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शब्द का अर्थ

पिश  : वि० [सं०√पिश्+क] १. पाप आदि न करनेवाला। पाप-रहित। २. अनेक रूपोंवाला।
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पिश  : वि० [सं०√पिश्+क] १. पाप आदि न करनेवाला। पाप-रहित। २. अनेक रूपोंवाला।
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पिशंग  : पुं० [सं०√पिश् (अंश होना)+अगच्] लाली लिये भूरा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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पिशंग  : पुं० [सं०√पिश् (अंश होना)+अगच्] लाली लिये भूरा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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पिशंगक  : पुं० [सं० पिशंग+कन्] १. विष्णु। २. विष्णु का अनुचर।
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पिशंगिला  : स्त्री० [सं० पिश्√गिल् (लीलना)+ख, मुम्, टाप्] काँसा नामक मिश्र धातु।
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पिशंगिला  : स्त्री० [सं० पिश्√गिल् (लीलना)+ख, मुम्, टाप्] काँसा नामक मिश्र धातु।
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पिशंगी (गिन्)  : वि० [सं० पिशंग+इनि] पिशंग वर्ण का।
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पिशंवाज़  : पुं०=पेशबाज (स्वागत)। स्त्री० [फा० पिश्वाज़] एक तरह का घाघरा जिसे नर्तकियाँ पहनकर नाचती थीं।
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पिशंवाज़  : पुं०=पेशबाज (स्वागत)। स्त्री० [फा० पिश्वाज़] एक तरह का घाघरा जिसे नर्तकियाँ पहनकर नाचती थीं।
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पिशाच  : पुं० [सं० पिश+आ√चम् (खाना)+ड, पृषो० सिद्धि] [वि० पैशाच, पैशाची] [स्त्री० पिशाचिनी, पिशाची] एक प्रकार का भूत या प्रेत जिनकी गणना हीन देवयोनियों में होती है तथा जो वीभत्स कर्म करनेवाले माने जाते हैं। २. उक्त के आधार पर वीभत्स तथा जघन्य कर्म करनेवाला व्यक्ति। ३. किसी काम या बात के संबंध में वैसा ही उग्र और भीषण रूप रखनेवाला जैसा पिशाचों का होता है। जैसे—अर्थ-पिशाच, बुद्धि-पिशाच। ४. कश्मीर की सीमा से प्राचीन भारत की पश्चिमोत्तर सीमा तक के प्रदेश का प्राचीन नाम। वि० मांस खानेवाला। मांस-भोजी।
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पिशाच  : पुं० [सं० पिश+आ√चम् (खाना)+ड, पृषो० सिद्धि] [वि० पैशाच, पैशाची] [स्त्री० पिशाचिनी, पिशाची] एक प्रकार का भूत या प्रेत जिनकी गणना हीन देवयोनियों में होती है तथा जो वीभत्स कर्म करनेवाले माने जाते हैं। २. उक्त के आधार पर वीभत्स तथा जघन्य कर्म करनेवाला व्यक्ति। ३. किसी काम या बात के संबंध में वैसा ही उग्र और भीषण रूप रखनेवाला जैसा पिशाचों का होता है। जैसे—अर्थ-पिशाच, बुद्धि-पिशाच। ४. कश्मीर की सीमा से प्राचीन भारत की पश्चिमोत्तर सीमा तक के प्रदेश का प्राचीन नाम। वि० मांस खानेवाला। मांस-भोजी।
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पिशाच-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] पिशाचों की तरह श्मशान आदि में घूमना।
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पिशाच-पति  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पिशाच-पति  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पिशाच-बाधा  : स्त्री० [मध्य० स०] वह कष्ट जो किसी पिशाच के उपद्रवों के कारण प्राप्त हो।
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पिशाच-बाधा  : स्त्री० [मध्य० स०] वह कष्ट जो किसी पिशाच के उपद्रवों के कारण प्राप्त हो।
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पिशाच-भाषा  : स्त्री० [ष० त०] पैशाची नामक प्राकृत भाषा।
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पिशाच-मोचन  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ पिंडदान करने से मृत व्यक्तियों की पिशाच योनि से मुक्ति होती है। २. काशी का एक प्रसिद्ध तालाब जिसके किनारे पिंडा पारा जाता है। प्रसिद्ध है कि यहाँ पिंड-दान करने से जीवात्मा की पिशाच-योनि से मुक्ति हो जाती है।
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पिशाच-मोचन  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ पिंडदान करने से मृत व्यक्तियों की पिशाच योनि से मुक्ति होती है। २. काशी का एक प्रसिद्ध तालाब जिसके किनारे पिंडा पारा जाता है। प्रसिद्ध है कि यहाँ पिंड-दान करने से जीवात्मा की पिशाच-योनि से मुक्ति हो जाती है।
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पिशाच-संचार  : पुं० [ष० त०] किसी के शरीर में पिशाच का होनेवाला वह संचार जिसके फलस्वरूप वह पिशाचों के से घृणित और जघन्य कार्य करने लगता है।
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पिशाच-संचार  : पुं० [ष० त०] किसी के शरीर में पिशाच का होनेवाला वह संचार जिसके फलस्वरूप वह पिशाचों के से घृणित और जघन्य कार्य करने लगता है।
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पिशाचक  : पुं० [सं० पिशाच+कन्] पिशाच।
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पिशाचक  : पुं० [सं० पिशाच+कन्] पिशाच।
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पिशाचकी (किन्)  : पुं० [सं० पिशाचक+इनि] कुबेर।
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पिशाचघ्न  : वि० [सं० पिशाच√हन् (मारना)+ठक्] पिशाचों को नष्ट या दूर करनेवाला। पुं० पीली सरसों जिसका प्रयोग प्रायः ओझा और तांत्रिक भूत-प्रेत की बाधा दूर करने के लिए करते हैं।
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पिशाचघ्न  : वि० [सं० पिशाच√हन् (मारना)+ठक्] पिशाचों को नष्ट या दूर करनेवाला। पुं० पीली सरसों जिसका प्रयोग प्रायः ओझा और तांत्रिक भूत-प्रेत की बाधा दूर करने के लिए करते हैं।
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पिशाचद्रु  : पुं० [मध्य० स०] सिहोर का पेड़।
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पिशाचद्रु  : पुं० [मध्य० स०] सिहोर का पेड़।
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पिशाचांगना  : स्त्री० [पिशाच-अंगना, ष० त०] पिशाच प्रदेश की स्त्री।
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पिशाचांगना  : स्त्री० [पिशाच-अंगना, ष० त०] पिशाच प्रदेश की स्त्री।
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पिशाचालय  : पुं० [पिशाच-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ फास्फोरस के कारण अँधेरे में प्रकाश होता है, और इसी लिए जिसे लोग पिशाचों के रहने का स्थान समझते हैं।
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पिशाचालय  : पुं० [पिशाच-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ फास्फोरस के कारण अँधेरे में प्रकाश होता है, और इसी लिए जिसे लोग पिशाचों के रहने का स्थान समझते हैं।
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पिशाचिका  : स्त्री० [सं० पिशाच+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. पिशाचयोनि की स्त्री। २. छोटी जटामासी।
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पिशाचिका  : स्त्री० [सं० पिशाच+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. पिशाचयोनि की स्त्री। २. छोटी जटामासी।
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पिशाची  : स्त्री० [पिशाच+ङीष्] १. पिशाच स्त्री। २. जटामासी। स्त्री०=पैशाची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिशाची  : स्त्री० [पिशाच+ङीष्] १. पिशाच स्त्री। २. जटामासी। स्त्री०=पैशाची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिशिक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश। (बृहत्संहिता)
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पिशिक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश। (बृहत्संहिता)
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पिशित  : पुं० [सं०√पिश्+क्त] १. मांस। गोश्त। २. मांस का टुकड़ा या बोटी।
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पिशित  : पुं० [सं०√पिश्+क्त] १. मांस। गोश्त। २. मांस का टुकड़ा या बोटी।
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पिशिता  : स्त्री० [सं० पिशित+टाप्] जटामासी।
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पिशिता  : स्त्री० [सं० पिशित+टाप्] जटामासी।
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पिशिताशन  : पुं० [सं० पिशित-अशन, ब० स०] १. वह जो मनुष्यों को खाता हो। २. राक्षस। ३. भेड़िया।
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पिशिताशन  : पुं० [सं० पिशित-अशन, ब० स०] १. वह जो मनुष्यों को खाता हो। २. राक्षस। ३. भेड़िया।
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पिशिनी  : स्त्री० दे० ‘पिशी’।
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पिशिनी  : स्त्री० दे० ‘पिशी’।
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पिशी  : स्त्री० [सं०√पिश्+क+ङीष्] जटामासी।
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पिशी  : स्त्री० [सं०√पिश्+क+ङीष्] जटामासी।
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पिशील  : पुं० [सं०√पिश्+ईल] मिट्टी का प्याला या कटोरा। (शतपथ ब्रा०)
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पिशील  : पुं० [सं०√पिश्+ईल] मिट्टी का प्याला या कटोरा। (शतपथ ब्रा०)
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पिशुन  : वि० [सं०√पिश्+उनन्] [भाव० पिशुनता] १. नीच। ३. क्रूर। ३. चुगलखोर। पुं० १. वह प्रेत जो गर्भिणी स्त्रियों को बाधा पहुँचाता हो। २. एक की दूसरे से बुराई करके दो पक्षों में लड़ाई करानेवाला व्यक्ति। ३. केसर। ४. तगर। ५. कपाल। ६. नारद। ७. कौआ।
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पिशुन  : वि० [सं०√पिश्+उनन्] [भाव० पिशुनता] १. नीच। ३. क्रूर। ३. चुगलखोर। पुं० १. वह प्रेत जो गर्भिणी स्त्रियों को बाधा पहुँचाता हो। २. एक की दूसरे से बुराई करके दो पक्षों में लड़ाई करानेवाला व्यक्ति। ३. केसर। ४. तगर। ५. कपाल। ६. नारद। ७. कौआ।
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पिशुन-वचन  : पुं० [ष० त०] चुगली।
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पिशुन-वचन  : पुं० [ष० त०] चुगली।
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पिशुनता  : स्त्री० [सं० पिशुन+तल्+टाप्] १. पिशुन होने की अवस्था या भाव। २. चुगलखोरी। ३. असबर्ग।
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पिशुनता  : स्त्री० [सं० पिशुन+तल्+टाप्] १. पिशुन होने की अवस्था या भाव। २. चुगलखोरी। ३. असबर्ग।
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पिशुना  : स्त्री० [सं० पिशुन+टाप्] चुगलखोरी।
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पिशुना  : स्त्री० [सं० पिशुन+टाप्] चुगलखोरी।
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पिशोन्माद  : पुं० [ब० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का उन्माद या पागल-पन जिसमें रोगी प्रायः ऊपर को हाथ उठाये रहता, अधिक बकता और रोता तथा गन्दा या मैला-कुचैला बना रहता है।
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पिशोन्माद  : पुं० [ब० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का उन्माद या पागल-पन जिसमें रोगी प्रायः ऊपर को हाथ उठाये रहता, अधिक बकता और रोता तथा गन्दा या मैला-कुचैला बना रहता है।
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पिशोर  : पुं० [देश०] हिमालय में होनेवाली एक प्रकार की झाड़ी जिसकी पतली, लचीली टहनियाँ बोझ बाँधने तथा टोकरे आदि बनाने के काम आती हैं।
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पिशोर  : पुं० [देश०] हिमालय में होनेवाली एक प्रकार की झाड़ी जिसकी पतली, लचीली टहनियाँ बोझ बाँधने तथा टोकरे आदि बनाने के काम आती हैं।
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