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दीक्षा  : स्त्री० [सं०√दीक्ष् (यज्ञ करना)+अ-टाप्] १. सोमयागादि का संकल्प-पूर्वक अनुष्ठान करना। २. यज्ञ करना। यजन। ३. किसी पवित्र मंत्र की वह शिक्षा जो आचार्य या गुरू से विधिपूर्वक शिष्य बनने अथवा किसी संप्रदाय में सम्मिलित होने के समय ली जाती है। क्रि० प्र०—देना।—लेना। ४. उपनयन संस्कार, जिसमें विधिपूर्वक गुरु से मंत्रोपदेश लिया जाता है। ५. गुरुमंत्र। ६. पूजन।
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दीक्षा-गुरु  : पुं० [स० त०] वग गुरु जो धार्मिक दृष्टि के कान में मंत्र फूँकता हो। मंत्रोपदेश करनेवाला गुरु।
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दीक्षा-पति  : पुं० [ष० त०] दीक्षा या यज्ञ का रक्षक, सोम।
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दीक्षांत  : पुं० [सं० दीक्षा-अंत ष० त०] वह अवभृथ यज्ञ जो किसी यज्ञ के अन्त में उसकी दृष्टि, दोष आदि की शांति के लिए किया जाता है। २. किसी सत्र की पढ़ाई का सफलतापूर्ण अंत। वि० दीक्षा के अंत में होनेवाला। जैसे—दीक्षांत भाषण।
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दीक्षांत-भाषण  : पुं० [स० त०] आज-कल विश्वविद्यालयों में किसी विद्वान का वह भाषण जो उच्च परीक्षाओं में उत्तीर्ण होनेवाले विद्यार्थियों को उपाधि, प्रमाण-पत्र आदि देने के उपरान्त होता है। (कान्वोकेशन एड्रेस)
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