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प्रतिज्ञांतर  : पुं० [सं० प्रतिज्ञा-अंतर, मयू० स०] तर्क में एक प्रकार का निग्रह-स्थान, जिसमें अपनी की हुई प्रतिज्ञा का खंडन होने पर वादी अपने मन से कोई और दृष्टान्त देता हुआ अपनी प्रतिज्ञा में किसी नये धर्म का आरोप करता है। जैसे—यदि कहा जाय, ‘शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घट के समान इंद्रियों का विषय है।’ तो उसके उत्तर में यह कहना कि प्रतिज्ञांतर होगा—शब्द नित्य है, क्योंकि वह जाति के समान इन्द्रियों का विषय है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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