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शब्द का अर्थ

विक  : पुं० [सं० ब० स०] नई ब्याई हुई गौ का दूध। वि० १. जल रहित। जल-विहीन। २. अप्रसन्न।
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विकंकट  : पुं० [सं० वि√कंक् (गमनादि)+अटन्] गोखरू।
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विकंकत  : पुं० [सं० वि√कंक् (गमनादि)+अतच्] १. एक प्रकार का जंगली वृक्ष जिसके कुछ अंग औषध के काम आते हैं, और प्राचीन काल में जिसकी लकड़ी यज्ञ में जलाई जाती थी। कटाई। किंकिणी।
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विकच  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार के धूमकेतु जिसकी संख्या ६५ कही गई है, और यह माना गया है कि इनका उदय अशुभ होता है। २. ध्वज। ३. क्षपणक। वि० १. जिसके बाल न हों। २. खिला हुआ। विकसित। ३. व्यक्त। स्पष्ट। ४. चमकता हुआ।
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विकचित  : भू० कृ० [सं०] खिला हुआ। (फूल)।
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विकच्छ  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसी नदी जिसके दोनों ओर तराई या कछार न हो।
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विकट  : वि० [सं० वि√कट् (गमनादि)+अच्] १. बहुत बड़ा। विशाल। २. भद्दा। भोंडा। ३. उग्र, तीव्र, भयंकर या भीषण। ४. टेढ़ा। वक्र। ५. कठिन। मुश्किल। ६. दुर्गम। ७. दुस्साध्य। पुं० १. विस्फोट। २. सोमलता। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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विकंटक  : पुं० [सं० ब० स०] १. जवासा। २. विंकटक।
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विकटक  : वि० [सं० विकट+कन्] जिसकी आकृति खराब हो गई हो।
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विकटा  : स्त्री० [सं० विकट+टाप्] १. बुद्ध की माता, मायादेवी। २. टेढ़े पैरों वाली लड़की जो विवाह के योग्य न हो।
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विकथा  : वि० [सं०] निरर्थक या बेहदी बात।
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विकंप  : वि० [सं० कर्म० स०] १. काँपता हुआ। २. चंचल। ३. अस्थिर।
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विकंपन  : पुं० [सं०] १. हिलना-डुलना। काँपना २. गति। चाल।
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विकर  : पुं० [सं० वि√कृ (करना)+अच्] १. रोग। व्याधि। २. तलवार चलाने के ३२ प्रकारों में से एक।
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विकरण  : पुं० [सं०] व्याकरण में प्रकृति या धातु और प्रत्यय के बीच में होनेवाला वर्णागम। जैसे—‘घोड़ों पर’ में का विकरण है। वि० कारण अर्थात् इन्द्रियों से रहित।
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विकरार  : वि० १.=विकराल। २.=बे-करार (विकल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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विकराल  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० विकरालता] भीषण आकृतिवाला। डरावना।
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विकर्ण  : वि० [सं० ब० स०] १. कर्णरहित। २. जिसके कान न हों। बिना कानोंवाला। २. जिसे सुनाई न पड़ता हो। जो सुन न सके। बहरा। ३. जिसके कान बड़े और लम्बे हों। ४. रेखा-गणित में चार या अधिक कोणोंवाले क्षेत्र में किसी कोण से उसकी ठीक विपरीत दिशावाले कोण तक पहुँचने या होनेवाला। टेढ़े या तिरछे बल में ऊपर से नीचे आने अथवा नीचे से ऊपर जानेवाला (डायगनल)। पुं० १. कर्ण का एक पुत्र। दुर्योधन का एक भाई। ३. एक प्रकार का साँप। ४. एक प्रकार का तीर या बाण। ५. रेखा—गणित में वह रेखा जो किसी चतुर्भुज को तिरछे बल से पड़नेवाले आमने-सामने के बिन्दुओं को मिलाती हुई चतुर्भुज को दो भागों में विभक्त करती है (डायगनल)।
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विकर्णक  : पुं० [सं० विकर्ण+कन्] १. एक प्रकार का गँठिवन। २. शिव का व्याडि नामक गण।
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विकर्णतः  : अव्य० [सं०] विकर्ण के रूप में। तिरछे बल में (डायगनली)।
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विकर्णिक  : पुं० [सं० विकर्ण+ठक्-इक] सरस्वती नदी के आस-पास का देश। सारस्वत प्रदेश।
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विकर्णी  : स्त्री० [सं० विकर्ण+इनि, दीर्घ, न-लोप] एक प्रकार की ईंट जिसका व्यवहार यज्ञ की वेदी बनाने में होता था।
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विकर्तन  : पुं० [सं० ब० स०] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. ऐसा राजकुमार जिसने पिता के राज्य पर अनुचित रूप से अधिकार जमा लिया हो।
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विकर्म  : पुं० [सं०] १. दूषित या निषिद्ध कर्म। २. कर्म विशेषतः वृत्ति से निवृत्त होना। ३. विविध कर्म।
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विकर्मस्थ  : पुं० [विकर्म√स्था (ठहरना)+क] वह जो वेद-विरुद्ध आचरण रखता हो (धर्म-शास्त्र)।
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विकर्मिक  : वि० [सं०] १. दूषित या निसिद्ध कर्म करनेवाला। २. व्यवसाय या विविधि कामों में लगा रहनेवाला। पुं० प्राचीन काल में वह अधिकारी जो बाजारों, हाटों, मेलों आदि की व्यवस्था तथा निरीक्षण करता था।
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विकर्ष  : पुं० [सं० वि√कृष् (खींचना)+घञ्] १. बाण। तीर। २. धनुष की प्रत्यंचा खींचने की क्रिया। २. अन्तर। दूरी। फासला।
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विकर्षण  : पुं० [सं०] १. छीना-झपटी करना। २. आकर्षण। खींचना। ३. दूसरी ओर या विपरीत दिशा में खींचना। ४. खींचकर अपनी ओर लाना। लौटाना। ५. न रहने देना। नष्ट करना। ६. विभाग। हिस्सा। ७. कुश्ती का एक पेंच। ८. कामदेव के पाँच वाणों में से एक। ९. एक प्राचीन शास्त्र जिसमें लोगों को आकर्षित करने की कला का वर्णन था।
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विकल  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें कल न हो। कल से रहित। २. जिसका आराम या चैन नष्ट हो चुका हो। बेचैन। व्याकुल। ३. जिसकी कला न रह गई हो। कला से रहित या हीन। ४. जिसका कोई अंग टूट या निकल गया हो। खंडित। जैसे—विकलांग। ५. जिसमें कोई कमी हो। घटा हुआ। ६. असमर्थ। ७. क्षोभ, भय आदि से युक्त। ८. प्रभाव, शक्ति आदि से रहित। ९. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। १॰. प्राकृतिक। स्वाभाविक। पुं०=विकला।
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विकलन  : पुं० [सि√कल् (गिनती करना)+ल्यु-अन] हिसाब-किताब में किसी मद में कोई रकम किसी के नाम लिखना (डेबिट)।
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विकला  : स्त्री० [सं० विकल+टाप्] १. कला का साठवाँ अंश। २. बुध ग्रह की गति। ३. वह स्त्री जिसका रजोदर्शन बन्द हो गया हो।
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विकलांग  : वि० [सं० ब० स०] १. किसी अंग से हीन। २. जिसका कोई अंग बेकाम हो।
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विकलाना  : अ० [सं० विकल+आना (प्रत्यय)] व्याकुल होना। घबराना। बेचैन होना। स० किसी को विकल या बेचैन करना।
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विकलास  : पुं० [सं० विकलास्य] एक प्रकार का प्राचीन बाजा, जिस पर चमड़ा मढ़ा होता था।
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विकलित  : भू० कृ० [सं० वि√कल्+क्त, इत्व, अथवा विकल+इतच्] १. विकल किया हुआ। २. विकल। बेचैन। ३. दुःखी। पीड़ित।
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विकलेंद्रिय  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी इन्द्रियाँ वश में न हो। २. दे० ‘विकलांग’।
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विकल्प  : वि० [सं०] [वि० वैकल्पिक] १. ऐसी स्थिति जिमसें यह समझना या सोचना पड़ता है कि यह है या वह। २. मन में एक कल्पना उत्पन्न होने के बाद उससे मिलती-जुलती की जानेवाली दूसरी कल्पना। पहले कुछ सोचने के बाद फिर कुछ और सोचना। ३. वह अवस्था जिसमें सामने आई हुई कई बातों या विषयों में से कोई बात या विषय अपने लिए चुनने की आवश्यकता होती है। (आप्शन)। ४. सामने आये हुए दो या अधिक ऐसे कामों या बातों में से हर एक जो आवश्यक, सुभीते आदि के अनुसार काम में लाया या लिया जा सकता हो। (आल्टरनेटिव) ५. व्याकरण में किसी बात या विषय से सम्बन्ध रखनेवाले दो या अधिक नियमों, विधियों आदि में से अपनी इच्छा के अनुसार कोई नियम या विधि मानना, लगाना या लेना। ६. धोखा। भ्रम। भ्रान्ति। ७. विचित्रता। विलक्षणता। ८. योग शास्त्र में, पाँच प्रकार की चित्त-वृत्तियों में से एक जिसमें कोई चीज या बात बिना तथ्य या वास्तविकता का विचार किए ही मान ली जाती है। जैसे—चाहे पारस पत्थर होता हो या न होता हो, फिर भी यह मान लेना कि उसका स्पर्श लोहे को सोना बना देता है। ९. योगसाधन में एक प्रकार की समाधि। १॰. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिमसें दो परस्पर विरोधी बातों का उल्लेख करके कहा जाता है कि या तो यह हो या वह अथवा या तो यह होना चाहिए या वह (आल्टरनेटिव)। जैसे—पार्वती की यह प्रतिज्ञा या तो मैं शंकर से विवाह करूँगी या जन्म-भर कुँआरी रहूँगी। उदाहरण—बैर तो बढ़ायों कह्यौ काहू को न मान्यौ, अब दाँतनि तिनूका कै कृपान गहौ कर में।—मतिराम। ११. मन में विशेष रूप से की जानेवाली कोई कल्पना या विचार। निर्धारण। जैसे— दंड देने का विकल्प। १२. मन में उत्पन्न होनेवाली तरह-तरह की कल्पनाएँ। १३. कल्प का कोई छोटा अंग या विभाग। अवान्तर कल्प। १४. विचित्रता। विलक्षणता।
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विकल्पन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विकल्पित] १. विकल्प करने की क्रिया या भाव। २. किसी बात में सन्देह करना।
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विकल्पना  : स्त्री० [सं०] १. तर्क-वितर्क करना। २. सन्देह करना।
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विकल्पसम  : पुं० [सं० ब० स०] न्याय दर्शन में २४ जातियों में से एक जिसमें वादी के दिये हुए दृष्टान्त में अन्य धर्म की योजना करते हुए साध्य में भी उसी धर्म का आरोप करके अथवा दृष्टान्त को असिद्ध ठहराकर वादी की युक्ति का निरर्थक खंडन किया जाता है। जैसे—यदि वादी कहे-‘शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घर की तरह उत्पत्ति धर्मवाला है।’ और इस पर प्रतिवादी कहे ‘घर जिस प्रकार उत्पत्ति धर्म से युक्त होने के कारण अनित्य और मूर्त्त है, उसी प्रकार शब्द भी उत्पत्ति धर्म से युक्त होने के कारण अनित्य और मूर्त्त है।’ तो ऐसा तर्क ‘विकल्पसम’ कहा जायगा।
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विकल्पित  : भू० कृ० [सं०] जिसके सम्बन्ध में विकल्पन (तर्क-वितर्क या सन्देह) किया गया हो। अनिश्चित और संदिग्ध। २. जो विकल्प (देखें) के रूप में ग्रहण किया गया हो। ३. जिसके सम्बन्ध में कोई निश्चय न हो। ४. जिसके सम्बन्ध में कोई नियम न हो। अनियमित।
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विकल्मष  : वि० [सं० ब० स०] कल्मष या पाप से रहित। निष्पाप।
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विकस  : पुं० [सं०वि√कस् (विकसित होना)+अच्] चंद्रमा।
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विकसन  : पुं० [सं० वि√कस् (विकसित होना)+ल्युट-अन] [वि० विकसित] १. विकास करना या होना। २. फूलों आदि का खिलना।
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विकसना  : अ० [सं० विकसन] १. विकास के रूप में लाना। २. खिलने में प्रवृत्त करना। खिलना
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विकसाना  : स० [सं० विकसन] १. विकास के रूप में लाना। २. खिलने में प्रवृत्त करना। खिलाना।
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विकसित  : भू० कृ० [सं० वि√कस्+क्त, इत्व] १. जिसका विकास हुआ हो या किया गया हो। २. खिला हुआ।
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विकस्वर  : वि० [सं० वि√कस्+वरच्] विकासशील। खिलनेवाला। पुं० साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जो उस समय गाया जाता है जब विशेष का सामान्य द्वारा समर्थन करने के उपरान्त सामान्य का विशेष द्वारा भी समर्थन किया जाता है।
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विकांक्ष  : वि० [ब० स०] आकांक्षा से रहित।
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विकांक्षा  : स्त्री० [सं० विकांक्ष+टाप्] १. कोई आकांक्षा न होना। आकांक्षा का अभाव। २. अनिश्चय। दुविधा।
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विकाम  : वि० [सं० ब० स०] कामना से रहित। निष्काम।
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विकार  : पुं० [सं० वि√कृ (करना)+घञ्] १. प्रकृति, रूप, स्थिति आदि में होनेवाला परिवर्तन। २. किसी चीज के आकार, गुण, रंग-रूप, स्वभाव आदि में होनेवाला परिवर्तन जिससे वह खराब हो जाय और ठीक तरह से काम देने के योग्य न रह जाय। बिगाड़। ३. वह तत्त्व या बात जिसके कारण चीज में उक्त प्रकार की खराबी या दोष आता हो। जैसे— उद्देश्य, भावना आदि में होनेवाला विकास। ४. मुख पर क्रोध, घृणा आदि के फलस्वरूप होनेवाली ऐंठन या विकृति। ५. शारीरिक कष्ट या घाव। ६. वेदान्त और सांख्य दर्शन के अनुसार किसी पदार्थ के रूप आदि का बदल जाना। परिणाम। जैसे—कंकण सोने का विकार है, क्योंकि वह सोने से ही रूपान्तरित होकर बना है। ७. निरुक्त के प्रधान चार नियमों में से एक जिसके अनुसार एक वर्ण के स्थान से दूसरा वर्ण हो जाता है।
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विकारित  : भू० कृ० [सं० वि०√कृ+णिच्+क्त] जो किसी प्रकार के विकार से युक्त किया गया हो अथवा आपसे आप हो गया हो।
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विकारी (रिन्)  : वि० [सं० वि√कृ+णिनि, दीर्घ, न-लोप] १. जिसमें कोई विकार उत्पन्न हुआ हो। विकार से युक्त। २. जिसमें कोई परिवर्तन हुआ हो अथवा किया गया हो। ३. जिसमें कोई विकार या परिवर्तन होता रहता हो या होने को हो। पुं० साठ संवत्सरों में से एक संवत्सर का नाम।
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विकाल  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा समय जब देव-कार्य, पितृ-कार्य आदि का समय बीत गया हो। २. सन्ध्या का समय। ३. विलम्ब। देर।
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विकालत  : स्त्री०=वकालत।
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विकालिका  : स्त्री० [सं० विकाल+कन्+टाप्, इत्व] जल-घड़ी।
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विकाश  : पुं० [सं० वि√काश् (दीप्त होना)+घञ्] १. प्रकाश। रोशनी। २. फैलाव। विस्तार। ३. बढ़ती। वृद्धि। ४. आकाश। वि० एकांत। निर्जन।
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विकाशक  : वि० [सं० वि√काश्+ण्वुल्—अक] विकासक।
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विकास  : पुं० [सं०] १. अपने आपको प्रकट या व्यक्त करना। २. फैलना या बढ़ना। ३. फूलों आदि का खिलना। ४. आँख, मुँह आदि का खुलना। ५. किसी चीज या बात का अस्तित्व में आकर या आरम्भ होकर फैलते या बढ़ते हुए और उन्नति की अनेक क्रमिक अवस्थाएं पार करते हुए अपनी पूरी बाढ़ तक पहुँचना। बढ़ते-बढ़ते अपना पूरा रूप धारण करना। ६. उक्त क्रिया के परिणाम-स्वरूप प्रकट होनेवाला रूप या स्थिति। ६. यह सिद्धान्त कि कोई वस्तु अपनी आरम्भिक सामान्य अवस्था से अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ती तथा फूलती-फलती हुई पूर्ण अवस्था प्राप्त करती है (इवोल्यूशन)। स्त्री० [?] दूब की तरह की एक घास जो चौपाये बहुत चाव से खाते हैं।
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विकासक  : वि० [सं० वि√कस्+ण्वुल्-अक] विकास करने अर्थात् खोलने या बढ़ानेवाला।
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विकासन  : पुं० [सं० वि√कस्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विकसित] विकास करने की क्रिया या भाव। २. खिलना। ३. खुलना। ४. फैलना।
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विकासना  : स० [सं० विकास] १. विकास करना। २. खोलकर प्रकट या व्यक्त करना। ३. खिलने में प्रवृत्त करना। अ०=विकसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विकासवाद  : पुं० [ष० त०] यह सिद्धान्त कि ईश्वर से यह सृष्टि (अथवा इसका कोई अंग) इसी या प्रस्तुत रूप में नहीं उत्पन्न कर दी थी, वरन् इसका रूप प्रतिक्षण बदलता और बढ़ता जा रहा है (थियरी आँफ इवोल्यूशन)। विशेष—इस सिद्धान्त के अनुसार यह माना जाता है कि इस पृथ्वी पर प्राणियों, वनस्पतियों आदि का आरम्भ बहुत ही सूक्ष्म रूप में हुआ था, और धीरे-धीरे उनका विकास होने पर वे सब फैलते, बढ़ते और अनेक प्रकार के रूप-रंग धारण करते गये, उनकी शक्तियाँ आदि बढ़ती गई और उनके बहुत-से भेद-विभेद होते गये।
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विकासवादी  : वि० [सं०] विकासवाद संबंधी। पुं० वह जो विकासवाद का अनुयायी या ज्ञाता हो।
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विकासित  : भू० कृ० [सं० वि√कस्+णिच्+क्त] १. जिसका विकास किया गया हो। २. सामने लाया हुआ। ३. फैलाया या बढ़ाया हुआ।
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विकिर  : पुं० [सं० वि√कृ (करना)+क] १. पक्षी। चिड़िया। २. कूआँ। ३. विकिरण। बिखेरना। ४. बिखेरी जानेवाली वस्तु। ५. वे चावल आदि जो पूजा के समय विघ्न दूर करने के लिए चारों ओर फेंके जाते हैं। अक्षत।
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विकिरक  : वि० [सं०] जो अपनी किरणें चारों ओर फेंकता या फैलाता हो। किरणें विकीर्ण करनेवाला (रेडिएटर) पुं० कोई ऐसा पदार्थ या यंत्र जो किसी प्रकार की किरणें ताप, भाप, शीत आदि अंदर से निकालकर बाहर फैलाता या बिखेरता हो (रेडिएटर)।
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विकिरण  : पुं० [सं०] १. इधर-उधर फेंकना या फैलाना। छितराना। बिखेरना। २. किसी केन्द्र से शाखाओं आदि के रूप में निकल कर इधर-उधर फैलाना या बढ़ाना। ३. आज-कल वैज्ञानिक क्षेत्र में किसी केंन्द्र से तार, प्रकाश कि किरणों अथवा किसी प्रकार की ऊर्जा को निकल-कर इधर-उधर या चारों ओर फैलाना। (रेडिएशन) ४. चीरना-फाड़ना। ५. हत्या करना। मार डालना। ६. ज्ञान। ७. मदार का पौधा। आक।
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विकिरण-मापी  : पुं० [सं०] वह यंत्र जिसकी सहायता से तपे हुए पदार्थों में से निकलनेवाली ताप-रश्मियों का परिमाण या शक्ति जानी या नापी जाती है। (रेडियो मीटर)।
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विकिरण-विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विचार और विवेचन होता है कि अनेक पदार्थों में से किरणें कैसे निकलती है और उनके क्या-क्या उपयोग, प्रकार या स्वरूप होते हैं (रेडियोलोजी)।
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विकिरणता  : स्त्री० [सं०] १. वह स्थिति जिसमें किसी चीज की किरणें निकलकर किसी ओर फैलती हैं। २. आधुनिक विज्ञान में वह स्थिति जिसमें अणु-बमों आदि के विस्फोट के कारण विषाक्त किरणें निकलकर चारों ओर फैलती और वातावरण दूषित करके जीव, जन्तुओं वनस्पतियों आदि को बहुत हानि पहुँचाती है (रेडियो-एक्टिविटी)।
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विकीरना  : स० [सं० विकीर्ण] १. फैलाना। २. चारों ओर छितराना या बिखेरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विकीर्ण  : भू० कृ० [सं० वि√कृ (फेंकना)+क्त] १. चारों ओर फैलाया या छितराया हुआ। २. खुले बिखरे या उलझे हुए (बाल)। ३. प्रसिद्ध। मशहूर। पुं० संस्कृत व्याकरण में स्वरों के उच्चारण में होनेवाला एक दोष।
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विकुंक्षि  : पुं० [सं० विकुक्ष+इनि] अयोध्या के राजा कुशि के पुत्र का नाम। वि० जिसका पेट फूला हुआ और बड़ा हो। तोंदवाला।
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विकुंचन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विकुंचित] १. सिकुंड़ना। २. मुडऩा।
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विकुंज  : पुं० [सं० ब० स०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जाति।
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विकुंठ  : वि० [सं०] १. तेज और नुकीला। २. अत्यधिक भुथरा। पुं०=बैकुंठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विकुंठा  : स्त्री० [सं० विकुंठ+टाप्] १. मन का केन्द्रीकरण। मन को एकाग्र करना। २. विष्णु की माता।
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विकृत  : भू० कृ० [सं० वि०√कृ (करना)+क्त] [भाव० विकृति] १. जिसमें किसी प्रकार का विकार आ गया हो। २. जिसका आकार या रूप बिगड़ गया हो। बेडौल। ३. असाधारण। ४. अधूरा। अपूर्ण। ५. अराजक। विद्रोही। ६. बीमार। रोगी। ७. उद्विग्न। ८. अप्राकृतिक। पुं० १. दूसरे प्रजापति का नाम। २. साठ संवत्सरों में से चौबीसवाँ संवत्सर। ३. बीमारी। रोद। ४. विरक्ति। ५. गर्भपात।
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विकृत-दृष्टि  : पुं० [सं० ब० स०] ऐंचा-ताना।
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विकृत-स्वर  : पुं० [सं०] संगीत में, वह स्वर जो अपने निवास स्थान से हट कर दूसरी श्रुतियों पर जाकर ठहरता है। इसके १२ प्रकार या भेद कहे गये है।
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विकृता  : स्त्री० [सं० विकृत+टाप्] एक योगिनी का नाम।
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विकृति  : स्त्री० [सं० वि√कृ (करना)+क्तिन्] १. विकृत होने की अवस्था या भाव। २. खराबी। विकार। ३. वह रूप जो विकार के उपरान्त प्राप्त हो। बिगड़ा हुआ। ४. बीमारी। रोग। परिवर्तन। ५. मन में होनेवाला क्षोभ। ६. काम-वासना। ७. वैर। शत्रुता। ८. धार्मिक क्षेत्र में माया का एक नाम। ९. पिंगल में २३ वर्णों वाले छंदों की संज्ञा। १॰. सांख्य के अनुसार मूल-प्रकृति का वह रूप जो उसमें विकार आने पर होता है। विकार। परिणाम। ११. व्याकरण में शब्द का वह रूप जो उसको मूल धातु से विकृत होने पर प्राप्त होता है।
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विकृति-विज्ञान  : पुं० [सं०] चिकित्सा-शास्त्र और दैहिकी का वह अंग या विभाग जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि शरीर में किस प्रकार के विकार होने से कौन-कौन से रोग होते हैं। रोग-विज्ञान। (पैथालोजी)।
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विकृतिवेत्ता  : पुं० [सं०] वह जो विकृति-विज्ञान का ज्ञाता हो। (पैथॉलोजिस्ट)।
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विकृतीकरण  : पुं० [सं०] किसी की आकृति अथवा कृति के कुछ अंगों को छोटा-बड़ा करके इस उद्देश्य से उसे विकृत करना कि लोग उसे देखकर अनायास हँस पड़े। (केरिकेचर)।
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विकृष्ट  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] [भाव० विकृष्टि] १. खींचा हुआ। २. खींच या निकाल कर अलग किया हुआ। ३. फैलाया या बढ़ाया हुआ। ४. ध्वनि के रूप में आया या लाया हुआ।
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विकृष्टि  : स्त्री० [सं०] विकृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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विकेट  : पुं० [अ०] १. क्रिकेट के खेल में वे डंडे जिन पर गुल्लियाँ रखी जाती हैं। यष्टि। २. बल्लेबाज। जैसे— तीन विकेट गिर चुके हैं। ३. दोनों ओर की विकटों के बीच की जगह।
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विकेंद्रण  : पुं० [सं०] विकेंद्रीकरण (दे०)।
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विकेंद्रीकरण  : पुं० [सं०] १. केन्द्र से हटाकर दूर करना। २. राजनीतिक क्षेत्र में,शक्ति या सत्ता का एक केन्द्र या स्थान में निहित न होकर अनेक केन्द्रों या स्थानों में थोड़े-थोड़े अंशों में निहित होना (डिसेन्ट्रलाइज़ेशन)।
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विकेश  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विकेशी] १. जिसके सिर के बाल खुले हों। २. जिसके सिर पर बाल न हों। गंजा। पुं० १. एक प्रकार का प्रेत २. पुच्छल तारा।
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विकेशी  : स्त्री० [सं०] १. ऐसी स्त्री जिसके सिर के बाल खुले हों। २. गंजे सिरवाली स्त्री। ३. मही (पृथ्वी) के रूप में शिव की पत्नी का नाम। ४. एक प्रकार की पूतना।
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विकोष  : वि० [सं० ब० स०] १. कोष या म्यान से निकला हुआ (शस्त्र) २. खुला हुआ। अनाच्छादित। ३. जिस पर भूसी, छिलका आदि न हो।
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विक्टोरिया  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार की घोड़ा-गाड़ी जो देखने में प्रायः फिटन से मिलती-जुलती होती है। पुं० एक छोटा ग्रह जिसका पता सन् १८५॰ में हैंड नामक एक पाश्चात्य ज्योतिषी ने लगाया था।
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विक्रम  : पुं० [सं० वि√क्रम (चलना आदि)+अच्] १. विपरीत गति। ‘संक्रम’ का विपर्याय। २. चलने में पकड़नेवाला कदम। डग। पग। ३. चलना। गति। ४. किसी को दबाकर अपने अधिकार या वश में करना। ५. विशिष्ट पौरुष या बल। ६. बहादुरी। वीरता। ७. ढंग। तरीका। ८. विष्णु का एक नाम। ९. साठ संवत्सरों में से चौदहवाँ संवत्सर। १॰. बिना किसी क्रम या प्रणाली के होनेवाला वेद-पाठ। ११. दे० ‘विक्रमादित्य’। वि० १. क्रम से रहित। बिना क्रम का। २. उत्तम। श्रेष्ठ।
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विक्रम-शिला  : स्त्री० [सं०] प्राचीन भारत की एक नगरी जिसमें बहुत बड़ा बौद्ध विद्यालय था।
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विक्रमक  : पुं० [सं० विक्रम+कन्] कार्तिकेय के एक गण का नाम।
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विक्रमण  : पुं० [सं० वि√क्रम् (चलना आदि)+ल्युट-अन] १. चलना। कदम रखना। २. आगे बढ़ना। संक्रमण का विपर्याय। ३. विक्रम। वीरता।
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विक्रमाजीत  : पुं०=विक्रमादित्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विक्रमादित्य  : पुं० [सं० स० त०] उज्जयिनी के एक प्रसिद्ध प्रतापी राजा जिनके संबंध में अनेक प्रवाद प्रचलित है। आज-कल का विक्रमी संवत् इन्हीं का चलाया माना जाता है।
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विक्रमाब्द  : पुं० [सं० मध्यम० स०] विक्रमादित्य के नाम से चलाया हुआ संवत्। विक्रम संवत्।
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विक्रमार्क  : पुं० [स० त०]=विक्रमादित्य।
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विक्रमी  : पुं० [सं० विक्रम+इनि, दीर्घ, न-लोप, विक्रमिन्] १. वह जिसमें बहुत अधिक बल हो। विक्रमवाला। पराक्रमी। २. विष्णु। ३. शेर। वि० १. विक्रम-संबंधी। विक्रम का। २. विक्रमाब्द संबंधी।
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विक्रमीय  : वि० [सं० विक्रम+छ-ईय] विक्रमादित्य संबंधी।
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विक्रय  : पुं० [सं० वि√क्री (बेचना)+अच्] दाम लेकर कोई चीज देना। दाम लेकर किसी चीज का स्वत्वाधिकार दूसरे को देना। बेचना। ‘क्रय’ का विपर्याय। पद—क्रय-विक्रय।
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विक्रय-कर  : पुं० [ष० त०] वह राजकीय कर चीजों के विक्रय के समय खरीदने वाले से लिया जाता हैं। बिक्रीकर (सेल-टैक्स)।
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विक्रय-पंजी  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह पंजी (बही) जिसमें व्यापारी नित्य अपनी बेची हुई चीजों के नाम, मूल्य आदि लिखते है (सेल्स जर्नल)।
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विक्रय-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र या लेख्य जिसमें यह लिखा जाता है कि इतना मूल्य लेकर अमुक व्यक्ति ने अमुक वस्तु दूसरे व्यक्ति के हाथ बेची है। बैनामा। (सेल-डीड)।
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विक्रय-लेख  : पुं० [सं०] विक्रय-पत्र।
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विक्रयक  : वि० [सं० वि√क्री+ण्वुल्-अक] बेचनेवाला। विक्रेता।
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विक्रयण  : पुं० [सं० वि√क्री (बेचना)+ल्युट-अन] बेचने की क्रिया। विक्रय। बिक्री।
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विक्रयिक  : पुं०=विक्रेता।
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विक्रयी (यिन्)  : पुं०=विक्रेता।
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विक्रय्य  : वि० [सं० विक्रय+यत्] जो बेचा जाने को हो।
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विक्रांत  : भू० कृ० [सं० वि√क्रम्+क्त] १. जो चल कर पार किया गया हो। २. जिसमें विशेष विक्रम अर्थात् बल या शूरता हो। वीर। ३. विजयी। ४. प्रतापी। ५. तेजस्वी। पुं० १. बहादुर। वीर २. शेर। सिंह। ३. डग। पग। ४. बल और शक्ति। विक्रम। ५. हिरण्याक्ष का एक पुत्र। ६. प्रजापति। ७. साहस। हिम्मत। ८. व्याकरण में एक प्रकार की संधि। जिसमें विसर्ग अविकृत ही रहता है। ९. वैक्रान्त मणि।
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विक्रांता  : स्त्री० [सं० विक्रान्त+टाप्] १. अग्निमथ। वृक्ष। अरणी। २. जयंती। ३. मूसाकानी। ४. अड़हुल। गुड़हर। ५. अपराजिता। ६. लज्जावती। लजालू। ७. हंसपदी नामक लता।
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विक्रांति  : स्त्री० [सं० वि√क्रम्+क्तिन्] १. गति। २. विक्रम। वीरता। ३. घोड़े की सरपट चाल।
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विक्रिया  : स्त्री० [सं० वि√कृ+श+टाप्] १. विकार। २. प्रतिक्रिया।
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विक्रियोपमा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का उपमालंकार जिसमें किसी विशिष्ट क्रिया या उपाय का अवलंब कहा जाता है।
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विक्री  : स्त्री०=बिक्री (विक्रय)।
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विक्रीत  : भू० कृ० [सं० वि√क्री+क्त] बेचा हुआ।
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विक्रेतव्य  : वि०=विक्रेय।
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विक्रेता  : पुं० [सं० वि√क्री+तृच्] बिक्री करनेवाला। बेचनेवाला।
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विक्रेय  : वि० [वि०√क्री+यत्] जो बेचा जाने को हो बिकाऊ।
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विक्रोश  : पुं० [सं० वि√क्रश् (विलपना)+घञ्] १. लोगों को अपनी सहायता के लिए पुकारना। गोहार। २. कुवाच्य कहना।
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विक्रोष्टा (ष्ट्रा)  : पुं० [सं० वि√क्रुश्+तृच्] १. गोहार करनेवाला। २. गाली देनेवाला।
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विक्लव  : वि० [सं० वि√क्लु (अधीर होना)+अच्] १. विकल। बेचैन। २. क्षुब्ध। ३. भयभीत। ४. दुःखी। संतप्त।
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विक्लिन्न  : वि० [सं० वि√क्लिद् (भींगना)+क्त] १. बहुत पुराना। जीर्ण-शीर्ण। २. गला-सड़ा। ३. पकाकर मुलायम किया हुआ। ४. गीला। तर।
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विक्लेद  : पुं० [सं० वि√क्लिद्+घञ्] १. आर्द्रता। २. गलाना या द्रव करना। ३. क्षय।
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विक्षत  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. जिसमें छत लगा हों जिसमें खराश पड़ी हो। २. जिसे क्षत या घाव लगा हो। घायल। जख्मी।
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विक्षय  : पुं० [सं० ब० स०] अधिक मद्य-पान के कारण होनेवाला रोग (वैद्यक)।
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विक्षिप्त  : वि० [सं० वि√क्षिप् (फेंकना)+क्त] [भाव० विक्षिप्तता] फेंका या छितराया हुआ। २. छोड़ा या त्यागा हुआ। व्यक्त। ३. जिसका मस्तिष्क ठीक तरह से काम न करता हो। पागल। सिड़ी। ४. पागलों की तरह घबराया हुआ और विकल।
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विक्षिप्तक  : पुं० [सं० विक्षिप्त+कन्] ऐसी लाश या शव जो जलाया या गाड़ा न गया हो, बल्कि यों ही कहीं फेंक दिया गया हो।
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विक्षिप्तता  : स्त्री० [सं० विक्षिप्त+तल्+टाप्] विक्षिप्त या पागल होने की अवस्था या भाव। पागलपन।
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विक्षुब्ध  : वि० [सं० वि√क्षुभ् (अधीर होना)+क्त] जिसमें किसी प्रकार का क्षोभ उत्पन्न किया गया हो अथवा आप से आप हुआ हो।
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विक्षेप  : पुं० [वि√क्षिप् (फेंकना)+घञ्] १. इधर-उधर छितराना या फेंकना। २. झटका देना। ३. धनुष का चिल्ला या डोरी चढ़ाना। ४. गदायुद्ध में गदा की कोटि से समीपवर्ती शत्रु पर प्रहार करना। ५. मन इधर-उधर दौड़ाना या भटकाना। ६. बाधा। विघ्न। ७. सेना का पड़ाव। छावनी। ८. एक तरह का प्राचीन अस्त्र।
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विक्षेप-लिपि  : स्त्री० [कर्म० स०] एक प्रकार की प्राचीन लिपि।
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विक्षेपण  : पुं० [सं० वि√क्षिप् (फेंकना)+ल्युट-अन] १. ऊपर अथवा इधर-उधर फेंकने की क्रिया। २. झटका देना। ३. धनुष की डोरी खींचना। ४. बाधा। विघ्न। ५. विक्षेप।
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विक्षेप्ता (प्तृ)  : पुं० [सं० वि√क्षिप्+तृच्] विक्षेप या विक्षेपण करनेवाला।
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विक्षोभ  : पुं० [सं० वि√क्षुभ् (अधीर होना)+घञ्] १. विशेष रूप से होनेवाला क्षोभ। उद्विग्नता। २. किसी अशुभ या अनिष्ट घटना के कारण मन में होनेवाला ऐसा विकार जो क्रुद्ध या दुःखी कर दे। ३. उथल-पुथल।
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विक्षोभण  : पुं० [सं० वि√क्षुभ्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विक्षोभित] क्षोभ उत्पन्न करने की क्रिया या भाव।
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विक्षोभित  : भू० कृ० [सं० वि√क्षुभ्+क्त]=विक्षुब्ध।
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विक्षोभी (भिन्)  : वि० [सं० वि√क्षुभ्+णिनि, दीर्घ, न-लोप] [स्त्री० विक्षोभिणी] क्षोभ उत्पन्न करनेवाला। क्षोभकारी।
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