम्य  : वि० [सं० न-अधिगम्य, न० त०] १ जो अधिगम्य न हो। पहुँच के बाहर। . २. अज्ञेय। ३. अप्राप्य।
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अनधियुक्त  : वि० [सं० न-अधियुक्त, न० त०] [भाव० अनधियुक्ति] १. किसी काम में न लगा हुआ व्यक्ति। २. व्यक्ति, जिसकी जीविका न लगी हो। बेकार। (अन्-एम्प्लाँयड)
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अनधियुक्ति  : स्त्री० [सं० न-अदियुक्ति, न० त०] ऐसी स्थिति जिसमें मनुष्य के लिए अधियुक्ति या जीविका निर्वाह का कोई साधन न हो। बेकारी (अन्-एम्प्लाँयमेंट)
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अनधियोजन  : पुं० [सं० न-अधियोजन, न० त०]=अनधियुक्ति।
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अनधिष्ठित  : वि० [सं० न-अधिष्ठित, न० त०] १. जो किसी पद, स्थान आदि पर अधिष्ठित न हो। २. अनुपस्थित।
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अनधीन  : वि० [सं० न-अधीन, न० त०] जो किसी के अधीन न हो। स्वःधीन। पुं० वह स्वतंत्र बढ़ई जो अपनी इच्छानुसार कार्य करता हो।
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अनध्यक्ष  : वि० [सं० न-अध्यक्ष, न० त०] १. जो सामने न हो। अप्रत्यक्ष। २. जिसे इंद्रियों द्वारा जान न सकें। ३. जिसका कोई अध्यक्ष न हो। ४. जो अध्यक्ष न हो।
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अनध्ययन  : पुं० [सं० न-अध्यवसाय, न० त०] १. अध्ययन का अभाव। २. दे० ‘अनध्याय’।
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अनध्यवसाय  : पुं० [सं० न-अध्यवसाय, न० त०] १. अध्यवसाय का अभाव। २. एक अर्थालंकार जिसमें किसी एक वस्तु के संबंध में साधारण अनिश्चय का वर्णन किया जाता है।
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अनध्याय  : पुं० [सं० न-अध्याय, न० त०] वह दिन जो शास्त्रानुसार पढ़ने-पढ़ाने का न हो। पढ़ाई की दृष्टि से छुट्टी का दिन। यथा-अमावस्या, परिवा, अष्टमी, चतुर्दशी, और पूर्णिमा।
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अनध्यास  : वि० [सं० न-अध्यास, न० ब०] भूला हुआ। विस्मृत।
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अनन  : पुं० [सं० √अन्(जीना) +ल्युट्-अन] साँस लेना। जीना।
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अनना  : स० [सं० आनयन]=आनना (लाना)। उदाहरण—इहै ख्याल उर आनि हैं।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अननुज्ञप्त  : वि० [सं० न-अनुज्ञात, न० त०]=अननुज्ञात।
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अननुज्ञात  : वि० [सं० न-अनुज्ञात, न० त०] १. जो अनुज्ञात न हो। २. (व्यक्ति) जिसे अनुज्ञा न मिली हो। ३. (कार्य) जिसके लिए अनुज्ञा न मिली हो।
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अननुज्ञापित  : वि० [सं० न-अनुज्ञापित, न० त०]=अननुज्ञात।
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अननुभाषण  : पुं० [सं० न-अनुभाषण, न० त०] न्याय में, वह स्थिति जब वादी के तीन बार कोई बात कहने पर भी प्रतिवादी उसका कोई उत्तर नहीं देता और इसी लिए उसकी हार मान ली जाती है।
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अननुभूत  : वि० [सं० न-अनुभूत, न० त०] १. जो अनुभूत न हो। २. जिसका पहले कभी अनुभव न हुआ हो।
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अननुमत  : वि० [सं० न-अनुमत, न० त०] १.जिसे अनुमति न मिली हो। २. जिसकी अनुमति न मिली हो। 3. जो रुचिकर न हो। 4. अयोग्य।
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अननुरूप  : वि० [सं० न-अनुरूप, न० त०] १. जो किसी के अनुरूप न हो। अनुरूप का उल्टा। २. जो किसी की मर्यादा के अनुरूप या उपयुक्त न हो।
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अनंन्तर  : क्रि० वि० [सं० न० ब०] १. उपरान्त। पीछे। बाद। २. निरंतर। लगातार। वि० [सं० न-अंतर,न० ब०] १. जिसके बीच में कोई अन्तर न हो। अंतर-रहित। २. सटा या लगा हुआ। ३. पास या पड़ोस का। ४. अपने वर्ण से ठीक नीचे के वर्ण का। पुं० [सं० न० त०] १. अंतर या भेद का अभाव। २. निकटता। सामीप्य। ३. [सं० न० ब०] ब्रह्म।
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अनन्नास  : पुं० [पुर्त० अनानास] १. एक छोटा पौधा जिसके फल कटहल की तरह ऊपर से दानेदार और खाने में खट-मीठे होते हैं। (पाइनएपुल्) २. उक्त का फल।
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अनन्य  : वि० [सं० न-अन्य, न० ब०] १. जिसका संबंध किसी और से न हो। २. एकनिष्ठ। ३. अद्वितीय। ४. एकाग्र। पुं० विष्णु का एक नाम।
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अनन्य गति  : वि० [सं० न-अन्य-गति, न० ब०] जिसके लिए और कोई साधन या सहारा न हो। स्त्री० [न० त०] एक मात्र सहारा।
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अनन्य-गतिक  : वि० [न० ब० कप्] =अनन्य-गति।
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अनन्य-गुरु  : वि० [सं० न-अन्य-गुरु, न० ब०] १. जिससे कोई बड़ा न हो। २. जिसके लिए एक को छोड़ कोई और गुरु न हो।
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अनन्य-चित्त  : वि० [सं० न-अन्य-चित्त, न० ब०] जिसका चित्त किसी एक में लगा हो। इधर-उधर न हो। एकाग्र चित्त। लीन।
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अनन्य-चेता (तस्)  : वि० [सं० न-अन्य-चेतस्, न० ब०] दे० ‘अनन्य-चित्त’।
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अनन्य-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० न-अन्य-जन्मन्, न० ब०]=अनन्यज।
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अनन्य-दृष्टि  : वि० [सं० न-अन्य-दृष्टि, न० ब०] जिसकी दृष्टि किसी और या दूसरे पर टिकी या लगी हो। स्त्री० [न० त०] निष्ठापूर्वक या एकाग्र चित्त होकर देखने की स्थिति या भाव।
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अनन्य-देव  : वि० [सं० न-अन्य-देव, न० ब०] जिसका कोई और दूसरा देवता न हो। पुं० परमेश्वर।
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अनन्य-परता  : स्त्री० [सं० न-अनन्यपर, न० ब० अनन्यपर+तल्-टाप्] अनन्य-परायण। (दे०)
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अनन्य-परायण  : वि० [सं० अन्य-परायण, स० त० न-अन्य-परायण, न० त०] जिसका किसी और या दूसरे से नाता, प्रेम, लगाव या संबध न हो। अर्थात् एक ही रात में रहनेवाला।
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अनन्य-पूर्वा  : स्त्री० [सं० न-अन्य-पूर्व, न० ब०] १. वह स्त्री० जिसका पहले किसी से संबंध न रहा हो। निर्मल चरित्रवाली स्त्री। २. अविवाहित। कुमारी।
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अनन्य-भाव  : पुं० [सं० अन्य-भाव, स० त० न-अनन्यभाव, न० त०] एक निष्ठ भक्ति या साधना। वि० जिसका भाव या भक्ति एक ही के प्रति हो, किसी दूसरे के प्रति न हो। एकनिष्ठ भक्त।
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अनन्य-मनस्क  : वि० [सं० न-अन्य-मनस्, न० ब० कप्] दे० अनन्य-चित्त।
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अनन्य-योग  : वि० [सं० न-अन्य-योग, न० ब०] १. जिसका संबंध एक को छोड़कर और किसी से न हो। २. जो एक को छोड़ किसी दूसरे के काम न आ सके।
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अनन्य-वृत्ति  : वि० [सं० न-अन्य-वृत्ति, न० ब०] १. जिसकी मनोवृत्ति एकनिष्ठ हो। २. जिसकी कोई दूसरी वृत्ति या जीविका न हो।
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अनन्य-साधारण  : वि० [सं० अन्य-साधारण, स० त०, न-अन्य-साधारण, न० त०] १. एक को छोड़कर दूसरे में न मिलने वाला। २. असाधारण।
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अनन्यज  : वि० [सं० अनन्य√जन् (उत्पन्न होना)+ड] वह जो अन्य या दूसरे से उत्पन्न न हुआ हो। पुं० कामदेव।
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अनन्यता  : स्त्री० [सं० अनन्य+तल्-टाप्] १. अनन्य होने (अर्थात् किसी और या दूसरे से संबंध या लगाव न होने) की अवस्था या भाव। २. एक ही में लीन रहने की अवस्था या भाव। एक-निष्ठता। लीनता।
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अनन्यमना (नस्)  : वि० [सं० न-अन्य-मनस्, न० ब०] =अनन्य-चित्त।
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अनन्याधिकार  : पुं० [सं० अन्य-अधिकार, ष० त० न-अन्याधिकार, न० त०]=एकाधिकार।
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अनन्याश्रित  : वि० [सं० अन्य-अधिकार, ष० त० न-अन्याश्रित, न० त०] १. जो किसी अन्य या दूसरे के आश्रय में न रहता हो। २. स्वाधीन। पुं० ऐसी संपत्ति जिसपर ऋण आदि न लिया गया हो।
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अनन्वय  : पुं० [सं० न-अन्वय, न० त०] १. अन्वय का अभाव। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है। इसे अतिशयोपमा भी कहते है। उदाहरण—भरत-भरत सम जान।—तुलसी।
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अनन्वित  : वि० [सं० न-अन्वित, न० त०] जिसका अन्वय न हुआ हो।
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अनप  : वि० [सं० न-आप, न० ब०] जहाँ जल न हो। २. बिना जल का। जल-रहित।
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अनपकरण  : पुं० [सं० न-अपकरण, न० त०] १. अपकार या नुकसान न करना। २. ऋण या देन न चुकाना।
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अनपकर्ष  : पुं० [सं० न-अपकर्ष, न० त०] अपकर्ष या अवनति या अभाव।
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अनपकार  : पुं० [सं० न-अपकार, न० त०] १. अपकार या अहित का अभाव। २. निर्दोषिता।
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अनपकारक  : वि० [सं० न-अपकारक, न० त०] १. अपकार न करनेवाला। २. निरीह। निर्दोष।
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अनपकारी  : (रिन्)-वि० [सं० न-अपकारिन्, न० त०] =अनपकारक।
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अनपकृत  : वि० [सं० न-अपकृत, न० त०] जिसका अपकार या अहित न किया गया हो।
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अनपक्रम  : वि० [सं० न-अपक्रम, न० त०] १. अपक्रम का अभाव। २. दूर न जाना।
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अनपक्रिया  : स्त्री० [सं० न-अपक्रिया, न० त०]=अनपक्रम।
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अनपघात  : पुं० [सं० न-अपघात, न० त०] अपघात (आघात, क्षति आदि) का अभाव।
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अनपत्य  : वि० [सं० न-अपत्य, न० ब०] [भाव० अनपत्यता० स्त्री० अनपत्या] १. जिसे अपत्य या संतान न हो। निस्संतान। २. जिसका कोई उत्तराधिकारी न हो। ३. जो संतान के अनुकूल न हो।
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अनपत्य-दोष  : पुं० [ष० त०] स्त्री० का बाँझपन।
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अनपत्यक  : वि० [सं० न० ब० कप्]=अनपत्य।
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अनपत्रप  : वि० [सं० न-अपत्रपा, न० ब०] निर्लज्ज।
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अनपद  : क्रि० वि० [सं० अव्य० स०] १. किसी के पीछे-पीछे। पग-पग पर किसी का अनुसरण करते हुआ। २. वाक्य के प्रत्येक पद के अनुसार।वि० [अत्या० स०] (टीका या व्याख्या) जो हर पद के अनुसार हो। पुं० गीत का पहला पद। टेक।
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अनपभ्रंश  : पुं० [सं० न-अपभ्रंश, न० त०] १. जो अपभ्रंश न हो। २. व्याकरण के अनुसार वह शब्द जिसका रूप विकृत न हो। तत्सम या शुद्ध शब्द।
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अनपर  : वि० [सं० न-अपर, न० ब०] १. जिसकी बराबरी का और कोई न हो। अद्वितीय। २. जिसका कोई अनुयायी न हो। ३. अकेला। ४. एकमात्र। पुं० ब्रह्म।
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अनपराद्ध  : वि० [सं० न-अपराद्ध, न० त०] १. (कार्य) जो अपराद्ध न हो। २. (व्यक्ति) जिसने अपराध न किया हो।
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अनपराध  : वि० [सं० न-अपराध, न० त०] १. जिसने अपराध न किया हो। बेकसूर। निरपराध। पुं० [न० त०] अपराध का अभाव। अपराधहीनता।
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अनपराधी (धिन्)  : वि० [सं० न-अपराधिन्, न० त०] जिसने अपराध न किया हो। बेकसूर।
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अनपसर  : वि० [सं० न-अपसर, न० ब०] जिसमें से या जिसके लिए निकलने का मार्ग न हो। २. अन्यायपूर्ण। अक्षम्य। पुं० [न० त०] निकलने या हटने के मार्ग का अभाव।
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अनपाकरण  : पुं० [सं० न-अपाकरण, न० त०] १. न देना। न सौंपना। २. ऋण या देन न चुकाना। ३. अलग न करना। पुं० देन आदि न चुकाने के संबंध में होनेवाला झगड़ा या विवाद।
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अनपाकर्म (न्)  : पुं० [सं० न-अपाकर्मन्, न० त०]=अनपाकरण।
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अनपाय  : वि० [सं० न-अपाय, न० ब०] बाधा रहित। २. जिसका नाश या क्षय न हो। अनश्वर। पुं० [न० त०] १. अनश्वरती। नित्यता। २. [न० ब०] शिव।
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अनपायि-पद  : पुं० [सं० कर्म० स०] परमपद। मोक्ष।
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अनपायी (यिन्)  : वि० [सं० न—अपायिन्, न० त०] १. अचल। ध्रुव। २. स्थिर। ३. जो कभी नष्ट न हो। ४. दुःखरहित।
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अनपाश्रय  : वि० [सं० न —अपाश्रय, न० ब०] १. जो किसी की आश्रित न हो। २. स्वतंत्र।
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अनपेक्ष  : वि० [सं० न—अपेक्षा, न० ब०] १. जिसे किसी की अनपेक्षा या आवश्यकता न हो। २. जिसे किसी बात की चिंता या परवाह न हो। ३. तटस्थ। ४. निष्पक्ष। ५. असंबद्ध। 6 स्वतंत्र।
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अनपेक्षा  : स्त्री० [सं० न—अपेक्षा, न० त०] १. अपेक्षा का अभाव। २. दे० ‘उपेक्षा’।
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अनपेक्षित  : वि० [सं० न—अपेक्षित, न० त०] जिसकी अपेक्षा (आवश्यकता, चाह या परवाह) न हो।
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अनपेक्ष्य  : वि० [सं० न — अपेक्ष्य, न० त०]=अनपेक्षित।
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अनपेत  : वि० [सं० न — अपेत, न० त०] १. जो गया-बीता न हो। २. अपृथक्। युक्त। ३. विश्वास-पात्र।
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अनफा  : पुं० [यूनानी] ज्योतिष में एक प्रकार का योग।
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अनफाँस  : पुं० [हिं० अन+फाँस=पाश] पाश या बंधन का न होना। मोक्ष।
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अनबग्रह  : वि० [सं० न-अवग्रह,न० ब०] १. जिसमें या जिसके लिए कोई रुकावट न हो। २. जो किसी को न रोके।
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अनंबर  : वि० [सं० न-अंबर, न० ब०] १. अंबर-रहित। २. जिसके पास वस्त्र न हों। ३. जिसने वस्त्र धारण न किये हों। नंगा। पुं० एक तरह के जैन साधु जो नंगे रहते है।
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अनबात  : स्त्री० [हिं० अन=नहीं+बात] अनुचित या बुरी बात। उदा०—होत है भली न बात सुनि अनबात की।—सेनापति।
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अनबिध  : वि० =अनबिधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनबिधा  : वि० [सं० अन्+विद्ध] बिना बेधा या छेदा हुआ। जैसे—अन-बिधा मोती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनबीह  : वि० [हिं० अन+सं० भय ?] निडर। निर्भय। उदा०—लोहाना अनबीह लीय बीरत समथ्थै।—चंदबरदाई।
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अनबूझ  : वि० [हिं० अन+बूझना] १. जो समझ में न आ सके। २. जिसे समझ न हो। नादान। ना-समझ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनबूड़ा  : वि० [हिं० अन=नहीं+डूबना] १. जो बूड़ा या डूबा न हो। २. जो गहराई में न पैठा हुआ हो। उदा०—तंत्रीनाद, कवित्तरस, सरस रास रतिरंग। अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग।—बिहारी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनबेधा  : वि० =‘अनबिधा’।
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अनबोल  : वि० [हिं० अन=नहीं+बोलना] १. न बोलनेवाला। मौन। २. जो अपना सुख-दुःख न कह सके। ३. बे-जबान। गूँगा। ४. किसी का कहना न माननेवाला। बे-कहा। पुं० १. न कहने योग्य या अनुचित बात। २. आपस में न बोलने की अवस्था या भाव। अनबोला।
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अनबोलता  : वि०=अनबोला।
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अनबोला  : वि० [हिं० अन+बोलना] १. जो न बोलता हो। चुप। मौन। २. जिसके विषय में कुछ कहा न जा सके। अनिवर्चनीय। पुं० [हिं० अन+बोल] आपस के व्यवहार में लड़ाई-झगड़े आदि के कारण किसी से बोल-चाल या बात-चीत बंद हो जाना।
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अनब्याहा  : वि० [हिं० अन=नहीं+व्याहा] जिसका व्याह न हुआ हो। अविवाहित।
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अनंभ (स्)  : वि० [सं० न०-अभ्भस्० न० त०] जल से रहित। बिना जल का। वि० [सं० अन्=नहीं, अंभस्=पाप, विघ्न, बाधा] बाधा या विघ्न से रहित।
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अनभल  : पुं० [हिं० अन=नहीं+भला] १. बुराई। २. हानि। ३. अहित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—(किसी का) अनभल ताकना=अहित या बुराई चाहना।
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अनभला  : वि० [हिं० अन=नहीं+भला] जो भला न हो; अर्थात् निंदनीय या बुरा। पुं० दे० ‘अनभल’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभवना  : अ० [सं० अनुभव] अनुभव करना। उदा०—वाकी गति जानै सोई जिहिं अनभई है।—ध्रुवदास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभाय (या)  : वि० [हिं० अन+भावना=अच्छा न लगना] न भानेवाला। अप्रिय। अरुचिकर। पुं० [हिं० अन+सं० भाव] [स्त्री० अनभाई] आपस का वैर, विरोध या द्वेष।
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अनभावता  : वि० दे० ‘अनभाय’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभिग्रह  : वि० [सं० न — अभिग्रह, न० ब०] जिसमें भेद-भाव न हो। पुं० [न० त०] १. भेद-शून्यता। एकरूपता। २. जैन मतानुसार सब मतों को उत्तम और मोक्ष-प्रद मानने का गलत सिद्धांत।
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अनभिज्ञ  : वि० [सं० न—अभिज्ञ, न० त०] [स्त्री० अनभिज्ञा, भाव अनभिज्ञता] १. जिसे किसी विशिष्ट बात या विषय की जानकारी न हो। (अन्-एक्वेन्टेड) २. अज्ञ। अनजान। नावाकिफ।
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अनभिज्ञता  : स्त्री० [सं० अनभिज्ञ+तल्-टाप्] अनभिज्ञ होने की अवस्था या भाव।
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अनभिप्रेत  : वि० [सं० न—अभिप्रेत, न० त०] जो अभिप्रेत न हो अवांछित।
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अनभिभूत  : वि० [सं० न—अभिभूत, न० त०] जो अभिभूत न हुआ हो।
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अनभिमत  : वि० [सं० न—अभिमत, न० त०] १. मत के विरुद्ध, असम्मत। २. तात्पर्यविरुद्ध। और का और। २. जो अभीष्ट न हो। अवांछित।
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अनभिरूप  : वि० [सं० न—अभिरूप, न० ब०] १. जिसका रूप एक-सा न हो। २. बे-डौल। बे-रूप। असुंदर।
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अनभिलषित  : वि० [सं० न—अभिलषित, न० त०] जो अभिलषित या वांछित न हो।
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अनभिलाष  : वि० [सं० न—अभिलाष, न० ब०] जिसे कोई अभिलाषा न हो। पु० [न० त०] १. अभिलाषा या इच्छा का अभाव। २. रस या स्वाद का अभाव।
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अनभिवाद्य  : वि० [सं० अभि(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)वद् (बोलना)+ण्यत्० न० त०] १. जो अभिवादन का अधिकारी या पात्र न हो। २. जिसका अभिवादन अभी न हुआ हो।
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अनभिव्यक्त  : वि० [सं० न—अभिव्यक्त, न० त०] जो प्रकट या व्यक्त न हो। गुप्त। २. जिसकी अभिव्यक्त न हो। ३. अस्पष्ट।
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अनभिसंधि  : स्त्री० [सं० न—अभिसंधि, न० त०] १. अभिसंधि का अभाव या विपर्याय। २. अभिप्राय या प्रयोजन का अभाव।
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अनभिहित  : वि० [सं० न-अभिहित, न० त०] १. जो अभिहित या उक्त न हो। २. जिसका नाम न लिया गया हो या कहा न गया हो। जो बँधा न हो। मुक्त।
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अनभीष्ट  : वि० [सं० न-अभीष्ट, न० त०] जो अभीष्ट न हो।
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अनभेदी  : वि० [सं० अभेदिन्] १. जो भेद या रहस्य न जाने। २. पराया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभै  : पुं० , वि०=अनभो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभो  : वि० [हिं० अन+भवा=हुआ] १. अपूर्व। अलौकिक। अद्भुत। विलक्षण। पुं० १. अचंभा। अचरज। २. अद्भुत, अप्राकृतिक या अनहोनी बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभोरी  : स्त्री० [सं० भ्रम] भुलावा। चकमा। क्रि० प्र०—देना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभौ  : वि० पुं० , दे० ‘अनभो’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभ्यसित  : वि० =‘अनभ्यस्त’।
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अनभ्यस्त  : वि० [सं० न-अभ्यस्त, न० त०] १. जिसने अभ्यास न किया हो। अपिरपक्व। २. जिसका अभ्यास न किया गया हो।
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अनभ्यास  : पुं० [सं० न-अभ्यास, न० त०] १. अभ्यास का अभाव। २. आदत का न होना।
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अनभ्यासी (सिन्)  : वि० [सं० न-अभ्यासिन्, न० त०] १. अभ्यास न करने वाला। २. जिसने अभ्यास न किया हो।
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अनभ्र  : वि० [सं० न-अभ्र, न० ब०] (आकाश) जो अभ्र या मेघ से रहित हो। स्वच्छ।
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अनभ्रवृष्टि  : स्त्री० [सं० अनभ्र-वृष्टि,कर्म०स०] १. बिना बादल के अचानक होनेवाली वर्षा। २. ऐसा लाभ या प्राप्ति जिसकी आशा या अनुमान पहले से न हो।
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अनम  : वि० [सं० अनभ्र] १. न झुकनेवाला। अनभ्र। २. उद्वत। पुं० ब्राह्मण (जो दूसरों को नमस्कार न करे)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमद  : वि० [हिं० अन+सं० मद] जिसे मद या घमंड न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमन  : वि० =अनमना। पुं० [न० त०] न झुकना।
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अनमना  : वि० [सं० अन्यमनस्क] [स्त्री० अनमनी] १. जिसका मन ठीक तरह से किसी काम में न लग रहा हो। अन्यमनस्क। २. बीमार। अस्वस्थ।
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अनमनापन  : पुं० [हिं० अनमना+पन(प्रत्यय)] १. अनमने होने की अवस्था या भाव। २. उदासी। खिन्नता। ३. बात-चीत में होने वाला रूखापन।
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अनमाँगा  : वि० [हिं० अन=नहीं+माँगना] बिना माँगा हुआ। अयाचित।
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अनमायपा  : वि० [हिं० अन=नहीं+मापना] जिसे मापा न गया हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमारग  : पुं० [हिं० अन=बुरा+मारग] १. अनुचित या बुरा मार्ग। २. अनुचित या बुरा आचरण या व्यवहार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमारिका  : स्त्री० [सं० अनगार+ठक्-इक, टाप्] १. अनगार (साधु या संन्यासी) होने की अवस्था या भाव।
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अनमिख  : क्रि० वि० [सं० अनिमेष] १. बिना पलक गिराये। एकटक। २. निरंतर। लगातार।
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अनमित्र  : वि० [सं० न-अमित्र, न० ब०] जिसका कोई अमित्र (विरोधी या शत्रु) न हो। पुं० वह अवस्था जिसमें कोई अमित्र (विरोधी या शत्रु) न हो।
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अनमिल  : वि० [हिं० अन=नहीं+मिल=मिलना] १. स्वभावतः जो किसी से मिल न सकता हो। २. बे-मेल। जिसका किसी से जोड़ या मेल न बैठता हो। ३. जिससे मेल-जोल न हो। ४. पराया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमिलत  : वि० [हिं० अनमिल]=अनमिल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमिलता  : वि० [हिं० अन=नहीं+मिलना] १. जो कहीं मिल ही न सकता हो। अप्राप्य। २. जो सहज में न मिलता हो। दुष्प्राप्य। ३. दे० ‘अनमेल’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमीलना  : अ० [सं० उन्मीलन] १. (आँखे) खुलना। २. (कलियों आदि का) खिलना या विकसित होना। ३. प्रफुल्लित या प्रसन्न होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमेल  : वि० [हिं० अन+मेल] १. जिसका किसी से मेल या जोड़ न बैठे। बेजोड़। २. जिसमें मिलावट न हो। विशुद्ध। ३. जिसके मेल या बराबरी का और कोई न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमेली  : स्त्री० [हिं० अन+मेल] १. एक प्रकार की असंगत और निरर्थक कविता जिसे ढकोसला भी कहते है। विशेष दे० ‘ढकोसला’।
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अनमोल  : वि० [हिं० अन+मोल] १. जिसका मूल्य इतना अधिक हो कि उसकी कल्पना न हो सके। २. बहुमूल्य। ३. सुन्दर। ४. उत्तम। क्रि० वि० बिना मोल लिये हुए। बिना दाम दिये। मुफ़्त में।
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अनम्र  : वि० [न० त०] १. जो झुका न हो। २. जो नम्र न हो। अविनीत। ३. उद्दंड। उद्धत।
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अनय  : पुं० [न० त०] १. नय या नीति का अभाव। अनीति। अन्याय। २. अनम्रता। ३. विपत्ति। ४. कुप्रबंध। ५. अनुचित या निंदनीय आचरण।
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अनयन  : वि० [न० ब०] नेत्रहीन। अंधा।
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अनयस  : पुं० दे० ‘अनैस’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनयास  : क्रि० वि० =अनायास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरंग  : वि० [हिं० अन+सं० रंग] दूसरे रंग या प्रकार का। उदाहरण—कारौ अपनौ रंग न छाँडै, अनरँग कबहुँ न होई।—सूर।
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अनरथ  : पुं० =अनर्थ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरना  : स० [सं० अनादर] अनादर या अपमान करना।
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अनरस  : पुं० [हिं० अन+रस] १. रस का अभाव। रसहीनता। शुष्कता। २. रूखाई। ३. मनोमालिन्य। मनमुटाव। ४. निरानंद। दुःख। ५. रसविहीन काव्य। वि० जिसमें कोई रस (आनंद या स्वाद) न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरसना  : अ० [हिं० अन=नहीं+सं० रस] १. उदास होना। २. खिन्न या अप्रसन्न होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरसा  : वि० [हिं० अन+सं० रस] १. बिना रस का। २. अनमना। अन्यमनस्क। ३.माँदा। बीमार। रोगी। पुं० दे०‘अँदरसा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरसों  : क्रि० वि० दे० ‘अतरसों’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनराजकता  : स्त्री० =अराजकता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनराता  : वि० [हिं० अन=नहीं+राता] १. जो रंगा हुआ न हो। २. जो लाल रंग का न हो। ३. जिसमें अनुराग या प्रेम न उत्पन्न हुआ हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनराति  : स्त्री० [हिं० अन+सं० रीति] १. रीति या नियम विरुद्ध आचरण या व्यवहार। अनीति। २. बुरी रीति या प्रथा। कुप्रथा।
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अनरीता  : वि० [हिं० अन+रीता=रिक्त] जो भरा हुआ न हो। खाली रिक्त। उदाहरण—रीते अनरीते करे भरे बिगारत दीठ।—रहीम।
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अनरुच  : वि० [हिं० अन+रूचना] जो रुचता न हो। अच्छा न लगने वाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरुचि  : स्त्री० [हिं० अन+सं० रुचि] १. रुचि या प्रवृत्ति का अभाव। अरुचि। अनिच्छा। २. मन्दाग्नि नामक रोग में वह अवस्था जब भोजन करना अच्छा नहीं लगता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरूप  : वि० [हिं० अन=बुरा+सं० रूप] १. जिसका कोई रूप न हो। अरूप। २. जिसका रूप अच्छा न हो। कुरूप। ३. जो किसी के रूप के अनुरूप या समान न हो। असमान। असदृश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनर्गल  : वि० [सं० न-अर्गल,न० ब०] [भाव०अनर्गलता] १. जिसमें अर्गल या रुकावट न हो। २. जिसमें किसी प्रकार की बाधा न हो। ३. अनियंत्रित। मन-माना। ४. अंड-बंड। ऊटपटांग। बे-सिर पैर का।
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अनर्घ  : वि० [सं० न-अर्घ, न० ब०] १. जिसका अर्घ या मूल्य न हो। २. बहुमूल्य। ३. उचित या नियत दर या भाव से कम या अधिक। जैसे—अनर्घ क्रय या विक्रय।
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अनर्घ्य  : वि० [सं० न-अर्घ्य, न० त०] १. जो अर्घ्य प्राप्त करने तथा पूजेजाने के योग्य न हो। २. जिसका मूल्य न लगाया जा सके। बहुमूल्य। ३. [न० ब०] सबसे अधिक पूजनीय।
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अनर्जित  : वि० [सं० न-अर्जित, न० त०] जो अर्जित न किया गया हो। (अन-अर्न्ड) जैसे—अनर्जित आय या धन।
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अनर्थ  : पुं० [सं० न-अर्थ,न० त०] १. अर्थ का अभाव। २. अनुचित या विपरीत अर्थ। ३. अनुचित काम या अशुभ घटना। ४. विपत्ति। ५. अधर्म से प्राप्त किया हुआ धन। ६. [न० ब०] विष्णु का एक नाम। वि० १. जिसका कोई अर्थ न हो। अर्थ-हीन। २. जिससे कुछ अर्थ या प्रायोजन न निकले। निरर्थक। व्यर्थ का। ३. भिन्न अर्थवाला।
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अनर्थ भाव  : वि० [ब० स०] जिसका भाव दुष्ट हो। बुरे भाव या स्वभाव वाला। पुं० [कर्म० स०] दुष्ट भाव।
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अनर्थ-कर  : वि० [ष० त०] =अनर्थकारी।
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अनर्थ-लुप्त  : वि० [ब० स०] जिसमें अनर्थ या व्यर्थ के तत्त्वों या बातों का अभाव हो।
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अनर्थ-संशय  : पुं० [ब० स०] महान अनर्थ या अनिष्ट होने की आशंका या उससे युक्त कोई कार्य।
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अनर्थक  : वि० [सं० न-अर्थ,न० ब०कप्] १. अनर्थ या खराबी करने वाला। २. अर्थरहित। निरर्थक। व्यर्थ। ३.बेफायदा।
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अनर्थकारी (रिन्)  : [सं० अनर्थ√कृ(करना)+णिनि] १. उलटा या विपरीत अर्थ करनेवाला। २. अनर्थ या परम अनुचित काम करनेवाला। ३.बहुत बड़ी हानि या खराबी करनेवाला। जैसे—अनर्थकारी भूकंप।
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अनर्थनाशी (शिन्)  : पुं० [अनर्थ√नश्(अदर्शन)+णिच्+णिनि] शिव।
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अनर्थानुबंध  : पुं० [सं० अनर्थ-अनुबंध, ष० त०] ऐसी स्थिति जिसमें शत्रु का कुछ नाश होने पर भी उसके द्वारा अनर्थ होने की संभावना हो।
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अनर्थापद  : पुं० [सं० अनर्थ-आपद्,ष०त०] अनर्थ होने की आशंका या सम्भावना।
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अनर्थार्थसंशय  : पुं० [सं० अनर्थ-अर्थसंशय,द्व०स०] ऐसी स्थिति जिसमें एक ओर तो अर्थसिद्धि की संभावना हो और दूसरी ओर अनर्थ की आशंका।
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अनर्थार्थानुबंध  : पुं० [सं० अनर्थ-अर्थानुबंध,द्व०स०] अपने लाभ के लिए उपद्रव खड़ा करने के उद्देश्य के लिए शत्रु या पड़ोसी की धन तथा सैन्य से की जाने वाली सहायता।
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अनर्थ्य  : वि० [सं० अनर्थ+यत्]=अनर्थक।
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अनर्यदर्शी (शिंन्)  : वि० [सं० अनर्थ√दृश्(देखना)+णिनि] [स्त्री० अनर्थदर्शिनी] १. अनर्थ की ओर दृष्टि रखनेवाला। २. अहित करने या सोचनेवाला।
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अनर्ह  : वि० [सं० न-अर्ह,न० त०] [भाव० अनर्हता] १. जो दंड या पुरस्कार का पात्र न हो। २. अपात्र। अयोग्य। ३. अपर्याप्त। अनुपयुक्त।
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अनर्हता  : स्त्री० [सं० अनर्ह+तल्-टाप्]अनर्ह (अनुपयुक्त, अपर्याप्त, अपात्र या अयोग्य) होने का भाव।
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अनर्हीकरण  : पुं० [सं० अनर्ह+च्वि√कृ(करना)+ल्युट्-अन] १. किसी कार्य के संचालन अथवा किसी पद के लिए किसी को अनुपयुक्त या अपात्र ठहराना। २. अपर्याप्त या अयोग्य सिद्धि करना।
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अनल  : पुं० [सं०√अन (जीवन)+कलच्] १. अग्नि। आग। २. जठराग्नि। ३. पवन। हवा। ४. आठ वस्तुओं में से पाँचवाँ वसु। ५. एक पितृ देव। ६. परमेश्वर। ७. जीव। ८. विष्णु। ९. वासुदेव। १. कृत्तिका नक्षत्र। ११. ५॰वाँ संवत्सर। १२. तीन की संख्या। १३. माली नामक राक्षस का पुत्र जो विभीषण का मंत्री था। १४. चीता नामक वृक्ष। १५. भिलावें का पेड़।
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अनल-चूर्ण  : पुं० [ष० त०] बारूद।
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अनल-पक्ष  : पुं० [ब० स०] एक कल्पित चिड़िया जिसके संबंध में कहा जाता है कि यह सदा आकाश में ही उड़ती रहती और वहीं अंडे देती है।
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अनल-पंख  : पुं० दे० ‘अनल-पक्ष’।
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अनल-परवचार  : पुं० [सं० अनलपक्ष-चर] हाथी। (डि०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनल-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] अग्नि की स्त्री, स्वाहा।
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अनल-मुख  : वि० [ब० स०] १. जिसके मुख से अग्नि निकलती हो। २. जो अग्नि के द्वारा सब पदार्थों को ग्रहण करे। पुं० १. देवता। २. ब्राह्नाण। ३. चीता नामक पौधा। ४. भिलावे का पेड़।
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अनलद  : वि० [सं० अनल√दा (देना)+क] १. अग्नि उत्पन्न करने या देने वाला। २. आग बुझानेवाला (पानी)।
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अनलस  : वि० [सं० न-अलस, न० त०] १. आलस्यरहित, फलतः फुर्तीला। २. चैतन्य। 3. [न अलसो यस्मात्, न० ब०] जिससे बढ़कर कोई आलसी न हो।
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अनलसित  : वि० [सं० न-अलस, न० त०] आलस्यरहित। वि० [हिं० अन+लसना] १. जो लसित न हो। २. शोभा न देने वाला। अशोभन।
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अनलहक  : पुं० [अ०] एक अरबी पद जो अहं ब्रह्मास्मि का वाचक है और जिसका अर्थ है-मैं ही ब्रह्म या ईश्वर हूँ।
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अनला  : स्त्री० [सं० अनल+टाप्] १. दक्ष प्रजापित की एक कन्या जिसका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ था। २. माल्यवान नामक राक्षस की एक पुत्री।
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अनलायक  : वि० [हिं० अन=नहीं+अ० लायक] १. जो लायक (योग्य) न हो। अयोग्य। नालायक। २. अनुपयुक्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनलि  : पुं० [सं०√अन् (जीना)+अच् अन-अलि, ब० स० पररूप] बक नामक वृक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनलेख  : वि० [हिं० अन=नहीं+सं० लक्ष्य=देखने योग्य] १. जो दिखाई न दे। अलक्ष्य। अदृश्य। २. अगोचर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनलेखा  : वि० [हिं० अन=नहीं+लेखा] १. जिसका लेखा या हिसाब न हो सके। २. अनगिनत। असंख्य। उदाहरण—साधनपुंच परे अनलेखे, मै हौं अपने मन एकौ न लेख्यौ।—घनानंद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनल्प  : वि० [सं० न-अल्प,न० त०] १. जो अल्प या थोड़ा न हो। अधिक। बहुत। २. यथेष्ट।
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अनवकांक्षा  : स्त्री० [सं० न-अवकाँक्षा, न० त०] १. इच्छा का अभाव। अनिच्छा। २. किसी परिणाम के लिए आतुर न होना। (जैन०)।
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अनवकाश  : पुं० [सं० न-अवकाश,न० त०] अवकाश का अभाव। फुरसत न होना। वि० [न० ब०] जिसे अवकाश या फुरसत न हो।
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अनवकाशिक  : पुं० [सं० न-अवकाश, न० त० अनवकाश+ठन्-इक] वह ऋषि जो एक पैर पर खड़ा होकर तप करे।
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अनवक्षक  : वि० [सं० अव√ईक्ष् (देखना)+ण्युल्-अक, न० त०]=अनवेक्ष।
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अनवगत  : वि० [सं० न-अवगत, न० त०] जो अवगत न हो। न जाना हुआ।
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अनवगाह  : वि० [सं० न-अवगाह, न० ब०] १. जो इतना गहरा हो कि थाह न लगे। अथाह। २. गंभीर। गहन। पुं० [न० त०] अवगाह या स्नान का अभाव।
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अनवगाही (हिन्)  : वि० [सं० अवगाह+इनि, न० त०] १. जो गहराई में न जाता हो। २. विशेष अध्ययन न करनेवाला।
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अनवगाह्म  : वि० [सं० न-अवगीत,न० त०] जिसका या जिसमें अवगाहन न हो सके।
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अनवगीत  : वि० [सं० न-अवगीत, न० त०] जिसका अवगीत (निंदा) न हुआ हो।
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अनवच्छिन्न  : वि० [सं० न-अवच्छिन्न,न० त०] १. जो विच्छिन्न (अर्थात् किसी से अलग या बीच में टूटा) न हो। २. जिसका पृथक् या स्वतंत्र स्वरूप निश्चित न हो। ३. जिसका क्रम बीच में न टूटे। जैसे—अनवच्छिन्न हास। ४. बहुत अधिक।
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अनवट  : पुं० [सं० अन्धपट, मि० मुखपट=मुखौटा] बैलों की आँखों पर बाधा जाने वाला कपड़ा या पट्टी। स्त्री० [?] पैर के अँगूठे में पहनने का एक प्रकार का छल्ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनवद्य  : वि० [सं० न-अवद्य,न० त०] जिसमें कोई दोष न निकाला जा सके। निर्दोष। जैसे—अनवद्य अंगोंवाली सुन्दरी।
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अनवधान  : पुं० [सं० न-अवधान,न० त०] १. अवधान का अभाव। असावधानी। २. लापरवाही। वि० [न० ब०] असावधन। लापरवाह।
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अनवधानता  : स्त्री० [सं० अनवधान+तल्-टाप्] अवधान का अभाव। असावधानता।
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अनवधि  : वि० [सं० न-अवधि, न० ब०] जिसकी अवधि न हो। अवधि-रहित। क्रि० वि० निरंतर। सदैव। हमेशा।
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अनवना  : अ०=अँगवना (धारण करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनवभ्र  : वि० [सं० अव√भ्रंश (अधपतन)+ड,न० त०] १. जिसका नाश न हो। २. अक्षुण्ण।
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अनवम  : वि० [सं० न-अवम,न० त०] जो झुका हुआ या नीचे न हो (फलतः ऊँचा, बड़ा या श्रेष्ठ)।
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अनवय  : पुं० [सं० अन्वय] १. वंश। कुल। २. दे०अन्वय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनवर  : वि० [सं० न-अवर,न० त०] १. जो छोटा न हो। २. जो कम न हो। वि० [अ०] १. चमकीला। २. शोभायमान।
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अनवरत  : क्रि० वि० [सं० अव√रम्+क्त,न० त०] निरंतर। लगातार। सतत।
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अनवरोध  : पुं० [सं० न-अवरोध, न० त०] अवरोध का अभाव।
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अनवलंब  : वि० [सं० न-अवलंब, न० त०] जिसे कोई सहारा न हो। अवलंबहीन।
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अनवलंबन  : पुं० [सं० न-अवलंबन, न० त०] अवलंब या सहारा न लेना या न होना।
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अनवलंबित  : वि० [सं० न-अवलंबित, न० त०] १. जो किसी पर अवलंबित न हो। २. निराधार। बे-सहारा।
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अनवलोभन  : पुं० [सं० अव√लुप्(छेदन)+ल्युट्,पृषो०भत्व, न० त०] गर्भ के तीसरे माह में होने वाला एक संस्कार।
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अनवसान  : वि० [सं० न-अवसान, न० ब०] १. जिसका अंत या अवसान न हुआ हो। २. जिसका अंत या समाप्ति न होती हो।
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अनवसित  : वि० [सं० न-अवसित, न० त०] १. न ठहरने या रुकने वाला। २. लगातार चलता रहने वाला। ३. अस्त न होने वाला।
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अनवसित-संधि  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसी संधि जो किसी जंगल या ऊसर जमीन को आबाद या उपजाऊ बनाने अथवा कोई देश बसाने के लिए की गई हो। औपनिवेशिक संधि।
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अनवसिता  : स्त्री० [सं० अनवसित+टाप्] एक प्रकार का वैदिक छंद।
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अनवस्कर  : वि० [सं० न=अवस्कर, न० ब०] १. मल-रहित। २. स्वच्छ।
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अनवस्थ  : वि० [सं० न-अवस्था, न० ब०] १. अस्थिर। चंचल। २. अव्यवस्थित। ३. डाँवाडोल।
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अनवस्था  : स्त्री० [सं० न-अवस्था, न० त] १. ठीक और यथोचित अवस्था या स्थिति न होना। २. अव्यवस्था। ३. आतुरता। अधीरता। ४. तर्क में ऐसी अवस्था जिसमें एक स्थिति पर न ठहरकर बराबर हर कारण का पूर्व कारण पूछा जाए और ऐसी धारा चलती रहने से कोई निर्णय न हो सके। यह एक प्रकार का दोष माना गया है।
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अनवस्थान  : पुं० [सं० न-अवस्थान, न० त०] १. स्थिरता या निश्चय का अभाव। २. आचरण-भ्रष्टता।
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अनवस्थायी (यिन्)  : वि० [सं० न-अवस्थायिन्, न० त०] १. अस्थायी। २. अस्थिर।
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अनवस्थित  : वि० [सं० न-अवस्थित, न० त०] १. अस्थिर। २. चंचल। ३. अधीर। ४. क्षुब्ध। ५. अशांत। ६. अव्यवस्थित। ७. निराधार।
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अनवस्थिति  : स्त्री० [सं० न-अवस्थिति, न० त०] १. अस्थिरता। २. चंचलता। ३. अधीरता। ४. आधारहीनता। ५. अवलंबशून्यता। ५. योग में, समाधि प्राप्त हो जाने पर भी चित्त का स्थिर न होना।
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अनवहित  : वि० [सं० न-अवहित, न० त०] १. असावधान। बे-खबर। २. ला-परवाह।
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अनवाद  : पुं० [हिं० अन=बुरा+सं० वाद] १. व्यर्थ का वदा-विवाद। फालतू बातचीत। उदाहरण—रंग रहै सो करियै लालन भलो न अति अनवाद।—आनंदघन।२. बुरा वचन। कटु या कठोर बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनवाप्त  : वि० [सं० न-अवाप्त, न० त०] जो प्राप्त न हुआ हो। अप्राप्त।
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अनवाप्ति  : स्त्री० [सं० न-अवाप्ति, न० त०] अप्राप्ति। (दे०)
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अनवाँसना  : स० [सं० नव+हिं० बासन] नये कपड़े, बरतन आदि का पहले-पहल प्रयोग या व्यवहार में लाना।
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अनवाँसा  : पुं० [सं० अण्वंश] १. कटी हुई फसल का पूला। ओंसा। २. पहले-पहल जोती-बोई जानेवाली जमीन की पहली फसल।
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अनवाँसा  : स्त्री० [सं० अण्वंश] बिस्वाँसी का बीसवाँ भाग। (भूमि की एक नाप)।
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अनवेक्ष  : वि० [सं० न-अवेक्षा, न० ब०] १. (विषय आदि) ध्यान न देने योग्य। २. (व्यक्ति) असावधान। लापरवाह। ३. उदासीन।
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अनवेक्षण  : पुं० [सं० अव√ईक्ष्+ल्युट्-अक,न० त०] १. ध्यान न देने का भाव। असावधानता। लापरवाही। २. उदासीनता। ३. निरीक्षण का अभाव।
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अनवेक्षणीय  : वि० [सं० अव√ईक्ष्+अनीयर्, न० त०] (ऐसा सामान्य अपराध) जिसपर ध्यान देना कर्त्तव्य न हो। (नॉनकागनिजेबुल)
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अनवेक्षा  : स्त्री० [सं० अव√ईक्ष्+अड-टाप्,न० त०] [वि० अनवेक्षित, अनवेक्षणीय] ऐसे सामान्य अपराध या अनुचित बात पर ध्यान न देना जिसपर विधि के अनुसार ध्यान दिया जा सकता हो। (नॉनकागनिजेन्स)
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अनंश  : वि० [सं० न०-अंश, न० ब०] १. जिसका कोई अंश या भाग न हो। २. जो पैत्रिक संपत्ति पाने का अधिकारी हो। ३. विष्णु और आकाश का विशेषण।
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अनशन  : पुं० [सं० न-अशन, न० त०] १. भोजन न करना। निराहार रहना। उपवास। २. मोक्ष प्राप्ति के निमित्त मरने से कुछ दिन पूर्व आहार का त्याग।
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अनश्वर  : वि० [न० त०] जो नश्वर न हो।
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अनसत्त  : वि० [हिं० अन+सं० सत्य] १. जो सत्य न हो। २. असत्य बोलने वाला। वि० [हिं० अन+सं० सत्त्व] जिसमें सत्त्व या सार न हों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनसमझ  : वि० [हिं० अन+समझना] १. जो कुछ समझता-बूझता न हो। नासमझ। २. (विषय) जो जाना या समझा हुआ न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनसमझे  : क्रि० वि० [हिं० अनसमझा] बिना समझे हुए।
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अनसहत  : वि० [हिं० अन+सहना] १. जो सहा न जा सके। असह्म। २. जो सह न सके। असहनशील।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनसाना  : अ० [हिं० अनख या अनिष्ट ?] १. अप्रसन्न या रूष्ट होना। २. चिढ़ना। स० १. किसी को अप्रसन्न या नाराज करना। २. चिढ़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनसूय  : वि० [सं० न-असूया, न० ब०] १. दूसरों के दोषों की ओर ध्यान न देने वाला। २. असूया या ईर्ष्या से रहित।
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अनसूयक  : वि० [सं० न-असूयक, न० त०]=अनसूय।
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अनसूया  : स्त्री० [सं० न-असूया, न० त०] १. दूसरों के अवगुणों की ओर ध्यान न देना। २. ईर्ष्या या द्वेष न रखना। ३. अत्रि मुनि की पत्नी। ४. शकुंलता की एक सखी।
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अनसूयु  : वि० [सं० न-असूयु, न० त०]=अनसूय।
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अनस्तमित  : वि० [सं० न-अस्तमित, न० त०] १. जो अस्त न हुआ हो। २. जिसका पतन या ह्वास न हुआ हो।
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अनस्तित्व  : पुं० [सं० न-अस्तित्व, न० त०] अस्तित्व का अभाव। अविद्यामानता।
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अनस्थिक  : वि० [सं० न-अस्थि, न० ब०कप्]=अनस्थ।
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अनस्य  : वि० [सं० न-अस्थि, न० ब० अच्] जिसमें हड्डी न हो।
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अनह (न्)  : पुं० [सं० न-अहत्,न० त०] १. कुदिन। बुरा दिन। २. दिन का अभाव।
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अनहंकार  : वि० [सं० न-अहंकार, न० ब०] अहंकार से रहित। पुं० [न० त०] अहंकार का अभाव।
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अनहंकृत  : वि० [सं० न-अहंकृत, न० त०] जिसे अहंकार न हो।
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अनहंकृति  : स्त्री० [सं० न-अहंकृति, न० त०] अहंकार का अभाव।
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अनहद  : पुं० दे०‘अनाहत’। वि० दे० ‘बे-हद’।
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अनहदनाद  : पुं० दे०‘अनाहत-नाद’।
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अनहित  : वि० [हिं० अन+सं० हित] १. अहितकारी। २. शत्रु। पुं० १. हित का अभाव। २. अशुभ कामना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनहितू  : वि० [हिं० अन+हितू] अनहित चाहनेवाला। अशुभ-चिंतक।
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अनाई-पठाई  : स्त्री० [सं० आनयन+प्रस्थान, प्रा० पट्ठान] १. बुलवाने (या माँगने) और भेजने की क्रिया। २. वधू का ससुराल से बाप के घर आना और फिर ससुराल जाना।
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अनाकनी  : स्त्री० दे० ‘आनाकानी’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनाकर्ण  : वि० [सं० न-आकर्ण, न० ब०] जो कभी सुना न गया हो। अश्रुत। उदाहरण—अनाकर्ण चैतन्य कछू न चितवै साधन तन।—नंददास। पुं० [न० त०] सुनने का अभाव।
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अनाकानी  : स्त्री० =आनाकानी।
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अनाकार  : वि० [सं० न-आकार, न० ब०] १. जिसका आकार, आकृति या रूप न हो। निराकार। २. ईश्वर का एक विशेषण।
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अनाकाल  : पुं० [सं० अकाल] अकाल। दुर्भिक्ष। भुख-मरी। वि० दे० ‘अन-रितु’।
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अनाकाश  : वि० [सं० न-आकाश, न० ब०] जो पारदर्शक न हो। पुं० [न० त०] आकाश का अभाव।
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अनाकुल  : वि० [सं० न-आकुल, न० त०] जो आकुल या व्यग्र न हो, अर्थात् शांत। स्थिर। २. जो संगत न हो। असंगत। ३. एकाग्रचित्त।
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अनाकृत  : वि० [सं० न-आकृत, सहसुपा सं० न-आकृत, न० त०] १. जो पुनः प्राप्त करने के योग्य न हो अथवा पुनः प्राप्त न किया गया हो। २. जो रोका गया न हो। अनिवारित। ३. जिसके विषय में सावधानी न बरती गई हो।
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अनाक्रमण  : पुं० [सं० न-आक्रमण, न० त०] आक्रमण का अभाव। आक्रमण न करना। जैसे—अनाक्रमण की संधि।
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अनाक्रांत  : वि० [सं० न-आक्रांत, न० त०] जो आक्रांत न हुआ हो।
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अनाक्रांता  : स्त्री० [सं० अनाक्रांत+टाप्] १. कंटंकारि या भटकटैया। नामक पौधा।
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अनाखर  : वि० [सं० अनक्षर, प्रा० अनक्खर] १. जो पढ़ा-लिखा न हो। २. असभ्य। ३. बे-डौल। भद्दा।
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अनागत  : वि० [सं० न-आगत, न० त०] १. जो अभी पास या सामने न आया हो। अनुपस्थित। अप्रस्तुत। २. भावी। होनहार। ३. अ-परिचित। अज्ञात। ४.अनादि। ५. अद्भुत। विलक्षण। क्रि० वि० अचानक। सहसा। पुं० १. संगीत शास्त्र के अनुसार एक ताल। २. आगे आनेवाला समय। भविष्यत्काल।
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अनागत-वक्ता (क्त्)  : पुं० [ष० त०] भविष्य की बात कहने वाला। भविष्यद्-वक्ता।
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अनागति  : स्त्री० [सं० न-आगति, न० त०] १. आगमन न होना। न आना। २. न पाना। अप्राप्ति। ३. गति या पहुँच न होना।
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अनागम  : पुं० [सं० न-आगम, न० त०] १. आगमन न होना। न आना। २. न पाना। अप्राप्ति। ३.संपत्ति आदि जिसपर चिरकाल से अधिकार हो किन्तु जिसका कोई लेख्य प्रमाण न हो।
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अनागम्य  : वि० [सं० न-आगम्य, न० त०] =अगम्य।
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अनागर  : पुं० [न० त०] वह जो नागर न हो।
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अनागामी (मिन्)  : पुं० [न-आगामिन्, न० त०] वह जो न आये या न लौटे। वि० जिसका कुछ भी आगम (भविष्य) न हो।
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अनागार  : वि० [सं० न-आगार, न० ब०] जिसका घर-द्वार न हो। पुं० सन्यासी।
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अनाघात  : पुं० [सं० न-आघात, न० त०] १. आघात का अभाव। २. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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अनाघ्रात  : वि० [सं० न-आघ्रात, न० त०] जिसे किसी ने सूँघा न हो।
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अनाचरण  : पुं० [सं० न-आचरण, न० त०] १. किसी कार्य का आचरण न करना। २. जो करने को हो वह न करना। करने का काम छोड़ देना। (ओमिशन) ३. दे०‘अनाचार’।
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अनाचार  : पुं० [सं० न-आचार,न० त०] १. धर्म और नीति के विरुद्ध निंदनीय आचरण। खराब या बुरा चाल-चलन। कदाचार। (इम्माँरैलिटी) २. दुराचार। भ्रष्टाचार। कुरीति। कुचाल। वि० [न० ब०] १. विचित्र। २. अभद्र।
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अनाचारिता  : स्त्री० [सं० अनाचारिन्+तल्-टाप्] १. निंदनीय। आचरण। २. कुरीति।
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अनाचारी (रिन्)  : वि० [सं० अनाचार+इनि ] १. कुत्सित या निंदनीय। आचरणवाला। २. भ्रष्टाचारी।
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अनाज  : पुं० [सं० अन्नाद्य] गेहूँ, चावल, दाल आदि अन्न। धान्य। गल्ला। (ग्रेन) पद—अनाज का दुश्मन=अधिक खानेवाला। पेटू।
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अनाजी  : वि० [हिं० अनाज] जो अनाज से बना हो अथवा जिसमें अनाज का अंश हो। ‘फलाहारी’ का विपर्याय। पुं० अनाज या अन्न से तैयार किया हुआ भोजन।
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अनाज्ञप्त  : वि० [सं० न-आज्ञप्त,न० त०] १. (व्यक्ति) जिसे आज्ञा न मिली हो। २. (कार्य) जिसके लिए आज्ञा न दी गई हो।
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अनाज्ञाकारिता  : स्त्री० [सं० अनाज्ञाकारिन्+तल्-टाप्] १. आज्ञा का पालन न करना। आज्ञाकारी न होना। २. आदेश न मानना या उसका उल्लंघन करना।
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अनाज्ञाकारी (रिन्)  : पुं० [सं० न-आज्ञाकारिन्, न० त०] वह जो आज्ञा या आदेश का पालन न करता हो।
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अनाड़ी  : वि० पुं० [सं० अनार्य, पा० अनरिय, सं० अज्ञानी, प्रा० अण्णाली] १. नासमझ। नादान। २. जो निपुण न हो। अ-कुशल। अ-दक्ष। ३. गँवार।
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अनाढद्य  : वि० [सं० न-आढ्य, न० त०] दरिद्र। निर्धन।
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अनातप  : वि० [न-आतप, न० ब०] १. धूप-रहित। २. छायादार। ३. जो तपता न हो, फलतः शीतल या ठंड़ा। पुं० [न० त०] १. धूप का अभाव। २. छाया। ३. शीतलता।
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अनातुर  : वि० [सं० न-आतुर, न० त०] १. जो आतुर न हो। २. रोग से मुक्त। निरोग।
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अनात्म (न्)  : वि० [सं० न-आत्मन्, न० ब०] १. जिसमें आत्मा न हो। २. आत्मा या अध्यात्म से भिन्न, अर्थात् भौतिक, शारीरिक आदि। ३. जो अपना न हो। ४. अपने आप पर नियंत्रण न रखने वाला। पुं० [न० त०] आत्मा से भिन्न पदार्थ। जैसे—शरीर आदि।
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अनात्म-धर्म  : पुं० [ष० त०] शरीर का धर्म और व्यापार।
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अनात्म-वाद  : पुं० [ष० त०] वह सिद्धान्त जिसमें आत्मा का अस्तित्व नहीं माना जाता।
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अनात्मक  : वि० [सं० न-आत्मन्, न० ब० कप्] १. जिसका संबंध आत्मा से न हो। २. क्षणिक। ३. अयथार्थ। ४. जिसका संबंध अपने से न हो।
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अनात्मक-दुःख  : पुं० [कर्म० स०] अज्ञान से उत्पन्न दुःख। सांसारिक आधि-व्याधि।
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अनात्मज्ञ  : वि० [सं० अनात्मन्√ज्ञा (जानना)+क] १. जिसे आत्मीय या आत्मा का ज्ञान न हो। २. अज्ञानी।
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अनात्मवान् (वत्)  : वि० [सं० आत्मन्+मतुप्, वत्व, न० त०] असंयमी।
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अनात्म्य  : वि० [सं० आत्मन्+यत्, न० त०] १. जिसका संबंध आत्म या आत्मा से न हो। २. जो अपने परिवार के लोगों और मित्रों से स्नेह न रखता हो।
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अनात्यंतिक  : वि० [सं० न-आत्यंतिक, न० त०] जो आत्यंतिक न हो।
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अनाथ  : वि० [ब० स०] [स्त्री० अनाथा, अनाथिनी] १. जिसका कोई नाथ या स्वामी न हो। बिना मालिक का। २. जिसाक कोई पालन-पोषण करने वाला न हो। ३. असहाय। अशरण। ४. दीन। दुःखी।
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अनाथानुसारी (रिन्)  : वि० [सं० अनाथ-अनुसारिन्, ष० त०] अनाथों का सहायक।
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अनाथालय  : पुं० [सं० अनाथ-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ असहाय, दीन-दुखियों, विधवाओं या माता-पिता हीन बच्चों आदि का पालन-पोषण होता है। (आँरफनेज)
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अनाथाश्रम  : पुं० [सं० अनाथ-आश्रम, ष० त०]=अनाथालय।
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अनाद  : पुं० [सं० ?] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में मगण, यगण, गुरु और लघु होता है। इसे वाणी भी कहते हैं।
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अनादर  : पुं० [सं० न-आदर, न० त०] [वि० अनादृत,अनादरणीय] १. आदर न होना। निरादर। अपमान। अप्रतिष्ठा। बेइज्जती। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें कोई दूसरी वस्तु प्राप्त करने की आशा से किसी प्राप्त वस्तु के अनादर का उल्लेख होता है। वि० [न० ब०] जिसका आदर न हुआ हो।
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अनादरण  : पुं० [सं० आ√दृ (आदर)+ल्युट्। अन० त०] [भूत० कृ० अनादृत] १. अनादर या अपमान करने की क्रिया या भाव। २. बंको आदि में किसी देयक या प्राप्यक का इसलिए अस्वीकृत होना और उसका धन न चुकाया जाना कि उस पर हस्ताक्षर करने वाले के खाते में उसका इतना धन जमा नहीं। (डिस्-आँनरिंग)
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अनादरणीय  : वि० [सं० न-आदरणीय, न० त०] १. जो आदर या अधिकारी का पात्र न हो। २. तिरस्कार या अवहेलना के योग्य।
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अनादरित  : वि० [सं० अनादर+इतच्] १. जिसका आदर न किया गया हो। २. जिसका अनादर किया गया हो।
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अनादि  : वि० [सं० न-आदि, न० ब०] १. जिसका आदि या आरंभ न हो। २. जो सदा से बना चला आ रहा हो। ३. परमात्मा का एक विशेषण।
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अनादि-निधन  : वि० [सं० अनादि-निधन, द्व०,०न-आदि निधन, न० ब०] १. जिसका आदि अंत न हो। २. नित्य। ३. परमेश्वर का एक विशेषण।
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अनादि-सिद्धि  : वि० [पं० त०] जो अनादि काल से चला आ रहा हो।
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अनादित्व  : पुं० [सं० अनादि+त्व] १. अनादि होने की अवस्था या भाव। २. नित्यता।
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अनादिष्ट  : वि० [सं० न-आदिष्ट,न० त०] १. जिसे आदेश या आज्ञा न मिली हो। २. जिसके लिए आदेश या आज्ञा न दी गई हो।
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अनादृत  : वि० [सं० न-आदृत, न० त०] १. जिसका आदर या अपमान हुआ हो। २. जिसका आदर या सम्मान न किया गया हो।
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अनादेय  : वि० [सं० न-आदेय, न० त०] (पदार्थ) जो ग्रहण करने या लिये जाने के योग्य न हो। अग्राह्म।
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अनादेश  : पुं० [सं० न-आदेश, न० त०] आदेश या आज्ञा का अभाव।
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अनादेश-कर  : वि० [सं० न-आदेश न० ब०, अनादेश-कर, ष० त०] १. बिना आज्ञा के करने वाला। २. ऐसा काम करने वाला जिसके लिए आज्ञा न मिली हो।
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अनाद्य  : वि० [सं० न-आद्य, न० त०] १. अनादि। २. अभक्ष्य।
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अनाद्यंत  : वि० [सं० आदि-अंत, द्व० स० न-आद्यंत, न० ब०] जिसका न तो आरंभ या आदि हो और न अंत। सदा से चला आने और सदा बना रहनेवाला। पुं० शिव।
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अनाद्यवंत  : वि० [सं० अनादि-अनंत, द्व० स०]=अनाद्यंत।
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अनाधार  : वि० [सं० न-आधार, न० ब०] १. जिसका कोई आधार न हो। जैसे— अनाधार कथन। २. जिसे किसी का सहारा न हो।
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अनाधि  : वि० [सं० न-आधि, न० ब०] आधि (मानसिक चिंताओं आदि) से युक्त या रहित।
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अनाधृष्ट  : वि० [सं० आ√धृष् (दबाना)+क्त,न० त०] १. जिसपर नियंत्रण न हो। २. जो नष्ट या क्षीण न किया गया हो। ३. पूर्ण।
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अनाना  : स० [सं० आनयनम्] हिं० आनना का प्रेरणार्थक रूप। (किसी से कुछ) माँगना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनानास  : पुं०=अनन्नास।
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अनाप-शनाप  : पुं० [सं० अनाप्त=अनु] असंबंद्ध प्रलाप। बेतुकी बकवास। आँय-बाँय। वि० ऊटपटाँग।
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अनापद्  : स्त्री० [सं० न-आपद्, न० त०] आपद् या विपत्ति का अभाव। वि० [न० ब०] जिसमें आपद् या विपत्ति की संभावना न हो।
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अनापा  : वि० [सं० अ=नहीं+हिं० नापना] १. जो नापा न गया हो। २. अपरिमित। ३. असीम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनाप्त  : वि० [सं० न-आप्त, न० त०] १. जो प्राप्त न हुआ हो। अप्राप्त। २. जो सामने उपस्थित या घटित न हुआ हो। ३. अविश्वस्त। ४. असत्य। ५. अ-कुशल। अनाड़ी। ६. अनात्मीय।
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अनाम (न्)  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई नाम न हो। बिना नाम का। २. जो प्रसिद्धि न हुआ हो। अप्रसिद्ध। पुं० मलमास।
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अनामक  : वि० [सं० न० ब० कप्] दे० ‘अनाम’। पुं० १. मलमास। २. बवासीर नामक रोग।
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अनामय  : वि० [सं० न-आमय, न० ब०] १. आमय या रोग से रहित। नीरोग। २. दोष-रहित। निर्दोष। ३.अच्छा। उत्तम। पुं० [न० त०] १. तंदुरस्ती। स्वास्थ्य। २. कुशल-क्षेम। ३. [न० ब०] विष्णु। ४. शिव।
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अनामा  : वि० =अनाम। स्त्री० [सं० अनामन्+डाप्]=अनामिका।
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अनामिका  : स्त्री० [सं० अनामा+कन्-टाप् इत्व] कनिष्टा और मध्यमा के बीच की उँगली।
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अनामिष  : वि० [सं० न० ब०] १. आमिष से रहित। निरामिष। मांस-रहित। २. प्रलोभन-रहित। ३. लाभ-रहित।
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अनामृत  : वि० [सं० अमृत] जिसकी मृत्यु न हो। अमर।
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अनामेल  : पुं० दे० ‘एनामेल’।
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अनायक  : वि० [न० ब०] १. जिसका कोई नायक न हो। २. जो (स्वयं) नायक न हो। ३. अव्यवस्थित।
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अनायत  : वि० [सं० न-आयत, न० त०] १. जो बंधा हुआ और फलतः दृढ़ न हो। २. जो अलग न हो। मिला हुआ। ३. जो लंबा न हो। स्त्री०=इनायंत (कृपा)।
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अनायत्त  : वि० [सं० न-आयत, न० त०] १. जो अधीन या वश में न हो। २. स्वतंत्र। स्वाधीन।
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अनायास  : क्रि० वि० [सं० न-आयाम, न० ब०] १. बिना प्रयास किए। २. अचानक। सहसा।
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अनायुप्य  : वि० [सं० न-आयुष्य, न० ब०] १. जो आयुवर्धक न हो। २. जो दीर्घ जीवन के लिए घातक हो।
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अनायुष  : वि० [सं० न-आयुष, न० ब०] जिसके पास हथियार या अस्त्र न हों। शस्त्र-विहीन।
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अनार  : पुं० [फा०] १. एक प्रसिद्ध पेड़ और उसका फल। दाड़िम। २. उक्त फल के आकार की एक प्रकार की छोटी आतिशबाजी। ३. दो छप्परों को बाँधने वाली रस्सी। पद—अनार दाना। (दे०)
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अनार-दाना  : पुं० [फा०] १. खट्टे अनार का सुखाया हुआ दाना। २. राम दाना। ३.एक प्रकार की मिठाई। ४.एक प्रकार की लाल रंग की छीट जिसे स्त्रियाँ पहनती है।
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अनारत  : वि० [सं० आ√रम् (क्रीड़ा)+क्त, न० त०] जो नित्य या सतत रहे। नित्य। सतत। अव्य० सदा। हमेशा। पुं० अविच्छिन्नता।
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अनारंभ  : वि० [सं० न-आरंभ न० ब०] आरंभ-रहित। पुं० [न० त०] आरंभ का अभाव।
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अनारभ्य  : वि० [सं० न-आरभ्य,न० त०] जो आरंभ किये जाने के योग्य न हो।
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अनारस  : पुं०=अनन्नास।
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अनारी  : वि० [फा०] १. अनार-संबंधी। अनार का। २. अनार के छिलके या दाने की तरह का। लाल। (टार्टन गोल्ड) पुं० १. अनार के छिलके उबालकर बनाया जाने वाला एक प्रकार का लाल रंग। (कार्टन गोल्ड) २. लाल आँखों वाला कबूतर। ३. समोसे की तरह का एक प्रकार का पकवान। वि० =अनाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनारोग्य  : वि० [सं० न-आरोग्य, न० ब०] १. अस्वस्थ। २. स्वास्थ के लिए हानिप्रद। पुं० [न० त०] आरोग्य का अभाव। अस्वस्थता।
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अनार्जव  : वि० [सं० न-आर्जव, न० ब०] १. जो ऋजु या सीधा न हो। २. कुटिल। ३. बेईमान। पुं० [न० त०] १. आर्जव या ऋजुता का अभाव। २. बेईमानी। (डिस्-आनेस्टी) ३. कुटिलता। ४. रोग।
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अनार्तव  : वि० [सं० न-आर्तव,न० त०]=अन-रितु। पुं० स्त्रियों की ऋतुधर्म या रजोधर्म की रुकावट।
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अनार्तवा  : स्त्री० [सं० अनार्तव+टाप्] (स्त्री० ) जो ऋतुमती न हो। अरजस्वला।
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अनार्य  : वि० [सं० न-आर्य, न० त०] १. जो आर्य न हो। २. अश्रेष्ठ और फलतः उपेक्ष्य। पुं० म्लेच्छ शूद्र आदि जो आर्यों से भिन्न हैं।
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अनार्य-कर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० अनार्य-कर्मन्+कन्, प० त०+इनि] अनार्यों के-से कर्म करनेवाला।
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अनार्य-तिक्त  : पुं० [मध्य० स०] चिरायता (पौधा)।
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अनार्यक  : पुं० [सं० न-आर्य, न० ब० अनार्य+कन्] अगर नामक वृक्ष की लकड़ी।
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अनार्यज  : वि० [सं० अनार्य√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. जिसका जन्म अनार्यों से हुआ हो। २. अनार्य देश में उत्पन्न। पुं० अगरु वृक्ष।
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अनार्यता  : स्त्री० [सं० अनार्य+तल्-टाप्] १. अनार्य होने की अवस्था या भाव। २. अशिष्टता। असभ्यता।
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अनार्यत्व  : पुं० [सं० अनार्य+त्व]=अनार्यता।
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अनार्ष  : वि० [सं० न-आर्ष, न० त०] जो आर्ष न हो।
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अनार्षेय  : वि० [सं० न-आर्षेय, न० त०] =अनार्ष।
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अनालंब  : वि० [सं० न-आलंब, न० ब०] जिसका कोई आलंब या सहारा न हो। निराश्रित। पुं० [न० त०] आलंब या सहारे का अभाव।
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अनालंबन  : पुं० [सं० न-आलंबन, न० ब०] =अनालंब।
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अनालंबी  : स्त्री० [सं० अनालंब डीष्] शिव की वीणा। वि० [सं० अनालंबित] जिसका कोई आलंब या सहारा न हो।
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अनालाप  : वि० [सं० न-आलाप, न० ब०] १. मौन। २ ०मितभाषी। पुं० [न० त०] १. मौनावलंबन। २. अधिक न बोलना। ३. किसी से बातचीत न करना। असंभाषण।
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अनालोचित  : वि० [सं० न-अनालोचित,न० त०] १. जिसकी आलोचना, विवेचना, समीक्षा न की गई हो। २. जो देखा न गया हो। अदृष्ट।
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अनावरण  : पुं० [सं० न-आवरण,न० त०] [वि० आनावृत] १. किसी चीज पर पड़ा हुआ आवरण या परदा हटाना। २. कोई ऐसा सार्वजनिक कृत्य या समारोह जिसमें किसी महापुरुष के चित्र, मूर्ति आदि के सामने पड़ा हुआ परदा हटाकर उसे सर्वसाधारण के लिए दर्शनीय किया जाता है। उद्घाटन। (अनवीलिंग)
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अनावरित  : भू० कृ=अनावृत्त।
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अनावर्त्तक  : वि० [सं० न-आवर्तक, न० त०] १. जो आवर्त्तक न हो। २. जो एक ही बार होकर रह जाए। बार-बार न हो। (नानरेकरिंग) जैसे—अनावर्त्तक दान या व्यय।
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अनावर्त्तन  : पुं० [सं० न-आवर्तन, न० त०] १. न लौटना। २. फिर इस संसार में जन्म न लेना।
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अनावर्षण  : पुं० [सं० न-आवर्षण, न० त०] वर्षा का अभाव। अवर्षण। सूखा।
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अनावश्यक  : वि० [सं० न-आवश्यक, न० त०] १. जो आवश्यक न हो। २. जो उपयोग में न आवे। ३. व्यर्थ। फालतू।
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अनावश्यकता  : स्त्री० [सं० अनावश्यक+तल्-टाप्] आवश्यकता का अभाव। जरूरत का न होना।
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अनावासिक  : वि० [सं० आवास+ठन्-इक, न० त०] जो स्थायी निवासी या आवासिक न हो। बल्कि किसी दूसरे देश में आकर अस्थायी रूप से बसा हो। (नॉनरेजिडेण्ट)
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अनाविद्ध  : वि० [सं० न-आविद्ध,न० त०] १. जिसमें वेध या छेद न हुआ हो। अनविधा। २. जिसपर चोट न लगी हो।
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अनाविल  : वि० [सं० न-आविल, न० त०] १. जो गँदला या गंदा न हो। २. स्वच्छ। निर्मल। ३.स्वास्थ्यप्रद (देश या स्थान)
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अनावृतन  : पुं० [सं० आवरण] १. अनावृत्त या नंगा करना। ऊपर का आवरण उतारना या हटाना। २. जल-प्रवाह, वर्षा वायु सूर्य ताप आदि के कारण भूमि के ऊपरी भाग की मिट्टी आदि का निकलकर दूर हटते जाना जिसमें नीचे या चट्टानी या पथरीला अंश ऊपर निकल आता हैं। (डिन्यूडेशन)
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अनावृत्त  : भू० कृ० [सं० न-आवृत्त, न० त०] १. जिसके ऊपर या आगे पड़ा हुआ परदा हटा दिया गया हो। २. (चित्र या मूर्ति) जिसका आवरण संबंधी समारोह हुआ हो। (अनवील्ड) ३. चारों तरफ से घिरा हुआ।
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अनावृत्ति  : स्त्री० [सं० न-आवृत्ति, न० त०]=अनावर्तन।
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अनावृष्टि  : स्त्री० [सं० न-आवृष्टि, न० त०] वृष्टि न होना। अनावर्षण। सूखा।
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अनावेदित  : वि० [सं० न-आवेदित, न० त०] १. जो आवेदित न हुआ हो या न किया गया हो। २. जो मालूम या विदित न कराया गया हो।
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अनाश  : वि० [सं० न-आशा, न० ब०] १. जिसे आशा न हो। २. जिसका नाश न हुआ हो। पुं० [सं० न-नाश, न० त०] नाश का अभाव।
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अनाशक  : वि० [न० त०] जो नाशक न हो। वि० [सं० आ√अश् (खाना)+घञ्, न० ब० कप्] आमरण अनशन करनेवाला।
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अनाशकायन  : पुं० [सं० अनाशक (=आत्मा)-अयन (=प्राप्त्युपाय) ष०त०] उपावस युक्त ब्रह्मचर्य व्रत।
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अनाशस्त  : वि० [सं० आ√शंश् (स्तुति)+क्त, न० त०] जिसकी आशंसा या प्रशंसा न की गई हो।
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अनाशा  : स्त्री० [सं० न-आशा, न० त०] आशा का अभाव। नैराश्य।
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अनाशी शिन्  : वि० [सं०√नश्, (नष्ट होना) +णिनि, न० त०] नाश से रहित। अनश्वर। (आत्मा, ब्रह्म आदि)
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अनाशु  : वि० [सं०√नश्+उण्, न० त०] १. नाशरहित। २. [√अश् (व्याप्ति)+उण् न० त०] जो व्यापक न हो। ३. जो तेज न हो। मंद। सुस्त।
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अनाश्य  : वि० [सं०√नश्ण्यत्, न० त०]=अविनश्वर
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अनाश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० न-आश्रमिन् न० त०] १. जिसका कोई आश्रय न हो। २. गार्हस्थ्य आदि चारों आश्रमों से रहित या अलग। ३. वर्णाश्रम धर्म से भ्रष्ट। पतित।
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अनाश्रय  : वि० [सं० न-आश्रय, न० ब०] आश्रयहीन। बे-साहार। पुं० [न० त०] आश्रय का अभाव।
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अनाश्रित  : वि० [सं० न-आश्रित, न० त०] १. जिसे किसी का आश्रय न हो। आश्रय-रहित। बे-सहारा। २. जो दूसरों पर आश्रित न हो। स्वाधीन। ३. जो अधिकार रहते भी ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों से वंचित हो।
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अनास  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे नाक न हो। बिना नाक वाला। २. नकटा।
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अनासक्त  : वि० [सं० न-आसक्त, न० त०] १. जो आसक्त न हो। २. अलग या दूर रहनेवाला। निर्लिप्त। (डिटैच्ड)
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अनासक्ति  : स्त्री० [सं० न-आसक्ति,न० त०] १. आसक्ति या अनुराग न होना। २. दूर, अलग या उदासीन रहना। अलगाव। (डिटैचमेण्ट)
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अनासती  : स्त्री० [?] कु-समय। कु-अवसर। (डिं)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनासिक  : वि० [सं० न-नासिक, न० ब०] १. बिना नाक का। २. नकटा।
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अनासीन  : वि० [सं० न-आसीन, न० त०] १. जो आसीन या बैठा हुआ न हो। अपने आसन, स्थान आदि से हटा हुआ। २. अपने पद या आधिकारिक स्थान से हटाया हुआ। (अन-सीटेड)
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अनास्था  : स्त्री० [सं० न-आस्था, न० त] १. आस्था या श्रद्धा न होना। २. विश्वास न हो। ३. अनादर। ४. उदासीनता।
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अनास्वाद  : वि० [सं० न-आस्वाद, न० ब०] बिना स्वाद का। विरस। पुं० [न० त०] स्वाद का न होना।
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अनास्वादित  : भू० कृ० [सं० न-आस्वादित, न० त०] जिसका स्वाद न लिया गया हो।
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अनाह  : पुं० [सं०√नह् (बंधन)+घञ्, न० त०] पेट फूलने का रोग। अफरा। वि० =अनाथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनाहक  : क्रि० वि० [फा०ना+अ,हक] व्यर्थ। बेफायदा। उदाहरण— चौरासी लख जीव जोनि मैं भटकत फिरत अनाहक।—सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनाहत  : वि० [सं० न-आहत, न० त०] १. जो आहत न हो। २. जिसपर आघात न हुआ हो। ३. जिसकी उत्पत्ति आघात से न हुई हो। ४. (गणित में) जिसका गुणन न हुआ हो। पुं० १. हाथों के अँगूठों से दोनों कान बंद करने पर सुनाई पड़नेवाला एक प्रकार का शब्द। अनहद नाद। २. हठयोग में शरीर के अंदर ह्रदय के पास का वह चक्र या स्थान जहाँ से उक्त शब्द निकलता है। (हार्ट प्लेक्सस) ३. नया कपड़ा जो अभी पहना न गया हो।
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अनाहतनाद  : पुं० [कर्म० स०] वह ध्वनि या शब्द जो योगियों को अपने अंदर सुनाई पड़ता है। ( दे०‘अनाहत’ २. )
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अनाहतशब्द  : पुं० [कर्म० स०]=अनाहत नाद।
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अनाहदवाणी  : स्त्री० [सं० अनाहत-वाणी] आकाश-वाणी। देव-वाणी।
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अनाहार  : पुं० [सं० न-आहार, न० त०] [वि० अनाहारी] आहार या भोजन का अभाव या त्याग। वि० [न० ब०] जिसने कुछ खाया न हो। निराहार।
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अनाहार-मार्गणा  : स्त्री० [ष० त०] जैनों का एक प्रकार का व्रत।
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अनाहार्य  : वि० [सं० न-आहार्य, न० त०] १. (पदार्थ) जो आहार्य या खाये जाने के योग्य न हो। २. जिसे पकड़ा न जा सके। ३. जिसे उत्पन्न न किया जा सके।
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अनाहिताग्नि  : पु० [सं० न-आहिताग्नि न० त०] वह जिसने विधिपूर्वक अग्न्याधान न किया हो। अग्निहोत्र न करनेवाला।
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अनाहूत  : वि० [सं० न-आहूत, न० त०] १. जो आहूत न हो। जिसे बुलाया न गया हो। अनिमंत्रित। २. (कथन या बात) जो अवसर या प्रयोजन न होने पर भी अनावश्यक रूप से कही गई हो। (अन्-कॉल्ड-फॉर)
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अनि  : अव्य० [अन्य] अन्य। दूसरा। उदाहरण—अनि सूरवीर नरवर सकल, चुड़ी येह धर उप्परी।—चंद्रवरदाई। स्त्री० [सं० अनीक] सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिआई  : वि० =अन्यायी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिक  : वि० =अनेक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिकेत  : वि० [न० ब०] जिसका कोई निकेतन (घर-बार) न हो। बे-घरवाला। पुं० १. संन्यासी। २. वह जो जगह-जगह घूमकर जीवन निर्वाह करता हो। यायावर। खानाबदोश।
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अनिग्रह  : पुं० [न० त०] निग्रह, रोक या बंधन का अभाव। २. दंड,पीड़न आदि का अभाव। वि० [न० ब०] १. बंधन-रहित। बे-रोक। २. असीम। बहुत अधिक। ३. कष्ट, पीड़ा रोग आदि से रहित। ४. जिसे कोई दंड या सजा न मिली हो। ५. जो दंडित होने के योग्य न हो। अदंड्य।
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अनिच्छ  : वि० [सं० न—इच्छा, न० ब०] १. जिसे किसी बात की इच्छा या चाह न हो। इच्छा-रहित। २. जो चाहा न गया हो। ३. जो इच्छा के विरुद्ध हो। क्रि० वि० बिना इच्छा के।
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अनिच्छा  : स्त्री० [सं० न—इच्छा, न० त०] १. इच्छा न होने की दशा या भाव। २. प्रवृत्ति, रुचि आदि का अभाव।
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अनिच्छिक  : वि० [सं० न० ब० कप्] अनिच्छ।
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अनिच्छित  : वि० [सं० इच्छा+इतच्, न० त०] १. (वस्तु) जिसकी इच्छा या चाह न की गई हो। अन-चाहा। २. जो रुचिकर न हो। अच्छा न लगनेवाला।
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अनिच्छु  : वि० [सं० न — इच्छु, न० त०] =अनिच्छ।
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अनिच्छुक  : वि० [सं० न — इच्छुक, न० त०] =अनिच्छ।
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अनिजक  : वि० [सं० निज+कन्, न० त०] १. जो निज का या अपना न हो। २. दूसरे से संबंध रखनेवाला। दूसरे का। पराया।
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अनित  : वि० =अनित्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनित्य  : वि० [न० त०] [भाव० अनित्यता] १. जो नित्य या सद न बना रहे, बल्कि कुछ समय बाद नष्ट हो जाय। अस्थायी। जैसे—संसार और उसकी सब वस्तुएँ अनित्य हैं। २. कभी न कभी नष्ट हो जानेवाला। नश्वर। (मॉर्टल) ३. अनिश्चित। ४. जो स्वयं कार्य-रूप हो और जिसका कोई कारण हो। ५. असत्य। झूठा।
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अनित्यकर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा धार्मिक कृत्य जो नित्य नियमित रूप से नहीं बल्कि कुछ विशिष्ट अवसरों पर किया जाता है।
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अनित्यक्रिया  : स्त्री० [कर्म० स०] =अनित्यकर्म।
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अनित्यता  : स्त्री० [सं० अनित्य+तल् — टाप्] १. अनित्य होने की अवस्था, गुण या भाव। २. नश्वरता।
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अनित्यदत्त  : पुं० [तृ० त०] ऐसा बालक जो किसी को स्थायी रूप से दत्तक बनाने के लिए दिया गया हो।
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अनित्यदत्तक  : पुं० [सं० अनित्यदत्त+कन्] =अनित्यदत्त।
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अनित्यभाव  : पुं० [कर्म० स०] क्षण-भंगुरता। नश्वरता।
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अनित्यसम  : पुं० [तृ० त०] तर्क में ऐसा दूषित और अमान्य उत्तर या कथन जिसमें किसी विशिष्ट धर्म या अपवाद-स्वरूप तथ्य के आधार पर ऐसी बातों का भी अंतर्भाव हो जाय, जिनका अंतर्भाव न हो सकता हो।
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अनिंद  : वि० =अनिंदनीय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिंदनीय  : वि० [न० त०] १. जिसकी निंदा न की जा सकती हो। २. जिसकी निंदा करना उचित न हो। ३. निर्दोष। ४. उत्तम। अच्छा।
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अनिदान  : वि० [न० ब०] १. जिसका निदान न हो सके। २. कारण-रहित। पुं० [न० त०] १. निदान का अभाव। २. कारण का अभाव।
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अनिंदित  : वि० [न० त०] जिसकी निंदा न हुई हो।
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अनिंद्य  : वि० [न० त०] जिसकी निंदा न की जा सकती हो अर्थात् श्रेष्ठ।
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अनिद्र  : वि० [सं० न—निद्रा, न० ब०] १. जिसे नींद न आती हो। २. जागता हुआ। पुं० उन्निद्र नामक रोग, जिसमें नींद बिलकुल नहीं आती।
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अनिद्रा  : स्त्री० [न० त०] १. नींद न आने की अवस्था या भाव। २. नींद न आने का रोग। उन्निद्र।
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अनिद्रित  : वि० [न० त०] जो सोया हुआ न हो। फलतः जागता हुआ।
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अनिप  : पुं० [सं० अनीक, हिं० अनी=सेना=प=पति] सेनापति। सेनाध्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिपात  : पुं० [न० त०] १. निपात का अभाव। न गिरना। २. जीवन का बना रहना।
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अनिभृत संधि  : स्त्री० [सं० अनिभृत, न० त०, अनिभृत-संधि, कर्म० स०] किसी की इच्छित भूमि उसे देकर उससे की जानेवाली संधि या मेल।
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अनिभ्य  : वि० [सं० न—इभ्य, न० त०] धनहीन। दरिद्र।
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अनिमक  : पुं० [सं०√अन्+इमन्—अनिम√कै (प्रकाश)+क] १. कोयला। २. भौंरा। ३. मेढ़क। ४. पद्मकेशर। ५. मधु-मक्खी। 6. महुए का वृक्ष।
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अनिमा  : स्त्री० =अणिमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिमाउ  : पुं० =अन्याय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिमादिक  : स्त्री० [सं० अणिमा+आदि] अणिमा, महिमा आदि आठों सिद्धियाँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिमित्त  : वि० [न० ब०] बिना हेतु का। जिसका कोई निमित्त या हेतु न रहा हो। कारण-रहित। क्रि० वि० बिना किसी कारण, प्रयोजन या हेतु के।
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अनिमित्तक  : वि० [न० ब०, कप्] =अनिमित्त।
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अनिमिष  : क्रि० वि० [न० ब०] १. बिना पलक गिराए। एक-टक। २. निरंतर। लगातार। वि० जिसकी पलकें न गिर रही हों। टक लगाकर देखनेवाला। पुं० [वि० अनिमिषीय] देवता।
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अनिमिष-दृष्टि  : वि० [ब० स०] बिना पलक गिराये देखनेवाला।
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अनिमिष-नयन  : वि० [ब० स०] =अनिमिषदृष्टि।
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अनिमेष  : क्रि० वि० [न० ब०] दे० ‘अनिमिष’। पुं० देवता।
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अनियत  : वि० [न० त०] १. जो नियत या निश्चित न हो। २. अनियमित। ३. अस्थिर। ४. अपरिमित। असीम। ५. असाधारण।
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अनियतात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० अनियत—आत्मन्, न० ब०] १. वह जिसकी बुद्धि या मन स्थिर न हो। २. वह जिसका मन उसके वश में न हो।
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अनियंत्रित  : वि० [न० त०] १. जिसपर किसी का या किसी प्रकार का नियंत्रण न हो। बिना रोक-टोक का। (अनकण्ट्रोल्ड) २. जो कोई प्रतिबंध न माने। मनमानी करनेवाला।
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अनियंत्रित शासन  : पुं० [कर्म० स०] दे० ‘निरंकुश शासन’।
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अनियम  : पुं० [न० त०] [वि० अ-नियमित] नियम का अभाव। अव्यवस्था।
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अनियमित  : वि० [न० त०] [भाव० अ-नियमितता] १. जो नियमित न हो। नियम-रहित। अव्यवस्थित। २. जिसमें नियमों का ठीक तरह से या पूरा-पूरा पालन न हुआ हो। बेकायदा। (इर्रेगुलर)। ३. अ-निश्चित। अस्थिर।
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अनियारा  : वि० [हिं० अनी=नोंक+हिं० आर (प्रत्य०)] [स्त्री० अनियारी] १. नुकीला। २. पैना। तीक्ष्ण। ३. काट करनेवाला कटीला। उदा०—बदन मदन की सोभा चितवन अनियारी—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनियोग  : पुं० [न० त०] १. नियोग का अभाव। २. ऐसा निषेध जो उचित, उपयुक्त या ठीक न हो।
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अनिरा  : पुं० [सं० अ=नहीं+निकट, प्रा० निअर, निअड़] बहका हुआ या इधर-उधर घूमनेवाला पशु।
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अनिरुक्त  : वि० [न० त०] १. जिसका निर्वचन (व्युत्पत्ति आदि से युक्त व्याख्या) न हुआ हो। २. जो स्पष्ट रूप से न कहा गया हो।
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अनिरुद्ध  : वि० [न० त०] १. जो निरुद्ध या रुका हुआ न हो। २. जिसमें कोई रुकावट न हो। ३. स्वेच्छाचारी। पुं० १. श्रीकृष्ण के पौत्र और प्रद्युम्न के पुत्र जिन्हें ऊषा ब्याही थी। २. शिव। ३. गुप्तचर। जासूस। ४. विष्णु।
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अनिर्णय  : पुं० [न० त०] निर्णय का न होना। अनिश्चय।
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अनिर्णीत  : वि० [न० त०] जिसका या जिसके संबंध में कोई निर्णय न हुआ हो।
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अनिर्दश  : वि० [न० ब०] जिसके अशौच के दस दिन अभी न बीते हों। (धर्मशास्त्र)
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अनिर्दिष्ट  : वि० [न० त०] जो निर्दिष्ट या निश्चित न हो।
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अनिर्दिष्ट भोग  : पुं० [कर्म० स०] बिना आज्ञा लिए दूसरे की वस्तु काम में लाना।
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अनिर्देश  : पुं० [न० त०] आदेश या निर्देश का अभाव।
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अनिर्देश्य  : वि० [न० त०] १. जिसका निर्देश न हो सकता हो। २. जिसकी व्याख्या न हो सकती हो।
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अनिर्धारित  : वि० [न० त०] जो निर्धारित या निश्चित न हो।
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अनिर्धार्य  : वि० [न० त०] १. जिसका निर्धारण न हो सके। २. जिसका लक्षण स्थिर न किया जा सके।
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अनिर्बंध  : वि० [न० ब०] १. जिसमें कोई निर्बंध या बंधन न हो। बंधन-रहित। २. जो बंधन से रहित हो, अर्थात् स्वतंत्र।
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अनिर्भर  : वि० [न० त०] १. जो निर्भर न हो। २. थोड़ा। ३. हलका।
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अनिर्वच  : वि० =अनिर्वचनीय।
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अनिर्वचनीय  : वि० [न० त०] [भाव० अनिर्वचनीयता] १. जो वचन या वाणी से कहा न जा सकता हो। अकथ्य। २. जिसका वर्णन या विवेचन न हो सकता हो।
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अनिर्वाच्य  : वि० [न० त०] १. जिसका कथन या निर्वचन न हो सके। जो कहकर न बतलाया जा सके। २. जिसका निर्वाचन या चुनाव न हो सकता हो।
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अनिर्वाप्य  : वि० [न० त०] १. जो बुझाया न जा सके। जैसे—अनिर्वाप्य ज्वाला। २. जिसका निर्वापण या शमन न हो सके। जैसे—अनिर्वाप्य वैमनस्य।
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अनिर्वाह  : पुं० [न० त०] १. निर्वाह का अभाव। गुजर न होना। २. पूरा न होना।
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अनिर्वाह्य  : वि० [न० त०] १. जिसका निर्वाह न हो सकता हो। २. जिसका निर्वहण (यातायात) न हो सके।
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अनिर्वाह्य-पण्य  : पुं० [कर्म० स०] वह माल जिसके आने-जाने पर रोक लगी हो। (कौ०)
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अनिल  : पुं० [सं० √अन् (जीना)+इलच्] १. वायु। पवन। २. पवन के प्रकारों के आधार पर ४९ की संख्या। ३. वात रोग। ४. पक्षाघात। ५. विष्णु। 6० स्वाति नक्षत्र। 7० आठ वसुओं में से एक। ८. सागवान का वृक्ष।
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अनिल-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीम। ३. देवताओं का एक भेद। (जैन)
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अनिल-प्रकृति  : वि० [ब० स०] वायु-स्वभाववाला। वात प्रकृतिक। पुं० शनि ग्रह।
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अनिल-वाह  : वि० [सं० अनिल√वह् (ढोना)+अण् हवा की तरह बहनेवाला। उदा०—इस अनिल-वाह के पार प्रखर।—निराला।
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अनिल-व्याधि  : स्त्री० [ष० स०] वात रोग।
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अनिल-सख  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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अनिल-सारथि  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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अनिलहा (हन्)  : वि० [सं० अनिल√हन् (हिंसा)+क्विप्] वातजन्य विकार दूर करनेवाला।
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अनिलात्मज  : पुं० [सं० अनिल—आत्मज, ष० त०] १. हनुमान। २. भीम।
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अनिलाशन  : वि०=अनिलाशी।
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अनिलाशी (शिन्)  : वि० [सं० अनिल√अश् (भोजन)+णिनि] वायु पीकर जीने या रहनेवाला। पुं० साँप।
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अनिवर्तन  : पुं० [न० त०] निवर्त्तन का अभाव।
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अनिवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० नि√वृत् (बरतना)+णिनि, न० त०] १. न लौटनेवाला। २. पीछे न हटनेवाला। पीठ न दिखलानेवाला। ३. तत्पर। मुस्तैद।
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अनिवार  : वि० [न० ब०] १. जिसे बीच में कोई रोकनेवाला न हो। उदा०—अनिवार कामना नित अबाध अमना बहती।—पंत। २. दे० ‘अनिवार्य’।
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अनिवारित  : वि० [न० त०] १. जिसका निवारण न हुआ हो। २. नियंत्रण-रहित। निरंकुश।
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अनिवार्य  : वि० [न० त०] १. जिसका निवारण न हो सकता हो। अवश्यंभावी। २. जिससे बचा न जा सके। (अनएवायडेंबुल)
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अनिवार्य भर्ती  : स्त्री० [सं० अनिवार्य+हिं० भर्ती] सैनिक सेवाओं के लिए लोगों को अनिवार्य रूप से या अधिकार-पूर्वक भर्ती करने की प्रथा या स्थिति। (कान्स्क्रिप्शन)
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अनिश  : क्रि० वि० [सं० नि√शी (सोना)+डमु,न० त०] निरंतर। लगातार
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अनिश्चय  : पुं० [न० त०] १. निश्चय का अभाव या न होना। २. किसी अज्ञात बात या अनिर्णीत विषय में विचार या सिद्धान्त का निश्चय न होना। (अन्सर्टेण्टी)
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अनिश्चित  : वि० [न० त०] [भाव० अनिश्चितता, अनिश्चय] १. जो निश्चत न हो या हुआ हो। २. जिसके आने या घटित होने का कोई निश्चय या ठीक-ठिकाना न हो।
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अनिषिद्ध  : वि० [न० त०] जो निषिद्ध न हो।
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अनिष्कासिनी  : स्त्री० [न० त०] घर से बाहर न निकलने वाली पर्दानशीन औरत।
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अनिष्ट  : वि० [सं० न-इष्ट, न० त०] १. जो इष्ट या वांछित न हो। जैसे—अनिष्ट प्रसंग या फल। २. जो अशुभ, अहितकर, अमंगलकारी या हानिकारक हो। ३. बहुत ही अनुचित या बुरा। ४. नाश करनेवाला। पुं० १. अमंगल। अहित। २. हानि। ३. विपत्ति। ४. नाश।
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अनिष्ट-प्रदर्शन  : पुं० [ष० त०] दे० ‘असंगति प्रदर्शन’।
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अनिष्ट-प्रसंग  : पुं० [ष० त०] १. अनुचित या अवांछित प्रसंग। २. बुरा विषय। ३. अवछित या बुरा तर्क।
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अनिष्ट-फल  : पुं० [कर्म० स०] बुरा लक्षण। असगुन।
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अनिष्ट-शंका  : स्त्री० [ष० त०] १. अमंगल या दुर्भाग्य की आशंका या भय।
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अनिष्ट-हेतु  : पुं० [कर्म० स०] बुरा लक्षण। असगुन।
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अनिष्टकर  : वि० [ष० त०] अनिष्ट करनेवाला।
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अनिष्टकारी (रिन्)  : वि० [सं० अनिष्ट√कृ (करना)+णिनि] अनिष्टकर।
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अनिष्टाप्ति  : स्त्री० [सं० अनिष्ट-आप्ति, ष० त०] १. अनिष्ट बात या घटित होना। २. अनिष्ट फल या वस्तु का प्राप्त होना।
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अनिष्टाशंसी (सिन्)  : वि० [सं० अनिष्ट-आ√शंस् (कहना)+णिनि] जो अमंगल या अशुभ का सूचक हो अथवा उसकी सूचना दे।
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अनिष्पत्ति  : वि० [न० त०] १. निष्णता या पूर्णता का अभाव। २. पूरा या सिद्ध न होने की दशा या भाव। अपूर्णता।
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अनिष्पन्न  : वि० [न० त०] (कार्य जो निष्पन्न न हुआ हो अथवा न किया गया हो।
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अनिसृष्ट  : वि० [न० त०] १. जिसे आज्ञा या अधिकार न मिला हो। २. जिसका उपयोग बिना आज्ञा लिये किया गया हो।
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अनिसृष्टोपभोक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० अनिसृष्ट-उपभोक्तृ, ष०त०] वह जो स्वामी की आज्ञा लिये बिना धरोहर का उपयोग करे।
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अनिस्तीर्ण  : वि० [न० त०] १. जो पार न किया गया हो। २. जो अलग न किया गया हो। ३. जिससे छुटकारा न मिला हो। ४. जिसका प्रतिवाद या उत्तर न दिया गया हो।
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अनिस्तीर्णाभियोग  : वि० [सं० न-निस्तीर्ण-अभियोग, न० ब०] जो अभियोग या आरोप से बरी या मुक्त न हुआ हो।
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अनी  : स्त्री० [सं० अणि=अग्रभाग, नोंक] १. किसी चीज का अगला नुकीला सिरा। २. आगो निकली हुई नोक। ३. नाव या जहाज का अगला सिरा जो नुकीला होता है। स्त्री० [सं० अनीक=समह] १. समूह। झुंड। २. सेना। स्त्री० [हिं आन=मर्यादा] १. ग्लानि, द्वेष या लज्जा के कारण मन में होनेवाली कसक। मुहावरा—अनी पर कनी चाटना=ग्लानि के कारण कनी चाटकर आत्म-हत्या करना। अव्य० [सं० अपि] स्त्रियों के पारस्परिक संबोधन में प्रयुक्त होने वाला शब्द। अरी। री।
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अनीक  : पुं० [सं०√अन् (जीता)+ईकन्] १. सेना। २. युद्ध। ३. समूह। झुंड। ४. किनारा। तट। ५. पंक्ति। वि० [हिं० अ+नीक=अच्छा] जो अच्छा न हो, फलतः त्याज्य या बुरा।
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अनीकिनी  : स्त्री० [सं० अनीक इनि-ङीष्] १. अक्षौहिणी का दसवाँ भाग या अंश जिसमें २१८७ हाथी, ५६६१ घोड़े और १॰९३५ पैदल होते थे। २. सेना। ३. कमलिनी। ४. समूह। झुंड।
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अनीठ  : [सं० अनिष्ट] खराब। बुरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनीठि  : स्त्री० [सं० अनिष्टि] १. बुराई। २. क्रोध। (क्व०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनीड  : वि० [न० ब०] १. (पक्षी) जिसका घोंसला न हो। २. (व्यक्ति) जिसका घर-बार या रहने का ठिकाना न हो। निराश्रय। ३. बिना शरीर का। अशरीरी।
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अनीत  : स्त्री०=अनीति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनीति  : स्त्री० [न० त०] १. नीति का अभाव। २. अनुचित और नीति विरुद्ध व्यवहार। ३. दुष्टता। पाजीपन। ४. अत्याचार। जुल्म।
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अनीतिमान् (मत्)  : वि० [सं० अनीति+मुतप्] अनीति पूर्ण आचरण करनेवाला।
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अनीदार  : वि० [हिं० अनी+फा० दार] तेज नोकवाला।
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अनीप्सित  : वि० [सं० न-ईप्सित, न० त०] जिसकी ईप्सा या चाह न की गई हो। अन-चाहा।
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अनीश  : वि० [सं० न-ईश, न० ब०] १. ईश्वर-रहित। २. जिसका कोई ईश या स्वामी न हो, फलतः अनाथ या दीन। ३.जो ईश्वर को न मानता हो, फलतः नास्तिक। ४. जो किसी के नियंत्रण या वश में न हो। ५. [न० त०] अशक्त। शक्तिहीन। निर्बल। ६. असमर्थ। पुं० [न० ब०] विष्णु का एक नाम।
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अनीश्वर  : वि० [न० ब०] १. ईश्वर को न माननेवाला। नास्तिक। जैसे—अनीश्वरवाद। २. दे० ‘अनीश’।
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अनीश्वरवाद  : पुं० [ष० त०] [वि० अनीश्वरवादी] वह मत या वाद जिसमें ईश्वर का अस्तित्व न माना गया हो। जैसे—मीमांसा-दर्शन।
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अनीश्वरवादी (दिन्)  : वि० [सं० अनीश्वरव√वद् (बोलना)+णिनि] ईश्वर का अस्तित्व न मानने वाला। नास्तिक।
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अनीष्ट-प्रवृत्तिक  : वि० [ब० स०कप्] अनिष्ट करने की प्रवृत्ति रखनेवाला।
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अनीस  : वि० =अनीश। पुं० [अ०] सहायक और साथी। मित्र। स्नेही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनीसून  : पुं० [यू०] एक प्रकार की सौंफ।
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अनीह  : वि० [सं० न-ईहा, न० ब०] १. जिसे ईहा (इच्छा या चाह) न हो। निस्पृह। २. मोह-माया से रहित। निर्लिप्त। ३. असावधान। ४. किसी बात की चिंता या ध्यान न रखनेवला। ला-परवाह।
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अनीहा  : स्त्री० [सं० न-ईहा, न० त०] १. ईहा (इच्छा या वासना) का अभाव। २. उदासीनता। निरपेक्षता। पु०-उप० [सं०√अन् (जीना)+उ] एक उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है। (क) पीछे। बाद में। जैसे—अनुचर, अनुगत, अनगमन, अनुगायन आदि। (ख) साथ में लगा हुआ या पास। साथ-साथ। जैसे—अनुतट, अनुपथ आदि। (ग) प्रत्येक या हर एक। जैसे—अनुक्षण, अनुदिन आदि। (घ) कई बार या बार-बार। जैसे—अनुयाचन, अनुसीलन आदि। (च) तुल्य सदृश या समान। जैसे—अनुरूप। (छ) ठीक या नियमित। जैसे—अनुक्रम। अव्य-१. स्वीकृतिसूचक अव्यय। हाँ। २. इसके बाद या आगे। अब। ३. पीछे। उदाहरण—देहु उतरू अनु करहु कि नाहीं-तुलसी। पुं० =अणु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनु-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०]=अनुज।
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अनु-ज्येष्ठ  : वि० [सं० अत्या०स०] सबसे बड़े अर्थात् ज्येष्ठ से छोटा या तुरन्त बादवाला।
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अनु-भूमिका  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] किसी बड़े ग्रन्थ के किसी विभाग या प्रकरण से पहले दी जानेवाली छोटी भूमिका।
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अनु-भ्राता (तृ)  : पुं० [सं० अत्या० स०] छोटा भाई।
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अनु-लिपि  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] किसी खुदी या लिखी हुई आकृति या लेख पर से उसकी ज्यों की त्यों उतारी या छापकर तैयार की हुई नकल। (फैक्सिमिली) जैसे—किसी शिलालेख की अनुलिपि।
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अनुक  : वि० [सं० अनु+कन्] १. सहायक। २. आश्रित। ३. कामी कामुक।
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अनुकथन  : पुं० [सं० अनु√कथ् (कहना)+ल्युट्-अन] १. किसी के कथन के बाद या साथ किया जानेवाला कथन। २. क्रम-बद्ध वर्णन या व्याख्या। ३. बात-चीत। वार्तालाप।
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अनुकंपा  : स्त्री० [सं० अनु√कंप्+अञ-टाप्] १. दूसरों का कष्ट या दुःख देखकर उनके प्रति मन में उत्पन्न होने वाली दया। (पिटी) २. सहानुभूति। पुं०=अण्ड।
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अनुकंपित  : भू० कृ० [सं० अनु√कंप्+अञ-टाप्] जिसपर अनुकपा की गई हो।
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अनुकंप्य  : वि० [सं० अनु√कप्+ण्यत्] जिसपर अनुकंपा की जा सकती हो या की जाने को हो।
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अनुकरण  : पुं० [सं० अनु√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. किसी को अगुआ या नेता मानकर उसके पीछे-पीछे चलना। अनुसरण करना। २. किसी को कुछ करते हुए देखकर वैसा ही काम करना। ३. किसी का कोई काम या चीज देखकर उसी की तरह किया जानेवाला काम या बनाई जानेवाली चीज। नकल। (इमिटेशन)
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अनुकरणीय  : वि० [सं० अनु√कृ+अनीयर्] १. जिसका अनुकरण करना उचित हो। २. (आदर्श या चरित्र) जो अनुकरण के योग्य हो।
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अनुकर्त्ता (र्तृ)  : वि० [सं० अनु√कृ+तृच्] १. अनुकरण करनेवाला अनुयायी। २. आदर्श पर चलनेवाला। ३. किसी की आज्ञा के अनुसार चलनेवाला। आज्ञाकारी।
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अनुकर्म (न्)  : पुं० [सं० प्रा० स०]=अनुकरण।
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अनुकर्ष  : पुं० [सं० अनु√कृष् (खींचना)+घञ्] १. खिंचाव। २. आकर्षण। ३. देवता का आवाहन। ४. कर्तव्य के पालन में होनेवाला विलंब। ५. रथ के नीचे का भाग।
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अनुकर्षण  : पुं० [सं० अनु√कृष्+ल्युट्-अन] १. आकर्षण। खिंचाव। २. आवाहन।
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अनुकलन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० अनुकलित] दूसरे की कोई बात लेकर और उसे अपने अनुकूल बनाकर ग्रहण करना। (एडाप्टेशन)
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अनुकल्प  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आवश्यकता, उपयोगिता आदि के विचार से अथवा विवश होने पर दो वस्तुओं या बातों में से कोई एक बात या वस्तु चुनने का अधिकार, अवस्था या भाव। दो वस्तुओं या बातों में से कोई ऐसी वस्तु या बात जो चुनी जाने या गृहीत होने को है। जैसे—गेहूँ और चावल में से कोई एक पसंद कर लेने की स्थिति या स्वतंत्रता। २. वह बात या वस्तु जो किसी दूसरी बात या वस्तु के अभाव में उसके स्थान पर काम दे सके। (आल्टर्नेटिव)।
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अनुकांक्षा  : स्त्री० [सं० अनु√कांक्ष् (चाहना)+अ-टाप्]=आकांक्षा।
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अनुकांक्षित  : भू० कृ० [सं० अनु√कांक्ष्+क्त] जिसकी अनुकांक्षा या आकांक्षा की गई हो। इच्छित।
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अनुकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० अनु√कांक्ष+णिनि] अनुकांक्षा करने या चाहनेवाला। इच्छुक।
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अनुकाम  : वि० [सं० अत्या० स०] १. जो इच्छा के अनुकूल हो। रुचिकर। २. कामना करने या चाहनेवाला। ३. आसक्त। कामी। पुं० [प्रा० स०] सदिच्छा।
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अनुकामी (मिन्)  : वि० [सं० अनु√कम् (चाहना)+णिनि] १. स्वेच्छा से कार्य करने वाला। २. कामी।
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अनुकार  : पुं० [सं० अनु√कृ (करना)+घञ्]=अनुकरण।
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अनुकारक  : वि० [सं० अनु√कृ+ण्वुल्-अक] ज्यों की त्यों किसी की नकल करने वाला। नकलची। (इमीटेटर)
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अनुकारी (रिन्)  : वि० [सं० अनु√कृ+णिनि] १. अनुकरण करनेवाला। २. नकल करनेवाला। ३. आज्ञाकारी। ४. भक्त।
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अनुकार्य  : वि० [सं० अनु√कृ+ण्यत्] जिसका अनुकरण किया जा सकता हो या किया जाने को हो।
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अनुकाल  : वि० [सं० अत्या० स०] जो समय के अनुसार उचित या ठीक हो। सामयिक।
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अनुकीर्तन  : पुं० [सं० अनु√कृत् (जोर से शब्द करना)+ल्युट्-अन] १. कथन। २. वर्णन।
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अनुकूल  : वि० [सं० अत्या०स०] १. (व्यक्ति या परिस्थिति) जो इच्छा, रुचि या समय के अनुरूप या उपयुक्त हो। जैसे—अनुकूल वातावरण। २. किसी प्रकार की कार्य सिद्धि या उद्देश्य में सहायक होनेवाला। ३. उत्साहवर्धक। ४. लाभदायी।पुं० १. साहित्य में वह नायक जो एक ही विवाहित स्त्री से संबंध और प्रेम रखता हो। २. एक काव्यालंकार जिसमें प्रतिकूल बात से अनुकूल बात की सिद्धि का उल्लेख होता है। ३.विष्णु। क्रि० वि० ओर। तरफ।
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अनुकूलता  : स्त्री० [सं० अनुकूल+तल्-टाप्] अनुकूल होने की अवस्था या भाव।
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अनुकूलन  : पुं० [सं० अनुकूल+क्विप्+ल्युट्-अन्] १. किसी को अपने अनुकूल करना या बनाना। २. अपने आपको किसी के अनुकूल करना।
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अनुकूलना  : [सं० अनुकूलन] अनुकूल और फलतः पक्षमें करना। प्रसन्न करना। उदाहरण— फिर झूले नव वृत्तों पर अनुकूलें अलि अनुकूलें। निराला। अ० किसी के अनुकूल होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुकूला  : स्त्री० [सं० अनुकूल+टाप्] १. मौक्तिक माला नामक छंद का दूसरा नाम। २. दंती नामक वृक्ष।
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अनुकृत  : वि० [सं० अनु√कृ+क्त] [भाव० अनुकृति] १. जो किसी के अनुकरण पर बनाया गया हो। २. नकल किया हुआ। ३. नकली।
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अनुकृति  : स्त्री० [सं० अनु√कृ+क्तिन्] १. दूसरे को देखकर उसके अनुकरण पर वैसा ही किया हुआ काम। नकल। २. किसी की कोई चीज देखकर ज्यों की त्यों वैसी ही बनाई हुई चीज। (इमिटेशन) ३. साहित्य में एक अलंकार जिसमें एक ही वस्तु की किसी दूसरे के कारण से किसी अन्य वस्तु के अनुसार होने का वर्णन होता है।
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अनुकृष्ट  : वि० [सं० अनु√कृष् (खींचना)+क्त] १. खिंचा हुआ। आकृष्ट। २. आसक्त।
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अनुक्त  : वि० [सं० न-उक्त, न० त०] [स्त्री० अनुक्ता] जो उक्त अर्थात् कहा हुआ न हो। बिना कहा हुआ।
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अनुक्त-निमित्त  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० अनुक्त-निमित्ता] जिसके निमित्त या कारण का उल्लेख न हुआ हो। जैसे—अनुक्त निमित्ता विभावना।
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अनुक्ति  : स्त्री० [सं० न-उक्ति,न० त०] १. अनुक्त होने या न कहने की क्रिया या भाव। २. अनुचित या बुरी उक्ति का कथन।
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अनुक्रम  : पुं० [सं० अनु√कम् (गति+घञ्] [वि० अनुक्रमिक] १. ठीक और नियमित रूप से चलनेनाला क्रम। सिलसिला। २. लगातार एक के बाद एक होने की क्रिया या भाव। ३. लगातार एक के बाद दूसरे के आने का क्रम। (सीक्वेन्स)
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अनुक्रमण  : पुं० [सं० अनु√कम्+ल्युट्-अन] १. सिलसिला बाँधकर चलना। २. किसी के पीछे चलना। ३. पीछे की ओर चलना।
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अनुक्रमणिका  : स्त्री० [सं० अनुक्रमण-ङीष्+कन्,ह्रस्व,टाप्] १. अनुक्रम। सिलिसिला। २. किसी ग्रन्थ या पुस्तक में आये हुए विषयों अथवा मुख्य शब्दों की वह सूची जो उसके अंत में अक्षर-क्रम से दी जाती है। (इन्डेक्स)
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अनुक्रांत  : भू० कृ० [सं० अनु√कम्+क्त] १. उल्लंघन किया हुआ। २. क्रमपूर्वक किया हुआ। ३. उल्लेख किया हुआ।
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अनुक्रिया  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १.=अनुकृति। २. किसी कार्य या क्रिया के बाद अथवा उसके फलस्वरूप होनेवाली क्रिया। (रिऐक्शन)
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अनुक्रोश  : पुं० [सं० अनु√कुश् (आह्वान, रोदन)+घञ्] कृपा। दया।
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अनुक्षण  : क्रि० वि० [सं० अव्य०स०] १. हर क्षण में। प्रतिक्षण। २. निरंतर। लगातार। सतत।
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अनुख्याता (तृ)  : वि० [सं० अनु√ख्या (कहना)+तृच्] १. पता लगानेवाला। २. भेद या रहस्य जानने या प्रकट करनेवाला।
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अनुख्याति  : स्त्री० [सं० अनु√ख्या+क्तिन्] १. पता लगाने का काम या भाव। २. रहस्य या भेद का उद्घाटन या प्रकाशन।
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अनुख्यान  : पुं० [सं० अनु√ख्या+ल्युट्-अन] १. पता लगाना। २. भेद या रहस्य प्रकट करना।
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अनुग  : वि० =अनुगत।
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अनुगणन  : पुं० [सं० अनु√गण्(गिनना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ अनुगणित] १. मन ही मन अथवा मुँह-जबानी किया या लगाया जानेवाला हिसाब। २. लाक्षणिक रूप में, हानि-लाभ आदि का मन में किया जाने वाला अनुमान। (रेकनिंग)
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अनुगत  : वि० [सं० अनु√गम्(जाना)+क्त] [स्त्री० अनुगता, भाव० अनुगति, अनुगत्य] १. पीछे चलने वाला। अनुगामी। २. किसी सिद्धान्त को मानने वाला। अनुयायी। ३. अनुकूल। पुं० अनुचर। सेवक।
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अनुगंता (तृ)  : पुं० [सं० अनु√गम् (जाना)+तृच्]=अनुगामी।
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अनुगतार्थ  : वि० [सं० अनुगत-अर्थ, ब० स०] प्रायः मिलते-जुलते अनुकूल या संगत अर्थवाला।
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अनुगति  : स्त्री० [सं० अनु√गम् (जाना)+क्तिन्] १. किसी के पीछे-पीछे चलना। अनुगमन। २. अनुकरण। ३.मृत्यु। मौत।
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अनुगम  : पुं० [सं० अनु√गम्+घञ्] तर्क-शास्त्र में कोई बात सिद्ध करने के लिए भिन्न-भिन्न तथ्यों या तत्त्वों के आधार पर स्थिर किया जानेवाला परिणाम। (इन्डक्शन)
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अनुगमन  : पुं० [सं० अनु√गम्+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे चलना। अनुसरण। २. अनुकरण। ३. नकल। ४. मृत पति के शव के साथ विधवा का जल मरना। सहमरण। ५. स्त्री के साथ होने वाला संभोग या सहवास। ६. अर्थ का ठीक ज्ञान या बोध।
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अनुगांग  : वि० [सं० अत्या० स०] गंगा के किनारे का (देश या प्रांत)।
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अनुगामिता  : स्त्री० [सं० अनुगामिन्+तल्-टाप्] १. अनुगामी होने की अवस्था या भाव। २. अनुगमन।
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अनुगामी (मिन्)  : वि० [सं० अनु√गम्+णिनि] [स्त्री० अनुगामिनी, भाव० अनुगामिता] १. अनुगमन करने या किसी के पीछे चलनेवाला। २. किसी का आचरण देखकर उसके पीछे चलनेवाला। ३.अनुयायी। ४.आज्ञाकारी।
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अनुगामुक  : वि० [सं० अनु√गम्+उकञ्]=अनुगामी।
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अनुगायक  : वि० [सं० प्रा० स०] अनुगायन करनेवाला।
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अनुगायन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी अच्छे गानेवाले के साथ-साथ या पीछे-पीछे उसकी तरह गाना। गाने में संगत करना। २. किसी के गीत का गीत के रूप में ही अनुवाद या उल्था करना।
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अनुगीत  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का छंद।
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अनुगीति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०,] एक प्रकार का मात्रिक छंद।
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अनुगुण  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी अच्छी वस्तु के सामीप्य से किसी दूसरी वस्तु के गुण और भी बढ़ जाने का उल्लेख होता है। जैसे—चन्द्रमुखी नायिका के गले में पड़कर सोने का हार और भी अधिक चमकने लगा। वि० १. समान गुणवाला। २. सटीक। ३. अनुकूल। ४. अनुगत।
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अनुगुप्त  : भू० कृ० [सं० अनु√गुप् (रक्षा)+क्त] १. गुप्त किया या छिपाया हुआ। २. आश्रय या रक्षा में रखा हुआ।
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अनुगूँज  : स्त्री०=गूँज (प्रतिध्वनि)
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अनुगृहीत  : वि० [सं० अनु√ग्रह् (ग्रहण)+क्त] [स्त्री० अनुगृहीता] १. जिसपर अनुग्रह हुआ हो। २. किसी के द्वारा जिसका कुछ उपकार हुआ हो। उपकृत। (ओबलाइज्ड) ३.उपकार मानने वाला।
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अनुग्रह  : पुं० [सं० अनु√ग्रह+अप्] [कर्ताअनुग्राहक, वि० अनुगृहीत,अनुग्रह्म] १. छोंटो पर प्रसन्न होकर उनका किया जानेवाला उपकार, भलाई या हिमायत। २. दया अथवा पक्षपातपूर्वक किसी को उन्नत, प्रसन्न सा सुखी करने की प्रवृत्ति या भावना। (फेवर)
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अनुग्रही (हिन्)  : वि० [सं० अनुग्रह+इनि] १. कार्य करने में कुशल। २. ऐंद्रजालिक।
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अनुग्रहीत  : वि०=अनुगृहीत।
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अनुग्राहक  : वि० [सं० अनु√ग्रह्+ण्यल्-अक] [स्त्री० अनुग्राहिका] १. अनुग्रह करनेवाला। कृपालु। २. समय पर दूसरों के काम आनेवाला या उनकी सहायता करनेवाला। (ओब्लाइजिंग)
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अनुग्राही (हिन्)  : वि० [अनु√ग्रह्+णिनि]=अनुग्राहक।
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अनुग्राह्म  : वि० [सं० अनु√ग्रह्+ण्यत्] १. जो अनुग्रह का पात्र हो। २. जिसपर अनुग्रह होने को हो।
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अनुघटन  : पुं० [सं० अनु√घट्(चेष्टाआदि)+ल्युट्-अन] १. संबंध स्थापित करना। २. परस्पर मिलाना।
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अनुघात  : पुं० [सं० प्रा० स०] नाश।
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अनुच  : वि० =अनुच्च।
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अनुचर  : वि० [सं० अनु√चर् (गति आदि)+ट] [स्त्री० अनुचरी, भाव० अनुचरण] १. किसी के पीछे चलनेवाला। २. सेवा करने वाला। पुं० सहचर। साथी।
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अनुचार  : पुं० [सं० अनु√चर्+घञ्] १. किसी के अधीन रहकर उसके पीछे-पीछे चलना। २. किसी आदरणीय, पूज्य या सेव्य का अनुचर बनकर और उसके प्रति निष्ठा रखते हुए किया जानेवाला अनुकूल आचरण या व्यवहार। (एलीजिएन्स)।
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अनुचारक  : वि० [सं० अनु√चर्+ण्युल्-अक]=अनुचर।
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अनुचारी (रिन्)  : पुं० [सं० अनु√चर्+णिनि] १. वह जो किसी का अनुचर हो। २. सेवक। दास।
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अनुचित  : वि० [सं० न-उचित, न० त०] [भाव० अनौचित्य] १. जो उचित न हो। ना-मुनसिब। २. बुरा। खराब। ३. जो ठीक या वाजिब न हो। औचित्य की सीमा के बाहर। गैर-वाजिब। (अन्ड्यू)
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अनुचिंतन  : पुं० [सं० अनु√चिन्त्(स्मरण)+ल्युट्-अन] १. सोच-विचार। २. बीती या भूली हुई बात फिर से स्मरण करना। ३. चिंता।
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अनुचिंता  : स्त्री० [सं० अनु√चिन्त्+अ-टाप्]=अनुचिंतन।
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अनुच्च  : वि० [सं० न-उच्च, न० त०] जो उच्च या ऊँचा न हो। फलतः नीचा। उच्च का विपर्याय।
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अनुच्चरित  : वि० [सं० न-उच्चारित, न० त०] १. जिसका उच्चारण न हुआ हो। २. (व्यंजन या स्वर) जिसका उच्चारण बोलने में न होता हो। (साइलेण्ट) ३. न बोलने या उत्तर न देनेवाला।
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अनुच्छिति  : स्त्री० [सं० न-उच्छित्ति, न० त०]=अनुच्छेद।
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अनुच्छिष्ट  : वि० [सं० न-उच्छिष्ट,न० त०] १. जो उच्छिष्ट या जूठा न हो। २. जो अभी तक और किसी के उपयोग, प्रयोग या व्यवहार में न आया हो, फलतः बिलकुल नया।
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अनुच्छेद  : पुं० [सं० न-उच्छेद, न० त०] १. कट जानेपर भी अलग या नष्ट न होना। २. किसी साहित्यिक रचना, पुस्तक आदि के किसी प्रकरण के अन्तर्गत वह विशिष्ट विभाग जिसमें किसी एक विषय या उसके किसी अंग की मीमांसा या विवेचना होती है। (पैराग्राफ)
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अनुछन  : अव्य=अनुक्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुज  : वि० [सं० अनु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] [स्त्री० अनुजा] पीछे या बाद में उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. छोटा भाई। २. स्थल-कमल।
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अनुजा  : स्त्री० [सं० अनुज-टाप्] छोटी बहन।
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अनुजात  : वि० [सं० अनु√जन्+क्त]=अनुज।
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अनुजीवी (दिन्)  : वि० [सं० अनु√जीव् (जीना)+णिनि] [स्त्री० अनुजीविनी] १. दूसरे के सहारे जीनेवाला। २. आश्रित। ३. अनुयायी। पुं० नौकर। सेवक।
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अनुज्ञप्त  : भू० कृ० [सं० अनु√ज्ञप्(बताना)+क्त] १. (कार्य) जिसके लिए अनुज्ञा या स्वीकृति मिल चुकी हो। २. (व्यक्ति) जिसे अनुज्ञा मिल चुकी हो। (एलाउड)
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अनुज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० अनु√ज्ञप्+क्तिन्] [भू० कृ० अनुज्ञप्त] १. कोई काम करने की स्वीकृति या आज्ञा देने की क्रिया या भाव। अनुज्ञापन। (सैंक्शन) २. वह पत्र जिसमें कोई अनुज्ञा लिखी हो।
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अनुज्ञा  : स्त्री० [सं० अनु√ज्ञा (जानना)+अङ्-टाप्] [वि० अनुज्ञप्त, अनुज्ञात] १. आज्ञा। हुकुम। २. वह अनुमति या स्वीकृति जो किसी बड़े अधिकारी द्वारा किसी को कोई इष्ट कार्य करने के लिए दी जाती है। इजाजत। (सैक्शन, परमिशन) ३. बिना आपत्ति किये किसी को कोई काम करने देना। (एलाऊ) ४. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी बुरी चीज या बात में कोई गुण या विशेषता देखकर उसे पाने का उल्लेख होता है। जैसे—रावण चाहता था कि मैं राम के हाथों मरकर मोक्ष प्राप्त करूँ।
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अनुज्ञा-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी को किसी अधिकारी से कोई इष्ट कार्य करने अथवा कुछ लेने की अनुज्ञा मिली हो। (परमिट)
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अनुज्ञात  : भू० कृ [सं० अनु√ज्ञा+क्त] १. (कार्य) जिसके संबंध में अनुज्ञा मिल चुकी हो। २. (व्यक्ति) जिसे अनुज्ञा मिली हो।
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अनुज्ञान  : पुं० [सं० अनु√ज्ञा+ल्युट्-अन]=अनुज्ञा।
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अनुज्ञापक  : वि० [सं० अनु√ज्ञा+णिच्,पुक्+ण्युल्-अक] १. अनुज्ञापन करने या अनुज्ञा देने वाला। २. जिसके लिए अनुज्ञा मुल चुकी हो। अनुज्ञा के अनुसार होनेवाला। (पर्मिसिव) जैसे—अनुज्ञापक कानून।
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अनुज्ञापन  : भू० कृ० [अनु√ज्ञा+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] [भू०कृअनुज्ञापित, अनुज्ञप्त] १. अनुज्ञा देने की क्रिया या भाव। अनुज्ञा देना। २. बतलाना। ३. क्षमा करना।
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अनुज्ञापित  : भू० कृ० [अनु√ज्ञा+णिच्+क्त]=अनुज्ञप्त।
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अनुज्ञेय  : वि० [सं० अनु√ज्ञा+यत्] जिसके संबंध में अनुज्ञा दी जा सकती हो अर्थात् जिसके होने से कोई विशेष हानि न हो। (परमिसिव।
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अनुतप्त  : वि० [सं० अनु√तप् (तपना)+क्त] १. जिसे अनुताप या पश्चाताप हुआ हो। २. जिसे बहुत ताप या कष्ट पहुँचा हो। बहुत दुःखी।
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अनुतर  : वि० =अनुत्तर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुताप  : पुं० [सं० अनु√तप्+घञ्] [वि० अनुतप्त] १. दाह। जलन। २. मानसिक दुःख। ३. पछतावा। पश्चात्ताप।
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अनुतापन  : वि० [सं० अनु√तप्+णिच्+ल्युट्-अन] १. अनुताप या खेद उत्पन्न करनेवाला। २. ताप या जलन पैदा करने वाला। पुं० अनुताप या पश्चात्ताप करने की क्रिया या भाव।
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अनुतोष  : पुं० [सं० अनु√तुष्(प्रीति)+घञ्] [भू० कृ० अनुतुष्ट] १. किसी काम से होनेवाला संतोष। २. वह पुरस्कार या धन जो किसी को तुष्ट या प्रसन्न करने केलिए दिया जाए। आनुतोषिक। (ग्रेटिफिकेशन)
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अनुतोषण  : पुं० [सं० अनु√तुष् (प्रीति)+घञ्] [भू० कृ० अनुतोषित] १. किसी काम से सनुष्ट होने की क्रिया या भाव। २. किसी को कुछ देकर अपने अनुकूल करना। (ग्रेटिफिकेशन)
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अनुत्तम  : वि० [सं० न-उत्तम, न० त०] १. जो उत्तम न हो। २. [न० ब०] सबसे अच्छा। पुं० १. विष्णु। २. शिव।
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अनुत्तर  : वि० [सं० न-उत्तर, न० ब०] १. जो उत्तर न दो। निरूतर। २. सर्वोत्तम। ३. स्थिर। ४. तुच्छ। ५. दक्षिणी। पुं० [सं० अनुत्तरित] १. उत्तर या जवाब न मिलना। २. जैनों के एक प्रकार के देवता।
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अनुत्तर दायी (यिन्)  : पुं० [सं० न-उत्तरदायिन्, न० त०] १. वह जो अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह न करे अथवा ध्यान न रखें। गैर-जिम्मेदार। (इर्रेस्पाँन्सिबुल) २. वह जो किसी काम के लिए उत्तरदायी न हो।
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अनुत्तरित  : वि० [सं० न-उत्तरित, न० त०] (पत्र आदि) जिसका उत्तर या जवाब न दिया गया हो।
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अनुत्तान  : वि० [सं० न-उत्तान, न० त०] जो उत्तान या ऊपर की ओर मुँह किये हुए न हो। पट। चित्त का उल्टा।
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अनुत्ताप  : पुं० [सं० न-उत्ताप, न० त०] मन में होनेवाला ताप या क्लेश, जो दस क्लेशों में से एक माना गया है। (बौद्ध)
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अनुत्तीर्ण  : वि० [सं० न-उत्तीर्ण, न० त] जो उत्तीर्ण या पारित न हुआ हो।
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अनुत्थान  : पुं० [सं० न-उत्थान, न० त०] उत्थान का न होना। उत्थान का अभाव।
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अनुत्पत्ति  : स्त्री० [सं० न-उत्पत्ति,न० त०] १. उत्पत्ति का अभाव। २. विफलता।
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अनुत्पत्तिक  : वि० [सं० न-उत्पत्ति, न० त० कप्] जो अभी तक उत्पन्न न हुआ हो।
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अनुत्पन्न  : वि० [सं० न-उत्पन्न, न० त०] १. जो पैदा न हुआ हो। २. जो पूरा न हुआ हो।
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अनुत्पाद  : पुं० [सं० न-उत्पाद, न० त०] उत्पत्ति या उत्पादन का अभाव।
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अनुत्पादक  : वि० [सं० न-उत्पादक, न० त०] जो उत्पादक न हो। उत्पन्न न करनेवाला।
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अनुत्पादन  : पुं० [सं० न-उत्पादन,न० त०] १. उत्पन्न न करना या न होना। २. वस्तुओं आदि का उत्पादन न करना।
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अनुत्साह  : पुं० [सं० न-उत्साह, न० त०] [वि० अनुत्साही] १. उत्साह या उमंग का न होना। २. संकल्प का अभाव। वि० [न० ब०] जिसमें उत्साह न हो। उत्साह-रहित।
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अनुत्सुक  : वि० [सं० न-उत्सुक, न० त०] १. जो उत्सुक न हो। २. कामना-रहित।
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अनुत्सेक  : पुं० [सं० न-उत्सेक, न० त०] दर्प या घमंड न होना।
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अनुदक  : वि० [सं० न-उदक,न० ब०] १. (स्थान) जहाँ जल न हो। २. सहाँ थोड़ा जल हो। क्रि० वि० बिना जल के।
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अनुदग्र  : वि० [सं० न-उद्-अग्र, न० ब०] १. जो उदग्र या ऊँचा न हो। २. कोमल। ३. दुर्बल। ४. तेज या क्रान्ति से रहित।
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अनुदत्त  : भू० कृ० [सं० अनु√दा (देना)+क्त] १. धन या वस्तु जो अनुदान के रूप में दी गई हो। २. लौटाया हुआ।
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अनुदर  : वि० [सं० न-उदर, न० ब०] १. पतली या छोटी कमर वाला। २. दुबला-पतला।
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अनुदर्शन  : पुं० [सं० अनु√दृश् (देखना)+ल्युट्-अन] निरीक्षण।
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अनुदात्त  : वि० [सं० न-उदात्त, न० त०] १. जो उदात्त या उच्च न हो अर्थात् छोटा। २. नीचा या उतरा हुआ (स्वर)। ३. उच्चारण के विचार से लघु। पुं० उच्चारण के विचार से तीन प्रकार के स्वरों में से वह जो उदात्त या ऊँचा नहीं, बल्कि जो नीचा होता है।
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अनुदान  : पुं० [सं० अनु√दा+ल्युट्-अन] [वि० आनुदानिक, भू०कृ०अनुदत्त] वह आर्थिक सहायता जो राज्य, शासन, आधिकारिक संस्था आदि की ओर से किसी विशेष कार्य के लिए किसी व्यक्ति या संस्था को दी जाती है। (ग्रान्ट)
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अनुदार  : वि० [सं० न-उदार, न० त०] १. जो उदार न हो। २. कृपण। कंजूस। पुं० [सं० अनु-दारा, ब० स०] वह जिसकी पत्नी आज्ञाकारिणी हो।
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अनुदित  : वि० [सं० न-उदित, न० त०] १. न कहा हुआ। २. न कहने योग्य। ३. जिसका उदय न हुआ हो।
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अनुदिन  : क्रि० वि० [सं० अव्य० स०] प्रतिदिन। हर रोज।
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अनुदिवस  : क्रि० वि० [अव्य० स०]=अनुदिन।
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अनुदिष्ट  : भू० कृ० [सं० अनु√दिश् (बताना)+क्त] १. जिसे या जिसकी ओर अनुदेश किया गया हो। २. जिसे यह बतलाया गया हो कि अमुक कार्य इस प्रकार होना चाहिए।
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अनुदृष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी वस्तु का ऐसा दृश्य या रूप जिसमें दूर से देखने पर उसके सब अंग अपने ठीक अनुपात में और एक दूसरे से उचित दूरी पर दिखाई दें। (पार्स्पेक्टिव)
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अनुदेश  : पुं० [सं० अनु√दिश् (बताना)+घञ्] १. किसी दिशा, बात या व्यक्ति की ओर संकेत करना। २. बड़ो का छोटों को यह बतलाना या समझाना कि अमुक काम या बात किस ढंग या प्रकार से की जानी चाहिए। (इन्स्ट्रक्शन)
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अनुदेशन  : पुं० [सं० अनु√दिश्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुदिष्ट] अनुदेश करने की क्रिया या भाव। (इन्स्ट्रक्शन)
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अनुद्भट  : वि० [सं० न-उद्भट, न० त०] जो उद्भट न हो, फलतः सौम्य।
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अनुद्भूत  : पुं० [सं० न-उद्भूत, न० त०] १. जो अभी उद्भूत न हुआ हो। २. जो अन्दर दबा हुआ तो हो, पर अभी सामने आकर सक्रिय न हुआ हो। सुप्त। (डाँर्मेन्ट)
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अनुद्यत  : पुं० [सं० न-उद्यम, न० त०] जो किसी काम या बात के लिए उद्यम या तत्पर न हो।
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अनुद्यम  : पुं० [सं० न-उद्यम, न० त०] उद्यम या उद्योग का अभाव। वि० [न० ब०] उद्योग या प्रयास न करनेवाला।
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अनुद्यमी (मिन्)  : वि० [सं० न-उद्यमिन्, न० त०] १. जो कोई उद्यम या काम न करता हो। अकर्म्मण्य। २. आलसी। सुस्त।
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अनुद्योग  : पुं० [न-उद्योग, न० त०] उद्योग या प्रयत्न का अभाव। वि० दे० ‘अनुद्यम’।
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अनुद्योगी (गिन्)  : वि० [सं० न-उद्योगिन्, न० त०] उद्योग या प्रयत्न न करनेवाला।
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अनुद्रुत  : पुं० [सं० अनु√द्रु (गति)+क्त] संगीत में लय का एक भेद जिसमें द्रुत से कुछ अधिक समय लगता है।
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अनुद्वत  : वि० [सं० न-उद्वण, न० त०] जो उद्वत या उच्छृंखल न हो। फलतः विनीत।
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अनुद्वरण  : पुं० [सं० न-उद्वरण, न० त०] १. न हटाना। २. प्रमाणित या सिद्ध न करना। ३. उद्वरण के रूप में न लेना।
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अनुद्वर्ष  : पुं० [सं० न-उद्धर्ष, न० त०] उद्वेग का अभाव।
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अनुद्वार  : पुं० [सं० न-उद्धार, न० त०] १. उद्धार न होना। २. विभाजन या विभाग न करना। ३. अंश, भाग या हिस्सा न लेना।
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अनुद्वाह  : पुं० [सं० न-उद्वाह, न० त०] उद्वाह या विवाह का न होना।
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अनुद्विग्न  : वि० [सं० न-उद्विग्न, न० त०] १. जो उद्विग्न न हुआ हो अर्थात् शान्त। २. निर्भय। निःशंक।
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अनुद्वृत  : भू० कृ० [सं० न-उद्वृत, न० त०] १. जो उद्धृत न किया गया हो। २. जो क्षत-विक्षत न किया गया हो। ३. जो प्रमाणित या सिद्ध न किया गया हो।
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अनुद्वेग  : पुं० [सं० न-उद्वेग, न० त०] उद्वेग का अभाव।
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अनुधर्मक  : वि० [सं० ब० स०कप्] जो आकृति, धर्म, स्वरूप आदि के विचार से किसी के सदृश या समान हो। (एनैलोगस)
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अनुधर्मता  : स्त्री० [सं० अनु-धर्म, ब० स०+तल्-टाप्] आकृति, धर्म, रूप आदि के विचार से किसी के समान होने की अवस्था या भाव।
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अनुधर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० अनु-धर्म, प्रा० स०+इनि]=अनुधर्मक।
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अनुधावन  : पुं० [सं० अनु√धाव्(गति)+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे चलना या दौड़ना। अनुसरण। २. अनुकरण। नकल। ३. किसी बात या विषय का अनुसंधान। खोज। ४. सोच-विचार या चिंतन करना।
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अनुध्यान  : पुं० [सं० अनु√ध्यै(चिंता)+ल्युट्-अन] बार-बार ध्यान स्मरण या चिंतन करना।
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अनुनय  : पुं० [सं० अनु√नी (ले जाना)+अच्] १. विनय। विनती। २. रूठें हुए को मनाना। ३. दे० अनुशासन।
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अनुनयी (यिन्)  : वि० [सं० अनुनय+इनि] १. अनुनय करनेवाला। २. विनयशील। नम्र।
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अनुनाद  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. नाद, विज्ञान में वह गंभीर और स्थूल नाद जो एक ही प्रकार के दो सूक्ष्म नादों के योग्य से उत्पन्न होता है। (रेजोनेन्स) जैसे—जब आदमी बातें करता है तब उसके कलेजे की धड़कन में उसका अनुनाद सुनाई पड़ता है। २. गूँज। प्रतिध्वनि। (ईको)
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अनुनादपेटी  : स्त्री० [सं० अनुनाद+हिं० पेटी] ग्रामोफोन बाजे में डिबिया के आकार का वह अंग जिसकी सहायता से रिकार्डों में आवाज भरी जाती है और तब फिर से सुनाई देती है। (साउण्ड बाँक्स)
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अनुनादित  : भू० कृ० [सं० अनु√नद् (शब्द करना)+णिच्+क्त] जिसका अनुनाद या गूँज हुई हो। प्रतिध्वनित।
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अनुनायक  : भू० कृ० [सं० अनु√नी (ले जाना)+ण्युल्-अक]=अनुनयी।
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अनुनायिका  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] नायिका के साथ रहनेवाली स्त्री० (सखी या दासी)।
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अनुनासिक  : वि० [सं० अत्या० स०] (व्यंजन) जिसके उच्चारण में नाक से भी कुछ ध्वनि निकलें। जैसे—ङ ञ, ण, न, म और अनुस्वार।
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अनुनीत  : वि० [सं० अनु√नी+क्त] १. जिसके विषय में अनुनय किया जाए। प्रार्थित। २. समादृत। ३. प्रसन्न। ४. प्राप्त। ५. अनुशासन में लाया हुआ।
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अनुनीति  : स्त्री० [सं० अनु√नी+क्तिन्]=अनुनय।
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अनुन्नत  : वि० [सं० न-उन्नत, न० त०] १. जो उन्नत या ऊँचा न हो। २. जिसकी उन्नति न हुई हो।
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अनुन्माद  : पुं० [सं० न-उन्माद, न० त०] उन्माद का अभाव।
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अनुपकार  : पुं० [सं० न-उपकार, न० त०] १. उपकार का अभाव। २. अपकार।
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अनुपकारी (रिन्)  : वि० [सं० अनुपकार+इनि] १. अनुपकार करनेवाला। २. उपकार न मानने वाला। ३. व्यर्थ का। निकम्मा।
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अनुपगत  : वि० [सं० न-उपगत, न० त०] १. जो प्राप्त न हुआ हो या पास न आया हो। अप्राप्त। २. जिसका अनुभव न हुआ हो।
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अनुपगीत  : वि० [सं० न-उपगीत, न० त०] जिसका गुणगान या प्रशंसा न हुई हो।
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अनुपतन  : पुं० [सं० अनु√पत् (गिरना)+ल्युट्-अन] १. किसी पर या किसी के बाद गिरना। २. एक के बाद दूसरे, दूसरे के बाद तीसरे और इसी प्रकार बराबर होता रहने वाला पतन-क्रम। जैसे—औरंगजेब के बाद उसके उत्तराधिकारियों के अनुपतन में मराठों और विदेशियों के आक्रमण ही मुख्य कारण थे। ३. अनुपात। वैराशिक। (गणित)
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अनुपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] [स्त्री० अल्पा०अनुपत्री] पत्ते के आकार का वह बहुत छोटा अंश जो कुछ पौधों के डंठलों की जड़ में दोनों ओर निकलता है। (स्टिप्यूला)
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अनुपथ  : क्रि० वि० [सं० अत्या०स०] किसी के दिखलाये हुए पथ पर या उसके अनुसार। पुं० नौकर। सेवक।
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अनुपदवी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] मार्ग। रास्ता।
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अनुपदिक  : वि० [सं० अनुपद+ठन्-इक] १. पग-पग पर पीछे चलनेवाला। २. प्रतिपद के अनुसार होनेवाला (कथन, व्याख्या आदि)।
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अनुपदिष्ट  : भू० कृ० [सं० न-उपदिष्ट, न० त०] १. जिसे उपदेश न दिया गया हो अथवा न मिला हो। २. अशिक्षित। ३. जो उपदेश के रूप में न बतलाया गया हो।
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अनुपदी (दिन्)  : वि० [सं० अनुपद+इनि] १. अनुसरण करनेवाला। २. अन्वेषण या पीछा करनेवाला। ३. पूछ-ताछ या प्रश्न करनेवाला।
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अनुपधि  : वि० [सं० न-उपधि, न० ब०] छल-कपट से रहित। भोला। सीधा।
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अनुपनीत  : वि० [सं० न-उपनीत, न० त०] १. जो उपनीत (पास लाया हुआ) न हो। अप्राप्त। २. जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो।
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अनुपपत्ति  : स्त्री० [सं० न-उपपत्ति, न० त०] १. उपपत्ति का अभाव। २. असंगति। ३. असिद्धि। ४. अप्राप्ति। ५. असमर्थता।
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अनुपपन्न  : वि० [सं० न-उपपन्न, न० त०] १. जिसकी उपपत्ति न हुई हो। २. अयुक्त। ३. जिसका प्रतिपादन न हुआ हो। ४. अप्रमाणित।
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अनुपबीती (तिन्)  : वि० [सं० न-उपबीतिन्,न० त०] जिसका यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो।
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अनुपम  : वि० [सं० न-उपमा, न० ब०] [भाव० अनुपमता] १. जिसकी किसी से उपमा न दी जा सकती हो। जिसकी बराबरी का और कोई दूसरा न हो। उपमा-रहित। बेजोड़। (इन्कम्पेअरेबुल) २. बहुत अच्छा या बढ़िया।
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अनुपमता  : स्त्री० [सं० अनुपम+तल्-टाप्] अनुपम होने की अवस्था, गुण या भाव।
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अनुपमा  : स्त्री० [सं० न-उपमा, न० त०] १. उपमा का अभाव। २. दक्षिण-पश्चिम दिशा के कुमुद नामक गज की पत्नी।
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अनुपमित  : वि० [सं० न-उपमित, न० त०] १. जिसकी उपमा न दी गई हो। २. अनुपम। बेजोड़।
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अनुपमेय  : वि० [सं० न-उपमेय, न० त०] १. जिसकी उपमा न दी जा सकती हो। २. अनुपम।
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अनुपयुक्त  : वि० [सं० न-उपयुक्त, न० त०] [भाव० अनुपयुक्तता] १. जो उपयुक्त (ठीक या योग्य) न हो। (इन्एक्सपीडियेन्ट) २. जो सटीक न हो। ३. बे-मेल।
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अनुपयुक्तता  : स्त्री० [सं० अनुपयुक्त+तल्-टाप्] अनुपयुक्त होने की अवस्था गुण या भाव।
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अनुपयोग  : पुं० [सं० न-उपयोग, न० त०] १. उपयोग या व्यवहार का अभाव। काम में न लाना। २. अनुचित रूप से किया जानेवाला उपयोग।
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अनुपयोगिता  : स्त्री० [सं० अनुपयोगिन्+तल्-टाप्] अनुपयोगी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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अनुपयोगी (गिन्)  : वि० [सं० न-उपयोगिन्, न० त०] १. जो किसी उपयोग या काम में न आ सकता हो। व्यर्थ का। निरर्थक। २. हानिकारक।
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अनुपलक्षित  : वि० [सं० न-उपलक्षित, न० त०] १. जिसका ज्ञान या परिचय न मिला हो। २. जिसका अनुसंधान या खोज न हुई हो। ३. बे-निशान।
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अनुपलब्ध  : वि० [सं० न-उपलब्ध, न० त०] १. जो लब्ध या प्राप्त न हुआ हो। न मिला हुआ। २. अज्ञात।
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अनुपलब्धि  : स्त्री० [सं० न-उपलब्धि, न० त०] १. उपलब्धि या प्राप्त न होना। न मिलना। २. किसी विषय का ज्ञान या जानकारी न होना।
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अनुपशय  : पुं० [सं० न-उपशय, न० त०] ऐसी चीज या बात जिससे रोग और बढ़े।
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अनुपस्कृत  : वि० [सं० न-उपस्कृत, न० त०] १. जिसका उपस्करण, परिष्करण या संस्कार न हुआ हो० २. जो अपने वास्तविक या शुद्ध रूप में न हो० ३. न पकाया हुआ। ४. निर्दोष।
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अनुपस्थान  : वि० [सं० न-उपस्थान, न० त०]=अनुपस्थित।
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अनुपस्थित  : वि० [सं० न-उपस्थित, न० त०] [भाव० अनुपस्थिति] जो उपस्थित, मौजूद या सामने न हो। अविद्यमान। गैर-हाजिर। (ऐबसेन्ट)
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अनुपस्थिति  : वि० [सं० न-उपस्थित, न० त०] उपस्थति० वर्तामन या सामने न होने का भाव। उपस्थित या सामने न होना। गैर-मौजूदगी। (ऐबसेन्ट)
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अनुपहत  : वि० [सं० न-उपहत, न० त०] १. जिसपर आघात न हुआ हो। २. जो पहले उपयोग या व्यवहार में न आया हो। कोरा। नया।
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अनुपाख्य  : वि० [सं० न-उपाख्या, न० ब०] जिसकी उपाख्या न हो सके। जो स्पष्ट कहे जाने या समझने के योग्य न हो।
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अनुपात  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० आनुपातिक, क्रि० वि० अनुपाततः] १. एक के बाद दूसरे का आना या गिरना। २. दो मानों, मूल्यों या संख्याओं के मान का वह पारस्परिक संबंध जो इस विचार से स्थिर किया जाता है कि एक से दूसरे का कितनी बार गुणा या भाग हो सकता है। (रेशियो) जैसे—२ और ५ में वही अनुपात है जो ८ और २॰ में या १६ और ४॰ में है।
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अनुपातक  : पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा अपराध या पाप जो महापातक के समान हो। जैसे—चोरी, पर-स्त्री गमन।
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अनुपातन  : पुं० [सं० अनुपात+णिच्+ल्युट्-अन] वस्तुओं के उनके अनुपात, आकार महत्त्व आदि के विचार से क्रमशः लगाते हुए उनके वर्ग निश्चित करना। कोटि-बंधन (ग्रेडिंग)।
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अनुपातिक  : वि० =आनुपातिक।
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अनुपाती (तिन्)  : वि० [सं० अनु√पत् (गिरना)+णिनि]=आनुपातिक।
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अनुपान  : पुं० [सं० अनु√पा (पीना)+ल्युट्-अन] वह पदार्थ जो किसी औषध के अंग-रूप में (उसे ठीक, गुणकारी या प्रभावशाली बनाने के उद्देश्य से) उसके साथ या बाद खाया या पीया जैए। जैसे—यदि कोई औषध शहद के साथ खाएँ तो शहद उसका अनुपान होगा।
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अनुपाय  : वि० [सं० न-उपाय, न० ब०] १. (कार्य) जिसका कोई उपाय न हो। २. (व्यक्ति) जिसके लिए कोई उपाय या मार्ग न रह गया हो।
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अनुपालन  : पुं० [सं० अनु√पाल (पालन)+णिच्+ल्युट्-अन] १. आज्ञा या आदेश का ठीक रूप से पालन या कार्यान्वित करना। २. किसी पत्र या आज्ञा को उसके ठीक स्थान तक पहुँचाने का काम। तामील (सरविस) ३. पालन और रक्षा।
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अनुपाश्रया भूमि  : स्त्री० [सं० न-उपाश्रय, न० ब० अनुपाश्रया भूमि, व्यस्तपद] ऐसी भूमि जो और अधिक लोगों को आश्रय या रहने का स्थान न दे सके।
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अनुपासन  : पुं० [सं० उप्√आस् (बैठना)+ल्युट्-अन, न० त०] उपासन या ध्यान का अभाव।
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अनुपुरुष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. व्यक्ति, जिसका उल्लेख पहले हो चुका हो। २. किसी के पीछे-पीछे चलने वाला। अनुगामी।
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अनुपूरक  : वि० [सं० अनु√पूर् (पूर्ति)+ण्युल्-अक] अभाव, कमी या त्रुटि आदि की पूर्ति के लिए बाद में जोड़ा, बढ़ाया या लगाया हुआ। (सप्लिमेन्टरी) पुं० उक्त प्रकार से जोड़ा या बढ़ाया हुआ अंश।
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अनुपूरण  : पुं० [सं० अनु√पूर्+ल्युट्-अन] अभाव, कमी या त्रुटि आदि की पूर्ति करने के लिए बाद में कुछ और लगाना या बढ़ाना। (सप्लिमेन्टेशन)
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अनुपूरित  : भू० कृ० [सं० अनु√पूर्+क्त] जिसका या जिसमें अनुपूरण हुआ हो।
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अनुपूर्ति  : स्त्री० [सं० अनु√पूर्+क्तिन्] अनुपूरण करने की क्रिया या भाव।
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अनुपूर्व  : वि० [सं० अत्या स०] १. जो किसी क्रम से होता हो। २. क्रम-क्रम से बराबर होता रहनेवाला। सिलसिलेवार। ३. जो नियत क्रम से चला आ रहा हो। नियमित। ४. जिसके सब अंग उपयुक्त नाप-तौल के हों। सुडौल।
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अनुपूर्व गात्र  : वि० [ब० स०] जिसके अंग बे-डौल न हों।
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अनुपूर्वत  : क्रि० वि० [सं० अनुपूर्व+तस्] नियमित क्रम या सिलसिले से। क्रमशः। (सक्सेसिवली)
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अनुपूर्ववत्सा  : स्त्री० [ब० स०] नियमित रूप से बच्चा देने वाली गाय।
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अनुपूर्व्य  : वि० [सं० अनुपूर्व+यत्] १. क्रमबद्ध। २. नियमित।
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अनुपेत  : वि० [सं० न-उपेत, न० त०] १. (शिक्षा के लिए) जो गुरू या शिक्षक के सामने न आया हो। २. अप्राप्त।
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अनुप्त  : वि० [सं०√वप (बोना)+क्त, संप्रसारण, न० त०] जो बोया न गया हो।
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अनुप्रदान  : पुं० [सं० अनु-प्र√दा (देना)+ल्युट्-अन] १. दान (बौद्ध) २. वृद्धि। अभिवृद्धि।
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अनुप्रपन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] पीछे पड़ा हुआ।
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अनुप्रयुक्त  : भू० कृ० [अनु-प्र√युज (योग)+क्त] जिसका अनुप्रयोग या अनुप्रयोजन हुआ हो या किया गया हो। (एप्लायड)
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अनुप्रयोग  : पुं० [सं० अनु-प्र√युज्+घञ्] कोई चीज, बात या सिद्धान्त कहीं से लाकर किसी अवस्था या विषय में उनका प्रयोग करना। कहीं से लाकर किसी नये काम या नई जगह में लगाना। (एप्लिकेशन)
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अनुप्रयोजन  : पुं० [सं० अनु-प्र√युज्+ल्युट्-अन] अनुप्रयोग करने की क्रिया या भाव। (एप्लिकेशन)
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अनुप्रयोज्य  : वि० [सं० अनु-प्रं√युज्+ण्यत्] जिसका अनुप्रयोग या अनुप्रयोजन हो सके, किया जा सके अथवा होने को हो। (एप्लिकेबुल्)
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अनुप्रवेश  : पुं० [सं० अनु-प्र√विश् (घुसना)+घञ्] किसी के साथ, उसके पीछे या बाद में प्रवेश करना।
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अनुप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी भाषण, व्याख्यान आदि की समाप्ति पर वक्ता से किया जानेवाला प्रश्न।
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अनुप्रसक्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] घनिष्ट संबंध।
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अनुप्रसम  : वि० [सं० प्रा० स०] जो प्रसम (अर्थात् अपनी संगत और साधारण अवस्था, स्थिति आदि) से कुछ घटकर या नीचे हो। प्रसम से कम या नीचा। (सबनाँर्मल) विशेष दे० ‘प्रसम’।
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अनुप्रसमतः  : क्रि० वि० [सं० अनुप्रसम+तस्] अनुप्रसम दशा या रूप में। (सब-नाँर्मिली)
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अनुप्रस्थ  : वि० [सं० अत्या० स०] जो चौड़ाई के बल हो। आड़े बल में। आड़ा। तिर्यक। (ट्रान्सवर्स)
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अनुप्राणन  : पुं० [सं० अनु-प्र√अन्(जीना)+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुप्राणित] १. जीवन डालना या प्राण संचार करना। २. उत्साह या प्रेरणा देना। ३. स्फुरण।
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अनुप्राणित  : भू० कृ० [सं० अनु-प्र√अन्+णिच्+क्त] १. जिसमें प्राणों या जीवन का संचार किया गया हो। २. उत्साहित या प्रेरित।
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अनुप्रापण  : पुं० [सं० अनु-प्र√आप् (व्यक्ति)+ल्युट्-अन] [वि० अनुप्राप्य, अनुप्राप्त] (कर, दंड आदि के रूप में) प्राप्तव्य धन इकट्ठा करना या उगाहना। वसूली करने की क्रिया या भाव। वसूली। (कलेक्शन)
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अनुप्राप्त  : भू० कृ० [सं० अनु-प्र√आप् +क्त] १. जो बाद में प्राप्त हुआ हो। २. (कर, दंड आदि के रूप में) उगाहा, वसूला या इकट्ठा किया हुआ। (धन)।
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अनुप्राप्ति  : स्त्री० [सं० अनु-प्र√आप् +क्तिन्] [वि० अनुप्राप्त] (कर, दंड आदि के रूप में) प्राप्तव्य धन इकट्ठा करने की क्रिया या भाव। वसूली।
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अनुप्राप्य  : वि० [सं० अनु-प्र√आप् +ण्यत्] जो प्राप्त होने को हो या प्राप्त किया जा सके। उगाहने योग्य।
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अनुप्राशन  : पुं० [सं० अनु-प्र√अश् (खाना)+ल्युट्-अन] खाना। भोजन।
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अनुप्रास  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह शब्दालंकार जिसमें किसी पद में एक ही अक्षर या वर्ण अथवा स्वर-सहित अक्षर या वर्ण की बार आते हैं। वर्ण-वृत्ति। वर्ण-मैत्री। (एलिटरेशन) उदाहरण—मणि, मणीन्द्र, माणिक्य, मेघमणि, मौक्तिक माला, तोरण-बन्दनवार-विभूषित नगरी बाला।—आनंदकुमार। विशेष—इसके छेक, वुत्य, श्रुत्य, लाट अन्त्य और पुनरूक्त वदाभास ये छः भेद हैं।
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अनुप्रास-हीन  : वि० [सं० तृ० त०] (पाश्चात्य ढंग की नये प्रकार की कविता) जिसके अंत में अनुप्रास या तुक मिलाने का ध्यान न रखा गया हो। (ब्लैकवर्स)
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अनुप्रेक्षा  : स्त्री० [सं० अनु-प्र√ईक्ष (देखना)+अ-टाप्] १. आँखें गड़ाकर देखना। ध्यान से देखना। २. चिंतन। मनन।
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अनुबद्ध  : वि० [सं० अनु-बंध्+क्त] १. किसी के साथ बँधा हुआ। २. जिसके संबंध में कोई अनुबंध या समझौता न हुआ हो। (एग्रीड) ३. लगाव रखनेवाला। संबंद्ध।
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अनुबंध  : पुं० [सं० अनु-√अंश् (बाँधना)+घञ्] [वि० अनुबद्ध] १. आपस मे या एक दूसरे के साथ बाँधनेवाला तत्त्व या संबंध। बन्धन। २. अंगों, जीवों, वस्तुओं आदि में आवश्यक और अनिवार्य रूप से होनेवाला घनिष्ठ पारस्परिक संबंध। (को-रिलेशन) ३. किसी प्रकार का आपसी ठहराव, संविता या समझौता। (एग्रिमेन्ट) ४.लिखित समझौता। संविदा। ५. परिणाम। फल। ६. अपत्य। संतान। ७. उद्देश्य। ८. प्रवृत्ति। ९. किसी बड़े या विकट रोग के साथ होनेवाले दूसरे गौण कष्ट या विकार। १. आरंभ। ११. मार्ग। १२. ग्रंथ का प्रकरण या परिच्छेद। १३. पाणिनीय व्याकरण में गुण, वृद्धि आदि के लिए उपयोगी एक सांकेतिक वर्ण, जो प्रत्यय में रहता है। १४. वैद्यका में वात, पित्त और कफ में से वह तत्त्व जो समय विशेष में अप्रधान हो।
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अनुबंध-चतुष्टय  : पुं० [ष० त०] विषय, प्रयोजन अधिकारी और संबंध इन चारों का समुदाय।
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अनुबंध-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी अनुबंध की शर्ते लिखी हों। इकरारनामा। (एग्रिमेन्ट)
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अनुबंधक  : वि० [सं० अनु-प्र√बंध् +ण्युल्-अक] अनुबंध करनेवाला।
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अनुबंधन  : पुं० [सं० अनु-प्र√बंध् +ल्युट्-अन] १. अनुबंध करने या होने का भाव। २. क्रम। सिलसिला।
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अनुबंधी (धिन्)  : वि० [सं० अनुबन्ध+इनि] १. संबंध या लगाव रखनेवाला। २. (व्यक्ति या विषय) जिसका संबंध अनुबंध से हो। ३.परिणाम या फल के रूप में होने वाला। स्त्री० १. प्यास। २. हिचकी।
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अनुबल  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. मुख्य बल य़ा शक्ति की सहायता करनेवाला गौण बल या शक्ति। २. सहायता के लिए लाई हुई सेना।
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अनुबोध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बाद में या पीछे होनेवाला बोध अथवा स्मरण। २. [अनु√बुध् (जानना)+णिच्+अक] १. अनुबोध करने या करानेवाला। २. आलोक-पत्र।
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अनुबोधन  : पुं० [सं० अनु√बुध्+ल्युट्-अन] विषय या बात स्मरण होने या कराने की क्रिया या भाव।
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अनुब्राह्मण  : पुं० [सं० अत्या०स०] ब्राह्मणों का-सा आचरण या कर्म। वि० ब्राह्मणों का-सा। ब्राह्मणों जैसा।
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अनुभक्त  : भू० कृ० [सं० अनु√भञ्ज् (विभक्त करना)+क्त] १. जिसका अनुभाजन हुआ हो। २. जो अनुभाजन के अनुसार यथा अंश प्राप्त हुआ हो। (रैशन्ड)
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अनुभक्तक  : पुं० [सं० अनुभक्त+कन्] वह अंश या भाग जो लोगों को उनकी आवश्यकता का ध्यान रखते हुए दिया जाए। (रैशन)
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अनुभव  : पुं० [सं० अनु√भू (होना)+अप्] [वि० अनुभाव्य, अनुभवी, बू० कृ० अनुभूत] १. कष्ट, सुख आदि के रूप में होनेवाला ज्ञान। अनुभूति। जैसे—ताप या शीत का अनुभव। २. बहुत से काम प्रयोग आदि करते रहने और देखने-सुनने आदि से प्राप्त ज्ञान-पुंज जो (उनकी स्मृतियों से भिन्न) होता है। तजरुबा। (एक्सपीरिएन्स) जैसे—उन्हें चिकित्सा (या व्यापार) का अच्छा अनुभव है।
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अनुभवना  : स० [सं० अनुभव] १. अनुभव प्राप्त करना। २. अनुभूति से युक्त होना। अनुभूति प्राप्त करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुभविता (तृ)  : पुं० [सं० अनु√भू+तृच्] वह जो अनुभव करता हो। अनुभव करनेवाला। जैसे—मन अनुभविता और अनुभाव्य दोनों है।
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अनुभवी (विन्)  : वि० [सं० अनुभव+इनि] १. जिसे कोई या किसी प्रकार का अनुभव हो। २. जिसने किसी काम या विषय का अच्छा अनुभव प्राप्त किया हो।
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अनुभाजन  : पुं० [सं० अनु√भाज् (पृथक् करना)+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुभाजित] वह व्यवस्था जिसमें लोगों की आवश्यकता का ध्यान रखते हुए कोई वस्तु समान रूप से निश्चित मात्रा में तथा अंश या हिस्से के रूप में उन्हें दी जाती है। (रैशनिंग)
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अनुभाव  : पुं० [सं० अनु√भू (होना)+णिच्+धञ्] १. महिमा। बड़ाई। २. प्रभाव। ३. दृढ़ विश्वास। ४. दृढ़ निश्चय या संकल्प। ५. साहित्य में, वे विशिष्ट मानसिक और शारीरिक व्यापार जो मन में कोई भाव उत्पन्न होने, विशेषतः किसी रस की अनुभूति होने पर होते है। (एन्सुएन्ट) विशेष—साहित्यकारों ने नौं सात्त्विक अनुभाव (स्तंभ, स्वेद, स्वर-भंग, कंप, वैवर्ण्य, अश्रु, रोमांच, प्रलय और जुंभा) और बारह कायिक तथा मानसिक अनुभाव या हाव (लीला, विलास, विच्छित, विभ्रम, किलकिंचित्, ललित, मोट्टायित, विव्वोक, विह्रत, कुटृमित, हेला और बोधक) मानें हैं। ६. किसी व्यक्ति, वस्तु, वर्ग आदि में विशेष रूप से पाये जानेवाले गुण या लक्षण। (कैरेक्टरिस्टिक्स)
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अनुभावक  : वि० [सं० अनु√भू+णिच्+ण्युल्-अक] सोचने विचारने में प्रवृत्त करनेवाला।
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अनुभावन  : पुं० [सं० अनु√भू+णिच्+ल्युट्-अन] अंगभंगी द्वारा मन के भाव व्यक्त करना।
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अनुभावी (दिन्)  : वि० [सं० अनु√भू+णिनि] [संत्री० अनुभाविनी] १. जिसमें अनुभव करने की शक्ति या संवेदना हो। २. वह साक्षी जिसने सारी घटना स्वयं देखी हो। (आई विटनेस) ३. मृतक के वे संबंधी जिन्हें अशौच या सूतक लगता हो।
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अनुभाव्य  : वि० [सं० अनुभव से] जिसका अनुभव किया जा सकता हो या किया जाने को हो। अनुभव के योग्य। वि० [सं० अनु√भू+णिच्+यत्] १. प्रशंसा या बड़ाई के योग्य। २. (गुण या लक्षण) जो किसी में विशेष रूप से पाया जा सकता हो।
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अनुभाषण  : पुं० [सं० अनु√भाष् (बोलना)+ल्युट्-अन] १. किसी की कही हुई बात को फिर या दुबारा कहना। २. कथोपकथन। वार्तालाप।
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अनुभूत  : भू० कृ० [सं० अनु√भू+क्त] १. जिसका अनुभव हुआ हो। जिसका साक्षात् ज्ञान हुआ हो। २. (पदार्थ) परीक्षा, प्रयोग आदि के द्वारा जिसकी उपयोगिता या वास्तविकता जान ली गई हो। जो अनुभव से ठीक सिद्ध हो चुका हो। परीक्षित।
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अनुभूति  : स्त्री० [सं० अनु√भू+क्तिन्] १. वह ज्ञान जो अनुमिति, उपमिति, प्रत्यक्ष या शब्द-बोध के आधार पर प्राप्त हुआ हो। (स्मृति के आधार पर प्राप्त किये हुए ज्ञान से भिन्न) २. कल्पना। ३. भावना।
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अनुभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. उपभोग। २. दे० ‘भोग’।
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अनुमत  : वि० [सं० अनु√मन् (मानना)+क्त] १. जिसे या जिसके लिए आज्ञा, आदेश अनुमति या स्वीकृति मिल चुकी हो। २. प्रिय। रुचिर। पुं० १. आज्ञा। २. अनुमति। ३. सहमति। ४. प्रेम।
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अनुमति  : स्त्री० [सं० अनु√मन्+क्तिन्] १. आज्ञा। हुकुम। २. कोई काम करने से पहले उसके संबंध में अधिकारी से मिलने या ली जानेवाली स्वीकृति जो बहुत कुछ आज्ञा के रूप में होती हैं। अनुज्ञा। (परमिशन) ३. कोई काम करते समय या चुकने पर किसी बड़े या उच्चाधिकारी के द्वारा होनेवाला उसका अनुमोदन या समर्थन। स्वीकृति। (एस्सेन्ट) ४. चतुर्दशी से युक्त पूर्णिमा।
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अनुमति-पत्र  : पुं० [सं० ष०] वह पत्र या लेख जिसपर अनुमति या स्वीकृति लिखी हो।
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अनुमरण  : पुं० [सं० अनु√मृ (मरना)+ल्युट्-अन] स्त्री का पति के शव से साथ सती होना।
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अनुमा  : स्त्री० [सं० अनु√मा (मान)+अङ्-टाप्]=अनुमान।
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अनुमाता (तृ)  : वि० [सं० अनु√मा+तृच्] अनुमान करने वाला।
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अनुमान  : पुं० [सं० अनु√मि, या√मा+ल्युट्-अन] [भू० कृअनुमिति० वि० अनुमेय, आनुमानिक, अनुमानित १. अपने मन से यह समझना कि ऐसा हो सकता है या होगा। अटकल। अंदाज (गेस) २. मोटा हिसाब लगाकर अंदाज से यह समझना कि यह ऐसा या इतना होगा। (एस्टिमेट) ३. न्याय में, प्रमाण के चार भेदों मे से वह भेद जिससे प्रत्यक्ष साधन के द्वारा अप्रत्यक्ष साध्य की भावना या सिद्धि होती है। ४. साहित्य में एक अलंकार जिसमें साध्य के संबंध में साधन के द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान कुछ विलक्षण या चमत्कारपूर्ण ढंग से वर्णित होता है। (इन्फिएरेन्स) ५. भावना। विचार।
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अनुमानतः  : क्रि० वि० [सं० अनुमान+तस्] अनुमान के आधार पर। अन्दाज से। अटकल से।
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अनुमानना  : स० [सं० अनुमान] अनुमान करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुमानित  : भू० कृ० [सं० अनुमान+क्विप्+क्त] अनुमान से समझा हुआ। अनुमित।
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अनुमानोक्ति  : स्त्री० [सं० अनुमान-उक्ति, तृ० त०] १. अनुमान के आधार पर कही हुई बात। २. मन में किया जानेवाला ऊहापोह या तर्क-वितर्क।
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अनुमापक  : वि० [सं० अनु√मा+णिच्+ण्युल्-अक] अनुमान कराने वाला। पुं० [हिं० अनुमान] अनुमापन करने या करानेवाला व्यक्ति।
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अनुमापन  : पुं० [सं० अनु√मा+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुमापित] रासायनिक प्रक्रिया से यह पता लगाना कि किसी घोल या मिश्रण में कोई विशिष्ट तत्त्व या पदार्थ कितनी मात्रा में है। (टाइट्रेशन)
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अनुमापना  : स० [सं० अनुमान से] अनुमान या कल्पना करना। समझना। उदाहरण—दुरजन हमर दुःख न अनुमापब।—विद्यापति।
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अनुमित  : भू० कृ० [सं० अनु√मा+क्तिन्] १. जो अनुमान से जाना समझा गया हो। (गेस्ड) २. जो अनुमान से या मोटा हिसाब लगाकर ठहराया गया हो। (एस्टिमेटेड)
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अनुमिति  : स्त्री० [सं० अनु√मा (मान)+क्तिन्] १. अनुमित होने की अवस्था या भाव। २. तर्क में, सामने आई हुई बात या बातों के आधार पर निकाला हुआ निष्कर्ष, जो अनुभूति के चार भेदों में से एक माना गया है। (इन्फेरेन्स)
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अनुमृता  : स्त्री० [सं० अनु√मृ (मरना)+क्त] १. वह स्त्री जिसकी मृत्यु उसके पति की मृत्यु के उपरान्त हुई हो। २. पति के शव के साथ सति होने वाली स्त्री।
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अनुमेय  : वि० [सं० अनु√मा+यत्] जिसे अनुमान से जान सकें। अनुमान में आने योग्य।
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अनुमोद  : पुं० [सं० अनु√मुद् (प्रीति)+घञ्, या णिच्+घञ्]=अनुमोदन।
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अनुमोदन  : पुं० [सं० अनु√मुद्+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुमोदित, वि० अनुमोद्य] १. प्रसन्नता प्रकट करना। २. किसी को प्रसन्न करने के लिए आप भी प्रसन्न होना। ३. किसी के किये हुए काम या सामने रक्खे हुए सुझाव को ठीक मानकर अपनी स्वीकृति देना या उसका समर्थन करना। (एप्रूवल)
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अनुमोदित  : भू० कृ० [सं० अनु√मुद्+णिच्+क्त] १. (बात या विचार) जिसका किसी से अनुमोदन किया हो। २. (बात या विचार) जिसे किसी उच्च अधिकारी ने ठीक मान लिया हो और जिसके अनुसार कार्य करने की स्वीकृति दे दी हो।
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अनुमोद्य  : वि० [सं० अनु√मुद्+णिच्+यत्] जिसका अनुमोदन किया जा सकता हो या किया जाने को हो।
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अनुयाचक  : पुं० [सं० अनु√याच् (माँगना)+ण्युल्-अक] अनुचायन करनेवाला व्यक्ति। (कैन्वेसर)
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अनुयाचन  : पुं० [सं० अनु√याच् (माँगना)+ण्युल्-अन] [कर्त्ता अनुयाचक, अनुयाची, बू० कृ० अनुयाचित] किसी को अनुरोध पूर्वक समझा-बुझाकर कर अपने अनुकूल करते हुए उससे कोई काम करने को कहना। (कैन्वेसिंग) जैसे—मत या वोट के लिए अथवा किसी के हाथ अपना माल बेचने के लिए अनुयाचन करना।
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अनुयाचित  : भू० कृ० [सं० अनु√याच्+क्त] जिसका या जिसके लिए अनुयाचन किया गया हो।
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अनुयाची (चिन्)  : पुं० [अनु√याच्+णिनि]=अनुयाचक।
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अनुयाता (तृ)  : पुं० [सं० अनु√या (जाना)+तृच्] अनुगामी या अनुयायी।
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अनुयात्रिक  : वि० [सं० अनुयात्रा+ठन्-इक]=अनुयाता।
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अनुयान  : पुं० [सं० अनु√या+ल्युट्-अन] किसी के पीछे चलना। अनुगमन।
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अनुयायिता  : स्त्री० [सं० अनुयायिन्+तल्-टाप्] अनुयायी होने की अवस्था या भाव।
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अनुयायी (यिन्)  : वि० [सं० अनु√या (जाना)+णिनि] [स्त्री० अनुयायिनी, भाव० अनुयायिता] १. किसी के पीछे-पीछे चलनेवाला। अनुगामी। २. अनुकरण करनेवाला। ३. किसी के उपद्देश्य या सिंद्धान्त मानने और उसके अनुसार चलनेवाला। (फाँलोअर) पुं० अनुचर। सेवक। दास।
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अनुयुक्त  : वि० [सं० अनु√युज् (योग)+क्त] १. जिसके विषय में अनुयोग (पूछ-ताछ) किया गया हो। २. परीक्षित। ३. निंदित।
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अनुयुग  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. किसी युग का कोई छोटा और विशिष्ट भाग जिसमें निरन्तर कुछ विशिष्ट प्रकार की घटनाएँ हुई हों। (इपॉक) जैसे—पुराशास्त्र की दृष्टि से प्रस्तर-युग की अनुयुगों में विभक्त है। २. कोई ऐसा विशिष्ट काल या समय जिसमें विशिष्ट महत्त्व की घटनाएँ या परिवर्तन हुए हों। शक। (इपॉक)
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अनुयोक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० अनु√युज्+तृच्] [स्त्री० अनुयोक्त्री] १. अनुयोग या पूछ-ताछ करनेवाला। २. वेतन लेकर विद्यार्थियों को शिक्षा देनेवाला। (ट्यूटर)
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अनुयोग  : पुं० [सं० अनु√युज्+घञ्] १. प्रश्न करना। पूछना। २. संदेह दूर करने या सत्यता के संबंध में शंका होने पर किया जाने वाला प्रश्न। पूछ-ताछ। (क्वेरी) ३. वेतन लेकर विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम। (ट्यूशन)
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अनुयोग चिन्ह  : पुं० [सं० ष० त०] छापे और लिखावट में एक प्रकार का चिन्ह जो अनुयोग (जिज्ञासा) या शंका सूचित करता है, और जिसका रूप यह है- ‘?’।
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अनुयोगी (गिन्)  : वि० [सं० अनु√युज्+णिच्-क्त] १. अनुयोग करनेवाला। २. दे० ‘अनुयोक्ता’।
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अनुयोजन  : पुं० [सं० अनु√युज्+ल्युट्-अन] १. प्रश्न। २. प्रश्न करने की क्रिया या भाव। अनुयोग।
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अनुयोजित  : भू० कृ० [सं० अनु√युज्+णिच्-क्त] जिसके विषय में अनुयोग या पूछ-ताछ की गई हो। अनुयुक्त।
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अनुयोज्य  : वि० [सं० अनु√युज्+ण्यत्] जिसके विषय में पूछ-ताछ की जा सकती हो या की जाने को हो।।
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अनुरक्त  : भू० कृ० [सं० अनु√रञ्ज्+क्त] [भाव० अनुरक्ति] १. जिसके मन में किसी के प्रति अनुराग हुआ हो। २. किसी की ओर झुका हुआ। आसक्त। ३. रँगा हुआ। ४. रक्तवर्ण का। लाल।
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अनुरक्त-प्रकृति  : वि० [ब० स०] १. (वह राजा) जिसकी प्रजा उसमें अनुरक्त हो। २. जिसने साम दाम आदि के द्वारा प्रजावर्ग को संतुष्ट कर लिया हो।
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अनुरक्ति  : स्त्री० [सं० अनु√रञ्ज्+क्तिन्] [वि,०अनुरक्त] १. अनुरक्त होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. किसी के प्रति भक्ति, श्रद्धा या सद्भाव होना। अनुराग। प्रेम। (एफेक्शन)
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अनुरंजक  : पुं० [सं० अनु√रञ्ज् (राग)+ण्युल्-अक] अनुरंजन प्रश्न या संतुष्ट करनेवाला।
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अनुरंजन  : पुं० [सं० अनु√रञ्ज्+ल्युट्-अन] १. रंग से युक्त करना। रँगना। २. प्रसन्न या संतुष्ट करना। ३. अनुराग। प्रीति। ४. आसक्ति। मन-बहलाव।
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अनुरंजित  : भू० कृ० [सं० अनु√रञ्ज्+णिच्-क्त] जिसका अनुरंजन किया गया हो।
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अनुरणन  : पुं० [सं० अनु√रण् (शब्द)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुरणित] १. गूँज। २. व्यंजना। ३. संगीत शास्त्र में, स्वर का वह मुख्य स्वरूप जो नाद या शब्द की लहरों के क्रम से उत्पन्न होकर कुछ देर में लीन या समाप्त हो जाता है।
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अनुरत  : वि० =अनुरक्त।
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अनुरति  : स्त्री० [सं० अनु√रम्+क्तिन्] १. अनुराग। २. आसक्ति।
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अनुरथ्या  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] सड़क के दोनों ओर का छोटा रास्ता। पटरी।
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अनुरस  : पुं० [सं० अत्या०स०] १. साहित्य में, किसी रस के साथ रहकर उसमें सहायक होनेवाला रस। २. प्रतिध्वनि। पुं० प्रतिध्वनि।
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अनुरसित  : वि० [सं० अनु√रस् (शब्द)+क्त] प्रतिध्वनि।
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अनुरहस  : पुं० [सं० अत्या० स० अच्] एकांत स्थान। निराला।
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अनुराग  : पुं० [सं० अनु√रञ्ज्+घञ्] [भू० कृ० अनुरक्त] १. किसी से प्रसन्न होकर शुद्ध भाव से उसकी ओर प्रवृत्त होना या मन लगाना। २. श्रंगारिक क्षेत्र में वह आरंभिक और हलका प्रेम या स्नेह जो मिलन अथवा विशेष सम्पर्क स्थापित होने से पहले होता है। (एफेक्शन) ३. दे० ‘अनुरक्ति’।
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अनुरागना  : स० [सं० अनुराग] १. अनुराग या प्रीति करना। प्रेम करना। २. आसक्त होना। पुं० अनुराग या प्रेम से युक्त होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुरागी (गिन्)  : वि० [सं० अनुराग+इनि] [स्त्री० अनुरागिनी] १. अनुराग रखनेवाला। प्रेमी। २. भक्त।
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अनुरात्र  : अव्य० [सं० अनु-रात्रि, अव्य० स० अच्] १. हर रात। २. रात में।
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अनुराध  : पुं० [सं० अनु√राध्+ल्युट्-अन] १. विनती। विनय। २. प्रार्थना। याचना।
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अनुराधन  : पुं० [सं० अनु√राध्+ल्युट्-अन] १. अंत या समाप्ति की ओर ले जाना। २. पूरा करना।
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अनुराधना  : स० [सं० अनुराध] विनय करना। प्रार्थना या विनती करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुराधपुर  : पुं० [सं० ष० त०] लंका की पुरानी राजधानी।
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अनुराधा  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] सत्ताइस नक्षत्रों में से सत्रहवाँ नक्षत्र।
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अनुरूप  : वि० [सं० अत्या० स० या अव्य० स० अच् प्रत्यय] १. जिसका रूप किसी के तुल्य, समान या सदृश हो। ठीक वैसा। २. अनुकूल। ३. उपयुक्त। योग्य।
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अनुरूपक  : पुं० [सं० अनु√रूप (साकार करना)+अज्+कन्] १. वह जो किसी के अनुरूप हो या अनुकरण पर बना हो। २. प्रतिमा। मूर्ति। ३. समान वस्तु। मिलती-जुलती चीज। उदाहरण—गति, आनन, लोचन, पाँयन के अनुरूप से मन मानि लिए।—केशव।
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अनुरूपण  : पुं० [सं० अनु√रूप+णिच्+ल्युट्-अन] किसी को किसी के अनुरूप बनाने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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अनुरूपता  : स्त्री० [सं० अनुरूप+तल्-टाप्] १. किसी के अनुरूप होने की क्रिया या भाव। जैसा कोई और हो, वैसा ही उसके समान होना। २. अनुकूलता। ३. समानता। सादृश्य। ४. उपयुक्तता।
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अनुरूपना  : स० [सं० अनुरूप] अपने अनुरूप या समान बनाना। अ० किसी के अनुरूप बनना या होना।
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अनुरूपा सिद्धि  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] भाई, बंधु आदि को साम, दाम आदि के द्वारा अनुकूल करना। (कौ०)
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अनुरेखन  : पुं० [सं० अनुलेखन] [भू० कृ० अनुरेखित] १. रेखाओं रेखा-चित्रों आदि की अनुकृति प्रस्तुत करना। २. किसी चित्र या अंकन के ऊपर पतला या पारदर्शक कागज रखकर उसकी रेखाएँ आदि लेते हुए उसकी नकल तैयार करना। (ट्रेसिंग)
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अनुरेखित  : भू० कृ० [सं० अनुरेखा, प्रा० स०+इतज्] जिसका अनुरेखन हुआ हो।
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अनुरोदन  : पुं० [सं० अनु√रुद् (रोना)+ल्युट्-अन] १. किसी के साथ (संवेदना जतलाते हुए) रोना। २. संवेदना प्रकट करना।
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अनुरोध  : पुं० [सं० अनु√रुध् (रोकना)+घञ्] १. बाधा। रुकावट। २. विनयपूर्वक किसी बात के लिए किया जाने वाला हठ। ३. उत्तेजना या प्रेरणा।
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अनुरोधक  : वि० [सं० अनु√रुध्+ण्युल्-अक] अनुरोध करनेवाला।
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अनुरोधी (धिन्)  : वि० [सं० अनुरोध+इनि]=अनुरोधक।
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अनुर्वर  : वि० [सं० न-उर्वर, न० त०] [स्त्री० अनुर्वरा] (भूमि) जो उर्वर या उपजाऊ हो, फलतः बंजर। पुं० बंजर भूमि।
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अनुलग्न  : वि० [प्रा० स०] १. किसी के साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। (अटैच्ड या एन्क्लोज्ड) २. दे० ‘समावृत्त’।
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अनुलग्नक  : पुं० [सं० अनुलग्न+कन्] वह पत्र या कागज जो किसी दूसरे पत्र के साथ लगा, जुड़ा या नत्थी किया गया हो। (एन्क्लोजर)
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अनुलंब  : पुं० [सं० अनु√लम्ब (लटकना)+घञ्] मानसिक अनिश्चितता की ऐसी अवस्था जिसमें चिंता अथवा भय के कारण कोई निश्चय न हुआ हो परन्तु निश्चय पर पहुँचने की इच्छा बनी हो। (सस्पेन्स)
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अनुलंब खाता  : पुं० [सं० अनुलंब×हिं० खाता] ऐसा खाता जिसमें अस्थायी रूप से तब तक के लिए रकमें लिखी जाती हैं जब तक उनका ठीक स्थान निश्चित नहीं हो जाता। (सस्पेन्स एकाउन्ट)
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अनुलंबन  : पुं० [सं० अनु√लम्ब् (लटकना, सहारा लेना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुलंबित] १. अस्थायी रूप से किसी को कोई काम करने से रोकना। २. किसी कर्मचारी के दोष या अपराध की सूचना मिलने पर उसकी जाँच तक के लिए अस्थायी रूप से उनको अपने पद से हटाया जाना। मुअत्तल करना। (सस्पेन्शन)
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अनुलंबित  : भू० कृ० [सं० अनु√लम्ब्+क्त] १. जिसका अनुलंबन हुआ हो। २. जो अस्थायी रूप से हटाया गया हो। (सस्पेंडेड)
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अनुलाप  : पुं० [सं० अनु√लप् (बोलना)+घञ्] १. कही हुई बात फिर से कहना या दोहराना। पुनरुक्ति। (रिपीटीशन) २. एक ही बात घुमा-फिरा कर बार-बार कहना।
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अनुलास  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] मोर।
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अनुलिखित  : भू० कृ० [सं० अनु√लिख् (लिखना)+क्त] अनुलेख के रूप में लाया हुआ। नकल किया हुआ।
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अनुलेख  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अनुलिखित]=प्रतिलिपि।
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अनुलेखन  : पुं० [सं० अनु√लिख् (लिखना)+ल्युट्-अन] [कर्त्ता-अनुलेखक, वि० अनुलेख्य] १. घटना या कार्य आदि का लेखा लिखना। जैसे—वायु की गति या भूकंप के धक्के का अनुलेखन। २. अनुलेख के रूप में कुछ लिखने की क्रिया। प्रतिलिपि करना।
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अनुलेप  : पुं० [सं० अनु√लिप् (लीपना)+घञ्] १. सुगंधित लेप, उबटन आदि। २. उक्त वस्तुओं का शरीर पर होनेवाला लेप।
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अनुलेपक  : वि० [सं० अनु√लिप्+ण्वुल्-अक] अनुलेपन करनेवाला।
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अनुलेपन  : पुं० [सं० अनु√लिप्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुलिप्त] १. किसी के ऊपर लेप लगाना या चढ़ाना। २. शरीर में सुगंधित पदार्थ लगाना। ३. पोतना। लीपना।
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अनुलोम  : पुं० [सं० अव्य० स० अच्] १. ऊँचे की ओर से नीचे की ओर या बड़े से छोटे की ओर आने का क्रम। उतार। २. संगीत में, ऊँचे स्वर से क्रमशः नीचे स्वरों का उच्चारण। अवरोह।
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अनुलोम-जन्मा (न्मन्)  : वि० [ब० स०]=अनुलोमज।
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अनुलोम-विवाह  : पुं० [सं० सं० तृ० त०] ऐसा विवाह जो ऊँचे वर्ण के पुरुष तथा नीचे वर्ण की स्त्री में हो। जैसे—वैश्य और शूद्र का विवाह।
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अनुलोमज  : वि० [सं० अनुलोप√जन् (उत्पन्न होना)+ड] अनुलोम विवाह से उत्पन्न (संतान)।
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अनुलोमतः  : अव्य० [सं० अनुलोम+तस्] अनुलोमवाले क्रम से या ऐसे क्रम के विचार से।
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अनुलोमन  : पुं० [सं० अनुलोम+क्विप्+ल्युट्-अन] १. पेट का मल बाहर निकालने के लिए उपाय या प्रयत्न करना। २. ऐसी औषधि जिससे पेट का मल बाहर निकले।
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अनुलोमा  : स्त्री० [सं० अनुलोम+अच्-टाप्] वह स्त्री जो अपने पति से नीची जाति की हो।
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अनुलोमा सिद्धि  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] नरगवासियों, देशवासियों तथा सेनापतियों को दान तथा भेद से अपने अनुकूल करना। (कौ०)
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अनुल्लंघन  : पुं० [सं० न-उल्लंघन, न० त०] उल्लंघन न करना।
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अनुल्लंघ्य  : वि० [सं० उद्√लंघ् (लाँघना)+ण्यत्, न-उल्लंध्य, न०त] १. जिसका उल्लंघन न हो सकता हो। २. जिसका उल्लंघन करना उचित न हो।
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अनुवक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० अनु√वच् (बोलना)+तृच्] १. पीछे या बाद में बोलने वाला। २. किसी की कही हुई बात दोहरानेवाला। ३. उत्तर देनेवाला।
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अनुवचन  : पुं० [सं० अनु√वच् +ल्युट्-अन] [कर्त्ता, अनुवक्ता] १. किसी की कही हुई बात फिर से कहना या दोहराना। २. किसी बात का अर्थ या आशय स्पष्ट करना। अर्थापन। व्याख्या। (इण्टरप्रिटेशन) ३. प्रकरण। अध्याय। ४. भाग। खंड। हिस्सा। ५. शिक्षण। ६. पाठ। ७. भाषण।
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अनुवत्सर  : पुं० [सं० प्रा० स०] पाँच वर्षों के युग का चौथा वर्ष। (ज्यो०) क्रि० वि० प्रति वर्ष। हर साल।
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अनुवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० अनु√वृत्+णिनि] १. अनुसरण या अनुगमन करनेवाला। २. प्रसन्न या संतुष्ट करनेवाला। ३. किसी के उपरांत परिणामस्वरूप होनेवाला। (कान्सिक्वेन्ट) ४. किसी के बाद आने या रखा जानेवाला।
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अनुवर्त्तक  : वि० [सं० अनु√वृत् (बरतना)+ण्युल्-अक]=अनुवर्त्ती।
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अनुवर्त्तन  : पुं० [सं० अनु√वृत्+ल्युट्-अन] १. किसी की इच्छा के अनुसार आचरण या व्यवहार करना। २. अनुगमन। अनुसरण। ३. पुराने नियम या सिद्धान्त का प्रयोग करना अथवा उनके अनुसार कोई काम करना। ४. प्रसन्न या संतुष्ट करनेवाला। ५. परिणाम। फल।
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अनुवंश  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. किसी वंश का इतिहास। वंशवृत्त। २. वंश-वृक्ष।
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अनुवंश  : वि० [सं० अत्या० स०] १. दूसरे की इच्छा के अनुसार चलनेवाला। २. आज्ञाकारी। ३. वशीभूत। पुं० [प्रा० स०]=अनुवंशता।
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अनुवशता  : स्त्री० [सं० अनुवश+तल्-टाप्] किसी के वश (या आज्ञा) में रहने की अवस्था या भाव।
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अनुवसित  : भू० कृ० [सं० अनु√वस् (आच्छादन)+क्त] १. जिसने वस्त्र धारण किया हो। २. कपड़े से घेरा या ढका हुआ।
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अनुवह  : पुं० [सं० अनु√वह् (ढोना)+अच्] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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अनुवा  : पुं० [सं० अनूप=जलयुक्त] १. कुएँ की जगत का वह भाग जहाँ खड़े होकर पानी खींचते है। २. पानी निकालने के लिए जमीन में खोदा जानेवाला गड्ढा। चोआ। पुं० [सं० एनस्] व्यभिचार। छिनाला।
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अनुवाक  : पुं० [सं० अनु√वच् (बोलना)+घञ्,कुत्व] किसी ग्रन्थ का विशेषतः वेदों का कोई अध्याय या प्रकरण।
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अनुवाचन  : पुं० [सं० अनु√वच्+णिच्+ल्युट्-अन] १. यज्ञों में विधि के अनुसार मंत्रों का पाठ करना या कराना। २. अध्वर्यु के आदेशानुसार होता द्वारा ऋग्वेद के मंत्रों का पाठ। ३. किसी प्रकार के वाचन के उपरान्त होनेवाली उसकी उद्धरणी।
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अनुवाद  : पुं० [सं० अनु√वद्(बोलना)+घञ्] [कर्त्ता-अनुवादक, वि० अनुवाद्य, भू० कृ० अनुवादित, अनूदित] १. किसी की कही हुई बात फिर से कहना। दोहराना। २. तर्कशास्त्र में ऐसी बात बार-बार या कई रूपों में कहना जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बिलकुल ठीक हो। ३. एक भाषा में लिखी हुई चीज या कही हुई बात के दूसरी भाषा में कहने या लिखने की क्रिया या प्रक्रिया। भाषातंर। उत्था। तर्जुमा। (ट्रांसलेशन)
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अनुवादक  : पुं० [सं० अनु√वद्+ण्युल्-अक] [स्त्री० अनुवादिका] अनुवाद या भाषांतर करनेवाला। एक भाषा से दूसरी भाषा में लिखने या कहनेवाला व्यक्ति। (ट्रांस्लेटर)
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अनुवादित  : भू० कृ० [सं० अनुवाद+क्विप्+क्त] १. जिसका अनुवाद हो चुका हो। २. (ग्रन्थ या लेख) जो अनुवाद के रूप में हो। अनुवाद किया हुआ। अनूदित।
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अनुवादी (दिन्)  : पुं० [सं० अनु√वद्+णिनि] १. दे० अनुवादक। २. संगीत में वह स्वर जो किसी राग के वादी स्वर के अनुरूप हो और उस राग का सौन्दर्य बढ़ाने में सहायता देता हो।
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अनुवाद्य  : वि० [सं० अनु√वद्+ण्यत्] १. अनुवाद किये जाने के योग्य। २. जिसका अनुवाद होने को हो या हो रहा हो। ३. जिसका अनुवाद हो सकता हो।
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अनुवास  : पुं० [सं० अनु√वास् (सुगंधित करना)+घञ्] १. सुगंधित करना। (विशेषतः वस्त्र)। २. [अनु√वस् (निवास)+घञ्] निकट, समीप या साथ रहना। ३. किसी तरल औषधि (भेषज अथवा शक्तिवर्धक) को पिचकारी द्वारा गुदा-मार्ग से शरीर के अन्दर पहुँचाना। (एनिमा)
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अनुवासन  : पुं० [सं० अनु√वास्+ल्युट्-अन] अनुवास करने की क्रिया या भाव।
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अनुवासन-वस्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. प्राचीन भारत में, शरीर के अन्दर औषध पहुँचाने की पिचकारी। २. पदार्थों को सुगंधित करने के लिए बना हुआ यंत्र।
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अनुवासित  : भू० कृ० [सं० अनु√वास्+णिनि] १. जिसका अनुवासन हुआ हो। २. सुगंधित किया हुआ।
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अनुवासी (सिन्)  : वि० [सं० अनु√वास्+णिनि] १. अनुवास करनेवाला। २. सुगंधित करनेवाला। ३. [अनु√वस्+णिनि] पास या पड़ोस में रहनेवाला।
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अनुवित्त  : वि० [सं० अनु√विद् (पाना)+क्त] मिला हुआ। प्राप्त।
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अनुवित्ति  : स्त्री० [सं० अनु√विद्+क्तिन्] प्राप्ति।
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अनुविद्ध  : भू० कृ० [सं० अनु√व्यध् (बेधना)+क्त] १. बिंधा या बेधा हुआ। २. गूँधा या पिरोया हुआ। ३. मिला हुआ। युक्त। ४. फैला हुआ। व्य़ाप्त। ५. सजाया हुआ। अलंकृत।
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अनुविधान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आज्ञा, आदेश, विधान के अनुरूप काम करने की क्रिया या भाव। आज्ञाकारिता। २. किसी के कहे या बतलाये हुए ढंग से कोई काम करने क क्रिया या भाव।
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अनुविष्ट  : भू० कृ० [सं० अनु√विश् (बैठना या पैठना)+क्त] [भाव० अनुविष्ट, अनुवेश] जो अपने स्थान विशेष पर लिख लिया गया हो। चढा, चढ़ाया या टाँका हुआ। (एन्टर्ड)
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अनुविष्टि  : स्त्री० [सं० अनु√विश्+ क्तिन्]=अनुवेश।
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अनुवृत्त  : वि० [सं० अनु√वृत् (बरतना)+क्त] १. जिसका अनुकरण या अनुसरण किया गया हो। २. दोहराया या दोबारा कहा या पढ़ा हुआ। ३. (पद) जो अनुवृत्ति के रूप में ग्रहण किया जाए। विशेष—दे० अनुवृत्ति। ४. अतीत संबंधी। ५. सच्चरित्र। पुं० वह व्यक्ति जिसे कोई अनुवृत्ति मिलती हो। अनुवृत्ति पानेवाला। (पेन्शनर)
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अनुवृत्ति  : स्त्री० [सं० अनु√वृत्+क्तिन्] १. एक बार कही या पढ़ी हुई चीज या बात फिर से कहना या दोहराना। २. व्याकरण में, किसी कथन में आया हुआ कोई अंश या पद परवर्ती कथन में फिर से ग्रहण करना या मानना। जैसे—राम भी आया है और मानव भी। में माधव भी के साथ आया है माना गया है। ३. [प्रा० स०] वृत्ति या वेतन का वह प्रकार या रूप जिसमें किसी कर्मचारी को बहुत दिनों तक काम करने पर, उसकी वृद्धावस्था में अथवा उसकी किसी प्रकार की अन्य सेवा, योग्यता आदि के विचार से भरण-पोषण के लिए कुछ धन मिलता है या दिया जाता है। (पेन्शन)
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अनुवृत्तिक  : वि० [सं० आनुवृत्तिक] १. अनुवृत्ति संबंधी। अनुवृत्ति का। २. (पद या सेवा) जिसके संबंध में अनुवृत्ति मिल सकती हो। (पेंशनेबुल)
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अनुवृत्तिधारी (रिन्)  : पुं० [सं० अनुवृत्ति√धृ (धारण करना)+णिनि] वह जिसे अनुवृत्ति मिलती हो। अनुवृत्ति पानेवाला। (पेन्शनर)
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अनुवृत्ती  : पुं० [सं० आवृत्ति से]=अनुवृत्तिधारी।
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अनुवेतन  : पुं० [सं० प्रा० स०] दे ‘अनुवृत्ति’ ३.।
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अनुवेश  : पुं० [सं० अनु√विश् (प्रवेश करना)+घञ्] १. किसी के पीछे या साथ-साथ प्रवेश करनेवाला। २. प्रवेश। ३. छोटे भाई का बड़े भाई से पहले विवाह होना। ४. (खाते, पूँजी आदि धन या नाम) यथा स्थान लिखा या चढ़ाया जाना। (एन्टरी)
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अनुवेश-पत्र  : पुं० [ष० त०]=अनुवेशिका।
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अनुवेश-लेख  : पुं० [ष० त०]=अनुवेशिका।
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अनुवेशन  : पुं० [सं० अनु√विश्+ल्युट्-अन] अनुवेश करने की क्रिया या भाव।
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अनुवेशिका  : स्त्री० [सं० अनु√विश्+णिच्+ण्युल्-अक+टाप्, इत्व] पार-पत्र की पीठ पर लिखा हुआ इस आशय का प्रमाण-लेख कि अमुख स्थान पर यह जाँचा गया है और इसे लेकर यात्री आगे जा सकता है। (वीजा)
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अनुवेश्य  : वि० [सं० अनुवेश+यत्०] १. एक के अंतर पर स्थित। दूसरा। २. पड़ोसी के एक घर के अंतर पर रहनेवाला।
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अनुव्याख्या  : पुं० [सं० प्रा० स०] अर्थ को और अधिक करने वाली व्याख्या।
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अनुव्याख्यान  : पुं० [सं० प्रा० स०] अर्थ स्पष्ट करने के लिए और अधिक व्याख्या करना।
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अनुव्याहरण  : पुं० [सं० प्रा० स०]=अनुव्यवहार।
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अनुव्याहार  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पुनरुक्ति। २. शाप।
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अनुव्रजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी को विदा करते समय उसके साथ कुछ दूर तक जाना। २. आज्ञा-पालन।
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अनुव्रज्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] दे० ‘अनुव्रजन’।
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अनुव्रत  : [सं० अत्या० स०] १. श्रद्धा करनेवाला। २. विश्वास भाजन। पुं० एक तरह का जैन साधु।
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अनुशतिक  : पुं० [सं० शत+ठन्-इक, अनु-शतिक, प्रा० स०] सौ से अधिक सैनिकों का अध्यक्ष।
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अनुशय  : पुं० [सं० अनु√शी (सोना)+अच्] १. पुराना वैर। २. झगड़ा। विवाद। ३. दान-संबंधी विवाद या उसका निर्णय। ४. काम से मिलने वाला अवकाश। छुट्टी। ५. पश्चात्ताप। उदाहरण—लघुता मत देखो वक्ष चीर। जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।—प्रसाद। ६.किसी की दी हुई आज्ञा या किये हुए कार्य को नहीं के समान करना। रद्द करना। (रिवोकेशन)
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अनुशयान  : वि० [सं० अनु√शी+शानच्] [स्त्री० अनुशायाना] पश्चाताप करनेवाला।
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अनुशयाना  : स्त्री० [सं० अनुशयन+टाप्] साहित्य में, वह परकीया नायिका जो अपने प्रिय के मिलने के स्थान के नष्ट हो जाने से दुःखी हो।
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अनुशयी (यिन्)  : वि० [सं० अनुशय+इनि] १. वैर या द्वेष करनेवाला। २. झगड़ालू। ३. पश्चाताप करनेवाला। ४. चरण छूकर प्रणाम करनेवाला। ५. अनुरक्त। आसक्त। पुं० १. प्राचीन काल में वह राजकीय अधिकारी जो दान-संबंधी झगड़ों का निर्णय करता था। (अर्थशास्त्र) २. पेट में एक प्रकार की होने वाली फुंसी।
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अनुशर  : पुं० [सं० अनु√शु (हिंसा)+अच्] राक्षस।
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अनुशंसा  : स्त्री० [सं० अनु√शंस् (स्तुति)+अ-टाप्] [भू० कृ० अनुशंसित] किसी व्यक्ति या प्रार्थना आदि के संबंध में यह कहना कि यह अच्छा, उपयुक्त ग्राह्वा अथवा मान्य है। सिफारिश। (रेकमेंडेशन)
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अनुशंसित  : भू०कृ० [सं० अनु√शंस्+क्त] जिसकी अनुसंसा या सिफारिश की गई हो। (रेकमेंडेड)
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अनुशासक  : पुं० [सं० अनु√शास् (शासन करना)+ण्युल्-अक] १. अनुशासन या नियंत्रण करनेवाला। २. उपदेश या शित्रा देने वाला। ३. विश्वविद्यालय का कार्याध्यक्ष। (प्रौक्टर)
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अनुशासन  : पुं० [सं० अनु√शास्+ल्युट्-अन] १. शासन करना। विशेषतः अपने ऊपर शासन करना। अपने को वश में रखना। २. दूसरों को प्रशिक्षित करना। शित्रा देना। ३. वह विधान जो किसी संस्था या वर्ग के सब सदस्यों को ठीक तरह से कार्य या आचरण करने के लिए बाध्य करे। (डिसिप्लिन) ४. विवरण।
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अनुशासनिक  : वि० [सं० अनुशासन+ठन्-इक] १. अनुशासन संबंधी। २. जो अनुशासन के रूप में हो। (डिसिप्लिनरी)
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अनुशासनीय  : वि० [सं० अनु√शास्+अनीयर्] जिस पर या जिसके प्रति अनुशासन किया जा सके या किया जाने को हो।
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अनुशासित  : वि० [सं० अनु√शास्+क्त्] १. जिसका या जिसके प्रति अनुशासन किया गया हो। २. जो अनुशासन में रखा या लाया गया हो।
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अनुशासी (सिन्)  : पुं० [सं० अनु√शास्+णिनि]=अनुशासक।
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अनुशास्ता  : पुं० [सं० अनु√शास्+तृच्]=अनुशासक।
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अनुशिष्ट  : भू० कृ० [सं० अनु√शास्+क्त]=अनुशासित।
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अनुशिष्टि  : स्त्री० [सं० अनु√शास्+क्तिन्]=अनुशासन।
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अनुशीलन  : पुं० [सं० अनु√शील् (समाधि)+ल्युट्-अन] [वि० अनुशीलित, कर्ता-अनुशीलक] १. चिंतन। मनन। २. बार-बार किया जानेवाला अध्ययन या अभ्यास। ३. किसी ग्रन्थ तथ्य विषय के सब अंगो तथा उपांगों पर बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना और उनसे परिचित होना। (स्टडी)
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अनुशीलनीय  : वि० [सं० अनु√शील्+अनीयर्] जिसका अनुशीलन या चिंतन या मनन होने को हो या हो सकता हो।
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अनुशीलित  : भू० कृ० [सं० अनु√शील्+क्त] जिसका अनुशीलन किया गया हो।
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अनुशोक  : पुं० [सं० अनु√शुच् (सोचना)+घञ्] १. मानसिक दुख। २. पश्चात्ताप।
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अनुशोचक  : वि० [सं० अनु√शुच्+ण्युल्-अन] १. (व्यक्ति) पश्चात्ताप करनेवाला। २. (विषय) खेदजनक।
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अनुशोचन  : पुं० [सं० अनु√शुच्+ल्युट्-अन] पश्चात्ताप करने की क्रिया या भाव।
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अनुशोची (चिन्)  : पुं० [सं० अनु√शुच्+णिनि] वह जो पश्चात्ताप कर रहा हो।
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अनुशोधन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अनुशोधित] १. किसी चीज या बात में इस दृष्टि से शोधन या सुधार करना कि उसके सब दोष तो दूर हो जाएँ, पर रूप जो ज्यों का त्यों बना रहे। (मॉडिफिकेशन) २. इस प्रकार किया हुआ शोधन या सुधार।
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अनुश्रव  : पुं० [सं० अनु√श्रु (सुनना)+अप] १. वैदिक परंपरा। २. अनुश्रुति।
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अनुश्राविक  : वि० [सं० श्रव+ठञ्-इक,अनु-श्राविक प्रा० स०] परंपरा से श्रुति द्वारा प्राप्त परलोक-संबंधी (ज्ञान)। जैसे—स्वर्ग, देवता, अमृत इत्यादि का।
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अनुश्रुत  : वि० [सं० अनु√श्रु+क्त] (कथा, ज्ञान या बात) जिसे लोग बहुत दिनों से एक ही रूप में सुनते चले आये हों। (लीगेंडरी)
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अनुश्रुति  : वि० [सं० अनु√श्रु+क्तिन्] वह कथा, ज्ञान या बात जिसे लोग बहुत दिनों से एक ही रूप में अपने पूर्वजों से सुनते आ रहे हों। अनुश्रव। ऐतिह्वा। (लीगेंड)
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अनुषक्त  : वि० [सं० अनु√सञ्ज्+क्त] १. संबंद्ध। २. साथ लगा हुआ। संलग्न।
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अनुषक्ति  : स्त्री० [सं० अनु√सञ्ज्+क्तिन्] १. अपने सहायक या राज्य के प्रति जन-साधारण का होनेवाला कर्त्तव्य। राज्यभक्ति। (एलिजिएन्स) २. आसक्ति। ३. संबद्धता।
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अनुषंग  : पुं० [सं० अनु√सञ्ज् (मिलना)+घञ्] [वि० आनुषंगिक, अनुषंगी] १. कूरूणा। दया। २. संबंध। लगाव। ३. एक बात के बाद दूसरी बात आप से आप होना। (इंसिडेंस) ४. प्रसंग के अनुसार एक बात से उसके साथ होनेवाली दूसरी बात भी मान या समझ लेना।
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अनुषंगी (गिन्)  : वि० [सं० अनु√सञ्ज्+धिनुण्] १. संबंधी। २. अनिवार्य परिणाम के रूप में आने या होनेवाला। ३. सामान्य रूप से प्रयुक्त होनेवाला। ४. आसक्त। ५. किसी कार्य, विषय या तथ्य के बाद सहायक या संबद्ध रूप में आप से आप होनेवाला। (एक्सेसरी आफ्टर दि फैक्ट)। ६. सहायक।
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अनुषेक  : पुं० [सं० अनु√सिच् (सींचना)+घञ्] १. (खेत आदि में) जल सींचना। २. बार-बार जल छिड़कना या छिड़काव करना।
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अनुषेचन  : पुं० [सं० अनु√सिच्+ल्युट्-अन]=अनुषेक।
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अनुष्टुप  : पुं० [सं० अनु√स्तुम्भ् (रोकना)+क्विप्,षत्व] आठ-आठ अक्षरों के चार चरणों का एक संस्कृत छंद।
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अनुष्ठातव्य  : वि० [सं० अनु√स्था (ठहरना)+तव्यत्]=अनुष्ठेय।
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अनुष्ठाता (तृ)  : वि० [सं० अनु√स्था+तृच्] १. अनुष्ठान करनेवाला। २. कार्य आरंभ करनेवाला।
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अनुष्ठान  : पुं० [सं० अनु√स्था+ल्युट्-अन] [वि० अनुष्ठित] १. कार्य आरंभ करने की क्रिया या भाव। २. नियम-पूर्वक कोई काम करना। ३. शास्त्र-विहित कर्म करना। ४. फल के निमित्त किसी देवता का किया जानेवाला आराधन। प्रयोग। पुरश्चरण।
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अनुष्ठान-शरीर  : पुं० [ष० त०] सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बीच का शरीर। (सांख्य०)
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अनुष्ठापन  : पुं० [सं० अनु√स्था+णिच्+ल्युट्-अन,पुक् आगम] किसी को कार्य करने में प्रवृत्त करना।
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अनुष्ठायी (यिन्)  : वि० [सं० अनु√स्था+णिनि] अनुष्ठान करनेवाला।
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अनुष्ठित  : भू० कृ० [सं० अनु√स्था+क्त] विधि-पूर्वक अनुष्ठान के रूप में चलाया या ठाना हुआ (काम)।
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अनुष्ठेय  : वि० [सं० अनु√स्था+यत्] अनुष्ठान के रूप में किये जाने के योग्य।
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अनुष्ण  : वि० [सं० न-उष्ण, न० त०] १. जो उष्ण या गर्म न हो, अर्थात् ठंडा। २. सुस्त। आलसी। पुं० नीला कमल।
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अनुसंधान  : [सं० अनु-सम्√धा (धारण)+ल्युट्-अन] १. किसी व्यक्ति, विषय या बात के पीछे लगकर उसका संधान करना, ढूढ़ना या पता लगाना। २. किसी विषय से संबंध रखनेवाली सभी बातों का अच्छी तरह तथा व्योरेवार पता लगाना। जाँच-पड़ताल। (इन्वेस्टिगेशन)
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अनुसंधानना  : स० [सं० अनुसंधान] १. अनुसंधान करना। २. खोजना। ढूँढ़ना। ३. मन में विचार करना। सोचना।
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अनुसंधानी (निन्)  : [सं० अनुसंधान+इनि] १. अनुसंधान, जाँच-पड़ताल या खोज करने वाला व्यक्ति। २. वह जो योजना बनाने में कुशल हो।
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अनुसंधायक  : पुं० [सं० अन्√सम्-धा+ण्युल्-अक] वह जो अनुसंधान या खोज करे। अनुसंधानकारी।
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अनुसंधायी (यिन्)  : पुं० [सं० अनु-सम्√धा+णिनि]=अनुसंधानी।
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अनुसंधि  : स्त्री० [अनु-सम्√धा+सम्-कि] १. अनुसंधान। तलाश। २. काव्य, नाटक आदि की रचना में कवि का सभी पात्रों के कार्यों, क्रिया-कलापों आदि की संगतता का पूरा और यथोचित ध्यान रखना। ३. दे० ‘अभिसंधि’।
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अनुसंधित्सु  : वि० [सं० अनु-सम्√धा+सन्+उ] अनुसंधान करने की इच्छा रखने या प्रयत्न करनेवाला।
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अनुसमर्थन  : पुं० [प्रा० स०] अनुमोदन।
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अनुसंयान  : पुं० [सं० अनु-सम्√या(जाना)+ल्युट्-अन] प्राचीन भारतीय राजतंत्र में वह व्यवस्था जिसके अनुसार प्रति तीसरे या पाँचवें वर्ष किसी राज्य के महामात्यों का समस्त वर्ग बदल दिया जाता था।
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अनुसयाना  : स्त्री० अनुशयाना। (नायिका)।
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अनुसर  : वि० [सं० अन√सृ(गति)+ट] अनुसरण करनेवाला। पुं० १. अनुचर। २. साथी। क्रि० वि० =अनुसार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुसरण  : पुं० [सं० अनु√सृ+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे या बाद में आना। किसी के पीछे उसी दिशा में चलना। २. किसी के आदेश, आज्ञा आदि के अनुसार चलना। ३. अनुकरण। ४. अनुकूल आचरण। ५. प्रथा। ६. अभ्यास।
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अनुसरता  : पुं० [सं० अनुसर्त्तू, हिं० अनुसरण] १. वह जो किसी का अनुसरण करे या उसके पीछे-पीछे चले। अनुगामी। २. सेवक, दान या नौकर। उदाहरण—बहुत पतित उद्धार किये तुम, हौं जिनको अनु सरतो।—सूर।
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अनुसरना  : अ० [हिं० अनुसरण] १. किसी के पीछे-पीछे चलना। अनुगमन करना। उदाहरण—जिमि पुरुषहिं अनुसर परछाँहीं।—तुलसी। २. कोई बात मानकर उसके अनुसार काम करना। ३. नियम या निश्चय के अनुसार चलना।
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अनुसर्प  : पुं० [सं० अत्या० स०] साँप की तरह जीव या प्राणी।
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अनुसंहित  : वि० [सं० अन-सम्√धा (धारण करना)+क्त] १. जिसकी खोज या जाँच पड़ताल की गई हो। २. (किसी के) अनुसार या अनुरूप।
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अनुसार  : वि० [सं० अत्या० स०] १. जो किसी के अनुसरण पर हो। २. किसी के ढंग या रूप से मिला हुआ। अनुरूप। क्रि० वि० [अव्य० स०] १. किसी की तरह पर। वैसे ही, जैसे कोई प्रस्तुत या सामने न हो। २. किसी के कथन, मत आदि के रूप में। जैसे—आपके अनुसार यह पुस्तक किसी के काम की नहीं है। पुं० [अनु√सृ (गति)+घञ्] १. अनुसरण। २. प्रथा। ३. प्रकृति या प्राकृतिक अवस्था। ४. चलन। ५. परिणाम।
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अनुसारक  : वि० [सं० अनु√सृ+ण्युल्-अक] अनुसरण करनेवाला।
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अनुसारणा  : स्त्री० [सं० अनु√सृ+णिच्+युच्-अन+टाप्] १. अनुसरण करना। २. पीछा करना।
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अनुसारतः  : क्रि० वि० [सं० अनुसार+तस्] किसी के अनुसार। वैसे ही। (एकार्डिन्स)
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अनुसारता  : स्त्री० [सं० अनुसार+तल्-टाप्] अनुसार होने की अवस्था या भाव। (एकार्डेन्स)
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अनुसारना  : स० [हिं० अनुसार] १. कोई काम पूरा करना। २. कोई काम या बात छेड़ना। आरंभ करना। उदाहरण—तातें कछुक बात अनुसारी।—तुलसी। ३. (कोई काम) करना।
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अनुसारिता  : स्त्री० [सं० अनुसारिन्+तल्-टाप्] अनुसारी होने की अवस्था या भाव।
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अनुसारी (रिन्)  : वि० [सं० अनु√सृ+णिनि] १. किसी का अनुसरण करने वाला। २. सेवक। ३. (बात) जिसका अनुसरण या पालन करना आवश्यक हो। (एबाइडिंग)
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अनुसाल  : स्त्री० [सं० अनु+हिं० सालना] हृदय में होनेवाली कसक या पीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुसासन  : पुं०=अनुशासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुसीमा  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] किसी क्षेत्र या सीमा रेखा के आस-पास या इधर-उधर पड़नेवाला क्षेत्र या भूमि (एबटृल्स)
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अनुसूचित  : भू० कृ० [सं० अनु√सूच्(सूचित करना)+क्त] १. अनुसूची के रूप में लाया हुआ। २. जिसे अनुसूची में स्थान मिला हो। जैसे—अनुसूचित क्षेत्र या अनुसूचित जन-जाति।
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अनुसूची  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी लेख या विवरणात्मक ग्रंथ के अंत में परिशिष्ट के रूप में लगी हुई ऐसी सूचना जिसमें कोष्टकों, स्तभों आदि के रूप में कोई ऐसी सूचना रहती है जिसका उस लेख या ग्रंथ में साधारण उल्लेख मात्र रहता है।
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अनुसूत  : वि० [सं० अनु√सृ(गति)+क्त] जिसका अनुसरण किया गया हो।
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अनुसूति  : स्त्री० [सं० अनु√सृ+क्तिन्] १. अनुसरण। २. कुलटा। स्त्री।
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अनुसेवी (विन्)  : वि० [सं० अनु√सेव्(सेवा करना)+णिनि] अभ्यास या आसंग वश कोई काम करनेवाला।
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अनुस्नान  : पुं० [सं० प्रा० स०] शिव पर चढ़ा हुआ निर्माल्य धारण करना।
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अनुस्मरण  : पुं० [सं० प्रा० स०] पुरानी और भूली हुई बातें फिर से प्रयत्न पूर्वक याद करना। स्मृति। (रि-कलेक्शन)
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अनुस्मारक  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह जो स्मरण कराये या दिलाये। (रिमाइंडर)
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अनुस्मृति  : स्त्री० [सं० अनु√स्मृ(स्मरण करना)+क्तिन्]=अनुस्मरण।
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अनुस्यूत  : वि० [सं० अनु√सिव्(सोना)+क्त] १. सिला हुआ। २. गूँथा या पिरोया हुआ। ३. क्रम-बद्ध।
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अनुस्वार  : पुं० [सं० अनु√स्वृ(शब्द)+घञ्] १. स्वर एक बाद उच्चरित होने वाला एक अनुनासिक वर्ण, जिसका चिन्ह (-०) है। २. देवनागिरी लिपि में, अक्षर के ऊपर की बिंदी, जो उक्त वर्ण की सूचक होती है।
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अनुहरण  : पुं० [सं० अनु√हृ (हरण करना)+ल्युट्-अन] १. अनुकरण। नकल। २. समानता। ३. अनुकूल होना।
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अनुहरना  : स० [सं० अनुहरण] १. अनुसरण करना। उदाहरण—स्वारथ सहित सनेह सब, रुचि अनुहरत अचार।—तुलसी। २. नकल करना। ३. अनुकूल करना। उदाहरण—तन अनुहरत सुचंदन खोरी।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुहरिया  : वि० [सं० अनुहार] किसी के अनुहार पर होनेवाला समान रूपवाला। स्त्री०=अनुहार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुहार  : वि० [सं० अत्या० स०] १. सदृश, तुल्य। समान। २. अनुसार। अनुकूल। क्रि० वि० किसी के समान या सदृश। स्त्री० [अनु√हृ (हरण करना)+घञ्] १. भेद। प्रकार। २. चेहरे की बनावट। मुखरी। ३. सादृश्य। ४. किसी चीज की ज्यों की त्यों नकल। प्रतिकृति। ५. रचना। बनावट।
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अनुहारक  : पुं० [सं० अनु√हृ+ण्युल्-अक] वह जो अनुकरण या नकल करे।
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अनुहारना*  : स० [सं० अनुहारण] तुल्य, समान या सदृश करना।
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अनुहारी (रिन्)  : पुं० [सं० अनु√हृ+णिनि] [स्त्री० अनुहारिणी] १. वह जो अनुकरण करे। नकल करनेवाला। २. वह जो किसी के अनुरूप या अनुकरण पर बना हो।
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अनुहार्य  : वि० [सं० अनु√हृ+ण्यत्] जिसका अनुकरण या अनुहार होने को हो या हो सकता हो।
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अनूअर  : अव्य=अनवरत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनूक  : पुं० [सं० अनु√उच् (समूह)+क, नि० कुत्व] १. पूर्व जन्म। २. कुल। वंश। ३. शील। स्वभाव। ४. पीठ में की रीढ़। ५. मेहराव के बीच का पत्थर।
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अनूक्त  : भू० कृ० [सं० अनु-उक्त,प्रा० स०] १. जिसका उच्चारण पीछे या बाद में हुआ हो। पीछे या बाद में कहा हुआ। २. पढ़ा। हुआ।
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अनूक्ति  : स्त्री० [सं० अनु-उक्ति, प्रा० स०] १. किसी की कही हुई बात के बाद कही जानेवाली बात।
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अनूचान  : पुं० [सं० अनु√यच् (बोलना)+कानच्,नि] १. वह स्नातक जो वेद-वेदांग में पारंगत होकर गुरूकुल से निकला हो। २. पंडित। विद्वान। ३. सच्चरित्र। सुशील।
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अनूजरा  : वि० [सं० अनु-उज्जवल] जो उजला या स्वच्छ न हो। अर्थात् मैला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनूठा  : वि० [सं० अनुच्छिष्ट] [स्त्री० अनूठी, भाव० अनूठापन] १. जो अपनी विलक्षणता, विशिष्टता आदि के कारण हमें चकित और प्रसन्न कर दे। अनोखा। (सिग्युलर) २. अच्छा। बढ़िया। ३. असाधारण प्रकार का।
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अनूठापन  : पुं० [हिं० अनूठा+पन (प्रत्यय)] अनूठे होने की अवस्था या भाव।
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अनूढ़  : वि० [सं० अनु√वह् (ढोना)+क्त] जो वहन न किया गया हो।
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अनूढ़ा  : स्त्री० [सं० अनुढ़+टाप्] साहित्य में, वह नायिका जिसका अभी विवाह न हुआ हो परन्तु जो किसी पुरुष से प्रेम करती हो तथा उससे विवाह करना चाहती हो। यथा-देहि जौ ब्याह, उछोह सों मोहनै। मात पिताहू के सो मन कीजै। सुंदर साँवरो नंदकुमार, बसै उर जो वर सो वर दीजै।
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अनूदन  : पं० [सं० अनुवदन] [भू० कृ० अनूदित] १. किसी की कही बात फिर से कहना या दोहराना। २. अनुवाद या उत्था करना। तर्जुमा करना। ३.किसी विचार या भावना को क्रियात्मक या मूर्त रूप देना। (ट्रान्सलेशन) जैसे—जीवन की स्फूर्ति का कला या काव्य में अनूदन।
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अनूदित  : भू० कृ० [सं० अनु√वद् (बोलना)+क्त] १. किसी के बाद या उसके अनुरूप कहा हुआ। २. अनुवाद के रूप में किया या लाया हुआ। भाषांतरित। ३.जिससे अनुवाद किया गया हो।
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अनून  : वि० [सं० न-ऊन, न० त०] १. जो न्यून या कम न हो। २. जो किसी से घट कर न हो। ३. अखंड। पूरा। सारा।
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अनूप  : वि० [सं० अनुपम] १. जिसकी कोई उपमा न हो सकती हो। उपमा-रहित। २. अद्वितीय। निराला। ३. अति सुन्दर। वि० [सं० अनु-आप, प्रा० ब० अच्, ऊत्व] १. जल के पास या निकट वाला। २. जिसमें जल की अधिकता हो। ३. दलदलवाला। पुं० १. वह स्थान जहाँ जल अधिक हो। जल-प्राय देश। २. तालाब। ३. दलदल। ४. मेढ़क। ५. किनारा। ६. तीतर की जाति का पक्षी। ७. हाथी। ८. भैंस। ९. नर्मदा घाटी का पुराना नाम।
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अनूप नराच  : पुं० [सं० ] पंच-चामर (छंद) का एक भेद या रूप जिसके प्रत्येक चरण में ज, र, ज, र, ज और गुरु होता है।
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अनूपम  : वि० =अनुपम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनूपान  : पुं०=अनुपान।
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अनूरु  : वि० [सं० न-ऊरू, न० ब०] जिसे उरु या जाँघ न हो। बिना जाँघ का। पुं० १. अरुणोदय। २. सूर्य का सारथी, अरुण।
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अनूर्जित  : वि० [सं० न-ऊर्जित, न० त०] १. जो ऊर्जित अर्थात् बली या शक्ति संपन्न न हो, फलतः असक्त या कमजोर। २. जिसे अभिमान या अहंकार न हो।
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अनूर्ध्व  : वि० [सं० न-ऊर्ध्व, न० त०] जो ऊर्ध्व या ऊँचा न हो, फलतः नीचा।
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अनूर्मि  : वि० [सं० न-ऊह, न० ब०] १. जिसमें ऊर्मि या तरंग न उठती हो। ऊर्मि रहित। २. जिसका उल्लंघन न किया जा सके।
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अनूह  : वि० [सं० न-ऊह, न० ब०] जिसके संबंध में तर्क-वितर्क या विचार न हुआ हो न हो सके। असावधान।
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अनृजु  : वि० [सं० न-ऋजु, न० त०] १. जो ऋजु या सीधा न हो। टेढ़ा। २. चिड़चिड़ा। ३. बेईमान।
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अनृण  : वि० [सं० न-ऋण, न० ब०] जो ऋण ग्रस्त न हो।
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अनृणी (णिन्)  : वि० [सं० न-ऋणिन्, न० त०]=अनृण।
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अनृत  : वि० [सं० न-ऋत,न० त०] १. जो ऋत या सत्य न हो। फलतः झूठा या मिथ्या। २. अन्यथा। विपरीत। पुं० असत्य। झूठ।
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अनृतक  : पुं० [सं० अनृत+कन्] १. असत्य या झूठ बोलनेवाला व्यक्ति। २. ठग। ३. बेईमान।
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अनृतवादी (दिन्)  : पुं० [सं० अनृत√वद् (बोलना)+णिनि] वह जो झूठ बोलता हो। मिथ्यावादी।
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अनृती(तिन्)  : पुं० [सं० अनृत+इनि]=अनृतक।
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अनृतु  : स्त्री० [सं० न-ऋतु, न० त०] १. उचित या उपयुक्त ऋतु का अभाव। २. स्त्री में ऋतु (या रजोधर्म) का न होना। ३. किसी काम के लिए उपयुक्त समय का अभाव। वि० १. जिसके लिए ऋतु उपयुक्त न हो। २. जो अपनी उपयुक्त ऋतु या समय में न होकर उससे पहले या पीछे होता हो। अनरितु।
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अनृशंस  : वि० [सं० अनृशंस+अण्] [भाव० आनृशंस्य] जो नृशंस न हो। (अर्थात् करुण या दयालु)।
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अनेऊ  : वि० [सं० अनिष्ट] बुरा। खराब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनेक  : वि० [सं० न-एक, न० त०] १. (संख्या में) एक नहीं बल्कि उससे अधिक। कई। जैसे—आपको पहले भी कई बार समझाया गया है। २. (संख्या में) बहुत। जैसे—आकाश में अनेक तारागण या नक्षत्र समूह हैं। पद—अनेकानेक=बहुत अधिक।
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अनेक-चर  : वि० [सं० अनेक√चर् (गति, भक्षण)+ट] झुंड या समूह बनाकर रहनेवाला। (जीव या जंतु)।
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अनेक-चित्त  : वि० [ब० सं० ] १. जिसका मन किसी एक स्थान, मत, विचार-आदि पर न टिकता हो। चंचल चित्तवाला। २. अनेक मनोरथ। बहु-संकल्प।
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अनेक-भार्य  : पुं० [ब० सं० ] वह जिसकी कई भार्याएँ (पत्नियाँ) हों।
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अनेक-मुख  : पुं० [ब० सं० ] १. वह जिसके कई मुख हों। २. वह जिसके कई मुख या प्रवृत्तियाँ कई ओर हों।
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अनेक-रूप  : पुं० [ब० सं० ] वह जिसके कई आकार, प्रकार, भेद या रूप हों। अनेक रूप धारण करनेवाला, परमेश्वर। वि० १. परिवर्तनशील। २. अस्थिर।
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अनेक-लोचन  : पुं० [ब० सं० ] १. वह जिसके कई नेत्र हों। जैसे—इंद्र, शिव। २. विराट् पुरुष।
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अनेक-वचन  : पुं० [कर्म० स०] बहुवचन। (व्या०)
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अनेक-वर्ण  : वि० [ब० सं० ] जिसके कई रंग या वर्ण हों। पुं० बीजगणित में ऐसे कई वर्णों या अक्षरों का वर्ग जो अज्ञात राशियों के सूचक हों। जैसे—क+ख-ग=घ।
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अनेक-विध  : वि० [ब० सं० ] जिसमें या जिसके कई प्रकार हों। कई तरह का।
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अनेक-साधारण  : वि० [सं० त०] जो कइयों या बहुतों में समान या साधारण रूप में पाया जाए।
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अनेकज  : वि० [सं० अनेक√जन् (उत्पन्न करना)+ड] जिसका कई बार जन्म हुआ हो। पुं० पक्षी।
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अनेकत्र  : अव्य० [सं० अनेक+त्रल्] कई स्थानों पर। कई जगह।
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अनेकप  : पुं० [सं० अनेक√पा(पीना)+क] हाथी।
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अनेकाकार  : वि० [सं० अनेक-आकार, ब० स०] जिसके कई रूप हों।
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अनेकाकी (किन्)  : वि० [सं० न-एकाकी, न० त०] जो अकेला न हो। अनेकों से युक्त।
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अनेकाक्षर  : वि० [सं० अनेक-अक्षर, ब० स०] कई अक्षरोंवाला (शब्द)।
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अनेकांगी (गिन्)  : पुं० [सं० अनेक-अंग, कर्म० स०+इनि] वह जिसके कई या बहुत से अंग, खंड या भाग हों।
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अनेकाग्र  : वि० [सं० न-एकाग्र, न० त०] कई कामों में लगा हुआ।
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अनेकांत  : वि० [सं० न-एकान्त, न० ब०] (स्थान) जहाँ एकान्त न हों। ‘एकान्त’ का विपर्याय। वि० [सं० न-अन्त,ब० स०] १. जिसके अंत में अनेक हों। अनेक अंतोंवाला। २. जिसका अंत अनेक रूपों में हों। ३. अस्थिर। चंचल।
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अनेकांत-वाद  : पुं० [सं० ष०त०] [वि०, कर्त्ता अनेकांतवादी] जैनदर्शन में स्याद्वाद।
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अनेकार्थ  : वि० [सं० अनेक-अर्थ, ब० स० कप्] जिसके अनेक अर्थ हों। अनेक अर्थोंवाला (शब्द या वाक्य)
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अनेकार्थक  : वि० [सं० अनेक-अर्थ, ब० स० कप्]=अनेकार्थ।
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अनेकाश्रय  : वि० [सं० अनेक-आश्रय, ब० स०] कइयों के आश्रय में रहनेवाला।
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अनेग  : वि० =अनेक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनेड  : वि० [सं० न-एड, न० त०] १. मूर्ख। २. बुरा। खराब। उदाहरण— पिय का मारग सुगम है, तेरा चलन अनेड़।—कबीर। वि० [सं० अनृत] १. असत्य। मिथ्या। २. मिथ्याभाषी।
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अनेता  : पुं० [देश] मालती नामक लता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनेरा  : वि० [सं० अनृत] [स्त्री० अनेरी] १. झूठ। २. झूठा। मिथ्याभाषी। ३.यों ही। व्यर्थ। निष्प्रयोजन। उदाहरण—चरन सरोज बिसारि तुम्हारी, निशदिन फिरत अनेरो।—तुलसी। ४. निकम्मा। ५. अन्यायी। अत्याचारी। ६. दुष्ट। पाजी। क्रि० वि० व्यर्थ। फजूल।
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अनेला  : वि० =अलबेला।
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अनेस  : वि० [सं० अनिष्ट]=अनेक। उदाहरण—मीराँ के प्रभु राम मिलण कूँ जीवनि जनम अनेस।—मीराँ। पुं० [फा० अन्देशः] आशंका। डर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनेह  : पुं० [सं० अ+स्नेह] [वि० अनेही] १. स्नेह या प्रेम का अभाव। २. विरक्ति। पुं० [सं० अनेहस्] समय। उदाहरण—अमावसि सावन मास अनेह। मच्यो इम बुंदिय खग्गन मेह।—कविराजा सूर्यमल।
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अनेहा (हस्)  : पुं० [सं० √हन् (हिंसा)+असि, इहादेश, न० त०] काल। समय।
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अनेही  : वि० [हिं० अनेह] स्नेह न करनेवाला।
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अनै  : स्त्री० [सं० अ-नय] १. नीति-विरुद्ध आचरण या बात। २. उपद्रव। उत्पात। उदाहरण—जा कारन सुन सुत सुंदरवर कीन्हीं इतीं अनैहो।—सूर। वि० [सं० अन्य] अन्य। दूसरा। उदाहरण—त्रिया अनै प्रेम आतुरी।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनैकांतिकहेतु  : पुं० [सं० एकान्त+ठक्-इक, वृद्धि, न० त० अनैकांतिक-हेतु, कर्म० स०] न्याय के पाँच हेत्वाभासों में से वह हेतु जो साध्य का एकमात्र साधन भूत न हो।
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अनैक्य  : पुं० [सं० न-ऐक्य, न० त०] १. एकता या एका न होना। २. मतभेद। फूट।
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अनैच्छिक  : वि० [सं० न-ऐच्छिक, न० त०] जो इच्छापूर्वक या जानबूझ कर न किया गया हो, बल्कि दूसरें की इच्छा से या परिस्थितियों आदि से विवश होने पर किया गया हो। (अन-वालेन्टरी)
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अनैठ  : पुं० [सं० अन्=नहीं+पण्यस्थ, पा० पञ्ञट्ठ, हिं० पैठ] बाजार न लगने का दिन। वह दिन जिस में दिन पैंठ या बाजार न लगता हो।
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अनैतिक  : वि० [सं० न० त०] जो नीति संगत न हो। नीति-विरुद्ध।
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अनैतिकता  : स्त्री० [सं० अनैतिक+तल्-टाप्] नैतिकता, सदाचार का अभाव। अनाचार। (इम्माँरैलिटी)
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अनैतिहासिक  : वि० [सं० न-ऐतिहासिक,न० त०] जो इतिहास से सिद्ध न हो अथवा उसके अनुरूप न हो या उसमें न आया हो।
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अनैश्वर्य  : पुं० [सं० न-ऐश्वर्य, न० त०] १. ऐश्वर्य या बड़प्पन का अभाव। अप्रभुत्व। २. संपत्ति का न होना। ३. योग में, ऐश्वर्य आदि सिद्धियाँ प्राप्त न होना।
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अनैस  : वि० [स्त्री० अनैसी]=अनेस।
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अनैसना  : अ० [हिं० अनैस] १. बुरा मानना। २. रूठना।
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अनैसर्गिक  : वि० [सं० न० त०] १. निसर्ग या प्रकृति के विरुद्ध या उससे अलग। अप्राकृतिक। २. प्रकृति या स्वभाव के विरुद्ध। अस्वाभाविक। (अन्नैचुरल)
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अनैसा  : वि० =अनेस। पुं०=अंदेशा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनैसी  : स्त्री० [हिं० अनैस] अनिष्ट या बुरा होने की अवस्था या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनैसे  : क्रि० वि० [हिं० अनैस] १. बुरे भाव या विचार से। २. बुरी तरह से।
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अनैहा  : पुं० [हिं० अनैस] १. उत्पात। उपद्रव। २. दुष्टता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनोखा  : वि० [सं० अन्+ईश्=देखना] [स्त्री० अनोखी] १. जिसे पहले कभी देखा न हो। २. जो सहसा देखने में न आता हो। ३. जो अपनी विलक्षणता या अप्रसमता के कारण आश्चर्य-चकित करे। ४. अज्ञात। अपरिचित। ५. विशिष्ट।
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अनोखापन  : पुं० [हिं० अनोखा+पन (प्रत्यय)] अनोखे होने की अवस्था या भाव। अनूठापन। विचित्रता। विलक्षणता।
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अनोय  : पुं० [सं० अन्वेषण] खोज।
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अनोसर  : पुं० [हिं० अन+सं० अवसर] वैष्णव-मंदिरों में, देव मूर्ति के समय की वह स्थिति जब मूर्ति के सामने परदा गिरा या द्वार बंद रहता है। २. देव-मूर्ति के दर्शनों के लिए अनुपयुक्त समय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनौचित्य  : पुं० [सं० न-औचित्य, न० त०] अनुचित होने का भाव। नामुनासिब होना।
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अनौट  : स्त्री०=अनवट।
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अनौद्वत्य  : पुं० [सं० न-औद्वत्य, न० त०] उद्वत होने की अवस्था या भाव।
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अनौधि  : अव्य [हिं० अन+सं० अवधि] बिना विलंब किए। तुरंत। शीघ्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनौपचारिक  : वि० [सं० न-औपचारिक, न० त०] [भाव० अनौपचारिकता] जो उपचार के रूप में या औपचारिक न हो। औपचारिक का विपर्याय। (इन-फारमल)
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अनौपम्य  : वि० [सं० न-औपम्य, न० ब०] जिसकी उपमा न दी जा सके। अनुपम। पुं० अनुपम होने की दशा या भाव।
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अनौरस  : वि० [सं० न-औरस, न० त०] १. जो औरस (विवाहित पत्नी) से उत्पन्न हुआ हो। २. अवैध या गोद लिया हुआ (पुत्र)।
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अनौहैं  : क्रि० वि० [सं० अग्रमुख) १. आगे। सामने। २. आगे से। सामने से।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्न  : पुं० [सं०√अन् (जीना)+नन् या√यद्(खाना)+क्त] १. कुछ पौधों के वे विशिष्ट दाने जो मनुष्य के भोजन के काम आते हैं। (ग्रेन) जैसे—गेहूँ, चावल, दाल आदि। २. पकाया हुआ अन्न। ३. भात। ४. सूर्य। ५. विष्णु। ६. प्राण। ७. पृथ्वी। ८. जल। वि० [सं० अन्य] १. अन्य। दूसरा। २. विरुद्ध।
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अन्न-कूट  : पुं० [ष० त०] १. अन्न का ढेर या राशि। २. कार्त्तिक शुक्ल प्रतिपदा को होने वाला एक पर्व जिसमें अनेक प्रकार के भोजन व पकवान बनाकर देवता के सामने राशियों के रूप में रखे जाते हैं। विशेष—यह पर्व कार्त्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक किसी दिन मनाया जा सकता है।
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अन्न-कोष्ठ  : पुं० [ष० त०] १. अन्न रखने का स्थान या कोठरी। धान्यागार। २. कोठिला। बखार। ३. गंज। गोला।
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अन्न-गंधि  : स्त्री० [ब० स] अतिसार (रोग)।
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अन्न-चोर  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जो अन्न छुपाकर रखता हो, तथा चोर बाजार में मँहगे भाव बेचता हो।
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अन्न-छेत्र  : पुं० दे० ‘अन्न-सत्र’।
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अन्न-जल  : पुं० [द्व० स०] १. खाने-पीने की सामग्री। २. जीविका। ३. कहीं रहकर वहाँ खाने-पीने की स्थिति। मुहावरा—अन्न-जल उठना=एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान पर जाना। जैसे—हमारा यहाँ से अन्न-जल उठ गया है। अन्न-जल छोड़ना या त्यागना=उपवास करना।
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अन्न-जीवी (विन्)  : पुं० [सं० अन्न√जीव् (जीना)+णिनि] वह जो केवल अन्न खाकर जीवन निर्वाह करता हो।
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अन्न-दाता (तृ)  : पुं० [ष० त०] १. अन्न दान करनेवाला। २. अन्न देकर पालने-पोसनेवाला।
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अन्न-दास  : पुं० [मध्य० स०] भोजन-मात्र लेकर काम करनेवाला नौकर।
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अन्न-दोष  : पुं० [ष० त०] १. अन्न का सेवन करने से उत्पन्न होनेवाला शारीरिक विकार। २. वह दोष या दुर्गुण जो निषिद्ध स्थान या व्यक्ति का अन्न खाने से होता हैं।
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अन्न-द्वेष  : पुं० [तृ० त०] १. अन्न से अरुचि होना। २. भूख न लगना।
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अन्न-पति  : पुं० [ष० त०] १. अन्न का स्वामी। २. सूर्य। ३. अग्नि। ४. शिव।
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अन्न-पाक  : पुं० [ष० त०] १. अन्न पकाने की क्रिया या भाव। २. पेट में अन्न-पाचन होने की क्रिया या भाव।
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अन्न-पूर्णा  : स्त्री० [तृ० त०] शिव की पत्नी जो सबको भोजन देनेवाली मानी जाती है।
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अन्न-प्राशन  : पुं० [ष० त०] वह संस्कार जिसमें छोटे बच्चों के मुँह अन्न पहले-पहल लगाया जाता है।
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अन्न-मेल  : पुं० [ष० त०] १. निष्ठा। २. यव आदि से बनी हुई मदिरा। शराब।
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अन्न-वस्त्र  : पुं० [द्व० स०] खाने-पीने, कपड़े पहनने और रहने-सहने की सामग्री अथवा व्यय। रोटी-कपड़ा।
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अन्न-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. अनाज रखने का स्थान। अन्न का भंडार। २. किसी देश का वह क्षेत्र जिसमें बहुत अधिक अनाज होता हो और जहाँ से दूसरों स्थानों को भेजा जाता हो। (ग्रेनरी)
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अन्न-शेष  : पुं० [ष० त०] १. जूठन। २. भूसी, चोकर आदि।
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अन्न-सत्र  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ दरिद्रों को पका हुआ भोजन दिया या खिलाया जाता है।
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अन्नथा  : अव्य=अन्यथा।
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अन्नद  : वि० [सं० अन्न√दा (देना)+क] अन्न देनेवाला।
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अन्नदा  : स्त्री० [सं० अन्नद+टाप्] १. अन्न देनेवाली स्त्री। २. अन्नपूर्णा। ३. दुर्गा।
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अन्नपूर्णश्वरी  : स्त्री० [अन्नपूर्णा-ईश्वरी, कर्म० स०] १. अन्नपूर्णा। २. एक भैरवी का नाम। (तंत्र)
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अन्नमयकोश  : पुं० [सं० अन्नमय,अन्न+मयट्, अन्नमय-कोश, कर्म० स०] वेदान्त में, आत्मा को आवृत्त करनेवाले पाँच कोषों में से एक जो स्थूल शरीर के रूप में माना गया है। विशेष—स्थूल शरीर माता-पिता के खाये हुए अन्न और उससे बने हुए रजवीर्य से बनता हैं।
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अन्ना  : स्त्री० [सं० अग्नि] वह अँगीठी जिसमें चाँदी, सोना आदि धातुएँ तपाई जाती हैं। स्त्री० [सं० अम्ब] दाई। धाय।
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अन्नाद  : पुं० [सं० अन्न√अद् (खाना)+अण्] १. वह जो सबको ग्रहण करे, ईश्वर। २. विष्णु। वि० अन्न खानेवाला। अन्न भोजी।
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अन्नियाय  : वि० =अन्याय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्नोदक  : पुं० [सं० अन्न-उदक, द्व० स०]=अन्न जल।
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अन्य  : वि० [सं०√अन् (जीना)+य] १. उद्दिष्टि या प्रस्तुत को छोड़कर। और कोई। दूसरा। इतर। भिन्न। २. बादवाला। ३.अवशिष्ट। बचा हुआ।
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अन्य-चित्त  : वि० [ब० स०]=अन्यमनस्क।
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अन्य-जात  : वि० [ष० त०] (वस्तु) जो खो या नष्ट हो चुकी हो।
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अन्य-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] व्याकरण में (वक्ता और श्रोता से भिन्न) वह व्यक्ति या वस्तु जिसके विषय में कुछ कहा जाए। (थर्डपरसन)।
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अन्य-पुष्ट  : वि० [तृ० त०] जिसका पोषण किसी और के द्वारा हुआ हो। पुं० कोकिल। कोयल।
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अन्य-पूर्वा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. एक को ब्याही जाकर या वास्तव होकर फिर दूसरी से ब्याही जाने वाली कन्या। २. पुनर्विवाह करने वाली स्त्री। पुनर्भू।
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अन्य-भृत  : वि० [सं० अन्य√भू० (पोषण करना)+क्विप्] दूसरे का पालन करनेवाला। पुं० काक। कौआ।
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अन्य-मना (नस्)  : वि०=अन्यमनस्क।
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अन्य-मानस  : वि०=अन्यमनस्क।
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अन्य-वाप  : पुं० [ब० स०] कोयल।
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अन्य-संगम  : पुं० [तृ० त०] अपनी पत्नी या पति को छोड़कर किसी दूसरे के साथ होनेवाला अवैध लैगिंक संबंध।
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अन्य-संभोग-दुःखिता  : स्त्री० [सं० अन्य-संभोग, तृ० त० अन्य संभोग-दुःखिता, तृ० त०] साहित्य में, वह नायिका जो किसी दूसरी स्त्री के लक्षणों से यह जान ले कि इसने मेरे पति के साथ संभोग किया है और इस कारण से दुःखी हो।
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अन्य-साधारण  : वि० [सं० त०] बहुतों में होने या पाया जानेवाला।
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अन्य-सुरति-दुःखिता  : स्त्री० [अन्य-सुरति, तृ० त०, अन्य-सुरति-दुःखिता, तृ० त०] दे० ‘अन्य-संभोग-दुःखिता’।
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अन्यग  : पुं० [सं० अन्य√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० अन्यगा] अन्य स्त्री के पास जाने या उससे संबंध रखनेवाला व्यक्ति। व्यभिचारी।
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अन्यगामी (मिन्)  : पुं० [सं० अन्य√गम् (जाना)+णिनि] [स्त्री० अन्यगामिनी] दे० ‘अन्यग’।
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अन्यच्च  : अव्य० [सं० अन्यत्-च, द्व० स०] १. और भी। २. इसके सिवा।
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अन्यतः  : क्रि० वि० [सं० अन्य+तमप्] १. किसी और के द्वारा। दूसरे से। २. किसी और स्थान से।
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अन्यतम  : क्रि० वि० [सं० अन्य+तमप्] जो किसी की तुलना में अन्य या दूसरा न ठहरे, अर्थात् सर्वश्रेष्ठ। पहला और श्रेष्ठ।
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अन्यतर  : वि० [सं० अन्य+तरप्] १. दो में से कोई एक। २. दूसरा। अलग, भिन्न।
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अन्यत्र  : अव्य० [सं० अन्य+वल्] किसी और स्थान पर। किसी दूसरी जगह।
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अन्यत्व  : पुं० [सं० अन्य+त्व] अन्य या दूसरा होने की अवस्था या भाव।
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अन्यत्व-भावना  : स्त्री० [ष० त०] जीवात्मा को शरीर से भिन्न समझना। (जैन)
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अन्यथा  : अव्य० [सं० अन्य+थाच्] दूसरी या विपरीत अवस्था में। नहीं तो। (अदरवाइज) वि० १. विपरीत। उलटा। २. सत्य या वास्तविक से विपरीत। मिथ्या। झूठ। मुहावरा—अन्यथा करना=पहले की आज्ञा या निश्चय रद्द करना या उलटना। (सेट एसाइड)।
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अन्यथा-भाव  : पुं० [तृ० त०] अन्य, दूसरे या भिन्न रूप में होना।
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अन्यथा-सिद्धि  : स्त्री० [तृ० त०] न्याय या तर्क में, किसी अ-यथार्थ या अ-प्रत्यक्ष कारण के आधार पर कोई बात सिद्ध करना, जो दोष माना गया है।
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अन्यदीय  : वि० [सं० अन्य+छ-ईय० दुक्] अन्य या दूसरे का। पराया।
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अन्यबीजज  : पुं० [अन्य-बीज, ष० त० अन्यबीज√जन् (उत्पन्न होना)+ड] दत्तक पुत्र।
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अन्यमनस्क  : वि० [ब० स० कप्] जिसका ध्यान और मन किसी दूसरी तरफ हो। अन-मना।
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अन्यमातृज  : वि० [वि० -मातृ, कर्म० स० अन्यमातृ√जन् (उत्पन्न होना)+ड] दूसरी या सौतेली माता से उत्पन्न।
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अन्यवादी (दिन्)  : वि० [सं० अन्य√वद् (बोलना)+णिनि] झूठी गवाही देनेवाला। पुं० प्रतिवादी।
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अन्यस  : अव्य०=अन्य को। उदाहरण—भजिए कान मूँदकर अन्यस।—निराला।
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अन्याई  : वि० =अन्यायी। उदाहरण—बहुत करी अन्याई।—सूर। स्त्री०=अन्याय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्यापदेश  : पुं० [अन्य-अपदेश, ष० त०] दे०‘अन्योक्ति’ (अलंकार)।
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अन्याय  : पुं० [सं० न० त०] १. न्याय न करने या होने की क्रिया या भाव। २. ऐसा आचरण या कार्य जो न्याय संगत न हो। ३. दूसरे के साथ किया जानेवाला अति अनुचित व्यवहार।
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अन्यायी (यिन्)  : वि० [सं० अन्याय+इनि] १. जो न्याय न करता हो। अन्याय करनेवाला। २. दूसरों के प्रति अनुचित व्यवहार करनेवाला।
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अन्याय्य  : वि० [सं० न० त०] जो न्याय-संगत न हो। न्याय-विरुद्ध।
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अन्यारा  : वि० [हिं० अ=नहीं+न्यारा] १. जो न्यारा या अलग न हो। मिला हुआ। २. अनोखा। विलक्षण। वि० [स्त्री० अन्यारी०] दे० ‘अनियारा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)क्रि० वि० [१] बहुत। अधिक। उदाहरण— बढ़े बंस जग मँह अन्यारा। छत्र धर्मपुर को रखवारा।
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अन्यार्थ  : वि० [सं० अन्य+अर्थ, ब० स०] उद्दिष्ट अर्थ से भिन्न अर्थ भी प्रकट करने वाला। जिसका अर्थ कुछ और हो। पुं० उद्दिष्ट से भिन्न अर्थ।
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अन्याश्रित  : वि० [सं० अन्य-आश्रित, ष० त०] दूसरे पर आश्रित या अवलंबित।
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अन्यास  : अव्य=अनायास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्यासाधारण  : वि० [अन्य-असाधारण, स० त०] १. जो बहुतों में न हो। असाधारण। २. विचित्र।
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अन्यून  : वि० [सं० न० त०] जो न्यून या कम न हो, फलतः यथेष्ट।
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अन्योक्ति  : स्त्री० [अन्य-उक्ति, च० त०] ऐसी व्यंग्यपूर्ण उक्ति जो कही तो किसी और के संबंध में जाए, पर इस ढ़ंग से कही जाए किसी दूसरे पर भी वह ठीक-ठाक घट जाए। अ-प्रत्यक्ष कथन। जैसे—(किसी दुष्ट वाचाल को सुनाकर) तोते से यह कहना कि तुम हरदम टे-टे करते रहते हों, कभी ‘राम’ का नाम नहीं लेते।
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अन्योन्य  : वि० [सं० अन्य, द्वित्व, सु का आगम, रूत्व उत्व, गुण] [भाव० अन्योन्यता] आपस में या एक-दूसरे से लिया दिया जानेवाला। (रेसिप्रोकल) पुं० साहित्य में, एक अलंकार जिसमें दो कार्यों, वस्तुओं आदि के एक दूसरे के कारण कार्य का संबंध बतालाया जाता है अथवा दोनों के एक दूसरे के प्रति समान रूप से कार्य करने का उल्लेख होता हैं। जैसे—(क) बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज होता है। (ख) चंद्रमा के बिना रात और रात के बिना चंद्रमा की शोभा नहीं होती।
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अन्योन्य-प्रजनन  : पुं० [ब० स०] विभिन्न जाति के पशुओं या पौधों के पारस्परिक संसर्ग द्वारा उत्पन्न पशु या पौधे। (क्रास-ब्रीडिंग)
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अन्योन्य-विभाग  : पुं० [स० त०] पैतृक संपत्ति का बँटवारा करने की क्रिया या भाव।
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अन्योन्यता  : स्त्री० [सं० अन्योन्य+तल्-टाप्] अन्योन्य होने या आपस में एक-दूसरे के साथ किए या लिये दिये जाने की अवस्था या भाव। (रेसिप्रोसिटी)
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अन्योन्याभाव  : पुं० [सं० अन्योन्य-अभाव, ष० त०] तर्कशास्त्र में इस बात का सूचक स्थिति कि जो कुछ एक वस्तु है वह दूसरी वस्तु नहीं हो सकती।
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अन्योन्याश्रय  : पुं० [अन्योन्य-आश्रय, ष० त०] १. दो वस्तुओं का आपस में या एक-दूसरे पर आश्रित होना। २. न्याय में, एक वस्तु के ज्ञान से दूसरी वस्तु का होनेवाला ज्ञान। सापेक्ष ज्ञान।
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अन्योन्याश्रयी (यिन्)  : वि० [अन्योन्य-आश्रित, ष० त०] दे० ‘अन्योन्याश्रयी’।
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अन्योवर्य  : वि० [सं० अन्य-उदर, कर्म० स० अन्योदर+यत्] दूसरे के पेट से उत्पन्न। सहोदर का विपर्याय।
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अन्वक्ष  : वि० [सं० अनु-अक्ष, गतिस० अच्] १. दृश्य। प्रत्यक्ष। २. अनुभवगम्य। ३. बाद का। पीछेवाला। क्रि० वि० [अव्य० स०] १. सामने। २. उपरांत। पीछे। बाद।
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अन्वय  : पुं० [सं० अनु√इ (गति)+अच्] [भू० कृ० अन्वित] १. दो वस्तुओं के आपस का संबंध या उनमें होनेवाली अनुरूपता। २. पद्य या कविता की वाक्य-रचना को गद्य की वाक्य-रचना के अनुसार बैठाने या ठीक करने की क्रिया। ३. किसी वाक्य की शब्दावली के अनुसार उसका ठीक और संगत अर्थ लगाना। ४. कार्य और कारण का पारस्परिक संबंध। ५. एक बात सिद्ध करने के लिए दूसरी बात की सिद्धि या उससे संबंध स्थापित करना। ६. अवकाश। ७. कुल। ८. वाक्य के शब्दों का पारस्परिक संबंध। (व्याकरण)
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अन्वय-व्यतिरेक  : पुं० [द्व० स०] १. नियम और अपवाद। २. संगति और असंगति।
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अन्वय-व्याप्ति  : स्त्री० [तृ० त०] निश्चयात्मक या स्वीकारात्मक तर्क।
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अन्वयागत  : वि० [अन्वय-आगत, प० त०]जो वंश-परंपरा से चला आ रहा हो। वंशानुक्रमिक।
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अन्वयार्थ  : पुं० [अन्वय-अर्थ, मध्य० स०] (पद या वाक्य का) अन्वय से निकलनेवाला अर्थ।
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अन्वयी (सिन्)  : वि० [सं० अन्वय+इनि] १. अन्वययुक्त। संबंद्ध। २. (वे कई) जो एक ही वंश से उत्पन्न हों।
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अन्वर्थ  : वि० [सं० अनु+अर्थ, अत्या० स०] १. (शब्द या पद) जो अर्थ का अनुगमन या अनुसरण करता हो। ठीक अर्थ में प्रयुक्त होनेवाला। यथार्थ और स्पष्ट। २. सार्थक।
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अन्वर्थता  : स्त्री० [सं० अन्वर्थ+तल्-टाप्] अन्वर्थ होने की अवस्था या भाव।
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अन्वष्टका  : स्त्री० [सं० अनु-अष्टका, अत्या० स०] एक मातृक श्राद्ध जो अष्टका के अनंतर पूस माघ, और फागुन की कृष्ण नवमी को किया जाता हैं।
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अन्वाख्यान  : पुं० [सं० अनु-आ√ख्या(प्रकथन)+ल्युट्-अन] १. मूल के अनुसार की हुई व्याख्या। २. सूक्ष्म लेखा। ३. पर्व। ४. अध्याय।
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अन्वादिष्ट  : वि० [सं० अनु-आ√दिश् (बताना)+क्त] जिसमें पहले किसी नियम की ओर संकेत किया गया हो।
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अन्वादेश  : पुं० [सं० अनु-आ√दिश्+घञ्] पहले के किसी नियम की ओर संकेत करना।
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अन्वाधान  : पुं० [सं० अनु-आ√धा (धारण)+ल्युट्-अन] अग्निहोत्र की अग्नि की स्थापना के बाद उसे बनाये रखने के लिए उसमें ईधन डालना।
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अन्वाधेय  : पुं० [सं० अनु-आ√धा+यत्] वह धन जो विवाह के पश्चात् नव वधू को उसके पति के घर से मिला हो।
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अन्वाय  : पुं० [सं० अनु√अय् (गति)+घञ्] सेना के किसी एक अंग की अधिकता। (अर्थशास्त्र)
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अन्वायन  : पुं० [सं० अनु-आ√अय्+ल्युट्-अन]=अन्वाधेय।
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अन्वारोहण  : पुं० [सं० अनु-आ√रूह(चढ़ना)+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे चलना या चढना। २. पति की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर की चिता पर चढ़ना।
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अन्वासन  : पुं० [सं० अनु-आ√आस्(बैठना)+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे आसन ग्रहण करना। पीछे बैठना। २. आराधना या सेवा करने का भाव। ३. धार्मिक कार्यो में रत या लगे रहना।
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अन्वाहार्य  : पुं० [सं० अनु-आ√हृ (हरण करना)+ण्यत्] १. यज्ञ में पुरोहित को दी जाने वाली दक्षिणा या भोजन। २. मासिक श्राद्ध।
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अन्वाहार्य-श्राद्ध  : पुं० [कर्म० स०] वह सपिंड श्राद्ध जो अमावस्या के लगभग किया जाता है। मासिक श्राद्ध।
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अन्वाहिक  : वि० [सं० आन्वाहिक] दैनिक।
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अन्वाहित  : वि० [सं० अनु-आ√धा (धारण करना)+क्त] वह द्रव्य जो उसके मालिक को देने के लिए दूसरे को सौंपा गया हो।
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अन्वित  : वि० [सं० अनु√इ (गति)+क्त] [भाव० अन्विति] १. जिसका अन्वय हुआ हो। २. मिला हुआ। युक्त। ३. किसी के साथ जुड़ा हुआ या पीछे लगा हुआ। ४. किसी तत्त्व या भाव से भरा या दबा हुआ अथवा अभिभूत। जैसे—विस्मयान्वित।
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अन्वितार्थ  : पुं० [अन्वित-अर्थ, कर्म० स०] १. अन्वय करने पर निकलने वाला अर्थ। २. अन्दर छिपा हुआ अर्थ। गूढ़ आशय।
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अन्विति  : स्त्री० [सं० अनु√इ+क्तिन्] १. अन्वित होने की अवस्था या भाव। २. किसी प्रकार की कृति, प्रभाव, फल आदि के रूप में दिखाई पड़ने वाली एकता, जिसके कारण वह खंडित या विकलांग न जान पड़े। ३. नाटक रचना शैली का एक सिद्धान्त, जिसके अनुसार नाटक का स्वरूप ऐसा समन्वित रखा जाता है कि वह कहीं से बेढ़ंगा, बोदा या भद्दा न जान पड़े। (यूनिटी) विशेष—अरस्तू ने नाटकों के लिए कथा-वस्तु, काल और देश की तीन अन्वितियाँ बतलाई हैं। इनका आशय यह है कि सारे नाटक की कथा-वस्तु ऐसी एक घटना जान पड़े जो एक ही काल और एक ही देश में घटित हुई हो।
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अन्विष्ट  : वि० [सं० अनु√इष् (इच्छा)+क्त] १. चाहा हुआ। इच्छित। २. जिसकी खोज हुई हो।
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अन्वीकृत  : वि० =‘अन्वित’।
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अन्वीक्षण  : पुं० [सं० अनु√ईक्ष् (देखना)+ल्युट्-अन] [कर्त्ता अन्वीक्षक] १. भली-भाँति देखना या सोचना समझना। २. किसी विषय या वस्तु के संबंध में होने वाली एक खोज। तलाश।
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अन्वीक्षा  : पुं० [सं० अनु√ईक्ष्+अङ-टाप्]=अन्वीक्षण।
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अन्वीक्ष्य  : वि० [सं० अनु√ईक्ष्+ण्यत्] १. जिसका अन्वीक्षण होने को हो या हो रहा हो। २. अन्वीक्षा किये जाने के योग्य।
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अन्वेष  : पुं० [सं० अनु√ईक्ष्(इच्छा)+घञ्] दे० ‘अन्वेषण’।
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अन्वेषक  : वि० [सं० अनु√इष्+ण्वुल्-अक] अनसंधान, अन्वेषण या छान-बीन करनेवाला।
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अन्वेषक-प्रकाश  : पुं० [सं० ] दे०‘विचयन प्रकाश’। (सर्चलाइट)
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अन्वेषण  : पुं० [सं० अनु√इष्+ल्युट्-अन] [कर्ता अन्वेषक, अन्वेषी] १. खोजना। ढूढ़ना। २. ऐसी अज्ञात अथवा दूर की बातों वस्तुओं स्थानों आदि का पता लगाना जो अब तक सामने न आई हों। (एक्सप्लोरेशन) ३. दे० ‘अनुसंधान’।
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अन्वेषणा  : स्त्री० [सं० अनु√इष्+युच्, अन-टाप्]=अन्वेषण।
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अन्वेषित  : भू० कृ० [सं० अनु√इष्+क्त] जिसका अन्वेषण हुआ हो।
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अन्वेषी (षिन्)  : वि० [सं० अनु√इष्+णिनि] अन्वेषण करनेवाला। अन्वेषक।
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अन्वेष्टव्य  : वि० [सं० अनु√इष्+तव्यम्] जिसका अन्वेषण होने को हो या किया जा सकता हो।
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अन्वेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० अनु√इष्+तृच्]=अन्वेषक।
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अन्वेष्य  : वि० [सं० अनु√इष्+ण्यत्]=अन्वेष्टव्य।
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अन्हरा  : वि० [सं० अंध] अंधा। नेत्रहीन। पुं० =अँधेरा (अंधकार)।
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अन्हवाना  : स०=नहलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्हाना  : अ०=नहाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्हियारी  : स्त्री०=अँधियारी।
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अप  : उप० [सं०√पा (रक्षण)+ड, न० त०] एक उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है- (क) अलग या दूर, जैसे—अपक्षेप, अपगमन। (ख) अनुचित, निदंनीय या बुरा, जैसे—अपजात, अपव्यय। (ग) नीचे या पीछे,जैसे—अपकर्ष, अपभ्रंश। (घ) रहित या हीन, जैसे—अपकरूण, अपभय। (च) आकस्मिक, जैसे—अपमृत्यु। (छ) गुप्त, छिपा या दबा हुआ, जैसे—अपद्वार। (ज) दिशा, प्रकार आदि का उल्लेख या निर्देश, जैसे—अपदेश। पुं० [सं० आप] जल। पानी। +वि० हिं ‘आप’ या ‘अपना’ का वह संक्षिप्त रूप जो प्रायः यौगिक शब्दों के आरंभ में आने पर होता है। जैसे-अप-काजी, अप-स्वार्थी आदि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप रव  : पुं० [सं० प्रा० स०] धन या संपत्ति के संबंध में होनेवाला झगड़ा या विवाद।
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अप विघ्न  : वि० [सं० ब० स०] बाधा या विघ्न से रहित।
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अप-गुण  : पुं० [सं० प्रा० स०] बुरे गुण।
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अप-घन  : वि० [सं० प्रा० ब०] आकाश, जिसमें घन या बादल न हों। मेघरहित। पुं० [सं० अप√हन् (हिंसा, गति)+अप्-घ आदेश] १. शरीर का कोई अंग। जैसे—हाथ-पैर इत्यादि। २. शरीर।
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अप-दव  : वि० [प्रा० ब०] (वन) जिसमें आग न लगी हो। दावाग्नि से रहित।
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अप-देवता  : पुं० [सं० , प्रा० स०] १. बुरे देवता। २. असुर। राक्षस। ३. भूत-प्रेत।
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अप-द्रव्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] अनुचित, निकृष्ट, या बुरा द्रव्य या धन।
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अप-द्वार  : पुं० [सं० प्रा० स०] चोर-दरवाजा।
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अप-धावन  : पुं० [सं० प्रा० सं० ] १. वाक्छल। २. वक्रोक्ति।
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अप-धूम  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें धुआँ न हो। धूम-रहित।
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अप-ध्यान  : पुं० [सं० प्रा० स०] अनिष्ट, बुरा, चिंतन।
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अप-ध्वांत  : वि० [सं० प्रा० स०] (स्वर) जो सुनने में मधुर न हो। कर्कश। पुं० कर्कश या बे-सुरा शब्द या स्वर।
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अप-रत (ा)  : वि० [हिं० आप+रत] १. जो अपने ही आप में रत या लीन हो। २. मतलबी। स्वार्थी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपक  : पुं० [सं० अप=जल] पानी (डि०)
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अपकरण  : पुं० [सं० अप√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. अपकार करने की क्रिया या भाव। २. खराबी या बुराई करना।
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अपकरुण  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें करुणा न हो अर्थात् निर्दय।
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अपकर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० अप√कृ (करना)+तृच्] १. अपकार करने या हानि पहुँचानेवाला। २. दुष्कर्म करनेवाला। दुष्कर्मी।
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अपकर्म (न्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरा काम। २. पाप।
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अपकर्मा (मन्)  : वि० [सं० ब० स०] बुरे कर्मों वाला। आचरण-भ्रष्ट। २. दूसरे की बुराई करनेवाला।
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अपकर्ष  : पुं० [सं० अप√कृ (खींचना)+घञ्ग्] १. नीचे या पीछे की ओर खींचना। २. घटाव या उतार होना। ३. पद, महत्त्व, मान-मर्यादा आदि में कमी होना। (डेरोगेशन) ४. पतन होना।
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अपकर्षक  : पुं० [सं० अप√कृष्+ण्युल्-अक] १. अपकर्ष करनेवाला। २. जिससे अपकर्ष होता हो।
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अपकर्षण  : पुं० [सं० अप√कृष्+ल्युट्-अन] १. अपकर्ष करने या होने की क्रिया या भाव। २. नीचे या पीछे की ओर खींचा जाना। ३. कमी या ह्वास करना। घटाना।
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अपकर्षित  : भू० कृ०=अपकृष्ट।
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अपकलंक  : पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा कलंक जो मिट न सके।
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अपकल्मव  : वि० [सं० ब० स०] १. पापरहित। २. निष्कलंक।
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अपकषाय  : दे० ‘अपकल्मष’।
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अपकाजी  : वि० [हिं० आप+काज] मुख्य रूप से अपने ही काम का ध्यान रखनेवाला। स्वार्थी।
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अपकार  : पुं० [सं० अप√कृ (करना)+घञ्] १. अहित करने या हानि पहुँचाने वाला कार्य या बात। उपकार का विपर्याय। २. अनुचित आचरण या व्यवहार।
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अपकारक  : वि० [सं० अप√कृ+ण्युल्-अक] [स्त्री० अपकारिका] अपकार करनेवाला।
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अपकारिता  : स्त्री० [सं० अपकारिन्+तल्-टाप्] १. अपकारी होने की अवस्था या भाव। २. अपकार।
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अपकारी (रिन्)  : वि० [सं० अपकार+इनि] [स्त्री० अपकारिनी] अपकार (खराबी या बुराई) करनेवाला।
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अपंकिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो पंकिल या गंदा न हो। २. निर्मल। साफ।
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अपकीरति  : स्त्री०=अपकीर्ति।
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अपकीर्ण  : वि० =अवकीर्ण।
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अपकीर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] कोई अनुचित काम करने पर होने वाला ऐसा अपयश या बदनामी जो पहले की अर्जित कीर्ति या यश के लिए घातक हो। अपयश। बदनामी। (इन्फेमी)
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अपकृत  : भू० कृ० [सं० अप√कृ (करना)+क्त] जिसका अपकार हुआ हो। ‘उपकृत’ का उल्टा।
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अपकृत-आश्रित-श्लेष  : पुं० [कर्म० स०] श्लेष शब्दालंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों में श्लेष होता है।
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अपकृति  : स्त्री० [सं० अप√कृ+क्तिन्] १.=अपकीर्ति। २.=अपकार।
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अपकृत्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरा काम। २. अपकार।
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अपकृष्ट  : वि० [सं० अप√कृष् (खींचना)+क्त] १. जिसका अपकर्षण हुआ हो। २. जिसका महत्त्व या मान घट गया हो। ३. अधम। नीच। ४. घृणित। ५. बुरा। पुं० कौआ।
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अपकृष्टता  : स्त्री० [सं० अपकृष्ट+तल्-टाप्] १. अपकृष्ट अथवा पतित होने का गुण या भाव। २. अधमता। नीचता। ३. दोष। बुराई।
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अपकेंद्री (द्रिन्)  : वि० [सं० अप-केन्द्र, प्रा० स०+इनि] १. केंद्र से निकलकर अलग या दूर हटनेवाला। २. जिसीक क्रिया या शक्ति अपने केन्द्र या मूल से हटकर बाहर या किसी विपरीत दिशा की ओर प्रवृत्त हो। (सेन्ट्रीफ्यूगल)
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अपक्रम  : पुं० [सं० अप√क्रम (गति)+घञ्] १. बदला, बिगड़ा या उलटा क्रम। २. उचित, उपयुक्त या ठीक क्रम का अभाव। वि० [प्रा० ब०] जिसका क्रम बिगड़ा हुआ हो।
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अपक्रमण  : पुं० [सं० अप√क्रम+ल्युट्-अन] १. अपक्रम करने की क्रिया या भाव। २. अपना असंतोष, रोष या विरोध प्रकट करते हुए सभा, समिति आदि का बहिष्कार करना। (वाक आउट)
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अपक्रमी (मिन्)  : वि० [सं० अप√क्रम+णिनि] १. अपक्रमण करनेवाला। २. पीछे लौटनेवाला। ३. भाग जानेवाला। भगोड़ा।
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अपक्रिया  : स्त्री० [सं० अप√कृ+श-इयङ-टाप्] १. दूषित या बुरी क्रिया या कर्म। २. अनुचित या हानिकारक व्यवहार। ३. ऋण-परिशोध।
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अपक्रोश  : पुं० [सं० अप√क्रुश् (बुलाना, रोना)+घञ्] १. बहुत अधिक चीखना चिल्लाना। २. कटु वचन कहना। ३. गाली देना। निंदा करना।
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अपक्व  : वि० [सं० न० त०] १. (अनाज, फल आदि) जो पका या पकाया न हो। कच्चा। २. जिसेक पकने, पूरे या ठीक होने में अभी कुछ करस या विलंब हो। (इम्मेच्योर) ३. जिसका पूर्ण विकास न हुआ हो। जैसे—अपक्व बुद्धि। ४. अकुशल।
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अपक्व-कलुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. शैव दर्शन के अनुसार सकल के दो भेदों में से एक। २. [ब० स०] ऐसा बद्वजीव जो संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करता हो।
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अपक्वता  : स्त्री० [सं० अपक्व+तल्-टाप्] अपक्व होने की अवस्था या भाव। कच्चापन।
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अपक्ष  : वि० [सं० न० ब०] १. जो किसी के पक्ष या दल में न हो। जो समाज में औरों के साथ मिलकर न रहता हो। २. जिसके पक्ष (पंख या पर) न हों।
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अपक्षपात  : पुं० [सं० न० त०] पक्षपात न करने का भाव। निष्पक्षता।
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अपक्षपाती (तिन्)  : वि० [सं० न० त०] पक्षपात न करनेवाला। निष्पक्ष।
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अपक्षय  : पुं० [सं० अप√क्षि (क्षय)+अच्] १. छीजना। ह्रास। २. नाश।
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अपक्षिप्त  : वि० [सं० अप√क्षिप् (फेंकना)+क्त] १. गिराया, फेंका या पलटा हुआ। २. अवक्षिप्त।
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अपक्षेप  : पुं० [अप√क्षिप्+घञ्] १. गिराना, दूर हटाना या फेंकना। २. पीछे हटाना। पलटना।
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अपक्षेपण  : पुं० [सं० अप√क्षिप्+ल्युट्-अन] आक्षेप करने की क्रिया या भाव।
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अपखंड  : पुं० [सं० प्रा० स०]=विखंड।
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अपखोरा  : पुं० [फा० आबखोरा] पुरानी चाल का एक प्रकार का गोड़ेवाला गिलास।
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अपंग  : वि० दे० ‘अपांग’।
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अपग  : वि० [सं० अप√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० अपगा] १. दूर हटनेवाला। २. नीचे या पीछे जानेवाला। ३. बुरे मार्ग पर जानेवाला। वि० [सं० अ+पग] जिसके पग या पैर न हों।
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अपगंड  : वि० [सं० प्रा० स०] दे० ‘अपोगंड’।
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अपगत  : वि० [सं० अप√गम्+क्त] १. जो अपने ठीक मार्ग से इधर-उधर हो गया हो। २. दूर हटा हुआ। ३. आँखों से ओझल। ४. मरा हुआ। मृत। ५. नष्ट।
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अपगति  : स्त्री० [सं० अप√गम्+क्तिन्] १. निकृष्ट या बुरी गति। दुर्गति। २. नीचे की ओर अर्थात् अनुचित या बुरे मार्ग पर होना। ३. पतन। ४. दूर भागना या हटना। ५. नाश।
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अपगम  : पुं० [सं० अप√गम्+घञ्] =अपगमन।
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अपगमन  : पुं० [अप√गम्+ल्युट्-अन] १. नीचे की ओर या बुरे मार्ग पर जाना। २. छिप या भाग जाना। ३. अलग होना। ४. प्रस्थान।
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अपगर  : वि० [सं० √गृ (शब्द)+अप्] १. निंदा या शिकायत करनेवाला। २. गाली देनेवाला।
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अपगर्जित  : वि० [सं० अप√गर्ज् (शब्द)+क्त] न गरजनेवाला। गर्जन-रहित (बादल)।
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अपगा  : स्त्री० [सं० अप√गम् (जाना)+ड-टाप्] =आपगा (नदी)।
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अपघात  : पुं० [सं० अप√हन्+घञ्] १. अनुचित या बुरा आघात। २. हत्या। हिंसा। ३. विश्वासघात। ४. आत्महत्या।
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अपघातक  : वि० [सं० अप√हन्+ण्वुल्-अक] अपघात करनेवाला।
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अपघाती (तिन्)  : वि० [अप√हन्+णिनि] =अपघातक।
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अपच  : वि० [सं० √पच् (पाक)+अच्, न० त०] न पचनेवाला। पुं० १. अन्न के न पचने की दशा या भाव। २. भोजन न पचने का रोग। (इनडाइजेशन)
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अपचय  : पुं० [सं० अप√चि (इकट्ठा करना)+अच्] १. कमी, क्षति, क्षय, घाटा, हानि या ह्रास होने की क्रिया या भाव। २. लेन या प्राप्य के संबंध में होनेवाली रिआयत या कमी। छूट। (अबेटमेन्ट) ३. व्यय। ४. विफलता। पुं० [सं० अपचाय] आदर। सम्मान।
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अपचरण  : पुं० [अप√चर् (गति)+ल्युट्-अन] =अपचार।
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अपचरित  : भूं० कृ० [सं० अप√चर्+क्त] जिसके प्रति अपचरण हुआ हो।
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अपचायित  : वि० [सं० अप√चाय् (पूजा)+क्त] पूजित। सम्मानित।
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अपचार  : पुं० [सं० अप√चर्+घञ्] १. अनुचित, बुरा या निकृष्ट आचरण। दुर्व्यवहार। २. अनिष्ट। बुराई। ३. अनादर। ४. निंदा। ५. अपयश। ६. स्वास्थ्यनाशक व्यवहार। कुपथ्य। ७. अभावहीनता। ८. भूल। ९. दोष। १. भ्रम। ११. अपने अधि-क्षेत्र या सीमा से बाहर जाने अथवा दूसरे के अधिक्षेत्र या सीमा में अनाधिकार प्रवेश करने की क्रिया या भाव। (ट्रेसपास)
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अपचारक  : वि० [सं० अप√चर्+ण्वुल्-अक] अपचार करनेवाला।
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अपचारित  : वि० [सं० अप√चर्+णिच्+क्त] दूसरों के प्रति किया हुआ अनुचित व्यवहार।
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अपचारी (रिन्)  : वि० [सं० अप√चर्+घिनण्] अपचार करनेवाला।
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अपचाल  : पुं० [सं० अप+हिं० चाल] १. अनुचित आचरण। बुरी चाल। २. अनुचित आचरण। बुरी चाल। २. अनुचित या बुरा बरताव या व्यवहार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपचित  : वि० [सं० अप√चाय् (पुजा) या चि (इकट्ठा करना)+क्त] १. जिसका अपचय हुआ हो। २. सम्मानित। ३. दुर्बल। ४. व्यय किया हुआ।
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अपचिति  : स्त्री० [सं० अप√चाय्+क्तिन्] १. हानि। २. नाश। ३. व्यय। ४. प्रायश्चित्त। ५. अलगाव। ६. सम्मान।
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अपची  : स्त्री० [सं० √पच् (पाक)+अच्—डीष्, न० त०] कंठमाला या गंडमाला नामक रोग।
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अपचेता (तृ)  : वि० [सं० अप√चि+तृच्] १. किसी का बुरा सोचनेवाला। २. कंजूस।
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अपच्छाय  : वि० [सं० ब० स०] १. छाया रहित। २. बुरी छायावाला। ३. कांति या प्रभा-रहित। ४. धुँधला। पुं० देवता।
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अपच्छाया  : स्त्री० [सं० प्राय स०] १. बुरी छाया। २. प्रेत।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अपच्छी  : पुं० =अपक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपच्छेद  : पुं० [सं० अप√छिद् (काटना)+घञ्] १. काटकर अलग करना। २. हानि। ३. विघ्न-बाधा।
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अपच्छेदन  : पुं० [सं० अप√छिद्+ल्युट्-अन] अपच्छेद करने की क्रिया या भाव।
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अपच्युत  : वि० [सं० अप√च्यु (ह्रास, सहन)+क्त] १. गिरा हुआ। २. गया हुआ। ३. मृत। ४. पिघलकर बहा हुआ। ५. नष्टप्राय।
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अपछरा  : स्त्री० [सं० अप्सरा, पा० अच्छरा] १. अप्सरा। २. परम सुंदरी स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपजय  : स्त्री० [सं० अप√जि (जीतना)+अच्] पराजय। हार।
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अपजस  : पुं० =अपयश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपजात  : वि० [सं० अप√जन् (प्रादुर्भाव)+क्त] जिसमें अपने उत्पादक या मूल वर्ग के पूरे-पूरे गुण न आये हों। अपेक्षाकृत कम गुणवाला। (डी-जेनरेटेड) पुं० १. वह पुत्र जो कुमार्गी हो गया हो। २. वह पुत्र जो अपने माता-पिता से गुणादि के विचार से घटकर हो। कपूत।
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अपज्जत  : वि० [सं० अपर्याप्त] जो पर्याप्त, यथेष्ट या पूरा न हो। आवश्यक या उचित से कम। थोड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपटन  : पुं० =उबटन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपटा  : वि० [स्त्री० अपटी] =अटपटा।
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अपटी  : स्त्री० [सं० न० त०] १. यवनिका। परदा। २. कपड़े की दीवार। कनात। ३. वस्त्रावरण। ४. आच्छादन।
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अपटीक्षेप  : पुं० [ब० स०] (शीघ्रता अथवा मानसिक व्याकुलता के कारण) परदे को हटाकर किसी पात्र का रंगमंच पर होनेवाला सहसा प्रवेश। (नाट्य)
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अपटु  : वि० [सं० न० त०] [संज्ञा अपटुता] १. जो पटु या कुशल न हो। २. मंद प्रकाशवाला (ग्रह)। (ज्यो०)
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अपटुता  : स्त्री० [सं० न० त०] पटु न होने की अवस्था या भाव।
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अपट्ठयमान  : वि० [सं० अपठ्यमान] जो पढ़ा न जाय। २. न पढ़ने योग्य। उदा०—अपट्ठमान पापग्रंथ पट्ठमान वेद हैं।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपठ  : वि० [सं०√पठ् (पढ़ना)+अच्, न० त०] १. (व्यक्ति) जो पढ़ा-लिखा या शिक्षित न हो। अशिक्षित। २. मूर्ख।
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अपठित  : वि० [सं० न० त०] (पाठ या लेख) जो पढ़ा न गया हो।
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अपड़ना  : अ० [सं० आ+पत्] पहुँचना। (पंजाब और राजस्थान) उदा०—छोटी वीख न आपड़ाँ, लाँबो लाज मरेहि।—ढोला मारू।
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अपडर  : पुं०=डर (भय)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपडरना  : अ० [हिं० अपडर] डरना। भयभीत होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अपड़ाना  : अ० [सं० अपर] १. पहुँचना। २. खींच-तान करना। ३. लड़ाई-झगड़ा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपड़ाव  : पुं० [सं० अपर, हिं० ‘परावा’=पराया] १. लड़ाई-झगड़ा। हुज्जत। २. खींचा-तानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपढ़  : वि० [सं० अपठ] १. जो पढ़ा-लिखा न हो। २. मूर्ख।
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अपढार  : वि० दे० ‘अवढर’।
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अपणी  : स्त्री० [सं० क्षपण+ङीप्] १. नाव खेने का डाँडा। २. चिड़ियाँ, मछलियाँ आदि फँसाने का जाल।
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अपण्य  : वि० [सं० न० त०] १. (वस्तु) जो बेचने के लिए न बनी हो। २. (वस्तु) जिसे धार्मिक या विधिक दृष्टि से बेचना निषिद्ध या वर्जित हो।
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अपत  : वि० [सं० अ=नहीं+पत्=पत्ता] (पौधा, बेल, वृक्ष आदि) जिसमें पत्ते न हों अथवा जिसके पत्ते झड़ गये हों। पत्र-विहीन। वि० [हिं० अ+पत=प्रतिष्ठा] १. जिसकी प्रतिष्ठा न हो। अप्रतिष्ठित। २. निर्लज्ज। वे-हया। उदा०—तौ मेरी अपत करत कौरव-सुत होत पंडवनि ओते।—सूर। वि० [सं० अपात्र] [स्त्री० अप्रतिष्ठा। बे-इज्जती।] अधम। नीच। उदा०—पावन किये रावन रिपु तुलसिंहु से अपत।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपतई  : स्त्री० [सं० अपात्र, पा० अपत्त+हिं० ई (प्रत्य०)] १. ‘अपत’ होने की अवस्था या भाव। २. धृष्टता। ३. उत्पात। उपद्रव। ४. झंझट। बखेड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपतंत्र  : पुं० [सं० ब० स०] =अपतंत्रक।
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अपतंत्रक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] प्रायः स्त्रियों को होनेवाला एक वात रोग जिसमें रोगी के हाथ-पैर ऐंठते हैं, मुँह से फेन निकलता है और प्रायः बेहोशी आती है। वातोन्माद। (हिस्टीरिया)
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अपतानक  : पुं० [सं० अप√तनु (विस्तार)+ण्वुल्] एक वात रोग जो स्त्रियों को गर्भपात होने तथा पुरुषों को विशेष रुधिर निकलने या भारी चोट लगने से हो जाता है।
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अपताना  : पुं० [हिं० अप=अपना+तानना] झंझट। बखेड़ा। जंजाल। अ० [हिं० अपत] १. धृष्टता या ढिठाई करना। २. चंचलता या चपलता दिखाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपति  : वि० [सं० न० ब०] १. (स्त्री) जिसका पति मर गया हो। विधवा। २. जिसका कोई स्वामी न हो। बिना मालिक का। स्त्री० कुमारी कन्या। वि० [सं० अ०=बुरा+पति=गति] १. पापी। दुराचारी। २. निर्लज्ज। स्त्री० [सं० अ+पत=प्रतिष्ठा, पति=गति] १. दुर्गति। दुर्दशा। २. अपमान। अप्रतिष्ठा। ३. दे० ‘अपतई’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपतिक  : वि० [सं० न० ब०, कप्] १. (स्त्री) जिसका पति या स्वामी न हो। २. जिसका पति मर चुका हो। विधवा। ३. जिसका विवाह न हुआ हो। कुमारी।
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अपती  : स्त्री० [देश०] नाव के सिरे पर लगाई जानेवाली एक छोटी लकड़ी। स्त्री० [हिं० अ+पत=प्रतिष्ठा] १. वह जिसकी कुछ भी प्रतिष्ठा न हो। २. उपद्रवी। शरारती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपतुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी के अपकार, आक्रमण, विरोध आदि करने पर लड़ाई-झगड़े से बचने के लिए उसकी कुछ बातें मान कर और उससे कुछ दबकर उसे तुष्ट या प्रसन्न करने की क्रिया या भाव। (एपीजमेन्ट)
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अपतोस  : पुं० दे० ‘अफसोस’।
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अपत्त  : स्त्री० [सं० आपत्ति] १. उपद्रव। उत्पात। २. अन्यायपूर्ण आचरण। धींगा-धींगी।
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अपत्तव्य  : वि० [सं० प्रा० स०] १. ‘सव्य’ का उलटा। दाहिना। २. उलटा। विपरीत। ३. जिसने पितृ-कर्म करने के लिए जनेऊ अपने दाहिने कंधे पर रखा हो।
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अपत्नी  : वि० स्त्री० [सं० न० त०] १. जो किसी की पत्नी न हो। अविवाहिता। कुमारी। २. विधवा।
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अपत्नीक  : वि० [सं० न० ब०, कप्] (पुरुष) जिसकी पत्नी न हो अथवा मर चुकी हो।
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अपत्य  : पुं० [सं० √पत् (गिरना)+पत्, न० त०] औलाद। संतान।
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अपत्य-विक्रयी (यिन्)  : वि० [ष० त०] अपनी संतान बेचनेवाला।
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अपत्य-शत्रु  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका शत्रु उसकी अपत्य या संतान हो। २. जो अपने अंडे या बच्चे स्वयं खा जाय। पुं० [ष० त०] १. केकड़ा। २. साँप।
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अपत्र  : वि० [सं० न० ब०] १. (वृक्ष) जिसमें पत्ते न हों। २. (पक्षी) जिसके पंख या पर न हों।
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अपत्रप  : वि० [सं० प्रा० ब०] १. निर्लज्ज। २. धृष्ट। ढीठ।
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अपत्रस्त  : वि० [सं० अप√त्रस् (उद्वेग)+क्त] जो डर से त्रस्त हो। बहुत भयभीत।
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अपथ  : पुं० [सं० न० त०] १. वह मार्ग जो चलने के योग्य न हो। बीहड़ या विकट मार्ग। २. अनुचित या बुरा मार्ग। कुमार्ग।
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अपथगामी (मिन्)  : वि० [सं० अपथ√गम् (जाना)+णिनि] १. अनुचित या बुरे रास्ते पर चलनेवाला। २. चरित्र-हीन।
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अपथ्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो पथ्य न हो। स्वास्थ्य-नाशक। २. दे० ‘कुपथ्य’।
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अपद  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके पैर न हों। बिना पैर का। जैसे—मछली, साँप आदि। २. जो किसी पद या ओहदे पर न हो। पुं० [न० त०] १. अनुचित या अनुपयुक्त पद या स्थान। २. अनुपयुक्त समय।
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अपदस्थ  : वि० [सं० पत√स्था (ठहरना)+क, न० त०] जो अपने पद, स्थान या सेवा से हटा दिया गया हो। पदच्युत।
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अपदांतर  : वि० [सं० न० ब०] १. संयुक्त। मिला-जुला। २. अति निकट। समीप। ३. समान। बराबर। क्रि० वि० शीघ्र। तत्क्षण।
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अपदान  : पुं० [सं० अप√देप् (शोधन)+ल्युट्—अन; पा० अवदान] १. अच्छा और प्रशंसनीय कार्य। २. वह कथानक जिसमें लोगों के पूर्व और भावी जन्मों के अच्छे और बुरे कर्मों का उल्लेख हो।
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अपदार्थ  : वि [सं० न० त०] १. जो पदार्थ न हो। (नॉन-मैटर) २. जिसमें तत्त्व या सार न हो। ३. तुच्छ। नगण्य। पुं० तुच्छ वस्तु।
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अपदिष्ट  : वि० [सं० अप√दिश् (बताना)+क्त] १. अपदेश के रूप में किया या कराया हुआ। २. कहा हुआ। ३. प्रयुक्त।
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अपदेखा  : वि० [हिं० अप=अपने को+देखा=देखनेवाला] १. अपने को अधिक या बड़ा माननेवाला। घमंडी। २. स्वार्थी। मतलबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपदेश  : पुं० [सं० अप√दिश्+घञ्] १. कोई कार्य करने की आज्ञा देना अथवा ढंग, प्रकार, स्वरूप या विधि बतलाना। निर्देश। २. लक्ष्य। उद्देश्य। ३. बुरा देश या स्थान। ४. कारण या हेतु। ५ बहाना। ६. प्रसिद्धि। ७ छिपाना। ८ इनकार।
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अपध्वंस  : पुं० [सं० अप√ध्वंस् (नष्ट करना)+घञ्] १. नीचे की ओर गिरना। अधःपतन। २. नाश। ३. अपमान। ४. हार।
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अपध्वंसी (सिन्)  : वि० [सं० अप√ध्वंस्+णिनि] अपध्वंस करनेवाला।
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अपध्वस्त  : भू० कृ० [सं० अप√ध्वंस+क्त] १. जिसका अपध्वंस हुआ हो। विनष्ट। २. निंदित। ३. अपमानित।
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अपन  : सर्व० १. दे० ‘अपना’। २. दे० ‘हम’। (मुहा०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपनपौ  : पुं० [हिं० अपना+पौ या पा (प्रत्य०)] १. अपनापन। निजस्व। मुहा०
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अपनय  : पुं० [सं० अप√नी (ले जाना)+अच्] १. अनीति। २. संधि आदि उचित रीति से न करना जिससे विपत्ति की संभावना होती है। (कौ०) ३. दे० ‘अपनयन’।
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अपनयन  : पुं० [सं० अप√नी (ले जाना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अपनीत, कर्ता अपनेता] १. अलग, जुदा या दूर करना। हटाना। २. एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना या पहुँचाना। जैसे—गणित में किसी अंक या परिमाण का अपनयन। ३. किसी स्त्री या बालक को उसके पति या पिता के घर से छिपा या बहकाकर कहीं और ले जाना। अभिहरण। ४. खंडन। ५. ऋण चुकाना।
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अपना  : सर्व० [सं० आत्मन्, प्रा० अप्पण, पुं० हिं० अप्पना] एक संबंधवाचक सर्वनाम जिसका प्रयोग (प्रायः विशेषण रूप में) निम्नलिखित आशय सूचित करने के लिए होता है। (क) (वक्ता की दृष्टि से) शरीर, मन या अधिक्षेत्र से संबंध रखनेवाला, जैसे—अपना हाथ, अपना विचार या अपना काम। (ख) हरएक की दृष्टि से उसका। जैसे—आप लोग अपना अपना मत प्रकट करें। (ग) (विधिक दृष्टि से) जिस पर किसी का अधिकार, प्रभुत्व या स्वामित्व हो। जैसे—यह उनका अपना मकान है (अर्थात् किराये या मँगनी का नहीं है)। और (घ) सामाजिक दृष्टि से) जिसका संबंध किसी वर्ग या समाज के सब लोगों से हो। जैसे—अपना देश, अपनी भाषा, अपना शासन।मुहा०
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अपनाइयत  : स्त्री० =अपनायत।
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अपनाना  : स० [हिं० अपना] १. अपना बनाना। अपना कर लेना। २. ग्रहण या स्वीकार करना। ३. अपने अधिकार या वश में करना। ४. किसी को अपनी शरण में लेना। ५. गले लगाना।
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अपनापन  : पुं० [हिं० अपना] १. अपना होने की स्थिति या भाव। आत्मीयता। २. आत्माभिमान।
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अपनापा  : पुं० [हिं० अपना+आपा (प्रत्य०)] अपनापन।
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अपनाम (न्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] नाम या प्रसिद्धि में लगनेवाला कलंक। बदनामी।
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अपनायत  : स्त्री० [हिं० अपना+यत (प्रत्य०)] १. अपना होने का भाव। आत्मीयता। २. आपसदारी का संबंध। बहुत पास का वैसा व्यवहार या संबंध जैसा सगे-संबंधियों से होता है।
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अपनाव  : पुं० [हिं० अपना] अपनाने की क्रिया या भाव।
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अपनाश  : पुं० [हिं० आप+नाश] अपना नाश स्वयं करने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपनीत  : भू, कृ० [सं० अप√नों (ले जाना)+क्त] १. दूर किया या हटाया हुआ। २. एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाया हुआ। ३. जिसे कोई भगा या हर ले गया हो। (एब्डक्टेड) विशेष दे० ‘अपनयन’
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अपनेता  : वि० [सं० अप√नो+तृच्] अपनयन करने, किसी को भगाने या हरनेवाला। (ऐब्डक्टर)
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अपनोद  : पुं० [सं० अप√नुद् (प्रेरणा+घञ्] १. दूर करना। हटाना। २. प्रायश्चित करना।
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अपनोदन  : पुं० [सं० अप√नुद्+ल्युट्-अन]=अपनोद।
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अपन्हव  : पुं० दे० ‘अपह्नव’।
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अपन्हुति  : स्त्री० दे० ‘अपह्नुति’।
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अपपाठ  : पुं० [सं० प्रा० सं० ] १. ग्रंथ या लेख का अशुद्ध पाठ। २. पढ़ने में होनेवाली अशुद्धि।
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अपपात्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. अनधिकारी या अनुपयुक्त पात्र। २. नीच या निम्न जाति का व्यक्ति।
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अपप्रजाता  : स्त्री० [सं० अप—प्र√जन् (उत्पत्ति)+क्त, टाप्] वह स्त्री जिसका गर्भ गिर गया हो।
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अपप्रदान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित रूप से धन देना। २. वह धन या पदार्थ जो अनुचित रूप से किसी को दिया गया हो। घूस। रिश्वत।
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अपबरग  : पुं० दे० ‘अपवर्ग’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपबस  : वि० [हिं० आप+वश] १. जो अपने वश में हो। २. स्वतंत्र। ३. स्वेच्छाचारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपबाहुक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] एक वातजन्य रोग जिसमें बाहु की नसें सूखकर बेकाम हो जाती हैं। भुजस्तंभ रोग।
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अपभय  : वि० [सं० ब० स०] १. जो भयरहित हो। निर्भय। निडर। २. बहादुर। वीर। पुं० [प्रा० स०] अकारण, अनुचित या व्यर्थ का भय।
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अपभाषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ऐसी अश्लील और गंदी बातें कहना जो शिष्ट समाज के लिए अनुचित हों। २. गालियाँ देना या दुर्वचन कहना। (स्कर्रिलिटी)
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अपभाषा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरी भाषा। २. अश्लील या गंदी बातें या भाषा।
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अपभुक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] (धन या पदार्थ) जिसका अपभोग हुआ हो।
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अपभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी विषय या वस्तु का बुरी तरह या अनुचित रूप से किया जानेवाला भोग या उससे उठाया जानेवाला लाभ।
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अपभ्रंश  : पुं० [सं० अप√भ्रंश (अधःपतन)+घञ्] १. नीचे की ओर गिरना। पतन। २. बिगाड़। विकृति। ३. किसी शब्द का बिगड़ा हुआ वह रूप जो उसे इसलिए प्राप्त होता है कि लोग उसका मूल उच्चारण ठीक तरह से और शुद्ध रूप से नहीं कर सकते। स्त्री० प्राचीन मध्यदेश को वह भाषा जो प्राकृत भाषाओं के उपरांत प्रचलित हुई थी और जिसमें आधुनिक देश-भाषाओं का विकास हुआ है।
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अपभ्रंशित  : भू० कृ० [सं० अपभ्रंश+इतच्] १. गिरा हुआ। २. पतित। ३. बिगड़ा हुआ। विकृत।
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अपभ्रष्ट  : वि० [सं० अप√भ्रंश+क्त] १. गिरा हुआ। पतित। २. बिगड़ा हुआ। विकृत। ३. (शब्द) जो किसी तत्सम शब्द से निकलकर अपने विकृत रूप में प्रचलित हो।
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अपमर्द  : पुं० [सं० अप√मृद् (कुचलना)+घञ्] गर्द। धूल।
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अपमर्दन  : पुं० [सं० अप√ मृद् ल्युट-अन] बुरी तरह से कुचलना या रौंदना।
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अपमर्श  : पुं० [सं० अप√मृश् (छूना)+घञ्] १. निंदा। २. स्पर्श। ३. अपहरण। ४. चरना (पशुओं का)।
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अपमान  : पुं० [सं० अप√मा (शब्द, मान)+ल्युट्-अन] १. अभिमान और उद्दंडतापूर्वक किया जानेवाला वह काम या कही जानेवाली वह बात जिससे अपनी या किसी की प्रतिष्ठा या सम्मान कम होता हो अथवा वह उपेक्ष्य या तुच्छ ठहरता हो। किसी का आदर या इज्जत घटानेवाला काम या बात। (डिसग्रेस, इंसल्ट) २. तिरस्कार। ३. दुत्कार।
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अपमान-लेख  : पुं० [ष० त०] ऐसा लेख या वक्तव्य जिससे किसी का अपमान होता हो। (लाइबुल्)
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अपमानकारी (रिन्)  : वि० [सं० अपमान√कृ (करना)+णिनि] जिससे अपमान हो। अपमान करनेवाला।
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अपमानजनक  : वि० [सं० ष० त०] (काम या बात) जिसके फलस्वरूप अपमान होता हो।
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अपमानना  : स० [सं० अपमान] किसी का अपमान करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपमानिक  : वि० [सं० अपमान+ठन्-इक] अपमान-सूचक (शब्द या बात)।
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अपमानित  : भू० कृ० [सं० अपमान+इतच्] जिसका अपमान किया गया हो।
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अपमानी (निन्)  : वि० [सं० अप√मन् (जानना)+णिनि] अपमान करनेवाला।
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अपमान्य  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जिसका अपमान किया जा सकता हो या करना उचित हो। अपमानित होने के योग्य। २. निंदनीय।
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अपमार्ग  : पुं० [सं० प्रा० स०] बुरा मार्ग। कुपथ।
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अपमार्गी (र्गिन)  : वि० [सं० अपमार्ग+इन] बुरे मार्ग या रास्ते पर चलनेवाला। कुमार्गी।
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अपमार्जन  : पुं० [सं० अप√मार्ज् (शुद्ध) ल्युट्-अन, वृद्धि] [भू० कृ० अपमार्जित] १. शुद्धि, संशोधन या सफाई करने की क्रिया या भाव। २. रद्द करने, मिटा देने या निकाल देने की क्रिया या भाव।
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अपमार्जित  : भू० कृ० [सं० अप√मार्ज्+क्त] जिसका अपमार्जन किया गया हो।
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अपमिश्रण  : पुं० [अप√मिश्र (मिलना+ल्युट-अन] किसी अच्छी या बढ़िया चीज में बुरी या घटिया चीज मिलाने की क्रिया या भाव।
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अपमुख  : वि० [सं० ब० स०] टेढ़े मुँहवाला।
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अपमृत्यु  : पुं० [सं० प्रा० स०] असामयिक या आकस्मिक मृत्यु। अकाल मृत्यु।
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अपमृषित  : वि० [सं० अप√मृष् (तितिक्षा)]+क्त (कथन या वाक्य) जो स्पष्ट या समझने-योग्य न हो।
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अपयश (स्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] कोई अनुचित या बुरा काम करने पर होनेवाला यश का नाश। अपकीर्ति। बदनामी। (इग्नामिनी)
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अपयशस्कर  : वि० [सं० अपयशस्√कृ (करना)+ट] (ऐसा कार्य या बात) जिससे कर्ता या अपयश हो।
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अपयान  : पुं० [सं० अप√या (जाना)+ल्युट्-अन] १. चले जाना या हट जाना। २. भाग जाना। पलायन।
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अपयोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरा समय। २. बुरा योग। ३. नियमित मात्रा से अधिक या न्यून औषध पदार्थों का योग। ४. दे० ‘अपयोजन’।
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अपयोजन  : पुं० [सं० अप√युज् (जोड़ना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अपयोजित] किसी का धन या संपत्ति अनुचित रूप से अपने उपयोग या काम में लाना। (मिसएप्रोप्रियेशन)
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अपर  : वि० [सं०√पृ (पूर्ण करना)+अप्, न० त०] [स्त्री० अपरा, भाव० अपरत्व] १. जो पर या बाद का न हो। पहला। २. जिसके बाद या उपरांत कुछ या कोई न हो। ३. जिससे बढ़कर और कोई न हो। ४. प्रस्तुत से भिन्न। और कोई। दूसरा। ५. क्रम, श्रेष्ठता आदि के विचार से किसी के उपरांत या बाद में पड़नेवाला। परवर्ती। ६. जितना हो या हो चुका हो, उससे और अधिक या आगे का। (फर्दर) जैसे—अपर उपशम। ७. पीछे की ओर का। पिछला। जैसे—अपर काय=शरीर का पिछला भाग। ८. किसी दूसरी जाति या वर्ग का। विजातीय। ९. अधम। नीच। पु० हाथी का पिछला आधा भाग। २. बैरी। शत्रु।
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अपर बल  : वि० [सं० प्रबल] १. बलवान। २. उद्धत। ३. बहुत अधिक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपर-दक्षिण  : पुं० [अव्य० स०] दक्षिण और पश्चिम का कोना। नैऋत्य कोण।
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अपर-दिशा  : स्त्री० [कर्म० स०] पश्चिम दिशा।
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अपर-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. सौर मास का कृष्ण पक्ष। २. प्रतिवादी। मुद्दालेह।
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अपर-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] वंशज।
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अपर-प्रणेय  : वि० [तृ० त०] सहज में दूसरों से प्रभावित होनेवाला।
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अपर-भाव  : पुं० [कर्म० स०] १. भिन्न होने का भाव। २. अन्तर। भेद।
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अपर-रात्र  : पुं० [एकदेशि त० स०] रात का अंतिम या पिछला पहर। तड़का। प्रभात।
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अपर-लोक  : पुं० [कर्म० स०] १. अन्य या दूसरा लोक। २. स्वर्ग।
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अपर-वस्त्र  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके विषम चरणों में दो नगण, एक रगण और लघु गुरु तथा सम चरणों में एक नगण, दो जगण और रगण होता है।
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अपरक्त  : वि० [सं० अप√रञ्ज (राग)+क्त] अपरक्ति या अपराग से युक्त। २. जिसमें कोई रंग या रंगत न हो। ३. असंतुष्ट और खिन्न। ४. जिसमें रक्त न हो। रक्तहीन।
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अपरंच  : अव्य० [सं० द्व० स०] १. और भी। २. फिर भी। ३. इसके पीछे या बाद। उपरांत।
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अपरछन  : वि० [सं० अप्रच्छन] जो प्रच्छन (छिपा या ढका हुआ) न हो। खुला हुआ। स्पष्ट। वि०=प्रच्छन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरज  : वि० [अपर√जन् (उत्पत्ति)+ड] जो बाद में उत्पन्न हुआ हो। पुं० प्रलयाग्नि।
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अपरता  : स्त्री० [सं० अपर+तल्—टाप्] अपर होने की अवस्था या भाव। परायापन। स्त्री० [सं० अ=नहीं+परता=परायापन] भेद-भाव—शून्यता। अपनापन।
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अपरति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अनुराग, प्रेम या रति का अभाव। २. असंतोष। ३. अलगाव। विच्छेद।
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अपरती  : स्त्री० [हिं० आप+सं० रति=लीनता] केवल अपना ध्यान रखना। स्वार्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरत्र  : अव्य० [सं० अपर+त्रल्] और कहीं। अन्यत्र।
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अपरत्व  : पुं० [सं० अपर+त्व] १. ‘अपर’ होने का भाव। २. न्यायशास्त्रानुसार चौबीस गुणों में से एक।
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अपरना  : स्त्री० [सं० अ=नहीं+पर्ण=पता] पार्वती का एक नाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरंपार  : वि० [सं० अपर=दूसरा+हिं० पार=छोर] १. जिसका पारावार या कूल-किनारा न हो। अपार। २. बहुत अधिक। बेहद। असीम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरमपार  : वि० =अपरंपार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपररूप  : पुं० [कर्म० स०] [भाव० अपर-रूपता] रसायन शास्त्र में किसी तत्त्व का कोई ऐसा दूसरा रूप जो कुछ दूसरे विशिष्ट गुणों से युक्त हो या कुछ भिन्न प्रकार का हो। (एल्लोट्रोप) जैसे—कार्बन नामक तत्त्व काजल, कोयले, सीसे और हीरे में रहता तो है, पर अपने अपर रूपों में रहता है।
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अपररूपता  : स्त्री० [सं० अपररूप+तल्-टाप्] अपररूप होने की अवस्था, गुण या भाव। (एल्लोट्रोपी)
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अपरवश  : वि० [सं० न० त०] जो परवश न हो।
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अपरस  : वि० [सं० अ०+हिं० परस=स्पर्श] १. जिसे किसी ने छुआ न हो। २. अस्पृश्य। ३. अनासक्त। पुं० हथेली या तलुए में होनेवाला एक चर्म रोग।
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अपरा  : स्त्री० [सं० अपर+टाप्] १. अध्यात्म या ब्रह्मविद्या को छोड़कर अन्य विद्या। २. लौकिक या पदार्थ-विद्या। ३. पश्चिम दिशा। ४. ज्येष्ठ के कृष्ण पक्ष की एकादशी।
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अपरांग  : पुं० [सं० अपर—अंग, ष० त०] गुणीभूत व्यंग्य का एक भेद। (साहित्य)
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अपराग  : पुं० [सं० अप√रञ्ज्+घञ्] १. प्रेम या राग का विरोधी भाव। २. वैर। शत्रुता। ३. अरुचि। ४. दे० ‘अपरक्ति’।
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अपराग्नि  : स्त्री० [सं० अपर-अग्नि, कर्म० स०] १. गार्हपत्य अग्नि। २. चिता की आग।
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अपराजित  : वि० [सं० न० त०] जो पराजित न हुआ हो। पुं० १. विष्णु। २. शिव।
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अपराजिता  : स्त्री० [सं० अपराजित+टाप्] १. विष्णुक्रांता लता। कौवाठोठी। २. कोयल। ३. दुर्गा। ४. शंखिनी आदि पौधे। ५. अयोध्या का एक नाम। ६ उत्तर-पूर्व विदिशा। ७. एक योगिनी। ८. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, एक रगण, एक सगण, एक लघु और एक गुरु होता है।
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अपराजेय  : वि० [सं० न० त०] जो पराजित न किया जा सके। स्त्री० पराजित न होने का भाव। अपराजय।
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अपरांत  : पुं० [सं० अपरा-अंत, ष० त०] पश्चिम का देश या प्रांत।
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अपरांतक  : पुं० [सं० अपरांत+कन्] पश्चिम दिशा में स्थित एक पर्वत। (पुरा०)
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अपरांतिका  : स्त्री० [सं० अपरांत+कन्—टप्, इत्व] वैताल छंद का वह भेद जिसमें चौथी और पाँचवीं मात्राएँ मिलकर दीर्घ अक्षर बन जाती हैं।
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अपराद्ध  : वि० [सं० अप√राध् (सिद्धि)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसने अपराध किया हो। २. (कार्य) जिसका आचरण कानून की दृष्टि में अपराध माना जाय।
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अपराध  : पुं० [सं० अप√राध्+घञ्] १. ऐसा अनुचित कार्य जिसने किसी का अपमान या हानि हो। (आफेन्स) २. कोई ऐसा अनुचित फलतः दंडनीय काम जो किसी विधि या विधान के विरुद्ध हो। ३. कोई अनुचित या बुरा काम। ४. दोष। ५. पाप। ६. भूल-चूक।
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अपराध-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि लोग अपराध क्यों करते हैं और उनकी यह प्रवृत्ति कैसे ठीक हो सकती है। (क्रिमिनालजी)
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अपराध-स्वीकरण  : पुं० [ष० त०] न्यायाधीश अथवा किसी उच्च अधिकारी के सामने अपना किया हुआ अपराध स्वीकार करना। (कन्फेशन)
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अपराधशील  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जो प्रायः और स्वभावतः अपराध करता रहता हो। (क्रिमिनल)
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अपराधि-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] दे० ‘भेद-साक्षी’।
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अपराधिक  : वि० दे० ‘अपराधिक’।
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अपराधी (धिन्)  : वि० , पुं० [सं० अप√राध्+णिनि] १. वह जिसने अपराध किया हो। २. कानून की दृष्टि में ऐसा व्यक्ति जिसने अपराध किया हो।
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अपरामृष्ट  : वि० [सं० न० त०] १. जिसको किसी ने छुआ न हो। अछूता। २. अव्यवहृत। कोरा।
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अपरार्क  : वि० [सं० अपर—अर्क, कर्म० स०] सूर्य के समान तेजस्वी।
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अपरांर्द्ध  : पुं० [सं० अपर—अर्द्ध, कर्म स०] दूसरा या बादवाला आधा अंश। उत्तरार्द्ध।
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अपरावर्त्ती (तिन्)  : वि० [सं० परा√वृत् (बरतना)+णिनि, न० त०] १. न लौटनेवाला। २. पीछे न हटनेवाला। ३. किसी काम से मुँह न मोड़नेवाला। मुस्तैद।
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अपराह्ल  : पुं० [सं० अपर—अहन्, एकदेशि त० स०] १. दिन का वह भाग जो दोपहर या मध्याह्न के बाद आरंभ होता है। (पी०एम०) २. साधारण बोलचाल में तीसरा पहर।
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अपराह्ल  : पुं०=अपराह्ल।
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अपरिक्त  : स्त्री० [सं० अप√रञ्ज+क्तिन्] १. अपरक्त होने की अवस्था या भाव। अपराग। २. अनुराग, प्रेम, सद्भावना आदि का अभाव। (डिस-एफेक्शन)
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अपरिक्रम  : वि० [सं० न० ब०] १. जो चल न सके । २. जिसमें परिक्रम का अभाव हो। उद्योगहीन। ३. कार्य अथवा परिश्रम करने में असमर्थ।
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अपरिगत  : वि० [सं० न० त०] १. जो पहचाना हुआ न हो। अपरिचित। २. जो जाना हुआ न हो। अज्ञात।
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अपरिगृहीत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिग्रहण न हुआ हो। २. जो गृहीत न हुआ हो। ३. अस्वीकृत। ४. त्यक्त।
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अपरिगृहीतागमन  : पुं० [सं० अपरिगृहीता, न० त०, अपरिगृहीता-गमन, तृ० त०] जैन शास्त्रानुसार कुमारी या विधवा के साथ गमन करना जो अतिचार माना गया है।
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अपरिग्रह  : पुं० [सं० न० त०] १. दान न लेना। २. जीवन निर्वाह के लिए जो अति आवश्यक हो उसे छोड़कर और कुछ ग्रहण न करना। ३. मोह, राग-द्वेष, हिंसा आदि का त्याग। ४. योगशास्त्र में पाँचवाँ यम। संगत्याग। ५. ब्रह्मचर्य।
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अपरिग्राह्य  : वि० [सं० न० त०] जो ग्रहण या स्वीकृत किये जाने के योग्य न हो।
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अपरिचय  : पुं० [सं० न० त०] [वि० अपरिचित] परिचय का अभाव। जान-पहिचान न होना।
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अपरिचयिता  : स्त्री० [सं० अपरिचयिन्+तल्—टाप्] अपरिचित होने की अवस्था या भाव।
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अपरिचयी (यिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिचय औरों से न हो। २. जो अधिक लोगों से परिचय या मेल-जोल न रखता हो।
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अपरिचित  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिससे परिचय न हो। २. (विषय) जिसका पहले से परिज्ञान न हो।
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अपरिच्छद  : वि० [सं० न० ब०] १. आच्छादन या आवरण से रहित। खुला हुआ। २. नंगा। नग्न। ३. दरिद्र। (क्व०)
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अपरिच्छन्न  : वि [सं० न० त०] १. जो ढका न हो। आवरण-रहित। २. जिसका विभाग न हो सके। अभेद्य। मिला हुआ। ४. असीम। ५. सर्वव्यापक।
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अपरिच्छेद  : पुं० [सं० न० त०] १. बिलगाव, भेद, विभाग आदि का अभाव। २. निर्णय, न्याय या विवेक का अभाव।
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अपरिणत  : वि० [सं० न० त०] १. जो परिणित न हुआ हो। २. जिसमें कोई परिवर्तन या विकार न हुआ हो। ज्यों का त्यों।
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अपरिणय  : पुं० [सं० न० त०] १. परिणय न होने का भाव। २. विवाहित न होने की अवस्था। जैसे—कौमार्य, ब्रह्मचर्य आदि।
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अपरिणामी (मिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें परिणाम या विकार न हो। २. जिसका दशा में कोई परिवर्त्तन न हो, फलतः एक रूप या एकरस।
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अपरिणीत  : वि० [सं० न० त०] जिसका परिणय या विवाह न हुआ हो। अविवाहित।
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अपरिपक्व  : वि० [सं० न० त०] १. जो परिपक्व न हो। कच्चा। २. जो अच्छी तरह पका या पूरा न हुआ हो। अध-कचरा। अधूरा।
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अपरिपणित संधि  : स्त्री० [सं० परि√पण् (व्यवहार करना) +क्त, न० त०, अपरिणित—संधि, कर्म० स०] दूसरे को धोखा देने के लिए की जानेवाली कपट-संधि।
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अपरिमाण  : वि० [सं० न० ब०] जिसका परिमाण या माप न हो। अपरिमित। पुं० परिमाण का अभाव।
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अपरिमित  : वि० [सं० न० त०] १. जो परिमित न हो। २. जिसकी कोई सीमा न हो। असीम। बेहद। (अनलिमिटेड) ३. असंख्य। अनगिनत।
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अपरिमेय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिमाण जाना न जा सके। जिसकी नाप-जोख न हो सके। २. जो कूता न जा सके। ३. बहुत अधिक।
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अपरिवर्त  : वि० [सं० परि√वृत्+घञ्, न—परिवर्त, न० ब०] जिसमें किसी प्रकार का परिवर्त्तन या फेर-बदल न हो सकता हो या न होता हो।
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अपरिवर्तनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें परिवर्त्तन न हो सके। जो बदला न जा सके। २. जो बदले में न दिया जा सके। ३. जिसमें परिवर्त्तन न होता हो। सदा एक-रस रहनेवाला। नित्य।
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अपरिवर्तित  : वि० [सं० न० त०] जिसमें कोई परिवर्त्तन या फेर-बदल न हुआ हो। ज्यों का त्यों।
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अपरिवृत  : वि० [सं० न० त०] जो ढका या घिरा न हो, अपरिच्छन्न।
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अपरिशेष  : वि० [सं० न० ब०] जिसका परिशेष न होता हो। अविनाशी। नित्य।
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अपरिष्कृत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिष्करण या संस्कार न हुआ हो। असंस्कृत। ३. जो ठीक या साफ न किया गया हो। ३. मैला-कुचैला या गंदा। ४. अनगढ़। बेडौल।
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अपरिसर  : वि० [सं० न० ब०] १. जो निकट न हो। दूर। २. जिसमें विस्तार का अभाव हो। विस्तार-रहित। ३. अप्रशस्त। पुं० [न० त०] विस्तार का अभाव।
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अपरिहरणीय  : वि० [सं० न० त०] जिसका परिहरण करना अनुचित या निषिद्ध हो।
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अपरिहार  : वि० [न० ब०]=अपरिहार्य। पुं० [न० त०] दूर करने के उपाय का अभाव।
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अपरिहारित  : भू० कृ० [सं० न० त०] जिसका परिहार न किया गया हो।
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अपरिहार्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिहार या त्याग न हो सके। अत्याज्य। २. जिसके बिना काम न चल सके। अनिवार्य। ३. न छीनने योग्य।
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अपरीक्षित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी परीक्षा न की गई हो अथवा न ली गई हो। २. जिसके रूप, गुण, वर्ण आदि का अनुसंधान न हुआ हो। ३. अप्रमाणित।
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अपरुष  : वि० [सं० न० त०] जो परुष या कठोर न हो। कोमल। मृदुल।
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अपरूप  : वि० [सं ब० स०] १. बुरे रूपवाला। कुरूप। बदशकल। २. भद्दा। वि० [सं० आत्म-रूप] परम सुंदर। (बँगला से गृहीत) उदा०—मनु निरखने लगे ज्यों ज्यों कामिनी का रूप, वह अनंत प्रगाढ़ छाया फैलती अपरूप।—प्रसाद।
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अपरेण  : क्रि० वि० [सं अपर शब्द का तृतीयांत रूप] किसी की आड़ में या पीछे। किसी ओर हटकर। पुं० १. गणित ज्योतिष में, किसी आकाशस्थ पिंड का (पृथ्वी की गति और प्रकाश-किरण के विचलन के कारण) अपने स्थान से कुछ हटा हुआ या इधर-उधर दिखाई देना। २. नियत मार्ग या स्थान से इधर-उधर होना। (एबरेशन)
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अपरोक्ष  : वि० [सं० न० त०] १. जो परोक्ष न हो। प्रत्यक्ष। २. जिसे अपने सामने देख, समझ या सुन सकें।
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अपरोध  : पुं० [सं० अप√रुध् (रोकना)+घञ्] १. रुकावट। २. मनाही। वर्जन।
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अपरोप  : पुं० [सं० अप√रुह् (जनमना)+णिच्+घञ्] १. उन्मूलन। २. विध्वंस। ३. राज्यच्युति।
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अपर्ण  : वि० [सं० न० ब०] (वृक्ष) जिसमें पर्ण या पत्ते न हों।
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अपर्णा  : स्त्री० [सं० अपर्ण+टाप्] १. पार्वती जी का उस समय का नाम जब शिव के लिए तपस्या करते समय उन्होंने पत्ते तक खाना छोड़ दिया था। २. दुर्गा।
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अपर्तु  : वि० [सं० अप-ऋतु, प्रा० ब०] १. उचित समय पर न होनेवाला। बे-मौसम। २. (स्त्री) जिसकी ऋतु का समय बीत चुका हो।
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अपर्यंत  : वि० [सं० न० ब०] जिसका पर्यंत (सीमा) न हो। असीम।
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अपर्याप्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो पर्याप्त (पूरा या यथेष्ट) न हो। २. (न० ब०) असीम।
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अपर्याप्त-कर्म (न)  : पुं० [कर्म० स०] जैन-शास्त्रानुसार वह पाप-कर्म जिसके उदय से जीव के पूर्णता प्राप्त करने में बाधा होती है।
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अपर्याप्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. अपर्याप्त होने की अवस्था या भाव। २. पूर्णता का अभाव। कमी। त्रुटि। ३. अक्षमता। अयोग्यता।
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अपर्याय  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें या जिसका कोई क्रम न हो। क्रम-हीन।
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अपर्व (न्)  : पुं० [सं० न० ब०] वह दिन जिसमें कोई पर्व न हो। वि० जिसमें पर्व या संधि न हो।
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अपर्वक  : वि० [सं० न० ब०, कप्] जिसके बीच में पर्व (जोड़ या संधि) न हो।
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अपल  : वि० [सं० न० ब०] १. पल-रहित। २. मांस-रहित। निरामिष। वि० दे० ‘अपलक’। पुं० [अप√ला (लेना)+क] अर्गल।
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अपलक  : वि० [सं० अ=नहीं+फलक] जिसकी पलकें न गिरें। जो टक लगाकर देख रहा हो। क्रि० वि० बिना पलकें गिराये या झपकाये। एकटक।
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अपलक्षण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अशुभ या बुरा लक्षण या चिन्ह। २. दोष। ३. साहित्य में, किसी चीज का बतलाया जानेवाला ऐसा लक्षण जिसमें अतिव्याप्ति या अव्याप्ति दोष हो। दूषित या त्रुटिपूर्ण लक्षण।
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अपलाप  : पुं० [सं० अप√लप् (कहना)+घञ्] १. व्यर्थ की बकबक। बकवाद। २. प्रसंग टालने के लिए इधर-उधर की बातें कहना। बात बनाना। ३. जान-बूझकर कोई बात न कहना। बात का छिपाव या दुराव।
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अपलापिका  : स्त्री० [सं० अप√लप् (इच्छा)+ण्वुच्-अक] [वि० अपलापी, अपलापुक] १. बहुत अधिक तृष्णा या लालसा। २. पिपासा। प्यास।
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अपलापी (पिन्)  : वि० [सं० अप√लप्+णिनि] १. अपलाप करनेवाला। २. बकवादी। बक्की।
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अपलाभ  : पुं० [सं० प्रा० स०] अनुचित या अनैतिक रूप से प्राप्त किया हुआ अत्यधिक लाभ। (प्रॉफिटियरिंग)
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अपलाभन  : पुं० [सं० अपलाभ+णिच्+ल्युट्-अन] अपलाभ प्राप्त करने की क्रिया या भाव।
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अपलेखन  : पुं० [सं० अप√लिख् (लिखना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अपलिखित] पावने की ऐसी रकम रद्द करना जो वसूल न हो सकती हो। बट्टेखाते लिखना।
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अपलोक  : पुं० [सं० प्रा० स०] लोक में होनेवाली निंदा या बदनामी। उदा०—लोक में लोक बड़ो अपलोक सुकेशव दास जु होउ सो होऊ।—केशव।
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अपवचन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अपशब्द। गाली। २. निंदा।
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अपवन  : वि० [सं० अ—पवन, न० ब०] (ऐसा स्थान) जहाँ वायु का प्रवेश न हो। पुं० [सं० अप-वन, प्रा० स०] १. छोटा वन। २. उद्यान। बगीचा। पुं० [न० त०] पवन का अभाव।
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अपवरक  : पुं० [सं० अप√वृ (आच्छादन)+ण्वुल्-अक] १. अंतःपुर। २. सोने की जगह। शयनागार। ३. झरोखा।
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अपवरण  : पुं० [सं० अप√वृ+ल्युट्-अन] आवरण दूर करना। परदा हटाना।
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अपवर्ग  : पुं० [सं० अप√वृज् (वर्जन)+घञ्] १. सब प्रकार के दुःखों से होनेवाला छुटकारा। २. मोक्ष। ३. त्याग। ४. दान। ५. कार्य की समाप्ति या सिद्धि। ६. किये हुए कर्मों का फल।
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अपवर्जन  : पुं० [सं० अप√वृज्+ल्युट्—अन] १. त्यागने की क्रिया या भाव। २. मुक्त करने या होने की अवस्था या भाव।
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अपवर्जित  : भू० कृ० [सं० अप√वृज् (त्याग)+णिच्+क्त] १. जिसका अपवर्जन हुआ हो। २. छूटा हुआ। मुक्त।
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अपवर्त्त  : पुं० [सं० अप√वृत् (बरतना)+णिच्+घञ्] १. अलग या दूर करना। हटाना। २. दे० ‘समापवर्त्तक’।
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अपवर्त्तक  : वि० [अप√वृत् +णिच्+ण्वुल्-अक] अपवर्त्तन करनेवाला। पुं० गणित में, ऐसी राशि या राशियाँ जिनसे किसी बड़ी राशि को भाग देने पर शेष कुछ न बचे। सामान्य विभाजक। (फैक्टर) जैसे—१२ को २, ३, ४, या ६ से भाग देने पर शेष कुछ नहीं बचता। अतः २, ३, ४ और ६ सभी १२ के अपवर्त्तक हैं।
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अपवर्त्तन  : पुं० [सं० अप√वृत्+णिच्+ ल्युट्-अन] १. किसी में से कुछ निकाल या ले लेना। २. कहीं से हटाना। अलग या दूर करना। ३. न होने के समान करना। रद्द करना। ४. गणित में, राशियों या संख्याओं का अपवर्त्त या समापवर्त्तक निकालना। जैसे—३६/२४ में के ३६ और २४ दोनों को १२ से भाग देकर ३/२ रूप में लाना। (कैन्सलेशन ऑफ कॉमन फैक्टर)
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अपवर्त्तित  : भू० कृ० [सं० अप√वृत्+णिच्+क्त] १. जिसका अपवर्तन हुआ हो या किया गया हो। २. अंदर की ओर घूमा, बढ़ा या मुड़ा हुआ। (इन्वर्टेड)
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अपवर्त्य  : वि० [सं० अप√वृत्+ण्यत्] जिसका अपवर्त्तन हो सकता हो या होने को हो। पुं० गणित में, वह राशि जो किसी एक संख्या को दूसरी संख्या से गुणा करने पर प्राप्त हो। (मल्टिपुल) जैसे—६×६=३६ होता है। अतः ६ का ३६ अपवर्त्य है।
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अपवश  : वि० [हिं० अप=अपना+सं० वश] अपने वश या अधिकार में लाया हुआ। जो अपने अधीन कर लिया गया हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपवहन  : पुं [सं० अप√वह् (बहना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अपवहित] किसी चलती या जाती हुई चीज का अपने उचित या नियत स्थान पर न पहुँचकर इधर-उधर चला जाना। (मिसकैरिज)
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अपवहित  : भू० कृ० [सं० अपवहन] जिसका अपवहन हुआ हो।
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अपवाचा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित कथन या बात। २. गाली। ३. निंदा। अपवाद।
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अपवाद  : पुं० [सं० अप√वद् (बोलना)+घञ्] १. किसी बात के विरुद्ध कही हुई बात। विरोध या खंडन। २. ऐसी लोक-निंदा जिससे किसी के सम्मान को आघात पहुँचे। बदनामी। (ऑब्लोकी) ३. दोष। बुराई। ४. वह बात जो किसी व्यापक या सामान्य नियम के अंतर्गत आकर उसके विरुद्ध या उसके अतिरिक्त पड़ती हो। ५. राय। विचार। ६. विश्वास। प्रणय। ७. मिथ्या बात। ८. आदेश। आज्ञा। ९. वेदांत शास्त्र के अनुसार अध्यारोप का निराकरण। जैसे—रज्जु में सर्प का ज्ञान यह अध्यारोप है, रज्जु के वास्तविक ज्ञान से उसका जो निराकरण हुआ वह अपवाद है।
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अपवादक  : पुं० [सं० अप√वद्+ण्वुल्—अक] वह जो दूसरों का अपवाद या बदनामी करे। पर-निंदक। वि० १. अपवाद रूप में होनेवाला। २. विरोधी। ३. बाधक।
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अपवादिक  : वि० [सं० आपवादिक] १. अपवाद संबंधी। २. सामान्य नियम के विरुद्ध अथवा अपवाद के रूप में होनेवाला। (एक्सेप्शनल) ३. दे० ‘अपवादक’।
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अपवादित  : भू० कृ० [सं० अप√वद्+णिच्+क्त] १. जिसका विरोध किया गया हो। २. निंदित।
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अपवादी (दिन्)  : वि० [सं० अप√वद्+णिच्+णिनि] दे० ‘अपवादक’।
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अपवारण  : पुं० [सं० अप√वृ (आच्छादन+णिच्+ल्युट्—अन] १. दूर करना। हटाना। २. आड़। व्यवधान।
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अपवारित  : भू० कृ, [सं० अप√वृ+णिच्+क्त] जिसका अपवारण किया गया हो।
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अपवाह  : पुं० [सं० अप√वह् (बहना, पहुँचाना)+घञ्] १. पानी बहने की नाली। २. एक प्रकार का छंद। ३. कम करना। घटाना। ४. किसी उद्देश्य से नियत मार्ग से हटकर इधर-उधर होना। (ड्रिफ्ट) ६. दे० ‘अपवाहन’।
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अपवाहक  : विं० [सं० अप√वह्+णिच्+ण्वुल्—अक] अपवाहन करनेवाला।
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अपवाहन  : पुं० [अप√वह्+णिच्+ल्युट्—अन] किसी चीज को उचित या नियत स्थान पर न ले जाकर भूल से कहीं इधर-उधर ले जाना या पहुँचाना। (मिसकैरी)
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अपवाहित  : भू० कृ० [सं० अप√वह्+णिच्+क्त] जिसका अपवाहन हुआ हो। (मिसकैरिड)
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अपवित्र  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अपवित्रता] जो पवित्र न हो, फलतः न छूने योग्य या मलिन।
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अपविद्ध  : वि० [सं० अप√व्यध् (बेधना)+क्त] १. छोड़ा या त्यागा हुआ। २. बेधा हुआ। विद्ध। पुं० वह पुत्र जिसको उसके माता-पिता ने त्याग दिया हो और किसी दूसरे ने पाला हो।
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अपविद्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. ऐसी खराब या निषिद्ध विद्या जिसका अध्ययन करना उचित न हो। २. दे० ‘अविद्या’।
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अपविष  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें विष न हो, विष-रहित।
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अपविषा  : स्त्री० [सं० अपविष+टाप्] निर्विषी नामक पौधा।
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अपवृक्त  : वि० [अप√वृज् (त्याग)+क्त] पूरा या समाप्त किया हुआ।
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अपवृति  : स्त्री० [सं० अप√वृ (छेदन)+क्तिन्] १. छेद। सूराख। २. त्रुटि। दोष।
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अपवृत्त  : वि० [सं० अप√वृत् (बरतना)+क्त] १. क्रम, संबंध, स्थिति आदि के विचार से जो उलटा या विपरीत हो। २. अंदर की ओर उलटा, घूमा या मुड़ा हुआ। (इन्वर्टेड)
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अपवृत्ति  : स्त्री० [सं० अप√वृत्+क्तिन्] १. अपवृत होने की अवस्था या भाव। २. अंत। समाप्ति।
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अपव्यय  : पूं० [सं० प्रा० स०] १. घन का आवश्यकता या उचित मात्रा से अधिक व्यय करना। २. व्यर्थ किया जानेवाला व्यय। ३. बुरे कर्मों में होनेवाला व्यय।
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अपव्ययी (यिन्)  : वि० [सं० अपव्यय+इनि] अपव्यय करनेवाला। व्यर्थ अधिक खर्च करनेवाला।
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अपव्रत  : वि० [सं० बं० स०] १. व्रत का पालन न करनेवाला। २. आज्ञा न माननेवाला। पुं० [प्रा० स०] अनुचित या निंदनीय व्रत।
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अपशंक  : वि० [सं० ब० स०] १. शंकारहित। २. निर्भीक। निडर।
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अपशकुन  : पुं० [सं० प्रा० स०] अशुभ या बुरा शकुन अथवा लक्षण। असगुन।
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अपशद  : पुं० [सं० अप√शद् (तीक्ष्ण करना)+अच्] दे० ‘अपसद’।
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अपशब्द  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनर्गल, अशुद्ध, या निरर्थक। २. गाली। दुर्वचन।
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अपशम  : पुं० [सं० अप√शम् (शान्ति)+घञ्] १. अंत। समाप्ति। २. ठहराव। विराम।
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अपशु  : वि० [सं० न० त०] १. जो पशु न हो। २. [न० ब०] जिसके पास पशु न हों। पुं० [न० त०] बुरा पशु।
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अपशोक  : वि० [सं० ब० स०] शोक-रहित। पुं० अशोक वृक्ष।
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अपश्चिम  : वि० [सं० न० त०] १. जो पश्चिम या बाद में न हो। २. जिसके पश्चिम या बाद में और कोई न हो।
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अपश्रय  : पुं० [सं० अप√श्रि (सेवा)+अच्] तकिया।
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अपश्री  : वि० [सं० प्रा० ब०] जिसकी श्री नष्ट हो चुकी हो। शोभा, सौंदर्य आदि से रहित।
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अपश्रुति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] भाषा विज्ञान में, एक ही धातु से बने शब्दों में दिखाई देनेवाला वह विकार जो व्यंजनों के प्रायः ज्यों के त्यों बने रहने पर भी केवल उनके स्वरों के स्थान परिवर्त्तन से होता है। अक्षरावस्थान। जैसे—बढ़ना से बढ़ाव और बढ़िया रूप अपश्रुति के उदाहरण हैं।
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अपश्वास  : पुं० [सं० अप० स०] अपानवायु।
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अपष्ठु  : वि० [सं० अप√स्था (ठहरना)+कु] उलटा। विपरीत।
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अपसगुन  : पुं० दे० ‘अपशकुन’।
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अपसंचय  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अपसंचित] अनियमित रूप से और अधिक मूल्य पर बेचने के उद्देश्य से माल इकट्ठा करके और छिपाकर अपने पास रखना। (होर्डिंग)
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अपसद  : पुं० [सं० अप√सद् (विशीर्ण होना)+अच्] उच्च जाति के पुरुष और नीच जाति की स्त्री से उत्पन्न संतान।
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अपसना  : अ० [सं० अपसरण =खिसकना] १. दूर हटना। सरकना। २. भाग जाना। ३. पहुँचना। प्राप्त होना।
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अपसर  : पुं० [सं० अप√सृ (गति)+अच्] १. पीछे हटना। अपसरण। २. प्रस्थान ३. पलायन। भागना। ४. उचित कारण। ५. अंतर। दूरी। (ज्या०) ६. वाष्प-कण।
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अपसरक  : वि० [सं० अपसारक] १. भाग जानेवाला। २. जो अपना उत्तरदायित्व, कर्त्तव्य, पद आदि छोड़कर भाग गया हो। (डिजर्टर)
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अपसरण  : पुं० [सं० अप√सृ (गति+ल्युट्—अन] १. दूर होना। हटना। २. अपने केंद्र अथवा ठीक मार्ग से हटकर दूर जाना या इधर-उधर होना। ३. अपने प्रसम या मानक से हटकर आगे-पीछे या इधर-उधर होना। ४. उचित स्थिति से भिन्न या विपरीत होना। (डाइवर्जेन्स, उक्त सभी अर्थों के लिए) ५. उत्तरदायित्व, कार्य, पद आदि छोड़कर अलग होना या भाग जाना। (डिजर्शन) ६. तरल पदार्थ का गाढ़ापन या घनत्व कम होना। ७ उक्त प्रकारों से दूर होने या हटने का मार्ग।
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अपसर्जक  : वि० [सं० अप√सृज् (सिरजना)+ण्वुल्—अक] अपसर्जन करनेवाला।
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अपसर्जन  : पुं० [सं० अप√सृज्+ल्युट्—अन] १. छोड़ना। त्याग। मोक्ष। ३. अपने आश्रित (कार्य, पद, व्यक्ति आदि) को इस प्रकार छोड़ देना कि फिर उसकी चिंता न रहे। (एबैन्डनिंग)
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अपसर्प  : पुं० [सं० अप√सृप् (गति)+अच्] गुप्तचर। जासूस।
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अपसर्पक  : पुं० [सं० अपसर्प+कन्] दे० ‘अपसर्प’।
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अपसर्पण  : पुं० [सं० अप√सृप्+ल्युट्—अन] १. पीछे हटना या खिसकना। २. पलायन। भागना। ३. गुप्तचर का काम। जासूसी।
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अपसर्पित  : वि० [सं० अप√सृप्+क्त] पीछे की ओर हटा हुआ।
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अपसवना  : अ० [सं० अपस्रवण] खिसक, भाग या हट जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपसव्य ग्रहण  : पुं० [कर्म० स०] ग्रहण का वह प्रकार जिसमें राहु अथवा सूर्य दाहिनी ओर से आकर छाया डालता है। दाहिनी ओर से लगनेवाला ग्रहण।
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अपसव्य तीर्थ  : पुं० [कर्म० स०] =पितृ तीर्थ।
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अपसव्य परिक्रमा  : स्त्री [कर्म० स०] देवता आदि की परिक्रमा का वह प्रकार जिसमें देवता को दाहिनी ओर रखकर उसके चारों ओर घूमते हैं। दक्षिणावर्त्त परिक्रमा।
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अपसार  : पुं० [सं० अप्सार] १. पानी का छींटा। २. [सं० अप√सृ (गति)√घञ्] दूर हटने या निकल भागने की क्रिया।
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अपसारक  : वि० [अप√सृ+णिच्+ण्वुल्—अक] भगा ले जानेवाला।
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अपसारण  : पुं० [सं० अप√सृ+णिच्+ण्वुल्—अक] १. दूर करना। २. अंदर से निकालकर बाहर करना या दूर हटाना। (इंजेक्शन) ३. किसी पद या स्थान से निकाल देना। (एक्सपल्शन) ४. देश निकाला।
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अपसारित  : वि० [सं० अप√णिच्+क्त] १. दूर हटाया हुआ। २. भगाया हुआ।
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अपसारी (रिन्)  : वि० [सं० अप√सृ+णिच्+णिनि] अपसारण करने-(दूर करने या हटाने) वाला।
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अपसिद्धांत  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह विचार जो निश्चित सिद्धांत के विरुद्ध हो, अयुक्त सिद्धांत। २. न्याय में वह निग्रह स्थान जहाँ पहले कोई सिद्धांत मान कर फिर उसके विरुद्ध कुछ कहा जाय।
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अपसृत  : वि० [स० अप√सृ+क्त] १. जो अपना अधिकार, उत्तरदायित्व, कर्त्तव्य अथवा पद छोड़ कर चला गया हो। २. जिसे बलपूर्वक किसी पद या स्थान से हटा दिया गया हो। (एक्सपैल्ड) ३. जिसे किसी ने छोड़ दिया हो। परित्यक्त। (डिजर्टेड)
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अपसृति  : स्त्री० [सं० अप√सृ+क्तिन्] दे० ‘अपसरण’।
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अपसोस  : पुं० [फा० अफसोस] १. चिंता। २. दुःख। ३. पश्चात्ताप। पछतावा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपसोसना  : अ० [हिं० अपसोस] १. अफसोस करना। पछताना। २. चिंतित और दुःखी होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपसौन  : पुं० [सं० अपसगुन] असगुन। बुरा सगुन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपसौना  : अं० [?] १. कहीं जाना या पहुँचना। २. प्राप्त होना। मिलना। उदा०—जीव काढ़ि लै तुम अपसई। वह भा क्या जीव तुम भई।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपस्कर  : पुं० [सं० अप√कृ (करना) +अप्, नि० सुट्] १. गाड़ी का कोई हिस्सा। जैसे—पहिया, धुरी, जुआ आदि। २. विष्ठा। ३. योनि। ४. गुदा।
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अपस्कार  : पुं० [सं० अप√कृ+घञ्, नि० सुट्] घुटनों के नीचे का भाग।
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अपस्तंब  : पुं० [सं० अप√स्था (ठहरना)+अम्ब, पृषी० सिद्धि] छाती के पास की वह नस जिसमें प्राण-वायु का निवास माना गया है।
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अपस्तंभ  : पुं० [सं० अप√स्तम्भ् (रोकना)+अच्] दे० ‘अपस्तंब’।
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अपस्तुति  : स्त्री० [सं० प्रा० सं० ] १. निंदा। २. शिकायत।
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अपस्नात  : वि० [सं० अप√स्ना (स्नान करना)+क्त] जिसने अपस्नान किया हो।
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अपस्नान  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह स्नान जो कुटुंबी या संबंधी के मरने पर उदक क्रिया के समय किया जाता है।
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अपस्पर्श  : वि० [सं० अत्या० स०] स्पर्श की अनुभूति न करनेवाला अर्थात् संज्ञा-शून्य।
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अपस्फीति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=विस्फीति।
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अपस्मार  : पुं० [अप√स्मृ (स्मरण करना)+णिच्+अच्] १. एक रोग जिसमें रोगी का कलेजा धड़कता है और वह बेहोश होकर गिर पड़ता है। मिरगी। (एपाप्लेकसी) २. साहित्य में प्रेमी या प्रेमिका की वह अवस्था जिसमें विरह का बहुत कष्ट सहने के कारण वह मिरगी के रोगियों की तरह काँपकर या मूर्छित होकर गिर पड़े। (इसकी गणना संचारी भावों में है)।
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अपस्मारी (रिन्)  : वि० [सं० अपस्मार+इनि] जो अपस्मार रोग से पीड़ित हो।
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अपस्मृति  : वि० [सं० ब० स०] १. क्षीण स्मृतिवाला। भुलक्कड़। २. घबराया हुआ।
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अपस्वर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित, बुरा, बेसुरा या गलत स्वर। (संगीत) २. तीव्र अथवा कर्णकटु स्वर। उदा०—आओ मेरे स्वर में गाओ जीवन के कर्कश अपस्वर।—पंत।
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अपस्वार्थी  : वि० [हिं० अप अपना+सं० स्वार्थी] स्वार्थी। मतलबी। वि० [सं० अप—स्वार्थ, प्रा० स०,+इनि] निकृष्ट स्वार्थवाला।
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अपह  : वि० [सं० अप√हन् (मारना)+ड] नाश करनेवाला। नाशक।
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अपहत  : वि० [सं० अप√हन्+क्त] १. नष्ट किया हुआ। मारा हुआ। २. दूर किया या हटाया हुआ।
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अपहरण  : पुं० [सं० अप√हृ (हरण करना)+ल्युट् अन] १. किसी की कोई चीज बलपूर्वक छीनकर ले जाना। २. रुपये वसूल करने या कोई स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को बल-पूर्वक कहीं से उठा ले जाना। (किडनैपिंग) ३. छिपाव। दुराव। ४. चुंगी, महसूल आदि बचाने के लिए छिपाकर माल ले जाना। (कौ०)
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अपहरणीय  : वि० [सं० अप√हृ+अनीयर] १. (वस्तु या व्यक्ति) जिसका अपहरण किया जा सकता हो अथवा जिसका अपहरण होने को हो। २. गोपनीय।
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अपहरना  : स० [सं० अपहरण] १. अपहरण करना। छीनना। २. लूटना। ३.चुराना। ४.कम करना। घटाना। ५.दूर या नष्ट करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपहर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० अप√ह्र+तृच्] अपहरण करने या छीनने या हर लेनेवाला। २. लूटनेवाला। ३. छिपानेवाला।
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अपहसित  : वि० [सं० अप√हस् (हँसना)+क्त] १. अकारण हँसनेवाला। २. जिसका अपहास या उपहास हुआ हो।
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अपहस्त  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. दूर फेंकना। २. हटाना। ३.लूटना। ४.अर्द्धचंद्र।
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अपहस्तित  : वि० [सं० अपहस्त+णिच् क्त] १. गर्दन में हाथ देकर निकाला हुआ। अर्द्धचंद्रित। २. फेंका हुआ। ३.परित्यक्त।
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अपहान  : पुं० [सं० अप√हा (त्याग)+क्त] १. परित्याग। २. कम होना। ३.गायब होना।
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अपहानि  : स्त्री० [अप√हा+क्तिन्] दे० ‘अपहान’।
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अपहार  : पुं० [सं० अप√हृ (हरण करना)+घञ्] [कर्ता अपहारक, भू० कृ० अपहृत] १. दूसरे की चीज छीनना। अपहरण करना। २. विधिक क्षेत्र में धोखे या बेईमानी से किसी के धन या संपत्ति पर अधिकार करना और उसे भोगना। (एम्बेजल्मेंट) ३.छिपाव। दुराव।
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अपहारक  : वि० [सं० अप√हृ+ण्वुल्-अक] अपहरण करने, छीनने या लूटनेवाला। पुं० १. चोर। २. डाकू। ३. लुटेरा।
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अपहारित  : भू० कृ० [सं० अप√हृ+णिच् क्त]=अपहृत।
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अपहारी (रिन्)  : पुं० [सं० अप√हृ+णिनि] १. अपहरण करने या छीननेवाला। २. नाश करनेवाला।
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अपहार्य  : वि० [सं० अप√ह्र+ण्यत्] १. (पदार्थ) जिसका अपहरण हो सके। जो छीना या लूटा जा सके। २. (व्यक्ति) जिसकी चीज छीनी या लूटी जा सके।
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अपहास  : पुं० [अप√हस् (हँसना)+घञ्] १. अनुचित रूप से या अनुपयुक्त समय पर होने वाला हास्य। २. अनुचित या बुरी हँसी। उपहास।
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अपहृत  : भू० कृ० [अप√हृ+क्त] १. (पदार्थ) जो छीना अथवा जिस पर जबरदस्ती अधिकार किया गया हो। २. (व्यक्ति) जिसकी चीज छीनी या लूटी गई हो।
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अपहेला  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. तिरस्कार। २. डाँट-फटकार। ३. घुड़की और झिड़की।
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अपह्रव  : पुं० [सं० अप√ह्र (हटाना)+अप] १. कोई बात किसी से छिपाना। २. सच बात छिपाना। ३. टाल-मटोल। बहाना। ४. तृप्त या संतुष्ट करना। ५. प्रेम। ६. दे० ‘अपह्रति’।
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अपह्रुति  : स्त्री० [सं० अप√ह्र+क्तिन्] १. दुराव। छिपाव। २. टाल-मटोल। बहानेबाजी। ३.एक काव्यालंकार जिसमें उपमेय का निषेध करके उपमान का स्थापन किया जाए। (कन्सीलमेंट) जैसे—(क) यह मुख नहीं चंद्रमा ही है। (ख) इन्हें मनुष्य मत समझो यह साक्षात् देवता ही हैं। इसके हेत्वापह्रति, कैतवापह्रति, परिहासापह्रुति, छेकापह्रति, भ्रांतापह्रुति, पर्यस्तापह्रति आदि अनेक भेद हैं।
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अपा  : स्त्री० [हिं० आपा] अभिमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपाइ  : स्त्री० [हिं० अपाय] १. अनरीति। २. अत्याचार। उदाहरण—तजि कै अपाइ तीर बसैं सुख पाइ गंगा।—सेनापति।
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अपाउ  : पुं० -अपाय। उदाहरण—जोगवत अनट अपाउ।—तुलसी। वि० [हिं० अ+पाँव] बिना पैर का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपाक  : वि० [सं० न० ब०] जो अभी अच्छी तरह या पूरा पका न हो। अपक्व। कच्चा। पुं० [न० त०] १. कच्चे होने की अवस्था या भाव। कच्चापन। २. अजीर्ण रोग। वि० नापाक।
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अपाकरण  : पुं० [सं० अप-आ√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. दूर करना। २. हटाना। ३.ऋण, देन आदि चुकाना। (लिक्विडेशन आँफ डेट)
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अपाकर्म (न्)  : पुं० [सं० अप-आ√कृ (करना)+मनिन्] १. ऋण आदि का परिशोधन। अदायगी। २. वह कार्य जिसमें किसी व्यापारिक संस्था का देना-पावना चुकाकर उसका सारा व्यापार अधिकार में ले लिया जाता है या बंद किया जाता है। (लिक्विडेशन आँफ कम्पनी)
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अपाकृति  : स्त्री० [अप-आ√कृ+क्तिन्]—अपाकरण।
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अपांक्त  : वि० [सं० न० त०] (व्यक्ति) जो बिरादरी या समाज की पंक्ति में बैठकर सबके साथ खानपान का अधिकारी न हो। जातिबहिष्कृत।
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अपांग  : पुं० [सं० अप√अंग्(गति)+घञ्] १. आँख का कोना। २. चिरछी नजर। कटाक्ष। ३.संप्रदायसूचक तिलक। ४. कामदेव। ५. अपामार्ग। वि० [सं० अप-अंग,ब० स०] १. शरीर रहित। अशरीरी। २. जिसे कोई अंग न हो। अथवा टूटा-फूटा या बेकाम हो। ३. अपाहिज। पंगु।
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अपाची  : स्त्री० [सं० अप√अञ्च् (गति)+क्विप्-ङीष्] [वि० अपाचीन, अपाच्य] दक्षिण या पश्चिम की दिशा।
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अपाच्य  : वि० [सं० अफ्च् (पकाना)+ण्यत् न० त०] १. जो पकाया न जा सके। २. जो पचता न हो अथवा जो पच न सके। ३. [अपाची+यत्] दक्षिणी या पश्चिमी दिशा का।
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अपाटव  : पुं० [सं० न० त०] १. पटुता न होने का भाव। फूहड़पन। अनाड़ीपन। २. भद्दापन। ३. कुरूपता। ४. बीमारी। रोग। ५. मद्य। शराब। वि० [न० ब०] १. अपुट। अनाड़ी। २. मंद। सुस्त। ३. कुरूप। भद्दा। ४. रोग-ग्रस्त। बीमार।
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अपाठय  : वि० [सं० न० त०] १. जो पढ़ने योग्य न हो। २. जो पढ़ा न जा सके।
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अपात्र  : वि० [सं० न० त०] जो ठीक या उपयुक्त पात्र अथवा अधिकारी न हो। पुं० अनुपयुक्त या बुरा पात्र।
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अपात्रीकरण  : पुं० [सं० अपात्र+च्वि√कृ+ल्युट्-अन] १. अशोभनीय कार्य करना। २. वह कर्म जिसे करने से ब्राह्मण अपात्र हो जाता है।
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अपादक  : वि० [सं० न० ब० कप्] जिसमें या जिसे पद न हों। पद—हीन।
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अपादान  : पुं० [सं० अप-आ√दा+ल्युट्-अन] १. किसी चीज में से कुछ निकालना, लेना या हटाना। २. अलग करना। ३. वह चीज जिसमें से कोई दूसरी चीज निकाली या हटाई जाए। ४. व्याकरण में, वह कारक। विशेष—दे० ‘अपादान कारक’।
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अपादान कारक  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण में, छः कारकों मे से पाँचवाँ कारक जो वाक्य में उस स्थिति का सूचक होता है, जिससे किसी वस्तु या वास्तविक या कल्पित विश्लेष होता अथवा किसी क्रिया के आरंभ होने का अधिष्ठान या आधार सूचित होता है। इसका चिन्ह ‘से’ विभक्ति है (एब्लेटिव केस) जैसे—‘घर से चलना’ में ‘घर’ अपादान कारक में है।
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अपान  : पुं० [सं० अप-आ√नी (ले जाना)+ड] १. पाँच प्राणों में से एक जिसकी गति नीचे की ओर होती है। २. गुदा के ऊपरी भाग में स्थित वह वायु जो मल-मूत्र बाहर निकालती है। ३. गुदा-मार्ग से बाहर निकलने वाली वायु। पाद। गुदा। वि० दुःख दूर करनेवाला। पुं० ईश्वर। पुं० [हिं० अपना] १. अपनापन। आत्मभाव। २. आत्म-ज्ञान। सुधि। उदाहरण—जनक समान अपान बिसारे।—तुलसी। ३. आत्म-गौरव। सर्व०=अपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपान-द्वार  : पुं० [ष० त०] गुदा।
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अपान-वायु  : पुं० [ष० त०] गुदा में से निकलने वाली वायु जो शरीर की पाँच वायुओं मे से एक कही गई है। पाद।
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अपानन  : पुं० [सं० अप्√अन् (साँस लेना)+ल्युट्-अन] १. प्राण-वायु को अंदर ले जाना। साँस खीचना। २. मल-मूत्र आदि का त्याग। वि० [सं० अप+आनन, ब० स०] जिसका आनन या मुँह न हो। मुख-रहित।
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अपाना  : सर्व०=अपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपांनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. समुद्र। २. वरुण। ३. विष्णु।
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अपांनिधि  : पुं० [सं० ष० त०] अपांनाथ।
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अपानृत  : वि० [सं० अप-अनृत, ब० स०] अनृत या मिथ्या से भिन्न, अर्थात् सत्य।
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अपाप  : वि० [न० ब०] [स्त्री० अपापा] निष्पाप। पाप-रहित। पुं० [सं० न० त०] वह जो पाप न हो अर्थात् पुण्य।
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अपांपति  : पुं० [सं० ष० त०] अपांनाथ।
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अपामार्ग  : पुं० [सं० अप√मृज् (शुद्धि)+घञ्] चिचड़ा। लटजीरा।
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अपामार्जन  : पुं० [सं० अप-आ√मृज्+णिच्+ल्युट्-अन] १. सफाई। शुद्धि। २. दूर करना। (रोग आदि)।
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अपामृत्यु  : स्त्री०=अपमृत्यु।
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अपाय  : पुं० [सं० अप√इ(गति)+अच्] १. दूर या पीछे हटना। अपगमन। २. अलगाव। पार्थक्य। ३. नाश। ४. नीति विरुद्ध आचरण। ५. किसी के प्रति किया जाने वाला अनुचित या हानिकारक कार्य। ६. उत्पात। उपद्रव। ७. अंत। ८. लोप। ९. विपत्ति या भय की आशंका। वि० [सं० अ०=नहीं+पाद, प्रा० पाय=पैर] बिना पैर का। लँगड़ा। वि० [सं० अनुप्राय] जिसके पास कोई उपाय न रह गया हो। निरुपाय।
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अपायी (यिन्)  : वि० [सं० अप√इ+णिनि] [स्त्री० अपायिनी] १. नष्ट होनेवाला। नस्वर। २. अस्थिर। अनित्य। ३. अलग रहने या होनेवाला। ४. हानिकारक।
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अपार  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका पार न हो। सीमा-रहित। अनंत। २. बहुत अधिक। ३. उग्र। तीव्र। प्रचंड। पुं० १. समुद्र। सागर। २. नदी का सामनेवाला किनारा। ३. असहमति। ४. सांख्य के अनुसार वह तुष्टि जो अपमान, परिश्रम आदि से बचने पर होती है।
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अपारग  : वि० [सं० न० त०] १. जो पार जानेवाला न हो। २. अयोग्य। ३. असमर्थ।
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अपारदर्शक  : वि०=अपार-दर्शी।
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अपारदर्शिता  : स्त्री० [सं० अपरदर्शिन्+तल्-टाप्] अपारदर्शी होने की अवस्था, गुण या भाव। (ओपैसिटी)
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अपारदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० न० त०] जो पारदर्शी न हो। जिसके उस पार की चीज दिखाई न दे। (ओपेक)
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अपारा  : स्त्री० [सं० न० ब० टाप्] धरती या पृथ्वी, जिसका कहीं पार नहीं है।
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अपार्थ  : वि० [सं० अप-अर्थ, ब० स०] १. अर्थ से रहित या हीन, फलतः निरर्थक। व्यर्थ। २. अनुचित, अशुद्ध या दूषित अर्थवाला। ३. जिसका कोई उद्देश्य फल या प्रभाव न हो। निष्फल। ४. विनष्ट। पुं० साहित्य में, पद या वाक्य का अर्थ स्पष्ट न होने का दोष।
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अपार्थक  : पुं० [सं० अपार्थ+कन्] न्याय में एक निग्रह स्थान जो ऐसे वाक्यों के प्रयोग से होता है जिनमें पूर्वापर का विचार या संबंध न हो। वि० =अपार्थ।
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अपाल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई पालक अथवा रक्षक न हो। २. जिसकी रक्षा न की गई हो। अरक्षित। ३. जो सुरक्षित न हो। असुरक्षित।
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अपालंक  : पुं० [सं० ] पालक नाम का साग।
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अपाव  : पुं० [सं० अपाय=नाश] १. अन्याय। २. उत्पात। उपद्रव। ३. खराबी। बुराई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपांवत्स  : पुं० [सं० ष० त०] चित्रा नक्षत्र से पाँच अंश उत्तर का एक तारा।
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अपावन  : वि० [सं० न० त०] जो पावन या पवित्र न हो। अपवित्र।
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अपावरण  : पुं० [सं० अप-आ√व्(ढँकना)+ल्युट्-अन] १. आवरण हटाना। २. फिर से प्रकाश में या सामने लाना।
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अपावर्तन  : पुं० [सं० अप-आ√वृत् (बरतना)+ल्युट्-अन] १. पीछे की ओर आना या हटना। २. कथन, वचन आदि का पालन न करना या उसके पालन से पीछे हटना। (रिट्रीट) ३. लौटना। वापस आना। ४. भागना। ५. चक्कर लगाना। घूमना।
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अपावृत  : वि० [सं० अप-आ√वृ (आच्छादन)+क्त] १. जिस पर से आवरण हटा दिया गया हो। २. जो फिर से प्रकाश में लाया गया हो। ३. जो नियंत्रण में न हो। अनियंत्रित।
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अपावृति  : स्त्री० [सं० अप-आ√वृ+क्तिन्] १. अपावर्तन। २. छिपने का स्थान।
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अपावृत्त  : भू० कृ० [सं० अप-आ√वृत् (बरतना)+क्त] १. लौटाया या पीछे हटाया हुआ। २. तिरस्कार पूर्वक अस्वीकृत किया हुआ।
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अपांशुला  : वि० ,स्त्री० [सं० पाशु+लच्-टाप्+न० त०] पतिव्रता।
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अपाश्रय  : वि० [सं० अप-आ√श्रि (सेवा)+अच्] जिसे कोई आश्रय या सहारा न हो। निराश्रय। पुं० १. आँगन के बीच का मंडप। २. शामियाना। ३. बिस्तर या पलंग का सिरहाना। ४. वह जिसका आश्रय लिया जाए।
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अपाश्रित  : वि० [सं० अप-आ√श्रि(सेवा)+क्त] १. जो एक ही आश्रय या स्थान में रहकर समय बिताता हो। एकांत-सेवी। २. संसार-त्यागी। विरक्त।
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अपासरण  : पुं० [सं० अप-आ√सृ(गति)+ल्युट्-अन] १. दूर हटने या हटाने की क्रिया या भाव। २. भागना।
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अपाहज  : वि० [सं० अपाथेय=जो चल न सके, प्रा० अपाहेज्य] १. अंगहीन। २. लूला-लँगड़ा। ३. काम करने के अयोग्य। ४. आलसी।
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अपाहिज  : वि०=अपाहज।
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अपि  : अव्य० [सं०√पि(जाना)+क्विप्, न० त०] १. भी। २. ही। ३. निश्चित रूप से। अवश्य।
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अपिच  : अव्य० [द्व० स०] १. और भी। पुनश्च। २. बल्कि। वरन्।
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अपिंडी (डिन्)  : वि० [सं० पिण्ड+इनि, न० त०] पिंड-रहित। बिना शरीर का।
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अपितु  : अव्य० [द्व० स०] १. किंतु। लेकिन। २. बल्कि। ३. तो भी। तथापि।
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अपितृक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जिसका पिता न हो। २. दे० अपैतृक।
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अपिधान  : पुं० [सं० अपि√धा (धारण)+ल्युट्-अन] १. ढकनेवाली चीज। ढक्कन। २. ढकने की क्रिया या भाव।
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अपिहित  : भू० कृ० [सं० अपि√धा+क्त] [स्त्री० अपिहिता] आच्छादित। आवृत्त। ढका हुआ।
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अपीच  : वि० [सं० अपीच्य] १. सुन्दर। मनोहर। २. अच्छा। बढिया। उदाहरण—फहर गई धौं कबे रंग के फुहारन में, कैधों तराबोर भई अतर-अपीच मैं।—पद्माकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपीच्य  : वि० [सं० अपि√च्यु (गति)+ड,दीर्घ] १. अति सुन्दर। २. गुप्त। ३. छिपा हुआ।
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अपीत  : वि० [सं० न० त०] १. जो पीले वर्ण का न हो। २. (पदार्थ) जो पिया न गया हो। ३.(व्यक्ति) जिसने पिया न हो।
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अपीति  : स्त्री० [सं० अपि√इ (गति)+क्तिन्] १. प्रवेश करना या पहुँचना। २. मृत्यु। ३. प्रलय।
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अपीनस  : पुं०=पीनस (रोग)।
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अपील  : स्त्री० [अ०] १. विचार, स्वीकृति, न्याय या सहायता के लिए विनय-पूर्वक किसी से की जानेवाली प्रार्थना या निवेदन। २. छोटे न्यायालय का निर्णय बदलवाने अथवा उसपर फिर से विचार करने के लिए उससे बड़े न्यायालय के सामने उपस्थित किया जानेवाला आवेदन या प्रार्थना।
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अपीली  : वि० [सं० अपील] अपील संबंधी। जैसे—अपीली काररवाई।
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अपीव  : वि०=अपेय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपीह  : अव्य० [सं० अपि+इह] यह भी।
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अपु  : अव्य० [हिं० अपना<सं० आत्मनः] १. आप। स्वयं। २. आपस में। उदाहरण—रचि महाभारत कहूँ लरावत अपु में मैया-भैया।—सत्यनारायण। पुं० -दे० ‘आपस’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपुट्ठना  : अ० [सं० आपृष्ठ] पीछे लौटना। वापस आना।
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अपुण्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो पुण्य या पवित्र न हो। अपवित्र। २. बुरा। पुं० १. पुण्य का अभाव या विरोधी भाव। २. पाप।
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अपुत्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे पुत्र न हो। निःसंतान। २. =कुपुत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपुत्रक  : वि० [न० ब० कप्] [स्त्री० अपुत्री]=अपुत्र।
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अपुत्रिक  : पुं० [सं० न० ब०कप्, ह्रस्व ?] वह व्यक्ति जिसे पुत्र न हो, केवल ऐसी पुत्री हो जिसको लड़का न हो। विशेष—धर्म-शास्त्र के अनुसार ऐसी लड़की इसी लिए पुत्र के स्थान पर ग्रहण नहीं की जा सकती है। (दे० ‘पुत्रिका’)
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अपुत्रिका  : स्त्री० [सं० न० ब०कप्-टाप्, इत्व] अपुत्रक पिता की ऐसी पुत्री जिसके आगे लड़का न हो और इसी लिए जो पिता की संपत्ति की उत्तराधिकारिणी न हो सकती हो।
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अपुनपौ  : पुं०=अपनपौ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपुब्ब  : वि०=अपूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपुराण  : वि० [सं० न० त०] जो पुराना न हो। फलतः आधुनिक या नया।
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अपुरुष  : वि० [सं० न० त०] १. जो पुरुष न हो। २. (कार्य या बात) जो मानव धर्म के अनुरूप या उपयुक्त न हो। ३. अमानुषिक।
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अपुवै  : अव्य० [हिं० अपु+वै (प्रत्यय)] १. आप ही। स्वयं। २. आप ही आप। स्वतः।
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अपुष्कल  : वि० [सं० न० त०] १. जो पुष्कल या बहुत न हो। छोड़ा। २. श्रेष्ठ न हो। ३. नीचा। निम्न।
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अपुष्ट  : वि० [न० त०] १. जो पुष्ट न हो। २. जिसका पालन-पोषण अच्छी तरह से न हुआ हो। ३. मंद। (स्वर)। ४. (कथन या तथ्य) जिसकी पुष्टि न हुई हो।
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अपुष्पफल  : वि० [सं० अपुष्य, न० ब०अपुष्प-फल,ब० स०] (वृक्ष) जो बिना फूले ही फल देता हो। जैसे—कटहल, गूलर आदि। पुं० उक्त प्रकार का वृक्ष या उसका फल।
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अपूजा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. आदर, भक्ति, श्रद्धा आदि का अभाव। २. अनादर या अपमान करने की क्रिया या भाव।
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अपूठना  : स० [सं० आपोथन] १. नष्ट या बरबाद करना। २. चीरना-फाड़ना। ३. उलटना-पलटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूठा  : वि० [सं० अपुष्ट, प्रा० अपुठ] १. जो पुष्ट या प्रौढ़ न हो। कच्चा। २. जिसे ठीक और पूरा ज्ञान न हो। ३. जो पूर्णता तक न पहुँचा हो। ४. जिसमें अभी कुछ काम करना बाकी हो। अधूरा। जैसे—रावन हति लै चलौ साथ ही लंका धरौं अपूठी।—सूर। ५. अदभुत। विलक्षण। ६. उलटा। विपरीत। क्रि० वि० [सं० आ+पृष्ठ] पीछे की ओर। उलटी दिशा में। उदाहरण—सजि अपूठा बाहुड़उ मालवणी मुई।—ढोला मारू। वि० [सं० अस्फुट] १. जो विकसित न हुआ हो। २. जो खिला न हो।
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अपूत  : वि० [सं० न० त०] १. जो पूत या पवित्र न हो। अपवित्र। २. जो परिष्कृत या स्वच्छ न हो, फलतः गंदा या मैला। वि० [हिं० अ+पूत=पुत्र] जिसे पुत्र या बेटा न हो। निस्संतान। पुं० दे० ‘कपूत’।
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अपूता  : वि० [सं० अपुत्रक] जिसे कोई लड़का-लड़की न हो। निस्संतान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूप  : पुं० [सं० √पू (फटकना)+प०न० त०] १. गेहूँ। २. पूआ या मालपूआ (पकवान)। ३. शहद का छत्ता।
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अपूब्ब  : वि० =अपूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूर  : वि० [सं० आपूर्ण] १. अच्छी तरह से भरा हुआ। भर-पूर। २. पूर्ण। पूरा। ३. बहुत अधिक। वि०=अपूर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूरना  : स० [सं० आपूर्णन] १. पूर्ण करना। भरना। २. (फूँक कर बजाया जानेवाला बाजा) फूँकना। बजाना। जैसे—शंख अपूरना।
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अपूरब  : वि०=अपूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूरा  : वि० [सं० आ+पूर्ण] [स्त्री० अपूरी] १. भरा हुआ। २. फैला हुआ। व्याप्त। वि० १. अपूर्ण। २. अधूरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपूर्ण  : वि० [सं० न० त०] १. जो पूर्ण या भरा हुआ न हो। खाली। रिक्त। २. जिसमें किसी प्रकार की कमी, त्रुटि या दोष न हो। (इम्परफेक्ट) ३. (कार्य या वस्तु) जो अभी पूर्ण या समाप्त न हुई हो। जिसका कुछ अंश या भाग अभी पूरा होने को हो। अधूरा। (इन्कम्प्लीट) ४. जिसमें किसी बात की अपेक्षा हो। ५. अयथेष्ट।
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अपूर्णता  : स्त्री० [सं० अपूर्ण+तल्-टाप्] अपूर्ण होने की अवस्था, गुण या भाव।
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अपूर्णभूत  : पुं० [सं० न० त०] क्रिया का वह भूतकालिक रूप जिसमें क्रिया की समाप्ति न सूचित होती हो। जैसे—वह खाता था। (व्या०)
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अपूर्व  : वि० [सं० न० त०] १. जैसा कभी पहले न रहा हो या न हुआ हो। २. बिलकुल नये ढंग का। नवीन। ३. अद्वितीय। अनुपम। ४. अद्भुत। विलक्षण। पुं० ऐसी चीज जिसकी सत्ता अनुमान प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध न हो।
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अपूर्व-रूप  : पुं० [सं० न० ब०] एक प्रकार का काव्यालंकार जिसमें पूर्व गुण की प्राप्ति न होने का उल्लेख होता है। (पूर्वरूप नामक अलंकार का विपरीत रूप)
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अपूर्व-वाद  : पुं० [मध्य० स०] ब्रह्म अथवा तत्त्व ज्ञान के संबंध में होनेवाला वाद-विवाद। तर्क-वितर्क।
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अपूर्व-विधि  : स्त्री० [सं० स० त०] ऐसी वस्तु या स्थिति प्राप्त करने का आशा-मूलक विधान जिसकी सत्ता अनुमान प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध न हो सके। जैसे—मोक्ष या स्वर्ग की प्राप्ति के लिए आराधना या यज्ञ करना चाहिए।
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अपूर्वता  : स्त्री० [सं० अपूर्व+तल्-टाप्] अपूर्व होने की अवस्था गुण या भाव।
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अपृक्त  : वि० [सं०√पृच्(संपर्क)+क्त, न० त०] १. जिसका किसी से संबंध या सम्पर्क न हो। असंबद्ध। २. जिसमें कोई मिलावट न हो। खालिस। विशुद्ध। पुं० पाणिनी के अनुसार एक अक्षरवाला प्रत्यय।
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अपेक्षक  : वि० [सं० अप√ईक्ष्(देखना)+ण्वुल्-अक] १. अपेक्षण करने या देखनेवाला। २. किसी की अपेक्षा करने या रखनेवाला।
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अपेक्षण  : पुं० [सं० अपि√ईक्ष्+ल्युट्-अन] १. चारों ओर देखना। २. किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए कुछ आकांक्षा करना। चाहना। ३. आसरा देखना। प्रतीक्षा करना। ४. पालन-पोषण रक्षा आदि करना। ५. दे० ‘अपेक्षा’।
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अपेक्षणीय  : वि० [सं० अप√ईक्ष्+अनीयर] जिसकी अपेक्षा की जा सके या करना आवश्यक हो। चाहा हुआ। वांछनीय।
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अपेक्षया  : क्रि० वि० [सं० तृ०विभक्ति का रूप] किसी की अपेक्षा या तुलना में। अपेक्षाकृत।
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अपेक्षा  : स्त्री० [सं० अप√ईक्ष्+अ-टाप्] [वि० आपेक्षिक] १. इधर-उधर या चारों ओर देखना। २. कुछ पाने के लिए उस पर दृष्टि रखना। ३. अस्तित्व, क्रम, विकास, स्थिति आदि के विचार से बातों या वस्तुओं में रहने वाला आवश्यक या स्वाभाविक संबंध। जैसे—ऐसी थोथी बात तो वहीं मानेगा जिसमें अपेक्षा बुद्धि न होगी। ४. किसी कमी की बात की सूचक ऐसी स्थिति जिसमें उस बात के हुए बिना पूर्णता न आती हो। (रिक्वायरमेंट) जैसे—(क) इस संसार में आने के लिए जीव को भौतिक शरीर की अपेक्षा होती है। (ख) अभी इस पुस्तक में थोड़े विशद विवेचन और कुछ उदाहरणों की अपेक्षा है। ५. आवश्यकता। जरूरत। ६. आसरा। प्रतीक्षा। जैसे—वहाँ कुछ लोग आप की अपेक्षा में खड़े है। ७. दे० ‘अपेक्षण’।
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अपेक्षा-बुद्धि  : स्त्री० [मध्य० स०] कार्य-कारण का संबंध, पारस्परिक घटना-क्रम आदि ठीक तरह से समझने की मानसिक शक्ति।
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अपेक्षाकृत  : क्रि० वि० [तृ०त०] (किसी की) तुलना या मुकाबले में। अपेक्षा का ध्यान रखते हुए। अपेक्षया।
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अपेक्षित  : वि० [सं० अप√ईक्ष्+क्त] जिसकी अपेक्षा (आकांक्षा या आवश्यकता) हो।
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अपेक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० अपेक्षा+इनि] किसी की अपेक्षा करने या रखनेवाला। जिसे किसी की अपेक्षा हो।
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अपेक्ष्य  : वि० [सं० अप√ईक्ष्+ण्यत्]=अपेक्षणीय।
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अपेख  : स्त्री० [सं० अपेक्षा] १. आवश्यकता। अपेक्षा। २. आकांक्षा। चाह। उदाहरण—स्याम-सुंदर संग मिलि खेलन को आवत हिये अपेखैं।—कुंभनदास। वि० [हिं० अ+पेखना=देखना] जो देखा न गया हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपेच्छा  : स्त्री०=अपेक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपेत  : वि० [सं० अप√इ(गति)+क्त] १. दूर गया या हटा हुआ। २. भागा हुआ। ३. ठगा हुआ। वंचित। ४. खुला हुआ। मुक्त।
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अपेय  : वि० [सं० न० त०] १. (तरल पदार्थ) जो पेय या पिये जाने के योग्य न हो जिसे पीना उचित न हो। जैसे—भले आदमियों के लिए मदिरा अपेय है। २. जो पिया न जा सकता हो।
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अपेल  : वि० [हिं० अ-नहीं+पेलना=दबाना] १. जिसे टाल, ठेल या हटा न सके। २. जिसका खंडन या विरोध न किया जा सके। ३. अटल। सुनिश्चित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपैठ  : वि० [सं० अप्रविष्ट, पा० अपविट्ठ, प्रा० अपइट्ठ] १. (स्थान) जहाँ तक पहुँचा न जा सके। अगम्य। २. जिसकी पहुँच न हो सके।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपैतृक  : वि० [सं० न० त०] जो पैतृक न हो। जो पूर्वजों से प्राप्त न हुआ हो।
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अपोगंड  : वि० [सं० न० त०] १. जो पोगंड न हो, अर्थात् १६ वर्ष से अधिक अवस्थावाला। २. वयस्क। बालिग। ३. [अपस्-गंड० स० त०] लँगड़ा। लुंजा। ४. डरपोक।
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अपोड  : वि० [सं० अप√वह् (ढोना)+क्त] जो कहीं और ले जाया गया हो। उठाया या हटाया-बढ़ाया हुआ। वि० [सं० अ+हिं० पोढ़ा-प्रौढ़] जो प्रौढ़ या पुष्ट न हो।
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अपोह  : पुं० [सं० अप√ऊह् (गति आदि)+क] १. दूर करना। हटाना। २. कोई बात अच्छी तरह समझ-बूझकर अपना संदेह दूर करना। ३. तर्क-वितर्क समझने बूझने की शक्ति। ४. किसी तर्क या खंडन करने के लिए उसके विपरीत तर्क करना, जो बुद्धि का एक गुण माना गया है। ऊह का विपर्याय। ५. बौद्ध तर्क और दर्शन में जो कुछ अपना या अपने काम का हो, उसके अतिरिक्त अन्य सब चीजों या बातों का त्याग।
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अपौतिक  : वि० [सं० न० त०] (घाव या फोड़ा) जिसमें अभी विषाक्त कीटाणुओं के प्रवेश या सृष्टि न हुई हो। जिसमें सड़ाअँध न आई हो। पौतिक का विपर्याय। (ए-सेप्टिक)
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अपौरुष  : पुं० [सं० न० त०] १. पौरुष अर्थात् मनुष्यता या वीरता आदि का अभाव। २. ऐसा लोकोत्तर गुण या शक्ति जो साधारण मुनुष्यों में न होती हो। वि० [न० ब०] १. जो मनुष्यों का सा न हो। २. लोकोत्तर गुणों से युक्त।
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अपौरुषेय  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अपौरुषेयता] १. जो पौरुषेय या मनुष्य का बनाया हुआ न हो, बल्कि ईश्वर या देवताओं का बनाया हुआ हो। २. (कार्य) जो मनुष्य की शक्ति से बाहर हो।
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अप्प  : सर्व० [सं० आत्मन्] १. आत्म। अपना। २. आप। स्वयं। वि० =अल्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्पन  : सर्व० [सं० आत्मन्] अपना। सर्व० बहु० हम लोग। (महाराष्ट्र) पुं० -अर्पण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्पना  : स० [सं० अर्पण] १. अर्पण करना। २. देना। उदाहरण—कहे मुज्झ गुन तै भले मो अप्पो उपदेस।—चंदवरदाई। सर्व०=अपना।
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अप्यय  : पुं० [सं० अपि√इ+अच्] १. अपगमन। २. प्रस्थान। रवानगी। ३. नाश। ४. शरीर के अंगों का जोड़।
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अप्ययन  : पुं० [सं० अपि√इ+ल्युट्-अन] १. संभोग। २. दे० ‘अप्यय’।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अप्रकट  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रकट या स्पष्ट न हो। २. छिपा हुआ। गुप्त।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अप्रकंप  : वि० [सं० न० ब०] १. कंप-हीन। २. जिसे हिलाया न जा सके। स्थिर। ३. टिकाऊ। मजबूत। ४. जिसका उत्तर न दिया गया हो। ५. जिसका खंडन न किया गया हो।
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अप्रकर  : वि० [सं० प्र√कृ (करना)+अप्, न० त०] जो अच्छी तरह काम करना न जानता हो। अपुट।
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अप्रकारणिक  : वि० [सं० न० त०] जिसका प्रकरण या विषय से संबंद न हो। प्रकरण से भिन्न या विरुद्ध।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अप्रकाश  : पुं० [सं० न० त०] प्रकाश का अभाव। अंधकार।
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अप्रकाशित  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रकाश में न आया हो या न लाया गया हो। छिपा हुआ। गुप्त। २. जिसमें प्रकाश न हो। अँधेरा। अँधकारपूर्ण। ३. (पुस्तक या लेख) जिसका प्रकाशन न हुआ हो। जो छपकर (या और किसी प्रकार से) सबके सामने न आया हो।
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अप्रकाश्य  : वि० [सं० न० त०] जो प्रकाश में लाने या प्रकट करने के योग्य न हो अथवा जिसे किसी प्रकार प्रकाश में लाया न जा सकता हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अप्रकृत  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रकृत या स्वाभाविक न हो। (अनुनैचुरल) २. जो ठीक या वास्तविक न हो। ३. गढ़ा या बनाया हुआ। ४. नकली। ५. आनुषंगिक या गौण। अप्रधान। ६. आकस्मिक। ७. दे० ‘अप्रसम’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्रकृति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रकृति का अभाव। २. सांख्य में वह जो कार्य-कारण से परे हो अर्थात् पुरुष (प्रकृति से भिन्न) ३. आत्मा। वि० [न० ब०] जो प्रकृति या स्वभाव से भिन्न या विपरीत हो।
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अप्रकृतिस्थ  : वि० [सं० प्रकृति√स्था (ठहरना)+क, न० त०] १. जो प्राकृतिक, प्रसम या सामान्य स्थिति में न हो। २. अस्वस्थ। ३. विकल। व्याकुल।
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अप्रकृष्ट  : वि० [सं० न० त०] नीच। बुरा। पं० काक। कौआ।
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अप्रकेत  : वि० [सं० न० ब०] १. अविवेकी। २. अव्यवस्थित। पुं० [सं० न० त०] १. प्रकेत या ज्ञान का विरोधी भाव। अज्ञान। अविवेक। २. बिगड़ा हुआ क्रम। अव्यवस्था।
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अप्रगल्भ  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रगल्भ न हो, फलतः विनीत और सहनशील। २. अपरिपक्व या अप्रौढ़। ३. उत्साह-हीन। ४. मंद। सुस्त।
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अप्रचलित  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रचलित या चलनसार न हो। २. जो प्रयोग या व्यवहार में न आता या न होता हो। (अन-करेंट)।
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अप्रचारित  : वि० [सं० प्र√चर्(गति+क्त,न० त०] जिसका प्रचार न किया गया हो।
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अप्रच्छन्न  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रच्छन्न न हो। अनावृत। २. खुला हुआ। स्पष्ट।
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अप्रज  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे संतान न हो। २. बाँझ (स्त्री)। ३.जिसने जन्म न लिया हो। ४. (स्थान) जहाँ कोई निवास न करता हो। उजाड़।
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अप्रति  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसकी तुलना, बराबरी या मुकाबले का कोई न हो। २. जिसे रोका न जा सके।
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अप्रतिकर  : वि० [सं० न० ब०] १. विश्वास-पात्र। २. विश्रंभी।
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अप्रतिकार  : पुं० [सं० न० ब०] प्रतिकार का अभाव। वि० १. जिसका प्रतिकार या बदला न हो सके०। २. जिसका कोई प्रतिकार या उपाय न हो सके।
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अप्रतिकारी (रिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रतिकार न करे। बदला न लेनेवाला। २. किसी के विरुद्ध उपाय या प्रयत्न न करनेवाला।
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अप्रतिघ  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे रोका या पकड़ा न जा सके। २. जिसे जिता न जा सके।
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अप्रतिदेय  : वि० [सं० न० त०] (ऐसा ऋण या दान) जो सदा के लिए दे दिया गया हो और लौटाया जाने को न हो। जैसे—अप्रतिदेय ऋण (परमानेन्ट एडवांस)
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अप्रतिपत्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रकृत अर्थ समझने की योग्यता का अभाव। २. कर्तव्य-संबंधी निश्चय का अभाव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अप्रतिपन्न  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिसे अपने कर्तव्य का ज्ञान न हो। २. (बात या विषय) जो ज्ञात या निश्चित न हो।
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अप्रतिबद्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जिसपर किसी प्रकार का प्रतिबंध या रोक-टोक न हो। २. स्वच्छंद। ३. मन-माना।
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अप्रतिबंध  : वि० [सं० न० ब०] १. जिस पर किसी प्रकार का प्रतिबंध या रोक न हो या न लगाई गई हो। प्रतिबंध-हीन। २. स्वतंत्र। ३. पूर्ण। परम। (एब्सोल्यूट) पुं० [न० त०] प्रतिबंध का अभाव।
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अप्रतिबल  : वि० [सं० न० ब०] बल या शक्ति के विचार से जिसकी बराबरी का दूसरा न हो अर्थात् बहुत प्रबल या बलवान्।
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अप्रतिभ  : वि० [सं० न-प्रतिभा० न० ब०] १. जिसमें प्रतिभा न हो, फलतः चेष्टा, बुद्धि, स्फूति आदि से रहित। २. जो लज्जित करनेवाली घटना या बात के कारण उदास या निरुत्तर हो गया हो। ३. विनम्र। ४. लज्जाशील।
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अप्रतिभा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रतिभा का अभाव। २. न्याय में एक निग्रह स्थान जिसमें किसी पक्ष या बात का खंडन नहीं किया जा सकता। ३. लज्जा। ४. कायरता।
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अप्रतिभाव्य  : वि० [सं० प्रअति√भू०(होना)+णिच्+यत्,न० त०] १. जो प्रतिभाव्य न हो। २. (अपराध) जिसमें जमानत न ली जा सकती हो। (नॉन-बेलेबुल)
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अप्रतिम  : वि० [सं० न-प्रतिमा, न० ब०] जिसकी तुलना या बराबरी का दूसरा न हो। बेजोड़। अनुपम।
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अप्रतिमान  : वि० [सं० न० ब०]=अप्रतिम।
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अप्रतिरथ  : वि० [सं० न० ब०] वीरता में, जिसकी बराबरी या मुकाबले का कोई न हो।
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अप्रतिरूप  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई प्रतिरूप न हो। २. जो अनुरूप या सटीक न हो। ३. अरुचिकर।
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अप्रतिवार्य  : वि० [सं० प्रति√वृ+णिच्+यत्, न० त०] जिसका प्रतिवारण न हो सके।
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अप्रतिष्ठ  : वि० [सं० न-प्रतिष्ठा० न० ब०] १. जिसकी प्रतिष्ठा न हो। २. तिरस्कृत।
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अप्रतिष्ठा  : स्त्री० [सं० न० त०] [वि० अप्रतिष्ठित०] १. प्रतिष्ठा या सम्मान का अभाव। २. अनादर। अपमान। ३. अपयश। अपकीर्ति।
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अप्रतिष्ठित  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रतिष्ठित या सम्मानित न हो। २. [अप्रतिष्ठा+इतच्] जिसकी अप्रतिष्ठा या अपमान किया गया हो।
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अप्रतिसंबद्ध  : वि० [सं० न० त०] जिनका परस्पर कोई लगाव या संबंध न हो।
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अप्रतिहत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे आघात या ठोकर न लगी हो। जो प्रतिहत न हो। २. जो हारा न हो। ३. जिसके लिए कोई रोक-टोक न हो। ४. जिसेक बीच में बाधा या विघ्न न पड़ा हो। जैसे—अप्रतिहत गति। पुं० अंकुश।
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अप्रतिहार्य  : वि० [सं० न० त०] जो प्रतिहार्य के योग्य न हो। जिसका प्रतिहार्य न हो सके।
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अप्रतीकार  : पुं० [सं० न० त०]=अप्रतिकार।
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अप्रतीत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी प्रतीति न हो सके। जिस तक पहुँचा न जा सके। २. जिसे प्रतीति न हुई हो। ३. असामान्य। ४. अस्पष्ट।
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अप्रतुल  : वि० [सं० प्र-तुला, प्रा० स० न-प्रतुला, न० ब०] १. जिसकी तुलना या मान न हो सके। बेहद। २. अनुपम। बेजोड़।
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अप्रत्त  : वि० =अप्रदत्त।
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अप्रत्ता  : स्त्री० [सं० अप्रत्त-टाप्]=अप्रदत्ता।
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अप्रत्यक्ष  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रत्यक्ष न हो। (दे० ‘प्रत्यक्ष’) २. जो अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सीधा मार्ग न अपनाये। ३. उलटा या टेड़ा। (उपाय या मार्ग) ४. अप्रकट या गुप्त। (उद्देश्य या लक्ष्य)।
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अप्रत्यक्ष-कर  : पुं० [सं० कर्म०स०] वह कर जो उपभोक्ताओं या जनता से प्रत्यक्ष रूप से नहीं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से तथा किसी दूसरे माध्यम (जैसे—कारखानों आदि) के द्वारा लिया जाता हो। (इनडाइरेक्ट टैक्स) जैसे—कपड़े या चीनी पर का उत्पादन कर।
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अप्रत्यनीक  : पुं० [सं० न० त०] एक काव्यालंकार जिसमें शत्रु को जीतने की सामर्थ्य के कारण उससे संबंध रखनेवाली वस्तुओं का तिरस्कार न करने का वर्णन होता है।
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अप्रत्यय  : वि० [सं० न० ब०] १. बिना विभक्ति या प्रत्यय का। विभक्ति रहित। २. विश्वासरहित। ३. अनभिज्ञ। पुं० [न० त०] १. प्रत्यय या विश्वास का अभाव। २. प्रतीति या ज्ञान का अभाव।
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अप्रत्याशित  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रत्याशित न हो। जिसकी प्रत्याशा न की गई हो। २. असंभावित। ३. आकस्मिक या अचानक होनेवाला।
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अप्रदत्त  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अप्रदत्ता] जो दिया न गया हो।
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अप्रदत्ता  : स्त्री० [सं० न० त०] वह कन्या जो अभी तक किसी को दी या ब्याही न गई हो।
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अप्रधान  : वि० [सं० न० त०] जो प्रधान न हो, फलतः गौण या साधारण। पुं० प्रधान न होने का भाव।
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अप्रभ  : वि० [सं० न-प्रभा, न० ब०] १. जिसमें प्रभा का अभाव हो। प्रभा-रहित। २. धुँधला। ३. आलसी। ४. जिसमें तत्त्व न हो। तुच्छ। ५. जिसकी प्रभा नष्ट हो चुकी हो। हत-प्रभ।
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अप्रभूति  : स्त्री० [सं० न० त०] प्रभूत न होने की अवस्था गुण या भाव।
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अप्रमा  : स्त्री० [सं० न० ब०] ऐसा नियम जो आधारिक न हो। स्त्री० [सं० न० त०] भ्रममूलक ज्ञान। गलत जानकारी।
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अप्रमाण  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रमाण या प्रमाणित न हो। २. जो आधिकारिक न हो। ३. [न० ब०] बिना सबूत का। ४. अनधिकृत। ५. असीम। अपरिमित।
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अप्रमाद  : वि० [सं० न० ब०] जिसे प्रमाद न हो। पु० [सं० न० त०] प्रमाद का अभाव।
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अप्रमित  : वि० [सं० न० त०] १. जो मापा न गया हो। २. विस्तृत। असीम। ३. जो सिद्धि या आधिकारिक न हो।
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अप्रमेय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका माप या नाप न हो सकता हो। असीम। अनंत। २. जो प्रमाणित या सिद्ध न किया जा सके। ३. जो जाना या समझा न जा सके। अज्ञेय।
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अप्रयुक्त  : वि० [सं० न० त०] १. (वस्तु आदि) जिसका प्रयोग न हुआ हो अथवा जो काम में न लाया गया हो। अव्यवहृत। २. (व्यक्ति) जिसकी नियुक्ति न हुई हो।
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अप्रयुक्तत्व  : पुं० [सं० अप्रयुक्त+त्व] काव्य में एक पद—दोष जो ऐसे शब्दों के प्रयोग से होता है जो शुद्ध होने पर भी कवियों द्वारा कभी प्रयुक्त न हुआ हो।
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अप्रलंब  : वि० [सं० न० ब०] देर न लगानेवाला। फुरतीला। पुं० [न० त०] प्रलंब का अभाव। शीघ्रता। फुरती।
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अप्रवर्तक  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रवर्त्तक न हो। २. उत्साहहीन या निष्क्रिय।
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अप्रवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० न० त०] जो क्रियमाण या प्रवर्ती न हो। (इन्आपरेटिव)
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अप्रवृति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रवृत्ति या मन का झुकाव न होना। २. किसी पद, वाक्य या सिद्धान्त का आशय समझ में न आना।
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अप्रवृत्त  : वि० [सं० न० त०] जो प्रवृत्त न हो। काम में न लगा हुआ।
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अप्रशंसनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रशंसा के योग्य न हो। २. जिसकी प्रशंसा न हो सकती हो।
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अप्रशस्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रशस्त न हो। २. जो सभ्य समाज में चलने या प्रयुक्त होने योग्य न हो।
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अप्रशिक्षित  : वि० [सं० न० त०] जिसे कोई विशेष प्रकार की प्रशिक्षा न मिली हो। जो प्रशिक्षित न हो। (अनट्रेंड)
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अप्रसक्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] [वि० अप्रसक्त] १. लगाव या संबंध का अभाव। २. अनासक्ति।
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अप्रसंग  : वि० [सं० न० त०] जो अवसर या समय के उपयुक्त न हो। अप्रासंगिक। पुं० [सं० न० त०] संबंध या लगाव का अभाव।
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अप्रसन्न  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अप्रसन्नता] १. जो प्रसन्न न हो। असंतुष्ट। नाराज। २. उदास। खिन्न। दुःखी। ३. नाराज।
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अप्रसम  : वि० [सं० न० त०] जो प्रसम न हो, बल्कि उससे कुछ आगे बढ़ा या ऊपर उठा हो। (एबनाँर्मल) विशेष दे० ‘प्रसम’।
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अप्रसमतः  : क्रि० वि० [सं० अप्रसम+तस्] अप्रसम रूप में। (एबनॉर्मली)
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अप्रसूता  : स्त्री० [सं० न० त०] वह स्त्री जिसे प्रसव न होता हो। वंध्या। बाँझ।
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अप्रस्तुत  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रस्तुत या सामने न हो। अनुपस्थित। २. जो उद्यत या तैयार न हो। ३. जिसका वर्तमान या वर्ण्य विषय से कोई प्रत्यक्ष संबंध न हो। ४. अप्रासंगिक। पुं० साहित्य में कोई अलग या दूर का ऐसा विषय या व्यक्ति जिसकी चर्चा किसी प्रस्तुत मुख्य वर्ण्यविषय या व्यक्ति को चरचा के समय उपमा तुलना आदि के रूप में अथवा यों हि प्रसंग-वश या गौण रूप से होती है। ‘प्रस्तुत’ का विपर्याय।
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अप्रस्तुत-प्रशंसा  : स्त्री० [ष० त०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें कोई उद्देश्य सिद्धि करने या किसी की प्रशंसा आदि करने के लिए प्रस्तुत की चर्चा न करके अप्रस्तुत की चर्चा की जाती है और उसी से प्रस्तुत का ज्ञान कराया जाता है। (इन्डाइरेक्ट डिस्क्रिप्शन) जैसे—(क) उसके मुख के सामने चंद्रमा पानी भरता है। (ख) यह कहना कि कमलों से कोमलता, चंद्रमा से प्रकाश, सोने से रंग और अमृत से माधुर्य लेकर यह मुख बनाया गया है। (साहित्यकारों ने इसके पाँच भेद माने है।) यथा कारण-निबंधता, कार्य-निबंधना, विशेष—निबंधना, सामान्य-निबंधना और सारूप्य-निबंधना।
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अप्रहत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे चोट न लगी हो। २. (वस्त्र) जो अभी तक पहना न गया हो। कोरा। ३. (भूमि) जिसपर अभी तक हल न चला हो। ४. बंजर (भूमि)।
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अप्राकृत  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्राकृतिक न हो। २. जो मौलिक न हो। ३. विशिष्ट। ४. असाधारण।
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अप्राकृतिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो मनुष्य या पशु की भौतिक प्रकृत्ति से भिन्न हो। २. जो प्रकृति के प्रायिक क्रमक से भिन्न हो। ३. जो प्राकृतिक न हो। (अननैचुरल)
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अप्राचीन  : वि० [सं० न० त०] १. जो पुराना या प्राचीन न हो, फलतः नया या आधुनिक। २. अर्वाचीन। ३. जो पूर्वीय न हो। पश्चिमीय।
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अप्राज्ञ  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें प्रज्ञा न हो। २. जो विज्ञ या विद्वान न हो, फलतः अनभिज्ञ। ३. अशिक्षित।
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अप्राण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें जीवन, जीवनी शक्ति या प्राण न हो, फलतः निर्जीव। २. मृत। ३. संज्ञा-हीन। पुं० १. वह जिसमें जीवन शक्ति न हो। २. ईश्वर।
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अप्राप्त  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अप्राप्ति] १. (पदार्थ) जो प्राप्त या हस्तगत न हुआ हो। २. (व्यक्ति) जिसे कोई विशिष्ट चीज प्राप्त न हुई हो। जैसे—अप्राप्त-यौवना, अप्राप्त-व्यस्क। ३. जो उपस्थित या प्रस्तुत न हुई हो। ४. जो सामने न आया हो।
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अप्राप्त-काल  : पुं० [कर्म० स०] १. आनेवाला काल या समय। भविष्य। २. उपयुक्त समय से पहले का समय।
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अप्राप्तयौवना  : स्त्री० [सं० न० ब० टाप्] साहित्य में वह नायिका जिसे यौवन की प्राप्ति अभी न हुई हो।
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अप्राप्तवय (स्)  : वि० [न० ब०] कम उम्र का। अल्प-वयस्क। बालिग।
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अप्राप्तव्यवहार  : वि० [सं० न० ब०] ऐसा बालक जिसकी अवस्था सोलह वर्ष से कम हो तथा जिसे धर्म-शास्त्र के अनुसार पैतृक-संपत्ति पर पूरा अधिकार प्राप्त न हुआ हो।
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अप्राप्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्राप्त न होने की अवस्था या भाव। २. मुनाफा या लाभ का न होना। (विशेष दे० ‘प्राप्ति’)
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अप्राप्तिसम  : पुं० [सं० प्राप्ति-सम, तृ० त० न-प्राप्तिसम न० त०] तर्क में जाति या असत् उत्तर के चौबीस भेदों में से एक।
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अप्राप्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी प्राप्ति न हो सके। जो मिल न सके। २. जो मिल न सका हो। बाकी।
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अप्रामाणिक  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अप्रामाणिकता] १. जो प्रामाणिक या प्रमाण से सिद्ध न हो, फलतः ऊट-पटांग या अविश्वसनीय। २. जो आधिकारिक या प्राधिकृत न हो। ३. जो मानने योग्य न हो।
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अप्रामाण्य  : पुं० [सं० न० त०] प्रमाण का अभाव।
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अप्रायिक  : वि० [सं० न० त०] जो प्रायिक न हो। (अनयूजुअल)
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अप्रावृत  : वि० [सं० न० त०] जो ढका न हो, फलतः अनावृत्त।
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अप्राशन  : पुं० [सं० न० त०] १. भोजन न करना। २. अनशन।
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अप्रासंगिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रासंगिक (प्रसंग के अनुकूल या अनुसार) न हो। २. जिसका प्रस्तुत विषय का कार्य से कोई सीधा संबंद न हो। दूर का या विभिन्न।
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अप्रिय  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रिय न हो। जिसके प्रति अनुराग या चाह न हो। २. जो न रुचे। अरुचिकर। ३. दूषित या बुरा। जैसे—अप्रिय-वचन। पुं० १. वैरी। शत्रु। २. बेंत।
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अप्रीति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. प्रीति का अभाव। २. अरुचि। ३. वैर-विरोध। शत्रुता।
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अप्रेत  : वि० [सं० प्र√इ (गति+क्त, न० त०] १. जो मरकर प्रेत न हुआ हो। २. जो कहीं गया या भेजा न गया हो।
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अप्रैल  : पुं० [अ० एप्रिल] पाश्चात्य पंचांग का चौथा महीना।
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अप्रौढ़  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रौढ़ या पुष्ट न हो। अशक्त या कमजोर। २. जो (अवस्था के विचार से) प्रौढ़ या वयस्क न हो। नाबालिग। ३. जिसमें पूर्णता या परिपक्वता न आई हो। जैसे—अप्रौढ़ विचार। ४. (व्यक्ति) जो सुलझे हुए मस्तिष्क का न हो।
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अप्रौढ़ा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. कुमारी कन्या। २. वह कन्या जिसका अभी हाल में विवाह हुआ हो, पर जो अभी रजस्वला न हुई हो।
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अप्लव  : वि० [सं० न० ब०] १. जो तैरता न हो या तैर न सकता हो। २. जिसके पास तैरने का साधन (नाव आदि) न हो।
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अप्सर  : पुं० [सं० अप्√सृ(गति)+अच्] जल में रहने वाला प्राणी। जलचर। स्त्री० =अप्सरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्सरा  : स्त्री० [सं० अप्स-रूप+र-टाप्] १. उन कल्पित चिर-यौवना सुंदरियों में से हर एक जो स्वर्ग की गायिकाएँ और वैश्याएँ मानी गई हैं। परी। २. परम सुंदरी स्त्री। ३. जल का कण।
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अप्सरी  : स्त्री०=अप्सरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अप्सु  : वि० [सं० न-प्सु-रूप, न० ब०] जिसका रूप न हो। रूप-रहित।
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अप्सु-प्रवेशन  : पुं० [सं० अलुक्, स०] प्राचीन भारत में, अपराधी को जल में डुबाकर उसके प्राण लेने की क्रिया या प्रणाली (कौ०)।
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अप्सुचर  : वि०=जलचर।
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अफ़गन  : वि० [फा०] मार गिरानेवाला। जैसे—शेर अफ़गन।
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अफ़गान  : पुं० [अ०] अफगानिस्तान का रहनेवाला। पठान।
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अफगानिस्तान  : पुं० [अ०+फा०] पाकिस्तान की पश्चिमोत्तर सीमा पर का एक प्रदेश।
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अफजल  : वि० [अ०] उत्तम। श्रेष्ठ।
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अफतर  : वि० [अ०अब्तर] १. दुर्दशा-ग्रस्त। २. उद्दंड और दुष्ट। पाजी और बिगड़ैंल। उदाहरण—अफतर फेरै सो वागी रे।—कबीर(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अफताब  : पुं०=आफताब (सूर्य०)।
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अफताबी  : स्त्री०=आफताबी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अफ़तार  : पुं० [अ० इफ्तार] दिन भर रोजा रखने के बाद संध्या को कुछ खाकर उसकी समाप्ति करना।
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अफताली  : पुं० [?] वह अधिकारी जो राजाओं की यात्रा के समय पहले से पड़ाव पर पहुँचकर उसके ठहरने की व्यवस्था करता था। (बुंदे०)
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अफनाना  : अ०=उफनाना।
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अफ़यून  : स्त्री० =अफीम।
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अफ़यूनी  : पुं०=अफीमची।
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अफरन  : स्त्री० [हिं० अफरना] १. पेट अफरने या फूलने की क्रिया या भाव। २. पेट फूलने का रोग।
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अफरना  : अ० [सं० आस्फार] १. इतना अधिक भोजन करना कि पेट फूल जाए। २. अघाना। तृप्त होना। ३. वायु आदि के प्रकोप के कारण पेट फूलना। ४. किसी बात की अधिकता से ऊबना। ५. बहुत अभिमानी, संपन्न या हष्ट-पुष्ट होना। (व्यंग्य)
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अफरा  : पुं० [हिं० अफरना] १. अफरने की क्रिया या भाव। २. एक रोग जिसमें वायु के प्रकोप के कारण से पेट फूल जाता है और व्याकुल होने लगता है।
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अफ़रा-तफ़री  : स्त्री० [अ० अफरात तफरीत] १. क्रम, व्यवस्था आदि उलट-फेर। गड़बड़ी। २. जल्दी व्याकुलता आदि के कारण होनेवाली अव्यवस्था।
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अफराना  : अ०=अफरना। स० किसी को अफरने में प्रवृत्त करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अफराव  : पुं० [हिं० अफरना] १. अफरने या पेट फूलने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. एक रोग जिसमें पेट बहुत अधिक फूल जाता है।
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अफ़रीदी  : पुं० [अ०] पठानों की एक जाति।
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अफल  : वि० [सं० न० ब०] १. (वृक्ष) जिसमें फल न लगता हो या न लगा हो। फलहीन। २. (कार्य या प्रयत्न) जिसका कोई फल या परिणाम न हो। निष्फल। पुं० झाऊ का वृक्ष।
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अफला  : स्त्री० [सं० अफल+टाप्] १. वह स्त्री जिसे संतान न होती हो। बाँझ। २. भुई आँवला। ३. घृत-कुमारी। घी-क्वार।
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अफलातून  : पुं० [यू० प्लेटो से अ०] १. प्राचीन यूनान का प्लेटो नामक एक प्रमुख विद्वान तथा दार्शनिक अरबी का नाम। २. वह जो अपने आप को औरों से बहुत बड़ा समझता हो।
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अफलित  : वि० [सं० न० त०] १. (वृक्ष) जिसमें फल न लगे हों। २. (कार्य) जिसका कोई परिणाम या फल न हुआ हो।
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अफवा  : स्त्री०=अफवाह।
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अफवाज  : पुं० [अ० फौज का बहु०] सेनाएँ० उदाहरण—तू जूनो परणे नवो असुरारी अफवाज।—बाँकीदास।
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अफवाह  : स्त्री० [अ०] किसी घटना का ऐसा समाचार जो प्रामाणिक न होने पर भी जन-साधारण में फैल गया हो। उड़ती हुई खबर। किवदंती। क्रि० प्र०—उड़ना।-फैलना।
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अफशाँ  : स्त्री० [फा०] १. जल-कण। २. सोने-चाँदी के पत्थरों का वह चूर्ण या चमकी, बादले आदि के कटे हुए बहुत छोटे टुकड़े जो स्त्रियाँ अपने चेहरे पर शोभा बढ़ाने के लिए छिड़कती हैं।
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अफसंतीन  : पुं० [यू०] एक प्रकार का काश्मीरी पौधा और उसके फल।
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अफसर  : पुं० [अ० आफिसर] १. वह प्रधान अधिकारी जिसके अधीन अनेक अधिकारी या कर्मचारी काम करते हों। २. प्रधान। मुखिया। सरदार।
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अफसरी  : स्त्री० [अ० अफसर] १. अफसर होने की अवस्था या भाव। २. अफसर का पद। ३. अफसरों की तरह का अधिकारपूर्ण शासन। वि० अफसरों जैसा। जैसे—अफसरी शान।
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अफ़साना  : पुं० [फा०] १. घटना। २. आख्यायिका। कहानी। किस्सा।
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अफसूँ  : पुं० [फा०] मंत्र आदि पढ़कर किया जानेवाला टोना-टोटका।
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अफसोस  : पुं० [फा० अफ्सोस] मन में होने वाला खेदयुक्त पश्चाताप्।
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अफीम  : स्त्री० [फा० ओपियन, अ० अफयून] पोस्ते के डंठलों से निकाला जाने वाला एक प्रसिद्ध मादक पदार्थ जो काले रंग का और कड़ुआ होता हैं। (ओपियम)
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अफीमची  : पुं० [अ० अफूयन+ची (प्रत्यय)] वह जो नशे के लिए नियमित रूप से अफीम खाता हो और प्रायः पिनक लेता रहता हो।
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अफीमी  : वि० [हिं० अफीम] अफीम-संबंधी। अफीम का। जैसे—अफीमी नशा। पुं०=अफीमची।
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अफुल्ल  : वि० [सं० न० त०] (फूल या वृक्ष) जो खिला या फूला न हो।
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अफ़ू  : स्त्री०=अफीम।
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अफेन  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें फेन न हो। पुं० अफीम।
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अफ्फन  : पुं०=अर्पण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अफ्फना  : स० [सं० अर्पण, राज० अप्पना=देना] अर्पित करना। देना। उदाहरण—पुत्तीय-पुत्त अफ्फँऊँ पुहुमि, इमि च्यंतनु मन महकरिए।—चंदबरदाई।
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अंब  : पुं० [सं० अंबर] आकाश। गगन। उदाहरण—उड़ीयण वरिज अंब हीर-चन्द्र। पुं० [सं० आम्र] आम का वृक्ष और उसका फल। स्त्री०=अंबा (माता)।
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अब  : अव्य-[सं० अद्य, अथ, प्रा० अदो, इब्ता, इन्जा, वि० अद्, भोज० और मार०अबर, मग० अबरी, इबरी] १. प्रस्तुत या वर्तमान क्षण में। इस समय। जैसे—(क) अब तैयार हो जाओ। (ख) अब ऐसा नहीं हो सकता। मुहावरा—अब-तब करना=कोई काम करने के संबंध में यह कहते चलना कि अब कर दिया जायेगा। टाट-मटोल करना। जैसे—अब-तक वह करते-करते महीनों से टाल रहा है पर रुपये नहीं देता। ऐसा जान पड़ता है कि यह अब मर जायेगा या थोड़ी देर से अधिक न बचेगा। २. इस अवसर पर या इस स्थिति में। जैसे—अब यह काम पूरा हुआ है। पद—अबका=वर्तमान काल का। आज-कल का। आधुनिक। जैसे—अबके लड़के किसी की बात नहीं सुनते। अब की या अब के=(क) इस बार। जैसे—अब की (या अबके) तुम्हें दिल्ली जाना पड़ेगा। (ख) आगे चलकर। भविष्य में। जैसे—अबकी (या अबके) फसल अच्छी होगी। अब जाकर-इतने दिनों या समय के बाद। अब। जैसे—अब जाकर वह ठीक रास्ते पर आया। अब से-आगे से। भविष्य में। जैसे—अब से कभी ऐसा मत करना। ३. किसी निर्दिष्ट या विशिष्ट समय में। जैसे—अब युद्ध पूर्णयता बंद हो चुका था। ४. इस समय के उपरांत। फिर कभी या भविष्य में। जैसे—अब ऐसा न करूँगा। ५. निर्दिष्ट तथ्यों या बातों का ध्यान रखते हुए। जैसे—मुझे जो कुछ कहना था वह कह दिया, अब आप निर्णय कर सकते है।
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अंबक  : पुं० [सं०√अम्ब (जाना) +ण्वुल-अक] १. आँख, नेत्र। २. ताँबा। ३. पिता।
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अबका  : पुं० [सं० अबका=सेवार] एक प्रकार का पौधा जिसकी छाल या रेशों से रस्सियाँ बनती हैं।
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अंबख  : पुं०=अंबक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबखरा  : पुं० [अब्खरः] भाप। वाष्प। पुं० दे० ‘आबखोरा’।
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अबखोरा  : पुं० =आबखोरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अबगत  : स्त्री० =अवगति। वि० १. अविगत। २. अवगत। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबझ  : वि० [हिं० अ+बूझना] १. जिसे जाना, बूझा या समझा न जा सके। अज्ञेय। २. जिसे बुद्धि या बोध न हो। अबोध। ना-समझ। उदाहरण—अजहुँ न बूझ अबूझ।—तुलसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबट  : वि० [?] १. अभेद्य। २. अगम। उदाहरण—मन जेथ निमाण निलजी नारी, अकबर गाहक बट अबट।—पृथीराज।
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अबटन  : पुं०=उबटन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अबड़-घबड़  : वि० [अनु] १. बेजोड़ या बेमेल। असंगत। २. भद्दा। भोड़ा। ३. जल्दी समझ में न आनेवाला।
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अबतर  : वि० [अ० अब्तर] १. गिरने, बिगड़ने आदि के कारण जिसकी दशा बुरी हो गयी हो। खराब। निकृष्ट। २. जिसका क्रम या व्यवस्था बिगड़ गई हो। अस्त-व्यस्त। जैसे—दफ्तर की हालत बहुत अबतर हो गयी है। ३. चौपट। विनष्ट। जैसे—यह बाजी तो अबतर हो गई।
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अबतरी  : स्त्री० [अ० अब्तरी] १. अवसर होने की अवस्था या भाव। २. अधःपतन। अवनति। ३. अव्यवस्था। गड़बड़ी।
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अबद्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो बँधा न हो अथवा बाँधा न गया हो। बंधन-रहित। २. जिसका क्रम या व्यवस्था ठीक न हो। ३. मन माना आचरण करनेवाला। निरंकुश। ४. दे० ‘असबद्ध’।
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अबद्ध-मुख  : वि० [ब० स०] बिना सोचे-समझे बकनेवाला। बढ़-बुढ़िया।
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अबद्ध-मूल  : वि० [ब० स०] जिसका मूल या जड़ मजबूत न हो।
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अबंध  : वि० [सं० न० ब०] १. जो बँधा न हो। बंधन-रहित। खुला हुआ। २. जो किसी के अधिकार या शासन में न हो। स्वच्छंद। ३. मनमाना आचरण करनेवाला। निरकुंश।
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अबध  : वि० [सं० अबाध्य] १. जो बँधा न हो। अबद्ध। २. जो रोका न जा सके। अबाध्य। ३. स्वतंत्र रूप से चलनेवाला। उदाहरण—भरे भाग अनुराग लोग करै काम अबध चितवनि चितई है।—तुलसी।
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अबंधु  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई बंधु या इष्ट-मित्र न हो। २. अकेला।
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अबधू  : वि० [सं० अबोध, पुं० हिं० अबोधु] अज्ञानी। मूर्ख। पुं०=अवधूत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबधूत  : पुं०=अबधूत।
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अबंध्य  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अबंध्या] १. जो बाँधा न जा सके अथवा जो बँधने योग्य न हो। २. निश्चित रूप से फल देनेवाला। अव्यर्थ।
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अबध्य  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अबध्या, भाव अबध्यता] १. जिसका वध या हत्या न की जा सकती हो। जो मारा न जा सके। २. जिसका वध करना या मार डालना अनुचित हो। जैसे—शास्त्रों में बालक, ब्राह्मण, स्त्रियाँ आदि अबध्य कही गई है।
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अंबर  : पुं० [सं०√अब् (शब्द) +घञ-अंब+ रा (दान) +क] १. घेरा परिधि। २. कपास। ३. कपड़ा, वस्त्र। ४. एक विशेष प्रकार का रेशमी कपड़ा। ५. आकाश। मुहावरा—अंबर के तारे डिगना=असंभव घटना घटित होना। उदाहरण—अंबर के तारे डिगैं जूआ लाडै बैल-कोई कवि। ६. बादल, मेघ। ७. ब्रह्वारंध्र। ८. अमृत। ९. अबरक। १॰. उत्तर भारत के एक प्रदेश का पुराना नाम। ११. एक प्रसिद्ध सुगन्धित द्रव्य जो ह्वेल मछली की आँतों में से निकाला जाता है।
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अबर  : वि० [अ० अबल] [भाव० अबराई] १. निर्बल। शक्ति-हीन। २. दुर्बल। कमजोर। वि० -अपर (दूसरा)। क्रि० वि० इस बार। पुं० [फा० अब्र] बादल। मेघ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंबर-चर  : वि० [सं० अंबर√चर् (गति)+ट] आकाश में चलने वाला। पुं० १. पक्षी, चिड़िया। २. विद्याधर (देव-योनि)।
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अंबर-चारी (रिन्)  : पुं० [सं० अंबर√ चर+णिनि] आकाश में चलनेवाले पक्षी आदि।
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अंबर-डंबर  : पुं० [सं० अंबर=आकाश] सूर्यास्त के समय पश्चिम दिशा में दिखाई पड़ने वाली लाली। उदाहरण—अंबर-डंबर साँझ के ज्यों बालू की भीत—अज्ञात।
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अंबर-द  : पुं० [सं० अंबर√ दा (देना)+क] कपास जिससे कपड़े बनते हैं।
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अंबर-पुष्प  : पुं० [ष० त०] =आकाश-कुसुम।
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अंबर-बारी  : स्त्री०=दारुहल्दी।
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अंबर-मणि  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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अबरक  : पुं० [सं० अभ्रक] पत्तरों या वरकों के रूप में पाई जानेवाली एक प्रसिद्ध चमकीली, भुरभुरी सफेद धातु। भोडल। (माइका)
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अबरख  : पुं०=अबरक।
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अबरखी  : वि० [हिं० अबरक] १. अबरख के रंग का। २. अबरख का बना हुआ। स्त्री० अबरक का वह चूर्ण जो चित्रकार चित्रों पर चांदी का रंग दिखाने के लिए छिड़कते हैं।
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अबरन  : वि० [सं० अ+वर्ण] १. जिसका कोई वर्ण या रूप न हो। वर्ण-रहित। २. जो आस-पास के रंगों से भिन्न रंग या प्रकार का हो। पुं० १. दे० आभरण। २. दे० ‘आवरण’। वि० [सं० अवर्ण्य] जिसका वर्णन न हो सके।
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अबरबान  : वि० [सं० अपर+हिं० बानि] १. आवारा। २. मूर्ख।
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अंबरबेलि  : स्त्री०=आकाश-बेल।
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अबरस  : पुं० [फा०] १. घोड़े का एक रंग जो सब्ज से कुछ खुलता हुआ और अधिक सफेद रंग का होता है। २. इस रंग का घोड़ा।
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अंबरसारी  : पुं० [?] प्राचीन काल में घरों पर लगने वाला एक प्रकार का कर या टैक्स।
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अबरा  : वि०=अबर। वि० [हिं० अ+बराना-बचाना] १. जो बचाया न जा सके। २. जिसे बचा या छोड़ न सके।—अडुर। पुं० [फा०] १. ओढ़ने या उदाहरण—हारे अबरे का एतबार। पहनने के दोहरे कपड़ों में, ऊपर का कपड़ा या पल्ला। उपल्ला। २. विकट समस्या। उलझन।
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अँबराई  : स्त्री०=अमराई।
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अँबराउँ  : पुं०=अमराई।
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अंबरांत  : पुं० [सं० अंबर—अंत ष० त०] क्षितिज।
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अँबराव  : पुं०=अमराई।
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अँबरिया  : वि० =वृथा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँबरी  : वि० [हिं० अंबर+ई (प्रत्यय] जिसमें अंवर (एक सुगन्धित द्रव्य) पड़ा या मिला हो। अंबर की सुगन्ध से युक्त। जैसे—अंबरी बिरियानी।
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अबरी  : वि० [फा० अब्र=बादल मि० सं० अभ्र] १. जिसमें बादल की तरह कई रंगों की धारियाँ हों। स्त्री० १. एक प्रकार का कागज जिस पर उक्त प्रकार की धारियाँ होती हैं। २. कपड़ों की एक प्रकार की रँगाई जिसमें उक्त ढंग की धारियाँ होती है। ३. पीले रंग का एक पत्थर जो पच्चीकारी के काम आता है। स्त्री० [सं० अ+वारि] जलाशय का किनारा। क्रि० वि० [हिं० अब] इस बार। अब की दफा। उदाहरण—अबरी क कहलिया मोर एतना कर लीहिन।—लोकगीत।
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अंबरीष  : पुं० [सं० अंब (पाक) +अरिष, नि० दीर्घ] १. विष्णु। २. शिव। ३. सूर्य। ४. ग्यारह वर्ष की अवस्था का बालक। ५. युद्ध लड़ाई। ६. आमड़े का वृक्ष और उसका फल। ७. पश्चात्ताप। ८. भाड़ भरसाई। ९. मिट्टी का वह बरतन जिसमें अनाज के दाने (भाड़ में) भूने जाते है। १॰. अयोध्या के एक प्रसिद्ध और प्राचीन सूर्यवंशी राजा जो इक्ष्वाकु से २८वीं पीढ़ी में हुए थे।
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अंबरीसक  : पुं० [सं० अम्बरीष] भाड़, भड़साई। (ड़िं) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबरू  : स्त्री० [फा० अब्रू मि० सं० भ्रू] भौंह।
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अंबरौक (स)  : पुं० [सं० अंबर-ओकस्, ब० स०] देवता।
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अबर्त  : पुं०=आवर्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबर्न्य  : वि० [सं० अ+वर्ण्य] जिसका वर्णन न हो सके। अवर्णनीय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबल  : वि० [सं० न० ब०] [स्त्री० अबला] १. जिसमें बल न हो। अशक्त। बलहीन। २. कमजोर। दुर्बल। ३. नपुंसक। पुंस्त्वहीन। स्त्री० [सं० अवलि] पंक्ति। कतार। उदाहरण—अंतर नीलंबर अबल आभरण।—प्रिथीराज।
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अबलक  : वि० [अ० अब्लक] १. जिसमें दो रंग एक साथ दिखाई दें। जैसे—काला और लाल, या लाल और सफेद। २. कई रंगों से युक्त। चितकबरा। पुं० ऐसा घोड़ा जिसके शरीर का कुछ अंश काला और सफेद हो। वि० [सं० अवलक्ष] अद्भुत। विलक्षण। जैसे—वाही कन्हैया जाके अबलक बाल।—गीत।
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अबलका  : स्त्री० [हिं० अबलक] मैना की तरह की एक काले रंग की चिड़िया जिसकी छाती सफेद रंग की होती है।
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अबलख  : वि०=अबलक।
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अबलखा  : स्त्री० दे० ‘अबलका’ (पक्षी)।
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अंबला  : वि० =अम्ल। पुं०=अमल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अबला  : वि० स्त्री० [सं० अवल+टाप्] [भाव० अबलात्व] जिसमें कुछ भी बल या शक्ति न हो। स्त्री० औरत। स्त्री। (जो अबला या अशक्त मानी जाती है)।
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अँबली  : पुं० [सं० अंबर] एक प्रकार की गुजराती कपास।
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अबल्य  : पुं० [सं० बल+यत्, न० त०] १. अबलता। कमजोरी। निर्बलता। २. अस्वस्थता।
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अंबवर  : पुं० [सं० अंबर+वर] अच्छा वस्त्र। (डि०)
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अबवाब  : पुं० [फा० बाब का बहु०] कुछ विशिष्ट प्रकार के कर जो किसानों आदि पर लगाये जाते है। (सेस)
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अंबष्ठ  : पुं० [सं० अंब√ स्था (ठहरना)√क) (स्त्री०अंवष्ठा] १. एक प्राचीन जनपद जो चनाव नदी के निचले भाग के दोनों ओर बसा था। २. उक्त प्रदेश का निवासी। ३. ब्राह्यण पिता और वैश्य माता से उत्पन्न एक जाति का पुराना नाम। ४. महावत। ५. कायस्थ जाति का एक वर्ग या शाखा।
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अंबष्ठा  : स्त्री० [सं० अंबष्ठ+टाप्] १. अंबष्ठ जाति की एक स्त्री०। २. पाढ़ा नाम की लता। ३. जूही।
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अंबष्ठिका  : स्त्री० [सं० अंबष्ठ+कन-टाप्, इत्व]=अंबष्ठा।
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अबस  : वि० [अ०] निरर्थक। बे-फायदा। क्रि० वि० नाहक। व्यर्थ। वि० =अवश।
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अंबहर  : पुं० [सं० अंबर] आकाश। पुं० दे० ‘अमहर'।
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अंबा  : स्त्री० [सं०√अंब (गति) +घञ-टाप्] १. जननी। माता। २. पार्वती। ३. काशिराज इंद्रद्युम्न की सबसे बड़ी कन्या जिसे भीष्म हर ले गये थे। ४. यमुना नदी की एक शाखा। ५. पाढ़ा लता। पुं०=आम (वृक्ष और फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अबा  : पुं० [अ०] एक प्रकार का मुसलमानी पहिनावा जो अंगे से कुछ अधिक लंबा होता है।
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अंबाझोर  : वि० [हि० अंबा=आम+झोरना] बहुत तेज हवा (जिससे पेड़ों के आम झड़ जाएँ)
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अबाट  : पुं० [हिं० अ+वाट=मार्ग] कुपथ। कुमार्ग।
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अँबाड़ा  : पुं०=आमड़ा।
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अबाती  : वि० पुं० [सं० अ=नहीं+बात=वायु] १. जिसमें वायु का अभाव हो। २. जिसमें वायु का प्रवेश या संचार न हो सके। ३. जो वायु से काँप रहा हो। स्थिर। वि० [सं० अ+बाती-बत्ती] (दीपक) जिसमें बत्ती न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबाद  : वि० [सं० अबाद] जो वाद शून्य हो। निर्विवाद। वि०=आबाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अबादान  : वि० [अ० आबाद] [भाव० अबादानी] १. बसा हुआ। आबाद। (स्थान) २. भरा हुआ। पूर्ण। ३. समृद्ध। संपन्न।
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अबादानी  : स्त्री० [हिं० अबादान] अबाद (बसे भरे हुए या संपन्न) होने की अवस्था या भाव।
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अबाध  : वि० [सं० न-बाधा, न० ब०] १. जिसके लिए या जिसमें कोई बाधा, विघ्न या रोक-टोक न हो। बेरोक। निर्विघ्न। २. मनमाना। स्वच्छंद। ३. अपार। असीम० ४. पूर्ण। परम। (एब्सोल्यूट)
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अबाध-व्यापार  : पुं० [कर्म० स०] दे० ‘मुफ्त व्यापार’।
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अबाधा  : वि० दे० ‘अबाध’। स्त्री० [सं० न० त०] बाधा का अभाव।
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अबाधित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके करने में कोई बाधा अथवा रोक-टोक न हो। बाध-रहित। २. मनमाना। स्वच्छंद। निरंकुश।
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अबाध्य  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अबाध्यता] १. जो रोका न जा सके। बे-रोक। २. जिसपर किसी का अधिकार या नियंत्रण न हो। ३. अनिवार्य।
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अबान  : वि० [अ=नहीं+हिं० बान-वाण] जिसेक हाथ में बाण (या अस्त्र-शस्त्र) न हो। निहत्था।
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अंबापोली  : स्त्री० [सं० आम्र=आम, प्रा० अंब+सं० पौलि=रोटी] अमावट।
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अबाबील  : स्त्री० [फा०] काले रंग की एक प्रकार की चिड़िया।
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अंबार  : पुं० [फा०] ढेर। राशि।
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अबार  : स्त्री० [सं० अ=बुरा+बेला-हिं० बेर=समय] अधिक या बहुत देर। विलंब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंबारी  : स्त्री० [अं० अमारी] १. एक प्रकार का छज्जेदार मंडपवाला हौदा। २. मकान के अगले या ऊपरी भाग में बना हुआ उक्त प्रकार का मंडप। स्त्री० (?) पटसन। (दक्षिण)।
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अबाल  : वि० [सं० न० त०] १. जो बालक न हो। जवान। २. पूरा। पूर्ण। पुं० [देश०] चरखे की पखुँडियों में बाँधकर तानी जानेवाली रस्सी।
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अंबालिका  : स्त्री० [सं० अंबा√ला (लेना) +क-टाप्, इत्व] १. माता। २. काशी के राजा इंद्रद्युम्न की छोटी कन्या जिसे भीष्म पितामह हर ले गए थे। 3. अंबष्ठा या पाढ़ा नाम की लता।
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अबाली  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पक्षी। बेंगनकुटी।
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अबास  : पुं० दे० ‘आवास’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अबाँह  : वि० [हिं० अ+बाँह] १. जिसे बाँह या हाथ न हो। २. जिसका कोई सहारा, सहायक या रक्षक न हो। असहाय। उदाहरण—चाह अलबाल औ अबाँह के कलपतरू, कीरति-मयंक प्रेम सागर अपार है।—आनंदघन। ३. अकेला। (क्व०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबाह  : वि० [सं० अवध्य] १. जो मारा न जा सके। २. जिसे मारना उचित या संगत न हो।
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अंबिका  : स्त्री० [सं० अंबा+कन्-टाप्, इत्व] १. माता। २. दुर्गा। ३. पार्वती। ४. जैनियों की एक देवी। ५. काशी के राजा इंद्रद्युम्न की कन्या जिसे भीष्म पितामह हर ले गये थे और जिसके गर्भ से धृतराष्ट्र उत्पन्न हुए थे। ६. कुटकी नाम का पौधा। ७. दे० ‘अंबा’।
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अंबिका पति  : पुं० [ष० त०] शिव।
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अंबिका-वन  : पुं० [ष० त०] पुराणों के अनुसार एक वन जहाँ पहुँचने पर पुरुष स्त्री० बन जाता था।
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अंबिकेय  : पुं० [सं० अंबिका+ढ-एय] १. अंबिका के पुत्र-गणेश। २. कार्तिकेय। ३.धृतराष्ट्र।
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अबिचार  : पुं०=अविचार।
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अबिचारी  : वि०=अविचारी।
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अबिछीन  : वि०=अविच्छिन्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबिद्ध  : वि०=अविद्ध।
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अबिध  : वि० [सं० अ-नहीं+विध्=नियम] १. जो नियम या विधि से न हो। अव्यवस्थित। २. नियम-विरुद्ध। क्रि० वि० नियम या विधि का ठीक तरह से बिना पालन किए। अनियमित रूप से।
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अबिंधन  : पुं० [सं० अप्-इन्धन, ब० स०] १. बड़वानल। २. समुद्र।
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अबिनासी  : वि० -अविनाशी (अविनश्वर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँबिया  : स्त्री० [सं० आम्र० प्रा०अंब] छोटा कच्चा आम।
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अबिरथा  : क्रि० वि० [सं० वृक्ष] =वृथा या व्यर्थ। (पुं० हिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबिरल  : वि०=अविरल।
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अँबिली  : स्त्री०=इमली (का वृक्ष और उसका फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अबिहड़  : वि० [सं० अविरल] १. जो कटा या टूटा न हो। अखंड। साबूत। उदाहरण—अबिहड़ अजर-अमर पद गहौ।—गोरखनाथ। २. मिला या सटा हुआ। ३. जो परमात्मा में लीन हो चुका हो। (रहस्य-संप्रदाय)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अबीज  : वि० [सं० न० ब०] १. बीज-रहित। २. नपुंसक।
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अबीर  : पुं० [अ०] [वि० अबीरी] १. अबरक का चूरा जो कई रंगों का मुख्यतः गुलाबी रंग का होता है। बुक्का। २. अबरक या चूरा या रंगीन बुकनी जिसे लोग होली में इष्ट-मित्रों पर डालते है।
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अबीरी  : वि० [हिं० अबीर] अबीर के रंग का गुलाबी। कुछ काला पन लिए लाल। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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अबीह  : वि० [सं० अभय] निडर। निर्भय। उदाहरण—हाथल रा बल सूं हुवौ औ मृगराज अबीह।—बाँकीदास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंबु  : पुं० [सं०√अंब (शब्द) +उ] १. जल, पानी। २. रक्त या खून का जलीय अंश। ३. (जल को चौथा तत्त्व मानने के कारण) चार का अंक या संख्या। ४. जन्म-कुण्डली में चौथा घर या स्थान। ५. सुगंधबाला।
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अंबु चामर  : पुं० [स०त०]=सिवार।
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अंबु नाथ  : पुं० [ष० त०] १. समुद्र। २. वरुण।
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अंबु निधि  : पुं० [ष० त०] सागर। समुद्र।
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अंबु-कंटक  : पुं० [ष० त०] मगर नाम का जल-जन्तु।
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अंबु-कीश  : पुं० [स० त०] सूँस नामक जल-जन्तु।
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अंबु-कूर्म  : पुं० [स० त०] सूँस (जल-जन्तु)।
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अंबु-केशर  : पुं० [स० त०] नीबू।
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अंबु-घन  : पुं० [ष० त०] ओला।
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अंबु-चत्वर  : पुं० [ष० त०] झील।
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अंबु-चर  : विं० [सं०√अंबु चर् (गति)+ट] जल में रहनेवाला। पुं० जल में रहने या विचरण करनेवाला जंतु या जीव।
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अंबु-चारी (रिन्)  : पुं० [सं०√अंबु चर्+णिनि]=अंबुचर।
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अंबु-जात  : वि० , पुं० [पं० त०]=अंबुज।
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अंबु-ताल  : पुं० [स०त०]=सिवार।
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अंबु-धर  : वि० [सं० अंबु धृ (धारण करना) +अच्] जल धारण करनेवाला। पुं० बादल। मेघ।
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अंबु-धि  : वि० [सं० अंबु√ धा (धारण) +कि] जिसमें जल हो। पुं० १. समुद्र। २. चार की संख्या। ३. जल रखने का पात्र या बरतन।
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अंबु-प  : वि० [सं० अंबु√पा (पीना या रक्षा) +क] पानी पीनेवाला। पुं० १. समुद्र। २. वरुण। ३. शतभिक्षा नक्षत्र। ४. चक्रमर्दक या चकवँड़ नामक पौधा।
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अंबु-पति  : पुं० [ष० त०] १. समुद्र। २. वरुण।
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अंबु-पत्रा  : स्त्री० [ब० स०] एक प्रकार का पौधा। नागरमोथा।
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अंबु-पालक  : पुं० [स० त०] (स्त्री० अंबुपालिका) पानी भरनेवाला सेवक। पनभरा।
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अंबु-भव  : पुं० [ब० स०] कमल।
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अंबु-भृत्  : पुं० [सं० अंबु√भृ (धारण पोषण)+क्विप्] १. बादल, मेघ। २. नागरमोथा नामक पौधा। ३. समुद्र। ४. अभ्रक। अबरक।
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अंबु-राज  : पुं० [ष० त०] १. समुद्र। २. वरुण।
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अंबु-राशि  : [पुं० ष० त०] जल की राशि सागर।
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अंबु-रुह  : पुं० [सं० अंबु√रुह् (उत्पन्न होना) +क] कमल।
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अंबु-वाची  : पुं० [सं० अंबु√वच् (बोलना) +णिच्+अण्-डीप्] १. आर्द्रा नक्षत्र का पहला चरण जिसमें पृथ्वी रजस्वला मानी जाती है। २. उक्त अवसर पर एक प्रकार का रखा जानेवाला व्रत।
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अंबु-वासी (सिन्)  : पुं० [सं० अंबु√वस् (निवास) +णिनि] पाटला नाम का पौधा।
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अंबु-वाह  : पुं० [सं० अंबु√वह् (बहना) +अण्] १. बादल। २. नागरमोथा (पौधा)। ३. झील।
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अंबु-वाही (हिन्)  : वि० [सं० अंबु वह् (ढोना) +णिनि] (स्त्री० अंबुवाहिनि) पानी लानेवाला। पुं० १. बादल, मेघ। २. नागरमोथा (पौधा)।
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अंबु-वेतस्  : पुं० [मध्य० स०] पानी में होने वाला एक प्रकार का बेंत। जलबेंत।
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अंबु-शायी (यिन्)  : पुं० [सं० अंबु√शी (सोना) +णिनि] समुद्र शयन करनेवाले विष्णु।
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अंबु-सर्पिणी  : स्त्री० [सं० अंबु सृप् (गति) +णिनि, डीप्] जोंक।
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अंबुज  : वि० [सं०√अंबु जन् (उत्पन्न होना) +ड] (स्त्री०अंबुजा) जो जल से या जल में उत्पन्न हुआ हो। जैसे—कमल, कुमुदिनि आदि। पुं० १. जल से उत्पन्न वस्तु। २. कमल। ३. ब्रह्या। ४. चंद्रमा। ५. शंख। ६. वज्र। ७. पनिहा या हिज्जल नामक वृक्ष। ८. सारस पक्षी। ९. कपूर। १. बेंत।
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अंबुजा  : स्त्री० [सं० अंबुज√टाप्] १. कुमुदिनि। २. कमलिनि। ३. संगीत में एक रागिनी।
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अंबुजाक्ष  : वि० [सं० अंबुज-अक्षि, ब० स०, अच्] जिसके नेत्र कमल के समान हों। पुं० विष्णु।
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अंबुजासन  : पुं० [सं० अंबुज-आसन, ब० स०] ब्रह्मा।
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अबुझ  : वि०=अबूझ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंबुद  : वि० [सं० अंबु दा (दान) +क] जल देनेवाला। पुं० १. बादल, मेघ। २. मोथा।
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अबुद्ध  : वि० [सं० न० त०]=अबुध।
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अबुद्धि  : वि० [न० ब०] जिसे बुद्धि न हो। बुद्धि-हीन। मूर्ख। स्त्री० [सं० न० त०] बुद्धि का अभाव। नासमझी।
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अबुध  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे बुद्धि या बोध न हो। मूर्ख। २. जिसे किसी बात का ज्ञान या परिचय न हो। अनभिज्ञ।
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अंबुमती  : स्त्री० [सं० अंबु+मतुप्-डीप्] एक प्राचीन नदी का नाम।
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अबुहाना  : अ०=अभुआना।
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अबूत  : वि० [हिं० अबुध] अबोध। अज्ञानी। क्रि० वि० व्यर्थ। वृथा। उदाहरण—नाम सुमिरि निर्भय भया जरू सब गया अबूत।—कबीर। वि०=अपूत (निस्संतान)।
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अबे  : अव्य० [सं० अयि] अरे। हे। (बहुत छोटे या हीन व्यक्ति के लिए तिरस्कारसूचक संबोधन) मुहावरा—अबे-तबे करना=निरादरसूचक बातें करना।
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अबेध  : वि० [सं० अविद्ध] जो बेधा न गया हो अथवा बेधा न जा सकता हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबेर  : स्त्री० [सं० अबेला] विलंब। देर। क्रि० वि० [हिं० अ+बेर-देर] बिना देर लगाए। जल्दी। शीघ्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबेस  : वि० [फा० वेश-अधिक] अधिक। बहुत। वि० [हिं० अ+फा०वेश] १. थोड़ा। कम। २. मंद। धीमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबै  : वि० [सं० अ+व्यय] जो या जिसमें से व्यय न हुआ हो। क्रि० वि० [हिं० अब] इसी समय। अभी। (ब्रज) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबैन  : वि० [हिं० अ+बैन=वचन] जो बोल न रहा हो। चुप। मौन। पुं० अनुचित या न कहने योग्य बात। अवाच्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबोध  : पुं० [सं० न० ब०] १. जिसे बोध या ज्ञान न हुआ हो। ना-समझ। मूर्ख। २. छोटी अवस्था के कारण जिसे सांसारिक बातों का ज्ञान न हुआ हो।
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अंबोधि  : पुं०=अंबुधि।
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अबोध्य  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अबोध्यता] १. (रूप, विषय व्यक्ति आदि) जो बोध्य या समझ में आने के योग्य न हो। २. जिसे समझा न जा सके। (इन्कॉम्प्रिहेन्सिबुल्)
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अबोल  : वि० [हिं० अ+बोलना] १. चुप। मौन। २. जिसके विषय में कुछ बोल या कह न सकें। अनिर्वचनीय़। पुं० १. न बोलने या चुप रहने की अवस्था या भाव। चुप्पी। २. अनुचित या न कहने योग्य बात। ३. अनुचित वचन। गाली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अबोला  : वि० [हिं० अ+चोला] १. जो बोला या कहा न गया हो। २. न बोलनेवाला। पुं० किसी के खिन्न या दुःखी होने के कारण उससे न बोलना। रूठने का कारण होनेवाला मौन।
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अंबोह  : पुं० [फा०] १. जनसमूह। २. भीड़।
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अब्ज  : पुं० [सं० अप्√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. जल से उत्पन्न वस्तु। २. कमल। ३. शंख। ४. चंद्रमा। ५. धन्यंतरि। ६. कपूर। ७. सौ करोड़ या एक अरब की संख्या।
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अब्ज-बांधव  : पुं० [ष० त०]=सूर्य।
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अब्ज-भव  : पुं० [ब० सं० ] ब्रह्मा।
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अब्ज-योनि  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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अब्ज-वाहन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अब्ज-वाहना  : स्त्री० [ब० स०] लक्ष्मी।
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अब्ज-हस्त  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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अब्जज  : पुं० [सं० अब्ज√जन्-ड] १. ब्रह्मा। २. यात्रा के विचार से एक योग। (ज्यो०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अब्जद  : पुं० [अ०] १. अरबी-फारसी आदि की वर्ण-माला जो पहले अलिफ, बे, जीम और दाल से आरंभ होती थी। २. किसी विषय का आरंभिक ज्ञान। ३. अरबी-फारसी आदि के साहित्य में वर्ण-माला के अक्षरों से कुछ निश्चित अंक या संख्याएँ सूचित करने की एक प्रणाली।
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अब्जा  : स्त्री० [सं० अब्ज+टाप्] लक्ष्मी।
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अब्जाद  : पुं० [सं० अब्ज√अद् (खाना)+अण्] हंस।
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अब्जासन  : पुं० [अब्ज-आसन, ब० स०] ब्रह्मा।
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अब्जिनी  : स्त्री० [सं० अब्ज+इनि-ङीष्] १. कमलवन। २. कमलों का समूह। ३. कमल का पौधा।
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अब्जिनी पति  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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अब्द  : पुं० [सं० √आप्(पाना)+दन्, ह्रस्व] वर्ष। साल। [अप√दा(देना)+क] १. बादल। मेघ। २. नागर-मोथा। ३. कपूर। ४. आकाश। पुं० [अ०] १. गुलाम। दास। जैसे—अब्दुल्ला-ईश्वर का दास। २. अनुचर। सेवक।
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अब्द-कोश  : पुं० दे० ‘वर्ष-बोध’।
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अब्द-वाहन  : पुं० [ब० स०] इंद्र।
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अब्द-सार  : पुं० [ष० त०] कपूर।
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अब्दुर्ग  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह किला या गढ़ जो खाई या झील से घिरा हो।
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अब्धि  : पुं० [सं० अप्√धा (धारण)+कि] १. तालाब। सरोवर। २. झील। ३. समुद्र। ४. सात की संख्या।
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अब्धि-शयन  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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अब्धि-सार  : पुं० [ष० त०] रत्न।
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अब्धिज  : पुं० [सं० अब्धि√जन्(उत्पत्ति)+ड] १. समुद्र से उत्पन्न वस्तु। २. शंख। ३. चंद्रमा। ४. अश्विनीकुमार।
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अब्धिजा  : स्त्री० [सं० अब्धिज+टाप्] १. लक्ष्मी। २. वारुणी।
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अब्ध्यग्नि  : स्त्री० [सं० अब्धि-अग्नि, ष० त०] बड़वानल।
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अब्बर  : वि० [सं० अबल] जिसमें बल न हो। कमजोर या दुर्बल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अब्बा  : पुं० [फा०बाबा का अनु०] पिता या दादा का वाचक शब्द। (मुसलमान) पद—अब्बाजान=पिता या दादा के लिए आदर सूचक संबोधन।
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अब्बास  : पुं० [अ०] १. शेर। सिंह। २. एक प्रकार का पौधा जो दो-तीन फुट ऊँचा होता है। ३. उक्त पौधे के फूल। वि० रूखे स्वभाववाला।
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अब्बासी  : वि० [अ०] धुएँ की तरह का नीले काले रंग का। (स्मोक ब्ल्यू) पुं० धुएं की तरह का नीला काला रंग। (स्मोक ब्ल्यू) स्त्री० [अ०] एक प्रकार का बढ़िया कपास।
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अब्बू  : पुं०=आबू।
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अब्र  : पुं० [फा० मि० सं० अभ्र] बादल। मेघ।
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अब्रह्माण्य  : वि० [सं० ब्रह्मन्+यत्, न० त०] १. (कार्य) जो ब्राह्मणों के करने योग्य न हो। जैसे—चोरी हिंसा आदि। २. इतना अनुचित और निंदनीय कि शिष्ट समाज के लिए परम अनुपयुक्त हो। ३. ब्राह्मणों, वेदों आदि पर विश्वास या श्रद्धा रखनेवाला। पुं० चोरी, मिथ्या, भाषण, हिंसा आदि निंदनीय कर्म जो ब्राह्मणों (अर्थात् सभ्यों) के लिए अशोभन है।
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अब्राह्मण  : वि० [सं० न० त०] जो ब्राह्मण न हो। पुं० [न० त०] ब्राह्मण से भिन्न जाति का व्यक्ति।
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अब्राह्मण्य  : पुं० [सं० ब्राह्मण+ष्यञ० न० त०] ब्राह्मण के कर्त्तव्यों का उल्लंघन।
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अंब्रित  : पुं०=अमृत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंभ (स्)  : पुं० [सं०√अंभ् (ध्वनि) +असुन] १. जल। पानी। २. समुद्र। सागर। ३. देवता। ४. असुर। राक्षस। ५. पितृ। पितर। ६. पितृलोक। ७. सांख्य में चार प्रकार की आध्यात्मिक तुष्टियों में से एक जिसमें मनुष्य यह समझकर संतोष करता है कि धीरे-धीरे प्रकृति से मुझे आप ही ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। ८. जन्म कुण्डली में चौथा स्थान। ९. चार की संख्या। १. एक प्रकार का छंद या वृत्त। पुं० [सं० अंभ्र) बादल, मेघ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंभ-थंभ  : पुं० दे० ‘अंभ स्तंभ’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभअंत  : पुं० क्रि० वि०=अभ्यंतर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभक्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो भक्त (विभक्त) या बँटा हुआ न हो अथवा जो विभक्त न हो सकता हो। २. जिसमें ईश्वर के प्रति भक्ति न हो। भक्त का विरुद्धार्थक।
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अभक्ष  : वि० [सं० √भक्ष्(खाना)+घञ्, न-भक्ष, न० ब०] भक्षण न करनेवाला।
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अभक्ष्य  : वि० [सं० न० त०] १. ( पदार्थ) जो खाये जाने के उपयुक्त या योग्य न हो। २. जिसे खाने का धर्मशास्त्र में निषेध हो। ३. जो खाया न जा सकता हो।
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अभंग  : वि० [सं० न० ब०] १. जो भंग या भग्न न हुआ हो। २. जिसका नाश न हो। ३.जिसका क्रम न टूटे। लगातार। पुं० १. संगीत में, एक ताल जिसमें एक लघु, एक गुरू और दो प्लुत मात्राएं होती हैं। २. एक प्रकार का मराठी पद या भजन।
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अभग  : वि० [सं० न० ब०] अभागा। भाग्यहीन। वि०=अभंग।
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अभंग-पद  : पुं० [कर्म० स०] श्लेष कथन के दो भेदों में से एक जिसमें किसी के कहे हुए पद का बिना उसके शब्दों के टुकड़े किये हुए कुछ और ही अर्थ लगाया जाता है।
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अभगत  : वि० [सं० अभक्त] जो भगवान का भक्त न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभंगी (गिन्)  : वि० [सं० न० त०] जो किसी प्रकार भंग न हो सके अथवा जिसका भंग करना उचित न हो।
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अभंगुर  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अभंगुरता] १. जो कभी नष्ट न हो। अविनश्वर। २. जो भंगुर न हो। साधारण आघात से न टूटनेवाला। (इन्फ्रैन्जिबुल्)
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अभग्ग  : वि० [सं० अभक्त] १. जिसके विभाग न हुये हो। २. जो कटा या टूटा-फूटा न हो। उदाहरण—तहँ सु विजय सुर राजपति जादू कुलह अभग्ग।—चंदबरदाई।
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अभग्न  : वि० [सं० न० त०] १. जो भग्न या टूटा-फूटा न हो। २. पूरा। समूचा।
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अभंजन  : वि० [सं० न० ब०] जिसका भंजन न हो सके। जैसे—तरल या द्रव पदार्थ।
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अभद्र  : वि० [सं० न० त०] १. जो भद्र (शिष्ट या सभ्य) न हो। २. जो भद्रों (शिष्टों या सभ्यों) के लिए अनुपयुक्त या शोभन न हो, फलतः अनुचित या अशिष्ट। ३. जो कल्याण या मंगल में बाधक हो। अमांगलिक। ४. अशुभ। पुं० १. बुराई। २. शोक। ३. पाप।
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अभद्रता  : स्त्री० [सं० अभद्र+तल्-टाप्] १. अभद्र होने की अवस्था या भाव। २. दूसरे के प्रति किया जानेवाला अनुचित या अशिष्ट व्यवहार।
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अंभनिधि  : पुं०=अंभोधि।
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अभंभुरता  : स्त्री० [सं० अभंगुर+तल्-टाप्] अभंगुर होने की अवस्था, गुण या भाव।
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अभय  : वि० [सं० न० ब०] [स्त्री० अभया] १. जिसे भय न हो। मुहावरा—अभय देना-यह आश्वासन देना कि अब तुम्हांरे लिए भय की कोई बात नहीं है। २. न डरनेवाला। निर्भीक। पुं० १. परमात्मा। २. ज्ञान। ३. शिव। ४. उशीर। खस। पुं० [सं० न० त०] १. भय से मिलनेवाली रक्षा। २. निर्भयता।
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अभय-कर  : वि० [ष० त०] अभय या निर्भय करनेवाला। उदाहरण—रजत स्वर्ण ज्वालों के सुंदर, कर में धरे त्रिशूल अभयकर।—पंत।
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अभय-दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. यह कहना कि तुम भय मत करो, तुम्हारी कोई हानि न होगी। २. सुरक्षा का आश्वासन या वचन देना।
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अभय-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. लिखित लेख या पत्र जिसमें अभयदान या आश्वासन या वचन दिया गया हो। २. वह पत्र जिसे दिखाकर कोई व्यक्ति किसी संकट की स्थिति से निरापद पार हो सकता है।
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अभय-मुद्रा  : स्त्री० [ष० त०] शरीर की वह मुद्रा जो किसी को अभय या पूर्ण आश्वासन देने की सूचक होती हैं, इसमें दाहिने हाथ की हथेलीं सामने की ओर रखते हुए कुछ ऊपर उठाकर दिखाई जाती है।
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अभय-वचन  : पुं० [ष० त०] इस बात का आश्वासन या वचन कि तुम्हें किसी से डरने की आवश्यकता नहीं।
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अभय-वन  : पुं० [कर्म० स०] १. वह वन जिसे काटने की आज्ञा न हो। रक्षित वन। २. ऐसा वन जिसमें यात्रियों को किसी प्रकार का भय न हो।
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अभयचारी (रिन्)  : वि० [सं० अभय√चर्(गति)+णिनि] १. अभय या निर्भय होकर घूमने या विचरण करनेवाला। २. स्वच्छंद। पुं० ऐसे पशु जो पकड़े या मारे न जा सकते हों, और इसी लिए निर्भय होकर विचरतें हों।
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अभयप्रद  : वि० [सं० अभय-प्र√दा (देना)+क] अभय देनेवाला।
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अभया  : वि० [सं० अभय-टाप्] जिसे भय न हो। निडर। स्त्री० १. एक विशेष प्रकार की हरीतकी या हड़ जिसमें पाँच रेखाएँ होती हैं। २. दुर्गा का एक रूप।
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अभर  : वि० [सं० अ-नहीं+भार-बोझा] (ऐसा भार) जो ढोया न जा सके। बहुत भारी। दुर्वह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभरन  : वि० [हिं० अ+भरना] १. खाली। रिक्त। उदाहरण—छर छरिए बान छकि छंछाटिय, भरिय पत्र अभरन भरिय-चंद्रबरदाई। २. जिसकी प्रतिष्ठा या मान-नष्ट कर दिया गया हो। अपमानित। पुं० =आभरण।
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अभरम  : वि० [सं० अ-नहीं+भ्रम] १. (बात) जिसमें कोई भ्रम या संदेह न हो। २. (व्यक्ति) जिसे भ्रम या संदेह न हो। भ्रम-रहित। ३. निडर। निर्भय। ४. अचूक। क्रि० वि० १. बिना कोई भूल किये। अचूक। २. बिना किसी भ्रम या संदेह के।
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अभर्तृका  : वि० [सं० न० ब० कप्] जिसका पति न हो। कुमारी या विधवा (स्त्री)।
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अभल  : वि० [सं० अ+हिं० भला] जो भला न हो। बुरा या खराब। मुहावरा—(किसी का) अभल ताकना=किसी के संबंध में अशुभ कामना करना। पुं० १. भलाई या मगल का अभाव। २. अशुभ कामना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभव  : पुं० [सं० न० त०] १. भव या अस्तित्व का अभाव। अनस्तित्व। २. नाश। ३. प्रलय। वि० [न० ब०] १. अमांगलिक।अशुभ। २. अद्भुत। विलक्षण। ३. भद्दा। भोड़ा। ४. अशिष्ट। असभ्य।
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अभव्य  : वि० [सं० न० त०] १. न होने योग्य। २. जो भव्य या विशाल न हो। पुं० वह जीव जो मोक्ष का अधिकारी न हो। (जैन)
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अंभसार  : पुं० [सं० अंभःसार] मोती।
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अंभसू  : पुं० [सं० अंभःसू] १. धुआँ। २. भाप। वाष्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंभःस्तंभ  : पुं० [ष० त०] मंत्रों के बल से वर्षा या जल का प्रवाह रोकने की क्रिया या विद्या।
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अभाऊ  : वि० [सं० अ-नहीं+भाव] १. जो मन को न भावे। अच्छा न लगनेवाला। २. अशोभन। वि० [अ+भावुक] १. जो भावुक या रसिक न हो। शुष्क-हृदय। अरसिक। २. अशिष्ट। उजड्ड। पुं० =अभाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभाग  : वि० [सं० न० ब०] जिसके खंड या भाग न हो सकते हो। वि०=अभागा। पुं०=अभाग्य।
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अभागा  : वि० [सं० अभाग्य] [स्त्री० अभागिनी] १. जिसका भाग्य अनुकूल न हो। २. जिसने बहुत ठोकरें खायी हों अथवा कष्ट सहे हों। (अन्फारचुनेट)
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अभागी (गिन्)  : वि० [सं० भाग+इनि० न० त०] १. जिसका किसी व्यापार या संपत्ति में अंश या हिस्सा न हो। २. जिसे उसका भाग न मिला हो। ३. भाग न लेनेवाला। शरीक या शामिल न होनेवाला।
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अभाग्य  : पुं० [सं० न० त०] अच्छे भाग्य का अभाव। बुरा भाग्य। बदकिसम्ती।
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अभाजन  : वि० [सं० न० त०] १. जो उपयुक्त भाजन या पात्र न हो। कुपात्र। २. खराब। बुरा।
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अभाजै  : वि० [सं० अविभाजित] अविभक्त। संपूर्ण। समूचा। उदाहरण—अभाजै सी रोटली कागा लै जाइला।—गोरखनाथ। वि०=अविभाज्य।
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अभार  : वि० [हिं० अ+भारी] इतना भारी कि ढोया न जा सके। दुर्बह। पुं० [सं० न० त०] १. भार का अभाव। २. अनुचित या बुरा भार।
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अभाव  : पुं० [सं० न० त०] १. अस्तित्व में होने की अवस्था या भाव। २. उपस्थित या विद्यमान न होने की अवस्था या भाव। ३. गुण, वस्तु आदि की अत्यधिक कमी होना। ४. न मिलने की अवस्था या भाव। ५. अच्छे या सद्भाव की कमी। ६. वैर-विरोध का भाव।
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अभाव-पदार्थ  : पुं० [सं० अभाव-न० ब, अभाव-पदार्थ कर्म० स०] वह पदार्थ जो भाव अर्थात् सत्ता शून्य हो। असत् पदार्थ। (दर्शन)
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अभाव-प्रमाण  : पुं० [सं० कर्म०स०] कारण का अभाव होने पर भी कोई कार्य होने का दिया जानेवाला प्रमाण। (न्याय)
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अभावक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. भाव या सत्ता से रहित। २. अभाव उत्पन्न या सूचित करनेवाला। ३. दे० ‘नहिक’।
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अभावन  : वि० [सं० √भू+णिच्+ल्यु-अन] १. सुंदर। २. रुचिकर। वि० न भानेवाला। अप्रिय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभावना  : स्त्री० [सं० न० त०] १. भावना का न होना। २. ध्यान की कमी। ध्यान-शून्यता। वि० [हिं० अ-नहीं+भाना-अच्छा लगना] जो अच्छा न लगे। अप्रिय।
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अभावनीय  : वि० [सं० न० त०] जो भावना में न आ सके। जिसके विषय में कुछ सोचा-समझा न जा सके। (इन-कानसीवेबुल)
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अभावात्मक  : वि० [सं० अभाव+आत्मन्, ब० स० कप्] १. जो अभाव के रूप में हो या अभाव का सूचक हो। २. दे० ‘नहिक’।
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अभावित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी भावना न की गई हो। जो पहले से सोचा-समझा न गया हो। २. जिसमें किसी दूसरी चीज की भावना (पुट) न हो।
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अभावी (दिन्)  : वि० [सं० √भू(सत्ता)+णिनि० न० त०] जिसकी सत्ता या स्थिति न हो सके। न होनेवाला।
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अभाव्य  : वि० [सं० न० त०] १. न होनेवाला। २. जिसकी भावना न की जा सके।
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अभाषण  : पुं० [सं० न० त०] न बोलना। मौन धारण करना।
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अभाषित  : वि० [सं० न० त०] जो कहा न गया हो। अनुक्त।
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अभास  : पुं०=आभास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभि  : उप० [सं०√भा(दीप्ति)+कि, न० त०] एक उपसर्ग जो कुछ शब्दों के आरंभ में लगकर निम्नलिखित अर्थ सूचित करता है।— (क) आगे या सामने की ओर, जैसे—अभिमुख। (ख) मात्रा या मान की अधिकता, जैसे—अभिकंपन, अभिसिंचन, अभ्युदय। (ग) अच्छी तरह से। भलीभाँति। जैसे—अभिव्यंजन, अभ्युदय। (घ) किसी प्रकार की विशेषता या श्रेष्ठता का सूचक, जैसे—अभिनव (बिलकुल नया), अभिभाषण (विवेचनापूर्ण भाषण), अभिपत्र (विद्धत्तापूर्ण लेख)।
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अभि-लीन  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो अच्छी तरह किसी में लीन हो। २. अनुरक्त। आसक्त। ३. चिपका या लगा हुआ। ४. पसंद किया हुआ।
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अभिअंतर  : क्रि० वि० पुं०=अभ्यंतर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभिउ  : वि-अभया। पुं०=अभय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभिक  : वि० [सं० अभि+कन्] लंपट।
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अभिकथन  : पुं० [सं० अभि√कथ्(कहना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिकथित] किसी पक्ष या व्यक्ति द्वारा किसी पर लगाया हुआ ऐसा आरोप या अभियोग जो अभी तक प्रमाणित न किया गया हो। (एलेगेशन)
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अभिकरण  : पुं० [सं० अभि√कृ (करना)+ल्युट्-अन] किसी बड़ी संस्था की ओर से किसी नियत क्षेत्र में काम करनेवाली कोई अधीनस्थ छोटी संस्था। (एजेंसी)
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अभिकर्तृत्व  : पुं० [सं० अभिकर्तृ+त्व] १. अभिकर्त्ता होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘अभिकरण’।
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अभिकर्त्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० अभि√कृ+तृच्] १. वह जो किसी व्यक्ति या संस्था की ओर से उसके प्रतिनिधि के रूप में कुछ काम करने के लिए नियत हो। (एजेन्ट) २. वह जिसे किसी की ओर से संपत्ति आदि की व्यवस्था और विविध कार्य करने का अधिकार मिला हो। मुख्तार।
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अभिकर्त्ता-पत्र  : पुं० [सं० अभिकर्तृ-पत्र] वह पत्र जिसेक अनुसार कोई किसी का अभिकर्त्ता नियत हुआ हो। मुख्तारनामा।
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अभिकलन  : पुं० [सं० अभि√कल्(गिनना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिकलित] परिकलन का वह गंभीर प्रकार या रूप जिसमें अनुभवों, बाहरी घटनाओं, निश्चित सिद्धान्तों आदि से भी सहायता की जाती है। (कम्प्यूटेशन) जैसे—ज्योतिष में, आँधियों, भूकम्पों आदि की भविष्यद् वाणी अभिकलन के आधार पर ही होती है।
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अभिकल्प  : पुं० [सं० अभि√कृप (सामर्थ्य)+घञ्, गुण, र काल, आदेश] [भाव० अभिकल्पन भू० कृ० अभिकल्पित] किसी पदार्थ विशेषतः यंत्र आदि को जाँचकर ठीक करने या कल-पुरजों को अलग-अलग करना और तब उन्हें यथास्थान बैठाना। (ओवरहॉलिंग)
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अभिकल्पन  : पुं० [सं० अभि√कृप+ल्युट्-अन] अभिकल्प करने की क्रिया या भाव। (ओवरहॉलिंग)
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अभिकल्पना  : स्त्री० [सं० अभि√कृप+णिच्+युच्-अन] १. ऐसी कल्पना या कल्पित बात जो किसी तर्क आदि का आधार मान ली गई हो। (एजेम्पशन) २.=अभिकल्पन।
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अभिकाँक्षा  : स्त्री० [सं० अभि√कांक्ष (चाहना)+अ-टाप्] अभिलाषा। इच्छा।
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अभिकाम  : वि० [सं० अभि√कम्(चाहना)+णिच्+अच्] १. चाहनेवाला। इच्छुक। २. स्नेही। ३. कामुक। पुं० [अभि√कम्(विक्षेप)+घञ्] १. इच्छा। २. कामना। ३. अनुराग। प्रेम।
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अभिकोश  : पुं० [सं० अभि√कुश्(कोसना)+घञ्] १. निंदा। २. अपशब्द।
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अभिक्त  : वि० [सं० अभि√रु(शब्द)+क्त] १. जो मधुर शब्द कर रहा हो। २. गूँजनेवाला। ३. जिसमें गुंजन होता हो। गुंजित। कूकता हुआ। कूजित। पुं० आवाज। शब्द।
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अभिक्ता  : स्त्री० [सं० अभिरूत+टाप्] संगीत में एक मूर्च्छना।
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अभिक्रम  : पुं० [सं० अभि√क्रम्+ल्युट्-अन] आगे की ओर बढ़ना।
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अभिक्रमण  : पुं० [सं० अभि√कम्+ल्युट्-अन] १. आगे की ओर बढ़ने की क्रिया या भाव। २. आक्रमण। धावा।
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अभिक्रांति  : स्त्री० [सं० अभि√क्रम+क्तिन्] किसी वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने की क्रिया या भाव। विस्थापन। (डिस्प्लेस्मेन्ट)
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अभिख्या  : स्त्री० [सं० अभि√ख्या (कहना)+अङ्-टाप्] १. दृश्य। २. शोभा। ३. कीर्ति। यश। ४. प्रसिद्धि। ५. आह्वान। संबोधन। ६. प्रज्ञा।
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अभिख्यात  : वि० [सं० अभि√ख्या+क्त] १. प्रसिद्ध। मशहूर। २. यशस्वी।
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अभिख्यान  : पुं० [सं० अभि√ख्या+ल्युट्-अन] १. नाम। २. प्रसिद्धि। ३. यश।
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अभिगम  : पुं० [सं० अभि√गम्(जाना)+घञ्] अभिगमन।
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अभिगमन  : पुं० [सं० अभि√गम् (जाना)+ल्युट्-अन] १. किसी के पास जाना। २. संभोग। सहवास। ३. उपासना का वह प्रकार जिसमें भक्त देव-मंदिर में पहुँचकर उसे स्वच्छ करता और सजाता है।
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अभिगामी (मिन्)  : वि० [सं० अभि√गम्+णिनि] अभिगमन करनेवाला।
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अभिगुप्ति  : स्त्री० [सं० अभि√गुप्(रक्षा)+क्तिन्] छिपा या बचाकर रखने की क्रिया या भाव।
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अभिगृहीत  : भू० कृ० [सं० अभि√ग्रह(ग्रहण करना)+क्त] जिसका अभिग्रहण हुआ हो। चुन या छाँट कर अथवा समझकर अपनाया या ग्रहण किया हुआ। आक्रांत।
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अभिग्रह  : पुं० =अभिग्रहण।
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अभिग्रहण  : पुं० [सं० अभि√गृह+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिगृहीत] १. चुन या छाँटकर लेना। पसंद करके लेना। २. दूसरों की कोई चीज या बात अच्छी समझकर अपनाना। (एडाप्शन) ३. बलपूर्वक किसी की कोई वस्तु उठा लेना। ४. आक्रमण।
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अभिघट  : पुं० [सं० अत्या० स०] घड़े के आकार का एक प्राचीन बाजा।
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अभिघात  : पुं० [सं० अभि√हन् (हिंसा)+घञ्] [वि० अभिघातक, कर्त्ता, अभिघाती] १. चोट पहुँचाने, प्रहार करने या मारने की क्रिया या भाव। २. आघात। ३. दो वस्तुओं में होनेवाली टक्कर या रगड़। ४. विनाश। ५. पुरुष के बाएँ अंग में या स्त्री के दाहिने अंग में होनेवाला मसा जो घातक माना जाता है।
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अभिघाती (तिर्न्)  : वि० [सं० अभि√हन्+णिनि] १. अभिघात करने अथवा चोट पहुँचानेवाला। पुं०=शत्रु।
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अभिघार  : पुं० [सं० अभि√कचर्+घञ्] १. सींचना। छिड़कना। २. घी की आहुति। ३. छौकना। बघार। ४. घी।
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अभिचर  : पुं० [सं० अभि√चर् (गति)+ट] दास। नौकर।
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अभिचार  : पुं० [सं० अभि√चर्+घञ्] [कर्त्ता, अभिचारी] १. तंत्र-मंत्र द्वारा मारण, मोहन, उच्चाटन आदि द्वारा किये जानेवाले अनुचित कर्म। २. दे० पुरश्चरण।
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अभिचारक  : पुं० [सं० अभिचार+कन्] यंत्र-मंत्र द्वारा मारण-उच्चाटन आदि अभिचार करनेवाला।
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अभिचारी (रिन्)  : वि० [सं० अभि√चर्+णिनि] दे० ‘अभिचारक’।
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अभिजन  : पुं० [सं० अभि√जन् (उत्पत्ति)+घञ्, अवृद्धि] १. कुल। वंश। २. परिवार। ३. पूर्वजों के रहने का देश (निवास या अपने रहने के स्थान से भिन्न) ४. घर का मालिक। गृह-स्वामी। ५. उच्चकुल में उत्पन्न होने की अवस्था या भाव। ६. पूर्वज। ७. दे० ‘परिजन’।
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अभिजय  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] विजय। जीत।
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अभिजागर  : पुं० [सं० अभि+जागर] वह व्यक्ति जो परीक्षा में बैठे हुए विद्यार्थियों की चौकसी या देख-रेख करता हो। (इनविजीलेटर)
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अभिजात  : वि० [सं० ब० स०] १. अच्छे और उच्च कुल से उत्पन्न। कुलीन। २. बुद्धिमान्। समझदार। ३. पंडित। विद्वान। ४. पूज्य। मान्य। ५. मनोहर। सुंदर। ६. उपयुक्त। योग्य।
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अभिजात-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह शासन प्रणाली जिसमें राज्य करने का सारा प्रबंध थोड़े से उच्च कुल के तथा संपन्न लोगों के हाथ में रहता है। कुल-तंत्र। (एरिस्ट्रोक्रेसी)
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अभिजाति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] अच्छे या उच्च वंश में जन्म होना। कुलीनता।
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अभिजित  : वि० [सं० अभि√जि (जीतना)+क्त] [भाव अभिजिति] जिसे जीत लिया गया हो। विजित। पुं० १. दिन का आठवाँ (मध्याह्न में पड़नेवाला) मुहुर्त्त जो श्राद्ध आदि करने के लिए शुभ माना गया है। २. एक नक्षत्र जिसमें तीन तारे मिलकर सिघाड़े के आकार के होते हैं। ३. उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के अंतिम १५ दंड तथा श्रवण के प्रथम चार दंड। ४. एक प्रकार का सोमयज्ञ।
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अभिजिति  : स्त्री० [सं० अभि√जि+क्तिन्] [वि० अभिजित] युद्ध में शत्रु को जीतने की क्रिया या भाव। जीत। विजय। (कॉन्क्वेस्ट)
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अभिज्ञ  : वि० [सं० अभि√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० अभिज्ञता] १. किसी बात या विषय का ज्ञान रखनेवाला। जानकार। ज्ञाता। २. कुशल। निपुण।
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अभिज्ञा  : स्त्री० [सं० अभि√ज्ञा+अङ्-टाप्] १. ज्ञान प्राप्त करना। परिचित होना। जानना। २. पहले देखी हुई चीज़ फिर से देखकर पहचानना। ३. पुरानी बात फिर से याद या स्मरण करना। ४. बौद्धों के अनुसार गौतम बुद्ध की वह अलौकिक शक्ति जिससे वे मनमाना रूप या शरीर धारण कर सकते थे तथा भूत, भविष्य और वर्तमान की सब बातें जान लेते थे और पास तथा दूर के सब लोगों के मन की बातें समझ लेते थे।
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अभिज्ञात  : भू० कृ० [सं० अभि√ज्ञा+क्त] १. जिसका अभिज्ञान हुआ हो। २. जाना-पहचाना या समझा-बूझा हुआ। शाल्मली द्वीप के सात खंडों में से एक।
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अभिज्ञातार्थ  : पुं० [सं० अभिज्ञात+अर्थ,ब० स०] वादी के अप्रसिद्ध या श्लिष्ट अर्थोंवाले शब्दों के प्रयोग करने पर प्रतिवादी का कुछ न समझना और फल-स्वरूप विवाद रूक जाना। जो न्याय-शास्त्र में एक निग्रह स्थान माना गया है।
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अभिज्ञान  : पुं० [सं० अभि√ज्ञा+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिज्ञान] १. स्मृति। याद। २. निशानी। पहचान। ३. वह वस्तु या बात जिससे कोई पुरानी बात फिर से याद आ जाए। अनुस्मरण। ४. पहचान कर बतलाना कि यह वही व्यक्ति है। (आइडेन्टिफिकेशन) ५. लक्षण।
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अभिज्ञापक  : वि० [सं० अभि√ज्ञा+णिच्+ण्युल्-अक, पुक्] १. अभिज्ञान या पहचान करनेवाला। २. अभिज्ञापन करनेवाला। (एनाउन्सर)
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अभिज्ञापन  : पुं० [सं० अभि√ज्ञा+णिच्+ल्युट्-अन, पुक्] सार्वजनिक रूप से प्रथम बार लोगों को ऐसी बात की जानकारी कराना जिससे उनके हानि-लाभ का संबंध हो, अथवा जिसकी वे उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हों। जैसे—किसी आविष्कार का अभिज्ञापन, प्रतियोगिता में विजयी का अभिज्ञापन अथवा निर्वाचित पदाधिकारी का अभिज्ञापन। (एनाउन्समेंट)
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अभित  : अव्य० [सं० अभि+तस्] १. चारों ओर से। सर्वतः। २. पूरी तरह से। पूर्णतः।
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अभिताप  : पुं० [सं० अभि√तप् (जलना)+घञ्] १. मानसिक या शारीरिक जलन, दुःख या ताप। २. व्याकुलता। ३. क्षोभ।
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अभित्यक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका अभित्याग हुआ हो।
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अभित्याग  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अभित्यक्त] १. कोई चीज या बात छोड़ने की क्रिया या भाव। २. अपराध, अभियोग, दंड आदि से मुक्त करने की क्रिया या भाव। बरी होना। (रिलीज)
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अभिद  : वि० =अभेद्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभिदत्त  : वि० [सं० प्रा० स०]-प्रदत्त।
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अभिदर्शन  : पुं० [सं० अभि√दृश् (देखना)+ल्युट्-अन] १. सामने आकर दिखाई देना। २. सामने पहुँचकर देखना।
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अभिदान  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० अभिदत्त] १. देने की क्रिया या भाव। दान। २. राज्य या शासन की ओर से उद्योग-धंधों की अभिवृद्धि के लिए उनके कर्त्ताओं या संचालकों को दी जानेवाली आर्थिक सहायता। (बाउन्टी)
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अभिदिशा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह दिशा जिधर (क) किसी कार्य की गति हो अथवा (ख) किसी व्यक्ति का मन या विचार अग्रसर या प्रवृत्त हो। (डाइरेक्शन)
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अभिदिष्ट  : भू० कृ० [सं० अभि√दिश् (बताना)+क्त] जिसका अभिदेश हुआ हो। अभिदेश के रूप में आया हुआ।
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अभिदेश  : पुं० [सं० अभि√दिश्+घञ्] [कर्त्ता अभिदेशक, वि० अभिदेशिक, भू० कृ० अभिदिष्ट] १. किसी बात, वस्तु या व्यक्ति की ओर किसी उद्देश्य से देखना या संकेत करना। २. किसी उल्लिखित घटना आदि की ऐसी चर्चा जो किसी मत के खंडन या पुष्टि के लिए प्रमाण, संकेत साक्षी आदि के रूप में हो। ३. किसी विवादास्पद विषय के संबंध में किसी का मत जानने या उसका स्पष्टीकरण करने के लिए अथवा उस संबंध में आधिकारिक आदेश या निर्णय प्राप्त करने के लिए उसे उपयुक्त अधिकारी के पास भेजना। (रेफरेन्स, अंतिम दोनों अर्थों के लिए) ४. दे० ‘अभिदेश-ग्रंथ’।
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अभिदेश-ग्रंथ  : पुं० [सं० ष० त०] वह ग्रंथ जिसका उपयोग समय-समय पर किसी विशिष्ट विषय का ठीक और पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया जाता है। संदर्भ-ग्रंथ। (रेफरेन्स-बुक)
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अभिदेशक  : वि० [सं० अभि√दिश् (बताना)+ण्वुल्-अक] अभिदेश करनेवाला।
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अभिदेशना  : स्त्री० [सं० अभि√दिश्+णिच्+युच्-टाप्] १. विधान-मंडल द्वारा पारित अथवा प्रस्तावित कोई विधेयक या प्रस्ताव मतदाताओं की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति जानने के लिए उन्हें अभिदिष्ट करना। २. उक्त रूप में कोई बात अभिदिष्ट करने का कार्य या सिद्धांत। (रेफरेन्डम)
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अभिदेशिकी  : पुं० [सं० अभिदेश] वह आधिकारिक व्यक्ति जिसे कोई विषय या झगड़े की कोई बात उसके निर्णय के लिए अभिदिष्ट की जाए। (रेफरी)
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अभिद्रोह  : पुं० [सं० अभि√द्रुह (मारने की इच्छा)+घञ्] १. किसी के अनिष्ट अपकार आदि की वह प्रबल भावना जो द्वेष, वैर आदि के कारण उत्पन्न होती है और उसे हानि पहुँचाने का प्रयत्न कराती है। २. निंदा। ३. हानि। ४. निष्ठुरता।
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अभिधमन  : पुं० [सं० अभि√ध्मा (धौंकना)+ल्युट्-अन] किसी प्रक्रिया से बहुत जोर की या तेज हवा पहुँचाना। धौंकना। (ब्लैस्टिंग)
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अभिधर्म  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. श्रेष्ट धर्म। २. ध्रुव सत्य का निरूपण करनेवाला धर्म या मत। (बौद्ध)
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अभिधा  : स्त्री० [सं० अभि√धा (धारणा)+अङ्-टाप्] [वि० अभिहित] १. कहने, पुकारने, उल्लेख आदि करने की क्रिया या भाव। २. नाम। संज्ञा। ३. शब्द। ४. साहित्य में, शब्दों की वह शक्ति जिससे उनके वाच्यार्थ अर्थात् नियत, प्रचलित और मुख्य अर्थ का ज्ञान या बोध होता है। (कोई शब्द सुनते ही उसके अर्थ का जो बोध होता है, वह इसी शक्ति के द्वारा होता है)।
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अभिधान  : पुं० [सं० अभि√धा+ल्युट्-अन] १. नाम। २. उपाधि। ३. उक्ति। कथन। ४. किसी पद का विशेष संज्ञा या नाम। (डेजिगनेशन) जैसे—मंत्री, सचिव, निरीक्षक, आचार्य आदि। ५. दे० ‘नाम कोश’।
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अभिधानमाला  : स्त्री० [ष० त०] =नाम कोश।
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अभिधायक  : वि० [सं० अभि√धा+ण्वुल्-अक, युक्] १. अभिधा निश्चित करने या नाम रखनेवाला। २. कहने, बताने या समझानेवाला। ३. परिचायक। सूचक।
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अभिधावक  : वि० [सं० अभि-धाव् (गति)+ण्वुल्-अक] धावा या आक्रमण करनेवाला। आक्रामक। (एग्रेसर)
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अभिधावन  : पुं० [सं० अभि√धाव्+ल्युट्-अन] १. आक्रमण या धावा करने के लिए आगे बढ़ना। चढ़ दौड़ना। २. जान-बूझकर कोई ऐसा काम करना जिससे किसी निर्दोष या अनाक्रमक को कोई कष्ट पहुँचे या उसकी कोई हानि हो। (एग्रेशन)
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अभिधेय  : वि० [सं० अभि√धा+यत्] १. जिसकी कोई अविधा या कुछ नाम हो। नामवाला। २. जो कहा या पुकारा जा सके। ३. जिसका बोध नाम लेने से ही हो जाए। ४. जिसका प्रतिपादन या विवेचन हो सके या होने को हो। पुं० अभिधा। नाम।
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अभिनंदन  : पुं० [सं० अभि√नन्द(प्रशंसा)+ल्युट्-अन] १. आनंद। २. संतोष। ३. प्रशंसा। ४. प्रोत्साहन। ५. निवेदन। प्रार्थना। ६. आम नामक वृक्ष या उसका फल। ७. जैनों के चौथे तीर्थकर का नाम। ८. आज-कल विशेष रूप से प्रचलित अर्थ में किसी को धन्य या पूज्य मानकर उसके प्रति शुभकामना या श्रद्धा प्रकट करना।
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अभिनंदन-ग्रंथ  : पुं० [ष० त०] वह ग्रंथ जो किसी पूज्य तथा मान्य व्यक्ति का सम्मान करने और उसकी सेवाओं की स्मृति स्थायी रूप से बनाये रखने के लिए उसके नाम पर प्रस्तुत करके सार्वजनिक रूप में, उसे भेंट किया जाता है। (कॉमेमोरेशन वाँल्यूम)
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अभिनंदन-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी धन्य, पूज्य या प्रतिष्ठित व्यक्ति की सेवाओं का प्रशंसापूर्वक तथा श्रद्धापूर्वक उल्लेख होता है और जो सार्वजनिक रूप से उसे भेंट किया जाता है। (एड्रेस)
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अभिनंदना  : अ० [हिं० अभिनंदन] अभिनंदन (आदर-सत्कार या सम्मान) करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभिनंदनीय  : वि० [सं० अभि√नन्द्+अनीयर] १. अभिनंदन का अधिकारी या पात्र। २. प्रशंसनीय।
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अभिनंदित  : भू० कृ० [सं० अभि√नन्द्+क्त] [स्त्री० अभिनंदिता] जिसका अभिनंदन किया गया हो।
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अभिनंदी (दिन्)  : वि० [सं० अभि√नन्द्+णिनि] किसी का अभिनंदन अथवा प्रशंसा करनेवाला।
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अभिनय  : पुं० [सं० अभि√नी (ले जाना)+अच्] १. खेल, नाटक आदि में आंगिक चेष्टाएँ या हाव-भाव कलात्मक ढंग से प्रदर्शित करना। २. केवल दिखलाने के लिए अथवा किसी के अनुकरण पर की जाने वाली आंगिक चेष्टा। ३. नाटक।
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अभिनव  : वि० [सं० अभि√नु (स्तुति)+अप्] [भाव० अभिनवता] १. बिलकुल नया। नवीन। २. जो आधुनिक युग की विशेषताओं से युक्त हो। आधुनिक ढंग का। (न्यूफैशन्ड)
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अभिनिधन  : पुं० [सं० अत्या० स०] निधन या नाश के पास पहुँचना।
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अभिनियोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. साथ लगाना या सटाना। जोड़ना। २. परस्पर संबंध स्थापित करना। ३. दत्त-चित्त या तत्पर होना।
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अभिनिर्णय  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी विवादास्पद विषय में निर्णायक का किया हुआ निर्णय। (वर्डिक्ट) २. किसी के दोषी या निर्दोष होने के संबंध में अभिनिर्णायक (ज्यूरी) का दिया हुआ मत या निर्णय। (वर्डिक्ट आँफ ज्यूरी)
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अभिनिर्णायक  : पुं० [सं० प्रा० स०] वे लोग जो जज के साथ बैठकर विवादास्पद विषयों पर अपना निर्णय या मत देते हैं। (ज्यूरी)
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अभिनिर्देष  : पुं० [सं० अभि-निर्√दिश्(बताना)+घञ्] दे० ‘अभिदेश’।
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अभिनिर्याण  : पुं० [सं० अभि-निर्√या (जाना)+ल्युट्-अन] आक्रमणकारी का अभियान।
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अभिनिविष्ट  : भू० कृ० [सं० अभि-नि-विश् (प्रवेश)+क्त] [भाव० अभिनिविष्टता] जिसका अभिनिवेश हुआ हो।
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अभिनिवेश  : पुं० [सं० अभि-नि√विश्+घञ्] १. किसी में,धँसे, पैठे या लगे हुए होने की अवस्था या भाव। २. किसी कार्य या विषय में मन या विचारों की लीनता। मनोयोग। ३. किसी बात या विषय में होनेवाली गति या पैठ। ४. सब ओर से ध्यान हटाकर किसी एक विषय का होनेवाला चिंतन या मनन। ५. तत्परता। ६. दृढ़ संकल्प। ७. मृत्यु के भय से होनेवाला कष्ट या क्लेश, जो योग-शास्त्रों में पाँच क्लेशों में से एक माना गया है।
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अभिनिवेशित  : भू० कृ०=अभिनिविष्ट।
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अभिनिष्क्रमण  : पुं० [सं० अभि-निस्√क्रम् (पाद-गति)+ल्युट्-अन] १. घर से बाहर निकलने की क्रिया या भाव। २. संसार से विरक्त होने के उद्देश्य से घर-बार छोड़ कर निकल जाना।
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अभिनीत  : भू० कृ० [सं० अभि√नी (ले जाना)+क्त] १. निकट या समीप लाया हुआ। २. पूर्णता को पहुँचा या पहुँचाया हुआ। ३. सजाया हुआ। सज्जित। ४. उचित। वाजिब। ५. ज्ञाता। विज्ञ। ६. नाटक, जिसका अभिनय हुआ हो। खेला हुआ।
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अभिनेतव्य  : वि० [सं० अभि√नी+तव्यत्] जिसका अभिनय हो सके या होने को हो।
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अभिनेता (तृ)  : पुं० [सं० अभि√नी+तृच्] [स्त्री० अभिनेत्री] वह जो रंग-मंच पर अभिनय या नाटक करता हो। नट (ऐक्टर)
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अभिनेत्री  : स्त्री० [सं० अभिनेतृ+ङीष्] रंग-मंच पर अभिनय करने वाली स्त्री। नटी। (ऐक्ट्रेस)
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अभिनेय  : वि० [सं० अभि√नी+यत्] (नाटक) जिसका अभिनय होने को हो या हो सकता हो।
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अभिनै  : पुं० =अभिनय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभिन्न  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अभिन्नता] १. जो भिन्न न हो। एकमय। २. किसी से मिला, लगा या सटा हुआ। संबंद्ध। ३. जिससे कोई अंतर या भेद-भाव न रखा जाए। अंतरंग। घनिष्ठ। जैसे—अभिन्न हृदय मित्र।
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अभिन्न-पद  : पुं० [ब० स०] श्लेष अलंकार का एक भेद।
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अभिन्न-हृदय  : वि० [ब० स०] (ऐसे दो या कई व्यक्ति) जिनमें भावों विचारों आदि की पूर्ण एकता या समानता हो।
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अभिन्नता  : स्त्री० [सं० अभिन्न+तल्-टाप्] १. अभिन्न होने की अवस्था या भाव। २. एकरूपता। ३. घनिष्ट संबंध।
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अभिन्यस्त  : भू० कृ० [सं० अभि-नि√अस्(फेंकना)+क्त] १. अभिन्यास के रूप में रखा या लाया हुआ। २. किसी मद या विभाग में रखा या डाला हुआ। जमा किया हुआ। (डिपॉजिटेड)
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अभिन्यास  : पुं० [सं० अभि-नि√अस्+घञ्] [कर्त्ता अभिन्यासक, भू० कृ० अभिन्यस्त] १. किसी मद या विभाग में रखना। जमा करना। २. पूर्व योजना, परिकल्पना आदि के अनुसार किया जाने वाला निर्माण या रचना। (ले-आउट) ३. एक प्रकार का सान्निपातिक ज्वर, जिसमें नींद न आना, देह काँपना आदि क्रियाएँ दृष्टिगत होने लगती हैं।
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अभिपतन  : पुं० [सं० अभि√पत् (गिरना)+ल्युट्-अन] १. पूर्ण रूप से गिरना। पूरा पतन। २. प्रस्थान। ३. आक्रमण। चढ़ाई।
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अभिपत्ति  : स्त्री० [सं० अभि√पद् (गति)+क्तिन्] १. पास जाना या पहुँचना। २. किसी विषय में होनेवाली गति। ३. पहुँच। पैठ। ४. अंत। समाप्ति। ५. पूर्ति।
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अभिपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा लेख जिसमें किसी गूढ़ विषय की विशिष्ट जानकारी की बातें हों और जो मुख्यतः विद्वानों के सामने विचारार्थ उपस्थित किया या पढ़ा जाए। (पेपर)
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अभिपद  : पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा निश्चय, मत, विचार या सिद्धांत जो किसी समष्टि का पूरा और स्वतंत्र अंग हो। (आर्टिकिल्)
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अभिपन्न  : वि० [सं० अभि√पद्+क्त] १. विपत्ति या संकट में पड़ा हुआ, अथवा ऐसी स्थिति में रक्षा और सहायता के लिए किसी के पास जानेवाला। २. भाग्यहीन। अभागा। ३. हारा हुआ। पराजित। ४. अपराधी। दोषी। ५. भागा हुआ। ६. मरा हुआ। मृत।
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अभिपीड़न  : पुं० [सं० अभि√पीड् (कष्ट देना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिपीड़ित] बहुत अधिक कष्ट या दुःख देना। बहुत पीड़ित करना।
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अभिपुष्ट  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसका अभिपोषण हो चुका हो। (रैटिफाइड) २. अच्छी तरह से पुष्ट या पका हुआ।
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अभिपुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अभिपुष्टि होने की अवस्था या भाव। २. अभिपोषण।
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अभिपूर्ण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह से भरा हुआ। २. संतुष्ट।
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अभिपूर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अभिपूर्ति] १. अभिपूर्ण करने की क्रिया या भाव। २. अपने ऊपर लिए हुए उत्तरदायित्व का निर्वाह या दिये हुए वचन का पालन करना। (इंप्लिमेन्टेशन)
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अभिपोषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह की जानेवाली पुष्टि। २. किसी की कही हुई बात या किये हुए कार्य, निर्णय आदि का आधिकारिक रूप से किया हुआ समर्थन अथवा स्वीकरण। अभिपुष्टि। (कनफर्मेशन) ३. राज्यकीय क्षेत्र में अपने प्रतिनिधि के निर्णय का उच्च अधिकारियों द्वारा ठीक मान लिया जाना। (रैटिफिकेशन)
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अभिपोषणीय  : वि० [सं० अभि√पुष् (पुष्टि)+अनीयर] जिसका अभिपोषण होना उचित हो अथवा होने को हो।
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अभिपोषित  : भू० कृ० [सं० अभि√पुष्(पुष्टि)+णिच्+क्त] जिसका अभिपोषण हुआ हो अथवा किया गया हो।
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अभिप्रमाणन  : पुं० [सं० अभि-प्रमाण प्रा० स०+क्विप्+ल्युट्-अन, भू० कृ० अभिप्रमाणित] किसी आधिकारिक व्यक्ति, या संस्था का साक्षी के रूप में होकर किसी बात के संबंध में यह कहना कि यह ठीक है। (एटेस्टेशन)
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अभिप्राणन  : पुं० [सं० अभि-प्र√अन्+ल्युट्-अन] साँस बाहर निकालने की क्रिया ।
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अभिप्राय  : पुं० [सं० अभि-प्र√इ(गति)+अच्] [वि० अभिप्रेत] १. किसी के पास जाना या पहुँचना। (मूल अर्थ) २. वह उद्देश्य या विचार जो हमें कोई काम करने में प्रवृत्त करता है। इरादा। (इन्टेन्ट) जैसे—किसी को धोखा देने के अभिप्राय से झूठ बोलना। ३. वह उद्देश्य या ध्येय जिसकी पूर्ति या सिद्धि के लिए प्रयत्नपूर्वक कोई काम लिया जाता है। नीयत। (पर्पज) ४. आशय। तात्पर्य। ५. चित्र-कला, मूर्ति-कला आदि में (क) वह काल्पनिक अथवा प्राकृतिक भाव जो उसमें मुख्य रूप से झलकता हो, अथवा (ख) वह आशय, भाव या विचार जो अलंकारों, परिरूपों आदि में अधिकतर या मुख्य रूप से सब जगह स्पष्ट दिखाई देता हो। (मोटिक) ६. रूप। ७. संबंध। ८. विष्णु।
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अभिप्रेत  : वि० [सं० अभि-प्र√इ+क्त] १. जो अभिप्राय का विषय बना हो। २. चाहा हुआ। इष्ट। (इन्टेन्डेड) ३. प्रिय या रुचिकर।
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अभिप्लव  : पुं० [सं० अभि√प्लु(गति)+अप्] १. उपद्रव। उत्पात। फसाद। २. नदियों आदि की बाढ़। ३. गवामयन यज्ञ का एक अंग जो छः दिनों में होता है। ४. प्राजापत्य। आदित्य।
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अभिभव  : पुं० [सं० अभि√भू(सत्ता)+अप] १. पराजय। हार। २. तिरस्कार। ३. अनहोनी या विलक्षण बात अथवा घटना। ४. किसी को बलपूर्वक दबाकर कहीं रोक रखना या किसी ओर ले जाना। (कॉन्स्ट्रेन्ट)
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अभिभावक  : वि० [सं० अभि√भू+णिच्+ण्वुल्-अक] १. अभिभूत, पराजितया वशीभूत करनेवाला। २. बहुत अधिक प्रबल या श्रेष्ठ। पुं० वह जो किसी अल्प वयस्क बालक अथवा अनाथ स्त्री और उसकी सब बातों की देख-रेख या रक्षा करता हो। (गार्जियन)
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अभिभावन  : पुं० [सं० अभि√भू+णिच्+ल्युट्-अन] १. अभिभव करने या होने की अवस्था या भाव।
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अभिभावित  : भू० कृ० [सं० अभि√भू+णिच्+क्त] १. जिसका अभिभव हुआ हो। पराजित। २. किसी के नीचे दबा हुआ। अधीन। ३. तिरस्कृत।
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अभिभावी (विन्)  : वि० [सं० अभि√भू+णिच्+णिनि] १. अभिभावन करने वाला। २. पूरी शक्ति से क्रियाशील होकर प्रभाव, फल आदि उत्पन्न करनेवाला। ३. बहुत बढ़कर। उत्कृष्ट।
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अभिभाषक  : पुं० [सं० अभि√भाष् (बोलना)+ण्वुल्-अक] १. किसी की तरफ से बोलनेवाला। २. शास्त्रार्थ करनेवाला। ३. वह जो किसी मुकदमें में किसी पक्ष की तरफ से न्यायालय में बहस तथा उसका समर्थन करे। (एडवोकेट)
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अभिभाषण  : पुं० [सं० अभि√भाष्+ल्युट्-अन] १. विचार, विद्वता तथा विवेचनापूर्ण भाषण० वक्तृता। (एड्रेस) २. न्यायालय में अभिभाषक या किसी विविध द्वारा दिया हुआ भाषण या वक्तव्य। (एड्रेस आँफ एडवोकेट)
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अभिभू  : वि० [अभि√भू+क्विप्] १. दूसरों से अधिक आगे बढ़ा हुआ। २. उत्कृष्ट। श्रेष्ठ।
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अभिभूति  : स्त्री० [सं० अभि√भू+क्तिन्] अभिभूत होने की अवस्था या भाव। अभिभव।
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अभिमंडन  : पुं० [सं० अभि√मण्ड् (भूषण)+ल्युट्-अन] १. भूषित करना। सजाना। २. पक्ष या मत का पोषण या समर्थन।
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अभिमत  : वि० [सं० अभि√मन्(जानना)+क्त] १. जो किसी के मत या राय के अनुकूल हो। सम्मत। उदाहरण—अभिमतदातार कौन, दुख दरिद्र दारै।—तुलसी। २. मन चाहा। वांछित। पुं० किसी प्रश्न या विषय के संबंध में अच्छी तरह सोच-समझकर स्थिर किया हुआ निजी या व्यक्तिगतमत। (ओपीनियन)
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अभिमंता (तृ)  : वि० [सं० अभि√मन् (मानना)+तृच्]-अभिमानी।
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अभिमति  : स्त्री० [सं० अभि√मन्+क्तिन्] १. दे० ‘अभिमान’ २. दे० ‘अभिमत’।
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अभिमंत्रण  : पुं० [सं० अभि√मन्त्र(गुप्त भाषण)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिमंत्रित] १. मंत्र पढ़कर पवित्र या शुद्ध करना। २. मंत्रों के द्वारा किसी को वशीभूत करना। जादू करना।
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अभिमंत्रित  : भू० कृ० [सं० अभि√मन्त्र+क्त] मंत्र द्वारा पवित्र या शुद्ध किया हुआ।
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अभिमंथ  : पुं० [सं० अभि√मन्थ्(विलोड़न)+अच्] आँख का एक रोग।
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अभिमन्यु  : पु० [सं० ] सुभद्रा के गर्भ से उत्पन्न, अर्जुन का एक पुत्र जिसने कौरवों का चक्र-व्यूह भेंदकर कर्ण, दुर्योधन और द्रोण से भीषण युद्ध किया था। यह अंत में इसी युद्ध में मारा गया था।
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अभिमर  : पुं० [सं० अभि√मृ (मरना)+अप्] १. युद्ध। लड़ाई। २. युद्ध क्षेत्र। ३. सेना में, अपने ही पक्ष द्वारा होनेवाला विश्वासघात। ४. डर। भय। ५. नाश। ६. वह जो अपने प्राणों की आशा छोड़ शेर या हाथी से लड़ने चले।
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अभिमर्दन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बुरी तरह से कुचलना, मसलना या रौंदना। २. चूर-चूर करना। ३. कष्ट देना। सताना। ४. रगड़। ५. संघर्ष। ६. युद्ध।
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अभिमर्श  : पुं० [सं० अभि√मृश् (स्पर्श)+घञ्]=अभिमर्षण।
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अभिमर्षक  : वि० [सं० अभि√मृश् (स्पर्श)+ण्वुल्-अक] अभिमर्षण करनेवाला।
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अभिमर्षण  : पुं० [सं० अभि√मृश्+ल्युट्-अन] १. स्पर्श करना। २. आक्रमण। ३. रगड़ना या संघर्ष करना। ४. संभोग। ५. पराजय। हार।
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अभिमाद  : पुं० [सं० अभि√मद् (हर्ष)+घञ्] १. मद। नशा। २. खुमार।
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अभिमान  : पुं० [सं० अभि√मन् (जानना, मानना)+घञ्] [वि० अभिमानी] १. अपनी प्रतिष्ठा या मर्यादा, सत्ता आदि की कल्पना या ज्ञान। २. अपनी प्रतिष्ठा, मान, योग्यता आदि के संबंध में अपने मन में होनेवाली अतिरिक्त और प्रायः अनुचित धारणा। अहंकार। घमंड। (प्राइड) विशेष—यद्यपि अभिमान का मूल अर्थ सदभाव से युक्त था। पर आजकल व्यवहार में यह प्रायः असद् भाव का ही सूचक माना जाता है।
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अभिमानी (निन्)  : वि० [सं० अभि√मन्+णिनि] [स्त्री० अभिमानिनी] जिसे अभिमान हो। अभिमान करनेवाला।
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अभिमुक्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी कर्त्तव्य, कार्य-भार या पद से मुक्त होने अथवा बचे रहने की अवस्था या भाव। (इम्यूनिटी)
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अभिमुख  : अव्य-[सं० प्रा० स०] १. किसी की ओर मुँह किये या फेरे हुए। २. सम्मुख। सामने।
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अभिमृष्ट  : भू० कृ० [सं० अभि√मृश्+क्त] १. जो स्पर्श किया गया हो। २. हारा हुआ। पराभूत। ३. मिला हुआ। संसृष्ट। ४. आक्रांत।
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अभियंता (तृ)  : पुं० [सं० अभि√यम्(नियंत्रण करना)+तृच्] १. वह जो लोक वास्तु संबंधी चीजें परिरूपित और निर्मित करता हो। (इंजीनियर) २. उक्त प्रकार के कार्यों की किसी विशिष्ट शाखा का विशेषज्ञ। जैसे—विद्युत अभियंता।
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अभियंत्रण  : पुं० [सं० अभि√यन्त्र् (नियमन)+ल्युट्-अन] १. अभियंता या इंजीनियर का कार्य। २. यंत्र आदि बनाने और सुधारने की कला या विद्या। (इंजीनियरिंग)
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अभियाचन  : पुं० [सं० अभि√याच् (माँगना)+ल्युट्-अन]=अभियाचना।
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अभियाचना  : स्त्री० [सं० अभि√याच् (माँगना)+णिच्×युच्+अन-टाप्] १. बार-बार तथा दीनता-पूर्वक याचना करना। माँगना। २. नम्रता-पूर्वक किसी से कोई काम करने के लिए अनुरोध करना।
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अभियांचा  : स्त्री०=अभियाचना।
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अभियाचित  : भू० कृ० [सं० अभि√याच्+क्त] जिसके लिए अभियाचना की गई हो। माँगा हुआ।
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अभियान  : पुं० [सं० अभि√या(जाना)+ल्युट्-अन] [कर्त्ता अभिमानी] १. किसी के सामने जाना या पहुँचना। २. किसी विशिष्ट कार्य या निश्चित उद्देश्य की सिद्धि के लिए दल-बल सहित और सैनिक ढंग से चलकर कहीं जाना। (एक्सपेडिशन) ३. सैनिक-आक्रमण। चढ़ाई।
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अभियानिक  : वि० [सं० आभियानिक] १. अभियान-संबंधी। अभियान का। २. अभियान के रूप में होनेवाला।
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अभियानी (निनृ)  : पुं० [सं० अभियान+इनि] उद्देश्य, सिद्धि, विजय आदि की कामना से अभियान करनेवाला व्यक्ति। उदाहरण—जो तोड़े यह दुर्ग, वही है समता का अभियानी।—दिनकर।
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अभियुक्त  : वि० [सं० अभि√युज् (जोड़ना)+क्त] १. जुडा, लगा या सटा हुआ। संलग्न। २. किसी काम में लगा या लगाया हुआ। नियुक्त। ३. उक्त। कहा हुआ। ४. अध्यवसायी। ५. आक्रांत। ६. अच्छा ज्ञाता। सुविज्ञ। पुं० वह जिसपर न्यायालय में कोई अभियोग (अपराध या दोष) लगाया गया हो। मुलजिम। (एक्यूज्ड)
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अभियुक्ति  : स्त्री० [सं० अभि√युज्+क्तिन्] १. अभियुक्त होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘अभियोग’।
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अभियोक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० अभि√युज्+तृच्]-अभियोगी।
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अभियोग  : पुं० [सं० अभि√युज्+घञ्] १. कोई काम पूरा करने के लिए मन लगाकर प्रयत्न करना। २. किसी काम या बात में होनेवाला मनोयोग। लगन। ३. आक्रमण। चढ़ाई। ४. किसी पर दोष लगाना या दोषारोपण करना। ५. किसी के अपराध आदि का विचारार्थ न्यायालय में उपस्थित किया जाना। दंड दिलाने के लिए की जाने वाली फरियाद। (एक्यूजेशन) ६. दे० अभियोजन।
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अभियोग-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी अभियोग का उल्लेख और उसकी जाँच की प्रार्थना या अनुरोध हो।
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अभियोगी (गिन्)  : वि० [सं० अभि√युज्+णिनुण्] किसी काम या बात में अनुरक्त होने या मन लगानेवाला। पुं० वह जिसने किसी पर विचारार्थ कोई दोष लगाया या अभियोग उपस्थित किया हो। मुकदमा चलानेवाला व्यक्ति। अभियोक्ता। फरियादी। (कॉम्प्लेनेन्ट)
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अभियोजक  : वि० [सं० अभि√युज्+ण्वुल्-अक] अभियोजन करनेवाला अभियोगी।
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अभियोजन  : वि० [सं० अभि√युज्+ल्यूट्-अक] [वि० अभियोज्य] १. अच्छी तरह जोड़ना या लगाना। २. किसी पर कोई अभियोग या दोष लगाना। यह कहना कि इसने अमुक अनुचित या दंडनीय अपराध या कार्य किया है। (एक्यूजेशन)
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अभियोज्य  : वि० [सं० अभि√युज्+ण्यत्] (कार्य या व्यक्ति) जिसके संबंध में या जिसपर अभियोग चलाया या लगाया जा सके। (एक्यूजेबुल्)
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अभिरक्षक  : पुं० [सं० प्रा० स०] न्यायालय या शासन की ओर से नियुक्त वह अधिकारी जो किसी व्यक्ति अथवा संपत्ति को सुरक्षा के विचार से अपने संरक्षण में रखता हो। (कस्टोडियन)
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अभिरक्षण  : पुं० [सं० प्रा० स०]=अभिरक्षा।
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अभिरक्षा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अभिरक्षित] १. अच्छी तरह की जानेवाली देख-रेख या रक्षा। २. किसी वस्तु या संपत्ति की देख-रेख करना अथवा किसी व्यक्ति को भागने आदि से रोकने के लिए उसे अपने अधिकार या वश में रखना। (कस्टेंडी)
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अभिरक्षित  : भू० कृ० [सं० अभि√रक्ष् (रक्षा करना)+क्त] जिसकी अभिरक्षा की गई हो या की जाती हो।
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अभिरंजन  : पुं० [सं० अभि√रञ्ज् (रंगना)+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिरंजित] १. अच्छी तरह रँगना। २. अनुरक्त करना या होना।
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अभिरंजित  : भू० कृ० [सं० अभि√रञ्ज्+णिच्+क्त] १. अच्छी तरह रँगा हुआ। २. किसी के अनुराग या प्रेम में पड़ा हुआ।
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अभिरत  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० अभिरति] १. किसी कार्य या बात में लगा हुआ। लीन। २. मिला हुआ। युक्त। ३. अनुरक्त।
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अभिरति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अभिरत होने की अवस्था या भाव। २. अनुराग। प्रेम। ३. लगन। ४. प्रसन्नता। हर्ष। ५. संतोष।
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अभिरना  : अ० [सं० अभि (=सामने)+रण(=युद्ध) या हिं० भिड़ना] १. भिड़ना। लड़ना। २. सहारा लेना। टेकना। स० १. भिड़ाना। २. मिलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभिरमण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह रमण करना। खूब रमना। २. आनंद। प्रसन्नता।
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अभिराद्ध  : वि० [सं० अभि√राध् (सिद्धि)+क्त] प्रसन्न या संतुष्ट किया हुआ।
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अभिराधन  : पुं० [सं० अभि√राध् (सिद्धि)+ल्युट्-अन] अनुकूल करने के लिए कुछ दबकर प्रसन्न या संतुष्ट करना। (एपोजमेन्ट)
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अभिराम  : वि० [सं० अभि√रम् (क्रीड़ा)+णिच्+अच्] [स्त्री० अभिरामा,भाव,अभिरामता] १. अपनी उत्कृष्टता तथा सुन्दरता के कारण मन रमानेवाला। आनंद देनेवाला। २. प्रिय, मधुर या रुचिकर। पुं० [अभि√रम्+घञ्] १. आनंद। प्रसन्नता। २. आराम। सुख।
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अभिरामी (मिन्)  : वि० [सं० अभि√रम्+णिनि] १. रमण करनेवाला। २. संचरण करने या व्याप्त होनेवाला।
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अभिरुचि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी क्षेत्र, विषय या व्यक्ति में विशेष रूप से होनेवाली रुचि। (इन्ट्रेस्ट)
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अभिरूप  : वि० [स० ब० स] १. उत्कृष्ट, मधुर या सुंदर रूपवाला। २. किसी से मिलता-जुलता। सदृश। समान। ३. प्रचुर या यथेष्ट। पुं० १. शिव। २. विष्णु। ३. कामदेव। ४. चंद्रमा। ५. पंडित।
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अभिरोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] चौपायों का एक रोग जिसमें उनकी जीभ में घाव हो जाता है।
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अभिरोपण  : पुं० [सं० प्रा० स०] कुछ पौधों आदि का एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर लगाया जाना। (सप्लान्टिंग)
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अभिलक्षित  : भू० कृ० [सं० अभि√लक्ष् (देखना, अंकित करना)+क्त] १. लक्षित अथवा चिह्नित किया हुआ। अंकित। २. जिसे दृष्टि में रखकर कोई काम किया गया हो। ३. जिसकी ओर लक्ष्य या संकेत किया गया हो।
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अभिलक्ष्य  : वि० [सं० अभि√लक्ष्+ण्यत्] जो लक्ष्य या निशाना बनाया जा सके या बनाया जाए।
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अभिलंघन  : पुं० [सं० अभि√लंघ् (लांघना)+ल्युट्-अन] १. उछल या कूदकर लांघना। २. अपने अधिकार, क्षेत्र या सीमा का जानबूझकर उल्लघन करना।
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अभिलंब  : वि० [सं० अभि√लम्ब् (लटकना)+अच्] १. जो क्षैतिज तल से सीधा इस प्रकार ऊपर (शीर्ष विंदु की ओर) गया हो कि उसके दोनों ओर दो समकोण बनतें हो। २. दे० लंब।
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अभिलषण  : पुं० [सं० अभि√लष्(चाहना)+ल्युट्-अन] १. अभिलाषाकरना। चाहना। २. ललचना।
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अभिलषित  : भू० कृ० [सं० अभि√लष्+क्त] जिसकी अभिलाषा की गई हो। चाहा हुआ।
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अभिलाख  : स्त्री० [क्रि०अभिलाखना] =अभिलाषा। उदाहरण—मनवा में इहे अबिलाख, इहे एक साध, इहे एक सधिया नु हो।—ग्राम्य गीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अभिलाखना  : स० [सं० अभिलाषण] अभिलाषा या इच्छा करना। चाहना।
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अभिलाखा  : स्त्री० =अभिलाषा।
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अभिलाखी  : वि० दे० ‘अभिलाषी’।
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अभिलाप  : पुं० [सं० अभि√लप्(कहना) घञ्] १. मन के किसी संकल्प का कथन या उच्चारण। संकल्प वाक्य। २. कथन। ३. बातचीत।
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अभिलाष  : पुं० [सं० अभि√लष् (चाहना)+घञ्]=अभिलाषा।
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अभिलाषक  : वि० [सं० अभि√लष्+ण्वुल्-अक] अभिलाषा करनेवाला।
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अभिलाषा  : स्त्री० [सं० अभिलाष] १. मन का यह भाव कि अमुख काम या बात इस रूप में हो जाए अथवा अमुक वस्तु हमें प्राप्त हो जाए। आकांक्षा। इच्छा। कामना। २. साहित्य में, पूर्व-राग की दस दशाओं में से एक, जिसमें प्रिय से मिलने की चाह होती है।
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अभिलाषी (षिन्)  : वि० [सं० अभि√लष्+णिनि] [स्त्री० अभिलाषिणी] अभिलाषा करने वाला। (एस्पायरेन्ट)
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अभिलाषुक  : वि० [सं० अभि√लष्+उकच्]=अभिलाषी।
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अभिलास  : पुं०=अभिलाषा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभिलासा  : स्त्री० दे० ‘अभिलाषा’।
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अभिलिखित  : भू० कृ० [सं० अभि√लिख्(लिखना)+क्त] जिसका अभिलेखन हुआ हो। (दे० ‘अभिलेखन’)
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अभिलेख  : पुं० [सं० अभि√लिख् (लिखना)+घञ्] १. किसी घटना, विषय, व्यक्ति आदि से संबंध रखनेवाली बातें जो लिखित हों और उसकी प्रमाण हों। २. अभिदेश, निर्देश, स्मृति आदि के लिए लिखकर रखी हुई बातें। ३. न्यायालयों आदि की उक्ति प्रकार से लिखकर रखी हुई सब कारवाइयाँ। (रेकार्ड, उक्त सभी अर्थों के लिए)
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अभिलेख-अधिकरण  : पुं० [ष० त०] शासन का वह अधिकरण (न्यायालय का सा अधिकार रखने वाला विभाग) जिसे अभिलेखों की लिपि या प्रतिलिपि संबंधी त्रुटियाँ और भूलें सुधारने का अधिकार होता है। (कोर्ट आँफ रेकार्डस)
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अभिलेख-न्यायालय  : पुं०=अभिलेख-अधिकरण।
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अभिलेख-पाल  : पुं० [ष० त०] किसी न्यायालय, कार्यालय आदि के अभिलेखों की देख-करने और उन्हें यथा-स्थान रखनेवाला कर्मचारी। (रेकार्ड कीपर)
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अभिलेखन  : पुं० [सं० अभि√लिख्+ल्युट्-अन] [वि० अभिलिखित] १. लिखने अथवा उकरने (किसी चीज पर कुछ खोदने) का काम। २. अभिदेश, स्मृति आदि के विचार से किसी विषय की सब मुख्य-मुख्य बातें लिखना या किसी रूप में अंकित करना। (रेकार्डिंग)
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अभिलेखन-यंत्र  : पुं० [ष० त०] वह यंत्र जो कही हुई बातों का अभिलेख सुरक्षित रखने के लिए तैयार करता है। (रिकार्डिंग मशीन)
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अभिलेखालय  : पुं० [सं० अभिलेख-आलय, ष० त०] ऐसा भवन या स्थान जहाँ अभिलेख प्रस्तुत किये जाते हैं अथवा सुरक्षित रखे जाते हैं। (रेकार्ड रूम)
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अभिलेखित  : भू० कृ० [सं० अभिलेख+इतच्] =अभिलिखित।
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अभिलोपन  : पुं० [सं० अभिलोप+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिलुप्त] १. लेख आदि इस प्रकार काटना या मिटाना कि पढ़ा न जा सके। २. इस प्रकार नष्ट करना कि कोई चिन्ह बाकी न रहें। (आब्लिटरेशन)
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अभिवक्ता (क्त)  : पुं० [सं० अभि√वच्(बोलना)+तृच्] वह जो न्यायालय में किसी पक्ष की ओर से उसके विविध अथवा व्यावहारिक पक्ष का समर्थन करे। वकील। (प्लीडर)
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अभिवंचन  : पुं० [सं० अभि√वञ्च्(ठगना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिवंचित] १. वंचित या रहित करना। २. ठगना।
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अभिवचन  : पुं० [सं० अभि√वच्+ल्युट्-अन] १. प्रतिज्ञा। इकरार। २. विधिक-प्रतिनिधि अथवा अभिवक्ता द्वारा न्यायालय के समक्ष वे कथन जो अपने नियोजक की ओर से कहता है। (प्लींडिंग)
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अभिवंदन  : पुं० [सं० अभि√वन्द् (स्तुति)+ल्युट्-अन] [वि० अभिवंदनीय, भू० कृ० अभिवंदित] १. प्रणाम। नमस्कार। २. प्रशंसा। स्तुति।
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अभिवंदनीय  : वि० [सं० अभि√वन्द्+अनीयर] जिसका अभिवंदन करना उचित हो।
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अभिवंदित  : भू० कृ० [सं० अभि√वन्द्+क्त] १. जिसकी अभिवंदना की गई हो। २. प्रसंशित। स्तुत।
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अभिवंद्य  : वि० [सं० अभि√वन्द्+ण्यत्]=अभिवंदनीय।
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अभिवर्तन  : पुं० [सं० अभि√वृत्(बरतना)+ल्युट्-अन] १. किसी ओर या आगे बढ़ना। २. आक्रमण। चढ़ाई।
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अभिवर्धन  : पुं० [सं० अभि√वृध्+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिवर्धित] १. बढ़ाने की क्रिया या भाव। २. अधिक उपयोगी या फलप्रद बनाने के उद्देश्य से किसी छोटे या साधारण रूप को बड़े या विकसित रूप में लाना। (डेवेलपमेंट)
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अभिवर्धित  : भू० कृ० [सं० अभि√वृध्+णिच्+क्त] जिसका अभिवर्धन हुआ हो।
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अभिवांछा  : स्त्री० [सं० अभि√वाञ्छ्(चाहना)+अ-टाप्] अभिलाषा। आकांक्षा।
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अभिवांछित  : वि० [सं० अभि√वाञ्छ्+क्त] चाहा हुआ। इच्छित।
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अभिवाद  : पुं० [सं० अभि√वद् (बोलना)+घञ्] १. प्रणाम। वंदना। २. प्रशंसा। स्तुति। ३. दे० ‘अभिवादन’।
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अभिवादक  : वि० [सं० अभि√वद्+णिच्+ण्युल्-अक] अभिवादन करनेवाला।
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अभिवादन  : पुं० [सं० अभि√वद्+णिच्+ल्युट्-अन] १. श्रद्धापूर्वक किया जाने वाला प्रणाम या नमस्कार। २. प्रशंसा। स्तुति। (क्व०)
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अभिवादित  : भू० कृ० [सं० अभि√वद्+णिच्+क्त] जिसका अभिवादन किया गया हो।
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अभिवाद्य  : वि० [सं० अभि√वद्+णिच्+यत्] जिसका अभिवादन करना उचित या आवश्यक हो। अभिवादन या अधिकारी का पात्र।
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अभिवास  : पुं० [सं० अभि√वस्(आच्छादन)+णिच्+घञ्] १. ढकने का परदा। आवरण। २. ओढ़ने का कपड़ा। चादर।
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अभिवासन  : पुं० [सं० अभि√वस्+णिच्+ल्युट्-अन] ओढ़ने या ढकने की क्रिया या भाव।
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अभिवृद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक उन्नति या समृद्धि। २. =अभिवर्द्धन।
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अभिव्यक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] [भाव० अभिव्यक्ति०] १. जिसकी अभिव्यक्ति की गई हो। २. सामने आया या लाया हुआ।
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अभिव्यक्ति  : स्त्री० [सं० अभि-वि√अञ्ज् (स्पष्ट करना)+क्तिन्] १. प्रकट, प्रकाशित या स्पष्ट करने की क्रिया या भाव। (मैनिफेस्टेशन) २. न्याय शास्त्र में, किसी अप्रत्यक्ष या सूक्ष्म कारण से प्रत्यक्ष या स्थूल कार्य या वस्तु का होनेवाला आविर्भाव। ३.दे० ‘अभिव्यंजना’।
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अभिव्यंजक  : पुं० [सं० प्रा० स०] अभिव्यंजन करने वाला। (एक्सप्रेसिव) पुं० चित्रों, मूर्तियों आदि में वे चिन्ह, रेखाएँ आदि जो किसी विशिष्ट भाव आदि की द्योतक हों।
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अभिव्यंजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अभिव्यंजित, अभिव्यक्त] १. विचारों या भावों को शब्दों या संकेतों द्वारा ठीक तरह से तथा स्पष्ट रूप से प्रकट करने की क्रिया या भाव। २. भाषिक क्षेत्र में, कोई बात शब्दों द्वारा बहुत ही सुंदर ढंग से व्यक्त करना। (एक्स्प्रेशन उक्त दोनों अर्थों के लिए)
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अभिव्यंजना  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह बात जो अभिव्यंजन के रूप में प्रकट की गई हो।
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अभिव्यंजना-वाद  : पुं० [ष० त०] कला और साहित्य में वह वाद या सिद्धांत जिसमें मनोगत भाव नग्न रूप में व्यक्त करना ही मुख्य उद्देश्य माना जाता है। (एक्सप्रेशनिज्म)
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अभिव्यंजित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका अभिव्यंजन हो चुका हो या किया गया हो। अभिव्यंजना के द्वारा प्रकट किया हुआ। (एक्स्प्रेस्ड)
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अभिव्यापक  : वि० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह व्याप्त होने या करने वाला। पुं० १. ईश्वर। २. ऐसा आधार जिसके हर अंग या अंश में आधेय वर्त्तमान हो। जैसे—तिल, जिसके हर अंश में तेल रहता हैं।
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अभिव्याप्त  : वि० [सं० प्रा० स०] जो अच्छी तरह व्याप्त (प्रचलित या फैला हुआ) हो।
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अभिव्याप्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] अभिव्याप्त होने की अवस्था या भाव।
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अभिशपन  : पुं० [सं० अभि√शंप्(कोसना)+ल्युट्-अन] १. किसी पर झूठा दोषारोप करना। २. दे० ‘अभिशाप’।
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अभिशप्त  : भू० कृ० [सं० अभि√शंप्+क्त] १. जिस पर मिथ्या आरोप किया गया हो। २. जिसे शाप दिया गया हो। शापित।
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अभिशंसन  : पुं० [सं० अभि√शंस्(कहना)+ल्युट्-अन] =अभिशंसा।
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अभिशंसा  : स्त्री० [सं० अभि√शंस्+अ-टाप्] १. विधिक दृष्टि से किसी अभियोग या अपराध की पुष्टि होना। २. न्यायालय द्वारा उक्त प्रकार से अपराध की घोषणा करने की क्रिया या भाव।
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अभिशंसित  : भू० कृ० [सं० अभि√शंस्+णिच्-क्त] विधिक दृष्टि से जिसपर अपराध सिद्धि या प्रमाणित हुआ हो। (कन्विक्टेड)
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अभिशस्त  : वि० [सं० अभि√शंस्+क्त] भू० कृ० =अभिशंसित।
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अभिशस्ति  : स्त्री० [सं० अभि√शंस्+क्तिन्] १. अभिशाप। २. निन्दा। बदनामी। ३. प्रार्थना। ४. हिंसा। ५. विपत्ति।
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अभिशाप  : पुं० [सं० अभि√शंप्+घञ्] [भू० कृ० अभिशप्त] १. बहुत बड़ा शाप। २. झूठा अभियोग या मिथ्या दोषारोपण।
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अभिशापन  : पुं० [सं० अभि√शंप्+णिच्+ल्युट्-अन] अभिशाप देने की क्रिया या भाव।
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अभिशापित  : भू० कृ० [सं० अभि√शंप्+णिच्+क्त] =अभिशप्त।
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अभिशासक  : पुं० [सं० अभि√शास्(शासन करना)+ण्वुल्-अक] अच्छी तरह शासन करनेवाला अधिकारी।
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अभिशासन  : पुं० [सं० अभि√शास्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अभिशासित] अच्छी तरह और पूरा नियंत्रण रखते हुए प्रबंध व्यवस्था या शासन करने की क्रिया या भाव० (गवर्नेस)
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अभिशासित  : वि० [सं० अभि√शास्+णिच्+क्त] जिसका अभिशासन हुआ हो या हो रहा हो।
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अभिशून्यन  : पुं० [सं० अभिशून्य, प्रा० स०+णिच्+ल्युट्-अन] १. शून्य करना। २. निरर्थक, रद्द या व्यर्थ करना।
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अभिषंग  : पुं० [सं० अभि√सञ्ज्(सटना या मिलना)+घञ्] १. किसी काम या बात में किसी के संग या साथ होना। २. कोसना। ३. झूठा अभियोग या दोषारोपण। ४. गले लगाना। आलिंगन। ५. शपथ। कसम। ६. भूत-प्रेत का आविर्भाव या आवेश। ७. पराजय। हार।
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अभिषंगी (गिन्)  : पुं० [सं० अभि√सञ्ज्+णिनि] वह जो किसी बुरे या अनुचित काम में किसी का साथ दें। वि० साथ लगा रहनेवाला।
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अभिषद  : पुं० [सं० अभि√सु(स्थापन)+अप्] १. यज्ञ। २. यज्ञ के समय होने वाला स्नान। ३. सोम का रस निकलवाना। ४. शराब चुआना। आसवन। ५. काँजी।
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अभिषद्  : स्त्री० [सं० अभि√सद्(गति आदि)क्विप्] किसी विशिष्ट वर्ग के सब दलों, प्रतिनिधियों आदि की वह संस्था या निकाय जो उन सब के सम्मिलित उद्देश्य की सिद्धि तथा माँगों की पूर्ति के संघठित किया जाए। (सिडिकेट) जैसे—व्यापारिक या साहित्यिक अभिषद्।
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अभिषावक  : पुं० [सं० अभि√सु+ण्वुल्-अक] यज्ञ-कार्य के लिए सोमरस निचोड़ने वाला पुरोहित।
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अभिषिक्त  : भू० कृ० [सं० अभि√सिच्(सींचना)+क्त] १. जिसका या जिस पर अभिषेक हुआ हो। २. सिंचा या सींचा हुआ।
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अभिषेक  : पुं० [सं० अभि√सिच्+घञ्] [वि० अभिषिक्त] १. जल छिड़कना। २. ऊपर से जल डालकर किया जाने वाला स्नान। ३. बाधा, शान्ति या मंगल के लिए मंत्र पढ़कर जल छिड़कना। मार्जन। ४. विधिपूर्वक मंत्र छिड़ककर राज-गद्दी पर बैठना। ५. यज्ञादि के पीछे शांति के लिए किया जानेवाला स्नान। ६. शिवलिंग के ऊपर छेदवाला घड़ा लटकाकर धीरे-धीरे पानी टपकाना।
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अभिषेक्ता (तृ)  : पुं० [सं० अभि√सिच्+तृच्] १. अभिषेक का कृत्य करनेवाला व्यक्ति। २. राज्य-गुरु।
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अभिषेक्य  : वि० [सं० अभि√सिच्+तृच्] १. अभिषेक का अधिकारी या पात्र। २. जिसका अभिषेक होने को हो।
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अभिषेचन  : पुं० [सं० अभि√सिच्+ल्युट्-अन] अभिषेक करने की क्रिया या भाव।
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अभिषेचनीय  : वि० [सं० अभि√सिच्+अनीयर्] =अभिषेक्य।
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अभिषेच्य  : वि० =अभिषेक्य।
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अभिषोता (तृ)  : पुं० [सं० अभि√सु+तृच्] दे० ‘अभिषावक’।
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अभिष्यंद  : पुं० [सं० अभि√स्यन्द्(बहना)+घञ्] १. बहने की क्रिया या भाव। स्राव। २. एक रोग जिसमें आँखे लाल हो जाती है। और उनमें से पानी बहता है।
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अभिष्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० अभि√स्यन्द्+णिनि] १. चूने या रसनेवाला। २. दस्त लानेवाला। रेचक।
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अभिसक्त  : वि० [सं० अभि-षक्त] १. जिसके सब अंग इतनी दृढ़ता से मिले हों कि सहसा या सहज में अलग न किये जा सकते हों। २. जो किसी से चिमट या सट जाने पर छुड़ाया न जा सके। (टेनेशस)
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अभिसक्ति  : स्त्री० [सं० अभि+षक्ति] अभिसक्ति होने की अवस्था या भाव। (टेनेसिटी)
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अभिसंघ  : पुं० [सं० अभि-सम्√धा(धारण करना)+क] १. धोखा देनेवाला। २. ईर्ष्या करनेवाला। ३. निंदक।
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अभिसंदोह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अदला-बदला। परिवर्तन। २. पुरुष की जननेंद्रिय। लिंग।
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अभिसंधक  : वि० [सं० अभिसंधायक] अभिसंधि करनेवाला।
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अभिसंधान  : पुं० [सं० अभि-सम्√धा+ल्युट्-अन] १. धोखा। जाल। २. प्रयत्न का उद्देश्य या लक्ष्य।
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अभिसंधि  : स्त्री० [सं० अभि-सम्√धा+कि] [वि० अभिसंधित] १. कई बातों या वस्तुओं का एक स्थान पर आकर मिलना। २. किसी को कष्ट पहुँचाने, धोखा देने, उपद्रव खड़ा करने आदि के लिए कई व्यक्तियों का आपस में परामर्श करके कोई कुचक्र रचना या योजना बनाना। दुरभिसंधि। षड्यंत्र। (कॉन्सपिरेसी)
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अभिसंधिता  : स्त्री० [सं० अभिसंधि+णिच्+क्त-टाप्] =कलहांतरिता नायिका।
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अभिसंपात  : पुं० [सं० अभि-सम्√पत्(गिरना)+घञ्] १. लड़ाई-झगड़ा। संघर्ष। २. पतन।
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अभिसमय  : पुं० [सं० अभि-सम्√इ(गति)+अच्] [वि० अभिसामयिक] १. आपस में होनेवाला किसी प्रकार का निश्चय या समझौता। २. बौद्ध दर्शन में धर्म के प्रति रुचि और उसका ज्ञान। ३. दो या दो से अधिक राष्ट्रों या राज्यों के पारस्परिक समान हित या व्यवहार से संबंध रखनेवाले विषयों पर उनमें आपस में होने वाला वह समझौता, जिसका पालन उन सब के लिए समान रूप से विधि या विधान के रूप में आवश्यक होता है। जैसे—डाक विभाग का युद्ध संचालन संबंधी अभिसमय। ४. परस्पर युद्ध करनेवाले राष्ट्रों के सैनिक अधिकारियों का युद्ध स्थगित करने अथवा इसी प्रकार की दूसरी बातों के संबंध में होनेवाला समझौता जिसका पालन सभी पक्षों के लिए आवश्यक होता है। ५. किसी प्रथा या परपाटी के मूल में रहनेवाला सब लोगों का वह समझौता या सहमति जिसे मानक रूप में मानना सब के लिए आवश्यक होता है। जैसे—कला, काव्य या संविधान संबंधी अभिसमय। ६. उक्त प्रकार की बातें निश्चित करने के लिए आधिकारिक रूप से होनेवाला कोई सम्मेलन या सभा (कन्वेन्शन उक्त सभी अर्थों के लिए) ७. दे० ‘रूढ़ि’।
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अभिसम्मत  : वि० [सं० प्रा० स०] प्रतिष्ठित। सम्मानित।
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अभिसंयोग  : पुं० [सं० अभि-सम्√युज्(जोड़ना)+घञ्] बहुत निकट का संबंध या लगाव।
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अभिसर  : पुं० [सं० अभि√सृ(गति)+ट] १. सखा या सहचर। २. सहायक। ३. अनुचर। दास।
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अभिसरण  : पुं० [सं० अभि√सृ+ल्युट्-अन] १. किसी बिन्दु या स्थान की ओर आगे बढ़ना या उस तक पहुँचना। (कानवर्जेस) २. किसी से मिलने के लिए उसकी ओर आगे बढ़ना या उसके पास जाना। ३. शरण। ४. सहारा।
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अभिसरना  : अ० [सं० अभिसरण] १. कहीं पहुँचने के लिए आगे बढ़ना या चलना। २. नायक या नायिका का अपने प्रिय से मिलने के लिए संकेत स्थल की ओर जाना।
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अभिसर्ग  : पुं० [सं० अभि√सृज्(रचना)+घञ्] १. निर्माण। रचना। २. सृष्टि।
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अभिसर्जन  : पुं० [सं० अभि√सृज्+ल्युट्-अन] १. दान। २. वध।
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अभिसर्ता (तृ)  : पुं० [सं० अभि√सृ(गति)+तृच्] आक्रमण करनेवाला। आक्रामक।
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अभिसंस्कार  : पुं० [सं० अभि-सम्√कृ(करना)+घञ्] १. अभिवृद्धि। २. विचार या भावना। (बौद्ध)
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अभिसाधक  : पुं० दे० ‘अभिकर्त्ता’।
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अभिसाधन  : पुं० दे० ‘अभिकरण’।
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अभिसामयिक  : वि० [सं० आभिसमयिक] १. अभिसमय या समझौते से संबंध रखनेवाला। २. जो किसी चली आई हुई प्रथा या परिपाटी के अनुसार ठीक और मानक माना जाता हो। रूढ़ (कन्वेन्शनल)
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अभिसार  : पुं० [सं० अभि√सृ(गति)+घञ्] १. किसी ओर आगे बढ़ना। २. किसी से मिलने के लिए उसकी ओर जाना। अभिसरण। ३. साहित्य में वह स्थान जहाँ प्रेमी और प्रेमिका गुप्तरूप से पहुँचकर मिलतें है। ४. मेल। मिलाप। उदाहरण—मुखरित था कलरव, गीतों में स्वर लय का होता अभिसार।—प्रसाद। ५. आक्रमण। ६. युद्ध। ७. अनुचर। अनुयायी। ८. सहारा। ९. बल। शक्ति। १. आधुनिक पुंछ और रजौड़ी के आसपास के प्रदेश का पुराना नाम।
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अभिसारक  : वि० [सं० अभि√सृ+ण्वुल्-अक] [स्त्री० अभिसारिका] मिलने के उद्देश्य से किसी के पास जाना। पुं० नायिका से मिलने के लिए गुप्तरूप से संकेत-स्थल पर जानेवाला नायक।
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अभिसारना  : अ० =अभिसरना। स० किसी को कहीं भेजना।
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अभिसारिका  : स्त्री० [अभि√सृ+णिच्+ण्युल्-अक-टाप्, इत्व] नायक से मिलने के लिए गुप्त संकेत-स्थल की ओर जानेवाली नायिका। (साहित्य)
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अभिसारिणी  : स्त्री० [सं० अभि√सृ+णिच+णिनि-ङीष्] १. अभिसरण करने वाली स्त्री। अभि-सारिका। अभिसारिका। २. साथ रहनेवाली स्त्री। ३. अनुचरी। दासी।
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अभिसारी (रिन्)  : वि० [सं० अभि√सृ+णिनि] [स्त्री० अभिसारिणी] १. किसी बिन्दु या स्थान की ओर बढ़ने या उस तक पहुँचनेवाला। अभिसरण करनेवाला। (कानवर्डिग) २. किसी से मिलने के लिए उसकी ओर जानेवाला या उसके पास पहुँचनेवाला। ३. कार्य में सहायता देनेवाला। सहायक। पुं० वह नायक जो नायिका से मिलने के लिए संकेत-स्थल की ओर जा रहा हो।
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अभिसूचन  : स्त्री० [सं० अभि√सूच्+णिच्+ल्युट्-अन] १. कोई कार्य करने के लिए विशेष रूप से दी जानेवाली सूचना या आदेश। (एडवाइस) २. दे० ‘अधिसूचन’।
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अभिसेख  : पुं० =अभिषेक।
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अभिस्ताव  : पुं० [सं० अभि√स्तु(स्तुति करना)+घञ्] १. प्रशंसा। स्तुति। २. किसी विषय के औचित्य का समर्थन या किसी व्यक्ति की कुछ प्रशंसा इस उद्देश्य से करना कि अन्य कोई उसे ठीक मानकर उसका उचित उपयोग कर सके। (रिकमेन्डेशन)
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अभिस्थगित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो किसी विशिष्ट कारण या विचार से या कोई शर्त पूरी होने तक के लिए रोक रखा गया हो। (डेफर्ड)
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अभिस्रावण  : पुं० [सं० अभि√स्रु(बहना)+णिच्+ल्युट्-अन] दे० ‘आसवन’।
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अभिस्रावणी  : स्त्री० [सं० अभिस्रावण+ङीष्] दे० =आसवनी।
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अभिहत  : वि० [सं० अभि√हन्(हिंसा)+क्त] १. जिसका अभिघात हुआ हो या किया गया हो। २. मारा-पीटा या दबाया हुआ। ३. गुणन किया हुआ। गुणित।
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अभिहति  : स्त्री० [सं० अभि√हन्+क्तिन्] १. निशाना लगाना। २. मारना। ३. गुणनक्रिया। ४. गुणनफल।
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अभिहर  : वि० [सं० अभि√इ(हरण करना)+अच्] उठा या चुरा ले जानेवाला। पुं० दे० ‘अभिहरण’।
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अभिहरण  : पुं० [सं० अभि√हृ+ल्युट्-अन] १. उठा या छीन ले जानेवाला। २. लूटना। ३. दे० ‘अपनयन’।
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अभिहर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० अभि√हृ+तृच्] अभिहरण करनेवाला।
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अभिहस्तांकन  : पुं० [सं० अभि-हस्त, प्रा० स०, अभिहस्त-अंकन,० त० त०] दे० ‘अभ्यर्पण’।
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अभिहार  : पुं० [सं० अभि√हृ+घञ्] १. उठाने, हटाने या चुराने की क्रिया या भाव। २. अपनयन।
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अभिहास  : पुं० [सं० अभि√हस् (हँसना)+घञ्] जोर की या बहुत अधिक हँसी। अट्टाहस।
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अभिहित  : वि० [सं० अभि√धा(धारण, पोषण)+क्त] १. अभिधा, उल्लेख, कथन, आदि के रूप में आया या लाया हुआ। २. उल्लिखित। कथित। ३. किसी विशिष्ट नाम से प्रसिद्ध या संबोधित। ४. जो वास्तविक नहीं, बल्कि कहने भर को हो। नाम मात्र का। (नाँमिनल) जैसे—अभिहित पूँजी, अभिहित भाड़ा। पुं० १. नाम। २. शब्द।
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अभिहित-संधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] ऐसी संधि जिसकी लिखा-पढ़ी न हुई हो। मौखिक निश्चय या संधि। (कौटिल्य)।
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अभिहिति  : स्त्री० [सं० अभि√घञ्+क्तिन्] अभिहित होने की अवस्था या भाव।
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अभिहूति  : स्त्री० [सं० अभि√ह्रे(शब्द)+क्तिन्] १. आवाहन करने, बुलाने अथवा पुकारने की क्रिया या भाव। २. पूजन।
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अभिहोम  : पुं० [सं० प्रा० स०] यज्ञ में आहुति देना। होम करना।
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अभी  : अव्य० [हिं० अब+ही] एक काल वाचक अव्यय जिसका प्रयोग वर्तमान कालिक प्रसंगों के सिवा कभी-कभी भूत कालिक और भविष्य-त्कालिक प्रसंगों में भी नीचे लिखे अर्थों में होता है-१. ठीक इस या वर्त्तमान क्षण में। इसी समय। तुरंत। जैसे—(क) अभी चले जाओ। (ख) अभी पत्र लिखो। २. प्रस्तुत क्षणों या समय में। इस समय। इस वक्त। जैसे—(क) अभी १२ बजे हैं। (ख) अभी धैर्य से काम लो। ३. प्रस्तुत या वर्त्तमान दिनों में। जो समय बीत रहा है उसमें। आज-कल। इन दिनों। जैसे—(क) अभी वहीं पुराना नियम चल रहा है। (ख) अभी गरमी के दिन है। ४. किसी बीते हुए समय में या उसके किसी उदिष्ट अथवा कल्पित अंश में। इस समय। जैसे—अभी वह सोकर ही उठा था कि उसके कुछ मित्र आ पहुँचे। ५. बीते हुए काल, मान या समय के संबंध में सूचित करने के लिए, अधिक नहीं। जैसे—(क) अभी वह चार ही वर्ष का था कि उसके पिता का देहान्त हो गया। (ख) यह तो अभी कल (अर्थात् बहुत थोड़े दिनों) की बात है। ६. प्रस्तुत या वर्त्तमान समय से आरम्भ करते हुए। इस समय से लेकर, भविष्य में। जैसे—(क) अभी इस काम में दो महीने और लगेंगे। (ख) अभी भोजन में आध घंटे की देर है। ७. किसी भावी घटना या बात के संबंध में केवल जोर देने के लिए। जैसे—(क) अभी परसों वे फिर आने को हैं। (ख) ग्रहण अभी माघ में लगेगा।
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अभीक  : वि० [सं० अभि+कन्,दीर्घ] १. इच्छुक या उत्सुक। २. कामातुर या कामुक। ३. निर्भय। निर्भीक। ४. भयानक। पुं० [अभि+कन्] १. मालिक। स्वामी। २. प्रेमी। ३. कवि।
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अभीत  : वि० [सं० न० त०] १. जो भीत या डरा हुआ न हो। २. निडर। निर्भय।
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अभीति  : वि० [सं० न० ब०] निर्भीक। स्त्री० [सं० न० त०] डर, भय या भीति न होने की अवस्था या भाव। निर्भीकता।
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अभीप्सक  : वि० [सं० अभि√आप्+सन्+ण्वुल्-अक] अभीप्सा करनेवाला।
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अभीप्सा  : स्त्री० [सं० अभि√आप्(प्राप्ति)+सन्+अ-टाप्] कुछ प्राप्त करने, किसी अवस्था में पहुँचने अथवा किसी से संपर्क स्थापित करने की उत्कृष्ट तथा प्रबल इच्छा। (एमबीशन)
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अभीप्सित  : भू० कृ० [सं० अभि√आप्+सन्+क्त] जिसकी अभीप्सा की गई हो। चाहा हुआ। पुं० =अभीप्सा।
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अभीप्सी (प्सिन्)  : वि० [सं० अभीप्सा+इनि] अभीप्सा (अभिलाषा) या इच्छा करनेवाला। चाहनेवाला।
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अभीप्सु  : वि० [सं० अभि√आप्+सन्+उ] =अभीप्सी।
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अभीर  : पुं० [सं० अभि√ईर्(प्रेरणा)+अच्] १. अहीर। ग्वाला। २. एक प्रकार का छंद जिसमें चार चरण और प्रत्येक चरण में ११ मात्राएं होती हैं और अंत में जगण(।ऽ।) होता है।
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अभीरी  : स्त्री० [सं० अमीर+ङीष्] अहीरों की बोली।
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अभीरु  : वि० [सं० न० त०] १. जो भीरु या डरपोक न हो। २. निर्भय। निर्भीक। पुं० १. शिव। २. भैरव। ३. युद्धभूमि।
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अभील  : पुं० [सं० अभि√ईर् (गति)+अच्,र,को,ल]१. कठिनता।२. कष्ट। संकट। ३. भयावना दृश्य।
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अभीष्ट  : वि० [सं० अभि√इष्(चाहना)+क्त] १. जो विशेष रूप से इष्ट हो। २. जो इष्ट होने के योग्य हो। जिसकी इच्छा या कामना की जाए। प्रिय या रुचिकर। जैसे—इस समय उनका यहाँ आना किसी को अभीष्ट नहीं है। पुं० १. वह (कार्य या पदार्थ) जो चाहा गया हो। २. एक अलंकार जिसमें अपने इष्ट की सिद्धि दूसरे के कार्य द्वारा होने का उल्लेख होता है।
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अभीष्ट-सिद्धि  : स्त्री० [ष० त०] इष्ट की प्राप्ति होना या मन-मानी बात पूरी होना।
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अभीष्टा  : स्त्री० [सं० अभीष्ट+टाप्] १. प्रेमिका। २. गृह-स्वामिनी। ३. तांबूल। पान।
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अभीष्टि  : स्त्री० [सं० अभि√इष्+क्तिन्] अभीष्ट पदार्थ, बात या विचार।
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अंभु  : पुं०=अंबु।
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अभुआना  : अ० [हिं० अभू अभू से अनु०] हाऊ-हाऊ करते हुए बार-बार हाथ पैर पटकना तथा सिर हिलाना, जिससे सिर पर भूत आना समझा जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अभुक्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो खाया न गया हो। २. जो भोगा न गया हो। ३. जो प्रयोग या व्यवहार में न लाया गया हो। ४. जो (चेक या देयादेश) भुनाया न गया हो।
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अभुक्त-पूर्व  : वि० [सं० भुक्त-पूर्व, महसुपा समास, न-भुक्तपूर्व, न० त०] जिसका पहले कभी भोग, उपयोग या व्यवहार न किया गया हो।
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अभुक्त-मूल  : पुं० [सं० कर्म० स०] ज्येष्ठा नक्षत्र के अंत की दो घड़ियाँ और मूल नक्षत्र के आदि की दो घड़ियाँ जिन्हें गंडाल भी कहते हैं। (ज्यो०)
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अभुग्न  : वि० [सं० न० त०] १. जो झुका हुआ न हो। सीधा। २. नीरोग। स्वस्थ।
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अभुज  : वि० [सं० न० ब०] जिसका भुजाएँ न हो। भुज-रहित।
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अभू  : क्रि० वि० [हिं० अब+हू=भी] =अभी।
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अभूखन  : पुं० =आभूषण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अभूत  : वि० [सं० न० त०] १. जो अस्तित्व में न आया हो। २. जो घटित न हुआ हो। ३. वर्त्तमान। ४. अपूर्व। उदाहरण—निज सपूत की अति-अभूत करतूति निहारत।—रत्ना०।
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अभूत-दोष  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें कभी कोई दोष उत्पन्न न हुआ हो। सर्वथा निर्दोष।
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अभूतपूर्व  : वि० [सं० भूत-पूर्व, सुपसुआ समास, न-भूतपूर्व, न० त०] १. जो या जैसा पहले कभी न हुआ हो। अपूर्व। २. अद्भुत। अनोखा।
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अभूताहरण  : पुं० [सं० अभूत-आहरण, ष० त०] १. ऐसी बात कहना जो कभी हुई ही न हो। २. धोखा देने या छकाने के लिए झूठी बात कहना। ३. नाटक में कपट भरी व्यंग्यपूर्ण बात कहना।
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अभूति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. अस्तित्व में न आने अथवा घटित न होने की अवस्था या भाव। २. धन या शक्ति का भाव। ३. विपत्ति। संकट।
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अभूतोपमा  : स्त्री० [सं० अभूता-उपमा, कर्म० स०] उपमा अलंकार के दस भेदों में से एक, जिसमें चरम उत्कर्ष सिद्ध करने के लिए कहा जाता है कि इसका कोई उपमान ही नही मिलता।
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अभूमि  : स्त्री० [सं० न० त०] १. वह जो भूमि से भिन्न हो। २. अनुचित या अनुपयुक्त स्थान। ३. भूमि या स्थान का अभाव।
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अभूव  : वि० [सं० न० ब०] =अभूषित।
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अभूषित  : वि० [सं० न० त०] १. जो भूषित या सजाया हुआ न हो। अनलंकृत। २. जिसके पास भूषण न हों। भूषणों से रहित।
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अभृत  : वि० =अभृतक।
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अभृतक  : वि० [सं० भृत+कन् न० त०] १. जिसका भरण-पोषण किया गया हो। २. जिसका भाड़ा, वेतन, व्यय आदि न चुकाया गया हो। (अन-पेड) पुं० १. वह जो भृत या दास न हो। २. जिसके पास भृत या नौकर न हो।
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अभृश  : वि० [सं० न० त०] जो अधिक या बहुत न हो, फलतः कम या थोड़ा।
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अभेड़ा  : पुं० दे० ‘अभेरा’।
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अभेद  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कोई भेद न हो। २. जिसके भेद या विभाग न हुए हों। ३. जिसका आकार या रूप किसी के अनुरूप, समान या मिलता-जुलता हो। पुं० [न० त०] १. भेद का न होना। भेद का अभाव। अभिन्नता। २. अनुरूपता, एकरूपता। समानता। ३. साहित्य में, रूपक अलंकार का एक भेद जिसमें उपमेय या उपमान का ज्यों का त्यों और बिना कुछ घटाये-बढ़ाये आरोप किया जाता है। वि० दे० ‘अभेद्य’।
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अभेदनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका भेदन या छेदन न हो सके। २. जिसके विभाग न हो सके। ३. (भेद या रहस्य) जिसका जल्दी पता न चल सके।
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अभेदवादी (दिन्)  : [सं० अभद्√वद्(बोलना)+णिनि] वह जो जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद न मानता हो। अद्वैतवादी।
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अभेद्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका भेदन, छेदन या विभाग न हो सके। २. जिसका भेदन, छेदन या विभाग करना उचित या उपयुक्त न हो।
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अभेय  : पुं० =अभेरा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभेर  : पुं० =अभेरा।
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अभेरना  : स० [सं० अभेद] १. भेद दूर करना। २. मिश्रित करना। मिलाना। ३. अनुरक्त या प्रवृत्त करना। उदाहरण—जपहु बुद्धि के पुइसन फेरहु। दही चूर अस दिया अभेरयु।—जायसी।
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अभेरा  : पुं० [हिं० अ+सं० भिद या अनु० भड] १. आघात। धक्का। उदाहरण—मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुःख झकझोरा।—तुलसी। २. टक्कर। भिड़त। मुठ-भेड़।
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अभेव  : पुं० [सं० अभेद] अभेद। अभिन्नता। एकता। वि० भेद-रहित। अभिन्न। एक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभै  : वि० पुं० दे० ‘अभय’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभैदिक  : वि० [सं० न० त०]=अभेद्य।
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अभैर  : पुं० [?] वह लकड़ी जिसमें डोरी बाँधकर करघे की कंघियाँ लटकाई जाती हैं। कलवाँसा। दढ़ेरी।
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अभोक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० न० त०] उपभोग या उपयोग न करनेवाला।
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अभोखण  : पुं० =आभूषण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अभोग  : वि० [सं० न० ब०] १. बिना भोगा हुआ। जो प्रयोग या व्यवहार में न लाया गया हो। २. अछूता। वि०=अभोग्य।
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अभोगी (गिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. भोग अर्थात् उपभोग या उपयोग न करनेवाला। प्रयोग या व्यवहार न करनेवाला। २. सांसारिक वस्तुओं या सुखों का भोग न करनेवाला। उदासीन। विरक्त।
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अभोग्य  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अभोग्या] १. (वस्तु) जो भोग करने के उपयुक्त या योग्य न हो। २. जिसे भोगना अनुचित या वर्जित हो।
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अंभोज  : वि० [सं० अंभस्√जन् (उत्पन्न होना) +ड] जल में या जल से उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. कमल। २. कपू। ३. शंख। ४. चन्द्रमा। ५. सारस पक्षी।
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अभोज  : वि० [सं० अभोज्य] न खाने योग्य। अभक्ष्य। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अंभोज-जन्मा-(न्मन्)  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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अंभोज-योनि  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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अभोजन  : पुं० [सं० न० त०] १. भोजन का अभाव। २. भोजन न करने अर्थात् भूखे रहने का भाव।
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अभोजन-ग्राही (हिन्)  : वि० [सं० भोजन√ग्रह(ग्रहण करना)+णिनि, न० त०] जो भोजन न ग्रहण करता हो, अथवा जिसे भोजन देकर न रखा जाता हो। भोजन-ग्राही का विपर्याय। (नान-डाइटेड) विशेष दे० ‘भोजन-ग्राही’।
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अंभोजिनि  : स्त्री० [सं० अंभोज+इनि-डीप्] १. कमलिनि। २. कमलों का समूह।
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अभोज्य  : वि० [सं० न० त०] १. (पदार्थ) जो खाने के उपयुक्त या योग्य न हो। २. जिसे खाना निषिद्ध या वर्जित हो।
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अंभोद  : वि० [सं० अंभस्√ दा (देना) +क] पानी देने वाला। पुं० १. बादल, मेघ। २. नागरमोथा।
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अंभोधर  : पुं० [सं० अंभस्√ धृ (धारण) +अच्] १. बादल। २. नागरमोथा।
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अंभोधि  : पुं० [सं० अंभस् धा (धारण) +कि] समुद्र। सागर।
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अंभोनिधि  : पुं० [सं० अंभस्-निधि, ष० त०] समुद्र।
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अंभोराशि  : पुं० [सं० अंभस्-राशि, ष० त०] समुद्र।
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अंभोरुह  : पुं० [सं० अंभस्√रुह् (उत्पन्न होना) +क] १. कमल। २. सारस।
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अभौतिक  : वि० [सं० न० त०] जो भौतिक न हो।
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अभौम  : वि० [सं० न० त०] जो भूमि से उत्पन्न न हो। अपार्थिव।
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अंभौरी  : स्त्री०=अम्हौरी।
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अभ्यक्त  : वि० [सं० अभि√अञ्ज्+क्त] १. (तैल आदि) पोते या लगाये हुए। २. सजा हुआ। अलंकृत। सुसज्जित।
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अभ्यंग  : पुं० [सं० अभि√अञ्ज्(मिलाना)+घञ्, कुत्व] [वि० अभ्यक्त, अभ्यंजनीय] १. पोतना या लेपना। २. सारे शरीर में तेल की मालिश करना।
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अभ्यंजन  : पुं० [सं० अभि√अञ्ज्+ल्युट्-अन] १. अंगो को सँवारने-सजाने का काम। २. अंगों को सजाने की सामग्री। प्रसाधन-सामग्री। (टॉयलेट)
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अभ्यंजनीय  : वि० [सं० अभि√अञ्ज्+अनीयर] १. पोतने या लगाने योग्य। २. तेल या उबटन लगाये जाने के योग्य।
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अभ्यंतर  : पुं० [सं० अभि-अन्तर, प्रा० स०] [वि० आभ्यंतरिक] १. अंदर या बीच का स्थान। २. मध्य। बीच। ३.हृदय। अव्य० अंदर। भीतर।
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अभ्यंतरक  : पुं० [सं० अत्या० स०+कन्] घनिष्ठ मित्र।
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अभ्यधीन  : वि० [सं० अभि-अधीन, प्रा० स०] १. जो किसी की अधीनता, नियंत्रण या प्रभाव में न हो। २. जो किसी नियम, आदि से बँधा हुआ हो। ३. दे० ‘अधीन’।
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अभ्यमन  : पुं० [सं० अभि√अम् (गतिआदि)+ल्युट्-अन] १. आक्रमण। २. आघात। चोट। ३. रोग।
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अभ्यर्चन  : पुं० [सं० अभि√अर्च् (पूजा)+ल्युट्-अन] आराधना या पूजन करने की क्रिया या भाव।
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अभ्यर्चना  : स्त्री० [सं० अभि√अर्च्+युच्-अन-टाप्] =अभ्यर्चन।
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अभ्यर्थन  : पुं० [सं० अभि√अर्थ् (याचना)+ल्युट्-अन] १. अपनी आवश्यकता, अधिकार या स्वत्व जतलाते हुए किसी से कुछ माँगना या किसी काम के लिए जोर देकर कहना। माँग। (डिमांड) २. किसी से अपना प्राप्य धन या पदार्थ माँगना। ३. दे० ‘अभ्यर्थना’।
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अभ्यर्थना  : स्त्री० [सं० अभि√अर्थ (याचना)+णिच्+युच्-अन-टाप्] [वि० अभ्यर्थनीय, अभ्यर्थित] १. किसी के सम्मुख दीनता तथा विनयपूर्वक की जानेवाली प्रार्थना। २. आगे बढ़कर लेने योग्य। स्वागत करने योग्य। ३. (विषय) जिसके लिए अभ्यर्थन (या माँग) की जा सके या की जाने को हो।
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अभ्यर्थित  : भू० कृ० [सं० अभि√अर्थ+णिच्+क्त] १. (व्यक्ति) जिससे अभ्यर्थना की गई हो। २. (पदार्थ) जिसके लिए अभ्यर्थन किया गया हो।
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अभ्यर्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० अभि√अर्थ+णिनि] १. अभ्यर्थन करनेवाला। २. अभ्यर्थना करनेवाला। (केन्डीडेट)
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अभ्यर्दन  : पुं० [सं० अभि√अर्द (हिंसा)+णिच्+ल्युट्-अन] कष्ट देने या पीड़ा पहुँचाने की क्रिया या भाव। सताना।
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अभ्यर्दित  : भू० कृ० [सं० अभि√अर्द+णिच्+क्त] जिसे कष्ट दिया गया हो। सताया हुआ। उत्पीड़ित।
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अभ्यर्पक  : वि० [सं० अभि√ऋ(गति)+णिच्, पुक्+ण्वुल्-अक] अभ्यर्पण करने अर्थात् अपना स्वामित्व अथवा अधिकार किसी दूसरे को देने या सौपने वाला। (असाइनर)
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अभ्यर्पण  : पुं० [सं० अभि√ऋ+णिच्,पुक्+ल्वुट्-अन] [भू० कृ० अभ्यर्पित, कर्त्ता अभ्यर्पक] अपना स्वामित्व अथवा अधिकार किसी को देने या सौपने की क्रिया या भाव। (असाइनमेन्ट)
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अभ्यर्पणग्राही (हिन्)  : पुं० [सं० अभ्यर्पण√ग्रह+णिनि] दे० ‘अभ्यर्पिती’।
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अभ्यर्पित  : भू० कृ० [सं० अभि√ऋ+णिच्+पुक्+क्त] (अधिकार या स्वामित्व) जो किसी को दिया या सौंपा गया हो। (असाइन्ड)
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अभ्यर्पिती (तिन्)  : पुं० [सं० अभ्यर्पित+इनि] वह जिसे अधिकार या स्वामित्व दे या सौंप दिया गया हो। (एसाइनी)
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अभ्यंश  : पुं० =यथांश।
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अभ्यसन  : पुं० [सं० अभि√अस् (क्षेप)+ल्युट्-अन] अभ्यास, अनुशीलन या चिंतन करना।
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अभ्यसनीय  : वि० [सं० अभि√अस्+अनीयर] अभ्यास, चिंतन या मनन किये जाने के योग्य (विषय)।
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अभ्यसित  : वि० [सं० अभ्यस्त] १. जिसने भली प्रकार अभ्यास किया हो। अभ्यस्त। २. (विषय) जिसका अच्छी तरह अभ्यास किया गया हो।
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अभ्यस्त  : वि० [सं० अभि√अस् (क्षेप)+क्त] १. जिसने किसी काम या बात का अच्छा अभ्यास किया हो। दक्ष। निपुण। २. (विषय) जिसका अभ्यास किया गया हो।
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अभ्याकर्ष  : पुं० [सं० अभि-आ√कृष् (खींचना)+घञ्] ताल ठोंककर (मल्ल-युद्ध या लड़ने के लिए) किसी को ललकारना।
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अभ्याख्यान  : पुं० [सं० अभि-आ√ख्या (कहना)+ल्युट्-अन] झूठा या निराधार अभियोग।
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अभ्यागत  : वि० [सं० अभि-आ√गम् (जाना)+क्त] १. सामने आया हुआ। पुं० १. वह जो कहीं से चलकर आया हो। २. अतिथि। ३. साधु, संन्यासी आदि।
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अभ्यागम  : पुं० [सं० अभि-आ√गम्+अप्] १. सामने आना। उपस्थिति। २. समीपता। ३.सामना। मुकाबिला। ४. मुठ-भेड़। ५. युद्ध। ६. विरोध। ७. खड़े होकर की जानेवाली अगवानी। अभ्युत्थान।
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अभ्यागारिक  : वि० [सं० अभ्यागार+ठन्-इक] बाल-बच्चों का पालन-पोषण तथा घर-बार की देखरेख करनेवाला।
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अभ्याघात  : पुं० [सं० अभि-आ√हन् (हिंसा)+घञ्] १. आक्रमण या चढ़ाई करना। २. अवरोध। रुकावट। ३. बाधा। विघ्न।
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अभ्यांत  : वि० [सं० अभि√अम् (रोग)+क्त] १. रूग्ण या रोगी। २. जिसे कोई कष्ट पहुँचा हो। ३. जिसकी कोई हानि हुई हो।
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अभ्याधान  : पुं० [सं० अभि-आ√धा (धारण करना)+ल्युट्-अन] आरंभ या स्थापना करने की क्रिया या भाव।
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अभ्यापात  : पुं० [सं० अभि-आ√पत् (गिरना)+घञ्] १. आपद्। विपत्ति। २. दुर्भाग्य।
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अभ्यास  : पुं० [सं० अभि√अस् (क्षेप)+घञ्] १. कोई काम स्वभाववश निरंतर करते रहने की क्रिया या भाव। आदत। बान। २. किसी कार्य में दक्ष अथवा किसी विषय के विशेषज्ञ होने के लिए उस कार्य या विषय में दत्त-चित्त होकर बार-बार लगे रहना या उसे बार-बार करते रहना। (प्रैक्टिस) ३. किसी कार्य के पूरा होने अथवा उसे पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने से पहले उसकी की जानेवाली आवृत्ति। (प्रैक्टिस) ४. एक प्राचीन काव्यालंकार जिसमें किसी दुष्कर बात को सिद्ध करने वाले कार्य का उल्लेख होता है।
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अभ्यास-कला  : स्त्री० [ष० त०] योग की चार कलाओं में से एक जो विविध योगांगों के मेल से बनती है। आसन और प्राणायाम का मेल।
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अभ्यास-योग  : पुं० [तृ० त०] किसी आत्मा या देवता का बार-बार चिंतन करना या अभ्यास करना जो एक प्रकार का योग माना गया है।
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अभ्यासी (सिन्)  : वि० [सं० अभ्यास+इनि] [स्त्री० अभ्यासिनी] निरंतर अभ्यास करनेवाला।
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अभ्याहत  : वि० [सं० अभि-आ√हन् (हिंसा)+क्त] जिसे आघात या चोट लगी हो फलतः आहत। घायल।
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अभ्याहार  : पुं० [सं० अभि-आ√हृ (हरण करना)+घञ्] १. समीप या सम्मुख लाने की क्रिया या भाव। २. उठाकर ले जाना। चोरी करना।
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अभ्युक्त  : भू० कृ० [सं० अभि-उक्त, प्रा० स०] १. कहा हुआ उच्चरित। २. अभ्युक्ति के रूप में लाया हुआ। ३. घोषित किया हुआ।
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अभ्युक्ति  : स्त्री० [सं० अभि-उक्ति, प्रा० स०] किसी व्यवहार या मुकदमें में वादी का प्रतिवादी पर मौखिक या लिखित रूप से अभियोग या दोष लगाना अथवा अपना पक्ष या तर्क उपस्थित करना। (स्टेटमेन्ट)
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अभ्युचित  : वि० [सं० अभि-उचित, प्रा० स०] १. नियमतः तथा प्रायः होनेवाला। २. व्यावहारिक या प्रचलित। ३. लौकिक।
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अभ्युच्चय  : पुं० [सं० अभि-उद्√चि (इकट्ठा करना)+अच्] उत्कर्ष। उन्नति।
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अभ्युच्छेदन  : पुं० [सं० अभि-उर्दा√छिद्(काटना)+ल्युट्-अन] शल्यकिया द्वारा शरीर का कोई अंग काटकर अलग या पृथक करना। अंगच्छेद। (एम्प्युटेशन)
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अभ्युत्थान  : पुं० [सं० अभि-उद्√स्था(ठहरना)+ल्युट्-अन] १. किसी का स्वागत करने के लिए नम्रतापूर्वक अपने स्थान से उठना। २. ऊँचे पद या सत्ता की प्राप्ति होना। ३. उन्नति, बढ़ती या समृद्धि होना। ४. शासन या सत्ता बदलने के लिए होनेवाला विद्रोह।
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अभ्युत्थित  : भू० कृ० [सं० अभि-उद्√स्था+क्त] १. जो आदर के लिए उठकर खड़ा हो। २. उन्नत। बढ़ा हुआ। ३. समृद्ध।
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अभ्युत्थेय  : वि० [सं० अभि-उद्√स्था+यत्] १. जिसका अभ्युत्थान होने को हो। २. जो अभ्युत्थान का अधिकारी या पात्र हो। ३. जिसके आदर के लिए उठकर खड़े होना उचित हो।
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अभ्युत्यायी (यिन्)  : वि० [सं० अभि-उद्√स्था+णिनि] १. आदर अथवा स्वागत करने के लिए उठकर खड़ा होनेवाला। २. उन्नति करने या आगे बढ़नेवाला। ३. विद्रोही।
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अभ्युदय  : पुं० [सं० अभि-उद्√इ(गति)+अच्] [वि० आभ्युदयिक] १. ऊपर की ओर उठना या चढ़ना। २. चंद्र सूर्य आदि ग्रहों का निकलकर अपने मार्ग पर आगे बढ़ना। ग्रहों आदि का उदय। ३. अस्तित्व में आना या घटित होना। आविर्भाव। उत्पत्ति। ४. कल्याण, सुख, सौभाग्य आदि में होनेवाली वृद्धि। समृद्धि। ५.नये सिरे से होने वाली उन्नति। ६. मनोरथ की प्राप्ति या सिद्धि। ७. कोई मांगलिक अवसर या उत्सव। ८. घर में संतान उत्पन्न होने पर किया जानेवाला श्राद्ध।
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अभ्युदाहरण  : पुं० [सं० अभि-उद्-आ√ह्र(हरण करना)+ल्युट्-अन] किसी घटना या तथ्य को विपरीत बात के आधार पर दिया जानेवाला उदाहरण या दृष्टांत।
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अभ्युदित  : बू० कृ० [सं० अभि-उद्√इ+क्त] १. उगा या निकला हुआ। २. उत्पन्न। प्रादुर्भाव। ३. उन्नत। ४. संपन्न। ५. समृद्ध। ६. कहा हुआ। कथित। पुं० १. सूर्योदय। २. उदगम। ३. वह जो बहुत दिन चढ़े तक सोया रहता हो।
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अभ्युपगत  : भू० कृ० [सं० अभि-उप√गम्(जाना)+क्त] १. निकट आया या पहुँचा हुआ। प्राप्त। २. अंगीकृत या स्वीकृत किया हुआ।
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अभ्युपगम  : भू० कृ० [सं० अभि-उप√गम्+अप्] १. सामने आना। उपस्थित होना। २. प्राप्त होना। ३. स्वीकृत करना या स्वीकृत देना। ४. सहमत होना। ५. तर्क में पहले कोई सिद्ध या असिद्ध बात मानकर तब उसकी सत्यता की जाँच करना और उससे निष्कर्ष या परिणाम निकालना। (डिडक्शन)
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अभ्युपपत्ति  : स्त्री० [सं० अभि-उप√पद्(गति)+क्तिन्] १. किसी को रक्षा, सहायता या सुरक्षा के लिए उसके पास जाना। २. कृपा। अनुग्रह। ३. स्वीकृति। सहमति। ४. विश्वास। नियम।
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अभ्यूष  : पुं० [सं० अभि√उष(दाह)+घञ्] अग्नि में जलने की क्रिया या भाव।
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अभ्यूह  : पुं० [सं० अभि√ऊह(वितर्क)+घञ्] १. तर्क-वितर्क। २. निष्कर्ष या फल।
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अभ्र  : पुं० [सं० √अभ्र(गति)+अच्,प्रा० अब्भ, गुं० आभ, हिं० अभाल, सिं० अबु० का० अबुर, सिंह० अष, मराठी० आभ] १. मेघ। बादल। २. आकाश। ३. अबरक। ४. सोना। ५. शून्य। (गणित) ६. कपूर। ७. नागरमोथा।
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अभ्र-गंगा  : स्त्री० [ष० त०] आकाश-गंगा।
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अभ्र-पिशाच  : पुं० [स० त०] राहु।
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अभ्र-पुष्प  : पुं० [ष० त०] १. एक प्रकार का बेंत। २. पानी। ३. अनहोनी या असंभव बात।
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अभ्र-भांसी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] जटामासी।
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अभ्र-मासंग  : पुं० [ष० त०] ऐरावत।
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अभ्रक  : पुं० [सं० √अभ्र+क्वन्-अक] १. राहु ग्रह। २. दे० ‘अबरक’। (धातु)।
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अभ्रंकष  : वि० [सं० अभ्र√कष्(हिंसा)+खच्,मुम्] आकाश को छूनेवाला। गगन-चुंबी। उदाहरण—अभ्रंकष, प्रासाद और ये महल हमारे।—मैथिलीशरण। पुं० १. वह अट्टालिका या भवन जो आकाश को छूता हुआ जान पड़े। (स्काई स्क्रेपर) २. पहाड़। ३. वायु।
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अभ्रनाग  : पुं० [ष० त०] ऐरावत।
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अभ्रपटी  : स्त्री० [ष० त० ङीष्] आकाश। आसमान।
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अभ्रभेदी (दिन्)  : वि० [सं० अभ्र√भिद्(विदारण)+णिनि] इतना ऊँचा कि आकाश तक पहुँचता हो। गगन-चुंबी।
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अभ्रम  : वि० [सं० न० ब०] जिसे भ्रम न हो। पुं० [सं० न० त०] भ्रम का अभाव।
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अभ्रमु  : स्त्री० [सं० ] १. पूर्व के दिग्गजों की पत्नी। २. इंद्र के हाथी ऐरावत की पत्नी।
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अभ्ररोह  : पुं० [सं० अभ्र√रूह्(उत्पन्न होना)+अच्] वैदूर्यमणि।
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अभ्रंलिह  : वि० [सं० अभ्र√लिह्(स्वाद लेना)+खश्, मुम्] आकाश को छूनेवाला, अर्थात् बहुत ऊँचा। पुं० वायु।
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अभ्रांत  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिसे किसी प्रकार की भ्रांति न हो। २. (बात) जिसमें या जिसके संबंध में किसी प्रकार की भ्रांति या भ्रम न हो।
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अभ्रांति  : स्त्री० [सं० न० त०] भ्रांति न होने की अवस्था या भाव। भ्रम-हीनता।
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अभ्रातृव्य  : वि० [सं० न० ब०] जिसका कोई प्रतिद्वंद्वी या प्रतिस्पर्धी न हो।
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अभ्रावकाशिक  : वि० [सं० अभ्रावकाश, कर्म० स० ठन्-इक] जिसका आवरण केवल आकाश हो, अर्थात् दिगंबर।
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अभ्रावकाशी (शिन्)  : वि० [सं० अभ्रावकाश+इनि] =अभ्रावकाशिक।
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अभ्रित  : वि० [सं० अभ्र+इतच्] अभ्र या बादलों से घिरा हुआ। मेघाच्छन्न।
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अभ्रिम  : वि० [सं० अभ्र+घ-इय] बादलों में या बादलों से होनेवाला। अभ्र-संबंधी। पुं० बिजली।
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अभ्रोत्थ  : पुं० [सं० अभ्र-उद्√स्था (ठहरना)+क] वज्र।
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अम  : पुं० [सं०√अम् (रोग)+घञ्] १. बीमारी का कारण। २. बीमारी। रोग।
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अमका  : वि० =अमुक।
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अमंगल  : वि० [सं० न० त०] जो मंगलकारक या शुभ न हो। जो कल्याण करनेवाला न हो। पुं० मंगल या कल्याण का अभाव। अहित। खराबी।
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अमंगल्य  : पुं० [सं० न० त०]=अमंगल।
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अमग्गी  : वि० [सं० अमार्गी] अनुचित या बुरे मार्ग पर चलनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमग्न  : पुं० [सं० अमार्ग] अनुचित या बुरा रास्ता। कुमार्ग।
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अमचूर  : पुं० [हिं० आम+चूर] कच्चे आम के टुकड़ों को सुखाकर तथा उन्हें पीसकर बनाया हुआ चूर्ण जो दाल तरकारी आदि में डाला जाता है।
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अमज्जक  : वि० [सं० न० ब० कप्] जिसमें मज्जा (अर्थात् हड्डी के अंदर का गूदा) न हो।
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अमंड  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें माँड न हो। २. जिसका मंडन न हुआ हो। बिना सजाया हुआ। पुं० एरंड का वृक्ष।
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अमड़ा  : पुं० [सं० आभ्रात, पा० अंबाड़] १. एक पेड़ जिसके छोटे किन्तु खट्टे फल चटनी और अचार के काम आते हैं। २. उक्त वृक्ष का फल।
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अमंत  : वि०=अमित। उदाहरण—राजन रक्खिय सब्ब इह, बाढ़िय प्रीत अमंत।—चंदबरदाई।
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अमत  : वि० [सं० न० त] १. जिसका अनुभव न हो सके या न हुआ हो। अननुभूत। २. अमान्य। ३. अस्वीकृत। ४. अज्ञात। पुं० मत या सहमति न होना। पुं० [√अम्+अतच्] १. रोग। २. मृत्यु। ३. धूलि-कण। ४. काल। समय।
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अमति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. मति अर्थात् ज्ञान का अभाव। अज्ञानता। २. सहमत न होना। असंगति। ३. चमक। दीप्ति।
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अमत्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो मत्त अथवा नशे में न हो। मद-रहित। २. जिसे मद या घमंड न हो। ३. सावधान। पुं० [सं० अ-मात्रिक] ऐसी कविता या वाक्य रचना जिसमें मात्राओं का प्रयोग न किया जाए। जैसे—अमल-कमल बर बदन सदन जस हरन मद मदन-दहन हर।
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अमंत्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जो वैदिक मंत्रों का जाननेवाला या ज्ञाता न हो। २. वैदिक मंत्रों की उपेक्षा करनेवाला। पुं० १. मंत्र का अभाव। २. ऐसे कर्म जिनमें मंत्र आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती।
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अमंत्रक  : वि०=अमंत्र।
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अमंद  : वि० [सं० न० त०] १. जो मंद, धीमा या सुस्त न हो। २. उत्तम। श्रेष्ठ। ३. अच्छा। भला। ४. सुंदर। ५. उद्योगी। प्रयत्नशील। ६. प्रकाशवान्। पुं० पेड़। वृक्ष।
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अमद  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे मद या अभिमान न हो। मद-रहित। २. जो प्रसन्न न हो। दुःखी। ३. विकल। बेचैन। ४. गंभीर। पुं० [अ०] संकल्प। विचार।
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अमन  : वि० [सं० अमनस्] १. जिसे अनुभूति, ज्ञान अथवा वृद्धि न हो। २. जिसका मन किसी काम में न लगे। पुं० [अ०] १. सुख और शांति। पद—अमन-अमान=देश और समाज की सुव्यवस्था जिसमें सब लोग सुख और शांति से रहते हों। २. आराम। चैन। पद—अमन-चैन=वैयक्तिक जीवन में होनेवाला सुख और निश्चिंतता। ३. बचाव। रक्षा।
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अमनस्क  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. मन की चंचलता या इच्छा से रहित। उदासीन। २. अनमना। उदास। ३. अन्यमनस्क।
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अमना (नस्)  : वि० [सं० न० ब०] १. बिना मन का। मन-रहित। उदाहरण—अनिवार कामना, नित अबधा अमना बहती।—पंत। २. जिसका अपने मन पर नियंत्रण न हो। ३. अन्यमनस्क। अनमना। ४. लापरवाह। ५. उदास। ६. स्नेह-हीन। ७. ना-समझ। मूर्ख।
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अमनाक्  : वि० [सं० न० त०] जो मनाक् या थोड़ा न हो। अधिक। क्रि० वि० अधिकता से।
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अमनियाँ  : वि० [सं० अ+मल, अथवा कमनीय] १. खाने-पीने की ऐसी चींजे जिनमें कोई छूत न मानी जाती हो। पक्का। (भोजन) २. पवित्र। शुद्ध। स्त्री० भोजन या रसोई बनाने की क्रिया। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमनैक  : पुं० [सं० आम्नायिक] १. नायक या सरदार। २. अधिकारी या पात्र। ३. साहसी। ४. ढीठ। ५. वह जो मन-माने काम करता हो। उदाहरण—दौरि दधि दान काम ऐसी अमनैक तहाँ, आली बनमाली आइ बहियाँ गहत हैं।—पद्याकर। ६. ऐसे आश्तकार जिन्हें किसी कुल विशेष के होने के कारण लगान में कुछ छूट दी जाती थी।
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अमनैकी  : स्त्री० [हिं० अमनैक] १. मनमाना आचरण या व्यवहार। २. स्वेच्छाचार।
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अमम  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें ममता न हो, अर्थात् इच्छा, माया, मोह, वासना आदि आसक्तियों से रहित। निर्लिप्त। पुं० जैनों के भावी बारहवें तीर्थकार।
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अंमर  : पुं० =अंबर। वि० =अमृत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमर  : वि० [सं० √मृ(मरना)+अच्, न० त०] १. जो कभी मरे नहीं। न मरनेवाला। २. जिसका कभी अंत, क्षय या नाश न हो। सदा जीवित रहनेवाला। शाश्वत। ३. चिरस्थायी। पुं० १. देवता। २. पारा। ३. सोना। स्वर्ण। ४. उनचास पवनों में से एक। ५. ज्योतिष में, नक्षत्रों का एक गण या वर्ग जिसका विचार विवाह के समय वर और कन्या का राशि-वर्ग मिलाने के लिए होता है। ६. एक प्रकार का देवदारू (वृक्ष)।
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अमर-कंटक  : पुं० [सं० आम्रकूट ?] विध्य पर्वतश्रेणी का एक भाग जहाँ से सोन और नर्मदा नदियाँ निकलती है।
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अमर-तटिनी  : स्त्री० [ष० त०] गंगा।
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अमर-दारु  : पुं० [मध्य० स०] देवदारू का वृक्ष।
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अमर-धाम  : पुं० [ष० त०] देव-लोक। स्वर्ग।
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अमर-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं के स्वामी इंद्र। २. काश्मीर में स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ।
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अमर-पख  : पुं०=पितृ-पक्ष।
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अमर-पति  : पुं० [ष० त०]=इंद्र।
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अमर-पद  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं का पद या स्थिति। २. मुक्ति। मोक्ष।
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अमर-पुर  : पु० [ष० त०] १. देवताओं का नगर। अमरावती। २. स्वर्ग।
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अमर-पुरी  : स्त्री० [ष० त०] इंद्रपुरी। अमरावती।
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अमर-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. कल्पवृक्ष। २. केतकी। ३. आम। ४. काँस नामक घास।
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अमर-पुष्पक  : पुं० [ब० स० कप्] १. कल्प-वृक्ष। २. ताल मखाना। ३. काँस। ४. गोखरू।
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अमर-बल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] दे० ‘आकाश-बेल’।
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अमर-बेल  : स्त्री० [सं० +हिं० ] १. आकाशबेल नाम की लता। २. हठ-योग में सहस्रार का वह रूप जब (कुंडलिनी शक्ति के ब्रह्मय-रंध्र में पहुँच जाने पर) उसमें से अमृत का प्रवाहित होना माना जाता है।
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अमर-रत्न  : पुं० [मध्य० स०] बिल्लौर या स्फटिक जो देवताओं का रत्न माना गया है।
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अमर-राज  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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अमर-लोक  : पुं० [ष० त०] देव-लोक। स्वर्ग।
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अमर-वर  : पुं० [स० त०] देवताओं में श्रेष्ठ, इंद्र।
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अमरख  : पुं० [हिं० अमरखी]=अमर्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमरज  : पुं० [सं० अमर√जन् (उत्पन्न होना)+ड] एक प्रकार का खैर। (वृक्ष)।
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अमरण  : वि० [सं० न० ब०] जो मरे नहीं। अमर। पुं० [न० त०] न मरने की अवस्था या भाव। मरण या मृत्यु न होना। अमरता।
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अमरता  : स्त्री० [सं० अमर+तल्-टाप्] अमर होने की अवस्था या भाव। न मरना या नष्ट न होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमरत्व  : पुं० [सं० अमर+त्व] १. अमर होने की अवस्था, भाव या पद अमरता। २. देवत्य।
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अमरपक्षी (क्षिन्) नाथ  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार की कल्पित चिड़िया जिसके संबंध में यह प्रसिद्ध है कि यह अरब के रेगिस्तान में अपनी चिता आप बनाकर और उसपर बैठकर गाती है, जिससे चिता जल उठती है और यह जल मरती है। फिर उसी राख से इस तरह की और नई चिड़ियाँ पैदा होती है। कुकनुस। (फीनिक्स)
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अमरराव  : पुं० दे० ‘अमराई।
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अमरस  : पुं० [हिं० आम+रस] १. पके आम का निचोड़ा हुआ रस। २. =अमावट।
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अमरसी  : वि० [हिं० आमरस] आम के रस के रंग का सा। हल्का पीला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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अमरा  : स्त्री० [सं० अमर+टाप्] १. दूब। २. गुर्च। गिलोय। ३. सेहुँड़। थूहर। ४. नील का पेड़। ५. चमड़े की झिल्ली जिसमें गर्भ का बच्चा लिपटा रहता है। जरायु। ६. नाभि का नाल जो नवजात बच्चे को लगा रहता है। ७. इंद्रायण। ८. बरगद की एक छोटी जंगल जाति। बरियारा। ९. घीक्वार। १. इंद्रपुरी। पुं० दे० ‘अमड़ा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमराई  : स्त्री० [सं० आम्ररजि] वह स्थान जहाँ आम के बहुत से वृक्ष हों। आमों का बगीचा या बारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमराउ  : पुं० [सं० आम्रराजि] आम का बगीचा। अमराई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमराचार्य  : पुं० [सं० अमर-आचार्य, ष० त०] देवताओं के गुरु, बृहस्पति।
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अमराद्रि  : पुं० [सं० अमर-अद्रि, ष० त०] देवताओं का पर्वत, समेरु।
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अमराधिप  : पुं० [सं० अमर-अधिप, ष० त०] देवताओं का स्वामी, इंद्र।
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अमरापगा  : स्त्री० [सं० अमर-आपगा, ष० त०] देवतताओं की नदी, स्वर्गगा।
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अमरारि  : पुं० [सं० अमर-अरि, ष० त०] देवताओं का शत्रु, असुर या राक्षस।
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अमरालय  : पुं० [सं० अमर-आलय, ष० त०] १. इंद्र-लोक। २. स्वर्ग।
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अमरावती  : स्त्री० [सं० अमर+मतुप्,वकार,दीर्घ] देवताओं की पुरी। इंद्रपुरी।
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अमरिय  : पुं० =अंबर।
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अमरी  : स्त्री० [सं० अमर+ङीष्] १. देव की पत्नी। २. प्रियामाल नामक वृक्ष। स्त्री० [स्त्री० अमर] हठ योगियों की एक विशिष्ट क्रिया। उदाहरण—बजरी करंतां अमरी राषै।—गोरखनाथ।
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अमरीकन  : वि०, पुं०=अमेरिकन।
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अमरीका  : पुं० =अमेरिका। (देश)।
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अमरीकी  : वि० [अं० अमेरिकन] १. अमेरिका में होने या उससे संबंध रखनेवाला। २. अमेरिका का निवासी। स्त्री० अमेरिका की भाषा।
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अमरू  : पुं० [सं० अंबर] एक प्रकार का बढ़िया रेशमी कपड़ा।
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अमरूत  : पुं० [सं० अमृत (फल)] १. एक प्रसिद्ध पेड़ जिसके फल खाये जाते है। २. इस पेड़ का फल, जो आकार में छोटा, गोल तथा पीले रंग का होता है।
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अमरूद  : पुं० =अमरूत।
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अमरेश  : पुं० [सं० अमर-ईश, ष० त०] देवताओं का राजा, इंद्र।
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अमरेश्वर  : पुं० [सं० अमर-ईश्वर, ष० त०] इंद्र।
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अमरैया  : स्त्री० =अमराई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमरौली  : स्त्री० [सं० अमर] हठ-योगियों की अमरी नाम की क्रिया।
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अमर्त्य  : वि० [सं० न० त०] १. न मरने वाला। अमर। २. जो मर्त्यलोक का न हो अर्थात् दिव्य या स्वर्गीय। पुं० देवता।
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अमर्याद  : वि० [सं० न० ब०] १. मर्यादा से रहित। जिसकी कोई सीमा न हो। २. नियम या व्यवस्था से बाहर। ३. अप्रतिष्ठित। ४. (कार्य) जिसमें मर्यादा का ध्यान न रखा गया हो। ५. व्यक्ति जो मर्यादा का उचित ध्यान न रखता हो। (इम्माडरेट, उक्त दोनों अर्थों में)
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अमर्यादा  : स्त्री० [न० त०] १. मर्यादा या सीमा का अभाव। २. मर्यादा या प्रतिष्ठा का अभाव। अप्रतिष्ठा। बेइज्जती।
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अमर्ष  : पुं० [सं० √मृष्(सहना)+घञ्, न० त०] [वि० अमर्षित, अमर्षी] १. किसी को दबा न सकने के कारण मन में होने वाला रोष। (रिजेन्टमेंट) २. क्रोध। गुस्सा। ३. असहिष्णुता। ४. साहित्य में, वह क्रोध जो किसी अभिमानी का अभिमान देखकर उत्पन्न होता तथा कुद्ध व्यक्ति का अभिमान नष्ट करने में प्रवृत्त करता है। (इसकी गिनती संचारी भावों से होती है)
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अमर्षण  : पुं० [सं० √मृष्+ल्युट्-अन, न० त०] १. क्रोध। गुस्सा। २. असहिष्णुता। ३. असहनशीलता।
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अमर्षी (षिन्)  : वि० [सं० √मृष्+णिनि, न० त०] [स्त्री० अमर्षिणी] १. मन में अमर्ष रखनेवाला। क्रोधी। २. जो सहनशील न हो। असहनशील।
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अमल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें मल न हो। मल-रहित। निर्मल। २. पवित्र। शुद्ध। ३. साफ। स्वच्छ। ४. निष्पाप। पुं० [न० त०] १. मल का अभाव। २. स्वच्छता। सफाई। ३. [न० ब०] अबरक। ४. पर-ब्रह्म।
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अमल  : पुं० [अ०] १. कार्य या क्रिया के रूप में आना या होना। प्रयोग। व्यवहार। मुहावरा—अमल में आना=किसी आज्ञा, आदेश, निश्चय आदि का व्यवहार में आना। २. कार्य। ३. आचरण। ४. संधान। ५. अधिकार। ६. शासन। ७. सासन-काल। ८. नशा लाने वाली वस्तु। ९. प्रभाव।
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अमल-कोची  : स्त्री० [देश०] कंजे की जाति का एक जंगली वृक्ष। कुंती।
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अमल-दखल  : पुं० [अ०] संपत्ति पर होनेवाला अधिकार, भोग और शासन।
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अमल-पट्टा  : पुं० [अ० अमल+हिं० पट्टा] वह अधिकार-पत्र जो किसी अभिकर्ता या कारिंदे का किसी का कार्य विशेषतः भूमि की व्यवस्था के संबंध में दिया जाता है।
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अमल-पानी  : पुं० [अ०+हिं० ] नशे के लिए कोई चीज घोलकर पीना। जैसे—अफीम भाँग आदि का सेवन।
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अमल-मणि  : पुं० [सं० कर्म० स०] बिल्लौर। स्फटिक।
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अमलता  : स्त्री० [सं० अमल+तल-टाप्] १. अमल अर्थात् निर्मल, पवित्र या शुद्ध होने की अवस्था या भाव। २. निर्दोषता।
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अमलतास  : पुं० [सं० अम्ल] [वि० अमलतासी] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसमें लंबोतरी बड़ी फलियों का गूदा दवा के काम आता है। घनबहेड़ा। किरवरा। २. इस पौधे की फली या फूल।
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अमलतासी  : पुं० [हिं० अमलतास] एक प्रकार का हल्का पीला रंग जो अमलतास के रंग के जैसा होता है। (किंग्स येलों) वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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अमलदारी  : स्त्री० [अ० अमल+फा० दारी] १. शासन। हुकूमत। २. शासन-काल।
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अमलबेत  : पुं० [सं० अम्लवेतस्] एक पेड़ जिसके फल की खटाई बहुत तीक्ष्ण होती है।
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अमलाँ  : स्त्री० [अ० अमल-नशा] १. नशा। २. अफीम, भाँग आदि नशीले पदार्थ। उदाहरण—अमलाँ खोवा बाजियाँ मचे भंडा मनुवार।—बाँकीदास।
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अमला  : स्त्री० [सं० अमल+टाप्] १. लक्ष्मी। २. शीतला। ३. भू० आँवला। ४. दे० ‘आँवला’। पुं० [अ०] कचहरी या दफ्तर में काम करनेवाला व्यक्ति या चपरासी। पद—अमला-फैला=कचहरी के कर्मचारी। (उपेक्षा-सूचक) वि० [सं० अमल] [स्त्री० अमली] १. जिसमें मल या दोष न हो। मल-रहित या निर्दोष। २. जिसमें कोई बनावट या छल-कपट न हो। सीधा-सादा। उदाहरण—अमली-समली आरती।—नरपति नाल्ह।
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अमलातक  : पुं० [सं० अमल√अत् गति)+अच्+कन्] अमलबेत।
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अमलारा  : वि० [अ० अमल] १. अमल या नशा करने वाला। २. नसे में मस्त या चूर।
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अमलिन  : वि० [सं० न० त०] जो मलिन न हो। निर्मल। स्वच्छ।
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अमली  : वि० [अ०] १. अमल में आने या लाया जानेवाला। व्यावहारिक। २. अमल करनेवाला। व्यवहार में लानेवाला। ३. अमल या नशा करनेवाला। नशेबाज। स्त्री० =अमला। स्त्री०=इमली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमलूक  : पुं० [सं० अम्ल] १. उत्तर-पश्चिमी हिमालय में होनेवाला एक पेड़। २. इस पेड़ के काले छोटे फल।
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अमलोनी  : स्त्री० [सं० अम्ललोणी] एक प्रकार की घास जिसका साग खाया जाता है। नोनियाँ घास। नोनी।
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अमल्लक  : वि० [अ० मुतलक] १. पूरा-पूरा। समूचा। २. ज्यों का त्यों।
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अमस  : वि० [सं०√अम् (गति, रोग आदि)+असच्] १. जिसे कुछ भी ज्ञान न हो। अज्ञानी। २. मूर्ख। पुं० १. एक प्रकार का रोग। २. समय।
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अमसूल  : पुं० [देश०] कोंकण, कनारा और कुर्ग के जंगलों में होनेवाला एक वृक्ष।
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अमहर  : स्त्री० [हिं० आम] कच्चे आम की कटी हुई सुखी हुई फाँकें।
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अमहल  : पुं० [सं० अ-नहीं+अ० महल] १. जिसका कोई घर या रहने का स्थान न हो। २. इधर-उधर घूमता रहनेवाला साधु। ३.वह जो सब जगह व्याप्त हों।
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अमहा  : पुं० [?] एक प्रकार का बैल जो खेतों के लिए अनुपयुक्त या निकम्मा माना जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमाँ  : अव्य० [हिं० ए+अ० मियाँ] एमियाँ। (संबोधन, मुसलमान)
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अमा  : स्त्री० [सं० √मा (मान)+का, न० त०] १. अमावस्या। २. चंद्रमा की सोलहवीं कला। ३. घर। मकान। ४. मर्त्य-लोक। स्त्री० [?] चौपायों की आँख में होनेवाली बतौरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमाघौत  : पुं० [?] एक प्रकार का धान।
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अमातना  : पुं० [सं० आमंत्रण] १. आमंत्रित करना। बुलाना। २. निमंत्रण या न्योता देना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमातृक  : वि० [सं० न० ब० कप्] जिसकी माँ न हो। बिना माँ का।
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अमात्य  : पुं० [सं० अमा+त्यक्] १. राजा का सहचर। २. हिन्दू राज्य तंत्र में राजा को परामर्श देनेवाला मंत्री।
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अमात्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसकी कोई मात्रा न हो। २. सीमा-रहित। निस्सीम।
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अमान  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका मान निश्चित या नियत न हो। २. जिसका मान न हुआ हो। अप्रतिष्ठित। ३. जिसे मान न हो। पुं० [न० त०] मान का अभाव। वि० [हिं० अ+मानना] न माननेवाला। पुं० [अ०] १. बचाव। रक्षा। मुहावरा—अमान माँगना=जीवन आदि की रक्षा के लिए दीनतापूर्वक प्रार्थना करना। २. शरण। पुं०=ईमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमानत  : स्त्री० [अ०] १. कुछ समय या निश्चित अवधि के लिए अपनी वस्तु किसी दूसरे के पास रखना। २. उक्त प्रकार से रखी हुई चीज। उपनिधि। ३. अमीन का कार्य या पद।
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अमानत-खाता  : पुं० [अ०+हिं० ] पंजी, बही आदि में वह खाता या विभाग जिसमें अमानत की रकमें जमा की जाती हों।
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अमानत-खाना  : पुं० [अ०+फा०] वह स्थान जहाँ चीजें अमानत में रखी जाएँ।
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अमानत-नामा  : पुं० [अ० अमानत+फा० नामा] किसी के पास कुछ अमानत रखने के समय उसेक प्रमाण स्वरूप लिखा जानेवाला पत्र।
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अमानतदार  : पुं० [अ०+फा०] जिसके पास कोई चीज धरोहर रखी जाती हो या रखी जाए।
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अमाना  : अ० [सं० आ-पूरा पूरा+मान-माप] १. किसी चीज के अंदर पूरा-पूरा समाना। अँटना। २. अभिमान से युक्त होना। इतराना। फूलना। स० किसी चीज के अंदर पूरी तरह से भरना। अँटाना। पुं० [सं० अयन ?] अन्न रकने की कोठरी या द्वार। बखार का मुँह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमानित  : भू० कृ० [सं०√मन् (मानना)+णिच्+क्त, न० त०] १. जिसका मान या सम्मान न हुआ हो। २. माना न गया हुआ।
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अमानिता  : स्त्री० [सं०√मन्+णिनि, न० त० अमानित्+तल्-टाप्] मान या अभिमान का अभाव, अर्थात् नम्रता। स्त्री०=अमान्यता।
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अमानिया  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पटसन।
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अमानी (निन्)  : वि० [सं०√मन् (जानना)+णिनि, न० त०] १. मान या अभिमान न करनेवाला। २. न माननेवाला। स्त्री० [सं० आत्मीय] १. भूमि, जिसका प्रबंध ठेके पर न देकर स्वयं किया जाए। २. भूमि, जो शासन के अधिकार में चली गयी हो। स्त्री० [हिं० अ+मान] १. मनमानी कारवाई। २. देन, लगान आदि में होनेवाली ऐसी छूट जो केवल अंदाज से या कूत के आधार पर की जाए। ३. मजदूरों के काम करने का वह ढंग जिसमें केवल दैनिक मजदूरी मिलती है, काम का मान कोई निश्चित नहीं होता।
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अमानुष  : पुं० [सं० न० त०] वह जो मनुष्य न हो, बल्कि मनुष्य से भिन्न हो। जैसे—अलौकिक या देव-पुरुष वि०=अमानुषी।
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अमानुषिक  : वि०=अ-मानुषी।
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अमानुषी  : वि० [सं० अमानुषीय] १. ऐसा निंदित या पाशविक आचरण या व्यवहार जो सभ्य मानव के स्वभाव के प्रतिकूल या विपरीत हो। जैसे—अमानुषी शासन। २. मनुष्य के अधिकार या शक्ति से बाहर का। ३. मनुष्य-रहित। मनुष्यों से शून्य। उदाहरण—अमानुषी भूमि अवानरी करौ।—केशव।
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अमान्य  : वि० [सं० न० त०] १. (बात) जो मानी जाने के योग्य न हो। जो माना न जा सके। २. जो मान अथवा आदर के योग्य न हो।
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अमाप  : वि० [सं० न० त०] १. जो मापा न जा सके या जिसका माप न हो सके। २. जिसके परिणाम का अंदाजा न हो सके। अपरिमित। ३. असीम। बेहद। ४. बहुत अधिक।
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अमापनीय  : वि० [सं० न० त०] जो मापा न जा सकता हो। (इममेजरेबुल)
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अमापित  : वि० [सं० न० त०] जो मापा न गया हो। (अनमेजर्ड)
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अमाप्य  : वि० [सं० न० त०]=अमापनीय।
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अमामसी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] अमावस्या।
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अमामा  : पुं० [अ० अम्मामः] एक विशिष्ट प्रकार की बड़ी और भारी पगड़ी।
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अमाय  : वि०=अमाया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमाया  : वि० [सं० अमाय] १. माया से रहित। २. छल-कपट, स्वार्थ आदि से रहित। ३.सांसारिक प्रेम, मोह आदि से रहित। निर्लिप्त। स्त्री० [सं० ] माया का अभाव।
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अमायिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो माया (छल-कपट,धोखे) आदि से रहित हो। २. जिसमें माया (अनुराग, प्रेम, मोह) आदि न हो। ३. स्वार्थ आदि भावों से रहित।
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अमायी (यिन्)  : वि० [सं० न० त०]=अमायिक।
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अमार  : पुं० [फा० अंबार] अन्न रखने का खत्ता। बखार। पुं०=अमड़ा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमारग  : पुं०=अमार्ग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमारी  : स्त्री० [सं० अमात] १. आमड़ा नामक वृक्ष। २. आमड़े का फल। स्त्री० =अंवारी (हाथी पर की हौदी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमार्ग  : पुं० [सं० न० त०] १. अनुचित, निंदनीय या बुरा मार्ग। कु-मार्ग। २. निंदनीय आचरण। बुरा चाल-चलन।
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अमार्जित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका मार्जन अर्थात् सुधार या संस्कार न हुआ हो। गंदा, भद्दा या अनगढ़। २. (व्यक्ति) जिसने मार्जन न किया हो।
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अमार्ज्य  : वि० [सं० √मृज्(शुद्धि)+ण्यत्, न० त०] १. जिसका मार्जन न हो सके। २. जिसका मार्जन करना उचित न हो।
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अमाल  : पुं० [अ० अमल] अमल रखनेवाला व्यक्ति। हाकिम। शासक। पुं० दे० ‘आमाल’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमालनामा  : पुं०=आमालनामा।
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अमावट  : स्त्री० [सं० आम, हिं० आम्र+सं० आवर्त, प्रा० आवह] पके आम को निचोड़कर निकाले हुए रस की जमाई हुई परत या तह। स्त्री० [?] पहिना जाति की एक प्रकार की मछली।
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अमावना  : अ० स०=अमाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमावस  : स्त्री० [देश०] अमावस्या।
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अमावस्या  : स्त्री० [सं० अमा√वस्(बसना)+ण्यत्नि० ह्रस्व, प्रा० आओस, गुं० अमास, सिं० उमासु, मरा० अवशी, अवस, हिं० अमावस] १. चौद्र मास के कृष्ण पक्ष का अंतिम दिन जिसमें रात को चंद्रमा की एक भी कला नहीं दिखाई देती। २. हठ योग में ध्यान की वह अवस्था जिसमें ईड़ा (चंद्रमा) और पिंगला (सूर्य) दोनों नाड़ियों का लय हो जाता है।
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अमावास्य  : वि० [सं० अमावास्या+अण्] जो अमावस्या के दिन (या रात को) पैदा हुआ या बना हो।
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अमांस  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके शरीर में मांस की मात्रा बहुत कम हो। दुबला-पतला। २. जिसमें मांस बिलकुल न हो। मांस-रहित। पुं० [न० त०] वह जो मांस न हो।
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अमाह  : पुं० [सं० अमांस] एक प्रकार का नेत्र-रोग। नाखूना।
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अमाही  : वि० [हिं० अमार्ह] १. अमाह-रोग-संबंधी। २. जिसे अमाह (रोग) हुआ हो।
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अंमि  : पुं० =अमृत। स्त्री०=अँबिया (आम का छोटा फल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमिख  : पुं० दे० ‘आमिष’।
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अमिट  : वि० [सं० अ+हिं० मिटना] १. जो मिटने या नष्ट होनेवाला न हो। स्थायी। २. निश्चित रूप से घटित होने वाला। अटल। अवश्यंभावी। जैसे—अमिट भाग्य-विधान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमित  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अमिता] १. जिसका मित या परिणाम न हो। असीम। बेहद। २. बहुत अधिक। ३. जो किसी निश्चित सीमाओं में न रखा गया हो। (इनआरडिनेट) पुं० साहित्य में, एक अर्थालंकार जिसमें यह कहा जाता है कि साधन से ही साधक की सिद्धि का फल भोग लिया। जैसे—दूती संदेश लेकर नायक के पास गई और वहाँ वही उसका सुख भोग आई।
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अमिताई  : स्त्री० [हिं० आमित] अमित होने की अवस्था या भाव। अमितता। वि० =अमित। उदाहरण—इमि रज्जे रणरंग, सूर नूर अंग अमिताई।—चंदवरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमिताभ  : वि० [सं० अमित-आभा, ब० स०] जिसमे अत्यधिक आभा हो। पुं० १. आठवें मन्वंतर के कुठ देवताओं के नाम। २. गौतम बुद्ध का वह संभोग-कार्य जिसे वे दूसरों के कल्याण के लिए बोधिसत्त्व के रूप में तब तक धारण करते हैं, जब तक उनका निर्वाण नहीं होता।
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अमिताशन  : वि० [सं० अमित-अशन, ब० स०] सब प्रकार की वस्तुओं को खानेवाला। सर्वभक्षी। पुं० अग्नि।
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अमिति  : स्त्री० [सं० न० त०] अमित होने की अवस्था या भाव। असीमता।
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अमितौजा (जस्)  : वि० [सं० अमित-ओजस्, ब० स०] १. असीम शक्तिवाला। २. सर्वशक्तिमान।
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अमित्र  : वि० [सं० न० त०] १. जो मित्र न हो। २. बैरी। शत्रु। वि० [न० ब०] जिसका कोई मित्र न हो। मित्र-हीन। पुं० मित्र न होने का भाव।
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अमित्रखाद  : पुं० [सं० अमित्र√खाद् (खाना)+अण्] इंद्र।
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अमित्रघाती (तिन्)  : वि० [सं० अमित्र√हन्(हिंसा)+णिनि] वैरी या शत्रु का नाश करनेवाला।
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अमित्राक्षर  : पुं० [सं० अमित्र-अक्षर, ब० स०] ऐसा छंद जिसमें मात्राओं की गणना पर विचार न होता हो।
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अमित्री  : वि० [सं० अमित्र्य] १. जो मित्रों जैसा न हो। जैसे—अमित्री व्यवहार। २. शत्रुतापूर्ण। ३. विरोधी।
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अमिय  : पुं० [सं० अमृत, प्रा० अमिअ] अमृत। उदाहरण—रहिमन मोहि न सुहाय, अमिय पियावत मान बिनु।—रहीम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमिय-मूरि  : स्त्री० [सं० अमृत-मूरि] अमृत-बूटी। संजीवनी। जड़ी।
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अमियेन  : अव्य० [हिं० अमिय] अमृत के लिए। उदाहरण—रब्ब रिय रस मंद, क्यू पुज्जति साध अमियेन।—चंदवरदाई।
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अमिरती  : स्त्री०=इमरती। (मिठाई)।
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अमिल  : वि० [सं० अ-नहीं+हिं० मिलना] [भाव० अमिलता, अमिलताई] १. न मिलने अर्थात् न प्राप्त होनेवाला। २. (व्यक्ति) जो दूसरों के साथ मिलता-जुलता न हो। ३. (वस्तु) जो दूसरे के साथ मेल न खाये या न मिले। ४. ऊँचा-नीचा। ऊबड़-खाबड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमिल-पट्टी  : स्त्री० [हिं० अमिल+पट्टी-जोड़] सिलाई में, एक प्रकार की चौड़ी तुरपन।
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अमिलता  : स्त्री० [हिं० अमिल+ता(प्रत्यय)] अमिल होने का भाव। बिलकुल अलग या बे-मेल होने की अवस्था या भाव। स्त्री० दे० ‘अम्लता’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमिलताई  : स्त्री०=अमिलता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमिलतास  : पुं०=अमलतास।
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अमिलित  : वि० [सं० न० त०] जो मिला हुआ न हो, अर्थात् अलग या पृथक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमिलिया  : पुं० [हिं० इमली] इमली के रंग का एक प्रकार का पटसन।
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अमिली  : स्त्री० [सं० अ=नहीं+मिलना] किसी के साथ आपसदारी या मेल-मिलाप न होने की अवस्था या भाव। उदाहरण—जहँ अमिली पाकै हिय माँहाँ। तहँ न भाव नौरंग कै छाहाँ।—जायसी। स्त्री०=इमली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमिश्र  : वि० [सं० न० त०] १. जो किसी के साथ मिला न हो। २. जिसमें कुछ मिलावट न हो। खालिस। शुद्ध।
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अमिश्रण  : पुं० [सं० न० त०] मिश्रित न होने का भाव।
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अमिश्रराशि  : स्त्री० [सं० मिश्र राशि, कर्म० स० न-मिश्रराशि, न० त०] इकाई (अर्थात् १ से ९ तक) से सूचित होने वाली राशि, अर्थात् १ से ९ तक की प्रत्येक संख्या।
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अमिश्रित  : वि० [सं० न० त०] १. जो मिला या मिलाया न गया हो। २. जिसमें किसी दूसरी चीज का पुट या मेल न हो।
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अमिष  : पुं० [सं० न० त०] १. छल अथवा बहाने का अभाव। वि० [सं० न० ब०] जिसमें छल-कपट या बहाना न हो। पुं०=आमिष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अमी  : वि० [सं०√अम् (रोग)+इनि] बीमार। रूग्ण। पुं० =अमिय (अमृत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमी-कला  : पुं० चंद्रमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमी-निधि  : पुं० [हिं० अमी+सं० निधि] १. अमृत का समुद्र। २. चंद्रमा।
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अमीकर  : पुं० [सं० अमृतकर] चंद्रमा।
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अमीत  : वि० [सं० अमित्र, प्रा० अमित्त] जो मीत अर्थात् मित्र न हो, फलतः बैरी या शत्रु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमीन  : पुं० [अ०] [भाव० अमीनी] माल-विभाग का वह कर्मचारी जो जमीन की नाप-जोख, बँटवारे आदि का प्रबंध करता है।
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अमीमांसा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. मीमांसा का अभाव। २. दूषित विवेचन।
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अमीर  : पुं० [अ०] [भाव० अमीरी] १. धनवान। संपन्न। २. उदार। जैसे—दिल का अमीर। ३. नेता। सरदार। ४. अफगानिस्तान के राजाओं की उपाधि।
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अमीरजादा  : पुं० [अ०+फा०] [स्त्री० अमीरजादी] १. राजकुमार। शाहजादा। २. बहुत बड़े अमीर या धनवान का पुत्र।
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अमीराना  : वि० [अ० अमीर से फा०] अमीरों का सा। अमीरों जैसा।
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अमीरी  : स्त्री० [अ०] १. अमीर या धनी होने की अवस्था या भाव। दौलतमंदी। संपन्नता। २. उदारता। वि० १. अमीरों से संबंध रखनेवाला। २. अमीरों की तरह का। जैसे—अमीरी ठाठ।
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अमीव  : पुं० [सं०√अम्+वन, नि० ई] १. पाप। २. कष्ट। दुःख। ३. बीमारी। रोग।
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अमुक  : वि० [सं० अदस्+अकच्, उत्व, मत्व] [भाव० अमुकता] किसी ऐसे अज्ञात, अभिदिष्ट अथवा कल्पित व्यक्ति या बात के लिए प्रयोग में आने वाला शब्द, जिसका नाम न लिया गया हो या न लिया जाने को हो। कोई अनिश्चित (वस्तु या व्यक्ति)। वि० [हिं० अ+मुकना] न मुकने या न समाप्त होनेवाला।
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अमुकता  : वि० [हिं० अ+मुकना-समाप्त होना] जो जल्दी न मुके, अर्थात् बहुत अधिक। स्त्री० [सं० अमुक+तल्-टाप्] अमुक होने की अवस्था या भाव।
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अमुक्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो मुक्त न हो। २. बंधन में पड़ा हुआ। ३. (ग्रह) जिसका ग्रहण से मोक्ष न हुआ हो। ४. (शस्त्र) जो हाथ में पकड़ कर ही चलाया जाय, फेंका या दूर से मारा न जाए। (जैसे—तलवार कटार आदि)
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अमुख  : वि० [सं० न० ब०] जिसे मुख न हो। बिना मुँह का।
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अमुख्य  : वि० [सं० न० त०] जो मुख्य या प्रधान न हो।
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अमुग्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो मुग्ध अथवा मोहित न हो। चतुर। होशियार। ३. जितेंद्रिय।
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अमुत्र  : पुं० [सं० अदस्+त्रल्, उत्व, मत्व] १. जन्मांतर। २. पर-लोक।
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अमुरूख  : वि० -मूर्ख। उदाहरण—सो अमुरूख बाउर औ अंधा।—जायसी।
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अमूक  : वि० [सं० न० त०] १. जो मूक अथवा गूँगा न हो। २. बहुत बोलनेवाला। बाचाल। ३. चतुर। होशियार।
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अमूढ़  : वि० [सं० न० त०] १. जो मूढ़ या मूर्ख न हो, अर्थात् चतुर व विद्वान।
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अमूमन्  : अव्य० [अ० उमूमन्] प्रायः। साधारणतः।
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अमूर्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो मूर्तिमान् न हो। आकार-रहित। निराकार। २. अगोचर। अप्रत्यक्ष।
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अमूर्त्त  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका मूर्त्त या साकार रूप न हो। (एब्सट्रैक्ट) २. अप्रत्यक्ष। पुं० १. परमेश्वर। २. आत्मा। ३. जीव। ४. काल। समय। ५. दिशा। ६. वायु। ७. आकाश।
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अमूल  : वि० [सं० न० ब०]=अमूलक। पुं० सांख्य के अनुसार प्रकृति।
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अमूलक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जिसका कोई मूल या जड़ न हो। निर्मूल। २. जिसका कोई आधार न हो। निराधार। ३. झूठ। मिथ्या।
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अमूला  : स्त्री० [सं० न० ब० टाप्] अग्निशिखा नाम का पौधा।
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अमूल्य  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका मूल्य आँका या लगाया न जा सके। अनमोल। २. बहुत अधिक मूल्य का। बहुमूल्य। ३. जिसके लिए कोई मूल्यन चुकाना पड़े। मुफ्त का।
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अमृत  : वि० [सं० न० त०] १. जो मृत या मरा हुआ न हो, अर्थात् जीवित। २. [न० ब०] कभी न मरनेवाला। सदा जीवित रहनेवाला। अमर। ३. अविनाशी। ४. परम प्रिय और सुन्दर। पुं० १. एक प्रसिद्ध कल्पित पदार्थ जिसके संबंध में यह कहा जाता है कि इसे खाने (या पीने) पर प्राणी सदा के लिए अमर हो जाता है। पीयूष। सुधा। (नेक्टर) विशेष—हमारे यहाँ पुराणों के अनुसार यह समुद्र-मंथन के समय उसमें से निकला था। २. परम स्वादिष्ट अथवा बहुत अधिक गुणकारी पदार्थ। ३. स्वर्ग। ४. सोम का रस। ५. जल। पानी। ६. दूध। ७. घी। ८. अनाज। अन्न। ९. यज्ञ की बची हुई सामग्री। १. मुक्ति। मोक्ष। ११. औषध। दवा। १२. जहर। विष। १३. पारद। पारा। १४. धन-संपत्ति। १५. सोना। स्वर्ण। १६. रहस्य संप्रदाय में, (क) ईश्वर या परमात्मा, (ख) ईश्वर के प्रति होने वाला अनुराग या प्रेम, (ग) गुरु का सदुपदेश, और (घ) तालु-मूल में स्थित चंद्रमा से निकलनेवाला रस जो योगी जीभ उलटकर पीता है। १७. देवता। १८. शिव। १९. विष्णु। २० धन्वंतरि।
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अमृत-कर  : पुं० [ब० स०] अमृत के समान किरणोंवाला अर्थात् चंद्रमा।
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अमृत-कुंड  : पुं० [ष० त०] दे० ‘मानसरोवर’। (हठ-योग का)।
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अमृत-कुंडली  : स्त्री० [कर्म० स० ?] १. एक प्रकार का छंद। २. स्वर मंडल की तरह का एक बाजा जिसका आकार कुंडली मारे हुए सर्प की तरह होता है।
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अमृत-गति  : स्त्री० [कर्म० स० ?] एक छंद जिसके प्रत्येक छंद में नगण, जगण, नगण और अंत में गुरु होता है।
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अमृत-गर्भ  : पुं० [ब० स०] १. ब्रह्म। ईश्वर। २. जीवात्मा।
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अमृत-जटा  : स्त्री० [ब० स०] जटामासी।
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अमृत-तरंगिणी  : स्त्री० [ष० त०] चंद्रमा की चाँदनी। चंद्रिका।
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अमृत-द्युति  : स्त्री० [ब० स०] चंद्रमा।
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अमृत-द्रव  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा की किरण।
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अमृत-धारा  : स्त्री० [ष० त०] एक वर्णवृत्त जिसके प्रथम चरण में २॰, दूसरे में, १२ तीसरे में १६ और चौथे में ८ अक्षर होते है।
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अमृत-धुनि  : स्त्री०=अमृत-ध्वनि।
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अमृत-ध्वनि  : स्त्री० [सं० ब० स०] कहने या पढ़ने के ढंग के विचार से कुडंलिया नामक छंद का एक विशिष्ट प्रकार या रूप। इसमें दोहा तो अपने सामान्य रूप में रहता है, पर रोला के प्रत्येक चरण की आठ-आठ मात्राओं के ऐसे तीन टुकड़े होते हैं जिनमें यमक और द्वित्व वर्णों की प्रचुरता रहती है। अपनी उक्त विशेषताओं और पढ़े जाने के ढंग के कारण ही यह वीर रस के लिए बहुत उपयुक्त होता है।
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अमृत-फल  : पुं० [उपमि० स०] १. नाशपाती। २. परवल। पुं० [सं० ] रहस्य संप्रदाय में, परमात्मा या मोक्ष की प्राप्ति।
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अमृत-फला  : स्त्री० [ब० स०] १. आँवला। २. अंगूर। ३. मुनक्का।
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अमृत-बंधु  : पुं० [ष० त०] १. देवता। २. चंद्रमा।
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अमृत-मूरि  : स्त्री० [सं० अमृतमूल] संजीवनी बूटी।
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अमृत-योग  : पुं० [मध्य०स०] फलित ज्योतिष का एक शुभ योग।
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अमृत-रश्मि  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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अमृत-लता  : स्त्री० [कर्म० स०] गुर्च। गिलोय।
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अमृत-लोक  : पुं० [ष० त०] स्वर्ग।
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अमृत-वपु (स्)  : पुं० [ब० स०] १. चंद्रमा। २. विष्णु। ३.शिव।
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अमृत-विंदु  : पुं० [ष० त०] एक उपनिषद् का नाम।
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अमृत-संजीवनी  : स्त्री० [कर्म० स०] =संजीवनी बूटी।
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अमृत-सार  : पुं० [ष० त०] मक्खन।
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अमृतत्व  : पुं० [सं० अमृत+त्व] १. अमृत या अमर होने की अवस्था या भाव। अमरता। न मरना। २. मोक्ष।
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अमृतदान  : पुं० [सं० अमृत-आधान] कटोरदान नामक बरतन।
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अमृतदान  : पुं० [मर्त्तबान, बरमा का एक नगर] लाह का रोगन किया हुआ मिट्टी का एक प्रकार का ढक्कनदार बरतन जिसमें अचार, घी आदि रखते है। २. एक प्रकार का केला। मर्त्तबान।
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अमृतप  : वि० [सं० अमृत√पा(पीना)+क] अमृत पान करनेवाला। पुं० १. देवता। २ विष्णु।
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अमृतमहल  : स्त्री० [सं० ] दक्षिण भारत की एक प्रकार की भैस।
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अमृतमान  : पुं० =अमृतबान।
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अमृतसू  : पुं० [सं० अमृत+सू (प्रसव)+क्विप्] चंद्रमा।
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अमृता  : स्त्री० [सं० अमृत+टाप्] १. गुर्च। २. इंद्रायण। ३. मालकँगनी। ४. अतीस। ५. हड़। ६. लाल निसोत। ७. आँवला। ८. दूध। ९. तुलसी। १. पीपल। ११. मदिरा। १२. फिटकिरी। १३. खरबूजा।
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अमृताक्षर  : वि० [अमृत-अक्षर, कर्म० स०] १. जो कभी मरे नहीं। अमर। २. जिसका कभी नाश न हो। अजर। पुं० अमृत के से गुण वाले अक्षर या शब्द। उदाहरण—फूटी तर अमृताक्षर निर्भर।—निराला।
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अमृतांधस्  : पुं० [अमृत-अंधस्, ब० स०] देवता।
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अमृताश  : पुं० [सं० अमृत√अश् (भोजन)+अण्] विष्णु।
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अमृताशन  : पुं० [सं० अमृत√अश्+ल्यु-अन] देवता।
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अमृताशी (शिन्)  : पुं० [सं० अमृत√अश्+णिनि] देवता।
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अमृतांशु  : पुं० [अमृत-अंशु, ब० स०] चंद्रमा।
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अमृताहरण  : पुं० [सं० अमृत-आ√ह्र(हरण करना)+ल्यु-अन्] गरुड़।
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अमृतेश  : पुं० [अमृत-ईश, ष० त०] देवता।
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अमृतेशय  : पुं० [सं० √शी(सोना)+अच्-शय, अमृतेशय, अलुक्० स०] विष्णु।
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अमृतेश्वर  : पुं० [अमृत-ईश्वर, ष० त०] =अमृतेश।
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अमृत्यु  : वि० =अमर।
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अमृष्ट  : भू० कृ० [सं० न० त०] १. बिना मला हुआ। २. जिसे रगड़ कर साफ न किया गया हो। अस्वच्छ।
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अमे  : सर्व० [सं० अस्मद्] १. हम। २. हमें। (गुज) उदाहरण—सति-सति भाषंत श्री गोरष जोगी अमै तो रहिना रंगै।—गोरखनाथ।
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अमेजना  : स० [फा० आमेजन] किसी में कुछ मिलाना या मिलावट करना। मिश्रण करना।
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अमेठना  : स० =उमेठना।
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अमेंड  : वि० [हिं० अ+मैंड] मर्यादा या बंधन न माननेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमेत  : वि० [सं० अमित] असंख्य। उदाहरण—अति विचित्र पंडित सुअ कथत जु कथा अमेत।—चंद्रवरदाई।
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अमेदस्क  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जिसमें चरबी न हो, या चरबी की कमी हो। २. दुबला-पतला।
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अमेध्य  : वि० [सं० न० त०] १. (जीव या पदार्थ) जिसका यज्ञ में बलि के रूप में उपयोग न हो सकता हो। जैसे—कुत्ता, गधा, उरद या मसूर की दाल आदि। २. (व्यक्ति) जो यज्ञ कराने के योग्य न हो। ३. अपवित्र। अशुद्ध। पुं० एक प्रकार के प्रेत।
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अमेय  : वि० [सं० न० त०] १. जो नापा या मापा न जा सके। २. असीम। निस्मीय। ३. जो जाना या समझा न जा सके।
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अमेयात्मा( त्मन्)  : पुं० [सं० अमेय-आत्मन्, कर्म० स०] विष्णु।
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अमेरिकन  : वि० [अ०] १. जिसकी उत्पत्ति, जन्म या निर्माण अमेरिका में हुआ हो। २. जो अमेरिका से संबंधित हो। पुं० अमेरिका देश का निवासी।
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अमेरिका  : पुं० [अ०] १. पश्चिमी गोलार्द्ध का एकमात्र महादेश जो उत्तरी और पश्चिमी दो बागों में बँटा है। २. उत्तरी अमेरिका के पचास प्रमुख प्रेदेशों का बना हुआ एक संघ राज्य। संयुक्त राज्य।
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अमेरिकी  : वि०=अमेरिकन।
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अमेल  : वि० [हिं० अ+मेल] [स्त्री अमेली] १. जिसका किसी से ठीक मेलन बैठता हो। जो किसी से मेल न खाता हो। २. असंबद्ध। ३. अन-मेल।
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अमेव  : वि० दे० ‘अमेय’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमेषा( धस्)  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें मेघा शक्ति या बुद्धि न हो, अर्थात् मूर्ख।
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अमेह  : पुं० [सं० न० त०] एक रोग जिसके कारण पेशाब नही उतरता या रुक-रुक कर उतरता है।
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अमैठना  : स० दे० ‘अमेठना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमोक्ष  : वि० [सं० न० ब०] १. जो मुक्त न हुआ हो। २. जिसे मुक्ति न मिली हो। पुं० [सं० न० त०] मोक्ष का अभाव।
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अमोघ  : वि० [सं० न० त०] १. जो निष्फल, निरर्थक या व्यर्थ न हो। २. अपने उद्धेश्य या लक्ष्य तक ठीक पहुँचनेवाला। अचूक। पुं० १. व्यर्थ न जाने का अभाव। २. शिव। ३. विष्णु।
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अमोघ-किरण  : स्त्री० [कर्म० स०] सूर्योदय और सूर्यास्त के समय की किरणें।
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अमोघ-दृष्टि  : वि० [ब० स०] जिसकी दृष्टि कभी विफल न होती है।
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अमोघ-वाक्  : वि० [ब० स०] जिसका कभी वचन व्यर्थ न होता है।
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अमोघ-विक्रम  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अमोघा  : स्त्री० [सं० अमोघ+टाप्] १. कश्यप ऋषि की एक स्त्री। २. हरीतकी। हर्रे। ३. वायविडंग। ४. पाढर का पौधा और फूल।
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अमोचन  : पुं० [सं० न० त०] छुटकारा न होने की क्रिया, दशा या भाव। विं० १. [न० ब०] जिसका मोचन न हो सके। २. न छूट सकनेवाला।
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अमोद  : पुं०=आमोद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमोनिया  : पुं० [अ० एमोलिना] नौसादार।
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अमोरी  : स्त्री० [हिं० आम+औरी(प्रत्यय)] १. आम का कच्चा छोटा फल। अँबिया। २. अमड़ा। आम्रातक।
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अमोल  : वि० [सं० अमूल्य] जिसका मूल्यन लग सके। बहुत अधिकम मूल्य वाला। कीमती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमोलक  : वि० [हिं० अमोल+क(प्रत्यय)] १. बहुत अधिक मूल्यवाला। बहुमूल्य। २. अमूल्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अमोला  : पुं० [हिं० आम] आम का नया निकलता हुआ अंकुर या कल्ला। वि० [हिं० अमोल] अमूल्य। बहुमूल्य। जैसे—है उस परी का सबसे अमोला इजारबंद।—कोई शायर।
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अमोही (हिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे किसी से मोह न हो। विरक्त। २. जिसे किसी से ममता न हो। निर्मोही।
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अमौआ  : पुं० [हिं० आम+औआ (प्रत्यय)] १. एक प्रकार का रंग जो पके हुए आम के रस के समान पीला होता है। अमरसी। २. उक्त रंग का एक प्रकार का कपड़ा। वि० जिसका रंग आम के रस के समान अर्थात् बलका पीला हो।
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अमौन  : पुं० [सं० न० त०] १. मुनि न होने की अवस्था या भाव। २. मुनि के अनुरूप आचरण न करने की दशा। ३. आत्मज्ञान।
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अमौलिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो मौलिक न हो। २. जिसकी कोई जड़ न हो। ३. जिसका संबंध मूल से न हो।
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अम्माँ  : स्त्री० [सं० अंबा] माँ। माता। जननी।
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अम्मामा  : पुं० [अ० अम्माम] सिर पर बाँधी जानेवाली एक प्रकार की भारी पगड़ी। (मुसलमानी पहनावा)
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अम्मारी  : स्त्री० दे० ‘अंबारी’।
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अम्रात  : पुं० [सं० अम्ल√अत्(सतत गमन)+अण्] १. आमड़ा नामक पेड़। २. उक्त पेड़ का फल।
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अम्रातक  : पुं० [सं० अम्रात+कन्] अमड़ा। (वृक्ष और फल)
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अम्रियमाण  : वि० [सं० √मृ+यक्+शानच्, न० त०] =अमर।
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अम्ल  : पुं० [सं० -अम्(गति)+क्ल] [वि० अम्लीय] [भाव० अम्लता] १. खाद्य पदार्थों के छः रसों में से एक रस। खटाई। २. कोई ऐसा तत्त्व या रासायनिक द्रव्य जिसमें खटाई वाले तत्त्वों के अतिरिक्त क्षारों का गुण नष्ट करने की भी शक्ति हो। तेजाब। (ऐसिड)। वि० [अम्ल+अच्] खट्टा। तुर्श। इमली आदि के स्वाद का।
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अम्ल-केशर  : पुं० [ब० स०] बिजौरा नीबू।
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अम्ल-पंचक  : पुं० [ष० त०] (वैद्यक में) जंबीरी नीबू। खट्टा अनार। इमली। नारंगी और अम्लबेत नामक पाँच खट्टे फल।
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अम्ल-पनस  : पुं० [कर्म० स०] बड़हर।
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अम्ल-पित्त  : पुं० [च० त०] पित्त के खराब होने पर किये हुए भोजन के खट्टे हो जाने का रोग। (एसिडिटी)
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अम्ल-फल  : पुं० [ब० स०] इमली।
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अम्ल-मिति  : स्त्री० [ष० त०] वह रासायनिक प्रक्रिया जिसमें यह जाना जाता है कि किसी द्रव्य या पदार्थ में अम्ल का अंश कितना है। (एसिडिमेट्री)
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अम्ल-मेह  : पुं० [कर्म० स०] मूत्र-संबंधी एक रोग।
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अम्ल-वृक्ष  : पुं० [ष० त०] इमली का पेड़।
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अम्ल-हरिद्रा  : स्त्री० [कर्म० स०] आँबा हलदी।
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अम्लक  : पुं० [सं० अम्ल+कन्] बड़हर।
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अम्लजन  : पुं० दे० ‘आक्सीजन’।
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अम्लता  : स्त्री० [सं० अम्ल+तल्-टाप्] अम्ल का भाव। खट्टापन। खटाई (एसिडिटी)।
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अम्ललोणिका  : स्त्री० [सं० अम्ल√ला (आदान)+क,अम्लल√ऊन्(कमहोना)+ण्वुल्-अकटाप्, इत्व] अमलोनी नामक खट्टा साग।
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अम्लसार  : पुं० [ब० स०] १. अमलबेत। २. चुक। ३. काँजी। ४. हिंताल। ५. आमलासार गंधक।
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अम्लांकुश  : पुं० [अम्ल-अंकुश, कर्म० स०] एक तरह का खट्टा सांग।
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अम्लाध्युषित  : पुं० [अम्ल-अध्युषित, तृ० त०] अधिक खटाई खाने के फलस्वरूप होने वाला एक नेत्र-रोग।
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अम्लान  : वि० [सं० न० त०] १. जो उदास,मलिन या म्लान न हो। २. खिला हुआ। प्रसन्न। ३. निर्मल। स्वच्छ। पुं० १. बाणपुष्प नामक पौधा। २. कटसरैया। गुल-दुपहरिया।
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अम्लानी (निन्)  : वि० [सं० म्लान+इनि, न० त०] साफ। स्वच्छ।
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अम्लिका  : स्त्री० [सं० अम्ल+कन्-टाप्,इत्व] १. इमली। २. खट्टी डकार।
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अम्लिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० अम्ल+इमानिच्] खट्टापन।
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अम्लीकरण  : पुं० [सं० अम्ल+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अम्लीकृत] वह क्रिया जिसमें किसी वस्तु या द्रव्य में अम्लता आवे। (एसिडीफिकेशन)
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अम्लीय  : वि० [सं० ] १. अम्ल-संबंधी। अम्ल का। २. जिसमें अम्लता या खटास हो। (एसिडिक)
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अम्लोटक  : पुं० [अम्ल-उटक, ब० स०] अश्मंतक नामक पौधा।
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अम्लोद्गार  : पुं० [अम्ल-उदगार, ष० त०] खट्टी डकार।
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अम्हाँ  : वि० [सं० अस्माकं] हमारे। मेरे। उदाहरण—अम्हाँ वासना बसी इसी।—प्रिथीराज।
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अम्हीणा  : सर्व० [सं० आत्मानकं, प्रा० अम्हाअं] हमारा।
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अम्हीणो  : सर्व० [सं० अहम्] मेरा। हमारा। उदाहरण—आयौ कहि कहि नाम अम्हीणौ।—प्रिथीराज।
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अम्हौरी  : स्त्री० =पित्ती (शरीर में होनेवाली)।
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अयं  : सर्व० [सं० इदम् शब्द के पुलिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन का रूप] यह।
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अय  : पुं० [सं० अयस्] १. लोहा। २. हथियार। ३. अग्नि। ४. सोना। अव्य-[सं० अयि] संबोधन का शब्द। ऐ ! हे !
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अयक्ष्म  : वि० [सं० न० ब०] १. जो रोग-ग्रस्त न हो। निरोग। २. उपद्रव बाधा आदि से रहित।
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अयजनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका यजन (आदर या पूजन) न किया जा सकता हो। २. निंदनीय।
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अयज्ञ  : वि० [सं० न० ब०] यज्ञ न करनेवाला। पुं० [न० त०] यज्ञ का अभाव।
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अयज्ञक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. यज्ञ न करनेवाला। २. जो यज्ञ के योग्य न हो।
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अयज्ञिय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका उपयोग यज्ञ में न किया जा सके। २. यज्ञ में न देने योग्य। ३. यज्ञ करने के अयोग्य।
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अयत  : वि० [सं० न० त०] १. असंयमी। २. जो नियंत्रण में न हो।
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अयती (तिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो यती न हो। २. जिसने इंद्रियों को वश में न किया हो।
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अयतेंद्रिय  : वि० [सं० अयत-इंद्रिय, ब० स०] १. जिसने अपनी इंद्रियों का संयमन न किया हो। २. ब्रह्मचर्य भ्रष्ट। ३. इंद्रियलोलुप।
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अयत्न  : वि० [सं० न० ब०] यत्न न करनेवाला। पुं० [सं० न० त०] १. यत्न या चेष्टा का अभाव। २. उद्योगहीनता।
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अयत्न-कृत  : वि० [सं० तृ० त०] (कार्य या परिणाम) जिसकी पूर्णता, प्राप्ति या सिद्धि बिना यत्न किये हुई हो।
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अयंत्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जो नियंत्रण में न हो। २. [न० त०] जो यंत्र न हो। पुं० १. नियंत्रण का अभाव। २. यंत्रों का न होना।
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अयंत्रित  : वि० [सं० न० त०] १. जो नियंत्रण में न हो। २. मनमानी करनेवाला।
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अयथा  : वि० [सं० न० ब०] १. जो ठीक या सत्य न हो। मिथ्या। झूठ। २. अनुपयुक्त। अयोग्य। पुं० [न० त०] १. विधि के अनुसार काम न करना। २. अनुचित काम।
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अयथातथ  : वि० [सं० न० त०] १. जैसा चाहिए, वैसा नहीं। २. अयथार्थ। ३. विपरीत।
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अयथापूर्व  : वि० [सं० न० त०] जो पूर्व या पहले जैसा न हो।
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अयथार्थ  : वि० [सं० न० त०] १. जो यथार्थ या वास्तविक न हो। २. असत्य। मिथ्या। जैसे—अयथार्थ ज्ञान।
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अयथेष्ट  : वि० [सं० न० त०] जो यथेष्ट या पर्याप्त न हो, फलतः कम या थोड़ा।
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अयथोचित  : वि० [सं० न० त०] १. जैसा या जितना उचित हो, वैसा या उतना नहीं। २. अयोग्य।
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अयन  : पुं० [सं० √अय(गति)+ल्युट्-अन] १. मार्ग। रास्ता। २. गति। चाल। ३. राशि-चक्र की गति या मार्ग। ४. सूर्य की मकर रेखा से कर्क रेखा अथवा कर्क रेखा से मकर रेखा की ओर की गति या मार्ग, जिसे क्रमात् उत्तरायण या दक्षिणायन कहते हैं। ५. उत्तरायण और दक्षिणायन के आरंभ में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ। ६. ज्योतिष की वह प्रक्रिया जिससे आकाशस्थ पिंडों की गति और मार्ग का ज्ञान होता है। ७. प्राचीन भारत में व्यूह तोड़ने के लिए उसमें प्रवेश करने का एक सैनिक ढंग। ८. गौं-भैंस आदि के स्तन का वह ऊपरी भाग जिसमें दूध भरा रहता है। ९. आश्रम। १. घर। मकान। ११. जगह। स्थान। १२. काल। समय। १३. अंश। भाग।
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अयन-काल  : पुं० [ष० त०] सूर्य के अयन में रहने का काल या समय जो ६ महीनों का होता है।
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अयन-वृत्त  : पुं० [ष० त०] १. वह वृत्त जो किसी प्रकार की गति या उसके मार्ग से बनता हो। २. सूर्य की गति या मार्ग से बननेवाला वृत्त।
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अयन-संक्रम  : स्त्री० [तृ० त०] १. प्रत्येक संक्राति से २॰ दिन पहले का समय। २. दे० ‘अयन संक्राति’।
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अयन-संक्राति  : स्त्री० [तृ० त०] मकर और कर्क राशिवाली संक्रातियाँ।
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अयन-संपात  : पुं० [ष० त०] अयनांसो का योग।
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अयनक  : पुं० [अ० ऐनक] चश्मा। ऐनक।
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अयनांत  : पुं० [अयन-अंत, ष० त०] १. किसी अयन या गति का अंत या समाप्ति। २. ज्योतिष में, एक अयन की समाप्ति के बाद का और दूसरे अयन के आरंभ होने से पहले का काल।
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अयनांश  : पुं० [अयन-अंश, ष० त०] १. अयन का अंश या भाग। २. सूर्य की मकर से कर्क रेखा अथवा कर्क से मकर रेखा की ओर की गति का अंश या भाग।
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अयःपान  : पुं० [सं० ब० स] एक नरक का नाम।
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अयमदिन  : पुं० [सं० न० त०] चांद्रमास के विचार से ऐसा दिन (और रात) जिसमें दो तिथियाँ बीत जाए।
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अयमित  : वि० [सं० न० त०] १. जो काट-छाँटा या सुधारा न गया हो। २. बिना बाधा रोक या रुकावट के बढ़नेवाला। ३. अनियंत्रित।
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अयरापति  : पुं० =ऐरावत। उदाहरण—अयरापति चढि चाल्यो राय।—नरपतिनाल्ह।
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अयव  : वि० [सं० न० ब०] १. यव से रहित। जिसमें यव न हो। २. जो पूरा न हो या जिसमें किसी प्रकार का अभाव हो। पुं० [सं० न० त०] १. पितृ-कर्म जिसमें यव या जौ काम में नहीं लाया जाता। २. वीर्य। शुक्र। ३. कृष्ण पक्ष। ४. दुश्मन। शत्रु। ५. मल में होनेवाला एक प्रकार का बहुत छोटा कीड़ा।
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अयश (स्)  : पुं० [सं० न० त०] १. यश का अभाव। २. अपयश या बदनामी।
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अयःशंकु  : पुं० [सं० ष० त०] १. भाला। २. कील।
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अयशस्कर  : वि० [सं० अयशस्√कृ (करना)+ट] (कार्य) जिससे या तो यश न मिले अथवा अयश या बदनामी हो।
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अयशस्य  : वि० [सं० न० त०]=अयशस्कर।
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अयशस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० यशम्+विनि, न० त०] १. जिसे किसी काम में यश न मिला हो। २. जिसे कभी किसी काम में यश न मिलता हो।
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अयशी  : वि०=अयशस्वी।
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अयःशूल  : पुं० [सं० ष० त०] १. भाला। २. तीव्र पीड़ा।
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अयस्  : पुं० [सं०√इ (गति)+असुन्] १. लोहा। २. हथियार। ३.धातु। ४. सोना। ५. अगुरू नामक वृक्ष। ६. चुंबक।
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अयस्क  : पुं० [सं० ] धातुओं का वह मूल या प्राकृतिक रूप जिसमें वे खान से निकलती हैं। बिना साफ की हुई वस्तु। (ओर)।
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अयस्कांत  : पुं० [सं० न० त०] चुंबक।
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अयस्कार  : पुं० [अयस्√कृ (करना)+अण्] १. लोहार। २. जाँघ का ऊपरी हिस्सा।
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अयस्कीट  : पुं० [ष० त०] मोरचा। जंग।
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अयस्कुशा  : स्त्री० [मध्य० स०] लोहे के मेल से या लोहे का बना हुआ रस्सा।
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अयाचक  : वि० [सं० न० त०] १. जो याचक न हो। न माँगनेवाला। २. जिसे किसी काम या बात की आवश्यकता या कामना न रह गई हो। ३. पूर्ण-काम। संतुष्ट।
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अयाचित  : वि० [सं० न० त०] जिसके लिए याचना न की गई हो। जो माँगा न गया हो।
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अयाची (चिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो किसी से याचना न करता हो। २. जिसे किसी से कुछ माँगने की आवश्यकता न हो। ३. संतुष्ट।
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अयाच्य  : वि० [सं० √याच्(माँगना)+ण्यत्, न० त०] १. (व्यक्ति) जिसे याचना करने या माँगने की आवश्यकता न हो। पूर्णकाम। २. (पदार्थ) जो माँगे जाने के योग्य न हो। (अर्थात् अनावश्यक या तुच्छ)।
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अयाज्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो यज्ञ कराने योग्य न हो। जिसे यज्ञ करने का अधिकार न हो। २. पतित। पुं० चांडाल।
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अयाज्य-याजन  : पुं० [ष० त०] ऐसे व्यक्ति से यज्ञ कराना जो यज्ञ कराने का अधिकारी न हो।
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अयात  : वि० [सं० न० त०] जो गया न हो।
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अयात-याम  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे हुए पहर-भर (अधिक समय) न बीता हो। २. तुरंत का बना हुआ। ताजा। ३.दोष-रहित (पवित्र या शुद्ध)।
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अयान  : पुं० [सं० न० त०] १. न जाना। २. ठहराव। स्थिरता। पुं० [न० ब०] प्रकृत। स्वभाव। वि० जिसके पास यान या सावरी न हो। वि० -अयाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अयानत  : स्त्री० [अ०] मदद। सहायता।
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अयानता  : स्त्री०=अज्ञानता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अयानप  : पुं० [हिं० अजान+पन] १. अयाने या अज्ञान होने की अवस्था या भाव। अज्ञानता। अनजानपन। २. भोलापन। सरलता। सिधाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अयाना  : वि० [सं० अज्ञान, प्रा० अजाना] [स्त्री० अयानी] १. अज्ञान। बुद्धिहीन। २. ना-समझ। पुं० बालक या शिशु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अयाम  : पु० [सं० न० त०] १. याम या समय का अभाव। २. दिन का कोई भाग। ३. जो पथ या रास्ता न हो।
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अयायार्थिक  : वि० [सं० ]=अयथार्थ।
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अयाल  : पुं० [फा०] घोड़े सिंह आदि के गर्दन के पर के बाल। केसर। पुं० [अ०] बाल-बच्चे। संतान।
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अयालदार  : पुं० [अ०+फा०] बाल-बच्चोंवाला व्यक्ति। गृहस्थ।
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अयास  : क्रि० वि०=अनायास।
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अयास्य  : वि० [सं० √यस् (फेंकना)+णिच्+यत्, न० त०] १. जो फेंका या हटाया न जा सके। अटल। २. निश्चल या शांत। पुं० १. शत्रु। विरोधी। २. प्राण-वायु। ३. अंगिरा ऋषि का एक नाम।
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अयि-अव्य०  : [सं० √इ(गति)+इन्] संबोधन का शब्द। अरे ! हे !
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अयुक्त  : वि० [सं०√युज् (जोड़ना)+क्त, न० त०] [भाव० अयुक्ति] १. (पशु) जो जोता न गया हो। २. जो किसी से युक्त न हो। नि मिला हुआ, अर्थात् अलग या पृथक। ३. जो संबंध के विचार से ठीक न हो। असंबंद्ध। जो युक्ति संगत न हो। ४. जो प्रयोग या व्यवहार में न लाया गया हो। ५. अधार्मिक। ६. अनमना। अन्यमनस्क। ७. अविवाहित।
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अयुक्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] [वि० अयुक्त] १. युक्ति का अभाव। कारण बतलाने या दलील देने में असमर्थता। २. एकरूपता का अभाव। ३. असंबद्धता। गड़बड़ी। ४. किसी काम में युक्त न होने की अवस्था या भाव। योग न देना। ५. वंशा बजाने के समय उसके छेदों पर उँगलियाँ रखना।
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अयुक्शक्ति  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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अयुक्शर  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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अयुग  : वि० [सं० न० त०] १. जो युग या जोड़ा न हो। अकेला। २. (संख्या) जो सम न हो। विषम। ३. जो मिला या सटा न हो।
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अयुगक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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अयुगल  : वि० [सं० न० त०] १. जो युगल न हो। २. दे० अयुग्म।
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अयुगू  : वि० [सं० √इ+उन्, अयु√गै(शब्द)+कू] १. जिसका कोई साथी न हो। २. (लड़की) जिसकी कोई बहन न हो। स्त्री० वह स्त्री जिसे एक ही संतान होकर रह जाए, फिर कोई संतान न हो। काक-वंध्या।
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अयुग्बाण  : पुं० [सं० न० त०] कामदेव।
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अयुग्म  : पुं० [सं० न० त०] १. जो युग्म या जोड़ा न हो। अकेला। २. (संख्या) जो सम न हो। विषम। ३. जो किसी से जुड़ा या मिला न हो।
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अयुग्म-नयन (नेत्र)  : पुं० [ब० स०] अयुग्म नेत्रोंवाले, शिव।
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अयुग्म-बाण  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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अयुग्म-वाह  : वि० [ब० स०] जिसके अश्वों की संख्या विषम हो। पुं० सूर्य।
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अयुग्म-शर  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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अयुग्मच्छद  : पुं० [सं० ब० स०] १. पौधा या ऐसा वृक्ष जिसकी पत्तियाँ युग्म न हो, बल्कि अयुग्म हो। जैसे—अरहर, बेल आदि की। २. सप्तपर्ण वृक्ष। छतिवन।
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अयुच्छद  : पुं० [सं० ब० स०]-अयुग्मच्छद।
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अयुज्  : वि० [सं० √युज्(जोड़ना)+क्विन्,न० त०] १. जिसका कोई साथी न हो। अकेला। २. जो किसी के साथ जुड़ा या लगा न हो।
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अयुत  : वि० [हिं० अ+युत्] जो युत या मिला हुआ न हो। अलग। पुं० [सं० न० त०] १. गिनती में दस हजार संख्या का स्थान। २. उक्त स्थान पर पड़ने वाली संख्या।
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अयुध  : पुं० दे० ‘आयुध’।
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अयुध्य  : वि० [सं० अयोध्य] १. जो युद्ध करने या लड़ने योग्य न हो। २. जिससे युद्ध न किया जा सकता हो। ३. आयुधीय।
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अयुष  : स्त्री० दे० ‘आयुष’।
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अये  : अव्य-[सं०√इ (गति)+एच] [स्त्री० अयि] १. संबोधन सूचक शब्द। हे। २. क्रोध, विषाद, भयादि द्योतक अव्यय।
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अयोग  : वि० [न० ब०] १. अयोग्य। २. अनुपयुक्त। पुं० [सं० न० त०] १. योग का अभाव। अलग या पृथक होना। २. बिछुड़ना। वियोग होना। ३. एक-रूपता का अभाव। ४. प्राप्ति का अभाव। ५. बुरा योग। कुसमय। ६. कठिनता। संकट। ७. वह वाक्य जिसका अर्थ कठिनाई से बैठाया जाता है। कूट। ८. दुष्ट ग्रह, नक्षत्र आदि से युक्त काल।
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अयोगव  : पुं० [सं० ब० स०, नि० अच्] शूद्र जाति के पुरुष और वैश्य जाति की स्त्री से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति।
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अयोगवाह  : पुं० [सं० अयोग, न० ब०√वह्+णिच्+अच्] स्वरों और व्यंजनों के बीच के वर्णों-अनुस्वार, विसर्ग, उपध्मानीय तथा जिह्वामूलीय की संज्ञा।
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अयोगी (गिन्)  : पुं० [सं० न० त०] वह जिसने योगांगों का अनुष्ठान न किया हो अर्थात् जो योगी न हो। वि०=अयोग्य।
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अयोग्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो योग्य तथा विद्या संपन्न न हो। २. जो समझ या समर्थ न हो। ३. जो अधिकारी या पात्र न हो। ४. जो उपयुक्त संगत या सटीक न हो।
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अयोग्यता  : स्त्री० [सं० अयोग्य+तल्, टाप्] अयोग्य होने की अवस्था या भाव।
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अयोघन  : पुं० [सं० अयस्√हन् (हिंसा, गति)+अप्, व आदेश] हथौड़ा।
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अयोजाल  : पुं० [सं० ष० त०] लोहे का जाल या जाली।
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अयोद्धा (द्धृ)  : पुं० [सं० न० त०] १. वह जो योद्धा न हो। २. वह जो अच्छा योद्धा न हो।
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अयोध्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो युद्द करने योग्य न हो। २. जिसके साथ युद्ध न किया जा सकता हो। ३. अजेय।
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अयोध्या  : स्त्री० [सं० अयोध्य+टाप्] आधुनिक फैजाबाद के आस-पास के क्षेत्र का पुराना नाम, जहाँ सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी थी। साकेत।
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अयोनि  : वि० [सं० न० ब०] १. जो योनि से उत्पन्न न हुआ हो। अजन्मा। २. नित्य। ३. मौलिक। ४. अवैध रूप से उत्पन्न। पुं० १. योनि का अबाव। २. ब्रह्मा। ३. शिव।
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अयोनिज  : वि० [सं० अयोनि√जन् (उत्पत्ति)+ड] जिसकी उत्पत्ति योनि या माता पिता के लैगिक संबंधों से न हुई हो। जैसे—उदिभज देवता आदि।
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अयोनिजा  : स्त्री० [सं० अयोनिज्+टाप्] जानकी। सीता।
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अयोमय  : वि० [सं० अयस्+मयट्] १. लोहे से युक्त। २. लोहे का बना हुआ।
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अयोमल  : पुं० [सं० ष० त०] जंग। मोरचा।
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अयोमार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] लोहे की पटरियों का बना हुआ वह मार्ग जिस पर रेलें चलती हैं। रेल-मार्ग। (रेलवे)।
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अयोमुख  : वि० [सं० ब० स०] १. जो यौगिक न हो। २. जिसका योग से संबध न हो। ३. (शब्द) जो अनियमित रूप से व्युत्पन्न होने पर भी चल पड़ा हो। रूढ़।
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अयौन  : वि० [सं० न० त०] दे० ‘अलैंगिक’।
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अर  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+अच्] १. पहिये की नाबि और नेमि के बीच की आड़ी लकड़ी। आरी। २. कोना। कोण। ३. सेवार। ४. चकवा पक्षी। ५. पित्तपापड़ा। वि० १. तेज। २. थोड़ा। अव्य० जल्दी से। शीघ्रता से। स्त्री० -अड़ (जिद या हठ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरइल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष। वि०=अडियल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरई  : स्त्री० [सं० ऋ-जाना] बैल हाँकने की वह छड़ी जिसके सिरे पर नुकीला लोहा लगा रहता है।
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अरक  : पुं० [अ० अरक़] वनस्पति आदि का वह सत्त्व सार जो भभके से खींच कर निकाला जाता है। २. निचोड़कर या पकाकर बनाया हुआ रस। ३. पसीना। स्वेद। पुं० [सं० अर+कन्] १. सूर्य। २. मदार नामक पौधा। ३. पानी में होनेवाली सेवार नामक घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरक नाना  : पुं० [अ० अरक+नअनअ-पुदीना] सिरके में मिलाकर तैयार किया हुआ पुदीने का अरक या रस।
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अरकगीर  : पुं० [अ० अरक-पसीना+फा० गीर (प्रत्यय)] घोड़े की पीठ पर चारजामें के नीचे रखा जानेवाला नमदा।
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अरकटी  : पुं० [हिं० आर+काटना] नाव की पतवार सँभालनेवाला। माँझी।
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अरकना  : अ० [अनु०] १. अरराकर गिरना। २. टकराना। ३. फटना। ४. जोर से बोलना। पद—अरकना-बरकना=(क) व्यर्थ की तथा अत्यधिक बातें करना। (ख) इधर-उधर करना। टाल-मटोल करना। (ग) खींचातानी करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरकला  : पुं० [सं० अर्गल-अगरी या बेड़ा] १. रोक। रुकावट। २. मर्यादा। वि० रोकने या रुकावट करनेवाला।
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अरकसी  : स्त्री० [सं० आलस्य] आलस्य। सुस्ती। वि० [हिं० आलसी या आलसकी] आलस्य दिखाने या सुस्ती करनेवाला। सुस्त। उदाहरण
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अरकाटी  : पुं० [अरकाट (दक्षिण भारत का एक नगर)] वह ठेकेदार जो विदेशों में कुली , मजदूर आदि भेजने का काम करता है।
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अरकान  : पुं० [अ० रूक्न का बहु०] १. राज्य का प्रमुख अधिकारी। मंत्री। २. कारिंदा। गुमाश्ता। ३. उर्दू छंदों के मात्रारूप अक्षर। ४. वैभव। संपत्ति।
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अरकासार  : [?] १. तालाब। २. बाबली। (डिं०)
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अरकोल  : पुं० [सं० कौरीला] हिमालय में होने वाला लाकर नामक वृक्ष।
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अरक्षित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी रक्षा न की जाती हो अथवा न की गई हो। २. (वस्तु या व्यक्ति) जिसकी रक्षा करने वाला कोई न हो। ३. (स्थान) जिसकी सामरिक रक्षा का प्रबंध न हो।
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अरंग  : पुं० [हिं० अ+रंग] १. बुरा या खराब रंग-ढंग। २. दुर्दशा। उदाहरण—ब्याधि के अरंग ऐसे ब्यापि रहयौ आधौ अंग।—सेनापति। पुं० [सं० रंग ?] महक। सुगंध। उदाहरण—रूप के तरंगन के अंगन ते सौंधे के अरंग लै उठै पौन की।—देव।
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अरग  : पुं० दे० अर्घ। २. दे० ‘अरगजा’। अव्य० अलग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरगजा  : पुं० [?] कपूर, केसर, चंदन आदि द्रव्यों के मेल से बनाया जाने वाला एक विशिष्ट सुगंधित द्रव्य।
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अरगजी  : वि० [हिं० अरगजा] १. जिसका रंग अरगजे का सा हो। २. जिसकी सुगंध अरगजे जैसी हो। पुं० एक प्रकार का गहरा पीला रंग। (कैडमियम)
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अरगट  : वि० [हिं० अलगट] १. पृथक्। अलग। २. भिन्न। ३. निराला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरगन  : पुं० [अं० आर्गन] धौंकनी से बजनेवाला एक विलायती बाजा।
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अरगनी  : स्त्री० दे० ‘अलगनी’।
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अरगल  : पुं०=अर्गला।
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अरगाना  : अ० [हिं० अलगाना] १. अलग होना। पृथक् होना। २. किसी झगड़े से अलग होकर चुप रहना। उदाहरण—अस कहि राम हरे अरगई।—तुलसी। स० १. अलग या पृथक् करना। २. छाँटना।
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अरंगी (गिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. रंग-रहित। २. राग-रहित।
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अरग्रवान  : पुं० [फा० अर्गवान] गहरे लाल या रक्त रंग वर्ण का फूल और उसका वृक्ष।
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अरग्रवानी  : वि० [फा० अर्गवानी] जिसका रंग गहरा लाल या रक्त हो।
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अरघ  : पुं० -अर्घ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरघट्ट  : पुं० [सं० अर√घट्ट (चलना)+अच्] १. रहट। २. कूँआ।
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अरघा  : पुं० [सं० अर्घ] १. एक प्रसिद्ध लंबोत्तर पात्र जिसमें जल रखकर अर्घ दिया जाता है। २. उक्त पात्र के आकार की वह रचना जिसमें शिवलिंग स्थापित किया जाता है। जलधरी। ३. उक्त आकार की वह नाली जिसमें से होकर कुएँ की जगत का पानी नीचे गिरता है।
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अरचन  : पुं०=अर्चन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरचना  : स० [सं० अर्चन] अर्चन या पूजा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरचल  : स्त्री०=अड़चन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरचा  : स्त्री०=अर्चा।
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अरचि  : स्त्री० [सं० अर्चि] १. ज्योति। २. चमक। दीप्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरचित  : भू० कृ०=अर्चित।
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अरज  : पुं० [अ० अर्ज] चौड़ाई। पनहा। जैसे—कपड़े का अरज। स्त्री० [फा० अर्ज] नम्रतापूर्वक किसी से की हुई प्रार्थना। निवेदन। पद—अरज-गरज=आवश्यकता और उसके संबंध में की जानेवाली प्रार्थना।
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अरजना  : स० [सं० अर्जन] अर्जन या प्राप्त करना। स० [फा० अर्ज] अरज (निवेदन या प्रार्थना) करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरजम  : पुं० [देश०] कुंबी नामक वृक्ष।
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अरजल  : पुं० [अ० अर्जल] १. वह घोड़ा जिसका एक अगला (दाहिना) और दोनों पिछले पाँव एक रंग के हों। और अगला बायाँ पैर किसी और रंग का हो। ऐसा घोड़ा खराब माना जाता है। २. तुच्छ व्यक्ति। कमीना। नीच। ३. वर्ण-संकर।
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अरजस्क  : वि० [न० ब०, कप्] १. जिसमें रज या धूल न हो। २. स्वच्छ।
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अरजाँ  : वि० [फा० अर्जा] [भाव० अर्जानी] कम या थोड़े मूल्य का। सस्ता।
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अरजी  : स्त्री० [अ० अर्जी] वह पत्र जिसमें किसी अधिकारी से विनयपूर्वक प्रार्थना की गई हो। आवेदनपत्र। निवेदनपत्र। प्रार्थनापत्र। वि० गरज (निवेदन या प्रार्थना) करनेवाला। प्रार्थी।
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अरजुन  : पुं०=अर्जुन।
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अरझना  : अ०=उलझना।
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अरझा  : पुं० [देश०] घटिया जाति का सन। सनई। पुं० [हिं० अरुझना] १. उलझन। झमेला। २. झगड़ा। ३. झंझट। बखेड़ा।
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अरंड  : पुं०=एरंड (रेंड)।
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अरडींग  : वि० [?] बलवान् (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरणि  : स्त्री० [सं० √ऋ+अनि]=अरणी।
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अरणी  : पुं० [सं० अरणी+ङीष्] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. अग्नि नामक वृक्ष जिसकी लकड़ियों की रगड़ से आग जलाई जाती थी। ४. चीता नामक वृक्ष। ५. श्योनाक। सोना-पाढ़ा। ६. चकमक पत्थर।
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अरणी-सुत  : पुं० [सं० न० त०] शुक्रदेव।
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अरण्य  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+अन्य] १. वह विस्तृत भू-भाग जो वृक्षों और झाड़ियों से भरा हो। जंगल। वन। २. दशनामी संन्यासियों के दस भेदों में से एक। ३. कायफल।
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अरण्य-गान  : पुं० [सं० त०] १. वन में एकांत स्थान पर गाया जानेवाला गीत। २. लाक्षणिक अर्थ में, वह सुंदर काम या बात जिसे देखने-सुनने या समझनेवाला कोई न हो।
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अरण्य-चंद्रिका  : स्त्री० [सं० त०] ऐसी चंद्रिका (श्रंगार या शोभा) जिसे देखने या समझनेवाला कोई न हो।
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अरण्य-पंडित  : पुं० [सं० त०] वह जो वन (अर्थात् निर्जन स्थान) में ही अपना गुँ या पांडित्य प्रकट कर सके।
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अरण्य-पति  : पुं० [ष० त०] सिंह।
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अरण्य-मक्षिका  : स्त्री० [ष० त०] डाँस। मच्छर।
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अरण्य-यान  : पुं० [सं० त०] १. जंगल की ओर प्रस्थान करना। २. वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना।
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अरण्य-राज  : पुं० [ष० त०] सिंह।
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अरण्य-रोदन  : पुं० [सं० त०] ऐसी चिल्लाहट, पुकार या व्यथा निवेदन जिसकी ओर कोई ध्यान न देने वाला हो।
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अरण्य-विलाप  : पुं० [सं० त०]=अरण्य-रोदन।
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अरण्य-षष्टी  : स्त्री० [मध्य० स०] एक व्रत जो ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी को किया जाता है।
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अरण्यक  : पुं० [सं० अरण्य+कन्] १. जंगल। वन। २. जंगल में रहनेवाला समाज।
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अरण्यानी  : स्त्री० [सं० अरण्य+ङीष्, आनुक्] १. बहुत बड़ा वन। २. मरुस्थल। रेगिस्तान। ३. वन की देवी।
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अरण्यीय  : वि० [सं० अरण्य+छ-ईय] १. जंगलवाला। २. जो जंगल के निकट पास या समीप स्थित हो। पुं० वह भू-भाग जिसमें वन हो।
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अरत  : वि० [न० त०] १. जो किसी काम या रत या लगा हुआ न हो। २. जो अनुरक्त न हो। ३. विरक्त।
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अरति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. रत न होने की अवस्था या भाव। २. (किसी से) अनुराग या प्रीति न होना। (एपथी) ३.विरक्ति। ४. असंतोष। ५. आलस्य। सुस्ती। ६. व्यथा। ७. वह कर्म जिसका उदय होने पर किसी काम में मन न लगे। (जैन)
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अरत्नि  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+कत्नि, न० त०] १. बाहु। बाँह। २. कोहनी। ३. हाथ की बँधी हुई मुट्ठी। ४. कोहनी से लेकर कनिष्ठा के सिरे तक की नाप।
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अरथ  : पुं०=अर्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरथाना  : स० [सं० अर्थ] १. अर्थ या माने लगाना। २. विस्तारपूर्वक अर्थ या आशय बतलाना। पूरी व्याख्या करना। समझाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरथी  : पुं० [सं० अरथिन्] जो रथ पर सवार न हो। अर्थात् पैदल। पुं० [सं० रथ] वह तख्ता या सीढ़ी जिसपर मृत शरीर अंत्येष्टि क्रिया के लिए श्मशान ले जाया जाता है। रत्थी। रक्षी। वि०=अर्थी।
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अरद  : वि० [सं० न० ब०] जिसके दाँत न हो। बिना दाँतोंवाला।
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अरदंड  : पुं० [देश०] एक प्रकार का करील (वृक्ष)।
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अरदन  : वि० [सं० ] बिना दांत का। पुं०=अर्दन।
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अरदना  : स० [सं० अर्द्दन] १. कष्ट पहुँचाना। २. नष्ट करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरदल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष।
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अरदली  : पुं० [अं० आँर्डली] वह चपरासी जो बड़े किसी अधिकारी के आगे-पीछे चलता हो और उसकी छोटी-छोटी आज्ञाओं का पालन करता हो। मुहावरा—(किसी के) अरदली में चलना या रहना=किसी के आगे या पीछे अनुचर बनकर चलना या रहना।
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अरदाना  : स० [सं० अर्दन] कुचलने का काम किसी दूसरे से कराना। अ० कुचला जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरदावा  : पुं० [सं० अर्द से फा० आर्द] १. दला या कूटा हुआ अन्न। २. किसी चीज का कुचला हुआ और नष्ट-भ्रष्ट रूप। ३. भर्ता या भुरता नाम का सालन। चोखा।
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अरदास  : स्त्री० [फा० अर्ज़दाश्त] १. निवेदन। प्रार्थना। उदाहरण—किय अरदासि ततांर तुच्छव रोज अज्ज रहो गेहे।—चंदवरदाई। २. कोई शुभकाम आरंभ करते समय किसी देवता से की जानेवाली मंगल कामना।
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अरध  : अव्य० [सं० अधः] १. अंदर। भीतर। २. नीचे। तले। वि० -अर्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरधंग  : पुं०=अर्द्धांग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरधंगी  : स्त्री०=अर्द्धांगी।
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अरधंत  : अव्य० [सं० अधस्] नीचे। उदाहरण—अरधंत कवल उरधंत मध्ये प्राण पुरिस का बासा।—गोरखनाथ।
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अरंधन  : पुं० [सं० न० त०] सिंह संक्राति तथा कन्या संक्रांति को किया जानेवाला एक व्रत।
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अरधान  : स्त्री० [सं० आघ्राण-सूँघना] गंध। महक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरधानी  : स्त्री० [हिं० अरघान]-अरघान। (सुगंध)। उदाहरण—बिसहर लुरहिं लेहिं अरघानी।—जायसी।
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अरधाली  : स्त्री०=अर्द्धाली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरन  : पुं० [हिं० अड़न या अंग्रेजी आयरन-लोहा ?] एक तरह की निहाई जिसके एक ओर या दोनों ओर नोक निकली होती है। पुं०=अरण्य। स्त्री०=अड़न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरना  : पुं० [सं० अरण्य] भैसे की तरह का एक वन्य पशु। अ०=अड़ना।
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अरनी  : स्त्री० दे० ‘अरणी’।
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अरन्य  : पुं०=अरण्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरपन  : पुं०=अर्पण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरपना  : स० [सं० अर्पण] १. अर्पण करना। सौपना। २. भेंट करना। देना। अ० [?] आरूढ़ होना। चढ़ना। उदाहरण—फनी फनन पर अरपे डरपे नहिन नैकु तब।—नंददास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरपा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का मसाला।
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अरपित  : भू० कृ०=अर्पित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरब  : पुं० [सं० अर्बुद्ध] सौ करोड़ की सूचक संख्या। जो गिनती में से सौ करोड़ हो। पुं० [अ०] १. पश्चिमी एशिया का एक प्रसिद्ध रेगिस्तान देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त देश का घोड़ा जो बहुत अच्छा और तेज होता है। पुं० [सं० अर्वन्] १. घोड़ा। २. इंद्र।
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अरबर  : वि० [अनु] १. ऊँचा-नीचा या टेढ़ा-मेढ़ा। बेढ़ंगा। २. असंबद्ध। ऊँट-पटाँग। ३. कठिन। विकट। स्त्री० व्यर्थ की ऊट-पटांग या धृष्टतापूर्वक बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरबरना  : अ०=अरबराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरबरा  : वि० [अ०] १. इधर-उधर हिलते हुए। २. चंचल। ३. घबराया हुआ। विकल। ४. टक लगाकर या स्थिर दृष्टि से देखनेवाला। ५. प्रेम में मग्न या विहृल। उदाहरण—(क) ताकौं निरखि नैन अरबरे। (ख) बहुत सरद ससि माँहि अरबरे द्धै चकोर ज्यों।—नंददास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरबराना  : अ० [अनु] [भाव० अरबरी] १. व्याकुल होना। घबराना। २. चलने में लड़खड़ाना। ३. प्रेम मग्न या विह्वल होना। ४. तड़पना। ५. व्यर्थ की या उद्दंडतापूर्वक बातें करना। बड़बड़ाना। ६. जल्दी मचाना। हड़बड़ी करना।
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अरबरी  : स्त्री० [अनु०] १. घबराहट। २. बेचैनी। विकलता। ३. विह्वलता। ४. जल्दी। ५. भगदड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरबिस्तान  : पुं० [फा०] अरब देश।
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अरबी  : वि० [फा०] अरब देश में होनेवाला। अरब संबंधी। पुं० १. अरब देश का घोड़ा जो बहुत अच्छा माना जाता है। २. ताशा नामक वाद्य-वृंद। स्त्री० १. अरब देश की भाषा। २. वह लिपि जिसमें उक्त भाषा लिखी जाती है। स्त्री०=अरवी।
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अरबीला  : वि० [अनु०] १. तेज-पूर्ण। २. आन-बानवाला। ३. हठ करने या अड़नेवाला। हठी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरब्बी  : वि०=अरबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरंभ  : पुं० =आरंभ। पुं० [सं० रंभ] १. हलचल। २. नाद। शब्द। ३.शोर। हल्ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरभक  : पुं०=अर्भक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरंभना  : अ० [सं० आ√र्मभ्-श्बद करना] १. बोलना। नाद करना। २. रंबाना। स० [सं० आरम्भ] आरंभ या शुरू करना। अ० आरंभ या शुरू होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरमण  : वि० [सं० न० ब०] १. जो रमण (मन-बहलाव) न कर सके। जिसमें मन न लगे, फलतः अरुचिकर, असंतोषजनक या कुरूप। २. जिसमें रमण न किया जा सके, फलतः बुरा।
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अरमनी  : वि० [फा० अर्मनी] आरमेनिया देश का या वहां रहनेवाला। पुं० आरमेनिया देश का निवासी। स्त्री० आरमेनिया देश की भाषा।
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अरमाण  : वि० [न० त०]=अरमण।
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अरमान  : पुं० [तु० अर्मान] १. मन में दबी हुई चाह या लालसा। मुहावरा—अरमान निकलना=लालसा पूरी होना। २. पछतावा। पश्चात्ताप।
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अरर  : अव्य० [अनु] विस्मय, विकलता, व्यग्रता आदि का सूचक अव्यय। पुं० [सं० ] १. कपाट। किवाड़। २. ढक्कन। ३. युद्ध। लड़ाई। ४. उल्लू-पक्षी। ५. मैनफल।
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अररना  : स० [अनु०] १. कुचलना, दलना या पीसना। २. बुरी तरह से नष्ट करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरराना  : अ० [अनु०] अरर शब्द करते हुए सहसा गिरना या टूटना।
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अररु  : पुं० [सं० √ऋ+अरू] १. शत्रु। २. एक प्रकार का शस्त्र।
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अरलु  : पुं० [सं० अर√ला (लेना)+कु] १. श्योनाक वृक्ष। सोना पाढ़ा। २. कडुवी लौकी। अलाबू।
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अरवन  : पुं० [सं० अ+हिं० लवना-फसल काटना] पहले पहल या कच्ची काटी जाने वाली फसल।
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अरवल  : पुं० [देश०] घोड़े कान के पास होने वाली एक भौंरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरवा  : पुं० [सं० अ-नहीं+हिं० लावना=जलाना, भूनना] धान को यों ही कूटकर, बिना उबाले निकाला हुआ चावल। ‘भुजिया’ का विरुद्धार्थक। पुं० [सं० आलय=स्थान] आला। ताखा।
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अरवाती  : स्त्री०=ओलती (छाजन की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरवाह  : स्त्री० [फा०] लड़ाई। झगड़ा। स्त्री० [अ० अर्वाह, रूह का बहुवचन] १. आत्माएँ। २. अप्सराएँ, देवदूत, भूत-प्रेत आदि।
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अरवाही  : वि० [फा०] झगड़ाली। लड़ाका।
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अरविंद  : पुं० [सं० अर√विद् (लाभ)+श] १. कमल। २. ताँबा। ३. सारस। (पक्षी)।
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अरविंद योनि  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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अरविंद-नयन  : वि० पुं०=कमल-नयन।
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अरविंद-नाभ  : पुं० [ब० स० अच्] विष्णु।
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अरविंद-बन्धु  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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अरविंद-लोचन  : वि० पुं०=कमल-नयन।
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अरविंदाक्ष  : पुं० [अरविंद-अक्षि, ब० स०] विष्णु।
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अरविंदिनि  : स्त्री० [सं० अरविन्द+इनि-ङीष्] १. कमलों का समुदाय। २. कमलिनि।
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अरवी  : स्त्री० [सं० आलु] १. पान के पत्ते के आकार के बड़े-बड़े पत्तोंवाला कंद। २. उक्त कंद के लंबोत्तर फल जिनकी तरकारी बनाई जाती है। अरुई।
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अरवेध  : पुं० [सं० प्रा० सं० ] ऐसा वेष जो उचित या उपयुक्त स्थान पर न हुआ हो।
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अरस  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें रस न हो। बिना रस का। नीरस। २. बिना स्वाद का। फीका। ३. अनाड़ी। गँवार। पुं० रस का न होना। रस का अभाव। पुं० [सं० अलस] आलस्य। उदाहरण—पुनि सिंगार करि अरस नेवारी।—जायसी। पुं० [अ० अर्श-आकाश] १. आकाश। उदाहरण—सेनापति जीवन अधार निरधार तुम, जहाँ कौ ढरत तहाँ टूटत अरस तें।—सेनापति। २. स्वर्ग। ३. बहुत ऊँचा भवन। जैसे—घरहरा या महल। ४. कमरे की छत या पाटन।
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अरस-परस  : पं० [सं० दर्शन+स्पर्शन] १. हाथ से छूना। स्पर्श करना। २. दर्शन और अंगस्पर्श। ३. ब्रज में लड़कों का एकखेल। (कदाचित आँखमिचौनी)।
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अरसथ  : पुं० [देश०] वह बही जिसमें मासिक आय-व्यय का लेखा लिखा जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसन-परसन  : पुं०=अरस-परस।
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अरसना  : अ० [सं० अलस] १. आल्सय से युक्त होना। २. ढीला, मंद या शिथिल होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसना-परसना  : स० [सं० स्पर्शन] १. स्पर्श करना। छूना। २. गले लगाना। आलिंगन करना। ३. अच्छी तरह देखना-भालना। (क्व०)।
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अरसा  : पुं० [अ० अर्सः] १. काल। समय। जैसे—इसी अरसे में वह भी आ पहुँचा। २. अधिक समय़। बहुत दिन। जैसे—अरसे से आप का खत नहीं आया। ३. देर। विलंब। ४. शतरंज की बिसात।
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अरसात  : पुं० [सं० अलस=आलस्य] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सात भगण और एक रगण होता है।
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अरसाना  : अ० [सं० अलस] १. आलस्य से युक्त होना। २. आलस या सुस्ती करना। अलसाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो रसिक (प्रेम का मर्मज्ञ) न हो। रूखा। २. जिसे किसी विशिष्ट विषय, विशेषतः काव्य, श्रंगार, संगीत आदि में रस न मिलता हो। रूखे स्वभाववाला।
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अरसी  : स्त्री० १. =अलसी। २. =आरसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसीला  : वि० [सं० अलस] [स्त्री० अरसीली] आलस्यपूर्ण। आलस्य से भरा हुआ। जैसे—अरसीली मुद्रा। वि० [हिं० अ+रसीला] १. जिसमें रस या स्वाद न हो। २. अरसिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसौहा  : वि० [हिं० अरस-आलस्य+औंहाँ(प्रत्यय)] आलस्य से भरा हुआ। जैसे—अरसौंहें नैन।
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अरस्तू  : पुं० [अ०] यूनान का एक प्रसिद्ध विद्वान और दार्शनिक (३८४-३२२ ई० पू०)। (अरिस्टाटल)
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अरहट  : पुं० =रहट (कुएँ से पानी निकालने का)।
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अरहंत  : पुं० दे०=अर्हत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरहन  : पुं० [सं० रन्धन] तरकारी, साग आदि पकाते समय उसमें डाला या मिलाया जानेवाला आटा या बेसन। पुं० दे० ‘निहाई’।
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अरहना  : स० [सं० अर्हण] आराधन करना। पूजा करना। स्त्री० [सं० अर्हण] पूजा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरहर  : स्त्री० [सं० आढ़की, पा० अड्ढकी] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके दाने चने के दाल जैसे होते हैं। तुअर। २. उक्त पौधे के दाने जिनकी दाल बनाई जाती है।
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अरहस्  : पुं० [सं० न० त०] रहस्य या गुप्त भेद का अभाव।
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अरहित  : वि० [सं० न० त०] १. रहित का विपर्याय। २. भरा-पूरा। ३. संपन्न।
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अरहेड़  : स्त्री० [सं० हेड़] चौपायों का झुंड। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरा  : स्त्री० [सं० अर+टाप्] गाड़ी के पहियों की वह चौड़ी पटरी जो पहियों की गड़ारी और पुट्ठी के बीच में जड़ी रहती है। उदाहरण—नवरस भरी अराएँ अविरल चक्रवाल को चकित चूमती।—प्रसाद। पुं०=आरा (लकड़ी चीरने का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अराअरी  : स्त्री० [हिं० अड़ना] १. एक दूसरे के सामने खड़े रहना। २. अ ड़। जिद। हठ। ३. लाग-डाँट। होड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराक  : पुं०=इराक।
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अराकान  : पुं० [सं० अरि-राक्षस+सं० ग्राम, बरमी० कान=देश] बरमा देश का एक प्रांत जो भारतीय सीमा के पास पड़ता है।
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अराकी  : वि०=इराकी।
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अराग  : पुं० [न० त०] राग का अभाव। अ-रति। वि० [सं० न० ब०] राग से रहित।
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अरागी (गिन्)  : वि० [सं० न० त०] जिसमें राग (प्रेम, रंग, मनोविकार आदि) का अभाव हो।
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अराज  : वि० [सं० न० ब०] १. बिना राजा का (देश) २. क्षत्रियों से रहित। ३. दे० ‘अराजकता’।
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अराजक  : वि० [सं० न० ब० कप्] [भाव० अराजकता] १. शासक या शासन-हीन (राज्य या राष्ट)। २. जो शासक या शासन की सत्ता न मानता हो अथवा उसका उल्लंघन या विरोध करता हो। ३. विद्रोही या षड़यंत्रकारी। (अनार्किस्ट)
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अराजकता  : स्त्री० [सं० अराजक+तल्, टाप्] १. देश में राजा या शासक का न होना या न रह जाना। २. समाज की वह अवस्था जिसमें किसी प्रकार का तंत्र, विधि, व्यवस्था या शासन न रह गया हो। (अनार्की)
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अराजकता-वाद  : पुं० [ष० त०] वह सिद्धांत या मतवाद जो यह प्रतिपादित करता है कि शासन अभिशाप या पाप है, क्योंकि यह व्यक्तियों की स्वतंत्रता को कम करता है और उन पर तरह-तरह के बंधन लगाता है। (अनार्किज्म)
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अराजकतावादी (दिन्)  : वि० [सं० अराजकता√वद्(बोलना)+णिनि] अराजकतावाद का अनुयायी, प्रतिपादक या समर्थक।
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अराजन्य  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जो राजन्य या क्षत्रिय न हो। २. [न० ब०] (राज्य) जिसमें क्षत्रिय न हो।
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अराजी  : स्त्री० [अ० अर्ज का बहु०] १. धरती। भूमि। २. खेती बारी के काम में आनेवाली जमीन।
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अराड़  : पुं० [सं० अट्टाल] १. ढेर। राशि। २. काठ-कबाड़ अर्थात् टूटे-फूटे समान का बहुत बड़ा और ऊँचा ढेर। ३. वह दूकान या स्थान जहाँ जलाने की लकड़ी बिकती है।
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अराड़ना  : अ० [?] गर्भपात या गर्भ-स्राव होना। (पशुओं के लिए प्रयुक्त)
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अरात  : पुं० [सं० अराति] शत्रु। दुश्मन। उदाहरण—नहिं राती है प्रीति सौं है अरात पै रात।—रसनिधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराति  : पुं० [सं०√रा (दान)+क्तिच्, न० त०] १. दुश्मन। शत्रु। २. शास्त्रों में, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर ये छः मनोविकार जो मनुष्य के सद्गुण और सुख नष्ट कर देते हैं। ३. उक्त के आधार पर छः की संख्या। ४. ज्योतिष में, जन्म-लग्न से छठा स्थान। विशेष गे० ‘अरि’।
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अराद्धि  : स्त्री० [सं० √राध्(सम्यक् सिद्धि)+क्तिन्, न० त०] १. दुर्भाग्य। २. विफलता। ३. अपराध। दोष। ४. पाप।
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अराधन  : पुं०=आराधन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराधना  : स० [सं० आराधन] १. आराधना या उपासना करना। २. अर्चन, पूजा आदि करना। ३. मन में किसी का ध्यान करके कुछ मनाना। स्त्री० दे० ‘आराधना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराधी  : पुं०=आराधक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराना  : पुं०=अड़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अराबा  : पुं० [अ० अराबः] १. पुरानी चाल की गाड़ी या रथ। २. तोप लादने की गाड़ी। तोप-गाड़ी। (गन कैरज)
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अराम  : पुं०=आराम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरारूट  : पुं० [अ० एरोरूट] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके कंद को कूटकर सत्त निकाला जाता है। २. उक्त पौधे का सफेद सत्त जो छोटे दानों के रूप में होता और रोगियों के लिए पथ्य का काम देता है।
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अरारोट  : पुं०=अरारूट।
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अराल  : वि० [सं०√ऋ+विच्-अर-आ√ला+क] [स्त्री० अराला] १. टेढ़ा, तिरछा या वक्र। २. घुँघराला (जैसे—बाल) ३. अपवित्र। पुं० १. मतवाला या मस्त हाथी। २. राल। ३. सिर के बाल। केश।
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अरावल  : पुं०=हरावल।
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अरावली  : स्त्री० [सं० ] राजस्थान की एक प्रसिद्ध पहाड़ी।
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अरि  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+इन्] [भाव अरिता] १. वह जो किसी को आघात या पीड़ा पहुँचावे, फलतः विरोधी या वैरी। २. शास्त्रों के अनुसार काम, क्रोध, मत्सर, मद, मोह और लोभ जो मनुष्य का परम अहित करते हैं। ३. उक्त छः दोषों के आधार पर छः की संख्या। ४. जन्म-कुंडली से लग्न से छठा स्थान, जहाँ से शत्रुभाव का विचार होता है। ५. वायु। ६. मालिक। ७. चक्र। ८. दुर्गंध खैर। विट्खदिर।
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अरि-केशी  : पुं० [ब० स०] केशी के शत्रु। कृष्ण।
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अरि-दमन  : वि० [ष० त०] शत्रु का नाश या दमन करनेवाला। पुं० शत्रुघ्न का एक नाम।
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अरि-मेद  : पुं० [ब० स०] १. विट् खदिर। दुर्गध खैर। २. गँधिया नाम का बदबूदार कीड़ा।
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अरिंज  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सफेद बबूल।
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अरिता  : स्त्री० [सं० अरि+तल्-टाप्] शत्रुता। दुश्मनी।
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अरित्र  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+इत्र, न० त०] १. नाव खेने का डाँड़ा। २. वह डोरी जिससे जल की गहराई नापी जाती है। ३. जहाज या नाव का लंगर। वि० शत्रु से रक्षा करनेवाला।
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अरिंद  : पुं० [सं० अरि-इंद्र] वैरी या शत्रु।
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अरिध्न  : वि० [सं० अरि√हन् (हिंसा)+क] शत्रुओं का नाश करनेवाला। पुं० शत्रुघ्न।
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अरिमर्दन  : वि० [सं० अरि√मृद् (मर्दन करना)+ल्युट्, उप० स०]-अरि-दमन।
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अरिया  : स्त्री० [देश०] मछली कानेवाली एक छोटी चिड़िया जो पानी के किनारे रहती है। ताक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरियाना  : स० [सं० अरे] अरे कहकर (अर्थात् तिरस्कारपूर्वक) बातें करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरिल्ल  : पुं० [सं० अरिला] सोलह मात्राओं का एक छंद जिसके अंत में दो लघु होते है।
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अरिवन  : पुं० [देश०] रस्सी का वह फँदा जिसमें घड़ा आदि फँसाया जाता है।
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अरिष्ट  : पुं० [सं०√रिष् (हिंसा)+क्त, त०] १. कष्ट। क्लेश। २. आपत्ति। विपत्ति। ३. अपशकुन। अशुभ लक्षण। ४. कोई प्राकृतिक उत्पात। जैसे—अग्नि-कांड, भूकंप आदि। ५. दुर्भाग्य। ६. लंका के एक पर्वत का नाम। ७. एक राक्षस जो श्रीकृष्ण के हाथों से मारा गया था। वृषभासुर। ८. बलि के पुत्र एक दैत्य का नाम। ९. रीठा। १. लहसुन। ११. नाम। १२. कौआ। १३. गिद्ध। १४. दही का मट्ठा। १५. सूतिका ग्रह। सौरी। १६. वैद्यक में एक प्रकार का पौष्टिक मद्य या मादक पेय पदार्थ। १७. ज्योतिष में, दुष्ट ग्रहों का एक योग जो मृत्युकारक माना गया है। १८. प्राचीन भारत की एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना। (क्व०) वि० १. दृढ़। पक्का। २. अविनाशी। ३. अशुभ।
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अरिष्ट-गृह  : पुं० [ष० त०] प्रसव-गृह। सौरी।
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अरिष्टक  : पुं० [सं० अरिष्ट+कन्] १. रीठा। २. निर्मली।
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अरिष्टमतन  : पुं० [सं० अरिष्ट√मन्थ् (मथना)+णिच्+ल्यु-अन] १. शिव। २. विष्णु।
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अरिष्टमनेमि  : पुं० [सं० ] १. सोलहवें प्रजापित का नाम। २. राजा सगर के श्वसुर का नाम। ३. कश्यप का एक पुत्र। ४. जैनों के बाइसवें तीर्थकार का नाम।
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अरिष्टसूदन  : पुं० [सं० अरिष्ट√सूद् (मारना)+णिच्ल्यु-अन] विष्णु।
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अरिष्टा  : स्त्री० [सं० अरिष्ट+टाप्] दक्ष प्रजापति की एक पुत्री जिसका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ था।
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अरिष्टिका  : स्त्री० [सं० अरिष्ट+कन्, टाप्, इत्व] १. रीठा। २. कुटकी।
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अरिसूदन  : वि० [सं० अरि√सूद् (मारना)+णिच्ल्यु-अन] शत्रुओं का नाश करनेवाला।
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अरिहन  : पुं० [सं० अरिघ्न] शत्रुघ्न। वि० शत्रु का नाश करनेवाला। पुं० [सं० अर्हत्] १. जैनों के जिन देव। २. दे० ‘अरहन’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरिहा  : वि० [सं० अरि√हन् (हिंसा)+विच्] शत्रुनाशक। पुं० शत्रुघ्न। पुं० =अहित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरी  : अव्य० [हिं० अरे का स्त्री०] स्त्रियों के लिए संबोधन सूचक अव्यय। जैसे—अरी, तू कहाँ गई थी ?
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अरीठा  : पुं० [सं० अरिष्ट, प्रा० अरिट्ठा] रीठा।
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अरीत  : स्त्री० [हिं० अ+रीति] रीति के विरुद्ध होनेवाला आचरण। अनुचित या बुरा काम।
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अरीतिक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जो नियम रीति आदि के अनुसार न हो या न हुआ हो। २. जो औपचारिक न हो। शिष्टाचार रहित। ३. आपसी तौर पर होनेवाला। (इन-फाँर्मल, उक्त सभी अर्थों के लिए)।
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अरु  : अव्य० [सं० अपर] और। पुं० [सं०√ऋ (गति)+उन] १. लाल खैर। २. अर्क वृक्ष। ३. सूर्य। ४. जख्म। घाव। ५. कोमल अंग। ६. नेत्र। आँख।
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अरुआ  : पु० [सं० आलु] १. एक प्रकार का कंद जिसकी तरकारी बनती है। २. एक वृक्ष जिसकी लकड़ी ढोल, तलवार की म्यान बनाने के काम आती है।
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अरुई  : स्त्री०=अरवी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुक्ष  : वि० [सं० न० त०] जो रुक्ष या रुखा न हो, फलतः कोमल या स्निग्ध।
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अरुगाना  : [सं० अनुगायन] अच्छी तरह समझाकर कोई बात कहना। उदाहरण—समौ पाय कहियो अरुगाई।—नंददास।
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अरुग्ण  : वि० [सं० न० त०] जो रुग्ण न हो। निरोग। तंदुरस्त।
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अरुचि  : स्त्री० [सं० न० त०] १. रुचि या प्रवृत्ति का अभाव। अनिच्छा। २. अग्निमांद्य नामक रोग। ३. दिलचस्पी न होना। रस न लेना। घृणा।
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अरुचि-कर  : वि० [सं० न० त०] जो रुचिकर न हो।
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अरुच्य  : वि० [सं० न० त०] =अरुचि-कर।
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अरुज  : वि० [सं० न० ब०] जिसे कोई रोग न हो। निरोग। पुं० १. अमलतास। २. केसर। ३. सिंदूर।
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अरुझना  : अ०=उलझना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुझाना  : स०=उलझाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुझाव  : पुं०=उलझन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुझैरा  : पुं० [हिं० अरुझना] उलझन। उदाहरण—नौ मन सूत अरुझि नहिं सुरझै जनम जनम अरुझेरा।—कबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुट्ठ  : वि०=रूष्ट।
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अरुण  : वि० [सं०√ऋ (गति)+उनन्] [स्त्री० अरुणा भाव० अरुणता, अरुणिमा] लाल रंग का। रक्त वर्ण का। सुर्ख। पुं० [सं० ] १. गहरा लाल रंग। २. सूर्य। ३. बारह आदित्यों में से एक जिसका प्रकाश माघ महीनें में रहता है। ४. सूर्य का सारथी। ५. संध्या के समय पश्चिम में दिखाई देने वाली लाली। ६. कुंकुम। ७. सिंदूर। ८. उद्दालक ऋषि के पिता का नाम। ९. एक झील जो मदार पर्वत पर मानी गई है। १. एक प्रकार के पुच्छल तारे जिनकी चोटियाँ चँवर की तरह होती है। ११. एक प्रकार का कुष्ट रोग जिसमें शरीर का चमड़ा लाल हो जाता है। १२. पुन्नाग नामक वृक्ष।
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अरुण-कर  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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अरुण-किरण  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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अरुण-चूड़  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसकी चोटी या शिखा लाल हो। २. मुर्गा।
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अरुण-ज्योति (स्)  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अरुण-नेत्र  : पुं० [ब० स०] १. कबूतर। २. कोयल।
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अरुण-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. सूर्य की स्त्रियाँ छाया और संज्ञा। २. एक अप्सरा का नाम।
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अरुण-मल्लार  : पुं० [कर्म० स०] मल्लार राग का एक भेद जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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अरुण-शिखा  : पुं० [ब० स०] मुर्गा, जिसकी चोटी लाल होती है।
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अरुणता  : स्त्री० [सं० अरुण+तल्-टाप्] १. अरुण होने की अवस्था या भाव। २. ललाई। लाली।
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अरुणा  : स्त्री० [सं० अरुण+अच्-टाप्] १. प्रातःकाल की पूर्व दिशा की लाली। २. उषा। ३. लाल रंग की गौ। ४. मंजीठ। ५. अतिविषा। ७. गोरखमुंडी। ८. निसोथ। ९. इंद्रायन। १. घुँघची। ११. एक प्राचीन नदी।
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अरुणाई  : स्त्री०=अरुणता (लाली)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुणाग्रज  : पुं० [अरुण-अग्रज, ब० स०] गरुड़।
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अरुणात्मज  : पुं० [अरुण-आत्मज, ष० त०] अरुण के पुत्र। जैसे—कर्ण, जटायु, यम, शनि, सुग्रीव आदि।
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अरुणात्मजा  : स्त्री० [सं० अरुणात्मज+टाप्] १. सूर्य की पुत्री। यमुना नदी। २. ताप्ती नदी।
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अरुणानुज  : पुं० [अरुण-अनुज, ष० त०] गरुड़।
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अरुणाभ  : वि० [अरुण-आभा, ब० स०] जो लाल आभा से युक्त हो। लाली दिये हुए।
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अरुणाभा  : स्त्री० [अरुण-आभा, कर्म० स०] सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय का सूर्य का मद्धिम प्रकाश। (ट्वाइलाइट)
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अरुणार  : वि०=अरुनारा।
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अरुणाश्व  : पुं० [अरुण-अश्व, ब० स०] मरुत्। वायु।
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अरुणित  : भू० कृ० [सं० अरुण+इतच्] १. जिसे लाल किया या बनाया गया हो। २. जिसमें लाली आ गयी हो।
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अरुणिमा  : स्त्री० [सं० अरुण+इमानिच्] अरुण होने का गुण या भाव। ललाई। लाली।
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अरुणोद  : पुं० [ब० स० अरुण-उदक, उद आदेश] १. जैनियों के अनुसार एक समुद्र जो पृथ्वी को आवेष्ठित किए है। २. लाल सागर।
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अरुणोदक  : पुं० [अरुण-उदय ब० स०]=अरुणोद।
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अरुणोदधि  : पुं० [अरुण-उदधि कर्म० स०] अरब और मिस्र के बीच का सागर। लाल सागर।
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अरुणोदय  : पुं० [अरुण-उदय, ब० स०] दिन निकलने से कुछ पहले का समय जब सूर्य की लाली दिखाई देने लगती है। उषाकाल। भोर। तड़का।
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अरुणोदय-सप्तमी  : स्त्री० [मध्य० स०] माद्य-शुक्ला सप्तमी।
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अरुणोपल  : पुं० [अरुण-उपल, कर्म० स०] पद्यराग मणि। लाल नामक रत्न।
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अरुंतुद  : वि० [सं० अरु√तुद्+खस्, मुम्] १. मर्मस्थान पर आघात करनेवाला। २. मन को दुःखी करनेवाला। ३. काटने, छेदने या घाव करनेवाला। पुं० बैरी । शत्रु।
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अरुंधती  : स्त्री० [सं० न० त०] १. वशिष्ठ मुनि की स्त्री। २. दक्ष प्रजापति की के कन्या जो धर्म को ब्याही गई थी। ३. सप्तर्षि मंडल का एक छोटा तारा। ४. तंत्र शास्त्र में, जिह्वा। जीभ।
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अरुन  : वि०=अरुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुन-चूड़  : पुं०=अरुण चूड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनई  : स्त्री०=अरुणाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनता  : स्त्री०=अरुणता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनशिखा  : पुं०=अरुणशिखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनाई  : स्त्री०=अरुणाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनाना  : अ० [सं० अरुण] अरुण या लाल होना। स० अरुण या लाल करना।
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अरुनारा  : वि० [सं० अरुण] जिसका रंग लाल हो। लाल रंगवाला।
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अरुनोदय  : पुं० =अरुणोदय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुरना  : अ० [?] संकुचित होना। सिकुड़ना। उदाहरण—नीकी दीठ तूख सी, पतूख सी अरुरि अंग ऊख सी मसरि मुख लागति महूख सी।—देव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुराना  : स० [?] १. ऐंठना। मरोड़ना। २. सिकोड़ना। अ० =अरुरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुवा  : पुं० [सं० अरु] १. एक लता जिसके पत्ते पान की लता के पत्तों के सदृश्य होते हैं। २. दे० अरुआ। पुं० [हिं० रुरुआ] उल्लू पक्षी।
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अरुंषिका  : स्त्री० [सं० अरूष्+ठन्, पृपो० मुम] रक्त के विकार से होनेवाला एक रोग जिसके कारण माथे और मुँह पर फोड़े निकल आते है।
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अरुषी  : स्त्री० [सं०√रूष् (क्रोध)+क, न० ब०, ङीष्] १. उषा। २. ज्वाला। ३. भृगु ऋषि की पत्नी का नाम।
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अरुष्क  : पुं० [सं० अरुस्√कै (पीड़ा)+क,०] १. भिलावाँ। २. अडूसा।
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अरुष्कर  : वि० [सं० अरुस्√कृ (करना)+ट] घात या हानि करनेवाला।
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अरुहा  : पुं० [सं०√रुह् (उत्पत्ति)+क-टाप्, न० त०] भुइँ-आँवला।
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अरूक्षना  : अ०=उलझना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरूढ़  : वि०=आरूढ़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरूप  : वि० [न० ब०] १. जिसका कोई रूप या आकार न हो। निराकार। २. कुरूप। भद्दा। ३. असमान। पुं० १. [न० त०] १. रूप का अभाव। २. बुरी आकृति। ३. [न० ब०] वेदांत में ब्रह्म की एक संज्ञा।
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अरूपक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जिसका कोई आकार या रूप न हो। २. रूपक अलंकार से रहित। पुं० योग की एक अवस्था जिसे निर्बीज समाधि भी कहते है।
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अरूपावचर  : पुं० [अरूप-अवचर, ब० स०] वह चित्तवृत्ति जिसमें अरूप लोक का ज्ञान प्राप्त होता है। (बौद्ध)
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अरूरना  : अ० [सं० अरूस्-घाव] दुःखी या पीड़ित होना। स०दुःखी या पीड़ित करना। अ० दे० ‘अरुरना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरूलना  : अ० [सं० अरूस्-क्षत, घाव] १. छिलना। २. छिदना। ३. क्षत-विक्षत होना। उदाहरण—छत आजु को देखि कहौगी कहा छतिया नित ऐसे अरूलति है।—देव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरूस  : पुं० दे०=अडूसा।
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अरूसा  : पुं०=अड़ूसा।
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अरे  : अव्य० [सं०√ऋ (गति)+ए] [स्त्री० अरी] १. संबोधन का शब्द। ए ! ओ ! २. आश्चर्यसूचक अव्यय।
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अरेणु  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें धूलि न हो। २. जिसे धूलि न लगी हो। स्त्री० [न० त०] धूलि का अभाव।
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अरेरना  : स० [सं० ऋ-जाना] रगड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरेहना  : स० [हिं० रेहना] १. रगड़ना। २. दे० ‘रेहना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरैली  : स्त्री० [?] एक प्रकार की झाड़ी, जिसकी पत्तियों से कागज बनाया जाता है।
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अरोक  : वि० [सं० अ+हिं० रोक] १. जिस पर रोक या नियंत्रण न लगा हो। २. जिसके आगे कोई रुकावट न हो। ३. जो रुकता न हो।
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अरोग  : वि० [सं० न० ब०] रोग रहति। नीरोग। पुं० [न० त०] रोग का अभाव। आरोग्य।
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अरोगना  : अ०=आरोगना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोगी  : वि० [सं० न० त०] जो रोगी न हो। नीरोग। तंदुरस्त।
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अरोच  : स्त्री० -अरुचि। वि०=अरुचिकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोचक  : पुं० [सं० न० त०] अग्निमांद्य रोग, जिसमें मुँह का स्वाद बिगड़ जाता है। वि० जो रोचक या रुचिकर न हो।
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अरोचकी (किन्)  : वि० [सं० अरोचक+इनि] अग्निमांद्य रोग से पीड़ित। (व्यक्ति)
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अरोड़  : वि० [सं० आरूढ़] शूरवीर। बहादुर। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोड़ा  : पुं० [सं० अरट्ट] खत्रियों की एक उप-जाति।
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अरोध्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो रोके जाने के योग्य न हो। जिसे रोका न जा सके। २. जिसे रोकना उचित न हो।
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अरोहन  : पुं०=आरोहण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोहना  : अ० [सं० आरोहण] १. सवार होना। २. ऊपर चढ़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोही  : वि० =आरोही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरौद्र  : वि० [सं० न० त०] जो रौद्र न हो।
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अर्क  : पुं० [अर्च (पूजा)+घञ्, कुत्व] १. सूर्य। २. बारह आदित्यों या सूर्यों के आधार पर १२ की संख्या। ३. सूर्य का दिन या वार। रविवार। ४ सूर्य की किरण। ५. विष्णु। ६. इंद्र। ७. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र। ८. पंडित। विद्वान। ९. बड़ा भाई। १. बिल्लौर। स्फटिक। ११. ताँबा। १२. आक या मदार नामक पौधा। १३. एक प्राचीन धार्मिक कृत्य। वि० १. आदरणीय या पूज्य। २. गुणों का गान करनेवाला। प्रशंसक। पुं० [अ० अरक] १. भभके से खींचा हुआ किसी चीज का रस। २. दे० ‘अरक’।
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अर्क-कर  : पुं० [ष० त०] सूर्य की किरण।
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अर्क-कांता  : स्त्री० [ष० त०] अड़हुल।
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अर्क-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] सिंह राशि।
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अर्क-चंदन  : पुं० [मध्य० स०] लाल चंदन।
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अर्क-तूल  : पुं० [ष० त०] मदार या सेमल की रूई।
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अर्क-दिन  : पुं० [ष० त०] सौर दिन। रविवार।
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अर्क-नंदन  : पुं० [ष० त०] १. शनि-ग्रह। २. कर्ण। ३. यम।
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अर्क-नयन  : पुं० [ब० स०] विराट पुरुष जिसके नेत्र सूर्य और चंद्रमा है।
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अर्क-पत्र  : पुं० [ष० त०] आक या मदार के पत्ते।
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अर्क-पत्रा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. सुनंदा। २. एक लता जो विष की नाशक कही गई है। अर्कमूल।
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अर्क-पर्ण  : पुं० [ब० स०] १. मंदार का वृक्ष। २. [ष० त०] मंदार का पत्ता।
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अर्क-पुत्र  : पुं० =अर्कनंदन।
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अर्क-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] सूर्य मुखी पौधा।
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अर्क-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. अड़हुल। जवा।
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अर्क-बंधु  : पुं० [ष० त०] १. गौतम बुद्ध का नाम। २. पद्य।
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अर्क-बल्लभा  : स्त्री० [ष० त०] गुड़हर (पौधा)।
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अर्क-बादियान  : पुं० [अ० फा०] सौंफ का अर्क।
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अर्क-मूल  : पुं० [ब० स०] ईसरमूल नाम की लता। अहिगंध।
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अर्क-व्रत  : पुं० [मध्य० स०] १. माघ शुक्ला सप्तमी के दिन किया जाने वाला एक व्रत। २. राजा का प्रजा से उसकी उन्नति और समृद्धि के लिये कर लेना।
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अर्क-सुत  : पुं० =अर्कनंदन।
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अर्कज  : पुं० [सं० अर्क√जन् (उत्पन्नहोना)+ड] १. सूर्य के पुत्र, यम। २. शनि। ३. अश्विनीकुमार। ४. सुग्रीव। ५. कर्ण। वि० सूर्य से उत्पन्न होने, निकलने या बननेवाला।
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अर्कजा  : स्त्री० [सं० अर्कज+टाप्] १. सूर्य की पुत्री, यमुना। २. ताप्ती नदी।
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अर्कनाना  : पुं० [?] सिरके के साथ मिलकर उतारा हुआ पुदीने का अर्क।
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अर्कभ  : पुं० [मध्य० स०] १. वह तारापुंज जो सूर्य से प्रभावित हो। २. सिंह राशि। ३. उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र।
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अर्कांश  : पुं० [अर्क-अंश, ष० त०] अर्क (सूर्य) का अंश या कला।
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अर्काश्मा (श्मन्)  : पुं० [अर्क-अश्मन्, मध्य० स०] १. एक प्रकार का छोटा नगीना। चुन्नी। अरुणोपल। २. सूर्यकांत मणि।
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अर्की (र्किन्)  : पुं० [सं० अर्क+इनि] मोर (पक्षी)।
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अर्कोपल  : पुं० [अर्क-उपल, मध्य० स०] सूर्यकांत मणि।
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अर्गजा  : पु० दे० ‘अरगजा’।
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अर्गल  : पुं० [सं०√अर्ज् (प्रयत्न)+कलच्, बं० अगड़, पं० अग्गल, क० अगली, गुं० अगली, आगले, सिध, अगुल, मराठी० अगला-अगल] १. लकड़ी का वह डंडा जो किवाड़े बंदकरके, उन्हें खोलने से रोकने के लिए अंदर की ओर लगाया जाता है। अगरी। परिघ। २. लाक्षणिक रूप से वह अवरोधक तत्त्व जो किसी काम या बात को अच्छी तरह रोक रखने में समर्थ हो। (क्लाँग, उक्त दोनों अर्थो में) ३. किवाड़। ४. कल्लोल। लहर। ५. मांस। ६. एक नरक का नाम। ७. सूर्योदय के समय पूर्व या पश्चिम दिशा में दिखाई देने वाले रंग-बिरंगी बादल।
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अर्गला  : स्त्री० [सं० अर्गल+टाप्] १. दे०अर्गल। २. अवरोध। ३. रुकावट। ३. किवाड़ बंद करने की कील या सटकनी। ४. हाथी के पैर में बाँधा जाने वाला सिक्कड़। ५. दुर्गा सप्तशती के पाठ के पहले पढ़ा जाने वाला मत्स्य सूक्त नामक स्तोत्र।
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अर्गलिका  : स्त्री० [सं० अर्गल+कन्-टाप्, ह्रस्व, इत्व] छोटी अर्गला। अगरी।
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अर्गलित  : भू० कृ० [सं० अर्गला+इतच्] १. (दरवाजा) जिसमें अर्गल लगा हो या अर्गल से बंद किया गया हो। २. जिसके आगे कोई अवरोध या रुकावट लगाई गई हो।
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अर्गली  : स्त्री० [सं० अर्गल+ङीष्] दे० ‘अर्गला’। स्त्री० [?] एक प्रकार की भेड़ जो पश्चिमी एशिया में पायी जाती है।
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अर्गवानी  : वि० पुं० दे० ‘आतशी’ (रंग)।
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अर्गेथ  : पुं० [सं० अग्निमन्थ) अरनी का पेड़।
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अर्घ  : पुं० [सं०√अर्ह (पूजा)+घञ्, कुत्व] १. कुशाग्र, जब तंडुल, दही, दूध और सरसों मिला हुआ जल, जो देवताओं पर अर्पित किया जाता है। २. किसी देवी-या देवता के सामने पूज्य भाव से जल गिराना या अंजुली में भरकर जल देना। ३. अतिथि को हाथ-पैर धोने के लिए दिया जाने वाला जल। ४. मधु। शहद। ५. घोड़ा। ६. भेंट। ७. [√अर्घ(मूल्य)+घञ्] दाम। मूल्य। ८. किसी वस्तु की उपयोगिता या महत्त्व का सूचक वह तत्त्व जो स्वयं उस वस्तु में निहित और उसमें दृढ़तापूर्वक संबद्ध होता है और जो उसके दाम या मूल्य से भिन्न होता है। (वर्थ) जैसे—तोले भर सोने के सिक्के का अर्घ सदा वही रहेगा, जो बाजार में सोने का भाव होगा।
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अर्घ-दान  : पुं० [ष० त०] देवता, अतिथि आदि को अर्घ देना।
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अर्घ-पतन  : पुं० [ष० त०] किसी वस्तु का अर्घ (भाव या मूल्य) कम होना या घटना। भाव उतरना। (डिप्रिसिएशन)
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अर्घ-पात्र  : पुं० [ष० त०] वह पात्र जिसमें अर्घ दिया जाता है। अरघा।
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अर्घट  : पुं० [सं०√अर्घ+अटन्] राख।
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अर्घा  : स्त्री० [सं० अर्घ+टाप्] ऐसे बीस मोतियों का लच्छा जिसकी तौल २॰ रत्ती हो।
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अर्घापचय  : पुं० [अर्घ-अपचय, ष० त०]=अर्घ-पतन।
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अर्घार्ह  : वि० [सं० अर्घ√अर्ह (पूजा)+अच्] अर्घ (आदर या सम्मान) का पात्र। श्रेष्ठ।
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अर्घेश्वर  : पु० [अर्घ-ईश्वर, ष० त०] शिव।
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अर्घ्य  : वि० [सं० अर्घ+यत्] १. जिसका अर्घ बहुत अधिक हो। बहुमूल्य। २. जिसे अर्घ दिया जाने को हो या दिया जाना उचित हो। ३. जो आदर, पूजा भेंट आदि का पात्र हो। ४. पूजा में देने योग्य (जल, फूल, मूल आदि)
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अर्चक  : पुं० [सं०√अर्च (पूजा)+ण्युल्-अक] अर्चन करनेवाला। पूजक।
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अर्चन  : पुं० [सं०√अर्च+ल्युट्-अन] [वि० अर्चित, कर्ता अर्चक] १. किसी की महत्ता मानते हुए श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने की क्रिया या भाव। २. आदर। सत्कार।
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अर्चना  : स्त्री० [सं०√अर्च+णिच्+युच्-अन,टाप्]-अर्चन। स० अर्चन करना।
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अर्चनीय  : वि० [सं०√अर्च+अनीयर्] जिसकी अर्चना की जाने को हो अथवा जो अर्चना किये जाने के योग्य हो।
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अर्चमान  : वि० [सं० अर्च्यमान]=अर्चनीय।
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अर्चा  : स्त्री० [सं०√अर्च+अ-टाप्] १. अर्चन। पूजा। २. वह प्रतिमा या मूर्ति जिसकी अर्चना की जाती हो।
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अर्चि  : स्त्री० [सं०√अर्च+इन] १. अग्नि की शिखा। लपट। लौ। २. सूर्योदय या सूर्यास्त होते समय की किरणें। ३. दीप्ति। तेज।
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अर्चित  : वि० [सं० न० ब०] १. (व्यक्ति) जिसे कोई चिन्ता न हो। फलतः निश्चित या बेफिक्र २. जिसका चिंतन न हो सके।
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अर्चित  : भू० कृ० [सं०√अर्च+क्त] जिसकी अर्चना की गयी हो।
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अर्चितनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका चिंतन या कल्पना न हो सके। फलतः अज्ञेय या दुर्बोध। २. जिसका अनुमान न हो सके या न किया गया हो।
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अर्चिंतित  : वि० [सं० न० त०] १. जो पहले से सोचा या विचारा न गया हो। २. (व्यक्ति) जो चिंतित न हो निश्चित। ३. अप्रत्याशित। आकस्मिक। ४. उपेक्षित।
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अर्चिती (तिन्)  : वि० [सं० अर्चित+इनि] अर्चना करनेवाला।
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अर्चिमाल्य  : पुं० [सं० ] महर्षि मरीचि के पुत्र का नाम।
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अर्चिष्मती  : वि० [सं० अर्चिस्+मतुप्, ङीष्] १. अग्निपुरी या अग्निलोक। २. बौद्धों के १॰ लोकों में से एक लोक।
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अर्चिष्मान्  : वि० [सं० अर्चिस्+मतुप्] प्रकाशमान। पुं० १. सूर्य। २. अग्नि। ३. देवताओं का एक भेद। ४. दे० ‘अर्चिमाल्य’।
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अर्च्य  : वि० [सं०√अर्च+ण्यत्]=अर्चनीय।
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अर्ज  : पुं० [अ०] १. पृथ्वी। २. जमीन। भूमि। ३. बेड़े बल का विस्तार। चौड़ाई। पनहा। स्त्री० [अ०] निवेदन। प्रार्थना। विनती। पुं० [फा०] १. दाम। मूल्य। २. प्रतिष्ठा। सम्मान। ३. बड़प्पन। महत्त्व।
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अर्जक  : वि० [सं०√अर्च (अरजना)+ण्वुल्-अक] १. अर्जन करके अपने अधिकार में लानेवाला। २. प्राप्त करनेवाला। पुं० १. सितपर्णास। २. बनतुलसी। बबई।
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अर्जदाश्त  : पुं० [अ०] प्रार्थना-पत्र। अर्जी।
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अर्जन  : पुं० [सं०√अर्च+ल्युट्-अन] [वि० अर्जनीय] १. अधिकार में लाने, कमाने प्राप्त करने या हस्तगत करने की क्रिया या भाव। २. संग्रह करना।
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अर्जनीय  : वि० [सं०√अर्च+अनीयर्] १. जिसका अर्जन किया जाने को हो, अथवा जो इस योग्य हो, कि उसका अर्जन किया जा सके। २. संग्रह करने योग्य।
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अर्जमा  : पुं०=अर्यमा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अर्जित  : भू० कृ० [सं०√अर्च+क्त] १. जिसका अर्जन किया गया हो। कमाया हुआ। (अर्न्ड) २. संगृहीत।
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अर्जित-छुट्टी  : स्त्री० [सं०+हिं० ] नियत समय तक कार्य या सेवा कर चुकने के उपरांत आधिकारिक रूप से मिलने वाली छुट्टी।
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अर्जी  : स्त्री० [अ०] प्रार्थना-पत्र।
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अर्जीदावा  : स्त्री० [अ०] वादी का वह पहला निवेदन-पत्र जिसे वह न्यायालय में अपना वाद उपस्थित करने के समय देता है। (प्लेन्ट)
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अर्जीनवीस  : पुं० [अ०+फा०] वह व्यक्ति जो लोगों के विधिक प्रार्थना-पत्र या अर्जीदावे आदि लिखने का काम करता हो।
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अर्जीनालिश  : पुं० दे० ‘अर्जीदावा’।
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अर्जुन  : पुं० [सं०√अर्च+उनन] १. पाँच पांडव भाइयों में से मँझले भाई जो कुंती के गर्भ से उत्पन्न और श्रीकृष्ण के परम सखा थे। २. भारत के अधिकतर प्रदेशों में होनेवाला एक प्रसिद्ध वृक्ष, जिसमें बिना फूल ही फल लगते हैं। ३. हैहय-वंशी एक सहस्रार्जुन। ४. सफेद कनेर। ५. मोर। ६. एक नेत्र रोग। ७.इ कलौता बेटा। ८. इंद्र। ९. सफेद रंग। १. चाँदी। ११. सोना। १२. दूब। वि० १. उज्जवल। सफेद। २. साफ। स्वच्छ। ३. चमकीला।
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अर्जुन-ध्वज  : पुं० [ष० त०] हनुमान।
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अर्जुन-ध्वजा  : स्त्री० [सं० अर्जुध्वज] वह पताका जिस पर हनुमान जी का चित्र अंकित हो।
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अर्जुन-सखा  : पुं० [ष० त०] अर्जुन के मित्र अर्थात् श्रीकृष्ण।
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अर्जुनायन  : पुं० [सं० अर्जुन+फक्-आयन] बराहमिहिर के अनुसार, उत्तर भारत का एक प्रदेश।
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अर्जुनी  : स्त्री० [सं० अर्जुन+ङीष्] १. करतोया नदी। २. सफेद गाय़। ३. कुटनी। ४. उषा। ५. एक प्रकार का साँप। ६. अनिरुद्ध की पत्नी।
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अर्जुनोपम  : पुं० [सं० अर्जुन-उपमा, ब० स०] सागौन का पेड़।
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अर्ण  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+न] १. वर्ण। अक्षर। २. जल। ३. एक प्रकार का दंडक वृत्त। ४. सागौन नामक वृक्ष। ५. शोर-गुल। हो-हल्ला।
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अर्णव  : वि० [सं० अर्णस्+व,सलोप] १. उत्तेचित। २. फेनयुक्त। ३. विकल। पुं० [सं० ] १. समुद्र। २. सूर्य। ३. इंद्र। ४. अंतरिक्ष। ५. रत्न। मणि। ६. चार की संख्या। ७. दंडक वृत्त का वह भेद जिसके हर चरण में २ नगण और ९ रगण होते हैं।
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अर्णव-नेमि  : स्त्री० [ष० त०] पृथ्वी।
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अर्णव-पति  : पुं० [ष० त०] महासागर।
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अर्णव-पोत  : पुं० [मध्य० स०] जल-पोत। जलयान। जहाज।
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अर्णव-मल  : पुं० दे० ‘अर्णवज’।
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अर्णव-यान  : पुं० [मध्य० स०] जलयान। जहाज।
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अर्णवज  : पु० [सं० अर्णव√जन्(अत्पन्न करना)+ड] समुद्र की झाग या फेना।
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अर्णवमंदिर  : पुं० [ब० स०] वरुण।
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अर्णवोद्भव  : पुं० [सं० अर्णव-उदभव, ब० स०] १. अग्निजार नामक पौधा। २. चंद्रमा। ३. अमृत। वि० जो अर्णव या समुद्र से निकला या बना हो।
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अर्णवोद्भवा  : स्त्री० [सं० अर्णवोदभव+टाप] लक्ष्मी।
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अर्णस  : वि० [सं० अर्णस+अच्] १. उत्तेचित या विकल। २. फेन-युक्त।
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अर्णस्वान् (स्वत्)  : वि० [सं० अर्णस्+मतुप्, व आदेश] अधिक जलवाला (सागर)।
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अर्णा  : स्त्री० [सं० अर्ण+अच्-टाप्] नदी।
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अर्णोद  : पुं० [सं० अर्णस्√दा (दान)+क] १. बादल। मेघ। २. मुस्तक नामक पौधा। नागरमोथा।
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अर्णोनिधि  : पुं० [सं० अर्णस्-निधि, ष० त०] समुद्र।
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अर्तगल  : पुं० [सं० आर्त√गल् (पिघलना)+अच्, पृषो०] दे० ‘आर्तगल’।
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अर्तन  : पुं० [सं०√ऋत् (गति)+ल्युट्-अन] निंदा।
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अर्ति  : स्त्री० [सं०√अर्द् (हिंसा)+क्तिन्] १. पीड़ा। २. धनुष के दोनों सिरे।
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अर्तिका  : स्त्री० [सं०√ऋत्+ण्वुल्-अक-टाप्,इत्व] बड़ी बहन।
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अर्तिमान (न्)  : वि० [सं० अर्चि+मतुप्] जिसमें चमक या प्रकाश हो। पुं० १. अग्नि। २. सूर्य। ३. विष्णु। ४. एक उपदेव।
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अर्तें  : वि० [सं० इयत्] १. इतना। २. बहुत अधिक। उदाहरण— अर्तें रूप मूरति परगटी। पूनिऊँ ससि खीन होइ घटी।—जायसी।
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अर्थ  : पुं० [सं०√अर्थ (याचन आदि)+अच्] १. अभिप्राय, उद्देश्य या लक्ष्य। २. वह अभिप्राय, भाव या वस्तु जिसका बोध पाठक या श्रोता को कोई शब्द, पद, या वाक्य पढ़ने या सुनने पर अथवा कोई भाव भंगी या संकेत देखने पर होता है। माने। (मीनिंग) ३. धन-संपत्ति। ४. जन्म-कुंडली में लग्न से दूसरा घर। ५. पाँचों इंद्रियों के ये पाँच विषय-गंध, रूप, रस, शब्द और स्पर्श। वि० सामाजिक क्षेत्र में, लोगों के स्वकीय अधिकारों और उपचारों से संबंध रखनेवाला, (आपराधिक, राजनीतिक आदि से भिन्न। (सिविल) जैसे—अर्थ-व्यवहार। (सिविल केस) अव्य० लिए। वास्ते। जैसे—यह संपत्ति देव-कार्य के अर्थ समर्पित है।
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अर्थ-कर  : वि० [सं० अर्थ√कृ (करना)+ट] [स्त्री० अर्थकरी] १. जिसका कुछ अर्थ हो। २. अर्थ या धन के विचार से उपयोगी या लाभदायक। जैसे—अर्थ-कर व्यवसाय या अर्थकरी विद्या आदि।
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अर्थ-काम  : वि० [सं० अर्थ√कम् (चाहना)+अण्] १. धन की कामना या इच्छा करनेवाला। २. किसी प्रकार के स्वकीय उपयोग या हित पर दृष्टि रखनेवाला।
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अर्थ-किल्बिषी (षिन्)  : वि० [सं० अर्थ-किल्बिष, ष० त० अर्थकिल्बिष+इनि] लेन-देन में सच्चा व्यवहार न करनेवाला। बेईमान।
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अर्थ-कृच्छ्  : पुं० [ष० त०] १. धन का अभाव या कमी। २. आय से व्यय अधिक करने पर होनी वाली धन की कमी।
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अर्थ-गत  : वि० [तृ० त०] अर्थ के क्षेत्र में आने या उससे संबंध रखनेवाला।
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अर्थ-गर्भित  : वि० [तृ० त०] (कथन, वाक्य या शब्द) जिसमें एक या कई अर्थ हों या हो सकते हों। (पिथी)।
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अर्थ-गृह  : पुं० [ष० त०] धन रखने का स्थान। कोष। खजाना।
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अर्थ-गौरव  : पुं० [ष० त०] पद या वाक्य में होनेवाली अर्थ की उत्कृष्टता और गंभीरता।
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अर्थ-चिंतक  : वि० [ष० त०] १. अर्थ (माने) का चिंतन करनेवाला। २. धन या लाभ की चिंता या विचार करनेवाला।
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अर्थ-चिंतन  : पुं० [ष० त०] १. अर्थ अथवा धन पैदा करने का उपाय सोचना। २. अर्थ या आशय के संबंध में होनेवाला चिंतन या विचार। ३. धन या लाभ के संबंध में होनेवाली चिंता या चिंतन।
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अर्थ-चिंता  : स्त्री०=अर्थचिंतन।
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अर्थ-जात  : वि० [अर्थ-जात, ष० त०+अच्] १. अर्थ या आशय से युक्त। २. जिसके पास बहुत धन हो। धनी।
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अर्थ-तत्त्व  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान के विचार से वह शब्द जिसमें कोई अर्थ निहित होता है अथवा जो किसी पदार्थ, भाव या विचार का वाचक होता है। (सेमेन्टीम) विशेष—भाषा में दो प्रकार के शब्द होते हैं। कुछ शब्द तो पदार्थों भावों आदि के सूचक होते हैं। और कुछ ऐसे शब्द होते हैं जो उक्त शब्दों को केवल जोड़ते हैं, परन्तु जिनका कुछ आशय नहीं होता है। पहले प्रकार के शब्दों को अर्थ तत्त्व और दूसरे प्रकार के शब्दों को संबंध तत्त्व कहा जाता है। जैसे-‘समाज का स्वरूप’ पद में समाज और स्वरूप शब्द तो अर्थ तत्त्व है क्योंकि ये कुछ विचारों का उदबोध कराते हैं। और का संबंध तत्त्व है क्योंकि यह अर्थ तत्त्वों द्वारा अभिव्यक्त विचारों के परस्पर संबंध का सूचक है।
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अर्थ-दंड  : पुं० [ष० त०] १. अधिकारी या शासन के द्वारा किसी अपराधी या दोषी को मिलने वाला वह दंड जिसके फलस्वरूप उसे कुछ अर्थ या धन चुकाना पड़ता है। जुरमाना। २. उक्त प्रकार से दंड के रूप में दी जानेवाली धन
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अर्थ-दर्शक  : पुं० [ष० त०] धन-संबंधी व्यवहारों को देखने या उन पर विचार करनेवाला अधिकारी।
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अर्थ-दूषण  : पुं० [ष० त०] १. अनुचित रूप से या व्यर्थ धन खर्च करना। अपव्यय। २. अनुचित रूप से किसी का धन या संपत्ति छीन लेना। ३. पदों० वाक्यों, शब्दों आदि में अर्थ संबंधी दोष निकालना।
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अर्थ-न्यायालय  : पुं० [ष० त०] वह न्यायालय जिसमें अर्थ या धन या संपत्ति संबंधी विवादों या व्यवहारों की सुनवाई होती हो दीवानी। कचहरी। (सिविल कोर्ट)
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अर्थ-पति  : पुं० [ष० त०] १. कुबेर। २. राजा। ३. धनवान। अमीर।
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अर्थ-पिशाच  : पुं० [ष० त०] वह जिसे धन संग्रह का बहुत अधिक लोभ हो। बहतु बड़ा कंजूस और धन-लोलुप।
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अर्थ-प्रकृति  : स्त्री० [ष० त०] नाटक में वह चमत्कारपूर्ण बात जो कथावस्तु को कार्य की ओर बढ़ाने में सहायक होती है। यह पाँच प्रकार की कही गई है-बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य।
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अर्थ-प्रक्रिया  : स्त्री० [ष० त०] किसी विवाद के संबंध में होनेवाली कारवाई या प्रक्रिया। (सिविल प्रोसिड्योर)
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अर्थ-प्रसर  : पुं० [ष० त०] अर्थ-न्यायालय का वह आदेश पत्र या प्रसार जिसमें किसी व्यक्ति के नाम कोई लेख या वस्तु न्यायालय के सामने उपस्थित करने की आज्ञा होती है। (सिविल प्रोसेस)
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अर्थ-बंध  : पुं० [ष० त०] १. छंदों, पदों, वाक्यों आदि की सार्थक रचना। २. आज-कल किसी काम या बात के लिए होनेवाला आर्थिक आयोजन या व्यवस्था, मुख्यतः राष्ट्रों व्यापारियों, संघों आदि में पारस्परिक हित के विचार से होनेवाला आर्थिक समझौता। (डील)
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अर्थ-बुद्धि  : वि० [ब० स०] जो अपने ही अर्थ (स्वार्थ या हित) पर ध्यान रखता हो। मतलबी। स्वार्थी।
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अर्थ-भूत  : पुं० [तृ० त०] वेतन लेकर काम करनेवाला नौकर।
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अर्थ-मंत्री (न्त्रिन्)  : पुं० [ष० त०] किसी राज्य, संघ या संस्था का (निर्वाचित या मनोनीत) वह मंत्री जो उसके अर्थ-सबंधी कार्यों की व्यवस्था और संचालन करता हो। (फाइनेंस सेक्रेटरी या मिनिस्टर)
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अर्थ-वक्रोक्ति  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘वक्रोक्ति’।
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अर्थ-वाद  : पुं० [ष० त०] १. न्याय में, तीन प्रकार के वाक्यों में से एक, जिसमें कोई काम करने का विधान किया जाता है या कुछ करने या कराने का उल्लेख होता है। इसके परकृति, पुराकल्प, निंदा और स्तुति ये चार भेद कहे गये है। २. नियमावली, विधान आदि के आरंभ की वे बातें जिनसे उस नियमावली या विधान का अर्थ (उद्देश्य या प्रयोजन) प्रकट तथा स्पष्ट होता है। (प्रिएम्बुल)
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अर्थ-विकार  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान और व्याकरण में, शब्दों के अर्थों में होनेवाला परिवर्तन या विकार। (सेमैन्टिक चेंज)
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अर्थ-विचार  : पुं० [ष० त०] शब्दार्थिकी।
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अर्थ-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] १. दे० ‘अर्थ-शास्त्र’। २. दे० ‘अर्थ-विधान’।
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अर्थ-विधान  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान और व्याकरण का वह अंग या शास्त्र जिसमें इस बात का विचार होता है कि शब्दों में अर्थ किस प्रकार लगते, हटते, बदलते और विकसित होते हैं। (सेमैन्टिक्स) यिं० दे० ‘शब्दार्थिकी’।
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अर्थ-विधि  : स्त्री० [ष० त०] राज्य की ओर से जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया हुआ कानून या विधि। (सिविल-लाँ)
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अर्थ-व्यवहार  : पुं० [ष० त०] दीवानी मुकदमा।
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अर्थ-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि समाज बनाकर रहनेवाले लोगों की आर्थिक क्रियाएँ और व्यवहार किस प्रकार चलते हैं और वे उपयोगी पदार्थों का उत्पादन, उपभोग, वितरण और विनिमय किस प्रकार करते हैं, अथवा उन्हें किस प्रकार व्यवस्थित रूप से ये सब काम करने चाहिए। (एकनाँमिक्स)
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अर्थ-श्लेष  : पुं० [स० त०] साहित्य में, श्लेष अलंकार के दो भेदों में से एक जिसमें किसी वाक्य का एक ही अर्थ एक से अधिक पक्षों में घटित होता है और उन पक्षों के वाचक मुख्य शब्दों के पर्याय रख देने पर भी श्लेष में कोई बाधा नहीं होती। जैसे—सुखदा, सिकदा, अर्थदा, जसदा, रस-दातारि। रामचंद्र की मुद्रिका, किधौं परम गुरूनारि, में यदि मुद्रिका और गुरू-नारि शब्दों के प्रर्याय रख दिये जाएँ तो भी श्लेष ज्यों का त्यों बना रहेगा।
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अर्थ-सचिव  : पुं० [ष० त०] दे० ‘अर्थमंत्री’।
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अर्थ-सिद्धि  : स्त्री० [ष० त०] अभीष्ट अथवा उद्देश्य सिद्धि होना। कार्य या प्रयत्न ठीक और पूरा उतरना।
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अर्थ-हीन  : वि० [तृ० त०] १. (शब्द या पद) जिसमें कोई अर्थ न हो अथवा जिसका कोई अर्थ न हो। २. सार या सत्त्व से रहित (पदार्थ)। ३. धनहीन। निर्धन। (व्यक्ति)।
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अर्थक  : वि० [सं० आर्थिक] १. अर्थ या धन से संबंध रखनेवाला। आर्थिक। २. अर्थ या मतलब से संबंध रखनेवाला। ३. अर्थ या धन उपार्जित करने- करानेवाला।
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अर्थघ्न  : वि० [सं० अर्थ√हन् (हिंसा)+ट] १. अर्थ का नाश करनेवाला। २. धन का अपव्यय करनेवाला। फजूल-खरच।
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अर्थचर  : पुं० [सं० अर्थ√चर् (गति)+ट] राज्य या शासन का सेवक। सरकारी नौकर।
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अर्थतः  : अव्य० [सं० अर्थ+तस्] आशय, भाव आदि के विचार से। २. वास्तव में। सचमुच।
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अर्थद  : वि० [सं० अर्थ√दा (देना)+क] १. अर्थ या धन देनेवाला। २. अपयोगी या लाभकारी। पुं० १. कुबेर। २. गुरु को धन देकर उसके बदले में पढ़नेवाला शिष्य।
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अर्थन  : पुं० [सं० अर्थ (माँगना)+वल्युट्-अन] माँगने या याचने की क्रिया या भाव।
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अर्थना  : स० [सं०√अर्थ+णिच्+युच्-अन-टाप्] याचना करना। माँगना।
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अर्थनीय  : वि० [सं०√अर्थ (याचना)+अनीयर] (पदार्थ) जो माँगे जाने के योग्य हो या माँगा जा सके।
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अर्थवत्ता  : स्त्री० [सं० अर्थ+मतुप्, वत्व, अर्थवत्+तल्-टाप्] १. अर्थवान या धनसंपन्न होने की अवस्था या भाव। संपन्नता। २. पदों, वाक्यों, शब्दों आदि की वह अवस्था जिसमें वे विशिष्ट अर्थ या आशय से युक्त होते हैं।
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अर्थवान् (वत्)  : वि० [सं० अर्थ+मतुप् वत्व] [भाव० अर्थवत्ता] १. (वाक्य या शब्द) जो अर्थ (माने) से युक्त हो। विशिष्ट अर्थ या मतलब वाला। २. धनवान। अमीर।
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अर्थशास्त्री (स्त्रिन्)  : पुं० [सं० अर्थसास्त्र+इनि] वह जो अर्थशास्त्र का ज्ञाता हो। तथा उसके नियमों और सिद्धांतों का अध्ययन, प्रतिपादन या विवेचन करता हो। (इकनॉमिस्ट)
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अर्थागम  : पुं० [अर्थ-आगम, ष० त०] १. आय, धन, संपत्ति आदि की प्राप्ति होना। २. किसी विभाग या व्यापार में कर, विक्री आदि से होनेवाली आय। (प्रोसीड्स) ३. किसी शब्द में कोई और या नया अर्थ, आशय या भाव आकर लगना।
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अर्थांतर  : पुं० [सं० अर्थ-अन्तर, मयू० स०] प्रस्तुत सिद्ध या स्पष्ट अर्थ के अतिरिक्त कोई और या दूसरा अर्थ।
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अर्थातर-न्यास  : पुं० [ब० स०] १. साहित्य में एक अलंकार जिसमें वैधर्म्य या साधर्म्य दिखलाते हुए सामान्य कथन की विशेष कथन के द्वारा और विशेष कथन की सामान्य कथन के द्वारा अभिपुष्टि की जाती है। २. न्याय में, एक प्रकार का निग्रह स्थान।
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अर्थातिक्रम  : पुं० [अर्थ-अतिक्रम, ष० त०] हाथ में आई या मिली अच्छी चीज छोड़ देना।
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अर्थातिशय  : पुं० [अर्थ-अतिक्रम, ष० त०] दे० ‘अर्थविधान’।
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अर्थात्  : अव्य० [सं० अर्थ+आत्] १. (इस पद या शब्द का) अर्थ या माने होता है कि। अर्थ यह है कि। जैसे—सं० अश्व, फा० अस्प, अर्थात् घोड़ा। २. (जो कहा गया है उसका) अभिप्राय या आशय है कि। मतलब यह कि। जैसे-अर्थात् अब आप उनसे नहीं मिलेंगे।
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अर्थाधिकरण  : पुं० [अर्थ-अधिकरण, ष० त०] दे० ‘अर्थ-न्यायालय’।
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अर्थाधिकारी (रिन्)  : पुं० [अर्थ-अधिकारी, ष० त०] १. वह जिसके अधिकार में कोष (खजाना) हो। कोष की देख-रेख करनेवाला। खजानची। २. आर्थिक विषयों का आधिकारिक ज्ञाता। ३. अर्थ-मंत्री।
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अर्थानर्थापद  : पुं० [अर्थ-अनर्थ, द्व० स०, अर्थानर्थ-आपद, ष० त०] कौटिल्य के अनुसार राज्य की वह स्थिति जिसमें एक ओर तो लाभ हो सकता हो और दूसरी ओर राज्य के नष्ट हो जाने या दूसरे के हाथ में चले जाने की संभावना हो।
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अर्थाना  : स० [सं० अर्थ] १. पद या वाक्य का अर्थ लगाना। २. ब्योरे की सब बातें अच्छी तरह समझाकर कहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अर्थानुबंध  : पुं० [अर्थ-अनुबंध, ष० त०] आर्थिक दृष्टि से कुछ लोगों समुदायों या राष्ट्रों में होनेवाला समझौता। अर्थ-बंध।
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अर्थानुवाद  : पुं० [अर्थ-अनुवाद, ष० त०] न्याय में, बार-बार ऐसी बात कहना जिसका विधान पहले से विधि ने ही कर रखा हो।
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अर्थानुसंधान  : पुं० [अर्थ-अनुसंधान, ष० त०] शब्द या पदों के अर्थों को ढूँढ़ने या समझने का प्रयत्न करना। अनुवचन।
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अर्थान्वित  : वि० [अर्थ-अन्वित, तृ० त०] १. अर्थ या आशय से युक्त। २. महत्त्वपूर्ण। ३.धनवान्। सम्पन्न।
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अर्थापत्ति  : पुं० [अर्थ-आपत्ति, ष० त०] १. मीमांसा में ऐसा प्रमाण जिससे एक बात कहने से दूसरी बात आप से आप सिद्ध हो जाए। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी बात या तथ्य के आधार पर एक दूसरी ही बात या तथ्य स्थिर हो जाता है। जैसे-सारा मकान जल गया से दूसरा अर्थ स्थिर होगा उसमें का सब सामान जल गया। ३. लोक-व्यवहार में, किसी घटना या बात से निकलने वाला ऐसा निष्कर्ष जो बहुत कुछ ठीक और संभावित जान पड़ता हो। यह मान लिया जाना कि इसका यही अर्थ या आशय हो सकता है। (प्रिजम्पशन, उक्त सभी अर्थों के लिए)।
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अर्थापत्ति-सम  : पुं० [तृ० त०] न्याय में, वादी के उत्तर में यह कहना कि यदि तुम मेरा प्रतिपादित अमुक सिद्धांत मानोगे तो तुम्हें दोष लगेगा। (यह जाति या दोषों के २४ भेदों में से एक है)
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अर्थापदेश  : पुं० [अर्थ-अपदेश, ष० त०] शब्दों के मूल अर्थ छूटने और उनमें नये अर्थ लगने की क्रिया या भाव।
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अर्थापन  : पुं० [सं०√अर्थ+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] पदों या शब्दों के अर्थ लगाने बतलाने अथवा उनकी व्याख्या करने की क्रिया या भाव। (इन्टरप्रेटेशन)
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अर्थार्थी (र्थिन्)  : पुं० [अर्थ-अर्थी, ष० त०] १. वह जो किसी प्रकार के अर्थ या उद्देश्य सिद्धि की कामना करता हो। २. वह जो धन लेना चाहता हो या माँगता हो। ३. चार प्रकार के भक्तों में से एक जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए भगवान की भक्ति करता है। (ऐसा भक्त निकृष्ट माना गया है)।
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अर्थालंकार  : पुं० [अर्थ-अलंकार, स० त०] साहित्य में, (शब्दालंकार से भिन्न) ऐसा अलंकार जिसमें अर्थसंबंधी अनूठापन या चमत्कार हो। विशेष
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अर्थिक  : वि० [सं० अर्थिन्+कन्] १. जिसके मन में कोई अर्थ (कामना या चाह) हो। २. धन की कामना करने वाला। ३. दे० ‘अभ्यर्थी’।
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अर्थित  : भू० कृ० [सं० √अर्थ्(याचना)+क्त] १. चाहा या माँगा हुआ। २. प्रार्थित। ३. जिसका अर्थ माने किया या लगाया गया हो।
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अर्थिता  : स्त्री० [सं० अर्थित+टाप्] किसी से कुछ माँगने की अवस्था या भाव।
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अर्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० अर्थ+इनि] १. चाहने या माँगनेवाला। २. जो किसी इष्ट की प्राप्ति में संलग्न हो अथवा उद्देश्य या प्रायोजन से युक्त हो। (यौ० के अंत में)। जैसे—अधिकारार्थी, काय्यार्थी आदि। ३. अर्थ-न्यायालय में वाद उपस्थित करनेवाला। वादी। मुद्दई। ४. धनी। पुं० नौकर। सेवक। स्त्री० दे० ‘अरथी’ (रथी)।
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अर्थोपचार  : पुं० [अर्थ-उपचार, ष० त०] किसी प्रकार की हानि या क्षति के बदले में अर्थ-न्यायालय द्वारा होनेवाला उपचार या कराई जानेवाली क्षति-पूर्ति। (सिविल रमेडी)
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अर्थ्य  : वि० [सं०√अर्थ्+यत्] १. जिसकी चाह या कामना की गई हो अथवा की जा सके। २. उचित या उपयुक्त। ३. बुद्धिमान। ४. धनी। पुं० शिलाजीत।
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अर्थ्यक  : पुं० [सं० अर्थ्य+कन्] दे० ‘प्राप्यक’।
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अर्दन  : पुं० [सं० अर्द (पीड़ा)+ल्युट्-अन] १. कष्ट पहुँचाने या पीड़ित करने की क्रिया या भाव। दुःख देना। २. दूर करना या हटाना। ३. चलने या गमन करने की क्रिया या भाव। ४. चाहना या माँगना।
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अर्दना  : अ० [सं० अर्दन-पीड़न] कष्ट या दुःख देना। पीड़ित करना। स० दूर करना। हटाना।
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अर्दली  : पुं० =अरदली।
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अर्दित  : भू० कृ० [सं०√अर्द्+क्त] १. जिसे पीड़ा पहुँचाई गयी हो। पीड़ित। २. गया हुआ। गत। ३. चाहा या माँगा हुआ। पुं० एक बात रोग जिसमें मुँह, गरदन और आँखे टेढ़ी हो जाती है।
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अर्द्ध  : वि० -अर्थ। (अर्द्ध के यौ०के लिए दे० ‘अर्ध’ के यौ०)।
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अर्ध  : वि० [सं०√ऋध् (वृद्धि)+णिच्+अच्] १. किसी वस्तु के दो बराबर या एक जैसे भागों में हर एक का आधा। (हाफ) जैसे—अर्धवृत्त। २. जो अभी अधूरा, आधे के लगभग या अपूर्ण हो। आँशिक। (सेमी) जैसे—अर्ध सम्य। ३. जो तुलनात्मक दृष्टि से पूरा न होने पर भी थोड़ा बहुत हो। जैसे—अर्ध-बर्बर, अर्ध-सरकारी आदि। ४.किसी निश्चित काल या मान के दो समान भागों में से हर भाग में होनेवाला। (सेमी) जैसे—अर्ध वार्षिक।
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अर्ध-काल  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अर्ध-कूट  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अर्ध-गंगा  : स्त्री० [एकदेशि, त० स०] दक्षिण भारत की कावेरी नदी।
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अर्ध-गुच्छ  : पुं० [कर्म० स०] चौबीस लड़ियों का हार या माला।
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अर्ध-गोल  : पु० [एकदेशि, त० स०] दे० गोलार्द्ध। वि० १. गोले का आधा। २. जो आधा गोल हो।
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अर्ध-चंद्र  : पुं० [एकदेशित० स०] १. अष्टमी का चंद्रमा जो आधा होता है। २. मोर-पंख पर की आँख या चन्द्रिका जो देखने में आधे चंद्रमा के समान होती है। ३. नखक्षत्र। ४. अर्द्ध चंद्रकार नोक वाला बाण। ५. सानुनासिक ध्वनि का चिन्ह। चंद्रविंदु। ६. एक प्रकार का त्रिपुड। ७. किसी को धक्का देकर निकालने के लिए उसकी गरदन पकड़ने की मुद्रा। गरदनियाँ। (व्यंग्य।
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अर्ध-चंद्रिका  : स्त्री० [एकदेशि, त० स०] कन-फोड़ा या तिधारा नाम की लता।
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अर्ध-जल  : पुं० [ब० स०] दे० ‘अर्धोंदक’।
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अर्ध-ज्योतिका  : स्त्री० [एकदेशि त० स०] संगीत में चौदह मात्राओं का एक ताल।
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अर्ध-तिक्त  : पुं० [कर्म० स०] नेपाल में होनेवाली एक प्रकार की नीम। (वृक्ष)
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अर्ध-तूर  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का पुराना बाजा।
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अर्ध-नयन  : पुं० [कर्म० स०] देवताओं का तीसरा नयन या नेत्र जो मस्तक या ललाट पर होता है।
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अर्ध-नराच  : पुं० [सं० अर्धनाराच] १. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में जगण, रगण और लघु गुरु होता है। इसे प्रमाणिका भी कहते हैं। २. एक प्रकार का तीर या बाण।
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अर्ध-नाराज  : पुं० [कर्म० स०]=अर्ध-नराच।
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अर्ध-नारायण  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु का एक रूप।
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अर्ध-नारीश  : पुं० [अर्ध-अर्धाग्ङ-नारी, स० त०, अर्धनारी-ईश, ष० त०] =अर्ध-नारीश्वर।
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अर्ध-नारीश्वर  : पुं० [सं० अर्ध-नारी, स० त०, अर्धनारी-ईश्वर, ष० त०] १. शिव का एक रूप जिसमें उनके शरीर के आधे भाग में स्वयं उनका तथा शेष आधे भाग में पार्वती का रूप होता है। २. वैद्यक में, एक प्रकार का अंजन जो ज्वर उतारने के लिए आँखों में लगाया जाता है।
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अर्ध-पारावत  : पुं० [तृ० त०] तीतर।
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अर्ध-पोहल  : पुं० [देश०] मोटी पत्तियोंवाला एक पौधा।
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अर्ध-भाक्  : वि० [सं० अर्ध√भज् (सेवा)+ण्वि]=अर्ध-भागिक।
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अर्ध-भागिक  : वि० [सं० अर्ध-भाग, कर्म० स०, अर्धभाग+ठन्-इक] १. जो आधे भाग या हिस्से का अधिकारी हो। २. जिसने किसी कार्य विशेष में आधा काम किया हो।
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अर्ध-भास्कर  : पुं० [कर्म० स०] दोपहर या मध्याह्र का सूर्य।
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अर्ध-भुजंगी  : पुं० [कर्म० स०] रसावल नामक छंद का दूसरा नाम।
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अर्ध-मागधी  : स्त्री० [कर्म० स०] सागधी और शौरसेनी प्राकृतों का वह मिश्रित रूप जो कौशल में प्रचलित था। विशेष—महावीर और बुद्ध के समय में यही कौशल की लोक-भाषा थी, अतः इसी में उनके धर्मोपदेश भी हुए थे, और अशोक के पूर्वीशिलालेख भी अंकित हुए थे। आज-कल की पूर्वी हिन्दी अर्थात् अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी आदि बोलियाँ इसी से निकली है। (विशेष दे० ‘प्राच्या और मागधी’)।
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अर्ध-मात्रा  : स्त्री० [कर्म० स०] १. आधी मात्रा। २. व्यंजन वर्ण। ३. चतुर्दश मात्रा नामक ताल के एक भेद। (संगीत)
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अर्ध-विसर्ग  : पु० [कर्म० स०] विसर्ग की तरह का या उसका आधा वह उच्चारण जो क, ख, प, या फ से पहले होता है। विशेष—इसका चिन्ह विसर्ग के चिन्ह (
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अर्ध-वृत्त  : पुं० [एकदेशि त० स०] वृत्त का आधा भाग जो उसकी आधी परिधि या व्यास से घिरा हो। आधा गोल या वृत्त। (सेमी सर्किल)
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अर्ध-वृद्ध  : वि० [कर्म० स०] युवावस्था और वृद्धावस्था के बीच का। अधेड़।
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अर्ध-वैनाशिक  : पुं० [कर्म० स०] प्राचीन भारत में कणाद के अनुयायियों की संज्ञा।
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अर्ध-व्यास  : पु० [कर्म० स०] किसी वृत्त के केंद्र से परिधि तक की दूरी। आधा व्यास। पुं०=त्रिज्या।
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अर्ध-शफर  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार की मछली।
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अर्ध-शब्द  : वि० [ब० स०] जिसका शब्द जोर का नहीं, बल्कि आधा या कुछ धीमा होता है।
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अर्ध-शेष  : वि० [ब० स०] जिसका आधा ही शेष रह गया हो, आधा नष्ट हो चुका हो।
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अर्ध-सम  : वि० [तृ० त०] (छंद या वृत्त) जिसके पहले तथा तीसरे और दूसरे तथा चौथे चरणों में बराबर-बराबर मात्राएं या वर्ण हो। जैसे—दोहा, सोरठा आदि।
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अर्ध-हार  : पुं० [कर्म० स०] ६४ या ४॰ लडियों का हार।
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अर्धक  : वि० [सं० अर्ध+कन्] १. आधा। २. अधूरा।
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अर्धग  : पुं० दे० ‘अर्धांग’।
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अर्धंगी  : पुं० =अर्धांगी।
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अर्धसमवृत्त  : पुं० [अर्धसम, तृ० त०, अर्धसमवृत्त, कर्म० स०]=अर्द्धसम।
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अर्धह्रस्व  : पुं० [एकदेशि, त० स०] (स्वर) जो लघु या ह्रस्व का भी आधा हो।
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अर्धाग्ङ  : पुं० [सं० अर्ध-अंग, कर्म० स०] १. आधा अंग या आधा शरीर। २. शिव का एक नाम। ३. दे० ‘अर्धाग्ङ घात’।
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अर्धाग्ङ-घात  : पुं० [स० त०] अंगघात रोग का एक प्रकार जिसमें शरीर के दाहिने या बाएँ सब अंग बिल्कुल अचेष्ट अक्रिय तथा सुन्न हो जाते हैं। (हेमिप्लेगिया)
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अर्धाग्ङिनी  : स्त्री० [सं० अर्धाग्ङ+इनि-ङीष्] विवाहित स्त्री या पत्नी जो पुरुष के आधे अंग के रूप में मानी जाती है।
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अर्धाग्ङी (गिन्)  : पु० [सं० अर्धाग्ङ+इनि] १. शिव। २. वह जो अर्धाग रोग से पीड़ित हो।
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अर्धार्ध  : वि० [सं० अर्ध-अर्ध एकदेशि० त० स०] आधे का भी आधा। एक चौथाई।
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अर्धाली  : वि० [सं० अर्ध-अलि] चौपाई (छंद) का आधा भाग जिसमें दो चरण होते हैं।
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अर्धावभेदक  : पुं० [सं० अर्ध-अवभेदक, कर्म० स०] अध-कपारी या आधासीसी नामक रोग।
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अर्धाशन  : पुं० [अर्ध-शन, कर्म० स०] ऐसा भोजन या भोजन की वह मात्रा जिसमें आधा ही पेट भरें।
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अर्धाशी (शिन्)  : वि० [सं० अर्ध-अंश, एकदेशि० स० अर्धाश+इनि] आधे अंश, भाग या हिस्से का अधिकारी या पात्र।
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अर्धासन  : पुं० [सं० अर्ध-आसन, एकदेशि, त० स०] किसी को अपनी बराबरी का समझकर उसका सम्मान करने के लिए उसे अपने साथ अपने ही आसन पर बैठाना अथवा अपने आसन का आधा अंश उसे देना।
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अर्धिक  : पुं० [सं० अर्ध+टिठन्-इक] १. अधकपारी या आधासीसी नामक रोग। २. ब्राह्मण पिता और वैश्य माता से उत्पन्न संतान।
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अर्धीकरण  : पुं० [सं० अर्ध√कृ+च्वि, ऊत्व+ल्युट्-अन] १. दो तुल्य या समान भागों में बाँटने की क्रिया या भाव। २. दो चीजें एक साथ या एक धरातल में बैठाने के लिए दोनों के आधे-आधे भाग छाँट या निकाल देना।
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अर्धुक  : वि० [सं०√ऋध् (वृद्धि)+उकञ्] उन्नत, समृद्ध या संपन्न।
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अर्धेदु  : पुं० [अर्ध-इंदु, एकदेशि त० स०] अर्द्ध चंद्र।
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अर्धेदुमौलि  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अर्धोत्तोलित  : भू० कृ० [अर्ध-उत्तेलित, कर्म० स०] जो आधा (उचित या ठीक ऊँचाई से कम) उठाया गया हो। जैसे—अर्द्धोत्तोलित ध्वज।
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अर्धोदक  : पुं० [अर्ध-उदय, मध्य० स०] हिंदुओं की एक धार्मिक प्रथा जिसे मरणासन्न अथवा मृत व्यक्ति को दाह संस्कार करने से पहले किसी जलाशय या नदी में इस प्रकार रख देते हैं कि उसका आधा शरीर जल के अंदर और आधा शरीर बाहर रहे।
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अर्धोदय  : पुं० [अर्ध-उदय० ब० स०] एक पर्व जो माघ की उस अमावस्या को होता है जो रविवार व्यतीतपात योग तथा श्रवण नक्षत्र से युक्त होती है।
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अर्धोरुक  : पुं० [सं० अर्ध-उरू,एकदेशि, त० स०, अर्धोरू√काश् (दीप्ति)+ड] जाँघिया जिससे आधे उरु या जाँघे ढकी रहती है।
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अर्न  : पुं० [सं० अर्णस्] जल। पानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अर्पक  : वि० [सं०√ऋ (गति)+णिच्, पुक्+ण्वुल्-अक] किसी को कुछ अर्पण करने या नम्रतापूर्वक देनेवाला।
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अर्पण  : पुं० [सं०√ऋणिच्, पुक्+ल्युट्-अन] [कर्ता अर्पक भू० कृ० अर्पित] १. किसी को कुछ आदरपूर्वक कुछ देना या सौपना। नम्रतापूर्वक भेंट करना। २. विधिक क्षेत्र में, किसी वस्तु पर से अपना अधिकार या स्वत्त्व हटाकर उसे पूरी तरह से सदा के लिए किसी को देना या सौंपना। (आँफरिग) ३. स्थापित करना। रखना। जैसे—पदार्पण।
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अर्पण-पत्र  : पुं० [ष०त ०] वह पत्र जिसमें यह लिखा हो कि अमुक वस्तु या संपत्ति अमुक व्यक्ति को सदा के लिए अर्पित कर दी गई। (गिफ्ट डीड या डीड आँफ गिफ्ट)
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अर्पण-प्रतिभू  : पुं० [ष० त०] वह प्रतिभू या जमानतदार जो ऋणी के ऋण परिशोधन करने पर स्वयं उसका ऋण चुकाने को तैयार हो।
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अर्पणनामा  : पुं० =अर्पण-पत्र।
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अर्पना  : स० =अरपना। (अर्पित करना)।
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अर्पित  : भू० कृ० [सं०√ऋ +णिच्,पुक्+क्त] जो नमर्तापूर्वक किसी को अर्पण किया या दे दिया गया हो। अर्पण करके दिया हुआ।
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अर्पिस  : पुं० [सं०√ऋ +णिच्,पुक्+इसन्] १. हृदय का मांस। २. हृदय।
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अर्ब-दर्ब  : पुं० [सं० द्रव्य] धन-संपत्ति। दौलत।
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अर्बुद  : पुं० [सं०√अर्बु (गति)+विच्, उद्√इ√प्र (गति)+ड] १. गणित में, इकाई-दहाई के नवें स्थान की संख्या। दस करोड़। २. शरीर में गाँठ के रूप में होनेवाला रोग। (ट्यूमर) ३.गर्भ का वह रूप जो उसे दो महीने होने पर प्राप्त होता है। ४. राजस्थान का एक पर्वत। ५. बादल। मेघ। ६. एक नरक का नाम। ७. कद्रु के पुत्र, एक सर्प का नाम। ८. एक असुर का नाम।
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अर्बुदि  : पुं० [सं० अर्बुद+णिच् (ना० घा०)+इन्] १. सर्वव्यापक ईश्वर। २. एक राक्षस का नाम।
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अर्बुदी (दिन्)  : वि० [सं० अर्बुद+इनि] जिसे अर्बुद रोग हुआ हो।
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अर्भ  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+भ] १. शिशु। बालक। २. शिशिर ऋतु। ३. छत्र। ४. सागपात। ५. कुशा। ६. नेत्रबाला नामक औषधि। वि० १. मलिन। २. तुच्छ। ३. धुँधला।
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अर्भक  : वि० [सं० अर्भ+कन्] १. मात्रा के विचार से, अल्प, कम या थोड़ा। २. आकार के विचार से, क्षीण या दुबला-पतला। ३. मान के विचार से, छोटा, सूक्ष्म या हलका। ४. वय के विचार से बच्चा या शिशु। ५. बुद्धि के विचार से, अनजान या मूर्ख। ६. सदृश। समान। ७. नेत्रों से युक्त। आँखोंवाला। पुं० १. बालक। २. पशुओं का बच्चा। छौना। ३. कुशा।
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अर्म  : पुं० [सं०√ऋ+मन्] १. आँख का फूली नामक रोग। ढेंढर। २. खँडहर।
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अर्मनी  : पुं०=अरमनी।
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अर्य  : वि० [सं०√ऋ+यत्] १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. प्रिय। ३. आदरणीय। पुं० १. मालिक। स्वामी। २. ईश्वर। ३. वैश्य।
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अर्यमा (मन्)  : पुं० [सं० अर्य√मा (मान)+कनिन्] १. सूर्य। २. बारह आदित्यों में से एक। ३. पितरों का एक गण या वर्ग। ४. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र। ५. आक। मदार।
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अर्या  : वि० [अ०] १. प्रकट। व्यक्त। २. खुला हुआ। स्पष्ट।
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अर्या  : स्त्री० [सं० अर्य+टाप्] १. वैश्य जाति की स्त्री। २. गृहिणी। ३. रखी हुई स्त्री। रखेली।
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अर्रबर्र  : पुं० [अनु०] झूठ-मूठ या व्यर्थ की बातें। बक-बक। बकवाद।
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अर्रा  : पुं० [?] १. एक जंगली वृक्ष जिसकी लकड़ी छत आदि पाटने के काम आती है। २. अरहर।
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अर्राना  : अ० [अनु०] १. चिल्लाना। २. जोर से पुकारना। ३. व्यर्थ की बातें करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अर्वट  : पु० [सं०√अर्व (हिंसा)+अटन्] भस्म। राख।
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अर्वाक् (च्)  : अव्य० [सं० अवर√अञ्च् (गति)+क्विन्, पृषो० अर्व आदेश] १. इस ओर। इधर। जैसे—अर्वाक्कालिक-इधर हाल का। २. किसी निश्चित मान या बिन्दु से कम अथवा पहले। जैसे—अर्वाक्शत् या अर्वाक् सहस्र (अर्थात् सौ या हजार से कम) ३. नीचे की ओर। जैसे—अर्वाक्-स्रोत-नीचे की ओर चलनेवाला।
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अर्वाक्-स्रोता (तस्)  : वि० [ब० स०] जिसका वीर्य प्रातः स्खलित होता रहता हो। ‘ऊर्ध्वरेस्ता का विपर्याय’।
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अर्वाचीन  : वि० [सं० अर्वाच्+ख+ईन] [भाव अर्वाचीनता] १. जो वर्त्तमान में बना या निर्मित्त हुआ हो। प्रस्तुत समय से संबंध रखनेवाला। आधुनिक। २. जो वर्त्तमान समय की विशेषताओं से युक्त हो अर्थात् अद्यतन, अनूठा तथा अपूर्व हो। (माडर्न) ३. जो दिनातीत या पुराना न हो। जैसे—अर्वाचीन कला या काव्य, अर्वाचीन चिकित्सा प्रणाली आदि।
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अर्श  : पुं० [सं०√ऋश् (गति)+अच्] बवासीर नामक रोग। (पाइल्स) पुं० [अ०] १. आकाश। मुहावरा—(किसी को) अर्श पर चढ़ाना=प्रशंसा आदि के द्वारा बहुत बड़ा या श्रेष्ठ ठहराना। दिमाग या मिजाज अर्श पर होना=बहुत अधिक अभिमान होना। २. स्वर्ग। ३. छत। पाटन। ४. बहुत ऊँचा आसन।
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अर्श-वर्त्म  : पुं० [ष० त०] बवासीर रोग का एक उग्र प्रकार या भेद।
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अर्शस  : पुं० [सं० अर्शस्+अच्] =अर्शी।
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अर्शहर  : पुं० [सं० अर्श√हृ(हरण करना)+अच्] अर्श या बवासीर नामक रोग में लाभ करनेवाली वस्तुएँ। जैसे—ओल या सूरन नामक कंद, तेजबल, भिलावाँ, सफेद सरसों आदि।
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अर्शी (शिन्)  : पुं० [सं० अर्श+इनि] बवासीर का रोगी।
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अर्शोध्न  : पुं० [सं० अर्शस्√हन् (हिंसा)+ट] =अर्शहर।
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अर्शोहित  : पुं० [सं० अर्शस्-हित, स० त०]=अर्शहर।
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अर्ह  : वि० [सं०√अर्ह+अच्] १. आदरणीय। पूज्य। २. उपयुक्त। योग्य। ३. अधिकारी या पात्र। पुं० १. ईश्वर। २. विष्णु। ३. इंद्र। ४. सोना। स्वर्ण। ५. पूजा। ६. गति। चाल। ७. योग्यता।
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अर्हण  : पुं० [सं० अर्ह्+ल्युट्-अन] आदर-सत्कार या पूजा करना।
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अर्हणा  : स्त्री० [सं० अर्ह+युच्-अन, टाप्]=अर्हण।
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अर्हणीय  : वि० [सं०√अर्ह+अनीयर] जिसका आदर-सत्कार या पूजा होने को हो अथवा जो उसका पात्र हो। आदरणीय। पूज्य।
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अर्हत  : वि० [सं० अर्ह (पूजा)+झ (बा०) =अन्त] सुयोग्य। पुं० बुद्ध। पुं० जैनियों के एक जिन देव।
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अर्हत्  : वि० [सं०√अर्ह्+शतृ] पूज्य। पुं० जिनदेव (जैनियों के देवता)।
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अर्हा  : स्त्री० [सं०√अर्ह+अङ-टाप्]=अर्हण।
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अर्हित  : भू० कृ० [सं०√अर्ह्+क्त] जिसका आदर सत्कार या पूजा हुई हो। पूजित।
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अलं  : अव्य० दे० ‘अलम्’।
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अल  : पुं० [सं०√अल् (भूषण, पर्याप्ति, वारण)+अच्] १. गहना। आभूषण। २. मनाही। वारण। पुं० [सं० अलं] १. बिच्छू का डंक। २. जहर। विष।
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अलइक-पलवा  : पुं० [सं० अलीक प्रलाप] १. व्यर्थ की झूठी या बिना सिर पैर की बात। बक-बक। २. गप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलई  : स्त्री०=ऐल। (कँटीली लता)।
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अलक  : स्त्री० [सं०√अल्+क्वन्-अक] १. मस्तक के इधर-उधर के लटकते हुए बाल। २. घुँघराले तथा छल्लेदार बाल। ३. हरताल। ४. सफेद आक। ५. पागल कुत्ता। ६. महावर। ७. आठ से दस वर्ष तक की कन्या की संज्ञा।
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अलक-प्रभा  : स्त्री० [सं० ब० स०] कुबेर की राजधानी। अलकापुरी।
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अलक-रचना  : स्त्री० [सं० ष०त०] बालों के सँवारने तथा उनकी सुंदर लटें बनाना या उन्हें घूँघरदार या छल्लेदार बनाना।
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अलक-लड़ैता  : वि० [सं० अलक-बाल+हिं० लाड़=दुलार] [स्त्री० अलकलडैती] दुलारा। लाड़ला (लड़का)।
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अलक-संहति  : स्त्री० [ष० त०] सँवारे हुए घुँघराले बालों की पंक्तियाँ।
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अलकत  : वि० [अ० अल्कत] १. (लेख) जो काटकर रद्द कर दिया गया हो। २. जो निकम्मा या निरर्थक ठहराया गया हो। रद्दी। पुं० [सं० अलक] महावर। उदाहरण—झाँई नाहिं जिनकी धरत अलकत है।—सेनापति।
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अलकतरा  : पुं० [अं० अल्करतः] एक गाढ़ा तरल पदार्थ, जो पत्थर के कोयले को विशेष रासायनिक क्रिया द्वारा गलाने से बनता है।
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अलकनंदा  : स्त्री० [सं० नन्द्+अच्,टाप्, अलक=नन्दा, कर्म० स०] १. एक नदी जो हिमालय से निकलकर गंगोत्री के पास गंगा में मिलती है। २. आठ से दस वर्ष के बीच की बालिका।
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अलंकरण  : पुं० [सं० अलम√कृ (करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अलंकृत] १. अलंकारों से युक्त करने की क्रिया या भाव। गहनों आदि से सजाना। २. किसी सुन्दर वस्तु या व्यक्ति के सौन्दर्य में और अधिक अभिवृद्धि करना। सजावट। सज्जा। ३. अलंकार। आभूषण।
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अलकसलोना  : वि० [सं० अलक-बाल+हिं० सलोना-अच्छा] दुलारा। लाड़ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलका  : स्त्री० [सं० अलक+टाप्] १. आठ और दस वर्ष के बीच की बालिका। २. कुबेर की नगरी, अलकापुरी। ३. कुसुम विचित्रा नामक छंद।
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अलका-पति  : पुं० [सं० ष० त०] अलकापुरी का राजा, कुबेर।
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अलकाउरि  : स्त्री०=अलकावलि। उदाहरण—अलकाउरि मुरि मुरि गौ मोरी।—जायसी।
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अलकाधिप  : पुं० [सं० अलका-अधिप, ष० त०] =अलकापति।
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अलकाब  : पुं० [अ० ‘लकब’ का बहु०] वे आदरसूचक शब्द या पद जिनका प्रयोग संबोधन के रूप में होता है।
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अलंकार  : पुं० [सं० अलम्√कृ+घञ्] १. वह वस्तु या सामग्री जिसके योग से किसी वस्तु, व्यक्ति आदि के सौन्दर्य में अभिवृद्धि होती हो। २. शरीर पर धारण किया जानेवाला आभूषण। गहना। ३. साहित्य में, शब्दों और उनके अर्थों में अनियमित रूप से रहनेवाला वह तत्त्व या धर्म जिसके कारण किसी व्यंग्यार्थ की प्रतीति के बिना भी, शब्दों की अनोखी विन्यास शैली से ही, किसी कथन के व्यंग्यार्थ में कुच विशेष चमत्कार, रमणीयता या शोभा आ जाती है। प्रभावशाली तथा रोचकतापूर्ण रूप में किसी बात का वर्णन करने का ढंग या रीति। (फिगर आँफ स्पीच) विशेष—यह तीन प्रकार का माना गया है-शब्दालंकार, अर्थालंकार और उभयालंकार। इनमें से अर्थालंकार ही प्रधान हैं, जिनकी संख्या प्रायः सौ से ऊपर पहुँचती है। कुच साहित्यों कारों ने अर्थ के विचार से अलंकारों के कई वर्ग भी बनायें हैं। जैसे—(क) विरोधगर्भ (अतिशयोक्ति, असंगति, विरोध, विशेषोक्ति, सम आदि), (ख) वाक्यन्यायमूल्य (अर्थापत्ति, पर्याय, परिवृत्ति, विकल्प, समुच्चय, समाधि आदि), (ग) लोकन्यायमूल (अतदगुण, तदगुण, प्रतीप, प्रत्यनीक, सामान्य आदि), (घ) गूढ़ार्थप्रतीतिमूल (वक्रोक्ति, व्याजोक्ति, सृष्टि, सूक्ष्म, स्वभावोक्ति आदि)।
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अलंकार-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह विद्या या शास्त्र जिसमें साहित्यिक अलंकारों की परिभाषा, विवेचन तथा वर्गीकरण किया जाता है।
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अलकावलि  : स्त्री० [सं० अलक-अवलि, ष० त०] १. सँवारे हुए बालों की पंक्तियाँ। २. घुँघराले या छल्लेदार बाल।
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अलंकित  : वि०=अलंकृत।
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अलंकृत  : भू० कृ० [सं० अलम्√कृ+क्त] [स्त्री० अलंकृता, भाव० अलंकृति] १. (वस्तु या व्यक्ति) जिसका अलंकरण हुआ हो या किया गया हो। २. सजाया हुआ। अलंकारों से युक्त। (कविता)।
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अलंकृति  : स्त्री० [अलम्√कृ+क्तिन्] अलंकृत होने की अवस्था या भाव।
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अलकेश  : पुं० [सं० अलका-ईश, ष० त०] १. इंद्र। २. कुबेर।
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अलक्त  : पुं० [सं० न-रक्त, न० ब० लत्व] १. कुछ वृक्षों से निकलने वाला एक प्रकार का लाल रस जो उसकी डालों या तनों पर जम जाता है। लाक, लाही, चपरा आदि इसके विभिन्न प्रकार या रूप हैं। २. उक्त लाख से तैयार किया हुआ रंग जिसे स्त्रियाँ पैरों में लगाती है। महावर।
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अलक्त-राग  : पुं० [ष० त०] महावर का लाल रंग।
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अलक्तक  : पुं० [सं० अलक्त+कन्]=अलक्त।
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अलक्षण  : पुं० [सं० न० त०] [स्त्री० अलक्षणा] १. लक्षण अथवा चिन्ह का अभाव। चिन्ह या संकेत न मिलना। २. अशुभ या बुरा लक्षण। वि० [न० ब०] (पदार्थ या व्यक्ति) जिसमें अशुभ या बुरे लक्षण हों।
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अलक्षणा  : वि० [सं० अलक्षण-टाप्] [स्त्री० अलक्षणी] अशुभ या बुरे लक्षणवाला।
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अलक्षित  : भू० कृ० [सं० न० त०] १. जो लक्ष्य या ध्यान में न आया हो। २. जिसकी ओर लक्ष्य या ध्यान न गया हो। (अन-आब्जर्वड्) ३. जो दिखाई न दिया हो। ४. जिसका चिन्ह या संकेत न मिला हो।
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अलक्ष्मी  : स्त्री० [सं० न० त०] १. लक्ष्मी का अभाव। दरिद्रता। गरीबी। २. दुर्भाग्य। ३. ऐसी स्त्री जिसमें अनेक अशुभ लक्षण हो।
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अलक्ष्य  : वि० [सं० न० त०] जिस पर लक्ष्य या ध्यान न दिया गया हो, अथवा न दिया जा सकता हो।
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अलक्ष्य-गति  : पुं० [ब० स०] १. वह जो अदृश्यरूप धारण करके चलता हो। २. वह जिसकी गति का कुछ पता न चलता हो।
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अलख  : वि० [सं० अलक्ष्य] १. जिसका आकार या रूप दिखाई न पड़ता हो। अदृश्य। २. जिसका ज्ञान इंद्रियों द्वारा न हो सकता हो। अगोचर। उदाहरण—तुलसी अलखै का लखै, राम नाम भजु नीच।—तुलसी। पुं० =वह जो दिखाई न पड़े अर्थात् ईश्वर। मुहावरा—अलख जगाना=(क) अलख, अलख पुकार कर अलक्ष्य (ईश्वर) को स्मरण करना और दूसरों को भी उसे स्मरण करते रहने के लिए प्रेरित करना। (ख) अलक्ष्य (ईश्वर) के नाम पर भिक्षा माँगना।
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अलख-निरंजन  : पुं० [हिं० +सं० ] ईश्वर। परमात्मा।
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अलख-पुरुष  : पुं० [हिं० +सं० ] ईश्वर। परमात्मा।
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अलखधारी  : पुं०=अलखनामी।
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अलखनामी  : पुं० [सं० अलक्ष्य+नाम] गोरखनाथ के अनुयायी साधुओं का एक संप्रदाय। अलखधारी। अलखिया। (ऐसे साधु गलियों बाजारों में ‘अलख’ ‘अलख’ पुकारते फिरते है)
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अलखित  : वि० =अलक्षित।
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अलखिया  : पुं० =अलखनामी (संप्रदाय)।
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अलंग  : पु० [सं० अल-पूर्ण, बड़ा+अंग=प्रदेश] १. ओर। तरफ। दिशा। मुहावरा—अलंग पर आना या होना-घोड़ी का मस्त होकर गर्भ धारण करने के योग्य होना। २. मकान के किसी खंड का किसी ओर का भाग या विभाग।
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अलग  : वि० [सं० अलग्न, प्रा० अलंग] १. जो किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा न हो। पृथक्। जैसे—उँगली कटकर अलग हो गयी। २. गुण, प्रकार रूप आदि के विचार से औरों से भिन्न। विशिष्ट। जैसे—आपकी राय तो सदा सबसे अलग होती है। ३. जिसका संपर्क या संबंध न हो या न रह गया हो। दूर हटा हुआ। जैसे घर से अलग, झगड़ों से अलग, नौकरी से अलग आदि। ४. राशि, समूह आदि में से निकालकर एक ओर रखा या लाया हुआ। जैसे—(क) अपनी पुस्तक अलग कर लो। (ख) सौ रुपये अलग रखे हैं।
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अलगंगीर  : पुं० दे० ‘अरकगीर’।
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अलगंट  : क्रि० वि० [हिं० अलग] बिना दूसरों से कोई संबंध रखें। वि० १. अकेला। २. नारला। बेजोड़।
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अलगनी  : स्त्री० [सं० आलग्न] दोनों सिरों पर बँधी हुई वह आड़ी रस्सी या बाँस जिस पर कपड़े आदि लटकाये जाते है।
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अलगरज  : क्रि० वि० [अ० अलगरज] गरज (तात्पर्य या सांराश) यह कि। वि० दे० ‘अलगरजी’।
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अलगरजी  : वि० [अ०] १. जिसे गरज या परवाह न रह गई हो। बेपरवाह। २. जो स्वभावतः किसी की परवाह न करता हो। लापरवाह। ३.अपने स्वार्थ साधन में पक्का। परम स्वार्थी। स्त्री० १. बेपरवाही। २. लापरवाही। ३. स्वार्थपरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलगर्द  : पुं० [√लग्(संग)+क्विप्√अर्द (हिंसा)+अच्० न० त०] पानी में रहनेवाला एक प्रकार का साँप।
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अलगा-गुजारी  : स्त्री० [हिं० अलग+फा० गुजारी] १. अलग-अलग करने या होने की क्रिया या भाव। २. परिवार के सदस्यों, मित्रों या हिस्सें दारों में मत-भेद, लड़ाई-झगड़ा आदि होने के कारण सबके अंश अलग-अलग होने की क्रिया या भाव।
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अलगाउ  : वि० [हिं० अलगाना] अलग करने या रखनेवाला।
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अलगाना  : स० [हिं० अलग] अलग या पृथक् करना।
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अलगाव  : पुं० [हिं० अलग] अलग होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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अलगोजा  : पुं० [अ०] एक प्रकार की बाँसुरी।
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अलगौझा  : पुं०=अलगा-गुजारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलंघनीय  : वि० [सं० न० त०] १. (वस्तु) जिसे लाँघा न जा सके या जिसे लाँघना उचित न हो। २. (आज्ञा या नियम) जिसका पालन आवश्यक हो।
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अलघु  : वि० [सं० न० त०] जो लघु (छोटा, धीमा या हल्का) न हो। विशेष दे० ‘लघु’।
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अलंघ्य  : वि० [सं० न० त०] =अलंघनीय।
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अलच्छ  : वि० -अलक्ष्य। वि० पुं० =अलक्षण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलछ  : वि०=अलक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलज  : वि०=अलज्ज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलंजर  : पुं० [सं० अलम्√जृ(जीर्ण होना)+अच्] मिट्टी का छोटा घड़ा।
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अलजी  : स्त्री० [सं० अल्√जन्(उत्पन्न होना)+ड-ङीष्] एक प्रकार की फुंसी जिसमें कुछ कालापन लिये लाली होती है।
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अलज्ज  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अलज्जता] १. जिसे लज्जा न हो। २. निर्लज्ज। बेशर्म।
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अलतई  : वि० [हिं० अलता] अलते या महावर के रंग का। महावरी। लाखी। पुं० उ क्त प्रकार का रंग। (डीप कॉरमाइन)
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अलता  : पुं० [सं० आरक्त√रञ्ज्, अलक्तक, प्रा० अलत्त, गु० अलतो, क० ओलतु, मराठी अलिता] १. लाख से बना हुआ वह लाल रंग जो स्त्रियाँ शोभा के लिए पैरों में लगाती है। महावर। २. कसाइयों की परिभाषा में, काटे या जबह किये हुए पशु का अंडकोष।
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अलत्ता  : पुं० [सं० अलक्तक] अलता।
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अलप  : वि०=अल्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलपहति  : वि० [सं० अल्प-अति] बहुत अल्प (कम या थोड़ा)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलपाका  : पुं० [स्पे० एलपका] १. दक्षिणी अमेरिका में होनेवाला एक प्रकार का ऊँट। २. उक्त ऊँट के बालों से बना हुआ एक प्रकार का कपड़ा।
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अलफ  : पुं० [अ० अल्फ] १. चौपायों के खाने का चारा। २. घोड़े की वह स्थिति जिसमें वह अपने दोनों पिछले पैरों पर खड़ा हो जाता है। ३. कष्ट। विपत्ति। संकट। उदाहरण—न जाने आगे कोई अलफ है या नहीं।—वृंदावनलाल।
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अलफा  : पुं० [अ०] [स्त्री० अल्पा० अलफी] मुसलमानी फकीरों के पहनने का, कुरते के आकार का एक प्रकार का ढीला-ढाला लंबा और बिना बाँहों का पहनावा।
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अलंब  : पुं,० दे० =आलंब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलबत्ता  : अव्य० [अ० अल्बत] १. बिना शंका या संदेह के। निस्संदेह। बे-शक। २. परंतु। लेकिन। ३. हाँ। यह मान लिया। (क्व०)
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अलबम  : दे० ‘चित्राधार’।
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अलबाँती  : स्त्री० [सं० बालवती] वह स्त्री जिसे अभी हाल में बच्चा हुआ हो। प्रसूता। जच्चा।
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अलबिलल  : वि० [अनु०] =ऊल-जलूल। ऊट-पटाँग। क्रि० वि० व्यर्थ। बे-फायदा।
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अलबी-तलबी  : स्त्री० [हिं० अरबी (भाषा) का विकृत रूप+उसका अनु०] ऐसी ऊट-पटांग, अस्पष्ट या बिकट बात या बोली जो जल्दी सबकी समझ में न आवें।
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अलंबुष  : स्त्री० [सं० अलम्√पुष् (पुष्टि)+क, पृषो० ब० आदेश] १. वमन। कै। २. एक राक्षस जिसे घटोत्कच ने मारा था।
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अलंबुषा  : स्त्री० [सं० अलम्बु×टाप्] १. छूई-मुई। लजालू लता। २. एक अप्सरा का नाम। ३. किसी का मार्ग रोकने के लिए खीची हुई रेखा। ४. हठ-योग में, कान के पास की एक नाड़ी जो आँख के भीतरी भाग तक जाती है।
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अलबेला  : वि० [सं० अलभ्य+हिं० ला (प्रत्यय)] [स्त्री० अलबेली] १. अनूठा। अनोखा। २. बना-ठना। सुंदर। पुं० १. वह जो बना-ठना हो। २. बहुत ही मनमौजी और बे-परवाह व्यक्ति। ३.नारियल का बना हुआ हुक्का।
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अलबेलापन  : पुं० [हिं० अलबेला+पन (प्रत्यय)] अलेबला होने की अवस्था गुण या भाव।
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अलब्ध  : वि० [सं० न० त०] जो लब्ध या प्राप्त न हुआ हो। जो मिला या हाथ में आया न हो।
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अलब्धभूमिकत्व  : पुं० [सं० अल्बधभूमिक, न० ब०+त्व] योग में, वह स्थिति जिसमें समाधि ठीक तरह से न लगती हो।
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अलभ  : वि०=अलभ्य।
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अलभ्य  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अलभ्यता] जो लक्ष्य न हो। जो न मिलता हो, अथवा न मिल सके फलतः दुर्लभ या बहुमूल्य।
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अलम  : पुं० [अ०] १. कष्ट। दुःख। २. मानसिक पीड़ा या व्यथा। पुं० [अ० अलम] १. सेना का चिन्ह या पताका। २. पर्वत। पहाड़।
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अलमर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा।
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अलमस्त  : वि० [फा०] [भाव० अलमस्ती] अपनी प्रस्तुत स्थिति में सदा मस्त रहने और कभी किसी बात की चिंता करनेवाला। सदा निश्चित और प्रसन्न रहनेवाला।
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अलमस्ती  : स्त्री० [फा०] अलमस्त होने की अवस्था या भाव।
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अलमारी  : स्त्री० [पूर्त्त० अलमारियों] १. काठ, लोहे आदि का एक प्रकार का ऊंचा या लंबा आधान, जिसमें चीजें रखने के लिए खाने या घर बने होते हैं० २. इसी के अनुकरण पर दीवारों में बनाया हुआ आधान।
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अलमास  : पुं० [फा०] हीरा।
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अलमिति  : अव्य० [सं० अलम् और इति] १. बस यहीं अंत है या होता है। बस, इतना ही। २. बस, बहुत हो चुका।
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अलम्  : अव्य० [सं०√अलं (पर्याप्ति, भूषण)+अमु (बा०)] १. पर्याप्त। यथेष्ट। २. बस, इतना ही। बहुत हो चुका। ३. योग्य सक्षम।
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अलय  : वि० [सं० न० त०] जिसमें लय न हो। पु० [न० त०] १. लय का अभाव। २. नित्यता।
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अलर्क  : पुं० [सं० अल√अर्क् (स्तुति)+अच् वा√अर्च् (पूजा) घञ्, पररूप] १. पागल कुत्ता। २. सफेद मदार।
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अलल  : वि० [अं० आला] संदर। बढिया। उदाहरण—आलूदा ठाकूर अलल।—प्रिथीराज।
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अलल-टप्पू  : वि० [अनु०] १. जो यों ही बिना सोचे-समझे मान या स्थिर कर लिया गया हो। अटकल-पच्चू। (हेपहेजर्ड) २. अंड-बंड। बे-ठिकाने का। ऊँट-पटाँग।
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अलल-बछेड़ा  : पुं० [हिं० अल्हड़+बछेड़ा] १. घोड़े का जवान बच्चा। २. अनुभव शून्य या अल्हड़ व्यक्ति।
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अललहिसाब  : क्रि० वि० [अ०] बिना हिसाब किये। वि० [अ०] बाद में हिसाब लेने के लिए दिया जानेवाला (धन) उचित।
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अललाना  : अ० [सं० अट्=बोलना] १. बहुत जोर से चिल्लाना। २. गला फाड़कर पुकारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलल्लाँ  : पुं० [?] घोड़ा। (डिं०)।
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अलवाई  : स्त्री० [सं० बालवती] गाय या भैंस जिसे बच्चा हुए एक या दो महीनें हुए हों।
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अलवान  : पुं० [अ०] ऊनी या पशमीने की बढिया चादर।
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अलवाल  : पुं०=आलवाल।
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अलविदा  : अव्य० [अ०] बिदाई के समय कहा जानेवाला एक पद जिसका अर्थ है-अच्छा अब बिदा होते हैं। स्त्री० रमजान मास का अंतिम शुक्रवार।
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अलस  : वि० [सं० √लस् (कीड़ा आदि)+अच्० न० त०] [भाव अलसता] १. आलस्य से भरा हआ। २. आलस्य उत्पन्न करनेवाला। उदाहरण—वही वेदना सजक पलक में भरकर अलस सवेरा।—प्रसाद। ३. जिसमें शक्ति या सामर्थ्य न रह गया हो। ४. थका हुआ। क्लांत। शिथिल। पुं० १. एक प्रकार का छोटा विषैला जंतु। २. पैरों की उँगलियों में होनेवाली खुजली, पीड़ा, सड़न और सूजन। कँदरी। खरवात।
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अलसक  : पुं० [सं०√लस्+वुन-अक, न० त०] अजीर्ण रोग का एक भेद।
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अलसना  : अ० [सं० आलस्य] आलस्य से युक्त होना। अलसाना।
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अलसा  : स्त्री० [सं० अलस+टाप्] हंसपदी लता।
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अलसान  : स्त्री० =आलस्य। उदाहरण=आँखिन में अलसानि, चित्तौन में मंजु विलासन की सरसाई।—मतिराम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलसाना  : अ० [सं० आलस्य] १. आलस्य का अनुभव करना या आलस्य से युक्त होना। २. उक्त के फलस्वरूप शिथिल होकर कर्त्तव्य पालन से दूर रहना, बचना या हटना। ३. उदासीन विरक्त या खिन्न होना। उदाहरण—अब मोसौं अलसात जात हौ अधम उधारन हारे।—सूर।
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अलसी  : स्त्री० [सं० अतसी, गुं० अलसी, इलसी, सि० एलिसी, अलिसी, कं० अलिश, मराठी अळशी] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके छोटे-छोटे दानों या बीजों को पेरकर तेल निकाला जाता है। २. उक्त पौधे के दाने या बीज। तीसी।
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अलसेठ  : स्त्री० [सं० अलस] १. व्यर्थ की ढिलाई या स्थिरता। २. जान-बूझकर खड़ा किया जानेवाला व्यर्थ का झगड़ा या तकरार। ३. झंझट। बखेड़ा। ४. अड़चन। बाधा।
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अलसेठिया  : वि० [हिं० अलसेठ] अलसेठ या व्यर्थ का झगड़ा खड़ा करनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलसौहाँ  : वि० [सं० अलस] [स्त्री० अलसौही] १. आलस्य में पड़ा हुआ। अलसाया हुआ। २. खुमारी या नींद से भरा हुआ (नेत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलह  : वि० दे० ‘अलभ्य’। पुं० दे० ‘अल्लाह’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलहदगी  : स्त्री० [अ०] अलहदा अर्थात् पृथक् होने की अवस्था या भाव। पार्थक्य।
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अलहदा  : वि० [अ० अलहदः] १. जुदा। पृथक्। २. अलग। भिन्न।
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अलहदी  : पुं० दे० ‘अहदी’।
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अलहन  : पुं० [सं० अ+लहन-प्राप्ति] १. प्राप्ति या लाभ का अभाव। न मिलना। अप्राप्ति। २. आपत्ति। संकट। ३. बुरे दिन। कुसमय।
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अलहनियाँ  : स्त्री०=अलहन। वि० =अलहदी अर्थात् अहदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलहिया  : स्त्री० [हिं० आल्हा] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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अलहैरी  : पुं० [अ०] एक प्रकार का कूबड़वाला ऊँट जो बहुत तेज चलता है।
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अलाई  : वि० [हिं० आलस्य] [स्त्री० अलाइन] आलसी और सुस्त। स्त्री० घोडों की एक जाति। स्त्री० [?] लक्ष्मी। वि० [अ० अलाउद्दीन] अलाउद्दीन का। उदाहरण—परा बाँध चहुँ ओर अलाई।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलागलाग  : पुं० [हिं० लाग=लगाव] नृत्य या नाच का एक ढंग या प्रकार।
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अलात  : पुं० [सं०√ला (आदान)+क्त, न० त०] १. जलता हुआ। कोयला। अंगारा। २. जलती हुई। लकड़ी। लुआठा। ३. वह बनैठी जो दोनों सिरों पर जलाकर चलाई जाती है।
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अलात-चक्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्रकाश का वह चक्र या मंडल जो जलती हुई लकड़ी या बनैठी को जोरों से घुमाने पर बनता हो। २. किसी प्रकार का मंडलाकार प्रकाश। उदाहरण—मनु फिर रहे अलाव चक्र में उस घन तम में।—प्रसाद। ३. गति-भेदानुसार एक प्रकार का नृत्य या नाच।
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अलान  : पुं० [सं० आलान] १. हाथी बाँधने का खूँटा। २. वह मोटा सिक्कड़, जिसमें हाथी बाँधा जाता है। ३. बेड़ी। ४. बेल या लता चढाने के लिए गाड़ी हुई लकड़ी।
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अलानिया  : क्रि० वि० [अ० अलानियः] बिलकुल प्रकाश में और स्पष्ट रूप में। सबके सामने और खुलकर।
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अलाप  : पुं०=आलाप।
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अलाप बलाय  : स्त्री० [फा० बला-संकट] ऐसी विपत्ति या संकट जो परोक्ष से आता हो।
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अलापन  : पुं० [सं० आ√लप्+णिच्+ल्युट्-अन] आलाप करने की क्रिया या भाव।
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अलापना  : स० [सं० आलापन] १. गाने के समय लंबा स्वर खींचना। तान लगाना या लेना। २. शास्त्रीय पद्धति से गीत गाना। मुहावरा—अपना-अपना राग अलापना=सब लोगों का अपने-अपने स्वार्थ या हित की बात कहना। अ० आलाप या बात-चीत करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलापी  : वि० [सं० आलापी] १. संगीत में, आलाप करने अथवा तान लगानेवाला। २. गाने या बोलनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलाबू  : स्त्री० [सं०√लम्ब् (लम्बा होना)+उ,णित्, नलोप, बुद्धि, न० त०] १. कददू। लौकी। २. तूंबा।
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अलाभ  : पुं० [सं० न० त०] १. लाभ का अभाव। २. घाटा। हानि।
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अलाभकर  : वि० [सं० न० त०] १. जिससे कोई लाभ न हो। बेफायदा। व्यर्थ। २. जो आर्थिक दृष्टि से लाभदायक न हो।
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अलाम  : वि० [अ० अल्लामा-चतुर] १. बातें बनानेवाला। २. मिथ्यावादी। झूठा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलामत  : पुं० [अ०] चिन्ह या निशान, जिससे कोई चीज पहचानी जाए। लक्षण।
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अलायक  : पुं० [सं० अ=नहीं+अ० लायक] जो लायक या योग्य न हो। अयोग्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलायी  : वि० [हिं० आलसी] १. आलसी। २. अलहदी।
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अलार  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+यङ, लुक्+अच्, ल] किवाड़। पुं० [सं० अलात] आग के ढेर। अलाव।
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अलारम  : पुं० [अं० एलार्म] १. वह चिन्ह, संकेत या ध्वनि जो खतरे की सूचक हो। २. घड़ी में लगा हुआ ऐसा यन्त्र या उपकरण जो अभीष्ट या नियत समय पर सचेत करने के लिए घंटी बजती है।
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अलाल  : वि० [सं० अलस] १. आलसी। सुस्त। २. निकम्मा।
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अलाव  : पुं० [सं० अलात-अंगार] १. आग का ढेर। २. तापने के लिए जलाई हुई आग। कौड़ा। ३. वह स्थान जहां सब लोगों के तापने के लिए जलाई जाती है।
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अलावज  : पुं० [?] एक प्रकार का पुराना बाजा।
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अलावनी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का पुराना बाजा।
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अलावा  : अव्य० [अ० इलावा] इसे छोड़कर। अतिरिक्त। सिवाय।
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अलास  : पुं० [सं०√लस् (अलग करना)+घञ्, न० त०] एक रोग जिसमें जीभ के नीचे का भाग सूजकर पक जाता है।
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अलास्य  : वि० [सं० न० ब०] नृत्य न करनेवाला।
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अलाहनी  : स्त्री० [?] पंजाब में मृतक के शोक में होनेवाला एक प्रकार का पद्यमय विलाप।
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अलि  : पुं० [सं० √अल्+इन] [स्त्री० अलिनी] १. भौंरा। २. कोयल। ३. कौआ। ४. बिच्छू। ५. वृष्चिक राशि। ६. कुत्ता। ७. मदिरा। शराब। स्त्री० [?] आँख की पुतली। स्त्री० दे० ‘अली’।
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अलि-जिह्वा  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] [वि० अलिजिह्रीय] गले के अंदर ऊपरी भाग में लटकनेवाला मांस का टुकड़ा। कौआ। घाँटी। (यूव्यूलर)।
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अलि-जिह्विका  : स्त्री० दे० ‘अलिजिह्वा’।
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अलि-जिह्वीय  : वि० [सं० अलिजि ह्वा+छ-ईय] अलि-जिह्वा संबंधी (यूव्यूलर)
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अलि-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. वृश्चिकपत्र नामक वृक्ष। २. बिछुआ नाम की घास।
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अलि-प्रिय  : पुं० [सं० ब० स०] लाल कमल।
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अलि-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. भौंरों की तरह जगह-जगह घूमकर रस लेने की वृत्ति। २. कई घरों से पका हुआ भोजन माँगकर पेट भरना। मधुकरी (वृत्ति)। उदाहरण—उदर भरै अलिवृत्ति सों० छाँड़ि स्वान मृग भूप।—भगवतरसिक।
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अलिक  : पुं० [सं०√अल्+इकन्] ललाट। माथा। पुं० दे० ‘अली’।
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अलिखित  : वि० [सं० न० त०] १. जो लिखा हुआ न हो। बिना लिखा। २. जो लिखा तो न हो, फिर भी प्रायः लिखे हुए के समान हो। जैसे—अलिखित विधान।
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अलिंग  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कोई लिंग (स्त्री पुरुष का चिन्ह अथवा किसी प्रकार का लक्षण) न हो। २. (शब्द) जिसमें लिंग का सूचक तत्त्व न हो और इसी लिए जो सब लिगों में समान रूप से प्रयुक्त होता हो। जैसे—तुम, वह, हम आदि। पुं० [न० त०] लिंग का अभाव।
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अलिगर्द्ध  : पुं० [सं० अलि√गृध् (चाहना)+अच्] पानी में रहनेवाला एक प्रकार का साँप।
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अलिंजर  : पुं० [√अल् (भूषण आदि)+इन्, अलि√जृ (जीर्ण होना)+अच्, पृषो० मुम्] पानी रखने का मिट्टी का बरतन। जैसे—घड़ा, झंझर आदि।
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अलिंद  : पुं० [सं०√अल्+किन्दच्] १. बाहरी दरवाजे के सामने का चबूतरा या छज्जा। २. किसी उद्देश्य से निमित्त किया हुआ उच्च समतल स्थल। (प्लेटफार्म) ३. एक प्राचीन जनपद। ४. प्राचीन भारत में राजद्वार के भीतरी रास्ते के दोनों ओर के कमरे जिनमें लोगों का स्वागत-सत्कार होता था। ५. शरीर विज्ञान में, हृदय के ऊपर के वे दोनों छिद्र जिनमें फेफड़ों और शिराओं में रक्त आता है। (आँरिकल्) ६. कान की तरह बाहर निकला हुआ कोई अंग। पुं० [सं० अलि] भौंरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलिपक  : पुं० [सं०√लिप्+वुन्-अक, न० त०] १. भौंरा। २. कोयल। ३. कुत्ता।
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अलिपर्णी  : स्त्री०=अलिपत्रिका।
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अलिप्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो लिप्त न हो। २. अलग। पृथक्।
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अलिमक  : पुं० [सं० अलि√मक्क्+अच्, पृषो० कलोप] १. कोयल। २. मेंढक। ३. कमल के तंतु या रेशे।
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अलिमोदा  : स्त्री० [सं० अलि√मुद् (हर्ष)+णिच्+अम्-टाप्] गनियारी नाम का पौधा।
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अलियल  : पुं० [सं० अलि] भ्रमर। भौंरा। उदाहरण—सौरभ अकबर साह, अलियल आभडियो नहीं।—प्रिथीराज।
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अलिया  : स्त्री० [सं० आलय] १. एक प्रकार की तौल। २. वह गढ्ढा जिसमें कोई चीज ढककर रखी जाती है।
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अलिया-बलिया  : वि० [हिं० अलाय-बलाय] झगड़ा-बखेड़ा करनेवाला। प्रपंची। उदाहरण—न्यंद्रा कहै में अलिया बलिया, ब्रह्मा विष्णु महादेव छलिया।—गोरखनाथ। स्त्री०=अलाय-बलाय।
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अली  : स्त्री० [सं० आलि] सखी। सहेली। स्त्री० [सं० आलि] पंक्ति। कतार। स्त्री० [हिं० अलाय-बलाय] दैवी विपत्ति। संकट। पुं० [अ०] मुहम्मद साहब के दामाद का नाम और इमाम हुसैन के पिता का नाम।
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अली-बंद  : पुं० [अ०+फा०] एक तरह का बाजूबंद।
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अलीक  : वि० [सं०√अल् (वारण)+ईकन्] [भाव०अलीकता] १. बे-सिर-पैर का। २. मिथ्या। झूठ। ३. मर्यादा-रहित। ४. जो रुचिकर न हो। ५. अल्प। थोड़ा। ६. सारहीन। स्त्री० [हिं० लीक=लकीर] १. प्रतिष्ठा। २. मर्यादा।
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अलीगर्द  : पुं० =अलिगर्द्ध।
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अलीजा  : वि० [अ० अलीजाह] बहुत अधिक। प्रचुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलीन  : वि० [सं० न० त०] १. जो किसी में लीन न हो। २. जो उपयुक्त या ठीक न हो। ३. अनुचित। पुं० [सं० अलीन=मिला हुआ] १. दरवाजे की चौखट की खड़ी लंबी लकड़ी जिसमें पल्ला या किवाड़ जड़ा जाता है। साह। बाजू। २. वह आधा खंभा जो किनारे पर दीवार में सटाकर बनाया जाता है।
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अलीपित  : वि०=अलिप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलील  : वि० [अ०] जिसे कोई रोग हुआ हो। बीमार। रुग्ण।
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अलीह  : वि० [सं० अलीक] १. मिथ्या। झूठ। २. अनुचित। ३. असंभव।
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अलुक्  : पुं० [सं० न० ब०] १. व्याकरण में, समास का एक भेद जिसमें बीच की विभक्ति का लोप नहीं होता। जैसे—मनसिज, सरसिज, आदि। २. आलू-बुखारा नामक फल।
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अलुटना  : अ० [सं० लुट=लोटना, लड़खड़ाना] डगमगाना। लड़खड़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलुभूना  : अ०=उलझना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलूना  : वि० [स्त्री० अलूनी] अलोना।
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अलूप  : वि० -लुप्त। पुं०=लोप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलूला  : पुं० [हिं० बुलबुला ?] १. पानी का बुलबुला। बुदबुद। २. आग की लपट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलेख  : वि० [सं० न० ब०] १. जो सहज में समझ में न आवें। दुर्बोध। २. जो जाना न जा सके। अज्ञेय। वि० [हिं० अ+लेखा] जिसका लेखा, नाप-जोख या अंदाज न हो सके। बहुत अधिक। वि० [सं० अलक्ष्य] १. जो दिखाई न दो। २. जिसपर किसी का लक्ष्य या ध्यान न गया हो।
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अलेखा  : वि० =अलेख।
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अलेखी  : वि० [सं० अलेख] जिसका कोई लेखा या हिसाब न हो, अर्थात् बहुत अधिक। वि० [सं० अलक्ष्य] १. जो दिखाई न दो। २. जो या जैसा पहले कभी देखने में न आया हो। अभूत-पूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलेपक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. किसी से लेप (लगाव या संपर्क) न रखनेवाला। अलिप्त। पुं० =परमात्मा।
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अलेल  : पुं० [हिं० कुलेल ?] क्रीड़ा। कलोल। उदाहरण—धन आनंद खेल-अलेल दसै, बिलसै लट झूमि झुली।—घन आनंद।
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अलेलह  : क्रि० वि० [प्रा० अलिलह=व्यर्थ] बहुत अधिक। प्रचुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलैंगिक  : वि० [सं० लिंग+ठञ्=इक, न० त०] (जीव या वनस्पति) जिसमें स्त्री या पुरुष में से किसी का लिंग अथवा चिन्ह वर्तमान न हो। (अनसेक्सुअल)
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अलैया  : स्त्री० =अलहिया (रागिनी)।
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अलोक  : वि० [सं० ब० स०] १. जो देखने में न आवे। अदृश्य। छिपा हुआ। २. जहाँ लोक (मनुष्य) न रहते हों। ३. निर्जन। एकांत। पुं० १. परलोक। २. कलंक। ३.जैन शास्त्रों में वह स्थान जहाँ आकाश के सिवा और कुछ न हो और जिसमें मोक्षगामी के सिवा और किसी की गति न हो। ४. [न० त०] इस लोक या संसार का विनाश। पुं०=आलोक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलोकना  : स० [सं० आलोक] प्रकाशित या प्रकाश से युक्त करना। आलोकित करना। अ० आलोक या प्रकाश से युक्त। स० [सं० अवलोकन] अवलोकन करना। देखना।
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अलोक्य  : वि० [सं० न० त०] १. (ऐसा कार्य) जिसे करने से स्वर्ग न प्राप्त हो सके। २. अलौकिक या असाधारण।
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अलोचन  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे लोचन या नेत्र न हों। २. (घर या मकान) जिसमें खिड़कियाँ, झरोखे आदि न हों।
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अलोना  : वि० [सं० अ+लवणम्, प्रा० अलोण, बं० आलुणी, सिं० अलूण, मराठी० अलणी] १. (खाद्य पदार्थ) जिसमें नमक न पड़ा हो। २. जिसमें कोई रस या स्वाद न हो। फीका। ३. जिसमें लावण्य या सौन्दर्य न हो। असुंदर।
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अलोना-सलोना  : पुं० [हिं० ] दाल-मोट की तरह का एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो प्रायः सूखे मेवों (किशमिश, बादाम, चिरौंजी आदि) से बनता है।
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अलोप  : पुं०=लोप।
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अलोपना  : अ० [सं० लोप] लुप्त होना। स० लुप्त या गायब होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलोपा  : पुं० [सं० अलोप] वह वृक्ष जो सदा हरा रहे। सदा-बहार वनस्पति।
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अलोल  : वि० [सं० न० त०] १. जो लोल अथवा चंचल न हो, फलतः शान्त या स्थिर। २. अ-सुंदर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलोलक  : वि० [सं० अलौकिक] विलक्षण। विचित्र। उदाहरण—एक अलोलक मैं सुनी मेरे रावलिया कानी काजर दे भली मेरे रावलिया।—राज० कहा०।
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अलोलिक  : वि०=अलोल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलोहित  : पुं० [सं० न० त०] लाल कमल। वि० १. जो लोहित अथवा लाल न हो। लाल रंग से भिन्न रंगवाला। २. रक्त से भरा हुआ।
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अलोही  : वि०=अलोहित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलौकिक  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अलौकिकता] जो इस लोक में न होता हो या न दिखाई देता हो, फलतः अपूर्व, अमानुषी या लोकोत्तर।
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अलौलिक  : वि० [सं० लौल्य+ठक्-इक, न० त०] १. जो युवा अवस्था की उमंग के कारण ठीक तरह से आचरण या कार्य न कर सकता हो। २. अल्हड़पन से भरा हुआ। उदाहरण—लाल अलौलिक लरकई लखि लखि सखी सिहाँति।—बिहारी।
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अलौहिक  : वि० [सं० लौह+ठक्-इक, न० त०] १. जो लौहिक न हो। २. जिसमें लोहे का अंश या तत्त्व न हो। (नॉन-फेरस)
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अल्क  : पुं० [सं० √अल्+क] १. एक प्रकार का वृक्ष। २. शरीर का अवयव। अंग।
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अल्टिमेटम  : पुं० दे० ‘अंतिमेत्थम्’।
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अल्प  : वि० [सं०√अल् (भूषण, पर्याप्ति, वारण)+प] [भाव० अल्पता, अलपत्व] १. जो मान, मात्रा आदि के विचार से प्रथम स्तर से कम या थोड़ा हो। जैसे—अल्प-मत, अल्प- व्यस्क, अल्प-संख्यक आदि। २. छोटा। ३. तुच्छ। ४. मरमाशील। ५. विरक्त। पुं० साहित्य में, एक अलंकार जिसमें आधेय की अपेक्षा आधार को अल्प या सूक्ष्म बतलाया जाता है। जैसे—अँगुरी की मुंदरी हुती, भुज में करत विहार।
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अल्प-तंत्र  : पुं० [ष० त०] १. ऐसा तंत्र या शासन जो समाज के थोड़े से लोगों के द्वारा संचालित होता हो। लोक-तंत्र का विपरीत शासन। २. दे० कुल-तंत्र। (शासन प्रणाली)।
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अल्प-तनु  : वि० [ब० स०] जो आकार, परिणाम, स्वरूप आदि की दृष्टि से अल्प छोटा या दुबला-पतला हो। पुं० ठिगना या नाटा व्यक्ति।
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अल्प-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] १. बहुत छोटे या निम्न स्तर के विचार रखना। अधिक दूर का परिणाम या फल न देखना।
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अल्प-दृष्टि  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसके विचार बहतु ही संकीर्ण या संकुचित हों। २. अदूरदर्शी।
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अल्प-धी  : वि० [ब० स०] १. जिसे बहतु कम बुद्धि या विवेक हो। २. मूर्ख।
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अल्प-पद्य  : पुं० [कर्म० स०] लाल कमल।
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अल्प-प्राण  : पुं० [ब० स०] १. वह वर्ण जिसके उच्चारण में प्राणवायु का अल्प संचार हो। महाप्राण का विपर्याय। नामगरी वर्णमाला में प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा तथा पाँचवा अक्षर और य, र, ल, तथा व अक्षर अल्पप्राण हैं। वि० १. जिसमें प्राण या जीवनी शक्ति बहतु कम हो। २. अल्पजीवी।
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अल्प-भाषी (षिन्)  : वि० [सं० अल्प√भाष् (बोलना)+णिनि] १. कम बोलनेवाला। २. आवश्यकता से अधिक न बोलनेवाला। ३. बहुत थोड़े शब्दों में कहनेवाला।
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अल्प-मत  : पुं० [ष० त०] १. वह मत जिसके अनुयायी या समर्थक बहुत कम हों। २. बहुत कम लोगों द्वारा प्रकट किया गया मत। ‘बहु-मत’ का विपर्याय।
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अल्प-मेधा (धस्)  : [ब० स०] =अल्प-धी।
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अल्प-वयस्क  : पुं० [ब० स० कप्] १. जिसकी अवस्था अभी कम या थोड़ी हों। थोड़ी उम्र का। २. जो अभी वयस्क न हुआ हो। अवयस्क।
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अल्प-विराम  : पुं० [कर्म० स०] एक विराम चिन्ह जो वाक्य के पदों में पार्थक्य दिखलाने के लिए अथवा बोलने में कुछ विराम सूचित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। (काँमा) इसका रूप यह है—,।
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अल्प-संख्यक  : वि० [ब० स०कप्] जो गिनती या संख्या में कम या थोडे हों। पुं० १. वह दल, पक्ष या समाज जिसके अनुयायियों की संख्या अन्य दलों, पक्षों या समाजों की तुलना में कम हो। २. उक्त दल या पक्ष का अनुयायी अथवा प्रतिनिधि।
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अल्प-संधि  : स्त्री० [कर्म० स०] =विराम-संधि।
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अल्पक  : वि० [सं० अल्प+कन्] १. जो बहुत ही छोटा या सूक्ष्म हो। २. कम से कम जितना आवश्यक हो, उतना। (मिनिमम्) पुं० १. वह अक्षर या शब्द जो किसी वस्तु के छोटे रूप का वाचक हो। अल्पार्थक। (डिम्यूनिटिव) जैसे—‘खाट’ का अल्पक ‘खटिया’ और ‘लोटा’ का अल्पक ‘लुटिया’ होता है। २. जवासा।
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अल्पकालिक  : वि० [सं० अल्प काल, कर्म० स०+ठन्-इक] १. जिसका अस्तित्व अल्प काल या थोड़े समय हो अथवा जो थोड़े समय तक रहे। थोड़े दिनों तक रहनेवाला। (शार्ट-लिव्ड) २. (अनुबंध या निश्चय) जो थोड़े दिनों के लिए हो या थोड़े दिन चले। जैसे—अल्प-कालिक ऋण या सहायता।
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अल्पकालीन  : वि० [सं० अल्पकाल+ख-ईन] अल्पकालिक।
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अल्पजीवी (दिन्)  : वि० [सं० अल्प√जीव् (जीना)+णिनि] सामान्यतः बहुत थोड़े दिनों तक जीवित रहनेवाला। अल्पायु। (शार्ट-लिव्ड)
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अल्पज्ञ  : वि० [सं० अल्प√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० अल्पज्ञता] १. जिसे बहुत कम या थोड़ा ज्ञान हो। २. जो अच्छा जानकार न हो। ३. कम-समझ।
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अल्पज्ञता  : स्त्री० [अल्पज्ञ+तल्-टाप्] अल्पज्ञ होने की अवस्था या भाव। जानकारी की कमी।
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अल्पता  : स्त्री० [सं० अल्प+तल्-टाप्] १. कमी। अल्प होने की अवस्था या भाव। २. न्यूनता। कमी। ३. छोटाई। लघुता।
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अल्पत्व  : पुं० [सं० अल्प+त्व] =अल्पता।
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अल्पमत  : वि० [सं० अल्प+तमप्] जो अंश, परिणाम, मान, मात्रा आदि के विचार से सबसे अल्प, कम या थोड़ा हो। (मिनिमम्)
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अल्पशः  : क्रि० वि० [अल्प+शस्] १. थोड़ा-थोड़ा करके। २. कम से कम। क्रमशः। ३. धीरे-धीरे।
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अल्पाक्षरिक  : वि० [सं० अल्प-अक्षर, कर्म० स० अल्पाक्षर+ठन्-इक] १. जिसमें बहुत कम या थोड़े से अधिक हों। २. (कथन या वाक्य) जो इतने थोड़े शब्दों में कहा गया हो कि उसका ठीक और पूरा आशय सहज में न समझा जा सके। (लैकोनिक)
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अल्पायु (स्)  : [अल्प-आयुस्, ब० स०] जिसकी आयु बहुत कम हो। बहुत थोड़े दिनों तक जीवित रहनेवाला। (शार्ट लिव्ड) पुं० बकरा।
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अल्पारंभ  : पुं० [अल्प-आरंभ, कर्म० स०] किसी बड़े कार्य का ऐसा आरंभ जो छोटे रूप में हो। वि० [ब० स०] (काम) जो आरंभ में बहुत छोटे या हलके रूप में छेड़ा गया हो।
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अल्पार्थक  : पुं० [अल्प-अर्थ, ब० स० कप्] दे० ‘अल्पक’।
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अल्पांश  : पुं० [सं० अल्प-अंश, कर्म० स०] १. किसी वस्तु का बहुत कम या थोड़ा सा अँश। अल्प-भाग। २. किसी वर्ग, समूह, समुदाय या समाज का कुछ या आधे से बहुत कम अंश या भाग। (माइनाँरिटी) जैसे—आज-कल समाज का कदाचित अल्पांश ही संतुष्ट, संपन्न या सुखी होगा।
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अल्पाहार  : पुं० [अल्प-आहार, कर्म० स०] उचित या साधारण से बहुत कम खाना। थोड़ा भोजन।
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अल्पाहारी (रिन्)  : वि० [सं० अल्पाहार+इनि] कम, थोड़ा या संयत आहार अथवा भोजन करनेवाला।
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अल्पित  : भू० कृ० [सं० अल्प+णिच्+क्त] जिसे कम, थोड़ा या छोटा किया गया हो। अल्प रूप में लाया या घटाया हुआ।
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अल्पिष्ठ  : वि० [सं० अल्प+इष्ठन्] १. जितना थोड़ा हो सकता हो, उतना ही। कम से कम। २. बहुत ही कम।
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अल्पीकरण  : पुं० [सं० अल्प+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्-अन] कम करने या घटाने की क्रिया या भाव।
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अल्ल  : पुं० [अ० आल] वंश, गोत्र, जाति आदि का विशिष्ट नाम जो बराबर हर पीढ़ी में चलता रहता हो। जैसे—मिश्र, कपूर, श्रीवास्तव आदि।
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अल्ल-बल्ल  : वि० [अनु०] बिलकुल निरर्थक या व्यर्थ का। आँय-बाँय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अल्लम-गल्लम  : पुं० [अनु०] जिसका कुछ ठीक ठिकाना या सिर-पैर न हो। उधर-उधर का और प्रायः निरर्थक या फालतू।
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अल्लल  : पुं०=अलल्लाँ (घोड़ा)।
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अल्ला  : स्त्री० [सं०√अल् (भूषण आदि)+क्विप्, अल्√ला(लेना)+क-टाप्] १. माता। २. पराशक्ति। पुं०=अल्लाह (ईश्वर)।
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अल्लाई  : स्त्री० [देश०] चौपायों के गले में होनेवाली एक तरह की बीमारी।
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अल्लाना  : अ० [सं० अर्-बोलना] १. ऊँचे स्वर में पुकारना या बोलना। २. जोर का शब्द करना। चिल्लाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अल्लामा  : पुं० [अ,अल्लामः] बहुत बड़ा बुद्धिमान या विद्वान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अल्लाह  : पुं० [अ०] ईश्वर। परमेश्वर। पद—अल्लाह मियाँ की गाय=बहुत ही भोला-भाला या सीधा आदमी।
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अल्लाह बेली  : पद [अ०] ईश्वर तुम्हारा मित्र और रक्षक है।
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अल्लाहताला  : पद [अ०] परमेश्वर, जो सबसे बढ़कर है।
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अल्लाहो अकबर  : पद [अ०] अल्लाह अर्थात् ईश्वर महान है।
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अल्हड़  : वि० [प्रा० ओलेहड़=प्रमत्त, गाफिल] [भाव० अल्हड़पन] १. कम अवस्था या कम उम्र का। २. जो अपने लड़कपनवाले स्वभाव के कारण व्यवहार में कुशल या दक्ष न हो। ३. उद्धत और मन-मौजी। ४. गँवार। पुं० १. वह बछड़ा जिसके दाँत अभी न निकले हों। २. ऐसा बैल या बछड़ा जो अभी तक गाड़ी या हल में न जोता गया हो।
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अल्हड़पन  : पुं० [हिं० अल्हड़+पन (प्रत्यय)] अल्हड़ होने की अवस्था या भाव।
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अव  : उप० [सं०√अव्+अच्] एक उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है। (क) अनुचित, दूषित या बुरा। जैसे—अवगुण, अवभाषण, अवमान आदि। (ख) नीचे की ओर। जैसे—अवक्रमण, अवरोहण आदि। (ग) कमी घटाव या ह्रास। जैसे—अवकरण, अवमूल्यन आदि। (घ) अभाव होना। जैसे—अवचेतना। (च) विशेष रूप से। जैसे—अवदारण, अवक्षय आदि। अव्य० [सं० अपि, प्रा० अवि] और।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अव-कल्पना  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी ऐसी बात के संबंध में किया जानेवाला अनुमान या कल्पना, जिसके लिए कोई निश्चित आधार या प्रमाण न मिलता हो। (सर्माइज)
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अव-कृपा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] कृपा-भाव (अनुग्रह आदर, स्नेह आदि) का न रह जाना, जिसके फलस्वरूप कुछ अपकार या हानि हो सकती या होती हो।
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अव-केश  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसके बाल झड़ चुके हों या झड़ रहे हों। २. जिसके बाल लटक रहे हों या लटके हुए हों।
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अव-खात  : पुं० [सं० प्रा० स०] गहरा गड्ढा। खाई।
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अव-खाद  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत अधिक या निकृष्ट चीजें खानेवाला। २. नष्ट करनेवाला। पुं० [प्रा० स०] १. निकृष्ट या बुरा भोजन। २. पशुओं के खाने योग्य खाद्य पदार्थ।
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अव-चूड़  : पुं० [सं० ब० स०, ड-ल] ध्वजा के ऊपरी भाग पर बँधा रहनेवाला कपड़ा।
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अव-तमस  : पुं० [सं० प्रा० स० अच्] १. हलका अंधकार। २. गूढ़ता।
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अव-तल  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० अवतलता] जिसका तल बीच में कुच नीचे दबा हो। नतोदर (कॉन्केव)।
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अव-तोका  : वि० [सं० ब० स०] (जीव या प्राणी) जिसका गर्भपात हुआ हो।
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अव-पात्र  : वि० [सं० प्रा० स०] अयोग्य या निकृष्ट पात्र।
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अव-बाहुक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] भुजस्तंभ नामक वायु-रोग जिसमें हाथ बे-काम हो जाता है।
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अव-रूप  : वि० [सं० ब० स०] दूषित या मलिन रूपवाला। पुं० बुरा या भद्दा रूप।
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अवकरण  : पुं० [सं० अव√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. कम करने की क्रिया या भाव। घटाव। २. गणित में, बाकी या शेष निकालना। (रिडक्शन)
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अवकर्तन  : पुं० [सं० अव√कृ (काटना)+ल्युट्-अन] खंड, टुकड़े या विभाग करना। काटना।
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अवकर्षण  : पुं० [सं० अव√कल् (खींचना)+ल्युट्-अन] १. जोर से खींचना या बाहर निकालना। २. नीचे की ओर खींच ले जाना।
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अवकलना  : अ० [सं० अवकलन=ज्ञात होना] १. ज्ञान या बोध होना। २. (बात या विषय) समझ में आना। स० १. इकट्ठा करना। २. देखना। ३. ग्रहण करना।
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अवकलित  : भू० कृ० [सं० अव√कल् (गिनना या समझना)+क्त] १. जिसका अवकलन हुआ हो या किया गया हो। २. जाना, देखा या समझा हुआ। ३. लिया हुआ। गृहीत।
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अवका  : स्त्री० [सं०√अव् (रक्षण आदि)+क्वुन्-अक-टाप्] शैवाल। सेवार।
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अवकाश  : पुं० [सं० अव√काश् (दीप्ति)+घञ्] १. रिक्त या शून्य स्थान। खाली जगह। २. दो पदार्थों, रेखाओं, बिंदुओं आदि के बीच की जगह या विस्तार। ३. अंतरिक्ष। आकाश। (स्पेस उक्त तीनों अर्थों के लिए) ४. दो काल-बिंदुओं घटनाओं आदि के बीच का ऐसा समय जो किसी काम के लिए निकलता हो या निकाला जाए। जैसे—अब आपको यह काम पूरा करने के लिए कुछ अवकाश मिल जायगा। ५.किसी के आने, बैठने रहने आदि के लिए या कोई चीज रखने के लिए ऐसा स्थान जो निकल सके या निकाला जा सके। जैसे—आपके लिए भी कोई अवकाश निकालने का प्रयत्न करूँगा। ६. कामों के बीच में खाली रहने या छुट्टी मिलने का समय। छुट्टी या फुरसत का समय। जैसे—अवकाश मिलने पर यहाँ भी आ जाया कीजिए। ७. निरंतर काम करते रहने पर नियमति या निश्चित रूप से मिलने वाली छुट्टी। (लीव) जैसे—वे एक महीने का अवकाश लेकर घर गये हैं। ८. किसी कार्य-भार, पद आदि से सदा के लिए मिलने या ली जानेवाली छुट्टी। जैसे—अब तो उन्होंने राजनीति (या राजकीय सेवा) से अवकाश ले लिया है।
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अवकाश-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] जीवन का शेष समय निश्चित होकर शांतिपूर्वक बिताने के लिये किसी सार्वजनिक कार्य, पद या सेवा से अलग होना। (रिटायरमेन्ट)
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अवकाश-प्राप्त  : वि० [ब० स०] (वह व्यक्ति) जो किसी कार्य या पद पर निश्चित काल तक कार्य कर चुकने पर अथवा किसी अन्य कारण से उस कार्य या पद से अलग हो चुका हो। (रिटायर्ड)
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अवकाश-लेखा  : पुं० [ष० त०] कर्मचारियों या कार्यकर्त्ताओं को मिलने या दी जानेवाली छुट्टियों का लेखा या हिसाब। (लीव एकाउन्ट)
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अवकाश-संख्यान  : पुं०=अवकाश-लेखा।
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अवकिरण  : पुं० [सं० अव√कृ (बिखेरना)+ल्युट्-अन] छितराने, बिखेरने या फैलाने की क्रिया या भाव।
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अवकीर्ण  : भू० कृ० [सं० अव√कृ+क्त] १. छितराया, बिखेरा या फैलाया हुआ। २. तोड़-फोड़ कर नष्ट किया हुआ। ३. जिसका कौमार्य या ब्रह्मचर्य नष्ट हो चुका हो।
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अवकीर्णन  : पुं० [सं० अवकीर्ण+णिच्+ल्युट्-अन]चारों ओर छितराना, फैलाना या बिखेरना।
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अवकुंचन  : पुं० [सं० अव√कुञ्च् (कुटिलता)+ल्युट्-अन] बटोरने, समेटने या सिकोड़ने की क्रिया या भाव।
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अवकुंठन  : पुं० [सं० अव√कुंठ् (वेष्टन)+ल्युट्-अन] दे० ‘अवगुंठन’।
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अवकृष्ट  : भू० कृ० [सं० अव√कृष् (खींचना)+क्त] १. खींचकर नीचे की ओर लाया हुआ। २. हटाया या दूर किया हुआ। ३. गले के नीचे उतारा या निगला हुआ। ४. छोटी या नीच जाति का। ५. जाति से निकाला हुआ। ६. तुच्छ। हीन।
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अवकेशी (शिन्)  : वि० [सं० अव-क ब० स०√ईश् (ऐश्वर्य)+णिनि] १. (लता या वृक्ष) जिसमें फल न लगते हों। २. बाँझ। वंध्या। ३. छोटे बालोंवाला।
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अवक्खन  : पु०=अवेक्षण (देखना)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवक्तव्य  : वि० [सं० न० त०] १. न कहने योग्य। २. निषिद्ध या अश्लील। (बात)। ३. जिसकी व्याख्या या स्पष्टीकरण न हो सके।
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अवक्त्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका या जिसमें मुँह (ऊपर की ओर खुला अंश) न हो। २. जिसका मुँह अंदर या नीचे की ओर हो। औंधा।
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अवक्रंदन  : पुं० [सं० अव√कन्द (चिल्लाना)+ल्युट्-अन] ऊँचे स्वर में अथवा जोर-जोर से रोना या विलाप करना।
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अवक्रम  : पु० [सं० अव√कम् (चलना)+घञ्] १. नीचे की ओर आना या उतरना। २. अव्यवस्थित या दूषित क्रम।
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अवक्रमण  : पुं० [सं० अव√कम्+ल्युट्-अन] १. नीचे की ओर आने या उतरने की क्रिया या भाव। २. जैन तथा बौद्ध धर्म के अनुसार गर्भ में आना।
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अवक्रय  : पुं० [सं० अव√क्री (खरीदना या बेचना)+अच्] १. दे० ‘निष्क्रय’। २. दे० ‘क्षति-पूर्ति’।
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अवक्रांत  : भू० कृ० [सं० अव√कम्+क्त] १. जिसके ऊपर कोई दूसरा (प्रधान या मुख्य) हो। अधीनस्थ। २. जिसे किसी ने दबाकर पूरी तरह से अपने अधिकार या वश में कर लिया हो।
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अवक्रांति  : स्त्री० [सं० अव√क्रम्+क्तिन्] १. अवक्रमण। २. पूरी तरह से अधिकार या वश में करने या होने की अवस्था या भाव।
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अवक्रीतक  : भू० कृ० [सं० अव√क्री (खरीदना)+क्त+कन्] माँग कर या उधार लिया हुआ। मँगनी का।
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अवक्रोश  : पुं० [सं० अव√क्रुश् (चिल्लाना)+घञ्] १. कर्कश ध्वनि, शब्द या स्वर। २. गाली। दुर्वचन। ३. अभिशाप। शाप।
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अवक्लिन्न  : वि० [सं० अव√क्लिद् (गीला करना)+क्त] भींगा हुआ। गीला।
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अवक्लेय  : वि० [सं० अव√क्लिद्+घञ्] जल या तरल पदार्थ का बहना, टपकना या रसना।
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अवक्षय  : पुं० [सं० अव√क्षि(नाश)+अच्] क्षय। नाश।
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अवक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० अव√क्षिप्(फेंकना)+क्त] जिसका अवक्षेपन हुआ हो। (प्रेसिपिटेटेड)
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अवक्षेप  : पुं० [सं० अव√क्षिप्+घञ्] १. आपत्ति। उज्र। २. किसी के संबंध में यह कहना कि इसने अमुक अनुचित काम किया है, अथवा अमुक अपराध या दोष का दायित्व उस पर है। (ब्लेम) ३. दे० ‘अवक्षेपण’।
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अवक्षेपण  : पुं० [सं० अव√क्षिप्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अवक्षिप्त] १. जोर से किसी ओर गिराना, फेंकना या हटाना। २. बहुत तेजी या जल्दी से कोई काम करना। ३. रसायन शास्त्र में आग या बिजली की सहायता अथवा रासायनिक प्रक्रिया से किसी घोल में मिला हुआ कोई द्रव्य जमा कर या नीचे बैठाकर अलग करना। (प्रेसिपिटेशन) ४. डाँटना-डपटना। ५. झूठा आरोप या कलंक लगाना।
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अवक्षेपणी  : स्त्री० [सं० अवक्षेपण+ङीष्] बागडोर। लगाम।
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अवखंडन  : पुं० [सं० अव√खंड् (टुकड़ा करना)+ल्युट्-अन] १. तोड़ना-फोड़ना। नष्ट करना। २. खंड, टुकड़े या विभाग करना।
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अवगंड  : पुं० [सं० अव√गम् (जाना)+ड] चेहरे पर होनेवाली फुंसी या फुड़िया। मुँहासा।
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अवगण  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका कोई गण न हो, अथवा जो किसी गण में न हो। २. एकाकी। अकेला।
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अवगणन  : पुं० [सं० अव√गण् (गिनना)+ल्युट्-अन] १. गिनती करते समय किसी को छोड़ देना। २. तुच्छ समझना। कुछ न गिनना। ३. जान-बूझकर किसी की मर्यादा, महत्त्व आदि की ओर ध्यान न देना अथवा आवश्यकता से कम ध्यान देना। ४. उपेक्षा करना। (इग्नोंरिंग)
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अवगणना  : स्त्री० [सं० अव√गण्+णिच्+युच्-अन-टाप्] =अवगणन।
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अवगणित  : भू० कृ० [सं० अव√गण्+क्त] १. जिसका अवगणन हुआ हो। (इग्नोर्ड) २. जिसका महत्त्व या मान न आँका गया हो। ३. अपमानित, उपेक्षित या तिरस्कृत। ४. हारा हुआ। पराजित।
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अवगत  : वि० [सं० अव√गम् (जाना)+क्त] १. जाना समझा या धारित किया हुआ। २. नीचे गया या गिरा हुआ। वि० [सं० अवगति] निरर्थक। व्यर्थ। मुहावरा—अवगत जाना=व्यर्थ नष्ट होना। वि०=अविगत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवगतना  : अ० [सं० अवगत+हिं० ना(प्रत्यय)] १. अवगत होना। २. विचारना, समझना या सोचना। स० किसी पर कोई बात प्रकट करना। अवगत कराना। जतलाना।
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अवगति  : स्त्री० [सं० अव√गम्+क्तिन्] १. ‘अवगत’ होने की अवस्था या भाव। २. धारणा शक्ति। ३. बुद्धि। समझ। स्त्री० [सं० अव+गति] बुरी गति या दशा। दुर्दशा।
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अवगन  : पुं० =आवागमन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवगम  : पुं० [सं० अव√गम्+घञ्] =अवगमन।
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अवगमन  : पुं० [सं० अव√गम्+ल्युट्-अन] [वि० अवगत] १. विदित होने की क्रिया या भाव। २. निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त करना। पुं० [सं० अव+गमन] अनुचित गलत या बुरे रास्ते पर जाना।
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अवगलित  : वि० [सं० अव√गल् (क्षरण होना)+क्त] १. नीचे गिरा हुआ। २. फिसला हुआ।
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अवगाढ़  : वि० [सं० अव√गाह् (विलोडन)+क्त] १. अंदर घुसा, धँसा या पैठा हुआ। २. छिपा या दबा हुआ।
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अवगाधना  : स० दे० ‘अवगाहना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवगारना  : स० [सं० अव+गरण] १. जतलाना या समझाना। २. बुरा-भला कहना। बुराई या निंदा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवगास  : पुं० =अवकाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवगाह  : वि० १. बहुत गहरा। अथाह। २. अनहोना। ३. कठिन। ४. गंभीर। पुं० [सं० अव√गाह्+घ़ञ्] १. गहरा स्थान। २. संकट का समय या स्थान। ३. जल में पैठकर किया जानेवाला स्नान। ४. दे० ‘अवगाहन’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवगाहन  : पुं० [सं० अव√गाह्+ल्युट्-अन] १. जलाशय या जल में घुस या पैठकर किया जानेवाला स्नान। २. कोई बात जानने या समझने के लिए उसके संबंध में की जानेवाली खोज, छान-बीन या मनन। मन लगाकर अच्छी तरह सोचना-समझना। ३. मथना। विलोड़न।
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अवगाहना  : अ० [सं० अवगाह] १. जल में घुसकर या पैठकर स्नान करना। २. भीतरी भाग में पहुँचना, पैठना या प्रवेश करना। ३. किसी विषय का अच्छी तरह चिंतन या मनन करना। ४. प्रसन्न होना। स० १. अन्वेषण, खोज या छानबीन करना। २. स्वीकृत, ग्रहण या धारण करना। ३. हिलाना-डुलाना। ४. बिलोना। मथना।
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अवगाहित  : भू० कृ० [सं० अव√गाह्+क्त] १. जिसने स्नान किया हो। २. जिसमें स्नान किया गया हो। (जैसे—तालाब, नदी आदि) ३. (विषय) जिसका अच्छी तरह मनन या विवेचन किया गया हो।
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अवगाही (हिन्)  : वि० [सं० अव√गाह्+णिनि=अवगाहन करनेवाला] १. स्नान करनेवाला। २. जिसकी कहीं पहुँच या पैठ हो। ३. चिंतन या मनन करनेवाला। ४. गहराई में जानेवाला। खोज या छान-बीन करनेवाला।
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अवगाहु  : वि० =अवगाह।
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अवगाह्य  : वि० [सं० अव√गाह्+ण्यत्] १. (व्यक्ति) जो स्नान करने के योग्य हो। २. (तालाब नदी आदि) जिसमें स्नान करना उचित या योग्य हो। ३. (विषय) जिसका चिंतन, मनन या विवेचन होने को हो या हो रहा हो।
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अवगीत  : वि० [सं० अव√गै (शब्द)+क्त] १. (गीत) जो भद्दे ढंग से या बुरी तरह से गाया गया हो। २. (वस्तु या व्यक्ति) जिसकी लोक में निंदा या बदनामी हुई हो। ३. गर्हित। पुं० १. ऐसा गीत जो बुरी तरह से गाया गया हो। बेसुरा गीत। २. अश्लील, गंदी और भद्दी बातों से भरा हुआ गीत। (लैम्पून) जैसे—होली में गाये जाने वाले गंदे गीत।
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अवगुंठन  : पुं० [सं० अव√गुण्ठ् (लपेटना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अवगुंठित] १. कपड़े से मुँह छिपाने या ढकने की क्रिया। २. कपड़े का वह अंश जो मुँह पर उसे छिपाने के लिए डाला जाता है। घूँघट। ३. रेखाओं आदि से कोई चीज चारों ओर घेरना। ४. छिपाने या ढकने के लिए चारों ओर से बंद करना। ५. ऊपर से ढकने वाली चीज। ढक्कन।
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अवगुंठनमय  : वि० [सं० अवगुंण्ठन+मयट्] [स्त्री० अवगुंठनमयी] १. जिसका सारा शरीर कपड़े से छिपा या ढका हो। २. जिसके मुँह पर अवगुंठन या घूँघट हो।
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अवगुंठनवती  : वि० [सं० अवगुंण्ठन+मतुप्,व-ङीष्] (स्त्री) जिसने अपने चेहरे पर अवगुंठन या घूँघट कर रखा हो।
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अवगुंठिका  : स्त्री० [सं० अव√गुण्ठ+ण्वुल्-अक-टाप्, इत्व] १. घूँघट। २. परदा।
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अवगुंठित  : भू० कृ० [सं० अव√गुण्ठ+क्त] [स्त्री० अवगुंठिता] १. जिसने घूँघट निकाला हो। २. जिसके ऊपर कोई आवरण या परदा पड़ा हो। ३. छिपाया या ढका हुआ।
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अवगुण  : पुं० [सं० अव√गुण्(आमंत्रण)+क] १. अनुचित, बुरा या दूषित गुण। २. अपराध। दोष। ३. खराबी। बुराई।
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अवगुन  : पुं० =अवगुन।
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अवगुंफन  : पुं० [सं० अव√गुम्फ् (गूँथना)+ल्युट्-अन] [वि० अवगुंफित] गूँथने या पिरोने की क्रिया या भाव।
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अवगुंफित  : भू० कृ० [सं० अव√गुम्फ्+क्त] गूँथा या पिरोया हुआ।
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अवगुरण  : पुं० [सं० अव√गृर् (उद्यम करना)+ल्युट्-अन] मारने-पीटने आदि के लिए धमकाना।
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अवगूहन  : पुं० [सं० अव√गृह् (छिपाना)+ल्युट्-अन] १. छिपाने की क्रिया या भाव। २. आलिंगन करना गले लगाना।
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अवगोरण  : पु० =अवगुरण।
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अवग्गी  : वि० [सं० अ+वल्ग] १. (ऊँट, घोड़ा या बैल) जो बाग या रास के नियंत्रण में न रहता हो। २. उच्छृखल या उद्धंत।
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अवग्रह  : पुं० [सं० अव√ग्रह (ग्रहण करना)+घ] १. बाधा। रुकावट। २. वर्षा का अभाव। अनावृष्टि। सूखा। ३. बंद। बाँध। ४. व्याकरण में संधियों का विच्छेद। ५. वह अक्षर जिसके उपरांत संधि-विच्छेद हो। ६. कृपा या अनुग्रह का अभाव। अनुग्रह का विपर्याय। ७. हाथियों का झुंड या समूह। ८. हाथी का मस्तक। ९. प्रकृति। स्वभाव। १. शाप।
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अवग्रहण  : पुं० [सं० अव√ग्रह+ल्युट्-अन] १. रोकने या प्रतिरोध करने की क्रिया या भाव। २. अनादर या अपमान।
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अवग्राह  : पुं० [सं० अव√ग्रह+घञ्] १. संबंध टूटना। २. बाधा। रुकावट। ३. अनावृष्ठि। सूखा। ४. हाथी का मस्तक।
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अवघट  : वि० [सं० अव-घट्ट=घाट] १. कठिन। विकट। २. ऊबड़-खाबड़। ऊँचा-नीचा। ३. दुर्गम। ४. जटिल। दुर्बोध।
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अवघटृ  : पुं० [सं० अव√घट्ट(चलन)+घञ्] १. गुफा। माँद। २. छोटे जानवरों का बिल।
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अवघर्षण  : पुं० [सं० अव√घृष् (रगड़ना)+ल्युट्-अन] छीलना, मलना या रगड़ना।
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अवघात  : पुं० [सं० अव√हन् (हिंसा गति)+घञ्] १. आघात। प्रहार। २. बाहर निकालने के लिए दिया जानेवाला धक्का।
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अवघूर्णन  : पुं० [सं० अव√घूर्ण(घूमना)+ल्युट्-अन] १. चक्कर खाना। २. बगूला। बवंडर। वातावर्त। ३. हवा में लहराना।
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अवघोटित  : भू० कृ० [सं० अव√घुट् (परिवर्तन)+क्त] १. चारों ओर से छिपा, घिरा या ढँका हुआ। २. अस्त-व्यस्त या उलट-पुलट किया हुआ।
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अवघोषक  : वि० [सं० अव√घुष् (शब्द)+ण्वुल्-अक] अनुचित या मिथ्या घोषणा करनेवाला।
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अवघोषणा  : स्त्री० [सं० अव√घुष्+ल्युट्-अन] अनुचित या बुरी घोषणा।
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अवचट  : क्रि० वि० पुं० =औचट।
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अवचन  : पुं० [सं० न० त०] १. वचन का अभाव। २. मुँह से वचन न निकलना। चुप्पी। मौन। ३. अनुचित, दूषित या बुरा वचन।
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अवचनीय  : वि० [सं० न० त०] १. (उक्ति कथन या बात) जो किसी से कहने योग्य न हो। २. जिसका वर्णन शब्दों द्वारा न किया जा सके। ३. अश्लील। फूहड़।
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अवचय  : पुं० [सं० अव√चि (इकट्ठा करना)+अच्] १. चयन या संग्रह करना। चुनकर इकट्ठा करना। २. फूल चुनना।
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अवचयन  : पुं० [सं० अव√चि+ल्युट्-अन] =अवचय।
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अवचार  : पुं० [सं० अव√चर् (गति)+घञ्] १. नीचे की ओर जानेवाला मार्ग या रास्ता। २. मार्ग। रास्ता। ३. कार्य-क्षेत्र।
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अवचित  : भू० कृ० [सं० अव√चि (चयन करना)+क्त] जिसका अवचयन हुआ हो। चुनकर इकट्टा किया हुआ।
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अवचूरी  : स्त्री० [सं० अव√चूर् (दाह)+क, ङीष्] संक्षिप्त टीका या व्याख्या।
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अवचूर्णित  : भू० कृ० [सं० अव√चूर्ण (पीनसा)+क्त] १. पीसकर चूर्ण के रूप में लाया हुआ। २. जिसेक कठिन शब्दों और पदों के अर्थ का भाव सरल रूप में समझाये गये हों।
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अवचेतन  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० अवचेतना] जिसमें चेतना न हो या जिसकी चेतना नष्ट हो गयी हो। विशेष दे० ‘अवचेतन’।
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अवच्छंग  : पुं० दे० ‘उछंग’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवच्छद  : पुं० [सं० अव√छद् (ढकना)+घ] ढकना। ढक्कन।
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अवच्छिन्न  : वि० [सं० अव√छिद् (काटना)+क्त] १. जिसका अवच्छेदन हुआ हो। २. शस्त्र या हथियार से काटकर अलग किया हुआ। ३.अलग किया हुआ। ४.किसी विशिष्टता से युक्त किया हुआ। विशेषित। ५.निश्चित सीमा के अंदर लाया हुआ। सीमित।
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अवच्छेद  : पुं० [सं० अव√छिद्+घञ्] [वि० अवच्छेद्य, अवच्छिन्न, कर्त्ताअवच्छेदक] १. अवच्छेदन। २. खंड। टुकड़ा। ३. सीमा। हद। ४. छान-बीन। ५. पुस्तक का परिच्छेद। प्रकरण। ६. मृदंग का एक प्रकार का प्रबंध।
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अवच्छेदक  : वि० [सं० अव√छिद्+ण्युल्-अक] १. अवछेदन करनेवाला। २. छेदनेवाला। छेदक। ३. सीमा निश्चित करनेवाला। ४. निश्चय करनेवाला। पुं० विशेषण। (व्या०)
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अवच्छेदकता  : स्त्री० [सं० अवच्छेदक+तल्-टाप्] १. अवच्छेदक होने की अवस्था या भाव। २. हद या सीमा बाँधने का भाव। परिमिति।
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अवच्छेदन  : पुं० [सं० अव√छिद्+ल्युट्-अन] १. शस्त्र या हथियार से काटकर अलग करने की क्रिया या भाव। २. खंड, टुकड़े या विभाग करना। ३. सीमा निर्धारित करना। ४. किसी प्रकार अलग या पृथक् करना।
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अवच्छेद्य  : वि० [सं० अव√छिद्+ण्यत्] जिसका अवच्छेदन होने को हो या हो सकता हो।
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अवच्छेपणी  : पुं० =अवक्षेपणी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवजय  : स्त्री० [सं० अव√जि(जीतना)+अच्] पराजय। हार।
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अवजित  : वि० [सं० अव√जि+क्त] १. हारा हुआ। पराजित। २. तिस्कृत।
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अवज्जना  : स० [सं० आवर्जन या फा० आवाज ?] पुकारना। बुलाना। अ० जोर का शब्द करना। गरजना। उदाहरण—ढलकि ढाल बद्दल मिलिय पुब्ब झड़ाड अविज्जि।—चंदवरदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवज्ञा  : स्त्री० [सं० अव√ज्ञा(जानना)+अङ्-टाप्] १. किसी अधिकारी द्वारा दी हुई आज्ञा या आदेश पर जान-बूझकर ध्यान न देना, उसे न मानना या उसका उल्लघन करना। (डिस-ओबीडिएन्स) २. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें एक वस्तु के गुण या दोष का दूसरी वस्तु पर प्रभाव न पड़ने का वर्णन होता है। ३. पराजय। हार।
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अवज्ञात  : भू० कृ० [सं० अव√ज्ञा+क्त] १. जिसकी अवज्ञा की गई हो, फलतः अपमानित या तिरस्कृत। २. हारा हुआ। पराजित।
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अवज्ञान  : पुं० [सं० अव√ज्ञा+ल्युट्-अन] [वि० अवज्ञात, अवज्ञेय] १. अपमान। अनादर। २. आज्ञा का उल्लंघन। ३. पराजय। हार।
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अवज्ञेय  : वि० [सं० अव√ज्ञा+यत्] १. (अधिकारी या आदेश) जिसकी अवज्ञा की जा सकती हो। २. जिसकी अवज्ञा करना उचित हो।
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अवझेरा  : पुं०=उलझन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवट  : पुं० [सं०√अव् (रक्षण आदि)+अटन्] १. छिद्र। छेद। २. गड्ढा। ३. तृण आदि से ढका हुआ एक प्रकार का गड्ढा जो जंगली पशुओं विशेषतः हाथियों को फँसाने के लिए बनाया जाता है। ४. कूँआ। ५. एक नरक का नाम। ६. शरीर का कोई नीचला या कमजोर भाग। ७.जादूगर। बाजीगर।
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अवट-कच्छप  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. गड्ढे में छिपा हुआ कच्छप या कछुआ। लाक्षणिक रूप में, ऐसा व्यक्ति जिसे संसार का कोई अनुभव या ज्ञान न हो।
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अवटना  : अ० [सं० आवर्त्तन, प्रा० आवट्टन] १. व्यर्थ घूमना या मारे-मारे फिरना। २. आग पर चढ़ाकर औटाया, गलाया या पिघलाया जाना। उदाहरण—कनक सोहग न बीछुरैं, अवटि मिलैं जो एक-जायसी। स० १. आग पर चढ़ाकर गलाना या पकाना। औटाना। उदाहरण—चूना कीन्ह अवटि गज मोती।—जायसी। २. मथना।
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अवटी  : स्त्री० [सं० अव्+अटि-ङीष्] १. छिद्र। छेद। २. गड्ढा। ३. कूँआ।
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अवटीट  : वि० [सं० अव-नासा, ब० स०, नासा को टीट आदेश] जिसकी नाक चिपटी हो। चिपटी नाकवाला।
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अवटु  : वि० [सं० न० त०] १. जो वटु (बालक) न हो। २. जो ब्राह्मण न हो। पुं० [सं० अव√टीक्(गति)+डु] १. गड्ढा। २. कूँआ। ३. माँद। ४. गरदन का पिछला भाग।
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अवटुका-ग्रंथि  : स्त्री० [सं० अवटुका, अवटु+कन्-टाप्,अवटुका-ग्रंथि ष० त०] शरीर के अंदर श्वास नली और स्वर यंत्र के पास की कुछ विशिष्ट ग्रंथियाँ या उनका समूह। (थॉइराँयड ग्लैड)
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अवडीन  : पुं० [सं० अव√डी(उड़ना)+क्त] १. पक्षियों की उड़ान। २. पक्षियों का उड़ते हुए नीचे की ओर आना।
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अवडेर  : पुं० [हिं० अव+रार या राड़ ?] [क्रि० अवडेरना] १. चक्कर। फेर। २. झंझट-बखेड़ा। ३. रंग या सुख-भोग में होने वाली बाधा। रंग में भंग।
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अवडेरन  : स० [हिं० अव+डेरा ?] १. किसी का डेरा या निवास स्थान इस प्रकार उजाड़ना कि उसे भागकर दूर जाना पड़े। उदाहरण—भोरानाथ भोरे ही सरोष होते थोरे दोष पोषि तोषि थापि आपेन न अवडलिये।—तुलसी। २. तंग कर के भगाना। ३. चक्कर या झंझट में डालना। ४. प्रेरित करना। उकसाना। ५. अपमानित करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवडेरा  : वि० [हिं० अवडेर] १. झंझट में डालने या फँसानेवाला। २. जो चक्करदार हो। पेंचीला। ३. बेढब। ४. विलक्षण। ५. विकट।
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अवढर  : वि० [हिं० अव+ढलना] अकारण ही ढलने (प्रसन्न या अनुरक्त) वाला। मनमाने ढंग से उदारता, कृपा आदि दिखानेवाला।
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अवण  : स्त्री० =अवनि (पृथ्वी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवतत  : वि० [सं० अव√तन् (विस्तार)+क्त] १. जिसका विस्तार नीचे की ओर हो। २. विस्तृत। ३. फैला या फैलाया हुआ।
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अवतरण  : पुं० [सं० अव√तृ (उतरना)+ल्युट्-अन] [वि० अवतीर्ण] १. ऊपर से नीचे आना। नीचे उतरने की क्रिया या भाव। २. नीचे उतरने की सीढ़ी या घाट। ३. तैर कर पार होना। ४.शरीर धारण करना। जन्म लेना। ५. प्रतिकृति नकल। ६. प्रार्दुभाव। ७. लोक, वचन आदि का उदधृत अंश। उद्धरण। (कोटेशन) ८. भूमिका। ९. अनुवाद। १. एकाएक अन्तर्ध्यान होना या छिप जाना। ११. स्नान करने के लिए जल में उतरना। १२. पार होना।
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अवतरण-चिन्ह  : पुं० [ष० त०] उलटे हुए अल्प-विराम चिन्ह जिनके बीच में किसी का कथन उदधृत किया जाता है। जैसे— “.....”।
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अवतरण-पथ  : पुं० [ष० त०] वह पथ जिसपर से होकर वायुयान उतरने के समय नीचे भूमि पर आते है और फिर ऊपर जाते है। (एयरस्ट्रिम)
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अवतरण-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] वह खुला मैदान जहाँ वायुयान आकर उतरते या ठहरते हैं। (लैडिंग ग्राउंड)
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अवतरणच्छन्न  : पुं० [ष० त०] वह छतरी या छाता जिसकी सहायता से वायुयान पर से सैनिक नीचे उतरते है। (पैराशूट)
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अवतरणिका  : स्त्री० [सं० अवतरण-ङीष्+कन्, टाप्-ह्रस्व] १. किसी पुस्तक या परिचायक आरंभिक अंश। भूमिका। २. परिपाटी। रीति। ३. दे० ‘अवतरण’।
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अवतरणी  : स्त्री० [सं० अवतरण+ङीष्]=अवतरणिका।
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अवतरना  : अ० [सं० अवतरण] १. ऊपर से नीचे आना। उतरना। २. उपजना या जन्मना। ३. अवतार या शरीर धारण करना। ४. प्रकट होना। प्रादुर्भाव होना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवतरित  : भू० कृ० [सं० अवतीर्ण] १. ऊपर से नीचे आया या उतरा हुआ। २. जिसने अवतार धारण किया हो। ३. किसी दूसरे स्थान से लिया या उद्धृत किया हुआ। (लेख या वचन)।
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अवतंस  : पुं० [सं० अव√तंस् (अलंकृत करना)+घ़ञ्] [वि० अवतंसित] १. माला। हार। २. वलयाकार आभूषण या गहना। जैसे—कंगन, कड़ा, चूड़ी आदि। ३. सिर पर पहनने का टीका या मुकुट। ४. कान में पहनने की बाली या फूल। ५. भाई का लड़का। भतीजा। ६. दूल्हा। वर। ७. श्रेष्ठ व्यक्ति। उत्तम पुरुष।
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अवतंसक  : पुं० [सं० अवतंस+कन्]=अवतंस।
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अवतंसित  : भू० कृ० [सं० अव√तंस्+क्त] १. जिसके पास माला या हार हो अथवा जिसने माला या हार पहना हो। २. जिसने भूषण धारण किये हों। ३. सजा हुआ। अलंकृत।
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अवतापी (पिन्)  : वि० [सं० अद√तप् (तपना)+णिच्+णिनि] १. बहुत तापनेवाला। २. (स्थान) जहाँ सूर्य का ताप बहुत अधिक होता हो। ३. कष्ट या ताप पहुँचानेवाला।
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अवतार  : पुं० [सं० अव√तृ+घञ्] १. ऊपर से नीचे की ओर आना। उतरने की क्रिया या भाव। २. शरीर धारण करना। जन्म लेना। ३. पौराणिक क्षेत्र में, ईश्वर (परमात्मा) का भौतिक या मानव रूप धारण करके इस संसार में आना। ४. उक्त प्रकार से धारण किया हुआ शरीर। जैसे—कृष्ण, राम या वाराह का अवतार। ५. वह व्यक्ति जिसके संबंध में यह माना जाता हो कि ईश्वर का अंश और प्रतिनिधि है। ६. अनुवाद। ७. भूमिका। ८. तीर्थ।
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अवतारण  : पुं० [सं० अव√तृ+णिच्+ल्युट्-अन]=अवतारणा।
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अवतारणा  : स्त्री० [सं० अव√तृ+णिच्+णिच्-अन-टाप्] १. ऊपर से नीचे लाने की क्रिया या बाव। उतारना। २. किसी अमूर्त्त या अदृश्य बात या तत्त्व को मूर्त्त, दृश्य, श्रव्य आदि रूपों में लाने की क्रिया या भाव। इंद्रिय गोचर कराने की क्रिया या भाव। जैसे—(क) चित्रपट पर सीता-हरण की अवतारणा। (ख) सितार पर ललित राग की अवतारणा। ३. अनुकरण या नकल करना। ४. अवतरण या उद्धरण के रूप में ग्रहण करना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अवतारना  : स० [सं० अवतारण] १. ऊपर से नीचे लाना। उतारना। २. जन्म लेना। ३. प्रस्तुत करना, बनाना या रचना।
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अवतारवाद  : पुं० [सं० ष० त०] वह मत या सिद्धांत कि धर्म की हानि होने पर उस की फिर से स्थापना करने के लिए भगवान जन्म लेकर (या शरीर धारण करके) इस संसार में आते हैं।
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अवतारी (रिन्)  : वि० [सं० अव√तृ+णिनि] १. नीचे आने या उतरनेवाला। २. अवतार धारण करने या लेनेवाला। ३. ईश्वर के अवतार के रूप में माना जानेवाला और अलौकिक गुणों से युक्त (व्यक्ति)। जैसे—महात्मा बुद्ध अवतारी पुरुष माने जाते हैं। पुं० २४ मात्राओं के छंदों की संज्ञा।
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अवंति  : स्त्री० [सं०√अव् (रक्षण आदि)+झि=अन्त]=अवंती।
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अवंतिका  : स्त्री० [सं० अवंति+कन्-टाप्] =अवंती।
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अवंती  : स्त्री० [सं० अवंति+ङीष्] १. नर्मदा के उत्तरी प्रदेश (आधुनिक मालवा) का पुराना नाम। मालव जनपद। २. उक्त प्रदेश की राजधानी। ३. एक प्रसिद्ध नगरी जो शिप्रा नदी के तट पर थी और जिसकी गिनती सात मुख्य पुरियों या तीर्थों में होती है। उज्जयिनी। (आधुनिक उज्जैन)
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अवतीर्ण  : वि० [सं० अव√तृ+क्त] १. ऊपर से नीचे आया या उतरा हुआ। २. जिसने अवतार धारण किया हो। अवतरित। ३. उत्तीर्ण।
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अवदमन  : पुं० [सं० अव√दम् (दबाना)+ल्युट्-अन] १. अच्छी तरह दबाना और वश में लाना। २. अधिकारी या शासन का कठोरता पूर्वक विद्रोहियों का दमन करना।
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अवदरण  : पुं० [सं० अवदारण] १. तोड़ना-फोड़ना या चीरना-फाड़ना। २. नष्ट-भ्रष्ट करना। ३. कुचलना या पीसना।
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अवदंश  : पुं० [सं० अव√दंश् (काट खाना)+घञ्] चटपटी वस्तुएँ जो मद्यपान के समय खाई जाती हैं। गजक। चाट।
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अवदशा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] बुरी या हीन दशा। गिरी हुई हालत।
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अँवदा  : वि०=औधा।
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अवदाघ  : पुं० [सं० अव√दह् (जलाना)+घञ्, ह को घ] १. जलन या ताप। २. ग्रीष्म ऋतु। गरमी का मौसम।
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अवदात  : वि० [सं० अव√दा (शोधन)+क्त] १. जो अच्छी तरह से साफ किया गया हो, फलतः स्वच्छ। २. उज्जवल। शुभ्र। ३. पवित्र और शुद्ध। ४. सत्य। सच्चा। ५. गौर वर्ण का। गोरा। ६. पीला।
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अवदान  : पुं० [सं० अव√दो (खंडन)+ल्युट्-अन] १. बहुत बड़ा या महत्त्वपूर्ण कार्य। २. विजय। ३. सफलता। ४. बल। शक्ति। ५. अतिक्रमण। उल्लंघन।
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अवदान्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो वदान्य या उदार न हो। संकीर्ण हृदय। २. नियम, सीमा आदि का उल्लंघन करनेवाला।
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अवदारक  : वि० [सं० अव√दृ+णिच्+ल्युट्-अक] अवदारण करनेवाला। पुं० १. मिट्टी आदि खोदने की खंती या फरसा। २. तोड़ने-फोड़ने आदि की कोई चीज।
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अवदारण  : पुं० [सं० अव√द+णिच्+ल्युट्-अन] १. तोड़ने-फोड़ने की क्रिया या भाव। २. विदारण करना। चीरना या फाड़ना। ३. अलग करना। ४. नष्ट करना।
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अवदारित  : भू० कृ० [सं० अव√दृ+णिच्+क्त] १. तोड़ा-फोड़ा या चीरा-फाड़ा हुआ। २. नष्ट-भ्रष्ट किया हुआ।
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अवदाह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अधिक या बड़े क्षेत्र में आग लगना और उससे चीजों का जलना। (कॉनूफ्लेगरेशन) २. अत्यधिक गरमी या ताप। ३. [ब० स०] वीरणमूल। खस।
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अवदि-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह शक्ति जिसमें गड़ी छिपी या दबी हुई चीजों का ज्ञान होता या पता चलता है। (जैन)
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अवदीर्ण  : वि० [सं० अव√दृ+क्त] १. जो टूटा-फूटा या नष्ट-भ्रष्ट हो। २. विभक्त। ३. चिंतित या दुःखी। ४. घबराया हुआ। विकल।
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अवदोह  : पुं० [सं० अव√दुह् (दुहना)+घञ्] १. दूध दुहने की क्रिया या भाव। २. दूध।
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अवद्य  : वि० [सं० वद् (बोलना)+यत्, न० त०] [भाव० अवद्यता] १. (कथन या शब्द) जो अनुचित होने के कारण कहने या मुँह से निकालने योग्य न हो। २. निकृष्ट। बुरा। ३. गर्हित। निंदनीय।
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अवध  : पुं० [सं० अयोध्या] १. अयोध्या नगरी। २. उक्त नगरी के आस-पास का प्रदेश। (प्राचीन कोशल) स्त्री० =अवधि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवध  : वि० =अवध्य।
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अवधा  : स्त्री० [सं० अव√धा (धारण करना)+अङ्-टाप्] ज्यामिति में वृत्त का खंड या भाग।
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अवधातव्य  : वि० [सं० अव√धा+तव्यत्] जिसपर अवधान दिया जाने को हो अथवा जो अवधान के योग्य हो।
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अवधाता (तृ)  : पुं० [सं० अव√धा+तृच्] [स्त्री० अवधानी] १. किसी वाद, विषय या व्यक्ति का अवधान या ध्यान रखनेवाला। (केयर-टेयर) २. कोई कार्य ठीक प्रकार से संचालित करनेवाला।
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अवधात्री-सरकार  : स्त्री० [सं० अवधात्री, अवधातु+ङीष्, फा० सरकार] वह सरकार जो नयी तथा स्थायी सरकार संघटित होने से पहले कुछ समय तक शासन की देख-रेख करती हो। (केयर-टेकर गवर्नमेन्ट)
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अवधान  : पुं० [सं० अव√धा+ल्युट्-अन] १. एकाग्र या सावधान होने की अवस्था या भाव। २. सावधानतापूर्वक देख-रेख करना। (केयर) ३. सावधानतापूर्वक कार्य का संचालन या उसका भार। (चार्ज) पुं० [सं० आधान] गर्भ।
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अवधानी (निन्)  : वि० [सं० अवधान+इनि]=अवधाता।
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अवधायक  : पुं० [सं० अव√धा+ण्वुल्-अक] वह अधिकारी जिसकी अधीनता या देख-रेख में कोई कार्य होता हो। किसी काम का कर्त्ता=धर्त्ता। (इंचार्ज)।
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अवधायक-सरकार  : स्त्री० -अवधात्री सरकार।
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अवधार  : पुं० [सं० अव√धृ (धारण)+णिच्+अच्]=अवधारण।
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अवधारक  : वि० [सं० अव√धृ+णिच्+ल्युट्-अन] १. अच्छी तरह सोच-समझकर कोई धारणा या निश्चय करना। २. किसी परिणाम तक पहुँचना या परिणाम निकालना। ३. किसी कार्य के संबंध में दृढ़तापूर्वक किया जानेवाला निश्चय। (डिटर्मिनेशन)
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अवधारणा  : स्त्री० [सं० अव√धृ+णिच्+युच्-अन-टाप्] =अवधारण।
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अवधारणीय  : वि० [सं० अव धृ+णिच्+अनीयर] १. जिसका अवधारण हो सके अथवा जो अवधारण किये जाने के योग्य हो। २. जिसका अवधारण होने को हो। ३. ग्रहण या धारण किये जाने के योग्य।
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अवधारति  : भू० कृ० [सं० अव√धृ+णिच्+क्त] जिसका या जो अवधारण किया गया हो।
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अवधारना  : स० [सं० अवधारण] ग्रहण या धारण करना। अ० सोच=समझकर निश्चय करना।
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अवधार्य्य  : वि० [सं० अव√धृ+णिच्+यत्] जिसका अवधारण होने को हो या हो सकता हो।
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अवधावन  : पुं० [सं० अव√धाव् (गति)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अवधावित] १. किसी को पकड़ने के लिए उसेक पीछे दौड़ना। पीछा करना। २. अच्छी तरह धोकर निर्मल या स्वच्छ करना।
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अवधावित  : भू० कृ० [सं० अव√धाव्+क्त] १. जिसका पीछा किया गया हो। २. साफ किया हुआ।
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अवधि  : स्त्री० [सं० अव√धा+कि] १. नियत, निश्चित या सीमित समय। २. कोई काम पूरा करने या होने का निश्चित किया हुआ समय।मुहावरा—अवधि बदना-कोई काम पूरा करने के लिए समय निश्चित करना। जैसे—अवधि बदि सैयाँ अजहूँ न आवे।(गीत) ३. समय का निश्चित भोगकाल। (टर्म) जैसे—किसी अधिकारी की अवधि पूरी होना। ४. सीमा। हद। अव्य० तक। पर्यंत। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवधि-दर्शन  : पुं० [ष० त०] गड़ी, छिपी या दबी हुई चीजें दिखाई देना। (जैन)।
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अवधि-वाधित  : भू० कृ० [ष० त०] (अधिकार कार्य या व्यवहार) जिसकी अवधि बीत चुकी हो और इसी लिए उसका अब उपयोग प्रयोग या विचार न हो सकता हो। (बार्ड बाई लिमिटेशन)
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अवधिमान  : पुं० [सं० अवधिमात्] सागर। समुद्र।
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अवधी  : वि० [सं० अयोध्या] १. अवध-संबंधी। अवध का। स्त्री० अवध प्रांत की बोली जो पूर्वी हिन्दी की एक शाखा है। पुं० अवध का निवासी। स्त्री० =अवधि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवधीरण  : पुं० [सं० अव√धीर् (अवत्रा)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अवधीरति] किसी का महत्त्व या मान कम समझकर या कम आँककर उसके साथ ओछा व्यवहार करना। (स्लाइट)
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अवधीरणा  : स्त्री० [सं० अव√धीर्+णिच्+युच्-अन-टाप्]=अवधीरण।
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अवधीरित  : भू० कृ० [सं० अव√धीर्+क्त] १. जिसका अवधीरण (उपेक्षा या तिरस्कार) हुआ हो। २. जिसके साथ अनुचित व्यवहार किया गया हो।
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अवधू  : पुं० =अवधूत।
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अवधूक  : वि० [सं० न० ब० कप्] जिसकी पत्नी न हो (फलतः कुँआरा या विधुर)।
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अवधूत  : वि० [सं० अव√धू (काँपना)+क्त] १. कँपाया या हिलाया हुआ। २. जिसे हानि या क्षति पहुँची हो। ३. उपेक्षित। अपमानित। ४. अस्वीकृत। ५. पराजित। ६. सांसारिक मोह-माया से युक्त। पुं० [सं० अवधूत] [स्त्री० अवधूतिन, अवधूती, वि० अवधूती] १. वह जो सांसारिक बंधनों से मुक्त हो चुका हो। त्यागी। विरक्त। २. वह साधक जिसने सहजावस्था प्राप्त कर ली हो। ३. नाथ-पंथी सिद्ध योगी। ४. साधकों की भाषा में, मन।
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अवधूत-वेश  : वि० [ब० स०] १. गंदे या मैले-कुचैले वस्त्र पहनने वाला। २. नग्न। नंगा।
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अवधूती  : वि० [हिं० अवधूत] अवधूत संबंधी। जैसे—अवधूती वृत्ति। स्त्री अवधूत होने की अवस्था या भाव।
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अवधूपति  : वि० [सं० अव√धूप् (ताप या धूप करना)+क्त] सुगंधित द्रव्य जलाकर उसके धुएँ से सुगंधित किया हुआ। जैसे—अवधूपित केश।
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अवधूलन  : पुं० [सं० अवधूलि+णिच्+ल्युट्-अन] धूल या चूर्ण की तरह की चीज छिड़कना। (डस्टिंग)
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अवधृत  : भू० कृ० [सं० अव√धृ (धारण)+क्त] =अवधारित।
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अवधेय  : वि० [सं० अव√धा+यत्] १. जिसपर अवधान या ध्यान दिया जाने को हो या दिया जा सकता हो। २. जानने योग्य। ३. जिसका आदर किया जा सके। ४. श्रद्धेय। पुं० अभिधान। नाम।
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अवधेश  : पुं० [सं० अवध-ईश, ष० त०] १. अवध का राजा या स्वामी। २. अवध के राजा, दशरथ।
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अवध्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका वध न हो सकता हो। २ ०जिसका वध करना उचित न हो।
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अवध्वंस  : पुं० [सं० अव√ध्वंस् (अधःपतन)+घञ्] १. त्यागना या दूर हटाना। २. अनादर अपमान या उपेक्षा करना। ३. बुरी तरह से किया हुआ ध्वंस या नाश।
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अवध्वस्त  : भू० कृ० [सं० अव√ध्वंस्+क्त] १. त्यागा या दूर हटाया हुआ। २. निंदित। ३. तिरस्कृत। ४. विनष्ट।
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अवन  : पुं० [सं०√अव (रक्षण आदि)+ल्युट्-अन] १. प्रसन्न या संतुष्ट करना। २. प्रीति। प्रेम। ३. रक्षा करना। बचाना। स्त्री० [सं० अवनि] १. पृथ्वी। २. जमीन। भूमि। ३. मार्ग। रास्ता।
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अवनत  : वि० [सं० अव√नम (झुकना)+क्त] [भाव० अवनति] १. झुका हुआ। नत। २. नम्र। ३. नीचे की ओर गिरा हुआ। पतित। ४. दुर्दशा की ओर बढ़ा हुआ। दुर्दशा-ग्रस्त। ‘उन्नत’ का विपर्याय।
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अवनति  : स्त्री० [सं० अव√नम्+क्तिन्] [वि० अवनक, कर्त्ता अवनायक] १. नीचे की ओर जाना या झुकना। झुकाव। २. नम्रता। ३. दुर्दशा या दीन दशा में जाना। पतन। ४. कमी। घटाव। ह्रास।
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अवनद्ध  : भू० कृ० [सं० अव√नह् (बाँधना)+क्त] १. किसी के साथ या नत्थी किया या बँधा हुआ। २. जड़ा या बैठाया हुआ। ३. ढका हुआ। पुं० ढोल या मृदंग की तरह का एक बाजा।
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अवनमन  : पुं० [सं० अव√नम्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अवनमित] १. नीचे की ओर आने या झुकने की क्रिया या भाव। नत होना। २. गुण, बल, महत्त्व या मान घटना या कम होना। उतार। ३. ग्रह, नक्षत्र आदि का क्षितिज से नीचे की ओर जाना या होना। ४. किसी तल या स्तर का नीचे की झुकाव या बढ़ाव। (डिप्रेसन) जैसे—मेघों का अवनमन।
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अवनयन  : पुं० [सं० अव√नी (ले जाना)+ल्युट्-अन] नीचे की ओर लाना या ले जाना।
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अवना  : अ० [हिं० आना या पुराना रूप] १. अस्तित्व में आना, बनना या घटित होना। २. दे० ‘आना’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवनाम  : पुं० [सं० अव√नम्+घञ्] =अवनमन।
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अवनामक  : वि० [सं० अव√नम्+णिच्+ण्युल्-अक] १. अवनति करने या गिरानेवाला। उन्नायक का विपर्याय। २. जो अवनति, पतन या ह्रास की ओर प्रवृत्त हों। ३. नीचे की ओर गिरनेवाला। (फाँलिंग) जैसे—अवनायक मूल्य।
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अवनासिक  : वि० [सं० ब० स०] झुकी हुई या चिपटी नाकवाला।
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अवनाह  : पुं० [सं० अव√नह्(बाँधना)+घञ्] १. कसकर बाँधना। २. बंधन। ३. ढकना।
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अवनि  : स्त्री० [सं० अव√अव (रक्षण आदि)+आनि] १. वह समस्त विस्तृत तल जिस पर मनुष्य रहता है और कार्य करता है। २. पृथ्वी। ३. उँगली। ४. एक प्रकार की लता।
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अवनि-तल  : पुं० [ष० त०] जमीन की सतह। धरातल।
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अवनि-पति  : पुं० [ष० त०] राजा।
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अवनि-पाल  : पुं० [ष० त०] राजा।
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अवनि-पालक  : पुं० [ष० त०] १. राजा। २. पहाड़। पर्वत।
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अवनि-सुत  : पुं० [ष० त०] मंगल ग्रह।
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अवनि-सुता  : स्त्री० [ष० त०] जानकी। सीता।
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अवनिचर  : वि० [सं० अवनि√चर् (गति)+ट] जगह-जगह घूमता रहनेवाला। घुमक्कड़।
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अवनिज  : पुं० [सं० अवनि√जन् (उत्पन्न होना)+ड] मंगल-ग्रह।
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अवनिध्र  : पुं० [सं० अवनि√धृ (धारण करना)+ट] पर्वत। पहाड़।
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अवनिप  : पुं० [सं० अवनि√पा (रक्षण)+क] राजा।
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अवनी  : स्त्री० [सं० अवनि+ङीष्] दे० ‘अवनि’।
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अवनींद्र  : पुं० [अवनि-इन्द्र, ष० त०] राजा।
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अवनीप  : पुं० [सं० अवनी√पा(रक्षा)+क] राजा।
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अवनीश  : पुं० [अवनी-ईश,ष०त०] राजा।
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अवनीश्वर  : पुं० [अवनी-ईश्वर, ष० त०] =अवनीश।
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अवनेजन  : पुं० [सं० अव√निज् (पवित्र करना)+ल्युट्-अन] १. प्रक्षालन्। धोना। २. आचमन। ३. श्राद्ध में वेदी पर कुश से जल छिड़कना।
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अवन्निय  : स्त्री०=अवनि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवपाक  : वि० [सं० ब० स०] जो अच्छी तरह पका या पकाया न हो। पुं० वह जो अच्छी तरह पकाना न जानता हो।
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अवपाटिका  : स्त्री० [सं० अव√पट् (गति)+णिच्+ण्वुल्-अक-टाप्] पुरुष की जननेंद्रिय में होनेवाला एक रोग।
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अवपात  : पुं० [सं० अव√पत् (गिरना)+घञ्] १. नीचे आना, गिरना या उतरना। २. गड्ढा। ३. वह गड्ढा जिसमें हाथी फँसाये जाते हैं। खाँड़ा। ४. नाटक में किसी अंक की समाप्ति में लोगों में घबराकर भागने का दृश्य।
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अवपातन  : पुं० [सं० अव√पत्+णिच्+ल्युट्-अन] नीचे उतारने या गिराने की क्रिया या भाव।
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अवबाद  : पुं० [सं० अव√वद्+घञ्]-अपवाद।
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अवबोध  : पुं० [सं० अव√बुध् (जानना)+घञ्] १. जागने की क्रिया या भाव। २. जानना। ३. ज्ञान। बोध।
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अवबोधक  : वि० [सं० अव√बुध्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. अवबोध या ज्ञान कराने वाला। २. जगाने वाला। पुं० १. चारण या बंदी जिसका काम गीतगाकर राजा को जगाना होता था। २. चौकीदार। पहरुआ। ३. सूर्य।
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अवबोधन  : पुं० [सं० अव√बुध्+णिच्+ल्युट्-अन] १. ज्ञान या बोध कराने की क्रिया या भाव। २. सूचना या शिक्षा देना। ३. चेतावनी देना। चेताना। ४. वह मानसिक शक्ति जिससे किसी बात का ठीक स्वरूप जल्दी या सहज में समझ लिया जाता हैं। (पर्सेप्शन)
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अवभंग  : पुं० [सं० अव√भञ्ज् (भंगकरना)+घञ्] १. नीचा दिखाना। २. पराजित करना। हराना।
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अवभास  : पुं० [सं० अव√भास् (चमकना)+घञ्] १. ज्ञान या उसका प्रकाश। २. केवल आभास के रूप में होनेवाला मिथ्या ज्ञान।
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अवभासक  : वि० [सं० अव√भास्+णिच्+ण्वुल्-अक] अवभास या बोध करानेवाला।
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अवभासन  : वि० [सं० अव√भास्+ल्युट्-अन] [वि० अवभासनीय, भू० कृ०-अवभासित] १. प्रकाशन। चमकना। २. ज्ञान। बोध। ३. प्रकट होना। खुलना।
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अवभासित  : भू० कृ० [सं० अव√भास्√णिच्+क्त] १. जो अवभास के रूप में ज्ञात हुआ हो। प्रतीत या लक्षित। २. चमकना या चमकाया हुआ।
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अवभासिनी  : स्त्री० [सं० अव√भास्+णिनि-ङीष्] शरीर के ऊपर की चमड़े की पतली झिल्ली।
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अवभृथ  : पुं० [सं० अव√भू (भरण-पोषण)+क्थन्] यज्ञ की समाप्ति के समय का अंतिम कृत्य और स्नान।
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अवभृथ-स्नान  : पुं० [कर्म० स०] वह स्नान जो यज्ञ की समाप्ति पर किया जाता है।
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अवम  : वि० [सं०√अव (रक्षण आदि)+अमच्] १. जो सबसे नीचे हो। निचला। २. अधम। नीच। ३. अंतिम। आखिरी। ४. रक्षक। पुं० १. पितरों का एक गण या वर्ग। २. अधिक मास। मलमास।
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अवम-तिथि  : स्त्री० [कर्म० स०] चांद्र मास की वह तिथि जिसका क्षय हो गया हो।
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अवम-रति  : स्त्री० [सं० कर्म०स०) ऐसी रति या प्रीति जो विशुद्ध स्वार्थ की दृष्टि से की जाए।
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अवमत  : वि० [सं० अव√मन् (जानना)+क्त] अपमानित। तिरस्कृत। निंदित। पुं० [सं० अव-मत, प्रा० स०] अनुचित या बुरा मत।
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अवमंता (तृ)  : वि० [सं० अव√मन् (जानना)+तृच्] अपमान करनेवाला।
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अवमति  : स्त्री० [सं० अव√मन्+क्तिन्] १. अरुचि। २. अपमान। निंदा। स्त्री० [सं० अव-मति, प्रा० स०] अनुचित या बुरी मति। (बुद्धि या परामर्श)।
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अवमंथ  : पुं० [सं० अव√मन्थ् (मथना)+अच्] लिंगेन्द्रिय का एक रोग।
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अवमर्द (ग्रहण)  : पुं० [सं० अव√मृद् (चूर्ण करना)+घञ्] ऐसा ग्रहण जिसमें चंद्रमा या सूर्य का मंडल अधिक समय तक और पूरी तरह से छिपा या ढका रहे।
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अवमर्दन  : पुं० [सं० अव√मृद्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अवमर्दित] १. कष्ट या दुःख देना। २. पैरों से कुचलना, दलना या रौंदना।
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अवमर्दित  : भू० कृ० [सं० अव√मृद्+क्त] १. जिसका अवमर्दन हुआ हो। २. कुचला, दला या रौंदा हुआ।
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अवमर्श  : पुं० [सं० अव√मृश् (छूना)+घञ्] १. छूना या स्पर्श करना। २. संबंध स्थापित करना।
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अवमर्श-संधि  : स्त्री० [ष० त०] नाट्य शास्त्र में, पाँच प्रकार की संधियों में से एक।
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अवमर्ष  : पुं० [अव√मृष् (सहना)+घञ्] =अवमर्षण।
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अवमर्षण  : पुं० [सं० अव√मृष्+ल्युट्-अन] १. स्पर्श करना। छूना। २. दूर करना। हटाना। ३. नष्ट करना। मिटाना। ४. मान्य या सहन न करना।
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अवमान  : पुं० [सं० अव√मन् (मानना)+घञ्] [भू० कृ० अवमानित] १. किसी के मान का पूरा ध्यान न रखना। जितना चाहिए, उतना आदर या मान न करना। (डिसरिगार्ड) विशेष दे० अवज्ञा। २. महत्त्व मान या मूल्य ठीक प्रकार से न आँकना।
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अवमानन  : पुं० [सं० अव√मन्+णिच्+ल्युट्-अन] अवमान या अपमान करना।
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अवमानना  : स० [सं० अवमान] अवमान करना।
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अवमानित  : भू० कृ० [सं० अव√मन्+णिच्+क्त] १. जिसका अवमान हुआ हो। २. दे० ‘अपमानित’।
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अवमानी (निन्)  : वि० [सं० अव√मन्+णिच्+णिनि] अपमान या अवमान करनेवाला। उदाहरण—सोचिअ सूद्र विप्र अवमानी।—तुलसी।
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अवमूल्यन  : पुं० [सं० अवमूल्य+णिच्+ल्युट्-अन] १. किसी वस्तु के मूल्य के कम होने या घटने की अवस्था या भाव। २. आधुनिक अर्थशास्त्र में विनिमय के काम के लिए मुद्रा या सिक्कों का मूल्य कम करने की क्रिया या भाव। (डीवैल्यूएसन)
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अवमोचन  : पुं० [सं० अव√मुच् (छोड़ना)+ल्युट्-अन] बंधन से मुक्त करने की क्रिया या भाव।
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अवयव  : पुं० [सं० अव√यु (मिलाना)+अप्] [वि० अवयवी] १. शरीर का कोई अंग या भाग। २. वह अंश जो वस्तु की पूर्ति में सहयक हो। भाग। हिस्सा। ३. न्याय शास्त्र में, वाक्य के इन पाँच अंगों में से हर एक-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनयन और निगमन।
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अवयव-रूपक  : पुं० [ष० त०] साहित्य में, एक तरह का रूपक अलंकार जिसमें अंगों के गुणों का ही सारूप्य वर्णित होता है।
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अवयवार्थ  : पुं० [अवयव-अर्थ, ष० त०] शब्द के अवयवों (प्रकृति और प्रत्यय) से निकलनेवाला अर्थ।
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अवयवी (विन्)  : वि० [सं० अवयव+इनि] १. जिसके अनेक अवयव या अंग हो। २. कुल। पूरा। समूचा। पुं० १. वह वस्तु जिसके बहुत से अवयव या अंग हों। २. देह। शरीर।
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अवयस्क  : वि० [सं० न० त०] जो वयस्क न हो। नाबालिग। (माइनर)
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अवयान  : पुं० [सं० अव√या (गति)+ल्युट्-अन] १. नीचे की ओर आना। २. किसी को प्रसन्न करने के लिए उसके पास झुक या दबकर आना। ३. प्रायश्चित।
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अवर  : वि० [सं०√वृ (आवरण)+अप (बा०) न० त०] १. जो ‘वर’ अर्थात् श्रेष्ठ न हो, फलतः अधम, तुच्छ, नीच या हीन। २. नीचा। ३. कम। न्यून। ४. पीछे या बाद में आने या होनेवाला। (इन्फीरियर) पुं० १. बीता हुआ समय। अतीत काल। २. हाथी का पिछला भाग। अव्य० [सं० अपर] और कोई। अन्य। दूसरा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवर-शैल  : पुं० [कर्म० स०] पुराणानुसार पश्चिम का वह पर्वत जिसके पीछे सूर्य का अस्त होना माना जाता है।
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अवर-सेवक  : पुं० [कर्म० स०] वह कर्मचारी जिसकी गिनती ऊँचे या बड़े सेवकों में न होती हो। (इन्फीरियर सर्वेन्ट)
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अवर-सेवा  : स्त्री० [कर्म० स०] राजकीय अथवा लोक सेवा का वह अंग जिसमें निम्न कोटि के कर्मचारी होते है। (इन्फीरियर सर्विस)
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अवरज  : पुं० [सं० अवर√जन् (उत्पत्ति)+ड] [स्त्री० अवरजा] १. छोटा भाई। २. नीच कुल में उत्पन्न व्यक्ति। ३. शूद्र।
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अवरण  : वि० =अवर्ण। पुं० =आवरण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवरत  : वि० [सं० अव√रम् (क्रीड़ा)+क्त] १. जो रत न हो। विरत। २. ठहरा हुआ। स्थिर। ३. अलग। पृथक्। पुं० =आवर्त्त।
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अवरति  : स्त्री० [सं० अव√रम्+क्तिन्] १. अवरत होने की अवस्था या भाव। २. विराम। ठहराव। ३. निवृत्ति। छुटकारा।
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अँवरा  : पुं० =आँवला।
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अवरा  : स्त्री० [सं० अवर+टाप्] १. दुर्गा। २. दिशा।
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अवरागार  : पुं० [सं० अवर-आगार, कर्म० स०] दे० ‘लोकसभा’।
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अवराधक  : वि० [सं० अव√राध्(सिद्ध करना)+ण्युल्-अक] =आराधक।
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अवराधन  : पुं० [सं० अव√राध्+ल्युट्-अन] =आराधन। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवराधना  : स० [सं० अवराधन] =आराधना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवराधी (धिन्)  : वि० [सं० अव√राध्+णिनि] आराधक।
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अवरार्ध  : पुं० [अवर-अर्ध, कर्म० स०] १. नीचे या पीछे का आधा भाग। २. उत्तरार्ध।
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अवरावर  : वि० [अवर-अवर, पं० त०] सबसे बुरा या खराब। निकृष्टतम्।
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अवरिय  : वि० दे० ‘आवृत्त’।
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अवरु  : अव्य० वि० =और।
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अवरुद्ध  : वि० [सं० अव√रुर्ध (रोक)+क्त] १. रूँधा या रूँधा हुआ। २. जिसके आगे का मार्ग रूका हो या रोका गया हो। ३. छापा या ढका हुआ। आच्छादित। ४. छिपा हुआ। गुप्त।
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अवरुद्धा  : स्त्री० [सं० अवरूद्ध+टाप्] १. अपने वर्ण की वह दासी या स्त्री जिसे कोई पुरुष अपने घर में रख लें। २. रखी हुई स्त्री। रखेली।
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अवरू  : अव्य० =अवर (और)।
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अवरूढ़  : वि० [सं० अव√रुह् (ऊपर चढ़ना)+क्त] १. नीचे उतरा या उतारा हुआ। आरुढ़ का विपर्याय। २. जो दृढ़ या तत्पर न हो।
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अवरेखना  : स० [सं० अवलेखन] १. चित्र आदि अंकित करना या बनाना। उरेहना। २. ध्यानपूर्वक देखना या समझना। ३. अनुमान या कल्पना करना। ४. अनुभव करना। जानना। ५. महत्त्व मान या मूल्य समझना।
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अवरेब  : पुं० [सं० अव-विरुद्ध+रेव-गति] १. तिरछी चाल। २. पहनने के कपड़े की तिरछी काट। ३. टेढ़ी या पेचीली उक्ति अथवा बात। ४. उलझन या संकट की स्थिति। ५. झगड़ा। विवाद। ६. खराबी। दोष। बुराई।
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अवरेबदार  : वि० [हिं०+फा०] १. तिरछी काट का (कपड़ा)। २. पेचीला (कथन या वाक्य)।
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अवरोक्त  : वि० [सं० अवर-उक्त, स० त०] १. बाद में कहा हुआ। २. जिसका उल्लेख अंत या बाद में हुआ हो।
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अवरोचक  : पु० [सं० अव√रुच् (दीप्ति)+णिच्+ण्वुल्-अक] एक रोग जिसमें भूख बहुत कम हो जाती है।
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अवरोध  : पुं० [सं० अव√रुध् (रोक)+घञ्] १. वह तत्त्व या पदार्थ जो किसी उद्देश्य की पूर्ति या कार्य की सिद्धि में बाधक हो। वह तत्त्व या वस्तु जो बीच में या सामने आकर आगे बढ़ने से रोकती हो। २. चारों ओर से घेरने की क्रिया या भाव। ३. घेरा। ४. मार्ग या रास्ता बंद करना। ५. अंतःपुर।
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अवरोधक  : वि० [सं० अव√रूध्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० अवरोधिक] अवरोध करनेवाला।
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अवरोधन  : पुं० [सं० अव√रूध्+ल्युट्-अन] [वि० अवरोधक, अवरूद्ध अवरोधित] १. अवरोध करने की क्रिया या भाव। २. अंतःपुर।
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अवरोधना  : स० [सं० अवरोधन] [वि० अवरोधक] १. अवरोध करना। २. मार्ग छेकना अथवा आगे बढ़ने से रोकना। ३. चारों ओर से घेरना। घेरा डालना।
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अवरोधिक  : पुं० [सं० अवरोध+ठन्-इक] अंतःपुर का पर्हरी। वि० =अवरोधक।
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अवरोधित  : भू० कृ० [सं० अव√रुध्+णिच्+क्त] १. जिसका अवरोध किया गया हो। २. जिसका मार्ग रोका गया हो। ३. जिसे चारों ओर से घेरा गया हो।
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अवरोधी (धिन्)  : वि० [सं० अव√रुध्+णिनि] [स्त्री० अवरोधिनी] =अवरोधक।
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अवरोपण  : पुं० [सं० अव√रुह्+णिच्,पुक्+ल्युट्-अन] १. उखाड़ना। ‘रोपण’ का विपर्याय। २. न्यायालय द्वारा ऐसे व्यक्ति को अबियोग से मुक्त करना, जिस पर अभियोग सिद्ध न होता हो। (डिस-चार्ज)।
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अवरोपणीय  : वि० [सं० अव√रुह्+णिच्+पुक्+अनीयर] १. जिसका अवरोपण हुआ हो। उखाड़ा हुआ। २. जिसका अवरोहण हो सकता हो।
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अवरोपित  : वि० [सं० अव√रुह्+णिच्+पुक्+क्त] १. जिसका अवरोपण हुआ हो। उखाड़ा हुआ। २. जो अभियोग आदि से मुक्त किया गया हो।
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अवरोह  : पुं० [सं० अव√रुह्+घ़ञ्] १. ऊपर या ऊँचाई से नीचे आना या उतरना। जैसे—संगीत में स्वरों का अवरोह। २. अवनति। पतन। ३ ०मूल में शाखाएँ निकलना। ४. लता का वृक्ष के चारों ओर लिपटना। ५. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी प्रकार के उतार का उल्लेख होता है। (वर्द्धमान नामक अलंकार का विपरीत रूप)।
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अवरोहक  : वि० [सं० अव√रुह्+ण्वुल्-अक] ऊपर या ऊँचाई से नीचे की ओर आने या उतरनेवाला। पुं० अश्वगंध। असगंध।
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अवरोहण  : पुं० [सं० अव√रुह्+ल्युट्-अन] ऊपर या ऊँचाई से नीचे उतरने की क्रिया या भाव। उतार।
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अवरोहना  : अ० [सं० अवरोहण] ऊपर या ऊँचाई से नीचे आना या उतरना। स० [सं० अवरोधन] रोकना। स० दे० ‘उरेहना’।
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अवरोहशाखी (खिन्)  : पुं० [सं० अवरोह-शाखा, कर्म० स०+इनि] वट-वृक्ष।
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अवरोहिका  : स्त्री० [सं० अव√रुह्+ण्वुल्-अक-टाप्, इत्व] अश्वगंध (ओषधि)।
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अवरोहिणी  : स्त्री० [सं० अव√रुह्+णिनि णिनि-ङीष्] फलित ज्योतिष में एक अनिष्ट दशा जो नक्षत्रों के कुछ विशिष्ट स्थानों में पहुँचने से उत्पन्न होती है।
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अवरोहित  : भू० कृ० [सं० अवरोह+इतच्] १. जिसने अवरोह किया हो या जिसका अवरोह हुआ हो। नीचे आया या उतरा हुआ। २. अवनत। पतित।
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अवरोही (हिन्)  : वि० [सं० अव√रुह्+णिनि] १. ऊपर से नीचे की ओर आने वाला। २. जो क्रम के विचार से ऊँचे से नीचे की ओर हो। (डिसेन्डिंग) जैसे—अवरोही स्वर। पुं० १. संगीत में आलाप, स्वर साधन आदि का वह प्रकार या रूप जिसमें क्रमशः ऊँचे स्वर के उपरांत नीचे स्वरों का उच्चारण होता है। आरोही का विपर्याय। २. वटवृक्ष।
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अवर्ग  : वि० [सं० न० ब०] जो किसी वर्ग में न हो अथवा जिसका कोई वर्ग न हो। पुं० [ष० त०] स्वर-वर्ण।
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अवर्गित  : वि० [सं० वर्ग√+इतच्, न० त०] १. जो किसी वर्ग में न रखा गया हो। २. जिसके वर्ग न बनायें गये हों।
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अवर्ण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई वर्ण या रंग न हो। रंगहीन। २. बिगड़े हुए अथवा भद्देरंगवाला। ३. जो ब्राह्मण क्षत्रिय आदि में से किसी वर्ण का न हो। पुं० [कर्म० स०] अकार अक्षर। अ।
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अवर्ण्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका वर्णन न हुआ हो अथवा न हो सकता हो। वर्णनातीत। २. जो वर्ण या उपमेय न हो अर्थात् उपमान।
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अवर्त्त  : पुं० [सं०√वृत्त (बरतना)+घ़ञ्, न० त०] १. अपारदर्शी वस्तु। २. पानी की भँवर। आवर्त्त। ३. घुमाव। चक्कर। फेर।
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अवर्त्तन  : पुं० [सं०√वृत्+ल्युट्-अन, न० त०] १. जीविका या वृत्त का अभाव। २. पारस्परिक बरताव या व्यवहार का अभाव। दे० ‘आवर्त्तन’।
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अवर्त्तमान  : वि० [सं० न० त०] १. जो वर्त्तमान या प्रस्तुत न हो। अविद्यमान। २. जो उपस्थित न हो। अनुपस्थित। पुं० वर्त्तमान न होने की अवस्था या भाव।
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अवर्धमान  : वि० [सं० न० त०] जो वर्धमान न हो अर्थात् न बढ़ानेवाला।
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अवर्षण  : पुं० [सं० न० त०] वर्षा या वृष्टि का अभाव। अनावृष्टि। सूखा।
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अवलकन  : पुं० [सं० अव√कल्(गिनना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अवकलित] १. इकट्ठा या एक साथ करना अथवा एक में मिलाना। २. देखकर जानना या समझना। ३. ग्रहण करना। लेना।
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अवलक्ष  : पुं० [सं० अव√लक्ष् (देखना)+घ़ञ्] सफेद रंग। वि० [अवलक्ष+अच्] सफेद रंग का।
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अवलग्न  : वि० [सं० अव√लग् (संग)+क्त] १. किसी के साथ मिला, लगा या सटा हुआ। २. संबंध रखनेवाला। लगा हुआ। पुं० शरीर का मध्य भाग जिसमें ऊपर और नीचे के भाग लगे होते हैं। धड़।
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अवलंघन  : पुं० [सं० अव√लग्ङ् (लाँघना)+ल्युट्-अन] =उल्लंघन।
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अवलंघना  : स० [सं० अवलंघन] १. उल्लघन करना। २. लाँघना।
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अवलच्छना  : स० [सं० अव+लक्ष] देखना। वि० स्त्री० [सं० अव√लक्षण] बुरे लक्षणोंवाली। अलक्षणी।
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अवलंब  : पुं० [सं० अव√लम्ब् (सहारा लेना)+घञ्] १. वह जिस पर कोई चीज या बात आश्रित या ठहरी हो। जिस पर कुछ टिका या ठहरा हो। आश्रय। सहारा। जैसे—हमारा तो ईश्वर के सिवा और कोई अवलंब नहीं है। २. किसी के सहारे लटकनेवाली वस्तु।
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अवलंबक  : पुं० [सं० अव√लम्ब्+ण्वुल्-अक] एक प्रकार का छंद या वृत्त।
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अवलंबन  : पुं० [सं० अव√लम्ब्+ल्युट्-अन] १. किसी के सहारे टिकने या ठहरने की क्रिया या भाव। किसी को आधार बनाकर या मानकर उसपर आश्रित होना। २. अंगीकार, ग्रहण या धारण करना। ३. अनुकरण। अनुसरण। ४. छड़ी, जिसके सहारे चलते हैं।
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अवलंबना  : स० [सं० अवलंबन] १. किसी को अवलंब बना या मानकर उसके सहारे टिकना या ठहरना। किसी को आधार मानकर उसके सहारे आश्रित होना। २. ग्रहण या धारण करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवलंबित  : भू० कृ० [सं० अव√लम्ब्+क्त] किसी के सहारे पर टिका या ठहरा हुआ। आश्रित। जैसे—यह बात तो आप पर ही अवलंबित है।
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अवलंबी (बिन्)  : [सं० अव√लम्ब्+णिनि] [स्त्री० अवलंबिनी] १. जो किसी आधार पर ठहरा या टिका हो। अवलंब ग्रहण करनेवाला। २. ग्रहण या धारण करनेवाला।
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अँवला  : वि० [सं० अबल] १. अस्वस्थ। २. व्यथापूर्ण। ३. दुखी या पीड़ित। उदाहरण—काहाँरली बधाँमणाँ, काँही अवअलउ अंग- ढोलामारू। वि० [सं० अवर) १. उलटा। २. औधा। ३. चक्करदार। पुं०=आँवला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवलि  : स्त्री० =अवली।
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अवलिप्त  : वि० [सं० अव√लिप् (लीपना)+क्त] १. लिपा या पुता हुआ। २. किसी काम, बात या विषय में अच्छी तरह डूबा या लगा हुआ। लीन। ३. अपने आप में किसी गुण का अवलंप करनेवाला। अपने आपको कुछ लगाने या समझानेवाला अर्थात् अभिमानी। (प्रिजम्पट्युअस)
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अवलिप्ति  : स्त्री० [सं० अव√लिप्+क्तिन्] १. अवलिप्त होने की अवस्था या भाव। २. अपने आप को कुछ लगाना या बड़ा समझना। अवलेप। (प्रिजम्पट्यूअसनेस)
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अवलिया  : पुं० दे० ‘औलिया’।
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अवली  : स्त्री० [सं० अवलि] १. कुछ या कई वस्तुओं या व्यक्तियों के एक सीध में रहने या होने की अवस्था। पंक्ति। कतार। २. झुंड। समूह। ३. उपज या फसल का वह अंश जो पहले-पहले काटा जाए। ४. भेडों आदि पर से एक बार में काटा हुआ ऊन।
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अवलीक  : वि० [सं० अव्यलीक] १. पाप रहति। निष्पाप। २. दोष रहित। निर्दोष।
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अवलीढ़  : भू० कृ० [सं० अव√निह् (आस्वादन)+क्त] १. खाया हुआ। भक्षित। २. चाटा हुआ।
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अवलीला  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. क्रीड़ा या खेल। २. अनादर या अपमान।
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अवलुंचन  : पुं० [सं० अव√लुञ्च् (काटना, हटाना)+ल्युट्-अन] १. काटना, छेदना या फाड़ना। २. उखाड़ना। ३. खोलना। ४. हटाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अवलुंचित  : भू० कृ० [सं० अव√लुञ्च्+क्त] १. जिसका अवलुंचन हुआ हो। २. खुला हुआ।
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अवलुंठन  : पुं० [सं० अव√लुण्ठ् (चुराना)+ल्युट्-अन] १. जमीन पर लोटना। २. किसी का धन लूटना।
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अवलुंठित  : भू० कृ० [सं० अव√लुण्ठ्+क्त] १. जमीन पर लुढ़का या लोटा हुआ। २. जिसका सब कुछ लूट लिया गया हो।
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अवलेखन  : पुं० [सं० अव√लिख्+ल्युट्-अन] १. खुरचना, खोदना या चिन्ह लगाना। २. कंघी आदि से सिर के बाल झाड़ना।
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अवलेखना  : स० [सं० अवलेखन] १. खोदना या खुरचना। २. चित्र या मूर्ति अंकित करना। उकेरना। ३.चिन्ह या निशान लगाना।
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अवलेखनी  : स्त्री० [सं० अवलेखन+ङीष्] १. वह करण या वस्तु जिससे कुछ अंकित किया जाए। जैसे—कलम, कूँची आदि। २. कंघी।
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अवलेखा  : स्त्री० [सं० अव√लिख्+अ-टाप्] =अवलेखनी।
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अवलेप  : पुं० [सं० अव√लिप्(लीपना)+घञ्] १. उबटन लेप आदि चिकने तथा सुगंधित तरल पदार्थ जो शरीर पर मले या लगाये जाते है। २. मलहम। ३. अपने आप में ऐसे गुणों या विशेषताओं का आरोप करना जो वास्तव में न हो अथवा कम हों। अपनी योग्यता के संबंध में आवश्यकता से अधिक होनेवाला भान। (प्रिजम्पशन) ४. अभिमान। ५. आक्रमण। चढ़ाई। ६. हिंसा। ७. संबंध।
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अवलेपक  : वि० [सं० अव√लिप्+ण्वुल्-अक] अपने आप में किसी बात का झूठा अवलेप करनेवाला। अपने आपको कुछ लगाने या बड़ा समझनेवाला। (प्रिजम्पट्यूअस)
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अवलेपकता  : स्त्री० [सं० अवलेपक+तल्-टाप्] अवलेपक होने की अवस्था गुण या भाव।
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अवलेपन  : पुं० [सं० अव√लिप्+ल्युट्-अन] १. उबटन, लेप आदि सुंगधित पदार्थ शरीर पर लगाने की क्रिया या भाव। २. मलहम लगाना। ३. अपने आप में ऐसे गुणों या विशेषताओं का आरोप करना जो वास्तव में न हों। ४. लगाव। संबंध। ५. ऐब। दोष। ६. चंदन का वृक्ष।
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अवलेपना  : अ० [सं० अवलेप] १. अपने आपको दूसरें से बहुत बढ़ा-चढ़ा समझना। अपने में ऐसे गुणों का आरोप करना जो वास्तव में न हों। २. किसी पर कोई आरोप करना। दोष लगाना। उदाहरण—विद्यापति इन सुन वर नारि। पहु अव लेपिस दोष विचारि।—विद्यापति।
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अवलेह  : पुं० [सं० अव√लिह् (चाटना)+घञ्] [वि० अवलेह्य] १. गाढ़ी लेई। २. चाटने की वस्तु। जैसे—चटनी, शहद आदि। ३. ऐसी ओषधि या वस्तु जो चाटी जाए। ४. फलों आदि का वह गूदा और रस जो पकाकर गाढ़ा कर लिया गया हो। (जेलीं)।
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अवलेहन  : पुं० [सं० अव√लिह्+ल्युट्-अन] जीभ से चाटने की क्रिया या भाव।
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अवलेह्य  : वि० [सं० अव√लिह्+ण्यत्] (ओषधि, चटनी आदि) जो चाटी जाने को हो या चाटे जाने के योग्य हो।
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अवलोक  : पुं० [सं० अव√लुक् या लोक(देखना)+घञ्] १. दृष्टिपात। २. उद्देश्य विशेष से ध्यानपूर्वक देखना। पुं० =आलोक (प्रकाश)।
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अवलोकक  : वि० [सं० अव√लोक्+ण्वुल्-अक] १. अवलोकन या दृष्टिपात करनेवाला। २. उद्देश्य विशेष से ध्यानपूर्वक देखनेवाला।
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अवलोकन  : पुं० [सं० अव√लोक्+ल्युट्-अन] १. किसी उद्देश्य से ध्यानपूर्वक देखने की क्रिया या भाव। २. दृष्टिपात करना। देखना। (आदर-सूचक)।
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अवलोकना  : स० [सं० अवलोकन] १. ध्यानपूर्वक देखना। २. इस विचार से देखना कि इसमें कोई दोष तो नहीं है।
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अवलोकनीय  : वि० [सं० अव√लोक्+अनीयर्] [स्त्री० अवलोकनीया] १. अवलोकन किये जाने के योग्य। २. बहुत सुंदर या अच्छा। दर्शनीय।
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अवलोकित  : भू० कृ० [सं० अव√लोक्+क्त] जिसका अवलोकन किया गया हो। पुं० एक बुद्ध का नाम।
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अवलोकितेश्वर  : पुं० [सं० अवलोकित-ईश्वर, कर्म० स० या ब० स०] एक बोधिसत्त्व का नाम।
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अवलोक्य  : वि० [सं० अव√लोक्+ण्यत्] १. जिसका अवलोकन होने को हो। २. दे० ‘अवलोकनीय’।
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अवलोचना  : स० [सं० आलोचना] आँखों से दूर हटाना। सामने से दूर करना। उदाहरण—कोचै तकै इह चाँदनी ते अलि, याहि निबाहि व्यथा अबलोचै।—पद्माकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अवलोप  : पुं० [सं० अव√लुप् (काटना)+घञ्] १. काटना। २. बलपूर्वक छीनना या ले लेना। ३. आक्रमण करना।
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अवलोम  : वि० [सं० ब० स०] १. अनुकूल। २. उपयुक्त।
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अववदन  : पुं० [सं० अव√वद् (बोलना)+ल्युट्-अन] १. अनुचित वचन कहना। २. निंदा करना।
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अववर्त्त  : वि० [सं० अव√वृत्त (बरतना)+घञ्] जितना अपेक्षित आवश्यक या उचित हो, उससे कम या थोड़ा। (डिफिसिट) पुं० आय या पावने से अधिक व्यय या देना होना। जैसे—अववर्त्त आयव्ययिक-ऐसा आय-व्ययिक जिसमें आय से अधिक व्यय अथवा पावने से अधिक देना दिखलाया गया हो। (डेफिसिट बजट)
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अवंश  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके वंश में कोई न बचा हो। २. जिसके संतान न हो। पुं० [न० त०] छोटा या नीच कुल या वंश।
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अवश  : वि० [सं० न० ब०] १. जो अधिकार या वश में न हो। २. जो अपने वश में न होकर किसी दूसरे के वश में हो। पुं० [न० त०] वश में न होने अथवा वश न चलने की अवस्था या भाव।
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अवशता  : स्त्री० [सं० अवश+तस्-टाप्] अवश होने की अवस्था या भाव। बेबसी। लाचारी।
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अवशप्त  : वि० [सं० अव√शप् (शापदेना)+क्त] =अभिशप्त।
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अवशिष्ट  : वि० [सं० अव√शिष् (बचना)+क्त] (कार्य, धन पावना आदि) जो अभी बाकी या शेष बचा हो।
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अवशीर्ण  : वि० [सं० अव√शृ (हिंसा)+क्त] १. कटा या टूटा हुआ। छिन्न-भिन्न। २. छितराया हुआ।
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अवशीर्ष  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका सिर नीचे की ओर झुक गया हो। २. जिसका ऊपरी भाग नीचे हो गया हो। औंधा। ३. नत-मस्तक। पुं० एक प्रकार का नेत्र रोग।
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अवशेष  : पुं० [सं० अव√शिष्+घञ्] १. वह जो कुछ उपभोग, नाश, विश्लेषण व्यय आदि के उपरांत बचा हो। २. वह धन या संपत्ति जो किसी के मरने के उपरांत बची हो। ३. अंत। समाप्ति।
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अवशेषित  : भू० कृ० [सं० अवशिष्ट] १. जिसका अवशेष या अंत किया गया हो। २. अवशिष्ट।
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अवशोषण  : पुं० [सं० अव√शुष् (सोखना)+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० अवशोषक, अवशोषी] किसी पदार्थ विशेषतः तरल पदार्थ को खींचकर इस प्रकार अपने आप में मिला लेना कि जल्दी उसका पता न चले। सोखना (एब्जार्पशन)।
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अवश्य  : अव्य० [सं० अवश्यम्] १. निश्चित रूप से। २. बिना कोई अंतर हुए। वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अवश्या] १. जिस पर कोई वश न हो। २. जो वश में न किया जा सके।
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अवश्यंभावी (विन्)  : वि० [सं० अवश्यम्√भू (होना)+णिनि] जिसका घटित होना बिलकुल निश्चित हो। जो अवश्य होने को हो। (इनेक्टेबुल)
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अवश्या  : स्त्री० [सं० अव√श्यै (गति)+क-टाप्, या, न-वश्या, न० त०] १. मन-माना आचरण करने वाली स्त्री। स्वैरिणी। २. कुटला या दुश्चरित्रा स्त्री। ३. कोहरा। पाला।
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अवश्याय  : पुं० [सं० अव√श्यै+ण] १. तुषार। पाला। २. ओस। ३. वर्षा की झींसी या फुहार। ४. हिम-कण। ५. अभिमान।
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अवष्टब्ध  : भू० कृ० [सं० अव√स्तम्भ्+क्त] १. जिसने कोई सराहा लिया हो। २. रोका हुआ।
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अवष्टंभ  : पुं० [सं० अव√स्तम्भ् (रोकना)+घञ्] १. सहारा। आश्रय। २. स्तम्भ। खंभा। ३. सोना। स्वर्ण। ४. नम्रता का अभाव। उद्दंडता। ५. अभिमान। ६. पूरी तरह से ठहरना या रुकना। ७. साहस। हिम्मत। ८. श्रेष्ठता। ९. पक्षपात नामक रोग।
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अवष्टंभन  : पुं० [सं० अव√स्तम्भ्+ल्युट्-अन] १. सहारा देने या लेने की क्रिया या भाव। २. रुकाव। स्तंभन।
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अवस  : क्रि० वि० -अवश्य। वि० =अवश।
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अवसक्त  : भू० कृ० [सं० अव√सञ्ज्+क्त] चिपका, सटा या लगा हुआ।
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अवसक्थिका  : स्त्री० [सं० ब० स० कप्-टाप्] १. बैठने की वह मुद्रा जिसमें पीठ और घुटने कपड़े से बाँध लिये जाते हैं। २. उक्त अंगों को बाँधनेवाला कपड़ा। ३. खाट का उनचन।
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अवसंजन  : पुं० [सं० अव√सञ्ज् (चिपकना)+ल्युट्-अन] गले लगाना। आलिंगन।
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अवसथ  : पुं० [सं० अव√सो (अंत करना)+कथन] १. रहने का स्थान। निवास स्थान। २. घर। मकान। ३. विद्यार्थियों के रहने का स्थान। (बोर्डिग, होस्टल)
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अवसन्न  : वि० [सं० अव√सद् (उदास या दुःखी होना)+क्त] [भाव० अवसन्नता] १. जिसे विषाद हो। दुःखी। २. नाश की ओर बढ़नेवाला। ३. उत्साह या तत्परता से रहित। सुस्त। ४. दबा या धँसा हुआ। ५. जो सुन्न या स्तब्ध हो गया हो।
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अवसन्नता  : स्त्री० [सं० अवसन्न+तल्-टाप्] १. अवसन्न होने की अवस्था या भाव। २. विषाद। दुःख। ३. विनाश। बरबादी। ४. आलस्य। सुस्ती।
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अवसर  : पुं० [सं० अव√सृ (गति)+अच्] १. नियत या निश्चित परिस्थिति या समय। जैसे—इसका अवसर एक वर्ष बाद आयेगा। २. ऐसी अनुकूल या वांछनीय परिस्थिति जिसमें अपनी रुचि के अनुसार कार्य किया जा सके। जैसे—ऐसा अवसर भाग्य से ही मिलता है। मुहावरा—अवसर चूकना=किसी अनुकूल या इष्ट परिस्थिति का हाथ से निकल जाना। अवसर ताकना-अनुकूल या इष्ट परिस्थिति की प्रतीक्षा में रहना। अवसर लेना=उपयुक्त समय देखकर किसी से बदला चुकाना। ३. दे० ‘अवकाश’।
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अवसर-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] दे० ‘अवकाशग्रहण’।
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अवसर-प्राप्त  : वि० [सं० ब० स०] =अवकाश-प्राप्त।
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अवसरवाद  : पुं० [ष० त०] एक पाश्चात्य दार्शनिक सिद्धांत जिसके अनुसार ईश्वर ही कर्त्ता और ज्ञाता माना जाता है और जीव उसका निमित्त मात्र समझा जाता है। २. यह सिद्धांत कि जब जैसा अवसर आवे तब वैसा काम करके मतलब निकालना चाहिए। (अपारच्युनिज्म)।
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अवसरवादी (दिन्)  : वि० [सं० अवसरवाद+इनि] अपने लाभ या अपने स्वार्थ के लिए सदा उपयुक्त अवसर की ताक या तलाश में रहने और उससे लाभ उठानेवाला।
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अवसरिक  : वि० [सं० अवसर+ठन्-इक] बीच-बीच में या कुछ विशिष्ट अवसरों पर होता रहनेवाला। (आँकिजनल)
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अवसर्ग  : पुं० [सं० अव√सृज् (त्यागना)+घञ्] १. मुक्ति। छुटकारा। २. शिथिलता। ३. देन अथवा दंड आदि में होनेवाली कमी या छूट। (रेमिशन)।
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अवसर्जन  : पुं० [सं० अव√सृज्+ल्युट्-अन] १. छोड़ना। त्यागना। २. मुक्त या स्वतंत्र करना।
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अवसर्प  : पुं० [सं० अव√सृप् (गति)+घञ्] भेदिया। जासूस।
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अवसर्पण  : पुं० [सं० अव√सृप्+ल्युट्-अन] १. ऊपर से नीचे आना या उतरना। २. अघःपतन।
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अवसर्पिणी  : स्त्री० [सं० अव√सृप्+णिनि-ङीष्] जैन शास्त्रानुसार पतन का वह काल विभाग जिसमें रूप आदि का क्रमशः ह्रास होता है। अवरोह। विरोह। विवर्त्त।
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अवसर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० अव√सृप्+णिनि] नीचे आने या उतरनेवाला।
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अवसव्य  : वि० =अपसव्य।
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अवसाद  : पुं० [सं० अव√सद् (खिन्नहोना)+घञ्] [वि० अवसन्न, भू० कृ० अवसादित, कर्त्ता अवसादक] १. आशा, उत्साह, शक्ति का अभाव। २. विषाद० रंज। ३. मन या शरीर की ऐसी थकावट या शिथिलता जिसमें कुछ भी करने को जी न चाहे। (लैस्सिट्यूड) ४. पराजय। हार। ५. दुर्बलता। कमजोरी। ६. अन्त। समाप्ति। अवसादक
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अवसादन  : पुं० [सं० अव√सद्+णिच्+ल्युट्-अन] १. शिथिल या हतोत्साह होने की अवस्था या भाव। थकावट। २. विनाश। ३. विरक्ति। ४. घाव की मरहम पट्टी। (ड्रेसिंग)
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अवसादना  : अ० [सं० अवसाद] १. अवसाद या विषाद से युक्त होना। दुःखी होना। २. निराश होना। स० १. किसी को अवसाद से युक्त या पूर्ण करना। २. नष्ट करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवसादी (दिन्)  : वि० [सं० अवसाद+इनि] १. अवसाद उत्पन्न करनेवाला। २. अवसाद से युक्त फलतः शिथिल या हतोत्साह।
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अवसान  : पुं० [सं० अव√सो (नष्टकरना)+ल्युट्-अन] १. ठहरने या रुकने की क्रिया या भाव। ठहराव। विराम। २. वह बिन्दु या स्थान जहाँ किसी प्रकार के विकास, विस्तार, वृद्धि आदि का अंत, पूर्ति या समाप्ति होती है। (टर्मिनेशन) उदाहरण—(क) नहिं तव आदि मध्य अवसाना।—तुलसी। (ख) दिवस का अवसान समीप था।—हरिऔध। ३. अंत। समाप्ति। ४. सीमा। हद। ५. मरण। मृत्यु। ६. कविता या छंद का अंतिम चरण। ७. पतन। पुं० [फा० औसान] १. चेतना। ज्ञान। २. संज्ञा। होश। उदाहरण—बद्दारी बर कहि वीर अवसान संभारिन।—चंदवरदाई। पुं० =एहसान।
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अवसानक  : वि० [सं० अवसान+णिच्+ण्वुल्-अक] १. अवसान करनेवाला। २. जो अंत या सीमा तक पहुँच रहा हो। पुं० वह बिंदु या स्थान जहाँ पहुँचने पर किसी क्रिया रेखा आदि का अवसान होता हो। (टर्मिनस)
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अवसानिक  : वि० [सं० आवसानिक] अवसान (अंत या समाप्ति) से संबंध रखने या उसमें होनेवाला।
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अवसाय  : पुं० [सं० अव√सो+घञ्] १. अंत या समाप्ति। २. नाश। ३. निष्कर्ष। ४. निश्चय।
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अवसायिता  : स्त्री० [सं० अवसित=ऋद्ध]=ऋद्धि (डिं०)।
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अवसायी (यिन्)  : वि० [सं० अव√सो+णिनि] रहनेवाला। निवासी।
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अवसि  : क्रि० वि० =अवश्य।
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अवसिक्त  : वि० [सं० अव√सिच् (सींचना)+क्त] सींचा हुआ।
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अवसित  : वि० [सं० अव√सो+क्त] १. रहनेवाला। निवासी। २. जो पूर्ण या समाप्त हुआ हो। ३. अच्छी तरह पका हुआ। परिपक्य। ४. निश्चित। ५. लगा या सटा हुआ। संबद्ध। ६. किसी में वर्त्तमान या स्थित। ७. परिवर्तित।
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अवसी  : स्त्री० [सं० आवसित, प्रा० आवसिअ-पका धान्य] नवान्न आदि के लिए काटा जाने वाला धान्य या उसका फूला। वि० [सं० अव√स्वप्(सोना)+क्त] सोया हुआ।
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अवसृष्ट  : भू० कृ० [सं० अव√सृज् (त्यागना)√क्त] १. त्यागा हुआ। त्यक्त। २. दिया हुआ। दत्त। ३. निकाला हुआ।
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अवसेक  : पुं० [सं० अव√सिच्+वञ्] १. सींचना। सिचन। २. एक प्रकार का नेत्र-रोग।
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अवसेख  : वि० पुं० =अवशेष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवसेचन  : पुं० [सं० अव√सिच्+ल्युट्-अन] १. पानी से सींचना। २. पर्साजना। ३. औषध आदि के द्वारा रोगी के शरीर से पसीना निकालना। ४. शरीर का विकृत्य रूप निकालना (जैसे—जोंक या सींगी लगाकर या फसद खोलकर)।
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अवसेर  : स्त्री० [सं० अवसेरू-बाधक] १. उलझन। झंझट। २. देर। विलंब। ३. बेचैनी। विकलता। ४. चिंता। व्यग्रता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवसेरना  : स० दे० ‘अवसेर’। अ० विलंब करना। देर लगाना।
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अवसेष  : वि० =अवशेष। वि०=विशेष। उदाहरण—महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष।—रहीम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवसेषित  : वि० =अवशिष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवस्कंद  : पुं० [सं० अव√स्कन्द (गति)+घञ्] १. नीचे आना या उतरना। २. वह स्थान जहाँ अस्थायी रूप से तंबू आदि लगाकर सेना ठहरी हो। ३. तंबू। ४. आक्रमण। ५. बरात के ठहरने का स्थान। जनवासा।
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अवस्कंदक  : वि० [सं० अव√स्कन्द्+ण्वुल्-अक] १. नीचे उतरनेवाला। २. आक्रमण करनेवाला। ३. किसी के ऊपर कूदनेवाला।
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अवस्कंदित  : भू० कृ० [सं० अव√स्कन्द+क्त] १. जिसपर आक्रमण किया गया हो। आक्रांत। २. नीचे आया या उतरा हुआ। ३. अमान्य किया हुआ। ४. नहाया हुआ। स्नात।
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अवस्कर  : पुं० [सं० अव√कृ (विक्षेप)+अप्,सुट्] १. मल। विष्ठा। २. गोबर। ३. कूड़ा-कर्कट। ४. वह स्थान जहाँ मल-मूत्र, विष्ठा आदि फेंका जाता है। कतवारखाना।
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अवस्करक  : पुं० [सं० अवस्कर+कन्] १. कूड़ा-कर्कट, गोबर, मल-मूत्र विष्ठा आदि उठानेवाला। २. गंदे या मलिन स्थान में रहनेवाला। जैसे—गोबरैला। ३. झाड़ू।
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अवस्तार  : पुं० [सं० अव√स्तृ (आच्छादन)+घञ्] १. परदा। यवनिका। २. वह परदा जो खेमे के चारों ओर लगाया जाता है। कनात। ३. बैठने की वस्तु। जैसे—आसन, चटाई आदि।
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अवस्तु  : वि० [सं० न० त०] १. जो वस्तु न हो। २. तुच्छ। नगण्य। हीन। पुं० १. वस्तु का अभाव। २. तुच्छ, नगण्य अथवा हीन वस्तु।
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अवस्था  : स्त्री० [सं० अव√स्था (ठहरना)+अङ्-टाप्] १. किसी विशिष्ट या स्वतंत्र रूप में अस्तित्व में (वर्त्तमान या स्थित) होने का तत्त्व, भाव या स्वरूप। दशा। स्थिति। हालत। (कन्डिशन) जैसे—(क) कौमार्य का बाल्यावस्था, (ख) रोगी की अवस्था, (ग) युद्ध या शान्ति की अवस्था आदि। विशेष—(क) तात्त्विक दृष्टि से अवस्था किसी बात या वस्तु का वह वर्त्तमान रूप है जिससे वह स्थित दिखाई देती है और जिसमें समयानुसार परिवर्त्तन भी होता रहता है। यह बहुत कुछ वातावरण या परिस्थितियों पर भी आश्रित रहती है। (ख) वेदान्त में इसी आधार पर मनुष्य की चार (जाग्रति, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) तथा निरुक्त के अनुसार पदार्थों की छः (जन्म, स्थिति, वर्धन, विपरिणयन, अपक्षय और नाश) अवस्थाएँ मानी गई है। (ग) काम-शास्त्र और साहित्य में इसी को दशा कहते हैं, जो गिनती में दस कहीं गई हैं। (विशेष दे० ‘दशा’)। २. आयु का उतना भाग जितना कथित समय तक बीत चुका हो। उमर। वय। जैसे—दस वर्ष की अवस्था में वे निकल पड़े थे। ३. किसी प्रकार की दृष्य आकृति या स्वरूप। जैसे—उनकी अवस्था दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है। ४. भग। योनि।
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अवस्थांतर  : पुं० [सं० अवस्था-अंतर, मयू० स०] एक अवस्था में बदली हुई दूसरी अवस्था। परिवर्तित दशा या स्थिति।
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अवस्थान  : पुं० [सं० अव√स्था+ल्युट्-अन] १. आकर ठहरने या रूकने या कोई काम होने का स्थान। (स्टेशन) जैसे—रेलवे अवस्थान (रेलवे स्टेशन), आरक्षी अवस्थान (पुलिस स्टेशन) आदि। २. निवास-स्थान। ३. कोई अमूर्त्त परन्तु निश्चित या विशिष्ट स्थान या स्थिति। (स्टेज) ४. वह केन्द्र बिंदु जिसपर और सब बातें या वस्तुएँ आश्रित या स्थिर हों। ५. संपत्ति आदि पर रहने या होनेवाला किसी का अधिकार या स्वत्व।
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अवस्थापन  : पुं० [सं० अव√स्था+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] १. निश्चित या तै करना। २. निवास स्थान।
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अवस्थित  : भू० कृ० [सं० अव√स्था+क्त] १. किसी विशिष्ट अवस्था में आया हुआ। २. किसी विशिष्ट स्थान में ठहरा हुआ।
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अवस्थिति  : स्त्री० [सं० अव√स्था+क्तिन्] १. स्थित होने की अवस्था या भाव। २. वर्त्तमान होने की अवस्था या भाव। वर्त्तमानता।
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अवस्फूर्ज  : पुं० [सं० अव√स्फूर्ज (वज्र का शब्द)+घञ्] बादलों की गड़गड़ाहट या गरज।
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अवस्यंदन  : पुं० [सं० अव√स्यनद् (बहना)+ल्युट्-अन] १. टपकना या चूना। २. रसना।
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अवस्यमेव  : अव्य० [सं० अवश्यम्-एव, द्व० स०] हर परिस्थिति में अवश्य और निश्चित रूप से।
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अवह  : वि० [सं० अव√वह् (ढोना)+अच्, न० ब०] जिसका वहन न हो सके। जो ढोया न जा सके। पुं० १. वह प्रदेश जिसमें नदी-नाले न बहते हों। २. आकाश के तृतीय स्कंध पर पाई जानेवाली वायु।
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अवहनन  : पुं० [सं० अव√हन् (हिंसा)+ल्युट्-अन] १. पीटना। २. पटकना। ३. पछोड़ना। फटकना।
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अवहरण  : पुं० [सं० अव√हृ (चुराना)+ल्युट्-अन] १. चुरा, छीन या लूट लेना। २. दूर हटना। ३. सेना का पीछे हटकर (विश्राम के लिए) कहीं ठहरना।
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अवहस्त  : पुं० [सं० एकदेशि त० स०] हथेली का पिछला भाग।
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अवहार  : पुं० [अव√हृ(हरण)+ण] १. युद्ध रत दलों का कुछ नियत समय के लिए युद्ध बंद करना। अस्थायी रूप से युद्ध बंद होना। (आमिंस्टिक) २. दोनों दलों में उक्त निश्चय संबंधी होनेवाली संधि। ३. सूँस। ४. घड़ियाल। ५. निमंत्रण।
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अवहारक  : पुं० [सं० अव√हृ+ण्वुल्+अक] १. वह जो कुछ समय के लिए झगड़ा या लड़ाई रोक दे। २. सूँस नामक जल-जंतु।
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अवहार्य  : वि० [सं० अव√हृ+ण्यत्] १. जिसका वहन हो सकता हो अथवा जो वहन किये जाने के योग्य हो। २. दंडनीय। ३.जिसे फिर से प्राप्त किया जा सकता हो।
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अवहास  : पुं० [सं० अव√हस् (हँसना)+घञ्] १. बहुत धीरे से हँसना। मुस्काना। २. अपहास करना। दिल्लगी उड़ाना।
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अवहित  : वि० [सं० अव√धा (धारण)+क्त] १. किसी में गिरा या पड़ा हुआ। जैसे—जल में अवहित। २. किसी में रखा या समाया हुआ। ३. सावधान।
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अवहित्थ  : पुं० [सं० वहिस्√स्था (ठहरना)+क, पृषो० सिद्धि, न० त०] साहित्य में चतुरता पूर्वक मन का कोई भाव छिपाना। (यह एक संचारी भाव माना गया है)।
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अवहित्था  : स्त्री० =अवहित्थ।
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अवही  : पुं० [सं० अवह] १. वह प्रदेश जहाँ नदी-नालें न हों। २. एक प्रकार का बबूल।
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अवहृत  : भू० कृ० [सं० अव√हृ+क्त] १. एक ओर हटाया हुआ। २. हरण किया हुआ। ३. दंडित।
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अवहेलन  : स्त्री० [सं० अव√हेड् (अनादर)+ल्युट्, अन, लत्व] [भू० कृ० अवहेलित] १. अवज्ञा। तिरस्कार। २. किसी आज्ञा, आदेश या व्यक्ति की ओर जान-बूझकर उचित ध्यान न देना। उपेक्षा। (डिस्रिगार्ड) ३. लापरवाही।
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अवहेलना  : स्त्री० [सं० अव√हेड्+युच्-अन, लत्व] =अवहेलन।
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अवहेला  : स्त्री० [सं० अव√हेड्+अ-टाप्, ड के स्थान में ल] =अवहेलन।
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अवहेलित  : भू० कृ० [सं० अव√हेड्+क्त, लत्व] १. (आदेश या व्यक्ति) जिसकी अवहेलना हुई हो। २. तिरस्कृत।
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अवाँ  : पुं० =आवाँ।
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अवा  : पुं० =आँवाँ।
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अवाई  : स्त्री० [हिं० आना-आगमन] १. आने की क्रिया या भाव। आगमन। उदाहरण—कहुँ कोउ ठठकि अवाइ लखत बिनु पलक गिराए। रत्ना। २. खेत की गहरी जुताई। सेव का विपर्याय।
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अवाक् (च्)  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके मुँह से वचन न निकल रहा हो। चुप। मौन। २. जो चकित या स्तंभित होने के कारण कुछ बोल न सके। ३. गूँगा।
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अवाक्-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स०] १. वह पौधा जिसके फूल नीचे की ओर झुकें हों। २. अधः पुष्पी। ३. सौंफ। ४. सोआ नामक साग।
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अवाक्-शाख  : पुं० [ब० स०] अश्वत्थ। पीपल।
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अवाक्-श्रुति  : वि० [वाक्-श्रुति, द्व० स० न-वाक्श्रुति, न० ब०] जिसे वाक् या श्रवण शक्ति न हो। बहिरा।
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अवाँग  : वि० [सं० अवङ्] नीचे की ओर झुका हुआ। नत।
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अवाँगना  : स० [सं० अवाङ्] नीचे की ओर मोड़ना या झुकाना। उदाहरण—लीन्हेसी नवाइ डीठि पगनि अवाँगी रो।—पद्माकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवागी  : वि० [सं० अवाक्] १. जो बोलता न हो। २. चुप। मौन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवाङ्  : वि० [सं० अव√अञ्च (गति)+क्विन्] नीचे की ओर झुका हुआ जैसे—अवाङ्मुख।
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अवाङ्निरय  : पुं० [अवाक्-निरय, कर्म० स०] यह पृथ्वी जो नीचे के लोकों में सबसे नीची और निकृष्ट तथा नरक तुल्य मानी गई है।
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अवाच  : वि० [सं० अवाच्+ङीष्] दक्षिण दिशा।
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अवाचीन  : वि० [सं० अवाच्+रव-ईन] १. जो मुँह लटकाएँ या झुकाए हुए हो। अधोमुख। २. लज्जित।
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अवाच्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका उच्चारण या वाचन करना उचित न हो। न कहने योग्य। २. जिससे बात करना उचित न हो। ३. दक्षिण दिशा का। दक्षिणी। पुं० १. अनुचित या बुरी बात। गाली। २. न कहने योग्य बात।
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अवांछनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जो वांछनीय (अभिलषित) या (इष्ट) न हों। २. वांछना के लिए अनाधिकारी या अपात्र। (अन्डिजायरेबुल्)
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अवांछित  : वि० [सं० न० त०] १. जो वांछित न हो। २. जिसकी वांछा न की गई हो।
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अवाजा  : पुं० [फा० आवाजः] १. आवाज। शब्द। २. ख्याति। प्रसिद्धि। उदाहरण—साँचे विरदसूर के तारत लोकानि लोक अवाज।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवाजी  : वि० [हि० आवाज] १. आवाज या शब्द करने वाला। २. बहुत जोर से चिल्लाने या बोलनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवाडू  : वि० [?] विपरीत। विमुख। (राज०) उदाहरण—‘पाँख-डियाँ ईकिउँ नहीं, दैव अवाङ् ज्याँह।—ढोला मारू।
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अवात  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें बात न हों। वातरहित। निर्वात।
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अवांतर  : वि० [सं० अव-अंतर, अत्या० स०] १. जो दो छोरों वस्तुओं या बिन्दुओं के बीच में स्थित हो। जैसे—अवांतर दिशा, अवांतर देश आदि। २. जो किसी प्रकार भेद या वर्ग के अंतर्गत हो अथवा किसी में उप-भेद आदि के रूप में मिला हो। जैसे—घोड़ों, तलवारों आदि के अनेक अवांतर भेद होते हैं। ३. गौण। ४. अतिरिक्त। पुं० १. बीच। मध्य। २. भीतरी भाग या स्थान।
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अवादा  : पुं० दे० ‘वादा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवादी (दिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो वादी न हो। २. न बोलनेवाला। अवक्ता।
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अवान  : वि० [सं० अव√अन्(जीवित रहना)+अच्] सूखा हुआ। शुष्क।
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अवापन  : पुं० [सं० अव√आप् (पाना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अवाप्त] १. प्राप्त करना। पाना। २. आधि- कारिक रूप से आदाय, कर शुल्क आदि लगाना या स्थिर करना। (लेवी)।
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अवापित  : भू० कृ० [सं० वप् (बोना)+णिच्+क्त, न० त०] १. (अन्न) जो बोया न गया हो, फलतः रोपा हुआ। २. न कटा हुआ। (अनाज या उपज) ३. दे० ‘अवाप्त’।
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अवाप्त  : भू० कृ० [सं० अव√आप्(लाभ)+क्त] १. प्राप्त किया हुआ। २. जिसपर विधिक दृष्टि से या आधिकारिक पूर्वक ऐसा देन लगाया गया हो जो उचित प्राप्य के रूप में उगाहा जा सके। (लेवीड)।
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अवाप्ति  : स्त्री० [सं० अव√आप्+क्तिन्] १. प्राप्ति। २. आधिकारिक रूप से आधिकारपूर्वक आदाय, कर, शुल्क आदि के रूप में उगाहना लगाना या लेना। ३. आधिकारिक रूप से लोगों को बुलाकर उन्हें शस्त्रित करना अथवा उनकी सेना खड़ी करना। (लेवी)।
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अवाप्य  : वि० [सं० अव√आप्+ण्यत्] १. जिसे प्राप्त किया जा सके। २. जो प्राप्त किये जाने के योग्य हो अथवा जिसे प्राप्त करना उचित या आवश्यक हो। ३. जिसपर कर, शुल्क आदि लगाया जा सकता हो।
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अवाय  : वि० [सं० अवार्य] १. जो रोका न जा सकता हो। अनिवार्य। २. उच्छू-खल। उद्धत। पुं० [सं० अव√इ(गति)+घञ्] हाथ में पहनने का भूषण। कड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवार  : पुं० [सं०√वृ (वरण)+घञ्, न० त०] १. नदी के इस ओर की किनारा। ‘पार’ का विपर्याय। २. इस ओर पार्श्व या सिरेवाला पक्ष।
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अवारजा  : पुं० [फा० अवार्ज, कदाचित् सं० आवर्ज्य से व्यु०] १. वह बही जिसमें असामी की जोत आदि का लेखा रहता है। २. दैनिक-आय-व्यय आदि लिखने की बही। ३. दोहराने या मिलान करने की क्रिया या भाव। मुहावरा—अवारजा करना=बही में लिखना। उदाहरण—अरि अवारजा प्रेम प्रीति कौ, असल तहाँ खतियावै।—सूर। ३. संक्षिप्त लेखा या विवरण।
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अवारण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका वारण या निषेध न हो सके। सुनिश्चित । २. दे० ‘अनिवार्य’।
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अवारणीय  : वि० [सं० न० त०] जिसका वारण न किया जा सकता हो, फलतः अनिवार्य या असाध्य। जैसे—अवारणीय रोग।
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अवारना  : स० [सं० वारण] १. रोकना। २. मना करना। स० =वारना (निछावर करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवारपार  : पुं० [सं० अवार-पार, द्व० स०+अच्] समुद्र। अव्य० =आर-पार।
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अवारा  : वि० दे० ‘आवारा’।
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अवारिका  : स्त्री० [सं० न-वारि, न० ब० कप्-टाप्] धनिया।
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अवारिजा  : पुं० दे० ‘अवारजा’।
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अवारित  : वि० [सं० न० त०] १ ०जो वारित न हुआ हो, अर्थात् जिसके संबंध में कोई बाधा या रुकावट न हो। २. जो अवरुद्ध या बंद न हो। जैसे—अवारित द्वार।
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अवारी  : स्त्री० [सं० अवार] १. किनारा। सिरा। २. मोड़। ३. छेद। ४. मुँह। स्त्री० [सं० वारण] लगाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवार्य  : वि० [सं० न० त०] =अवारणीय।
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अवावट  : पुं० [सं० ] स्त्री के दूसरे सवर्ण पति या उपपति से उत्पन्न पुत्र। जैसे—कुंड और गोलक।
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अवास  : पुं० =आवास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवाँसना  : स० [सं० वासन] नये कपड़े, बरतन आदि पहले-पहल प्रयोग में लाना।
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अवासाँ  : पुं० [सं० आवास] —आवास। उदाहरण—सब रानिन्ह के आदि अवासाँ।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवासा  : वि० [सं० अवासस] जो वस्त्र न पहने हो। नंगा। पुं० दिगंबर जैन साधुओं का एक संप्रदाय।
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अवाँसी  : स्त्री० [सं० अवासित] नवान्न के लिए फसल मे से पहले पहल काटकर लाया हुआ बोझ। ददरी।
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अवास्तव  : वि० [सं० न० ब०] जो वास्तविक या सच्चा न हो फलतः निराधार या मिथ्या।
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अवाहन  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके पास वाहन या सवारी न हो। २. जो वाहन पर न बैठा हो।
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अवि  : पुं० [सं०√अव् (रक्षणआदि)+इन्] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. भेड़ा। (पशु) ४. बकरा। ५. ऊन। ६. पर्वत। ७. दीवार। स्त्री० [सं० ] १. लज्जा। २. ऋतुमती स्त्री।
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अविक  : पुं० [सं० अवि+कन्] १. भेड़। २. हीरा (रत्न)।
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अविकच  : वि० [सं० न० त०] जो खिला न हो, फलतः बन्द (फल)।
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अविकचित  : वि० [सं० न० त०] =अविकच।
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अविकट  : पुं० [अवि+कट्च्] भेड़ों का झुंड।
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अविकत्थ  : वि० [सं० वि√कत्थ् (श्लाघा)+अच्, न० त०] जो अपने संबंध में बढ़ा-चढ़ाकर बातें न करता हो। श्लाघाशून्य।
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अविकल  : वि० [सं० न० त०] १. जो विकल न हो अर्थात् शांत। २. ज्यों का त्यों। जैसे—अविकल अनुवाद। ३. पूरा। संपूर्ण। ४. क्रमित। व्यवस्थित। ५. निश्चित।
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अविकल्प  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें या जिसका कोई विकल्प न हो। २. सदा निश्चित रूप से एक-सा रहनेवाला। ३. संदेह-रहित। असंदिग्ध।
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अविका  : स्त्री० [सं० अवि+क-टाप्] भेड़।
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अविकार  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें विकार न हो। विकाररहित। २. जिसके आकार या रूप में परिवर्तन न होता हो। पुं० [सं० न० त०] विकार का अभाव। परिवर्त्तन न होना।
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अविकारी (रिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें विकार न हुआ हो या न हो सकता हो। विकारशून्य। २. जिसमें कोई विकार या परिवर्त्तन न हुआ हो। जो विकृत न हुआ हो। पुं० व्याकरण में अव्यय शब्द जिसके रूप में कभी विकार नहीं होता। जैसे—अतः,परंतु, प्रायः बहुधा आदि।
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अविकार्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें विकार उत्पन्न न किया गया जा सके या न होता हो। २. नित्य।
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अविकाशी (शिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो विकाशी न हो। २. जिसका या जिसमें विकास न हो। ३. जिसमें चमक न हो। ४. जो खिला, फूला या बढ़ा न हो।
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अविकृत  : वि० [सं० न० त०] जो विकृत अर्थात् बिगड़ा हुआ न हो, फलतः ज्यों का त्यों।
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अविकृति  : स्त्री० [सं० न० त०] विकृत होने की अवस्था या भाव। अविकार।
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अविक्रम  : वि० [सं० न० ब०] जो विक्रमशाली अर्थात् वीर न हो, फलतः अशक्त या कमजोर। पुं० [न० त०] १. कमजोरी। दुर्बलता। २. कायरता।
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अविक्रय  : पुं० [सं० न० त०] विक्रय अर्थात् बिक्री न होना। (नान-सेल)
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अविक्रांत  : वि० [सं० न० त०] १. जो विक्रांत न हो। २. अतुलनीय। अनुपम। ३. कमजोर। दुर्बल।
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अविक्रिय  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें किसी प्रकार का विकार न हुआ हो अथवा विकार उत्पन्न न किया जा सकता हो।
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अविक्रेय  : वि० [सं० न० त०] १. जो विक्रेय (बेचे जाने के योग्य) न हो। २. जो बेचा न जा सके। (अन-सेलेबुल्)
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अविक्षत  : वि० [सं० न० त०] जो विक्षत (टूटा-फूटा) न हो, फलतः पूरा या समूचा। २. जिसकी कोई क्षति या हानि न हुई हो। ३. जिसे आघात या चोट न लगी हो।
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अविक्षिप्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षिप्त (फेंका हुआ) न हो। २. जो विक्षित (पागल या घबराया हुआ) न हो, फलतः धीर, शांत या समझदार।
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अविगत  : वि० [सं० न० त०] १. जो जाना न गया हो। अज्ञात। २. अज्ञेय। ३. अनिर्वचनीय। ४. अनश्वर। नित्य। ५. ईश्वर या ब्रह्म का एक विशेषण। उदाहरण—अविगत गोतीता, चरित पुनीता माया रहित मुकुन्दा।—तुलसी।
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अविगति  : वि० [सं० न० ब०] जिसकी गति-विधि या कुछ पता न चले। स्त्री० [न० त०] अविगत होने की अवस्था या भाव।
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अविगंधा (गंधिका)  : स्त्री० [सं० ब० स०] अजगंधा नामक पौधा।
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अविगान  : पुं० [सं० न० त०] १. असामंजस्य या विरोध का अभाव। २. एकता। सादृश्य।
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अविगीत  : वि० [सं० न० त०] १. जो विगीत (कुत्सित या निंदित) न हो। २. जिसमें परस्पर असामंजस्य या विरोध न हो।
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अविग्रह  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका विग्रह (रूप या शरीर) न हो। अशरीरी और निखयव। २. जो अच्छी तरह जाना न गया हो। अविज्ञात। ३. निर्विवाद। निश्चित।
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अविघात  : पुं० [सं० न० त०] विघात का अभाव। बाधा या विघ्न न होना।
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अविचल  : वि० [सं० न० त०] १. न चलनेवाला। अचल। स्थिर। २. जो विचलित न हो। दृढ़ संकल्पवाला। ३. धीर। शांत।
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अविचार  : पुं० [सं० न० त०] [कर्त्ता अविचारी] १. विचार। (विशेषतः आवश्यक या उचित विचार) का अभाव। २. अज्ञान। अविवेक। ३. अनुचित या बुरा विचार। ४. अत्याचार या अन्याय।
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अविचारित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके संबंध में अभी कोई विचार न हुआ हो। २. बिना समझे-बूझे किया हुआ।
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अविचारी (रिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें विचार करने की शक्ति न हो। जो विचार न कर सके। ना-समझ। २. जो औचित्य, न्याय, संगति आदि का विचार न करता हो। ३. (विषय) जिसमें आवश्यक या उचित विचार से काम न लिया गया हो। (क्व०)
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अविचार्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका विचार न हो सकता हो। २. (इतना असंभव या निकृष्ट) जिसका ध्यान तक न किया जा सकता हो। (अन्थिंकेबुल)।
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अविचालित  : वि० [सं० न० त०] १. अटल। स्थिर। २. एकाग्रचित्त।
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अविच्छिन्न  : वि० [सं० न० त०] १. जो विच्छिन्न (बीच में कटा या टूटा हुआ) न हो। २. निरंतर या लगातार चलते रहनेवाला। जैसे—अविच्छिन्न गति या प्रवाह।
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अविच्छेद  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका या जिसमें विच्छेद न हुआ हो। पुं० [न० त०] विच्छेद का अभाव।
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अविच्युत  : वि० [सं० न० त०] १. जो विच्युत या अपने स्थान से भ्रष्ट न हुआ हो। २. नित्य। शाश्वत।
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अविजन  : पुं० [सं० अभिजन] कुल। वंश।
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अविजेय  : वि० =अजेय।
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अविज्ञ  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अविज्ञता] जो विज्ञ न हो अर्थात् अनजान।
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अविज्ञता  : स्त्री० [सं० अविज्ञ+तल्-टाप्] १. अविज्ञहोने की अवस्था या भाव। २. अज्ञान।
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अविज्ञात  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके संबंध में कोई जानकारी न हो। २. अज्ञात। ३. नासमझ। ४. अस्पष्ट या संदिग्ध।
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अविज्ञात-क्रय  : पुं० [सं० कर्म० स०] कोई चीज (चोरी से) इस प्रकार खरीदना कि मालिक को पता न चलने पावे।
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अविज्ञाता (तृ)  : वि० [सं० न० त०] जो जाननेवाला न हो। पुं० [न० ब०] जिससे बढ़कर जाननेवाला और कोई न हो अर्थात् परमेश्वर।
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अविज्ञेय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे जान न सके अथवा जो जाना न जा सके। २. जिसे जानना उचित न हो।
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अवितङाषण  : पुं० [सं० अवितत्-भाषण, कर्म० स०] ऐसी बात कहना जो सामान्यतः उपयुक्त ठीक या वास्तविक न हो।
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अवितत्  : वि० [सं० वि√तन्(विस्तार)+क्विप्, न० त०] उलटा, विपरीत या विरुद्ध।
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अवितत्-करण  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. पाशुपत दर्शन के अनुसार ऐसे कर्म करना जो अन्य मतवालों के विचार से गर्हित या निंदनीय हों। २. जैन शास्त्रों में विवेक, रहित होकर निंदनीय कार्य करना। ३. कोई अनुचित काम करना।
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अवितथ  : वि० [सं० न० त०] १. जो मिथ्या न हो अर्थात् सत्य। २. इतना ठीक और वास्तविक कि उससे कुछ भी भूल या भ्रम न हो। (प्रिसाइज)। पुं० सचाई। सत्यता।
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अवितर्कित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके संबंध में तर्क न किया गया हो। २. जिसमें तर्क के लिए न हो। असंदिग्ध।
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अवित्त  : वि० [सं० न० त०] १. वित्त-रहित। दरिद्र। धन-हीन। २. अविख्यात। ३. अपरिचित।
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अवित्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. वित्त (धन) न होने की अवस्था या भाव। गरीबी। निर्धनता। वि० =अवित्त।
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अवित्यज  : वि० [सं० √त्यज्(छोड़ना)+क (बा०) न० त०] जो छोड़ा या त्यागा न जा सके। अनिवार्य और आवश्यक। जैसे—रसायन बनाने के लिए पारा अवित्यज है।
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अविद  : वि० [सं० √विद्(ज्ञान)+क,न० त०] जो विद् अर्थात् जानकार न हो। अनजान।
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अविदग्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो अच्छी तरह जला न हो। २. जो पका न हो। ३. जो पचा न हो। ४. जो अच्छी तरह पूर्णता को न पहुँचा हो, अर्थात् अनुभवहीन या नौसिखुआ।
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अविदित  : वि० [सं० न० त०] १. जो विदित न हो। अज्ञात। २. गुप्त। ३. अविख्यात।
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अविद्ध  : वि० [सं० न० त०] जो बेधा या छेदा न गया हो।
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अविद्धकर्णा (र्णी)  : स्त्री० [न० ब० टाप्] पाढ़ा लता।
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अविद्धता  : स्त्री० [सं० न० त०] १. विद्धता का अभाव। २. अज्ञान। मूर्खता।
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अविद्धान्  : वि० [सं० न० त०] जो विद्वान न हो, फलतः अज्ञानी या मूर्ख।
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अविद्य  : वि० [सं० न-विद्या, न० ब०] १. जो पढ़ा-लिखा या शिक्षित न हो। २. जिसका संबंध विद्या या ज्ञान से न हो। ३. दे० ‘अविद्यमान’।
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अविद्यमान  : वि० [सं० न० त०] १. जो विद्यमान न हो। २. जिसकी कोई सत्ता या अवस्थिति न हो फलतः असत्। ३. झूठ। मिथ्या। ४. जिसका अस्तित्व महत्त्वपूर्ण, वास्तविक या स्थायी न हो। उदाहरण—अर्थ अविद्यमान जानिए ससृति नहिं जाइ गुसाई।—तुलसी।
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अविद्या  : स्त्री० [सं० न० त०] १. विद्या का अभाव। २. दार्शनिक क्षेत्रों में संसारिक मोह-माया में फँसानेवाला ऐसा मिथ्या या विपरीत ज्ञान जो इंद्रियों या संस्कारों के दोष से उत्पन्न हो और जो आत्मिक कल्याण की दृष्टि से घातक सिद्ध हो। जैसे—अनित्य को नित्य अनात्मा को आत्मा या झूठे सुख को सच्चा सुख मानना या समझना। सांख्य में इसे प्रकृति का गुण माना गया है।
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अविधवा  : वि० [सं० न० त०] (स्त्री० ) जो विधवा न हो।
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अविधान  : पुं० [सं० न० त०] विधान का अभाव। वि० [सं० न० ब०] १. जो विधान या विधि के अनुसार ठीक न हो अथवा उसके विरुद्ध हो। २. उलटा। विपरीत। पुं० =अभिधान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अविधि  : वि० [सं० न० ब०] जो विधि-विरुद्ध हो। स्त्री० विधि का अभाव।
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अविधिक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जो विधिक न हो। २. जो विधि की दृष्टि से निषिद्ध हो। (इल्लीगल)।
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अविनय  : पुं० [सं० न० त०] विनय (नम्रता, नियम-पालन, शिष्टता आदि) का अभाव, फलतः उद्दंडता, धृष्टता आदि। (इम्माडेस्टी)।
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अविनश्वर  : वि० [सं० न० त०] जो नस्वर या नाशवान न हो। अविनाशी। (इम्पेरिशेबुल)
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अविनाभाव  : पुं० [सं० बिना-बाव, तृ० त० न-विनाभाव, न० त०] दो वस्तुओं में होनेवाला ऐसा पारस्परिक अनिवार्य संबंध जो कभी टूटता न हो।, अर्थात् जिसमें एक के बिना दूसरा होता ही न हो। जैसे—आग और धूँए में अविना भाव संबंध होता है।
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अविनाश  : पुं० [सं० न० त०] विनाश का अभाव। सदा बना रहनेवाला।
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अविनाशी (शिन्)  : वि० [सं० न० त०] जिसका कभी विनाश न हो सकता हो, फलतः नित्य या शाश्वत। पुं० ईश्वर।
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अविनासी  : वि० पुं० =अविनाशी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अविनीत  : वि० [सं० न० त०] जिसमें विनय न हो। जो विनीत न हो अर्थात् उद्दंड या धृष्ट। (इम्माडेस्ट)
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अविनीता  : स्त्री० [सं० अविनीत+टाप्] वह स्त्री जिसमें विनय न हो। २. कुलटा या बदचलन स्त्री।
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अविपक्व  : वि० [सं० न० त०] १. (अन्न फल आदि) जो पका हुआ न हो। २. जो किसी विषय में परिपक्य या प्रौढ़ न हो। अधकचरा।
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अविपट  : पुं० [सं० अवि+पटच्] ऊनी वस्त्र।
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अविपद्  : स्त्री० [सं० न० त०] विपद् (कष्ट दुःख आदि) का अभाव।
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अविपन्न  : वि० [सं० न० त०] १. जो विपन्नन हो, अर्थात् नीरोग या स्वस्थ। २. जिसे आघात या चोट न लगी हो। ३. जिसे क्षति न पहुँची हो। ४. पवित्र। विशुद्ध।
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अविपर्यय  : पुं० [सं० न० त०] विपर्यय या विचार का अभाव।
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अविपाक  : पुं० [सं० न० त०] अजीर्ण रोग। वि० [सं० न० ब०] जिसे अजीर्ण हुआ हो।
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अविपाल  : पुं० [सं० ष० त०] भेड़-बकरियाँ पालनेवाला व्यक्ति। गड़ेरिया।
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अविबुध  : वि० [सं० न० त०] १. जो विबुध या समझदार न हो, अर्थात् अज्ञानी या मूर्ख। पुं० असुर। राक्षस।
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अविभक्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो विभक्त (कटा, टूटा या बँटा) न हो, अर्थात् पूरा या सम्पूर्ण। २. जिसका विभाजन या बँटवारा न हुआ हो, फलतः संयुक्त। जैसे—अविभक्त संपत्ति, अविभक्त भारत आदि। ३. अपने मूल (शरीर) के साथ लगा या सटा हुआ हो। अभिन्न। ४. जो सर्वत्र एकही रूप में व्याप्त हो। जैसे—अविभक्त आत्मा।
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अविभाज्य  : वि० [सं० न० त०] जिसका विभाजन या बँटवारा न हो सके। पुं० गणित में वह राशि जिसका किसी गुणक के द्वारा भाग न किया जा सकता हो। अविच्छेद्य।
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अविभावन  : पुं० [सं० न० त०] १. विभावन या पहचान का अभाव। पहचाना न जाना। २. निर्णय या विभेद का अभाव।
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अविमुक्त  : वि० [सं० न० त०] जो मुक्त न हो। बद्ध। पुं० [न० त०] १. कन-पटी। २. काशीपुरी का एक नाम।
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अवियुक्त  : वि० [सं० न० त०] जो वियुक्त या अलग न हो, फलतः मिला, लगा या सटा हुआ।
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अवियोग  : पुं० [सं० न० त०] १. वियोग का अभाव। २. वियोग का विपर्याय, संयोग।
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अवियोग-व्रत  : पुं० [च० त०] पुराणों के अनुसार अगहन शुक्ल तृतीया को होनेवाला एक व्रत।
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अवियोज्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका वियोजन या अलगाव न हो सके। २. जिसका वियोजन करना उचित न हो।
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अविरत  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अविरति] १. जिसके बीच में विराम या ठहराव न हो। निरंतर चलता या होता रहनेवाला। (काँन्स्टेन्ट) २. लगा या सटा हुआ। अ० य० निरंतर। लगातार। पुं० विराम का अभाव। निरंतरता।
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अविरति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. विरत न होने की दशा या भाव। २. आसक्ति। लीनता। ३. अशांति। ४. व्यभिचार। ५. ऐसा आवरण जो धर्मशास्त्रों के अनुरूप न हो। (जैन)।
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अविरथा  : क्रि० वि० =वृथा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अविरल  : वि० [सं० न० त०] १. जो विरल अर्थात् दूर-दूर तक स्थित न हो, फलतः साथ लगा, सटा हुआ। २. घना। सघन। ३. निरंतर दिखाई देने, मिलने या होनेवाला।
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अविराम  : वि० [सं० न० ब०] जिसके बीच में विराम या ठहराव न हो। क्रि० वि० १. बिना बीच में ठहरे या रुके हुए। २. निरंतर। लगातार। पुं० [न० त०] विराम का अभाव।
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अविरुद्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो विरुद्ध (प्रतिकूल या विपरीत) न हो। २. अनुकूल।
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अविरेचन  : पुं० [सं० न० ब०] ऐसी वस्तु जो विरेचन में बाधक हो। कोष्ठब्रद्धता उत्पन्न करनेवाली चीज।
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अविरोध  : पुं० [सं० न० त०] १. विरोध का अभाव। अनुकूलता। २. समानता। साधर्म्य। ३. मेल। संगति।
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अविरोधी (धिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो विरोधी न हो। २. अनुकूल।
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अविलक्ष्य  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई उद्देश्य या लक्ष्य न हो। २. असाध्य (रोग या रोगी)।
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अविलंब  : क्रि० वि० [सं० न० त०] बिना विलंब किए। तुरंत। तत्काल। फौरन।
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अविला  : स्त्री० [सं०√अव्+इलच्-टाप्] भेड़।
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अविलिख  : वि० [सं० वि० √लिख्+क(बा०), न० त०] १. जो लिखनेवाला न हो अथवा जो लिखना न जानता हो। २. अनुचित या हानिकारक बात लिखनेवाला।
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अविलोकना  : स० दे० ‘अवलोकना’।
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अविवक्षित  : वि० [सं० न० त०] १. जो अभिप्रेत या उद्धिष्ट न हो। २. जो कहे जाने के योग्य न हो।
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अविवर्त्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें किसी प्रकार का विवर्त्तन या उलट-फेर न हो सके। (अन-आँल्टरेबुल)।
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अविवाद  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें विवाद न हो। विवाद रहित। २. निर्विवाद। पुं० [न० त०] विवाद का अभाव।
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अविवाहित  : वि० [सं० न० त०] [स्त्री० अविवाहिता] जिसका विवाह न हुआ हो। कुवाँरा।
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अविविक्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो विवेचन के द्वारा स्पष्ट न हुआ हो। २. जो अच्छी तरह विचारा या सोचा न गया हो। ३. अच्छी तरह न सोचनेवाला। अविवेकी।
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अविवेक  : पुं० [सं० न० त०] १. विवेक का अभाव। अविचार। २. नादानी। नासमझी। ३. दर्शन-शास्त्र में किसी विशिष्ट ज्ञान का अभाव या मिथ्या ज्ञान। ४. न्याय का अभाव। अन्याय।
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अविवेकता  : स्त्री० [सं० अविवेक+तल्-टाप्] विवेकशील न होने की अवस्था या भाव। विचार-हीनता।
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अविवेकी (किन्)  : वि० [सं० न० त०] (व्यक्ति) जिसमें विवेक या विचारशीलता न हो, अर्थात् अन्यायी या मूर्ख।
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अविशंक  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे शंका या संदेह न हो। २. जिसे डर या भय न हो। निर्भय।
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अविशुद्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो विशुद्ध न हो, फलतः गंदा या मिलावटवाला।
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अविशुद्धि  : स्त्री० [सं० न० त०] १. विशुद्ध न होने की अवस्था या भाव। २. मलिनता। ३. अपवित्रता।
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अविशेष  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कोई विशेषता न हो। विशेषता से रहित। २. एक जैसा। एक रूप। पुं० १. तर्क-शास्त्र में, बेद उत्पन्न करनेवाला गुण या धर्म का अभाव। एकता। २. सांख्य के अनुसार एक विशिष्ट सूक्ष्म भूत जो धीरता, गूढ़ता आदि से रहित माना गया है।
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अविशेष-सम  : पुं० [तृ० त०] जाति के चौबीस भेदों में से एक। (न्या०)
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अविश्रंभ  : पुं० [सं० न० त०] विश्वास का अभाव। अविश्वास।
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अविश्रांत  : वि० [सं० न० त०] १. विश्राम न करनेवाला। २. न ठहरने या न रूकनेवाला। ३.निरंतर चलने या होनेवाला। न थकनेवाला। क्रि० वि० १. बिना ठहरे या रुके हुए। २. बिना थके।
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अविश्वसनीय  : वि० [सं० न० त०] जो विश्वास का अधिकारी या पात्र न हो। जिस पर विश्वास न किया जा सके।
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अविश्वस्त  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका विश्वास न किया गया हो। २. जिसका विश्वास न किया जा सकता हो। अविश्वसनीय।
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अविश्वास  : पुं० [सं० न० त०] १. विश्वास या निश्चित धारणा का अभाव। एतबार न होना। २. निश्चय का अभाव। ३. शंका संदेह।
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अविश्वास-पात्र  : वि० [ष० त०] जिस पर विश्वास न किया जा सके। अविश्वसनीय।
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अविश्वास-प्रस्ताव  : पुं० [ष० त०] लोक-तंत्री संस्थाओं में, किसी अधिकारी या सदस्य के सबंध में उपस्थित किया जानेवाला इस आशय का प्रस्ताव कि उस अधिकारी पर सदस्यों का विश्वास नहीं रह गया है, अतः वह अपने स्थान से हट जाए। (मोशन आँफ नो कॉन्फिडेन्स)।
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अविश्वासी (सिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो किसी का विश्वास न करे। २. अविश्वसनीय।
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अविष  : वि० [सं० न० ब०] १. जो विष न हो। २. जिसमें विष न हो। विषहीन। ३. विष का प्रभाव दूर करनेवाला। विषहारक। पुं० [सं०√अव् (वृद्धि, रक्षण आदि)+टिषच्] १. समुद्र। २. राजा। ३. आकाश। ४. रक्षक।
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अविषय  : वि० [सं० न० त०] १. जो कतन, तर्क, विचार आदि का विषय न हो। २. जो इंद्रियों द्वारा ग्रहण किया न जा सके। अगोचर। वि० [न० ब०] जिसमें या जिसका कोई विषय न हो। विषय-रहित।
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अविषा  : स्त्री० [सं० अविष+टाप्] साँप, बिच्छू आदि के विष का प्रभाव दूर करनेवाली जदवार नाम की जड़ी या बूटी।
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अविषी  : स्त्री० [सं० अविष+ङीष्] १. पृथ्वी। २. आकाश। ३. नदी।
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अविसर्गी (र्गिन्)  : वि० [सं० न० त०] जो बीच में ठहरता या रुकता न हो। पुं० ऐसा ज्वर जो बीच में उतरता न हो। बराबर बना रहनेवाला ज्वर।
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अविस्तर  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका विस्तार अधिक न हो। २. जिसका क्षेत्र सीमित हो। ३.जो अधिक लंबा-चौड़ा न हो।
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अविस्तीर्ण  : वि० [सं० न० त०] जो विस्तीर्ण अर्थात् फैला हुआ न हो या कम फैला हो।
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अविस्तृत  : वि० [सं० न० त०] जो विस्तृत न हो। कम या थोड़े विस्तारवाला।
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अविहड़  : वि० [सं० अ+विघट] जो खंडित न हो। अखंड। अविनाशी। वि० दे० ‘बीहड़’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अविहित  : वि० [सं० न० त०] १. जो विहित (उचित या ठीक) न हो। २. न करने योग्य। अनुचित। ३. जिसका शास्त्रों में विधान न हो या निषेध हो। जैसे—अविहित कर्म।
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अवी  : स्त्री० [सं०√अव् (रक्षण आदि)+ई] १. ऋतुमती स्त्री। २. वन-तुलसी।
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अवीचि  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें वीचि या लहरें न हों। पुं० एक नरक का नाम।
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अवीजा  : स्त्री० [सं० न० ब० टाप्] किशमिश।
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अवीरा  : वि० [सं० न० ब० टाप्] १. (स्त्री) जिसका न पति हो न पुत्र हो। २. मनमाना आचरण करनेवाली।
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अवीह  : वि० [सं० अब्रीड़] जो डरे नहीं। निडर। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवृत  : वि० [सं० न० त०] १. जो रोका न गया हो या जिसमें कोई रुकावट न हो। २. जो चुना न गया हो। ३. जो ढका न हो। ४. जो रक्षित न हो। ५. जो किसी के अधीन या वस, में न हो।
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अवृत्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. वृत्ति या जीविका का अभाव। २. स्थिति का अभाव। ३. अवृत्त होने की अवस्था या भाव।
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अवृथा  : वि० [सं० न० त०] जो वृथा या व्यर्थ न हो। वि० क्रि० वि०=वृथा।
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अवृद्धिक  : पुं० [सं० न० ब० कप्] ऐसा धन जिसपर ब्याज न मिलता या न लगता हो। वि० न बढ़नेवाला।
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अवृष्टि  : स्त्री० [सं० न० त०] वृष्टि या वर्षा का अभाव। सूखा।
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अवेक्षण  : पुं० [सं० अव√ईश्(देखना)+ल्युट्-अन] [भू० कृअवेक्षित, वि० अवेक्षणीय] १. अवलोकन। देखना। २. किसी अभिप्राय या उद्देश्य से किसी चीज या बात को ध्यानपूर्वक देखना। निरीक्षण। ३. जाँच-पड़ताल।
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अवेक्षणीय  : वि० [सं० अव√ईश्+अनीयर] १. जिसका अवेक्षण होने को हो या होना उचित हो। २. अवेक्षण के योग्य। ३. अति सुंदर। दर्शनीय। जैसे—अवेक्षणीय दृस्य। ४. (अपराध) जिसपर विधि के अनुसार अधिकारियों को ध्यान देना आवश्यक हो। (कागनिजिबुल)
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अवेक्षा  : स्त्री० [सं० अव√ईश्+अह्-टाप्] १. दे० ‘अवेक्षण’। २. न्यायालय या अधिकारी द्वारा किसी अपराध या दोष की ओर (उचित कारवाई या प्रतिकार करने के उद्देश्य से) ध्यान देना। (कॉग्निजेन्स)
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अवेक्षित  : भू० कृ० [सं० अव√ईश्+क्त] जिसकी या जिसके संबंध में अवेक्षा हुई हो।
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अवेज  : पुं० [अ० एवज] १. प्रतिकार। बदला। २. प्रति-फल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवेत  : वि० [सं० अव√इ(गति)+क्त] १. बीता हुआ। समाप्त। २. पाया हुआ। प्राप्त। ३. मिला हुआ। संयुक्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवेद्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो (वेदन के द्वारा) जाना न जा सके अथवा जो जानने योग्य न हो। २. जो प्राप्त न हो सके अथवा जिसे प्राप्त करना उचित न हो। पुं० १. बछड़ा। २. छोटा बच्चा।
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अवेद्या  : वि० [सं० अवेद्य+टाप्] १. (स्त्री) जिसके साथ विवाह न किया जा सकता हो। २. (स्त्री) जो विवाह के योग्य न हो।
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अवेल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसकी कोई सीमा न हो। २. अकालिक। असामयिक। पुं० गोपन। छिपाव। दुराव।
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अवेला  : स्त्री० [सं० न० त०] १. अनुचित या अनुपयुक्त समय। २. विलंब। देर।
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अवेश  : वि० [सं० न० ब०] जिसका कोई वेश न हो। वेश-रहित। पुं० आवेश। पुं० दे० ‘भूतावेश’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवेस्ता  : स्त्री० [पह०] ईरान के पूर्वी जन-समाज की प्राचीन भाषा जो संस्कृत से बहुत कुछ मिलती-जुलती तथा उसी के प्राचीन रूप की एक शाखा थी। (पारसियों का धर्म-ग्रंथ ‘जन्द’ इसी भाषा में है)।
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अवैज्ञानिक  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जो वैज्ञानिक (विज्ञान का ज्ञाता) न हो। २. (विषय) जिसका संबंध विज्ञान से न हो। ३. (विषय) जिसका वैज्ञानिक रीति से प्रतिपादन न हुआ हो। (अन्-साइन्टिफिक)
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अवैतनिक  : वि० [सं० न० त०] बिना वेतन लिए काम करनेवाला। (आनरेरी)।
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अवैदिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो वैदिक न हो। २. जो वेदों के अनुकूल न हो। वेद-विरुद्ध।
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अवैद्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो वैद्य (वैद्यक शास्त्र का ज्ञाता) न हो। २. नादान। नासमझ।
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अवैध  : वि० [सं० न० त०] जो वैध न हो अर्थात् जो विधि या विधान के अनुकूल न हो। (प्रतिकूल या विपरीत हो।) (इल्लीगल)
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अवैधाचरण  : पुं० [सं० अवैध-आचरण, कर्म० स०] ऐसा आचरण या व्यवहार जो विधि या विधान के विरुद्ध हो। (इल्लीगल प्रैक्टिस)
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अवैधानिक  : वि० [सं० न० त०] जो विधान या संविधान के नियमों के अनुरूप न हो या उनके विरुद्ध हो। (अन-कॉन्टिट्यूशनल)
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अवैमत्य  : पुं० [सं० न० त०] वैमत्य या मतभेद का अभाव। ऐकमत्य। वि० जिसमें वैमत्य या मत-भेद न हो।
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अव्यक्त  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अव्यक्तता, अव्यक्ति] १. जो व्यक्त अर्थात् प्रकट, प्रत्यक्ष या स्पष्ट न हो। छिपा हुआ। अज्ञात। २. जो अगम्य या अगोचर हो। ३. जिसकी अभिव्यक्ति न हुई हो। ४. अनिर्वचनीय। ५. बीज-गणित में (राशि) जिसका मान अज्ञात हो। पुं० १. ईश्वर या ब्रह्म। २. जीव का सूक्ष्म शरीर। ३. विष्णु। ४. शिव। ५. कामदेव। ६. प्रकृति (सांख्य)
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अव्यक्त-गणित  : पुं० [सं० कर्म०स०] बीज-गणित।
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अव्यक्त-गति  : वि० [ब० स०] जिसकी गति ऐसी हो कि सामने दिखाई न दे।
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अव्यक्त-पद  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा पद (या शब्द) जिसका मनुष्यों के कंठ, जीभ आदि से स्पष्ट उच्चारण न हो सके। जैसे—चिड़ियों या जानवरों की बोली या अनेक प्रकार के आघातों से उत्पन्न होनेवाले शब्द।
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अव्यक्त-राशि  : स्त्री० [कर्म० स०] बीज-गणित में वह राशि जिसका मान ज्ञात या निश्चित न हो।
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अव्यक्त-लिंग  : पुं० [ब० स०] १. सांख्य के अनुसार महत्तत्त्व आदि। २. संन्यासी। वि० १. जिसके लिंग, स्वरूप आदि का पता न चले। २. जिसके चिन्ह, या लक्षण अदृष्य या अप्रकट हों।
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अव्यक्त-साम्य  : पुं० [ष० त०] बीजगणित में, अव्यक्त राशि का समीकरण।
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अव्यक्तानुकरण  : पुं० [सं० अव्यक्त-अनुकरण, ष० त०] अव्यक्त पद या शब्द का ऐसा उच्चारण जो उसके अनुकरण पर तथा उससे मिलता-जुलता हो। जैसे—पशु-पक्षियों की बोली का मनुष्यों के द्वारा होनेवाला अनुकरण।
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अव्यक्तिक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जो व्यक्तिक या व्यक्तिगत न हो। जिसका संबंध किसी व्यक्ति या व्यक्तित्व से न हो। (इम्पर्सनल) २. राग-द्वेष आदि से रहित। निर्लिप्त।
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अव्यक्त्-लक्षण  : पुं० [ब० स०] शिव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अव्यंग  : वि० [सं० न-वि-अंग, न० ब०] जो व्यंग या टेढ़ा न हो। सीधा।
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अव्यंगा  : स्त्री० [सं० अव्यंग+टाप्] केंवाच। कौंछ।
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अव्यगांग  : वि० [सं० अव्यंग-अंग, ब० स०] जिसका कोई अंग टेढ़ा न हो। समरूप या सुडौल।
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अव्यग्र  : वि० [सं० न० त०] जो व्यग्र न हो फलतः धीर या शान्त।
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अव्यंजन  : वि० [सं० न० त०] १. जो व्यंजन न हो। २. [न० ब०] चिन्ह, लक्षण आदि से रहित। ३. अच्छे लक्षणों से रहित। ४. (पशु) जिसे सींग न हो।
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अव्यथ  : वि० [सं० न० ब०] किसी को कष्ट या पीड़ा न देनेवाला फलतः दयावान या दयालु। पुं० साँप।
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अव्यथा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. व्यथा (कष्ट या पीड़ा) का अभाव। २. [अव्यथ+टाप्] हरीरत की (हड़)। ३. सोंठ। ४. स्थल कमल। ५. गोरखमुंडी। ६. आँवला।
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अव्यथिष  : पुं० [सं० √व्यथ्+टिषच्, न० त०] १. सूर्य। २. समुद्र।
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अव्यथी  : (थिन्) वि० [सं० √व्यथ्+इन्,न० त०] १. जो व्यथित न हो। २. किसी को व्यथित न करनेवाला। ३. निडर। निर्भय।
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अव्यथ्य  : वि० [√व्यथ्+यत्,नि०, न० त०]=अव्यथी।
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अव्यध  : वि० [सं०√व्यध् (बेधना)+अच्, न० त०] जो बेधा या छेदा न गया हो। अनबिधा।
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अव्यपदेश्य  : वि० [सं० वि-अप√दिश्(बताना)+ण्यत्, न० त०] १. जो व्यपदेश न हो। २. जिसका शब्दों में वर्णन न हो सके। अनिवर्चनीय। जैसे—ब्रह्म अव्यपदेश्य है। ३. जिसका किसी प्रकार का उलट-फेर या विकल्प न हो। निश्चित। जैसे—अव्यपदेश्य ज्ञान-निर्विकल्प ज्ञान। ४. जिसे कोई निर्देश न दिया जा सके।
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अव्यपेत  : पुं० [सं० न० त०] यमकानुप्रास के दो भेदों में से एक, जिसमें एमकात्मक अक्षरों या पदों के बीच में कोई और अक्षर या पद नहीं आता।
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अव्यभिचारी (रिन्)  : [सं० न० त०] १. जो व्यभिचारीत न हो। २. जो उचित या सत्मार्ग से इधर-उधर हटाया न जा सके। सदा ठीक और सच्चे रास्ते पर चलनेवाला, फलतः फला या पुण्यात्मा। ३. जो व्यभिचार (अर्थात् परस्त्री-गमन) न करे। सदाचारी। पुं० न्याय में, ऐसा हेतु जो साध्य और साधक दोनों से युक्त हो।
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अव्यय  : वि० [सं० वि√इ (गति)+अच्, न० त०] १. जिसमें कभी कोई व्यय या विकार न होता हो। सदा एक-सा रहनेवाला। विकारशून्य और नित्य। २. जिसका न आदि हो और न अंत। ३. जिसका प्रवाह सदा चलता रहे। ४. जो परिणाम से रहित हो। पुं० १. व्यय न होना। २. व्याकरण में, वह शब्द जिसका प्रयोग सभी लिंगों, विभक्तियों और वचनों में सदा एक ही रूप में होता हो। वह शब्द जिसके रूप में परिवर्तन न होता हो। जैसे—कुछ, कोई, किंतु, परंतु, सदा आदि। २. पर-ब्रह्म। ३. विष्णु। ४. शिव।
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अव्ययीभाव  : पुं० [सं० अव्यया+च्वि√भू (होना)+घञ्] व्याकरण में, समास का वह प्रकार जिसमें अव्यय के साथ उत्तर पद समस्त होता है। जैसे—अतिकाल, अनुरूप, प्रतिरूप आदि।
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अव्यर्थ  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अव्यर्थता] जो कभी व्यर्थ न होता हो। सदा ठीक और पूरा फल देनेवाला। अचूक। जैसे—अव्यर्थ उपाय, अव्यर्थ महौषध आदि।
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अव्यवधान  : पुं० [सं० न० त०] १. व्यवधान (ओट परदे) का अभाव। २. दूरी बाधा आदि का अभाव।
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अव्यवसाय  : वि० [सं० न० ब०] जो कोई व्यवसाय या उद्यम न कर रहा हो। जिसके हाथ में कोई काम-धंधा न हो। पुं० [सं० न० त०] १. व्यवसाय या उद्यम का अभाव। २. निश्चय का अभाव।
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अव्यवसायी (यिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. व्यवसाय या उद्यम न करनेवाला। २. आलसी और पुरीषार्थ-हीन।
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अव्यवस्था  : स्त्री० [सं० न० ब०] [वि० अव्यवस्थित] १. व्यवस्था (क्रम, नियम, मर्यादा आदि) का अभाव। २. ऐसी व्यवस्था जो शास्त्रों आदि के विरुद्ध हो। ३. प्रबंध आदि में होनेवाली गड़बड़ी। कु-व्यवस्था।
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अव्यवस्थित  : वि० [सं० न० त०] १. जो व्यवस्थित न हो। जो क्रम या विचार से ठीक न हो। २. जो विधानों शास्त्रों आदि की व्यवस्था या मर्यादा से रहित हो या उनके विपरीत हो। ३. जिसमें उचित व्यवस्था या प्रबंध का अभाव हो। ४. जो उचित या मानक अवस्था या स्थिति में न रहता हो, फलतः अस्थिर या चंचल। जैसे—अव्यवस्थित चित्तवाला व्यक्ति।
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अव्यवहार्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो व्यवहार या काम में न लाया जा सके। जो व्यवहार के योग्य न हो। २. जिसके साथ किसी प्रकार का व्यवहार न किया या न रखा जा सके। ३. पतित।
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अव्यवहित  : वि० [सं० न० त०] जिसमें कोई व्यवधान न हो। प्रकट या स्पष्ट।
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अव्यवहृत  : वि० [सं० न० त०] १. जो व्यवहार में न आता हो। २. जिसका व्यवहार या प्रचलन न हो। ३. जिसका अभी तक व्यवहार या प्रयोग न किया गया हो।
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अव्यसन  : वि० [सं० न० ब०] जिसे कोई बुरा व्यसन या लत न लगी हो। व्यसनहीन। पुं० [न० त०] कोई व्यसन न होना।
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अव्याकृत  : वि० [सं० न० त०] १. जो व्याकृत न हो। २. जिसमें कोई विकार न हुआ हो या न उत्पन्न किया गया हो। ३. जो प्रकट या स्पष्ट न हो। ४. जो कारण के रूप में न हो। पुं० १. वह मूल तत्त्व जिसमें सब वस्तुएँ उत्पन्न हुई हों। २. प्रकृति। (सांख्य)।
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अव्याकृत-धर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा स्वभाव जिसमें शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म किये जा सके। (बौद्ध)।
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अव्याख्येय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी व्याख्या या स्पष्टीकरण न हो सकती हो। २. ऐसी असाधारण और विलक्षण बात या वस्तु जिसका कारण या मूल समझ में न आवे। (इनएक्सप्लिकेबुल)
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अव्याघात  : वि० [सं० न० ब०] १. जो व्याघात रहित हो। बेरोक-टोक। २. जो बीच में टूटा-फूटा या रुका न हो। पुं० व्याघात का अभाव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अव्याज  : वि० [सं० न० ब०] १. (व्यक्ति) जो कपटी या छली न हो। २. (कार्य) जो छलपूर्ण न हो। पुं० [न० त०] छल-कपट का अभाव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अव्यापार  : वि० [सं० न० ब०] व्यापार रहित। खाली। पुं० [न० त०] व्यापार या उद्यम का अभाव।
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अव्यापारी (रिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जो कोई व्यापार (क्रिया) न करता हो। २. सांख्य के अनुसार स्वभावतः अकर्त्ता और क्रिया शून्य। ३. जो व्यापारी या रोजगारी न हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अव्यापी (पिन्)  : वि० [सं० वि० -आप् (व्याप्त होना)+णिनि, न० त०] १. जो व्यापी न हो। २. जो हर जगह न पाया जाए। पुं० न्याय में, ऐसे देश या स्थान की चर्चा करना जिसका पता न चले। (यह एक प्रकार का उत्तराभास नामक दोष माना गया है)
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अव्याप्त  : वि० [सं० न० त०] जो व्याप्त या फैला हुआ न हो।
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अव्याप्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] [वि० अव्याप्त] १. व्याप्ति का अभाव। व्याप्त न होने की अवस्था या भाव। २. साहित्य और तर्क शास्त्र में, कथन, व्याख्या आदि का ऐसा रूप या स्थिति जिसमें कहीं हुई बात बतलाया हुआ लक्षण या दिया हुआ विवरण सारे अभिप्रेत तत्त्व या लक्ष्य पर पूरी तरह से या सब जगह समान रूप से न घटे। (यह दोष माना गया है)।
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अव्याप्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो पूरे विस्तार पर छाया हुआ न हो। जो सब परिस्थियों या स्थितियों में समान रूप से फैला हुआ न हो। २. जिसका कार्य क्षेत्र सीमित हो। जैसे—अव्याप्य-वृत्ति।
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अव्यावृत्त  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें कोई उलट-फेर या परिवर्तन न हुआ हो। ज्यों का त्यों। २. जिसका क्रम बीच में टूटा या रुका हुआ न हो।
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अव्याहत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें कोई बाधा या विघ्न न हो। २. जो टूटा-फूटा न हो। जिसे क्षति न पहुँची हो। ३. बिलकुल ठीक पूरा या सच्चा।
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अव्युत्पन्न  : वि० [सं० न० त०] १. जो किसी से व्यत्पन्न न हो। जिसकी किसी से व्युत्पत्ति न हुई हो। २. (व्याकरण में ऐसा शब्द) जिसकी व्युत्पत्ति शास्त्रीय रूप से सिद्ध न की जा सके। ३. (व्यक्ति) जिसे अच्छा अनुभव या ज्ञान न हो।
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अव्रण  : वि० [सं० न० ब०] जिसे घाव या व्रण न लगा हो। पुं० [न० त०] १. व्रण का अभाव। २. आँख का एक रोग।
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अव्रत  : वि० [सं० न० ब०] जिसने कोई व्रत न लिया हो अथवा किसी व्रत का पालन न किया हो। २. जिसका व्रत नष्ट हो गया हो। ३. नियम-रहित। पुं० [न० त०] १. व्रत का अभाव। २. व्रत का परित्याग।
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अव्रत्य  : वि० [सं० व्रत+यत्,न० त०] जो व्रत के लिए उपयुक्त न हो। पुं० व्रत के समय मिथ्या बोलना आदि अविहित कार्य।
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अव्वल  : वि० =औवल (प्रथम)।
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अंश  : पुं० [सं०√अंश् (बाँटना या विभक्त करना) +अच्] (वि० आंशिक, क्रि० वि० अंशतः) १. एक ही इकाई या वस्तु के कई अंगों या अवयवों में से हर अंग या अवयव। पूरे या समूचे का कोई खंड, टुकड़ा या भाग। (पार्ट) जैसे—रक्त भी हमारे शरीर का एक अंग है। २. धन, श्रम आदि की वह मात्रा जो व्यक्तिगत रूप से, अलग—अलग या मिलकर किसी कार्य के संपादन में लगाई जाती है। पत्ती। हिस्सा। (शेयर) जैसे—इस व्यापार में चारों भाइयों के समान अंश है। ३. उक्त व्यापार के फलस्वरूप प्राप्त या विभक्त होनेवाली हानि-लाभ आदि की मात्रा। ४. गणित में, पूरे एक या किसी इकाई के कई बराबर भाग। (फ्रैख्शन) ५. चन्द्र, सूर्य आदि ग्रहों के प्रकाश, प्रखरता आदि के विचार से उनका सोलहवाँ बाग। कला। ६. माप-क्रम के लिए किये जाने वाले विभागों में से हर एक। जैसे—(क) ८. अंश का ताप-मान। (ख) भूमध्य रेखा से १३. अंश की दूरी आदि। (डिग्री) ७. ज्यामिति में, वृत्त की परिधि का ३६॰ वाँ भाग। (डिग्री) ८. उत्तराधिकार। ९. जूए में दाँव पर लगाया जाने वाला धन। १. एक आदित्य का नाम। ११. दिन। १२. कंधा।
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अंश-दाता (तृ)  : पुं० [ष० त०] १. वह जो अंश या भाग दे। २. किसी सामूहिक या सार्वजनिक निधि या कोष में अपना अंश सहायता होना। (कान्ट्रिब्यूशन)
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अंश-दान  : पुं० [ष० त०] अपने अंश या हिस्से के रूप में किसी को कुछ देना या किसी कार्य में योग देना। तन, धन या मन से सहायक होना। (कान्ट्रिब्यूशन)
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अंश-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी व्यापर या संपत्ति के हिस्सेदारों के अधिकारों और हिस्सों का विवरण हो। हिस्सेदारी का दस्तावेज या लेख्य।
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अंश-मापक  : वि० [ष० त०] अंश, भाग आदि नापनेवाला।
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अंश-मापन  : पुं० [ष० त०] (वि० अंशमापक) किसी वस्तु या यंत्र के अंशों को नापने की क्रिया या भाव। जैसे—तापमापक यंत्र के अंश नापने का कार्य अंश-मापन कहलाता है।
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अंश-सुता  : स्त्री० [ष० त०] यमुना नदी।
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अंशक  : वि० [सं०√अंश्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० अंशिका] १. अंश, खंड, टुकड़े या विभाग करने वाला। २. अंशधारी। पुं० [सं० अंश+कन्] १. भाग, हिस्सा। २. दिन। पुं० (अंश्+ण्वुल् अक) भागी, हिस्सेदार।
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अशंक  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे शंका या संदेह न हो। २. निडर। निर्भय।
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अशंकनीय  : वि० [सं० न० त०] जिसके विषय में किसी प्रकार की शंका की ही न जा सके। (अन्क्वेश्चेनेबुल)
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अशंकित  : भू० कृ० [सं० न० त०] १. जो शंकित न हुआ हो। २. अशंक।
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अशकुन  : पुं० [सं० न० त०] १. शकुन का अभाव। २. अनुचित या बुरा शकुन। अशुभ लक्षण।
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अशकुंभी  : स्त्री० [सं०√अश् (व्याप्त होना)+अच्, अश√स्कुम्भ्(रोकना)+ट, पृषो० सलोप, ङीष्] जल में होनेवाला एक प्रकार का पौधा।
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अशक्त  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अशक्तता, अशक्ति] जो शक्त न हो, फलतः निर्बल या दुर्बल।
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अशक्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. शक्ति न होना। कमजोरी। दुर्बलता। २. सांख्य के अनुसार इंद्रियों अथवा बुद्धि का कुछ काम करने योग्य न रह जाना।
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अशक्य  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अ-शक्यता] १. (काम) जो हो न सकता हो या किया न जा सकता हो, फलतः अव्यवहारिक, असंभव या असाध्य। २. दे० असक्त। पुं० साहित्य में एक अलंकार जिसमें अड़चन या बाधा के कारण किसी काम के न हो सकने का उल्लेख होता है।
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अशक्यता  : स्त्री० [सं० अशक्य+तल्-टाप्] अशक्त या अश्कय होने की अवस्था या भाव।
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अंशतः  : क्रि० वि० [सं० अंश+तस्] केवल कुछ अंशों या हिस्सों में। आंशिक रूप में। (पार्टली, इन्-पार्ट)
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अशत्रु  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई शत्रु न हो। २. [न० त०] जो शत्रु न हो। पुं० चंद्रमा।
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अंशदानिक  : वि० [सं० अंशदान+ठन्-इक] अंशदान या सहांश के रूप में होने वाला। साहांशिक। (कॉन्ट्रिब्यूटरी)
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अंशधर  : पुं० [सं० अंश√ धृ (धारण करना) +अच्]=अंशधारी।
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अंशधारी (रिन्)  : पुं० [सं० अंश√ धृ+णिनि] १. अंश धारण करने वाला। २. हिस्सेदार। (शेयर होल्डर)
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अंशन  : पुं० [सं०√अंश्+ल्युट्-अन] १. अंश, भाग या हिस्से करना या लगाना। २. अंशों में चिन्ह, मान आदि स्थिर करके उन्हे अंकित या चिन्हित करना। (कैलिब्रेशन) ३. पूरी संख्या या इकाई के खंड, टुकड़े या विभाग करना। (फ्रैक्शनेशन)
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अशन  : पुं० [सं०√अश् (भोजन)+ल्युट-अन] १. खाने की क्रिया या भाव। २. खाई जानेवाली चीज। आहार। भोजन। ३. किसी के अंदर प्रविष्ट या व्याप्त होना। ४. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ५. भिलावाँ। वि० [√अश्+ल्यु-अन] [स्त्री० अशना] १. खानेवाला। २. भोग करनेवाला। (यौ० के अंत में)।
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अशन-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०] पटसन।
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अशनाया  : स्त्री० [सं० अश+क्यच्+अ-टाप्] भोजन करने की इच्छा। भूख।
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अशनि  : पुं० [सं०√अश् (मारना)+अनि] बिजली। वज्र।
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अशनि-पात  : पुं० =वज्रपात।
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अशनीय  : वि० [सं० अश्+अनीयर्] १. (पदार्थ) जो खाया जा सके अथवा जो खाये जाने के योग्य हो। २. जो खाया जाने को हो।
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अशब्द  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें शब्द या ध्वनि न हो। जो शब्द न करता हो। २. जो शब्दों में व्यक्त न हुआ हो। ३. अवैदिक। पुं० [न० त०] १. शब्द का अभाव। २. [न० ब०] ब्रह्म।
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अशंभु  : वि० [सं० न० त०] १. जो शंभु या कल्याणकारी न हो। अमांगलिक। २. अशुभ या अहितकर।
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अशरण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे आश्रय या शरण न मिली हो। २. असहाय।
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अशरण-शरण  : वि० [ष० त०] जिसे कही शरण न मिली हो उसे शरण देनेवाला। पुं० ईश्वर।
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अशरत  : पुं० [अ० इशरत] आनंद और सुख-भोग।
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अशरफ़  : वि० [फा०] १. बहुत बड़ा शरीफ या सज्जन। २. परम श्रेष्ठ।
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अशरफी  : स्त्री० [फा०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का सोने का बड़ा सिक्का। मोहर। २. इस सिक्के की तरह दिखाई देने वाला एक प्रकार का फूल। ३. उक्त फूल की अंकित की हुई आकृति। ४. एक प्रकार की आतिशबाजी जिसमें से फूल निकलते हैं।
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अशरा  : पुं० [अ० अशरः] १. हर माँस का दसवाँ दिन। २. मुहर्रम का दसवाँ दिन।
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अशराफ़  : पुं० [अ० शरीफ का बहु०] १. भले लोग। सज्जन समाज। २. भला आदमी। सज्जन। (वस्तुतः बहुवचन होने पर भी भूल से एकवचन में प्रयुक्त)
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अशरीर  : वि० [सं० न० ब०] जिसकी काया, देह शरीर न हो। पुं० १. परमात्मा। २. कामदेव। ३. संन्यासी।
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अशरीरी (रिन्)  : पुं० [सं० न० त०] १. वह जो शरीरधारी न हो। २. जिसका आकर रूप या स्वरूप दृष्टिगोचर न होता हो। ३. अलौकिक आत्मा। ४.ब्रह्म। ५. देवता।
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अशर्म (न्)  : वि० [सं० न० ब०] १. दुःखी। २. विकल। बेचैन। ३. बिना घर-बार वाला। पुं० [सं० न० त०] सुख या प्रसन्नता का अभाव अर्थात् कष्ट या दुःख।
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अंशल  : वि० [सं० अंश+लच्] हिस्सों का मालिक। हिस्सेदार। पुं० चाण्क्य का एक नाम।
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अशस्त्र  : वि० [सं० न० ब०] १. जो शस्त्र धारण न करता हो। २. जिसके पास शस्त्र न हो। ३. जिसका शस्त्रों से संबंध न हो। जिसमें शस्त्रों का प्रयोग न हो। जैसे—अशस्त्र युद्ध। पुं० [न० त०] शस्त्रों का अभाव।
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अंशांकन  : पुं० [सं० अंश-अंकन, ष० त०] (भू अंशांकित) १. किसी संख्या, इकाई आदि के विभिन्न विभाग करके उन पर अलग-अलग सूचक चिन्ह या रेखाएँ अंकित करना। २. उक्त प्रकार के विभाग स्थिर करके उनका ठीक-ठीक क्रम लगाना। (ग्रेजुएशन)
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अंशांकित  : भू० कृ० [सं० अंश-अंक, ष० त०+इतच्] १. जिसका अंशांकन हुआ हो। २. जो किसी क्रम विशेष लगाया गया हो। (ग्रैजुएटेड)
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अशाखा  : स्त्री० [सं० न० ब०] एक प्रकार की घास। शूली तृण।
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अशांत  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अशांति] १. (व्यक्ति) जो शांत न हो, फलतः चंचल या व्यग्र। २. (परिस्थिति या वातावरण) जिसमें शांति का अभाव हो, फलतः कोलाहलपूर्ण या क्षोभयुक्त।
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अशांति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. शांति का अभाव फलतः अस्थिरता या चंचलता। २. असंतोष। ३. क्षोभ।
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अंशापन  : पुं० [सं०√अंश्+णिच्-पुक्+ल्युट-अन) किसी चीज के अंश या विभाग करके उसके अलग-अलग अंश या विभाग निश्चित या स्थिर करना। अंशों का विभाजन करना। (अपोर्शनमेण्ट)
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अशाम्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका शमन न हो सके। २. जिसे शांत या संतुष्ट न किया जा सके। ३. जिसे शांत या संतुष्ट करना उचित न हो।
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अशालीन  : वि० [सं० न० त०] जो शालीन, नम्र और सुशील न हो, फलतः उद्दंड या धृष्ट।
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अशालीनता  : स्त्री० [सं० अशालीन+तल्-टाप्] अशालीन होने की अवस्था या भाव।
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अंशावतार  : पुं० [सं० अंश-अवतार, ष०त०] ईश्वर का यह अवतार जिसमें ईश्वरता के कुछ ही अंश हों, पूर्णता न हो।
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अशासन  : वि० [सं० न० ब०] १. जो किसी के शासन में न हो। २. शासनहीन। पुं० [न० त०] १. शासन का अभाव। २. अराजकता, अव्यव्सथा आदि की स्थिति।
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अशास्त्रीय  : वि० [सं० न० त०] जो शास्त्र या शास्त्रों के विचार से ठीक न हो, अथवा उनके विपरीत हो।
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अशिक्षित  : वि० [सं० न० त०] जिसे शिक्षा न मिली हो। जो पढ़ा लिखा या सीखा हुआ न हो। (अन-एजुकेटेड)
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अशित  : वि० [सं०√अश् (खाना)+क्त] खाया हुआ। भुक्त। वि० [सं० ] (हथियार) जो धारदार या नुकीला न हो। बिना धार या नोक का। जैसे—लाठी, डंडा आदि।
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अशित्र  : पुं० [सं०√अश् (संघात)+इत्र] चोर।
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अशिर  : पुं० [सं०√अश् (व्याप्ति संघात)+इरच्] १. अग्नि। आग। २. सूर्य। ३. राक्षस। ४. हीरा।
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अशिव  : वि० [सं० न० त०] १. जो शिशु न हो। २. [न० ब०] जिसके आगे शिशु या संतान न हो। पुं० [न० त०] शिशुत्व का अभाव। तारुण्य।
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अशिशिवका, अशिश्वी  : स्त्री० - [सं० शिशु-ङीष्+कन्-टाप्,ह्रस्व, न० त०] [शिशु+हीष्, न० त०] १. वह स्त्री जिसके बाल-बच्चे न हुए हों। संतानहीन स्त्री। २. बिना बच्चे की गाय।
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अशिष्ट  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अशिष्टता] जो शिष्ट (भला आदमी या सज्जन) न हो फलतः उज़ु या उद्दंड।
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अशिष्टता  : स्त्री० [सं० अशिष्ट+तल्-टाप्] १. असिष्ट होने की अवस्था या भाव। २. उजडुपन। बेहूदगी। ३. ऐसा आचरण या व्यवहार जिसमें शिष्टता या भलमनसात न हो।
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अंशी (शिन्)  : वि० [सं० अंश+इनि) स्त्री० अंशिनी] १. अंश रखनेवाला, अंशधारी। २. जिसमें विशेष रूप से ईश्वर का अंश दिखाई दे। अवतारी। पुं० १. किसी व्यापारिक संस्था या संपत्ति में अंश या हिस्सा रखने वाला। साझीदार। २. किसी अंश या हिस्से का स्वामी। ३. नाटक का नायक। ४. हिन्दू परिवार में संपत्ति या बँटवारे का लेख या दस्तावेज।
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अशीत  : वि० [सं० न० त०] जो सीत या ठंडा न हो, फलतः गरम।
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अशीत-कर  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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अशीति  : स्त्री० [सं० दश के अवयव-दशति, अष्टगुणित, दशति, मध्य० स० नि० अशी आदेश] गिनती में अस्सी की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—८॰।
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अंशु  : पुं० [सं० √अंश्+कु] १. सूर्य। २. सूर्य की किरण। ३. डोरा सूत। ४. एक प्राचीन ऋषि। ५. बहुत छोटा भाग या अंश।
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अंशु-जाल  : पुं० [ष० त०] किरणों का जाल या समूह।
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अंशु-धर  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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अंशु-नाभि  : स्त्री० [ष० त०] वह बिन्दु या स्थान जिस पर प्रकाश की रेखाएँ तिरछी होकर और मिलकर एक साथ गिरती हों।
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अंशु-पति  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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अंशु-मर्दन  : पुं० [ष० त०] ज्योतिष में ग्रहयुद्ध के चार भेदों में से एक। विशेष—दे० ‘ग्रहयुद्ध'।
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अंशु-माला  : स्त्री० [ष० त०] सूर्य की किरणें या जाल।
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अंशुक  : पुं० [सं० अंशु+क] १. कपड़ा, वस्त्र। २. बहुत महीन कपड़ा। ३. रेशमी कपड़ा। ४. उपरना, दुपट्टा। ५. ओढ़ना, चादर। ६. तेजपत्ता।
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अशुचि  : वि० [सं० न० त०] १. जो शुचि या पवित्र न हो, फलतः अपवित्र। २. गंदा या मैला।
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अशुद्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो शुद्ध न हो। २. जिसमें पवित्रता आदि का अभाव हो। अवपित्र। ३. (भाषण या लेख) जिसमें नियम विधि आदि का पूरा पालन न होने के कारण भूल रह गई हो। जो अपने मानक रूप से भिन्न और हीन प्रकार का हो। जैसे—अशुद्ध उच्चारण, अशुद्ध प्रतिलिपि, अशुद्ध प्रयोग आदि। ३. जिसका शोधन या संस्कार न हुआ हो।
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अशुद्धता  : स्त्री० [सं० अशुद्ध+तल्-टाप्] अशुद्ध होने की अवस्था या भाव। अशुद्धि।
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अशुद्धि  : स्त्री० [सं० न० त०] शुद्ध न होने की अवस्था या भाव। अशुद्धता (मिस्टेक)
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अशुन  : स्त्री०=अश्विनी। (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अशुभ  : वि० [न० त०] जो शुभ (भला या हितकर) न हो। अमांगलिक या बुरा। पुं० १. अमंगल। अहित। २. अपराध, दोष या पाप आदि।
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अंशुमत  : पुं०=अंशुमान्।
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अंशुमान् (मत्)  : पुं० [सं० अंशु+मतुप्] १. सूर्य। २. अयोध्या के एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा।
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अंशुमाली (लिन्)  : पुं० [सं० अंशु√मल् (धारण) +णिनि] सूर्य।
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अंशुल  : वि० [सं० अंशु√ला (आदान) +क] अंशु या चमकवाला, चमकीला। पुं० चाण्क्य का एक नाम।
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अशून्य  : वि० [सं० न० त०] १. (पात्र या स्थान) जो रिक्त या शून्य न हो। २. जो व्यर्थ न हो।
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अशेष  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें से कुछ शेष या बाकी न बचा हो। २. जो पूरा हो चुका हो। खतम। समाप्त। ३. जिसका कही शेष या अंत न हो। अपार।
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अशोक  : वि० [सं० न० ब०] जिसे या जिसमें शोक न हो। शोक रहित। पुं० १. एक प्रकार का प्रसिद्ध बड़ा पेड़ जिसकी पत्तियाँ धार्मिक और मांगलिक अवसरों पर काम में आती है। २. पारा। ३. विष्णु।
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अशोक-पूर्णिमा  : स्त्री० [कर्म० स०] फाल्गुन की पूर्णिमा।
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अशोक-वनिका-न्याय  : पुं० [ष० त०] लोक-व्यवहार में एक न्याय या दृष्टांत जिसका प्रयोग ऐसे अवसरों पर होता है, जब किसी बात का उसी प्रकार कारण नहीं बताया जा सकता, जिस प्रकार यह नहीं बतलाया जा सकता कि रावण ने सीता को अशोक-वाटिका में ही क्यों रखा, किसी और जगह क्यों नहीं रखा।
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अशोक-वाटिका  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ अशोक के बहुत वृक्ष हों। २. लंका में उक्त प्रकार की वह वाटिका जिसमें रावण ने सीता को ले जाकर रखा था।
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अशोक-षष्ठी  : स्त्री० [कर्म० स०] चैत्र शुक्ला षष्ठी।
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अशोका  : स्त्री० [सं० अशोक+टाप्] कुटनी।
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अशोकारि  : पुं० [सं० अशोक√ऋ (गति)+इन] कदंब। (वृक्ष)।
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अशोकाष्टमी  : स्त्री० [सं० असोक-अष्ट्मी, कर्म० स०] चैक्ष शुक्ला अष्टमी।
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अशोच्य  : वि० [सं० न० त०] जिसके संबंध में सोच या चिंता करना उचित न हो।
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अशोभन  : वि० [सं० न० त०] =अशोभनीय।
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अशोभनीय  : वि० न १. जो शोभनीय न हो। जो देखने में भला या सुंदर न लगे। २. अनुचित, अनुपयुक्त या भद्दा। जैसे—अशोभनीय व्यवहार।
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अशौच  : पुं० [सं० न० त०] १. अशुचि (या अपवित्र) होने की अवस्था या भाव। अपवित्रता। २. हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार घर के लोगों की वह स्थिति जो घर में किसी के जन्म लेने या मरने के कुछ निश्चित दिनों तक रहती है और जिसमें न तो औरों को छू सकते हैं और न ही कोई शुभ या धर्म-कार्य कर सकते हैं।
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अश्म (न्)  : पुं० [सं० √अश्(व्याप्ति)+मनिन्] १. पहाड़। पर्वत। २. पत्थर। ३. बादल। मेघ। ४. लोहा। ५. चकमक। ६. सोना-मक्खी।
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अश्म-कदली  : स्त्री० [उपमि० स०] काष्ठकदली। कठ-केला।
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अश्म-गर्भ  : पुं० [ब० स०] मरकत या पन्ना नामक रत्न।
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अश्म-योनि  : पुं० [ब० स०] मरकत। पन्ना।
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अश्म-सार  : पुं० [ष० त०] लोहा।
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अश्मक  : पुं० [सं० अश्मन्+कन्] आधुनिक त्रिवांकुर या ट्रावन्कोर के आस-पास के प्रदेश का पुराना नाम।
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अश्मकुटृ  : पुं० [सं० अश्मन्√कुटृ (छेदन)+अण्] केवल पत्थर से कूटा हुआ अन्न खानेवाला वानप्रस्थी साधु।
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अश्मगर्भज  : पुं० [सं० अश्मगर्भ√जन् (उत्पन् होना)+ड] १. लोटा। २. गेरू। ३. शिलाजतु। शिलाजीत।
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अश्मज  : पुं० [सं० अश्मन्√जन्+ड] एक प्रकार का काला रसीला खनिज पदार्थ जो नलों आदि के जोड़ पर इसलिए लगाया जाता है कि उनमें का जल चू न सके। यह सड़कों पर अलकतरे की तरह बिछाने के भी काम आता है। (एस्फाल्ट)। वि०=ऊष्मज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अश्मजतु  : पुं० [सं० अश्मन्√जन्+तुन्-डित] शिलाजीत।
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अश्मंत  : पुं० [सं० अश्मन-अन्त,ष०त०शक,पररूप] १. चूल्हा। २. मृत्यु। ३. अमंगल। ४. खेत।
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अश्मंतक  : पुं० [सं० अश्मन्√अन्त(बाँधना)+णिच्+ण्वुल्-अक, शक० पररूप] १. एक प्रकार की घास जिसे बटकर प्राचीन काल में मेखला बनाई जाती थी। २. आच्छादन। छाजन। ३. दीयट। ४. एक प्रकार का पत्थर। ५. कचनार। ६. लिसोड़ा।
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अश्मर  : वि० [सं० अश्मन्+र] पथरीला।
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अश्मरी  : स्त्री० [सं० अश्मन्√रा(दान)+क-ङीष्] पथरी नामक मूत्र-रोग। (स्टोन)।
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अश्मरीघ्न  : पुं० [सं० अश्मरी√हन् (हिंसा, गति)+ट] वरुण वृक्ष। बरना का पेड़।
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अश्मीर  : पुं० [सं० अश्मन्+इनि]=अश्मरी।
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अश्मोत्थ  : पुं० [सं० अश्मन्-उद्√स्था(ठहरना)+क] शिलाजीत।
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अश्र  : पुं० [सं० √अश्(व्याप्ति)+रक] १. आँसू। २. रक्त।
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अश्रद्ध  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें श्रद्धा या विश्वास का अभाव हो। श्रद्धा न करने या न रखनेवाला।
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अश्रद्धा  : स्त्री० [सं० न० त०] किसी (विशिष्ट) के प्रति श्रद्धा या पूज्य भाव न होने की अवस्था। श्रद्धाहीनता।
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अश्रद्धेय  : वि० [सं० न० त०] जो श्रद्धेय न हो। जिसके प्रति श्रद्धा न हो सकती हो।
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अश्रप  : पुं० [सं० अश्र√पा(पीना)+क] राक्षस। वि० अश्र या रक्त पीनेवाला। रक्तपायी।
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अश्रय  : पुं० [सं०√श्रि (सेवा)+अच्, न० त०] राक्षस।
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अश्रवण  : वि० [सं० न० ब०] जिसे सुनाई न पड़ता हो। बहरा। पुं० १. [न० त०] बहरापन। २. [न० ब०] साँप।
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अश्रांत  : वि० [सं० न० त०] १. जो श्रांत या थका हुआ न हो। २. काम के बीच में विश्राम न करने वाला। ३. (काम) जिसके बीच में विश्राम या विराम न हो।
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अश्राव्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो किसी के सुनने के योग्य न हो। २. जो किसी को सुनाने ये योग्य न हो। पुं० दे० ‘स्वगत कथन’।
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अश्रि  : स्त्री० [सं०√अश् (संघात)+क्रि] १. घर का कोना। २. अस्त्र या शस्त्र की नोक।
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अश्रीक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जिसकी या जिसमें श्री न हो या न रह गई हो। श्री-हीन। २. भाग्यहीन। अभागा।
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अश्रु  : पुं० [सं०√अश (व्याप्ति)+क्रुन्] १. आँखो में बहनेवाला तरल पदार्थ आँसू। २. साहित्य में, हर्ष, शोक, क्रोध, भय आदि के समय आँखों से आँसू बहना जो सात्त्विक अनुभवों के अंतर्गत माना गया है।
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अश्रु-गैस  : स्त्री० [सं० अश्रु+अं०गैस] शरीर के अंदर माथे के पास की वे ग्रन्थियाँ जो अश्रु या आँसू उत्पन्न करती हैं। (लैक्रिमल ग्लैड)
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अश्रु-ग्रथि  : स्त्री० [ष० त०] रासायनिक क्रिया से तैयार की जानेवाली एक गैस जिससे आँखों में जलन उत्पन्न होती है तथा अत्यधिक आँसू निकलने लगते हैं। (टीपर गैस)।
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अश्रु-जल  : पुं० [ष० त०] आँसू।
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अश्रु-पात  : पुं० [ष० त०] आँखों से आँसू गिरना या बहना। रोना।
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अश्रु-मुख  : वि० [ब० स०] जिसके मुख पर आँसू बहते हों। पुं० मंगल को अपने उदय नक्षत्र से १॰वें, ११वें और १२वें स्थान पर टेढ़ा चलना। (ज्यो०)
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अश्रुत  : वि० [सं० न० त०] १. (कथन) जो पहले सुनने में न आया हो। २. जिसने सुना न हो।
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अश्रुत-पूर्व  : वि० [सं० श्रुत-पूर्व, सुप्सुपा, स० अश्रुतपूर्व, न० त०] १. जो पहले कभी न सुना गया हो। २. विचित्र। अनोखा।
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अश्रुति  : वि० [सं० न० ब०] १. न सुननेवाला। २. जिसकी श्रवणेन्द्रियाँ न हों। स्त्री० [न० त०] १. न सुनना। २. भूल जाना। विस्मृति।
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अश्रुतिघर  : वि० [न० त०] १. वेदों को न जाननेवाला। २. ध्यानपूर्वक न सुनने वाला। ३. स्मरण न रखनेवाला।
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अश्रेय (स्)  : वि० [सं० न० ब०] जो श्रेय न हो फलतः हीन। पुं० [न० त०] १. श्रेय अर्थात् कल्याण का अभाव। अकल्याण। २. दुःख। ३. बुराई।
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अश्रौत  : लि० [सं० न० त०] जो श्रुति (वेदों आदि) में न हो या उसके विपरीत हो।
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अश्लाध्य  : वि० [सं० न० त०] जो श्लाध्य अर्थात् प्रशंसनीय न हो। निंद्य, फलतः दूषित या निंदनीय।
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अश्लिष्ट  : वि० [सं० न० त०] (शब्द) जो श्लिष्ट न हों। जिसमें श्लेष का अभाव हो।
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अश्लील  : वि० [सं० श्री√ला (लेना)+क, लत्व, न० त०] [भाव० अश्लीलता] जो नैतिक तथा सामाजिक आदर्शों से च्युत हो। जो संस्कृत तथा सभ्य पुरुषों की रुचि के प्रतिकूल हो। गंदा और भद्दा। फूहड़। जैसे—अश्लील साहित्य।
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अश्लीलता  : स्त्री० [सं० अश्लील+तल्-टाप्] अश्लील होने की अवस्था, गुण या भाव। फूहड़पन। भद्दापन।
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अश्लेषा  : स्त्री० [सं० अश्लेषा+टाप्] राशि चक्र के २७ नक्षत्रों में से नवाँ नक्षत्र।
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अश्लेषा-भव  : पुं० [सं० अश्लेषा√भू (होना)+अप्] केतु ग्रह।
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अश्व  : पुं० [सं०√अश्(व्याप्ति)+क्वन्] [वि० आश्व] १. घोड़ा। २. लाक्षणिक रूप में, इंद्रियाँ जो शरीर और मन को खींचकर इधर-उधर ले जाती है। ३. २७ की संख्या का सूचक शब्द।
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अश्व-कंदा  : स्त्री० [ब० स०] =अश्वगंधा।
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अश्व-कर्ण  : पुं० [ब० स०] १. घोड़े का कान। २. एक प्रकार का शालवृक्ष। लताशाल।
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अश्व-कुटी  : स्त्री० [ष० त०] घुड़साल।
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अश्व-कुशल  : पुं० [मध्य०स०] वह जो घोड़ों की तरह से चलना या तरह-तरह के काम करना सिखलाता हो।
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अश्व-क्रांता  : स्त्री० [ब० स०] संगीत में एक मूर्च्छना।
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अश्व-खुर  : पुं० [ब० स०] नख नामक गंध द्रव्य।
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अश्व-गति  : स्त्री० [ष० त०] १. घोडे की चाल। २. एक प्रकार का छंद या वृत्त। ३. चित्रकाव्य का वह प्रकार जिसमें कोई छंद इस प्रकार लिखा जाता है कि उससे घोडे की आकृति बन जाती है।
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अश्व-गंधा  : स्त्री० [ष० त०] असगंध नामक पौधा।
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अश्व-ग्रीव  : पुं० [ब० स०] =हयग्रीव।
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अश्व-चक्र  : पुं० [ष० त०] १. घोड़ों का समूह। २. घोड़ों के पद—चिन्हों से शुभाशुभ का विचार करने का एक चक्र या ढंग।
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अश्व-चिकित्सा  : स्त्री० - [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें घोड़ों बैलों आदि के रोगों और उनकी चिकित्सा का वर्णन होता है।
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अश्व-दंष्ट्रा  : स्त्री० [ष० त०] गोखरू।
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अश्व-निबंधिक  : पुं० [सं० अश्व-निबंध, ष० त०+ठन्-इक] साईस।
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अश्व-पति  : पुं० [ष० त०] १. घोड़ो का मालिक। २. घुड़सवार। ३. घुड़सवारों का नायक या सरदार। ४. भरत के मामा का नाम।
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अश्व-पुच्छी  : स्त्री० [ब० स०] माषपर्णी नाम का पौधा।
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अश्व-बंध  : पुं० [सं० अश्व√बन्ध्(बाँधना)+अण्] १. साईस। २. [ब० स०] एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसमें कोई कविता इस प्रकार लिखी जाती है कि उससे घोड़े की आकृति बन जाती है।
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अश्व-बल  : पुं० =अश्वशक्ति।
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अश्व-बाल  : पुं० [ष० त०] काँस नामक तृण।
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अश्व-भा  : स्त्री० [ष० त०] बिजली।
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अश्व-मार  : पुं० [सं० अश्व√मृ (मरना)+णिच्+अण्] कनेर नामक पौधा जिसकी जड़ घोड़ों के लिए घातक होती है।
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अश्व-मारक  : पुं० [ष० त०]=अश्वमार।
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अश्व-मुख  : पुं० [ब० स०] किन्नर, गंधर्व आदि जिनका मुँह घोड़ों की तरह कहा गया है।
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अश्व-मेघ  : पुं० [सं०√मेध् (हिंसा)+घञ्, अश्व-मेघ, ष० त०] १. यज्ञ में घोड़े की बलि देना। २. एक प्रसिद्ध बड़ा यज्ञ जिसमें घोड़े के सिर पर जय-पत्र बाँधकर उसे चारों ओर घूमने के लिए छोड़ देते थे, और यदि उसे कोई पकड़ लेता था, तो उसे मार या जीतकर वह घोड़ा छुड़ा लेते थे, और तब उसी घोड़े की बलि चढ़ाकर यज्ञ करते थे। (ऐसा यज्ञ करना दिग्विजयी सम्राट् होने का लक्षण माना जाता था) ३. संगीत में, एक प्रकार की तान जिसमें षड़ज को छोड़कर बाकी सब स्वर लगते है।
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अश्व-मेधिक  : वि० [अश्व-मेध+ठन्-इक] अश्वमेघ से संबंध रखनेवाला। पुं० अश्वमेध के योग्य अथवा अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा।
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अश्व-यूप  : पुं० [मध्य० स० वा, ष० त०] अश्वमेध यज्ञ में घोड़ा बाँधने का खूँटा।
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अश्व-लक्षण  : पुं० [ष० त०] घोड़े के अच्छे-बुरे या शुभ-अशुभ लक्षणों का विचार।
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अश्व-ललित  : पुं० [ष० त०] अद्रि तनया (वर्णवृत्त) का दूसरा नाम।
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अश्व-लाला  : स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार का साँप।
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अश्व-वक्त्र  : पुं० [ब० स०] किन्नर गंधर्व आदि जिनके मुँह घोड़ों की तरह माने गये हैं।
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अश्व-वदन  : पुं० [ब० स०+अच्] एक प्राचीन देश का नाम।
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अश्व-विद्  : पुं० [सं० अश्व√विद् (जानना)+क्विप्] घोड़ों के शुभ और अशुभ लक्षणों आदि का ज्ञाता।
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अश्व-व्यूह  : पुं० [ष० त०] वह व्यूह जिसमें कवचधारी घोड़े सामने और साधारण घोड़े अगल-बगल रखे जाते थे।
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अश्व-शक  : पुं० [ष० त०] घोड़े का मल या लीद।
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अश्व-शंकु  : पुं० [ष० त०] घोड़ा बाँधने का खूँटा
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अश्व-शक्ति  : स्त्री० [ष० त०] आधुनिक विज्ञान में, उतनी शक्ति जितनी ५५॰ पौंड (=६।।। मन) का भार एक फुट ऊपर उठाने के लिए आवश्यक होती है। (हॉर्सपावर)
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अश्व-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहां घोड़े बाँधे जाते हैं। अस्तबल। घुड़साल।
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अश्व-शास्त्र  : पुं० [ष० त०]=शालिहोत्र।
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अश्व-स्तर  : पुं० [ष० त०] घोड़े की पीठ पर रखने का कपड़ा।
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अश्व-हृदय  : पुं० [ष० त०] १. घोड़ों की चिकित्सा का शास्त्र। २. घुड़सवारी।
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अश्वकिनी  : स्त्री० [सं० अश्व-क, ष० त०+इनि-ङीष्] अश्विनी नक्षत्र।
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अश्वगोष्ठ  : पुं० [सं० अश्व+गोष्ठच्] अस्तबल। घुड़साल।
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अश्वघ्न  : पुं० [सं० अश्व√हन् (हिंसा)+ट] कनेर का वृक्ष और उसका फूल।
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अश्वंत  : वि० [सं० अश्व-अन्त,ब० स० शक० पररूप] १. अभागा। २. अशुभ। ३. असीम। पुं० १. मृत्यु। २. क्षेत्र। ३.आग रखने की जगह। ४. समाप्ति।
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अश्वतर  : पुं० [सं० अश्व+तरप्] १. खच्चर। २. एक सर्पराज। नागराज। ३. एक प्रकार का गंधर्व।
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अश्वत्थ  : पुं० [सं० श्वस्√स्था (ठहरना)+क-पृषो० सिद्धि, न० त०] १. पीपल का पेड़। २. सूर्य। ३. अश्विनी नक्षत्र।
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अश्वत्था  : स्त्री० [सं० अश्वत्थ+अच्-टाप्] आश्विन की पूर्णिमा।
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अश्वत्थाम (न्)  : वि० [सं० अश्व√स्था+क,पृषो०सिद्धि] घोड़े की सी शक्तिवाला। पुं० सुप्रसिद्ध और द्रोणाचार्य के पुत्र जो महाभारत के युद्ध में मारे गये थे।
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अश्वत्थी  : स्त्री० [सं० अश्वत्थ+ङीष्] १. चोटा पीपल। २. पीपल की तरह का एक छोटा पेड़।
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अश्वनाय  : पुं० [सं० अश्व-निबंध, ष० त+ठन्-इक] घोड़े चरानेवाला।
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अश्वपाल  : पुं० [सं० अश्व√पाल्(पालन करना)+णिच्+अण्] साईस।
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अश्वमेधीय  : वि० [सं० अश्वमेध√+छ-ईय] =अश्वमेधिक।
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अश्वयु (ज्)  : पुं० [सं० अश्व√युच् (जोड़ना)+क्विप्] अश्विनी नक्षत्र।
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अश्वरक्ष  : पुं० [सं० अश्व√रक्ष् (रक्षा करना)+अण्] साईस।
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अश्वरोधक  : पुं० [सं० अश्व√रुध् (रोकना)+ण्युल्-अक] कनेर वृक्ष।
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अश्वल  : पुं० [सं० अश्व√ला (लेना)+क] एक गोत्रकार ऋषि का नाम।
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अश्ववह  : पुं० [सं० अश्व√वह्(ढोना)+अप्] घुड़सवार।
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अश्ववार  : पुं० [सं० अश्व√वृ(सेवा)+अण्] १. घुड़सवार। २. साईस।
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अश्ववारक  : पुं० [सं० अश्व√वह्+णिच्+अण्]=अश्ववार।
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अश्ववाह  : पुं० [सं० अश्व√वह्+णिच्+अण्] घुड़सवार।
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अश्ववाहक  : पुं० [सं० अश्व√वह्+णिच्+ण्वुल्-अक] घुड़सवार।
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अश्वसाद  : पुं० [सं० अश्व√सद् (गति)+णिच्+अण्] घुड़सवार।
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अश्वस्तन  : वि० [सं० न० त०] केवल आज के दिन से संबंध रखनेवाला। पुं० वह गृहस्थ जिसके पास केवल एक दिन का अनाज हो, या इतना ही अनाज अपने पास रखता हो।
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अश्वस्तनिक  : वि० [सं० न० त०] जो आज सब खर्च कर दे, कल के लिए कुछ बचाकर न रखे।
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अश्वाक्ष  : पुं० [अश्व-अक्षि, ष० त० अच्] १. घोड़े की आँख। २. देवसर्षप नामक पौधा।
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अश्वांतक  : [अश्व-अन्तक, ष० त०] कनेर।
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अश्वाध्यक्ष  : पुं० [सं० अश्व-अध्यक्ष, ष० त०] अश्वारोही सेना का अध्यक्ष या नायक।
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अश्वानीक  : स्त्री० [अश्व-अनीक, ष० त०] घुड़सवार सेना। रिसाला।
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अश्वायुर्वेद  : पुं० [अश्व-आयुर्वेद, ष० त०] आयुर्वेद या चिकित्सा शास्त्र का वह अंग जिसमें घोड़ों तथा अन्य पशुओं की चिकित्सा का वर्णन होता है। शालिहोत्र।
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अश्वारि  : पुं० [अश्व-अरि, ष० त०] १. भैंसा। २. कनेर।
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अश्वारूढ़  : पुं० [अश्व-आरूढ़, स० त०] घुड़सवार।
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अश्वारोहक  : पुं० [सं० अश्व-आ√रुह् (उत्पन्न होना) +ण्वुल्-अक] असगंध नामक पौधा।
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अश्वारोहण  : पुं० [अश्व-आरोहण, स० त०] [वि० अश्वारोही] घोड़े पर चढ़ने की क्रिया या भाव। घुड़सवारी।
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अश्वारोही (हिन्)  : वि० [सं० अश्व-आ√रुह्+णिनि] १. घोड़े की सवारी करने वाला। जो घोड़े पर सवार हो। पुं० सवार।
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अश्वावतारी (रिन्)  : पुं० [सं० अश्व-अव√तृ (तैरना)+णिनि] ३१ मात्राओं के छंदों की संज्ञा।
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अश्वि-युग  : पुं० [ष० त०] ज्योतिष में एक युग अर्थात् ५ वर्षों का काल जिसमें क्रम से डिंगल, कालयुक्त, सिद्धार्थ, रौद्र और दुर्मति नामक संवत्सर होते हैं।
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अश्वि-युगल  : पुं० [ष० त०] दो कल्पित देवता जिन्हें कुछ लोग अश्विनीकुमार भी मानते हैं।
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अश्विनी  : स्त्री० [सं० अश्व+इनि—ङीप्] १. घोड़ी। २. सूर्य की पत्नी जिसने घोड़ी का रूप घर कर अपने को छिपा रखा था। ३. सत्ताइस नक्षत्रों में पहला नक्षत्र जो तीन तारों का है। ४. जटामासी। बालछड़।
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अश्विनी-कुमार  : पुं० [ष० त०] त्वष्टा की पुत्री प्रभा से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र जो देवताओं के वैद्य माने जाते हैं।
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अश्वीय  : वि० [सं० अश्व+छ-ईय] १. घोड़े में होने या पाया जानेवाला। अश्व संबंधी। जैसे अश्वीय रोग। २. घोड़ों के हित से संबंध रखनेवाला। पुं० घोड़ों का समूह।
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अषाढ़  : पुं० [सं० आषाढ़ी+अण्, ई का लोप, ह्रस्व]=आषाढ़ (मास)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अषाढ़क  : पुं० [सं० अषाढ़+कन्] आषाढ़ का महीना।
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अषारना  : स० [?] क्रोधपूर्वक ललकारना।
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अंषि  : स्त्री० [सं० अक्षि] आँख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अष्ट (न्)  : वि० [सं० √अश् (व्याप्ति)+कनिन्, तुट्] १. आठ। २. आठ अंगोंवाला। जैसे-अष्टपाद। पुं० आठ की संख्या।
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अष्ट-कमल  : पुं० [सं० कर्म० स०] हठयोग में, शरीर के अन्दर मूलाधार से ललाट तक माने जानेवाले आठ चक्र या कमल, जिन्हें हृच्चक्र भी कहते हैं। यथा—मूलाधार, विशुद्ध, मणिपूरक, स्वाधिष्ठान, अनाहत (अनहद), आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र और सुरतिकमल। (दे० ‘चक्र’)
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अष्ट-कर्ण  : पुं० [ब० स०] आठ कानोंवाले, ब्रह्मा।
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अष्ट-कुल  : पुं० [कर्म० स०] पुराणों में वर्णित सर्पो के ये आठ कुल—शेष, वासुकि, कंबल, कर्कोटिक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक।
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अष्ट-कृष्ण  : पुं० [कर्म० स०] वल्लभकुल के मतानुसार ये आठ कृष्ण—श्रीनाथ, नवनीतप्रिय, मथुरानाथ, विट्ठलनाथ, द्वारकानाथ, गोकुलनाथ, गोकुलचंद्रमा और मदनमोहन।
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अष्ट-कोण  : पुं० [ब० स०] १. आठ कोणोंवाला क्षेत्र। २. तंत्र में एक प्रकार का यंत्र। वि० जिसके या जिसमें आठ कोने हों। अठ-कोना।
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अष्ट-गंध  : पुं० [कर्म० स०] आठ सुगंधित द्रव्यों का समूह। दे० ‘गंधाष्टक’।
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अष्ट-ताल  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में ये आठ ताल—आड़, रोज, ज्योति, चंद्रशेखर, गंजन, पंचताल, रूपल, और समताल।
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अष्ट-दल  : पुं० [ब० स०] आठ दलोंवाला कमल। वि० जिसमें आठ कल (कोने या पहल) हों।
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अष्ट-द्रव्य  : पुं० [कर्म० स०] कर्मकांड में काम आनेवाले ये आठ द्रव्य—अश्वत्थ, गूलर, पाकर, वट, तिल, सरसों, दूध और घी।
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अष्ट-धातु  : स्त्री० [कर्म० स०] ये प्रसिद्ध और मुख्य आठ धातुएँ—सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, जस्ता, सीसा, लोहा, और पारा।
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अष्ट-पद  : पुं० [ब० स०] दे० ‘अष्ट पाद’।
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अष्ट-पाद  : वि० [ब० स०] आठ पैरों या चरणोंवाला। पुं० १. कपड़ों आदि की झालर। २. एक प्रकार का भीषण सुमद्री जलजंतु, जिसके आठ लंबे-लंबे अंग, पैरों की तरह सब ओर निकले रहते हैं। (आक्टोपस) ३. मकड़ी।
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अष्ट-प्रकृति  : स्त्री० [कर्म० स०] १. भारतीय राजतंत्र में राज्य के ये आठ प्रधान कर्मचारी—सुमंत्र, पंडित, मंत्री, प्रधान, सचिव, अमात्य, प्राड्विवाक और प्रतिनिधि। (शुक्र०) २. राज्य के आठ अंग—राजा, राष्ट्र, अमात्य, दुर्ग, बल (सेना), कोष, सामंत और प्रजा। (नीं० शा०)
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अष्ट-फलक  : वि० [ब० स०] (घन पदार्थ) जिसमें आठ समतल पार्श्व हों। (ऑक्टहेड्रल)। पुं० उक्त प्रकार का कोई घन पदार्थ पिंड। (ऑक्टहेड्रन)
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अष्ट-भुज  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० अष्टभुजा] आठ भुजाओंवाला। पुं० ज्यामिति में, वह क्षेत्र जिसकी या जिसमें आठ भुजाएँ या पार्श्व हों। (ऑक्टेगन)
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अष्ट-मंगल  : पुं० [कर्म० स०] १. ये आठ मांगलिक पदार्थ—सिंह, वृष, नाग, कलस, पंखा, वैजयंती, भेरी और दीमक। २. वैद्यक में, एक प्रकार का घृत जो आठ ओषधियों के योग से बनाया जाता है।
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अष्ट-मान  : पुं० [ब० स०] आठ मुट्ठी का एक मान या परिमाण।
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अष्ट-मूर्ति  : पुं० [ब० स०] १. शिव। २. शिव की ये आठ मूर्तियाँ—क्षिति, जल, तेज, वायु, आकाश, यजमान, सूर्य, और चंद्रमा।
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अष्ट-लोह  : पुं० [कर्म० स०] दे० ‘अष्टधातु’।
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अष्ट-वर्ग  : पुं० [कर्म० स०] १. इन आठ ओषधियों का समूह—जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋषि और वृद्धि। २. हिन्दू राज्यतंत्र में, राज्य के ये आठ अंग या वर्ग—ऋषि, बस्ती, (गाँव, नगर आदि), दुर्ग, सेतु, हस्ति-बंधन, खान, कर-ग्रहण और सैन्य संस्थापन।
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अष्ट-श्रवण  : पुं० [ब० स०] आठ कानोंवाले, ब्रह्मा।
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अष्ट-श्रवा (स्)  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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अष्ट-सिद्धि  : स्त्री० [कर्म० स०] योग के द्वारा प्राप्त होनेवाली ये आठ सिद्धियाँ—अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, इशित्व और वशित्व।
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अष्टक  : पुं० [सं० अष्टन्+कन्] १. आठ वस्तुओं का वर्ग या संग्रह। जैसे—हिंग्वष्टक। २. आठ छंदों, श्लोकों आदि का समूह। ३. आठ अध्यायोंवाला ग्रंथ। ४. मनु के अनुसार पैशुन्य, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, असूया, अर्थदूषण, वाग्दंड और पारुष्य इन आठ अवगुणों का समूह। ५. पाणिनिकृत व्याकरण। अष्टाध्यायी। ६. आठ ऋषियों का एक गण। ७. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
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अष्टका  : स्त्री० [सं० √अश्+क्तन्—टाप्] १. अष्टमी। २. अगहन, पूस, माघ, और फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की अष्टमी। ३. अष्टमी के दिन किये जानेवाले धार्मिक कृत्य।
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अष्टकुली (लिन्)  : वि० [सं० अष्टकुल+इनि] जो साँपों के आठ कुलों में से किसी एक में उत्पन्न हो।
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अष्टंगी  : वि० =अष्टांगी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अष्टछाप  : पुं० [सं० अष्ट+हिं० छाप] गोसाईं विट्ठलनाथ जी का निश्चित किया हुआ आठ सर्वोत्तम पुष्टिमार्गी कवियों का एक वर्ग (इन के नाम इस प्रकार हैं—सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास तथा नंददास)।
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अष्टधाती  : वि० [सं० अष्टधातु] १. आठ धातुओं से बना हुआ। २. दृढ़। पक्का। मजबूत। पुं० १. दुश्चरित्रा स्त्री की संतान। २. बहुत दुष्ट या पाजी आदमी।
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अष्टपदी  : स्त्री० [सं० अष्टपद+ङीष्] १. आठ छंदों या पदों का समूह। २. एक प्रकार का गीत जिसमें आठ पद होते हैं। ३. एक प्रकार की चमेली।
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अष्टभुजा  : स्त्री० [सं० अष्टभुज+टाप्] दुर्गा का एक विशिष्ट रूप जिनकी आठ भुजाएँ मानी गई है।
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अष्टभुजी  : स्त्री० [सं० अष्टभुज+ङीष्]=अष्टभुजा।
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अष्टम  : वि० पुं० [सं० अष्टन्+डट्, मट्] आठवाँ।
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अष्टमिका  : स्त्री० [सं० अष्टमी+कन्-टप्, ह्रस्व]=अष्टमी।
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अष्टमी  : स्त्री० [सं० अष्टम+ङीप्] १. शुक्ल या कृष्ण पक्ष की आठवीं तिथि। २. क्षीरकाकोली। पयस्वा।
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अष्टाकपाल  : पुं० [सं० अष्ट—कपाल+कर्म० स०, आत्व अण्-लुक्] १. वह पुरोडाश जो मिट्टी के आठ बरतनों में पकाया जाता था। २. उक्त पुरोडाश से किया जानेवाला यज्ञ।
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अष्टाक्षर  : पुं० [अष्ट-अक्षर ब० स०] १. आठ अक्षरोंवाला मंत्र। जैसे विष्णुका ‘ओं नमो नारायणाय’ नामक मंत्र, या वल्लभ संप्रदाय का ‘श्री कृष्णः शरणं मम’ नामक मंत्र। वि० जिसमें आठ अक्षर हों। आठ अक्षरोंवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अष्टांग  : पुं० [अष्ट-अंग, कर्म० स०] १. योग साधन के ये आठ भेद—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। २. वैद्यक में, चिकित्सा के ये आठ विभाग—शल्य, शालाक्य, कार्य-चिकित्सा, भूत विद्या, कौमार-भृत्य, अगद तंत्र, रसायन तंत्र और बाजीकरण। ३. शरीर के ये आठ अंग—जाँघ, पैर, हाथ, उर, सिर, वचन, दृष्टि और बुद्धि। ४. सूर्य को दिया जानेवाला वह अर्घ्य जिसमें जल, दूध, घी, शहद, दही, लाल चंदन, कनेर, और कुशा ये आठ पदार्थ होते हैं। वि० आठ अंगों या अवयवोंवाला। २. अठ-पहला।
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अष्टांग-मार्ग  : पुं० [कर्म० स०] महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित ये आठ मार्ग जो सब दुःखों का नाश करनेवाला कहे गये हैं—सम्यग्दृष्टि, सम्यक्संकल्प, सम्यग्वाक, सम्यक्कर्म, सम्यगाजीव, सम्यग्व्यायाम, सम्यक्समृति और सम्यक्समाधि।
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अष्टांग-योग  : पुं०
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अष्टांगायुर्वेद  : पुं० [अष्टांग-आयुर्वेद, कर्म० स०] दे० ‘अष्टांग’ २. ।
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अष्टांगी (गिन्)  : वि० [सं० अष्टांग+इनि] आठ अंगोंवाला।
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अष्टादश (न्)  : वि० [अष्ट-दश, द्व० स०, आत्व] अट्ठारह।
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अष्टापद  : पुं० [अष्ट-पद, ब० स०, आत्व] १. सोना। स्वर्ण, २. धतूरा। ३. मकड़ी। ४. कृमि। कीड़ा। ५. कैलाश।
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अष्टावक्र  : पुं० [स० त०, आत्व] १. वह मनुष्य जिसके हाथ, पैर आदि अंग कई जगहों से टेढ़े-मेढ़े हों। २. एक प्राचीन ऋषि जिनके अंग टेढ़े थे।
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अष्टि  : स्त्री० [सं० अस् (फेंकना)+क्तिन्, पृषो० षत्व] सोलह वर्णों का एक वृत्त जिसके कई भेद हैं।
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अष्टी  : स्त्री० [सं० अष्टि+ङीष्] दीपक राग की एक रागिनी।
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अष्ठि  : स्त्री० [सं० =अष्टि, पृषो० सिद्धि]-[वि० अष्ठिल] १. पत्थर या उसका टुकड़ा। २. कठोर खनिज पदार्थ का ढेला। ढोंका। ३. फलों के अंदर का बहुत कड़ा बीज। (स्टोन)
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अष्ठिल  : वि० [सं० अष्ठि+इलच्-] १. जो अष्ठि या पत्थर के रूप में हो। २. पत्थर की तरह कठोर। ३. जिसमें पत्थर लगे हों। ४. पत्थरों से युक्त। पथरीला।
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अष्ठीला  : स्त्री० [सं० अष्ठि√रा (देना)+क, लत्व, दीर्घ] १. मूत्राशय का एक रोग जिसमें अंदर गाँठ पड़ने के कारण मूत्र रुकने लगता है। २. गोलाकार वस्तु। ३. बिल्लौर।
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अष्ठीला-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] पेडू के अंदर मूत्राशय के पास होनेवाली एक ग्रथि या ग्रंथि-समूह जो पुरुषों में जनन-शक्ति संबंधी रस उत्पन्न करता है। [प्रॉस्टेटग्लैंड)
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अष्ठीलिका  : स्त्री० [सं० अष्ठि√रा+क, ल, दीर्घ=अष्ठील+कन्-टाप् इत्व] १. एक प्रकार का फोड़ा या व्रण। २. पत्थर का छोटा टुकड़ा। कंकड़।
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अष्षी  : स्त्री० =अक्षि (आँख)।
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अंस  : पुं० [सं० अश्व] घोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० अंश] १. अंश, भाग, हिस्सा। २. तत्त्व। ३. सारभाग। ४. कंधा। उदाहरण—अंसनि धनु सर-कर कमलनि कटि कसे हैं निखंग बनाई।—तुलसी।
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असइ  : वि० [सं० अ+सती] कुलटा। दुश्चरित्रा। उदाहरण—वाणियाँ बधू गोवाछ असइ विट।—पृथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असंक  : वि० =अशंक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असक  : वि० [हिं० असक्त] १. अशक्त। कमजोर। दुर्बल। २. अस्वस्थ। बीमार।
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असकताना  : अ० [हिं० आसकत] आसकत या आलस्य में पड़ना या उसका अनुभव करना।
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असकंदर  : पुं० =सिकंदर।
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असकन्ना  : पुं० [सं० असि-तलवार+करण=करना] एक प्रकार की रेती जिससे तलवार की म्यान का भीतरी भाग साफ किया जाता है।
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असंका  : स्त्री० =आशंका।
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असक्त  : वि० [सं० न० त०] जिसमें किसी के प्रति आसक्ति न हो। उदासीन या विरक्त। वि० =अशक्त (शक्ति-हीन)।
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असक्तारंभ  : पुं० [सं० असक्त-आरंभ, ब० स०] १. वह भूमि जिसमें बहुत थोड़े श्रम या साधारण वर्षा से अन्न पैदा होता हो। २. उक्त भूमि में होनेवाली उपज या पैदावार।
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असंक्रांत  : वि० [सं० न० त०] जिसका या जिसमें संक्रमण न हुआ हो। पुं० मुलायम। अधिक मास।
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असंख  : वि० =असंख्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असंख्य  : वि० [सं० न० ब०] [भाव० असंख्यता] १. जो गिनती में बहुत अधिक हो। २. जिसकी गिनती न हो सके। बहुत अधिक। (नम्बरलेस)
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असंख्येय  : वि० [सं० न० त०] इतना अधिक जिसकी गिनती हो ही न सकती हो। असंख्य। (इन्न्यूमरेबुल) पुं० १. शिव। २. विष्णु। ३. बहुत बड़ी संख्या।
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असंग  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके संग या साथ कोई न हो। २. जिसका कोई मित्र या संगी न हो। ३. जो किसी से मिला, लगा या सटा न हो। ४. माया रहित। पुं० १. संग या साथ न होना। २. मन की वह वृत्ति जिसमें मनुष्य सांसारिक भोग-विलास की ओर ध्यान नहीं देता। ३. पुरुष। ४. आत्मा। (सांख्य)
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असंगचारी (रिन्)  : वि० [सं० असंग√चर (गति)+णिनि] अवाधित रूप से और अकेला विचरण करनेवाला।
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असंगत  : वि० [सं० न० त०] [भाव० असंगति] १. जो किसी से मिला, लगा या सटा न हो। २. जिसकी किसी से संगति या मेल न बैठता हो। ३. जो प्रस्तुत विषय के विचार से उचित, उपयुक्त अथवा समीचीन न हो। जैसे—ये सब असंगत बातें हैं।
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असंगति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. असंगत होने की अवस्था या भाव। संगति का न होना। २. प्रस्तुत प्रसंग या विषय के अनुरूप, उपयुक्त या सटीक न होने की अवस्था या भाव। (इनकॉन्सिस्टेन्सी) ३. साहित्य में एक अलंकार जिसमें कार्य और कारण का ऐसे विलक्षण रूप से उल्लेख होता है कि दोनों में संगति नहीं बैठती; अर्थात् कारण एक जगह का या एक प्रकार का होता है और कार्य किसी दूसरी जगह का या दूसरे प्रकार का बताया जाता है। जैसे—दृग उरझत टूटत कुटुंम, जुरति चतुर संग प्रीति। परति गाँठ दुर्जन हिये दई नई यह रीति।—बिहारी।
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असंगति-प्रदर्शन  : पुं० [सं० ष० त०] तर्क करते समय अंत में कोई ऐसी बात प्रमाणित या सिद्ध कर जाना जो इष्ट या संगत न हो और फलतः जो अनुचित या दूषित हो। अनिष्ट-प्रदर्शन।
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असगंध  : पुं० [सं० अश्वगंधा] एक प्रकार की सीधी झाड़ी जिसमें छोटे गोल फर लगते है। (इसके फलों और जड़ की गिनती शक्ति वर्धक ओषधियों में होती है)।
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असंगम  : वि० [न० ब०] जो किसी से मिला या लगा न हो। अलग। पृथक्। पुं० [सं० न० त०] १. संगति या मेल का अभाव। २. मिला न होना।
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असगर  : पुं० [सं० असगर] बहुत छोटा। क्रि० वि० [हिं० अकसर-अकेला] बिना संगी-साथी के। अकेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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असंगी (गिन्)  : वि० [न० त०] १. जिसका किसी से संग या संबंध न हो। उदा०—गुरु करना बनवास बहयर आपु असंगी।—सहचरि शरण। २. किसी के संग या साथ में न रहनेवाला।
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असगुन  : पुं० [सं० अशकुन] खराब या बुरा समझा जानेवाला शकुन या आरंभिक लक्षण।
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असगुनियाँ  : वि० [हिं० असकुन+इया (प्रत्यय)] १. (व्यक्ति) जिसे देखना अशकुन या अशुभ समझा जाता हो। २. अशुकन उपस्थित करनेवाला।
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असंचय  : पुं० [न० त०] संचय का अभाव। वि० [न० ब०]=असंचयी।
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असंचयिक, असंचयी (यिन्)  : वि० [सं० न० त०] संचय न करनेवाला। जो कुछ मिले, वह सब खर्च कर देनेवाला।
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असंचर  : वि० [सं० न० ब०] (मार्ग) जिसमें संचार न हो सकता हो। अगम्य।
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असज्जन  : वि० [सं० न० त०] जो सज्जन न हो फलतः दुष्ट या नीच (जन)। पुं० दुष्ट व्यक्ति।
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असंज्ञ  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसकी कोई संज्ञा या नाम न हो। बे-नाम। २. जिसे चेतना न हो। संज्ञा-शून्य।
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असंज्ञा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. संज्ञा का अभाव। २. सामंजस्य का अभाव।
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असंज्वर  : वि० [सं० न० ब०] संज्वर (कष्ट, द्वेष, रोग आदि) से रहित।
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असढ़िया  : पुं० [सं० आषाढ़] एक प्रकार का लम्बा साँप। वि० १. आषाढ़ संबंधी। आषाढ़ मास का। २. आषाढ़ में होनेवाला।
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असण  : पुं० [सं० आषनन] गड्ढा। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असंत  : वि० [सं० अ+हिं० संत] १. जो ईश्वर-भक्त, संत या साधु न हो। २. जो सज्जन या भला न हो; अर्थात् दुष्ट या बुरा।
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असत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका अस्तित्व या सत्ता न हो, फलतः अवास्तविक। २. जो सत्य न हो, फलतः झूठा या मिथ्या।
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असंतति, असंतान  : वि० [सं० न० ब०] जिसे संतान या औलाद न हो। जिसके आगे बाल-बच्चे न हों।
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असती  : वि० [सं० असत्+ङीष्] जो सती या पवित्रता न हो अर्थात् कुटला या दुश्चचरित्रा (स्त्री० )
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असतुति  : स्त्री० =स्तुति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असंतुष्ट  : वि० [सं० न० त०] १. जो संतुष्ट न हो। अप्रसन्न या रुष्ट। २. जिसे किसी कार्य, बात आदि से संतोष न हुआ हो।
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असंतुष्टि  : स्त्री [सं० न० त०] असंतुष्ट होने की अवस्था या भाव। असंतोष।
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असंतोष  : पुं० [सं० न० त०] [वि० असंतुष्ट, असंतोषी] १. संतोष का अभाव। २. वह स्थिति जिसमें किसी काम, चीज या बात से मनुष्य का मन नहीं भरता; अथवा काम या बात यथेष्ट नहीं जान पड़ती; और इसी लिए वह खिन्न या रुष्ट हो जाता है। (डिस्सैटिस्फैक्शन)
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असंतोषी (षिन्)  : वि० [सं० न० त०] जिसका कभी संतोष न होता हो। सदा कुछ और की कामना रखनेवाला।
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असत्कार  : पुं० [सं० न० त०] १. सत्कार या उचित आदर का अभाव। २. तिरस्कार।
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असत्कृत  : भू० कृ० [सं० न० त०] जिसका असत्कार हुआ हो। अपमानित।
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असत्कृत्य  : वि० [असत्-कृत्य,ब० स०] अनुचित या बुरे कार्य या कृत्य करनेवाला। पुं० [कर्म० स०] अनुचि या बुरा काम।
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असत्ता  : स्त्री० [सं० न० त०] सत्ता का अभाव। अस्तित्व में या विद्यमान न होना। अविद्यमानता।
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असत्त्व  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें सत्त्व या सार न हो। सार-हीन। २. जो सच्चा या वास्तविक न हो।
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असत्परिग्रह  : पुं० [कर्म० स०] अनुपयुक्त वस्तु या अनुपयुक्त व्यक्ति की वस्तु ग्रहण करना। (धर्म-शास्त्र)।
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असत्य  : वि० [सं० न० त०] जो सत्य या उसके अनुरूप न हो, फलतः झूठ या मिथ्या। जैसे—असत्य कथन। पुं० १. झूठापन। झुठाई। २. झूठ बोलनेवाला व्यक्ति।
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असत्यता  : स्त्री० [सं० असत्य+तल्-टाप्] असत्य होने की अवस्था या भाव। सच्चाई न होना। मिथ्यात्त्व।
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असत्यवाद  : पुं० [ष० त०] असत्य या झूठ बोलना। मिथ्या भाषण।
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असत्यवादी (दिन्)  : वि० [असत्य√वद् (बोलना)+णिनि] असत्य बोलनेवाला। झूठा।
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असत्यशील  : वि० [ब० स०] जो अपने आचरण भाषण आदि में सत्यता का पालन न करता हो। प्रायः झूठ बोलने या झूठा आचरण व्यवहार करनेवाला।
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असत्यसंध  : वि० [न० त०] १. सत्य का ध्यान न रखने या पालन न करनेवाला। २. प्रायः धोखा देने वाला। कपटी। छली।
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असथन  : पुं० [?] जायफल। (डिं०)
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असथिर  : वि० =अस्थिर। वि० =स्थिर।
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असद  : वि० =असत्।
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असदबुद्धि  : वि० [सं० न० स०] जिसकी बुद्धि न सत् न हो। सदा खराब या बुरी बातों की ओर ध्यान रखनेवाला।
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असदवृत्ति  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसकी वृत्ति या व्यवसाय निम्न कोटि का हो। २. जो स्वभावतः बुरे या अनुचित काम करता हो दुराचारी और दुष्ट। स्त्री० [न० त०] अनुचित और दूषित वृत्ति।
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असदागम  : पुं० [सं० असद्-आगम,कर्म०स०] १. अनुचित उपायों या साधनो से होनेवाली आय। २. ऐसे शास्त्र जो वेदविरुद्ध हो और इसलिए अलद् माने जाते हों।
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असंदिग्ध  : वि० [सं० न० त०] जिसके संबंध में कोई संदेह न हो अथवा न हो सकता हो। संदेह-रहित।
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असद्  : वि० =असत्।
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असद्भाव  : पुं० [सं० न० त०] १. अस्तित्व या सत्ता का अभाव। २. अनुचित या बुरा भावना विचार। ३. अनुचित या बुरा स्वभाव।
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असद्वाद  : पुं० [ष० त०] ऐसा शास्त्रीय मत या सिद्धांत जिसमें संसार की सब चीजें असत् या मिथ्या मानी जाती हों।
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असंध  : वि० [सं० अ+संधि] १. जिसमें संधि या जोड़ न हो। २. जो मिला हुआ न हो। ३. जिसके टुकड़े न हुए हों। उदाहरण—तरवारि तोज नारेण हनि, धर असंध दुहिन धरह।—चंदवरदाई।
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असंधना  : स० [हिं० असंध] अलग, जुदा या पृथक करना। उदाहरण—अनि पंखि बंधे चक्रवाक असंधे।—प्रिथीराज। अ० अलग या जुदा होना।
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असंधि  : वि० [सं० न० ब०] (व्याकरण में ऐसे शब्द) जिसमें परस्पर संधि न हुई हो। संधि-रहति। स्त्री० [न० त०] १. संधि का अभाव। २. संपर्क या संबंद का अभाव।
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असन  : पुं० [सं० अस्(पेकना)+ल्युट्-अन] १. वाण, शस्त्र आदि फेकना या चलाना। २. एक प्रकार का वृक्ष। पुं० [सं० अशन] भोजन। आहार। खाना। उदाहरण—भीख असन, कम्मल वसन रखिहौ दूर निवास।—भारतेंदु।
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असन-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०ङीष्] सातल नामक वृक्ष।
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असना  : पुं० [सं० अशना] पीतशाल नामक वृक्ष। अ०=आसना (होना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असनान  : पुं० =स्नान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असनी  : स्त्री० =अश्विनी (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असन्निधि  : स्त्री० [सं० न० त०] १. सन्निधि या समीपता का अभाव। २. संग-साथ या घनिष्ठता न होना।
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असन्निहित  : वि० [सं० न० त०] १. जो निकट, पास या समीप न हो, फलतः दूरवर्ती या दूरस्थित। २. जो ठीक क्रम या ढंग में न रखा गया हो।
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असपति  : पुं० =अश्वपति।
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असपत्त  : पुं० [सं० अश्वपति] १. अश्वपति। २. बहुत बड़ा राजा या बादशाह। उदाहरण—गढ़ न म्हे बांध्यों गलै आवो सो असपत्त।—बाँकीदास।
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असपत्न  : वि० [सं० न० ब०] १. (स्त्री) जिसकी सौत न हो। २. (व्यक्ति) जिसका कोई प्रतिस्पर्धी या शत्रु न हो।
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असंपर्क  : पुं० [सं० न० त०] संपर्क या संबंध न होना या न रह जाना।
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असपिंड  : वि० [सं० न० त०] जो संबंध के विचार से सपिंड न हो। अर्थात् जो किसी दूसरे के कुल के पितरों को पिंड देता है। भिन्न या दूसरे वश का।
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असंपृक्त  : भू० कृ० [सं० न० त०] जो किसी के साथ मिला, लगा या सटा न हो। जिसका किसी से संपर्क न हो।
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असप्पति  : पुं० [सं० अश्वपति] १. घोड़ो का स्वामी। २. राजा। उदाहरण—जाँणों धरती काज असप्पति आहुड़इ।—ढोला मारू।
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असंप्रज्ञात  : वि० [सं० न० त०] जो अच्छी तरह से जाना हुआ न हो।
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असंप्रज्ञात-समाधि  : स्त्री० [कर्म० स,०] योग में निर्विकल्पसमाधि जिसमें ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का भेद मिट जाता है।
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असफल  : वि० [सं० न० त०] जो अपने काम या प्रयत्न में सफल न हुआ हो। विफल।
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असफलता  : स्त्री० [सं० असफल+तल्-टाप्] असफल होने की अवस्था या भाव। विफलता।
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असंबंद्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रस्तुत विषय से संबद्ध न हो। अलग। पृथक्। २. जिसका किसी तथ्य से संबंध न हो। जैसे-असंबद्ध प्रलाप।
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असंबंध  : पुं० [सं० न० त०] संबंध (लगाव) का अभाव। वि० - [न० ब०] असंबद्ध।
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असंबंधातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० असंबंध-अतिशयोक्ति, कर्म० स०] साहित्य में अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें किसी के विषय में उसेक परम योग्य या समर्थ होने पर भी इस बात का उल्लेख होता है कि वह अमुक विषय में अथवा अमुख व्यक्ति की तुलना में असमर्थ अयोग्य या हीन सिद्ध हुआ है। जैसे—अमुक राजा की दानशीलता को देखकर कल्पतरु और कामधेनु को भी दंग रह जाना पड़ा।
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असबर्ग  : पुं० [फा०] पीले या सुनहले पत्तोंवाली एक प्रकार की घास जिसका व्यवहार औषधों में होता है।
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असंबाध  : वि० [सं० न० ब०] १. जो बंधन में न हो। २. जो संकीर्ण न हो, फलतः चौड़ा या विस्तृत। ३. कष्ट-रहित। ४. सुनसान। ५. बिना बाधा का। अबाध।
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असंबाधा  : स्त्री० [सं० असंबाध-टाप्] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में मगण,तगण, नगण, सगण और दो गुरु होते है।
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असबाब  : पुं० [अ० सबब का बहु०] घर-गृहस्थी में नित्य काम आनेवाली चीजे या समान। गृहस्थी की सामग्री। जैसे—कपड़े, बरतन आदि।
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असभई  : स्त्री० =असभ्यता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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असंभव  : वि० [सं० न० ब०] [भाव० असंभवता] जो कभी घटित न हो सकता हो। जो कभी हो ही न सकता हो। पुं० एक काव्यालंकार जिसमें यह कहा जाता है कि जो बात हो गई उसका होना असंभव था।
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असंभव्य  : वि० =असंभव।
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असंभार  : वि० [सं० न० ब०] १. जो सँभाला न जा सके। २. बहुत बड़ा या भारी। पुं० [सं० न० त०] संभार या देख-रेख का अभाव।
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असंभावना  : स्त्री० [सं० न० त०] संभावना न होना। हो सकने की आशा न होना।
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असंभावनीय  : वि० [सं० न० त०]=असंभाव्य।
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असंभावित  : वि० [सं० न० त०] जिसके घटित होने की कोई संभावना (अनुमान, कल्पना आदि) न हो।
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असंभावी (विन्)  : वि० [सं० न० त०] जो भविष्य में घटने या होने को न हो। आगे चलकर न होनेवाला।
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असंभाव्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके घटित होने की कोई संभावना (आशा या कल्पना) न हो सकती हो। २. जो घटित न हो सकता हो। (इम्प्रोबेबुल)
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असंभाष्य  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिससे बात करना उचित न हो, फलतः बहुत ही तुच्छ या हीन। २. (वचन या शब्द) जो कहे जाने के उपयुक्त या योग्य न हो। पुं० अनुचित या बुरी बात।
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असंभूति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. संभूति या अस्तित्व का अभाव। अनस्तित्व। २. बार-बार जन्म न लेना। ३. संभावना का अभाव। ४. अनहोनी बात। ५. अव्याकृत प्रकृति।
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असंभोज्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके साथ बैठकर भोजन करना उचित न हो अथवा वर्जित हो।
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असभ्य  : वि० [सं० न० त०] [भाव० असभ्यता] १. जो भले आदमियों की सभा या समाज के लिए उपयुक्त या योग्य न हो। जैसे—असभ्य आचरण। २. जो सभ्य न हो। अशिष्ट या गँवार।
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असभ्यता  : स्त्री० [सं० अस्भ्य+तल्-टाप्] असभ्य होने की अवस्था या भाव। अशिष्टता। गँवारपन।
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असम  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका तल सम या एक जैसा न हो। ऊबड़-खाबड़। ऊँचा-नीचा। २. जो किसी के अनुरूप, तुल्य या सदृष न हो। ३. दे० ‘विषम’। पुं० १. एक काव्यालंकार जिसमें उपमान का मिल सकना असंभव बतलाया जाता है। २. पूर्वी भारत का एक सीमा-प्रदेश जिसे आज-कल भूल से आसाम कहा जाता है।
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असम-नेत्र  : पुं० [ब० स०] शिव।
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असम-बाण  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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असम-लोचन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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असम-वृत्त  : पुं० [कर्म० स०] वह वर्णवृत्त जिसके सब चरणों में समान गण न हों। (दे० ‘विषमवृत्त’)
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असम-शर  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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असम-शरण  : पुं० =असमशर।
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असमंजस  : स्त्री० [सं० असामंजस्य] कुछ कहने, करने आदि से पहले की वह मानसिक स्थिति जिसमें कर्त्तव्य अभी निश्चित या स्थिर न हो सका हो। दुविधा। (हेसिटेशन)
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असमंत  : पुं० [सं० अश्मंत] चूल्हा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असमत  : स्त्री० [अ० इस्मत] १. पवित्रता। २. स्त्री का सतीत्व।
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असमता  : स्त्री० [सं० असम+तल-टाप्] असम होने की अवस्था या भाव। समता का अभाव। (इनीक्वैलिटी)
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असमन  : वि० [सं० ] १. विभिन्न मार्गों या दिशाओं मे जानेवाला। २. भिन्न जाति या वर्ण का। ३. साथ मिलकर न रहनेवाला। ४. जिसे अपने साथ रखना अनुचित हो। ५. ऊबड़-खाबड़ (मार्ग आदि)।
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असमनयन  : पुं० [ब० स०] तीन आँखोंवाले अर्थात् शिव।
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असमय  : पुं० [सं० न० त०] १. खराब या बुरा समय। दुर्दिन। २. अनुपयुक्त समय या स्थिति। ३. उपयुक्त समय के पहले या बाद का समय। बे-बक्त। क्रि० वि० १. अनुपयुक्त समय में। २. समय से पहले या बाद में।
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असमर्थ  : वि० [सं० न० त०] १. जो समर्य न हो। जिसमें सामर्थ्य या शक्ति न हो। अशक्त। जैसे—वृद्धावस्था के कारण वे बहुत असमर्थ हो गये है। २. जो किसी विशिष्ट कार्य को कर सकने के योग्य न हो। जैसे—हम यह झगड़ा निपटाने में असमर्थ है।
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असमर्थ-पद  : पुं० [कर्म० स०] वह पद या शब्द जो अभीष्ट अर्थ या भाव ठीक तरह से व्यक्त न कर सके।
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असमर्थ-समास  : पुं० [कर्म० स०] व्याकरण में, ऐसा समास जिसमें अन्यव संबंधी दोष हो। जैसे—अश्राद्धभोजी या असूर्यपश्या में ‘अ’ का समास इसलिए अन्वय दोष से युक्त है कि उसका वास्तविक संबंध क्रमात् ‘श्राद्ध’ या ‘सूर्य’ से नहीं बल्कि ‘भोजी’ और ‘पश्या’ के साथ है।
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असमर्थता  : स्त्री० [सं० असमर्थ+तल्-टाप्] असमर्थ होने की अवस्था या भाव।
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असमवायि-कारण  : पुं० [सं० कर्म० स०] वैशेषिक के अनुसार ऐसा कारण जिसका कार्य से नित्य संबंध न हो, केवल आकस्मिक संबंध हो। (ऐसा कारण सदा कर्म या गुण ही होता है, द्रव्य नहीं होता) जैसे—हाथ के लगाव से मूसल का किसी वस्तु पर आघात करना, असमवायि कारण से होता है।
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असमवायी (यिन्)  : वि० [सं० सम-अव√इ(गति)+णिनि, न० त०] जो समवायी न हो, अर्थात् जिसका किसी से नित्य संबंध न हो। आनुषंगिक।
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असमस्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो समस्त या संपूर्ण न हो, फलतः आंशिक या अपूर्ण। ३. जिसमें व्याकरणवाला समाम न होता हो। समास-रहित। (शब्द वाक्य या भाषा)।
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असमान  : वि० [सं० न० त०] [भाव० असमानता] जो, किसी के समान या तुल्य न हो। समानता सं रहित। पुं० =आसमान (आकाश)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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असमानता  : स्त्री० [सं० असमान+तल्-टाप्] असमान होने की अवस्था या भाव। (डिस-पैरिटी)।
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असमाप्त  : वि० [सं० न० त०] जो अभी समाप्त हुआ न हो। जो अभी पूरा होने को हो।
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असमाप्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] समाप्त होने की अवस्था या भाव।
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असमावर्तक  : वि० [सं० न० त०] (विद्यार्थी) जिसका समावर्तन संस्कार न हुआ हो।
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असमावृत्त  : वि० [सं० न० त०]=असमावर्तक।
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असमिया  : स्त्री० वि० =असमी।
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असमी  : वि० [सं० असम (देश)] १. असम देश संबंधी। २. असम प्रदेश में होनेवाला। स्त्री० १. असम देश की भाषा। २. बँगला लिपि से मिलती-जुलती वह लिपि जिसमें उक्त भाषा लिखी जाती है। पुं० असम देश का निवासी।
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असमूचा  : वि० [सं० अ+समुच्चय] जो समूचा या पूरा न हो। अधूरा।
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असमेध  : पुं० =अश्वमेध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असम्मत  : वि० [सं० न० त०] [भाव० असम्मति] १. जो राजी न हो। २. (व्यक्ति) जो सम्मत या सहमत न हो। ३. (विषय) जो किसी की सम्मति के अनुरूप न हो। पुं० १. वह जो विरुद्ध सम्मति रखता हो। २. दुश्मन। शत्रु।
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असम्मति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. सम्मति न होने की अवस्था या भाव। सहमति या स्वीकृति का अभाव। २. अनुचित सम्मति। खराब या बुरी राय।
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असम्मर  : पुं० [सं० असि] तलवार (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असंयत  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिसेक विचार संयत न हो। २. (कार्य या व्यवहार) जो संयत न हो या जिसमें संयम का अभाव हो।
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असंयम  : पुं० [सं० न० त०] संयम का अभाव। इंद्रियों आवेगों आदि को अपने वश में न रखना।
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असयाना  : वि० [हिं० अ+सयाना] १. जो सयाना या वयस्क न हो। २. जो चुतर या होशियार न हो। भोला-भाला। ३. अनाड़ी। मूर्ख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असंयुक्त  : वि० [सं० न० त०] जो संयुक्त या मिला हुआ न हो। पुं० विष्णु।
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असंयोग  : पुं० [सं० न० त०] १. संयोग या सुयोग का अभाव। २. मेल या योग का अभाव।
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असर  : पुं० [अ०] प्रभाव।
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असरा  : पुं० [हिं० असाढ़] असम देश में होने वाला एक प्रकार का चावल।
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असरार  : क्रि० वि० [अनु० ?] निरंतर। लगातार। उदाहरण—नैनन नीर बहै असरार।—सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असल  : वि० [अ० अस्ल] १. जो प्राकृतिक, वास्तविक या स्वाभाविक हो, कृत्रिम या बनावटी न हो। वास्तविक। जैसे—असल सोना। २. जैसा नियमित रूप से या सदा से होता आया हो, वैसा। ३. जिसमें बनावट या मिलावट न हो। जैसे—असल घी या तेल। ४. जिसकी उत्पत्ति, मूल आदि में संकरता न हो। जैसे—असल ब्राह्मण या वैश्य। पुं० १. जड़। बुनियाद। मूल। २. मूलधन, जिसपर सूद चढ़ता या लाभ मिलता हो। पुं० [देश०] एक प्रकार का लंबा झाड़।
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असलियत  : स्त्री० [अ० अस्लियत] १. ‘असल होने की अवस्था या भाव। वास्तविकता। २. उत्पत्ति या उद्गम अथवा उसका साधन। किसी बात की जड़ या मूल। ३. मूल तत्त्व। सार।
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असली  : वि० [अ० अस्ल] =असल।
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असलेऊ  : वि=असह्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असलेखम  : पुं०=श्लेषमा। (कफ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असलेखा (षा)  : स्त्री०=अशलेषा (नक्षत्र)।
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असवर्ण  : वि० [सं० न० त०] १. जो परस्पर सवर्ण अर्थात् एक ही समान वर्ण के न हों। भिन्न जाति या वर्ण का। २. जो एक ही या समान प्रकार के न हों।
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असवर्ण-विवाह  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा विवाह जिसमें वर एक वर्ण का तथा कन्या दूसरे वर्ण की हो। (एक्सोगैमी) जैसे—क्षत्रिय और वैश्य अथवा ब्राह्मण में होनेवाला विवाह।
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असवार  : पुं० =सवार।
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असवारी  : स्त्री० =सवारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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असंवृत  : वि० [सं० न० त०] जो संवृत या ढका हुआ न हो। खुला हुआ। पुं० एक नरक का नाम।
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असंशय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके मन में संशय न हो। २. जिसके विषय में संशय न हो। क्रि० वि० निस्संदेह। बेशक। पुं० [न० त०] संशय का अभाव।
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असंसक्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. संसक्ति या लगाव न होना। २. सांसारिक विषय वासनाओं से अलग और निर्लिप्त रहना।
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असंसारी (रिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. संसार की सब बातों से अलग रहनेवाला। विरक्त। २. जो संसार में न होता हो, अर्थात् अलौकिक या स्वर्गीय।
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असंस्कृत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका संस्कार या सुधार न हुआ हो। अपरिमार्जित। २. हिन्दूधर्म शास्त्र के अनुसार जिसके संस्कार (मुंडन, यज्ञोपवीत आदि) न हुए हो। व्रात्य। ३. असभ्य। अशिष्ट।
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असंस्थान  : पुं० [सं० न० त०] १. संस्थान या अच्छी स्थिति न होना। २. अव्यवस्था। ३. क्र्म या सिलसिले का अभाव। ४. न्यूनता। कमी।
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असंस्थित  : वि० [सं० न० त०] १. जो संस्थान से युक्त (व्यवस्थित या क्रमबद्ध) न हो। क्रम-रहित। २. जो एक स्थान पर न रहकर बराबर घूमता रहता हो। ३. जो एकत्र न किया गया हो। फैला या बिखरा हुआ। ४. जो पूरा-पूरा न हुआ हो। अधूरा। अपूर्ण।
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असंस्थिति  : स्त्री० [सं० न० त०]=असंस्थान।
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असह  : वि० =असह्म। पुं० शत्रु। दुश्मन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असहकार  : पुं० [सं० न० त०] सहकार या सहयोग का अभाव। औरों के साथ मिलकर काम न करना।
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असंहत  : वि० [सं० न० त०] १. जो संहत (जुड़ा या मिला हुआ) न हो। असंयुक्त। २. किसी प्रकार का संबंध या परिचय न रखनेवाला। ३. एक में मिलकर न रहनेवाला। ४. बिखरा हुआ। पुं० १. पुरुष या आत्मा। (सांख्य) २. एक प्रकार की व्यूह रचना जिसमें सैनिकों की टुकड़ियाँ अलग-अलग रखी जाती है। अस
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असहन  : वि० [सं०√सह् (सहना)+ल्युट्-अन, न० त०] सहन न करनेवाला। असहिष्णु। वि० =असह्म। उदाहरण—ज्योति सिधु ज्वाल असहन। निराला। पुं० शत्रु। दुश्मन।
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असहनशील  : वि० [सं० न० त०] व्यावहारिक दृष्टि से जो सहनशील न हो। बरदाश्त न करनेवाला। असहिष्णु।
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असहनीय  : वि० [न० त०] =असह्म।
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असहयोग  : पुं० [सं० न० त०] [वि० असहयोगी] १. औरों के साथ मिलकर काम न करने की क्रिया या भाव। २. सहयोग का अभाव। विशेषतः शासन से संतुष्ट होकर अपना विरोध दिखलाने के लिए उसके साथ मिलकर काम न करने उसकी संस्थाओं में सम्मिलित न होने और उसके पद आदि ग्रहण न करने का सिद्धांत। (नॉन-कोआपरेशन)
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असहाय  : वि० [सं० न० ब०] जिसकी सहायता करनेवाला कोई न हो। फलतः अनाथ और विवश। (हेल्पलेस)
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असहिष्णु  : वि० [सं० न० त०] [भाव० असहिष्णुता] सामाजिक व्यवहारों में जो सहिष्णु या सहनशील न हो। असहनशील।
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असहिष्णुता  : स्त्री० [सं० असहिष्णु+तल्-टाप्] असहिष्णु होने की अवस्था या भाव।
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असही  : वि० १. =असहिष्णु। २. =असह्म। ० [?] कंघी नामक पौधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असहेज  : वि०=असह्म। उदाहरण—समुद्र तेज असहेज हरम तम रोर समागम।—चंदवरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असह्म  : वि० [सं० न० त०] (कोई ऐसा तत्त्व, बात या व्यवहार) जो सहनशक्ति की मर्यादा या सीमा के परे हो, जो सहा न जा सके, फलतः बहुत उग्र या तीव्र या विकट। जैसे—असह्म अत्याचार असह्म ताप, असह्म व्यवहार आदि। पुं० [?] हृदय। (डिं०)
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असा  : पुं० [अ०] १. डंडा या सोटा, विशेषतः जिस पर सोने-चाँदी के पत्तर चढ़े हो। (सवारी के आगे शोभा के लिए) २. दे० आसा। वि०=ऐसा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असा-बरदार  : पुं० [अ०+फा०] राजा महाराजाओं के आगे या बरात के साथ असा लेकर चलनेवाला नौकर।
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असाई  : वि० [सं० अशास्त्रीय] १. अशास्त्रीय। शास्त्र-विरुद्ध। २. जिसे शास्त्र आदि का अथवा किसी अच्छी बात का कुछ भी ज्ञान न हो। (उपेक्षा सूचक) उदाहरण—बोला गंधुबसने रिसाई कस जोगी कस भाँट असाई।—जायसी।
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असाक्षिक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जिसकी साक्षी या गवाही देनेवाला कोई न हो। बिना गवाह का। २. जिसे सत्यापित या सिद्ध करनेवाला कोई न हो।
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असाक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० न० त०] १. जो साक्षी अर्थात् प्रत्यक्षदर्शी न हो। २. वह जिसकी साक्षी या गवाही धर्म-शास्त्र के विधि के अनुसार मान्य न हो। जैसे—चोर, पागल, शराबी आदि।
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असाक्ष्य  : पुं० [सं० न० त०] १. साक्ष्य या गवाही का अभाव। २. कोई गवाह न मिलना या न होना।
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असांच  : वि० [सं० असत्य, प्रा० असच्च] जो साँच अर्थात् सत्य न हो, फलतः जूठा या मिथ्या।
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असाढ़  : पुं० =आषाढ़ (मास)।
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असाढ़ा  : पुं० [देश०] १. महीन बटे हुए रेशम का तागा। २. कच्ची चीनी। खाँड।
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असाढ़ी  : वि० [सं० अषाढ़] आषाढ़ मास में होने या उससे संबंध रखनेवाला। स्त्री० १. आषाढ़ मास की पूर्णिमा। २. असाढ़ महीने में बोई जानेवाली फसल। खरीफ।
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असाढ़ू  : पुं० [देश०] वास्तु में, एक प्रकार का मोटा, बड़ा और भारी पत्थर।
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असात्म्य  : पुं० [सं० सह-आतमन्, ब० स०, स आदेश, सात्मन्+ष्यञ्, न० त०] १. जो आरोग्यजनक या स्वास्थ्यकर न हो। २. जो व्यक्ति की प्रकृति या स्वभाव के अनुकूल न हो।
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असाध  : वि० =असाध्य। पुं०=असाधु। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असाधन  : वि० [सं० न० ब०] जिसके पास साधन न हो। पुं० १. साधनों का अबाव। २. अनुचित या अनुपयुक्त साधन।
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असाधारण  : वि० [सं० न० त०] [भाव० असाधारणता] १. जो साधारण न हो। जिसमें साधारण (गुण आदि) की अपेक्षा कुछ विशेषता हो, अर्थात् विशेष। (एक्स्ट्रा-आर्डिनरी) २. दे० ‘असामान्य’।
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असाधारण-धर्म  : वि० [कर्म० स०] १. साधारण धर्म को छोड़ने पर अन्त में बच रहनेवला धर्म। २. वस्तु का मुख्य धर्म। विशेषता।
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असाधि  : वि,०=असाध्य। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असाधित  : वि० [सं० न० त०] जिसकी साधना न की गई हो। बिना साधा हुआ (काम)।
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असाधु  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जो साधु या भला (आदमी) न हो, फलतः दुष्ट या बुरा। २. (प्रयोग या शब्द) जो अनुचित या अप्रामाणिक या अस्वीकृत होने के कारण शिष्ट-सम्मत न हो।
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असाधुता  : स्त्री० [सं० असाधु+तल्-टाप्] असाधु होने की अवस्था या भाव।
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असाध्य  : वि० [सं० न० त०] [भाव० असाध्यता] १. जो साध्य अर्थात् करने योग्य न हो। जिसका साधन न हो सके। जिसकी प्राप्ति या सिद्धि न हो सके। न हो सकनेवाला। (इनसर्माउन्टेबुल) २. (रोग) जिसका चिकित्सा द्वारा निवारण न हो सके। अ-चिकित्स्य। ३. (रोगी) जिसे चिकित्सा से अच्छा न किया जा सके। (इनक्योरेबुल) ४. जिसपर अधिकार या विजय पाना संभव न हो।
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असाध्य-साधन  : पुं० [सं० ] ऐसा काम करना जो साधारणयतः असाध्य समझा जाता हो।
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असाध्वी  : वि० [सं० न० त०] १. (स्त्री० ) जो साध्वी या सच्चरित्रा न हो, अर्थात् कुलटा या दुराचारिणी। २. (स्त्री) जो भद्र न हो। अर्थात् दुष्ट।
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असांप्रदायिक  : वि० [सं० न० त०] (व्यक्ति मत या सिद्धांत) जिसका किसी संप्रदाय से संबंध न हो।
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असामयिक  : वि० [सं० न० त०] जो सामयिक अर्थात् प्रस्तुत समय के अनुकूल या उपयुक्त न हो। (अन-टाइमली)
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असामर्थ्य  : स्त्री० [सं० न० त०] सामर्थ्य या शक्ति का अभाव। वि०=असमर्थ।
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असामान्य  : वि० [सं० न० त०] जो सामान्य से भिन्न हो। जिसमें सामान्य की अपेक्षा कुछ विशिष्ट गुण आदि हो। (अन-कॉमन)।
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असामी  : पुं० [अ०] १. आदमी। मनुष्य। २. वह जिसके साथ किसी प्रकार के लेन-देन का व्यवहार होता हो। ३. जिससे किसी प्रकार का आर्थिक लाभ होता हो या प्रायः कुछ स्वार्थ सिद्ध होता रहता हो। जैसे—उन्हें तो प्रायः कोई न कोई असामी मिल ही जाता है। ४. वह जिसके जिम्मे कुछ रकम बाकी हो, अथवा जिससे कुछ प्राप्य हो। देनदार। ५. पुरानी जमीदारी प्रथा में, वह छोटा काश्तकार जो लगान देकर जमीदार का खेत जोतता-बोता था। (टेनेन्ट) ६. पुलिस और न्यायालय की परिभाषा में अपराधी या अभियुक्त। जैसे—असामी हिरासत से भाग गया। स्त्री० १. जगह या पद जिसपर काम करनेवाले को वेतन मिलता हो। जैसे—दफ्तर में एक असामी खाली है। २. नौकरी। ३. रखेली। (क्व०)
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असार  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कोई सार या तत्त्व न हो। २. शून्य। खाली। ३. तुच्छ। ४. पोला। ५. निरर्थक। निकम्मा। ६. बेदम। पुं० १. सार या तत्त्व से रहित पदार्थ। २. रेंड का वृक्ष। ३. अगरु चंदन। पुं० =असवार (सवार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असारता  : स्त्री० [सं० असार+तल्-टाप्] १. असार या साररहित होने की अवस्था या भाव। सारहीनता। २. तुच्छता।
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असालत  : स्त्री० [अ०] १. ‘असल’ होने की अवस्था या भाव। असलियत। वास्तविकता। २. उद्गम, मूल आदि के विचार से होनेवाली प्रामाणिकता। ३. कुलीनता।
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असालतन  : क्रि० वि० [अ०] १. व्यक्तिगत रूपसे। स्वयं। खुद। जैसे—अदालत में असालतन हाजिर होना। २. असल या वास्तविक दृष्टि अथवा विचार से।
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असाला  : स्त्री० [सं० असालिका] चंसुर नामक पौधा।
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असावधान  : वि० [सं० न० त०] जो सावधान न हो। लापरवाह।
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असावधानता  : स्त्री० [सं० असावधान+तल्-टाप्] असावधान होने की अवस्था या भाव। बेपरवाही। (इन्एडवर्टेन्स)
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असावधानी  : स्त्री० [सं० असावधानीत्व]=असावधानता।
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असावरी  : स्त्री०=आसावरी (रागिनी)।
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असांसद  : वि० [सं० संसद्+अण्, न० त०] (कथन या व्यवहार) जो संसद या उसके सदस्यों की मर्यादा के अनुकूल न हो। (अन-पार्लियामेन्टरी)
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असासा  : पुं० [अ० असासः] १. घर-गृहस्थी में काम आनेवाली सब चीजें। २. माल असबाब। ३. सारी संपत्ति।
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असि  : स्त्री० [सं०√अस् (फेंकना)+इन्] १. तलवार। २. खडंग। ३. भुजाली। ४. श्वास। ५. दे०असी। अ० हिं० असना (होना) क्रिया का पूर्वकालिक रूप (उदा० दे० हसि में जो इसका स्थानिक रूप है)।
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असि-दंत  : पुं० [सं० ब० स०] मगर। घड़ियाल।
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असि-धेनु  : स्त्री० [ब० स०] छूरा। छुरी।
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असि-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. ईख। २. तलवार की म्यान। ३. दे० ‘असिपत्र वन’।
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असि-पुत्री  : स्त्री० [ष० त०] छुरी।
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असिक  : पुं० [सं० असि+कन्] १. होठ और ठुड्डी के बीच का गहरा भाग। चिबुक। २. एक प्राचीन देश का नाम।
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असिक्नी  : स्त्री० [सं० असित+ङीष्, क्न आदेश] १. पंजाब की चिनाब नदी का पुराना नाम। २. वीरण प्रजापित की कन्या। ३. अंतःपुर में रहनेवाली युवा दासी।
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असिजीवी (विन्)  : वि० [सं० असि√जीव् (जीना)+णिनि] जिसकी जीविका असि या तलवार से चलती हो अर्थात् सिपाही या सैनिक।
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असित  : वि० [सं० न० त०] [भाव० असिता] १. जो सित या सफेद न हो। काला। २. दुष्ट। बुरा। ३. टेढ़ा। कुटिल। ४. नीला। पुं० १. देवल नामक ऋषि का एक नाम। २. राजा भरत का एक पुत्र। ३. शनि। ४. पिंगला नामक नाड़ी। ५. धौ का पेड़। ६. काला या नीला रंग। ७. कृष्णपक्ष।
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असित-गिरि  : पुं० [कर्म० स०] नीलगिरि नामक पर्वत।
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असित-ग्रीव  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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असिता  : स्त्री० [सं० असित+टाप्] १. यमुना नदी। २. नीली नामक पौधा।
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असितांग  : वि० [असित-अंग, ब० स०] १. काले अंगोवाला। २. काले रंग का। पुं० शिव का एक रूप।
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असितोत्पल  : पुं० [सं० असित-उत्पल, कर्म० स०] नील कमल।
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असितोपल  : पुं० [सं० असित-उपल, कर्म० स०] नीलम।
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असिद्ध  : वि० [सं० न० त०] [भाव० असिद्धि] १. जो नियम, प्रमाण सिद्धांत आदि से ठीक या पूरा सिद्ध न होता हो। जैसे—शब्द का असिद्ध रूप। २. जिसने अभी तक सिद्धि प्राप्त न की हो। ३. (अन्न या फल) जो कभी आग पर न पका हो। कच्चा। ४. अपूर्ण। अधूरा। ५. व्यर्थ। पुं० एक प्रकार का बड़ा और ऊँचा वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम में आती है।
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असिद्धि  : स्त्री० [सं० न० त०] १. असिद्ध होने की अवस्था या भाव। अर्थात् कच्चापन। कचाई। २. अपूर्णता।
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असिधाराव्रत  : पुं० [सं० असि-धारा, ष० त० असिधारा-व्रत, मध्य० स०] १. ऐसा कठोर व्रत जो तलवार की धार पर चलने के समान हो। २. एक प्राचीन प्रथा या व्रत जिसमें पति और पत्नी इसलिए बीच में नंगी तलवार रखकर इसलिए सोते थे कि रात में भूल से भी परस्पर अंग स्पर्श न होने पावे।
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असिपत्र-वन  : पुं० [ष० त०] शरीर के अंदर का साँस लेने का मार्ग।
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असिव  : वि० =अशिव (अशुभ) उदाहरण—ऐसे असिव असवार अग्गोल गोल, भिरे भूप सुतते अमोले।—चंदवरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असीन  : पुं० [देश] सज नामक वृक्ष।
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असीम  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसकी कोई सीमा न हो। सीमा रहित। (लिमिटलेस) २. जिसे सीमा में बाँधा न जा सकता हो। ३. बहुत अधिक। अपार। ४. अनंत और परम। (एब्सोल्यूट)
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असीमित  : वि० [सं० न० त०] १. जो सीमित न हो अर्थात् असीम। २. जिसकी सीमा निर्धारित न की गई हो। (अन-लिमिटेड)
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असीम्य  : वि० [सं० सीमा+यत्, न० त०] जिसकी सीमा निर्धारित या निश्चित न की जा सकती हो। (इल्लिमिटेबुल)
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असीर  : पुं० [फा०] वह जो कैद में हो। बंदी। कैदी।
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असील  : वि० [अ०] १. अच्छे और ऊँचे परिवार या वंश का। कुलीन। २. उत्तम और शांत स्वभाव का। सुशील।
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असीस  : स्त्री [सं० आशिष] किसी पूज्य या बड़े व्यक्ति से वर के रूप में प्राप्त होनेवाली शुभ कामना। आशीर्वाद। उदाहरण—दै असीम सुरमा चली हरषि चले हनुमान।—तुलसी।
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असीसना  : स० [हिं० असीस] असीस या आशीर्वाद देना।
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अंसु  : पुं०=अंशु (किरण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असु  : पुं० [सं०√अस् (फेंकना)+उन्] [वि० भाव० आसव] १. प्राणवायु। २. प्राण। ३. उतना समय जितना एक बार साँस लेने में लगता हो। ४. एक पल का छठा भाग। ५. हृदय। ६. मन में उठनेवाला विचार। ७. जल। पानी। ८. गरमी। ताप। पुं० [सं० अश्व] घोड़ा। उदाहरण—असु दल जग-दल दूनौ साजै। औ घन तबल जुझाऊ बाजे।—जायसी। क्रि० वि० [सं० आशु] जल्दी। शीघ्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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असु-विलास  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का छंद या वृत्त।
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अँसुआ  : पुं०=आँसू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अँसुआना  : अ० [सं० अश्रु] आँखों में आँसू भर आना। आँख डबडबा जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असुख  : पुं० [सं० न० त०] १. सुख का अभाव। २. कष्ट। दुःख। वि० [सं० न० ब०] १. कष्ट या दुःख उत्पन्न करनेवाला। २. परिश्रम-साध्य। कठिन।
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असुग  : वि० =आशुग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असुचि  : वि० =अशुचि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असुत्त  : वि० [सं० असुप्त] जो सोया न हो। स्त्री० [सं० शुक्ति] सीपी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असुंदर  : वि० [सं० न० त०] १. जो सुंदर न हो। कुरूप या भद्दा। २. जो उपयुक्त या ठीक जान न पडता हो। अशोभन।
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असुन  : पुं० [सं० असु] अंतःकरण। हृदय। उदाहरण—असुन तरवत अड़ि आसना पिड झरोखे नूर।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असुनी  : स्त्री० =अश्विनी (नक्षत्र)।
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असुपति  : पुं० =अश्वपति।
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असुभ  : वि० =अशुभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असुभृत्  : पुं० [असु√भू (धारण)+क्विप्] जीवधारी। प्राणी।
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असुमान (मत्)  : पुं० [सं० असु+मतुप्] जीवधारी। प्राणी।
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असुमेघ  : पुं० =अश्वमेघ।
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असुर  : पुं० [सं०√अस् (दीप्ति)+उर] १. वैदिक काल में वह जो सुर या देवता न हो, बल्कि उनसे भिन्न और उनका विरोधी हो। २. प्राचीन पौराणिक कथाओं के अनुसार दैत्य या राक्षस। ३. इतिहास और पुरातत्त्व से आधुनिक असीरिया देश के उन प्राचीन निवासियों की संज्ञा जिन्हें उन दिनों ‘असर’ कहते थे और जिनके देश का नाम पहले असुरिय आधुनिक असीरिया था। ४. नीच वृत्तिवाला और असंस्कृत पुरुष। ५. एक प्रकार का उन्माद जिसमें रोगी, गुरु देवता ब्राह्मण आदि की निंदा करता और उन्हें भला-बुरा कहने लगता है। ६. राहु। ७. रात्रि। रात। ८. बादल। मेघ। ९. पृथ्वी। १. सूर्य। ११. समुद्री नमक। १२. देवदार नामक वृक्ष। वि० १. अपार्थिव। अलौकिक। २. जीवित। ३. ब्रह्म और वरुण का एक विशेषण।
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असुर-कुमार  : पुं० [ष० त०] जैनशास्त्रानुसार एक त्रिभुवनपति देवता।
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असुर-गुरु  : पुं० [ष० त०] शुक्राचार्य।
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असुर-राज  : पुं० [ष० त०] राजा बलि।
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असुर-रिपु  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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असुर-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] वह विद्या या शास्त्र जिसमें भिन्न-भिन्न देशों की अनुश्रुतियों के आधार पर असुरों या राक्षसों और उनके कार्यों आदि का अध्ययन या विवेचन होता है। (डेमनालोजी)
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असुर-सूदन  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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असुरा  : स्त्री० [सं० असुर+टाप्] १. रात्रि। २. राशि। ३. वेश्या।
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असुराई  : स्त्री० [सं० असुर] १. असुरों का सा क्रूर आचरण व्यवहार या स्वभाव। २. परले सिरे की दुष्टता और राक्षसी निदर्यता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असुराचार्य  : पुं० [सं० असुर-आचार्य, ष० त०] १. शुक्राचार्य। २. शुक्र ग्रह।
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असुराधिप  : पुं० [सं० असुर-अधिप, ष० त०] राजा बलि।
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असुरारि  : पुं० [सं० असुर-अरि, ष० त०] १. विष्णु। २. देवता।
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असुरी  : स्त्री० [सं० असुर+ङीष्] १. राक्षसी। २. राई।
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अँसुवा  : पुं०=आँसू।
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असुविधा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. सुविधा या सुभीता न होना। सुविधा का अभाव। २. किसी काम में होनेवाली अड़चन या बाधा। कठिनाई। दिक्कत।
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असुस्थ  : वि० [सं० सु√स्था (ठहरना)+क, न० त०]=अस्वस्थ।
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असुहाता  : वि० स्त्री० [अ=नहीं,+सुहाना] [स्त्री० असुहाती] न सुहाने या अच्छा न लगनेवाला अर्थात् अप्रिय, कटु या बुरा।
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असूझ  : वि० [हिं० अ=नहीं+सूझना] १. जो जहाँ या जिसमें कुछ भी न सूझे या न दिखाई दो। २. (विस्तार) जिसका आर-पार दिखाई न दो। अपार। ३.(कार्य) जिसे पूरा करने का उपाय न दिखाई दे। बहुत कठिन या दुष्कर। ४. (बात या विषय) जिसकी ओर ज्लदी किसी का ध्यान न जाए। ५. (व्यक्ति) जिसे दिखाई न देता हो। अंधा। ६. मूर्ख। पुं० १. सूझ का अभाव। २. अँधकार। अँधेरा।
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असूत  : वि० [सं० अस्यूत] १. विपरीत। विरुद्ध। २. असंबद्ध। असंगत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असूतिका  : वि० स्त्री० [सं० न० त०] १. जिसे बच्चा न जना हो। २. बंध्या। बाँझ।
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असूयक  : वि० [सं०√असू (बुराई करना)+यक्+ण्वुल्-अक] १. जो दूसरों से असूया करता हो। २. जिसे दूसरे के दोष ही दिखाई देते हों। ३. प्रायः ईर्ष्या निंदा आदि करनेवाला। (स्पाइटफुल)
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असूया  : स्त्री० [सं० असू+यक्+अ-टाप्] १. मन की वह वृत्ति जिससे दूसरों के दोष दिखाई देते हों और गुण, सुख आदि सहन न किये जा सकते हों। (स्पाइट) २. ईर्ष्या। जलन। (जेलसी) ३. क्रोध। रोष। ४. साहित्य में एक संचारी भाव जिसमें किसी के सुख को न सहकर उसे हानि पहुँचाने का विचार होता है।
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असूयिता (तृ)  : वि० [सं०√असू+यक्+तृच्]=असूयक।
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असूयु  : वि० [सं०√असू+यक्+उन्]=असूयक।
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असूर्यपश्य  : वि० [सं० सूर्य√दृश् (देखना)+खश्, मुम्, न० त०] [स्त्री० असूर्यपश्या] जिसने कभी सूर्य तक हो न देखा हो। (प्रायः अपने स्त्री रूप में बहुत अधिक परदे में रहनेवाली स्त्रियों के लिए प्रयुक्त)।
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असूर्यंपश्या  : स्त्री० [सं० असूर्यपश्य+टाप्] १. बहुत बड़े राजा की (कड़े परदे में रहनेवाली) रानी। २. पतिव्रता स्त्री।
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असूल  : पुं० [अ० उसूल] पक्का नियम या सिद्धांत जिसका पालन आवश्यक हो। वि०=वसूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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असृक् (ज्)  : पुं० [सं०√सृज् (त्याग)+क्विप्, न० त०] १. खून। रक्त। २. केसर। ३. मंगल ग्रह। ४. ज्योतिष में एक योग।
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असृक्-ग्रह  : पुं० [कर्म० स०] मंगलग्रह।
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असृक्-पात  : पुं०=रक्तपात।
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असृक्-स्राव  : पुं० [ष० त०] रक्त-स्राव।
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असृग्वहा  : स्त्री० [सं० अस्सृज्√वह (ढोना)+अच्-टाप्] रक्तवाहिनी नाड़ी।
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असेग  : वि=असहाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असेचन  : वि० [सं०√सिच् (तृप्ति)+ल्युट्-अन, न० ब०] १. जिसे देखने से तृप्ति न हो, अर्थात् परम सुदंर। वि० [न० त०] सेचन का अभाव।
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असेचनक  : वि० [सं० असेचन+कन्] असेचन।
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असेचनीय  : वि० [सं०√सिच्+अनीयर्, न० त०] १. जो सींचा जाने को न हो। २. जिसे सींचना उचित न हो।
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असेत  : वि० [हिं० अ+सेत-श्वेत] १. जो श्वेत या सफेद न हो। सफेद से भिन्न। २. काला। कृष्ण।
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असेवन  : वि० [सं० न० ब०] १. सेवा न करनेवाला। २. उपासना या आराधना न करनेवाला। ३. अभ्यास न करके परित्याग करनेवाला। पुं० [न० त०] सेवन का अभाव। व्यवहार में न लाना। त्याग।
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असेवा  : स्त्री० [सं० न० त०] (रोगी आदि की) सेवा-शुश्रुषा का उपेक्षा जन्य अभाव।
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असेवित  : भू० कृ० [सं० न० त०] १. (पदार्थ) जिसका सेवन न हुआ हो या न किया गया हो। २. जो व्यवहार में न लाया गया हो। ३. जिसकी ओर ध्यान न दिया गया हो। उपेक्षित। ४. जिसकी सेवा शुश्रूषा न की गई हो।
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असेस  : वि०=अशेष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असेसर  : पुं० [अ०] १. वह व्यक्ति जो फौजदारी मुकदमा सुनकर उसके संबंध में जज को अपना मत बतलाने के लिए चुना जाता है। २. वह जो बही-खाता जाँचकर महसूल या कर की रकम निश्चित करता है। ३. वह जो जमीन का या उपज का मूल्य आँककर लगान या मालगुजारी की रकम निश्चित करता है।
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असेसह  : वि० =अशेष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असै  : स्त्री० [सं० अ+सती] असाध्वी स्त्री। कुलटा। क्रि० वि०=ऐसे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असैनिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो सिपाही या सैनिक न हो। २. जिसका संबंध सेना से न हो। ३. जो सैनिक से भिन्न हो।
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असैनिकीकरण  : स्त्री० [सं० सैनिक+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्-अन० न० त०] किसी क्षेत्र या देश को सेनाओं या सैनिक-बल से रहित करना। (डिमिलिटराइजेशन)
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असैला  : वि० [सं० अ+शैली-रीति] [स्त्री० असैली] १. नीति, रीति आदि का पालन न करनेवाला अथवा उनका उल्लंघन करनेवाला। २. अनुचित या बुरे मार्ग पर चलनेवाला। कु-मार्गी। ३. जो प्रचलित परिपाटी या शैली के विरुद्ध हो। ४. अनुचित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असों  : क्रि० वि० [सं० अस्मिन्] इस वर्ष में। इस साल में।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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असोक  : वि० पुं० =अशोक।
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असोकी  : वि० =अशोक (जिसे शोक न हो)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असोच  : वि० [सं० अ+शोच] जिसे किसी प्रकार की सोच या चिंता न हो, फलतः निश्चित या बेफिक्र। पुं० चिंता या सोच का न होना। वि० [सं० अशुचि] अपवित्र। अशुद्ध। उदाहरण—हौ असोच अकृत अपराधी संमुख होत लजाऊँ।—सूर।
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असोज  : पुं० [सं० अश्वयुज्] आश्विन या क्वार नाम का महीना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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असोढ़  : वि० [सं०√सह् (सहना)+क्त, न० त०] १. असह्म। २. उद्दंड। उद्धत।
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असोधित  : भू० कृ० [सं० न० त०] जिसका शोधन न हुआ हो। बिना साफ किया हुआ।
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असोरा  : पुं०=ओसारा। (मिथिला)।
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असोस  : वि० [सं० अ+शोष] १. जो सोखा न जा सके। २. जल्दी न सूखनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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असौच  : पुं० =अशौच।
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असौध  : पुं० [सं० अ-नहीं+हिं० सौध-सुंगध] १. सौध या गंध का अभाव। २. दुर्गध। बदबू।
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असौधा  : वि० [हिं० असौंध] बदबूदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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असौम्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका संबंध मोम या उसके रस से न हो। २. जो सौम्य (नम्र या सुशील) न हो। क्रूर स्वभाववाला। ३. अप्रिय। ४. कुरूप। भद्दा।
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अस्क  : पुं० [देश०] नाक में पहनने की बुलाक। (नैनीताल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्कन्न  : वि० [सं०√स्कन्द् (गति)+क्त, न० त०] १. जो टूटा-फूटा या फटा न हो। २. जो उँडेला न गया हो। ३. जिसपर आवरण न पड़ा हो। ४. अधिक समय तक ठहरनेवाला। टिकाऊ।
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अस्खल  : पुं० [सं०√स्खल् (संचयन)+अच्, न० त०] अग्नि।
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अस्खलित  : वि० [सं० न० त०] १. जो स्खलित न हुआ हो या न होता हो। फलतः अपनी ठीक जगह पर स्थिर रहने या होनेवाला। २. ठीक मार्ग पर चलनेवाला। ३. जो क्षुब्ध या व्याकुल न हुआ हो। ४. (उच्चारण) जिसमें तनिक भी भूल-चूक या अंतर न हो।
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अस्त  : भू० कृ० [सं०√अस् (फेंकना)+क्त] १. जिसकी अवनति पतन या ह्रास हो चुका हो। २. जो अदृश्य ओझल या तिरोहित हो गया हो। ३. (तारा, नक्षत्र या कोई आकाशस्थ पिंड) जो दृष्टि-पथ के बाहर चला गया हो। पुं० १. अवनति, पतन या ह्रास। २. अंत, समाप्ति या नाश। ३. आँखों से ओझल या तिरोहित होना। ४. कुंडली में लग्न से सातवाँ स्थान।
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अस्त-काल  : पं० [ष० त०] [वि० अस्तकालीन] १. किसी ग्रह या नक्षत्र के विचार से वह समय जब वह दृष्टि-पथ के बाहर हो जाता है। २. किसी बात, वस्तु या व्यक्ति के विचार से वह समय जब कि उसके प्रताप महत्त्व वैभव आदि की समाप्ति या अंत होता हो।
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अस्त-गमन  : पुं० [स० त०] १. अवनति या ह्रास की ओर चलना। २. आँखों से ओझल होना। ३. मृत्यु। ४. अंत या नाश।
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अस्त-गिरि  : पुं० [ष० त०] पश्चिम का वह पर्वत जिसके पीछे सूर्य का अस्त होना माना जाता है।
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अस्त-भवन  : पुं० [ष० त०] ज्योतिष में, उदय के लग्न से सातवाँ लग्न।
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अस्त-मस्तक  : पुं० [ष० त०] अस्ताचल का शिखर।
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अस्त-व्यस्त  : वि० [सं० द्व० स०] १. इधर-उधर बिखरा हुआ। तितर-बितर। २. जिसका क्रम या व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी हो।
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अस्तंगत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. जो अस्त हो चुका हो। जैसे—अस्तंगत सूर्य। २. जो अवनत होकर प्रायः नष्ट हो चुका हो।
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अस्तन  : पुं०=स्तन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्तनी  : स्त्री० [सं० न० ब० ङीष्] वह स्त्री जिसके स्तन बहुत छोटे-छोटे हों।
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अस्तबल  : पुं० [अ० अस्तबल] वह स्थान जहाँ घोड़े बाँधे जाते है। गुड़साल। तबेला। (स्टेबल)।
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अस्तब्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो स्तब्ध न हुआ हो, फलतः अस्थिर, चंचल या विकल। २. विनय-शील। विनयी।
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अस्तमती  : स्त्री० [सं० अस्तम्√अत्(निरंतर गति)+अच्-ङीष्] शालपर्णी।
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अस्तमन  : पुं० [सं० अस्तम्√अन्(जीना)+अप्] [भू० कृ० अस्तमित] १. ग्रहों आदि का अस्त होना। २. प्रताप, वैभव आदि का अंत होना।
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अस्तमन-नक्षत्र  : पुं० [ष० त०] वह नक्षत्र जिसके पास तक पहुँचकर कोई ग्रह अस्त होता है।
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अस्तमित  : भू० कृ० [सं० अस्तम्-इत, द्वि० त०] १. (ग्रह या नक्षत्र) जो अस्त हो चुका हो। २. जो आँखों से ओझल हो चुका हो। ३. नष्ट। ४. मरा हुआ। मृत।
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अस्तर  : पुं० [सं० स्तर] १. किसी दोहरी चीज में, नीचेवाली या पहली तह। नीचे का वह आधार जिसके ऊपर कोई दूसरी चीज बनाई रखी या लगाई जाती जाए। भितल्ला। जैसे—(क) दोहरे कपड़े में नीचे वाला कपड़ा या पल्ला। (ख) दोहरे चमड़े में नीचेवाला चमड़ा। या (ग) दो बार किये जानेवाले रंगों में नीचेवाला या पहला रंग अस्तर कहलाता है। २. महीन साड़ियों आदि के साथ पहना जानेवाला एक प्रकार का मोटा कपड़ा जो कमर से पैरों तक रहता है। अँतरौटा। ३.वह पहला तेल जिसमें दूसरे सुगंधित पदार्थों का योग करके कोई दूसरा तेल बनाया जाता है। जमीन। जैसे—बढ़िया तेलों में चंदन के तेल का और घटिया तेलों में मिट्टी के तेल का अस्तर रहता है। ४. किसी प्रकार की भीतरी तह या स्तर।
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अस्तरकारी  : स्त्री० [हिं० अस्तर+फा० कारी] १. दीवारों की ईटों पर मसाले का स्तर बनाना। पलस्तर करना। २. दीवारों पर सफेदी या चूना लगाना, अथवा किसी प्रकार का रंग करना। (क्व०)।
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अस्तरबट्टी  : स्त्री० [हिं० ] १. तसवीर या जमीन का पहला स्तर घोंटने की पत्थर की बट्टी।
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अस्तरी  : स्त्री० १. स्त्री० । २. इस्तरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्ताचल  : पुं० [सं० अस्त-अचल, कर्म० स०] पुराणानुसार पश्चिम दिशा में स्थित वह कल्पित पर्वत जिसेक पीछे सूर्य का अस्त माना गया है।
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अस्ताद्रि  : पुं० [सं० अस्त-अद्रि, कर्म० स०]=अस्ताचल।
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अस्ति  : स्त्री० [सं०√अस् (सत्ता)+श्तिप्] [भाव० अस्तित्व] १. वर्त्तमान होने की अवस्था या भाव। विद्यमानता। सत्ता। २. कंस को ब्याही गई जरासंध की कन्या का नाम। मुहावरा—अस्ति अस्ति कहना=वाह वाह कहना। साधुवाद कहना। अस्ति-नास्ति- कहना=हाँ या नहीं कहकर निराकरण करना।
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अस्ति-काय  : पुं० [सं० न० ब०] सत्व-विद्या संबंधी अर्थात् दार्शनिक धारणा जिसके पाँच प्रमुख अंग है-जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अर्धास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और आकाशास्तिकाय। (जैन०)।
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अस्ति-नास्ति  : पद स्त्री० [सं० क्रिया रूप अथवा तिङ्न्तप्रतिरूपक अव्यय] ऐसी स्थिति जिसमें यह निश्चय करना आवश्यक हो कि अमुक बात वास्तव में ठीक है या नहीं। ‘हाँ’ या ‘नहीं’ करना अथवा कहना।
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अस्तित्व  : पुं० [सं० अस्ति+त्व] १. समय या अवकाश में स्थित होने की अवस्था या स्थिति। २. होने का भाव। विद्यमानता। सत्ता। (एग्जिस्टेन्स)
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अस्तिमंत  : पुं०=अस्तिमान्।
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अस्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० अस्ति+मतुप्] धनवान। मालदार। संपन्न।
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अस्तिरूप  : वि० =अहिक (या भाव-रूप)।
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अस्तीन  : स्त्री०=आस्तीन।
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अस्तु  : अव्य० [सं०√अस् (दीप्ति)+तुन्] १. जो हो। चाहे जो हो। २. ऐसा ही सही। खैर। भला। ३. ऐसा ही हो।
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अस्तुति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. स्तुति का भाव या विरोधी भाव। २. अपकीर्ति। निंदा। स्त्री०=स्तुति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्तुरा  : पुं० दे० ‘उस्तरा’।
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अस्तेय  : पुं० [सं० न० त०] १. स्तेय या चोरी करना । २. चोरी न करने की प्रतिज्ञा या व्रत जो सदाचार के मुख्य नियमों या सिद्धांतों में से एक है। ३. योग के साठ अंगों में नियम नामक अंग के अंतर्गत एक व्रत।
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अस्तेय-व्रत  : पुं० [ष० त०] आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ अपने पास न रखना या उनका उपयोग न करने का व्रत जो यह समझाकर धारण किया जाता है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह करना भी एक प्रकार की चोरी है।
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अस्त्र  : पुं० [सं०√अस् (पेंकना)+ष्टन्] १. ऐसे हथियार जो शत्रु पर फेंके या फेंककर चलाये जाते है। (शस्त्र से भिन्न) जैसे—भाला, बाण, बम आदि। २. वह उपकरण जिससे कोंई चीज फेंकी जाए। जैसे—धनुष तोप, बन्दूक आदि। ३. वह हथियार जिससे शत्रु के चलाए हथियारों की रोक हो। जैसे—ढाल। ४. वह हथियार जो मंत्र द्वारा चलाया जाए। जैसे—जृंभास्त्र।
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अस्त्र-कंटक  : पुं० [अपमि स०] बाण।
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अस्त्र-चिकित्सक  : पुं० [ष० त०] शल्यकार।
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अस्त्र-चिकित्सा  : स्त्री० [तृ० त०] =शल्य चिकित्सा।
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अस्त्र-बंध  : पुं० [तृ०त०] अस्त्रों की अविराम या निरंतर वर्षा।
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अस्त्र-लाघव  : पुं० [स० त०] अच्छी तरह अस्त्र चलाने का कौशल या योग्यता।
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अस्त्र-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] १. अच्छी तरह अस्त्र चलाने की विद्या या कला। २. वह शास्त्र जिसमें अस्त्रों के प्रयोग आदि का विवेचन होता है।
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अस्त्र-वेद  : पुं० [ष० त०] धनुर्वेद, जिसमें अस्त्र बनाने और चलाने की विद्या का विवेचन होता है।
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अस्त्र-शस्त्र  : पुं० [द्व० स०] अस्त्र और शस्त्र दोनों।
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अस्त्र-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ अस्त्र रखे जाए। अस्त्रगार। २. वह स्थान जहाँ अस्त्र बनते हैं।
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अस्त्र-शिक्षा  : स्त्री० [ष० त०] अस्त्र आदि चलाने या उनका प्रयोग करने की शिक्षा।
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अस्त्रकार  : पुं० [सं० अस्त्र√कृ (करना)+अण्] वह कारीगर जो अस्त्र या हथियार बनाता हो।
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अस्त्रगार  : पुं० [अस्त्र-आगार, ष० त०] अस्त्र रखने का स्थान। अस्त्रशाला।
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अस्त्रघला  : वि० [सं० अस्त्र+हिं० घालना-फेंकना] अस्त्र चलानेवाला। (डिं०)
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अस्त्रजीवी (विन्)  : पुं० [सं० अस्त्र√जीव्(जीना)+णिनि] वह जिसकी जीविका अस्त्र से चलती हो। जैसे—अस्त्रकार, सैनिक आदि।
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अस्त्रधारी (रिन्)  : पुं० [सं० अस्त्र√धृ (धारण करना)+णिनि] अस्त्र धारण करनेवाला, अर्थात् सैनिक।
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अस्त्री (स्त्रिन्)  : पुं० [सं० अस्त्र+इनि] =अस्त्रधारी।
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अस्त्रीक  : वि० [सं० न० ब० कप्] (पुरुष) जिसकी स्त्र न हो। स्त्री से रहित। बिना स्त्री का। जैसे—कुँआरा या रँडुआ।
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अस्त्रीकरण  : पुं० [सं० अस्त्र+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्-अन] [वि० अस्त्रीकृत] किसी देश की सेना तथा नागरिकों को किसी भावी युद्ध के लिए अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित करने की क्रिया या भाव। (मिलिटराइ ज़ेशन)
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अस्त्रोत्र  : पुं० =स्तोत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्थल  : पुं० =स्थल।
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अस्थान  : पुं० =स्थान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्थामा  : पुं० =अश्वत्थामा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्थायी  : स्त्री० [सं० स्थायी] गीत का पहला चरण या पद जो प्रत्येक चरण या पद के बाद दोहराकर गाया जाता है। वि० =स्थायी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्थायी (यिन्)  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अस्थायित्व] १. जो स्थायी अर्थात् सदा बना रहनेवाला न हो। जिसकी स्थिति कुछ समय के लिए ही हो। (अन्स्टैबल) २. (व्यक्ति) जो किसी पद या स्थान पर थोड़े समय के लिए तथा तात्कालिक आवश्यकता के विचार से नियुक्त किया जाय। (टेम्परेरी)
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अस्थायीसंधि  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद अथवा अस्थायि-संधि] दे० ‘अवहार’।
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अस्थावर  : [सं० न० त०] जो स्थावर न हो अर्थात् चल या जंगम।
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अस्थि  : स्त्री० [सं० √अस् (फेंकना)+क्थिन्] रीढ़वाले जीवों के शरीर के वे विशिष्ट कड़े अंश जो सम्मिलित रूप से कंकाल या ढाँचा खड़ा करते हैं। हड्डी। (बोन)
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अस्थि-कुंड  : पुं० [ष० त०] पुराणों के अनुसार एक नरक का नाम जो हड्डियों से भरा हुआ है।
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अस्थि-तुंड  : पुं० [ब० स०] चिड़िया। पक्षी।
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अस्थि-तेज (स्)  : पुं० [ष० त०] हड्डियों के अंदर का गूदा। मज्जा।
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अस्थि-तैल  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का बदबूदार तेल जो हड्डियों को उबाल कर तैयार किया जाता है। (बोन-ऑयल)
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अस्थि-धन्वा (न्वन्)  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अस्थि-पंजर  : पुं० [ष० त०] शरीर की हड्डियों का ढाँचा। कंकाल।
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अस्थि-प्रक्षेप  : पुं० [ष० त०] =अस्थि-प्रवाह।
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अस्थि-प्रवाह  : पुं० [ष० त०] किसी मृत व्यक्ति का शव जलाने पर उसकी बची हुई अस्थियाँ किसी पवित्र नदी या जलाशय में डालना।
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अस्थि-भंग  : पुं० [ष० त०] अस्थि या हड्डी टूटना। (फ़ैक्चर)
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अस्थि-भेद  : पुं० [ष० त०] दे०=अस्थिभंग।
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अस्थि-मज्जा  : स्त्री [ष० त०] १. हड्डियों के अंदर रहनेवाली मज्जा। २. वज्र।
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अस्थि-विग्रह  : वि० [ब० स०] बहुत दुबला। पुं० शिव का भृंगी नामक गण।
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अस्थि-शेष  : वि० [ब० स०] जिसके शरीर में केवल हड्डियाँ रह गई हों। मांस या रक्त समाप्तप्राय हो। कंकाल।
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अस्थि-संचय  : पुं० [ष० त०] शव के जल चुकने पर बची-खुची हड्डियों को चुनने तथा उनको संग्रहीत करने का एक कृत्य।
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अस्थि-संभव  : पूं० [ब० स०] १. मज्जा। २. बज्र।
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अस्थि-समर्पण  : पुं० =अस्थि-प्रवाह।
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अस्थिज  : वि० [सं० अस्थि√जन् (पैदा होना)+ड] अस्थियों या हड्डियों से निकलने या बननेवाला।
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अस्थिति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. स्थिति या ठहराव का अभाव। २. अस्थिरता। ३. चंचलता। स्त्री० =स्थिति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्थिभक्ष  : वि० [सं० अस्थि√भक्ष् (खाना)+अण्] हड्डी खानेवाला। पुं० कुत्ता।
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अस्थिभुक (ज्)  : पुं० [अस्थि√भुज् (खाना)+क्विप्] कुत्ता।
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अस्थिमाली (लिन्)  : पुं० [अस्थि-माला, ष० त०+इनि] शिव।
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अस्थिर  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें स्थिरता न हो। जो स्थिर न हो। गतिमान या चंचल। २. किसी एक या निश्चित स्थान या सिद्धांत पर न टिकनेवाला। वि० =स्थिर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्थिर-सार  : पुं० [ष० त०] मज्जा।
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अस्थिरता  : स्त्री० [सं० अस्थिर+तल्—टाप्] अस्थिर होने की अवस्था या भाव। (अन्स्टैबिलिटी)
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अस्थूल  : वि० [न० त०] जो स्थूल न हो; फलतः महीन या सूक्ष्म। वि० =स्थूल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्थैर्य  : पुं० [न० त०] स्थिरता का अभाव। अस्थिरता।
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अस्नान  : पुं० =स्नान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्निग्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो स्निग्ध अर्थात् चिकना न हो। २. कठोर और शुष्क। ३. दे० ‘अरसिक’।
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अस्निग्ध-दारू  : पुं० [कर्म० स०] देवदारू का एक भेद।
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अस्पंज  : पुं० [यु० इस्फंज] मुरदा बादल। स्पंज।
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अस्पताल  : पुं० [अं० हास्पिटल] वह स्थान जहाँ रोगियों की चिकित्सा की व्यवस्था होती है। चिकित्सालय।
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अस्पंद  : वि० [सं० न० त०] जिसमें स्पंदन या कंपन न हो। स्पंदनहीन।
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अस्पष्ट  : वि० [सं० न० त०] जो स्पष्ट या साफ न हो। जिसका ठीक और पूरा रूप देखने या समझने में कठिनता हो। (इन्डिस्टिंक्ट)। वि० =स्पष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्पृश्य  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अस्पृश्यता] १. जिसे स्पर्श करना उचित न हो। २. जो नीच जाति का, निम्न वर्ण का हो; और इसीलिए जिसे छुआ न जा सके। ३. इंद्रियातीत। पुं० दे० ‘अंत्यज’।
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अस्पृश्यता  : स्त्री० [सं० अस्पृश्य+तल्-टाप्] १. अस्पृश्य होने की अवस्था या भाव। २. यह मत या सिद्धांत कि अमुक प्रकार के प्राणी, वस्तुएँ या व्यक्ति अस्पृश्य हैं और उन्हें नहीं छूना चाहिए। (अन्टचेबिलिटी)
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अस्पृष्ट  : भू० कृ० [सं० न० त०] १. जिसका या जिससे स्पर्श न हुआ हो। बिना छुआ हुआ। २. दे० ‘अछूता’।
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अस्पृह  : वि० [सं० न० त०] (व्यक्ति) जिसमें स्पृहा (इच्छा या कामना) न हो। स्पृहा-रहित।
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अस्फुट  : वि० [सं० न० ब०] १. (फूल) जो खिला न हो। २. (विषय) जो स्पष्ट न हो अर्थात् गूढ़ या जटिल।
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अस्म  : पुं० =अश्म (पत्थर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्मत  : स्त्री० [अ० इस्मत] १. पापों से अपने आप को बचाना। २. स्त्री का पतिव्रत।
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अस्मदादि  : सर्व० [सं० अस्मद्-आदि, ब० स०] हम लोग।
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अस्मदादिक  : सर्व० [सं० अस्मद्-आदि, ब० स० कप्] हम लोग।
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अस्मदीय  : वि० [सं० अस्मद+द्व-ईय] मेरा या हमारा।
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अस्मद्  : सर्व० [सं०√अस् (सत्ता)+मदिक] मैx। (अहम् आदि का प्रतिपादिक रूप) पुं० जीवातमा।
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अस्मय  : वि० [सं० अश्म्य] १. जो पत्थरों का बना हो अथवा जिसमें पत्थर लगा हो। २. पत्थर के रूप में आया हुआ। उदाहरण—अस्मय तन गौतम तिया कौ साप नसावै।—सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्मार्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो स्मार्त्त अर्थात् स्मृतियों का अनुयायी न हो। २. स्मृतियों आदि के आदर्शों का विरोधी।
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अस्मिता  : स्त्री० [सं० अस्मि+तल्-टाप्] १. मन का यह भाव या मनोवृत्ति कि मेरी एक पृथक् और विशिष्ट सत्ता है। अर्थात् मै, हूँ। अहंभाव। (इगोइज्म) २. अभिमान। अहंकार। घमंड। विशेष—सांख्य में इसे मोह और वेदान्त में हृदय-ग्रंथि कह गया है। योग शास्त्र के अनुसार यह पाँच क्लेशों में से एक है।
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अस्र  : पुं० [सं०√अस् (फेंकना)+रन] १. कोना। २. रक्त। रुधिर। ३. जल। ४. आँसू। ५. केसर। ६. बाल। पुं० [अ०] १. काल। समय। २. युग। ३. दिन का चौथा पहर। संध्या काल।
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अस्र-कंठ  : पुं० [ब० स०] बाण।
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अस्र-पित्त  : पुं० [मध्य० स०] मुँह नाक आदि से खून गिरने का रोग।
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अस्र-फला  : स्त्री० [ब० स०] सलई का पेड़।
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अस्रज  : पुं० [सं० अस्र√जन् (पैदा होना)+ड] रक्त या रुधिर से उत्पन्न होनेवाला मांस।
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अस्रप  : वि० [सं० अस्र√पा (पीना)+क] रक्त पीनेवाला। पुं० १. राक्षस। २. मूल नक्षत्र।
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अस्रपा  : स्त्री० [सं० अस्रप+टाप्] १. जलौका। जोंक। २. जादूटोना करनेवाली डाइन।
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अस्रु  : पुं० [सं०√अस् (फेंकना)+रु] अश्रु। (आँसू)।
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अस्ल  : वि० दे० ‘असल’।
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अस्लियत  : स्त्री० दे० ‘असलियत’।
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अस्ली  : वि० दे० ‘असली’।
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अस्लीयत  : स्त्री० [अ०] दे० ‘असलियत’।
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अस्व  : वि० [सं० न० ब०] दरिद्र। धनहीन।
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अस्वक  : पुं० [सं० अश्व+कन्] १. छोटा घोड़ा। २. लावारिस घोड़ा। ३. एक प्राचीन जाति का नाम। ४. गौरैया पक्षी। चटक।
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अस्वंत  : पुं० [सं० असु-अंत, ब० स०] १. मृत्यु। २. दे० ‘अश्मंत’।
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अस्वतंत्र  : वि० [सं० न० त०] जो स्वतंत्र न हो, अर्थात् परादीन।
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अस्वप्न  : वि० [सं० न० त०] निंद्रा रहित। पुं० [न० त०] १. निंद्रा का अभाव। २. देवता जो कभी सोते नही।
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अस्वभाव  : वि० [सं० न० ब०] भिन्न या विपरीत स्वभाववाला। पुं० [न० त०] १. भिन्न या अस्वाभाविक लक्षण।
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अस्वर  : वि० [सं० न० ब०] अनुचित अस्पष्ट, बुरे या भद्दे स्वरवाला। २. मंद (स्वर)। पुं० [न० त०] १. स्वर का अभाव। २. मंद स्वर। ३. व्यंजन वर्ण।
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अस्वस्थ  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अस्वस्थता] १. जो स्वस्थ न हो। २. जो हर तरह से ठीक, पूरा या मान्य न हो। दूषित। बुरा। जैसे—अस्वस्थ विचार या स्थिति। (विशेष दे० ‘स्वस्थ’) ३. बीमार। रोगी।
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अस्वाधीन  : वि० [सं० न० त०] जो स्वाधीन न हो, अर्थात् परतंत्र या पराधीन।
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अस्वाभाविक  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अस्वाभाविकता] १. जो स्वाभाविक न हो। प्रकृति या स्वभाव के विरुद्ध। २. कृत्रिम। बनावटी।
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अस्वामि-विक्रय  : पुं० [मध्य० स०] कोई जबरदस्ती छीनकर अथवा कहीं पड़ी पाकर उसके स्वामी की आज्ञा या इच्छा न होने पर भी बेच डालना।
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अस्वामि-विक्रीत  : भू० कृ० [तृ० त०] (संपत्ति आदि) मालिक की चोरी से या उसके अभाव में अनुचित रूप से बेचा हुआ।
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अस्वामिक  : वि० [सं० न० ब० कप्] [भाव० अस्वामिकता] जिसका कोई स्वामी न हो। बिना मालिक का। लावारिस। पुं० वह धन या संपत्ति जिसका कोई मालिक न हो या न दिखाई दे। जैसे—अस्वामिक धन।
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अस्वामिकता  : स्त्री० [सं० अस्वामिक+तल्-टाप्] वह स्थिति जिसमें कोई वस्तु मिलने पर उसका कोई स्वामी न दिखाई देता हो। (बोना वैकोन्सिआ) जैसे—जमीन खोदने पर मिलनेवाला खजाना। विशेष—ऐसी अवस्था में मिलने वाली वस्तु पर राज्य का अधिकार हो जाता है।
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अस्वामी (मिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिसका स्वत्व न हो। २. (पदार्थ) जिसका अध्यर्थन करनेवाला कोई न हो।
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अस्वार्थ  : वि० [सं० न० ब०] १. (व्यक्ति) जो स्वार्थी न हो। २. (कार्य या बात) जो स्वार्थ रहित हो। जिसमें अपना स्वार्थ न हो। ३. उदासीन। पुं० [न० त०] स्वार्थ का अभाव।
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अस्वास्थ्य  : पुं० [सं० न० त०] स्वास्थ्य का अच्छा या ठीक न होना। अर्थात् बीमारी या रोग।
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अस्वीकरण  : पुं० [सं० न० त०] कोई बात या सुझाव न मानने की क्रिया या भाव। अस्वीकार या नामंजूर करना। (रिजेक्शन)
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अस्वीकार  : पुं० [सं० न० त०] [वि० अस्वीकृत] अनुरोध, आग्रह या प्रार्थना स्वीकार न करना। मान्य न करना। न मानना।
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अस्वीकृत  : स्त्री० [सं० न० त०] [भाव० अस्वीकार, अस्वीकृति] जो मान्य या स्वीकृत न हुआ हो। ना-मंजूर। (रिजेक्टेड)
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अस्वीकृति  : स्त्री० [सं० न० त०] स्वीकार या मान्य न करने पर या होने (अर्थात् अस्वीकृत होने) की दशा या भाव।
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अस्स  : पुं० =अश्व (घोड़ा)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्सी  : वि० [सं० अशीति, प्रा० असीइ, गुं० एंशी, पं० अस्सी, सि० असी, बँ० आशी, उ० अशी, सिंह० असू आख, मरा० ऐशी] जो गिनती में ७॰ से १॰ अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या-८॰।
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अस्सु  : पुं० =अश्व (घोड़ा)।
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अंह  : (स्)-पुं [सं० √अम् (गति) +असुन् हुक् आगम] १. पाप २. कष्ट। ३.चिंता। ४. बाधा। विघ्न।
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अहं  : सर्व० [सं० अस्मद् का सिद्ध रूप)] मैं। पुं० [सं० √अग्(व्यक्ति)+अमु] १. मनुष्य में होनेवाला एक ज्ञान या धारणा कि मैं हूँ या औरों से मेरी पृथक् और स्वतंत्र सत्ता है। अपने अस्तित्व की कल्पना या भान। (ईगो) २. अगंकार। अभिमान।
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अह  : पुं० [सं० अहन्] १. दिन। दिवस। २. विष्णु। ३. सूर्य। ४. दिन का अभिमानी देवता। अव्य० [सं० अहह] एक अव्यय जिसका प्रयोग आश्चर्य खेद, क्लेश आदि का सूचक होता है। अ०अवधी बोली में ‘अहना’ क्रिया का वर्त्तमान-कालिक रूप है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अहक  : स्त्री० [सं० ईहा] मन में दबी रहनेवाली तीव्र कामना या लालसा।
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अहकना  : स० [सं० अहक+ना (प्रत्यय)] कामना या लालसा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहकाम  : पुं० [अ० हुक्म का बहु०] १. आज्ञाएँ। २. नियम या विधान संबंधी बातें।
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अहंकार  : पुं० [सं० अहम्√कृ (करना)+घञ्] १. अंतःकरण की वह स्वार्थपूर्ण वृत्ति जिससे मनुष्य समझता है कि मै कुछ हूँ या कुछ करता हूँ। मन में रहनेवाला ‘मैं’ और ‘मेरा’ का भान। अहं-भाव। (इगोइज्म) विशेष—सांख्य के अनुसार यह महत्तत्व से उत्पन्न एक द्रव्य है और वेदांत में इसे अंतःकरण का वह भेद माना है जिसका विषय अभिमान या गर्व है। २. अभिमान। गर्व। शेखी। (इगोटिज्म)
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अहंकारी (रिन्)  : वि० [सं० अहम्√कृ+णिनि] [स्त्री० अहंकारिणी] जिसे अहंकार या अभिमान हो। अहंकार करनेवाला। अभिमानी।
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अहंकार्य  : पुं० [सं० अहम्√कृ+ण्थत्] (ऐसा उद्देश्य या कार्य) जो स्वयं या अपने द्वारा सिद्ध किया जाने को हो।
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अहंकृत  : वि० [सं० अहम्√कृ+क्त] १. जिसे अपनी सत्ता का भान हो। २. अभिमानी। घमंडी।
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अहंकृति  : स्त्री० [सं० अहम्√कृ+क्तिन्] अहंकार। अभिमान। घमंड। उदाहरण—अंहकृति में झंकृति जीवन।—निराला।
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अहटना  : अ० [हिं० आहट] आहट लेना। पता चलाना। अ० [सं० आहत] दुखना। दर्द करना।
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अँहठा  : पुं० [देश] जुलाहों का लकड़ी का गज जो दो हाथ लंबा होता है।
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अँहडा  : पुं० [देश०] चौलने का बाँट। बटखरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अंहड़ी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की लता जिसकी फलियों के बीज दवा के काम आते हैं।
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अहत  : वि० [सं० न० त०] १. जो हत न हुआ हो। २. जो मारा या पीटा न गया हो। ३. (कपड़ा) जो धुला न हो। ४. बिलकुल ताजा या नया। बे-दाग। पु० नया कपड़ा।
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अहंतंत्र  : पुं० [सं० न० त०] १. ऐसी सासन प्राणाली जिसमें एक ही राजा या शासक सह कार्य अपनी इच्छा या मन से करता हो। २. आज-कल मुख्यतः ऐसा राज्यतंत्र जिसमें कोई देश आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र हो और दूसरों देशों से बहुत कुछ पृथक् रहकर अपने सब काम चलाता हो। (आँटार्की)। अहंता
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अहथिर  : वि० १. दे० ‘अस्थिर’। २. दे० ‘स्थिर’।
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अहद  : पुं० [अ०] १. पक्का निश्चय। दृढ़ संकल्प। प्रतिज्ञा। मुहावरा—अहद टूटना=प्रतिज्ञा भंग होना। अहद तोड़ना-(क) प्रतिज्ञा भंग करना। (ख) वादा पूरा न करना। २. इरादा। विचार। ३. किसी के भोग, राज्य या शासन का काल। जैसे—अकबर के अहद में कई अकाल पड़े थे।
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अहददार  : पुं० [फा०] मुसलमानी शासन काल में वह अधिकारी जिसे कर उगाहने का ठीका मिलता था।
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अहदनामा  : पुं० [फा०] १. इकरारनामा। प्रतिज्ञापत्र। २. संधिपत्र।
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अहदी  : वि० [अ०] बहुत बड़ा आलसी और कोई काम न करनेवाला। पुं० [अ०] १. अकबर के समय के वे सिपाही जिन्हें साधारणयतः कुछ काम नही करना पड़ता था पर जो विकट अवसरों पर वीरता दिखाते थे। २. दूत या सिपाही। उदाहरण—घेरघौ आइ कुटुम-लसकर, जन अहदी पठयौ।—सूर।
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अहदीखाना  : पुं० [फा०] अहदियों के रहने का स्थान।
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अहना  : अ० [सं० अस्ति] वर्त्तमान रहना। होना। (अवधी) उदाहरण—अस अस मच्छ समुद्र महँ अहहीं।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहनिसि  : क्रि० वि० [सं० अहर्निश] रात-दिन। उदाहरण—मुयों मुयों अहनिसि चिल्लाई।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहन्  : पुं० [सं०√हा (त्याग)+कनिन्, न० त०] दिन।
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अहःपति  : पुं० [सं० ष० त० अहन्, पति]=अहर्पति।
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अहंपूर्व  : वि० [सं० ब० स०] १. जो (होड़ आदि में) सबसे पहले या आगे रहना चाहता हो। २. अपने आपको सबसे आगे या प्रधान रखने का इच्छुक।
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अहंपूर्विका  : स्त्री० [सं० अहंपूर्व+कन्-टाप्, इत्व] १. अंहपूर्व का भाव या विचार। अपने आपको सबसे आगे या प्रधान रखने की इच्छा या कामना। २. प्रतिद्वन्द्विता। होड़।
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अहप्पति  : पुं० =अहिपति (शेषनाग)।
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अहंप्रत्यय  : पुं० [सं० मध्य० स०] अभिमान। अहंकार।
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अहंभद्र  : पुं० [सं० मयू० स०] १. अपने आपको आवश्यकता से बहुत बड़ा समझना। २. वह जो अपने आपको सबसे बढ़कर समझता हो।
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अहंभाव  : पुं० [सं० न० त०] १. अहं। अहंकार।
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अहमक  : पुं० [अ०] [भाव० हिंमाकत] मूर्ख। बेवकूफ।
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अहमद  : वि० [अ०] बहुत प्रशंसनीय। पुं० हज़रत मुहम्मद का नाम।
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अहमदी  : स्त्री० [अ०] मुसलमानों में एक संप्रदाय।
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अहंमन्य  : वि० [सं० अहम्√मन् (मानना)+खश्] १. अपने आपको औरों से बहुत बढ़कर या बहुत कुछ माननेवाला। २. अभिमानी। घमंडी।
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अहंमन्यता  : वि० [सं० अहम्मन्य+तल्-टाप्] अपने आपको सबसे बढ़कर बहुत कुछ समझना और अपने संबंध में बढ़-बढ़कर बातें करना। (इगोटिज्म)
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अहमहमिका  : स्त्री० [सं० अहम् अहम् (वीप्सा में द्वित्व)+ठन्-इक-टाप्] १. दो दलों या पक्षों का आपस में एक दूसरे को तुच्छ और आपने आपको बढ़कर समझना। २. चढ़ा-ऊपरी। होड़।
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अहमिका  : स्त्री० [सं० अहम्] अबिमान। अहंकार। घमंड।
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अहमिति  : स्त्री० [सं० अहम्मति] यह विचार कि मै ही सब कुछ हूँ। उदाहरण—तोड़कर बाधा बंधन भेद भूल जा अहमिति का यह स्वार्थ।—प्रसाद।
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अहमित्व  : पुं० [सं० अहंत्व] १. अपने अस्तित्व का ज्ञान। अहंभाव। आपा। २. दे० ‘अहंमन्यता’।
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अहमेव  : पुं० [सं० अहम्√एव व्यस्त पद] १. यह समझना कि मै ही सब कुछ हूँ। २. अभिमान। अहंकार।
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अहम्  : सर्व०, पुं०=अहं।
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अहम्-मति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. गर्व। घमंड। २. ममता। ३. अविद्या।
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अहम्मनयता  : स्त्री० [सं० अहम्मन्य+तल्-टाप्]=अहंमन्यता।
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अहम्मन्य  : वि० [सं० अहन्√मन्(मानना)+खश] [भाव० अहम्मन्यता] अहंमन्य।
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अहम्मय  : वि० [सं० अहम्+मयट्] अहंभाव या अहंकार से भरा हुआ। बहुत बड़ा अभिमानी।
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अहर  : पुं० [देश०] मिट्टी का वह बरतन जिसमें छीपी रंग रखते हैं। पुं०=अधर। उदाहरण-अहर, पयोहर, दुइ नयण, मीठा जेहा मख्ख।-ढो० मा० दू०।
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अहरन  : स्त्री० [सं० आ+धरण-रखना] लोहारों सोनारों आदि की निहाई।
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अहरना  : स० [सं० आहरणम्-निकालना] लकड़ी को छीलकर साफ या सुडौल करना।
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अहरह (स्)  : क्रि० वि० [सं० अहन् शब्द को वीप्सा में द्वित्व] १. प्रतिदिन। २. नित्य। सदा। ३. लगातार। निरंतर।
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अहरा  : पुं० [सं० आहरण-इकट्ठा करना] १. कोई चीज पकाने के लिए बनाया हुआ कंडों का ढेर। २. कंडे जलाकर तैयार की हुई आग। ३. मनुष्यों के ठहरने का स्थान। ४. दे० ‘आहर’।
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अहरात  : पुं० =अहोरात्र (दिन-रात)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहरिमन  : पुं० [पह०] पारसी धर्म में पाप और अंधकार का अधिष्ठाता देवता। शैतान।
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अहरी  : स्त्री० [सं० आहरण-इकट्ठाकरना] १. वह स्थान जहाँ लोगों को पानी पिलाने का प्रबंध रहता है। पौसरा। प्याऊ। २. जानवरो के पानी पीने के लिए कुएँ के पास बनाया जानेवाल हौज। ३. पानी से भरा हुआ हौज।
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अहर्गण  : पुं० [सं० अहन्-गण, ष० त०] १. दिनों का समूह। २. सृष्टि के आरंभ से इष्ट अर्थात् किसी विशिष्ट दिन के बीच का समय।
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अहर्दल  : पुं० [सं० अहन्-दल, ष० त०] मध्याह्र। दोपहर।
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अहर्निश  : क्रि० वि० [सं० अहन्-निश,द्व०स०] १. रात-दिन। २. नित्य। सदा। ३. निरंतर। लगातार।
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अहर्पति  : पुं० [सं० अहन्-पति, ष० त०] सूर्य।
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अहर्मणि  : पुं० [सं० अहन्-मणि, स० त०] सूर्य।
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अहर्मुख  : पुं० [सं० अहन्-मुख, ष० त०] उषःकाल। सबेरा। दिन का आरंभिक भाग। तड़का।
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अहर्य  : वि० [सं०√अर्ह्+ण्यत्]=अर्हणीय।
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अहल  : वि० [अ०अहल] योग्य। लायक। प्रत्यय-वाला। पुं० १. लोग। २. परिवार के या संग-साथ के लोग। ३. मालिक। स्वामी।
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अहलकार  : पुं० [अ+फा०] १. कर्मचारी, मुख्यतः कचहरी, कार्यालय आदि का। २. कारिंदा।
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अहलना  : अ० [सं० आहलनम्] १. बार-बार हिलना। काँपना। २. डर से काँपना। थर्राना।
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अहलमद  : पुं० [फा०] न्यायालय आदि का वह कर्मचारी जो सब प्रकार की मिसिलें क्रम से रखता है।
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अहला  : पुं० दे० अहिला। क्रि० वि० [?] व्यर्थ। बे-फायदे। (राज०) उदाहरण—बीछडियाँ कोई भौ भयो ए दिन अहला जाए।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अहलाद  : पुं० =आह्लाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहलादी  : वि० =आह्लादी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहले गहले  : क्रि० वि० [अनु०] १. हलके ह्रदय से। प्रसन्न होकर। २. मंदगति से और मस्त होकर (चलना या कोई काम करना)।
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अहल्या  : वि० [सं० हल+यत्-टाप्,न० त०] धरती जिसमें हल न चल सके या जो जोती न जा सके। स्त्री० गौतम ऋषि की पत्नी, जो शाप के कारण पत्थर की हो गयी थी और जिसका उद्धार भगवान् रामचंद्र ने किया था।
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अहंवाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. अपने आपको सबसे बढ़कर समझना और अपनी बढ़ाई करना। २. डींग मारना। शेखी हाँकना।
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अहंवादी (दिन्)  : पुं० [सं० अहम्√वद् (बोलना)+णिनि] अहंमन्य।
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अहवान  : पुं० =आह्वान (बुलाना)। पुं० हैवान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अहवाल  : पुं० [अ० हाल का बहुवचन] १. समाचार। वृत्तांत। २. दशा। परिस्थिति।
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अहःशेष  : पुं० [सं० अहन्-शेष, ष० त०] दिन का पिछला पहर। संध्या। सायंकाल।
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अहश्चर  : वि० [सं० अहन्√चर् (गति)+ट] दिन के समय या दिन भर भ्रमण करनेवाला।
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अहंश्रेयस  : पुं० [सं० मयू० स०] अपने को बड़ा या श्रेष्ठ मानना या समझना।
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अहसान  : पुं० =एहसान।
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अहस्कर  : पुं० [सं० अहन्√कृ (करना)+ट] सूर्य।
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अहस्त  : वि० [सं० न० ब०] जिसे हाथ न हो। बिना हाथ का।
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अंहस्पति  : पुं० [सं० ष०त०] क्षयमास।
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अंहह  : अव्य० [सं० अहम्√हा (त्याग)+क पृषो० सिद्धि] आश्चर्य, खेद, थकावट, प्रसन्नता, शोक आदि का सूचक अव्यय।
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अहा  : अव्य० [सं० अहह] आनंद, आह्राद, प्रसन्नता आदि का सूचक अव्यय। अ० अवधी और पूर्वी हिन्दी में ‘होना’ क्रिया का भूतकालिक रूप था।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहाता  : पुं० [अ० इहातः] १. चारों ओर से घिरा हुआ मैदान या स्थान। हाता। २. चारदीवारी।
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अहान  : पुं० [सं० आह्वान] पुकार। चिल्लाहट। पुं० [सं० अहन्] दिन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अहार  : पुं० [सं० आहार, सिं० आहरू, मराठी० अहार] १. खाने की चीज़ें। खाद्य पदार्थ। २. भोजन करने की क्रिया या भाव। खाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहारना  : स० [सं० आहरणम्=(खाना)] १. आहार या भोजन करना। २. लेई लगाकर लसना। चिपकाना। ३. कपड़े में माड़ी देना। ४. दे० ‘अहरना’।
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अहारी  : वि० =आहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहार्य  : वि० [सं०√हृ (हरण करना)+ण्यत्, न० त०] १. जो हरण किया या चुराया न जा सके। २. जिसका हरण करना उचित न हो। ३. जिसे धन आदि के द्वारा वश में न किया जा सके।
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अहाहा  : अव्य० [सं० अहह] प्रसन्नता या हर्ष-सूचक एक अव्यय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहि  : पुं० [सं० आ√हन् (हिंसा)+डिन्, टिलोप, ह्रस्व] १. साँप। २. राहु। ३. वृत्रासुर। ४. ठग। वंचक। ५. अश्लेषा नक्षत्र। ६. पृथिवी। ७. सार्य। ८. पतिक। ९. सीमा। १. बादल। ११. नाभि। १२. जल। १३. एक वर्ण वृत्त जिसमें पहले छः भगण और तब एक मगण होता है।
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अहि-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] १. कंपिल और चंबल नदियों के बीच का पांचाल देश। २. प्राचीन दक्षिण पांचाल की राजधानी का नाम।
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अहि-जिह्वा  : स्त्री० [ष० त०] नागफनी।
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अहि-नकुलिका  : स्त्री० [सं० अहि-नकुल, द्व० स०+वुन-अक-टाप्, इत्व] साँप और नेवले में होनेवाला अथवा इस प्रकार का सहज और स्वाभाविक वैर।
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अहि-पताक  : पुं० [सं० अहि-पताका, स० त०+अच्] एक प्रकार का साँप।
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अहि-पति  : पुं० [ष० त०] १. वासुकिनाग। २. बहुत बड़ा साँप।
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अहि-पूतना  : स्त्री० [सं०] बच्चों की पीठ में होनेवाले घाव या फोड़े और उनके साथ होनेवाले पतले दस्त जो पूतना के उत्पात माने जाते है।
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अहि-फेन  : पुं० [ष० त०] १. साँप के मुँह से निकलनेवाला पेन या लार। २. अफीम।
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अहि-बुध्न  : पुं० [ब० स०] १. शिव। २. एक रुद्र का नाम।
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अहि-मात  : पुं० [सं० अहि-गति+मत्-युक्त] कुम्हार के चाक में वह गड्ढा जिसमें कीली रहती है और जिसके सहारे वह घूमता है।
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अहि-मेघ  : पुं० [ष० त०] सर्प-यज्ञ।
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अहि-लोचन  : पुं० [ब० स०] शिव के एक सर्प का नाम।
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अहि-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] नागवल्ली। पान।
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अहिक  : वि० वि० कुछ दिनों तक स्थिर रहनेवाला (सख्या सूचक शब्द के अंत में। जैसे—दशाहिक।) पुं० [हिं० अहि+कन्] १. ध्रुवतारा। २. अंधा। साँप।
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अहिगण  : स० [ष० त०] पाँच मात्राओं के गण अर्थात् ठगण का एक भेद दजिसमें पहले एक गुरु और तब तीन लघु होते है।
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अहिघुट्टना  : स० [सं० अभिघट्टंन] अभिघटित करना। (बनाना) उदाहरण—हीर कीर अरु बिम्ब मोती नखसिख अहिघुट्टिय।—चंदवरदाई।
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अहिच्छत्र  : पुं० [ष० त०] १. मेढ़ासींगी। २. दे० ‘अहिक्षेत्र’।
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अहिच्छत्रा  : स्त्री० [सं० अहिच्छन्न+टाप्] =अहिच्छत्र।
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अहिजित्  : पुं० [सं० अहि√जि (जीतना)+क्विप्] श्रीकृष्ण।
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अहिजिन  : पुं० [सं० अहिजित्] १. इंद्र। २. श्रीकृष्ण।
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अहिटा  : पुं० [देश०] जमीदार द्वारा नियुक्त वह कर्मचारी जो असामी को खड़ी फसल तब तक काटने नही देता था जब तक वह अपना पिछला लगान चुकता न कर दे।
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अहित  : पुं० [सं० न० त०] १. हित का अभाव। २. हित का विपरीत भाव। अपकार। हानि। ३. वह जो हित (आत्मीय तथा शुभचिंतक) न हो अर्थात् विरोधी, वैरी या शत्रु।
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अहितकर  : वि० [सं० अहित√कृ (करना)+ट] जिससे अहित होता हो। अहित करनेवाला। ‘हितकर’ का विपर्याय।
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अहितकारी (रिन्)  : वि० [सं० अहित√कृ (करना)+णिनि]=अहितकर।
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अहिद्विष्  : पुं० [सं० अहि√द्विष (अप्रीति)+क्विप्] १. गरुड़। २. नेवला। ३. मोर। ४. इंद्र।
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अहिनाथ  : पुं० [ष० त०] सर्पों के राजा शेषनाग।
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अहिनाह  : पुं० =अहिनाथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहिप  : पुं० [सं० अहि√पा (पालनकरना)+क] १. साँपों के राजा शेषनाग। २. बहुत बड़ा साँप।
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अहिपुत्रक  : पुं० [सं० अहि-पुत्र, ष० त०√कै(भासित होना)+क] एक प्रकार की नाव जो सर्प के आकार की होती थी।
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अहिभुक (ज्)  : पुं० [सं० अहि√भुज् (खाना)+क्विप्] १. गरुड़। २. मोर। ३. नेवला।
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अहिभृत्  : पुं० [सं० अहि√भृ (धारण करना)+क्विप्] शिव।
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अहिम  : वि० [सं० न० त०] जो हिम (बहुत ठंढा या शीतल) न हो, फलतः गरम।
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अहिम-कर  : पुं० [ब० स०] सूर्य। उदाहरण—मकरध्वज वाहणि चढ़यौ अहिमकर।—प्रिथीराज।
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अहिम-द्युति  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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अहिम-रश्मि  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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अहिमाली (लिन्)  : पुं० [सं० अहि, माला, ष० त०+इनि] साँपों की माला पहननेवाला, शिव।
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अहिमांशु  : पुं० [अहिम-अंशु, ब० स०] सूर्य।
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अहिर  : पुं० =अहीर।
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अहिरख  : पुं० [हिं० अ+हिरख-हर्ष] १. हर्ष या प्रसन्न्ता का अभाव। २. खेद। दुःख। उदाहरण—अहिरख वायु न कीजे रे मन।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहिर्बुश्न  : पुं० [सं० ] १. ग्यारह रुद्रों में से एक। २. उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र जिसके देवता अहिर्बुघ्न है।
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अहिलता  : स्त्री० [मध्य० स०] नागवल्ली। (पान)
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अहिला  : पुं० [सं० अभिप्लव, प्रा० अहिल्लो, हिं० हील चहला-की चड़] १. पानी की बाढ। २. उपद्रव। झगड़ा। फसाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहिल्ला  : स्त्री०=अहल्ला।
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अहिवन  : पुं० [सं० अहिवत्] सर्प। उदाहरण—धाम-धाम गावत धमारि, मनहु अहिवन मनि लिद्विय।—चंदवरदाई।
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अहिवर  : पुं० [?] दोहे का एक भेद जिसमें ५ गुरू और ३८ लघु होते है।
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अहिवात  : पुं० [सं० अविधवात्व, प्रा० अबिवात्त, अहिवाद] [वि० अहिवाती] स्त्री की वह अवस्था जिसमें उसका जीवित हो। सधवा होने की अवस्था या भाव। सुहाग।
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अहिवातिन  : वि० स्त्री० [हिं० अहिवात] सधवा या सौभाग्यवती स्त्री। सुहागिन।
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अहिवाती  : वि० स्त्री० [हिं० अहिवात] सौभाग्यवती। सधवा।
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अहिंसक  : वि० [सं० न० त०] १. जो हिंसक न हो। हिंसा न करनेवाला। २. अहिंसावादी।
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अहिंसा  : स्त्री० [सं० न० त०] [वि० अहिंसक] १. (जीवों या प्राणियों) में हिंसा (वध या हत्या) न करने की वृत्ति या भावना। २. धर्म-शास्त्रों के अनुसार, मन, वचन या कर्म से किसी को तनिक भी कष्ट न पहुँचने की क्रिया या भावना। किसी को कभी किसी तरह से पीड़ित न करना। (भारतीय हिंदू, जैन, बौद्ध आदि धर्मों का एक मुख्य विधान) ३. कंटक पाली या हंस नामकी घास।
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अहिसाव  : पुं० [सं० अहिशावक] साँप का बच्चा। सँपोला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहिंसावाद  : पुं० [ष० त०] १. वह वाद या सिंद्धांत जिसके अनुसार सभी जीवों या प्राणियों में ईश्वर की सत्ता मानी जाती है। और इसी लिए उनका वध नही किया जाता। २. किसी को कुछ भी कष्ट न पहुँचाने का सिद्धांत।
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अहिंसावादी (दिन्)  : वि० [सं० अहिंसा√वद् (बोलना)+णिनि] अहिंसा संबंधी सिद्धांतों को मानने तथा उसके अनुरूप कार्य करनेवाला।
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अहिंस्र  : वि० [सं० न० त०] १. जो हिंसा न करे। अहिंसक। २. जिससे किसी को कुछ भी कष्ट या पीड़ा न पहुँचे।
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अहीक  : पुं० [सं० ] दल क्लेशों में से एक। (बौद्ध०)
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अहीन  : वि० [सं० न० त०] १. जो हीन या तुच्छ न हो। २. जिसमें कोई कमी, त्रुटि या बुराई न हो। ३. जो किसी की तुलना में कम न हो। पुं० १. हीन न होना। २. वासुकि। ३. [अहन्+ख-ईन] बारह दिनों में होनेवाला एक यज्ञ।
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अहीनगु  : पुं० [सं० ] एक सूर्यवंशी राजा जो देवानीक का पुत्र था।
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अहीनवादी (दिन्)  : पुं० [सं० हीन-वादी, कर्म० स० न-हीनवादी, न० त०] वह जो गवाही देने के योग्य न हो। वि० [सं० न० त०] जो वाद में निरुत्तर न हुआ हो, और इसीलिए हारा न हो।
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अहीर  : पुं० [सं० अभीर] [स्त्री० अहीरिन] एक प्रसिद्ध जाति जो गौएँ, भैसें आदि पालती और उनके दूध, दही के व्यवसाय से जीविका निर्वाह करती हो।
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अहीरणि  : पुं० [सं० अहि√ईर् (दूर करना)+अनि] दो-मुँहा साँप।
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अहीरी  : वि० [हिं० अहीर] १. अहीर संबंधी। २. अहीरों का-सा। स्त्री० अहीर जाति की स्त्री। स्त्री० -आभीरी (रागिनी)।
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अहीश  : पुं० [सं० अहि-ईश, ष० त०] १. साँपों के राजा। शेषनाग। २. शेष के अवतार लक्ष्मण, बलराम आदि।
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अहुजी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का मीठा पलाव जिसमें कद्दू के छोटे-छोटे टुकड़े मिले रहते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अहुटना  : अ० [सं० हठ, हिं० दे० हटना] १. अलग पृथक् या दूर होना। २. पीछे हटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहुटाना  : [सं० हठ, हिं० दे० हटना] १. अलग पृथक् या दूर होना। २. पीछे हटाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहुँठ  : वि० [सं० अध्युष्ठ, अड्ढुड्ढ, अर्द्ध मा० अड्ढुडुढ] तीन और आधा। साढ़ेतीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहुँठा  : पुं० [हिं० अहुँठ] गणित में, साढ़ेतीन का पहाड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहुँठा  : पुं० [सं० अध्युष्ठ] साढ़े तीन का पहाड़ा।
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अहुत  : पुं० [सं० न० ब०] वह वेद-पाठ जिसमें आहुति नही दी जाती। ब्रह्मयज्ञ।
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अहुरमज्द  : पुं० [पह०] पारसियों में, धर्म और प्रकाश का अधिष्ठाता देवता।
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अहूठन  : पुं० [सं० स्थूण] लकड़ी का कुंदा जिस पर चारा रखकर काटा जाता है।
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अहे  : पुं० [देश०] एक पेड़ तथा उसकी लकड़ी। अव्य० [सं० हे०] १. संबोधन सूचक अव्यय। हे। २. आश्चर्य सूचक अव्यय। अहा।
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अहेड़  : पुं० =अहेर। (आखेट)।
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अहेतु  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें या जिसका कोई उद्देश्य कारण या हेतु न हो। २. व्यर्थ। फजूल। पुं० [न० त०] १. हेतु का अभाव। २. एक काव्यालंकार जिसमें कारणों के इकट्ठे रहने पर भी कार्य का न होना दिखलाया जाता है।
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अहेतुक  : पुं० [सं० आखेट] शिकार।
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अहेर  : पुं० [सं० आखेट] [वि० अहेरी] १. शिकार। मृगया। २. वह जंतु जिसका शिकार किया जाए।
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अहेरी  : पुं० [हिं० अहेर] १. वह जो शिकार करता हो। शिकारी। २. व्याध।
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अहै  : अ० [सं० अस्] पुरानी हिंदी और ब्रजभाषा में होना क्रिया का सामान्य वर्त्तमानकालिक रूप हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहैतुक  : वि० [सं० हेतु+ठञ्-क, न० त०] जिसमें या जिसका कोई हेतु या कारण न हो।
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अहो  : अव्य० [सं० √हा(त्याग गति)+डो, न० त०] १. विस्मय, हर्ष, खेद आदि सूचक एक अव्यय। २. हे। ओ। (संबोधन)।
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अहोई  : स्त्री० [हिं० अ+होना] दीपावली के आठ दिन के पहले होनेवाली एक पूजा जिसमें स्त्रियाँ संतान की प्राप्ति और रक्षा के लिए व्रत करती है। वि०=अनहोनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अहोनस  : पुं० [सं० अहर्निश] रात-दिन। सदा। उदाहरण—प्रसणा सोण अहोनस पालत पग सावरत रहै षूमांण।—प्रिथीराज।
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अहोनिस  : क्रि० वि० [सं० अहर्निश] १. रात-दिन। सदा। २. निरंतर। लगातार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अहोरत्न  : पुं० [सं० अहन्-रत्न, ष० त०] सूर्य।
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अहोरा-बहोरा  : पुं० [सं० अहः-दिन+हिं० दे० बहुरना] विवाह होने पर दुलहिन का पहली बार ससुराल जाना और फिर उसी समय मायके लौटना। हेरा-फेरी। क्रि० वि० बार-बार। रह-रहकर। उदाहरण—शरद चंद महँ खंजन जोरी। फिर-फिरि लरहिं अहोर-बहोरी।—जायसी।
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अहोरात्र  : पुं० [सं० अहन्-रात्रि, द्व० स० टच्] दिन और रात दोनों। क्रि० वि० रात-दिन। सदा।
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अहोरिन  : स्त्री० [?] एक प्रकार की चिड़िया।
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अह्निज  : वि० [सं० अलुक्] दिन में होनेवाला।
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अह्रीक  : वि० [सं० न० ब० कप्] निर्लज्ज। पुं० बौद्ध भिक्षु।
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अह्ल  : वि० [अ०] योग्य अधिकारी। पात्र। विशेष—कुछ शब्दों के पहले उपसर्ग के रूप में लगकर यह ‘जानकर’ ‘वाला’ आदि अर्थ भी देता है। जैसे—अह्ले जवान-भाषाविद्। अह्ले खाना-घरवाले लोग आदि। (दे० अहल)।
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अह्लकार  : पुं० =अहलकार।
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अह्लमद  : पुं० =अहलमद।
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