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शब्द का अर्थ

बाँ  : पुं० [अनु०] गाय के रँभाने का शब्द। पुं०=बार (दफा)
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बा  : पुं० [सं० वा=जल] पानी। जल। पुं०=बार। (दफा)। स्त्री० [अनु०] माता। माँ। (गुजरात और राजस्थान) अव्य० [फा०] १. सहित। साथ। जैसे—बाअदबब=अदब से। २. युक्त। सम्मिलित। जैसे—बाईमान। (बे-ईमान का विपर्याय)। स्त्री०=बाई का संक्षिप्त रूप। (स्त्रियों का सम्बोधन)।
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बा  : हिं० बाबू का संक्षिप्त रूप। जैसे—बा० दुर्गाप्रसाद।
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बा-जाब्ता  : अव्य० [अ० बा+फा० ज़ाबितः] जाब्ते के साथ। नियम, विधान आदि के अनुसार। जैसे—किसी के माल की बा-जाब्ता कुर्की कराना। वि० जो जाब्ते अर्थात् नियम, विधान आदि के अनुसार ठीक हो।
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बाइ  : स्त्री० [स० वापी] छोटा तालाब। बावली। उदाहरण—अति अगाधु अति औथरो नदी कूपु सरू बाइ।—बिहारी। स्त्री०=वायु। (हवा)।
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बाइगी  : स्त्री० [सं० वार्ता या हिं० बाई=वायु] व्यर्थ की बकवाद। उदाहरण—कौन बाइगी सुनै ताहि किन मोहि बतायौ।—नन्ददास।
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बाइबिल  : स्त्री० [अं०] ईसाइयों की मुख्य और प्रसिद्ध धर्म० -पुस्तक।
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बाइस  : पुं० [फा] सबब। कारण। वजह। वि० पुं०—बाईस।
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बाइसवाँ  : वि०=बाईसवाँ।
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बाइसिकिल  : स्त्री० [अं०] आगे-पीछे बँधे हुए दो पहियों की एक प्रसिद्ध सवारी जो पैरों से चलायी जाती है।
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बाई  : स्त्री० [सं० वायु] बात, जो त्रिदोषों में से एक है। वि० दे० बात। क्रि० प्र०—आना।—उतरना।—चढ़ना। पद—बाई की झोंक=(क) वायु का प्रकोप। (ख) किसी मनोवेग का बहुत ही तीव्र या प्रबल आवेग। मुहावरा—बाई चढ़ना=(क) वायु का प्रकोप होना। (ख) किसी प्रकार का बहुत ही प्रबल या मनोवेग उत्पन्न होना। बाई पचाना=(क) वायु का प्रकोप शान्त होना (ख) उग्र या तीव्र मनोवेग शान्त होना। (ग) व्यर्थ का घमंड टूटना या नष्ट होना। (किसी की) बाई पचाना=अभिमान नष्ट करना। घमंड तोड़ना। स्त्री० [हिं० बावा] १. स्त्रियों के लिए एक आदर सूचक शब्द। जैसे—लक्ष्मी बाई। २. उत्तर भारत में प्रायः नाचने-गानेवाली वेश्याओं के साथ लगनेवाला शब्द। जैसे—जानकी बाई, मोती बाई। पद—बाईजी=नाचने-गानेवाली वेश्या।
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बाईस  : वि० [सं० द्वाविंशति, प्रा० बाइसा] जो गिनती में बीस से दो अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो अंकों में इस प्रकार (२२) लिखी जाती है।
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बाईसवाँ  : वि० [हिं० बाईस+वाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० बाईसवी] क्रम के विचार से बाईस के स्थान पर पड़नेवाला।
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बाईसी  : स्त्री० [हिं० बाईस+ई (प्रत्यय)] १. एक ही प्रकार की बाईस वस्तुओं का समूह। जैसे—खटमल बाईसी। २. मुगल सम्राटों के काल में वह सेना जो उसके बाई सूत्रों के सैनिकों से बनायी जाती थी। ३. बाईस हजार सैनिकों की सेना। मुहावरा—(किसी पर) बाईसी टूटना=पूरी शक्ति से आक्रमण होना।
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बाउँ  : वि०=वाम। (बायाँ)। क्रि० वि०=बाएँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाउ  : स्त्री० वायु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाउर  : वि० [सं० वातुल] [स्त्री० बाउरी] १. बावला। पागल। २. भोला-भाला। ३. बेवकूफ मूर्ख। ४. गूँगा। ५. खराब। बुरा।
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बाउरी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की घास। स्त्री०=बावली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाउल  : पुं० [वातुल] १. बंगाल का एक वैष्णव सम्प्रदाय जो विवेक को ईश्वर और अपना प्रियतम मानकर उसी की उपासना करता है। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी। वि०=बावला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाऊ  : पुं० [सं० वायु] हवा। पवन।
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बाएँ  : क्रि० वि० [हिं० बायाँ] १. जिधर बायाँ हाथ हो उधर अथवा उस दिशा में। बायें हाथ। २. वस्तु आदि के संबंध में जिस का मुँह जिस ओर हो उससे उत्तर दिशा में।
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बाओटा  : पुं० [सं० वायु] बात का होनेवाला गठिया नामक रोग। पुं० १.=बावटा (झंडा)। २.=वाहुटा (बाजूबंद)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँक  : स्त्री० [सं० बंक०] १. टेढ़ापन। वक्रता। २. घुमाव या मोड़ जैसे—नदी की बाँक। ३. हाथ में पहनने की एक प्रकार की चूड़ी। ४. पैरों में पहनने का चाँदी का एक प्रकार का गहना। ५. बाँह पर का गहना। ६. बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना। ७. लोहारों का वह शिकंजा जिसमें वे चीजों को कसकर रखते हैं। ८. गन्ना छीलने का सरौते के आकार का एक उपकरण। ९. एक प्रकार की टेढ़ी-बड़ी छुरी या कटारी। १॰. उक्त छुरी या कटारी चलाने का कौशल या विद्या। ११. उक्त कौशल या विद्या सीखने के लिए किया जानेवाला अभ्यास। वि० १. घुमावदार। टेड़ा। वक्र। २. दे० ‘बाँका’। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास। पुं० [?] जहाज के ढांचे में वह शहतीर जो खड़े बल में लगाया जाता है।
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बाँक-डोरी  : स्त्री० [हिं० बाँक] एक प्रकार का शस्त्र।
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बाकचाल  : वि०=वाचाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँकड़ा  : पुं० [सं० बंक] छकड़े की आँक की वह लकड़ी जो धुरे के नीचे आड़े बल लगी रहती है। वि०=बाँकुड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँकनल  : पं० [सं० बंकनाल] सुनारों काएक औजार जिससे फूँक मारकर टाँका लगाते हैं।
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बाँकना  : स० [सं० बंक] टेढ़ा करना। अ० टेढ़ा होना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाकना  : अ०=बकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँकपन  : पुं० [हिं० बाँका+पन (प्रत्यय)] १. टेढ़ापन। तिरछापन। २. बाँका होने की अवस्था या भाव। ३. बनावट रचना या रूप की अनोखी सुन्दरता।
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बाकर  : वि० [फा० बाक़िर] पंडित। विद्वान्।
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बाकरखानी  : स्त्री० [बाकर खाँ नाम] एक प्रकार की मुसलमानी रोटी (या खिचड़ी)
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बाकरी  : स्त्री०=बावली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाकल  : पुं०=वल्कल (छाल)।
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बाकलि  : पुं०=बकरा। स्त्री०=वल्कल।
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बाकली  : स्त्री० [सं० बकुल] एक प्रकार का वृक्ष जिसके पत्ते रेशम के कीड़ों को खिलाये जाते हैं। इसे धौरा और बोंदार भी कहते हैं।
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बाकस  : पुं०=बक्स। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाकसी  : स्त्री० [अ० बैकसेल] जहाज के पाल को एक ओर से दूसरी ओर करने का काम।
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बाँका  : वि० [सं० बंक] [स्त्री० बाँकी] १. टेढ़ा। तिरछा। २. जिसमें बहुत ही अनोखा माधुर्य और सौन्दर्य हो। जैसे—बाँकी अदा। ३. (व्यक्ति) जिसकी चाल-ढाल, वेष-भूषा, सज-धज आदि में अनोखा सौन्दर्य हो। जैसे—बाँका जवान। ४. छैला। ५. बहादुर और हिम्मतवार। वीर और साहसी। जैसे—बाँका सिपाही। ६. विकट। बीहड़। (राज० ) पुं० १. लोहे का बना हुआ एक प्रकार का हथियार जो टेढ़ा होता है। २. वह गुंड़ा या बदमाश अपने पास उक्त शस्त्र रखता हो। ३. सदा बना-ठना रहनेवाला बदमाश या लुच्चा। गुंडा। (लखनऊ) ४. बारातों आदि में अथवा किसी जुलूस में वह बालक या युवक जिसे खूब सुन्दर और अलंकार आदि से सजाकर तथा घोड़े या पालकी में बैठाकर शोभा के लिए निकाला जाता है। ५. धान की फसल को नुकसान पहुँचानेवाला एक प्रकार का कीड़ा।
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बाका  : स्त्री० [सं० वाक्] बोलने की शक्ति। वाणी।
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बाँकिया  : पुं० [सं० बंक=टेढ़ा] १. नरसिंहा नाम का बाजा जो आकार में कुछ टेढ़ा होता है। २. रथ के पहिए की आगे की वह टेढ़ी लकड़ी जिस पर उसकी धुरी टिकी रहती है।
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बाँकी  : पुं० [हिं० बाँका] बाँस को काटकर खपचियाँ, तीलियाँ आदि बनाने का एक प्रकार का उपकरण। वि० स्त्री०=बाकी।
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बाकी  : वि० [अ० बाक़ी] १. जो कुल या समस्त में से अधिकांश निकाल लिये जाने, क्षय अथवा व्यय होने पर बच रहा हो। २. (काम, चीज या बात) जो अभी किये बनाये, होने या कहे जाने को हो। जैसे—बाकी काम कल करूँगा। क्रि० प्र०—पड़ना।—बचना।—रहना। ३. (धन, राशि या रकम) जो अभी किसी को देय हो अथवा किसी से प्राप्य हो। जिसका लेन-देन अभी होने को हो। जैसे—अभी खाते में सै रुपए उनके नाम बाकी है। क्रि० प्र०—निकलना।—पड़ना।—होना। ४. अवधि या समय जो अभी व्यतीत न हुआ हो। जैसे—अभी महीना पूरा होने में चार दिन बाकी है। क्रि० प्र०—रहना। ५. जो अन्त में या सबसे पीछे होने को हो। जैसे—अब तो मरना बाकी है। स्त्री० १. गणित में वह क्रिया जो किसी बड़ी संख्या (या मान) में से छोटी संख्या (या मान) घटाने के लिए की जाती है। एक बड़ी और दूसरी छोटी संख्या का अन्तर निकालने की क्रिया या प्रकार। जैसे—७ में से ५ घटाना या निकालना। २. उक्त क्रिया करने पर निकलनेवाला फल। वह मान या संख्या जो एक बड़ी संख्या में से दूसरी छोटी संख्या घटाने से प्राप्त होती है। जैसे—१0 में से यदि ६ घटाएँ तो बाकी ४. होगा। क्रि० प्र०—निकलना। ३. वह धन या रकम जो अभी वसूल न हुई हो और वसूल की जाने को हो। जैसे—इतना तो ले लीजिए और जो बाकी निकले वह नये खाते में लिख लीजिए। ४. वह जो सबसे अन्त में बचा रहे। जैसे—अब तो यही बाकी है कि उन पर मुकदमा चलाया जाय। ५. अवशेष। अव्य० परन्तु। मगर। लेकिन। जैसे—आपका कहना तो ठीक है बाकी मैं स्वयं चलकर उनके घर नहीं जाऊँगा। (बोल-चाल) पुं० [देश] एक प्रकार का धान।
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बाँकुड़  : वि० [स्त्री० बाँकुड़ी]=बाँकुरा।
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बाँकुड़ी  : स्त्री० [सं० बंक+हिं० ड़ी] कलाबत्तू या बादाले की बनी हुई वह पतली डोरी या फीता जो साड़ियों आदि के किनारों पर शोभा के लिए लगाया जाता है।
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बाकुंभा  : पुं० [हिं० कुम्भी] कुम्भी के फूल का सुखाया हुआ केसर जो खाँसी और सर्दी में दवा की भाँति दिया जाता है।
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बाँकुर  : वि० [हिं० बाँका] १. बाँका। टेढ़ा। २. नुकीला। पैना। ३. चतुर। होशियार।
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बाँकुरा  : वि० [हिं० बाँका] १. बाँका। टेढ़ा। २. तेज धार का। ३. कुशल। चतुर।
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बाखड़ी  : स्त्री०=बाखली (गौ या भैंस)
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बाखर  : पुं० [देश] एक प्रकार का तृण।
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बाखरि  : स्त्री० दे० ‘बखरी’।
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बाखल  : स्त्री०=बखरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाखली  : स्त्री० [देश] वह गाय या भैंस जो बच्चा देने के बाद पाँच महीने तक दूध दे चुकी हो।
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बाखैर  : वि० [फा० बा+अं० खैर] खैरियत से। कुशलतापूर्वक।
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बाख्तर  : पुं० [फा० बख्तर] १. पूर्व। पूरब। २. हिन्दुकुश और वक्षु (आक्सम) के बीच एक प्राचीन जनपद। बल्ख नामक प्रदेश।
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बाँग  : स्त्री० [फा०] १. ध्वनि। स्वर। २. नमाज के समय नमाज पढ़नेवालों को मसजिद में आकर नामज पढ़ने के लिए बुलाने के निमित्त मुल्ला द्वारा की जानेवाली उच्च स्वर में पुकार। ३. भोर केसमय मुर्गे के बोलने के स्वर।
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बाग  : पुं० [अ० बागु] खेती के योग्य भूमि का वह टुकड़ा जो चारों ओर से प्रायः दीवार से घिरा होता है तथा जिसमें फूलों और फलों वाले अनेक प्रकार के पौधे और वृक्ष होते हैं। स्त्री० [सं० वल्गा] १. लगाम। २. शक्ति। सामर्थ्य। उदाहरण—मम सेवक कर केतिक बागा।—तुलसी। मुहावरा—बाग मोड़ना=किसी ओर चलते हुए को किसी दूसरी ओर प्रवृत्त करना। किसी ओर घुमाना। बाग हाथ से छूटना=अवसर, नियन्त्रण आदि हाथ से निकल जाना। स्त्री० [सं० वाक्] वाणी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँगड़  : पुं० [देश] करनाल, रोहतक, हिसार आदि के आस-पास का प्रदेश। हरियाना। स्त्री० उक्त प्रदेश की बोली जो खड़ीबोली या पश्चिमी हिन्दी की एक शाखा है। हरियानी। वि०=बाँगड़।
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बागड़  : पुं० [?] १. बिना बस्ती का देश। उजाड़। २. दे० ‘शाद्वल’।
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बाँगड़ी  : वि० [हिं० बाँगड़] बाँगड़ या हरियाना प्रदेश का। स्त्री०=बाँगड़ (बोली)
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बाँगड़ू  : वि० [हिं० बाँगड़] असभ्य, उजड्ड और पूरा गँवार।
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बागडोर  : स्त्री० [हिं० बाग+डोर=रस्सी] १. वह रस्सी जो घोड़ की लगाम में बाँधी जाती है और पकड़कर सईस लोग उसे टहलाते हैं। २. लगाम। ३. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसी चीज या बात जिसके द्वारा किसी को वश में किया जाता है।
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बाँगदरा  : स्त्री० [फा० बाँग] १. घंटे या घड़ियाल की ध्वनि। २. काफिले में प्रस्तान के समय बजनेवाले घण्टों की ध्वनि या आवाज।
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बागदार  : पुं० [फा० बाग+दार] बाग का स्वामी।
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बागना  : अ० [फा० बाग] १. बाग में घूमना। सैर करना। अ० [सं० वाक्=बोलना] १. कहना। बोलना। २. आक्रमण करना। ३. किसी को दबाने के लिए आगे बढ़ना या उद्यत होना। उदाहरण—सब्दति अहेड़ै मिस रिध कोस बलस्यूं बागो।—गोरखनाथ।
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बागबान  : पुं० [फा० बागबान] [भाव० बागबानी] वह व्यक्ति जो बाग में पेड़-पौधे उगाता तथा रोपता हो और उनकी देखभाल तथा सेवासुश्रुषा करता हो। बाग का माली।
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बागबान  : पुं० [भाव० बागवानी]=बागवान।
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बागबानी  : स्त्री० [फा०] बाग में पेड़-पौधे उगाने तथा उनकी देखभाल करने का काम।
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बागबिलास  : पुं०=बाग्विलास। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँगर  : पुं० [देश] १. छकड़ा गाड़ी का वह बाँस जो फड़ के ऊपर लगाकर फड़ के सात बाँध दिया जाता है। २. ऐसी ऊँची जमीन जिस पर आस-पास के जलाशय की बाढ़ का पानी न पहुँचता हो। ‘खादर’ का विपर्याय। ३. वह भूमि जो पशुओं के चरने के लिए छोड़ दी गयी हो, अथवा जिसमें पशु चरते हों। चरागाह। चरी। (मेडो) ४. अवध प्रांत में होनेवाला एक प्रकार का बैल।
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बागर  : पुं० [देश] १. नदी के किनारे की वह ऊँची भूमि जहाँ तक नदी का पानी कभी पहुँचता ही नहीं। २. दे० ‘बाँगुरा’। ३. चमगादड़। (राज०)
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बागल  : पुं०=बगुला।
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बाँगा  : पुं० [देश] ऐसी रूई जिसमें से बिनौले अभी तक न निकाले गये हो। कपास।
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बागा  : पुं० [फा० बागी] अंगे की तरह का पुरानी चाल का पहनावा।
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बागी  : पुं० [अ० बागी] देश की प्रभुसत्ता के विरुद्ध तथा शासन उलटने के उद्देश्य से सैनिक विद्रोह करनेवाला व्यक्ति। बगावत करनेवाला।
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बागीचा  : पुं० [फा० बागीचः] छोटा बाग विशेषतः घर के चारों ओर का वह स्थान जिसमें शोभा के लिए पेड़-पौधे लगाये जाते हैं।
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बाँगुर  : पुं० [सं० बागुरा] १. पशुओं या पक्षियों को फँसाने का जाल। फँदा। २. फँसने या फँसाने का कोई स्थान। उदाहरण—तुलसीदास यह विपत्ति बाँगुरी तुमहिं सौ बनै निबेरे।—तुलसी।
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बागुर  : पुं० [देश] १. वह जाल जिसमें बहेलिया पक्षियों तथा छोटे-मोटे जंगली पशुओं को फँसाते हैं। २. बहेलिया।
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बागेसरी  : स्त्री० [सं० बागीश्वरी] १. सरस्वती। २. बागेश्वरी नाम की एक रागिनी जिसे रात के समय गाया जाता है तथा जो किसी के मत से मालकोश राग की स्त्री और किसी के मत से संकर रागिनी की है।
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बाघ  : पुं० [सं० व्याघ्र] शेर की जाति का परन्तु उससे आकार-प्रकार में कुछ छोटा हिंसक जन्तु पशु। व्याघ्र।
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बाघ-कुंजर  : पुं० [हिं०+सं०] कपड़ों की छपाई, रँगाई आदि में ऐसी आकृतियाँ जिनमें बाघ और हाथी की लड़ाई का दृश्य हो।
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बाघंबर  : पुं० [सं० व्याघ्राम्बर] १. बाघ की खाल जो ओढ़ने, बिछाने आदि के काम आती है। २. एक प्रकार का रोएँदार कम्बल जो देखने में बाघ की खाल का सा जान पड़ता है।
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बाघा  : पुं० [हिं० बाघ] १. चौपायों का एक रोग जिसमे उनका पेट अत्यधिक फूल जाता है। २. एक प्रकार का कबूतर।
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बाघी  : स्त्री० [देश] आतशक, गरमी आदि के रोगियों को पेडू और जाँघ के संधि-स्थल पर होनेवाली एक तरह की गिल्टी।
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बाघुल  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की छोटी मछली।
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बाच  : वि० [सं० वाच्य] १. वर्णन करने के योग्य। २. अच्छा। बढ़िया। ३.सुन्दर। स्त्री०=वाचा (वाणी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँचना  : स० [स० वाचन] १. पढ़ना। २. पढ़कर सुनाना। अ०=बचना। स०=बचाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाचना  : अ०=वचना। स०=बचाना। स०=बाँचना (पढ़ना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाचा  : स्त्री० [सं० वाचा] १. बोलने की शक्ति। २. बात-चीत। ३. प्रतिज्ञा प्रण।
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बाचाबंध  : पुं०=वचन-बद्ध।
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बाछ  : पुं० [हिं० बाछना] १. बाछने की क्रिया या भाव। २. गाँव में कर, चंदे मालगुजारी आदि का फैलाया हुआ ऐसा परता जो प्रत्येक हिस्सेदार के हिस्से के अनुसार हो। बछौटा। बेहरी। पुं०=बाछा। स्त्री० [प्रा० बच्छ] होठों का कोना या सिरा। मुहावरा—बाछें खिलना=इतना प्रसन्न होना कि मुँह पर बरबस मुस्कराहट या हँसी या जाय।
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बाछड़ा  : पुं०=बछड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँछना  : स० [सं० वाँछा] १. इच्छा या कामना करना। चाहना। २. चुनना। छाँटना। स्त्री०=बांछा (कामना)। स० दे० ‘बाछना’।
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बाछना  : स० [सं० विचयन] चुनना। छाँटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँछा  : स्त्री०=वांछा (इच्छा)
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बाछा  : पुं० [सं० वत्स, प्रा० बच्छ] [स्त्री० बाछी] १. गाय का बच्चा। बछड़ा। उदाहरण—बाछा बैल पतुरिया जोय, न घर रहे न खेती होय।—घाघ। २. बच्चों के लिए प्यार का सम्बोधन।
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बाँछित  : भू० कृ०=वांछित।
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बाज  : पुं० [अ० बाज] १. एक प्रकार का बड़ा शिकारी और हिंसक पक्षी। २. एक प्रकार का बगुला। ३. वह पर जो तीर में लगाया जाता है। वि० [फा०] वंचित। रहित। मुहावरा—(किसी चीज या बात से) बाज आना=(क) उपेक्षापूर्वक और जान-बूझकर अथवा त्याज्य या हानिकर समझकर उसे छोड़ देना या वंचित रहना। जैसे—हम ऐसे मकान (या रुपए) से बाज आये। (ख) अलग या दूर रहना। जैसे—तुम बदमाशी से बाज नहीं आओगे। (किसी को किसी काम या बात से) बाज करना=मना करना। रोकना। बाज रखना=(क) न रहने देना। (ख) रोक रखना। बाज रहना=अलग या दूर रहना। प्रत्यय० [फा०] एक प्रत्यय जो शब्दों के अंत में लगकर निम्न अर्थ देता है (क) करने या बनानेवाला। जैसे—बहानेबाज। (ख) अपने अधिकार में, वश में या पास में रखनेवाला अथवा किसी चीज या बात का व्यसन करनेवाला। जैसे—कबूतरबाज, नशेबाज, रंडीबाज वि० [अ० बअज] कोई-कोई। कुछ—थोड़े। कुछ विशिष्ट। जैसे—बाज आगमी बहुत जिद्दी होते हैं। क्रि० वि० बगैर। बिना। उदाहरण—अब तेहि बाज राँक भा डोली।—जायसी। पुं० [सं० वाजि] घोड़ा। पुं० [सं० वाद्य० हिं० बाजा] १. बाजा। २. बाजों से उत्पन्न होनेवाला शब्द। ३. बाजा बजाने का ढंग या रीति। जैसे—मुझे उनमें से किसी का बाजा पसन्द नहीं आया। ४. सितार के ५ तारों में से पहला जो पक्के लोहे का होता है। अव्य० [सं० वर्ज] बिना। उदाहरण—गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक।—जायसी। पुं० [देश] ताने के सूतों के बीच में देने की लकड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाज-दावा  : पुं० [फा०] १. दावा वापस लेना। नालिश वापस लेना। २. वह पत्र या लेख्य जिसमें अपना दावा वापस लेने का विवरम होता है। क्रि० वि०=लिखना।—लिखाना।
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बाजड़ा  : पुं०=बाजरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाजन  : पुं०=बाजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाजना  : अ० [सं० व्रजन] १. जाना। २. पहुँचना। अ० [सं० वादन] १. तर्क वितर्क या बहस करना। २. लडाई-झगड़ा करना। [सं० वदन] १. कहना। बोलना। २. किसी नाम से प्रसिद्ध होना। पुकारा जाना। ३. आघात लगना। प्रहार होना। वि० बजनेवाला। जो बजता हो।
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बाजरा  : पुं० [सं० वर्जरी] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके दानों की गिनती मोटे अन्न में होती है। २. उक्त पौधे के दाने जो उबाल या पीसकर खाये जाते हैं।
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बाजरा-मुर्ग  : पुं० [हिं०+फा०] एक प्रकार की काली चिड़िया जिसके ऊपर बाजरे की तरह के पीले दाग होते हैं।
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बाजहर  : पुं०=जहर मोहरा।
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बाजा  : पुं० [सं० वाद्य] १. संगीत में, वह उपकरण जो फूँके अथवा आघात किये जाने पर बजता है तथा जिसमे से अनेक प्रकार के स्वर आदि निकलते हैं। क्रि० प्र०—बजना।—बजाना। पद—बाजा-गाजा (दे०)। २. बच्चों के बजाने का कोई खिलौना। वि० [अ० बअज] कोई-कोई। कुछ जैसे—बाजे आदमी किसी की पुकार पर जरा भी ध्यान नहीं देते।
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बाजा-गाजा  : पुं० [हिं० बाजा+गाजना=गरजना] तरह-तरह के बाजे और उसके साथ होनेवाली धूम-धाम या हो-हल्ला। जैसे—बाजे-गाजे से बरात निकलना।
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बाजार  : पुं० [फा० बाजार] [वि, ० बाजारी, बाजारू] १. वह स्थान जहाँ किसी एक चीज अथवा अनेक चीजों के विक्रय के लिए पास-पास अनेक दूकानें हों। मुहावरा—बाजार करना=चीजें खरीदने के लिए बाजार जाना और चीजें खरीदना। बाजार गरम होना= बाजार में चीजों या ग्राहकों आदि की अधिकता होना। खूब लेने-देन या खीरद-बिक्री होना। (किसी काम या बात का) बाजार गरम होना=किसी काम या बात की बहुत अधिकता या बाहुल्य होना। जैसे—आज-कल चोरियों (या जुए) का बाजार गरम है। बाजार लगना=(क)बहुत सी चीजों का इधर-उधर ढेर लगना। बहुत सी चीजों का यों ही सामने रखा होना। (ख) बहुत भीड़-भाड़ इकट्ठी होना और वैसा ही हो हल्ला होना जैसे बाजारों में होता है। बाजार लगाना=(क) चीजें इधर-उधर फैला देना। (ख) अटाला या ढेर लगाना। (ग) भीड़-भाड़ लगाना और वैसा ही हो-हल्ला करना जैसा बाजारों में होता है। २. वह स्थान जहाँ किसी निश्चित समय, बार तिथि या अवसर आदि पर सब तरह की चीजों की दुकानें लगती हों। हाट। पैठ। मुहावरा—बाजार लगना=बाजार में सब तरह की दुकानें आकर खुलना या लगना। बाजार लगाना=ऐसी व्यवस्था करना कि किसी स्थान पर आकर सब तरह की दुकानें लगें। जैसे—राजा साहब हर मंगलवार को अपने किले के सामने बाजार लगवाते थे।३. किसी चीज की बिक्री की वह दर या भाव जिस पर वह साधारणतः सब जगह बाजारों में बिकती या मिलती हो।क्रि० प्र०—उतरना।—चढ़ना।—बढ़ना। पद—बाजार-भाव=किसी चीज का वह भाव या मूल्य जिस पर नह साधारणतः सब जगह बाजारों में मिलती हैं।मुहावरा—(किसी का) बाजार के भाव पिटना=बहुत बुरी तरह से मारा-पीटा जाना। (व्यंग्य) बाजार तेज होना=चीजों की माँग की अधिकता के कारण उनका मूल्य बढ़ना। बाजार मंदा होना=चीजों की माँग कम होने के कारण चीजों का भाव या मूल्य घटना। ४. व्यापारिक क्षेत्रों में व्यापारियों आदि का वह प्रत्यय या साख जिसके आधार पर उन्हें बाजार से चीजें और रुपए उधार मिलते हैं। जैसे—व्यापारियों को अपना व्यापार चलाने के लिए अपना बाजार बनाये रखना पड़ता है।
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बाजारी  : वि० [हिं० बाजार] १. बाजार-संबंधी। बाजार का। २. जो बहुत अच्छा या बढ़िया न हो। बाजारू। साधारण। ३. बाजार मे होनेवाला। बाजार में प्रचलित। जैसे—बाजारी बोल-चाल। ४. बाजार में रहने या बैठनेवाला। जैसे—बाजारी औरत। ५. दे० ‘बाजारू’।
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बाजारू  : वि० [फा० बाजार] १. बाजार का। बाजारी। (देखें) २. (शब्द या प्रयोग) जिसका प्रयत्न बाजार के साधारण लोगों में ही हो, शिक्षित या शिष्ट समाज मे न होता हो।
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बाजि  : पुं० [सं० वाजिन्, बाज+इनि] १. घोड़ा। २. चिड़िया। ३. तीर। बाण। ४. अड़ूसा। वि० चलनेवाला।
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बाजिंदा  : पुं० [फा० बाजिन्दः] १. खेल-तमासे दिखानेवाला। खेलाड़ी। २. लोटेन कबूतर।
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बाजी  : स्त्री० [फा० बाजी] १. किसी प्रकार की घटना के अनिश्चित परिणाम के प्रसंग में दो या अधिक पक्षों में होनेवाला पारस्परिक निश्चय कि जो पक्ष हार जायगा, उसे जीतनेवाले को उतना धन देना पड़ेगा, अथवा अपनी हार का सूचक अमुक काम करना पड़ेगा। खेलों या लाग-डाँटवली बातों के संबंध में लगाई जानेवाली ऐसी शर्त जिसके अनुसार हार-जीत के साथ कुछ लेना-देना भी पड़ता हो अथवा पुरस्कार भी मिलता हो। बदान। सर्त। २. इस प्रकार होनेवाला लेनदेन या मिलनेवाला पुरस्कार।क्रि० प्र०—जीतना।—बदना।—लगना।—लगाना।—हराना। मुहावरा—बाजी मारना=बाजी जीतना। बाजी के जाना=बाजी जीतना। ३. प्रत्येक बार आदि से अंत तक होनेवाला कोई ऐसा खेल जिसमें हार-जीत के भाव की प्रधानता हो। जैसे—आओ दो बाजी ताश (या शतरंज) हो जाय। क्रि० प्र०—जीतना।—हारना। ४. उक्त प्रकार के खेलों में प्रत्येक खिलाड़ी या दल के खेलने की पारी या बारी। दाँव। स्त्री० [फा० बाज का भाव] १. ‘बाज’ होने की अवस्था या भाव। २. किसी काम या बात के व्यसनी या शौकीन होने की अवस्था या भाव। जैसे—कबूतरबाजी, पतंगबाजी। ३. किसी प्रकार की क्रिया कु समय तक होते रहने का भाव। जैसे—दोनों में कुछ देर तक खूब घूँसेबाजी हुई। पुं० [सं० वाजिन्] घोड़ा। पुं० [हिं० बाजा] वह जो बाजा बजाने का काम करता हो। बजनिया।
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बाजीगर  : पुं० [फा० बाजीगर] [भाव० बाजीगरी] जादू के खेल करनेवाला। जादूगर। ऐंद्रजालिक।
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बाजू  : पुं० [फा० बाज़ू] १. भुजा। बाहु। बाँह। २. वह जो हाथ की तरह सदा साथ रहता और पूरी सहायता देता हो। ३. किसी चीज का कोई विशिष्ट अंग या पक्ष। पार्श्व। ४. पक्षियों का डैना। ५. बाजूबंद नाम का गहना। ६. उक्त गहने के आकार का गोदना।
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बाजूबंद  : पुं० [फा० बाजूबंद] बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना। भुजबंद।
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बाजूबीर  : पुं०=बाजूबंद।
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बाजोटा  : पुं० [सं० वाद्य+पट्ट] १. चौकी। २. बैठने की ऊँची जगह। (राज० ) उदाहरण—बाजोटा ऊतरि गादी बैठी।—प्रिथीराज।
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बाज्  : अव्य० [फा० बाज] १. बिना। बगर। उदाहरण—को उठाए बसारइ बाजू पियारे जीवै।—जायसी। २. अतिरिक्त। सिवा। पुं० [फा० बाजू] १. भुजा। बाँह। २. बाजूबंद।
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बाँझ  : स्त्री० [सं० वंध्या] १. वह स्त्री जिसे किसी शारीरिक विकार के कारण संतान न होती हो। वंध्या। २. कोई ऐसा मादा जंतु या पशु जिसे शारीरिक विकार के कारण बच्चा न होता हो। ३. ऐसी वनस्पति या वृक्ष जिसमें आंतरिक विकार के कारण फल, फूल आदि न लगें। वि० संतों की परिभाषा में, अज्ञानी या ज्ञानहीन। स्त्री० [देश] एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष जिसके फलों की गुठलियाँ बच्चों के गले में, उनको रोग आदि से बचाने के लिए बाँधी जाती है।
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बाझ  : अव्य० [सं० वर्जन] बगैर। बिना। उदाहरण—भिस्त न मेरे चाहिए बाझ पियारे तुज्झ।—कबीर।
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बाँझ-ककोड़ी  : स्त्री० [सं० वंध्या-कर्कोटकी] बनककोड़ा। खेखसा। वनपरवल।
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बाझन  : स्त्री० [हिं० बझना=फँसना] १. उलझना। फँसना। बझना। २. गुत्थम-गुत्था या हाथा-बाँही होना। ३. दे० ‘बझना’।
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बाँझपन  : पुं० [हिं० बाँझ+पन (प्रत्यय)] बाँझ होने की अवस्था या भाव। वन्ध्यत्व।
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बाँट  : स्त्री० [हिं० बाँटना] १. बाँटने की क्रिया या भाव। २. बाँटने पर हर एक को मिलनेवाला अलग-अलग अंश या भाग हिस्सा। मुहावरा—(कोई चीज किसी के) बाँट या बाँटे पड़ना=इस प्रकार अधिकता से होना कि मानो सब कुछ छोड़कर उसी के हिस्से में आई या उसी को मिली हो। जैसे—जी हाँ सारी अक्ल तो आप के ही बाँटे पड़ी है। (व्यंग्य) ३. संगीत में गीत के नियत बोलों को नियमित तालों में ही सुन्दरतापूर्वक कहीं कुछ खीचकर और कहीं कुछ बढ़ाकर उच्चरित करना। पुं० [देश] १. गौओं आदि के लिए एक विशेष प्रकार का भोजन, जिसमें खरी, बिनौला आदि चीजें रहती हैं। २. धान के खेत में फसल को हानि पहुंचानेवाली ढेंढ़र नाम की घास। ३. घास या पयाल का बना हुआ एक मोटा-सा रस्सा जिसे गाँव के लोग कुआर सुदी १४ को बनाते है और दोनों ओर से कुछ-कुछ लोग उसे पकड़कर तब तक खीचते हैं जब तक वह टूट नहीं जाता। पुं०=बाट (बटखरा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाट  : पुं० [सं० वाट=मार्ग] रास्ता। पद—बाट घाट=नगर या बस्ती के इधर-उधर के छोटे-मोटे सभी प्रकार के स्थान। मुहावरा—बाट करना=रास्ता खोलना। मार्ग बनाना। बाट काटना=चलकर रास्ता पार करना। बाट जोहना या देखना=प्रतीक्षा करना। आसरा या रास्ता देखना। (किसी के) बाट पड़ना=(क) रास्ते में आ-आकर बाधा देना। तंग करना। पीछे पड़ना। (ख) रास्ते में डाकुओं का आकर लूट लेना। डाका पड़ना। बाट पारना=रास्ते में यात्रियो को लूटना। डाका डालना। (किसी को) बाट लगाना=(क) ठीक रास्ता बतलाना या ठीक रास्ते पर लाना। (ख) काम करने का ठीक ढंग बतलाना। बाट रोकना=(क) मार्ग में बाधा या रुकावट खड़ी करना। (ख) किसी के काम में अड़चन खड़ी करना। बाधक होना। पुं० [सं० वटक] १. पत्थर आदि का वह टुकड़ा जो चीजें तौलने के काम आता है। बटखरा। मुहावरा—बात हड़ना=(क) इस बात की जाँच या परीक्षा करना कि कोई बटखरा तौल में पूरा है या नहीं। (ख) किसी की प्रामाणिकता, सत्यता आदि की जाँच या परीक्षा करना। (ग) तंग या पेरशान करना। जैसे—रात दिन मुझसे बाट हड़ता है। (स्त्रियाँ) २. पत्थर का वह टुकड़ा जिससे सिल पर कोई चीज पीसी जाती है। बट्टा। स्त्री० [हिं० बटना] १. डोरी, रस्सी आदि बटने की क्रिया या भाव। २. बटने के कारण डोरी, रस्सी आदि में पड़ी हुई ऐंठन। बल। स्त्री० [हिं० बाटना=पीसना] बाटने अर्थात् पीसने की क्रिया, ढंग या भाव।
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बाँट-चूँट  : स्त्री० [हिं० बाँट+चूँट (अनु०)] बाँटने या लोगों को उनका हिस्सा देने की क्रिया या भाव।
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बाटकी  : स्त्री०=बटलोई।
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बाँटना  : स० [सं० वणृ, गु० वाँटवूँ, मरा० वाटणें] १. किसी चीज को कई भागों मे विभक्त करना। जैसे—यह जिला चार तहसीलों में बांटा जायगा। २. सम्पत्ति, आदि के सम्बन्ध में उसेक हिस्सेदार कई विभाग करके उसे उनके अधिकारियों को देना या सौपना। ३. खानेवाली चीज के संबंध में उसका थोड़ा-थोड़ा अंश सब लोगों को देना। जैसे—बच्चों को मिठाई बाँटना। ४. आर्थिक क्षेत्र में किसी निर्माणशाला या कार्यालय में काम करनेवालों को उनके पावने का भुगतान करना। जैसे—अधिलाभ या वेतन बाँटना। स०=बाटना (पीसना) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाटना  : स० [हि० बट्टा या बाट] सिल पर बट्टे आदि से पीसना। चूर्ण करना। उदाहरण—यों रहीम जस होतु है उपकारी के संग, बाटन वारि कैलगै ज्यों मेंहदी को रंग।-रहीम। स०=बटना (बल देना) पुं०=बटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाटली  : स्त्री० [अ० बटलाइन] जहाज के पाल मे ऊपर की ओर लगा हुआ वह रस्सा जो मस्तूल के ऊपर से होकर फिर नीचे की ओर आता है। इसी को कींचकर पाल तानते हैं। (लश०) स्त्री०=बोतल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँटा  : पुं० [हिं० बाँटना] १. बाँटने की क्रिया या भाव। बाँट। २. गाने-बजानेवाले लोगों का इनाम या पारिश्रमिक का धन आपस में यथायोग्य बाँटने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—लगाना। ३. बँटने या बाँटने पर प्रत्येक को मिलनेवाला अंश या भाग। हिस्सा। उदाहरण—रूप लूट कीन्ही तुम काहै अपने बाँटै कौ धरिहौ ली।—सूर। क्रि० प्र०—पाना।—मलाना। मुहावरा (किसी चीज का) बाँटे पड़ना=किसी सम्पत्ति आदि के हिस्से लगाना।
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बाँटा चौदस  : स्त्री० [स्त्री० बाँट-एक प्रकार का रस्सा+चौदस (तिथि)] कुआर सुदी १४ जिस दिन लोग बाँट (रस्सा) बटकर खींचते और तोड़ते हैं। वि० दे० ‘बाँट’।
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बाटिका  : स्त्री० [सं० वाटिका] १. छोटा बगीचा जिसमें शोभा के लिए फूल तथा फलों के छोटे-छोटे पौधे लगाये जाते हों। २. गद्य काव्य का एक भेद।
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बाटी  : स्त्री० [सं० वटी] १. गोली। पिंड। २. उपलों या अंगारो का सेंका हुआ आटे का गोलाकार लोंदा। स्त्री० [पं०] चौड़े मुँहवाली एक तरह की बड़ी कटोरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँड़  : पुं० [देश] दो नदियों के संगम के बीच की भूमि जो वर्षा में नदियों के बढ़ने से डूब जाती है और पानी उतर जाने पर फिर निकल आती है। पुं०=बाँड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाड़  : स्त्री०=बाढ़। उदाहरण—यह संसार बाड़ का कांटा।—मीराँ।
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बाडकिन  : पुं० [अं०] १. छापेखाने में काम आनेवाला एक प्रकार का सूआ जिसमें पीछे की ओर लकड़ी का दस्ता लगा रहता है। २. दफ्तरी खाने में काम आनेवाला एक प्रकार का सूआ जिससे दप्ती आदि में छेद किया जाता है।
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बाँड़तोड़  : पुं० [हिं० बाँह+तोड़ना] कुश्ती का एक पेंच।
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बाड़ना  : स० [हिं० बड़ना=घुसना या पैठना का स०] अन्दर प्रविष्ट करना। घुसाना। (पश्चिम) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाड़व  : पुं० [सं० बड़वा+अण्] १. ब्राह्मण। २. घोड़ियों का झुंड। ३. बड़वानल। वि० बड़वा-संबंधी।
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बाड़व-अनल  : पुं०=बड़वानल।
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बाड़व-बह्नि  : स्त्री०=बड़वानल।
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बाँड़ा  : पुं० [सं० वंड] १. वह पशु जिसकी पूँछ कट गयी हो। २. वह व्यक्ति जिसकी घर-गृहस्थी या बाल-बच्चे न हों। २. तोता। वि० [स्त्री० बाँड़ी] जिसकी पूँछ न हो। दुम-कटा या बिना दुम का। पुं० [देश] दक्षिण पश्चिम की हवा।
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बाड़ा  : पुं० [सं० बाट] १. चारों ओर से घिरा हुआ कुछ विस्तृत खाली स्थान। २. वह स्थान जहाँ पर पशु आदि घेरकर या बन्द करके रखे जाते हों। पशुशाला।
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बाड़ि  : स्त्री०=बाडिस।
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बाडिस  : स्त्री० [अं०] स्त्रियों के पहनने की एक प्रकार की अंगरेजी ढंग की कुरती।
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बाँड़ी  : स्त्री० [हिं० बाँड़ा] १. बिना पूँछ की गाय। २. छोटी लाठी। छड़ी।
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बाडी  : स्त्री०=बाडिस।
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बाड़ी  : स्त्री० [सं० वारी] १. वाटिका। बारी। पुलवारी। २. घर। मकान। (पूरब) जैसे—ठाकुरबाड़ी। ३. कपास का खेत (पस्चिम)। स्त्री० [?] कपास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बांड़ी  : पुं० [अं०] एक प्रकार की विलायती शराब।
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बाड़ी-गार्ड  : पुं०=अंग-रक्षक। (दे० )
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बाँड़ीबाज  : पुं० [हिं० बाँड़ी+फा० बाज] १. लट्ठबाज। लठैत। २. उपद्रवी। शरारती।
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बाडौ  : पुं०=बाड़व। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाढ़  : स्त्री० [हिं० बढ़ना] १. बढ़ने की क्रिया या भाव। बढ़ाव वृद्धि। जैसे—पेड़-पौधे की बाढ़। मुहावरा—बाढ़ पर आना=ऐसी अवस्था में आना कि निरन्तर वृद्धि होती रहे। जैसे—अब पेड़ बाढ़ पर आया है। २. नदी-नाले की वह स्थिति जब उसका पानी किनारों के बाहर बहने लगता है और आस-पास के झोपड़ों, मकानों, पशुओं आदि को बहाने लगता है। क्रि० प्र०—आना।—उतरा। ३. कँटीले पौधे आदि की वह लंबी, पंक्ति जो खेतों बगीचों आदि में इसलिए लगाई जाती है कि पशु आदि अन्दर न आ सके। क्रि० प्र०—रुँधना। लगाना। ४. कुछ विशिष्ट प्रकार की चीजों में किनारे या सिरे पर की ऊँचाई। जैसे—टोपी या थाली की बाढ़। ५. व्यापार आदि में अधिकता से होनेवाला लाभ या वृद्धि। ६. किसी प्रकार का जोर या तेजी। प्रबलता। तोप, बन्दूक आदि से गोलों-गोलियों का निरन्तर छूटते रहना। ८. उक्त के लगातार होता रहनेवाला प्रहार। जैसे—तोपों की बाढ़ के सामने शत्रु सेना न ठहर सकी। क्रि० प्र०—दगना।—दागना। स्त्री० [सं० वाट, हिं० वारी] कुछ विशिष्ट प्रकार के हथियारों की धार जिससे चीजें कटती हैं। जैसे—कैंची, छुरी या तलवार की बाढ़। मुहावरा—बाढ़ रखना=उक्त चीजों को सान पर चढ़ाकर उनकी धार तेज करना। पुं०=टांड (बाँह पर पहनने का गहना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाढ़-काढ़  : स्त्री० [हिं० बाढ़=हथियार की धार] १. तलवार। २. खड्ग। खाँड़ा। (डिं०)।
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बाढ़ना  : स० [हिं० बाढ़=धार] १. धारदार चीज से काटना। मार डालना। वध या हत्या करना। ३. नष्ट या बरबाद करना। अ०=बढ़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाढ़ाली  : स्त्री० [हिं० बाढ़=धार] १. तलवार। २. खड्ग। खाँड़ा (राज०)
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बाढ़ि  : स्त्री०=बाढ़।
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बाढ़ी  : स्त्री० [हिं० बढ़ना या बाढ़] १. बढ़ती। वृद्धि। २. वह ब्याज जो किसी को अन्न उधार देने पर मिलता है। ३. उधार दिया या लिया हुआ ऐसा ऋण जिसका सूद दिन पर दिन बढ़ता चलता हो। जैसे— वह उधार बाढ़ी का काम करता है। ४. व्यापार में होनेवाला लाभ मुनाफा। ५. पानी की बाढ़। बाढ़ीवान्
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बाण  : पुं० [सं०√बाण (शब्द)+घञ्] १. एक प्रकार का नुकीला अस्त्र जो कमान या धनुष पर चढ़ाकर चलाया जाता है। तीर। शर। सायक। ३. उक्त का अगला नुकीला भाग जो जाकर शरीर के अन्दर धँस जाता है। ३. वह चीज जिसे बेधने के उद्देश्य से वाण या तीर चलाया जाता है निशाना। लक्ष्य। ४. कामदेव के प्रसिद्ध पाँच वाणों के आधार पर पाँच की संख्या का वाचक शब्द। ५. गाय का थन। ६. अग्नि। आग। ७. रामसर। सरपत। ८. नीली कटसरैया। ९. दे० ‘वाणभट्ट’।
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बाण गंगा  : स्त्री० [सं० मध्य० स] हिमालय के सोमेश्वर गिरि से निकली हुई एक प्रसिद्द नदी।
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बाण गोचर  : पुं० [ष० त०] उतनी दूरी जितनी कोई बाण छूटने पर पार करता है। बाण की पहुँच या मार तक की दूरी।
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बाण-पति  : पुं० [ष० त०] वाणासुर के स्वामी महादेव। (डिं०)
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बाण-पाणि  : पुं० [ष० त०] बाणों से लैस।
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बाणपुर  : पुं० [ष० त०] शोणितपुर (आधुनिक तेजपुर, आसाम) जो वाणासुर की राजधानी थी।
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बाणरेखा  : स्त्री० [तृ० त०] बाण से शरीर पर होनेवाला लंबा घाव।
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बाणलिंग  : पुं० [मध्य० स०] नर्मदा में मिलनेवाला एक प्रकार का सफेद पत्थर जिसका शिवलिंग बनता है।
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बाणविद्या  : स्त्री० [ष० त०] वह विद्या जिससे बाण चलाना आवे। बाण चलाने की विद्या। तीरंदाजी।
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बाणवृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] लगातार बाण चलाते रहना। बाणों की वर्षा।
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बाणावती  : स्त्री० [सं० ] बाणासुर की पत्नी का नाम।
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बाणावलि  : स्त्री० [सं० बाण-अवलि, ष० त०] १. बाणों की पंक्ति। २. शत्रुओं पर होनेवाली बाणों या तीरों की बौछार।
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बाणाश्रय  : पुं० [सं० बाण-आश्रय, ष० त०] तरकश।
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बाणासन  : पुं० [सं० बाण-आसन, ष० त०] धनुष।
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बाणासुर  : पुं० [सं० बाण-असुर , कर्म० स०] राजा बलि के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र का नाम जो बहुत वीर गुणी और सहस्त्रबाहु था।
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बाणिज्य  : पुं०=वाणिज्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बात  : स्त्री० [सं० वार्ता] १. किसी से अथवा किसी विषय में कहा जानेवाला कोई सार्थक वाक्य। कथन। वचन। वाणी। जैसे—तुम तो मुँह से बात भी नहीं निकालने देते। क्रि० प्र०—कहना।—निकालना। मुहावरा—(मुँह से) बात न निकलना=मुँह से शब्द तक न निकलना। चुप या मौन हो जाना। (मुँह से) बात छूटना=मुँह से बात या शब्द निकलना। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य से या अपने मन का भाव प्रकट करने के लिए किया जानेवाला कथन। पद—बात कहते=उतनी थोड़ी देर में जितनी में मुँह से कोई बात निकलती है। पल भर में। चटपट। तुरन्त। बात का कच्चा या हेठा=वह जिसके कथन या बात का सहसा विश्वास न किया जा सकता हो। प्रतिज्ञा, वचन आदि का ध्यान न रखनेवाला। बात का धनी, पक्का या पूरा=वह जो अपने कथन, प्रतिज्ञा वचन आदि का पूरी तरह से पालन करता हो। बात का बतंगड़=साधारण सी बात को व्यर्थ बहुत बढ़ा-चढ़ाकर झंझट या झगड़े-बखेड़े का दिया जानेवाला रूप। बात की बात में=बहुत थोड़ी देर में। क्षणभर में। बात बात पर=(क) प्रत्येक प्रसंग पर। थोड़ा सा भी कुछ होने पर। हर काम में। (ख) दे० ‘बात बात में’। बात बात में=(क) जो कुछ कहा जाता हो प्रायः उन सब में। प्रायः हर बात में। जैसे—वह बात बात में झूठ बोलता है। (ख) बार बार। हर बार। (ग) दे० ‘बात बात पर’। बात है=कथन मात्र है। सत्य नहीं है। ठीक नहीं है। जैसे—वे निराहार रहते हैं, यह तो बात है। बातों का धनी=वह जो बातें तो बहुत-सी कह जाता हो, पर करता-धरता कुछ भी न हो। (व्यंग्य) मुहा०—(किसी की) बात उठाना=(क) किसी के आदेश, कथन आदि की अवज्ञा करना अथवा उसका पालन न करना। बात न मानना। (ख) किसी की कठोर बातें सहना। (अपनी) बात उलटना=एक बार कुछ कहकर फिर दूसरी बार कुछ और कहना। बात पलटना। (किसी की) बात उलटना=किसी की कही हुई बात के उत्तर में उसके विरुद्ध बात कहना। किसी की बात का आशालीनता या उद्दंडतापूर्वक उत्तर देना। (किसी की) बात काटना=(क) किसी के बोलते समय बीच में बोल उठना। बात में दखल देना। (ख) किसी के कथन या मत का खंडन या विरोध करना। बात खाली जाना=अनुरोध, आग्रह, प्रार्थना आदि का माना न जाना अथवा निष्फल सिद्ध होना। बात गढ़ना=झूठ बात कहना। मिथ्या प्रसंग की उद्भावना करना। बात बनाना। बात घूँटना या घूँट जाना=दे० नीचे ‘बात पी जाना।’ बात चबा जाना=(क) कुछ कहते कहते रुक जाना। (ख) एक बार कही हुई बात को छिपाने या दबाने के लिए किसी दूसरे या बदले हुए रूप में कहना। (मन में कोई) बात जमना या बैठना=अच्छी तरह समझ में आ जाना कि जो कुछ हमसे कहा गया है, वह ठीक है। बात टलना=कथन का अन्यथा सिद्ध होना। जैसे कहा गया हो, वैसा न होना। (किसी की) बात टालना=(क) पूछी हुई बात का ठीक जवाब न देकर इधर-उधर की और बात कहना। सुनी-अनसुनी करना। (ख) किसी के आदेश, कथन आदि की अवज्ञा करते हुए उसका पालन न करना। (किसी की) बात डालना=कहना न मानना। कथन का पालन न करना। जैसे—उनकी बात इस तरह टाली नहीं जा सकती। (किसी की) बात दोहराना=किसी की कही हुई बात का उलटकर जवाब देना। जैसे—बड़ों की बात दोहराते हो ! (किसी से) बात न करना=(क) घमंड के मारे किसी से बात-चीत करने को भी तैयार न होना। (ख) किसी को इतना तुच्छ या हीन समझना कि उससे बातें करने में भी अपना अपमान प्रतीत होता हो। (किसी की) बात नीचे डालना किसी बात पर ध्यान न देकर उसकी अवज्ञा करना। (किसी की) बात पकड़ना=किसी के कथन में पारस्परिक विरोध या दोष दिखना। किसी के कथन को उसी के कथन द्वारा अयुक्त सिद्ध करना। (किसी की) बात या (बातों) पर जाना=(क) बात का खयाल करना। बात पर ध्यान देना। जैसे—तुम भी लड़कों की बात पर जाते हो। (ख) किसी के कहने के अनुसार या भरोसे पर कोई काम करना। बात पलटना=दे० नीचे ‘बात बदलना’। बात पी जाना=(क) कोई अनुचित या अप्रिय घटना होने पर भी या इस प्रकार की कोई बात सुनकर भी उस पर ध्यान न देना। (ख) किसी कारण-वश कोई सुनी हुई बात अपने मन में ही रखना, दूसरों पर प्रकट न करना। (किसी पर) बात फेंकना=व्यंग्यपूर्ण बात कहना। बोली बोलना। बात फेरना=(क) चलते हुए प्रसंग को बीच में उड़ाकर कोई और बात छेड़ना। बात पलटना। (ख) किसी बात का समर्थन करते हुए उसकी प्रामाणिकता या महत्त्व बढ़ाना। बात बढ़ाना=साधारण सी बात का ऐसा रूप धारण करना कि झगड़ा-तकरार होने लगे। किसी बात का उग्र या विकट रूप धारण करना। (किसी की) बात बढ़ाना=किसी के कथन की पुष्टि या समर्थन करना अथवा उसका महत्त्व बढ़ना। (कोई) बात बढ़ाना=किसी घटना, प्रसंग, या विषय का व्यर्थ विस्तार करके उसे अनावश्यक तथा अनुचित रूप से उग्र या विकट रूप देना। फजूल का तूल देना। बात बदलना=गड़कर एक बार कोई बात कहना, और तब उससे मुकरने के लिए और बात कहना। बात बनाना=किसी कही हुई बात से अनी हानि होते देखकर उसे बदलने और अपने अनुकूल करने के लिए कोई नई बात कहना। बात (या बातें) मारना=(क) असल बात छिपाने के लिए इधर-उधर की बातें करना। (किसी पर) बात मारना=व्यंग्यपूर्ण बात कहना। बोली बोलना। बात मुँह पर लाना=चार आदमियों के सामने कोई बात कहना। बात में बात निकालना=बाल की खाल निकालना। किसी के कथन में यों ही व्यर्थ के दोष निकालना। (अपनी) बात रखना=(क) अपने कहे अनुसार करना। जैसा कहा हो, वैसा करना। प्रतिज्ञा या वचन का पालन करना। (ख) अपने कथन या बात के सम्बन्ध में अनुचित आग्रह या हठ करना। (किसी की) बात रखना=(क) कथन या आदेश का पालन करना। कहना मानना। (ख) किसी का आग्रह, प्रार्थना आदि मानकर उसकी इच्छा पूरी करना। बातें छाँटना या बघारना=(क) व्यर्थ तरह तरह की बातें कहना। (ख) बढ़-बढ़कर बातें करना। डींग हाँकना। बातें बनाना=(क) झूठ-मूठ इधर-उधर की बातें कहना। (ख) बहानेबाजी या हीला-हवाली करना। (ग) किसी को अनुरक्त या प्रसन्न करने के लिए चापलूसी की बातें कहना। बातें मिलाना=(क) किसी को प्रसन्न करने के लिए उसकी हाँ में हाँ मिलाना। (ख) अपना दोष या भूल छिपाने के लिए इधर-उधर की बातें करना। (किसी की) बातें सुनना=कठोर वचन या डाँट-फटकार सुनना। जैसे—यदि तुम ठीक तरह से रहते तो आज तुम्हें इतना बातें न सुननी पड़तीं। (किसी को) बातें सुनाना=ऊँची-नीची या खरी-खोटी बातें कहना। कठोरतापूर्वक डाँटना-फटकारना। बातों में उड़ाना=(क) इधर-उधर की या व्यर्थ बातें कहकर असल बात दबाने का प्रयत्न करना। (ख) हँसी उड़ाते या तुच्छ ठहराते हुए टाल-मटोल करना। बातों में फुसलाना या बहलाना=किसी को केवल झूठा आश्वासन देकर उसका ध्यान किसी दूसरी ओर ले जाना। ३. दो या अधिक आदमियों में किसी विषय पर होनेवाला कथोपकथन। वार्तालाप। जैसे—आज तो बातों ही में दो घंटे बीत गये। पद—बात-चीत। (देखें) बातों बातों में=बात-चीत करते हुए। कथोपकथन के प्रसंग में। जैसे—बातों ही बातों में वह बिगड़ खड़ा हुआ। ४. किसी के साथ कोई व्यवहार सम्पन्न करने अथवा कोई संबंध स्थापित या स्थिर करने के लिए चलनेवाला कथोपकथन, प्रसंग या वार्तालाप। जैसे—(क) काम-धन्धे या रोजगार की बात। (ख) ब्याह-शादी की बात। मुहा०—बात ठहरना=किसी विषय में यह स्थिर होना कि ऐसा होगा। मामला तै होना। बात डालना=प्रस्ताव के रूप में किसी के सामने कोई विषय उपस्थित करना। मामला पेश करना। जैसे—चार भले आदमियों के बीच में यह बात डालकर निपटा लो। (अपनी) बात पर आना या रहना=अपने कहे हुए वचन के अनुसार ही काम करने के लिए प्रस्तुत होना या रहना। यह आग्रह या हठ करना कि जैसा मैंने कहा, वैसा ही हो। बात लगाना=विवाह संबंध स्थिर करने के लिए कहीं कहना, सुनना या प्रस्ताव रखना। बात हारना=ऐसी स्थिति में होना कि अपनी कही हुई बात या दिये हुए वचन का पालन करना आवश्यक हो जाय। जैंसे—मैं तो उनसे बात हार चुका हूँ, अब इधर-उधर नहीं हो सकता। ५. सामान्य रूप से होनेवाली किसी विषय की चर्चा। जिक्र। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—चलना।—छिड़ना।—पड़ना। मुहा०—बात चलाना, छेड़ना या निकालना=ऐसा प्रसंग उपस्थित करना कि किसी विषय या व्यक्ति के संबंध में कुथ बातें हों। चर्चा या जिक्र चलना। बात पड़ना=किसी विषय का प्रसंग प्राप्त होना। चर्चा आरंभ होना। जैसे—बात पड़ी, इसलिए मैंने कहा, नहीं तो मुझ से क्या मतलब ? बात मुँह पर लाना=(किसी विषय की) चर्चा कर बैठना। जैसे—किसी के सामने ऐसी बात मुँह पर नहीं लानी चाहिए। ६. कोई ऐसा कार्य या घटना जिसकी लोगों में विशेष चर्चा हो। लोक में प्रचलित कोई प्रसंग। मुहा०—बात उड़ना या फैलना=चारों ओर या बहुत से लोगों में चर्चा होना। बात नाचना=बात चारों ओर प्रसिद्ध होना या बहुत अच्छी तरह फैलना। विशेष प्रसिद्ध होना। उदा०—मेरे ख्याल परौ जनि कोऊ बात दसों दिसि नाची।—हितहरिवंश। बात बहना=किसी बात की चर्चा चारों ओर फैलना। उदा०—जो हम सुनति रहीं सो नाहीं, ऐसी ही यह बात बहानी।—सूर। ७. ऐसा कथन या कार्य जो ठीक या प्रामाणिक माना जा सकता हो अथवा सभी दृष्टियों में उचित समझा जा सकता हो। जैसे—भला यह भी कोई बात है। ८. विशेष महत्त्व का कोई कथन अथवा दृढ़, निश्चत या प्रामाणिक मत, विचार या सिद्धान्त। मुहा०—बात (किसी के) कान में पड़ना=बात का किसी के द्वारा इस प्रकार सुना जाना कि वह उसके भेद समझ जाय और उससे अनुचित लाभ उठा सके। जैसे—जहाँ यह बात किसी के कान में पड़ी, तहाँ सारा काम बिगड़ जायगा। ९. किसी विषय में किसी की कोई आज्ञा, आदेश, या उपदेश। नसीहत। सीख। जैसे—बड़ों की बात माननी चाहिए। मुहा०—(किसी की) बात आँचल या गाँठ में बाँधना=अच्छी तरह और सदा के लिए अपने ध्यान या मन में बैठाना। उपभोग या व्यवहार में लाने के लिए अच्छी तरह याद रखना। जैसे—हमारी यह नसीहत गाँठ में बाँध रखो, नहीं तो किसी समय बहुत पछताओगे। १॰. किसी काम या चीज में होनेवाला कोई विशिष्ट गुण या तत्त्व। जैसे—उसमें अगर कुछ बुरी बातें हैं तो कई अच्छी बातें भी हैं। ११. उक्ति, कथन या कार्य जिसमें कुछ विशिष्ट कौशल या चमत्कार हो, अथवा जिससे प्रभावित होकर लोग प्रशंसा करें। जैसे—(क) उनकी हर बात में एक बात होती है। (ख) वे साधारण कामों में भी एक नई बात पैदा कर देते हैं। (ग) तुम भी इन्हीं की तरह काम करके दिखलाओ, तब बात है। (घ) उसे हराना कोई बड़ी बात नहीं है। उदा०—कितक बात यह धनुष रुद्र को सकल विश्व कर लैहों।—सूर। पद—क्या बात है !=बहुत प्रशंसनीय काम या बात है। (साधारण रूप में भी और व्यंग्य के रूप में भी) जैसे—(क) क्या बात है ! बहुत सुन्दर चित्र बनाया है। (ख) आप बहुत बहादुर हैं, क्या बात है ! १२. कोई ऐसा कार्य या घटना जिससे कोई विशेष महत्त्व का प्रयोजन सिद्ध होता हो। जैसे—(क) ये सब झगड़ा छोड़ो, काम (या मतलब) की बात करो। क्रि० प्र०—करना।—कहना।—बनना।—बनाना।—बिगड़ना।—बिगाड़ना।—होना। १३. किसी के कथन, वचन, व्यवहार आदि की प्रामाणिकता। प्रतीति। साख। जैसे—(क) बाजार में उनकी बड़ी बात है। (ख) अब तुम बहुत झूठ बोलने लगे हो, इससे मित्र-मंडली में तुम्हारी बात नहीं रह गई। क्रि० प्र०—खोना।—गँवाना।—बनना।—बनाना। मुहा०—(किसी की) बात जाना=बात की प्रामाणिकता नष्ट हो जाना। एतबार या विश्वास न रह जाना। बात हेठी होना=बात की प्रामाणिकता या साख न रह जाना। विश्वास उठ जाने के कारण प्रतिष्ठा या मान में बहुत कमी होना। १४. किसी के गुण, महत्त्व आदि के विचार से उसके प्रति मन में उत्पन्न होनेवाला आदर-भाव। मुहा०—बात न पूछना=अवज्ञा के कारण ध्यान न देना। तुच्छ समझकर बात तक न करना। कुछ भी कदर न करना। जैसे—तुम्हारी यही चाल रही तो मारे-मारे फिरोगे, कोई बात न पूछेगा। उदा०—सिर हेठ ऊपर चरन संकट, बात नहिं पूछै कोऊ।—तुलसी। बात न पूछना=दशा पर ध्यान न देना। खयाल न करना। परवाह न करना। उदा०—मीन वियोग न सहि सकै नीर न पूछै बात।—सूर। बात पूछना=(क) खोज रखना। खबर लेना। सुख या दुःख है, इसका ध्यान रखना। (ख) आदर या कदर करना। १५. लोक या समाज में होनेवाली प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा। धाक। जैसे—बिरादरी (या शहर) में उनकी बड़ी बात है। क्रि० प्र०—खोना।—गँवाना।—जाना।—बनना।—बनाना।—बिगड़ना।—बिगाड़ना।—रखना।—रहना। १६. मन में छिपा हुआ अभिप्राय या आशय। मन का गूढ़ भाव या विचार। जैसे—तुम्हारे मन की बात कोई कैसे जाने। मुहा०—(मन में कोई) बात खौलना=किसी अभिप्राय या उद्देश्य के सिद्ध न हो सकने पर मन ही मन उसके सम्बन्ध में उद्वेग बना रहना। (मन में कोई) बात रखना=अपना अभिप्राय या उद्देश्य किसी पर प्रकट न होने देना। १७. कोई गुप्त या रहस्यमय तत्त्व या तथ्य। भेद या मर्म का प्रसंग या विषय। जैसे—(क) उसका आना मतलब से खाली नहीं है, जरूर इसमें कोई बात है। (ख) उसने मुझे ऐसी बात बतलाई कि मेरी आँखें खुल गईं। मुहा०—बात खुलना या फूटना=भेद, मर्म या रहस्य प्रकट होना। बात (या बात की तह) तक पहुँचना=दे० नीचे ‘बात पाना’। बात पाना=असल मतलब या गूढ़ तत्त्व समझ जाना। १८. कोई ऐसा अनुचित कथन या कार्य जिससे किसी पर कोई दोष या लांछन लगता या लग सकता हो। मुहा०—(किसी पर) बात आना=ऐसी स्थिति होना कि किसी पर कोई दोष या लांछन लग सकता हो। (किसी पर कोई) बात रखना, लगाना या लाना=किसी को दोषी सिद्ध करने का प्रयत्न करना। कलंक या दोष की बात किसी के सिर पर मढ़ना। १९. कोई ऐसा कथन या बात जो किसी को धोखा देकर अपना कोई दुष्ट उद्देश्य सिद्ध करने के लिए की जाय। जैसे—उनकी बातों में मत आना, नहीं तो पछताओगे। मुहा०—बातें बनाना=किसी को कौशलपूर्वक अपने अनुकूल करने के लिए तरह-तरह की झूठी या बनावटी बातें कहना। (किसी की) बात (या बातों) पर जाना=(किसी की) बात (या बातें में आना। (किसी की) बात या बातों में आना=किसी की बातों पर विश्वास करके उनके अनुसार आचरण या व्यवहार करना। बात लगाना=किसी को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से किसी दूसरे से उसकी कोई बात कहना। बातों में लगाना=किसी का ध्यान बाँटने या उसे किसी ओर प्रवृत्त होने से रोकने के लिए छलपूर्वक उससे इधर-उधर की बातें छेड़ना। जैसे—इधर तो उसने मुझे बातों में लगा रखा, और उधर अपना आदमी भेजकर अपना काम करा लिया। २॰. ऐसा झूठा या बनावटी कथन जो किसी को धोखा देने के लिए हो या जिसमें कोई बहानेबाजी हो। जैसे—यह सब उसकी बात (या बातें) हैं। २१. अपनी हैसियत, योग्यता, गुण, सामर्थ्य, आदि के संबंध में बढ़ा-चढ़ाकर किया जानेवाला उल्लेख। जैसे—अब तो वह बहुत लंबी-चौड़ी बातें करता है। पुं०=बात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बात-चीत  : स्त्री० [हिं० बात+सं० चिंतन ?] १. दो या अधिक व्यक्तियों पक्षों आदि में परस्पर होनेवाली औपचारिक तथा मौखिक बातें। वार्तालाप। २. लेन-देन समझौता संधि आदि करने के उद्देश्य से होनेवाली मौखिक बातें या लिखा-पढ़ी। जैसे—ठेके की बात-चीत चल रही है।
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बात-फरोश  : पुं० [हिं० बात+फा० फ़रोश] [भाव० बात फरोशी] वह जो केवल उटपटाँग या व्यर्थ की बातें गढ़-गढ़कर सुनाता और उन्हीं के भरोसे अपने सब काम चलाता हो।
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बात-बनाऊ  : वि० [हिं० बात+बनाना] १. झूठ-मूठ व्यर्थ की बातें बनानेवाला। २. दूसरों का काम पूरा करनेवाला।
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बातड़  : वि० [सं० वातुल] १. वायु-युक्त। वायुवला। २. बात का प्रकोप उत्पन्न करनेवाला।
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बातप  : पुं० [सं० वाताप] हिरन (अनेकार्थ०)
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बातर  : पुं० [देश०] पंजाब में दान बोने का एक प्रकार।
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बातला  : पुं० [सं० बात०] एक प्रकार का योनि रोग जिसमें सूई चुभाने की सी पीड़ा होती है।
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बाताबी  : पुं० [बटेविया देश०] चकोतरा।
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बातासा  : पुं० [ष० त०] हवा। वायु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बातिन  : पुं० [अ०] [वि० बातिनी] १. किसी चीज का भीतरी भाग। २. अन्तःकरण।
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बातिनी  : वि० [अ०] १. भीतरी। २. अन्तःकरण का।
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बातिल  : वि० [अ०] १. जो सत्य न हो। झूठ। मिथ्या। २. निकम्मा। रद्दी। व्यर्थ। ३. नियम-विरुद्ध।
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बाती  : स्त्री० [सं० वर्ती] १. वह लकड़ी जो पान के खेत के ऊपर बिछाकर छप्पर छाते हैं। २. दे० ‘बत्ती’। स्त्री०=बात। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बातुल  : वि० [सं० वातुल] पागल। सनकी। वि० [हिं० बात] १. बहुत बातें करनेवाला। बकवादी। २. बहुत बातें बनानेवाला। बातूनी।
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बातूनिया  : वि०=बातूनी।
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बातूनी  : वि० [हिं० बात+ऊनी (प्रत्यय)] १. जिसे बातें करने का चस्का हो। २. बहुत बढ़-चढ़कर और व्यर्थ की बातें करनेवाला।
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बाथ  : पुं० [?] अँकवार। अंक। उदाहरण—दृग मींचत मृग लोचनी धरयो उलटि भुज बाथ।—बिहारी।
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बाथी-खाना  :
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बाथू  : पुं० [सं० वस्तुक, प्रा० वत्थु] बथुआ नाम का साग।
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बाँद  : पुं०=बंदा (दास)
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बाद  : पुं० [सं० वाद] १. खंडन-मंडन की बात-चीत। तर्क-वितर्क। बहस-मुबाहसा। २. झगडा। तकरार। वाद-विवाद। क्रि० प्र०—बढ़ाना। ३. नाना प्रकार के तर्क-वितर्कों के द्वारा बात का किया जानेवाला व्यर्थ का विस्तार। उदाहरण—त्यों पद्याकर वेद पुरान पढयो पढ़ि के बहु वाद बढ़ायो।—पद्याकर। ४. प्रतिज्ञा। ५. बाजी। होड़। मुहावरा—बाद मेलना=शर्त बदना। बाजी लगाना। अव्यय [सं० वाद, हिं० वादि=वाद करके, हठ करके व्यर्थ] निष्प्रयोजन। बिना मतलब। व्यर्थ। अव्य० [अ०] १. पश्चात्। अनन्तर। पीछे। २. अतिरिक्त। सिवा। वि० किसी प्रकार के वर्ग से अलग या निकाला हुआ। जैसे—आमदनी में से खरच बाद करना, दाम में से लागत बाद करना। क्रि० प्र०—करना।—देना। पुं० १. छूट या दस्तूरी जो दाम में से काटी जाती हो। २. किसी अच्छी चीज में की वह घटिया मिलावट जो निकाली जाती हो या जिसके विचार से चीज या दाम घटता हो। जैसे—इस सोने में दो रत्ती टाँका (या तांबा) बाद जायगा। ४. देन, मूल्य आदि की वह कमी जो किसी चीज के खराब होने या बिगड़ने के फल-स्वरूप की जाती है। जैसे—पाले के कारण फसल में चार आने बाद है। (पूरब) पुं० [सं० बात से फा०] बात। हवा। पुं०=वाद्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाद-कश  : पुं० [फा०] १. छत से लटकाने का पंखा। २. धौंकनी।
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बाद-गर्द  : पुं० [फा०] बवंडर। बगूला।
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बादना  : अ० [सं० वाद+हिं० ना (प्रत्यय)] १. बकवाद करना। २. तर्क-वितर्क करना। ३. झगडा या तकरार करना। जैसे—काहुहि बादिन देइअ दोसू।—तुलसी। ४. बढ़-चढ़कर बातें करना। उदाहरण—बादत बड़े सूर की नाई अवहिं लेत हौ प्रान तुम्हारे।—सूर। ५. ललकारना।
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बादनुमा  : पुं० [फा०] वायु के प्रवाह की दिशा सूचित करनेवाला एक प्रकार का यन्त्र। पवन प्रचार।
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बादबान  : पुं० [फा०] नाव या जहाज का पाल। पोटपट। मरूत्पट।
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बादबानी  : वि० [फा०] १. बादबान संबंधी। २. जिसमें बादबान लगाया जाता है। बादबान के द्वारा चलनेवाला।
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बाँदर  : पुं०=बंदर। (पश्चिम)।
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बादर  : वि० [सं० ] १. बदर या बेर नामक फल का, उससे उत्पन्न या उससे संबंध रखनेवाला। २. कपास या रुई से संबंध रखने या उससे बननेवाला। ३. भारी या मोटा। बारीक या सूक्ष्म का विपर्याय। पुं० नैऋत्य कोण का एक देश। (बृहत्संहिता) पुं० [?] १. कपास का पौधा २. कपास या रुई से बना हुआ। कपड़ा। वि० [?] आनंदित। प्रसन्न। पुं०=बादल। (मेघ)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बादरा  : स्त्री० [सं० बादर+टाप्] १. बदरी या बेर का पेड़। २. कपास का पौधा। ३. जल। पानी। ४. रेशम। ५. दक्षिणावर्त शंख। पुं०=बादल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बादरायण  : पुं० [सं० बदरी+फक्-आयन] वेदव्यास का एक नाम।
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बादरायण संबंध  : पुं० [कर्म० स०] बहुत खींचतानकर जोड़ा हुआ नाम मात्र का संबंध। बहुत दूर का लगाव या सम्बन्ध।
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बादरायण-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] ब्रह्मसूत्र।
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बादरिया  : स्त्री०=बदली (मेघ)।
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बादरी  : स्त्री०=बदली (मेघ)।
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बादल  : पुं० [सं० वारिद्, हिं० बादर] १. आकाश में होनेवाला जलकणों का वह जमाव जो वाष्प के हवा में घनीभूत होने पर होता है। मेघ। मुहावरा—बादलों का फट पड़ना=ऐसी घोर या भीषण वर्षा जो प्रलय का सा दृश्य उपस्थित कर दे। मेघस्फोट। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—उमड़ना।—गरजना।—घिरना।—चढ़ना।—छटना।—छाना।—फटना। २. लाक्षणिक अर्थ में, चारों ओर छाया रहने या मँड़रानेवाला तत्त्व या पदार्थ। जैसे—दुख के बादल धुएँ का बादल ३. एक प्रकार का पत्थर। जिस पर बैंगनी रंग की बादल की सी धारियाँ पड़ी होती है।
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बादला  : पुं० [हिं० पतला] सोने या चाँदी का चिपटा चमकीला तार जो गोटा बुनने या कलाबत्तू बटने और कपड़ों पर टांकने के काम आता है। कामदानी का तार।
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बादली  : स्त्री०=बदली।
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बादशाह  : पुं० [फा०] १. वह जो किसी बड़े साम्राज्य या शासक या स्वामी हो। सम्राट। २. वह जो किसी कला, कार्यक्षेत्र या वर्ग में सबसे बहुत बढ़-चढ़कर हो। जैसे—शायरों का बादशाह, झूठों का बादशाह। ३. वह जिसका आचरण या व्यवहार बादशाहों की तरह उच्च उदार या स्वेच्छापूर्वक हो। जैसे—तबीयत का बादशाह। ४. शतरंज का एक मोहरा जो सब मोहरों में प्रधान होता है। और किस्त लगने से पहले केवल एक बार घोड़े की चाल चलता है, यह मारा नहीं जाता। जब इसके चलने के लिए कोई घर नहीं रह जाता, तब खेल की हार मानी जाती है। ५. ताश का एक पत्ता जिस पर बादशाह की तस्वीर बनी रहती है।
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बादशाही  : वि० [फा०] १. बादशाह से संबंध रखनेवाला। २. बादशाहों की तरह का अर्थात् वैभवपूर्ण। जैसे—बादशाही ठाट। ३. शासन या राज्य संबंधी। स्त्री० १. बादशाह का राज्य या शासन। २. बादशाहों का सा मन-माना आचरण या व्यवहार। बाद-हवाई-क्रि० वि० [फा० बाद+हवा] फिजूल। व्यर्थ। वि० १. (काम या बात) जिसका कोई सिर पैर न हो। आधार, तत्त्व सार आदि से बिलकुल रहित। जैसे—तुम तो यों ही बादहवाई बातें किया करते हों।
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बादहिं  : अव्य० [हिं० बाद=व्यर्थ] व्यर्थ ही। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँदा  : पुं० [सं० वन्दाक] ऐसी वनस्पतियों का वर्ग जो भूमि पर नहीं उगती बल्कि दूसरे वृक्षों पर फैलकर उन्हीं की शाखाओं आदि का रस चूसती और अपना पोषण करती है।
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बादाम  : पुं० [फा०] १. मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष जो पश्चिमी एशिया में अधिकता से और पश्चिमी भारत (काश्मीर और पंजाब आदि) में कहीं-कहीं होता है। २. उक्त वृक्ष का फल जो मेवों में गिना जाता है और जिसकी गिरी पौष्टिक होती है।
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बादामा  : पुं० [फा० बादाम] १. एक प्रकारा का रेशमी कपड़ा। २. मुसलमान फकीरों के पहनने की एक प्रकार की गुदड़ी।
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बादामी  : वि० [फा० बदाम+ई (प्रत्यय)] १. बादाम के ऊपरी कठोर छिलके के रंग का। २. बादाम के आकार-प्रकार का। लंबोतरा। गोलाकार। जैसे—बादायमी आँख, बादामी मोती। पुं० १. बादाम के छिलके की तरह का ऐसा लाल रंग जिसमे कुछ पीलापन भी मिला हो। २. एक प्रकार का धान। ३. एक प्रकार की लंबोतरी गोलाकार डिबिया जिसमें स्त्रियाँ गहने आदि रखती हैं ४. बादशाही महलों में ऐसा हिजड़ा जिसकी इंद्रिय बहुत ही छोटी या बादाम की तरह होती है। ५. बादाम के रंग का घोड़ा। ६. एक प्रकार की छोटी चिड़िया जो पानी के किनारे रहती है और मछलियाँ खाती हैं। किलकिला।
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बादि  : अव्य० [सं० वादि०] व्यर्थ। निष्प्रयोजन। फिजूल। निष्फल। पुं० [सं० वाजिन्] घोड़ा। उदाहरण—बादि मेलि कै खेल पसारा।—जायसी।
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बादित  : भू० कृ०=वादित (बजाया हुआ)
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बादित्य  : पुं०=वादित्य।
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बादिया  : पुं० [देश] १. लोहारों का पेच बनाने का एक औजार। २. एक प्रकार का कटोरा।
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बादिहि  : अव्य० [हिं० बाद+हिं०] व्यर्थ ही। उदाहरण—जनम तौ बादिहि गयी सिराई।—सूर।
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बाँदी  : स्त्री० [हिं० बंदा का स्त्री०] लौंड़ी। दासी। पद—बाँदी का बेटा=(क) वह जो पूरी तरह से अपने अधीन कर लिया गया हो। (ख) तुच्छ हीन। (ग) वर्णसंकर। दोगला। पुं० [फा० बंदी] कैदी। कारावासी।
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बादी  : वि० [फा० बाद=हवा०] १. वात सम्बन्धी। वायु संबंधी। २. शरीर के वायु संबंधी विकार के कारण होनेवाला। जैसे—बादी बवासीर। ३. शरीर में वात या वायु का विकार उत्पन्न करनेवाला। जैसे—मटर बहुत बादी होता है। स्त्री० शरीर की वायु के बिगड़ने के कारण होनेवाला प्रकाप। स्त्री० [देश०] लोहारों का वह औजार जिससे वे लोहे पर सिकली करते हैं। वि०, पुं०=वादी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बादी-बवासीर  : स्त्री० [हि०] बवासीर के दो भेदों में से एक जिसमें मस्सों में से खून नहीं निकलता। (खूनी बवासीर से भिन्न)
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बादीगर  : पुं०=बाजीगर।
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बादुर  : पुं० [हि० गादुर] चमगादड़।
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बाँदू  : पुं० [फा० बंदी] कैदी। कारावासी।
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बादूना  : पुं० [देश०] हलवाइयों का एक उपकरण जो घेवर नाम की मिठाई बनाने के काम आता है।
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बाँध  : पुं० [हिं० बाँधना] १. बाँधने की क्रिया या भाव। २. वह बंधन जो किसी बात को रोकने या उसके आगे बढ़ने पर नियंत्रण रखने के लिए लगाया जाता हो। (बार) ३. जलाशय का जल फैलने से रोकने के लिए उसके किनारे लगाया हुआ मिट्टी, पत्थर आदि का धुस। पुश्ता। बंद। (एम्बैन्कमेन्ट) ४. वह वास्तु-रचना जो किसी नदी की धारा को रोकने के लिए अथवा किसी ओर प्रवृत्त करने के लिए बनायी गयी हो। (डैम) जैसे—भाँखरा या हीराकुंड बाँध। ५. लाक्षणिक अर्थ में दिखावे, शोभा आदि के लिए किसी चीज के ऊपर बाँधी हुई दूसरी चीज। मुहावरा—बाँध बाँधना=आडम्बर रचना।
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बाध  : पुं० [सं०√वाध् (रोकना)+घञ्] [वि० बाध्य, भाव० बाधता; कर्ता बाधक] १. अड़चन। बाधा। २. कठिनता। दिक्कत। मुश्किल। ३. साहित्य में किसी कथन या प्रतिपादन में आनेवाली वह असंगति या कठिनता जो उसके अर्थ, आशय या वाक्य-रचना में तर्क-संगत सम्बन्ध के अभाव के कारण स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे—जहाँ वाच्यार्थ ग्रहण करने में अर्थ की बाधा हो वहाँ लथ्यार्थ ग्रहण करना चाहिए। ४. तर्क या न्याय में वह पक्ष जिसमें सांध्य का अभाव-सा दिखाई देता हो। ५. आज कल किसी प्रकार की उन्नति, आदि के मार्ग में किसी विशिष्ट उद्देश्य से खड़ी की जानेवाली वह रुकावट जिसे पार करने के लिए विशिष्ट कार्यक्षमता योग्यता, स्थिति आदि दिखानी पड़ती हो। जैसे—बड़ी-बड़ी सरकारी नौकरियों में कर्मचारियों को समय समय पर कई बाध पार करने पड़ते हैं। (बार, उक्त सभी अर्थो में) ६. कष्ट। पीड़ा। पुं० [सं० बद्ध] [स्त्री० बाधी] मूँज की रस्सी जो प्रायः साधारण चारपाइयाँ बुनने के काम आती है।
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बाधक  : वि० [सं० बाध् (रोकना)+ण्वुल्,-अक] [स्त्री० बाधिका, भाव० बाधकता] १. बाधा के रूप में होनेवाला। २. बाधा अर्थात् विघ्न उत्पन्न करनेवाला। ३. किसी काम में अड़चन डालनेवाला। ४. ऐसा कष्टदायक जो कुछ हानिकारक भी हो। पुं० स्त्रियों का एक रोग जिसमें उन्हें संतति नहीं होती या संतति होने में बड़ी पीड़ा या कठिनता होती है।
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बाधकता  : स्त्री० [सं० बाधक+तल्+टाप्] १. बाधक होने की अवस्था या भाव। २. बाधा।
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बाधण  : पुं०=बढ़ना। उदा०—बाधण लागा बधाइहार।—प्रिथीराज। स०=बाधना।
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बाधन  : पुं० [सं०√बाध् (रोकना)]+ल्युट्—अन] [वि० बाधित बाधनीय, बाध्य] १. बाधा या विघ्न उत्पन्न करने या रुकावट डालने की किसी या भाव। २. कष्ट देना। पीड़ित करना। ३. किसी अनुचित या निदनीय काम में संबंध में होने वाली मनाही। ४. दे० अभिनिषेध’।
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बाँधना  : स० [सं० बंधन] १. डोरी, रस्सी आदि कसकर किसी चीज के चारों ओर लपेटना। जैसे—घाव पर पट्टी बाँधना २. डोरी, रस्सी आदि के द्वारा किसी एक चीज के साथ आबद्ध करना। जैसे— कमर में पेटी या नाड़ा बाँधना। ३. रस्सी आदि के दो छोरों को गाँठ लगाकर आपस में जोड़ना या सम्बद्ध करना। मुहावरा—गाँठ बाँधना=दे० ‘गाँठ’ के अन्तर्गत। ४. रस्सी आदि के बनाये हुए फंदे में कोई चीज इस प्रकार फँसाना कि वह छूटने निकलने या भागने न पाये। जैसे—गौ या भैस बाँधना। ५. पुस्तक के फरमों की इस प्रकार सिलाई करना कि वे एक ओर से आपस में जुड़े रहें, अलग-अलग न होने पायें और उनके ऊपर से दफ्ती आदि लगाना। जैसे—जिल्द बाँधना। ६. कागज, कपड़े आदि से किसी चीज को इस प्रकार लपेटना कि वह बाहर न निकल सके अथवा सुरक्षित रहे। जैसे—दवा की पुड़िया बाँधना, कपड़ों या किताबों की गठरी बाँधना। ७. ऐसी क्रिया करना कि जिससे कोई चीज किसी विशिष्ट क्षेत्र या सीमा में ही रहे, उससे आगे या बाहर न जाने पाये। जैसे—नदी में पानी बाँधना। ८. उक्त के आधार पर लाक्षणिक रूप में किसी बात, भाव या विचार को इस प्रकार शब्दों में सजाना कि उससे कोई कोर-कसर त्रुटि या शिथिलता न रह जाय, अथवा उसे कोई विशिष्ट रूप प्राप्त हो जाय। ९. किसी व्यक्ति को कैद या बन्धन में डालना। बँधुआ बनाना। १॰. तंत्र-मंत्र आदि के प्रयोग से ऐसी क्रिया करना जिससे किसी की गति या शक्ति नियन्त्रित और सीमित हो जाय अथवा मनमाना काम न कर सके। जैसे—जादू के जोर से दर्शकों की नजर बाँधना, मन्त्र के बल से साँप को बाँधना (अर्थात् इधर-उधर बढ़ने में असमर्थता कर देना) ११. कोई ऐसी क्रिया करना जिससे दूसरा कोई किसी रूप में अधिकार या वश में आ जाय अथवा किसी रूप में विवश हो जाय। जैसे—किसी को प्रेमसूत्र में बाँधना। १२. किसी चीज को ऐसे रूप या स्थिति में लाना कि वह इधर-उधर न हो सके और अपने नये रूप या स्थान में यथावत् रहे। जैसे—किसी चूर्ण से गोली या लड्डू बाँधना, कमर में तलवार या कटार बाँधना। १३. कुछ विशिष्ट प्रकार की वास्तु-रचनाओं के प्रसंग में बनाक तैयार करना। जैसे—कुआँ घर नया पुल बाँधना। १४. बौद्धिक क्षेत्र या विचार के प्रसंग में, सोच-समझकर स्थिर करना। जैसे—बन्दिश बाँधना, मन्सूबा बाँधना १५. साहित्यिक क्षेत्र में किसी विषय के वर्णन कीरचना सामग्री एकत्र करके उसका ढाँचा खड़ा करना। जैसे—आलंकारिक वर्णन के लिए रूपक बाँधना, गजल में कोई मजमूत बाँधना। १६. ऐसी स्थिति में लाना कि नियमित रूप से अपना ठीक और पूरा काम कर सके या प्रभाव दिखला सके। जैसे—किसी की तनख्वाह या भत्ता बाँधना, किसी पर रंग बाँधना, किसी काम या बात का डौल या हिसाह बाँधना। १७. उपमा देना। सादृश्य स्थापित करना। उदाहरण—सब कद को सरो बाँधे है तू उसको ताड़ बाँध।—कोई कवि। अर्थात् सब लोग कद की उपमा सरो। (वृक्ष) से देते हैं तुम उसकी उपमा ताड़ वृ से दो। १८. उपक्रम या योजना करना।
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बाधना  : [सं० बाधन] १. बाधा डालना। रुकावट या विघ्न डालना। २. कष्ट देना पीड़ित करना। स्त्री० बाधा। उदा०—नाम रूप ईश की बाधना।—निराला। स० [सं० वर्द्धन] बढ़ाना। अ०=बढ़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बांधनिकेय  : पुं० [सं० बंधकी+ढक्-एय, इनङ] अविवाहिता स्त्री का जारज पुत्र।
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बाँधनी-पौरि  : स्त्री० [हिं० बाँधना+पौरि] वह घेरा या बाड़ा जिसमें पालतू पशुओं को बाँधकर रखा जाता है।
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बाँधनू  : पुं० [बाँधना] १. वह उपाय या उक्ति जो किसी कार्य को आरम्भ करने से पहले सोची या सोचकर स्थिर की जाती है। पहले से ठीक की हुई तस्वीर या स्थिर किया हुआ विचार। उपक्रम। मंसूबा। २. किसी सम्भावित बात के सम्बन्ध में पहले से किया जानेवाला सोच-विचार। क्रि० प्र०—बाँधना। ३. किसी पर लगाया जानेवाला झूठा अभियोग। ४. मनगढंत बात। ५. रँगने से पहले कपड़े में बेलबूटे या बुंदकियाँ रखने के लिए उसे जगह-जगह डोरी, गोटे या सूत से बाँधने की क्रिया या प्रणाली। पद—बाँधनू की रँगाई=कपड़े रंगने का वह प्रकार, जिसमें चुनरी, साड़ी आदि रँगने से पहले बुंदकियाँ डालने या कलात्मक आकृतियाँ बनाने के लिए उन्हें जगह-जगह सूतों से बाँधा जाता है। (टाई एण्ड डाई) ३. उक्त प्रकार से रँगी हुई चुनरी या साड़ी या और कोई ऐसा वस्त्र जो इस प्रकार बाँध कर रँगा गया हो उदाहरण—कहै पद्याकर त्यौ बाँधनू बसनवारी ब्रज वसनहारी ह्यौ हरनवारी है।—पद्याकर।
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बाँधव  : पुं० [सं० बन्धु+अण् स्वार्थ] १. भाई। बन्धु। २. नाते-रिश्ते के लोग। ३. घनिष्ट मित्र। गहरा दोस्त।
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बाँधव्य  : पुं० [सं० बांधव+ष्यञ्] १. बन्धु होने की अवस्था या भाव। बंधुता। २. रक्त-सम्बन्ध। नाता। रिश्ता।
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बाधा  : स्त्री० [सं०√ बाध्+अ+टाप्] १. वह बात या स्थिति जो किसी को आगे बढ़ने अथवा कोई काम संपादित करने से रोकती है। उन्नति या प्रगति में बाधक होनेवाली तत्त्व। (आब्स्टैकल) कि० प्र०—डालना।—देना।—पड़ना।—पहुँचना। २. कष्ट। संकट। ३. डर। भय। उदा०—कहु सठ तोहि न प्रान कै बाधा।—तुलसी। ४. भूत-प्रेत आदि के कारण होनेवाला कोई भौतिक या शारीरिक उपद्रव या कष्ट। जैसे—लोग कहते हैं कि उसे रोग नहीं है कोई बाधा है। पुं० [सं० वृद्धि] १. बढ़ती। वृद्धि। २. मुनाफा। लाभ। (पश्चिम) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाधित  : भू० कृ० [सं०√बाध्+क्त] १. जिसके मार्ग में बाधा खड़ी की गई हो। बाधा से जिसका मार्ग अवरुद्ध हो। २. जो किसी प्रकार की बाधा से ग्रस्त। निषिद्ध ठहराया हुआ। ५. दे० ‘अभिनिष्ठ’।
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बाधियता  : पुं० [सं०√ बाध् (रोकना)+ णिच्+तृच्] वह जो दूसरों के काम या मार्ग में बाधाएँ खड़ी करता हो।
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बाधिर्य  : पुं० [सं० बधिर+ ष्यञ्]=बघिरता (बहरापन)।
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बाधी (धिन्)  : वि० [सं० बाध+इनि, दीर्घ, नलोप] बाधा देनेवाला। बाधक।
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बाँधुआ  : वि० पुं०=बँधुआ।
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बाध्य  : वि० [सं० बाध् (रोकना)+ण्यत्] [भाव० बाध्यता] १. जिस पर कोई बाधा या बाधक तत्त्व लगा तो या लगाया गया हो। २. जो आज्ञा, नियम, मनोवेग, परिस्थिति आदि से कुछ करने में विवश हो मजबूर।
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बाध्य-रेता (तसं)  : पुं० [सं० ब० स०] क्लीब। नपुंसक।
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बान  : पुं० [सं० बाण] १. वाण। तीर। २. उक्त के आकार की एक प्रकार की अतिशबाजी जो उड़कर आकाश में जाती और वहाँ फुल-झड़ियाँ छोड़ती हैं। ३. नदी, समुद्र आदि में उठनेवाली ऊँची लहर। ४. वह छोटा डंडा जिसके दोनों सिरों पर गोलाकार लट्टू लगे होते हैं और जिससे धुनकी (कमान) की ताँत को झटका देकर धुनिए रूई धुनते हैं। पुं० [सं० वर्ण] १. रंग। वर्ण। २. आभा। कांति। चमक। स्त्री० [हिं० बनना] १. ऐसा अभ्यास या आदत जो बनते बनते स्वभाव का अंग बन गई हो। टेव। उदा०—होली के दिन मान न करिए, लाडली, कौन तिहारी बान। (होली) कि० प्र०—डालना।—पड़ना।—लगना। २. रचना-प्रकार। बनावट। पुं० [देश०] १. जड़हन (धान) रोपने के समय उतनी पेड़ियाँ जितनी एक साथ एक थान में रोपी जाती हैं। जड़हन के खेत में रोपी हुए धान की जूरी। कि० प्र०—बैठना।—रोपना। २. अफगानिस्तान से असम प्रदेश तक और प्रायः हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का वृक्ष। पुं० [हिं० बाध] खाट बुनने की मूँज की रस्सी। बाध। उदा०—सोने की वह नार कहावै बिना कसौटी बान दिखावे। (खाट या चारपाई की पहेली) पुं०=बाना (वेष)। प्रत्य० [फा०] देख-रेख या रखवाली करनेवाली। रक्षक। जैस—दरबान् निगहबान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बानइत  : पुं०=बानैत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बानक  : पुं० [सं० वार्णः; हि० बानक] १. भेस। वेष। २. सुन्दर बनावट या रूप। सज-धज सजावट। उदा०—या बानकी बट बानिक (बानक) या बन ही बनि आवै।—नन्ददास। ३. ढंग। तरीका। उदा०—जोग रत्नाकर में साँस घँटि बूड़ै, कौन ऊधो हम सूधो यह बानक विचार चुकीं।—रत्नाकर। ४. पीले या सफेद रंग का एक प्रकार का रेशम। पुं० [हिं० बनना] किसी घटना के घटित होने के लिए उपयुक्त परिस्थिति या संयोग। मुहा०—बानक बनना या बैठना= (क) किसी काम या बात के लिए बहुत ही उपयुक्त संयोग या सुयोग उपस्थित होना। उदा०—हम पतित तुम पतितपावन दोऊ बानक बने।—तुलसी। (ख) मेल या संगति बैठना।
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बानगी  : स्त्री० [सं० वार्ण
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बानना  : सं० [हिं० बना] १. किसी प्रकार या बात का बाना ग्रहण अथवा धारण करना। २. किसी काम या बात का उपकम करना। ठानना। उदा०—दिन उठि विषय-वासना बानत।—सूर। सं०=बनाना। उदा०—कदम तीर तै बुलायो गढ़ि गढ़ि बातै बानति।—सूर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बानबे  : वि० [सं० द्विनवति; प्रा० बाणवइ] जो गिनती में नब्बे से दो अधिक हो। दो ऊपर नब्बे। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—९२।
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बानर  : पुं० [सं० वानर] [स्त्री० बानरी] बंदर।
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बानवर  : पुं० [?] बत्तखों की जाति की काले रंग की एक प्रकार की बड़ी चिड़िया जो लगभग तीन फुट की होती है। साँप जैसी लम्बी और पतली गरदन के कारण इसे ‘नागिन’ भी कहते हैं।
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बाना  : पुं० [सं० वार्ण
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बानात  : स्त्री०=बनात (कपड़ा)।
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बानावरी  : स्त्री० [हि० बाण+आवरी (प्रत्य०)] बाण चलाने की विद्या या ढंग।
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बानि  : स्त्री० [सं० वार्ण
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बानिक  : पुं०=बानक। पुं०=वणिक्। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बानिज  : पुं०=वाणिज्य।
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बानिन  : स्त्री० [हिं० बनी=बनिया] बनिया जाति की या बनिये की स्त्री।
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बानिया  : पुं० [सं० वणिक्] [स्त्री० बानिन]=बनिया।
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बानी  : स्त्री० [सं० वाणी] १. मुँह से निकला हुआ सार्थक शब्द, बात या वचन। २. दृढ़ता या प्रतिज्ञापूर्वक कही हुई बात। ३. साधु-महात्माओं की उपदेशपूर्ण बात। जैसे—कबीर, दादू या नानक की बानी। ४. मनौती। मन्नत। ५. सरस्वती। ६. दे० ‘वाणी’। स्त्री० [सं० वाण] बाना नामक हथियार। स्त्री० [सं० वर्ण] १. रंग। वर्ण। २. आभा। कांति। चमक। जैसे—बारह बानी का सोना। (दे० ‘बारह बानी’) उदा०—एक रूप बानी जाके पानी की रहति है।—सेनापति। ३. एक प्रकार की पीली मिट्टी जिससे पकाये जाने से पहले मिट्टी के बरतन रंगे जाते है। कपसा। वि० [फा] १. किसी काम या बात की बुनियाद (नींव) डालने या जड़ जमानेवाला। २. आरंभिक या मूल प्रवर्तक। पुं० [सं० वणिक्] बनिया।
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बानैत  : पुं० [हि० बाना+ऐत (प्रत्य०)] १. वह जो बाना चलाता या फेरता हो। २. वह जो कोई बाना या वेष धारण किये हो। पुं० [हिं० बान=तीर] १. वह जो तीर चलाता हो। तीरंदाज। २. योद्धा। सैनिक। बानो
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बाप  : पुं० [सं० वाप=बीज बोनेवाला] पिता। जनक। पद—बाप का=पैतृक। बाप-दादा=पूर्व-पुरुष। पूर्वज। बाप-माँ=सब सब प्रकार से पालन और रक्षण करनेवाला। जैसे—सरकार बाप-माँ हैं, जो चाहें सो कहें। बाप रे !=बहुत अधिक आश्चर्य, भय, संकट आदि के समय कहा जानेवाला पद। मुहा०—(किसी का) बाप-दादा बखानना=किसी के बाप-दादा के दुर्गुण बतलाते हुए उन्हें गालियाँ देना और उनकी निदा करना। (किसी को) बाप बनाना=(क) बहुत अधिक आदरपूर्वक अपना पूज्य और बड़ा बनाना। (ख) अपना काम निकालने के लिए खुशामद करते हुए बहुत आदर-सम्मान प्रकट करना।
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बापा  : पुं०=बप्पा।
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बापिका  : स्त्री० वापिका (बावली)।
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बापी  : स्त्री०=वापी (बावली)।
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बापु  : पुं०=वाप।
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बापुरा  : वि० [?] [स्त्री० बापुरी] १. जिसकी कोई गिनती न हो। तुच्छ। हीन। २. जिसकी देख-रेख करने, बात पूछने या रक्षा करनेवाला कोई न हो। बेचारा।
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बापू  : पुं० [फा० बाप] १. बाप। पिता। २. पिता तुल्य कोई वृद्ध पुरुष। ३. महात्मा गांधी के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक आदरसूचक शब्द।
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बापूकारना  : स० [हिं० बापू+कारना (प्रत्य०)] ‘बापू’ कहकर ललकारना। (राज०) उदा०—बेली तदि बालभद्र बापूकारे।—प्रिथीराज।
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बापोती  : स्त्री०=बपौती।
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बाफ  : वि० [फा० बाफ०] १. बुननेवाला। जैसे—जर-बाफ, दरी-बाफ। २. बुना हुआ। स्त्री०=भाप (वाष्प)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाफता  : पुं० [फा० बाफ्तः] एक प्रकार का बूटीदार रेशमी कपड़ा।
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बाँब  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मछली जो साँप के आकार की होती है।
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बाब  : पुं० [अ०] १. पुस्तक का कोई विभाग। परिच्छेद। २. मुकदमा। ३. तरह। प्रकार। ४. विषय। ५. अभिप्राय। आशय। मतलब।
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बाबड़ी  : स्त्री०=बावरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाबत  : स्त्री० [अ०] १. संबंध। २. विषय। अव्य विषय या संबंध में। जैसे—इसकी बाबत आप की क्या राय है ?
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बाबननेट  : स्त्री० [अ० बाबिननेट]=बाबरलेट।
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बाबर  : पुं० [फा०] भारत में मुगल राज्य की स्थापना करनेवाला एक प्रसिद्ध सम्राट।
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बाबरची  : पुं०=बावरची।
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बाबरलैट  : स्त्री० [अ० बाबनिनेट] एक प्रकार का जालीदार कपड़ा जिसमें गोल या छकोने छोटे-छोटे छेद होते हैं।
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बाबरी  : स्त्री० [हिं० बबर=सिंह] १. सिर के बढ़ाये हुए लंबे बाल। २. पट्टा। जुल्फ़।
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बाबल  : पुं०=बाबुल (पिता या बाप)। उदा०—बाबल वैद बुलाइया रे पकड़ दिखाई म्हाँरी बाँह।—मीराँ।
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बाबस  : वि० [सं० विवश] १. लाचार। विवश। २. निराश। हताश।
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बाबा  : पुं० [सं० वाप; प्रा० बप्प] १. पिता। २. पितामह। दादा। ३. बड़े बूढ़ों के लिए आदरसूचक सम्बोधन। ४. किसी भले आदमी विशेषतः साधु-महात्माओं के लिए आदरसूचक सम्बोधन। ५. लड़कों के लिए स्नेहसूचक सम्बोधन।
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बाँबा घोड़ी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का रत्न जो लहसुनिया की जाति का होता है।
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बाँबाँ रथी  : पुं० [सं० वामन] वामन। बौना। बहुत ठिगना।
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बाबिल  : पुं० [बाबुल देश] एशिया खंड काएक अति प्राचीन नगर जो फारस के पश्चिम फरात नदी के किनारे था। (बैबिलोन)
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बाँबी  : स्त्री० [सं० वम्री] १. दीमकों द्वारा बनाया हुआ मिट्टी का स्थान जो रेखाकार होता है। बँबीठा। २. साँप का बिल।
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बाबी  : स्त्री० [हिं० बाबा] १. साधु स्त्री। संन्यासी। २. लड़कियों के लिए स्नेह सूचक सम्बोधन।
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बाबीहा  : पुं० पपीहा। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाबुना  : पुं०=बाबूना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाबू  : पुं० [हिं० बाप या बाबा] १. एक प्रकार का आदरसूचक शब्द जिसका प्रयोग पहले राजाओं आदि के सम्बन्धियों के लिए होता था, और अब सभी प्रकार के प्रतिष्ठित क्षत्रियों, वैश्यों आदि के नाम के साथ होता है। जैसे—बाबू महादेवप्रसाद। २. पिता या बड़ों के लिए सम्बोधन।
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बाबूड़ा  : पुं० [हिं० बाबू+ डा (प्रत्य)] ‘बाबू’ के लिए उपेक्षा सूचक शब्द। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाबूना  : पुं० [देश०] १. पीले रंग का एक पक्षी जिसकी आँखों के ऊपर का रंग सफ़ेद, चोंच काली और आँखें लाल होती हैं। २. एक प्रकार का छोटा पौधा जो फारस और युरोप में होता है।
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बाबूल  : पुं० [हि० बाबा] १. बाबू। २. पिता। बाप। पुं०=बाबिल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँभन  : पुं०=ब्राह्यण।
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बाभन  : पुं० १. दे० ‘ब्राह्यण’। २. दे० ‘भूमिहार’।
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बाँभी  : स्त्री०=बाँबी।
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बाम  : पुं० [फा०] १. अटारी। कोठा। २. घर में सबसे ऊपर का कोठा और छत। ३. लंबाई, ऊँचाई आदि नापने का एक मान जो साढ़ै तीन हाथ का होता है। पुरसा। स्त्री० [सं० ब्राह्यी] १. एक प्रकार की मछली जो देखने में साँप सी पतली, गोल और लंबी होती है। २. कान में पहनने का एक गहना। स्त्री०=बामा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बामदेव  : पुं०=बामदेव।
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बामन  : पुं०=वामन।
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बामा  : स्त्री०=वामा।
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बामी  : स्त्री० १. दे० ‘बाँबी’। २. दे० ‘लाही’।
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बायँ  : वि० [सं० वाम] १. (निशना) जो अपने ठीक लक्ष्य पर न लगा हो। चूका हुआ। मुहा०—बायें देना=(क) किसी के वार करने पर इस प्रकार इधर-उधर हो जाना कि आघात न लगने पावे। (ख) उपेक्षापूर्वक छोड़ देना। ध्यान न देना। जाने देना। (ग) किसी के चारों ओर चक्कर या फेरा लगाना। २. दे० ‘बायाँ’। स्त्री० [अनु०] पशुओं आदि के मुँह के निकलनेवाला बाँ बाँ या बाँये बाँये शब्द
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बाय  : स्त्री० [सं० वाय] १. वाय हवा। २. शरीर में होनेवाला वात का प्रकोप। बाई। स्त्री०= बावली (वापी)। उदा०—अति अगाध अति औथरौ नदी, कूप, सर, बाय।—बिहारी।
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बायक  : पुं० [सं० वाचक] १. वाचक। २. वक्ता। ३. पढ़नेवाला। पाठक। ४. दूत।
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बायकाट  : अव्य० [अं०] बहिष्कार। (देखें)
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बायद व शायद  : अन्य० [फा०] ऐसा अच्छा जैसा होना चाहिए, फिर भी जैसा बहुत कम होता या सिर्फ कभी कभी दिखाई देता हो। जैसे—उसने ऐसे अनोखे करतब दिखाये कि बायद व शायद।
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बायन  : पुं० [सं० वायन] १. वह मिठाई या पकवान आदि जो लोग उत्सव आदि के उपलक्ष में अपने इष्ट-मित्रों के यहाँ भेजते हैं। बैना। २. उपहार। भेंट। ३. किसी काम या बात का निश्चय करने के लिए उसके सम्बन्ध में पहले से दिया जानेवाला धन। पेशगी। बयाना। कि० प्र०—देना।—पाना—मिलना—लेना। मुहा०—बायन देना= किसी के साथ कोई ऐसा व्यवहार करना, जिसका बदला उसे आगे चलकर चुकाना पड़े। उदा०—भले भवन अब बायन दीन्हा।—तुलसी।
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बायबरंग  : स्त्री०=बायबिडंग।
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बायबिडंग  : स्त्री० [सं० बिडंग] एक लचचा जो हिमालय पर्वत, लंका और बरमा में होती है।
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बायबिल  : स्त्री०=बाइबिल।
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बायबी  : विं० [सं० वायवीय] ऐसा अपरिचित या बाहरी जिससे किसी प्रकार की आत्मीयता या संबंध न हो।
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बायरा  : पुं० [देश०] कुश्ती का एक पेंच।
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बायल  : वि० [हिं, बायाँ, बयँ] १. (प्रहार या वार) जो खाली गया या निष्फल हुआ हो। कि० प्र०—जाना।—देना। २. (जूए का दाँव) जो खाली गया हो और किसी का न आया हो। कि० प्र०—जाना। बायलर
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बायल  : वि, [हिं, बाय+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० बायली] शरीर में वायु का विकार उत्पन्न करने या बढ़ानेवाला। जैसे—किसी को बैंगन बायला किसी को बैंगन पथ्य। (कहा०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बायली  : वि०=बायबी।
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बायव्य  : पुं०=वायव्य।
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बायस  : पुं०=वायस।
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बाँया  : वि०=बायाँ।
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बायाँ  : वि० [सं० वाम] [स्त्री० बाईं] १. शरीर के उस पक्ष से संबंध रखनेवाला अथवा होनेवाला जो शरीरिक दृष्टि से अपने विपरीत पक्ष से कुछ दुर्बल और कम कर्मशील होता है। ‘दाहिना’ का विपर्याय। जैसे—बायाँ हाथ, बाई आँख। 2, जिस ओर उक्त पक्ष हो, उस ओर में स्थित होनेवाला। मुहा०—बायाँ देना=(क) किनारे से निकल जाना। (ख) उपेक्षा पूर्वक छोड़ देना। ३. मकानों आदि के संबंध में, उनके मुख्य द्वार की ओर पीठ करके खड़े होने पर बायें हाथ की ओर का। ४. चित्र के उस पार्श्व से संबंध रखनेवाला जिस ओर द्रष्टा का बायाँ हाथ हो (चित्र का वस्तुतः यह दाहिना पक्ष होता है)। ५. उलटा। ‘सीधा’ का विपर्याय। ६. प्रतिकूल। विरुद्ध। कूल। विरुद्ध। पुं० तबले के साथ प्रायः वाएँ हाथ से बजाया जानेवाला उसका जोड़ डुग्गी।
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बायें  : अव्य, [हिं० बायाँ] १. जिस ओर बायाँ हाथ पड़ता हो उस ओर। बाईं ओर। बाईं तरफ। २. विपरीत पक्ष में। ३. प्रतिकूल या विरुद्ध रुप में। 4. अप्रसन्न और असन्तुष्ट रहकर या होकर।
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बार  : पुं० [सं० दवार] १. द्वार। दरवाजा। उदा०—हस्ति सिंधली बाँधे बारा।—जायसी। 2. आश्रय लेने की जगह। ठौर-ठिकाना। ३. राज-सभा दरबार। स्त्री० [सं० वार या वेला ?] १. काल। वक्त। समय। २. देर। बिलंब। उदा०—भइ बड़ि बार जाइ बलि भैया।—सूर। कि० प्र०—करना। लगाना—होना। पुं० [स० वारि] जल। पानी। स्त्री० [फा०] १. दफा। मरतबा। जैसे—पहली बार, दूसरी बार। पद—बार बार=रह-रहकर कुछ देर बाद। कई फिर। फिरफिर। पुनः। पुं० [सं० भार से फा०] १. बोझ। भार। कि० प्र०—उठाना।—रखना।—लादना। २. कहीं भेजने के लिए गाड़ी, जहाज आदि पर लादा जानेवाला माल। मुहा०—बार करना=जहाज पर माल लादना। (लश०) ३. वृक्षों आदि की पैदावार या फसल। स्त्री, [सं० वाट] १. किसी स्थान को घेरने के लिए बनाया हुआ घेरा। बाढ़। २. किनारा। छोर। सिरा। ३. हथियारों की तेज धार। बाढ़। ४. दे० ‘बारी’। पुं० [सं० बाल] बालक। लड़का। पुं०=बाल (सिर या शरीर के)। स्त्री०=बाला (युवती स्त्री)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बार-बधू  : स्त्री० [सं० वारवधू] वेश्या।
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बार-बधूटी  : स्त्री० [सं० वारवधूटी] वेश्या।
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बार-बरदार  : वि० [फा०] [भाव० बारबरदारी] भार उठानेवाला। बोझ ढोनेवाला।
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बार-बरदारी  : स्त्री० [फा०] १. माल या सामान ढोने की क्रिया या भाव। २. उक्त के बदले में मिलनेवाला पारिश्रमिक या मजदूरी।
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बार-बाँटाई  : स्त्री० [फा० बार=बोझ+हिं० बाँधना] दाये जाने से पहले कटी हुई फसल का होनेवला बँटवारा।
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बार-मुखी  : स्त्री० [सं० वारमुख्या] वेश्या।
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बार-रुकाई  : स्त्री० [हिं० बार+रोकना] १. विवाह की एक रसम जिसमें लड़कीवाले के घर की स्त्रियाँ दरवाजे पर वर को रोककर कुछ नेग देती हैं।
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बारक  : अव्य० [हिं० बार+एक] एक दफा। एक बार। स्त्री०=बैरक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारककंत  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो साँप का विष दूर करनेवाला माना जाता है।
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बारगाह  : स्त्री० [फा०] १. ड्योढ़ी। २. खेमा। तंबू। ३. राजाओं आदि का दरबार। कचहरी। ४. राजमहल।
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बारगी  : वि० [फा० बारगाह] लड़ाई का एक ढंग या प्रकार। पुं० [फा०] अश्व। घोड़ा।
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बारगीर  : वि० [फा०] बोझ ढोनेवाला। भारवाहक। पुं० १. घोड़ों के लिए घास चारा काटकर लाने और सईस की सहायता करनेवाला घसियारा। २. मध्ययुग में वह सिपाही या सैनिक जो किसी राजा या सरदार के घोड़े पर चढ़कर युद्ध आदि करता था। ३. घोड़ा। ४. ऊँट। ५. बैल।
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बारजा  : पुं० [हिं० वार=द्वार+जा=जगह] १. मकान के सामने के दरवाजे के ऊपर पाटकर बढ़ाया हुआ छज्जा। बरामदा। २. कमरे के आगे का छोटा दालान। ३. छत के ऊपर का कमरा। अटारी। कोठा।
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बारण  : पुं०=वारण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारता  : स्त्री०=वार्ता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारतिय  : स्त्री० [हिं० बार+तिय] वेश्या।
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बारतुंडी  : स्त्री० [ब० स०] आलू का पेड़।
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बारदाना  : पुं० [फा० बारदानः] १. वह चीज जिसमें बोझ विशेषतः व्यापार के सामान बाँधे या रखे जाते हैं। जैसे—खुरजी, बोरा आदि। २. वे टाट आदि जिसमें बाँधकर माल के बड़े-बड़े गट्ठर बाहर भेजे जाते हैं। ३. फौज के खाने-पीने की सामग्री। रसद। ४. टूटी-फूटी चीजें या सामान अंगड़-खंगड़।
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बारदार  : वि० [फा०] १. जिस पर किसी प्रकार का भार या बोज हो। २. (वृक्ष) जो फलों से भरा या लदा हो। ३. (स्त्री) जिसे गर्भ हो
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बारन  : पुं० [सं० वारण] हाथी। पुं०=वारण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारना  : अ० [सं० वारण] १. मना करना। २. बाधा डालना। स०=बालना (जलाना) स०=वारना (निछावर करना)।
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बारनिश  : स्त्री०=वारनिश।
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बारंबार  : अव्य० [सं० वारंवार] अनेक, कई या बहुत बार। पुनः पुनः।
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बारवा  : स्त्री० [देश०] एक रागिनी जिसे कुछ लोग श्री राग की पुत्रवधू मानते हैं।
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बारह  : वि० [सं० द्रादश, प्रा० बारस, अप० बारह] [वि० बारहवीं] जो संख्या में दस और दो हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—१२।
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बारह टोपी  : स्त्री० [हि०] १. मध्ययुग में यूरोप के बारह प्रमुख राष्ट्र जो अपने टोपों की विभिन्नता के कारण प्रसिद्ध थे। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारह पत्थर  : पुं० [हिं० बारह+पत्थर] १. वे बारह पत्थर जो पहिले छावनी की सरहद पर गाड़े जाते थे। २. सैनिक शिविर। छावनी।
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बारह बाट  : पुं० [हि०] १. इधर-उधर फैले हुए बहुत से मार्ग। जैसे—बारहबाट अठारह पैंड़। २. व्यर्थ का प्रसार या फैलाव। ३. किसी विषय में लोगों के ऐसे परस्पर विरोधी मत या विचार जो एकता, दृढ़ता आदि में बाधक हों। वि० १. छिन्न-भिन्न। तितर-बितर। २. नष्ट-भ्रष्ट। बरबाद। मुहावरा—बारह बाट करना या घालना=तितर-बितर या छिन्न-भिन्न करना। व्यर्थ इधर-उधर करके नष्ट करना। बारहबाट जाना या होना=(क) तितर-बितर होना। छिन्न-भिन्न होना। (ख) नष्ट-भ्रष्ट होना। बरबाद होना। ३. ऐसा निरर्थक जो घातक भी सिद्ध हो या हो सकता हो।
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बारह-खड़ी  : स्त्री० [सं० द्वादश+अक्षरी] १. अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं और अः इन बारह स्वरों की मात्राएँ क्रमात् प्रत्येक व्यंजन में लगाकर बोलने या लिखने की क्रिया। २. वह रूप जिसमें सभी व्यजनों में उक्त स्वर लगाकर दिखाये गये हों।
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बारह-बाना  : वि० [हि०] १. सूर्य के समान चमक-दमकवाला। २. खरा और चोखा। (सोना)।
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बारह-बानी  : वि० [सं० द्वादश (आदित्य)+वर्ण, पा० बारस, वण्ण] १. सूर्य के समान चमक-दमकवाला। बहुत चमकीला। २. (सोना) बिलकुल खरा चोखा या बढ़िया। ३. जिसमें कोई खोट, दोष या विकार न हो। निर्मल और स्वच्छ। ४. जिसमें कोई कसर या त्रुटि न हो। ठीक और पक्का। स्त्री० १. सूर्य की सी चमक। २. आभा। चमक दीप्ति। ३. बारह बाना सोना।
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बारह-वफात  : पुं० [हिं० बारह+अ० वफात] अरबी महीने रवी-उल-अव्वल की वे बारह तिथियाँ जिनमें मुसलमान के विश्वास के अनुसार मुहम्मद साहब बीमार रहकर अन्त में पर-लोकवासी हुए थे।
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बारहठ  : पुं० [सं० द्वारस्थ] राजपूताने केचारणों का एक भेद या वर्ग।
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बारहबान  : पुं० [सं० द्वादश, वर्ण] [वि० बारहबानी] एक प्रकार का खरा और बढ़िया सोना। पुं० [हिं० बारह+बाना] मध्ययुगीन भारत में अच्छे सैनिक के पास रहनेवाले ये बारह हथियार-कटार, कमान, चक्र, जमदाढ़, तमंचा, तलवार, बंदूक, बकतह, बाँस, बिछुआ और साँग।
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बारहमासा  : पुं०=[हिं० बारह+मास] वह पद्य या गीत जिसमें बारह महीनों की प्राकृतिक विशेषताओं का वर्णन किसी विरही या विरहनी के मुँह से कराया गया हो।
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बारहमासी  : वि० [हिं० बारह+मास] १. बारहों मास होनेवाला। २. वर्ष के बारहों महीनों में से अलग-अलग प्रत्येक भाग से सम्बन्ध रखनेवाला। जैसे—बारह-मासी। चित्रावली=ऐसी चित्रावली जिसमें चैत, वैशाख, जेठ आदि महीनों की प्राकृतिक स्थिति और उनके ध्यान अर्थात् कल्पित स्वरूपों के अलग-अलग चित्र हों। ३. सब ऋतुओं में फलने-फूलने वाला। ४. (काम या बात) जो बराबर या सदा हुआ करे।
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बारहरदी  : स्त्री० [हिं० बारह+फा० दर=दरवाजा] किसी इमारत का ऊपरवाला वह कमरा जिसमें चारों ओर तीन तीन दरवाजे अर्थात् कुल मिलाकर बारह दरवाजे हों।
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बारहवाँ  : वि० [हिं० बारह] [स्त्री० बारहवीँ] संख्या में बारह के स्थान पर पड़नेवाला।
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बारहसिंगा  : पुं० [हिं० बारह+सींग] एक प्रकार का बड़ा हिरन जो तीन चार फुट और सात आठ फुट लंबा होता है। नर के सीगों में कई शाखाएँ निकलती है। इसी से इसे बराहसिंगा कहते हैं। झिंकार। साल-साँभर।
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बारहाँ  : वि० [हिं० बारह] जो बारह (अर्थात् बहुत से) लोगों में सबसे प्रबल हो जैसे—बारहाँ गुंडा, बरहाँ मिस्तरी। वि० बहादुर। वीर। वि०=बाहहवाँ।
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बारहा  : अव्य० [फा०] अनेक बार। प्रायः बहुधा।
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बारही  : स्त्री०=बरही। (जन्म से बारहवाँ दिन)।
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बारही  : स्त्री०=वाराही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारहों  : पुं० [हिं० बारह] १. किसी मनुष्य के मरने के दिन से बारहवाँ दिन। बारहवाँ। द्वादशाह। २. बरही (जन्म से बारहवां दिन)।
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बाराँ  : वि० [फा०] बरसनेवाला। पुं० बरसनेवाला पानी। वर्षा। मेंह।
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बारा  : वि० [सं० बाल] छोटी अवस्थावाला। अल्पवस्यक ‘प्रौढ़’ या वयस्क का विपर्याय। जैसे—नन्हा बारा बच्चा। पद—बारे ते=बाल्यावस्था से ही। छोटे पन से ही। पुं० बच्चा। बालक। लड़का। पुं० [हिं० बाढ़=ऊंचा किनारा] १. वह कंगनी जो बेलन के सिरे पर लगी रहती है और जिसके फिरने से बेलन फिरता है २. जंते से तार खीचने का काम। पुं० [हिं० बारह] मृतक के बारहवें दिन होनेवाला भोज। पुं० [हि० वार०] वह दूध जो चरवाहा चौपायों को चराने के बदले में आठवें दिन पाता है। पुं० [?] १. वह आदमी जो कुएँ पर खड़ा होकर भरकर निकले हुए चरसे या मोट का पानी उलटकर गिराता है। २. वह गीत जो चरस या मोट खींचनेवाला उक्त समय पर गाता है।
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बारा-जोरी  : क्रि० वि०=बर-जोरी। (बल-पूर्वक)।
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बारात  : स्त्री०=बरात।
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बाराती  : पुं०=बराती।
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बारादरी  : स्त्री०=‘बारहदरी’।
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बारानी  : वि० [फा०] वर्षा संबंधी। बरसाती। स्त्री० १. ऐसी भूमि जिसकी सिंचाई केवल वर्षा के जल से होती हो। २. उक्त प्रकार की सिंचाई से अर्थात् वर्षा के जल में होनेवाली फसल ३. दे० ‘बरसाती’ (ओढ़ने का कपड़ा)।
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बाराह  : पुं०=वाराह (सूअर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाराही-कंद  : स्त्री०=वाराही कंद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारि  : पुं०=वारि। स्त्री०=बारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारिक  : पुं० [अं० बैरक] ऐसे बँगलों या मकानों की श्रेणी या समूह जिनमें फौज के सिपाही रहते हों। छावनी।
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बारिगर  : पुं० [हिं० बारी+फा० गर] हथियारों पर बाढ़ या सान रखनेवाला। सिकलीगर।
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बारिगह  : स्त्री०=बारगाह। उदाहरण—चिरउर सौहँ बारिगह तानी।—जायसी।
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बारिज  : पुं०=वारिज।
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बारिद  : पुं०=वारिद।
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बारिधर  : पुं० [सं० वारिधर] १. बादल। मेघ। २. एक वर्णवृत्त।
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बारिधि  : पुं०=वारिधि।
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बारिवाह  : पुं० [सं० वारि+वाह०] बादल।
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बारिश  : स्त्री० [फा०] [वि० बारिशी] १. वर्षा। वृष्टि। २. वर्षा ऋतु। बरसात।
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बारिस्टर  : पुं०=बैरिस्टर।
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बारी  : स्त्री० [सं० अव्वार] १. किनारा। तट। २. किसी प्रकार के विस्तार का अंतिम सिरा। किनारा। हाशिया। ३. खेतों, बगीचों आदि के चारों ओर या किसी पार्श्व में खड़ा किया जानेवाला घेरा। बाढ़। ४. किसी प्रकार का उठा हुआ किनारा या घेरा। अवँठ। जैसे—कटोरी या थाली की बारी। ५. किसी प्रकार का पैना किनारा या सिरा। धार। बाढ़। स्त्री० [हिं० वाटी, वाटिका] १. वह स्थान जहाँ बहुत से पेड़ लगाये गये हों। जैसे—आम की बारी। २. उपवन। बगीचा। ३. बगीचे का माली। बागवान। उदाहरण—बारी आइ पुकारै, लिहै सबै कर पूँछ—जायसी। ४. खेतों बगीचों आदि में अलग किया हुआ विभाग। क्यारी। ५. घर। मकान। (दे० बाड़ी) ६. खिड़की। झरोखा। ७. जहाजों के ठहरने की जगह। बंदरगाह। ८. रास्ते में बिखरे हुए काँटे या झाड़-झंखाड़। (पालकी ढोनेवाले कहार) पुं० हिदुओं में दोने, पत्तले आदि बनानेवाली एक जाति। स्त्री० [फा० बारी] १. थोड़े-थोड़े समय या रह-रह कर होनेवाला कामों के संबंध में क्रम से हर बार। आनेवाला अवस या समय। पारी। जैसे—(क) पहले लड़के के बाद दूसरे लड़के की और दूसरे के बाद तीसरे की बारी आयगी। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—बंधना। २. उक्त प्रकार के क्रम में वह आदमी या चीज जिसे नियमतः अवसर मिलता हो, जिसे काम करना पड़ता हो या जिसका उपयोग होता हो। जैसे—आज सिपाही की पहरा देने की बारी है वह बीमार है। पद—बारी-बारी से=कालक्रम में एक के पीछे एक करके। अपनी बारी आने पर। समय के अंतर पर। जैसे—सब लोग एक साथ मत बोलो बारी-बारी से बोलो। स्त्री० दे० ‘बाली’। वि० हिं० ‘बारा’ का स्त्री। पुं० [अ०] ईश्वर। परमात्मा।
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बारीक  : वि० [फा०] [भाव० बारीकी] १. जिसका तल बहुत पतला हो। बहुत ही थोड़ी मोटाईवाला। महीन। जैसे—बारीक मलमल। २. जिसका घेरा या मोटाई बहुत ही कम हो। पतला। जैसे—बारीक तार बारीक सूत। ३. जिसके अणु या कण बहुत ही छोटे या सूक्ष्म हों। जैसे—बारीक आटा। ४. (विचार) जिसमें भावों के बहुत ही सूक्ष्म अन्तर हों, और इसलिए जो सहसा सबकी समझ में न आता हो। जैसे—पारीक फरक, बारीक बात। ५. गूढ़। ६. जटिल।
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बारीका  : पुं० [फा० बारीक] चित्रकारी में रेखाएँ खींचने की एक तरह की महीन कलम।
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बारीका  : स्त्री० [फा०] १. बारीक होने की अवस्था या भाव। सूक्ष्मता। क्रि० प्र०—निकालना। २. गूढ़ता। २. जटिलता।
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बारीदार  : पुं० [हिं० बारी=पारी+फा० दार प्रत्यय)] [स्त्री० बारीदरी, भाव० बारीदारी] पारी-पारी से परहा देनेवाले पहरेदारों मे से हर एक।
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बारीस  : पुं०=बारीश (समुद्र)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारुणी  : स्त्री०=बारुणी (मदिरा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारुन्न  : पुं० [सं० वारण] हाथी। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारू  : पुं०=बार (द्वार) उदाहरण—महिं घूँबिअ पाइअ नहिं बारू। जायसी। पुं०=बालू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बारूत  : स्त्री० बारूद।
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बारूद  : स्त्री० [सं० वारूद (अग्नि) से फा०] १. गंधक, शोरे, कोयले आदि का वह मिश्रण जो विस्फोटक होता है और आतिशबाजी तथा तोपें, बन्दूकें आदि चलाने के काम आता है। पद—गोला बारूद=युद्ध में काम आनेवाली तोपें बंदूके उनके गोले-गोलियाँ तथा अन्य आवश्यक सामग्री। २. कोई ऐसा तत्त्व या पदार्थ जो जरा-सा सहारा पाकर बहुत भीषण परिणाम उत्पन्न करता या कर सकता हो।
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बारूदखाना  : पुं० [फा० बारूदखानः] वह स्थान जहाँ बारूद तैयार किया जाता अथवा सुरक्षित रखा जाता हो।
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बारूदी  : वि० [फा०] १. बारूद संबंधी। २. जिसमें बारूद हो अथवा रखा या छिपाया गया हो। जैसे—बारूदी सुरंग।
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बारे  : अव्य० [फा०] १. अंततः। आखिरकार। २. अस्तु। खैर। ३. चलो, अच्छा हुआ। कुशल है कि। जैसे—मुझे तो बहुत चिंता हो रही थी, बारे आप आ गये। अब काम हो जायगा। उदाहरण—हर महीने में कुढ़ाते थे मुझे फूल के दिन। बारे अब की तो मेरे टल गये मामूल के दिन।—रंगीन। पद—बारे में=(किसी के) प्रसंग विषय या सम्बन्ध में। विषय में। जैसे—उनके बारे में आपकी क्या राय है।
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बारोठा  : पुं०=बरोठा (द्वार)।
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बारोमीटर  : पुं०=बैरोमीटर।
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बार्डर  : पुं० [अ०] १. छोर। किनारा। २. धोती के किनारे पर की पट्टी। ३. सीमा। हद।
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बार्बर  : वि० [सं० बर्बर+अण्] १. बर्बर देश में उत्पन्न। बर्बर देश का। २. बर्बर सम्बन्धी। पुं० [अं०] नाई। हज्जाम।
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बार्ह  : वि० [सं० वर्ह+अण्] १. वर्हि या मोर सम्बन्धी। २. मोर के पंख का बना हुआ।
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बार्हस्पत्य  : वि० [सं० बृहस्पति+अण्] बृहस्पति सम्बन्धी। पुं० १. गणित ज्योतिष में सा संवत्सरों में से एक। २. नास्तिक भूतवादियों का लोकायत सम्प्रदाय जो गुरु बृहस्पति द्वारा प्रवर्तित माना गया है।
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बार्हिण  : वि० [सं० वर्हिण+अण्] मयूर सम्बन्धी। मोर का।
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बाल  : पुं० [सं०√बल् (जीवनदाता)+ण] [स्त्री० बाला] वह जो अभी जवान या सयाना न हुआ हो। बच्चा। बालक। पद—बाल-गोपाल=बाल बच्चे। संतान। (मंगला-भाषित) जैसे—बाल-गोपाल सुख रहे। (आर्शीवाद) २. वह जिसे समझ न हो। नासमझ। ३. किसी पशु का बच्चा। ४. नेत्रवाला। सुगंधवाला। वि० १. जो सयाना न हो। जो पूरी बाढ़ को न पहुँचा हो। २. जिसे अभी यथेष्ठ ज्ञान या समझ न हो। ३. जिसका आरंभ या उदय या जन्म हुए अभी अधिक समय न हुआ हो। जैसे—बाल इंदु। बाल रवि। स्त्री०=बाला (युवती स्त्री)। पुं० [सं० ] १. जीव-जन्तुओं के शरीर में, चमड़े में से ऊपर निकले हुए वे सूक्ष्म तंतु जो रोयों से कुछ अधिक बड़े और मोटे होते तथा प्रायः बढ़ते रहते हैं। केश। जैसे—दाढ़ी या मूँछ के बाल, सिर के बाल। क्रि० प्र०—गिरना।—झड़ना।—निकलना। पद—बाल बराबर या बाल-भर=(क) बहुत ही कम या थोड़ा। (ख) बहुत ही पतला महीन या सूक्ष्म। मुहावरा—नहाते समय भी बाल तक न खसना=नाम को बी किसी प्रकार का आघात न लगाना, या कष्ट अथवा हानि न होना। उदाहरण—नित उठि यही मनावति देवन न्हात खसै जनि बार।—सूर। बाल न बाँकना=दे० नीचे ‘बाल बाँका न होना’। उदाहरण—परै पहार न बाँकै बारु।—जायसी। (किसी काम में) बाल पकाना=(कोई काम करते-करते) बुड्ढे हो जाना। बहु दिनों का अनुभव प्राप्त करना। जैसे—मैनें भी सरकारी नौकरी में ही बाल पकाये हैं। बाल बनवाना=हजामत बनवाना। बाल बनाना=हजामत बनाना। बाल बाँका न होना=कुछ भी कष्ट या हानि न पहुँचना। पूर्ण रूप से सुरक्षित रहना। जैसे—निश्चित रहो, तुम्हारा बाल तक (या भी) बाँका न होगा। (दुर्घटना आदि से) बाल बाल बचना=बहुत ही थोड़े अन्तर या सकर के कारण दुर्घटना संकट आदि से बच जाना या सुरक्षित रह जाना। जैसे—मोटर का धक्का लगने (या मरने) से बाल-बाल बचना। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के चीजों के तल में आघात आदि से चटकने, दरकने, फटने आदि के कारण पड़नेवाली वह बहुत पतली धारी या रेखा जो देखने में शरीर के बाल की तरह होती है। जैसे—इस मोती या शीशे) में बाल आ गया है। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना। पुं० [सं० वल्ल या वलु=तीन रत्ती की तौल] किसी चीज का बहुत थोडा अंश। मुहावरा—बाल भर भी फरक न होना=नाममात्र का भी अन्तर न होना। स्त्री० कुछ अनाजों के पौधों के डंठल का वह अग्र भाग जिसके चारों ओर दाने निकले या लगे रहते हैं। जैसे—जौ या गेहूँ की बाल। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली। पुं० [अ० बाँल] १. गेंद। २. यूरोपीय ढंग का नाच।
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बाल-काल  : पुं० [सं० ष०त०] बालक होने की अवस्था। बाल्यावस्था। बचपन।
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बाल-कृष्ण  : पुं० [सं० कर्म० स०] बहुत छोटी या बाल्यावस्था के कृष्ण।
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बाल-केलि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. लड़कों का खेल। खिलवाड़। २. ऐसा काम जिसमें बहुत ही थोड़ी बुद्धि या शक्ति लगती हो।
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बाल-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं० ष० त०] वे खेल आदि जो छोटे-छोटे बच्चे किया करते हैं। लड़कों के खेल और काम।
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बाल-गोपाल  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. बाल्यावस्था के कृष्ण। २. गृहस्थ के बाल-बच्चे।
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बाल-गोंविद  : पुं० [सं० कर्म० स०] कृष्ण का बालक-स्वरूप। बाल-कृष्ण।
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बाल-ग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसे नौ ग्रहों का एक वर्ग जो छोटे बच्चों के लिए घातक सिद्ध माने गये है। यथा-स्कंद, स्कंदापरस्मार, शकुनी, रेवती, पूतना, गंधपूतना, शीतपूतना, मुख-मंडिका और नैगमेय।
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बाल-चंद्रिका  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक प्रकार की रागिनी।
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बाल-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] बालकों के पालन-पोषण की विद्या। कौमार भृत्य।
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बाल-तनय  : पुं० [सं० ब० स] खैर का पेड़।
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बाल-तोड़  : पुं० [हिं० बाल-तोड़ना] एक तरह का फोड़ा जो शरीर पर किसी बाल के टूटने या तोड़ने विशेषतः जड़ से उखड़ने या उखाड़ने के फलस्वरूप होता है।
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बाल-पक्व  : वि० [सं० कर्म० स०] १. जो बाल्य अथवा प्रारम्भिक अवस्था में ही पक्व हो गया हो। २. समय से कुछ पहले पका हुआ।
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बाल-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] खैर का पेड़। २. जवासा।
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बाल-पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स+ङीष्] जूही।
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बाल-बच्चे  : पुं० [सं० बाल+हिं० बच्चा] लड़के-बाले। संतान। औलाद।
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बाल-बुद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त०] बालकों की सी बुद्धि। छोटी बुद्धि। थोड़ी अक्ल। वि० जिसकी बुद्धि बालकों की-सी हो।
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बाल-बोध  : पुं० [सं० ब० स०] देवनागरी लिपि। (मध्य प्रदेश)
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बाल-ब्रह्मचारी (रिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] [स्त्री० बाल-ब्रह्मचारिणी] वह व्यक्ति जिसने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य-व्रत धारण कर रखा हो और पूर्ण रूप से उसका पालन किया हो।
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बाल-भैषज्य  : पुं० [सं० ष० त०] रसांजन।
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बाल-भोग  : पुं० [सं० ष० त०] वह नैवेद्य जो देवताओं के आगे सबेरे रखा जाता है।
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बाल-भोज्य  : पुं० [सं० ष० त०] चना। वि० बालकों या लड़कों के लिए उपयुक्त (खाद्य पदार्थ)।
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बाल-मुकुंद  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. बाल्यावस्था के श्रीकृष्ण। बालकृष्ण। २. श्रीकृष्ण की शिशुकाल की वह मूर्ति जिसमे वे घुटनों के बल चलते हुए दिखाये जाते हैं।
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बाल-मूलक  : पुं० [सं० कर्म० स०] छोटी और कच्ची मूली, जो वैद्यक में कटु, उष्ण, तिक्त तीक्ष्ण तथा श्वास अर्श, क्षण और नेत्ररोग आदि की नाशक, पाचक एवं बलवर्द्धक मानी गई है।
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बाल-रस  : पुं० [सं० मध्य० स] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का औषध जो पारे, गंधक, और सोनामक्खी से बनाया जाता है और बालकों के पुराने ज्वर, खाँसी शूल आदि का नाशक कहा गया है।
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बाल-लीला  : स्त्री० [सं० ष० त०] बालकों की क्रीड़ाएँ।
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बाल-विधवा  : वि० [सं० कर्म० स०] (स्त्री) जो बाल्यावस्था में विधवा हो गयी हो।
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बाल-विधु  : पुं० [सं० कर्म० स०] अमावास्या के उपरांत निकलनेवाला नया चंद्रमा । शुक्लपक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा।
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बाल-विवाह  : पुं० [सं० ष० त०] वह विवाह जो बाल्यावस्था में हुआ हो छोटी अवस्था में होनेवाला विवाह।
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बाल-व्यंजन  : पुं० [सं० ष० त०] चमार। चँवर।
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बाल-साहित्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसी पुस्तकें आदि जो मुख्यतः बालकों का मनोविनोद करने के साथ ही उन्हें अध्ययन की ओर प्रवृत्त करनेवाली भी हो। (जुवेनाइल लिटरेचर)
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बाल-सूर्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. उदयकाल के सूर्य। प्रातःकाल के उगते हुए सूर्य। २. वैदूर्य मणि।
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बालक  : पुं० [सं० बाल+कन्] [स्त्री० बालिका, भाव० बालकता] १. वह जिसकी अवस्था अभी-अभी १५-१६ वर्ष से अधिक न हो। बच्चा। लड़का। २. पुत्र। बेटा। ३. वह जो किसी बात या विषय में अनजान या अबोध हो। ४. हाथी का बच्चा। उदाहरण—बालक मृणालिन ज्यौ तोरि डारै सब काल कठिन कराल त्यौं अकाल दीह दुखकौ।—केशव। ५. घोड़े का बच्चा। बछेड़ा। ६. केश। बाल। ७. हाथी की दुम। ८. कंगन। ९. अँगूठा। १॰. नेत्र-बाला। गन्ध-बाला।
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बालक-प्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. केला। २. इंद्रवारुणी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालकता  : स्त्री० [सं० बालक+तल्+टाप्] बालक होने की अवस्था या भाव।
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बालकताई  : स्त्री० [सं० बालकता+हिं० ई (प्रत्यय)] १. बाल्यावस्था, लड़कपन। २. बालकों की तरह ऐसा आचरण या व्यवहार जिसमें समझदारी कुछ भी न हो या बहुत कम हो। लड़कपन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालकपन  : पुं० [सं० बालक+हिं० पन (प्रत्यय)] १. बालक होने की अवस्था या भाव। २. बालकों की तरह की ना-समझी।
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बालकांड  : पुं० [सं० मध्य० स०] रामचरित्र मानस का प्रथम प्रकरण जिसमें मुख्य रूप से भगवान रामचन्द्र जी की बाललीला का वर्णन है।
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बालकी  : स्त्री० [सं० बालक+ङीष्] १. कन्या। लड़की। २. पुत्री। बेटी।
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बालकृमि  : पुं० [सं० ष० त०] जूँ।
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बालखंडी  : पुं० [?] ऐसा हाथी जिसमें कोई दोष हो।
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बालखिल्य  : पुं० [सं०] पुराणानुसार ब्रह्या के रोएँ से उत्पन्न ऋषियों का एक वर्ग जिसका प्रत्येक ऋषि डीलडौल में अँगूठे के बराबर कहा गया है।
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बालखोरा  : पुं० [फा०] एक प्रकार का रोग जिसमें सिर के बाल झड़ने लगते हैं।
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बालंगा  : पुं० [फा० बालिंग] एक ओषधि जिसके बीज जीरे की तरह के होते हैं। तूत-मलंगा।
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बालचर  : पुं० [सं० कर्म० त०] १. वह बालक जिसको अनेक प्रकार की सामाजिक सेवाएँ करने की शिक्षा मिली हो। (बॉय स्काउट) २. ुक्त प्रकार के बालकों का दल या संघटन।
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बालचर्य  : पुं० [सं० ष० त०] १. बालकों की चर्या। बाल-क्रीड़ा। २. [ब० स०] कार्तिकेय।
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बालछड़  : स्त्री० [देश०] जटामासी।
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बालटी  : स्त्री० [पुर्त्त० बॉल्डे] डोली की तरह का पानी रखने का एक प्रसिद्ध पात्र।
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बालटू  : पुं० [अ० वाँल्ट] लोहे आदि का वह पेचदार छल्ला जो एक तरह की पेचदार कील पर चढ़ाया तथा कसा जाता है।
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बालती  : स्त्री० [सं० बाल] कन्या। कुमारी। उदाहरण—ज्यों नवजीवन पाइ लसति गुनवती बालती।—नंददास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालद  : पुं० [सं० बलिवर्द्द] बैल। उदाहरण—दास कबीर घर बालद जो लाया, नामदेव की छान छबन्द।—मीराँ।
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बालदार सुँड़ा  : पुं० दे० भालू सुंडा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालधि  : पुं० [सं० बाल√धा+कि०] दुम। पूँछ।
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बालधी  : स्त्री० [सं० बालधि] दुम। पूँछ।
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बालना  : स० [सं० बालन] जलाना।
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बालपन  : पुं० [सं० बाल+हिं० पन (प्रत्यय)] १. बालक होने की अवस्था या भाव। २. बालकों का सा आचरण व्यवहार। लड़कपन। ३. बालकों की सी मूर्खता।
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बालम  : पुं० [सं० वल्लभ] १. स्त्री का पति। स्वामी। २. युवती या स्त्री की दृष्टि से वह व्यक्ति जिससे वह प्रणय करती हो प्रेमी। प्रियतम।
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बालम-खीरा  : पुं० [हि०] १. एक प्रकार का बढ़िया मोटा खीरा।
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बालम-चावल  : पुं० [हिं० ] १. एक प्रकार का धान। २. उक्त धान का चावल।
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बालरखा  : पुं० [हिं० बाल(अनाज की)+रखना] १. खेतों में बना हुआ वह ऊँचा चबूतरा जिस पर बैठकर गल्ले की देख-भाल की जाती है। २. खेत की फसल की रखवाली करने का पारिश्रमिक या मजदूरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालराज  : पुं० [सं० बाल√राज् (शोभित होना)+अच्] वैदूर्यमणि।
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बालवाँ  : पुं०=बालमखीरा। उदाहरण—औ हिदुआना बालवाँ खीरा।—जायसी।
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बालव्रत  : पुं० [सं० ब० स०] मंजुश्री या मंजुघोष का एक नाम।
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बालसाँगड़ा  : पुं० [सं० बाल-श्रृंखला] कुश्ती का एक पेंच।
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बाला  : स्त्री० [सं० बाल+टाप्] १. बारह वर्ष से सत्रह वर्ष तक की अवस्था की स्त्री। २. जवान स्त्री। ३. जोरू। पत्नी। भार्या। ४. औरत। स्त्री। ५. बहुत छोटी लड़की। बच्ची। ६. कन्या। पुत्री। ७. दस महा विद्यालयों में से एक महाविद्या। ८. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन रगण और एक गुरु होता है। ९. एक वर्ष की एक अवस्था की गौ। १॰. [बाल+अच्+टाप्] नारियल। ११. हलदी। १२. एक प्रकार की चमेली। १३. घी कुँआर। घृतकुमारी। १४. सुगंधवाला। १५. खैर का पेड़। १६. चीनी ककड़ी। १७. मोइया नामक वृक्ष। १८. नीली कटसरैया। १९. इलायची। वि० [सं० बाल=बालक] १. बालकों के समान अनजान और सीधा सादा। निश्चल और निष्कपट। पद—बाला-भोला=बहुत ही सीधा-सादा। सरल प्रकृति का। २. बच्चों की प्रकृति का। जैसे—सिर जाला, मुँह बाला। (कहा०) पुं० [सं० वलय] हाथ में पहनने का एक प्रकारका कड़ा। (पूरब) पुं० [?] एक प्रकार का कीड़ा जो गेहूँ की फसल के लिए बहुत घातक होता है। वि० [फा०] १. जो सबसे ऊँचा या ऊपर हो। जैसे—तुम्हारा बोल-बाला हो, अर्थात् तुम्हारी बात सबके लिए मान्य हो। पद—बाला-बाला=(क) इस प्रकार अलग-अलग या ऊपर-ऊपर जिसमें और लोगों को पता न चले। जैसे—तुमने बाला-बाला सारी कारवाई कर ली, और हम लोगों को पता भी न चलने दिया। (ख) अलग से या बाहर-बाहर बिना परिचित या सूचित किये। जैसे—यहाँ आये भी और बाला-बाला चले भी गये। हम लोगों को पता ही न चला। २. सबसे अच्छा, बढ़िया या श्रेष्ठ। उदाहरण—तोरा लाख रुपैया मोरा बाला-जोबन।—दादरा। २. अलग। पृक्। मुहावरा—(किसी को) बाला बताना=टाल-मटोल या बहानेबाजी करना।
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बाला-दस्त  : पुं० [फा०] [भाव० बालादस्ती] १. बलवान। जबरदस्त। २. प्रधान। मुख्य। ३. श्रेष्ठ। ४. ऊँचा।
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बाला-बाला  : अव्य० दे० ‘बाला’ (फा०) के अन्तर्गत पद।
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बालाई  : वि० [फा०] १. ऊपर का। ऊपरी। २. वेतन, वृत्ति, व्यापार आदि से होनेवाली आय के अतिरिक्त या उससे भिन्न। ऊपरी। जैसे—बालाई आमदनी। स्त्री० मलाई।
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बालाकाना  : पुं० [फा० बाला खानः] १. अट्टालिका। २. मकान का सबसे ऊपरवाला कमरा।
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बालाग्र  : पुं० [सं० ] १. शरीर के बाल का अगला भाग। २. प्राचीन काल का एक परिणाम जो ६४ परमाणु या ८ रज के बराबर कहा गया है।
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बालातप  : पुं० [सं० बाल-आतप, कर्म० स०] बालसूर्य का ताप। सबेरे की धूप।
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बालादवी  : स्त्री० [?] टोह लेने के लिए इधर-उधर घूमना-फिरना। उदाहरण—यह कह (नाजिम) क्रूर से बिदा हो बालादवी के वास्ते चला गया।—देवकी नन्दन खत्री।
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बालादित्य  : पुं० [सं० बाल-आदित्य, कर्म० स०] बालसूर्य।
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बालाद्स्ती  : स्त्री० [फा०] १. जबरदस्ती। बल-प्रयोग। २. प्रधानता। ३. श्रेष्ठता। ४. ऊँचाई। उच्चता।
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बालानशीन  : वि० [फा० बालानशीं] १. मान्य। प्रतिष्ठित। २. सबसे अच्छा। जैसे—कम खरच और बालानशीन। पुं० सभापति।
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बालापन  : पुं० [सं० बाल+हिं० पन] बाल्यावस्था। बचपन।
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बालामय  : पुं० [सं० बाल-आमय, ष० त०] बच्चों को होनेवाले रोग। बाल-रोग।
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बालार्क  : पुं० [सं० बाल-अर्क, कर्म० स०] १. प्रातःकाल का सूर्य। बाल-सूर्य। २. कन्या राशि में स्थित सूर्य।
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बालि  : पुं० [सं० बल्+इन्, णित्त्व०] किष्किंधा का एक प्रसिद्ध बानर राजा जिसका वध भगवान राम ने किया था।
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बालिका  : स्त्री० [सं० बाला+कन्+टाप्, ह्रस्व, इत्व] १. छोटी लड़की। कन्या। २. पुत्री। बेटी। ३. कान में पहनने की बाली। ४. छोटी इलायची। ५. बालू। रेत।
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बालिग  : वि० [अ० बालिग] [भाव० बालिगी] (व्यक्ति) जो कानून की दृष्टि से युवावस्था प्राप्त कर चुका हो और फलतः जिसे विधिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट कार्य करने का अधिकार प्राप्त हो गया हो। वयस्क।
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बालिनी  : स्त्री० [सं० बाल+इनि+ङीष्] अश्विनी नक्षत्र का एक नाम।
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बालिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० बाल+इमनिच्] बचपन। बाल्यावस्था।
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बालिश  : पुं० [सं०√बाड्+इन्, बाडि√शो+ड, ड-ल] [भाव० बालिश्य] १. बालक। शिशु। २. अबोध या नासमझ व्यक्ति। वि० अबोध। नासमझ। पुं० [फा०] तकिया। सिरहाना।
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बालिश्त  : पुं० [फा०] कोई चीज नापनेमें हाथ के पंजे को भरपूर फैलाने पर अंगूठे की नोक से लेकर कानी उँगली की नोक तक की दूरी, जो लगभग नौ इंच के बराबर मानी जाती है। बित्ता।
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बालिश्तिया  : वि० [फा० बालिश्त+हिं० इया (प्रत्यय)] बहुत ही छोटा या नाटा।
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बालिश्य  : पुं० [सं० बालिश्य+ष्यञ्] १. बाल्यावस्था। लड़कपन। २. बड़े हो जाने पर भी छोटे बालकों की तरह अबोध और कम-समझ होने की अवस्था या भाव। इसकी गणना मानसिक रोगों में होती है। (एमेन्शिया)
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बालिस  : वि० [सं० बालिश] नासझम। मूर्ख। उदाहरण—माहीं बल बालिसो विरोध रघुना सों।—तुलसी।
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बाली (लिन्)  : पुं० [सं० बाल+इनि] किष्किंधा का एक प्रसिद्ध वानर राजा जिसका वध भगवान राम ने किया था। स्त्री० [सं० बालिका] कानों में पहनने का एक तरह का वृत्ताकार आभूषण। स्त्री० [देश०] हथौड़े के आकार का कसेरों का एक औजार जिससे वे लोग बरतनों की कोर उभारते हैं। स्त्री०=बाल (अनाज की) वि० [हिं० ‘बाला’ का स्त्री० रूप०] नया। उदाहरण—पीव कारन पीली पड़ी बाला जोबन बाली बेस।—मीराँ।
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बाली-कुमार  : पुं० [सं० ] अंगद।
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बालीसबरा  : पु० [बाली+हिं० सबरा] एक तरह का उपकरण जिससे कसेरे थाली, परात आदि की कोर उभारते हैं।
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बालुक  : पुं० [सं०√बल्+उण्+कन्] १. एलुआ नामक वृक्ष। २. पनियालू।
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बालुका  : स्त्री० [सं०√बल्+उण्+कन्+टाप्] १. रेत। बालू। २. एक प्रकार का कपूर। ३. ककड़ी।
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बालुका-यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] औषध आदि फूँकने का वह यंत्र जिसमें औषध को बालू भरी हाँड़ी में रखकर आग से चारों ओर से ढँकते हैं। (वैद्यक)
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बालुका-स्वेद  : पुं० [सं० मध्य० स०] बालू से सेंकने पर होनेवाला पसीना।
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बालुंकी (लुंगी)  : स्त्री०=बालुकी।
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बालू  : पुं० [सं० बालुका] पत्थरों का वह बहुत ही महीन चूर्ण जो रेगिस्तानों तथा नदियों के तटों पर अत्यधिक मात्रा में पड़ा रहता ह तथा जो चूने, सीमेंट आदि के साथ मिलाकर इमारतों में जोड़ाई के काम आता है। पद—बालू की भीत=ऐसी चीज जो शीघ्र नष्ट हो जाय अथवा जिसका भरोसा न किया जा सके। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो दक्षिण भारत और लंका के जलाशयों में पाई जाती है।
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बालूड़ा  : पुं० [सं० बाल] बच्चा० बालक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बालूदानी  : स्त्री० [हिं० बालू+फा० दानी] एक प्रकार की झँझरीदार डिबिया जिसमें लेख आदि की स्याही सुखाने के लिए बालू रखा जाता है।
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बालूबुर्द  : वि० [हिं० बालू+फा० बुर्द=ले गया] जो नदी के बालू के नीचे दब गया हो। पुं० वह भूमि जिसकी उर्वरा शक्ति नदी की बाढ़ या बालू पढ़ने के कारण नष्ट हो गई हो।
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बालूशाही  : स्त्री० [हिं० बालू+शाही=अनुरूप] मैदे की बनी हुई एक तरह की प्रसिद्ध मिठाई।
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बालूसूअर  : पुं० [हि०] एक प्रकार का छोटा सूअर जो नदी तट की रेतीली भूमि में रहता और प्रायः रात के समय निकलकर पेडो़ की जड़ें और मछलियाँ खाता है। कुछ लोग इसे भालू सूअर भी कहते हैं।
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बाले-मियाँ  : पुं०=गाजी-मियाँ (महमूद गजनवी का भाँजा)
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बालेंदु  : पुं० [सं० बाल-इंदु, कर्म० स०] शुक्लपक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा। दूज का चाँद।
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बालेय  : वि० [सं० बाल+ढञ्-एय] १. कोमल। मृदु। २. जो बलि दिए जाने के योग्य हो। ३. जो बालकों के लिए लाभदायक या हितकर हो। पुं० १. चावल। २. गधा।
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बालेष्ट  : पुं० [सं० बाल-इष्ट, ष० त०] बेर।
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बालोपचार  : पुं० [सं० बाल-उपचार, ष० त०] बच्चों की चिकित्सा।
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बालोपवीत  : पुं० [सं० बाल-उपवीत, ष० त०] १. लँगोटी। २. जनेऊ।
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बाल्टी  : स्त्री०=बालटी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाल्य  : वि० [सं० बाल+यक्] १. बालक संबंधी। २. बचपन का। जैसे—बाल्य अवस्था। ३. बालकों का सा। जैसे—बाल्य-स्वभाव। पुं० १. बाल का भाव। २. बचपन। लड़कपन।
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बाल्यावस्था  : स्त्री० [सं० बाल्य-अवस्था, कर्म० स०] बालक होने की अर्थात् सोलह-सत्रह वर्ष तक की अवस्था। युवास्था से पहले की अवस्था। लड़कपन।
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बाल्हक  : वि० [सं० बल्हि+वुञ्—अक] बलख देश। पुं० १. बलख देश की निवासी। २. बलख का घोड़ा। ३. केसर। ४. हींग।
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बाल्हा  : पुं० [सं० वल्लभ] प्रियतम। उदाहरण—(क) बाल्हा मैं बैरागिण हूँ गी हो।—मीराँ। (ख) बाल्हा आव हमारे गेहरे।—कबीर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाल्हिक  : वि० पुं०=बाल्हक।
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बाल्हीक  : वि० पुं०=बाल्हक। पुं०=बाह्लीक।
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बाव  : पुं० [सं० वायु] १. वायु। हवा। पवन। २. बात का शारीरिक प्रकोप। बाई। ३. अपान-वायु। पाद। क्रि० प्र०—निकलना।—रसना। पुं० दे० ‘बाब’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावची  : स्त्री० दे० ‘बकुची’।
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बावज  : स्त्री०=बातचीत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावजूद  : अव्य० [फा० बावुजूद] १. यद्यपि। २. इतना होने पर भी।
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बावटा  : पुं० [सं० बाव=हवा] झंडा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावड़ी  : स्त्री०=बावली। (जलाशय)
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बावन  : वि० [सं० द्वि पंचाशतः, पा० द्विपष्णासा, प्रा० विपण्णा] जो गिनती में पचास से दो अधिक हो। पद—बावन तोले पाव रत्ती=हर तरह से ठीक और पूरा। विशेष—कहतें है कि मध्ययुग के रसायनिकों का विश्वास था कि खरा रसायन वही है जो बावन तोले ताँबे में पाव रत्ती मिलाया जाय तो वह सब सोना हो जाता है। इसी आधार पर यह पद बना है। बावनवीर=बहुत बड़ा बहादुर या चालाक। पुं, ० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—५२। पुं०=वामन।
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बावनवाँ  : वि० [हिं० बावन+वाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० बावनवीं] क्रम, संख्या आदि के विचार से ५२ के स्थान पर पड़नेवाला।
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बाँवना  : स० दे० ‘रखना’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बावना  : वि०=बौना (वामन)। स०=बाहना (हल चलाना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावनी  : स्त्री० [हिं० बावन] १. एक ही तरह की ५२ चीजों का वर्ग या समूह। जैसे—शिवा बावनी। २. बहुत से लोगों का जमावड़ा या समूह। ३. मध्ययुग में वह वर्ग या समुदाय जो होली के अवसर पर नाच-गाने आदि की व्यवस्था करता था। ४. ठठोलों या मसखरी का दल या वर्ग। ५. ताश के कोट-पीस के खेल में वह स्थिति जब कोई पक्ष तेरहों हाथ बनाता है और जबकि दूसरा पक्ष एक भी हाथ नहीं बना पाता। इसमें ५२ बाजियों की जीत मानी जाती है।
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बावभक  : स्त्री० [हिं० बाव=वायु+अनु० भक] वायु के प्रकोप के कारण होनेवाला पागलपन। सिड़ीपन। झक।
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बावर  : पुं० [फा०] यकीन। विश्वास। वि० पुं०=बावरा। (बावला)।
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बावरची  : पुं० [फा०] रसोइया। पाचक।
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बावरचीखाना  : पुं० [फा० बावरचीखानाः] रसोईघऱ।
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बावरा  : वि० [हिं० बाव=वायु+रा (प्रत्यय)] १. सऱीर में वायु या बात का प्रकोप उत्पन्न करनेवाला। उदाहरण—काहू को बैगन बावरा काहू को बांगन पत्थ।—कहावत। २. दे० ‘बावला’।
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बावरी  : स्त्री०=बावली (जलाशय) वि० हिं० ‘बावरा’ का स्त्री। स्त्री० [हिं० बावरा=पागल] सम्राट अकबर के समय की एक प्रसिद्ध भक्त महिला जिनके नाम पर एक संप्रदाय भी चला था। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बावल  : पुं० [सं० वायु] आँधी। अंधड़। (डिंगल)
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बाँवला  : वि०=बावला।
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बावला  : वि० [सं० वातुल, प्रा० बाउल] वायु के प्रकोप के कारण जिसका मस्तिष्क विकृत हो गया हो, अर्थात् पागल। विक्षिप्त।
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बावलापन  : पुं० [हिं० बावला+पन (प्रत्यय)] पागलपन। सिड़ीपन। झक।
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बावली  : स्त्री० [सं० वायु+डी पाली (प्रत्यय)] १. चौड़े मुँह का एक प्रकार का कुआँ या जलाशय जिसमें पानी तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हों। उदाहरण—मजनूँ की प्यास वह बुझाती, लैला कुछ बावली नहीं थी।—कोई शायर। २. ऐसा छोटा तालाब जिसके किनारे सीढ़ियाँ बनी हों। ३. हजामत का एक प्रकार जिसमें माथे से लेकर चोटी के पास तक के बाल चार-पाँच अंगुल की चौड़ाई में मूँड़ दिये जाते हैं।
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बावाँ  : वि० पुं०=बायाँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाशिंदा  : वि० [फा० बाशिन्दः] रहनेवाला। पुं० निवासी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाषर  : पुं०=बखर (घर)। उदाहरण—सहज सुभावै बाषर ल्याई।—गोरखनाथ।
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बाष्कल  : पुं० [सं०] १. योद्धा। वीर। २. एक प्राचीन ऋषि। ३. एक उपनिषद। ४. एक दानव।
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बाष्प  : पुं० [सं०√वा+प, षुक्,-आगम] भाप। वाष्प।
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बाष्प-दांदुन  : पुं०=वाष्पपूर।
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बाष्प-मोचन  : पुं० [ष० त०] आँसू बहाना। रोना।
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बाष्प-वृष्टि  : स्त्री० [सं० ष० त०] आँखों से आँसुओ की धारा बहना।
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बाष्प-सलिल  : पुं० [सं० ष० त०] अश्रु-जल। आँसू।
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बाष्पकल  : वि० [सं० मध्य० स०] (शब्द) जो आँखों में आँसू बहने के कारण मुँह से स्पष्ट न निकल रहा हो।
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बाष्पपूर  : पुं० [सं० तृ० त०] आँखों में बहनेवाले आँसुओं की धारा।
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बाष्पाकुल  : वि० [सं० बाष्प-आकुल, तृ० त०] जो रोता-रोता विकल हो रहा हो।
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बाष्पांबु  : पुं० [सं० बाष्प-अँबु, ष० त०] अश्रु-जल। आँसू।
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बाष्पी  : स्त्री० [सं० बाष्प+ङीष्] हिगुंपत्री।
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बाँस  : पुं० [सं० वंश] १. तृण जाति की गन्ने की तरह की एक गाँठदार वनस्पति, जिसके काण्ड बहुत मजबूत किन्तु अन्दर से खोखले होते हैं तथा छप्पर आदि छाने और इमारत के दूसरे कामों में आते हैं। मुहावरा—बाँस पर चढ़ना=(क) बहुत उच्च स्थिति तक पहुँचना। (ख) बहुत प्रसिद्ध होना। (ग) बहुत बदनाम होना। मुहावरा—(किसी को) बाँस पर चढ़ाना=(क) बहुत बढ़ा देना। बहुत उन्नत या उच्च कर देना। (ख) बहुत प्रसिद्ध करना। (ग) बहुत बदनाम करना। (घ) व्यर्थ की प्रशंसा करके घमंड या मिजाज बढ़ा देना। (कलेजा) बाँसों उछलना=कलेजे में बहुत अधिक धड़कन या विकलता होना। (व्यक्ति का) बाँसों उछलना=बहुत अधिक प्रसन्न होना। खूब खुश होना। २. लम्बई की एक माप जो सवा तीन गज की होती है। लाठी। ३. पीठ के बीच की हड्डी जो गरदन से कमर तक चली गयी है। रीढ़। ४. भाला। (डि० )
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बास  : पुं० [सं० वास] १. रहने की क्रिया या भाव। निवास। २. रहने का स्थान। निवास-स्थान। ३. कपड़ा। वस्त्र। ४. एक प्रकार का का छन्द। स्त्री० १. गन्ध। बू। महक। २. बहुत ही छोटी या थोड़ा अंश। जैसे—उसमें भल-मनसत की बात तक नही है। स्त्री० [सं० वाशि] १. अग्नि। आग। २. एक प्रकार का अस्त्र। ३. पत्थर लोहे आदि के टुकड़े तो तोप के गोलों में भरकर फेंके जाते हैं। स्त्री०=वासना। पुं० [सं० वासर०] दिन। पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसकी लकड़ी लाल रंग की और मजबूत होती है। बिपरसा। पुं० [सं० वसन] वस्त्र। उदाहरण—मंद-मंद बदन बासि (बास) में दुरावै।—अलबेली अलि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बासक  : पुं० [सं० वासुकि] साँप। उदाहरण—पेट्याँ बाक भेजिया जी।—मीराँ। पुं०=वासक। स्त्री० [फा०] जँभाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासक-सज्जा  : स्त्री०=बासक-सज्जा। (नायिका)।
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बासठ  : वि० [सं० द्विषष्ठि, प्रा० द्वासट्ठि, वासट्ठि] जो गिनती में साठ और दो हो। इकतीस का दूना। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—६२।
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बासठवाँ  : वि० [सं० द्विषष्ठितम, हिं० बासठ+वाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० बासठवीं] क्रम या गिनती के विचार से बासठ के स्थान पर पड़नेवाला। जैसे—बासठवीँ वर्ष-गाँठ।
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बासंतिक  : वि० [सं० वासंतिक] १. बसंतऋतु संबंधी। २. बसंत ऋतु में होनेवाला।
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बासंती  : स्त्री० [सं० बासंती] १. अडूसा। बासा। २. माधवी लता। ३. दे० ‘बासंती’। वि० [हिं० बसंत] पीले रंग का। पीला।
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बासदेव  : पुं० [सं० वाशिदेव] अग्नि। आग। (डिगल) पुं०=वासुदेव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासन  : पुं०=बरतन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासना  : स्त्री० [सं० वास०] १. गंध। महक। २. विशेषतः हल्की गंध। स०=सुगंधित करना। स्त्री०=वासना।
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बाँसपूर  : पुं, ० [हिं० बाँस+पुरना] एक तरह की बढ़िया महीन मलमल।
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बाँसफल  : पुं० [हिं० बाँस+फल] एक प्रकार का धान। बाँसी।
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बासफूल  : पुं० [हिं० बास=गंध+फूल] १. एक प्रकार का धान। २. उक्त धान का चावल।
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बासमती  : पुं० [हिं० बास=महक+मती (प्रत्यय)] १. एक प्रकार का धान। २. उक्त धान का चावल जो बहुत बढ़िया और सुगंधित होता है।
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बासर  : पुं० [सं० वासर] १. दिन। २. प्रातःकाल। सवेरा। ३. प्रातःकाल गाये जानेवाले प्रभाती भैरवी आदि गीत या भजन।
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बाँसली  : स्त्री० [हिं० बाँस+ली(प्रत्यय)] एक प्रकार का जालीदार लम्बी-पतली थैली जिसमे रुपया पैसा रखा जाता है और जो कमर में बाँधी जाती है। हिमयानी। स्त्री०=बाँसुरी (वंशी) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासव  : पुं०=वासव (इन्द्र)।
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बासवी  : पुं० [सं० वासवि] अर्जुन (डिं०)
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बासवी दिसा  : पुं० [सं० वासवी दिशा] पूर्व दिशा जो इन्द्र की दिशा मानी जाती है।
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बाससी  : पुं० [सं० वास] वस्त्र।
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बाँसा  : पुं० [हिं० बाँस] १. बाँस का बना हुआ चोगें के आकार का वह छोटा नल जो हल के साथ बँधा रहता है। इसी में बोने के लिए अन्न भरा जाता है। अरना। तार। २. एक प्रकार की घास जिसकी पत्तियाँ बाँस की पत्तियों की तरह होती है। पुं० [सं० प्रियावास] १. पियाबाँसा नाम का पौधा जिसमें चम्पई रंग के फूल लगते हैं और जिसकी लकड़ी के कोयले से बारूद बनती थी। २. उक्त पौधे का फूल। पुं० [सं० वंश=रीढ़] १. रीढ की हड्डी। २. नाक के ऊपर की हड्डी जो दोनों नथुनों के बीचोबीच रहती है। मुहावरा—बाँसा फिर जाना=नाक का टेढ़ा हो जाना। (मृत्यु के बहुत समीप होने का लक्षण)।
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बासा  : पुं० [सं० वास=निवास] १. रहने का स्थान। निवास स्थान। २. बसेरा। उदाहरण—मानस पंखि लेहि फिर बासा।—जायसी। ३. वह स्थान जहाँ दाम देने पर पकी-पकाई रसोई, (चावल, रोटी, दाल आदि) खाने को मिलती है। भोजनालय। पुं० [सं० वासक] १. अडूसा। २. एक प्रकार की घास। पुं० [देश०] एक प्रकार का शिकारी पक्षी। पुं० दे० ‘पिया-बाँस’। पुं० [सं० वास=कपड़ा] कपड़ा। वस्त्र। उदाहरण—मंद-मंद हास वदन बासि में दुरावै।—अलबेली अलि। पुं०=बाँसा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बासिग  : पुं०=वासुकि। (नाग)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बासित  : भू० कृ०=बासित।
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बासिन  : पुं०=बासा (शिकारी पक्षी)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँसिनी  : स्त्री० [हिं० बाँस] एक प्रकार का छोटा बाँस जिसे बरियाल, ऊना अथवा कुल्लूक भी कहते हैं।
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बासिष्ठी  : स्त्री० [सं० वासिष्ठी] बन्नास नदी का एक नाम जो वशिष्ठ जी के तपः प्रभाव से उत्पन्न मानी गई है। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँसी  : स्त्री० [हिं० बाँस+ई (प्रत्यय)] १. एक प्रकार का छोटा पतला और मुलायम बाँस जिससे हुक्के के नैचे आदि बनते है। २. एक प्रकार का गेहूँ, जिसकी बाल कुछ-कुछ काली होती है। ३. एक प्रकार का धान जिसका चावल बहुत सुगंधित, मुलायम और स्वादिष्ट होता है। इसे बाँसफल भी कहते हैं। ४. एक प्रकार की घास जिसके डंठल कड़े और मोटे होते हैं। ५. एक प्रकार की चिड़िया। ६. कुछ सफेदी लिए हुए पीले रंग का एक प्रकार का पत्थर।
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बासी  : वि० [हिं० बास=दिन+ई (प्रत्यय)] १. (खाद्य पदार्थ) जो एक या कई दिन पहले का बना हआ हो। जैसे—बासी रोटी। २. (फल आदि) जो एक या अनेक दिन पहले पेड़ (या पौधें) से तोड़ा गया हो। ताजा का विपर्याय। विशेष—बासी अन्न में कुछ बू सी आने लगती है, और बासी फल कुछ मुरझा से जाते हैं। पद—बासी-तिबासी (देखें) ३. जो कुछ समय तक रखा या यों ही पड़ा रहा हो। जैसे—(क) रात का रखा हुआ बासी पानी। (ख) बासी मुँह। पद—बासी मुँह=बिना कुछ खाये पिये हुए। ४. सूखा या कुम्हलाया हुआ। जो हरा-भरा न हो। जैसे—बासी फूल। मुहावरा—बासी कढ़ी में उबाल आना=बहुत समय बीत जाने पर किसी काम के लिए उत्सुकतापूर्वक प्रयत्न होना। पुं० १. धार्मिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट अवसरों पर पहले दिन का बना हुआ बासी भोजन दूसरे दिन खाना। २. दे० ‘बसिऔरा’। वि०=बासी (निवासी)।
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बासी-तिबासी  : वि० [हिं० बास+तीन+बासी] दो-तीन दिन का। रखा हुआ। जो बासी से भी कुछ और अधिक बिगड़ चुका हो। जैसे—बासी-तिबासी रोटी।
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बासु  : स्त्री०=बास।
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बासुकी  : स्त्री०=वासुकि।
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बाँसुरी  : स्त्री० [हिं० बाँस] पतले बाँस का बनाया हुआ एक प्रसिद्ध बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है। मुरली। वंशी।
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बाँसुली  : स्त्री० [हिं० बाँस] १. एक प्रकार की घास जो अन्तर्वेद में होती है। २. बाँसुरी। वंशी।
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बाँसुलीकंद  : पुं० [हिं० बाँसुली+सं० कंद] एक प्रकार का जंगली सूरन या जमींकंद जो गले में बहुत अधिक लगता है।
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बासू  : पुं०=वासुकि (नाग)।
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बासूर  : स्त्री० [अ०] बवासीर।
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बासौंधी  : स्त्री०=बसौंधी (रबड़ी)।
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बास्त  : पुं० [सं० बस्त+अण्] १. बकरे से संबंध रखनेवाला। २. बकरे से प्राप्त होनेवाला।
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बाँह  : स्त्री० [सं० बाहु] १. मनुष्य के शरीर मे कंधे से लेकर कलाई के बीच का अवयव। भुजा। मुहावरा—(किसी की) बाँह ऊँची (या बुलंद) होना=(क) वीर और साहसी होना। (ख) उदार और परोपकारी होना। (किसी की) बाँह गहना या पकड़ना=(क) किसी की सहायता करने के लिए प्रस्तुत होना० सहारा देना। (ख) किसी स्त्री को अपने आश्रय में लेकर और पत्नी बनाकर रखना। पाणिग्रहण करना। बाँह चढ़ाना=(क) कुछ करने के लिए उद्यत होना। (ख) किसी से लड़ने या हाथा-पाँही करने के लिए तैयार होना। आस्तीन चढ़ाना। २. कमीज, कुरते, कोट आदि का वह अंश जिसे बाँह ढकी रहती है। ३. एक प्रकार की कसरत जो दो आदमी मिलकर करते हैं और जिसमें दोनों विशिष्ट प्रकार से एक-दूसरे की बाँहें पकड़कर बलपूर्वक स्वंय आगे बढ़ते और दूसरों को पीछे हटाते हैं। ४. भुजबल। शक्ति। मुहावरा(किसी की) बाँह की छांह लेना=किसी की शरण में जाकर उसके भुज-बल का आश्रित होना। ५. वह जो किसी का बहुत बड़ा मदद करनेवाला या सहायक हो। पद—बाँह-बोल=आश्रय या सहायता देने रक्षा करने आदि के संबंध में दिया जानेवाला वचन। उदाहरण—लाज बाँह बोल की नेवाजे की साँभर सार साहेब न राम सों, बलैया लीजै भील की।—तुलसी। मुहावरा—बाँह टूटना=बहुत बड़े सहायक का न रह जाना। जैसे—भाई के मरने से उसकी बाँह टूट गयी। ६. सहायता या सहारे का आसरा। भरोसा। मुहावरा—(किसी को) बाँह देना=सहायता या सहारा देना। मदद करना।
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बाह  : पुं० [हिं० बाहना] खेत जोतने की क्रिया। खेत की जोताई। पुं०=बाँट। पुं०=वाह। (प्रवाह) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहक  : पुं० [सं० वाहक] [स्त्री० बाहकी] १. ढोने या ले चलनेवाला कहार। उदाहरण—सजी बाहकी सखी सुहाई।—रघुराज। २. कहार।
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बाँहड़ली  : स्त्री०=दे० बाँह। उदाहरण—राम मोरी बाँहड़ली जी गहा।—मीराँ।
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बाहड़ी  : स्त्री० [देश] वह खिचड़ी जो मसाला और कुम्हड़ौरी डालकर पकाई गई हो।
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बाहन  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जिसके पत्ते जाड़े के दिनों में झड़ जाते हैं। सफेदा। पुं०=वाहन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहन  : क्रि० वि० [फा०] एक-दूसरे के प्रति या साथ। आपस में। परस्पर।
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बाहना  : स० [सं० वहन] १. वहन करना। २. उठा या ढोकर ले चलना। २. (अस्त्र-शस्त्र) चलाना या फेंकना। उदाहरण—बाहत अस्त्र नृपति पर आये।—पद्याकर। ३. (जानवर या सवारी) हाँकना। ४. ग्रहण या दारण करना। ५. उत्तरदायित्व, कर्त्तत्व आदि के रूप में अपने ऊपर लेना। अंगीकरण करना। ६. (खेत या जमीन) हल चलाकर जोतना। ७. (गौ० बकरी, भैंस आदि) नर से मिलाकर गाभिन करना। अ० इधर-उधर घूमना। भटकना। उदाहरण—भूलै भरम दुनी कत बाहौ—कबीर।
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बाहनी  : स्त्री० [सं० वाहिनी] सेना। फौज।
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बाँहबोल  : पुं० [हिं० बाँह+बोल=वचन] बाँह पकड़ने अर्थात् रक्षा करने या सहायता देने का वचन।
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बाहर  : अव्य० [सं० बहिस् का दूसरा रूप बहिर] [वि० बाहरी] १. किसी क्षेत्र, घेरे, विस्तार आदि की सीमा से परे। किसी परिधि से कुछ अलग, दूर या हटकर। अंदर और भीतर का विपर्याय। जैसे—यह सामान कमरे के बाहर रख दो। पद—बाहर-बाहर=बिना किसी क्षेत्र घेरे विस्तार के अन्दर आये हुए। बिना अन्तुर्भुक्त हुए। जैसे—वे पटने, से लौटे तो पर बाहर-बाहर लखनऊ चले गये। २. किसी देश या स्थान की सीमा से अलग या दूर अथवा किसी दूसरे देश या स्थान में जैसे—महीने में दस-बारह दिन तो उन्हें दौरे पर बाहर ही रहना पड़ता है। ३. किसी प्रकार के अधिक्षेत्र, मर्यादा संपर्क आदि से भिन्न या रहित। अलग। जैसे—हम आपसे किसी बात में बाहर नहीं है, अर्थात् आप जो कहेगें या चाहेगें हम वही करेगें। ४. बगैर। सिवा। (क्व०) पुं० [हिं० बाहना] वह आदमी जो कुएँ की जगत् पर खड़ा रहकर मोट का पानी नाली में उलटता या गिराता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहरजामी  : पुं० [सं० बाह्ययामी] ईश्वर का सगुण। रूप राम, कृष्ण इत्यादि अवतार।
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बाहरला  : वि०=बाहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहरी  : वि० [हिं० बाहर+ई (प्रत्यय)] १. बाहर की ओर का। बाहर वाला। भीतरी का विपर्याय। २. जो अपने देश, वर्ग या समाज का न हो। पराया और भिन्न। जैसे—बाहरी आदमी। ३. जो ऊपर या केवल से देखने भर को हो। जिसके अन्दर कुछ तथ्य न हो। जैसे—कोरा बाहरी ठाट-बाट। ४. बिलकुल अलग या भिन्न। उदाहरण—पंच हँसिहै री हो तो पचन तें बाहरी।—देव।
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बाहलीक  : पुं०=वाहलीक।
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बाहस  : पुं० [डि०] अजगर।
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बाहा  : पुं० [हिं० बाँधना] वह रस्सी जिससे नाव का डाँड़ बँधा रहता है। पुं० [हिं० बहना] १. पानी बहने की नहर या नाली। २. वह छेद जिसमें से होकर कोल्हू का तेल या रस बहकर नीचे गिरता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँहाँ जोड़ी  : क्रि० वि० [हिं० बाँह+जोड़ना] किसी के कंधे के साथ अपना कंधा मिलाते हुए। साथ-साथ। उदाहरण—सूरदास दोउ बाँहाँ जोरी राजत स्यामा स्याम।—सूर। स्त्री० कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने या बैठने की मुद्रा या स्थिति।
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बाहाँ-जोरी  : अव्य० [हिं० बाँह+जोड़ना] हाथ से हाथ मिलाये हुए।
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बाहिज  : अव्य० [सं० बाह्म] ऊपर से। बाहर से देखने में। वि०=बाह्म (बाहरी)।
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बाहिनी  : वि० स्त्री०=वाहिनी।
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बाहिर  : अव्य०=बाहर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाँही  : स्त्री०=बाँह।
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बाही  : वि०=वाही। स्त्री०=[हिं० बाहना] बाहने की क्रिया या भाव। स्त्री० [सं० बाहु०] पहाड़ की भुजा या किसी पक्ष की लंबाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहीक  : पुं०=बाहलीक।
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बाहु  : स्त्री० [सं०√बाध्+कु, ह-आदेश] भुजा। बाँह।
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बाहु-कुब्ज  : वि० [ब० स०] जिसके हाथ कुबड़े या टेढ़े हो। लूला।
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बाहु-त्राण  : पुं० [ब० स०] चमड़े या लोहे आदि का वह दस्ताना जो युद्ध में हाथों की रक्षा के लिए पहना जाता है।
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बाहु-पाश  : पुं० [सं० कर्म० स०] दोनों बाहों को मिलाकर बनाया हुआ वह घेरा जिसमें किसी को लेकर आलिंगन करते हैं। भुज-पाश।
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बाहु-प्रलंब  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी बाँहें बहुत लंबी हों। आजानु-बाहु।
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बाहु-भूषण  : पुं० [ष० त०] भुज-बंद नाम का गहना।
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बाहु-मूल  : पुं० [ष० त०] कंधे और बाँह का जोड़।
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बाहु-युद्ध  : पुं० [ष० त०] कुश्ती।
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बाहु-योधी (धिन्)  : पुं० [सं० बाहु√युध्+णिनि] कुश्ती लड़नेवाला। पहलवान।
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बाहु-विस्फोट  : पुं० [सं० ष० त०] ताल ठोंकना।
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बाहु-शाली (लिन्)  : पुं० [सं० बाहु√शाल्+णिनि] १. शिव। २. भीम। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ४. एक दानव।
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बाहु-श्रुत्य  : पुं० [सं० बहुश्रुत्य+ष्यञ्] बहुश्रुत होने की अवस्था या भाव। बहुत सी बातों को सुनकर प्राप्त की हुई जानकारी।
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बाहु-संभव  : पुं० [सं० ब० स०] क्षत्रिय, जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा की बाँह से मानी जाती है।
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बाहु-हजार  : पुं०=सहस्रबाहु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहुक  : पुं, ० [सं० ०] १. राजा नल का उस समय का नाम जब वे अयोध्या के राजा के सारथी थे २. नकुल का एकनाम। वि०=वाहक।
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बाहुगुण्य  : पुं० [पुं० बहुगुण+ष्यञ्] १. बहु-गुण होने की अवस्था या भाव। बहुत से गुणों का होना।
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बाहुज  : पुं० [सं० बाहु√जन्+ड] क्षत्रिय जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के हाथ मे मानी जाती है। वि० बाहु से उत्पन्न या निकला हुआ।
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बाहुजन्य  : वि० [सं० बहुजन+ष्यञ्] जो बहुजन अर्थात् बहुत बड़े जनसमाज में फैला अथवा उससे संबंध रखता हो। बहुजन संबंधी।
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बाहुटा  : पुं० [सं० बाहु] बाँह पर पहनने का बाजूबंद (गहना)।
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बाहुडना  : अ०=बहुरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहुड़ि  : अव्य०=बहुरि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहुदंती (तिन्)  : पुं० [सं० बहु-दंत, ब० स०+अण्(स्वार्थे)+इनि] इंद्र।
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बाहुदा  : स्त्री० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक नदी। २. राजा परीक्षित् की पत्नी।
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बाहुरना  : अ०=बहुरना।
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बाहुरूप्य  : पुं० [सं० बहुरूप+ष्यञ्] बहुरूपता।
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बाहुल  : पुं० [सं० बहुल+अण्] १. युद्ध के समय हाथ में पहनने का एक उपकरण जिससे हाथ की रक्षा होती थी। दस्ताना। २. कार्तिक मास ३. अग्नि। आग।
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बाहुल-ग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] मोर।
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बाहुल्य  : पुं० [सं० बहुल+ष्यञ्] बहुल होने की अवस्था या भाव। बहुतायत। अधिकता। ज्यादती।
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बाहुशीष  : पुं० [सं० ष० त०] बाँह में होनेवाला एक प्रकार का वायु रोग जिसमें बहुत पीड़ा होती है।
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बाहू  : स्त्री०=बाहु।
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बाहू-बल  : पुं० [सं० ष० त०] पराक्रम। बहादुरी।
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बाह्म  : पुं० [सं०=बहिस्+यञ्, लि-लोप] १. बाहरी। बाहर का। २. प्रस्तुत विषय से भिन्न। ३. किसी भूल से अलग या भिन्न। जैसे—ब्राह्म प्रभाव। ४. समस्त पदों के अंत में क्षेत्र परिदि सीमा के बाहर रहने या होनेवाला। जैसे—आलंबन ब्राह्य=स्वयं आलंबन में न होकर उससे अलग और खुले हुए स्थान में होनेवाला। जैसे—ब्राह्य खेल। पुं० [सं० बाह्म] १. भार ढोनेवाला पशु। जैसे—बैल आदि। २. यान। सावरी।
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बाह्मन  : पुं०=ब्राह्मण।
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बाह्य-द्रुति  : पुं० [सं० कर्म० स०] पारे का एक संस्कार। (वैद्यक)
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बाह्य-नाम  : पुं० [सं० कर्म० स०] किसी का नाम और ठिकाना जो उसे भेजे जानेवाले पत्र के ऊपर लिखा जाता है। ठिकाना। पता। (एड्रेस)
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बाह्य-पटी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] नाटक का परदा। (यवनिका।
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बाह्य-प्रयत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में कंठ से लघु ध्वनि उत्पन्न करने के उपरांत होनेवाली क्रिया या प्रयत्न। इसके घोष और अघोष दो भेद हैं।
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बाह्य-रति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] आलिंगनस, चुबन आदि कार्य जो बाहरी रति के विशेष रूप माने गये हैं।
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बाह्य-रूप  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऊपरी या बाहरी रूप। दिखाऊ रूप।
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बाह्य-विद्रधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर के किसी स्थान में सूजन और फाडे़ की सी पीड़ा होती है। इसमें रोगी के मुँह अथवा गुदा से मवाद भी निकलती है।
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बाह्य-वृत्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] प्राणायाम का एक भेद जिसके अन्दर से निकलते हुए श्वास को धीरे-धीरे रोकते हैं।
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बाह्यचरण  : पुं०=बाह्माचार।
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बाह्यनामिक  : पुं० [सं० वाह्मनामन्+ठक्—इक] वह जिसके नाम पर पते से पत्र या और कोई चीज भेजी गई हो। (एड्रेसी)
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बाह्यप्रद  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह जो किसी चीज के बिलकुल अन्तिम सिरे पर स्थित हो। विस्तार के अन्तिम भाग का अंश। (एक्ट्रीम)
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बाह्यवासी  : वि० [सं० वाह्म√वस् (निवास)+णिनि, उप० स०] बस्ती के बाहर रहनेवाला। पुं० चांडाल।
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बाह्यांचल  : वि० [सं० बाह्म-अंचल, कर्म० स०] बस्ती के बाहर का स्थान। (आउटस्कर्टस)
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बाह्याचार  : पुं० [सं० बाह्य-अचार, कर्म० स०] वह आचरण विशेषतः धार्मिक या नैतिक आचरण जो केवल दूसरों को दिखलाने के लिए हो शुद्ध मन से न हो। आडम्बर। ढकोंसला।
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बाह्यांतर  : वि० [सं० ] बाहर और अंदर दोनों का। जैसे—ब्राह्मांतर शुद्धि। क्रि० वि० बाहर और अन्दर दोनों ओर।
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बाह्याभ्यंतर  : पुं० [सं० द्व० स०] प्राणायाम का एक भेद जिससे आते और जाते हुए श्वास को कुछ-कुछ रोकते रहते हैं।
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बाह्याभ्यंतराक्षेपी (पिन्)  : पुं० [सं० बाह्याभ्यंतर-आक्षेप, ष० त०+इनि, दीर्घ, न-लोप] प्राणायाम का एक भेद जिसमें श्वास वायु को भीतर से बाहर निकलते समय निकलने न देकर उलटे लौटाते और अन्दर जाने के समय उसको बाहर रोकते हैं।
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बाह्येंद्रिय  : स्त्री० [सं० बाह्मा-इंद्रिय, कर्म० स०] आँख, कान, नामक, जीभ और त्वचा ये पाँच इंद्रियाँ जिनसे बाहरी विषयों का ज्ञान होता है।
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