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शब्द का अर्थ

स  : नागरी वर्णमाला का बत्तीसवाँ व्यंजन जो भाषा-विज्ञान तथा व्याकरण के अनुसार ऊष्म, दन्त्य, अघोष, महाप्राण तथा ईषद्विवृत है।
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सं  : उप० [सं० सम्] एक संस्कृत उपसर्ग जो कुछ शब्दों के पहले लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है—१. संग, सहित या साथ, जैसा—संगम, संभाषण, संयुक्त आदि। २. अच्छी या पूरी तरह से, जैसा—सतोष संन्यास, संपादन आदि। ३. उत्कृष्टता या सुन्दरता। जैसा—संस्तुति। विशेष-कभी-कभी इसके योग से मूल शब्द का अर्थ प्रायः ज्यों का त्यों बना रहता है, और उसमें कोई विशेषता नहीं आती। जैसा—संप्राप्ति। अव्य० द्वारा। से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स  : उप० एक उपसर्ग जिसका उपयोग शब्दो के आरंभ में की प्रकार के अर्थ सूचित करने के लिए होता है। यथा०—१. ‘एक ही’ का भाव सूचित करने के लिए;जैसे—सकुल, सगोत्र आदि। २. ‘एक ही तरह का’ ‘एक सा’ का भाव सूचित करने के लिए, जैसे—सदृश्य समान आदि। ३. संज्ञाओं से विशेषण और क्रिया विशेषण बनाने के लिए जैसे—सतृष्ण, सप्रेम आदि। ४. बहुब्रीहि समास में ‘युक्त’ या सह का भाव सूचित करने के लिए जैसे—सजीव, सपरिवार आदि। ५. हिन्दी शब्दों में ‘सु’ या अच्छा का भाव प्रकट करने के लिए। जैसे—सपूत आदि। पुं० [सं० षो (नाश करन)+ड] १. ईश्वर। २. महादेव।शिव। ३.चंद्रमा। ४. जीवात्मा। ५. भृगु । ६. वायु। हवा। ७. ज्ञान। ८. चिन्ता। ९. चमक। दीप्ति। १॰. चिड़िया। पक्षी। ११. साँप। १२. रास्ता। सड़क। १३. संगात में षडज स्वर का सूचक अक्षर। जैसे—रे, ग, म, ध, नि, स,। १४.छंद शास्त्र में सगर्ण का सूचक अक्षर या संक्षिप्त रूप।
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स हबान  : पुं० [अ०] ‘साहब’ का बहु०। पुं० सायबान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स-प्रमाण  : वि० [सं० अव्य० स०] १. प्रमाण से युक्त। २. प्रामाणिक। क्रि० वि० प्रमाण या सबूत के साथ।
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स-फलक  : वि० [सं० अव्य० स०] जिसके पास फलक अर्थात ढाल हो।
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स-मदन  : वि० [सं०] [स्त्री० समदना] प्रबल कामवासना से युक्त। कामातुर। क्रि० वि० खुशी या प्रसन्नता से। उदा०—भेंटि घाट समदन कै फिरैं नाई कै माथ।—जायसी
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स-मल  : वि० [सं०] १. मल से युक्त। २. मलिन। मैला।
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स-मुद्र  : वि० [सं०] १. मुद्रा से युक्त। २. जिस पर मुद्रा अंकित हो।
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स-रव  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जिसमें रव या शब्द होता हो। शब्द करता हुआ। पुं० १.=सुरो। २.=सराव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स-रोष  : वि० [सं० अव्य० स०] रोष या क्रोध से युक्त। कुपित। क्रि० वि० रोष या क्रोधपूर्वक।
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स-वत्स  : वि० [सं०] [स्त्री० स-वत्सा] जिसके साथ उसका बच्चा भी हो। जैसा—स-वत्सा गौ।
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स-विधि  : वि० [सं० त० त०] विधि युक्त। अव्य० विधि के अनुसार। विधिपूर्वक।
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स-श्रम  : वि० [सं० त० त०] थका हुआ। श्रमित। क्रि० वि० परिश्रमपूर्वक।
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स-सत्त्व  : वि० [सं० त० त०] [स्त्री० ससत्त्वा] १. सत्त्व से युक्त। २. जीवन से युक्त। जानदार। ३. जीव से युक्त। जैसा—ससत्त्वा स्त्री=गर्भवती स्त्री।
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स-हित  : क्रि० वि० [सं० स०+हित] हितपूर्वक। प्रेम से।
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सआदत  : स्त्री० [अ०] १. अच्छाई। भलाई। २. सौभाग्य।
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सआदतमंद  : वि० [अ०+फा०] [भाव० सआदतमंदी] १. भला। सज्जन। २. आज्ञाकारी (संतान आदि के लिए प्रयुक्त)। ३. भाग्यवान। सौभाग्यशाली।
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सइ  : अव्य [सं० सह] से। साथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सइजन  : पुं०=सहिंजन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँइतना  : स०=सैतना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सइन  : स्त्री० [सं० संधि] नाणी का वृण।नासूर। स्त्री०=सेना (फौज)।
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सइना  : स्त्री०=सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सइयाँ  : पुं०=सैयाँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सइयो  : स्त्री० [सं० सखी] सखी। सहेली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सइल  : स्त्री०=सैल। पुं०=शैल। वि०=सरल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सइवर  : पुं०=सेवार।
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सई  : स्त्री० [सं० सरस्वती] सरस्वती नदी। स्त्री० १. =सखी। २. =सती। स्त्री० [अ०] कोशिश। प्रयत्न। स्त्री० [?] बुद्धि। बरकत। उदा०—खन मृग सबर। निसाचर सब की पूँजी बिनु बाढ़ी सई।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सईकंटा  : पुं० [ ?] एक प्रकार का पेड़।
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सईद  : वि० [अ०] १. शुभ। मांगलिक। २. उत्तम। भला।
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सईस  : =साईस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सउँ  : अव्य०=सों।
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सउखा  : पुं०=शौक।
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सउजा  : पुं०=साउज (शिकार) पुं०=सौंजा।
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सउत  : स्त्री०=सौत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सउतेला  : वि०=सौतेला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँउपना  : स०=सौंपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सऊँ  : वि०=सौ (संख्या)। स्त्री०=संक्रान्ति। जैसा—मकर सऊ=सकर संक्रन्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सऊदी अरब  : पुं० मध्य अरब का एक आधुनिक राज्य जो पहले हिजाज कहलाता था और इसकी राजधानी मक्का है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सऊर  : पुं०=शऊर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सऊँस  : वि० [?] सब। सारा। उदा०—सऊँस अयोध्या में राम जी दुलरुआ।—लोकगीत।
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सऊँह  : अव्य०=सौंह (सामने)।
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संक  : स्त्री०=शंका।
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सक  : पुं० [सं० शाका] १. वीरता का कार्य। साका। २. शक्ति का आतंक। धाक। मुहा—सक बाँधना=अपने प्रभुत्व, बल आदि की धाक जमाना। ३. मर्यादा। सीमा। क्रि० प्र०—बाँधना। स्त्री० [शक्ति] १. ताकत। बल। २. सामर्थ्य। पुं० शक (संदेह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकट  : पुं० [सं० सम√ कट् (बरसना या ढकना)+अच्] १. सँकरा रास्ता। तंग राह। २. विशेषतः जल या स्थल के दो भागों को जोड़नेवाला तंग रास्ता। जैसा—गिरि-संकट,जल-संकट, स्थल-संकट। ३. दो पहाड़ों के बीच का रास्ता। दर्रा। ४. ऐसी स्थिति जिसमें दोनों ओर कष्टों या विपत्तियों का सामना करना पड़ता हो और बीच में निश्चितता या सुखपूर्वक रहने के लिए बहुत ही थोड़ा अवकाश रह गया हो। ५. आफत। विपत्ति। वि० सँकरा। जैसा—संकट मुख।
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सकट  : पुं० [सं० अव्य० स०] शाखोट वृक्ष। सिंहोर। पुं० [सं० शकट] [अल्पा० सकटी] छकड़ा। गाड़ी।
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संकट-चौथ  : स्त्री० [सं० सकंट+हिं० चौथ] माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी।
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सकट-चौथ  : स्त्री०=सकट चौक (गणेश चौथ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकट-मुख  : वि० [सं०] जिसका मुँह सँकरा हो।
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संकट-संकेत  : पुं० [सं० ष० त०] विपत्ति या संकट में पड़े हुए लोगों का वह सांकेतिक संदेश जो आस-पास के लोगों को अपनी रक्षा या सहायता के लिए भेजा जाता है (एस० ओ० एस) जैसा—डूबते या जलते हुए जहाज का संकट-संकेत।
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संकटा  : स्त्री० [सं० संकट-टाप्] १. एक प्रसिद्ध देवी जो संकट या विपत्ति का निवारण करनेवाली मानी जाती है। २. फलित ज्योतिष में अष्ट योगिनियों में से एक।
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सकटान्न  : पुं० [सं० अव्य० स०] ऐसे व्यक्ति का अन्न जिसे किसी प्रकार का अशौच हो। ऐसा अन्न आग्राह्य कहा गया है।
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संकटापन्न  : भू० कृ० [सं० द्वि० त०] १. संकट या कष्ट में पडा हुआ। २. संकटपूर्ण।
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सकटी  : स्त्री० [सं० शकट] छोटा सग्गण। सगड़ी।
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सकड़ी  : स्त्री=सिकरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकत  : पुं० =संकेत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकत  : स्त्री० [सं० शक्ति] १. बल। शक्ति। २. सामर्थ्य। ३. धन-सम्पत्ति। अव्य० जहाँ तक हो सके। भर-सक। यथा-साध्य। वि०, पुं०=शाक्त।
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सकता  : स्त्री० [सं० शक्ति] १. शक्ति। ताकत। बल। २. सामर्थ्य। बूता। पुं० [अ० सकतः] १. बेहोशी या मूच्र्छा नाम का एक रोग। २. भौचक्कापन। स्तब्धता। ३. पद्य के चरणों में होमे वाली यति। विराम। क्रि० प्र०—पड़ना।
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सकति  : स्त्री०=शक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) लपुं०=शाक्त।
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सकती  : सत्री०=शक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकन  : पुं० [देश०] १. लता। २. कस्तूरी। मुश्कदाना। अव्य० [सं० स०+कर्ण] कान लगाकर। उदा०-जदि तोहे चंचल सुनह सकन भए अपना धधन काए। विद्यापति।
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संकना  : अ० [सं० शंका] १. शंका करना। संदेह करना। २. आशंकित या भयभीत होना। डरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकना  : अ० [सं० शक या वाक्य] कोई काम करने में समर्थ होना। करने योग्य होना। जैसे—कह सकता, खा सकना, जा सकना, बैठ सकना आदि। अ० [सं० शंका, हि० सकना=शंका करना] १. शंका के कारण घबराना, डरना या संकोछ करना। उदा०—सूखे से, श्रम से, सबक के से, थके से, भूलेसे, भमे से, भभर से, भकआने से। रत्नाकर। २. दे० ‘सकाना’।
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सकपक  : स्त्री० [अनु०] सकपकाने की क्रिया, अवस्था या भाव।
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सकपकाना  : अ० [अनु० सकपक] १. चकित होना। चकपकाना। २. आगा-पीछा करना। हिचकना। ३. लज्जित होना। शरमाना। ४. संकोच करना। स० १. चकिच करना। २. असमंजस या दुविधा मे डालना। ३. लज्जित या संकुचित करना।
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संकर  : वि० [सं० सम्√ कृ (फेंकना)+अप्] १. दो या अधिक भिन्न भिन्न तत्त्वों या पदार्थों के मेल से बना हुआ। जैसा—संकर राग। २. दो अलग अलग जातियों, वर्णों के जीवों या प्राणियों के संसर्ग से उत्पन्न। दोगला। पुं० १. अलग अलग की दो चीजों का आपस में मिलकर एक होना। २. वह जिसकी उत्पत्ति भिन्न-भिन्न वर्गों या जातियों के पिता और माता से हुए हो। दोगला। ३. साहित्य में ध्वनि का वह प्रकार या भेद जिसमें एक ही आश्रय से कई अभिप्राय या ध्वनियाँ निकलती हों। जैसा—प्रिय के आने पर तीन स्तनों और चंचल तथा विशाल नेत्रोंवाली नायिका द्वार पर मंगल कलश और कमलों से वंदनवार का काम बिना आयाम के ही संपादित कर रही थी। यहाँ स्तनों से कलशों और नेत्रों से कमलों के वंदनवार का भी भाव निकलता है। ४. साहित्य में दो या अधिक अलंकारों के इस प्रकार एक साथ और मिले-जुले रहने की अवस्था जिसमें या तो वे एक दूसरे से अलग न किए जा सकें या जिनका उस प्रसंग में स्वतंत्र रूप सिद्ध न हो सके। (काम्मिक्सचर) उदाहरणार्थ—यदि किसी वर्णन में दो या अधिक अंलकार समान रूप से घटित होते हों तो उन्हें संकर कहा जायगा। इसकी गणना स्वतंत्र अलंकार के रूप में होती है। ५. न्याय के अनुसार किसी एक ही स्थान या पदार्थ में अत्यंताभाव और समानाधिकरण का एक ही में होना। जैसा—मन में मूर्तत्व तो हैं, पर भूतत्व नहीं है और आकाश में भूतत्त्व हैं, पर मूर्तत्व नहीं है। परन्तु पृथ्वी में भूतत्व भी है और मूर्तत्व भी है। ६. झाडू देने पर उड़नेवाली धूल। ७. आग के जलने का शब्द। पुं०=शंकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकर घरनी  : स्त्री० [सं० संकर+गृहणी] शंकर की पत्नी, पार्वती।
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संकर समास  : पुं० [सं०] व्याकरण में दो ऐसे सब्दों का समास जिनमें से एक शब्द किसी एक भाषा का और दूसरा किसी दूसरी भाषा का हो।
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सकर-खड़ी  : स्त्री [फा० शकर+हिं० खाँड़] १. लाल और बिना साफ की हुई चीनी। खाँड़। शक्कर।
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संकर-पद  : पुं० [सं०] भाषा में ऐसा समस्त पद जो विभिन्न स्रोतों या भाषाओं के शब्दों के योग से बना हो।
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संकरक  : वि० [सं० संकर+कन्] १. मिलाने या मिश्रण करनेवाला। २. संकर रूप में लानेवाला।
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सकरकंदी  : स्त्री=शकरकंद।
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संकरखण  : पुं०=संघर्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरण  : पुं० [सं०] १. संकर या मिश्रित करने की क्रिया या भाव। २. दो भिन्न भिन्न जातियों या वर्गों के प्राणियों, वनस्पतियों आदि का संयोग करा के किसी अच्छी या नई जाति का प्राणी या वनस्पति उत्पन्न करने की क्रिया, प्रणाली या भाव। (क्रास ब्रीडिंग)
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संकरता  : स्त्री० [सं० संकर+तल्+टाप्] १. संकर होने की अवस्था, धर्म या भाव। सांकर्य। २. दोगलापन।
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सकरना  : अ० [फा० शकर+हिं० खाँड़] १. सकारा जाना। स्वीकृत या अंगी कृत होना। मंजूर होमा। जैसे—हुंडी सरकना। २. माना जाना। जैसै०—दाम या द्न सरकना। संयो० क्रि०—जाना।
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सकरपाला  : पुं०=शकर-पारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँकरा  : वि० [सं० संकीर्ण] [स्त्री० सँकरी] १. (रास्ता) जिसकी चौड़ाई कम हो। २. (वस्त्र) जो पहनने पर कस जाता हो या जो बहुत मुश्किल से पहना जाता हो। तंग। पुं० कठिनता, विपत्ति आदि की स्थिति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० श्रृंखला] सिक्कड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरा  : पुं०=शंकराभरण (राग)।
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सकरा  : वि० १.=सँकरा। २. =सखरा।
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सँकराना  : स० [हि० सँकरा+आना (प्रत्यय)] संकुचित करना। तंग करना। स० [हिं० साँकल] अन्दर बन्द करके बाहर से साँकल लगाना। अ० सँकरा या तंग होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरित  : भू० कृ० [सं० संकर+इतच्] किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ।
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संकरिया  : पुं० [सं० संकर] एक प्रकार का हाथी।
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सकरिया  : स्त्री० [फा० शकर] लाल शकरकंद। रतालू।
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संकरी (रिन्)  : पुं० [सं० संकर+इनि] वह जो भिन्न वर्ण या जाति के पिता और माता से उत्पन्न हो। संकर। दोगला। स्त्री०=शंकरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरीकरण  : पुं० [सं० संकर+च्वि√ कृ (करना)+ल्युट-अन] १. दो या अधिक अलग अलग जातियों, जीवों पदार्थों आदि के योग से नया जीव या पदार्थ उत्पन्न करने की क्रिया। २. धर्म-शास्त्र में नौ प्रकार के पापों में से एक जो जातियों या प्राणियों में वर्ण-संकरता उत्पन्न करने से लगता है।
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सकरुंड  : पुं० [गुज०] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी पत्तियों आदि का व्यवहार औषधि के रूप में होता है।
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सकरुण  : वि० [सं० अव्य० स०] जिसे करुणा हो। दयाशील।
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सकर्ण  : पुं० [सं०] वह जो सुनता या सुन सकता हो। वि० जिसके कान हों कामो वाला।
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सकर्मक  : वि० [सं०] १. जो किसी के कर्म से युक्त हो। पदः सकर्मक क्रिया। (देखें)। २. जो किसा प्रकार का कर्म या क्रिया कर रहा हो। क्रियाशील। उदा०—प्रस्फुटित उत्तर मिलेते, प्रकृति सकर्मक रही समस्त।—कामायनी।
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सकर्मक क्रिया  : स्त्री० [सं०] व्याकरण में दो प्रकार की क्रियाओं में से वह क्रिया जिसका कार्य उसके कर्म पर समाप्त होता हो। जैसे-खाना देना, माँगना, रखना आदि।
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संकर्षण  : पुं० [सं०] १. अपनी ओर खींचने की क्रिया या भाव। २. खेत में हल जोतना। ३. ग्यारह रुद्रों में से एक रुद्र। ४. श्रीकृष्ण के भाई बलदेव का एक नाम। ५. वैष्णवों का एक संप्रदाय जिसके प्रवर्तक निम्बार्क जी थे। ६. कानून में अधिकार, उत्तरदायित्व आदि के विचार से किसी वस्तु या व्यक्ति के स्थान पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति का रखा या नाम चढ़ाया जाना (सबरोगेशन)।
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संकर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं०√ कृष् (खींचना)+णिनि अथवा संकर्ष+इनि] १.खींचने या खींचकर मिलानेवाला। २. छोटा करनेवाला।
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संकल  : पुं० [सं० सम्√ कल् (गणना करना)+अच्] १. दो या अधिक चीजों को एक में मिलाना। २. इकट्ठा करना। संकलन। ३. गणित में जोड़ या योग नाम की क्रिया। ४. पश्चिमी पंजाब की एक प्राचीन पहाड़ी और उसके आस-पास का स्थान (आजकल का सांगला)। स्त्री० [सं० श्रृंखला] साँकल। सिकड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकल  : वि० [सं०] सब। समस्त। कुल। पुं० १. निर्गुण ब्रह्मा और सगुण प्रकृति। २. दर्शन शास्त्र के अनुसार तीन प्रकार के जीवों में से पशुवर्ग के जीव। ३. रोहित घास या तृण।
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संकलन  : पुं० [सं० सम्√ कल्+ल्युट-अन] [भू० कृ० संकलित] १. एकत्र करने की क्रिया। संग्रह करना। जमा करना। २. काम की और अच्छी चीजें चुनकर एक जगह एकत्र करना। ३. कोई ऐसी साहित्यिक कृति जिसमें अनेक ग्रन्थों या स्थानों से बहुत सी बातें इकट्ठी करके रखी गई हों। (कम्पाइलेशन)। ४. ढेर। राशि। ५. गणित में योग नाम की क्रिया। जोड़।
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संकलप  : पुं०=संकल्प।
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संकलपना  : स० [सं० संकल्प+हिं० ना (प्रत्यय)] १. किसी बात या संकल्प या दृढ़ निश्चय करना। २. धार्मिक रीति से संकल्प या मंत्रपाठ करते हुए कोई चीज दान करना। इस प्रकार छोड़ देना मानों संकल्प करके दान कर दिया हो। उदाहरण—सुख संकलपि दुख सांबर लीन्हेंऊँ—जायसी। ४. मन में किसी बात की कल्पना या विचार करना। सोचना।
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संकला  : पुं० [सं० शाक] शाक द्वीप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकलात  : पुं० [?] [वि० सकलाती] १. ओढ़ने की रजाई। दुलाई। २. उपहार। भेंट। ३. सौगात। मखमल नाम का कपड़ा।
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सकलाती  : वि० [हिं० सकलात] १. जो उपहार या भेंट के रूप में दिया जा सके। २. अच्छा। बढ़िया।
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सँकलाना  : स० [हिं० संकल्पना] १. धार्मिक वृत्ति से संकल्प या मंत्रपाठ करते हुए दान करना। उदाहरण—जब मेरे बाबा सँकलाए हे होइबों तोहारि।—लोकगीत।
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संकलित  : भू० कृ० [सं० सम्√ कल्+क्त] १. जिसका संकलन हुआ हो। २. जो संकलन की क्रिया से बना हो। ३. चुन या छांटकर इकट्ठा किया हुआ। ४. (राशियों या संख्याएँ) जिसका जोड़ लगाया गया हो। ५. इकट्ठा या एकत्र किया हुआ। ६. जो थोडा-थोड़ा करके बढ़ा या इकट्ठा होकर एक हो गया हो (एग्रिगेट)।
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सकली  : स्त्री० [डिं०] मत्स्य। मछली।
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संकलेंदु  : पुं० [सं०] पूर्णिमा का चाँद। पूरा चाँद।
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संकल्प  : पुं० [सं० सम√ कृप्+घञ्, र-ल] १. कोई कार्य करने की इच्छा जो मन में उत्पन्न हो। विचार। इरादा। २. कोई कार्य करने का मन में होनेवाला दृढ़ निश्चय। ३. सभा-समिति में किसी विषय में विचारपूर्वक किया हुआ पक्का निश्चय (रिजोल्यूशन) ४. धार्मिक क्षेत्र में, दान, पुण्य या और कोई देवकार्य आरंभ करने से पहले एक निश्चित मंत्र का उच्चारण करते हुए अपना दृढ़ निश्चय या विचार प्रकट करना। ५. वह मंत्र जिसका उच्चारण करते हुए उक्त प्रकार का निश्चय या विचार कार्य-रूप में परिणत किया जाता है। मुहावरा—(कोई चीज) संकल्प करना=दान करना या दान करने का दृढ़ निश्चय करना।
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संकल्प  : वि० [सं० सम√कल्+ण्यत्, वृद्धयभाव] जिसका संकलन होने को हो या हो सकता हो। २. जो थोड़ा या युक्त किया जाने को हो। योग्य।
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संकल्पक  : वि० [सं० संकल्प+कन्] संकल्प करनेवाला।
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संकल्पना  : स्त्री० [सं०] १. संकल्प करने की क्रिया या भाव। २. शब्द, प्रतीक आदि का लगाया हुआ सामान्य से भिन्न विचारपूर्ण तथा बौद्धिक अर्थ (कन्सेपशन) ३. धारणा। ४. इच्छा। स०=संकल्पना।
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संकल्पा  : स्त्री० [सं० संकल्प+टाप्] दक्ष की एक कन्या जो धर्म की भार्या थी।
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संकल्पित  : भू० कृ० [सं० संकल्प+इतच्] १. संकल्प किया हुआ। २. निश्चयपूर्वक स्थिर किया हुआ। ३. जिसकी संकल्पना की गई हो।
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संकष्ट  : पुं० [सं०] संकट (कष्ट)।
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सकस  : पुं०=शख्स।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकसकाना  : अ० [अनु०] बहुत अधिक डरना या डर कर काँपना।
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सकसना  : अ० [सं० शमका, हिं० सकना] १. भयभीत होना। डरना। २. अड़ना। ३.धँसना। उदा०—निकसे सकसिन न बचन भयौ हिचकिनी गहवर भर।—रत्नाकर।
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सकसाना  : स० [अनु०] भयभीत करना। डराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संका  : स्त्री०=शंका।
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सका  : पुं०=सक्का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकाकुल  : पुं० [सं० शकाकुल] १. एक प्रकार का कंद जिसे अंबर कंद कहते हैं। २. एक प्रकार का शतावर। ३. सुधा-मूली।
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सकाकोल  : सं० [अव्य० स०] मनु के अनुसार एक नरक का नाम।
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संकाना  : अ० [सं० शंका] १. शंकित होना। २. भयभीत होना। डरना। स० १. शकित करना। भयभीत करना। २. डराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकाना  : अ० [सं० शंका, हिं० सकना] १. मन में संका या संदेह करना। २. संशंकित होकर पीछे हटना। आगे बढ़ने से हिचकिचाना। उदा०—क्षत्रिय तनु धरि समर सकाना।—तुलसी। ३. भयभीत होना। डरना। उदा०—सोच कबै सकाई कहा करिहै कमलासन।—रत्नाकर। ४. मन में दुःखी होना। उदा०—सुनि मुनिवर क् पुरुष वचन, कछु भूप सकाए। रत्नाकर। स० हिं० ‘सकना’ का सकर्मक और प्ररणार्थक रूप। जैसे—सके तो सकाओ, नहीं तो छोड़ दो। (परिहास)
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सकाम  : वि० [सं० अव्य० स०] जिसके मन में कोई कामना या इच्छा हो। २. जिसकी कामना या इच्छा पूरी हो गई हो। सफल मनोरथ। ३. मैथुन या संभोग की इच्छा रखने वाला। कामी। ४. प्रेम करने वाला। प्रेमी। ५. स्वार्थ साधन की भावना से काम करने वाला।
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सकाम-निर्जरा  : स्त्री० [सं० ब० स०] जैन धर्म में चित्त की वह वृत्ति जिसमें बहुत अधिक छति होने पर भी शत्रु को परम शान्ति पूर्वक क्षमा कर दिया जाता है।
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सकामा  : स्त्री० [सं० अव्य० स०] ऐसी स्त्री जो मैथुन की इच्छा रखती हो। कामवती स्त्री।
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सकामी (मिन्)  : वि० [सकाम+इनि] १. जिसे किसी प्रकार की कामना हो। कामनायुक्त। वासनायुक्त। २. कामुक। विषयी।
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संकाय  : स्त्री० [सं०] उच्च कोटि के अध्ययन के लिए ज्ञान-विज्ञान आदि का कोई विशिष्ट विभाग या शाखा (फैकल्टी)।
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संकायाध्यक्ष  : पुं० [सं०] आज-कल विश्वविद्यालयों में किसी संकाय का प्रधान अधिकारी (डीग ऑफ़ फ़ैकल्टी)।
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संकार  : पुं० [सं० सम√ कृ (करना)+घञ्] १. कूड़ा-करकट। २. वह धूल जो झाड़ू से उड़े। ३. आग के जलने का शब्द। स्त्री० [हिं० सँकारना] १. सँकारने की क्रिया या भाव। २. इशारा संकेत।
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सकार  : पुं० [सं० स+कार] १. ‘स’ अक्षर। २. ‘स’ वर्ण की यी उससे मिलती जुलती ध्वनि। जैसे—उस समय किसी के मुँह से सकार भी न निकाला। स्त्री० [हिं० सकारना] सकार अर्थात स्वीकृत करने की क्रिया या भाव। स्वीकृति। (ऐक्सेप्टेन्स)
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सँकारना  : स० [हिं० संकार+ना (प्रत्यय)] संकेत करना। इशारा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकारना  : स० [सं० स्वीकरण] [भाव० सकारा] १. स्वीकृत करना। मंजूर करना। २. महाजनी बोलचाल में हुंडी की मिती पूरी होने के एक दिन पहले हुंडी देखकर उसपर हस्ताक्षर करना। और रुपये चुकाने का उत्तरदायित्व मानना। (आँनरिंग आफ ए ड्राफ्ट)
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सँकारा  : पुं०=सकारा (प्रातःकाल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकारा  : पुं० [हिं० सकारना] १. सकारने की क्रिया या भाव। २. महाजनी लेन-देन में वह धन जो हुंडी सकारने और उसका समय फिर से बढाने में किया जाता है। पुं० [सं० सकाल]=सकाल (सबेरा)।
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सकारात्मक  : वि० [सं०] १. (उत्तर या कथन) जो सहमति या स्वीकृति का सूचक हो। नकारात्मक के विपरीत। (एफर्मेंटिव) २. जिसका कोई निश्चित मान या स्थिर स्वरूप हो। निश्चयी। (पाजिटिव)
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सकारी  : पुं० [हिं सकारना] वह जो कोई हुंडी सकारता हो। या जिसके नाम को हुंडी लिखी गई हो। (ड्राई)
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सकारे  : अव्य० [सं० सकाल] १. प्रातःकाल। सबेरे। तड़के। २. नियत समय से कुछ पहले ही। जल्दी।
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सकालत  : स्त्री० [अ०] १. सकील या गरिष्ठ होने की अवस्था या भाव। गरिष्ठता। २. गुरुता। भारीपन।
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संकाश  : वि० [सं० सम√ काश् (प्रकाश करना)+अच्] समस्त पदों के अंत में सदृश्य या समान। जैसा—अग्निसंकाय। पुं० १. प्रकाश। रोशनी। २. चमक। दीप्ति। अव्य० १. सदृश। समान। २. पास। समीप।
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सकाश  : अव्य० [सं० अव्य० स०] पास। निकट। समीप।
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संकास  : वि० पुं० अव्य०=संकाश।
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सकिया  : स्त्री० [?] एक प्रकार की बड़ी गिलहरी जिसके पंख काले होते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकिलना  : अ० [हिं०] १. फिसलना। सरकना। २. सिकुड़ना। सिमटना। ३. कुछ कर सकने योग्य या समर्थ होना। ४. (कार्य) पूरा होना।
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संकिस्त  : वि० [सं० संकृष्ट] जो अधिक चौडा न हो। सँकरा। तंग।
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सकीन  : पुं० [देश०] एक प्रकार का जंतु।
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संकीर्ण  : वि० [सं० सम√ कृ+क्त] [भाव० संकीर्णता] १. जो अधिक चौड़ा या विस्तृत न हो। संकुचित। सँकरा। २. किसी के साथ मिला हुआ। मिश्रित। ३. छोटा। ४. तुच्छ। ५. नीच। ६. वर्ण-संकर। ७. लाक्षणिक अर्थ में जो उदार न हो। जिसमें व्यापकता न हो। जैसा—संकीरण विचारधारा। पुं० १. ऐसा राग या रागिनी जो दो अन्य रागों या रागिनियों के मेल से बना हो। २. विपत्ति। संकट। ३. साहित्य में एक प्रकार का गद्य जिसमें कुछ अवृत्तगंधि का मेल होता है।
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संकीर्णता  : स्त्री० [सं० संकीर्ण+टल्-टाप्] १. संकीर्ण होने की अवस्था या भाव। २. नीचता। ३. ओछापन। क्षुद्रता।
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संकीर्तन  : पुं० [सं० सम√ कीर्त (वर्णन करना)+ल्युट-अन] १. भली-भाँति किसी की कीर्ति का वर्णन करना। २. ईश्वर देवता आदि का नाम जपना या यश गाना। कीर्तन।
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सकील  : वि० [अ०] [भाव० सकालत] १. जो हजम न हो। गरिष्ठ। गुरुपाक। २. भारी। वजनी।
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सकुच  : स्त्री०—संकोच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संकुचक  : वि० [सं०] संकुचित करने या सिकोड़नेवाला। पुं० कुछ ऐसी मछलियाँ जो सिकुड़कर छोटी और फैलकर बड़ी हो सकती हैं।
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संकुचन  : पुं० [सं० सम√ कुच् (संकुचित होना)+ल्युट-अन] १. संकुचित करने या होने की क्रिया या भाव। सिकुड़ना। २. एक प्रकार का बाल ग्रह रोग।
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संकुचना  : अ०=सकुचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुचाई  : स्त्री० [सं० संकोच, हिं० सकुच+आई (प्रत्य०)] १. सकुचित होने की क्रिया या भाव। २. संकोच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुचाना  : अ० [सं० संकोच, हिं० सकुच+आना (प्रत्य०)] १. संकोच करना। लज्जा करना। शरमाना। २. फूलों आदि का संपुचित या बंद होना। ३. सिकुड़ना। स-[हिं० सकुचाना का प्रे०] किसी को संकोच करने मे प्रवृत्त करना। लज्जित करना।
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संकुचित  : भू० कृ० [सं० सम्√ कुच् (संकोच करना)+क्त] १. जिसमें संकोच हो। संकोच। युक्त। लज्जित। जैसा—संकुचित दृष्टि। २. सिकुड़ा या सिकोड़ा हुआ। ३. तंग। सँकरा। संकीर्ण। ४. जिमसें उदारता का अभाव हो। अनुदार।
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सकुची  : स्त्री० [सं० शकुल मत्स्य] एक प्रकार की मछली जो साधारण मछलियों से भिन्न और प्रायः कछुए की आकार की होती है। इसके चार छोटे-छोटे पैर होते हैं। और एक लंबी पूँछ होती है। इसी पूँछ से यह शत्रु पर आघात करती है। जहाँ पर इसकी चोट लगती है, वहाँ घाव हो जाता है, और चमड़ा सड़ने लगता है। यह स्थल में भी रह सकती है।
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सकुचीला  : वि० [हि० सकुच+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० सकुचीली] जिसे अधिक और प्रायः संकोच होता हो। संकोच करने वाला। शरमीला।
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सकुचीली  : वि० [हिं० सकुचीला] लजवंती। लज्जावती लता।
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सकुचौहाँ  : वि० [सं० संकोच+हिं० औहाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० सकुचौहीं] अधिक और प्रायः संकोच करने वाला। लजीला।
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सकुड़ना  : अ०=सिकुड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकुड़ित  : वि०=संकुचित।
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सकुन  : पुं० [सं० शकुंत] पक्षी। चिड़िया घर। पुं०=शकुन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुनी  : स्त्री० [सं० शकुंत] चिड़िया। पक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुपना  : अ०=सकोपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संकुरना  : अ०=सिकुड़ना।
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संकुल  : वि० [सं० सम√ कुल् (इकट्ठा होना)+क] [भाव० संकुलता] १. संकुलित ।। धना। २. भरा हुआ। पूर्ण। ३. पूरा। सारा। समूचा। पुं० १. युद्ध। समर। २. झुंड। दल। ३. जन-समूह। भीड़। ४. जनता। ५. असंगत वाक्य। ६. ऐसे वाक्य जो परस्पर विरोधी हो।
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सकुल  : पुं० [सं० कर्म० स०] अच्छा कुल। उत्तम कुल। ऊँचा खानदान। पुं०=सकुची (मछली)।
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सकुलज  : वि० [सं० सकुल√जन् (उत्पन्न करना)+ड] एक ही कुल में उत्पन्न (दो या अधिक व्यक्ति)।
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संकुलता  : स्त्री० [सं० संकुल+तल्+टाप्] संकुल होने की अवस्था या भाव।
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सकुला  : पुं० [सं० सकुल-टाप] बौद्ध भिक्षुओं का नेता या सरदार।
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सकुलादनी  : स्त्री० [सं० ब० स०] महाराष्ट्री या मेरठी नाम की लता। २. कुटकी।
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संकुलित  : भू० कृ० [सं० संकुल+इतच्, अथवा सम√ कुल् (इकट्ठा होना)+क्त वा] १. घना किया हुआ। २. भरा हुआ। ३. पूरा किया हुआ। ४. इकट्ठा किया हुआ।
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सकुली  : स्त्री०=सकुची (मछली)।
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सकुल्य  : वि० [सं० सकुल+यत] (दो या अधिक) जो एक ही कुल में उत्पन्न हुए हों।
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संकुष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√ कृष् (खींचना)+क्त] १. खींचकर नजदीक लाया हुआ। २. एक साथ किया हुआ।
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सकूँकर  : पुं० [रूमी सकन्कुर] गोह की तरह एक लाल रंग का जंतु। इसका माँस बहुत बलवर्धक माना जाता है। इसे रेत की मछली या रेगमाही भी कहते हैं।
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सकूतरा  : पुं० [?] एक द्वीप जो अरब सागर में अफ्रीका के पूर्वीतट के समीप है। यहाँ मोती और प्रवाल अधिक मिलतें हैं।
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सकूनत  : स्त्री० [अ०] रहने का स्थान। निवास स्थान। पता। जैसे—वहाँ वल्दियत और सकूनत भी पूछी जाती है।
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सकृतप्रजा  : स्त्री० [सं०] १. बंध्य रोग। बाँझपन। शेर या सिंह की मादा। शेरनी।
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सकृतफल  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सकृतफला] (पौधा या वृक्ष) जो एक ही बार फलता हो। जैसा—केला।
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सकृतस  : वि० स्त्री० [सं० सकृत√षु (उत्पन्न करना)+क्विप] (स्त्री) जिसने अभी बालक प्रसव किया हो।
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सकृत्  : अव्य० [सं०] १. एक बार। एक मरतबा। २. सदा। हमेशा। ३.सहित। साथ। उदा०—जँह तँह काक उलूक, बक, मानस सकृत मराल।—तुलसी। पुं० गुह। मल। विष्ठा। २. कौआ।
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सकृत्प्रज  : वि० [सं०] जिसे एक ही बच्चा हो। पुं० कौआ।
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सकृदागामी मार्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] बौद्ध मतानुसार एक प्रकार का धार्मिक मार्ग जिसमें जीव केवल एकबार जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करता है।
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सकृद्  : अव्य० [सं० सकृत् का वह रूप जो उसे समस्त पदों के पहले लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—सकृदग्रह।
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संकृष्टि  : स्त्री०=संकर्षण।
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संकेत  : वि०=संकरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=संकेत।
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संकेत  : पुं० [सं० सम्√ कित् (बहाना)+घञ्] १. चिन्ह। निशा। २. वह चीज जो किसी को किसी प्रकार की निशानी या पहचान के लिए दी जाय (टोकन)। ३. ऐसी शारीरिक चेष्टा जिससे किसी पर अपना उद्देश्य, भाव या विचार प्रकट किया जाय। इंगित। इशारा। जैसा—आँख या हाथ से किया जानेवाला संकेत। ४. कोई ऐसी बात या क्रिया जो किसी विशेष और बँधी हुई बात या कार्य की सूचक हो। ५. किसी घटना, प्रसंग आदि पर प्रकाश डालनेवाली कोई बात। प्रतीक। ६. संकेत स्थल (दे०)।
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सकेत  : पुं० [सं० संकेत] १. संकेत। इशारा। २. प्रेमी और प्रेमिका के मिलने का कोई एकांत स्थान। वि० [सं० संकीर्ण] सँकरा। संकीर्ण। पुं० १. संकट की स्थिति। २. कष्ट। दुःख। उदा०—खिनहीं उठै खिन बूड़ै, अस हिं० कँवल सकेत।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकेत-ग्रह  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में शब्द की अभिधा शक्ति से ग्रहण किया जाने अथवा निकलनेवाला अर्थ। बिंबग्रहण से भिन्न।
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संकेत-चित्र  : पुं० न ऐसा चित्र जिसमें प्रतीक के सहारे कोई बात दिखाई गई हो।
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संकेत-चिन्ह  : पुं० [सं०] १. वह चिन्ह जो शब्द के संक्षिप्त रूप के आगे लगाया जाता है। जैसा—पुं० में का—०। २. शब्द का संक्षिप्त रूप। जैसा—मध्य प्रदेश का संकेत चिन्ह है।—म० प्र०।
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संकेत-स्थल  : पुं० [सं० ष० त०] १. साहित्य में वह स्थल जहाँ पर प्रेमी और प्रेमिका मिलते हों। २. वह स्थान जो औरों से छिपाकर कुछ लोगों ने किसी विशेष कार्य के लिए नियत या स्थिर किया हो।
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संकेतकी  : स्त्री० [सं० संकेत] आपस में व्यवहार में संक्षेप और गोपन के लिए स्थिर की हुई वह वार्ता-प्रणाली जिसमें साधारण शब्दों और पदों के लिए छोटे-छोटे सांकेतिक सब्द बना लिये जाते हैं। व्यापारिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रायः तार द्वारा समाचार और आदेश भेजने के लिए इसका उपयोग होता है। सांकेतिक भाषा (कोड)।
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संकेतन  : पुं० [सं० सम्√कित् (बहाना)+ल्युट-अन] १. संकेत करने की क्रिया या भाव। २. ठहराव। निश्चय। ३. संकेत स्थल।
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संकेतना  : अ० [सं० संकेत+हिं० ना (प्रत्यय)] संकेत या इशारा करना। स० [सं० संकीर्ण] संकट में डालना।
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सकेतना  : अ० [हिं० संकेत] संकुचित होना। सिकुड़ना। स० संकुचित करना। सिकोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संकेताक्षर  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसी लिपि-प्रणाली जिसमें वर्ण-माला के अक्षर अपने शुद्ध रूप में नही बल्कि निश्चित संकेत रूप में लिखे जाते हैं (साइफ़र)।
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संकेतित  : भू० कृ० [सं० सम्√ कित् (बहाना)+क्त, अथवा संकेत+इतच्] १. संकेत के रूप में लाया हुआ। जिसके संबंध में संकेत हुआ हो। २. ठहराया हुआ। निश्चित। ३. आमंत्रित।
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संकेतितार्थ  : पुं० [सं० संकेतित+अर्थ] शब्द या पद का संकेत रूप से निकलनेवाला अर्थ (साधारण शब्दार्थ से भिन्न)।
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सकेती  : स्त्री० [हिं० संकेत] १. कष्ट या विपत्ति में होने की अवस्था या भाव। २. कष्ट। दुःख।
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संकेंद्रण  : पुं० [सं०] १. चारों ओर से इकट्ठा करके एक केन्द्र पर लाना या स्थिर करना। २. मन के भाव या विचार किसी एक ही बात या विषय पर लाकर लगाना (कान्सेन्ट्रेशन)।
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सकेरना  : स०=सकेलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकेलंग  : पुं० [सं० सक्लिंग] एक प्रकार का ऊँचा वृक्ष जिसकी लकड़ी नरम और सफेद होती है और इमारत आदि बनाने के काम आती है।
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संकेलना  : स० [सं० संकुल] १. इकट्ठा करना। २. समेटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकेलना  : स० [सं० संकलन या सकल] १. इकट्ठा करना। जमाकरना। उदा०—जो बनिता सुत-जूथ सकेलै, हय गये विभव घनेरे।—सूर। २. बिखरे हुए काम या चीजें समेटना। उदा०—ज्यों बाजीगर स्वाँग सकेला।—कबीर। २. काम पूरा करना निपटाना।
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सकेला  : स्त्री० [अ० सैकल] एक प्रकार की तलवार जो कड़े और नरम लोहे के मेल से बनाई जाती है। पुं० [अ० सकील ?] एक प्रकार का लोहा।
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संकोच  : पुं० [सं०] १. सिकुड़ने की क्रिया या भाव। २. वह मानसिक स्थिति जिसमें भय या लज्जा अथवा साहस के अभाव के कारण कुछ करने को जी नहीं चाहता। ३. असमंजस। भागा-पीछा। ४. थोड़े में बहुत सी बातें करना। ५. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें विकास अलंकार के विरुद्ध-वर्णन होता है या किसी वस्तु का अतिशय संकोच पूर्वक वर्णन किया जाता है। ६. एक प्रकार की मछली। ७. केसर।
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सकोच  : पुं०=संकोच।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकोचक  : वि० [सं० सम√ कुच् (सिकुड़ना)+ण्वुल्-अक] १. संकोच करनेवाला। २. सिकोडऩेवाला।
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संकोचन  : पुं० [सं० सम√ कुच्+ल्युट-अन] सिकुड़ने या सिकोडऩे की क्रिया या भाव।
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सँकोचना  : स० [सं० संकोच] संकुचित करना। अ० मन में संकोच करना। असमंजस में पड़ना।
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सकोचना  : स० [सं० संकोच+हिं० ना (प्रत्य०)] संकुचित करना।सिकोड़ना अ० सकोच करना। शरमाना।
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संकोचित  : भू० कृ० [सं० संकोच+इतच्] १. संकोच युक्त। जिसमें संकोच हुआ हो। लज्जित। शरमिन्दा। पुं० तलवार चलाने का एक ढंग।
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संकोची (चिन्)  : वि० [सं० सम√कुच्+णिनि, अथवा संकोच इति] १. संकोच करनेवाला। २. सिकुड़नेवाला। ३. जिसे स्वभावतः या प्रायः संकोच होता हो। संकोचशील।
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सकोड़ना  : स०=सिकोड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोतरा  : पुं०=चकोतरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँकोपना  : अ० [सं० संकोप+हिं० ना (प्रत्य)] कोप या क्रोध करना। क्रुद्ध होना। गुस्सा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोपना  : अ० [सं० कोप+ना (प्रत्य०)] कोप करना। गुस्सा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोपित  : वि०=कुपित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकोरना  : स०=सिकोड़ना।
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सकोरना  : स०=सिकोड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोरा  : पु० [हिं० कसोरा] [स्त्री० सकोरी] मिट्टी की एक प्रकार की छोटी कटोरी। कसोरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्कर  : स्त्री०=शक्कर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्करी  : स्त्री० [सं० शर्करी] शर्करी नामक छंद।
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सक्का  : पुं० [अ० सक्कः] १. भिश्ती। माशकी। २. वह जो मशक में पानी भर कर लोगो को पिलाता फिरता हो।
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सक्त  : वि० [सं०] १. किसी के साथ लगा या सटा हुआ। संलग्न। २. आसक्त। वि०=सख्त। (कड़ा)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्त-चक्र  : पुं०[सं०] ऐसा राष्ट्र जो चारो ओर शक्ती शाली राष्ट्रो से घिरा हो। राष्ट्रचक्र।
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सक्त-मूत्र  : पुं० [सं०] चरक के अनुसार वह व्यक्ति जिसे थोड़ा-थोड़ा पेशाब होता हो।
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सक्ति  : स्त्री०=शक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्तु  : पुं० [सं० शक्तु] भुने हुए अनाज को पीसकर तैयार किया हुआ आटा। सत्तू।
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सक्तुक  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का विषाक्तफल जिसकी गाँठ में सत्तू के समान चूरा भरा रहता है।। २. सत्तू।
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सक्तुकार  : पुं० [सं०] वह जो सत्तू बनाता और बेचता हो।
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सक्तुफला  : स्त्री० [सं०] शमी। वृक्ष। सफेद कीकर।
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सक्थि  : पुं० [सं०√सज्ज् (मिलना)+ क्थिन] सुश्रुत के अनुसार एक मर्म स्थान जो शरीर के ग्यारह मुख्य स्थानों में माना गया है।
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सक्थी  : पुं० [सं० सक्थिन्-दीर्घ न लोप, सक्थिन] १. हड्डी। अस्थि। २. जंघा। जाँघ। ३. छकड़े या बैलगाड़ी का एक अंग या अंश।
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सक्र  : पुं०=शक्र (इन्द्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्र-सरोवर  : पुं० [सं० शक्र-सरोवर] इन्द्र-कुंड नामक स्थान जो व्रज में है।
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सक्रघण  : पुं० [सं० शक्रधन] इन्द्र का अस्त्र, वज्र। (ङिं०)
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संक्रंदन  : पुं० [सं० सम√क्रन्द (रोदन)+ल्युट-अन] १. शक्र। इंद्र। २. पुराणानुसार भौत्य मनु का एक पुत्र। ३. दे० ‘क्रंदन’।
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सक्रपति  : पुं० [सं० शक्रपति] विष्णु। (ङिं०)
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संक्रम  : पुं० [सं०] १. सीधी अर्थात् सामने की ओर होनेवाली गति। विक्रम का विपर्याय। २. सूर्य की दक्षिणायन गति। ३. दे० ‘संक्रमण’।
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संक्रमण  : पुं० [सं० सम√क्रम् (चलना)+ल्युट-अन] १. आगे की ओर चलना या बढ़ना। ‘विक्रमण’ का विपर्याय। २. अतिक्रमण। लाँघना। ३. घूमना-फिरना। ४. एक अवस्था में धीरे-धीरे बदलते हुए दूसरी अवस्था में पहुंचना। जैसा—संक्रमण काल। ५. एक के हाथ या अधिकार से दूसरे के हाथ या अधिकार में जाना (पासिंग)। ६. सूर्य का एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करना। ७. एक स्थिति पार करते हुए दूसरी स्थिति में जाना या पहुंचना। ८. कीटाणु, रोग आदि का फैलते हुए एक से दूसरे को होना।
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संक्रमण-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह समय जब कोई पहले रूप से बदलकर दूसरे रूप में आ रहा हो। २. दे० ‘संक्रांति’।
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संक्रमण-नाशक  : वि० [सं० ष० त०] रोग के संक्रमण से बचाने या मुक्त करनेवाला। (डिसइनफ़ेक्टैंट)
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संक्रमना  : अ० [सं० संक्रमण] संक्रमण करना या होना। जैसा—सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संक्रमिक  : वि० [सं० सम√ क्रम्+ठन्] १. जिसका संक्रमण हुआ या हो रहा हो। २. अंतरित या हस्तांतरित होनेवाला।
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संक्रमित  : भू० कृ० [सं० सम्√ क्रम्+क्त] १. जिसका या जिसमें संक्रमण हुआ हो। २. किसी में युक्त या सम्मिलित किया हुआ। जैसा—संक्रमित वाक्य। ३. किसी के अन्दर पहुँचाया या प्रविष्ट किया हुआ। ४. परिवर्तित किया या बदला हुआ।
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संक्रमिता (तृ)  : वि० [सं० सम्√क्रम्+तृच्] १. संक्रमण कनरे वाला। २. जानेवाला। गमन करनेवाला। ३. प्रवेश करनेवाला।
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संक्रांत  : पुं० [सं० सम√ क्रम् (चलना)+क्त] १. दायभाग के अनुसार वह धन जो कई पीढ़ियों से चला आ रहा हो। २. दे० ‘संक्रांति’।
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संक्रांति  : स्त्री० [सं० सम्√ क्रम् (चलना)+क्तिन्] १. सूर्य का एक राशि से दूसरे राशि में जाना। २. वह समय जब सूर्य एक राशि पार करके दूसरी राशि में पहुँचता है। ३. वह दिन जिसमें सूर्य का उक्त प्रकार का संचार होता है और इसीलिए जो हिन्दुओं में पर्व या पुण्यकाल माना जाता है। ४. अंतरण या हस्तांतरण।
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संक्राम  : पुं० [सं० सम√क्रम् (चलना)+घञ्] १. कठिनाई से गमन करना। २. दुर्गम मार्ग। ३. संक्रमण।
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संक्रामक  : वि० [सं०] १. (रोग) जो या तो रोगी के संसर्गज से या पानी हवा आदि के द्वारा भी उत्पन्न होता अथवा फैलाता हो। संसर्ग से भिन्न (कान्टेजियस)। विशेष—संक्रामक और संसर्गज रोगों का अन्तर जानने के लिए देखें संसर्गज का विशेष। २. (काम या बात) जिसके औचित्य या अनौचित्य का विचार किये बिना और केवल दूसरों की देखा देखी प्रचलन या प्रचार होता हो (कान्टेजियस)।
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संक्रामित  : भू० कृ० [सं० सम√क्रम् (चलना)+क्त] संक्रमण के द्वारा कही तक पहुँचाया हुआ।
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सक्रारि  : पुं० [सम० शक्रारि] इंद्र का शत्रु, मेघनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्रिय  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जो अपनी अथवा कोई क्रिया कर पहा हो। २. (काम) जिसमें कुछ करके दिखाया जाय। ३.जो क्रियात्मक रूप में हो। (एक्टिव)
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सक्रियता  : स्त्री० [सं०] सक्रिय होने की अवस्था या भाव। (एक्टिविटी)
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संक्रीडन  : पुं०[सं० सम्√ क्रीडा (खेलना करना)+ल्युट-अन] १. क्रीड़ा करना। खेलना। २. परिहास करना।
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संक्रोन  : स्त्री०=संक्रांति। पुं०=संक्रमण।
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संक्रोश  : पुं० [सं० सं०√ क्रुश् (चिल्लाना)+घञ्] जोर से शब्द करना चिल्लाना।
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सक्ष  : वि० [सं०] १. जिसका अतिक्रमण हो सके। जो लाँघा जा सके। २. हारा हुआ पराजित।
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सक्षम  : वि० [सं०] १. जिसमें किसी विशिष्ट कार्य क्षमता हो। क्षमता शाली। २. जो किसी विशिष्ट कार्य करने के लिए उपयुक्त और फलतः उसका अधिकारी या पात्र हो। (काम्पीटेन्ट)
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सक्षमता  : स्त्री० [सं०] सक्षम होने की अवस्था, गुण या भाव। (काँम्पीटेन्सी)
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संक्षय  : पुं० [सं० सम्√ क्षि+अच्] १. पूरी तरह से होनेवाला नाश। २. प्रलय।
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संक्षारक  : वि० [सं०√ क्षर+ण,क्षार,+कन्,सम+क्षारक] संरक्षण करनेवाला (कोरोसिव)।
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संक्षारण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संक्षारित] क्षार आदि की उत्पति या योग के कारण किसी पदार्थ का धीरे-धीरे क्षीण होकर नष्ट होना (कोरोजन)।
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संक्षालन  : पुं० [सं० सम्√ क्षल् (धोना)+णिच्-ल्युट-अन] [भू० कृ, संक्षालित] १. धोने की क्रिया। २. वह जल जो धोने नहाने आदि के काम में आता हो।
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संक्षिप्त  : वि० [सं०√ क्षिप् (फेंकना)+क्त] १. ढेर के रूप में आया या लगाया हुआ। २. जो संक्षेप में कहा या लिखा गया हो। ३. (लेख, पुस्तक आदि का वह रूप) जिसमें कुछ बातें घटाकर उसका रूप छोटा कर दिया गया हो। ४. (शब्द आदि का रूप) जो लघु हो।
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संक्षिप्त-लिपि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार की लेखन प्रणाली जिसमें ध्वनियों के सूचक अक्षरों या वर्णों के स्थान पर छोटी रेखाओं, बिन्दुओं आदि का प्रयोग करके लिपि का रूप बहुत संक्षिप्त कर दिया जाता है (शार्ट हैन्ड)। विशेष—इसमें लिपि उतनी ही जल्दी लिखी जाती है, जितनी जल्दी आदमी बोलता चलता है।
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संक्षिप्तक  : पुं० [सं० संक्षिप्त] शब्द या पद का संक्षिप्त रूप या संकेत चिन्ह। (एब्रिविएशन)।
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संक्षिप्ता  : स्त्री० [सं० संक्षिप्त—टाप्] ज्योतिष में बुध ग्रह की एक प्रकार की गति।
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संक्षिप्ति  : स्त्री० [सं० सम्√ क्षिप् (संक्षिप्त करना)+क्तिन्] नाटक में चार प्रकार की आरभटियों में से एक।
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संक्षेप  : पुं० [सं० सम√ क्षिप् (संक्षिप्त करना)+घञ्] १. थोड़े में कोई बात कहना। २. थोड़े में कही हुई बात का रूप। ३. कम करना। घटाना। ४. लेख आदि का काट-छांट कर कम किया हुआ रूप। समाहार। ५. चुंबक पत्थर।
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संक्षेपक  : वि० [सं०] १. फेंकनेवाला। २. नष्ट करनेवाला। ३. संक्षिप्त रूप में लानेवाला।
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संक्षेपण  : पुं० [सं० सम√ क्षिप् (कम करना)+ल्युट-अन] काट-छाँट कर या और किसी प्रकार संक्षिप्त (कम या छोटा) करने की क्रिया या भाव।
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संक्षेपतः  : अव्य० [सं० संक्षिप्त+तमिल्] संक्षेप में। थोड़े में।
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संक्षेपतया  : अव्य० [सं० संक्षेप+तल्-टाप्—टा] संक्षेप में। संक्षेपतः।
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संक्षोभ  : पुं० [सं० सम्√क्षृभ् (चंचल होना)+घञ्] १. चंचलता। २. कंपन। ३. विप्लव। ४. उलट-फेर। ५. अहंकार। घमंड। ६. किसी अप्रिय घटना के कारण मन को लगनेवाला गहरा आघात या धक्का (शॉक)।
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संख  : पुं०=शंख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सख  : पुं० [सं० सखि] १. सखा। मित्र। साथी। २. एक प्रकार का वृक्ष।
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संख-नारी  : स्त्री० [सं० शंखनारी] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में दो यगण (य, य) होते हैं। सोमराजी वृत्त।
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संख—दराउ  : पुं० [सं० संखद्राव] अमलबेंत।
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सखत  : वि०=सख्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखती  : स्त्री०=सख्ती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखत्व  : पुं० [सं० सख+त्व] सखा होने की अवस्था, धर्म या भाव। सखापन। मत्रता। दोस्ती।
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सखयाऊ  : पुं० [हिं० सखा] एक प्रकार का फाग जो बुन्देलखंड में गाया जाता है।
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सखर  : पुं० [सं० अव्य० स०] एक राक्षस का नाम। वि० [सं० सखर] १. तेज धार वाला। चोखा। पैना। २. प्रखर। ३. प्रबल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखरच, सखरज  : वि० [फा० शाह-खर्च] खुलकर अमीरों की तरह खर्च करने वाला। शाहखर्च। उदा०—बनिय का सरखच, ठकुरक हीन। वैदक पूत, व्याधि नहिं चीन्ह।—घाघ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सखरण  : पुं०=शिखरन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखरस  : पुं०[सख?+हिं०रस] मक्खन। नैन।
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सखरा  : वि० [हिं० निखरा का अनु] (भोजन) जिसकी गिनती कच्ची रसोई में होती हो। निखरा का विपर्याय। पुं० दे० ‘सखरी’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखरी  : स्त्री० [हिं० निखरी (अनु।)] हिंदुओं में दाल, भात, रोटी आदि, खाद्य पदार्थ जो घी में नहीं में तले या पकाए जाते और इसी लिए जो चौके के बाहर या किसी अन्य जाति के आदमी के हाथ के बनाए हुए खाने में छूत और दोष मानते हैं। ‘निखरी’ का विपर्याय। स्त्री० [सं० शिखर] छोटा पहाड़। पहाड़ी। (ङिं०)
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सखस  : पुं०=सख्स। (व्यक्ति)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सखसावन  : पुं० [?] १. पालकी। २. आराम कुर्सी। पलंग।
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सखा (खिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० सखी] १. ऐसा व्यक्ती जो सदा साथ-साथ रहता हो। साथी। संगी। २. दोस्त। मित्र। ३. सहित्य में वह व्यक्तिजो नायक का सहचर हो और जो सुख दुख में बराबर उसका साथ देता हो। ये चार प्रकार के होते हैं। पीठमर्द, विट, चेट और विदूषक।
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संखा-हुली  : स्त्री० दे० ‘शंखपुष्पी’।
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सखावत  : स्त्री० [अ०] १. सखी या दाता होने की अवस्था, गुण या भाव। दानशीलता। २. आर्थिक उदारता।
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सखिता  : स्त्री० [सं० सखी+तत्व-टाप्] १. सखी होने की अवस्था, गुण या भाव। २ बंधुता। मित्रता।
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सखित्व  : पुं० [सं० सखी+त्व]=सखिता।
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सखिनी  : स्त्री०=सखी (सखा का स्त्री०)।
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संखिया  : पुं० [सं० श्रृंगिका या श्रृंग विष] १. एक प्रकार की बहुत जहरीली प्रसिद्ध उपधातु जो प्रायः सफेद पत्थर की तरह होती है। २. उक्त धातु की भस्म। सोमल।
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सखी  : स्त्री० [सं०] १. सहेली। सहचरी। संगिनी। २. सहित्य में नायिका के साथ रहने वाली वह स्थिति जो उसकी अंतरंग संगिनी होती, सब बातों में उसकी सहायक रहती और नायक से उसे मिलाने का प्रयत्न करती है। श्रंगार रस में इसकी गणना उद्दीपन विभावों में होती है। इसके कार्य मंडन, शिक्षा, उपालंभ और परिहास कहे गये हैं। ३. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १ ४ मात्राएं और अंत में १ भगण या १ यगण होता है। इसकी रचना में आदि से अंत तक दो-दो कलें होती हैं।—२+२+२+२+२+२ और कभी-कभी २+३+३+२+२+२ भी होती हैं। और विराम ८ तता ६ पर होता है। वि० [अ० सखी] दाता। दानी। दानशील। जैसे—सखी से सूम भला जो तपरत दे जवाब। (कहावत)
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सखी संप्रदाय  : पुं० [सं०] निम्बार्क मत की एक शाखा जिसकी स्थापना स्वामी हरिदास (जन्म सम० १४ ४१ वि०) ने की थी। इसमें भक्त अपने आपको श्रीकृष्ण की सखी मान कर उसकी उपासना तथा सेवा करते और प्रयः स्त्रियो के भेष में रहकर उन्ही के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं।
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सखीभाव  : पुं० [सं० ष० त० मध्यम० स० वा] वैष्णव संप्रदाय में, भक्ती का एक प्रकार जिसमें भक्त अपने आप के ईष्टदेवता की पत्नी या सखी मानकर उसकी उपासना करते हैं। विशेष—दे० ‘सखी संप्रदाय’।
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सखुआ  : पुं० [सं० शाकः]=साखू (शाल वृक्ष)।
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सखुन  : पुं० [फा० सखुन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. उक्ति कथन। मुहा०—सखुन डालना=किसी से (क) कुछ कहना या माँगना। (ख) प्रश्न करना। पूछना। ३.कविता। काव्य। ४.किसी को दिया दाने वाल वचन। वादा। क्रि० प्र०—देना।—मिलना।
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सखुन-परवर  : पुं० [फा०] [भाव० सखुनपरवी] १. वह जो अपनी कही हुई बात का सदा पालन करता हो। जवान या बात का धनी। २. वह जो अपनी बात पर अड़ा रहता हो। हठी।
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सखुन-शनास  : पुं० [फा०] [भाव० शखुनशनासी] १. वह जो सखुन या काव्य भली-भाँति समझता हो। काव्य का मर्मज्ञ। २. वह जो बात चीत का अर्त ठीक तरह से समझता हो।
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सखुन-संज  : पं० [फा०] १. वह जो बात-चीत अच्छी तरह समझता हो। २. काव्य का मर्मज्ञ।
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सखुन-साज  : पुं० [फा०] [भाव० सखुन-साजी] १. वह जो सखुन कहता हो। काव्य रचना करने वाला। कवि। शायर। २. वह जो प्रायः झूठी नमगढ़ंत हातें कहा करता हो।
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सखुनचीन  : वि० [फा०] [भाव० सखुनचीनी] इधर की बात उधर लगाने वाला। चुगलखोर।
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सखुनतकिया  : पुं० [फा० शकुन-तकियः] वह शब्द जो वाक्यांश कुछ लोगो की जवान पर ऐसा चढ़ जाता है कि बात-चीत करने में प्रायः मुँह से निकला करता है। तकिया कलाम। जैसे—क्या नाम, जो है सो, राम आसरे आदि।
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सखुनदाँ  : [फा०] १. वह जो सखुन अर्थात काव्य अच्छी तरह समझता हो। काव्य रसिक। २. वह जो बात चीत का आशय अच्छी तरह समझता हो।
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सखुनदानी  : स्त्री० [फा०] सखुनदाँ होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सख्त  : वि० [फा० सख्त] [भाव० सख्ती] १. कठोर कड़ा। जैसे—पत्थर की तरह सख्त। २. दृढ। पक्का। ३. मुश्किल। जैसे—सख्त सवाल। ४. तीक्ष्ण। प्रखर। तेज। जैसै०—सख्त गरमी। ५. दया, ममता आदि से रहित या हीन। जैसे—सख्त दिल, सख्त बरताव। ६. बहुत अधिक। औरों से बह्तु बढ़ा हुआ। (केवल दुर्गुणों और दुर्गुणियों के संबंध मे) जैसै०—सख्त नालायकी, सख्त बेवकूफी।
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सख्ती  : स्त्री० [फा०] १. सख्त या कड़े होने की अवस्था या भाव। कड़ापन। २. व्यवहार आदि का उग्रता या कठोरता। जैसे—बिना सख्ती किये काम न चलेगा। ३. कष्ट। विपत्ति। संकट। उदा०—सख्तियाँ तो दी ही सही थीं, मैनें सारी उम्र में। एक तेरे आने से पहले एक तेरे जाने के बाद।—कोई शायर।
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सख्य  : पुं० [सं०] १. सखा होने की अवस्था या भाव। २. मित्रता। दोस्ती। ३. बराबरी। समानता। ४. वैष्णव धर्म में भक्ती का वह प्रकार या रूप जिसमें भक्त अपने ईष्टदेव को अपना सखा मानकर उसकी आराधना या उपासना करता है। (नौ प्रकार की भक्तियों में से एक)
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संख्यक  : वि० [सं० संख्य+कन्] जिसकी या जिसमें संख्या हो। संख्यावाला। जैसा—अल्प-संख्यक, बहु संख्यक।
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संख्यता  : स्त्री० [सं० संख्य+तल्—टाप्] संख्या का गुण, धर्म या भाव। संख्यत्व।
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सख्यता  : स्त्री० [सख्य+तल्—टाप]=सख्य।
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संख्या  : स्त्री० [सं० संख्या+अङ्-टाप्] १. गिनती। तादाद। २. राशि। ३. १, २, ३ आदि अंक। ४. जोड़। ५. विचार। ६. सामयिक पत्र का कोई अंक। ७. बुद्धि।
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संख्या-लिपि  : स्त्री० [सं०] वह सांकेतिक लिपि-प्रणाली जिसमें अक्षरों के स्थान पर संख्या-सूचक अंकों का प्रयोग किया जाता है।
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संख्यांक  : पुं० [सं० संख्या+अंक] गणित में कोई संख्या सूचित करनेवाला अंक। (न्यूमरल) जैसा—१ से ९ तक के अंक।
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संख्यांकन  : पुं० [सं०] पदार्थों के क्रम से संख्या-सूचक अंक लगाना या लिखना। (नम्बरिंग)
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संख्याता  : स्त्री० [सं० संख्यात-टाप्] संख्या के सहारे बनी हुई एक तरह की पहेली। वि० संख्या या गिनती करनेवाला।
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संख्यातीत  : वि० [सं० संख्या√ अत् (गमन करना)+क्त] जिसकी गणना न हो सके। बहुत अधिक। अनगिनत।
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संख्यान  : पुं० [सं० सं०√ ख्या (ख्याल होना)+ल्युट-अन] १. संख्या। गिनती। २. गिनने की क्रिया या भाव। ३. ध्यान। ४. प्रकाश।
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संख्येय  : वि० [सं० संख्या+यत्] १. जो गिना जा सके। गणनीय। २. विचारणीय।
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संग  : पुं० [सं० संङ्] १. मिलने की क्रिया। मिलन। २. साथ होने या रहने की अवस्था या भाव। सहवास। सोहबत। साथ। विशेष-संग और साथ के अंतर के लिए दे० साथ का विशेष। ३. सांसारिक विषयों या सुख-भोग के प्रति होनेवाला अनुराग आसक्ति। ४. नदियों का संगम। ५. संपर्क। सम्बन्ध। ६. मैत्री। ७. युद्ध। लड़ाई। ७. रुकावट। बाधा। क्रि० वि० साथ। हमराह। सहित। जैसा—कोई किसी के संग नहीं जाता। मुहावरा—(किसी के) संग लगना=साथ हो लेना। पीछे लगना। (किसी को) संग लेना=अपने साथ लेना या ले चलना। (किसी के) संग सोना=मैथुन या संभोग करना। पुं० [फा०] [वि० संगी, संगीन] पत्थर। पाषाण। जैसा—संगमूसा, संगमरमर। वि० पत्थर की तरह का। बहुत कठोर। बहुत कड़ा। जैसा—संग दिल।
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सग  : पुं० [फा०] कुत्ता। श्वान।
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संग-अँगूर  : पुं० [फा० संग+हिं० अंगूर] एक प्रकार की वनस्पति जो हिमालय पर होती है।
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संग-असवद  : पुं० [फा० संग+अ० असवद] काले रंग का एक बहुत प्रसिद्ध पत्थर।
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संग-खारा  : पुं० [फा० संग+खार] चकमक पत्थर।
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संग-जराहत  : पुं० [फा० संग+अ० जराहत] एक प्रकार का सफेद चिकना पत्थर।
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सग-जुबान  : पुं० [फा०] ऐसा घोड़ा जिसकी जीभ कुत्ते की जीभ के समान पतली और लंबी हो। ऐसा घोड़ा ऐबी समझा जाता है।
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संग-तराश  : पुं० [फा०] १. पत्थर काटने या गढ़नेवाला मजदूर। पत्थर कट। २. पत्थर काटने का एक प्रकार का औजार।
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संग-तराशी  : स्त्री० [फा०] संग-तराश का कार्य, पद या भाव।
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सग-पहती  : स्त्री० [हिं० साग-पहती=दाल] ऐसी दाल जो साग के समान पगाई गइ हो।
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संग-मरमर  : पुं० [फा० संग+अ० मर्मर] सफेद रंग का एक प्रकार का बहुत चिकना और मुलायम प्रसिद्ध पत्थर।
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संग-मूसा  : पुं० [फा०] काले रंग का एक प्रकार का चिकना बहुमूल्य पत्थर।
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संग-यशब  : पुं० [फा०] एक प्रकार का बहुमूल्य पत्थर जो नीले-सफेद हरे आदि रंगों का होता है। विशेष-हौलदिली इसी प्रकार की बनती है।
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संग-रासिख  : पुं० [फा०] ताँबे की मैल जो खिजाब बनाने के काम में आती है।
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संग-रोध  : पुं० [सं०] वह क्रिया या व्यवस्था जो देश में बाहर से आनेवाले किसी संक्रामक रोग को रोकने के लिए मार्ग में किसी स्थान पर की जाती है, और जिसके अनुसार यात्री आदि निरीक्षण, परीक्षण आदि के लिए कुछ समय तक रोक रखे जाते हैं (क्वारंटीन)।
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संग-सार  : पुं० [फा०] प्राचीन काल का एक प्रकार का प्राण दंड जिसमें अपराधी को पत्थरों के साथ दीवार के रूप में चुनवा दिया जाता था। वि० पूरी तरह से ध्वस्त या बरबाद किया हुआ।
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संग-सुरमा  : पुं० [फा० संग-सुर्मः] काले रंग की एक प्रकार की उपधातु जिसे पीसकर आँखों में लगाने का सुरमा बनाया जाता है।
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संगकूपी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की वनस्पति जो ओषधि के काम आती है।
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संगच्छध्वं  : अव्य० [सं०] साथ साथ चलो। उदाहरण—संगच्छध्वं के पुनीत, स्वर, जीवन के प्रति पग गाओ।—पंत।
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संगठित  : भू० कृ०=संघटित।
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सगड़ी  : स्त्री० [हिं० सग्गड़] छोटा सग्गड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगढ़  : पुं० [सं० सम√ ग्रह् (संवरण करना)+क्त] चीजों का ऐसा ढेर या राशि जिस पर सुरक्षा आदि के विचार से रेखाएँ अंकित हों।
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सगण  : पुं० [सं० अव्य० स०] छंद शास्त्र में एक गण जिसमें दो लघु और एक गुरु अक्षर होता है। जैसे—उपमा-कमला-मनसा आदि। इस गण का प्रयोग छंद के आदि में अशुभ है। इसका रूप ।।ऽ है।
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संगणन  : पुं० [सं०] १. गणना का वह गंभीर और जटिल प्रकार या रूप जिसमें साधारण गणना के सिवा अनुभवों, घटनाओं नियत सिद्धान्तों आदि का भी उपयोग किया जाता है (कम्प्यूटेशन) जैसा—फलित ज्योतिष में आँधियों, भूकंपों आदि की भविष्टवाणी संगणन के आधार पर ही होती है। २. दे० ‘अनुगणन’।
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संगणना  : स्त्री० [सं०] अभिकलन (दे०)।
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संगत  : वि० [सं०] १. किसी के साथ जुड़ा या मिला या लगा हुआ। २. इकट्ठा किया हुआ। ३. जो किसी वर्ग, जाति आगि का होने के कारण उसके साथ रखा, बैठाया या लगाया जा सका हो। ४. पूर्वापर या आस-पास की बातों के विचार से अथवा और किसी प्रकार से ठीक बैठने या मेल खानेवाला। (रेलेवेन्ट)। ५. जिसमें संगति हो। ६. किसी के साथ दाम्पत्य या वैवाहिक बंधन से बंधा हुआ। स्त्री० [सं०√ गम् (जाना)+क्त] १. संग रहने या होने का भाव। साथ रहना। सोहबत। संगति। २. साथ रहनेवालों का दल या मंडली। ३. गाने-बजानेवालों के साथ रहकर सारंगी, तबला, मँजीरा आदि बजाने का काम। क्रि० प्र०—बजाना।—में रहना। मुहावरा—संगत करना=गानेवाले के साथ ठीक तरह से तबला, सारंगी, सितार आदि बजाना। ४. गाने-बजानेवालों का दल या मंडली। उदाहरण—इधर और उधर रखके कंधे पे हाथ। चलो नाचती गाती संगत के साथ।—कोई शायर। ५. वह जो इस प्रकार किसी गाने या नाचनेवाले के साथ रहकर साज बजाता हो। ६. उदासी, निर्मले आदि साधुओं के रहने का मठ। ७. लगाव। संपर्क। संसर्ग। ८. स्त्री और पुरुष का मैथुन। संभोग (बाजारू)।
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सगत  : स्त्री० [सं० शक्ती] १. शिव की भार्या। पार्वती। (ङिं०) २. शक्ती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगत-संधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्राचीन भारतीय राजनीति में अच्छे राष्ट्र के साथ होनेवाली संधि जो अच्छे और बुरे दिनों में एक-सी बनी रहती है। कांचन संधि।
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संगतरा  : पुं०=संतरा (मीठी नारंगी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगति  : स्त्री० [सं०] [वि० संगत] १. संगत होने की अवस्था, क्रिया या भाव (कम्पैटिबिलिटी)। २. किसी के संग मिलने की क्रिया या भाव। मेल। मिलाप। मुहावरा—संगति बैठाना, मिलाना या लगाना=दो चीजों या बातों का मेल मिलाकर उन्हें संगत सिद्ध करना। ३. संग। साथ। सोहबत। ४. संपर्क। संबंध। ५. साहित्य में आगे-पीछे जानेवाले वाक्यों आदि का अर्थ के विचार से या कार्यों आदि का पूर्वापर के विचार से ठीक बैठना या मेल खाना (कन्सिस्टेन्सी)। क्रि० प्र०—बैठना।—बैठाना।—मिलना।—मिलाना। ६. कला के क्षेत्र में किसी कृति के भिन्न भिन्न अंगों की ऐसी सुसंघटित स्थिति जिसमें कहीं से कोई चीज या बात उखडती या टूटती हुई न जान पडे और उसका सारा प्रवाह या रूप कहीं से खटकता हुआ सा जान पड़े। तालमेल। सामंजस्य। (हाँर्मनी)। ७. लोक व्यवहार में आस-पास की बातों या पूर्वापर स्थितियों के विचार से सब बातों के उपयुक्त और ठीक रूप से यथा-स्थान होने की ऐसी अवस्था या भाव जिसमें कहीं परस्पर विरोधी तत्व न दिखाई देते हों। (रेलेवेन्सी)। क्रि०प्र०-बैठना।—बैठाना।—मिलना-मिलाना। ८. कोई बात जानने या समझने के लिए उसके संबंध में बार-बार प्रश्न करना। ९. जानकारी। ज्ञान। १॰. सभा। समाज। ११. मैथुन। संभोग। १२. मुक्ति। मोक्ष।
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संगतिया  : पुं० [सं० संगत+हिं०इ या (प्रत्यय)] १. गवैया या नाचनेवालों के साथ रहकर तबला, मँजीरा सारंगी आदि बजानेवाला व्यक्ति। साजिंदा। २. संगी। साथी।
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संगती  : पुं० [सं० संगत+हिं० ई (प्रत्यय)] १. वह जो साथ में रहता हो। संग रहनेवाला। २. दे० संगतिया।
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सगती  : स्त्री=शक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगथ  : पुं० [सं०] संग्राम। युद्ध।
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सगदा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का मादक पदार्थ जो अनाज में बनाया जाता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगदिल  : वि० [फा०] [भाव० संगदिली] पत्थर हो दिल जिसका। अर्थात् निर्दय।
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सगंध  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जिसमें गंध हो। गंधयुक्त। महक-दार। २. अभिमानी। घमंडी।
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सगधा  : स्त्री० [सं० सगंध-टाप्] सुगंधशालि। बासमती चावल। वि० [स्त्री० सगंधी]=सगा।
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सगधी  : वि० [सं० सगंध+इनि=संगधिन्] जिसमें गंध हो। महकदार।
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सगन  : [?] १. दे० ‘सगण’। २. दे० ‘शकुन’।
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सगनौती  : स्त्री=शकुनौती।
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सगपन  : पुं०=सगापन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगपुश्त  : वि० [फा०] जिसकी पीठ पत्थर के समान कड़ी हो। पुं० कछुआ।
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सगबग  : वि० [अनु०] १. सराबोर। लथपथ। २. पिघला हुआ। द्रवित। ३. भरा हुआ। परिपूर्ण। क्रि०—वि० १. जल्दी या तेजी से। २. चटपट। तुरंत।
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सगबगाना  : अ० [अनु० सग-बग] १. लथ-पथ होना। २. जल्दी या फुरती करता हो। ३. दे० ‘सकपकाना’।
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संगबसरी  : वि० [फा०] एक प्रकार की मिट्टी जिसमें लोहे का अंश अधिक होता है।
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सगभत्ता  : पुं० [हिं० साग+भात] एक प्रकार का भात जो चावल में साग मिलाकर पकाया जाता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगभ्य  : वि० [सं० सगर्भ+यत्]=सगर्भ।
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संगम  : पुं० [सं० सम्√ गम् (जाना)+अप्] १. दो वस्तुओं के मिलने की क्रिया या भाव। मिलाप। संयोग। मेल। २. दो धाराओं या नदियों के मिलने का स्थान। जैसा—गंगा और यमुना का संगम। ३. दो या अधिक रेखाओं आदि के एक साथ मिलने का भाव या स्थान। (जंक्शन)। ४. संग। साथ। ५. मैथुन। संभोग। ६. सम्पर्क। सम्बन्ध। उदाहरण—तेउ पुनि तिहि चलीं रँगीली तजिगृह संगम।—नन्ददास। ७. वर्तमान काल की सब बातों का ज्ञान। उदाहरण-आगम संगम निगम मति ऐसे मंत्र विचारि।—केशव। ८. ज्योतिष में ग्रहों का योग। कई ग्रहों आदि का एक स्थान पर मिलना या एकत्र होना।
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संगमन  : पुं० [सं० सम्√ गन् (जाना)+ल्युट-अन] लोगों में आपस में होनेवाला पत्राचार, मेल-मिलाप और व्यवहार। संचार (कम्यूनिकेशन)।
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संगर  : पुं० [सं० सम√ गृ (शक करना)+अप्] १. युद्ध। समर। संग्राम। २. विपत्ति। संकट। ३. प्रतिज्ञा। ४. अंगीकरण। स्त्रीकरण। ५. प्रश्न। सवाल। ६. नियम। ७. जहर। विष। ८. शमी वृक्ष का फल। पुं० [फा०] १. वह घुस या दीवार जो ऐसे स्थान में बनाई जाती है जहाँ सेना ठहरती है। रक्षा के लिए सैनिक पड़ाव के चारों ओर बनाई हुई खाँई, घुस या दीवार। २. मोरचेबन्द।
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सगर  : पुं० [सं०] अयोध्या के एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा जो रामचंद्र के पूर्वज थे। (जब इनके सौवें अश्वमेघ का घोड़ा चुराकर इंद्र पाताल ले गया था तब इनके ६ ॰॰॰॰ पुत्रों ने पाताल पहुँचने के लिए प्रथ्वी खोदी थी जिससे समुद्र की सीमा बढ़ी थी। इसीलिए समुद्र का नाम सागर पड़ा था। वि०=सगरा (सब)। पुं० [हिं० तगर] तगर का फूल या पौधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँगरा  : पुं० [फा० संग] १. कूओं के तख्ते पर बना हुआ एक छेद जिसमें पानी खींचने का पम्प बैठाया हुआ होता है। पुं०=सेंगरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगरा  : वि० [सं० समग्र] [स्त्री० सगरी] सब। तमाम। सकल। कुल। पुं० [सं० सागर] १. समुद्र। सागर। २. झील। ३.तालाब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगरेजा  : पुं० [फा० संग+रेजः] पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े। कंकड़। बजरी।
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सगर्भ  : वि० [सं० ब० स०] एक ही गर्भ में उत्पन्न। सहोदर। सगा। (भाई, बहन आदि)।
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सगर्भा  : [वि०स्त्री०[सं०सगर्भ+आ] १. (स्त्री) जिसे गर्भ हो। गर्भवती स्त्री। २. दो या कइयों में से कोई जो एक ही गर्भ में हुई हों। सहोदरा।
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संगल  : पुं० [देश] एक प्रकार का रेशम। स्त्री० [सं० श्रृंखला] १. लोहे की जंजीर या सिक्कड़। २. अपराधियों के पैरों में पहनाई जानेवाली बेड़ी।
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सगल  : वि०=सकल (सब)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगलत  : स्त्री० [हिं० सगल=सकल] १. सकल या समस्त का भाव। समस्तता। समष्टि। वि० पूरा। सारा। सब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सगला  : वि० [सं० सकल] सब। समस्त। कुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगव  : पुं० [सं०] प्रातःस्नान के तीन मुहुर्त बाद का समय जो दिन के पाँच भागों में से दूसरा है और जिसमें गौएँ दुहने के बाद चरने के लिए ले जायी जाती थीं।
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सगवती  : स्त्री० [?] खाने का माँस। गोश्त। कलिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगवाना  : स० [सं० संगर] १. हत्या करना। मरवा। डालना। २. अधिकार या वश में करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगवारा  : पुं० [सं० स्वक्, हिं० सगा] गाँव की आस-पास की और उससे संबंध रखती हुई भूमि।
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संगविनी  : स्त्री० [सं० संगव+इनि] वह स्थान जहाँ गौएँ दुहने के लिए एकत्र की जाती थीं।
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सगा  : वि० [सं० स्वक्] [स्त्री० सगी] [भाव० सगापन] १. एक ही माता से उत्पन्न। सहोदर। संबंध या रिश्ते में अपने ही कुल या परिवार का। जैसे—सगा चाचा। पुं०=सगापन। उदा०—स्वारथ को सबको सगा, जग सगला ही जाणि।—कबीर।
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सगाई  : स्त्री० [हिं० सगा+आई (प्रत्य०)] १. सगे होने का भाव। सगापन। २. घनिष्ठ पारिवारिक संबंध। नाता। रिश्ता। उदा०—देखहु लोग हरि कै सगाई। माय घरैं पुत्र धिया संग जाई।—कबीर। ३. आत्मीयता और घनिष्ता का संग-साथ। उदा०—परिहरि झूठा करि सगाई।—कबीर। (ख) सबसों ऊँची प्रेम सगाई।।—सूर। ४. बिलकुल एक से या एक वर्ग के होने की अवस्था या भाव। जैसे—बैन सगाई=वर्ण मैत्री का अनुप्रास। ५. विवाह का निश्चय। मँगनी। ६. विधवा स्त्री के साथ पुरुष का वह संबंध जो कुछ जातियों में विवाह के समान ही माना जाता हो। ७. संबंध। नाता। रिश्ता।
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संगाती  : पुं० [हि० संग+आती (प्रत्यय)] १. वह जो संग रहता हो। साथी। संगी। २. दोस्त। मित्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० पूरी तरह से ध्वस्त या बरबाद किया हुआ।
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सगापन  : पुं० [हिं० सगा+पन (प्रत्य०)] सगा होने की अवस्था या भाव।
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सगाबी  : स्त्री० [फा० सग+आबी] ऊद-बिलाव नामक जंतु।
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संगायन  : पुं० [सं० सम्√ (गान करना)+ल्युट-अन] १. साथ साथ गाना या स्तुति करना। २. प्राचीन काल में वह सभा जिसमें बौद्ध भिक्षु साथ मिलकर महात्मा बुद्ध के उपदेशों का गान या पाठ करते थे। ३.आज-कल कोई बड़ी धर्म-सभा।
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सगारत  : स्त्री० [हिं० सगा+आरत (प्रत्य०)] सगा होने का भाव या सगापन।
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संगिनी  : स्त्री० [हि० संगी का स्त्री०रूप०] १. साथ रहनेवाली स्त्री। सहचरी। २. पत्नी। भार्या।
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संगिस्तान  : पुं० [फा०] पथरीला-प्रदेश।
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संगी  : पुं० [सं० संग+हि० ई (प्रत्यय)] [स्त्री० संगिनी] १. वह जो सदा या प्रायः संग रहता हो। साथी। २. दोस्त। मित्र। स्त्री० [देश] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। वि० [फा० संग=पत्थर] पत्थर का।
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संगीत  : पुं० [सं० सम्√ गै (गाना)+क्त] मधुर ध्वनियों या स्वरों का कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार और कुछ विशिष्ट लय में होनेवाला प्रस्फुटन। यह दो प्रकार का होता है—(क) कंठ्य संगीत और (ख) वाद्य संगीत।
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संगीत-कला  : स्त्री० [सं०] गाने-बजाने की विद्या।
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संगीत-रूपक  : पुं० [सं०] आज-कल प्रायः रोडियों में प्रसारित होनेवाला एक प्रकार का छोटा नाटक या रूपक, जिसमें गीतों की प्रधानता होती है और जिसकी मुख्य कथा कहीं तो पात्रों के वार्तालाप के द्वारा और कहीं रूपक प्रस्तुत करनेवाले व्यक्ति की वार्ता से सम्बद्ध रूप में बतलाई जाती है।
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संगीत-विद्या  : स्त्री०=संगीत शास्त्र।
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संगीत-शास्त्र  : पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें गाने-बजाने की रीतियों, प्रकारों आदि का विवेचना होता है।
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संगीतक  : पुं० [सं० संगीत+कन्] १. गान, नृत्य और वाद्य के द्वारा लोगों का मनोरंजन। २. एक प्रकार का अभिनयात्मक और संगीत प्रधान नृत्य।
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संगीतज्ञ  : पुं० [सं०] संगीत (कला तथा शास्त्र) में निपुण।
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संगीति  : स्त्री० [सं० सम्√ गै (गाना)+क्तिन्] १. वार्तालाप। बातचीत। २. दे० ‘संगीत’।
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संगीतिका  : स्त्री० [सं०] पाश्चात्य शैली का ऐसा नाटक जिसका अधिकाँश संगीत के रूप में होता है। गेय नाटक। सांगीत (ऑपिरा)।
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संगीन  : वि० [फा०] [भाव० संगीनी] १. पत्थर का बना हुआ। जैसा—संगीन इमारत। २. मोटी तह या मोटे दलवाला। जैसा—संगीन पोत का कपड़ा। ३. पत्थर की तरह कठोर। ४. मजबूत। ५. घोर तथा दंडनीय (अपराध)। स्त्री० [फा०] लोहे का एक प्रकार का अस्त्र जो तिपहला और नुकीला होता है।
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संगीनी  : स्त्री० [फा०] संगीन होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सगीर  : वि० [अ०] १. छोटा। २. उमर या पद में छोटा। ३. हीन।
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सगुण  : वि० [सं०] गुण से युक्त। जिसमें गुण हों। पुं० सत्व, रज, तम तीनों गुणों से युक्त परमात्मा का वह रूप जिसमें वह अनतार धारण करके प्राणियो या मनुष्यों के से आचरण और व्यवहार करता है। साकार ब्रह्मा। ‘निर्गुण’ का विपर्याय। विशेष—मध्य युग में उत्तर भारत में भक्ति मार्ग में दो संप्रदाय हो गये थे। निर्गुण और सगुण। राम, कृष्ण आदि के अवतार ब्रह्मा के सगुण रूप के अंतर्गत आते हैं। निर्गुण रूप में अवतार की कल्पना नहीं होती।
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सगुणता  : स्त्री० [सं०] सगुण होने की अवस्था, धर्म या भाव। सगुण-पन।
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सगुणी  : वि०=सगुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगुन  : पुं० १. =सगुण। २. =शकुन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगुनाना  : स० [सं० शकुन, हिं० सगुन+इया (प्रत्य०)] वह मनुष्य जो लोगो को शकुनों के शुभाशुभ फल बतलाता हो। शकुन विचरने और उनका फल बतलाने वाला।
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सगुनौती  : स्त्री० [हि० सगुन] १. शकुन विचारने की क्रिया या भाव। २. वह पुस्तक जिसमें शकुनों के अच्छे और बुरे फलों का विमेचन हो। ३. मंगलाचरण। मंगलपाठ।
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संगुप्ति  : स्त्री० [सं० सं√ गुप् (रक्षा करना)+क्तिन्] १. छिपाव। दुराव। २. सुरक्षा।
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सगुरा  : वि० [हिं० स+गुरु] १. जिसनें किसी गुरु से दीक्षा ली हो। २. जिसने किसी गुरु से, अच्छी बातया काम की शिक्षा पाई हो। ‘निगुरा’ का विपर्याय।
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सगृह  : पुं० [सं० अव्य० स०]=गृहस्थ।
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संगृहीत  : भू० कृ० [सं०] १. संग्रह किया हुआ एकत्र किया हुआ। जमा किया हुआ। संकलित। २. प्राप्त। लब्ध। ३. शासित। ४. स्वीकृत। ५. संक्षिप्त किया हुआ।
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संगृहीता (तृ)  : वि० [सं० सम√ ग्रह् (रखना)+तृच्] संग्रह करनेवाला।
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सगोत  : वि०=सगोत्र।
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सगोती  : पुं० [सं० सगोत्र] एक हा गोत्र अथवा कुल या परिवार के लोग भाई-बंद। सगोत्र।
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सगोत्र  : पुं० [सं० ब० स० अव्य० स० बा०] १. ऐसे लोग जो एक ही गोत्र के अर्थात एक ही पूर्वज से उत्पन्न हुएं हों। (किन्ड्रेड, किन्समेन) २. कुल। वंश। ३. जाति।
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सगोत्रता  : स्त्री० [सं०] सगोत्र होने की अवस्था या भाव। (किनशिप)
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संगोपन  : पुं० [सं० सम्√ गुप् (रक्षा करना)+ल्युट-अन] अच्छी तरह से छिपाकर रखना।
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सगौती  : स्त्री० [देश०] खाने का माँस। गोश्त। कलिया। पुं०=सगोत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संग्रह  : पुं० [सं०] १. एकत्र करने की क्रिया या भाव। इकट्ठा या जमा करना। संचय। जैसा—धन संग्रह करना। २. इकट्ठी की हुई चीजों का ढेर या समूह। जैसा—चित्रों या पुस्तकों का संग्रह। ३. ग्रहण करना या लेने की क्रिया। ४. जमघट। जमावड़ा। ५. गोष्ठी या सभा-समाज। ६. पाणिग्रहण। विवाह। ७. स्त्री-प्रसंग। मैथुन। संभोग। ८. वह ग्रंथ जिसमें अनेक विषयों की बातें एकत्र की गई हों। ९. अपना फेंका हुआ अस्त्र-मंत्र-बल से अपने पास लौटने की क्रिया। १॰. तालिका। सूची। फेहरिस्त। ११. निग्रह। संयम। १२. रक्षा। हिफाजत। १३.कोष्ठ-बद्धता। कब्जियत। १४.स्वीकार। मंजूरी। १५.शिव का एक नाम। १६. सोम याग।
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संग्रहक  : वि०=संग्राहक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संग्रहण  : पुं० [सं०] १. ग्रहण करना। लेना। २. प्राप्ति। लाभ। ३. गहनों में नग आदि जड़ना। ४. मैथुन। संभोग। ५. व्यभिचार। ६. स्त्री के गोप्य अंगों का किया जानेवाला स्पर्श। ७. अपहरण।
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संग्रहणी  : स्त्री० [सं०] पाचन क्रिया के विकार के कारण होनेवाला एक रोग जिसमें बराबर और बार-बार पतले दस्त होते रहेत हैं (स्प्रू)।
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संग्रहणीय  : वि० [सं० सम√ ग्रह् (रखना)+अनीयर्] १. संग्रह किए जाने के योग्य। संग्राह्य। २. (ओषधि या औषध) जिसका सेवन आवश्यक और उपयोगी हो।
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संग्रहना  : स० [सं० संग्रहण] संग्रह करना। संचय करना। जमा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संग्रहाध्यक्ष  : पुं०=संग्रहालयाध्यक्ष।
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संग्रहालय  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहाँ एक ही अथवा अनेक प्रकार की बहुत सी चीजों का संग्रह हो। २. वह भवन अथवा उसका कोई अंग जिसमें स्थायी महत्व की वस्तुएँ प्रदर्शित की तथा सुरक्षित रखी गई हों (म्यूज़ियम)।
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संग्रहालयाध्यक्ष  : पुं० [?] किसी संग्रहालय (म्यूजियम) की देखरेख या व्यवस्था करनेवाला प्रधान अधिकारी। (क्यूरेटर)।
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संग्रही (हिन्)  : वि० [सं०] १. संग्रह या एकत्र करनेवाला। संग्राहक। जैसा—सर्व-संग्रही। २. सांसा-रिक वैभव की कामना रखने और धन-दौलत इकट्ठा करनेवाला। त्यागी का विपर्याय। पुं० महसूल या लगान आदि उगाहनेवाला कर्मचारी। कर एकत्र करनेवाला अधिकारी।
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संग्रहीता (तृ)  : पुं० [सं० सं√ ग्रह (रखना)+तृच्] वह जो संग्रह करता हो। जमा करनेवाला। एकत्र करनेवाला।
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संग्राम  : पुं० [सं०] युद्ध। लडाई। समर।
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संग्राम-तुला  : स्त्री० [सं०] युद्ध के रूप में होनेवाली अग्निपरीक्षा।
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संग्राम-पटह  : पुं० [सं०] रण में बजनेवाला एक प्रकार का बाजा। रण भेरी। रण-डिमडिम।
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संग्राह  : पुं० [सं० सम√ ग्रह् (रखना)+घञ्] १. औजार या हथियार का दस्ता या मूठ पकड़ना। २. मुट्ठी। ३.मुक्का।
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संग्राहक  : वि० [सं० संग्राह+कन्] जो संग्रह करता हो। एकत्र या जमा करनेवाला। संग्रहकारी।
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संग्राही (हिन्)  : पुं० [सं०] १. वैद्यक में वह पदार्थ जो कफादि दोष,धातु, मल तथा तरल पदार्थों को खींचता हो। वह पदार्थ जो मल के पेट से निकलने में बाधक होता है। कब्जियत करनेवाली चीज। २. कुटज। वि० संग्रह करनेवाला। संग्राहक।
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संग्राह्य  : वि० [सं० सम√ ग्रह् (रखना)+ण्यत्] संग्रह किये जाने के योग्य। जमा करके रखने लायक।
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संघ  : पुं० [सं०] १. लोगों का समुदाय या समूह। २. लोगों का एक साथ मिलकर रहना। ३. आपस में गठे या मिले हुए होने की अवस्था या भाव। ४. मनुष्यों का वह समाज या समुदाय जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए बना हो। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार का लोकतंत्री राज्य या शासन प्रकार जिसकी व्यवस्था जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते थे। ६. उक्त के अनुकरण पर गौतम बुद्ध की बनाई हुई वह प्रतिनिधिक संस्था जो बौद्ध धर्म के अनुयायियों और विशेषतः भिक्षुओं आदि के संबंध में आचार, व्यवहार आदि के नियम बनाती और व्यवस्था करती थी। इसका महत्त्व इतना अधिक था कि बुद्ध और धर्म के साथ इसकी गणना भी बौद्धों में होने लगी थी। ७. साधु सन्यासियों विशेषतः बौद्ध भिक्षुओं और श्रमणों के रहने का मठ। ८. आधुनिक राजनीति में, राज्यों, राष्ट्रों आदि के पारस्परिक समझौते से बननेवाला ऐसा संघठन जो कुछ विशिष्ट बातों में एक केन्द्रीय सत्ता का अधिकार और अनुशासन मानता हो (फेडरेशन)।
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संघ-न्यायालय  : पुं० [ष० त०] संघराज्य का सर्वोच्च न्यायालय (फ़ेडरल कोर्टं)।
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संघ-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] मिलकर काम करने के लिए सम्मिलित होने की क्रिया या प्रवृत्ति।
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संघचारी (रिन्)  : वि० [सं०] १. (पक्षी और पशु) जो झुंड बनाकर रहता हो। २. (व्यक्ति) जो अधिकतर लोगों अर्थात् बहुमत के अनुसार कोई काम करता हो। पुं० मछली।
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संघट  : पुं०[सं० सम्√ घट् (मिलना)+अच्] १. समूह। राशि। ढेर। २. मुठ-भेड़। संघर्ष। ३. दे० ‘संघटन’।
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संघटन  : पुं० [सं०] १. किसी चीज के विभिन्न अवयवों को जोड़कर उसे प्रतिष्ठित करना। रचना। २. व्यक्तियों का मिलना। ३.किसी विशिष्ट वर्ग या कार्य-क्षेत्र के लोगों का मिलकर एक इकाई का रूप धारण करना जिससे वे सामूहिक रूप से अपने हितों की रक्षा कर सकें। ४.बिखरी हुई शक्तियों को एक में मिलाकर उन्हें किसी काम के लिए तैयार करना। ५. इस उद्देश्य से बनाई हुई संस्था (आरगनाइजेशन, अंतिम तीनों अर्थो के लिए)। २. स्वरों या शब्दों का संयोग।
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संघटित  : भू० कृ० [सं] १. जिसका संघटन हुआ हो। २. (व्यक्तियों का वर्ग) जो एक होकर तथा सामूहिक रूप से अपने ध्येय की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील हो। ३. युद्ध, प्रतियोगिता आदि में लगा हुआ। उदा०—सुर बिमान हिम-भानु, भानु संघटित परस्पर।—तुलसी। ४. बजाता हुआ।
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संघट्ट  : पुं० [सं०] १. रचना का प्रकार या स्वरूप। बनावट। गठन। २. संघर्ष।
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संघट्ट-चक्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] फलित ज्योतिष में, युद्ध का परिणाम जानने के लिए बनाया जानेवाला एक प्रकार का चक्र।
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संघट्टन  : पुं० [सं०] १. बनावट। रचना। गठन। २. मिलन। संयोग। ३. घटना। ४. दे० ‘संघटन’।
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संघट्टित  : भू० कृ० [सं० सं√ घट्ट (इकट्ठा करना)+क्त] १. एकत्र किया हुआ। २. बनाया हुआ। निर्मित। रचित। ३. चलाया हुआ। चालित। ४. रगड़ा या पीसा हुआ। घर्षित।
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संघतिया  : पुं० १. =संगतिया। २. =संघाती। (साथी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघती  : पुं०[सं० संघ, हिं० संग] १. संगी। साथी। सहचर। २. दे० ‘संगतिया’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सघन  : वि० [सं० अव्य० स०] १. घना। गझिन। अविरल। गुंजान। ‘विरल’ का विपर्याय। जैसे—सघन वन। २. ठोस।
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सघनता  : स्त्री० [सं० सघन+तल्—टाप] सघन होने की अवस्था, गुण या भाव।
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संघपति  : पुं०[स० ष० त०] किसी संघ का प्रधान अधिकारी।
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संघरना  : पुं० [सं० संहार+हिं० ना (प्रत्य०)] १. संहार करना। मार डालना। नाश करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सँघराना  : स० [हिं० संग?] दुःखी या उदास गौ को, उसका दूध दूहने के लिए, परचाना और पुचकारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघर्ष  : पुं० [सं०] १. कोई चीज घिसने, घोटने या रगड़ने की क्रिया। २. किसी चीज के कण अलग करने या उसका तल घटाने या घिसने के लिए की जानेवाली कोई ऐसी क्रिया जिसमें बल लगाकर किसी कड़ी चीज से बार बार रगड़ते हैं। रगड़। ३. दो विरोधी दलों या पक्षों में एक दूसरे को दबाने के लिए होनेवाला कोई ऐसा प्रयत्न जिसमें दोनों अपनी सारी शक्ति लगा देते और यथा-साध्य एक दूसरे का उपकार या हानि करने पर तुले रहते हैं। ४. उक्त के आधार पर, कठिनाइयों, बाधाओं आदि से बचने तथा प्रबल विरोधी शक्तियों को दबाने के लिए प्राणपन से की जानेवाली चेष्टा या प्रयत्न (स्ट्रगल; अंतिम दोनों अर्थों के लिए)। ५. आधुनिक पाश्चात्य साहित्यकारों के मत से नाटक में वह स्थिति जिसमें दो परस्पर विरोधी शक्तियाँ एक दूसरे को दबाने का प्रयत्न करती हैं। ६. वह अहंकारपूर्ण बात जो अपने प्रतिपक्षी को अपना बड़प्पन जतलाने के लिए कही जाये। ७. बाजी या शर्त लगाना। ८. स्पर्धा। होड़। ९. द्वेष। वैर। १॰. काम की प्रबल वासना। ११. धीरे धीरे खिसकना, चलना या रेंगना।
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संघर्षण  : पुं० [सं० सम्√ घृष् (रगड़ना)+ल्युट्-अन] १. संघर्ष करने की क्रिया या भाव। २. भूगोल में, धारा में बहते हुए कंकड़ों की चट्टानों आदि से होनेवाली रगड़ (कोरेसन)।
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संघर्षी (षिन्)  : वि० [सं०] १. संघर्ष-रत। संघर्ष करनेवाला। २. घिसने या रगड़नेवाला। पुं० व्याकरण में ख् ग् फ् व् और द् व्यंजन वर्ग जिनका उच्चारण करते समय मख द्वार खुला रहता है परन्तु फिर भी हवा टकराती हुई झटके से बाहर निकलती है।
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सघला  : वि० [सं० सकल] [स्त्री० सघली] सब। सारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघाट  : वि० [सं० संघ√ अट् (गमनादि)+यज्] दल या समूह में रहनेवाला। जो दल बाँधकर रहता हो।
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संघाटिका  : स्त्री० [सं० सम्√ घट् (मिलना)+णिच्+ण्वुल्-अक-इत्व-टाप्] १. प्राचीन भारत में स्त्रियों का एक प्रकार का पहनावा। २. कुटनी। दूती। ३. सिंघाड़ा। ४. कुंभी।
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संघाटी  : स्त्री० [सं०] बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का चीवर।
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संघाणक  : पुं० [सं०] श्लेष्मा। कफ।
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संघात  : पुं० [सं०] १. जमाव। समूह। समष्टि। २. आघात; विशेषतः अकस्मात तथा जोर से लगनेवाला आघात। टक्कर। (इम्पैक्ट)। ३. वध। हत्या। ४. कफ। श्लेष्मा। ५. देह। शरीर। ६. रहने की जगह। निवास-स्थान। ७. एक नरक का नाम।
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संघातक  : वि० [सं० संघात+कन्] १. घात करनेवाला २. प्राण लेनेवाला। ३. नष्ट या बरबाद करनेवाला।
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संघातन  : पुं० [सं०] संघात करने की क्रिया या भाव।
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सँघाती  : पुं०=सँघाती (संगी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघाती  : पुं० [सं० संघाती+इनि] संघातक। प्राणनाशक।
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संघाधिप  : पुं० [सं० ष० त०] १. धार्मिक संघ का प्रधान (जैन)। २. किसी प्रकार के संघ का अध्यक्ष।
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संघार  : पुं०=संहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संघारना  : स०=संहारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संघाराम  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्ध भिक्षुओं, श्रमणों आदि के रहने का मठ। विहार।
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संघी  : वि० [सं० संघीय] १. दे ‘संघीय’। २. किसी संघ से संबद्ध। जैसा—जन-संघी। ३. समूहों में रहनेवाला। पुं० किसी संघ का सदस्य।
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संघीय  : वि० [सं०] १. संघ-संबंधी। संघ का। २. जिसका संघटन संघ के रूप में हुआ हो (फेडरल)।
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संघृष्ट  : भू० कृ० [सं० सं√घृष् (रगड़ना)+क्त] १. रगड़ खाया हुआ। २. रगड़ा हुआ।
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संघेला  : पुं० [सं० संग] १. साथी। सहचर। संगी। २. दोस्त। मित्र।
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संघोष  : पुं० [सं० सम्√ घुष् (ध्वनि होना)+घञ्] जोर का शब्द। घोष।
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संच  : पुं० [सं० सम्√ चि (संगृह करना)+ड] लिखने की स्याही। पुं० संचने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सच  : वि० [सं० सत्य] १. जो यथार्त हो वास्विकता। २. झूठ रहित। सत्य।
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सच-मुच  : अव्य० [हिं० सच+मुच (अनु०)] १. यथार्थतः। ठीक। वास्तव में। वस्तुतः। २. निश्चित रूप से अवश्य।
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संचक  : पुं० [सं० संच+कन्] साँचा।
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संचकर  : वि० [सं० संचय+कर] १. संचय करनेवाला। २. देख-भाल करनेवाला। ३. कंजूस। कृपण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सचक्री  : पुं० [सं० सचक्र+इनि] वह जो रथ चलाता हो। सारथी।
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सचन  : पुं० [सं० चन्+अञ-समान=स] सेवा करने की क्रिया या भाव। सेवन।
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संचना  : पुं० [सं० संचयन] १. एकत्र या संग्रह करना। संचय करना। २. देख-भाल करना। अ० [सं० सं०+चर] प्रविष्ट होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सचना  : स० [सं० संचयन] १. संचय करना। इकट्ठा करना। २. कार्य का संपादन करना। काम पूरा करना। ३. बनाना। रचना। अ०=सचरना। अ० १. संचित या एकत्र होना। उदा०—मालती मल्लि मलैज लवंगनि सेवाती संग समूह सची है।—देव। २. कार्य का संपादित या पूरा होना। उदा—बहु कुंड शोनित सों भरे, पितु तर्पणादि क्रिया सची।—कबीर। ३. रचा जाना। बनाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सचनावत्  : पुं० [सं० सचन√अन (रक्षा करना)+क्रिय-तुक] परमेश्वर जिसका भजन सब लोग करते हैं।
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संचय  : पुं० [सं० सम्√ चि (चयन करना)+अच् भू० कृ० संचित] १. चीजें इकट्ठी करने की क्रिया या भाव। २. जमा करना। संकलन। ३. इकट्ठी की हुई चीजों का ढेर या राशि (एक्यूमुलेशन)। ४. अधिकता। बहुलता।
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संचयन  : पुं० [सं० सम्√ चि (एकत्र करना)+ल्युट्-अन] १. संचय करने या होने की क्रिया या भाव। २. किसी वस्तु का धीरे धीरे एकत्र होते हुए किसी बड़ी राशि का चित्र धारण करना। इकट्ठा या जमा होना (एक्यूमुलेशन)।
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संचयिका  : वि० [सं० संचय+ठञ्-इक] जो संचय करता हो। एकत्र या जमा करनेवाला।
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संचयी (यिन्)  : वि० [सं० संचय+इनि] संचय करनेवाला जमा करनेवाला। पुं० कंजूस। कृपण।
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संचर  : पुं० [सं० सम्√ चर् (चलना)+घ] १. गमन। चलना। २. पुल। सेतु। ३.पानी निकलने का रास्ता।। ४. मार्ग। रास्ता। ५. जगह। स्थान। ६. देह। शरीर। ७. संगी। साथी।
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संचरण  : पुं० [सं० सम्√ चर् (चलना)+ल्युट्-अन] १. संचार करने की क्रिया या भाव। चलना। गमन। २. पसरना। फैलना। ३. काँपना।
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संचरना  : अ० [सं० संचरण] १. घूमना-फिरना। चलना। २. फैलना। ३. प्रचलित होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=संचारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सचरना  : अ० [सं० संचरण] १. किसी के ऊपर प्रविष्ट होकर संचरित होना। फैलना। २. किसी वर्ग या समाज में पहुँचकर लोगो से हेल-मेल बढ़ाना। उदा०—जा दिन तै सचरे गोपिन में, ताहि दिन तै करत लगरैया।—सूर। ३. किसी चीज या बात का लोगों में प्रचलन या प्रचार होना। फैलना।
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सचराचर  : पुं० [सं० द्व० स०] संसार की सब चर और अचर वस्तुएँ। स्थावर और जंगम सभी वस्तुएँ।
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संचल  : पुं० [सं० सम्√ चल (अस्थिर)+अच्] सौवर्च्चल लवण। साँचर नमक। वि० काँपता हुआ।
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सचल  : वि० [सं०] [भाव० सचलता] १. जो अचल न हो। चलता हुआ। जंगम। २. जो एक से दूसरी जगह आ जा सके। ३. जो बराबर एक जगह से जगह जाता रहता हो। (मूविंग) जैसे—सचल पुस्तकालय, सचल नरीक्षण आदि। ४.जो स्थिर न रहे। चंचल। ५. जगम।
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सचल-लवण  : पुं० [सं० मध्यम० स०] साँचर नमक।
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संचलन  : पुं० [सं० सम्√ चल् (हिलना)+ल्युट्-अन] १. हिलना-डोलना। २. चलना। ३. काँपना।
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सचा  : पुं०=सखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सचाई  : स्त्री०=सच्चाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सचान  : पुं० [सं० सचान=श्येन] श्येन पक्षी। बाज।
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सचाना  : स० [हिं० सच=सत्य] सच्चा कर दिखलाया। उदा—झुठहिं सचावै, कर कलम मचावै, अहो जुलुम मचावै ये अदालत के अमला।
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संचार  : पुं० [सं०] १. गमन। चलना। २. चलाना। ३. किसी के अन्दर पैठकर दूर तक फैलना। ४. वह राह जिस पर से होकर कोई चीज फैलती हो। ५. आज-कल संदेश, समाचार आदि तथा आदमी सामान आदि भेजने की क्रिया प्रकार और साधन (कम्यूनिकेशन)। ६. रास्ता दिखाना। मार्गदर्शन। ७. विपत्ति। ८. साँप की मणि। ९. देश। १॰. उत्तेजित करना। ११. संक्रमण (ग्रह आदि का)।
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संचार-साधन  : पुं० [ष० त०] दो या अधिक स्थानों या व्यक्तियों के बीच संबंध स्थापित करने के साधन। डाक, तार, समुद्री तार, रेडियो आदि और गमनागमन के साधन। (मीन्स ऑफ़ कम्यूनिकेशन)।
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संचारक  : वि० [सं० सम्√ चर् (चलना)+ण्वुल्-अक][स्त्री० संचारिका] संचार करने या फैलानेवाला। पुं० १. नेता। सरदार। २. अन्वेषक।
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संचारण  : पुं० [सं० सम्√ चर् (चलना)+णिच्-ल्युट्-अन][भू० कृ० संचारित] संचार करने की क्रिया या भाव।
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संचारना  : स० [सं० संचारण] १. संचार करना। फैलाना। २. चलाना। ३.चलने और घूमने फिरने में प्रवृत्त करना। उदा०—पुनि इबलीस सँचारेउ डरत रहे सब कोउ।—जायसी।
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सचारना  : स० [हिं० सचरना का सकर्मक रूप] संचारित करना। फैलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संचारिका  : स्त्री० [सं०] १. दूती। कुटनी। २. नासिका। नाक। ३. बू। गंध। वि० ‘संचारक’ का स्त्री०।
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संचारिणी  : स्त्री० [सं० सम्√चर् (चलना)+णिनि-ङीप्] १. हंसपदी नाम की लता। २. लाल लजालू। वि० ‘संचारी’ का स्त्री।
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संचारित  : भू० कृ० [सं० सम्√चर् (चलना)+णिच्-कत] १. जिसका संचार किया गया हो। चलाया या फैलाया हुआ। २. भड़काया हुआ। ३. पहुँचाया हुआ।
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संचारी  : वि० [सं० सम्√ चर् (चलना)+णिनि-दीर्घ-नलोप][स्त्री० संचारिणी] १. संचरण या संचार करने वाला। २. आया हुआ। आगंतुक। पुं० १. साहित्य में वे तत्त्व, पदार्थ या भाव जो रस में संचार करते हुए उसके परिपाक में उपयोगी तथा सहायक होते हैं। इन्हीं को ‘व्यभिचारी भाव’ भी कहते हैं। (स्थायी भाव से भिन्न)। विशेष—यह माना गया है कि स्थायी भाव तो रस के परिपाक तक स्थिर रहते हैं परन्तु संचारी भाव अस्थिर होते और आवश्यकता तथा सुभीते के अनुसार सभी रसों में संचार करते रहते हैं। इसकी संख्या ३३ कही गई है,यथा-निर्वेद ग्लानि, शंका, असूया, श्रम, मद धृति, आलस्य, विषाद, मति, चिंता, मोह, स्वप्न, बिबोध, स्मृति, आमर्ष, गर्व, उत्सुकता, अवहित्थ, दीनता, हर्ष, व्रीड़ा, उग्रता, निद्रा, व्याधि, मरण, अपस्मार, आवेग, मस, उन्माद, जड़ता, चपलता और विर्तक। २. संगीत में किसी गीत के चार चरणों में से तीसरा। ३. वायु। हवा। ४. धूप नामक गंध द्रव्य।
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संचाल  : पुं० [सं० सम्√ चल् (काँपना)+ण—घञ् या संचालन] १. काँपना। २. चलना।
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संचालक  : वि० [सं० संचाल+कन् सम्√ चल् (चलना)+ण्वुल-अक] जो संचालन करना हो। चलाने या गति देनेवाला। परिचालक। पुं० वह प्रधान अधिकारी जो किसी कार्य, विभाग, संस्था आदि चलने की सारी व्यवस्था करता हो। निरीक्षण तथा निर्देशन करनेवाला विभागीय अधिकारी जो किसी कार्य, विभाग, संस्था आदि चलने की सारी व्यवस्था करता हो। निराक्षण तथा निर्देशन करनेवाला विभागीय अधिकारी। निदेशक (डाइरेक्टर)।
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संचालन  : पुं० [सं० सम्√चल् (चलना)+णिच्-ल्युट्-अन] १. चलाने की क्रिया। परिचालन। २. ऐसा प्रबंध या व्यवस्था जिसमें कोई काम चलता या होता रहे। किसी कार्य आदि का किया जानेवाला निर्देशन। ३. नियंत्रण।
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संचालित  : भू० कृ० [सं०] (कार्य, विभाग या संस्था) जिसका संचालन किया गया हो या किया जा रहा हो।
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संचाली  : स्त्री० [सं० संचाल-ङीप्] गुंजा। घुँघची। वि० दे० ‘संचालक’।
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सचावट  : स्त्री० [हिं० सच+आवट (प्रत्य०] सच्चापन। सच्चाई। सत्यता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संचिका  : स्त्री० [सं० संचय] वह नत्थी जिसमें पत्र, कागज आदि इकट्ठे करके रखे जाते हैं। मिसिल (फ़ाइल)।
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सचिक्कण  : वि० [सं० अव्य० स०] बहुत अधिक चिकना। जैसै०—सच्चिकण केश।
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सचिक्कन  : वि०=सचिक्कण।
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संचित  : भू० कृ० [सं०] १. संचय किया हुआ। इकट्ठा, एकत्र या जमा किया हुआ। २. ढेर के रूप में रखा, लगाया या लाया हुआ (एक्यूमुलेटेड)। ३. संचिका या नत्थी में लगाया हुआ।
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सचिंत  : वि० [सं० अव्य० स०] जिसे चिंता हो। फिक्रमंद।
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सचित  : वि० [सं०√चित् (ज्ञान करना)+क्विष्=स] जिसमें अथवा जिसे चित्त ज्ञान या चेतना हो।
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संचित-कर्म  : पुं० [सं०] १. वैदिक युग में यज्ञ की अग्नि संचित कर लेने पर किया जानेवाला एक विशिष्ट कर्म। २. आज-कल, पूर्व जन्म में किए हुए वह वे सब कर्म जिनका फल इस जन्म में अथवा आनेवाले जन्मों में भोगना पड़ता है।
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संचिति  : स्त्री० [सं० सम्√ चि (रखना)+क्तिन्] १. संचित करने की क्रिया या भाव। संचय। २. तह लगाना।
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सचित्त  : वि० [सं० अव्य० स०] जिसका ध्यान किसी ओर लगा हो।
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सचिव  : पुं० [सं०] १. मित्र। दोस्त। २. मंत्री या वजीर। ३.सहायक। मददगार। ४. आजकल किसी बड़े अधिकारी या विभाग का वह व्यक्ति जो अभिलेख आदि सुरक्षित रखता हो। और मुख्य रूप से पत्र व्यवहार आदि की व्यवस्था करता हो। (सेक्रेटरी) विशेष—प्राचीन भारत में, मंत्री और सचिव प्रायः समानार्थक शब्द माने जाते थे, परंतु आजकल सचिव से मंत्री पद भिन्न होता है। मंत्री का काम मंत्रणा या परामर्श देना होता है। परंतु सचिव को कोई ऐसा अधिकार नहीं होता है। ५. धतूरे का पेड़।
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सचिव-मंडल  : पुं० [सं०]=मंत्रि-मंडल।
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सचिवता  : स्त्री० [सं० सचिव+तल—टाप] सचिव होने की अवस्था, पद या भाव।
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सचिवाधिकार  : पुं० [सं० सचिव+अधिकार] किसी राज्य के मंत्रियौं अर्थात सचिवों का शासन काल। (मिनिस्टरी) जैसे—कांग्रेस सचिवाधिकार से शासन विधि में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए हैं।
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सचिवालय  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ राज्य के प्रमुख विभागों के सचिवो और प्रमुख अधिकारियों के कार्यकाल हों। (सेक्रेटेरिएट)
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सची  : स्त्री० [सं० शची] अगर। अगुरु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=शची (इंद्राणि)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सची-सुत  : पुं० [सं० सची-सुत] १. शची का पुत्र, जयंत। २. श्री चैतन्य महाप्रभु।
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सचु  : पुं० [?] १. प्रसन्नता। खुशी। २. सुख। वि०=सच।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सचेत  : वि० [सं० सचतन] १. जिसे या जिसमें चेतना हो। चेतना युक्त। सचेतन। २. समझदार। सयाना। ३. सजग। सावधान।
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सचेतक  : वि० [सं०] सचेत या सजग करने वाला। पुं० निधायिका, सभाओं, संसदों आदि में वह अधिकारी। जिसका कर्तव्य सदस्यों को इस विषय में सचेत करना होता है कि अमुक प्रस्ताव या विषय पर मत देने के लिए आपकी उपस्थिति आवश्यक है। (ह्विप)
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सचेतन  : पुं० [सं० अव्य० स०] १. ऐसा प्राणी जिसमें चेतना हो। विवेक युक्त प्राणी। २. ऐसी वस्तु जो जड़ न हो। चेतन्य। वि० १. चेतना युक्त। चेतन्य। २. सजग। सावधान। ३. चतुर। होशियार।
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सचेता (तस्)  : वि० [सं० चित्+आसन-सह=स] समझदार। वि०=सचेत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सचेती  : स्त्री० [हिं० सचेत+ई (प्रत्य०)] सचेत होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सचेष्ट  : स्त्री० [सं० अव्य० स०] १. जिसमें चेष्ठा हो। २. जो चेष्ठा या प्रयत्न कर रहा हो। पुं० आम का पेड़।
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सचैयत  : स्त्री० [हिं० सच्च-ऐयत (प्रत्य०)]=सच्चाई।
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सच्चरित  : वि० [सं० कर्म० स०] जिसका चरित्र आच्छा हो। सच्चरित्र। सदाचारी।
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सच्चा  : वि० [सं० सत्य] [स्त्री० सच्ची] १. सच बोलने वाला। जो कभी झूठ न बोलता हो। सत्यवादी। २. जिसमें किसी प्रकार का छल-कपट या झूठा व्यवहार न हो। अथवा जिसकी प्रमाणिकता, सत्यता आदि में किसी प्रकार के अंतरया संदेह की संभावना हो। जैसै—(क) जबान का सच्चा अर्थात सदा सत्य बोलने वाला। और अपने वचन का पालन करने वाला। (ख) लंगोट का सच्चा अर्थात जो परस्त्रीगामी न हो और पूर्ण ब्रह्मचारी हों। (ग) हाथ का सच्चा, जो कभी चोरी या बेईमानी न करता हो। ३. जिसमें कोई खोट या मेल न हो। खरा। विशुद्ध। जैसे—सच्चा होना। ४. जितना या जैसा होना चाहिए, उतना या वैसा। त्रुटि, दोष आदि से रहित। जैसे—सच्ची जड़ाई करना, सच्चा हाथ मारना। ५. जो नकली या बनावटी न हो, बल्कि असली या वास्तविक हो। जासे०—साड़ी पर सच्ची जरी का काम।
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सच्चाई  : स्त्री० [हिं० सच्चा+आई (प्रत्य०)] सच अर्थात सत्य होने का गुण या भाव। सत्यता।
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सच्चापन  : पुं० [हिं० सच्चा+पन (प्रत्य०)] सच अर्थात सत्य होने का गुण या भाव। सत्यता।
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सच्चाहट  : स्त्री=सच्चाई। (क्व०)
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सच्चित्  : पुं० [सं० द्व० स०] सत् और चित से युक्त ब्रह्मा।
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सच्चिदानंद  : पुं० [सं० कर्म० स०] सत्, चित् और आनन्द से युक्त परमात्मा का एक नाम। ईश्वर। परमेश्वर।
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सच्चिन्मय  : वि० [सं० सच्चित-मयट] १. सत् और चैतन्य स्वरीप। २. सत् और चैतन्य से युक्त।
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सच्ची टिपाई  : स्त्री० [स्त्री० [हिं०] भारतीय मध्य युगीन चित्र कला में चित्र बनाने के समय पहले रूप रेखा अमकित कर चुकने पर गेरू से होने वाला अंकन।
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सच्छ  : वि०=स्वच्छ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सच्छत  : वि० [सं० स०+क्षत] जिसे क्षत लगा हो। घायल।
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सच्छंद  : वि०=स्वच्छंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सच्छांति  : स्त्री० [सं० सद्+शांति] सद या उत्तम शांति। पूरी या विशुद्ध शांति।
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सच्छाय  : वि० [सं० अव्य० स०] १. छायादार। २. सुंदर रंगो वाला। ३. चमकदार। ४. एक ही रंग का।
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सच्छी  : स्त्री०=साक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सच्छील  : पुं० [सं० कर्म० स०] सदाचार। वि० अच्छे शील वाला। शीलवान।
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संछर्दन  : पुं० [सं० सं√छर्द् (वमन करना)+ल्युट्-अन] ग्रहण में एक प्रकार का मोक्ष (ज्योतिष)।
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संज  : पुं० [सं० सम्√जन् (उत्पन्न करना)+ड] १. शिव। २. ब्रह्मा।
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सज  : स्त्री० [सं० सज्जा] [वि० सजीला] १. सजाने अथवा सजे हुए होने का गुण या भाव। सजावट। २. घठन या बनावट का ढंग। (स्टाइल) जैसे—इमारत की सज मुसलमानी है। ३. शोभा। ४. सुंदरता। पुं० [देश०] पियासाल नामक वृक्ष।
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सज-धज  : स्त्री० [हिं० सज+धज अनु०] बनाव-सिंगार। सजावट। जैसे—उसकी बारात बहुत सजधज के निकली थी।
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सज-बज  : स्त्री=सजधज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सजग  : वि० [सं० जागरण] १. सावधान। सचेत। सतर्क। २. चालाक। होशियार।
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सजड़ा  : पुं०=सहिंजन वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सजदार  : वि० [हिं० सज+फा० दार (प्रत्य०)] जिसकी सज या बनावट अच्छी हो। सुंदर।
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संजन  : पुं० [सं०√ सञ्ज् (बाँधना)+ल्युट्-अन] १. बाँधना। २. बन्धन। ३. संघठन।
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सजन  : पुं० [सं० सत्+जन=सज्जन] [स्त्री० सजनी] १. भला आदमी। सज्जन। शरीफ। २. स्त्री का पति। स्वामी। प्रियतम या प्रिय के लिए शिष्ट संबोधन। वि० [सं०] लोगो से युक्त। जन-सहित।
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संजनन  : पुं० [सं० सम्√जन् (उत्पन्न करना)+ल्युट्-अन][भूत० कृ० संजनित]=जनन।
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सजना  : स० [सं० सज्जा] १. सज्जित करना। सजाना। २. शरीर पर कपड़े या हथियार आदि धारण करना। जैसे—सिपाहियों का ढाल, तलवार आदि से सजना। ३. कपड़े आदि पर साज टाँकना या लगाना। अ० १. आभूषण, वस्त्रादि से सज्जित या अलंकृत होना। सजाया जाना। पद—सजना-बजना=भली-भाँति या बहुत सज्जित होना। २. सेना या सैनिकों का अस्त्र-शस्त्र आदि से युक्त होना। ३. उपयुक्त, भला या सुंदर जान पड़ना। सुशोभित होना। पुं० १. =साजन। २. =सहिंजन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संजनी  : स्त्री० [सं० संजन-ङीप्] वैदिक काल का एक प्रकार का अस्त्र जिससे वध या हत्या की जाती थी।
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सजनी  : स्त्री० [हिं० सजन] १. सखी। सहेली। २. मिथला में गाये जाने वाले षट घबनी। (दे०) नामक लोक गीत का दूसरा नाम।
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संजनीपति  : पुं० [सं०] यमराज (डिं०)।
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सजप  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार के यति।
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संजम  : पुं०=संयम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजमी  : वि०=संयमी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजय  : पुं० [सं० सं√ जि (जीतना)+अष्] १. ब्रह्मा। २. शिव। ३. धृतराष्ट्र का मुख्य मंत्री जिसने उन्हें युद्ध-क्षेत्र का सारा हाल सुनाया था।
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सजरी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की मीठी पूरी।
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सजल  : वि० [सं०] [स्त्री० सजला] १. जल से युक्त या पूर्ण। जिसमें पानी हो। २. तरल पदार्थ से युक्त। ३. आँसुओं से युक्त। जैसे—सजल नेत्र। ४. जिसमें आब या चमक हो। चमकदार।
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सजला  : वि०=सँझला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजल्प  : पुं० [सं०] साथ बैठकर आपस में की जानेवाली बात-चीत।
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सजवना  : स०=सजाना। पुं०=सजावट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सजवाई  : स्त्री० [हिं० सजना+वाई (प्रत्य०)] सजवाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक।
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सजवाना  : स० [हिं० सजाना का प्रे० रूप] सजाने का काम किसी से कराना। किसी को कुछ सजाने में प्रवृत्त करना।
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सजा  : स्त्री० [फा० सजा] १. अपराध आदि के कारण अपराधी को दिया जाने वाला दंड। २. कारागार या जेल में रखे जाने का दंड। कारावास। (इम्प्रिजनमेंट)
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सजा-याफ्ता  : वि० [फा० सजायाफतः] जिसने दंड विधान के अनुसार दंड पाया हो। जो सजा भोग चुका हो।
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सजाइ  : स्त्री०=सजा (दंड)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सजाई  : स्त्री० [सं० सजाना+आई (प्रत्य)] सजाने की क्रिया, भाव या परिश्रामिक। स्त्री०=सजा (दंड)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सजागर  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जागता हुआ। २. सजग। होशियार।
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संजात  : भू० कृ० [सं०] १. किसी के साथ उत्पन्न। २. किसी से उत्पन्न। जात। जैसे—घात-संजात=हनुमान्। ३. मिला हुआ। प्राप्त। पुं० पुराणानुसार एक प्राचीन जाति।
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सजात  : वि० [सं०] १. जो किसी के साथ उत्पन्न हुआ हो। २. जो अपने संबंधियो से युक्त या उनके सहित हों। ३. जो उत्पत्ति, उदगम् अथवा आपेक्षिक स्थिति के विचार से एक प्रकार या वर्ग के हों। (होमोलोगम)
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संजात बलि  : वि० [सं०] मरे हुए प्राणियों का माँस खानेवाला। पुं० डोमकौआ।
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सजाति  : वि० [सं० ब० स०] १. जो जाति या वर्ग में हो। २. (पदार्थ) जो एक ही प्रकार, प्रकृति या स्वरूप के हों।
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सजातीय  : वि० [सं० कर्म० स० जाति+छ-ईय] एक ही जाति या गोत्र के (दो याअधिक)।
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सजात्य  : वि० [सं० जाति्+यत्]=सजातीय।
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सजान  : वि० [सं० सज्ञान] १. जानकार। जानने वाला। २. चतुर। होशियार।
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सजाना  : सं० [सं० सज्जा] १. चीजें ऐसे क्रम और ढंग से रखना या लगाना कि वे आकर्शक और सुंदर जान पड़ें। जैसे—अलमारी में पुस्तकें सजाना। २. (व्यक्ति या स्थान) ऐसी चीजों से युक्त करना कि देखने में भला और सुंदर जान पड़े। अलंकृत करना। किसी चीज की शोभा या सुंदरता बढ़ने के लिए उसमें और भी अच्छी चीजें मिलाना या लगाना। (डेकोरेशन)
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संजाफ  : स्त्री० [फा० संजाफ़] १. झालर। किनारा। कोर। २. रजाइयों आदि में लगाई जानेवाली गोट। मगजी। पुं० वह घोड़ा जिसका आधा भाग लाल तथा आधा भाग सफेद (या हरा) होता है।
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संजाफी  : वि० [हिं० संजाफ] जिसमें संजाफ लगी हो। किनारेदार। झालरदार।
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संजाब  : पुं० [फा०] १. चूहे के आकार का एक जन्तु जो प्रायः तुर्किस्तान में होता है। २. एक प्रकार का चमड़ा। ३. संजाफ। (घोड़ा)।
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सजाय  : वि० [सं० उपव्य० स०] जो अपनी जाया अर्थात पत्नी के साथ उपस्थित या वर्तमान हो। स्त्री०=सजा (दंड)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सजायाब  : वि० [फा०] १. जो दंड पाने के योग्य हो। दंडनीय। २. जो कारागार का दंड भोग चुका हो। सजायाफ्ता।
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सजाल  : वि० [सं० उपव्य० स०] अयाल से युक्त।
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सजाव  : पुं० [सं० सजाना] एक प्रकार का दही। पुं०=सजावट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सजावट  : स्त्री० [हिं० सजाना] १. सजे हुए होने की अवस्था, क्रिया या भाव। जैसे—दुकान या मकान की सजावट। २. किसी चीज के आस-पास या इधर उधर पड़ने वाले खाली स्थानों में ऐसी चीजें भरना या लगाना जिनसे उनकी शोभा या सौन्दर्य बहुत बढ़ जाय। (डेकोरेशन) ३. शोभा।
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सजावन  : पुं० [सजाना] १. सजाने की क्रिया। अलंकृत करना। मंडन। २. तैयार करना। प्रस्तुत करना।
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संजावनमूर, संजीवनमूरि  : स्त्री०=संजीवनी (बूटी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सजावल  : पुं० [तु० सजावुल] १. सरकारी या उगाहने वाला कर्मचारी। तहसीलदार। २. राज-कर्मचारी। सरकारी नौकर। ३. सिपाहियों का जमादार।
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सजावली  : स्त्री० [हिं० सजावल] सजावल का पद या काम।
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सजावार  : वि० [फा०] जो दंड का भागी हो। जो सजा पाने के योग्य हो। दंडनीय।
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सजिन  : पुं०=सहिंजन।
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सजीउ  : वि०=सजीव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजीदगी  : स्त्री० [फा०] १. संजीदा होने की अवस्था या भाव। २. आचरण, विचार य़ा व्यवहार की गंभीरता। ३. स्वभाव संबंधी शिष्टता तथा सौम्यता।
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संजीदा  : वि० [फा० संजीदा] [भाव० संजीदगी] जिसके व्यवहार या विचारों में गंभीरता हो। गंभीर और शान्त। २. बुद्धिमान। समझदार।
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सजीला  : वि० [हिं० सजना+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० सजीली] १. सज-धज से या बनठनकर रहने वाला। छैला। २. सुंदर। आकर्षित। ३. जो बनावट के ढंग के विचार से बहुत अच्छा हो। सुंदर और सुडौल। तरहदार। (स्टाइलिश)
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संजीव  : पुं० [सं०] १. मरे हुए को फिर से जिलाना। पुनः जीवन देना। २. वह जो मरे हुए को फिर से जीवित करता हो। ३. बौद्धों के अनुसार एक नरक।
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सजीव  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जीवयुक्त। जिसमें प्राण हों। २. जिसमें जीवनी-शक्ति है। ३. जो देखने में जीवयुक्त या जीवित सा जान पड़ता हो। ओज-पूर्ण। ४. तेज। फुरतीला। पुं० जीवधारी। प्राणी।
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संजीवक  : वि० [सं० सम्√जीव् (जिलाना)+ण्वुल्-अक] पुनर्जीवित करने वाला। नया जीवन देने वाला।
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संजीवकरणी  : स्त्री० [सं०] १. एक कल्पित बूटी जिसके द्वारा मृत को फिर से जीवित किया जाता था। २. एक प्रकार की विद्या जिसके प्रभाव से मृत प्राणी फिर से जीवित किया जाता है।
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सजीवता  : स्त्री० सं० सजीव+तल्—टाप] सजीव होने की अवस्था, गुण या भाव। सजीवपन।
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संजीवन  : पुं० [सं० सम्√ जीव् (जीवित करना)+ल्युट्-अन] १. भली-भाँति जीवन व्यतीत करने की क्रिया। अच्छी तरह जीवित रहना या जीवन बिताना। २. पुनर्जीवित करना। नया जीवन देना। मनु-स्मृति के अनुसार। एक नरक। वि० जीवन देने या जिलाने वाला।
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सजीवन  : पुं० [सं० सजीवन] संजीवनी नामक बूटी।
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संजीवनी  : स्त्री० [सं० संजीवन-ङीष्] १. पुनर्जीवित करने वाली एक कल्पित ओषधि। २. पुनर्जीवित करने की एक विद्या।
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संजीवनी-बूटी  : स्त्री० [सं० संजीवनी+हिं० बूटी] १. रुदंती। रुद्रवंती। २. दे० ‘सजीवनी’।
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सजीवनी-मंत्र  : पुं० [सं० संजीवन+मंत्र] १. वह कल्पित मंत्र जिसकेसंबंध में लोगो का विश्वास है कि मरे हुए मनुष्य या प्राणी को जिलाने की शक्ति रखता है। २. ऐसी मंत्रणा जिससे कठिन काम सहज में पूरा हो सका हो।
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संजीवित  : भू० कृ० [सं० सम√जीव् (जीवित रखना+क्त) १. जो मर जाने पर फिर से जीवित किया गया हो। २. संजीवनी द्वारा जिसे पुनर्जीवित किया गया हो।
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संजीवी (विन्)  : वि० [सं० सम्√जीव् (जीवित करना)+णिनि] मृत को जीवित करने वाला।
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संजुक्त  : वि०=संयुक्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजुग  : [सं० संयुक्त] संग्राम। युद्ध। लड़ाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सजुग  : वि०=सजग (सचेत)।
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संजुत  : वि०=संयुक्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजुता  : स्त्री० [सं० संयुक्ता] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में स, ज, ज, ग, होते है। इसे ‘संयुक्त’ या संयुक्ता भी कहते हैं।
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सजुता  : स्त्री० [सं० संयुता] एक प्रक्रार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में एक सगण, दो जगण और एक गुरु होता है। (सजजग)
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संजूत  : वि० [?] सावधान—उदा-होहू संजूत बहुरि नहिं अवना।—जायसी।
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सजूत  : वि०=संयुत (संयुक्त)।
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संजोइल  : वि० [सं, सज्जित हिं० संजोना] अच्छी तरह सजाया हुआ। सुसज्जित। २. एकत्र किया हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संजोऊ  : पुं० [हिं० संजोना] १. सजावट। २. तैयारी। उपक्रम। ३. सामग्री। सामान। पुं=संयोग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोग  : पुं०=संजोग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजोगिता  : स्त्री०=संयोगिता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजोगिनी  : स्त्री०=संयोगिनी (जो वियोगिनी न हो अर्थात जिसका प्रेमी उसके पास हो।)
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संजोगी  : वि० [सं० संयोगिन] १. संयुक्त, मिला हुआ। २. जो अपने प्रियतम के पास या साथ हो। संयोगी। ‘वियोगी’। का विपर्याय। पुं० एक तरह का बड़ा पिंजरा। जो वस्तुतः दोपिंजरों को जोड़कर बनाया गया होता है।
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सँजोना  : स० [सं० सज्जा] १. सज्जित करना। अलंकृत करना। सजाना। २. सामग्री आदि एकत्र करके क्रम से रखना।
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सजोना  : स० [हिं० सजाना] १. सज्जित करना। श्रंगार करना। सजाना। २. आवश्यक सामग्री एकत्र करके व्यवस्थित रूप सरे रखना। दे० ‘सँजोना’।
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सजोयल  : वि०=सँजोइल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोवन  : पुं० [हिं० संजोना] सज्जित करने की क्रिया या भाव। सजाने का व्यापार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोवना  : स०=सँजोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोवल  : पुं० [हिं० संजोना] १. सुसज्जित। २. आवश्यक सामाग्री से युक्त। सेना या सैनिक सामग्री से युक्त। ३. सजग। सावधान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोवस  : वि०=संजोवल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोवा  : पुं० [हिं० सँजोना] १. सजावट। श्रृंगार। २. लोगों का जमघट। जमावड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोह  : पुं० [सं० संयोग] लकड़ी का वह चौखट जो जुलाहे कपड़ा बुनते समय लटका देते हैं और जिसमें राछ या कंघी लटकी रहती है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सज्ज  : पुं०=साज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० १. =सज्जा। २. =सेज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सज्जक  : पं० [सं० सज्ज+कन] सज्जा। सजावट। वि० सज्जा या सजावट करने वाला।
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सज्जण  : पुं० [सं०] १. =सज्जन। २. सज्जा। ३.=साजन।
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सज्जता  : स्त्री० [सं० सज्ज+तल्-टाप्] सज्जा अर्थात सजे हुए होन् का भाव। सजावट।
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सज्जनता  : स्त्री० [सं० सज्जन+तल्] सज्जन होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सज्जनताई  : स्त्री०=सज्जनता।
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सज्जा  : स्त्री० [सं० सज्ज-अच्-टाप] १. सजाने की क्रिया या भाव। सजावट। २. वेष-भूषा। ३. कोई काम सुंदर रूप से प्रस्तुत करने के लिए सभी आवश्यक उपकरण, साधन आदि एकत्र करके यथा स्थान बैठाना या लगाना। ४. उक्त कार्य के लिए सभी आवश्यक और उपयोगी उपकरणों और साधनो का समूह। (ईक्विपमेन्ट, अंतिम दोनो अर्थों के लिए) स्त्री० [सं० शय्या] १. सोने की चारपाई शय्या। २. श्राद्ध आदि के समयमृतक के उद्देश्य से दान की जाने वाली शय्या जिसके साथ ओढ़ने, बिछाने आदि के कपड़े भी रहते हैं। वि० [सं० सव्य] दाहिना (पश्चिम)।
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सज्जाकला  : स्त्री० [सं०] चीजों, स्थानों आदि को अच्छी तरह सजाकर आकर्षक तथा मनोहर बनाने की कला या विद्या। (डेकोरेटिव आर्ट)
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सज्जाद  : वि० [अ०] सिंजदा करने वाला। पूजक। उपासक।
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सज्जाद नशीन  : पुं० [अ० सज्जादः+फा० नशीन] मुसलमानों में वह पीर या फकीर जो गद्दी और तकिया लगाकर बैठता हो।
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सज्जादा  : पुं० [अ० सज्जाद-] १. बिछाने का वह कपड़ा जिस पर मुसलमान नमाज पढ़ते हैं। मुसल्ला। २. पीर, फकीरों आदि की गद्दी। ३. आसन।
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सज्जान  : पुं० [सं० कर्म० स०, सत्+जन्] १. भला आदमी। सत्पुरुष। शरीफ। २. अच्छे कुल का व्यक्ति। ३. प्रिय व्यक्ति। ४. पहरेदार। संतरी। ५. जलाशय या घाट। ६. दे० ‘सज्जा’।
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सज्जित  : भू० कृ० [सं०√सज्ज् (सजावट करना)+क्त] १. जिसकी खूब सजावट हुई हो। सजाया हुआ। अलंकृत। आरास्ता। २. आलश्यक उपकरणो, साधनों, सामग्री आदि से युक्त। (इक्विपड्) जैसे—सज्जित सेना।
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सज्जी  : स्त्री० [सं० सर्जि, सर्जिका] मिट्टी की तरह एक प्रकार का प्रसिद्ध क्षार जो सफेदी लिए हुए भूरे रंग का होता है। (फुलर्स अरिथ)
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सज्जीखार  : पुं०=सज्जी।
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सज्जीबूटी  : स्त्री० [सं० संजीवनी] क्षुप जाति की एक वनस्पति जिसकी शाखाएँ बहुत कोमल और पत्ते बहुत छोटे और तिकोने होते हैं। प्रायः इसी के डंठलों और पत्तियों से सज्जीखार तैयार होता है।
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सज्जुता  : स्त्री० [सं० संयुता] संजुता या संयुता नामक छंद।
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सज्जे  : सर्व० (सं० सर्व) सब। अव्य० पूरी तरह से। सर्वतः। अव्य० [सं० सव्य] दाहिनी ओर। (पश्चिम)
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संज्ञ  : वि० [सं० सम√ज्ञा (जानना)+क] १. जिसे संज्ञा प्राप्त हो। चेतन। २. नामधारी। ३. चलते समय जिसके घुटने टकराते हों। पुं० झाऊ या पीतकाष्ठ नामक पौधा।
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संज्ञक  : वि० [सं० संज्ञ+कन्]जिसकी कुछ संज्ञा हो। संज्ञा से युक्त। गोपाल संज्ञक व्यक्ति।
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संज्ञपन  : पुं० [सं० सम्√ ज्ञप् (जानना)+ल्युट्-अन] १. मार डालने की क्रिया। हत्या। २. कोई बात किसी पर अच्छी तरह प्रकट करना। ठीक और पूरी तरह से बतलाना।
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संज्ञप्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संज्ञप्ति] सूचित किया हुआ।
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संज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० सम्√ज्ञप् (बताना)+क्तिन) सूचित करना। संज्ञपन।
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संज्ञा  : स्त्री० [सं०] १. प्राणियों के शारीरिक अंगों की वह शक्ति जिससे उन्हें बाह्म पदार्थों का ज्ञान अपने शरीर या मन के व्यापारों की अनुभूति हो। चेतनाशक्ति। होश। (सेन्स)। २. बुद्धि। ३. ज्ञान। ४. वस्तु, व्यक्ति आदि के पुकारे जाने का नाम। ५. किसी वस्तु या कार्य के लिए परिभाषित रूप में प्रचलित नाम। (टेक्निकल टर्म) ६. व्याकरण में वह विकारी शब्द जो किसी वास्तविक या कल्पित वस्तु का बोधक होता है। जैसे—राम, पर्वत, घोड़ा, दया आदि। (नाउन) ७. आँख, हाथ आदि हिलाकर किया जाने वाला इशारा। या संकेत। ८. विश्वकर्मा की एक कन्या जो सूर्य को ब्याही थी। ९. गायत्री का एक नाम।
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संज्ञात  : भू० कृ० [सं० सम्√ज्ञा (जानना)+क्त) अच्छी तरह जाना या समझा हुआ।
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संज्ञान  : पुं० [सं० सम√ज्ञ (जानना)+ल्यूट-अन] १. संकेत। २. इशारा। ३. ज्ञान विशेषतः सम्यक् ज्ञान।
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सज्ञान  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जिसे ज्ञान हो। ज्ञान वाला। २. समझदार। सयाना। ३. प्रौढ़। वयस्क। बालिग। ४. सचेत। सावधान।
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संज्ञापन  : पुं० [सं०] वह शब्द जो किसी वस्तु या भाव की संज्ञा का नाम के रूप में प्रचलित हो। नामवाचक शब्द।
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संज्ञापन  : पुं० [सं० सम्√ज्ञा (जानना)+णिच्-प्रक-ल्यूट-अन्] १. ज्ञान कराना या सूचित करना।। २. सूचना पत्र विशेशतः ऐसा सूचना पत्र जो माल के साथ भेजा जाता और जिसमें भेजे हुए माल का मूल्य विवरण आदि रहता है। (एडवाइस) ३. कथन।
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संज्ञापुत्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] सूर्य की पुत्री, यमुना जो संज्ञा के गर्भ में उत्पन्न हुई थी।
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संज्ञावली  : स्त्री०=नामावली।
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संज्ञावान् वत्)  : वि० [सं० संज्ञा+मतुप्-य=व-नुम्-दीर्घ] १. जो संज्ञा से युक्त हो। २. जिसमें चेतना या होश-हवास हो। ३. जिसका कोई नाम हो।
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संज्ञाहीन  : वि० [सं० तृ० त०] जिसे संज्ञा या चेतना न हो। चेतना-रहित। बेहोश। बेसुध।
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संज्ञिका  : स्त्री० [सं० संज्ञा+कन्-इत्व-टाप]=संज्ञा (नाम)।
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संज्ञी  : वि०=संज्ञावान। पुं० जीव। प्राणी।
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सज्या  : स्त्री० १.=सज्जा। २.=शय्या।
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संज्वर  : पुं० [सं० स०√ज्वर (ताप बढ़ना)+णिच्-अच्] १. बहुत तीव्र ज्वर। बहुत तेज बुखार। २. क्रोध का उग्र आवेश।
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सँझ  : स्त्री० हिं० साँझ का संक्षिप्त रूप जो उसे यौ० पदों के पहले लगने पर प्राप्त होती है। जैसे—सँझला, सँझवाती।
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सझ  : स्त्री० [सं० सज्जा] १. सजावट। २. तैयारी। (ङिं०)
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सझणु  : पुं० [सं० सज्जा] सेना को सज्जित करने की क्रिया। फौज तैयार करना। (ङिं०)
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सझनी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का छोटा पक्षी। जिसकी पीठ काली, छाती सफेद और चोंच लंबी होती है।
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सँझला  : वि० [सं० संध्या० प्रा० सँझा+हिं० ला (प्रत्य०)] संध्या संबंधी। संध्या का। वि० [हिं० मँझली का अनु०] मँझला से कुछ छोटा, और छोटा से बड़ा।
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सँझवाती  : स्त्री० [सं० संध्या+वती] १. संध्या के समय जलाया जाने वाला दीपक। शाम का चिराग। २. देहात में दीपक जलाने के समय गाया जाने वाला गीत। वि० संध्या-संबंधी। संध्या का।
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संझा  : स्त्री०=संध्या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सझिदार  : पुं० [भाव० सझिदार]=साझीदार।
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सझिया  : वि०=साझीदार।
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संझिया, सँझैया  : पुं० [सं० संध्या] वह भोजन जो संध्या के समय किया जाता है। रात्रि का भोजन। स्त्री०=साँझ (संध्या का समय)।
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सँझोखा  : पुं० [सं० संध्या] संध्याकाल। वि० [स्त्री० सँझोखी] संध्या के समय का। उदा—चलि बरि अलि अभिसार को भलीसँझोखी सैल।—बिहारी।
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सँझोखे  : अव्य=संध्या समय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सझ्झ  : वि०१. =साध्य। २. सह्या।
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सट  : पुं० [सं०√सट्-अच] जटा। अव्य० [अनु०] सट शब्द करते हुए।
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सट-पट  : स्त्री० [अनु०] १. सिटपिटाने की क्रिया। चकपकाहट। २. शील। संकोच। ३. असमंजस या दुविधा का स्थिति। आगा-पीछा। ४. डर। भय। ५. घबराहट। उदा०—अरी-खरी सटपटपरी विधु आगैं मग हेरि।—बिहारी।
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सट-सट  : अव्य० [अनु०] १. सट शब्द करते हुए। सटापट। २. झटपट। तुरंत। शीघ्र।
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सटई  : स्त्री० [दे०] अनाज रखने का एक प्रकार का बरतन।
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सटक  : स्त्री० [अनु० सट से] १. सटकने अर्थात धीरे से चंपत होने या खिसकने की क्रिया। २. तंबाकू पीने का लंबा लचीला नैचा जो अंदर छल्लेदार तार देकर बनाया जाता है। ३. पतली लचीली छड़ी या डंठल।
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सटकन  : स्त्री० [हिं० सटकना] सटकने की क्रिया या भाव।
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सटकना  : अ० [अनु० सट से] धीरे खिसक जाना। रफूचक्कर होना। चंपत होना। स० बालो में से अनाज निकालने के लिए उसे कूटने की क्रिया। कूटना। पीटना।
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सटकाना  : स० [अनु० सट से] १. छड़ी आदि से इस प्रकार मारना सट शब्द हो। जैसे—कोड़ा सटकाना बेंत सटकना। २. सट-सट शब्द करते हुए कोई क्रिया करना।
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सटकार  : स्त्री० [अनु० सट] १. सटकने की क्रिया या भाव। २. सटकाने से होने वाला शब्द। ३. गौ, बैल आदि छड़ी से हाँकने की क्रिया। ४. दे० ‘झटकार’।
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सटकारना  : स०-१. सटकाना। २. =झटकारना।
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सटकारा  : वि० [अनु०] चिकना और लंबा (बाल)। उदा०—लसत लछारे सटकारे तेरे केस हैं।—सेनापति।
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सटकारी  : स्त्री० [अनु०] ऐसी पतली छड़ी जिसे तेजी से हिलाने पर सट का शब्द हो।
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संटकी (टिन्)  : वि० [सं० सकंट+इनि] जो संकट में पड़ा हो।
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सटक्का  : पुं० [अनु० सट से] १. दौड़। २. झपट। क्रि०—प्र०—मारना। ३ दे० ‘सटका’।
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सटना  : अ० [?] १. दो चीजों का इस प्रकार से एक मे मिलना जिसमें दोनो के पाश्व एक दूसरे से लग जायँ। जैसे—दीवार से अलमारी सटना। २. चिपकना। ३. मैथुन या संभोग करना। ४. लाठियों आदि से मारपीट होना। (बाजारू) संयो० क्रि०—जाना।
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सटपटाना  : अ० [अनु०] १. सटपट की ध्वनि होना। २. दे० सिटपिटाना। स०—सटपट शब्द का उत्पन्न होना।
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सटपटी  : स्त्री० [अनु०] १. सटपटाने की क्रिया या भाव। २. सट-पट।
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सटर-पटर  : वि० [अनु०] १. छोटा-मोटा। तुच्छ। जैसै०—सटर-पटर सामान। २. बहुत ही साधारण और असमान्य। पुं० उलझन, झंझट या बखेड़े का काम करना।
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सटा  : स्त्री० [सं० सट-टाप] १. साधुओं आदि के सिर पर का जटा। २. घोड़े, शेर आदि के कंधोपर के बाल। अयाल। ३. सूअर के बाल। ४. बालों की चोटी। ५. चोटी। शिखर।
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सटाक  : पुं० [अनु०] सट शब्द। मुहा०—सटाक से=सट या सटाक शब्द करते हुए।
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सटाकी  : स्त्री० [अनु०] चमड़े की वप रस्सी या पट्टी जो कुछ छड़ियों के सिरे पर बँधी रहती है।
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सटान  : स्त्री० [हिं० सटना+आन (प्रत्य०)] १. सटाने की अवस्था या भाव। मिलान। २. वह स्थान जहाँ दो चीजें सटती हैं। संधि-स्थल।
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सटाना  : ल० [हिं० सटाना का स०] १. दो तलों, पार्श्व आदि को इस प्रकार एक दूसरे के समीप ले जाना कि दोनो एक दूसरे को स्पर्श करने लगें। जैसे—(क) मेज को दीवार से सटा दो। (ख) खटिया को खटिया से सटाना। २. किसी लसीले पदार्थ की सहायता से एक चीज को दूसरी चीज से चिपकाना। जैसे—दीवार पर इश्तहार सटाना। ३. पुरुष का परस्त्री या वैश्या से संबंध कराना। (बाजारू) ४. लाठियों आदि से लड़ाई या मार-पीट करना। (गुंडे)
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सटाय  : वि० [देश०] १. दलालों की परिभाषा में उचित या नियत से कम। न्यून। २. निम्न कोटि का। घटिया। हलका।
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सटाल  : पुं० [सं० सटा+लच्] शेर बबर। केसरी सिंह। वि० भरा हुआ। पुं०=स्टाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सटासट  : क्रि० वि० [अनु०] १. सट-सट शब्द उत्पन्न करते हुए। जैसे—सटासट बेंत चलाना। २. बहुत जल्दी-जल्दी या फुरती। जैसे—सटासट काम निपटाना।
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सटि  : स्त्री० [सं० सट+इनि] कचूर।
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सटियल  : वि० [देश० सटाय] घटिया। रद्दी।
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सटिया  : स्त्री० [हिं० सटना] १. सोने चाँदी आदि की एक प्रकार की चूड़ी। २. माँग में सिंदूर भरने का उपकरण। ३. दे० ‘साटी’।
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सटी  : स्त्री० [सं० सआटि+ङीष्] वन आदि। जंगली कचूर।
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सटीक  : वि० [सं० अव्य० स०] (पुस्तक) जिसमें मूल के साथ टीका भी हो। टीका-सहित। व्याख्यासहित। जैसे—सटीक रामायण। वि० [हिं० स+ठीक] १. बिलकुल ठीक। उपयुक्त।
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सटैया  : वि० [देश० सचाय] १. कम गुण या मूल्य वाला। घटिया। निकम्मा। रद्दी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सटैला  : पुं० [देश] एक प्रकार का पक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सटोरिया  : पुं० [हिं० सट्टा+ओरिया (प्रत्य०)] व्यक्ति जो सट्टा खेलने का शौकीन हो। सट्टेबाज।
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सट्ट  : पुं० [स० सट्टे+अच्] दरवाजे के चौखट में दोनो ओर की लकड़ियाँ। बाजू। पुं०=सट्टा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सट्टक  : पुं० पुं० [सं० सट्ट+कन्] १. एक प्रकार का उपरूपक जिसमें अदभुत रस की प्रधानता होती है। इसमें प्रवेशक और विष्कंभक नहीं होते। इसमें प्रवेशक और विष्कंभक नहीं होते। इसके अंक जवनिका कहलाते हैं। किसी समय में केवल प्राकृत भाषा में लिखे जाते थे। २. जीरा मिला हुआ मट्ठा।
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सट्टा  : पुं० [सं० सार्थ या प्राय० सट्ट, पु० हि० साट] १. वह इकरारनामा जो दो पक्षों में कोई निश्चित काम करने या कुछ शर्ते पूरी करने के लिए होता है। इकरारनामा। जैसा—बाजेवालों को पेशगी देकर उनसे सट्टा लिखा लो। २. काश्तकारों में खेत की उपज के बँटवारे के सम्बन्ध में होनेवाला इकरारनामा। ३. साधारण व्यापार से भिन्न क्रय-विक्रय का एक कल्पित प्रकार जिसमें लाभ-हानि का निश्चय भाव के उतरने-चढ़ने के हिसाब से होता है, और इसीलिए जिसकी गिनती एक प्रकार के जूए में होती है। (स्पेक्यूलेशन)। स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का पक्षी। २. बाजा। पुं०=हाट। (बाजार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सट्टा-बट्टा  : पुं० [हि० सटना+अनु० बट्टा] १. उद्देश्य-सिद्धि के लिए की हुई धूर्तता-पूर्ण युक्ति। चालबाजी। क्रि० प्र०—लड़ाना। २. किसी प्रकार की अभिसंधि के रूप में या दुष्ट उद्देश्य से किसी के साथ किया जानेवाला मेल-जोल। क्रि० प्र०—भिड़ाना।—लड़ाना। ३. स्त्री और पुरुष का अनुचित और गुप्त संबंध।
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सट्टी  : स्त्री० [हि० हाट या हट्टी] वह बाजार जिसमें एक ही मेल की बहुत सी चीजें लोग दूर दूर से लाकर बेचते हों। हाट। जैसा—तरकारी की सट्टी, पान की सट्टी। मुहावरा—सट्टी करना=सट्टी में से सामान खरीदना। सट्टी मचाना=सट्टी में जैसा शोर होता है वैसा शोर मचाना। सट्टी लगाना्=बहुत सी चीजें इधर-उधर फैला देना।
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सट्टे  : अव्य० [अनु० सट से] १. दफा। बार। २. अवसर पर। मौके पर। जैसा—हर सट्टे यही कहते थे—पान खिलाओ (केवल ‘हर’ के साथ प्रयुक्त)।
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सट्टेबाज  : पुं० [हि] [भाव० सट्टेबाजी] वह जो सट्टे की तरह का व्यापार और भाव की तेजी-मन्दी के हिसाब से (बिना माल खरीदे बेचे) लेन-देन करता हो। (स्पेक्यूलेटर)।
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सट्वा  : स्त्री० [सं०] १. एक तरह का पक्षी। २. एक तरह का बाजा।
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सँठ  : पुं० [सं० शांत] १. शांति। २. निस्तब्धता। २. चुप्पी। मौन। मुहा—सेँठ मारना=चुप हो जाना। चुप्पी साधना। वि०=शठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सठ  : पुं०=शठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सठई  : स्त्री०=शठता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सठमति  : वि० [सं० शठ+मति] दुष्ट प्रकृतिवाला। दुष्ट। उदाहरण—तजतु अठान न हठ परयौ सठमति आठौ जाम।—बिहारी।
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सठियाना  : अ० [हि० साठ= ६॰] [भाव० सठियाव] १. साठ वर्ष का बुड्ढा होना। २. मनुष्य का ६॰ वर्ष या इससे अधिक का हो जाने पर मानसिक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण ठीक तरह से काम-धंधा करने या सोचने-समझने के योग्य न रह जाना। मुहावरा—सठिया जाना=ऐसी अवस्था में पहुँचना जबकि बुद्धि ठीक से काम करना छोड़ देती है।
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सठियाव  : पुं० [हि० सठियाना+आव (प्रत्यय)] सठिया जाने या सठियाने हुए होने की अवस्था या भाव। वह अवस्था जिसमें मनुष्य ६॰ वर्ष या अधिक का हो जाने पर ठीक तरह से काम-धंधा करने या सोचने-समझने के योग्य नहीं रह जाता। (सेनिलिटी)
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सठुरी  : स्त्री० [हि० सीठी या साँठी] गेहूँ,जौ आदि के डंठलों का वह गठीला अंश जिसका भूसा नहीं होता और जो ओसाकार अलग कर दिया जाता है। गठुरी। कूँटा। कूँटी।
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सठेरा  : पुं० [हि० साँठा] सन का वह डंठल जो सन निकाल लेने पर बच रहता है। संठा। सरई। सलई।
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सठोरना  : स० [हि० बटोरना का अनु० बटोरना-सठोरना] एकत्र या संचित करना।
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सठोरा  : पुं०=सोंठौरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सठ्ठो  : पुं० [?] ऊँट (राज०)।
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संड  : पुं० [सं० शंड] साँड़। पद—संड-मुसंड।
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संड-मुसंड  : वि० [सं० शुंड, मुशुंडि=हाथी, हिं० संड+मुसंड (अनु०)] हट्टा-कट्टा। मोटा-ताजा।
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सड़क  : स्त्री० [अ० शरक] १. वह कच्चा या पक्का मार्ग जिस पर गाड़ियाँ, टाँगे, मोटरे, आदि भी चलती हों। २. लाक्षणिक अर्थ में पथ या मार्ग। जैसा—राम नाम स्वर्ग तक पहुँचने की सड़क है।
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सड़क्का  : पुं० दे० ‘सटक्का’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सड़न  : स्त्री० [हि० सड़ना] १. सड़ने की अवस्था, क्रिया या भाव। (डिकाम्पोजिशन)। २. दे० ‘पूयन’।
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सड़ना  : अ० [सं० शादन या सरण] १. किसी पदार्थ में ऐसा विकार होना जिससे उसके संयोजक तत्त्व या अंग अलग-अलग होने लगें, उसमें से दुर्गन्ध आने लगे और वह काम के योग्य न रह जाय। जैसा—अनाज या फल सड़ना। २. लाक्षणिक अर्थ में हीन अवस्था में पड़े रहना। जैसा—जेल में कैदियों का सड़ना। ३. जल मिले हुए पदार्थ में खमीर उठना या आना। संयो० क्रि०—जाना। ४. बहुत ही कष्ट या बुरी दशा में पड़े-पड़े समय बिताना। जैसा—बरसों उसे जेल में सड़ना पड़ा। पद-सड़ी गरमी=प्रायःवर्षा ऋतु में होनेवाली वह गरमी जिसमें उमस बहुत अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—६७।
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सँड़सा  : पुं० [हिं० सँड़सी] बड़ी सँड़सी।
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सँड़सी  : स्त्री० [?] रसोई में बरता जाने वाला एक तरह का कैंची नुमा उपकरण जिसके द्वारा बटलोई, तसला आदि चूल्हे पर से उतारे जाते हैं।
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सड़सी  : स्त्री०=सँड़सी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संडा  : वि० [हिं० साँड़] साँड़ के समान ताकत वाला। हष्ट-पुष्ट। उदा०-मुल्को में सरनाम कि जिनके अधिक विराजे झंडे। जितने चेले गुरु नानक के, सदा बने रहें झंडे। पद—संडा-मुसंडा। पुं० बलवान और हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति या प्राणी।
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सड़ा  : पुं० [हि० सड़ना] कुछ चीजों को सड़ाकरबनाया हुआ वह घोल जो गौओं को बच्चा होने के समय पिलाते हैं।
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संड़ाई  : स्त्री० [हिं० साँड़] मशक की तरह बना हुआ भैंस आदि का वह हवा भरा हुआ चमड़ा जो नदी आदि पार करने के लिए नाव के स्थान पर काम पर लाते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सड़ाक  : पुं० [अनु० सड़ से] कोड़े आदि की फटकार की आवाज,जो प्रायः सड़ के समान होती है। पद-सड़ाक से=बहुत जल्दी।
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सड़ान  : स्त्री० [हि० सड़ना] सड़ने की क्रिया या भाव। सड़न।
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सड़ाना  : स० [हि० सड़ना का स० रूप] १. किसी वस्तु को सड़ने में प्रवृत्त करना। किसी पदार्थ में ऐसा विकार उत्पन्न करना कि उसके अवयव गलने लगें और उसमें से दुर्गन्ध आने लगे। जैसा—सब आम तुमने रखे-रखे सड़ा डाले। संयो० क्रि०—डालना।—देना। २. बहुत अधिक कष्ट या दुर्दशा में इस प्रकार रखना कि कोई उपयोग न हो सके। जैसा—किसी को जेल में रखकर सड़ाना।
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सड़ायँध  : स्त्री० [हि० सड़ना+गंध] सड़ी हुई चीज से निकलनेवाली दूषित उग्र गंध। सड़ने से उठनेवाली बदबू।
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सड़ाव  : पुं० [हि० सड़ना+आव (प्रत्यय) १. सड़ने की क्रिया या भाव। २. सड़ने के फलस्वरूप होनेवाला विकृत रूप या स्थिति।
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संडास  : पुं०[?]कुएँ की तरह एक प्रकार का गहरा गड्ढा जिसमें लोग मल त्याग करते हैं। शौच-कूप।
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संडास-टंकी  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की लोहे की टंकी जिसमें घर भर का मल या पाखाना इकठ्ठा होता रहता है (सेप्टिक टैंक)।
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सड़ासड़  : अव्य० [अनु० सड़ से] सड़ सब्द के साथ। जिसमें सड़ सब्द हो। जैसा—सड़ासड़ कोड़े या बेंत लगाना।
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सड़ियल  : वि० [हि० सड़ना+इयल (प्रत्य)] १. सड़ा या गला हुआ। २. बहुत ही निकम्मा निम्न कोटि का या रद्दी। ३. (व्यक्ति) जो जला-भुना उत्तर देता हो।
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सणगार  : पुं०=श्रृंगार। (डि०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सणिक  : पुं० [सं०] महावत का अंकुश। स्त्री० थूक।
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संत  : पुं० [सं० सत] १. साधु, सन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष। सज्जन और महात्मा। २. परम धार्मिक और साधु व्यक्ति। ३.साधुओं की परिभाषा में, वह सम्प्रदाय मुक्त साधु जो विवाह करके ग्रहस्थ बन गया हो। ४. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में २१ मात्राएँ होती हैं। वि० बहुत ही निर्मल और पवित्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत  : पुं० [सं० सत्] सत्यता पूर्ण धर्म। मुहावरा—सत करना या सत पर चढ़ना=पति का मृत शरीर लेकर पत्नी का चिता पर बैठना और उसके साथ सती होना। उदाहरण—(क) मूवाँ पीछे यत करे, जीवत क्यूं न कराइ।—कबीर। (ख) जब सती सत पर चढ़े तब पान रस्म है। सत पर रहना= (क) सत्य धर्म का पालन करना। (ख) स्त्री का पतिव्रता और साध्वी होना। पुं० [सं० सत्य] १. किसी चीज में से निकला हुआ सार भाग। तत्त्व। २. जीवनी शक्ति। वि० १. सत्यतापूर्ण। जैसा—सतगुरु,सतनाम। २. अच्छा। भला०। जैसा—सत भाय। ३. शत। सौ। जैसा—सतदल। वि० सात (संख्या) का संक्षिप्त रूप। (यौ० के आरं में जैसा—सतकोना, सतनजा, सतपदी सतसई आदि)।
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सत  : स्त्री०=सेंती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत-कोना  : वि० [हि० सात+कोना] सात कोनोंवाला।
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सत-खंडा  : वि० [हि० सात+खंड] सात खंडो या मंजिलोंवाला। (मकान या महल)।
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सत-गजरा  : पुं० दे० सतनजा। (बुन्देल) उदाहरण-सतगजरा की सोधी रोटी, मिरच हरीरी मेवा।—लोकगीत।
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सत-गँठिया  : स्त्री० [सं० सात+गाँठ] एक प्रकार की वनस्पति, जिसकी तरकारी बनाई जाती है।
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सत-गुरु  : पुं० [हि० सत=सच्चा+गुरु] १. अच्छा गुरु। २. ईश्वर। परमात्मा।
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सत-जुग  : पुं०=सत्य युग।
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सत-दंता  : वि० [हि० सात+दाँत] (पशु) जिसके सात दाँत हों।
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सत-दल  : वि० पुं०=शत-दल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत-ध्रत  : पुं०=शतधृत (ब्रह्मा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत-पतिमा  : वि० स्त्री० [हि० सात+पति] १. (स्त्री) जिसने सात पति किये हों। २. दुश्चरित्रा। पुंश्चली। वि० सात पतियोंवाला (या वाली)। स्त्री०=सतपुतिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत-परब  : पुं० [सं० शतपर्वा] १. शत पर्व्वा। बाँस। २. ऊख। गन्ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत-पात  : पुं० [सं० शतपत्र] शतपत्र। कमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत-पुतिया  : स्त्री० [सं० सप्तपुत्रिका] एक प्रकार का तरोई जिसमें प्रायः पाँच या सात फलियाँ एक साथ गुच्छे के रूप में लगती हैं।
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सत-पुरिया  : स्त्री० [?] एक प्रकार का जंगली मधुमक्खी।
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सत-भाएँ  : अव्य० [सं० सद्भाव] अच्छे भाव से।
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सत-भाय  : पुं०=सद्भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सत-माय  : स्त्री० [हिं० सौत+माँ] सौतेली माँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत-मृत्तिका  : स्त्री० [सं०] शांति पूजन में काम आने वाली इन सात स्थानों की मिट्टी।—अश्वशाला, गजशाला, गौशाला, तीर्थ-स्थान, राजद्वार, गुरुद्वार और नदी।
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सत-युग  : पुं० [सं० सत्य युग] १. सत्य युग। २. ऐसा समय जब कि लोग सब प्रकार से सुखी, सच्चे और सदाचारी हों।
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सत-रंग  : वि०=सत-रंगा।
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सत-लड़ा  : वि० [हि० सात+लड़] [स्त्री० सतलड़ी] सात लड़ोंवाला। जैसा—सतलड़ा हार। पुं० [स्त्री० अल्पा० सतलड़ी] सात लड़ियोंवाला बड़ा हार।
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सतकार  : पुं०=सत्कार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतकारना  : स० [सं० सत्कार+हि० ना (प्रत्यय)] सत्कार या सम्मान करना। इज्जत करना।
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सतजीत  : पुं०=सत्यजित्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संतत  : अव्य० [सं०] निरंतर। बराबर। लगातार। वि० १. फैला या फैलाया हुआ। विस्तृत। २. लगातार चलता या बना रहने वाला। जैसे—संतत ज्वर, संतत वर्षा। स्त्री०=संतति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतत  : अव्य० [सं०] १. निरन्तर। बराबर। लगातार २. सदा हमेशा। वि० [भाव० सतति] निरन्तर चलता रहनेवाला। (परपेचुअल) जैसा—सतत उत्तरोत्तरता या अनुक्रम। परपेचुअल। सक्सेशन)।
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सतत-ज्वर  : पुं० [सं०] ऐसा ज्वर जो दिन में दो बार आये या कभी दिन में एक बार और फिर रात को भी एक बार आय़े। द्विकालिक विषम ज्वर।
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सततक  : वि० [सं०] दिन में दो बार आने या होनेवाला जैसा—सततक ज्वर।
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सततग  : वि० [सं०] वह जो सदा चलता रहता हो। निरन्तर गतिशील। पुं० वायु। हवा।
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संतति  : स्त्री० [सं०] १. फैलाव। विस्तार। २. किसी काम या बात का लगातार होता रहना। ३. बाल-बच्चे। संतान। औलाद। ४. प्रजा। रिआया। ५. गोत्र। ६. झुंड। दल। ७. मार्कंडेय पुराण के अनुसार ऋतु की पत्नी जो दत्त की कन्या थी।
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संतति-होम  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का यज्ञ जो संतान की कामना से किया जाता था।
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सतत्व  : पुं० [सं० अव्य० स०] स्वभाव। प्रकृति।
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सतनजा  : पुं० [हि० सात+अनाज] सात भिन्न प्रकार के अनाजों का मिश्रित रूप। वह मिश्रण, जिसमें सात भिन्न-भिन्न प्रकार के अनाज हों। वि० अनेक प्रकार के तत्त्वों, पदार्थों आदि से मिल-जुलकर बना हुआ।
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सतनी  : स्त्री० [सं० सप्तपर्णी] १. सप्तपर्णी वृक्ष। सतिवन। छतिवन। २. एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसकी लकड़ी से सन्दूक आदि बनते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतनु  : वि० [सं० अव्य० स०] तन या शरीर से युक्त। शरीरधारी।
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सतपदी  : स्त्री०=सप्तपदी।
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संतपन  : पुं० [सं० सम्√ तप् (तप्त होना)+ल्युट-अन] १. अच्छी तरह तपने या तापने की क्रिया या भाव। २. बहुत अधिक संताप या दुःख देना।
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सतफल  : पुं० [सं० शतफला] घुँघची।
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सतफेरा  : पुं० [हि० सात+फेरा] विवाह के समय होनेवाला सप्तपदी नामक कर्म।
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सतबरग  : पुं०=सदबरग (पौधा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतबरवा  : पुं० [सं० शतपर्व=बाँस] एक प्रकार का वक्ष जिसके रेशों से नैपाली कागज बनाया जाता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतभइया  : वि० स्त्री [हि० सात+भइया] १. जो सात भाई हों। २. जिसके सात भाई हों। स्त्री० पेंगिया मैना।
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सतभाव  : पुं० [सं० सद्भाव] १. सद्भाव। अच्छा भाव। २. सरलता। सीधापन। ३. सचाई। सत्यता।
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सतभिखा  : स्त्री०=शतभिषा (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतभौंरी  : स्त्री० [सं० सप्त भ्रमण] सप्तपदी (दे०)।
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सतम  : वि०=सप्तम (सातवाँ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सतमख  : पुं०[सं०शतमख] इंद्र। (डिं०)
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सतमासा  : वि० [हिं० सात+मास][स्त्री० सतमासी] (शिशु या बालक) जो गर्भ से सात महीने रहने के उपरान्त जनमा हो, नौ महीने अर्थात पूरी अवधि तक न रहा हो। पुं० एक रसम जो गर्भाधान के सातवें महीनें में होती है।
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सतमूली  : स्त्री०=शतमूली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतयुगी  : वि० [हिं० सत-युग] १. सत-युग के समय का। २. बहुत पुराना। ३. बहुत ही सच्चा, सात्विक या सीधा।
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सतर  : पुं० [अं०] १. छिपाव। २. मनुष्य का वह अंग जो ढका रखा जाता है और जिसके न ढके रहने पर उसे लज्जा आती है। गुह्य इन्द्रिय। पद-बे-सतर= (क) नंगा। नग्न। (ख) बुरी तरह से अपमानित किया हुआ। ३. आड़। ओट। परदा। स्त्री० [अं०] १. लकीर। रेखा। क्रि० प्र०—खींचना। २. अवली। कतार। पक्ति। वि० १. टेढ़ा। वक्र। २. कुपित। क्रुद्ध। अव्य० [सं० सत्वर] जल्दी या तेजी से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतरकी  : स्त्री०=स्त्री०=सत्रहीं (मृतक की क्रिया)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतरंगा  : वि० [हिं० सात+सं० रंग][स्त्री० सत-रंगी] जिसमें सात रंग हो। सात रंगों वाला। जैसा—सतरंगा साफा, सतरंगी साड़ी। पुं० इन्द्र धनुष।
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सतरंज  : स्त्री०=शतरंज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतरंजी  : स्त्री०=शतरंजी।
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संतरण  : पुं० [सं० सम्√ तृ (तैरकर पार होना)+ल्यूट्—अन] १. अच्छी तरह से तैरने या पार होने की क्रिया या भाव। वि० १. तारने वाला। २. नष्ट करने वाला (यौं के अंत में )
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संतरा  : पुं० [पुर्त० संगतरा] एक प्रकार का बड़ा और मीठा नीबू। बड़ी नारंगी।
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सतराई  : स्त्री० [सं० शत्रु+हिं० आई (प्रत्य०)] दुश्मनी। शत्रुता।
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सतराना  : अ० [हिं० सतर या सं० सतर्जन] १. क्रोध करना। कोप करना। २. कुढ़ना। चिढ़ना। सयो० क्रि०—जाना। ३. चोचला, दुलार या नखरा दिखाते हुए धृष्टतापूर्ण आचरण करना। सं० १. क्रोध चढ़ाना। २. चिढ़ाना।
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सतराहट  : स्त्री० [हिं० सतराना+हट (प्रत्य०)] सतराने की अवस्था, क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संतरी  : पुं० [अं० सेंटरी] १. किसी स्थान पर पहरा देने वाला सिपाही। पहरेदार। २. द्वारपाल।
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सतरी  : स्त्री० [सं० सर्पद्रंष्ट्रा] सर्पद्रंष्ट्रा नामक ओषधि।
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सतरू  : पुं०=शत्रु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतरौहाँ  : वि० [हिं० सतराना] [स्त्री० सतरौही] १. कुपित। क्रोध युक्त। २. सतरानेवाला। सतराहट से युक्त। (फलतः कुढ़ने, चिढ़ने या रूठनेवाला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतरौहें  : अव्य० [हिं० सतराना] सतराते हुए। सतराहट लिए हुए।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतर्क  : वि० [सं०] [भाव० सतर्कता] १. जो तर्क करने में कुशल हो। २. (व्यक्ति) जो अपनी तथा दूसरों की आवश्यकताओं, विचारों, भावनाओं का पूरा-पूरा ध्यान रखता हो। (कानसिडरेट)। ३. जो दूसरों के व्यापारों, कार्यो, आदि की थाह पहले से लगा या अनुमान कर लेता हो और इसीलिए चौकन्ना रहता हो। सावधान।
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सतर्कता  : स्त्री० [सं० सतर्क+तल्-टाप्] १. सतर्क होने की अवस्था, गुण या भाव। २. सावधानी। होशियारी।
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संतर्जन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संतर्जित] १. डाँट-डपट करना। डराना। धमकाना। २. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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संतर्पक  : वि० [सं० सम√तृप् (तृप्त करना)+ण्वुल्-अक] संतर्पण करने वाला।
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संतर्पण  : पुं० [सं०] [कर्ता संतर्पक, भू० कृ० संतृप्त] १. अच्छी तरह तृप्त, प्रसन्न या संतुष्ट करने की क्रिया या भाव। २. आधुनिक विज्ञान में, कोई ऐसी प्रक्रिया जिससे (क) कोई घोल किसी वस्तु के अन्दर पूरी तरह से समा जाय; या (ख) कोई तत्व या वस्तु किसी दूसरे पदार्थ के अन्दर अच्छी तरह से भर जाय।
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सतर्पना  : स० [सं० संतपर्ण] भली-भांति तृप्त या संतुष्ट करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सतर्ष  : वि० [सं० अव्य० स०] तृषित। प्यासा।
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सतलज  : स्त्री० [सं० सतद्र] पंजाब की पाँच नदियो में से एक। शतद्र नदी।
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सतवंती  : स्त्री० [सं० सत्यवती] पतिव्रता या सती और साध्वी स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतवार  : वि० [सं० सत्] सत् या धर्म पर होनेवाला। सदाचारी और धर्मनिष्ठ।
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सतवारा  : पुं० [हि० सात+वार] सात दिनों का समूह। सप्ताह।
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सतवांसा  : वि० पुं०=सतमासा।
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सतसई  : स्त्री० [सं० सप्तशती] वह ग्रंथ जिसमें सात सौ पद्य हों। सात सौ पद्यों का समूह या संग्रह। सप्तशती। जैसा—बिहारी-सतसई।
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सतसंग  : पुं०=सत्संग।
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सतसंगति  : स्त्री०=सत्संग।
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सतसंगी  : वि०=सत्संगी।
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सतसठ  : वि०=सड़सठ।
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सतसल  : पुं० [देश] शीशम का पेड़।
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सतह  : स्त्री० [अ०] [वि० सतही] १. किसी वस्तु का ऊपरी भाग या विस्तार। २. बाहर या ऊपर का फैलाव। (लेबिल)। जैसा—जमीन या समुद्र की सतह। २. रेखागणित में वह विस्तार जिसमें लम्बाई-चौड़ाई तो हो पर मोटाई न हो।
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सतहत्तर  : वि० [सं० सप्त सप्तति, प्रा० सत्तसत्तति, प्रा० सत्तहत्तरि] जो गिनती में सत्तर से सात अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इसप्रकार लिखी जाती है—७७।
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सतही  : वि० [हि० सतह] १. सतह या ऊपरी स्तर पर होनेवाला। २. ऊपरी। दिखौआ।
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सतांग  : पुं०=शतांग (रथ)।
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संतान  : पुं० [सं०] १. स्त्री और पुरुष या नर और मादा के संयोग से उत्पन्न होने वाले उसी प्रकार या वर्ग के अन्य जीव आदि। २. बाल-बच्चे लड़के बाले। संतति। औलाद। ३. कुल। वंश। ४. विस्तार। फैलाव। ५. लगातार चलता रहने वाला क्रम। धारा। ६. प्रबंध। व्यवस्था। ७. कल्पतरु। ८. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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संतान-गणपति  : पुं० [सं०] पुराणानुसार एक विशिष्ट गणपति जो संतान देने वाले कहे गये हैं।
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संतान-संधि  : स्त्री० [सं०] राजनीति क्षेत्र में ऐसी संधि जो अपना लड़का या लड़की देकर की जाय।
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सतानंद  : पुं० [सं० ब० स०] गौतम ऋषि के पुत्र, जो राजा जनक के पुरोहित थे।
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सताना  : स० [सं० संतापन, प्रा० संतावन] १. संतप्त करना। २. मानसिक क्लेश पहुँचाकर परेशान करना। ३. तंग या परेशान करना।
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संतानिक  : वि० [सं० संताम+ठन्-इक] कल्पतरु के फूलों से बना हुआ। वि० संतान-संबंधी। संतान का।
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संतानिका  : स्त्री० [सं० संतानिक—टाप्] १. क्षीर सागर। २. फेन। ३. मलाई। ४. चाकू का फल। ४. एक तरह की घास।
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संतानिनी  : स्त्री० [सं० संताप+इनि-ङीप्] दूध या दही पर की मलाई। साढ़ी। वि० संतान अर्थात बाल-बच्चों वाली (स्त्री)।
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संताप  : पुं० [सं० सम्√तप् (तपना)+घञ] १. अग्नि धूप आदि का बहुत तीव्र ताप। आँच। २. शरीर में किसी कारण से होने वाली बहुत अधिक जलन। ३. ज्वर। बुखार। ४. शरीर में होने वाला दाह नामक रोग। ५. कोई ऐसा बहुत बड़ा कष्ट या दुःख जिससे मन जलता हुआ सा जान पड़े। बहुत तीव्र मानसिक क्लेश या पीड़ा। ६. दुश्मन। शत्रु। ७. पाप आदि करने पर मन में होने वाला अनुताप।
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संतापन  : पुं० [सं० सम्√तप् (तपाना)+णिच्-ल्यूट्—अन्] १. संताप देने या संतप्त करने की क्रिया। जलाना। २. किसी को बहुत अधिक कष्ट या दुःख देना। संतप्त करना। ३. एक हथियार। ४. काम देव के पाँच बाणों में से एक वि० संतप्त करने वाला।
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संतापना  : स० [सं० संतापन] संताप देना। बहुत अधिक दुःख देना। सताना।
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संतापित  : भू० कृ०[सं० सम्√ तप् (ताप पहुँचाना)+णिच्-क्त] जिसे बहुत संताप पहुँचाया गया हो। पीड़ित। संतप्त।
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संतापी (पित्)  : वि० [सं० सम्√ तप् (तप्त करना)+णिन्, संतापिन] संतप्त करने या दोष देनेवाला।
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संताप्य  : वि० [सं० सम्√ तप् (तपाना)+णिच्-ण्यत्] १. जलाये या तपाये जाने के योग्य। २. पीड़ित या संतप्त किये जाने योग्य।
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सतार  : पुं० [सं० अव्य० स०] जैनों के अनुसार ग्वारहवाँ स्वर्ग। वि० १. तारकों या तारों से युक्त। उदाहरण—चुनरी स्याम सतार, नभ, मुख ससि के अनुहारि।—बिहारी। २. जिसमें तारे टँके बने या लगे हुए हों।
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सतारुक  : पुं० [सं० अव्य० स०] एक रोग जिसमें शरीर पर लाल और काली फुँसियाँ निकलती है।
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सतारू  : पुं०=सतारुक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतालुई  : वि० [हि० सतालू] सतालू (फल) की तरह का हलका लाल। (क्रिम्सन) पुं० उक्त प्रकार का रंग जो गुलनारी से हलका होता है।
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सतालू  : पुं० [सं० सप्तालुक, मि० फा० शप्तालू] १. एक प्रकार का पेड़ जिसके गोल फल खाये जाते हैं। २. उक्त पेड़ का फल। आडू। शफतालू।
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सतावना  : स०=सताना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतावर  : स्त्री० [सं० शतावरी] एक प्रकार का झाड़दार बेल जिसकी जड़ और बीज औषध के काम आते हैं। शतमूली। नारायणी।
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सतासी  : वि० पुं०=सत्तासी।
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संति  : स्त्री० [सं०√ सनु (दान करना)+क्तिच्] १. दान। २. अन्त। समाप्ति।
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सति  : पुं० दे० सत्य। वि०=सत्। स्त्री०=सती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतिगुर  : पुं०=सदगुरु।
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सतिभाएँ  : अव्य०=सतभाएँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतिया  : वि०=सौतेला। पुं०=सथिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतिवन  : पुं० [सं० सप्तपर्ण, प्रा० सत्तवन्न] एक सदाबहार बड़ा पेड़ जिसकी छाल दवा के काम आती है। सप्तपर्णी। छतिवन।
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संती  : अव्य० [सं० संति?] १. बदले में। एवज में। स्थान पर। २. द्वारा।
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सती  : वि० स्त्री० [सं०] १. अपने पति के अतिरिक्त और किसी पुरुष का ध्यान मन में न लानेवाली। साध्वी। पतिव्रता। २. अपने पति के मरने पर उसके साथ ही जल या मर जानेवाली। सहगामिनी। क्रि० प्र०—होना। स्त्री० १. दक्ष प्रजापति की कन्या जो शिव को ब्याही थी। २. विश्वामित्र की पत्नी का नाम। ३. पतिव्रता स्त्री। साध्वी। ४. वह स्त्री जो अपने पति के शव के सात चिता में जले। सहगामिनी स्त्री। मुहावरा—(पति के साथ) सती होना=मरे हुए पति के शरीर के साथ चिता में जल मरना। सहगमन करना। (किसी काम या बात के लिए) सती होना=बहुत अधिक कष्ट झेलते हुए मर मिटना। ६. मादा पशु। ७. सुगंधित या सोंधी मिट्टी। ८. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण और एक गुरु होता है। पुं० [सं० सत्] १. वह जो सतधर्म का पालन करता हो। २. सात्त्विक वृत्तियोंवाला साधु या महात्मा। जैसा—बड़े-बड़े जोगी, जती और सती भी उसकी महिमा का पार नहीं पा सके। स्त्री० १.=शती। २.=शक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सती-चौरा  : पुं० [सं० सती+हि० चौरा] वह बेदी या छोटा चबूतरा जो किसी स्त्री के सती होने के स्थान पर उसके स्मारक में बनाया जाता है।
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सतीत्व  : पुं० [सं० सती+त्व] सती होने की अवस्था, धर्म या भाव। पातिव्रत्य। मुहावरा—किसी स्त्री का) सतीत्व बिगाड़ना या नष्ट करना=किसी स्त्री से बलात्कार करना।
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सतीत्व-हरण  : पुं० [सं० ष० त०] किसी सच्चरित्रा स्त्री के साथ बलात्कार करके उसका सतीत्व बिगाडना।
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सतीदोषोन्माद  : पुं० [सं० मध्मि० स०] स्त्रियों का वह उन्माद रोग जिसका प्रकोप किसी सतीचौरे को अपवित्र करने के कारण माना जाता है।
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सतीन  : पुं० [सं० सती√नी (ढोना)+ड] १. एक प्रकार का मटर। २. अपराजिता या कोयल नाम की लता।
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सतीपन  : पुं०=सतीत्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतीर्थ  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक ही आचार्य से पढ़नेवाले विद्यार्थी या ब्रह्मचारी। सहाध्यायी। २. सहपाठी।
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सतील  : पुं० [सं० अव्य० स०] १. बाँस। २. अपराजिता। २. वायु। हवा।
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सतुआ  : पुं०=सत्तू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतुआ संक्रांति  : स्त्री० [हि० सतुआ+सं० संक्रान्ति] मेघ की संक्रान्ति जो प्रायः वैशाख में पड़ती है। इस दिन लोग सत्तू दान करते और खाते हैं।
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सतुआ सोंठ  : स्त्री० [हि० सतुआ+सोंठ] एक प्रकार की सोंठ।
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सतुआन  : स्त्री०=सतुआ संक्रान्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संतुलन  : पुं० [सं०] १. अच्छी तरह तौलने की क्रिया या भाव। २. तौलते समय तराजू के दोनों पलड़े बराबर या ठीक करना या होना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, वह स्थिति जिसमें सभी अंग या पक्ष बराबर के तथा यथा स्थान हों (बैलेन्स)।
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सतुला  : स्त्री० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का जाँघिया जो घुटनों तक होता है।
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संतुलित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका संतुलन हुआ हो। २. जिसमें दोनों पक्षों का बल या प्रभाव समान हो या रखा जाय। ३. न अधिक न कम। ठीक (बैलेन्सड)।
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संतुष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√तुष् (संतोष होना)+क्त] [भाव० संतुष्टि] १. जिसका संतोष कर दिया गया हो। जिसकी तृप्ति हो गई हो। तृप्त। २. समझाने बुझाने से राजी हो गया या मान गया हो।
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संतुष्टि  : स्त्री० [सं० सम्√तुष् (तुष्ट होना)+क्तिज] १. संतुष्ट होने की क्रिया या भाव। पृप्ति २. संतोष। ३. प्रसन्नता।
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सतून  : पुं० [सं० स्थाणु से फा० सुतून] स्तंभ। खंभा।
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सतूना  : पुं० [हि० सतून=खंभा] बाज की एक प्रकार का झपट जिसमें वह पहले शिकार के ठीक ऊपर उड़ जाता है और फिर एकबारगी नीचे की ओर उस पर टूट पड़ता है।
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संतूर  : पुं० [कश्मी०] शत-तंत्री वीणा का कश्मीरी नाम।
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संतृप्त  : भू० कृ० [सं०] १. बहुत अधिक तपा या जला हुआ। दग्ध। २. जिसे बहुत अधिक संताप या मानसिक कष्ट पहुँचा हो। ३. जिसका मन बहुत दुःखी हो। ४. थका हुआ। श्रान्त। ५. गला या पिघला हुआ।
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सतेरक  : पुं० [सं० सतेर+कन्] ऋतु। मौसम।
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सतेरी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मधुमक्खी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संतोख  : पुं०=संतोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतोखना  : स० [सं० संतोषण] २. संतुष्ट करना। प्रसन्न करना। २. समझा बुझाकर संतोष या ढाढ़स दिलाना।
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सतोगुण  : पुं०=सत्त्वगुण।
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सतोगुणी  : वि०=सत्त्वगुणी।
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सतोदर  : पुं०=शतोदर (शिव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संतोष  : पुं० [सं० स०√तुष् (संतोष करना)+घञ] १. वह मानसिक अवस्था जिसमें व्यक्ति प्राप्त होने वाली वस्तु को यथेष्ट समझता है और उससे अधिक की कामना नहीं रखता है। २. वह अवस्था जिसमें अभीष्ट कार्य होने या वांछित वस्तु प्राप्त होने पर क्षोभ मिट जाता है। और फलतः कुछ अवस्थाओं में हर्ष भी होता है। जैसे—मजदूरों की माँगें पूरी हो जाने पर ही संतोष होगा। तृप्ति। ३. हर्ष। आनन्द। ४. धैर्य।
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संतोषक  : वि० [सं० संतोष+कन्] १. संतुष्ट करने वाला। २. प्रसन्न करने वाला।
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संतोषण  : पुं० [सं० सम्√ तुष् (संतोष होना)+ल्युटु-अन] १. संतोष करने की क्रिया या भाव। २. संतुष्ट करने की क्रिया भाव।
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संतोषणीय  : पुं० [सं० सम्√ तुष् (संतोष होना)+अनीयर] जिससे या जितने में संतोष हो सके।
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संतोषना  : अ० [सं० संतोष] १. संतोष होना। २. संतुष्ट होना। स० १. संतोष करना। २. संतुष्ट करना।
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संतोषी (षिन्)  : वि० [सं० सम्√तुष् (प्रसन्न रहना)+णिनि] (व्यक्ति) जो प्राप्त होने वाली वस्तु को यथेष्ट समझता होता हो और उसी में संतुष्ट रहता हो।
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संतोष्य  : वि० [सं० सम्√तुष् (संतोष करना)+यत्] जिसका संतोष करना या जिसे संतुष्ट करना आवश्यक या उचित हो।
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सतौला  : पुं० [हि० सात+औला (प्रत्यय)] प्रसूता स्त्री का वह विधिवत् स्नान जो प्रसव के सातवें दिन होता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सतौसर  : वि० [सं० सप्तसृक्] सात लड़ों का। सतलड़ा।
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सत्  : वि० [सं०√अस् (होना)+शतृ-अलोप] १. सच। सत्य। २. सज्जन। साधु। ३. धीर। ४. स्थायी। ५. पंडित। विद्वान। ६. पूज्य। मान्य। ७. प्रशस्त। ८. पवित्र। सुद्ध। ९. उत्तम। श्रेष्ठ। पुं० १. ब्रह्मा। २. माध्व संप्रदाय का एक नाम।
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सत्कदंब  : पं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का कदंब।
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सत्करण  : पुं० [सं० ष० त० कर्म० स०] [वि० सत्करणीय, भू० कृ० सत्कृत] १. सत्कार करना। आदर करना। २. मृतक की अन्त्येष्टि क्रिया करना।
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सत्करणीय  : वि० [सं० सत√कृ (करना)+अनीयर, कर्म० स०] जिसका सत्कार करना आवश्यक और उचित हो। सत्कार का पात्र। आदरणीय पूज्य।
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सत्कर्ता (र्त्त)  : वि० [सं० कर्म० स०] [स्त्री० सत्कर्त्री] १. अच्छा काम करनेवाला। सत्कर्म करनेवाला। २. आदर-सत्कार करनेवाला। पुं० आजकल वह व्यक्ति जो आगत और निमंत्रित व्यक्तियों का किसी रूप में सत्कार करता हो।
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सत्कर्म  : पुं० [सं० कर्म० स० सत्कर्मन्] १. अच्छा कर्म। अच्छा काम। २. धर्म या पुण्य का काम।
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सत्कर्मा (मन्)  : वि० [सं० ब० स०] सत्कर्म करनेवाला।
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सत्काय दृष्टि  : स्त्री० [सं०] मृत्यु के उपरांत आत्मा, लिंगशरीर आदि के बने रहने के सिद्धान्त जो बौद्धों की दृष्टि में मिथ्या है।
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सत्कार  : पुं० [सं०] १. अभ्यागत, अतिथि आदि की की जानेवाली खातिरदारी तथा सेवा। २. धन आदि भेंट देकर किसी का किया जानेवाला आदर-सम्मान या सेवा।
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सत्कारक  : वि० [सं०] सत्कार करनेवाला। सत्कर्ता।
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सत्कार्य  : वि० [सं० सत्√कृ (करना)+ण्यत्] १. जिसका सत्कार होना आवश्यक या उचित हो। सत्कार का पात्र। २. (मृतक) जिसकी अन्तेष्टि क्रिया होने को हो। पुं० उत्तम कार्य। अच्छा काम।
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सत्कार्यवाद  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. सांख्य का यह दार्शनिक सिद्धान्त कि बिना करण के कर्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः यह सिद्धान्त कि इस जगत की उत्पत्ति शून्य से नहीं किसी मूल सत्ता से है। यह सिद्धान्त बौद्धों के शून्यवाद के विपरीत है। २. दे० ‘पारिणामवाद’।
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सत्कीर्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] उत्तम कीर्ति। यश। नेकनामी।
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सत्कुल  : पुं० [सं० कर्म० स०] उत्तम कुल। अच्छा या बड़ा खानदान। वि० जो अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ हो।
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सत्कृत  : वि० [सं० सत्√कृ (करना)+क्त] १. अच्छी तरह किया हुआ। २. जिसका सत्कार किया गया हो। ३. सजाया हुआ। अलंकृत। पुं० १. सत्कार। २. सत्कर्म।
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सत्कृति  : स्त्री० [सं०] अच्छी या उत्तम कृति। वि० सत्कर्म।
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सत्क्रिया  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. धर्म या काम। सत्कर्म। २. आदर-सत्कार। ३. किसी कार्य का आयोजन या तैयारी।
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सत्त  : पुं० [सं० सत्व] १. किसी पदार्थ का सार भाग। असली तत्त्व। रस। जैसा—गेहूँ का सत्त, मुलेठी का सत्त। २. मुख्य उपयोगी तत्त्व। ३. बल। शक्ति। वि०=सत्य। पुं० १.=सत्य। २. =सतीत्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत्तम  : वि० [सं० सत्+तमप्] १. सबसे अधिक सत् या अच्छा। २. सर्वश्रेष्ठ। ३. परम पूज्य।
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सत्तर  : वि० [सं० सप्तति, प्रा० सत्तरि] जो गिनती में साठ से दस अधिक हो। पुं० उक्त की बोधक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—७०।
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सत्तरह  : वि० [सं० सप्तदश,प्रा० सत्तरह] जो गिनती में दस से सात अधिक हो। पुं० उक्त की बोधक संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है—१७।
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सत्ता  : स्त्री० [सं० सत्,+तल्ल-टाप्] १. मूर्त रूप से वर्तमान रहने या होने की अवस्था, गुण या भाव। अस्तित्व। हस्ती। अभाव का विपर्याय। (बीइंग)। २. शक्ति। सामर्थ्य। ३. वह अधिकार, शक्ति या सामर्थ्य जो किसी प्रकार का उपयोग करती हुई और अपनी सक्षमता दिखलाती हुई काम करती हो। (पावर) जैसा—राजसत्ता। मुहावरा—(किसी पर) सत्ता चलाना=अपना अधिकार दिखलाते हुए और वश में रखते हुए उपभोग, व्यवहार शासन आदि करना। ४. राजनीति-शास्त्र में किसी विशिष्ट राष्ट्र का वह अधिकार या शक्ति जिससे बढ़कर और कोई अधिकार या शक्ति न हो। (सावरेंटी)। पुं० [हि० सात] ताश या गंजीफे का वह पत्ता जिसमें सात बूटियाँ हों।
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सत्ता-सामान्यत्व  : पुं० [सं० ब० स०, त्व] न्याय में वह स्थिति जब अनेक द्रव्यों, रूपों आदि में एक ही तत्त्व सामान्य रूप से पाया जाता हो। जैसा—कुंडल, कंकण आदि अनेक गहनों में सोना नामक द्रव्य सामान्य रूप से पाया जाता है।
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सत्ताईस  : वि० [सं०सप्त-विंशति,प्रा० सत्ताईस] जो गिनती में बीस से सात अधिक हो। पुं० उक्त की बोधक संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है।—२७।
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सत्तांतरण  : पुं० [सं० सत्ता+अंतरण] [भू० कृ० सत्तांतरित] १. सत्ता का एक के हाथ से दूसरे हाथ में जाना। २. सत्ताधारी का सत्ता दूसरे को सौंपना। (ससेसन उक्त दोनों अर्थों में)।
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सत्तांतरित  : भू० कृ० [सं० सत्तांतरण] (देश या राज्य) जिसके शासन की सत्ता दूसरे को सौंप दी गई हो। (सीडेड)।
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सत्ताधारी (रिन्)  : वि० [सं० सत्ता√धृ (रखना)+णिनि] जिसे किसी प्रकार की सत्ता प्राप्त हो। सत्तावान। जैसा—सत्ताधारी राज्य। पुं० सत्ताप्राप्त अधिकारी। प्राधिकारी (देखें)।
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सत्तानवे  : वि० [सं० सप्तनवति, प्रा० सत्तावन] जो गिनती में सौ से तीन कम हो। पुं० उक्त की बोधक संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है—९७।
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सत्तानाश  : पुं०=सत्यानाश।
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सत्तानाशी  : वि०=सत्यानाशी।
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सत्तार  : वि० [अ०] दोषों आदि पर परदा डालनेवाला। पुं० ईश्वर का एक नाम।
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सत्तारूढ़  : वि० [सं० सत्ता+आरूढ़] जो सत्ता प्राप्त कर उसका उपयोग और पालन कर रहा हो।
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सत्तावन  : वि० [सं० सप्तपंचाशत, प्रा० सत्तावन्न] जो गिनती में पचास से सात अधिक हो। पुं० उक्त की बोधक संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है—५७।
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सत्तावाद  : पुं० [सं०] [वि० सत्तावादी] यह मत या सिद्धान्त कि किसी अधिनायक या अधिनायक वर्ग के तंत्र या शासन की सभी बातें बिना किसी विरोध के मानी जानी चाहिए। (ऑथॉरिटेरियनिज्मः)।
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सत्ताशास्त्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] पाश्चात्य दर्शन की वह शाखा जिसमें मूल या पारमार्थिक सत्ता का विवेचन होता है।
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सत्तासी  : वि० [सं० सप्ताशीति, प्रा० सत्तासी] जो गिनती में अस्सी से सात अधिक हो। पुं० उक्त की बोधक संख्या जो अंको में इस प्रकार लिखी जाती है—८७।
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सत्तू  : पुं० [सं० सत्तुक, प्रा० सत्तुअ] भुने हुए चने, जौ आदि का आटा या चूर्ण।
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सत्त्व  : पुं० [सं०] १. सत्ता से युक्त होने की अवस्था या भाव। अस्तित्व। हस्ती। २. किसी वस्तु में से निकाला हुआ मूल और सार भाग। तत्त्व। सत्त। (एब्सट्रैक्ट) ३. किसी वस्तु की मुख्य और वास्तविक प्रवृत्ति। गुण संबंधी। विशिष्टता। खासियत। ४. चित्त या मन की प्रवृत्ति। ५. अच्छे और शुभ कर्मों की ओर होनेवाली प्रवृत्ति। शुभवृत्ति। ६. सांख्य के अनुसार प्रकृति के तीन गुणों में से एक जो सब में उत्तम कहा गया है, और जिसके लक्षण, ज्ञान, शांति शुद्धता आदि हैं। ७. आत्म-तत्त्व। चित्-तत्त्व। चैतन्य। ८. जीवनी-शक्ति। प्राण-तत्त्व। ९. जीवधारी। प्राणी। १॰. भूत-प्रेत। ११. मन की दृढ़ता और धीरता। १२. बल। शक्ति। १३. गर्भ। हमल।
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सत्त्व-दीप्ति  : स्त्री० [सं०] मनुष्य के स्वभाव की तेजस्विता।
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सत्त्वक  : पुं० [सं०] मृत मनुष्य की जीवात्मा। प्रेत।
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सत्त्वगुण  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सत्त्व अर्थात् अच्छे कर्मों की ओर प्रवृत्त करनेवाला, गुण, जो प्रकृति के तीन गुणों में से एक तथा तीनों में सर्वश्रेष्ठ है।
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सत्त्वगुणी  : वि० [सं० सत्त्वगुण+इनि] १. सत्वगुण से युक्त। २. साधु और विवेकी। उत्तम प्रकृति का।
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सत्त्वधाम  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु का एक नाम।
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सत्त्वलक्षण  : वि० स्त्री० [सं० ब० स०] जिसमें गर्भ के लक्षण हों। गर्भवती। हामिला।
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सत्त्ववती  : वि० [सत्त्व+मतुप-म=व,ङीष्] १. सत्वगुण से सम्पन्न (स्त्री) २. गर्भवती। स्त्री० बौद्ध तांत्रिकों की एक देवी।
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सत्त्ववान्  : वि० [सं० सत्त्ववत्-नुम्-दीर्घ, सत्त्ववत्] [स्त्री० सत्त्ववती] १. सत्त्व या सार भाग से युक्त। २. जीवनी-शक्ति या प्राणों से युक्त। ३. साहसी। ४. दृढ़। मजबूत।
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सत्त्वशाली  : वि० [सं० सत्त्वशालिन्] [स्त्री० सत्वशालिनी] दृढ़, धीर और साहसी।
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सत्त्वशील  : वि० [सं० ब० स०] १. सात्त्विक प्रकृतिवाला। अच्छी प्रकृति का। २. सदाचारी और धर्मात्मा।
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सत्त्वस्थ  : वि० [सं०] १. अपनी प्रकृति में स्थित। २. अपनी बात या स्थान पर दृढ़तापूर्वक ठहरा रहनेवाला। ३. बलवान्। सशक्त। ४. जीवनी शक्ति से युक्त। प्राणवान्।
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सत्थी  : स्त्री० [?] जाँघ का मोटा भाग। (राज०)।
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सत्पथ  : पुं० [सं०] १. उत्तम मार्ग। २. उत्तम पंथ या संप्रदाय। ३. अच्छा आचरण। सदाचार।
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सत्पशु  : पुं० [सं०] ऐसा पशु जिसे देवता को बलि चढ़ाया जा सकता हो।
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सत्पात्र  : पुं० [सं०] १. उपदेश, दान आदि के योग्य उत्तम अधिकारी व्यक्ति। २. श्रेष्ठ और सदाचारी व्यक्ति। ३. विवाह के योग्य उत्तम वर।
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सत्पुरुष्  : पुं० [सं० कर्म० स०] सदाचारी और योग्य व्यक्ति।
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सत्य  : वि० [सं०] [भाव० सत्यता] १. सत् संबंधी। सत् का। २. सत् से युक्त। जैसा—संसार में ईश्वर का नाम ही सत्य है। ३. (कथन या बात) जो मूल या वास्तविक के ठीक अनुरूप हो। जिस पर पूरा-पूरा विश्वास किया जा सकता हो। जिसमें झूठ या मिथ्या का लेश भी न हो। जैसा—वह सदा सत्य बोलता है। ४. (घटना का उल्लेख या विवरण) जो सत्य या वास्तविकता के ठीक अनुरूप हो। ठीक। यथार्थ। जैसा—यह सत्य है कि आप वहाँ नहीं गये थे। ५. जैसा हो या होना चाहिए, ठीक वैसा ही। जैसा—सत्यव्रत, सत्यसंघ। (ट्रू अंतिम तीनों अर्थों के लिए)। ६. असल। वास्तविक। पुं० १. ठीक यथार्थ और वास्तविक तथ्य या बात। जैसा—सत्य कहीं छिपा नहीं रह सकता। २. उचित और न्यायसंगत पक्ष या बात। जैसा—उन्हें सत्य से कोई डिगा नहीं सकता। ३. वह पारमार्थिक सत्ता जिसमें कभी कोई विकार नहीं होता। जैसा—ब्रह्म ही सत्य है, और यह जगत् मिथ्या है। ४. पुराणानुसार ऊपर के सात लोकों में से सबसे ऊपर का लोक। ५. विष्णु। ६. विश्वदेवों में से एक। ७. नांदीमुख श्रद्धा के अधिष्ठाता देवता। ८. एक प्रकार का दिव्यास्त्र। ९. पुराणानुसार नवें कल्प का नाम। १॰. अश्वत्थ। पीपल। ११. प्रतिज्ञा। १२. कसम। शपथ। १३. दे० ‘सत्य युग’।
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सत्य-नारायण  : पुं० [सं०] नारायण या विष्णु भगवान का एक नाम जिसके संबंध में आजकल लोक में एक कथा बहुत प्रचलित तथा प्रसिद्ध है।
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सत्य-पुरुष  : पुं० [सं०] १. सारी सृष्टि उत्पन्न करनेवाला वह तत्त्व जो सबसे अतीत, ऊपर और परे माना गया है। २. परमात्मा।
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सत्य-प्रतिज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] अपनी प्रतिज्ञा पर सदा दृढ़ रहने और उसका पूर्णतः पालन करनेवाला।
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सत्य-युग  : पुं० [सं० मध्यम० स०] पौराणिक काल-गणना के अनुसार चार युगों में से पहला युग जो इसलिए सर्वश्रेष्ट कहा गया है कि इसमें धर्म और सत्य की पूरी प्रधानता थी। इसकी अवधि १७२८००० वर्ष कही गई है। इसे कृत युग भी कहते हैं।
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सत्य-वसु  : पुं० [सं०] एक विश्वेदेवा।
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सत्य-संकल्प  : वि० [सं०] जो अपने संकल्प पर सदा दृढ़ रहे।
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सत्यक  : पुं० [पा०] कैंची डि०)।
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सत्यक  : वि० [सं० सत्य+कन्]=सत्यंकार।
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सत्यकाम  : वि० [सं० ब० स०] सदा सत्य की कामना रखनेवाला बहुत सच्चा।
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सत्यंकार  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सत्यंकृत] १. किसी को दिया हुआ वचन सत्य करना। वादा पूरा करना। २. पेशगी दिया जानेवाला धन जो इस बात का सूचक होता है कि जिस काम के लिए वह दिया गया है वह अव्य किया या कराया जायगा। ३.किसी निश्चय संविदा आदि को ठीक या सत्य ठहराना। विशेष० दे० ‘सत्यांकन’।
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सत्यकीर्ति  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का अस्त्र जो मंत्रबल से चलाया जाता था।
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सत्यकेतु  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक बुद्ध का नाम। २. अक्रूर का एक पुत्र।
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सत्यजित्  : पुं० [सं०] १. तीसवें मन्वन्तर के इन्द्र का नाम। २. वसुदेव का एक भतीजा।
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सत्यतः  : अव्य० [सं०] सत्य यह है कि। वास्तव में। यथार्थतः। सचमुच।
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सत्यता  : स्त्री० [सं० सत्य+तल्-टाप्] १. सत्य होने की अवस्था धर्म या भाव। सच्चाई। २. वास्तविकता। ३. नित्यता।
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सत्यपर  : वि० [सं०] [भाव० सत्यपरता] सत्य में प्रवृत्त। ईमानदार।
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सत्यभामा  : स्त्री० [सं०] श्रीकृष्ण की आठ पटरानियों में से एक जो सत्राजित् की कन्या थी।
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सत्यभूषणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सत्ययुगाद्या  : स्त्री० [सं०] वैशाख शुक्ल तृतीया जिस दिन से सत्य युग का आरम्भ माना गया है।
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सत्ययुगी  : वि० [सं० सत्य-युगी+इनि] १. सत्ययुग का। सत्य युग सम्बन्धी। २. सत्य-युग में होनेवाला। ३. सत्य-युग के लोगों की तरह का अर्थात् बहुत धर्मात्मा और सच्चा। ४. बहुत पुराना।
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सत्यलोक  : पुं० [सं०] ऊपर से सात लोकों में से सबसे ऊपर का लोक जहाँ ब्रह्मा का अवस्थान माना गया है। (पुराण)।
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सत्यवती  : वि० [सं० सत्यवान् का स्त्री०] १. सत्य का आचरण और पालन करनेवाली। २. पतिव्रता। सती। ३. कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। स्त्री० १. पराशर की पत्नी और व्यास की माता मत्स्यगंधा का वास्तविक नाम। २. एक प्राचीन नदी।
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सत्यवाच्  : पुं० [सं०] १. सत्य वचन। २. प्रतिज्ञा। ३. मंत्र-बल से चलनेवाला एक प्रकार का अस्त्र। ४. कौआ।
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सत्यवाद  : पुं० [सं०] [वि० सत्यवादी] १. सत्य बोलना। सच कहना। २. धर्म पर दृढ़ रहना।
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सत्यवादिनी  : स्त्री० [सं०] १. दाक्षायिणी का एक नाम। २. बोधिद्रुम की एक देवी।
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सत्यवादी  : वि० [सं० सत्यवादिन्] [स्त्री० सत्यवादिनी] १. सत्य कहनेवाला। सच बोलनेवाला। २. अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहनेवाला। ३. धर्म पर दृढ़ रहनेवाला। ४. सत्यवाद संबंधी।
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सत्यवान्  : वि० [सं०] [स्त्री० सत्यवती] सत्य का आचरण और पालन करनेवाला। पुं० शाल्व देश का एक प्रसिद्ध राजा जो सावित्री का पति था। (पुराणों में कहा गया है कि जब ये युवावस्था में ही मर गये, तब इनकी पत्नी सावित्री ने अपने पातिव्रत्य के बल पर इन्हें यम के हाथों से छुड़ाकर पुनरुज्जीवित किया था)।
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सत्यव्रत  : वि० [सं०] जिसने सत्य बोलने का व्रत लिया हो। पुं० सत्य का पालन करने का नियम या व्रत।
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सत्यशील  : वि० [सं०] [स्त्री० सत्यशीला] सदा सत्य का पालन करनेवाला। सच्चा।
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सत्यसंध  : वि० [सं०] [स्त्री० सत्यसंघा] वचन को पूरा करनेवाला। सत्य-प्रतिज्ञ। पुं० १. भगवान् रामचन्द्र का एक नाम। २. भरत का एक नाम। ३. जनमेजय का एक नाम। ४. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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सत्या  : स्त्री० [सं० सत्य-टाप्] १. सच्चाई। सत्यता। २. व्यास की माता सत्यवती की एक नाम। ३. सीता का एक नाम। ४. दुर्गा।
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सत्याकृति  : स्त्री० [सं० सत्य+डाच्-आकृति० ष० त०]=सत्यंकार।
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सत्याग्रह  : पुं० [सं०] १. सत्य का पालन और रक्षा करने के लिए किया जानेवाला आग्रह या हठ। २. आधुनिक राजनीति में वह अहिंसात्मक कार्रवाई जो किसी अधिकारी या सत्ता के किसी निश्चय, व्यवहार आदि के प्रति अपना असंतोष विरोध आदि प्रकट करने के लिए की जाती है, और जिसका मुख्य अंग उस निश्चय या व्यवहार के अनुसार कार्य न करने अथवा उसका पालन न करने के रूप में होता है (पैसिव रेज़िस्टेन्स)।
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सत्याग्रही  : वि० [सं०] सत्य के पालन या रक्षा के लिए आग्रह या हठ करनेवाला। पुं० वह जो सत्याग्रह (देखें) करता हो। सत्याग्रह करनेवाला व्यक्ति।
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सत्यात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] पूर्ण रूप से सत्यपरायण।
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सत्यानाश  : पुं० [सं० सत्ता+नाश] पूरी तरह से होनेवाला नाश। सर्वनाश। मटियामोट। बरबादी।
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सत्यानाशी  : वि० [हि० सत्यानाश+ई (प्रत्यय)] [स्त्री० सत्यानाशिनी] १. सत्यानाश करनेवाला। चौपट करनेवाला। स्त्री० भड़भाँड़ नाम का कँटीला पौधा।
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सत्यानृत  : पुं० [सं० ब० स०] १. झूठ और सच का मेल। ऐसी बात जिसमें कुछ सच भी हो और कुछ झूठ भी हो। २. रोजगार। व्यापार।
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सत्यापन  : पुं० [सं० सत्य+णिच्-आ-युक्-ल्युट-अन] [भू० कृ० सत्यापित] १. जाँच या मिलान करके देखना कि ज्यों का त्यों और ठीक या सत्य है कि नहीं। (वेरीफ़िकेशन)।
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सत्यापना  : स्त्री० [सं० सत्याप+णुच्-अन-टाप्]=सत्यापन।
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सत्यापित  : भू० कृ० [सं०] जिसका सत्यापन हुआ या हो चुका हो। (वेरीफ़ाइड)।
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सत्यार्जव  : वि० [सं०] सीधा-सादा और सच्चा।
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सत्येतर  : वि० [सं०] सत्य से भिन्न अर्थात् मिथ्या।
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सत्योत्तर  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. सत्य बात की स्वीकृति देना। २. अपने किए हुए अपराध दोष आदि का स्वीकरण। इकबाल।
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सत्र  : पुं० [सं०] १. यज्ञ। २. सौ दिनों में पूरा होनेवाला एक प्रकार सोम याग। ३. आड़ या ओट करके छिपाना। ४. ऐसा स्थान जहाँ आदमी छिप सकता हो। छिपने की जगह। ५. घर। मकान। ६. धोखा। भ्रांति। ७. धन-संपत्ति। ८. तालाब। ९. जंगल। वन। १॰. विकट समय या स्थान। ११. वह स्थान जहाँ गरीबों को भोजन दिया जाता हो। अन्नसत्र। सदावर्त। १२. आजकल वह नियत काल जिसमें कोई काम एक बार आरंभ होकर कुछ समय तक निरंतर चलता रहता हो। (सेशन)। १३. संस्था सभा आदि की निरंतर नियमित रूप से कुछ समय तक होनेवाली बैठक या अधिवेशन (सेशन)। पुं०=शत्रु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत्र-न्यायालय  : पुं० [सं०] किसी जिले के जज का वह न्यायालय जिसमें कुछ विशिष्ट गुरुतर अपराधों का विचार होता है और जिसमें किसी मुकदमे का आरम्भ होने पर उसका विचार और सुनवाई तब तक चलती रहती है जब तक उसका निर्णय नहीं हो जाता। (सेशन कोर्ट)।
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सत्रप  : पुं० दे० ‘क्षत्रप’।
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संत्रस्त  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे बहुत संताप हुआ हो। २. बहुत डरा हुआ। ३. भय से काँपता हुआ।
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सत्रह  : वि० दे० ‘सत्तरह’।
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सत्राजिती  : स्त्री० [सं० सत्राजित्-ङीप्] सत्राजित् की कन्या सत्यभामा का एक नाम।
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सत्राजित्  : पुं० [सं० सत्र-आ√जि (जीतना)+क्विप्—तुक्] १. सत्यभामा का पिता, एक यादव। २. एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
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सत्रायण  : पुं० [सं० सत्र+फक्-आयन] यज्ञों का लगातार चलनेवाला क्रम।
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सत्रावसान  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक राजतंत्र में विधानमंडल या संसद के सर्वप्रधान अधिकारी के द्वारा अनिश्चित और दीर्घ काल के लिए किया जानेवाला स्थगन (प्रोरोगेशन)।
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संत्रास  : पुं० [सं० सम√त्रस् (भयभीत होना)+घञ] १. बहुत अधिक या तीव्र त्रास। २. आतंक।
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सत्रि  : वि० [सं० सत्र+इनि] बहुत यज्ञ करनेवाला। पुं० १. हाथी। २. बादल। मेघ।
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संत्री  : पुं०=संतरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत्री  : वि० [सं० सत्रिन्-दीर्घ-नलोप, सत्रिन्] यज्ञ करनेवाला। पुं० राजदूत।
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सत्रु  : पुं०=शत्रु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत्रुघन, सत्रुहन  : पुं०=शत्रुघ्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत्व  : पुं०=सत्त्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत्वर  : अव्य० [सं० अव्य० स०] १. त्वरापूर्वक। शीघ्र। २. तुरन्त। झटपट। वि० शीघ्रगामी। तेज-रफ्तार।
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सत्संग  : पुं० [सं०] १. सज्जनों के साथ उठना-बैठना। अच्छा साथ। भली संगत। अच्ची सोहबत। २. साधु-महात्मा या धर्मनिष्ठ व्यक्ति के साथ उठना-बैठना और धर्म-संबंधी बातों की चर्चा करना। ३. बोलचाल में वह समाज या जनसमूह जिसमें कथा-वार्ता या रामनाम का पाठ होता हो।
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सत्संगति  : स्त्री०=सत्संग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सत्संगी  : वि० [सं० सत्संग+इनि, सत्संगिन] [स्त्री० सत्संगिनी] १. सत्संग करनेवाला। अच्छी सोहबत में रहनेवाला। २. सबसे मेल-जोल रखनेवाला। ३. धार्मिक व्यक्तियों के साथ रहकर धर्म-चर्चा करनेवाला।
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सत्समागम  : पुं० [सं० ष० त०] १. भले-आदमियों का संसर्ग। २. सत्संग।
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सत्सार  : पुं० [सं० ब० स०] १. चित्रकार। चितेरा। २. कवि। ३. एक प्रकार का पौधा।
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सथर  : स्त्री० [सं० स्थल] पृथ्वी। भूमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सथरी  : स्त्री०=साथरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संथा  : स्त्री० [सं० संहिता?] १. एक बार में पढ़ा या पढ़ाया हुआ अंश। पाठ। सबक।
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सथापन–निक्षेप  : पुं० [सं०] अर्हत की मूर्ति का पूजन। (जैन)
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सथिया  : पुं० [सं० स्वास्तिक] १. आर्यो का स्वास्तिक चिन्ह जो इस प्रकार लिखा जाता है। २. सामुद्रिक के अनुसार उक्त प्रकार का वह चिन्ह जो देवताओं आदि के तलुए में रहता है। ३. भारतीय ढंग से फोड़ों की चीरफाड़ करनेवाला। अस्त्र-चिकित्सक। ४. साँझी नामक लोक-कला का एक प्रकार या रूप जो गुजरात में प्रचलित है। ५. जुलाहों के काम की बाँस या सरकंडे की पतली छड़ी। सर।
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संद  : स्त्री० [सं० संधि] १. दरार। छेद। बिल। २. दबाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चंद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सद-बरग  : पुं० सद्बर्ग।
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सदइ  : अव्य० [सं० सद्य] तुरंत। वि०=सदय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सदई  : अव्य० [सं०] सदैव। वि०=सदय।
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सदई  : स्त्री० [हि० सन] छोटी जाति का सन।
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सदका  : पुं० [अ० सदकः] १. वह वस्तु जो ईश्वर के नाम पर दी जाय। दान। २. वह वस्तु जो कुदृष्टि या नजर, रोग आदि के निवारण के लिए टोने-टोटके के रूप में किसी के सिर पर से उतार कर किसी को दी या रास्ते में रखी जाय। उतारा। क्रि० प्र०—उतारना।—करना। ३. निछावर। पद—सदके जाऊँ=मैं तुम पर निछावर होऊँ या बलि जाऊँ। (मुसल०)।
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सदंजन  : पुं० [सं० कर्म० स०] पीतल से बनाया जानेवाला एक प्रकार का अंजन।
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संदन  : पुं०=स्यंदन (रथ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सदन  : पुं० [सं०] १. रहने का स्थान। निवास-स्थान। २. घर। मकान। ३. वह स्थान जहाँ प्राणियों या व्यक्तियों को आश्रय और रहने-सहने का सुभीता मिलता हो। जैसा—गो-सदन। ४. वह स्थान जहाँ विशिष्ट रूप से कोई लोकोपकारी कार्य हो। जैसा—सेवा सदन। ५. वह मकान जिसमें किसी देश या राज्य के विधान बनाने के कार्य होते हों (हाउस)। विशेष—कुछ देशों में तो इस प्रकार का एक ही सदन होता है, और कुछ देशों में दो-दो सदन होते हैं, जिनमें से एक में तो साधारण जनता के प्रतिनिधि और दूसरे में कुछ विशिष्ट वर्गों के प्रतिनिधि सदस्य होते हैं। भारत में केन्द्रीय सदन के दो अंग है—लोक-सभा और राज्य सभा। ६. उक्त भवन में अथवा किसी सभा-समिति के अधिवेशन के समय उपस्थित होनेवाले आधिकारिक, व्यक्तियों, सदस्यों आदि का वर्ग या समूह। (हाउस)। जैसा—सदन की यही इच्छा जान पड़ती है कि इस विषय का निर्णय आज ही हो जाय। ७. ठहराव। विराम। शिथिलता। ९. एक प्रसिद्ध भगवतभक्त कसाई।
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सदन-त्याग  : पुं० [सं०] संसद, सभा आदि के किसी कार्य या अध्यक्ष की किसी व्वस्था या निर्णय से असंतुष्ट होकर किसी या कुछ सदस्यों का सदन छोड़कर वहाँ से हट जाना। (वॉक-आउट)।
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सदन-नेता  : पुं० [सं०] संसद या विधान-सभा द्वारा निर्वाचित वह नेता जो कार्यक्रम आदि निश्चित करता और बहुधा देश या राज्य का प्रधान मंत्री होता है। (लीडर आफ़ दि हाउस)।
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सदन-सचिव  : पुं० [सं० ष० त०] विधान सभा या लोक-सभा का वह वैतनिक सदस्य जो किसी मंत्री के साथ रहकर उसके समस्त विभागीय कार्यो में सहायता करता हो। संसद-सचिव (पार्लमेंटरी सेक्रेटरी)
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सदना  : अ० [सं० सदन=थिराना] १. छेद में से रिसना। चूना। २. नाव के पेदें के छेदों से पानी अन्दर आना। पुं० सदन (भगवद्भक्त कसाई)।
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सदफ़  : स्त्री० [अ०] सीपी।
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सदबर्ग  : पुं० [फा] हजारा गेंदा नामक पौधा और उसके फूल।
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सदमा  : पुं० [अ० सदमः] १. आघात। धक्का। चोट। २. ऐसा मानसिक आघात जो बहुत अधिक कष्टप्रद हो। ३. बहुत बड़ी हानि। क्रि०—उठाना।—पहुँचना।—लगना।
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सदय  : वि० [सं०] १. दयावान्। दयालु। २. दया पूर्ण।
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सदर  : वि० [सं० अव्य० स०] भययुक्त। डरा हुआ। क्रि० प्र०—डरते हुए।
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सदर  : वि० [अ० सद्र] प्रधान। मुख्य। जैसा—सदर अमीन, सदर दरवाजा, सदर बाजार। पुं० १. छाती। सीना। २. सबसे ऊपर का भाग या स्थान। ३. उच्च पदस्थ लोगों के बैठने या रहने का स्थान। ४. सभा का सभापति। ५. किसी संस्था या राज्य का प्रधान शासक। जैसा—सदरे रियासत। अव्य० ऊपर।
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सदर-आला  : पुं० [अ०] दीवानी अदालत का वह हाकिम जो जज के नीचे हो। छोटा जज।
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सदर-नशीन  : पुं० [अ+फा०] [भाव० सदरनशीनी] मजलिस या सभा का सभापति।
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सदर-बाजार  : पुं० [अ+फा०] १. नगर का बड़ा या खास बाजार। २. छावनी के पास का बाजार।
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सदरी  : स्त्री० [अ० सद्र=छाती] बिना आस्तीन की एक प्रकार की कुरती या बंडी जो और कपड़ों के ऊपर पहनी जाती है। सीनाबंद। वि० स्त्री० सदर का स्त्री स्थानिक रूप। जैसा—सदरी दरवाजा। (पूरब)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सदर्थ  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. असल या मुख्य बात अथवा विषय। २. धनवान् व्यक्ति।
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सदर्थना  : स० [सं० सदर्थ] समर्थन या पुष्टि करना।
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संदर्प  : पुं० [सं० सं√दर्प् दप् (गर्व करना)+घञ] अहंकार। घमंड।
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संदर्भ  : पुं० [सं०] १. भिन्न-भिन्न तत्वों या वस्तुओं को मिलाकर कोई नया और उपयोगी रूप देना। जैसे—पिरोना, बुनना, सीना आदि। २. बनावट। रचना। ३. पुस्तक लेख आदि में वर्णित प्रसंग, विषय जिसका विचार या उल्लेख हो (कान्टेक्स्ट)। जैसे—यह पद्य ‘रामवनगमन’ संदर्भ का है। ४. किसी गूढ विषय पर लिखा हुआ कोई विवेचनात्मक ग्रन्थ। ५. किसी ग्रन्थ में लिखा हुआ वह पाठ जिसके आधार पर पूर्वापर के विचार से संगति बैठकर उसका अर्थ लगाया जाता है (कान्टेक्स्ट)। जैसे—संदर्भ से तो इसका यही ठीक अर्थ जान पड़ता है। ६. एक ग्रंथ में आयी हुई ऐसी बातें जिसका उपयोग लोग अपनी जानकारी बढ़ाने के लिये या संदेह दूर करने के लिए करते हैं। वि० दे० ‘संदर्भ ग्रन्थ’।
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संदर्भ ग्रंथ  : पुं० [सं०] ऐसा ग्रंथ जिसमें जानकारी या विमर्श के लिए कुछ विशिष्ट प्रसंगों की बातें देखी जाती हों। विशेष—ऐसा ग्रंथ आद्योपान्त पढ़ा नहीं जाता बल्कि किसी जिज्ञासा की पूर्ति या संदेह के निवारण के उद्देश्य से देखा जाता है। जैसे—कोश, विश्वकोश, साहित्य कोश आदि संदर्भ के ग्रंथ हैं।
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संदर्भ साहित्य  : पुं० [सं०] साहित्य का वह अंश या वर्ग जिसमें ऐसे बड़े और महत्वपूर्ण ग्रंथ आते हैं जिनमें एक अथवा अनेक विषयों की गूढ़ बातों की पूरी छानबीन और विवेचन होता है। विशेष—ऐसे साहित्य का उपयोग साधारण रूप से पढ़ी जाने वाली पुस्तकों की तरह नहीं बल्कि विशिष्ट अवसरों पर विशेष प्रकार की गंभीर जानकारी प्राप्त करने के लिए ही किया जाता है। जैसे—विश्व कोष, शब्द कोष, विभिन्न जातियों, देशों और साहित्यों के इतिहास आदि (रेफरेन्स बुक्स)।
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संदर्भिका  : स्त्री० [सं० संदर्भ] किसी विशिष्ट विषय से संबंध रखने वाले संदर्भ ग्रंथों की नामावली या सूची (बिब्लियोग्राफ़ी)।
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संदर्श  : पुं० [सं० सं√दृश (देखना)+अच्] दे० ‘परिदृष्टि’।
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संदर्शन  : पुं० [सं०] १. अच्छी तरह देखना या दिखाना। अवलोकन करना या कराना। २. जाँच। परीक्षा। ३. ज्ञान। ४. आकृति। शक्ल। सूरत। ५. दर्शन।
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संदल  : पुं० [सं० चन्दन से फा०] चन्दन।
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संदली  : वि० [फा० संदल] १. संदल अर्थात चन्दन के रंग का। हलका पीला (रंग)। २. चन्दन की लकड़ी का बना हुआ। ३. (खाद्य पदार्थ) जिसमें संदल का सत्त छोड़ा गया हो। फलताः जिसमें संदल की महक हो। पुं० १. हलका पीला रंग। २. वह हाथी जिसके बाहरी दाँत नहीं होते।
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संदंश  : पुं० [सं० सं√ दंश् (पकड़ना)+अच्] १. संडसी नाम का एक औजार। २. सुश्रूत को अनुसार संडसी के आकार का प्राचीन काल का एक प्रकार का औजार जिसकी सहायता से शरीर में गड़ा हुआ काँटा आदि निकालते थे। कंकमुख। ३. न्याय या तर्क शास्त्र में अपने प्रति पक्षी को दोनो ओर से उसी प्रकार जकड़ या बाँध देना जिसप्रकार संडसी से कोई बरतन पकड़ते हैं।
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संदंशक  : पुं० [सं० संदंश+कन्] [स्त्री० अल्पा० संदंशिका] १. चिमटा। २. सँड़सी।
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सदंशक  : पुं० [सं० अव्य० स०] केकड़ा।
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संदंशिका  : स्त्री० [सं० सं√ दंश् (पकड़ना)+ण्वुल्—अक—टाप्—इत्व] १. सँड़सी। २. चिमटी। ३. कैंची।
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संदष्ट  : भू० कृ० [सं०] जिसे अच्छी तरह डंक या दंश लगा हो या लगाया गया हो। २. कुचला या रौंदा हुआ हो। पुं० वीणा, सितार आदि की तुंबीकी घोड़ियों में तारों के बैठने के लिए बनाए हुए खाँचे या निशान।
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सदसत्  : वि० [सं० द्व० स०] १. सत् और असत्। २. सच और झूठ। ३. अच्छा और बुरा। पुं० १. किसी वस्तु के होने और न होने का भाव। २. सच्ची और झूठी बातें। ३. अच्छाई और बुराई।
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सदसद्विवेक  : पु० [सं० ष० त०] सद् और असद् अर्थात् अच्छे और बुरे की पहचान। भले-बुरे का ज्ञान या विवेक।
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सदसि  : स्त्री० [सं० सदस्] सदस्यों या सभ्यों के बैठने का स्थान। उदाहरण—बिपुल भूपति सदसि महँनर-नारि कह्यौ प्रभु पाहि।—तुलसी।
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सदस्  : पुं० [सं०] १. रहने का स्थान। मकान। घर। २. सभा। समाज। ३. यज्ञशाला में, एक प्रकार का छोटा मंडप।
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सदस्य  : पुं० [सं० सदस्+यत्] [भाव० सदस्यता] १. यज्ञ करनेवाला। याजक। २. उन व्यक्तियों में से हर, एक जिनके योग से कुटुंब परिवार, संघ, समाज आदि बनते हैं। ३. विशेषतः वह व्यक्ति जिसका संबंध किसी समुदाय से हो और जिसका वह नियमित रूप से चंदा आदि देता हो अथवा जिसके कार्यों आदि में सम्मिलित होता हो। (मेम्बर उक्त दो अर्थों के लिए)।
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सदस्यता  : स्त्री० [सं० सदस्य+तल्-टाप्] सदस्य होने की अवस्था या भाव। मेंबरी। (मेंबरशिप)।
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सदहा  : पुं० [सं०] यज्ञ करनेवाला। याजक। २. सभासद। सदस्य। पुं० [देश] अनाज लादने की बड़ी बैलगाड़ी। वि० [फा] सैकड़ों। बहुत से।
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सदही  : क्रि० वि०=सदैव।
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सदा  : अव्य० [सं०] १. हर समय। हर वक्त। जैसा—सदा भगवान् का नाम लेते रहना चाहिए। २. निरंतर। लगातार। ३. किसी भी अवस्था या स्थिति में। जैसा—मनुष्य को सदा सच्च बोलना चाहिए। स्त्री० [सं० मि० सं० शब्द, प्रा० सद्द] १. गूँज। प्रतिध्वनि। २. आवाज। शब्द। ३. पुकारने की आवाज। पुकार। मुहावरा—सदा देना या लगाना=फकीर का भीख पाने के लिए पुकारना। उदाहरण—देर से हम दरे दौलत पे सदा देते है।—कोई शायर। ४. कोई मनोहर या सुन्दर ध्वनि।
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सदा-कुसुम  : पुं० [सं०] धव। धातकी।
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सदा-गति  : पुं० [सं० ब० स०] १. वायु। पवन। २. शरीर में का वात। ३. सूर्य। ४. ब्रह्म। वि० सदा चलता रहनेवाला।
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सदा-प्रसून  : पुं० [सं०] १. रोहितक वृक्ष। २. आक। मदार। ३. कुन्द का पौधा।
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सदा-फल  : वि० [सं०] सदा अर्थात् बारहों महीने फलता रहनेवाला (वृक्ष)। पुं०१. गूलर। २. नारियल। ३. बेल का वृक्ष। ४. एक प्रकार का नींबू।
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सदा-बहार  : वि० [सं० सदा+फा० बहार=फूल-पत्ती का समय] १. (वृक्ष या पौधाः जो सदा हरा-भरा रहे और जिसमें पतझड़ न होता हो। २. जिसमें सदा फूल लगते रहते हों।
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सदा-सुहागिन  : वि०स्त्री० [सं० सदा+हि० सुहागिन] (स्त्री) जो सदा सौभाग्यवती रहे। जो कभी पतिहीन न हो। स्त्री० १. वेश्या। (परिहास) २. सिदूरपुष्पी। ३. स्त्रियों का वेश बनाकर रहने वाले मुसलमान फकीरों का एक संप्रदाय।
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सदाकत  : स्त्री० [अ० सदाकत] सच्चाई। सत्यता।
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सदाकारी  : वि० [सं० सदाकार+इनि] अच्छे आकार या आकृतिवाला।
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सदागम  : पुं० [सं० ष० त०] १. सज्जन का आगमन। २. श्रेष्ठ आगम या शास्त्र।
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सदाचरण  : पुं० [सं० कर्म० स०] अच्छा चाल-चलन। सात्विक व्यवहार। सदाचार।
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सदाचार  : पुं० [सं०] १. धर्म, नीति आदि की दृष्टि से किया जानेवाला अच्छा और शुभ आचरण। अच्चा चाल-चलन। २. उक्त का भाव। (मॉरैलिटी)। ३. शिष्टतापूर्ण व्यवहार। ४. प्रथा। रीति।
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सदाचारिता  : स्त्री० [सं० सदाचार+इनि-तल्—टाप्]=सदाचार।
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सदाचारी (रिन्)  : वि० [सं० सदाचार+इनि] [स्त्री० सदाचारिणी] १. अच्छे आचरणवाला व्यक्ति। अच्छे चाल-चलन का आदमी। सदवृत्तिशील। २. धर्मात्मा। पुण्यात्मा।
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सदातन  : पुं० [सं० सदा+ल्यु—अन, तुट् आगम] विष्णु।
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सदात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] अच्छे स्वभाव का। नेक। सज्जन।
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सदादान  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा हाथी जिसका मद सदा बहता रहता हो। २. ऐरावत। ३. गणेश।
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संदान  : पुं० [फा०] १. एक प्रकार की निहाई जिसका एक कीला नुकीला और दूसरा चौड़ा होता है। २. बाँधने की रस्सी या सिकड़ी। ३. बाँधने की क्रिया या भाव। ४. हाथी का गंडस्थल जहाँ से उसका मद बहता है।
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सदानंद  : पुं० [सं० सद्+आनन्द] १. सदा बना रहनेवाला परम सुख। परमानंद। २. शिव। ३. विष्णु। ४. परमात्मा। वि० सदा प्रसन्न रहने और रखनेवाला।
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सदानर्त  : वि० [सं० सदा√ नृत् (नाचना)+अच्] जो बराबर नाचता हो। पुं० खंजन नामक पक्षी।
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संदानिनी  : स्त्री० [सं० संदान+इनि—ङीप्] गौओं के रहने का स्थान। गोशाला।
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सदापुष्प  : पुं० [सं०] १. नारिकेल। नारियल। २. आक। मदार। ३.कुन्द का फूल। वि० हमेशा फूलनेवाला (वृक्ष या फूल)।
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सदापुष्पी  : स्त्री० [सं०] १. आक। मदार। २. कपास। ३.चमेली। मल्लिका।
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सदाफर  : वि०=सदाफल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सदाफली  : स्त्री० [सं० सदाफल-टाप्, ङीष्] १. जपापुष्प। गुड़हर। देवीफूल। २. एक प्रकार का बैंगन।
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सदाबरत  : पुं०=सदावर्त।
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सदार  : वि० [सं० अव्य० स०] जो दारा अर्थात् पत्नी के साथ हो।
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सदारत  : स्त्री० [अ] सभापतित्व।
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सदावर्त  : पुं०=सदावर्त।
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सदावर्त  : पुं० [सं० सदा+व्रत] १. हमेशा अन्न बाँटने का व्रत। नित्य दीन-दुखियों तथा भूखों को भोजन देना। क्रि० प्र०—खुलना।—खोलना।—चलना।—चलाना। २. इस प्रकार दिया जानेवाला भोजन। क्रि० प्र०-बँटना।—बाँटना।
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सदावर्ती  : वि० [हि० सदावर्त] १. सदावर्त बाँटनेवाला। भूखों को नित्य अन्न बाँटनेवाला। २. बहुत बड़ा दाता या दानी।
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सदाव्रत  : पुं०=सदावर्त।
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सदाशय  : वि० [सं०] [भाव० सदाशयता] जिसके मन का आशय या भाव उदार और श्रेष्ठ हो। उच्च विचारोंवाला। सज्जन। भला-मानस। पुं० वह स्थिति जिसमें कोई व्यक्ति अच्छे और शुभ आशय में कोई काम करता हो। कदाशयता का विपर्याय। (बोनाफाइडीज़)
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सदाशयता  : स्त्री० [सं०] १. सदाशय होने की अवस्था, गुण या भाव। २. विधिक क्षेत्र में वह स्थिति जिसमें मनुष्य ईमानदारी और सच्चाई से अथवा मन में सद् आशय रखकर कोई काम करता हो, और जिसके फलस्वरूप कोई अनुचित कार्य हो जाने पर भी वह दोषी नहीं माना जाता।
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सदाशयी  : वि० [सं०] १. सदाशय संबंधी। २. (व्यक्ति) जो सदाशय से युक्त हो। ३. (काम या बात) जिसमें अच्छा आशय ही हो, बुरा आशय न हो। कदाशयी का विपर्याय। (बोनाफइड)
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सदाशिव  : वि० [सं०] सदा कल्याण और मंगल करनेवाला। पुं०शिव का एक नाम।
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संदाह  : पुं० [सं० सं√ दह् (जलना)+घञ] वैद्यक के अनुसार मुख तालू और होठों में होने वाली जलन।
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संदि  : स्त्री०=संधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदिग्ध  : वि० [सं०] १. (कथन या वाक्य) जिसके संबंध में निर्विवाद रूप से कुछ भी कहा न जा सकता हो। २. (अर्थ, निर्वचन या व्याख्या) जिसके संबंध में किसी प्रकार का अनिश्चय हो। ३. (व्यक्ति) जिसके संबंध में अनुमान हो सके कि वह अपराधी या दोषी है (सस्पेक्टेड)। पुं० अस्पष्ट कथन। २. अनिश्चय। ३. एक प्रकार का व्यंग्य। ४. वह व्यक्ति जिसके अपराधी होने पर संदेह हो। ५. तर्क में एक प्रकार का मिथ्या उत्तर।
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संदिग्धत्व  : पुं० [सं० संदिग्ध+त्व] १. संदिग्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव। संदिग्धता। २. साहित्य में एक प्रकार का दोष जो उस समय माना जाता है जब किसी अलंकारिक उक्ति का ठीक-ठीक अर्थ प्रकट नहीं होता या अर्थ के संबंध में कुछ संदेह बना रहता है।
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संदिग्धार्थ  : वि० [सं० संदिग्ध+त्व] १. संदिग्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. साहित्य में एक प्रकार का दोष जो उस समय माना जाता है जब किसी अलंकारिक उक्ति का ठीक-ठीक अर्थ प्रकट नहीं होता या अर्थ के संबंध में कुछ संदेह बना रहता है।
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संदिग्धार्थ  : वि० [सं० कर्म० स०] जिसका अर्थ संदिग्ध या अस्पष्ट हो। पुं० विवादग्रस्त विषय।
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सदिया  : स्त्री० [फ० सादः=कोरा] लाल पक्षी का एक भेद जिसका शरीर भूरे रंग का होता है। बिना चित्ती की मुनियाँ।
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संदिष्ट  : वि० [सं० सं√ दिश् (कहना)+क्त] १. कहा हुआ। उक्त। कथित। २. संदेह के रूप में कहा या कहलाया हुआ। पुं० १. वार्ता। २. समाचार। ३. संदेशवाहक।
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संदी  : स्त्री० [सं० सं√दो (बँधना)+ड-ङीप्] शय्या। पलंग। खाट।
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सदी  : स्त्री० [अ] १. सौ वर्षों का समूह। शताब्दी। शती। जैसा—पहली सदी (१—१०० सन्), बीसवीं सदी (१९०१-२००० सन्) २. सौ चीजों का समूह। जैसा—फीसदी दस आदमी लिये जायेगे।
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संदीपक  : वि० [सं० सं√ दीप् (प्रदीप्त)+ण्वुल्-अक] संदीपन करने वाला। उद्दीपक।
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संदीपन  : पुं० [सं० सं√दीप् (प्रदीप्त करना)+ल्युट्-अन] १. उदीप्त अर्थात तीव्र या प्रबल करने की इच्छा या भाव। उद्दीपन। २. श्रीकृष्ण के गुरु का नाम। ३. कामदेव के पाँच बाणों में से एक। वि० उदीप्त करने वाला।
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संदीपनी  : स्त्री० [सं० संदीपन—ङीप्] संगीत में पंचम स्वर की चार श्रतियों में से तीसरी श्रुति। वि० संदीपन या उद्दीपन करनेवाली।
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संदीपित  : भू० कृ०=संदीप्त।
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संदीप्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संदीप्त] १. जिसका भली-भाँति संदीपन या उद्दीपन हुआ हो। २. जलता हुआ। प्रज्वलित। ३. खूब चमकता हुआ प्रकाशमान्।
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संदीप्य  : पुं० [सं० सं√दीप् (प्रदीप्त करना)+श—यक्] मयूर शिखा नामक वृक्ष। वि० जिसका संदीपन हो सके या होने को हो। संदीपनीय।
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सदुपदेश  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. अच्छा उपदेश। उत्तम शिक्षा। २. अच्छा परामर्श। बढ़िया सलाह।
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संदुष्ट  : भू० कृ० [सं० सं√दुष् (खराब करना)+क्त] १. दूषित या कलुषित किया हुआ। खराब किया हुआ। २. दुष्ट। ३. कमीना।
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संदूक  : पुं० [अ० संदूक] [अल्पा संदूकचा] लकड़ी, लोहे, चमड़े आदि का बना हुआ एक प्रकार का चौकोर आधान या पिटारा जिसमें प्रायः कपड़े गहने आदि चीजें रखते हैं। पेटी। बकस।
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संदूकचा  : पुं० [अ० संदूक+चः (प्रत्य०] [स्त्री० अल्पा० संदूकची] छोटा संदूक। छोटा बकस। छोटी पेटी।
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संदूकची  : स्त्री०=संदूकंचा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदूकड़ी  : स्त्री० [अ० संदूक+हिं० ड़ी (प्रत्य)] छोटा संदूक। छोटा बकस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदूकी  : वि० [अ०] १. संदूक की शक्ल का। २. जो चारों ओर से संदूक की तरह बंद हो।
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संदूर  : पुं०=सिंदूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सदूर  : पुं० [सं० शार्दूल] सिंह। उदाहरण—पदुमनि अंब्रित हंस सदूर।—जायसी।
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संदूषण  : पुं० [सं० सं√दूष् (दूषण करना)+ल्यूट्-अन्] [भू० कृ० संदूषित, संदुष्ट] १. कलुषित करना। २. गंदा या खराब करना।
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सदृश  : वि० [सं०] [भाव० सादृश्य] जो आकार-प्रकार,रूप-रंग आदि के विचार से किसी दूसरे से बिलकुल मिलता-जुलता हो। (सिमिलरः। विशेष-सदृश और समान में यह अन्तर है कि सदृश का प्रयोग तो वहाँ होता है जहाँ चीजें या बातें ऊपर से देखने पर एक सी जान पड़े। परन्तु समान का प्रयोग वहां होता है जहाँ चीजों या बातों के महत्व मान, मूल्य आदि में बराबरी बतलाना अभीष्ट होता है। तुल्य में इन तीनों से भिन्न तौल अर्थात् गुरुता या भार का भाव निहित है।
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सदृशता  : स्त्री० [सं० सदृश+तल्-टाप्] १. सदृश होने की अवस्था, गुण या भाव। २. समानता। तुल्यता।
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संदेश  : पुं० [सं०] १. खबर। समाचार। २. वह कथन या बात जो लिखित या मौखिक रूप से एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति भेजी गई हो। संदेशा। ३. अलौकिक, ईश्वरी या दैवी प्ररणा दायक विचार। ४. आजकल किसी बहुत बड़े आदमी वह कथन जिसमें उसके मतों या विचारों का मुख्य सारांश होता है और प्रायः जिसमें किसी विशिष्ट प्रकार का आचार व्यवहार करने का उल्लेख होता है (मेसेज, अंतिम दोनों अर्थों के लिए)। ५. आज्ञा। आदेश।
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संदेश-काव्य  : पुं० [सं०] ऐसा काव्य जिसमें बिरही की विरह-वेदना किसी के द्वारा संदेश के रूप में अपने प्रिय के पास भेजने का वर्णन होता है। विशेष—ऐसे काव्यों की परम्परा कालीदास के सुप्रसिद्ध काव्य मेघदूत से चली थी। उसके अनुकरण पर पवन-दूत, हंस-दूत आदि अनेक काव्यों की रचना हुई थी।
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संदेश-हर  : पुं० [सं०] संदेश या समाचार ले जाने वाला दूत। वार्तावह।
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संदेशा  : पुं०=संदेश।
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संदेशी  : पुं० [सं० सं√दिश (कहना)+णिनि, संदेशिन] संदेश लाने या ले जाने वाला। संदेशवाहक।
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संदेस  : पुं०=संदेश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदेसी  : पुं० [हिं० संदेसा+ई (प्रत्य०)] वह जो संदेश ले जाता हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदेह  : पुं० [सं०] १. किसी चीज या बात के संबंध में उत्पन्न होने वाला यह भाव या विचार कि कहीं यह अनुचित, त्याज्य या दूषित तो नहीं हैं अथवा क्या इसकी वास्तविकता या सत्यता मानने योग्य है। शक (सस्पिशन)। विशेष—मन में इस प्रकार का भाव प्रायः यथेष्ट प्रमाण के आभाव में ही उत्पन्न होता है, और ऊपर से दिखाई देने वाले तत्व या रूप पर सहसा विश्वास नहीं होता। दे० ‘शंका’ और ‘संशय’। क्रि० प्र०—करना।—डालना।—मिटना।—मिटाना।—होना। २. उक्त के आधार पर साहित्य में, एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी चीज या बात को देखकर उसकी यथार्थता या वास्तविकता के संबंध में मन में संदेह बने रहने का उल्लेख होता। इस प्रकार का कथन कि जो कुछ सामने है, वह अमूक है अथवा कुछ और ही है। यथा (क) कैंधौं फूली दुपहरी, कैधौं फूली साँझ।—मतिराम। (ख) निद्रा के उस अलसित में वह क्या भावों की छाया। दृग पलकों में विचर रही या वन्य देवियों की माया।—पंत।
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सदेह  : वि० [सं०] १. देह या शरीर से युक्त। २. जो कोई विशिष्ट देह धारण करके सामने आया हो। उदाहरण—और कर्ण से पूछ लो जो सदेह उत्पात।—मैथिलीशरण। ३. प्रत्यक्ष। मूर्तिमान। क्रि० वि० शरीर धारण किये रहने की अवस्था में। जैसा—आप तो यहाँ सदेह बैठे हैं।
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संदेहवाद  : पुं० [सं०] दार्शनिक क्षेत्र में यह मत या सिद्धान्त की वास्तविक या सत्य का कभी ठीक और पूरा ज्ञान नहीं होने पाता, इसीलिए हर बात के संबंध में मन में संदेह का भाव बना ही रहना चाहिए। विशेष—जिसमें जिज्ञासा की तृ्ति के लिए संदेह का स्थायी रूप में बना रहना आवश्यक माना जाता है।
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संदेहवादी  : वि० [सं०] संदेह वाद संबंधी। पुं० वह जो संदेहवाद का अनुयायी और समर्थक हो।
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संदेहात्मक  : वि० [सं०] संदिग्ध (दे०)।
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संदेहास्पद  : वि० [सं०] संदिग्ध (दे०)।
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सदैव  : अव्य० [सं० सर्व+दाच्, सर्वस्-एव] सदा। सर्वदा। हमेशा।
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संदोल  : पुं० [सं० सं√दुल् (झूलना)+घञ] कान में पहनने का कर्ण फूल नाम का गहना।
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सदोष  : वि० [सं०] [भाव० सदोषता] १. जिसने दोष किया हो। दोषी। २. जिसमें दोष हो या हों। दोष से युक्त या दोष से भरा हुआ।
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संदोह  : पुं० [सं० सं√दूह् (पूरा करना)+घञ्] १. दूध दोहना। २. किसी वस्तु का समूचा मान या रूप। ३. ढेर। राशि। ४. समूह। झुंड।
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सद्  : वि० [सं०] सत् का वह रूप जो उसे कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में यौ० के आरम्भ में लगाने से प्राप्त होता है। जैसा—सदुपदेश।
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सद्  : पुं० [सं० सदस्] १. सभा। समिति। मंडली। २. यज्ञशाला में बनाया जानेवाला एक प्रकार का छोटा मंडप। अव्य० [सं० सद्य] तत्क्षण। तुरंत। तत्काल। वि० १. नवीन। नया। २. हाल का। ताजा। स्त्री० [सं० सत्व] १. प्रकृति। स्वभाव। २. आदत। टेव। बाल। स्त्री० [अ० सदा=आवाजा] गड़रियों का एक प्रकार का गीत (पंजाब) पुं०=शब्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सद्गति  : स्त्री० [सं०] १. अच्छी दशा या हालत। २. अच्छा आचरण। सदाचरण। ३. मरने के उपरान्त होनेवाली उत्तम लोक की प्राप्ति और दुर्गति से होनेवाली रक्षा। मुक्ति।
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सद्गुण  : पुं० [सं०] अच्छा गुण। उदाहरण—जिमि सदगुण सज्जन पहँ आवा।—तुलसी।
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सद्गुणी (णिन्)  : वि० [सं० सद्—गुण+इनि] अच्छे गुणोंवाला।
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सद्गुरु  : पुं० [सं०] १. अच्छा और श्रेष्ठ गुरु। २. धार्मिक क्षेत्र में ऐसा गुरु या पथ-प्रदर्शक जिसे स्वानुभूति हो चुकी हो और जो साधना का ठीक मार्ग या प्रणाली बतला सके। ३. परमात्मा।
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सद्ग्रंथ  : पुं० [सं० सद+ग्रंथ] आध्यात्मिक दृष्टि से अच्छा ग्रन्थ। सन्मार्ग बतलानेवाली पुस्तक।
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सद्द  : पुं० [सं० शब्द, प्रा० सद्द] शब्द। ध्वनि। अव्य०=सद्य (तत्काल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सद्दर  : पुं० [हि० सात+दाँत] सात दाँतोंवाला बैल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सद्भाव  : पुं० [सं०] १. अच्छा अर्थात् शुभ भाव। हित का भाव। दो व्यक्तियों या पक्षो में होनेवाली मैत्रीपूर्ण स्थिति। ३. छल-कपट द्वेष आदि से रहित भाव या विचार।
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सद्भावना  : स्त्री० [सं०]=सदभाव।
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सद्भावी  : वि० [सं०] १. सदभाववाला। सदभाव से युक्त। २. सदाशयी। (बोनाफाइडी)।
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सद्य  : पुं० [सं० सद्+मनिन्, सद्यन्] १. रहने का स्थान। २. घर। मकान। ३. दर्शक। ४. युद्ध। लड़ाई। ५. पृथ्वी और आकाश।
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सद्य  : पुं० [सं०] शिव का एक नाम। अव्य०=सद्य।
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सद्य  : अव्य० [सं०] १. आज ही। २. इसी समय। अभी। ३. तत्काल। तुरन्त। पुं० शिव का एक नाम।
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सद्य-परक  : वि० [सं०] जिसका फल तुरन्त मिले। जिसके परिणाम में विलंब न हो। पुं० रात के चौथे पहर का स्वप्न (जो लोगों के विश्वास के अनुसार ठीक घटा करता है)।
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सद्य-प्रसूत  : वि० [सं०] तुरंत का उत्पन्न।
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सद्य-प्रसूता  : वि० स्त्री० [सं०] जिसने अभी या कुछ ही समय पहले बच्चा प्रसव किया हो।
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सद्यस्क  : वि० [सं० सद्यस्√कै (करना)+क] १. वर्तमान काल का। २. इसी समय का। ३. ताजा। ४. आज-कल जिसके संबंध में बहुत ही जल्दी-जल्दी या तुरंत कोई उपचार या काम कनरा आवश्यक हो। बहुत आवश्यक या जरूरी (अर्जेन्ट)। जैसा—उन्हें सद्यस्क तार (या पत्र) भेजो।
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सद्यिनी  : स्त्री० [सं०सद्य] १. बड़ा मकान। हवेली। २. प्रासाद। महल।
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सद्योजात  : वि० [सं० कर्म० स०] [स्त्री० सद्योजाता] जो अभी या कुछ ही समय पहले उत्पन्न हुआ हो। पुं० शिव का एक रूप या मूर्ति।
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सद्र  : वि० [अ०] अव्य० दे० ‘सदर’।
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संद्रव  : पुं० [सं० सं√द्रु (गूंथना)+अच्] गूँथने की क्रिया। गुंथन।
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संद्राव  : पुं० [सं० सं√द्रु (भागना)+घञ्] युद्ध क्षेत्र में पराजित होने पर अथवा पराजय के भय से भागना। पलायन।
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संध  : स्त्री० [सं० संधि] १. जोड़। संधि। २. दो चीजों के बीच में पड़ने वाली थोड़ी सी जगह। ३. दे० ‘सेंध’।
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संधउरा  : पुं०=सिंधोरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संधना  : अ० [सं० संधि] संयुक्त होना। मिलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० संयुक्त करना। मिलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=संधानना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सधना  : अ० [हि० साधना] १. किसी काम या बात का पूरा या सिद्ध होना। जैसा—काम सधना। २. अभिप्राय या उद्देश्य सिद्ध होना। मतलब निकलना। ३. हाथ से किये जानेवाले किसी काम का ठीक तरह से अभ्यस्त होना। जैसा—आरी या हथौड़ा चलाने में हाथ सधना। ४. ठीक जगह पर जाकर लगना। जैसा—गोली या तीर चलाने में निशाना सधना। ५. शिक्षा आदि पाकर किसी विशिष्ट उपयोग या कार्य के लिए उपयुक्त होना। जैसा—(क) सवारी के लिए घोड़े का सधना। (ख) बाइसिकिल पर बैठने में सरीर सधना। ६. नाप-तौल आदि में ठीक या पूरा उतरना या बैठना। जैसा—(क) शरीर पर कुरता सधना। (ख) पसँगा निकल जाने पर तराजू सधना।
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सधर  : पुं० [सं० अव्य० स०] ऊपर का ओठ। अधर का विपर्याय। वि० [?] कठोर। कड़ा। उदाहरण—धर धर श्रृंग सधर सुपीन पयोधर।—प्रिथीराज।
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सधर्म  : वि०=सधर्मक।
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सधर्मक  : वि० [सं०] १. समान गुण या क्रियावाला। एक ही प्रकार का। २. तुल्य। समान। ३. पुण्यात्मा। ४. सच्चा और सरल। ५. किसी की दृष्टि से उसी के धर्म या सम्प्रदाय का अनुयायी।
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सधर्मा (र्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] सधर्मक।
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सधर्मिणी  : स्त्री० [सं० सहधर्म+इति-सह=स-ङीष्]=सहधर्मिणी (पत्नी)।
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सधर्मी (मिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सधर्मिणी] किसी की दृष्टि से उसी के धर्म का अनुयायी।
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सधवा  : स्त्री० [सं० अव्य० स०] ऐसी स्त्री जिसका पति जीवित हो। जो विधवा न हो। सुहागिन। सौभाग्यवती। विधवा का विपर्याय। वि० धव अर्थात् पति से युक्त (स्त्री)।
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संधा  : वि० [सं०] १. अभिसंधि या अभिप्राय से युक्त। जैसे—संधाभाषा स्त्री० १. मेल। संधि। २. घनिष्ठ संबंध। ३. अभिप्राय। आशय। ४. आपस में होने वाला करार, निश्चय या समझौता। ५. किसी प्रकार का दृढ निश्चय। ६. सीमा। हद। ७. स्थिति। ८. सवेरे और संध्या के समय दिखाई पड़ने वाली सूर्य की लालिमा या उसके कारण होने वाला प्रकाश। ९. संध्या का समय। १॰. अनुसंधान। तलाश।
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संधा भाषा  : स्त्री० [सं०] बौद्ध तांत्रिकों और परावर्ती साधकों में प्रचलित एक प्राचीन भाषा-प्रणाली जिसमें अलौकिक और रहस्यात्मक बातें सीधे सादे शब्दों में नहीं बल्कि, ऐसे प्रतीकात्मक जटिल शब्दों में कही जाती थीं, जिनसे जनसाधारण कुछ भी मतलब नहीं निकाल सकते थे।
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संधा-वचन  : पुं०=संधा-भाषा।
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संधाता  : पुं० [सं० सं√ (रखना)+तृच्, संधातू] १. शिव। २. विष्णु।
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संधान  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संधानित] १. निशाना लगाने के लिए कमान पर ठीक तरह से लगाना। निशाना बैठना। २. ढूँढने या पता लगाने का काम। ३. युक्त करना। मिलाना। ४. मृत शरीर को जीवित करना। संजीवन। ५. दो चीजों का मिलना। संधि। ६. किसी का किसी उद्देश्य से किसी ओर मिलना। संश्रय। (एलायन्स)। ७. धातु आदि के खंडों को मिलाकर जोड़ना (वेल्डिंग)। ८. किसी चीज को सड़ाकर उसमें खमीर उठाना (फ़मटेशन)। ९. मदिरा या शराब चुआना। १॰. मदिरा। शराब। ११. काँजी। १२. अचार। १३. सीमा। हद। १४. काठियावाड़ या सौराष्ट्र प्रदेश का पुराना नाम। १५. संधि।
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संधानना  : स० [सं० संधान+ना (प्रत्य०)] १. धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्य साधना। निशाना लगाना। २. तीर या बाण चलाना। ३. किसी प्रकार का शस्त्र चलाने के लिए निशाना साधना।
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संधाना  : पुं० [सं० संधानिका] अचार।
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सधाना  : स० [हि० सधना का प्रे०] १. साधने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को साधने में प्रवृत्त करना। २. जंगली पशु-पक्षियों को अपने पास या साथ रखकर पालतू बनाना और उन्हें विशिष्ट प्रकार के आचरण सिखाना। उदाहरण—मुद्दत में अब इस बच्चे को है हमने सधाया। लड़ने के सिवा नाच भी है इसको सिखाया।—नजीर। ३. उचित आचरण या उपयोग करते हुए किसी काम या चीज का अंत या समाप्ति करना। ४. किसी को अपने अनुकूल बनाने के लिए परचाना।
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संधानित  : भू० कृ० [सं० संधान+इतच्] १. जोड़ा बाँधा या मिलाया हुआ। २. लक्ष्य किया हुआ। जिस पर निशाना साधा गया हो।
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संधानिनी  : स्त्री० [सं० संधान+इनि-ङीप्] गौओं के रहने का स्थान। गौशाला।
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संधानी  : स्त्री० [सं०] एक में मिलने या मिश्रित होने की क्रिया या मिलन। मिश्रण। २. प्राप्ति। लाभ। ३. बंधन। ४. अन्वेषण। तलाश। ५. पालन-पोषण। ६. काँजी। ७. अचार। ८. शराब बनाने की जगह। ९. धातुओं आदि की ढलाई करने की जगह। १॰. दे० ‘संधान’।
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संधापगमन  : पुं० [सं०] समीपवर्ती शत्रु से संधि करके दूसरे शत्रु पर चढाई करना।
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सधाव  : पुं० [हि० साधना] सधे या साधे हुए होने की अवस्था या भाव। जैसा—संगीत में स्वरों का सधाव।
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सधावर  : पुं० [हि० सधवा] वह उपहार जो गर्भवती स्त्री को गर्भ के सातवें महीने दिया जाता है।
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संधि  : स्त्री० [सं०] १. दो या अधिक चीजों का एक में जुड़ना या मिलना। मेल। संयोग। २. वह स्थान जहाँ कई चीजें एक में जुड़ी या मिली हों। मिलन की जगह। जोड़। ३. शरीर में वह स्थान जहाँ कई हड्डियाँ एक दूसरे से मिलती हैं। गाँठ। जोड़। (ज्वाइन्ट) जैसे—कोहनी, घुटना आदि। ४. व्याकरण में शब्दों के रूप में होने वाला वह विकार जो दो अक्षरों के पास-पास आने पर उनके मेल या योग के कारण होता है। ५. एक युग की समाप्ति और दूसरे युग के आरंभ के बीच का समय। युग-संधि। ६. एक अवस्था की समाप्ति के बीच का समय। जैसे—वयःसंधि। ७. दो चीजों के बीच खाली जगह। अवकाश। ८. दरज। दरार। ९. राजाओं या राज्यों आदि में होने वाला वह निश्चय या प्रतिज्ञा जिसके अनुसार पारस्परिक युद्ध बन्द किया जाता है, मित्रता या व्यापार संबंध स्थापित किया जाता है, अथवा इसी प्रकार का और कोई काम होता है (ट्रीटी)। १॰. नाटक में किसी प्रधान प्रायोजक के साधक कथांशो का किसी एक मध्यवर्ती प्रयोजन के साथ होने वाला संबंध। ये संधियाँ पाँच प्रकार की कही गई हैं—मुखसंधि, प्रतिमुख-संधि, गर्भसंधि, अवमर्श या विमर्श संधि और निर्वहण संधि। ११. चोरी आदि करने के लिए दीवार में किया हुआ छेद। सेंध। १२. स्त्री की भग। योनि। १३. दोस्ती-मित्रता। १४. संघटन। १५. भेद। रहस्य। १६. कार्य करने का साधन।
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संधि-गुप्त  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ शत्रु की आने वाली सेना पर छापा मारने के लिए सैनिक लोग छिपकर बैठते हैं।
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संधि-चौर  : पुं० [सं०] सेंध लगाकर चोरी करने वाला। सेंधिया चोर।
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संधि-पत्र  : पुं० [सं०] वह पत्र जिसमें आपस की संधि या मेल-जोल की बात निश्चित होने पर उसके संबंध की शर्तें लिखी जाती हैं।
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संधि-बंधन  : पुं० [सं०] शिरा। नाड़ी। नस।
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संधि-भंग  : पुं० [सं०] १. संधि की शर्तों का टूटना या तोड़ना। २. वैद्यक के अनुसार हाथ या पैर आदि के किसी जोड़ की हड्डी टूटना।
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संधि-मोक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजनीति में पुरानी संधि तोड़ना। संधिभंग। २. दे० ‘समाधिमोक्ष’।
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संधि-राग  : पुं० [सं०] सिंदूर।
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संधि-विग्रहक (हिक)  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में परराष्ट्रों के साथ युद्ध या संधि का निर्णय करने वाला मंत्री या राजकीय अधिकारी।
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संधि-विग्रही  : पुं०=संधि-विग्रहक।
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संधि-विच्छेद  : पुं० [सं०] १. आपस की संधि या समझौता तोड़ना या टूटना। २. व्यकरण में किसी पद को संधि के स्थान से तोड़कर उसके शब्द अलग-अलग करना। जैसे—मतैक्य का संधि विच्छेद होगा=मत+ऐक्य।
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संधि-विद्ध  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें हाथ पैर के जोड़ों में सूजन और पीड़ा होती है।
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संधिक  : पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का सन्निपात, जिसमें शरीर की संधियों में वायु के कारण बहुत पीड़ा होती है।
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संधिच्छेद  : पुं० [सं०] १. चोरी करने के लिए किसी के घर में सेंध लगाना। २. प्राचीन भारतीय राजनीति में, पारस्परिक संधि के नियम भंग करने वाला पक्ष। ३. दे० ‘संधि-विच्छेद’।
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संधिज  : पुं० [सं०] १. (चुआकर तैयार किया हुआ) मद्य, आसव आदि। २. शरीर के संधि स्थान पर होनेवाली गाँठ या फोड़ा। वि० संधि से उत्पन्न या बना हुआ।
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संधित  : भू० कृ० [सं० संधा+इतच्] जिसमें संधि हो। संधियुक्त। पुं० आसव। अरक।
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संधिनी  : स्त्री० [सं० संधा+इनि-ङीप्] १. गाभिन गौ। २. ऐसी गौ जो गाभिन होने की दशा में भी दूध देती हो। ३. ऐसी गौ जो बछड़ा पास न रहने पर भी दूध देती हो। ४. दिन-रात में केवल एक बार दूध देने वाली गौ।
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संधिप्रच्छादन  : पुं० [सं०] संगीत में स्वर साधन की एक विशिष्ट प्रणाली जो इस प्रकार होती है। आरोही—सारेग, रेगम, गमप, मपध, पधनि, धनिसा,। अवरोही—सानिध, निधप, धपम, पमग, मगरे, गरेसा।
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संधिभग्न  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें अंग की संधियों में बहुत पीड़ होती है।
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सधिया  : स्त्री० १. =सदिया। २. =साध।
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संधिरंध्रिका  : स्त्री० [सं०] १. सुरंग। २. सेंध।
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संधिला  : स्त्री० [सं०] १. सुरंग। २. सेंध। ३. नदी। ४. मदिरा। शराब।
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संधिवेला  : स्त्री० [सं०] संध्या का समय। सायंकाल। शाम।
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संधिहारक  : पुं० [सं० संधि√तृ (हरण करना)+ण्वुल्-अक] वह चोर जो सेंध लगाकर चोरी करता हो। सेंधिया चोर।
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संधेय  : वि० [सं० स०√धा (रखना) यत्] जिसके साथ संधि की जा सके।
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सधौर  : पुं० दे० ‘सधावर’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संध्य  : वि० [सं० संधि+यत्] संधि-संबंधी। संधि का।
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संध्यंग  : पुं० [सं० ष० त०] नाटक में मुखसंधि आदि संधियों के अंग।
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संध्यंतर  : पुं० [सं० संधि+अन्तर]=उप-सन्धि।
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संध्या  : स्त्री० [सं०] १. दिन और रात दोनों के मिलन का समय। संधि-काल। २. वह समय जब दिन का अंत और रात का आरंभ होता है। सूर्यास्त से कुछ पहले का समय। सायंकाल। शाम। मुहा०—संध्या फूलना=दिन ढलने पर धीरे-धीरे संध्या का सुहावना समय आना। ३. भारतीय आर्यों की एक प्रसिद्ध उपासना जो सवेरे, दोपहर और संध्या को होती है।। ४. एक युग की समाप्ति और दूसरे युग के बीच का समय। दो युगों के मिलने का समय। युग-संधि। ५. सीमा। हद। ६. एक प्राचीन नदी। ७. एक प्रकार का फूल और उसका पौधा। ८. दे० ‘संधा भाषा’।
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संध्या-भाषा  : स्त्री० दे० ‘संधा भाषा’।
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संध्याचल  : पुं० [सं० ष० त०]=अस्ताचल।
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संध्याबल  : पुं० [सं०] निशाचर। निश्चर।
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संध्याराग  : पुं० [सं०] १. संगीत में, श्याम कल्याण राग। २. सिंदूर।
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संध्यालोक  : पुं० [सं०] सांध्य प्रकाश।
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संध्यावधू  : स्त्री० [सं० ष० त०] रात्रि। रात। निशि।
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संध्यांश  : पुं० [सं०] दो युगों के बीच का समय। युग-संधि।
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संध्यासन  : पुं० [सं०] आपस में लड़कर शत्रुओं का कमजोर हो जाना (कामदंक)।
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संध्योपासन  : पुं०[सं० ष० त०] संध्या के समय की जाने वाली आर्यों की संध्या पूजा आदि।
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सध्रीची  : स्त्री० [सं० सह√अञच् (पूजित होना)+क्विम्, सह=सध्रि अलोप, ङीष्-दीर्घ] सखी। (डि०)
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सन  : पुं० [सं०] ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक पुं० [सं० शरण] एक प्रसिद्ध पौधा जिसकी छाल के रेशों से टाट, बोरे, रस्सियाँ आदि बनती है प्रत्यय० [सं० संग] अवधी में करण कारक का चिन्ह से। साथ। स्त्री० [अनु] वेग से निकल जाने का शब्द। जैसा—तीर सन से निकल गया। वि०=सन्न (स्तब्ध)। पुं०=सन् (वर्ष)।
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सनअत  : स्त्री० [अ०] १. कारीगरी। २. हुनर। पेशा। ३. साहित्यिक क्षेत्र में अलंकार (अर्थालंकार और शब्दालंकार दोनों)।
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सनंक  : पुं० [अनु० सन सन्] सन्नाटा। नीरवता।
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सनक  : पुं० [सं०] ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक। पद-सनक नंदन। स्त्री० [हि० सनकना] १. वह अवस्था जिसमें मनुष्य का मस्तिष्क ठीक तरह से और पूरा काम न करता हो और किसी ओर प्रवृत्त होने पर प्रायः उधर ही बना रहता हो। २. पागलों की सी धुन प्रवृत्ति या आचरण। मुहावरा-सनक चढ़ना या सवार होना=पागलपन की सीमा तक पहुँचती हुई धुन चढ़ना।
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सनकना  : अ० [सं० स्वनः] १. पागल हो जाना। २. पागलों की तरह व्यर्थ बढ़-बढ कर बातें करना। अ० [अनु० सन-सन] सन सन शब्द करते हुए उड़ना, दौड़ना या भागना।
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सनकाना  : स० [हि० सनकना] ऐसा काम करना जिससे कोई सनके या पागल हो। अ० दे० ‘सनकना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सनकारना  : स० [हि० सैन+करना] १. किसी काम या बात के लिए संकेत करना। इशारा करना। २. इशारे से पास बुलाना। संयो, क्रि०—देना।
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सनकियाना  : स० [हि० सनकाना का स०] किसी को सनकाने में प्रवृत्त करना। अ०=सनकना। स०=सनकारना।
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सनकी  : वि० [हि० सनक] जिसे किसी तरह की सनक या झक हो। झक्की (एस्सेन्ट्रिक) स्त्री० [हि० सैन=संकेत] आँख से किया जानेवाला संकेत। आँख का इशारा। मुहावरा-सनकी मारना=आँख से इशारा करना।
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सनजित्  : वि० [सं०] सेना को जीतनेवाला।
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सनत  : पुं० [सं०] ब्रह्मा।
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सनत्कुमार  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक। २. बारह सार्वभौमों या चक्रवर्तियों में से एक। (जैन)। ३. जैनियों के अनुसार तीसरा स्वर्ग।
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सनत्ता  : पुं० [हि० सन] ऐसा वृक्ष जिस पर रेशम के कीड़े पाले जाते हों। जैसा—शहतूत, बेर आदि।
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सनत्सुजान  : पुं० [सं० मध्यम० स०] ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक।
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सनद  : स्त्री० [अ०] १. वह स्थान जहाँ बड़ेअधिकारी फकीर आदि तकिया लगाकर बैठते हैं। २. ऐसी चीज या बात जिस पर भरोसा किया जा सके। ३. प्रामाणिक कथन या बात। ४. प्रमाण पत्र।
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सनंदन  : पुं० [सं० ब० स०] ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक।
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सनदयाफ्ता  : वि० [अ० सनद+फा० याफ्ता] १. जिसे किसी बात की सनद मिली हो। प्रमाण-पत्र प्राप्त। २. जिसे किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होने की सनद या प्रमाण-पत्र मिला हो।
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सनदी  : वि० [अ०] १. जिसे सनद मिली हो। २. सनद संबंधी। ३. प्रामाणिक।
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सनना  : अ० [सं० संधम्] १. आटे, मैदे सत्तू आदि का घी, दूध जल आदि के योग से गूँथा जाना। २. सूखे मसाले में पानी मिलाकर गीला किया जाना। ३. सम्मिलित होना या किया जाना। जैसा—हमें क्यों सान् रहो हो। ४. लीन होना।
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सननी  : स्त्री० सानी (चौपायों का खाना)।
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सनबंध  : पुं०=संबंध।
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सनम  : पुं० [अ०] १. प्रेमपात्र अथवा प्रियतम। २. देवमूर्ति।
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सनमकदा  : पुं० [अ० सनम+फा० कदः] देव-मन्दिर।
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सनमान  : पुं०=सम्मान।
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सनमानना  : स० [सं० सम्मान+हि० ना (प्रत्य)] समान अर्थात् आदर सत्कार करना। इज्जत बढ़ाना।
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सनमुख  : अव्य०=सम्मुख।
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सनय  : वि० [सं०] प्राचीन। पुराना।
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सनस  : पुं०=संशय।
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सनसनाना  : अ० [अनु० सनसन] १. सन सन शब्द होना। २. सन सन शब्द करते हुए उड़ना, दौड़ना या भागना। ३. झुनझुनी के कारण अंग का हिलना और सन सन शब्द करना।
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सनसनी  : स्त्री० [अनु० सन सन] १. शरीर की वह स्थिति जिसमं आश्चर्य भय आदि के कारण संवेदनसूत्रों में रक्त सन सन करता हुआ जान पड़ता है। २. किसी विकट या विलक्षण घटना के कारण समाज या समूह में फैलनेवाली हलकी उत्तेजना और घबराहट। खलबली। (सेन्सेन्शन)। क्रि० प्र०—फैलना।
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सनहकी  : स्त्री० [अ० सहनक] मिट्टी का एक प्रकार का बरतन जो बहुत मुसलमान काम में लाते हैं।
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सनहाना  : पुं० [देश] नाँद की तरह का वह बरतन जिसमें जूठे बरतन इसलिए डाल दिय जाते हैं कि वे भीग जायँ और उनमें लगी हुई जूठन फूल जाय जिससे उन्हें माँजते समय आसानी हो।
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सना  : पुं० [अ०] प्रशंसा। स्तुति। स्त्री०=सनाय।
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सनाई  : स्त्री० [हि०सनना] सनने या साने जाने का क्रिया,भाव, या मजदूरी। स्त्री०=शहनाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सनाका  : पुं० [अनु] १. सनसनाहट। २. किसी आकस्मिक आघात के कारण उत्पन्न होनेवाली चंचलता या विकलता। उदाहरण—चंद्रलेखा का हृदय सनाका खा गया।—हजारीप्रसाद द्विवेदी। क्रि० प्र०—खाना।
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सनाढ्य  : पुं० [सं० सन=दक्षिण+आढ्य=संपन्न] गौड़ ब्राह्मणों की एक शाखा या वर्ग।
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सनातन  : वि० [सं०] [भाव० सनातनता] १. जो आदि अथवा बहुत प्राचीन काल से बराबर चला आ रहा हो। जिसके आदि का समय ज्ञात न हो। जो परंपरानुसार आचार-विचार आदि पर निष्ठा रखता हो। परंपरानिष्ट (आर्थोडाक्स) २. सदा बना रहनेवाला। नित्य। शाश्वत। ३. निश्चल। स्थिर। ४. अनादि और अनंत। पुं० [वि० सनातनी] १. अत्यन्त प्राचीन काल। २. बहुत दिनों से चला आया हुआ व्यवहार क्रम या परम्परा। (विशेषतः धार्मिक आचार, विश्वास आदि के संबंध में) ३. वह जिसे श्राद्ध आदि में भोजन कराना आवश्यक हो। ४. ब्रह्मा। ५. विष्णु। ६. शिव।
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सनातन पुरुष  : पुं० [सं०] विष्णु भगवान्।
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सनातन-धर्म  : पुं० [सं० मध्यम० स० कर्म० स० वा] १. ऐसा धर्म जो अनादि अथवा बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा हो। २. वर्तमान हिंदू धर्म जिसके संबंध में उसके अनुयायियों का विश्वास है कि यह अनादि काल से चला आ रहा है। इसके मुख्य अंग है-बहुत से देवी-देवताओं की उपासना, मूर्ति-पूजा, तीर्थ-यात्रा, श्राद्ध, तर्पण आदि।
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सनातन-धर्मी  : पुं० [सं०] सनातन धर्म का अनुयायी या माननेवाला।
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सनातनी  : पुं० [सं० सनातन+ई (प्रत्य)] सनातन धर्म का अनुयायी। वि० १. सनातन। २. सनातन धर्मावलम्बियों में प्रचलित या होनेवाला।
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सनाथ  : वि० [सं० अव्य० स०] [स्त्री० सनाथा] जिसकी रक्षा करने वाला कोई स्वामी हो। जिसके ऊपर कोई मददगार या सरपरस्त हो। ‘अनाथ’ का विपर्याय। मुहा—किसी को सनात करना=शरण में लेकर आश्रय देना। पूरा सहायक बनना। अव्य० नाथ-सहित।
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सनाथा  : वि० १ सं० सनाथ-टाप्] (स्त्री०) जिसका पति जीवित हो। सधवा।
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सनाभ  : पुं० [सं० ब० स०] १. सगा भाई। २. सगा-संबंधी।
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सनाभि  : पुं० [सं० ब० स०] १. संबंध के विचार से एक ही माँ के पेट से उत्पन्न दो बच्चे जो चाहें एक ही पिता की संतान हों या एक से अधिक पिताओं की। २. दे० ‘सनाभ’।
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सनामक सनामा (मन्)  : वि० [सं०] एक ही नाम वाले (दो या अधिक)। नाम-रासी।
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सनाय  : स्त्री० [अ० सना] एक प्रकार का पौधा जिसकी पत्तियाँ रेचक होती हैं। सोनामुखी।
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सनासना  : अव्य० [अनु०] सन शब्द करते हुए।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सनाह  : पुं०=सन्नाह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सनि  : पुं०=शनि (शनैश्चर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संनिक्षप्ता  : पुं० [सं० सम् नि√क्षिप्त (फेंकना)+तृच्] श्रेणी या संध के धन का रक्षक या खजांची (कौ०)।
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सनित  : भू० कृ० [हिं० सनना] किसी के साथ सना या मिला होना।
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सनिद्र  : वि० [सं० अव्य० स०] सोया हुआ। निद्रा युक्त।
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सनीचर  : पुं० १. =शनैश्चर। २. =शनिवार।
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सनीचरी  : स्त्री० [हिं० सनीचर] उलित ज्योतिष के अनुसार शनि की दशा जिसमें दुख व्याधि आदि की अधिकता होती है। वि० १. शनि से ग्रस्त। २. मनहूस और अशुभ। जैसेः सनाचरी सूरत।
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सनीड़  : अव्य० [सं० अव्य० स०] १. पड़ोस में। बगल मे। २. निकट। पास। वि० १. जो एक ही नीड़ या घोसले में रहते हो। २. एक ही स्थान पर साथ-साथ रहने वाले ३. पड़ोसी।
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सनु  : विभ० हिं० ‘से’ विभक्ति का अवधि रूप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सनेम  : अव्य० [हिं० स०+नेम=नियम] १. नियमपूर्वक। २. व्रत आदि का पालन करते हुए। सदाचारपूर्वक। उदाः आयुस होई त रहहूँ सनेमा।—तुलसी।
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सनेस, सनेसा  : पुं०=सँदेसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सनेह  : पुं०=स्नेह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सनेही  : वि०=स्नेही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सनै सनै  : अव्य०=शनैः शनैः।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सनोबर  : पुं० [अ०] चीड़ का पेड़।
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सनौढ़िया  : पुं०=सनाढ्य (गौड़ ब्राह्मणो की एक शाख)।
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सन्  : पुं० [सं० संवत् में, के सं से फा०] १. वर्ष साल। संवत्सर। २. गणना में कोई विशिष्ट वर्ष। ३. किसी विशिष्ट गणना क्रमवाली काल-गणना। विशेष—इसका प्रयोग प्रायः पाश्चात्य गणना प्रणालियों के संबंध में ही होता है। जैसा—ईसवी सन् हिजरी सन् आदि। भारतीय गणना प्रणालियों के संबंध में सवत् का प्रयोग होता है।
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सन्न  : वि० [सं० शून्य, हिं० सुन्न] १. संज्ञाशून्य। संवेदनारहित। बिना चेतना का सा। जड़। २. भौचक्का। स्तंभित। स्तंब्ध। जैसे—यह सुनते हा वह सन्न रह गया। ३. बिलकुल चुप। मौन। मुहा-सन्न मारना=बिलकुल चुप हो जाना। आवश्यकता होने पर भी कुछ न बोलना। सन्नाटा खीँचना। पुं० [सं०] चिरौंजी का पेड़।
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सन्नक  : वि० [सं०] बौना।
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सन्नत  : भू० कृ० [सं० सम्√नम् (झुकना)+क्त=न] १. अच्छी तरह झुका हुआ। २. नीचे आया हुआ। ३. भरा हुआ।
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सन्नति  : स्त्री० [सं० सम्√नम् (झुकना)+क्तिन] १. झुकाव। नति। २. नम्रता। विनय। ३. किसी ओर होने वाली प्रवृत्ति। ४. कृपा-दृष्टि। मेहरबानी की नजर। ५. आवाज। शब्द। ६. दक्ष की एक कन्या जो ऋतु को ब्याही थी।
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सन्नद्ध  : वि० [सं० सम्√नह् (बाँधना)+क्त] १. किसी के साथ कसा या बँधा हुआ। २. जो कवच आदि पहनकर युद्ध के लिए तैयार हो गया हो। ३. कोई कार्य करने के लिए उद्यत। तैयार। ४. किसी के साथ जुड़ा या लगा हुआ। ५. पास समीप का।
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सन्नयन  : पुं० [सं०] १. ले जाना। २. संपत्ति विशेषतः अचल संपत्ति का लेख्य आदि के द्वारा एक हाथ से दूसरे के हाथ में जाना या दिया जाना। अभिहस्तांतरण। (कन्वेएंस)
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सन्नयन लेखक  : पुं०=सन्नयनकार।
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सन्नयन विद्या  : स्त्री [सं०] वह विद्या या शास्त्र जिसमें सन्नयन संबंधी लेख्य आदि प्रस्तुत करने का विवेचन होता है। (कन्वेयंसिंग)
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सन्नयम लेखन  : पुं० [सं०] सन्नयन विषयक लेख्य आदि लिखने का काम। (कन्वेयंसिंग)
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सन्नाटा  : पुं० [सं० संनष्ट] १. ऐसी वातावरणीय स्थिति जिसमें किसी भी प्रकार का शब्द न हो रहा हो। २. उक्त स्थिति में पड़कर भयभीत ता भौंचक होने का भाव। मुहा—सन्नाटे में आना=भयभीत तथा स्तब्ध हो जाना। ३. मौन। चुप्पी। क्रि०प्र०—खींचना।—मारना। ४. निर्जनता। ५. चहल-पहल का अभाव। मुहा—सन्नाटा बीतना=उदासी में समय काटना। ६. लेन-देन, व्यापार आदि में सहसा आने वाली मंदी। जैसे आजकल बाजार में सन्नाटा है। विशेषः इस अर्थ में इसका प्रयोग विशेषण की तरह भी होता है। वि० १. जहाँ किसी प्रकार का शब्द सुनाई न पड़ता हो। नीरव। स्तब्ध। २. निराला। निर्जन। ३. (स्थान) जिसमें किसी प्रकार की क्रिया न हो रही हो। पुं० [अनु० सन सन] १. हवा के जो से चलने की आवाज। वायु के बहने का शब्द। पद-सन्नाटे का=सन-सन शब्द करता हुआ और तेजी से चलता हुआ। जैसा—सन्नाटे की हवा।
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सन्नादी  : पुं० [सं० सम्√नादिन] व्याकरण में ऐसा अक्षर या वर्ण जिसका उच्चारण किसी स्वर की सहायता से हा होता हो, बिना स्वर लगाए जिसका उच्चारण हो ही न सकता हो। (कान्सोनेन्ट) जैसे—क, ख, ग, आदि। विशेष—बिना स्वर की सहायता के जहाँ किसी वर्ण का उच्चारण होता है, वहाँ वह हल कहलाता है। वि० १. नाद या स्वर से युक्त। २. नाद करने वाला।
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सन्नाह  : पुं० [सं० सम्√नह (बाँधना)√ +घ़ञ] १. कवच। बकतर। २. उद्योग। प्रयत्न।
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सन्निकट  : अव्य० [सं० सम्-निकट] १. बहुत निकट। बिलकुल पास।
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सन्निकर्ष  : पुं० [सं० सम्+नि√कृष (समीप करना)+ञ] [भू० कृ० सन्निकृष्ट] १. संबंध लगाव। २. निकटता। समीपता ३. नाता। रिश्ता। ४. आधार। आश्रय। ५. न्याय में इंद्रियों से होने वाला विषयों का संबंध।
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सन्निकाश  : वि० [सं० सम् निकाश] सदृश। समान।
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सन्निकृष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्-नि√कृष् (समीप करना)+क्त] १. पास लाया हुआ। २. निकटता। करीब। पास।
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सन्निध  : पुं० [सं० सम्-नि√धा (रखना)+क] १. समीप्य। २. आमने सामने होने की स्थिति।
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सन्निधाता (तृ)  : पुं० [सं० सम्-नि√धा (रखना)+तृच] १. प्राचीन भारत में वह राजकर्मचारी जो लोगो को अपने साथ ले जाकर न्यायालय में उपस्थित करता था। २. राजकोष का प्रधान अधिकारी।
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सन्निधान  : पुं० [सं० सन्-नि√धा (रखना)+ल्युट्-अन] १. दो या अधिक चीजों को साथ-साथ या अलग-अलग रखना। २. वह अवस्था जिसमें चीजें जिसमें चीजें साथ-साथ या अगल-बगल रहती या होती हैं। निकटता। समीपता। ३. पड़ोस। ४. इंद्रियो का विषय। ५. स्थापित करना। स्थापना। अव्य० निकट। पास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सन्निधि  : स्त्री० [सं० सम्-नि√धा (रखना)+कि] सन्निधान। (दे०)
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सन्निपात  : पुं० [सं० ब० स०] १. नीचे आना, उतरना या गिरना विशेषतः साथ साथ नीचे आना, उतरना या गिरना। २. जुड़ना। मिलना। ३.टकराना। भिड़ना। ४. इकट्ठा या एक होना। ५. कई घटनाओ का एक साथ घटित होना। ६. बहुत सी चीजों या बातों का मिश्रण। समाहार। ७.वैद्यक मे, ज्वर की एक अवस्था जिसमें कफ, पित्त और वात का एक साथ कुपित होकर बहुत उग्र रूप धारम कर हैं। त्रिदोष। सरसाम।
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सन्निबद्ध  : भू० कृ० [सं० सम्-नि√बंध (बाँधान)+क्त, नलोप] १. एक में बँधा या जकड़ा हुआ। २. अटका या फँसा हुआ। ३. सहारे पर टिका हुआ।
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सन्निबंध  : पुं० [सं०सम्-नि√बंध (बाँधना)+घञ] [भू० कृ० सन्निबद्ध] १. एक में बाँधना। जकड़ना। २. लगाव। संबध। ३. आसक्ति। ४. असर। प्रभाव। ५. परिणाम। फल। नतीजा।
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सन्निभ  : वि० [सं० सम्-नि√भा (प्रकाशित करना)+क] मिलता जुलता। सदृश। समान।
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सन्निभूत  : वि० [सं० सम्-नि√भृ (भरण पोषण करना)+क] १. छिपा हुआ। २. समझ-भूझकर बातें करनेवाला।
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सन्निमग्न  : वि० [सं०] १. खूब ढूबा हुआ। २. सोया हुआ।
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सन्नियोग  : पुं० [सं० सम्-नि√युज (मिलना)+घञ] १. संबध। २. संयोग। ३. आसक्ति। ४. नियुक्ति। ५. आदेश।
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सन्निरुद्ध  : भू० कृ० [सं०] १. ठहराया या रोका हुआ। २. दमन किया या दबाया हुआ। ३. अच्छी तरह या कसकर भरा हुआ।
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सन्निरोध  : पुं० [सं० सम्-नि√रुध (रोकना)+घ़ञ] १. रोक। रुकावट। २. बाधा। ३. निवारण। ४. दमन। ५. तंगी। संकोच। ६. तंग रास्ता।
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सन्निवास  : पुं० [सं० सम्-नि√वस् (रहना)+घञ] १. साथ रहना। २. बसना। ३. घोंसला।
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सन्निविष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्-नि√विश् (प्रवेश करना)+क्त] १. अंदर या भीतर आया या लगाया हुआ। २. जुटा या जुटाया हुआ। ३. किसी के बीच में जोड़ना, या बढ़ाया या लगाया। (इन्सटेंड) ४. किसी के साथ जमा, बैठा या रखा हुआ। ५. स्थापित किया हुआ।
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सन्निवेशन  : पुं० [सं०] १. अंदर जाना या साथ में ले जाना। प्रवेश करना या कराना। २. एकत्र होना या करना। जुटाना। या जुटना। ३. किसी के बीच में जोड़ना, बढ़ाना या लगाना। ४. किसी पास या साथ बैठना। ५. सजा या जमाकर रखना। ६. आधार। आश्रय। ७. वास-स्थान। ७. घर। मकान। ९.समूह। १॰.प्रबंध। व्यवस्था। ११. रचना। गठन।
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सन्निवेशित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका सन्निवेशन हुआ या किया गया हो। २. बीच में जोड़ा, बढ़ाया या लगाया हुआ।
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सन्निहित  : भू० कृ० [सं० सम्-निधा (रखना)+क्त, धा=हि] १. किसी के साथ या पास रखा हुआ। २. समीपस्थ। ३. पड़ोस का। ४. टिकाया, ठहराया या रखा हुआ। ५. कोई काम करने के लिए उद्यत। तैयार।
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सन्नी  : वि० [हिं०] १. सन या पटसन से संबंध रखने वाला। २. सन या पटसन से बना हुआ। स्त्री० १. सन सो बना हुआ कपड़ा। २. सन की जाति का एक प्रकार का छोटा पौधा जो बगीचों में शोभा के लिए लगाया जाता है। पुं०=शनिवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सन्मन  : पुं० [सं० सद्+मन] शुद्ध या अच्छा मन। उदा०—किसी अपर सत्ता के सम्मुख सन्मन से नत होना। दिनकर। वि० अच्छे या सद् मनवाला।
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सन्मान  : पुं० [सं० ष० त०] सम्मान।
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सन्मानना  : स०=सनमानना।
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सन्मार्ग  : पुं० [सं०] उत्तम या भला मार्ग।
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सन्मुख  : पुं० [सं०] अच्छा या सुंदर मुख। वि० अव्य० सं० ‘सन्मुख’ का अशुद्ध रूप।
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सन्यसन  : पुं० [सं० सम्-नि√एस् (होना)+ल्युट्-अन] [वि० संन्यस्त] १.फेंकना। छोड़ना। २. अलग या दूर करना। हटाना। ३. सांसारिक विषयों से संबंध छोड़कर अलग होना। ४. धरना। रखना। ५. जमाना। बैठाना। ६. खड़ा करना।
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संन्यस्त  : भू० कृ० [सं०] १. फेंका या छोड़ा हुआ। २. हटाया या अलग किया हुआ। ३. जमाना या बैठाया हुआ। ५. खड़ा किया हुआ। ६. जिसने सन्यास आश्रम में प्रवेश किया हो।
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संन्यास  : पुं० [सं०] [वि० संन्स्त] १. पूरी तरह से छोड़ना। परित्याग करना। २. हिंदुंओं के चार आश्रम में से अंतिम जिसमें सब प्रकार के सांसारिक बंधन या संबंध तोड़कर और त्यागी तथा विरक्त होकर सब कार्य निष्काम भाव से किये जाते हैं। चतुर्थ आश्रम। ३. किसी निश्चित क्षेत्र या सीमा के अन्दर ही रहने अथवा कोई काम करने तथा उस क्षेत्र सीमा से बाहर न निकलने की प्रतिज्ञा या व्रत। जैसे—ग्रह सन्यास, क्षेत्र सन्यास (देखें)। ४. अपने विधिक या कानूनी अधिकारों का स्वेच्छापूर्वक त्याग (सिविल सुइसाइड)। ५. अपस्मार, भीषण ज्वर, विषयोग आदि के कारण होने वाली लह अवस्था जिसमें रोगी की चेतना शक्ति बिल्कुल नष्ट हो जाती है (कॉमा)। विशेष—मूर्च्छा और संन्यास में यह अंतर है कि मूर्च्छा तो अनेक अवस्थाओं आप से आप दूर हो जाती है, परंतु संन्यास किसी प्रकार के उपचार या चिकित्सा के बिना दूर नहीं होती। ६. सहसा होने वाली मृत्यु। अचानक मर जाना। ७. बहुत अधिक थक जाना परमशिथिल होना। ८. थाती। धरोहर। न्यास। ९. इकरार। वादा। १॰. प्रतिस्पर्धा। होड़।
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सन्यास  : पुं०=संन्यास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संन्यासी (सिन्)  : पुं० [सं० संन्यास+इनि] १. वह जिसनें सन्यास आश्रम ग्रहण किया हो। संन्यास आश्रम में रहने और उसके नियमों का पालन करने वाला। २. त्यागी और विरक्त व्यक्ति। यति।
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सँपई  : स्त्री० [हिं० साँप] १. एक प्रकार का लंबा कीड़ा जो मनुष्यों और पशुओं की आँतो में उत्पन्न होता है। पेट का केंचुआ। २. बेला नाम का पौधा और फूल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सपई  : स्त्री०=संपई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपक  : वि० [सं० सम्√ पच् (पकाना)+क्त-व] १. अच्छी तरह उबाला या पकाया हुआ। २. जो पूरा पक चुकने पर अंत या समाप्ति के समीप पहुँच चुका हो।
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संपक (ा)  : वि० [सं० स+पक=कीचड़] १. कीचड़ से भरा हुआ। २. जिसे पार करना बहुत कठिन हो। बीहड़। विकट।
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सपक्ष  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे पक्ष या पर हो। परोंवाला। २. किसी की दृष्टि से, उसके पक्ष में रहने या होने वाला। ३. पोषक या समर्थक। ४. सहयक और साथी। पुं० १. आनुकीलपक्ष। २. न्याय मे, यह बात या दृष्टांत जिसमें साध्य अवश्य हो। जैसे—जहाँ धुँआ होता है, वहाँ आग भी रहती है। इस दृष्टि से रसोई घर का दृष्टांत सपक्ष कहलाता है।
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सपक्षी  : वि०=सपक्ष।
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सपचना  : अ०=सपुचना (पूरा होना)।
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सपच्छ  : वि०=सपक्ष।
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सपटा  : पुं० [देश०] १. सफेद कचनार। २. एक प्रकार का टाट।
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सपत  : स्त्री०=शपथ। वि०=सप्त (सात)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सपत (द)  : वि०=सफेद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सपतना  : वि० [सं०] किसी सथान पर पहुँचना। (राज०)
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संपति  : स्त्री=संपत्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपत्  : स्त्री० [सं०] संहद्।
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संपत्कुमार  : पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।
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संपत्ति  : स्त्री० [सं०] १. धन दौलत जायदाद आदि जो किसी के अधिकार में हो और खरीदी या बेची जा सकती हो। जायदाद। (प्रापर्टी; एफेक्ट्स) २. कोई ऐसी चीज जो महत्व की और स्वामी के लिए लाभदायक हो। जैसे—वन्य सम्पतत्ति, पशु-सम्पत्ति आदि। ३. ऐश्वर्य। बैभव। ४. अधिकता। बहुतयता।
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संपत्तिकर  : पुं० [सं०] वह कर जो किसी की उसकी संपत्ति के विचार से लगाया जाता है (प्रापर्टी टैक्स)।
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सपत्न  : वि० [सं०] सपत्नी या सौत की तरह का द्वेष और वैर रखने वाला। पुं० दुश्मन। बैरी। शत्रु।
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सपत्नता  : स्त्री० [सं० सपत्न+तल्—टाप] वैर। शत्रुता।
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सपत्नी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] किसी विवाहित स्त्री की दृष्टि से उसके पति की दूसरी पत्नी। सौत। सौतिन।
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सपत्नीक  : वि० [सं० अव्० स०—कप] (व्यक्ति) जो अपनी पत्नी यी भार्या के साथ हो। जैसे—वह यहाँ लपत्नीक आने वाले हैं।
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सपथ  : पुं०=शपथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपदा  : स्त्री० [सं० संपद्] १. धन। दौलत। २. ऐश्वर्य। वैभव।
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सपदि  : अव्य० [संम्√पद् (गत्यादि)+इन—नलोप पृषो] १. उसा समय। तुरंत। २. शीघ्र। जल्दी।
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संपद्  : स्त्री० [सं०] १. कार्य की पूर्णता या सिद्धि। काम पूरा होना। २. धन-दौलत। सम्पत्ति। २. भण्डार। जैसे—शब्द-संपत। ३. सुख और सौभाग्य की स्थिति। ४. जैसे—संपद-विपद् सब में साथ देने वाला व्यक्ति। ५. प्राप्ति। लाभ। ६. अधिकता। बहुतायत। ७. मोतियों की माला। ८. बुद्धि नामक ओषधि।
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सपन  : पुं०=सपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपना  : अ० [सं० सम्पन्न्] १. (कार्य) पूरा होना। २. (पदार्थ) समाप्त होना। न बचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सपना  : पुं० [सं० स्वप्न] १. वह घटना, बात या दृष्य जो सोए होने पर अंतर्मन में काल्पनिक रूप से भासित होता है। स्वप्न। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी बात (क) जिसका अस्तित्व ही न हो। (ख) जो अब दुर्लभ हो गई हो अथवा (ग) जो मनगढंत या कपोल या कल्पित हो और कार्य रूप में न लाई जा सकती हो।
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सपनाना  : अ० [सं० स्वप्न] स्वप्न देखना। जैसै०—तुम तो दिन भर बैठे सपनाते रहते हो० स० स्वप्न दिखाना। जैसे—आज देवी ने उन्हे फिर कुछ सपनाया है। (अर्थात स्वप्न दिखाया है।]
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सपनीला  : वि० [स्त्री सपनीली]=स्वप्निल।
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संपन्न  : वि० [सं०] १. पूरा किया हुआ। पूर्ण। सिद्ध। साधित। मुकम्मल। २. (कार्य) जो पूरा या सिद्ध हो चुका हो। ३. किसी गुण या वस्तु से भली-भाँति युक्त। जैसे—धन-संपन्न, विद्या संपन्न। ४. धनवान। अमीर। पुं० अच्छा और स्वादिष्ट भोजन। व्यंजन।
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संपन्न-क्रम  : पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि (बौद्ध)।
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सपरदाई  : पुं० [सं० संप्रदाय] तवायफ के साथ तबला, सारंगी या और कोई साज बजाने वाला। समाजी। साजिन्दा।
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सपरना  : अ० [सं० संपादन, प्रा० संपाड़न] १. किसी काम का पूरा होना। समाप्त होना। निबटना। मुहा—(व्यक्ति का) सपर जाना=मर जाना। परलोकगत होना। २. काम किया जा सकना। हो सकाना। जैसे—यह काम तो हमसे नहीं सपरेगा। ३.सां धंधे आदि से निवृत होना। निपटना। ४. किसी काम की तैयारी के लिए पहले और कामों से निवृत होना। जैसे—वह सबेरे से मेले में चलने के लिए सपर रहें हैं।
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सपराना  : सं० [हिं० सपरना का स०] १. काम पूरा करना। निबटाना। खतम करना। २. अंत या समाप्त करना।
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संपराय  : पुं० [सं० सम्-पर√इण (गमनादि)+घञ्] १. ऐसी स्थिति जो सदा से चली आ रही हो। २. मृत्यु। मौत। ३.युद्ध। लड़ाई। ४. आपत्ति। मुसीबत। ५. भविष्य।
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सपरिकर  : वि० [सं०] अनुचर वर्ग के साथ।
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संपरिग्रह  : पुं० [सं०] अच्छी तरह आदर या स्वागत करना।
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सपरिच्छद  : वि० [सं० अव्य० स०] तैयारी या ठाट-बाट के साथ।
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सपरिजन  : वि० [सं० अव्य० स०] १. सपरिक।
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सपरिवार  : वि० [सं० अव्य० स०] परिवार के सदस्यों के साथ।
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सपरिश्रम कारावास  : पुं० [सं०] कैद की वह सजा जिसमें कैदी को कठिन परिश्रम भी करना पड़ता है। कड़ी सजा। (रिगरस इम्प्रीजनमेन्ट)
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संपरीक्षण  : पुं० [सं० सं परि√इक्ष (देखना)+ल्युट्—अन] लेख्य आदि की अच्छी तरह जाँच करके यह देखना कि वह सब प्रकार से नियमानुसार ठीक है या नहीं (स्क्रुटनी)।
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संपर्क  : पुं० [सं० सं√पृच् (मिलाना)+घञ] [वि० संयुक्त] १. मिश्रण। मिलावट। २. मेल। संयोग। ३. आपस में होने वाला किसी प्रकार का लगाव, वास्ता य़ा संसर्ग। ४. स्पर्श। ५. गणित में राशियों या संख्याओं का जोड़। योग।
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संपर्क अधिकारी  : पुं० [सं०] वह राजकीय अधिकारी जो (क) प्रजा और सरकार में अथवा (ख) भिन्न देशों के साथ सैनिक अथवा और किसी प्रकार का संपर्क बनाये रखने के लिए नियत होता है (लिएसन अफ़िसर)।
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सपर्ण  : वि० [सं० अव्य० स०] पत्तियों से युक्त।
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संपा  : स्त्री० [सं० सम्√यत् (गिरना)+ड-टाप्] विद्युत। बिजली।
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संपाक  : पुं० [सं० ब० स०] १. अच्छी तरह पकाना। परिपाक। २. अमतलास। वि० १. तर्क-वितर्क करने वाला। २. लम्पट। ३. चालाक। धूर्त। ४. अल्प। कम। थोड़ा।
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संपाट  : पुं० [सं०√पट् (गत्यादि)+घञ] १. ज्यामिती में, किसी त्रिभुज की बढ़ी हुई भुजा पर लम्ब का गिरना। २. चरखे का तकला।
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सपाट  : वि० [सं० स०+पट्ट, हिं० पाटा=पीढ़ा] १. जिसका तल बराबर या सम हो। समतल। २. जिसके तल पर कोई दूसरी चीज उभरी, खड़ी या टिकी न हो। जैसे—सपाट मैदान। ३. जो क्षितिज की ओक एक ही सीध में दूर तक चला गया हो। क्षैतिज। (हारिज़न्टल)
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सपाटा  : पुं० [सं० सर्पण] १. चलने या दौड़ने का वेग। २. तीव्र गति। दौड़। पद—सैर सपाटा-मन बहलाने के लिए कहीं और जाकर घूमना-फिरना। सैर-सपाटे की तान=संगीत में एक प्रकार की तान जिसमें स्वरों का उतार-चढ़ाव बहुत तेजी से होता है। ३. आक्रमण करने के लिए झपटने की क्रिया या भाव। उदा०—दो सौ सवारो का सपाटा पड़ा। वृंदावनलाल वर्मा। क्रि० प्र०—पड़ना।—मारना। ४. तमाचा। थप्पड़। क्रि० प्र०—लगाना। ५. छल। धोखा।
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संपात  : पुं० [सं०] [वि० संपातिक] १. एक साथ गिरना या पड़ना। २. संपर्क। संसर्ग। ३. संगम। समागम। ४. मिलने का स्थान। संगम। ५. वह स्थान जहाँ एक रेखा दूसरे पर पड़ती या उससे मिलती हो। ६. किसी पर झपटना या टूट पड़ना। ७. पहुँच। पैठ। प्रवेश। ८. घटित होना। ९. गाद। तलछट। १॰. उपयोग में आ चुकने का बाद किसी चीज का बचा हुआ अंश।
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संपाति  : पुं० [सं० सम√पत् (गिरना)+णिच्-इनि] १. एक गीध जो गरुण का ज्येष्ठ पुत्र और जटायु का भाई था। २. माली नामक राक्षस का एक पुत्र जो विभीषण का मंत्री था।
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संपाती (तिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० संपातिनी] १. एक साथ टूटने या झपटने वाला। २. उड़ने, कूदने आदि में होड़ लगाने वाला। पुं०=संपाति।
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सपाद  : वि० [सं०] १. पाद या चरण से युक्त। २. (ऐसा पूरा) जिसके साथ चतुर्थांश और भी मिला हो। सवाया। जैसे—सपाद लक्ष=एख लाख और पच्चीस हजार।
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संपादक  : वि० [सं० सम√पद् (स्थान आदि)+णिच् ण्वुल्-अक] १. कार्य संपन्न करने वाला। कोई काम पूरा करने वाला। २. प्रस्तुत या तैयार करने वाला। पुं० वह जो किसी पुस्तक, सामयिक पत्र आदि के सब लेख या विषय अच्छी तरह ठीक करके या देखकर क्रम से लगाता और उन्हें प्रकाशन के याग्य बनाता हो (एडिटर)।
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संपादकत्व  : पुं० [सं० संपादक+त्व] संपादक का कार्य या पद।
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संपादकी  : स्त्री० [सं० संपादक+हिं० ई (प्रत्य०)] संपादक का काम या पद। जैसे—उन्हें एक पत्र की संपादकी मिल गई है।
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संपादकीय  : वि० [सं०] १. संपादक-संबंधी। संपादक का। २. स्वयं संपादक का लिखा हुआ। वि० संपादक द्वारा लिखी हुई टिप्पणी या अग्रलेख।
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संपादन  : पुं० [सं०] [वि० संपादनीय, संपादी, संपाद्य] १. किसी काम को अच्छी और ठीक तरह से पूरा करना। अंजाम देना। २. तैयार या प्रस्तुत करना। ३. ठीक या दुरुस्त करना। ४. किसी पुस्तक का विषय या सामयिक पत्र के लेख आदि अच्छी तरह देखकर, उनकी त्रुटियाँ आदि दूर करके और उनका ठीक क्रम लगाकर उन्हें प्रकाशन के योग्य बनाना।
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संपादयिता  : वि० [सं० सम√पद् (स्थान आदि)+णिच्-तुचु, संपादयितृ]=संपादक।
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संपादित  : भू० कृ० [सं० सम√पद् (स्थान आदि)+णिच्-क्त] (काम) जो पूरा किया गया हो। २. (ग्रन्थ, सामयिक-पत्र या लेख) जिसका क्रम, पाठ आदि ठीक करके सम्पादन किया गया हो।
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संपादी  : वि० [सं० संपादित] [स्त्री० संपादिनी]=संपादक।
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संपाद्य  : नि० [सं०] १. जिसका संपादन किया जाने को हो या होने को हो। २. दे० ‘निर्मेय’।
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संपालक  : पुं० [सं० सं√पाल् (पालन करना)+णिच्-ण्वुल्-अक]=अभिरक्षक।
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सपिंड  : पुं० [सं० ब० स०] धर्म-शास्त्र में पारस्परिक दृष्टि से एक ही कला की सात पीढियों तक के लोग जो एक दूसरे को पिंडदान कर सकते और उनका श्राद्ध करने के अधिकारी होते हैं।
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सपिंडी  : स्त्री० [सं० सपिंड—ङीष्] मृतक के निमित्ति किया जाने वाला वह कर्म जिसमें वह पितरों या परिवारों के मृत प्राणियों के साथ पिंडदान द्वारा मिलाया जाता है।
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सपिंडीकरण  : पुं० [सं० सपिंड+च्वि√कृ (करना) ल्युट्—अनदीर्घ] एक प्रकार का श्राद्ध जिसमें मृतक को पिंडदान द्वारा पितरों के साथ मिलाते हैं।
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संपित  : पुं० [देश] असम में होने वाला एक प्रकार का बाँस जिसके टोकरे बनते हैं।
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संपिष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√विष् (चूर करना)+क्त] १. अच्छी तरह पीसा हुआ। २. अच्छी तरह दबाकर नष्ट किया हुआ।
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सपीड  : वि० [सं० अव्य० स०] पीड़ा युक्त।
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संपीडन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संपीडित] १.चारों ओर से इस प्रकार दबाना कि आपत्ति या विस्तार कम हो जाय (कान्प्रेशन)। २. निचोड़ना, मलना या मसलना। ३. बहुत अधिक कष्ट या दुःख देना। पीड़ित करना। ४. साहित्य में, शब्दों के उच्चारण का एक दोष जो उस दशा में माना जाता है जब किसी शब्द पर व्यर्थ ही बहुत जोर दिया या जोर से उच्चारण किया जाता है।
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संपुट  : पुं० [सं० सम√पुट् (संबंध रखना)+क] १. किसी पदार्थ को कुछ मोड़कर दिया हुआ वह रूप जिसके अंदर कुछ खाली जगह बन गई हो और इसीलिए उसमें कुछ रखा जा सके। आधान या पात्र का-सा गोलाकार और अंदर से खाली अवकाश रखने वाला रूप। जैसे—पत्तों का संपुट, हथेली का संपुट। २. पत्तों का बना हुआ दोना। ३. ढक्कन-दार डिब्बा, पिटारी या संदूक। ४. हथेली की अंजली। ५. फूल को दलों का ऐसा समूह जिसके बीच खाली जगह हो। कोश। ६. वैद्यक औषध पकाने या रस बनाने के समय किसी पात्र को दिया जाने वाला वह रूप जिसमें गीली मिट्टी आदि से उसका मुँह बंद करके चारों ओर से गीली मिट्टी लपेट देते हैं। ७. मृतक की खोपड़ी। कपाल। खप्पर। ८. लेन-देन में वह धन जो उधार दिया गया हो या किसी के यहाँ बाकी पड़ा हो। ९. कटसरैया का फूल। कुरवक।
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संपुटक  : पुं० [सं० संपुट+कन्] १. ढकने की चीज। आवरण। २. गोल डिब्बा या पिटारा। ३. एक प्रकार का आसन या रतिबंध।
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संपुटिका  : स्त्री० [सं०] १. औषध के रूप में खाने के लिए ऐसी गोली या टिकिया जो ऐसे आवरण के अंदर बन्द हो जो किसी खाद्य पदार्थ का बना हो। २. कोई ऐसा संपुट जो किसी दूसरे पदार्थ के चारों ओर से आवृत्त या बन्द हो (कैपस्यूल)।
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संपुटी  : स्त्री० [सं० संपुट-ङीप्] एक तरह की छोटी कटोरी जिसमें पूजा के लिए घिसा हुआ चन्दन, अक्षत आदि रखते हैं।
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सपुन  : वि०=संपूर्ण। उदा—सपुन सुधानिघि दधि भल भेल। विद्यापति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सपुर्द  : वि० [फा० सिपुर्द] [भाव० सपुर्दगी] १. देख-रेख पालन पोषण रक्षण आदि के निमित्त किसी को सौंपा हुआ। जैसे—बालक या मकान किसी को सुपुर्द करना। २. उचित कार्य, पुलिस के सुपुर्द करना।
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सपुर्दगी  : स्त्री० [फा० सिपुर्दशी] सपुर्द करने या सौपने की व्यवस्था, क्रिया या भाव (कमिटमेंट)
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संपुष्टि  : स्त्री० [सं०] १. अच्छी तरह होने वाली पुष्टि। २. दे० ‘परि-पुष्टि’।
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संपूज्य  : वि० [सं० सम√पूज् (पूजा करना)+ण्यत्] बहुत आदरणीय या पूज्य।
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सपूत  : पुं० [सं० सत्पुत्र प्रा० सपुत्र, सउत्त] १. वह पुत्र जो अपने कर्तव्य का पालन करे। अच्छा पुत्र। २. वह पुत्र जिसने अपने कुल या अपने पूर्वजो की कीर्ति बढाई हो।
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सपूति  : स्त्री० [हिं० सपूत+ई (प्रत्य०)] १. सपूत होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी स्त्री जिसने सपूत को जन्म दिया हो।
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संपूरक  : वि० [सं०] १. संपूर्ण या पूरा करने वाला। २. विशेष रूप से किसी पूर्ण वस्तु की उपदेयता, सार्थकता आदि बढाने के लिए उसके अंत में जोड़ा या मिलाया जाने वाला। ‘अनुपूरक’ से भिन्न (काम्प्ली-मेन्टरी)। विशेष—अनुपूरक और संपूरक में मुख्य अंतर यह है कि अनुपूरक तो किसी पूरी चीज के पीछे या बाद में स्वतंत्र इकाई के रूप में जोड़ा या लगा हुआ होता है, परंतु संपूरक किसी चीज या बात का कोई अभाव या कमी पूरी करने के लिए आकर उसमें मिल जाता है। पुं० वह अंश, मात्रा या भाव जो किसी पदार्थ में उसे पूर्ण करने के लिए लगाया जाता हो या लगना आवश्यक होता हो। किसी चीज को पूर्ण बनाने के लिए बाद में जोड़ा जाने वाला अंग। ‘अनुपूरक’ से भिन्न (काम्प्लिमेन्ट)।
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संपूरण  : पुं० [सं० सम्√पूर (पूरा होना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संपूरित] अच्छी तरह भरना।
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संपूर्ण  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह भरा हुआ। २. आदि से अंत तक सब। पूरा। सारा। ३. पूरा या समाप्त किया हुआ। ४. जो अपने पूर्ण रूप में हो। पुं० १. संगीत में ऐसा राग जिसमें सातों स्वर लगते हों। २. दार्शनिक क्षेत्र में, आकाश नामक भूत।
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संपूर्ण ओड़व  : पुं० [सं०] संगीत में ऐसा राग जो आरोही में संपूर्ण और अवरोही में ओड़व हो।
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संपूर्णतः  : अव्य० [सं० संपूर्ण+तसिल] पूरा-पूरा। पूर्ण रूप से।
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संपूर्णतया  : अव्य० [सं० संपूर्ण+तल्-टापटा्] संपूर्णतः।
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संपूर्णता  : स्त्री० [सं० संपूर्ण+तल्—टाप] १. संपूर्ण होने की अवस्था या भाव। पूरापन। २. अन्त। समाप्ति।
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संपृक्ता  : भू० कृ० [सं० सम्√पृ (मिलना)+कत] १. जिससे संपर्क स्थापित हो चुका हो या किया गया हो। २. संबद्ध। २. लगा या सटा हुआ।
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संपृष्ट  : वि० [सं० सं√प्रच्छ् (पूछना)+क्त-] १. जिससे प्रश्न किये गये हों। २. जिससे पूछ-ताछ की गई हो।
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संपेखना  : सं० [सं० संप्रेक्षण] देखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सपेट  : पुं० [?] झपट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सपेटा  : पुं० [?] १. महोगनी वृक्ष का फल। चीकू। [हिं० सप्रेटा] वह दूध जिसे कच्चे ही मथकर उसमें मक्खन निकाल लिया गया हो।
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सपेती (दी)  : स्त्री=सफेदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँपेरा  : पुं० [हिं० साँप+एरा (प्रत्य०)] [स्त्री० सँपेरिन] वह जो साँप पकड़कर पालता और लोगों को उनके तमाशे दिखाता हो। मदारी।
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सपेरा  : पुं०=सँपेरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपेला  : पुं०=सँपोला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँपेला  : पुं०=सँपोला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सपेला  : पुं०=सँपोला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपै  : स्त्री० १.=संपत्ति। २.=शंपा। (बिजली)।
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सँपोला  : पुं० [हिं० साँप+ओला (अल्पा० प्रत्य०)] साँप का छोटा बच्चा। २. लाक्षणिक अर्थ में खतरनाक व्यक्ति।
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सपोला  : पुं०=सँपोला(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँपोलिया  : पुं० [हिं० साँप+ओलिया]=सँपेरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपोषक  : वि० [सं०] [स्त्री० संपोषिका] १. भली-भाँति पालन-पोषण करने वाला। २. अच्छी तरह बढाने वाला।
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संपोषण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संपोषित, वि० संपोष्य] अच्छी तरह पोषण करना।
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संपोष्य  : वि० [सं० सम√पुष् (पालन करना)+ण्यत्] जिसका संपोषण हो सकता हो या होना उचित हो।
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सप्त  : वि० [सं०] जो गिनती में सात हो। जैसे—सप्तभुज, सप्तऋषी।
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सप्त-पाताल  : पुं० [सं०] पृथ्वी के नीचे सात लोक—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल।
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सप्त-प्रकृति  : स्त्री० [सं०] प्रचीन भारतीय राजनीति में राज्य के ये सात अंग राजा, मंत्री, सामंत, देश, कोश, गढ़ और सेना।
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सप्त-भंगी  : स्त्री० [सं०] जैन न्याय के सात मुख्य अंग जिन पर उनका स्याद्वाद मत आश्रित है।
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सप्त-रक्त  : पुं० [सं०] शरीर के सात अवयव जिनका रंग लाल होता है। यथा—हथेली, तलवा, जीभ, आँख, पलक का निचला भाग, तालू और होंठ।
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सप्त-रात्र  : पुं० [सं०] सात रातों का समय। वि०-सात रातों में समाप्त होने वाला।
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सप्त-राशिक  : पुं० [सं० ब० स०] गणित की एक क्रिया जिसमें सात राशियों के आधार पर किसी प्रश्न का उत्तर निकाला जाता है।
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सप्त-स्वरा  : स्त्री० [सं०] पुरानी चाल की एक प्रकार की वीणा।
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सप्तऋषी  : पुं०=सप्तर्षि।
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सप्तक  : पुं० [सं०] १. एक ही तरह की सात वस्तुओं, कृतियों आदि का समूह। सात वस्तुओं का संग्रह। जैसे—तारसप्तक, सतसई, सप्तक। २. संगीत में सातों स्वर का समूह। ‘षड़ज’ से ‘निषाद’ तक के सातों स्वर। (ऑक्टेव) विशेष—साधारण गाने बजाने के तीन सप्तक होते हैं। संगीत सदा मध्य सप्तक में होता है। पर कभी-कभी स्वर नीचा होकर मन्द्र और ऊँचा होकर तार में भी पहुँच जाता है। वि० १. सात। २. सातवाँ।
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सप्तकी  : स्त्री० [सं० सप्तक० ङीष्] सात लड़ियोंवाली करधनी।
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सप्तकृत  : पुं० [सं० त० त०] विश्वेदेवों में से एक।
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सप्तग्रही  : स्त्री० [सं०] एक ही राशि में सात ग्रहो का एकत्र होना, जो फलित ज्योतिश के अनुसार अशुभ फल देता है।
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सप्तच्छद  : पुं० [सं०] सर्तवर्ण वृक्ष। छतिवन।
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सप्तजिह्व  : वि० [सं०] जिसकी सात जिह्वाएं हों। पुं० अग्नि। विशेष—अग्नि की सात जीह्वाएँ हैं—काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधुम्रवर्णा, उग्र और प्रदीपा।
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सप्तति  : वि० [सं० सप्तान्+ति-नलोप] सत्तर।
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सप्ततितम  : वि० [सं० सप्तति+तमप्] सत्तरवाँ।
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सप्तत्रिंश  : वि० [सं० सप्तत्रिंशत—ड] सैंतीसवाँ।
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सप्तत्रिंशत  : वि० [सं०] सैंतीस।
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सप्तदश (न्)  : वि० [सं०] सत्रह।
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सप्तद्वीप  : पुं० [सं० कर्म० स०] पुराणानुसार पृथ्वी के ये सात बड़े और मुख्य विभाग—जम्बु, कुश, प्लक्ष, क्रोँच, शाल्मलि, शाक और पुष्कर द्वीप।
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सप्तधातु  : पुं० [सं०] १. आयुर्वेद के अनुसार शरीर के ये सात संयोजक द्रव्य—रक्त, पित्त, माँस, वसा, मज्जा, अस्थि और शुक्र। २. चंद्रमा का एक घोड़ा।
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सप्तधान्य  : पुं० [सं०] जों, धान, उरद आदि सात अन्नो का मेल जो पूजा के काम आता है। सत-नजा।
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सप्तनाड़ी चक्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का चक्र जिसमें सब नक्षत्रों के नाम रहते हैं, और जिसके द्वारा वर्षा का आगम बताया जाता है।
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सप्तपंचाश  : वि० [सं० सप्तपंचाशत+ड, मध्यम० स०] सत्तवानवाँ।
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सप्तपंचाशत  : वि० [सं०] सत्तावन।
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सप्तपत्र  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें सात पत्ते या दल हों। सात पत्तों वाला। पुं० १. सूर्य। २. मोतिया और मोगरा का नाम का बेला। ३. सप्तपर्ण। छतिवन।
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सप्तपदी  : स्त्री० [सं०] १. हिंदुओं में एक वैवाहिक रीति जिसमें वर और वधु एक दूसरे का वरण करते समय अग्नि को साक्षी मानकर उसकी सात परिक्रमाएं करके कोई बात पक्की करने या वचन देने की क्रिया।
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सप्तपर्णी  : स्त्री० [सं०] लज्जालू। लज्जावंती लता।
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सप्तपुत्री  : स्त्री० [सं०] सतपुतिया।
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सप्तपुरी  : स्त्री० [सं०] पुराणानुसार ये सात नगर या तीर्थ जो मोक्षदायक कहे गये हैं। अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका (उज्जयिनी) और द्वारका
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सप्तबाह्य  : पुं० [सं०] वाह्लीक देश। बलख।
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सप्तभद्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. सिरसी। शिरीष वृक्ष २. नवमल्लिका। नेवारि। ३. गुंजा। घुँघची।
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सप्तभुवन  : पुं० [सं०] भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनर्लोक, तपर्लोक और सत्यलोक ये सात भूवन या लोक। वि० सतमंजिल। सात खंडोवाला। (मकान)।
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सप्तभूम  : वि० [सं०] सात खंडो का। सतमंजिला। (मकान)।
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सप्तम  : वि० [सं० सप्तन्+उट्-मट्] [स्त्री० सप्तमी] सातवाँ।
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सप्तमातृका  : स्त्री० [सं०] ये सात माताएँ या शक्तियाँ जिनका पूजन विवाह आदि शुभ अवसरों के पहले होता है—ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी और चामुंडा।
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सप्तमी  : स्त्री० [सं०] १. चांद्र मास के किसी पक्ष की सातवीं तिथि। सातवाँ दिन। २. व्याकरण में, अधिकरण कारक की विभक्ति
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सप्तरुचि  : पुं० [सं०] अग्नि का एक नाम।
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सप्तर्षि  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. सात प्राचीन ऋषियों का समूह। या मंडल। विशेष- (क) शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ये सात ऋषी—गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, यमदग्नि, वसिष्ठ, कष्यप और अत्रि हैं। (ख) महाभारत के अनुसार ये सात ऋषी—मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य और वसिष्ठ हैं। २. उत्तरी आकाश में के सात तारों का एक प्रसिद्ध मंडल या समूह जो रात में ध्रुव तारे की आधी परिक्रमा करता हुआ दिखाई देता है। (उर्सा मेजर)। विशेष—वास्तव में ये सात तारे एक बड़े नक्षत्र पुंज के (जिसमें कुल मिलाकर ५३ दृश्य नक्षत्र हैं) अंग या उसके अंतर्गत हैं जो पुराणानुसार ध्रुव की परिक्रमा करते हुए कहे गये हैं।
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सप्तला  : स्त्री० [सं०] १. सातला। २. चमेली। ३. रीठा। ४. घँघरी।
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सप्तवर्ण  : पुं० [सं०] १. छतिवन का पेड़। २. प्राचीन काल की एक प्रकार की मिठाई।
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सप्तवादी  : पुं० [सं० सप्तवादिन्] सप्तभंगी न्याय का अनुयायी अर्थात जैन।
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सप्तविंश  : वि०[सं०] सत्ताईस। स्त्री०उक्त संख्या जो अंको में इस प्रकार लिखी जाती है।—२७।
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सप्तशीर्ष  : पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।
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सप्तषष्ठ  : वि० [सं० मध्यम० स०] सड़सठवाँ।
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सप्तषष्ठि  : वि० [सं०] सड़सठ। वि० सड़सठ की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—६७ ।
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सप्तसप्त  : वि० [सं०] सतहत्तरवाँ।
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सप्तसप्तति  : वि० [सं०] सतहत्तर। स्त्री उक्त सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है। ७७।
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सप्तसागर  : पुं० [सं०] १. पृथ्वी पर के सातों सागरों का समूह। २. एक प्रकार का दान जिसमें सात पात्रों में घी, दूध, मधु, दही आदि रखकर ब्राह्मण को दिया जाता है।
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सप्तसिंधु  : पुं० [सं०] प्राचीन आर्यावर्त की प्रसिद्ध सात नदियाँ, सिंधु, परुष्णी (रावी), शतुद्री (सतलज), वितस्ता (झेलम), सरस्वती, यमुना और गंगा।
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सप्तस्वर  : पुं० [सं०] संगीत के ये सात स्वर—स, रे, ग, म, प, ध, नि,।
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सप्तांग  : वि० [सं० ष० त०] सात अंगो वाला। पुं०=सप्त-पृक्रति। (राजनीति का)।
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सप्तात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] ब्रह्मा।
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सप्तार्चि  : पुं० [सं०] १. शनि ग्रह। २. चित्रक या चीता नामक वृक्ष।
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सप्तार्णव  : पुं० [सं० कर्म० स०] पृथ्वी पर के सातों समुद्र।
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सप्तालु  : पुं० [सं० सप्त+आलुच] सतालू। शफतालू।
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सप्ताशीत  : वि० [सं० मध्यम० स०] सत्तासी। स्त्री० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—८७।
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सप्तांशु  : पुं० [सं०] अग्नि। वि० सात किरणोंवाला।
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सप्ताश्र  : पुं० [सं० ब० स०] ज्यामिती में, सात भुजाओं वाला क्षेत्र।
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सप्ताश्व  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य (जिनके रथ में सात घोड़े जुते हुए माने गये हैं)।
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सप्ताह  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. सात दिन। सात दिनों की अवधि। जैसे—वे एक सप्ताह बाहर रहेगें। २. सात दिनों का समय विशेषतः सोमवार सरे रविवार तक के सात दिन। ३. उक्त सात दिनों में पड़ने वाले काम, व्यापार या नौकरी के दिन। जैसे—दो सप्ताह स्कूल और जाना है। ४. कोई ऐसा कृत्य या अनुष्ठान जो सप्ताह भर चलता रहे। जैसे—भागवत का सप्ताह, रेडियो सप्ताह। क्रि० प्र०—बैठना। बैठाना।—सुनना।—सुनाना विशेष—महानों को चार सप्ताहों में विभक्त किया जाता है। परंतु कई महीनों में अट्ठाइस से अधिक दिन होते हैं। २८ जितने अधिक दिनों का महीना हो उन दिनों की गिनती अंतिम सप्ताह में होती है। इस प्रकार का अंतिम सप्ताह ८, 9, १॰, ११ दिनों का भी होता है।
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सप्ताहांत  : पुं० [सं० सप्ताह+अंत] सप्ताह का अंतिम दिन जो शुक्रवार की आधी रात से सवेरे तक माना जाता है। (वीक-एंड)
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सप्पन  : पुं० [दे०] बक्कम का पेड़।
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संप्रक्षाल  : वि० [सं० सम् प्र√क्षाल् (धोना)+अच्] पूर्ण विधि से स्नान करने वाला। पुं० १. एक प्रकार के यति या साधु। २. एक ऋषी जिनके संबंध में कहा गया है कि ये प्रजापति के चरणोदक से उत्पन्न हुए थे।
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संप्रक्षालन  : पुं० [सं० संप्र√क्षाल (धोना)+ल्यूट्-अन] १. अच्छी तरह धोना। खूब धोना। २. पूरी तरह से स्नान करना। ३. जल-प्रलय।
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संप्रज्ञात  : भू० कृ० [सं०] अच्छी तरह जाना हुआ। पुं० योग में समाधि का एक भेद जिसमें विषय भावना बनी रहती है।
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संप्रति  : अव्य० [सं०] १. इस समय। अभी। २. वर्तमान समय में। ३. किसी के सामने। ४. तुलना या मुकाबले में। ५. ठीक तरह से। पुं० १. पूर्व अवसर्पिणी के २४ वें अर्हत का नाम। (जैन) २. अशोक के पुत्र कुणाल का एक पुत्र।
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संप्रतिपत्ति  : स्त्री० [सं०] १. पहुँच। गुजर। २. प्राप्ति। लाभ। ३. किसी बात का ठीक और पूरा ज्ञान। ४. बुद्धि। समझ। ५. किसी के साथ होने वाली मत या विचार की एकता। मतैक्य। ६. कार्य का संपादन। ७. मंजूरी। स्वीकृति। ८. अभियुक्त द्वारा न्यायालय में सच्ची बात मानना या कहना।
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संप्रतिपन्न  : भू० कृ० [सं० सम्-प्रति√पद (स्थान आदि)+क्त] १. आया या पहुँचा हुआ। उपस्थित। २. मंजूर। स्वीकृति। ३.उपस्थिति बुद्धि। प्रत्युत्पन्न-मति।
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संप्रतीति  : स्त्री० [सं० सम्-प्रति√इ (गमनादि)+क्तिन] १. पूर्ण विश्नास। २. पूर्ण ज्ञान। ३. विनय।
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संप्रत्यय  : पुं० [सं० सं० प्रति√इ (गमनादि)+घञ) १.स्वीकृति। मंजूरी। २. दृढ़ विश्वास। ३. सम्यक ज्ञान का बोध। ४. मन की भावना या विचार।
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संप्रदा  : पुं०=संप्रदाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=संपदा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संप्रदान  : पुं० [सं० सम्-प्र√दा (देना)+ल्युट्-अन] १. दान देने की क्रिया या भाव। २. दीक्षा के समय शिष्य को गुरु का मंत्र देना। ३. उपहार। भेंट। ४. व्याकरण में एक कारक जो उस संज्ञा की स्थिति का बोध कराता है जिसके निमित्त कोई कार्य किया गया होता है। इसकी निभक्ति ‘को’ तथा ‘के’ लिए है। ५. किसी की वस्तु उसे देना या उसके पास पहुँचाना। (डिलिवरी)
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संप्रदाय  : वि० [सं०] [वि० सांप्रदायिक] देने वाला। पुं० १. परम्परा से चला आया हुआ ज्ञान, मत या सिद्धात। २. परम्परा से चली आई हुई परिपाटी, प्रथा या रीति। ३. गुरु- परम्परा से मिलने वाला उपदेश या मंत्र। ४. किसी धर्म के अन्तर्गत कोई विशिष्ट मत या सिद्धान्त। ५. उक्त प्रकार का मत या सिद्धान्त मानने वालों का वर्ग या समूह। जैसा—वैष्णव या शैव सम्प्रदाय। फिरका। ६. कोई विशिष्ट धार्मिक मत या सिद्धन्त। धर्म। जैसे—भारत में अनेक मतों और सम्प्रदाय के लोग रहते हैं। ७. किसी विचार, विषय या सिद्धान्त के संबंध में एक ही तरह के विचार या मत रखने वाले लोगों का वर्ग। (स्कूल) ८. मार्ग। रास्ता।
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संप्रदायक  : वि०=सांप्रदायिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संप्रदायी (यिन)  : वि० [सं० सम्-प्र√दा (देना)+णिनि-पुक्] [स्त्री० संपर्दायिनी] १. देने वाला। २. कोई काम करने या कोई बात सिद्ध करने वाला। ३.किसी संप्रदाय का अनुयायी।
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संप्रभु  : वि० [सं०] ऐसा प्रभु या सत्ताधारी जिसके ऊपर और कोई प्रभु या सत्ताधारी न हो। सर्वप्रधान प्रभु अथवा सत्ताधारी (व्यक्ति या राष्ट्र)। (सावरेन)
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संप्रभुता  : स्त्री० [सं०] संप्रभु होने की अवस्था, गुण या भाव (सावरेंटी)।
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संप्रयुक्त  : भू० कृ० [सं० सम्-प्र√युज् (मिलना)+क्त] १. किसी के साथ अच्छी तरह जोड़ा या मिलाया हुआ। २. किसी के साथ बाँधा या लगाया हुआ। ३. प्रयुक्त।
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संप्रयोग  : पुं० [सं० सम्-प्र√युज् (संयोग करना)+घञ्] १. जोड़ने या मिलाने की क्रिया या भाव। एक साथ करना। मिलाना। २. मेल। समागम। ३. मैथुन। संभोग। ४. उपयोग। प्रयोग। ५. ज्योतिष में किसी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का होने वाला योग। ६. इन्द्रजाल। जादूगरी। ७. उच्चाटन, मोहन, वशीकरण आदि का प्रयोग।
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संप्रयोगी (गिन्)  : पुं० [सं० संम्-प्र√युज् (संबंध करना)+घिनुण्, संप्रयोग+इनि वा] [स्त्री० संप्रयोगिनी] १. कामुक। लम्पट। २. ऐन्द्रजालिक। जादूगर।
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संप्रयोजन  : पुं० [सं० सम्‘√युज् (मिलाना)+ल्युट्-अन] [वि० संप्रयोजनीय, संप्रयोज्य, भू० कृ० संप्रयोजित, संप्रयुक्त] अच्छी तरह जोड़ना या मिलाना।
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संप्रवत्त  : वि० [सं० सम्-प्र√वृत्त् (रहना)+क्त] १. आगे आया या बढा हुआ। अग्रसर। २. प्रस्तुत। मौजूद। ३. आरंभ या प्रचलित किया हुआ।
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संप्रवर्तक  : वि० [सं० सम्-प्र√वृत (वर्तमान रहना)+ण्वुल्-अक] १. चलाने वाला। २. जारी या प्रचलित करने वाला।
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संप्रवर्तन  : पुं० [सं० सम्-प्र√वृत (वर्तमान रहना)+ण्वुल्-अन] [वि० संप्रवर्तनीय] १. गीति देना। चलाना। २. घुमाव। मोड़ना। ३. जारी या प्रचलित करना।
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संप्रवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० सम्-प्र√व-त (रहना)+णिनि] ठीक या व्यवस्थित करनेवाला।
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संप्रवाह  : पुं० [सं० सं-प्र√वह् (ढोना)+घञ्] लगातार चलता रहने वाला क्रम या होता रहने वाला प्रवाह।
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संप्रवृत्ति  : स्त्री० [सं० सम्-प्र√वृत्त (रहना)+क्तिन] १. आसक्ति। २. किसी का अनुकरण करने की इच्छा। ३. उपस्थिति। मौजूदगी। ४. मिलकर एक होना। संगटन।
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संप्रसादन  : पुं० [सं०] [वि० संप्रसाद्य, भू० कृ० संप्रसादित] किसी को अच्छी तरह या सब प्रकार से प्रसन्न करना।
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संप्रसाद्य  : वि० [सं०] [स्त्री० संप्रसाद्या] जिसे सब प्रकार से प्रसन्न और सन्तुष्ट रखना आवश्यक या उचित हो।
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संप्राप्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संप्राप्ति] १. आया या पहुँचा हुआ। उपस्थित। २. मिला हुआ। प्राप्त। जो घटित हुआ हो।
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संप्राप्ति  : स्त्री० [सं०] १. संप्राप्त होने की अवस्था या भाव। २. शरीर विज्ञान में वह क्रिया या प्रक्रम जो शरीर में किसी रोग के कीटाणु पहुँचने, उस रोग के परिपक्व होने और बाह्य लक्षण या स्वरूप होने तक होती है (इन्क्यूबेशन)। जैसे—चेचक का संप्राप्ति-काल दो सप्ताह माना गया है। ३. घटना आदि का उपस्थित या घटित होना।
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संप्रेक्षण  : पुं० [सं० सम्-प्र√इक्ष् (देखना)+ल्यूट्-अन] [भू० कृ० संप्रेक्षित, वि० संप्रेक्ष्य] १. अच्छी तरह देखना। २. जाँच-पड़ताल या देख भाल करना।
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संप्रेक्ष्य  : वि० [सं०] जिसका संप्रेक्षण होने को हो या हो सकता हो। देखने या निरीक्षण करने योग्य।
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सप्रेटा  : पुं० [अं० सेपरेटेड मिल्क] ऐसा दूध जिसमें से मक्खन या चिकना अंश निकाल दिया गया हो। मखनिया दूध।
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संप्रेष  : पुं० [सं० सम्-प्र√इष् (इच्छा करना)+घञ्] १. यज्ञादि में ऋत्विजों को नियुक्त करना। २. आमंत्रण। आह्वान।
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संप्रेषक  : वि० [सं०] संप्रेषण करने वाला (ट्रान्समीटर)।
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संप्रेषण  : पुं० [सं०] १. अच्छी तरह एक जगह से दूसरी जगह भेजना। २. मार्ग, माध्यम या साधन बनकर कोई चीज (जैसे—आज्ञा, प्रकाश, विद्युत, समाचार आदि) एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाना। (ट्रान्समिशन)। ३. काम या नौकरी से अलग करना। बरखास्त करना।
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संप्रेषणी  : स्त्री० [सं० संप्रेषण-ङीष्] हिंदुओं में मृतक का एक कृत्य जो द्वादश को होता है।
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संप्रोक्त  : भू० कृ० [सं० सम्-प्र√वच् (कहना)+क्त-व-ड] १. संबोधित। २. कथित। ३. घोषित।
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संप्रोक्षण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संप्रोक्षित, वि० संप्रोक्ष्य] १. खूब पानी छिड़ककर (मंदिर आदि ) साफ करना। २. धोना। ३. मदिरा आदि का उत्सर्ग।
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संप्लव  : पुं० [सं० सम्√प्लु (डूबना)+अप्] [भू० कृ० संप्लुत] १. पानी की बाढ़। २. बहुत बड़ी राशि या समूह। ३. हो-हल्ला। शोरगुल। ४. आन्दोलन। हलचल।
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संप्लुत  : भू० कृ० [सं० सम्-प्लु (डूबना)+क्त] १. जल से तराबोर। २. डूबा हुआ।
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सफ  : स्त्री [अं० साफ] १. पंक्ति। कतार। २. बिछाने की चटाई। ३. बिछौना। बिस्तर। पुं० शफ।
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सफगोल  : पुं०=इसबगोल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सफदर  : वि० [अ०] सफों अर्थात सैनिक पंक्तियाँ तोड़ने या भेदने वाला। पुं० १. बहुत बड़ा वीर। २. एक प्रकार का बढ़िया आम।
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सफर  : पुं० [अ० सफर] १. हिजरी सन का दूसरा महीना। २. रास्ते में चलना। ३. रवाना होना। ४. वह अवसर जब कोई एक स्थान से दूसरे नजदीक या दूर के स्थान को जा रहा हो। ३. यात्रा काल में तय की जाने वाली दूरी। जैसे—५॰ मील लंबा सफर उन्हे करना पड़ा। पुं०=सफरी (मछली)।
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सफरदाई  : पुं०=सपरदाई।
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सफरभत्ता  : पुं० दे० ‘यात्रा भत्ता’।
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सफरमैना  : स्त्री० [अं० सैपर्स ऐंड माइनर्स] सेना के वे सिपाही जो सुरंग लगाने तथा खाइयाँ आदि खोदने को आगे चलते हैं।
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सफरा  : पुं० [अ० शपरः] [वि० सफरावी] पित्त।
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सफरी  : वि० [अ० सफर] १. सफर संबंधी। २. सफर के साथ में ले ताया जाने वाला। जैसे—सफरी बिस्तर। स्त्री० रास्ते का व्यय और सामग्री। पुं० [?] अमरूद नामक फल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=शफरी (मछली)। स्त्री० [?] टिकली जो हिंदू स्त्रियाँ माथे पर लगाती हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सफल  : वि० [अव्य० स०] १. वृक्ष जिसमें फललगा हो। फलयुक्त। २. (कार्य) जिसका उद्दिष्ट फल या परिणाम हुआ हो। जैसे—परिश्रम सफल होना। ३. (व्यक्ति) जिसका उद्देश्य या परिश्रम अपना परिणाम या फल दिखा चुका हो। जैसे—विद्यार्थी का परीक्षा में सफल होना। ४. पशु जिसका अंडकोष कटा न हो या जो बधिया न किया गया हो।
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सफलता  : स्त्री० [सं० सफल+तल्-टाप] पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी।
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सफलित  : वि० [सं० सफल+इतच]=सफलीभूत।
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सफलीकरण  : पुं० [सं० सफल+च्छि√कृ (करना)+ल्युट्-अन, दीर्घ] [भू० कृ० सफलीकृत] सफल करने की क्रिया या भाव।
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सफलीभूत  : भू० कृ० [सं० सफल+चि√भू (होना)+क्त दीर्घ] १. (व्यक्ति) जिसे मिली सफलता हो। जो सफल हो चुका हो। २. (कार्य) जो पूरा या सिद्ध हो चुका हो।
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सफहा  : पुं० [अ० सफ़हः] १. तल। पार्श्व। २. पुस्तक का पृष्ठ। पन्ना। वरक।
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सफा  : वि० [अ० सफा०] १. साफ। स्वच्छ। जैसे—सफा कमरा। २. निर्मल। पवित्र। ३. साफ करने वाला। जैसे—बालसफा पाउडर। ४. खाली। रहित। जैसे—रात भर में उसका जेब साफ हो गया।
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सफा-चट  : वि० [अ०+हि०] १. (तल) जो ऊपर से पूरी तरह से साफ कर दिया गया हो। जिसके ऊपर कुछ भी जमा या लगा न रहने दिया गया हो। जैसे—सफाचट खोपड़ी, सपाचट दाढ़ी। २. तस जिस पर कुछ भी जमा या लगा न रह गया हो। जो बिलकुल चिकना हो। जैसे—सफाचट मैदान। ३. बिलकुल साफ और स्वच्छ। जैसे—सफाचट दीवार। ४. जिसका कुछ भी अंश या चिन्ह बाकी न रहने दिया गया हो। जैसे—जो कुछ उसने पाया वह सब सफाचट कर गया।
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सफाई  : स्त्री० [अ० सफा+हिं० ई (प्रत्य)] १. साफ होने की अवस्था या भाव। स्वच्छता। निर्मलता। २. कूड़े-करकट, मैल आदि से रहित करने या होने की अवस्था या भाव। जैसे—रपड़े, बरतन या मकान की सफाई। ३. त्रुटि, दोष आदि से पहित होने की अवस्था या भाव। जैसे—बोलने या लिखने में दिखाई देने वाली सफाई। ४. छल-कपट आदि से पहित होने की अवस्था या भाव। जैसे—व्यवहार या हृदय की सफाई। ५. ऋम आदि का परिशोध। लेन-देन या हिसाब चुकता होना। ६. लगाए हुए इल्जाम या आरोपित दोष से पहित होने की अवस्था या भाव। जैसा—मामले मुकदमें में दी जाने वाली सफाई। क्रि० प्र०—देना। ७. वाद-विवाद आदि का निपटारा या निर्णय।
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सफाया  : पुं० [अ० सफा०] १. जीवों के संबंध में उनका होने या किया जाने वाला पूरा संहार। जैसे—(क) वस्तुओं के संबंध में उनका किया जाने वाल ऐसा उपयोग या भोग कि वे नष्ट या समप्त हो जायँ। जैसै०—दो ही वर्षों में उसने बाप-दादा की कमाई का सफाया कर दिया।
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सफीना  : पुं० [अ० सफ़ीनः] १. वही। किताब। नोटबुक। २. अदालत का लिखा हुआ परवाना। हुकुमनामा।
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सफीर  : पुं० [अ० सफीर] एलची। राजदूत। स्त्री० १. चिड़ियों के बोलने की आवाज। २. साटी विशेषतः वह सीटी जो पक्षियों, साथियो आदि को अपने पास बुलाने के लिए बजाई जाती है।
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सफील  : स्त्री० [अ० फसील] १. पक्की चाहरदीवारी। २. शहरपनाह। परकोटा।
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संफेट  : पुं० [सं०] १. क्रोध में आकर किसी से भिड़ना। भिड़ंत। लड़ाई। २. कहासुनी। तकरार।
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सफेद  : ऋवि० [सं० श्वेत से फा० सुफ़ेद] १. जो रंगीन न हो। जैसे—सफेद बाल। पद—सफेद खून=पुरुष का वीर्य। २. स्वच्छ तथा उज्जवल। जैसे—सफेद पोशाक। ३. ( कागज आदि) (क) जिसपर कुछ लिखा न हो। कोरा। (ख) जिस पर लकीरें आदि न खिचीं हों। पद—स्याह सफेद= (क) भला-बुरा। (ख) हानि-लाभ। मुहा०—खून सफेद होना=मोह, ममता, सहानभूति आदि का भाव मन में रह जाना। ४. साफ। स्पष्ट। पद—सफेद-झूठ। (देखें)
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सफेद हाथी  : पुं० [हिं०] १. बरमा में पाया जाने वाला सफेद रंग का हाथी जो वहाँ बहुत पवित्र माना जाता है और जिससे कोआ काम नहीं लिया जाता। २. ऐसा व्यक्ति विशेषतः वेतन भोगी कर्मचारी, जिस पर व्यय जो बहुत अधिक पड़ता हो, पर उसका उपयोग प्रायः बहुत कम या नहीं के समान होता है। (व्हाइट एलीफ़ेन्ट)
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सफेद-झूठ  : पुं० [हिं०] ऐसा झूठ जो ऊपर से देखने पर ही साफ झूठ जान पड़ता हो, और वस्तुस्थिति के स्पष्ट विपरीत हो। विशेष—हिंदी में वह पद अँगरेजी के व्हाइट लाई के अनुकरण पर बना है, इसका आशय बिलकुल उलटा किया जाने लगा है। वस्तुतः अँगरेजी में व्हाइट लाई ऐसे झूठ को कहते हैं, जो केवल औपचारिक रूप में प्रायः बोला जाता है जिसमें किसी के अनिष्ट या छल-कपट का कुछ भी उद्देश्य नहीं होता।
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सफेद-पलका  : पुं० [फा० सुफ़ैद+हिं० फलक] ऐसा कबूतर जिसके पर कुछ सफेद और काले होते हों।
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सफेद-पोश  : वि० [फा०] [भाव० सफेदपोशी] १. साफ कपड़े पहनने वाला। पुं० कुलीन और शिक्षित और सभ्य व्यक्ति।
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सफेद-सुरमा  : पुं० [हिं०] चिरोड़ी नामक खनिज पदार्थ जो सफेद रंग का होता है। (जिप्सम)
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सफेदा  : पुं० [फा० सुफेदा] १. जस्ते का चूर्ण या भस्म जो दवा तथा लोहे का लकड़ी आदि की रँगाई में रंग में मिलाने का काम आती है। २. एक प्रकार का बढिया आम। ३. एक प्रकार का बड़ा और बढिया खरबूजा। ४. एक प्रकार का पकवान जिसका प्रचलन मुसलमानों में है। ५. पंजाब और कश्मीर में होने वाला एक बहुत ऊँचा और खंभे की तरह सीधा जाने वाला पेड़ जिसकी छाल का रंग सफेद होता है। इसकी लकड़ी सजावट के सामान बनाने के काम में आती है।
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सफेदी  : स्त्री० [फा० सुफ़ैदी] १. सफेद होने की अवस्था या भाव। स्वेतता। धवलता। २. बालों के सफेद होने की अवस्था जो वृद्धावस्था की सूचक होती है। मुहा०—सफेदी आना=दाढ़ी, मूँछें और सिर के बाल सफेद होना। बुढ़ापा आना। ३. दीवारों आदि पर होने वाली चूने के घोल की पोताई जिससे वे बिलकुल सफेद हो जाती हैं। ४. सूर्य के निकलने के पहले का उज्जवल प्रकाश जो पूर्व दिशा में दिखाई पड़ता है।
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सफ्तालू  : पुं०=शफ्तालू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संब  : पु०=शंब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सब  : वि० [सं० सर्व] १. अवधि, मान, मात्रा, विस्तार आदि के विचार से जितना है वह कुल (क) यहाँ सब दिन रोना पड़ा रहता है। (ख) सब खुशियाँ वह अपने साथ लेता गया। (ग) सब सामान उसके पास है। २. अंग, अंश, सगस्यता आदि के विचार से हर एक जैसे—वहाँ सब जा सकते हैं किसी के लिए मनाही नहीं है। ३. जोड़ के विचार से होने वाला। पद—सब मिलाकर√गिनती में कितना जोड़ हुआ है उसके विचार से। जैसे—सब मिलाकर उन्होने १॰॰॰॰) विवाह में खर्च किये हैं। सर्व० कुल व्यक्ति। जैसे—सबने वहा मत दिया है। वि० [अ०] १. किसी के आधीन रहकर उसी की तरह काम करने वाला। जैसै०—सब रजिस्ट्रार। २. किसी के अंतर्गत और गौड़ या छोटा। उप—जैसे—सब-डिवीजन।
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सबक  : पुं० १. फा० सबक] १. अध्ययन के समय उतना अंश जितना एक बार में पढ़ाया जाय। पाठ। २. नसीहत। शिक्षा। क्रि० प्र०—मिलना। सीखना।
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सबकत  : स्त्री० [अ० सबकत] किसी विषय में औरों की उपेक्षा आगे बढ़ जाना। विशिष्टता प्राप्त करना।
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सबज  : वि=सब्ज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संबत  : पुं०=संवत्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सबद  : पुं० [सं० शब्द] १. शब्द। आवाज। २. किसी महात्मा की वाणी या भजन। जैसे—कबीर जी के सबद, दादू दयाल के सबद।
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सबदी  : वि० [हिं० सबद] किसी साधु महात्मा के सबद (वचन या आज्ञा) पर विश्वास रखने वाला।
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संबद्ध  : वि० [सं०] १. किसी के साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। २. किसी प्रकार का संबंध रखनेवाला।
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संबद्ध-लिंग  : पुं० दे०‘लिंग’ (न्याय-शास्त्रवाला विवेचन)।
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संबद्धीकरण  : पुं० [सं०] १. संबद्ध करने की क्रिया या भाव। २. विद्यालय, संस्था आदि को अपना अंग या सदस्य मानकर उसे अपने साथ संबद्ध करना। अपने परिवार या संघठन का सदस्य बनाना (एफिलिएशन)।
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संबंध  : १. किसी के साथ बँधना। जुड़ना या मिलना। २. वह स्थिति जिसमें कोई जुड़ा बँधा या लगा रहता है। ताल्लुक। लगाव। ३. एक कुल में होने के कारण अथवा विवाह दत्तक आदि संस्कारों के कारण होने वाला पारस्परिक लगाव। नाता। रिश्ता। ४. आपस में होने वाली बहुत अधिक घनिष्ठता या मेल-जोल। ५. किसी प्रकार का मेल या संयोग। ६. विवाह। शादी। ७. व्याकरण में एक कारक जिसमें एक शब्द के साथ दूसरे शब्द का संबंध या लगाव सूचित होता है। जैसे—राम का घोड़ा। ८. प्रसंगवश किसी सिद्धान्त का किया जाने वाला उल्लेख । हवाला। ९. ग्रन्थ। पुस्तक। १॰. एक प्रकार की ईति या उपद्रव।
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संबंध तत्त्व  : पुं० [सं०] भाषा विज्ञान में वह तत्व जो किसी पद या वाक्य में आये हुए अर्थ तत्व वाले शब्दों का पारस्परिक संबंध मात्र बतलाता है। ‘अर्थतत्त्व’ का विपर्याय (मॉरफीम)। जैसा—‘समाज का स्वरूप’ में ‘का’ शब्द संबंधतत्व वाला है।, क्योंकि वह समाज और स्वरूप में संबंध मात्र स्थापित करता है।
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सबंध, सबंधक  : वि० [सं०] जिसके लिए या जिसके संबंध में कोई बंध लिखा गया हो या कोई जमानत दी गई हो।
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संबंधक  : वि० [सं० संबंध+कन्] १. संबंध रखने वाला। संबंधी। विषयक। २. उपयुक्त। योग्य। ३. जो दो वस्तुओं, व्यक्तियों आदि में पारस्परिक संबंध करता या कराता हो (कनेक्टिंग)। पुं० १. रक्त या विवाह संबंधी। २. मैत्री। ३. मित्र। ४. रिश्तेदार। संबंधी। ५. राजाओं में होने वाली वह संधि जो आपस में विवाह करके स्थापित की जाती थी।
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संबंधातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें पारस्परिक संबंध का आभाव होते हुए भी संबंध दिखाया जाता है।
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संबंधित  : भू० कृ० [सं०] जिसका किसी से संबंध स्थापित हो। संबद्ध।
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संबंधी (धिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० संबंधिनी] १. संबंध या लगाव रखने वाला। २. किसी विषय से लगा हुआ। विषयक। पुं० १. वह जिसके साथ रक्त अथवा विवाह का संबंध हो। रिश्तेदार। २. दे० ‘समधी’।
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संबंधु  : पुं० [सं० सम्√बन्ध् (बाँधना)] १. आत्मीय। भाई-विरादक। २. नातेदार। संबंधी।
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सबब  : पुं० [अ०] १. कारण। वजह। हेतु। २. किसी काम की क्रिया का द्वार या साधन। जैसे-कोई सबद निकालो तो यह काम हो।
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सबर  : पुं०=सब्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संबरन  : पुं०=संवरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संबरना  : [सं० संवरण] संवरण करना। रोकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सबरा  : पुं० [?] वह औजार जिससे कसेरे टाँका लगाते हैं। बरतन में जोर लगाने का औजार। वि०=सब (पूरा या सारा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संबल  : पुं० [√ सम्ब्+कलच्] १. कहीं जाने के समय रास्ते के लिए साथ में रखा हुआ खाने पीने का सामान। २. कोई ऐसी चीज, बात या साधन जिससे किसी का या बात में आगे बढ़ने में पूरी-पूरी सहयता मिलती हो या जिसका आश्रय लिया जाता हो (रिसोरसेज)। ३. सहारा। ४. गेहूँ की फसल का एक रोग जो पूरब की हवा अधिक चलने से होता है। ५. सेमल का वृक्ष। पुं०=संबुल (संखिया)।
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सबल  : वि० [सं० अव्य० स०] [भाव० सबलता] १. जिसमें बहुत बल हो। बलवान। बलशाली। ताकतवर। २. जिसकी सेना या सैनिक सबल हों।
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सबा  : स्त्री० [अ०] १. रास्ता। मार्ग। २. पूरब की ओर से आने वाली अच्छी और ठंडी हवा जो प्रिय लगती है।
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सबात  : स्त्री० [अ०] १. स्थिरता। स्थाइत्व। २. दृढ़ता। मजबूती।
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संबाध  : पुं० [सं० सम्√बाध् (बाधा देना)+घञ, ब० स०] १. बाधा। अड़चन। २. भीड़। समूह। ३. संघर्ष। ४. भंग। योनि। ५. कष्ट। तकलीफ। ६. भरा हुआ। ३. जनाकीर्ण।
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संबाधक  : वि० [सं० सम्√बाध (बाधा देना)+ण्वुल्-अक] १. बाधा डालने वाला। बाधक। २. तंग करने वाला या सताने वाला।
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संबाधन  : वि० [सं० ब० स०] १. बाधक होना। बाधा डालना। २. रेल-पेल। ३. रुकावट। ४. द्वारपाल। ५. शूल की नोक। ६. भंग। योनि। पुं०=शंबक या शंबुक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सबार  : अव्य० [हिं० सबेरा] उचित समय से कुछ पहले ही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सबील  : स्त्री० [अ०] १. द्वार। साधन। २. उपाय। युक्ति। क्रि० प्र० निकालना। ३. वह स्थान जहाँ लोगों को धर्माथ जल या शरबत पिलाया जाता हो। पौसरा। प्याऊ। क्रि० प्र०—बैठना।—लगाना।
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सबीह  : स्त्री०=शबीह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सबुज  : वि०=सब्ज (हरा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संबुद्ध  : वि० [सं० सम्√बुध् (ज्ञान प्राप्त करना)+क्त] १. जिसे बोध या ज्ञान हो चुका हो। २. जिसे ज्ञान प्राप्त हो चुका हो। ३. जागा हुआ। जाग्रत। ४. अच्छी तरह जाना हुआ। ज्ञात। पुं० १. ज्ञानी। २. गौतम बुद्ध। ३. जैनों के जिन देव।
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संबुद्धि  : स्त्री० [सं० सम्√बुद् (ज्ञान प्राप्त करना)+क्तिन] १. संबुद्ध होने की अवस्था या भाव। २. पूरी तरह से होने वाला ज्ञान या बोध। ३. बुद्धिमत्ता। समझदारी। ४. आह्वान। पुकार।
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सबुनाना  : स० [हि० सबुन] साबुन लगाना।
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संबुल  : पुं० [अ० सुंबुल] १. बाल-छड़ नामक सुगंधित वनस्पति। २. अनाज की बाल जिसमें दाने रहते हैं।
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संबुल खताई  : पुं० [फा०] तुर्किस्तान में होने वाला एक प्रकार का पौधा जो औषध के काम में आता है और जिसकी पत्तियों की नसें मिठाई में पड़ती हैं।
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सबू  : पुं० [फा० सुबू] १. मिट्टी का घड़ा। मटका। गगरी। २. शराब रखने का पात्र।
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सबूत  : पुं० [अ० सुबूत] वह चीज या बात जिससे कोई और बात सबित अर्थात प्रमाणित होती हो। प्रमाण। वि०=साबूत (पूरा या सारा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सबूरा  : पुं० [अ० सब्र] [स्त्री० अल्पा० सबूरी] काठ, कपड़े, चमड़े, आदि का बना हुआ एक प्रकार का लंबा खंड जिससे कुँआरी, विधवा, या पतिहीना स्त्रियाँ अपनी काम वासना तृप्त करती हैं। (मुसल० स्त्रियाँ)।
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सबूरी  : स्त्री० [अ० सब्र] १. संतोष। सब्र। उदा०—कहत कबीर सुनौ भाई संतो साहब मिलत सबूरी में।—कबीर। २. किसी के द्वारा पीड़ित होने पर तथा असमर्थ या असहाय होने के कारण चुपचाप बैठकर किया जाने वाला सब्र। मुहा—(किसी की) सबूरी पड़ना=किसी पीड़ित के उक्त प्रकार के फलस्वरूप उत्पीड़क की दैविक गति से दंड मिलना या उसका कोई उपकार होना।
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सबेरा  : पुं०=सवेरा।
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संबेसर  : पुं० [सं० सं+हिं० बसेरा] नींद (डिं०)।
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संबोध  : पुं० [सं० सम्√बुध् (ज्ञान करना)+घञ्] १. सम्यक ज्ञान। पूरा बोध। २. अच्छी और पूरी जानकारी। ३. ढ़ारस। सान्त्वना।
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संबोधक  : वि० [सं०] संबोधन करनेवाला।
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संबोधन  : पुं० [सं०√बुध् (ज्ञान प्राप्त करना)+ल्युट्-अन] [वि० संबोधित, संबोध्य] १. नींद से उठाना। जगाना। २. ज्ञान या बोध कराना। ३. समझाना-बुझाना। ४. आह्वान करना। पुकारना। ५. व्याकरण में वह शब्द जिसमें किसी को पुकारा जाता है। विशेष-भूल से इसकी गिनती कारकों में की जाती है, जबकि यह क्रिया के रूप का साधन नहीं करता। ६. वह स्थिति जिसमें किसी से कुछ कहने के लिए उसके प्रति ध्यान दिया या मुख किया जाता है।
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संबोधनगीति  : स्त्री० [सं०] आधुनिक साहित्य में ऐसा विशद जाति काव्य जो किसी को संबोधित करके लिखा गया हो। और उच्च भावनाओं से युक्त हो (ओड)। जैसे—दिनकर कृत ‘हिमालय’ या पंत कृत ‘भावी’ पत्नी के प्रति।
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संबोधना  : सं० [सं०] १. समझाना-बुझाना। बोध कराना। ३. ढारस या सान्त्वना देना।
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संबोधि  : स्त्री० [सं० संबोध+इनि्] पूर्ण ज्ञान (बौद्ध)।
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संबोधित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे संबोधन किया गया हो। २. जिसका ध्यान आकृष्ट किया गया हो। ३. जिसे बोध कराया गया हो। ४. (विषय) जिसका ज्ञान या संबोधन कराया गया हो।
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संबोध्य  : वि० [सं०] १. जिसे संबोधन किया जाय। २. जिसे बोध या ज्ञान कराया जाय।
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सब्ज  : वि० [फा० सब्ज] १. कच्चा और ताजा (फल, फूल, आदि) मुहा०—(किसी को) सब्ज बाग दिखलाना=अपना काम निकालने या जाल में फसाँने के लिए भविष्य के संबंध में बड़ी-बड़ी आशाएँ दिखलाना। २. (रंग)। हरा। हरित। भला। शुभ। जैसे—सब्ज-बख्त=भाग्यवान्।
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सब्ज कदम  : वि० [फा० सब्ज+अ० कदम] जिसके कहीं पहुँचते ही कोई अशुभ घटना हो। जिसके चरण अशुभ हो। (उपहास और व्यंग्य)।
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सब्ज़ा  : पुं० [फा० सब्ज] १. हरी घास और वनस्पति आदि। हरियाली। क्रि० प्र० लहलहाना। २. भंग। भांग। विजया। ३. पन्ना नामक रत्न। ४. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना। ५. घोड़े का एक रंग जिससे सफेदी के साथ कुछ काला पन भी मिला होता है। ६. उक्त रंग का घोड़ा। ७. सौ रुपयों का नोट जो प्रायः सब्ज या हरे रंग की स्याही से छपा होता है। (बाजारू) जैसे—एक सब्जा उसके हाथ पर रखी तो काम हो जाय।
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सब्जी  : स्त्री० [फा०] १. सब्ज होने की अवस्था या भाव। हरापन। २. हरी घास और वनस्पति आदि। हरियाली। ३. हरी तरकरी। साग-सब्जी। ४. पकाई हुई तरकारी। जैसे—आलू मटर की सब्जी।
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सब्र  : पुं० [अ०] १. वह मानसिक स्थिति जिसमें मनुष्य उत्तेजित, उत्पीड़ित, दुखी या संतप्त किये जाना अथवा किसी प्रकार की विपत्ति या विलंब का सामना होने पर भी धीरे या शांति भाव से चुप रहता या सहन करता। जैसे—(क) थोड़ा सब्र करो, समय आने पर उससे समझ लिया जायगा। (ख) अपमानित होने (या मार खाने) पर भी वह सब्र करके बैठ गया। मुहा—सब्र आना=किसी का कुछ अनिष्ठ करके अथवा बदला चुकाकर ही चुप या शांत होना। उदा०—मारा जमीं में गाड़ा, तब उसको सब्र आया। कोई शायर। सब्र कर बैठना या कर लेना=चुपचाप और शांत भाव से सहन करते हुए भी कष्ट हानि आदि का प्रतिकार न करना। (किसी पर किसी का) सब्र पड़ना=उत्पीड़क को उत्पीड़ित के सब्र के फलस्वरूप किसी प्रकार का दुष्परिणाम भोगना पड़ेगा। (किसी का) सब्र समेटना=किसी को पीड़ित करने पर उसके सब्र के भल भोग का भागी बनना। २. जल्दी, हड़बड़ी आदि छोड़कर धैर्य घारण करने वाला। जैसे—सब्र करो गाड़ी छूटी नही जाती।
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सब्रह्माचारी  : पुं० [सं० अव्य० स०] वे ब्रह्मचारी जिन्होने एक साथ एक ही गुरु के यहाँ रहकर शिक्षा प्राप्त की हो।
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संभ  : पुं०=शंभु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सभ  : वि०=सब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संभक्त  : भू० कृ० [सं० सम्√भज् (भाग करना)+क्त] [भाव० संभक्ति] १. बँटा हुआ। विभक्त। २. भाव या हिस्सा पाने या लेने वाला। ३. भोग करने वाला। पुं० अच्छा और पूरा भक्त।
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संभक्ति  : स्त्री० [सं० सम्√भज् (भाग करना)+क्तिन्] १. विभाजन। २. विभाग। ३. उपभोग। ४. उत्तम और पूरी भक्ति।
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संभक्ष  : वि० [सं० सम्√भक्ष् (खाना)+अच्] खाने वाला (समास में)। पुं० १. किसी के साथ बैठकर खाना। सहभोज। २. खाद्य पदार्थ।
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सभंग  : वि० [सं०] जिसके खंड या टुकड़े किये गये हों। टूटा या तोड़ा हुआ। भग्न।
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सभंग श्लेष  : पुं० [सं०] साहित्य में श्लेष अलंकार के दो मुख्य भेदों में से जो उस समय माना जाता है जब किसी शब्द या भंग का पद अर्थात खंड या विच्छेद करके कोई दूसरा अर्थ निकाला या लगाया जाता है। यथा-भोगी ह्वै रहत बिलसत अपनी के मध्य कनकन जोरै दान-पाठ परिवार है। सेनापति। इसमें के कनकन का भंग करने पर एक अर्थ होगा। ‘कनक न जोरै का दूसरा अर्थ होगा—कनकन जौरे का। विशेष-सका दूसरा और विपरीत भेद अभग श्लेष कहलाता है।
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संभग्न  : वि० [सं०] १. बहुत टूटा-फूटा। २. हारा हुआ। परास्त। ३. विफल। पुं० शिव।
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सभय  : वि० [सं० अव्य० स०] १. डरा हुआ। भटभीत। २. जिसमें या जिससे भय की आशंका हो। भय-कारक। खतरनाक। क्रि० प्रा० भपूर्वक। डरते। हुए।
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संभर  : वि० [सं० सम्√भृ (भरण करना)+अच्] भरण पोषण करने वाला। पुं०=साँभर (झील)।
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संभरण  : पुं० [सं० सम्√ भृ (भरण करना)+ल्युट्—अन] [वि० संभरणीय, संभृत] १. पालन-पोषण। २. एकत्र करना। चयन। संचय। ३. किसी काम या बात की योजना या विधान। ४. सामग्री। सामान। ५. लोगों की आवश्यकता की चीजें उनके पास पहुँचने की व्यवस्था। समायोजन। (सप्लाई) ६. यज्ञ की वेदी में लगाई जानेवाली ईटें।
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सँभरणी  : स्त्री० [सं० संभरण-ङीप्] सोमरस रखने का एक यज्ञपात्र।
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सँभरना  : अ०=संभलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० [सं० स्मरण]=स्मरण करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सभर्त्तृका  : वि० स्त्री० [सं० अव्य० स०] (स्त्री०) जिसका पति जीवित हो सधवा।
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संभल  : पुं० [सं०] १. किसी लड़की से विवाह करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति। २. स्त्रियों का दलाल। ३. वह स्थान जहाँ विष्णुव्यास नामक ब्राह्मण के घर विष्णु का दसवाँ कल्कि अवतार होने को है। इसे कुछ लोग मुरादाबाद जिले का संभल नाम का कसबा समझते हैं।
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सँभलना  : अ० [सं० संभरण] १. किसी ओर गिरने, फिसलने, लुढ़कने, भ्रष्ट आदि होने से रुकना। २. किसी बोझ आदि का रोका या किसी कर्तव्य आदि का निर्वाह किया जा सकना। ३. किसी आधार या सहारे पर रुका रहना। ४. होशियार या सावधान रहना। ५. चोट या हानि से बचाव करना। ६. स्वस्थ होना। ७. बुरी दशा से बचकर रहना। ८. अच्छी दशा में आना। स० [सं० श्रवण] सुनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सँभला  : पुं० [हिं० सँभलना] एक बार बिगड़कर फिर सँभली हुई फसल।
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सँभली  : स्त्री० [सं० संभली] कुटनी। दूती।
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संभव  : वि० [सं०] १. (काम) जो किया जा सकता हो अथवा हो सकता हो। किये जाने अथवा हो सकने योग्य। २. जिसके घटित होने की संभावना हो। जिसके संबंध में यह समझा या सोचा जा सकता हो कि ऐसा हो सकता है। मुमकिन (पाँसिबल)। पुं० १. उत्पत्ति। जन्म। पैदाइश। जैसे—कुमार संभव। २. कोई काम या बात घटित होने की अवस्था या भाव। ३. मूल कारण हेतु। मिलन। ४. संयोग। ५. स्त्री-प्रसंग। सहवास। ६. उपयुक्तता। समीचीनता। ७. किसी को अंतर्गत कर सकने की योग्यता। समाई। ८. ध्वंस। नाश। ९. मान, मूल्य आदि में समान होने की अवस्था या भाव जो तर्क में एक प्रकार का प्रमाण माना जाता है। जैसे—एक रुपया और सौ पैसे दोनों बराबर हैं। १॰. वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे अर्हत (जैन)। ११. बौद्धों के अनुसार एक लोक का नाम।
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संभवतः  : अव्य० [सं० संभु+तरिल] १. हो सकता है। संभव है कि। मुमकिन है कि। गालिबन। २. संभावना है कि। हो सकता है कि।
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संभवन  : पुं० [सं० सम्√भू (होना)+ल्युट्—अन] [वि० संभवनीय, संभाव्य, भू० कृ० संभूत] १. उत्पन्न होना। पैदा होना। २. संभव या मुमकिन होना। ३. घटित या संभूत होना।
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सँभवना  : स० [सं० संभव+हिं० ना (प्रत्य०)] उत्पन्न करना। पैदा करना। अ० उत्पन्न होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभवनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे तीर्थकर (जैन)।
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संभवनीय  : वि० [सं० सम्√भू (होना)+अनीयर्] १. जो हो सकता हो। मुमकिन। २. जिसकी संभावना हो।
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संभविष्णु  : पुं० [सं० सम्√ भू (होना)+इष्णुंच] १. जनक। २. उत्पादक। ३. स्त्रष्टा।
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संभवी  : [सं० संभविन] १. किसी से संभूत या उत्पन्न होने वाला। जैसे—स्वतः संभवी वस्तु या हेतु। २. जो हो सकता हो। मुमकिन। संभव।
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संभव्य  : पुं० [सं० सम्√भू (होना)+यत्] कपित्थ। कैथ। वि० जो हो सकता हो। संभव।
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सभा  : स्त्री० [सं०] १. किसी एक स्थान पर बैठे हुए बहुत से भले आदमीयों का समूह। परिषद्। समिति। जैसेः राज-सभा। २. सभ्य लोगों की वह मंडला जो किसी कार्य की सिद्धी या किसी विषय पर विचार करने के लिए एकत्र हुई हो। जैसे—इसका निर्णय करने के लिए पंडितों की सभा की जानी चाहिए। ३. वह संस्था जो किसी विशिष्ट उद्देश्य या कार्य की सिद्धि के लिए संगठित हुई हो और नियमित रूप से अपना कार्य करती हों।? जैसे नगरी प्रचारिणी सभा, विद्यार्थी सहायक सभा। ४.वैदिक काल की एक संस्था जिसमें कुछ लोग एकत्र राजनीतिक सामाजिक आदि विषयों पर विचार करते थे। ५. प्रचीन भारत में उक्त प्रकार की संस्था का सदस्य। सभासदष सामाजिक। ६. जुआड़ियों का जमघट या समूह। ६. जुआद्युत] ८. झुंड। समूह। ९. घर-मकान।
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सभा चातुरी  : स्त्री० वि० [सं० सभा० चतुर+हिं० ई (प्रत्य०)] १. सभा-चतुर होने की अवस्था गुण या भाव।
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सभा-गृह  : पुं० [सं०] २ वह स्थान जहाँ सार्वजनिक सभाएँ या किसी या किसी बड़ी संस्था के अधिवेशन होते हों। (एसेम्बली हाउस)
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सभा-चतुर  : वि० [सं०] [भाव० सभा—चतुरी] १. वह जो सभा या शिष्ट समाज में बात-चीत करने का अच्छा ढंग जानता हो। विशेषतः जो अपनी चतुराई से लोगों को अपने अनकूल बना, प्रभावित और प्रसन्न कर सकता हो।
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सभा-त्याग  : पुं० [सं०] किसी सभा के कार्य या व्यवहार से असंतुष्ट होकर उसके अधिवेशन से उठकर चले जाना। सदन-त्याग।
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सभाई  : वि० [सं० सभा+हिं० आई (प्रत्य०)] सभा से संबंध रखने वाला। सभा का। जैसे—विधान सभाई दल, हिंदू सभाई प्रतिनिधियों।
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सभाकक्ष  : पुं० सं० ष० त०] दे० ‘प्रकोष्ठ’।
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संभाखन  : पुं०=संभाषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सभाग  : वि० [सं०] १. जिसका हिस्सा हुआ हो। सामन्य। ३. सार्वजनिक।। वि० [सं० स+भाग्य] [स्त्री० सभागी] १. भाग्यवान्। खुशकिस्मत। वि०=सुभग (सुंदर)।
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सभाग्रणी  : पुं० दे० ‘सदन-नेता’।
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सभाचार  : पुं० [सं०] १. आचरण और व्यवहार जिनका पालन करना किसी सभा में जाने पर आवश्यक तथा उचित माना जाता हो। २. समाज के रीति रिवाज में। ३. न्यायालयों में काम होने का ढंग या तरीका।
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सभानेता  : पुं० दे० ‘सदननेता’।
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सभापति  : पुं० [सं०] किसी गोष्ठी या सार्वजनिक सभा के कार्यों के संचालन के लिए प्रधान रूप में चुना हुआ व्यक्ति। (प्रसीडेन्य) विशेषः किसी समिति संस्था आदि का स्थाती प्रधान अध्यक्ष कहलाता हैं, जिसका कार्यालय उस संस्था आदि के विधान द्वारा नियत होता है, परंतु सभापति अस्थाई होता है। किसी अधिवेशन के लिए ही चुना जाता है। फिर भी लोक व्यवहार में दोनो शब्द एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त होते हुए देखे जाते हैं।
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सँभार  : स्त्री०=सँभाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संभार  : पुं० [सं०] १. एकत्र या इकट्ठा करना। संचय। २. साज-सामान। सामग्री। ३. आयोजन। तैयारी। ४. धन संपत्ति। ५. दल-झुंड। ६. ढ़ेर। राशि। ७. पालन-पोषण। ८. देख-रेख। निगरानी। ९. नियंत्रण। निरोध।
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संभार तंत्र  : पुं० [सं०] आधुनिक युद्ध कला का वह अंग जिसमें सेना के संचालन, निवास आदि और सैनिको को उनकी आवश्यक सामग्री पहुँचाने की व्यवस्था होती है।
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सँभारना  : स० [सं० स्मरण] स्मरण करना। याद करना। स०=सँभालना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभाराधिप  : पुं० [सं०] राजकीय पदार्थों का अध्यक्ष। तोश खाने का अफसर (शुक्रनीति)।
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संभारी (रिन्)  : वि० [सं० संभार+इनि सं०√भू (भरण करना)+णिनि, संभारिन] [स्त्री० संभारिणीं] १. संभार करने वाला। २. भरा हुआ। पूर्ण।
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सभार्यक  : वि०=सपत्नीक।
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सँभाल  : स्त्री० [सं० संभार] १. सँभलने या सँभालने की क्रिया या भाव। २. कोई चीज सँभालकर रखने की क्रिया या भाव। देख-रेख। हिफाजत। ३. शरीर के अंग आदि सँभालकर रखने की शक्ति या समझ। तन-बदन की सुध। जैसे—वह इतना वृद्ध हो गया है कि उसे शरीर की भी सँबाल नहीं रहती। ४. प्रबंध। व्यवस्था। जैसे—गृहस्थी की संभाल। ५. किसी का किया जाने वाला पालन-पोषण।
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सँभालना  : स० [हिं सँभलना का स०] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कुछ या कोई सँभले। २. गिरते हुए को बीच में ही रोकना। बीच में पकड़ या रोक रखना। ३. बिगड़ते हुए के संबंध में ऐसी क्रिया करना वह अधिक बिगड़ने न पावे और धीरे-धीरे सुधरने लगे। ४. ऐसी देख-रेख रखना कि बिगड़ने या नष्ट न होने पाए। निगरानी करना। जैसे—घर की चीजें सँभालकर रखना। ५. किसी का पालन-पोषण करना। ६. उचित प्रबंध या व्यवस्था करना। ७. कर्तव्य, कार्य भार आदि अपने ऊपर लेकर उसका ठीक तरह से निर्वाह करना। जैसे—शासन का कार्य सँभालना। ८. यह देखना कि कोई चीज जितनी या जैसी होनी चाहिए उतनी वैसी ही है न। जैसे—अपना अब सामान सँभाल लो। ९. अपने आपको आवेग-युक्त या क्षुब्ध न होने देना।जैसे—उस पर क्रोध मत करना अपने आप को सँभाले रहना। संयो० क्रि०—देना।—लेना।
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सँभाला  : पुं० [हिं० सँभलना] १. सँभलने या सँभालने की क्रिया या भाव। २. मरणासन्न व्यक्ति की वह स्थिति जिसमें वह कुछ समय के लिए थोड़ा चैतन्य हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि उसकी स्थिति सँभल जायगी।—वह मरने से बच जायगा। उदा—बीमारे महब्बत ने लिया तह से सँभाला लेकिन वह सँभाले से सँभल जाय तो अच्छा-कोई शायर। क्रि०—प्र०—लेना।
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सँभालू  : पुं० [हिं० सिंधुवार] श्वेत सिंधुवार वृक्ष।
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संभावन  : पुं० [सं० सम्√भू० कृ० (होना)+णिच्-ल्युट्-अन संभावना] [वि० संभावनीय, संभावितव्य, संभाव्य, भू० कृ० संभावित] १. कल्पना। भावना। अनुमान। २. इकट्ठा करना। ३. ठीक या पूरा करना। ४. आदर-सम्मान। ५. किसी के प्रति होने वाली पूज्य बुद्धि या श्रद्धा। ६. पात्रता। योग्यता। ७. ख्याति। प्रसिद्धि। ८. स्वीकृति।
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संभावना  : स्त्री० [सं० संभावन-टाप्] १. किसी घटना या बात के संबंध की वह स्थिति जिसमें उस घटना के घटित होने या उस बात के पूरे होने की शक्यता होती है। ऐसा जान पड़ता है कि अमुक घटना या बात होना बहुत कुछ संभव प्रतीत होता है (पौसिबिलिटी)। २. साहित्य में उक्त के आधार पर एक प्रकार का अलंकार जिसमें इस बात का उल्लेख होता है कि यदि अमुख बात हो जाय तो अमुक बात हो सकती है। जैसे—एहि विधि उपजै लच्छि जब होइ सीय सम तूल।—तुलसी। ३. दे० ‘संभावन’
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संभावनीय  : वि० [सं० सम्√भू (होना)+णिच्-अनीयर] १. जिसकी संभावना हो या हो सकती हो। २. जिसकी कल्पना की जा सकती हो। ध्यान या विचार में आ सकने योग्य।
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संभावित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी कल्पना या विचार किया गया हो। २. उपस्थित या प्रस्तुत किया हुआ। ३. आदृत। ४. प्रसिद्धि। ५. उपयुक्त। योग्य। ६. जिसकी संभावना हो। संभावनीय। संभव। मुमकिन।
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संभावितव्य  : वि० [सं० सं√भू (होना)+णिच्-तव्य] १. कल्पना या अनुमान के योग्य। २. जिसके संबंध में अनुमान या कल्पना की जा सके। ३. जिसका सत्कार किया जा सकता हो या किया जाने को हो। ४. मुमकिन। संभव।
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सभावी  : पुं० [सं० सभाविन] सभिक।
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संभाव्य  : वि० [सं० सम्√भू (होना)+णिच्-यत] १. जिसकी संभावना हो। जो हो सकता हो। २. प्रशंसनीय। ३. आदर या पूजा का अधिकारी अथवा पात्र। पूज्य और मान्य। ४. जो कल्पना या विचार में आ सकता हो।
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संभाव्यतः  : अव्य० [सं०] संभावना है कि।
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संभाष  : पुं० [सं० सं√भाष् (कहना)+घञ्, सम्भाष] १. कथन। बातचीत। संभाषण। २. करार। वादा।
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संभाषण  : पुं० [सं० सम्√भाष् (भाषण करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० संभाषित, वि० संभाषणी, संभाष्य] आपस में होनेवाली बातचीत। वार्तालाप।
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संभाषणीय  : वि० [सं० सम√भाष् (भाषण अरना)+अनीयर्] जिसके साथ बात-चीत या वार्तालाप किया जा सकता हो।
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संभाषा  : स्त्री० [सं० सम्√भाष (कहना)+अङ्—टाप्] १. संभाषण। २. किसी बात या विषय का तथ्य या स्वरूप जानने के लिए होने वाला वाद विवाद या विचार। (डिबेट)
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संभाषित  : भू० कृ० [सं० सं√भाष् (भाषण देना)+क्त] १. अच्छी तरह कहा हुआ। २. जिसके साथ बात-चीत की गई हो।
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संभाषी (षिन्)  : वि० [सं० संभाष (भाषण करना)+णिनि] [स्त्री० संभाषिणी] १. कहने वाला। २. बातचीत करना।
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संभाष्य  : वि० [सं० सम्√भाष् (बात-चीत करना)+यत्] १. जिससे बातचीत करना उचित हो। जिससे वार्तालाप किया जा सकता हो। २. (विषय) जिस पर संभाष हो सके। (डिबेटेबुल)।
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सभासंग  : पुं० [सं० सम-आ√सज्ज (साथ करना)+घञ्] मिलन। मिलाप मेल।
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सभासचिव  : पुं०=सदन-सचिव।
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सभासद  : पुं० [सं०] वह जो किसी संस्था समुदाय आदि का सदस्य हो। (मेम्बर)
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संभिन्न  : भू० कृ० [सं०] १. पूर्णतः टूटा हुआ। २. तोड़ा फोड़ा हुआ। ३. जिसमें क्षोभ या हलचल उत्पन्न की गई हो। ४. गठा हुआ। ठोस। ५. खिला हुआ। प्रस्फुटित। ६. ठोस।
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संभिन्न प्रलाप  : पुं० [सं०] व्यर्थ की बात-चीत जो बौद्ध शास्त्र के अनुसार एक पाप है।
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संभीत  : भु० कृ० [सं० सम्√भी (डरना)+क्त] बहुत अधिक डरा हुआ।
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सभीत  : क्रि० वि० [सं० स०+भीति] डरते हुए। भयपूर्वक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभु  : पुं० [सं० सम्√भू (होना)+डु]=शंभु।
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संभुक्त  : भू० कृ० [सं० सं√भुज् (खाना)+क्त] १. खाया हुआ। २. उपभोग किया या भोगा हुआ। प्रयोग में लाया हु्आ। ३. अतिक्रान्त।
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संभूत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संभूति] १. जो किसी दूसरे के साथ उत्पन्न हुआ हो। २. उत्पन्न। जात। ३. युक्त। सहित। ४. बिल कुल बदला हुआ। ५. उपयुक्त। योग्य। ६. बराबर। समान।
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संभूत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संभृति] १. इकट्ठा या जमा किया हुआ। एकत्र। २. पूरी तरह से भरा या लदा हुआ। ३. युक्त। सहित। ४. पाला-पोसा हुआ। ५. जिसका आदर या सम्मान किया गया हो। ६. तैयार। प्रस्तुत। ७. बनाया हुआ। निर्मित। पुं० चीख-पुकार। हो-हल्ला।
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संभूति  : स्त्री० [सं०] १. संभूत होने की अवस्था या भाव। उत्पत्ति। २. विभूति। वैभव। ३. बढ़ती। वृद्धि। ४. योग से प्राप्त होने वाली विभूति या अलौकिक शक्ति। ५. क्षमता। शक्ति। ६. शक्ति का प्रदर्शन। ७. उपयुक्तता। ८. पात्रता। योग्यता। ९. मरीच की पत्नी जो दक्ष प्रजापति की कन्या थी।
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संभूय  : अव्य० [सं०] १. एक में। एक साथ। २. साझे में।
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संभूय-क्रय  : पुं० [सं०] थोक माल बेचना या खरीदना (कौ०)।
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संभूय-गमन  : पुं० [सं०] शत्रु पर होने वाली ऐसी चढाई जिसमें सब सामंत भी अपने दलबल के साथ हों (कामंदक)।
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संभूय-समुत्थान  : पुं० [सं०] कई हिस्से दारों के साथ मिलकर किया जाने वाला व्यापार। साझे का कारबार।
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संभूयकारी  : पुं० [सं०] १. प्राचीन भारत में, किसी संघ में मिलकर व्यापार करने वाला व्यापारी जो उस संघ का हिस्सेदार होता था। (स्मृति) २. किसी के साथ-साथ काम करनेवाला।
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संभृति  : स्त्री० [सं० सम्√भृ (भरण करना)+क्तिन, संभृति] १. एकत्र करने की क्रिया या भाव। २. भीड़। समूह। ३. ढ़ेर। राशि। ४. अधिकता। बहुतायत। ५. सामान। सामग्री। ६. पालन-पोषण।
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संभृष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√भ्रष्ज् (भूनना)+क्त-भृ=भृषत्व-स्टूत्व] १. खूब भुना या तला हुआ। कुरकुरा। भूने या तले जाने के कारण जो करारा हो गया हो।
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संभेद  : पुं० [सं० सम्√भिद् (प्रथक करना)+घञ्, सभ्भेद] १. अच्छी तरह छिदना या भिदना। २. ढीला होकर खिसकना या स्थान भ्रष्ट होना। ३. अलग या जुदा होना। ४. भेद-नीति। ५. प्रकार। भेद। ६. मिलन।
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संभेदन  : पुं० [सं० सम्√भिद् (भेदन करना)+ल्युट्-अन] [ वि० संभेदनीय, संभेद्य, भू० कृ० संभिन्न] अच्छी तरह छेदना या आर पार घुसाना। खूब धँसाना।
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संभेद्य  : वि० [सं० सम्√भिद् (फाड़ना)+यत्] जिसका संभेदन होने को हो या हो सकता हो।
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सभेय  : वि० [सं० सभा+ढक्-एय] जो सभा या शिष्ट समाज के लिए उपयुक्त हो। पुं० विद्वान। २. शिष्ट व्यक्ति। ३. वह जो सभा समाज में बैठकर अच्छी तरह बात-चीत कर सकता हो। सभा-चतुर।
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संभोग  : पुं० [सं०] १. किसी वस्तु का भली-भाँति किया जाने वाला पूरा उपयोग। २. स्त्री और पुरुष का मैथुन। रति-क्रीड़ा। ३. हाथी के कुम्भ का मस्तक का एक विशिष्ट भाग। ४. साहित्य ऋंगार का वह अंश जो संयोग ऋंगार कहलाता है (दे०‘ऋंगार’)।
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संभोग-ऋंगार  : पुं०=संयोग-ऋंगार।
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संभोग-काय  : पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार वह शरीर जिसमें आकर इस संसार के सुख-दुःख आदि भोगे जाते हैं।
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संभोगी (गिन्)  : वि० [सं० संभोग+इनि] [स्त्री० संभोगिनी] १. संभोग करनो वाला। व्यवहार करके सुख भोगने वाला। पुं० १. विलासी व्यक्ति। ? कामुक व्यक्ति।
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संभोग्य  : वि० [सं० सम्√भुज् (भोग करना)+ण्यत्] १. जिसका भोग व्यवहार होने को हो। जो काम में लाया जाने को हो। २. जिसका भोग या व्यवहार हो सकता हो।
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संभोज  : पुं० [सं० सं√भुज् (खाना)+घञ्] १. भोजन। खाना। २. खाद्य पदार्थ।
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संभोजक  : वि० [सं० सम्√भुज् (खाना)+ण्वुल्-अक] १. भोजन करने या खाने वाला। २. स्वाद लेने वाला।
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संभोजन  : पुं० [सं० सम्√भुज् (खाना)+ल्युट्-अन] [वि० संभोजनीय, संभोज्य, भू० कृ० संभुक्त] १. बहुत से लोगों का मिलकर खाना। २. भोज। दावत। ३. खाने की चीजें। ४. भोजन की सामग्री।
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संभोजनीय  : वि० [सं० सम्√भुज् (खाना)+अनीयर्] १. जो खाया जाने को हो। २. जो खाया जा सकता हो।
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संभोज्य  : वि० [सं०]=संभोजनीय।
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सभ्य  : वि० [सं० सभा+यत] [भाव० सभ्यता] १. सभा से संबंध रखने वाला। २. सभा, समाज आदि के लिए उपयुक्त। ३. अच्छे विचार रखने और भले आदमियों का सा व्यवहार करने वाला। शिष्ट। ४. (काम या बात) जो भले आदमियों के उपयुक्त और शोभन हो। शिष्ट। (सिविल) जैसे—सभ्य व्यवहार। पुं० १. वह जो किसी सभा संस्था आद् का सदस्य हो। सभासद। २. भला आदमी।
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सभ्यता  : स्त्री० [सभ्य होने की अवस्था, गुण या भाव। २. किसी सभा या समाज की सभ्यता। ३. शीलवान और सज्जन होने की अवस्था और भाव। ४. आज-कल वे सब काम और बातें जो किसी जाति या देश के लोग पृकृति पर विजय पाने और जीवन निर्वाह में सुगमता लाने के लिए फौतिक साधना का पयोग करते हुए आरंभ से अबतक करते आये हैं। किसी जाति या देश की बाह्य तथा भौतिक उन्नतियों का सामूहिक रूप। (सिविलिजेशन) विशेष—सभ्यता और संस्कृति का अंतर जानने के लिए दे० ‘संस्कृति’ का विशेष।
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सभ्येतर  : वि० [सं० पंच० त०] जो सभ्य न होकर उससे भिन्न हो। अर्थात उजड्ड या बेशउर।
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संभ्रम  : पुं० [सं०] १. चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना। फेरा। २. उतावली। जल्दीबाजी। ३. घबराहट। ४. बेचैनी। विकलता। ५. किसी का सामना होने पर उससे सहमना या सिटपिटाना। ६. किसी को बड़ा समझकर उसके आगे आदर पूर्वक सिर झुकाना। ७. किसी की वह स्थिति जिसके कारण लोग उसका आदर करते या सहमते हों। ८. किसी के प्रति होने वाला पूज्य भाव। ९. गहरी चाह। उत्कंठा। १॰. साहस। हौसला। ११. गलती। चूक। भूल। १२. छवि। शोभा। १३. शिव के एक प्रकार के गण।
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संभ्राज  : पुं०=साम्राज्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभ्राजना  : अ० [सं० संभ्राज] पूर्णतः सुशोभित होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभ्रांति  : स्त्री० [सं०] १. संभ्रांत होने की अवस्था या भाव। २. क्षोभ। ३. प्रतिष्ठा। सम्मान।
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संभ्रान्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संभ्रांति] १. चारों ओर घुमाया हुआ। २. क्षुब्ध। ३. प्रतिष्ठित। सम्मानित।
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सम  : वि० [सं०] [स्त्री० समा० भाव० साम्य० समता] १. जो आदि से अंत तक प्रायः एक सा चला गया हो। जिसमें कहीं बहुत उतार-चढ़ाव या हेर-फेर न हो। २. जिसका तल बराबर हो, ऊबड़-खाबड़ न हो। चौरस। ३. एक बराबर। तुल्य। समान। (इक्वल) यौ० के आरंभ में, जैसे—समकोण, समसीमांत, ४. (संख्या) जिससे दो से भाग देने पर शेष कुछ न बचे। जूस। (ईवेन) ५. सब। समस्त। ६. (किसी के) समान या बराबर की तरह। के समान। जैसे—पुत्र सम मानना। पुं० १. संगीत में वह विचार जहाँ लय के विचार से गति की समाप्ति होती है और जहाँ गाने बजानों वालों का सिर हिलता या हाथ आप से आप आघात सा करता है। २. सहित्य मे, एक अलंकार जिसमें स्थित के ठीक अनुरूप किसी कार्य का अथवा रूप या नाम क् अनुरूप कार्यों, गुणों आदि का वर्णन होता है। (इक्वल) ३. ज्योतिष में वह राशि जो सम संख्या पर पड़े। दूसरी, चौथ, छठी आदि राशियाँ। वृष, कर्कट, कन्या, वृष्चिक, मकर, और मीन यौ छः राशियाँ। ४. गणित में वह सीधी रेखा जो उस अंक के ऊपर दी जाती है जिसका वर्गमूल निकालना होता है। पुं०=शम (शमन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अ०] जहर। विष। पुं० [फा० कसम] कसम, शपथ, सौगंध।
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सम-अजिर  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में वह स्थान जहाँ जनसाधारण के मनोविनोद के लिए कुश्तियां नाटक और तरह-तरह खेल होते थे।
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सम-कोणक  : वि०=सम-कोण।
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सम-क्रमिक  : वि० [सं०] [भाव० समक्रमिता] (कार्य या घटनाएँ) जो एक ही समय में भिन्न स्थानों पर घटित हुई हों। (सिंक्रोनस)।
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सम-क्रामक  : वि० [सं०] समक्रमण करने या करने वाला। (सिंक्रोंनाई-ज़र)
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सम-चर  : वि० [सं०] १. सदा समान व्यवहार करने वाला। २. सब के साथ एक सा आचरण करने वाला।
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सम-चित्त  : वि० [सं०] जिसके चित्त की अवस्था सदा समान रहती हो। जिसका चित्त कभी दुखी या क्षुब्ध न होता हो। समचेतना।
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सम-जातिक  : वि० [सं०] पारस्परिक विचार से एक ही जाति, प्रकार या वर्ग के। एक से। सह-जातिक। (होमोजीनियस)
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सम-जातीय  : वि० [सं०] १. एक ही जाति के। सजातीय। २. दे० ‘सम-जातिक’।
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सम-तट  : पुं० [सं०] १. समुद्र के किनारे पर के प्रदेश। २. बंगाल के पूर्व एक प्राचीन देश
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सम-तल  : वि० [सं०] (पदार्थ) जिसका तल सम हो ऊबड़-खाबड़ न हो। जिसका सतह बराबर हो। जैसे—समतल भूमि।
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सम-तोल  : वि० [सं० सम+हिं० तोल (तौल)] भार, महत्व आदि के विचार से, एक बराबर समान।
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सम-तोलन  : पुं० [सं०] १. भार, महत्व आदि के विचार से सबको समान रखना। २. दोने पक्षो या पलड़ो का समान रखना। घटने-बढ़ने न देना। (बैलेंसिंग)
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सम-त्रय  : पुं० [सं० ष० त०] हर्रे, नागरमोथा, और गुड़ इन तीनो के समान भागों का समूह। (वैद्यक)
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सम-त्रिभुज  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा त्रिभुज जिसके तीनों त्रिभुज बराबर या समान हो।
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सम-थल  : वि०=समतल (भूमि)।
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सम-दर्शन  : पुं० [सं०] सब को एक समान समझना और सब कार्यों या बातों में एक सा भाव रखना। वि०=समदर्शी
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सम-दृष्टि  : स्त्री० [सं०] ऐसी दृष्टि जो सब अवस्थाओं में और सब पदार्थों को देखने के समय समान रहे। समदर्शी की दृष्टि।
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सम-द्विभाजन  : पुं० [सं०] [भू० क० समद्विभाजित] किसी चीज को दो समान भागों में बाँटना या विभक्त करना। (बाईसेक्सन)
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सम-ध्वनि  : पुं० [सं०] ऐसे शब्द जो उच्चारण या ध्वनि के विचार से तो एक हों पर जिनके अर्थ भिन्न-भिन्न हों। (होमोनिम) जैसे—हिंदी मेल (मिलाप) और अँगरेजी मेल (डाक) समध्वनिक हैं। वि० शब्द जो भिन्नार्थक होने पर भी उच्चारण के विचार से समान ध्वनि वाले हों। (होमोनिमस)
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सम-पद  : पुं० [सं०] १. धनुष चलाने वालों का खड़े होने का एक ढंग जिसमें वे अपने दोनो पैर बराबर रखते हैं। २. संयोग का एक फ्रकार का आसन या रतिबंध।
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सम-पाद  : वि० [सं०] कविता या छंद) जिसके सब चरण बराबर या समान हों। पुं० १. उक्त प्रकार का एक छंद या वृत्त। २. दे० ‘समपद’।
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सम-बाहु  : वि०=समभुज।
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सम-भुज  : वि० [सं०] (क्षेत्र) जिसकी सब भुजाएँ बराबर या समान हों। समबाहु। (इक्विलेटरल)
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सम-रज्जु  : [सं० ब० स०] बाज गणित मे वह रेखा जिससे दूरी या गहराई जानी जाती है।
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सम-रत  : पुं० [सं० ब० स०] कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का रतिबंध या आसन।
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सम-रस  : वि० [सं०] [भाव० समरसता] १. (पदार्थ) जिसमें एक ही प्रकार का रस या स्वाद हो। २. (व्यक्ति) जो सदा एक ही प्रकार की मानसिक स्थिति में रहता हो। जो न तो कभी क्रोध करता हो। और न अशाधारण रूप से प्रसन्न होता हो। सदा एक सा रहने वाला। ३. (परस्पर ऐसे पदार्थ या व्यक्ति) जो एक ही प्रकार या विचार के हों। जिनके गुण, प्रकृति आदि में कोई अंतर न हो।
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सम-लिंगी-रति  : स्त्री० [सं०] यौन विज्ञान तथा लोक में, कामवासना की वह तृप्ति जो पुरुष किसी अन्य पुरुष मुख्यतः बालक के साथ अथवा स्त्री किसी दूसरी स्त्री के साथ संभोग करती है।
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सम-वृत्त  : पुं० [सं० त० त०] ऐसा छंद जिसके चारों चरण समान हो।
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सम-व्यूह  : पुं० [सं० ब० स०] प्राचीन भारत में ऐसी सेना जिसमें २२५ सवार, ६७५ सिपाही तथा इतने ही घोड़े और रथ होते थे।
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सम-शंकु  : पुं० [सं० ब० स०] ठीक मघ्याह्र का समय।
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सम-संधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] प्राचीन भारतीय राजनीति में ऐसी सन्धि जिसमें सन्धि करानेवाले राजा या राष्ट्र आपात्काल में अपनी पूरी शक्ति के साथ सहायता करने को तैयार हों (कौ०)।
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सम-समुन्नत  : वि० [सं०] [भाव० सम-समुन्नति] १. जो थोड़ी-थोड़ी दूरी पर एक के बाद एक करके पहलेवाले धरातल से बराबर कुछ और ऊँचा होता जाता हो। २. जो कुछ रह-रहकर सीढ़ियों की तरह बराबर अधिक ऊंचा होता जाता हो। सीढ़ीनुमा। (टेरेस-लाइफ)।
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सम-सर (सरि)  : वि० [सं० सम+हि० सर (सदृश)] तुल्य। बराबर। समान। उदाहरण—मोंहि समसारि पापी।—कबीर। स्त्री० बराबरी। समता। उदाहरण—उपमा समसरि है न।—नागरीदास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सम-सामयिक  : वि० [सं०] समकालीन (दे०)।
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सम-स्थली  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] गंगा या यमुना के बीच का देश। अंतर्वेद।
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समकक्ष  : वि० [सं० ब० स०] १. कद के व्चार से एक ही ऊँचाई वाले। २. अधिकार, पद, विद्या, संपत्ति, आदि के विचार से तुल्य। ३. सब बातों में किसी की बराबरी करने वाला। जोड़ या बराबरी का
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समकक्ष सरकार  : स्त्री० [सं०+फा०] वह नई सरकार जो किसी देश की पुरानी सरकार को अयोग्य या अवैध समझकर उसे नष्ट करने और उसका स्थान स्वयं ग्रहण करने के लिए बनाई या गठित की जाती है। (पैरेलल गवर्नमेंट)
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समकना  : अय=चमकना (चौंकना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समकर्णा  : पुं० [सं० ब० स०] १. ज्यामिति में किसी चतुर्भुज के सामने आने वाले कोणों के ऊपर की रोखाएँ। २. शिव। ३. गौतमबुद्ध।
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समकालिक  : वि० [सं०] १. (वे दो या कई काम या बातें) जो एक ही समय में या एक साथ घटित हों। युगपत। (साइमल्टेनियस) २. दे० ‘समकालीन’।
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समकालीन  : वि० [सं०] १. जो उसी काल में जीवित अथवा वर्तनाम रहा हो, जिसमें कुछ और विशिष्ट लोग भी रह रहें हैं। एक ही समय में रहने वाले। जैसे—महाराणाप्रताप अकबर के समकालीन थे। २. उत्पत्ति, स्थिति आदि के विचार से एक ही समय में हुए हों। (कन्टेम्पोरेरी)
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समकोण  : वि० [सं० ब० स०] (त्रिभुज या चतुर्भुज) जिसके आमने सामने के दोनो कण समान हों।
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समक्रमण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समक्रमित, कर्ता समक्रामक] एक से अधिक कार्यों या घटनाओं का एक ही समय में, पर भिन्न-भिन्न सथानों में घटित होना। समकालन। (सिंक्रोनाइज़ेशन)
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समक्वाथ  : पुं० [सं० कर्म० स०] वैद्यक मे वह क्वाथ या काढ़ा जिसका पानी आदि भाग जलाकर आँठवा भाग रह जाय।
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समक्ष  : अव्य० [सं०] १. आँखों के सामने। २. सामने। जैसे—अब वह कभी आपके समक्ष न आएगा।
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समक्षता  : स्त्री० [सं० समक्ष+तल्—टाप] १. समक्ष होने की अवस्था या भाव। २. गोचर या दृश्य होने की अवस्था या भाव।
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समंग  : वि० [सं० ब० स०] सभी अंगो से युक्त पूर्ण।
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समंगा  : स्त्री० [सं० ब० स०—टाप] १. मंजीठ। २. लजालू लज्जा-वंती। ३. वराह क्रांता। गेंठी। ४. बला या बाला नामक ओषधि।
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समंगिनी  : स्त्री० [सं० समंग+इनि-ङीष्] बौद्धों की एक देवी।
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समंगी (गिन्)  : स्त्री० [सं० समंगिन्-दीर्घ, नलोप] [स्त्री० समंगिनी] १. जिसके सभी अंग पूर्ण हों। २. सभी आवश्यक साधनो से युक्त। ३. जिसके सभी अंग समान हों।
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समग्र  : वि० [सं०] [भाव० समग्रता] आदि से अंत तक जितना हो वह सब, समस्त। समूचा। सारा।
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समग्री  : स्त्री०=सामग्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समचतुर्भुज  : वि० [सं० ब० स०] (ज्यामिती में, क्षेत्र) जिसके चारों भुज या बाहु तो एक से लंबे हो, पर जो समकोणिक न हों। (रहॉम्बस) पुं० उक्त प्रकार की आकृति या क्षेत्र। (रहॉम्बस)
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समंचार  : पुं०=समाचार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समचार  : पुं०=समाचार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समचेता (तस्)  : वि० [सं०]=समचित।
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समज  : पुं० [सं०] १. वन। जंगल। २. पशुओं का झुंड। स्त्री०=समझ।
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समंजन  : पुं० [सं०] [वि० समंजनीय, भू० कृ० समंजित] १. एक चीज दूसरी चीज के साथ जोड़ना, बैठाना या मिलाना। २. यंत्रों के पुरजों आदि को ठीक तरह से यथास्थान बैठाना। ३. जमा-खर्च आदि का हिसाब यथा स्थान ले जाकर ठीक और पूरा करना। लेखा-जोखा बराबर करना। (ऐडजस्टमेंट) ४. मेल-मिलाना। ५. लेप करना या लगाना। ६. मालिश करना। मलना।
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समंजस  : वि० [सं० ब० स०-अच्] [भीव० सामंजस्य] १. उचित। ठीक। वाजिब। २. आस-पास की बातों वस्तुओं आदि के साथ ठीक जान पड़ने या मेल-खाने वाला। ३.किसी काम या बात का अभ्यस्त।
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समंजित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका समंजन हुआ हो। २. जो ठीक करके परिस्थितियों के अनुकूल या उपयुक्त किया अथवा बनाया गया हो। (ऐडजेस्टेड)
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समज्ञा  : स्त्री० [सं०] १. कीर्ति। यश। २. ख्याति। प्रसिद्ध।
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समज्या  : स्त्री० [सं०] १. प्रचान भारत में वह उत्सव जिसमें छोटे बड़े स्त्री पुरुष सभी मिलकर तरह-तरह के खेल तमासे करते और देखते थे। बाद में साधारण बोलचाल इसी को सामंज्यस्य कहने लगे थे। २. बहुत से लोगो का समाज या समूह। सभा। जैसे—विद्वानों की समज्या में उनका यथेष्ट आदर हुआ था।
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समझ  : स्त्री० [सं० संबुद्धि, प्रा० समुज्झ] वह मानसिक शक्ति जिसमें प्राणियों को देखकर मन में तर्क-विर्तक करके सब चीजों और बातों के अर्थ, आशय, भलाई, बुराई आदि का परिज्ञान होता है। अक्ल। बुद्धि। इन्टलेक्ट) पद—समझ=ध्यान या विचार के अनुसार। श्याल से। जैसे।—हमारी समझ में तो यह बात ठीक नही जान पड़ती।
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समझदार  : वि० [हिं० समझ+फा० (प्रत्य०)] १. वह जो कुछ सामने हो उसे ध्यान में रखकर उसके आशय, प्रकार, स्वरूप आदि से अवगत होना। ठीक औक पूरा ज्ञान प्रापात करना। जैसे—पहले यह तो समझ लो कि बात क्या है ? २. किसी बात का स्वरूप आदि देखकर उसके संबंध की दूसरी आवश्यक बातों का अनुमान या कल्पना करना। (डीम) क्रि० प्र०—जाना।—पड़ना।—रखना—लेना। पद—समझ बूझकर=अच्छी तरह ज्ञान, परिचय आदि प्राप्त करके। सारी स्थिति अच्छी तरह जान कर। जैसे—समझकर मैंने ही तुम्हे वहाँ जाने से मना किया था। मुहा—(अपने आपको) कुछ समझना=अपने मन में यह अभिमान पूर्ण भाव रखना कि हममें भी कुछ विशिष्ट योग्यता है। ३. किसी के व्यवहार के बदले में उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना। जैसे—कोई कहीं समझता है, कोई कहीं। मुहा०—(किसी से) समझना या समझलेना= (क) निपटारा या समझौता करना। जैसे—दोनो को आपस में समज लेने दो। (ख) अनिष्ट, अपकार, अपमान आदि का उचित और उपयुक्त बदला लेना। जैसे—अच्छा हम भी तुमसे समझ लेगें।
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समझाना  : सं० [हिं० समझना का स०] १. शब्द संकेत आदि के अर्थ किसी को भली-भाँति परिचित कराना। २. कोई बात अच्छी तरह किसी के मन में बैठाना। जैसे—न जाने इसे इसकी माँ ने क्या समझाकर यहाँ भेजा था।
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समझावा  : पुं० [हिं० समझना) समझने या समझाने की क्रिया या भाव।
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समझौता  : पुं० [हिं० समझना+औता (प्रत्य०] १. लड़ाई-झगड़े, लेन-देन, वाद-विवाद आदि के संबंध में दो या अधिक पक्षो में होने वाला ऐसा निपटारा या निर्णय जिसके अनुसार आगे निर्विरोध रूप में सब काम होते रहें। (काँम्प्रोमाइज) २. आपस में होने वाला करार या निश्चय।
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संमत  : वि० [सं० सम्√मन् (मानना)+क्त नलोप]=सम्मत।
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समंत  : पुं० [सं०] किनारा। सिरा। वि० १. समस्त। सारा। २. सार्वजनिक।
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समत  : पुं०=संवत्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समंत-पंचक  : पुं० [सं०] कुरुक्षेत्र का एक नाम। विशेषः कहा गया है कि परशुराम ने समस्त क्षत्रियों को मार कर उनके लहू से यही पाँच तालाब बनाए थे, और उन्ही के लहू से उन्होने अपने पिता का तर्पण किया था। इसी से इस स्थान का नाम समंत-पंचक पड़ा।
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समंत-भद्र  : पुं० [सं०] गौतम बुद्ध।
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समतत्व  : पुं० [सं०] वेदांत में अद्वैत और द्वैत दोनों से परे और भिन्न तत्त्व।
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समंतदर्शी  : वि० [सं० समस्तदर्शिन] जिसे सब कुछ दिखाई देता हो। सर्वदर्शी। पुं० गौतम बुद्ध।
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समंतर  : पुं० [सं० ब० स०] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी।
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समतलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समतलित] किसी पदार्थ (जैसै—जमीन आदि) के ऊबड़-खाबड़ तल को सम या बराबर करने की क्रिया या भाव। चौरसिया। (लैवलिंग)
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समंतलोक  : पुं० [सं० ब० स०] योग में ध्यान करने का एक प्रकार।
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समता  : स्त्री० [सं०] १. सम या समन होने का भाव। बराबरी। तुल्यता। (इक्वैलिटी) २. ऐसी स्थिति जिसमें कोई अंग या पक्ष अवुपातिक दृष्टि से अनपयुक्त, बेढ़ंगा, या भारी जान पड़े। संतुलन।
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समत्थ  : वि०=समर्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=सामर्थ्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समत्रिभाजन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समत्रिभक्त] किसी चीज को तीन भागों में बराबर बाँटना। (ट्राईसेक्सन)
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समत्व  : पुं० [सं०] सम या समान होने की अवस्था या भाव। समता।
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समंद  : पुं० [फा०] १. बादामी रंगा का ऐसा घोड़ा जिसका अयाल, दुम और पु्टठें काले हों। २. घोड़ा। ३. अच्छा या बढ़िया घोड़ा।
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समद  : वि० [सं०] १. मद से मत्त। मतवाला। मस्त। २. प्रसन्न। पुं०=समुद्र।
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समदन  : पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई। स्त्री० [सं० हिं० समदना] उपहार, भेंट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समदना  : अ० [सं० समद=प्रसन्न ] १. प्रेमपूर्वक मिलना। भेंटना। २. आनन्द या खुशी मनाना। स० १. उपहार या भेंट देना। २. किसी के साथ विवाह करना। ३. सपुर्द करना। सौंपना। ४. धरना। रखना। स० [संवाद] संवाद या समाचार देना।
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समंदर  : पुं० [फा०] एक कल्पित जंतु जो फारसी कवि के अनुसार अग्निकुंड में उत्पन्न होता है और उससे बाहर निरलने पर तुरंत मर जाता है। पुं०=समुद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समदर्शी (शिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० समदर्शिनी] जो सब मनुष्यों स्थानों पदार्थों आदि को समान दृष्टि से देखता हो। सब को एक सा देखने या समझनेवाला।
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समदाना  : स० [हिं० समझना] १. विवाह के बाद बहू को विदा करना या कराना। २. ठीक या दुरुस्त करना। ३. समदना।
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समदावन  : पुं० [हिं० समदना (विवाह करना)] एक प्रकार के गीत जो दुलहिन के विदायी के समय गाये जाते हैं। (मिथिला)
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समद्वादशास्त्र  : पुं० [सं०] बारह बराबर भुजाओं वाला क्षेत्र।
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समद्विभुज  : पुं० [सं०] ऐसा चतुर्भुज जिसकी प्रत्येक भुजा आमने सामने की भुजाएँ बराबर हों।
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समधाना  : स०=समदाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समधिक  : वि० [सं०] १. जितना होना चाहिए उससे अधिक या बढ़ हुआ। (एक्सीडिंग) २. बहुत। अधिक।
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समधिन  : स्त्री० [हिं० समधी का० स्त्री०]समधी की पत्नी। किसी के पुत्र या पुत्री का सास।
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समधियाना  : पुं० [हिं० समधि+इयाना] १. किसी की दृष्टि से उसके पुत्र या पुत्री की ससुराल। २. पुत्र या पुत्री के ससुरालवाले।
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समधी  : पुं० [सं० संबंधी] [स्त्री० समधिन] संबंध के विचार से किसी पुत्र या पुत्री के ससुर।
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समधीन  : वि० [सं० कर्म० स०] १. (व्यक्ति) जिसने अच्छी तरह अध्ययन किया हो। २. (विषय) जिसका किसा ने अच्छी तरह अध्ययन किया हो।
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समधौस  : पुं० [हिं० समधी] विग्रह की एक रस्म जिसमें समधी परस्पर मिलते हैं। मिलनी।
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समन  : वि० [सं० शमन] [स्त्री० समनि] शमन करने वाला। पुं० दे० शमन। स्त्री० [फा०] चमेली का पौधा और फूल। पुं०=सम्मन।
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समनगा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. बिजली। विद्युत। २. सूर्य की किरण।
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समनचार  : पुं०=समाचार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समनंतर  : वि० [सं०] ठीक बगलवाला। बिलकुलसटा हुआ। बराबरी का। अव्य० अनंतर। उपरांत। बाद।
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समनीक  : पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई।
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समनुज्ञा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० समनुज्ञात] १. अनुमति। दे० ‘अनुज्ञा’।
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समन्यु  : पुं० [सं० अव्य० स०] शिव का एक नाम।
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समन्वय  : पुं० [सं०] १. समान रूप से मिलना। इस प्रकार मिलना कि एक इकाई बन जाय। २. एक को दूसरे में विलय करना। ३. परस्पर विरोध न होने की अवस्था या भाव। विरोध का आभाव। ४. कार्य और कारक का निर्वाह या संबंध। ५. वह अवस्था जिसमें कथनों और बातों का पारस्परिक भेद या विरोध दूर करके उनमे एकता या एक रूपता लाई जाती है।
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समन्वित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका समन्वय हुआ हो। २. किसी से साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। ३. जिसमें कोई बाधा या रुकावट न हो।
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समन्वेषक  : वि० सं०] समन्वेषण करने वाला। (एक्सप्लोरेट)
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समन्वेषण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समन्वेषित] १. अच्छी तरह किया जाने वाला अन्वेषण। २. आज-कल मुख्य रूप से घूम-घूमकर ऐसे देशो, स्थानों आदि का पता लगाना जिन्हे लोग पहले न जानते रहें हों। या जिनके संबंध में बहुत कम जानतें हों। (एक्सप्लोरेशन)
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समपना  : स० सौंपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समप्पना  : पुं०=समर्पण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समबुद्धि  : वि० [सं०] जिसकी बुद्धि सुख और दुख, हानि और लाभ सब में समान रहती हो।
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समबोल  : पुं०=समध्वनिक।
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समभिहरण  : पुं० सं० प्रा० स०]=समापहरण।
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समभिहार  : पुं० [सं० सम्-अभि√ह्व (हरण करना)+घञ] १. किसी काम या बात के बार बार होने का भाव। २. अधिकता। ज्यादती।
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समभूमिक  : वि० [सं०] समतल।
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सममति  : वि० [सं० ब० स०]=समबुद्धि।
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सममित  : वि० [सं०] [भाव० सम-मिति] जिसके अंगो में अनुपात और सुरूपता के विचार से पारस्परिक समानता औऱ एक रूपता हो। सममित से युक्त। (सिमेटिकल)
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सममिति  : स्त्री० [सं०] [वि० सममित] किसी मूर्त कृति रचनाके आकगार, बनावट, मान आदि के भिन्न अंगों में अनुपात और सुरूपता के विचार से होने वाली आपेक्षिक और पारस्परिक एक रूपता। किसी वसितु का भिन्न-भिन्न अंगो का ठीक और समंजित विन्यास। (सिमेट्री)
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समय  : पुं० [सं०] [वि० सामयिक] १. सवेरे संध्या या दिनरात के विचार से काल का कोई मान। वक्त। २. अवसर। मौका। वक्त। पद—समय विशेष पर= (क)किसी निश्यित समय पर। (ख) आने वाले किसी ऐसे समय पर जबकि कोई बात हो सकती हो। और उसके संबंध में कोई विधान या व्यवस्था की गई हो। (फार दि टाइम बीइंग) समय कुसमय= (क) अच्छे या शुभ दिन और बुरे या संकट के दिन। (ख) उपयुक्त अवसर पर भी और अनपयुक्त अवसर पर भी। मौके—बेमौके। जैसे—आप समय-कुसमय अपना ही राग अलापते रहते। ३. अवाकाश। फुरसत। खाली वक्त। क्रि० प्र० ४. किसी काम या बात का नियत या निश्चित काल। जैसे—अब उसका समय आ गया था अतः उन्हे बचाने के लिए सब प्रयत्न विफल हुए। ६. आपस में होने वाल किसी प्रकार का निश्चय, करार या समझौता। ७. कोई धार्मिक, सामाजिक या प्रथा या परिपाटी। जैसे—कवि समय। (देखें) ८. सिद्धांत। ९. परिणाम। अंतः १॰. प्रतिज्ञा। ११. शपथः १२. आकृति। शकल। १३. ठहराव। समझौता। १४. आज्ञा निर्देश। १५. भाषा। १६. इशारा। संकेत। १७ .व्यवहार। १८. धन-दौलत। संपत्ति। १९. कर्तव्य-पालन। २॰ घोषणा। २१. उपदेश। २२. कष्टों या दुःखों का अंत या समाप्ति। २३. कायदा। नियम। २४. धर्म। २५. संन्यासियों, वैदिकों, व्यापारियों आदि के संघो में प्रचलित नियम। (स्मृति)
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समय-क्रिया  : स्त्री० [सं०] प्राचीन भारत में शिल्पियों या व्यपारियों का परस्पर व्यवहार के लिए नियम स्थिर करना। (वृहस्पति)
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समय-निष्ठ  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० समय० निष्ठता, समय-निष्ठा] १. जो निश्चित समय का ध्यान रखकर ठीक उसी समय काम करता हो। २. अपने ठीक या निश्चित समय पर नियत रूप से होने वाला। (पंकचुअल)
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समय-निष्ठता  : स्त्री० [सं०] समय-निष्ठ होने की अवस्था या भाव। (पंकचुएलिटी)
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समय-बम  : पुं० [सं०+अ० बाम्ब] वह विशेष प्रकार का बम (गोला) जिसमें ऐसी योजना होती है कि कही रखे जाने पर पहले से ही निर्धारित किये हुए समय पर वह आप से ही आप फूटकर अपना घातक कार्य करता है। (टाइम-बॉम्ब)
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समय-संकेत  : पुं० [सं०] वह नियत संकेत जो मुख्यतः यह सूचित करने के लिए होता है कि इस समय घड़ी के अनुसार बिलकुल ठीक समय यह है। (टाइम सिगनल) जैसे—दोपहर बारह बजे या रात आठ बजे का समय संकेत।
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समय-सारिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. समयसूचित करने के लिए बनाई हुई सारणी। २. वह पुस्तिका जिसमें विभिन्न गाड़ियों के विभिन्न स्टेशनों पर पहुँचने तथा छूटने के समय का उल्लेख सारणियों में किया जाता है। (टाइम-टेबुल)
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समय-सूचि  : स्त्री=समय-सारणी।
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समयज्ञ  : वि० [सं०] [भाव० समयज्ञता] ओ समय की प्रवत्ति, स्थिति आदि का ज्ञान रखता हो।समय के अनुसार चलने वाला। पुं० विष्णु।
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समयानंद  : पुं० [सं० ब० स०] तांत्रिकों के एक भैरव।
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समयानुवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० ष० त०] समय देखकर उसी के अनुसार चलने वाला। (अपॉर्च्युनिस्ट)
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समयानुसार  : वि० [सं० समय+अनुसार] जो समय की आवश्यकता देखते हुए उचित या ठीक हो। अव्य० समथ की उपयुक्तता या औचित्य का ध्यान रखते हुए।
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समयानुसारी  : वि० [सं०] प्रस्तुत समय के देखते हुए उसकी प्रथा या रीति के अनुसार काम करने या चलनेवाला।
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समयुगल  : पुं० [सं०] बौद्धकाल में एक प्रकार का पटका (धोती या साड़ी) जो बराबर लंबाई के रंगो वाले वस्त्रों को एक साथ सटाकर पहना या बाँधा जाता था।
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समयोचित  : वि० [सं० चतु० स०] जो प्रस्तुत समय की आवश्यकता देखते हुए उचित अर्थात उपयुक्त और ठीक हो। कलोचित। (एक्सपीडिएन्ट)
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समयोचितता  : स्त्री० [सं०] समायोचित होने की अवस्था, गुम या भाव। कालोचितता। (एक्सपीडिएंसी)
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समर  : पुं० [सं०] युद्ध। संग्राम। लड़ाई पुं० [सं० स्मर] १. कामदेव २. कामवासना। उदा-समरस समर-सकोच बस बिबस न ठिक ठहराइ।—बिहारी। पुं० [फा०] १. वृक्ष का फल। २. कार्य का परिणाम या फल।
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समरकंद  : पुं० [फा०] [वि० समरकंदी] तुर्किस्तान का एक इतिहास प्रसिद्ध नगर जो अमीर तैमूर की राज धानी था और अब उजबक (सोवियत) प्रजातंत्र के अंतर्गत है। उजबक पजातंत्र का एक सूबा है।
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समरत्थ  : वि०=समर्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समरना  : स०=सुमिरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अ० सँवरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समरभूमि  : स्त्री० [सं०] युद्ध-क्षेत्र। लड़ाई का मैदान।
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समरशायी  : वि० [सं० समरशयिनी] जो युद्ध में मारा गया हो। वीरगति को प्राप्त।
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समरा  : पुं० [अ० मसरः] नतीजा। परिणाम। फल।
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समरांगण  : पुं० [सं० कर्म० स० ष० त०] लड़ाई का मैदान। युद्ध-क्षेत्र।
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समराजिर  : पुं० [सं० कर्म० स०] युद्ध-क्षेत्र।
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समराना  : स० हि० ‘समरना’ का स०।
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समर्चक  : वि० पुं० [सं० सम√अर्च (पूजा करना)+ण्वुल—अक] समर्चन या पूजा करनेवाला।
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समर्चन  : पुं० [सं० सम√अर्च (पूजा करना)+ल्युट-अन] अच्छी तरह अर्चन या पूजा करने का काम।
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समर्चना  : स्त्री० [सं०]=समर्चन।
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समर्थ  : वि० [सं०] [भाव० समर्धता] कम दाम का। सस्ता।
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समर्थ  : वि० [सं० सम√अर्थ (गत्यादि)+अच्] [भाव० समर्थता, सामर्थ्य] १. शक्तिशाली। २. जो कोई काम सम्पादित करने की शक्ति या योग्यता रखता हो। आर्थिक, मानसिक या शारीरिक बल से कुछ कर सकने के योग्य। ३. अनुभव, प्रशिक्षण, आदि द्वारा जिसने किसी पद के कर्तव्यों का निर्वाह करने की योग्यता प्राप्त कर ली हो। ४. लंबा। चौड़ा। प्रशस्त। ५. अभिलषित। ६. युक्ति-संगत।
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समर्थक  : वि० [सं० समर्थ+कन्] १. जो समर्थन करता हो। समर्थन करनेवाला। २. पुष्टि या पोषण करनेवाला। वि०=समानार्थक। पुं० चन्दन की लकड़ी।
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समर्थता  : स्त्री० [सं०] समर्थ होने की अवस्था, गुण या भाव। सामर्थ्य। शक्ति। ताकत।
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समर्थन  : पुं० [सं० सम√अर्थ (गत्यादि)+ल्युट-अन] किसी के प्रस्ताव, मत, विचार के संबंध मे यह कहना कि इससे हमारी भी सहमति है। अनुमोदन। (सेकैंडिंग)।
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समर्थनीय  : वि० [सं० सम√अर्थ (गत्यादि)+अनीयर्] जिसका समर्थन किया जा सकता हो या हो सकता हो।
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समर्थित  : भू० कृ० [सं० सम अर्थ (गत्यादि)+क्त] १. जिसका समर्थन किया गया हो। समर्थन किया हुआ। २. जिसका अच्छी तरह विवेचन हुआ हो। विवेचित। ३. स्थिर किया हुआ। निश्चित। ४. जिसकी संभावना हो। संभावित।
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समर्थ्य  : वि० [सं० सम√अर्थ (गत्यादि)+यत्-व्यत्] जिसका समर्थन किया जा सके या किया जाने को हो।
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समर्द्धक  : पुं० [सं० सम√ऋध् (बढ़ना)+ण्वुल्-अक] वरदान देनेवाले, देवता आदि।
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समर्पक  : वि० [सं० सम√अर्प (देना)+णिच्-ण्वुल-अक] [स्त्री० समर्पिका] १. जो समर्पण करता हो। समर्पण करनेवाला। २. कही पहुँचाने के लिए कोई माल देने या भेजनेवाला। परेषक। (कन्साइनर) ३. (काम या बात) जिससे कोई दूसरा काम या बात ठीक तरह से पूरी हो सके या उद्देश्य सिद्ध हो सके। जैसा—समर्पक व्याख्या।
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समर्पण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समर्पित, वि० समर्पणीय, सामर्प्य, कर्ता समर्पक] १. किसी को आदपूर्वक कुछ देना। भेंट या नजर करना। २. धर्म-भाव से या श्रद्धाभक्ति पूर्वक कुछ कहते हुए अर्पित करना। (डेडिकेशन)। ३. अपना अधिकार, स्वामित्व, भार आदि किसी दूसरे के हाथ में देना। सौंपना। ४. युद्ध, विवाद आदि बंद करके अपने आपको शत्रु या विपक्षीकि के हाथ में सौंपना। (सरेन्डर, अंतिम दोनों अर्थो में) ५. वैष्णवों में किसी भक्त को भगवान के विग्रह के सामने उपस्थित करके उसे नियमित रूप से आचारवान् भक्त या वैष्मव बनाना। ६. स्थापित करना। स्थापना। ७. दे० आत्मसमर्पण।
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समर्पण-मूल्य  : पुं० [सं०] आधुनिक अर्थ-शास्त्र में वह धन जो बीमा करनेवाले को अवधि पूरी होने से पहले ही अपना बीमा रद्द कराने या बीमा पत्र लौटा देने पर मिलता है। (सरेन्डर वैल्यू)।
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समर्पणी  : पुं० [सं० समर्पण] वह जो भगवान् का पूरा भक्त और आचारवान् वैष्णव बन गया हो। विशेष० दे० ‘समर्पण’।
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समर्पना  : स० [सं० समर्पण] १. समर्पण करना। २. सौंपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समर्पित  : भू० कृ० [सं० सम√अर्प (देना)+क्त] १. जो समर्पण किया गया हो। समर्पण किया हुआ। २. स्थापित।
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समर्प्य  : वि० [सं० सम√अर्प (देना) णिच्-यत्] जो समर्पण किया जा सके या किया जाने के योग्य हो। समर्पण किये जाने के योग्य।
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समर्याद  : वि० [सं० अव्य० स०] १. मर्यादा-युक्त। २. अच्छे आचरणवाला। सदाचारी। अव्य० निकट। पास। समीप।
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समल  : पुं० [सं० अव्य० स०] मल। विष्ठा। पुरीष। गू।
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समली  : स्त्री० [सं० श्यामली ] चील।
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समवकार  : पुं० [सं०] रूपक का एक भेद जिसमें देवासुरों के संग्राम या संघर्ष से सम्बन्ध रखनेवाले वीरतापूर्ण कार्यों का उल्लेख होता है। इसमें तीन अंक होते हैं।
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समवतार  : पुं० [सं० सम-अव√तृ (पार करना)+घञ्] १. उतरने की जगह। उतार। २. उतरने की क्रिया। अवतरण।
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समवयस्क  : वि० [सं०] [भाव० समवयस्कता] समान वय या अवस्थावाला।
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समवरोध  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समवरूद्ध, कर्ता, समवरोधक] चारों ओर से अच्छी तरह रोकना।
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समवर्गी  : वि० [सं०] १. वे जो किसी एक वर्ग के अंतर्गत हों या गिनाये गये हों। २. दे० ‘संश्रित’।
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समवर्तन  : पुं० [सं०] आवश्यकता, उपयोगिता आदि के विचार से किसी वस्तु का ठीक या यथोचित रूप में होनेवाला विभाजन या संचार। समान वर्तन या व्यवहार। जैसा—शरीर में शर्करा का ठीक तरह से सम वर्तन न होने पर रक्त विषाक्त होने लगता है।
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समवर्ती  : वि० [सं०] १. जो समान रूप से स्थित रहता हो। २. जो पास ही स्थित हो। पुं० यमराज का एक नाम।
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समवलंब  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा चतुर्भुज जिसकी दोनों लंबी रेखाएँ समान हो।
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समवसरण  : पुं० [सं० सम-अव√ सृ (गत्यादि)+ल्युट-अन] वह स्थान जहाँ किसी प्रकार का धार्मिक उपदेश होता हो।
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समवाक  : पुं० [सं०] सम-ध्वनिक (दे०)।
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समवाय  : पुं० [सं०] [भाव० समवायत्व, समवायता] १. समूह। झुंड। २. ढेर। राशि। ३. मेल। संयोग। ४. आपस में होनेवाला अभेद्य घनिष्ठ और नित्य संबंध। ५. न्यायदर्शन में तीन प्रकार के संबंधों में ऐसा संबंध जो सदा एकसा बना रहता हो और जिमसें कभी अंतर न पड़ता हो। नित्य संबंध। जैसा—अंग और अंगी अथवा गुण और गुणी में समवाय संबंध होता है। ६. कोई ऐसा संबंध जो सदा एक सा बना रहता हो। ७. कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार बनी हुई वह व्यापारिक संस्था जिसके हिस्सेदारों को अपनी लगाई पूँजी के अनुपात से नफे या ला का अंश मिलता हो। (कम्पनी)।
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समवायिक  : वि० [सं० समवाय+ठक्-इक] १. समवाय सम्बन्धी। समवाय का।
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समवायी (यिन्)  : वि० [सं०] १. किसी के साथ समवाय संबंध रखनेवाला। २. जो इकट्ठा करके ढेर के रूप में लगाया हो। पुं० १. अंग। अवयव। २. साझेदार। हिस्सेदार।
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समवेग  : पुं० [सं०] कृष्ण के रथ का घोड़ा।
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समवेत  : वि० [सं० सम—अव√इण् (गत्यादि)+क्त] १. एक जगह इकट्ठा किया हुआ। एकत्र। २. जमा किया हुआ। संचित। ३. किसी वर्ग या श्रेणी से मिलाया या लाया हुआ। ४. संबद्ध।
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समवेतन  : पुं० [सं०] १. समवेत होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. आजकल बालचरों, अनुयायियों सैनिकों आदि का एक स्थान पर जमा होना। (रैली)।
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समशीतोष्ण कटिबंध  : पुं० [सं० समशीतोष्ण, ब० स० कटिबन्ध कर्म० स०] भूमध्य रेखा और उष्णकटिबंद के मध्य में पड़नेवाला प्रदेश। (टेम्परेट ज़ोन)।
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समशील  : वि० [सं०] शील, स्वभाव प्रकृति आदि के विचार से एक ही तरह के। समान।
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समष्टि  : स्त्री० [सं० सम√अश् (प्याप्त होना)+क्तिन्] १. जितने हों, उन सब का सम्मिलित या सामूहिक रूप। वह रूप या स्थिति जिसमें सभी, अंगो, व्यष्टियों या सदस्यों का अंतर्भाव या समावेश हो। ‘व्याष्टि’ का विपर्याय। २. साधु-संन्यासियों आदि का ऐसा भंडारा या भोज जिसमें सभी स्थानिक साधु-संन्यासी आदि निमंत्रित किये गये हों।
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समष्टि-निगम  : पुं० [सं०] ऐसा निगम जो समष्टि या समुदाय पर आश्रित हो, अथवा बहुतों या सब के सहयोग से काम करता हो,या चलता हो। (एग्रिगेट कारपोरेशन)।
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समष्टिवाद  : पुं० [सं०] आधुनिक साम्यवाद की वह शाखा जिसका सिद्धान्त यह है कि सभी पदार्थों के उत्पादन और वितरण का सारा अधिकार समष्टि रूप से सारे राष्ट्र के हाथ में रहना चाहिए। (कलेक्टिविज़्म)।
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समष्टिवादी  : वि० [सं०] समष्टिवाद सम्बन्धी। समष्टिवाद का। पुं० समष्टिवाद का अनुयायी या समर्थक।
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समष्ठिल  : पुं० [सं० सम√स्था (ठहरना)+इलच्] कोकुआ नाम का कँटीला पौधा। २. गंडीर या गिंडीनी नाम का साग।
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समष्ठिला  : स्त्री० [सं० समष्ठिल+टाप्] १. समष्ठिल। कोकुआ। २. जमीकंद। सूरन। ३. गिंडिनी नामक साग।
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समष्ष  : वि०=समक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समस्त  : वि० [सं०] [भाव० समस्तता] १. आदि से अंत तक जितना हो, वह सब। कुल। पूरा। (होल)। जैसा—समस्त भारत, समस्त संसार। २. किसी के साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। संयुक्त। ३. (व्याकरम में पद या शब्द-समूह) जो समास के नियमों के अनुसार मिलकर एक हो गया हो। समास-युक्त (कम्पाउंड)।
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समस्तिका  : स्त्री० [सं० समस्त से] कथन, लेख आदि का संक्षिप्त रूप या सारांश। (एब्सट्रैक्ट)।
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समस्य  : वि० [सं० सम√अस् (होना)+ण्यत्-क्यव वा] १. जो किसी के सात मिलाया जा सके या मिलाया जाने को हो। २. (पद या शब्द) जिन्हें व्याकरण के अनुसार समास के रूप में मिलाया जा सकता हो।
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समस्यमान्  : वि० [सं०] (व्याकरण में वह पद) जो किसी दूसरे पद के साथ मिलकर समस्त पद बनाता हो या बना सकता हो।
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समस्या  : स्त्री० [सं० समस्य-टाप्] १. मिलने की क्रिया या भाव। मिलन। २. मिश्रण। संघटन। ३. उलझनवाली ऐसी विचारणीय बात जिसका निरारण सहज में न हो सकता हो। कठिन या विकट प्रसंग (प्रॉब्लेम)। ४. छंद श्लोक आदि का ऐसा अंतिम चरण या पद जो काव्य रचना के कौशल की परीक्षा करने के लिए इस उद्देश्य से कवियों के सामने रखा जाता है कि वे उसके आधार पर अथवा उसके अनुरूप पूरा छंद या श्लेक प्रस्तुत करें। क्रि० प्र०—देना।—पूर्ति करना।
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समस्या-पूर्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] साहित्यिक क्षेत्र में किसी समस्या के आधार पर कोई छंद या श्लोक बनाकर तैयार करना।
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समह  : अव्य० [सं० समस्त] साथ संग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समहर  : पुं०=समर (युद्ध)। उदाहरण—मारु परधर मारका ठहरे समहर ठौड़।—बाँकीदास। वि०=सम-थल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समहित  : पुं० [सं०] वह स्थिति जिसमें अनेक देश या राष्ट्र प्रायः एक से विचार रखते हों, एक ही तरह के स्वार्थों का ध्यान रखते हों और अनेक विषयों में एक ही नीति के अनुसार मिलकर चलते हों (एन्टेन्ट)।
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समाँ  : पुं० [सं० समय] १. समय। वक्त। मुहावरा—समाँ बँधना= (संगीत आदि कार्यो का) इतनी उत्तमता से सम्पन्न होता रहना कि सभी उपस्थित लोग स्तब्ध हो जायँ, और ऐसा जान पड़े कि मानो समय भी उसका आनंद लेने के लिए ठहर या रुक गया है। विशेष—आशय यही है कि लोगों को यह पता नहीं चलने पाता कि इतना अधिक समय कैसे बीत गया। २. ऋतु। ३. जमाना। युग। जैसा—आज-कल ऐसा समाँ आ गया है कि कोई किसी को नहीं सुनता। ४. अवसर। मौका। ५. सुंदर और सुहावना दृश्य। उदाहरण—अजब गंगा के बहने का समां है।—नजीर। बनारसी।
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समा  : स्त्री० [सं०] १. वर्ष। साल। उदाहरण—राका राज जरा सारा मास मास समा समा।—केशव। २. गीष्म ऋतु वि० सं० ‘सम’ का स्त्री०। जैसा—कामिनी समा=कामिनी के समान। पुं० दे० ‘समाँ’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समाअत  : स्त्री० [अं०] १. सुनने की क्रिया या भाव। २. ध्यान देने या विचार करने के लिए अवधानपूर्वक सुनने की क्रिया या भाव। जैसा—फरियाद की समाअत, मुकदमे की समाअत।
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समाई  : स्त्री० [हि० समान+आई (प्रत्यय)] १. समाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. वह अवकाश जिसमें कोई चीज समाती हो। जैसा—इस घर में पंद्रह आदमियों की समाई नहीं हो सकती। ३. धारण करने की गुंजाइश तथा समर्थता। जैसा—जिसकी जितनी समाई होगी, वह उतना ही खरच करेगा।
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समाउ  : पुं०=समाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समाकर्षण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समाकर्षित, समाकृष्ट] विशेष रूप से होनेवाला आकर्षण। खिंचाव।
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समाकलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समाकलित] एक ही तरह की बहुत सी इकट्ठी की हुई चीजों का मिलान करके देखना कि उनका क्रम या व्यवस्था ठीक है या नहीं (कोल्लेशन)।
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समाकार  : वि० [सं० कर्म० स०] जो आकार के विचार से आपस में समान हो।
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समाकुल  : वि० [सं० सम-आ√ कुल् (बन्धु आदि)+अच्] बहुत अधिक आकुल या घबराया हुआ।
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समाक्षार  : पुं० [सं०] उन पदार्थों का वर्ग या समूह जो किसी अम्ल या खट्टे पदार्थ के साथ मिलकर लवण और जल बनाते हैं।
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समाख्या  : स्त्री० [सं० सम-आ+ख्या (ख्यात होना)+अङ्] १. यश। कीर्ति। २. आख्या। नाम। संज्ञा।
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समांग  : वि० [सं० सम+अंग] जिसके सब अंग या तत्त्व एक से अथवा एक ही प्रकार के हों। विषमांग का विपर्याय। (होमोजीनियस)।
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समागत  : भू० कृ० [सं०] १. आया हुआ। जैसा—समागत अतिथि। २. जो आकर सामने उपस्थित या घटित हुआ हो। जैसा—समागत परिस्थिति, समागत प्रसंग।
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समागता  : स्त्री० [सं० समागत-टाप्] एक तरह की पहेली जिसका अर्थ पदों का सन्धि-विच्छेद करने पर निकलता है।
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समागति  : स्त्री० [सं० सम-आगम् (जाना)+क्तिन्] १. समागत होने की अवस्था या भाव। आगमन। २. आकर मिलना। योग।
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समागम  : पुं० [सं०] १. पास या सामने आना। पहुँचना। २. बहुत से लोगों का एक स्थान पर एकत्र होना। जैसा—संतों का या साहित्यकारों का समागम। ३. स्त्री-प्रसंग। संभोग। मैथुन।
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समाघात  : पुं० [सं० सम-आ√ हन् (मारना)+घञ्, कुत्व, न=त] १. युद्ध। लड़ाई। २. वध। हत्या।
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समाचरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समाचरित] १. अच्छा, ठीक या शुद्ध आचरण। २. कार्य या व्यवहार करना। आचरण। ३. कार्य का सम्पादन।
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समाचरना  : स० [सं० समाचरण] (किसी का) आचरण या व्यवहार करना। अ० १. आचरण या व्यवहार के रुप में होना २. व्याप्त या संचरित होना। उदाहरण—(क) ऐसी बुधि समचरी घर मांहि तिआही।—कबीर। (ख) समाचेर उसको मेरा ही सोदर निस्संकोच अहो।—मैथिलीशरण।
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समाचार  : पुं० [सं०] १. आगे बढ़ना। चलना। २. अच्छा आचरण या व्यवहार। ३. (मध्य और परवर्ती काल में) किसी कार्य या व्यापार की सूचना। उदाहरण—समाचार मिथिलापति लाए।—तुलसी। ४. ऐसी, ताजी या हाल की घटना की सूचना जिसके संबंध में पहले लोगों को जानकारी न हो। (न्यूज) ५. हाल-चाल। ६. कुशल मंगल।
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समाचार-पत्र  : पुं० [सं० ष० त० समाचार+पत्र] १. नियमित समय पर प्रकाशित होनेवाला वह पत्र जिसमें अनेक प्रदेशों, राष्ट्रों, आदि से संबंधित समाचार रहते हों। खबर का कागज। अखबार (न्यूज पेपर) २. उक्त प्रकार के सभी पत्रों का वर्ग या समूह।
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समाच्छन्न  : वि० [सं०] ऊपर या चारों ओर से पूरी तरह छाया या ढका हुआ।
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समाच्छादन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समाच्छादित] ऊपर या चारों ओर से अच्छी तरह छाया या ढका हुआ।
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समाज  : पुं० [सं०] १. बहुत से लोगों का गिरोह या झुंड। समूह। जैसा—सत्संग समाज। २. एक जगह रहनेवाले अथवा एक ही प्रकार का काम करनेवाले लोगों का वर्ग, दल या समूह। समुदाय। ३. किसी विशिष्ट उद्देश्य से स्थापित की हुई सभा। जैसा—आर्य समाज, संगीत समाज। ४. किसी प्रदेश या भूखंड में रहनेवाले लोग जिनमें सांस्कृतिक एकता होती है। ५. किसी संप्रदाय के लोगों का समुदाय। जैसा—अग्रवाल समाज (सोसाइटी, उक्त सभी अर्थों में)। ६. प्राचीन भारत का समज्या (देखें) नामक सार्वजनिक उत्सव। ७. आयोजन। तैयारी। उदाहरण—बेगि करहु बन गवन समाजू।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समाज-शास्त्र  : पुं० [सं०] वह आधुनिक शास्त्र जिमसें मनुष्य को सामाजिक, प्राणी मानकर उनके समाज और संस्कृति की उत्पत्ति, विकास संघटन और समस्याओं आदि का विवेचन होता है। (सोशियालॉजी)
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समाज-शास्त्री  : पुं० [सं०] वह जो समाज-शास्त्र का अच्छा ज्ञाता हो।
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समाज-सुधार  : पुं० [सं०] मानव समाज अथवा किसी देश में रहनेवाले समाज में फैली हुई कुरीतियाँ, दुर्गु, दोष आदि दूर करके उन्हें सुधारने का प्रयत्न। (सोशल रिफार्म)।
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समाज-सुधारक  : पुं० [सं०] वह जो मानव समाज के दुर्गुणों, दोषों आदि को दूर करने का प्रयत्न करता हो। (सोशल रिफार्मर)।
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समाजत  : स्त्री० [अं०] १. शरमिन्दगी। लज्जा। २. विनय। ३. निवेदन। प्रार्थना।
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समांजन  : पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार आँखों में लगाने का एक प्रकार का अंजन।
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समाजवाद  : पुं० [सं०] वह आर्थिक तथा राजनीतिक विचार-प्रणाली तथा सत्ता तथा स्वामित्व हाथों में नही रहना चाहिए, बल्कि समष्टिक या सामूहिक रूप से समाज में निहित रहना चाहिए। (सोशलिज्म)। विशेष—समाजवाद प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहकारिता को मुनाफा खोरी के स्थान पर लोकहित तथा समाज सेवा की भावना को प्रधानता देना चाहता है, और धन के वितरण में आज जैसी विषमता है उसे बहुत कुछ कम करना चाहता है।
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समाजवादी  : वि० [सं०] समाजवाद संबधी। समाजवाद का। पुं० वह जो समाजवाद का अनुयायी या समर्थक हो। (सोशलिस्ट)
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समाजशील  : वि० [सं०] समाज के सदस्यों अर्थात् लोगों से बराबर मिलता-जुलता रहनेवाला (सोशिअल)।
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समाजी  : वि० [सं० समाज] समाज सम्बन्धी। समाज का। पुं० वह जो वेश्याओं, गाने-बजानेवाल मंडलियों आदि के साथ रहकर तबला, सारंगी या ऐसा ही और कोई साज बजाता हो। साजिन्दा। पुं०=आर्य-समाजी।
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समाजीकरण  : पुं० [सं०] किसी काम बात या व्यवहार को ऐसा रूप देना कि उस पर समाज का अधिकार या स्थापत्य हो जाय और सब लोग समान रूप से उसका लाभ उठा सकें (सोशलाइज़ेशन)।
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समाज्ञप्त  : वि० [सं० सम-आ√ज्ञप् (बताना)+क्त] जिसे समाज्ञा दी गई हो या मिली हो।
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समाज्ञा  : स्त्री० [सं०] १. आज्ञा। आदेश। २. नाम। संज्ञा। ३. कीर्ति। यश।
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समाँण  : पुं० [सं०] १. श्मशान। २. शव (राज०)। वि०=मसान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समांत  : पुं० [सं० ष० त०] १. वर्ष का अन्त। २. पड़ोसी।
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समांतक  : पुं० [सं० समांत+कन्] कामदेव।
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समाता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसी स्त्री जो माता के समान हो। २. सौतेली माँ। विमाता।
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समातृक  : वि० [सं०] [स्त्री० समातृका] जिसके साथ उसकी माता भी हो। अव्य० माता के साथ।
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समातृका  : वि० स्त्री० [सं०] (वेश्या) जो किसी खाला या वृद्धा कुटनी के साथ और उसकी देख-रेख में रहती हो।
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समादर  : पुं० [सं० सम-आ√दृ (आदर करना)+अप्] अच्छा और उचित आदर। सम्मान। खातिर।
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समादरणीय  : वि० [सं० सम-आ√दृ (आदर करना)+अनीयर्] जिसका समादर करना आवश्यक और उचित हो। समादर का अधिकारी या पात्र।
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समादान  : पुं० [सं० सम-आ√दा (देना)+ल्युट-अन] १. पूरी तरह से ग्रहण या प्राप्त करना। २. उपयुक्त उपहार, भेट आदि ग्रहण करना। ३.बौद्धों का सौगताह्रिक नामक नित्य कर्म। ४. जैनों में ग्रहण किये हुए आचारों, व्रतों आदि की अवज्ञा या उपेक्षा। ५. निश्चय।
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समादिष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. नियोजित। २. निर्दिष्ट।
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समादृत  : वि० [सं० सम-आ√दृ (आदर करना)+क्त] जिसका अच्छी तरह आदर हुआ हो। सम्मानित।
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समादेय  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समादिष्ट] १. अधिकारपूर्वक किसी को कोई काम करने का आदेश या आज्ञा देना। २. इस प्रकार दिया हुआ आदेश या आज्ञा। (कमांड) ३. निषेधाज्ञा। व्यादेश।
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समादेश याचिका  : स्त्री० [सं०] विधिक क्षेत्र में, वह याचिका या प्रार्थनापत्र जो उच्च न्यायालय में इस उद्देश्य से उपस्थित किया जाता है कि कोई राजनीति या विधिक आदेश कार्यान्वित होने से तब तक के लिए रोक दिया जाय जब तक उच्च न्यायालय में उसके औचित्य का निर्णय न हो जाय। परमादेश। (रिट ऑफ मैन्डमस)।
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समादेशक  : पुं० [सं०] १. वह जो किसी को कोई काम करने का आदेश दे। २. वह प्रधान सैनिक अधिकारी जिसके आदेश से सेना के सब काम होते हैं (कमांडर)।
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समाध  : स्त्री०=समाधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समाधा  : पुं० [सं० सम-आ√धा (रखना)+अङ्] १. निकारण। निपटारा। २. विरोध दूर करा। ३. सिद्धान्त। ४. दे० ‘समाधान’।
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समाधान  : पुं० [सं० सम-आ√धृ (रखना)+ल्युट-अन] [वि० समाधनीय] १. एक ही आधान या स्थल पर रखना। २. मन को सब ओर से हटाकर एकाग्र करना और ब्रह्म में लीन करना। ३. संशय दूर करना। ४. आपत्ति की निवृत्ति करना। ५. समस्या का निराकरण करना। ६. असंगति भ्रांति विरोध आदि दूर करना। ७. नियम। ८. वह युक्ति या योजना जिसके द्वारा समस्या हल की जाती हो। ९. तपस्या। १॰. अनुसंधान। अन्वेषण। ११. किसी के कथन या मत की पुष्टि। समर्थन। १२. ध्यान। १३. नाटक की मुख्य संधि के १२ अंगों में से एक अंग जिसमें बीज ऐसे रूप में फिर से प्रदर्सित किया जाता है कि वह नायक अथवा नायिका का अभिमत प्रतीत होता है।
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समाधानना  : स [सं० समाधान] १. किसी का समाधान करना। संशय दूर करना। २. सान्त्वना देना।
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समाधि  : स्त्री० [सं०] १. ईश्वर के ध्यान में मग्न होना। २. योग साधना का चरम, फल जिसमें मनुष्य सब क्लेशों से मुक्त होकर अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त करता है। यह चार प्रकार की कही गई है। संप्रज्ञात, सवितर्क, सविचार और सानन्द। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। ३. वह स्थान जहाँ किसी का मृत शरीर या अस्थियाँ गाड़ी गई हों। ४. प्राणियों की वह अवस्था जिसमें उनकी संज्ञा या चेतना नष्ट हो जाती है और वे कोई शारीरिक क्रिया नहीं करते। ५. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी आकस्मिक कारण से सहायता मिलने पर किसी के कार्य में सुगमता होने का उल्लेख मिलता है। इसे ‘समाहित’ भी कहते हैं। ६. साहित्य में काव्य का एक गुण जिसके द्वारा दो घटनाओं का दैव संयोग से एक ही समय में होना प्रकट होता है और जिसके ही क्रिया का दोनों कर्ताओं के साथ अन्वय होता है। ७. किसी असंभव या असाध्य कार्य के लिए किया जानेवाला प्रयत्न। ८. किसी कष्टसाध्य काम के लिए मन एकाग्र करना। ९. झगड़े या विवाद का अंत या समाप्ति करना। १॰. चुप्पी। मौन। ११. समर्थन। १२. नियम। १३.ग्रहण या अंगीकृत करना। १४. आरोप। १५. प्रतिज्ञा। १६. बदला चुकाना। प्रतिशोध। १७, निद्रा। नींद। स्त्री०=समाधान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (क्व)। उदाहरण—व्याधि भूत जनित उपाधि काहू खल की समाधि कीजै तुलसी को जानि जन फुरकै।—तुलसी।
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समाधि-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहाँ योगियों के मृत शरीर गाड़े जाते हों। २. मुरदे गाड़ने की जगह। कब्रिस्तान।
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समाधि-लेख  : पुं० [सं०] वह लेख जो किसी मृत व्यक्ति का संक्षिप्त परिचय कराने के लिए उसकी समाधि या कब्र पर लिखा या अंकित किया रहता है (एपिटैफ़)।
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समाधि-स्थल  : पुं० [सं० ष० त०] ‘समाधि-क्षेत्र’।
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समाधित  : भू० कृ० [सं० सम-आ√धा (रखना)+क्त] जिसने समाधि लगाई हो। समाधि की अवस्था को प्राप्त।
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समाधित्व  : पुं० [सं० समाधि-त्व] समाधि का गुण, धर्म या भाव।
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समाधिदशा  : स्त्री० [सं० ष० त०] योग में वह दशा जब योगी समाधि में स्थित होता और तन्मय होकर परमात्मा में लीन हो जाता और चारों ओर ब्रह्म ही ब्रह्म देखता है।
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समाधिस्थ  : वि० [सं० समाधि√स्था (ठहरना)+क] जो समाधि में स्थित हो। जो समाधि लगाये हुए हों।
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समाधी (धिन्)  : वि० [सं० समाधि+इनि] समाधिस्थ। स्त्री०=समाधि।
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समाधेय  : वि० [सं० सम-आ√धा (रखना)+यत्] जिसका समाधान हो सके या होने को हो।
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संमान  : पुं० [सं०√मन् (मानना)+अच्]=सम्मान।
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समान  : वि० [सं०] [भाव० समानता] १. गुण, मूल्य, महत्व आदि से विचार के से किसी के अनुरूप या बराबरी का। बराबर। तुल्य। (ईक्वल) जैसा—दोनों बातें समान हैं। २. आकार, प्रकार रूप आदि के विचार किसी की तरह का। सदृश। (मिसिलर)।—जैसा—ये दोनों गहने समान है। विशेष-सदृश, समान और तुल्य का अंतर जानने के लिए दे० सदृश का विशेष। पद—एक समान=एक ही जैसे। बराबर। समान वर्ण=ऐसे वर्ण जिनका उच्चारण एक ही स्थान से होता हो। जैसा—क,ख,ग,घ,समान वर्ण है। पुं० १. सत्। २. शरीर से नाभि के पास रहनेवाली एक वायु। स्त्री०=समानता।
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समान-कालीन  : वि०=समकालीन।
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समान-गोत्र  : पुं० [सं०] सगोत्र।
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समान-तंत्र  : पुं० [सं०] १. सम-व्यवसायी। हमपेशा। २. बेद की किसी एक शाखा का अध्ययन करने तथा उनके अनुसार यज्ञ आदि करनेवाले व्यक्ति।
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समानक  : वि० [सं०] १. =समान। २. =समानार्थक।
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समानता  : स्त्री० [सं० समान+तल्-टाप्] १. समान होने की अवस्था या भाव। तुल्यता। बराबरी। जैसा—इन दोनों में बहुत कुछ समानता है। २. वह गुण, तत्व या बात जो दो या अधिक वस्तुओं आदि में समान रूप से हो।
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समानत्व  : पुं० [सं० समान+त्व]=समानता।
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समाननाम  : पुं० [सं० समाननामन्] ऐसे व्यक्ति जिनके नाम एक से हों। एक ही नामवाले। नाम-रासी।
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समानयन  : पुं० [सं० सम-आ√नी (ढोना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० समानीत] अच्छी तरह अथवा आदरपूर्वक ले आने की क्रिया।
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समानर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] वे जो एक ही ऋषि के गोत्र या वंश में उत्पन्न हुए हों।
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समानस्थान  : पुं० [सं०] १. मध्यवर्ती स्थान। २. भूगोल में वह स्थान जहाँ दिन-रात बराबर हो।
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समाना  : अ० [सं० समावेशन] १. अंदर आना। भरना। अटना। जैसा—इस घड़े में २॰ सेर पानी समाता है। २. व्याप्त होना। जैसा—दिल में भय समाना। ३. कहीं से चलकर आना। पहुँचना। स० अंदर करना। भरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समानाधिकरण  : पुं० [सं० ब० स०] १. समान आधार। २. व्याकरण में वे दो शब्द या पद जो एक ही कारक की विभक्ति से युक्त हों। जैसा—राजा दशरथ के पुत्र राम कोवनवास मिला, यहाँ राजा दशरथ के पुत्र पद राम का समानाधिकरण है क्योंकि को विभक्ति समान रूप से उक्त दोनों पक्षो में लगती है।
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समानाधिकार  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. जातीय, गुण, धर्म या विशेषता। २. बराबर का अधिकार।
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समानार्थ  : पुं० [सं० ब० स०] वे शब्द आदि जिनका अर्थ एक ही हो। पर्याय (सिनॉनिम्)।
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समानार्थक  : वि० [सं० ब० स०] (किसी शब्द के) समान अर्थ रखनेवाला। (दूसरा शब्द) पर्यायवाची (सिनॉनिमस)।
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समानार्थी  : वि० [सं०]=समार्थनाक।
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समानिका  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, जगण और एक गुरु होता है।
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समानी  : स्त्री०=समानिका।
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समानुपात  : पुं० [सं० सम-अनुपात] [वि० समानुपातिक] किसी वस्तु के भिन्न-भिन्न अंगों में होनेवाला वह तुलनात्मक संबंध जो आकार, प्रकार, विस्तार आदि के विचार से स्थिर होता है और जिससे उन सब अंगों में संगति, सामंजस्य स्वरूपता जाती है। (प्रोपोर्शन)।
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समानुपातिक  : वि० [सं०] समानुपात की दृष्टि से ऐसे लोग जिनकी ग्यारहवीं से चौदहवीं पीढ़ी तक के पूर्वज एक हों। वि० साथ-साथ तर्पण करनेवाले।
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समानोपमा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] उपमा अलंकार का एक प्रकार जिसमें उच्चारण की दृष्टि से एक ही शब्द भिन्न प्रकार से खंड करने पर भिन्न अर्थों का द्योतक होता है।
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समापक  : वि० [सं० सम√आप् (प्राप्त होना)+ण्वुल्-अक] समापन पर करनेवाला।
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समापत  : वि०=समाप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समापति  : स्त्री० [सं०] १. बहुतों का एक ही समय में और एक ही स्थान पर उपस्थित होना। मिलना। २. भेंट। मिलन। ३. अवसर। मौका। ४. योग में ध्यान का एक अंग। ५. अन्त। समाप्ति। ६. आजकल दंगा, दुर्घटना, युद्ध आदि के कारण लोगों के प्राणों या शरीर पर आनेवाला संकट (कैज़ुएलटी)।
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समापन  : पुं० [सं०] १. समाप्त करने की क्रिया या भाव। पूरा करना। (डिस्पोज़ल)। २. विचार, विवाद आदि का अन्त करने के लिए कोई विशेष बात कहना। (बाइडिंग अप) ३. मार डालना।
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समापनीय  : वि० [सं० सम√अप् (प्राप्त होना+अनीयर्] १. जिसकी समापन होने को हो अथवा होना उचित हो। समाप्त किये जाने के योग्य। २. मारे जाने के योग्य।
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समापन्न  : भू० कृ० [सं० सम-आ√पद् (गमनादि)+क] १. प्राप्त किया हुआ। २. घटना के रूप में आया हुआ। घटित। ३. पहुँचा हुआ। ४. पूरा किया हुआ। ५. दुःखी। ६. मृत।
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समापवर्तक  : वि० [सं०] समावर्तन करनेवाला। पुं० गणित में, वह राशि जिससे दो या अधिक राशियों को अलग-अलग भाग देने पर कुछ शेष न बचें। (काँमन फैक्टर) जैसा—यदि २४, ३६ या ४८ को १२ से भाग दिया जाय तो शेष कुछ नहीं बचता। अतः १२ उक्त तीनों राशियों का समापवर्तक है।
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समापवर्तन  : पुं० [सं० सम-अपर्वतन] गणित में वह क्रिया जिससे राशियों या संज्ञाओं का अपवर्तन करके उनका समापवर्तक निकाला जाता है (दे० ‘अपवर्तन’ और ‘समापर्वतन’)।
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समापिका क्रिया  : स्त्री० [सं०] व्याकरण में वाक्य के अंतर्गत अपने स्थान के विचार से क्रिया के दो भेदों में से एक, वह पूर्ण क्रिया जिसका काल किसी दूसरी अपूर्ण क्रिया के काल के बाद आता है और जिससे किसी कार्य की समाप्ति सूचित होती है। जैसा—वह घर जाकर बैठ रहा। में बैठ रहा समापिका क्रिया है, क्योंकि उससे कार्य की समाप्ति सूचित होती है। (दूसरा भेद पूर्वकालिक क्रिया कहलाता है। उक्त वाक्य में जाकर पूर्वकालिक क्रिया है)।
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समापित  : भू० कृ०=समाप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समापी (पिन्)  : वि० [सं० सम√आप् (प्राप्त करना)+णिनि] [स्त्री० समापिनी] १. समापन करने-वाला। २. समाप्त करनेवाला।
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समाप्त  : भू० कृ० [सं०] १. (कार्य) जिसे पूरा कर दिया गया हो। जैसा—विद्यालय का कार्य समाप्त हो गया है। २. (वस्तु) जिसका भोग, संहार आदि के कारण अस्तित्व नष्ट हो गया हो। जैसा—धन समाप्त होना। ३. (वस्तु) जो बिक चुकी हो फलतः विक्रयार्थ उपलब्ध न हो। जैसा—पापलीन समाप्त हो गई है, नई दो-चार दिन में आ जायगी। ४. (नौकरी या सेवा) जिसका कार्य-काल बीत चुका हो। जैसा—उनकी नौकरी समाप्त हो चुकी है। ५. मृत।
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समाप्त-सैन्य  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में ऐसी सेना जो किसी एक ही ढंग की लड़ाई करना जानती थी।
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समाप्ति  : स्त्री० [सं० सम√आप् (प्राप्त होना)+क्तिन्] १. समाप्त होने की अवस्था या भाव। खतम या पूरा होना। २. अवधि, सीमा आदि का अंत होना (एक्सापयरी, एक्सपाररेशन)। ३. किसी काम, चीज या बात का सदा के लिए स्थायी रूप से अन्त होना। न रह जाना। (एविस्टक्शन)।
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समाप्तिक  : पुं० [सं०] वह जो वेदों का अध्ययन समाप्त कर चुका हो। वि० समाप्त या पूरा करनेवाला।
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समाप्य  : हि० [सं० सम√आप (प्राप्त होना)+ण्यत्] समाप्त किये जाने के योग्य। खतम या पूरा करने या होने के लायक।
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समाम्ना  : पुं० [सं० सम+आ√म्ना+य] [वि० समाम्नायिका] १. शास्त्र। २. समष्टि। समूह।
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समाम्नायिक  : पुं० [सं० समाम्नाय+ठन्—इक] वह जिसे शास्त्रों का अच्छा ज्ञान हो। शास्त्रवेत्ता। वि० समाम्नाय या शास्त्र संबंधी। शास्त्रीय।
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समायत  : वि० [सं०] [स्त्री० समायता] १. बढ़ा या फैला हुआ। विस्तृत। २. बड़ा। विशाल। स्त्री०=समाअत (सुनवाई)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समायुक्त  : वि० [सं० सम-आ√ युज् (मिलाना)+क्त] १. जोड़ा हुआ। २. तैयार किया हुआ। ३. नियुक्त। ४. संपर्क मे लाया हुआ। ५. दत्तचित्त। ६. आवश्यकता पड़ने पर दिया या किसी के पास पहुँचाया हुआ। (सप्लायड)।
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समायुक्तक  : पुं० [सं०] समायोजक (दे०)।
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समायुत  : भू० कृ० [सं० सम-आ√ यु (मिलाना)+क्त] १. जोड़ा या लगाया हुआ। २. एकत्र किया हुआ। संगृहीत।
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समायोग  : पुं० [सं०] १. संयोग। २. जनसमूह। भीड़। ३. दे० ‘समायोजन’।
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समायोजक  : पुं० [सं०] समायोजन करनेवाला (सप्लायर)।
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समायोजन  : पुं० [सं० सम-आ√युज्)मिलाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समायोजित] १. समायोग। २. लोगों की आवश्यकता की चीजें उनके पास पहुँचाने की व्यवस्था। संभरण। (सप्लाई)
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समारना  : १. स०=सँवारना। २. =सँभालना।
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समारब्ध  : भू० कृ० [सं० सम्-आ√रम्भ् (प्रारम्भ करना)+क्त] जिसका समारंभ हुआ हो। आरंभ किया हुआ।
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समारंभ  : पुं० [सं० सम्-आ√रभ् (शीघ्रता करना)+घञ्-मुम्] १. आरंब। शुरुआत। २. कोई काम, क्रिया या व्यापार। ३. समारोह। ४. लेप।
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समारंभण  : पुं० [सं० सम-आ√रभ् (शीघ्रता करना)+ल्युट-अन,मुम्] [भू० कृ० समारंभित] १. कार्य आरम्भ करना। २. गले लगाना। आलिंगन।
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समारम्य  : वि० [सं० सम-आ√रम् (शीघ्रता करना)+यत्] जिसका समारम्भ हो सकता हो या होने को हो।
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समारूढ़  : भू० कृ० [सं० सम-आ√रूह् (होना)+क्त] १. किसी के ऊपर चढ़ा हुआ। आरुढ़। २. बढ़ा हुआ। ३. अंगीकृत। ४. (घाव) जो भर गया हो। (वैद्यक)।
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समारोप (ण)  : पुं० [सं०] [वि० समारोपित] अच्छी तरह आरोप या आरोपण करने की क्रिया या भाव।
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समारोह  : पुं० [सं० सम-आ√रुह् (होना)+घञ्] १. ऊपर जाना विशेषतः चढ़ाई करना। २. कोई ऐसा शुभ आयोजन जिसमें चहल-पहल तथा धूमधाम हो। (फंन्शन)
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समार्थ  : वि०=समार्थक।
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समार्थक  : वि० [सं० ब० स० कप्] समान अर्थवाले (शब्द) समानक। पुं० पर्याय।
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समार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० समार्थ+इनि] बराबरी करने की इच्छा रखनेवाला। २. दे० ‘समार्थक’।
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समालंभन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समालंभित] १. शरीर पर केसर आदि का लेप करना। २. वध। हत्या। ३. गले लगाना। आलिंगन। ३. सहारा होना।
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समालय  : पुं० [सं० सम-आ√लय् (करना)+घञ्] अच्छी तरह बातचीत करना।
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समालिंगन  : पुं० [सं० सम-आ√लिंग (गत्यादि)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समालिगित] प्रगाढ़ आलिगंन।
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समालोकन  : पुं० [सं० सम-आ√लोक (देखना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समालोकित] अच्छी तरह देखना।
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समालोचक  : पुं० [सं० सम+आ√लोच् (देखकर कहना)+ण्वुल-अक] वह जो समालोचना करता हो। समीक्षक।
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समालोचन  : पुं० [सं० सम-आ√लोच् (देखना)+ल्युट-अन] समालोचना।
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समालोचना  : स्त्री० [सं० समालोचन+टाप्] १. अच्छी तरह देखना। २. किसी कृति के गुण-दोषों का किया जानेवाला विवेचन। ३. साहित्य में वह लेख जिसमें किसी कृति के गुण-दोषों के संबंध में किसी ने अपने विचार प्रकट किये हों। (रिव्यू) ४. साहित्यिक कृतियों के गुण-दोष विवेचन करने की कला या विद्या।
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समालोची  : वि० [सं० सम-आ√लोच् (देखना)+णिनि]=समालोचक।
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समालोच्य  : वि० [सं०] जिसकी समालोचना हो सकती हो या होने को हो।
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समाव  : पुं०=समाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समावरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समावृत्त] कोई छोटा लेख या सूचना जो किसी बड़े पत्र के साथ एक ही लिफाफे में रखकर कही भेजी जाय। (एन्क्लोजर)।
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समावर्जन  : पुं० [सं० सम-आ√वृज् (मना करना)+ल्युट-अन] १. अपनी ओर झुकाना या मोड़ना। २. उपयोग के लिए अपने अधिकार में लाना या लेना। ३. वश में करना।
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समावर्जित  : भू० कृ० [सं० सम-आ√वृत्त (रहना)+घञ्] १. वापस आना। लौटना। २. दे० ‘समावर्तन’।
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समावर्तन  : पुं० [सं०] १. वापस आना। लौटना। २. प्राचीन भारत में, वह समारोह जिसमें गुरुकुल के स्नातकों को विद्याध्ययन कर लेने के उपरांत विदाई दी जाती थी। ३. आजकल विश्वविद्यालयों आदि में होनेवाला वह समारोह जिसमें उच्च परीक्षाओं में उतीर्ण होनेवाले परीक्षार्थियों को उपाधियाँ, पदक, प्रमाण-पत्र आदि दिये जाते हैं। (कान्वोकेशन)।
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समावर्तनीय  : वि० [सं० सम-आ√वृत्त (रहना)+अनीयर] १. वापस होने के योग्य। लौटाने लायक। २. जो समावर्तन संस्कार के योग्य हो गया हो।
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समावर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं०] समावर्तन संस्कार के उपरान्त गुरुकुल से लौटानेवाला स्नातक।
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समावास  : पुं० [सं० सम-आ√वस् (रहना)+घञ्] १. निवास स्थान। २. टिकने या ठहरने का स्थान ३. शिविर। पड़ाव।
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समाविष्ट  : भू० कृ० [सं० सम-आ√विश् (प्रवेश करना)+क्त] १. जिसका समावेश हो चुका हो या कर दिया गया हो। २. जो छा, भर या व्याप्त हो चुका हो। ३. बैठा हुआ। आसीन। ४. एकांतचित्त।
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समावृत्त  : वि० [सं० सम-आ√वृ (वरण करना)+क्त] [भाव० समावृत्ति] १. अच्छी तरह ढका, छाया या लपेटा हुआ। २. समावर्तन सस्कार के उपरान्त घर लौटा हुआ। ३. सूचनात्मक टिप्पणी या लेख जो किसी पत्र के साथ एक ही लिफाफे में बन्द करके कहीं भेजा गया हो। (इन्क्लोज्ड) जैसा—इस पत्र के साथ सभा का कार्यविवरण समावृत्त है।
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समावृत्ति  : स्त्री० [सं०] १. समावृत्त होने की अवस्था या भाव। २. समावर्तन।
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समावेश  : पुं० [सं० सम-आ√विश् (प्रवेश करना)+घञ्] १. एक या एक जगह जाना, पहुँचना साथ रहना या होना। २. किसी चीज या बात का दूसरी चीज में होना। ३.चित्त या मन किसी ओर लगाना। मनोनिवेश।
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समावेशक  : वि० [समावेश+कन्] समावेश करनेवाला।
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समावेशन  : पुं० [सं० सम-आ√विश् (प्रवेश करना)+ल्युट-अन] १. किसी के अन्दर पैठना। प्रवेश। २. अधिकार या वश में करना। ३. विवाह संस्कार।
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समावेशित  : भू० कृ० सं० [सं० सम-आ√विश् (प्रवेश करना)+णिच्+क्त, समावेश,+एतच्, वा]= समाविष्ट।
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समांशिक  : वि० [सं० समांश+ठन्-इक] १. समान भागोंवाला। २. समान अंग या भाग पाने-वाला।
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समाश्रय  : भुं० [सं०] १. आश्रय। सहारा। २. मदद। सहायता।
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समाश्रित  : पुं० कृ० [सं० सम-आ√श्रि (सेवा करना)+क्त] १. जिसने किसी स्थान पर अच्छी तरह आश्रय लिया हो। २. सहारे पर टिका हुआ। पुं० वह जो भरण-पोषण के लिए किसी पर आश्रित हो।
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समास  : पुं० [सं०] १. योग्य। मेल। २. संग्रह। संचय। ३. संक्षेप। ४. संस्कृत व्याकरण में वह अवस्था जब अनेक पदों का एक पद, अनेक विभक्तियों की एक विभक्ति या अनेक स्वरों का एक स्वर होता है। इसके अप्ययी भाव, तत्पुरुष बहुब्रीहि और द्वन्द्व चार भेद है।
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समासक  : वि० [सं० समास+कन्] विराम-चिन्हों के अन्तर्गत एक प्रकार का चिन्ह जो समस्त पदों के अलग-अलग शब्दों के बीच लगाया जाता है। समास का चिह।
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समासक्ति  : स्त्री० [सं० सम-आ√सज्ज (मिलना)+क्तिन्] [वि० समासक्त] १. योग। मेल। २. संबंध। ३. अनुराग। ४. समावेश। अंतर्भाव।
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समासंजन  : पुं० [सं० सम-आ√सज्ज (मिलना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समासंजित] १. संयुक्त करना। मिलाना। २. किसी पर जड़ता या रखना। ३. संपर्क। संबंध।
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समासन्न  : भू० कृ० [सं० सम-आ√सद् (गत्यादि)+क्त] १. पहुँचा हुआ प्राप्त। २. निकटवर्ती। पास का।
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समासीन  : वि० [सं० सम√आस् (बैठना)+क्विप्-ख-ईन] अच्छी तरह आसीन या बैठा हुआ।
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समासोक्ति  : स्त्री० [सं० समास+उक्ति] साहित्य में एक अलंकार जिसमें श्लिष्ट संज्ञाओं की सहायता से कोई ऐसा वर्णन किया जाता है जो प्रस्तुत विषय के अतिरिक्त किसी दूसरे अप्रस्तुत विषय पर भी समान रूप से घटता है। जैसे—बड़ों डील लखि पील को सबन तज्यो बन थान। धनि सरजा तू जगत् में ताकों हरयों गुमान। इसमं सरजा संज्ञा) प्रस्तुत (सिंह या शेर) अप्रस्तुत (शिवाजी) के संबंध में घटना है। यह अप्रस्तुत प्रशंसा के विरुद्ध या उल्टा है। (स्पीच आँफ ब्रैंविटी)।
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समाहना  : अ० [सं० समाहन] सामना करना। सामने आना। उदाहरण—त्रिबली नाभि दिखाई कर सिर कि सकुचि समाहि।—बिहारी।
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समाहरण  : पुं० [सं० सम-आ√हृ (हरण करना)+ल्युट-अन] १. चीजें आदि एक स्थान पर एकत्र करना। संग्रह २. ढेर। राशि। ३. कर, चन्दा, प्राप्य धन आदि उगाहना। वसूली। (कलेक्शन)। ४. क्रम, नियम आदि के अनुसार ठीक ढंग से या सजाकर बनाया या रखा जाना। (फार्मेशन)। जैसा—वायुयानों का समाहरण। ५. दे० ‘समाहार’।
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समाहर्ता (र्तृ  : वि० [सं० सम-आ√हृ (हरण करना)+तृच्] १. समाहार अर्थात् एकत्र या पुंजीभूत करनेवाला। २. संक्षिप्त रूप देनेवाला। ३. मिलाने या सम्मिलित होनेवाला। पुं० वह राज कर्मचारी जिसके जिम्मे किसी जिले से राजकर या प्राप्य धन आदि उगाहने का काम होता है। (कलेक्टर)।
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समाहार  : पुं० [सं० सम-आ√हृ (हरण करना)+घञ्] १. बहुत सी चीज को एक जगह इकट्ठा करना। संग्रह। २. ढेर। राशि। ३. मिलन। मिलाप।
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समाहार-द्वंद्  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में ऐसा द्वंद्व समास जिससे उसके पदों के अर्थ के सिवा कुछ और अर्थ भी सूचित होता है। जैसा—सेठ साहूकार, हाथ-पाँव, दाल-रोटी आदि। इनमें से प्रत्येक अपने पदों के अर्थ के सिवा उसी प्रकार वे कुछ और व्यक्तियों या पदार्थों का भी बोध कराता है।
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समाहित  : वि० [सं०] १. एक जगह इकट्ठा किया हुआ,विशेषतः सुन्दर और व्यवस्थित रूप से इकट्ठा किया या सजाकर लगाया हुआ। २. केन्द्रित। ३.शांत। ४.समाप्त। ५. व्यवस्थित। ६. प्रतिपादित। ७. स्वीकृत। ८. सदृश। समान। पुं० १. पुण्यात्मा और साधु-पुरुष। २. साहित्य में वह अवस्था जब कोई भावशांति (देखे) इस प्रकार होती है कि वह किसी दूसरे भाव के सामने दबकर गौण रूप धारण कर लेती है। इसकी गिनती अलंकारों में होती है। ३. ‘समाधि’ नामक अलंकार का दूसरा नाम।
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समाहूत  : भू० कृ० [सं० सम-आ√ ह्वे (बुलाना)+क्त, व=उ-दीर्घ] १. जिसे बुलाया गया हो। आहूत। २. जिसे ललकारा गया हो। ३. एकत्र किया हुआ।
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समाहृत  : भू० कृ० [सं०] जिसका समाहरण या समाहर हुआ हो।
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समाह्वान  : पुं० [सं० सम-आ√ ह्वे (बुलाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समाहूत] १. आवाहन। बुलाना। २. जूआ खेलने के लिए बुलाना या ललकारना।
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संमित  : भू० कृ० [सं०√मा (नाप)+क्त]=सम्मित।
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समित  : भू० कृ० [सं० सम√इण् (गत्यादि)+क्त] १. मिला हुआ। संयुक्त। २. समानांतर। ३. अंगीकृत। स्वीकृत। ४. पूरा किया हुआ। ५. मापा हुआ। ६. निरंतर लगा हुआ। जैसा—समित प्रवाह। पुं० युद्ध। लड़ाई। समर।
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समिता  : स्त्री० [सं० समित-टाप्] बहुत महीन पीसी हुआ आटा। मैदा।
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समिति  : स्त्री० [सं०] १. सभा। समाज। २. प्राचीन भारत में, राजनीतिक, विषयों पर विचार करनेवाली एक संस्था। ३. आजकल शासन, संस्था समाज मुहल्लेवालों आदि द्वारा चुने या मनोनीत किये गये व्यक्तियों का वह दल जिसके जिम्मे कोई विशेष कार्य-भार सौपा गया हो। जैसा—जलकर समिति, सहकारी समिति।
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समिथ  : पुं० [सं० सम√इण् (गत्यादि)+थक्] १. अग्नि। २. आहुति। ३. युद्ध। लड़ाई।
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समिद्ध  : भू० कृ० [सं० सम√इन्ध (जलना)+क्त, नलोप] जलता हुआ। प्रज्वलित प्रदीप्त।
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समिद्धन  : पुं० [सं० सम√इन्ध् (जलने की लकड़ी)+ल्युट-अन] १. आग जलाने या सुलगाने की क्रिया। २. जलाने की लकड़ी। ईधन। ३. उत्तेजित या उद्दीप्त करने की क्रिया।
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समिध  : पुं० [सं० सम√इन्ध (जलना)+क्त] अग्नि। स्त्री०=समिधा।
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समिधा  : स्त्री० [सं० समिधि] १. लकड़ी, विशेषतः यज्ञकुंड में जलाने की लकड़ी। २. हवन, यज्ञ आदि की सामग्री।
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समिधि  : स्त्री०=समिधा।
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समिर  : पुं०=समीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समिर्तिजय  : पुं० [सं० समिति√जि (जीतना)+खच्-मु्म्] १. वह जिसने वाद-विवाद प्रतियोगिता, युद्ध आदि में विजय प्राप्त की हो। विजयी। २. यम। ३. विष्णु।
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समी  : वि०=सम (समान) उदाहरण—लिखमी समी रुक्मणी लाड़ी।—प्रिथीराज।
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समीक  : पुं० [सं० सम+ईकक्] युद्ध। समर। लड़ाई।
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समीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समीकृत] १. दो या अधिक राशियों, वस्तुओं आदि को समान या बराबर करने की क्रिया या भाव। २. गणित में वह क्रिया जिससे किसी ज्ञात राशि की सहायता से कोई अज्ञात राशि जानी जाती है। ३. यह सिद्ध कर दिखलाना कि अमुक-अमुक राशियाँ या मान आपस में बराबर है। (ईक्वेशन)।
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समीकार  : वि० [सं० सम-च्वि√ कृ (करना)+घञ्] जो छोटी-बड़ी, ऊँची-नीची या अच्छीबुरी चीजों को समान करता हो। बराबर करनेवाला।
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समीकृत  : भू० कृ० [सं० सम-च्वि√कृ (करना)+क्त] १. जिसका समीकरण किया गया हो। २. समान किया हुआ। बराबर किया हुआ।
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समीकृति  : स्त्री० [सं० सम+च्वि√कृ (करना)+क्तिन्]=समीकरण।
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समीक्रिया  : स्त्री०=समीकरण।
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समीक्ष  : पुं० [सं० सम√ईक्ष् (देखना)+घञ्] की समीकरण। २. समीक्षा।
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समीक्षक  : वि० [सं० समीक्ष+कन्] सम्यक् रूप से देखने या समीक्षा करनेवाला। समा-लोचक।
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समीक्षण  : पुं० [सं० सम√ईश् (देखना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समीक्षित] १. दर्शन। देखना। २. अनुसन्धान। जाँच-पड़ताल। ३. दे० ‘समीक्षा’।
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समीक्षा  : स्त्री० [सं० सम√ईक्ष् (देखना)+अ-टाप्] १. अच्छी तरह देखने की क्रिया। २. छान-बीन या जाँच-पड़ताल करने के लिए अच्छी तरह और ध्यानपूर्वक देखना। परीक्षण। (एक्ज़ैमिनिग) ३. ग्रन्थों, लेखों आदि के गुण-दोषों का विवेचन। समालोचन (रिव्यू)। ४. मीमांसा दर्शन। ५. सांख्य दर्शन में पुरुष प्रकृति, बुद्धि, अहंकार आदि तत्त्व। ६. बुद्धि। समझ। ७. कोशिश। प्रयत्न।
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समीक्षित  : भू० कृ० [सं० सम√ईक्ष् (देखना)+क्त] जिसकी समीक्षा की गई हो। जो भली-भाँति देखा गया हो।
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समीक्ष्य  : वि० [सं०] जिसकी समीक्षा हो सकती हो या होने को हो।
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समीच  : पुं० [सं० सम√इण् (गत्यादि)+चट्-दीर्घ] समुद्र। सागर।
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समीचीन  : वि० [सं० समीच+ख-ईन] [भाव० समीचीनता] १. यथार्थ। ठीक। २. उचित। वाजिब। ३. न्याय संगत।
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समीति  : स्त्री०=समिति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समीप  : वि० [सं०] निकट। पास। ‘दूर’ का विपर्याय।
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समीप  : वि० [सं० सम+छ-ईय] सम संबंधी। सम का।
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समीपता  : स्त्री० [सं० समीप+तल्-टाप्] समीप होने की अवस्था या भाव। निकटता।
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समीपवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं०] जो किसी के समीप या पास में स्थित हो। जैसा—भारत के समीपवर्ती टापुओं में सिंहल प्रधान है।
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समीपस्थ  : वि० [सं०] जो समीप में स्थित हो। पास का। समीपवर्ती।
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समीभाव  : पुं० [सं० सम+च्वि√भू (होना)+घञ्] १. सामान्य अवस्था। साधारण स्थिति। २. आचरण और जीवन संबंधी सब बातों में रखा जानेवाला समता का भाव।
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समीर  : पुं० [सं० सम√ईर् (गमनादि)+क] १. वायु। हवा। २. आधुनिक वायुविज्ञान के अनुसार भली जान पड़नेवाली वह हलकी हवा जिसकी गति प्रति घंटे १३ से १८ मील तक की हो। (मॉडरेट ब्रीज) ३. प्राण-वायु। ४. शमी वृक्ष।
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समीरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समीरित] १. चलना। २. वायु। हवा। ३. पथिक। बटोही। ४. प्रेरणा। ५. मरुआ नामका पौधा। वि० १. चलता हुआ या चलनेवाला। गतिशील। ३. उद्दीपक।
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समीरित  : भू० कृ० [सं० सम√ईर् (प्रेरित करना)+क्त] १. चलाया हुआ। २. भेजा हुआ। ३. प्रेरित। ४. उच्चरित (शब्द)।
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समीहा  : स्त्री० [सं० सम√ईह् (चेष्टा करना)+अच्-टाप्] [भू० कृ० समीहित] १. उद्योग। प्रयत्न। २. इच्छा। कामना। ३. अन्वेषण। तलाश। ४. जाँच-पड़ताल।
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समीहित  : भू० कृ० [सं०] चाहा हुआ। इच्छित।
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समुक्त  : वि० [सं० सम√वच् (कहना)+क्त, वा=व] १. जिससे कुछ कहा गया हो। सम्बोधित। २. जिसकी भर्त्सना की गई हो।
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संमुख  : वि० [सं०] १. जो किसी के सामने या किसी की ओर मुँह किये हो। २. सामने आया हुआ। उपस्थित। प्रस्तुत। अव्य० समक्ष। सामने।
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समुख  : वि० [सं० अव्य० स०] १. बहुत अधिक बोलनेवाला। २. सुवक्ता। वाग्मी।
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संमुखीन  : वि०=संमुख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुचित  : वि० [सं० सम√उच्) एक होना)+क्त] १. जो हर तरह से उचित या ठीक हो। वाजिब। २. उपयुक्त। योग्य। ३. जैसा होना चाहिए, अथवा होता आया हो, वैसा।
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समुच्चक  : वि० [सं०] १. ऊपर उठानेवाला। २. आगे की ओर ले जाने या बढ़ानेवाला।
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समुच्चय  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समुच्चित] १. कुछ वस्तुओं का एक में मिलना। (कॉम्बिनेशन)। २. समूह। राशि। ३. कुछ वस्तुओं या बातों का एक साथ एक जगह इकट्ठा होना। संयुक्ति। (क्युमुलेशन)। ४. प्राचीन भारतीय राजनीति में वह स्थिति जिसमें प्रस्तुत उपाय के सिवाय अन्य उपायों से भी कार्य सिद्ध हो सकता हो। ५. साहित्य में एक अलंकार जिसमें कई भावों के एक साथ उदित होने,कई कार्यो के एक साथ होने या कई कारणों में एक ही कार्य होने का वर्णन होता है। (कनुजंक्शन)। विशेष-इसके दो भेद कहे गये हैं। एक तो वह जिसमें आश्चर्य, हर्ष, विषाद आदि अनेक भावों का एक साथ उल्लेख होता है। दूसरा वह जिसमें एक कार्य के अनेक उपायो से सिद्धि हो सकने का वर्णन होता है।
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समुच्चय बोधक  : पुं० [सं०] व्याकरण में अव्यय का एक भेद जिसका कार्य दो वाक्यों में परस्पर संबंध स्थापित करना होता है। और किन्तु तथा परन्तु बल्कि या वरन् आदि समुच्चय बोधक है।
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समुच्चयक  : वि० [सं०] १. समुच्चय संबंधी। २. समुच्चय के रूप में होनेवाला।
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समुच्चयन  : पुं० [सं०] १. ऊपर उठाने की क्रिया या भाव। २. इकट्ठा करने या ढेर लगाने की क्रिया या भाव।
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समुच्चयार्थक  : वि० [सं०] समुच्चय या सारे वर्ग के अर्थ से संबंध रखने या वैसा अर्थ सूचित करनेवाला। (कलेक्टिव)। जैसा—भीड़ और समाज समुच्चयार्थक संज्ञाएँ है।
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समुच्चयोपमा  : पुं० [सं०] उपमा अलंकार का एक भेद जिसमें उपमेय में उपमान के अनेक गुण या धर्मों का एक साथ आरोप होता है।
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समुच्चित  : भू० कृ० [सं० सम√उत्√चिर् (ढेर लगाना)+क्त] १. जो धीरे-धीरे बढ़कर इकट्ठा और एकाकार हो गया हो। पुंजीभूत। २. संग्रहीत। (क्युमुलेटेड)।
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समुच्छिन्न  : भू० कृ० [सं०] बुरी तरह से उखड़ा, तोडा या फाड़ा हुआ।
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समुच्छेद  : पुं० [सं० सम-उत्√छिद्र) (नष्ट करना)+ल्युट-अन] १. जड़ से उखाड़ना। २. नष्ट करना।
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समुच्छेदन  : पुं० [सं० सम-उत्√ज्वल् (चमकना)+अच्] खूब उज्जवल। चमकता हुआ।
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समुच्य  : वि० [सं० सम√उत्√चि (चयन करनेवाला)+ड] बहुत ऊँचा। वि०=समूचा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुज्झित  : वि० [सं० सम√उज्झ् (त्यागना)+क्त] १. त्यागा हुआ। परित्यक्त। २. मिला हुआ। युक्त।
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समुझ  : स्त्री०=समझ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समुझना  : अ०=समझना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समुत्थ  : वि० [सं० सम-उत्√स्था (ठहरना)+क, स=थ, लोप] १. उठा हुआ। २. उत्पन्न। जात।
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समुत्थान  : पुं० [सं० सम-उद्√स्था (ठहरना)+ल्युट-अन] १. ऊपर उठाने की क्रिया। २. उन्नति। ३. उत्पत्ति। ४. आरंभ। ५. रोग का निदान। ६. रोग का शमन या शान्ति।
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समुत्थित  : भू० कृ० [सं० सम-उद्√स्था (ठहरना)+क्त] १. अच्छी तरह उठा हुआ। २. जो प्रकट हुआ हो। ३. उद्भूत। उत्पन्न। ४. घिरा हुआ। (बादल)। ५. प्रस्तुत। ६. जो आरोग्य लाभ कर चुका हो। ७. फूला हुआ। ८. किसी के मुकाबले में उठा हुआ।
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समुत्पन्न  : वि० [सं० सम-उत√पद् (गत्यादि)+क्त=न]=उत्पन्न।
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समुत्सुक  : वि० [सं० सम-उत्√सुच् (शोक करना)+अच्, कर्म० स०] विशेष रूप से उत्सुक। उत्कंठित।
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समुंद  : पुं० १. =समुद्र। २. समंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समुद  : वि० [सं०] मोद या प्रसन्नता से युक्त। अव्य० मोद या प्रसन्नतापूर्वक। पुं०=समुद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुदगा  : स्त्री० [सं०] १. नदी जो समुद्र की ओर गमन करती है। २. गंगा नदी।
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समुदय  : पुं० [सं० समुदयः] [भू० कृ० समुदित] १. ऊपर उठना या चढ़ना। २. ग्रह, नक्षत्र आदि का उदित होना। उदय। ३. शुभ लग्न। साइत। ४. ढेर। राशि। झुंड। समुदाय। ५. कोशिश। प्रयत्न। ६. युद्ध। समर। ७. राज-कर। वि० समस्त। सब। सारा।
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समुंदर  : पुं०=समुद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुंदर-पात  : पुं०=समुंदर-सोख।
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समुंदर-फल  : पुं० [सं० समुद्र-फल] एक प्रकार का बहुत बड़ा सदाबहार वृक्ष जो नदियों और समुद्रों के किनारे और तर भूमि में बहुत अधिकता से पाया जाता है।
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समुदंर-फेन  : पुं०=समुद्र फेन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुंदर-फेन  : पुं० [हि] समुद्र की लहरों पर की झाग जो सुखाकर ओषधि के रूप में काम लाई जाती है।
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समुंदर-सोख  : पुं० [हि० समुदर सोखना] एक प्रकार का पौधा जिसके बीज वैद्यक में दवा के काम आते हैं। इसके डंठल बहुत चमकीले और मजबूत होते हैं। समुंदर पात।
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समुदाचार  : पुं० [सं० सम-उद्-आ√चर् (चलना)+घञ्] १. भलमनसाहत का व्यवहार। शिष्टाचार। २. नमस्कार। ३. प्रणाम। ४. अभिप्राय। आशय। मतलब।
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समुदाय  : पुं० [सं० सम-उद्√अय (गत्यादि)+घञ्] [वि० सामुदायिक] १. बहुत से लोगों का समूह। २. झुंड। दल। ३. ढेर। राशि। ४. उदय। ५. उन्नति। ६. सेना का पिछला भाग। ७. किसी वर्ग जाति के लोगों द्वारा बनाई हुई ऐसीसस्था जिसका मुख्य उद्देश्य सामान्य हितों की रक्षा होता है (एसोसियेशन)।
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समुदाव  : पुं०=समुदाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुदित  : भू० कृ० [सं० सम-उद्√इण् (गत्यादि)+क्त] १. जिसका समुदाय हुआ हो। २. उदित। उठा हुआ। ३. उन्नत। जात।
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समुद्गत  : भू० कृ० [सं० सम-उद√गम् (जाना)+क्त] १. जो ऊपर उठा हो। उदित। २. उत्पन्न। जात।
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समुद्गार  : पुं० [सं० कर्म० स०] बहुत अधिक वमन होना। ज्यादा कै होना।
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समुद्धरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समुद्धृत] १. ऊपर उठाना। २. उद्धार। ३. वह अन्न जो वमन करने पर पेट से निकला हो। ४. दूर करना। हटाना।
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समुद्धर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० सम√उद्√हृ (हरण करना)+तृच्] १. ऊपर की ओर उठाने या निकालनेवाला। २. उद्धार करनेवाला। ३. ऋण चुकानेवाला।
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समुद्धार  : पुं०=समुद्घरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुद्भव  : पुं० [सं०] १. उत्पत्ति। जन्म। २. पुनरुज्जीवन। ३. उपनयन के समय, हवन के लिए जलाई हुई आग।
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समुद्भूति  : स्त्री० [सं० सम-उद्√भू (होना)√क्तिन्] [वि० समुद्भूत]=समुद्भव।
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समुद्यत  : वि० [सं० सम+उद्√यम् (शान्त होना)+क्त] जो पूर्ण रूप से उद्यत हो। अच्छी तरह से तैयार।
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समुद्यम  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. उद्यम। चेष्टा। २. आरंभ। शुरू।
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समुद्र  : वि० [सं०] १. वह विशाल जल-राशि जो इस पृथ्वी तल के प्रायः तीन चौथाई हिस्से में व्याप्त है। सागर। अंबुधि। जलधि। रत्नाकर। २. लाक्षणिक अर्थ में बहुत बड़ा आगार या आश्रय। जैसा—विद्यासागर, शब्द-सागर आदि। ३. एक प्राचीन जाति।
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समुद्र-कंप  : पुं० [सं०] समुद्र के किसी भाग में सहसा उत्पन्न होनेवाला वह कंप जो आस-पास के स्थलों में भू-कंप होने अथवा भूगर्भ में प्राकृतिक विस्फोट होने के कारण उत्पन्न होता है। (सी-क्वेक)।
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समुद्र-कफ  : पुं० [सं०] समुद्र फेन।
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समुद्र-कांची  : स्त्री० [सं० ब० स०] पृथ्वी जिसकी मेखला समुद्र है।
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समुद्र-कांता  : स्त्री० [सं०] नदी जिसका पति समुद्र माना जाता है। समुद्र की स्त्री अर्थात् नदी।
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समुद्र-चुलुक  : पुं० [सं०] अगत्स्य मुनि जिन्होंने चुल्लुओं से समुद्र पी डाला था।
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समुद्र-झाग  : पुं०=समुंदर फेन।
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समुद्र-तारा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की समुद्री मछली जिसका आकार तारे की तरह का होता है। (स्टार फ़िश)।
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समुद्र-नवनीत  : पुं० [सं०] १. अमृत। २. चन्द्रमा।
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समुद्र-पत्नी  : स्त्री० [सं०] नदी। दरिया।
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समुद्र-फेन  : पुं०=समुद्रर-फेन।
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समुद्र-मंडूकी  : स्त्री० [सं०] सीपी। सीप।
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समुद्र-मंथन  : पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा जिसमें देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र मथा था। इस मंथन के फलस्वरूप उन्हें लक्ष्मी, मणि, रंभा, वारुणी, अमृत, शंख, ऐरावत, हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, कामधेनु, धन, धनवंतरि, विष, और अश्व ये चौदह पदार्थ मिले थे। २. कुछ ढूँढ़ने के लिए अधिक की जानेवाली छान-बीन।
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समुद्र-मालिनी  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी जो समुद्र को अपने चारों ओर माला की भाँति धारण किये हुए है।
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समुद्र-मेखला  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी जो समुद्र को मेखला के समान धारण किये हुए है।
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समुद्र-यात्रा  : स्त्री० [सं०] समुद्र के द्वारा दूसरे देशों की होनेवाली यात्रा (सी वॉयेज)।
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समुद्र-यान  : पुं० [सं०] १. समुद्र के मार्ग से होनेवाली यात्रा। २. समुद्र के तल पर चलनेवाली सवारी। समुद्री जहाज।
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समुद्र-रसना  : स्त्री० [सं० ब० स०] पृथ्वी।
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समुद्र-लवण  : पुं० [सं०] करकच नाम का मक जो समुद्र के जल से तैयार किया जाता है।
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समुद्र-लहरी  : पुं० [सं०+हि] समुद्र के रंग की तरह का हरा रंग। (सी ग्रीन)। वि० उक्त रंग के रंग का।
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समुद्र-वसना  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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समुद्र-वह्नि  : पुं० [सं०] बड़वानल।
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समुद्र-वासी (सिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० समुद्र-वासिनी] १. जो समुद्र में रहता हो। २. जो समुद्र के किनारे रहता हो।
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समुद्र-वृष्टि-न्याय  : पुं० [सं०] कहावत की तरह प्रयुक्त होनेवाला एक प्रकार का न्याय जिसका प्रयोग यह जानने के लिए होता है कि अमुक काम या बात भी उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे समुद्र के ऊपर वृष्टि होना।
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समुद्र-सार  : पुं० [सं०] मोती।
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समुद्र-स्थली  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक प्राचीन तीर्थ जो समुद्र के तट पर था।
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समुद्रगुप्त  : पुं० [सं०] मगध के गुप्त राजवंश के एक बहुत प्रसिद्ध और वीर सम्राट जिनका समय सन् ३३५ से ३७५ तक माना जाता है। इनकी राजधानी पाटिलपुत्र में थी।
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समुद्रज  : वि० [सं०] समुद्र से उत्पन्न। समुद्र जात। पुं० मोती, हीरा आदि रत्न जिनकी उत्पत्ति समुद्र से होती या मानी जाती है।
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संमुद्रण  : पुं० [सं०] बहुत बढ़िया छपाई करना।
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समुद्रनेमि  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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समुद्रांबरा  : स्त्री [सं० ब० स०] पृथ्वी।
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समुद्राभिसारिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह कल्पित देवबाला जो समुद्र देव की सहचरी मानी जाती है।
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समुद्रारु  : पुं० [सं० समुद्र√ऋ (गमनादि)+उण्] १. कुंभीर नामक जल-जंतु। २. तिमिंगल नामक जल जंतु। ३. समुद्र के किसी अंश पर बना हुआ पुल।
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समुद्रावरण  : स्त्री० [सं० ब० स०] पृथ्वी।
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समुद्रिय  : वि० [सं० समुद्र+घ-इय] १. समुद्र संबंधी। समुद्र का। २. समुद्र से उत्पन्न। ३. समुद्र में या उसके तट पर रहने या होने वाला। ४. नौ-सैनिक। (नैवेल)।
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समुद्री  : वि०=समुद्रिय।
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समुद्री-गाय  : स्त्री० [हि०] नीले रंग का एक प्रकार का समुद्री पशु जो प्रायः गौ के आकार का होता है। इसका मांस खाया जाता है और चरबी अच्छे दामों पर बिकती है।
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समुद्री-डाकू  : पुं० [हिं०] वह जो समुद्र में चलनेवाले जहाजों आदि पर डाके डालता हो। जल-दस्यु (पाइरेट)।
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समुद्री-तार  : पुं० [सं० कर्म० स०] समुद्र में पानी के भीतर से जानेवाला तार। (केबिल)।
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समुद्वह  : वि० [सं० सम-उद्√वह् (ढोना)+अच्] १. श्रेष्ठ। उत्तम। बढ़िया। २. ढोने या वहन करनेवाला।
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समुद्वाह  : पुं० [सं० सम-उद्√वह् (ढोना)+घञ्] विवाह।
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समुन्नत  : वि० [सं० सम-उत्√नम् (झुकना)+क्त] [भाव० समुन्नति] १. जिसकी यथेष्ट उन्नति हुई हो। खूब बढ़ा-चढ़ा। २. बहुत ऊँचा। पुं० वास्तु शास्त्र में एक प्रकार का खंभा आ स्तंभ।
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समुन्नद्ध  : वि० [सं० सम-उत√नह् (बाँधना)+क्त] १. जो अपने आपको पंडित समझता हो। २. अभिमानी। घमंडी। ३. उत्पनन। जात। पुं० प्रभु। मालिक। स्वामी।
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समुन्नयन  : पुं० [सं०] [भाव० समुन्नति] १. ऊपर की ओर उठाने या ले जाने की क्रिया। २. प्राप्ति। लाभ।
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समुपकरण  : पुं० [सं० सम-उप√कृ (करना)+ल्युट-अन] १. उपकरण। २. सामग्री।
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समुपवेशन  : पुं० [सं० सम-उप√विश् (प्रवेश करना)+ल्युट-अन] १. अच्छी तरह बैठने की क्रिया। २. अभ्यर्थना।
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समुपस्थान  : पुं० [सं० सम-उप√स्था (ठहरना)+ल्युट-अन] सामने आकर उपस्थित होना
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समुपस्थित  : वि० [सं० सम-उप√स्था (ठहरना)+क्त] [भाव० समुपस्थिति] १. सामने आया हुआ। उपस्थित। २. प्रकट।
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समुपस्थिति  : स्त्री० [सं० सम्-उप√स्था (ठहरना)+क्तिन्] समुपस्थान।
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समुपेत  : वि० [सं० सम-उप√इण् (गत्यादि)+क्त] १. पास आना या पहुँचा हुआ। २. एकत्र किया हुआ। ३. ढेर के रूप में लगाया हुआ। ४. बसा हुआ। आबाद।
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समुल्लास  : पुं० [सं० सम-उत्√लस् (क्रीड़ा करना)+घञ्] [भू० कृ० समुल्लसित] १. उल्लास। आनन्द। प्रसन्नता। खुशी। २. ग्रन्थ आदि का परिच्छेद या प्रकरण।
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समुहा  : वि० [सं० सम्मुख] १. सामने का। २. सामने की दिशा में स्थित। अव्य० १. सामने। २. सीधे।
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समुहाना  : अ० [हि० समुहा] सामने आना या होना। स० सामने करना या लाना। उदाहरण—सबही तन समुहानि छिन चलति सबनि पै दीठ।—बिहारी।
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समुहै  : अव्य०=सामुहै (सामने)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समूचा  : वि० [सं० समुच्चय] आदि से अन्त तक जितना हो, वह सब। जिसके खंड या विभाग न किये गये हों। कुल। पूरा। सब।
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समूढ़  : वि० [सं० सम्√वहृ (ढोना)+क्त, ह=दृढ़त=थ=ढ,-व=ड] १. ढेर के रूप में उगाया हुआ। २. इकट्ठा किया हुआ। संगृहीत। ३. पकड़ा हुआ। ४. भोगा हुआ। भुक्त। ५. विवाहित। ६. जो अभी उत्पन्न हुआ हो। सद्यः जात। ७. जो मेल में ठीक बैठता हो। संगत। पुं० १. ढेर। समूह। २. आगार। भंडार।
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समूर  : पुं० [फा० समूरु से] शंबर या साँबर नामक हिरन।
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समूल  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जिसमें मूल या जड़ हो। २. जिसका कोई मुख्य कारण या हेतु हो। क्रि० वि० जड़ या मूल से। जैसा—किसी का समूल नाश करना।
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समूह  : पुं० [सं०] १. एक स्थान पर एक ही तरह की संख्या में अत्यधिक वस्तुओं की स्थिति। जैसा—पक्षियों या पशुओं का समूह। ३. बहुत से व्यक्तियों का जमघट। समुदाय।
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समूहतः  : क्रि० वि० [सं०] समूह के रूप में। सामूहिक रूप से। (एन ब्लॉक) जैसा—सुधार-वादियों ने समूहतः त्याग-पत्र दे दिया।
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समूहना  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समूहित] १. कई चीजों को एक में मिलाकर उन्हें समूह का रूप देना। २. राशि। ढेर। ३. दे० ‘संश्लेषण’ (भाषा-विज्ञान)।
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समूहनी  : स्त्री० [सं० समूहन-ङीष्] झाड़ू। बुहारी।
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समूहित  : भू० कृ० [सं०] समूह के रूप में रखा या लाया हुआ।
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समूहीकरण  : पुं० [सं० समूह+करण] वस्तुओं के ढेर या समूह बनाने की क्रिया या भाव।
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समृति  : स्त्री०=स्मृति।
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समृद्ध  : वि० [सं० सम√ऋध् (वृद्धि करना)+क्त] [भाव० समृद्धि] १. जिसके पास बहुत अधिक संपत्ति हो। संपन्न। धनवान्। समृद्धिशाली। २. कृता्र्थ। सफल। ३. सशक्त। ४. अधिक। बहुत। ५. प्रभावशील।
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समृद्धि  : स्त्री० [सं०] १. समृद्ध होने की अवस्था या भाव। २. बहुत अधिक संपन्नता। ऐश्वर्य। अमीरी। ३. कृतकार्यता। सफलता। ४. अधिकता। बहुलता। ५. शक्ति। ६. प्रभावकारक। प्रधानता।
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समृद्धी (द्विन्)  : वि० [सं० समृद्धि+इनि] जो बराबर अपनी समृद्धि करता रहता हो। स्त्री०=समृद्धि।
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समृष्ट  : भू० कृ० [सं०] झाड़-पोंछ की अच्छी तरह साफ किया हुआ।
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समेकन  : पुं० [सं० सम+एकन्] [वि० समेकनीय, भू० कृ० समेकित] १. जो या अधिक वस्तुओं आदि का आपस में मिलकर पूर्णतः एक हो जाना। ३. रसायन-शास्त्र में दो या अधिक पदार्थों का गलकर या और किसी रूप में एक हो जाना (फ्यूजन)।
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समेकनीय  : वि० [सं०] जिसका समेकन हो सके। जो दूसरों में पूर्णतः मिलकर उसके साथ एक हो सके। (फ्यूज़िबुल)
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समेकनीय  : वि० [सं०] जिसका समेकन हो सके। जो दूसरों में पूर्णतः मिलकर उसके साथ एक हो सके (फ्यूज़िबुल)।
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समेकित  : भू० कृ० [सं०] जिसका समेकन किया गया हो या अथवा हुआ हो (फ़्यूज्ड)।
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समेट  : स्त्री० [हि० समेटना] १. समेटने की क्रिया या भाव। २. समेटी हुई वस्तु।
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समेटना  : स० [हि० सिमटना] १. बिखरी हुई चीजों को इकट्ठा करना। २. ग्रहण या धारण करना। जैसा—किसी का सब्र समेटना।
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समेत  : वि० [सं०] १. किसी के साथ मिला या लगा हुआ। संयुक्त। ३. पास आया हुआ। अव्य० सहित। साथ।
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समेध  : पुं० [सं० सम√एध् (वृद्धि करना)+अच्] पुराणानुसार मेरु के अंतर्गत एक पर्वत।
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संमेलन  : पुं० [सं० सं√यम् (संयम करना)+ल्युट्-अक]=सम्मेलन।
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समै, समैया  : पुं०=समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समो  : पुं०=समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समोखना  : स० [?] जोर देकर या ताकीद से कहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समोच्च रेखा  : स्त्री० दे० ‘रूप-धेय’।
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समोदक  : वि० [सं० ब० स० सम+उदक] जिसमें आधा पानी हो। पुं० १. घोल। २. मठा।
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समोना  : स० [सं० समन्वय] १. कोई चीज अच्छी तरह किसी दूसरी चीज में भरना या मिलाना। समाविष्ट या सम्मिलित करना। जैसा—इतना बड़ा कथानक छोटी सी कहानी में समो दिया है। २. इकट्ठा या संगृहीत करना। ३. प्रस्तुत करना। बनाना। अ० १. निमग्न होना। डूबना। २. मग्न या लीन होना। उदाहरण—यों ही वृच्छ गये तें अब लौं राजस रंग समोये।—नागरीदास।
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समोसा  : पुं० [?] १. मैदे का बना हुआ तथा घी में तला हुआ नमकीन पकवान जिसके अन्दर आलू आदि भरे जाते हैं। २. उक्त प्रकार का बना हुआ कोई पकवान। जैसा—मलाई का समोसा।
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समोह  : पुं० [सं०] समर। युद्ध।
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समौ  : पुं०=समय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समौरिया  : वि० [सं० सम+हि० उमर-इया (प्रत्यय)] किसी की तुलना में समान वय वाला। समवयस्क।
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सम्मढ़  : वि० [सं० सम√मुह् (मुग्ध होना)+क्त] १. मोह में पड़ा हुआ। २. मूढ़। मूर्ख। ३. अनजान। अबोध। ४. टूटा हुआ। ५. ढेर के रूप में लगा हुआ।
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सम्मत  : वि० [सं० सम√मन् (मानना)+क्त] १. जिसकी राय किसी की बात से मिलती हो। २. जो किसी बात पर राजी या सहमत हो। पुं० १. सम्मत्ति। राय। २. अनुमति।
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सम्मति  : स्त्री० [सं०] [वि० सम्मत] १. सलाह। राय। २. अनुज्ञा। अनुमति। ३. किसी विषय में प्रकट किया जानेवाला मत या विचार। राय (ओपीनियन)। ४. किसी विषय में कुछ लोगों का एकमत होना। सहमति। (एग्रीमेन्ट) ५. किसी के प्रस्ताव या विचार को ठीक और उचित मानकर उसके निर्वाह के लिए दी जानेवाली अनुमति। सहमति। (कन्सेन्ट)। ६. प्रतिष्ठा। ७. इच्छा। कामना। ८. आत्म-ज्ञान।
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सम्मद  : वि० [सं० सम√मद् (हर्षित होना)+अप्] आनंदित। प्रसन्न पुं० १. आमोद। प्रसन्नता। २. एक प्रकार की बहुत बड़ी मछली।
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सम्मन  : पुं० [अं० समन] न्यायालय द्वारा प्रेषित वह पत्र जिसमें किसी को न्यायालय में उपस्थित होने का आदेश दिया जाता है।
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सम्मर्द  : पुं० [सं० सम√मृद् (मर्दन करना)+घञ्] १. युद्ध। लड़ाई। २. जन-समूह। भीड़। ३. वाद-विवाद। ४. लड़ाई-झगड़ा।
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सम्मर्दन  : पुं० [सं० सम√मृद् (मर्दन करना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० सम्मर्दित] अच्छी तरह किया जानेवाला मर्दन।
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सम्मर्दी (र्दिन्)  : वि० [सं० सम√मृद् (मर्दन करना)+णिनि] अच्छी तरह मर्दन करनेवाला।
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सम्मातृ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी माता पतिव्रता हो। सती माता वाला।
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सम्माद  : पुं० [सं० सम√मद् (उन्मत्त होना)+घञ्] १. उन्माद। पागलपन। २. नशा।
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सम्मान  : पुं० [सं० सम√मान् (मान करना)+अच्] १. किसी के प्रति मन में होनेवाला आदरपूर्ण भाव। २. वे सब बातें जिनके द्वारा किसी के प्रति पूज्य भाव प्रकट या प्रदर्शित किया जाता है। वि० मान या प्रतिष्ठा से युक्त। अव्य० मान या प्रतिष्ठापूर्वक।
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सम्मानन  : पुं० [सं० सम√मान् (आदर करना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० सम्मानित] १. सम्मान या आदर करना। २. बतलाना या सिखलाना।
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सम्मानना  : स० [सं० सम्मान] सम्मान करना। आदर करना। स्त्री० [सं०] सम्मान।
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सम्मानित  : भू० कृ० [सं० सम√मान् (सम्मानित होना)+क्त] १. जिसका सम्मान किया गया हो। २. जिसे सम्मानपूर्वक लोग देखते हों।
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सम्मानी (निन्)  : वि० [सं० सम्√मान् (आदर करना)+णिनि] जिसमें सम्मान का भाव हो।
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सम्मान्य  : वि० [सं० सम√मान (आदर करना)+यत्] जिसका सम्मान किया जाना आवश्यक और उचित हो। आदरणीय।
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सम्मार्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. अच्छा मार्ग। सत् मार्ग। २. ऐसा मार्ग जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो।
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सम्मार्जक  : वि० [सं० सम्√मृज् (युद्ध करना)+ण्वुल-अक] सम्मार्जन करनेवाला। पुं० झाड़।
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सम्मार्जन  : पुं० [सं० सम√मृज् (युद्ध करना)+विच्, ल्युट-अन] [भू० कृ० सम्मार्जित] १. झाड़ना-बुहारना। २. साफ करना। ३. स्नानादि (मूर्ति का) ४. स्रुवा के साथ काम आनेवाला कुश या मुट्ठा। ५. झाड़ू।
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सम्मार्जनी  : स्त्री० [सं० सम्मार्जन-ङीष्] झाड़ू। बुहारी। कूँचा।
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सम्मित  : भू० कृ० [सं० सम्√मा (सदृश करना)+क्त] १. मापा हुआ। २. समान। सदृश। ३. जिसके अंगो में आनुपातिक एकरूपता तथा सामंजस्य हो। (सिमेट्रकिल)।
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सम्मिति  : स्त्री० [सं० सम्√मा (ऊंची कामना)+क्तिन्] १. तुल्य या समान करना। २. तुलना करना।
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सम्मिलन  : पुं० [सं० सम√मिल् (मिलना)+ल्युट—अन] १. मेल-मिलाप। २. जो विभिन्न इकाइयों का मिलकर एक होना। जैसा—भारत में गोवा का सम्मिलन। ३. सम्मेलन। (दे०)।
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सम्मिलनी  : स्त्री०=सम्मेलन। उदाहरण—सम्मिलनी का बिगुल बजा।—अज्ञेय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्मिलित  : भू० कृ० [सं० सम√मिल् (मिलना)+क्त] १. किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ। २. जो मिल-जुल कर किया गया हो। सामूहिक। जैसा—सम्मिलित प्रयास से ही यह संभव हुआ है।
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सम्मिश्र  : वि० [सं० सम√मिश्र् (मिलाना)+अच्] एक में या साथ साथ मिलाया हुआ।
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सम्मिश्रक  : पुं० [सं०] १. वह जो किसी प्रकार का सम्मिश्रण करता हो। २. वह व्यक्ति जो ओषधियों, विशेषतः विलायती ओषधियों आदि के मिश्रण प्रस्तुत करता हो। (कम्पाउंडर)
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सम्मिश्रण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सम्मिश्रित, कर्ता, सम्मिश्रक] १. अच्छी तरह मिलाने की क्रिया। २. मेल। मिलावट। ३. औषध तैयार करने के लिए कई प्रकार की ओषधियाँ एक में मिलाना। (कम्पाउंडिंग)।
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सम्मीलन  : पुं० [सं० सम√मिल् (संकुचित होना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० सम्मिलित] १. पुष्पादि का संकुचित होना। मुँदना। २. ढका जाना। ३. चन्द्रमा या सूर्य का पूर्णग्रहण। खग्रास।
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सम्मुख  : अव्य० [सं० ब० स०] १. सामने। समक्ष। आगे। २. बिलकुल सीधे।
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सम्मुखी  : वि० [सं० सम्मुख+इनि] जो सम्मुख या सामने हो। सामने का। पुं० दर्पण। आइना।
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सम्मुखीन  : वि० [सं० सम्मुख+ईन] जो सम्मुख हो। सामने का।
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सम्मूढ़-पीड़िका  : स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का शुक्र रोग जिसमें लिंग टेढ़ा हो जाता है और उस पर फुंसियाँ निकल आती है।
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सम्मूर्च्छन  : पुं० [सं० सम√मूर्च्छा (मुग्ध होना आदि)+ल्युट—अन] [भू० कृ० सम्मूर्च्छित] १. भली-भाँति व्याप्त होने की क्रिया। अभिव्याप्ति। २. मूर्च्छा। बेहोशी। ३. बढती। वृद्धि। ४. फैलाव। विस्तार।
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सम्मृष्ट  : भू० कृ० [सं० सम√मृज् (शुद्ध होना)+क्त] १. अच्छी तरह साफ किया हुआ। २. छाना हुआ।
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सम्मेलन  : पुं० [सं०] १. मनुष्यों का किसी विशेष उद्देश्य से अथवा किसी विशेष विषय पर विचार करने के लिए एकत्र होनेवाला। समाज। (कॉन्फ्रेंस) २. जमावड़ा। जमघट। ३. मिलाप। संगम। ४. कोई बहुत बड़ी संस्था। जैसे—हिन्दी साहित्य सम्मेलन।
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सम्मोद  : पुं० [सं० सम√मुद् (हर्षित होना)+घञ्] १. प्रीति। प्रेम। २. मोद। हर्ष।
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सम्मोह  : पुं० [सं० सम√मुह् (मोहित करना)+घञ्] १. मोह। २. प्रेम। ३. भ्रम। धोखा। ४. सन्देह। ५. मूर्च्छा। बेहोशी। ६. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण और एक गुरु होता है।
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सम्मोहक  : वि० [सं० सम√मुह् (मुग्ध होना)+णिच्-ण्वुल्-अक] १. सम्मोहन करनेवाला। सम्मोहन शक्ति से युक्त। २. मनोहर। सुन्दर। पुं० सन्निपात ज्वर का एक भेद।
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सम्मोहन  : पुं० [सं०] १. इस प्रकार किसी को मुग्ध करना कि इसमें हिलने-डुलने करने-धरने तथा सोचने-विचारने की शक्ति न रह जाय। २. वह गुण, या शक्ति जिसके द्वारा किसी को उक्त प्रकार से मुग्ध किया जाता है। ३. शत्रु को मुग्ध करने का एक प्राचीन अस्त्र। ४. कामदेव का एक बाण। वि० सम्मोहक।
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सम्मोहनी  : स्त्री० [सं० सम्मोहन-ङीप्] १. लोगों को मोह में डालने या मुग्ध करनेवाली एक तरह की माया। २. लाक्षणिक अर्थ में वह शक्ति जो मनुष्य को असमर्थ बनाकर भुलावे में डाल देती है।
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सम्मोहित  : भू० कृ० [सं० सम-मुह् (मुग्ध करना)+णिच्-क्त] १. सम्मोहन के द्वारा जो मुग्ध मोहित या वशीभूत किया गया हो। २. बेहोश किया हुआ।
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सम्म्राज  : पुं०=साम्राज्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्यक्  : पुं० [सं०] समुदाय। समूह। वि० १. पूरा। सब। समस्त। २. उचित। उपयुक्त। ३. ठीक। सही। ४. मनोनुकूल। क्रि० वि० १. पूरी तरह से। २. सब प्रकार से। ३. अच्छी तरह। भली-भाँति।
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सम्यक्-चरित्र  : पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार धर्मत्रय में से एक धर्म। बहुत ही धर्म का तथा शुद्धतापूर्वक आचरण करना।
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सम्यक्-ज्ञान  : पुं० [सं०] उचित ज्ञान। पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार धर्मत्रय में से एक। रत्नत्रय, सातों, तत्त्वों, आस्था आदि में पूरी पूरी श्रद्धा होना।
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सम्यक्-संबद्ध  : वि० [सं०] वह जिसे सब बातों का पूरा और ठीक ज्ञान प्राप्त हो गया हो। पुं० गौतम बुद्ध का एक नाम।
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सम्यक्-समाधि  : स्त्री० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक प्रकार की समाधि
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सम्याना  : पुं०=शामियाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्रथ  : वि०=समर्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्राजना  : अ० [सं० सम्राज] अच्छी तरह प्रतिष्ठित, स्थापित या विराजमान होना। उदाहरण-नाम प्रताप शम्भु सम्राजै।—निराला।
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सम्राजी  : स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जो किसी साम्राज्य की स्वामिनी हो। २. सम्राट की पत्नी।
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सम्राट  : पुं० [सं०] साम्राज्य का स्वामी। विशेष—प्राचीन भारत में यह पद उसी बड़े राजा को प्राप्त होता था जो राजसूय यज्ञ कर चुका होता था।
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सम्रिति  : स्त्री०=स्मृति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्हलना  : अ०=सँभलना।
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सयण  : पुं० [सं० सज्जन]=साजन (प्रियतम) (राज०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संयत  : वि० [सं०] १. बँधा या जकड़ा हुआ। बद्ध। २. दबाया या रोका हुआ। ३. कैद या बन्द किया हुआ। ४. किसी प्रकार की मर्यादा या सीमा के अंदर रहने वाला। मर्यादित। (मॉडरेट) ५. क्रम, नियम आदि से व्यवस्थित किया हु्आ। ६. उद्धत। सन्नद्ध। ७. इन्द्रिय-निगृही। ८. सीमा के अंदर रखा हुआ। पुं० १. शिव। २. योगी।
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संयत-प्राण  : वि० [सं०] जिसमें प्राणायाम के द्वारा प्राणवायु या श्वास को वश में किया हो।
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संयंता  : वि० [सं० सम्√यम् (संयम करना)+तृच्, अक] १. संयम करने वाला। निग्रही। २. शासक।
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संयतात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें मन को वश में किया हो। चित्तवृत्ति का विरोध करने वाला।
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संयति  : स्त्री० [सं० सम्√यम् (रोकना)+क्तिन-नलोप] १. संयत रहने या होने की अवस्था या भाव। २. निरोध। रोक।
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संयत्  : वि० [सं० सम्√यत्न (पद्य करना)+क्विप्-यम्+क्विप-तुक वा] १. संबद्ध। लगा हुआ। २. जिसका क्रम न टूटे। लगातार होनेवाला। पुं० १. नियत स्थान। २. करार। वादा। ३. लड़ाई-झगड़ा। ४. एक प्रकार की पुरानी चाल की ईट जो वेदी बनाने के काम आती थी।
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संयंत्रित  : भू० कृ० [सं० संयंत्र+इतच्] १. बँधा या जकड़ा हुआ। बद्ध। २. दबाया या रोका हुआ। ३. बन्द।
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संयद्वसु  : पुं० [सं०] सूर्य की सात किरणों में से एक। वि० धनवान। सम्पन्न।
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सयन  : पुं० [सं०] बंधन। पुं०=शयन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संयम  : पुं० [सं० सम्√यम् (संयम करना)+घञ्] [कर्ता, संयमी, भू० कृ० संयमित, वि० संयत] १. दबा या रोककर रखने की क्रिया य़ा भाव। वश में रखना। २. धार्मिक तथा नैतिक दृष्टि से मन को विषय-वासनाओं को अनुचित, बुरे या हानि कारक मार्गों में प्रवृत्त होने से रोकना। चित्त की अनुचित वृत्तियों का निरोध। इंद्रिय-निग्रह। ३. शरीर-रक्षा अथवा स्वास्थ की दृष्टि से हानि कारक कार्यों या बातों से बचते हुए अलग या दूर रहना। परहेज। ४. व्यावहारिक दृष्टि से अपने आपको अनौचित्य की सीमा से बचाना। अनुचित कामों या बातों से अपने आप को रोकना। (मॉडरेशन) ५. क्रोध आदि में न आना। शांत बने रहना। ६. अच्छी तरह व्यवस्थित रूप से बन्द करना या बाँधना। जैसे—केश-संयम। ७. खुला न रहने देना। मूँदना। ८. बंधन। ९. योग में, ध्यान, धारण, और समाधि का साधन। १॰. उद्योग। प्रयत्न। ११. प्रलय।
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संयमक  : वि० [सं० सम्√यम् (रोकना)+ण्वुल—अक या संयम+कन्] संयम करने वाला।
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संयमन  : पुं० [सं० सम्√म् (रोकना)+ल्युट्-अन्] १. संयम करने की क्रिया या भाव। २. अनुचित या बुरी बातों से मन को रोकना। निग्रह। ३. दमन। ४. आत्म-निग्रह। ५. बंधन या रुकावट में रहना। ६. अच्छी तरह बाँधना। जकड़ना। ७. अपनीं ओर खींचना या तानना। ७. यम की पुरी संयमिनी।
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संयमनी  : स्त्री०=संयमिनी।
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संयमित  : भू० कृ० [सं० सम्√यम् (रोकना)+णिच्-क्त संयम इतच्—वा्] १. जिसके विषय या संबंध में संयम किया गया हो। २. रोक कर वश में किया या लाया हुआ। किसी का दमन किया गया हो अथवा हुआ हो। ४. कसा या बाँधा हुआ। ५. अच्छी तरह पकड़ा हुआ। वि० इंद्रियों का संयम करने वाला। इंद्रिय-निग्रही।
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संयमिता  : स्त्री० [सं०√यम् (रोकना आदि)+णिच्-तृच्] संयम करने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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संयमिनी  : स्त्री० [सं० संयम+इनि-ङीप्] १. यमराज की नगरी। यमपुरी जो मेरु पर्वत पर स्थित कही गई है। २. काशीपुरी।
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संयमी (मिन्)  : वि० [सं० संयमिन्-दीर्घ, नलोप] १. संयम करने वाला २. संयम पूर्वक जीवन बिताने वाला। संयम से रहने वाला। आत्म-निग्रही। पं० १. योगी। २. राजा। ३. शासक।
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सयल  : वि० [सं० सकल] सब। उदाहरण—सावलष्ष उत्तर सयल, कमऊँ गढ़ दूरंग।—चंदबरदायी। स्त्री०=सैर। पुं०=शैल।
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संयात  : वि० [सं० सम्√या (गमनादि)+क्त] १. साथ चलने या जाने वाला। २. साथ लगा हुआ। ३. आया या पहुँचा हुआ। प्राप्त।
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संयात्रा  : स्त्री० [सं०] १. यात्रा में किसी की साथ होना। साथ-साथ यात्रा करना। २. ऐसी यात्रा जिसमें समुद्र पार करना पड़े।
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संयान  : पुं० [सं० सम्√या (गमनादि)+ल्युट्-अन] [वि० संयात, संयायी] १. किसी के साथ चलना या जाना। सह-गमन। २. यात्रा। पद-उत्तम मंयान=मृत शरीर को अंत्येष्टि क्रिया के लिए ले जाना। ३. प्रस्थान। रवानगी। ४. गाड़ी। याना।
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सयान  : वि०=सयाना। पुं०=सयानपन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सयानप  : स्त्री०=सयानपन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सयानपन  : स्त्री० [हि० सयाना+पन (प्रत्यय)] १. सयाना होने की अवस्था, गुण या भाव। २. चतुरता। होशियारी। ३. चालाकी। धूर्तता।
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सयाना  : वि० [सं० सज्ञान] [स्त्री० सयानी] १. जो वाल्यावस्था पार करके युवक या वयस्क हो चला हो। जैसा—अब तुम लड़के नहीं हो, सयाने हुए। २. बुद्धिमान। समझदार। ३. चालाक। होशियार। ४. कपटी और धूर्त। पुं० १. अनुभवी तथा बुद्धिमान विशेषतः अधिक अवस्थावाला। अनुभवी तथा बुद्धिमान् व्यक्ति। २. ओझा ३. हकीम। ४. गाँव का मुखिया।
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सयानाचारी  : स्त्री० [हि० सयाना+चार (प्रत्यय)] वह रसूम जो गाँव के मुखिया को मिलता था।
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सयानी  : स्त्री० [हि० सयाना] १. सयाने होने की अवस्था या भाव। सयानपन। २. चतुराई। चालाकी। उदाहरण—तू काहै कौं करति सयानी।—सूर। ३. अनुभवी तथा बुद्धिमान् स्त्री। जैसा—किसी सयानी से राय लेनी थी।
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संयाम  : पुं० [सं० सं√यम (रोकना)+क्त]
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संयुक्त  : पुं० [सं० सं√युज (जोड़ना)+क्त] १. किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। २. (संघठन या संस्था) जिसका विघटन न हुआ हो। जैसे—संयुक्त परिवार। ३.जिसके दो या अधिक भागीदार हों। जैसे—संयुक्त खाता। ४. सहित। ५. साथ रहकर या मिलकर काम करने वाला। जैसे—संयुक्त संपादक।
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संयुक्त खाता  : पुं० [सं०+हिं०] लेन-देन आदि का वह लेखा या हिसाब जो एक से कुछ अधिक आदमियों के साथ चलता हो। (ज्वाइन्ट एकाउन्ट)।
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संयुक्त राष्ट्र संघ  : पुं० [सं०] पुराने राष्ट्र संघ की तरह वह संस्था जो दूसरे महायुद्ध के उपरांत उसके स्थान पर अप्रैल १९४६ में बनाई गई थी, और आज-कल जो सारे संसार में शांति बनाए रखने, मानव-हितों की रक्षा करने तथा इसी प्रकार के और लोक कल्याण के कार्यों में सक्रिय है। (युनाइटेड नेशन्स ऑर्गनिजेशन)
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संयुक्त-लेखा  : पुं०=संयुक्त खाता।
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संयुक्त-वाक्य  : पुं० [सं०] व्याकरण में ऐसा वाक्य जिसमें दो या अधिक ऐसे उपवाक्य होते हैं जो एक दूसरे के अधीन न हों। (कम्पाउन्ड सेन्टेन्स)
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संयुक्त-सरकार  : स्त्री० [सं०+हिं०]किसी देश का वह सरकार जो किसी आपात या विशेष संकट के समय सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के सहयोग से बनी हो। (कोएलिशन गवर्नमेंट)
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संयुक्ताक्षर  : पुं० [सं० संयुक्त+अक्षर] वह अक्षर जो अक्षरों के मेल से बना हो। जैसे—क् और त् के योग से ‘क्त’ या प् और ल् के योग से ‘प्ल’ ।
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संयुग  : पुं० [सं० सम्√युम् (मना करना)+अच्-नलोप-पृषो्] १. मेल। मिलाप। २. संयोग। समागमन। ३. भिड़न्त। ४. युद्ध। लड़ाई।
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संयुत  : वि० [सं०] १. किसी के साथ मिला या लगाया हुआ। २. जो कई वस्तुओं के योग से बहुत अधिक या इकट्ठा हो गया हो। (क्युमुलेटेड)
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संयुति  : वि० [सं०] १. संयुत होने की अवस्था या भाव। २. दो या अधिक पदार्थों का एक में एक स्थान पर इकट्ठा होना या मिलना। जैसे—ग्रहों की संयुति। (कंजंक्शन)
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संयोग  : पुं० [सं०] १. दो या अधिक वस्तुओं का एक में एक साथ होना। मेल। मिश्रण। (काम्बिनेशन) २. समागम। ३. लगाव। संबंध। ४. स्त्री और पुरुष या प्रेमी और प्रेमिका का मिलन। ५. मैथुन। रतिक्रीड़ा। संभोग। ६. वैवाहिक संबंध। ७. किसी काम या बात के लिए कुछ लोगों में होने वाला मेल। ८. आकस्मिक रूप से आने वाली वह स्थिति जिसमें एक घटना को साथ ही कोई दूसरी घटना भी घटती हो। पद-संयोगसे=बिना पहले से निश्चत किये हुए और आकस्मिक रूप से। जैसे—मैं यहां बैठा हुआ था इतने में संयोग से वे भी आ पहुँचे। ९. किसी बात या विचार में होने वाला मतैक्य। भेद का विपर्याय। १॰. व्याकरण में कई व्यंजनों का एक साथ होने वाला मेल। ११. अनेक संस्थाओं का योग। जोड़।
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संयोग-प्रथकत्व  : पुं० [सं० द्व० स० त्व, या० ब० स०] ऐसा पार्थक्य या अलगाव जो नित्य न हो। (न्याय)
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संयोग-मंत्र  : पुं० [सं० ष० त० या मध्य० स०] विवाह के समय पढ़ा जानेवाला वेदमंत्र।
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संयोग-विरुद्ध  : पुं० [सं० तृ० त०] ऐसे पदार्थ जो साथ-साथ खाने के योग्य नहीं होते, और यदि खाये जायँ तो रोग उत्पन्न करते है। जैसे—घी और मधु, मछली और दूध।
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संयोगिता  : स्त्री० [सं०] जयचन्द्र की कन्या जिसका पृथ्वीराज ने हरण किया था।
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संयोगिनी  : स्त्री० [सं० सं योग+इनि—ङीप्] वह स्त्री जो अपने पति या प्रियतम के साथ हो। ‘वियोगिनी’ का विपर्याय।
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संयोगी (गिन्)  : वि० [सं० संयोगिन्-दीर्घ-नलोप] [स्त्री० संयोगिनी] १. जिसका संयोग हो चुका हो। २. जो संयोग के फलस्वरूप हुआ हो। ३. विवाहित। ४. जिसकी प्रिया उसके पास या साथ रहती हो।
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संयोजक  : वि० [सं० सम्√युज् (मिलाना)+ण्वुल्-अक] संयोजन करने वाला। पुं० १. व्याकरण में वह शब्द (अव्यय) दो शब्दों या वाक्यों को जोड़ने का काम करता हो। जैसे—अथवा और या। २. आजकल सभा समितियों का वह सदस्य जो अन्य सदस्यों को बुलाकर उनका अधिवेशन कराता हो तथा सभापति के कर्तव्यों का पालन भी करता हो। (कन्वीनर)
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संयोजन  : पुं० [सं० सम्√युज् (जोड़ना)+ल्युट्-अन्] [वि० संयोगी, संयोजनीय, संयोज्य, संयोजित] १. संयोग करने अर्थात जोड़ने या मिलाने की अवस्था या भाव। युग्मन। (कान्जुरेशन) २. एक साथ किसी दूसरी चीज को संलग्न या सम्मिलित करने की क्रिया या भाव। (अटैचमेंट) ३.दो या अधिक चीजों का आपस में मिलना या मिलाया जाना। (काम्बिनेशन) ४. मैथुन। संभोग। ५. कार्य का आयोजन या व्यवस्था। प्रबंध। ६. संसार के जंजाल में मनुष्य को लगाए रखने वाला भव-बंधन या कारण। (बौद्ध)
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संयोजना  : स्त्री० [सं० संयोजन-टाप्]=संयोजन।
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संयोजित  : भू० कृ० [सं० सम्√युज् (मिलाना)+णिच्-क्त] जिसका संयोजन किया हुआ हो या किया गया हो।
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संयोज्य  : वि० [सं० सम्√युज् (मिलाना)+ण्यत्] जिसका संयोजन हो सकता हो अथवा होने को हो।
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संयोना  : स०=सँजोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सयोनि  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० सयोनिता] १. जो एक ही योनि से उत्पन्न हुए हों। २. एक ही जाति या वर्ग के। पुं० इंद्र।
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संयोष  : पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई।
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सर (स्)  : पुं० [सं०] बड़ा तालाब। ताल। स्त्री० [सं० सदृक् या सदृश्] समानता। बराबरी। मुहावरा—किसी की सर पूजना=किसी की बराबरी तक पहुँचना। स्त्री० [सं० शर] चिता। उदाहरण—अब सर चढ़ौ, जरौ जरु सती।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० स्वर] आवाज। ध्वनि। उदाहरण—कोकिल कंठ सहाइ सर।—प्रीथिराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० अवसर का अनु] ऐसा अवसर जो किसी काम के लिए उपयुक्त न हो। मुहावरा—सर अवसर न देखना या समझना=यह न सोचना कि अमुक काम के लिए यह अवसर ठीक है या नहीं। उदाहरण—नृप सिसुपाल महापद पायौ, सर अवसर नहिं जान्यौ।—सूर। अव्य० [सं० सह] संय ‘स’ की तरह युक्त या संहित के अर्थ में प्रयुक्त होनेवाला। अव्यय। जैसा—सरजीव=सरजीव, सरधन=धनवान। पुं० दे० ‘साथिया’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० शीर्ष, या शिरस् से फा०] १. सिर। (मुहा० के लिए दे० सिर के मुहा०) २. अंतिम या ऊपरी भाग। सिरा। ३. चरम। सीमा। हद। मुहावरा—(कोई काम या बात) सर पहुँचाना=क) समाप्त करना। (ख) ठिकाने या हद तक पहुँचना। वि० १. बलपूर्वक दबाया हुआ। जैसा—प्रतियोगी को सर करना। २. हराया हुआ। पराजित। जैसा—लड़ाई में दुश्मन की फौज को सर करना। ३. (काम) पूरा या समाप्त किया हुआ। ४. सबसे बड़ा। प्रधान या मुख्य। जैसा—अगर वह खूनी है तो मै सर खूनी हूँ। स्त्री० १. गंजीफा, ताश आदि के खेल में ऐसा पत्ता जिससे जीत निश्चित हो। २. उक्त खेलो में जीती जानेवाली बाजी या हाथ। जैसा—हमारी चार सरें बनी हैं। पुं० [अं०] १. महोदय। २. ब्रिटिश राज्य की एक सम्मानित उपाधि। जैसा—सर फीरोजशाह मेहता।
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सर-अंजाम  : पुं० [फा०]=सरंजाम।
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सर-गरोह  : पुं० [फा०] किसी गरोह (जत्थे या दल) का प्रधान नेता। मुखिया।
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सर-गुज़श्त  : स्त्री० [फा०] १. सिर पर बीती हुई बात। २. बयाल। वर्णन। ३. जीवन-चरित्र।
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सर-घर  : पुं० [सं० शर+हि० घर] सरकश। तूणीर।
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सर-ज़मीन  : स्त्री० [फा०] १. भूमि। जमीन। २. देश। मुल्क।
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सर-जीवन  : वि० [सं० संजीवन] १. संजीवन। जिलानेवाला। २. उपजाऊ। ३. हरा-भरा।
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सर-ताबी  : स्त्री० [फा०] १. विद्रोह। २. उद्दंडता।
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सर-दर  : अव्य० [फा० सर+दर=भाव] १. एक सिर से। २. सब मिलाकर एक साथ। सबको एक मानकर उनके विचार से। ३. औसत के विचार या हिसाब से।
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सर-द्विप  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं का हाथी। देवहस्ती। २. ऐरावत।
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सर-पंच  : पुं० [फा० सर+हि० पंच] पंचों में बड़ा और मुख्य व्यक्ति। पंचायत का सभापति।
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सर-परदा  : पुं० [फा० सर-पर्दः] संगीत में, बिलावल ठाठ का एक राग।
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सर-परस्त  : वि० [फा०] [भाव० सरपस्ती] १. रक्षा करनेवाला। २. संरक्षक।
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सर-परस्ती  : स्त्री० [फा०] सरपरस्त होने की अवस्था या भाव। संरक्षण।
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सर-पुत  : पुं० [हि० सार=साला+पुत] साले का लड़का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर-पेच  : पुं० [फा०] १. पगड़ी के ऊपर कलगी की तरह लगाने का एक जड़ाऊ गहना। २. एक प्रकार का गोटा जो दो-ढाई अंगुल चौड़ा होता है।
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सर-पोश  : पुं० [फा०] थाल या तश्तरी ढकने का कपड़ा।
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सर-फ़राज  : वि० [फा०] १. ऊँचे पद पर पहुँचा हुआ। २. जो कोई बड़ा काम करके धन्य हुआ हो। ३. जिसका सम्मान बढ़ाया गया हो। मुहा०—किसी को सरफराज करना=वेश्या के साथ प्रथम समागम करना। (बाजारू)
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सर-फोंका  : पुं०=सरकंडा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर-बर  : स्त्री० [हिं० सर+अनु० बर] समानता। बराबरी। स्त्री० [अनु०] व्यर्थ की बकवाद या बहुत बढ़-चढ़कर की जानेवाली बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर-बराह  : वि० [फा०] [भाव० सर-बहारी] १. प्रबंधक। व्यवस्थापक। २. राज, मजदूरों आदि का सरदार। ३. रास्ते में खानपान का और ठहरने आदि का प्रबंध करनेवाला।
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सर-बराही  : स्त्री० [फा०] सर-बराह का कार्य, पद या भाव।
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सर-बारि  : स्त्री०=सरबर (बराबरी)। उदा०—प्रथमै बैस न सरबरि कोई।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर-बुलंद  : वि० [फा०] जिसका सिर ऊँचा हो या हुआ हो, फलतः प्रतिष्ठित या सफल।
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सर-मग्जी  : स्त्री० [फा० सर+मग्ज] माथा-पच्ची। सिर-खपाई।
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सर-शार  : वि० [फा०] [भाव० सरशारी] १. मुँह तक भरा हुआ। लबालब। २. नशे में चूर। ३. मद-मत्त।
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सर-सब्ज  : वि० [फा०] [भाव० सर-सब्जी] १. हरा-भरा। जो सूखा या मुरझाया न हो। लहलहाता हुआ। जैसे—सर-सब्ज पेड़। २. वनस्पतियों या हरियाली से युक्त। जैसे—सर-सब्ज मैदान।
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सर-सर  : पुं० [अनु०] १. जमीन पर रेंगने का शब्द। विशेषतः गोजर, साँप आदि जीवों के रेंगने से होनेवाला सर सर शब्द। २. वायु के चलने से होनेवाला सर सर शब्द। क्रि० वि० १. सर-सर शब्द करते हुए। २. बहुत तेजी या फुरती से।
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सरई  : स्त्री०=सरहरी (सरपत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरक  : पुं० [सं०√सृ (गत्यादि)+वुन्-अक] १. सरकने की क्रिया। खिसकना। चलना। २. यात्रियों का दल। ३. शराब पीने का पात्र। ४. गुड़ की शराब। ५. शराब पीना। मद्य-पान। ६. शराब की खुमारी।
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सरकंडा  : पुं० [सं० शरकंड] सरपत की जाति का एक पौधा जिसमें गाँठ वाली छड़े होती है।
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सरकना  : अ० [सं० सरक सरण] १. गोजर, छिपकली, साँप आदि के संबंध में पेट से रगड़ खाते हुए आगे बढ़ना। २. धीरे-धीरे तथा थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ना। ३. लाक्षणिक अर्थ में काम चलना। मुहावरा—सरक जाना=मर जाना (बाजारू)।
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सरकश  : वि० [फा०] [भाव० सरकशी] १. किसी के विरुद्ध सिर उठानेवाला। २. सहज में न दबनेवाला। उद्दंड। उद्धत। ३. विद्रोही। बागी। ४. बहुत बड़ा दुष्ट या पाजी।
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सरकशी  : स्त्री० [फा०] सरकस होने की अवस्था या भाव।
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सरका  : पुं० [अ० सर्क] चोरी। पुं० [हि० सरकना] हस्त क्रिया। हस्त मैथुन। क्रि० प्र० कूटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरकार  : स्त्री० [फा०] [वि० सरकारी] १. किसी देश के वे सब राज्यकर्मचारी जिसके हाथ में शासन संबंधी अधिकार होते हैं। शासन। २. किसी देश के सम्राट,राष्ट्रपति या मुख्य मन्त्री द्वारा चुने हुए मंत्रियों का वह दल जो सामूहिक रूप से उस देश को सासित करता है। (गवर्नमेंट)। पुं० १. प्रभु। २. मालिक। स्वामी। ३. राजा, शासक या सम्राट।
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सरकारी  : वि० [सं० सं√कृ (करना)+णिनि, संस्कारिन्] जिसका संस्कार हुआ हो। पुं० एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं।
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सरकारी  : वि० [फा०] १. सरकार संबंधी। जैसा—सरकारी काम, सरकारी हुक्म। २. जिसका दायित्व या भार सरकार पर हो। जैसा—वे सरकारी खर्च पर दिल्ली गये है। ३. राज्य संबंधी। जैसा—सरकारी गवाह। ४. नौकर की दृष्टि से उसके मालिक का।
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सरकारी कागज  : पुं० [हि०] वह व्यक्ति जो अपराधियों का साथ छोड़कर उनके विरुद्ध गवाही देता हो। भेद-साक्षी।
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सरक्क  : वि० [हि० सरक=मद्य-पात्र] मत। मस्त। उदाहरण—मद सरक्क पट्टे तिना।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संरक्त  : वि० [सं०√रज्ज (राग होना)+क्त] १. अनुरक्त। आसक्त। २ आकर्षक। मनोहर। ३. जो क्रोध से लाल हो रहा हो।
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संरक्षक  : वि० [सं० सम्√रक्ष् (रक्षाकरना)+णवुल्-अक] [स्त्री० संरक्षिका] १. संरक्षण करने वाला। २ देख-रेख, पालन-पोषण आदि करने वाला। ३. आश्रय या शरण देने वाला। पुं० १. वह जो किसी बालक, स्त्री की देख-रेख भरण पोषण आदि का भार वहन करता हो। अभिभावक। (गार्जियन) २. वह जिसके निरीक्षण या देख रेख में किसी वर्ग के कुछ लोग रहते हों। (वार्डन) ३. आजकल संस्थाओं आदि में वह बहुत बड़ा मान्य व्यक्ति जो उसके प्रधान पोषकों या समर्थकों में माना जाता है। (पेट्रन) विशेष-प्रायः संस्थाएँ अपनी प्रामाणिकता, मान्यता आदि बढ़ाने के लिए गणमान्य विशिष्ट व्यक्तियों को अपना संरक्षक बना लेती हैं।
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संरक्षकता  : स्त्री० [संरक्षक+तल्—टाप्] १. संरक्षक होने की अवस्था या भाव। २. संरक्षक का कार्य या पद।
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संरक्षण  : पुं० [सं० समे√रक्ष् (रक्षा करना) ल्युट्+अन] १. अच्छी और पूरी तरह से रक्षा करने की क्रिया या भाव। पूरी देख-रेख और हिफाजत। २. अधिकार। कब्जा। ३. अपने आश्रय में रहकर पालना-पोसना। ४. आर्थिक क्षेत्र में देश या विदेशी माल की प्रतियोगिता होने पर शासन द्वारा देशी माल की रक्षा करना। (प्रोटेक्शन उक्त सभी अर्थों में)
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संरक्षण शुल्क  : पुं० [सं०] आधुनिक अर्थ शास्त्र में वह शुल्क या कर जो अपने देश में बनी हुई चीजों को प्रतियोगिता के कारण नष्ट होने से बचाने के लिए विदेशी चीजों पर लगाया जाता है जो सस्ती बिक सकती हों। भरण्य शुल्क (प्रोटेक्शन ड्यूटी)। जैसे—देशी चीनी का व्यापार बढाने के लिए यहाँ विदेशी चीनी पर संरक्षण शुल्क लगाया जाता था।
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संरक्षण-वाद  : पुं० [सं०] आधुनिक राजनीति में यह सिद्धान्त कि राष्ट्र को अपने आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्रीय उद्योग का संरक्षण करना और बाहरी प्रतियोगिता के दुष्परिणामों से बचाना चाहिए। (प्रोटेक्शनिज्म)
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संरक्षणीय  : वि० [सं० सम्√रक्ष् (रक्षा करना)+अनीयर्] १. जिसका संरक्षण करना आवश्यक या उचित हो। संरक्षण का अधिकारी या पात्र। २. बचाकर रखे जाने योग्य।
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संरक्षित  : भू० कृ० [सं० सं√रक्ष् (रक्षा करना)+क्त] १. जिसका संरक्षण किया हो या हुआ हो। २. अच्छी तरह बचाकर रखा गया हो। पुं० वह जो किसी संरक्षक की देख-रेख में रहता हो। प्रतिपाल्य। (वार्ड)
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संरक्षित राज्य  : पुं० [सं०] आधुनिक राज्य में वह दुर्बल राज्य जिसे किसी दूसरे सबल राज्य ने अपने संरक्षण में ले लिया हो। (प्रोटेक्टोरेट)
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संरक्षितव्य  : वि० [सं०√रक्ष् (रक्षा करना)+तव्य] जिसका संरक्षण करना आवश्यक या उचित हो।
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संरक्षी  : वि० [सं० सम्√रक्ष् (रक्षा करना)+णिनि संरक्षा+इति] [स्त्री० संरक्षिणी] १. संरक्षण करने वाला। २. देख-बाल करने वाला।
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संरक्ष्य  : वि० [सं० सम्√रक्ष् (रक्षा करना) ण्यत्-यत वा]=संरक्षणीय।
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सरखत  : पुं० [फा०] १. वह कागज या छोटी बही जिस पर मकान आदि के किराये या इसी प्रकार के और लेन-देन का ब्यौरा लिखा जाता है। २. किसी प्रकार का अधिकार-पत्र या प्रमाण पत्र। उदाहरण—तुलसी निहाल कै कै दियो सरखतु है।—तुलसी। ३. आज्ञापत्र। परवाना। ४. इकरारनामा।
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सरखप  : पुं०=सर्षप (सरसों)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरंग  : वि० [सं०√ सं (गत्यादि)+अग्ङच्] १. रंगदार। २. सानुनासिक। पुं० १. चौपाया। २. चिड़िया। पक्षी। ३. एक तरह का हिरन।
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सरग  : पुं०=स्वर्ग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरग दुवारी  : पुं०=स्वर्ग द्वार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरग-पताली  : वि० [सं० स्वर्ग+पताल (हिं० ई (प्रत्यय)] १. एक ओर स्वर्ग की और दूसरी ओर पाताल को छूनेवाला। २. गाय या बल जिसका एक सींग ऊपर उठा हो और दूसरा नीचे झुका हो। ३. (व्यक्ति) जिसकी एक आँख की पुतली ऊपर की ओर और दूसरी नीचे की ओर रहती हो।
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सरगना  : पुं० [फा० सर्गनः] सरदार। अगुवा। जैसा—चोरों का सरगना। अ० [?] हींग हाँकना। शेखी बघारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरगम  : पुं० [हि० सा, रे, ग, म] १. संगीत में षजड से निषाद तक के सातों स्वरों का समूह। स्वर-ग्राम। २. उक्त स्वर भिन्न-भिन्न प्रकारों से साधने की क्रिया या प्रणाली। ३. किसी गीत, तान या राग में लगनेवाले स्वरों का उच्चारण। जैसा—इस तान या लय का सरगम तो कहो।
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सरगर्म  : वि० [फा०] [भाव० सरगर्मी] १. जोशीला। आवेशपूर्ण। २. उत्साह या उमंग से भरा हुआ।
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सरगर्मी  : स्त्री० [फा०] १. सरगर्म होने की अवस्था या भाव। २. बहुत बढ़ा हुआ आवेग उत्साह या उमंग।
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सरंगा  : स्त्री० [हि० सारंग] पुरानी चाल का एक प्रकार की नाव जो बहुत तेजी चलती थी। उदाहरण—सरंगा सरंगा पेलि चलाएसि खिन-खिन जियहि सकाइ।—मुल्ला दाऊद। पुं० [हि० सारंगी] बड़ी सारंगी। (बाजा)।
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सरंगी  : स्त्री०=सारंगी।
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सरगुना  : वि०=सगुण।
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सरगुनिया  : पुं० [हि० सरगुन] सगुण ब्रह्म का उपासक।
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सरगोशी  : स्त्री० [फा०] १. कान में कोई बात कहना। २. किसी के पीठ पीछे उसकी शिकायत करना।
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सरघा  : स्त्री० [सं० सर√हन् (मारना)+ड, निषा सिद्ध] मधुमक्खी।
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संरचना  : स्त्री० [सं०] [भू० कृ० संरचित] १. कोई ऐसी चीज बनाने की क्रिया या भाव जिसमें अनेक प्रकार बहुत से अंगों-उपांगों का प्रयोग करना पड़ता हो ? जैसे—किले, पुल या भवन की संरचना। लाक्षणिक रूप में, किसी अमूर्त वस्तु का सारा ढाँचा। बनावट। २. उक्त प्रकार से बनी हुई चीज। (स्ट्रक्चर)।
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सरज  : स्त्री० [सं० सूज] माला। उदाहरण—सरज दिहै ले स्रवन लजाना।—नूरमोहम्मद। स्त्री० [अ० सर्ज] एक प्रकार का बढ़िया ऊनी कपड़ा।
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सरजद  : वि० [फा० सर-जदन से] १. प्रकट। जाहिर। २. किया हुआ। कृत।
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सरजना  : स० [सं० सर्जन] १. सर्जन करना। २. बनाना। रचना।
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सरजा  : वि० [सं०] ऋतुमती। (स्त्री)। पुं० [फा० सरजाह] १. सरदार। २. सिंह। शेर। ३. छत्रपति शिवाजी की उपाधि।
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सरंजाम  : पुं० [फा०] १. काम या पूरा होना। २. प्रबंध। व्यवस्था। ३. तैयारी।
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सरजिव (जीव)  : वि०=सजीव। उदाहरण—सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कहुँ भारी।—कबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरजेंट  : पुं०=सार्जेन्ट (एक सैनिक अधिकारी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरजोर  : वि० [फा०] [भाव० सरजोरी] १. जबरदस्त। प्रबल। २. उद्दंत। उद्धत।
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सरट  : पुं० [सं०√सृ (गत्यादि)+अरन्] १. छिपकली। २. छिपकली की तरह के सरीसृपों का एक वर्ग जिनका शरीर और दुम प्रायः दोनों बहुत लंबे होते हैं (लिजर्ड)। विशेष-जीव सृष्टि के आरंभिक युगों में इस वर्ग के बहुत बड़े-बड़े जंतु जुआ करते थे, पर आजकल उनके वंशज अपेक्षया छोटे होते है। ३. गिरगिट। ४. वायु। ५. धागा।
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सरंड  : पुं० [सं०√सृ (गत्यादि)+अ-डच्] १. पक्षी। २. लंपट। ३. गिरगिटय़ ४. दुष्ट व्यक्ति। ५. एक प्रकार का आभूषण।
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सरण  : पुं० [सं०] १. धीरे-धीरे आगे बढ़ना या चलना। २. सरकना। खिसकना। स्त्री०=सरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरणि  : स्त्री० [सं०]=सरणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरणी  : स्त्री० [सं०] १. मार्ग। रास्ता। २. पगदंडी। ३. सीधी रेखा। लकीर। ४. चली आई हुई परिपाटी या प्रथा। ढर्रा।
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सरण्यु  : पुं० [सं०√सृ (गत्यादि)+अन्यु] १. वायु। २. बादल। ३. जल। ४. वसंत। ५. अग्नि। ६. यम।
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सरता-बरता  : पुं० [सं० वर्तन, हि० बरतना+अनु० सरतना] आपस में बाँटने या विभाजन करने की क्रिया या भाव।
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सरतान  : पुं० [अ०] १. केकड़ा। २. कर्क। राशि। ३. कर्कट नामक सांधातिक व्रण। कर्कटार्बुद (कैन्सर)।
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सरतारा  : वि० [?] १. जिसे सब प्रकार की निश्चिन्नता हो। २. अपना काम पूरा कर लेने के उपरान्त जो निश्चित हो गया हो।
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सरद  : स्त्री०=शरद ऋतु। वि०=सर्द ठंढा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरद-परब (पर्व)  : पुं० दे० ‘शरद-पूर्णिमा’।
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सरदई  : वि० [हि० सरदा+ई (प्रत्य)] सरदे के रंग का। हरापन लिये पीला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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सरदल  : पुं० [देश] दरवाजे का बाजू या साह। अव्य०=सरदर।
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सरदा  : पुं० [फा० सर्द] कश्मीर तथा अफगानिस्तान में होनेवाला खरबूजे की जाति का एक प्रकार का फल जो खरबूजे की अपेक्षा अधिक बड़ा तथा अधिक मीठा होता है।
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सरदाना  : अ० [हि० सरदी] सरदी लगने के कारण ठंढा मन्द या शिथिल होना। स० सरदी के प्रभाव से युक्त करके ठंढा या मन्द करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरदाबा  : पुं० [फा० सर्दाबः] १. ठंढे जल से किया जानेवाला स्नान। २. वह स्थान जहाँ ठंढा करने के लिए पानी रखा जाता हो। ३. जमीन के नीचे बना हुआ कमरा। तहखाना। ४. कब्रिस्तान या समाधिस्थल।
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सरदार  : पुं० [फा०] १. किसी मंडली का नेता। नायक। अगुआ। नेता। जैसा—मजदूरों या सिपाहियों का सरदार। २. किसी छोटे प्रदेश का प्रधान शासक। ३. अमीर। रईस। ४. सिक्खों के नाम से पहले लगनेवाली एक मान-सूचक उपाधि। जैसा—सरदार योगेन्द्र सिंह। ५. वह जिसका वेश्या से संबंध हो (वेश्याएँ)।
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सरदारी  : स्त्री० [फा०] सरदार का पद, भाव या स्थिति। सरदारपन।
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सरदिंदुमुखी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सरदियाना  : अ० [हि० सरदी] १. (जीव का) सरदी लगने से अस्वस्थ होना। २. लाक्षणिक अर्थ में आवेश आदि शान्त होना। ठंढा पड़ना।
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सरदी  : स्त्री० [फा० सर्दी] १. ऋतु या वातावरण की वह स्थिति जिसमें भारी और मोटे कपड़े ओढ़ने-पहनने की आवश्यकता प्रतीत होती है। जाड़ा। शीत। ‘गरमी’ का विपर्याय। मुहावरा—सरदी खाना=ठंढ सहना। शीत सहना। २. जाड़े का मौसम। पूस-माघ के दिन। शीत काल। ३. जुकाम या प्रतिश्याय नामक रोग।
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सरंदीप  : पुं०=सरनदीप।
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सरदेशमुखी  : स्त्री० [फा० सर=शीर्ष+सं० देश+मुखी] चौथ की तरह का एक प्रकार का राजकर जो मराठा शासन-काल में जनता पर लगता था।
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सरधन  : वि०=धनवान्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरधा  : स्त्री०=श्रद्धा। पुं०=सरदा (फल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरंध्र  : वि० [सं०] जिसमें छिद्र हो। दे० ‘छिद्रल’।
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सरन  : स्त्री०=शरण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरन-दीप  : पुं० [सं० स्वर्ण द्वीप या सिहंल द्वीप] उर्दू साहित्य में लंका द्वीप का पुराना नाम जो अरब वालों में प्रसिद्ध था।
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सरना  : अ० [सं० सरण=चलना, सरकना] १. सरकना। खिसकना। २. हिलना-डोलना। ३. कार्य आदि का निर्वाह होना। पूरा होना। जैसे—ब्याह का काम सरना। ४. उपयोग में आना। उदाहरण—हाथ वही, उन गात सरै।—रसखान। ५. शक्ति या सामर्थ्य के अनुसार होना। जैसे—जितना हमसे सरेगा, उतना हम भी दे देंगे। ६. परस्पर सदभाव बना रहना। निभना। पटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरनाई  : स्त्री० [सं० सरणागति] किसी की विशेषतः ईश्वर की शरण में जाने की अवस्था या भाव। शरणागति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरनापन्न  : वि०=शरणापन्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरनाम  : वि० [फा०] [भाव० सरनामी] जिसका नाम हो। प्रसिद्ध। मशहूर। विख्यात।
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सरनामा  : पुं० [फा०] १. किसी लेख या विषय का निर्देश जो ऊपर लिखा रहता है। शीर्षक। २. चिट्ठी पत्री आदि के आरम्भ में सम्बोधन के रूप में लिखा जानेवाला पद। ३. भेजे जानेवाले पत्रों आदि पर लिखा जानेवाला पता।
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सरनी  : स्त्री०=सरणी (मार्ग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरपट  : स्त्री० [सं० सर्पण] घोड़े की बहुत तेज चाल जिसमें वह दोनों अगले पैर साथ-साथ आगे फेंकता है। अव्य घोड़े की उक्त चाल की तरह तेज या दौड़ते हुए।
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सरपत  : पुं० [सं० शरपत्र] कुश की तरह की एक घास जिसमें टहनियाँ नहीं होती, बहुत पतली और हाथ दो हाथ लंबी पत्तियाँ ही मध्य भाग से निकलकर चारों ओर फैली रहती है। यह छप्पर आदि बनाने के काम में आता है। सरकंडा। सेंठा।
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सरपना  : अ० [सं० सर्पण] १. खिसकना। २. आगे बढ़ना।
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सरपी  : पुं०=सर्पी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरफराना  : अ० [अनु०] व्यग्र होना। घबराना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरफा  : पुं० [फा० सर्फः] १. खर्च। व्यय। २. मितव्ययिता। कम-खर्ची।
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सरब(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)  : वि०=सर्व। पुं०=सर्वस्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरबंग  : पुं०=सर्वांग। अव्य सर्वांगपूर्ण रूप से। सब तरह से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरबग्य  : वि०=सर्वज्ञ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरबदा  : अव्य०=सर्वदा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरबंधी  : पुं० [सं० शरबंध] तीरंदाज। धनुर्धर। पुं० १.=संबंधी। २. समधी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरबरना  : अ० [हिं० सर-बर] किसी की समता या बराबरी करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरबस  : पुं०=सर्वस्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरबेटा  : पुं० दे० ‘सर-पूत’।
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सरबोर  : वि०=शराबोर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संरब्ध  : वि० [सं० सम्√रभ् (मिलना)+क्त] १. किसी के साथ अच्छी तरह जुडा़, मिला या लगा हुआ। २. जो किसी के साथ हाथ मिलाए हो। ३. उद्विग्न। क्षुब्ध। ४. क्रोध से भरा हुआ। ५. फूला या सूजा हुआ। ६. घबराया हुआ।
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संरंभ  : पुं० [सं०] १. ग्रहण करना। पकड़ना। २. आतुरता। उत्कंठा। ३. उद्विग्नता। उद्वेग। ४. खलबली। क्षोभ। ५. उत्साह। उमंग। ६. क्रोध। कोप। ७. ऐंठ। ठसक। ८. शोक। ९. अधिकता। बाहुल्य। १॰. आरंभ। शुरू। ११. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। १२. फोड़े या घाव का सूजना या लाल होना। (सुश्रुत)।
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सरभंग  : पुं० [सं० शर+भंग] अधोर पंथ (देखें) का एक नाम।
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सरम  : पुं० =श्रम। स्त्री०=शरम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरमद  : वि० [अ०] १. सदा बना रहनेवाला। २. मस्त। मत्त।
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सरमना  : अ०=शरमाना (लज्जित होना)। स०=शरमाना (लज्जित करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरमा  : स्त्री० [सं०] १. कुतिया। २. देवताओं की एक कुतिया। ३. दक्ष प्रजापति की एक कन्या। ४. कश्यप की पत्नी। पुं० [फा०] [हिं० सरमाई] शीत-काल।
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सरमाई  : वि० [फा०] जाड़े का। स्त्री० जाड़े के कपड़े। जड़ावर।
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सरमाया  : पुं० [फा० सरमायः] १. मूल-धन। पूँजी। २. धन-दौलत। सम्पत्ति।
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सरया  : पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा धान जिसका चावल लाल होता है। सारो।
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सरयू  : स्त्री० [सं०सृ (गत्यादि)+अण्] उत्तर भारत की एक प्रसिद्ध नदी। इसी के तट पर अयोध्या बसी है।
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सरयूपारी  : वि० [हि०] मध्य देशवालों की दृष्टि में, सरयू नदी के उस पास का। जैसे—सरयूपारी बैल। पुं० ब्राह्मणों का वह वर्ग जो सरयू के उस पार अर्थात् गोरखपुरी बस्ती आदि के रहनेवाले हैं।
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सरर  : पुं० [हिं० सरकंडा] बाँस या सरकंडे की पतली छड़ी जो ताना ठीक करने के लिए जुलाहे लगाते हैं। सथिया। सतगारा।
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सरराना  : अ० [अनु० सर सर] हवा बहने या हवा में किसी वस्तु के वेग से चलने का शब्द होना।
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सरल  : वि० [सं०] [स्त्री० सरला] १. जो सीधा किसी ओर चला गया हो; बीच में कहीं इधर-उधर घूमा या मुड़ा न हो। २. जो टेढ़ा या वक्र न हो। सीधा। ३. जिसके मन में छल-कपट न हो। सीधा और भोला। ४. ईमानदार और सच्चा। ५. (कार्य) जिसे पूरा करने में कुछ भी कठिनता न हो। ६. (लेख आदि) जिसका अर्थ समझने में कठिनता न हो। आसान। सहज। ७. असली। खरा। पुं० १. अग्नि। २. चीड़ का पेड़। ३. चीड़ का गेंद। गँधा बिरोजा। ४. एक प्रकार का पक्षी। ५. गौतम बुद्ध का एक नाम।
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सरल-काष्ठ  : पुं० [सं० ब० स०] चीड़ की लकड़ी।
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सरल-द्रव  : पुं० [सं०] १. गंधा-बिरोजा। २. ताड़पीन का तेल।
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सरल-निर्यास  : पुं० [सं० ब० स०, ष० त० वा] १. गंधा-बिरोजा। २. ताड़पीन का तेल।
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सरल-रस  : पुं० [सं०] १. गंधा-बिरोजा। २. ताड़पीन का तेल।
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सरलता  : स्त्री० [सं०] १. सरल होने की अवस्था गुण या भाव। २. चरित्र, व्यवहार, स्वभाव आदि का सीधापन। सिधाई। भोलापन। ३. ईमानदारी और सच्चाई। ४. आसानी। सुगमता।
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सरला  : स्त्री० [सं० सरल-टाप्] १. चीड़ का पेड़। २. काली तुलसी। ३. मल्लिका। मोतिया। ४. सपेद निसोथ।
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सरलांग  : पुं० [सं० ब० स०] १. गंधा-बिरोजा। २. ताड़पीन का तेल।
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सरलित  : भू० कृ० [सं० सरल+इतच्] सीधा या सहज किया हुआ।
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सरलीकरण  : पुं० [सं०] किसी कठिन काम, चीज, बात या विषयट आदि को सरल करने की क्रिया या भाव। (सिम्प्लफ़िकेशन) जैसे—भाषा का सरलीकरण, वैज्ञानिक प्रक्रिया का सरलीकरण।
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सरवत  : स्त्री० [अ० सर्वत] अमीरी। सम्पन्नता।
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सरवती  : स्त्री० [सं० सरवत्—ङीष्] वितस्ता नदी।
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सरवन  : पुं० [सं० श्रमण] अंधक मुनि के पुत्र श्रवण जो अपने पिता को एक पगही में बैठाकर ढोया करते थे।
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सरवनी  : स्त्री०=सरमनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरवर  : पुं० [फा०] सरदार। अधिपति। पुं०=सरोवर। स्त्री०=सरवरि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरवरि  : स्त्री० [सं० सदृश, प्रा० सरिस+वर] बराबरी। तुलना। समता। स्त्री०=शर्बरी (रात)।
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सरवरिया  : वि० [हिं० सरवर] सरयूपार या सरवार का। पुं०=सरयूपारी ब्राह्मण।
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सरवरी  : स्त्री० [फा०] सरवर होने की अवस्था या भाव। सरदारी।
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सरवा  : पुं० [सं० शरावक] १. कटोरा। २. कसोरा। उदा०—द्वै उलटे सरवा मनौं दोसत कुछ उनहार।—रहीम। पुं०=साला (गाली)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरवाक  : पुं० [सं० सरावक=प्याला] १. संपुट। प्याला। २. कसोरा। ३. दीया।
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सरवान  : पुं० [?] १. तंबू। खेमा। २. झंडा। पताका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [फा० सारवान] [स्त्री० सरवानी] ऊँट चलानेवाला। उदा०—सरवानी विपरीत रस, किय चाहै न डराई।—रहीम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरवार  : पुं० [हिं० सरयू+पार] सरयू नदी के उस पार का भूखण्ड, जिसमें गोरखपुर, देवरिया, बस्ती आदि नगर हैं।
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सरवाला  : पुं० [देश०] एक प्रकार की लता जिसे घोड़ा-बेल भी कहते हैं। बिलाई कंद इसी की जड़ होती है। घोड़ा-बेल। पुं०=सरबाला (सह-बाला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरस  : वि० [सं०] [भाव० सरसता] १. रस अर्थात् जल या किसी अन्य द्रव-पदार्थ से युक्त। २. किसी की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक अच्छा। ३. हरा और ताजा। ४. (रचना) जो भावमयी हो तथा जिसमें पाठक के मन के कोमल भाव जगाने की शक्ति हो। ५. रसिक। सहृदय। ६. सुन्दर। मनोहर। पुं० छप्पय छंद के ३५वें भेद का नाम जिसमें ३६ गुरु, ८॰ लघु, कुल ११६ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं। पुं० [सं० सरः] [स्त्री० अल्पा० सरसी] तालाब। जलाशय।
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सरसई  : स्त्री० [हिं० सरसों] फल के छोटे अंकुर या दाने जो पहले दिखाई पड़ते हैं। जैसे—आम की सरसई। स्त्री० १.=सरस्वती (देवी और नदी)। २.=सरसता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरसता  : स्त्री० [सं०] १. सरस होने की अवस्था, गुण या भाव। २. रचना आदि का वह गुण जिसमें वह बहुत ही भावमयी और प्रिय लगती है। ३. व्यक्ति में होनेवाली रस ग्रहण करने की शक्ति। रसिकता। ४. मधुरता।
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सरसती  : स्त्री०=सरस्वती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरसना  : अ० [सं० सरस] १. हरा होना। पनपना। २. उन्मत होना। ३. अधिक होना। बढ़ना। ४. शोभित होना। सोहना। ५. रसपूर्ण होना। ६. बहुत अधिक कोमल या सरल भाव से युक्त होना। उदा०—सब देवनि सादर प्रनाम कर अति सुख सरसे।—रत्नाकर। ७. (आशय, कार्य आदि) पूरा होना। उदा०—कहि कबीर मन सरसी काज।—कबीर।
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सरसराना  : अ० [अनु० सर-सर] १. सर-सर की ध्वनि होना। जैसे—वायु का सरसराना, साँप का चलने में सरसराना। २. जल्दी-जल्दी काम करना। स० सर-सर शब्द उत्पन्न करना।
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सरसराहट  : स्त्री० [हिं० सर-सर+आहट (प्रत्य०)] १. वायु आदि चलने या साँप आदि के रेंगने से उत्पन्न ध्वनि। २. शरीर के किसी अंग में होनेवाली सुरसुराहट।
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सरसरी  : वि० [फा० सरासरी] १. जमकर या अच्छी तरह नहीं, बल्कि यों ही और जल्दी में होनेवाला। जैसे—सरसरी नजर से देखना। २. चलते ढंग से या मोटे तौर पर होनेवाला। (समरी) जैसे—सरसरी प्रक्रिया। (समरी प्रोसिडिंग); सरसरी व्यवहार दर्शन (समरी ट्रायल)।
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सरसाई  : स्त्री० [हिं० सरसना+आई] सरसने की अवस्था या भाव। शोभा। सुहावनापन। स्त्री०=सरसता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरसाना  : स० [हिं० सरसना का स०] सरसने में प्रवृत्त करना। दे० ‘सरसना’। अ०=सरसना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरसाम  : पुं० [फा०] सन्निपात या त्रिदोष नामक रोग।
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सरसार  : वि०=सरशार (मग्न)।
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सरसिका  : स्त्री० [सं०] १. छोटी सरसी। तलैया। २. बावली। ३. हिंगपुत्री।
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सरसिज  : वि० [सं० सरसि√जन् (उत्पन्न करना)+ड] जो ताल में होता हो। पुं० कमल।
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सरसिज-योनि  : पुं० [सं० ब० स०] कमल से उत्पन्न, ब्रह्मा।
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सरसिरुह  : वि०, पुं०=सरसिज।
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सरसी  : स्त्री० [सं०] १. छोटा सरोवर या जलाशय। २. बावली। ३. एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २७ मात्राएँ (१६वीं मात्रा पर यति) और अंत में गुरु और लघु होते हैं। इसे सुमंदर भी कहते हैं। होली के दिनों में गाया जानेवाला कबीर प्रायः इसी छंद में होता है। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)स्त्री० [हिं० सरस] वह जमीन जिसमें सरसता या नमी हो।
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सरसीक  : पुं० [सं० सरसी(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)कै (शब्द करना)+क] सारस पक्षी।
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सरसीरुह  : पुं० [सं०] १. कमल। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सरसुति  : स्त्री०=सरस्वती। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरसेटना  : स० [अनु] किसी को दबाने के लिए खरी-खोटी सुनाना। फटकारना।
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सरसों  : स्त्री० [सं० सर्षम] १. एक प्रसिद्ध फसल जिसकी खेती होती है। इसमें पीले-पीले रंग के फूल और काले रंग के छोटे-छोटे दाने लगते हैं। मुहावरा—(किसी की) आँखों में सरसों फूलना=अभिमान=प्रेम आदि के कारण सब जगह हरा-भरा दिखाई पड़ना। २. उक्त पौधे के बीज जिन्हें पेर कर कडुआ तेल निकाला जाता है।
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सरसौहाँ  : वि० [हि० सरसना+औहाँ (प्रत्य)] १. सरस। २. मधुर। ३. प्रिय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरस्वती  : स्त्री० [सं०] [वि० सारस्वत] १. भारतीय पुराणों में, विद्या और वाणी की अधिष्ठाती देवी जिनका वाहन हंस कहा गया है, और जिनके एक हाथ में पुस्तक दिखाई जाती है। वाग्देवी। भारती। शारदा। २. विद्या। इल्म। ३. पंजाब की एक प्राचीन नदी जिसका सूक्ष्म अंश अब भी कुरुक्षेत्र के पास वर्तमान है। ४. हठयोग में सुषुम्मना नाड़ी। ५. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। ६. उत्तर भारतीय संगीत में एक प्रकार की संकर रागिनी। ७. सोम लता। ८. ब्राह्मी बूटी। ९. मालकंगनी। १॰. गौ। ११. एक प्रकार का छंद या वृत्त।
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सरस्वती-कंठाभरण  : पुं० [सं०] १. ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक। २. धार के परमार वंशी राजा भोज के द्वारा स्थापित की हुई एक प्रसिद्ध प्राचीन पाठशाला।
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सरस्वती-पूजा  : स्त्री० [सं०] १. सरस्वती की की जानेवाली पूजा। २. वसंत पंचमी जिस दिन सरस्वती की पूजा की जाती है। ३. उक्त अवसर पर होनेवाला उत्सव।
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सरस्वान् (स्वत्)  : वि० [सं० सरस्वत-नुम्-दीर्घ, नलोप] [स्त्री० सरस्वती] १. जलाशय संबंधी। २. रसीला। ३. स्वादिष्ट। ४. सुन्दर। ५. भावुक। पुं० १. समुद्र। २. नद। ३. भैसा।
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सरह  : पुं० [सं० शलभ, प्रा० सरह] १. फतिंगा। २. टिड्डी।
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सरहंग  : पुं० [फा०] [भाव० सरहंगी] १. सेना का प्रधान अधिकारी और नायक। २. पैदल सिपाही। ३. पहलवान। मल्ल। ४. चोबदार। पहरेदार। ५. कोतवाल। वि० बलवान्। शक्ति-शाली।
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सरहज  : स्त्री०=सलहज।
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सरहटी  : स्त्री० [सं० सर्पाक्षी] सर्पाक्षी नामका पौधा। नकुल कंद।
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सरहत  : पुं० [देश] खलिहान में फैला हुआ अनाज बुहारने का झाड़ू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरहतना  : स० [देश] साफ करने के लिए अनाज फटकना। पछोड़ना।
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सरहथ  : पुं० [सं० शर या शल्य+हि० हाथ] बरछी की तरह का एक हथियार जिसमें बड़ी मछलियों का शिकार किया जाता है।
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सरहद  : स्त्री० [फा० सर+अ० हद] [वि० सरहदी] १. किसी देश भू-खंड या राज्य की सीमा। (दे० सीमा) २. ऐसी सीमा के आसपास का प्रदेश।
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सरहद-बंदी  : स्त्री० [फा०] कार्य, क्षेत्र आदि की सरहद या सीमा निश्चित करने का काम।
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सरहदी  : वि० [फा० सरहद+ई (प्रत्यय)] १. सरहद संबंधी। सीमा संबंधी। जैसा—सरहदी झगड़े। २. सरहद या सीमा प्रांत का निवासी। जैसा—सरहदी गाँधी।
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सरहना  : स्त्री० [देश] मछली के ऊपर का छिलका। चूईं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरहर  : पुं०=सरपत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरहरा  : वि० [सं० सरल+धड़] १. सीधा ऊपर को गया हुआ। जिसमें इधर-उधर शाखाएँ न निकली हों। (पेड़)। २. चिकना।
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सरहरी  : स्त्री० [सं० शर] १. मूँज या सरपत की जाति का एक पौधा जिसकी छड़ पतली, चिकनी और बिना गाँठ की होती है। २. गंडनी या सर्पाक्षी नामकी वनस्पति।
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सरा  : स्त्री० [सं० शर] चिता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [तातारी] १. किला। दुर्ग। २. महल। प्रासाद। जैसे—ख्वाजा सरा, ३. दे० ‘सराय’। पुं०=सर (वाण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सराँ-दीप  : पुं०=स्वर्णद्वीप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सराई  : स्त्री० [सं० शलाका] १. सरकंडे की पतली छड़ी। २. दे० ‘सलाई’। स्त्री० [सं० शराब=प्याला] मिट्टी का प्याला या दीया। सकोरा। स्त्री० [?] पाजामा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सराक  : पुं० [सं० शराक या श्रावक] बिहार और बंगाल में रहनेवाली जुलाहों की एक जाति।
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सराख  : स्त्री०=सलाख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सराखा  : वि०=सरीखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सराँग  : स्त्री० [सं० शलाका] १. लोहे का एक मोटा छड़ जिसपर पीटकर लोहार बरतन बनाते हैं। २. कोई ऐसी लकड़ी जिसकी सहायता से सीधी रेखाएँ खींची जाती हों। ३. किसी प्रकार का सीधा छड़ या पट्टी। ४. खंभा।
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सराजामा  : पुं०=सरंजाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सराध  : पुं०=श्राद्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संराधक  : पुं० [सं० सम्√राध् (ध्यान करना)+ण्वुल्-अक्] १. संराधन करने वाला। आराधना करने वाला।
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संराधन  : पुं० [सं०] [वि० संराधनीय, संराध्य, भू० कृ० संराधित] १. आराधना या पूजन और ध्यान करना। २. जयजयकार । ३. आज-कल किसी अप्रसन्न व्यक्ति को समझा बुझाकर तुष्ट और प्रसन्न करना। (कान्सिलिएशन)
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संराधन अधिकारी  : पुं० [ष० त०] आजकल वह राजकीय अधिकारी जो कल कारखानों-आदि में काम करने वाले कर्मचारियों और उनके मालिकों में झगड़ा होने पर समझा-बुझाकर उनमें समझौता कराता हो। (कान्सिलिएशन आफ़िसर)
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संराधनीय  : वि० [सं० सम्√राध् (आराधना करना)+अनीयर्] जिसकी आराधना करना उचित या आवश्यक हो।
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संराधित  : भू० कृ० [सं० सम्√राध् (पूजा करना)+क्त] जिसका संराधन किया गया हो।
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संराध्य  : वि० [सं० सम्√राध् (आराधना करना)+ण्यत्]=संराधनीय।
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सराना  : स० [हि० सरना या सारना का प्रे०] (काम) पूरा या संपन्न करना।
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सरापना  : स० [सं० शाप, हिं० सराप+ना (प्रत्य)] १. शाप देना। बद्दुआ देना। अनिष्ट मनाना। कोसना। २. बुरा-भला कहना और गालियाँ देना।
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सरापा  : पुं० [फा० सर=सिर+पा०=पैर] किसी के सिर से पैर तक के सब अंगों का काव्यात्मक वर्णन। नख-सिख। अव्य० १. सिर से पैरों तक। २. ऊपर से नीचे तक। ३. आदि से अंत तक।
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सराफ  : पुं० [अ० सर्राफ] १. सोने-चांदी का व्यापारी। २. वह दूकानदार जो बड़े सिक्कों को कुछ दलाली लेकर छोटे सिक्कों में बदल देना हो। ३. प्रामाणिक और सम्पन्न व्यापारी। ४. अच्छा पारखी।
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सराफा  : पुं० [अ० सर्राफ़ः] १. सराफ का पेशा। २. वह बाजार जिसमें अनेक सराफों की दूकान हों।
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सराफी  : स्त्री० [हि० सराफ़+ई (प्रत्य०)] १. सराफ का अर्थात् चाँदी-सोने या सिक्कों आदि के परिवर्तन का रोजगार। २. महाजनों लिपि। मुंडा।
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सराब  : पुं० [अ०] १. मृगतृष्णा। २. धोखा देनेवाली चीज या बात। ३. धोखेबाजी। स्त्री०=शराब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सराबोर  : वि०=शराबोर।
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सराय  : स्त्री० [तातारी, सरा=दुर्ग या प्रासाद] १. रहने का स्थान। २. मध्ययुग में यात्रियों सौदागरों आदि के ठहरने का स्थान जहाँ उनके खाने-पीने तथा मनोरंजन आदि की व्यवस्था भी होती थी। पद—सराय का कुत्ता=बहुत ही तुच्छ या नीच और स्वार्थी व्यक्ति।
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सरायत  : स्त्री० [अ०] प्रवेश करना। घुसना। पैठना।
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सरार  : पुं० [देश] घोड़ा-बेल नाम की लता जिसकी जड़ बिलाई कंद कहलाती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संराव  : पुं० [सं] १. कोलाहल। शोर। २. हलचल। धूम।
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सराव  : पुं० [सं० शराब] १. मद्यपान। शराब पीने का प्याला। २. कटोरा। ३. कसोरा। दीया। ४. एक प्रकार की पुरानी तौल जो ६४ तोले की होती थी। पुं० [?] एक प्रकार का जंगली डरपोक और सीधा जानवर जो बकरी और हिरन दोनों से कुछ-कुछ मिलता तथा हिमालय के पहाड़ों में पाया जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरावग  : पुं०=श्रावक (जैन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरावगी  : पुं० [सं० श्रावक] श्रावक धर्मावलंबी। जैन।
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सरावना  : पुं० [सं० सरण, हि० सरना] पाटा। हेंगा।
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सरास  : पुं० [?] भूसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरासन  : पुं०=शरासन (धनुष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरासर  : अव्य० [फा०] १. एक सिरे से दूसरे सिरे तक। यहाँ से वहाँ तक। २. एक सिरे से। पूर्णतया। बिलकुल। जैसा—सरदार झूठ बोलना। ३. प्रत्यक्ष। साक्षात्। जैसा—यह तो सरासर जबरदस्ती है।
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सरासरी  : स्त्री० [फा०] १. सरासर होने की अवस्था या भाव। २. किसी काम या बात में की जानेवाली ऐसी तीव्रता और शीघ्रता जिसमें ब्यौरे की बातों पर विशेष ध्यान न दिया जाय। अव्य० १. जल्दी में। २. मोटे हिसाब से। अनुमानतः।
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सराह  : स्त्री०=सराहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सराहत  : स्त्री० [अ०] किसी बात को स्पष्ट करने के लिए की जानेवाली उसकी व्याख्या। स्पष्टीकरण।
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सराहना  : स० [सं० श्लाघन] तारीफ करना। बड़ाई करना। प्रशंसा करना। स्त्री० तारीफ। प्रशंसा।
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सराहनीय  : वि० [बंगला से गृहीत] १. प्रशंसा के योग्य। तारीफ के लायक। श्लाघनीय। प्रशंसनीय। २. अच्छा। बढ़िया। (असिद्ध रूप)।
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सरि  : स्त्री० [सं०√सृ (गत्यादि)+इनि] झरना। निर्झर। स्त्री०=सरिता (नदी)। स्त्री० [सं० सृक] लड़ी। श्रृंखला। उदाहरण—मोतिन की सरि सिर कठमाल हार।—केशव। स्त्री०=सरवर (बराबरी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरिका  : स्त्री० [सं० सरिक-टाप्] १. मुक्ता। मोती। २. मोतियों की माला या लड़ी। ३. जवाहर। रत्न। ४. छोटा ताल या तालाब। ५. एक प्राचीन तीर्थ। ६. हिगुपत्री।
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सरिगम  : पुं०=सरगम।
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सरित  : स्त्री०=सरिता (नदी)।
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सरितराज  : पुं०=समुद्र।
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सरिता  : स्त्री० [सं० सरित=बहा हुआ] १. धारा या प्रवाह। २. नदी।
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सरिताल  : वि० [सं० सरिता+ल (प्रत्यय)] सरिताओं का नदियों से युक्त (प्रदेश)।
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सरित्  : स्त्री० [सं०√ सर् (गत्यादि)इति] नदी।
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सरित्  : स्त्री०=सरिता।
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सरित्पति  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र।
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सरित्वान् (त्वत्)  : पुं० [सं० सरित्+मतुप्+म, व, नुम्] समुद्र।
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सरित्सुत  : पुं० [सं० ष० त०] गंगा का पुत्र भीष्म।
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सरिदिही  : स्त्री० [फा० सर=सरदार+देह=गाँव] एक नजर या भेंट जो मध्य युग में जमींदार या उसका कारिदा किसानों से हर फसल पर लेता था।
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सरिद्  : स्त्री० [सं०] ‘सरित्’ का वह रूप जो उसे समस्त पद के आरंभ में लगाने पर प्राप्य हो जाता है।
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सरिमा (मन्)  : पुं० [सं०√सृ (गत्यादि)+इमनिच्] वायु। स्त्री० गति। चाल।
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सरियाँ  : स्त्री० [?] एक प्रकार का गीत जो बुँदेलखंड में बच्चा होने के समय गाया जाता है।
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सरिया  : पुं० [सं० शर] १. सरकंडे का छड़ जो सुनहले या रुपहले तार बनाने के काम आता है। सरई। २. पतली छड़ी। ३.लोहे का पतला लंबा छड़ जो स्लैब, लिंटल आदि के काम आता है। स्त्री० [?] ऊँची जमीन। पुं० [?] सुनारों की परिभाषा में पैसा या ऐसा ही और कोई सिक्का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरियाना  : स० [?] १. तरकीब से लगाकर इकट्ठा करना। बिखरी हुई चीजें ढंग से समेटना। जैसा—लकड़ी सरियाना, कागज सरियाना। २. पीटना या मारना (व्यंग्य) ३. कपड़ों की तह लगाना। जैसा—कमीज सरियाना।
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सरिवन  : पुं० [सं० शालपर्ण] शाल पर्ण नाम का पौधा। त्रिपर्णी। अंशुमती।
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सरिवर-सरिवरि  : स्त्री०=सरवर (बराबरी)। पुं०=सरोवर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरिश्त  : स्त्री० [सं० सृष्टि से फा०] १. सृष्टि। २. बनावट। ३.प्रकृति। स्वभाव।
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सरिश्ता  : पुं० [फा० सरिश्तः] १. अदालत। कचहरी। २. शासनिक कार्यालय का कोई विभाग। ३. उक्त विभाग का दफ्तर।
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सरिश्तेदार  : पुं० [फा० सरिश्तःदार] १. किसी विभाग या सरिश्ते का प्रधान अधिकारी। २. अदालतों में मुकदमों की नत्थियाँ आदि रखनेवाला कर्मचारी।
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सरिश्तेदारी  : स्त्री० [फा०] १. सरिश्तेदार होने का काम, पद या भाव।
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सरिस  : वि० [सं० सदृश, प्रा० सरिस] सदृश। समान। तुल्य। पुं०=सिरस (वृक्ष)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरी  : स्त्री० [सं० सरि-ङीष्] १. छोटा सरोवर। २. सोता। ३. झरना। नदी।
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सरीक  : वि० [भाव० सरीकता]=शरीक।
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सरीकत  : स्त्री० [फा० शिरकत] १. शिरकत। २. साझा।
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सरीकता  : स्त्री० [अ० शरीक+हि० ता (प्रत्य)] १. शिरकत। २. साझा। ३. हिस्सा।
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सरीख  : वि०=सरीखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरीखा  : वि० [सं० सदृश, प्रा० सरिस] [स्त्री० सरीखी] अवस्था, गुण, रूप आदि में किसी के तुल्य। जैसा—तुम सरीखा।
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सरीर  : पुं०=शरीर (देह)। वि०=शरीर (शरारती)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरीसृप  : पुं० [सं०] १. वे जन्तु जो जमीन पर रेंगते हुए चलते हैं। जैसा—कनखजूरा, छिपकली, मगर, साँप आदि। २. विष्णु का एक नाम।
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सरीसृप विज्ञान  : पुं० [सं०] जीव-विज्ञान की वह शाखा जिसमें सरीसृपों के गुणो, विभागों, स्वभावों आदि का विवेचन होता है। (हर्पेटॉलोजी)।
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सरीह  : वि० [अ०] १. प्रकट। खुला हुआ। २. स्पष्ट।
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सरु  : वि० [सं०√सृ (गत्यादि)+उन्] १. पतला। २. छोटा। पुं० १. तीर। वाण। २. तलवार की मूठ।
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सरुज  : वि० [सं०] रोग-युक्त। रोगी।
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संरुद्ध  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह रोका हुआ। २. चारों ओर से घिरा या घेरा हुआ। ३. अच्छी तरह बन्द किया हुआ। ४. छाया या ढका हुआ। ५. पूरी तरह से भरा हुआ। ६. मना किया हुआ। वर्जित।
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सरुपा  : स्त्री० [सं० सरूप-टाप्] भूत की स्त्री जो असंख्य रुद्रों की माता कही गई है।
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सरुष  : वि० [सं० अव्य० स०] रोष या कोध युक्त। कुपित। अव्य० क्रोधपूर्वक। रोषपूर्वक।
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सरुहना  : अ० १. =सुधरना। २. =सुलझना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरुहाना  : स० [सं० सरुज] १. चंगा करना। २. सुधारना। ३. सुलझाना।
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संरूढ  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह चढा हुआ। २. किसी पर अच्छी तरह जमा या लगा हुआ। ३. अंकुरित। ४. (घाव) जो पूज या सूख रहा हो। ५. आगे निकला या बाहर आया हुआ। ६. धृष्ट। प्रल्लभ। ७. पुष्ट और प्रौढ।
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सरूप  : स० [सं० ब० स०] [भाव० सरूपता] १. जिसका वैसा ही रूप हो। किसी के रूप जैसा। समान। सदृश। २. सुन्दर रूपवाला। ३. आकार वाला। रूप युक्त। अव्य० रूप में। तौर पर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरूपता  : स्त्री० [सं०] १. सरूप होने की अवस्था गुण या भाव। वह स्थिति जिसमें एक का रूप दूसरे से मिलता हो। २. ब्रह्मारूप हो जाना।
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सरूपत्व  : पुं०=सरूपता।
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सरूपी  : वि० [सं० सरूप+इनि] सरूप (दे०)।
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सरूर  : पुं० [फा० सुरूर] १. आनन्द। खुशी। प्रसन्नता। २. किसी मादक पदार्थ का हलका और सुखद नशा। ३. खुमार।
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सरूव  : पुं०=स्वरूप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरे-दस्त  : अव्य० [फा०] १. इस समय। अभी। २. प्रस्तुत समय में। फिलहाल।
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सरे-नौ  : अव्य० [फा] १. प्रारंभ से। शुरू से। २. नये सिरे से।
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सरे-शाम  : अव्य० [फा०] सन्ध्या होते ही या उससे कुछ पहले ही।
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सरेख  : वि० [सं० श्रेष्ठ] [स्त्री० सरेखी] १. अवस्था में बड़ा और समझदार। सयाना। २. चतुर। चालाक।
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सरेखना  : स०=सहेजना।
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सरेखा  : पुं० [हि० सरेखना] सरेखने की क्रिया या भाव। स्त्री०=श्लेषा (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरेबाजार  : अव्य० [फा०] खुले बाजार में और जनता के सामने।
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सरेला  : पुं० [सं० श्रृंखला] १. पाल में लगी हुई रस्सी जिसे ढीला करने से पाल की हवा निकल जाती है। २. वह रस्सी जिसमें मछली फँसाने का काँटा या बंसी बँधी रहती है। शिस्त।
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सरेश  : पुं०=सरेस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरेष  : वि०=सरेख (चतुर)।
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सरेस  : पुं० [फा० सरेश] एक प्रसिद्ध लसदार पदार्थ जो ऊंट, गाय, भैंस आदि के चमड़े और हड्डियों या मछली के पोटे को पकाकर निकालते हैं। तथा जो मुख्य रूप से लकड़ियाँ आदि जोड़ने के काम आता है। सहरेश। सरेश। वि० लसीला और चिपकनेवाला।
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सरेस-माही  : पुं० [फा० सरेश-माही] मछली के पोटे को उबालकर बनाया हुआ सरेस।
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सरो  : पुं० [फा० सर्व] एक प्रकार का सीधा छतनार पेड़ जो बगीचों में शोभा के लिए लगाया जाता है। बनझाऊ। विशेष—उर्दू फारसी कविताओं में इसका प्रयोग मनुष्य की ऊँचाई या कद की सुन्दरता सूचित करने के लिए उपमा के रूप में होता है।
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सरोई  : पुं० [हि० सरा] एक प्रकार का बड़ा पेड़।
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सरोकार  : पुं० [फा०] १. परस्पर व्यवहार का संबंध। २. लगाव वास्ता। सम्बन्ध।
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सरोकारी  : वि० [फा०] १. सरोकार रखनेवाला। २. जिससे सरोकार या संबंध हो।
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सरोज  : पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० सरोजिनी] १. कमल। २. एक प्रकार का छंद या वृत्त। वि० सर अर्थात् जलाशय से उत्पन्न।
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सरोजना  : स० [?] प्राप्त करना। पाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरोजमुख  : वि० [सं०] [स्त्री० सरोजमुखी] कमल के समान सुन्दर मुखवाला।
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सरोजिनी  : स्त्री० [सं०] १. कमल से भरा हुआ ताल। २. जलाशय में खिले हुए कमलों का समूह। कमलवन। ३. कमल।
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सरोजी (जिन्)  : वि० [सं० सरोज+इनि-दीर्घ, नलोप] १. कमल संबंधी। कमल का। २. स्थान जहाँ बहुत से कमल हों। ३.कमलों से युक्त। पुं० १. ब्रह्मा। २. गौतम बुद्ध का एक नाम।
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सरोंट  : स्त्री०=सिलवट (कपड़ों की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सरोट  : स्त्री०=सिलवट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरोत  : पुं०=श्रोत (कान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरोतर  : क्रि० वि० [सं० सर्वत्र] आदि से अंत तक। वि० १. आदि से अंत तक बिलकुल ठीक या पूरा। २. सांगोपांग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरोता  : पुं० १. =श्रोता। २. =सरौता।
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सरोत्सव  : पुं० [सं० ब० स०] १. बगला पक्षी। बक। २. सारस।
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सरोद  : पुं० [सं० स्वरोदय से फा०] १. वीणा की तरह का एक प्रकार का बाजा। २. नाच-गाना।
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संरोदन  : पुं० [सं० सम्√रुद्र् (रोना)+ल्युट्—अन] जोर-जोर से या ढाढ मारकर रोना।
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संरोध  : पुं० [सं०] १. रोक। रुकावट। २. अड़चन। बाधा। ३. आधुनिक राजनीति शत्रु के किसी देश या स्थान को चारों ओर से इस प्रकार घेरना कि बाहरी जगत से उसे कोई सहायता न मिल सके। नाकेबंदी। (ब्लाकेड) ४. बन्द करना। ५. हिंसा।
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संरोधन  : पुं० [सं०] [वि० संरोधनीय, संरोध्य, संरुद्ध] १. रुकावट डालना। रोकना। २. बाधा खड़ी करना। बाधक होना। ३.चारों ओर से घेरना। ४. सीमा या हद बनाना। ५. बन्द करना। मूँदना। ६. बंदी बनाना। कैद करना। ७. दमन करना। दबाना।
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संरोधनीय  : वि० [सं० सम्√रुध् (घेरना)+अनीयर] जिसका संरोधन हो सके या किया जाने को हो।
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सरोधा  : पुं०=स्वरोदय (विद्या)।
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संरोध्य  : वि० [सं० सम्√रुध् (ढकना)+ण्यत्]=संरोधनीय।
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संरोपण  : पुं० [सं० सम्√रुह् (अंकुरित होना)+णिच्-ह=प—ल्युट्-अन] [वि० संरोपणीय, संरोप्य, भू० कृ० संरोपित] १. पेड़ पौधा लगाना। जमाना। बैठाना। रोपना। २. घाव को सुखाकर अच्छा करना।
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संरोपित  : भू० कृ० [सं०√रुह् (उगना)+णिच्-ह=प-क्त] १. जिसका संरोपण हुआ हो या किया हो। २. ऊपर से लगाया या रोपा हुआ।
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संरोप्य  : वि० [सं० रुह् (उगना)+णिच-ह=प-ण्यत्] जिसका संरोपण हो सकता हो या होने को हो।
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सरोरुह  : पुं० [सं० सरस√रुह् (उत्पन्न होना)+क] कमल।
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सरोला  : पुं० [देश] एक प्रकार की मिठाई।
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सरोवर  : पुं० [सं० सरस√वृ (वरण करना)+अप्] १. तालाब। २. बड़ा ताल। झील।
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सरोसामान  : पुं० [फा० सर+व+सामान] सामग्री। असबाब।
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संरोह  : पुं० [सं० सम्√रुह् (उगना)+अच्] १. ऊपर चढना, जमना या बैठना। २. घाव सूखने पर पपड़ी जमना या बनना। ३. बीज आदि का अंकुरित होना। ४. आविर्भूत या प्रकट होना। आविर्भाव।
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संरोहण  : पुं० [सं० सम्√रुह् (अंकुरित होना)+ल्युट्-अन] [वि० संरोहणीय, संरोही, भू० कृ० संरोहित] संरोह होने की क्रिया या भाव।
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सरोही  : स्त्री०=सिरोही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सरौ  : पुं० [सं० शराब] १. कटोरी। प्याली। २. ढकना। ढक्कन। पुं० सरो (वृक्ष)।
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सरौता  : पुं० [सं० सार=लोहा+यंत्र, प्रा० सारवत्त] [स्त्री० अल्पा० सरौती] १. कैची की तरह का एक प्रकार का उपकरण जो सुपारी काटने के काम आता है। २. काठ में जड़ा हुआ एक प्रकार का उपकरण जो कच्चे आम आदि काटने के काम आता है।
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सर्क  : पुं० [सं०√ सृ (गत्यादि)+क, इत्वाभाव] १. मन। चित्त। २. वायु। हवा। ३. एक प्रजापति का नाम।
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सर्कस  : पुं० [अं०] १. वह स्थान जहाँ जानवरों का खेल दिखाया जाता है। २. वह बड़ी मंडली जिसके लोग अपने तथा पशुओं के अनोखे तथा साहसपूर्ण खेल दिखलाते हैं। ३. उक्त मंडली के खेलों का प्रदर्शन। जैसा—हम सरकस देखने जा रहे हैं।
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सर्का  : पुं० [अ० सर्कः] चोरी। पुं०=सरका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्कार  : स्त्री०=सरकार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्कारी  : वि०=सरकारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्किल  : पुं० [अ०] १. वृत्त। २. घेरा। ३. मंडल। ४. किसी प्रदेश का छोटा खंड या विभाग।
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सर्कुलर  : पुं० [अं०] गश्ती चिट्ठी। परिपत्र।
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सर्ग  : पुं० [सं०] १. चलना या आगे बढ़ना। गमन। २. गति। चाल। ३. प्रवाह। बहाव। ४. अस्त्र आदि चलाना,छोड़ना या फेंकना। ५. चलाया छोड़ा या फेंका हुआ अस्त्र। ६. उत्पत्ति। स्थान। उदगम। ७. जगत्। संसार। ८.जीव। प्राणी। ९. औलाद। संतान। १॰. प्रकृति। स्वभाव। ११. झुकाव। प्रवृत्ति। रुझान। १२. चेष्टा। प्रयत्न। १३. दृढ़ निश्चय या विचार। संकल्प। १४. बेहोशी। मूर्छा। १५. किसी ग्रन्थ विशेषतः काव्य ग्रन्थ का अध्याय या प्रकरण। १६. शिव का एक नाम।
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सर्ग-पताली  : वि०=सरग-पताली।
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सर्ग-पुट  : पुं० [सं० ब० स०] संगीत में शुद्ध राग का एक भेद।
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सर्ग-लेख  : पुं० [सं०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें ब्रह्माण्ड या विश्व की रचना, विस्तार, स्वरूप आदि का विवेचन हो। (कास्मोग्राफी)। विशेष—आधुनिक विचारकों के मत से ज्योतिष भूगोल, भौमिकी आदि इसी के अंग या विभाग है।
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सर्गक  : वि० [सं० सर्ग+कन्] जन्म देनेवाला। उत्पादक।
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सर्गबंध  : वि० [सं० ब० स०] ग्रन्थ या काव्य जो कई अध्यायों में विभक्त हो। जैसा—सर्गबंध काव्य।
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सर्गुन  : वि०=सगुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्ज  : पुं० [सं०] १. बड़ी जाति का शाल वृक्ष। अजकण वृक्ष। २. सलई का पेड़। ३. धूना। राल। ४. विजयसाल नामक वृक्ष। स्त्री० [अं०] एक प्रकार का बढ़िया ऊनी कपड़ा। सरज।
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सर्जक  : वि० [सं०] सर्जन करने या चलानेवाला। २. सृष्टि या रचना करनेवाला। स्रष्टा। पुं० १. बड़ी जात का शाल वृक्ष। २. विजयसाल नामक वृक्ष। ३. सलई का पेड़। ४. मठा डालकर फाड़ा हुआ दूध।
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सर्जन  : पुं० [सं०√सृज् (त्यागना)+ल्युट-अन] [वि० सर्जनीय, सर्जित] १. छोड़ना। त्याग करना। फेंकना। २. निकालना। ३. उत्पन्न करना या जन्म देना। ४. सेना का पिछला भाग। ५. सरल का गोंद। पुं० [अं०] पाश्चात्य चिकित्सा प्रणाली के अनुसार चीर-फाड़ आदि के द्वारा चिकित्सा करनेवाला चिकित्सक। शल्य-चिकित्सक।
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सर्जनी  : स्त्री० [सं० सर्जन-ङीष्] गुदा की बलियों में से बीचवाली वली जिसके द्वारा पेट का मल और वायु बाहर निकलती है।
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सर्जमणि  : पुं० [सं० ष० त०] १. सेमल का गोंद। मोचरस। २. धूना। राल।
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सर्जि  : स्त्री०=सज्जी।
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सर्जिका  : स्त्री० [सं०] सज्जीखार।
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सर्जिक्षार  : पुं० [सं० ष० त०] सज्जीखार।
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सर्जित  : भू० कृ० [सं०] जिसका सर्जन हुआ हो। सृष्ट। २. बनाया हुआ। रचित।
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सर्जु  : पुं० [सं०√ सृज् (लगना)+उन्] वणिक। व्यापारी। स्त्री० बिजली। विद्युत।
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सर्जू  : पुं० [सं०√सृज् (त्यागना)+ऊ] १. वणिक। व्यापारी। २. माला। हार। स्त्री०=सरयू। स्त्री०=सर्जु (बिजली)।
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सर्जेट  : पुं० [सं० सर्जेन्ट] सिपाहियों का हवलदार। जमादार।
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सर्जेट  : पुं० [अ०] पुलिस सेना आदि के सिपाहियों का जमादार। हवलदार।
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सर्टिफ़िकेट  : पुं० [अं०] प्रमाण-पत्र। सनद।
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सर्त  : स्त्री०=शर्त्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्ततंत्री  : स्त्री०[सं०] वह वीणा जिसमें बजाने के लिए सात तार लगे हों।
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सर्द  : वि० [फा०] १. इतना अधिक ठंढा कि कँपकँपी होने लगे। जैसा—सर्द हवा। मुहावरा—सर्द हो जाना=मर जाना। २. ढीला। शिथिल। ३. धीमा। मंद। ४. काहिल। सुस्त। ५. आवेग उत्साह प्रखरता आदि से रहित या हीन। क्रि० प्र०—पड़ना। ६. नपुंसक। नामर्द। ७. स्वाद रहित। फीका।
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सर्द-दाई  : स्त्री० [सं० सर्द+हि० बाई] हाथी की एक बीमारी जिसमें उसके पैर जकड़ जाते हैं।
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सर्द-बाजारी  : स्त्री० [फा०+हि] बाजार की वह अवस्था जब माल तो यथेष्ट होता है परन्तु उसके ग्राहक नहीं होते।
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सर्दई  : वि० पुं० सरदई।
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सर्दखाना  : पुं० [फा० सर्दखानः] १. वह बड़ा और ठंढा कमरा जो मध्ययुग में कस्बों और छोटे-छोटे नगरों में घनी छाँह वाले वृक्षों के नीचे इस उद्देश्य से बनाया जाता था कि गरमी के दिनों में लोग दोपहर के समय वहाँ आकर ठंढक में समय बितावें। २. आजकल विशिष्ट प्रकार से बनाई हुई वह इमारत जिसमें यांत्रिक साधनों से ठंढक की व्यवस्था रहती है, और इसीलिए जहां तरकारियाँ फल आदि सड़ने से बचाने के लिए सुरक्षित रूप में रखे जाते हैं। ठंढा गोदाम। सीतागार। (कोल्ड स्टोरेज)।
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सर्दमिजाज  : वि० [फा०+अ०] [भाव० सर्दमिजाजी] १. (व्यक्ति) जिसमें आवेग, उमंग, प्रखरता आदि बातें सहसा न आती हों। उत्साहहीन। मुर्दादिल। २. जिसमें शील, संकोच आदि का अभाव हो। रूबे स्वभाववाला।
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सर्दा  : पुं०=सरदा (फल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्दाबा  : पुं०=सरदाबा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्दार  : पुं०=सरदार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्दी  : स्त्री०=सरदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्धा  : स्त्री०=श्रद्धा। पुं०=सरदा (फल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्प  : पुं० [सं०√ सप् (जाना)+अच्-घञ्, वा] [स्त्री० सर्पिणी] १. रेंगते हुए चलने की क्रिया या भाव। २. सरीसप वर्ग का प्रसिद्ध जन्तु सांप। ३. पुराणानुसार ग्यारह रुद्रों में से एक। ४. एक प्राचीन म्लेच्छ जाति। ५. नागकेसर। ६. ज्योतिष में, एक दुष्ट योग।
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सर्प-तृण  : पुं० [सं०] नकुलकंद।
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सर्प-दंष्ट्र  : पुं० [सं०] १. सांप का दाँत। २. विशेषतः साँप का विष दाँत। ३. साँप के विष-दांत से लगनेवाला घाव। ४. जमालगोटा। ५. दंती।
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सर्प-दंष्ट्री  : स्त्री० [सं० सर्पदष्ट्र-ङीप्] १. वृश्चिकाली। २. दंती।
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सर्प-नेत्रा  : स्त्री० [सं०] १. सर्पाक्षी। २. गंध-नाकुली।
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सर्प-फण  : पुं० [सं०] अफीम। अहिफेन।
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सर्प-बंध  : पुं० [सं०] १. कुटिल या पेचीली गति, रेखा आदि। २. कपटपूर्ण-युक्ति।
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सर्प-बेलि  : स्त्री० [सं०] नागवल्ली। पान।
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सर्प-भक्षक  : पुं० [सं०] १. नकुलकंद। नाकुलीकंद। २. मोर। मयूर।
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सर्प-मीन  : पुं० [सं०] एक प्रकार की समुद्री मछली जो साँप की तरह लंबी होती है और जिनके शरीर में डैने या पंख नहीं होते। (ईल)।
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सर्प-यज्ञ  : पुं० [सं०] जनमेजय का वह प्रसिद्ध यज्ञ जो उन्होंने नागों अर्थात् साँपों का नाश करने के लिए किया था। नाग-यज्ञ।
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सर्प-लता  : स्त्री० [सं०] नागवल्ली। पान।
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सर्प-विद्या  : स्त्री० [सं०] १. वह विद्या जिसमें सर्पो, उनकी जातियों उनके स्वभावों आदि का विवेचन होता है। २. साँपो के पकड़ने और उनको वश में करने की विद्या।
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सर्प-व्यूह  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में, एक प्रकार की सैनिक व्यूह रचना जिसमें सैनिकों की स्थापना सर्प के आकार की होती थी।
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सर्प-शीर्ष  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार की ईंट जो यज्ञ की वेदी बनाने के काम में आती थी। २. तांत्रिक पूजन में, पंजे और हाथ की एक मुद्रा। ३. एक प्रकार की मछली जिसका सिर साँप की तरह होता है। (ओफिसेफैलस)।
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सर्प-सत्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सर्प-यज्ञ।
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सर्प-सत्री  : पुं० [सं० सर्पसत्र+इनि] सर्प-सत्र अर्थात् नागयज्ञ रचनेवाले राजा जनमेजय।
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सर्पकाल  : वि० [सं० ष० त०] जो सर्प का काल हो। पुं० गरुड़।
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सर्पगति  : वि० [सं० ष० त०] १. साँप की तरह टेढी चाल चलनेवाला २. कुटिल प्रकृति का। स्त्री० टेढी चाल।
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सर्पगंधा  : स्त्री० [सं०] १. गंध नाकली। २. नकुलकंद। ३. नाग-दमन।
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सर्पच्चन्न  : पुं० [सं०] छत्राक खुमी। कुकुरमुत्ता।
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सर्पण  : पुं० [सं०√सप् (धीरे चलना)+ल्युट—अन] [वि० सर्पणीय, भू० कृ० सर्पित] १. पेट के बल खिसकना। रेंगना। २. धीरे-धीरे चलना। ३. छोड़े हुए तीर का जमीन से कुछ ही ऊपर रहकर चलना। ४. टेढ़ा चलना।
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सर्पदंती  : स्त्री० [सं०] नागदंती। हाथी शुंडी।
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सर्पपति  : पुं० [सं०] शेषनाग।
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सर्पपुष्पी  : स्त्री० [सं०] १. नागदंती। २. बाँझ ककोड़ा।
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सर्पभुक, सर्पभुज  : पुं० [सं०] सर्प-भक्षक।
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सर्पयाग  : पुं० [सं०] सर्पयज्ञ।
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सर्पराज  : पुं० [सं०] १. सांपों के राजा, शेषनाग। २. वासुकि।
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सर्पहा (हन्  : वि० [सं०] सर्प को मारनेवाला। पुं० नेवला। स्त्री० सर्पाक्षी। सरहँटी।
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सर्पा  : स्त्री० [सं० सर्प-टाप्] १. साँपिन। सर्पिणी। २. फणि-लता।
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सर्पाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] १. रुद्राक्ष। शिवाक्ष। २. सर्पाक्षी। सरहँटी।
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सर्पाक्षी  : स्त्री० [सं० सर्पाक्ष-ङीप्] १. सरहंटी। गंध-नाकुली। ४. सफेद अपराजिता। ५. शंखिनी।
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सर्पांगी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. सरहँटी। २. नकुलकंद। २. सिंहली पीपल।
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सर्पादनी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. गरुड़। २. नेवला। ३. मोर।
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सर्पावास  : पुं० [सं० ष० त०] १. सांप के रहने का स्थान। २. चन्दन का पेड़।
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सर्पाशन  : वि० [सं० ब० स०] सर्प जिसका भोजन हो। पुं० १. गरुड़। २. मोर।
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सर्पास्य  : वि० [सं० ब० स०] साँप के समान मुखवाला।
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सर्पास्या  : स्त्री० [सं० सर्पास्य-टाप्] पुराणानुसार एक योगिनी।
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सर्पि  : पुं० [सं०√सप् (इत्यादि)+इति] घृत। घी।
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सर्पिका  : स्त्री० [सं० सप्+कन्-टाप्—इत्व] १. छोटा साँप। २. एक प्राचीन नदी।
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सर्पिणी  : स्त्री० [सं०√सप् (धीरे-धीरे चलना)+णिनि-ङीप्] १. साँप की मादा। साँपिन। २. भुजंगी नाम की लता। ३. रहस्य संप्रदाय में माया की एक संज्ञा।
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सर्पित  : भू० कृ० [सं० सर्प+इतच्] १. सर्प के रूप में आया या लाया हुआ। २. साँप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा चलना या रेंगता हुआ। उदाहरण—सुख से सर्पित मुखर स्रोत नित प्रीति स्रवित पिक कूजन।—पंत। पुं० साँप के काटने से शरीर में होनेवाला क्षत या घाव।—पंत।
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सर्पिल  : वि० [सं०] [भाव० सर्पिलता] जो साँप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा होता हुआ आगे बढ़ता हो। (सर्पेन्टाइन)।
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सर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं०] [सं० सर्पिणी] १. रेगनेवाला। २. धीरे-धीरे चलनेवाला। पुं०=सर्पि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्पेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] सर्पों के स्वामी, वासुकि।
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सर्पेष्ट  : पुं० [सं० ष० त०] सर्प का इष्ट अर्थात् चंदन का वृक्ष।
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सर्पोन्माद  : पुं० [सं०] उन्माद (रोग) का एक भेद जिसमें मनुष्य साँप की तरह फुफकारने लगता है। (वैद्यक)
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सर्फ  : वि० [अ० सर्फ़] व्यय किया हुआ। खर्च किया हुआ। जैसा—इस काम में सौ रुपए सर्फ हो गये। पुं० शब्द-शास्त्र। व्याकरण।
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सर्फा  : पुं० [अ० सर्फ] १. खर्च। व्यय। २. किफायत। मित-व्यय। ३. वह अवस्था जिसमें मनुष्य आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करता बल्कि धन जोड़ता चलता है।
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सर्बरी  : स्त्री०=शर्वरी (रात)।
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सर्बस  : वि०=सर्वस्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्म  : पुं०=शर्म (आनन्द)। स्त्री०=शर्म (लज्जा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्रक  : स्त्री० [हि० सर्राना] सर्राते हुए आगे बढ़ने की क्रिया या भाव।
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सर्रा  : पुं० [अनु० सरसर] लोहे या लकड़ी का वह छड़ जिस पर गराड़ी घूमती है। धुरी। घुरा।
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सर्राटा  : पुं० [अनु० सरसर] १. हवा के तेज चलने से होनेवाला शब्द। २. किसी के तेज चलने से होनेवाला सर सर शब्द। मुहावरा-सर्राटे भरना=तेजी से इधर-उधर आना-जाना।
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सर्राना  : अ० [अनु०] सरसर करते हुए आगे बढ़ना।
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सर्राफ  : पुं० दे० ‘सराफ’।
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सर्राफा  : पुं०=सराफा।
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सर्राफी  : स्त्री०=सराफी।
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सर्व  : वि० [सं०] आदि से अन्त तक। सब। समस्त। सारा। पुं० १. शिव। २. विष्णु। ३. पारा। ४. रसौत। ५. शिलाजीत। पुं०=सरो (पेड़)।
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सर्व-काम  : वि० [सं०] सब प्रकार की कामनाएँ रखनेवाला। २. सब प्रकार की कामनाएँ पूरी करनेवाला। पुं० १. शिव। २. एक अर्हत् या बुद्ध का नाम।
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सर्व-कामद  : वि० [सं०] [स्त्री० सर्व-कामदा] सभी प्रकार की कामना पूरी करनेवाला। पुं० शिव।
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सर्व-काल  : अव्य० [सं०] हर समय। सदा।
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सर्व-केसर  : पुं० [सं०] बकुल वृक्ष या पुष्प। मौलसिरी।
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सर्व-क्षमा  : स्त्री० [सं०] प्रधान शासक द्वारा बंदियों विशेषतः राजनीतिक बंदियों को सामूहिक रूप से किया जानेवाला क्षमा-जान। (एमनेस्टी)।
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सर्व-क्षार  : पुं० [सं०] १. सब कुछ क्षार अर्थात् नष्ट करना। २. युद्ध में हारती हुई सेना का पीछे हटते समय फसलो, पुलों आदि को इस उद्देश्य से नष्ट करना कि शत्रु उससे लाभ न उठा सकें। (स्कार्च्ड अर्थ)
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सर्व-गति  : वि० [सं०] १. सब को गति प्रदान करनेवाला। २. जो सब की गति (आश्रय या शरण) देता हो। जैसा—सर्व-गति परमात्मा।
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सर्व-गध  : पुं० [सं०] १. दालचीनी। २. इलायची। ३. केसर। ४. तेजपत्ता। ५. शीतलचीनी। ६. लौंग। ७. अगर। अगरु। ८. शिला रस। ९. नाग केसर।
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सर्व-गामी  : वि०=सर्वग।
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सर्व-ग्राम  : पुं० [सं०] १. चन्द्र या सूर्य के ग्रहण का वह प्रकार या स्थिति जिसमें उसका मंडल पूर्ण रूप से छिप जाता है। पूर्ण ग्रहण। खग्रास। २. किसी का सब कुछ लेकर खा या पचा जाना।
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सर्व-चक्रा  : स्त्री० [सं०] बौद्ध तांत्रिकों की एक देवी।
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सर्व-चारी  : वि० [सं० सर्वचारिन्] [स्त्री० सर्वचारिणी] १. सब जगह घूमने-फिरनेवाला। २. सब में रहने या संचार करनेवाला। सर्वव्यापक। पुं० शिव का एक नाम।
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सर्व-जनीन  : वि० [सं०] १. जिसका सम्बन्ध जाति,राष्ट्र या समाज से हो० व्यक्तिगत का विपर्याय। जैसा—सर्वजनीन आज्ञा। २. जिसके उपभोग पर किसी की मनाही न हो। जैसा—सर्वजनीन चित्र।
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सर्व-जीवी (विन्)  : वि० [सं०] जिसके पिता, पितामह, और प्रतितामह तीनों जीवित हो।
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सर्व-तंत्र  : पुं० [सं०] १. सभी प्रकार के शास्त्रीय सिद्धान्त। २. व्यक्ति जिसने सब शास्त्रों का अध्ययन किया हो। वि० जो सभी प्रकार के शास्त्रीय सिद्धान्तों के अनुकूल हो। जिससे सभी शास्त्र सम्मत हों।
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सर्व-तापन  : पुं० [सं० ष० त०] १. (सब को तपानेवाला) सूर्य। २. कामदेव।
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सर्व-दल  : पुं० [सं०] [वि० सर्वदलीय] किसी विषय पर विचर करने अथवा किसी क्षेत्र में काम करनेवाले सभी दल या वर्ग। जैसा—उस समय एक सर्वदल सम्मेलन हुआ था। वि०=सर्वदलीय।
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सर्व-दलीय  : वि० [सं०] १. सब दलों से संबंध रखनेवाला। २. जिसमें सभी दल योग दे रहे हों। सभी दलों द्वारा सामूहिक रूप से किया जानेवाला (आल पार्टी)।
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सर्व-नाशक  : वि० [सं०] सर्वनाश करनेवाला। विध्वंसकारी।
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सर्व-नाशी  : वि०=सर्व-नाशक।
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सर्व-निधान  : पुं० [सं०] १. सब का नाश या वध। २. एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
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सर्व-नियंता (तृ)  : वि० [सं०] सब को अपने नियंत्रण या वश में रखनेवाला।
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सर्व-प्रिय  : वि० [सं०] [भाव० सर्वप्रियता] सब को प्यारा। जिसे सब चाहें। जो सबको अच्छा लगे। (पापुलर)।
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सर्व-प्रियता  : स्त्री० [सं०] सब का प्रिय होने या अच्छा लगने का भाव। लोक-प्रियता (पापुलैरिटी)।
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सर्व-भोग  : पुं० [सं० ब० स०] प्राचीन भारतीय राजनीति में ऐसा वैश्य मित्र जो सेना कोश तथा भूमि से सहायता करे। (कौ०)।
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सर्व-भोगी  : पुं० [सं०] प्राचीन भारतीय राजनीति में वश में किया हुआ ऐसा मित्र जो आसपास के जांगलिकों पड़ोसी जातियों आदि से रक्षित रहने में सहायता देता है।
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सर्व-मंगला  : वि० [सं० ब० स०] सब प्रकार का मंगल करनेवाली। स्त्री० १. दुर्गा। २. लक्ष्मी।
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सर्व-मान्य  : वि० [सं०] [भाव० सर्वमान्यता] जिस सब लोग मानते हों।
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सर्व-मूषक  : पुं० [सं०] सब को मूसने या ले जानेवाला काल या मृत्यु।
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सर्व-मेध  : पुं० [सं०] सार्वजनित सत्र। २. एक प्रकार का सोमयाग।
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सर्व-रत्नक  : पुं० [सं०] जैन पुराणों की नौ निधियों में से एक।
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सर्व-रस  : पुं० [सं०] १. वह जो सभी विधाओं या विषयों का अच्छा ज्ञाता हो। २. राल। धूना। २. नमक। ३. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा।
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सर्व-रसा  : स्त्री० [सं०] धान की खीलों का माँड़ (वैद्यक)।
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सर्व-रूप  : वि० [सं० ब० स०] जो सब रूपों में हो। सर्वस्वरूप। जो सभी रुपों में वर्तमान या व्याप्त रहता हो। पुं० एक प्रकार की समाधि।
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सर्व-लोकेश  : पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। ४. कृष्ण
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सर्व-लोचना  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा जो औषध के काम मे आता है।
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सर्व-वर्तुल  : वि० [सं०] (पिंड) जिसका प्रत्येक बिन्दु उसके मध्य बिन्दु से समान अन्तर पर हो। गोल। (स्फेरिकल)।
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सर्व-वल्लभा  : स्त्री० [सं०] कुलटा या पुंश्चली।
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सर्व-वल्ली  : स्त्री० [सं०] नागवल्ली।
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सर्व-वैनाशिक  : वि० [सं०] आत्मा आदि सब को नाशवान् माननेवाला। पुं० बौद्ध।
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सर्व-व्यापक, सर्वव्यापी (पिन्)  : वि० [सं०] जो सब पदार्थों और सब स्थानों में प्याप्त हों। पुं० १. ईश्वर। २. शिव।
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सर्व-शक्तिमान् (मत्)  : वि० [सं०] [भाव० सर्वशक्तिमत्ता] [स्त्री० सर्वशक्तिमती] जिसमें सम्पूर्ण शक्ति निहित हो। पुं० ईश्वर का एक नाम। (ओम्नीपोटेन्ट)।
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सर्व-शून्यवादी  : पुं० [सं०] बौद्ध।
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सर्व-श्री  : वि० [सं०] एक आदरसूचक विशेषण जो अनेक व्यक्तियों के नामों का उल्लेख होने पर उन सबके साथ अलग-अलग श्री न लगाकर उन सब के साथ सामूहिक सूचक के रूप में, आरंभ में लगाया जाता है। जैसा—सर्वश्री सीताराम, माधोप्रसाद, बालकृष्ण, नारायणदास आदि।
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सर्व-श्रेष्ठ  : वि० [सं०] [भाव० सर्वश्रेष्ठता] सब में बड़ा। सब से बढ़कर।
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सर्व-सख  : वि० [सं०] १. जो सख का सखा हो। २. जो सबके साथ हिल-मिल जाता हो। जो सबके साथ मिलता या सख्य-भाव स्थापित कर लेता हो। यारबाश।
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सर्व-सत्ता  : स्त्री० [सं०] [वि० सर्व-सत्ताक] किसी कार्य या विषय से संबंध रखनेवाली सब प्रकार की सत्ताएँ या अधिकार।
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सर्व-सत्ताक  : वि० [सं०] १. सब प्रकार की सत्ताओं से संबंध रखनेवाला। २. सब प्रकार की सत्ताएँ या अधिकार रखनेवाला।
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सर्व-सम्मत  : भू० कृ० [सं०] जो सबकी सम्मति से हुआ हो। (यूनैनिमस) जैसा—वह प्रस्ताव सर्व-सम्मत था।
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सर्व-सम्मति  : स्त्री० [सं०] सब की एक सम्मति या राय। मतैक्य (यूनैनिमिटी)।
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सर्व-सहा  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी का एक नाम।
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सर्व-संहार  : पुं० [सं०] १. ऐसा संहार जिससे कोई न बच निकला हो। (पोग्रोम)। २. काल, जो सब का संहार करता है।
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सर्व-साधारण  : पुं० [सं०] सभी प्रकार के लोग। जनता। आम लोग। वि० [भाव० सर्व-साधारणता] १. जो सब में समान रूप से पाया जाता हो। सामान्य। (कामन) २. जो सब लोगों के लिए हो। (पब्लिक)।
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सर्व-सामान्य  : वि० [सं०] [भाव० सर्व-सामान्यतया] १. जो सबमें समान रूप से पाया जाय। (कामन) २. जो सब लोगों के लिए हो (पब्लिक)।
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सर्व-सिद्ध  : स्त्री० [सं०] फलित ज्योतिष में चतुर्थी नवमी और चतुर्दशी ये तीन तिथियाँ।
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सर्व-सिद्धि  : स्त्री० [सं०] १. सब प्रकार की इच्छाओं तथा कार्यों की सिद्धि होना। २. बेल का पेड़ और फल।
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सर्व-सोख  : वि० [सं० सर्व+हि० सोखना] सब कुछ सोख लेने निगल जाने या ले लेनेवाला। उदाहरण—सत्यानासी जुद्ध कालहुँ सर्व-सोख सों।—रत्ना।
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सर्वक  : वि० [सं० सर्व+कन्] सब। समस्त। सारा।
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सर्वकर्ता  : पुं० [सं० ष० त० सर्वकर्तृ] ब्रह्मा।
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सर्वकष  : वि० [सं० सर्व√कष् (हिंसा करना)+खच्-नु्म्] १. सबको पीड़ित करनेवाला। २. सब से कुछ न कुछ ऐठकर या छीन-झपटकर ले लेनेवाला। पुं० १. दुष्ट व्यक्ति। २. पाप।
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सर्वग  : वि० [सं० सर्व√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० सर्वगा] जिसकी गति सभी ओर या सब जगह हो। पुं० १. ब्रह्मा। २. जीवात्मा। ३. शिव। ४. जल। पानी।
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सर्वगत  : वि० [सं०] १. जो सब में प्याप्त हो। सर्वव्यापक। २. जो किसी जाति, वर्ग या समष्टि के सभी अंगों सदस्यों आदि के सामान्य रूप से पाया जाता हो। पुं० प्राचीन काल में ऐसा राजकर्मचारी जिसे सभी जगहों में आने-जाने का पूर्ण अधिकार हो।
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सर्वग्रासी (सिन्)  : वि० [सं०] १. सब कुछ ग्रस या अपने वश में कर लेनेवाला। २. किसी का सर्वस्य हर लेनेवाला।
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सर्वजन  : वि० [सं०] १. सब लोगों से संबंध रखनेवाला। सार्वजनिक सार्विक। २. सभी स्थानों में प्राय समान रूप से पाया जानेवाला सार्वदेशिक।
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सर्वजया  : स्त्री० [सं०] १. सबजय नाम का पौधा जो बगीचों में फूलों के लिए लगाया जाता है। देवकली। २. मार्गशीर्ष महीने में होनेवाला स्त्रियों का एक प्राचीन पर्व।
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सर्वजित्  : वि० [सं०] १. सब को जीतनेवाला। २. जो सब से बढ़-बढ़ कर हो। सर्वश्रेष्ठ। उत्तम। पुं० १. काल, या मृत्यु जो सबको जीतकर अपने अधीन कर लेती है। २. एक प्रकार का एकाह यज्ञ। ३. २१वाँ संवत्सर।
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सर्वज्ञ  : वि० [सं०] [स्त्री० सर्वज्ञा] सब कुछ जाननेवाला। जिसे सारी बातों या विषयों का ज्ञान हो। पुं० १. ईश्वर। २. देवता। ३. गौतम बुद्ध। ४. अर्हत। ५. शिव।
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सर्वज्ञता  : स्त्री० [सं० सर्वज्ञ+तल्-टाप्] सर्वज्ञ होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सर्वज्ञत्व  : पुं० [सं० सर्वज्ञ+त्व]=सर्वज्ञता।
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सर्वज्ञानी  : वि० [सं०] सब बातों का ज्ञान रखनेवाला। सर्वज्ञ।
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सर्वतः  : अव्य० [सं० सर्व+तस्] १. सभी ओर। चारों तरफ। २. सभी जगह। ३. सभी प्रकार से० हर तरह से। ४. पूर्ण रूप से। पूरी तरह से।
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सर्वतो  : अव्य० [सं०] संस्कृत सर्वतः का वह रूप जो उसे समस्त पदों के आरम्भ में लगाने पर प्राप्त होता है। जैसा—सर्वतोचक्र सर्वतोभद्र आदि।
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सर्वतोचक  : पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का वर्गाकार चक्र जो कुछ विशिष्ट प्रकार के शुभाशुभ फल जानने के लिए बनाया जाता है।
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सर्वतोभद्र  : वि० [सं०] १. सब ओर से मंगल कारक। सर्वांश में शुभ या उत्तम। २. जिसकी दाढ़ी, मूँछें और सिर के बाल मुंडे हुए हों। पुं० १. विष्णु के रथ का नाम। २. ऐसा चौकोर प्रासाद या भवन जो चारों ओर से खुला हो और जिसकी परिक्रमा की जा सकती हो। ३. कर्मकांड में एक प्रकार का चौकोर चक्र जो पूजन के समय भूमि, वस्त्रों आदि पर बनाया जाता है। ४. प्राचीन भारत में एक प्रकार की चौकोर सैनिक व्यूह रचना। ५.साहित्य में एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसमें चौकोर स्थापित किए हुए बहुत से खानों में कविता के चरणों के अक्षर लिखे जाते हैं। ६. योग साधन का एक प्रकार का आसन या मुद्रा। ७. एक प्रकार की पहेली जिसमें शब्द के खंडाक्षरों के भी अलग-अलग अर्थ लिखे जाते है। ७. एक प्रकार का गंध-द्रव्य। ८. नीम का पेड़। ९. बाँस।
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सर्वतोभद्रा  : स्त्री० [सं० सर्वतोभद्र-टाप्] १. काश्मीरी। गंभारी। २. अभिनेत्री। नटी।
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सर्वतोभाव  : अव्य० [सं०] १. सब प्रकार से। पूर्ण रूप से। अच्छी तरह। भली-भाँति।
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सर्वतोमुख  : वि० [सं०] सर्वतोमुखी। पुं० १. ब्रह्मा। २. जीव। ३. शिव। ४. अग्नि। ५. जल। ६. स्वर्ग। ७. आकाश। ८. एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना।
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सर्वतोमुखी (खिन्)  : वि० [सं०] १. जिसका मुँह चारो ओर हो। २. जो सभी ओर प्रवृत्त रहता हो। ३. जो सभी तरह के कार्यो या क्षेत्रों के हर विभाग में दक्ष हो। (आल रारउन्डर)। पुं०=सर्वतोमुख।
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सर्वतोवृत्त  : वि० [सं० ब० स०] सर्व-व्यापक।
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सर्वत्मवादी  : वि० [सं०] सर्वात्मवाद संबंधी। सर्वात्मवाद का। पुं० वह जो सर्वात्मवाद का अनुयायी या समर्थक हो। (पैन्थिईस्ट)
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सर्वथा  : अव्य० [सं० सर्व+थाल्] १. सब प्रकार से। सब तरह से। हर दृष्टि से। हर विचार से। ३. निरा। बिलकुल। सरासर। जैसा—आप का यह कथन सर्वथा मिथ्या है।
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सर्वथैव  : अव्य० [सं० सर्वथा+एव] १. पूरी तरह से। निरा। बिलकुल। २. सर्वथा।
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सर्वद  : वि० [सं० सर्व√दा (देना)+क] सब कछ देनेवाला। पुं० शिव का एक नाम।
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सर्वदंड-नायक  : पुं० [सं० सर्वदण्ड-कर्म० स० नायक, ष० त०] प्राचीन भारत में सेना या पुलिस का एक ऊंचा अधिकारी।
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सर्वदमन  : पुं० [सं० ब० स०] शकुंतला के पुत्र भरत का एक नाम।
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सर्वदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० सर्व√दृश् (देखना)+णिनि] [स्त्री० सर्वदर्शिणी] विश्व में होनेवाली सभी बातें देखनेवाला।
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सर्वदा  : अव्य० [सं०] सब समयों में हमेशा। सदा।
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सर्वधारी (रिन्)  : पुं० [सं० सर्व√धृ (रखना)+णिनि] १. साठ संवत्सरों में से बाइसवाँ संवत्सर। २. शिव।
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सर्वनाभ  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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सर्वनाम  : पुं० [सं० सर्व-नामन्] १. वह जो सब का नाम हो, अथवा हो सकता हो। २. व्याकरण में ऐसे विकारी शब्दों का भेद या वर्ग जिनका प्रयोग सभी नामों या संज्ञाओं के स्थान पर उनके प्रतिनिधि के रूप में होता है। (प्रोनाउन) जैसा—तुम हम यह वह आदि। ३. उक्त शब्द-भेद का कोई शब्द।
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सर्वनाश  : पुं० [सं० ष० त० पंच, त० वा] पूरी तरह से होनेवाला ऐसा नाश जिसके उपरांत कुछ भी बच न रहे। पूरा विनाश।
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सर्वनाशन  : पुं० [सं०] सर्वनाश करना। वि० सर्वनाशक।
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सर्वपा  : वि० [सं०] सब कुछ पीनेवाला। स्त्री० बलि की स्त्री का नाम।
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सर्वभक्षी  : वि० [सं० सर्वभक्षिन्] [स्त्री० सर्वभक्षिणी] सब कुछ खानेवाला। पुं० अग्नि। आग।
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सर्वभाव  : पुं० [सं०] १. संपूर्ण सत्ता। सारा अस्तित्व। २. संपूर्ण आत्मा। विश्वात्मा। ३. पूरी तरह से होनेवाली तुष्टि।
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सर्वभावन  : पुं० [सं०] महादेव। शिव।
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सर्वभोगी (गिन्)  : वि [सं०] [स्त्री० सर्वभोगिनी] १. सब का भोग करने और आनन्द लेनेवाला। २. सब कुछ खा लेनेवाला।
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सर्वयोगी (गिन्)  : पुं० [सं० सर्वयोगिन्] शिव का एक नाम।
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सर्वरी  : स्त्री०=शर्वरी (रात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्वलौह  : पुं० [सं०] १. ताँबा। ताभ्र। २. तीर। बाण।
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सर्ववाद  : पुं० [सं०] सर्वेश्वरवाद।
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सर्ववास  : पुं० [सं०] शिव का एक नाम।
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सर्वविद्  : वि० [सं० सर्व√विद् (जानना)+क्विप्] सर्वज्ञ। पुं० १. ईश्वर। २. ओंकार।
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सर्वशः  : अव्य० [सं०] १. पूरा-पूरा। बिलकुल। २. पूरी तरह से। ३. सभी प्रकारों या दृष्टियों से। ४. अपने पूर्ण रूप में (टोटली)।
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सर्वस  : पुं०=सर्वस्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सर्वसर  : पुं० [फा०] एक प्रकार का रोग जिसमें मुँह में छाले पड़ जाते हैं और खुजली तथा पीड़ा होती है।
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सर्वसाक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं०] १. ईश्वर। परमात्मा। २. अग्नि। आग। ३. वायु। हवा।
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सर्वसाधन  : पुं० [सं०] १. सोना। स्वर्ण। २. धन। दौलत। ३. शिव का एक नाम। वि० सब का साधन।
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सर्वस्तोम  : पुं० [सं०] एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
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सर्वस्य-संधि  : स्त्री० [सं०] प्राचीन भारतीय राजनीति में शत्रु को अपना सर्वस्य देकर उससे की जानेवाली संधि।
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सर्वस्व  : पुं० [सं०] १. किसी की दृष्टि से वह सारी संपत्ति जिसका वह स्वामी हो। जैसा—लड़के की पढ़ाई में उसने सर्वस्य गँवा दिया। २. अमूल्य तथा महत्वपूर्ण पदार्थ। जैसा—यही लड़का उस बुढ़िया का सर्वस्य था।
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सर्वस्वाहा  : स्त्री० दे० ‘सर्वक्षार’।
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सर्वस्वी (स्विन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० सर्वस्विनी] नापित पिता और गोप माता से उत्पन्न एक संकर जाति। (ब्रह्म-वैवर्त पुराण)।
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सर्वहर  : वि० [सं०] १. सब कुछ हर लेनेवाला। पुं० १. यमराज। २. काल। मृत्यु। ३. शिव। ४. वह जो किसी की समस्त सम्पत्ति का उत्तराधिकारी हो।
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सर्वहारा  : वि० [सं० सर्व+हरण, बंगला से गृहीत] १. जिसका सब कुछ हरण कर लिया गया हो। २. जो अपना सब कुछ खो या गँवा चुका हो। पुं० १. वह जो अपना सर्वस्य गँवाकर कंगाल हो गया हो। २. आधुनिक राजनीति में समाज का वह परम निर्धन व्यक्ति या वर्ग जो केवल मेहनत-मजदूरी करके ही निर्वाह करता हो। (प्रोलिटेरिएट)।
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सर्वहारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सर्वहारिणी] सब कुछ हरण कर लेनेवाला।
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सर्वाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] रुद्राक्ष। शिवाक्ष।
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सर्वाक्षी  : स्त्री० [सं० सर्वाक्ष-ङीष्] दुधिया घास। दुद्धी।
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सर्वाँग  : पुं० [सं०] १. सब अंग। समस्त अवयव। २. विशेषतः शरीर के सभी अंग। ३. समूह। ४. सभी अंगों का समूह। ५. सभी वेदांग। ६. शिव।
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सर्वांगपूर्ण  : वि० [सं०] अपने सब अंगों या अवयवों से युक्त।
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सर्वांगिक  : वि० [सं० सर्वाग+ख-ईन] १. सब अंगो से संबद्ध। २. सब अंगों में होनेवाला।
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सर्वांगीण  : वि० [सं० सर्वाग्ङ+ख—ईन] १.जो सभी अंगों से युक्त हो। २. सभी अंगों से संबंध। रखने या उनमें व्याप्त रहनेवाला।
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सर्वाजीव  : वि० [सं० ष० त०] सब की जीविका चलानेवाला। पुं० ईश्वर। परमात्मा।
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सर्वाणी  : स्त्री० [सं० सर्व-ङीष्-आनुक] दुर्गा। पार्वती।
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सर्वात  : पुं० [सं०] सब का अन्त।
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सर्वांतक  : वि० [सं० सर्वात-कन्] सब का अन्त या नाश करनेवाला।
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सर्वांतरस्यथ  : वि० [सं० सर्वांतर√ स्था (ठहरना)+कन्] १. जो सबके अन्दर स्थित हो। पुं० परमात्मा।
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सर्वांतरात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर।
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सर्वांतर्यामी (मिन्)  : वि० [सं० ष० त०] सब के अन्तःकरण में रहनेवाला। पुं० ईश्वर।
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सर्वातिथि  : पुं० [सं० ब० स०] वह जो सभी अतिथियो का आतिथ्य करता हो।
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सर्वात्मवाद  : पुं० [सं०] १. भारतीय दर्शन में शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद जिसमें सृष्टि की सभी चीजों को एक ही आत्मा से युक्त माना गया है। २. आजकल पाश्चात्य दर्शन के आधार पर माना जानेवाला यह मत या सिद्धान्त कि सृष्टि के सभी पदार्थ आत्मा से युक्त है, भले ही अचेतन या जड़ पदार्थों की आत्मा सुप्तावस्था में हों। सर्वेश्वरवाद (पैनिन्थिइज़्म)। विशेष—इसमें ईश्वर का कोई पृथक् अस्तित्व या स्वतन्त्र अस्तित्व नही माना जाता, बल्कि यह माना जाता है कि जो कुछ है वह सब ईश्वर की आत्मा या शक्ति से युक्त है और ईश्वर की व्याप्ति सब में है।
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सर्वात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. सब की या सारे विश्व की आत्मा। सत्ता। २. परमात्मा। ब्रह्म। ३. शिव। ४. अर्हत्।
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सर्वात्य  : पुं० [सं०] साहित्य में ऐसा पद्य जिसके चारों चरणों के अन्त्याक्षर एक से हों।
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सर्वाधिक  : वि० [सं० पंच० त०] संख्या में सबसे अधिक। जैसा—निर्दल उम्मीदवार को सर्वाधिक मत मिले हैं।
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सर्वाधिकार  : पुं० [सं०] १. सब कुछ करने का अधिकार। पूर्ण प्रभुत्व। पूरा इख्तियार। २. सभी प्रकार के अधिकार।
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सर्वाधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० सर्वाधिकार+इनि] वह जिसे सब प्रकार के अधिकार प्राप्त हों। सबसे बड़ा तथा सब अधिकारियों का अधिकारी।
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सर्वाधिपति  : पुं० [सं०] [भाव० सर्वाधिपत्य] वह जो सब का अधिपति (प्रधान या स्वामी) हो।
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सर्वाधिपत्य  : पुं० [सं० ष० त०] सब पर होनेवाला आधिपत्य।
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सर्वाध्यक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] सब का शासन निरीक्षण आदि करनेवाला। अधिकारी या स्वामी।
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सर्वापहरण  : पुं०=सर्वापहार।
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सर्वापहार  : पुं० [सं०] १. किसी के पास जो कुछ हो, वह सब छीन लूट या ले लेना। २. जितनी बातें कोई पहले कह चुका हो उन सबसे इन्कार कर जाना या मुकर जाना।
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सर्वापेक्षा न्याय  : पुं० [सं०] कहावत की तरह का एक प्रकार का न्याय जिसका प्रयोग उस समय किया जाता है जब कोई नियंत्रित व्यक्ति सबसे पहले नियत स्थान पर पहुंच जाता है और तब उसे वहाँ ओर सब लोगों के आने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
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सर्वार्थ  : पुं० [सं०] १. सभी प्रकार के अर्थ अर्थात् पदार्थ और योग के विषय। २. फलित ज्योतिष में एक प्रकार का मुहुर्त।
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सर्वार्थ-सिद्धि  : पुं० [सं०] १. सब प्रकार के अर्थों के प्राप्ति या सिद्धि। २. जैनों के अनुसार सबसे ऊपर का अर्थात् स्वर्गों के ऊपर का लोक। ३. गौतम बुद्ध।
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सर्वार्थवाद  : पुं० [सं०] यह दार्शनिक मत या सिद्धान्त कि अंत में सभी आत्माओं को ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्त होगा। (यूनीवसैलिज़्म)
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सर्वालिंगी (गिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सर्वलिंगिनी] आडंबर रचनेवाला। पाखंडी। पुं० नास्तिक।
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सर्वावसु  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य की एक किरण का नाम।
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सर्वावासी (सिन्)  : वि० [सं०] सब में तथा सब स्थानों पर वास करनेवाला। पुं० ईश्वर।
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सर्वाशय  : वि० [सं०] जो सबका आधार या आश्रय हो। पुं० शिव।
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सर्वाशी (शिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सर्वाशिनी] सब कुछ खानेवाला। जो खाने में किसी पदार्थ का परहेज न करता हो।
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सर्वाश्रय  : वि० [सं० ब० स०] सब को आश्रय देनेवाला। पुं० शिव।
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सर्वासर  : पुं० [सं० ब० स०] आधी रात।
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सर्वास्तिवाद  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का दार्शनिक सि्द्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि संसार की सभी वस्तुओं की सत्ता या अस्तित्व है वे असार नहीं हैं। २. बौद्ध दर्शन के वैभाषिक सिद्धान्तों के चार भेदों में से एक जिसके प्रवर्तक गौतम बुद्ध के पुत्र राहुल कहे जाते हैं।
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सर्वास्तिवादी (दिन्)  : वि० [सं०] सर्वास्तिवाद सम्बन्धी। पुं० १. सर्वास्तिवाद का अनुयायी। २. बौद्ध।
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सर्वास्त्र  : वि० [सं०] सब प्रकार के अस्त्रों से सज्जित। पुं० सब प्रकार के अस्त्र।
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सर्वास्त्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०] जैनों की सोलह विद्या देवियों में से एक।
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सर्वीय  : वि० [सं० सर्व+छ—ईय] १. सबसे संबंध रखनेवाला। सार्विक। २. सब में समान रूप से होनेवाला।
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सर्वे-सर्वा  : पुं० [सं० सर्वे सर्वः] किसी घर, दफ्तर, संस्था आदि में वह व्यक्ति जिसे सब प्रकार के काम करने का अधिकार होता है। पूरा मालिक।
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सर्वेक्षक  : पुं० [सं०] सर्वेक्षण करनेवाला (सर्वेयर)।
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सर्वेक्षण  : पुं० [सं० सर्व+ईक्षण] [भू० कृ० सर्वेक्षित, वि० सर्वेक्ष्य] १. किसी विषय के सही तथ्यों की जानकारी के लिए उस विषय के सब अंगों का किया जानेवाला आधिकारिक निरीक्षण। जैसा—भूमि-सर्वेक्षण। २. कोई ऐसा परिदर्शन या विवेचन जिसमें किसी विषय के सब अंगों का ध्यान रखा गया हो। (सर्वे)।
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सर्वेश  : पुं०=सर्वेश्वर।
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सर्वेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] १. सब का स्वामी या मालिक। २. ईश्वर। ३. चक्रवर्ती राजा। ४. एक प्रकार की ओषधि।
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सर्वेश्वरवाद  : पुं० [सं०] दार्शनिक क्षेत्र में यह मत या सिद्धान्त कि संसार के सभी तत्त्वों, पदार्थों और प्राणियों में ईश्वर वर्तमान है, और ईश्वर ही सब कुछ है अर्थात् ईश्वर ही जगत् और जगत् ही ईश्वर है। सर्वात्मवाद। (पैन्थिइज्म)।
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सर्वेश्वरवादी  : वि० [सं०] सर्वेश्वरवाद संबंध। सर्वेश्वरवाद का। पुं० वह जो सर्वेश्वरवाद का अनुयायी या समर्थक हो। (पैन्थिइस्म)।
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सर्वोच्च  : वि० [सं० सर्व+उच्च] [भाव० सर्वोच्चता] १. जो सबसे ऊँचा और बढ़कर हो। सर्वोपरि। २. जो पद, मर्यादा आदि के विचार से और सबसे बढ़कर हो और दूसरों को अपने अधीन रखता हो। (सुप्रीम)। जैसा—सर्वोच्च न्यायालय।
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सर्वोच्च-न्यायालय  : पुं० [सं० सर्वोच्च, पंच० त० न्यायालय कर्म० स०] १. किसी देश या राज्य का वह सबसे बड़ा न्यायालय जिसके अधीन वहाँ की सारी न्यायपालिका हो और जिसमें वहाँ के उच्च न्यायालयों के निर्णयों आदि के संबंध में अंतिम रूप से पुनर्विचार होता हो। उच्चातम न्यायालय। (सुप्रीम कोर्ट) २. भारतीय संघ का प्रधान न्यायालय।
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सर्वोत्तम  : वि० [सं० पंच० त०] सबसे अच्छा। सर्वश्रेष्ठ।
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सर्वोदय  : पुं० [सं० सर्व+उदय] १. सभी लोगों का उदय अर्थात् उन्नति। २. भारत की आर्थिक, राजनीतिक सामाजिक आदि समस्याओं के निराकरण के लिए महात्मा गाँधी का चलाया हुआ एक सामूहिक आन्दोलन जो मानव-जीवन के दार्शनिक पक्ष पर आश्रित है और जिसका उद्देश्य समाज को ऐसा रूप देना है जिसमें आर्थिक विषमता दरिद्रता, शोषण आदि के लिए कोई अवकाश न रहे और सब लोग समान रूप से उन्नत समृद्ध तथा सुख हो सकें।
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सर्वोपकारी  : वि० [सं० ष० त०] सबका उपकार करनेवाला।
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सर्वोपयोगी  : वि० [सं० सर्व+उपयोगी] १. जो सबके लिए उपयोगी हो। २. जो सब लोगों के उपयोग में आता या आ सकता हो।
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सर्वोपरि  : वि० [सं०] १. जो सबसे ऊपर हो। २. जो अधिकार, प्रभाव आदि के विचार से अपने क्षेत्र में सबसे ऊपर और बढकर हो। (पैरामाउन्ट) जैसा—सर्वोपरि सत्ता।
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सर्षप  : पुं० [सं०] १. सरसों। २. सरसों के बराबर तौल या मान। ३. एक प्रकार का विष।
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सर्षप-कंद  : पुं० [सं०] एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ जहरीली होती है।
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सर्षप-नाल  : पुं० [सं०] सरसों का साग।
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सर्षपक  : पुं० [सं० सर्षप+कन्] एक प्रकार का साँप।
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सर्षपा  : स्त्री० [सं० सर्षप-टाप्] सफेद सरसों।
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सर्षपारुण  : पुं० [सं०] [ष० त० त० ब० स०] पारास्तक गुह्य-सूत्र के अनुसार असुरों का एक गण।
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सर्षपिक  : पुं० [सं० सर्षप+ठक्-इक] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बहुत जहरीला क्रीडा जिसके काटने से आदमी मर जाता है।
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सर्षपिका  : स्त्री० [सं० सर्षप+कन्-टाप्-इत्व] एक प्रकार का लिंग रोग। २. मसूरिका रोग का एक भेद।
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सर्षपी  : स्त्री० [सं० सर्षप-ङीष्] १. अविद्या। २. सफेद सरसों। ३. खंजन पक्षी। भभोला। ४. एक प्रकार का रोग जिसमें सारे शरीर में सरसों के समान दाने निकल आते हैं।
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सर्हद  : स्त्री०=सरहद।
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सल  : पुं० [सं०] १. जल। पानी। २. सरल वृक्ष। ३. घास-पात में रहनेवाला बोंट नाम का कीड़ा।
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सलई  : स्त्री० [सं० शल्लकी] १. शल्लकी। वृक्ष। चीड़। २. चीड़ का गोंद। कुंदरू।
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संलक्षण  : पुं० [सं० सम्√लक्ष् (देखना आदि)+ल्युट्-अन] [वि० संलक्षणीय, संलक्ष्य, भू० कृ० संलक्षित] १. रूप या उसका लक्षण निश्चित करना। २. पहचानना। ३. ताड़ना। लखना।
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संलक्षित  : भू० कृ० [सं० सम्√लक्ष् (देखना आदि)+क्त] १. लक्षणों से जाना या पहचाना हुआ। २. ताड़ा या लखा हुआ।
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संलक्ष्य  : वि० [सं० सम्√लक्ष् (देखना आदि)+यत्] १. जो लक्षणों से पहचाना जाय। २. जो देखने में आ सके। ३. जो ताड़ा या लखा जा सके।
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संलक्ष्य क्रम व्यंग्य  : पुं० [सं० समलक्ष्य,-क्रम-ब०स०,-व्यंग्य-मध्य०स०] साहित्य में, व्यंग्य को दो भेदों में से एक ऐसा व्यंग्य या व्यंजना जिसमें वाच्यार्थ व्यंग्यार्थ की प्राप्ति का क्रम लक्षित हो।
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सलग  : वि० [सं० संलग्न] १. किसी के साथ लगा हुआ। संलग्न। २. जिसके सब अंग साथ लगे हों अलग न किये गये हों। अखंडित। ३. समग्र। सारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलगम  : पुं०=शलजम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलगा  : स्त्री० [सं० शल्लकी] शलकी। सलई। चीड़।
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संलग्न  : वि० [सं०√लग् (संग रहना)+क्त-पषोण, सम√ लाज् (लज्जित आदि)+क्त-न] १. किसी के साथ मिला हुआ। २. किसी काम या बात में लगा हुआ। ३. जुड़ा हुआ। संबद्ध। ४. किसी दूसरे के साथ अंत में या पीछे से जोड़ा या लगाया हुआ। (एपेंडेड, अटैच्ड)
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सलज  : पुं० [सं० सल=जल] पहाड़ी बरफ का पानी। वि० सलज्ज। लजीला।
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सलजम  : पुं०=शलजम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलज्ज  : वि० [सं० तृ० त०] १. जिसमें या जिसे लज्जा हो। शर्म और हयावान्। लज्जाशील। २. जो सरमा रहा हो। अव्य० १. लजाते हुए। २. लाज से।
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सलतनत  : स्त्री० दे० ‘सल्तनत’।
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सलना  : अ० [सं० शल्य, हिं० सालना का अ०] १. साला जाना। छिदना। भिदना। २. छेद में ढाला या पहनाया जाना। पुं० लकड़ी में छेद करने का बरमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं०] मोती।
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संलपन  : पुं० [सम्√लप (कहना)+ल्युट्-अन] इधर उधर की बात-चीत। या गप-शप।
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सलपन  : पुं० [देश] एक प्रकार की झाड़ी जिसकी टहनियों पर सफेद रोएँ होते हैं। यह वर्षा ऋतु में फूलती है। इसके पत्तों आदि का व्यवहार ओषधि रूप में होता है।
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सलब  : वि० [अ० सल्ब] नष्ट। बरबाद।
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सलंबा-नोन  : पुं० [सलंबा+हि० नोन] कचिया नोन। काच। लवण।
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संलब्ध  : वि० [सम्√लभ् (प्राप्त होना)+क्त]=लब्ध।
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सलभ  : पुं०=शलभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलमा  : पुं० [अ० सल्मः] कपड़ों पर बेल-बूटें काढ़ने के काम आनेवाला सोने-चाँदी का सुनहला रुपहला तार। बादला।
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संलय  : पुं० [सम्√ली (दमनादि)+अच] [वि० संलीन] १. पक्षियों का उतरना या नीचे आना। २. निद्रा। नींद। ३. प्रलय।
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सलवट  : स्त्री०=सिलवट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलवन  : पुं० [सं० शालिपर्ण] सरिबन।
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सलवात  : स्त्री० [अ०] १. बरकत। २. अनुग्रह। मेहरबानी। ३. गाली। दुर्वचन। परिहास और व्यंग्य। क्रि० प्र०—सुनाना।
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सलसलबोल  : पुं० [अ०] १. बहुमूत्र रोग। २. मधु-प्रमेह नामक रोग।
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सलसलाना  : अ० [अनु०] १. धीरे-धीरे खुजली होना। सरसराहट होना। गुदगुदी होना। ३. दे० सरसराना। स० १. खुजलाना। २. गुदगुदाना। ३. दे० सरसराना।
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सलसलाहट  : स्त्री० [अनु] १. सलसलाने की क्रिया या भाव। २. खुजली। ३. गुदगुदी। ४. सलसल होनेवाला शब्द।
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सलसी  : स्त्री० [देश] माजूफल की जाति का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष। बूक।
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सलहज  : स्त्री० [हि० साला] संबंध के विचार से साले अर्थात् पत्नी के भाई की स्त्री।
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सलाई  : स्त्री० [सं० शलाका] १. काठ, धातु आदि का छोटा पतला छड़। जैसा—सुरमा लगाने की सलाई, घाव में दवा भरने की सलाई, मोजा गुलबन्द आदि बुनने की सलाई। मुहावरा—(आँखों में सलाई फेरना=अंधा करना। (मध्य युग में दण्ड रूप में अपराधी की आँखों में गरम-गरम सलाई फेरी जाती थी। २. दीया। सलाई। स्त्री०=सलई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलाक  : स्त्री० [फा० सलाख] १. सलाख। छड़। २. वाण। तीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सलाकना  : स० [हि० सलाक] १. सलाख या शलाका से किसी चीज पर निशान करना या लकीर खींचना। २. किसी की आँखों में तपी हुई सलाई फेरकर उसे अंधा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलाख  : स्त्री० [फा० सलाख, मि० सं० शलाका] १. धातु का छ़ड़। शलाका। सलाई। २. रेखा। लकीर।
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सलाखना  : सं०=सलाकना।
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सलाजीत  : स्त्री०=शिलाजीत।
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सलाद  : पुं० [अ० सैलाड] १. एक प्रकार का कंद के पत्ते जो पाचक होने के कारण कच्चे खाये जाते हैं। २. कंद, फल आदि जो बिना पकाये हुए केवल कच्चे काटकर भोजन के साथ प्रायः नमक, मिर्च, खटाई आदि मिलाकर खाये जायँ। जैसा—खीरे, टमाटर, मूली आदि का सलाद।
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संलाप  : पुं० [संम√लप् (कहना)+घञ्] १. आपस की बात-चीत वार्तालाप। २. नाटक में, ऐसी बात-चीत या संवाद जो धीरता पूर्ण हों और जिसमें आदेश या क्षोभ न हो। ३. साहित्य में जो आप ही आप कुछ बोलना या बडबड़ना जो पूर्वराग की दस दशाओं में एक माना गया है। ४. वियोग की दशा में प्रिय से मन ही मन की जाने वाली बातें।
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संलापक  : भू० कृ० [संलाप+कन्] नाटक में, संलाप। वि० संलाप करनेवाला।
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सलाबत  : स्त्री० [अ०] १. कठोरता। २. व्यवहार आदि की कठोरता। ३. वीरता। ४. प्रताप।
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सलाम  : पुं० [अ०] अभिवादन का एक मुसलमानी ढंग जिसमें दाहिने हाथ की उँगलियों जोड़कर माथे तक ले जाई जाती, है। क्रि० प्र०—करना।—लेना। मुहावरा—(अमुक को) सलाम देना=अमुक से हमारा सलाम कहो। (आशय यह होता है कि ये आकर हमसे मिलें)। सलाम फेरना= (क) नमाज खतम करने के बाद ईश्वर को अन्त में फिर से नंमस्कार करना। (ख) रोष आदि के कारण किसी का सलाम स्वीकार न करना। किसी को दूर से सलाम करना=किसी बुरी वस्तु या व्यक्ति से बिलुकल अलग या बहुत दूर रहना। जैसा—उनको तो हम दूर से ही सलाम करते है अर्थात् उनके पास जाना पसन्द नहीं करते।
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सलाम-अलैकुम  : अव्य० [अ०] एक अरबी पद जिसका प्रयोग किसी को सलाम करने के समय किया जाता है,और जिसका अर्थ है-आप सकुशल और सुखी रहें (मुसल०)।
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सलाम-कराई  : स्त्री० [अ० सलाम+हि० कराई] १. सलाम करने की क्रिया या भाव। २. वह धन जो दूल्हे या दुल्हिन को ससुराल में बड़े लोगों को सलाम करने पर मिलता है।
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सलामत  : वि० [सं०] १. (व्यक्ति) जो जीवित तथा कुशलपूर्वक हो। २. (वस्तु) जो रक्षित या अच्छी दशा में हो। ३.जो कायम तथा स्थित हो। क्रि० वि० कुशलतापूर्वक।
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सलामती  : स्त्री० [अ०] १. सलामत होने की अवस्था या भाव। २. कुशल। क्षेम। ३. अच्छी तन्दुरुस्ती। उत्तम स्वास्थ्य। जैसा—किसी की सलामती मनाना। पद—सलामती से=सकुशल। कुशलतापूर्वक।
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सलामी  : स्त्री० [अ०] १. सलाम करने की क्रिया या भाव। २. विशेषतः सिपाहियों, सैनिको स्काउटों आदि का एक साथ किसी बड़े अधिकारी, अभ्यागत आदि का अभिवादन करना। क्रि० प्र०—देना।—लेना। ३. किसी बड़े आदमी के आगमन के समय उसके स्वागतार्थ बंदूकों, तोपों आदि का दागा जाना। मुहावरा—सलामी उतारना=किसी महान व्यक्ति के स्वागतार्थ तोपों को दागना। ४. वह धन जो मकान, दुकान आदि को किराये पर देने के समय पगड़ी के रूप में लिया जाता है। वि० १. ढालुआँ। जैसा—सलामी छत। २. गाव दुम।
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सलार  : पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलासत  : स्त्री० [अ०] १. भाषा के सलीस अर्थात् सरल और सुबोध होने की अवस्था या भाव। २. कोमलता। मृदुता। ३. सफाई।
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सलाह  : स्त्री० [अ०] १. अच्छापन। भलाई। जैसा—खैर-सलाह=कुशल-मंगल। २. यह बतलाना कि अमुक कार्य इस प्रकार होना चाहिए। सम्मति। राय। ३. आपस में होनेवाला विचार-विमर्श। परामर्श। ४. भविष्य के संबंध में होनेवाला विचार। इरादा। ५. राय। सम्मति। वि० [?] जो गिनती में दस हो। दलाल। सलाहकार
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सलाहियत  : स्त्री० [अ०] १. भलाई। २. योग्यता। ३. नरमी। ४. व्यवहार आदि की कोमलता।
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सलाही  : पुं०=सलाहकार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलि  : स्त्री०=सर (चिता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलिता  : स्त्री०=सरिता (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संलिप्त  : भू० कृ० [सम्√लप् (लेप करना)+क्त] १. भली-भाँति लिप्त या लीन। २. अच्छी तरह लगा हुआ।
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सलिल  : स्त्री० [सं०] जल। पानी।
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सलिल कुंतल  : पुं० [सं०] शैवल। सिवार।
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सलिल क्रिया  : स्त्री० [सं०] १. जलांजलि। उदक क्रिया। २. पितरों का तर्पण।
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सलिल-चर  : पुं० [सं०] जल-जीव।
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सलिल-निधि  : पुं० [सं०] १. जलनिधि। समुद्र। २. सरसरी छंद का एक नाम।
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सलिल-योनि  : वि० [सं०] जो जल में उत्पन्न हो, जल-जात। पुं०=ब्रह्मा।
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सलिल-स्थलचर  : वि० [सं०] जन्तु या प्राणी जो जल और स्थल दोनों में विचरण करता हो। जैसा—हंस, साँप आदि।
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सलिलज  : वि० [सं० सलिल√जन् (उत्पन्न करना)+ड] जो जल से उत्पन्न हो। जल-जात। पुं० कमल।
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सलिलद  : वि० [सं०] १. सलिल देनेवाला। जल देनेवाला। जो जल दे। २. पितरों का तर्पण करनेवाला। पुं० बादल। मेघ।
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सलिलपति  : पुं० [सं०] १. जल से अधिष्ठाता देवता वरुण। २. समुद्र।
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सलिलराज  : पुं० [सं०]=सलिल-पति।
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सलिलाकर  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र। सागर।
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सलिलांजलि  : स्त्री० [सं० ष० त०]=जलांजलि।
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सलिलाधिप  : पुं० [सं० ष० त०] जल के अधिष्ठाता देवरा वरुण।
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सलिलार्णव  : पुं० [सं०] समुद्र। सागर।
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सलिलालय  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र। सागर।
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सलिलाशन  : वि० [सं० ब० स०] जिसका आहार मात्र जल हो। जल पीकर जीवित रहनेवाला।
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सलिलाशय  : पुं० [सं० ष० त०] जलाशय।
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सलिलाहार  : वि०=सलिलाशन।
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सलिलेचर  : पुं० [सं० सलिले√चर् (चरना)+ट-अलुक] जल में सोनेवाला। जलशायी। पुं० विष्णु।
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सलिलेंद्र  : पुं० [सं० ष० त०] जल के अधिष्ठाता देवता वरुण।
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सलिलेधन  : पुं० [सं० ब० स०] बाड़वानल।
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सलिलेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] वरुण।
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सलिलोदन  : पुं० [सं० मध्यम० स०] जल में पकाया हुआ अन्न।
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सलिलोद्भव  : वि० [सं० ब० स०] जो जल में या जल से उत्पन्न हो। पुं० कमल।
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सलीका  : पुं० [अ० सलीकः] १. कार्य संपादन करने का सामान्य तथा स्वाभाविक ढंग। प्रचलित या रूढ़ फलतः अच्छा या मान्य ढंग। २. शऊर। तमीज। ३. योग्यता। लियाकत। ४. आचरण और व्यवहार। ५. सभ्यता और शिष्टता।
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सलीकामंद  : वि० [अ० सलीका+फा०मंद (प्रत्यय)] १. जिसे अच्छा सलीका आता हो। शऊरदार। २. शिष्ट और सभ्य।
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सलीता  : पुं० [सं० सत्तलिता=मोटी चादर] मारकीन की तरह का परन्तु उससे अधिक मोटा तथा गझिन कपड़ा, जिसकी चादरें चाँदनियाँ आदि बनाई जाती है।
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संलीन  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह लगा हुआ। २. छाया या ढका हुआ। ३. पूरी तरह से किसी में समाया हुआ। ४. सिकुड़ा हुआ। संकुचित।
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सलीब  : स्त्री० [अ०] सूली।
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सलीबी  : वि० [अ०] सलीब सम्बन्धी। सलीब का। पुं० ईसाई जो उस सूली को अपना पवित्र धर्म चिन्ह मानते हैं जिस पर ईसा मसीह टांगे गये थे।
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सलीम  : वि० [अ०] १. ठीक। दुरुस्त। २. सच्चा और सीधा। सरल हृदय।
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सलीमशाही  : पुं० [अ+फा०] पुरानी चाल का एक प्रकार का बढ़िया जूता।
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सलीमी  : स्त्री० [अ० सलीम] पुरानी चाल का एक प्रकार का कपड़ा।
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सलील  : वि० [सं०] १. क्रीड़ाशील। लीला-रत। २. खिलाड़ी। ३. किसी प्रकार की भाव-भंगी से युक्त। अव्य० क्रीड़ा के रूप में या क्रीड़ा करते हुए। उदाहरण—दुर्भर की गर्भ-मधुर पीड़ा, झेलती जिसे जननी सलील।—प्रसाद।
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सलीस  : वि० [अ०] [भाव० सलासत] १. सहज। सुगम। आसान। २. समतल। हमवार। ३. भाषा या लेख जो सरल और शिष्टोचित या शिष्ट-सम्मत हो।
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सलूक  : पुं० [अ०] १. तौर। तरीका। ढंग। (क्व०)। २. किसी के प्रति किया जानेवाला व्यवहार। जैसा—पत्नी का पति से सलूक अच्छा नहीं है। ३. लोगों के साथ रखा जानेवाला मेल-मिलाप। ४. किसी का किया जानेवाला उपकार। नेकी। भलाई।
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सलूका  : पुं० [फा० शलूकः] पूरी बाँह की कुरती या बंडी।
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सलूग  : पुं० [सं० त० त] एक प्रकार का बहुत छोटा कीड़ा। २. जूं। लीख।
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सलूना  : पुं० [सं० स+लवण] पकाई या बनाई हुई तरकारी। सालन। (पश्चिम) जैसा—आलू का सलूना। वि०=सलोना।
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सलूनी  : स्त्री० [हि० स०+लोन=नमक] चूका शाक। चुक्रिका।
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सलेक  : पुं० [सं०] तैत्तरीय संहिता के अनुसार एक आदित्य का नाम।
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संलेख  : पुं० [सं०] १. बौद्ध धर्म के अनुसार पूरा-पूरा संयम। २. आज-कल कोई ऐसा पत्र या लेख जिसमें किसी विविध कृत्य का प्रामाणिक विवरण हो। विलेख। ३. विधिक क्षेत्र में, वह लेख या विलेख जो नियमानुसार लिखा हुआ, ठीक और प्रामाणिक माना जाता हो। (वैलिड डीड) ४. राज्यों में होने वाली संधि का वह पूर्व रूप या मसौदा जिस पर पारस्परिक समझौते की मुख्य-मुख्य बातें लिखी हों तथा जिस पर संबद्ध पक्षों के प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर हुए हों। पूर्व-लेख। (प्रोटोकोल)
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सलेमशाही  : स्त्री०=सलीमशाही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलैला  : वि० [सं० सलिल+हि० ऐला (प्रत्यय)] १. जिसमें पानी मिला हो। २. इतना चिकना कि उस पर पैर या हाथ फिसले।
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सलोक  : पुं० [सं० त० त० ब० स० वा] १. नगर। शहर। २. नगर निवासी। नागरिक। पुं० श्लोक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलोकता  : स्त्री० [सं० सलोक+तल्—टाप्]=सालोक्य।
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सलोट  : स्त्री०=सिलवट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संलोडन  : पुं० [सम्√लोड् (घोलना)+ल्युट्-अन्] [वि० संलोडित] १. (जल आदि की) खूब हिलाना या चलाना। मथना। २. झकझोरना। ३. उलटना-पुलटना। ४. उथल-पुथल करना या मचाना।
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सलोतर  : पुं०=शालिहोत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलोतरी  : पुं०=शालिहोत्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलोन  : वि०=सलोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सलोना  : वि० [हि० स+लोन=नमक] [स्त्री० सलोनी] १. (पदार्थ) जिसमें नमक पड़ा हो। नमक मिला हुआ। नमकीन। २. व्यक्ति का रूप जिसमें लावण्य अर्थात् कोमल और मोहक सौन्दर्य हो। स्त्री० [फा० साले नौ=नव वर्ष] श्रावण शुक्ला पूर्णिमा अर्थात् रक्षा-बंधन का दिन और त्यौहार। राखी पूनो। विशेष—फसली सन् का आरंभ इसी के दूसरे दिन से होता है, इस लिए भारत के मुसलमान शासक इसे साले-नौ (नव वर्ष) कहते थे। इसी ‘साले नौ’ का अपभ्रष्ट रूप सलोना है।
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सलोनापन  : पुं० [हि० सलोना+पन (प्रत्यय)] सलोना होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सलोनो  : स्त्री० [सं० श्रावणी] श्रावणी पूर्णिमा को होनेवाला रक्षाबन्धन नामक त्यौहार।
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संलोभन  : पुं०=प्रलोभन।
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सल्तनत  : स्त्री० [अ०] १. सुल्तान के अधीन रहनेवाला राज्य। बादशाहत। साम्राज्य। २. शासन। हूकूमत। ३. सुख और सुभीते की स्थिति। जैसा—तुम्हारी तो किसी तरह सल्तनत ही नहीं बैठती। क्रि० प्र०—जमाना।—बैठना।
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सल्ल  : पुं० [सं० सरल] सरल वृक्ष। सरल द्रुम। पुं० [सं० सल्प] काँटा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सल्लकी  : स्त्री० [सं० शल्लकी] १. शल्लकी वृक्ष। सलई। २. सलई का गोंद। कुँदरु।
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सल्लम  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का मोटा कपड़ा। गंजी। गाढ़ा।
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सल्लाह  : स्त्री०=सलाह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सल्ली  : स्त्री० [सं० शल्लकी] शल्लकी। सलई।
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सल्लू  : पुं० [हि० सलना] चमड़े की डोरी। वि० [?] बेवकूफ। मूर्ख।
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सल्लेअला  : अव्य० [अ०] वाहवाह। बहुत खूब। सुभानअल्ला। (मुसल०)
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सल्व  : पुं०=शल्व।
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सव  : पुं० [सं०√स् (उत्पन्न होना)+अव] १. जल। पानी। २. फूलों का रस। ३. यज्ञ। ४. सूर्य। ५. चन्द्रमा। ६. औलाद। संतान। वि० अज्ञ। ना-समझ। पुं०=शव (लाश)। मुहावरा—सबसाजना=चिता के ऊपर शव रखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सवत (ति)  : स्त्री०=सौत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सवतिया  : वि०=सौतिया।
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संवत्  : पुं० [सं०] १. वर्ष। साल। २. किसी विशिष्ट गणना क्रम वाली काल-गणना। जैसे—विक्रमी संवत्, शक संवत्। विशेष-इसका प्रयोग मुख्यता भारतीय गणना प्रणालियों के संबंध में होता है। पाश्चात्य गणना प्रणालियों के संबंध में प्रायः सन् का प्रयोग होता है।
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संवत्ति  : स्त्री० [सम्√वृत्त (रहना)+क्तिन] १. उद्देश्य, कार्य आदि की निष्पत्ति। सिद्धि। २. एक देवी का नाम।
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संवत्सर  : पुं० [सं०] १. वर्ष। साल। २. फलित ज्योतिष में पाँच-पाँच वर्षो के युगों में से प्रत्येक का प्रथम वर्ष। ३. शिव का एक नाम।
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संवत्सरीय  : वि० [सम्वत्सर+छ-ईय] १. संवत्सर संबंधी। संवत्सर का। २. हर साल होने वाला। वार्षिक।
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संवदन  : पुं० [सम्√वद् (बोलना)+ल्युट्-अन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. संदेशा। ३. आलोचनात्मक विचार। ४. जाँच-पड़ताल।
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संवदना  : स्त्री० [संवदन-टाप्] मंत्र-तंत्र आदि से अथवा और किसी प्रकार किसी को वश में करने की क्रिया। वशीकरण।
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सवन  : पुं० [सं०] १. बच्चा जनना। प्रसव। २. यज्ञ। ३. यज्ञ के स्नान समय का सोम-पान। ४. यज्ञ के उपरांत होनेवाला स्नान। अवभृत स्नान। ५. चन्द्रमा। ६. अग्नि। ७. स्वायंभुव मनु के एक पुत्र। ८. रोहित मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ऋषि का नाम। पुं० [?] बतख की जाति का एक प्रकार का जल-पक्षी। कलहंस। काज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संवनन  : पुं० [सम्√वन् (वश करना)+ल्युट्-अन्] [भू० कृ० संवनित] १. यंत्र-मंत्र आदि के द्वारा स्त्रियों को फसाना या वश में करना। २. दे० ‘संवदन’।
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सवनिक  : वि० [सं०] सवन-संबंधी। सवन का।
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सवय  : वि० [सं०] [स्त्री० सवया] १. जिसका वय किसी के वय के समान हो। २. समान वय वाले। समवयस्क। पुं० सखा।
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सवयस्क  : वि० पुं०=सवय।
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सँवर  : स्त्री० [सं० स्मरण] १. याद। स्मृति। २. वृत्तान्त। हाल। ३. खबर। समाचार। स्त्री० [हिं० सँवरना] सँवेरे अर्थात सजे हुए होने की अवस्था या भाव।
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संवर  : पं० [सम्√व् (वरण करना)+अप्] १. संवरण करने की क्रिया। या भाव। २. रुकावट। रोक। ३. इंद्रिय-निग्रह। ४. जैन दर्शन में कर्मों का प्रवाह रोकना। ५. बौद्ध मतानुसार एक प्रकार का व्रत। ६. जलाशयों आदि बाँध। ७. पुल। सेतु। ८. चुनने की क्रिया या भाव। चुनाव। ९. कन्या का अपने लिए वर चुनना। स्वयंवर।
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सवर  : पुं० [सं० सव√रा (लेना)+क] १. जल। पानी। २. शिव का एक नाम।
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संवरण  : पुं० [सं०] [वि० संवरणीय] १. दूर करना। हटाना। २. बन्द करना। ३. आच्छादित करना। ढकना। ४. छिपाना। ५. कोई ऐसी चीज जिसमें कोई दूसरी चीज छिपाई, ढकी या रोकी जाय। ६. आड़ करने या बचाने वाली चीज। ७. मनोवेग आदि को दबा या रोककर वश में रखना। नियंत्रण से बाहर न होने देना। निग्रह। जैसे—क्रोध या लोभ का संवरण करना। ८. जलाशयों आदि का बाँध। ९. पुल। सेतु। १॰. पसंद करना। चुनना। ११. कन्या का विवाह के लिए अपना पति या वर चुनना। १२. वैद्यक में गुदा के चमड़े की तीन तहों या पर्तों में से एक। १३. आज-कल सभा-समितियों, सँसदों आदि में किसी विषय पर यथेष्ट वाद-विवाद हो चुकने पर किया जाने वाला उसका अंत या समाप्ति। (क्लोजर)
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संवरणीय  : वि० [सम्√वृ (वरण करना)+अनीयर्] [स्त्री० संवरणीया] १. जिसका संवरण हो सकता हो या होना उचित हो। २. जिसे छिपाकर रखना वांछित हो। गोपनीय। ३. जो वरण अर्थात विवाह के योग्य हो चुका हो।
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सँवरना  : अ० [सं० संवर्णन] १. बनकर अच्छी या ठीक दशा को प्राप्त होना अथवा सुंदर रूप में आना। सँवारा जाना। २. अलंकृत या सज्जित होना। स० [सं० स्मरण] स्मरण करना। उदा—पुनि बिसरा भा सँवरना, जनु सपने भइ भेंट।—जायसी।
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सँवरा  : वि०=साँवला।
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सँवरिया  : वि०=साँवला। पुं०=साँवलिया।
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संवर्ग  : पुं० [सम्√वृजी् (मना करना)+घञ्] १. अपनी ओर समेटना। २. इकट्ठा करना। ३. खा-जाना। भक्षण। ४. खपत। ५. विलय। ६. (गणित में) गुणन फल।
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संवर्जन  : पुं० [सम्√वृज (त्यागना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संवर्जित, वि० संवर्जनीय, संवृक्त] १. बलपूर्वक ले लेना। हरण करना। छीनना। २. उड़ा डालना। समाप्त कर देना।
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सवर्ण  : वि० [सं० ब० स०] १. (वे) जो वर्ण या रूप-रंग के विचार से एक ही प्रकार के हों। सदृश। समान। २. (वे) जो एक ही जाति या वर्ग के हों। ३. (शब्द जिनका उच्चारण तो भिन्न हो परन्तु) वर्ण या अक्षर एक से हों। जैसा—फा० कौल और सं० कौल सवर्ण शब्द हैं।
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सवर्ण-विवाह  : पुं० [सं०] १. हिंन्दुओं में वह विवाह जिसमें कन्या और वर दोनों एक ही वर्ण या जाति के हों। २. साधारणतः अपनी जाति, धर्म, वर्ग या समाज में किया जानेवाला विवाह। अंतर्जातीय विवाह से भिन्न। (एन्डोगैमी)।
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सवर्णा  : स्त्री० [सं०] सूर्य की पत्नी छाया का नाम।
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संवर्त  : पुं० [सं०] १. लपेटना। २. घुमाव। फेरा। लपेट। ३. लपेट कर बनाई हुई पिंडी। ४. शत्रु से भिड़ना। ५. गोली। बटी। ६. बड़ी राशि या समूह। ७. संवत्सर। ८. एक प्रकार का दिव्यास्त्र। ९. ग्रहों का एक प्रकार का योग। १॰. एक केतु का नाम। ११. एक कल्प का नाम। १२. प्रलय काल के भेदों में से एक। १३. इंद्र का अनुचर एक मेघ जिससे बहुत जल बरसता है। १४. बादल। मेघ। १५. बहेड़ा।
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संवर्त-कल्प  : पुं० [मध्यम० स०] बौद्धों के अनुसार प्रलय का एक प्रकार या रूप।
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संवर्तक  : वि० [सं०√वृत् (रहना)+णिच्-ण्वुल्-अक] १. संवर्तन करने या लपेटने वाला। २. नाश या लय करने वाला। पुं० १. कृष्ण के भाई बलराम का एक नाम। २. बलराम का एक अस्त्र, हल। ३. बड़वानल। ४. बहेड़ा। ५. प्रलय नामक मेघ। ६. प्रलय मेघ की अग्नि।
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संवर्तकी  : पुं० [संवर्तक+इति, संर्वतकिन्] कृष्ण के भाई बलराम का एक नाम।
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संवर्तन  : पुं० [सं०√वृत् (रहना)+ल्युट्-अन] [वि० संवर्तनीय, संवृत, भू० कृ० संवर्तित] १. लपेटना। २. चक्कर या फेरा देना। ३. किसी ओर प्रवत्त होना या मुड़ना। ४. पहुँचना। ५. खेत जोतने का हल। ६. भारतीय युद्ध कला में, एक शत्रु का प्रसार रोकना।
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संवर्तनी  : स्त्री० [संवर्तन-ङीष्] सृष्टि का लय। प्रलय।
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संवर्तनीय  : वि० [सं०√वृत् (रहना)+अनीयर्] जिसका संवर्तन हो सकता हो या होने को हो।
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संवर्ति  : स्त्री० [संवृत+इति] दे० ‘संवर्तिका’।
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संवर्तिका  : स्त्री० [संवर्ति+कन्+टाप्] १. लपेटी हुई वस्तु। २. बत्ती। ३. ऐसा बँधा हुआ पत्ता जो अभी खिलने या फूलने को हो। ४. खेत जोतने का हल।
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संवर्तित  : भू० कृ० [सं०√वृत् (रहना)+क्त] १. लपेटा हुआ। २. घुमाया, फेरा या मोड़ा हुआ।
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संवर्ती  : वि० [सं०] [स्त्री० संवर्तिनी] १. किसी के साथ वर्तमान रहने या होने वाला। २. किसी समान पद या स्थिति में रहने वाला। ३. एक ही काल में औरों के साथ, प्रायः उसी रूप में परंतु भिन्न-भिन्न स्थानों पर होने वाला। (कान्करेन्ट) जैसे—संवर्ती घोषणा या सूची=ऐसी घोषणा या सूची जो एक सात कई स्थानों में प्रकाशित हो।
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संवर्द्धक  : पुं० [सम्√वृध् (बढाना)+णिच्-ण्वुल्-अक] संवर्धन करनेवाला।
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संवर्द्धन  : पुं० [सम्√वृध (बढ़ना)+णिच्-ल्युट्-अन] [वि० संवर्द्धनीय, संवर्द्धित, संवृद्ध] १. अच्छी तरह बढ़ना या बढ़ना। २. जितना या जो पहले से वर्तनाम हो उसमें कुछ और अधिकता या वृद्धि करना। (आग्मेन्टेशन) ३. पशु-पक्षियों पौधों आदि के संबंध में ऐसी क्रिया और देख भाल करना जिससे उनके वंश आदि का विकास, विस्तार या वृद्धि हो। (कल्चर) जैसे—पपीते के पेड़ों, मधुमक्खियों आदि का संवर्धन। पाल-पोसकर बड़ा करना। ४. उन्नत करना। बढ़ाना।
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संवर्द्धनीय  : वि० [सम्√वृध् (बढ़ाना) णिच्-अनीयर] जिसका संवर्द्धन करना आवश्यक या उचित हो। २. जिसका पालन-पोषण करना आवश्यक या उचित हो।
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संवर्द्धित  : भू० कृ० [सम्‘√वृध् (भढ़ना)+णिच्-क्त] जिसका संवर्द्धन किया गया हो या हुआ हो।
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संवर्धन  : पु०=संवर्द्धन।
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संवल  : पुं० [सम्+वल् (संवरण करना)+क]=संवल।
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संवलन  : पुं० [सं० सम्+वलन] [वि० संवलित] १. किसी ओर घुमाना या मोड़ना। २. मिलाना। मिश्रण। ३. मेल। ४. मिलावट। मिश्रण। ५. ऐसी व्यवस्था करना कि आवश्यकता के अनुसार घटाया-बढाया जा सके। (कंडीशनिंग) जैसे—वायु-संवलन। ६. बल दिखाने के लिए मुठ-भेड़ करना। (भिड़ंना)।
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सँवलाना  : अ० [हिं० साँवला] रंग का साँवला पड़ना या होना। उदा०—लड़की का चेहरा और ज्यादा साँवला गया।—सआदत हसन मन्टो। स० साँवला करना। जैसे—धूप ने उसका रंग सँवला कर दिया था।
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संवलित  : भू० कृ० [सम्√बल् (पकड़ना)+क्त] १. जिसका संकलन हुआ हो या किया हो। २. किसी के साथ मिला हुआ। युक्त। सहित। ३. घिरा या घेरा हुआ। ४. जो शत्रु से भिड़ या लड़ गया हो।
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संवसथ  : पुं० [सम्√वस (रहना)+अथ] मनुष्यों की बस्ती।
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संवह  : वि० [सम्√वह् (ढोना)+अच्] १. वहन करनेवाला। ले जाने वाला। पुं० १. एक वायु जो आकाश के सात मार्गों में से तीसरे मार्ग में रहती है। २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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संवहन  : पुं० [सम्√वह् (ढोना)+ल्युट्-अन्] [भू० कृ० संवहित] १. वहन करना। ले जाना। ढोना। २. प्रदर्षित करना। दिखाना।
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सवा  : वि० [सं० स+पाद] पूरा और एक चौथाई। संपूर्ण और एक अंग का चतुर्थाश जो अंकों में इस प्रकार लिखा जाता है।—४-१/४।
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सवाई  : स्त्री० [हि० सवा+ई (प्रत्यय)] ऋण का वह प्रकार जिसमें मूलधन का चतुर्थाश ब्याज के रूप में देना पड़ता है। वि०=सवाया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] मध्ययुग में जयपुर (राजस्थान) के महाराजाओं की उपाधि। जैसा—सवाई मानसिह। स्त्री० [?] मूत्रेद्रिय का एक प्रकार का रोग।
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सवाँग  : पुं० [हि० स्वाँग] १. कृत्रिम वेष। भेस। स्वाँग। (देखें) २. व्यक्तियों के लिए संख्या सूचक शब्द। (पूरब) जैसा—चार सवांग तो घर के ही हो जायँगे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सवाँगना  : अ० [हि० स्वाँग] १. नकली भेष बनाना। २. किसी का रूप धारण करना। रूप भरना।
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संवाच्य  : पुं० [सम्√वच (कहना)+ण्यत्] अच्छी तरह बात-चीत या कथा कहने का ढंग जो ६४ कलाओं में से एक है।
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संवातन  : पुं० [सं०] [वि० संवाती, भू० कृ० संवातित] ऐसी अवस्था या व्यवस्था जिसमें कमरे, कोठरी आदि में हवा ठीक तरह से आती जाती रहे। हवादारी। (वेंटिलेशन)
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संवाद  : पुं०=संवाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संवाद  : पुं० [सं०] [वि० संवादिक] १. एक-रूपता, सादृश्य आदि के कारण चीजों, बातों आदि का आपस में ठीक बैठना या मेल खाना। २. किसी से की जाने वाली बात-चीत। वार्तालाप। ३. किसी के पास भेजा हुआ या आया हुआ विवरण या वृत्तान्त। ४. खबर। समाचार। ५. चर्चा। ६. नियुक्ति। ७. मुकदमा। व्यवहार। ८. सहमति। ९. स्वीकृति।
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सवाद  : पुं०=स्वाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संवादक  : वि० [सम्√वद (कहना)+विच्-ण्वुल्-अक] १. बोलने या बात-चीत करने वाला। २. संवाद या समाचार देने वाला। ४. बात मान लेने वाला। ५. बजाने वाला।
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संवाददाता  : पुं० [सं०] १. वह जो किसी प्रकार का संवाद या खबर देता हो। २. आज-कल वह व्यक्ति जो समाचार पत्रों में छपने के लिए स्थानीय विवरण लिखकर भेजता हो। (रिपोर्टर, कारेस्पान्डेन्ट)
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संवादन  : पुं० [सम्√वद् (कहना)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संवदित] [वि० संवादनीय, संवादी, संवादय्] १. बात-चीत करना। बोलना। २. किसी कथन या मत से सहमत होना। ३. किसी का अनुरोध या बात मान लेना। ४. बाजे आदि बजाना।
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सवादिक  : वि०=स्वादिष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संवादिका  : स्त्री० [सम्√वद् (कहना)+णिच्-ण्वुल्-अक-टाप्] १. कीट। कीड़ा। २. च्यूँटी।
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संवादित  : भू० कृ० [सं० वद्√ (कहना)+णिच्-क्त] १. संवाद अर्थात बात-चीत में लगाया या प्रवृत्त किया हुआ। २. प्रसन्न करके मनाया या राजी किया हुआ।
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संवादिता  : स्त्री० [संवादित्-टाप्] संवादी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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संवादी  : वि० [सम्√ वाद् (कहना)+णिनि] [स्त्री० संवादिनी] १. संवाद अर्थात बात-चीत करने वाला। २. राजी या सहमत होने वाला। ३. किसी के साथ अनुकूल पड़ने, बैठने या होने वाला। ४. बाजा बजाने वाला। पुं०संगीत में वह स्वर जो किसी राग के वादी स्वर के साथ मिलकर उसका सहायक होता और उसे अधिक श्रति—मधुर बनाता है। जैसे—पंचम से षड़ज तक जाने में बीच के तीन स्वर संवादी होंगे।
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सवाब  : पुं० [अ०] १. शुभ कृत्य का फल जो स्वर्ग में पहुँचने पर मिलता है। पुण्य। २. नेकी। भलाई। ३. सत्कर्मों का पर-लोक में मिलनेवाला शुभ फल।
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सवाया  : वि० [हि० सवा] [स्त्री० सवाई] १. पूरे से एक चौथाई से अधिक। सवा गुना। २. किसी की तुलना में कुछ अधिक या बढ़ा हुआ। उदाहरण—निज से भी पर-दुःख देखकर स्वंय सवाया।—मैथिलीशरण। ३. पहले जितना रहा हो, उससे भी कुछ और अधिक। उदाहरण—राणा राख छत्र कौं प्यापै करि करि प्रीति सवाई।—कबीर।
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सँवार  : स्त्री० [हिं० सँवरना] १. सँवरने या सँवारने की क्रिया, भाव या स्थिति। २. सँवारा या सँवारा हुआ रूप। ३.संशोधन। उदा-केर सणवार गोसाई जहाँ परै कछु चूक।—जायसी। ४.‘मार’ के स्थान पर मंगल भाषित बोला जाने वाला शब्द। (मुसलमान स्त्रियाँ) जैसे-तुझ पर खुदा की सँवार (अर्थात मार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० संवाद, स्मरण] हाल। समाचार। उदा०—पुनि रे सँवार कहेसि अरु दूजी।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँवार  : पुं० [सम√वृ (ढ़कना)+घञ्] १. आवरण डालकर कोई चीज छिपाना या ढकना। २. शब्दों के उच्चारण के समयकंठ के भीतरी भाग का कुछ दबना या सिकुड़ना। ३. उच्चारण के वाह्य प्रयत्नों में से एक जिसमें कंठ का आंकुचन होता है। ‘विवार’ का उल्टा। ४. बाधा। अड़चन।
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सवार  : पुं० [फा] १. वह जो किसी सवारी या यान पर आरूढ़ हो। जैसा—पांचवाँ सवार। २. वह जो सवारी करने में कुशल हो। जैसा—घुड़सवार। ३. वह जो किसी दूसरे के ऊपर चढ़ा या बैठा हो और उसे किसी रूप में दबाये हुए हो। मुहावरा—(किसी पर या किसी के सिर पर) सवार होना=किसी को पूर्ण रूप से अभिभूत करके। (ख) उसे अपने वश में रखना अथवा (ख) उसे अपने विचारों के अनुसार चलाना।
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संवारण  : पुं० [सम्√वृ (वारण करना)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संवादित, वि० संवार्य] १. दूर करना। निवारण करना। हटाना। २. न आने देना। रोकना। ३. निषेध करना। मनाही। ४. छिपाना। ढकना।
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संवारणीय  : वि० [सम्√वृ (दूर करना)+णिच्-अनीयर्] जिसका संवारण हो सके या होने को हो।
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सँवारना  : स० [सं० संवर्णन] १. किसी चीज को ऐसा रूप देना कि वह अच्छा और सुन्दर जान पड़े। २. ठीक और दुरुस्त करके काम में आने के योग्य बनाना। ३. अलंकृत करना। सजाना। ४. क्रम से लगाकर या ठीक करके रखना। ५. सुचारु रूप से कोई कार्य सम्पन्न करना। जैसे—ईश्वर ही हमारे सब कार्य सँवारता है।
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संवारित  : भू० कृ० [सम्√वृ (हटाना)+णिच्-क्त] जिसका संवारण किया गया हो या हुआ हो।
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सवारी  : स्त्री० [फा०] १. सवार होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. कोई ऐसा साधन जिस पर सवार होकर लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हों। यान। जैसा—गाड़ी, घोड़ा, नाव, मोटर, रेल, हवाई, जहाज आदि। ३. वह जो उक्त पर चढ़कर कही जाता हो। उक्त पर सवार होनेवाला व्यक्ति। ४. कोई ऐसा जुलूस जिसमें कोई बहुत बड़ा व्यक्ति कोई धर्मग्रन्थ या देवता की मूर्ति किसी यान पर कहीं ले जाई जाती हो। जैसा—राष्ट्रपति की सवारी, रामजी या वेद भगवान् की सवारी। क्रि० प्र०—निकलना।—निकालना। ५. कुश्ती में एक प्रकार का पेंच जिसमें विपक्षी को जमीन पर गिराकर उसकी पीठ पर बैठकर उसे चित करने का प्रयत्न करते हैं। क्रि० प्र०—कसना। ६. संभोग या प्रसंग के लिए स्त्री पर चढ़ने की क्रिया (बाजारू)। क्रि० प्र०—कसना।—गाँठना।
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सवारे  : अव्य० [सं० स+बेला] १. प्रातःकाल। सबेरे। २. समय से कुछ पहले। जल्दी। ३. आनेवाले दूसरे दिन। कल के दिन।
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सवारै  : अव्य०=सवारे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संवार्य  : वि० सम्√वृ (मना करना)+णिच्-णयत्]=संवारणीय।
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सवाल  : पुं० [अ] [बहु० सवालात] १. पूछने की क्रिया या भाव। २. वह बात जो पूछी जाय। प्रश्न। पद—सवाल-जवाब। ३. गणित में कोई ऐसी समस्या जिसका उत्तर निकालना या निराकरण करना हो। प्रश्न (क्वेश्चन उक्त सभी अर्थो में) ४. कुच पाने या माँगने के लिए की जानेवाली प्रार्थना। जैसा—भिखारिन ने रूखे सिख के सामने दाँत निकालकर सवाल किया।—उग्र। ५. वह प्रार्थना पत्र जो न्यायालय में किसी पर कोई अभियोग चलाने के लिए न्यायाधीश के सामने उपस्थित किया जाता है। मुहावरा—(किसी पर) सवाल देना= (क) नालिश करना। (ख) फरियाद करना। ६. प्रार्थना। विनती।
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सवाल-जवाब  : पुं० [अ०] १. प्रश्न और उसका उत्तर। २. तर्क-वितर्क। वाद-विवाद। बहस। जैसा—बड़ों से सवाल-जबाव करना ठीक नहीं। ३. झगड़ा। तकरार। हुज्जत।
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सवालिया  : वि० [अ० सवालियः] १. सवाल के रूप में होनेवाला। २. व्याकरण में वाक्य जो पाठक या श्रोता से उत्तर की अपेक्षा रखता हो। प्रश्नात्मक।
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सवाली  : वि० [हि० सवाल]=सवालिया। पुं० वह जिसने कोई सवाल अर्थात् प्रार्थना या याचना की हो।
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संवास  : पुं० [सम्√वस (रहना)+घञ] १. साथ बसना या रहना। पारस्परिक संबंध। ३. स्त्री० संभोग। मैथुन। ४. सभा। समाज। ५. जन-साधारण के उपयोग के लिए नियत खुला स्थान। ६. घर। मकान।
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संवासन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संवासित] १. संवास करने की क्रिया या भाव। २. अच्छी तरह सुगंधित करने की क्रिया। या भाव।
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संवासी (सिन्)  : वि० [सम्√वस् (रहना)+णिच्-अत्] १. ले जाना। ढोना। २. पैर दबाना। ३. पीड़ित करना। सताना। ४. बाजार। मंडी। ५. जन-साधारण के उपयोग के लिए रक्षित खुला स्थान।
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संवाहक  : वि० [सं०] १. ढोकर अथवा और किसी प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जानेवाला। वहनक। वाहक। (कैरिअर) पुं० शरीर के हाथ पैर आदि अंग दबाने वाला सेवक।
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संवाहकता  : स्त्री० [सं०] १. संवाहक होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव। २. आधुनिक विज्ञान में किसी पदार्थ का वह गुण या धर्म जिसके फलस्वरूप ताप, विद्युत शीत आदि उसके एक अंग से बढ़कर शेष अंगों में पहुँचते अथवा दूसरे सधर्मी पदार्थो में संवहन करते हैं। (कान्डक्टिविटी)
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संवाहन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संवाहित, कर्ता संवाहक, संवाही; वि० संवाहनीय, संवाह] १. कोई चीज एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की क्रिया या भाव। २. ताप, वाष्प, विद्युत आदि एक स्थान से किसी दूसरे अंश या बिंदु तक पहुँचाने की क्रिया या भाव। (कान्डक्शन) ३. परिचालित करना। चलाना। ४. शरीर के हाथ पैर अंग आदि दबाना या उनमें मालिश करना।
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संवाहित  : भू० कृ० [सम्√वह् (ढोना)+णिच्-क्त] १. जिसका संवाहन हुआ हो या किया गया हो।
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संवाही  : वि० [सम्√वह् (ढोना)+णिनि] [स्त्री० संवाहिनी]=संवाहक।
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संवाह्य  : वि० [सम्√वह् (ढोना)+ण्यत्] जिसका संवहन हो सके या होने को हो। संवाहन का अधिकारी या पात्र।
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सविकल्प  : वि० [सं०] जिसमें किसी प्रकार का विकल्प हो। २. जिसके विषय में कोई सन्देह हो। संदिग्ध। ३. जो स्वयं कुछ निश्चय न कर सकने के कारम किसी प्रश्न के दोनों पक्षों को थोड़ा बहुत ठीक समझता हो। ४. समाधि का एक प्रकार। ५. वेदांत में ज्ञाता और ज्ञेय के भेद का ज्ञान। स-विचार
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संविग्न  : वि० [सं०] १. घबराया हुआ। उद्विग्न। २. क्षुब्ध। ३. डरा हुआ। भीत।
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संविज्ञ  : वि० [सम्०वि√ज्ञ् (जानना)+क] अच्छा जानकार। सुविज्ञ।
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संविज्ञान  : पुं० [सं०] १. ठीक और पूरा ज्ञान। सम्यक् बोध। २. स्वीकृति। मंजूरी। ३. सहमति।
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संवित  : स्त्री० [सं०]=संविद।
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सवितर्क  : पुं० [सं० ब० स०] चार प्रकार की सविकल्प समाधियों में से एक प्रकार की समाधि। क्रि० वि० तर्क-वितर्कपूर्वक।
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सविता  : पुं० [सं०√सृ (प्राण प्रदान करना)+तृच्] १. सूर्य। दिवाकर। २. बारह आदित्यों के आधार पर १२ की संख्या का वाचक शब्द। ३. आक। मदार। ४. कुछ लाली लिए हुए सफेद रंग की एकवायु जो प्रायः निकल और लोहे के साथ पाई जाती है। (कोबाल्ट)।
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सविता-तनव  : पुं० [सं० सवित्+तनय, ष० त०] सूर्य के पुत्र हिरण्यपाणि।
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सविता-दैवत  : पुं० [सं० सवित् दैवत, ब० स०] हस्त नक्षत्र जिसके अधिष्ठाता देवता सूर्य्य माने जाते हैं।
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सविता-पुत्र  : पुं० [सं० सवितृपुत्र, ष० त०] सूर्य्य के पुत्र हिरण्यपाणि।
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सवितासुत  : पुं० [सं० सवितृपुत्र, ष० त०] सूर्य के पुत्र, शनैश्चर।
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संवित्ति  : स्त्री० [सम्√विद् (जानना)+क्तिन] १. प्रतिपत्ति। २. सहमति। ३. चेतना। संज्ञा। ४. अनुभव। तजरुबा। ५. बुद्धि। समझ।
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संवित्पत्र  : पुं० [सं] १. वह पत्र जिसमें दो ग्रामों या दो प्रदेशों के बीच किसी बात के लिए मेल का प्रतिज्ञा या शर्त लिखी हों। (शुक्रनीति) २. किसी प्रकार का इकरारनामा या पट्टा। संविदापत्र।
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सवित्र  : पुं० [सं० सू (प्रसव करना)+इत्र] प्रसव करना। लड़का जनना।
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सवित्रिय  : वि० [सं० सवित्+घ-ईय] सविता संबंधी। सविता या सूर्य का।
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सवित्री  : स्त्री० [सं० सवित्र-ङीष्] १. प्रसव करानेवाली धाई। धात्री। दाई। २. माता। माँ। ३. गाय। गौ।
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संविद  : स्त्री० [सं०] १. चेतना-शक्ति। चैतन्य। २. ज्ञान। बोध। समझ। ३. सांख्य में महत्व। ४. अनुभूति। संवेदन। ५. आपस में होने वाला इकरार या समझौता। ६. उपाय। तकबीर। युक्ति। ७.वृत्तान्त। हाल। ८.प्रथा। रीति। ९.नाम। संज्ञा। १॰.तुष्टि। तृप्ति। ११. युद्ध। लड़ाई। १२. इशारा। संकेत। १३. प्राप्ति। लाभ। १४. जायदाद। संपत्ति। १५. मिलने के लिए नियत किया हुआ स्थान। संकेत-स्थल। १६. योग में प्राणायाम से प्राप्त होने वाली एक भूमि। १७. भाँग। विजय। वि० चेतनायुक्त। चेतन।
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संविदा  : स्त्री० [सं०] १. कुछ खास शर्तों पर आपस में होने वाला किसी प्रकार का इकरार, ठहराव या समझौता। (कन्ट्रैक्ट) २. गाँजे या भाँग का एक पौधा।
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संविदा प्रविधि  : स्त्री० [सं०] वह प्रविधि या कानून जिसमें संविदा या ठीके से संबंध रखने वाले नियमों का विवेचन हो। (लॉ आफ कन्ट्रैक्ट)
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संविदापत्र  : पुं० [सं०] वह पत्र जिस पर किसी संविदा की शर्तें लिखी हों। इकरारनामा। ठीकानामा। (कान्ट्रैक्ट डीड)
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संविदित  : भू० कृ० [सम्√विद् (जानना)+क्त] १. अच्छी तरह जाना हुआ। पूर्णतया ज्ञात। २. खोजा या ढूँढ़ा हुआ। ३. सबकी सम्पत्ति से ठहराव या निश्चित किया हुआ। ४. जिसके संबंध में वचन दिया या वादा किया गया हो। ५. अच्छी तरह बतलाया या समझाया हुआ।
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सविद्य  : वि० [सं० अव्य० स०] विद्वान। पंडित।
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संविद्वाद  : पुं० [ष० त०] पाश्चात्य दर्शन का एक सिद्धान्त जिसमें वेदान्त के समान चैतन्य के अतिरिक्त और किसी वस्तु पारमार्थिक सत्ता नहीं मानी जाती है। चैतन्यवाद।
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संविधा  : स्त्री० [सम् वि√धा (रखना)+क-टाप्] १. रहन-सहन। आचार-व्यवहार। ३. प्रबंध व्यवस्था।
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संविधाता (तृ)  : वि० [सम्-वि√धा (रखना)+तृच्] संविधान करने वाला। पुं० विधाता (सृष्टा)।
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संविधान  : पुं० [सं० वि√धा (रखना)+ल्युट्-अन] १. ठीक तरह से किया गया विधान या व्यवस्था। उत्तम प्रबंध। २. बनावट। रचना। ३. आधुनिक राजनीति और शासन तंत्र में कानून या विधान के रूप में बने हुए वे मौलिक नियम और सिद्धान्त जिसके अनुसार किसी राज्य, राष्ट्र या संस्था का संघठन, संचालन और व्यवस्था होती है। (कान्स्टिच्यूशन) ४. दस्तूर। प्रथा। रीति। ५. अनूठापन। विलक्षणता।
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संविधान-परिषद  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वह परिषद या सभा जो देश, राष्ट्र या संस्था की व्यवस्था और शासन के लिए नियमावली या संविधान बनाने के लिए नियुक्त या संघठित की गई हो। (कांस्टिच्यूएशन एसेम्बली)
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संविधानक  : वि० [सं० संविधान+कन] संविधान करने वाला। संविधाता। पुं० १. कोई विचित्र घटना या व्यापार। २. उपन्यास, नाटक आदि की कथनानुसार कथानक (प्लाट)
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संविधानवाद  : पुं० [सं० संविधान√वद्+घञ] [वि० संविधानवादी] १. यह मत या सिद्धान्त कि किसी देश या राज्य का शासन निश्चित संविधान के अनुसार होना चाहिए। (कान्स्टिच्युशनलिज्म)
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संविधानवादी  : वि० [सं० संविधान√वद्+णिनि] संविधानवाद संबंधी। संविधानवाद का। पुं० वह जो संविधानवाद का अनुयायी और पोषक हो। (कांस्टिच्यूशनलिस्ट)
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संविधानसभा  : स्त्री०=संविधान परिषद।
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संविधानिक  : वि० [सं० संविधान+ठन-इक्] संविधान अथवा उसके नियमों आदि से संबंध रखने वाला। (कांस्टिच्यूशनल)
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संविधानी  : वि०=संविधानिक।
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संविधि  : वि० स्त्री० [सम्-वि√धा (रखना)+कि] १. विधान। रीति। दस्तूर। २. प्रबंध। व्यवस्था। ३. दे० ‘प्रविधान’। पुं० [सं०] विधान सभा द्वारा पारित प्रस्ताव जो विधान के अंग के रूप में स्वीकार किया जाता है। (स्टैच्यूट)
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संविधेय  : वि० [सम्-वि√धा (रखना)+यत्-आ=ए] १. जिसका संविधान होने को हो या हो सकता हो। २. (काम) जो किया जाने को हो या जिसका प्रबंध होने को हो।
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सविनय  : वि० [सं०] १. विनय से पूर्ण। २. विनम्र। ३. शिष्टता। पूर्ण या शिष्ट। अव्य० विनय या नम्रतापूर्वक।
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सविनय अवज्ञा  : स्त्री० [सं०] नम्रता या भद्रतापूर्वक राज्य या प्रधान अधिकारी की किसी ऐसी व्यवस्था या आज्ञा को न मानना जो अन्याय-मूलक प्रतीत हो और ऐसी अवस्था में राज्य या अधिकारी की ओर से होने वाले पीड़न तथा कारादंड आदि को धीरतापूर्वक सहन करना। (सिविल डिस्ओबीडिएंस)।
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संविभक्त  : वि० [सम्-वि√भज् (देना)+क्त] १. अच्छी तरह बँधा हुआ। २. ठीक और सुंदर बना हुआ। सुडौल। ३. विभक्त किया हुआ।
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संविभाग  : पुं० [सम्-वि√भज् (देना)+घञ] १. ठीक तरह से किया गया विभाग। २. प्रदान। ३. राज्य के मंत्री का कार्यालय और वह विशिष्ट विभाग जिसके सब कार्य वहाँ होते हों। (पोर्टफ़ोलियो)
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संविभागी (गिन्)  : पुं० [संविभाग+इनि] अपना अंश या भाग लेने वाला। हिस्सेदार।
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संविभाजन  : पुं० [सं० संवि√भज्+णिचि-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संविभाजित, [संविभक्त]=विभाजन।
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सविभास  : पुं० [सं० त० स०] सूर्य का एक नाम।
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सविभ्रम  : वि० [सं० अव्य० स०] विभ्रम अर्थात् क्रीड़ा, प्रणय, चेष्टा विलास आदि से युक्त। क्रि० वि० विभ्रमपूर्वक।
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सविभ्रमा  : स्त्री०=विचित्र (नायिका)।
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संविवेक  : पुं० [सं० सं-वि√विच्+घञ] १. विवेक। २. वह मानसिक शक्ति जिसके द्वारा विकट अवसरों पर हम सब बातें सोच-समझकर उचित कर्तव्य या निर्णय करते हैं। (डिस्क्रीशन)
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सविशेष  : वि० [सं० तृ० त०] किसी विशेष गुण, बात या विशिष्टता से युक्त। निविशेष का विपर्याय। जैसा—ब्रह्मा का सविशेष रूप।
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संविष्ट  : वि० [सं० विस् (प्रवेश करना)+क्त] १. आया या पहुँचा हुआ। प्राप्त। २. लेटा या सोया हुआ। ३. बैठा हुआ।
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सविस्तार  : अव्य० [सं०] विस्तारपूर्वक।
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संवीक्षण  : पुं० [सम्-वि√ईक्ष् (देखना)+ल्युट्-अन] [वि० संविक्षणीय, संवीक्ष्य] १. अच्छी तरह इधर-उधर देखना। अवलोकन। २. तलाश करना। ढ़ूँढ़ना। जाँच-पड़ताल। अन्वेषण।
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संवीक्षा  : स्त्री० [सं०√संवीक्ष्+अ-टाप्] [भू० कृ० संवीक्षित, वि० संवीक्ष्य] किसी चीज या बात के विल्कुल ठीक होने की ऐसी जाँच-पड़ताल जिसमें ब्यौरे की छोटी से छोटी भूल-चूक पर भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। (स्क्रूटनी)
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संवीत  : भू० कृ० [सम्√वृ (संवरण करना)+क्त-य-इए] १. ढ़का हुआ। आवृत। २. कवच द्वारा सुरक्षित किया हुआ। ३. जो कुछ पहने हो। ४. रुका हुआ। रुद्ध। ५. जो दिखाई न दे रहा हो। अदृष्य। लुप्त। ६. देखकर भी अनदेखा किया या टाला हुआ। पुं० पहनने के कपड़े। परिच्छद। पोशाक। २. सफेद कटभी।
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संवीती  : वि० [सं० संवीत+इनि] जो यज्ञोपवीत पहने हो।
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संवृक्त  : भू० कृ० [सम्√वृज् (रखना आदि)+क्त√वृक् (लेना)+क्त वा] १. छीना हुआ हरण किया हुआ। २. लापरवाही से खरचा, खाया या उड़ाया हुआ। (धन)।
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संवृत  : भू० कृ० [सम्√वृ (ढकना)+क्त] १. ढका या बंद होना। आच्छादित। २. लपेटा हुआ। ३. घिरा या घेरा हुआ। ४. युक्त। सहित। ५. रक्षित। ६. जिसका दमन किया गया हो। दबाया हुआ। ७. जो अलग या दूर हो गया हो। ८. धीमा किया हुआ। ९. रुँधा हुआ (गला)। १॰. (अक्षर या वर्ण) जिसके उच्चारण में संवार नामक बाह्य प्रयत्न होता हो। विवृत या विपर्याय। पुं० [सम्√वृ (छिपाना) +क्तन्] १. वरुण देवता। २. गुप्त स्थान। ३. एक प्रकार का जलबेंत।
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संवृति  : स्त्री० [सम्√वृ (रहना)+क्त] संवृत होने की अवस्था या भाव।
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संवृत्त  : भू० कृ० [सं० संवत् (रहना)+क्त] १. पहुँचा हुआ। समागत। प्राप्त। २. जो घटित हो चुका हो। ३. (उद्देश्य या विचार) जो पूरा सिद्ध हो चुका हो। ४. उत्पन्न। ५. उपस्थित। मौजूद। पुं० वरुण देवता।
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संवृद्ध  : वि० [सम्√वृध् (बढना)+क्त] १. बढ़ा या बढ़ाया हुआ। २. ऊपर उठा हुआ। उन्नत।
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संवृद्धि  : स्त्री० [सम्√वृध् (बढ़ना)+क्तिन] १. बढ़ने की क्रिया या भाव। बढ़ती। वृद्धि। २. समृद्धि।
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संवेग  : पुं० [सम्√विज् (आकुल होना)+घञ] १. गति आदि का पूरा वेग। चाल की तेजी। २. मन में होने वाली खलबली। उद्विग्नता। घबराहट। ३. डर। भय। ४. अतिरेक। ५. दे० ‘मनोवेग’।
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संवेजन  : पुं० सम्√विज् (घबड़ाना)+ल्युट्-अञ] [भू० कृ० संवेजित, वि० संवेजनीय] १. उद्वग्न करना। २. खलबली या हलचल मचाना। ३. भयभीत करना या डराना। ४. उत्तेजित करना। भड़काना। ५. ऊपर उठना या खड़ा होना। जैसे—रोम संवेजन।
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संवेत गाम  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा संगीत जिसमें अनेक प्रकार के बाजे एक साथ बजते हों। २. कई आदमियों का एक साथ मिलकर कोई चीज गाना। सहगान। (कोरस)
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संवेद  : पुं० [सम्√विद् (जानना)+घञ] १. सुख-दुःख आदि की अनुभूति। २. ज्ञान। बोध।
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संवेदन  : पुं० [सं० सम्√विद्+ल्युट्-अन] [वि० संवेदनीय, संवेद्य, भू० कृ० संवेदित] १. मन में सुख दुःख आदि की होने वाली अनुभूति या प्रतीति। २. किसी प्रकार के प्रभाव, स्पर्शं आदि के कारण शरीर के अंगों या स्नायुओं में प्राकृतिक रूप से होने वाला वह स्पन्दन जिससे मन को उसकी अनुभूति होती है। उदा०—मनु का मन था बिकल हो उठा समवेदन से खाकर चोट।—प्रसाद। ३. किसी को किसी बात का ज्ञान या बोध कराना। ४. नक-छिकनी नाम की घास।
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संवेदन-सूत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्रणियों के सारे शरीर में जल के रूप में फैली हुई बहुत ही सूक्ष्म नसों में से प्रत्येक नस। (नर्व) विशेष दे० ‘तंत्रिका’।
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संवेदनहारी  : वि० दे० ‘निश्चेतक’।
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संवेदना  : स्त्री० [सं० संवेदन+टाप्] १. मन में होने वाला अनुभव या बोध। अनुभूति। २. किसी को कष्ट में देखकर मन में होने वाला दुःख। किसी की वेदना देखकर स्वयं भी बहुत कुछ उसी प्रकार की वेदना का अनुभव करना। सहानुभूति। (सिम्पेथी) ३. उक्त प्रकार का दुःख या सहानुभूति प्रकट करने की क्रिया या भाव। (कन्डोलेंस)
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संवेदनीय  : वि० [सम्√विद (जानना)+अनीयर्] जिसमें या जिसे संवेदन का ज्ञान हो सकता हो। २. जतलाया या बतलाया जा सकता हो।
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संवेदय  : वि०[सम्√ विद् (जानना)+ण्यत्] [भाव० संवेद्यता] १. संवेदना के रूप में जिसकी अनुभूति या ज्ञान हो सकता हो। २. (बात या विषय) जिसका अनुभव या ज्ञान कराया जा सकता हो। ३. संवेदनीय।
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संवेदित  : भू०कृ०[सम्√ निद (जानना)+णिच्-क्त] जिसकी संवेदना के रूप में अनुभूति हुई हो। २. जतलाया या बतलाया हुआ।
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संवेद्यता  : स्त्री०[सं०संवेद्य+तल्-टाप] संवेद्य होने की अवस्था ,गुण या भाव। (सेन्सिबिलिटी)
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सवेरा  : पुं० [हि० स०+सं० वेला] १. प्रातःकाल। सुबह। २. निश्चित समय के पूर्व का समय। (क्व०)।
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सवेरे  : अव्य० [हि० सवेरा] १. प्रातःकाल के समय। २. नियत या साधारण समय से कुछ पहले। जैसा—न सोना सवेरे न उठना सवेरे।—गालिब।
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संवेश  : पुं० [सम्√ विश् (घुसना)+घञ] १. पास आना या जाना। पहुँचना। २. प्रवेश। भेंट। ३. आसन लगाना। बैठना। ४. लेटना या सोना। ५. बैठने का आसन या पीढ़ा। ६. काम-शास्त्र में एक प्रकार का रति-बंध। ७. अग्नि देवता जो रति के अधिष्ठाता माने गये हैं।
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संवेशक  : वि० [सम्√विश्+णिच्-ण्वुल्-अक] चीजें क्रम से तथा यथा-स्थान रखनेवाला।
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संवेशन  : वि० [सम्√विश्+णिच्-ण्वुल्-अन] [वि० संवेषणीय, संवेश्य, भू० कृ० संवेशित] १. बैठना। २. लेटना या सोना। ३. घुसना। पैठना। ४. स्त्री० संभोग। मैथुन। रति।
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संवेशी  : वि० [सम्√विश् (रहना)+णिनि]=संवेशक।
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संवेश्य  : वि० [सम्√विश् (रहना)+ण्यत] १. जिस पर लेटा जा सके। २. जिसके अन्दर घुसा या पैठा जा सके।
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संवेष्ट  : पुं० [सम्√विष्ट् (लपेटना)+घञ] लपेटने का कपड़ा। बेठन।
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संवेष्टक  : पुं० [सं० सम्√ विष्ट्+णिच्-ण्वुल्-अक, कन, वा] वह जो वस्तुओं का संवेष्टन करता हो। पोटली आदि बाँधने वाला। (पैकर)
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संवेष्टन  : पुं० [सं० सम्√ वेष्ट्+णिन्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संवेष्टित] १. कोई चीज चारों तरफ से अच्छी तरह लपेटकर बाँधना। २. वह कपड़ा, कागज, टाट या ऐसी और कोई चीज जिसमें कहीं भेजने के लिए कोई चीज बाँधी जाय। (पैकिंग) ३.चारों ओर से घेरना। ४. बन्द करना।
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संवेष्टित  : वि० [सम्√वेष्ट (लपेटना)+णिच्-क्त] चारों ओर से घेरना या बंद किया हुआ। परिवेष्टित। (एन्कलोज्ड)
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संवैधनिक राजतंत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] किसी राज्य का ऐसा तंत्र या शासन जिसका प्रधान अधिकारी ऐसा राजा हो जिसके अधिकार और कर्तव्य संविधान द्वारा नियमित और मर्यादित हो। (कान्स्टिच्यूशनल मॉनर्की)
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संवैधानिक  : वि० [सं० संविधान+ठक-इक] संविधान से संबंध रखने वाला। संविधान संबंधी। (कान्स्टिच्यूशनल)
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सवैया  : पुं० [हि० सवा+ऐया (प्रत्य०)] १. तौलने का वह बाट जो सवा सेर का हो। २. वह पहाड़ा जिसमें एक दो तीन आदि संख्याओं का सवाया मान बतलाया जाता है। ३. हिन्दी छन्द शास्त्र में वर्णिक वृत्तों के चरणवाले प्रायः सभी जाति-छंद आ जाते है। इन छन्दों में लय की प्रधानता होती है, अतः इन्हें पढ़ते समय कुछ स्थलों पर गुरु मात्राओं का ह्रस्व मात्राओं के समान उच्चारण करना पड़ता है। इसके १ ४ भेद कहे गये हैं, दुर्मिल, मदिरा मानिनी सुन्दरी आदि।
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सवौंध  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. सर्वोपूर्ण सेना। २. एक प्रकार का शहद।
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सवौंपरि सत्ता  : स्त्री० [सं०] सबसे बड़ा या प्रधान सत्ता। (पैरामाउन्ट पावर)।
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सवौंषध  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] आयुर्वेद में औषधियों का एक वर्ग जिसके अन्तर्गत दस जड़ी-बूटियाँ है और जिनका उपयोग कर्मकांडी पूजनों आदि में भी होता है।
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सवौंषधि  : वि० [सं० ब० स० कर्म० स० वा] जिसमें सब तरह की औषधियाँ हों।
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सव्य  : वि० [सं०] १. वाम। बायाँ। २. दक्षिण। दाहिना। ३. प्रतिकूल। विपरीत। पुं० १. यज्ञोपवीत। जनेऊ। २. विष्णु। ३. अंगिरा के पुत्र एक ऋषि जो ऋग्वेद के कई मंत्रों के द्रष्टा थे। ४. चन्द्र या सूर्य ग्रहण के दस प्रकार के ग्रासों में से एक प्रकार का ग्रास।
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सव्यचारी (रिन्)  : पुं० [सं०] १. अर्जुन का एक नाम। २. अर्जुन वृक्ष। ३. दे० ‘सव्यचारी’।
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सव्यभिचार  : पुं० [सं०] भारतीय न्यायशास्त्र में ५ प्रकार के हेत्वाभासों में से एक।
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संव्यवहार  : पुं० [सम्-वि-अव√हृ (हरण करना)+घञ] १. अच्छा व्यवहार या सलूक। एक दूसरे के प्रति उत्तम आचरण। २. बाच-चीत का प्रसंग या विषय। ३. लेन-देन या व्यवहार। ४. लगाव। संपर्क। ५. किसी पदार्थ का उपयोग या व्यवहार। ६. व्यवसायी। रोजगारी। ७. महाजन। ८. लोक में प्रचलित सुबोध शब्द।
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सव्यसाची (चिन्)  : पुं० [सं०] अर्जुन (पांडव)। वि०जो दाहिने और बायें दोनों हाथों से सब काम समान रूप से कर सकता हो।
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सशंक  : वि० [सं०] १. जिसके मन में कोई शंका हो। २. शंका के कारण जो भयभीत हो रहा हो। ३. शंका या भय उत्पन्न करनेवाला।
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सशंकना  : अ० [सं० सशंक+हि० ना (प्रत्य)] १. शंकायुक्त होना। शंकित होना। २. भयभीत होना। डरना।
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संशप्त  : वि० [सम्√शप् (शाप देना)+क्त] १. जो शाप ग्रस्त हो। २. जिसे शाप मिला हो। २. जिसने किसी से प्रतिज्ञा की हो या किसी को वचन दिया हो। वचन बद्ध।
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संशप्तक  : पुं० [संशप्त० ब० स०+कप्] १. ऐसा योद्धा जिसने बिना सफल हुए लड़ाई आदि से न हटने की शपथ खाई हो। २. कुरुक्षेत्र के युद्ध में एक दल जिसने उक्त प्रकार से अर्जुन से वध की प्रतिज्ञा की थी पर स्वयं मारा गया था।
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संशब्द  : पुं० [सम्√शब्द् (शब्द करना)+घञ] १. ललकार। २. उक्ति। कथन। ३. प्रशंसा। स्तुति।
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संशम  : पुं० [सम्√शम् (शान्त होना)+अच्] कामना, वासना आदि से पूरी तरह से निवृत्त होना। इच्छाओं आदि का दमन।
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संशमन  : पुं० [सम्√शम् (शान्त होना)+ल्युट्-अन] १. शान्त करना। २. नष्ट करना। ३.वैद्यक में, ऐसी दबा जो दोषों को बिना घटाए-बढ़ाए रोग दूर करे।
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संशमन वर्ग  : [पुं० त०] वैद्यक में, संशमन करने वाली औषधियों (कुट, देवदारु, हलदी आदि) का वर्ग।
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संशय  : पुं० [सं० सम्√शी+अच्] १. पड़े रहना। लेटना। २. मन की वह स्थिति जिसमें किसी बात के संबंध में निराकरण या निश्चय नहीं होता, और उस बात का ठीक रूप जानने या समझने के लिए मन में उत्कंठा या जिज्ञासा बनी रहती है। तथ्य या वास्तविकता तक पहुँचने के लिए मन जिज्ञासापूर्ण वृत्ति। शक। (डाउट) विशेष-संशय बहुधा ऐसी बातों के संबंध में होता है जिन पर पहले से लोग कोई निश्चय तो कर चुके हों, फिर भी उस निश्चय से हमारा संतोष या समाधान न होता हो। हमारे मन में यह बात बनी रहती है कि ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। यथा-कछु संशय तो फिरती बारा।—तुलसी। प्रायः शंका और संदेह के स्थान पर भी इसका प्रयोग होता है। दे० ‘शंका’ और ‘संदेह’। इसी आधार पर यह न्यायशास्त्र में १६ पदार्थों में एक माना गया है। ३. खतरे या संकट की आशंका या संभावना। जैसे—प्राणों का संशय होना। ४. साहित्य में, संदेह नामक काव्यालंकार का दूसरा नाम।
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संशय-सम  : पुं० [सं०] न्याय दर्शन में २ ४ जातियों अर्थात खंडन की असंगत युक्तियों में से एक। वादी के दृष्टांत में साध्य और असाध्य दोनों प्रकार के धर्मों का आरोप करके उसके साध्य विषय को संदिग्ध सिद्ध करने का प्रयत्न।
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संशयवाद  : पुं० [सं० संशय√वद्+घञ] १. दार्शनिक क्षेत्र में वह सैद्धान्तिक स्थिति जिसमें अंधविश्वास या श्रद्धा और शब्द प्रमाण की उपेक्षा करके यह सोचा जाता है कि अब जो मान्यताएँ चली आ रहीं हैं, वे ठीक भी हैं, तथा नहीं भी और वे ठीक हो भी सकती हैं और नहीं भी हो सकतीं। (स्केप्टिसिज़्म) विशेष—इसमें प्रत्यय, प्रमाण और प्रयोगात्मक अनुभव ही ग्राह्या या मान्य होते हैं। शेष बातों के संबंध में संशय ही बना रहता है।
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संशयवादी  : पुं० [सं० संशय√वद्+णिनि] वह जो संशय वाद का अनुयायी या समर्थक हो।
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संशयाक्षेप  : पुं० [ष० त०] १. संशय का दूर होना। २. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार।
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संशयात्मक  : वि० [ब० स०] जिसमें संशय के लिए अवकाश हो।
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संशयात्मा  : पुं० [मध्य० स०] वह जिसका मन किसी बात पर विश्वास न करता हो। वह जिसके मन में हर बात के विषय में कुछ न कुछ संशय बना रहता हो।
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संशयालु  : वि० [संशय+आलुच्] बात-बात में संशय या संदेह करनेवाला।
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संशयावह  : वि० [संशय-आ√वह (ढोना)+अच्] १. मन में संशय उत्पन्न करने वाला। २. जो संकट उत्पन्न कर सकता हो। भयावह।
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संशयित  : भू० कृ० [सम्√शी (शयन करना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसके मन में संशय उत्पन्न हुआ हो। २. (बात) जिसके विषय में संशय किया गया हो। संदिग्ध।
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संशयिता  : वि० [सम्√शी (शयन करना)+तृच्] संशय करनेवाला।
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संशयी  : वि० [सं० संशय+इनि] १. जिसके मन में प्रायः संशय होता रहता हो। शक्की स्वभाव वाला। २. जिसके मन में संशय उत्पन्न हुआ हो। ३. जो प्रायः संशय करता रहता हो। जैसे—संशयी बुद्धि या स्वभाव।
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संशयोपमा  : स्त्री० [मध्य० स०] साहित्य में संशय अलंकार का एक भेद जिसमें कई वस्तुओं की समानता का उल्लेख करके संशय का भाव प्रकट किया जाय।
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संशरण  : पुं० [सम्√शृ (चूर्ण करना)+ल्युट्-अन्] १. भंग करना। तोड़ना। २. चूर-चूर या टुकड़े-टुकड़े करना। ३. किसी की शरण लेना।
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संशरुक  : वि०[सम्√ शृ (भंग करना)+उन्-कन्] संशरण करने वाला।
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सशस्त्र  : वि० [सं०] १. जिसके पास शस्त्र हो या हों। २. शस्त्र या शस्त्रों से लैस या शस्त्रधारी। जैसा—सशस्त्र बल। क्रि० वि० शस्त्र या शस्त्रों से सज्जित होकर।
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सशस्त्र-तटस्थता  : स्त्री० [सं०] आधुनिक राजनीति में किसी राष्ट्र अथवा राष्ट्रों से बिलकुल अलग या तटस्थ रहने पर भी अस्त्रशस्त्रों से इतने सज्जित रहना है कि किसी ओर से आक्रमण होने पर तत्काल अपना बचाव या रक्षा कर सकें। (आर्म़ड न्यूट्रैलिटी)।
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संशासन  : पुं०[सम्√ शास् (शासन करना)+ल्युट्-अन] अच्छा शासन। उत्तम राज्य-प्रबंध।
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संशित  : भू० कृ० [सं० सम्√शो+क्त] १. सान पर चढ़ाकर चोखा या तेज किया हुआ। २. उद्यत। तत्पर। ३. दक्ष। निपुण। ४. दृढ। पक्का। जैसा—संशित व्रत।
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संशितात्मा (त्मन्)  : वि० [कर्म० स०] जिसने दृढ संकल्प कर लिया हो।
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संशिति  : स्त्री० [सं०√शो (तेज करना आदि)+क्तिज] १. संशय। संदेह। शक। २. सान पर चढाकर धार तेज करने की क्रिया या भाव।
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संशीत  : भू० कृ० [सम्√शौ (गमनादि)+क्त-संप्र०] १. ठंढ़ा किया हुआ। २. ठंढ के कारण जमा हुआ।
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संशीलन  : पुं० [सम्√शील (अभ्यास करना)+ल्युट्-अन] १. नियमित रूप से अभ्यास करना। २. संसर्ग।
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संशुद्ध  : वि० [सं०] १. यथेष्ट शुद्ध। विशुद्ध। २. अच्छी तरह साफ किया हुआ। ३. (ऋण या देना) चुकाया हुआ। ४. जाँचा हुआ। परीक्षित। ५. अपराध, दोष आदि से मुक्त होना। ६. प्रायश्चित आदि के द्वारा पापों से मुक्त किया हुआ।
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संशुद्धि  : स्त्री० [सम्√शध् (शुद्ध करना)+क्तिन] संशुद्ध होने की अवस्था या भाव।
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संशुष्क  : वि० [सं०√शुष् (सूखना)+क्त=क] १. बिल्कुल सूखा हुआ। खुश्क। २. नीरस। फीका। ३. जो रसिक या सहृदय न हो।
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सशेष  : वि० [सं० सं० त०] १. जिसका कुछ अंश अभी बचा हो। २. (काम) जिसका कुछ अभी पूरा होने को बाकी हो। अधूरा।
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संशोधक  : वि० [सम्√शुध् (शुद्ध करना)+णिच्-ण्वुल्-अक] १. शोधन करने वाला। दुरुस्त या ठीक करने वाला। २. संस्कार या सुधार करने वाला। ३. ऋण या देन चुकाने वाला। ४. (तत्व) जो किसी बात या पदार्थ की शुद्धि में साहयक होता हो। (करेक्टिव)
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संशोधन  : पुं० [सम्√शुध् (शुद्ध करना)+णिच्-ल्युट-अन] [वि० संशोधनीय, संशोधन, संशुद्ध, संशोध्य] १. शुद्ध करना या साफ करना। २. त्रुटि, दोष आदि को दूर करके ठीक और दुरुस्त करना। (करेक्शन) ३.आज-कल विशेष रूप से किसी प्रस्ताव या प्रस्तुत किये हुए विचार के संबंध में यह कहना कि इसमें अमुक बात घटाई या बढाई जाय अथवा उसका रूप बदलकर उसे अमुक प्रकार से बनाया जाय। (अमेन्ड-मेन्ट) ४.ऋण देना आदि चुकाने की क्रिया या भाव।
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संशोधनीय  : वि०[सम√ शुध् (शुद्ध करना)+अनीयर) जिसका संशोधन हो सके या होने को हो।
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संशोधित  : भू० कृ० [सम्√शुध् (शुद्ध करना)+णिच्+क्त] १. जिसका संशोधन हुआ हो। २. जो ठीक, शुद्ध, दुरुस्त किया गया हो। ३. (ऋण या देन) जो चुकाया गया हो।
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संशोधी  : वि० [सं०√शुध् (शुद्ध करना)+णिनि] [स्त्री० संशोधनी] संशोधक।
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संशोध्य  : वि० [सं०√शुध् (शुद्ध करना)+ण्यत]=संशोधनीय।
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संशोभित  : वि० [सम्√शुभ] (शोभित होना)+णिच्+क्त] १. अलंकृत। २. सुशोभित।
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संशोषण  : पुं० [सम्√शुष् (सोखना)+णिच्-ल्युट्-अन] [वि० संशोणीय, संशोध्य] १. अच्छी तरह सीखना। २. सुखाना।
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संशोषित  : भू० कृ० [सम्√शुष् (सोखना)+क्त] सुखाया या सोखा हुआ।
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संशोषी (षिन्)  : वि० [सम्√शुष् (सूखना)+णिनि] १. सोखने वाला। २. सुखाने वाला। जैसे—संशोषी ज्वर।
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संशोष्य  : वि० [सम्√शुष् (सुखाना)+ण्यत] जो सोखा जा सकता हो या सोखा जाने को हो।
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संश्रय  : पुं० [सम्√श्रि (सेवा करना)+अच्] [भू० कृ० संश्रित] १. संयोग। मेल। २. आजकल कुछ विशिष्ट प्रकार के दलों ,शक्तियों आदि का किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए आपस में मेल या मैत्री स्थापित करना। (एलायन्स) ३. लगाव। संपर्क। ४. आश्रय। शरण। ५. अवलम्ब। सहारा। ६. आश्रय या शरण लेने की जगह। ७. अंश। भाग। ८. घर। मकान। ९. उद्देश्य। लक्ष्य। १॰. अंश। भाग। ११. राजाओं में पारस्परिक और सहायता के लिए होने वाली संधि।
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संश्रयण  : पुं० [सम्√ श्रि (सेवा करना)+ल्युट्-अन] [वि०संश्रयणीय, संक्षयी, भू० कृ० संश्रित] १. सहारा लेना। अवलम्ब पकड़ना। २. किसी के पास जाकर उसका आश्रय लेना। पनाह लेना।
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संश्रयणीय  : वि० [सम्√श्रि (सेवा करना)+अनीयर्] १. जिसका आश्रय लिया जा सके। २. जिसे आश्रय दिया जा सके।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
संश्रयी  : वि० [सम्√श्रि (सेवा करना)+इनि] १. संश्रय अर्थात आश्रय या सहारा लेने वाला। २. शरण लेने वाला। पुं० नौकर। भृत्य।
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संश्रवण  : पुं० [सम्√श्रु (सुनना)+ल्युट्-अन] [वि० संश्रवणीय, संश्रुत] १. अच्छी तरह ध्यान लगाकर सुनना। २. अंगीकृत या स्वीकृत होना। ३. वचन देना। वादा करना।
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संश्राव  : पुं० [सम्√श्रु (सुनना)+घञ] [वि० संश्रावणीय, भू० कृ० संश्रावित]=संश्रवण।
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संश्रावक  : वि० [सम्√श्रु (सुनना)+ण्वुल्-अक] १. सुनने वाला। श्रोता। २. सुनकर मान लेने वाला। पुं० चेला। शिष्य।
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संश्रावित  : भू० कृ० [सम्√श्रु (सुनना)+णिच्-क्त] १. सुनाया हुआ। २. जोर से पढ़कर सुनाया हुआ।
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संश्राव्य  : वि० [सम्√श्रु (सुनना)+ण्यत] १. जो सुना जा सके। २. जो सुनाया जा सके।
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संश्रित  : भू० कृ० [सं०√श्रि (सेवा करना)+क्त] १. जुड़ा या मिला हुआ। संयुक्त। २. साथ लगा हुआ। संलग्न। ३. जो किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए किसी दल या वर्ग में मिल गया हो। जिसने किसी के साथ संश्रय स्थापित किया हो। (एलायड) ४. टाँगा, टिकाया या लयकाया हुआ। ५. गले से लगाया हुआ। आलिंगित। ६. शरण में आया हुआ। शरणागत। ७.जिसे आश्रय देकर शरण में रखा गया हो। ८. जिसने सेवा करना स्वीकृत किया हो। ९. जो किसी काम या बात के लिए दूसरे पर आश्रित हो। परावलम्बी। पुं० नौकर। भृत्य।
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संश्रुत  : भू० कृ० [सम्√श्रु (सुनना)+क्त] १. अच्छी तरह सुना हुआ। २. अंगीकृत। स्वीकृत।
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संश्लिष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. किसी से अच्छी तरह जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। २. किसी के साथ मिलकर एक किया हुआ। एकीकृत। ३.मिश्रित या सम्मिलित किया हुआ। ४. गले लगाया हुआ। आलिंगित। ५. संश्लेषण की क्रिया से किसी के साथ बना या मिला हुआ। श्लिष्ट। (सिन्थेटिक) पुं० १. ढेर। राशि। २. समूह। ३. वास्तु शास्त्र में, एक प्रकार का मंडप।
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संश्लेष  : पुं० [सं०√श्लिष (मिलाना)+घञ] १. मिलने या मिलाए जाने की क्रिया या भाव। २. गले लगाना। आलिंगन। परिरम्भण।
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संश्लेषक  : वि० [सं०] संश्लेषण या संश्लेष करनेवाला।
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संश्लेषण  : पुं० [सम्√श्लिष (मिलाना)+ल्युट्-अन] [वि० संश्लेषणीय, भू० कृ० संश्लेषित, संश्लिष्ट] १. किसी के साथ जोड़ना, मिलाना या लगाना। २. टाँगना या लटकाना। ३. वह जिससे कुछ जोड़ा या बाँधा जाय। बंधन। ४. कार्य से कारण अथवा किसी नियम या सिद्धान्त से किसी चीज या बात के परिणाम का फल या विचार करना। मिलान करना। ‘विश्लेषण’ का विपर्याय। (सिन्थेसिस) ५. भाषा-विज्ञान में, वह स्थिति जिसमें किसी पद से अर्थ का भी और पर-सर्ग आदि के द्वारा संबंध का भी बोध होता है। जैसे—‘मेरा’ शब्द में ‘मैं’ वाले अर्थ तत्व के सिवा ‘रा’ पर सर्ग के कारण संबंध सूचक तत्व भी सम्मिलित है। (एग्लूटिनेशन) विशेष—संस्कृत व्याकरण में इसी तत्व या प्रक्रिया को ‘सामर्थ्य’ कहते हैं।
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संश्लेषित  : भू० कृ० [सम्√श्लिष (मिलाना)+णिच्-क्त] जिसका संश्लेषण किया गया हो या हुआ हो।
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संश्लेषी  : वि० [सम्√श्लिष (मिलाना)+इनि] [स्त्री० संश्लेषिणी] संश्लेषक।
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संष  : स्त्री=संख्या। पुं०=शंख(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सषुन  : पुं०=सखुन (उक्ति)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संस  : पुं०=संशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सस  : पुं० [सं० शशि] चंद्रमा। शशि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० शशक] खरगोश। पुं० [सं० शस्य] १. अनाज। धान्य। २. खेती-बारी। ३. फसल। ४. हरियाली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसइ  : पुं०=संशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससक  : पुं० [सं० शशक] १. खरगोश। २. रहस्य संप्रदाय में, (क) जीव या आत्मा। (ख) ओंकार शब्द।
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ससंकना  : अ०=सशंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ससकना  : अ० १.=ससंकना। २.=सिसकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसक्त  : भू० कृ० [सं०] १. किसी के साथ मिला, लगा या सटा हुआ। (कान्टिगुअस) २. जुड़ा हुआ। सम्बद्ध। ३. किसी कार्य में लगा हुआ या प्रवृत्त। ४. किसी के प्रेम में फँसा हुआ। आसक्त। ५. सांसारिक विषय वासना में लगा हुआ। ६. प्रतियोगिता, युद्ध, विवाद आदि में किसी से भिड़ा हुआ। ७. युक्त। सहित। ८. घना। सघन।
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संसक्ति  : स्त्री० [सं०] [विसक्त] १. किसी के साथ सटे या लगे होने का भाव। (कन्टीगुइटी) २. एक ही तरह के पदार्थो या तत्वों का आपस में मिल या सटकर एक रूप होना। ३. वह शक्ति जिससे वस्तु के सब अंग एक साथ लगे या सटे रहते हैं। (कोहेशन) ४. संबंध। लगाव। ५. विषय अनुराग या आसक्ति। लगन। ६. लीनता। प्रवृत्ति।
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संसगर  : वि० [सं० शस्य=अन्न, फसल+आगार] १. (भूमि) जिसमें पैदावार अधिक हो। उपजाऊ। उर्वर। २. लाभ-दायक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसज्जन  : पुं० [सं० सम्√सज्ज् (तैयार होना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसज्जित] १. अच्छी तरह सजाने की क्रिया या भाव। २. आज-कल युद्ध आदि के लिए सैनिक एकत्र करने और उन्हे अस्त्र शस्त्र आदि से पूर्णतः युक्त करने की क्रिया। (मोबिलाइजेशन)
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ससत  : अव्य० [सं० स+सत्य] सचमुच। वस्तुतः। उदाहरण—साखियात गुणमै ससत।—प्रिथीराज।
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संसद  : स्त्री० [सं०] १. समाज। सभा। मंडली। २. किसी विशेष कार्य के लिए संगठित बहुत से लोगों का निकाय या समुदाय। (एसोसिएशन) ३. आज-कल राज्य शासन संबंधी कार्यों में सहायता देने, पुराने विधानों में संशोधन करने तथा नये विधान बनाने के लिए प्रजा के प्रतिनिधियों की चुनी हुई सभा। (पार्लमेंट) ४. प्राचीन भारत में (क) राज-सभा। (ख) न्याय सभा। ५. एक प्रकार का यज्ञ जो २४ दिनों में पूरा होता है।
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संसदीय  : वि० [सं० संसद] संसद संबंधी। सांसद।
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ससन  : पुं० [सं०√सस् (हिसा करना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० ससित] यज्ञ के बलि-पशु का हनन बलिदान। पुं० [सं० श्वसन] १. साँस। २. उच्छ्वास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससना  : स० [सं० ससन] १. यज्ञ में पशु का बलिदान करना। २. मार डालना। वध करना। अ० १. बलिदान होना। २. मारा जाना। अ० [सं० श्वसन] सांस लेना। अ० १. =ससंकना। २. =सिसकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससमा  : पुं० [सं० शशि] चन्द्रमा। उदाहरण—प्रकट परिपूरन ससमाष।—भगवत रसिक।
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संसय  : पुं०=संशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसरण  : पुं० [सम्√सृ (गमनादि)+ल्युट्—अण] [वि० संसरणीय, संसरित, संसृत] १. आगे की ओर खिसकना या बढ़ना। सरकना। २. गमन करना। चलना। ३. सेना या सैनिकों का बिना बाधा के आगे बढते चलना। ४. एक जीवन त्यागकर दूसरा नया जन्म लेना। ५. बहुत दिनों से चला आया हुआ मार्ग या रास्ता। ६. जगत्। संसार। ७. युद्ध का आरंभ। ९. लड़ाई छिड़ना। १॰. प्रचीन भारत में, नगर के मुख्य द्वार के बाहर बना हुआ वह स्थान जहाँ फाटक बंद हो जाने के बाद आये हुए यात्री रात के समय ठहरा करते थे।
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ससरना  : अ० [सं० सरण] सरकना। खिसकना।
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संसर्ग  : पुं० [सं०] १. ऐसा लगाव या संबंध जो पास या सात रहने से उत्पन्न होता है। (कन्टैक्ट) जैसे—(क) संसर्ग से ही गुण और दोष उत्पन्न होते हैं। (ख) यह रोग संसर्ग से ही फैलता है। २. व्यवहारिक घनिष्ठता। मेल-जोल। ३. संपर्क। संबंध। ४. किसी के साथ रहने की क्रिया या भाव। सहवास। ५. मैथुन। संभोग। ६. संपत्ति का ऐसी स्थिति में होना कि परिवार के सब लोगो का उस पर समान अधिकार हो। ७. वैद्यक में बात, पित्त, और कफ में से दो का एक साथ होने वाला प्रकोप या विकार। ८. वह बिन्दु जहाँ एक रेखा दूसरी को काटती हो।
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संसर्ग-दोष  : पुं० [सं०] वप दोष या बुराई जो किसी संसर्ग से उत्पन्न हो।
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संसर्ग-रोध  : पुं० [सं०] १. ऐसी अवस्था जो किसी स्थान को संक्रामक रोगो आदि से बचाने के लिए बाहर से आने वाले लोगों को कुछ समय तक कहीं अलग रख कर की जाती है। २. उक्त कार्य के लिए अलग या नियत किया हुआ स्थान। (क्वारेनेटाइन)
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संसर्ग-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] लोगों से मेल जोल पैदा करने की कला। व्यवहार-कुशलता।
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संसर्गज  : वि० [सं०] १. संसर्ग से उत्पन्न होने वाला। २. (रोग) जो किसी को छूने से उत्पन्न होता है। छुतहा। (इन्फैक्सस) विशेषः संक्रामक और संसर्गज रोगो में अंतर यह है कि संक्रामक रोग तो पानी, हवा आदि के द्वारा भी फैलते हैं, परंतु संसर्गज रोग केवल रोगी के संसर्ग में रहने अथवा उसे छूने मात्र से उत्पन्न होते हैं। अर्थात संसर्गज रोग तो केवल प्रत्यक्ष संबंध से उत्पन्न होतो हैं ,परंतु संक्रामक रोग अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनो रूपों में फैलते हैं।
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संसर्गाभाव  : पुं० [ष० त०] १. संसर्ग का आभाव। संबंध का न होना। २. न्यायशास्त्र में आभाव का वह प्रकार या भेद जो संसर्ग न रहने की दशा में माना जाता है। जैसे—यदि घर में घड़ा न हो तो वह संसर्गाभाव माना जायगा। क्योंकि घर में न होने पर भी कहीं बाहर तो घड़ा होगा ही।
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संसर्गी  : वि० [संसर्ग+इति, सम्√सृज (छोड़नादि)+धिनुण वा] [स्त्री० संसर्गिनी] १. संसर्ग या लगाव रखने वाला। २. प्रायः या सदा साथ रहने वाला। संगी। साथी० पुं० धर्मशास्त्र आदि के अनुसार वह जो पैतृक सम्पत्ति का विभाग हो जाने पर भी कुटुम्बियों आदि के साथ रहता हो।
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संसर्जन  : पुं० [सम्√सृज (देना आदि)+ल्युट्—अन] [वि० संसर्जनीय, संसर्ज्य, भू० कृ० संसर्जित] १. संयोग होना। मिलना। २. जुड़ना या सटना। ३. अपनी ओर मिलाना। ४. त्याग करना। छोड़ना।
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संसर्प  : पुं० [सम्√सृप (धीरे चलना)+घञ] १. रेंगना। २. खिसकना। सरकना। ३. ज्योतिष में चन्द्र गणना के अनुसार वह अधिक भाग जो किसी छय मास वाले वर्ष में पड़ता है।
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संसर्पण  : पुं० [सं०√सृप् (धीरे चलना)+ल्युट्—अन] [वि० संसर्प-णीय, भू० कृ० संसर्पणीय] १. धीरे-धीरे आगे की और चलना या बढना। २. खिसकना या रेंगना। ३. उक्त प्रकार या रूप से ऊपर की ओर बढ़ना या चढ़ना। ४. सहसा आक्रमण करना। अकस्मात हमला करना।
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संसर्पी  : वि० [संसर्प+इनि, सम√सृप् (धीरे चलना)+णिनि वा] १. संसर्पण करने वाला। २. वैद्यक में पानी में तैरने या उतरने वाला।
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ससवाना  : स० [हि० ससना का प्रे०] १. सशंकित करना। २. भयभीत करना। डरवाना। स० [सं० ससन] हत्या कराना।
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ससहर  : पुं० [सं० शशधर] चन्द्रमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसा  : पुं० १. =संशय। २. =साँस। ३. =सँड़सा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससा  : पुं० [सं० शशा] खरगोश। शसक। पुं०=शशि (चन्द्रमा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसादन  : सं० सम्√सद् (गत्यादि)+णिच्-ल्युट्—अन] [वि० संसादनीय, संसाद्य, भू० कृ० संसादित] १. इकट्ठा करना या एकत्र करना। जमा करना० २. क्रम या सिलसिले से रखना या लगाना।
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संसाधक  : वि० [सम्√साध् (सिद्ध करना)+ल्युट्-अक] जीतने या वश में करने वाला।
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संसाधन  : पुं० [सम्√साध् (सिद्ध करना)+ल्युट्-अन] [वि० संसाधनीय, संसाध्य, भू० कृ० संसाधित] १. कोई काम अच्छी तरह पूरा करना। २. काम करने की तैयारी। आयोजन। ३. जीत या दबाकर वश में करना। दमन करना।
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संसाधनीय  : वि० सम्√साध् (सिद्ध करना)+अनीयर्] =संसाध्य।
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संसाध्य  : वि० सम्√ साध् (सिद्ध करना)+ण्यत] १. जो काम पूरा किया जा सकता हो या हो सकता हो। २. जो जीता या दबाया जा सकता हो। ३.जो किये जाने योग्य हो। ४.जो जीते या दबाये जाने योग्य हो।
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ससाना  : स० [सं० सशंक] १. सशंकित करना। २. बेचैन या विकल करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० [सं० शासन] १. दंड देना। २. कष्ट देना। अ० १. =ससंकना। २. =सिसकना।
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संसार  : पुं० [सं०] १. लगातार एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाते रहना। २. यह जगत या दुनिया जिसमें जीव या प्राणी आते जाते रहते है। इहलोक। मर्त्यलोको। ३. इस संसार में बार-बार जन्म लेने और मरने की अवस्था। ४. जीवन तथा संसार का प्रबंध और माया। ५. घर-गृहस्थी और उसमें का जीवन। उदा—मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा।—प्रसाद। ६. समूह। (क्व०) ७. दुर्गन्ध खादिर। विट् खादिर।
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संसार-गुरु  : पुं० [सं०] १. संसार को उपदेश देने वाला। जगदगुरु। २. कामदेव।
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संसार-चक्र  : पुं० [मध्यम० स०] १. बार-बार इस संसार मे आकर जन्म लेने और मर कर यह संसार छोड़ने का क्रम या चक्र। २. संसार का जंजाल या झंझट। सांसारिक प्रपंच। ३. संसार में होता रहने वाला उलटफेर या परिवर्तन।
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संसार-तिलक  : पुं० [सं० ष० त०] १. एक प्रकार का बढिया चावल।
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संसार-पथ  : पुं० [ष० त०] १. संसार में आने का मार्ग। २. स्त्रियो की जननेंद्रिय। भग। योनि।
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संसार-भावन  : पुं० [सं०] संसार को दुखमय समझना।
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संसार-सारथि  : पुं० [सं०] संसार की जीवन यात्रा चलाने वाला, परमेश्वर। २. शिव।
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संसारण  : पुं० सम्√सृ (गमनादि)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसारित] गति देना। चलाना।
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संसारी  : वि० सम्√सृ (गत्यादि)+णिन् संसार+इनि वा] [स्त्री० संसारिणी] १. संसार संबंधी। लौकिक। सांसारिक। २. घर में रहकर घर-गृहस्थी चलाने या ग्रहस्थ जीवन व्यतीत करने वाला। ३. संसार में आकर बार-बार जन्म लेने और मरने वाला। ४. लोक व्यवहार मे कुशल। दुनियादार।
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ससि  : पुं०=शशि (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ससि-गोती  : पुं० [सं० शशि+गोत्र] मोती। उदाहरण—हार लागि बेधा ससि-गोती।—नूर मुहम्मद।
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ससिअर  : पुं०=शशिधर (चंद्रमा)। उदाहरण—अनु धनि तूँ ससिअर निसि माहाँ।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संसिक्त  : भू० कृ० [सम्√सिच (सींचना)+क्त] अच्छी तरह सींचा हुआ। जिस पर खूब पानी छिड़का गया हो।
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ससिता  : स्त्री०=शिशुता (बचपन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसिद्ध  : वि० [सम्√सिध् (पूरा करना)+क्त] १. (काम) जो अच्छी तरह किया गया हो या ठीक तरह से पूरा उतरा हो। २. (खाद्य पदार्थ) जो अच्छी तरह सीझा या पका हो। ३. प्राप्त। लब्ध। ४. निरोग। स्वस्थ। ५. उदयत्। प्रस्तुत। ६. कुशल। दक्ष। निपुण। ७. जिसनें योग साधन करके सिद्धि प्राप्त कर ली हो।
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संसिद्धि  : स्त्री० [सम्√सिध् (पूरा करना)+क्तिन] १. प्रसिद्ध होने की अवस्था या भाव। २. सफलता। ३. पक्वता। ४. पूर्णता। ५. स्वस्थता। ६.परिणाम। ७. मुक्ति। ८. अवश्य और निश्चित होने वाली बात। ९. निसर्ग। प्रक्रति। १॰. स्वभाव। ११. मगमत्त स्त्री।
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ससिधर  : पुं०=शशधर (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससिभान  : पुं०=शशुभान (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससिहर  : पुं०=शशिधर (चंद्रमा)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)।
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संसी  : स्त्री०=सँड़स।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससी  : पुं०=शशि (चन्द्रमा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससीम  : वि० [सं० स+सीमा] [भाव० ससीमता] जिसकी सीमा हो या नियत हो। सीमित। (लिमिटेड)।
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संसुप्त  : भू० कृ० [सम्√सुप् (शयन करना)+क्त] गहरी नींद में सोया हुआ।
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संसुप्ति  : स्त्री० [सं०] गहरी नींद।
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ससुर  : पुं० [सं० श्वसुर] १. विवाहित व्यक्ति के संबंध के विचार से उसकी पत्नी (या पति) का पिता। २. संबंध के विचार से ससुर के समान और उसके स्थान पर होनेवाला व्यक्ति। जैसा—चचिया ससुर, ममिया ससुर।
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ससुरा  : पुं० [सं० श्वसुर] १. श्वसुर। ससुर। २. एक प्रकार की गाली। जैसा—उसससुरे को मै क्या समझता हूँ। ३. दे० ‘ससुराल’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससुरार  : स्त्री०=ससुराल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ससुराल  : स्त्री० [सं० श्वसुरालय] १. श्वसुर का घर। पति या पत्नी के पिता का घर। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा घर जहाँ पहुँचने पर पका-पकाया भोजन ठाठ से मिलता हो। ३. कारागृह। जेलखाना (गुंडे और बदमाश)। पद—ससुराल का कुत्ता=वह दामाद जो ससुराल में पड़ा रहता हो।
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संसूचक  : वि० [सम्√सूच् (सूचना देना)+णिच्—णवुल्—अक स्त्री० संसूचिका] १. प्रकट करने या जताने वाला। २. भेद या रहस्य बतलाने वाला। ३.समझाने बुझानेवाला। ४. डाँटने डपटने वाला।
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संसूची  : वि० [सम्√ सूच् (सूचना देना)+णिनि] [स्त्री० संसूचनी]=संसूचक।
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संसूच्य  : वि० [सम्√सूच् (सूचना देना)+ण्यत] जिसके संबंध में या जिसके प्रति संसूचन हो सके। संसूचन का अधिकारी या पात्र। पुं० दे० ‘सूच्य’। (नाटक का)
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संसृति  : स्त्री० [सम्√सृ (गत्यादि)+क्तिन] १. संसार में बार-बार जन्म लेने की परम्परा। आवागमन। २. जगत। संसार।
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संसृष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. जो एक साथ उत्पन्न या अविर्भूत हुए हों। २. जो आपस में एक दूसरे से मिलें हो। संश्लिष्ट। ३. परस्पर संबद्ध। ४. जो किसी के अंतर्गत अंतर्भूत हों। ५. बहुत आधिक हिला मिला हुआ। बहुत मेल जोल वाला। ६. (काम) पूरा या सम्पन्न किया हुआ। ७. इकट्ठा किया हुआ। संग्रहित। ८. वैद्यक में, (रोगी) जिसका पेट वमन, विरेचन आदि के द्वारा साफ कर दिया गया हो। ९. धर्मशास्त्र में (परिवार) बँटवारा हो चुकने के बाद भी मिलकर एक हो गये हों। पुं० १. घनिष्ठता। हेल-मेल। २. एक पौराणिक पर्वत।
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संसृष्ट-होम  : पुं० [सं०] अग्नि और सूर्य को एक साथ दी जाने वाली आहुति।
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संसृष्टत्व  : पुं० [सं० संसृष्ट+त्व] १ संसृष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। २. संपत्ति का बँचवारा हो के बाद फिर हिस्सेदारों का एक में मिलकर रहना। (समृति)
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संसृष्टि  : स्त्री० [सम० सम्√सृज (बना)+क्तिव+षत्व स्टुत्व] १. सृसष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। २. घनिष्ठता। हेल-मेल। ३. मिलावट। मिश्रण। ४. लगाव। संबंध। ५. बनावट। रचना। ६. संग्रह। ७. धर्म-शास्त्र में बँटवारा या विभाजन हो जाने पर भी परिवारों का फिर मिलकर एक हो जाना। ८. साहित्य में, दो या अधिक काव्यालंकारों का इस प्रकार संसृष्ट होना। या साथ-साथ हो जाना। कि वे सब अलग-अलग दिखाई दें। इसकी गणना एक स्वतंत्र अलंकार के रूप में होती है।
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संसृष्टि (ष्टिन)  : पुं० [सं० सृष्ट+इनि] धर्मशास्त्र में, ऐसे परिवार या संबंधी जो विभाजन हो चुकने पर भी मिलकर एक हो गये हों।
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संसेक  : पुं० [सं० सम्√सिच् (सींचना)+घञ] अच्छी तरह किये जाने वाला पानी आदि का छिड़काव।
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संसेचन  : पुं० [सं०] संभोग के समय नर की वीर्य मादा के अंड में मिलना जो प्रजनन के लिए आवश्यक होता है। (इन्सेमिनेशन) विशेष—अब यह क्रिया रासायनिक पद्धतियों में भी होने लगी है।
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संसेवन  : पुं० [सं० सम्√सेव् (सेवा करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसेवित, वि० संसेवनीय, संसेव्य] १. अच्छी तरह की जाने वाली सेवा। २. सदा सेवा में उपस्थित रहने की क्रिया या भाव। ३. अच्छी तरह किया जाने वाला उपयोग या व्यवहार। ४. अच्छी तरह किया जानेवाला आदर-सत्कार।
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संसेवा  : स्त्री० [सं० सं√सेव् (सेवा करना)+अ]=संसेवन।
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संसेवित  : भू० कृ० [सं० सम्√सेव् (सेवा करना)+क्त] जिसका अच्छी तरह से संसेवन किया हो। अथवा हुआ हो। उदा—सुरांगना, संपदा, सुराओं से संसेवित, नर पशुओ भूभार मनजता जिनसे लज्जित।—पन्त।
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संसेवी (विन्)  : वि० [सं०,सम्√सेव् (सेवा करना)+णिनि] संसेवन करने वाला। पुं० टहलुआ। खिदमतगार।
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संसेव्य  : वि० [सं० सम्√सेव् (सेवा करना)+यत] जिसका संसेवन हो सकता हो आवश्यक या उचित हो।
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ससों  : स्त्री०=सरसों।
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संसौ  : पुं० [पुं० [स० श्वास] १. श्वास। साँस। २. जीवनी। शक्ति। प्राण। पुं०=संशय।
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संस्करण  : पुं० [स० सम्√कृ (करना)+ल्यिट-अन-सुट्] १. संसकार करने की क्रिया या भाव। २. अच्छी तरह ठीक, दुरुस्त या शुद्ध करना। सुधारना। ३. अच्छा, नया और सुंदर रूप देना। ४. द्विजातियों के लिए विहित संस्कार करना। ५. आज-कल पुस्तकों, समाचार-पत्रों आदि की एक बार में और एक तरह की होने वाली छपाई। आवृत्ति (एडिशन) जैसे—(क) पुस्तक का राज संस्करण, (ख) समाचार-पत्र का प्रातः संस्करण।
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संस्कर्ता  : वि० [सं० सम्√कृ (करना)+तृच्-सुट्] संस्कार करने वाला।
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संस्कार  : पुं० [सं०] १. किसी चीज को ठीक या दुरुस्त करके उचित रूप देने की क्रिया। जैसे—व्यारकण में होने वाला शब्दो का संस्कार। २. किसी चीज की त्रुटियाँ, दोष, विकार आदि दूर करके उसे उपयोगी तथा निर्मल बनाने की क्रिया। जैसे—वैद्यक में होने वाला पारे का संस्कार। ३. किसी प्रकार की असंगति, भद्दापन आदि दूर करके उसे शिष्ट और सुन्दर रूप देने की क्रिया। जैसे—भाषा का संस्कार। ४. धो-पोंछ या माँजकर की जाने वाली सफाई। जैसे—शरीर का संस्कार। ५. किसी को उन्नत, सभ्य, समर्थ आदि बनाने के लिए कुछ बताने, सिखाने या अच्छे मार्ग पर लाने की क्रिया। जैसे—बुद्धि का संस्कार। ६. मनो-वृत्ति, स्वभाव आदि का परिष्करण तथा संशोधन करने की क्रिया। (कल्चर) ७. उपदेश, शिक्षा, संगीत, आदि के प्रभाव का वह बहुत कुछ स्थाई परिणाम जो मन में अज्ञात अथवा ज्ञात रूप से बना रहता है और हमारे परिवर्ती आचार व्यवहार, रहन-सहन आदि का स्वरूप स्थिर करता है। जैसे—बाल्यावस्था का संस्कार, देश समाज आदि के कारण बनने वाला संस्कार। ८. भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में, इंद्रियों के विषय भोगसे मन पर पड़ने वाला संस्कार। ९. धार्मिक क्षेत्र में पूर्वजन्मो के लिए हुए आचार-व्यवहार, पाप-पुण्य आदि का आत्मा पर पड़ा हुआ वह प्रभाव जो मनुष्य के परिवर्ती जन्मों में से उसके कार्यों, प्रवृत्तियों, रुचियों आदि के रूप में प्रकट होता है। १॰. सामाजिक क्षेत्र में, धार्मिक दृष्टि से किया जाने वाला कोई ऐसा कृत्य जो किसी से कोई पात्रता अथवा योग्यता उत्पन्न करने वाला माना जाता हो और उसका कुछ विशिष्ट अवसरों के लिए विधान हो। (सेक्रामेंट) जैसे—(क) जातिच्युत या विधर्मी को जाति या धर्म में मिलाने के लिए किया जाने वाला संस्कार। (ख) मृतक का अन्त्येष्टि संस्कार। ११. हिंदुओं में, जन्म से मरण तक होने वाले वे विशिष्ट धार्मिक कृत्य जो द्विजातियो के लिए विहित हैं। जैसे—मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कार। (रिचुअल राइट) विशेष—मनुस्मृति में, नाम-कर्म, निष्क्रमण, अन्नप्रशन, चूड़ा-कर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन और विवाह। परवर्ती स्मृतिकारों इनमें चार और संस्कार बढ़ाकर इनकी संख्या १६ करदी है। परंतु इन नये संस्कारों के नामों के संबंध में उनके मत भेद हैं। १२. वैशेशिक दर्शन में गुण का वह धर्म जिसके कारण या फलस्वरूप वह अपने आपको अभिव्यक्त करता है। १३. अन्न आदि कूट पीसकर पकाने और उन्हे खाद्य बनाने की क्रिया। १४. स्मरण शक्ति। १५. अलंकरण। सजावट। १६. पत्थर आदि का वह टुकड़ा जिससे रगड़कर कोई चीज साफ की जाती हो। जासे०—पैर के तलुओं के रगड़ने का झाँवाँ।, धातुएँ चमकाने के लिए पत्थर की बटिया आदि।
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संस्कारक  : वि० [सं०] संस्कार करने वाला।
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संस्कारवर्जित  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसका धर्म शास्त्र के अनुसार संस्कार न हुआ हो। व्रात्य।
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संस्कारवान (वत्)  : वि० [सं० संस्कार+मतुप्-म=व-नुम् दीर्घ] १. जिसका संस्कार हुआ हो। २. जिसपर किसी संस्कार का प्रभाव दिखाई देता हो। ३. सुन्दर।
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संस्कारहीन  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसका धर्म शास्त्र के अनुसार संस्कार हुआ हो। व्रात्य।
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संस्कार्य  : वि० [सं० सं√कृ (करना)+ण्यत] १. जिसका संस्कार हो सकता हो। २. जिसका संस्कार होना आवश्यक या उचित हो।
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संस्कृत  : वि० [सम्√कृ (करना)+क्त—सुट्] [भाव० संस्कृति] १. जिसका संस्कार किया गया हो। २. परिमार्जित। परिष्कृत। ३. निखारा और साफ किया हुआ। ४. (खाद्य पदार्थ) पकाया सिझाया हुआ। ५. ठीक किया या सुधारा हुआ। ६. अच्छे रूप में लाया हुआ। सँवारा या सजाया हुआ। ७. जिसका उपनयन संस्कार हो चुका हो। स्त्री० भारतीय आर्यों की प्राचीन साहित्यिक और शिष्ट समाज की भाषा जो जन साधारण की बोलचाल की तत्कालिक प्राकृत भाषा को परिमार्जित करके प्रचलित की गई थी। देव-वाणी। विशेष—इस भाषा के दो मुख्य रूप हैं—वैदिक और लौकिक। पाणिनी नें अपने व्याकरण के द्वारा इसे एक और निश्चित और परिनिष्ठित रूप दिया था।
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संस्कृति  : स्त्री० [सं० सम्√कृ (करना)+क्तिन्-सुट्] [वि० सांस्कृतिक] १. संस्कार करने अर्थात किसी वस्तु को संस्कृत रूप देने की क्रिया या भाव। परिमार्जित, शुद्ध या साफ करना। संस्कार। २. अलंकृत करना। सजाना। ३. आज-कल किसी समाज की वे सब बातें जिनसे विदित होता है कि उसने आरंभ से अब तक कुछ विशिष्ट क्षेत्र में कितना उन्नति की है। विशेष—आधुनिक विद्वानों के मत से संस्कृति भी सभ्यता का ही दूसरा अंग या पक्ष है। सभ्यता मुख्यता आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक सिद्धियो से संबद्ध है, और संस्कृति आध्यातमिक, बौद्धिक तथा मानसिक सिद्धियों से संबद्ध है। यह संस्कृति कला, कौशल के क्षेत्र की उन्नति के आधार पर आँकी जाती है। सभ्यता मानव समाज की बाह्य और भौतिक सिद्धियों की मापक है, और संस्कृति लोगो के आंतरिक तथा मानसिक उन्नति की परिचायक होती है। इसी लिए सभ्यता समाजगत और संस्कृति मनोगत है। ४. छंदशास्त्र में २४ वर्णो वाले वृत्तों की संज्ञा।
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संस्कृतीकरण  : पुं० [सं०] १. कोई चीज संस्कृत करने की क्रिया या भाव। २. अन्य भाषा के शब्दों को संस्कृत रूप देना।
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संस्क्रिया  : स्त्री० [सं० सम्√कृ (करना)+श्-यक-रिपङ-रिङ् बा] संस्कार।
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संस्खलन  : पुं० [सं० सम√स्खल् (गिरना+ल्युट्-अन] १. गति का सहसा होने वाला रोध। एक बारगी रुक जाना। २. निश्चेष्ठता। ३. स्तब्धता। ४. लकवा या इसी प्रकार का कोई ऐसा रोग जिसमें कोई अंग बेकार या सुन्न हो जाता हो। ५. दृढता। ६. धीरता। ७. जिद। हठ। ८. आधार। सहारा।
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संस्तंभन  : पुं० [सं०] [वि० संस्तब्ध, संस्तंभनीय, संस्तंभित] १. गति का सहसा रुकना या रोकना। एकबारगी ठहर जाना। २. निश्चेष्ठता या संतब्ध करना या होना। ३. सहारा देना या लेना।
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संस्तंभी (भिन्)  : वि० [सं० सम्√स्तभ्भ् (रुकना)+क्त=ध-भ्-म लोप] १. एकबारगी रुका या ठहरा हुआ। २. निश्चेष्ट। स्तब्ध। ३. सहारा देकर रोका हुआ।
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संस्तर  : पुं० [सं० सम्√स्तृ (रुकना)+अच्] १. तह। परत। २. घास-फूस आदि की चटाई या बिछौना। ३. घास-फूस आदि का छप्पर। ५. जलाशय या नदी का नीचे वाला भू-भाग। तल। ६. भू-गर्भ में, कोई ऐसी तह या परत जो एक ही तरह के तत्व या पदार्थ की बनी हो, अथवा किसी विशिष्ट काल में जमी हो। (बेड) जैसे—कोयले का संस्तर, चूने का संस्तर आदि।
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संस्तरण  : पुं० [सं० सम्√स्तृ (आच्छादन करना)+ल्युट्-अन] १. फैलाना। पसरना। २. बिछौना। बिछावन। ३.छितराना। बिखेरना। ४. तह या परत चढ़ना। ५. बिछौना। बिस्तर।
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संस्तव  : पुं० [सं०] १. प्रशंसा। स्तुति। तारीफ। २. उल्लेख। कथन। जिक्र। ३. जान-पहिचान। परिचय। ४. घनिष्ठता। हेल-मेल।
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संस्तवन  : पुं० [सं० सम्√स्तु (प्रशंसा करना)+ल्युट—अन] १. प्रशंसा करना। स्तुति करना। २. कीर्ति या यश का गान करना। ३.आज-कल किसी की प्रशंसा करते हुए उसके सम्बन्ध में यह कहना कि यह अमुख (काम, बात या सेवा के लिए उपयुक्त और योग्य है। (कॉमेन्डेशन)
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सस्ता  : वि० [सं० स्वस्थ] [स्त्री० सस्ती] १. (पदार्थ) जिसका मूल्य अपेक्षया साधारण से कुछ कम हो। २. (पदार्थ) जिसके मूल्य में पहले की अपेक्षा कमी हो। जिसका भाव उतर गया हो। ३. जो बहुत ही थोड़े व्यय से अथवा सहज में मिल जाय। जैसा—सस्ता यश। ४.जिसका महत्व बहुत ही कम या प्रायः नहीं के समान हो। जैसा—सस्ता अनुवाद, सस्ता परिहास।
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सस्ताना  : अ० [हि० सस्ता+ना (प्रत्य)] किसी वस्तु का कम दाम पर बिकना। सस्ता हो जाना। स० भाव कम करना। सस्ता करना।
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संस्तार  : पुं० [सं०] १. तह। परत। २. बिछौना। बिस्तर। ३. खाट या पलंग। शय्या। ४. एक प्रकार का यज्ञ।
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संस्ताव  : पुं० [सं० सम्√स्तु (स्तुति करना)+घञ] १. यज्ञ में सतुति करने वाले ब्राह्मणों के बैठने का स्थान। २. प्रशंसा। स्तुति। ३. जान-पहचान। परिचय।
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संस्ताव्य  : वि० [सम्√स्तु (प्रशंसा करना)+विच्+यत्] प्रशंसनीय। जिसका या जिसके संबंध में संस्तवन हो सकता हो। (कॉमेंडेबिल)
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सस्ती  : स्त्री० [हि० सस्ता+ई (प्रत्यय)] १. सस्ते होने की अवस्था या भाव। सस्तापन। २. ऐसा समय जब सब चीजें अपेक्षया कम मूल्य पर बिकती हो। वि० स्त्री हि० सस्ता का स्त्री।
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संस्तीर्ण  : वि० [सं० सम्√स्तृ (आच्छादन)-कु-रु-दीर्घ] १. फैलाया या पसारा हुआ। २. बिछाया हुआ। ३. छिटकाना या बिखेरा हुआ। ४. ढका या छिपाया हुआ।
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संस्तुत  : वि० [सं० सम्√स्तु (सतुति करना)+क्त] १. जिसकी खूब प्रशंसा या स्तुति की गई हो। २. साथ में गिना हुआ। ३. जाना हुआ। ज्ञात। ४. परिचित।
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संस्तुति  : स्त्री० [सं० सम्√स्तु (स्तुति करना)+क्तिन] १. अच्छी या पूरी तरह से होने वाली तारीफ या स्तुति। २. अनुशंसा। सिफारिश। (रिकमेन्डेशन)
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संस्तृत  : भू० कृ० [सं० सम्√स्तृ (आच्छादन करना)+क्त]=संस्तीर्ण।
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संस्त्रव  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहाव मे जाना)+णिच्] [स्त्री० संस्त्रवा] १. मिल-जुल कर एक साथ रहना। २. अच्छी तरह बहना। ३. बहती हुई चीज। ४. जल की धारा या प्रवाह। ५. तरल पदार्थ का रस कर टपकना या बहना। ६. किसी चीज में से उखाड़ा या नोंचा हुआ अंश। ७. एक प्रकार का पिंड दान।
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संस्त्रवण  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहना)+ल्युट्-अन] १. प्रवाहित होना। बहना। २. गिरना। चूना या टपकना। जैसे—गर्भ का संश्रवण।
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संस्त्रष्टा  : वि०[सं०सम्√सृज् (सृजन करना)+क्तच, ज, त्र-तत्र संस्त्रष्ट] [स्त्री० संस्त्रष्टी] १. आयोजन करने वाला। २. मिलाने जुलाने वाला। ३. बनाने वाला। रचयिता। ४. लड़ाई-झगड़ा करनेवाला।
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संस्त्राव  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहना)+घञ] १. प्रवाह। बहाव। २. शरीर के घाव, फोड़े आदि में मवाद का इकट्ठा होना। ३.गाद। तलछट।
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संस्त्रावण  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहना)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संस्त्रावित] १. प्रवाहित करना। बहाना। २. प्रवाहित होना। बहाना।
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संस्त्रावित  : भू० कृ० [सं० सम्√सु (बहना)+णिच्-क्त] १. बहाया हुआ। बहा हुआ। ३.चू, टपक या रिसकर निकला हुआ।
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संस्त्राव्य  : वि० [सं० सम्√स्त्रु (बहाना)+णिच् यत] १. बहाने या टपकाने योग्य। २. बहाये या टपकाए जाने योग्य।
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सस्त्रीक  : वि० [सं० स० त०] जिसके साथ उसकी पत्नी या स्त्री हो। सपत्नीक।
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संस्थ  : पुं० [सं० सं√स्था (ठहरना)+क] १. अपने देश का निवास। स्वदेश वासी। २. चर। दूत।
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संस्था  : स्त्री० [सं०] १. ठहरने की क्रिया या भाव। ठहराव। स्थति। २. प्रकट होने की क्रिया या भाव। अभिव्यक्ति। आविर्भाव। ३. बँधा हुआ नियम, मर्यादा या विधि। रुढि। ४. आकृति। रूप। ५. गुण। सिफत। ६. कोई काम, चीज या बात ठिकाने लगाने की क्रिया। आवश्यक या उचित परिणाम तक पहुँचना। ७. अंत। समाप्ति। ८. मृत्यु। मौत। ९. धवंस। नाश। १॰. वध। हिंसा। ११. प्रलय। १२. यज्ञ का मुख्य अंग। १३.गुप्तचरों या भेदियों का दल या वर्ग। १४. पेशा। व्यवसाय। १५. गिरोह। जत्था। दल। १६. राजाज्ञा। फरमान। १७. समानता। सादृश्य। १८. समाज। १९. आज-कल कोई संघठित वर्ग, समाज या समूह। (बॉडी) २॰. किसी विशिष्ट सामाजिक या सार्वजनिक कार्य की सिद्धी के उद्देश्य से संघठित मंडल या समाज। २१. व्यवसायिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट नियमों सिद्धांतो के अनुसार काम करने वाला कोई संधठित दल, वर्ग या समाज। (सोसाइटी) जैसे-सहकारी संस्था। २२ राजनीतिक या सामाजिक जीवन से संबंध रखने वाला कोई नियम, विधन या परम्परागत प्रथा जो किसी समाज में समान रूप से प्रचलित हो। (इन्स्टिच्यूशन) जैसे—हिंदुओं में विवाह धार्मिक संस्था है, आन्यान्य जातियो की तरह मात्र सामाजिक समझौता नहीं।
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संस्थान  : [सं०] १. ठहराव। स्थिति। २. बैठाना। स्थापन। ३. अस्तित्व। ४. देश। ५. सर्व-साधारण के इकट्ठे होने का स्थान। ६. किसी राज्य के अंतर्गत जागीर आदि। ७. साहित्य, विज्ञान, कला आदि की उन्नति के लिए स्थापित समाज। (इन्स्टीच्यूशन) ८. प्रबंध। व्यवस्था। ९. किसी काम या बात का अच्छी तरह किया जाने वाला अनुसरण। पालन। १॰. जनपद। बस्ती। ११. आकृति। रूप। शक्ल। १२. कांति। चमक। १३. सुंदरता। सौन्दर्य। १४. प्रकृति। स्वभाव। १५. अवस्था। दशा। १६. जोड़। योग। १७. समष्टि। १८. अंत। समाप्ति। १९. नाश। ध्वंस। २॰. मृत्यु। मौत। २१. निर्माण। रचना। २२. निकटता। सामीष्ट। २३. पास-पड़ोस। २४. चौमुहानी। चौराहा। २५. चौखटा। ढाँचा। २६. साँचा। २७. रोग का लक्षण। २८. ब्रिटिश शासन के समय देशी रियासत। (दक्षिणभारत)
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संस्थापक  : वि० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+विच् पुक्-ष्टवुल-अक] [स्त्री० संस्थापिका] १. संस्थापन करने वाला। २. बनाकर खड़ा या तैयार करने वाला। ३.नये काम या बात का प्रवर्तन करने वाला। प्रवर्तक। ४. चित्र, खिलौना आदि बनाने वाला। ५. किसी प्रकार का आकार या रूप देने वाला। पुं० आज-कल किसी संस्था, सभा या समज का वह मूल व्यक्ति, जिसने पहले पहल उसकी स्थापना की हो।
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संस्थापन  : पुं० [सं० सम्√श्था (ठहरना)+णिच्-यक, ल्युट्-अन] [वि० संस्थापनीय, संस्थाप्य, भू० कृ० संस्थापित] १. अच्छी तरह जमाकर बैठाना या रखना। २. मशीनों यंत्रो आदि को किसी स्थान पर लगाना। प्रतिष्ठित करना। ३. उक्त रूप में बैठाए या लगाए हुए यंत्रों की सामूहिक संज्ञा। प्रस्थापन। (इन्स्टालेशन) ४. कोई नई चीज बनाकर खड़ी या तैयार करना। निर्मित करना। जैसे—भवन का संस्थापन। ५. कोई नया काम या नई बात चलाना या जारी करना, अथवा उसके लिए कोई संस्था स्थापित करना। ६. उक्त प्रकार से स्थापित की हुई संस्था अथवा उसमें काम करने वाले लोगो का वर्ग या समूह। (एस्टैब्लिशमेंट) ७. किसी काम, चीज या बात को कोई नया आकार या रूप देना। ८. नियंत्रित करना। रोकना। ९. शांत करना।
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संस्थापना  : स्त्री० [सं० संस्थापन-टाप्]=संस्थापन।
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संस्थापनीय  : वि० [सं० सं√स्था (ठहरना)+णिच्-पुक्-अनीयर] जिसका संस्थापना हो सकता हो या होने को हो।
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संस्थापित  : भू० कृ० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+णिच्-पुक्, क्त] १. जिसका संस्थापन किया गया हो या हुआ हो। २. जमाकर बैठाया, रखा या स्थित किया हुआ। ३.चलाया या प्रचलित किया हुआ। ४. इकट्ठा किया हुआ। संचित।
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संस्थाप्य  : वि० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+णिच्-पुक, यत्] जिसका संस्थापन हो सकता हो या होना उचित हो।
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संस्थित  : वि० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+क्त] १. टिका, ठहरा या रुका हुआ। २. अच्छी तरह जमा या बैठा हुआ। ३. किसी नये और विशिष्ट रूप में आया लाया हुआ। ४. बनाकर खड़ा या तैयार किया हुआ। ५. इकट्ठा या एकत्र किया हुआ। ६. मरा हुआ। मृत।
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संस्थिति  : स्त्री० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+क्तिन] १. खड़े होने की क्रिया, अवस्था या भाव। २. ठहराव। स्थिरता। ३. बैठने की क्रिया या भाव। ४. एक ही अवस्था में बने रहने की क्रिया या भाव। संस्थान। ५. दृढता। मजबूती। ६.धीरता। ७. अस्तित्व। हस्ती। ८. आकृति। रूप। ९. गुण। १॰. क्रम। सिलसिला। ११. प्रबंध। व्यवस्था। १२. प्रकृति। स्वभाव। १३. अंत। समाप्ति। १४. मृत्यु। मौत। १५. नाश। १६. कोष्ठबद्धता। कब्जियत। १७. ढेर। राशि।
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संस्पर्द्धा  : स्त्री० [सं० सम्√स्पर्ध (संघर्ष करना)+घज्-टाप] १. स्पर्धा। २. ईर्ष्या।
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संस्पर्द्धी  : वि० [सं० सम्√स्पर्ध (स्पर्धा करना)+णिनि] [स्त्री० संस्पर्द्धनी] संस्पर्धा करनेवाला।
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संस्पर्श  : पुं० [सं० सम्√स्पृश (छूना)+घञ] अच्छी या पूरी तरह से होने वाला स्पर्श।
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संस्पर्शी  : वि० [सं० सम्√स्पृश (छूना)+णिनि संस्पर्शिनी] स्पर्श करने या छूने वाला।
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संस्पृष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. छुआ हुआ। जिसका किसी के साथ स्पर्श हुआ हो। २. किसी के साथ लगा या सटा हुआ। ३. किसी के साथ जुड़ा या बँधा हुआ। ४. जो बहुत पास हो समीपस्थ। ५. जिसपर किसी का बहुत थोड़ा नाम मात्र का प्रभाव पड़ा हो।
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संस्फुट  : वि० [सं० सम्√स्फुट् (विकसित होना) +क] १. अच्छी तरह फूटा या खुला हुआ। २. अच्छी तरह खिला हुआ।
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संस्फोट  : पुं० [सं० सम्√स्फुट् (भेदन करना)+घञ] युद्ध। लड़ाई।
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संस्मरण  : पुं० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+ल्युट्-अन] [वि० संस्मरणीय] १. अच्छी तरह या बार-बार स्मरण करना। २. ईष्टदेव आदि का बार-बार स्मरण करना या उनका नाम जपना। ३. पूर्व-जन्म के संस्कारों आदि के कारण उत्पन्न या पआपात होने अथवा बना रहने वाला ज्ञान। ४. आज-कल किसी व्यक्ति विशेषतः मृत व्यक्ति के संबंध की महात्वपूर्ण और मुख्य घटनाओं या बातों का उल्लेख या कथन। (रेमिनिसेन्सेज)
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संस्मरणीय  : वि० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+अनीयर्] १. जिसका प्रायः संस्मरण होता रहता है। बहुत दिनों तक याद रहने लायक। २. जिसका संस्मरण (नाम, जप आदि) करना आवश्यक और उचित हो।
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संस्मारक  : वि० [सं० सम्√स्मृर् (स्मरम करना)+णिच्-णवुल्-अक] [स्त्री० संस्मारिका] स्मरण करने वाला। याद दिलाने वाला।
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संस्मारण  : पुं० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+णिच्-ल्युट्-अन्] [भू० कृ० संस्मरित] १. स्मरण करना। याद दिलाना। २. चौपायों आदि की गिनती करना।
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सस्मित  : वि० [सं०] मुस्कराहट या हँसी से युक्त। जैसा—सस्मित मुखारविद। क्रि० वि० मस्कराते हुए।
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संस्मृत  : वि० [सं० सं√ स्मृर् (स्मरण करना)+कृ] स्मरण किया हुआ। याद किया हुआ।
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संस्मृति  : स्त्री० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+क्तिन] पूर्ण स्मृति। पूरी याद।
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सस्य  : पुं० [सं० शस्य] १. अनाज। धान्य। २. पौधा, वृक्षों आदि का उत्पादन। ३. शस्त्र। हथियार। ४. विशेषता। गुण।
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सस्यक  : पुं० [सं० सस्य+कन्] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक प्रकार की मणि। २. असि। तलवार। ३. शस्य। धान्य। ४. साधु व्यक्ति। वि० गुणों या विशेषताओं से युक्त।
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संस्वेद  : पुं० [सं०] स्वेद। पसीना।
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सस्वेदा  : स्त्री० [सं० अव्य० स] ऐसी कन्या जिसका हाल ही में कौमार्य भंग हुआ हो। दूषित कन्या।
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संस्वेदी (दिन्)  : वि० [सं०√स्विद् (पसीना होना)+णिच्] १. जिसके बदन से पसीना निकल रहा हो। २. जिसके प्रभाव से बहुत पसीना आता या आने लगता हो। पसीना लाने वाला।
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सह  : अव्य० [सं०] सहित। समेत। वि० १. उपस्थित। विद्यमान। २. (पदार्थ) जो किसी प्रकार का प्रभाव सहन करने में यथेष्ट समर्थ हो। (प्रूफ)। जैसा—अग्निसह, तापसह आदि। उप० कुछ विशेषणों संज्ञाओं आदि के पहले यह उपसर्ग के रूप में लगकर यह अर्थ देता है—किसी के साथ में, जैसा—सहगामी, सहचर सहजात आदि। पुं० १. सादृश्य। समानता। बराबरी। २. शक्त। सामर्थ्य। ३. अगहन का महीना। मार्गशीर्ष। ४. पांशु लवण। ५. शिव का एक नाम। स्त्री० समृद्धि।
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सह-अपराधी  : पुं० [सं०] वह जो किसी अपराधी के साथ रहकर उसके अपराध में सहायक हुआ हो। अभिषंगी (एकम्लिप्त)।
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सह-अस्तित्व  : पुं० [सं०]=सह-जीवन।
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सह-गमन  : पुं० [सं० सह√गम् (जाना)+ल्युट—अन] १. किसी के साथ जाने की क्रिया। २. मृत पति के शव के साथ पत्नी का चिता पर चढ़ना।
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सह-गान  : पुं० [सं०] १. कई आदमियों का साथ मिलकर गाना। २. ऐसा गाना जो कई आदमी मिलकर गाते हों संवेतगान। (कोरस)।
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सह-दान  : पुं० [सं० कर्म० स०] बहुत से देवताओं के उद्देश्य से एक या एक में किया जानेवाला दान। स्त्री०=सहदानी(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सह-धर्मचारिणी  : स्त्री० [सं०] पत्नी। भार्या।
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सह-धर्मिणी  : स्त्री० [सं०] पत्नी। भार्या।
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सह-धर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सहधर्मिणी] १. पारस्परिक दृष्टि से वे एक ही धर्म के अनुयायी हों। २. साथ मिलकर धर्म का आचरण या पालन करने वाले।
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सह-भागिनी  : वि० [सं० सह-भागी का स्त्री०] समानता के भाव से किसी कार्य में सम्मिलित होनेवाली। सह-भागी का स्त्री। स्त्री० पत्नी। जोरू।
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सह-भागी (गिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सहभागिनी] समानता के भाव से किसी काम में किसी के साथ सम्मिलित होनेवाला। पुं० १. वह जो व्यापार आदि में किसी के साथ समानता के भाव से सम्मिलित हो और हानि-लाभ आदि का समान रूप से भागी हो। हिस्सेदार। (को-पार्टनर, शेयरर) २. धर्म-शास्त्रीय या विधिक दृष्टि से वह जो किसी संपत्ति का आंशिक रूप से उत्तराधिकारी हो (कोपार्टनर)।
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सह-भोज, सह-भोजन  : पुं० [सं०] बहुत से लोगों का साथ बैठकर भोजन करना। ज्योनार।
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सह-मत  : वि० [सं०] [भाव० सहमति] १. जिसका मत किसी दूसरे के साथ मिलता हो। २. जो दूसरे के मत से ठीक मानकर उसकी पुष्टि करता हो। ३. जो दूसरे से बातचीत संधि, समझौता आदि करने के लिए तैयार हो।
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सह-मरण  : पुं० [सं० त० त०] [भू० कृ० सह-मृत] १. साथ-साथ मरना। २. पत्नी का पति के शव के साथसती होना।
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सह-मात  : स्त्री०=शह-मात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सह-युक्त  : भू० कृ० [सं०] १. किसी के साथ में मिला या लगा हुआ। २. जिसका साथ युक्त किया गया हो।
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सह-लगी  : स्त्री० [हिं० सगा+लगना] १. किसी बहुत सगापन दिखाने की क्रिया या भाव। बहुत अधिक आत्मीयता या आपसदारी दिखलाना। २. खुशामद।
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सह-लगी  : पु० [हि० साथ+लगना] वह जो चलते समय किसी के साथ हो ले। रास्ते का साथी। हमराही।
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सह-वास  : पुं० [सं०] १. किसी के साथ रहना। २. एक ही घर में दो परिवारों का या एक ही कमरे में दो विद्यार्थियों, कर्मियों आदि का मिलकर रहना। २. मैथुन। संभोग।
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सहकर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं०] १. (वह) जो किसी के साथ काम करता हो। किसी के साथ मिलकर काम करनेवाला। २. किसी कार्यालय संस्था आदि में जो साथ-साथ मिलकर काम करते हों। (कॉलीग, उक्त दोनों अर्थों में)।
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सहकार  : पुं० [सं०] १. सुगंधित पदार्थ। २. आम का वृक्ष। ३. एक दूसरे के कार्यों में सहयोग करना। ४. औरों के साथ मिलकर काम करने की वृत्ति, क्रिया या भाव। सहयोग। (कोऑपरेशन)। ५. दे० ‘सहकर्मी’।
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सहकार-समिति  : स्त्री० [सं०] वह समिति या संस्था जो कुछ विशेष प्रकार के उपभोक्ता, व्यवसायी आदि आपस में मिलकर सब के हित के लिए बनाते हैं और जिसके द्वारा वे कुछ चीजें बनाने-बेचने आदि की व्यवस्था करते हैं। (कोआपरेटिव सोसाइटी)।
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सहकारता  : स्त्री० [सं० सहकार+तल्-टाप्]=सहकारिता।
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सहकारिता  : स्त्री० [सं०] १. साथ मिलाकर काम करना। सहकारी। होना। (कोऑपरेशन)। २. सहकारी या सहायक होने का भाव। ३. मदद। सहायता।
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सहकारी  : वि० [सं०] १. सहकार संबंधी। सहकार का। २. सहकारिता संबंधी। ३. (व्यक्ति) जो साथ-साथ काम करते हों तथा एक दूसरे के कार्यों में सहायता करते हों। ४. सहायक। मददगार।
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सहगण  : पुं० [सं०]=संश्रय।
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सहगवन  : पुं०=सहगमन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहंगा  : वि० [हि० महँगा का अनु] [स्त्री० महँगी, भाव० सहँगापन] सस्ता। उदाहरण—मनि, मानिक सहंगे तन जल नाज।—तुलसी।
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सहगामिनी  : स्त्री० [सं० सह√गम् (जाना)+णिनि-ङीप्] १. वह स्त्री जो मृत पति के शव के साथ सती हो। पति की मृत्यु पर उसके साथ जल मरनेवाली स्त्री। २. पत्नी। ३. सहचरी।
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सहगामी (मिन्)  : वि० [सं० सह√गम् (जाना)+णिनि] [स्त्री० सहगामिनी] १. साथ चलनेवाला। साथी। २. अनुयायी।
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सहगौन  : पुं०=सहगमन।
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सहचर  : वि० [सं०] [स्त्री० सहचरी] १. साथ साथ चलनेवाला। २. उठने-बैठने चलने-फिरने आदि में प्रायः साथ रहनेवाला। साथी। पुं० १. मित्र। २. सेवक।
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सहचरी  : स्त्री० [सं० सह√चर् (चलना)+ङीष्] १. सहचर का स्त्री० रूप। २. साथ रहनेवाली स्त्री। ३. पत्नी। भार्या।
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सहचार  : पुं० [सं०] १. दो या अधिक व्यक्तियों का साथ चलना। २. वह अवस्था जिसमें व्यक्तियों, विचारों आदि में पूरी पूरी संगति होती है। (एसोसिएशन)। ३. सहचर। साथी।
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सहचार उपाधि लक्षणा  : स्त्री० [सं० सहचार-उपाधि, ब० स० लक्षणा मध्यम० स०] साहित्य में एक प्रकार की लक्षणा जिसमें जड़ सहचारी के कहने से चेतन सहचारी का बोध होता है।
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सहचारिणी  : वि० [सं०] १. साथ में रहनेवाली। सहचरी। २. पत्नी। भार्या।
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सहचारिता  : स्त्री० [सं० सहचारि-तल्-टाप्] सहचारी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सहचारित्व  : पुं० [सं० सहचारि+त्व]=सहचारिता।
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सहचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सहचारिणी] साथ चलने या रहनेवाला। पुं० १. संगी। साथी। २. नौकर। सेवक।
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सहज  : वि० [सं०] [स्त्री० सहजा, भाव० सहजता] १. गुण, तत्त्व, पदार्थ या प्राणी जो किसी के साथ उत्पन्न हुआ हो। जैसा—सहज कर्त्तव्य, सहज ज्ञान आदि। २. प्राकृतिक। स्वाभाविक। ३. जो सभी दृष्टियों से ठीक और पूरा हो। पूरी तरह और निर्विवाद रूप से ठीक और आदर्श। उदाहरण—मिलहि सो बर सहज सुन्दर साँवरो।—तुलसीदास। ४. जिसके प्रतिपादन या संपादन में कोई कठिनता न हो। सरल। सुगम। ५. जन्म से प्रकृति से साथ उत्पन्न होने अथवा अपने साधारण रूप में रहनेवाला। प्रकृत। (नार्मल)। ६. मामूली। साधारण। पुं० १. सगा भाई। सहोदर। २. प्रकृति। स्वभाव। ३. बौद्धों के अनुसार वह मानसिक स्थिति जो प्रज्ञा और उपाय के योग से उत्पन्न होती है। ४. फलित ज्योतिष में जन्म-लग्न से तृतीय स्थान जिसमें भाइयों, बहनों आदि का विचार किया जाता है। ५. दे० ‘सहज-ज्ञान’।
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सहज-ज्ञान  : पुं० [सं०] १. ऐसा ज्ञान जो जीव या प्राणी के जन्म से साथ ही उत्पन्न हुआ हो। प्रकृति-दत्त ज्ञान। सहज बुद्धि। (देखें) २. वह ज्ञान या चेतना शक्ति जिससे आत्मा सदा आनन्द और शांति से सम्पन्न रहती है।
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सहज-ध्यान  : पुं० [सं०] सहज समाधि (दे०)।
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सहज-बुद्धि  : स्त्री० [सं०] वह बुद्धि या समझ जो जीवों या प्राणियों में जन्म-जात होती है, और जिसके फलस्वरूप वे विशिष्ट अवस्थाओं में आप ही आप कुछ विशिष्ट प्रकार के आचरण और व्यवहार करते हैं। (इंस्टिक्ट) जैसा—स्तनपायी जंतुओं का अपने बच्चों को दूध पिलाना चिड़ियों का घोंसला बनाना आदि।
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सहज-मार्ग  : पुं० [सं०] सहजयान वाली साधना का प्रकार।
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सहज-मित्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसे व्यक्ति जो प्रायः तथा स्वभावतः मित्रता का भाव रखते हों और जिनसे किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका न की जाती हो। विशेष—हमारे शास्त्रों में भानजा मौसेरा भाई और फुफेरा भाई सहज-मित्र और वैमात्रेय तथा चचेरे भाई सहज-शत्रु कहे गये हैं।
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सहज-यान  : पुं० [सं०] एक बौद्ध संप्रदाय जो हठयोग के कुछ सिद्धान्तों के अनुसार धार्मिक साधना करता था।
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सहज-यानी  : वि० [सं० सहज-यान] सहज-यान संबंधी। सहज यान का। पुं० वह जो सहज-यान संप्रदाय का अनुयायी हो।
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सहज-योग  : पुं० [सं०] ईश्वर के नाम के जप के रूप में की जानेवाली साधना जिसमें हठयोग आदि की कष्टदायक क्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती।
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सहज-शत्रु  : पुं० [सं० कर्म० स०] सौतेला या चचेरा भाई जो संपत्ति के लिए प्रायः झगड़ा करता है। (शास्त्र)
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सहज-शून्य  : पुं० [सं०] ऐसी स्थिति जिसमें किसी प्रकार का परिज्ञान, भावना या विकार नाम को भी न रह जाय।
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सहज-समाधि  : स्त्री० [सं०] १. बौद्ध तांत्रिकों और हठयोगियों के अनुसार वह स्थिति जिसमें मनुष्य समस्त ब्रह्मा आडंबरों से रहित होकर सरलतापूर्वक जीवन निर्वाह करता है। २. वह अवस्था जिसमें मनुष्य बिना समाधि लगाये जीते जी ईश्वर का साक्षात्कार करता है। जीवन्मुक्ति।
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सहज-सुदंरी  : स्त्री० [सं०] बौद्ध तन्त्र शास्त्र में चांडाली या सुषुम्ना नाड़ी का वह रूप जो उसे अपनी ऊर्ध्व गति से डोम्बी में पहुँचने पर प्राप्त होता है।
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सहजता  : स्त्री० [सं० सहज+तल्-टाप्] १. सहज होने की अवस्था, गुण या भाव। २. सरलता। आसानी।
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सहजधारी (धारिन्)  : पुं० [सं०] सिक्ख संप्रदाय में वह व्यक्ति जो सिर और दाढ़ी के बाल न बढ़ाता हो पर फिर भी गुरु ग्रंथ साहब का अनुयायी समझा जाता हो।
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सहजन  : पुं०=सहिजन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहजन्मा (न्मन्)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)  : वि० [सं०] १. किसी के साथ एक ही गर्भ से उत्पन्न। सहोदर। सदा (भाई आदि)। २. यमज। (सन्तान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहजपंथ  : पुं० [हि० सहज+पंथ] पूर्वी भारत में प्रचलित एक गोड़ीय वैष्णव संप्रदाय जो बौद्ध तथा हिन्दू तांत्रिकों से प्रभावित है। विशेष—यह संप्रदाय मूलतः बौद्धों के सहजयान का एक विकृत रूप है।
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सहजवदी  : वि० [सं०] सहजवाद सम्बन्धी। सहजवाद का। पुं० वह जो सहजवाद का अनुयायी हो।
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सहजवाद  : पुं० [सं०] सहज पंथ या मत या सिद्धान्त।
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सहजस्थान  : पुं० [सं०] जन्म-कुंडली में का तीसरा घर, जिससे इस बात का विचार होता है कि किसी के कितने भाई या बहनें होगीं।
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सहजात  : वि० [सं०] १. जो किसी के साथ उत्पन्न हुआ हो। २. परस्पर वे जो एक ही माता-पिता से उत्पन्न हुए हों। (कान्जेनिटल)। ३. यमज। पुं० सगा भाई। सहोदर।
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सहजाधिनाथ  : पुं० [सं०] जन्म-कुंडली के सहज स्थान (तीसरे घर) का अधिपति ग्रह।
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सहजानंद  : पुं० [सं० सहज+आनन्द] वह आनन्द या सुख जो योगियों को सहजावस्था में पहुँच जाने पर मिलता है।
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सहजानि  : स्त्री० [सं०] पत्नी। भार्या। जोरू।
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सहजारि  : पुं० [सं०]=सहज शत्रु।
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सहजार्श  : पुं० [सं०] ऐसा अर्श या बवासीर (रोग) जिसके मस्से कठोर पीले रंग के और अंदर की ओर मुँहवाले हों (वैद्यक)।
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सहजावस्था  : स्त्री० [सं० सहज+अवस्था] योग-साधना में मन की वह अवस्था जिसमें वह पूर्ण रूप से सहज-शून्य (देखें) या इच्छा ज्ञान, विकार आदि से बिलकुल रहित हो जाता है।
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सहजिया  : पुं० दे० ‘सहजपंथी’।
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सहजीवन  : पुं० [सं०] १. सह देशों और राष्ट्रों के लोगों का आपस में मिल-जुलकर शांतिपूर्वक रहना और युद्ध आदि से बचना। (को-एग्जिस्टेन्स)। २. वनस्पति विज्ञान में अलग-अलग प्रकार के दो पेड़-पौधों (या एक पौधे और एक जीव) का इस प्रकार सटकर या एक दूसरे पर आश्रित और स्थित होकर रहना कि दोनों का एक दूसरे से पोषण हो (सिम्बायोसिस)। जैसा—मूंगा और उसके साथ रहनेवाला समुद्री जीव।
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सहजीवी (विन्)  : वि० [सं०] किसी के साथ रहकर जीवन बितानेवाला विशेष दे० ‘सहजीवन’।
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सहजेंद्र  : पुं० [सं०] ‘सहजाधिनाथ’ (दे०)।
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सहजै  : अव्य० [हि० सहज] बहुत सहज में। आसानी से। अनायास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संहत  : वि० [सं० सम्√हन् (मारना)+क्त] १. अच्छी तरह गठा, जुड़ा, मिला या सटा हुआ। २. जो जमकर बिल्कुल ठोस हो गया हो। ३. गाढ़ा या घना। ४. दृढ। मजबूत। ५. इकट्ठा या एकत्र किया हुआ। ६. अच्छी तरह मिलाकर एक किया हुआ। (कन्सालिडेटे़ड्) ७. चोटखाया हुआ। आहत। घायल। पुं० नृत्य में एक प्रकार की मुद्रा।
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सहत  : पुं०=शहद। वि०=सस्ता(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)।
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संहत जानु  : पुं० [सं०] दोनो घुटने सटाकर बैठने की मुद्रा।
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सहत-महत  : पुं०=श्रावस्ति।
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सहतरा  : पुं० [फा० शाहतरह] पित्त पापड़ा। पर्पटक।
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संहंता  : वि० [सं० सम्√हन् (मारना)+तृच्, संहंतृ] [स्त्री० संहंत्री] हनन या वध करने वाला। मार डालने वाला।
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सहता  : वि० [हि० सहना] [स्त्री० सहती] १. जो सहज में सहन किया जा सके। २. जो इतना गरम हो कि सहन किया जा सके। जैसा—सहते पानी से स्नान करना। वि०=सस्ता। उदाहरण—आँखिया के आँधर सूझत नाही दरुआ ले सहता बा धीउ।—बिरहा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संहतांग  : वि० [सं० कर्म० स० ब० स० वा०] हृष्ट-पुष्ट। मजबूत।
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सहताना  : अ० [हि० सहता=सस्ता] सस्ता होना। अ०=सुस्ताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संहति  : स्त्री० [सं०] १. आपस में चीजों का मिलना। मेल। २. इकट्ठा या एकत्र होना। ३. ढेर-राशि। ४. झुंड। दल। ५. घनत्व। घनापन। ६. जोड़। संधि। ७. घठकर या मिलकर एक होना। संघठन। (कंसालिडेशन)
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सहतूत  : पुं०=शहतूत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहत्व  : पुं० [सं०√सह् (सहन करना)+अच्—त्व] १. सह अर्थात् साथ होने की अवस्था या भाव। २. एकता। ३. मेलजोल।
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सहदानी  : स्त्री० [सं० सज्ञान] स्मृति चिन्ह। निशानी। यादगार। उदाहरण—रैदास संत मिले मोहि सतगुरु दीन्ही सुरत सहदानी।—मीराँ।
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सहदूल  : पुं०=शार्दूल (सिंह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहदेई  : स्त्री० [सं० सहदेवा] क्षुप जाति की एक पहाड़ी वनस्पति जिसका उपयोग ओषधि के रूप में होता है।
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सहदेवा  : पुं० [सं० ब० स० त० त० वा] १. राजा पांडु के पाँच पुत्रों में से सबसे छोटे पुत्र का नाम। २. जरासन्ध का एक पुत्र।
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सहदेवा  : स्त्री० [सं० सहदेव—टाप्] १. सहदेई। पीतपुष्पी। २. बरियाना। बला। ३. अनन्तमूल। ४. दंदोत्पल। ५. प्रियंगु। ६. नील। ७. सर्पाक्षी। ८. सोनाबली। ९. भागवत के अनुसार देवक की कन्या और वसुदेव की पत्नी का नाम।
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सहदेवी  : स्त्री० [सं० सह√दिव् (पूजन करना आदि)+अच्-ङीप्] १. सहदेई। पीतपुष्पी। २. सर्पाक्षी। हरहंटी। ३. महानीली। ४. प्रियंगु।
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सहदेवीगण  : पुं० [सं० ष० त०] वैद्यक में सहदेई बला, शतमूली, शतावर, कुमारी, गुडुच सिही और व्याघ्री आदि ओषधियों का वर्ग जिनसे देव-प्रतिमाओं को स्नान कराया जाता है।
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सहदेस  : वि० [?] स्वतन्त्र। उदाहरण—तासौ नेह जो दिढ़ करै थिर आछङि सहदेस।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहन  : पुं० [सं०] १. सहने की क्रिया या भाव। २. आज्ञा या निर्णय मानकर उसका पालन करना। (एबाइड)। ३. क्षमा। तितिक्षा। पुं० [अ०] १. घर के बीच का खुला भाग। आँगन। चौक। २. घर के सामने का और उससे संलग्न खुला भाग। ३. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। ४. गजी या गाढ़ा नाम का मोटा सूती कपड़ा।
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सहनक  : स्त्री० [अ०] १. एक प्रकार की छिछली रकाबी जिसका व्यवहार प्रायः मुसलमान लोग करते हैं। तबक। २. बीबी फातिमा की निमाज या फातिहा (मुसल)।
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सहनची  : स्त्री० [अ० सहन से स्त्री०, अल्पा० फा०] सहन या आँगन के इधर-उधर वाली छोटी कोठरी।
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संहनन  : पुं० [सं० सम्√हन् (मारना)+ल्युट् अन] १. संहत करना। एक में मिलाना। जोड़ना। २. अच्छी तरह घना या ठोस करना। ३. मार डालना। वध करना। ४. मिलन। मेल। ५. दृढ़ता। मजबूती। ६. पुष्टता। ७. सामंजस्य। ८. देह। शरीर। ९. कवच। १॰. शरीर की मालिश।
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सहनशील  : वि० [ब० स०] [भाव० सहनशीलता] (व्यक्ति) जिसमें अत्याचार, दुर्व्यवहार विपत्ति आदि सहन करने की स्वाभाविक क्षमता या प्रवृत्ति हो।
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सहनशीलता  : स्त्री० [सं० सहनशीलता+तल्—टाप्] १. सहनशील होने की अवस्था, गुण या भाव। २. संतोष। सब्र।
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सहना  : स० [सं० सहन] १. कोई अनुचित अप्रिय अथवा हानिकारक बात होने पर अथवा कष्ट आदि आने पर किसी कारण-वश चुपचाप अपने ऊपर लेना। विशेष—यद्यपि झेलना, भोगना और सहना बहुत कुछ समानार्थक समझे जाते हैं परन्तु तीनों में कुछ अन्तर है। झेलना का प्रयोग ऐसी विकट परिस्थितियों के प्रसंग में होता है जिसमें मनुष्य को अध्यवसाय और साहस से काम लेना पड़ता है। जैसा—विधवा माता ने अनेक कष्ट झेलकर लड़के को अच्छी शिक्षा दिलाई थी। भोगना का प्रयोग कष्ट या दुःख के सिवा प्रसन्नता या सुख के प्रसंगों में भी होता है, पर कष्टप्रद प्रसंगों में मुख्य भाव यह रहता है कि आया हुआ कष्ट या संकट दूर करने में हम असमर्थ है, इसीलिए विवशतापूर्वक सिर झुकाकर उसका भोग करते हैं। परन्तु सहना मुख्यतः मनुष्य की शक्ति पर आश्रित होता है। जैसा—इतना घाटा तो हम सहज में सह लेगें। सहना में मुख्य भाव यह है कि हम व्यर्थ की झंझट नहीं बढ़ाना चाहते मन की शांति नष्ट नहीं करना चाहते अथवा जानबूझकर उपेक्षा कर रहे हैं। जैसा—हम उनके सब अत्याचार चुपचाप सहते रहे। २. अपने ऊपर कोई भार लेकर उसका निर्वाह या वहन करना। ३. किसी प्रकार का परिणाम या फल अपने ऊपर लेना। अ० किसी वस्तु का ग्रहण। धारण या भोग करने पर उसका सह्य या अच्छी तरह फलदायक सिद्ध होना। जैसा—(क) यह नीलाम मुझे सह गया है। (ख) वह मकान उन्हें नही सहा। अ० हि० रहना के साथ प्रयुक्त होनेवाला उसका अनुकरण वाचक शब्द। जैसा—कहीं या किसी के साथ रहना-सहना। पुं० साहनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहनाइन  : स्त्री० [फा० शहनाई+आयन (प्रत्य)] शहनाई बजानेवाली स्त्री।
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सहनाई  : स्त्री०=शहनाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहनीय  : वि० [सं०√ सह (सहन करना)+अनीयर्] जो सहा जा सके। सहे जाने के योग्य। सह्य।
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सहपति  : पुं० [सं०] ब्रह्मा का एक नाम।
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सहपराधी  : पुं० [सं० सहपराध+इनि] किसी अपराध में मुख्य अपराधी का साथ देने और उस की सहायता करने वाला (व्यक्ति)। (एकाम्प्लिस
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सहपाठी (ठिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० सहपाठिन] १. वे जो साथ साथ किसी गुरु से या किसी विद्यालय में पढ़ते हों या पढ़े हों। सहाध्यायी। २. जो एक ही कक्षा में पढ़ते हों। (क्लासफैलो, उक्त दोनों अर्थों में)।
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सहपिंड  : पुं० [सं० त० त०] कर्मकांड में सपिंड नाम की क्रिया।
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सहबा  : स्त्री० [अ०] एक प्रकार की अंगूरी शराब।
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सहभावी  : वि० [सं० सहभाविन्] सहवर्ती। पुं० १. सगा भाई। सहोदर। २. सहचर। साथी। ३. मददगार। सहायक।
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सहभू  : वि० [सं०] साथ-साथ उत्पन्न। सहजात।
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सहभोजी (जिन)  : पुं० [सं०] (वे) जो एक साथ बैठकर खाते हों। साथ भोजन करनेवाले।
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सहम  : पुं० [फा०] १. डर। भय। खौफ। २. लिहाज। ३. संकोच।
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सहमति  : स्त्री० [सं०] १. किसी बात या विषय में किसी से सहमत होने की अवस्था या भाव। २. किसी बात या विषय में कुछ या बहुत से लोगों का आपस में एकमत होना। (एग्रीमेन्ट)।
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सहमना  : अ० [फा० सहम+हिं० ना (प्रत्य०)] भय खाना। भयभीत होना। डरना। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना।
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सहमाना  : स० [हि० सहमना का स०] ऐसा काम करना जिससे कोई सहम जाय। भयभीत करना। डराना। संयो० क्रि०—देना।
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सहमृता  : वि० [सं० ब० स०] (स्त्री) जो अपने पति के शव के साथ सती हो जाय।
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सहयोग  : पुं० [सं० सह√युज् (मिलना)+घञ्] १. किसी के काम में योग देकर या सम्मिलित होकर उसका हाथ बटाना। किसी के साथ मिलकर उसके काम में सहायता करना। २. बहुत से लोगों के साथ मिलकर कोई काम करने का भाव। (कोआपरेशन) ३. सहायता।
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सहयोगवाद  : पुं० [सं० सहयोग√वद् (कहना)+घञ्] ब्रिटिश शासन में राजनीतिक क्षेत्र में सरकार से सहयोग अर्थात् उसके साथ मिलकर काम करने का सिद्धान्त। ‘असहयोगवाद’ का विपर्याय।
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सहयोगवादी  : वि० [सं० सहयोग√वद् (कहना)+णिनि] सहयोगवाद सम्बन्धी। पुं० सहयोगवाद का अनुयायी।
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सहयोगिता  : स्त्री० [सं० सहयोग+इतच्-टाप्, वृचि, मध्यम० स०] सहयोगी होने की अवस्था या भाव।
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सहयोगी  : वि० [सं० सह√युज् (मिलना)+णिनि, सहयोग+इनि, वा] १. सहयोग करने अर्थात् काम में साथ देनेवाला। साथ काम करनेवाला। २. समकालीन। ३. समवयस्क। पुं० १. वह जो किसी के साथ मिलकर कोई काम करता हो। सहयोग करनेवाला। साथ काम करनेवाला। २. ब्रिटिश शासन में असहयोग आन्दोलन छिड़ने पर सब कामों में सरकार के साथ मिले रहने उसकी काउंसिलों आदि मे सम्मिलित होने और उसके पद तथा उपाधियाँ आदि ग्रहण करनेवाला व्यक्ति।
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सहयोजन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सहयुक्त, सहयोजित्] १. साथ मिलाने की क्रिया या भाव। २. आज-कल वह रीति या व्यवस्था जिसके अनुसार किसी सभा या समिति के सदस्य ऐसे लोगों को भी अपने साथ सम्मिलित कर लेते हैं जो मूलतः निर्वाचित नहीं हुए होते, फिर भी जिनसे काम में सहायता मिलने की आशा होती है। (कोआप्शन)।
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सहयोजित  : भू० कृ० [सं०] आजकल किसीसभा-समिति का वह सदस्य जिसे दूसरे सदस्यों ने अपनी सहायता के लिए चुनकर अपने साथ सम्मिलित किया हो। (कोआप्टेड)।
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सहर  : स्त्री० [अ०] प्रातःकाल। सबेरा। पुं० १. =शहर। २. =सिहोर। (वृक्ष)। पुं० [अ० सेह्र] जादू। टोना।
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सहर-गही  : स्त्री० [अ० सहर+फा० गह] वह आहार जो किसी दिन निर्जल व्रत रखने से पूर्व प्रातः किया जाता है। सरघी। विशेष—मुसलमान रोजों में और सधवा हिन्दू स्त्रियाँ तीज, करवाचौथ आदि के दिन सहरगही खाती हैं।
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संहरण  : पुं० [सं० सम्√हृ (हरण करना)+ल्युट् अन] १. एकत्र या संग्रह करना।। बटोरना। २. सिर पर इकट्ठे करके बाँधना। ३. जबरदस्ती लेना। छीनना। हरण। ४. नाश या संहार करना। ५. प्रलय।
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संहरता  : वि०=संहर्ता। (संहारक)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संहरना  : स० [सं० संहार] संहार करना। अ० १. संहार होना। २. नष्ट होना।
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सहरना  : अ०=सिहरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहरा  : पुं० [अ०] [वि० सहराई] १. वन। जंगल। २. चित्रकला में चित्र की वह भूमिका जिसमें जंगल, पहाड़ आदि दिखाये गये हों। ३. सियाहदोश नामक जंतु। पु० जे० ‘सेहरा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहराई  : वि० [अ०] १. जंगली। वन्य। २. लाक्षणिक अर्थ में पागल।
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सहराज्य  : पुं० [सं०] ऐसा राज्य जिसमें दो या अधिक प्रभुसत्ताएँ अथवा राष्ट्र मिलकर शासन करते हों (कन्डोमीनियम)।
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सहराना  : स०=सहलाना। अ०=सिहरना।
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सहरिया  : पुं० [?] एक प्रकार का गेहूँ। वि०=शहरी (नागर)।
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सहरी  : स्त्री० [सं० शफरी] सफरी। मछली। शफरी। स्त्री०=सहर-गही।वि० [सं० सदृशी, प्रा० सरिसी] सदृश। समान। (राज०) उदाहरण—जूँ सहरी भ्रूह नयण मृग जूता।—प्रिथीराज। वि०=शहरी (नागर)।
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सहरुण  : पुं० [सं० ब० स०] चंद्रमा के एक घोड़े का नाम।
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संहर्ता  : वि० सम्√हृ (हरण करना)+तृच] [स्त्री० संहर्त्री] १. इकट्ठा करने वाला। बटोरने वाला। २. नाश या संहार करने वाला। ३. मार डालने या वध करने वाला।
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संहर्ष  : पुं० [सं० सम्√हृष (हर्षित होना)+घञ] १. प्रसन्नता के कारण शरीरी के रोओ का खड़ा होना। पुलक। उमंग। २. भय से रोयें खड़े होना। रोमांच। ३. लाग-डांट। स्पर्धा। होड़। ४. ईर्ष्या। डाह। ५. रगड़। संघर्ष। ६. शरीर की मालिश।
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संहर्षण  : पुं० [सं० सम्√हृष (प्रसन्न होना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संहर्षित, संहृष्ट] १. पुलकित होना। २. लाग-डाँट। स्पर्धा। होड़।
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संहर्षी  : वि० [सं० सम्√हृष् (रोमांच होना)+णिनि, सहर्षिनी [स्त्री० सहर्षिणी] १. पुलकित होने वाला। २. पुलकित करने वाला। ३. ईर्ष्या करने वाला। ४. स्पर्धा करने वाला।
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सहल  : वि० [सं० सरल से अ] आसान। सरल।
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सहलाना  : स० [हि० सहर=धीरे] १. किसी अक्रिय, सुस्त या दुखते हुए अंग पर इस प्रकार धीरे-धीरे हाथ या उँगलियाँ फेरना तथा बार-बार रगड़ना कि उसमें चेतना या सक्रियता आ जाय अथवा सुख की अनुभूति हो। जैसा—किसी का हाथ, पैर या सिर सहलाना। २. प्यार से किसी पर हाथ फेरना। ३. मलना।
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सहवन  : पुं० [देश] एक प्रकार का तेलहन।
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सहवर्ती  : वि० [सं०] [स्त्री० सहवर्तिनी] किसी के साथ वर्तमान रहनेवाला। साथ में रहने या होनेवाला (कान्कामिटेंट)।
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सहवर्ती लिंग  : पुं० दे० लिंग (न्यायशास्त्र वाला विवेचन)।
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सहवाद  : पुं० [सं० सह√वद् (कहना)+घञ्] आपस में होनेवाला तर्कवितर्क। वाद विवाद। बहस।
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सहवासी (सिन्)  : वि० [सं० सहवासिन्] साथ रहनेवाला। पुं० संगी-साथी।
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सहव्रता  : स्त्री० [सं० ब० स०] पत्नी। भार्या। जोरू।
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सहस  : वि० पुं०=सहस्र (हजार)।
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सहस-बाहु  : पुं०=सहस्रबाहु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहसकिरन  : पुं०=सहस्र-किरण (सूर्य)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहसगो  : पुं०=सहस्रगु (सूर्य)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहसजीभ  : पुं०=सहस्रजिह्र (शेषनाग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहसदल  : पुं०=सहस्रदल (कमल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहसनयन  : पुं०=सहस्रनयन (इंद्र)।
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सहसफण  : पुं०=सहस्रफन (शेषनाग)।
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सहसबदन  : पुं०=सहस्रबदन (शेषनाग)।
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सहसंभव  : वि० [सं० ब० स०] जो एक साथ उत्पन्न हुए हों। सहज।
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सहसमुख  : पुं०=सहस्रमुख (शेषनाग)।
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सहसमेखी  : स्त्री० [सं० सहस्र+हि० मेख] युद्ध के समय हाथ में पहनने का एक प्रकार का प्राचीन दस्ताना जिसमें मखें लगी होती थी और जो कोहनी से कलाई तक का भाग ढकता था।
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सहससीस  : पुं०=सहस्रशीर्ष (शेषनाग)।
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सहसा  : अव्य० [सं०] १. इस प्रकार एकदम जल्दी से या ऐसे रूप में जिसकी पहले से आशा या कल्पना न की गई हो। अकस्मात्। अचानक। एकाएक। जैसा—वह सहसा उठकर वहाँ से चला गया। २. बिना विचारे उतावली से। जैसा—सहसा वह भी नदी में कूद पड़े। विशेष—सहसा में मुख्य भाव बिना कुछ सोचे-विचारे शीघ्रतापूर्वक कोई काम कर बैठने का है। जैसा—वह सहसा डरकर चिल्ला पड़ा। अकस्मात् में मुख्य भाव अकल्पित या अतर्कित रूप से कोई बात होने का है। जैसा—अकस्मात् डाकुओं ने आकर गोलियाँ चलानी शुरु कर दी। अचानक भी बहुत कुछ वही है जो अकस्मात् है फिर भी इसमें उग्रता और तीव्रतावाला तत्त्व अपेक्षया कम है। जैसा—अचानक घर में आग लग गई। एकाएक में किसी चलते हुए क्रम में एकदम से कोई नया परिवर्तन होने का प्रधान भाव है। जैसा—एकाएक आँधी चलने लगी, और आकाश में बादल घिर आए।
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सहसाक्षि  : पुं०=सहसाक्ष (इंद्र)।
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सहसाखी  : पुं०=सहस्राक्ष (इंद्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहसानन  : पुं०=सहस्रानन। (शेषनाग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहस्त  : वि० [सं० अव्य० स०] १. हस्तयुक्त। २. हथियार चलाने में कुशल।
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सहस्त्रमौलि  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। अनंतदेव का एक नाम।
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सहस्र  : वि० [सं०] १. जो गिनती में दस सौ हो। हजार। २. लाक्षणिक अर्थ में अत्यधिक। जैसा—सहस्र धी। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—१॰॰॰।
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सहस्र-किरण  : पुं० [सं०] सूर्य।
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सहस्र-चरण  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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सहस्र-दंष्ट्रा  : स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की मछली जिसके मुँह में बहुत अधिक दाँत है। २. कुछ लोगों के मत से पाठीन नामक मछली।
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सहस्र-भागवती  : स्त्री० [सं०] देवी की एक मूर्ति।
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सहस्र-मूर्ति  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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सहस्र-मूर्द्धा (र्द्धन्)  : पुं० [सं०] १. विष्णु। शिव।
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सहस्र-लोचन  : पुं० [सं० ब० स०] इंद्र।
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सहस्र-वीर्य  : वि० [सं० ब० स०] बहुत बड़ा बलवान। बहुत बड़ा ताकतवर।
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सहस्र-शिखर  : पुं० [सं० ब० स०] विंध्य पर्वत का एक नाम।
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सहस्र-शीर्ष (न्)  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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सहस्र-श्रुति  : पुं० [सं० ब० स०] पुराणानुसार जंबूद्वीप का एक वर्ष पर्वत।
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सहस्रकर  : वि० [सं० सहस्र+कन्] १. सहस्र-सम्बन्धी। २. एक हजार वाला। पुं० एक ही प्रकार या वर्ग की एक हजार वस्तुओं का समाहार या कुलक।
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सहस्रकर  : पुं० [सं०] सूर्य।
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सहस्रगु  : पुं० [सं०] सूर्य।
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सहस्रचक्षु (स्)  : पुं० [सं०] इन्द्र।
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सहस्रचि (स्)  : वि० [सं० ब० स०] हजार किरणों वाला। पुं० सूर्य।
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सहस्रजित  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. मृगमद। कस्तूरी। ३. जांबवती के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
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सहस्रणी  : पुं० [सं० सहस्र√नी (ढोना)+क्विप्] हजारों रथियों की रक्षा करनेवाले, भीष्म।
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सहस्रद  : पुं० [सं० सहस्र√दा (देना)+क] १. बहुत बड़ा दानी। २. हजारों गौएँ आदि दान करनेवाला बहुत बड़ा दानी। ३. पहिना या पाठीन मछली।
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सहस्रदल  : पुं० [सं० ब० स०] हजार दलोंवाला अर्थात् कमल।
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सहस्रदृश  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. इन्द्र।
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सहस्रधारा  : स्त्री० [सं०] देवताओं आदि का अभिषेक करने का एक प्रकार का पात्र जिसमें हजारो छेद होते हैं।
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सहस्रधी  : वि० [सं० ब० स०] बहुत बड़ा बुद्धिमान्।
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सहस्रधौत  : वि० [सं० मध्यम० स०] हजार बार धोया हुआ। पुं० हजार बार पानी से धोया हुआ घी जिसका व्यवहार औषध के रूप में होता है।
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सहस्रनयन  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. इन्द्र।
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सहस्रनाम  : पुं० [सं० ब० स० कम० स० व] वह स्तोत्र जिसमें किसी देवता या देवी के हजार नाम हों। जैसा—विष्णु सहस्रनाम शिव सहस्रनाम दुर्गा सहस्रनाम आदि।
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सहस्रनामा (मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. शिव। ३. अमलबेंत।
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सहस्रनेत्र  : पुं० [सं०] १. इन्द्र। २. विष्णु।
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सहस्रपति  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में हजार गाँवों का स्वामी और शासक।
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सहस्रपत्र  : पुं० [सं०] कमलपत्र।
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सहस्रपाद  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. शिव। ३. महाभारत के एक ऋषि।
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सहस्रपाद  : पुं० [सं० ब० स०] १. सूर्य। २. विष्णु। ३. सारस पक्षी।
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सहस्रबाहु  : पुं० [सं० ब० स०] १. शिव। २. कार्तवीर्याजुन या हैहय का एक नाम। ३. राजा बलि के सबसे बड़े पुत्र का नाम।
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सहस्रभुज  : पुं०=सहस्रबाहु।
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सहस्रभुजा  : स्त्री० [सं० ब० स०] दुर्गा का हजार बाहों वाला वह रूप जो उन्होंने महिसासुर को मारने के लिए धारण किया था।
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सहस्रमूलिका, सहस्रमूली  : स्त्री० [सं०] १. कांडपत्री। २. बड़ौ दंती। ३. मूसाकाणि। ४. बड़ी शतवार। ५. मुदगपर्णी। बनमूँग।
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सहस्ररश्मि  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य।
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सहस्रशः (शस्)  : अ० [सं० सहस्+शस्] हजारों तरह से। वि० कई हजार। हजारों।
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सहस्रशाख  : पुं० [सं० ब० स०] वेद, जिसकी हजार शाखाएँ हैं
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सहस्रसाव  : पुं० [सं० ब० स०] अश्वमेघ यज्ञ।
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सहस्रा  : स्त्री० [सं० सहस्त्र—टाप्] १. मात्रिका। अंबष्टा। मोइया। २. मयूरशिखा।
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सहस्रांक  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य।
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सहस्राक्ष  : विं० [सं० ब० स०] हजार आँखोंवालापुं० ब्रह्मा। १. इंद्र। २. विष्णु ३. उत्पलाक्षी देवी का पीठ स्थान। (देवी भागवत)
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सहस्राधिपति  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में वह अधिकारी जो किसी राजा की ओर से एक हजार गाँवों का शासन करने के लिए नियुक्त होता था।
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सहस्रानन  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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सहस्राब्दि  : स्त्री० [सं०] किसी संवत या सन के हर एक से हर हजार तक के वर्षों अर्थात दस शताब्दियों का समूह। (माइलीनियम)
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सहस्रायु  : वि० [सं० ब० स०] हजार वर्ष जीने वाला।
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सहस्रार  : पुं० [सं० ब० स०] १. हजार दलों नावा एक प्रकार का कल्पित कमल। २. जैन पुराणों के अनुसार बारहवें स्वर्ग का नाम। ३. ङठयोग के अनुसार शरीर के अंदर के आठ कमलों या चक्रों में से एक जो हजार दलों का माना गया है। इसका स्थान मस्तक का भपरी भाग माना जाता है। इसे शून्य चक्र भी कहते है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह विचार शक्ति और शरीर का विकास करने वाली ग्रंथियों का केंद्र है।
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सहस्रावर्ता  : स्त्री० [सं० सहस्रावर्त्ता—टाप्] १. देवी की एक मूर्ति।
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सहस्रांशु  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य।
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सहस्राशुज  : पुं० [सं० सहस्त्रशु√जन् (उत्पन्न करना)+ड] शनिग्रह।
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सहस्रास्य  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. अनंत नामक नाग।
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सहस्रिक  : वि० [सं० सहस्र+ठन्—इक] हजार वर्ष तक चलता रहने या होने वाला।
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सहस्री (स्रिन)  : पुं० [सं० सहस्त्र+इनि] वह वीर या नायक जिसके पास हजार योद्धा, घोड़े, हाथी आदि हों। स्त्री० एक ही तरह की हजार चीजें या वर्ग का समूह।
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सहस्रेक्षण  : पुं० [सं० ब० स०] इंद्र।
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सहा  : स्त्री० [सं०√सह् (सहन करना)+अच्—टाप] १. घी-कुआरा। ग्वारपाठा। २. बनमूँग। ३. दंडोत्पल। ४. सफेद कट सरैया। ५. कंघी या ककही नामक वृक्ष। ६. सर्पिणी। ७. रासना। ८. सत्यानाशी। ९. सेवती। १॰. हेमंत ऋतु। ११. अगहन मास। १२. मषवन। १३. देवताड़ का वृक्ष। १४. मेंहदी।
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सहाई  : स्त्री०=सहयता। वि०=सहायक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहाई  : वि० [सं० सहाय्य] सहयक। मददगार। उदा०—नैन सहाई पलक ज्यों देह सहाई हाथ। स्त्री०=सहायता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहाउ  : वि०, पुं०=सहाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संहात  : पुं० [सं० सम्√हन् (मारना)+क्त, न-आ, कुत्वाभाव] १. समूह। २. एक नरक का नाम। ३. दे० ‘संघात’।
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सहाध्यायी (यिन्)  : वि० [सं० सह-आ-अधि√ई (पढ़ना)+णिनि] जिसमें किसी के साथ अध्ययन किया हो। सहपाठी। पुं० साथ-साथ अध्ययन करने वाले शिक्षार्थी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहाना  : स० [सं० सहना का स०] ऐसा काम करना जिससे किसी को कुछ सहना पड़े। पुं०=शहाना (राग)।
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सहानी  : वि० स्त्री०=शहानी।
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सहानुगमन  : पुं०=सहगमन। (दे०)
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सहानुभूति  : स्त्री० [सं० सह-अनु√ भू० (होना)+क्तिन] १. ऐसी अनुभूति जो साथ-साथ दो या अधिक व्यक्तियों को हो। २. वह अवस्था जिसमें मनुष्य दूसरे की अनुभूति (विशेषतः कष्टपूर्ण अनुभूति) का अनुभव शुद्ध हृदय से करता है ओर उससे उसी प्रकार प्रभावित होता है जिस प्रकार दूसरा व्यक्ति हो रहा हो। (संवेदना। हमदर्दी। (सिम्पेथी) ३. अनुकमपा। दया।
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सहानुसरण  : पुं० [सं० सह-अनु√सह् (गत्यादि)+ल्युट्-अन] सहानुगमन (सह-गमन)।
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सहाब  : पुं०=शहाब।
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सहाबी  : पुं० [सं०] [स्त्री सहाबिया] वो लोग जो मुहम्मद साहब के उपदेश से मुसलमान हो गये थे और मरण पर्यत इस्लाम धर्म को मानते रहे।
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सहाय  : वि० [सं०] सहयता करने वाला। पुं० १. वह जो दूसरों की सहयता करता हो। और उसके कष्ट दुख दूर करता हो। २. साथी। अनुयायी। ४. सहायता। ५. आश्रय। सहायता ६. एक प्रकार का हंस। ७. एक प्रकार की वनस्पति।
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सहायक  : वि० [सं०] १. किसी की सहायता करने वाला। जैसे—दुःखसुख में अपने ही सहायक होते हैं। २. कार्य, प्रयोजन आदि के संपादन या सिद्धि में योग देने वाला। जैसे पढ़ने में आँखे ही सहयक होंगी। ३. (वह अधिकारी या कर्मचारी) जो किसी उच्च अधिकारी के आधीन रहकर उसके कार्यों के सपादन में योग देता हो। जैसे—सहायक मंत्री, सहायक संपादन। ४. किसी के साथ मिलकर उसका वृद्धि करने वाला। जैसे—सहायक आजीविका। सहायक नदी।
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सहायक नदी  : स्त्री० [सं०] भूगोल में किसी बड़ी नदी मे आकर मिलने वाली कोई छोटी नदी। (ट्रिब्यूटरी)
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सहायता  : स्त्री० [सं०] १. सहाय होने की अवस्था या भाव २. उद्योग या प्रयत्न जो दूसरे का काम संपादित करने या सहज बनाने के निमित्त किया जाता है। जैसा—उसने उन्हे पुस्तक लिखने में सहायता दी। ३. अभावग्रस्त का आभाव दूर करने के लिए उसे दिया जाने वाला धन या अनुदान। जैसे—सरकारी सहायता से यह उद्योग चल रहा है। ४. अनाथों, निर्धनों आदि को निर्वाह या भरण पोषण के लिए दिया जाने वाला धन या वस्तुएँ।
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सहायन  : पुं० [सं० सह√अच् (गत्यादि)+ल्युट्—अन√ इण (गत्यादि)+ल्युट्-अन वा] १. साथ चलना या जाना। २. साथ देना। ३. सहायता करना।
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सहायी  : वि०=सहायक। स्त्री०=सहायता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संहार  : पुं० [सं०] १. एक में करना या मिलाना। इकट्ठा करना। २. संचय। ३. सिर के बाल आच्छी तरह बाँधना। ४. अंत। समाप्ति। जैसे—वेणी संहार। ५. ध्वंस नाश। ६. बहुत से व्यक्तियों की युद्ध आदि में एक साथ होने वाली हत्या। ७. कल्पांत। प्रलय। ८. संक्षेप में और सार रूप में कही हुई बात। ९. किसी काम या बात को निष्फल या व्यर्थ करने की क्रिया। निवारण। परिहार। जैसे—किसी के चलाए हुए अस्त्र का संहार अर्थात विफलीकरण। १॰. अपना छोड़ा हुआ अस्त्र फिर से लौटाना या वापिस लाना। ११. कौशल। निपुणता। १२. सिकुड़ना। आंकुचन। १३. पुराणानुसार एक नरक का नाम।
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सहार  : पुं० [सं० सह√ऋ (गमनादि)+अच् त० त० वा] १. आम का पेड़। सहकार। २. महा प्रलय। स्त्री० [हिं० सहारना] १. सहारने की क्रिया या भाव २. सहनशील-लता। जैसे—अब उनमे कष्ट सहने की सहार नहीं रह गई।
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संहार-भैरव  : पुं० [सं०] भैरव के आठ रूपों या मूर्तियों में से एक काल भैरव।
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संहारक  : वि० [सं० सम्√हृ (हरण करना) णिच्-ण्वुल्-अक, संहार-कारिणी] [स्त्री० संहारिका] संहार करने वाला। संहर्ता।
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संहारकारी  : वि० [सं० संहाक+कृ (करना)+णिनि] [स्त्री० संहार कारिणी] संहार या नाश करने वाला।
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संहारकाल  : पुं० [सं०] विश्व के नाश का समय। प्रलय काल।
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संहारना  : स० [सं० संहरण] मार डालना।
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सहारना  : स० [सं० सहन या हिं० सहारा] १. सहन करना। २. बरदाश्त करना। सहना। ३. किसी प्रकार का भार अपने ऊपर लेकर उसे सँभाले रहना। ४. त्पात, कष्ट आदि होने पर उसकी ओर ध्यान न देना। गवारा करना।
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संहारमुद्रा  : स्त्री० [सं०] तांत्रिक पूजन में अंगो की एक प्रकार की स्थिति, जिसे विसर्जन मुद्रा भी कहते हैं।
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सहारा  : पुं० [हिं० सहारना] १. कोई ऐसा तत्व या बात जिससे कष्ट आदि सहन करने या कोई बड़ा काम करने में सहायता मिलती हो या कष्ट की अनुभूति कम होती है। २. ऐसी वस्तु या व्यक्ति जिसपर किसी प्रकार का भार सहज में रखा जा सके और जो भार सह सके। ऐसा कोई तत्व या बात जिससे किसी प्रकार का आश्वासन मिलता हो। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।
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संहारिक  : वि० [सं० संहार+ठन्-इक्] १. संहार करने वाला। २. संहार संबंधी। संहार का।
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सहारिया  : वि०, पुं०=सहराई। उदा०—गाँव क्या था सहारियों की पर्ण-कुटीरों का समूह।—वृंदावनलाल वर्मा।
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संहारी (रिन्)  : वि० [सं० सम्√हृ (हरण करना)+णिनि] संहार या नाश करने वाला।
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सहार्थ  : वि० [सं०] १. समान अर्थ रखने वाले। २. समान उद्देश्य रखने वाले। पुं० १. आनुषंगिक विषय। २. सहयोग।
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सहार्द  : वि० [सं० तृ० त०] स्नेहयुक्त।
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संहार्य  : वि० [सं० सम्√हृ (हरण करना (+ण्यत] १. समेटने या बटोरने योग्य। संग्रह करने योग्य। इकट्ठा करने लायक। २. जिसका संहार किया जाने को हो या किया जा सकता हो। ३.जो कहीं दूसरी जगह ले जाया जा सकता हो या ले जाया जाने को हो। ४. जिसका निवारण या परिहार हो सकता हो।
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सहार्ह  : वि० [सं० सह (न)+अर्ह] जो सहन किया जा सके। योग्य।
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सहालग  : पुं० [सं० सह+लग] १. वह वर्ष जो हिंदुओं ज्योतिषियों के मत से शुभ माना जाता हो। २. फलित ज्योतिष के अनुसार वे दिन जिनमें विवाहल आदि शुभ कृत्य किये जा सकते हों।
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सहावल  : पुं०=साहुल (सीध नापने का उपकरण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहांश  : पुं० [सं० शह+अंश] किसी और के सात रहने या होने पर मिलने वाला अंश या भाग।
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सहांशी  : पुं० [सं० सह+अंशी] वह जो किसी के साथ किसी प्रकार के लाभ या संपत्ति में अपना भी अंश या हिस्सा पाने का अधिकारी हो। साझीदार (कोशेयरर)।
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सहासन  : वि० [स० सह+आसन] १. किसी के साथ उसके बराबर के आसन पर बैठने वाला। २. साथ बैठने वाला। पुं० १. बराबरी का हिस्से दार। उदाःसहासन का भाग छीनकर दो मत निर्जन मत बन को।—दिनकर।
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सहि  : वि०=सभी। उदाःसमाचार इणि माहि सहि।—प्रिथीराज।
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सहिक  : वि० [सं० सह+हिं० इक (प्रत्य०)] १. जो सचमुच वर्तमान हो। सत्ता से युक्त। वास्तविक। २. जिसमें कोई विशिष्ट तत्व या भाव वर्तमान हो। ३. जिसमें किसी प्रकार की दुविधा या संकोच न हो। ठीक और निश्चित। ४. (कथन या मत) जो निश्चित और स्पष्ट रूप से प्रतिपादित या प्रस्थापित किया गया हो। ठीक मानकर और साफ-साफ कहा हुआ। ५. गणित में शून्य की अपेक्षा अधिक जो ‘धन’ कहलाता है। ६. (प्रतिकृति या मूर्ति।) जिसमें मूल के समान ही छाया या प्रकाश हो। जो उलटा न जान पड़े। सीधा। ‘नहिक’। का विपर्याय। (पॉजिटिव उक्त सभी अर्थों के लिए) पुं० १. ऐसा कथन या बात जिसमें किसी सत्व, मत या सिद्धांत का निश्चित रूप से निरूपण या प्रस्थापन किया गया हो। ठीकमानकर दृढता पूर्वक कही गई बात। २. किसी विषय, निश्चय आदि का वह अंश या पक्ष जिसमें उक्त प्रकार का निरूपण या प्रस्थापन हो। ३. ऐसी प्रतिकृति या मूर्ति जिसमें मूल की छाया के स्थान पर छाया और प्रकाश के स्थान पर प्रकाश हो। ऐसी नकल जो देखने में सीधा जान पड़े, उलटी नहीं। ४. छाया चित्र में नहिक शीशे पर से कागज पर छपी हुई वह प्रति जो मूल के ठीक अनुरूप होती है। नहिक का विपर्याय। (पॉज़िटिव, उक्त सभी अर्थों के लिए)
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सहिकता  : स्त्री० [हिं० सहिक+ता (प्रत्य०)] सहिक होने की अवस्था या भाव। (पॉज़िटिविटी, पाँजिटिवनेस)
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सहिंजन  : पुं०=सहिजन।
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सहिजन  : पुं० [सं० शोभंजन] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसकी लंबी फलियाँ तरकारी अचार आदि बनाने के काम आती हैं। मुनगा।
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सहिजनी  : स्त्री० [सं० सज्ञान] निशानी। चिन्ह। पहचान। (दे० ‘सहदानी’)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संहित  : वि० [सं० सम्√धा (रखना)क्ति, धा=हि] १. एक स्थान पर जोड़ या मिलाकर रखा हुआ। एकत्र किया या बटोरा हुआ। २. मिलाया या सम्मिलित किया हुआ। ३. संबंद्ध। संश्लिष्ट। ४. अन्वित। युक्त। ५. अनुकूल। अनुरूप। ६. आजकल जो अधिकारियों के द्वारा नियमों विधियो आदि की संहिता के रूप में लाया गया हो। (कोडिफ़ायड)
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संहित  : स्त्री० [सं०] १. संहित होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘संश्लेषण’
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सहित  : अव्य० [सं० सह से] (किसी के) साथ। समेत। वि० १. किसी के साथ मिला हुआ युक्त। विशेष—सहित और युक्त में मुख्य अंतर यह है कि सहित का प्रयोग तो प्रायःक्रिया विशेषण पदों में होता है और युक्त का विशेषण पदों में। जैसे—(क) चतुर्थाँश सहित दे-दो। (ख) चतुर्थाँशयुक्त रूप। २. (प्राणायाम) जिसमें पूरक और रेचक दोनों क्रियाएँ की जाती हैं। (‘केवल’ से भिन्न) भू० कृ० [सं० सहन से] जो सहन किया गया हो। सहा हुआ।
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सहितव्य  : पुं० [सं सहित+त्व] सहित का धर्म या भाव।
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सहितव्य  : वि० [सं०√सह् (सहन करना)+तव्य] सहन होने के याग्य। जो सहा जा सके। सह्य।
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संहिता  : स्त्री० [सं०] १. सहिंत अर्थात एक में मिले हुए होने की अवस्था या भाव। मेल। संयोग। २. वह नया रूप जो बहुत सी नयी चीजें एकत्र करने या एक साथ रखने पर प्राप्त होता है। संकलन। संग्रह। ३. कोई ऐसा ग्रंथ जिसके पाठ आदि का क्रम परम्परा से किसी नियमित और निश्चित रूप से चला आ रहा हो। जैसे—अत्रि। (या मनु) की धर्म संहिता। ४. वेदों का वह मंत्र (ब्राह्मण नामक भाग से भिन्न) जिसके पद पाठ आदि का क्रम निश्चित है और जिसमें स्तोत्र आशीर्वादात्मक सूक्त, यज्ञ विधियों से संबंध रखने वाली प्रार्थनाएँ सम्मिलित हैं। व्याकरण में अक्षरों की होने वाली रापस्परिक संधि। ६. राजकीय अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत किया हुआ नियमों, विधियों आदि का संग्रह। (कोड) जैसे—भारतीय दंड संहिता। (इन्डियल पेनल कोड) ७. ब्रह्मा जो समस्त विश्व को धारण किये हैं और उनका नियंत्रण करता है।
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संहिताकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संहिताकृत] नियमों विधानो आदि को व्यवस्थित रूप देने की क्रिया या भाव। किसी बात या विषय को संहिता का रूप देना। (कोडिफिकेशन)
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सहिथी  : स्त्री० [?] बरछी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहिदान  : पुं०=सहदानी (निशानी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सहिदानी  : स्त्री०=सहदानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहिरिया  : स्त्री० [देश०] वसंत ऋतु की वह फसल जो बिना सींचे हुए होती है।
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सहिष्णु  : वि० [सं०√सह् (सहन करना)+इणुच्] जो कष्ट या पीड़ा आदि सहन कर सके। बरदाश्त करने वाला। सहनशील।
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सहिष्णुता  : स्त्री० [सं०] सहिष्णु होने की अवस्था, गुण या भाव। सहनशीलता।
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सही  : वि० [अ० सहीह] जिसमें किसी प्रकार का झूठ या मिथ्यात्व नहो। यथार्थ। वास्तविकता। २. सच। सत्य। ३. जिसमें कोई त्रुटि, दोष या भुल न हो। बिलकुल ठीक। जैसे—यह इस हिसाब का सही जवाब है स्त्री० १. किसी बात को मान्य, यथार्थ या सत्य होने की सक्षी के रूप में किया जाने वाला हस्ताक्षर। दस्तखत। २. किसी बात की प्रामाणिकता या मान्यता का सूचक कथन। उदाः ब्रह्मा वेद सही कियो, सिव जोग पसारा हो।—कबीर। मुहा—(किसी कथन या बात की।) सही भरना=सत्यता की साक्षी देना। यह कहना कि हाँ यह बात ठीक है। उदा—नहीं भरी लोमस भुसुंडि बहु बारिखौ।—तुलसी। ३. किसी बात की प्रामाणिकता या उसके फलस्वरूप होने वाली मान्यता। जैसे-चुप रहने की सही नही। ४.प्रामाणिकता, मान्यता या शुद्धता सूचक शब्द। चलो, सही सही। अव्य-[सं०सहन, हिं०सहना या सं०सिद्ध] एक अव्यय जो विशिष्ट प्रसंगो में वाक्य के अंत में आकर ये अर्थ देता है। (क) कोई बात सुनकर मान या सह लेना। जैसे-अच्छा यह भी सही है। (ख) अधिक नही तो इतना अवश्य। जैसे-आप वहाँ चलिए तो सही (ग) कोई असंभावित बात होने पर कुछ जोर देते हुए आश्चर्य प्रकट करना। जैसे-फिर भी आप वहाँ गये सही। उदाःप्रभु आसुतोष कृपालू शिवअबला निरखि बोले सही।—तुलसी। स्त्री०=सखी। (राज०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहीफा  : पुं० [अ० सहीफ़ः] १. ग्रन्थ। पुस्तक। २. चिट्ठी। पत्र। ३. सामयिक पत्र।
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सहुँ  : अव्य। [सं० सन्मुख] १. सन्मुख। सामने। २. ओर। तरफ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सहु  : वि० [स० सर्व+ही] सभी। उदा०—मन पुंथियाँ सहु सेन मुरछित।—प्रिथीराज।
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सहुह  : पुं० [सं० सह्व] भूल-चूक। अपराध। दोष। उदा०—सहुह दूरि देखै ता भउ पवै।
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सहूलत  : स्त्री०=सहूलियत।
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सहूलियत  : स्त्री० [अ० सहूलत] १. आसानी। सुगमता। २. सुभीता। ३. शिष्टता और सभ्यतापूर्वक आचरण करने की कला और पात्रता। जैसे—अब तुम सयाने हुए, कुछ सहूलियत सीखो।
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संहृत  : भू० कृ० [सं० सम्√हृ (हरण करना)+क्त] १. एकत्र किया हुआ। समेटा हुआ। २. ध्वस्त। नष्ट। बरबाद। ३. पूरा किया हुआ।समाप्त। ४. दूर किया या रोका हुआ। निवारित।
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संहृति  : स्त्री० [सं० सम्√हृ (हरण करना)+क्तिन] १. बटोरने या समेटने की क्रिया। २. संग्रह। ३. नाश। ४. प्रलय। ५. अंत समाप्ति। ६. परिहार। रोक। ७. लूट-खसोट। हरण।
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सहृदय  : वि० [सं०] [भाव० सहृदयता] १. (व्यक्ति) जो दूसरे के सुख-दुःख की अनुभूति करता हो। २. कोमल गुणों से युक्त हृदयवाला। ३. काव्य, साहित्य आदि के गुणों की परख रखने और उसकी विशेषताओं से प्रभावित होनेवाला। साहित्य का अधिकारी और योग्य पाठक। रसिक। ४. अच्छे गुणों और स्वभाववाला। भला। सज्जन। ५. प्रायः या सदा प्रसन्न रहनेवाला।
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सहृदयता  : स्त्री० [सं० सहृदय+तल्—टाप्] १. सहृदय होने की अवस्था, गुण या भाव। २. वह कार्य या बात जो इस तथ्य की सूचक हो कि व्यक्ति सहृदय है। सहृदय व्यक्ति का कोई कार्य।
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संहृष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. खड़ा (रोम)। २. (व्यक्ति) जिसके रोएं भय से खड़े हों या हुएं हो। रोमांचित। ३. पुलकित।
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सहेज  : पुं० [देश०] वह दही जो दूध जमाने के लिए उसमें डाला जाता है। जामन।ष स्त्री० [हिं० सहेजना] १. सहेजने की क्रिया या भाव। २. चीजें सहेज कर रखने की प्रवृत्ति या स्वभाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहेजना  : स० [अ० सही ?] १. कोई चीज लेने के समय अच्छी तरह देखना कि वह ठीक या पूरा है या नहीं। जैसे—कपड़े, गहने या रुपए सहेजना। संयो० क्रि०—लेना। २. अच्छी तरह दिखला या बतलाकर कोई चीज किसी को सौंपना। सुपुर्द करना। जैसे—सब चीजें उन्हें सहेज देना। संयो० क्रि०—देना।
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सहेजवाना  : स० [हिं० सहेजना का प्रे०] सहेजने का काम दूसरे से कराना।
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सहेट  : पुं०=सहेत। उदा०—भवन तें निकसि वृषभानु की कुमारी देख्यो ता समै सहेट को निकुंज गिर्यों तीर को।—मतिराम।
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सहेत  : पुं० [सं० संकेत] वह निर्दिष्ट एकान्त स्थान जहाँ प्रेमी और प्रेमिका मिलते हैं। अभिसार का पूर्व निर्दिष्ट स्थान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहेतु  : वि०=सहेतुक।
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सहेतुक  : वि० [सं० ब० स०] जिसका कोई हेतु हो। जिसका कुछ उद्देश्य या मतलब हो। जैसे—जहाँ यह पद सहेतुक आया है, निर्रथक नहीं है।
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सहेलरी  : स्त्री०=सहेली। उदा०—विजन-मन-मुदित सहेलरियाँ।—निराला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सहेली  : स्त्री० [सं० सह=हिं एली (प्रत्य०)] १. साथ में रहनेवाली स्त्री। संगिनी। २. परिचारिका। दासी। (क्व०) ३. सखी। ४. गौरैया की तरह की की काले रंग की एक प्रकार की छोटी चिड़िया।
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सहैया  : वि० [हिं० सहाय] सहायता करनेवाला। सहायक। वि० [हिं० सहना] १. सहनेवाला। २. सहनशील।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सहो  : पुं० [अ० सहव] १. अपराध। दोष। २. भूल-चूक। गलती।
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सहोक्ति  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, एक अलंकार जिसमें ‘सह’ ‘संग’ ‘साथ’ आदि शब्द इस प्रकार प्रयुक्त होते हैं कि किसी क्रिया के (क) एक कार्य के साथ और भी कई कार्यों का होना सूचित होता है। जैसे—रात्रि के समय तुम्हारे मुख के साथ ही चंद्रमा भी सुशोभित हो जाता है अथवा (ख) कोई श्लिष्ट शब्द इस प्रकार प्रयुक्त होता है कि अलग अलग प्रसंगों में अलग अलग अर्थ देता है। (कनेक्टेड डेस्क्रिप्शन) जैसे—यौवन में उसके ओष्ठ तथा प्रिय दोनों साथ ही रागयुक्त (क्रमात् लाल और प्रेमपूर्ण या अनुरक्त) हो गये। उदा०—बल प्रताप वीरता बड़ाई। नाक पिनाकी संग सिधाई।—तुलसी।
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सहोढ़  : पुं० [सं०] १. वह चोर जो चोरी के माल के साथ पकड़ा गया हो। २. धर्मशास्त्र में, बारह प्रकार के पुत्रों में से वह जो गर्भवती कन्या के सात विवाह करने पर विवाह के उपरांत उत्पन्न होता है।
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सहोदक  : वि० [सं० ब० स०] समानोदक।
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सहोदर  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सहोदरा] १. (जन्म के विचार से वे) जो एक ही माता के उदर या गर्भ से उत्पन्न हुए हों। २. सम्बन्ध के विचार से अपना और सगा। पुं० १. सगा भाई। २. वैज्ञानिक क्षेत्रों में, वे सब जो एक ही मूल से उत्पन्न हुए हों और जिनमें परस्पर रक्त या वंश का सम्बन्ध हो। एक ही कुल या वंश के सदस्य।
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सहोपमा  : स्त्री० [सं० ब० स०, मध्य० स० वा] साहित्य में, उपमा अलंकार का एक प्रकार या भेद।
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सहोर  : पुं० [सं० शाखोट] एक प्रकार का जंगली वृक्ष।
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संह्नाद  : पुं० [सं० सम√ह्लाद् (अव्यक्त ध्वनि)+घञ्] १. कोलाहल। शोर। २. हिरण्याकशिपु का एक पुत्र।
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संह्नादन  : पुं० [सं० सम√ह्नाद (अव्यक्त ध्वनि)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संह्नादित] १. कोलाहल करना। शोर मचाना। २. चीखना चिल्लाना।
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सह्य  : वि० [सं०] १. जो सहा जा सके। जो सहन हो सके। २. आरोग्य। ३. प्रिय। पुं०=सह्याद्रि।
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सह्याद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वर्तमान महाराष्ट्र राज्य की एक पर्वत-माला।
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सा  : अव्य० [सं० सम=समान] १. एक संबंध-सूचक अव्यय जिसका प्रयोग कहीं क्रिया विशेषण की तरह और कहीं विशेषण की तरह नीचे लिखे आशय या भाव सूचित करने के लिए होता है—१. तुल्य, बराबर, सदृश्य या समान। जैसे—कमल सी आँखें, फूल सा शरीर २. किसी की तरह या प्रकार का। बहुत कुछ मिलता-जुलता। जैसे—धूर्तों के से काम, बच्चों की सी बातें। ३. सादृश्य होने पर भी किसी प्रकार की आंशिक अल्पता, न्यूनता या हीनता का भाव सूचित करने के लिए। जैसे—(क) वहां बैठे-बैठे मुझे नींद सी आने लगी। (ख) वह एक मिरियल टट्टू ले आया। ४. अवधारण या निश्चय सूचित करने के लिए। जैसे—तुम्हें इनमें की कौन सी पुस्तक चाहिए। ५. किसी अनिश्चित मात्रा या मान पर जोर देने के लिए। जैसे—जरा सा नमक, थोड़े से आदमी, बहुत सी बातें। ६. पूरा-पूरा न होने पर भी बहुत कुछ। जैसे—वहाँ एक गड्ढा-सा बन गया। विशेष—(क) जैसा कि ऊपर के कुछ उदाहरणों से सूचित होता है इस अव्यय का कुछ अवस्थाओं में विशेषण के समान भी प्रयोग होता है, इसिलए विशेष्य के लिंग और वचन के अनुसार इसके रूप भी बदलकर सी और से हो जाते हैं। (ख) यह अव्यय क्रिया विशेषणों, विशेषणों और संज्ञाओं के साथ लगता ही है, क्रियाओं के भूत-कृंदत रूपों और विभक्तियों के साथ भी लगता है। जैसे—(क) उठता हुआ सा; चलता हुआ-सा (ख) घर का सा व्यवहार, मूर्खों का सा आचरण। प्रत्य० एक प्रत्यय जो कुछ विशेषणों के अंत में लगकर तरह, प्रकार, रूप रंग आदि का भाव सूचित करता है। जैसे—ऐसा=इस-सा, कैसे=किस-सा, वैसा=उस-सा। पुं० [सं० षड़ज] संगीत में षडज स्वर का सूचक शब्द या संक्षिप्त रूप। जैसे—सा, रे, ग, म।
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साअत  : स्त्री० [अ०] दे० ‘साइत’।
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साइक  : पुं०=शासक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)पुं०=सायंकाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइकिल  : स्त्री० [अं०] दो पहियोंवाली एक प्रसिद्ध सवारी। पैरगाड़ी। बाइकसिकिल।
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साइक्क  : पु०=शायक (तीर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइत  : स्त्री० [अ० साअत] १. एक घंटे या ढाई घड़ी का समय। २. समय का बहुत ही छोटा विभाग। क्षण। पल। लमहा। ३. किसी शुभ कार्य के लिए फलित ज्योतिष के विचार से स्थिर किया हुआ कोई शुभ काल या समय। मुहूर्त। जैसे—द्वारचार की साइत, भाँवर की साइत। क्रि० प्र०—दिखाना।—देखना।—निकलना।—निकालना। अव्य०=शायद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइनबोर्ड  : पुं० [अं०] वह तख्ता या धातु आदि का टुकड़ा जिस पर किसी व्यक्ति, संस्था आदि का नाम और संक्षिप्त विवरण सर्वसाधारण के सूचनार्थ लिखा रहता है। नाम-पट्ट।
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साइयाँ  : पुं०=साँई (स्वामी या ईश्वर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइर  : वि०, पुं०=सायर। पुं०=सागर। उदा०—सर सरिता साइर गिरि भारे।—नन्ददास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साइंस  : पुं० [अं०] दे० ‘विज्ञान’।
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साँई  : पुं० [सं० स्वामी] १. स्वामी। मालिक। २. ईश्वर। परमात्मा। ३. स्त्री० का पति। ४. मुसलमान फकीर। ५. बोलचाल में, सिंधियों के लिए प्रयुक्त आदरसूचक संबोधन।
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साईं  : पुं०=साँई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साई  : स्त्री० [हिं० साइत] १. कार्य आदि के सम्पादन के लिए बातचीत पक्की होने पर दिया जानेवाला पेशगी धन। बयाना। २. विशेषतः वह धन जो गाने-बजानेवाले से किसी कार्यक्रम की बात पक्की होने पर उन्हें दिया जाता है। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना। स्त्री० [सं० सहाय] सहायता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [देश०] १. वे छड़ जो बैलगाड़ी के अगले हिस्से में बेड़े बल में मजबूती के लिए एक दूसरे को काटते हुए रखे जाते हैं। २. एक प्रकार का कीड़ा। स्त्री०=साई काँटा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साई-काँटा  : पुं० [हिं० शाही (जंतु)+काँटा] एक प्रकार का वृक्ष जो दक्षिण भारत, गुजरात और मध्य प्रदेश में होता है। साई। मोगली।
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साईस  : पुं० [सईस का अनु०] [भाव० साईसी] किसी रईस का वह नौकर जो उसके घोड़े या घोड़ों की देख-भाल करता हो।
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साईसी  : स्त्री० [हिं० साईस+ई (प्रत्य०)] साईस का काम, भाव या पद।
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साउज  : पुं=सावज (पशु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साएर  : पुं०=१. सायर। २. सागर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साक  : पुं० [सं० शाक] शाक। साग। सब्जी। तरकारी। भाजी। पुं०=साखू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकचोरि  : स्त्री० [?] मेहँदी। हिना।
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साकट  : पुं०=साकत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँकड़  : पुं० १.=सिक्कड़। २.=साँकड़ा। वि० [सं० संकीर्ण] सँकरा। उदा०—जमुनक तिरे तिरे साँकड़ वाटी।—विद्यापति। स्त्री०=साँकल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँकड़ा  : पुं० [सं० श्रृंखला] पैरों में पहना जानेवाला कड़े की तरह का एक प्रकार का गहना।
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साकत  : पुं० [सं० शाक्त] १. शाक्त मत का अनुयायी। २. वह जो मद्य, मांस आदि का सेवन करता हो। ३. वह जिसने गुरु से दीक्षा न ली हो। निगुरा। वि० दुष्ट। पाजी।
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सांकभरी  : पुं०=शाकंभरी (झील)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँकर  : वि० [सं० संकीर्ण] १. संकीर्ण। तंग। सँकरा। २. कष्टदायक। पुं० कष्ट संकट की दशा अथवा समय। स्त्री०=साँकल।
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साकर  : स्त्री० १.=साँकल। २.=शक्कर। वि०=साँकर (सँकरा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँकरा(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)  : पुं०=साँकड़ा। वि०=सँकरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांकरिक  : वि० [सं० संकर+ठञ्—इक] वर्ण-संकर। दोगला।
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साँकल  : स्त्री० [सं० श्रृंखला] १. श्रृंखला। जंजीर। २. दरवाजे में लगाई जानेवाली जंजीर। ३. पशुओं के गले में बाँधने की जंजीर। ४. गहने की तरह गले में पहनने की चाँदी-सोने की जंजीर। सिकड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांकल्पिक  : वि० [सं० संकल्प+ठञ्+इक] १. संकल्प-सम्बन्धी। २. काल्पनिक।
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साकल्य  : पुं० [सं०] सकल की अवस्था, गुण या भाव। सफलता। समग्रता। पुं०=शाकल्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकवर  : पुं० [?] बैल। वृषभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साका  : पुं० [सं० शाका] १. संवत्। शाका। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना। २. ख्याति। प्रसिद्धि। ३. कीर्ति। यश। ४. बड़ा काम जिससे कर्ता की बहुत कीर्ति हो। मुहा०—साका करके (कोई काम) करना=सबके सामने, दृढ़ता और वीरतापूर्वक। उदा०—तस फल उन्हहिं देऊँ करि साका।—तुलसी। ५. कोई ऐसा बड़ा काम जो सहसा सब लोग न कर सकते हों और जिसके कारण कर्ता की कीर्ति हो। मुहा०—साका पूजना=किसी का अभीष्ट या उक्त प्रकार का कोई बहुत बड़ा काम सम्पन्न या सम्पादित होना। उदा०—आजु आइ पूजी वह साका।—जायसी। ६. धाक। रोब। मुहा०—साका चलाना या बाँधना= (क) आतंक फैलाना। (ख) रोब जामाना।
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साकांक्ष  : वि० [सं० त० त०] १. (व्यक्ति) जिसके मन में कोई आकांक्षा हो। आकांक्षा रखनेवाला। २. (काम, चीज या बात) जिसे किसी और की कुछ अपेक्षा हो। सापेक्ष। पुं० भारतीय साहित्य में, एक प्रकार का अर्थदोष जो ऐसे वाक्यों में माना जाता है जिनमें किसी आपेक्षित आशय का स्पशष्ट उल्लेख न हो, और फलतः उस अपेक्षित आशय के सूचक शब्दों की आकांक्षा बनी रहती हो। यथा—‘जननी, रुचि, मुनि पितु वचन क्यों तजि हैं बन राम।—तुलसी। इसमें मुख्य आशय तो यह है कि राम वन जाना क्यों छोड़े। परन्तु ‘क्यों तजिहैं बन राम’ से यह आशय पूरी तरह से प्रकट नहीं होता, इसलिए इसमें साकांक्षा नामक अर्थ दोष है।
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साकार  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० साकारता] १. जिसका कुछ या कोई आकार हो। आकारयुक्त। २. विशेषतः ऐसा अमूर्ति, असांसारिक या पारलौकिक जीव या तत्त्व जो मूर्त रूप धारण करके पृथ्वी पर अवतरित हुआ हो। ३. बात या योजना जिसे उद्दिष्ट, उपयोगी या क्रियात्मक आकार अथवा रूप प्राप्त हुआ हो। जैसे—सपने साकार होना। ४. मोटा। स्थूल। पुं० ईश्वर का वह रूप जो साकार हो। ब्रह्म का मूर्तिमान रूप। जैसे—अवतारों आदि में दिखाई देनेवाला रूप।
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साकारोपासना  : स्त्री० [सं० ष० त०] ईश्वर की वह उपासना जो उसका कोई आकार या मूर्ति बनाकर की जाती है। ईश्वर अथवा उसके किसी अवतार की यों ही अथवा मूर्ति बनाकर की जानेवाली उपासना। निराकार उपासना से भिन्न।
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साकिन  : वि० [अ०] १. जो एक ही स्थान पर स्थिर रहता हो। अचल। २. जो चलता-फिरता या हिलता-डोलता न हो। गति-रहित। ३. किसी विशिष्ट स्थान पर रहने या निवास करनेवाला। निवासी। जैसे—चुन्नीलाल साकिन मौजा नहरपुर। स्त्री० [अ० साकी का स्त्री०] साकी (मद्य पिलानेवाला) का स्त्री० रूप। पुं० [?] कश्मीर से नेपाल तक के जंगलों में पाया जानेवाला बकरी की तरह का एक प्रकार का पशु जिसका मांस खाया जाता है। कश्मीर में इसे ‘कैल’ कहते हैं।
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साकी  : पुं० [अ०] [स्त्री० साकिन] १. वह जो लोगों को मद्य का पात्र काम करनेवाला व्यक्ति। २. उर्दू-फारसी काव्यों में प्रेमिका की एक संज्ञा जिसका काम मद्य पिलाना माना जाता है। विशेष—हमारे यहाँ कुछ संत कवियों ने इसके स्थान पर ‘कलाली’ (देखें) का प्रयोग किया है। स्त्री० [?] कपूर-कचरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकुश  : पुं० [?] घोड़ा। अश्व। (डि०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकृतिक  : वि० [सं०] आकृति से युक्त अर्थात् साकार किया हुआ।
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साकेत  : पुं० [सं०] १. अयोध्या नगरी। अवधपुरी। २. भगवान् रामचन्द्र का लोक जिसमें उनके भक्तों को मरने पर स्थान मिलता है।
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साकेतक  : पुं० [सं० साकेत+कन्] साकेत का निवासी। अयोध्या का रहनेवाला। वि० साकेत-सम्बन्धी। साकेत का।
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साकेतन  : पुं० [सं०] साकेत। अयोध्या।
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सांकेतिक  : वि० [सं०] १. संकेत-संबंधी। २. संकेत के रूप में होनेवाला। ३. शब्द की अभिधा-शक्ति से संबंध रखने अथवा उससे निकलनेवाला। जैसे—सांकेतिक अर्थ।
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सांकेतिक भाषा  : स्त्री० [सं०] कुछ विशिष्ट लोगों के निजी व्यवहार के लिए उनकी बनाई हुई गोपनीय तथा कृत्रिम भाषा। साधारण या जन-भाषा से भिन्न भाषा। (कोड-लैंग्वेज)
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सांकेतिकी  : स्त्री०=सांकेतकी।
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साकोह  : पुं०=साखू (शाल वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साक्तुक  : पुं० [सं० शक्तु+ढक्=क] जौ, जिससे सत्तू बनता है। वि० १. सत्तू-सम्बन्धी। सत्तू का। २. सत्तू से बना हुआ।
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सांक्रामिक  : वि० [सं०] संक्रामक।
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साक्ष  : वि० [सं० त० त०] १. अक्ष से युक्त। २. आँखों या नेत्रों से युक्त। आँखोंवाला।
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साक्षर  : वि० [सं०] [भाव० साक्षरता] १. अक्षर या अक्षरों से युक्त। २. (व्यक्ति) जो अक्षरों को पढ़-लिख सकता हो। ३. शिक्षित। सुशिक्षित। (लिटरेट; उक्त होनों अर्थों में)
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साक्षरता  : स्त्री० [सं०] साक्षर अर्थात् पढ़े-लिखे होने की अवस्था या भाव। (लिटरेसी)
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साक्षातकारी (रिन्)  : वि० [सं०] साक्षात् करनेवाला।
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साक्षात्  : अव्य० [सं०] १. आँखों के सामने। प्रत्यक्ष। सम्मुख। २. प्रत्यक्ष या सीधे रूप में। ३. शरीरधारी व्यक्ति (या वस्तु) के रूप में। जैसे—विद्या में तो आप साक्षात् बृहस्पति थे। वि० मूर्तिमान्। साकार। जैसे—आप तो साक्षात् सत्य हैं। पुं०=साक्षात्कार० (क्व०)
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साक्षात्कार  : पुं० [सं०] १. आँखों के सामने प्रत्यक्ष या साक्षात् उपस्थित होना। सामने आना या होना। जैसे—ईश्वर या देवी-देवताओं का (या से) होनेवाला साक्षात्कार। २. प्रत्यक्ष रूप से होनेवाली भेंट। मुलाकात। ३. इन्द्रियों या मन को (किसी बात या विषय का) होनेवाला पूरा या स्पष्ट ज्ञान। जैसे—मानसिक साक्षात्कार।
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साक्षिता  : स्त्री० [सं०] १. साक्षी होने की अवस्था या भाव। २. गवाही। साक्ष्य।
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साक्षिभूत  : पुं० [सं० कर्म० स०] विष्णु का एक नाम।
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साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० साक्षिणी] १. वह मनुष्य जिसने किसी घटना को घटित होते हुए अपनी आँखों से देखा हो। २. उक्त प्रकार का ऐसा व्यक्ति जो किसी बात की प्रामाणिकता सिद्ध करता हो। गवाह। ३. वह जो कोई घटना घटित होते हुए देखता हो। प्रत्यक्षदर्शी। जैसे—हमारे शरीर में आत्मा साक्षी रूप में रहती है, भोग से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता। स्त्री० किसी बात को कहकर प्रामाणिक करने की क्रिया। गवाही। शहादत।
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साक्षीकरण  : पुं० [सं० साक्षि√च्वि√कृ (करना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० साक्षीकृत] दे० ‘साक्ष्यंकन’।
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साक्षीकृत  : भू० कृ० [सं०] दे० साक्ष्यंकित’।
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साक्ष्य  : पुं० [सं० साक्षि+यत्] १. वह जो कुछ अपनी आँखों से देखा गया हो। २. आँखों से देखी हुई घटना का कथन। ३. गवाही। शहादत।
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साक्ष्यकंति  : भू० कृ० [सं०] जिस पर साक्ष्यंकन हुआ हो। (एटेस्टेड)
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साक्ष्यंकन  : पुं० [सं० साक्षी+अंकन] [भू० कृ० साक्ष्यंकित] किसी पत्र, लेख्य, हस्ताक्षर आदि के सम्बन्ध में साक्षी के रूप में लिखवाना कि यह ठीक और वास्तविक है। प्रमाणीकरण। (एटेस्टेशन)
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साख  : स्त्री० [सं० शाका, हिं० साका] १. धाक। रोब। २. लेन-देन और व्यापार-व्यवहार में, खरेपन की ऐसी प्रामाणिकता और मान्यता जिसके विषय में किसी का कोई सन्देह न हो। (क्रेडिट) जैसे—आज-कल बाजार (या समाज) में उनकी बहुत साख है। विशेष—ऐसी प्रामाणिकता व्यक्ति की प्रतिष्ठा और मर्यादा की सूचक होती है। ३. प्रतिष्ठा। मर्यादा। क्रि० प्र०—बँधना।—बनना।—बनाना।—बाँधना।—बिगड़ना।—बिगाड़ना। स्त्री० [सं० शाखा] १. वृक्षों आदि की डाल। शाखा। २. खेत की उपज। पैदावार। ३. पीढ़ी। पुश्त। उदा०—बिन मेहरारू घर करै, चौदर साख लबार।—घाघ। स्त्री० [सं० साक्षी] गवाही। शहादत। साक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साखत  : पुं० [सं० शाक्त] १. शक्ति या देवी का उपासक। शाक्त। २. देवी-देवताओं का उपासक। देव-पूजक। (क्व०) उदा०—साषित (साखत) के तू हरता-करता हरि भगतन कै चेरी।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साखना  : स० [सं० साक्षि, हिं० साख+ना (प्रत्य०)] साक्षी या गवाही देना। शहादत देना।
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साखर  : वि०=साक्षर। स्त्री०=शक्कर। (महाराष्ट्र)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साखा  : स्त्री० [सं० शाखा] १. वह कीली जो चक्की के बीच में लगी होती है। चक्की का धुरा। २. दे० ‘शाखा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साखिआ  : वि०=सारखा (सरीखाया सदृश्य। स्त्री०=शाखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साखियात  : अव्य०=साक्षात्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साखी  : पुं० [सं० साक्षिन्] १. गवाह। २. आपसी झगड़ों का निपटारा करनेवाला पंच। ३. मित्र और सहायक। ४. संगी। साथी। स्त्री० १. साक्षी। गवाही। शहादत। मुहा०—साखी पुकारना =गवाही देना। २. ज्ञान और भक्ति के क्षेत्र में, महापुरुषों, संतों साधु-महात्माओं आदि के वे पद जिनमें वे अपने अनुभव, मत या साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए अन्य साधु-महात्माओं के वचन साक्षी रूप में उद्धृत करते हैं। जैसे—कबीर की साखी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)पुं० [सं० साखिन्=शाखी] पेड़। वृक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साखू  : पुं० [सं० शाल] एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती है। स्त्री० उक्त वृक्ष की लकड़ी।
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साखेय  : वि० [सं० सखि+इक्—एय] १. सखा-सम्बन्धी। सखा का। २. लोगों को सहज में अपना सका बना लेनेवाला, अर्थात् मिलनसार। यार-बाश।
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साखोचारण  : पुं=शाखोचार।
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साखोट  : पुं० [सं० शाखोट] सिहोर वृक्ष। सिहोरा।
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साख्त  : स्त्री० [फा०] १. किसी चीज की बनावट या रचना का कार्य। २. बनावट या रचना का ढंग या प्रकार। ३. बनाकर तैयार की हुई चीज।
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साख्ता  : वि० [फा० साख्तः] १. बनाया हुआ। २. नकली। बनावटी।
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सांख्य  : वि० [सं०] १. संख्या-संबंधी। जो संख्या के रूप में हो। पुं० १. संख्याएँ आदि गिनने और हिसाब लगाने की क्रिया। २. तर्क-वितर्क या विचार करने की क्रिया। ३. भारतीय हिन्दुओं के छः प्रसिद्ध दर्शनों में से एक दर्शन जिसके कर्ता महर्षि कपिल कहे गये हैं। विशेष—यह दर्शन इसलिए सांख्य कहा गया है कि इसमें २५ मूल तत्त्व गिनाये गये हैं, और कहा गया कि अंतिम या पचीसवें तत्त्व के द्वारा मनुष्य आत्मोपलब्धि या मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसमें आत्मा को ही पुरुष या ब्रह्म माना गया है।
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साख्य  : पुं० [सं० सखि+ष्यञ्]=सख्यता।
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सांख्य-मार्ग  : पुं० [सं०] सांख्य-योग।
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सांख्य-योग  : पुं० [सं०] ऐसा सांख्य जो अच्छी तरह चित्त शुद्ध करके और पूरा ज्ञान प्राप्त करके सच्चे त्याग के आधार पर ग्रहण किया जाय।
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सांख्यायन  : पुं० [सं० सांख्य+क-फ—आयन] एक प्रसिद्ध वैदिक आचार्य जिन्होंने ऋग्वेद के सांख्य ब्राह्मण की रचना की थी। इनके कुछ श्रौत सूत्र भी हैं। सांख्यायन कामसूत्र इन्हीं का बनाया हुआ माना जाता है।
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सांख्यिक  : वि० [सं०] संख्या या गिनती से संबंध रखनेवाला। संख्या-संबंधी।
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सांख्यिकी  : स्त्री [सं०] १. किसी विषय की (यथा—अपराध, उत्पादन, जन्मरण, रोग आदि की) संख्याएँ एकत्र करके उनके आधार पर कुछ सिद्धांत स्थिर करने या निष्कर्ष निकालने की विद्या। स्थिति-शास्त्र। २. इस प्रकार एकत्र की हुई संख्याएँ। (स्टैटिस्टिक्स)
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साँग  : स्त्री० [सं० शक्ति] [अल्पा० साँगी] १. एक प्रकार की छोटी पतली बरछी। २. एकत प्रकार का औजार जो कूआँ खोदते समय पानी फोड़ने के काम में आता है। ३. भारी बोझ उठाने या खिसकाने के काम में आनेवाला एक प्रकार का डंडा। पुं० [हिं० स्वाँग] १. स्वाँग। २. जाटों में प्रचलित एक प्रकार का गीत काव्य।
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सांग  : वि० [सं० स+संग] अंग या अंगों से युक्त। पद—सांगोपांग। (दे०)
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साग  : पुं० [सं० शाक] १. कुछ विशिष्ट प्रकार के पौधों की वे पत्तियाँ जो तरकारी आदि की तरह पकाकर खाई जाती हैं। शाक। भाजी। जैसे—सोए, पालक, मरसे या बथुए का साग। पद—साग-पात= (क) खाने के साग, पत्ते, कन्द, मूल आदि। (ख) बहुत ही उपेक्ष्य और तुच्छ वस्तु। जैसे—वह तो औरों को अपने सामने साग-पात समझता है। २. पकाई हुई भाजी। तरकारी। जैसे—आलू का साग, कुम्हड़े का साग। (वैष्णव)
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सांगतिक  : वि० [सं० संगति+ठक्—इक] १. संगति-संबंघी। २. सामाजिक। पुं० १. अतिथि। २. वह जो किसी कारबार के सिलसिले में आया हो। अपरिचित। अजनबी।
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सांगम  : पुं० [सं० संगम+अण्]=संगम।
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साँगर  : पुं० [?] शमी वृक्ष। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागर  : पुं० [सं०] १. समुद्र, जो पुराणानुसार महाराज सगर का बनाया हुआ माना जाता है। उदथि। जलधि। २. बहुत बड़ा तालाब। झील० ३. दशनामी संन्यासियों का एक भेद। ४. उक्त प्रकार के संन्यासियों की उपाधि। ५. एक प्रकार का हिरन। पुं० [अ० सागर] १. बड़ा प्याला। कटोरा। २. शराब पीने का प्याला।
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सागर  : अव्य० [?] सामने। सम्मुख। उदा०—प्रीतम को जब सागस लहै।—नंददास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागर-धरा  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी। भूमि।
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सागर-मेखला  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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सागर-लिपि  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक प्राचीन लिपि।
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सागर-संगम  : पुं० [सं०] नदी और समुद्र का संगम स्थान, विशेषतः वह स्थान जहाँ समुद्र की लहरें नदी की धारा से मिलती हैं। (एस्चुअरी)
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सागरज  : वि० [सं०] सागर या समुद्र से उत्पन्न। पुं० सुमद्री नमक।
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सागरनेमि  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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सागरमुद्रा  : स्त्री० [सं०] इष्टदेव। का ध्यान या आराधना करने की एक प्रकार की मुद्रा।
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सागरवासी (सिन्)  : वि० [सं० सागर√वस् (रहना)+णिनि] १. समुद्र में वास करने या रहनेवाला। २. समुद्र के तट पर रहनेवाला।
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सागरांत  : पुं० [सं० ष० त०] १. समुद्र का किनारा। समुद्र-तट। २. समुद्रतट का विस्तार।
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सागरांता  : स्त्री० [सं० सागरांत-टाप्] पृथ्वी।
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सागरांबरा  : स्त्री० [सं० ब० स० सागराम्बरा] पृथ्वी।
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सागरालय  : पुं० [सं० ब० स०] सागर में रहनेवाले वरुण।
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साँगरी  : स्त्री० [फा० जंगार] कपड़े रँगने का एक प्रकार का रंग जो जंगार अर्थात् तूतिये से निकाला जाता है।
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सागा  : पुं० [सं० सह] संग। साथ। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागार  : वि० [सं० स०+आगार] आगार से युक्त। आगार या घर वाला। पुं० गृहस्थ।
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साँगी  : पुं० [हिं० साँग] वह जो साँग नामक गीत काव्य लोगों को सुनाता हो। स्त्री० छोटी साँग (बरछी)। स्त्री० [सं० शंकु] १. बैलगाड़ी में गाड़ीवान के बैठने का स्थान। २. एक्के, गाड़ी आदि में जाली का वह छींका जिसमें छोटी छोटी आवश्यक चीजें रखी जाती हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागी  : क्रि० वि० दे० ‘सागे’। उदा०—मेरी आरति मेटि गुसाँईं आई मिलौ मोंहि सांगी री।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांगीत  : पुं० [सं०] [संगीकिता। (ऑपेरा) पुं०=सेनापति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागू  : पुं० [अं० सौंगों] १. ताड की जाति का एक प्रकार का पेड़ जिसके तने से आटे की तरह गूदा निकलता है। दे० ‘सागूदाना’।
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सागूदाना  : पुं० [हिं० सागू+दाना] सागू नामक वृक्ष के तने का गूदा जो पहले आटे के रूप में होता है और फिर कूटकर दानों के रूप में बनाकर सुखा लिया जाता है। यह पौष्टिक होता है और जल्दी पच जाता है, इसीलए प्रायः रोगियों को पथ्य के रूप में दिया जाता है।
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सागें  : क्रि० वि० [सं० सह] संग। साथ। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागो  : पुं०=सागू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांगोपाग  : वि० [सं० अंग+उपांग] जो अपने सभी अंगों और उपांगों अव्य १. सभी अंगों और उपांगों सहित। २. अच्छी और पुरी तरह से।
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सागौन  : पुं० [सं० शाल] एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत सुन्दर तथा मजबूत होती है और इमारत के काम आती है। शाल वृक्ष।
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साग्निक  : वि० [सं०] १. अग्नि से युक्त। अग्निसहित। २. यज्ञ की अग्नि से युक्त। पुं० वह गृहस्थ जो सदा घर में अग्निहोत्र की अग्नि रखता हो। अग्निहोत्री।
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साग्र  : वि० [सं० तृ० त०] आदि से लेकर, पूरा। कुल। सब।
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सांग्रामिक  : वि० [सं०] १. संग्राम या युद्ध-संबंधी। २. जो अस्त्र-शस्त्रों से युक्त या सम्पन्न हो।
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सांघाटिका  : स्त्री० [सं० संघाट+ठञ्—इक—टाप्] १. मैथुन। रति। २. कुटनी। दूती। ३. एक प्रकार का वृक्ष।
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सांघात  : पुं० [सं० संघात+अण्]=संघात।
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सांघातिक  : वि० [सं० संघात्+ठञ्—इक] १. संघात या समूह-सम्बन्धी। २. जो संघात अर्थात् हनन कर सकता हो ३. जिसके फलस्वरूप मृत्यु तक हो सकती हो। जिससे आदमी मर सकता हो। (फ़टल) ४. जिससे प्राणों पर संकट आ सकता हो। बहुत जोखिम का। पुं० फलित ज्योतिष में, जन्म नक्षत्र से सोलहवाँ नक्षत्र जिसके प्रभाव से मृत्यु तक होने की संभावना मानी जाती है।
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सांघिक  : वि० [सं०] संघ-संबंधी। संघीय।
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साँच  : वि० [सं० सत्य] [स्त्री० साँची]=सच्चा (सत्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साचक़  : स्त्री० [तु०] मुसलमानों में विवाह की एक रसम जिसमें से एक दिन पहले वर पक्ष वाले कन्या के लिए मेहंदी, मेवे, फल, सुगंधित द्रव्य आदि भेजते हैं।
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साँचना  : स० [सं० संचय] १. संचित या एकत्र करना। उदा०—दे० ‘भाँड़ा’ (संपत्ति) में। २. किसी चीज में भरना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)अ० [?] १. किसी बड़े का कहीं आना। पदार्पण करना। पधारना। (गुज०, राज०) उदा०—सामलो घरे नू म्हारे साँचु दे।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँचर  : पुं० [सं० सौंवर्चल] एक प्रकार का नमक। सौवर्चल लवण।
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साचरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, एक प्रकार की रागिनी।
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साँचला  : वि० [हिं० साँच+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० साँचली] जो सच बोलता हो। सच्चा। सत्यवादी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सांचा  : पुं० [सं० संचक] १. वह उपकरण जिसमें कोई तरल या गाढ़ा पदार्थ ढालकर किसी विशिष्ट आकार-प्रकार की कोई चीज बनाई जाती है। (मोल्ड) जैसे—ईंट या मूर्तियाँ बनाने का साँचा। मुहा०—(किसी चीज का) साँचे में ढला होना=अंग-प्रत्यंग से बहुत सुन्दर होना। रूप, आकार, आदि में बहुत सुन्दर होना। साँचे में ढालना=आकर्षक, प्रशंसनीय या सुन्दर रूप देना। उदा०—हमारे इश्क ने साँचे में तुमको ढाला है।—दाग। २. वह उपकरण जिसके ऊपर कोई चीज रख या लगाकर उसे कोई नया आकार या रूप दिया जाता है। कलबूत। फरमा। जैसे—जूता या पगड़ी बनाने का साँचा। विशेष—वस्तुतः साँचा वही होती है जिसका विवेचन ऊपर पहले अर्थ में किया गया है। दूसरे अर्थ में प्रयाः लोग भूल से उसका उपयोग करते हैं। दूसरा रूप वस्तुतः ‘कलबूत’ कहलाता है। ३. वह छोटी आकृति जो कोई बड़ी आकृति बनाने से पहले नमूने के तौर पर तैयार की जाती है और जिसके अनुकरण पर दूसरी बड़ी आकृति बनाई जाती है। प्रतिमान। (मॉडल) ४. कपड़े पर आकृति बनाने का रंगरेजों का ठप्पा।
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सांचारिक  : वि० [सं० संचर+ठक्—इक] १. संचार-संबंधी। २. जो संचार करता हो। ३. चलता हुआ। जंगम।
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साँचिया  : पुं० [हिं० साँचा+इया (प्रत्य०)] १. किसी चीज का साँचा बनानेवाला कारीगर। २. साँचे में ढालकर चीजें बनानेवाला कारीगर।
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साँचिला  : वि०=साँचा (सच्चा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साचिव  : वि० [सं सचिव] १. सचिव-संबंधी। सचिव का। २. सचिव के कार्य, पद आदि से संबंध रखने या उनके पारस्परिक व्यवहार के रूप में होनेवाला। (मिनिस्टीरियल) जैसे—अब दोनों राज्यों में साचिव स्तर पर बात-चीत होगी।
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साचिव्य  : पुं० [सं० सचिव+ष्यञ्] १. सचिव होने की अवस्था या भाव। सचिवता। २. सचिव का पद। ३. मदद। सहायता।
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साँची  : स्त्री० [?] छपाई का वह प्रकार जिसमें पंक्तियाँ बेड़े अर्थात् लम्बाई के बल छापी जाती थीं। विशेष—अब यह प्रकार बहुत कुछ उठ-सा चला है। पुं० [साँची नगर] एक प्रकार का पान और उसकी बेल।
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साची कुम्हड़ा  : पुं० [देश० साची+कुम्हड़ा] सफेद कुम्हड़ा। पेठा।
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साछी  : पुं० स्त्री०=साक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साज  : पुं० [सं० त० त०] पूर्व भाद्रपद नक्षत्र।
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साज  : पुं० [सं० सज्जा से फा० साज] १. सजाने की क्रिया या भाव। सजावट। सजाने के उपकरण या सामग्री। पद—साज-सामान (देखें)। बडे साज से=खूब सजधज कर। २. संगीत में, बाजे, बाजे या वाद्य-यंत्र जो गाने-बजाने में विशेष रोचकता उत्पन्न करते हैं। मुहा०—साज छोड़ना=बाजा बजाने का काम आरम्भ करना। साज मिलाना=बाजा बजाने से पहले उसका सुर आदि ठीक करना। ३. लड़ाई में काम आनेवाले हथियार। जैसे—तलवार, बंदूक, ढाल, भाला आदि। ५. बढ़इयों का एक प्रकार का रंदा जिससे गोल गलता बनाया जाता है। ६. पारस्परिक अनुकूलता के कारण आपस में होने वाला मेल-जोल या घनिष्ठता। पद—साज-बाज। (देखें) वि० [भाव० साजी] १. बनानेवाला। जैसे—कारसाज=काम बनानेवाला; जिल्दसाज।=पुस्तकों की जिल्द बनानेवाला। २. चीजों की करके उन्हें ठीक बनानेवाला। जैसे—घड़ी-साज=घड़ियों की मरम्मत करनेवाला।
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साज-बाज  : पुं० [सं० साज+बाज (अनु०)] १. आवश्यक सामग्री। साज-सजाना। २. किसी काम या बात के लिए होनेवाली तैयारी और सजावट। ३. आपस में होनेवाली घनिष्ठता। मेल-जोल। हेल-मेल।
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साज-संगीत  : पुं० [फा०+सं०] साज या बाजों पर होनेवाला संगीत। वाद्य संगीत। कंठ-संगीत से भिन्न।
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साज-सामान  : पुं० [फा०] १. वे सब आवश्यक चीजें जो प्रतिष्ठा या मर्यादा के अनुरूप हों। सामग्री। उपकरण। असबाब। जैसे—बरात का साज-सामान। ३. ठाट-बाट।
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साजगिरी  : स्त्री० [देश०] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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साजड़  : पुं०=साजर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साजन  : पुं० [सं० सज्जन] १. पति। भर्ता। स्वामी। २. प्रेमी। ३. ईश्वर। ४. भला आदमी। सज्जन। ५. संगीत में, खम्माच ठाठ का एक राग।
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साजना  : स०=सजाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० ‘साजन’ के लिए सम्बोधक संज्ञा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साजर  : पुं० [देश०] गुलू नामक वृक्ष जिससे कतीरा गोंद निकलता है। (दे० ‘गुलू’)
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साजा  : वि० [हिं० सजाना] १. सजा हुआ। २. सुन्दर। ३. अच्छा। बढ़िया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साजात्य  : पुं० [सं० सजानि+ष्यत्र्] सजात या सजाति होने की अवस्था, गुण या भाव जो वस्तु के दो प्रकार के धर्मों में से एक हैं। ‘वैजात्य’ का विपर्याय।
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साजिंदा  : पुं० [फा० साज़िन्दः] १. वह जो कोई साज (बाजा) बजाता हो। साज या बाजा बजानेवाला। २. वेश्याओं आदि के साथ कोई साज या बाजा बजानेवाला।
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साजिया  : वि० [फा० साज़+हिं० इया (प्रत्य०)] सजानेवाला।
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साज़िश  : स्त्री० [फा०] १. मेल। मिलाप। २. दुष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए होनेवाली अभिसन्धि। षड़-यंत्र।
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साज़िशी  : वि० [फा०] १. जिसमें किसी प्रकार की साजिश हो। २. साजिश करनेवाला। कुचक्री।
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साजुज्य  : पुं०=सायुज्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँझ  : स्त्री० [सं० सन्ध्या] १. सूर्य डूबने से कुछ पहले तथा कुछ बाद तक का समय। शाम। पद—साँझ ही= (क) उचित समय से बहुत पहले ही। (खध बहुत जल्दी ही और अनुपयुक्त समय पर। उदा०—तेकर भाग साँझ ही फूटे।—घाघ। २. सूर्य ढलने के बाद का समय। स्त्री०=साझा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँझ-पाती  : स्त्री० =साझा-पात्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साँझला  : पुं० [सं० संध्या, हिं साँझ+ला (प्रत्य०)] उतनी भूमि जितनी एक हल से दिन भर में जोती जा सके।
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साँझा  : पुं०=साझा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साझा  : पुं० [सं० सहार्द्ध या सहार्ध्य, प्रा० सहायों,] १. व्यापार आदि के लिए किसी काम में कुछ लोगों को मिलाकर रुपए लगाने, परिश्रम या व्यवस्था करने और उससे होनेवाले हानि-लाभ के आंशिक रूप से दायी और अधिकारी होने के लिए आपस में होनेवाला समझौता। हिस्सेदारी। क्रि० प्र०—करना।—रखना।—लगाना। २. उक्त प्रकार के समझौते के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाली स्थिति। ३. उक्त प्रकार के कार्यों में किसी व्यक्ति का उतना अंश जिसके विचार से वह लाभ के उचित अंश का अधिकारी या हानि के उचित अंश का उत्तरदायी होता है। ४. किसी वस्तु या सम्पत्ति में से कुछ अंश या भाग पाने का अधिकार। हिस्सेदारी। जैसे—उस मकान में तीनों भाइयों का साझा है।
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साझा-पत्ती  : स्त्री० [हिं०] १. किसी कार्य या व्यापार में होनेवाला साझा या हिस्सेदारी। २. कुछ लोगों में किसी चीज का होनेवाला बटवारा।
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साँझी  : स्त्री० [हिं० साँझ] प्रायः स्त्रियों में प्रचलित एक लोक-कला जिसमें त्योहारों आदि पर घरों और मंदिरों की भूमि या फर्श पर रंगीन चूर्णों, अनाज के दानों और भूसियों तथा फूल-पत्तियों से बेल-बूटों, पशु-पक्षियों या दूसरे पदार्थों की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। (गुजरात में इसी को सथिया, महाराष्ट्र में रंगोली, बंगाल में अल्पना तथा दक्षिण भारत में कोलं (कोलम्) कहते हैं। पुं०=साझेदार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साझी  : पुं०=साझेदार।
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साँझेदार  : पुं०=साझेदार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साझेदार  : पुं० [हिं० साझा+दार (प्रत्य०)] १. शरीक होनेवाला। हिस्सेदार। साझी। २. व्यापार आदि में साझा करनेवाला व्यक्ति। हिस्सेदार।
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साझेदारी  : स्त्री० [हिं० साझेदार+ई (प्रत्य०)] साझेदार होने की अवस्था या भाव। हिस्सेदारी। शराकत।
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साँट  : स्त्री० [सट से अनु०] १. पतली कमची या छड़ी। २. कोड़ा। ३. शरीर पर कोड़े, छड़ी, थप्पड़ आदि की मार का ऐसा दाग या निशान जो आकार में बहुत कुछ उसी वस्तु के अनुरूप होता है, जिससे आघात किया या मारा गया हो। क्रि० प्र०—उभड़ आना।—पड़ना। स्त्री० [हिं० सटना] १. सटने या संलग्न होने की क्रिया या भाव। उदा०—ललित किशोरी मेरी बाकी, चित की साँट मिला दे रे।—ललित किशोरी। २. लगन। लौ। ३. किसी उद्देश्य की सिद्ध के लिए किसी से किया जानेवाला मेल। पद—साँट-गाँठ। (देखें) स्त्री० [?] लाल गदहपूरना। स्त्री० दे० ‘साँठ’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साट  : स्त्री० १. दे० ‘साड़ी’। (स्त्रियों के पहनने की) २. दे० ‘साँट’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० सार्थ या प्रा० सह] १. बेचने की क्रिया। विक्रय। २. आपस में होनेवाला विनिमय या लेन-देन। उदा०—जबहि पाइअहि। पारखू, तब हीरन की साट।—कबीर। ३. व्यापार। ४. सट्टा। स्त्री० [हिं० सटना] १. सटने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘साँट’।
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साँट-गाँठ  : स्त्री० [हिं० साँट (सटना)+गाँठ] आपस में होनेवाला ऐसा निश्चय जिसका कोई गुप्त या गूढ़ उद्देश्य हो। किसी अभिसंधि के कारण होनेवाला मेलजोल। विशेष—यद्यपि ‘सटना’ का भाव० रूप ‘साट’ ही होता है, पर उक्त में गाँठ के साथ संपृक्त होने के कारण ‘साट’ का रूप भी ‘साँट’ हो गया है।
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साट-गाँठ  : स्त्री० [सं० शाठ्य-ग्रंथि] किसी को कष्ट देने या हानि पहुँचाने के उद्देश्य से कुछ लोगों का आपस में मिलकर गुट या दल बनाना। (कोल्यूजन) विशेष—मिली-भगत और साट-गाँठ में कोई मुख्य अन्दर हैं। मिली भगत एक तो अस्थायी या क्षणिक होती है और दूसरे उसका उद्देश्य अपने आपको बिल्कुल निर्दोष दिखलाते हुए या तो अपना कोई छोटा-मोटा स्वार्थ सिद्ध करना होता है या दूसरे को केवल ठगना और धोखा देना होता है। पर साटगाँठ प्रायः बहुत कुछ स्थायी या दीर्घकाल व्यापी होता है और दूसरे उसका उद्देश्य अधिक उग्र, कठोर या क्रूर होता है।
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साँट-नाँठ(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)  : स्त्री०=साँट-गाँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साटक  : पुं० [?] १. अन्न आदि का छिलका या भूसी। २. बहुत ही तुच्छ या निकम्मी चीज। ३. एक प्रकार का छन्द।
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साटन  : स्त्री० [अं० सैटिन] एक प्रकार का बढ़िया रेशमी कपड़ा जो प्रायः एकरुखा और कई रंगों का होता है।
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साटना  : स०=सटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साटनी  : स्त्री० [देश०] भालू का नाच। (कलंदर)
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साँटा  : पुं० [हिं० साँट=छड़ी] १. करघे के आगे लगा हुआ वह डंडा जिसे ऊपर-नीचे करने से ताने के तार ऊपर-नीचे होते हैं। २. मोटे कपड़े का बटकर बनाया हुआ कोड़ा। ३. सवारी के घोड़े को लगाई जानेवाली एड़। ४. ईख। गन्ना।
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साटा  : पुं० [हिं० सट्टा] १. सट्टाबाजी अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य अनुचित तथा निन्दनीय उपाय से अर्जित किया हुआ धन। २. दे० ‘सट्टा’। पुं० [?] अदला-बदली परिवर्तन। विनिमय।
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साँटिया  : पुं० [हिं० साँटी] १. डौंडी पीटनेवाला। डुग्गी बजानेवाला। २. साँटेमार। (दे०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँटी  : स्त्री० अल्पा०] छोटी और पतली छड़ी। स्त्री० [हिं० सटना] प्रतिकार। बदला। स्त्री०=१.=साँट । २. साँठ-गाँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साटी  : स्त्री० [हिं० सटना] १. साथ रहनेवाली चीजें। २. सामग्री। सामान। स्त्री० [?] १. पतली छड़ी। कमची। २. गदहपूरना। पुनर्नवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=साँठी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साटे  : अन्य० [देश०] बदले में। परिवर्तन में।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँटे-मार  : पुं० [हिं० साँटा+मारना] वह चोबदार या सिपाही जो हाथ में साँटा या कपड़े का बना हुआ कोड़ा रखता और आवश्यकता पड़ने पर भीड़ हटाने, घोड़े, हाथियों आदि को वश में करने के लिए उन पर साँटे चलाता है। विशेष—मध्ययुग में, राजाओं की सवारी के साथ साँटेमार चलते थे।
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साटोप  : वि० [सं० स० त०] १. घमंड से फूला हुआ। २. गरजता हुआ (बादल)।
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साँठ  : पुं० [देश०] १. पैरों में पहनने का साँकड़ा नामक गहना। २. ईख। गन्ना। ३. सरकंडा। ४. डंडा। ५. वह डंडा जिससे पीटकर फसल की बालों में से अनाज के दाने अलग किये जाते हैं। स्त्री० [सं० संस्था] मूलधन। पूँजी। उदा०—साँठि नाहिं लागि बात को पूछा।—जायसी। स्त्री०=साँट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साठ  : वि० [सं० षष्ठि] जो गिनती में पचास में दस अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—६॰। स्त्री०=साटी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=साथ (संग)।
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साँठ-गाँठ  : स्त्री०=साँट-गाँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँठ-नाँठ  : स्त्री०=साँट-गाँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साठ-नाठ  : वि० [हिं० साँठि+नाठ (नष्ट)] १. जिसकी पूँजी नष्ट हो गई हो। निर्धन। दरिद्र। २. फीका या रूखा। नीरस। २. छिन्न-भिन्न। तितर-बितर। स्त्री० १. मेल-जोल। २. अनुचित संबंध। ३. षडयंत्र।
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साँठना  : स० [हिं० साँठ] १. हाथ में लेना। पकड़ना। २. ग्रहण करना।
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साठसाती  : स्त्री०=साढ़ेसाती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँठा  : पुं० [सं० शरकांड] १. सरकंडा। २. गन्ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साठा  : वि० [हिं० साठ] जिसकी अवस्था साठ वर्ष की हो गई हो। साठ वर्ष की उम्र वाला। जैसे—साठा सो पाठा। (कहा०) पुं० [देश०] १. बहुत बड़ा या लंबा चौड़ा खेत। २. ईख। गन्ना। ३. एक प्रकार की मधुमक्खी जिसे सठपुरिया भी कहते हैं। पुं०=साठी (धान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँठि  : स्त्री०=साँठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँठी  : स्त्री० [सं० संस्था] पूँजी। धन। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [?] गदहपूरना। पुनर्नवा। पुं०=साठी (धान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साठी  : पुं० [सं० षष्टिक] एक प्रकार का धान जो लगभग ६॰ दिन में पककर तैयार हो जाता है।
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साँठें  : अव्य० [हिं० साँठ] १. कारण या वजह से। २. आधार पर। उदा०—बलि बलि गयो चलि बात के साँठे।—तुलसी।
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साँड़  : पुं० [सं० षंड] १. गौ का वह नर जो संतान उत्पन्न करने के उद्देश्य से बिना बधिया किये पाला गया हो और इसीलिए जिससे कोई काम न लिया जाता हो। २. गौ का उक्त प्रकार का वह नर जो हिंदुओं में, किसी मृतक की स्मृति में दागकर यों ही छोड़ दिया जाता है। वृषोत्सर्गवाला वृष। ३. लाक्षणकि अर्थ में, वह निश्चित व्यक्ति जो हृष्टपुष्ट हो तथा लड़ने-भिड़ने और उत्पात करने में तेज तथा स्वतन्त्र हो। मुहा०—साँड़ की तरह घूमना=बिलकुल निश्चिंत और स्वतन्त्र रहकर इधर-उधर घूमते रहना। साँड़ की तरह डकरना=मदमत्त होकर अभिमानपूर्वक जोर जोर से बातें करना या चिल्लाना। ४. वह घोड़ा जिसे जोता न जाता हो, बल्कि घोड़ियों से संतान उत्पन्न करने के लिए पाला जाता हो। पुं० [?] [स्त्री० साँड़नी] ऊँट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँड़नी  : स्त्री० [हिं० साँड़ ?] सवारी के काम में आनेवाली तथा बहुत तेज दौड़नेवाली ऊँटनी। पद—साँड़नी सवार।
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साँड़सी  : स्त्री०=सँड़सी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँड़ा  : पुं० [हिं० साँड़] छिपकली की जाति का पर उससे कुछ बड़ा एक प्रकार का जंगली जानवर जिसकी चरबी दवा के काम में आती है।
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साड़ा  : पुं० [देश०] १. घोड़े का एक प्राण-घातक रोग। २. बाँस का वह टुकड़ा जो नाँव में मल्लाहों के बैठने के स्थान के नीचे लगा रहता है।
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साँड़िया  : पुं० [हिं० साँड़] १. तेज चलनेवाला ऊँठ। २. उक्त प्रकार के ऊँट का सवार। (राज०)
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साँड़ी  : स्त्री०=साढ़ी (मलाई)। उदा०—कुम्हार कै धरि हाँड़ी आछै अहीरा कै सर साँडी।—गोरखनाथ।
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साड़ी  : स्त्री० [सं० शाटिका] १. स्त्रियों के पहनने की धोती। २. विशेषतः ऐसी धोती जो रेशमी हो तथा जिस पर कला-पूर्ण काम हुआ हो। जैसे—बनारसी साड़ी, मदरासी साड़ी।
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साढ़ साती  : स्त्री०=साढ़ेसाती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँढ़िया  : पुं०=साँड़िया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साढ़ी  : स्त्री० [?] मलाई (दूध की)। स्त्री०=असाढ़ी (असाढ़ की फसल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० शाल] शाल वृक्ष का गोंद। स्त्री०=साड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साढ़ू  : पुं० [सं० श्यालिवोढ़] संबंध के विचार से पत्नी की बहन का पति। साली का पति।
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साढ़े-चौहरा  : पुं० [हिं० चाढ़े+चौ (चार)+हरा (प्रत्य०)] मध्ययुग में, फसल की एक प्रकार की बँटाई जिसमें फसल का ५/१६ भाग जमींदार को मिलता था और शेष ११/१६ भाग काश्तकार को मिलता था।
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साढ़े-साती  : स्त्री० [हिं० साढ़े सात+ई (प्रत्य०)] शनि ग्रह की अशुभ और कष्ट-दायक दशा या प्रभाव जो प्रायः साढ़े सात वर्ष, साढ़े सात महीने, या साढ़े सात दिन तक रहता है। क्रि० प्र०—आना।—उतरना।—चढ़ना।—बीतना।
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सांत  : वि० [सं० सांत] अंत से युक्त। जिसका अंत या सीमा हो। ‘अनंत’ का विपर्याय। वि०=शांत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सात  : वि० [सं० सप्त] जो गिनती में पाँच और क दो हो। छः से एक अधिक। पद—सात-पाँच= (क) कुछ लोग। उदा०—सात-पाँच की लकड़ी एक जने का बोझ। (ख) चालाकी और बहानेबाजी या शराफत की बातें। जैसे—हमसे इस प्रकार सात-पाँच मत किया करो। सात समुद्र पार=बहुत अधिक दूर विशेषतः विदेश में। जैसे—उन्होंने सात-समुद्र पार की चीजें लाकर इकट्ठी की थीं। मुहा०—सात परदे में रखना= (क) अच्छी तरह छिपाकर रखना। अच्छी तरह सँभालकर रखना। सात राजाओं की साक्षी देना= (ख) बहुत दृढ़तापूर्वक कोई बात कहना। किसी बात की सत्यता पर बहुत जोर देना। सात सींकें बनाना=शिशु जन्म के छठे दिन की एक रीति जिसमें सात सींकें रखी जाती हैं। सातों भूल जाना=विपत्ति या संकट आने पर पाँचों इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि का ठिकाने न रह जाना और ठीक तरह से अपना काम न कर सकना। पुं० पाँच और दो के योग की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—७।
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सांत-सभा  : स्त्री० [सं०] १. सामंतों की सभा। २. इग्लैण्ड में सामंती की सभा, जिसके बहुत कुछ अधिकार भारतीय राज्यसभा के समान है। (ङाउस आफ़ लार्डस्)
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सांततिक  : वि० [सं० संतति+ठञ्—इक] संतति पदान करनेवाला।
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सांतपन कृच्छु  : पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत जिसमें व्रत करनेवाला भोजन त्यागकर पहले दिन गोमूत्र, गोमय, दूध, दही और घी को कुश के जल में मिलाकर पीता और दूसरे दिन उपवास करता है।
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सातपूती  : वि० [हिं० सात-पूत+ई (प्रत्य०)] (स्त्री) जिसके सात पुत्र हों। स्त्री०=सतपुतिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांतर  : वि० [सं० तृ० त०] १. अन्तरा अवकाश से युक्त। २. झीना।
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सातला  : पुं० [सं० सप्तला] थूहर पौधे का एक प्रकार।
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सातवाँ  : वि०=सातवाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) सातवाँ= वि० [हिं० सात+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में सात के स्थान पर पड़नेवाला।
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सातव्य  : पुं० [सतत+ष्यञ्] १. सतत होने की अवस्था या भाव। सदा होते रहना। निरंतरता। (कन्टिन्यइटी) २. सदा बने रहने का भाव। स्थायित्व। (पर्पिचुइटी)
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सांतानिक  : वि० [सं० संतान+ठक्—इक] संतान-संबंधी। संतान या औलाद का।
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सांतापिक  : वि० [सं० संताप+ठक्+इक] संताप देने या उत्पन्न करनेवाला।
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सांति  : स्त्री०=शांति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सातिक (तिग)  : वि०=सात्विक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साती  : स्त्री० [देश०] साँप काटने की एक प्रकार की चिकित्सा जिसमें साँप के काटे हुए स्थान को चीर कर उस पर नमक या बारूद मलते हैं। वि० [हिं० सात+ई (प्रत्य०)] सात वर्षों, महीनों, दिनों, घड़ियों, पलों तक चलनेवाला। (ज्यो०) जैसे—साढ़े-साती अर्थात् साढ़े सात वर्षों तक चलनेवाली दशा।
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सांतीड़ा  : पुं० [हिं० साँड़?] बिगड़ैल बैल को नाथने का मजबूत और मोटा रस्सा। उदा०—सतना सांतीड़ा समधावी।—गोरखनाथ।
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सात्त्व  : वि० [सं० सात्त्व+अज्] १. सत्त्व गुण-संबंधी। सात्त्विक। २. सत्त्व या सार संबंधी।
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सात्त्विक  : वि० [सं० सत्त्व+ठन्—क] १. जिसमें गुण हो। सतोगुणी। २. सत्त्व गुण से संबंध रखनेवाला। ३. सत्य-निष्ठ। ४. प्राकृतिक। ५. वास्तविक। ६. अनुभूति या भावना-जन्य। पुं० १. साहित्य में, सतोगुण से उत्पन्न होनेवाले निसर्ग जाति के आठ अंगविकार—स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वर-भंग, कंप या वेपथु, वैवर्ण्य, अश्रु-पात और प्रलय। विशेष—वस्तुतः ये बातें अन्तः करण के सत्त्व से ही उत्पन्न होनेवाली मानी गई हैं। इसलिए इन्हें सात्त्विक कहा गया है। बाद में कुछ आचार्यों ने इसमें जृभा नामक नवाँ अंग-विकार भी बढ़ाया था। २. नाट्य-शास्त्र में, स्त्रियों के अंगज और अपलज कुछ शारीरिक गुण तथा विशेषताएँ जो आकर्षक तथा मोहक होती हैं, और इसी लिए जिनकी गणना स्त्रियों के अलंकारों में की गई है। विशेष—हिन्दी में इनका अन्तर्भाव ‘हाव’ में ही होता है। दे० ‘हाव’। ३. नाट्य-शास्त्र में, नाटक के नायक के विशिष्ट गुण जो आठ माने गये हैं। यथा—शोभा, विलास, माधुर्य, दंभीप्य, स्थैर्य, तेज, ललित और औदार्य। ४. नाट्य-शास्त्र में, चार प्रकार के अभिनयों में से एक जिसमें केवल सात्त्विक भावों का प्रदर्शन होता है। ५. काव्य और नाट्य-शास्त्र की सात्वती नाम की वृत्ति। (दे० सात्वती) ६. ब्रह्मा। ७. विष्णु।
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सात्त्विक अलंकार  : पुं० [सं०] नाट्यशास्त्र में, नायिकाओं के वे क्रियाकलाप तथा सौन्दर्यवर्धक तत्त्व जिनके अंगज, अयत्नज और स्वभावज ये तीन भेद किये गये हैं। (दे० अंगज अलंकार, अयत्नज अलंकार और स्वभाव अलंकार)
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सात्त्विकी  : स्त्री० [सं० सात्त्विक+ङीप्] १. दुर्गा का एक नाम। २. गौणी भक्ति का एक प्रकार या भेद जिसमें विशुद्ध भक्ति-भाल बनाये रखने के उद्देश्य से ही इष्टदेव का अर्चन और पूजन होता है। वि० सं० ‘सात्विक’ का स्त्री०।
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सात्म  : वि० [सं० त० स०] [भाव० सात्म्य] आत्मा से युक्त। आत्मासहित।
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सात्म्य  : वि० [सं० सात्म+कन्] सात्मन्।
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सात्म्यक  : वि० [सं० आत्मन्+ष्यञ्, त० स०] १. सात्म-संबंधी। सात्म का। २. प्रकृति के अनुकूल। स्वास्थ्यकर। पुं० १. सात्म्य होने की अवस्था या भाव। २. सरूपता। सारूप्य। ३. एक विशेष प्रकार का रस जिसके सेवन से प्रकृति विरुद्ध कार्य करने पर शारीरिक शक्ति क्षीण नहीं होती। ४. अवस्था, समय, स्थान आदि के अनुकूल पड़नेवाला आहार-विहार।
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सात्यकि  : पुं० [सं०] कृष्ण का सारथी एक प्रसिद्ध यादव वीर जो सत्यक का पुत्र था।
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सात्यरथि  : पुं० [सं० सत्यरथ+इल, क० स०] वह जो सत्यरथ के वंश में उत्पन्न हुआ हो।
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सात्यवत्  : पुं० [सं० सत्यवती+अण्] सत्यवती के पुत्र, वेदव्यास। वि० सत्यवती-संबंधी। सत्यवती का।
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सात्राजिती  : स्त्री० [सं० सत्राजित्+ङीप्] सत्यभामा का एक नाम।
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सात्राजित्  : पुं० [सत्राजित्+अच्] राजा शतानीक जो सत्राजित् के वंशज थे।
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सात्वत  : पुं० [सं० सत्त्वत्+अज्] १. यदुवंशी। यादव। २. श्रीकृष्ण। ३. बलराम। ४. विष्णु। ५. एक प्राचीन देश। ६. एक प्राचीन वर्णसंकर जाति। पुं० [सं०] १. एक प्राचीन क्षत्रिय जाति जो उत्तर भारत के शूरसेन मंडल में रहती थी। २. उक्त जाति का मत जो ‘पांचरात्र’ कहलाता था।
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सात्वती  : स्त्री० [सं० सात्वत+ङीप्] १. साहित्य में, चार प्रकार की नाट्य-वृत्तियों में से एक जिसका प्रयोग मुख्य रूप से वीर, रौद्र, अद्भुत आदि रसों में होता है तथा जिसमें ज्ञान, न्याय, औचित्य आदि की प्रधानता रहती है। २. शिशुपाल की माता का नाम। ३. सुभद्रा का एक नाम।
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सांत्वन  : पुं० [सं०√सांत्व् (अनुकूल करना)+ल्युट्—अन] १. किसी दुःखी को सहानुभूतिपूर्वक शांति देने की क्रिया। आश्वासन। ढारस। २. आपस में स्नेहपूर्वक होनेवाली बात-चीत। ३. प्रणय। प्रेम। ४. मिलन। मिलाप।
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सांत्वना  : स्त्री० [सं० सांत्वन—टाप्] १. दुःखी, शोकाकुल या संतप्त व्यक्ति को शांत करने तथा समझाने-बुझाने की क्रिया। २. किसी को यह समझाना कि जो कुछ हो गया है या बिगड गया वह अनिवार्य था। अब साहस तथा धैर्य से उसका परिमार्जन किया जा सकता है। ३. उक्त आशय की सूचक उक्ति या कथन। ४. चित्त की शांति और स्वस्थता। ५. प्रणय। प्रेम।
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सांत्ववाद  : पुं० [सं०√सांत्व (अनुकूल करना)+अच्√वद् (कहना)+घञ् उप० स०] वह बात जो किसी को सांत्वना देने के लिए कही जाय। सांत्वना का वचन।
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सांत्वित  : भू० कृ० [सं०√सांत्व् (अनुकूल करना)+क्त] जिसे सांत्वना दी गई हो या मिली हो।
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साथ  : पुं० [सं० सह या सहित] १. वह अवस्था जिसमें (क) दो या अधिक वस्तुएँ एक दूसरे के निकट स्थित हों। जैसे—दोनों मकान साथ ही हैं। और (ख) दो या अधिक जीवन निकट संपर्क में रहते हों। जैसे—छात्रावास में हम दोनों का कुछ दिनों तक साथ रहा है। विशेष—संग और साथ में मुख्य अंतर यह है कि संग तो अधिक गहरा या घनिष्ठ और प्रायः अल्पकालिक होता है। पद—साथ का (या को)=पूरी, रोटी आदि के साथ खाई जानेवाली तरकारी, भाजी या सालन। साथ का खेला=बचपन का ऐसा साथी जिससे मिलकर खेलते रहे हों। मुहा०—(किसी का) साथ देना= किसी काम में संग रहना। सहानुभूति रखते हुए सहायता देना। जैसे—इस काम में हम तुम्हारा साथ देंगे। (किसी को अपने) साथ लेना=अपने संग रखना या ले चलना। जैसे—जब तुम चलने लगना, तो हमें भी साथ ले लेना। (किसी के) साथ सोना=मैथुन या संभोग करना। २. वह जो संग रहता हो। बराबर पास रहनेवाला। साथी। संगी। ३. आपस में होनेवाली घनिष्ठता या मेल-जोल। जैसे—आज-कल उन दोनों का बहुत साथ है। ४. मिलकर उड़नेवाले कबूतरों का झुंड या टुकड़ी। (लखनऊ) अव्य० १. एक संबंध सूचक अव्यय जो प्रायः सहचार या संग रहने का भाव या स्थिति सूचित करता है। सहित। से। जैसे—तुम भी उनके साथ रहना। पद—साथ ही=सिवा। अतिरिक्त। जैसे—साथ ही यह भी तो एक बात है कि आप वहाँ नहीं जा सकेंगे। साथ ही साथ=एक साथ। एक सिलसिले में। जैसे—साथ ही साथ दोहराते भी चलो। एक साथ=एक सिलसिले में। जैसे—(क) एक साथ दोनों काम हों जायँगे। (ख) जब एक साथ इतने आदमी पहुँचेंगे तो वे घबरा जायेंगे। के साथ= (क) साथ रहते हुए। पूर्वक। जैसे—आराम के साथ काम करना चाहिए। (ख) प्रति। से। जैसे—छोटों के साथ हँसी-मजाक करना ठीक नहीं। २. द्वारा। उदा०—नखन साथ तब उदर बिदार्यो।—सूर।
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साथर  : पुं०=साथरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साथरा  : पुं० [सं० स्तरण] [स्त्री० अल्पा० साथरी] १. बिछौना। बिस्तर। २. चटाई, विशेषतः कुश की बनी चटाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँथरी  : स्त्री० [सं० संस्तर] १. चटाई। २. बिछौना। बिस्तर। ३. बिछाने की गद्दी।
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साँथा  : पुं० [देश०] लोहे का एक औजार जो चमड़ा काटने के काम आता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साथिया  : पुं०=स्वास्तिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँथी  : स्त्री० [देश०] १. करघे की वह लकड़ी जो ताने के तारों को ठीक रखने के लिए करघे के ऊपर लगी रहती हो। २. बुनाई के समय ताने के सूतों का ऊपर उठना और नीचे गिरना।
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साथी  : पुं० [हिं० साथ+ई (प्रत्य०)] १. वे दो या अधिक व्यक्ति जिनका परस्पर साथ हो। २. साथ रहनेवालों में से एक की दृष्टि से दूसरा। जैसे—पुरुष को स्त्री का सच्चा साथी होना चाहिए। ३. मित्र। सखा।
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साद  : पुं० [सं० सादः] १. अस्त होना। डूबना। २. क्लांति। थकवाट। ३. विषाद। ४. क्षीणता। ५. नाश। ६. नष्ट। पीड़ा। ७. विशुद्धता। ८. स्वच्छता। ९. क्षरण। १॰. दे० ‘अवसाद’। पुं० १.=शब्द। (राज०) २.=स्वाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [अ०] १. अच्छा। भला। २. मांगलिक। शुभ। पुं० अरबी वर्ण-माला का एक वर्ण जिसका उच्चारण ‘स’ के समान होता है और जिसका उपयोग लाक्षणिक रूप में किसी बात को ठीक मानकर उससे अपनी सहमति प्रकट करने के लिए होता है। जैसे—उस्ताद ने उसकी बात का साद किया।
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साँद (ा)  : पुं० [देश०] वह भारी लकड़ी जो पशुओं के गले में इसलिए बाध दी जाती है कि भागने न पावें। लंगर। ढेका।
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सादक  : वि० [सं०] निःशक्त या शिथिल करनेवाला।
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सादगी  : स्त्री० [फा० सादा का भाववाचक रूप] १. सादा होने की अवस्था, गुण या भाव। सादापन। सरलता। २. आचरण, व्यवहार आदि की निष्कपटता और सिधाई। ३. खान-पान, रहन-सहन आदि में आडंबर, तड़-भड़क, कृत्रिमता आदि का होनेवाला अभाव।
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सादन  : पुं० [सं०] [भू० कृ०] १. नष्ट करना। २. क्लांत होना। थकना। ३. थकावट। ४. पात्र। बरतन। ५. सदन (घर या मकान)।
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सादर  : अव्य० [सं० स+आदर] आदरपूर्वक। इज्जत से। जैसे—सादर नमस्कार या प्रणाम।
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सादरा  : पुं० [?] उच्च शास्त्रीय संगीत में, एक विशिष्ट प्रकार की गायनशैली जिसके गाने या पद अनेक राग-रागिनियों में निबद्ध होते हैं।
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सादा  : वि० [सं० साधु से फा० साद] [स्त्री० सादी] १. जिसमें एक ही तत्त्व हो या एक ही प्रकार के तत्त्व हों। जिसमें औरों का मेल या योग न हो। जैसे—सादा पानी। २. जिसमें किसी तरह की उलझन, झंझट, पेंच की बात या बनावट न हो। सरल। जैसे—सादा हिसाब। ३. जिसकी बनावट या रचना में स्वाभाविकता ही हो, विशेष कौशल न हो। ४. जिस पर किसी तरह के बेल-बूटे, सजावट आदि का काम न हो। जिस पर किसी प्रकार का अंकन न हो। जैसे—सादे कपड़े, सादा कागज। ५. जिसे समझनें मे विशेष कठिनता न हो। ६. (व्यक्ति) जो छल-कपट से रहित हो। सरल। सीधा। (सिम्पुल) पद—सीधा-सादा। (देखें) ७. बुद्धि और विवेक से रहित। ना-समझ। मूर्ख। (पश्चिम) जैसे—यहाँ कौन सा सादा है जो तुम्हारी ये बातें मान लेगा।
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सादात  : पुं० [अ०] सैयद जाति या वंश।
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सादापन  : पुं० [फा० सादा+हिं० पन (प्रत्य०)] सादगी। (दे०)
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सादाशिव  : वि० [सं० सदाशिव+अव्] सदाशिव-संबंधी।
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सादिक  : वि० [अ०] १. सच्चा। २. ठीक। दुरुस्त। मुहा०—सादिक आना= (क) सत्य रूप में घटित होना। (ख) ठीक आना। पूरा उतरना।
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सादिर  : वि० [अ०] १. बाहर निकलनेवाला। २. जारी किया हुआ। जैसे—हुक्म हाजिर होना।
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सादी  : स्त्री० [हिं० सादा] १. वह पूरी या रोटी जिसके अन्दर पूरन या कोई चीज भरी न हो। ‘कचौरी’ का विपर्याय। २. लाल नामक पक्षी की मादा जिसके शरीर पर चित्तियाँ नहीं होतीं। मुनियाँ। सदिया। पुं० [सं० सदिः] १. रथ चलानेवाला। सारथी। २. योद्धा। ३. हवा। वायु। पुं० [फा० सद=शिकार] १. शिकारी। २. घोड़ा। ३. सवार। (डिं०) स्त्री०=शादी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सादी सजा  : स्त्री० [हिं०+फा०] कारावास का ऐसा दंड (कड़ी सजा से भिन्न) जिसमें कैदी को कोई काम न करना पड़ता हो। (सिम्पुल इम्प्रिजन्मेन्ट)
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सादूर  : पुं०=सार्दूल (सिंह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सादृश्य  : पुं० [सं०] १. सदृश्य होने की अवस्था, गुण या भाव। एकरूपता। (सिमिलेरिटी) २. तुलना। बराबरी। ३. मृग। हिरन।
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सांदृष्टिक  : वि० [सं० सदृस्+ठञ्—इक] एक ही दृष्टि में होनेवाला देखते ही तुरन्त होनेवाला। तात्कालिक।
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सांदृष्टिक न्याय  : पुं० [सं० संदृष्ट+ठञ्—इक-न्याय—मध्य० स०] एक प्रकार का न्याय जिसका प्रयोग उस समय किया जाता है जब कोई चीज देखकर उसी तरह की कोई दूसरी चीज याद आ जाती है।
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साद्यंत  : वि० [सं०] आदि से अंत तक का अर्थात् संपूर्ण। सारा। अव्य० आदि से अंत तक।
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साद्यस्क  : वि० [सं० ब० स०]=सद्यस्क।
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सांद्र  : वि० [सं०] [भाव० सांद्रता] १. एक में गुथा, जुड़ा या मिला हुआ। २. गंभीर। घना। उदा०—उठा सांद्र तन का अवगुंठन।—दिनकर। ३. हृष्ट-पुष्ट। हट्टा-कट्टा। ४. तीव्र। प्रबल। ५. बहुत अधिक। प्रचुर। ६. चिकना। स्निग्ध। ७. कोमल। मृदु। ८. मनोहर। सुन्दर। पुं०। जंगल। वन।
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सांद्र-प्रसाद  : पुं० [सं०] एक प्रकार का कफज प्रमेह जिसमें सूत्र का कुछ अंश गाढ़ा और कुछ अंश पतला निकलता है।
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सांद्रता  : स्त्री० [सं० सांद्र+तल्—टाप्] सांद्र होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सांद्रमेह  : पुं०=सांद्र-प्रसाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँध  : स्त्री० [सं० संधान] निशाना। लक्ष्य। स्त्री० [सं० संधि] १. सीमा। हद। २. दे० ‘संधि’। ३. दे० ‘सेंध’। स्त्री०=साँझ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांध  : वि० [सं० संधि+अण्] संधि-संबंधी। संधि का।
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साध  : स्त्री० [सं० श्रद्धा=प्रबल वासना] १. ऐसी अभिलाषा या आकांक्षा जो बहुत समय से मन में हो और जिसकी पूर्ति के लिए व्यक्ति उत्कंठित हो। मुहा०—(किसी बात की) साध न रहने देना=सब प्रकार से इच्छा पूरी कर लेना। कुछ कमी या कसर न रखना। उदा०—व्याध अपराध की साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भक्ति भई।—तुलसी। साध राधना=अभिलाषा पूरी करना या होना। २. गर्भवती स्त्री के मन में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होनेवाली अनेक प्रकार की अभिलाषाएँ और इच्छाएँ। दोहद। ३. स्त्री के गर्भवती होने के सातवें महीनें में होनेवाली एक प्रकार की रसम। पुं० [सं० साधु] १. साधु। संत। महात्मा। भला आदमी। सज्जन। २. उत्तर भारत का एक प्रसिद्ध संप्रदाय जिस पर आगे चलकर कबीर पंथ का विशेष प्रभाव पड़ा था। ३. उक्त संप्रदाय का अनुयायी जो ईश्वर के सिवा और किसी को प्रणाम, नमस्कार आदि का अधिकारी नहीं समझता, और इसलिए व्यक्तियों के सामने सिर नहीं झुकाता। वि० [सं० साधु उत्तम। अच्छा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साधक  : वि० [सं०√साध् (सिद्ध होना)+ण्वुल्—अक] [स्त्री० साधिका] १. साधना करनेवाला। २. साधनेवाला। ३. जो साध्य या ध्येय की प्राप्ति में साधन बना हो फलतः सहायक हुआ हो। पुं० वह जो आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र में फल-प्राप्ति के उद्देश्य से किसी प्रकार साधना में लगा हुआ हो। जैसे—तांत्रिक, योगी, तपस्वी आदि। २. कोई ऐसी चीज या बात जिससे कोई कार्य पूरा या सिद्ध करने में सहायता मिलती हो। जरिया। वसीला। साधन। ३. वह जो किसी काम या बात में अनुकूल रहकर सहायक होता हो। ४. वह जो ऊपर से तटस्थ रहकर, परन्तु मन में कपट रखकर किसी का दुष्ट उद्देश्य सिद्ध करनें में सहायक होता हो। जैसे—वे दोनों सिद्ध साधक बनकर मेरे पास आये थे। पद—सिद्ध-साधक। (देखें) ५. न्याय में, वह लक्षण जिसके आधार पर कोई बात सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। हेतु। ६. भूत-प्रेत आदि को साधने या अपने वश में करनेवाला। ओझा। ७. पुत्रजीव नामक वृक्ष। ८. दमनक। दौना। ९. पित्त।
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साधकता  : स्त्री० [सं० साधक+तल्—टाप्] १. साधक होने की अवस्था या भाव। २. उपयुक्तता। ३. उपयोगिता।
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साधकत्व  : पुं० [पुं० साधक+त्व] १. साधकता। २. जादू या बाजीगरी। ३. सिद्धि।
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साधन  : पुं० [सं०] [वि० साधनिक, साध्य, भू० कृ० साधित, कर्ता साधक] १. किसी कार्य का आरंभ करके उसे सिद्ध या पूरा करना। २. आज्ञा, निर्णय आदि के अनुसार किसी काम या बात को उचित और पूरा रूप देना। कार्यान्वित करना। पालन करना। ३. विधिक क्षेत्र में, आदेशों, लेख्यों, सूचनाओं आदि के अनुसार ठीक तरह से काम पूरा करना। निष्पादन। पालन। ४. अपने कार्यों का निर्वाह या अपने पद के कर्त्तव्यों आदि का पालन करना। ५. कोई चीज तैयार करने का सामान। सामग्री। ६. कोई ऐसी बात जिससे किसी प्रकार की क्षति, त्रुटि, दोष आदि का परिहार होता हो। उपचार। प्रतिविधि। ७. कोई काम पूरा करने में सहायता देनेवाली कोई चीज या सब चीजें। उपकरण। (इन्स्ट्रमेंट) ८. कोई ऐसी चीज या बात जिससे कुछ कर सकने की शक्ति या समर्थता आती हो। (मीन्स) जैसे—युद्ध करने के लिए सैनिक साधन। ९. वे सब जिनके सहारे कोई काम पूरा होता हो अथवा आवश्यकता पड़ने पर जिनका उपयोग किया जा सकता हो। (रिसोसेंज) १॰. कोई ऐसा तत्त्व या वस्तु जिसके द्वारा या सहायता से काम पूरा होता हो। (एजेन्सी) ११. वैद्यक में, औषध बनाने के लिए धातुएँ आदि फूँकने और शोधने का काम। १२. उपाय। तरकीब। युक्त। १३. मदद। सहायता। १४. कारण। सबब। १५. धन-संपत्ति। दौलत। १६. पदार्थ। वस्तु। १७. प्रमाण। सबूत। १८. जाना। गमन। १९. उपासना। २॰. संधान। २१. मृतक का अग्नि-संस्कार। दाह-कर्म। २२. दे० ‘साधना’।
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साधन-क्रिया  : स्त्री० [सं०] समापिका क्रिया। (दे०)
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साधनता  : स्त्री० [सं०] १. साधन का धर्म या भाव। २. साधन की क्रिया। साधना।
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साधनहार  : वि० [सं० साधन+हिं० हार (प्रत्य०)] १. साधने करने या साधनेवाला। साधक। २. जो साध या सिद्ध किया जा सके। साध्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साँधना  : स० [सं० संधान] निशाना साधना। लक्ष्य करना। संधान करना। स० [स० साधन] काम पूरा करना। स० [सं० सन्धि] १. आपस में मिलाकर एक करना। २. चीजों में जोड़ या टाँका लगाना।
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साधना  : स्त्री० [सं०] १. कोई कार्य सिद्ध या संपन्न करने की क्रिया। साधन। २. ऐसी आराधना तथा उपासना जो विशेष कष्ट सहन, परिश्रम तथा मनोयोगपूर्वक बहुत दिनों तक करनी पड़ती हो, अथवा जिसमें किसी विशिष्ट प्रकार की सिद्ध प्राप्त होती हो। जैसे—तंत्र या योग की साधना। ३. उक्त के आधार पर किसी बहुत बड़े तथा महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए विशेष त्याग, परिश्रम तथा मनोयोगपूर्वक बहुत दिनों तक किया जानेवाला प्रयत्न या प्रयास। जैसे—अधिकतर बड़े बड़े आविष्कार विशिष्ट साधना करने से होते हैं। स० [सं० साधना] १. विशेष परिश्रम तथा प्रयत्नपूर्वक निरंतर कोई कार्य करते हुए उसमें पारंगत या सिद्धहस्त होना। जैसे—योग साधना। २. किसी काम या बात का इस प्रकार अभ्यास करना कि वह ठीक तरह से, बहुत सहज में स्वाभाविक रूप से सम्पादित होने लगे। जैसे—दम साधना=दम या साँस रोकने का अभ्यास करना। ३. किसी चीज को ऐसी स्थिति में लाना कि वह ठीक तरह से और संतुलित रूप से अपने स्थान पर रहकर पूरा काम कर सके। जैसे—(क) गुड्डी या पतंग साधना=उसमें चिप्पी या पुल्ला लगाकर उसे संतुलित करना। (ख) तराजू या बटखरा साधना=यह देखना कि तराजू या बटखरा ठीक या पूरा तौलता है या नहीं। (ग) बाइसिकिल पर चढ़ने या रस्से पर चलने में शरीर साधना=शरीर को ऐसी अवस्था में रखना कि वह इधर-उधर गिरने न पाए। ४. शुद्ध या सत्य प्रमाणित करना। ५. निश्चित या पक्का करना। ठहराना। ६. किसी को अपनी ओर मिलाकर अपने अनुकूल या वश में करना। उदा०—गाधिराज को पुत्र साधि सब मित्र शत्रु बल।—केशव। स० [स० संधान, पु० हिं० संधानना] निशान लगाना। संधान करना।
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साधनिक  : वि० [स०] १. साधन-संबंधी। साधन का। २. किसी या कई प्रकार के साधनों से युक्त या सम्पन्न। ३. किसी राज्य या संस्था के प्रबंध, शासन या कार्य-साधन से सम्बन्ध रखनेवाला। कार्यकारी। अधिशासी। पुं० प्राचीन भारत में, एक प्रकार के राज-कर्मचारी जो सेना आदि के किसी उप-विभाग के व्यवस्थापक होते थे।
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साधनी  : स्त्री० [सं० साधन] १. लोहे या लकड़ी का एक औजार जिससे दीवार या जमीन की सतह की सीध नापते हैं। २. राज। मेमार। उदा०—बोलि साधनी-पुंज मंजु मंडप रचवायौ।—रत्ना०।
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साधनीय  : वि० [सं०] १. जिसका साधन हो सके। २. जिसकी साधना होने को हो। ३. जो साधना से प्राप्त किया जा सकता हो।
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साधयितव्य  : वि० [सं०√सिध् (गत्यादि)+णिच्-साधादेश, तव्य] (कार्य) जिसका साधन हो सकता हो।
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साधयिता  : वि० [सं०√सिध् (गत्यादि)+णिच्-साधादेश-तृच्] जो साधन करता हो। साधन करनेवाला। साधक।
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साधर्मिक  : पुं० [सं० सधर्म-ष० स०—ठक्-इक] किसी की दृष्टि से उसी के धर्म का दूसरा अनुयायी। सधर्मी।
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साधर्म्य  : पुं० [सं० सधर्म+ष्यञ्] समान धर्म से युक्त होने की अवस्था, गुण या भाव। एकधर्मता। समान-धर्मता। तुल्य-धर्मता। जैसे—इनमें कुछ भी साधर्म्य नहीं है।
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साधस  : पुं० दे० ‘साध्वस’।
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साँधा  : पुं० [सं० संधि] दो रस्सियों आदि में दी हुई गाँठ। (लश०) क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।
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साधार  : वि० [सं०] १. (रचना) जो आधार या नींव पर स्थित हो। २. कथन, विचार आदि जिसका कुछ या कोई आधार हो। तथ्यपूर्ण।
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साधारण  : वि० [सं० साधारण, अव्य० स०—अण्] १. जैसा साधारणतः जब जगह पाया जाता अथवा होता हो। आम। (यूजुअल) २. जिसमें औरों की अपेक्षा कोई विशेषता न हो। (कॉमन) ३. प्रकार, प्रकृति, रूप आदि के विचार से जैसा सब जगह होता हो, वैसा। प्रकृत। सहज। ४. जिसमें कोई बहुत बड़ी उत्कृष्टता या विशेषता न हो, फिर भी जो अच्छे या बढ़िया से हलके दरजे का हो। मामूली। (आर्डिनरी) ५. जो प्रायः सभी लोगों के करने या समझने के योग्य हो। सरल। सहज। सुगम। ६. तुल्य। सदृश। समान। ७. दे० ‘सामान्य’। पुं० १. भावप्रकाश के अनुसार ऐसा प्रदेश जहाँ जंगल अधिक हों, रोग अधिक होते हों, और जाड़ा तथा गरमी भी अधिक पड़ती हो। २. उक्त प्रकार के देश का जल।
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साधारण गांधार  : पुं० [सं० कर्म० स०] संगीत में, एक प्रकार का विकृत स्वर जो वजिका श्रुति से आरम्भ होता है। इसमें तीन श्रुतियाँ होती हैं।
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साधारण धर्म  : पुं० [सं०] १. ऐसा कर्त्तव्य, कर्म या कार्य जो साधारणतः और समान रूप से सबके के लिए बना हो। २. ऐसी कर्तव्य, कर्म या धर्म जिसका विधान किसी वर्ग के सब लोगों के हुआ हो। ३. ऐसा गुण, तत्त्व या धर्म जो साधारणतः किसी प्रकार के सब पदार्थों आदि में समान रूप से पाया जाता हो। विशेष—साधारणीकरण ऐसे ही गुणों, तत्त्वों के आधार पर किया जाता है।
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साधारण निर्वाचन  : पुं० [सं०] वह निर्वाचन जिसमें हर चुनाव क्षेत्र से प्रतिनिधि चुने जाते हों। आम-चुनाव। (जनरल इलेक्शन)
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साधारण वाक्य  : पुं० [सं०] व्याकरण में, तीन प्रकार के वाक्यों में से पहला जो प्रायः बहुत छोटा होता है और जिसमें एक कर्ता और एक क्रिया (सकर्मक होने पर क्रिया के साथ कर्म भी) होती है। (वाक्य के शेष दो प्रकार मिश्र और संयुक्त कहलाते हैं)।
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साधारणतः  : अव्य० [सं०]=साधारणतया।
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साधारणतया  : अव्य० [सं० साधारण+तल्—टाप्-टा] साधारण रूप से। आमतौर पर। साधारणतः।
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साधारणता  : स्त्री० [सं० साधारण] साधारण होने की अवस्था, गुण धर्म या भाव।
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साधारणीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० साधारणीकृत] १. हमारे प्राचीन साहित्य में, रस-निष्पत्ति की वह स्थिति जिसमें दर्शक या पाठक कोई अभिनय देखकर या काव्य पढ़कर उससे तादात्मय स्थापित करता हुआ उसका पूरा-पूरा रसास्वादन करता है। विशेष—यह वही स्थिति है जिसमें दर्शक या पाठकों के मन में ‘मैं’ और ‘पर’ का भाव दूर हो जाता है और वह अभिनय या काव्य के पात्रों या भावों में विलीन होकर उनके साथ एकात्मता स्थापित कर लेता है। २. आज-कल एक ही प्रकार के बहुत से विशिष्ट गुणों, तत्त्वों आदि के आधार पर किसी विषय में कोई ऐसा साधारण नियम या सिद्धांत स्थिर करना जो उन सब गुणों या तत्त्वों पर समान रूप से प्रयुक्त हो सके। ३. किसी सामान्य गुण या धर्म के आधार पर अनेक गुणों, तत्त्वों आदि को एक तल रक एक वर्ग में लाना। गुणों आदि के आधार पर समानता निरूपित करना। (जेनरलाइज़ेशन)
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साधारण्य  : पुं० [सं० साधारण+ष्यञ्]=साधारणता।
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सांधि-विग्रह  : पुं० [सं० संधि-विग्रह, द्व० स० ठन्—क] प्राचीन भारत में, वह राजकीय अधिकारी जिसे दूसरे राज्यों के साथ संधि और विग्रह करने का अधिकार होता था।
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सांधिक  : पुं० [सं० संधा+ठक्—इक] वह जो मद्य बनाता या बेचता हो। शौंडिक। वि० सन्धि या मेल करानेवाला।
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साधिका  : वि० स्त्री० [सं०√सिध् (गत्यादि)+षिच्—साधादेश-ण्वुल्—अक, टाप्] सं० ‘साधक’ का स्त्री०। स्त्री० गहरी नींद।
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साधिकार  : अव्य० [सं०] १. अधिकारपूर्वक। २. अधिकारपूर्वक रूप से। (ऑथॉरिटेटिव्ली) वि० १. जिसे कोई अधिकार प्राप्त हो। २. अधिकारपूर्वक या अधिकारिक रूप से कहा या किया हुआ। (ऑथॉरिटेटिव) जैसे—साधिकार घोषणा।
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साधित  : भू० कृ० [सं०√सिध् (गत्यादि)+णिच्-साधादेश-क्त] १. जिसका साधन किया गया हो। सिद्ध किया गया हो। सिद्ध किया हुआ। २. (काम) जो पूरा सिद्ध किया गया हो। ३. जिसे दंड दिया गया हो। दंडित। ४. शुद्ध किया हुआ। शोधित। ५. नष्ट किया हुआ। ६. (ऋण या देन) जो चुका दिया गया हो। शोधित।
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साधित्र  : पुं० [सं०] कोई ऐसी वस्तु या साधन जिसकी साहयता से कोई काम पूरा किया जाता हो। उपकरण। (एपरेटस)
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साधी (धिन्)  : वि० [सं०√गत्यादि+णिनि—साधादेश] साधक। वि० [हिं० साधक या साधना=सिद्ध करना] किसी के दुष्ट उद्देश्य की सिद्धि में सहायक होनेवाला। साधक। उदा०—जो सो चोर, सोई साधी।—कबीर।
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साधु  : वि० [सं०] [भाव० साधुता, स्त्री० साध्वी] १. अच्छा। भला। २. जिसमें कोई आपत्तिजनक बात या दोष न हो; फलतः ग्राह्य और प्रशंसनीय। ३. सच्चा। ४. चतुर। निपुण। होशियार। ५. उपयुक्त। योग्य। ६. उचित। मुनासिब। वाजिब। अव्य० १. बहुत अच्छा किया या बहुत अच्छा हुआ। मुहा०—साधु साधु कहना=किसी के कोई अच्छा काम करने पर उसकी बहुत प्रशंसा करना। २. बहुत ठीक, ऐसा ही किया जाय अथवा ऐसा ही हो। ३. बस बहुत हो चुका, अब रहने दो। पुं० १. वह जिसका जन्म उत्तम कुल में हुआ हो। कुलीन। आर्य। २. वह जिसकी कोई साधना, विशेषतः आध्यात्मिक या धार्मिक साधना पूरी हो चुकी हो। सिद्ध। ३. वह धार्मिक, परपोकारी और सदाचारी व्यक्ति जो धर्म, सत्य आदि का उपदेश करके दूसरों का कल्याण करता हो। महात्मा। संत। ४. वह जो सांसारिक प्रपंच छोड़कर त्यागी और विरक्त हो गया हो। ५. बहुत ही शांत भाव से से रहनेवाला सदाचारी और सुशील व्यक्ति। बहुत ही भला आदमी। सज्जन। ६. वणिक। व्यापारी। ७. वह जो लोगों को धन आदि उधार देकर उनके ब्याज या सूद से अपना निर्वाह करता हो। महाजन। साहु। ८. जैन यति, मुनि या साधु। ९. जि देवय १॰. दौना नामक पौधा। दमनक। ११. वरुण वृक्ष।
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साधु-वृत्त  : वि० [सं०] उत्तम स्वभाव और चरित्रवाला। साधु आचरण करनेवाला।
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साधु-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] उत्तम और श्रेष्ठ आचरण तथा वृत्ति।
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साधु-साधु  : अव्य० [सं०] साधुवाद का सूचक पद। धन्य-धन्य।
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साधुकारी (रिन्)  : वि० [सं० साधु√कृ (करना)+णिनि] जो उत्तम कार्य करता हो। अच्छे काम करनेवाला।
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साधुज  : वि० [सं०] जिसका जन्म उत्तम कुल में हुआ हो। कुलीन।
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साधुजात  : वि० [सं०] १. सुन्दर। खूबसूरत। २. चमकीला। उज्जवल। ३. साफ। स्वच्छ। ४. कुलीन।
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साधुता  : स्त्री० [सं० साधु+तल्—टाप्] १. साधु होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव। साधुपन। २. भलमनसाहत। सज्जनता। ३. नेकी। भलाई। ४. सीधापन। सिधाई।
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साधुत्व  : पुं० [सं० साधु+त्व]=साधुता।
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साधुमती  : स्त्री० [सं० साधु-मतु, ङीप्] तांत्रिकों की एक देवी। ३. दसवीं पृथ्वी। (बौद्ध)
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साधुवाद  : पुं० [सं०] १. किसी के कोई उत्तम कार्य करने पर ‘‘साधु साधु’’ कहकर उसकी प्रशंसा करना। २. उक्त रूप में की हुई प्रशंसा या कही हुई बात।
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साधू  : पुं० [सं० साधु] १. महात्मा और संत पुरुष। २. विरक्त और संसार त्यागी व्यक्ति।
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साधो  : पुं० [सं० साधु] हिं० ‘साधु’ का सम्बोदन कारक का रूप। जैसे—कहे कबीर सुनो भई साधो।—कबीर।
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सांध्य  : वि० [सं०] १. संध्या-संबंधी। संध्या का। २. संध्या के समय होनेवाला।
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साध्य  : वि० [सं०] १. (कार्य) जिसका साधन हो सके। जो सिद्ध या पूरा किया जा सके। जैसे—यह कार्य सबके लिए साध्य नहीं है। २. आसान। सहज। सुगम। ३. तर्क या न्याय में, (पक्ष या विषय) जो प्रमाणित किया जाने को हो। ४. वैद्यक में, (रोग) जो चिकित्सा के द्वारा दूर किया जा सकता हो। ५. (काम या बात) जिसका प्रतिकार हो सकता हो अथवा किया जा सकता हो। ६. (विषय) जो प्रयत्न करने पर जाना जा सकता हो। पुं० १. कोई काम पूरा कर सकने की योग्यता या शक्ति। सामर्थ्य। जैसे—यह काम हमारे साध्य के बाहर है। २. न्याय में, वह पदार्थ जिसका अनुमान किया जाय। जैसे—पर्वत से धुँआ निकलकता है अतः वहाँ अग्नि है। यहाँ अग्नि साध्य है, जिसका अनुमान किया गया है। ३. इक्कीसवाँ योग। (ज्यो०) ४. गुरु से लिये जानेवाले चार प्रकार के मंत्रों में से एक प्रकार का मंत्र। (तंत्र) ५. एक प्रकार के गण देवता जिनकी संख्या १२ है। ६. देवता।
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सांध्य कुसुमा  : स्त्री० [सं०] ऐसी वनस्पतियाँ या बेलें जो संध्या के समय फूलती हों।
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सांध्य गोष्ठी  : स्त्री० [सं०] संध्या के समय आमंत्रित मित्रों की गोष्ठी जिसमें जलपान भी होता है। इवनिंग पार्टी)
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साध्य प्रकाश  : पुं० [सं०] सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय दिखलाई पड़नेवाला धुँधला प्रकाश।
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साध्यता  : स्त्री० [सं० साध्य+तल्—टाप्] साध्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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साध्यवसान रूपक  : पुं० [सं०] साहित्य में, रूपक अलंकार का वह प्रकार या भेद जो साध्यवासना लक्षणा से युक्त होता है। (एलिगोरी)
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साध्यवसानिका  : स्त्री०=साध्यवसाना (लक्षणा)।
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साध्यवसाय  : वि० [सं० स० ब०] (उक्ति या कथन) जो साध्यवसाना लक्षणा से युक्त हो।
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साध्यवान् (वत्)  : वि० [सं० साध्य+मतुप् म=व] (व्यवहार में, वह पक्ष) जिस पर अपना कथन या मत प्रमाणित करने का भार हो।
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साध्यवासना  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, लक्षणा का वह प्रकार या भेद जिसमें स्वयं उपमान में उपमेय का अध्यवसाय या तादात्म्य किया जाता अर्थात् उपमेय को बिलकुल हटाकर केवल उपमान इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि उपमेय से उसका कोई अंतर या भेद नहीं रह जाता। जैसे—किसी परम मूर्ख विषय में कहना—यह तो गधा (या बैल) है। उदा०—अद्भुत् एक अनूप बाग। जुगल कमल पर गज क्रीडत है, तापर सिंह करत अनुराग।...फल पर पुहुप, पहुप पर पल्लव ता पर सुक, पिक, मृग-मद काग। इसमें केवल उपमानों का उल्लेख करके राधा के सब अंगों के सौंदर्य का वर्णन किया है।
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साध्यसम  : पुं० [सं०] भारती नैयायिकों के अनुसार पाँच प्रकार के हेत्वाभासों में से एक, जिसमें किसी हेतु को साध्य के ही समान सिद्ध करने की आवश्यकता होती है। जैसे—यदि कहा जाय ‘‘छाया भी द्रव्य है क्योंकि उसमें द्रव्यों के ही समान गति होती है।’’ तो यहाँ यह सिद्ध करना आवश्यक होगा कि स्वतः छाया में गति होती है।
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साध्याभक्ति  : स्त्री०=परा-भक्ति। (देखें)
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साध्र  : स्त्री०=साध (कामना)। उदा०—रमण रोक मनि साध्र रही।—प्रिथीराज।
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साध्वस  : पुं० [सं०] १. भय। डर। २. घबराहट। ३. बेचैनी। विकलता। ४. प्रतिभा।
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साध्वाचार  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. साधुओं का सा आचार और व्यवहार। २. शिष्टाचार।
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साध्वी  : वि० [सं० साधु-ङीप्] १. भली तथा शुद्ध आचरणवाली (स्त्री)। २. परित्याग। पतिव्रता। पद—सती-साध्वी। (दे०) स्त्री० मेदा (ओषधि)।
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सान  : पुं० [सं० शाण] १. प्रायः चक्की के पाट के आकार का वह कुरुंड पत्थर जिस पर रगड़कर धारदार औजारों और हथियारों की धार चोखी या तेज और साफ की जाती है। (ह्वटस्टोन) मुहा०—(किसी चीज पर) सान देना, धरना या रखना=उक्त पत्थर पर रगड़कर औजारों की धार चोखी या तेज करना। २. प्रायः चक्कर के आकार का वह यंत्र जिसमें उक्त पत्थर लगा रहता है और जिसे तेजी से घुमाते हुए औजारों आदि पर सान रखते हैं। पुं० [सं० संज्ञपन] संकेत। इशारा। (पूरब) उदा०—काहु के पान काहु दिन सान।—विद्यापति। पद—सान-गुमान=किसी काम या बात का बहुत ही अल्प रूप में हो सकनेवाला अनुमान या नाम मात्र को हो सकनेवाली कल्पना। जैसे—मुझे तो इस बात का कोई सान-गुमान ही नहीं था कि वह चोर निकलेगा। स्त्री०=शान (ठाट-बाट)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सानंद  : वि० [सं० स+आनंद] जो आनन्द से युक्त हो। जैसे—यहाँ सब लोग सानंद हैं। अव्य० आनंद या प्रसन्नतापूर्वक। जैसे—आप सानंद वहाँ जा सकते हैं। पुं० १. एक प्रकार की संप्रज्ञात समाधि। २. संगीत में, १६ प्रकार के ध्रुवकों में से एक जिसका व्यवहार प्रायः वीर रस के वर्णन में होता है। ३. गुच्छ करंज।
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सानना  : स० [हिं० सानना का स०] १. दो वस्तुओं को आपस में मिलाना विशेषतः चूर्ण आदि का तरल पदार्थ में मिलाकर गीला करना। गूँधना। जैसे—आटा सानना। मसाला सानना। २. मिश्रित करना। मिलाना। ३. लाक्षणिक रूप में, किसी को उत्तरदायी या दोषी हराने के उद्देश्य से कोई ऐसा काम करना या ऐसी बात कहना कि दूसरों की दृष्टि में वह (दूसरा व्यक्ति) भी किसी अपराध या दोष में सम्मिलित जान पड़े। जैसे—आप तो व्यर्थ ही मुझे इस मामले में सानते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) संयों० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। स० [हिं० सान+ना (प्रत्य०)] सान पर चढ़ाकर धार तेज करना। (क्व०)
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सानल  : वि० [सं० तृ० त०] १. अग्नि-युक्त। २. कृतिका नक्षत्र से युक्त।
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साना  : अ० [सं० शांत] १. शांत होना। २. समाप्त होना। न रह जाना। उदा०—कृपा-सिंधु बिलोकिए जन मन की साँसति सान।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० १. शांत करना। २. नष्ट करना। ३. समाप्त करना।
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सानी  : स्त्री० [हिं० सान (ना)+ई (प्रत्य०)] १. गौओं, बैलों, बकरियों आदि को खली-कराई में सानकर दिया जानेवाला भूसा। पद—सानी-पानी=खली-कराई और भूसे को एक में मिलाना। २. अनुपयुक्त रूप से एक में मिलाये हुए कई प्रकार के खाद्य पदार्थ। स्त्री० [?] गाड़ी के पहिये में लगाई जानेवाली गिट्टक। वि० [अ०] १. दूसरा। द्वितीय। जैसे—औरंगजेब सानी। २. जोड़ का। बराबरी का। तुल्य। समान। पद—ल-सानी=अद्वितीय। अतुल्य। स्त्री०=सनई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सानु  : पुं० [सं०] १. पर्वत की चोटी। शिखर। २. छोर। शिरा। ३. समतल भूमि। चौरस मैदान। ४. जंगल। वन। ५. मार्ग। रास्ता। ६. पेड़ का पत्ता। पर्ण। ७. सूर्य। ८. पंडित। विद्वान्। वि० [?] १. लंबा-चौड़ा। चौरस। सपाट।
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सानुकंप  : वि० [सं० ब० स०] जिसके मन में अनुकंपा या दया हो। दयालु। क्रि० वि० अनुकंपा या दया करते हुए।
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सानुकूल  : वि० [सं० तृ० त०] पूरी तरह से अनुकूल।
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सानुज  : पुं० [सं० सानु√जन् (उत्पन्न करना)+ज, तृ० त०] १. प्रपौंड्रीक वृक्ष। पुंडेरी। २. तुंबुरु नामक वृक्ष। अव्य० अनुज सहित। छोटे भाई के साथ।
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सानुनजय  : वि० [सं० तृ० त०] विनयशील। शिष्ट। अव्य० अनुनय या विनयपूर्वक।
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सानुनासिक  : वि० [सं० तृ० त०] १. (अक्षर या वर्ण) जिसके उच्चारण के समय मुँह के अतिरिक्त नाक से अनुस्वारात्मक ध्वनि निकलती हो। २. नकियाकर गाने या बोलनेवाला।
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सानुप्रास  : वि० [सं० अव्य० स०] अनुप्रास से युक्त। अव्य० अनुप्रास सहित।
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सानुमान् (मत्)  : पुं० [सं० सानु+मतुप्] पर्वत।
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सानो  : पुं० [?] सूअर की तरह का एक प्रकार का जंगली जानकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सान्नयासिक  : पुं० [सं० सन्नयास+ठक्—इक]=संन्यासी।
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सान्नाहिक  : पुं० [सं० सन्नाह+ठञ्-इक्] जो सन्नाह पहने हो। कवचधारी।
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सान्निध्य  : पुं० [सं० सन्निध+यज्] १. वह अवस्था जिसमें दो या अधिक जीव या वस्तुएँ साथ-साथ रहती हैं। २. सन्निध्य होने अर्थात् निकट या समीप होने की अवस्था या भाव। निकटता। समीपता। ३. वह स्थिति जिसमें यह माना जाता है कि आत्मा चलकर ईश्वर के पास पहुँच गई है।
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सान्निपातकी  : स्त्री० [सं० सन्निपात+ठञ्—इक—ङीप्] वैद्यक में, एक प्रकार का योनि-रोग जो त्रिदोष से उत्पन्न होता है।
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सान्निपातिक  : वि० [स०] १. सन्निपात-संबंधी। सन्निपात का। २. त्रिदोष के कारण उत्पन्न होनेवाला (रोग)।
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सान्वय  : वि० [सं० अव्य० स०] १. किसी विशिष्ट अर्थ से युक्त। २. वंशपरंपरा से आने या होनेवाला। आनुवंशिक। वंशानुगत। अव्य० परिवार अथवा वंशजों के साथ।
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साँप  : पुं० [सं० सर्प, प्रा० सप्प] [स्त्री० साँपिन] एक प्रसिद्ध रेंगनेवाला जंतु जो काफी लंबा होता है तथा बिलों, पेड़ों आदि में रहता है। विशेष—इनकी हजारों जातियाँ होती हैं, जिनमें से अधिकतर ऐसी होती हैं जिनके काटने से जीव मर जाते हैं। अगजर, नाग आदि जंतु इसी वर्ग के होते हैं। पद—साँप की लहर=पृथ्वी पर का चिन्ह जो साँप के चलने से बनता है। साँप की लहर=साँप के काटने से उसके जहर के कारण शरीर में होनेवाली वह बेहोशी जिसमें आदमी लहरों की तरह छटपटाता रहता है। साँप के मुँह में=बहुत ही जोखिम या साँसत की स्थिति में। मुहा०—साँप की तरह केंचुली झाड़ना या बदलना= (क) पुराना भद्दा-रूप छोड़कर नया सुन्दर रूप धारण करना। (ख) जैसे समय देखना, वैसा रूप बनाना, या वैसा आचरण-व्यवहार करना। साँप खेलाना=मंत्र बल से या और किसी प्रकार साँप को पकड़ना और उससे क्रीड़ा करना। सांप-छछूँदर की दशा होना=ऐसी विकट स्त्रिति में पड़ना कि दोनों ओर घोर संकट की संभावना हो। विशेष—लोक में ऐसा प्रवाद है कि साँप यदि छछूँदर को एक बार मुँह में पकड़ ले तो उसके लिए छछूंदर को छोड़ना भी घातक होता है और निगलना भी, क्योंकि उसे उगलने पर वह अंधा हो जाता है और निगलने पर कोढ़ी हो जाता है। मुहा०—(किसी को) साँप सूँघ जाना= (क) साँप का काट लेना जिससे आदमी प्रायः मर जाता है। (ख) किसी का इस प्रकार बेसुध होकर पड़ जाना कि मानों उसे सांप ने काट लिया हो और वह बेहोश होकर मरणासन्न हो रहा हो। (किसी के) कलेजे पर साँप लोटना=ईर्ष्याजन्य घोर कष्ट होना। अत्यन्त दुःख होना। २. आतिशबाजी में वह दाना जो जलाये जाने पर साँप की तरह लंबा होता जाता है। ३. वह व्यक्ति जो समय का लाभ उठाकर विश्वासघात करने से भी न चूकता हो।
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साप  : पुं०=शाप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साँप-धरन  : पुं० [हिं० साँप+धरना] सर्पधारण करनेवाले, शिव। महादेव।
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साँपड़ना  : अ० [सं० संप्रापण] प्राप्त होना। मिलना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)अ० [सं० संपूर्ण] काम पूरा करके निवृत्त होना। सपरना। उदा०—साँपड़ किया असनान सूरज सारी जप कर।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांपत्तिक  : वि० [सं०] संपत्ति से संबंध रखनेवाला। संपत्ति का। जैसे—सांपत्तिक व्यवस्था।
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सापत्नेय  : वि० [सं० सपत्नि+ठक्—एय] सपत्नी से उत्पन्न। सौतेला।
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सापत्न्य  : पुं० [सं० सपत्न+ष्यञ्] १. सपत्नी होने की अवस्था, धर्म या भाव। सौतपन। २. सपत्नियों में होनेवाली द्वेष-भावना, लाग-डाँट या स्पर्धा। ३. सपत्नी या सौत का लड़का। ४. दुश्मन शत्रु।
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सापत्न्यक  : पुं० [सं० सापत्न्य+कन्] १. सपत्नियों में होनेवाली प्रतिद्वंद्विता या लाग-डाँट का भाव। २. शत्रुता।
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सापत्य  : वि० [सं०] १. जिसके आगे संतान हो। २. जो अपनी संतान के साथ हो।
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सांपद  : वि० [सं० साम्पद] संपदा-सम्बन्धी। संपदा का।
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सापन  : पुं० [?] सिर के बाल के झगड़ने का एक रोग।
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सापना  : स० [सं० शाप, हिं० साप+ना (प्रत्य०)] १. शाप देना। कोसना। उदा०—सापत ताड़क परुष कहन्ता।—कबीर। २. गालियाँ देना। दुर्वचन कहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सापल  : वि० [सं० सपल+अण्] १. सपत्नी या सौत सम्बन्धी। २. सौत से उत्पन्न। सौतेला। पुं० सौत के लड़के-बाले। सौत की सन्तान।
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सापवाद  : वि० [सं०] (नियम या सिद्धान्त) जिसके अपवाद भी हों।
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सापह्नवातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, अतिश्योक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें रूपकातिशयोक्ति के साथ अपह्रति भी मिली रहती है। इसे कुछ लोग रूपकातिशयोक्ति के अंतर्गत और कुछ लोग परिसंख्या के अंतर्गत भी मानते हैं।
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सांपातिक  : वि० [सं० संपात+ठञ्—इक] १. संपात-संबंधी। संपात का। २. संपात काल में होने अथवा संपात काल से संबंध रखनेवाला। (ज्योतिष)
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सापिंड्य  : पुं० [सं० सपिंड+ष्यज्] सपिंड होने की अवस्था या भाव। वे लोग जो किसी एक ही पितर को पिंड-दान करते हों।
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साँपिन  : स्त्री० [हिं० साँप+इन (प्रत्य०)] १. साँप की मादा। २. साँप के आकार की एक प्रकार की भौंरी या शारीरिक चिन्ह जो सामुद्रिक के अनुसार बहुत शुभ माना जाता है। ३. बहुत अधिक दुष्ट या विश्वासधातिनी स्त्री०।
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साँपिया  : वि० [हिं० साँप+इया (प्रत्य०)] साँप के रंग का मैलापन लिये काले रंग का। पुं० उक्त प्रकार का काला रंग।
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सापुरस  : पुं० [सं० स+पुरुष] शूरवीर। उदा०—सिंह सीचाणो सापुरस।—जटमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सापेक्ष  : वि० [सं० तृ० त०] १. जिसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का आक्षेप या आपत्ति की जा सकती हो। २. आक्षेप ताने या व्यंग्य से युक्त (कथन)। क्रि० वि० आक्षेपपूर्वक।
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सापेक्ष  : वि० [सं०] [भाव० सापेक्षता] १. जो किसी दूसरे तत्त्व, विचार, दृष्टिकोण आदि से संबद्ध होने के कारण उसकी उपेक्षा रखता हो। बिना किसी दूसरे संबद्ध अंग को ठीक या पूरा न होनेवाला। (रिलेटिव) २. किसी की अपेक्षा करनेवाला।
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सापेक्षता  : स्त्री० [सं०] १. सापेक्ष होने की अवस्था या भाव। २. सुप्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक आइन्स्टीन का सिद्धान्त जिसमें विश्व-संबंधी पुराने गुरुत्वाकर्षण आदि के सिद्धान्तों का खंडन करके यह सिद्ध किया गया है कि विश्व की सारी गति सापेक्ष है। (रिलेटिविटी)
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सापेक्षवाद  : पुं० [सं०] पुं० [सं०] १. वह वाद या सिद्धान्त जिसमें दो बातों या वस्तुओं को एक दूसरी का अपेक्षक माना जाता है। २. दे० ‘सापेक्षता’।
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सापेक्षवादी  : वि० [सं०] सापेक्षवाद-संबंधी। पुं० सापेक्षवाद के सिद्धांतों का अनुयायी या समर्थक।
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सांपेक्षिक  : वि० [सं० संक्षेप+ठञ्—इक] १. संक्षिप्त। २. संकुचित।
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सापेक्षिक  : वि० [सं०]=सापेक्ष।
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साप्ततंतव  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन धार्मिक संप्रदाय।
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साप्तपदीन  : वि० [पुं० सं० सप्तपद-खज्—ईन]=साप्तपद।
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साप्तप्रद  : वि० [सं० सप्तपद+अण्] सप्तपदी-संबंधी। पुं० १. सप्तपदी। २. मैत्री। ३. घनिष्ठता।
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साप्तमिक  : वि० [सं० संप्तमी+ठक्—इक] सप्तमी-संबंधी। सप्तमी का।
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साप्तहिक  : वि० [सं० सप्ताह+ठञ्-इक] १. सप्ताह-संबंधी। २. सातस दिनों तक लगातार चलनेवाला। जैसे—साप्तहिक समारोह। ३. सप्ताह में एक बार होनेवाला। हर सातवें दिन होनेवाला। जैसे—साप्ताहिक पत्र। साप्ताहिक छुट्टी। पुं० वह पत्र जिसका प्रकाशन हर सातवें दिन होता हो।
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सांप्रत  : अव्य० [सं० साम्प्रत] १. इसी समय। अभी। तत्काल। २. इस समय। आज-कल। ३. उचित। उपयुक्त। ४. सामयिक। वि० किसी के साथ मिला हुआ। युक्त।
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सांप्रतिक  : वि० [सं०] १. जो इस समय या आवश्यकता को देखते हुए ठीक और उपयुक्त हो।
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सांप्रदायिक  : वि० [सं०] [भाव० सांप्रदायिकता] १. संप्रदाय-संबंधी। संप्रदाय का। २. किसी विशिष्ट संप्रदाय से ही संबद्ध रहकर शेष संप्रदायों का विरोध करने या उनसे द्वेष रखनेवाला। ३. विभिन्न संप्रदायों के पारस्परिक विरोध के फलस्वरूप होनेवाला। (कम्यूनल; उक्त सभी अर्थों में)
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सांप्रदायिकता  : स्त्री० [सं०] १. सांप्रदायिक होने का भाव। २. केवल अपने संप्रदाय की श्रेष्ठता और हितों का विशेष ध्यान रकना और दूसरे संप्रदायों के द्वेष रखना। (कम्यूनलिज़्म)
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साफ  : वि० [अ० साफ़] [भाव० सफाई] १. जिस पर या जिसमें कुछ भी धूल, मैल आदि न हो। निर्मल। ‘गंदा’ या ‘मैला’ का विपर्याय। जैसे—साफ कपड़ा, साफ पानी, साफ शीशा। २. जो दोष, विकार आदि से रहित हो। जैसे—साफ तबियत, साफ दिल, साफ हवा। ३. जिसमें किसी प्रकार का खोट या मिलावट न हो। खालिश। जैसे—साफ दूध, साफ सोना। ४. जिसका तल ऊबड़-खाबड़, गाँठदार या शाखा-प्रशाखाओं से युक्त न हो। समतल। जैसे—साफ रास्ता, साफ लकड़ी। ५. जिसकी बनावट।, रचना, रूप आदि में कोई त्रुटि या दोष न हो। जैसे—साफ तसवीर, साफ लिखावट। ६. जिसमें किसी प्रकार का छल, कपट या धोखा-धड़ी न हो। नैतिक दृष्टि से बिलकुल ठीक और छल, कपट या धोखा-धड़ी न हो। नैतिक दृष्टि से बिलकुल ठीक और शुद्ध। जैसे—साफ बरताव, साफ मामला, साफ लेन-देन। ७. जो इतना स्पष्ट हो कि उसके संबंध में किसी प्रकार का भ्रम या संदेह न रह गया हो। जैसे—अभी बात साफ नहीं हुई। ८. जिसमें किसी प्रकार का अंधकार या धुँधलापन न हो। देखने में निर्मल और स्वच्छ। जैसे—साफ आसमान, साफ रोशनी। ९. (कार्य) जिसके सम्पादन में अनुचित या नियम-विरुद्ध बात न हो। जैसे—साफ खेल, साफ लेन-देन। १॰. (उक्ति या कथन) जिसमें किसी प्रकार का छिपाव या दुराव न हो। निश्चल और स्पष्ट रूप से कहा हुआ। जैसे—साफ इन्कार, साफ जवाब। पद—साफ और सीधा= (क) स्पष्ट और बाधाहीन। (ख) स्पष्ट और उपयुक्त। मुहा०—साफ साफ सुनाना=बिलकुल स्पष्ट और ठीक बात कहना। खरी बात कहना। ११. जो स्पष्ट सुनाई पड़े या समझ में आवे। जिसके समझने या सुनने में कोई कठिनाई न हो। जैसे—साफ आवाज, साफ खबर, साफ प्रतिलिपि। १२. जिसके तल पर कुछ भी अंकित न हो। जैसे—साफ कागज। १३. जिसमें कुछ भी तत्त्व या दम न रह गया हो। जैसे—(क) मुकदमे में उन्हें पूरी तरह से साफ कर दिया। (ख) हैजे में गाँव के गाँव साफ हो गये। १४. जिसका पूरी तरह से अंत कर दिया गया हो। समाप्त किया हुआ। जैसे—(क) इस लड़ाई में दोनों तरफ की बहुत सी फौज साफ हो गई। (ख) कुछ ही दिनों मे उसने घर का सारा माल साफ कर दिया। १५. (ऋण या देन) जो पूरी तरह से चुका दिया गया हो। चुकता किया हुआ। जैसे—जब तक कर्ज साफ न कर लो, तब तक कुछ भी फजूल खरच मत करो। १६. जो अनावश्यक या रद्दी अंश निकालकर ठीक और काम में आने लायक कर दिया गया हो। जैसे—दस्तावेज का मसौदा साफ करना। अव्य० १. निश्चित और स्पष्ट रूप से। पूरी तरह से। जैसे—यह साफ जाहिर है कि किताब आप ही ले गये हैं। २. इस प्रकार कि किसी को कुछ पता न चल सके या कोई कुछ भी बाधक न हो सके। जैसे—कहीं से कोई चीज़ साफ उड़ा ले जाना। ३. इस प्रकार कि कुछ भी आँच न आने पाए। बिना कुछ भी कष्ट भागों या हानि सहे। जैसे—किसी संकट से साफ बच निकलना। ४. बिना लांछित हुए। निर्दोष भाव या रूप से। जैसे—किसी मुकदमे से साफ छूटना। ५. निरा। बिलकुल। जैसे—यह तो साफ झूठ या (बेईमानी) है।
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साफल्य  : पुं० [सं० सफल+ष्यञ्] १. सफल होने की अवस्था या भाव। सफलता। २. कृतकार्यता। ३. प्राप्ति। लाभ।
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साफा  : पुं० [अ० साफ़] १. सिर पर बाँधने की पगड़ी। मुरेठा। मुड़ासा। २. पहनने के कपड़ों आदि में साबुन लगाकर उन्हें साफ करने की क्रिया। क्रि० प्र०—देना-लगाना। पद—साफा-पानी=नगर के बाहर कहीं एकान्त में बाहर जाकर भाँग पीने और कपड़ों में साबुन लगाकर उन्हें साफ करने की क्रिया। ३. शिकारी जानवरों को शिकार करने के लिए या कबूतरों को दूर तक उड़ने के लिए तैयार करने के उद्देश्य से उन्हें उपवास कराना कि उनका पेट साफ हो जाय और शरीर भारी न रहे। क्रि० प्र०—देना।
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साफी  : स्त्री० [अ० साफ़] १. हाथ में रखने का रूमाल। दस्ती। २. वह कपड़ा जिसमें पीसी और घोली हुई भाँग छानते हैं। ३. चिलम के नीचे लपेटा जानेवाला कपड़ा। ४. कपडे का वह टुकड़ा जिसकी सहायता से चूल्हें पर से बरतन उतारा जाता है। ५. एक प्रकार का रंदा। वि० १. साफ करनेवाला। २. खून साफ करनेवाला (औषध)।
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सांब  : पुं० [सं० साम्ब] १. अम्बा अर्थात् पार्वती सहित शिव। २. कृष्ण के एक पुत्र जो जाम्बवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
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साबड़  : पुं० साबर (चमड़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबत  : पुं० [सं० सामंत] सामंत। सरदार। (डिं०) वि०=साबुत (समूचा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबति  : स्त्री० [अ० साबूत=पूरा] साबुत या पूरे होने की अवस्था या भाव। पूर्णता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० दे० ‘साबुत’।
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सांबंधिक  : वि० [सं० संबंध+ठक्—इक] संबंध का। संबंधी। पुं० किसी की पत्नी का भाई। साला।
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सांबपुर  : पुं० [सं साम्बीपुर] पाकिस्तान के मुलतान नगर का प्राचीन नाम।
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सांबपुराण  : पुं० [सं०] एक उपपुराण का नाम।
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साँबर  : पुं०=संबल (राह-खर्च)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सांबर  : पुं० [सं०] १. साँभर (हिरण)। २. साँभर (नमक)।
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साबर  : पुं० [सं० शंबर] १. साँभर मृग का चमड़ा, जो बहुत मुलायम होता है। २. शबर नामक जाति। ३. थूहड़। ४. मिट्टी खोदने की सबरी। ५. एक प्रकार का सिद्ध मंत्र, जो शिवकृत माना जाता है। स्त्री० साँभर (झील)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँबरी  : स्त्री० [सं० सांबर-ङीष्] १. सब को धोखे में रखनेवाली माया। २. इन्द्रजाल। जादूगरी।
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साबल  : पुं० [सं० शबर] बरछी। भाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबस  : पुं०=शाबास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबिक  : वि० [अ० साबिक़] पूर्व का। पहले का। पुराने समय का। पद—साबिक दस्तूर=ठीक पहले जैसा। वैसा ही।
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साबिका  : पुं० [अ० साबिक़] १. जान-पहचान। मुलाकात। २. लेन-देन आदि का व्यवहार या व्यावहारिक सम्बन्ध। सरोकार। वास्ता। मुहा०—किसी से साबिका पड़ना=ऐसी स्थिति आना कि लेन-देन, व्यवहार या और किसी प्रकार का निकट का सम्बन्ध हो।
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साबित  : वि० [फा०] १. सबूत (अर्थात् प्रमाण) द्वारा सिद्ध किया हुआ (तथ्य)। २. दृढ़। पक्का। पुं० वह नक्षत्र, तारा आदि जो एक स्थान पर स्थिर रहता हो। वि०=साबुत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबिर  : वि० [अ०] १. सब्र करनेवाला। २. सहन करनेवाला। सहनशील।
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साबुत  : वि० [फा० सबूत] १. जो संपूर्ण इकाई के रूप में हो। जैसे—साबुत आम, साबुत रोटी। २. समूचा। सारा। ३. ठीक। दुरुस्त। जैसे—काम साबुत उतरना। पुं०=सबूत (प्रमाण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=साबित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साबुन  : पुं० [अ०] तेल, सोड़े आदि के योग से रासायनिक क्रिया से प्रस्तुत किया हुआ एक प्रसिद्ध पदार्थ, जिससे शरीर के अंग और कपड़े आदि साफ किये जाते हैं। विशेष—साधारणतः यह छोटी वटी के रूप में बनता है। परन्तु आज-कल चूर्ण के रूप में और तरल के रूप में भी साबुन बनने लगे हैं।
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साबूदाना  : पुं० दे० ‘सागूदाना’।
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साबून  : पुं०=साबुन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साभ-परिषद्  : स्त्री० [सं०] १. बहुत से लोगो का एकत्र होकर सहित्य, राजनीति आदि से संबंध रखने वाले किसी विषय पर विचार करना। २. उक्त कार्य के लिए बनी हुई परिषद या सभा। ३. राज-भवन।
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साँभर  : पुं० [सं० सम्भल या साम्भल] १. राजस्थान की एक झील जिसके खारे पानी से नमक बनाया जाता है। २. उक्त झील के पानी से बनाया हुआ नमक जिसे साँभर कहते हैं। ३. एक प्रकार का बड़ा बारहसिंघा। पुं०=संवल (पाथेय)।
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साँभलना  : स० [सं० स्मृत] १. स्मरण करना। २. सुनना। उदा०—साँभल्याँ रास गंगा-फल होइ।—नरपतिनाल्ह। अ०=सँभलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साभा  : वि० [सं० स+आभा] १. आभा से युक्त। २. चमकदार। चमकीला।
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साभिक  : पुं० [सं०] वह जो लोगो को अपने यहाँ बैठाकर जुआँ खिलाता हो। जुएखाने का मालिक।
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साभिप्राय  : वि० [सं० तृ० त०] १. अभिप्राय से युक्त। २. विशे। अर्थ-युक्त। ३. जिसका कोई विशिष्ट प्रयोजन या हेतु हो। अव्य० किसी प्रकार का अभिप्राय अर्थात् आशय या उद्देश्य सामने रखते हुए।
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साभिमान  : वि० [सं० तृ० त०] गर्वीला। घमंडी। अव्य० अभिमान या घमंड से। अभिमानपूर्वक।
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साम  : पुं० [सं० सामन] १. बारतीय आर्यों के वे वेदमंत्र जो प्राचीन काल में यज्ञ आदि के समय गाए जाते थे। (दे० ‘सामवेद’) २. प्राचीन भारतीय राजनीति में, चार प्रकार के उपायों में से पहला उपाय जिसमें विरोधी या वैरी से मीठी-मीठी बातें करके अपनी ओर मिलाने अथवा संतुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता था। विशेषः शेष तीन उपाय, दम, दंड और भेद कहलाते हैं। स्त्री० १. मीठी-मीठी बातें करना। मधुर भाषण। २. दोस्ती। मित्रता। ३. मित्रता या स्नेह के कारण प्राप्त होने वाली कृपा। उदा०—अवर न पाइये गुरु की साम।—कबीर। पुं० [यू० सेम० इब्रा० शेम] [वि० सामी] पुरातत्व के क्षेत्र में गक्षिणी-पश्चिमी एशिया और उतत्र पूर्वी अफ्रीका के उन क्षेत्रों के सामुहिक नाम, जिनमें अरब, एसीरिया (या असुरिया), फिनीशिया, बैबिलोन आदि प्रदेश पड़ते हैं। विशेषः इन देशों के प्राचीन निवासी एक विशिष्ट जाति के थे, जिन्हे आज कल सामी करते हैं और इनकी भाषा भी सामी कहलाती थी। दे० ‘‘सामी’’(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)। वि०, पुं०=श्याम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १. स्वामी। २. सामान। उदाः वाल्मीकि अजामिल के कठु हुतो न साधन सामी।—तुलसी। पुं०=श्याम देश। स्त्री० १. शाम (संध्या)। २. सामी (छड़ी या डंडे की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साम-गान  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार प्रकार का साम नामक वेद मंत्र। २. दे० ‘सामग’।
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साम-नारायणी  : स्त्री० [सं०] संगीत मे कर्नाटकी पद्धतिकी एक रागिनी।
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साम-रस  : पुं० [सं० श्यान+शर ?] एक प्रकार का गन्ना जो डुमराँव (बिहार) में होता है।
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साम-विप्र  : पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो अपने सब कर्म सामदेव के विधानानुसार करता हो।
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साम-वेद  : पुं० [सं० सामन्-मध्य० स०] भारतीय आर्यों के चार वेदों में से प्रसिद्ध तीसरा वेद जिसमें साम (देखें) नामक वेद मंत्रो का संग्रह है।
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साम-साली  : पुं० [सं० साम+शाली] राजनीति के साम, दाम, दंड और भेद नामक अंगो को जानने वाला राजनीतिज्ञ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामक  : वि० [सं०] सामवेद संबंधी। पुं० १. वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो। २. वह मूल धन जो ऋण स्वरूप लिया या दिया गया हो। कर्ज का असल रुपया। ३. सान रखने का पत्थर पुं०=श्यामक (साँवाँ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामकारी  : वि० [सं० सामकारिन्-साम√कृ (करना)+ण्नि] जो मीठए वचन कहकर किसी को ढारस देता हो। सांत्वना देने वाला। पुं० एक प्रकार का सामगान।
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सामग  : पुं० [सं० साम्√गम् (जाना)+ड=गै (शब्द करना)+टक्] [स्त्री० सामगी] १. वह जो साम वेद का अच्छा ज्ञाता हो, और अनेक मंत्र ठीक तरह से गा या पढ़ सकता हो। २. विष्णु का एक नाम।
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सामग्री  : स्त्री० [सं० समग्र+ण्यञ्-ङीष् यलोप] १. वे चीजें जिनका सामूहिक रूप से किसी काम में उपयोग होता है। जैसे—लेखन-सामग्री, यज्ञ सामग्री। २. किसी उत्पादन निर्माण, रचना आदि के सहायक अंग या तत्व। सामान। ३. साधन। ४. घर ग्रहस्थी की चीजें। विशेषः इसका प्रयोग सदा एक वचन में होता है।
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सामज  : वि० [सं० साम√जन् (उत्पन्न करना)+ड] जो सामवेद से उत्पन्न हुआ हो। पुं० हाथी जिसकी उत्पत्ति समगान से मानी गई है।
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सामंजस्य  : पुं० [सं०] १. समंजस होने की अवस्था या भाव। २. उपयुक्तता। ३. औचित्य। ३. अनुकूलता। ५. वह स्थिति परस्पर किसी प्रकार की विपरीतता या विषमता न हो।
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सामंत  : वि० [सं०] सीमा पर या पड़ोस में रहने वाला पुं० १. पड़ोसी। २. राजा के आधीन रहने वाला बड़ा सरदार। ३. प्रजावर्ग का श्रेष्ठ व्यक्ति। ४. वीर। योद्धा। ५. पड़ोस। ६. निकटता। समीपता। ७. संगीत में कर्णाटकी पद्धति का एक राग।
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सामत  : पुं० दे० सामंत। स्त्री०=‘शामत’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामंत-तंत्र  : पुं० [सं०] आधुनिक राजनीति में आर्थिक राजनीति और सामाजिक आदि क्षेत्रों की वह व्यवस्था, जिसमें अधिकतर अधिकार बड़े-बड़े सामंतो या सरदारों के हाथ में रहते हैं। (फ्यूडल सिस्टम)
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सामंत-प्रणाली  : स्त्री०=सामंत-तंत्र।
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सामंत-प्रथा  : स्त्री० [सं०]=सामंत-तंत्र।
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सामंत-भारती  : पुं० [सं०] संगीत में, मल्लार और सारंग के मेल से बना हुआ एक प्रकार का संकर राग।
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सामंत-सारंग  : पुं० [सं० मध्यम० स०] संगीत में एक प्रकार का सारंग राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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सामंतवाद  : पुं० [सं०] यह सिद्धांत कि राजनीति और सामाजिक आदि क्षेत्रों में सामंत-तंत्र ही अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। (फ़्यूडलिज़्म)
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सामंतशाही  : स्त्री०=सामंत-तंत्र।
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सामंतिक  : वि० [सं०] १. सामंत-संबंधी। सामंत का। २. सामंतो प्रणाली से संबंध रखने वाला। सामंती (फ़्यूडल)।
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सामंती  : स्त्री० [सं० सामंत—ङीप्] संगीत मे एक प्रकार का रागिनी, जो मेघराज की पत्नी मानी जाती है। स्त्री [हिं० सामंत] सामंत होने की अवस्था या भाव। वि०=सामंतिक।
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सामंतेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] १. सामंतो की मुखिया। २. चक्रवर्ती सम्राट। शहंशाह।
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सामत्रय  : पुं० [सं० ष० त०] हर्रे, सोंठ और गिलोथ तीनो का समूह।
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सामत्व  : पुं० [सं० सामन्+त्व] साम का धर्म या भव। सामता।
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सामध  : स्त्री० [हिं० समधी] विवाह के समय समधियों के आपस में मिलने की रसम। मिलनी।
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सामधी  : पुं० [दे० ‘समधी’।
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सामन  : पुं०=सावन (महीना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [अं० सैल्मन] एक विशेष प्रकार का ऐसी मछलियों का वर्ग जिनका माँस पाश्चात्य देशों में बहुत चाव से खाया जाता है। (सैल्मन)
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सामना  : पुं० [हिं० सामने, पुं० हिं० सामुहें] १. किसी के समझ होने की अवस्था, क्रिया या भाव। पद-सामने का= (क) जो किसी के देखते हुआ हो। जो किसी की उपस्थिति में हुआ हो। जैसे—यह तो तुम्हारे सामने का लड़का है। (ख) किसी की वर्तमानता मे। जैसे—यह तो हमारे सामने की घटना है। २. भेट। मुलाकात। जैसे—जब उनसे सामना हो तब पूछना। ३. किसी पदार्थ का अगला भाग। आगे की ओर का हिस्सा। आगा। जैसे—उस मकान का सामना तालाब की ओर पड़ता है। ४. किसी के विरुद्ध या विपक्ष में खड़े होने की अवस्था, क्रिया या भाव। मुकाबला। जैसे—(क) वह किसी बात में आपका सामना नही कर सकता। (ख) युद्ध क्षेत्र में दोनों दलो का सामना हुआ। मुहा—(किसी का) सामना करना=सामने होकर जवाब देना। घृष्टता या गुस्ताखी करना। जैसे—जरा सा लड़का अभी से सबका सामना करता है। ५. प्रतियोगिता। लाग-डाँट। होड़। जैसे—आज अखाड़े में दोने पहलवानों का सामना होगा।
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सामनी  : स्त्री० [सं०] पशुओं को बाँधने की रस्सी। वि०, स्त्री० सावनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामने  : अव्य-[हिं० सामना] १. उपस्थिति में। आगे। समक्ष। जैसे—बड़ो के सामने ऐसी बात नही कहनी चाहिए। मुहा—(किसी के) सामने करना, रखना या लाना=किसी के समक्ष उपस्थित करना। आगे करना, रखना या लाना। (स्त्रियों का किसी के) सामने होना=परदा न करके समझ आना। जैसे—उनके घर की स्त्रियाँ किसी के सामने नहीं होती। २. किसी के वर्तमान रहते हुए। जैसे—इस किताब के समने उसे कौन पूछेगा ? ३. जिस ओर मुँह हो सीधे उसी ओर। जैसे—सामने चले जाओ, थोड़ी दूर पर उनका मकान है। ४. मुकाबले में। विरुद्ध। जैसे वह तुम्हारे सामने नहीं ठहर सकता। मुहा—(किसी को किसी के) सामने करना या लाना=प्रतियोगी विपक्षी आदि के रूप में खड़ा करना। मुकाबले के लिए खड़ा करना। जैसे—वे तो आड़ में बैठे रहे, और मुकदमा लड़ने के लिए लड़के को सामने कर दिया।
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सामयिक  : वि० [सं०] [भाव० सामयिकता] १. समय अर्थात परिपाटी के अनुसार होने वाला। २. अनुबंध के अनुसार या अनुरूप होने वाला। ३. ठीक समय पर होने वाला। ४. प्रस्तुत या वर्तनाम समय का। जैसा—सामयिक पत्र।
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सामयिक-पत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. भारतीय धर्मशास्त्र में वह इकरार नामा या दस्तावेज जिसमें बहुत से लोग अपना-अपना धन लगाकर किसी मुकदमें की पैरवी के लिए आपस में पढ़ा-लिखी करते थे। २. आज-कल नियत समय पर बराबर निकलता रहने वाला कोई पत्र या प्रकाशन। (पीरियॉडिकल)
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सामयिकता  : स्त्री० [सं०] १. सामयिक होने का भाव। २. वर्तमान समय, परिस्थिति आदि के विचार से उपयुक्त दृष्टि कोण या अवस्था।
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सामयिकी  : स्त्री० [सं० सामयिक] १. सामनिक होने की अवस्था या भाव। २. सामयिक बातों से संबंध रखने वाली चर्चा या विवेचन।
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सामयोनि  : पुं० [सं० ब० स०] १. ब्रह्मा। २. हाथी।
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सामर  : वि० [सं० समर+अण्] समर-सबंधी। समर का। युद्ध का। पुं०=समर (युद्ध)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामरथ  : स्त्री०=सामर्थ्य। वि०=समर्थ।
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सामरा  : वि०, पुं० [स्त्री० सामरी]=साँवला। उदा—तहु दुहु सुललित नतरा सामरा।—विद्यापति।
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सामराधिप  : पुं० [सं० ष० त०] सेनापति।
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सामरिक  : वि० [सं० सभर+ठक-इक] [भाव० सामरिकता] समर संबंधी। युद्ध का। जैसे—सामरिक लज्जा।
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सामरिकता  : स्त्री० [सं० सामरिक+तल-टाप्] १. सामरिक होने की अवस्था, गुण या भाव। (मिलिटरिज्म) २. युद्ध। लड़ाई। समर।
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सामरिकवाद  : पुं० [सं० कर्म० स०] यह मत या सिद्धांत कि राष्ट्र को सदा सैनिक दृष्टि से शसक्त रहना चाहिए। और अपने हितों की रक्षा युद्ध या समर की सहायता से करना चाहिए। (मिलिटरिज़्म)
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सामरेय  : वि० [सं० समर+ढक्-एथ] समर-संबंधिक। सामरिक।
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सामर्थ  : पुं० दे० सामर्थ्य।
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सामर्थी  : वि० [सं० सामर्थ्य+इ (प्रत्य०)] १. सामर्थ्य रखने वाला। जिसमें सामर्थ्य हो। २. कोई कार्य करने में समर्थ। ३. ताकतवर। बलवान्।
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सामर्थ्य  : पुं० [सं०] १. समर्थ होने की अवस्था या भाव। २. कोई कार्य संपादित करने की योग्यता और शक्ति। (कैपेलिटी) ३. साहित्य में, शब्द की व्यंजन शक्ति। शब्द की वह शक्ति जिससे वह भाव प्रकट करता है। ४. व्याकरण में शब्दों का पारस्परिक संबंध। (भूल से स्त्री में प्रयुक्त)।
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सामल  : वि०=श्यामल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामवायिक  : वि० [सं० समवाय+ठञ्-इक] १. समनवाय संबंधी। २. समूह संबंधी। पुं० मंत्री।
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सामवायिक राज्य  : पुं० [सं० समनवाय+ठक-इक राज्य, कर्म० स०] प्राचीन भारतीय राजनीति में वे राज्य जो किसी युद्ध के निमित्त मिलकर एक हो जाते थे।
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सामविद्  : पुं० [सं० साम√विद् (जानना)+क्विप] वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो।
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सामवेदिक, सामवेदीय  : वि० [सं] सामवेद संबंधी। पुं० सामवेद का अनुयायी ब्राह्मण।
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सामस्त्य  : पुं० [सं० समस्त+ष्यञ्]=समस्तता।
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सामहिं  : अव्य० [सं० सम्मुख] सामने। सम्मुख। समक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामाँ  : पुं० १. =सामान। २. साँवा। स्त्री०=श्यामा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामाजिक  : वि० [सं० समाज+ठक्-क] १. प्राचीन भारत में ‘सभा’ नामक संस्था से संबंध रखने वाला। २. आज-कल समाज विशेष जन-समाज से संबंध रखने वाला। समाज का। जैसे—सामाजिक व्यवहार, सामाजिक सुधार। ३. सामाजिक संबंधो के फलस्वरूप होने वाला। जैसे—सामाजिक रोग। पुं० १. प्राचीन भारत में वह सभा नामक संस्था का सदस्य होता था। २. वह जो जीविका निर्वाह या धनोपार्जन के लिए समाज (समज्या अर्थात तरह-तरह के खेल तमाशों की व्यवस्था करता था। ३. वे लेग जे उक्त प्रकार के खेल तमाशे देखने के लिए एकत्र होते थे। ४. साहित्यिक क्षेत्र में, वह जो काव्य संगीत आदि का अच्छा मर्मज्ञ हो। रसिक। सहृदय।
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सामाजिकता  : स्त्री० [सं० सामाजिक+तल्-टाप्] १. सामाजिक होने का अवस्था या भाव। लौकिकता। २. मनुष्य में समाज शील बनने की होने वाली वृत्ति।
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सामान  : पुं० [फा०] १. किसी कार्य के लिए साधन स्वरूप आवश्यक और उपयुक्त वस्तुएँ। उपकरण। सामग्री। जैसे—लड़ई का सामान, सफर का सामान। २. घर-गृहस्थी की उपयोगिता की चीजें। असबाब। जैसे—चोर घर का सारा सामान उठा ले गये। ३. उपकरण। औजार। जैसे—बढई या लोहर का सामान। विशेषः सामग्री की तरह सदा एक वचन में प्रयुक्त। ४. इन्तजाम। प्रबंध। व्यवस्था।
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सामानिक  : वि० [सं० समान+ठञ-इक] पद, योग्यता आदि के विचार से किसी के समान।
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सामान्य  : वि० [सं०] [भाव० सामान्यता] १. जिसमें कोई विशेषतः न हो। मामूली। २. सब या बहुतों से संबंध रखने वाला। ३. प्रायः सभी व्यक्तियों, अवसरों अवस्थाओं आदि में पाया जाने वाला या उनसे संबंध रखने वाला। सार्वजनिक। आम। (जनरल, उक्त दोनों अर्थों के लिए) ४. जो अपनी संगति या साधारण अवस्था, स्थिति आदि में ही हो, विशेष घटा-बढ़ा या इधर-उधर हटा हुआ न हो। प्रसम। (नार्मल) पुं० १. समान होने की अवस्था, गुण या भाव। समानता। बराबरी। २. वैशेषिक दर्शन में वह गुण या धर्म जो किसी जाति के सब प्राणियों या किसी प्रकार की सब वस्तुओं में समान रूप से पाया जाता हो। जाति-साधर्म्य। जैसै०—मनुष्यों में मनुष्यत्व सामान्य और पशुओं में पशुत्व। विशेष—वैशेषिक में ६ पदार्थों में से एक माना गया है और इसी को ‘जाति’ भी कहा गया है। ३. एक प्रकार का लोक न्याय मूलक अलंकार जिसमें उपमान और उपमेय अथवा प्रस्तुत और अप्रस्तुत का स्वरूप प्रथक होने पर भी दोनो में घुणों, धर्मों आदि के बिलकुल समान या एक होने का उल्लेख रहता है। जैसे—यह कहना कि चाँदनी रात में अटारी पर खड़ी ङुई नायिका और चंद्रमा में इतनी समानता है कि यह पता ही नही चलता कि मुख कौन है और चंद्रमा कौन ? ४. दे० ‘मध्यक’।
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सामान्य छल  : पुं० [सं० मध्यम० स०] न्याय शास्त्र में एक प्रकार का छल जिसमें संभावित अर्थ के स्थान में जाति सामान्य अर्थ के योग से असंभूत अर्थ की कल्पना की जाती है।
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सामान्य बुद्धि  : स्त्री० [सं०] प्रायः सब प्रकार के जीवों में पाई जानेवाली वह सामान्य या सहज बुद्धि जिससे वे साधारण बातें बिना किसी प्रयत्न के या आप से आप समझ लेते हैं। (कॉमन सेन्स)।
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सामान्य भविष्यत्  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में भविष्यत् काल का एक भेद, जिससे यह ज्ञात होता है कि अमुक बात आगे चलकर होगी, अथवा आगे चलकर अमुक व्यक्ति कोई क्रिया करेगा। धातु में ‘एगा’ ‘ऊँचा’ लगाकर इस काल के क्रिया पद बनाये जाते हैं। जैसा—जाएगा, खाएगा, हंसेगा खेलूँगा। इनमें उद्देश्य के लिंग वचन के अनुसार परिवर्तन होता है।
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सामान्य-निबंधना  : स्त्री० [सं०] साहित्य में अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत के लिए किसी अप्रस्तुत सामान्य का कथन होता है।
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सामान्य-भूत  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में भूतकालिक क्रिया का एक भेद में आ या या प्रत्यय जोड़कर सामान्य भूत काल का क्रिया पद बनाते हैं। जैसा—उठा हँसा। नाचा, आया, लाया नहाया आदि।
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सामान्य-लक्षण  : पुं० [सं०] तर्क में एक ही जाति या प्रकार के सब जीवों या पदार्थों में समान रूप से पाया जानेवाला वह लक्षण या वे लक्षण जिनके आधार पर उस जाति या प्रकार के सब जीवों या पदार्थों की पहचान होती है। जैसा—किसी घोड़े के सामान्य लक्षण की सहायता से ही शेष सब घोड़ों की पहचान होती है।
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सामान्य-वर्तमान  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में वर्तमान काल का एक भेद जिससे किसी कार्य के प्राकृतिक रूप से घटित होते रहने या तत्क्षण घटित होने का पता चलता है। धातु में ता है, ता हूँ आदि प्रत्यय लगाये जाते हैं। जैसा—आता है जाता है, सोता है हँसता हूँ आदि।
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सामान्य-विधि  : स्त्री० [सं०] १. कोई साधारण विधि या आज्ञा। जैसा—बुरे काम मत करो। २. किसी देश या राष्ट्र में प्रचलित विधि प्रविधियों का वह सामूहिक मान जिसके अनुसार उस देश या राष्ट्र के निवासियों का आचरण या व्यवहार परिचालित होता है। (कॉमन लॉ)।
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सामान्य-विभाजक  : पुं० [सं०] गणित में समापर्वतक राशि (दे०) ‘समापर्वतक’।
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सामान्यतः  : अव्य० [सं० सामान्य+तसिल्] सामान्य रूप से। सामान्यता। (नार्मेली)।
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सामान्यतया  : अव्य० [सं० सामान्य०+तल-टाप्-टा] सामान्य रूप से। मामूली तौर से। सामान्यतः।
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सामान्यता  : स्त्री० [सं०] १. सामान्य या मामूली होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण, तत्व या बात जो सामान्य हो। ३. सामान्य होने या सब जगह सामान्य रूप से होने या पाये जाने की अवस्था या भाव। (जनरैलिटी)।
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सामान्यतोदृष्ट  : पुं० [सं० सामान्यतस्√दृश् (देखना)+क्त] १. तर्क और न्याय शास्त्र में अनुमान संबंधी एक प्रकार का दोष या भूल, जो उस समय मानी जाती है जब किसी ऐसे पदार्थ के आधार पर अनुमान किया जाता है जो न तो कार्य हो और न कारण। जैसा—आस को बौरते देखकर कोई यह अनुमान करे कि अन्य वृक्ष भी बौरने लगे होंगे। २. दो वस्तुओं या बातों में ऐसा साम्य, जो कार्य-कारण संबंध से भिन्न हो। जैसा—बिना चले कोई दूसरे स्थान पर नहीं पहुँच सकता। इसी से यह भी समझ लिया जाता है कि यदि किसी को कही पहुँचना हो तो उसे किसी प्रकार चलने में प्रवृत्त करना पड़ेगा।
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सामान्या  : स्त्री० [सं० सामान्य-टाप्] १. ऐसी स्त्री जो सर्व साधारण के लिए उपलब्ध या सूलभ हो। २. साहित्य में वह नायिका जो धन कमाने के उद्देश्य से पर-पुरुष से प्रेम करने का ढोंग करती है।
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सामान्यीकरण  : पुं०=साधारणीकरण (प्राचीन भारतीय साहित्य का)।
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सामायिक  : वि० [सं०] भाषा से युक्त। माया सहित। पुं० जैनों के अनुसार एक प्रकार का व्रत या आचरण जिसमें सब जीवों पर सम भाव रखकर एकांत में बैठकर आत्म-चितन किया जाता है।
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सामायिक  : वि० [सं० समास+ठक्-इक] १. समास से संबंध रखने वाला। समास का। २. समास के रूप में होनेवाला। ३. लघु या संक्षिप्त किया हुआ।
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सामाश्रय  : पुं० [सं० ब० स० अण्] प्राचीन भारतीय वास्तु में ऐसा भवन या प्रासाद जिसके पश्चिम ओर वीथिका या सड़क हो।
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सामिक  : पुं० [सं० सामि+कन्] १. यज्ञों में बलि पश को अभिमंत्रित करनेवाला व्यक्ति। २. पेड़। वृक्ष।
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सामिग्री  : स्त्री०=सामग्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामित्य  : वि० [सं० समिति+घञ्] समिति सम्बन्धी। समिति का। पुं० समिति का गुण धर्म या भाव।
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सामिधेन  : वि० [सं० सम्√इन्ध् (प्रदीप्त करना)+ल्युट-अन] समिधा या यज्ञ की अग्नि से सम्बन्ध रखनेवाला।
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सामिधेनी  : स्त्री० [सं० सामिधेन-ङीष्] १. एक प्रकार का ऋत मंत्र जिसका पाठ होम की अग्नि प्रज्वलित करने के समय किया जाता है। २. ईधन। ३. कोई ऐसी चीज या बात जो किसी प्रकार का ताप या तेज उत्पन्न करती हो। उग्र तीव्र या प्रबल करनेवाली चीज या बात।
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सामिधेन्य  : पुं० [सं० सामिधेनी+यत्]=सामिधेनी।
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सामियाना  : पुं०=शामियाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामिल  : वि०=शामिल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामिष  : वि० [सं० तृ० त०] १. मांस से युक्त। २. गोश्त सहित। जैसा—सामिष भोजन।
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सामिष श्राद्ध  : पुं० [सं० कर्म० स०] पितरों आदि के उद्देश्य से किया जानेवाला वह श्राद्ध जिसमे मांस, मत्स्य आदि का भी व्यवहार होता था। जैसा—मांसाष्टका आदि सामिष श्राद्ध है।
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सामी  : पुं० [सं० साम (देश)] पुरातत्व के अनुसार प्राचीन साम (देखें) नामक भू-भाग के निवासी जिनके अन्तर्गत अरब, इब्रानी एसीरिया (या असुरिया) और फिनीशिया तथा बैबिलोन के लोग आते हैं। स्त्री० उक्त प्रदेश की प्राचीन भाषा जिसकी शाखाएँ आज-कल की अरबी, इब्रानी फिनिशिया और बैबिलोन आदि की भाषाएँ है। स्त्री०=शामी (छड़ी, डंडे आदि की) पुं०=स्वामी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामीची  : स्त्री० [सं०] १. वंदना। प्रार्थना। स्तुति। २. नम्रता। ३. शिष्टता।
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सामीचीन्य  : पुं० [सं० समीचीनी+ष्यञ्]=सामीचीनता।
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सामीप्य  : पुं० [सं० समीप+ष्यज्] १. समीपता। २. मुक्ति की चार अवस्थाओं में से एक जिसमें मुक्तात्मा ईश्वर से समीप होती है।
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सामीर  : पुं० [सं०]=समीर (पवन)।
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सामीर्य  : वि० [सं०] समीर संबंधी। समीर का। हवा का।
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सामुझि  : स्त्री०=समझ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामुदायिक  : वि० [सं० समुदाय+ठक्-इक] १. समुदाय संबंधी। समुदाय का। २. समुदाय के प्रयत्न से होनेवाला पुं० बालक के जन्म के समय के नक्षत्र से आगे के अठारह नक्षत्र जो फलित ज्योतिष के अनुसार अशुभ माने जाते हैं और जिनमें किसी प्रकार का शुभ कर्म करने का निषेध है।
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सामुद्र  : वि० [सं०] १. समुद्र संबंधी समुद्र का। २. समुद्र से निकला हुआ। समुद्र से उत्पन्न। पुं० १. समुद्र के पानी से तैयार किया हुआ नमक। समुद्री नमक। २. समुदंर फेन। ३. समुद्र के द्वारा दूर दूर के देशों में जाकर व्यापार करनेवाला व्यापारी। ४. शरीर में होनेवाले ऐसे चिन्ह या लक्षण जिन्हें देखकर शुभाशुभ फलों का विचार किया जाता है। दे० ‘सामुद्रिक’। ५. नारियल।
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सामुद्र-स्थलक  : पुं० [सं० कर्म० स०] समुद्र की तरह का विस्तार।
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सामुद्रक  : वि० [सं० सामुद्र+कन्] समुद्र संबंधी। समुद्र का। पुं० १. समुद्र के जल से बनाया हुआ नमक। समुद्री नमक। २. दे० ‘सामुद्रिक’।
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सामुद्रिक  : वि० [सं० समुद्र+ठक्-इक] समुद्र से संबंध रखनेवाला। समुद्र या सागर संबंधी। समुदरी। पुं० १. फलित ज्योतिष में वह अंग या शाखा जिसमें इस बात का विचार होता है कि मनुष्य की हस्तरेखाओं तथा शरीर पर के अनेक प्रकार के चिन्हों या लक्षणों के क्या क्या शुभ और अशुभ फल होते हैं। २. उक्त शास्त्र का ज्ञाता या पंडित। ३. दे० ‘आकृति विज्ञान’।
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सामुहाँ  : अव्य० [सं० सम्मुख] सामने। सम्मुख। वि० सामने का। पुं०=सामना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामुहिक  : वि० [सं० समूह+ठक्—इक]=सामूहिक।
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साँमुहे  : अव्य० [सं० सम्मुखे] सामने। सम्मुख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामुहें  : अव्य० [सं० सम्मुखे] सामने सम्मुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामूहिक  : वि० [सं०] [भाव० सामूहिकता] १. समूह या बहुत से लोगों से संबंध रखनेवाला। ‘वैयक्तिक’ का विपर्याय। २. समूह द्वारा होनेवाला। (कलेक्टिव) जैसे—सामूहिक खेती।
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सामृद्धय  : पुं० [सं० समृद्धि+ष्यञ्] समृद्ध होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सामोद  : वि० [सं० तृ० त०] १. आमोद या आनंद से युक्त। प्रसन्न। २. सुगंधित।
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सामोद्वभव  : पुं० [सं० ब० स०] हाथी।
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सामोपनिषद्  : स्त्री० [सं० मध्य० अ०] एक उपनिषद् का नाम।
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साम्नी  : स्त्री० [सं०] १. पशुओं को बाँधने की रस्सी। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के वैदिक छन्दों का एक वर्ग। जैसे—साम्नी अनुष्टुप, साम्नी गायत्री, साम्नी जागती, साम्नी बृहती आदि।
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साम्मत्य  : पुं० [सं० सम्मति+ष्यञ्] सम्मति का गुण, धर्म या भाव।
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साम्मुखी  : स्त्री० [सं० सम्मुख+अण्—ङीष्] गणित ज्योतिष में, ऐसी तिथि जो सायंकाल तक रहती हो।
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साम्मुख्य  : पुं० [सं० सम्मुख+ष्यञ्] सम्मुख होने की अवस्था या भाव। सामना।
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साम्य  : पुं० [सं०] समान होने का भाव। समानता। जैसे—इन दोनों पुस्तकों में बहुत कुछ साम्य है।
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साम्यता  : स्त्री०=साम्य।
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साम्यवाद  : पुं० [सं० साम्य+√वद् (कहना)+घञ्] मार्क्स द्वारा प्रतिष्ठित तथा लेनिन द्वारा संबंधित वह विचारधारा जो व्यक्ति के बदले सार्वजनिक उत्पादन, प्रबंध और उपयोग के सिद्धान्त पर समाज-व्यवस्था स्थिर करना चाहती है और इसकी सिद्धि के लिए हर संभव उपाय से शोषित वर्ग को सशक्त करना चाहती है। (कम्युनिज्म)
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साम्या  : स्त्री० [सं०] साधारण न्याय के अनुसार सब लोगों के साथ निष्पक्ष और समान भाव से किया जानेवाला व्यवहार। समदर्शितापूर्ण व्यवहार। (इक्विटी)
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साम्यामूलक  : वि० [सं० साम्या+मूलक] जिसमें साम्या या समदर्शिता का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया हो। साम्यिक। (ईक्विटेबुल)
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साम्यावस्था  : स्त्री० [सं०] १. दार्शनिक क्षेत्र में, वह अवस्था जिसमें सत्त्व, रज और तम तीनों गुण बराबर हों; उनमें किसी प्रकार का विकार या वैषम्य न हो। प्रकृति। २. आज-कल लौकिक क्षेत्र में, वह अवस्था या स्थिति जिसमें परस्पर विरोधी शक्तियाँ इतनी तुली हों कि एक दूसरी पर अपना अनिष्ट प्रभाव डालकर कोई गड़बड़ी उत्पन्न न कर सकें। (ईक्विलिब्रियम)
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साम्यिक  : वि० [सं०]=साम्या-मूलक।
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साम्राज्य  : पुं० [सं०] १. वे अनेक राष्ट्र या देश जिन पर कोई एक शाससत्ता रकाज करती हो। सार्वभौम राज्य। सलतनत। २. किसी कार्य या क्षेत्र में होनेवाला किसी का पूर्ण आधिपत्य।
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साम्राज्य-लक्ष्मी  : स्त्री० [सं०] १. साम्राज्य का वैभव। २. तंत्र के अनुसार एक देवी जो साम्राज्य की अधिष्ठात्री मानी गई है।
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साम्राज्यवाद  : पुं० [सं०] [वि० साम्राज्यवादी] वह वाद या सिद्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि किसी देश को अपने अधिकृत क्षेत्रों में वृद्धि करते हुए अपने साम्राज्य का बराबर विस्तार करते रहना चाहिए। (इम्पीरियलिज़्म)
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साम्राज्यवादी  : वि० [सं०] साम्राज्यवाद-संबंधी। पुं० वह जो साम्राज्यवाद के सिद्धांतों का अनुयायी या समर्थक हो। (इम्पिरियलिस्ट)
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साम्हना  : पुं०=सामना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साम्हने  : अव्य०=सामने।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साम्हर  : पुं०=साँभर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साम्हा  : अव्य०=सामने। उदा०—घर गिरि पुर साम्हा धावति।—प्रिथीराज। पुं०=सामना। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सायं  : वि० [सं०] संध्या-संबंधी। सायंकालीन। संध्याकालीन। अव्य० सन्ध्या के समय। शाम को। पुं० १. संध्या का समय। शाम। २. तीर। बाण।
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साय  : पुं० [सं०√सो (नष्ट करना)+घञ्] १. संध्या का समय। शाम। २. तीर। बाण।
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सायं-गृह  : वि० [सं०] जो सन्ध्या समय जहाँ पहुँचता हो, वहीं अपना डेरा जमा लेता है।
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सायं-भव  : वि० [सं० सायं√भू (होना)+अच्] १. संध्या का। शाम का। २. संघ्या के समय उत्पन्न होनेवाला।
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सायं-संध्या  : स्त्री० [सं०] १. संध्या नाम की वह उपासना जो सायंकाल में की जाती है। २. सरस्वती देवी जिसकी उपासना संध्या समय की जाती है।
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सायक  : पुं० [सं०] बाण। तीर। शर। २. कामदेव के पाँच बाणों के आधार पर पाँच की संख्या का वाचक शब्द। ३. खड्ग। ४. भद्रभुंज। रामसर। ५. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में सगण, भगण, तगण, एक लघु और एक गुरु होता है। (।।ऽ, ऽ।। ऽऽ।, ।ऽ)
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सायंकाल  : पुं० [सं०] [वि० सायंकालीन] दिन का अंतिम भाग। दिन और रात के बीच का समय। संध्या। शाम।
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सायंकालीन  : वि० [सं०] संध्या के समय का। शाम का।
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सायज्यत्व  : पुं० [सं सायुज्य+त्व]=सायुज्यता।
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सायण  : पुं० [सं०√सो (नष्ट करना)+ल्युट्—अन] एक प्रसिद्ध आचार्य जिन्होंने चारों वेदों के विस्तृत और प्रसिद्ध भाष्य लिखे हैं।
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सायणीय  : वि० [सं० सायण+छ—ईय] सायण-संबंधी। सायण का।
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सायत  : स्त्री०=साइत। अव्य०=शायद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सायंतन  : वि० [सं०] सायंकालीन। संध्या-संबंधी। संध्या का।
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सायन  : वि० [सं० स+अयन] १. जो अयन से युक्त हो। २. (ज्योतिष में कालगणना) जो अयन अर्थात् राशिचक्र की गति पर अवलंबित या आश्रित हो। पुं० १. किसी ग्रह का वह देशांतर जो वसंत-संपात के आधार पर स्थिर किया जाता है। २. भारतीय ज्योतिष में, काल की गणना करने और पंचाग बनाने की वह पद्धति या विधि (निरयण से भिन्न) जो अयन अर्थात् राशिचक्र की गति पर अवलंबित या आश्रित होती है। (विशेष विवरण के लिए दे० ‘निरयण’।)
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सायनपत  : स्त्री० [हि० सयाना+पत (प्रत्य)] १. सयाने होने की अवस्था या भाव २. चालाकी। होशियारी।
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सायब  : पुं० [सं० साहब] पति। स्वामी। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सायबान  : पुं० [फा० सायः बान] मकान या कमरे के आगे बनाई जानेवाली टीन आदि की छाजन।
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सायबी  : स्त्री०=साहबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सायमाहुति  : स्त्री० [सं०] संध्या के समय दी जानेवाली आहुति।
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सायर  : पुं० [अ०] १. ऐसी भूमि जिसकी आय पर कर न लगता हो। २. ब्रिटिश शासन में जमींदारों की आमदनी की वे मदें जिन पर उन्हें कोई कर नहीं देना पड़ता था। जैसे—जंगल, ताल, नदी, बाग आदि से होने वाली आय की मदें। ३. चुंगी, महसूल का ऐसा ही और कोई कर । ४. फुटकर खर्चों की मदें। मुतफर्रकात। पुं० [देश०] १. हेंगा। २. पशुओं के रक्षक एक देवता। ३. किसी बीज का ऊपरी भाग। पुं०=सागर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सायल  : वि० [अ०] १. सवाल या प्रश्न करने वाला। प्रश्नकर्ता। २. सवाल अर्थात याचना करने वाला। माँगने वाला। पुं० १. वह जिसने न्यायालय में किसी विवाद के निर्णय के लिये पत्र दिया हो। प्रार्थी। २. वह जो कोई नौकरी या सुभीता माँगता हो। ३. भिखमंगा। भिखारी। पु० [देश०] एक प्रकार का धान जो असम देश में होता है।
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सायंस  : स्त्री० [अं० साइन्स] १. विज्ञान। शास्त्र। २. भौतिक विज्ञान। ३. रसायन विज्ञान।
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साया  : पु० [सं० छाया से फा० सायः] १. छाया। छाँह। २. परछाँई। मुहा०—(किसी के) साये से भागना=बहुत अलग या दूर रहना। बहुत बचना। ३. जिन, भूत, प्रेत, परी आदि जिनके संबंध में माना जाता है कि ये छाया के रूप में होते हैं और उस छाया से युक्त होने पर लोग रोगी, विक्षिप्त हो जाते है। मुहा०—साये में आना =भूत-प्रेत आदि के प्रभाव से आविष्ट होकर रोगी या विक्षिप्त होना। प्रेत बाधा से युक्त होना। ४. ऐसा संपर्क या संबंध जो किसी को अपने आधीन करता अथवा उसे अपने गुण, प्रभाव आदि से युक्त करता हो। मुहा०—(किसी पर अपना) साया डालना= (क) किसी को अपने प्रभाव से युक्त करना। (किसी पर किसी का ) साया पड़ना=संगति आदि के कारण अथवा यों ही किसी के गुण, प्रभाव आदि से युक्त होना। पु० [अ० शेमीज] १. घाघरे की तरह का एक प्रकार का पहनावा। जो प्रायः पाश्चात्य देशों की स्त्रियाँ पहनती हैं। २. एक प्रकार का छोटा लहँगा जिसे स्त्रियाँ प्रायः महीन साड़ियों के बीच पहनती हैं। अस्तर।
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सायाबंदी  : स्त्री० [फा० सायःबंदी् ] विवाह के लिये मंडप बनाने की क्रिया। (मुसलमान)
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सायाम  : वि० [सं० स+आयाम] लंबा-चौड़ा। विस्तृत।
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सायास  : अव्य० [सं० स+आयास] आयास अर्थात परिश्रम प्रयत्नपूर्वक
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सायाह्न  : पुं० [सं० ष० स०] दिन का अन्तिम भाग। संन्ध्या का समय। शाम।
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सायुज्य  : पुं० [सं०] १. किसी में मिलकर उसके साथ एक होने की अवस्था या भाव। इस प्रकार पूरी तरह से मिलना कि दोनों में कोई अंतर या भेद न रह जाय। पूर्ण मिलन। २. पाँच प्रकार की मुक्तियों में से एक प्रकार की मुक्ति जिसके संबंध में यह माना जाता है कि जीवात्मा जाकर परमात्मा के साथ मिल गयी और उसमें लीन हो गयी। ३. विज्ञान में, दो पदार्थो का गलकर और किसी रासायनिक प्रकिया से मिलकर एक हो जाना। समेकन (फ़्यूजन)
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सायुज्यता  : स्त्री० [सं० सायुज्य+तल-टाप्] सायुज्य का गुण, धर्म या भाव। सायुज्यत्व।
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सायुध  : वि० [सं० स०+आयुध] आयुध या शास्त्रों से युक्त। जिसके पास हथियार हों। स-शस्त्र। (आर्म्ड) जैसे सायुच रक्षा दल।
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सार  : वि० [सं०] [भाव० सारता ] १. जो मूल तत्त्व के रूप में हो। २. उत्तम। बढ़िया। श्रेष्ठ। जैसे—सार धान्य। ३. असली। वास्तविक। ४. सब प्रकार की त्रुटियों, दोषों आदि से रहित। ५. पक्का। मजबूत। ६. न्यायसंगत। पुं० १. किसी पदार्थ का वह मुख्य और मूल अंश या भाग जो उसमें प्राकृतिक रूप से वर्तमान रहता है और जो उसके गुण, रूप, विशेषतया, आदि का आधार होता है। तत्व। सत्त। जैसे—इस चीज या बात में कुछ भी सार नहीं है। २. किसी चीज में से निकला हुआ उसका ऐसा वक्त अंश या भाग जिसमें चीज की यथेष्टगंध, गुण या स्वाद वर्तमान हो। किसी चीज का निकला हुआ अरक, रस या ऐसी ही और कोई चीज। (एसेंस, उक्त दोनों अर्थो के लिये ) जैसे—इत्र या तेल में फूलों का सार रहता है। ३. किसी चीज के अंदर रहने वाला वह तत्त्व जिसमें उस चीज का पोषण और वर्धन होता है। गूदा मग्ज। (मैरो) ४. चरक के अनुसार शरीर के अन्तर्गत आठ स्थिर पदार्थ जिनके नाम इस प्रकार से हैं—त्वक, रक्त, माँस, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र, और सत्व (मन)। ५. कही या लिखी हुई बातों, विवरणों आदि का वह संक्षिप्त रूप जिसमें दिग्दर्शन के लिये उनकी सभी मुख्य बातों का समावेश हो। तात्पर्य या निष्कर्ष। सारांश। (ऐबस्ट्रैक्ट) जैसे—इस पुस्तक में दर्शन (या व्याकरण) का सार दिया गया है। ६. साहित्य में एक अलंकार जिसमें एक बात कहकर उत्तरोत्तर उसके उत्कर्ष सूचक सार के रूप में दूसरी अनेक बातों का उल्लेख होता है। (क्लाइमेक्स) जैसे—सब प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है। ७. पिंगल में एक प्रकार का मातृक सम छंद जिसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती है। अंत में दो गुरु होते हैं, तथा १७ मात्राओं पर यति होती है। ८.पिंगल में, एक प्रकार का वर्णिक समवृत्त है जिसके प्रत्येक चरण में एक गुरु और एक लघु होता है। जैसे—राम। नाम। सत्य। धाम। ९. आध्यात्मिक साधकों की परिभाषा में, भाषा या वाणी के चार भेदों में से एक जो भ्रम दूर करने वाली और बहुत ही सुबोध तथा स्पष्ट होती है। १॰. बल। शक्ति। ११. धन। दौलत। १२. काढ़ा। क्वाथ। १३. परिणाम। फल। १४. जल। पानी। १५ दही, दूध आदि में से निकाला हुआ मक्खन या मलाई। १६. लोहा। १७. लोहे आदि का बना हुआ औजार या हथियार। १८. तलवार। १९. वैधक में रासायनिक क्रिया से फूँका हुआ लोहा। वंग। २॰. चौसर, शतरंज आदि खेलने की गोट। २१. जुआ खेलने का पासा। २२. अमृत। २३. अस्थि। हड्डी। २४. आम, इमली आदि का पना। पन्ना। २ ५. वायु। हवा। २६. बीमारी। रोग। २७. खेती-बारी की जमीन। २८. खेतों में दी जाने वाली खाद। २९. चिरौंजी का पेड़। पियाल। ३॰. अनार का पेड़। ३१. नील का पौधा। ३२. मूँग। पुं० [सं० शल्य, हि ‘साल’ का पुराना रूप] १. बरछी, भाल या इसी प्रकार का और कोई नुकीला औजार या हथियार। २. काँटा। ३. मन में खटकती रहने वाली कोई बात। उदा०—मोइ दुसार कियौ हियौ तन द्युति भेदैं सार।—बिहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हि० सारना ] १. एक सारने की क्रिया, ढ़ंग या भाव। २. पालन-पोषण। ३. देख-रेख। ४. एक प्रकार के गीत जो शिशु के छठी के दिन उसे नहलाने-धुलाने के समय गाए जाते हैं। ५. खाट। पलंग। पुं० [सं० शाला] गौएँ, भैसें आदि बाँधने की जगह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० शस्य] खेतों की उपज या पैदावा। फसल उदा—चूल्ही के पीछे उपजै सार।—घाघ(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० घनसार] कपूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० सारिका] मैना। पक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १. =साल। २. =साला (पत्नी का भाई)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =साल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सार-खदिर  : पुं० [सं० ब० स०] दुर्गध खदिर। बबुरी।
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सार-गर्भित  : वि० [सं०] १. जिसमें सार या तत्व भरा हो। तत्वपूर्ण। २. महत्वपूर्ण तथा मूल्यवान तथ्यों, युक्तियों आदि से युक्त। जैसे—सार-गर्भित भाषण।
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सार-गांध  : पु० [सं० ब० स०] चंदन।
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सार-ग्राही  : वि० [सम०] [भाव० सरग्राहिता] वस्तुओं या विषयों का तत्व या सार ग्रहण करनेवाला।
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सार-तंडुल  : पुं० [सं०] चावल।
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सार-तरु  : पुं० [सं०] १. केले का पेड़। २. खैर का वृक्ष।
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सार-दारु  : पुं० [सं०] ऐसी लकड़ी जिसमें सार या हीरवाला अंश अपेक्षया अधिक हो।
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सार-द्रुम  : पुं० [सं०] १. खैर का वृक्ष। २. वह पेड़ जिसकी लकड़ी में हीर या सार-भाग अधिक हो।
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सार-फल  : पुं० [सं० ब० स०] जँबीरी नींबू।
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सार-भाग  : पुं० [सं०] किसी कथन, तथ्य, पदार्थ आदि का वह संक्षिप्त अंश जिसमें उसके मुख्य तथा मूल तत्व सम्मिलित हों।
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सार-भाटा  : पुं० [हिं० सार+भाटा] ज्वार आने की बाद की समुद्र की वह स्थिति जब लहरें उतार पर होती हैं।
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सार-भांड  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक असली, चोखा या बढ़िया माल। २. उक्त प्रकार के माल का व्यापार। ३. कस्तूरी।
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सार-भूत  : वि० [स०] १. जो किसी तत्व या पदार्थ के सार के रूप में निकाला गया हो। २. सबसे बढ़िया। श्रेष्ठ।
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सार-मती  : स्त्री० [सं०] संगीतमें, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सार-लोह  : पुं० [सं० सप्त० त०] इस्पात। लोहसार।
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सार-संग्रह  : पुं० [सं०] किसी विषय की संक्षिप्त और सार-भत बातों का संग्रह। (कम्पेन्डियम)
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सार-सुता  : स्त्री० [सं० सुरसुता]=यमुना।
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सार-सूची  : स्त्री० [सं०] कोई ऐसी सूची जिसमें किसी विषय से संबंध रखने वाली मुख्य-मुख्यबातों का सार रूप में उल्लेख हो। (ऐब्सट्रैक्ट)
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सार-हल  : पुं० [सं० सार (शल्य)+फल] [स्त्री० अल्पा० सार-हली] बरछी, भाले आदि की नुकीली अनी या फल। उदा०—सारहली जिउँ सहिल्याँ सज्जण मंझ शरीर।—ढोलामारू।
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सारक  : विं० [सं० सार+कन्] १. सारण करने या निकालने वाला। २. दस्तावर। विरेचक। पुं० जमालगोटा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारंग  : वि० [सं०] [स्त्री० सारंगी] १. रँगा हुआ या रंगदार। रंगीन। २. सुंदर। सुहावना। ३. रसीला। सरस। पुं० १. चितकबरा। रंग। २. कांति। चमक। दीप्ति। ३. छटा। शोभा। ४. दीपक। दीआ। ५. ईश्वर। ६. सूर्य। ७. चन्द्रमा। ८. शिव। ९. श्रीकृष्ण। १॰. कामदेव। ११. आकाश। १२. आकाश के ग्रह, तारे और नक्षत्र। १३. बादल। मेघ। १४. बिजली। विद्युत्। १५. समुद्र। १६. सागर। १७. तालाब। १८. सर। १९. जल। पानी। २॰. शंख। २१. मोती। २२. कमल। २३. जमीन भूमि। २४. चिड़िया। पक्षी। २५. हंस। २६. मोर। २७. चातक। पपीहा। २८. कबूतर। २९. कोयल। ३॰ सोन-चिड़ी। खंजन। ३१. बाज। श्येन। ३२. कौआ। ३३. शेर। सिंह। ३४. हाथी। ३५. घोड़ा। ३६. हिरन। ३७. साँप। ३८. मेंढ़क। ३९. सोना। स्वर्ण। ४॰. आभूषण। गहना। ४१. दिन। ४२. रात। ४३. खड़ग। तलवार। ४ ४. तीर। बाण। ४५. हिरन। ४६. बारह-सिंगा। ४७. चीतल। ४८. भौंरा। भ्रमर। ४९. एक प्रकार की मधुमक्खी। ५॰. सुगंधित पदार्थ। ५१. कपूर। ५२. चंदन। ५३. कर। हाथ। ५४. कुच। स्तन। ५५. सिरके बाल। ५६ .हल। ५७. पुष्प। फूल। ५८. कपड़ा। ५९. छाता। ६ ॰ .काजल। ६१. एक प्रकार का छंद जिसमें चार तगण होते हैं। मैनावली भी कहते हैं। ६२. छप्पय छंद के २६ वें भेद का नाम। ६३.संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते है। ६४.सारंगी नाम का बाजा। स्त्री०नारी। स्त्री। पुं० [सं० शाँर्ग] १. कमान। धनुष। २. विष्णु का धनुष।
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सारंग-नट  : पुं० [सं० ब० स०] संगीत में,सारंग और नट के योग से बना हुआ एक संकर राग।
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सारंग-भ्रमरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटक की पद्धति की एक रागिनी।
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सारंग-लोचन  : वि० [सं०] [स्त्री० सारंग-लोचना ] जिसकी आँखें हिरन की आँखों के समान सुंदर हों।
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सारंगनाथ  : पुं० [सं० सांर्गनाथ] काशी के समीप स्थित एक स्थान जो अब सारनाथ कहलाता है
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सारंगपाणि  : पुं० [सं० शाँर्गपाणि] सारंग नामक धनुष धारण करने वाले, विष्णु।
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सारंगा  : स्त्री० [सं० सारंग] १. प्रकार की छोटी नाव जो एक ही लकड़ी की बनती है। २. एक प्रकार की बहुत बड़ी नाव जिस पर हजारो मन माल लादा जा सकता है। ३. संगीत में एक प्रकार की रागिनी। पुं० [हिं० सारंगी] साधारण से बड़ी सारंगी। (व्यंग्य)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारंगिक  : पुं० [सं० सारंग+ठक्-इक] १.चिड़ीमार। बहेलिया। २.एक प्रकार का छन्द या वृत्त
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सारंगिका  : स्त्री०=सारंगी।
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सारंगिया  : पुं० [हिं० सारंगी+आ (प्रत्य) ] सारंगी बजाने वाला कलाकार।
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सारंगी  : स्त्री० [सं० सारंग] एक प्रकार का बहुत प्रसिद्ध बाजा जिसमें लगे हुए तार कमानी से रेत-कर बजाये जाते हैं।
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सारघ  : पुं० [सं० सरघा+अण्] मधु या शहद जो मधुमक्खी तरह-तरह के फूलों से संग्रह करती है। वि० मघ-मक्खियों से संबंध रखनेवाला।
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सारज  : पुं० [सं० सार√जन् (उत्पन्न करना)+ड] मक्खन।
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सारजंट  : पुं० [अ०] पुलिस और सेना में सिपाहियों का छोटा अफसर। जमादार।
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सारजासव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वैद्यक में धान, फल, फूल, मूल, सार, टहनी, पत्ते, छाल और चीनी-इन नौ चीजों से बनाया जाने वाला एक प्रकार का आसव।
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सारटिफिकट  : पुं० [सं०] प्रमाण-पत्र। सनद।
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सारण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सरिता, कर्ता सारक] १. कहीं से हटाना या हटाने में प्रवृत्त करना। २. अवांछित, विरोधी या हानिकारक तत्वों या व्यक्तियों को कहीं से निकालना या हटाना। (पजिंग) ३. अतिसार नामक रोग। ४. वैद्यक में पारे आदि रसों का शोधन। ५. मक्खन। ६. गंध। महक। ७. गंध प्रसारिणी। ८. आँवला। ९. आम्रातक। अमड़ा। १॰. रावण का एक मंत्री जो रामचन्द्र की सेना में उनका भेद लेने गया था।
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सारणा  : स्त्री० [सं० सारण—टाप्] दे० ‘सारण’।
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सारणि  : स्त्री० [सं०√सृ (गत्यादि)+णिच्—अनि] १. नाले या छोटी नहर के रूप में होने वाला जल-मार्ग। २. गंध प्रसारिणी। ३. गदह-पूरना। पुनर्नवा।
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सारणिक  : पुं० [सं० सरणि+ठक्—इक] १. पथिक। राही। २. सौदागर
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सारणित  : भू० कृ० [सं०] सारणी के रूप में अंकित किया हुआ ।
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सारणी  : स्त्री० [सं०] १. पानी बहने की नाली। २. छोटी नदी। ३. नहर। ४. आज-कल कोई ऐसा कागज या फलक जिसमें बहुत से कोठे, खाने या स्तम्भ बने रहते हैं और जिनके कोठों आदि में किसी विशेष प्रकार के तुलनात्मक अध्ययन, गणना या विवेचन के लिये कुछ अंक, पद या शब्द आदि अंकित होते हैं। (टेबुल)
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सारणी-यंत्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का आधुनिक यंत्र जिसकी सहायता से सारणियाँ बनाई जाती है। (टेबुलेटर)
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सारणीक  : पुं० [सं०] १. ऐसा टाइपराइटर जिसमें अलग-अलग स्तम्भों में अकादि भरकर सारणी तैयार की जाती हो। (टेबुलेटर) २. दे० ‘सारणीकार’।
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सारणीकरण  : पु० [सं०] १. सारणी बनाने की क्रिया या भाव। २. तथ्यों आदि को सारणी के रूप में अंकित करना। सारणीयन। (टेबुलेशन उक्त दोनों अर्थो में)
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सारणीकार  : पुं० [सं०] वह जो अनेक प्रकार की सारणियाँ बनाने का काम करता हो। (टेबुलेटर)
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सारणीयन  : पुं० [सं०] सारणीकरण।
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सारणेश  : पुं० [सं० ब० स० ष० त० वा] एक प्राचीन पर्वत।
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सारता  : स्त्री० [सं० सार+तल्—टाप्] सार के रूप में होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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सारथि  : पुं० [सं०√सृ (गत्यादि)+अथिन्] १. रथ का चालक। सूत। २. समुद्र। ३. नायक। ४. साथी।
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सारथित्व  : पुं० [सं० सारथि+त्व] सारथि का कार्य, धर्म या पद।
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सारथी  : पुं० [सं० सारथि] [भाव० सारथित्व, सारथ्य] १. रथ चलाने वाला। सूत। २. सब कारोबार चलाने, देखने या सँभालनेवाला व्यक्ति। ३. सागर। ४. समुद्र।।
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सारथ्य  : पुं० [सं० सारथि+ष्यञ्] सारथी का काम या पद।
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सारद  : वि० [सं०] [स्त्री० सारदा] सार का तत्व देने वाला। वि०=शारदीय। स्त्री०=शारदा (सरस्वती)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारदा  : स्त्री०=शारदा। पुं० [सं० शरद] स्थल कमल। स्त्री० शारदा (सरस्वती)
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सारदा-सुंदरी  : स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम।
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सारदी  : वि० शारदीय।
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सारदूल  : पुं०=शार्दूल (सिंह)।
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सारधाता (तृ)  : पुं० [सं०] १. ज्ञान का बोध कराने वाला व्यक्ति। २. शिव।
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सारना  : सं० [हिं० सरना का स०] १. (काम) पूरा या ठीक करना। बनाना। २. सुन्दर बनाना। सजाना। ३. रक्षा करना। बचाना। ४. (आँखों में अंजन या सुरमा) लगाना। ५. (अस्त्र-शस्त्र) चलाना। ६. प्रहार करना। ७. पालन-पोषण या देख-रेख करना। सँभालना। ८. पूरा करना। जैसा—पैज सारना=प्रतिज्ञा पूरी करना। ९. दूर करना। हटाना। १॰. हटाने में प्रवृत्त करना। ११. बुझाना। १२. साफ करना। १३. (खेत में) खाद डालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सारनाथ  : पुं० [सं० सारंगनाथ] वाराणसी की उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित एक प्राचीन नगरी जहाँ से गौतम बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार आरंभ किया था।
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सारपद  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा पत्ता जिसमें सार अर्थात खाद हो। २. एक प्रकार का पक्षी।
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सारपाक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का जहरीला फल। (सुश्रुत)
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सारबान  : पुं० [फा०] [भाव० सारबानी] वह जो ऊँट चलाने या हांकने का काम करता हो।
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सारंभ  : पुं० [सं० तृ० त ] १. क्रोधपूर्ण बातचीत। २. गरमा-गरम बहस।
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सारभुक्  : पुं० [सं० सार√भुज् (खाना)+क्विप्] अग्नि। आग।
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सारभृत  : वि० [सं० सार√भृ (भरम करना)+क्विप्—तुक्] १. सार ग्रहम करने वाला। सारग्राही। २. अच्छी चीजें चुनने या छाँटने वाला।
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सारमिति  : स्त्री० [सं०] वेद। श्रुति।
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सारमेय  : पुं० [सं०] १. सरमा नामक वैदिक कुतिया की संतान, चार-चार आँखो वाला दो कुत्ते जो यम के द्वार पर रहते हैं। २. कुत्ता। श्वान वि० सरमा-संबंधी। सरमा का।
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सारल्य  : पुं० [सं० सरल+ल्यञ्] सरल होने की अवस्था, गुण या भाव। सरलता।
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सारवती  : स्त्री० [सं०] १. प्रकार का सम-वृत्त वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में तीन भगण और गुरु होता है। तथा मोहि चलौ बन सग लिये। पुत्र तुम्हे हम देखि जिये।—केशव। २. योग में एक प्रकार की समाधि।
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सारवत्ता  : स्त्री० [सं० सारवत्+तल्—टाप्] १. सारवान होने की अवस्था या भाव। २. सार ग्रहम करने का कार्य या भाग।
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सारवर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसे वृक्षों तथा वनस्पतियों की सामूहिक संज्ञा जिनमें से दूध सा सफेद निर्यास निकलता हो। (वैद्यक)
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सारवान् (वत्)  : वि० [सं०] १. जो सार या तत्व से युक्त हों। २. ठोस। ३. पक्का। मजबूत। ४. (वृक्ष) जिसमें से निर्यास निकलता हो।
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सारस  : वि० [सं०] सर या सरसी अर्थात तालाब से संबंध रखने वाला। पुं० १. लंबी टाँगों वाला एक प्रकार का प्रसिद्ध और बड़ा सफेद पक्षी जो प्रायःजलाशयों के पास अपनी मादा के साथ रहता है, और मछलियाँ खाता है। सरसीरु। २. हंस। ३. चन्द्रमा। ४. कमर में पहनने का एक प्रकार का गहना। ५. कमल। ६. छप्पय नामक छन्द के ३७ वें भेद का नाम।
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सारस-प्रिय  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सारसक  : पुं० [सं० सारस+कन्] सारस पक्षी।
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सारसाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] लाल नामक रत्न का एक प्रकार या भेद। वि० [स्त्री० सारसाक्षी] सारस अर्थात कमल के समान सुन्दर नेत्रोंवाला।
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सारसिका  : स्त्री० [सं० सारस+कन्—टाप् इत्व] मादा सारस।
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सारसी  : स्त्री० [सं० सारस—डीप्] १. आर्या छन्द का २३वाँ भेद। २. मादा सारस।
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सारसुती  : स्त्री०=सरस्वती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सारसैंधव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सेंधा नमक।
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सारस्वत  : वि० [सं०] १. सरस्वती से संबंध रखने वाला। सरस्वती का। २. विद्या, विद्वुत्ता, शास्त्रीय ज्ञान आदि से संबंध रखने वाला। शास्त्रीय (एकेडेमिक) ३. सरस्वती नदी से संबंध रखने या उसके आस-पास होने वाला। ४. सारस्वत देश या जाति से संबंध रखने वाला। पुं० १. प्राचीन भारत में सरस्वती नदी के दोनों तटो पर का प्रदेश जो आधुनिक दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में पड़ता है और जो अब पंजाब का दक्षिणी भाग है। प्राचीन आर्यो का यही पवित्र मूल-निवास-स्थान था। २. उत्तर प्रदेश में बसने वाले ब्राह्मणो और उनके वंशजों की संज्ञा। ३. एक मुनि जो सरस्वती नदी के पुत्र कहे गये हैं। ४. वैधक में, एक प्रकार का चूर्ण जो उन्माद, प्रमेह, वायु-विकार आदि में गुणकारी माना जाता है। ५. पुराणानुसार सरस्वती को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किया जाने वाला हर प्रकार का व्रत जो प्रति रविवार या प्रति पंचमी को किया जाता है। कहते हैं कि यह व्रत करने से आदमी बहुत बड़ा विद्वान और भाग्यवान् होता है।
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सारस्वती  : वि०=सारस्वतीय। स्त्री०=सरस्वती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारस्वतीय  : वि० [सं० सरस्वती+घण्—ईय] १. सरस्वती का सरस्वती संबंधी। २. सारस्वत का।
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सारस्वतोत्सव  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. एक प्राचीन उत्सव जिसमें सरस्वती का पूजन होता था। २. आज-कल बसंत पंचमी को होने वाला सरस्वती-पूजन।
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सारस्वत्य  : वि० [सं० सरस्वती+ष्यञ्] सरस्वती का। सरस्वती संबंधी। पुं० सरस्वती का पुत्र जिसे राजशेखर ने काव्य पुरुष कहा है। विशेष—महाभारत में कथा है कि भगवान ने सरस्वती को एक पुत्र इसलिये दिया था कि वह वेदों का अध्ययन करके संसार में उनका प्रचार करे। वही सारस्वत्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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सारहली  : स्त्री० दे० ‘साँडनी’। (डिं०) उदा०—असंष सारहली बाजइ ढूल। नरपतिनाल्ह।
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सारा  : वि० [सं० समग्र] [स्त्री० सारी] १. जितना हो वह सब। कुल। समस्त। २. आदि से अन्त तक जितना हो, वह सब। पूरा। समग्र। स्त्री० [सं०] १. काली निसोथ। २. दूब। ३. सातला। ४. थूहड़। ५. केला। ६. तालीश पत्र। पुं० [?] एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक वस्तु दूसरी से बढ़कर कही जाती है। पुं०=साला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारांभस  : पुं० [सं० ब० स०] नींबू का रस।
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साराम्ल  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक जँबीरी नींबू। २. धामिन।
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सारावती  : स्त्री० [सं०] सारवली। (दे०)
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सारांश  : पुं० [सं० सार+अंश] १. किसी पूरे तथ्य, पदार्थ आदि के मुख्य तत्वों का ऐसा छोटा या संक्षिप्त रूप जिससे गुण, स्वरूप आदि का ज्ञान हो सके। मुख्य सार भाग। खुलासा। निचोड़। समस्तिका। (ऐब्सट्रैक्ट) २. किसी पूरी बात या विवरण की मुख्य और सारभूत विशेषताएँ जो एक जगह एकत्र की गई हों। (समरी) ३. कोई ऐसा छोटा लेख जिसमें की बड़े लेख की सब बातें आ गई हों। सार-संग्रह। (कम्पेन्डियम) ४. तात्पर्य। मतलब। जैसे—सारांश यह कि आप को वहाँ नहीं जाना चाहिये था। ५. परिणाम। नतीजा। ६. उपसंहार।
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साराँशक  : पुं० [सं०] वह कथन या लेख जो किसी विस्तृत उल्लेख या विवरण के साराँश के रूप में हो। (समरी)
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सारि  : पुं० [सं० सार+इन,√सृ (गत्यादि)+इण् वा] १. जुआ खेलने का पासा। २. पासे से जुआ खेलने वाला जुआरी। ३. शतरंज आदि की गोटी या मोहरा।
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सारिउँ  : स्त्री० सारिका (मैना पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सारिक  : वि० [सं० सार से] १. जो सार रूप में हो या साराँश से संबंध रखता हो। २. संक्षेप में कहा गया या संक्षिप्त रूप में हुआ। (ब्रीफ) ३. साराँश के रूप में एक जगह इकठ्ठा या संघठित किया हुआ। (कन्साइज) पुं० दे० ‘सारिका’।
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सारिका  : स्त्री० [सं० सारिक+टाप्] मैना नामक पक्षी।
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सारिखा  : वि०=सरीखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारिणी  : स्त्री० [सं०] १. गन्ध प्रसारिणी लता। २. लाल पुनर्नवा। ३. दुरालभा। ४. दे० ‘सारिणी’। वि० सं० सारी (सारिन्) का स्त्री०।
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सारित  : भू० कृ० [सं०] दूर किया या हटा या हटाया हुआ।
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सारिफलक  : पुं० [सं० ब० स०] चौपड़ की गोटी या पासा। बिसात।
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सारिवा  : स्त्री० [सं० सारिव—टाप्] १. अनंतमूल। २. कृष्ण अनंन्त-मल।
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सारिष्ट  : वि० [सं०] [भाव० सारिष्टता] १. सबसे अच्छा। २. अच्छी तरह बढ़ा हुआ। उन्नत। ३. मृत्यु के समीप पहुँचा हुआ। मरणासन्न।
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सारी  : स्त्री० [सं०] १. सारिका। पक्षी। मैना। २. जूआ खेलने की गोटी या पासा। ३.थूहर। वि० [सं० सारिन] अनुकरण अनुसरण करने वाला। स्त्री० [हिं० सारना] १. सारने (बनाने, रक्षित रखने आदि) की क्रिया या भाव। उदा०—कबीर सारी सिरजनहार की जानै नाहीं कोइ।—कबीर। २. रची या बनाई हुई चीज। रचना। सृष्टि। वि० हिं० ‘सारा’ का स्त्री०। सब। समस्त। स्त्री० १. दे० ‘साड़ी’। २. दे० ‘साली’।
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सारु  : पुं०=सार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सारूप, सारूप्य  : पुं० [सं०] १. दो या अधिक वस्तुओं के रूप अर्थात आकार-प्रकार के विचार से होने वाली समानता। समरूपता। (सेम्ब्लेन्स) २. पाँच प्रकार की मुक्तियों में से एक जिसके संबंध में यह माना जाता है कि इसमें भक्त अपने उपास्य देवता के साथ मिलकर रूप विचार से ठीक उसी के अनरूप हो जाता है।
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सारूप्य निबंधता  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत का कथन न करके उसी तरह के किसी अप्रस्तुत का उल्लेख होता है।
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सारूप्यता  : स्त्री० [सं० सारूप्य+तल्—टाप्]=सारूप्य।
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सारो  : पुं० [सं० शालि] एक प्रकार का धान जो अगहन में पक जाता है स्त्री०=सारिका (मैना)। वि० पुं०=सारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारोदक  : पुं० [सं० कर्म० स०, ब० स० वा] अनंतमूल या सारिवा का रस।
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सारोपा  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, लक्षण का एक प्रकार का भेद जो उस समय माना जाता है जब उपमेय में उपमान का इस प्रकार आरोप होता है कि उपमेय से उपमान का कोई विशिष्ट गुण या धर्म सूचित होने लगे। जैसा—विद्या में आप बृहस्पति हैं, अर्थात आप बृहस्पति के समान विद्वान हैं। इसके गौण सारोप तथा शुद्ध सारोपा दो भेद हैं।
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सारोष्ट्रिक  : पुं० [सं० सारोष्ट्र-ब० स०—ठक्-इक्] एक प्रकार का विष।
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सारौं  : स्त्री०=सारिका (मैना पक्षी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सारौ  : स्त्री०=सारिका (मैना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सार्गिक  : पुं० [सं० सर्ग+ठञ्—इक] वह जो सृष्टि कर सकता जो। स्त्रष्टा।
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सार्ज  : पुं० [सं०√सृज (त्यागना] +अण्] धूना। राल।
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सार्टिफिकेट  : पुं० [अं०] प्रमाण-पत्र।
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सार्थ  : वि० [सं०] १. अर्थयुक्त। अर्थवान्। २. धनी। ३. उद्देश्य। पूर्ण। ४. उपयोगी। पुं० १. धनीव्यक्ति। २. व्यापारियों का जत्था। ३. सेना की टुकड़ी। ४. समूह। गोल। ५. यात्रियों का दल।
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सार्थक  : वि० [सं० सार्थ+कन्] [भाव० सार्थकता] १. (शब्द या पद) जिसका कुछ अर्थ हो। अर्थवान। २. जिसका उपयोग निरुद्देश्य न हो। जो किसी उद्देश्य की पूर्ति करता हो। जैसे—वाक्य में होने वाला किसी शब्द का सार्थक प्रयोग। ३. उपयोगी तथा लाभप्रद।
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सार्थकता  : स्त्री० [सं० सार्थक+तल—टाप्] सार्थक होने की अवस्था गुण या भाव।
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सार्थपति  : पुं० [सं०] व्यापार करने वाला। वणिक।
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सार्थवाह  : पुं० [सं०] व्यापारी (विशेषतः दूर तक माल बेचने जानेवाला)
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सार्थिक  : वि० [सं० सार्थ+ठक्—इक्] जो किसी के साथ यात्रा कर रहा हो। पुं० यात्राकाल में संग-साथ रहने के कारण बनने वाला साथी।
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सार्थी  : पुं० [सं० सार्थ+इनि्-सारथिन]=सारथी।
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सार्दूल  : वि० पुं०=शार्दूल।
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सार्द्ध  : वि०=सार्ध।
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सार्द्र  : वि० [सं० अव्य० स०]=आर्द्र (गीला या तर)।
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सार्ध  : वि० [सं०] जो मान, मात्रा आदि के विचार से किसी पूरे एक से आधा और बढ़ गया हो। जैसा—साढ़े चार, साढ़े दस।
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सार्प, सार्प्य  : वि० [सं०] सर्प-संबंधी। सर्प का। पुं० अश्लेषा नक्षत्र।
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सार्व  : पुं० [सं०] सर्व अर्थात् से संबंध रखनेवाला। सब का। जैसा—सार्वजनिक। २. सबके लिये उपयुक्त। पुं० १. गौतम बुद्ध। २. जिन देव।
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सार्व-लौकिक  : वि० [सं०] १. जो सम्पूर्ण लोक या विश्व में प्रचलित या व्याप्त हो। २. जिसका संबंध सब लोगों से हो। ३. जिसे सब लोग जानते हों। ४. विश्वक।
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सार्वकामिक  : वि० [सं०] १. सब प्रकार की कामनाओं से संबंध रखने वाल। २. जो सब तरह की कामनाएँ पूरी करता हो।
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सार्वकालिक  : वि० [सं०] १. जो हर समय होता हो। २. सब कालों में होने वाला। सब नियमो का। ३. जिसका संबंध सब कालों से हो। सर्वकाल संबंधी।
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सार्वगुण  : वि० [सं० सर्वगण+अण्] सर्वगुण संबंधी। सब गुणों का। पुं०=खारा नमक।
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सार्वजनिक  : वि० [सं०] १. सब लोगो से संबंध रखने वाला। सर्व-साधारण संबंधी। (पब्लिक) जैसा—सार्वजनिक उपयोग। २. समान रूप से सब लोगों के काम आने वाला। (कॉमन) जैसा—सार्वजनिक कुआँ या धर्मशाला।
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सार्वजनीन  : वि०=सार्वजनिक।
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सार्वजन्य  : वि० [सं०] सार्वजनिक।
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सार्वज्ञ्य  : पुं० [सं०]=सर्वज्ञता।
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सार्वत्रिक  : वि० [सं०] जो सब स्थानों तथा स्थितियों में प्रायः समान रूप से मिलता, रहता या होता हो। (युनिवर्सल)
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सार्वदेशिक  : वि० [सं०] १. जो सब देशों में होता हो। २. जिसका संबंध सब देशों से हो। (युनिवर्सल) ३. सम्पूर्ण देश में होनेवाला।
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सार्वनामिक  : वि० [सं० सर्वनाम] १. सर्वनाम संबंधी। सर्वनाम का। २. सर्वनाम से निकला या बना हुआ। जैसा—सार्वनामिक विशेषण।
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सार्वभौतिक  : वि० [सं०] १. जिसका संबंध सब भूतों या तत्वों से हो। २. सब प्राणियों से संबंध रखने या उनमें होनेवाला।
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सार्वभौम  : वि० [सं०] १. सम्पूर्ण भूमि से संबंध रखनेवाला। २. सब देशों से संबंध रखने या मन में होनेवाला। पुं० १. चक्रवर्ती राजा। २. हाथी।
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सार्वभौमिक  : वि० [सं०] सार्वभौम। (दे०) पुं० वह जिसका द्रष्टिकोंण इतना विस्तृत हो कि संसार के सब देशों तथा उनके निवासियों को एक समान देखता, समझता तथा मानता हो। ऐसा व्यक्ति स्थानिक, राष्ट्रीय, जातीय तथा अन्य संकुचित विचारों से रहित होता हो। (कॉस्मोपालिटन)
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सार्वराष्ट्रीय  : वि० [सं०] [भाव० सार्वराष्ट्रियता] १. सब या अनेक राष्ट्रों से संबंध रखने वाला। अंतर्राष्ट्रीय। (इन्टरनेशनल) २. (नियम या सिद्धांत) जिसे सब राष्ट्र से मान्यता मिली हो।
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सार्विक  : वि० [सं० सर्व] [भाव० सार्विकता] १. जो साधारणतः सब जगह या सब बातो में प्रायःसमान रूप से देखने में आता हो। (युनिवर्सल) २. विशेषतःकिसी जाति, राष्ट्र, समाज आदि के सब सदस्यों के समान रूप से मिलने या होने वाला। आम। (जेनरल)
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सार्विक वध  : पुं० [सं०] किसी स्थान पर रहने या एकत्र होने वालों की की जाने वाली सामूहिक हत्या। (मैसेकर)
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सार्विक हड़ताल  : स्त्री० [सं०+हिं०] ऐसी हड़ताल जिसमें साधारणतया सभी संबंधित कर्मचारीगण सम्मिलित होते हैं।
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सार्षप  : पुं० [सं० सर्षप+अण्] १. सरसों। २. सरसों का तेल। ३. सरसों संबंधित। सरसों का।
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सार्ष्टि  : स्त्री० [सं० सृष्टि+इञ्] पाँच प्रकार की मूर्तियों में से एक। वि० [भाव० सार्ष्टिता ] अधिकार, पद, स्थिति आदि में किसी के समान।
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सार्ष्टिता  : स्त्री० [सं०] अधिकार, पद, स्थिति आदि के विचार से होने वाली समानता।
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साल  : पुं० [पहलवी सालक से फा०, मि० सं० शारद] १. किसी सन् या संवत् के आरंभिक महीने तक का पूरा समय। वर्ष। बरस। जैसा—इस साल अच्छी वर्षा (या फसल) होने की आशा है। २. किसी दिन या महीने से आरंभ करते हुए बारह महीनों का समय। जैसा—यह इमारत साल भर में बनकर तैयार होगी। स्त्री० [हिं० सालना] १. ‘सालने’ की क्रिया का भाव २. सालने, खटकने या चुभने वाली कोई चीज। जैसे काँटा या सुई। उदा०—कछु सालतें लोभ विशाल से हैं।...।—केशव। ३. मन में होने वाला कष्ट। वेदना। पीड़ा। कसक। ४. क्षत। घाव। ५. लकड़ियाँ जोड़ने के लिये उनमें किया जाने वाला चौकोर छेद। ६. छेद। सुराख। पुं० [सं०] १. पेड़। वृक्ष। २. जड़। मूल। ३. धूना। राल। ४. चहारदीवारी। परकोटा। ५. एक प्रकार की मछली। ६. गीदड़। सियार। ७. किला। गढ़। (डिं०) पुं० [?] १. कूचबंदों की परिभाषा में, खस की जड़ जिससे वे कूच बनाते हैं। २. एक प्रकार की जंगली जंतु जिसके मुँह में दाँत नहीं होते और जो च्यूँटियाँ, दीमक आदि खाता है। पुं०=शाल (वृक्ष)। २. =शालि। ३. =शल्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=शाला। जैसे—धर्मशाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साल भंजिका  : स्त्री०=शाल भंजिका।
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साल-गिरह  : स्त्री० [फा०] वर्ष-गाँठ। जन्म-दिन।
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साल-द्रुम  : पुं० [सं० मध्यम० स० ब० स० वा] सागौन का पेड़। साखू।
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साल-निर्यास  : पुं० [सं० ष० त०] धूना। राल।
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साल-साँभर  : पुं० दे० ‘बारहसिगा’।
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सालंक  : पुं० [सं०] संगीत में, राग के तीन प्रकारों से एक। ऐसा राग जो बिलकुल शुद्ध और स्वतंत्र होने पर भी किसी दूसरे राग की छाया से युक्त जान पड़ता हो।
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सालक  : वि० [हिं० सालना+क (प्रत्य०) ] सालने या दुख देनेवाला।
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सालंकार  : वि० [सं० तृ० त०] अलंकारों से सजा हुआ। अलंकृत।
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सालंग  : पुं० [सं० सलंग+अण्]=सालंक (राग)।
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सालग  : पुं० [सं०]=सालंक।
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सालगा  : पुं० दे० ‘सलई’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालग्राम  : पुं०=शालग्राम।
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सालग्रामी  : स्त्री० [सं० शालग्राम] गंडक नदी।
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सालज  : पुं० [सं० साल√जन् (उत्पन्न करना)+ड] सर्जरस। धूना। राल।
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सालन  : पुं० [सं० सलवण] मांस-मछली या साग-सब्जी की मसाले दार तरकारी। पुं० [सं० साल] धूना। राल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालना  : अं० [सं० शूल] १. किसी कँटीली चीज का शरीर के किसी अंग में गड़कर या चुभकर पीड़ा उत्पन्न करना। २. लाक्षणिक रूप में, किसी कष्टदायक बात का मन में इस प्रकार घर करना कि वह रह-रहकर विशेष कष्ट देती रहे। ३. गड़ना। चुभना। संयो० क्रि०—जाना। सं० १. कोई नुकीली चीज किसी दूसरी चीज के अंदर गाड़ना या धँसाना। २. चुभाना। ३. किसी को दुख देना।
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सालपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीप्] शालपर्णी। सरिवन।
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सालपान  : पुं० [सं० शालिपर्णी ?] एक प्रकार का क्षुप जो वर्षा ऋतु के अंत में फूलता है। इसकी जड़ का व्यवहार ओषधि के रूप में होता है। कसरवा। चाँचर।
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सालंब  : वि० [सं० तृ० त०] अवलंब या सहारे से युक्त। (समास से)
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सालब मिसरी  : स्त्री० दे० ‘सालम मिसरी’।
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सालम मिसरी  : स्त्री० [अ० सअलब+मिस्त्री=मिस्त्र देश का] एक प्रकार के पौधे का कन्द जो पौष्टिक होने के कारण ओषधियों में प्रयुक्त होता है। वीरकंद। सुधामूली।
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सालर  : पुं०=सलई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालरस  : पुं० [सं० ष० त०] धूना। राल।
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सालस  : पुं० [अ० सालस०=तीसरा] १. वह तीसरा व्यक्ति जो दो व्यक्तियों के झगड़े का निपटारा करता हो। तिसरैत। २. पंच।
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सालसा  : पुं० [अ०] रक्त शोधक ओषधियों के योग से बना हुआ पाश्चात्य ढ़ंग का एक प्रकार का काढ़ा।
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सालसी  : स्त्री० [अ०] १. सालस होने की अवस्था या भाव। २. दूसरों का झगड़ा निपटाने के लिये तीसरे व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों की बनी हुई पंचायत।
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सालहज  : स्त्री०=सलहज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साला  : पुं० [सं० श्यालक] [स्त्री० साली] १. संबंध के विचार से किसी व्यक्ति की द्रष्टि में उसकी पत्नी का भाई। २. लोक व्यवहार में उक्त प्रकार का संबंध सूचित करने वाली एक गाली। पुं० [सं०] सारिका। मैना। पक्षी। स्त्री०=शाला। वि० [हिं० साल०=वर्ष] नियत साल या वर्ष पर होने वाला या उससे संबंध रखने वाला। जैसा—दो-साला। पेड़=दो साल का लगा हुआ पेड़। तिन-साला बंदोबस्त०=तीन साल के लिये होने वाला बंदोबस्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालाना  : वि० [फा० सालान] हर साल होने वाला। वार्षिक।
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सालार  : पुं० [फा०] नायक। नेता। जैसे—सिपह-सालार=सिपाहियों (फौजियों) का नेता।
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सालारजंग  : पुं० [फा०] १. योद्धा। २. प्रधान सेनापति। ३. साला (पत्नी का भाई) के लिये उपहासात्मक शब्द।
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सालि  : पुं०=शालि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सालिक  : वि० [अ०] १. पथिक। यात्री। २. मुसलमानों में वह साधक जो गृहस्थाश्रम में रहकर भी ईश्वराधना में रत रहता हो।
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सालिका  : स्त्री० [सं०] बाँसुरी।
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सालिग्राम  : पुं०=शालग्राम।
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सालिनी  : स्त्री०=शालिनी (गृहणी)।
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सालिब मिश्री  : स्त्री०=सालम मिस्त्री।
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सालिम  : वि० [अ०] जो कहीं से खंडित न हो। पूर्ण। संपूर्ण। समूचा। जैसे—सालिम तरबूज।
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सालियाना  : वि=सालाना (वार्षिक)।
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सालिसी  : स्त्री० [अ०] दे० ‘सालसी’।
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सालिहोत्री  : पुं०=शालिहोत्री।
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साली  : स्त्री० [हिं० साला] १. संबंध के विचार से पत्नी की बहन। २. हठ योंगियों की परिभाषा में माया, वासना आदि। स्त्री० [फा० साल] १. साल या वर्ष का भाव] (यौ० के अन्त में ) जैसे कहत साली, खुश्कसाली। २. हर साल या प्रतिवर्ष के हिसाब से दिया जाने वाला पारिश्रमिक, पुरस्कार या वेतन।
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सालुर  : पुं०=शालूर (मेंढक)।
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सालू  : पुं० [हिं० सालाना] १. वह जिसके मन को दूसरों का उत्कर्ष सालता हो। ईर्ष्यालु। २. सालने वाली बात। पुं० [?] एक प्रकार का लाल कपड़ा जिसे मांगलिक अवसरों पर स्त्रियाँ ओढ़ती हैं। (पश्चिम)।
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सालेया  : स्त्रि० [सं० सालेय]+टाप्] सौंफ।
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सालोक्य  : पुं० [सं० सलोक, ब० स० ष्यञ] पाँच प्रकार की मुक्तियों में से एक प्रकार की मुक्ति, जिसके फलस्वरूप साधक अपने ईष्टदेव के लोक में जाकर उसमें लीन हो जाता है।
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सालोहित  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा व्यक्ति जिसके साथ रक्त संबंध हो। नातेदार। २. कुल या वंश का व्यक्ति।
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साल्मली  : पुं०=शाल्मली (सेमल का पेड़)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साल्व  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जाति जो किसी समय मध्य (या उत्तरी ?) पंजाब में रहती थी। २. पंजाब का मध्य प्रदेश जिसमें उक्त जाति रहती थी। ३. उक्त प्रदेश का निवासी। ४. एक दैत्य जिसका वध विष्णु ने किया था।
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साल्वेय  : वि० [सं० साल्व+ढ़क्—एय] साल्व देश संबंधी। साल्व का।
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साव  : पुं० [सं० सावक=शिशु] बालक। पुत्र। (डि०) पुं०=साहु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँवक  : पुं०[देश०] वह ऋण जो हलवाहों को दिया जाता है और जिसके सूद के बदले में वे काम करते हैं। पुं० [सं० श्यामक] साँवा नामक कदन्न।
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सावक  : पुं०=श्रावक (जैन या बुद्ध भिक्षु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावँकरन  : पुं०=श्यामकर्ण (घोड़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावका  : अव्य० [अ० साबिक ?] नित्य। सदा। उदा०—वायु सावका करै लराई, माइया सद मतवारी।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावकाश  : अव्य० [सं०] अवकाश होने पर। छुट्टी या फुरसत के समय। पुं०=आकाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावगी  : पुं०=सरावगी। स्त्री०=किशमिश। (पंजाब)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावघ  : वि० [सं०] जिसके संबंध में कोई आपत्तिजनक बात कही जा सकती हो। जो किसी रूप में दोष, भ्रम आदि से युक्त हो। ‘निरवद्य’ का विपर्याय। जैसा—आपका यह कथन मेरी दृष्टि में कुछ सावद्य है। पुं० योग में तीन प्रकार की सिद्धियों में से एक। (शेष दो प्रकार निवद्य औऱ सूक्ष्म कहलाते हैं।)
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सावचेत  : वि० [सं० सा+हिं० चेत] [भाव० सावचेती]=सावधान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सावज  : पुं० [सं० शावक ?]। जंगली जानवर जिसका शिकार किया है। (गेम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँवटा  : वि० [?] १. समतल। बराबर। २. पूरी तरह से समाप्त किया हुआ। सफाचट। उदा०—तुमने खा पीकर साँवटा कर दिया होगा।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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सावणिक  : पुं० [सं० श्रावण] श्रावण मास। (डि०)
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साँवत  : पुं०=सामंत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावंत  : पुं०=सामंत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावत  : स्त्री० [हिं० सौत] १. सोंतो का आपस में भेद या डाह। सौतिया डाह। २. ईष्या। जलन। डाह। उदा०—तहँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहूँ मिटत न सावत।—तुलसी।
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साँवती  : स्त्री० [देश०] बैलगाड़ियों आदि के नीचे की वह जाली जिसमें बैलों के लिए घास आदि रखते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांवत्सर  : वि०, पुं० [सं०]=सांवत्सरिक।
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सांवत्सरिक  : वि० [सं०] १. संवत्सर-सम्बन्धी। २. प्रतिवर्ष होनेवाला। वार्षिक। पुं० १. ज्योतिषी। २. चांद्र मास।
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सांवत्सरीय  : वि० [सं० संवत्सर+इण्—ईष] १. संवत्सर-सम्बन्धी। २. वार्षिक।
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सावधान  : वि० [सं० अव्य० स०] [भाव० सावधान] १. जो अवधान या ध्यान पूर्वक कोई काम करता हो। २. जिसे ठीक समय पर तथा ठीक तरह से काम करने की प्रवृत्ति हो। ३. जो परिस्थितियों आदि की क्रिया शीलता के प्रति जागरुक तथा सचेत हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावधानता  : स्त्री० [सं० सावधान+तल्—टाप्] १. सावधान होने की अवस्था, गुण या भाव। २. वह सुरक्षात्मक कार्रवाई जो खतरे आदि से सावधान रहने के लिये की जाती है।
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सावधि  : वि० [सं०] १. जिसकी कोई अवधि निश्चित हो। निश्चितकार्य-कालवाला। २. जिसकी सीमा बाँध दी गई हो।
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साँवन  : पुं० [?] मझोले आकार का एक प्रकार का पहाड़ी पेड़ जिसका गोंद ओषधि के रूप में काम आता है। कहते हैं कि यह गोंद मछली के लिए बहुत घातक होता है। पुं०=सावन (महीना)।
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सावन  : पुं० [सं० श्रावण] १. आसाढ़ के बाद और भाद्रपद के पहले का महीना। श्रावण। २. वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला एक प्रकार का गीत। पुं० [सं०] १. सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का काल या समय। पूरा एक दिन और एक रात जिसका मान ६॰ दंड है। २. यज्ञ का अंत या समाप्ति। ३. यजमान। ४. वरुण। वि० १. एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के काल से संबंध रखने वाला। २. (काल-मान) जिसकी गणना एक सूर्योदय दूसरे सूर्योदय तक काल के विचार से हो। जैसे—सावन दिन-सावन मास, सावन वर्ष आदि। पुं० [?] मँझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष जिसका गोंद ओषधि के रूप में काम आता है और मछलियों के लिये विष होता है। पुं०=सावनी (गीत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावन दिन  : पुं० [सं०] १. उतना समय जितना सूर्य को एक बार याम्योत्तर रेखा से चलकर फिर वहीं आने में लगता है। २. एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का समय। ६॰ दंडों का समय। विशेष—(क) यह नक्षत्र दिन से कभी कुछ छोटा तथा कभी कुछ बड़ा होता है इसलिये, ज्योतिषी लोग नक्षत्र मान का ही व्यवहार करते हैं। (ख) तीन सौ साठ सौर दिनों का एक सावन वर्ष होता है।
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सावन भादों  : पुं० [हिं०] राजमहल का वह विभाग जिसमें जल विहार के लिये तालाब, झरने, फुहारे आदि होते थे। अव्य० सावन और भादों के महीने में।
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सावन वर्ष  : पुं० [सं०] ज्योतिष की गणना में वह वर्ष जो ३६॰ सौर दिनों का होता है। (ट्रापिकल ईयर)
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सावन हिंडोला  : पुं० [हिं०] वे सब गीत जो (क) स्त्रियाँ सावन में झूला झूलने के समय गाती हैं अथवा (ख) देवताओं के झूलने के उत्सव के समय गाते जाते हैं। ऐसे गीत तो प्रायः श्रृंगारात्मक होते हैं।
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सावन-मास  : पुं० [सं०] भारतीय ज्योतिष की गणना के अनुसार व्यापारिक और व्यवहारिक कार्यो के लिये माने जाने वाला एक प्रकार मास जो किसी तिथि से आरंभ होकर उसके तीसवें दिन तक होता है। यदि गणना चाँद मास की तिथि के अनुसार हो तो उसे चाँद्र सावन कहते है। और यदि सौर मास की तिथि के अनुसार हो तो उसे सौर सावन मास कहते हैं।
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सावनी  : वि० [हिं० सावन (महीना)] १. सावन संबंधी। सावन का। २. सावन में होने वाला। स्त्री० १. सावन में गाया जाने वाला एक प्रकार का गीत। २. सावन में वर पक्ष से कन्या के लिये भेजे जाने वाले कपड़े, फल, मिठाइयाँ आदि। ३. सावन के लगभग तैयार होने वाली फसल। ४. एक प्रकार का पौधा और उसके फूल। पुं० सावन में तैयार होने वाला एक प्रकार का धान। स्त्री०=श्रावणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावनी कल्याण  : पुं० [हिं० सावनी+सं० कल्याण] सावनी और कल्याण के मेले से बना हुआ एक प्रकार का संकर राग। (संगीत)
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साँवर  : वि०=साँवला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावर  : पुं० [सं० सवर+अण्] १. लोभ। २. अपराध। दोष। ३. पाप। पुं० १. =शाबर। २. =साबर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सावरणी  : स्त्री० [सं० सावरण—ङीप्] वह बुहारी जो जैन यति अपने साथ रखते हैं।
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सावरिका  : स्त्री० [सं० सावर+कन्-टाप्,इत्व] एक प्रकार की जोंक जो जहरीली नहीं होती।
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सावर्ण  : वि० [सं० सवर्ण+अण्] जो एक जाति या वर्ण के हों। सवर्ण। पुं० दे० सावर्णि।
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सावर्णक  : पुं० [सं० सावर्ण+कन्]=सावर्णि।
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सावर्णि  : पुं० [सं सवर्णा+इञ्] सूर्य के पुत्र आठवें मनु। २. उक्त मनु का मन्वन्तर।
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सावर्णिक  : वि० [सं० सावर्णि+कन्] जिनका संबंध एक ही जाति या वर्ण से हो।
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सावर्ण्य  : पुं० [सं० सवर्ण+ष्यञ्] सवर्ण होने की अवस्था, गुण या भाव।
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साँवलताई  : स्त्री०=साँवलापन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँवला  : वि० [सं श्यामल] [स्त्री० साँवली, भाव०साँवलापन] जिसके शरीर का रंग हलका कालापन लिए हुए हो। श्याम वर्ण का। पुं० १. कृष्ण। २. पति के लिए संबोधन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँवलापन  : पुं० [हिं० साँवना+पन (प्रत्य०)] साँवला होने की अवस्था, गुण या भाव। वर्ण की श्यामता।
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साँवलिया  : वि० [हिं० साँवला] साँवले रंग का (व्यक्ति)। पुं० श्रीकृष्ण का एक नाम।
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सावष्टंभ  : पुं० [सं० अव्य० स०] ऐसा मकान जिसके उत्तर-दक्षिण सड़क हो। (ऐसा मकान बहुत शुभ माना जाता है।) वि० १. मजबूत। दृढ़। २. आत्म-निर्भर।
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साँवाँ  : पुं० [सं० श्यामक] कंगनी या चेना की जाती का एक अन्न जो जेठ में तैयार होता है।
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सांवादिक  : वि० [सं० संवाद+ठक्—इक] १. विवादास्पद। २. प्रचलित। ३. संवाद-संबंधी। ४. समाचार-संबंधी। पुं० १. नैयामियक। २. पत्रकार।
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साविका  : स्त्री० [सं० अव्य० स०] धाय। दाई।
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सावित्र  : वि० [सं०] सविता अर्थात सूर्य-संबंधी, जैसा—सावित्र होम। २. सविता या सूर्य से उत्पन्न। पुं० १. सूर्य। २. शिव। ३. वसु। ४. ब्राह्मण। ५. सूर्य के पुत्र। कर्ण। ६. गर्भ। ७. यज्ञोपवीत। ८. एक प्रकार प्राचीन अस्त्र।
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सावित्री  : स्त्री० [सं०] १. सूर्य की किरण। २. ऋग्वेद का गायत्री नामक मंत्र जिसमें सूर्य की स्तुति की गई है। ३. सरस्वती। ४. सूर्य की एक पुत्री जो ब्रह्मा को ब्याही थी। ५. दक्ष की एक कन्या जो धर्म की पत्नी थी। ६. मत्स्य देश के राजा अश्वपति की कन्या जो सत्यवान को ब्याही थी और जिसने सत्यवान को काल के हाथ छुड़ाया था। इसकी गणना परम सती स्त्रियों में होती है। ७. कोई सती साध्वी स्त्री। ८. साधवा स्त्री। ९. सरस्वती नदी। १॰. यमुना नदी। ११. उपनयन संस्कार। १२. आँवला।
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सावित्री व्रत  : पुं० [सं०] एक व्रत जो स्त्रियाँ जेष्ठ कृष्ण चतुर्दशी को अपने पति की दीर्घायु की कामना से करती हैं।
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सावित्री सूत्र  : पुं० [सं० ष० त० मध्यम० स०] यज्ञोपवीत। यज्ञोपवीत जो सावित्री दीक्षा के समय धारण किया जाता है।
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सावित्रेय  : पुं० [सं० सावित्री+ढक्—एय] यमराज। यम।
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सांवेदिक  : वि० [सं०] शरीर के संवेदन सूत्रों से संबंध रखनेवाला। (सेन्सरी)
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सावेरी  : स्त्री० [?] संगीत में भैरव ठाठ की एक प्रकार की रागिनी।
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सांशयिक  : वि० [सं० संशय+ठञ्—इक] १. संशय-संबंधी। २. जिसके सम्बन्ध में कुछ संशय हो।
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साशंस  : वि० [सं०] इच्छुक। आकांक्षी।
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साशिव  : पुं० [सं० ब० स०] १. प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. ऋषी का पुत्र। ऋषीक।
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साश्चर्य  : वि० [सं०] १. आश्चर्यजनक। चकित करने वाला। २. चकित।
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साश्रु  : वि० [सं० ब० स०] १. आँसुओं से युक्त। अश्रुपूर्ण। २. रोता हुआ। अव्य। १. आँसुओं से युक्त होकर। २. आँखों में आँसू भरकर। रोते हुए।
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साश्वत  : वि०=शाश्वत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साष्टांग  : वि० [सं० तृ० त०] आठों अंगों से युक्त। क्रि० वि० आठों अंगों से। जैसे—साष्टाँग प्रणाम करना।
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साष्टांग-प्रणाम  : पुं० [सं०] सिर, हाथ, पैर० हृदय, आँख, जाँघ, वचन और मन इन आठों से युक्त होकर और जमीन पर सीधा लेटकर किया जाने वाला प्रणाम।
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साँस  : पुं० [सं० श्वास] १. प्राणियों का जीवन धारण के लिए नाक या मुँह से हवा अंदर खींचकर फेफड़ों तक पहुँचाने और उसे फिर बाहर निकालने की क्रिया। श्वास। दम। (ब्रीद) विशेष—(क) जल में रहनेवाले जीवों और वनस्पतियों में भी यह क्रिया होती है, पर उनका प्रकार और स्वरूप कुछ भिन्न होता है। जब तक यह क्रिया चलती रहती है, तब तक प्राणी या शरीर जीवित रहता है। (ख) सं० श्वास से व्युत्पन्न हिं साँस सर्वथैव पुल्लिंग है। पर उर्दू के कुछ कवियों ने भूल से इसका प्रयोग स्त्रीलिंग में किया है, और उनके अनुकरण पर हिंदी कोशों में भी इसे स्त्रीलिंग माना गया है जो ठीक नहीं है। क्रि० प्र०—आना।—खींचना।—छोड़ना।—जाना।—निकलना।—लेना। मुहा०—साँस उखड़ना= (क) साँस लेने की क्रिया का बीच में कुछ समय के लिए रुकना। जैसे—गाने में गवैये का साँस उखड़ना। (ख) मरने के समय रोगी का बहुत कष्ट से और रुक-रुककर साँस लेना। साँस ऊपर-नीचे होना=चिंता, भय आदि के कारण साँस की क्रिया बार बार रुकना। साँस खींचना=वायु अंदर खींचकर उसे इस प्रकार रोक रखना कि ऊपर से देखने पर निर्जीव या मृत जान पड़े। जैसे—शिकारी को देखते ही हिरन साँस खींचकर पड़ा गया। साँस चढ़ना=बहुत परिश्रम करने के कारण थक जाने पर साँस का जल्दी जल्दी आना-जाना। साँस चढ़ाना=प्राणायाम के समय अथवा यों ही वायु अंदर खींचकर उसे कुछ समय के लिए रोक रखना। साँस छूटना=साँस लेने की क्रिया बंद होना जो मृत्यु का लक्षण है। साँस टूटना=दे० ‘ऊपर ‘साँस उखड़ना’। साँस तक न लेना=इस प्रकार चुप या मौन हो जाना कि मानों अस्तित्व या उपस्थिति ही नहीं है। जैसे—जब मैंने उसे फटकारना शुरू किया, तब उसने साँस तक न लिया। साँस फूलना=अधिक शारीरिक श्रम करने के कारण साँस का जल्दी जल्दी चलने लगन। (ख) दमे का रोग होना। साँस भरना=दे० नीचे ‘ठंडा साँस लेना’। साँस रहते=जब तक जीवन रहे। जीते जी। जैसे—साँस रहते तो मैं कभी ऐसा न होने दूँगा। साँस लेना=परिश्रम करते-करते थक जाने पर सुस्ताने के लिए ठहरना या रुकना। उलटा साँस लेना= (क) मरने के समय बहुत कष्ट से और रुक-रुक कर साँस लेना। (ख) दे० नीचे ‘गहरा या ठंढा या लंबा साँस लेना’। गहर, ठंढा या लंबा साँस लेना= (क) बहुत अधिक मानसिक कष्ट के कारण अथवा (ख) मन पर पड़ा हुआ भार हलका कहोने के कारण कुछ अधिक देर तक हवा अंदर खींचते हुए फिर कुछ अधिक देर तक उसे बाहर निकालना जो ऐसे अवसरों पर प्रायः शरीर का स्वाभाविक व्यापार होता है। विशेष—साँस के शेष मुहा० के लिए दे० ‘दम’ के मुहा० २. किसी प्रकार की जीवनी-शक्ति या सक्रियता। दस। जैसे—अब मामले में कुच भी साँस नहीं रह गया, अर्थात् उसके संबंध में अब कुछ भी नहीं हो सकता; या अब यह और आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। ३. निरंतर बहुत समय तक काम करते रहते या थक जाने पर सुस्ताने के लिए बीच में किया जानेवाला विश्राम या लिया जानेवाला अवकाश। मुहा०—साँस लेना=कोई काम करते समय सुस्ताने के लिए बीच में कुछ ठहरना या रुकना। जैसे—जब तक यह काम पूरा न हो जाय, तब तक मुझे साँस लेनी की भी फुरसत न मिलेगी। ४. किसी चीज के फटने आदि के कारण उसके तल में पड़नेवाली पतली दरज या संकीर्ण संधि। मुहा—किसी चीज का) साँस लेना=किसी चीज का बीच में इस प्रकार फटना कि उसकी दरज में से हवा आ जा सके। जैसे—दीवार या फर्श का साँस लेना, अर्थात् बीच में से फटना। ५. उक्त प्रकार के अवकाश, दरज, या संधि में भरी हुई हवा। मुहा०—(किसी चीज में का) साँस निकलना=अंदर भरी हुई हवा का बाहर निकल जाना। जैसे—गुब्बारे या रबर के गेंद का साँस निकलना। (किसी चीज में) साँस भरना=अंदर हवा पहुँचाना या भरना। ६. एक प्रसिद्ध रोज जिसमें साँस बहुत जोर जोर से और जल्दी जल्दी चलता है। दम या साँस फूलने का रोग। दमा।
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सास  : स्त्री० [सं० श्वसु] १. संबंध के विचार किसी की पत्नी या पति की माता। २. संबंध के विचार से उक्तस्थान पर पड़ने वाला स्त्री। जैसे—चचिया सास, ममिया सास,। ३. नाथ और सिद्ध सम्प्रदायों में मणिपुर चक्र में स्थित अपान वायु जो माया, मोह, वासना आदि की जननी मानी गई है। उदा०—सास ननद को मारअदल मैं दिहा चलाई।—पलटूदास।
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सासण  : पुं०=शासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँसत  : स्त्री० [हिं० साँस+त (प्रत्य०)] १. दम घुटने का सा कष्ट। २. बहुत अधिक शारीरिक कष्ट या यातना। ३. बहुत कठोर शारीरिक दंड।
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सासत  : स्त्री०=साँसत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँसत घर  : पुं० [हिं० साँसत+घर] १. कारागार की बहुत ही तंग तथा अत्यन्त अंधकारपूर्ण कोठरी जिसमें दुष्ट कैदी इसलिए रखे जाते हैं कि उन्हें बहुत अधिक शारीरिक कष्ट हो। २. बहुत अँधेरी और छोटी कोठरी।
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सासति  : स्त्री०=शास्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांसद  : वि० [सं० संसद] (कथन, व्यवहार या आचरण) जो संसद या उसके सदस्यों की मर्यादा के अनुकूल हो। पूर्ण भद्रोचित। (पार्लमेन्टरी)
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सांसद सचिव  : पुं० [सं०] किसी राज्य के मंत्री से सम्बद्ध वह सचिव जो उसके संसद के कार्यों में सहायता देता हो। (पार्लमेन्टरी सेक्रेटरी)
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सांसदी  : पुं० [सं० संसद] वह जो संसद के रीति-व्यवहारों का अच्छा ज्ञाता हो और उसमें बैठकर सब काम ठीक तरह से चलाने में पूर्ण पटु हो। (पार्लिमेन्टेरियन)
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सासन  : पुं०=शासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सासन लेट  : [?] एक प्रकार का सफेद जालीदार कपड़ा
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साँसना  : स० [सं० शासन] १. शासन करना। दंड देना। २. डाँटना-डपटना। ३. साँसत में डालकर बहुत कष्ट या दुःख देना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सासना  : सं० [सं० शासन] १. शासन करना। २. दंड देना। ३. कष्ट देना। पुं०=शासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सासरा  : पुं०=ससुराल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांसर्गिक  : वि० [सं० संसर्ग+ञ्—इक] १. संसर्ग सम्बन्धी। २. संसर्ग से उत्पन्न होने या बढ़नेवाला। (कन्टेजस)
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साँसल  : पुं० [?] १. एक प्रकार का कंबल। २. खेतों में बीज बोना।
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साँसा  : पुं० [हिं० साँस] १. श्वास। साँस। २. जीवन। जिंदगी। जैसे—जब तक साँसा, तब तक आशा। पुं० [सं० संशय] १. संदेह। शक। उदा०—सतगुर मिलिया साँसा भाग्या, सैन बताई साँची। —मीराँ। २. भय। डर। पुं०=साँसत। जैसे—मेरी जान तभी से साँसे में पड़ी है। वि०=साँचा (सच्चा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सासा  : स्त्री० [सं० संशय] संदेह। पुं० साँस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सांसारिक  : वि० [सं०] [भाव० सांसारिकता] १. जिसका संबंध इस संसार या उसकी वस्तुओं, व्यापारों आदि से हो। आध्यात्मिक तथा पारलौकिक से भिन्न। २. जिसका संबंध मुख्यतः जीवन की आवश्यकताओं विषय-भोगों आदि से हो।
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सांसिद्धिक  : वि० [सं० सांसिद्धि+ठञ्—इक] १. संसिद्धि सम्बन्धी। २. प्राकृतिक। स्वाभाविक। ३. आत्म-भू। स्वतः प्रसूता।
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साँसी  : पुं० [?] एक जंगली और यायावर या खानाबदोश जाति।
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सासु  : वि० [सं० तृ० त०] प्राणयुक्त। जीवित। स्त्री० सास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सासुर  : पुं० १. ससुर। २. ससुराल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सांस्कारिक  : वि० [सं संस्कार+ठञ्—इक] १. संस्कार-संबंधी। २. संस्कार-जन्य। ३. अन्त्येष्टि क्रिया से सम्बन्ध रखनेवाला।
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सांस्कृतिक  : वि० [सं० संस्कृति+ठञ्—इक] संस्कृति से संबंध रखने या संस्कृति के क्षेत्र में आने या होनेवाला। (कलचरल)
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सांस्थानिक  : वि० [सं० संस्थान+ठक्—इक] संस्थान-सम्बन्धी। संस्थान का।
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सांस्पर्शिक  : वि० [सं० संस्पर्श+ठञ्—इक] १. संस्पर्श-सम्बन्धी। २. संस्पर्श से उत्पन्न या फैलनेवाला। २. दे० ‘संक्रामक’।
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सास्मित  : पुं० [सं० ब० स०, तृ० त० वा] शुद्ध सत्व को विषय बनाकर की जाने वाली भावना।
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सास्वादन  : पुं० [सं० ब० स०] जैनों में, निर्वाण प्राप्ति चौदह अवस्थाओं में दूसरी अवस्था।
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साह  : पुं० [सं० साधु] १. सज्जन और साधु पुरुष। २. वणिक। महाजन। साहूकार। ३. धनी और प्रतिष्ठित व्यक्ति। ४. चीते आदि की तरह का एक प्रकार का पहाड़ी और हिंसक जंतु जिसके शरीर पर छल्लेदार चित्तियाँ या धब्बे होते हैं। ५. लकड़ी या पत्थर का वह लंबा टुकड़ा जो दरवाजे चौखटे में दहलीज के ऊपर दोनो पार्श्वों में लगा रहता है। स्त्री० [सं० शाखा या स्कंध] बाँह। भुजदंड। उदा०—सकल भुआन मंगल-मंदिर के द्वार बिसाल सुहाई साहैं।—तुलसी। पुं०=शाह (बादशाह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहचर्य  : पु० [सं०] १. सहचर होने की अवस्था या भाव। २. साथ साथ रहने या होने का भाव। संग-साथ। (ऐसोसियेशन)
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साहजिक  : वि० [सं०] १. (कार्य या व्यापार) जो प्राणी की सहज बुद्धि या आन्तरिक प्रेरणा से सम्पन्न होता हो। वृत्तिक। सहज (इंस्टक्टिव) २. स्वाभाविक।
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साहजिक धन  : पुं० [सं०] पारितोषिक, वेतन, विजय आदि में मिला हुआ धन। (शुक्त नीति)
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साहण  : पुं० [सं० साधन] १. साथी। संगी। २. सेना। फौज। ३. परिषद्। (डिं०)
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साहना  : स० [सं० सह] १. ग्रहण या प्राप्त करना। लेना। उदा०—खाँतातार मारुफ खाँ लिए पान कर साहि।—चन्दबरदाई। २. भैंस से भैंसे का संभोग कराना। स० [सं० साधन] १. सहारा देना। २. दे० ‘साधना’। स्त्री०=साधना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहनी  : पुं० [सं० साधनिक, प्रा० साहनिअ] १. प्राचीन भारत में, एक प्रकार के राजकर्मचारी जो किसी सैनिक विभाग में अधिकारी होते थे। २. मध्ययुग में, एक प्रकार के राजकर्मचारी जो नगर की व्यवस्था करते थे। उदा०—भरत सकल साहनी बोलाये।—तुलसी। ३. परिषद्। दरबारी। ४. संगी। साथी। स्त्री० सेना। फौज।
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साहब  : पुं० [अ० साहिब] [स्त्री० साहिबा] १. मालिक। स्वामी। २. परमात्मा। ३. मित्र। साथी। शिष्ट समाज में, भले आदमियों के नाम या पेशे के साथ प्रयुक्त होनेवाला आदरार्थक शब्द। जैसा—बाबू कालिका-प्रसाद साहब, डा० साहब, वकील साहब। ५. अंग्रेजी शासन-काल में, इंग्लैण्ड या युरोप का कोई निवासी।
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साहब-सलामत  : स्त्री० [अ०] परस्पर मिलने के समय होनेवाला अभिवादन। बंदगी। सलाम। जैसा—अब तो दोनों में साहब-संलामत भी बंद हो गई है।
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साहबजादा  : पुं० [अ० साहिब+फा० ज़ादा] [स्त्री० साहबजादी] भले आदमी या रईस का लड़का।
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साहबाना  : वि० [अ०] १. साहबों अर्थात् पाश्चात्य देशों के गोरे अथवा अफसरों की तरह का या उनके रंग-ढंग जैसा। २. साहबों अर्थात भले आदमियों की तरह का।
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साहबी  : वि० [अ० साहिब=ई (प्रत्य०)] साहब का। साहब संबंधी। जैसा—साहबी ठाट-बाट, साहबी रंग-ढंग। स्त्री० १. साहब अर्थात् स्वामी होने की अवस्था या भाव। अधिकारपूर्ण प्रभुत्व या स्वामित्व। २. साहब अर्थात पाश्चात्य देश के गोरे निवासी होने की अवस्था, ढंग या भाव। ३. बड़प्पन। महत्त्व।
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साहबीयत  : स्त्री० [?] ‘साहबी’ या साहब होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव।
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साहस  : पुं० [सं०] [वि० साहसिक, साहसी] १. प्राचीन भारत में, बलपूर्वक किया जाने वाला कोई अनुचित, क्रूरतापूर्ण तथा नीति-विरुद्ध कार्य। जैसे—किसी के धन या स्त्री का अपहरण, मार-काट, लूट-पाट आदि। विशेष—इसीलिए यह शब्द अत्याचार, दुष्कर्म, बलात्कार आदि का भी वाचक हो गया था। २. वैदिक युग में, वह अग्नि जिस पर यज्ञ के लिए चरू पकाया जाता था। ३. आज-कल मन की दृढता और शक्ति का सूचक वह गुण या तत्व जिसके फलस्वरूप मनुष्य बिना किसी भय या संकोच के कोई बहुत कठिन, जोखिम का बहुत बडा़ या बूते के बाहर का काम करने में प्रवृत्त होता है। (करेज) ४. अर्थशास्त्र में, उत्पत्ति के पाँच साधनों में से एक जिसमें उत्पत्ति के शेष साधनों (भूमि, श्रम, पूँजी, प्रबंध) को एकत्र करके उनके द्वारा किसी वस्तु की उत्पत्ति की जाती है। उद्यम। (एन्टरप्राइज) ५. दंड। सजा। ६. जुरमाना।
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साहसांक  : पुं० [सं० ब० स०] राजा विक्रमादित्य का एक नाम।
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साहसिक  : वि० [सं०] १. साहस संबंधी। साहस का। २. जिसमें साहस हो। साहसी। हिम्मतवर। ३. पराक्रमी। ४. निडर। निर्भीक। ५. अत्याचार या क्रूरतापूर्ण अथवा निंदनीय कृत्य करने वाला। जैसा—चोर, डाकू, लुटेरा, लंपट, झूठा, बेईमान आदि।
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साहसी (सिन्)  : वि० [सं०] १. साहसपूर्ण काम करनेवाला। २. जिसमें साहस हो। पुं० १. अर्थशास्त्र में वह व्यक्ति जो उत्पत्ति के साधन (भूमि, श्रम, पूँजी तथा प्रबंध) एकत्र करके किसी वस्तु का उत्पादन करता हो। (एन्टरप्राइजर) २. दे० ‘साहसिक’।
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साहस्त्र  : वि० [सं०] सहस्त्र-संबंधी। हजार की संख्या से संबंध रखने वाला। पुं० १. हजार का समूह। हजार सैनिकों का दल।
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साहस्त्रिक  : वि० [सं० सहस्त्र+ठक् इक] सहस्त्र-संबंधी। साहस। पुं० किसी इकाई का हजारवाँ अंश।
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साहस्त्री  : स्त्री० [सं०] १. एक ही प्रकार की एक हजार चीजों का वर्ग या समूह। २. दे० ‘सहस्त्राब्दि’।
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साहा  : पुं० [सं० साहित्य] १. वह वर्ष जो हिन्दू ज्योतिष के अनुसार विवाह के लिए शुभ माना जाता है। २. विवाह का मुहर्त। (पश्चिम) ३. किसी प्रकार का शुभ मुहर्त। उदा०—सकल दोख विवरजित साहौ।—प्रिथीराज।
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साहाय्य  : पुं० [सं०] सहायता। मदद।
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साँहिं  : पुं० [सं० स्वामी] १. स्वामी। मालिक। २. देख-रेख और रक्षा करनेवाला। उदा०—साँहिं नाहिं जग बात को पूछा।—जायसी।
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साहि  : पुं० [फा० शाह] १. शाह या बादशाह। २. मालिक। स्वामी। ३. धनी। महाजन। साहू। ३. मुसलमान फकीरों की उपाधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साहित्य  : पुं० [सं०] १. ‘सहित’ या साथ होने की अवस्था या भाव। एक साथ होना, रहना या मिलना। २. वे सभी वस्तुएँ जिनका किसी कार्य के संपादन के लिए प्रयुक्त होता है। आवश्यक सामग्री। जैसा—पूजा का साहित्य=अक्षत, जल, फूल-माला, गंध-द्रव्य आदि। ३. किसी भाषा अथवा देश के उन सभी (गद्य और पद्य) ग्रंथो, लेखों आदि का समूह या सम्मिलित राशि, जिसमें स्थायी, उच्च और गूढ विषयों का सुन्दर रूप से व्यवस्थित विवेचन हुआ हो। (लिटरेचर) विशेष-वाङमय और साहित्य में मुख्य अंतर यह है कि वाङमय के अंतर्गत जो ज्ञान राशि का वह सारा संचित भंडार आता है जो मनुष्य को नवीन दृष्टि देता और उसे जीवन संबंधी सत्यों का परिज्ञान मात्र कराता है। परंतु साहित्य उक्त समस्त भंडार का वह विशिष्ट अंश है जो मनुष्य को ऐसी अंतर्दृष्टि देता है जिसमें कलाकार किसी प्रकार की कला सृष्टि करके आत्मोपलब्धि करता है, और रसिक लोग उस कला का आस्वादन करके लोकोत्तर आनंद का अनुभव करते हैं। वे सभी लेख, ग्रंथ आदि जिनका सौंदर्य गुण, रूप या भावुकतापूर्ण प्रभावों के कारण समाज में आदर होता है। ५. किसी विषय, कवि या लेखक से संबंध रखने वाले सभी ग्रंथों और लेखों आदि का समूह। जैसा—वैज्ञानिक साहित्य, तुलसी साहित्य। ६. किसी विषय या वस्तु से संबंध रखनेवाली कभी बातों का विस्तृत विवरण जो प्रायः उसके विज्ञापन के रूप में बाँटता है। जैसे—किसी बडे ग्रंथ, संस्था, यंत्र आदि का साहित्य। (लिटरेचर) ७. गद्य और पद्य की शैली और लेखों तथा काव्यों के गुण-दोष, भेद-प्रभेद, सौंदर्य अथवा नायिका-भेद और अलंकार आदि से संबंध रखनेवाले ग्रंथो का समूह।
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साहित्य शास्त्र  : पु० [सं० मध्यम० स०] १. वह विद्या या शास्त्र जिसमें रचनाओं के साहित्य पक्ष तथा स्वरूप पर शास्त्रीय ढंग से विचार किया जाता है। २. काव्य-शास्त्र। ३. विशेषत—प्राचीन काव्य शास्त्र जिसमें रसों, अलंकारों रीतियों आदि पर विचार किया जाता था।
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साहित्यिक  : वि० [सं० साहित्य] १. साहित्य (विशेषतः साहित्यिक कृतियों) से संबंध रखनेवाला अथवा उसके अनुरूप होनेवाला। जैसा—साहित्यिक रचना। २. जो साहित्य का ज्ञाता या पारखी हो अथवा साहित्य की रचना करना ही जिसका पेशा हो। जैसा—साहित्यिक व्यक्ति, साहित्यिक संस्था।
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साहित्यिक चोरी  : स्त्री० [सं०+हिं] किसी की साहित्यिक कृति चुराकर (कविता, लेख आदि) उसको अपनी मौलिक कृति के रूप में लोगों के सामने उपस्थित करना। (प्लेजिअरीज़्म)।
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साहिनी  : पुं०=साहनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहिब  : पुं०=साहब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहिबी  : स्त्री०=साहबी।
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साहियाँ  : पुं०=साँई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साहिर  : पुं० [अ०] [भाव साहिरी] जादूगर।
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साहिल  : पुं० [अ०] १. किनारा। तट। २. विशेषतः समुद्र-तट।
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साहिली  : स्त्री० [अ० साहिल=समुद्र-तट] १. काले रंग का एक पक्षी जिसकी लंबाई एक बालिश्त से कुछ अधिक होती है। २. बुलबुल-चश्म। वि० १. साहिल या तट से संबंध रखने वाला। २. साहिल पर रहने या होनेवाला।
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साही  : स्त्री० [सं० शल्यकी] एक प्रकार का जन्तु जिसके सारे शरीर पर लंबे लंबे खडे काँटे होते हैं। सेई। स्त्री० [फा० शाही] एक प्रकार की पुरानी चाल की तलवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहु  : पुं०=साह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहुरड़ा  : पुं० [पं० सौहरा] ससुराल। उदा०—पेवकड़े दिन भारी हैं, साहुरड़े जाणा।—कबीर।
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साहुल  : पुं० [फा० शाकूल] १. समुद्र की गहराई नापने का एक उपकरण जिसमें एक लंबी डोरी के एक सिरे पर सीसे का लट्टू लगा रहता है। २. वास्तु में, उक्त आकार-प्रकार वह उपकरण जिसमें दीवारें आदि बनाने के समय उनकी सीध नापते हैं। (प्लम्मेट) पुं० [?] शोर-गुल। होहल्ला। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहू  : पुं०=साह।
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साहूकार  : पुं० [हिं० साहु+सं० कार (प्रत्य०)[भाव० साहूकारी] १. वह व्यक्ति जिसके पास यथेष्ट संपत्ति हो। बड़ा महाजन। २. धनाढ्य व्यापारी। कोठीवाला।
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साहूकारा  : पुं० [हिं० साहूकार+आ (प्रत्य०)] १. साहूकारों का कार्य, पद या व्यवसाय। महाजनी। रुपयों का लेन-देन। २. वह बाजार जिसमें मुख्य रूप से रुपयों का लेन-देन होता है। वि० १. साहूकारों का। २. साहूकारों का-सा
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साहूकारी  : स्त्री० [हिं० साहूकार+ई (प्रत्य०)] साहूकार होने की अवस्था या भाव।
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साहूत  : पुं० [अ० नासूत का अनु०] कुछ मुसलमान विशेषतः सूफी फकीरों के अनुसार ऊपर के नौ लोकों में से सातवाँ लोक।
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साहेब  : पुं०=साहब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साहैं  : अव्य०=सामुहें (सामने)। स्त्री० [हिं० बाँह] भुज-दंड।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिअरा  : वि० [सं० शीतल] ठंडा। शीतल। पुं० १. वृक्ष की छाया से युक्त स्थान जो साधारणतः ठंडा होता है। २. छाँह। छाया। पुं०=सियार (गीदड़)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिआर  : पुं०=सियार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिउँ  : अव्य०=त्यों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिउँ  : स्त्री०=सीमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) विभ० से। उदा०—आन देव सिउँ नाँही काम।—कबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिएटो  : पुं० [अं० साउथ ईस्ट एशिया ट्रीटी आर्गेनाइजेशन के आरंभिक अक्षरो का समूह] दक्षिण पूर्वी एशिया की सुरक्षा के उद्देश्य से स्थापित एक राजनीतिक संघठन जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान आदि राष्ट्र सम्मिलित हैं।
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सिकंजबी  : स्त्री० [फा० शिकंजबी] १. नींबू के रस या सिरके में पकाया हुआ शरबत। २. मधुर पेय, जो जल में नींबू का रस और चीनी मिलाकर तैयार किया जाता है।
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सिकंजा  : पुं०=शिकंजा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकटा  : पुं० [देश०] टूटे हुए मिट्टी के बरतन या खपड़े का छोटा टुकड़ा।
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सिकड़ी  : स्त्री० [सं० श्रंखला] १. जंजीर। श्रंखला। २. किवाड़ बन्द करने के लिये उसमें लगाई जाने वाली जंजीर। साँकल। २. जंजीर के आकार का गले में पहनने का एक प्रकार का गहना। ४. कमर में पहनने की करधनी। ५. जंजीर के आकार की कोई बनावट या रचना।
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सिकता  : स्त्री० [सं० सिक+अतच्-टाप्] १. रेतीली भूमि। २. रेत बालू ३. चीनी। ४. पथरी (रोग)। ५. लोनी का साग।
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सिकता-मेह  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्रमेह का एक भेद जिसमें पेशाब के साथ रेत के से कण निकलते हैं।
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सिकतिल  : वि० [सं० सिकता+इलच्] रेतीली। बलुआ।
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सिकत्तर  : पुं० [अं० सेक्रेटरी] मंत्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकंदर  : पुं० [फा०] एक प्रसिद्ध यूनानी सम्राट। पद—तकदीर का सिकंदर=बहुत बड़ा भाग्यवान आदमी।
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सिकंदरा  : पुं० [फा० सिकंदर] रेल-लाइन के किनारे लगाया जानेवाला वह ऊँचा खंभा जिसके ऊपर हाथ के आकार की पटरियाँ लगी होती हैं। इन पटरियों के ऊपर उठे या नीचे गिरे हुए के संकेत से गाड़ियाँ आगे बढ़तीं या उस स्थान पर रुककर खड़ी रहती हैं। सिंगनल।
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सिकदार  : पुं० [अं०सिक=विश्वनीय] विश्वनीय और बलवान अधिकारी या रक्षक। उदा०—एक कोटु पंच सिकदारा पंचे माँगहिं हाला।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंकना  : अ० [हिं सेंकना का अ०] सेंका जाना।
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सिकमार  : पुं० [?] जंगली बिल्ली की तरह का एक जन्तु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंकरी  : स्त्री०=सिकड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकरी  : स्त्री०=सिकड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकली  : स्त्री० [अं० सैक़ल] १. हथियारों की धार तेज करने और उन्हे चमकाने के उद्देश्य से उन्हें विशेष प्रकार से रगड़कर माँजने का काम। २. उक्त की मजदूरी।
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सिकलीगर  : पुं० [हिं० सिकली (अं० सैकल)+फा० गर] सिकली करने वाला कारीगर। हथियारों को माँजने तथा उन पर सान धरनेवाला कारीगर।
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सिकसोनी  : स्त्री० [देश०] काकजंघा नामक वनौषधि।
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सिकहर  : पुं० [सं० शिक्या] छत में टाँगा जाने वाला छींका। वि० दे० ‘छींका’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकहुली  : स्त्री० [हिं० सींक+औली] मूँज, कास आदि की बनी हुई छोटी डलिया।
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सिकार  : पुं०=शिकार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकारी  : वि०, पुं०=शिकारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकुड़न  : स्त्री० [हिं० सिकुड़ना] १. सिकुड़े हुए होने की अवस्था या भाव। वह स्थिति जिसमें कोई वस्तु पहले की अपेक्षा कम विस्तार घेरने लगती है। २. किसी चीज के सिकुड़ने के कारण उसके तल या विस्तार में पड़ने वाला बल। शिकन। जैसे—चाँदनी की सिकुड़न, माथे की सिकुड़न।
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सिकुड़ना  : अं० [हिं० संकुचन] १. ताप, शीत आदि के प्रभाव से अथवा और किसी कारण से किसी विस्तृत पदार्थ का ऐसी स्थिति में आना या होना कि उसका तल या विस्तार कुछ कम हो जाय। आयाम में खिंचाव आना। संकुचित होना। बटुरना। ‘फैलना’ का विपर्याय। जैसे—घुलने से कपड़ा सिकुड़ना। चलने या बैठने से चाँदनी सिकुड़ना। २. व्यक्ति अथवा उसके अंगों के संबंध में ऐसी स्थिति में आना या होना कि अपेक्षया विस्तार कम हो जाय। जैसे—(क) टूटने से हाथ या पैर सिकुड़ना। (ख) भीड़ या सरदी के कारण किसी का कोने में सिकुड़ना। संयो० क्रि०—जाना।
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सिकुरना  : अं०=सिकुड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकोड़ना  : सं० [हिं० सिकुड़ना] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज सिकुड़ जाय। २. (प्राणी द्वारा) अपने अंग या अंगों को इस प्रकार एक दूसरे से सटाना कि वह पहले की अपेक्षा कम जगह घेरने लगे।
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सिकोरना  : सं०=सिकोड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकोरा  : पुं० दे० ‘कसोरा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिकोली  : स्त्री० [देश०] कास, मूँज, बेंत या बाँस की कमाचियों की बनी हुई टोकरी।
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सिकोही  : वि० [फा० शकोह=तड़क-भड़क] १. आन-बान वाला। २. गरबीला। ३. बहादुर। वीर।
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सिक्कक  : पुं० [सं०√सिक् (सींचना)+ककन्] बाँसुरी में लगाने की जीभी या उसका स्वर मधुर बनाने के लिये लगाया हुआ तार।
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सिक्कड़  : पुं० [हिं० सिकड़ी] लोहे आदि की बड़ी और मोटी सिकड़ी।
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सिक्कर  : पुं०=सिक्कड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिक्का  : पं० [अं० सिक्कः] १. प्राचीन काल में, वह ठप्पा जिससे धातु खंडों की प्रमाणिकता और शुद्धता सूचित करने के लिये विशिष्ट चिन्ह अंकित किये जाते थे। मोहर करने वाला ठप्पा। २. आज-कल निर्दिष्ट मूल्य का वह धातु खंड जो किसी राजकीय टकसाल में ढला या ठप्पे से दबाकर बनाया गया हो और पदार्थो के क्रय-विक्रय, लेन-देन आदि विनमय के साधन के रूप में काम आता हो । जैसा—रुपया, अठन्नी, पैसा, अशरफी, गिन्नी आदि। (काँयन) ३. किसी व्यक्ति का ऐसा अधिकार, प्रभाव या प्रभुत्व जिसके आगे प्रायः सभी लोग विशेषतः विरोधी लोग दबते या सिर झुकाते हों। मुहा०—सिक्का जमना या बैठना=ऐसी आतंकपूर्ण स्थिति होना जिससे सब लोग दबे रहें या विरोध न कर सके। ४. खरीदे हुए माल का दिया जाने वाला नगद दाम। (दलाल) ५. लकड़ी का एक विशिष्ट टुकड़ा जो नाव के अगले भाग पर लगा होता है। ६. धातु की वह नली जिससे मशाल पर तेल डाला जाता है।
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सिक्की  : स्त्री० [अं० सिक्कः] १. चोटा सिक्का। २. आठ आने वाला सिक्का, अठन्नी।
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सिक्के  : क्रि० वि० [हिं० सिक्का] सिक्कों के रूप में अर्थात नगद पूरा दाम देने पर। विशेष—महाजनी बोलचाल में इस शब्द का प्रयोग यह सूचित करने के लिये होता है कि जो दाम दिया या लिया जायगा उसमें किसी तरह की छूट या बट्टा अथवा दलाली आदि की रकम सम्मिलित नहीं होगी।
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सिक्ख  : पुं० [सं० शिष्य] १. शिष्य। चेला। उदा०—कबीर गुरु बैर बनारसी, सिक्ख समुंदर पार।—कबीर। २. गुरु नानक के पंथ का अनुयायी। ३. इन अनुयायियों का वर्ग जिसने अब एक स्वतंत्र जाति का रूप धारण कर लिया है। विशेष—ये अनुयायी केश, कंघा, कड़ा, कृपाण और कच्छा (जाँघिया) सदा धारण करते हैं। स्त्री० [सं० शिक्षा] सीख। शिक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० शिखा] शिखा। चोटी।
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सिक्खी  : स्त्री० [हिं० सिख+ई (प्रत्य०)] सिक्ख धर्म-मत।
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सिक्खेकार  : पुं० [हिं० सीखना+कार] [भाव० सिक्खेकारी] वह जिसने किसी गुरु या विशषज्ञ से किसी कला या विद्या की नियमित रूप से और यथेष्ट शिक्षा पाई हो। ‘अताई’ का विपर्याय। (संगीतज्ञ)
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सिक्त  : भू० कृ० [सं०√सिच् (सींचना)+क्त] सींचा हुआ सिंचित। २. भीगा हुआ। तर।
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सिक्थ  : पुं० [सं०] १. भात। २. उबाले हुए चावलों या भात का कोई दाना। सीथ। ३. भात का कौर या ग्रास। ४. पिंड-दान के लिये बनाया हुआ भात का पिंड। ५. मोतियों का ऐसा गुच्छा जो तौल में एक धरण या ३२ रत्ती हो। ७. नील।
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सिख  : पुं०=सिक्ख। स्त्री० १. शिखा (चोटी)। जैसे नख-सिख। २. सीख। (शिक्षा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखंड  : पुं०=शिखंड।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखड़ा  : पुं० [हिं० सिख] सिख के लिये उपेक्षासूचक शब्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखंडी  : पुं०=शिखंडी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखर  : पुं०=शिखर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० चरम। अत्यन्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखरन  : स्त्री०=शिखरन (श्रीखंड)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखलाना  : सं०=सिखाना।
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सिखवन  : स्त्री०=सिखावन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखा  : स्त्री०=शिखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखाना  : स० [हिं० सीखना का प्र० रूप] १. किसी को कोई नया काम, बात या विषय सीखने में प्रवृत्त करना। २. सब प्रकार की संबद्ध बातें बताकर शिक्षित या प्रशिक्षित करना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, किसी व्यक्ति को विशेष ढंग से कोई काम करने के लिये अच्छी तरह समझाना-बुझाना। मुहा०—(किसी को) सिकाना-पढ़ाना=किसी से विशेष प्रकार का आचरण कराने के उद्देश्य से उसके मन में कोई बात अच्छी तरह बैठाना।
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सिखावन  : स्त्री० [पुं० हिं० सिखावना=सिखाना] १. सिखाने की क्रिया या भाव। २. सिखाया हुआ काम, बात या विद्या। ३. उपदेश। नसीहत। शिक्षा।
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सिखावना  : सं०=सिखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखिर  : पुं० १. =शिखर। २. =शिशिर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिखी  : पुं०=शिखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंग  : पुं०=१. =श्रृंग। २. =सींग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंगड़ा  : पुं० [सं० श्रृंग०+ड़ा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० सिंगड़ी] सींग की वह नली जिसमें सैनिक लोग बारूद रखते थे।
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सिगणा  : पुं०=श्रृंगार। (डिं) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिगता  : स्त्री०=सिकता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिगनल  : पुं० [अं०] १. किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिये अथवा कोई कार्य आरंभ कराने के लिये किया जानेवाला संकेत। २. रेल-लाइन के पास लगा हुआ सिंकदरा। (देखें)
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सिंगरफ  : पुं०=शिंगरफ (ईंगुर)।
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सिगरा  : वि० [सं० समग्र] [स्त्री० सिगरी] सब। संपूर्ण। समस्त। उदा०—सिगरे जग माँझ हँसावत हैं। रघुवंसिन्ह पाप नसावत हैं।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंगरी  : स्त्री०=सिंगी (मछली)।
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सिगरेट  : पुं० [अं०] कागज में गोला कार लपेटा हुआ सुरती का चूरा जिसका धुँआ पिया जाता है, और जिसके अनुकरण पर हमारे यहाँ बीड़ी बनी है।
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सिंगल  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली। पुं० दे० ’सिंगनल’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंगा  : पुं० [हिं० सींग] सींग के आकार का बाजा जिसे फूँककर बजाते हैं ।
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सिंगार  : पुं०=श्रृंगार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिगार  : पुं० [अं०] एक विशेष प्रकार का बड़ा तथा मोटा सिगरेट। चुरूट।
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सिंगारदान  : पुं० [हिं० सिंगार+सं० आधान या फा० दान (प्रत्य)] श्रृंगार की सामग्री रखने का छोटा संदूक।
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सिंगारना  : सं० [हिं० सिंगार+ना (प्रत्य०)] श्रृंगार करना। प्रसाधन सामग्री तथा आभूषणों से अपने को या किसी को सजाना।
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सिंगारहाट  : पुं० [सं० श्रृंगारहाट्ट] वह बाजार जिसमें वेश्याएँ रहती हों। चकला।
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सिंगारहार  : पुं० [सं० हारश्रृंगार] १. हासिंगार नामक वृक्ष। परजाता। २. उक्त के फूल।
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सिंगारिया  : पुं० [हिं० सिंगार+इया (प्रत्य०)] १. श्रृंगार करने वाला। २. वह पुजारी जो देव मूर्तियों का श्रृंगार करता हो।
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सिंगारी  : वि० [हिं० सिंगार+ई (प्रत्य)] सिंगार संबंधी। पुं०=सिंगारिया।
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सिंगाल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पहाड़ी बकरा जो कुमायूँ से नैपाल तक पाया जाता है।
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सिंगाला  : वि० [हिं० सींग+वाला (प्रत्य०)] [स्त्री० सिंगाली] सींगवाला (जन्तु)।
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सिंगिया  : पुं० [सं० श्रृंगिक] एक प्रसिद्ध विष जो एक पौधे की जड़ है।
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सिंगी  : स्त्री० [हिं० सींग] १. सींग का बना हुआ एक प्रकार का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता है। तुरही। २. सींग की तरह वह नली जिससे जरार्ह लोग फसद लगाते अर्थात शरीर का दूषित रक्त चूसकर निकालते हैं। क्रि० प्र०—लगाना। ३. बरसाती पानी में होने वाली एक प्रकार की मछली। ४. सींग के आकार का घोड़ो का एक अशुभ लक्षण।
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सिंगी-मोहरा  : पुं० [हिं० सिंगी+मुहरा] सिंगिया (विष)।
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सिगोती  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी चिड़िया।
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सिगोन  : स्त्री० [सं० सिकता; सिगता] रेत मिली लाल मिट्टी जो प्रायः नालों के पास पाई जाती है।
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सिंगौटी  : स्त्री० [हिं० सींग+औटी (प्रत्य)] १. बैल के सींग पर पहनाने का एक आभूषण। २. सींग का बना हुआ घोटना जिससे चमक लाने के लिये कपड़े आदि घोटे जाते हैं। ३. सींग को खोखला करके बनाया हुआ एक प्रकार का पात्र जिसमें घी, तेल आदि रखते थे। ४. जंगलों में मरे हुए जानवरो के सींग। स्त्री० [हिं० सिंगार+औटी (प्रत्य)] वह पिटारी जिसमें स्त्रियाँ श्रृंगार का सामग्री रखती हैं।
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सिंघ  : पुं०=सिंह (शेर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंघल  : पुं०=सिंहल द्वीप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंघली  : वि०=सिंहली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंघाड़ा  : पुं० [सं० श्रृंगाटक] १. पानी में होने वाला एक पौधा। २. उक्त पौधे का फल जिसके दोनों ओर सींगों की तरह दो काँटे होते हैं। पानी-फल। (वाँटर चेस्टनट) ३. चित्र-कला में पत्तों की तरह का तिकोना अंकन। ४. सिंघाड़े के आकार की तिकोनी सिलाई या बेल-बूटे। ५. समोसा नामक पकवान। ६. एक प्रकार की मुनिया (पक्षी)। ७. एक प्रकार की आतिशबाजी। ८. रहट की लाट में ठोकी हुई लकड़ी जो लाट को पीछे की ओर घूमने से रोकती है। ९. सुनारों का एक औजार जिससे वे माला बनाते हैं।
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सिंघाड़ी  : स्त्री० [हिं० सिंघाड़ा+ई (प्रत्य)] वह ताल जिसमें सिंघाड़ा होता है।
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सिंघाण  : वि० दे० ‘सिंहाण’
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सिंघाली  : वि० [सं० सिंह] १. वीर। २. श्रेष्ठ। (डिं०) वि०, पुं०, स्त्री० दे० ‘सिंहली’।
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सिंघासन  : पुं०=सिंहासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंघिनी  : स्त्री० सिंहिनी (सिंह का मादा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंघिया  : पुं०=सिंगिया (विष)।
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सिंघी  : स्त्री० [हिं० सींग] १. सोंठ। शुंठी। २. दे० सिंगी। स्त्री०=सिंगिया (विष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंघू  : पुं० [देश०] एक प्रकार का जीरा जो फारस से आता है और प्रायः काले जीरे की तरह होता है।
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सिंघेला  : पुं० [हिं० सिंघ+एला (प्रत्य०)] १. शेर का बच्चा। २. वीरपुत्र।
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सिंचन  : पुं० [सं०√सिंच् (सींचना)+ल्युट्-अन] १. खेतों आदि में पानी सींचने की क्रिया या भाव। सिंचाई। २. पानी का छिड़काव।
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सिंचना  : अ० [हिं० सींचना का अ०] १. सिंचाई होना। २. जल का छिड़काव होना।
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सिंचाई  : स्त्री० [हिं० सींचना] १. सींचने या पानी छिड़कने का काम या भाव। २. आब-पाशी। ३. वह स्थिति जिसमें फसल उपजाने के उद्देश्य से खेतों में नदी, कुएँ, ताल, वर्षा आदि का जल पहुँचता या पहुँचाया जाता है। (इरिगेशन) ४. खेत सींचने के काम का पारिश्रमिक या मजदूरी।
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सिचान  : पुं०=संचान (बाज पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंचाना  : सं० [हिं० सींचना का प्रे०] सींचने का काम किसी और से कराना। अ०=सिंचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंचित  : भू० कृ० [सं०√सिंच् (सींचना)+क्त] जिसकी सिंचाई हो चुकी हो। सींचा हुआ।
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सिंचौनी  : स्त्री०=सिंचाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिच्छक  : पुं०=शिक्षक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिच्छा  : स्त्री०=शिक्षा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिजदा  : पुं० [अं० सज्दः] १. घुटने टेककर और सिर झुकाकर किया जाने वाला प्रणाम। (विशेषतः ईश्वर प्रार्थना के समय)
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सिजल  : वि० [हिं० सजीला] १. जो रूप रंग के विचार से देखनें में अच्छा हो। सजा हुआ। सुकर। २. किसी तुलना में, बढ़िया। जैसे—सिजल मिठाई।
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सिजली  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो दवा के काम में आता है।
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सिंजा  : स्त्री० [सं० सिंज-टाप्] शरीर पर पहने हुए गहनों की खनक या झंकार।
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सिंजाफ  : पुं० [फा० सिंजाफ़]=संजाफ।
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सिंजित  : स्त्री० [सं० सिंजा+इतच्] १. सिंजा। २. ध्वनि। शब्द। उदा०—घुटरुन चलत घुँघरू बाजै। सिंजित सुनत हंस हिय लाजै।—लाल कवि।
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सिझना  : अं० दे० ‘सीझना’।
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सिझान  : स्त्री० [हिं० सीझना] १. सीझने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. व्यापारिक क्षेत्र में, दलाली, ब्याज आदि के रूप में मिलने वाला धन। क्रि० प्र०—सिझाना।—सीझना।
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सिझाना  : स० [सं० सिद्ध] १. आँच पर पकाकर गलाना। २. कष्ट देना। ३. मिलने योग्य कराना। प्राप्य करना। जैसा—हम्ही ने तुम्हारी दलाली सिझा दी। ४. अनुचित रूप से या बहकाकर वसूल करना। उतारना। जैसा—उन्होंने जुए में उनसे सौ रुपए सिझा लिए। (बाजारू) ५. खाल को विशिष्ट प्रक्रियाओं से पक्का और मुलायम करना। (टैनिंग) ६. विशेष दे० ‘सीझना’।
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सिटकनी  : स्त्री० [अनु० सिट-सिट] खिड़कियों, दरवाजों को अंदर से बंद करने के लिये उनमें लगायी जाने वाली एक प्रकार की विदेशी कुंड़ी जो ऊँची उठाये जाने पर ऊपरी चौकठ से जा चिपकती है।
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सिटपिटाना  : अ० [अन०] प्रायः असमंजस में पड़ने के कारण और किसी के प्रश्न का उसे तत्काल ठीक या स्पष्ट उत्तर न दे सकने की दशा में कुछ लज्जित होकर इधर-उधर करने लगना। अ० [हिं० सीटना] १. खिन्न तथा व्यथित होकर अनुनय विनय करना। २. इधर-उधर की हाँकना तथा बढ़-बढ़कर बोलना।
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सिटी  : पुं० [अं०] नगर। शहर। जैसा—कानपुर सिटी, बनारस सिटी।
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सिट्टी  : स्त्री० [हिं० सीटना] सीटने अर्थात बहुत बढ़-बढ़कर बोलने की क्रिया या भाव। मुहा०—सिट्टी गुम होना या भूल जाना=इस प्रकार घबरा या सिटपिटा जाना कि मुँह से उत्तर तक न निकल सके।
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सिट्ठी  : स्त्री०=सीठी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिठाई  : स्त्री० [हिं० सीठी] सीठे होने की अवस्था या भाव। सीठापन। सीठी।
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सिड़  : स्त्री० [हिं० सिड़ी] उन्माद या पागलपन का एक हलका रूप जिसमें आदमी हठपूर्वक कोई काम करता चलता है और रोकने या समझाने पर भी नहीं मानता। झक। सनक। क्रि० प्र०—चढ़ना।—सवार होना।
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सिड़-बिल्ला  : पुं० [हिं० सिड़ी+बिल्ला] [स्त्री० सिड़बिल्ली] १. पागल। सिड़ी। २. बुद्धू। बेवकूफ।
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सिड़ी  : वि० [सं० श्रृणीक] [स्त्री० सिड़िन] जिसे सिड़ नामक रोग हो। झक्की। सनकी।
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सिड़ीपन  : पुं० [हिं०] सिड़ी होने की अवस्था या भाव।
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सित  : वि० [सं०] [भाव० सितता] १. उजला। श्वेत। सफेद। २. चमकीला और साफ। स्वच्क्ष। पुं० १. शुक्र नामक ग्रह। २. शक्राचार्य का एक नाम। ३. चन्द्र मास का शुक्ल पक्ष। ४. चीनी। शक्कर ५. चन्दन। ६.सफेद कचनार। ७. मूली। ८. सफेद तिल। ९. भोजपत्र। १॰. चाँदी। रजत।
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सित-कंठ  : वि० [सं० शितिकंठ] जिसका गला सफेद हो। पुं० १. शिव। २. दात्यूह पक्षी। मुरगाबी।
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सित-काच  : पुं० [सं० ब० स०, मध्य० स० वा] १. हलब्बी शीशा। २. बिल्लौर।
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सित-कुंजर  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. ऐरावत हाथी। २. इन्द्र।
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सित-कुंभी  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] सफेद पाँडर। श्वेत पाटल (वृक्ष)।
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सित-तुरग  : पुं० [सं० ब० स०] अर्जुन।
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सित-दीधिति  : पुं० [सं० ब० स०] सफेद किरणोंवाला। चन्द्रमा।
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सित-द्रुम  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. अर्जुन वृक्ष। २. मोरट नामक क्षुप।
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सित-पक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] हंस।
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सित-पच्छ  : पुं०=सित-पक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सित-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. तगर का पेड़ या फूल। गुल चाँदनी। २. सिरिस का पेड़। ३.पिंड खजूर। ४. एक प्रकार का गन्ना।
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सित-पुष्पा  : स्त्री० [सं० सितपुष्प-टाप्] १. बला। बरियार। २. कंघी (पौधा)। ३. चमेली। मल्लिका। ४. सफेद कुष्ठ।
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सित-पुष्पी  : स्त्री० [सं० सितपुष्प—ङीप्] १. सफेद अपराजिता। २. केवटी मोथा। ३. काँसा नामक तृण। ४. पान का पौधा। नागवल्ली। ५. नागदंती।
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सित-प्रभ  : पुं० [सं० ब० स०] चाँदी।
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सित-भानु  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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सित-माष  : पुं० [सं०] बोड़ा। लोबिया। राज-माष।
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सित-रश्मि  : पुं० [सं० ब० स०] सफेद किरणोंवाला। चन्द्रमा।
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सित-राग  : पुं० [सं० ब० स०] चाँदी। रजत।
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सित-रुचि  : सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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सित-सागर  : पुं० [सं० मध्यम० स०] क्षीर सागर।
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सित-सिंधु  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. क्षीर सागर। २. गंगा।
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सित-हूण  : पुं० [सं० मध्य० स०] हूणों की एक शाखा।
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सितकर  : पुं० [सं०] १. भीमसेनी कपूर। २. चन्द्रमा।
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सितकर्णी  : स्त्री० [सं०] अड़ूसा। वासक।
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सितकारिका  : स्त्री० [सं० सित√कृ (करना)+ण्खल-अक्, टाप्-इत्व] बरियार। बला (पौधा)।
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सितक्षार  : पुं० [सं० मध्य० स० ब० स०] सोहागा।
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सितच्छद  : पं० [सं० ब० स०] १. हंस। २. लाल सहिजन।
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सितच्छदा  : स्त्री० [सं० सितच्छद-टाप्] सफेद दूब।
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सितता  : स्त्री० [सं० सित+तल्—टाप्] सित अर्थात सफेद होने की अवस्था, गुण या भाव। सफेदी।
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सितपर्णी  : स्त्री० [सं०] अर्कपुष्पी। अंधाहुली।
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सितंबर  : पं० [अं० सेप्टेंबर] पाश्चात्य पंचांग में वर्ष का नवाँ महीना जो अगस्त के बाद और अक्तूबर से पहले पड़ता है। यह सदा ३॰ दिनों का होता है।
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सितम  : पुं० [फा०] १. ऐसा क्रूर कार्य जो दूसरों पर विशेषतः निरीहों पर बलात किया जाय। २. शासक या अधिकारी द्वारा अपनी प्रजा पर किया जाने वाला अत्याचार। ३. अनर्थ। गजब। मुहा—सितम टूटना=बहुत बड़ा अनर्थ होना। भारी विपत्ति या संकट आना। सितम ढाना=बहुत बड़ा अनर्थ या अत्याचार करना।
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सितमगर  : वि० [फा०] [भाव० सितमगरी] दूसरों पर विशेषतः निरीहों पर अत्याचार करने वाला। दुःखियों तथा बेगुनाहों को सतानेवाला।
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सितमणि  : स्त्री० [सं० ब० स० मध्य० स०] बिल्लौर। स्फटिक।
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सितली  : स्त्री० [सं० शीतल] बेहोशी या अधिक दर्द के समय निकलने वाला पसीना। क्रि० प्र०—छूटना।
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सिता  : स्त्री० [सं० सेत-टाप्] १. चन्द्रमा का प्रकाश। चन्द्रिका। चाँदनी। २. चान्द्र मास का शुक्ल पक्ष। ३. चीनी। ४. सफेद दूब। ५. मद्य। शराब। ६. त्रायमाणा लता। ७. चमेली। मल्लिका। ८. सफेद भटकटैया। ९. बकुली। सोमराजी। १॰. बिदारीकंद। ११. वच। १२. अंधाहुली। १३. सिंहली पीपल। १४. गोरोचन। १५. चाँदी। १६. सफेद गदहपूरना।
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सिताइश  : स्त्री० [फा०] तरीफ। प्रशंसा। वाहवाही।
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सितांक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की मछली।
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सिताखंड  : पुं० [सं० त० स०] १. मधु शर्करा। शहद से बनाई हुई शक्कर। मिसरी।
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सितांग  : पुं० [सं० ब० स०] १. श्वेत रोहितक वृक्ष। सफेद रोहेड़ा २. बेला। ३. कपूर। ४. शिव।
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सितानन  : वि० [सं० त० स०] सफेद मुँह वाला। पुं० १. गरुण। २. बेल का पेड़।
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सिताब  : क्रि० वि० [फा० शताब] १. शीघ्र। जल्दी। २. सहज में। उदा—नूपुर के ऊपर बढ़ी कहत न बनत सिताब।—विक्रम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिताब  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का बरसाती पौधा जो दवा के काम में आता है। सर्पदंष्ट्रा।
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सितांबर  : वि० [सं० ब० स०]=श्वेतांबर।
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सिताबी  : क्रि० वि० दे० ‘सिताब’। स्त्री० शीघ्रता। जल्दी। स्त्री० महताबी नाम की आतिशबाजी। उदा०—सिताबी मोड़ रहा विधुकान्त, बिछा है सेज कमलनी जाल।—प्रसाद।
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सिताब्ज  : पुं० [सं० कर्म० स०] सफेद कमल।
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सिताभ  : पुं० [सं० ब० स०] कपूर।
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सितार  : पुं० [फा० सेहतर] १. बीन की तरह का, पर उससे प्रसिद्ध एक छोटा सा बाजा, जिसके तारों को तर्जनी में पहनी हुई मिराब से झनकारते हैं तथा इस प्रकार राग-रागनियाँ निकालतें हैं। २. उक्त वाद्य की ध्वनि या उससे निकलने वाला स्वर-क्रम।
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सितार-पेशानी  : वि० [फा०] (घोड़ा) जिनके माथे पर सफेद टीका या बिन्दी हो (ऐसा घोड़ा बहुत ऐबि समझा जाता है)
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सितारबाज  : पुं० [फा० सेहतारबाज] [भाव सितारबाजी] १. वह जो सितार बजाकर अपनी जीविका अर्जित करता हो। सितारिया। २. सितार बजाने का शौकीन। सितार बजाने की कला में पारंगत।
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सितारा  : पुं० [सं० सप्त तारक से फा० विस्तारः] आकाश का तारा या नक्षत्र। २. मनुष्य का भाग जो आकाश के ग्रहो और नक्षत्रों से प्रभावित माना जाता है। मुहा—सितारा चमकना=भाग्योदय होना। सितारा बुलंद होना=सितारा चमकना। सितारा मिलना=ग्रह मैत्री मिलना। गणना बैठना। (फलित ज्योतिष] ३. रुपहले या सुनहले पत्तरों के छोटे गोलाकार टुकड़े जो कपड़ों आदि की शोभा के लिये टाँके जाते या गाल और माथे पर सौंन्दर्य़ बढ़ने के लिये चिपकाये जाते हैं। चमकीला। पुं० [हिं० सितार] सितार नामक ऐसा बाजा जो अपेक्षया अधिक बड़ा हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सितारिया  : पुं० [हिं० सितार+इया (प्रत्य०)] वह जो सितार बजाकर अपनी जीविका अर्जित करता हो। वि० दे० ‘सितारबाज’।
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सितारी  : स्त्री० [हि० सितार+ई (प्रत्य०)] छोटी सितार (बाजा)। वि० सितार संबंधी।
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सितारे-हिंद  : पुं० [फा० सितार हिन्द] एक प्रकार की उपाधि जो ब्रिटिश शासन काल में बड़े लोगों को सम्मानार्थ दी जाती थी। जैसे—राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द।
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सितालक  : पुं० [सं० ब० स०] सफेद मदार।
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सितालता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. अमृतवल्ली। अमृतस्त्रवा। २. सफेद दूब।
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सितालिका  : स्त्री० [सं० ब० स० सितालक-टाप्-इत्व] तालाबों में होने वाली सीपी।
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सितावर  : पुं० [सं० सिता√वृ (वरण करना)+अच्-टाप्] सुसना नामक साग। सिरियारी।
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सितावरी  : स्त्री० [सं० सितावर-ङीप्] बकची। सोमराजी।
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सितांशु  : पुं० [सं० ब० स०] १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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सितांशुक  : वि० [सं० ब० स०] श्वेत वस्त्रधारी। सफेदपोश।
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सिताश्व  : पुं० [सं० ब० स०] १. अर्जुन का एक नाम। २. चन्द्रमा।
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सितासित  : वि० [सं० द्व० स०] श्वेत और श्याम। सफेद और काला। पुं० १. बलदेव। २. शुक्र और शनि ग्रह जो क्रमशः सफेद और काले हैं। ३. गंगा और यमुना जिनका जल क्रमशः सफेद और काला है। ४. आँख का एक रोग।
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सिताह्वय  : पुं० [सं० ब० स०] १. शुक्र ग्रह। २. सफेद रोहित वृक्ष। ३. सफेद फूलों वाला सहिजन। ४. सफेद तुलसी।
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सिति  : वि०=शिति (सफेद)।
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सितिकंठ  : वि०, पुं०=सितकंठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सितिमा  : स्त्री० [सं० सित+इमनिच] श्वेतता। सफेदी।
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सितिवार  : पुं० [सं० शितिवार] १. सुसना नामक साग। २. कुटज। कुड़ा।
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सितिवास  : पुं० [सं० शितिवासस् ब० स०] (नीले वस्त्र वाले) बलराम।
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सितुही  : स्त्री० [सं० शुक्तिका] ताल की सीपी। सुतुही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सितून  : पुं० [फा०] १. स्तंभ। खंभा। २. चाँड़। थूनी। ३. मीनार। लाट।
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सितेतर  : वि० [सं० पंच० त०] (श्वेत से भिन्न) काला या पीला। पुं० १. काला धान। २. कुलथी।
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सितोत्पल  : पुं० [सं० मध्य० स०] सफेद कमल।
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सितोदर  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सितोदरा] श्वेत उदर वाला। पुं० कुबेर का एक नाम।
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सितोपल  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. खरिया मिट्टी। दुद्धी। २. बिल्लौर। स्फटिक।
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सितोपला  : स्त्री० [सं० सितोपल—टाप्] १. चीनी। २. मिसरी।
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सित्त  : वि० [सं० शत] सौ। वि० [सं० सप्त] सात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिथिल  : वि०=शिथिल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिदका  : पुं०=सदका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंदन  : पुं०=स्यंदन (रथ)।
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सिदना  : अ०, स०=सीदना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिदरा  : पुं० [फा० सेह=तीन+दर] [स्त्री० अल्पा० सिदरी] तीन दरों वाला कमरा या दालान।
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सिदामा  : पुं०=श्रीदामा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिदिक  : वि० [अ० सिद्दीक] सच्चा। सत्यनिष्ठ।
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सिंदुक  : पुं० [सं० सिंदु+कन्] सिंधुआर या सँभालू नामक पौधा।
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सिंदुरिया  : वि०=सिंदूरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंदुवार  : पुं० [सं०] निर्गुण्डी। संभालू।
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सिंदूर  : पुं० [सं०] १. ईगुर को पीसकर बनाया हुआ एक प्रकार का लाल चूर्ण जो सौभाग्यवती हिंदू स्त्रियाँ अपनी माँग में भरती हैं। गणेश और हनुमान की मूर्तियों पर भी यह घी में मिलाकर पोता जाता है। (वर्मिलियन) मुहा०—सिंदूर चढ़ना=कुमारी का विवाह होना। सिंदूर भरना या देना=विवाह के समय वर का कन्या की माँग में सिंदूर डालना। २. बबूल की जाति का एक पहाड़ी पेड़ जो हिमालय के निचले भागो में पाया जाता है। वि०=सिंदूरी।
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सिंदूर-तिलक  : पुं० [सं० ब० स०] हाथी।
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सिंदूर-तिलका  : स्त्री० [सं० सिंदूर-तिलक-टाप्] सधवा स्त्री जिसके माथे पर सिंदूर रहता है।
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सिंदूर-पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक पौधा जिसमें लाल फूल लगते हैं। वीर-पुष्पी। सदासुहागिन। सिदूरी।
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सिंदूर-बंदन  : पुं० [सं०] विवाह-संस्कार के समय एक रीति जिसमें वर कन्या की माँग में सिंदूर भरता है।
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सिंदूर-रस  : पुं० [सं०] रस सिंदूर नामक खनिज पदार्थ। रस कपूर।
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सिंदूरदान  : पुं० [सं०] विवाह के समय वर का कन्या की माँग में सिंदूर भरना।
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सिंदूरिया  : स्त्री० [सं० सिंदूर+हिं० इया (प्रत्य०)] सिंदू के रंग का। जैसे—सिंदूरिया आम। स्त्री० सिंदूरपुष्पी। सदासुहागिन।
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सिंदूरिष्ठा  : स्त्री० [सं० सिंदूर+कन-टाप्-इत्व] सिंदूर।
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सिंदूरी  : वि० [सं० सिंदूर+हिं० ई (प्रत्य०)] सिंदूर के रंग का। पीला मिला लाल। पुं० १. उक्त प्रकार का रंग जो पीलापन लिये चमकीला होता है । (वर्मिलियन) २. एक प्रकार का बढ़िया आम। ३. बलूत की जाति का एक प्रकार का छोटा पेड़। ४. लाल हलदी। ५. धव। धातकी। ६. सिंदूरपुष्पी। ७. लाल रंग का कपड़ा।
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सिंदोरा  : पुं०=सिंधोरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिदौसी  : अव्य०=सुदौसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिद्ध  : वि० [सं०] [भाव० सिद्धि, सिद्धता] १. (काम या बात) जिसका साधन या साधना हो चुकी हो। अच्छी तरह पूरा किया हुआ। जैसे—उद्देश्य या कार्य सिद्ध होना। २. (आध्यात्मिक साधन) जो पूरा हो चुका हो। जैसे—मंत्र सिद्ध होना। ३. जिसने पूरे काम में पूरी दक्षता या सफलता प्राप्त की हो। दक्ष और सफल। जैसे—सिद्धहस्त। ४. (व्यक्ति) जिसने योग की सिद्धियाँ प्राप्त कर ली हों। जैसा—सिद्ध-पुरुष, सिद्ध-महात्मा। (बात, मत या विषय) जो तर्क प्रमाण आदि के द्वारा ठीक या सत्य मान लिया गया हो या माना जाता हो। (एस्टैब्लिश्ड) जैसे—(क) अब यह सिद्ध हो चुका है कि भारी चीजें भी हवा में उड़ सकती हैं। (ख) अब यह सिद्ध हो चुका है कि अणु-शक्ति के द्वारा बहुत बड़े-बड़े काम सहज में पूरे हो सकते हैं। ५. जो प्रमाण, युक्ति आदि के द्वारा ठीक ठहर चुका हो। प्रमाणित। (प्रूव्ड) जैसा—उन्होंने अपना पक्ष सिद्ध कर दिखलाया। ६. जो नियमों, विधियों, सिद्धांतों आदि के अनुसार ठीक हो। शुद्ध। जैसा—व्याकरण से सिद्ध प्रयोग अथवा शब्द का रूप। ७. (खाद्य पदार्थ) जो आग पर रखकर उबाला, पकाया या सिझाया गया हो। जैसा—सिद्ध अन्न। ८. (कथन या वचन) जो ठीक ठहरा या पूरा उतरा हो। जैसा—किसी का आशीर्वाद (भविष्यवाणी) सिद्ध होना। ९. (वाद या विवाद) जिसका निर्णय या फैसला हो चुका हो। १॰. (ऋण या देन) जो चुकाया जा चुका हो। ११. जो नियम, सिद्धांत आदि के अनुसार ठीक तरह से होता हो। जैसा—जन्म सिद्ध अधिकार, स्वभाव-सिद्ध बात। १२. जो किसी अभिप्राय या उद्देश्य के अनुकूल कर लिया गया हो। जैसे—उसे तो तुमनें खाली बातों से ही सिद्ध कर लिया। १३. बनाकर तैयार किया हुआ। १४. प्रसिद्ध विख्यात। पुं० १. वह जो किसी प्रकार की साधना पूरी करके उसमें पारंगत हो चुका हो। साधना में निष्णात। २. वह जिसने तपस्या, योग आदि के द्वारा किसी प्रकार की अलौकिक दक्षता, शक्ति या सिद्धि प्राप्त कर ली हो, अथवा जो मोक्ष का अधिकारी हो चुका हो। ३. वह जिसने अणिमा, महिमा आदि आठों सिद्धियाँ प्राप्त कर ली हों और इसीलिये जिसमें अनेक प्रकार के अलौलिक तथा चमत्कार पूर्ण कृत्य करने की शक्ति आ गई हो। विशेष—मध्य युग में ऐसे लोग अजर-अमर तथा परम पवित्र धर्मात्मा तथा डाकिनियों, देवों यक्षों के स्वामी माने जाते थे। ४. ऐसा त्यागी विरक्त जो अध्यात्मिक दृष्टि से बहुत बड़ा महात्मा या संत हो अथवा माना जाता हो। मुहा०—सिद्ध-साधक बनना=एक व्यक्ति का सिद्ध का स्वांग रचना और दूसरे लोगों का उसकी अलौकिक सिद्धियों की प्रशंसा करके उसका लाभ कराना। विशेष दे० ‘साधक’। ५. एक प्रकार के गण देवता। ६. बौद्ध योगी। (नाथ संप्रदाय के अथवा अन्य हिंदू योगियों से भिन्न) ७. अर्हत। जिन। ८. ज्योतिष में एक प्रक्रार का योग जो सभी कार्यों के लिए शुभ माना गया है। ९. गुड़। काला धतूरा। ११. सफेद सरसों।
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सिद्ध-काम  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी कामनाएँ पूरी हो गई हों। सफल मनोरथ।
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सिद्ध-कामेश्वरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] कामाख्या अर्थात दुर्गा की एक मूर्ति या रूप।
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सिद्ध-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहाँ योग या तंत्र प्रयोग जल्दी सिद्ध हो। २. दंडक वन के एक विशिष्ट क्षेत्र का नाम।
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सिद्ध-गंगा  : स्त्री० [सं० ष० त०] आकाश-गंगा। मंदाकिनी।
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सिद्ध-गति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०, ब० स०] जैन मतानुसार वे कर्म जिनसे मनुष्य सिद्ध बनता या होता हो।
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सिद्ध-गुटिका  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार की कल्पित मंत्र-सिद्ध गोली जिसे मुँह में रख लेने से अदृश्य होने आदि की अदभुत शक्ति आ जाती है।
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सिद्ध-ग्रह  : पुं० [सं० मध्य प० स०] उन्माद या पागलपन का विशेष प्रकार।
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सिद्ध-जल  : पुं० [सं० ब० स०] औटाया हुआ पानी। २. काँजी।
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सिद्ध-देव  : पुं० [सं० कर्म० स०] शिव। महादेव।
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सिद्ध-धातु  : पुं० [सं० कर्म० स०] पारा। पारद।
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सिद्ध-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] सिद्धेश्वर। महादेव।
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सिद्ध-पक्ष  : पुं० [सं० कर्म० स०] किसी तर्क का वह अंश जो सिद्ध हो चुका हो और इसीलिये मान्य हो।
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सिद्ध-पथ  : पुं० [सं०] अंतरिक्ष।
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सिद्ध-पीठ  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वह स्थान जहाँ योग या आध्यात्मिक अथवा तांत्रिक साधन सहज में सम्पन्न होता हो। २. कोई ऐसा स्थान जहाँ पहुँचने पर कोई कामना या कार्य प्रायः सहज में सिद्ध होता हो।
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सिद्ध-पुर  : पुं० [सं० ष० त०] एक कल्पित नगर जो किसी के मत से पृथ्वी के उत्तरी छोर पर और किसी के मत से पाताल में है। (ज्योतिष)
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सिद्ध-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] करबीर। कनेर।
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सिद्ध-भूमि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०, ष० त०] सिद्ध-पीठ। सिद्ध-क्षेत्र।
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सिद्ध-मातृका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. एक देवी का नाम। २. एक प्रकार की प्राचीन लिपि।
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सिद्ध-यामल  : पुं० [सं०] तंत्र शास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रंथ।
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सिद्ध-योग  : पुं० [सं० मध्य० स०] ज्योतिष में एक प्रकार का योग जो सर्व कार्य सिद्ध करने वाला माना गया है।
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सिद्ध-योगी (गिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] शिव। महादेव।
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सिद्ध-रस  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. पारा। पारद। २. वह योगी जिसने पारा सिद्ध कर लिया अर्थात रसायन बना लिया हो।
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सिद्ध-रसायन  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह रसौषध जिसके सेवन से दीर्घ जीवन और यथेष्ट शक्ति प्राप्त होती है।
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सिद्ध-वस्ति  : पुं० [सं०] तैल आदि की वस्ति या पिचकारी। (आयुर्वेद)
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सिद्ध-विद्या  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक महाविद्या।
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सिद्ध-विनायक  : पुं० [सं० मध्य० स०] गणेश की एक मूर्ति।
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सिद्ध-शिला  : स्त्री० [सं० ब० स०] ऊर्ध्व लोक का एक स्थान। (जैन)।
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सिद्ध-सरित्  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. आकाश गंगा। २. गंगा।
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सिद्ध-सलिल  : पुं० [सं० ब० स०] काँजी। २. सिद्ध-जल।
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सिद्ध-साधक  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. शिव। २. कल्प-वृक्ष जो सब प्रकार के मनोरथ सिद्ध करने वाला माना गया है। ३. ऐसे दो व्यक्ति जिनमें से एक तो झूठ मठ सिद्ध या सत्पुरुष बन बैठा हो और दूसरा सबको उसकी सिद्धता विश्वास दिलाकर उसके फंदे में फसाता हो। विशेष—प्रायः ऐसा होता है कि कोई ढ़ोंगी और स्वार्थी व्यक्ति सिद्ध या महात्मा बनकर कहीं बैठ जाता है, और उसका कोई साथी लोक में उसका बड़प्पन या महत्व स्थापित करता फिरता और लोगों को लाकर उसके जाल में फसाँता है। इसी आधार पर उक्त पद अपने तीसरे अर्थ में प्रचलित हुआ है।
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सिद्ध-साधन  : पुं० [सं० ष० त०] १. सिद्ध प्राप्त करने के लिये योग या तंत्र की क्रिया करना। २. जो बात सिद्ध या प्रमाणित हो चुकी हो, उसे फिर से सिद्ध या प्रमाणित करना। ३. सफेद सरसों।
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सिद्ध-साधित  : वि० [सं० ब० स०] जिसने किसी कला, विद्या या शास्त्र का ठीक तरह से अध्ययन किये बिना ही केवल प्रयोग या व्यवहार के द्वारा उसमें थोड़ी बहुत योग्यता प्राप्त कर ली हो। अताई।
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सिद्ध-साध्य  : वि० [सं० ष० त०] १. जो सिद्ध किया जा चुका हो। प्रमाणित। २. जिसे संपादित कर दिया गया हो। पुं० एक प्रकार का मंत्र।
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सिद्ध-सिंधु  : पुं० [सं०] आकाश गंगा।
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सिद्ध-सेन  : पुं० [सं० तृ० स०] १. कार्तिकेय। २. संगीत में कर्णाटकी पद्धति का एक राग।
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सिद्ध-सेवित  : पुं० [सं० तृ० त०] शिव का एक रूप।
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सिद्ध-स्थाली  : स्त्री० [सं० ष० त०] सिद्ध योगियों की वह बटलोई जिसके विषय में यह माना जाता है कि उसमें इच्छानुसार अपेक्षित अन्न निकाला जा सकता है।
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सिद्ध-हस्त  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसने कोई काम करते-करते उसमें कुशलता प्राप्त कर ली हो। जिसका हाथ किसी काम में मँजा हो। २. जिसे कुछ विशेष प्रकार के काम करने का बहुत अच्छा अभ्यास हो।
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सिद्धई  : स्त्री० [सं० सिद्धि] पीसी और छानी हुई भांग। स्त्री० [सं० सिद्ध+ई (प्रत्य०)] सिद्धता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिद्धक  : वि० [सं० सिद्ध+कन] कार्य सिद्ध करने वाला। पुं० १. सँभालू। सिंदुवार वृक्ष। २. शाल वृक्ष। साखू।
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सिद्धक-साधक  : पुं० दे० ‘सिद्ध-साधक’।
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सिद्धकारी (रिन्)  : वि० [सं० सिद्ध√कृ (करना)+णिनि] [स्त्री० सिद्धकारिणी] धर्मशास्त्रों के अनुसार आचरण करनेवाला।
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सिद्धता  : स्त्री० [सं० सिद्ध+तल्-टाप्] १. सिद्ध होने की अवस्था या भाव। सिद्धि। २. पूर्णता।
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सिद्धत्व  : पुं० [सं० सिद्ध+त्व]=सिद्धता।
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सिद्धर  : पुं० [?] एक ब्राम्हण जो कंस की आज्ञा से कृष्ण को मारने आया था।
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सिद्धा  : स्त्री० [सं० सिद्ध-टाप्] १. सिद्ध की स्त्री। देवांगना। २. एक योगिनी। ३. चन्द्रशेखर के मत से आर्याछन्द का १ ५वाँ भेद जिसमें १ ३गुरु और ३१ लघु होते हैं। ४. ऋद्धि नामक औषधि।
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सिद्धाई  : स्त्री० [सं० सिद्ध+हिं० आई] सिद्ध होने की अवस्था, गुण या भाव। सिद्धता।
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सिद्धांगना  : स्त्री० [सं० ष० त०] सिद्ध नामक देवताओं की स्त्रियाँ।
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सिद्धाग्नि  : [सं० सिद्ध+अग्नि] १. खूब जलती हुई अग्नि। २. ऐसी पवित्र अग्नि जो दूसरों को भी पवित्र और शुद्ध कर दे।
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सिद्धांजन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कल्पित अंजन जिसके विषय में यह माना जाता है कि इसे आँख में लगा लेने से भूमि के नीचे की वस्तुएँ (गड़े खजाने आदि) भी दिखाई देने लगती हैं।
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सिद्धांत  : पुं० [सं० सिद्ध+अंत, ब० स०] १. किसी विषय का वह अंत अर्थात अंतिम निर्णय या निश्चय जो पूरी तरह से ठीक सिद्ध या प्रमाणित हो चुका हो और इसलिए जिसमें किसी प्रकार के परिवर्तन के लिए अवकाश न रह गया हो। २. किसी विषय में तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श आदि के उपरांत निश्चित किया हुआ ऐसा मत जो सभी दृष्टियों से ठीक माना जाता हो। असूल। उसूल। (प्रिंसिपुल) ३. कला, विज्ञान, शास्त्र आदि के संबंध में ऐसी कोई मूल बात या मत जो किसी विद्वान द्वारा प्रतिपादित या स्थापित हो और जिसे बहुत से लोग ठीक मानते हैं। उपपत्ति। (थिअरी) ४. धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में वे सुविचारित तत्त्व जिनका प्रचलन किसी विशिष्ट वर्ग में प्रायः सर्वमान्य होता है। मत। (डाक्ट्रिन) ५. कोई ऐसा ग्रन्थ जिसमें उक्त प्रकार की बातें या मत निरूपित हों। जैसे—सूर्य-सिद्धांत। ६. साधारण बोलचाल में किसी बात या विषय का तत्वार्थ या साराँश। मतलब की या सारभूत बात।
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सिद्धांत-वाद  : पुं० [सं० सिद्धांत√वद् (बोलना)+घञ्] यह विचार प्रणाली कि अपने सिद्धांत का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए।
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सिद्धांत-वादी (दिन्)  : वि० [सं० सिद्धांत√वद् (कहना)+णिनि] सिद्धांतवाद संबंधी। पुं० वह जो अपने मान्य सिद्धांतों के अनुसार चलता हो।
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सिद्धांतज्ञ  : वि० [सं० सिद्धांत√ज्ञा (जानना)+क] सिद्धांत की बात जानने वाला। तत्वज्ञ। विद्वान। २. दे० ‘सिद्धांतवादी’।
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सिद्धांताचार  : पुं० [सं० ष० त०] तांत्रिको का आचार अर्थात एकाग्र चित्त से शक्ति की उपासना करना।
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सिद्धांतित  : भू० कृ० [सं० सिद्धांत+इतच्] तर्क आदि के द्वारा प्रमाणित। साबित।
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सिद्धांती  : वि० [सं० सिद्धांत] १. शास्त्रों आदि के सिद्धांत जानने वाला। २. अपने सिद्धांत पर दृढ़ रहने वाला। पं० तर्क शास्त्र का ज्ञाता या पंडित।
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सिद्धांतीय  : वि० [सं० सिद्धांत+छ+ईय] सिद्धांत-संबंधी।
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सिद्धान्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] पकाया हुआ अन्न। जैसा—भात, रोटी आदि।
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सिद्धापगा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. आकाशगंगा। २. गंगा नदी।
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सिद्धापिका  : स्त्री० [सं०] जैनों की चौबीस देवियों में से एक जो अर्हता का आदेश कार्यान्वित करती है।
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सिद्धांबा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] दुर्गा।
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सिद्धारि  : पु० [सं० ब० स०] एक प्रकार का मंत्र।
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सिद्धार्थ  : वि० [सं० ब० स०] जिसका अर्थ अर्थात उद्देश्य या कामनाएँ पूर्ण हो चुकी हों। सफल मनोरथ। पूर्णकाम। पुं० १. गौतम बुद्ध का एक नाम। २. स्कंद का कार्तिकेय का एक अनुचर। ३. ज्योतिष में, साठ संवत्सरों में से एक। ४. महावीर स्वामी के पिता। (जैन)
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सिद्धार्थक  : पुं० [सं० सिद्धार्थ+कन्] १. श्वेत सर्षप। सफेद सरसों। २. एक प्रकार का मरहम।
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सिद्धार्था  : स्त्री० [सं० सिद्धार्थ-टाप्] १. जैनों के चौथे अर्हत की माता का नाम। २. सफेद सरसों।
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सिद्धासन  : पुं० [सं० मध्य० स०] ८४ आसनों में से एक। (हठ योग)
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सिद्धि  : स्त्री० [सं०] १. कोई काम या बात सिद्ध करने या होने की अवस्था या भाव। कोई काम ठीक तरह से पूरा करना या होना। २. कार्य का ठीक रूप में पूरा उतरना। ३. कोई ऐसा उद्देश्य पूरा होना अथवा किसी ऐसे लक्ष्य तक पहुँचना जिसके लिए विशेष परिश्रम और प्रयत्न किया गया हो। (अटेनमेंट) ४. ऐसी विशिष्ट क्षमता योग्यता या स्थिति जो उक्त प्रकार के परिश्रम या प्रयत्न के फल स्वरूप प्राप्त हुई हो। (अटेन्मेन्ट) ५. परिणाम या फल के रूप में होने वाली प्राप्ति, लाभ या सफलता। जैसा—इस प्रकार की कहा-सुनी से तो कोई सिद्धि होगी नहीं। ६. ऐसा तथ्य या निर्णय जिसके ठीक होने में कोई संदेह न रह गया हो। ७. वाद-विवाद, व्यवहार आदि का अंतिम निर्णय। झगड़े या मुकदमें का फैसला। ८. किसी प्रकार की समस्या की मीमांसा। ९. आपस में होने वाला किसी प्रकार का निर्णय। निश्चय। १॰. नाट्यशास्त्र में, वह स्थिति जिसमें कोई उद्देश्य पूरा करने वाले साधनों के प्रस्तुत होने का उल्लेख होता है। ११. छंदशास्त्र में छप्पय के ४१ वें भेद का नाम जिसमें ३॰ गुरु और ९२ लघु वर्ण और कुल १५२ मात्राएँ होती हैं। १२. तपस्या, तांत्रिक, उपासना, हठयोग की साधना आदि के फलस्वरूप साधक को प्राप्त होने वाली कोई विशिष्ट प्रकार की अलौकिक या लोकोत्तर क्षमता या शक्ति। विशेष-योग साधन से प्राप्त होने वाली ये आठ सिद्धियाँ कही गई हैं—अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व। बौद्ध तंत्रों के अनुसार आठ सिद्धियाँ ये हैं—खड़्ग, अंजन, पादलेप, अंतर्धान, रस-रसायन, खेचर, भूचर, और पाताल। १३. खाघ पदार्थ या भोजन का आग पर पकाया जाना या पक कर तैयार होना। १४. दक्ष-प्रजापति की कन्या जो धर्म को ब्याही थी। १५. गणेश की एक पत्नी का नाम। १६. दुर्गा का एक नाम। १७. ऋण या परिशोध। कर्ज चुकता होना। १८. कार्य कुशलता। क्षमता। पटुता। १९. बुद्धि। २॰. सुख-समृद्धि। २१. मुक्ति। मोक्ष। २२. ऋद्धि या वृद्धि नामक औषधि। २३. विजया। भाँग।
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सिद्धि-गुटिका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०]=सिद्ध गुटिका।
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सिद्धि-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. ऐसी भूमि जहाँ लोगों को सिद्धियाँ प्राप्त हुई हों। सिद्धि-स्थान। २. ऐसा स्थान जहाँ तपस्या या धार्मिक साधन करने पर सहज में अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
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सिद्धि-योग  : पुं० [सं० ष० त०] ज्योतिष में, एक प्रकार का योग जो सब कार्य सहज में सिद्ध करने वाला माना जाता है।
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सिद्धि-योगिनी  : स्त्री० [सं०]=सिद्ध-योगिनी।
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सिद्धि-रस  : पुं०=सिद्ध-रस।
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सिद्धि-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] १. पुण्य स्थान। तीर्थ। २. आयुर्वेद के ग्रन्थों में, वह अंश जिसमें चिकित्सा-संबंधी बातों का विवेचन होता है। ३. दे० ‘सिद्धि-पीठ’ और ‘सिद्धि-भूमि’।
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सिद्धिद  : वि० [सं० सिद्धि√दा (देना)+क] सिद्धि देने वाला। पुं० १. वटुक भैरव का एक नाम। २. पुत्र-जीव नामक वृक्ष।
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सिद्धिदाता (तृ)  : वि० [सं० सिद्धि√दा (देना)+तृच्, ब० स०] [स्त्री० सिद्धिदात्री] सिद्धि देने या कार्य सिद्धि कराने वाला। पुं० गणेश का एक नाम।
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सिद्धीश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] १. शिव। महादेव। २. एक प्राचीन पुण्य क्षेत्र।
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सिद्धेश्वर  : पुं० [सं० ब० स० या कर्म० स०] [स्त्री० सिद्धेश्वरी] १. बहुत बड़ा सिद्ध। महायोगी। २. महादेव। शिव। ३. गुलतुर्रा। शंखोदरी।
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सिद्धोदक  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्राचीन तीर्थ का नाम। २. काँजी।
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सिद्धौघ  : पुं० [सं० ब० स०] तांत्रिक के आचार्यों या गुरुओं का एक वर्ग।
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सिंध  : पुं० [सं० सिंधु] अखण्ड भारत की पश्चिमी सीमा पर (आज-कल पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा पर) स्थित एक प्रदेश जो अब पश्चिमी पाकिस्तान में है। विशेष—दे० सिंधु। स्त्री० सैंधवी नामक रागिनी।
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सिध  : वि०, पुं०=सिद्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंध-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. चन्द्रमा। २. तिंदुक जाति का वृक्ष। तेंदू।
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सिंध-मंदारी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की रागिनी।
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सिंधर-वदन  : पुं० [सं० ब० स०] गजवदन। गणेश।
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सिधरी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।
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सिंधव  : पुं०=सैंधव (दे०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिधवाई  : स्त्री० [हिं० सीधा, सिधवाना] वह लकड़ी जो टेक के रूप में तथा पहिये के स्थान पर लगाई जाती थी।
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सिधवाना  : सं० [हिं० सीधा] सीधा करना।
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सिंधवी  : पुं० स्त्री० सैंधवी (रागिनी)।
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सिधाई  : स्त्री० [हिं० सीधा] सीधापन। सरलता।
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सिधाना  : अ०=सिधारना (जाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिधारना  : अ० [सं० सिद्ध=पूरा किया हुआ] १. गमन या प्रस्थान करना। जाना। (सम्मान सूचक) २. इस लोक से उठ जाना। परलोक वासी होना। ३. परलोक-गत या स्वर्गवासी होना। जैसा—वे तो कल रात्रि में ही सिधार गये। संयो० क्रि०—जाना। स०=सुधारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंधारा  : पुं० [देश०] भेंट आदि के रूप में सावन बदी तथा सुदी तृतीया के दिन विवाहिता कन्या के घर भेजे जाने वाले पकवान, मिठाइयाँ आदि।
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सिधि  : स्त्री०=सिद्धि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंधी  : वि० [हिं० सिंध] १. सिंध प्रदेश संबंधी। २. सिंध प्रदेश में बनने या होने वाला। पुं० १. सिंध प्रदेश का निवासी। ३. सिंध देश का घोड़ा जो बहुत तेज चलने वाला और सशक्त होता है। स्त्री० सिंध देश की भाषा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंधु  : पुं० [सं०] १. समुद्र। सागर। २. एक प्रसिद्ध नद जो पंजाब के पश्चिम भाग से होता हुआ सिंध देश में समुद्र में मिलता है। ३. वरुण देवता। ४. सिंधनामक देश। ५. उक्त देश का निवासी। ६. हाथी के सूँड़ से निकलने वाला पानी। ७. हाथी का मद। ८. कुछ लोगों के मत से चार और कुछ लोगों के मत से सात की संख्या का सूचक शब्द। ९. खूब सफेद और साफ सोहागा । १॰. सिंधुआर या निर्गुंडी का वृक्ष। ११. संपूर्ण जाति का एक राग जो माल कोश का पुत्र कहा गया है। स्त्री० एक छोटी नदी जो यमुना में मिलती हैं।
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सिधु  : पुं०=सीधु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंधु-कन्या  : स्त्री० [सं० ब० स०] सिंधु की पुत्री, लक्ष्मी।
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सिंधु-कफ  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र-फेन।
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सिंधु-कालक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन देश जो नैऋयकोण में था।
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सिंधु-खेल  : पुं० [सं० ब० स०] सिंध प्रदेश।
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सिंधु-जन्मा (न्मन)  : पुं० [सं० ब० स०] १. समुद्र से निकली हुई कोई वस्तु। २. सिंधुपुत्र, चन्द्रमा। ३. सिंधु प्रदेश में उत्पन्न होनेवाला व्यक्ति।
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सिंधु-जात  : पुं० [सं०] सिंधुज। (दे०)
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सिंधु-भैरवी  : स्त्री० [सं०] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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सिंधु-माता  : स्त्री० [सं० सिंधु-मातृ] सरस्वती, जो नदियों की माता मानी जाती है।
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सिंधु-लवण  : पुं० [सं०] सेंधा नमक।
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सिंधु-शयन  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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सिंधु-संगम  : पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ पर नदी और समुद्र मिलते हों। नदी और सागर का संगम स्थल। २. नदियों का संगम स्थल।
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सिंधु-सुत  : पुं० [सं० ष० त०] जलंधर नामक राक्षस जिसे शिवजी ने मारा था।
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सिंधु-सुता  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. लक्ष्मी। २. सीप।
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सिंधुआर  : पुं० [सं० सिंधुवार] निर्गुंडी। सँभालू।
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सिंधुज  : वि० [सं० सिंधु√जन् (उत्पन्नहोना)+ड] १. सिंधु अर्थात समुद्र से निकलने या समुद्र में उत्पन्न होने वाला। २. सिंधु देश में उत्पन्न होने वाला व्यक्ति। पुं० १. सेंधा नमक। २. सिंधी घोड़ा। ३. शंख। ४. पारा। ५. सोहागा।
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सिंधुजा  : स्त्री० [सं० सिंधुज-टाप्] १. सिंधु की पुत्री लक्ष्मी। २. मोती का सीप या सीपी।
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सिंधुनंदन  : पुं० [सं०√सिंधु नंद् (हर्षित करना)=ल्यु-अन] सिंधुपुत्र। चन्द्रमा।
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सिंधुपति  : पु० [सं० ष० त०] १. सिंधु प्रदेश का शासक। २. जयद्रथ।
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सिंधुपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०] गंभारी का पेड़।
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सिंधुपुष्प  : पुं० [सं० ष० त० ब० स०] १. शंख। २. कदम। कदंब। ३. बकुल। मौलसिरी।
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सिंधुर  : पुं० [सं० सिंधु√रा (ग्रहण करना)+क] [स्त्री० सिंधुरा] १. हाथी। २. आठ की संख्या का वाचक शब्द।
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सिंधुर-मणि  : पुं० [सं० ष० त०] गज-मुक्ता।
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सिंधुरागामी  : वि० [सं०] [स्त्री० सिंधुरागामिनी]=गजगामी। स्त्री० गज-गामिनी।
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सिंधुवार  : पुं० [सं०] निर्गुण्डी। सँभालू।
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सिंधुविष  : पुं० [सं०] हलाहल जो समुद्र मंथन करते समय निकला था।
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सिंधूरा  : पुं० [सं० सिंधुर] संगीत में एक प्रकार का राग।
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सिंधूरी  : स्त्री० [सं० सिंधुर] संगीत में एक प्रकार की रागिनी। स्त्री०=सिंदूरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिधोई  : स्त्री०=सिधवाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंधोरा  : पुं० [सं० सिंदूर+हिं० ओरा (प्रत्य०)] सिंदूर रखने की काठ की डिबिया।
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सिध्म  : बि० [सं०] १. जिस पर सफेद दाग हों। २. जिसे श्वेत कुष्ठ नामक रोग हो। पुं० सेहुँआ नामक रोग।
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सिध्मल  : वि० [सं० सिध्म+लच्] १. जिस पर सफेद दाग हो। २. जिसे श्वेत कुष्ठ रोग हुआ हो।
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सिध्मा  : स्त्री० [सं० सिध् (गत्यादि)+मन-टाप्] १. कुष्ठ का दाग। २. कुष्ठ रोग।
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सिध्य  : पुं० [सं०√ सिध् (गत्यादि)+क्यच्] पुष्य (नक्षत्र)।
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सिध्र  : वि० [सं०√सिध् (गमनादि)+रक्] १. साधु। २. अपना प्रभाव दिखाने वाला। पुं० पेड़। वृक्ष।
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सिन  : पुं० [सं०√षिज् (बाँधना)नक्] १. शरीर। देह। २. पहनने के कपड़े। पोशाक। कौर। ग्रास। ४. कुंभी नामक वृक्ष। वि० १. एक आँखवाला। काना। २. सफेद। पुं० [अ०] अवस्था। उमर।
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सिनक  : स्त्री० [हिं० सिनकना] १. सिनकने की क्रिया या भाव। २. सिनकने पर निकलने वाला मल। नाक का मल।
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सिनकना  : स० [सं० शिंघण] अमदर से जोर की वायु निकालते हुए नाक का मल या कफ बाहर करना। जैसा—नाक सिनकना।
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सिनि  : पुं० [सं० शनि] १. क्षत्रियों की एक प्राचीन शाखा। २. सात्यकि यादव के पिता का नाम।
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सिनी  : पुं०=शिनि। स्त्री०=सिनीवाली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिनीत  : स्त्री० [देश०] सात रस्सियों को बटकर बनाई गई चिपटी रस्सी। (लश्करी)।
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सिनीवाली  : स्त्री० [सं०] १. एक वैदिक देवी जिसका आह्वान, वैदिक मंत्रों में सरस्वती आदि के साथ होता है। २. दुर्गा। ३. शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा। ४. चाँदनी रात।
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सिनेट  : स्त्री० [अ०] दे० ‘सीनेट’।
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सिनेटर  : पुं० दे० ‘सिनेटर’।
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सिनेमा  : पुं० [अं०] १. चल-चित्र। २. वह भवन जिसमें लोगों को चल-चित्र दिखाये जाते हैं।
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सिन्नी  : स्त्री० [फा० शीरीन] १. मिठाई। २. मुराद पूरी होने पर अथवा देवता, पीर आदि को प्रसन्न करने के लिये चढ़ाई तथा प्रसाद रूप में बाटी जाने वाली मिठाई। क्रि० प्र०—चढ़ना।—बाँटना।
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सिपर  : स्त्री० [फा०] तलवार आदि का वार रोकने का ढ़ाल। (शील्ड)
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सिपरा  : स्त्री०=शिप्रा (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिपरिहा  : पुं० [?] क्षत्रीयों की एक जाति या भेद।
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सिपह  : स्त्री० [फा०] समस्त पद में पूर्व पद के रूप में प्रयुक्त होने वाला। सिपाह (सेना) का लघु रूप। जैसा—सिपहसालार=सेनापति।
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सिपह-सालार  : पुं० [फा० सिपह (फौज)+सालार (नेता)] सेना का प्रधान अधिकारी। सेना-पति।
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सिपहगरी  : स्त्री० [फा०] सैनिक का पद या पेशा।
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सिपहरा  : पुं०=सिपाही। (उपेक्षासूचक)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिपाई  : पुं०=सिपाही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिपारस  : स्त्री० [फा० सिपास] १. संस्तुति। २. खुशामद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिपारसी  : वि० [हिं० सिपारस] जो सिपारस के रूप में हो। प्रशंसात्मक पुं० खुशामदी।
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सिपारसी टट्टू  : पुं० [हिं०] वह जो केवल सिपारस अर्थात खुशामद करके अपना काम या जीविका चलाता हो।
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सिपारा  : पुं० [फा० सिपार] कुरान के तीस भागों में से कोई एक।
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सिपारा  : पुं० [फा०] दे० ‘सिपारा’।
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सिपाव  : पुं० [फा० सेहपाव] लकड़ी की एक प्रकार की टिकठी या तीन पायों का ढाँचा जो छकड़े, बैलगाड़ी आदि में आगे की ओर न झुकने पाये।
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सिपावा-भाथी  : स्त्री० [फा० सेहपाव+हिं० भाथी] हाथ से चलाई जाने वाली धौकनी या भाथी।
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सिपास  : स्त्री० [फा०] १. कृतज्ञता। २. धन्यवाद। ३. कृतज्ञता-प्रकाश। धन्यवाद प्रकाशन।
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सिपासनामा  : पुं० [फा० सिपासनामः] कृतज्ञता तथा सम्मान प्रकट करने के उद्देश्य से लिखा हुआ पत्र। अभिनन्दन पत्र।
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सिपाह  : स्त्री० [फा०] फौज। सेना।
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सिपाहगिरी  : स्त्री०=सिपाहगरी।
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सिपाहियाना  : वि० [फा० सिपाहियान] १. सैनिकों या सिपाहियों से संबंध रखनेवाला। २. सैनिकों या सिपाहियों के रंग-ढ़ंग जैसा अथवा उनकी मर्यादा के अनुकूल।
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सिपाही  : पुं० [फा०] १. सेना में युद्ध का काम करने वाला व्यक्ति। फौजी आदमी। सैनिक। २. पुलिस विभाग में साधारण कर्मचारी। जो पहरे आदि का काम करता है। (कांस्टेबल) ३. चपरासी। जैसा—तहसील का सिपाही।
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सिपुर्द  : वि० पुं०=सुपुर्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिप्पर  : स्त्री०=सिपर (ढ़ाल)।
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सिप्पा  : पुं० [देश०] १. पुरानी चाल की एक प्रकार की छोटी तोप। २. निशाने पर किया हुआ वार। लक्ष्य-वेध। ३. कार्य साधन का कौशल पूर्ण उपाय या युक्ति। तरकीब। (बाजारू) क्रि० प्र०—बैठाना।—भिड़ाना।—लगाना। मुहा०—सिप्पा लड़ाना=कार्य साधन का कौशल पूर्ण या युक्ति करना। ४. कार्य साधन की आरंभिक कार्रवाई या योजना। डौल। मुहा०—सिप्पा जमाना=किसी काम या बात की भूमिका तैयार करना।
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सिप्पी  : स्त्री०=सीपी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० सिप्पा का अल्पा० रूप] छोटी तोप।
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सिप्र  : पुं० [सं०√षपृ (एकत्र होना)+रक् पृषो० सिद्ध] १. चन्द्रमा। २. पसीना। ३. एक प्राचीन सरोवर।
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सिप्रा  : स्त्री० [सं० सिप्र+टाप्] १. महिषा। भैंस। २. स्त्रियों का कटि-बंध। ३. दे० ‘शिप्रा’।
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सिफत  : स्त्री० [अ० सिफत] [भाव० सिफाती] कोई ऐसा गुण या विशेषतः (क) जो किसी व्यक्ति का स्वभाव बन गई अथवा (ख) किसी वस्तु की प्रशंसा या प्रसिद्धि का कारण बन गई हो। जैसे—(क) इस नौकर की सिफत यह है कि वह काम से घबराता नहीं। (ख) इस कपड़े की सिफत है कि यह फटता नहीं है। सिफर
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सिफला  : वि० [अ० सिफ्लः] [स्त्री० सिफली, भाव० सिफलापन] १. नीच। कमीना। २. ओछा। छिछोरा। ३. घटिया दरजे का।
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सिफलापन  : पुं० [अ० सिफ्लः+हिं० पन (प्रत्य०)] सिफला होने की अवस्था या भाव। कमीनापन। नीचता।
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सिफा  : स्त्री०=शफा (आरोग्य)।
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सिफात  : स्त्री० [फा० सिफात] ‘सिफत’ का बहु०।
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सिफाती  : वि० [अ० सिफ़ाती] १. सिफत अर्थात गुण से संबंध रखने वाला। २. सिफत के रूप में होने वाला। ३. अभ्यास, शिक्षा आदि के द्वारा प्राप्त किया हुआ (गुण या विशेषतः)।
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सिफारत  : स्त्री० [अ० सिफारत] सफीर अर्थात राजदूत का कार्य, पद या भाव। २. सफीर अर्थात राजदूत का कार्यालय। दूतावास।
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सिफारिश  : स्त्री० [फा० सुफ़ारिश] १. किसी से कही जाने वाली कोई ऐसी बात जिससे अपना या किसी दूसरे का उपकार या भलाई होती हो। २. कोई ऐसी बात जो किसी का अपराध क्षमा कराने के लिये किसी अधिकारी से कही जाय। ३. किसी के गुण, योग्यता आदि का परिचय देने वाली ऐसी बात जो किसी ऐसे दूसरे आदमी से कही जाय जो उस पहले व्यक्ति का कोई उपकार या भलाई कर सकता हो। संस्तुति। (रिकमेन्डेशन) जैसा—उन्हें यह नौकरी शिक्षा मंत्रालय की सिफारिश से मिली है। ४. बोल-चाल में, प्रार्थना के रूप में किसी से कही जाने वाली अपने संबंध में अथवा किसी दूसरे के संबंध में ऐसी बात जिसका मुख्य उद्देश्य कृपा-दृष्टि या अनुग्रह प्राप्त करना होता है।
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सिफारिशी  : वि० [फा० सुफ़ारिशी] १. सिफारिश संबंधी। जैसे—सिफारिशी बातें। २. जो सिफारिश के रूप में हो। जैसा—सिफारिशी चिट्ठी। ३. जो सिफारिश के द्वारा हुआ हो। ४. खुशामदी।
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सिफारिशी-टट्टू  : पुं० दे० ‘सिपारसी टट्टू’।
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सिंब  : पुं० दे० ‘शिब’।
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सिंबा  : स्त्री० दे० ‘शिबा’।
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सिबिका  : स्त्री०=शिविका (पालकी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंबी  : स्त्री० [सं०] शिंबी (छीमी या फली)।
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सिमई  : स्त्री०=सिवँई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिमट  : स्त्री० [हिं० सिमटना] सिमटने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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सिमटना  : अ० [हिं० समेटना का अ०] १. दूर तक फैली या बिखरी हुई चीज या चींजों का खिंचकर थोड़े विस्तार या स्थान में आना। संकुचित होना। समेटा जाना। २. दूर तक फैली हुई चीज या तल में शिकन या सिलवट पड़ना। ३. इकट्ठा होना। बटुरना। ४. क्रम या तरतीब से लगना। ५. काम पूरा या समाप्त होना। ६. भय, लज्जा आदि के कारण व्यक्ति का संकुचित होना। सिकुड़ना। जैसा—वह सिंमटकर कोने में बैठ गया। संयो० क्रि०—जाना।
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सिमटी  : स्त्री० [देश०] खेस की तरह का एक प्रकार का मोटा कपड़ा।
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सिमंत  : पुं०=सीमंत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिमर-गोला  : पुं० [देश० सिमर?+हिं० गोला] एक प्रकार की मेहराब।
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सिमरख  : पुं०=शिंगरफ (ईंगुर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिमरना  : स०=सुमिरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिमरनी  : स्त्री०=सुमिरनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिमरिख  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
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सिमल  : पुं० [सं० सीर+हल+माला] १. हल का जुआ। २. उक्त जुए में लगी हुई खूंटी।
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सिमला आलू  : पुं० [हिं० शिमला+आलू] एक प्रकार का पहा़ड़ी बड़ा आलू। मरबुली।
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सिमाना  : पुं० [सं० सीमान्त] सिवाना। हद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=सिलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिमिटना  : अ०=सिमटना।
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सिमृति  : स्त्री०=स्मृति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिमेंट  : स्त्री०=सीमेंट।
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सिमेटना  : स०=समेटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिम्त  : स्त्री० [अ०] ओर। तरफ।
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सिम्रिति  : स्त्री०=स्मृति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिय  : स्त्री० [सं० सीता] सीता। जानकी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सियना  : सं० [सं० सर्जन] उत्पन्न करना। रचना। स०=सीना (सिलाई करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ० [हिं० सीना] सीया जाना।
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सियरा  : वि० [सं० शीतल, प्रा० सीअड़] [स्त्री० सियरी, भाव० सियराई] १. ठंडा। शीतल। २. अपरिपक्व। कच्चा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सियराई  : स्त्री० [हिं० सियरा+ई (प्रत्य०)] १. शीतलता। ठंडक। २. कच्चापन। कचाई।
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सियह  : वि० [फा०]=सियाह (काला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिया  : स्त्री०=सीता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सियाना  : स०=सिलाना। वि०=सयाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सियापा  : पुं०=स्यापा।
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सियार  : पुं० [सं० श्रंगाल, प्रा० सिआड़] [स्त्री० सियारी० सियारिन] गीदड़।
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सियार लाठी  : पुं० [हिं०] अमलतास।
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सियारा  : पुं० [सं० सीता, प्रा० सरिया+रा] एक प्रकार का फावड़ा जिससे जोती हुई जमीन समतल की जाती है। पुं०=सियाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=सियरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सियारी  : स्त्री० [हिं० सियार] गीदड़ की मादा।
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सियाल  : पुं० [सं० श्रृंगाल] गीदड़।
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सियाला  : पुं० [सं० शीतकाल] जाड़े का मौसम। शीत काल।
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सियाला पोका  : पुं० [हिं० सीप+पोका=कीड़ा] एक प्रकार का बहुत छोटा कीड़ा जो सफेद चिपटे कोश के अंदर रहता है, और पुरानी लोनी मिट्टी वाली दीवारों पर मिलता है। लोना-पोका।
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सियाली  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का बिदारन कंद। वि० [सं० शीतकाल, हिं सियाला] जाड़े में तैयार होने वाली फसल खरीफ।
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सियावड़  : पुं०=सियावड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सियावड़ी  : स्त्री० [हिं० सीता+वटी] १. अनाज का वह हिस्सा जो फसल कटने पर खलिहान में से साधुओं के निमित्त निकाला जाता है। २. बिजुखा। (दे०)
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सियासत  : स्त्री० [अ०] [वि० सियासती] १. देश का शासन प्रबन्ध तथा व्यवस्था। २. राजनीति। स्त्री०=साँसत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सियासती  : वि० [अ०] राजनीतिक।
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सियाह  : वि० [फा० स्याह] कृष्ण वर्ण का काला। २. दूषित। बुरा। जैसा—सियाह-बख्त=अभागा। ३. ले० ‘स्याह’।
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सियाह कलम  : स्त्री० दे० स्याहकलम। (चित्र-कला)
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सियाह-नवीस  : पुं० [फा०] वह कर्मचारी जो सियाहा लिखता हो।
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सियाहगोश  : वि० पुं०=स्याह-गोश।
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सियाहत  : स्त्री० [अ०] १. सैर करने की क्रिया या भाव। सैर। २. देश-देशांतरों का पर्यटन या भ्रमण।
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सियाहपोश  : पुं०=स्याहपोश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सियाहा  : पुं० [फा० स्याहः] १. वह पंजी या बही जिसमें नित्य के आय लिखा जाता है। २. मुगल-शासन में वह पंजी जिसमें सैनिकों की उपस्थित लिखी जाती थी। ३. आज-कल वह पंजी या रजिस्टर जिसमें सरकार को प्राप्त होने वाली मालगुजारी या लगान का हिसाब लिखा जाता है।
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सियाही  : स्त्री०=स्याही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिर  : पुं० [सं० शिरस्] १. मनुष्यों, जीव-जन्तुओं आदि के शरीर में गरदन से आगे या ऊपर का वह गोलाकार भाग जिसमें आँख, कान नाक, मुँह आदि अंग होते हैं, और जिसके अंदर मस्तिष्क रहता है। कपाल। खोपड़ी। (हेड) विशेष—कुछ अवस्थाओं में यह प्राणियों की जान या प्राण का सूचक होता है। और कुछ अवस्थाओं में व्यक्तियों की प्रतिष्ठा या सम्मान का सूचक होता है। मुहा—(किसी को) सिर आँखों पर बैठाना=बहुत आदर सत्कार करना। बहुत आवभगत करना। (किसी की आज्ञा, कथन आदि) सिर-आँखों पर होना=सहर्ष मान्य या स्वीकृत होना। शिरोधार्य होना। जैसे—आपकी आज्ञा सिर आँखों पर है। सिर उठाकर चलना=अभिमानपूर्वक, अथवा अपनी प्रतिष्ठा या मर्यादा के भाव से युक्त होकर चलना। सिर उठाना= (क) किसी के विरोध में खड़े होना। जैसे—प्रजा का राजा के विरुद्ध सिर उठाना। (ख) सिर और मुँह ऊपर करके किसी की ओर प्रतिष्ठा, प्रयत्न या साहसपूर्वक देखना। जैसे—अब वह तुम्हारे सामने सिर नही उठा सकता। सिर उठाने की फुर्सत न होना=कार्य में बहुत अधिक व्यस्त होने के कारण इधर-उधर की बातों के लिये नाम को भी अवकाश न होना। (किसी का) सिर उतारना=सिर काट कर हत्या करना। सिर ऊँचा करना=दे० ऊपर ‘सिर उठाना’। सिर ऊँचा होना=आदर, प्रतिष्ठा या सम्मान में वृद्धि होना। (स्त्रियों का) सिर करना=बाल सँवारना। चोटी गूँथना। सिर काढ़ना=दे० ‘नीचे सिर निकालना’। सिर का बोझ उतारना=दे० नीचे ‘सिर से बोझ उतारना’। (किसी के पास) सिर के बल जाना=बहुत ही आदर, प्रेम या श्रद्धा से युक्त होकर और सब प्रकार के कष्ट सहकर जाना। सिर खपाना=ऐसा काम या बात करना जिससे कोई लाभ न हो और व्यर्थ मस्तिष्क थक जाय। माथापच्ची करना। (किसी का) सिर खाना=व्यर्थ की बातें करके किसी को तंग या परेशान करना। सिर खाली करना=दे० ऊपर ‘सिर खपाना’। (किसी का) सिर खुजलाना=ऐसा उपद्रव या शरारत करना कि उसके लिये यथेष्ट दंड मिल सके। शामत आना। जैसा—तुम्हारी इन चालों से तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारा सिर खुजला रहा है, अर्थात तुम मार खाना चाहते हो। सिर गूँथना= (क) सिर के बाल बाँधने के लिये कंघी-चोटी करना। (ख) कलियों, फूलों आदि के सिर अलंकृत करना। सिर घुटवाना=दें० नीचे ‘सिर मुँडवाना’। सिर घूमना=सिर में चक्कर आना। (ख) कोई विकट स्थिति सामने आने पर बुद्धि चकराना। जैसा—उन लोगों की मार पीट देखकर तो मेरा सिर घूमने लगा। सिर चकराना=सिर घूमना। (किसी के) सिर चढ़कर मरना= (किसी को) सिर चढ़ाना। किसी के ऊपर जान देना। (किसी के आगे अपना) सिर चढ़ाना=किसी देवी या देवता के सामने अपना सिर काटकर गिराना। आप ही अपना बलिदान करना। (किसी को) सिर चढ़ाना= किसी की छोटी-मोटी बातों की उपेक्षा करते हुए उसे बहुत उद्दंड या गुस्ताख बना देना। (कोई चीज अपने) सिर चढ़ाना=आदरपूर्वक या पूज्य भाव से ग्रहण करना। शिरोधार्य करना। सिर जाना=मृत्यु हो जाना। उदा०—सर (सिर) जाता है, सर (सिर) से तेरी उल्फत नहीं जाती।—कोई शायर। (किसी के साथ) सिर जोड़कर बैठना=बहुत ही पास सटकर या हिल-मिलकर बैठना। सिर जोड़ना=किसी काम या बात के लिये कुछ लोगों को इकठठा करना। सिर झाड़ना=सिर के बालों में कंघी करना। (किसी का) सिर झुकाना=किसी को इस प्रकार परास्त करना कि वह नत मस्तक होने के लिए विवश हो जाय। (किसी के आगे) सिर झुकाना= (क) नम्रतापूर्वक सिर नीचे करना। नतमस्तक होना। (ख) लज्जा आदि के कारण सिर नीचे करना। (किसी के) सिर डालना=किसी प्रकार का उत्तरदायित्व या भार किसी को देना या किसी पर रखना। सिर ढारना=प्रसन्न होकर सिर हिलाना या झूमना। उदा०—मुरली की धुनि सुनि समर वधू सिर ढोरैं।—सूरदास मदन मोहन। (किसी का) सिर तोड़ना=अभिमान, उद्दंडता, शक्ति आदि नष्ट करना। जैसा—यदि वे मुझसे मुकदमेबाजी करेंगे तो मैं उनका सिर तोड़ दूँगा। (किसी काम, बात या व्यक्ति के लिए) सिर देना=प्राण निछावर करना। जान देना। (किसी के) सिर धरना=किसी के सिर मढ़ना या रखना। (कोई चीज या बात) सिर धरना=आदरपूर्वक या पूज्यभाव से ग्रहण करना। शिरोधार्य करना। सिर धुनना=पश्चात्ताप या शोक के कारण बहुत अधिक दुःख प्रकट करना। (अपना) सिर नंगा करना=सिर के बाल खोल कर इधर-उधर बिखेरना (किसी का) सिर नंगा करना=अपमानित या बेइज्जत करना। सिर नवाना= दे० ऊपर ‘सिर झुकाना’। सिर निकालना=दबी हुई, शांत या साधारण स्थिति से बाहर निकालने का प्रयत्न करना। सिर नीचा होना= (क) अप्रतिष्ठा होना। इज्जत बिगड़ना। मान भंग होना। (ख) पराजय या हार होना। (ग) खेद, लज्जा आदि का अनुभव होना। सिर पचाना=दे० ऊपर ‘सिर खपाना’। सिर पटकना=बहुत कुछ विवश होते हुए भी किसी काम के लिए निरंतर परिश्रम और प्रयत्न करते रहना। सिर पड़ना=दे० नीचे ‘सिर पर पड़ना’। (भूत, प्रेत, देवी, देवता आदि का) सिर पर आना= किसी व्यक्ति का भूत-प्रेत आदि के आवेश या वश में होना। भूत-प्रेत, देवी-देवता आदि के आवेश से प्रभावित होना। (कोई अवसर) सिर पर आना=बहुत ही पास आ जाना। जैसे—बरसात (या होली) सिर पर आ गई है। (कोई कष्टदायक अवसर या बात) सिर पर आना या आ पड़ना=बहुत ही पास या बिल्कुल सामने आ जाना। जैसे—कोई आफत या संकट सिर पर आना या आ पड़ना। (कुछ) सिर पर उठा लेना=इतना अधिक उपद्रव करना या हल्ला मचाना कि आस पास के लोग ऊब या घबरा जाएँ। जैसे—तुमने जरा-सी बात पर सारा घर सिर पर उठा लिया। सिर पर काल चढ़ना=मृत्यु या विनाश का समय बहुत पास आना। (किसी के सिर पर) खून चढ़ना या सवार होना= (क) इतना अधिक आवेश या क्रोध चढ़ना कि मानो किसी के प्राण ले लेगें। (ख) हत्याकारी का अपने अपराध की भीषणता के विचार से आपे में न रह जाना या सुध-बुध खो बैठना। (अपने) सिर पर खेलना=ऐसा काम करना जिसमें जान तक जा सकती हो। जान जोखिम में डालना। (किसी बात का) सिर पर चढ़कर बोलना=प्रत्यक्ष रूप से सामने आकर अपना अस्तित्व प्रकट करना। जैसे—जादू वह जो सिर पर चढ़कर बोले। (किसी के) सिर पर पड़ना= (क) उत्तरदायित्व या भार आकर पड़ना। जैसे—जिसके सिर पर पड़ेगी वह आप ही सँभालेगा। (ख) कष्ट, संकट आदि घटित होना। गुजरना। जैसे—सारी आफत तो उसी के सिर पड़ी है। (अपने) सिर पर पाँव रखकर भागना=बहुत जल्दी या तेजी से भाग जाना। जैसे—सिपाही की आवाज सुनते ही चोर सिर पर पाँव रखकर भागा। (किसी के) सिर पर बीतना=कष्ट, संकट आदि घटित होना। जैसे—जिसके सिर पर बीतती है, वही जानता है। (कोई चीज या बात) सिर पर रखना=आदरपूर्वक ग्रहण करना। शिरोधार्य करना। सिर पर लेना=अपने ऊपर उत्तरदायित्व या जिम्मेदारी लेना। जैसे—झगड़े या बदनामी की बात अपने सिर पर लेना। सिर पर शैतान चढ़ना=क्रोध, भय आदि के कारण विवेक नष्ट होना। जैसा—सिर पे शैतान के एक और भी शैतान चढ़ा।—कोई शायर। सिर पर सींग जमना=ऐसी स्थिति में आना कि औरों से व्यर्थ लड़ाई-झगड़ा करने को जी चाहे। सिर पर सींग होना=कोई विशेषता होना। (परिहास और व्यंग्य) जैसे—क्या तुम्हारे सिर सींग है जो तुम्हारी हर बात मान ली जाय। सिर पर सेहरा होना=किसी प्रकार की विशेषता होना। (व्यंग्य) जैसा—क्या तुम्हारे सिर पर सेहरा है जो सब चीजें तुम्ही को दे दी जाँय। (किसी काम या बात का किसी के) सिर पर सेहरा होना=किसी कार्य का श्रेय प्राप्त होना। वाहवाही मिलना। जैसे—इस काम का सेहरा तुम्हारे सिर पर ही रहा। (किसी के) सिर पर हाथ फेरना=किसी अनाथ या पीड़ित को अपनी रक्षा में लेकर उसका समर्थक या सहायक बनना। (किसी का किसी के) सिर पर होना=पोषक, समर्थक या संरक्षक का वर्तमान होना।—जैसा—उसके सिर पर कोई होता तो यह नौबत न आती। (कोई बात) सिर पर होना= (क) सामने या समक्ष होना। बहुत पास होना। (ख) थोड़े ही समय में घटित होने की आशा या संभावना होना। जैसा—होली सिर पर है, कपड़े जल्दी बनवा लो। सिर फिरना या फिर जाना=बुद्धि या मस्तिष्क का ठिकाने न रहना। पागलपन के लक्षण प्रकट होना। जैसे—तुम्हारी इन बातों से तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारा सिर फिर गया। (किसी से) सिर फोड़ना=व्यर्थ का प्रयत्न या बकवाद करना। जैसे—तुम तो किसी की बात मानोगे नहीं तुमसे कौन सिर फोड़े। सिर बाँधना=सिर के बाल बाँधना या कंघी चोटी करना। (किसी का) सिर बाँधना=सिर पर आक्रमण या वार करना। (पटेबाज) (घोड़े का) सिर बाँधना=लगाम इस प्रकार खीँचें या पकड़े रहना कि चलने के समय घोड़े का सिर सीधा या सामने रहे। (सवार) सिर बेचना=सेना की नौकरी में नाम लिखवाना। सिर भारी होना=सिर में पीड़ा होना या थकावट जान पड़ना। (रोगी होने के पूर्व लक्षण) सिर भन्नाना=दे० ऊपर ‘सिर घूमना’। (कोई काम या बात किसी के) सिर मढ़ना= (क) कोई काम या बात जबरदस्ती किसी के जिम्मे लगाना। (ख) किसी को किसी अपराध या दोष के लिए उत्तरदायी ठहराना या बनाना। (कोई काम या बात) सिर मानकर करना=आज्ञा के रूप में मानकर कोई काम करना। उदा०—सहज सुहृद् गुरु, स्वामी सिख, जो न करई सिर मानि।—तुलसी। (किसी से) सिर मारना=दे० ऊपर ‘सिर खपाना’। (कोई चीज किसी के) सिर मारना=बहुत ही उपेक्षापूर्वक कोई चीज किसी को देना या लौटाना। जैसे—तुम यह किताब लेकर क्या करोगे ? जिसकी है उनके सिर मारो। सिर मुड़ाते ही ओले पड़ना=प्रारंभ में ही कार्य बिगड़ना। कार्यारंभ होते ही विघ्न पड़ना। सिर मुँड़ाना= (क) सिर के बाल मुँड़वाकर त्यागी या साधु बनना। (ख) अपने पास का धन गवाँ डालना। (किसी का) सिर रंगना=लाठी आदि से प्रहार करके सिर लहू-लुहान करना। (किसी के) सिर रखना=दे० ऊपर (किसी के) सिर मढ़ना। सिर रहना= (क) मान रहना। प्रतिष्ठा बनी रहना। (ख) जीवन या प्राण रहना। जैसा—सिर रहते मैं कभी यह काम न होने दूँगा। (किसी काम या बात के) सिर रहना=इस बात का बराबर ध्यान रखना कि कोई काम किस प्रकार हो रहा है। (किसी का किसी व्यक्ति के) सिर रहना=किसी के अतिथि, आश्रित या भार बनकर रहना। जैसे—वहाँ जायँगे तो किसी दोस्त (या ससुराल) के सिर रहेगें। (अपराध या दोष किसी के) सिर लगाना=अपराधी या दोषी ठहराना या बताना। उदा—तुम तो दोष लगावनि कौं सिर बैठे देखत तेरें।—सूर। सिर सफेद होना=सिर के बाल पकना। (वृद्धावस्था का लक्षण) (किसी का) सिर सहलाना=किसी को प्रसन्न करने के लिए उसका आदर सत्कार करना। सिर सूँघना=छोटो पर अपना प्रेम दिखाते हुए उनका सिर सूँघने की क्रिया करना। उदा०—दै असीस तुम सूँघि सीस सादर बैठायो।—रत्नाकर।सिर से कफन बाँधना=जान बूझकर मरने को तैयार होना। सिर से खेल जाना=जान-बूझकर प्राण दे देना। सिर से खेलना= (क) सिर पर भूत-प्रेत आदि का आवेश होने की दशा में सिर इधर-उधर हिलाना। अभुआना। (ख) जान जोखिम में डालना। सिर से पानी गुजरना=ऐसी स्थिति में पड़ना कि कष्ट या संकट पराकाष्ठा तक पहुँच जाय और बचने की कोई आशा न रह जाय। (बाढ़ में डूबते हुए आदमी की तुलना के आधार पर) सिर से पैर तक= (क) ऊपर से नीचे तक। (ख) आदि से अंत तक। (ग) पूरी तरह से। सिर से पैर तक आग लगना=अत्यन्त क्रोध चढ़ना और दुःख होना। जैसा—उसकी बातें सुनकर मेरे तो सिर से पैर तक आग लग गई। सिर से बला टलना=व्यर्थ की झंझट या परेशानी दूर होना। सिर से बोझ उतरना= (क) उत्तदायित्व से मुक्त होने या काम पूरा हो चुकने पर निश्चित होना। (ख) झंझट या बखेड़ा दूर होना। सिर हिलाना= (क) स्वीकृति या अस्वीकृति जताने के लिए सिर को गति देना। (ख) प्रसन्नता सूचित करने के लिए सिर को गति देना। जैसे—अच्छा संगीत सुनकर सिर हिलाना। (किसी काम या बात के) सिर होना=कोई गुप्त काम या बात होने पर लक्षणों से उसे ताड़ या समझ लेना। जैसा—हमने तो सबकी आँख बचाकर उसे रुपया दिया था, पर तुम सिर हो गये (अर्थात तुमने ताड़ या समझ लिया) (किसी के) सिर होना=किसी के पीछे पड़ना। जैसे—अब तुम उन्हें छोड़कर हमारे सिर हुए हो। (दोष आदि किसी के) सिर होना=जिम्मे होना। ऊपर पड़ना। जैसे—यह सारा दोष तुम्हारे सिर है। २. ऊपर का सिरा। चोटी। वि० १. बड़ा। महान। २. उत्तम। श्रेष्ठ। ३. अच्छा। बढ़िया। अव्य० १. के ऊपर। पर। २. ठीक अवसर पर। जैसे—सब काम समय सिर होते हैं। उदा०—कही समय सिर भगत गति।—तुलसी। ३. आधार या आश्रय पर। जैसे—(क) वह बहाने सिर वहाँ से उठकर चला गया अर्थात बहाना बनाकर चला गया। (ख) मैं तो वहाँ काम सिर गया था; अर्थात काम होने के कारण चला गया था।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिर फिरा  : वि० [हिं० सिर+फिरना] [स्त्री० सिर-फिरी] १. जिसका सिर फिर गया अर्थात मस्तिष्क उलट या विकृत हो गया हो। २. जिसकी बुद्धि सामान्य स्तर से बहुत घट कर हो और इसीलिए जो ऊल-जलूल काम करता हो। ३. कुछ-कुछ पागलों का सा। जैसे—सिर-फिरी बातें।
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सिर-कटा  : वि० [हिं० सिर+कटा] [स्त्री० सिर+कटी] १. जिसका सिर कट गया हो। जैसे—सिर कटी लाश। २. दूसरों का सिर काटने अर्थात बहुत अधिक अपकार करनेवाला।
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सिर-खप  : वि० [हिं० सिर+खपना] १. दूसरों का सिर खपाने वाला। बक-बककर तंग या परेशान करने वाला। २. बहुत अधिक परिश्रम करके अपना सिर खपाने वाला। ३. (काम) जिसमें बहुत अधिक सिर खपाना पड़ता है। जैसे—यह बहुत ही वाहियात और सिर-खप काम है।
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सिर-खपना  : वि०=सिर-खप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिर-खपी  : स्त्री० [हिं० सिर+खपना] सिर खपाने की क्रिया या भाव।
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सिर-खिली  : स्त्री० [देश०] मटमैले रंग की एक प्रकार की चिड़िया। जिसकी चोंच और पैर काले होते हैं।
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सिर-घुरई  : स्त्री० [हिं० सिर+घूरना=घूमना] ज्वरांकुश तृण।
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सिर-चंद  : पुं० [हाथी के मस्तक पर शोभा के लिए लगाया जाने वाला एक प्रकार का अर्द्ध चन्द्राकार आभूषण।
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सिर-ढकाई  : स्त्री० [हिं० सिर+ढ़कना] १. सिर ढ़ँकने की क्रिया। २. कुमारी वैश्या के संबंध की वह रसम जिसमें वह पहले-पहल पुरुष से समागमन करती है और उसका सिर ढककर उसे वधू का रूप धारण कराया जाता है।
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सिर-ता-पा  : अव्य० [फा० सिर-ता-पा] १. सिर से पाँव तक। २. ऊपर से नीचे तक। ३. कुल का कुल। पूरा का पूरा।
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सिर-ताज  : वि० [फा० सर+अ० ताज] अग्र-गण्य। प्रधान। मुख्य। पुं० १. सिर पर पहनने का ताज। मुकुट। २. अपने वर्ग में सर्व-श्रेष्ठ वस्तु या व्यक्ति। शिरोमणि।
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सिर-धरा  : वि० [हिं० सिर+धरना] १. जिसे सिर पर रखा जा सके। शिरोधार्य। २. बहुत अधिक प्यार-दुलार में तपला हुआ। पुं० वह जो किसी को अपने सिर पर रखता अर्थात उसका संरक्षक होता है।
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सिर-नामा  : पुं० [फा० सरनाम, मि० सं० शीर्ष-नाम] १. पत्र के आरंभ में पत्र पाने वाले का नाम, उपाधि, अभिवादन आदि। २. पाने वाले का नाम और पता जो चिट्ठी के ऊपर लिखा जाता है। ३. लेखों आदि का शीर्षक।
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सिर-पाव  : पुं०=सिरोपाव। (दे०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिर-पेच  : पुं० [फा० सर-पेच] १. पगड़ी। २. पगड़ी के ऊपर बाँधा जाने वाला एक प्रकार का आभूषण या गहना।
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सिर-पोश  : पुं० [फा० सर-पोश] [भाव० सिरपोशी] १. सिर ढकने का टोप। सिर पर का आवरण। २. बन्दूक का गिलाफ। ३. किसी चीज को ऊपर ढकने का गिलाफ।
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सिर-फूल  : पुं० [हिं० सिर+फूल] सिर पर पहना जाने वाला स्त्रियों का एक आभूषण।
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सिर-फेंटा  : पुं० [हिं० सिर+फेंटा] सापा। पगड़ी। मुरेठा।
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सिर-बंद  : स्त्री० [हिं० सिर+फा० बंद] साफा।
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सिर-बंदी  : स्त्री० [हिं० सिर+फा० बेंदी] माथे पर पहनने वाला स्त्रियों का एक आभूषण। पुं० एक प्रकार का रेशम का कीड़ा।
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सिर-बेंदी  : स्त्री०=सिर-बंदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिर-बोझी  : पुं० [हिं० सिर-बोझ] एक प्रकार का पतला बाँस जो पाटन के काम आता है।
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सिरई  : स्त्री० [हिं० सिर+ई (प्रत्य०)] खाट या पलंग के चौखट में उस ओर की लकड़ी जिस ओर सोने के समय सिरहाना रखते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरका  : पुं० [पा० सिर्क] अंगूर, ईख, जामुन आदि के रस का वह रूप जो उसे धूप में रखकर और सूर्य की गरमी से पकाकर तैयार किया जाता है।
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सिरका-कश  : पुं० [फा०] सिरका या अर्क खींचने का एक प्रकार का यंत्र।
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सिरकी  : स्त्री० [हिं० सरकंडा] १. सरकंडा। सरई। सरहरी। २. सरकंडे की तीलियों की बनी हुई टट्टी, जिसे बैल गाड़ियों पर धूप बरसात आदि से बचने के लिए लगाते हैँ। ३. बाँस की पतली नली जिसमें बेल-बूटे काढ़ने का कला बत्तू भरा रहता है। पुं० कुंजर (जाति)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरखिस्त  : पुं० [फा० शीरखिश्त] दवा के काम आने वाला एक प्रकार का गोंद। यवशर्करा।
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सिरगा  : पुं० [देश०] घोड़ों की एक जाति।
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सिरगिरी  : स्त्री० [हिं० सिर+गिरि=चोटी] १. टोपी, पगड़ी आदि में लगाने की कलगी। २. चिड़ियों के सिर पर की कलगी।
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सिरगोला  : पं० [?] दुग्ध पाषाण।
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सिरजक  : वि० [सं० सृजक, हिं० सिरजना] सृजन या सर्जन करने वाला। रचने वाला। पुं० ईश्वर।
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सिरजन-हार  : सि० [सं० सर्जन+हिं० हार (=वाला)] सृजन करने अर्थात बनाने या रचने वाला। पुं० ईश्वर। परमात्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरजना  : स० [सं० सर्जन] सृजन करना। बनाना। रचना। स०=संचना (संचय करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरजित  : वि० [सं० सर्जित] सिरजा अर्थात बनाया या रचा हुआ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरतान  : पुं० [हिं० सिर+तान ?] १. कश्तकार। २. मालगुजार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरती  : स्त्री० [हिं० सीर] वह रकम जो असामी जमीन जोतने के बदले में जमींदार को देता था। लगान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरत्राण  : पुं०=शिरस्त्राण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरदार  : पुं०=सरदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरदारी  : स्त्री०=सरदारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरदुआली  : स्त्री० [फा० सरदुआल] घोड़े के मुँह का वह साज जिसमें लगाम अटकी रहती है।
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सिरधरू  : वि०=सिर-धरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरनेत  : पुं० [हिं० सिर+सं० नेत्री=धज्जी या डोरी] १. पगड़ी। २. क्षत्रियों का एक वर्ग या शाखा।
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सिरपच्ची  : स्त्री० [हिं० सिर+पचाना] १. सिर खपाने की क्रिया या भाव। २. सिर खपाने के कारण होनेवाला कष्ट।
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सिरमट  : पं०=सीमेंट। उदा०—सार्थकता को पुष्ट करने वाला। सिरिमिट है उनका परस्पर समीपत्व।—अज्ञेय।
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सिरमनि  : वि० पुं०=शरोमणी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरमिट  : पुं०=सीमेंट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरमौर  : वि० [हिं० सिर+मौर] शरोमणि। सिर-ताज। पुं० सिर का मुकुट।
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सिररुह  : पुं०=शिरोरुह। (सिर के बाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरवा  : पुं० [हिं० सरा] वह कपड़ा जिससे खलिहान में अनाज बरसाने के समय हवा करते हैं। ओसाने में हवा करने का कपड़ा। क्रि० प्र०—मारना।
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सिरवार  : पुं० [हिं० सिर+कार] जमींदार का वह कारिंदा जो उसकी खेती का प्रबंध करता है। पुं०=सिवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरस  : पुं० [सं० शिरीष] शीशम की तरह का लंबा एक प्रकार का ऊँचा पेड़।
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सिरसा  : पुं०=सिरस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरसी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का तीतर।
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सिरहर  : वि० [हिं० सिर+हर] शिरोमणि। वि०=सिर-धरा।
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सिरहाना  : पुं० [सं० शिरस्+आधान] १. तकिया जिसे सिर के नीचे रखते हैं। (पश्चिम) २. खाट या पलंग का वह स्थान जहाँ तकिया (सोते समय) साधारणतया रखते हैं।
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सिरा  : पुं० [हिं० सिर] १. किसी चीज के सिर या ऊपरी भाग का अंतिम अंश। शीर्ष भाग। जैसे—सिरे की चमेली। २. किसी लंबी चीज के दोनों छोरों या अंतिम अंशों में से हर एक। जैसे—उनकी दुकान बाजार के इस सिरे पर और मकान उस सिरे पर है। ३. किसी काम, चीज या बात का वह अंतिम अंश जो उसकी समाप्ति का सूचक होता है। पद-सिरे का=सबसे बढ़ा-चढ़ा। उच्च कोटि या प्रथम श्रेणी का। मुहा०—(किसी काम या बात का) सिरे चढ़ना=ठीक तरह से पूर्णता या समाप्ति तक पहुँचना। ४. आरंभ का भाग। शुरू का हिस्सा। जैसे—अब यह काम नये सिरे से करना पड़ेगा। ५. किसी चीज के आगे या सामने का भाग। स्त्री० [सं० शिरा] १. रक्त नाड़ी। २. सिंचाई की नाली। खेत की सिंचाई। ४. पानी की पतली धार। पुं० पानी रखने का कलसा या गगरा।
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सिरा-मोक्ष  : पुं० [सं०] शरीर का दूषित रक्त निकलवाना। फसद खुलवाना।
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सिराँचा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पतला बाँस जिससे कुरसियाँ और मोढ़े बनते हैं।
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सिराज  : पुं० [अं०] १. सूर्य। २. दीपक। चिराग।
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सिराजी  : वि०, पुं०=शीराजी।
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सिराना  : अ० [सं० शीतल, प्रा० सीअड़, पुं० हि० सीयर, सीरा] १. ठंडा या शीतल होना। २. धीमा या मंद होना। ३. तृप्त होना। स० [हिं० सीरा=शीतल] १. ठंड़ा या शीतल करना। २. धीमा या मंद करना। ३. धार्मिक अवसरों पर गेहूँ जौं आदि की उगाई हुई बालें, या पत्तियाँ किसी जलाशय या नदी में ले जाकर प्रवाहित करना। ४. तृप्त करना। ५. गाड़ना। अ० [हिं० सिरा] १. सिरे अर्थात पूर्णता या समाप्ति तक पहुँचना। २. खतम होना। न रह जाना। ३. गुजरना। बीतना। ४. निपटना। तै होना। स० [हिं० सिरा] १. सिरे अर्थात पूर्णता या समाप्ति तक पहुँचाना। समाप्त करना। २. बनाकर तैयार करना। ३. न रहने देना। नष्ट करना। उदा०—एहि विधि धरि मन धीर चीर अँसुवन सिराई कै।—नन्ददास। ४. समय गुजारना। बिताना। ५. तै करना। निपटाना।
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सिरापत्र  : पुं० [सं०] १. पीपल। अश्वस्थ। २. एक प्रकार की खजूर।
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सिरामूल  : पुं० [सं०] नाभि।
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सिरार  : स्त्री० [हिं० सिरा] पाई के सिरे पर लगाई जाने वाली लकड़ी। (जुलाहे)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिराल  : वि० [सं० सिरा+लच्] १. शिराओं से युक्त। २. जिसमें लंबी या बहुत-सी शिराएँ हों।
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सिरालक  : पुं० [सं० सिराल+कन्] एक प्रकार का अंगूर।
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सिराला  : स्त्री० [सं० सिराल+टाप्] १. एक प्रकार का पौधा। २. कमरख।
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सिराली  : स्त्री० [हिं० सिर] मोर की कलगी। मयूर-शिखा।
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सिरालु  : वि० [सं० सिरा+आलुच्] शिराओं वाला। सिराल।
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सिरावन  : वि० [हिं० सिराना] १. ठंड़ा या शीतल करने वाला। २. संताप दूर करने वाला। पुं० सिराने की क्रिया या भाव। (पूरब) पुं० [सं० सीर=हल] हेंगा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरावना  : स०=सिराना। वि०=सिरावन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिराहर्ष  : पुं० [सं०] १. पुलक। रोमांच। २. आँखों के डोरो की लाली।
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सिरिख  : पुं०=सिरस वृक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरिन  : पुं० [देश०] लाल सिरस वृक्ष। रक्तवृक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरिफल  : पुं०=श्रीफल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरियारी  : स्त्री० [सं० शिरियारी] सुसना का साग। हाथी शुंडी।
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सिरिश्ता  : पुं०=सरिश्ता (विभाग)।
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सिरिश्तेदार  : पुं०=सरिश्तेदार।
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सिरी  : स्त्री० [सं० सिर+ङीष्] १. करघा। २. कलिहारी। लांगली। स्त्री० [सं० श्री] १. लक्ष्मी। २. शोभा। ३. रोली। स्त्री० [हिं० सिर] १. सिर पर पहनने का एक गहना। २. सिर का अल्पा रूप। छोटा सिर। ३. काटी या मारी हुई बकरी, मछली, मुरगी आदि के गले के ऊपर का सारा अंश जो बहुत चाव से खाया जाता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरी-साफ  : पुं० [?] एक प्रकार की मखमल।
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सिरीस  : पुं०=सिरस (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरेयस  : पुं०=श्रेयस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरोना  : पुं० [हिं० सिर+ओना] इंडुरी। (दे०)
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सिरोपाव  : पुं० [हिं० सिर+पाँव] सिर से पैर तक पहनने के सब कपड़े, (अंगा, पगड़ी, पजामा, पटका और दुपट्टा) जो राज दरबार से किसी को सम्मान के रूप में दिया जाता है। खिलअत।
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सिरोमनि  : पुं०=शिरोमणि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरोरूह  : पुं०=शिरोरूह (बाल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिरोही  : पुं० [?] राजपूताने का एक नगर जहाँ की बनी हुई तलवार बहुत ही लचीली और बढ़िया होती है। स्त्री० तलवार, विशेषतः उक्त नगर की बनी हुई तलवार। स्त्री० [देश०] काले रंग की एक चिड़िया जिसकी चोंच और पंजे लाल रंग के होते हैं।
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सिर्का  : पुं०=सिरका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिर्फ  : अव्य० [अ० सिर्फ] १. किसी निश्चित तथा निर्दिष्ट परिमाण या मात्रा में। जैसे—(क) सिर्फ दस आदमी वहाँ गये थे। (ख) सिर्फ दो सेर मिठाई भेजी गई है। २. बस इतना ही या यही, और कुछ नहीं। जैसे—मैं सिर्फ कह ही सकता था। वि० अकेला।
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सिल  : स्त्री० [सं० शिला] १. पत्थर की चट्टान। शिला। २. पत्थर की चौकोर पटिया जो छतें आदि पाटने के काम आती हैं। सिल्ली। ३. पत्थर की चौकोर पटिया जिस पर बट्टे से मसाला आदि पीसते हैं। ४. उक्त आकार प्रकार का ढला हुआ चाँदी, सोने आदि का खंड। (इनगाँट) जैसे—चाँदी की सिलें बेंचकर सोने की सिल खरीदना। ५. काठ की वह पटरी जिसे दबाकर रुई की पूनी बनाते हैं। पुं० [सं० शिल] कटे हुए खेत में गिरे हुए अनाज के दाने चनकर निर्वाह करने की वृत्ति। दे० ‘शिलौंछ’। पुं० [देश०] बलूत की जाति का एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष जिसे ‘बंज’ और ‘मारु’ भी कहते हैं। पुं० [अ०] क्षय नामक रोग। राज यक्ष्मा। तपेदिक। दिक।
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सिल-खड़ी  : स्त्री० दे०‘गोरा पत्थर’।
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सिल-फोड़ा  : पुं० [हिं० सिल+फोड़ना] पत्थर चूर नाम का पौधा। पाषाण-भेद।
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सिल-बरुआ  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो पूरबी बंगाल की ओर होता है।
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सिलक  : स्त्री० [हिं० सलग=लगातार] १. लड़ी। श्रृंखला। २. गले में पहनने की माला या हार, विशेषतः चाँदी या सोने का। ३. पंक्ति। श्रेणी। ४. तागा। धागा। पुं० सिल्क (रेशम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलकी  : स्त्री० [देश०] बेल। लता। बलनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलगना  : अ०=सुलगाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलना  : अ० [हिं० सीना] सिलाई होना। सीया जाना। जैसे—कुरता सिल रहा है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलप  : पुं०=शिल्प।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलपची  : स्त्री०=चिलमची।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलपट  : वि० [सं० शिला-पट्ट] १. जिसका तल चिकना, चौरस और साफ हो। २. घिसने आदि के कारण जिसके ऊपर के अंक, चिन्ह आदि नष्ट हो गये हों। जैसे—सिलपट अठन्नी। ३. बुरी तरह से नष्ट किया हुआ चौपट।
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सिलपोहनी  : स्त्री० [हिं० सिल+पोहना] विवाह की एक रीति।
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सिलफची  : स्त्री० [फा० सैलाबी] चिलमची।
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सिलवट  : स्त्री० [देश] किसी समतल तथा कोमल तल के मुड़ने दबने पिचकने या सूखने के कारण उसमें उभरने वाला वह रेखाकर अंश जो उसकी समतलता नष्ट करता है। शिकन। सिकुड़न। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना।
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सिलवाना  : स० [हिं० सीना का प्रे०] किसी को कुछ सीने में प्रवृत्त करना।
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सिलसिला  : पुं० [अ०] १. वह संबंध जो एक क्रम में होने वाली घटनाओं, बातों आदि में होता है। एक के बाद एक करके चलता रहने वाला क्रम। २. कोई बँधा हुआ क्रम। परम्परा। ३. कतार। पंक्ति। श्रेणी। ४. लड़ी। श्रंखला। ५. ठीक तरह से लगा हुआ क्रम। तरतीब। वि० [सं० सिक्त] [स्त्री० सिल-सिली] १. भीगा हुआ। आर्द्र। गीला। तर। २. ऐसा चिकना जिस पर पैर या हाथ फिसलता हो।
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सिलसिलाबंदी  : पुं० [अ०+फा०] १. क्रम का बँधान। तरतीब। २. पंक्ति श्रेणी आदि के रूप में लगे हुए होने की अवस्था या भाव।
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सिलसिलेवार  : वि० [अ०+फा०] सिलसिले या क्रम में लगा हुआ। अव्य० सिलसिले या क्रम का ध्यान रखते हुए। क्रमिक रूप से।
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सिलह  : पुं० [अ० सिलाह] १. हथियार। शास्त्र। २. कवच। (राज०)
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सिलहकी  : स्त्री० [सं० सिल्हक ङीष]=सिलहक।
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सिलहखाना  : पुं० [अ० सिलाह+फा० खानः] वह स्थान जहाँ सब तरह के बहुत से हथियार रखे जाते हैं। शस्त्रागार।
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सिलहट  : पुं० [?] १. असम प्रदेश का एक नगर। २. उक्त नगर के आस-पास की नारंगी जो बहुत बढ़िया होती है। ३. एक प्रकार का अगहनी धान।
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सिलहबंद  : वि० [अ० सिलह+फा० बंद] सशस्त्र। हथियारबंद। शस्त्रों से सुसज्जित।
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सिलहसाज  : पुं० [अ० सिलह+फा० साज] [भाव० सिलहसाजी] हथियार बनाने वाला कारीगर।
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सिलहार, सिलहार  : वि० दे० ‘सिलाहर’।
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सिलहिला  : वि० [हिं० सील,सीड+हीला=कीचड़] [स्त्री०सिलहिली] (स्थान) जिस पर पैर फिसले। रपटन वाला। कीचड़ से चिकना।
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सिलही  : स्त्री० [देश] बतख की जाति का एक प्रकार का पक्षी जो प्रायः जलाशयों के पास रहता है और सिवार खाता है।
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सिला  : पुं० [सं० शिल] १. फसल कट चुकने के बाद खेत में गिरे या पड़े या बचे खुचे अन्न कण चुनने की वृत्ति। २. उक्त प्रकार से बचे और खेत में बिखरे हुए अनाज के दाने। क्रि० प्र०—चुनना।—बीनना। ३. अनाज का वह ढेर जो अभी पछोरा तथा फटका जाने को हो। स्त्री०=शिला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अ० सिलह] १. प्रतिकार। बदला। २. पारिश्रमिक या पुरस्कार। इनाम।
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सिलाई  : स्त्री० [हिं० सिलना+आई (प्रत्य०)] १. सुई से सीने की क्रिया, ढंग या भाव। जैसे—कपड़े या किताब की सिलाई। २. सीने पर दिखाई पड़ने वाले टाँके। सीवन। ३. सीने के बदले में मिलने वाला पारिश्रमिक या मजदूरी। स्त्री०=सलाई। स्त्री० [सं० शलाका] बिजली। उदा—सिहरि सिहरि समरवै सिलाई प्रिथीराज। स्त्री० [देश०] ऊख की फसल को हानि पहुँचाने वाला भूरापन लिए गहरे लाल रंग का कीड़ा।
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सिलाजीत  : पं०=शिलाजीत (शिलाजतु)।
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सिलाना  : स० [हिं० सिलना का प्रे०] सीने का काम किसी दूसरे से कराना। जैसे—दरजी से कपड़े या जिल्दसाज से किताबें सिलवाना। स० [हिं० सिलना का प्रे०] सीड़ या सील में रखकर ठंढ़ा या गीला करना। अ०=सीलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलापाक  : पुं० [हिं० शिला+पाक] पथरफूल। छरीला। शलज।
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सिलाबी  : वि० [हिं० सील+फा०आब=पानी या फा० सैलाबी] सीड़वाला। तर।
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सिलारस  : पुं० [सं० शिलारस] १. सिल्हक वृक्ष। २. उक्त वृक्ष का गोंद या निर्यास जो सुगंधित होता है।
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सिलावट  : पुं० [सं० शिला+पटु] पत्थर काटने और गढने वाले। संग-तराश। स्त्री० [हिं० सिलना] सिलने या सीये जाने की क्रिया या ढंग। सिलाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलासार  : पुं०[सं०शिलासार] लोहा।
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सिलाह  : पुं० [अ०] १. जिरह-बकतर। कवच। २. अस्त्र-शस्त्र। हथियार।
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सिलाहखाना  : पुं०=सिलहखाना (शस्त्रागार)।
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सिलाहर  : वि० [हिं० सिला+हर (प्रत्य०)] १. जो सिला वृत्ति से अपनी जीविका चलाता हो। २. बहुत ही निर्धन। अकिंचन। दरिद्र।
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सिलाही  : पुं० [अ० सिलाई+ई (प्रत्य०)] शस्त्र धारण करने वाला। सैनिक। सिपाही।
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सिलिंगिया  : स्त्री० [शिलांग नगरी] पूरबी हिमालय के शिलांग प्रदेश में पाई जाने वाली एक प्रकार की भेड़।
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सिलिप  : पुं०=शिल्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलिमुख  : पुं०=शिलीमुख (भौंरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलिया  : पुं० [सं० शिला] एक प्रकार का पत्थर जो मकान बनाने के काम में आता है।
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सिलियार, सिलियारा  : पुं० दे० ‘सिलाहर’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिली  : स्त्री० [सं० शिली] १. धारदार या नुकीली चीज। २. आँख में अंजन लगाने की सलाई। (राज०)
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सिलीपर  : पुं० [अं० स्लीपर] १. एक प्रकार का हलका जूता जिसके पहनने पर पंजा ढका रहता है और एड़ी खुली रहती है। आराम पाई। २. लकड़ी की बड़ी धरन। ३. विशेषतः रेल की पटरी के नीचे बिछाई जाने वाली लकड़ी की धरन। पुं० [अं० स्लीपर] शयनिका। (दे०)
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सिलीमुख  : पुं०=शिलीमुख (भौंरा)।
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सिलेट  : स्त्री० [अं० स्लेट] १. एक प्रकार का कोमल मटमैला पत्थर। २. उक्त पत्थर की वह चौकोर पट्टी जिस पर छोटे बालक लिखने का अभ्यास करते हैं। ३. उक्त प्रकार की पट्टी जिसमें पत्थर की बजाय लोहे, शीशे आदि की चद्दर भी लगी होती है।
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सिलेटी  : पुं० [हिं० सिलेट] सिलेट की तरह का खाकी रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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सिलेदार  : पुं० [फा० सिलहदार] १. सिलहखाने या शस्त्रागार का प्रधान अधिकारी।
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सिलोच्च  : पुं० [सं० शिलोच्च] एक पर्वत जो गंगा तट पर विश्वामित्र के सिद्धाश्रम से मिथिला जाते समय राम को मार्ग में मिला था।
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सिलोंध  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की बड़ी मछली जो प्रायः ६ फुट तक लंबी होती है।
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सिलौआ  : पुं० [देश०] सन के मोटे रेशे जिनसे टोकरियाँ बनाई जाती हैं।
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सिलौट  : स्त्री०=सिलौटी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिलौटा  : पुं०[हिं० सिल+बट्टा] १.चीजें पीसने की सिर और बट्टा दोनों। २. बड़ी सिल।
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सिलौटी  : स्त्री० हिं० ‘सिलौट’ का स्त्री० अल्पा०।
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सिल्क  : पुं० [अं०] १. रेशम। २. रेशमी कपड़ा।
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सिल्किन  : वि० [अं० सिल्केन] सिल्क का। रेशमी। जैसे—सिल्किन। साड़ी ।
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सिल्प  : पुं०=शिल्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिल्लकी  : स्त्री० [सं० सिल्ल+कन् ङीष्]=शल्लकी। (सलई)।
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सिल्ला  : पुं० दे० ‘सीला’।
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सिल्ली  : स्त्री० [सं० शिला] १. पत्थर की छोटी पतली पटिया जो प्रायः छत पाटने के काम आती है। २. लकड़ी का वह तख्ता जो उक्त पत्थर की तरह छत पाटने के काम आता है। (पश्चिम) ३. एक विशेष प्रकार के पत्थर का वह छोटा टुकड़ा जिस पर रगड़कर नाई लोग उस्तरे की धार तोज करते हैं। (ह्वेट-स्टोन)। ४. उक्त प्रकार के रूप में ढ़ाली हुई चाँदी या सोने का खंड। सिल। स्त्री० [हिं० सिल्ला] फटकने के लिए लगाया हुआ अनाज का ढेर। स्त्री० [?] १. नदी में वह स्थान जहाँ पानी कम और धारा बहुत तेज होती है। (माझी) २. एक प्रकार का जल पक्षी जिसका माँस खाया जाता है।
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सिल्हक  : पुं० [सं०] १. सिलारस नामक वृक्ष। २. उक्त वृक्ष से निकलने वाला गन्ध द्रव्य।
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सिव  : पुं०=शिव। पुं०=सं० सिवक] दरजी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिव-रात  : स्त्री०=शिव-रात्रि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिवई  : स्त्री० सेंवई।
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सिवक  : वि० [सं० षिव् (सीना)+ण्वुल्-अक] सिलाई करने वाला। पुं० दरजी।
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सिवा  : अव्य० [अं०] १. जो है या हो, उसके अतिरिक्त। इसे छोड़ या बाद देकर। अलावा। जैसे—सिवा उसके यहाँ कोई नहीं पहुँचा था। विशेष—वाक्य के बीच में सिवा से पहले ‘के’ विभक्ति लगती है। जैसे—इन बातों के सिवा एक और बात भी है। हमारे सिवा, आदि प्रयोगो में यह ‘के’ विभक्ति ‘तुम्हारे’, हमारे आदि शब्दों में अंतमुक्त होती है। २. किसी की तुलना में और अधिक या बढ़कर। उदा०—तुम जुदाई में बहुत याद आये। मौत तुमसे भी सिवा याद आई।—कोई शायर। वि० फालतू और व्यर्थ। स्त्री०=शिवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिवाई  : अव्य०= सिवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिवाई  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मिट्टी। स्त्री०=सिलाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिवान  : पुं० [सं० सीमांत] १. किसी राज्य की सीमा। २. सीमा पर स्थित प्रदेश। ३. गाँव की सीमा पर की भूमि।
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सिवाय  : अव्य, वि०=सिवा।
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सिवार  : स्त्री०=सेवार (घास)।
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सिवाल  : स्त्री०=सेवार।
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सिवाला  : पुं०=शिवालय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिवाली  : पुं० [सं० शैवाल] कुछ हल्के रंग का एक प्रकार का मरकत या पन्ना जिसमें ललाई की झलक भी होती है।
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सिवि  : पुं०=शिवि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिविका  : स्त्री०=शिविका (पालकी)।
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सिविर  : पुं०=शिविर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिविल  : वि० [अं०] १. नगर निवासियों से संबंध रखने वाला। जनपद। जैसे—सिविल पुलिस। ३. आर्थिक । माली। ४. सभ्य। शिष्ट। ५. दे० ‘दीवानी’।
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सिवैयाँ  : स्त्री=सेवई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिष  : पुं० १.=शिष्य। २. सिक्ख। स्त्री०=सीख (शिक्षा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिषंड  : पुं०=शिखंड (चोटी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिष्ट  : वि०=शिष्ट। स्त्री० [फा० शिस्त] मछली फसाने वाली बंसी की डोरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिष्य  : पुं०=शिष्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिस  : पुं०=शिशु। स्त्री०=सिसक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिस-बोनी  : स्त्री० [हिं० शीशम+बोना] वह स्थान जहाँ शीशम के बहुत से पेड़ लगाये गए हों अथवा हों। (पूरब)
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सिसक  : स्त्री० [हिं० सिसकता] १. सिसकने की क्रिया या भाव। २. सिसकने से होने वाला शब्द।
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सिसकना  : अ० [अनु० सी-सी] १. इस प्रकार धीरे-धीरे रोना कि नाक और मुँह से सी-सी ध्वनि निकलती रहे। विशेष-रोने में मुँह खुला रहता है और गले से आवाज भी निकलती है। सिसकते समय प्रायः मुँह बंद रहता है और गले से आवाज धीमी हो जाती है। २. हिचकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिसकारना  : अ० [अनु० सी-सी+हिं० करना] १. जीभ दबाते हुए वायु मुँह से इस प्रकार छोड़ना जिसमें सीटी का सा सी-सी शब्द होता है। जैसे-किसी को बुलाने या कुत्ते को किसी पर झपटाने के लिए सिसकारना। संयो० क्रि०—देना। २. सीत्कार करना।
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सिसकारी  : स्त्री० [हिं० सिसकारना] १. सिसरकारने की क्रिया, भाव या शब्द। जीभ दबाते हुए मुँह से वायु छोड़ने का सीटी का सा शब्द। २. दे० ‘सीत्कार’। क्रि० प्र०—देना।
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सिसकी  : स्त्री० [हिं० सिसकना] १. सिसकने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—भरना।—लेना। २. दे० ‘सिसकारी’।
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सिंसप  : पुं० [सं० शिशुपा] शीशम का पेड़।
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सिंसपा  : स्त्री०=शिंशुपा (शीशम)।
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सिसहर  : पुं०=शशिधर। (चंद्रमा)।
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सिसियाँद  : स्त्री० [?+गंध] मछली क- सी गंध। बिसायँध।
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सिसिर  : पुं०=शिशिर (जाड़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिसु  : पुं०=शिशु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिसुता  : स्त्री०=शिशुता (बचपन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिसुपाल  : पुं०=शिशुपाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिसुमार  : शिशुमार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिसृक्षा  : स्त्री० [सं०√सृज् (बनना)+सन्-द्वित्व-अ-टाप्] रचने या निर्माण करने की इच्छा।
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सिसृक्षु  : वि० [स०√सृज (बनाना)+सन्-द्वित्व-उ] सृष्टि करने की इच्छा रखने वाला। रचना या इच्छुक।
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सिसोदिया  : पुं० [सिसोद (स्थान)] गहलौत राजपूतों की एक प्रतिष्ठित शाखा, जिसकी प्राचीन राजधानी चित्तौड़ में और फिर आधुनिक उदयपुर में थी।
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सिसौदिया  : पुं०=सिसोदिया।
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सिस्न  : पुं०=शिश्न (पुरुष का लिंग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिस्य  : पुं०=शिष्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंह  : पुं० [सं०] [स्त्री० सिंहनी] १. बिल्ली की जाति का, पर उससे बहुत बड़ा एक प्रसिद्ध हिंसक जन्तु जो अपने वर्ग में सबसे अधिक पराक्रमी, बलवान और देखने में भव्य होता है। इसकी गर्दन पर बड़े बड़े बाल (केसर) होते हैं। शेर बबर। केशरी। २. लोक व्यवहार में उक्त के आधार पर बल-वीर्य और श्रेष्ठता का सूचक शब्द। जैसे—पुरुष सिंह। ३. ज्योतिष में, मेष आदि बारह राशियों में से पाँचवी राशि। ४. छप्पय छंद के सोलहवें भेद का नाम। ५. वास्तुकला में ऐसा प्रासाद जिसमें बारह कोनों पर सिंह की मूर्तियाँ बनी होती थीं। ६. एक प्रकार का आभूषण जो रथ के बैलों के माथे पर पहनाया जाता था। ७. वर्तमान अवसर्पिणी के २४वें अर्हत् का चिन्ह जो लोग रथ यात्रा आदि के समय झंडों पर बनाते हैं। ८. दिगम्बर जैन साधुओं के चार भेदों में से एक। ९. संगीत में एक प्रकार का राग। १॰. वेंकटगिरि का नाम। ११. एक प्रकार का कल्पित पक्षी। १२. लाल सहिंजन।
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सिंह पौर  : पुं०=सिंह-द्वार।
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सिंह-कर्ण  : पुं० [सं०] खिड़की या गवाक्ष का कोना।
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सिंह-केसर  : पुं० [सं० ष० त०] १. सिंह की गर्दन के बाल। २. फेनी नामक पकवान का पुराना नाम। ३. बकुल। मौलसिरी।
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सिंह-घोष  : पुं० [सं० ष० त० ब० स० व०] एक बुद्ध का नाम।
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सिंह-तुंड  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की विकट मछली जो नदियों से सटी हुई चट्टानों की दरारों में रहती हैं।
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सिंह-द्वार  : पुं० [सं०] १. प्राचीन भारतीय वास्तु में, किले नगर या महल का वह प्रधान और बड़ा द्वार, जिसकी बाहरी तरफ दोनों ओर सिंह की आकृतियाँ बनी होती थीं। २. बड़ा और मुख्य द्वार। सदर फाटक।
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सिंह-नंदन  : पुं० [सं०] संगीत में, ताल से साठ मुख्य भेदों में से एक।
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सिंह-नाद  : पुं० [सं०] १. शेर की गरज या दहाड़। २. प्रतियोगिता, युद्ध आदि के समय गरजकर की जीने वाली ललकार। जोरदार शब्दों में ललकार कही जाने वाली बात। ३. एक प्रकार का वर्णवृत्त। जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से सगण, जगण, सगण, सगण और एक गुरु वर्ण होता है। इसे कलहंस और नंदिनी भी कहते हैं। ४. संगीत में, एक प्रकार का ताल। ५. शिव का नाम। ६. बौद्धों में धर्मिक ग्रन्थों आदि का होने वाला पाठ।
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सिंह-पर्णी  : स्त्री० [सं०] माषपर्णी ।
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सिंह-पिण्पली  : स्त्री० [सं०] सिंहली पीपल।
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सिंह-पुच्छ  : पुं० [सं०] पिठवन। पृश्निपर्णी।
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सिंह-पुच्छी  : स्त्री० [सं०] १. चित्रपर्णिका या चित्रपर्णी। २. बन उड़द। माषपर्णी। ३. पिठवन। पृश्निपर्णी।
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सिंह-पुरुष  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. सिंह के समान पराक्रमी पुरुष। २. जैनियों के नौ वासुदेवों में से एक।
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सिंह-पुष्पी  : स्त्री० [सं०] पृश्निपर्णी। पिठवन।
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सिंह-भैरवी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, भैरवी रागिनी का एक प्रकार या भेद।
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सिंह-मल  : पुं० [सं०] एक प्रकार की मिश्र धातु। पंच-लौह।
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सिंह-मुख  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी मुख की आकृति शेर की मुख की आकृति के जैसी होती हो। पुं० १. शिव का एक गण। २. एक राक्षस।
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सिंह-मुखी  : वि० [सं०] सिंह-मुख। स्त्री० १. अड़ूसा। २. बाँस। ३. बन उड़द। ४. एक प्रकार की खारी मिट्टी। ५. काली निर्गुण्डी या सँभालू।
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सिंह-वाहना  : स्त्री० [सं० ब० स०] दुर्गा (जिनका वाहन सिंह है)।
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सिंह-वाहिनी  : स्त्री० [सं०] १. सिंह पर सवारी करने वाली दुर्गा। २. संगीत में कर्णाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सिंह-विक्रम  : वि० [सं० ब० स०] घोड़ा जिसमें सिंह के समान शक्ति हो। पुं० १. घोड़ा। २. संगीत में, एक प्रकार का ताल।
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सिंह-विक्रांत  : पुं० [सं०] १. शेर की चाल। २. शेर के समान पराक्रमी और वीर पुरुष। ३. घोड़ा। ४. ऐसे दंडक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और सात अथवा सात से अधिक यगण हों।
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सिंह-विक्रीड  : पुं० [सं०] दंडंक वृत्त का एक भेद जिसमें नौ से अधिक यगण होते हैं। इसका प्रयोग अधिकता से प्राकृत भाषा के कवियों ने किया है।
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सिंह-विक्रीडित  : पुं० [सं०] १. योग में एक प्रकार की समाधि। २. संगीत में, एक प्रकार का ताल। ३. दे० ‘सिंह-विक्रीड’।
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सिंह-विजृंभित  : पुं० [सं० ब० स० उपमि० स०] बौद्ध मत में, एक प्रकार की समाधि।
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सिंह-हनु  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी दाढ़ सिंह के समान हो। पुं० गौतम बुद्ध के पितामह का नाम।
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सिंहकर्मा (र्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] सिंह के समान पराक्रम दिखाने वाला। पराक्रमी। वीर।
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सिंहग  : पुं० [सं० सिंह√गम् (जाना)+ड] शिव का एक नाम।
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सिंहच्छदा  : स्त्री० [सं० ब० स०] सफेद दूब।
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सिहद्दा  : पुं० [फा० सेह=तीन+अ० हद] १. तीनो देशों या प्रदेशों की सीमाओं के एक स्थान पर मिलने का भाव। २. वह स्थान जहाँ तीन हदें मिलती हों।
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सिंहनादक  : पुं० [सं० सिंह√नद् (ध्वनि करना) ण्वुल्-अक्, ब० स०] सिंधी नामक बाजा।
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सिंहनादी (दिन्)  : वि० [सं० नाद+इन्] [स्त्री० सिंहनादिनी] १. जो सिंहनाद करता हो। २. जो सिंह के समान गर्जना करता हो। पुं० एक बोधिसत्व का नाम।
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सिंहनी  : स्त्री० [सं०] १. शेर की मादा। शेरनी। २. एक प्रकार का छंद जिसके चारों चरण में क्रम से १२, १८, २॰ और २२ मात्राएँ होती हैं। यह क्रम उलट देने पर जो रूप होता है उसे गाहिनी कहते हैं।
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सिंहयाना  : स्त्री० [सं० ब० स०] सिंह पर सवारी करने वाली, दुर्गा।
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सिहर  : पुं० [सं० शिखर] चोटी। शिखर। स्त्री०=सिहरन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिहरन  : स्त्री० [हिं० सिहरन] १. सिरहने की क्रिया, दशा या भाव २. सहलाने के फलस्वरूप होने वाला रोमाँच।
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सिहरना  : अ० [सं० शिशिर+हिं० ना (प्रत्य०)] १. ठंड से कापना। २. भय आदि से रोमांचित होना। ३. भयभीत होने के कारण हिचकना।
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सिहरा  : पुं०=सेहरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिहराना  : स० [हिं० सिहरना का स०] ऐसा काम करना जिसमें कोई सिहरे। अ०=सिहरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=सहलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिहरावन  : पुं० [हिं० सिहरना] १. सिहरन। २. सरदी। ठंड। जाड़ा।
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सिहरी  : स्त्री० [हिं० सिरहना+ई (प्रत्य०] १. सिरहने की क्रिया। भाव। सिहरन। २. सरदी के कारण होने वाली कँपकँपी। ३. जूड़ी। बुखार। ४. रोंगटे खड़े होना। रोमांच।
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सिहरू  : पुं० [देश] सँभालू।
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सिंहल  : पुं० [सं०] [वि० सिंहली] १. पीतल। २. टीन। ३. प्राचीन भारत के दक्षिण का एक द्वीप जो कुछ लोगो के मत में आधुनिक ‘लंका’ (देश) है। लंका-द्वीप। ४. उक्त देश का निवासी। सिंहली।
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सिंहलक  : वि० [सं० सिंहल+कन] सिंहल-संबंधी। सिंहल का। पुं० १. पीतल। २. दारचीनी।
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सिंहला  : स्त्री० [सं० सिंहल-टाप्] सिंहल द्वीप लंका। २. राँगा। ३. पीतल। ४. छाल या बकला। ५. दारचीनी।
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सिहलाना  : स०=सहलाना। अ०=सीलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंहली  : वि० [सं० सिंहल+हिं० ई० (प्रत्य०)] सिंहल द्वीप में होने वाला। लंका-संबंधी पुं० १. सिंहल-द्वीप का निवासी। २. सिंहल द्वीप का हाथी स्त्री० सिंहल द्वीप की भाषा।
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सिहली  : स्त्री० [सं० शीतली] शीतली लता।
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सिंहली पीपल  : स्त्री० [सं० सिंह-पिप्पली] सिंहल में होने वाली एक प्रकार की लता जिसके बीज दवा के काम में आते हैं।
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सिंहलील  : पुं० [सं०] १. संगीत में, एक प्रकार की ताल। २. कामशास्त्र में एक प्रकार का आसन या रति-बंध।
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सिंहस्थ  : वि० [सं० सिंह√स्था (ठहरना)+क] सिंह राशि में स्थित कोई (ग्रह)। जैसे—सिंहस्थ वृहस्पति। पुं० वह समय जब वृहस्पति सिंह राशि में होता है, और इसलिये तब विवाह आदि कुछ शुभ कार्य वर्जित हैं।
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सिंहा  : स्त्री० [सं०] १. करेमू का साग। २. कटाई। भटकटैया। ३. बहती। बन-भाँटा। पुं० १. नाग देवता। २. सिंह लग्न। ३. वह समय जब सूर्य इस लग्न में रहता है। पुं०=नर-सिंघा (बाजा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंहाण (क)  : पुं० [सं० सिंघ+आनच् पृषो० सिद्ध] १. लोहे पर लगने वाला जंग या मोर्चा। २. नाक में से निकलने वाला मल। रेंट। सीड़।
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सिहान  : पुं० [सं० सिहाण] मंडूर। लोहकिट्ट।
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सिंहानन  : पुं० [सं० ब० स०] १. काला सँभालू। काली निर्गुंडी। २. अड़ूसा। वि० सिंह के समान मुख वाला।
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सिहाना  : अ० [सं० ईर्ष्या] १. ईर्ष्या करना। डाह करना। २. पाने या लेने के लिए ललचाना। उदा०—मेरी भलों कि अबतें सकुचाँहू। सिहाहुँ।—तुलसी। ३. मुग्ध या मोहित होना। स० ईर्ष्या लोभ की दृष्टि से देखना।
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सिंहार-हार  : पुं०=हर-सिंगार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिहारना  : स० [देश०] १. तलाश करना। ढूँढना। २. इकट्ठा, एकत्र या संचित करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंहारव  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटक पद्धति का एक राग।
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सिंहाली  : स्त्री० [सं० सिंह+लच्+ङीप] १. सिंहली पीपल। सैंहली। २. दे० ‘सिहली’।
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सिंहावलोकन  : पुं० [सं०] १. सिंह की तरह पीछे देखते हुए आगे बढ़ना। २. किये हुए कामों या बीती हुई बातों का स्वरूप जानने या बतलाने के लिए उन पर द्रष्टिपात करना। ३. संक्षेप में पिछली बातों का दिग्दर्शन या वर्णन। (रिट्रास्पेक्शन) ४. कविता में ऐसी रचना जिसमें किसी चरण के अन्त में आये हुए कुछ शब्दों से फिर उसके बाद वाले चरण का आरंभ किया जाता है। जैसे—यदि पहले चरण के अंत में ‘पारिजात’ हो और उसके बाद वाले चरण का आरंभ भी ‘पारिजात’ से हो तो यह सिंहावलोकन कहलायगा। ५. साहित्य में, यमक अलंकार का एक प्रकार या भेद जिसमें छंद का अंत भी उसी शब्द से किया जाता है जिससे उसका आरंभ होता है।
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सिंहावलोकनिक  : वि० [सं०] १. सिंहावलोकन के रूप में या उसके सिद्धान्त से संबंध रखने वाला। जिसमें सिंहावलोकन होता हो। (रिट्रासपेक्टिव) २. दे० ‘प्रतिवर्ती’।
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सिंहावलोकित  : भू० कृ० [सं०] जिसका या जिसके संबंध में सिंहावलोकन हुआ हो। (रिट्रास्पेक्टेड)
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सिंहासन  : पुं० [सं० सिंह+आसन, मध्य० स०] १. राजाओं के बैठने या देवमूर्तियों की स्थापना के लिये बना हुआ एक विशेष प्रकार का आसन जो चौकी के आकार का होता है और जिसके दोनों ओर शेर के मुख की आक्रति बनी होता है। २. देवताओं का एक प्रकार का आसन जो कमल के पत्ते के आकार का होता है। ३. काम-शास्त्र में, सोलह प्रकार के रति बंधों में से एक। ४. चंदन, रोली आदि का वह टीका या तिलक जो दोनों के लिये बना हुआ एक विशेष प्रकार का आसन जो चौकी के आकार का होता है और जिसके दोनों ओर शेर के मुख की आक्रति बनी होता है। २. देवताओं का एक प्रकार का आसन जो कमल के पत्ते के आकार का होती है। ३. काम-शास्त्र में, सोलह प्रकार के रति बंधों में से एक। ४. चंदन, रोली आदि का वह टीका या तिलक जो दोनों भौंहों के बीच में लगाया जाता है। ५. लोहे की कीट। मंडूर। ६. फलित ज्योतिष में, एक प्रकार का चक्र जिसमें मनुष्य की आकृति में विभक्त २७ कोठे या खाने होते हैं। इन कोठों या खानों में नक्षत्रों के नाम भरे जाते हैं और उनसे शुभाशुभ फल जाना जाता है।
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सिंहास्य  : पुं० [सं० ब० स०] १. अड़ूसा। २. कचनार। ३. एक बड़ी मछली।
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सिहिकना  : अ० [सं० शुष्क] १. सूखना। २. विशेषतः पौधों या फसल का सूखना। जैसे—धान सिहिकना। अ०=सिसकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंहिका  : स्त्री० [सं०] १. दाक्षायणी देवी की एक मूर्ति का रूप। २. एक राक्षसी जो कश्यप की पत्नी और राहू की माता थी। ३. ऐसी कन्या जिसके घुटने चलने के समय आपस में टकराते हों और इसीलिये जो विवाह के अयोग्य कही गई है। ४. शोभन नामक छंद। ५. कंटकारी। भटकटैया। ६. अड़ूसा। ७. वन-भंटा।
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सिंहिकेय  : पुं० [सं० सिंहिका+ढक्-एय] सिंहिका (राक्षसी) के पुत्र राहू।
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सिहिट  : स्त्री०=सृष्टि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंही  : स्त्री० [सं०] १. सिंह या शेर की मादा। शेरनी। सिंहनी। २. आर्या नामक छंद का एक भेद। ३. राहु की माता, सिंहिका। ४. अड़ूसा। ५. थूहड़। ६. बन-मूँग। ७. पीली कौड़ी। ८. नर-सिंघा नाम का बाजा। स्त्री०=सिंगी।
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सिहुँड़  : पुं० [सं०]=थूहर (पेड़)।
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सिंहेश्वरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] दुर्गा।
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सिंहोड़  : पुं०=सेहुँड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंहोदरी  : वि० स्त्री० [सं० ब० स०] सिंह की कमर की तरह पतली कमर वाली (सुन्दरी स्त्री)।
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सिंहोन्नता  : स्त्री० [सं० ब० स० उपमि० स०] बसंत-तिलका छंद का दूसरा नाम।
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सिहोर  : पुं० [सं० सिहुंड़] थूहर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिह्लकी  : स्त्री०=सिल्हकी।
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सी  : स्त्री० [अनु०] वह शब्द जो अत्यंत पीड़ा, प्रसन्नता या रसास्वाद के समय मुँह से निकलता है। शीत्कार। सिसकारी। मुहा०—सी करना=असहमति या असंतोष प्रकट करना। स्त्री० [सं० सीत] बीज बोने की क्रिया। बोआई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० हिं० सा का स्त्री०। जैसे—जरा सी बात। पुं०=शीत।(शरदी)।
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सींक  : स्त्री० [सं० इषीका] १. मूँज, सरपत आदि जातियों के पौधों का सीधा पतला डंठल जिसमें फूल या घूआ लगता है। २. किसी प्रकार की वनस्पति का बहुत पतला और लंबा डंठल। लंबा तिनका। ३. सुई की तरह का कोई पतला और लंबा खंड या टुकड़ा। ४. नाक में पहनने का कील या लौंग नाम का गहना। ५. किसी चीज पर की पतली लंबी धारी।
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सीक  : पुं० १. =शीत। २. =शिव। स्त्री०=सीमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीक  : पुं० [सं० इषीक] तीर। उदा०—सींक धनुष सायक संधाना।—तुलसी स्त्री० सींक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सींक-पार  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बत्तख।
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सींक-सलाई  : वि० [हिं०] पेड़ पौधों की वह बहुत पतली और सबसे छोटी उपशाखा या टहनी जिसमें पत्तियाँ और फूल लगते हैं।
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सीकचा  : पुं० [हिं० सीखचा] १ सीखचा। लोहे का छड़। २ बरामदे आदि के किनारे आड़ के लिए लगाया हुआ लकड़ी का वह ढाँचा जिसमें छड़ लगे होते हैं।
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सींकर  : पुं० [हिं० सींक] सींक में लगा हुआ फूल या घूआ।
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सीकर  : पुं० [सं० सीक सींचना)+अन्] १. पानी की बूँदे। जल-कण। २. पसीने की बूँदे। स्वेद-कर्ण। पुं०=सिक्कड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीकल  : पुं० [देश०] डाल का पका हुआ आम। स्त्री० दे० ‘सिकली’।
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सीकस  : पुं० [देश०] ऊसर।
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सीका  : पुं० [सं० शीर्षक] सोने का एक आभूषण जो सिर पर पहना जाता है। पुं० [स्त्री० अल्पा० सीकी]=छींका। पुं०=सींका। पुं० [देश०] चवन्नी। (दलाल)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीका-काई  : स्त्री० [?] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी फलियाँ रीठे की तरह सिर के बाल आदि मलने के काम आती हैं।
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सींकिया  : वि० [हिं० सींक] १. सींक सा पतला। २. बहुत अधिक दुबला पतला। कमजोर। जैसे—सीकिया पहलवान। ३. जिसमें सींकों के आकार की लंबी-लंबी धारियाँ या रेखाएँ हो। जैसे—सींकिया कपडा़, सींकिया छपाई। पुं० एक प्रकार का रंगीन कपड़ा जिसमें सींकों के आकार की लंबी-लंबी धारियाँ होती है।
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सींकिया पहलवान  : पुं० [हिं०] दुबला पतला आदमी जो अपने को बहुत बड़ा शक्तिशाली समझता हो। (व्यंग्य और परिहास)
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सीकी  : स्त्री० [हिं० सीका] चवन्नी। (दलाल)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीकुर  : पुं० [सं०शूक] गेहूँ, जौं, धान आदि की बालों में निकलने वाला सूत की तरह पतले और नुकीले अंग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीख  : स्त्री० [सं० शिक्षा] १. शिक्षा। तालीम। २. लिखाई हुई अच्छी बात। ३. अनुभव से प्राप्त होने वाला ज्ञान। ४. परामर्श। स्त्री० [फा० सीख] १. लोहे की सलाई। २. तीली। ३. लह कबाब जो लोहे की सलाई पर चिरका कर आग पर भूना जाता है।
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सीखचा  : पुं० [फा० सीखचः] १. लोहे की सीख जिस पर माँस लपेटकर भूनते हैं। २. लोहे का पतला लंबा छड़ जो खिड़कियों दरवाजों आदि में आड़ या रोक के लिए लगाया जाता है।
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सीखन  : स्त्री० [हिं० सीखना] शिक्षा। सीख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीखना  : स० [सं० शिक्षण, प्रा० सिक्खण] १. किसी से कला विद्या आदि का ज्ञान या शिक्षा प्राप्त करना। जैसे—अँगरेजी या संस्कृत सीखना, चित्रकारी या सिलाई सीखना। २. स्वयं अभ्यास या अनुभव से कोई क्रिया, शिल्प या विद्या सीखना। जैसे—लड़का बोलना सीख रहा है। ३. किसी प्रकार का कटु अनुभव होने पर भविष्य में सचेत रहने की शिक्षा ग्रहण करना। जैसे—सौ रुपये गवाँकर तुम यह तो सीख गए कि अनजान आदमियों का विश्वास नहीं करना चाहिए। संयो० क्रि०—जाना-लेना।
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सींग  : पुं० [सं० श्रृंग] १. वे कठोर, लंबे और नुकीले अवयव जो खुरवाले पशुओं के सिर पर दोनों ओर निकलते हैं। विषाण। जैसे—गौ, बैल या हिरन के सींग। मुहा०—सींग जमना या निकलना=साधारण सी बात के लिए भी लड़ने को उद्यत या प्रवृत होना। सिर पर सींग होना=कोई विशेषता होना। (परिहास) सींग लगाना=अभिमान बल, या महत्व प्रदर्षित करने के लिए कोई अनोखा और नया काम या बात करना। (किसी के) कहीं सींग समाना=कहीं रहने पर गुजारा या निर्वाह होना। ठिकाना लगना। (आश्चर्यसूचक) जैसे—तुम अभी से इतने उद्दंड हो, तुम्हारे सींग कहाँ समाएँगे। कहा०—सींग कटाकर बछड़ो में मिलना= वयस्क या वृद्ध हो जाने पर भी लड़कों में खेलना अथवा उनका सा आचरण या व्यवहार करना। २. हाथ का अंगूठा जो प्रायः उपेक्षा सूचित करने के लिए दूसरों को दिखाया जाता है। और अशिष्ट लोगों में पुरुषेन्द्रिय का प्रताक माना जाता है। क्रि० प्र०—दिखाना। मुहा०—सींग पर मारना, रखना या समझना=बहुत ही उपेक्षित तथा तुच्छ समझना। ३. सिंगी नाम का बाजा। पुं० [सं० शार्ग्ङ] धनुष की प्रत्यंचा। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सींगडा  : पुं० [हिं० सींग+ड़ा (प्रत्य०)] १. ऐसा पशु जिसके सिर पर सींग हो। २. सिंगी नामक बाजा। ३. वह चोंगा या सींग जिसमें प्राचीन काल में बारूद रखते थे।
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सींगण  : पुं० [सं० सींग] सींग का बना हुआ नरसिंहा नाम का बाजा। (राज०)
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सींगदाना  : पुं०=मूँग-फली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सींगना  : स० [हिं० सींग] चुराए हुए पशु पकड़ने के लिए उनकी सींग देखना और उनकी पहचान करना।
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सींगरी  : स्त्री० [देश] १. एक प्रकार का पौधा। २. उक्त पौधे की फली। सींगर।
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सीगा  : पुं० [अ० सीगः] १. साँचा। ढाँचा। २. कार्य व्यापार आदि का कोई विशिष्ट विभाग। ३. मुसलमानों मे विवाह के समय कहे जाने वाले कुछ विशिष्ट अरबी वाक्य। क्रि० प्र०—पढ़ना।
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सींगी  : स्त्री० [हिं० सींग] १. वह पोला सींग जिससे जर्राह शरीर का दूषित रक्त खीचते हैं। क्रि० प्र०—लगाना। २. सिंधी नाम का बाजा। ३. छोटी नदियों तथा तालाबों में होने वाली एक प्रकार की मछली जिसके मुँह के दोनों ओर सींग सदृश पतले लंबे काँटे होते हैं।
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सींघन  : पुं० [देश०] घोड़ों के माथे पर ऐसा टीका या निशान जिसमें दो या अधिक भौंरियाँ होती है।
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सीघमान  : वि० [सं० सीघ से] ठंडा या सुस्त पड़ा हुआ।
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सींच  : स्त्री० [हिं० सींचना] १. सींचने की क्रिया या भाव। सिंचाई। २. छिड़काव।
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सींचना  : स० [स० सिंचन] १. खेतों में या जमीन पर बोई हुई चीजों की जड़ों तक पहुँचाने के लिए पानी गिराना, डालना या बहाना। आबपाशी करना। २. तर करना। भिगोना।
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सींचाण  : पुं०=सचान (बाज पक्षी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सींची  : स्त्री० [हिं० सींचना] खेतों या फसल को पानी से सींचने का समय।
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सीझना  : अ० [सं० सिद्ध] [भाव० सीझ] १. आँच पर पकना या गलना। २. आग में पड़कर भस्म होना। जलना। जैसे—लै करसी प्रयाग कब सीझै।—तुलसी। ३. शारीरिक कष्ट सहना। दुःख भोगना। ४. तपस्या करना। ५. इमारत आदि के काम के लिए वृक्ष की ताजी कटी हुई लकड़ी का कुछ दिनों तक पड़े रहकर सूखना और पक्का या टिकाऊ होना। (सीज़निंग) ६. सूखे हुए चमड़े का मसाले आदि में भीगकर मुलायम और टिकाऊ होना। (टैनिंग) ७. दलाली ब्याज, लाभ आदि के रूप में कुछ धन मिलना या उसकी प्राप्ति का निश्चित हो जाना। (दलाल)। जैसे—(क) बात की बात में पाँच रुपये सीझ गए। (ख) इस रोजगार में रुपए सैकड़ों का ब्याज सीझता है।
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सीट  : स्त्री० [अं०] बैठने का स्थान। आसन। स्त्री० [हिं० सीटना=घमंड भरी बातें कहना] सीटने की क्रिया या भाव। पद—सीट-पटाँग।
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सीट-पटाँग  : स्त्री० [हिं० सीटना+ (ऊँट) पर टाँग] बहुत बढ़-बढ़कर की जाने वाली बातें। आत्म-प्रशंसा की घमंड भरी बात। डींग।
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सीटना  : स० [अनु०] बढ़-बढ़कर बातें करना। डींग हाकना। शेखी बघारना।
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सीटी  : स्त्री० [सं० शीत] १. वह पतला महीन शब्द जो होंठों को गोल सिकोड़कर नीचे की ओर आघात के साथ वायु निकालने से होता है। २. किसी विशिष्ट क्रिया से द्वारा कहीं से उत्पन्न होने वाला उक्त प्रकार का शब्द। जैसे—रेल की सीटी। मुहा—सीटी देना=बुलाने या संकेत करने के लिए उक्त प्रकार का शब्द उत्पन्न करना। ३. एक प्रकार का छोटा उपकरण या बाजा जिसमें मुँह से हवा भरने पर उक्त प्रकार का शब्द निकलता है। क्रि प्र०—बजाना।
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सीठ  : स्त्री०=सीठी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीठना  : पुं० [सं० अशिष्ट, प्रा० असिट्ठ+ना (प्रत्य०)] एक प्रकार के गीत जो स्त्रियाँ विवाह के अवसर पर गाती हैं और जिनके द्वारा संबंधियों का उपहास करती हैं।
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सीठनी  : स्त्री०=सीठना।
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सीठा  : वि० [सं० शिष्ट, प्रा० सिट्ट=बचा हुआ] [भाव० सीठापन] बिना रस या स्वाद का। नीरस। फीका।
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सीठी  : स्त्री० [प्रा० सिट्ठ] १. पत्ते, फाँक, फल आदि का वह अंश जो रस निचोड़ लेने पर शेष बचता है। जैसे—मौसम्मी की सीठी। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी वस्तु जो सारहीन हो।
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सींड़  : पुं० [सं० शिंवण या सिंहाण] नाम के अन्दर से निकलने वाला कफयुक्त मल।
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सीड़  : स्त्री०[सं० शीत] १. वह तरी या नमी जो आस-पास में पानी की अधिकता के कारण कहीं उत्पन्न हो जाती है। सील। सीलन। २. ठंडक। उदा०—कीन्हेसी धूप, सीड़ औ छाँहा।—जायसी।
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सीढ़ी  : स्त्री० [सं० श्रेणी] १. वास्तु कला में वह रचना अथवा रचनाओं का समूह जिस या जिन पर क्रमशः पैर रखकर ऊपर चढ़ा या नीचे उतरा जाता है। २. बाँस के दो बल्लों या काठ के लंबे ठुकड़ों का बना लंबा ढांचा जिसमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर पैर रखने के लिए डंडे लगे रहते हैं। और जिसके सहारे किसी ऊँचे स्थान पर चढते हैं। पद-सीढ़ी का डंडा=पैर रखने के लिए सीढ़ी में बना हुआ स्थान। २. लाक्षणिक रूप में, उन्नति या बढ़ाव के मार्ग पर पड़ने वाली विभिन्न स्थितियों में से प्रत्येक स्थिति। मुहा०—सीढ़ी-सीढ़ी चढना=क्रम-क्रम से ऊपर की ओर बढना धीरे-धीरे उन्नति करना। ३. छापे आदि यंत्रो में काठ की सीढ़ी के आकार का वह खंड जिस पर से होकर बेलन आदि आगे-पीछे आते जाते हैं। ४. किसी प्रकार के यंत्र में उक्त आकार प्रकार का कोई अंश या खंड।
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सीढ़ीनुमा  : वि० [हिं०+फा०] जो देखने में सीढ़ियों की तरह बराबर एक के बाद एक ऊँचा होता गया हो। सम-समुन्नत। (टेरेस-लाइक)
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सीत  : पुं० [?] बहुत ही थोड़ा सा अंश। उदा०—हाँड़ी के चावलों की एक सीत थी।—वृन्दावनलाल। पुं०=शीत (सरदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीत-पकड़  : पुं० [सं० शीत+हिं० पकड़ना] १. शीत द्वारा ग्रस्त होने का रोग। २. हाथियों का एक रोग जो उन्हें सरदी लगने से होता है।
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सीतल  : वि०=शीतल।
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सीतल-चीनी  : स्त्री० दे० ‘कबाब चीनी’।
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सीतल-पाटी  : स्त्री०[सं० शीतल+हिं० पाटी] १. पूर्वी बंगाल और असम के जंगलो में होने वाली एक प्रकार की झाड़ी जिससे चटाइयाँ बनती हैं। २. उक्त झाड़ी के डंठलों से बनी हुई चटाई। ३. एक प्रकार का धारीदार कपड़ा।
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सीतल-बुकनी  : स्त्री० [सं० शीतल+हिं० बुकनी] १. सत्तू। सतुआ। २. साधुओं की परिभाषा में संतों की बानी जो हृदय को शीतल करती है।
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सीतला  : स्त्री०=शीतला।
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सीता  : स्त्री० [सं√षिज्ञ् (बाँधना)+क्त बाहु० दीर्घ-टाप] १. वह रेखाकार गड्ढा जो जमीन जोतते समय तल के फाल के धँसने से बनता है। कूंड। २. मिथिला के राजा सीरध्वज जनक की कन्या जो रामचन्द्र को ब्याही थी। जानकी। वैदेही। पद—सीता की रसोई= (क) बच्चों के खेलने के लिए बने हुए रसोई के छोटे-छोटे बरतन। (ख) एक प्रकार का गोदना। सीता की पंजीरी=कर्पूर बल्ली नाम की लता। ३. वह भूमि जिस पर राजा की खेती होती हो। राजा की निज की भूमि। सीर। ४. वह अन्न जो प्राचीन भारत में सीताध्यज प्रजा से लेकर एकत्र करता था। ५. दाक्षायणी देवी का एक नाम या रूप। ६. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगड़, तगड़, मगड़, यगड़ और रगड़ होते हैं। ७. आकाश गंगा की उन चार धाराओं में से एक जो मेरु पर्वत पर गिरने के उपरान्त हो जाती है। ८. मदिरा। शराब। ९. पाताल गारुणी नाम की लता। ककही या कंघी नाम का पौधा।
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सीता-जानि  : पुं० [सं० ब० स०] श्रीरामचन्द्र।
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सीता-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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सीता-पति  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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सीता-फल  : पुं० [सं० मध्य० स० ब० स०] १. शरीफा। २. कुम्हड़ा।
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सीता-यज्ञ  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्राचीन भारत में हल जोतने के समय होने वाला एक प्रकार का यज्ञ।
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सीता-रमण  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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सीता-वट  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. प्रयाग और चित्रकूट के बीच स्थित एक वट वृक्ष जिसके नीचे राम और सीता विश्राम किया था। २. उक्त वृक्ष के आस पास का स्थान।
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सीता-वल्लभ  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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सीतात्यय  : पुं० [सं०] किसानों पर होने वाला जुर्माना। खेती के संबंध का जुरमाना। (कौ०)
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सीताधर  : पुं० [सं० सीता√घृ+अच्] सीता (हल) धारण करनेवाला बलराम।
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सीताध्यक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में वह राज-अधिकारी जो राजा की निजी भूमि में खेतीबारी आदि का प्रबंध करता था।
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सीतारवन, सीतारौन  : पुं०=सीता रमण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीतावर  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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सीताहार  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का पौधा।
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सीत्कार  : पुं० [सं०] मुँह से निकलने वाला सी-सी शब्द जो शीघ्रता पूर्वक साँस खीचने या लेने से होता है। सी-सी ध्वनि। विशेष—यह ध्वनि अत्यधिक आनन्द, पीड़ा, या सरदी के फलस्वरूप होती है।
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सीत्कृति  : स्त्री० [सं०] सीत्कार। (दे०)
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सीत्य  : पुं० [सं० सीत+यत्] १. धान्य। धान। २. खेत।
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सींथ  : स्त्री० [सं० सीमंत] स्त्रियों की सिर की मांग। मुहा—(किसी स्त्री का) सींथ भरना=किसी स्त्री की माँग में सिंदूर डालकर उससे विवाह करना। पत्नी बनाना।
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सीथ  : पुं० [सं० सिक्थ] उबाले या पकाये हुए अन्न का दाना।
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सीद  : पुं० [सं०√सद् (नष्ट करना) जिच्० सद्] १. ब्याज या रुपये देने का धंधा। २. सूदखोरी। कुसीद।
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सीदना  : अ० [सं० सीदति] १. दुःख पाना। कष्ट झेलना। २. नष्ट होना। स० १. दुःख देना। २. नष्ट करना।
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सीदिया  : पुं० [?] दक्षिण-पूर्वी यूरोप का एक प्राचीन देश जिसकी ठीक सीमाएं अभी तक निर्धारित नहीं हुई हैं। कहते हैं कि शक लोग मूलतः यहीं के निवासी थे और यहीं से भारत आये थे।
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सीदी  : पुं० [सीदिया देश] सीदिया देश का अर्थात शक जाति का मनुष्य। वि० सीदिया नामक देश का।
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सीद्य  : पुं० [सं०√सद् (नष्ट करना)+यत् सद-सीद] १. आलस्य। काहिली। २. शथिलता। सुस्ती। ३. अकर्मण्ता। निकम्मापन।
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सीध  : स्त्री० [सं० सिद्धि] १. सीधे होने की अवस्था गुण या भाव। २. सीधे या ठीक सामने का विस्तार या स्थिति। जैसे—बस इसी सीध में चले जाओ, आगे एक कुआँ मिलेगा। पद—सीध में=किसी बिंदु से अमुक ओर सीधे। मुहा०—सीध बाँधना= (क) सड़क क्यारी आदि बनाने के लिए पहले सीधी रेखा बनाना। (ख) सीधी रेखा स्थिर करना। ३. निशाना। लक्ष्य। मुहा—सीध बाँधना।=निशाना या लक्ष्य साधना।
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सीध  : पुं० [सं०√षिध् (गमन करना आदि)+रक्-पृषो० दीर्घ] गुदा। मलद्वार।
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सीधा  : वि० [सं० शुद्ध, व्रज, सूधा, सूधो] [स्त्री० सीधी, भाव० सिधाई, सीधापन] १. जो बिना घूमें, झुके या मुड़े कुछ दूर तक किसी एक ही ओर चला गया हो। जिसमें फेर या घुमाव न हो। सरल। ऋजु। ‘टेढ़ा’ का विपर्याय। जैसे—सीधी लकड़ी। सीधा रास्ता। २. जो ठीक एक ही ओर प्रवृत्त हो। जो ठीक लक्ष्य की ओर हो। जैसे—सीधा निशाना। मुहा०—सीधी सुनाना=साफ-साफ कहना। खरी बात कहना। ३. (व्यक्ति) जो कपटी कुटिल या धूर्त न हो। निष्कपट और सरल प्रकृति का। पद—सीधा-सादा=जो कुछ भी छल कपट न जानता हो। ४. शांत और सुशील। भला। जैसे—सीधा आदमी। सीधी गौ। ५. (व्यवहार) जिसमें उद्दंडता, कपट या छल न हो। पद-सीधी तरह=शिष्टता और सभ्यतापूर्वक। जैसे—पहले उसे सीधी तरह समझाकर देखो। सीधे सुभाव (या स्वभाव)=मन में बिना कोई छल कपट रखे। सरल और सहज भाव से। जैसे—मैंने उन लोगों को सीधे सुभाव क्षमा दिया था। सीधे-से=स्पष्ट रूप से। जैसे—उन्होने सीधे से कह दिया था कि मैं यह काम नहीं करूँगा। मुहा०—(किसी को) सीधा करना=कठोर व्यवहार करके अथवा दंड देकर किसी को अपने अनुकूल बनाना या ठीक रास्ते पर लाना। ६. अच्छा, अनुकूल और लाभदायक। जैसे—जब भाग्य सीधा होगा या सीधे दिन आएँगे) तब सब बातें आप से आप ठीक हो जायँगी। ७. (संबंध) जिसमें और किसी प्रकार का अंतर्भाव, फेर या लगाव न हो। प्रत्यक्ष। पद—सीधा-सीधा=सुगम और प्रत्यक्ष। ८. (कार्य) जिसके संपादन या साधन में कोई कठिनता या जटिलता न हो। सरल और सुगम। आसान। सहज। जैसे—सीधी काम। ९. (बात या विषय) जिसे समझने में कोई कठिनता न हो। जैसे—सीधी बात,सीधा सवाल। १॰. (पदार्थ) जिसका अगला या ऊपरी भाग सामने या ठीक जगह पर हो। ‘उल्टा’ का विपर्याय। जैसे—सीधा करके पहनों । ११. दाहिना। दक्षिण। जैसे—सीधे हाथ से रुपये दे दो। क्रि वि०-ठीक सामने की ओर (सम्मुख)। पुं०किसी पदार्थ के आगे, ऊपर या सामने का भाग। उलटा का विपर्याय (आबवर्स) जैसे-इस कपड़े में जल्दी सीधे या उल्टे का पता नहीं चलता। पुं०[असिद्ध] बिना पका हुआ अन्न जो प्रायः ब्राह्मणों आदि को भोजन बनाने के लिए दिया जाता है।
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सीधापन  : पुं० [हिं० सीधा+पन (प्रत्य०)] १. सीधा होने की अवस्था, गुण या भाव। सिधाई। २. व्यवहारगत वह विशेषतः जिसमें किसी प्रकार का छल-बल नहीं होता।
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सीधु  : पुं० [सं०] १. गुड़ या ईख के रस से बना हुआ मद्य। गुड़ की शराब। २. अमृत।
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सीधु-गंध  : पुं० [सं०] मौलसिरी। बकुल।
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सीधु-पुष्प  : पुं० [सं०] १. कदंब। कदम। २. बकुल। मौलसिरी।
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सीधु-रस  : पुं० [सं० ब० स०] आम का पेड़।
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सीधुप  : पुं० [सं०] मद्यप।
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सीधे  : अव्य० [हिं० सीधा] १. ठीक ऊपर की ओर उठे हुए बल में। जैसे—सीधे खड़े हो। २. सीध में। बराबर सामने की ओर। सम्मुख। ३. बिना बीच में इधर उधर घूमे या मुड़े हुए। जैसे—इसी सड़क से सीधे चले जाओ। ४. बिना बीच में कहीं ठहरे या रुके हुए। जैसे—पहले तुम सीधे उन्हीं के पास जाओ। नरमी या शिष्ट व्यवहार से। जैसे—वह सीधे रुपए न देगा। ६. शान्त भाव से। जैसे—सीधे बैठो।
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सीन  : पुं० [अं०] १. दृश्य। २. रंगमंच का परदा जिस पर अनेक प्रकार के दृश्य अंकित रहते हैं।
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सीनरी  : स्त्री० [अं०] प्राकृतिक दृश्य।
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सीना  : स० [सं० सीवन] १. सुई-धागे या सूजे-रस्सी आदि की सहायता से दो या अधिक कपड़े, कागज, टाट, नाइलन, प्लास्टिक, माँस, चमड़े आदि के टुकड़ों के साथ जोड़ना। जैसे—फटी हुई धोती सीना, कापी या किताब सीना, जूता सीना। २. सिलाई करना। जैसे—कमीज या पजामा सीना। पद—सीना-पिरोना=सिलाई, बेलबूटे आदि का काम करना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, दो पक्षों के मत भेद दूर करना। पुं० [फा० सीनः] १. छाती। वक्षस्थल। मुहा०—(किसी को) सीने से लगाना=प्रेम पूर्वक गले लगाना। आलिंगन करना। २. स्त्री० का स्तन। पुं०=सीवाँ (कीड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीना कोबी  : स्त्री० [फा० सीन-कोबी] छाती पीटते हुए शोक प्रकट करना।
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सीना-जोर  : वि० [फा० सीनःजोर] [भाव० सीना-जोरी] १. अपने बल के जोर पर या अभिमान से दूसरों से जबरदस्ती काम कराने वाला। जबरदस्त। २. अत्याचारी।
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सीना-जोरी  : स्त्री० [फा० सीनःजोरी] १. जबरदस्ती। २. अत्याचार।
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सीना-तोड़  : पुं० [हिं० सीना+तोड़ना] कुस्ती का एक पेंच।
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सीना-पनाह  : पुं० [फा०] जहाज के निचले खंड में लंबाई के बल दोनो ओर का किनारा। (लश०)
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सीना-बंद  : पुं० [फा० सीनबन्द] १. सीना बाँधने वाला वस्त्र या पट्टी। २. अंगिया। चोली। ३. एक प्रकार की कुरती जिसे सदरी भी कहते हैं। ४. पट्टी विशेषतः घोड़े की पेटी। ५. ऐसा घोड़ा जिसका अगला पैर लंगड़ाता हो।
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सीना-बाँह  : स्त्री० [हिं० सीना+बाँह] एक प्रकार की कसरत।
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सीना-मोढ़ा  : पुं० [फा० सीनः=छाती+हिं० मोढ़ा=कन्धा] छाती, कन्धों आदि का विचार जो प्रायः व्यक्तियों, विशेषतः पशुओं के पराक्रम, बल आदि का अनुमान लगाने के लिए होता है। जैसे—घोड़े, बकरे आदि का दाम, उनके सीने मोढ़े पर ही लगता है।
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सीनियर  : वि० [अं०] १. बड़ा। वयस्क। २. पद मर्यादा आदि में श्रेष्ठ। प्रवर। ज्येष्ठ।
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सीनी  : स्त्री० [फा०] १. तश्तरी। थाली। २. छोटी नाव।
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सीनेट  : स्त्री० [अं०] १. विश्वविद्यालय की प्रबंध कारिणी सभा। २. अमेरिका की राज्य सभा।
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सीनेटर  : पुं० [अं०] सीनेट का सदस्य।
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सीप  : पुं० [सं० शुक्ति, प्रा० सुक्ति] [स्त्री० अल्पा० सीपी] १. घोंघे, शंख आदि के वर्ग का और कठार आवरण के भीतर रहने वाला एक जल-जन्तु जो छोटे तालाबों और झीलों से लेकर बड़े-बड़े समुद्रों तक में पाया जाता है। शुक्ति। मुक्ता माता। २. उक्त जल-जन्तु का सफेद कड़ा और चमकीला आवरण या संपुट जो बटन चाकू आदि के दस्ते आदि बनाने के काम में आता है, और जिससे छोटे बच्चों को दूध पिलाया जाता है। ३. एक प्रकार का लंबोतर पात्र जिसमें देव-पूजा, तर्पण आदि के लिए जल रखा जाता है।
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सीप-सुत  : पुं० [हिं० सीप+सं० सुत] मोती।
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सीपति  : पुं०=श्रीपति (विष्णु)।
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सीपर  : पुं०=सिपर (ढाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीपिज  : वि० सीप या सीपी से उत्पन्न पुं० [हिं० सीपी+सं० ज] सीपी से उत्पन्न अर्थात मोती।
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सीपी  : स्त्री० हिं०‘सीप’ का स्त्री० अल्पा०।
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सीबी  : स्त्री० [अनु० सी-सी] सीत्कार। (दे०)
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सीम  : पुं० [सं० सीमा] सीमा। हद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—सीम काँड़ना या चरना= (क)अपने अधिकारों का उल्लंघन करते हुए दूसरे के अधिकार-क्षेत्र में अतिक्रमण करना। (ख) जोर जबरदस्ती करना। पुं० [फा०] चाँदी।
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सीम-लिंग  : पुं० [सं० ष० त०] प्रदेश की सीमा का चिन्ह। हद का निशान।
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सीमक  : पुं० [सं० सीम+कन्] सीमा। हद।
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सीमंत  : पुं० [सं०] १. सीमा रेखा। २. स्त्रियों की सिर के माँग। ३. शरीर में हड्डियों का जोड़। ४. दे० ‘सीमंतोन्नयन’।
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सीमंतक  : पुं० [सं० सीमंत√कृ (करना)+क] १. माँग निकालने की क्रिया। २. सिंदूर जो स्त्रियों की माँग में डालते हैं। ३. जैन-पुराणों के अनुसार एक नरक। ४. उक्त नरक का वासी। ५. एक प्रकार का मणिक रत्न।
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सीमंतवान (वन्)  : वि० [सं० सीमंत+मतुप-य=व-नुभ-दीर्घ] [स्त्री० सीमंतवती] जिसके सिर के बालों में माँग निकली हो।
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सीमंतित  : भू० कृ० [सं० सीमंत+इतच्] सीमंत के रूप में लाया हुआ। माँग निकाला हुआ। जैसे—सीमंतित केश।
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सीमंतिनी  : स्त्री० [सं० सीमंत+इनि-ङीपं] १. स्त्री। २. नारी। विशेष-स्त्रियाँ माँग निकालती है, इससे उन्हे सीमंतिनी कहते हैं। २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सीमंतोन्नयन  : पुं० [सं० ब० स०] द्विजों के दस संस्कारों में से तीसरा संस्कार जो गर्भाधान के चौथे, छठे, आठवें महीने होता है, तथा जिसमें गर्भवती स्त्री के सिर के बालों में माँग निकाली जाती है।
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सीमल  : पुं०=सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीमा  : स्त्री० [सं०] १. किसी प्रदेश या स्थान के चारों ओर की विस्तार की अंतिम रेखा या स्थान। हद। सरहद। (बाउंडरी) मुहा—सीमा बंद करना=ऐसी राजनीतिक व्यवस्था करना कि देश की सीमा पर से आदमियों और माल का आना जाना रुक जाय। २. किसी विस्तार की अंतिम लंबाई या घेरा। (बार्डर) जैसे—सीमा के प्रदेश। ३. वह अंतिम स्थान जहाँ तक कोई बात या काम हो सकता हो। या होना उचित हो। नियम या मर्यादा की हद। (लिमिट) मुहा—सीमा से बाहर जाना=उचित से अधिक बढ़ जाना। (निषिद्ध) ४. भाँग। विजया।
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सीमा कर  : पुं० [सं० ष० त०] वह कर जो किसी प्रदेश की सीमा पर आने-जाने वाले व्यक्तियों या सामान पर लगता है। (टरमिनल टैक्स)
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सीमा-चौकी  : स्त्री० [सं०+हिं०] सीमा पर स्थित वह स्थान जहाँ सीमा रक्षा के निमित्त सैनिक रखे जातें हों।
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सीमा-बद्ध  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी सीमा निश्चित कर दी गई हो। हद के भीतर किया हुआ। जैसे—सीमा बद्ध प्रदेश। २. सीमाओं अर्थात मर्यादाओं से बँधा हुआ।
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सीमा-शुल्क  : पुं० [वह कर या शुल्क जो किसी राज्य की सीमा पर कुछ विशिष्ट प्रकार के पदार्थों या उनके आयात या निर्यात के समय लिया जाता है। (ड्यूटी)
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सीमा-संधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ पर दो या अनेक देशों राज्यों आदि की सीमाएँ मिलती हों।
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सीमा-सेतु  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह पुश्ता या मेड़ जो सीमा निश्चित करने के लिए बनाई जाती है।
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सीमांकन  : पुं० [सं० सीमा+अंकन, ष० त०] [भू० कृ० सीमांकित] अधिकार, कार्य, क्षेत्र आदि के अलग-अलग विभाग करके उनकी सीमा निर्धारित या निश्चित करना। (डिमार्केशन)
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सीमांकित  : भू० कृ० [सं०] जिसका सीमांकन हुआ हो। (डिमार्केटेड)
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सीमांत  : पुं० [ १. वह स्थान जहाँ किसी सीमा का अंत होता हो। वह जगह जहाँ तक हद पहुँचती हो। सरहद। (फ्रन्टियर) २. गाँव की सीमा। सिवाना। ३. सीमा पर का प्रदेश।
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सीमांत-पूजन  : पुं० [सं० ष० त०] वर का वह पूजन या स्वागत जो बरात आने के समय वधू पक्ष की ओर से गाँव की सीमा पर होता है।
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सीमांत-बंध  : पुं० [सं० ष० त० ब० स०] आचरण संबंधी नियम या मर्यादा।
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सीमातिक्रमण  : पुं० [सं० ष० त०] अपनी सीमा का उल्लंघन करके दूसरे के प्रदेश में किया जाने वाला अनाधिकार प्रवेश।
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सीमातिक्रमणोत्सव  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में युद्ध यात्रा के समय सीमा पार करने का उत्सव। विजय-यात्रा। विजयोत्सव।
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सीमापाल  : पुं० [सं०] सीमा प्रान्त का रक्षक अधिकारी।
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सीमाब  : पुं० [फा०] पारा। पारद।
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सीमिक  : पुं० [सं०√स्वम् (शब्द करना)+किनन्-संतृप्ता+दीर्घ] १. एक प्रकार का वृक्ष। २. दीमक। ३. दीमकों की बाँबी।
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सीमिका  : स्त्री० [सं० सीमिक+टाप्] १. दीमक। २. चींटी। च्यूँटी।
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सीमित  : भू० कृ० [सं०] १. सीमाओं से बँधा हुआ। २. जिसका प्रभाव या विस्तार एक निश्चित सीमा के अंतर्गत हो। २. राजनीति शास्त्र में जिस पर सांविधानिक बंधन लगे हों। परम का विरुद्धार्थक। (लिमिटेड) जैसे—सीमित राज्य-तंत्र।
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सीमी  : वि० [फा०] चाँदी का बना हुआ।
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सीमेंट  : पुं० [अं०] दीवारों आदि की चुनाई में काम आने वाला एक चूर्ण जिसमें बालू मिलाने पर गारा बनता है तथा जो जुड़ाई और प्लास्तर के काम आता है एवं सूखने पर बहुत कड़ा और मजबूत हो जाता है।
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सीय  : स्त्री० [सं० सीता] सीता। जानकी। पुं० [सं० शीत] ठंढ़। वि० ठंढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीयन  : स्त्री०=सीवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीयरा  : वि०=सीयरा (ठंढ़ा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीर  : पुं० [सं०] १. हल। २. जोता जाने वाला बैल। ३. सूर्य। ४. आक। मदार। स्त्री० १. वह जमीन जिसे भूस्वामी या जमींदार स्वयं जोतता या अपनी ओर से किसी दूसरे से जोतवाता आ रहा हो, अर्थात जिस पर उसकी निज की खेती होती हो। २. हिस्सेदारी। साझेदारी। स्त्री० [सं० शिरा] रक्तवाहिनी नाड़ी। नस। मुहा०—सीर खुलवाना=नस्तर से शरीर का दूषित रक्त निकलवाना। पुं० [?] १. चौंपायों का एक संक्रामक रोग। २. पानी का ऐसा बहाव जो किनारे की जमीन काटता हो। (लश०) वि०=सियरा (ठंढ़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीर-धर  : वि० [सं० ष० त०] हल धारण करने वाला। पुं० बलराम का एक नाम।
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सीर-ध्वज  : पुं० [सं० ब० स०] राजा जनक का पहला और वास्तविक और पहला नाम। २. बलराम।
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सीर-पाणि  : पुं० [सं० ब० स०] बलराम का एक नाम।
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सीर-भृत  : पुं० [सं० सीर√भृ (सुरक्षित रखना आदि)+क्विप्-तुक्] १. हल चलाने वाला अर्थात खेतिहर या हलवाहा। २. बलराम।
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सीरक  : पुं० [सं० सीर+कन्] १. हल। २. सूर्य। ३. शिशुमार। सूँस। वि० [हिं० सीरा] ठंढ़ा या शीतल करनेवाला।
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सीरख  : पुं०=शीर्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीरत  : स्त्री० [अं०] १. प्रकृति। स्वभाव। २. गुण। विशेषता।
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सीरन  : पुं० [?] बच्चों का एक प्रकार का पहनावा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीरनी  : स्त्री० [फा० शीरीनी] मिठाई। (दे०‘सिरनी’)
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सीरम  : पुं० [अं०] कुछ विशिष्ट प्रकार के प्राणियों और मनुष्यों के शरीर के रक्त में से निकला हुआ एक तरल पदार्थ जिसमें कुछ विशिष्ट रोगों का आक्रमण रोकने की शक्ति होती है। और इसीलिए जो दूसरे प्राणियों या व्यक्तियों के शरीर में उन्हें किसी रोग से रक्षित रखने के उद्देश्य से सूई के द्वारा प्रविष्ट किया जाता है।
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सीरवाह (क)  : पुं० [सं०] १. हल चलाने या जोतने वाला। हलवाहा। २. जमींदार की ओर से उसकी खेती का प्रबंध करनेवाला। कारिन्दा।
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सीरष  : पुं०=शीर्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीरा  : स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी। वि० [सं० शीतल० प्रा० सीअड़] [स्त्री० सीरी] १. ठंढ़ा। शीतल। २. धीर और शान्त प्रकृति वाला। पुं० [फा० शीरः] १.चीनी आदि का पकाया हुआ शीरा। २. मोहन-भोग। हलुआ। पुं०१.=सिरा (शीर्ष या सिरहाना)। २. =सिरहाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीरायुध  : पुं० [सं० ब० स०] बलराम।
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सीरियल  : पुं० [अं०] १. वह लंबी कहानी या लेख जो कई बार और कई हिस्सों में प्रकाशित हो। २. ऐसी कहानी या लेख जो सिनेमा में उक्त प्रकार से कई भागों में विभक्त करके दिखाया जाता हो।
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सीरी (रिन्)  : पुं० [सं०] (हल धारण करने वाला) बलराम। वि० हिं० ‘सीरा’ का स्त्री०।
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सीरीज़  : स्त्री० [सं०] १. किसी एक क्रम में पूर्वा पर घटित होने वाली घटनाओं का समाहार या समूह। २. पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में किसी एक प्रकाशन संस्था द्वारा प्रकाशित वह पुस्तक माला जिसका विषय, मूल्य या जिल्द समान हो।
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सील  : स्त्री० [सं० शलाका] लकड़ी का एक हाथ लंबा औजार जिस पर चूड़ियाँ गोल और सुडौल की जाती हैं। स्त्री=सीड़। पुं०=शील। स्त्री० [अं०] १. पत्रों आदि पर लगाई जाने वाली मोहर। छाप। मुद्रा। २. प्रायः ठंढ़े देशों के समुद्रों में रहने वाला एक प्रकार का बड़ा स्तनपायी चौपाया जो मछलियाँ खाकर रहता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीलंध  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मछली।
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सीलना  : अ० [हिं० सील] १. सील से युक्त या प्रभावित होना। जैसे—दीवार या फर्श सीलना। २. सील या नमी के कारण ठंढ़ा होकर विकृत होना।
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सीला  : पुं०=सिला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सींव  : स्त्री० [सं० सीमा] १. सीमा। २. मर्यादा। मुदा०—(किसी की) सींव काटना=सीमा या मर्यादा का उलंघन करके किसी को दबाना या पीड़ित करना।
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सीवँ  : स्त्री०=सीमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीवक  : वि० पुं० [सं०] सीने वाला। सिलाई करनेवाला।
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सीवड़ा (ड़ो)  : पुं०[सं० सीमांत] ग्राम का सीमांत। सिवाना। (ङि०)
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सीवन  : पुं० [सं०√षिवु (सीना)+ल्यूट्-अन] १. सीने का काम। सिलाई। २. सीने के कारण पड़े हुए टाँके। सिलाई के जोड़। उदा०—सीवन को उधेड़कर देखोगे क्यों मेरी कन्या को।—पन्त। ४. दरज। दरार। संधि। स्त्री०=सीवनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीवना  : सं०=सीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीवनी  : स्त्री० [सं० सीवन+ङीप्] वह रेखा जो लिंग के नीचे से गुदा तक जाती है। सीवन।
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सीवाँ  : पुं० [सं० सीमिक] एक प्रकार का कीड़ा जो ऊनी कपड़ों को काट डालता है।
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सीवी  : स्त्री०=सीबी (सीत्कार)।
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सीव्य  : वि० [सं० षिवु (सीना)+यत् (क्यप्)] जो सीया जा सके। सीये जाने के योग्य।
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सीस  : पुं० [सं० शीर्ष] १. सिर। माथा। मस्तक। २. कंधा। (ङि०) ३. अंतरीप। (लश०) पुं०=सीसा (धातु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीस-गोस  : पुं०=स्याह-गोश।
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सीस-ताज  : पुं० [हिं० सीज+फा० ताज] वह टोपी या ढक्कन जो शिकार पकड़ने के लिए पाले हुए जानवरों के सिर चढा रहता है। और शिकार के समय उतारा या खोला जाता है। कुलहा।
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सीस-त्रान  : पुं०=शिरस्त्राण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीस-पत्र  : पुं० [सं०] सीसा नामक धातु।
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सीस-फूल  : पुं० [हिं० सीस+फूल] सिर पर पहनने का फूल के आकार का एक गहना।
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सीस-महल  : पुं०=शीश-महल।
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सीसक  : पुं० [सं०] ‘सीसा’ नामक धातु।
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सीसज  : पुं० [सं०] सिंदूर। वि० सीसा नामक धातु से उत्पन्न या बना हुआ।
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सीसम  : पुं०=शीशम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीसर  : [सं० सीस√रा (रोना)+क] १. देवताओं की सरमा नाम की कुतिया का पति। (पाराशर गृह्यसूत्र) २. एक प्रकार का बालग्रह जिसका रूप कुत्ते का-सा कहा गया है।
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सीसल  : पुं०=राम-बाँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीसा  : पुं०[सं०सीसम] मटमैले रंग की धातु जो अपेक्षया बहुत भारी या वजनी होती है। (लेड) पुं०=शीशा।
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सीसी  : स्त्री० [अनु०] १. सी-सी शब्द। २. दे० ‘सीत्कार’। स्त्री० शीशी।
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सीसों  : पुं०=शीशम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सीसोपधातु  : पुं० [सं०] सिंदूर या इंगुर जिसे सीसे की उपधातु माना गया है।
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सीस्तान  : पुं० [फा०] ईरान के दक्षिण में स्थित एक प्रदेश।
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सीह  : स्त्री० [सं० सीधु=मघ] महक। गंध। पुं० १.=सिंह। २. =सेही। (साही-जन्तु) ३.=शीत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सीहण (णी)  : स्त्री० [सं० सिहनी] १. सिंह की मादा। शेरनी। उदा०—‘सीहण रण साकै नहीं, सीह जणे रणसूर’।—बाँकीदास।
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सीहुँड़  : पुं० [सं० सीहुँड़+वृषो दीर्घा] सेहुँड़। थूहर।
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सु  : उप० [सं०] एक संस्कृत का उपसर्ग जो प्राया संज्ञाओं और विशेषणों के पहले लगकर उनमें नीचे लिखे अर्थों की वृद्धि करता है। १. अच्छा, उत्तम या भला। जैसे—सुगंधि, सुनाम, सुमार्ग। २. मनोहर या सुन्दर। जैसे—सुदर्शन, सुकेशि। ३. अच्छी या पूरी तरह से। भली-भाँति। जैसे—सुयोजित, सुव्यवस्थित। ४. सरलतापूर्वक या सहज में। जैसे—सुकर, सुगम, सुसाध्य। ५. बहुत अधिक। जैसे—सुदीर्घ, सुसम्पन्न। ६. मांगलिक या शुभ। जैसे—सुदिन, सुसमाचार। ७. उचित और अधिकारी। जैसे—सुपात्र। पुं० १. सुंदरता। खूबसूरती। २. उत्कर्ष। उन्नति। ३. आनन्द। प्रसन्नता। हर्ष। ४. अर्चन। पूजन। ६. अनुमति। सहमति। ७. कष्ट। तकलीफ। सर्व० [सं० स०] सो। वह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० [सं० सह] कुछ क्षेत्रीय भाषाओं मे चरण तथा अपादान कारको का और कहीं-कहीं संबंध सूचक चिन्ह। वि०=स्व (अपना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सु-अवसर  : पुं० [स० क० स०] ऐसा अवसर या समय जिसमें कार्य साधन के लिए अनुकूल या उपयुक्त परिस्थितियाँ होती हों।
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सु-गठन  : स्त्री० [सं० सु (उप)+हि० गठन] शरीर के अंगों की अच्छी गठन। वि०=सुगठित।
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सु-दर्शन  : वि० [सं०] [स्त्री० सुदर्शना] सुन्दर दांतोंवाला। सुदंत।
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सु-नक्षत्र  : वि० [सं०] १. उत्तम नक्षत्रवाला। २. भाग्यवान्। पुं० उत्तम नक्षत्र।
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सु-नजर  : वि० [सं० सु+फा०नजर] दयावान्। कृपालु। (डि०)।
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सु-नयना  : स्त्री० [सं०] १. सुन्दर स्त्री। सुंदरी। २. राजा जनक की एक पत्नी जिन्होंने सीता जी को पाला था। वि० सं० सुनयन का स्त्री।
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सु-पश्चात्  : अव्य० [सं०] बहुत रात गये।
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सु-पोष  : वि० [सं०] जिसका पालन-पोषण सहज में हो सकता हो।
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सु-प्रबुद्ध  : वि० [सं०] जिसे यथेष्ट बोध या ज्ञान हो। अत्यंत बोधयुक्त। पुं० गौतम बुद्ध।
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सु-मिल  : वि० [सं० सु+हिं० मिलना] १. किसी के साथ में सहज में मिल जानेवाला। २. सहज में हेल
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सु-रमण्य  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक रमणीय। बहुत सुन्दर।
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सु-स्तना  : वि० स्त्री० [सं० ब० स०] सुन्दर छातियों या स्तनों वाली (स्त्री)। स्त्री० वह स्त्री जो पहले पहल रजस्वला हुई हो।
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सु—विपिन  : वि० [सं० ब० स०] जहाँ या जिसमें बहुत—से जंगल हों। जंगलों से भरा हुआ।
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सु—शक  : वि० [सं०] (काम) जो आसानी से किया जा सके। सहज। सुगम।
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सु—संग  : पुं० [सं०+हिं० संग] अच्छा संग। सु—संगति।
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सु—संगत  : वि० [सं० सु+संगत, प्रा० स०] उत्तम या विशिष्ट रूप से संगत। बहुत युक्ति—युक्त। बहुत उचित। स्त्री०=सुगति। वि० [सु+संगति] अच्छी संगतिवाला।
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सु—संगति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] अच्छे लोगों से होनेवाला संग—साथ। अच्छा संग—साथ। सत्संग।
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सु—सबद  : पुं० [सं० सुशब्द] कीर्ति। यश। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सु—सभेय  : वि० [सं० सुसभा+ढक्–एय] जो सभ्यों के समाज या सभा में अच्छी तरह अपना कौशल या चातुर्य दिखा सकता हो।
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सु—समुझि  : वि० [सं० सु+हिं० समझ] अच्छी समझवाला। समझदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सु—सरित  : स्त्री० [सं० सु+सरित] १. अच्छी नदी। २. नदियों में श्रेष्ठ, गंगा।
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सु—संस्कृत  : वि० [सं० सु—सम्√कृ (करना)+क्त सुट्] १. (व्यक्ति या समाज) जो सांस्कृतिक दृष्टि से उत्पन्न हो। २. आचरण या व्यवहार जो शिष्टतापूर्ण और संस्कृति के अनुरूप हो।
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सु—साध्य  : वि० [सं० प्रा० स०] (कार्य) जिसका सहज में साधन किया जा सके। जो सहज में पूरा किया जा सके। सुख—साध्य।
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सु—सिकता  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी रेत। २. चीनी। शर्करा।
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सुअ  : पु०=सुत (बेटा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुअटा  : पुं० [सं० शुक० प्रा० सुअ, हिं० सुआ] तोता।
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सुअन  : पुं० [सं० सुत० प्रा० सुअ] पुत्र। बेटा। वि०=सोना (स्वर्ण)। जैसे—सुअन जरद=सोनजर्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुअना  : अ० [हिं० सुअन] १. उत्पन्न होना। २. उदित होना। उगना। पुं०=सुगना (तोता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुअर  : पुं० हिं० सुअर का वह रूप जो उसे यौगिक शब्दों से पहले लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—सुअरदंता।
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सुअर-दंता  : वि० [हिं० सुअर+दंता=दाँतवाला] सुअर के से दाँतो वाला। पुं० वह हाथी जिसके दाँत झुके हों।
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सुअर्ग  : पुं०=स्वर्ग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुअर्ग-पाताली  : पुं० दे० ‘स्वर्ग-पताली’।
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सुआ  : स्त्री० [?] साफ पानी में रहने वाली हरे रंग की एक मछली जिसके दाँत अत्यंत मजबूत और लंबे होते हैं। पुं०=सुअटा (तोता)। २. सूआ (बड़ी सुई)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुआउ  : वि० [सं० सु+आयु] जिसकी आयु बड़ी हो। दीर्घायु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुआद  : पुं० [?] स्मरण। याद। (ङि०) पुं०=स्वाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुआन  : पुं० [देश] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसके पत्ते प्रति वर्ष झड़ जाते हैं। इसकी लकड़ी इमारत और नाव के कांम में आती है। पुं०=श्वान। पुं०=सूनु (पुत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुआना  : स० [हिं० सूना का प्रे०] सूने में प्रवृत्त करना। उत्पन्न या पैदा करना। स०=सुलाना।
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सुआयी  : पुं०=स्वामी।
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सुआर  : पुं० [सं०सूपकार] भोजन बनानेवाला, रसोइया।
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सुआरव  : वि० [सं० ब० स०] उत्तम शब्द करनेवाला। मीठे स्वर से बोलने या बजनेवाला।
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सुआसिन  : स्त्री०=सुआसिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुआसिनी  : स्त्री० [सं० सुवासिनी] १. स्त्री०, विशेषतः आस-पास में रहने वाली स्त्री। २. सौभाग्यवती स्त्री। सधवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुआहित  : पुं० [सं० सु+आहत?] तलवार के ३२ हाथों में से एक हाथ।
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सुइना  : पुं०=सोना (स्वर्ण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुइया  : स्त्री० [हिं० सुआ] एक प्रकार की चिड़िया। स्त्री०=सूई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुइस  : स्त्री० दे० ‘सूँस’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुई  : स्त्री०=सूई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुक  : पुं० १. दे० ‘शुक’। २. दे० ‘शुक्रदेव’। पुं० १. दे० शुक्र। २. दे० ‘शुक्रवार’।
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सुक-नासा  : स्त्री० [सं० शुक+नासिका] १. तोते की ठोर जैसी नाक। २. स्त्री जिसकी नाक तोते की ठोर जैसी हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकंकवान् (वत्)  : पुं० [सं० सुकंक+मतुप्-म-व] मार्कण्डेय पुराण के अनुसार मेरु के दक्षिण का एक पर्वत।
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सुकचण  : पुं० [सं० संकुचण] लज्जा। संकोच। (डि०)
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सुकचाना  : अ०=सकुचाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकंटका  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. घीकुआर। २. पिंडखजूर।
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सुकटि  : वि० [सं० ब० स०] अच्छी कमर वाली। जिसकी कमर सुंदर हो। स्त्री० १. सुंदर कमर। २. सुन्दर कमरवाली स्त्री।
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सुकंठ  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका कंठ सुंदर हो। सुंदर गले वाला। २. जिसके गले का स्वर कोमल और मधुर हो। पुं० सुग्रीव का एक नाम
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सुकड़ना  : अ०=सिकुड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकंद  : वि० [सं० कर्म० स०] कसेरू।
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सुकंदक  : पुं० [सं० सुकंद+कन्] १. महाभारत काल का एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. बाराही कंद। गेंठी। ४. प्याज।
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सुकंदन  : पुं० [सं० ब० स०] १. बैजयंती तुलसी। २. बबई तुलसी। वर्वरक।
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सुकंदा  : स्त्री० [सं०] १. लक्षणा कंद। पुत्रदा। २. बाँस ककोड़ा।
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सुकंदी  : पुं० [सं० सुकंद-ङीप्] सूरन। जमींकंद।
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सुकदेव  : पुं०=शुकदेव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकन  : पुं०=शकुन। (ङि०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकना  : पुं० [देश] एक प्रकार का धान जो भादों के अंत में होता है। स० सूखना। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकमणा  : स्त्री०=सुषुम्ना (नाड़ी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकमार  : वि०=सुकुमार (कोमल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकर  : वि० [सं० सु√कृ (करना)+खल्] [भाव० सुकरता] (कार्य) जो सहज में किया जा सके। सरल। आसान।
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सुकरता  : स्त्री० [सं० सुकर+तल्-टाप] १. सुकर होने की अवस्था या भाव। सौन्दर्य। २. सुन्दरता।
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सुकरा  : स्त्री० [सं सुकर-टाप्] ऐसी अच्छी और सीधी गौ जो सहज में दुही जा सके।
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सुकरात  : पुं० एक प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक जो अफलातून (प्लेटो) का गुरू था। (साँक्रटीज़)
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सुकराना  : पुं०=शुकराना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकरित  : वि० [सं० सुकृत] १. अच्छा। भला। २. मांगलिक शुभ।
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सुकरीहार  : [पुं०] गले में पहनने का एक प्रकार का हार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकर्णक  : वि० [सं० ब० स०]सुन्दर कानों वाला। पुं० हस्तिकंद। हाथीकंद।
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सुकर्णिका  : स्त्री० [सं० सुकर्ण+कन्-टाप्, इत्व] १. मूसाकानी नाम की लता। २. महाबला।
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सुकर्णी  : स्त्री० [सं० सुकर्ण-ङीप्] इन्द्रवारुणी। इन्द्रायन।
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सुकर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. अच्छा या उत्तम काम। सत्कर्म। २. देवताओं का एक गण या वर्ग।
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सुकर्मा (र्मन्)  : वि० [सं० सुकर्मन्+सु लोप दीर्घ नलोप] अच्छे कार्य करने वाला। सुकर्मी। पुं० १. विषकंभ आदि २७ योगों में से सातवां योग। २. विश्वकर्मा। ३. विश्वामित्र।
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सुकर्मी (र्मिन)  : वि० [सं० सुकर्म+इनि] १. अच्छा काम करने वाला। २. धर्म और पुण्य के काम करने वाला। ३. सदाचारी।
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सुकल  : वि० [सं० ब० स०] १. कोमल और मधुर परंतु अस्फुट स्वर करने वाला। २. वह जो धन के दान तथा व्यय करने में उदार तथा सुख्यात हो। वि०,पुं०=शुक्ल। पुं०=सुकुल (आम)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकवाना  : अ० [?] अचंभे में आना। आश्चर्यान्वित होना। स०=सुखवाना। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकवि  : पुं० [सं० कर्म० स०] उत्तम कवि।
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सुकाज  : पुं० [सं० सु+हिं० काज] उत्तम कार्य। अच्छा काम। सुकार्य।
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सुकांड  : वि०[सं० ब० स०] सुन्दर कांड या डालों वाला। पुं० करेले का पौधा या बेल।
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सुकांडी  : वि० [सं० सुकांडिन्, सुकांड+इनि] सुन्दर कांड या शाखाओं वाला। पुं० भ्रमर। भौंरा।
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सुकातिज  : पुं० [सं० शक्तिज] मोती। (डिं०)
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सुकाना  : स०=सुखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकानी  : पुं० [अ० सुक्कान=पतवार] मल्लाह। माझी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकाम  : वि० [सं०] अच्छी कामनाएँ करने वाला।
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सुकाम-वृत  : पुं० [सं० चतु० स०] किसी उत्तम कामना से धारण किया जाने वाला व्रत।
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सुकामा  : स्त्री० [सं० सुकाम-टाप्] त्रायमाणा लता। त्रायनाम।
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सुकार  : वि० [सं० सु√कृ (करना)+अण्] [स्त्री० सुकारा] १. सहज साध्य। सहज में होने वाला (काम) जो सहज में हो सके। सुकर। २. (पशु) जो सहज में वश में किया जा सके। ३. (पदार्थ) जो सहज में प्राप्त हो सके।
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सुकाल  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. अच्छा या उत्तम समय। २. ऐसा समय जब अन्न यथेष्ट होता हो। और सहज में मिलता हो। आकाल का विपर्याय।
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सुकाली (लिन्)  : [सं० सुकाल+इनि] मनु के अनुसार शूद्रों के पितरों का एक वर्ग।
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सुकावना  : स०=सुखाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकाशन  : वि० [सं० सु√काश् (चमकना)+ल्युट्—अन] अत्यन्त दीप्तिमान। बहुत चमकीला।
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सुकाष्ठ  : पुं० [सं० ब० स०] अच्छी लकड़ी वाला। (वृक्ष)। पुं० काष्ठाग्नि।
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सुकाष्ठक  : पुं० [सं० सुकाष्ठ+कन्] देवदारु। वि०=सुकाष्ठ।
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सुकाष्ठा  : स्त्री० [सं० सुकाष्ठ-टाप्] १. कुटकी। २. कठ-केला।
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सुकिज  : पुं०=सुकृत (अच्छा कर्म या कार्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकिया  : स्त्री०= स्वकीया (नायिका)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकी  : स्त्री० हिं० सुक (तोता) का स्त्री०। तोते की मादा।
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सुकीय  : स्त्री०= स्वकीया (नायिका)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकुआर  : वि०=सुकुमार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकुट्ट  : पुं० [सं० ब० स०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद।
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सुकुड़ना  : अ०=सिकुड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकुति  : स्त्री०=शुक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकुंद  : पुं० [सं० ब० स०] राल। धूना।
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सुकुंदक  : पुं० [सं० ब० स०] प्याज।
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सुकुमार  : वि० [सं० कर्म० स०] [स्त्री० सुकुमारी, भाव० सुकुमारता] १. (व्यक्ति या शरीर) जिसमें सौंदर्यपूर्ण कोमलता हो। २. (पदार्थ) जो सहज में कुम्हला या मुरझा सकता अथवा थोड़ी सी असावधानी से खराब हो सकता हो। पुं० १. सुन्दर कुमार। सुन्दर बालक। २. वह जो बालकों के समान कोमल अंगों वाला हो। ३. ईख। ४. वनचंपा। ५. चिचड़ा। ६. कँगनी। ७. मेरु पर्वत के नीचे का वन।
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सुकुमारक  : पुं० [सं० ब० स०] १. तम्बाकू का पत्ता। २. तेजपत्ता। ३. साँवा नामक अन्न।
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सुकुमारता  : स्त्री० [सी० सुकुमार+घल--टाप्] सुकुमारा होने की अवस्था, गुण या भाव। सौंदर्य-पूर्ण कोमलता।
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सुकुमारा  : स्त्री० [सुकुमार-टाप्] १. जूही। २. चमेली। ३. केला। ४. मालती।
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सुकुमारिका  : स्त्री० [सं० सुकुमारिक-टाप्] केले का पेड़।
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सुकुमारी  : वि० [सं० सु√कुमार (खेलना)+अच्-ङीप्] सं० सुकुमार का स्त्री०। कोमल और सुन्दर अंगो वाली। स्त्री० १. कुमारी कन्या। २. पुत्री। बेटी। ३.चमेली। ४. ऊख। ५. केला। ६. स्पृक्का। ७. शंखिनी नामक ओषधि। ८. करेला।
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सुकुरना  : अ०= सिकुड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकुर्कुर  : पुं० [सं० ब० स०] बालकों का एक प्रकार का रोग जिसकी गणना बाल ग्रहों में होती है।
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सुकुल  : वि० [सं०] जो अच्छे कुल या वंश में उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. उत्तम या श्रेष्ठ कुल। २. एक प्रकार का बढ़िया आम जो उत्तर प्रदेश और बिहार में होता है। वि०, पुं० शुक्ल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकुल-वेद  : पुं० [सं० शक्ल+हिं० बेत] एक प्रकार का वृक्ष।
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सुकुलता  : स्त्री० [सं० सुकुल+तल्-टाप्] सुकुल होने की अवस्था या भाव। कुलीनता।
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सुकुवाँर (वार)  : वि० सुकुमार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुकूत  : पुं० [अ०] १.मौन। चुप्पी। २. नीरवता।
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सुकूनत  : स्त्री० [अ० सकूनत] १. ठहरने की जगह। २. निवास। ३. निवास स्थान।
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सुकृत  : भू० कृ० [सं०] १. (काम) जो अच्छे ढंग से किया गया हो। जैसे—सुकृत कर्म अर्थात पुण्य का और शुभ काम। २. (कृति) जो बहुत बढिया बनाई गई हो। पुं० १. कोई भलाई का कार्य। सत्कार्य। पुण्य कार्य। २. धर्म शील और पुण्यात्मा व्यक्ति। ३. भाग्यवान व्यक्ति। मुहा०—सुकृत मनाना=अपने सुकृतों का स्मरण करते हुए यह मानना कि उनके फल स्वरूप हमारा संकट दूर हो। उदा०—लगी मनावन सुकृत, हाथ कानन पर दीन्हे।—रत्ना०।
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सुकृत-कर्मा  : पुं० [सं० सुकृतकर्मा कर्म० स०] धर्मात्मा या पुण्यात्मा व्यक्ति।
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सुकृत-व्रत  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का व्रत जो प्रायः द्वादशी के दिन किया जाता है।
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सुकृतात्मा  : वि० [सं० सुकृतात्मन०, ब० स०] पुण्य कर्म करने की जिसकी वृत्ति हो।
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सुकृति  : स्त्री० [सं० सु√कृ (करना)+क्तिन] १. धर्म और पुण्य का काम। २. तपश्चर्या। ३. कोई अच्छी या सुन्दर कृति। सत्कर्म।
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सुकृतित्व  : पुं० [सं० सुकृति+त्व] सुकृति का भाव या धर्म।
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सुकृती (तिन)  : वि० [सं० सुकृत+इनि] १. सत्कर्म करने वाला। २. धार्मिक और पुण्यशील। ३. भाग्यवान। ४. बुद्धिमान।
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सुकृत्  : वि० [सं० सु+√कृ (करना)+क्विप्-तुक] १. उत्तम और शुभ कार्य करने वाला। २. धर्म के और पुण्य काम करने वाला। ३. भाग्यवान। ४. धार्मिक, पवित्र तथा शुभ। पुं० निपुण कारीगर। दक्ष शिल्पी।
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सुकृत्य  : पुं० [सं० सु√कृ (करना)+क्यप्-तुक] उत्तम कार्य। सत्कर्म।
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सुकेत  : पुं० [सं० ब० स०] आदित्य। सूर्य।
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सुकेतु  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर केशों या बालों वाला। पुं० १. चित्रकेतु राजा का एक नाम। २. ताड़का राक्षसी के पिता का नाम। ३. वह जो पशु-पक्षियों तक की बोली समझता हो।
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सुकेश  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सुकेशा] उत्तम केशों वाला। जिसके बाल सुन्दर हों पुं०=सुकेशि।
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सुकेशा  : वि० स्त्री० [सं० सुकेश-टाप] सुन्दर अर्थात घने लंबे बालों वाली (स्त्री)।
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सुकेशि  : पुं० [सं०] विद्यत्केश राक्षस का पुत्र तथा माल्यवान, सुमाली और माली नामक राक्षसों का पिता।
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सुकेशी  : स्त्री० [सं० सुकेश-ङीप्] १. सुन्दर अर्थात घने तथा लंबे बालों वाली स्त्री। २. एक अप्सरा का नाम। वि०=सुकेशा।
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सुकेसर  : पुं० [सं० ब० स०] सिंह। शेर।
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सुक्कान  : पुं० [अ०] नाव की पतवार।
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सुक्कानी  : पुं० [अ०] पतवार थामने वाला अर्थात मल्लाह। माझी।
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सुक्की  : वि० [सं० स्वकीय] अपना। निजी। उदा०—ए बार सुर बंदहु नहिं बंधि लेहु सुक्की बधअ।—चन्दबरदाई। स्त्री० [सं० सुकीर्ति] नेकनामी। सुयश।
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सुक्ख  : पुं०=सुख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुक्त  : पुं० [सं०] एक प्रकार की काँजी।
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सुक्ता  : स्त्री० [सं० सुक्त-टाप्] इमली।
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सुक्ति  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन पर्वत। स्त्री०=शुक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुक्र  : पुं० [सं० सक्रतु] अग्नि। (ङि०) वि० पुं०=शुक्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुक्रत  : पुं०=सुकृत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुक्रति  : पुं०=स्त्री०=सुकृति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुक्रतु  : वि० [सं० ब० स०] सत्कर्म करने वाला। पुण्यशील। पुं० १. अग्नि। २. शिव। ३. इन्द्र। ४. सूर्य। ५. सोम। ६. वरुण।
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सुक्ल  : वि०=शुक्ल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुक्षत्र  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत बड़ा धनवान्। २. बहुत बड़ा राज्यशाली। ३. बलवान। ४. शक्तिशाली।
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सुक्षिति  : स्त्री० [सं० कर्म० स, ब० स०] १. सुन्दर निवास स्थान। २. उक्त प्रकार के स्थान में रहने वाला व्यक्ति। ३. वह जो धन-धान्य और संतान से बहुत सुखी हो।
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सुक्षेत्र  : वि० [सं० ब० स०] जिसका जन्म अच्छे गर्भ में हुआ हो। पुं० ऐसा घर जिसके दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की ओर दीवारें या मकान हों, और जो पूर्व की ओर खुलता हो। (ऐसा मकान बहुत शुभ माना जाता है)।
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सुख  : पुं० [सं०] १. वह प्रिय अनुभूति जो अनुकूल या अभीप्सित वाता-वरण या स्थिति की प्राप्ति पर होती है। जैसे—इस शुभ समाचार से उसे सुख मिला। २. साधारणतया व्यक्ति की वह स्थिति जिसमें वह आर्थिक, मानसिक तथा शारीरिक कष्टों से मुक्त रहता है। और उसे अपेक्षित सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, अथवा प्राप्त सुविधाओं से संतोष होता है। मुहा—सुख की नींद सोना=निश्चिन्त होकर आनन्द से सोना या रहना। खूब मजे में समय बिताना। सुख मनान=किसी विशिष्ट परिस्थिति की अनुकूलता के कारण अच्छी तरह प्रसन्न और संतुष्ट रहना। जैसे—यह पेड़ सभी प्रकार की जमीनों में सुख मानता है। ३. कल्याण। मंगल। ४. धन-धान्य आदि की सम्पन्नता। ५. स्वर्ग। ६. सुखी नामक छंद का दूसरा नाम। वि० यौ० पदों के आरम्भ में, १. जो अनुकूल और प्रिय रूप में होता हो। जैसे—सुख-क्रिया। २. जहाँ या जिसमें सुख प्राप्त होता हो। जैसे—सुख-कंदर। ३. जो सहज में या सुभीते से होता हो। जैसे—सुख-दोहन। ४. स्वभावतः अच्छे रूप में होने वाला। उदा०—जाके सुख-मुख वास से वासित होत दिगंत।—केशव। क्रि० वि० सुखपूर्वक। आराम। सुखद रूप से।
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सुख-आसन  : पुं० [सं० मध्य० स०]=सुखासन।
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सुख-कंद  : वि० [सं० मध्य० स० सुख+कंद] सब प्रकार के सुख देनेवाला।
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सुख-कंदन  : वि०=सुखकंद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुख-कंदर  : वि० [सं० सुख+कंदरा] ऐसा स्थान जहाँ बहुत सुख मिलता हो ।
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सुख-करण  : वि० [सं० ष० त० सुख+करण] सुख उत्पन्न करनेवाला।
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सुख-क्रिया  : स्त्री० [सं०] १. सुख प्राप्ति के लिए किया जाने वाला कार्य। २. ऐसा कार्य जिसे करते समय सुख मिलता हो। ३. ऐसा कार्य जिसे करने में किसी प्रकार का कष्ट न होता हो।
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सुख-गंध  : वि० [सं० ब० स०] अच्छी गंध वाला। सुगंधित।
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सुख-गम  : वि० [सं० सुख√गम् (जानाः-अच्]=सुगम।
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सुख-चार  : पुं० [सं० सुख√चर् (चलना)+घज्ञ्] अच्छा या उत्तम घोड़ा। बढ़िया घोड़ा। वि०=सुख-गम।
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सुख-चाव  : पुं० [सं०+हिं०] १. ऐसा कार्य करने का शौक जिससे सुख मिलता हो। २. आनन्द-मंगल।
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सुख-जात  : वि० [सं० तृ० त०] सुखी।
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सुख-जीवी (विन्)  : पुं० [सं०] १. वह जो सुखी जीवन बिता रहा हो अथवा सुखी जीवन बिताने का इच्छुक हो। २. वह जो परिश्रम न करना चाहता हो और पकी पकाई खाना चाहता हो।
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सुख-डैना  : पुं० [हिं० सूखना+डैना (प्रत्य०) बैलों का एक प्रकार का रोग।
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सुख-ढरन  : वि० [सं० सुख+हिं० ढरना] १. सुख देने वाला। सुखदायक। २. सहज में अनुकूल या प्रसन्न होने वाला।
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सुख-दनियाँ  : वि०, स्त्री०=सुख-दानि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुख-दाता (दातृ)  : वि० [सं०] सुख देने वाला। सुखद।
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सुख-दानि  : वि० [सं० सुखदायिनी] सुख देने वाला। सुखद। पुं०=प्रियतम। स्त्री० [सं०] सुंदरी नाम का छंद का दूसरा नाम। २. कुछ आचार्यों के मत से एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में ८ मात्राएँ होती हैं। कुछ लोग अंत में गुरु और लघु रखना भी आवश्यक समझते हैं।
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सुख-दानी  : वि० स्त्री० [हिं० सुखदान] सुख देने वाली। आनन्द देने वाली। स्त्री०=सुख-दानि।
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सुख-धाम  : पुं० [सं० ष० त०] १. एक ऐसा स्थान जहाँ सब प्रकार के सुख प्राप्त हों। २. वह जिसमें सब प्रकार के सुख वर्तमान हो। ३. स्वर्ग।
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सुख-ध्वनि  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सुख-नीलांबरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सुख-पति  : स्त्री०=सुषुप्ति। (क्व०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुख-पर  : वि० [सं]=सुखी।
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सुख-प्रश्न  : पुं० [सं०] किसी का सुख क्षेम जानने के लिए की जाने वाली जिज्ञासा।
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सुख-प्रसवा  : वि० स्त्री० [सं०] जिसे प्रसव करने के समय विशेष कष्ट न होता हो।
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सुख-प्रिय  : वि० [सं० ब० स०] जो सदा सुख से रहना चाहता हो। पुं० संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सुख-बोध  : वि० [सं०] (बात या विषय) जिसका बोध या ज्ञान सहज में हो सकता हो।
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सुख-मुख  : वि० [सं०] १. (शब्द या वर्ण) जिसका उच्चारण सरलता से किया जा सकता हो। २. सुन्दर बातें करने वाला। ३. जो मँहजोर न हो।
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सुख-राज  : पुं० दे० ‘मुहासुख’।
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सुख-रात  : स्त्री०=सुख-रात्रि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुख-रात्रि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दीपावली की रात। कार्तिक मास की अमावस्या की रात। २. वह रात जिसमें पति पत्नी सुख के लिए रति करते हैं।
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सुख-रात्रिका  : स्त्री० [सं०] लक्ष्मी।
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सुख-रास  : वि० [सं० सुक+राशि] जो सर्वथा सुखमय हो। सुख की राशि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुख-रासी  : वि०=सुख-रास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुख-रूप  : वि० [सं०] सुहावने रूप वाला।
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सुख-रूपी  : वि०=सुख-रूप।
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सुख-रोग  : पुं० [हिं०] [वि० सुख रोगी] कोई ऐसा बे नाम का अथवा नाम मात्र का रोग जिसका बड़े आदमी प्रायः काल्पनिक रूप में अपने आप में आरोप कर लिया करते हैं।
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सुख-सलिल  : पुं० [सं० मध्य० स०] उष्ण जल। गरम पानी।
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सुख-साध्य  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० सुखसाध्यता] १. जिसे सुख पूर्वक प्राप्त किया जा सके। २. सुगम। सहज।
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सुख-सार  : पुं० [सं० सुख+सार] मुक्ति। मोक्ष।
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सुख-सुभीता  : पुं० [सं०+हिं०] ऐसी बातें जिनके होने पर मनुष्य सुखपूर्वक जीवन बिता सके। (एमेनिटी) २. सुख और सहूलियत।
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सुख-स्पर्श  : वि० [सं० मध्य० स०] जिसे छूने से सुख मिलता हो।
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सुख-स्वप्न  : पुं० [सं०] भावी सुख की ऐसी कल्पना जिसका कोई दृढ आधार न हो।
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सुख-स्वरावली  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सुखक  : वि० [हिं० सूखा] सूखा। शुष्क। वि०=सुखद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखंकर  : वि० [सं० सुख√कृ (करना)+रच्] सुकर। सहज।
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सुखकर  : वि० [सं०] १. सुख देने वाला। सुखद। २. जो सहज में किया जा सके। सुकर।
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सुखकरन  : वि०=सुख-करण।
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सुखकरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सुखकारक  : वि० [सं०] सुख देनेवाला। सुखद।
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सुखकारी  : वि० =सुखकारक।
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सुखग  : वि० [सं० सुख√गम् (जाना)+ड] सुख या आराम से चलने या जानेवाला।
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सुंखड़  : पुं० [?] साधुओं का एक संप्रदाय।
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सुखंडी  : स्त्री० [हिं० सूखना] प्रायः बच्चों को होने वाला एक रोग जिसमें उनका शरीर अत्यंत क्षीण हो जाता है। वि० लाक्षणिक अर्थ में, अत्यंत क्षीण अशक्त और दुर्बल।
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सुखता  : स्त्री० [सं०] सुख का धर्म या भाव। सुखत्व।
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सुखथर  : पुं० [सं० सुख+स्थल] ऐसा प्रदेश जहाँ के लोग सुखी हों।
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सुखंद  : वि०=सुखद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखद  : वि० [सं०] [स्त्री० सुखदा] सुख देना वाला। जो सुख दे या देता हो। सुखदायी। आरामदेह। पुं० १. विष्णु। २. विष्णु का लोक या स्थल। ३. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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सुखद-गीत  : वि० [सं० ब० स० सुखद+गीत] जिसकी बुहत अधिक प्रशंसा हो। प्रशंसनीय।
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सुखदा  : वि० [सं० सुखद का० स्त्री] सुख देने वाली। सुख दायिनी। स्त्री० १. गंगा। २. अप्सरा। ३. शमीवृक्ष। ४. एक प्रकार का छंद।
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सुखदायक  : वि० [सं० सुख√दा (देना)+ण्वुल्-अक-पुक्] सुख देने वाला। सुखद। पुं० एक प्रकार का छंद।
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सुखदायी  : वि०=सुखदायी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखदायी (दायिन्)  : वि० [सं० सुख√दा (देना)+णिन्-युक्] [स्त्री० सुखदायिनी] सुख देने वाला। सुखद।
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सुखदाव  : वि०=सुखदायी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखदास  : पुं० [देश०] एक प्रकार का अगहनी धान।
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सुखदेन  : वि०=सुखदायी।
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सुखदेनी  : वि, स्त्री०=सुखदायिनी।
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सुखदेव  : पुं०=शुकदेव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखदैनी  : वि० स्त्री०=सुखदायिनी।
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सुखदोह्या  : वि०, स्त्री० [सं०] (मादा पशु विशेषतः गाय) जिसे आसानी से दूहा जा सके।
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सुखन  : पुं० [फा० सखुन] १. बात-चीत २. कविता। विशेष—सुखुन के यौ० पदों के लिए दे० ‘सखुन’ के यौ०।
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सुखना  : अ०=सूखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखपाल  : पुं० [सं० सुख+हिं० पालकी में का पाल] पुरानी चाल की एक प्रकार की पालकी जिसका ऊपरी भाग शिवालय में शिखर-सा होता है।
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सुखपूर्वक  : अव्य० [सं०] सुख से। जैसे—वे सुखपूर्वक वहाँ रहते हैं।
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सुखप्रद  : वि० [सं० सुख-प्र√दा+क] सुखदेनेवाला। सुखद।
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सुखमणि  : पुं० [सं० सुख+मणि] सिक्खों का वह छोटा धर्मग्रन्थ जिसका वे प्रायः नित्य पाठ करते हैं।
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सुखमंदिर  : पुं० [सं० मध्य० स०] महल का वह भाग जिसमें राजा लोग बैठकर नृत्य संगीत आदि देखते सुनते थे।
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सुखमन  : स्त्री० [सं० सुषुम्ना] सुषुम्ना नाम की नाड़ी। पुं०=शुख-मणि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखमा  : स्त्री० [सं० सुषमा] एक प्रकार का व्रत। २. सुषमा। शोभा।
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सुखमानी (मानिन्)  : वि० [सं०] १. किसी विशिष्ट अवस्था में सुख मानने वाला। २. हर अवस्था में सुखी रहनेवाला।
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सुखलाना  : पुं०=सुखाना (पश्चिम)।
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सुखवंत  : वि० [सं०] १.सुखी। प्रसन्न। खुश। २. सुख देने वाला। सुखद।
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सुखवती  : स्त्री० [सं० सुखवत-ङीष्] अमिताभ बुद्ध का स्वर्ग। वि०, सं० सुखवान का स्त्री०।
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सुखवत्  : वि० [सं० सुख+मतुप्-म=व] सुखयुक्त। सुखी।
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सुखवत्ता  : स्त्री० [सं० सुखवत्+तल-टाप] १. सुख का भाव या धर्म। २. सुखी होने की अवस्था या भाव।
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सुखवन  : पुं० [हिं० सूखना] १. सुखाने की क्रिया या भाव। २. वह फसल जो सूखने के लिए धूप में डाली जाती है। ३. कोई चीज सूखने या सुखाने पर उसकी तौल या माल में होने वाली कमीं। ४. गीले अक्षरों को सुखाने के लिए उन पर छिड़का या छोड़ा जाने वाला बालू।
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सुखवाद  : पुं०[सं०] १. यह मत या सिद्धान्त कि इस दुःख पूर्ण संसार में रहकर भी मनुष्य को यथासाध्य सुखभोग करना चाहिए और भविष्य में भी सुख या शुभ फल की आशा तथा कामना बनाये रखनी चाहिए। इसमें केवल अर्थ और काम पुरुषार्थ माने जाते हैं। ‘दुःख वाद’ का विपर्याय। २. दे० ‘आशावाद’।
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सुखवादी  : वि० [सं०] सुखवाद-संबंधी। पुं० १. वह जो सुखवाद का अनुयायी हो। २. आशावादी।
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सुखवान् (वत्)  : वि० [सं० सुख+मतुप्-म=व-नुम-दीर्घ] [स्त्री० सुखवती] सुखी।
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सुखवार  : वि० [सं० सुख+हिं० वार (प्रत्य०)] [स्त्री० सुखवारी] १.सुखी। २. सहज। सरल।
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सुखवास  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह स्थान जहाँ का निवास सुखकर हो।
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सुखा  : स्त्री० [सं० सुख-टाप्] वरुण की पुरी का नाम।
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सुखाई  : क्रि० वि० [हिं० सुखी] १. सुखपूर्वक अच्छी तरह। २. बिना किसी परिश्रम के। सहज में। उदा०—प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।—तुलसी। स्त्री० [हिं० सुखाना+आई (प्रत्य०)] सुखाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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सुखाकर  : पुं० [सं० ब० स०] बौद्धों के अनुसार एक लोक।
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सुखांत  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका अंत या समाप्ति सुखमय वातावरण में होती हो। २. (साहित्यिक रचना) जिसका अंतिम अंश मुख्य-पात्र के भावी सुखी जीवन की ओर इंगित करता हो।
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सुखाधार  : वि० [सं० ष० त०, ब० स०] जो सुख का आधार। पुं० स्वर्ग।
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सुखाधिकार  : पुं० [सं० सुख+अधिकार] विधिक क्षेत्र में, जमीन, मकान आदि के संबंध में सुख-सुभीते का वह अधिकार जो उसे पहले से या बहुत दिनों से प्राप्त हो, और इसीलिए दूसरों के द्वारा उसका अतिक्रमण दंडनीय अपराध माना जाता है। (राइट आफ ईजमेंट) जैसे—किसी मकान में पहले से यदि कोई खिड़की चली आ रही हो, तो उसे इस संबंध में सुखा-धिकार प्राप्त होता है। यदु कोई पड़ोसी उस खिड़की से ठीक सटाकर नई दीवार खड़ी करता है तो वह दूसरों के सुखाधिकार का अतिक्रमण करता है।
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सुखाना  : स० [हिं० सूखना का प्रे०] १. ऐसी क्रिया करना जिससे किसी चीज की नमी दूर हो जाय। जैसे—धूप में बाल सुखाना। २. (शरीर के संबंध में क्षीण या दुर्बल करना)। ३. नष्ट करना। जैसे—खून सुखाना। अ० [सं० सुख+हिं० आना (प्रत्य०] १. सुखकर प्रतीत होना। अच्छा या भला लगना। २. शरीर के लिए अनुकूल तथा सह्य होना।
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सुखानी  : पुं० [अ० सुस्कान] माँझी। मल्लाह। (लश०)
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सुखांबु  : पुं० [सं० मध्य० स०] गरम पानी।
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सुखायत  : वि० [सं०] सहज में वश में आने वाला। सीखा और सधा हुआ।
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सुखारा  : वि० [सं० सुख+हिं० आरा (प्रत्य०)] [स्त्री० सुखारी] १. सुखी। २. सरल।
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सुखारि  : पुं० [सं० सुख√ऋ (गत्वादि)+अण्+इति] उत्तम हवि भक्षण करने वाले अर्थात देवता पुं०=सुखारि (देवता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखार्थी (थिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सुखार्थिनी] सुख चाहने वाला। सुख की इच्छा करनेवाला।
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सुखाला  : वि० [सं० सुख=हिं० आला (प्रत्य०)] [स्त्री० सुखाली] १. सुखी। २. सहज। सुगम। (पश्चिम)।
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सुखालोक  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर। मनोहर।
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सुखावती  : स्त्री० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक स्वर्ग।
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सुखावतीश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] १. बुद्ध देव। २. बौद्धों के एक देवता।
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सुखावत्  : वि०=सुखवत्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखावह  : वि० [सं० सुख-आ√वह् (ढोना)+अच्] सुख देने वाला। सुखद।
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सुखाश  : वि० [सं० सुख+अश् (खाना)+अच्] जो खाने में बहुत अच्छा जान पड़े। पुं० १. वरुण। २. तरबूज। वि० जिससे सुख प्राप्त होने की आशा हो।
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सुखाशा  : स्त्री० [सं० ष० त०] सुख पाने की आशा। आराम की उम्मीद।
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सुखाश्रय  : वि० [सं० ष० त०] जिस पर सुख अवलम्बित हो। सुख का आधार पुं० ऐसा स्थान जहाँ सुख मिलता हो।
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सुखासन  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वह आसन जिस पर बैठने से सुख हो। सुखद आसन २. पालकी। ३. आजकल-आराम कुर्सी।
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सुखिआ  : वि०=सुखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखित  : वि०=हि० सूखना] सूखा हुआ। शुष्क। वि० [हिं० सुख] सुखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखिता  : स्त्री० [सं० सुख+इतच्-टाप्] सुखी होने की अवस्था या भाव। सुख। आनन्द।
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सुखित्व  : पुं० [सं० सुखी+त्व]=सुखिता।
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सुखिया  : वि०=सुखी। उदा०—नानक दुखिया सब संसार। सोई सुखिया जिन राम अधार।—गुरु-नानक।
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सुखिर  : पुं० [सं० सुषिर ? ] साँप के रहने का बिल। बाँबी।
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सुखी (खिन्)  : वि० [सं० सुख+इनि्] १. जिसे सुख की अनुभूति हो रही हो। २. जिसे सुख प्राप्त हो। सुखपूर्ण वातावरण में रहने या पलने वाला। ३. सुखों से भरा। जैसे—सुखी जीवन। स्त्री० सवैया छंद का चौदहवाँ भेद जिसके प्रत्येक चरण में आठ सगण और तब लघु और गुरु वर्ण होता है। इसमें १२ और १४ वर्णों पर यति होती है।
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सुखीन  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसकी पीठ लाल, छाती और गर्दन सफेद तथा चोंच चिपटी होती है।
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सुखेतर  : पुं० [सं० पंच० त०] सुख से इतर या भिन्न अर्थात दुःख, क्लेश, कष्ट आदि।
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सुखेन  : अव्य० [सं०] १. सुखपूर्वक। सुख से। २. बहुत ही सहज में बिना विशेष प्रयास के । उदा०—(क) लरहिं सुखेन कालकिन होऊ।—तुलसी। (ख) जो कविवर मुख मूक ही गिरा नचाव सुखेन।—दीनदयाल। पुं०=सुषेण (करमर्द)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुखेलक  : पुं० [सं० सु√खेल (लना)+ण्वुल्-अक] एक प्रकार का वृत या छंद।
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सुखेष्ठ  : पुं० [सं० सुख+इष्ठन] शिव। महादेव।
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सुखैना  : वि० [सं० सुख+हिं० ऐना (प्रत्य०)] १. सुखी। २. सुख देने वाला। ३.सहज में प्राप्त होनेवाला।
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सुखोदक  : पुं० [सं० मध्य० स०] गरम पानी। उष्ण जल।
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सुखोदय  : वि० [सं० ष० त०] जिसका परिणाम सुखद हो। पुं० १. ऐसी स्थिति जिसमें सुख समृद्धि का आरंभ हो रहा हो। २. सुख की होने वाली अनुभूति। ३. कोई मादक पेय। ४. पुराणानुसार एक वर्ष या भू-खंड।
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सुखोष्ण  : वि० [सं० मध्य० स०] जो इतना उष्ण हो कि सुखद प्रतीत होता हो। गुनगुना। पुं० कुनकुना जल।
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सुख्य  : वि० [सं०√सुख्+पत् सु√ (प्रसिद्ध करना) सुख-संबंधी। सुख का।
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सुख्यात  : वि० [सं० सु√ख्या (प्रसिद्ध करना)+क्त] [भाव० सुख्यात] जिसकी अच्छी या विशेष प्रसिद्धि हो। प्रसिद्ध। मशहूर।
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सुख्याति  : स्त्री० [सं० सु√ख्या+क्तिन] सुख्यात होने की अवस्था या भाव। विशेष रूप से होने वाली प्रसिद्धि।
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सुंग  : पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध प्राचीन राजवंश जो अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ के प्रधान सेनापति पुष्यमित्र ने ईसा से प्रायः दो सौ वर्ष पूर्व प्रतिष्ठित किया था।
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सुग  : वि० [सं० सु+ग=गति] १. अच्छी तरह तेज या बहुत चलनेवाला। २. खूब जागते या सचेत रहनेवाला। ३. अच्छा गानेवाला। ४. सुगम। सहज। ५. सुगम। सहज। ६. सुबोध। पुं० १. सुमार्ग। २. सुख। ३. विष्ठा। मल।
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सुग-सुग  : स्त्री० [अनु०] कानाफूसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुग-सुगाना  : अ० [अनु०] कानाफूसी करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुगठित  : वि० [सं० सु+हि० गठित] १. अच्छी तरह से गठा हुआ। २. संघठित।
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सुगत  : पुं० [सं०] १. बुद्ध देव का एक नाम। २. बुद्ध देव का अनुयायी। बौद्ध। वि० [सं० सुगति] १. अच्छी गतिवाला। अच्छे आचरणवाला। २. जिसे सुगति अर्थात् मोक्ष प्राप्त हुआ हो। ३. सुगम। स्त्री०=सुगति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुगतदेव  : पुं० [सं० कर्म० स०] गौतम बुद्ध।
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सुगतापतन  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्ध मंदिर।
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सुगति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. अच्छी या उत्तम गति। २. सदाचरण। ३. मरने के उपरान्त होनेवाली उत्तम गति। मोक्ष। ४. एक प्रकार का छन्द या वृत्त।
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सुगंध  : स्त्री० [सं०] १. ऐसी गंध जो प्रिय लगती हो। प्रिय महक। सुवास। खशबू। २. वह पदार्थ जिसमें से अच्छी गंध निकलती हो। खुशबुदार चीज। ३. अगिया घास। गंधतृण। ४. श्रीखंड चन्दन।। ५. गंधराज। ६. नील कमल। ७. काला-जीरा। ८. गठिवन। ९. चना। १॰. भूतृण। ११. लाल सहिजन। १२. मरुआ। १३. माधवी लता। १४. कसेरु। १५. सफेद ज्वार। १६. केवड़ा। १७. रूसा घास। १८. शिलारस। १९. राल। धूना। २॰. गंधक। २१. एक प्रकार का कीड़ा। वि० १. गंधयुक्त। २. सुगंध से युक्त। सुगंधित। ३. यशस्वी। उदाहरण—गंध्रपसेन सुगंध नरेसू।—जायसी। स्त्री०=सौगंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुगंध केसर  : पुं० [सं०] लाल सहिजन।
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सुगंध-कोकिला  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] गंधकोकिला नामक गंध द्रव्य।
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सुगंध-गण  : पुं० [सं०] वैद्यक में सुगंधित द्रव्यों का एक गण या वर्ग।
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सुगंध-गंधा  : स्त्री० [सं० ब० स०] दारुहल्दी। दारुहरिद्रा।
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सुगंध-तृण  : पुं० [सं० मध्य० स०] गंध-तृण। रूसा घास।
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सुगंध-त्रय  : पुं० [सं० ब० स०] चंदन, बला और नागकेसर इन तीनों का वर्ग या समूह।
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सुगंध-त्रिफला  : स्त्री० [सं० ष० त०] जायफल, लौंग और इलायची अथवा जायफल, सुपारी तथा लौंग इन तीनों का समूह। (वैद्यक)
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सुगंध-पत्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. शतमूली। सतावर। २. अपराजिता। ३. घमासा। ४. कंठ जामुन। ५. बनभौंटा। ६. जीरा। ७. बरियारा। बबला। ८. विधारा। ९. रुद्रजटा।
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सुगंध-बाला  : स्त्री० [सं० सुगंध+हि० बाला] क्षुप जाति की एक बनौषधि।
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सुगंध-भूतृण  : पुं० [सं०] १. रूसा घास। अगिया घास। २. दे० ‘भूतृण’।
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सुगंध-मुख्या  : स्त्री० [सं० ब० स०] कस्तूरी। मृगनाभि।
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सुगंध-मूल  : पुं० [सं० ब० स०] हरफा-रेवड़ी। लवलीफल।
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सुगंध-मूला  : पुं० [सं० सुगंध-मूल-टाप्] १. स्थल कमल। स्थल पद्य। २. रासना। ३. आँवला। ४. कपूरकचरी। ५. हरफा-रेवड़ी।
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सुगंध-मूली  : स्त्री० [सं० सुगंधमूल+ङीष्] गंध पलाशी। कपूरकचरी।
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सुगंध-मूषिका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] छछूँदर।
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सुगंध-रौहिष  : पुं० [सं० मध्य० स०] रोहिष घास। अगिया घास।
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सुगंध-वल्कल  : पुं० [सं० ब० स०] दारचीनी।
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सुगंध-शालि  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह चावल जिसमें से मीठी भीनी गंध निकलती है। बासमती चावल।
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सुगंध-षट्क  : पुं० [सं० ष० त०] जायफल, कंकोल (शीतल चीनी) लौंग, इलायची, कपूर और सुपारी का वर्ग या समूह। (वैद्यक)।
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सुगंध-सार  : पुं० [सं० ब० स०] सागोन। शाल वृक्ष।
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सुगंधक  : पुं० [सं० ब० स०] १. द्रोण पुष्पी। गूमा। २. साठी धान। ३. धरणी कंद। कंदालु। ४. लाल तुलसी। ५. गंध-तृण। ६. नारंगी। ७. ककोड़ा। ८. गंधक।
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सुगंधन  : पुं० [सं० सु√गन्ध् (गत्यादि)+ल्युट-अन] जीरा।
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सुगंधनाकुली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०]=गंधनाकुली।
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सुगंधपत्री  : स्त्री० [सं० सुगंधपत्र+ङीष्] १. जावित्री। २. फूल प्रियंगू। ३. रुद्र-जटा। ४. कंकोल।
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सुगंधरा  : पुं० [सं० सुगंध+हि० रा] एक प्रकार का क्षुप और उसका फूल।
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सुगंधा  : स्त्री० [सं०] १. रासन। रासना। २. काला जीरा। ३. कपूर कचरी। ४. रुद्रजटा। ५. सौंफ। ६. बाँझ। ककोड़ा। ७. नवमल्लिका। नेवारी। ८. पीली जूही। ९. नकुल-कंद। नाकुली। १॰. असबरग। ११. सलई। १२. माधवी लता। १३. अनंतमूल। १४. बिजौरा नींबू। १५. तुलसी। १६. निर्गुंडी। १७. एलुआ। १८. बकुची। सोमराजी। १९. एक देवी जिनका स्थान माधव वन में कहा गया है और जिनकी गणना बाइस पीठ-स्थानों में होती है।
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सुगंधाढ्य  : वि० [सं० तृ० त०] सुगंधित। खुशबूदार।
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सुगंधाढ्या  : वि० [सं०] १. त्रिपुरमाली। त्रिपुर मल्लिका। २. बासमती चावल।
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सुगंधि  : वि० [सं० तृ० त०] सुगंधित। खुशबू। वास। पुं० १. परमात्मा। २. आम। ३. कसेरु। ४. पिपरा मूल। ५. धनियाँ। ६. अगिया घास। ७. मोथा। ८. एलुआ। ९. वन तुलसी। १॰. गोरख ककड़ी। ११. चन्दन। १२. तुंबरू। १३. अनंतमूल। वि०=सुगंधित।
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सुगंधि-कुसुम  : पुं० [सं० ब० स०] १. पीला कनेर। २. असबरग।
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सुगंधि-त्रिफला  : स्त्री० [सं०]=सुगंध त्रिफला।
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सुगंधि-पुष्प  : पुं० [सं०] धारा कदंब।
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सुगंधि-फल  : पुं० [सं०] शीतल चीनी। कबाब चीनी।
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सुगंधि-माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] पृथिवी।
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सुगंधि-मूल  : पुं० [सं०] खस। उशीर।
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सुगंधि-मूषिका  : स्त्री० [सं०] छछूँदर।
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सुगंधिक  : पुं० [सं० सुगंधि+कन्] १. गाँडर की जड़। उशीर। खस। २. बासमती चावल। ३. कुमुदिनी। कूईं। ४. पुष्करमूल। ५. काला जीरा। ६. मोथा। ७. एलुआ। ८. शिलारस। ९. कपित्थ। कैथा। १॰. पुन्नाग। ११. गंधक।
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सुगंधिका  : स्त्री० [सं०] १. कस्तूरी। मृगनाभि। २. केवड़ा। ३. सफेद अनंतमूल। ५. काली निर्गुडी।
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सुगंधित  : भू० कृ० [सं०] १. सुगंध से युक्त किया हुआ। २. (पदार्थ) जिसमें से सुगंधि निकल रही हो।
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सुगंधिता  : स्त्री० [सं०] =सुगंधि।
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सुगंधिनी  : स्त्री० [सं०] १. आराम शीतल नाम का शाक। सुनंदिनी। २. पीली केतकी।
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सुगंधी (धिन्)  : वि० [सं० सुगंध+इनि] जिसमें अच्छी गंध हो। सुवासित। सुगंधयुक्त। खुशबूदार। पुं० एलुआ। स्त्री०=सुगंधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुगन  : पुं० [देश] छकड़े में गाड़ीवान के बैठने की जगह के सामने आड़ी लगी हुई दो लकड़ियाँ जिनकी सहायता से बैल खोल लेने पर भी गाड़ी खड़ी रहती है। पुं०=सगुन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुगना  : पुं० [सं० शुक, हि० सुग्गा] सुग्गा। तोता। पुं०=सहिंजन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुगभस्ति  : वि० [सं० ब० स०] अत्यंत दीप्तिमान। बहुत चमकीला।
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सुगम  : वि० [सं० स√गम् (जाना)+अच्] [भाव० सुगमता] १. (स्थान) जहाँ सरलता से पहुँचा जा सके। २. (मार्ग) जिस पर आसानी से चला और आगे बढ़ा जा सके। ३. (कार्य) जिसका संपादन या साधन सुखपूर्वक किया जा सके।
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सुगमता  : स्त्री० [सं० सुगम+तल्-टाप्] १. सुगम होने की अवस्था या भाव। सरलता। आसानी। जैसे—इससे आपके कार्य में बहुत सुगमता हो जायगी। २. वह गुण या तत्व जिससे कोई कार्य सरलता से और जल्दी से संपन्न हो जाता है।
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सुगम्य  : वि० [सं० सु√गम (जाना ( यत्] स्थान जिसमें सहज में प्रवेश हो सके। सरलता से जाने योग्य।
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सुगर  : पुं० [सं० ब० स०] शिगरफ। हिगुल। वि०=सुघड़। वि०=सुगम।
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सुगरूप  : पुं० [देश] एक प्रकार की सवारी जो प्रायः रेतीले देशों में काम आती है।
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सुगल  : पुं०=सुग्रीव।
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सुगह  : वि० [सं०सु+गाह ] जो सहज में पकड़ा या ग्रहण किया जा सके।
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सुगहना  : स्त्री० [सं०] प्राचीन काल में यज्ञ-भूमि के चारों ओर बनाया जानेवाला घेरा जिसके परिणाम स्वरूप अस्पृश्यों का प्रवेश रुक जाता था।
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सुगाध  : वि० [सं० ब० स०] (नदी) जिसमें सुख से स्नान किया जा सके, अथवा जिसे सहज में पार किया जा सके।
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सुगाना  : अ० [सं० शोक] १. दुःखी होना। २. दुःखी होकर नाराज होना। बिगड़ना। स०=दुःखी करना। अ० [?] शक या सन्देह करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुगाल  : पुं०=सुकाल (डि०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुगाली  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. सुन्दर शरीरवाली स्त्री। २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सुगीत  : पुं० [प्रा० स०]=सुगीतिका।
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सुगीतिका  : स्त्री० [सं० ब० स०] आर्या छंद का एक भेद।
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सुगुंडा  : स्त्री०[सुगुण्डा, ब० स०] गुंडासिनी तृण। गुंडाला।
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सुगुरा  : वि० [सं० सुगुरु] १. जिसने अच्छे गुरु से मंत्र लिया हो। जिसने अच्छे गुरु से शिक्षा पाई हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुगृह  : पुं० [सं० प्रा० स०] सुन्दर घर।
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सुगृही  : वि० [सं० सुगृह+इनि] १ . जिसके पास सुन्दर घर हो। २. जिसकी पत्नी सुन्दर और सुयोग्य हो।
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सुगेष्णा  : वि० स्त्री० [सं० ब० स०] सुन्दर रूप से गानेवाली स्त्री० किन्नरी।
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सुगैया  : स्त्री० [हि० सुग्गा] अँगिया। चोली।
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सुगौतम  : पुं० [सं० प्रा० स०] गौतम बुद्ध।
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सुग्गा  : पुं० [सं० शुक्र] [स्त्री० सुग्गी] तोता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुग्गा-पंखी  : पुं० [हि० सुग्गा+पंख] एक प्रकार का अगहनी धान।
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सुग्गा-साँप  : पुं० [हि० सुग्गा+साँप] एक प्रकार का साँप।
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सुग्गी  : स्त्री० [हि० सुग्गा का स्त्री] मादा तोता। तोती।
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सुग्द  : पुं० [?] वंक्षु और सीर नदियों के बीच के प्रदेश का पुराना नाम।
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सुग्दी  : वि० [सुग्द प्रदेश से] सुग्द प्रदेश का। सुग्द प्रदेश का निवासी। स्त्री० सुग्द प्रदेश की बोली।
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सुग्रंथि  : पुं० [सं० ब० स०] १ . चोरक नामक गंध द्रव्य २. पिपरामूल।
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सुग्रह  : पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार शुभ या अच्छे ग्रह। जैसे—वृहस्पति शुक्र आदि।
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सुग्रीव  : वि० [सं० ब० स०] अच्छी या सुन्दर ग्रीवा। (गरदन) वाला। पुं० १. विष्णु या कृष्ण के चार घोड़ों में से एक। २ .वानरों का राजा जो बलि का भाई और श्रीरामचन्द्र का सखा तथा सहायक था। ३ .वर्तमान अवसर्पिणी के नवें अर्हत के पिता का नाम। ४. इन्द्र। ५ .शिव। ६ . एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ७ .शंख। ८. राज-हंस। ९ .एक प्राचीन पर्वत। १॰.वास्तु-कला में एक प्रकार का मंडप। ११. नायक।
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सुग्रीवी  : स्त्री० [सं० सुग्रीव-ङीष्] दक्ष की एक कन्या तथा कश्यप की पत्नी जो घोड़ों, ऊँटों तथा गधों की जननी कही गई है।
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सुग्रीवेश  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र।
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सुघई  : स्त्री०=सुघड़ई (सुघड़ापन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुघट  : वि० [सं०] १ जिसकी सुन्दर गछन या बनावट हो। सुड़ौल। २ जो अच्छी तरह और सहज में बन सकता हो।.
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सुघटित  : वि० [सं० सुघट+इतच्] १. गठन या बनावट के विटचार से जो सुडौल फलतः सुन्दर हो। २. गठे हुए शरीरवाला। ३. संघटित।
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सुघट्य  : वि० [सं०] जिसे मनमाने ढंग से दबा या मोड़कर सभी प्रकार या रूपों में लाया जा सके (प्लैस्टिक) जैसे—सुघट्य मिट्टी। पुं० दे० ‘सुनम्य्’।
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सुघट्यता  : स्त्री० [सं० सुघट्य+तल-टाप्] सुघट्य होने की अवस्था, गुण या भाव। (प्लैस्टिसिटी)।
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सुघड़  : वि० [सं० सुघट] [भाव० सुघड़ई, सुघड़पन] १. अच्छी तरह गढ़ा हुआ, फलतः सुडौल और सुन्दर। २. जो हर काम अच्छी तरह या ठीक ढंग से कर सकता हो। कुशल। निपुण। होशियार।
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सुघड़-भलाई  : स्त्री० [हि०] १. कौशल या चतुराई से भरी हुई चापलूसी की बातें। २. मीठी पर स्वार्थपूर्ण बातें करने का गुण या योग्यता।
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सुघड़ई  : स्त्री०१.=सुघड़पन। २. =सुघरई (रागिनी)।
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सुघड़ता  : स्त्री०=सुघड़पन।
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सुघड़पन  : पुं० [हि० सुघड़+पन (प्रत्यय)] सुघड़ होने की अवस्था गुण या भाव। सुघड़ई।
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सुघड़ाई  : स्त्री०=सुघड़ई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुघड़ापा  : पुं० [हि० सुघड़+आपा (प्रत्यय)] सुघड़पन।
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सुघड़ी  : स्त्री० [हि० सु+घड़ी] अच्छी शुभ घड़ी।
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सुँघनी  : स्त्री० [हिं० सूँघना] तम्बाकू को पीसकर तथा छानकर तैयार किया हुआ चूर्ण जिसे लोग सूँघते हैं। तथा दाँतों आदि पर भी मलते हैं।
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सुघर  : वि०=सुघड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुघरई-कान्हड़ा  : पुं० [हि० सुघरई+कान्हड़ा] संपूर्ण जाति का एक संकर राग।
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सुघरई-टोड़ी  : स्त्री० [हि० सुघरई+टोड़ी] संपूर्ण जाति की एक संकर रागिनी।
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सुघरता  : स्त्री०=सुघड़ता (सुधड़पन)।
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सुघरी  : वि० हि० सुघर (सुघड़) का स्त्री। स्त्री० [हि० सु+घड़ी] अच्छी घड़ी। शुभ काल या समय। सुघड़ी।
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सुँघाना  : स० [हिं० सूँघना का प्रे०] किसी को कुछ सूँघने मे प्रवृत्त करना। मुहा०—(किसी को) कुछ सुँघाना=ऐसी चीज सुँघाना जिससे कोई बेहोश हो जाय।
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सुघोष  : वि० [सं०] जो उच्च या मधुर घोष करता हो। सुन्दर घोष या स्वरवाला। पुं० चौथे पांडव नकुल के शंख का नाम।
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सुघोषक  : पुं० [सं० ब० स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा।
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सुच  : वि०=शुचि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुचकना  : अ०=सकुचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुचकना  : अ० =सकुचना। उदाहर—वो जब घर से निकले सुचकते-सुकचते। कुछ कदम भी उठाये झिझकते झिझकते।—नजीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुचक्षु स्)  : वि० [सं० ब० स०] १. सुन्दर चक्षुओं या नेत्रों वाला। पुं० १. शिव। २. पंडित। विद्वान। ३. गूलर। स्त्री० एक प्राचीन नदी।
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सुचंग  : वि० [हि० सु+चंगा] १. अच्छा। बढ़िया। २. सुन्दर। पुं० घोड़ा। (डि०)।
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सुचंद  : वि०=सुचंग। पुं० [हि० सु+चाँद] पूर्णिमा का चंद्रमा। उदाहरण—गुन ज्ञान मान सुचंद है।—पद्याकर।
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सुचंदन  : पुं० [सं० ब० स० प्रा० स०] पतंग या बक्कम नाम की लकड़ी। जिसका व्यवहार औषधि और रंग आदि में होता है। रक्त सार सुरंग।
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सुचंद्र  : पुं० [सं० ब० स] १. एक गंधर्व का नाम। २. सिंहिका के पुत्र का नाम।
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सुचंद्रा  : स्त्री० [सं० सुचद्र-टाप्] एक प्रकार की समाधि। (बौद्ध)।
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सुचरित  : वि० [सं०] सुचरित्र।
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सुचरिता  : स्त्री० [सं० सुचरित-टाप्] १. अच्छे आचरणवाली स्त्री। २. पतिव्रता स्त्री।
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सुचरित्र  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० सुचरत्रिता] जिसका चरित्र शुद्ध हो। उत्तम आचरणवाला। सच्चरित्र।
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सुचरित्रा  : वि० [सं०] अच्छे चरित्र या शुद्ध आचरण वाली (स्त्री)। स्त्री० सुचरिता।
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सुचा  : स्त्री० [सं० सूचना] ज्ञान। चेतना। सुध। वि०=शुचि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुचाना  : स० [हि० सोचना का प्रे०] १ .किसी को कुछ सोचने या समझने में प्रवृत्त करना। २. किसी का किसी बात की ओर ध्यान आकृष्ट करना। सुझाना।
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सुचार  : स्त्री० [सं० सु+हि० चाल] सुचाल। अच्छी चाल। वि० सदाचारी और सच्चरित्र। वि० [सं० सुचारु] मनोहर। सुन्दर।
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सुचारु  : वि० [सं० सु+चारु] अत्यन्त सुन्दर। अतिशय। मनोहर। बहुत खूबसूरत।
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सुचाल  : स्त्री० [सं० सु+हि० चाल] उत्तम आचरण। अच्छी चाल। सदाचार।
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सुचालक  : वि० [सं०] वह वस्तु जिसमें विद्युत, ताप आदि का परिचालन सुगमता से हो सके। सुसंवाहक ।(गुड कंडक्टर)
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सुचाली  : वि० [सं० सु+हि० चाल+ई (प्रत्यय)] १. जिसकी चाल या गति अच्छी हो। २. अच्छे आचरणवाला। सच्चरित्र। स्त्री० पृथ्वी। (डि०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुचाव  : पुं० [हि० सुचाना] १ .सुचाने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘सुझाव’।
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सुचि  : स्त्री० [सं० सूची] सुई। वि०=शुचि।
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सुचित  : वि० [सं० सुचित] १. सुन्दर चित्तवाला। अर्थात् जिसके चित्त में विकार न हो। २. जिसे किसी प्रकार की चिंताग्रस्त न किये हुए हो। ३ .जो सब प्रकार का कामों, झगड़ों आदि से नियुक्त हो चुका हो। वि० शुचि (पवित्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुचित  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० सुचित्तता] सुचित (दे०)।
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सुचितई  : स्त्री० [हि० सुचत+ई (प्रत्यय)] १. सुचित होने् की अवस्था या भाव। निश्चितता। बे-फिक्री। २. मन की एकाग्रता और शान्ति। ३. अवकाश। फुरसत।
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सुचिता  : स्त्री०=शुचिता (पवित्रता)।
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सुचिती  : वि०=सुचित।
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सुचित्र  : वि० [सं०] अनेक प्रकारों या रंगों का। पुं० सुन्दर चित्र।
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सुचित्रक  : पुं० [सं० सुचित्र+कप्] १. मधुरंग नामक पक्षी। मुरगाबी। २. चितला साँप।
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सुचित्रा  : स्त्री० [सं० सुचित्र-टाप्, ब० स०] चिर्भटा या फुट नामक फल।
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सुचिमंत  : वि० [सं० शुचि+मत्] शुद्ध आचरणवाला। सदाचारी।
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सुचिर  : वि० [सं० प्र० स०] १ .बहुत दिनों तक बना रहनेवाला। चिर-स्थायी। २. बहुत दिनों का। पुराना। प्राचीन। पुं० बहुत अधिक समय। दीर्घ काल।
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सुचिरायु (स्)  : वि० [सं० ब० स०] दीर्घ या लंबी आयुवाला। पुं० देवता।
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सुची  : वि०=शुचि (पवित्र)। स्त्री०=शची (इन्द्राणी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुचीत  : वि० [सं० सुचित] १ .उत्तम। भला। शुभ। २. मनोहर। सुन्दर। ३. दे० ‘सुचित’।
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सुचुटी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १.चिमटा। २. सँड़सी।
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सुचेत (स्)  : वि० [सं०] सचेत। सावधान। वि०=सुचित्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुचेतन  : पुं० [सं०] विष्णु। (डिं०) वि=सुचेता।
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सुचेता  : वि०=सुचेत।
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सुचेलक  : पुं० [सं० सुचेल+कन्] बढ़िया और बहुमूल्य कपड़ा। पट। वि० जो अच्छे कपड़े पहने हो।
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सुच्छ  : वि०=स्वच्छ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुच्छत्र  : पुं० [सं० ब० स०] शिव का एक नाम।
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सुच्छत्री  : स्त्री० [सं०] पंजाब की सतलज नदी।
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सुच्छंद  : वि०=स्वच्छंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुच्छद  : वि० [सं०] सुन्दर पत्तोंवाला।
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सुच्छम  : पुं० [?] घोड़ा। (डि०)। वि०=सूक्ष्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुच्छाय  : वि० [सं० ब० स०] १. (वृक्ष) जिसकी छाया अच्छी और यथेष्ट हो। २. (रत्न) जो यथेष्ट चमकीला हो।
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सुजंघ  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर जाँघोंवाला।
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सुजड़  : पुं० [?] तलवार (डि०)।
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सुजड़ी  : स्त्री० [?] कटारी। (डि०)
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सुजन  : वि० [कर्म० स०] [भाव० सुजना] १ .नेक। भला। २. कृपालु। दयालु। पुं० १. भला आदमी। नेक आदमी। २. दूसरों की सहायता करनेवाला। आदमी। पुं०=स्वजन।
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सुजन-रंजनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सुजनता  : स्त्री० [सं० सुजन+तल्-टाप्] १. सुजन अर्थात् भले आदमी होने की अवस्था या भाव। भलमनसत। २. कृपालुता।
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सुजनी  : स्त्री० [फा० सोजनी] एक तरह की बड़ी और मोटी बिछाने की चादर।
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सुजन्मा (न्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका उत्तम रूप से जन्म हुआ हो। उत्तम रूप से जन्मा हुआ। सुजातक। २. जो विवाहित पुरुष और स्त्री से उत्पन्न हुआ हो फलतः जो जारज न हो। ३. अच्छे कुल में उत्पन्न।
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सुजय  : वि० [सं० सु√जी (जीतना)+अच्] जो सहज में जीता जा सकता हो।
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सुजल  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सुजला] जहाँ जल यथेष्ट हो और सहज में मिलता हो। पुं० कमल। पद्य।
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सुजल्प  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. उत्तम या सुन्दर कथन। २. सुन्दर भाषण।
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सुजस  : पुं०=सुयश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुजाक  : पुं०=सूजाक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुजागर  : वि० [सं० सु=भली-भांति+जागर=प्रकाशित होना] प्रकाशमान। शोभन और सुन्दर।
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सुजात  : वि० [सं० कर्म० स०] १. जो उत्तम कुल में जन्मा हो। २. जो औरस संतान हो, जलज न हो। ३. सुन्दर। पुं० साँड़ (बौद्ध)।
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सुजातक  : पुं० [सं० सुजात+कन्] सौंदर्य। सुन्दरता।
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सुजाता  : स्त्री० [सं०] १. गोपी चन्दन। २. मगध की एक बौद्धकालीन ग्रामीण कन्या जिसने गौतम बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त करने के उपरांत अपने यहाँ निमंत्रित करके भोजन कराया था।
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सुजाति  : वि० [सं० प्रा० स०] अच्छी जाति का। स्त्री० अच्छी और उत्तम जाति।
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सुजातिया  : वि० [सं० सु+जाति+इया (प्रत्य)] उत्तम जाति का। अच्छे कुल का। वि० [सं० स्व+ जाति+इया (प्रत्य)] किसी व्यक्ति की दृष्टि से उसकी जाति का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुजान  : वि० [सं० सज्ञान] [भाव० सुजानता] १. समझदार। चतुर। सयाना। २. कुशल। निपुण। प्रवीण। ३. सुविज्ञ। ४.सज्जन। पुं० १. पति या प्रेमी। २. परमात्मा।
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सुजानता  : स्त्री० [हि० सुजान+ता (प्रत्य)] सुजान होने की अवस्था धर्म या भाव। सुजानपन।
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सुजानी  : वि०=सुजान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुजाव  : पुं० [सं० सुजात] पुत्र (डि०)।
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सुजावा  : पुं० [देश] बैलगाड़ी में की वह लकड़ी जो पैजनी और फड़ में जड़ी रहती है।
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सुजिह्न  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी जिह्वा या जीभ सुन्दर हो। २. मीठा बोलनेवाला। मधुर-भाषी।
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सुजीता  : स्त्री० [सं० ब० स०] गोपी चंदन।
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सुजीर्ण  : वि० [सं० प्रा० स०] १ . (भोजन) अच्छी तरह पचा हुआ। (खाना) जो खूब पच गया हो। २. (पदार्थ) जो बहुत पुराना और जर्जर हो गया हो।
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सुजेय  : वि० [सं०√जी (जीतना)+यत्] जो सहज में जीता जा सकता हो।
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सुजोग  : पुं०=सुयोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुजोधन  : पुं०=सुयोधन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुजोर  : वि० [सं० सु (या फा० शह)+फा० जोर] [भाव० सुजोरी] १. जोरदार। प्रबल। २. दृढ़। पक्का। मजबूत।
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सुज्ञ  : वि० [सं० सु√ज्ञा+क] सुविज्ञ।
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सुझाखा  : वि० [हि० सूझना] [स्त्री० सुझाखी] १. जिसे दिखाई देता हो। ‘अंधा’ का विपर्याय। २. चतुर। होशियार। (पश्चिम)।
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सुझाना  : अ० [हि० सूझना का प्रे०] १. किसी के ध्यान में कोई नई बात लाना। नई तरकीब बताना। २. सुझाव के रूप में किसी के सामने कोई बात रखना। किसी को उसे सुझाये हुए ढंग से काम करने के लिए प्रवृत्त करना।
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सुझाव  : पुं० [हि० सुझाना] १. सुझाने की क्रिया या भाव। २. वह नयी बात जो किसी को सुझाई गई हो या जिसकी ओर ध्यान आकृष्ट किया गया हो। (सजेशन)।
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सुटंक  : वि० [सं०] कठोर, कर्कश या जोर का (शब्द)।
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सुटकुन  : स्त्री० [हि० सुटका का अल्पा] पतली छोटी छड़ी। स्त्री०=सिटकिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुटुकना  : स० [हि० सुटका+ना (प्रत्यय)] सुटका मारना। चाबुक लगना। अ० १. =सटकना। २. =सुड़कना। ३. =सिकुड़ना।
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सुठ  : वि०=सुठि (सुन्दर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुठहर  : पुं० [सं० सु+हि० ठहर=जगह] अच्छा ठिकाना। ठहरने का अच्छा स्थान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुठार  : वि०=सुढार (सुडौल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुंठि  : स्त्री०=सोंठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुठि  : वि० [सं० सुष्ठु] १. सुन्दर। २. बढ़िया अच्छा। ३. बहुत अधिक। ४. पूरा। समूचा। अव्य० निरा। बिलकुल।
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सुठोना  : वि०=सुठि (सुन्दर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुठौन  : वि० दे० सुठि। स्त्री० [हि० सु+ठवन] सुन्दर ठवन या बैठने आदि का ढंग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुंड  : पुं० १.=शुंड। २. सूँड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुंड-दंड  : पुं०=शुंडादंड।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुंड-भुसुंड  : पुं० [सं० शुंड भुशुंडि] जिसका अस्त्र सूँड़ हो। हाथी। वि०=संड-भुसंड
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सुड़-सुड़  : स्त्री० [हि० सुड़सुड़ाना] १. सुड़सुड़ाने की क्रिया या भाव। २. सुड़सुडाने पर उत्पन्न होनेवाला शब्द।
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सुड़क  : स्त्री० [हि० सुड़कन] १. सुड़कने की क्रिया या भाव। २. कोई चीज सुकड़ते समय होनेवाला शब्द।
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सुड़कना  : स० [अनु०] किसी तरल पदार्थ को नाक की राह, साँस के साथ भीतर खींचना। नास लेना।
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सुंडस  : पुं० [?] लद्दू गधे की पीठ पर रखने की गद्दी।
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सुड़सुड़ाना  : स० [अनु] कोई कार्य करते समय सुड़सुड़ शब्द उत्पन्न करना। जैसे—नाक सुड़सुड़ाना। हुक्का सुड़सुडाना। अ० सुड़सुड़ शब्द करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुंड़ा  : पुं० [सं० शुंडि] [स्त्री० अल्पा० सुंडी] हरे रंग का एक प्रकार का कीड़ा जो प्रायः तरकारियों, फलियों आदि में लगकर उन्हे कुतरता है। पुं० [?] लद्दू गधे की पीठ पर रखने की गद्दी या गद्दा। पुं०=सूंड़।
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सुंडाल  : पुं० [सं० सुंडा+लच्] हाथी।
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सुंडाली  : वि० [सं० शुंडाल=सूँड़वाला] सूँड़वाला। स्त्री० एक प्रकार की मछली।
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सुंडी-बेंत  : पुं० [सुंडी ?+हिं० बेंत] एक प्रकार का बेंत जो बंगाल, असम और खसिया की पहाड़ियों पर होता है।
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सुडीनक  : पुं० [सं० प्रा० स०] पक्षियों की एक विशेष प्रकार की उड़ान।
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सुडुकना  : स०=सुड़कना।
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सुडौल  : वि० [सं० सु+हि० डौल] [भाव० सुडौलपन] १. सुन्दर डौल या आकारवाला। २. जिसके अंगों में आनुपातिक सामजस्य हो।
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सुड्ढा  : पुं० [देश] [स्त्री० अल्पा० सुढ्डी] धोती की वह लपेट जिसमें रुपया—पैसा रखते हैं। अंटी। आँट।
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सुढंग  : वि० [सं० सु+हि० ढंग] जिसका ढंग,प्रकार या रीति सुन्दर हो। पुं० अच्छा ढंग, प्रकार या रीति।
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सुढर  : वि० [सं० सु+हि० ढलना] प्रसन्न और दयालु होकर सहज में अनुकम्मा करने वाला। वि०=सुघड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुढार  : वि०=सुडौल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुण-घड़िया  : पुं० [हि० सुण (सोना)+घड़िया (गढ़नेवाला)] सुनार। (डि०)।
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सुणना  : स०१.=सुनना। २. =सुनाना।
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सुत  : पुं० [सं०] [स्त्री० सुता] १. माता या पिता अथवा दोनों की दृष्टि से वह बालक जो उनके रज और वीर्य से उत्पन्न हुआ हो। पुत्र। आत्मज। बेटा। २. जन्म-कुंडली में लग्न से पाँचवाँ घर जहाँ संतान के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। वि० १. उत्पन्न। जात। २. पार्थिव। पुं० बीस की संख्या।
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सुत-जीवक  : पुं० [सं० सुत√जीव (जीवित करना)+ण्वुल-अक] पुत्रजीव (वृक्ष)।
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सुत-पेय  : पुं० [सं०] यज्ञ में सोम पीने की क्रिया। सोमपान।
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सुत-याग  : पुं० [सं०] पुत्र की कामना से किया जानेवाला यज्ञ। पुत्रेष्टयज्ञ।
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सुत-वस्करा  : स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसने सात पुत्रों को जन्म दिया हो।
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सुत-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] जन्म-कुंडली में लग्न से पाँचवाँ स्थान जहाँ से सन्तान सम्बन्धी विचार होता है।
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सुतकरी  : स्त्री० [हि० सुत+करी] स्त्रियों के पहनने की पुरानी चाल की जूती।
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सुतंत, सुतंतर  : वि०=स्वतंत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतंतु  : पुं० [सं० ब० स०] १. शिव। २. विष्णु।
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सुतंत्र  : वि०=स्वतन्त्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतंत्रि  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह जो तार के बाजे (वीणा आदि) बजाने में प्रवीण हो। वह जो तंत्र-वाद्य अच्छी तरह बजाता हो। २. वह जो कोई बाजा अच्छी तरह बजाता हो। वि० १. बढ़िया तारोंवाला। (बाजा) २. फलतः मधुर स्वरवाला।
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सुतत्व  : पुं० [सं० सुत+त्व] सुत होने की अवस्था,धर्म या भाव।
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सुतदा  : वि० स्त्री० [सं० सुत√दा (देना)+क-टाप्] सुत या पुत्र देनेवाली। स्त्री० पुत्रदा (लता)।
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सुतधार  : पुं०=सूत्रधार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतनु  : वि० [सं० सु+तनु] १. सुन्दर शरीरवाला। खूबसूरत। २. सुकुमार शरीरवाला। नाजुक और दुबला पतला। स्त्री० १. सुन्दरी स्त्री। २. अक्रूर की पत्नी का नाम। ३. उग्रसेन की एक कन्या।
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सुतनुता  : स्त्री० [सं० सुतनु+तल्-टाप्] सुतनु होने की अवस्था, गुण या भाव। सुन्दरता।
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सुतप  : वि० [सं० सुत√पा (पीना)+क, ब० स०] सोमपान करनेवाला।
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सुतपा (पस्)  : वि० [सं० ब० स०] बहुत अधिक तपस्या करनेवाला। पुं० १ .सूर्य। २. विष्णु।
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सुतर  : वि० [सं० ब० स०] जलाशय जो सुख या आराम से तैरकर या नाव आदि से पार किया जा सके। पुं० शुतुर (ऊँट)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतर-नाल  : स्त्री०=शतुरनाल।
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सुतरा  : अव्य० [सं० सुतराम] १ .अतः। इसलिए। २. और भी। अपितु। कि० बहुना। ३.विवश होकर। लाचारी की हालत में। ४. बहुत अधिक। अत्यन्त। ५. अवश्य। जरूर।
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सुतरा  : पुं० [हि० शुतुर] सूत की तरह का वह पतला चमड़ा जो प्रायः उँगलियों में नाखन की जड़ के पास उचड़कर निकलते लगता है।
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सुतरी  : पुं० [फा० शुतुर] ऊँट के से रंगवाला बैल। स्त्री० [?] १.करघे में की वह लकड़ी जो पाई में साँथी अलग करने के लिए साँथी के दोनों तरफ लगी रहती है। २. एक प्रकार की घास जिसे हर-बाल भी कहते हैं। स्त्री० १.=सुतारी। २. =सुतली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतर्द्दन  : पुं० [सं० ब० स०] कोकिल पक्षी। कोयल।
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सुतल  : पुं० [सं० ब० स०] पुराणानुसार सात पाताल लोकों में से एक जो किसी के मत से दूसरा और किसी के मत से छठा लोक है।
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सुतली  : स्त्री० [हि० सूत+ली (प्रत्य)] रूई,सन या इसी प्रकार के और रेशों के सूतों या डोरों को एक में बटकर बनाया हुआ लंबा और कुछ मोटा खंड जिसका उपयोग चीजें बाँधने,कूएँ से पानी खींचने पलंग बुनने आदि कामों में होता है। डोरी। रस्सी।
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सुतवाना  : स०=सुलवाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतवान् (वत्)  : वि० [सं० सुत+मतुप-म=व-नम्-दीर्घ] पुत्रोंवाला।
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सुतहर  : पुं०=सुतार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतहा  : वि० पुं० [हि० सूत+हा (प्रत्यय)] [स्त्री० सुतही] १. सूत-संबंधी। सूत का २. सूत का बना हुआ। सूती। पुं० सूत का व्यापारी।
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सुतहार  : पुं०=सुतार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतही  : स्त्री०=सुतुही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतहौनिया  : पुं०=सुथौनिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुता  : स्त्री० [सं०] १. पुत्री। बेटी। २. सखी। सहेली (डि०)।
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सुता-पति  : पुं० [सं० ष० त०] किसी की दृष्टि से उसकी कन्या का पति। दामाद। जामाता।
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सुतात्मज  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० सुतात्मजा] १. लड़के का लड़का। पोता। २. लड़की का लड़का। नाती।
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सुतान  : वि० [सं० ब० स०] अच्छे स्वरवाला। सु-स्वर।
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सुताना  : स०=सुलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतार  : वि० [सं०] १. चमकीला। २. जिसकी आँखों की पुतलियाँ सुन्दर हों। पुं० १. एक प्रकार का सुगन्धित द्रव्य। २. गुरु से पढ़े हुए अध्यात्म शास्त्र का ठीक और पूरा ज्ञान जिसकी गिनती सांख्य-दर्शन में सिद्धियों में की गई है। पुं० [सं० सूत्रकार] [भाव० सुतारी] १ .बढ़ई। २. कारीगर। पुं० [?] १. सुख-सुभीता। २. हुद-हुद। (पक्षी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतारका  : स्त्री० [सं०] चौबीस शासन देवियों में से एक। (बौद्ध)।
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सुतारा  : स्त्री० [सं०] १.सांख्य के अनुसार (क) नौ प्रकार की तुष्टियों में से एक और (ख) आठ प्रकार की सिद्धियों में से एक।
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सुतारी  : स्त्री० [हि० सुतार+ई (प्रत्य)] १. सुतार या बढ़ई का काम। २. वह सूआ जिससे मोची चमड़ा सीते हैं। ३.पुरानी चाल का एक प्रकार का हथियार। पुं० कारीगर। शिल्पी।
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सुतार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं०] पुत्र की कामना करनेवाला। जिसे पुत्र की अभिलाषा हो।
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सुताल  : पुं० [सं०] ताल का एक भेद (संगीत)।
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सुताली  : स्त्री०=सुतारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतावना  : स०=सुलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतासुत  : पुं० [सं० ष० त०] पुत्री का पुत्र। दौहित्र। नाती।
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सुतिक्त  : पुं० [सं०] पित्त-पापड़ा। वि० बहुत अधिक तिक्त या तीता।
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सुतिक्तक  : पुं० [सं०] १. चिरायता। २. पारिभद्र। परहद। ३. पित्त-पापड़ा।
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सुतिन  : स्त्री०=सुतनु (सुन्दर स्त्री)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतिनी  : स्त्री० [सं०] पुत्रवती स्त्री जिसे पुत्र हो।
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सुतिया  : स्त्री० [देश] गले में पहनने का हँसुली नाम का गहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतिहार  : पुं०=सुतार। (बढ़ई)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुती (तिन्)  : पुं० [सं० सुति] [स्त्री० सुतिनी] जिसके आगे बेटा या बेटे हों,फलतः पिता।
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सुतीक्षण  : पुं०=सुतीक्ष्ण।
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सुतीक्षण  : वि० [सं०] १ .बहुत अधिक तीक्ष्ण या तीखा। २. बहुत अधिक तीता। ३. दरद-भरा। पीड़ा-युक्त। पुं० १. अगस्त्य मुनि के भाई जो बनवास के समय श्री रामचन्द्र जी से मिले थे। २. सहिजन।
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सुतीक्ष्णक  : पुं० [सं०] सुतीक्ष्ण।
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सुतीक्ष्णका  : स्त्री० [सं०] सरसों। सर्षप।
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सुतीखन  : पुं०=सुतीक्ष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतीर्थ  : वि० [सं०] (जलाशय) जो सहज में पार किया जा सके। पुं० १.शिव। २. एक पौराणिक पर्वत।
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सुतुंग  : वि० [सं०] बहुत अधिक ऊँचा। पुं० १.नारियल का पेड़। २. ज्योतिष में ग्रहों का उच्चांश।
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सुतुहा  : पुं० [हि० सुतुही] बड़ी सुतुही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुतुही  : स्त्री० [सं० शुक्ति] १. सीपी, जिससे प्रायः छोटे बच्चों को दूध पिलाते हैं। २. बीच में से घिसकर काटी हुई वह सीपी जिससे आम के छिलके छीले जाते हैं, पोस्ते में से अफीम खुरची जाती है, तथा इस प्रकार के कुछ और काम किये जाते हैं।
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सुतून  : पुं० [फा०] खंभा। स्तम्भ।
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सुतेकर  : पुं० [सं०] वह जो यज्ञ करता हो। ऋत्विक्।
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सुतेजन  : पुं० [सं०] १ .धामिन नामक वृक्ष। २. बहुत नुकीला तीर। वि० तेज धारवाला। २. नुकीला
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सुतेजा (जस्)  : पुं० [सं०] १. जैनों के अनुसार गत उत्सर्पिणी के दसवें अर्हत का नाम। २. हुरहुर नाम का पौधा।
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सुतोष  : वि० [सं०] संतुष्ट। पुं० पूर्ण तुष्टि। २. संतोष।
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सुत्ता  : वि० [हि० सोना] [स्त्री० सुत्ती] सोया हुआ। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुत्तिका  : स्त्री० [सं०] १.तोरई। कोशातकी। २. शल्लकी। सलई।
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सुत्तुर  : पुं० [हि० सूत या फा० शुतुर] जुलाहों के करघे का वह बाँस जिसमें कंधी बँधी रहती है। कुलबाँसा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुत्थना  : पुं० [स्त्री० अल्पा० सुत्थनी] कुल खुली मोरीवाला एक तरह का पाजामा। सूथन (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुत्पा  : स्त्री० [सं०] १.सोमरस निकालना या बनाना। २. यज्ञ के लिए सोमरस निकालने का दिन।
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सुत्रामा (मन्)  : पुं० [सं०] १ .वह जो उत्तम रूप से रक्षा करता हो। २. इन्द्र। ३. पुराणानुसार तेरहवें मन्वंतर का एक देवगण।
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सुत्री  : स्त्री० [सं० सु+त्री] १. सुन्दरी स्त्री। १. औरत। स्त्री। (डि०)।
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सुथना  : पुं०=सुत्थना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुथनिया  : स्त्री०=सुथनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुथनी  : स्त्री० [देश] १. स्त्रियों के पहनने का एक प्रकार का ढीला पाजामा। सूथन। २. पिडालू। रतालू।
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सुथरा  : वि० [सं० स्वस्थ] [स्त्री० सुथरी] स्वच्छ। निर्मल। साप। पुं० [सुथेरशाह] सुथेरशाह के पंथ का अनुयायी। साधु।
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सुथराई  : स्त्री० =सुथरापन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुथरापन  : पुं० [हि० सुथरा+पन (प्रत्यय)] सुथरे अर्थात् साफ होने की अवस्था,गुण या भाव।
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सुथरेशाह  : पुं० [भाव० सुथरेशाही] गुरु नानक के एक प्रसिद्ध शिष्य जिन्होंने अपना एक स्वतन्त्र संप्रदाय चलाया था।
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सुथरेशाही  : स्त्री० [सुथरेशाह (महात्मा)] १. सुथरे शाह का चलाया हुआ एक संप्रदाय। पुं० उक्त संप्रदाय का अनुयायी साधु। ऐसे साधु प्रायः सुथरेशाह के बनाये हुए पद गाकर भीख माँगते हैं।
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सुथौनिया  : पुं० [देश०] जहाज के मस्तूल के ऊपरी भाग में वह छेद जिसमें पाल लगाने के समय उसकी रस्सी पहनाई जाती है (लश०)।
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सुंद  : पुं० [सं०√सुद् (नष्ट करना)+अप्] १. एक प्रसिद्ध असुर जो निसुंद का पुत्र और उपसुंद का भाई था। २. विष्णु।
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सुदक्षिणा  : स्त्री० [सं०] १ .राजा दिलीप की पत्नी का नाम। २. पुराणानुसार श्रीकृष्ण की एक पत्नी।
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सुदंड  : पुं० [सं० ब० स०] बेंत। बेल।
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सुदंडिका  : स्त्री० [सं०] १. गोरख इमली। गोरक्षी। २. अजदंडी। ब्रह्म-दंडी।
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सुदंत  : पुं० [सं० ब० स०] सुन्दर दाँतोंवाला। पुं० १.अभिनेता। नट। २. नर्तक। ३. हाथी।
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सुदत  : वि० [सं०] [स्त्री० सुदती] सुन्दर दाँतोंवाला।
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सुदंती  : स्त्री० [सं०] १.एक दिग्गज की हथिनी का नाम। २. मादा हाथी। हथिनी।
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सुदम  : वि०=दमदार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुदमन  : पुं० [सं०] आम का पेड़ और फल।
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सुंदरक  : पुं० [सं० सुन्दर+कन] एक प्रचीन तीर्थ।
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सुंदरता  : स्त्री० [सं० सुन्दर+तल्-टाप] १. भौतिक या शारीरिक रचना, प्रकार या रूप रंग जो नेत्रों को भला प्रतीत होता हो। २. लाक्षणिक अर्थ में कोई सुन्दर वस्तु।
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सुंदरताई  : स्त्री० [सं० सुंदर+हिं० ताई (प्रत्य०)]=सुंदरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुंदरत्व  : पुं० [सं० सुंदर+त्व] सुन्दरता। सौन्दर्य।
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सुंदरम्मन्य  : वि० [सं० सुंदर√मिन (मानना)+खश पक्-मुम] जो अपने आपको बहुत सुंदर मानता या समझता हो। अपने आपको सुन्दर समझनेवाला।
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सुदरसन  : वि० पुं०=सुदर्शन।
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सुंदराई  : स्त्री०=सुन्दरता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुंदरापा  : पुं० [सं० सुन्दर+हिं० आपा (प्रत्य०)] सुंदरता। सौंदर्य।
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सुंदरी  : वि० स्त्री० [सं०] सुंदर रूपवाली। अच्छी सूरत शक्ल वाली। रूपवती। स्त्री० १. सुंदर रूप वाली स्त्री। खूबसूरत औरत। २. त्रिपुर सुंदरी देवी। ३. एक योगिनी का नाम। ४. सवैया नामक छंद का दसवाँ भेद जिसके प्रत्येक चरण में आठ सगण और एक गुरु होता है। ५. एक प्रकार का समवृत्त वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में चार भगण होते हैं। इसका एक प्रसिद्ध नाम मोदक भी है। ६. तेईस अक्षरों की एक प्रकार की वर्ण वृत्ति। ७. द्रुत-विलंबित नामक छंद का दूसरा नाम। ८. हलदी। ९. एक प्रकार की मछली। १॰. एक प्रकार का बड़ा जंगली वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है। और नाव बनाने तथा इमारत के काम आती है। ११. पूतल आदि के वे लंबे टुकड़े जो बीन, सारंगी, सितार आदि के दंड पर बँधे रहते हैं और जो स्वर उतारने-चढाने के लिए ऊपर नीचे खिसकाये जाते हैं। १२. शहनाई की तरह का एक प्रकार का बाजा।
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सुदर्भा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का तृण जिसे ‘इक्षुदर्भा’ भी कहते हैं।
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सुदर्श  : वि० [सं०] सुदर्शन (दे०)।
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सुदर्शक  : पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि।
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सुदर्शन  : वि० [सं०] [स्त्री० सुदर्शना] १. जो देखने में बहुत अच्छा और भला लगे। २. जिसके दर्शन सरलता से होते हों या हो सकते हों। पुं० १.विष्णु के हाथ का चक्र। २. शिव। ३. एक प्रकार का पौधा और उसके फूल। ४. वैद्यक में, एक प्रकार का चूर्ण जिसका प्रयोग विषम ज्वर में होता है। ५. कबीर पंथियों के अनुसार एक श्वपच भक्त जो कबीर का शिष्य था। ६. सुमेरु पर्वत। ७. इन्द्र की पुरी, अमरावती। ८. वर्तमान अवसर्पिणी के अठारहवें अर्हत के पिता का नाम (जैन)। ९. जैनों के नौ बलदेवों में से एक। १॰. दधीचि का एक पुत्र। ११. भरत का एक पुत्र। १२. मछली। १३.एक प्रकार की संगीत रचना। १४. जामुन। १५. जंबूद्वीप। १६. गिद्ध। १७. संन्यासियों का एक दंड जिसमें छः गाँठे होती हैं। १८. सोमलता। १९. मदनमस्त नामक पौधा और उसका फूल।
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सुदर्शन-पाणि  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु जिनके हाथ में सुदर्शन नामक चक्र रहता है।
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सुदर्शना  : स्त्री० [सं०] १.सुन्दरी स्त्री। रूपवती नारी। १.इन्द्र की पुरी, अमरावती। ३. शुक्ल पक्ष की रात। ४. एक प्रकार की मदिरा। ५. कमलों का सरोवर। ६. सोमलता। ७. जामुन का पेड़। ८. आज्ञा। आदेश। वि० सं० ‘सुदर्शन’ का स्त्री।
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सुदर्शनी  : स्त्री० [सं०] इन्द्र की पुरी, अमरावती।
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सुदल  : पुं० [सं० प्रा० स०] १.अच्छा और बड़ा दल। २. मोरट या क्षीर नाम की लता। ३. मुचकुंद। वि० अच्छे दलवाला।
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सुदला  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. सरिवन। शालपर्णी। २. सेवती।
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सुदंष्ट्र  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर दाँतोंवाला। पुं० श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
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सुदांत  : वि० [सं०] बहुत अधिक शांत और सुशील। पुं० एक प्रकार की समाधि।
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सुदाम  : पुं० [सं०] १. श्रीकृष्ण के सखा, एक गोप। सुदामा। २. एक प्राचीन जनपद। (महाभारत)।
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सुदामन  : वि० [सं०] उदारतापूर्वक देनेवाला। पुं० राजा जनक के एक मंत्री का नाम। २. देवताओं का एक प्रकार का अस्त्र। ३ .सुदामा।
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सुदामा (मन्)  : पुं० [सं०] १. एक दरिद्र ब्राह्मण जो श्रीकृष्ण का सहपाठी और परम सखा था तथा जिसे श्रीकृष्ण ने ऐश्वर्यवान् बना दिया था। २. इन्द्र का हाथी, ऐरावत। ३.एक प्राचीन पर्वत। ४. समुद्र। ५. बादल। मेघ। स्त्री० १.रामायण के अनुसार उत्तर भारत की एक नदी। २. पुराणानुसार स्कंद की एक मातृका। वि० अच्छी तरह और बहुत दान देनेवाला।
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सुदाय  : पुं० [सं०] १. उत्तम दान। २. उपहार के रूप में दिया जानेवाला सुन्दर पदार्थ। ३. यज्ञोपवीत संस्कार के समय ब्रह्मचारी को दी जानेवाली भिक्षा। ४. उपहार, दान या भिक्षा देनेवाला व्यक्ति। ५. विवाह के अवसर पर कन्या या जामाता को दिया जानेवाला दान। दहेज। ६. उक्त प्रकार का धन या चीजें देनेवाला व्यक्ति।
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सुदारु  : पुं० [सं०] १.देवदारु। देवदार। २. सरल नामक वृक्ष। ३.विन्ध्य पर्वत के पारिपात्र खंड का एक नाम।
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सुदारुण  : वि० [सं०] बहुत अधिक दारुण, भीषण या विकट। पुं० एक प्रकार का दिव्य या दैवी अस्त्र।
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सुदावन  : पुं०=सुदामन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुदास  : पुं० [सं०] १.एक प्राचीन जनपद। २. वह जो सम्यक् रूप से ईश्वर की आराधना या उपासना करता हो।
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सुदि  : स्त्री० दे० ‘सुदी’।
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सुदिन  : पुं० [सं० सु+दिन्] १.अच्छा दिन। साफ दिन। विशेषतः जिस दिन सुबह-सुबह बादल न छाये हों। दुर्दिन का विपर्याय। २. शुभ दिन।
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सुदिव  : वि० [सं०] बहुत अधिक दीप्तिमान्।
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सुदिह  : वि० [सं०] बहुत तीखा। धारदार। नुकीला। २. बहुत चिकना। ३.बहुत उज्जवल।
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सुदी  : स्त्री० [सं० शुक्ल में का श+दिवस में का दि=शुदि] चान्द्र मास का शुक्ल पक्ष। जैसे—कार्तिक सुदी छठ।
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सुदीक्षा  : स्त्री० [सं०] लक्ष्मी।
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सुदीप्ति  : वि० [सं०] बहुत अधिक दीप्तिमान्। बहुत उज्जवल और चमकीला। अंगिरस गोत्र के एक ऋषि।
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सुदीर्घ  : वि० [सं०] [स्त्री० सुदीर्घा] [भाव० सुदीर्घता] बहुत अधिक लंबा-चौड़ा। खूब-विस्तृत। पुं० चिचड़ा।
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सुदीर्घा  : स्त्री० [सं०] चीना ककड़ी।
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सुदुघ  : वि०=सुदुध।
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सुदुघा  : वि० [सं०] १.अच्छा और बहुत दूध देनेवाली। २. जो सहज में दूही जाती हो। (गौ, बकरी, भैंस आदि)।
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सुदूर  : वि० [सं०] बहुत दूर। अति दूर। जैसे—सुदूर पर्व। पुं०=शार्दूल। उदाहरण—लंक देखि कै छपा सुदूरू।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुदृढ़  : वि० [सं०] [भाव० सुदृढ़ता] बहुत दृढ़। खूब मजबूत। जैसे—सुदृढ़ बंधन।
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सुदृष्टि  : वि० [सं०] १. अच्छी या शुभ दृष्टिवाला। २. दूरदर्शी। स्त्री० अच्छी और शुभ दृष्टि। पुं० गिद्धि।
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सुदेल्ल  : पुं०=सुदेष्ण। (पर्वत)।
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सुदेव  : पुं० [सं०] १.उत्तम देवता। २. विष्णु का एक पुत्र। वि० अच्छी क्रीड़ा या खेल करनेवाला।
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सुदेवस  : पुं० [हि० सु+देव=देवता] देवता का नाम लेकर किया जानेवाला (किसी काम या बात का) आरम्भ। जैसे—अब आप अपने काम का सुदेवस कीजिए।
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सुदेव्य  : पुं० [सं०] भले या श्रेष्ठ जनों का समुदाय।
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सुदेश  : पुं० [सं०] १.अच्छा और सुन्दर देश। २. किसी काम या बात के लिए उपयुक्त स्थान। वि० मनोहर। सुन्दर।
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सुदेशिक  : पुं० [सं०] अच्छा पथ-प्रदर्शक।
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सुदेष्ण  : पुं० [सं०] १. रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण का एक पुत्र। २. एक प्राचीन जनपद। ३ .एक पौराणिक पर्वत।
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सुदेष्णा  : स्त्री० [सं०] १.बलि की पत्नी। २. विराट् की पत्नी।
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सुदेस  : वि० [सं० सु+दृश्] देखने में सुन्दर। पुं० [सं० सु+देश] अच्छा देश या स्थान। पुं०=स्वदेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुदेसी  : वि०=स्वदेशी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुदेह  : पुं० [सं०] सुन्दर देह। सुन्दर शरीर। वि० सुन्दर देह या शरीर वाला।
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सुदैव  : पुं० [सं०] १.सौभाग्य। २. अच्छा संयोग।
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सुदोग्ध्री  : वि० [सं०] अधिक दूध देनेवाली। स्त्री० अधिक दूध देनेवाली गाय।
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सुदोघ  : वि० [सं०] दानशील। उदार।
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सुदोघा  : वि० स्त्री० [सं०] सुदोग्ध्री (दे०)।
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सुंदोपसुंद  : पुं० [सं० द्व० स०] सुंद और उपसुंद नाम के दो भाई जो तिलोत्तमा (अप्सरा) को प्राप्त करने के लिए आपस में लड़ मरे थे। विशेष—इन दोनों भाइयों ने यह वर प्राप्त किया था कि हम तब तक नहीं मरें जब तक स्वयं एक दूसरे को न मारें। अतः इन्द्र द्वारा प्रेषित तिलोत्तमा अप्सरा की प्राप्ति के लिए ये आपस में लड़ मरे थे।
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सुंदोपसुंद न्याय  : पुं० [सं०] एक प्रकार का न्याय जिसका प्रयोग ऐसे अवसरों पर होता है जहाँ दो शक्तिशाली व्यक्ति आपस में घनिष्ठ मित्र होने पर भी अंत में सुंद और उपसुंद नामक दैत्यों की तरह लड़ मरते हैं।
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सुदोह  : वि० [सं०] (मादा जंतु) जिसे दूहने में कोई कष्ट न हो।
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सुदौसी  : अव्य० [सं० सद्यस्=तुरन्त] उचित या ठीक समय से। कुछ पहले ही। कुछ जल्दी ही। (पश्चिम)। जैसे—रेल पकड़ने के लिए घर से कुछ सुदौसी ही चलना चाहिए।
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सुद्दा  : पुं० [सं० सुद्दा] [स्त्री० अल्पा० सुद्दः] वह मल जो पेट के अंदर सूखकर आँतों से चिपक गया हो, और बहुत कष्ट से बाहर निकलता हो।
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सुद्ध  : वि० [सं० शुद्ध] २. शुद्ध। खालिश। २. (उपकरण) जो प्रसम गति या स्थिति में हो अथवा ठीक तरह से काम कर रहा हो। जैसे—लहू सुद्ध चल रहा है। स्त्री०=सुध (चेतना) उदाहरण—होनहार हिरदे बसै बिसर जाय सुद्ध।—कहावत।
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सुद्धाँ  : अव्य० [सं० सह] सहित। समेत। मिलाकर। जैसे—उसके सुद्धाँ वहाँ चार आदमी थे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुद्धा  : अव्य०=सुद्धाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुद्धाँत  : पुं०=सुद्धांत (अंतःपुर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुद्धि  : स्त्री० १.दे० ‘शुद्धि’। २. दे० ‘सुध’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुद्युत  : वि० [सं० प्रा० स०] खूब प्रकाशमान्।
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सुद्युम्न  : पुं० [सं०] वैवस्वत मन का पुत्र जो इड के नाम से ख्यात है।
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सुद्रष्ट  : वि० [सं० सदृष्ट] दयावान्। कृपालु (डिं०)।
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सुध  : स्त्री० [सं० सुधी] १. अच्छी बुद्धि। २. सचेतनता। होश। क्रि० प्र—खोना।—बिसरना। ३. स्मृति। याद। मुहावरा-सुध दिलाना=याद दिलाना। सुध बिसारना या भूलना=याद न रखना। सुध लेना= (क) किसी का हाल-चाल पूछने के लिए उसके पास जाना। (ख) किसी बात की ओर ध्यान देना।
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सुध-बुध  : स्त्री० [सं० शुद्ध+बुद्धि] १.होश-हवाश। चेतना। संज्ञा। २. ज्ञान। क्रि० प्र०—ठिकाने न रहना।—भूलना।—मारी जानी।
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सुध-मना  : वि० [हि० सुध=होश+मना] [स्त्री० सुधमनी] जिसे होश हो। सचेत।
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सुधंग (गा)  : वि० [हि० सीधा+अंग या सु+ढंग] १.सरल या सीधे स्वभाववाला। २. सीधा। पुं० अच्छा या सुन्दर ढंग।
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सुधनु  : पुं० [सं०] १.राजा कुरु का एक पुत्र जो सूर्य की पुत्री तपसी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। २. गौतम बुद्ध के एक पूर्वज।
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सुधन् (स्)  : वि० [सं०] बहुत धनी। बड़ा अमीर।
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सुधन्वा (न्वन्)  : वि० [सं० ब० स०] १.उत्तम धनुष धारण करनेवाला। २. अच्छा धनुर्धर। होशियार तीरन्दाज। पुं० १.विष्णु। २. विश्वकर्मा। ३.अंगिरा। ऋषि। ५. पुराणानुसार एक प्राचीन जाति जिसकी उत्पत्ति व्रात्य वैश्य और सवर्णा स्त्री से कही गई है। ५. शेषनाग।
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सुधर  : पुं० [सं०] १.जैनों के एक अर्हत। २. बया पक्षी (डि०)।
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सुधरना  : अ० [हि० सुधारना] १. खराब होने या बिगड़ी हुई चीज का मरम्मत आदि होने पर ठीक होना। त्रुटि, दोष आदि का दूर होना। जैसे—हालत सुधरना। २. व्यक्ति के संबंध में अच्छे आचरणों की ओर प्रवृत्त होना तथा बुरे आचरणों की पुनरावृत्ति न करना। जैसे—लड़के का सुधरना।
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सुधरपन  : पुं०=सुघड़पन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुधरमा  : वि० स्त्री०=सुधर्मा।
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सुधराई  : स्त्री० [हि० सुधरना+आई (प्रत्यय)] सुधरने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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सुधर्मा  : वि० [सं० सुधर्मन्] अपने धर्म पर दृढ रहनेवाला। धर्म-परायण। पुं० १. कुटुब से युक्त व्यक्ति। गृहस्थ। २. क्षत्रिय। ३. जैनों के एक गणाधिप। स्त्री० देवताओं की सभा। देव-सभा।
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सुधर्मी (र्मि्न्)  : वि० [सं०] धर्मपरायण। धर्मनिष्ठ। स्त्री० देवताओं की सभा।
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सुधर्म् (न्)  : वि० [सं०] धर्मपरायण। धर्मात्मा। पुं० [सं०] १. अच्छा और उत्तम धर्म। २. जैन तीर्थकर महावीर के दस शिष्यों में से एक।
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सुधवाना  : स० [हि० सुधरना का प्रे०] १. सोधने या ठीक करने का काम किसी से कराना। ठीक या दुरुस्त कराना। २. मुहुर्त आदि के संबंध में निकलवाना।
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सुधा  : स्त्री० [सं०] १. अमृत। पीयूष। २. जल। पानी। ३. गंगा ४. दूध। ५. किसी चीज का निचोड़ा हुआ रस। ६. पृथ्वी। ७. बिजली। विद्युत। ८. जहर। विष। ९. चूना। १॰. ईंट। ११. रुद्र की पत्नी। १२. एक प्रकार का छन्द या वृत्त। १३. पुत्री। बेटी। १४ . वध। १५. शहद। १६. घर। मकान। १७. मकरन्द। १८. आँवला। १९. हर्रे। २॰ मरोड़ फली। २१. गिलोय। गुडुच। २२. सरिवन। शालपर्णी।
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सुधा-कंठ  : वि० [सं०] मधुर-भाषी। पुं० कोकिल। कोयल।
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सुधा-क्षार  : पुं० [सं०] चूने का खार।
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सुधा-गेह  : पुं० [सं०] चन्द्रमा।
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सुधा-घट  : पुं० [सं० सुधा+घट] चन्द्रमा।
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सुधा-दीधिति  : पुं० [सं० ब० स०] सुधांशु। चन्द्रमा।
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सुधा-धवल  : वि० [सं०] १. चूने के समान सफेद। २. जिस पर चूना पुता हुआ हो।
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सुधा-धाम  : पुं० [सं० सुधा+धाम] चन्द्रमा।
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सुधा-धौत  : वि० [सं०] चूना या सफेदी किया हुआ।
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सुधा-नजर  : वि० [हि० सुधा=सीधा+नजर] दयावान्। कृपालु। (डिं०)।
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सुधा-निधि  : पुं० [सं०] १. चन्द्रमा। २. कपूर। ३. समुद्र। सागर। ४. दंडक वृत्त का एक प्रकार का भेद।
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सुधा-पाणि  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसके हाथ में अमृत हो। २. (चिकित्सक) जिसकी दवा से सबको तुरन्त लाभ होता हो। पुं० देवों के वैद्य। धन्वन्तरि।
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सुधा-भवन  : पु० [सं०] अस्तर, कारी किया हुआ मकान।
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सुधा-मयूख  : पुं० [सं०] चन्द्रमा।
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सुधा-मूली  : स्त्री० [सं०] सालम मिस्री। सालब मिस्री।
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सुधा-योनि  : पुं० [सं०] चन्द्रमा।
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सुधा-रश्मि  : पुं० [सं०] चन्द्रमा।
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सुधा-लता  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की गिलोय।
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सुधा-वर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं०] सुधा अर्थात् अमृत बरसानेवाला। पुं० १. ब्रह्मा। २. बुद्ध का एक नाम।
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सुधा-सदन  : पुं० [सं० सुधा+सदन] चन्द्रमा।
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सुधा-स्पर्धी  : वि० [सं० सुधा-स्पर्धिन्] १. अमृत की बराबरी करनेवाला। २. अमृत के समान मधुर (भाषण आदि)।
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सुँधाई  : स्त्री० [हिं० सोंधा] सोंधे होने की अवस्था, गुण या भाव। सोंधापन।
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सुधाई  : स्त्री० [हि० सुधा+आई (प्रत्यय)] सिधाई। सरलता। स्त्री० [हि० सोधना] सोधने की क्रिया या भाव।
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सुधाकर  : पुं० [सं०] चन्द्रमा।
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सुधाकार  : पुं० [सं०] १. चूना पोतने या सफेदी करनेवाला मजदूर। २. मकान बनानेवाला मिस्तरी। राज।
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सुधांग  : पुं० [सं० ब० स०] चन्द्रमा।
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सुधाजीवी (विन्)  : पुं० [सं०] सुधाकार (दे०)।
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सुधाता (तृ)  : वि० [सं०] सुव्यवस्थित करनेवाला।
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सुधातु  : पुं० [सं०] सोना।
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सुधातु-दक्षिण  : पुं० [सं०] वह जो यज्ञादि में अथवा यों ही दक्षिणा में सुधातु अर्थात् सुवर्ण देता हो।
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सुधाधर  : वि० [सं० ष० त०] चन्द्रमा जिसके अधरों में अमृत हो। पुं० चन्द्रमा।
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सुधाधरण  : पुं० [सं० सुधाधर] चन्द्रमा डिं०)।
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सुधाधार  : पुं० [सं०] १. वह बरतन जिसमें अमृत रखा हो। २. चन्द्रमा।
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सुधाधी  : वि० [सं०] सुधा के समान। अमृत के तुल्य।
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सुधाना  : स० [हि० सुध+आना (प्रत्य)] स्मरण कराना। याद दिलाना। स० सुधवाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुधापाषाण  : पुं० [सं०] सफेद खली।
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सुधाभित्ति  : स्त्री० [सं०] दीवार,जिस पर चूना पुता हुआ हो।
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सुधाभुज  : पुं० [सं०] =सुधा-भोजी (देवता)।
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सुधाभृत्रि  : पुं० [सं०] १. चन्द्रमा। २. यक्ष।
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सुधाभोजी (जिन्)  : वि० [सं०] अमृत भोजन करनेवाले। पुं० अमृत खानेवाला, देवता।
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सुधाम  : पुं० [सं०] अच्छा घर या स्थान पुं०=सुधामा।
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सुधामय  : वि० [सं०] [स्त्री० सुधामयी] १. जिसमें अमृत हो। अमृत से युक्त। २. सुधा से भरा हुआ। अमृत-स्वरूप। ३.चूने का बना हुआ। पुं० राज-प्रासाद। महल।
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सुधामा (मन्)  : पुं० [सं०] चन्द्रमा।
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सुधार  : पुं० [हि० सुधारना] १. वह तत्त्व जो किसी के सुधरने या सुधरे हुए होने पर लक्षित होता है। २. वह प्रक्रिया जो किसी के दोष विकार आदि दूर करने के लिए की जाती है। ३. वह काट-छाँट या संशोधन-परिवर्तन जो रचना को अच्छा रूप देने के लिए किया जाता है।
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सुधारक  : वि० [हि० सुधार+क (प्रत्य)०] (कार्य) जो सुधार के उद्देश्य या विचार से हो। (रिफ़ार्मेटरी)। पुं० १. दोषों या त्रुटियों का सुधार करनेवाला। संशोधक। २. धार्मिक या सामाजिक सुधार के लिए प्रयत्न करनेवाला। (रिफ़ार्मर)
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सुधारना  : स० [सं० शोधन] १. बिगड़ी हुई वस्तु को इस प्रकार ठीक करना कि वह फिर से काम करने या काम में आने के योग्य हो जाय। २. दोषों विकारों आदि का उन्मूलन कर अथवा उनमें परिवर्तन लाकर किसी स्थिति में सुधार करना। ३. लेख आदि की गलतियाँ दूर करना।
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सुधारा  : वि०=सूधा (सीधा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुधारालय  : पुं० [हि० सुधार+सं० आलय] वह स्थान जहाँ पर अपराधियों के जीवन सुधार की व्यवस्था की जाती है। (रिफ़ार्मेटरी)।
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सुधारू  : वि० [हि० सुधारना+ऊ (प्रत्यय)] सुधारनेवाला। सुधारक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुधाव  : पुं० [हि० सुधरना+आव (प्रत्य)] सोधने या सुधारने की क्रिया या भाव। सुधार।
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सुँधावट  : स्त्री०=सुँधाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुधावास  : पुं० [सं०] १. चन्द्रमा। २. खीरा।
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सुधांशु  : पुं० [सं०] १.चन्द्रमा। २. कपूर।
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सुधांशु-रक्त  : पुं० [सं०] मोती मुक्ता।
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सुधाश्रवा  : वि० [सं० सुधा+स्रवण] अमृत बरसानेवाला।
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सुधासित  : भू० कृ० [सं०] जिस पर चूना पोतकर सफेदी की गई हो।
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सुधासू  : पुं० [सं०] चन्द्रमा।
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सुधासूति  : पुं० [सं०] १. चन्द्रमा। २. यज्ञ। ३. कमल।
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सुधास्रवा  : स्त्री० [सं०] १. गले के अंदर की घंटी। मोटी जीभ। कौआ। २. रुदंती या रुद्रवंती नामक वनस्पति।
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सुधाहर  : पुं० [सं०] गरुड़।
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सुधि  : स्त्री० [सं० सुद्ध या शोध] १. चेतना। होश। २. ज्ञान। ३. याद। स्मृति। विशेष दे० ‘सुध’। ४. ‘दोहा नामक’ छंद का दूसरा नाम। ५. दे० ‘सुध’।
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सुधित  : भू० कृ० [सं०] १. सुधा से युक्त किया हुआ। २. सुधा जैसा फलतः मधुर। ३. जो सुधा या अमृत के रूप में लाया गया हो। ४. सुव्यवस्थित।
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सुँधिया  : स्त्री० [हिं० सोंधा+इया (प्रत्य०)] १. गुजरात में होने वाली एक प्रकार की वनस्पति जो पशुओं के चारे के काम में आती है। २. एक प्रकार का ज्वार।
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सुधी  : वि० [सं०] १. अच्छी बुद्धिवाला। २. बुद्धिमान्। समझदार। पुं० १. पण्डित। विद्वान। २. धार्मिक व्यक्ति।
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सुधीर  : वि० [सं०] जिसमें यथेष्ट धैर्य हो। बहुत धैर्यवान्।
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सुधुम्नानी  : स्त्री० [सं०] पुराणानुसार पुष्कर द्वीप के सात खंडों में से एक।
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सुधूपक  : पुं० [सं०] चन्द्रमा।
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सुधूम्र-वर्णा  : स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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सुधोद्भव  : पुं० [सं०] धन्वन्तरि।
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सुधोद्भवा  : स्त्री० [सं०] हरीतकी। हर्रे।
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सुन  : वि० १.=सुन्न। २.=शून्य।
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सुन-कातर  : पुं० [हिं० सोन+कातर] एक प्रकार का साँप।
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सुन-किरवा  : पुं०=सोन-किरवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुन-खरचा  : पुं० [?] एक प्रकार का धान जो आश्विन के अंत और कार्तिक के आरंभ में होता है।
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सुन-गुन  : स्त्री० [हिं० सुनना+अनु, गुनना] १. किसी बात की बहुत दबी हुई चर्चा जो लोगों में होती है। जैसे–अविश्वास प्रस्ताव रखने की सुन-गुन इधर कुछ दिनों से होने लगी है क्रि०प्र–होना। २. वह बात या भेद जिसकी दबी हुई चर्चा सुनाई पड़ी हो। क्रि० प्र०–लगना।
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सुन-बहरी  : स्त्री० [हि० सुन्न+बहरी] एक प्रकार का चर्म रोग जिसकी गिनती कुष्ठ रोग में होती है।
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सुनका  : पुं० [देश०] चौपायों के गले का एक रोग। गरारा। घुरकवा।
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सुनकार  : वि० [हि० सुनना+कार (प्रत्यय)] जो गाना बजाना सुनने-समझनेवाला हो। अच्छी तरह ध्यानपूर्वक गुणों की परख करते हुए गाना सुननेवाला। उदाहरण–बसन्त बहार का खयाल था, और महफिल सुनकार थी।–अमृतलाल नागर।
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सुनक्षत्रा  : स्त्री० [सं०] १. कर्म मास का दूसरा नक्षत्र। २. स्कंद की एक मातृका।
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सुनत(ति)  : स्त्री०=सुन्नत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुनंद  : पुं० [सं०] १. एक देव-पुत्र। २. बलराम का मूसल। ३. कुजृंभ नामक दैत्य का मूसल जो विश्वकर्मा का बनाया हुआ माना जाता है। ४. वास्तुशास्त्र में बारह प्रकार के राजभवनों में से एक। वि० आनंददायक।
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सुनंदन  : पुं० [सं०] कृष्ण के एक पुत्र का नाम (पुराण०)।
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सुनंदा  : स्त्री० [सं०] १. उमा। गौरी। २. श्रीकृष्ण की एक पत्नी। ३. सार्वभौम दिग्ज की हथिनी। ४. भरत की पत्नी। ५. एक प्राचीन नदी। ६. सफेद गौ। ७. गोरोचन। ८. अर्कपत्री। इसरौल। ९. औरत। स्त्री।
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सुनंदिनी  : स्त्री० [सं०] १. आराम शीलता नामक पत्रशाक। २. एक प्रकार का छन्द या वृत्त।
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सुनना  : स० [सं० श्रवण] १,. ऐसी स्थिति में होना कि कानों के द्वारा ध्वनि, शब्द आदि की अनुभूति हो। जैसे–वर्षों से इस घंटे की आवाज सुनता आया हूँ। २. सुनकर ज्ञान प्राप्त करना। जैसे–खबर सुनना। ३. किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए ध्यानपूर्वक लोग या लोगों की बातें सुनना। ४. किसी की प्रार्थना आदि पर विचार करने के लिए सहमत होना। जैसे–उन्होंने कहा है कि आपकी फरियाद सुनी जायगी। ५. कठोर वचनों का श्रवण करना। जैसे–तुम्हारे लिए दूसरों की बातें मुझे सुननी पड़ी। क्रि० प्र०–पड़ना। ६. रोग आदि के संबंध में, उपचार आदि से कम होना या बढ़ने से रुकना।
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सुनफा  : स्त्री० [सं०] ज्योतिष में ग्रहों का एक योग।
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सुनम्य  : वि० [सं०] १. जो सहज में झुकाया या दबाया जा सके। २. जो गीला होने पर मनमाने ढंग से और मनमाने रूप में लाया जा सके। (प्लैस्टिक)। जैसे–सुनम्य मिट्टी। पुं० आज-कल रासायनिक प्रक्रियाओं से तैयार किया हुआ गीला द्रव्य जो सभी प्रकार के साँचों में ढाला जा सकता है और जिससे खिलौने, जूते, तस्मे आदि सैकड़ों प्रकार की चीजें बनाई जाती हैं। (प्लास्टिक)।
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सुनय  : पुं० [सं०] उत्तम नीति। सुनीति।
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सुनयन  : वि० [सं०] [स्त्री० सुनयना] सुन्दर नेत्रोंवाला। पुं० मृग। हिरन।
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सुनर  : वि० [सं० प्रा०स०] नरों में श्रेष्ठ। पुं० अर्जुन। (डि.)। वि०=सुन्दर। स्त्री० [सं० सु+हि.नार]=सुनारि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुनरिया  : स्त्री०=सुन्दरी (रूपवती स्त्री)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुनर्द  : वि० [सं०] बहुत गरजने या जोर का शब्द करनेवाला।
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सुनवाई  : स्त्री० [हिं० सुनना+वाई (प्रत्यय)] १. सुनने की क्रिया या भाव। २. मुकदमे या विवाद के विचार के लिए न्यायकर्ता के द्वारा दोनों पक्षों की बातें सुनने की क्रिया या भाव (हियरिंग)। ३. किसी तरह की शिकायत या फरियाद आदि का सुना जाना। जैसे–तुम लाख चिल्लाया करो, वहाँ कुछ सुनवाई नहीं होगी।
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सुनवैया  : वि० [हि० सुनना+वैया (प्रत्यय)] सुनानेवाला। वि० [हि० सुनाना+वैया (प्रत्य)] सुनानेवाला।
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सुनस  : वि० [सं०] सुंदर नाकवाला।
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सुनसन  : वि० [सं० शून्य+स्थान] १. जिसमें व्यक्तियों का वास न हो। जैसे–सुनसान कोठरी। २. जिसमें जीवों का आवागमन न हो। जैसे–सुनसान दोपहरी। पुं० निर्जन स्थान। उजाड़।
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सुनसर  : पुं० [?] एक प्रकार का गहना।
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सुनहरा, सुनहरी  : वि०=सुनहला।
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सुनहला  : वि० [हिं० सोना] [स्त्री० सुनहली] १. सोने का बना हुआ। २. चमक, रंग आदि में सोने की तरह। (गोल्ड्न) जैसे–सुनहले फूल, सुनहली आँखें।
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सुनहा  : पुं० [सं० श्वान] १. कुत्ता। उदा०–दरपन केरि गुफा में सुनहा पैठा आया।–कबीर। २. कोशी नामक जन्तु।
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सुनाई  : स्त्री० [हिं० सुनना+आई (प्रत्य०)] १. सुनने की क्रिया या भाव। २.सुनवाई।
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सुनाद  : वि० [सं०] सुन्दर नादवाला। पुं० शंख।
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सुनाद-प्रिय  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सुनाद-विनोदनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सुनादक  : वि० [सं०] सुंदर शब्द करनेवाला। पुं० शंख।
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सुनाना  : स० [हिं० सुनना का प्रे०] १. दूसरों को सुनने में प्रवृत्त करना। विशेषतः उस दृष्टि से ऊँचे स्वर में पढ़ना कि दूसरे के कानों तक वह पहुँच जाय। २. कोई ऐसी क्रिया करना जिससे लोग कुछ सुन सकें। जैसे–ग्रामोफून या रेडियो सुनाना। ३. अपना रोष प्रकट करने के लिए खरी-खोटी बातें कहना। जैसे–(क) भरी सभा में उन्होंने मंत्री जी को खूब सुनाई। (ख) कोई कहेगा तो चार सुनाएँगे। सं० क्रि–डालना।–देना।
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सुनानी  : स्त्री०=सुनावनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुनाभ  : पुं० [सं०] १. सुदर्शन चक्र। २. मैनाक पर्वत। वि०=सुनाभि।
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सुनाभि  : वि० [सं०] १. सुन्दर नाभिवाला। २. जिसका केन्द्र-स्थल सुन्दर हो।
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सुनाम  : पुं० [सं०] लोक में होनेवाला अच्छा नाम जो कीर्ति या यश का सूचक होता है।
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सुनाम-द्वादशी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का व्रत जो वर्ष की बारहों शुक्ला द्वादशियों को किया जाता है।
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सुनामा(मन्)  : वि० [सं०] जिसका अच्छा नाम या कीर्ति हो। कीर्तिशाली। पुं० १. कंस के आठ भाइयों में से एक। २. कार्तिकेय का एक परिषद।
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सुनामिका  : स्त्री० [सं०] त्रायमाणा लता।
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सुनार  : पुं० [सं० स्वर्णकार] [स्त्री० सुनारिन, भाव० सुनारी] १. वह जिसका पेशा सोने-चाँदी के आभूषण बनाना हो। २. जो सुनारों के वंश में उत्पन्न हुआ हो। पुं० [सं०] १. कुतिया का दूध। २. साँप का अंडा। ३. चटक पक्षी। गौरैया।
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सुनारि  : स्त्री० [सं०] सुंदर स्त्री। सुंदरी।
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सुनारिन  : स्त्री० [हिं० सुनार+इन (प्रत्य०)] १. सुनार की पत्नी। २. सुनार जाति की स्त्री।
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सुनारी  : स्त्री० [हिं० सुनार+ई.(प्रत्य०)] १. सुनार का काम पेशा या भाव। २. दे० ‘सुनारिन’।
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सुनाल  : पुं० [सं०] लाल कमल।
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सुनालक  : पुं० [सं०] अगस्त्य का पेड़ या फूल।
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सुनावनी  : स्त्री [हिं० सुनाना] १. परदेश या विदेश से किसी सगे-संबंधी की मृत्यु का आया हुआ समाचार जो स्थानिक संबंधियों के पास सूचनार्थ भेजा जाता है। क्रि० प्र०–आना। २. उक्त प्रकार का समाचार आने पर सगे-संबंधियों आदि का होनेवाला सामूहिक शोक प्रकट, स्नान आदि।
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सुनासा  : स्त्री० [सं०] कौआ ठोढ़ी। काकनासा।
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सुनासिक  : वि० [सं०] सुन्दर नाकवाला। सुनास।
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सुनासीर  : पुं० [सं०] १. इन्द्र। २. देवता।
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सुनाहक  : अव्य=नाहक(व्यर्थ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुनिद्र  : पुं० [सं०] खूब सोना।
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सुनिनद  : वि० [सं०] सुन्दर नाद या शब्द करने वाला।
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सुनियाना  : अ० [हिं० सोना ? + इयाना(प्रत्य०)] पौधों,फसल आदि का शीतरोग आदि से नष्ट-प्राय हो जाना।(रूहेल खंड)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुनिरुहन  : पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का वस्तिकर्म जिससे पेट और आँतें बिलकुल साफ हो जाती हैं।
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सुनिश्चय  : पुं० [सं०] १. पक्का निश्चय। २. सुंदर निश्चय।
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सुनिश्चित  : भू० कृ० [सं०] अच्छी तरह या दृढ़ता से निश्चय किया हुआ। भली भाँति निश्चित किया हुआ। पुं० एक बुद्ध का नाम।
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सुनिश्चित पुर  : पुं० [सं०] काश्मीर का एक प्राचीन नाम।
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सुनिहित  : भू० कृ० [सं०] अच्छी तरह से छिपा या दबा हुआ। उदा–था समर्पण में ग्रहण का एक सुनिहित भाव।–पन्त।
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सुनीच  : पुं० [सं०] ज्योतिष में, किसी ग्रह का किसी राशि में किसी विशेष अंश का होनेवाला अवस्थान।
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सुनीत  : वि० [सं०] [भाव० सुनीति] १. नीतिपूर्ण व्यवहार करनेवाला। २. उदार।
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सुनीति  : स्त्री० [सं०] १. उत्तम नीति । २. भक्त ध्रुव की माता। पुं० शिव।
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सुनीथ  : पुं० [सं०] १. कृष्ण का एक पुत्र। २. सुषेण का एक पुत्र। ३. शिशुपाल का एक नाम। ४. एक प्रकार का छन्द या वृत्त। वि० १. नीतिमान्। २. न्यायशील।
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सुनीथा  : स्त्री० [सं०] मृत्यु की पुत्री और अंग की पत्नी।
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सुनील  : वि० [सं०] १. गहरा नीला। २. गहरा काला। पुं० १. अनार का पेड़। २. लाल कमल।
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सुनीलक  : पुं० [सं०] १. नीलम नामक रल। २. काला भँगरा।
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सुनीला  : स्त्री० [सं०] १. चणिका तृणं। चनिका घास। २. नीली अपराजिता। ३. तीसी।
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सुनु  : पुं० [सं०] जल।
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सुनृता  : स्त्री० [सं०] १. सत्य और प्रिय भाषण। २. सत्यता। सचाई। ३.धर्म की पत्नी का नाम।
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सुनेत्र  : वि० [सं०] [स्त्री० सुनेत्रा] सुंदर नेत्रोंवाला। सुलोचन। पुं० १. घृतराष्ठ्रका एक पुत्र। २. बौद्धों के अनुसार मार एक पुत्र। ३. चकवा पक्षी।
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सुनेत्रा  : स्त्री० [सं०] सांख्य के अनुसार नौ तुष्टियों में से एक।
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सुनैया  : वि०=सुनवैया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुनोची  : पुं० [देश०] एक प्रकार का घोडा़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुंन्दर  : वि० [सं०] [स्त्री० सुन्दरी, भाव, सुन्दरता, सौन्दर्य] १. जो गठन, रंग, रूप आदि के विचार से देखने में सुखद लगता हो। २. इंद्रियों को भला प्रतीत होने वाला। जैसे—सुन्दर बात, सुन्दर विचार, सुन्दर समाचार। ३. शुभ। जैसे—सुन्दर मुहुर्त। पुं० १. काम देव। २. लंका का एक पर्वत। ३. एक प्रकार का वृक्ष।
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सुन्न  : वि० [सं० शून्य] १. जिसमें कुछ न हो। शून्य। २. शरीर का अंग जिसमें रक्त का संचार बिलकुल शून्य होने के फल-स्वरूप स्पंदनहीनता हो। स्पंदनहीन। ३. शीत अथवा विशिष्ट उपचार के फलस्वरूप किसी अंग का संज्ञाहीन होना। जैसे–आपरेशन से पहले उनका हाथ सुन्न कर लिया गया था। ४. व्यक्ति के संबंध में, स्तब्ध और किंकर्तव्य-विमूढ़। जैसे–मित्र की मृत्यु का समाचार सुनते ही वह सुन्न हो गया। क्रि० प्र०–होना।
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सुन्नत  : स्त्री० [अ०] [वि० सुन्नती] लिंगेन्द्रिय के अगले भाग का चमडा़ काटन् की कुछ धर्मों की प्रथा जिसे मुसलमानों में मुसलमानी और सुन्नत कहते हैं। खतना। (सरकमसीजन)
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सुन्नती  : वि० [हिं० सुन्नत] जिसकी सुन्नत हुई हो। पुं० मुसलमान।
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सुन्नर  : वि०=सुंदर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुन्नसान  : वि०=सुनसान।
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सुन्ना  : पुं० [सं० शून्य] बिंदी। सिफर। जैसे-एक (१) पर सुन्ना (०) लगाने से दस (१॰) होता है। स०=सुनना।
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सुन्नी  : पुं० [अ०] मुसलमानों का एक वर्ग या संप्रदाय जो चारों खलीफाओं को प्रधान मानता है। चार-पारी।
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सुन्नैया  : वि०=सुनवैया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपक  : वि०=सुपक्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपक्व  : वि० [सं०] अच्छी तरह पका हुआ। पुं० बढिया और सुगंधित आम।
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सुपक्ष  : वि० [सं०] जिसके सुंदर पंख हों। सुंदर पंखोंवाला।
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सुपंख  : वि० [सं०] १. सुन्दर पंखों या परोंवाला। २. सुन्दर तीरोंवाला।
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सुपच  : पुं०=श्वपच। वि०=सुपाच्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपट  : वि० [सं०] सुंदर वस्त्रों से युक्त। अच्छे वस्त्रोंवाला। पुं० सुन्दर पट या वस्त्र। बढ़िया कपड़ा।
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सुपठ  : वि० [सं०] जो सहज में पढ़ा जा सके।
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सुपड़ा  : पुं० [देश०] लंगर का वह अँकुडा़ जो जमीन में धँस जाता है।
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सुपत  : वि० [सं० सु.+हिं० पत=प्रतिष्ठा] अच्छी पत या प्रतिष्ठावाला। प्रतिष्ठित।
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सुपतिक  : पुं० [डिं.] ऐसा डाका जो रात के समय पड़े।
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सुपत्थ  : पुं०=सुपथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपत्नी  : स्त्री० [सं०] १. अच्छी पत्नी। २. स्त्री जिसका पति अच्छा हो।
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सुपत्र  : वि० [सं०] १. सुंदर पत्तोंवाला। २. सुंदर पंखों या परोंवाला। पुं० [सं०] १. तेजपत्र। तेजपत्ता। २. इंगुदी। हिंगोट। ३.हुरहुर। आदित्य-पत्र। ४. एक पौराणिक पक्षी।
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सुपत्रक  : पुं० [सं०] सहिजन।
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सुपत्रा  : स्त्री० [सं०] १. रूद्रजटा। २. शतावार। ३.शालपर्णी। सरिवन। ४. पालक का साग।
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सुपत्रिक  : भू० कृ० [सं०] १. सुन्दर पत्तों या पत्रों से युक्त। २. सुन्दर पंखों या परों से युक्त। ३. अच्छे तीरो से युक्त।
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सुपत्री (त्रिन्)  : वि० [सं०] पंखों या तीरों से भली-भाँति युक्त। स्त्री० गंगापत्नी नाम का पौधा।
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सुपंथ  : पुं० [सं०] सन्मार्ग।
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सुपथ  : पुं० [सं०] १. उत्तम मार्ग। अच्छा रास्ता। सत्पथ। सदाचरण। २. एक प्रकार का छन्द या वृत्त। वि० सम-तल। हमवार।
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सुपथी(थिन्)  : वि० [सं०] सुपथ पर चलनेवाला।
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सुपथ्य  : पुं० [सं०] १. ऐसा आहार या भोजन जो रोगी के लिए हितकर हो। अच्छा पथ्य। २. आम।
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सुपथ्या  : स्त्री० [सं०] बथुआ नामक साग।
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सुपद  : वि० [सं०] १. सुन्दर पैरोंवाला। २. तेज चलने या दौड़नेवाला।
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सुपद्भा  : स्त्री० [सं०] बच। वचा।
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सुपन  : पुं०=स्वप्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपनक  : वि० [हिं० सपना=स्वप्न] स्वप्न देखनेवाला। जिसे स्वप्न दिखाई देता हो।
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सुपना  : पुं०=सपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपनाना  : स० [हिं० सुपना] १. सपना देखना। २. सपना दिखाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपर रायल  : पुं० [अं.] छापे खाने में कागज आदि की एक नाप जो २२ इंच चौड़ी और २९ इंच लंबी होती है।
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सुपरण  : पुं०=सुपर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपरन  : पुं०=सुपर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपरमतुरिता  : स्त्री० [सं०] एक देवी। (बौद्ध)
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सुपरवाइजर  : पुं० [अं.]=पर्यवेक्षक।
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सुपरस  : पुं०=स्पर्श।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपरिंटेंडेंट  : पुं० [अं०]=अधीक्षक।
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सुपर्ण  : वि० [सं०] १. सुंदर पत्तोंवाला। २. सुंदर पंखों या परोंवाला। पुं० १. विष्णु। २. गरुण। ३. देव–गन्धर्व। ४. सोम। ५. किरण। ६. एक वैदिक शाखा जिसमें १॰३ मंत्र हैं। ७. एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना। ८. घोड़ा। ९. चिड़िया। पक्षी। १॰. मुरगा। ११. अमलतास। १२. नागकेसर।
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सुपर्णक  : पुं० [सं०] १. गरूण या दिव्य पक्षी। २. अमलतास। ३. सप्तवर्ण। सतिवन। वि०=सुपर्ण।
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सुपर्णकुमार  : पुं० [सं०] जैनियों के एक देवता।
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सुपर्णकेतु  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. श्रीकृष्ण।
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सुपर्णराज  : पुं० [सं०] गरुण।
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सुपर्णसद्  : वि० [सं०] पक्षी पर चढ़नेवाला। पुं० विष्णु।
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सुपर्णा  : स्त्री [सं०] १. पद्मिनी। कमलिनी। २. गरुड़ की माता। ३. एक प्राचीन नदी।
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सुपर्णांड  : पुं० [सं०] शूद्रा माता और सूत पिता से उत्पन्न पुत्र।
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सुपर्णिका  : स्त्री० [सं०] १. स्वर्ण जीवंती। पीली जीवंती। २. रेणुका नामक गन्ध द्रव्य। २. पलाशी। ४. शालपर्णी। सरिवन।
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सुपर्णी  : स्त्री० [सं०] १. गरुण की माता। सुपर्णी। २. एक देवी का नाम। ३. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक। ४. रात। रात्रि। ५. माता पक्षी। चिड़िया। ६. कमलिनी। ७. रेणुका नामक गन्ध द्रव्य। ८. पलाशी।
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सुपर्णेय  : पुं० [सं०] सुपर्णी के पुत्र, गरुड़।
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सुपर्व  : वि० [सं०] १. सुंदर जोड़ोंवाला। जिसके जोड़ या गाँठें सुंदर हों। २. (ग्रंथ) जिसमें सुंदर पर्व या अध्याय हों। पुं० १. शुभ मुहुर्त। शुभ काल। २. देवता। ३. तीर। वाण। ४. धूआँ। ५. बाँस।
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सुपर्वा  : स्त्री० [सं०] सफेद दूब।
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सुपंसी  : स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका पति वीर्यवान् और सुपुरुष हो।
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सुपाकिनी  : स्त्री० [सं०] आमा हल्दी।
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सुपाक्य  : पुं० [सं०] विडलोण नामक नमक जो अत्यंत पाचक माना गया है।
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सुपाच्य  : वि० [सं०] सहज में पचनें या हजम हो जानेवाला (खाद्य पदार्थ)
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सुपात्र  : पु. [सं०] [स्त्री० सुपात्री] [भाव० सुपात्रता] १. अच्छा और उपयुक्त पात्र या बरतन। २. उत्तम आधार। ३. कोई अधिकारी तथा उपयुक्त व्यक्ति। ४. सुयोग्य व्यक्ति।
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सुपाद  : वि० [सं०] जिसके अच्छे या सुंदर पैर हों।
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सुपार  : वि० [सं०] जिसे सहज में पार किया जा सके।
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सुपारग  : वि० [सं०] जो सहज में पार जा सकता हो। पुं० शाक्य मुनि।
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सुपारा  : स्त्री० [सं०] नौ प्रकार की तुष्टियों में से एक। (सांख्य)
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सुपारी  : स्त्री० [सं० सुप्रिय] १. नारियल की जाति का एक बहुत ऊँचा पेड़। २. उक्त वृक्ष का फल जो छोटी कड़ी गोलियों के रूप में होता है और जिसके छोटे छोटे टुकड़े यों ही अथवा पान के साथ खाये जाते हैं। कसैली। छालिया। मुहा–सुपारी लगना=सुपारी खाने पर उसका कोई टुकड़ा गले की नली में अटकना जिससे कुछ खाँसी और बेचैनी सी होती है। उदा–सोर भयो सकुचे समुझे हरवाहि कह्यो लागि सुपारी। केशव ३. लिंगेन्द्रिय का अगला अंडाकार भाग जो प्रायः सुपारी (फल) की तरह होता है।(बाजारू)
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सुपारी का फूल  : पुं० [हिं० सुपारी+फूल] मोचरस या सेमल का गोंद
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सुपार्श्व  : पुं० [सं०] १. परास पीपल। राजदंड। गर्दभांड। २. पाकर का पेड़। ३. एक प्राचीन पर्वत। ४. एक पौराणिक पीठ-स्थान। ५. जैन धर्म में, सातवें तीर्थंकार। ६. जटायु का भाई संपाती के पुत्र का नाम। वि० सुंदर पार्श्ववाला।।
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सुपिंगला  : स्त्री० [सं०] १. जीवंती। डोडी शाक। २. मालकंगनी।
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सुपीत  : वि० [सु+पीत (पीला)] बहुत या बढ़िया पीला। भू० कृ० [सं० सु+पीत(पीया हुआ)] १. अच्छी तरह या जी भर कर पीया हुआ। २. जिसने अच्छी तरह या जी भर कर पीया हो। पुं० [सं०] १. गाजर। २. पीली कटसरैया। ३. चन्दन। ४. ज्योतिष में, एक प्रकार का मुहुर्त।
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सुपीन  : वि० [सं०] बहुत बड़ा, भारी या मोटा।
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सुपुट  : पुं० [सं०] १. कोलकंद। चमार आलू। २. विष्णुकंद।
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सुपुटा  : स्त्री० [सं०] सेवती। वनमल्लिका।
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सुपुत्र  : पुं० [सं०] १. अच्छा, सुशील और सुयोग्य पुत्र। २. जीवक पुत्र।
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सुपुत्रिका  : वि० [सं०] अच्छे पुत्र या पुत्रोंवाली (स्त्री)। स्त्री० जतुका लता। पपड़ी।
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सुपुर  : पुं० [सं०] पक्का और मजबूत दुर्ग।
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सुपुरुष  : पुं० [सं०] १. सुंदर पुरुष। उत्तम या श्रेष्ठ पुरुष। २. सत्पुरुष।
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सुपुर्द  : पुं०=सुपुर्द।
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सुपुष्करा  : स्त्री० [सं०] स्थल कमलिनी। स्थल पद्मिनी।
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सुपुष्प  : पुं० [सं०] १. लौंग। लवंग। २. परास पीपल। ३. मुचकुंद वृक्ष। ४. शहतूत। ५. पारिभद्र। फरहद। ६. सिदिस। ७. हरिद्रु। हलदुआ। ८. बड़ी सेवती। ९. सफेद मदार। १॰. देवदार। ११. पुंडेरी। वि० सुन्दर फूलों से युक्त।
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सुपुष्पक  : पुं० [सं०] १. शिरीष वृक्ष। सिरिस। २. मुचकुंद। ३. सफेद मदार। ४. पलास। ५. बड़ी सेवती।
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सुपुष्पा  : स्त्री० [सं०] १. कोशातकी। तरोई। तुरई। २. द्रोणपुष्पी। गूमा। ३. सौंफ। ४. सेवती।
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सुपुष्पिका  : स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का विधारा। जीर्णदारु। २. सौफ । ३. सोआ नामक साग। ४. पातालगारुड़ी। ५. बन-सनई।
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सुपुष्पी  : स्त्री० [सं०] १. श्वेत अपराजिता। सफेद कोपल लता। २. सौंफ। ३. केला। ४. सोआ नामक साग। ५. विधारा। ६. द्रोणपुष्पी। गूमा।
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सुपूत  : वि० [सं०] अत्यंत पूत या पवित्र। पुं०=सपूत (सुपुत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपूती  : स्त्री० [हिं० सुपूत+ई (प्रत्य०)] १. सुपूत होने की अवस्था या भाव। सुपूतपन। २. सुपूत का कोई कौशल। सुपूत का वीरतापूर्ण कार्य। ३. स्त्री०, जो सुपूतों की जननी हो। सुपूतों की माता।
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सुपूर  : पुं० [सं०] बीजपुर। बिजौरा नींबू। वि० १. जिसे अच्छी तरह भरा जा सके। २. खूब भरा हुआ। ३. (कार्य) जो सहज में पूरा हो सके।
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सुपूरक  : पुं० [सं०] १. अगस्त वृक्ष। बक-वक्ष। २. बिजौरा नींबू।
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सुपेती  : स्त्री० १. =सुपेदी। २. =सफेदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपेद  : वि०=सफेद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपेदा  : पुं०=सफेदा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुपेदी  : स्त्री० [फा० सफेदी] १. ओढ़ने की रजाई। २. बिछाने की तोशक। ३. बिछौना। बिस्तर। ४. दे० ‘सफेदी’।
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सुपेली  : स्त्री० [हिं० सूप+एली (प्रत्य०)] छोटा सूप।
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सुप्त  : वि० [सं०] [भाव० सुप्ति] १. सोया हुआ। निद्रित। शयित। 2. सोने के उद्देश्य से लेटा हुआ। 3. (पदार्थ का गुण, प्रभाव या बल) जो अन्दर वर्तमान होने पर भी कुछ कारणों से दबा हुआ हो औऱ सक्रिय न हो। प्रसुप्त (डॉर्मेन्ट) ४. ठिठुरा या सिकुड़ा हुआ। ५. जो खिला या खुला न हो। मूँदा हुआ। ६. जो अभी कांम में न आ रहा हो या आ सकता हो। बेकार। ७. सुस्त।
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सुप्त-प्रलपित  : पुं० [सं०] निद्रित अवस्था में होनेवाला प्रलाप। सोये-सोये बकना।
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सुप्त-वाक्य  : पुं० [सं०] निद्रित अवस्था में कहे हुए वाक्य या बातें।
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सुप्त-विज्ञान  : पुं० [सं०] स्वप्न। सपना।
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सुप्तक  : पुं० [सं०] निद्रा। नींद।
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सुप्तज्ञान  : पुं० [सं०] स्वप्न।
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सुप्तता  : स्त्री० [सं०] सुप्त होने की अवस्था या भाव।
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सुप्तध्न  : वि० [सं०] १. सोये हुए प्राणी पर आघात या वार करनेवाला। २. हिंसक।
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सुप्तमाली  : पुं० [सं० सुप्तमालिन्] पुराणानुसार तेइसवें कल्प का नाम।
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सुप्तस्थ  : वि० [सं०] सोया हुआ। निद्रित।
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सुप्तांग  : पुं० [सं०] वह अंग जिसमें चेतना या चेष्टा न रह गई हो। निष्चेष्ट अंग।
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सुप्तांगता  : स्त्री० [सं०] सुप्तांग होने की अवस्था या भाव अंगों की निश्चेष्टता।
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सुप्ति  : स्त्री [सं०] १. सोये हुए होने की अवस्था या भाव। निद्रा। नींद। २. उँघाई। निदाँस। ३. प्रत्यय। विश्वास। ४. सुप्तांगता।
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सुप्तोत्थित  : वि० [सं०] जो अभी सोकर उठा हो। नींद से जागा हुआ।
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सुप्रकेत  : वि० [सं०] १. ज्ञानवान्। २. बुद्धिमान्।
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सुप्रचेता  : वि० [सं० सुप्रचेतस्] बहुत बड़ा बुद्धिमान या समझदार।
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सुप्रज  : वि० [सं०] अचछी और यथेष्ट सन्तान से युक्त।
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सुप्रजा  : वि० [सं०] १. उत्तम संतान। अच्छी औलाद। २. अच्छी प्रजा या रिआया।
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सुप्रजात  : वि० [सं०] सुप्रज। (दे०)
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सुप्रज्ञ  : वि० [सं०] बहुत बद्धिमान्।
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सुप्रतर  : वि० [सं०] (जलाशय) जो सहज में तैरकर या नाव से पार किया जा सके।
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सुप्रतिज्ञ  : वि० [सं०] जो अपनी प्रतिज्ञा से न हटे। दृढ़-प्रतिज्ञ।
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सुप्रतिभा  : स्त्री० [सं०] मदिरा। शराब।
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सुप्रतिष्ठ  : वि० [सं०] १. अच्छी प्रतिष्ठावाला। २. बहुत प्रसिद्ध। पुं० १. एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना। २. एक प्रकार की समाधि। (बौद्ध)
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सुप्रतिष्ठा  : स्त्री० [सं०] १. देव-मन्दिर, प्रतिभा आदि की स्थापना। २. अभिषेक। ३. अच्छी प्रतिष्ठा या स्थिति। ४. प्रसिद्धि। ५. कार्तिकेय की एक मातृका।
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सुप्रतिष्ठित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी अच्छी तरह से प्रतिष्ठा या स्थापना की गई हो। २. जिसकी लोक में प्रतिष्ठा हो। पुं० १. गूलर। २. एक प्रकार की समाधि।
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सुप्रतीक  : पुं० [सं०] १. अच्छा या उपयुक्त प्रतीक। २. शिव। ३. कामदेव। ३. ईशान कोण के दिग्गज का नाम। वि० १. सुन्दर। २. सज्जन।
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सुप्रतीकिनी  : स्त्री० [सं०] सुप्रतीक नामक दिग्गज की हथिनी।
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सुप्रदर्श  : वि० [सं०] जो देखने में सुन्दर हो प्रियदर्शन। सुदर्शन।
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सुप्रदीप  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सुप्रदोहा  : वि० स्त्री० [सं०] (मादा प्राणी) जिसका दूध सहज में दूहा जा सके।
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सुप्रभ  : वि० [सं०] १. सुंदर प्रभा या चमकवाला। प्रकाशवान्। २. सुन्दर। पुं० १. पुराणानुसार शाल्मली द्वीप के अन्तगर्त एक वर्ष या भू-भाग। २. जैनियों को नौ बलों (जिनों) में से एक।
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सुप्रभा  : स्त्री [सं०] १. स्कंद की एक मातृका। २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक। ३. सात सरस्वतियों में से एक। ४. सोमराजी। बकुची। पुं० पुराणानुसार पृथ्वी का एक वर्ष या खंड जिसके अधिष्ठाता देवता ‘सुप्रभ’ कहे गये हैं।
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सुप्रभात  : पुं० [सं०] १. प्रभात का आरम्भिक समय।। २. मंगलमय प्रभात। ३. वह प्रभात जिससे आरम्भ होनेवाला दिन मंगलकारक और शुभ हो।
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सुप्रभाता  : स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार एक नदी का नाम। वि० (रात) जिसका प्रभाव शुभ या सुंदर हो।
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सुप्रभाव  : वि० [सं०] १. प्रभावपूर्ण। २. शक्तिशाली।
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सुप्रलंभ  : वि० [सं०] जो सहज में प्राप्त हो सके। सुलभ।
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सुप्रलाप  : पुं० [सं०] सुन्दर भाषण।
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सुप्रश्न  : पुं० [सं०] कुशल-मंगल जानने के लिए किया जानेवाला प्रश्न।
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सुप्रसन्न  : वि० [सं०] १. अत्यंत प्रसन्न। २. अत्यंत निर्मल। ३. अच्छी तरह खिला या फूला हुआ। पुं० कुबेर का एक नाम।
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सुप्रसाद  : वि० [सं०] १. अत्यंत प्रसन्नता। २. शिव। ३. विष्णु। ४. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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सुप्रसादक  : पुं०=सुप्रसाद।
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सुप्रसिद्ध  : वि० [सं०] [भाव० सुप्रसिद्धि] बहुत अधिक प्रसिद्ध। बहुत मशहूर।
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सुप्रसू  : वि० स्त्री० [सं०] (मादा-प्राणी) जो सहज में अर्थात् बिना विशेष कष्ट के प्रसव करे।
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सुप्रिय  : वि० [सं०] अत्यंत प्रिय। बहुत प्यारा।
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सुप्रिया  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का सम–वृत्त वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में चार नगण और एक सगण रहता है। यह चौपाई का ही एक रूप है। यथा-कहुँ द्विज गन मिलि सुख स्त्रुति पढ़ही।–केशव। (कुछ लोग इसे‘सुचिरा’ भी कहते हैं।)
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सुफरा  : पुं० [देश०] चौकी या मेज पर बिछाने का कपड़ा।
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सुफल  : वि० [सं०] १. सुन्दर फलवाला। २. जिसका या जिसके फल अच्छे और सुन्दर हों। ३. कृतकार्य। सफल। पुं० [सं०] १. वृक्ष का अच्छा और सुन्दर फल। २. किसी काम या बात का अच्छा परिणाम या फल। मुहा०–सुफल बोलना=धार्मिक कृत्य, श्राद्ध आदि के उपरान्त अन्तिम दक्षिणा लेकर पंडे, पुरोहित आदि का यजमान से कहना कि तुम्हें इस कार्य का सुफल मिलेगा। ३. अनार। ४. बादाम। ५. बेर। ६. कैथ। ७. मूँग। ८. बिजौरा नींबू।
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सुफलक  : पुं० [सं०] अक्रूर के पिता का नाम।
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सुफला  : वि० स्त्री० [सं०] १. यथेष्ट या सुन्दर फल अथवा फलों से युक्त। २. तेज धारवाली (कटार, छुरी या तलवार)। स्त्री० १. इन्द्रायण। इन्द्रवारुणी। २. कुम्हड़ा। ३. केला। ४. मुनक्का। ५. काश्मरी। गंभारी।
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सुफुल्ल  : वि० [सं०] १. सुन्दर फूलोंवाला। २. अच्छी तरह फूला हुआ (पेड़ या पौधा)।
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सुफेद  : वि० [भाव० सुफेदी]=सफेद।
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सुफेन  : पुं० [सं०] समुद्र-फेन।
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सुफेर  : पुं० [सं० सु+हिं० फेर] १. शुभ या लाभदायक अवसर या स्थिति। २. अच्छी दशा या अच्छे दिन। ‘कुफेर’ का विपर्याय।
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सुबड़ा  : पुं० [देश०] ऐसी चाँदी जिसमें ताँबा या और कोई धातु मिली हुई हो।
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सुबंत  : वि० [सं०] (व्याकरण में शब्द) जो सुप् विभक्तियों से (अर्थात प्रथमा से सप्तमी तक की किसी विभक्ति से) युक्त हो।
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सुबंध  : वि० [सं०] अच्छी तरह बँधा हुआ। पुं० तिल।
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सुबंधु  : वि० [सं०] जिसके अच्छे बंधु या मित्र हों।
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सुबरन  : पुं० १. स्वर्ण (सोना)। २. सुवर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुबरनी  : स्त्री० [सं० सुवर्ण] छड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुबल  : वि० [सं०] [स्त्री० सुबला] बली। शक्तिशाली। पुं० १. शिवजी का एक नाम। २. वैनतेय का वंशज एक पक्षी। ३. पुराणानुसार भौत्य मनु का एक पुत्र। ४. धृतराष्ट्र के ससुर गंधार नरेश।
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सुबस  : वि० [हिं० सु+बसना] अच्छी तरह बसा हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० स्ववश] स्वतन्त्र। स्वाधीन। अव्य० १. स्वतंत्रतापूर्वक। २. अपनी इच्छा से।
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सुबह  : स्त्री० [अ०] १. दिन के निकलने का समय। सबेरा। मुहा०–सुबह-शाम करना=(क) किसी प्रकार जीवन के दिन बिताना। (ख) बार बार यह कहकर टालना कि आज संध्या को अमुक काम कर देंगे, कल सबेरे कर देंगे। टाल-मटोल करना। २. व्यापक अर्थ में मध्याह्व से पहले तक का समय। जैसे-कालेज आजकल सुबह का है। ३. आरंम्भिक अंश। जैसे–जिंदरी की सुबह।
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सुबह-दम  : अव्य० [अ० सुबह+फा० दम] बहुत सबेरे। तड़के।
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सुबहान  : पुं० [अ०] ईश्वर का पवित्र भाव से स्मरण करना। लोक में ‘सुभान’ के रूप में प्रचलित।
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सुबहान अल्ला  : अव्य० [अ०] जिसका अर्थ है–मैं ईश्वर को पवित्र ह्वदय से स्मरण करता हूँ; और जिसका प्रयोग प्रशंसात्मक रूप में विशेष आश्चर्य या हर्ष प्रकट करने के लिए होता है।
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सुबहानी  : वि० [अ०] ईश्वरीय।
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सुबही  : वि० [अ० सुबह+ही (प्रत्य०)] सुबह का। जैसे–सुबही तारा।
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सुंबा  : पुं० [देश०] [स्त्री० अल्पा० सुंबी०] १. वह गीला कपड़ा या पुचारा जिसे तोप की गरम नाल पर उसे ठंढा रखने के लिए फेरते या फैलाते थे। २. तोप की नाल साफ करने का गज। ३. लोहे में छेद करने का एक प्रकार का औजार। ४. इस्पंज।
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सुबाल  : वि० [सं०] १. जो अभी बिलकुल बच्चा (अर्थात अबोध या नादान) हो। २. बच्चों का सा। बचकाना। पुं० १. अच्छा बालक। अच्छा लड़का। २. एक देवता का नाम। ३. एक उपनिषद्।
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सुबास  : पुं० [सं० सु+वास] एक प्रकार का अगहनी धान।
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सुबासना  : स्त्री० [सं० सु+वास] अच्छी महक। सुगंध। खुशबू। स० सुवास या सुगन्ध से युक्त करना। सुगंधित करना। महकाना।
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सुबासिक  : वि०=सुवासित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुबासित  : वि०=सुवासित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुबाहु  : वि० [सं०] १. सुन्दर बाहोंवाला २. सशक्त भुजाओंवाला। ३. वीर। बहाहुर। पुं० १. एक बोधिसत्व। २. नागासुर। ३. कार्तिकेय का एक अनुचर। ४. शत्रुध्न का एक पुत्र। ५. पुराणानुसार श्रीकृष्ण का एक पुत्र। ६. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ७. एक राक्षस, जो मारीच का भाई था अगस्त मुनि के शाप से राक्षस हो गया था। स्त्री० सेना।
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सुबिस्ता  : पुं०=सुभीता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुंबी  : स्त्री० [हिं० सुंबा] लोहा काटने की छेनी।
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सुबीज  : वि० [सं०] अच्छे बीजोंवाला। पुं० १. अच्छा और बढ़िया बीज। २. शिव। महादेव। ३. पोस्ते का दाना। खसखस।
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सुबीता  : पुं०=सुभीता।
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सुबुक  : वि० [फा०] १. कम भारवाला। हलका। जैसे–सुबुक गहने। २. जो अधिक गहरा या तेज न हो। जैसे-सुबुक रंग। ३. जिसमें ज्यादा जोर न लगे न लगाया जाय। जैसे– सुबुक हाथ से लिखना। पुं० एक प्रकार का घोड़ा।
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सुबुक-दोश  : वि० [फा०] [भाव० सुबुक-दोशी] जिसके कन्धों पर से उत्तरदायित्व या कोई और भार उत्तर गया हो।
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सुबुकी  : स्त्री० [फा०] १. सुबुक होने की अवस्था या भाव। हलका पन। २. लोक में होने वाली कुछ या सामान्य अप्रतिष्टा। हेठी।
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सुबुद्धि  : वि० [सं०] उत्तम बुद्धिवाला। बुद्धिमान। स्त्री० अच्छी या उत्तम बुद्धि।
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सुबुध  : वि० [सं०] १. बुद्धिमान। धीमान्। २. सतर्क। सावधान। स्त्री०=सुबुद्धि।
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सुंबुल  : पुं०=संबुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुबू  : पुं० [फा०] मिट्टी का घड़ा। स्त्री०=सुबह (सबेरा)।
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सुबूत  : वि०=साबुत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=सबूत (प्रमाण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुबोध  : वि० [सं०] (बात या विषय) जो सहज में समझ में आ जाय। सरल और बोधगम्य। जैसे–सुबोध व्याख्यान। पुं० अच्छा बोध या ज्ञान।
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सुब्रह्य वासुदेव  : पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
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सुब्रह्यण्य  : वि० [सं०] ब्रह्यण्य के सब गुणों से युक्त। पुं० १. शिव। २. विष्णु। ३. कार्तिकेय। ४. यज्ञों में उद्धाता पुरोहित या उसके तीन सहकारियों में से एक । ५. कन्नड़ प्रदेश का एक प्राचीन प्रदेश जो पवित्र तीर्थ माना जाता था।
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सुंभ  : पुं० १. =शुंभ। २. =सुभ।
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सुभ  : वि०=शुभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभक्ष्य  : वि० [सं०] भक्षण के योग्य। पुं० अच्छा और बढ़िया भोजन।
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सुभंग  : पुं० [सं०] नारियल का पेड़।
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सुभग  : वि० [सं०] [स्त्री० सुभगा, भाव० सुभगता] १. जिसका भाग्य अच्छा हो। भाग्यवान्। फलतः समृद्ध और सुखी। २. सुन्दर। ३. प्रिय। ४. सुखद। पुं० 1. सौभाग्य। २. सौभाग्य का सूचक कर्म। (जैन) ३. शिव। ४. चंपा। ५. अशोक वृक्ष। ६. पत्थर फूल। ७. गंधक।
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सुभगता  : स्त्री० [सं०] १. सुभग होने की अवस्था, गुण या भाव। २. सौभाग्य का सूचक लक्षण। ३. प्रेम। स्नेह। ४. स्त्री के द्वारा प्राप्त होनेवाला सुख।
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सुभगा  : स्त्री० [सं०] १. सौभाग्यवती स्त्री। सधवा। २. ऐसी स्त्री जो अपने पति को प्रिय हो। प्रियतमा पत्नी। ३. कार्तिकेय की एक अनुचरी। ४. पाँच वर्ष की बालिका।। ५. संगीत में एक प्रकार की रागिनी। ६. तुलसी। ७. हलदी। ८. नीली दूब। ९. केवटी मोथा। १॰. कस्तूरी। ११. प्रियंगु। १२. सोन केला। १३. बेला। वि० [सं०] ‘सुभग’ का स्त्री०।
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सुभगानन्द  : पुं० [सं०] तांत्रिका के एक भैरव।
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सुभग्ग  : वि०=सुभग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभट  : पुं० [सं०] [भाव० सुभटता] बहुत बड़ा योद्धा या वीर।
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सुभटवंत  : पुं०=सुभट।
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सुभट्ट  : पुं० [सं०] बहुत बड़ा पण्डि़त। दिग्गज विद्वान।
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सुभड़  : पुं०=सुभट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभद  : वि०=शुभद (शुभकारक)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभद्र  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. सनत्कुमार। ३. पुराणानुसार प्लक्ष द्वीप का एक वर्ष या भू-भाग। ४. भैरवी के गर्भ से उत्पन्न वसुदेव का एक पुत्र। ५. सौभाग्य। ६. मंगल। कल्याण। वि० १. अत्यंत भाग्यवान्। २. भला।
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सुभद्रक  : पुं० [सं०] १. देवरथ। २. बेल का पेड़ या दल।
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सुभद्रा  : स्त्री० [सं०] १. श्रीकृष्ण और बलराम की बहन तथा अभिमन्यु की माता जो अर्जुन को ब्याही थी। २. दुर्गा की एक मूर्ति या रूप। ३. कुछ आचार्यों के मत से संगीत में एक श्रुति। ४. बालि की पुत्री जो अवीक्षित को ब्याही थी। ५. एक प्राचीन नदी। ६. अनन्तमूल। ७. काश्मरी। गंभारी। ८. मकड़ा नाम की घास।
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सुभद्राणी  : स्त्री० [सं०] त्रायमाण लता। त्रायंती।
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सुभद्रिका  : स्त्री० [सं०] १. श्रीकृष्ण की छोटी बहन। २. एक प्रकार का छन्द या वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में न, न, र, ल और ग होता है।
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सुभद्रेश  : पुं० [सं०] सुभद्रा के पति, अर्जुन।
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सुभना  : अ० [सं० सुशोभन] सुशोभित होना। सुन्दर जान पड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभर  : वि०=शुभ्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=सुभट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभव  : वि० [सं०] जिसका उद्भव या जन्म अच्छे रूप से हुआ हो। पुं० साठ संवत्सरों में से अन्तिम संवत्सर।
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सुंभा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० सुंभी]=सुंबा।
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सुभा  : स्त्री०=शोभा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=सुबह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभाइ  : पुं०=स्वभाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=सुभाएँ।
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सुभाउ  : पुं०=स्वभाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभाएँ  : अव्य० [सं० स्वभावतः] स्वभाव से ही। स्वभावतः। अव्य० [सं० सद्-भावतः] अच्छे भाव या विचार से। सहज भाव से।
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सुभाग  : वि० [सं०] भाग्यवान्। खुशकिस्मत। पुं०=सौभाग्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभागी  : वि० [सं० सुभाग] भाग्यवान्। भाग्यशाली। खुशकिस्मत। वि० [हिं० सुभाग] [स्त्री० सुभागिनी] भाग्यवान्। सौभाग्यशाली।
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सुभाग्य  : वि० [सं०] अत्यन्त भाग्यशाली। बहुत बड़ा भाग्यवान्। पुं०=सौभाग्य।
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सुभांजन  : पुं०=शोभांजन (सहिजन)।
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सुभान  : पुं० दे०=‘सुबहान’।
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सुभान-अल्ला  : अव्य० दे० ‘सुबहान-अल्ला’।
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सुभाना  : अ० [हिं० शोभना] १. शोभित होना। देखने में भला जान पड़ना। फबना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभानु  : पुं० [सं०] १. चतुर्थ हुतास नामक युग के दूसरे वर्ष का नाम। २. कृष्ण का एक पुत्र। वि० बहुत अधिक प्रकाशमान्।
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सुभाय  : पुं०=स्वभाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभायक  : वि० [सं० स्वाभाविक] जो स्वभाव से ही होता हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभाव  : पुं०=स्वभाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभावित  : भू० कृ० [सं०] १. अच्छी तरह सोचा-विचारा हुआ। २. (औषध) जिसकी अच्छी तरह भावना की गई हो। अच्छी तरह तैयार किया हुआ।
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सुभाषण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सुभाषित] सुन्दर भाषण।
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सुभाषिणी  : वि० [सं०] सं० ‘सुभाषी’ का स्त्री०। स्त्री० संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सुभाषित  : भू० कृ० [सं०] अच्छे ढंग से कहा हुआ (कथन आदि)। पुं० १. वह उक्ति या कथन जो बहुत अच्छा या सुन्दर हो। सूक्ति। २. कोई ऐसी विलक्षण और सुन्दर बात जिससे हास्य भी उत्पन्न हो। चोज। (विट) ३. एक बुद्ध का नाम।
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सुभाषी (षिन्)  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह से बोलनेवाला। २. प्रिय और मधुर बातें करनेवाला।
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सुभास  : वि० [सं०] बहुत प्रकाशवान्। खूब चमकीला।
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सुभास्वर  : वि० [सं०] खुब चमकनेवाला। दीप्तिमान्। पुं० पितरों का एक गण या वर्ग।
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सुभिक्ष  : पुं० [सं०] १. मूलतः ऐसा समय जब भिक्षुकों को सहज में यथेष्ट भिक्षा मिलती हो। २. फलतः ऐसा काल या समय जब देश में अन्न पर्याप्त हो और सब लोगों को सहज में यथेष्ट मात्रा में मिलता हो। सुकाल। ‘दुर्भिक्ष’ का विपर्याय। ३. अन्न की प्रचुरता।
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सुंभी  : स्त्री०=सुंबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभी  : वि० स्त्री० [सं०] शुभकारक। मंगलकारक।
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सुभीता  : पुं० [सं० सुविधा] १. ऐसी स्थिति जो किसी व्यक्ति या बात के लिए अनुकूल हो और जिसमें कठिनाइयाँ, बाधाएँ आदि अपेक्षया कम हों या कुछ भी न हों। अच्छा अनुकूल और उपयुक्त अवसर या परिस्थिति। २. आराम। सुख। क्रि० प्र०–देना।–पाना।–मिलना।
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सुभुज  : वि० [सं०] सुन्दर भुजाओंवाला। सुबाहु।
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सुभूता  : स्त्री० [सं०] उत्तर दिशा जिसमें प्राणी भली प्रकार स्थित होते हैं।(छांदोग्य)
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सुभूति  : स्त्री [सं०] १. कुशल। क्षेम। मंगल। २. उन्नति। तरक्की।
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सुभूम  : पुं० [सं०] कार्तवीर्य जो जैनियों के आठवें चक्रवर्ती थे।
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सुभूमिक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद जो सरस्वती नदी के किनारे था। (महाभारत)
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सुभूषण  : वि० [सं०] सुन्दर आभूषणों से अलंकृत। अच्छे अलंकार धारण करनेवाला।
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सुभूषित  : भू० कृ० [सं०] अच्छी तरह भूषित किया हुआ। भली भाँति अलंकृत।
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सुभृष  : वि० [सं०] बहुत अधिक। अत्यन्त।
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सुभोग्य  : वि० [सं०] अच्छी तरह भोगे जाने के योग्य।
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सुभौटी  : स्त्री० [सं० शोभा+हिं० टी (प्रत्य०)] शोभा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभौम  : पुं० [सं०] एक चक्रवर्ती राजा जो कार्तवीर्य के पुत्र थे। (जैन)
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सुभ्र  : पुं० [?] जमीन में का बिल। (डिं०) वि०=शुभ्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुभ्रू  : वि० [सं०] सुन्दर भौंहौंवाला। स्त्री० १. नारी। स्त्री। औरत। २. कार्तिकेय का एक मातृका।
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सुम  : पुं० [सं०] १. पुष्प। फूल। २. चन्द्रमा। ३. आकाश। पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जो असाम में होता है और जिस पर ‘मूगा’ (रेशम) के कीड़े पाले जाते हैं। पुं० [फा०] चौपायों का खुर। टाप।
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सुम-खारा  : पुं० [फा० सुम+खार] ऐसा घोड़ा जिसकी एक (आँख की) पुतली बेकार हो गई हो।
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सुम-फटा  : पुं० [फा० सुम+हिं० फटना] घोड़ों का एक प्रकार रोग जो उनके खुर के ऊपरी भाग से तलवे तक होता है।
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सुम-सायक  : पुं० [सं० सुमन+सायक] कामदेव। (डिं०)
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सुम-सुखड़ा  : वि० [फा० सुम+हिं० सूखना] (घोड़ा) जिसके खुर सूख कर सिकुड़ गये हों। पुं० घोड़ों का एक रोग जिसमें उनके सुम या खुर सूखने लगते हैं।
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सुमख  : पुं० [सं०] आनन्दोत्सव।
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सुमंगल  : वि० [सं०] १. अत्यंत शुभ। कल्याणकारी। २. सदाचारी। पुं० एक प्रकार का विष।
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सुमंगला  : स्त्री० [सं०] १. कार्तिकेय की एक मातृका। २. एक प्राचीन नदी। ३. मकड़ा नामक घास।
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सुमंगली  : स्त्री० [सं० सुमंगला] १. विवाह के समय सप्तपदी पूजा करने के उपलक्ष्य में पुरोहित को दी जानेवाली दक्षिणा। २. नव-विवाहिता स्त्री। वधू।
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सुमंगा  : स्त्री० [सं०] एक पौराणिक नदी।
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सुमंत  : पुं०=सुमंत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुमत  : वि०=सुमति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुमति  : वि० [सं०] सुन्दर मति (बुद्धि या विचार) वाला। २. बुद्धिमान्। होशियार। स्त्री० १. अच्छी मति या बुद्धि। २. लोगों में आपस में होनेवाला मेल-जोल और सद्भाव। उदा०–जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।–तुलसी। ३. राजा सगर की पत्नी जिससे ६॰ हजार पुत्र उत्पन्न हुए थे। (पुराण) ४. मैना पक्षी। पुं० १. वर्तमान अवसयर्पिणी के पाँचवें अर्हत। (जैन) २. भरत का एक पुत्र। ३. जनमेजय का एक पुत्र।
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सुमंतिजय  : पुं० [सं०] विष्णु।
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सुमंत्र  : पुं० [सं०] १. राजा दशरथ के मंत्री और सारथि का नाम। २. प्राचीन भारत में राज्य के आय-व्यय की व्यवस्था करनेवाला मंत्री। अर्थमंत्री।
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सुमंत्रित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे अच्छी सलाह मिली या दी गई हो। जो विचार-विमर्श के उपरान्त प्रस्तुत किया गया हो। जैसे–सुमंत्रित योजना।
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सुमंथन  : पुं० [सु+मंथ=पर्वत] मंदर पर्वत।
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सुमद  : वि० [सं०] मदोन्मत्त। मतवाला।
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सुमदन  : पुं० [सं०] आम का पेड़ और फल।
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सुमदना  : स्त्री० [सं०] एक पौराणिक नदी।
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सुमंदर  : पुं०=समुद्र।
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सुमंदा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की दिव्य शक्ति।
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सुमंद्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का छन्द या वृत्त।
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सुमधुर  : वि० [सं०] बहुत अधिक मधुर या मीठा। पुं० जीव शाक।
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सुमध्य  : वि० [सं०] [स्त्री० सुमध्या] १. जिसका मध्य भाग सुन्दर हो। २. पतली कमरवाला।
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सुमध्यमा  : वि० स्त्री० [सं०] सुन्दर कमरवाली (स्त्री)।
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सुमन  : वि० [सं० सुमनस्] १. अच्छे मन या ह्वदय वाला। सह्वदय। २. मनोहर। सुन्दर। पुं० १. देवता। २. पण्डित। विद्वान। ३. पुष्प। फूल। ४. पुराणानुसार प्लक्ष द्वीप का एक पर्वत। ५. मित्र और सहायक। (डिं०) ६. गेहूँ। ७. धतूरा। ८. नीम। ९. घृतकरंज।
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सुमन-चाप  : पुं० [सं०] कामदेव जिसका धनुष फूलों का माना गया है।
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सुमन-प्रध्वज  : पुं० [सं० सुमनस्+ध्वज] कामदेव।
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सुमनस् (नस्)  : वि० [सं०] १. अच्छे ह्वदयवाला। सहृदय। २. सदा प्रसन्न रहनेवाला। पुं० १. देवता २. फूल।
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सुमनस्क  : वि० [सं०] १. प्रसन्न। खुश।। २. सुखी।
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सुमना  : स्त्री० [सं०] १. चमेली। २. सेवती। ३. कबरी गाय। ४. दशरथ की पत्नी कैकेयी का वास्तविक नाम।
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सुमनायन  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रर्वतक ऋषि।
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सुमनिका  : स्त्री०=एक प्रकार का छन्द या वृत्त।
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सुमनित  : भू० कृ० [सं० सुमणि+त (प्रत्य०)] सुन्दर मणियों से युक्त किया हुआ। उत्तम मणियों से जड़ा हुआ। वि० [सं० सुमन से] फूलों से युक्त।
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सुमनोत्तरा  : स्त्री० [सं०] राजाओं के अन्तःपुर में रहनेवाली स्त्री।
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सुमनौकस  : स्त्री० [सं०] देवलोक। स्वर्ग।
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सुमन्यू  : वि० [सं०] अत्यन्त क्रोधी। बहुत गुस्सेवर।
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सुमर  : पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. स्वाभाविक रूप से होनेवाली मृत्यु।
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सुमरन  : पुं०=स्मरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=सुमरनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुमरना  : सं०=सुमिरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुमरनी  : स्त्री०=सुमिरनी।
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सुमरा  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो नदियों और विशेष कर गरम झरनों में पाई जाती है।
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सुमरीचिका  : स्त्री० [सं०] पाँच बाह्य तुष्टियों में से एक। (सांख्य)
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सुमर्मग  : वि० [सं०] (तीर या वाण) जो मर्मस्थान के अन्दर तक घुस जाता हो।
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सुमल्लिक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद।
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सुमात्रा  : पुं० मलय द्वीप-पुंज का एक प्रसिद्ध बड़ा द्वीप जो बोर्नियो के पश्चिम और जावा के उत्तर-पश्चिम में है।
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सुमानस  : वि० [सं०] अच्छे मनवाला। सहृदय।
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सुमानी (निन्)  : वि० [सं०] १. बहुत बड़ा अभिमानी। २. प्रतिष्ठित। सम्मानित। उदा०–ये हमारे मार्ग के तारे सुमानी।–मैथिलीशरण।
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सुमान्य  : वि० [सं०] विशेष रूप से मान्य और प्रतिष्ठित। पुं० १. आज-कल कलकत्ते, बम्बई आदि बड़े नगरों में एक विशिष्ट अवैतनिक राजपद, जिस पर वियुक्त होनेवाले व्यक्ति को शान्ति, रक्षा और न्याय संबंधी कछ अधिकार प्राप्त होते हैं। २. इस पद पर नियुक्त होनेवाला व्यक्ति। (शेरिफ़)
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सुमाय  : वि० [सं०] १. माया से युक्त। २. बहुत बुद्धिमान।
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सुमार  : स्त्री० [हिं० सु+मारना] अच्छी तरह पड़नेवाली मार। गहरी मार। उदा०–‘हूठयौ’ दै इठलाय हम करै गँवारि सुमार।–बिहारी। पुं०=शुमार (गिनती)।
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सुमार्ग  : पुं० [सं०] उत्तम और श्रेयस्कर रास्ता।
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सुमार्गी  : वि० [सं०] अच्छे मार्ग पर चलनेवाला।
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सुमाल  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद। (महाभारत)
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सुमालिनी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वर्णवृत्त।
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सुमाली (लिन्)  : पुं० [सं०] एक राक्षस जो सुकेश का पुत्र था। २. राम की सेना का एक वानर। पुं० [फा० शुमाल] एक अरब जाति जो अफ्रीका के उत्तर-पूर्वी सिरे पर और अदन की खाड़ी के दक्षिणी भाग में रहती है।
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सुमाल्यक  : पुं० [सं०] एक पौराणिक पर्वत।
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सुमावलि  : स्त्री० [सं०] १. फूलों की अवली या कतार। २. फूलों की माला।
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सुमित्र  : पुं० १. पुराणानुसार श्रीकृष्ण का एक पुत्र। २. अभिमन्यु का सारथि। ३. मगघ का एक राजा जो अर्हत सुव्रत का पिता था। ४. इक्ष्वाकु वंश के अंतिम राजा सुरथ के पुत्र का नाम।
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सुमित्रभू  : पुं० [सं०] १. जैनियों के चक्रवर्ती राजा सगर का नाम। २. वर्तमान अवसर्पिणी के बीसवें अर्हत का नाम।
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सुमित्रा  : स्त्री० [सं०] १. राजा दशरथ की एक पत्नी जो लक्ष्मण तथा शत्रुध्न की माता। २. मार्कण्डेय ऋषि की माता का नाम।
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सुमित्रा-नंदन  : पुं० [सं०] रानी सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न।
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सुमित्र्य  : वि० [सं०] उत्तम मित्रोंवाला। जिसके अच्छे मित्र हों।
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सुमिरण  : पुं० १. स्मरण। २.=सुमरन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुमिरना  : स० [सं० स्मरण] १. स्मरण करना। चिंतन करना। ध्यान करना। २. सुमिरनी फेरते हुए देवता आदि का बार बार नाम लेते रहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुमिरनी  : स्त्री० [हिं० सुमरना+ई (प्रत्य०)] १. नाम जपने की छोटी माला जो सत्ताइस दानों की होती है। २. हाथ में पहनने का एक प्रकार का दानेदार गहना।
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सुमिराना  : सं० [हिं० सुमिरना] किसी को सुमिरने में प्रवृत्त करना।
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सुमिरिनिया  : स्त्री०=सुमिरनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुमुख  : वि० [सं०] [स्त्री० सुमुखी] १. सुन्दर मुखवाला। २. मनोहर। सुन्दर। ३. प्रसन्न। ४. अनुकूल। ५. अत्यन्त नुकीला (तीर)। पुं० १. शिव। २. गणेश। ३. पण्डित। विद्वान। ४. गरुड़ का एक पुत्र। ५. द्रोण का पुत्र। ६. एक प्रकार का जलपक्षी। ७. एक प्रकार का साग। ८. तुलसी। ९. राई।
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सुमुखा  : स्त्री० [सं०] सुन्दरी स्त्री। वि० स्त्री० जिसका प्रवेश द्वार अच्छा हो।
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सुमुखी  : स्त्री० [सं० सुमुख-ङीष्] १. सुन्दर मुखवाली स्त्री। २. दर्पण। ३. संगीत में एक प्रकार की मूर्च्छना। ४. सवैया छंद का तीसरा भेद जिसके प्रत्येक चरण में सात जगण और तब लघु और गुरु वर्ण होता है। मदिरा सवैया के आदि में लघु वर्ण जोड़ने से यह छंद बनता है। इसमें ११ और १२ वर्णों पर यति होती है। ५. नीली अपराजिता। नीली कोयल। ६. शंखपुष्पी। शंखाहुलि।
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सुमूर्ति  : पुं० [सं०] शिव का एक गण।
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सुमूल  : वि० [सं०] १. (वृक्ष) जिसकी जड़े अच्छी हों। दीर्घ तथा पुष्ट जड़ोंवाला। २. उत्तम आधार वाला। ३. जिसका मूल अर्थात् आरम्भ अच्छा हो। पुं० १. उत्तममूल। २. सफेद सहिजन।
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सुमूलक  : पुं० [सं०] गाजर।
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सुमूला  : स्त्री० [सं०] १. सरिवन। शालपर्णी। २. पिठवन।
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सुमृग  : पुं० [सं०] १. श्रेष्ट जानवर। २. वन या वनस्थली जिसमें बहुत से जंगली जानवर रहते हों। ३. वह स्थान जहाँ शिकार के लिए जंगली जानवर मिलते हों।
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सुमृति  : स्त्री०=स्मृति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुमेखल  : पुं० [सं०] मूँज। मुंजतृण।
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सुमेड़ी  : स्त्री० [?] खाट बुनने का बाध।
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सुमेद्य  : पुं० [सं०] रामायण के अनुसार एक पर्वत।
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सुमेध  : वि०=सुमेधा।
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सुमेधा (धस्)  : [सं०] जिसकी मेद्या-शक्ति अर्थात बुद्धि बहुत अच्छी हो। मेधावी। पुं० १. चाक्षष मन्वन्तर के एक ऋषि। २. पाँचवें मन्वन्तर के विशिष्ट देवता।। ३. पितरों का एक वर्ग या गण। स्त्री० मालकंगनी।
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सुमेध्य  : वि० [सं०] अत्यन्त पवित्र। बहुत पवित्र।
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सुमेर  : पुं० [सं० सुमेरु] १. गंगाजल रखने का बड़ा पात्र। २. दे० ‘सुमेरु’।
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सुमेर  : पुं० [सं०] १. एक कल्पित पर्वत जो पुराणों में सब पर्वतों का राजा और सोने का कहा गया है। कहते हैं कि अस्त होने पर सूर्य इसी की औट में हो जाता है। २. जप करने की माला में सबके ऊपर वाला अपेक्षाकृत कुछ बड़ा दाना। ३. उत्तरी ध्रुव। (नार्थ पोल) ४. दक्षिणी इराक का पुराना नाम। ५. पिंगल में एक प्रकार का छन्द जिसके प्रत्येक चरण में १९ मात्राएँ होती हैं। अंत में यगण होता है, १२ मात्राओं पर यति होती है, तथा पहली आठवीं और पन्द्रहवीं मात्राओं का लघु होना आवश्यक होता है। ६. शिव। वि० १. सबसे अच्छा। सर्वश्रेष्ठ। २. बहुत अधिक ऊँचा। ३. बहुत सुन्दर।
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सुमेरु-ज्योति  : स्त्री० [सं०] सुमेरु अर्थात उत्तरी ध्रुव के आस-पास के क्षेत्रों में कभी-कभी रात के समय दिखाई पड़नेवाली एक विशेष ज्योति या विद्युत् का प्रकाश। ‘कुमेरु ज्योति’ का विपर्याय। (आरोरा बोरियालिस)
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सुमेरु-वृत्त  : पुं० [सं०] वह रेखा जो उत्तर ध्रुव से २३।। अक्षांस पर स्थित है।
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सुमेरु-समुद्र  : पुं० [सं०] उत्तर महासागर का एक नाम।
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सुमेरुजा  : स्त्री० [सं०] सुमेरु पर्वत से निकली हुई नदी।
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सुम्मा  : पुं० [स्त्री० सुम्मी] दे० ‘सुंबा’। पुं० [देश०] बकरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुम्ह  : पुं० [सं० सुम्म] एक प्राचीन जाति। पुं० सुम (खुर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुम्हार  : पुं० [?] एक प्रकार का धान।
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सुयं  : अव्य०=स्वयं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुयज्ञ  : वि० [सं०] उत्तमता या सफलता से यज्ञ करनेवाला। जिसने उत्तमता से यज्ञ किया हो। पुं० १. उत्तम यज्ञ। २. वसिष्ठ का एक पुत्र। ३. ध्रुव का एक पुत्र। ४. रूचि नामक प्रजापति का एक पुत्र।
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सुयत  : वि० [सं०] १. उत्तम रूप से सयंत। सुसंयत। २. जितेन्द्रिय।
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सुयंत्रित  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह शासित। २. स्व-नियंत्रित। ३. अच्छे यंत्रों से युक्त।
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सुयंबर  : पुं०=स्वयंवर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुयम  : पुं० [सं०] अच्छा यश। अच्छी कीर्ति। सुख्याति। सुकीर्ति। वि० जिसे अच्छा या यथेष्ट यश प्राप्त हुआ हो।
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सुयशा  : पुं० [सं०] अच्छा यश। अच्छी कीर्ति। सुख्याति। सुकीर्ति। वि० जिसे अच्छा या यथेष्ट यश प्राप्त हुआ हो।
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सुयाम  : पुं० [सं०] ललित विस्तर के अनुसार एक देवपुत्र।
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सुयामुन  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. एक प्रकार का मेघ। ३. एक पौराणिक पर्वत। ४. राजभवन। महल।
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सुयुद्ध  : पुं० [सं०] १. धर्म, नीति और न्यायपूर्वक किया जानेवाला युद्ध। २. धर्म की रक्षा के लिए किया जानेवाला युद्ध।
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सुयुशा  : स्त्री० [सं०] १. राजा दिवोदास की पत्नी का नाम। २. राजा परीक्षित की एक पत्नी। ३. अवसर्पिणी।
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सुयोग  : पुं० [सं०] ऐसा अवसर या समय, जो उपयुक्त तथा समयानुकूल हो।
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सुयोग्य  : वि० [सं०] [भाव० सुयोग्यता] जिसमें अच्छी योग्यता हो।
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सुयोधन  : पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के बड़े पुत्र दुर्योधन का एक नाम।
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सुर  : पुं० [सं०] [भाव० सुरता, सुरत्व] १. देवता। २. सूर्य। ३. अग्नि का एक विशिष्ट रूप। ४. ऋषि या मुनि। ५. पण्डित। विद्वान्। ६. पुराणानुसार एक प्राचीन नगर जो चन्द्रभागा नदी के तट पर था। पुं० [सं० स्वर] गले, बाजे आदि से निकलनेवाला स्वर। मुहा०–सुर देना=किसी के गाने के समय उसे सहारा देने के लिए किसी बाजे से कोई एक स्वर निकालना (संगत करने से भिन्न)। सुर-पूरना=(क) फूँककर बजाये जानेवाले बाजे के बजाने के लिए उनमें मुँह से हवा भरना। उदा०–मंद मंद सुर पूरत मोहन, राग मल्लार बजावता।–सूर। (ख) दे० ‘किसी के सुर में सुर मिलाना’। (किसी के) सुर में सुर मिलाना=किसी की हाँ में हाँ मिलाना। खुशामद करते हुए किसी का समर्थन करना। नया सुर अलापना=कोई विलक्षण, नई या औरों से अलग तरह की बात कहना।
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सुर-करी (रिन्)  : पुं० [सं०] देवताओं का हाथी। दिग्गज। सुरराज।
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सुर-कली  : स्त्री० [हिं० सुर+कली] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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सुर-कानन  : पुं० [सं०] देवताओं का वन।
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सुर-कारु  : पुं० [सं०] देवताओं के कारीगर, विश्वकर्मा।
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सुर-कार्मुक  : पुं० [सं०] इन्द्र-धनुष।
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सुर-काष्ठ  : पुं० [सं०] देवदारु (वृक्ष और उसकी लकड़ी)।
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सुर-कुदाव  : पुं० [सं० सुर=स्वर+कुदाना] १. दूसरों को धोखे में डालने के लिए स्वर बदल कर बोलना। २. उक्त प्रकार से बोलने का ढंग। ३. स्वर बदल कर बोले जानेवाले शब्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर-कुनठ  : पुं० [सं०] ईशान कोण में स्थित एक देश। (वृहत्संहिता)
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सुर-कुल  : पुं० [सं०] देवताओं का निवास स्थान। स्वर्ग।
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सुर-केतु  : पुं० [सं०] १. देवतओं या इन्द्र की ध्वजा। २. इन्द्र।
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सुर-खंडनिका  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की वीणा जिसे सुर-मंडलिका भी कहते हैं।
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सुर-गज  : पुं० [सं०] १. देवताओं का हाथी। २. ऐरावत।
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सुर-गति  : स्त्री० [सं०] दैवी गति। भावी।
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सुर-गर्भ  : पुं० [सं०] देवताओं की संतान।
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सुर-गाय  : स्त्री० [सं० सुर+गो] काम-धेनु।
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सुर-गायक  : पुं० [सं०] देवों के गायक। गंधर्व।
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सुर-गिरि  : पुं० [सं०] देवों के रहने का पर्वत।
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सुर-गुरु  : पुं० [सं०] देवों के गुरु, वृहस्पति।
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सुर-गृह  : पुं० [सं०] १. देवताओं का निवास स्थान। २. देव-मंदिर। देवालय।
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सुर-गैया  : स्त्री० [सं० सुर+गैया] कामधेनु।
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सुर-ग्रामणी  : पुं० [सं०] देवताओं का नेता, इन्द्र।
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सुर-चाप  : पुं० [सं०] इन्द्रधनुष।
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सुर-जेठ  : पुं० [सं० सुरज्येष्ठ] ब्रह्मा। (डिं०)
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सुर-ज्येष्ठ  : पुं० [सं०] देवताओं में बड़े, ब्रह्मा।
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सुर-टीप  : स्त्री० [हिं० सुर+टीप] स्वर का आलाप। सुर की तान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर-तरंगिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. गंगा। २. सरयू नदी। ३. आकाश गंगा।
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सुर-तरु  : पुं० [सं० ष० त०] कल्पवृक्ष।
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सुर-तात  : पुं० [सं०] १. देवताओं के पिता, कश्यप। २. देवताओं के राजा, इन्द्र।
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सुर-ताली  : स्त्री० [सं०] १. नायक और नाय़िका के बीच की दूती। २. सिर पर पहना या बाँधा जानेवाला सेहरा।
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सुर-तोषक  : पुं० [सं० ष० त०] कौस्तुभ मणि।
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सुर-त्राण  : पुं०=सुर-त्राता।
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सुर-त्राता  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु। २. श्रीकृष्ण। ३. इन्द्र।
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सुर-थान  : पुं० [सं० सुर+स्थान] स्वर्ण। (डिं०)
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सुर-दारु  : पुं० [सं० ष० त०] देवदार।
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सुर-दीर्घिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] आकाश-गंगा।
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सुर-दुंदुभि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. देवताओं का नगाड़ा। २. तुलसी।
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सुर-देवी  : स्त्री० [सं० ष० त०] योगमाया। (दे०)
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सुर-देश  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं का देश। देव-लोक स्वर्ग।
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सुर-द्रुम  : पुं० [सं० ष० त०] १. कल्प-वृक्ष। २. नरकट। नरकुल।
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सुर-द्विष्  : वि० [सं०] देवताओं की द्वेष करनेवाला। पुं० १. राक्षस। २. राहु।
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सुर-धनुष (षस्)  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र धनुष।
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सुर-धाम (मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] देव-लोक। स्वर्ग। क्रि० प्र०–सिधारना।
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सुर-धुनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] गंगा।
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सुर-धूप  : पुं० [सं० ष० त०] धूना। राल। सर्जरस।
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सुर-धेनु  : स्त्री० [सं० ष० त०] कामधेनु।
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सुर-ध्वज  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र-ध्वज।
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सुर-नगर  : पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग।
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सुर-नंदा  : स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी।
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सुर-नदी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. गंगा। २. आकाश-गंगा। ३. सरयू नदी।
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सुर-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के स्वामी, इन्द्र।
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सुर-नायक  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र।
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सुर-नारी  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवांगना। देव-वधू।
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सुर-नाल  : पुं० [सं०] बड़ा नरसल। देवनल।
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सुर-नाह  : पुं०=सुर-नाथ (इन्द्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर-निम्नगा  : स्त्री० [सं० ष० त०] गंगा।
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सुर-निर्झरिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] आकाश-गंगा।
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सुर-निलय  : पुं० [सं० ष० त०] १. देवताओं के रहने का स्थान, स्वर्ग। २. सुमेरु पर्वत।
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सुर-पथ  : पुं० [सं० ष० त०] आकाश।
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सुर-पंबरी  : स्त्री०=सुरपौरी।
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सुर-पर्ण  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का सुगंधित शाक।
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सुर-पर्णिक  : पुं० [सं० सुरपर्ण+कन्–टाप्, इत्व] पुन्नाग वृक्ष।
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सुर-पर्णी  : स्त्री० [सं०] १. पलासी। पलाशी। २. पुन्नाग।
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सुर-पर्वत  : पुं० [सं० ष० त०] सुमेरु।
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सुर-पात्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पात्र (विशेषतः प्याला) जिसमें शराब पीते हैं।
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सुर-पादप  : पुं० [सं० ष० त०] कल्पतरु।
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सुर-पान  : पुं० [सं०] १. मद्यपान करने की क्रिया। शराब पीना। २. शराब पीने के समय खाई जानेवाली चटपटी चीजें। चाट।
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सुर-पांसुला  : स्त्री० [सं० ष० त०] अप्सरा।
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सुर-पुर  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० सुरपुरी] देवताओं की पुरी, अमरावती। क्रि० प्र०–सिधारना।
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सुर-पुरोधा (धस्)  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के पुरोहित, बृहस्पति।
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सुर-प्रतिष्ठा  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवमूर्ति की स्थापना।
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सुर-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त०] १. इन्द्र। २. वृहस्पति। ३. एक पौराणिक पर्वत। ४. अगस्त का पेड़। ५. एक प्रकार का पक्षी। वि० जो देवताओं को प्रिय हो।
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सुर-प्रिया  : पुं० [सं० ष० त०] १. चमेली। २. सोन-केला।
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सुर-फाँकताल  : पुं० [हिं० सुर+फाँक=खाली+ताल] तबला और पखावज बजाने का एक प्रकार का ताल।
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सुर-फाख्ता  : पुं०=सुर-फाँक (ताल)।
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सुर-बहार  : पुं० [हिं० सुर+फा० बहार] सितार की तरह का एक प्रकार का बाजा।
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सुर-बाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवता की स्त्री। देवांगना।
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सुर-बेल  : स्त्री० [सं० सुर+बल्ली] कल्पलता।
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सुर-भंग  : पुं० [सं० स्वरभंग] प्रेम, आनन्द और भय आदि के अतिरेक के कारण होने वाला स्वर का विपर्यास जो साहित्य में सात्विक भावों के अंतर्गत माना गया है।
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सुर-भवन  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं का निवास स्थान। मंदिर। २. देवताओं की नगरी। अमरावती।
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सुर-भिषक्  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के वैद्य, अश्वनीकुमार।
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सुर-भुरुह  : पुं० [सं० ष० त०] १. कल्पतरु। २. देवदार।
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सुर-भूप  : पुं० [सं० ष० त०] १. इन्द्र। २. विष्णु।
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सुर-भूषण  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के पहनने का १॰॰८ मोतियों का चार हाथ लंबा हार।
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सुर-भूषणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सुर-भोग  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के भोग की वस्तु, अमृत।
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सुर-भौन  : पुं०=सुर-भवन (स्वर्ग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] १. देवताओं का मंडल। २. सारंगी, सितार आदि की तरह का एक प्रकार का बाजा।
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सुर-मंडलिका  : स्त्री०=सुर-खंडनिका।
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सुर-मणि  : पुं० [सं० ष० त०] चिंतामणि (रत्न)।
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सुर-मंत्री (त्रिन)  : पुं० [सं० ष० त०] बृहस्पति।
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सुर-मंदिर  : पुं० [सं० ष० त०] देव-मंदिर। देवालय।
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सुर-मानी (निन्)  : वि० [सं०] अपने आपको देवता समझनेवाला।
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सुर-मृत्तिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] गोपीचन्द्र। सौराष्ट्र। मृत्तिका।
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सुर-मेदा  : स्त्री० [सं०] महामेदा।
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सुर-मौर  : पुं० [सं० सुर+हिं० मौर] विष्णु।
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सुर-यान  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं की सवारी का रथ।
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सुर-युवती  : स्त्री० [सं० ष० त०] अप्सरा।
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सुर-योषित्  : स्त्री० [सं० ष० त०] अप्सरा।
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सुर-राई  : पुं० [सं० सुरराज] १. इन्द्र। २. विष्णु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर-राज  : पुं० [सं०] देवताओं के राजा, इन्द्र।
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सुर-राजगुरु  : पुं० [सं० ष० त०] बृहस्पति।
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सुर-राजता  : स्त्री० [सं०] सुर-राज होने की अवस्था, पद या भाव। इन्द्रत्व। इन्दपद।
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सुर-रिपु  : पुं० [सं०] १. देवताओं के शत्रु, असुर। राक्षस। २. राहु।
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सुर-रुख  : पुं० [सं० सुर+हिं० रूख=वृक्ष] कल्पवृक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर-लता  : स्त्री० [सं० ष० त०] बड़ी मालकंगनी। महाज्योतिष्मती लता।
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सुर-ललना  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवबाला। देवांगना।
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सुर-लासिका  : स्त्री० [सं०] १. वंशी। बाँसुरी। २. वंशी की ध्वनि।
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सुर-वधू  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवता की पत्नी। देवांगना।
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सुर-वर  : पुं० [सं० सप्त० त०] देवताओं में श्रेष्ठ, इन्द्र।
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सुर-वर्त्म (र्त्मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. देवों का मार्ग। आकाश। २. स्वर्ग।
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सुर-वल्लभा  : स्त्री० [सं०] सफेद दूब।
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सुर-वल्ली  : स्त्री० [सं० ष० त०] तुलसी।
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सुर-वाणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवताओं की वाणी, संस्कृत।
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सुर-वारि  : पुं० [सं० ष० त०] सुरा का समुद्र।
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सुर-विटप  : पुं० [सं० ष० त०] कल्पवृक्ष।
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सुर-वीथी  : स्त्री० [सं० ष० त०] नक्षत्रों का मार्ग।
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सुर-वीर  : पुं० [सं० सप्त० त०] इन्द्र।
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सुर-वृक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] कल्पतरु।
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सुर-वेश्म (मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग। देवलोक।
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सुर-वैरी  : पुं० [सं० सुरवैरिन्] देवों के शत्रु, असुर।
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सुर-शत्रु  : पुं० [सं० ष० त०] १. राक्षस। २. राहु।
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सुर-शत्रुहन्  : पुं० [सं० सुरशत्रु√हन् (मारना)+किवच्] देवताओं के शत्रुओं का नाश करनेवाले, शिव।
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सुर-शयनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी। विष्णु-शयनी एकादशी। देव-शयनी एकादशी।
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सुर-शाखी (खिन्)  : पुं० [सं० ष० त०] कल्पवृक्ष।
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सुर-शिल्पी (ल्पिन्)  : पुं० [सं० ष० त०] विश्वकर्मा।
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सुर-श्रेष्ठ  : पुं० [सं० सप्त० त०] १. वह जो देवों में श्रेष्ठ हो। २. विष्णु। ३. शिव। ४. गणेश। ५. इन्द्र। ६. धर्म।
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सुर-श्रेष्ठा  : स्त्री० [सं० सुरश्रेष्ठ–टाप्] ब्राह्मी।
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सुर-सख  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के सखा, इन्द्र।
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सुर-सत  : स्त्री०=सरस्वती। (डिं०)
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सुर-सत्तम  : पुं० [सं० सप्त० स०] सुरश्रेष्ठ। (दे०)
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सुर-सदन  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के रहने का स्थान। स्वर्ग।
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सुर-सद्म (मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग।
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सुर-समिध  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवदारु।
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सुर-सर  : पुं० [सं० सुर+सर] मानसरोवर। स्त्री०=सुरसरि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर-सरिता  : स्त्री०=सुरसरित्।
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सुर-सरित्  : स्त्री० [सं० ष० त०] गंगा।
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सुर-सरी  : स्त्री०=सुरसरि।
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सुर-सर्षक  : पुं० [सं० ष० त०] देव-सर्षप।
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सुर-सागर  : पुं० [सुर=स्वर से+सागर।] एक तरह का बाजा जिसमें बजाने के लिए तार लगे होते हैं।
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सुर-साहब  : पुं० [सं० सुर+फा० साहब] देवताओं के स्वामी, इन्द्र।
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सुर-सिंधु  : पुं० [सं० ष० त०] १. गंगा। २. संगीत में कर्णाटकी पद्धति का एक राग।
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सुर-सुत  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० सुर-सुता] देवपुत्र।
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सुर-सुंदर  : पुं० [सं० सप्त० स०] सुन्दर देवता। वि० देवता के समान सुन्दर।
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सुर-सुंदरी  : स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. देवकन्या। ३. एक योगिनी का नाम। ४. अप्सरा।
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सुर-सुरभी  : स्त्री० [सं० सुर+सुरभी] देवताओं की गाय, कामधेनु।
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सुर-स्त्रवंती  : स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा।
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सुर-स्त्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवता की स्त्री। देवांगना।
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सुर-स्त्रोतस्विनी  : स्त्री० [सं०] गंगा।
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सुर-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के रहने का स्थान, स्वर्ग। सुरलोक।
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सुर-स्वामी  : [सं० ष० त०] देवताओं के स्वामी, इन्द्र।
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सुरक  : स्त्री० [हिं० सुरकाना] १. सुरकने की क्रिया या भाव। २. सुरकने से होनेवाला शब्द। पुं० [सं०] भाले के आकार का तिलक जो नाक पर लगाया जाता है।
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सुरंकत  : पुं० [सं० सुर+कान्त] देवों के अधिपति, इन्द्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरकना  : स० [अनु०] सुर-सुर शब्द करते हुए तथा एक-एक घूँट भरते हुए कोई तरल पदार्थ पीना। जैसे–गरम दूध सुरकना चाहिए।
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सुरक्त  : वि० [सं०] [भाव० सुरक्तता] १. जिसमें अच्छा रक्त हो। २. फलतः स्वस्थ और सुन्दर। ३. गहरे लाल रंग का। ४. बहुत अधिक अनुरक्त।
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सुरक्तक  : पुं० [सं०] १. कोशाम्र। कोसम। सोनगेरू।
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सुरक्ष  : पुं० [सं०] एक पौराणिक पर्वत। वि०=सुरक्षित।
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सुरक्षण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सुरक्षित] अच्छी तरह से रक्षा करने की क्रिया या भाव। रखवाली। हिफाजत।
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सुरक्षा  : स्त्री० [सं०] १. अच्छी तरह या समुचित रूप से की जानेवाली रक्षा। २. आक्रमण, आघात आदि से बचने के लिये किया जाने वाला प्रबंध। (सिक्योरिटी) जैसे–सुरक्षा परिषद्।
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सुरक्षा-परिषद्  : स्त्री० [सं०] संयुक्त राष्ट्र-संघ का वह अंग या शाखा, जो यथासाध्य इस बात का प्रयत्न करती है कि राष्ट्रों में परस्पर झगड़े न होने पावें। (सिक्योरिटी कौंसिल)
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सुरक्षात्मक  : वि० [सं०] १. सुरक्षा-संबधी। २. सुरक्षा के विचार से किया जाने वाला। जैसे–सुरक्षात्मक कार्रवाई।
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सुरक्षित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी समुचित रक्षा का प्रबंध हो। २. जो अच्छी तरह तथा अच्छी अवस्था में रखा गया हो। जैसे–आपकी पुस्तक मेरे पास सुरक्षित है।
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सुरक्षी (क्षिन)  : पुं० [सं० सुरक्षिन] उत्तम या विश्वस्त रक्षक। अच्छा अभिभावक या रक्षक।
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सुरक्ष्य  : वि० [सं०] १. जिसे सुरक्षित रखना आवश्यक हो। २. जिसकी सहज में सुरक्षा की जा सकती हो।
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सुरख  : वि० [फा० सुर्ख] गहरा लाल।
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सुरखा  : पुं० [फा० सुर्ख] १. वह सफेद घोड़ा जिसकी दुम लाल हो। २. वह घोड़ा जिसका रंग सफेदी भूरापन लिए काला हो। ३. मद्य। ४. शराब। वि०=सुर्ख (लाल)। पुं० [?] एक प्रकार का लंबा पौधा जिसमें पत्ते बहुत कम होते हैं।
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सुरखाव  : पुं० [फा०] चकवा या चक्रवाक नामक पक्षी। पद–सुरखाब का पर=विलक्षण विशेषता। स्त्री० बलख प्रदेश की एक नदी।
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सुरखिया  : पुं० [फा० सुर्ख+ईया (प्रत्य०)] बगले की जाति का एक छोटा पक्षी जो प्रायः गायों के पास रहता है और इसीलिए ‘गाय-बगला’ भी कहलाता है।
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सुरखी  : स्त्री० [हिं० सुरख+ई (प्रत्य०)] ईटो का बनाया हुआ महीन चूरा जिसमें चूना मिलाकर जुड़ाई के लिये गारा बनाया जाता है। स्त्री० दे० ‘सुर्खी’।
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सुरखुरू  : वि०=सुर्खरू।
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सुरंग  : वि० १. अच्छे रंग का। २. लाल रंग का। ३. रसपूर्ण। ४. सुन्दर। ५. सुडौल। ६. स्वच्छ। साफ। पुं० १. नारंगी। २. रंग के विचार से घोड़ों का एक भेद। ३. शिंगरफ। ४. पतंग। बक्कम। स्त्री० [सं० सुरंगी] [अल्पा० सुरंगिका] १. जमीन खोदकर या बारूद से उड़ाकर उसके नीचे बनाया हुआ रास्ता। बोगदा। (टनेल) २. बारूद आदि की सहायता से किला या उसकी दीवार उड़ाने के लिए उसके नीचे खोदकर बनाया हुआ गहरा और लंबा गड्ढा। ३. एक प्रकार का आधुनिक यंत्र, जिससे (क) समुद्र में शत्रुओं के जहाजों के पेंदे में छेदकर उन्हें डुबाया अथवा (ख) जिसे स्थल में शत्रुओं के रास्ते में बिछाकर उनका नाश किया जाता है। (माइन, उक्त सभी अर्थो के लिए) ४. चोरी करने के लिए दीवार में लगाई जानेवाली सेंध। क्रि० प्र०–लगना। मुहा०-सुरंग-मारना=दीवार में सेंध लगाकर चोरी करना।
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सुरग  : पुं०=स्वर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=सुरंग (सुन्दर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरंग-धातु  : पुं० [सं०] गेरू मिट्टी।
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सुरंग-प्रसार  : पुं० [फा०+सं०] एक प्रकार का जहाज जो समुद्र के किसी भाग में शत्रु का संचार रोकने के लिए जगह-जगह सुरंगें बिछाता चलता है। (माइन लेयर)
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सुरंग-बुहार  : पुं० [सं० सुरंग+हिं० बुहारना] एक विशेष प्रकार का समुद्री जहाज जो समुद्र में बिछाई हुई सुरंगें हटाकर अलग करता या निकालता और दूसरे जहाजों के लिए आगे बढ़ने का रास्ता साफ करता है। (माइन स्वीपर)
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सुरग-बेसाँ  : स्त्री० [सं० स्वर्ग-वेश्या] अप्सरा। (डिं०)
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सुरंग-मार्जक  : पुं०=सुरंग-बुहार।
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सुरगंड  : पुं० [सं०] एक प्रकार का फोड़ा।
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सुरंगद  : पुं० [सं०] पतंग या बक्कम जिससे आल नमक बढ़िया लाल रंग निकलता है।
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सुरंगा  : स्त्री० [सं०] १. कैवर्तिका लता। २. सेंध।
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सुरंगिका  : स्त्री० [सं०] १. छोटी सुरंग। २. ईंट, गारे आदि से बनी हुई वह नालाकार नाली जिसके द्वारा जल, तेल आदि तरल पदार्थ दूर पहुँचाये जाते हैं। (एक्केडक्ट) ३. शरीर के अन्दर की कोई ऐसी छोटी नली या नस जिससे होकर कोई चीज इधर-उधर आती-जाती हो। जैसे–मूत्रालय की सुरंगिका जिससे होकर मूत्र जननेंद्रिय के ऊपरी भाग तक पहुँचाता है। ४. मरोड़फली। मूर्वी। ५. पोई का साग। ६. सफेद मकोय।
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सुरंगी  : स्त्री० [सं०] १. काकनासा। कौआठोठी। सुलताना। चंपा। पुन्नाग। ३. लाल सहिंजन। ४. लाल का पेड़ वृक्ष जिससे आल नामक रंग निकलता है। वि० [सं० सुरंग+हिं० ई (प्रत्य०)] सुन्दर रंग या रंगोंवाला।
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सुरगी  : पुं० [सं० स्वर्गीय] देवता। (डिं०)। वि० स्वर्ग का रहनेवाला।
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सुरगी-नदी  : स्त्री० [सं० स्वर्गीय+नदी] गंगा। (डिं०)
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सुरच्छन  : पुं०=सुरक्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरज (स्)  : वि० [सं०] (फूल) जिसमें उत्तम यथेष्ट पराग हो। पुं०=सूरज (सूर्य)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरंजन  : पुं० [सं०] सुपारी का पेड़।
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सुरजन  : पुं० [सं०] देवताओं का वर्ग। देव-समूह। वि० [हिं० सुजन] चतुर। चालाक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=सुजन (सज्जन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरजनपन  : पुं० [हिं० सुरजन+पन (प्रत्य०)] १. सज्जनता। भलमनसत। २. चालाकी। होशियारी।
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सुरजा  : स्त्री० [सं०] एक पौराणिक नदी।
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सुरझन  : स्त्री०=सुलझन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरझना  : अं०=सुलझना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरझाना  : स०=सुलझाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरझावना  : स०=सुलझाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरत  : पुं० [सं०] १. रति-क्रीड़ा। काम-केलि। संभोग। मैथुन। २. दे० ‘सुरति’ स्त्री०[सं० स्मृति] १. याद। स्मृति। २. ध्यान। सुध। मुहा०– (किसी पर) सुरत धरना=किसी की ओर ध्यान देना। जैसे–पराये धन पर सूरत नहीं धरनी चाहिए। (किसी) की सुरत बिसराना या बिसारना=किसी को बिल्कुल भूल जाना और उसे याद न करना। (किसी ओर) सुरत लगाना=किसी ओर ध्यान बाँधना या लगाना। सुरत सँभालना=होश सँभालना। चेतन अवस्था में आना।
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सुरत-ग्लानि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] रति या संभोग के उपरांत होने वाली ग्लानि या ग्लानिजन्य विरक्ति।
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सुरत-बंध  : पुं० [सं० च० त०] संभोग का एक आसन। (कामशास्त्र)
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सुरता  : स्त्री० [सं० सुर+तल्–टाप्] १. सुर अर्थात देवता होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण जिसके कारण देवताओं की प्रतिष्ठा मानी जाती है। देवत्व। ३. देवताओं का समूह। ४. रति-सुख। स्त्री० [सं० स्मृति, हिं० सुरत] १. चेत। सुध। २. किसी की ओर लगा रहने वाला ध्यान। वि० समझदार और सयाना। होशियार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] बाँस की वह नली जिसमें डालकर बीज बोने के लिए छिड़के जाते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरतान  : स्त्री० [हिं० सुर+तान्] संगीत में सुर के आधार पर ली जाने वाली तान। पुं०= सुलतान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरति  : स्त्री० [सं०] १. पति पत्नी का वह प्रेम जो काम-वासना की तृप्ति से उत्पन्न होता है। २. मैथुन। संभोग। ३. दे० ‘रति’। स्त्री० [सं० श्रुति] १. अपौरुषेय ज्ञान का भंडार, वेद। श्रुति। उदा०–सुरति, स्मृति दोउ को विसवास।–कबीर। २. हठयोग के अनुसार अंतःकरण में होनेवाला अन्तर्नाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० दे० ‘सुरति-निरति’। उदा०–सुरति समानी निरति में निरत रही निरधार।–कबीर। स्त्री० १.=सुरत। २. सूरत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरति-कमल  : पुं० [सं० च० त०] हठ-योग में आठ कमलों या चक्रों में से अंतिम चक्र जिसका स्थान मस्तक में सहस्त्रार के ऊपर माना गया है।
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सुरति-गोपना  : स्त्री० [सं०] साहित्य में ऐसी नायिका जो रति क्रीड़ा करके आई हो और अपनी सखियों आदि से यह बात छिपाती हो।
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सुरति-निरति  : स्त्री० [सं० श्रुति+निऋति] परवर्ती हठ-योगियों की परिभाषा में अन्तर्नाद सुनना और उसी में लीन हो जाना। (अर्थात् ससीम का असीम में या व्यक्त का अव्यक्त में समा जाना।)
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सुरति-रव  : पुं० [सं० मध्य० स०] रति-क्रीड़ा के समय होने वाली भूषणों की ध्वनि।
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सुरति-विचित्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०] साहित्य में ऐसी मध्या नायिका जिसकी रति-क्रिया विचित्र हो।
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सुरतिवंत  : वि० [सं० सुरत+वान्] कामातुर।
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सुरती  : स्त्री० [सूरत (नगर)+ई (प्रत्य०)] १. तंबाकू का पत्ता। २. उक्त पत्तों का वह चूरा, जो पान के साथ यों हा चना मिलाकर खाया जाता है। खैनी।
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सुरत्त  : स्त्री०=सुरति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरत्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. उत्तम या बढ़िया रत्न। २. मणिक। लाल। ३. स्वर्ण। सोना। वि० १. उत्तम रत्नों से युक्त। २. सब में श्रेष्ठ।
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सुरथ  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अच्छा या सुन्दर रथ। २. द्रुपद का एक पुत्र। ३. जनमेजय का एक पुत्र। ४. एक पौराणिक पर्वत। ५. कुश द्वीप का एक वर्ष या खंड।
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सुरथा  : स्त्री० [सं० सुरथ–टाप्] एक पौराणिक नदी।
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सुरथाकर  : पुं०[सं०] एक पौराणिक वर्ष या भू-खंड।
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सुरदार  : वि० [हिं० सुर+फा० दार] १. अच्छे सुर वाला। सुरीला। जैसे–सुरदार बाजा। २. बढ़िया स्वर में गानेवाला। जैसे–सुरदार गला।
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सुरद्र-कंद  : पुं०=सुरेन्द्रक।
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सुरंधक  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जनपद। २. उक्त जन पद का निवासी।
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सुरप  : पुं० [सं० सुरपति] इन्द्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. देवराज इन्द्र। विष्णु।
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सुरपति-गुरु  : पुं० [सं० ष० त०] बृहस्पति।
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सुरपति-चाप  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र-धनुष।
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सुरपतित्व  : पुं० [सं० सुरपति+त्व] सुरपति होने की अवस्था, पद या भाव।
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सुरपन  : पुं० [सं० सुरपुन्नाग] पुन्नाग। सुलताना चंपा।
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सुरपाल  : पुं० [सं० सुर-पालक] इन्द्र।
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सुरपुन्नाग  : पुं० [सं०] एक प्रकार का पुन्नाग।
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सुरपुर-केतु  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र।
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सुरपौरी  : स्त्री० [हिं० सुर-पौर] राज-दरबार या राजमहल की पहली ड्योढ़ी। राजद्वार।
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सुरबुली  : स्त्री० [सं० सुरबल्ली]? चिरवल नाम का पौधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरबृच्छ  : पुं०=सुर-वृक्ष (कल्पतरु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरभान  : पुं० [सं० सुर+भान्] १. इन्द्र। २. सूर्य।
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सुरभि  : स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। २. गौ। ३. कामधेनु। ४. गौओं की जननी और अधिष्ठात्री देवी। ५. कार्तिकेय की एक मातृका। ६. सुगंध। खुशबू। ७. मदिरा। शराब। ८. सेवती। ९. तुलसी। १॰. सलई। ११. सप्तजटा। १२. एलुआ। १३. केवाँच। कौंछ। १४. सुगंधित शालिधन्य। १५. रासना। १६. चन्दन। पुं० [सं०] १. बसंत काल। २. चैत का महीना। ३. वह आग जो यज्ञयुप की स्थापना के समय जलाई जाती थी। ४. सोना। स्वर्ण। ५. गंधक। ६. जायफल। ७. कदंब। कदम। ८. चंपक। चंपा। ९. बकुल। मौलिसिरी। १॰. सफेद कीकर। शमी। ११. रोहित घास। १२. धूना। राल। १३. बर्बर चन्दन। वि० १. सुगंधित। सुवासित। २. मनोरम। सुन्दर। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। ४. गुणवान। गुणी। ५. सदाचारी। ६. वदन पर ठीक और चुस्त बैठने वाला (कपड़ा)।
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सुरभि-कांता  : स्त्री० [सं० ब० स०] बासंती। नेवारी।
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सुरभि-गंध  : वि०[सं० ब० स०] सुरभित। सुगंधित। पुं० तेजपत्ता।
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सुरभि-तनय  : पुं० [सं० ष० त०] बैल। २. साँड़।
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सुरभि-तनया  : स्त्री० [सं०] गाय। गौ।
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सुरभि-त्रिफला  : स्त्री० [सं० ष० त०] जायफल, सुपारी और लौंग इन तीनों का समूह। (वैद्यक)
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सुरभि-दारु  : पुं० [सं० मध्य० स०] धूप सरल।
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सुरभि-पत्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०] गुलाब जामुन का पेड़ और फल।
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सुरभि-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. साँड़। २. बैल।
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सुरभि-भक्षण  : पुं० [सं०] हठ योग की एक क्रिया जिसमें साधक खेचरी मुद्रा के द्वारा अपनी जीभ उलट कर तालू के मूल वाले छेद में लगाता और सहस्त्रार में स्थित चन्द्रमा से निकलने वाला अमृत पीता है। इसे गोमांस-भक्षण भी कहते हैं।
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सुरभि-मंजरी  : स्त्री०[सं० ब० स०] सफेद तुलसी।
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सुरभि-मान  : वि० [सं० सुरभिमत्] सुगंधित। सुवासित। पुं० अग्नि।
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सुरभि-मास  : पुं० [सं० मध्य स०] बसंत (ऋतु)।
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सुरभि-मुख  : पुं० [सं० ब० स०] वसंत ऋतु का प्रारंभिक काल।
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सुरभि-वाण  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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सुरभि-शाक  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का सुगंधित साग।
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सुरभि-समय  : पुं० [सं० मध्य० स०] बसंत ऋतु, जिसमें फूलों की मधुर गंध चारों ओर फैलती है।
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सुरभिका  : स्त्री० [सं० सुरभि+कन्–टाप्–इत्व] स्वर्णकदली। सोन-केला।
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सुरभिगंधा  : स्त्री० [सं० ब० स०] चमेली।
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सुरभित  : भू० कृ० [सं०] सुरभि से युक्त किया हुआ। सुगंधित। सुवासित।
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सुरभिता  : स्त्री० [सं०] १. सुरभि का गुण या भाव। २. सुगंध। खुशबू।
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सुरभित्वक्  : स्त्री० [सं० ब० स०] बड़ी इलायची।
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सुरभी  : स्त्री०=सुरभि।
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सुरभीपुर  : पुं० [सं० ष० त०] गोलोक।
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सुरमई  : वि० [फा०] १. सुरमे के रंग का। नीला। सफेदी लिए हलका नीला या काला। जैसे–सुरमई कबूतर, सुरमई घोड़ा। २. सुरमे के रंग में रंगा हुआ। पुं० एक प्रकार का काला रंग। स्त्री० काले रंग की एक प्रकार की चिड़िया जिसकी गरदन नीली होती है।
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सुरमई कलम  : स्त्री० [फा०] आँखों में सुरमा लगाने की सलाई। सुरमचू।
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सुरमचू  : पुं० [फा० सुरमः+चू (प्रत्य०)] आँखों में सुरमा लगाने की सलाई।
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सुरमा  : पुं० [फा० सुरभः] हलके सफेद रंग का एक प्रकार का भुरभुरा खनिज पदार्थ जिसका प्रयोग धातुओं में मिलाने तथा रासायनिक कार्यों के लिए होता है, और जिसका महीन चूर्ण आँखों की सुन्दरता बढ़ाने और उसके अनेक प्रकार के रोग दूर करने के लिए अंजन के रूप में होता है। पुं० [?] एक प्रकार का पक्षी। स्त्री० [?] असम देश की एक नदी। पुं०=शूरमा (शूर-वीर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरमा  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की दाँती, जो झाड़ियाँ काटने के काम आती है।
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सुरमे-दानी  : स्त्री० [फां० सुरमः+दान (प्रत्य०)] लकड़ी या धातु का शीशीनुमा पात्र जिसमें आँखों में लगाने का सुरमा रखा जाता है।
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सुरमै  : वि०, पुं०=सुरमई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरम्य  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अत्यन्त मनोरम और रमणीय। २. बहुत सुन्दर।
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सुरराज-वृक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] पारिजात। परजाता।
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सुरराजा (जन्)  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र।
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सुरराय  : पुं०=सुरराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरराव  : पुं०=सुरराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरर्षभ  : पुं० [सं० सप्त० स०] १. देवताओं में श्रेष्ठ, इन्द्र। २. महादेव। शिव।
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सुरर्षि  : पुं० [सं० ष० त०] देवऋषि। देवर्षि।
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सुरला  : स्त्री० [सं०] १. गंगा। २. एक प्राचीन नदी।
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सुरली  : स्त्री० [सं० सु+हिं० रली] सुन्दर और प्रेम पूर्ण क्रीड़ा। सुरलोक
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सुरवस  : पुं० [देश०] जुलाहों की वह पतली, हल्की छड़ी या सरकंडा जिसका व्यवहार ताना तैयार पकने में होता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरवा  : पुं०=श्रुवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=शोरबा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरवाँ  : पुं०=सूरमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरवाड़ी  : स्त्री० [हिं० सूअर+वाड़ी (प्रत्य०)] सूअरों के रहने का स्थान। सूअरबाड़ा।
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सुरवाल  : पुं०=सलवार। पुं० [?] सेहरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरवास  : पुं० [सं० ष० त०] देव-स्थान। स्वर्ग।
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सुरवास  : पुं० [सं० ब० स०] सुमेरु।
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सुरस  : वि० [सं०] १. सुन्दर रसवाला। २. रसीला। सरस। ३. मधुर। ४. स्वादिष्ट। ५. सुन्दर। पुं० १. तेजपत्ता। २. दालचीनी। ३. तुलसी। ४. रूसा घास। ५. सँभालू। ६. सोमरस। ७. बोल नामक गन्धद्रव्य। ८. पीत-शाल। पुं० दे० ‘सुरवस’ (जुलाहों का)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरसत-जनक  : पुं० [सं० सरस्वती+जनक] ब्रह्मा। (डिं०)
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सुरसती  : स्त्री० [सं० सरस्वती] १. सरस्वती २. एक प्रकार की नाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरसर-सुत्ता  : स्त्री० [सं०] सरयू नदी।
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सुरसरि  : स्त्री० [सं० सुरसरिन्] १. गंगा। २. गोदावरी। ३. कावेरी।
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सुरसा  : स्त्री० [सं० सुरस–टाप्] १. पुराणानुसार एक राक्षसी, जो नागों या सर्पों की माता कही गई है और जिसने हनुमान को लंका जाते समय समुद्र पार करने से रोकना चाहा था। २. एक प्रकार का छन्द या वृत्त। ३.संवत में एक प्रकार की रागिनी। ४. दुर्गा का एक नाम। ५. एक पौराणिक नदी। ६. अंकुश के आगे का नकीला भाग। ७. ब्राह्यी। ८. तुलसी। ९. सौंफ। १॰. बड़ी शतादर। ११. जूही। १२. सफेद निसोथ। १३. शल्लकी। सलई। १४. निर्गुडी। १५. रास्ना। १६. भटकटैया। कँटेरी। १७. बन-भंटा। बहती।
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सुरसाई  : पुं० [सं० सुर+हिं० साँई=स्वामी] १. इन्द्र। २. शिव। ३. विष्णु।
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सुरसाग्रज  : पुं० [सं०] सफेद तुलसी।
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सुरसाग्रणी  : स्त्री०=सुरसाग्रज।
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सुरसारी  : स्त्री०=सुरसरि।
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सुरसालु  : पुं० [सं० सुर+हिं० सालना] देवताओं को सतानेवाला अर्थात असुर या राक्षस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरसाष्ट  : पुं० [सं० ष० त०] सँभालू, तुलसी, ब्राह्मी, बनभंटा, कंटकारी और पुर्ननवा–इन सब का वर्ग या समूह।
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सुरसुराना  : अ० [अनु०] १. कीड़ों आदि का सुरसुर करते हुए रेंगना। २. शरीर में हल्की खुजली या सुरसुराहट होना। स० कोई ऐसी क्रिया करना जिससे सुरसुर शब्द हो।
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सुरसुराहट  : स्त्री० [हिं० सुरसुराना+आहट (प्रत्य०)] १. सुरसुराने की क्रिया या भाव। २. शरीर में होनेवाली हलकी खुजली। ३. गुदगुदी।
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सुरसुरी  : स्त्री० [अनु०] १. एक प्रकार का कीड़ा जो चावल, गेहूँ आदि में होता है। २. दे० ‘सुरसराहट’।
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सुरसेन  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सुरसेनप  : पुं० [सं० सुर+सेनापति] देवताओं के सेनापति, कार्तिकेय।
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सुरसेना  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवताओं की सेना।
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सुरसैनी  : स्त्री०=सुर-शयनी (एकादशी)।
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सुरसैयाँ  : पुं० [सं० सुर+हिं० सैयाँ (स्वामी)]=सुर-साई(इन्द्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरहउ  : स्त्री०=सुरभि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरहट  : वि० [?] उँचा। उच्च।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरहना  : अ० [?] (घाव आदि का) भरना या सूखना।
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सुरहर (ा)  : वि०=सुरहरा।
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सुरहरा  : वि० [सं० सरल] जो सीधा ऊपर की ओर गया हो। वि० [अनु० सुरसुर] जो सुर-सुर या सुर-सुर शब्द करता हो। वि० सुनहरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरहिया  : स्त्री०=१. सोरहिया। २.=सुरही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरही  : स्त्री० [हिं० सोलह] १. सोलह। २. सोलह चित्ती कौड़ियाँ। जिनसे जूआ खेलते हैं। २. उक्त कौड़ियों से खेला जानेवाला जूआ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० सुरभि] १. सुरभि। २. गाय। उदा०–इन सुरही का दूध न मीठा।–कबीर। ३. चमरी गाय। ४. परती जमीन में होनेवाली एक प्रकार की घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरही भच्छन  : पुं०=सुरभि-भक्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरहोनी  : पुं० [कर्ना० सुरहोनेप] पुन्नाग की जाति का एक पेड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरा  : स्त्री० [सं०√सु+कट् सुष्टु रापनत्वनरेति वा अड्–टाप्] १. मद्य। मदिरा। शराब। २. जल। पानी। ३. पानी पीने का पात्र। ४. साँप। ५. दे० ‘सुरासव’।
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सुरा कर्म (न्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह यज्ञ कर्म जो सुरा द्वारा किया जाता है।
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सुरा गाय  : स्त्री० [सं० सुर+गाय] एक प्रकार की दो नस्ली गाय जिसकी पूँछ गुफ्फेदार होती है और जिससे चँवर बनता है। लोग इसका दूध भी पीते हैं और इस पर बोझ भी ढोते हैं। चमरी। बन-चौर। विशेष–उत्तरी हिमालय और तिब्बत में इसी को ‘याक’ कहते हैं।
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सुरा-पीत  : भू० कृ० [सं० ब० स०] जिसने शराब पी हो।
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सुरा-मुख  : वि० [सं० ब० स०] जिसके मुँह में शराब हो या शराब की दुर्गन्ध आती हो। जो शराब पीये हुए हो।
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सुरा-मेह  : पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार प्रमेह रोग का एक भेद।
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सुरा-संधान  : पुं० [सं० ष० त०] भभके से शराब चुआने की क्रिया।
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सुरा-समुद्र  : पुं०=सुराब्धि।
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सुराई  : स्त्री० [सं० सुर] १. ‘सुर’ होने की अवस्था या भाव। २. आधिपत्य। प्रभुत्व। स्त्री०=शूरता (वीरता)। उदा०–हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।–तुलसी। ३. रानियों की छतरी या समाधि। (बुंदेल०)
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सुराकार  : पुं० [सं०] १. वह जो सुरा या शराब बनाता हो। कलाल। कलवार। २. शराब चुआने की भट्ठी।
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सुराख  : पुं०=सूराख (छेद)। पुं०=सुराग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुराग  : पुं० [अ० सुराग] किसी गुप्त अपराध या रहस्य का वह सूत्र जिससे उसका ठीक पता चल सके। क्रि० प्र०–देना।–पाना।–मिलना।–लगना।–लगाना। पुं० [सं० सु+राग] १. उत्तम प्रेम। गहरा प्यार। २. बढ़िया राग।
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सुरांगना  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. देवपत्नी। देवांगना। २. अप्सरा।
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सुरागार  : पुं० [सं० ष० त०] १. देवताओं का स्थान। २. मद्य बनाने या बेचने का स्थान। मदिरालय।
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सुरागृह  : पुं०=सुरागार।
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सुराचार्य  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के आचार्य, वृहस्पति।
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सुराज (न्)  : वि० [सं०] सुन्दर राजा वाला। अच्छे राजा द्वारा शासित (देश)। पुं० १.=सुराज्य। २.=स्वराज्य।
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सुराजा (जन्)  : पुं० [सं०] उत्तम राजा। अच्छा राजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=सुराज्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुराजिका  : स्त्री० [सं०] छिपकली।
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सुराजीव  : पुं० [सं०] विष्णु।
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सुराजीवी (विन्)  : वि० [सं०] १. जो मद्य पीकर जीता हो। २. जिसका पेशा शराब बनाना और बेंचना हो।
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सुराज्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अच्छा राज्य। २. ऐसा राज्य जिसमें प्रजा सुखी और सुरक्षित हो। सुराज। पुं०=स्वराज्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुराथी  : स्त्री० [?] लकड़ी का वह डंडा जिससे अनाज के दाने निकलने के लिए बाल आदि पीटते हैं।
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सुराद्रि  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं का पर्वत, सुमेरु।
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सुराधा (धस्)  : वि० [सं० प्रा० स०] १. उत्तम दान देनेवाला। बहुत बड़ा दाता। २. बहुत बड़ा धनवान्।
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सुराधानी  : स्त्री० [सं०] मद्य रखने का पात्र।
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सुराधिप  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के स्वामी, इन्द्र।
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सुराधीश  : पुं०=सुराधिप।
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सुराध्यक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मा। २. शिव। ३. इन्द्र। ४. श्रीकृष्ण।
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सुराध्वज  : पुं० [सं० ष० त०] मद्यशाला पर लगाया जानेवाला झंडा।
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सुरानक  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं का नगाड़ा।
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सुरानीक  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं की सेना।
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सुराप  : वि० [सं० सुरा√पा (पीना)+क] १. सुरा या मद्य पान करने वाला। मद्यप। शराबी। २. बुद्धिमान। समझदार। ३. मधुर। प्रिय।
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सुरापगा  : स्त्री० [सं० ष० त०] आकाश-गंगा।
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सुरापी (पिन्)  : वि० [सं०] शराब पीनेवाला।
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सुराब्धि  : पुं० [सं० ष० त०] सुरा का समुद्र।
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सुराभाग  : पुं० [सं०] वह खमीर जिससे शराब तैयार की या बनाई जाती है।
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सुरामंड  : पुं० [सं० ष० त०] शराब की माँड़।
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सुरामेही (हिन्)  : वि० [सं० सुरामेह+इनि] सुरामेह से पीड़ित।
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सुराय  : पुं० [सं० सु+हिं० राय] अच्छा राजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरायुध  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं का आयुध या अस्त्र।
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सुराराणि  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवताओं की माता, अदिति।
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सुरारि  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं का शत्रु, राक्षस।
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सुरारिघ्न  : पुं० [सं० सुरारि√हन् (मारना)+ठक्] असुरों का नाश करनेवाले, विष्णु।
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सुरारिहंता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] असुरों का नाश करनेवाले, विष्णु।
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सुरारी  : पुं० [देश०] एक प्रकार की बरसाती घास।
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सुरार्चन  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं की की जानेवाली अर्चना। देव-पूजा।
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सुरार्द्दन  : पुं० [सं०सुर√अर्द् (मारना)+ल्यु–अन] देवताओं को मारनेवाले, राक्षस।
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सुरार्ह  : पुं० [सं०] १. हरिचन्दन। २. सोना। स्वर्ण।
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सुराल  : पुं० [सं०] धूना। राल। पुं० [?] घोड़ा बेल नाम की लता जिसकी जड़ बिलाईकन्द कहलाती है।
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सुरालय  : पुं० [सं० ष० त०] १. देवताओं के रहने का स्थान। स्वर्ग। २. सुमेरू पर्वत। ३. देव मन्दिर। ४. शराब बनाने या बेचने की जगह। शराबखाना।
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सुरालिका  : स्त्री० [सं०] सातला या सप्तला नाम की जंगली बेल।
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सुराव  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी ध्वनि। २. एक प्रकार का घोड़ा।
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सुरावट  : स्त्री० [हिं० सुर+आवट (प्रत्य०)] १. संगीत में, स्वरों का ठीक तरह से होनेवाला आरोह और अवरोह। स्वरों का संगत उतार-चढ़ाव। २. सुरीलापन। उदा०–सुरज वीणा वेणु आदिक बज उठे। विरां वैतालिक सुरावट सज उठे।–मैथिली०।
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सुरावती  : स्त्री०=सुरावनि।
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सुरावनि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. देवताओं की माता, अदिति। २. पृथ्वी।
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सुरावृत्त  : पुं० [सं०] सूर्य।
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सुराश्रम  : पुं० [सं० ष० त०] सुमेरु।
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सुराष्ट्र  : पुं० [सं० प्रा० स०, ब० स०] सौराष्ट्र देश का दूसरा नाम।
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सुराष्ट्रज  : पुं० [सं० सुराष्ट्र√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. गोपी चंदन। सौराष्ट्र मृत्तिका। २. काला मूँग। ३. लाल कुलथी। ४. एक प्रकार का विष। वि० सुराष्ट्र देश में उत्पन्न।
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सुराष्ट्रजा  : स्त्री० [सं०] गोपीचन्दन।
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सुरासव  : पुं० [सं० सुरा+आसव] १. वैद्यक, में एक प्रकार का आसव। २. एक प्रकार का बहुत तेज मादक आसव या द्रव पदार्थ जो भभके से चुआकर बनाया जाता है और जिसका व्यवहार विलायती दवाओं, शराबों, सुगंधियों आदि में मिलाने अथवा तेज आँच पैदा करने के लिए जलावन के रूप में होता है। (स्पिरिट)
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सुरासार  : पुं० [सं०] वह तात्त्विक तथा मूल तरल मादक द्रव्य जिससे शराब बनती है। (एलकोहल)
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सुरासुर  : पुं० [सं० द्व० स०] सुर और असुर। देवता और दानव।
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सुरासुर-गुरु  : पुं० [सं० ष० त०] १. शिव। २. कश्यप।
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सुरास्पद  : पुं० [सं० ष० त०] देव-मन्दिर।
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सुराही  : स्त्री० [अ०] १. जल रखने का एक प्रकार का प्रसिद्ध मिट्टी धातु, शीशे आदि का पात्र, जिसके नीचे और बीच का भाग लम्बे चोंगे या नल की तरह होता है। २. कुल आभूषणों तथा दूसरे पदार्थो के सिरे पर का उक्त आकार का छोटा खंड। ३. कपड़े की एक प्रकार की काट। (दरजी)
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सुराहीदार  : वि० [अ० सुराही+फा० दार] सुराही के आकार-प्रकार वाला। सुराही की सी आकृतिवाला।
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सुराहीनुमा  : वि० [अ०+फा०] १. जो देखने में सुराही के समान हो। सुराही के आकार का। २. दे० ‘सुराहीदार’।
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सुराह्व  : पुं० [सं०] १. देवदार। २. मरुआ। ३. हलदुआ।
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सुराह्वय  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का पौधा। २. देवदारु वृक्ष।
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सुरियं  : पुं० [सं० सुर] इन्द्र। (डिं०)
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सुरिया-खार  : पुं० [फा० शोरा+हिं० खार] शोरा।
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सुरी  : स्त्री० [सं०] देवपत्नी। देवांगना।
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सुरीला  : वि० [हिं० सुर+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० सुरीली, भाव० सुरीलापन] १. संगीत में (आलाप, तान आदि) जिसका गायन स्वरों के अनुरूप या अनुसार हो रहा हो। २. महीन और मीठा (स्वर)।
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सुरुक्म  : वि० [सं०] अच्छी तरह प्रकाशित। प्रदीप्त।
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सुरुख  : वि० [हिं० सु+फा० रुख] १. सुन्दर आकृति या रूपवाला। खूबसूरत। २. प्रसन्न रहकर दया करनेवाला। २. अनुकूल। उदा०–सुरूख सुमुख एक रस एक रूप तोहि।–तुलसी। वि० दे० ‘सुर्ख’।
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सुरुंगा  : स्त्री०=सुरंग।
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सुरुच  : वि० [सं०] उज्ज्वल या सुन्दर प्रकाशवाला। पुं० उज्ज्वल प्रकाश। अच्छी रोशनी।
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सुरुचि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी विशेषतः नागर और परिष्कृत रूचि। २. प्रसन्नता। ३. ध्रुव की विमाता। वि० सुरुचिपूर्ण।
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सुरुचिर  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जिसमें तबीयत खूब रुचती हो। २. व्यापक अर्थ में सुन्दर। ३. उज्ज्वल। चमकीला। प्रकाशमान्।
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सुरुज  : वि० [सं०] बहुत बीमार। अस्वस्थ। रुग्ण। पुं०=सूर्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरुजमुखी  : पुं०=सुर्यमुखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरुति  : स्त्री०=श्रुति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरुद्रि  : स्त्री० [सं०] शतद्रु (वर्तमान सतलज) नदी का एक पुराना नाम।
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सुरुर  : पुं० दे० ‘सरूर’।
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सुरुल  : पुं० [देश०] मूँगफली के पौधों में होनेवाला एक रोग।
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सुरुवा  : पुं० १.=स्त्रुवा। २.=शोरबा।
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सुरूखरू  : वि०=सुर्खरू।
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सुरूप  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सुरूपा, भाव० सुरूपता] १. जिसका रूप या आकृति अच्छी हो। २. सुन्दर। खूबसूरत। ३. पण्डित। विद्वान। ४. बुद्धिमान। समझदार। पुं० १. शिव। २. कपास। ३. पलास। ४. पीपल। पुं०=स्वरूप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरूपक  : वि०=स्वरूपवान्।
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सुरूपता  : स्त्री० [सं० सुरूप+तल्–टाप्] सुरूप होने की अवस्था या भाव। सुंदरता। खूबसूरती।
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सुरूपा  : स्त्री० [सं० सुरूप–टाप्] १. सखिन। शालपर्णी। २. भारंगी। ३. सेवती। ४. बेला। वि० सुन्दर रूपवाली (स्त्री)।
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सुरूहक  : पुं० [सं०] खच्चर।
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सुरेख  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर रेखाएँ बनानेवाला। २. सुन्दर रेखओं से युक्त। स्त्री० [प्रा० स०] सुन्दर रेखा।
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सुरेज्य  : पुं० [सं० ष० त०] बृहस्पति।
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सुरेज्या  : स्त्री० [सं०] १. तुलसी। २. ब्राह्मी।
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सुरेणु  : स्त्री० [सं०] १. त्रसरेणु। २. एक प्राचीन नदी। ३. विवस्वान् की पत्नी जो त्वाष्ट्री की पुत्री थी।
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सुरेत  : स्त्री० [सं० सुरति] १. विषय-भोग के निमित्त रखी जानेवाली स्त्री। उपपत्नी। रखेल। २. वेश्या।
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सुरेतना  : स० [?] खराब अनाज में से अच्छे अनाज अलग करना।
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सुरेतर  : पुं० [सं० पंच० स०] असुर। वि० सुरों से इतर या भिन्न।
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सुरेता (तस्)  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत वीर्यवान्। २. विशेष सामर्थ्यवान्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरेतिन  : स्त्री० [सं० सुरति] उपपत्नी। रखेली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरेथ  : पुं० [?] सूँस। शिशुमार।
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सुरेंद्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. सुरराज। इन्द्र। २. बहुत बड़ा राजा।
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सुरेद्रवज्रा  : स्त्री० [सं०] इन्द्रवज्रा नामक वृत्त का दूसरा नाम।
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सुरेनुका  : स्त्री०=सुरेणु।
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सुरेन्द्रक  : पुं० [सं०] जंगली ओल या सूरन।
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सुरेन्द्रगोप  : पुं० [सं०] इन्द्रगोप नामक कीड़ा। बीरबहूटी।
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सुरेन्द्रचाप  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्रधनुष।
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सुरेन्द्रजित्  : पुं० [सं० सुरेन्द्र√जि (जीतना)+क्विप्–तुक्] इन्द्र को जीतनेवाले, गरुड़।
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सुरेन्द्रता  : स्त्री० [सं० सुरेन्द्र+तल्–टाप्] सुरेन्द्र होने की अवस्था, गुण या भाव। इन्द्रत्व।
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सुरेन्द्रपूज्य  : स्त्री० पुं० [सं० ष० त०] बृहस्पति।
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सुरेन्द्रलोक  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्रलोक।
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सुरेन्द्रवती  : स्त्री० [सं० सुरेन्द्र+मतुम्–य–व–ङीप्] शची। इन्द्राणी।
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सुरेभ  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर स्वरवाला। सुरीला। पुं० देवहलदी।
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सुरेश  : पुं० [सं० ब० स०] १. देवताओं के राजा, इन्द्र। २. शिव। ३. विष्णु। ४. श्रीकृष्ण। ५. राजा।
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सुरेशी  : स्त्री० [सं० सुरेश+ङीप्] दुर्गा।
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सुरेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] १. देवताओं के राजा, इन्द्र। २. ब्रह्मा। ३. रुद्र। ४. शिव।
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सुरेश्वरी  : स्त्री० [सं० सुरेश्वर+ङीप्] देवताओं की स्वामिनी, दुर्गा। २. लक्ष्मी। ३. राधा। ४. आकाश-गंगा।
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सुरेष्ट  : पुं० [सं०] १. सुर-पुन्नाग। २. अगस्त्य का पेड़ और फूल। ३. मौलसिरी। ४. शालवृक्ष। साखू।
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सुरेष्टक  : पुं० [सं०] शालवृक्ष। साखू।
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सुरेष्टा  : स्त्री० [सं०] ब्राह्मी।
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सुरेस  : पुं०=सुरेश।
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सुरै  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो गर्मी के दिनों में पैदा होती है। स्त्री०=सुरभि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरैतवाल  : पुं० [हिं० सुरैत+बाल] सुरैत या उपपत्नी से उत्पन्न सन्तान।
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सुरैतिन  : स्त्री० दे० ‘सुरैत’।
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सुरोका (कस्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. स्वर्ग। २. देव मन्दिर।
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सुरोचन  : पुं० [सं०] पुराणानुसार एक वर्ष या भू-खंड।
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सुरोचना  : स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका।
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सुरोचि  : वि० [सं० सुरुचि] सुन्दर।
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सुरोत्तम  : पुं० [सं० सप्त० त०] १. देवताओं में श्रेष्ठ, विष्णु। २. सूर्य।
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सुरोत्तर  : पुं० [सं०] चंदन।
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सुरोद  : पुं० [सं० ष० त०] मदिरा का समुद्र।
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सुरोदक  : पुं०=सुरोद।
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सुरोदय  : पुं०=स्वरोदय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुरोधा (धस्)  : पुं० [सं०] एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि।
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सुरोपम  : वि० [सं० ब० स०] १. देवताओं के समान। देव-तुल्य।
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सुरोमा (मन्)  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर रोमोंवाला। जिसके रोएँ सुन्दर हों।
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सुर्ख  : वि० [फा० सुर्ख] रक्त-वर्ण। लाल। जैसे–सुर्ख गाल। पुं० लाल रंग। रक्त वर्ण।
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सुर्खदाना  : पुं० [फा० सुर्ख दानः] एक प्रकार की वनस्पति।
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सुर्खरू  : वि० [फा०] [भाव० सुर्खरूई] १. जिसके मुख पर लाली और फलतः तेज हो। तेजस्वी। २. यश या सफलता प्राप्त करने के कारण जिसके चेहरे पर लाली अर्थात प्रफुल्लता या प्रसन्नता आ गई हो। कीर्तिशाली। यशस्वी। ३. प्रतिष्ठित।
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सुर्खरूई  : स्त्री० [फा०] १. सुर्खरू होने की अवस्था या भाव। २. कीर्ति। यश। 3. प्रतिष्ठा। मान।
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सुर्खा  : पुं० [फा० सुर्ख] लाल रंग का एक प्रकार का कबूतर।
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सुर्खाब  : पुं०=सुरखाब (चकवा)।
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सुर्खी  : स्त्री० [फा० सुर्खी] १. लाली। ललाई। २. लेखों आदि का शीर्षक जो पहले लाल स्याही से लिखा जाता था। ३. लाल स्याही। ४. खून। रक्त। लहू। ५. दे० ‘सुरखी’।
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सुर्खीदार सुरमई  : पुं० [फा०] एक प्रकार का सुरमई या बैंगनी रंग जो कुछ लाली लिए होता है।
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सुर्जना  : पुं०=सहिजन (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर्ता  : वि०=सुरता (समझदार)।
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सुर्ती  : स्त्री०=सुरती।
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सुर्त्त  : स्त्री० १.=सुरत। २.=सुरति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर्मा  : पुं०=सुरमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुर्रा  : पुं० [फा०] १. एक प्रकार की मछली। २. छोटी थैली। बटुआ। पुं० [अनु० सुर-सुर] हवा का सुर-सुर करता हुआ तेज झोंका।
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सुलंक  : पुं० दे० ‘सोलंक’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलंकी  : पुं०=सोलंकी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलक्ष  : वि०=सुलक्षण।
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सुलक्षण  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सुलक्षणा] १. अच्छे या शुभ लक्षणोंवाला। २. भाग्यवान्। पुं० [प्रा० स०] १. शुभलक्षण। २. एक प्रकार का छन्द।
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सुलक्षणता  : स्त्री० [सं० सुलक्षण+तल्–टाप्] १. सुलक्षण होने की अवस्था या भाव। २. वह तत्व जिससे सुलक्षण होने का भाव सूचित होता है।
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सुलक्षणत्व  : पुं० [सं०] सुलक्षणता।
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सुलक्षणा  : स्त्री० [सं० ब० स०] अच्छे लक्षणोंवाली स्त्री।
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सुलक्षणी  : वि० स्त्री०=सुलक्षणा।
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सुलक्षित  : भू० कृ० [सं०] १. अच्छी तरह से देखा तथा पहचाना हुआ। २. लक्ष्य के रूप में आया हुआ। ३. सुपरीक्षित। ४. सुनिश्चित।
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सुलखना  : वि० [सं० सुलक्षणा] [स्त्री० सुलखनी] १. अच्छे लक्षणोंवाला। २. शुभ। जैसे–सुलखनी घड़ी। (पश्चिम) अ०=सुलगना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलग  : स्त्री० [हिं० सुलगना] सुलगने की क्रिया, अवस्था या भाव। स्त्री० [हिं० सु+लगना] समीप होना। अव्य० समीप। पास।
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सुलगन  : स्त्री० [हिं० सुलगना] सुलगने की अवस्था, क्रिया या भाव। सुलग।
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सुलगना  : अ० [सं० सु+हिं० लगना] १. किसी चीज का इस प्रकार जलना कि उसमें से लपट न निकले, बल्कि धूआँ निकले। जैसे–बीड़ी या सिग्रेट सुलगना। २. धीरे-धीरे जलने लगना। जैसे–आग सुलग रही है। ३. लाक्षणिक अर्थ में, ईष्र्या, क्रोध, घुटन आदि के कारण मन ही मन बहुत कुढ़ना या संतप्त होना।
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सुलगाना  : स० [हिं० सुलगना] इस प्रकार प्रयास करना कि कोई चीज सुलगने लगे। जैसे–बीड़ी सुलगाना।
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सुलग्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] शुभ मुहूर्त। शुभ लग्न। अच्छी सायत। वि० किसी के साथ अच्छी तरह लगा हुआ।
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सुलच्छन  : वि० [स्त्री० सुलच्छनी]=सुलक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलछ  : वि० [सं० सुलक्ष] १. जो भली भाँति दिखाई पड़ रहा हो। २. अच्छे लक्षणोंवाला। ३. सुन्दर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलझन  : स्त्री० [हिं० सुलझना] सुलझने की क्रिया या भाव। सुलझाव। ‘उलझन’ का विपर्याय।
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सुलझना  : अ० [हिं० उलझना का अनु०] १. उलझनों से मुक्त होना। २. समस्या की जटिलता, पेचीदगी आदि का दूर होना।
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सुलझाना  : स० [हिं० सुलझना का स० रूप] १. किसी उलझी हुई वस्तु की उलझन दूर करना। उलझन या गुत्थी खोलना। २. किसी बात या विषय की जटिलताएँ दूर करना। ‘उलझाना’ का विपर्याय। जैसे–मामला सुलझाना।
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सुलझाव  : पुं० [हिं० सुलझना+आव (प्रत्य०)] सुलझने या सुलझाने की क्रिया या भाव। सुलझन।
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सुलटा  : वि० [हिं० उल्टा का अनु०] [स्त्री० सुलटी] जो उल्टा न हो। सीधा।
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सुलतान  : पुं०[फा०] बादशाह। सम्राट्।
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सुलताना चंपा  : पुं० [फा० सुलतान+हिं० चंपा] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष लकड़ी इमारती कामों और जहाज के मस्तूल तथा रेल पटरिताँ बनाने के काम आती है। पुन्नाग।
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सुलतानी  : वि० [फा० सुलतान] १. सुलतान या बादशाह संबंधी। २. लाल (रंग का)। स्त्री० १. सुलतान होने की अवस्था, पद या भाव। २. सुलतान का राज्य या शासन-काल। बादशाही। राजत्व। पुं० १. प्रकार का बढ़िया महीन रेशमी कपड़ा। २. पुरानी चाल का एक प्रकार का कागज जो फारस से बनकर आता था। वि० लाल रंग का। रक्त-वर्ण। सुर्ख।
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सुलप  : पुं० [सु+आलाप] सुन्दर आलाप। (क्व०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० स्वल्प] १. बहुत थोड़ा। अल्प। २. धीमा। मन्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलफ  : वि० [सं० सु+हिं० लफना] १. सहज में लचनेवाला। लचीला। २. कोमल। नाजुक। मुलायम।
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सुलफा  : पुं० [फा० सुल्फ़] १. गाँजा, चरस आदि। २. तम्बाकू की चिलम भरने का वह प्रकार जिसमें मिट्टी के तवे का प्रयोग नहीं होता। ३. सूखा तम्बाकू जिसे गाँजे की तरह पतली चिलम में भरकर पीते हैं। कंकड़। ४. चरस। क्रि० प्र०–पीना।–भरना। पुं० [सं० शौल्फ] एक प्रकार का साग।
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सुलफेबाज  : वि० [हिं० सुल्फा+फा० बाज] [भाव० सुल्फेबाजी] गाँजा या चरस पीनेवाला। गँजेड़ी या चरसी।
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सुलब  : पुं० [?] गंधक।(डि०)
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सुलभ  : वि० [सं०] [भाव० सुलभता, सुलभत्व] १. जो प्राप्त हो सकता हो। जिसे प्राप्त करने में विशेष कठिनाई या परिश्रम न हो। २. सरल। सहज। ३. साधारण। मामूली। ४. उपयोगी। पुं० अग्निहोत्र की अग्नि।
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सुलभ-गणक  : पुं० [सं०] ऐसी सारिणी या सारिणी-संग्रह जिसके द्वारा नित्य के व्यवहार की गणित-संबंधी प्रक्रियाओं के फल या परिकलन सहज में जाने जा सकें। (रेडी-रेकनर) जैसे–किसी निश्चित दर से १२ दिनों का वेतन, २३ दिनों का ब्याज आदि जानने की सारिणी।
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सुलभ-मुद्रा  : स्त्री० [सं०] अर्थशास्त्र में, किसी ऐसे देश की मुद्रा जो किसी राष्ट्र या राज्य को उस देश से माल मँगाने के लिए सहज में प्राप्त हो सके। (सॉफ्ट करेन्सी) विशेष–यदि हमारे देश में किसी दूसरे देश से आयात कम और निर्यात अधिक होता हो तो फलत
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सुलभता  : स्त्री० [सं० सुलभ+तल्–टाप्] सुलभ होने की अवस्था, गुण या भाव। सुलभत्व।
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सुलभत्व  : पुं० [सं०] सुलभता।
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सुलभा  : स्त्री० [सं०] १. वैदिक काल की एक ब्रह्मवादिनी विदुषी। २. तुलसी। ३. बेला। ४. जंगली उड़द। मषवन।
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सुलभि-वल्कल  : पुं० [सं० ब० स०] दालचीनी।
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सुलभेतर  : वि० [सं० ष० त०] १. जो सहज में प्राप्त न हो सके। ‘सुलभ’ से भिन्न। दुर्लभ। २. कठिन। मुश्किल। ३. महँगा।
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सुलभ्य  : वि० [सं० सु√लभ् (प्राप्त होना)+यत्] जो सहज में मिलता या मिल सकता हो। सुलभ।
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सुललित  : वि० [सं० प्रा० स०] अति ललित। अत्यन्त सुन्दर।
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सुलवण  : वि० [सं० प्रा० स०] (खाद्य पदार्थ) जिसमें उचित मात्रा में नमक मिला हो।
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सुलस  : पुं० [?] स्वीडन देश का एक प्रकार का बढ़िया लोहा।
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सुलह  : स्त्री० [फा०] १. वह स्थिति जब दो विरोधी पक्ष परस्पर विरोधभाव छोड़कर मित्रता का संबंध स्थापित करते हैं। मेल। मिलाप। २. वह मेल जो किसी प्रकार की लड़ाई या झगड़ा समाप्त होने पर हो। ३. उक्त प्रकार के मेल के उपरान्त होनेवाली सन्धि।
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सुलहनामा  : पुं० [अ० सुलह+फा० नामः] १. वह कागज जिस पर आपस में लड़नेवाले दलों या व्यक्तियों में मेल होने पर उसकी शर्त लिखी रहती हैं। २. वह कागज जिस पर दो या अधिक परस्पर लड़नेवाले राजाओं या राष्ट्रों में सुलह या मेल होने पर उस मेल की शर्ते लिखी रहती हैं। संधिपत्र। (ट्रीटी)
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सुलाक  : पुं० [फा० सूराख] सूराख। छेद। (लश०) स्त्री०=सलाख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलाखना  : स० [सं० सु+हिं० लखना=देखना] सोने या चाँदी को तपाकर परखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० [फा० सलाख] सलाख से या और किसी प्रकार छेद करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलागना  : अ०=सुलगना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलाना  : स० [हिं० सोना का प्रे०] १. किसी को सोने में प्रवृत्त करना। शयन कराना। निद्रित कराना। २. किसी को मैथुन या संभोग के लिए अपने पास लेटाना।
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सुलाभ  : वि०=सुलभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलास  : पुं० [सं० सु+लास्य] अच्छा नाच। उत्तम नृत्य। उदा०–आरंभित तव रूचिर राम, अद्भुत सुलास वह।–नन्ददास।
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सुलाह  : स्त्री०=सुलह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलिपि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] उत्तम और स्पष्ट लिपि।
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सुलूक  : पुं०=सलूक।
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सुलेक  : पुं० [सं०] एक आदित्य का नाम।
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सुलेख  : वि० [सं० ब० स०] १. शुभ रेखाओंवाला। २. शुभ रेखाएँ बनानेवाला। पुं० [?] अच्छा या उत्तम लेख। अच्छी और बढ़िया लिखावट की लिपि।
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सुलेमाँ  : पुं०=सुलेमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुलेमान  : पुं० [फा०] १. यहूदियों का एक प्रसिद्ध बादशाह जो पैगम्बर माना जाता है। २. पश्चिमी पंजाब (आज-कल के पाकिस्तान) और बलोचिस्तान के बीच का एक पहाड़।
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सुलेमानी  : वि० [फा०] सुलेमान संबंधी। सुलेमान का। जैसे–सुलेमानी सुरमा। पुं० १. एक प्रकार का प्रसिद्ध पाचक नमक जो कई ओषधियों के योग से बनता है। २. सफेद आँखोंवाला घोड़ा। ३. एक प्रकार का पत्थर जो कहीं से सफेद और कहीं से काला होता है।
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सुलोक  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. उत्तम लोक। २. स्वर्ग।
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सुलोचन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सुलोचना] सुन्दर आँखोवाला। जिसके नेत्र सुन्दर हों। पुं० १.=हिरन। २.=चकोर।
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सुलोचना  : स्त्री० [सं० सुलोचन–टाप्] वासुकी की एक कन्या जो मेघनाद की पत्नी थी। वि० सुन्दर नेत्रोंवाली।
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सुलोचनी  : वि० स्त्री० [सं० सुलोचना] सुन्दर नेत्रोंवाली। जिसके नेत्र सुन्दर हों।
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सुलोम  : वि० [सं०] [स्त्री० सुलोमा] सुंदर लोमों या रोमों से युक्त। जिसके रोएँ सुन्दर हों।
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सुलोमनी  : स्त्री० [सं०] जटामाँसी। बालछड़।
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सुलोमश  : वि०=सुलोम।
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सुलोमशा  : स्त्री० [सं०] १. काकजंघा। २. जटामाँसी।
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सुलोमा  : स्त्री० [सं०] १. ताम्रवल्ली। २. मांस-रोहिणी। वि० सं० ‘सुलोम’ का स्त्री०।
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सुलोल  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत इच्छुक या उत्सुक।
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सुलोह  : पुं० [सं०] एक प्रकार का बढ़िया लोहा।
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सुलोहक  : पुं० [सं०] पीतल।
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सुलोहित  : पुं० [सं० प्रा० स०] सुन्दर रक्तवर्ण। अच्छा लाल रंग। वि० उक्त प्रकार के रंगों का।
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सुलोहिता  : स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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सुल्टा  : वि० =सुलटा। (‘उलटा’ या विपर्याय)।
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सुल्तान  : पुं० =सुलतान।
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सुल्तानी  : वि०, स्त्री० , पुं० =सुलतानी।
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सुल्फ  : पुं० [?] १. संगीत में बहुत चढी़ या तेज लय। २. किश्ती। नाव। पद–सौदा—सुल्फ।
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सुव  : पुं० =सुअन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवक्ता  : वि० [सं० सु+वक्तृ] सुन्दर बोलनेवाला। उत्तम व्याख्यान देनेवाला। वाक्पटु। वाग्मी।
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सुवक्त्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. शिव। २. कार्तिकेय का एक अनुचर। वि० सुन्दर मुखवाला। ३. वन—तुलसी।
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सुवक्ष  : वि० [सं० सुवक्षस्] [स्त्री० सुवक्षा] सुन्दर या विशाल वक्षवाला। जिसकी छाती सुन्दर या चौड़ी हो।
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सुवक्षा  : स्त्री० [सं०] मय दानव की पुत्री और त्रिजटा तथा विभीषण की माता का नाम।
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सुवच  : वि० [सं०] जो सहज में कहा जा सके। जिसके उच्चारण में कठिनता न हो।
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सुवचन  : वि० [सं० ब० स०] १. सुन्दर वचन बोलनेवाला। सुवक्ता। वाग्मी। २. मधुर—भाषी। पुं० मधुर वचन।
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सुवचनी  : स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम। वि० हिं० ‘सुवचन’ का स्त्री० ।
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सुवज्र  : पुं० [सं० ब० स०] इन्द्र।
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सुवटा  : पुं० =सुअटा (तोता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवण  : पुं० [सं० सुवर्ण] सोना। सुवर्ण। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवदन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सुवदना] सुन्दर मुखवाला। सुमुख। पुं० वन—तुलसी।
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सुवदना  : स्त्री० [सं०] सुन्दर मुखवाली स्त्री। सुन्दरी स्त्री।
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सुवन  : पुं० [सं०] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. चन्द्रमा। पुं० १.=सुअन। २. सुमन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवना  : पुं० =सुगना (तोता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवनारा  : पुं० =सुअन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवपु  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर शरीरवाला। सुदेह।
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सुवयसी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. ऐसी स्त्री जिसमें पुरूषों के से कुछ लक्षण आ गये हों। २. प्रौढ़ा स्त्री।
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सुवया  : स्त्री० [सं० सुवयस्] प्रौढा़ स्त्री।
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सुवर—कोन्ना  : पुं० [हिं० सूअर ?+हिं० कोना] ऐसी हवा जिसमें पाल न उड़ सके। (मल्लाह)
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सुवरण  : वि० , पुं० =सुवर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवर्चा (र्चस्)  : पुं० [सं०] १. गरूड़ का एक पुत्र। २. दसवें मनु का एक पुत्र। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ४. कार्तिकेय का एक अनुचर। वि० १. शक्तिशाली। २. तेजस्वी।
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सुवर्च्चक  : पुं० [सं०] १. स्वर्जिकाक्षार। सज्जी। १. एक वैदिक ऋषि।
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सुवर्च्चना  : स्त्री० =सुवर्च्चला।
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सुवर्च्चल  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश। २. काला नमक।
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सुवर्च्चला  : स्त्री० [सं०] १. सूर्य की एक पत्नी का नाम। २. ब्राह्यी। ३. तीसी। हुरहुर।
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सुवर्च्चस  : वि० [सं० ब० स०] दीप्तिमान्। पुं० शिव।
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सुवर्च्चसी (सिन्)  : पुं० [सं०] १. शिव का एक नाम। २. सज्जा।
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सुवर्च्चिक  : पुं० =सुवर्च्चक।
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सुवर्च्चिका  : स्त्री० [सं०] १. स्वर्जिकाक्षार। सज्जी। २. जतुका या पहाड़ी नाम की लता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवर्च्ची  : पुं० =सुवर्च्चक।
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सुवर्ण  : वि० [सं० ब० स०] १. सुन्दर वर्ण या रंग का। २. सोने के रंग का। सुनहला। ३. धनवान्। सम्पन्न। पुं० १. सोना नमक धातु। स्वर्ण। २. प्राचीन भारत में सोने का एक प्रकार का सिक्का जो प्रायः दश माशे का होता था। ३. किसी के मत से दश माशे की और किसी के मत से सोलह माशे की एक पुरानी तौल या मान। ४. एक प्रकार का यज्ञ। ५. एक प्रकार का छन्द या वृत्त। ६.रंगे हुए सूत से बुना हुआ पुरानी चाल का एक प्रकार का कपड़ा। ७. दशरथ का एक मंत्री। ८. सोनागेरू। ९. हरिचन्दन। १॰. हलदी। ११. नागकेसर। १२. धतूरा। १३. पीली सरसों।
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सुवर्ण स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] १. एक प्राचीन जनपद। २. आधुनिक सुमात्रा द्वीप का पुराना नाम।
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सुवर्ण-कदली  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] चंपा केला।
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सुवर्ण-कमल  : पुं० [सं० उपमि० स०] लाल कमल। रक्त कमल।
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सुवर्ण-करणी  : स्त्री० [सं० सुवर्ण+करण] एक प्रकार की जड़ी।
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सुवर्ण-कर्ता  : पुं० =स्वर्णकार (सुनार)।
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सुवर्ण-केतकी  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] लाल केतकी। रक्त केतकी।
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सुवर्ण-क्षीरिणी  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] कटेरी। कटुपर्णी। स्वर्णक्षीरी।
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सुवर्ण-गणित  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में, बीज—गणित की वह शाखा जिसके अनुसार सोने की तौल आदि जानी जाती थी और उसके दाम का हिसाब लगाया जाता था।
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सुवर्ण-गर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] एक बोधिसत्व का नाम।
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सुवर्ण-गिरि  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. राजगृह के पास का एक पर्वत। २. अशोक की एक राजधानी जो किसी के मत से राजगृह में और किसी के मत से दक्षिण भारत के पश्चिमी समुद्र—तट पर थी।
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सुवर्ण-गैरिक  : पुं० [सं० मध्य० स०] लाल गेरू।
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सुवर्ण-चूड़  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का पक्षी।
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सुवर्ण-जीविक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन वर्णसंकर जाति जो सोने का व्यापार करती थी।
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सुवर्ण-तिलका  : स्त्री० [सं० ब० स०] मालकंगनी।
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सुवर्ण-द्वीप  : पुं० [सं०] सुमात्रा टापू का पुराना नाम।
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सुवर्ण-धेनु  : स्त्री० [सं० ष० त०] दान देने के लिए सोने की बनाई हुई गौ।
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सुवर्ण-पक्ष  : वि० [सं० ब० स०] जिसके पंख या पर सोने के हों। पुं० गरुड़।
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सुवर्ण-पद्म  : पुं० [सं० उपमि० स०] लाल कमल। रक्त कमल।
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सुवर्ण-पद्मा  : स्त्री० [सं०] आकाश गंगा।
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सुवर्ण-पार्श्व  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन जनपद।
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सुवर्ण-पालिका  : स्त्री० [सं०] सोने का बना हुआ एक प्रकार का प्राचीन पात्र।
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सुवर्ण-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] बड़ी सेवती। राजतरुणी।
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सुवर्ण-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०] चंपा केला। सुवर्ण कदली।
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सुवर्ण-भूमि  : पुं० [सं० ब० स०] सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) का पुराना नाम।
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सुवर्ण-माक्षिक  : पुं० [सं० मध्य० स०] सोनामक्खी। स्वर्णमाक्षिक।
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सुवर्ण-माषक  : पुं० [सं०] बारह धान की एक पुरानी तौल।
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सुवर्ण-मित्र  : पुं० [सं०] सुहागा, जिसकी सहायता से सोना जल्दी गल जाता है।
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सुवर्ण-मुखरी  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक प्राचीन नदी।
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सुवर्ण-यथिका  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] सोनजुही। पीली जुही।
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सुवर्ण-रंभा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चंपा केला। सुवर्ण कदली।
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सुवर्ण-रूपक  : पुं० [सं०] सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) का एक प्राचीन नाम।
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सुवर्ण-रेखा  : स्त्री० [सं० ब० स०] उड़ीसा और बंगाल की एक प्रसिद्ध नदी।
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सुवर्ण-वणिक्  : पुं० [सं०ब०स०] बंगाल की एक वणिक् जाति।
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सुवर्ण-वर्ण  : वि० [सं० ब० स०] जिसका रंग सोने की रंग की तरह हो। सुनहला। पुं० विष्णु।
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सुवर्ण-विंदु  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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सुवर्ण-श्री  : स्त्री० [सं० ब० स०] आसाम की एक नदी जो ब्रह्मपुत्र की मुख्य शाखा है।
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सुवर्ण-सिद्ध  : पुं० [सं० ब० स०] वह जो इन्द्रजाल से सोना बना लेता हो।
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सुवर्ण-स्तेय  : पुं० [सं० ष० त०] सोने की चोरी जो मनु के अनुसार पाँच महापातकों में से एक है।
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सुवर्णक  : पुं० [सं०] १. सोना। स्वर्ण। २. सोलह माशे की एक पुरानी तौल। ३. पीतल। ४. अमलतास। वि० १. सोने का बना हुआ। २. सोने के रंग का। सुनहला।
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सुवर्णकार  : पुं० [सं० सुवर्ण√कृ(करना)+अण्] सोने के गहने बनाने वाला कारीगर। सुनार।
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सुवर्णगोत्र  : पुं० [सं० ब० स०] बौद्धों के अनुसार एक प्राचीन राज्य।
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सुवर्णता  : स्त्री० [सं० सुवर्ण+तल्–टाप्] सुवर्ण का गुण, धर्म या भाव। सुवर्णत्व। २. सुनहलापन।
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सुवर्णध्न  : पुं० [सं० सुवर्ण√हन् (मारना)+टक्] राँगा। बंग।
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सुवर्णरेता (तस्)  : पुं० [सं० ब० स०] शिव का एक नाम।
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सुवर्णरोमा (मन्)  : वि० [सं० ब० स०] जिसके रोएँ सुनहले हों। पुं० भेड़। मेष।
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सुवर्णलता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] मालकंगनी। ज्योतिष्मतीलता।
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सुवर्णस्तेयी (यिन्)  : पुं० [सं० ष० त०] सोना चुरानेवाला, जो मनु के अनुसार महापातकी होता है।
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सुवर्णा  : स्त्री० [सं०] १. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक। २. इक्ष्वाकु की पुत्री और सुहोत्र की पत्नी। ३. हलदी। ४. काला अगर। ५. बरियारा। बला। ६. कटेरी। सत्यानाशी। ७. इन्द्रायन। इनारू।
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सुवर्णाकर  : पुं० [सं० ष० त०] सोने की खान।
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सुवर्णाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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सुवर्णाख्य  : पुं० [सं० ब० स०] १. नागकेसर। २. धतूरा ३. एक प्राचीन तीर्थ।
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सुवर्णाभ  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें सोने की—सी आभा या चमक हो। पुं० रागावर्त नामक मणि। लाजवर्द।
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सुवर्णार  : पुं० [सं०] लाल कचनार।
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सुवर्णाह्वा  : स्त्री० [सं० ब० स०] पीलीजूही। सोनजूही।
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सुवर्णिका  : स्त्री० [सं० ब० स०] पीली जीवंती। स्वर्ण जीवंती।
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सुवर्णी  : स्त्री० [सं०] मूसाकानी। आखुपर्णी।
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सुवर्तुल  : वि० [सं०] ठीक और पूरा गोल। पुं० तरबूज।
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सुवर्म्मा(वर्म्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] उत्तम कवच से युक्त। जिसके पास उत्तम कवच हो। पुं० धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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सुवर्षा  : स्त्री० [सं० सुवर्ष—टाप्, प्रा० स०] १. अच्छी वर्षा। २. मोतिया। मल्लिका।
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सुवल्लिका  : स्त्री० [सं०] १. जतुका लता। २. सोमराजी।
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सुवल्ली  : स्त्री० [सं०] १. बकुची। सोमराजी। २. पुत्रदात्री लता। ३. कुटकी।
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सुवंश  : पुं० [सं० ब० स०] बसुदेव का एक पुत्र। (भागवत)
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सुवंस  : पुं० =सुवंश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवस  : वि० [सं० स्व+वश] जो अपने वश या अधिकार में हो। वशवर्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवसंत  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. चैत्र की पूर्णिमा। चैत्रावली। २. मदनोत्सव जो उक्त पूर्णिमा के दिन मनाया जाता था।
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सुवंसतक  : पुं० [सं०] १. मदनोत्सव जो प्राचीन काल में चैत्र पूर्णिमा को मनाया जाता था। २. नेवारी।
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सुवंसता  : स्त्री० [सं०] १. माधवी लता। २. चमेली।
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सुवह  : वि० [सं०] जो सहज में वहन किया या उठाया जा सके। २. धैर्यशाली। धीर। पुं० एक प्रकार का वायु।
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सुवहा  : स्त्री० [सं०] १. वीणा। बीन। २. रासना। ३. सँभालू। ४. हंसपदी। ५. रुद्रजटा। ६. मूसली। ७. सलई। ८. गन्धनाकुली। ९. निसोथ। १॰. शेफालिका।
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सुवा  : पुं० =सुआ (तोता)।
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सुवाक्य  : वि० [सं०] सुन्दर वचन बोलनेवाला। मधुरभाषी। सुवाग्मी।
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सुवाँग  : पुं० =स्वाँग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवाँगी  : पुं० =स्वाँगी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवाच्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो सहज में पढ़ा जा सके।
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सुवाजी (जिन्)  : वि० [सं०] (तीर) जिसमें अच्छे और सुन्दर पंख लगे हों।
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सुवाना  : स०=सुलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवामा  : स्त्री० [सं०] वर्तमान रामगंगा नदी का पुराना नाम।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सुवार  : पुं० [सं० प्रा० स०] उत्तम वार। अच्छा दिन। पुं०=सूपकार (रसोइया)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सुवाल  : पुं० =सवाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सुवास  : पुं० [सं० प्रा० स०] २. अच्छी वास या महक। खुशबू। सुगंध। २. अच्छा निवास—स्थान। ३. शिव। ४. एक प्रकार का छन्द या वृत्त। वि० जो अच्छे कपड़े पहने हो। पुं०=श्वास। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवासक  : पुं० [सं०] तरबूज।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सुवासरा  : स्त्री० [सं०] हालों नाम का पौधा। चंसुर। चन्द्रशूर।
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सुवासा (सस्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. जो अच्छे और सुन्दर कपड़े पहने हुए हो। २. (तीर) जिसमें अच्छे या सुन्दर पर लगे हों।
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सुवासिक  : वि० [सं०] [स्त्री० सुवासिका] सुवास या सुगंध से युक्त। सुगंधित।
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सुवासित  : भू० कृ० [सं०] सुवास या सुगंध से यक्त किया हुआ।
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सुवासिन  : स्त्री०=सुवासिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सुवासिनी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. ऐसी विवाहिता या कुँआरी स्त्री जो अपने पिता के घर में ही। २. सधवा स्त्री।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सुवासी (सिन्)  : वि० [सं० सु√वस् (वास करना)+णिनि] [स्त्री० सुवासिनी] उत्तम या भव्य भवन में रहनेवाला।
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सुवास्तु  : स्त्री० [सं०] गंधार देश की आधुनिक स्वात नामक नदी का वैदिक—कालीन नाम। पुं० १. उक्त नदी के तटवर्ती देश का पुराना नाम। २. उक्त देश का निवासी।
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सुवाह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. स्कंद का एक पारिषद्। २. अच्छा या बढ़िया घोड़ा। वि० १. जो सहज में वहन किया या उठाया जा सके। २. अच्छे घोड़ों से युक्त।
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सुविक्रम  : वि० [सं० ब० स०] बहुत बड़ा विक्रमी या पुरुषार्थी।
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सुविक्रांत  : वि० [सं० ब० स०] १. अत्यन्त विक्रमशाली। अतिशय पराक्रमी। २. बहादुर। वीर। पुं० बहादुर। वीर।
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सुविख्यात  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० सुविख्याति] अत्यन्त प्रसिद्ध।
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सुविगुण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जिसमें कोई गुण या योग्यता न हो। गुणहीन। २. बहुत बड़ा दुष्ट। नीच या पाजी।
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सुविग्रह  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर शरीर या रूपवाला। सुदेह। सुरूप।
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सुविचार  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह और सूक्ष्मतापूर्वक किया हुआ विचार। २. अच्छी तरह समझ—बूझकर किया हुआ निर्णय। ३. रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न कृष्ण का एक पुत्र।
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सुविचारित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] सूक्ष्म या उत्तम रूप से विचार किया हुआ। अच्छी तरह सोचा—समझा हुआ।
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सुविज्ञ  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक विज्ञ या ज्ञानवान्। अच्छी जानकार।
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सुविज्ञान  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो सहज में जाना जा सके। २. बहुत बड़ा चतुर या बुद्धिमान।
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सुविज्ञेय  : वि० [सं० प्रा० स०] जो सहज में जाना जाता हो या जाना जा सकता हो। पुं० शिव।
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सुवित  : वि० [सं० प्रा० स०] जो सहज में प्राप्त हो सके। पुं० १. अच्छा मार्ग। सुपथ। २. कल्याण। मंगल। ३. सौभाग्य।
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सुवितल  : पुं० [सं०] विष्णु की एक प्रकार की मूर्ति।
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सुवित्त  : वि० [सं० ब० स०] बहुत बड़ा धनी या अमीर।
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सुवित्ति  : पुं० [सं०] एक देवता का नाम।
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सुविद  : पुं० [सं०] १. अंतःपुर या निवास का रक्षक। सौविद्। कंचुकी। २. तिलकपुष्प नामक वृक्ष।
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सुविदत्र  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अतिशय सावधान। २. सहृदय। ३. उदार। पुं० १. अनुग्रह। कृपा। २. धन—सम्पत्ति। ३. कुटुंब। परिवार। ४. ज्ञान।
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सुविदर्भ  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक प्राचीन जाति।
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सुविदला  : स्त्री० [सं०] विवाहिता स्त्री।
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सुविद्  : पुं० [सं० सु√विद् (जानना)+क्विप्] [स्त्री० सुविदा] विद्वान या चतुर व्यक्ति।
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सुविद्य  : वि० [सं० ब० स०] उत्तम विद्वान। अच्छा पण्डित।
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सुविध  : वि० [सं० ब० स०] अच्छे स्वभाव का। सुशील।
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सुविधा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. वह तत्त्व या बात जिसके सहज उपलब्ध होने से किसी काम को सरलता से निष्पन्न किया जाता है। २. वह आराम या छूट जो विशेष रूप से उपलब्ध हुई हो। जैसे–यहाँ दोपहर को एक घंटे की फुरसत मिल जाती है; यही एक सुविधा मेरे लिए बहुत है। स्त्री०=सुभीता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुविधि  : पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के नवें अर्हत का नाम। स्त्री० १. अच्छी विधि। २. सुन्दर ढंग या युक्ति।
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सुविनय  : वि० [सं० ब० स]=सुविनीत।
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सुविनीत  : वि० [सं० प्रा० स०] [स्त्री० सुविनीता] १. अतिशय नम्र या विनीत। २. (पशु) जो अच्छी तरह सिखाकर अपने अनकूल कर लिया गया हो।
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सुविनेय  : वि० [सं० सु—वि√नी(ढोना)+यत्] जो सहज में शिक्षा आदि के द्वारा विनीत और अनकूल किया जा सकता हो।
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सुविशाल  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक विशाल या बड़ा।
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सुविशाला  : स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका।
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सुविशुद्ध  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक लोक। (बौद्ध)
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सुविषाण  : वि० [सं० ब० स०] बड़े दाँतोंवाला (हाथी)।
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सुविष्टंभी (भिन्)  : पुं० [सं०] शिव का एक नाम। वि० अच्छी तरह पालन—पोषण करने या संभालनेवाला।
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सुविस्तार  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक विस्तारवाला। खूब लंबा—चौड़ा। २. विस्तारपूर्वक कहा हुआ। पुं० १. बहुत अधिक फैलाव या विस्तार। २. प्रचुरता। बहुतायत।
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सुवीथी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] प्राचीन भारत में, वह दालान या पाटनदार रास्ता जो चतुश्शाल के कमरों के आगे होता था।
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सुवीर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बड़ा वीर या योद्धा। २. शिव। ३. कार्तिकेय। ४. एक वीर नामक कंद। छाछ की बनाई हुई रबड़ी।
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सुवीरक  : पुं० [सं०] १. बेर नाम का पेड़ और फल। २. एक वीर नामक वृक्ष। ३.सुरमा।
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सुवीरज  : पुं० [सं० सुवीर√जन् (उत्पन्न करना)+ड] सुरमा। सौवीराजन।
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सुवीर्य  : वि० [सं० ब० स०] बहुत बड़ा वीर्यशाली या शक्तिमान्। पुं० बेर का पेड़ और फल।
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सुवीर्या  : स्त्री० [सं० सुवीर्य्य—टाप्] १. बनकपास। २. बड़ी शतावर। ३. नाड़ी हींग। डिकामाली।
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सुवृत्त  : वि० [सं० ब० स०] १. सच्चरित्र। २. गुणवान्। ३. सज्जन और साधु। ४. भली—भाँति छन्दों या वृत्तों में बाँधा हुआ (काव्य)। पुं० ओल। जमींकन्द। सूरन।
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सुवृत्ता  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. एक प्रकार छन्द या वृत्त। २. किशमिश। ३. सेवती।
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सुवृत्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. उत्तम वृत्ति या जीविका। २. सदाचार। वि० १. जिसकी जीविका या वृत्ति उत्तम हो। २. सदाचारी।
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सुवृद्ध  : पुं० [सं० प्रा० स०] दक्षिण दिशा के दिग्गज का नाम। वि० १. बहुत वृद्ध। २. बहुत पुराना।
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सुवेग  : वि० [सं० ब० स०] तेज गतिवाला। वेगवान्।
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सुवेणा  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक प्राचीन नदी।
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सुवेद  : वि० [सं० प्रा० स०] १. वेदों का ज्ञाता। २. बहुत बड़ा ज्ञाता।
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सुवेल  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत झुका हुआ। प्रणत। पुं० लंका में समुद्र—तट का एक पर्वत जहाँ रामचन्द्र सेना सहित ठहरे थे।
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सुवेश  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० सुवेशता] १. सुन्दर वेश—भूषावाला। २. सुन्दर। पुं० १. सुन्दर वेश—भूषा। २. सफेद ईख।
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सुवेशित  : भू० कृ० [सं० सुवेश+इतच्] जिसने सुन्दर वेश धारण किया हो।
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सुवेशी (शिन्)  : वि० [सं० सुवेश+इनि] जिसने सुन्दर वेश धारण किया हो। अच्छे भेषवाला।
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सुवेष  : वि०=सुवेश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवेषी  : वि०=सुवेशी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवेस  : वि०=सुवेश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवेसल  : वि० [सं० सुवेश+हिं० ल (प्रत्य०)] सुन्दर। मनोहर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवैणा  : पुं० [सं० सु+हिं० वैन (वचन)] १. सुन्दर वचन। २. मित्रता। दोस्ती। (ड़ि०)
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सुवैया  : वि० [हिं० सोना+ऐया (प्रत्य०)] सोनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुवो  : पुं०=सुवा (तोता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=सुवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुव्यवस्था  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [वि० सुव्यवस्थित] अच्छी और सुन्दर व्यवस्था। सुप्रबन्ध।
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सुव्यवस्थित  : वि० [सं० प्रा० स०] जिसकी या जिसमें अच्छी या सुन्दर व्यवस्था हो।
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सुव्रत  : वि० [सं० ब० स०] १. दृढ़ता से अपने व्रत का पालन करनेवाला। २. धर्मनिष्ठ। ३. नम्र। विनीत। पुं० [सं०] १. स्कंद का एक अनुचर। २. एक प्रजापति। ३. रौच्य मनु का एक पुत्र। ४. जैनों में वर्तमान अवसर्पिणी के २९ वें अर्हत। मुनि सुव्रत। ५. भावी अत्सर्पिणी के ११ वें अर्हत। ६. ब्रह्मचारी।
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सुव्रता  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. सहज में दूही जानेवाली गौ। २. गुणवती और परिव्रता स्त्री। ३. दक्ष की एक पुत्री। ४. वर्तमान कल्प के १५ वें अर्हत की माता का नाम। ५. गन्ध पलाशी।
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सुशक्त  : वि० [सं० प्रा० स०] अच्छी शक्तिवाला। शक्तिशाली।
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सुशख्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] शिव। महादेव।
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सुशब्द  : वि० [सं० ब० स०] अच्छा शब्द या ध्वनि करनेवाला। जिसकी आवाज अच्छी हो। पुं० अच्छा शब्द।
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सुशरीर  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर शरीरवाला। पुं० सुन्दर शरीर।
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सुशर्मा (र्मन्)  : पुं० [सं०] १. निन्दनीय अथवा निन्दित ब्राह्मण। (व्यंग्य) २. मैथुन अभिलाषी व्यक्ति।
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सुशंस  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह से कहा जानेवाला। २. प्रसिद्ध। मशहूर। ३. प्रशंसनीय।
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सुशाक  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अदरक। आर्द्रक। २. चौलाई का साग। ३. चेंच का साग। ४. भिंडी।
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सुशांत  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० सुशांति] अत्यंत शांत।
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सुशांति  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण शांति। २. तीसरे मन्वन्तर के इन्द्र का नाम। ३. अजमीढ़ का एक पुत्र।
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सुशारद  : पुं० [सं०] शालंकायन गोत्र के एक वैदिक आचार्य।
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सुशासित  : वि० [सं० प्रा० स०] (प्रदेश) जिसकी शासन—व्यवस्था अच्छी हो।
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सुशिक्षित  : वि० [सं० प्रा० स०] [स्त्री० सुशिक्षिता] (व्यक्ति, सम्प्रदाय या समाज) जिसने अच्छी शिक्षा प्राप्त की हो।
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सुशिख  : वि० [सं० प्रा० स०] अग्नि का एक नाम।
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सुशिखा  : स्त्री० [सं० सुशिख—टाप्] १. मोर की चोटी। २. मुरगे की कलगी या चोटी।
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सुशिर (शिरस्)  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर शिरवाला। जिसका सिर सुन्दर हो। पुं० =सुषिर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुशीत  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पीला चन्दन। २. हरि चन्दन। २. पाकर। ३. जल—बेंत। वि० बहुत अधिक शीतल या ठंढा।
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सुशीतल  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. गंधतृण। २. सफेद चंदन। ३. नागदौन। वि० बहुत अधिक शीतल या ठंढा।
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सुशीम  : वि०, पुं०=सुषीम।
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सुशील  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सुशीला, भाव० सुशीलता] १. जिसका शील (प्रवृत्ति या स्वभाव) अच्छा हो। शीलवान्। २. सज्जन् तथा सदाचारी। ३. सरल। सीधा।
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सुशीलता  : स्त्री० [सं० सुशील+तल्–टाप्] सुशील होने की अवस्था, गुण या भाव। सुशीलत्व।
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सुशीला  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. श्रीकृष्ण की एक पत्नी। २. राधा की एक सखी। ३. यम की पत्नी। ४. सुदामा की पत्नी।
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सुशीली (लिन्)  : वि० [सं०]=सुशील।
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सुशोण  : वि० [सं० प्रा० स०] गहरा लाल रंग।
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सुशोभन  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक शोभावाला। फबनेवाली (चीज)। ३. प्रियदर्शन। सुन्दर।
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सुशोभित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] उत्तम रूप से शोभित। अत्यन्त शोभायमान्।
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सुश्रव  : वि० [सं० प्रा० स०] जो सहज में और अच्छी तरह सुना जा सके।
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सुश्रवा  : वि० [सं०] १. उत्तम हवि से युक्त। २. कीर्तिमान्। यशस्वी। ३. प्रसिद्ध मशहूर। पुं० एक प्रजापति का नाम।
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सुश्राव्य  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो सुनने में अच्छा जान पड़े। २. जो अच्छी तरह और सहज में सुनाई पड़े।
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सुश्री  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत सुन्दर। शोभायुक्त। २. बहुत बड़ा धनी। स्त्री० आज-कल स्त्रियों विशेषतः अविवाहित स्त्रियों के नाम के पहले लगनेवाला एक आदरसूचक और शिष्टतापूर्ण संबोधन पद। जैसे–सुश्री पद्मा देवी।
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सुश्रीक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] सलई। शल्लकी। वि०=सुश्री।
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सुश्रुत  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह सुना हुआ। २. प्रसिद्ध। मशहूर। पुं० १. श्राद्ध के समय ब्राह्मण को भोजन करा चुकने पर उनसे यह पूछना की आप भलीभाँति तृप्त हो गये न ? २. प्रसिद्ध आयुर्वेदीय ग्रंथ ‘सुश्रुत—संहिता’ के रचयिता।
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सुश्रुत-संहिता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] आचार्य सुश्रुत का बनाया आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध और सर्वमान्य ग्रन्थ।
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सुश्रूखा  : स्त्री०=शुश्रूषा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुश्रूषा  : स्त्री०=शुश्रुषा।
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सुश्रृंग  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर श्रृंग से युक्त। सुन्दर सीगोंवाला। पुं० श्रृंगी ऋषि।
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सुश्रोणा  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक पौराणिक नदी।
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सुश्रोणि  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक देवी का नाम। वि० जिसके नितंब सुन्दर हों।
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सुश्लिष्ट  : वि० सं० [सु√श्लिष् (संयोग)+क्त] [भाव० सुश्लिष्टता] १. अच्छी तरह से मिला हुआ। व्यवस्थित। २. फबनेवाला। उपयुक्त।
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सुश्लोक  : वि० [सं० ब० स०] १. पुण्यात्मा। पुण्यकीर्ति। २. प्रसिद्ध। मशहूर।
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सुष  : पुं०=सुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुषम  : वि० [सं० पं० त०] १. बहुत सुन्दर। सुषमा—पूर्ण २. तुल्य। समान।
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सुषम—प्राषमा  : स्त्री० [सं०] जैन मतानुसार काल—चक्र के दो आरे।
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सुषमना  : स्त्री०=सुषुम्ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुषमनि  : स्त्री०=सुषुम्ना। पुं०=सुखमणि (सिक्खों का धर्म ग्रंथ)।
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सुषमा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. परम शोभा। अत्यन्त सुन्दरता। २. विशेषतः नैसर्गिक शोभा। प्राकृतिक सौन्दर्य। ३. एक प्रकार का छन्द या वृत्त। ४. एक प्रकार का पौधा। ५. जैनों के अनुसार काल का एक नाम।
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सुषमित  : भू० कृ० [सं० सुषमा+इतच्] सुषमा से युक्त।
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सुषाढ़  : पुं० [सं० ब० स०] शिव का एक नाम।
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सुषाना  : अ०=सुखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुषारा  : वि०=सुखारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुषि  : स्त्री० [सं० सु√सो (विनाश करना)+कि बाहु०√शुष् (सोखना)+इनिश=पृषो० स०] [भाव० सुषित्व] १. छिद्र। छेद। सूराख। २. शरीर अथवा किसी तल पर के वे छोटे—छोटे छेद जिसमें से होकर तरल पदार्थ अन्दर पहुँचते या बाहर निकलते हैं।
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सुषिक  : पुं० [सं० सुषि+कन्] शीतलता। ठंढक। वि० ठंढा। शीतल।
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सुषिम  : वि० पुं०=सुषीम।
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सुषिर  : वि० [सं०√शुष् (शोषण करना)+किरच् श=स पृषो०] छेदों या सूराखों से भरा हुआ। पुं० १. छेद। २. दरार। ३. फूँककर बजाया जानेवाला बाजा। ४. वायु—मंडल। ५. अग्नि। ६. लकड़ी। ७. बाँस। ८. लौंग। ९. चूहा।
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सुषिरच्छेद  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की वंशी।
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सुषिरत्व  : पुं० [सं० सुषिर+त्व] दे० ‘छिद्रलता’।
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सुषिरा  : स्त्री० [सं० सुषिर–टाप्] १. कलिका। विद्रुम लता। २. दरिया। नदी।
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सुषीम  : पुं० [सं० सुशीम=+पृषो०] १. एक प्रकार का साँप। २. चन्द्रकान्त मणि। वि० १. मनोहर। सुन्दर। २. ठंढा। शीतल।
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सुषुपु (स्)  : वि० [सं०] सोने की इच्छा करनेवाला। निद्रातुर।
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सुषुप्त  : भू० कृ० [सं० सु√स्वप् (सोना)+क्त] १. सोया हुआ, विशेषतः गहरी नींद में सोया हुआ। २. (गुण या तत्त्व) जो निष्क्रिय अवस्था में किसी चीज में स्थित हो।
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सुषुप्ति  : स्त्री० [सं० सु√स्वप् (सोना)+क्तिन्] १. गहरी नींद में सोए हुए होने की अवस्था या भाव। २. पातंजलि दर्शन के अनुसार चित्त की एक वृत्ति या अनुभूति। ३. वेदान्त के अनुसार जीव की अज्ञानावस्था।
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सुषुप्सा  : स्त्री० [सं०√स्वप् (सोना)+सन्—संयु द्वित्व–टाप्] १. सोने की इच्छा। २. नींद में होने की अवस्था।
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सुषुम्ना  : स्त्री० [सं० सुषु√म्ना (अभ्यास)+क–टाप्] [वि० सौषुम्न] शरीर—शास्त्र के अनुसार एक नाड़ी जो नाभि से आरंभ होकर मेरुदंड में से होती हुई ब्रह्मरंध्र तक गई है। (स्पाइनल कार्ड)। विशेष–(क) हठयोग के अनुसार यह इंडा और पिंगला के बीच में है, और इसी के अन्तर्गत वह ब्रह्मनाड़ी है जिससे चलकर कुंडलिनी ब्रह्मरंध्र तक पहुँचाती है। (ख) वैद्यक में, यह शरीर की चौदह प्रधान नाड़ियों में से एक है जिसके साथ बहुत—सी छोटी—छोटी नाड़ियाँ लिपटी हुई हैं।
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सुषेण  : पुं० [सं० सु√सेन+अच्, षत्व] १. विष्णु। २. दूसरे मनु का एक पुत्र। ३. परीक्षित का एक पुत्र। ४. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ५. श्रीकृष्ण का एक पुत्र। ६. करमर्द (वृक्ष)। ७. बेंत।
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सुषेणी  : स्त्री० [सं०] निसोथ। त्रिवृता।
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सुषोपति  : स्त्री०=सुषुप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुषोप्ति  : स्त्री०=सुषुप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुष्ट  : पुं० [सं० दुष्ट का अनु०] [भाव० सुष्टता] अच्छा। भला। ‘दुष्ट’। का विपर्याय।
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सुष्ठु  : अव्य० [सं० सु√स्था (ठहरना)+कु] [भाव० सुष्ठुता] १. अतिशय। अत्यन्त। २. अच्छी तरह। भली—भाँति। ३. जैसा चाहिए, ठीक वैसा। यथा—तथ्य। ४. वास्तव में। वि० =सुष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुष्म  : पुं० [सं०√सु (गमनादि)+मक्—सुक्–षत्व] रस्सी। रज्जु।
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सुष्मना  : स्त्री०=सुषुम्ना।
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सुस  : स्त्री०=सुसा।
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सुसंकट  : वि० [सं० प्रा० स०] १. दृढ़तापूर्वक बंद किया हुआ। २. जिसकी व्याख्या करना कठिन हो। पुं० १. कठिन काम। २. कठिनता। दिक्कत।
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सुसकना  : अ०=सिसकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसकल्यो  : पुं० [सं० शश] खरगोश। खरहा। शशा। (डिं०)
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सुसका  : पुं० [अनु०] हुक्का। (सुनार)
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सुसंघ  : वि० [सं० ब० स०] वचन का सच्चा। बात का पक्का।
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सुसज्जित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. भली—भाँति सजा या सजाया हुआ। भली—भाँति श्रृंगार किया हुआ। शोभायमान्। २. तैयार। लैस।
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सुसताना  : अ० [फा० सुस्त+आना (प्रत्य०)] सुस्ताना।
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सुसती  : स्त्री०=सुस्ती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसत्त्व  : वि० [सं० ब० स०] १. दृढ़। पक्का। २. वीर। बहादुर।
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सुसत्या  : स्त्री० [सं० ब० स०] जनक की एक पत्नी। (पुराण)
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सुसंधवी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] सिंध देश की अच्छी घोड़ी।
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सुसना  : पुं० [?] एक प्रकार का साम।
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सुसमन  : स्त्री०=सुषुम्ना (नाड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसमय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. सुन्दर समय। अच्छा वक्त। २. वे दिन जिनमें अकाल न हो। सुकाल। सुभिक्ष। ३. ऐसा समय जब सब प्रकार की उन्नति और कल्याण होता हो।
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सुसमा  : स्त्री० [सं० उष्मा] अग्नि। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सुसमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =सुसमय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसर  : पुं०=ससुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसरण  : पुं० [सं०] शिव का एक नाम।
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सुसरा  : पुं०=ससुर। (उपेक्षासूचक)
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सुसरार  : स्त्री०=ससुराल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसराल  : स्त्री०=ससुराल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसरी  : स्त्री० [?] अनाजों में लगनेवाला एक प्रकार का लाल रंग का छोटा कीड़ा। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० १.=ससुरी। २. सुरसरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसह  : वि० [सं० प्रा० स०] जो सहज में सहन किया जा सके। पुं० शिव का एक नाम।
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सुसंहत  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० सुसंहति] जो अच्छी तरह या विशिष्ट रूप से संहत हो। खूब अच्छी तरह गठा हुआ।
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सुसा  : स्त्री० [सं० स्वसृ] बहन। भगिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] एक प्रकार का पक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=शश (खरगोश)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसाइटी  : स्त्री०=सोसाइटी (समाज)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसाना  : अ० [सं० श्वसन] सिसकियाँ भरना। सिसकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसार  : पुं० [सं० ब० स०] जिसका सार उत्तम हो। तत्त्वपूर्ण। पुं० अच्छा सार या तत्त्व। २. नीलम। ३. लाल खैर।
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सुसारवान् (वत्)  : वि० [सं० सुसार+मतुप्—म व नुम्–दीर्द्य] सुसार। (दे० ) पुं० स्फटिक।
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सुंसारी  : स्त्री० [देश] अनाजों में लगने वाला एक प्रकार का काला कीड़ा।
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सुसिद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०, ब० स०] [भाव० सुसिद्धि] १. अच्छी तरह पका या पकाया हुआ (खाद्य पदार्थ)। २. (व्यक्ति) जिसे अच्छी सिद्धि प्राप्त हो।
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सुसिद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] साहित्य में, एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें एक व्यक्ति के प्रयत्न करने पर दूसरे व्यक्ति को उसके फल प्राप्त करने का उल्लेख होता है।
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सुसीतलताई  : स्त्री० =सुशीतलता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसीता  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] सेवती। शतपत्री।
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सुसीम  : वि० [सं० सुषिम] शीतल। ठंढा। (डिं०)
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सुसुकना  : अ०=सिसकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसुड़ी़  : स्त्री० =सुसरी (कीड़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसुपि  : स्त्री० =सुषुप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसुम  : वि० [सं० सुषुम] सुषुमापूर्ण। सुन्दर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० =सूक्ष्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसूक्ष्म  : वि० [सं० प्रा० स०] अत्यंत सूक्ष्म। बहुत अधिक सूक्ष्म। बहुत ही छोटा। पुं० परमाणु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसेन  : पुं०=सुषेन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसेव्य  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जिसकी अच्छी तरह सेवा की जानी चाहिए। २. जिसका अनुसरण में सहज किया जा सके।
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सुसो  : पुं० [सं० शश] खरगोश। खरहा। (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुसौभग  : पुं० [सं० प्रा० स०] पति—पत्नी संबंधी सुख। दाम्पत्य सुख।
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सुस्त  : वि० [फा०] [भाव० सुस्ती] १. (जीव) जो भली—भाँति और मन लगाकर काम न करता हो। ‘उद्योगी’ का विपर्याय। २. फलतः स्वभाव से अकर्मण्य तथा मन्द गति से काम करनेवाला। ३. चिंता, रोग आदि के कारण अथवा निराश होने या उदास रहने के कारण अस्वस्थ या शिथिल। ४. अस्वस्थ। बीमार। (लश०) ५. जिसके शरीर में बाल न हो। दुर्बल। कमजोर। ६. चिंता, परिश्रम, रोग आदि के कारण जो मन्द या शिथिल हो गया हो। ७. जिसका उत्साह या तेज मंद पड़ गया हो। जैसे–मेरे रुपये माँगने पर वह सुस्त हो गया। ८. जिसकी तीव्रता या प्रबलता कम हो गई हो। जिसकी गति या वेग मंद हो गया हो। जैसे–यह घड़ी कुछ सुस्त है। ९. जिसे कोई काम करने या कोई बात समझने में आवश्यक या उचित से अधिक समय लगता हो। जैसे–इधर की गाड़ियाँ भी बहुत सुस्त हैं। क्रि० वि० सुस्ती से। मंद गति से । जैसे—गाड़ी बहुत सुस्त चल रही है।
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सुस्त—पाँव  : पुं० [फा० सुस्त+हिं० पाँव] एक प्रकार का चतुष्पाद जन्तु जो प्रायः वृक्षों की शाखा में लटका रहता और बहुत कम तथा बहुत मंद गति से चलता है। (स्लॉफ़)
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सुस्त—रीछ  : पुं० [फा० सुस्त+हिं० रीछ] एक प्रकार की पहाड़ी रीछ।
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सुस्तनी  : वि० स्त्री० =सुस्तना।
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सुस्ताई  : स्त्री० =सुस्ती। उदा०–पंथी कहाँ, कहाँ सुस्ताई।–जायसी।
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सुस्ताना  : अ० [फा़० सुस्त+हिं० आना (प्रत्य०)] अधिक श्रम करने पर तथा थकावट मिटाने के उद्देश्य से थोड़ी देर के लिए दम लेना या विश्राम करना।
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सुस्ती  : स्त्री० [फा़० सुस्त] १. सुस्त होने की अवस्था या भाव। शिथिलता। २. आलस्य, चिंता, रोग आदि के कारण उत्पन्न होनेवाली वह अवस्था जिसमें शरीर कुछ—कुछ शिथिल होता है तथा मन में कुछ करने के प्रति अरुचि होती है। ३. पुंस्त्व का अभाव या कमी। ४. बीमार होने की अवस्था। (लश०)
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सुस्तैन  : पुं०=स्वस्त्ययन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुस्थ  : वि० [सं० सु√स्था (ठहरना)+क] १. ठीक तरह से स्थित होना। २. भला। चंगा। नीरोग। स्वस्थ। तंदुरुस्त। ३. सब प्रकार से सुखी। ४. मनोहर। सुन्दर।
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सुस्थ—चित्त  : वि० [सं० ब० स०] जिसका चित्त सुखी या प्रसन्न हो।
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सुस्थता  : स्त्री० [सं० सुस्थ+तल्–टाप्] सुस्थ होने की अवस्था या भाव।
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सुस्थत्व  : पुं०=सुस्थता।
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सुस्थल  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अच्छा स्थान। २. एक प्राचीन जनपद।
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सुस्थावती  : स्त्री० [सं० सुस्था+मतुप्–म—व—ङीप्] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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सुस्थित  : वि० [सं० प्रा० स०] [स्त्री० सुस्थिता, भाव० सुस्थिति] १. उत्तम रूप से या भली—भाँति स्थित। २. दृढ़। पक्का। मजबूत। ३. स्वस्थ। तन्दुरुस्त। ४. भाग्यवान्। पुं० १. ऐसा मकान जिसके चारों ओर छज्जे हों। २. एक प्रकार का रोग जिसमें घोड़े अपने को निहारते और हिनहिनाते रहते हैं।
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सुस्थितत्व  : पुं० [सं० सुस्थित+त्व] सुस्थित होने की अवस्था या भाव।
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सुस्थिति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी या उत्तम स्थिति। सुखपूर्ण अवस्था। २. कल्याण। ३. मंगल। ४. प्रसन्नता। हर्ष। ५. अच्छा स्वास्थ्य।
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सुस्थिर  : वि० [सं० प्रा० स०] [स्त्री० सुस्थिरा] १. जो अच्छी तरह स्थिर या शांत हो। २. जो अच्छी तरह या दृढ़तापूर्वक जमाया, बैठाया या लगाया गया हो।
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सुस्थिरा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] रक्तवाहिनी। नस। लाल रंग।
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सुस्ना  : स्त्री० [सं० ब० स०] खेसारी। त्रिपुट।
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सुस्नात  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जिसने यज्ञ के उपरान्त स्नान किया हो। २. जो नहा—धोकर पवित्र हो गया हो।
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सुस्मित  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० सुस्मिता] मधुर हँसी हँसनेवाला।
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सुस्वध  : पुं० [सं० ब० स०] पितरों की एक श्रेणी या वर्ग।
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सुस्वधा  : स्त्री० [सं०] १. कल्याण। मंगल। २. सौभाग्य।
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सुस्वन  : वि० [सं० ब० स०] १. उत्तम ध्वनि या अच्छा शब्द करनेवाला। २. बहुत ऊँचा। ३. मनोहर। सुन्दर। पुं० शंख।
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सुस्वप्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. शुभ स्वप्न। अच्छा सपना। २. शिव का एक नाम।
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सुस्वर  : वि० [सं० प्रा० स०] [स्त्री० सुस्वरा] [भाव० सुस्वरता] १. मधुर। २. सुरीला। ३. उच्च या घोर। पुं० १. मधुर, सुरीला या उच्च स्वर। २. शंख। ३. वह कर्म जिससे मनुष्य का स्वर मधुर, सुरीला या उच्च होता है। (जैन)
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सुस्वरता  : स्त्री० [सं०] सुस्वर होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सुस्वादु  : वि० [सं० ब० स०] अत्यन्त स्वादयुक्त। बहुत स्वादिष्ट। बहुत जायकेदार।
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सुस्वाप  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रगाढ़ निद्रा। गहरी नींद।
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सुहँग  : वि०=सुहँगा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहँगम  : वि० [सं० सुगम] सहज। आसान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहँगा  : वि० [हिं० महँगा का अनु०] उपेक्षया कम मूल्य का या कम मूल्य पर मिलनेवाला। सस्ता ‘महँगा’ का विपर्याय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहटा  : वि० [हिं० सुहावना] [स्त्री० सुहटी] सुहावना। सुन्दर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहड़  : पुं० [सं० सुभट] सुभट। योद्धा। शूर—वीर। (डिं०)
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सुहनी  : स्त्री०=सोहनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहबत  : स्त्री०=सोहबत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहराना  : स०=सहलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहराब  : पुं० [फा०] ईरान के सुप्रसिद्ध और रुस्तम का बेटा जो उसी के हाथों मारा गया था।
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सुहल  : पुं०=सुहेल (तारा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहव  : पुं०=सूहा (राग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहवि (विस्)  : पुं० [सं०] एक अंगिरस का नाम।
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सुहवी  : स्त्री०=सूहा (राग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहस्त  : वि० [सं० ब० स०] १. सुन्दर हाथोंवाला। २. जिसके हाथ किसी काम में मँज गये हों, फलतः जो कोई काम सहज में तथा बढ़िया रूप से करता हो।
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सुहा  : पुं० [हिं० सुआ] [स्त्री० सुही] लाल नामक पक्षी। पुं०=सूहा (राग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहाग  : पुं० [सं० सौभाग्य] १. विवाहिता स्त्री की वह स्थिति जिसमें उसका पति जीवित और वर्तमान हो। अहिवात। सौभाग्य। मुहा०–सुहाग भरना=स्त्री की माँग में सिंदूर भरना। सुहाग मनाना=स्त्री का सदा सुहाग या सौभाग्य बना रहने की कामना करना। पति—सुख के अखंड रहने के लिए कामना करना। २. वह वस्त्र जो वर विवाह के समय पहनता है। ३. विवाह के समय कन्या पक्ष में गाये जानेवाले मांगलिक गीत, जिसमें कन्या के सौभाग्यवती बने रहने की कामना होती है। क्रि० प्र०–गाना। पुं० [?] मँझोले आकार का एक प्रकार का सदाबहार पेड़ जिसके बीजों से जलाने के लिए और औषध के काम में लाने के लिए तेल निकाला जाता है। पुं०=सुहागा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहाग-घर  : पुं०=सुहाग-मन्दिर।
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सुहाग-मन्दिर  : पुं० [सं०] १. राजमहल का वह विभाग जिसमें राजा अपनी रानियों के साथ बिहार करते थे। २. वह कोठरी या कमरा जिसमें वर और वधू सोते हों।
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सुहागन  : वि० स्त्री०=सुहागिन।
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सुहागा  : पुं० [सं० सुभग] एक प्रकार का क्षार जो गर्म पानी वाले गंध की सोतों से निकलता है। पुं० [?] खेत की मिट्टी बराबर करने का पाटा। हेंगा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहागिन  : वि० स्त्री० [हिं० सुहाग+इन (प्रत्य०)] सुहाग अर्थात सौभाग्य प्राप्त (स्त्री)। सधवा।
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सुहागिनी  : स्त्री०=सुहागिन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहागिल  : स्त्री०=सुहागिन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहाता  : वि० [हिं० सहना] जो सहा जा सके। सहने योग्य। सह्य। वि०=सुहावना। जैसे–उसे मेरी कोई बात नहीं सुहाती है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहान  : पुं० =सोहान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहाना  : अ० [सं० शोभन] १. देखने में सुन्दर प्रतीत होना। २. भला लगना। सुखद होना। ३. सत्य होना।
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सुहामण  : वि०=सुहावना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहार  : पुं०=सुहाल (पकवान)। उदा०–हारके सरोज सूकि होत हैं सुहार से।–सेनापति।
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सुहारी  : स्त्री० [सं० सु+आहार] पूरी। सादी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहाल  : पुं० [सं० सु+आहार] एक प्रकार का नमकीन पकवान जो मैदे का बनता है और जिसका ओकार तिकोना तथा परतदार होता है।
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सुहाली  : स्त्री०=सुहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहाव  : वि० [हिं० सुहाना] सुहावना। सुन्दर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० सु+हाव] सुन्दर हाव-भाव।
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सुहावता  : वि० [हिं० सुहाना] [स्त्री० सुहावती] १. सुहानेवाला। देखने में अच्छा लगनेवाला। सुहावना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहावन  : वि०=सुहावना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहावना  : वि० [हिं० सुहाना] [स्त्री० सुहावनी] जो सुन्दर भी हो और सुखद भी। जैसे–सुहावनी बात, सुहावनी रात। अ०=सुहाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहावनापन  : पुं० [हिं० सुहावना+पन (प्रत्य०)] ‘सुहावना’ होने की अवस्था या भाव। सुन्दरता। मनोहरता।
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सुहावला  : वि०=सुहावना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहास  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सुहासा] सुन्दर हँसी हँसनेवाला।
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सुहिणा  : पुं०=स्वप्न। (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहित  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत अधिक हित अर्थात उपकार करने या लाभ पहुँचानेवाला। २. (कार्य) जो पूरा किया गया हो। सम्पादित। ३. तृप्त। सन्तुष्ट। ४. उपयुक्त। ठीक।
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सुहिता  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. अग्नि की एक जिह्वा का नाम। २. रुद्रजटा।
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सुहिया  : स्त्री०=सुहा (राग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहुत  : वि०=सुस्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहुत  : वि०, पुं०=सुहृद।
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सुहृत्ता  : स्त्री०=सुहृदता।
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सुहृद  : वि० [सं०] [भाव० सुहृदता] अच्छे हृदयवाला। प्यारा। पुं० [सं०] १. शिव का एक नाम। २. मित्र।
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सुहृदय  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० सुहृदयता] १. अच्छे हृदयवाला। २. सबसे प्यार करनेवाला। ३. सहृदय।
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सुहेल  : पुं० [अ०] एक कल्पित तारा, जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि यह यमन देश में दिखलाई देता है और इसके उदित होने पर चमड़े में सुगंध आ जाती है तथा सब जीव मर जाते है। (हिन्दी के कवियों ने इसका निकलना शुभ माना है)।
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सुहेलरा  : वि०=सुहेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहेला  : वि० [सं० शुभ ?] १. सुहावना। सुन्दर। २. सुखदायक। सुखद। पुं० १. विवाह के अवसर पर गाये जानेवाले एक प्रकार के गीत। २. प्रशंसा, स्तुति।
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सुहेस  : वि० [सं० शुभ] अच्छा। सुन्दर। भला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सुहोता  : पुं० [सं०सुहेत] वह जो उत्तम रूप से हवन करता हो। अच्छा होता।
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सुहोत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. एक वैदिक ऋषि। २. एक बार्हस्पत्य का नाम। ३. सहदेव का एक पुत्र। ४. सुधन्वा का एक पुत्र। ५. वितथ का एक पुत्र।
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सुह्म  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन प्रदेश जो गौड़ देश के पश्चिम में था। ताम्रलिप्ति (आधुनिक तामलूक) यहीं का राजनगर था। २. यवनों की एक जाति।
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सुह्मक  : पुं०=सुह्म।
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सूँ  : अव्य० [सं० सह] ब्रजभाषा में करण और अपादान का चिह्न। सों। से।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सू  : वि० [सं०√षू (उत्पन्न करना)+क्विप्] उत्पन्न करनेवाला (समासांत में)। जैसे–रलसू। स्त्री० [फा०] ओर। दिशा।
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सूअर  : पुं० [सं० शूकर, सूकर] [स्त्री० सूअरी] १. एक प्रसिद्ध स्तनपायी जन्तु जो मुख्यतः दो प्रकार का होता है। (क) वन्य या जंगली और (ख) ग्राम्य या पालतू। विशेष–ग्राम्य या पालतू सूअर छोटा और डरपोक होता है,पर जंगली सूअर बहुत बड़ा शक्तिशाली और परम हिंसक प्रवृत्ति का होता है। २. एक गाली। पद–सूअर कहीं का=नालायक।
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सूअर-दाढ़  : स्त्री० [सं० शूक-दंष्ट्र] एक प्रकार का क्षूद्र रोग जिसमें मसूड़ों में अंकुर—सा निकलने लगता है। वि० स्त्री० मादा सूअर की तरह बहुत अधिक संतान प्रसव करनेवाली (भार्या या स्त्री)।
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सूअरमुखी  : स्त्री० [हिं० सूअर+मुखी] एक प्रकार की बड़ी ज्वार।
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सूआ  : पुं० [सं० शुक, प्रा० सूअ] सुग्गा। तोता। शुक। कीट। पुं० [हिं० सुई] १. बड़ी, मोटी और लंबी सूई जिससे टाट आदि सीते हैं। २. बड़ी नहर की छोटी उपशाखा। (पश्चिम) ३. सींक। (लश०)
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सूँइस  : स्त्री०=(जल-जन्तु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूई  : स्त्री० [सं० सूची] १. लोहे का वह नुकीला, पतला और लंबा उपकरण जिसके छेद में धागा पिरोकर कपड़े आदि सीते है। मुहा०–सूई का फावड़ा या भाला बनाना=जरा-सी बात को बहुत अधिक बढ़ाना। व्यर्थ विस्तार करना। आँखों की सूइयाँ निकालना=किसी विकट काम के प्रायः समाप्त हो चुकने पर उसका शेष थोड़ा-सा सुगम अंश पूरा करके उसका श्रेय पाने का प्रयत्न करना। २. किसी विशेष परिणाम, अंक, दिशा आदि की सूचक तार या काँटा। जैसे–घड़ी की सुई। ३. पौधे का छोटा पतला अंकुर। ४. कित्सा क्षेत्र में नली के आकार का एक प्रसिद्ध छोटा उपकरण, जिसकी सहायता से कुछ तरल दवाएँ शरीर के रगों या पट्टों में पहुँचाई जाती हैं। पिचकारी। श्रृंगक। (सीरिंज) ५. उक्त उपकरण से शरीर के रगों या पट्ठों पर तरल औषध आदि पहुँचाने की क्रिया। (इंजेक्शन) मुहा०–सुई लगाना=उक्त नली के द्धारा शरीर के अन्दर दवा पहँचाना—सूई लेना=रोगी का उक्त उपकरण द्वारा कोई दवा अपने शरीर में प्रविष्ट कराना।
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सूई—डोरा  : पुं० [हिं० सूई+डोरा] मालखंभ की एक कसरत।
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सूईकारी  : स्त्री० [हिं० सुई+फा० कारी (किया हुआ काम)] १. कपड़े पर सूई और डोरे की सहायता से (तीलीकारी से भिन्न) बनाये हुए बेल, बूटे आदि। सूची—शिल्प। (नीडल वर्क, स्टिच—क्रैफ्ट) २. चित्रकला में, उक्त आकार—प्रकार का अंकन।
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सूक  : पुं० [सं०√सू (प्रेरणा देना)+क्विप्–कन्] १. बाण। २. वायु। हवा। ३. कमल। पुं० १.=शूक। २.=शुक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूकना  : अ०=सूखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूकर  : पुं० [सं० सू√कृ (करना)+अच्] [स्त्री० सूकरी] १. सूअर। शूकर। २. एक प्रकार का हिरन। ३. कुम्हार। ४. सफेद धान। ५. पुराणानुसार एक नरक का नाम। विशेष–‘सूकर’ के यौ० के लिए देखो ‘शूकर’ के यौ०।
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सूकर—खेत  : पुं० =शूकर—क्षेत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूकरी  : स्त्री० [सं० सूकर–ङीप्] १. मादा सूअर। सूअरी। शूकरी। २. बराहक्रांता। ३. बाराहीकंद। ४. बाराही देवी। ५. एक प्रकार की चिड़िया।
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सूकरेष्ट  : पुं० [सं० ब० स०] १. कसेरू। २. एक प्रकार का पक्षी।
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सूका  : पुं० [सं० संपादक=चतुथाँश सहित] [स्त्री० सूकी] चार आने (अर्थात २५ नये पैसे) के मूल्य का सिक्का। चवन्नी। वि० =सूखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] प्रभात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०–सूका उगना=सबेरा होना।
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सूकी  : स्त्री० [हिं० सूका=चवन्नी ?] रिश्वत। घूस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सूका (चवन्नी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूक्त  : वि० [सं० सु√वच् (कहना)+क्त] उत्तम रूप से या भली भाँति कहाँ हुआ। पुं० १. उत्तम रूप से या भली—भाँति कही हुई बात। अच्छी उक्ति। सूक्ति। २. ऋचाओं या वेद—मंत्रों का विशिष्ट वर्ग या विभाग। जैसे–देवी—सूक्त, श्रीसूक्त आदि।
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सूक्तचारी (रिन्)  : वि० [सं० सूक्त√चर् (प्राप्तादि)+णिनि] उत्तम वाक्य या परामर्श माननेवाला।
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सूक्तदर्शी (र्शिन्)  : पुं० [सं० सूक्त√दुश् (देखना)+णिनि] वह ऋषि जिसने वेदमंत्रों का अर्थ किया हो। मंत्रद्रष्टा।
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सूक्तद्रष्टा  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘सूक्त—दर्शी’।
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सूक्ता  : स्त्री० [सं० सूक्त–टाप्] मैना। सारिका।
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सूक्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] अच्छे और सुन्दर ढंग से कही हुई कोई बढ़िया बात। अच्छी उक्ति।
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सूक्तिक  : पुं० [सं० सूक्ति+कन्] एक प्रकार की झाँझ।
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सूक्षम  : वि० , पुं० =सूक्ष्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूक्ष्म  : वि० [सं०√सूक् (चुगुली करना)+स्मन्—मन्—सुकुवी] [स्त्री० सूक्ष्मा, भाव० सूक्ष्मता] १. बहुत छोटा, पतला या थोड़ा। २. जो अपनी बारीकी के कारण सबके ध्यान या समझ में जल्दी न आ सके। बारीक। (सप्ल) ३. बहुत ही छोटे—छोटे अंगों या उनकी प्रक्रिया, विचार आदि से संबंध रखनेवाला। (फाइन) पुं० १. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी सूक्ष्म चेष्टा या सांकेतिक व्यापार से ही अपने मन का भाव प्रकट करने का, अथवा किसी के प्रश्न या संकेत का उत्तर देने का, उल्लेख होता है। यथा–लखि गुरुजन बिच कमल सौं सीस छुवायौ स्वाम। हरि सन्मुख करि आरसी हिये लगाई काम।–बिहारी। २. योग में, तीन प्रकार की सिद्धियों में से एक प्रकार की सिद्धि। (शेष दो प्रकार निरवद्य और सावद्य कहलाते हैं।) ३. दे० ‘सूक्ष्म शरीर’। ४. परमाणु। ५. परब्रह्म। ६. शिव। ७. जैनों के अनुसार एक प्रकार का कर्म जिसके उदय होने से मनुष्य सूक्ष्म जीवों की योनि में जन्म लेता है। ८. वह ओषधि जो रोम—कूप के मार्ग से शरीर में प्रवेश करे। जैसे–नीम, शहद, रेंडी का तेल, सेंधा नमक आदि। ९. बृहत्संहिता के अनुसार एक प्राचीन देश। १॰. जीरा। ११. सुपारी। १२. निर्मला। १३. रीठा। १४. छल। कपट।
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सूक्ष्म-कोण  : पुं० [सं० मध्य० स०] ज्यामिति में, वह कोण जो समकोण से छोटा हो।
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सूक्ष्म-घंटिका  : स्त्री० [सं०] सनई। क्षुद्र शणपुष्पी।
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सूक्ष्म-तंडुल  : पुं० [सं० ब० स०] १. पोस्त—दाना। खसखस। २. धूना। राल।
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सूक्ष्म-तंडुला  : स्त्री० [सं० सूक्ष्म—तंदुल–टाप्] १. पीपल। पिप्पली। २. धूना। राल।
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सूक्ष्म-तुंड  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का कीड़ा। (सुश्रुत)
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सूक्ष्म-दर्शिता  : स्त्री० [स० सूक्ष्मदर्शी+तल–टाप्] सूक्ष्मदर्शी होने की अवस्था, गुण या भाव। सूक्ष्म यी बारीक बात सोचने—समझने का गुण।
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सूक्ष्म-दल  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की सरसों। देवसर्षप।
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सूक्ष्म-दृष्टि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] ऐसी दृष्टि जिससे बहुत ही सूक्ष्म बातें भी दिखाई दें या समझ में आ जायें। वि० उक्त प्रकार की दृष्टि रखनेवाला।
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सूक्ष्म-देह  : पुं० =सूक्ष्म-शरीर।
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सूक्ष्म-देही (हिन्)  : वि० [सं० सूक्ष्म—देह+इनि] सूक्ष्म शरीरवाला। जिसका शरीर बहुत ही सूक्ष्म या छोटा हो। पुं० परमाणु।
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सूक्ष्म-नाभ  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु का एक नाम।
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सूक्ष्म-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. धनिया। धन्याक। २. बन—तुलसी। ३. लाल ईख। ४. काली जीरी। ५. देव—सर्षप। ६. बेर। ७. माची—पत्र। ८. कुकरौंदा। ९. कीकर। बबूल। १॰. धमासा। ११. उड़द। १२. अर्कपत्र।
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सूक्ष्म-पत्रक  : पुं० [सं० सूक्ष्मपत्र+कप्] १. पित्तपापड़ा। पर्पटक। २. बन—तुलसी।
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सूक्ष्म-पत्रा  : स्त्री० [सं० सूक्ष्मपत्र–टाप्] १. बन—जामुन। २. धमासा। ३. बृहती। ४. शतमूली। ५. अपराजिता। ६. जीरे का पौधा। ७. बला।
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सूक्ष्म-पर्णी  : स्त्री० [सं० सूक्ष्मपर्ण–ङीप्] रामतुलसी। रामदूती।
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सूक्ष्म-पाद  : वि० [सं० ब० स०] छोटे पैरोंवाला। जिसके पैर छोटे हों।
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सूक्ष्म-पिप्पली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] जंगली पीपल। बन-पिप्पली।
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सूक्ष्म-पुष्पा  : स्त्री० [सं० ब० स] सनई। शण—पुष्पी।
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सूक्ष्म-पुष्पी  : स्त्री० [सं० सूक्ष्म—पुष्प–ङीप्] १. शंखिनी। २. यवतिक्ता नाम की लता।
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सूक्ष्म-फल  : पुं० [सं० ब० स०] १. लिसोड़ा। २. बेर।
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सूक्ष्म-बदरी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] झड़बेरी। भूबदरी।
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सूक्ष्म-बीज  : पुं० [सं० ब० स०] पोस्तदाना। खसखस।
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सूक्ष्म-भूत  : पुं० [सं० कर्म० स०] आकाश, अग्नि, जल आदि ऐसे शुद्ध भूत जिनका पंजीकरण न हुआ हो।
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सूक्ष्म-मति  : वि० [सं० ब० स०] सूक्ष्म और तीव्र बुद्धिवाला।
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सूक्ष्म—मूला  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. जीवती। २. ब्राह्मी।
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सूक्ष्म—रूपी  : पुं० [सं० सूक्ष्मरूप+इनि] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सूक्ष्म—लोभक  : पुं० [सं०] जैन मतानुसार मुक्ति की चौदहवीं अवस्थाओं में से दसवीं अवस्था।
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सूक्ष्म—वीक्षक  : वि० [सं० ष० त०] बहुत ही सूक्ष्म चीजें देखनेवाला। पुं० =सूक्ष्मदर्शी (यंत्र)।
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सूक्ष्म—शरीर  : पुं० [सं० कर्म० स०] वेदांत दर्शन के अनुसार जीव या प्राणी के तीन के तीन प्रकार के शरीरों में से एक जो उसके स्थूल शरीर के ठीक अनुरूप परन्तु बहुत छोटा और अँगूठे के बराबर होता है। लिंग शरीर। विशेष–यह माना जाता है कि मृत्यु के समय यह शरीर स्थूल शरीर से निकलकर परलोक में अपने पाप—पुण्य का फल भोगता है। यह भी माना जाता है कि आत्मा इसी शरीर से आवृत्त रहती है। शेष दो कारण—शरीर और स्थूल—शरीर कहलाते हैं।
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सूक्ष्म—शर्करा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] बालू। रेत।
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सूक्ष्म—शाक  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार की बबरी जिसे जल—बबुरी भी कहते हैं।
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सूक्ष्म—शालि  : पुं० [सं० कर्म० स०] सोरों नामक धान।
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सूक्ष्म—स्फोट  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का कोढ़। विचर्चिका रोग।
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सूक्ष्मता  : स्त्री० [सं० सूक्ष्म+तल्–टाप्] सूक्ष्म होने की अवस्था, गुण या भाव। बारीकी।
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सूक्ष्मदर्शक यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] सूक्ष्मवीक्षक यंत्र। (दे० )
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सूक्ष्मदर्शी  : वि० [सं० सूक्ष्म√दृश् (देखना)+णिनि] १. सूक्ष्म बातें या विशेष समझनेवाला। बारीक बातें सोचने—समझनेवाला। कुशाग्र—बुद्धि। २. फलतः विशेष बुद्धिमान् या समझदार। पुं० एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा कोई बहुत छोटी चीज या उसका कोई अंश बहुत बड़े आकार का दिखाई देता है। (माइक्रोस्कोप)
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सूक्ष्मपत्रिका  : स्त्री० [सं० सूक्ष्मपत्रक–टाप्—इत्व] १. सौफ। शतपुष्पा। २. शतावर। ३. छोटी पत्तियोंवाली ब्राह्यी। ४. पोई नाम का साग।
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सूक्ष्मपत्री  : स्त्री० [सं० सूक्ष्मपत्र–ङीप्] १. आकाश मांसी। २. शतावर।
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सूक्ष्मपर्णा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. विधारा। २. वन—भंटा। बृहती। ३. छोटी सनई।
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सूक्ष्मफला  : स्त्री० [सं० सूक्ष्म—फल–टाप्] १. भुईं आँवला। भूम्यामलकी। २. मालकंगनी। ३. तालीशपत्र।
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सूक्ष्मवल्ली  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. ताम्रवल्ली। २. जंतुका। ३. करेली।
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सूक्ष्मा  : स्त्री० [सं० सूक्ष्म—टाप्] १. जूही। यृथिका। २. छोटी इलायची। ३. मूसली। ४. छोटी जटामासी। ५. करुणी नाम का पौधा। ६. विष्णु की नौ अक्तियों में से एक।
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सूक्ष्माक्ष  : वि० [सं० ब० स०] सूक्ष्म—दृष्टिवाला। तीव्रद्रष्टि।
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सूक्ष्मात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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सूक्ष्माह्वा  : स्त्री० [सं० ब० स०] महामेदा नामक अष्टवर्गीय ओषधि।
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सूक्ष्मेक्षिका  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. प्राचीन भारत में, किसी बात या विषय की ऐसी छानबीन या जाँच—पड़ताल जो बहुत सूक्ष्म दृष्टि से की गई हो। २. सूक्ष्म दृष्टि।
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सूक्ष्मैला  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] छोटी इलायची।
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सूख  : वि०=सूखा। स्त्री० [हिं० सूखना] सूखने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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सूखना  : अ० [सं० शुल्क, हिं० सूखा+ना (प्रत्य०)] १. किसी आर्द्र या तर पदार्थ का ऐसी स्थिति में आना कि उसकी आर्द्रता या तरी नष्ट हो जाय। जैसे–गीली धोती सूखना, तरकारी या फल सूखना। २. किसी आधार में के पानी का किसी प्रकार नष्ट हो जाना या न रह जाना। जैसे–कूआँ, तालाब, नदी सूखना। ३. जल के आभाव में किसी पदार्थ का जीवनी—शक्ति से हीन होना। जैसे–वर्षा न होने से फसल सूखना। चिंता या डर से जान सूखना। ४. कष्ट, चिंता, राग आदि के कारण शरीर का क्षीण और दुर्बल होना। जैसे–चार दिन की बीमारी में उनका सारा शरीर सूख गया। मुहा०–सूखकर काँटा होना=बहुत ही क्षीण और दुर्बल हो जाना। सूखकर सोंठ होना=सूखकर बिलकुल चुचुक या सिकुड़ जाना। सूखे खेत लहलहाना=कष्ट, चिंता, दुःख आदि दूर होने पर फिर से यथेष्ट प्रसन्न या सुखी होना। संयो० क्रि०–जाना।
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सूखर  : पुं० [?] एक शैव सम्प्रदाय।
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सूंखला  : स्त्री० =श्रृंखला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूखा  : वि० [सं० शुष्क][स्त्री० सूखी, भाव० सूखापन] १. जिसमें फल या उसका कोई अंश न हो या न रह गया हो। निर्जल। जैसे–सूखा कपड़ा, सूखी नदी। २. जिसमें आर्द्रता या नमी न हो और हवा में नमी हो। ३. जिसमें जीवनी—शक्ति का सूचक हरापन निकल गया हो। जैसे–सूखा चेहरा, सूखा शरीर। ५. जिसमें भावुक्ता, मनोरंजकता, सरसता आदि कोमल गुणों का आभाव हो। जैसे–सूखा व्यवहार, सूखा स्वभाव। (ड्राई, उक्त सभी अर्थो के लिए) ६. कोरा। निरा। जैसे–सूखा अन्नसूखी शेखी। मुहा०–सूखा जवाब देना=साफ इनकार करना। ७. जिसमें जल आदि का योग न हो। जिसमें आवश्यक्ता होने पर भी जल का उपयोग न किया गया हो। जैसे–(क) यह चूरन सूखा ही घोंट आओं। (ख) वह बोतल की सारी शराब सूखी ही पी गया। ८. (बात या व्यवहार) जो दिखाने भर को या नाममात्र को हो। तत्त्व, तथ्य आदि से रहित। उदा०–लेके मैं ओढ़ूँ, बिछाऊँ या लपेटूँ, क्या करूँ। रूखी, फीकी, ऐसी सूखी मेहरबानी आपकी।–इन्शा। पुं० १. पानी न बरसने की दशा या समय। अनावष्टि। खुश्क—साली। (ड्राँट) क्रि० प्र०–पड़ना। २. ऐसा स्थान जहाँ जल न हो। जैसे–सूखे पर नाव लगाना। ३. तम्बाकू का सुखाया हुआ चूरा या पत्ता। ४. एक प्रकार का खाँसी जिसमें कफ नही निकलता और साँस जोरों से चलता है। हब्बा—डब्बा। ५. कोई ऐसा रोग जिससे शरीर जल्दी—जल्दी सूखने लगता हो। क्रि० प्र०–लगना। ६. भाँग की सूखी हुई पत्तियाँ।
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सूखिम  : वि०=सूक्ष्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूखी खाँसी  : स्त्री० [हिं०] ऐसी खाँसी जिसमें गले से कफ या बलगम न निकलता हो।
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सूखी खेती  : स्त्री० [हिं०] खेती करने के की एक आधुनिक प्रणाली जिससे उन स्थानों में भी कुछ स्थानों में भी कुछ फसल उत्पन्न कर ली जाती है, जिनमें वर्षा अपेक्षया बहुत कम होती है, और जल के आभाव में सिंचाई की भी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। (ड्राई फा़र्मिग) विशेष–इस प्रणाली में कई प्रकार के उपाय होते हैं; जैसे–(क) जमीन बहुत गहरी जोतना, जिसमें पानी गहराई में समाकर जमा रहे। (ख) जमीन का ऊपरी भाग पत्थरों आदि से ढक देना, जिसमें उसकी तरी बनी रहे। (ग) खेत के सीढ़ीनुमा विभाग कर देना जिसमें वर्षा के जल का बहाव नियंत्रित किया जा सके आदि।
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सूखी धलाई  : स्त्री० [हिं०] रासायनिक द्रव्यों के योग से कपड़े साफ करने की वह क्रिया जिसमें जल का उपयोग न हो। (ड्राई—वांशिग)
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सूँघना  : स० [सं० सिंघण] १. किसी पदार्थ की गंध जानने के उद्देश्य से उसे नाक के पास ले जाकर साँस खींचना। जैसे–फूल सूँघना। २. कोई विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए उक्त क्रिया करना। जैसे–रीछ ने उस मृतप्राय व्यक्ति को सूंघा। मुहा०–जमीन सूँघना=बैठे बैठे इस प्रकार ऊँघना कि सिर बार-बार जमीन की ओर झुकता रहे। (व्यंग्य) (किसी छोटे का) सिर सूँघना=अपनी मंगल—कामना प्रकट करने के लिए छोटों का मस्तक सूँघना या सूँघने का नाट्य करना। (किसी को) साँप सूँघना=साँप का काटना जिससे आदमी मर जाता है। (व्यंग्य) जैसे–बोलते क्यों नहीं क्या साँप सूँघ गया है ? ३. बहुत अल्प आहार करना। बहुत कम या नाम—मात्र का भोजन करना। (व्यंग्य) जैसे–आपने भोजन क्या किया है, सिर्फ सूँघकर छोड़ दिया है।
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सूघर  : वि०=सुघड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूँघा  : पुं० [हिं० सूँघना] १. वह जो केवल सूँघकर यह जान लेता हो कि अमुक पदार्थ या व्यक्ति किधर गया है; अथवा किसी स्थान पर अमुक पदार्थ है या नहीं ? विशेष–प्राचीन तथा मध्य युग में कुछ लोग ऐसे होते थे जो केवल सूँघकर यह बतला देंते थे कि चीजें चुराकर चोर कहाँ या किधर गये हैं, अथवा अमुक जमीन के नीचे पानी या खजाना है कि नही। २. सूँघकर शिकार तक पहँचनेवाला कुत्ता। ३. जासूस। भेदिया।
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सूच  : पुं० [सं०] कुश का अंकुर, जो सूई की तरह नुकीला होता है। वि० =शुचि। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूचक  : वि० [सं०√सूच् (सूचित करना)+ण्वुल्–अक][स्त्री० सूचिका] सूचना देनेवाला। सूचित करने या बतानेवाला ज्ञापक। बोधक। पुं० १. कपड़ा, चमड़ा आदि सीने की सूई। सूची। २. सिलाई का काम करनेवाला कारीगर। ३. प्राचीन भारत में अभिनय का व्यवस्थापक। सूत्रधार। ४. सिद्ध पुरुष। ५. गौतम बुद्ध का एक नाम। ६. चुगलखोर अथवा दुष्ट और नीच व्यक्ति। ७. आयोग्य माता और क्षत्रिय पिता से उत्पन्न पुत्र। ८. गुप्तचर। जासूस। भेदिया। ९. पिशाच। १॰. कुत्ता। ११. बिल्ली। १२. कौआ। १३. गीदड़। १४. ऊँची दीवार। १५. कटघरा या जँगला। १६. छज्जा या बरामदा। १७. सोरों नामक धान।
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सूचकांक  : पुं० [सं०] खाद्यान्न, वस्त्र तथा अन्य वस्तुओं का विभिन्न समय का मूल्य बतलानेवाला अंक या लेखा। (सामान्य स्थिति के समय का मूल्य प्रायः १॰॰ मान लिया जाता है। इससे बढ़ते या घटते हुए अंक आपेक्षिक मँहगी यी सस्ती के परिदर्शक होते हैं।)(इन्डेक्स नंबर)
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सूचन  : पुं० [सं०√सूच् (बताना)+ल्युट्–अन] [स्त्री० सूचनी] १. सूचित करने अर्थात बताने या जताने की क्रिया। ज्ञापन। उदा०–जगत का अविरत हृत्कंपन। तुम्हारा ही है भयन सूचन।–पन्त। २. सुगंध पैलाने की क्रिया या भाव।
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सूचना  : स० [सं० संचय] संचय करना। एकत्र करना। इकट्ठा करना। अ० एकत्र किया जाना। इकट्ठा होना। अ० [हि० सोचना का अ०] सोचा या विचारा जाना। (क्व०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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सूचना  : स्त्री० [सं० सूच+णिच्+युच्–टाप्] [वि० सूचनीय, भू० कृ० सूचित] १. सूई आदि के छेदने या भेदने की क्रिया या भाव। २. वह बात जो किसी व्यक्ति को किसी विषय का ज्ञान या परिचय कराने के लिए कही यी बतलाई जाय। अवगत कराने या जताने के लिए कही हुई बात। (इन्फ़ार्मेशन) ३. वह बात जो किसी व्यक्ति या जन—समाज को किसी विषय में सूचित या सावधान करने के लिए कही जाय। (नो़टिस) ४. वह कागज या पत्र जिस पर उक्त प्रकार की कोई बात छपी यी लिखी हो। इश्तहार। विज्ञापन। (नोटिस) ५. यह बात जो कोई कार्रवाई करने से पहले संबद्ध व्यक्ति या जन—समूह का पहले से विदित कराने के लिए कही या प्रकाशित की जाय। (नोटिस) ६. दुर्घटना आदि के संबंध में अदालती या और किसी तरह की कार्रवाई करने से पहले या किसी और उपयुक्त अधिकारी से उसका हाल कहना। प्रतिवेदन। (रिपोर्ट) ७. कहीं से आनेवाले माल के साथ या उसके संबंध में आया हुआ विवरण, सूची आदि। बीजक। चलान। (एडवाइस) क्रि० प्र०–देना।–पाना।–भेजना।–मिलना। ८. अभिनय। ९. नजर। दृष्टि। १॰. टोहा या भेद लेना। रहस्य का पता लगाना। ११. हिंसा। स० [सं० सूचन से] अवगत या सूचित करना। जतलाना। बतलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूचना अधिकारी  : पुं० [सं० ष० त०] किसी राज्य या विभाग अथवा संस्था आदि का वह अधिकारी जो जन—साधारण को मुख्य—मुख्य बातों की सूचना देता रहता हो। (इनफा़र्मेशन आफ़िसर)
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सूचना-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र या विज्ञप्ति जिसके द्वारा कोई बात लोगों को बताई जाय। विज्ञप्ति। इश्तहार। (नोटिस)
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सूचनालय  : पुं० [सं० ष० त०] राज्य या उसके किसी विभाग का वह कार्यालय जहाँ से जन—साधारण को समय—समय पर उपयोगी सूचनाएँ दी जाती हैं। (इनफ़ार्मेशन ब्यूरों)
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सूचनीय  : वि० [सं०√सूच् (बताना)+अनीयर] (बात या विषय) जिसकी सूचना किसी को देना आवश्यक हो अथवा जिसकी सूचना दी जा सकती हो।
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सूचयितव्य  : वि०=सूचनीय।
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सूचा  : स्त्री० [हिं० सूचित] जो होश में हो। सचेत। सावधा। स्त्री० [सं०]=सूचना। वि० [सं० स्वच्छ] १. शुद्ध। साफ। २. जिसमें से किसी ने कुछ खाया या चखा न हो। ‘जूठा’ का विपर्याय।
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सूचि  : पुं० [सं०√सूच्+णिन्] १. निषाद पिता और वैश्या माता से उत्पन्न पुत्र। २. सूप बनानेवाला कारीगर। ३. उपकरण। स्त्री० =सूची। वि० =शुचि (पवित्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूचि-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. सूई में पिरोया जानेवाला धागा। २. सूई—धागा।
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सूचि-शालि  : पुं० [सं० कर्म० स०] सोरों नामक धान।
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सूचिक  : पुं० [सं० सूची+ठन्–इक] १. सूई से काम करनेवाला व्यक्ति। २. दरजी।
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सूचिकर्म  : पुं० [सं० ष० त०] सूई का काम। सिलाई। सूईकारी।
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सूचिका  : स्त्री० [सं० सूचि+कन्+टाप्] १. सूत्र। २. हाथी का सूँड़। ३. केतकी। केवड़ा।
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सूचिका—घर  : पुं० [सं० ष० त०] सूँड़ धारण करनेवाला, हाथी।
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सूचिका—मुख  : वि० [सं० ब० स०] जिसका मुँह सूई के समान नुकीला हो। पुं० शंख।
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सूचिकाभरण  : पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की औषधि जो सन्निपात, विसूचिका आदि प्राणनाशक रोगों तथा साँप के काटने की अन्तिम औषधि मानी गई है। विशेष–इसका प्रयोग सूई की नोक से मस्तक की त्वचा के अन्दर पहुँचा कर भी किया जाता है। और बहुत छोटी छोटी गोलियों के रूप में खिलाकर भी।
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सूचिकार  : पुं० [सं०सूचि√कृ ((करना)+अण्] वह जो सुइयाँ बनाने का काम करता हो।
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सूचित  : भू० कृ० [√सूच् (बताना)+क्त] १. जिसमें सूई आदि से छेद किया गया हो। २. जिसकी ओर इशारा या संकेत किया गया हो। जताया हुआ। ३. सूचना के रूप में कहा या भेजा हुआ। ४. जिसे सूचना दी गई हो।
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सूचिनी  : स्त्री० [सं०√सूच् (कहना)+णिनि—इन्–ङीप्] सूचना देनेवाली स्त्री। स्त्री० १. सूई। २. रात।
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सूचिपत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का ऊख। २. चौपतिया नामक साग। ३. दे० ‘सूचीपत्र’।
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सूचिपुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] केवड़ी। केतकी।
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सूचिभेद्य  : वि० [सं० तृ० त०] १. जो सूई से छेदा या भेदा जा सकता हो। २. जो इतना घना हो कि उसे छेदने या भेदने के लिए सूई की सहायता की आवश्यक्ता पड़ती हो। जैसे—सूचिभेद्य अन्वकार।
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सूचिरदन  : पुं० [सं० ब० स०] नेवला, जिसके दाँत बहुत नुकीले होते हैं।
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सूचिवदन  : पुं० [सं० ब० स०] १. नेवला। नकुल। २. मच्छर।
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सूचिवान् (वत्)  : वि० [सं० सूचि+मतुपम्=वनुम=दीर्द्य] नुकीला। पुं० गरुण।
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सूची  : स्त्री० [सं०√सिव् (सीना)+चट्–टेरुत्वं–ङीप्] १. कपड़ा सीने की सूई। २. शल्य चिक्तिसा में, सूई के आकार—प्रकार का एक उपकरण जिससे छत सीया जाता था। (सुश्रुत) ३. एक प्रकार की सैनिक व्यूह रचना, जो लम्बी और सुई के आकार की होती थी। ४. किसी प्रकार की चीजों, नामों, बातों आदि का क्रम—बद्ध लेखा या विवरण। अनुक्रमणिका। ५. ऐसा लेखा या विवरण जिसमें बहुत से नाम किसी क्रम में आये हों। तालिका। फेहरिस्त। (लिस्ट) ६. सूचीपत्र। ७. चहारदीवारी आदि में हर दो खंभों के ऊपर आड़ा रखा जानेवाला पत्थर। ८. छन्द्र—शास्त्र में प्रत्यय के अन्तर्गत वह प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि कुछ नियत वर्णो या मात्राओं से कितने प्रकार के छन्द या वृत्त बनते या बन सकते हैं और अनके आदि तथा अन्त में कितनी लघु और कितनी गरु मात्राएँ होती हैं। ९. एक प्रकार का नृत्य। १॰. द्रष्टि। नजर। ११. केतकी। केवड़ा। १२. सफेद कुश। १३. कटघरा। जंगला। १४. दरवाजे में लगाने की सिटकनी। १५. मैथुन या संभोग का एक प्रकार। पुं० [सं० सूचिन्] १. गुप्तचर। भेदिया। २. चुगलखोर। पिशुन। ३. दुष्ट और नीच। ४. दे० ‘स्वयंमुक्ति’ (साक्षी)।
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सूची पद्म  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की सैनिक व्यूह—रचना।
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सूचीक  : पुं० [सं० सूची+कन्] मच्छर आदि ऐसे जन्तु जिनके डंक सूई के समान होते हैं।
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सूचीकटाह-न्याय  : पुं० [सं० मध्य० स०] लोक व्यवहार में प्रचलित एक प्रकार का न्याय जिसका प्रयोग ऐसे अवसर पर होता है जहाँ कोई कठिन और बड़ा काम करने से पहले सहज और छोटा काम पूराकर लिया जाता है अथवा करना अभीष्ट होता है।
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सूचीपत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह पत्र जिस पर कोई सूची लिखी या छपी हुई हो। २. विशेषतः वह सूचना—पत्र या पुस्तिका जिसमें किसी संस्था में उपलब्ध सामग्री का विवरण होता है। जैसे–(क) प्रकाशन संस्था या सूची—पत्र। (ख) चित्रशाला का सूची—पत्र। (कैटलाग)
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सूचीपाश  : पुं० [सं०] सूई में होनेवाला भेद।
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सूचीभेद  : वि०=सूचीभेद्य।
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सूचीमुख  : पुं० [सं० ष० त०] १. सूई की नोक या छेद जिसमें धागा पिरोया जाता है। २. हीरा। ३. कुश। ४. पुराणानुसार एक नरक। वि० सूई के मुख के समान नुकीला।
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सूचीवक्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] स्कंद का एक अनुचर।
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सूचीवक्त्रा  : स्त्री० [सं० सूची वक्त्र–टाप्] ऐसी योनि जिसका द्वार इतना छोटा हो कि वह पुरिष के संसर्ग के योग्य न हो।
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सूच्छम  : वि०=सूक्ष्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूच्य  : वि० [सं०] जो सूचित किया जा सकता हो या सूचित किये जाने के योग्य हो। जो जताया जा सकता हो या जताया जाने को हो।। पुं० नाटकों या रूपकों में वे अनुचित, गर्हित, रसहीन और वर्जित बातें जो रंगमंच पर अभिनय के लिए अनुपयुक्त होने के कारण केवल अर्थो पेक्षकों के द्वारा सूचित कर दी जाती है। ससूच्य।
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सूच्यग्र  : पुं० [सं० ष० त०] सूई का अगला भाग। सूई की नोक। वि० १. जिसकी नोक सूई के समान नुकीली हो। २. सूई की नोक के बराबर, अर्थात बहुत ही थोड़ा।
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सूच्याकार  : वि० [सं० सूची+आकार] सूई के आकार का । लंबा और नुकीला।
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सूच्यार्थ  : पुं० [सं० ष० त०] साहित्य में, पद आदि का वह अर्थ जो शब्दों की व्यंजना शक्ति से निकलता या सूचित होता है।
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सूछम  : वि० =सूक्ष्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूछिम  : वि० =सूक्ष्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूज  : स्त्री० १.=सूजन। २.=सूई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूजंध  : स्त्री० =सुगंध। (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूजन  : स्त्री० [हिं० सूजना] १. सूजे हुए होने की अवस्था या भाव। २. वह विकार जो उक्त के फलस्वरूप शरीर या शरीर के किसी अंग में दृष्टिगत होता है। शोथ। (इन्फ्लेमेशन)
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सूजना  : अ० [फा० सोजिश, मि० सं० शोथ] रोग, चोट, वात आदि के प्रकोप के कारण शरीर के किसी अंग का अधिक फूल या फैल जाना। शोथ होना। मुहा०–(किसी का) मुँह सूजना=आकृति से अप्रसन्नता, रोग आदि के लक्षण स्पष्टतः व्यक्त होना। जैसे–रुपये माँगते ही उनका मुँह सूज गया।
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सूजनी  : स्त्री० =सुजनी (बिछाने की चादर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूजा  : पुं० [सं० सूची, हिं० सूई, सूजी] १. बड़ी और मोटी सूई। सूआ। २. उक्त आकार का केचबंदों का एक औजार, जिनमें कैचियाँ बनाने के लिए दस्ते में छेद किया जाता है। ३. वह खूँटा जो छकड़ा गाड़ी के पीछे की ओर उसे टिकाने के लिए लगाया जाता है। वि० [अ० शुजाअ=बहादुर] बहादुर। वीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूजाक  : पुं० [फ़ा०] मूत्रेन्द्रिय का एक रोग जिसमें उसके अन्दर घाव हो जाता है और बहुत तेज जलन होती है। उपदंश। (गनोरिया)
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सूजी  : स्त्री० [?] १. चूर्ण से भिन्न कणों के रूप में होनेवाला गेहूँ का पिसा हुआ रूप। २. एक प्रकार का सरेस जो माँड़ और चूने के मेल से बनता है और बाजों के पुरजों को जोडने के काम में आता है। स्त्री० [सं० सूची] १. सूई। २. वह सूआ जिससे गड़ेरिए लोग कम्बल की पट्टियाँ सीते हैं। पुं० =सूचिक (दरजी)।
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सूझ  : स्त्री० [हिं० सूझना] १. सूझने की क्रिया, धर्म या भाव। २. दृष्टि। नजर। ३. मन में सूझने अर्थात उत्पन्न होनेवाली कोई ऐसी नई बात, जो अनोखी या असाधारण भी हो। उद्भावना। उपज। जैसे–कवियों की सूझ अनोखी होती है। पद–सूझ—बूझ। (देखें)
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सूझ-बूझ  : स्त्री० [हिं० सूझना+बूझना] १. देखने और देखकर अच्छी तरह समझने की विशिष्ट योग्यता या शक्ति। २. समझदारी। पद–सूझ—बूझ से=समझदारी से। किसी बात के सब पक्ष सोच-समझकर।
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सूझना  : अ० [सं० संज्ञान] १. दृष्टि में आना। दिखाई पड़ना। २. ध्यान में आना। ३. युक्ति के रूप में उद्भासित होना। जैसे–पते की सूझना। अ० [हिं० सुलझना] छुट्टी पाना। मुक्त होना।
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सूझा  : पुं० [देश०] फारसी संगीत में एक मुकाम (राग) के पुत्र का नाम।
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सूट  : पुं० [अ०] १. कई ऐसे कपड़ो का जोड़ा, जो एक साथ पहने जाते हों। जैसे–कोट, पतलून, आदि का सूट; सलवार, कमीज आदि का सूट। २. दावा। नालिश। ३.मुकदमा।
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सूट-केस  : पुं० [अ०] १. सूट (अर्थात कपड़ों के जोड़) रखने के केस या खाना। २. एक प्रकार का चिपटा छोटा बक्स जिसमें यात्रा आदि के समय पहनने के कपड़े रखे जाते हैं।
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सूटा  : पुं० [अनु०] मुँह से तंबाकू, चरस या गांजे का धूँआ जोर से खींचने की क्रिया। क्रि० प्र०–मारना।–लगाना।
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सूँठ  : स्त्री०=सोंठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूठरी  : स्त्री० =सुठरी (भूसा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूँड़  : पुं० [सं० शुण्ड] १. हाथी की नाक जो बहुत लंबी होती और नीचे की ओर प्रायः जमीन तक लटकती रहती है। २. जन्तुओं के मुँह के आगे का निकला हुआ उक्त प्रकार का छोटा अंग।
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सूंड़डंड  : पुं० [सं० शुण्ड-दंड] हाथी। (डिं०)
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सूंड़हल  : वि० [सं० शुण्डाल] सूँडवाला। पुं० हाथी।
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सूंडा  : पुं० [हिं० सूँड] बडी़ शूँड़।
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सूड़ा  : पुं० [सं० शुक] शुक पक्षी। तोता। (डिं०)
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सूंडाल  : वि० [सं० शुंडाल] सूँडवाला। पुं० हाथी।
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सूंडी  : स्त्री० [सं० शुण्डी] पौधों, आदि में लगनेवाला एक प्रकार का छोटा लंबोतरा कीड़ा।
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सूणहर  : पुं० [सं० शयन+गृह] शयनागार। (राज०)
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सूत  : पुं० [सं० सूत्र] १. रूई, रेशम आदि का वह पतला बटा हुआ तागा, जिससे कपड़ा बुनते हैं। तंतु। धागा। डोरा। सूत्र। (थ्रेड) २. किसी चीज में से निकलनेवाला इस प्रकार का तार। ३. लंबाई नापने का एक छोटा मान। ४. इमारत के काम में जमीन, लकड़ी आदि पर विभाजन की रेखाएँ या निशान डालने की डोरी। मुहा०–सूत धरना, फटकना या बाँधना=मकान आदि बनाने के समयनींव डालने से पहले उसका छंकन ठीक करने या कमरों, दालानों, आँगन आदि का विभाजन करनेवाली रेखाएँ निश्चित करना। (पहले उक्त सूत या डोरी पर चूने का चूरा लगाते हैं, और तब डोरी को सीध में रखकर फटकते या झटकारते हैं, जिससे जमीन पर चूने की रेखा बन जाती है।) ५. गले, बाँह आदि में पहनने का वह डोरा, जिसमें कोई जंतर या तावीज बँधा रहता है। ६. वह मोटा डोरा, जो कमर में करधनी की तरह पहना जाता है। ७. करधनी। पुं० =सूत्र। पुं० [सं० सुत] पुत्र। बेटा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं०] १. एक प्राचीन वर्णसंकर जाति, जिसकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और ब्राह्यणी माता से कही गयी है और जिसका कार्य रथ हाँकना था। २. रथ। हाँकनेवाला व्यक्ति। सारथि। ३. चारण। भाट। वंदीजन। ४. पुराणों की कथाएँ सुनानेवाला व्यक्ति। पौराणिक। ५. बढ़ई। सूत्रधार। ६. सूर्य। ७. पारा। वि० [?] अच्छा। भला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० १.=प्रसूत। २.=प्रेरित।
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सूत-तनय  : पुं० [सं० ष० त०] कर्ण का एक नाम, जो उनके सूत—पुत्र होने के कारण पड़ा था।
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सूत-धार  : पुं० [सं० सूत्रधार] बढ़ई।
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सूत-पात  : पुं० [सं०] १. नींव आदि रखने के समय होनेवाली नाप—जोख। २. किसी नये तथा बड़े काम का होनेवाला आरम्भ। जैसे–इस योजना का सूत—पात सन् ६२ में हुआ था।
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सूत-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. सारथि का पुत्र। २. सारथि। ३. कर्ण। ४. कीचक।
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सूत-फूल  : पुं० [हिं० सूत+फूल] महीन आटा। मैदा। (क्व०)
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सूत-लड़  : पुं० [हिं० सूत+लड़] अरहर। रहँट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूतक  : पुं० [सं० सुतक=जन्म] १. जन्म। २. घर में संतान होने या किसी के मरने पर परिवारवालों को लगनेवाला अशौच। ३. अस्पृश्यता। छूत। उदा०–जलि है सुतकू घलि है सुतकू, सूतक सूतक ओपति होई।–कबीर। ४. चन्द्रमा या सूर्य का ग्रहण। उपराग। ५. पारद। पारा।
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सूतक—गेह  : पुं० =सूतिकागार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूतका  : स्त्री० [सं०] जच्चा।
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सूतका—गृह  : पुं० [सं०] जच्चा—घर। सूतिकागार।
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सूतकान्न  : पुं० [सं०] १. वह खाद्य पदार्थ जो संतान—जन्म के कारण अशुद्ध हो जाता है। २. ऐसे घर या व्यक्ति का अन्न, जिसे सूतक लगा हो और इसीलिए जो अन्न अग्राह्य कहा गया है।
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सूतकाशौच  : पुं० [सं०] वह शौच जो घर में संतान उत्पन्न होने के कारण होता है। जननाशौच।
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सूतकी (किन्)  : वि० [सं०] जिसे सूचक (अशौच) लगा हो।
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सूतज  : वि० [सं०]=सूत से उत्पन्न। पुं० =सूत—तनय (कर्ण)।
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सूतता  : स्त्री० [सं० सूत+तल्–टाप्] सूत का कार्य, पद या भाव।
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सूतनंदन  : पुं० [सं० सूत√नंद् (सुखदेनेवाला)+ल्यु–अन] १. उग्रश्रवा। २. सूत—तनय (कर्ण)।
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सूतना  : अ०=सोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूतरी  : स्त्री० =सुतली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूता  : पुं० [सं० सूत्र] १. भूरे रंग का एक प्रकार का रेशम जो मालदह (बंगाल) से आता है। २. जूते में वह बारीक चमड़ा, जिसमें टूक का पिछला हिस्सा आकर मिलता है। (चमार) ३. सूत। धागा। पुं० [सं० शुक्ति] वह सीपी जिससे डोड़े में की अफीम काछते हैं। स्त्री० [सं०] प्रसूता।
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सूति  : स्त्री० [सं०√सू (प्रसव करना)+क्तिन्] १. जन्म। २. जनन। प्रसव। ३. उत्पत्ति का स्थान। उद्गम। ४. फसल की पैदावार। ५. यज्ञो में सोम का रस निकालने की क्रिया। ६. वह स्थान जहाँ यज्ञों के लिए सोम का रस निकाला जाता था। ७. कपड़ा सीने की क्रिया या भाव। पुं० हंस।
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सूति-काल  : पुं० [सं० ष० त०] प्रसव करने या बच्चा जनने का समय।
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सूति-गृह  : पुं० सूतिकागार।
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सूति-वात  : पुं० [सं०] प्रसव के समय प्रसूता को होनेवाली पीड़ा।
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सूति—मास  : पुं० [सं०] वह मास जिसमें किसी स्त्री को संतान उत्पन्न हो। प्रसव-मास। वैजनन।
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सूतिका  : स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री या जीव जिसने अभी हाल में बच्चा जना हो। सद्यःप्रसूता। २. वैद्यक में प्रसूता स्त्री को होनेवाले कुछ विशिष्ट प्रकार के रोग जो अनुचित आहार, विहार आदि के कारण होते हैं।
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सूतिका-गृह  : पुं०=सूतिकागार।
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सूतिकागार  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह घर या कमरा जिसमें स्त्री बच्चा जनती है। सौरी। प्रसव-ग्रह। २. चिक्तिसालय का वह पार्श्व या विभाग जिसमें प्रसव कराने के लिए प्रसूता स्त्रियाँ रखी जाती हैं। (मैटरनिटी वार्ड)
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सूतिकावास  : पुं०=सुतिकागार।
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सूतिकाषष्ठी  : स्त्री० [ सं०] संतान के जन्म से छठे दिन होनेवाला एक संस्कार तथा जच्चा ना नहाना।
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सूती  : वि० [हिं० सूत+ई (प्रत्य०)] सूत का बना हुआ। जैसे—सूती कपड़ा। सूती गलीचा। स्त्री० [सं० शुक्ति] सीपी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० सं० सूत का स्त्री०। (सूत जाति की स्त्री)
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सूती-गृह  : पुं० [सं०] सूतिकागार।
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सूतीघर  : पुं०=सूतिकागार।
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सूतीमास  : पुं०=सूतिमास।
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सूत्कार  : पुं०=सीत्कार।
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सूत्तर  : वि० [सं०] बहुत श्रेष्ट। बहुत बढ़कर। पुं०=सूत (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूत्त्य  : पुं०=सुत्य।
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सूत्या  : स्त्री० [सं०] १. यश के उपरान्त होनेवाला स्नान। अवभृथ। २. यज्ञों में सोम का रस निकालना और पीना।
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सूत्याशौच  : पुं० [सं०]=सूतकाशौच।
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सूत्र  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सूचित्र] १. कपास का बटा हुआ बहुत पतला और महीन डोरा या तागा। सूत। २. किसी प्रकार के रेशों का बटा या बढ़ा हुआ लंबा रूप। (थ्रेड) ३. गले मे पहनने का जनेऊ। यज्ञोपवति। ४. कमर में करधनी की तरह पहना या बाँधा जानेवाला डोरा। कटि-सूत्र। ५. शरीर के अन्दर की डोरी की तरह की नली या मोटी नस। (कॉर्ड) जैसे–स्वर-सूत्र। ६. यथासाध्य बहुत थो़डे़ शब्दों में कहा हुआ कोई ऐसा कथन, पद या वाक्य जिसमें बहुत-कुछ गूढ़ अर्थ भरा हो। जैसे–कल्प-सूत्र। ७. बौद्ध साहित्य में, कोई ऐसा मूल ग्रंथ जिसकी टीका या व्याख्या हुई हो। ८. कोई ऐसी संकेतात्मक बात, जिसके सहारे किसी दूसरी बहुत बड़ी बात, घटना, पहेली, रहस्य, आदि का पता लगे। संकेत। पता। सूराग। (क्ल्यू) ९. वह सांकेतिक पद या शब्द, जिसमें कोई वस्तु बनाने या कार्य करने के मूल सिद्धांत, प्रक्रिया आदि का संक्षिप्त विधान निहित हो। (फा़र्मला) १॰. किसी कार्य या योजना के संबंध में उन अनेक बातों में से कोई, जो उस कार्य या योजनी की सिद्धि के लिए सोची जाय। (प्वाइन्ट) जैसे–इस योजना के चार सूत्रों में से दो बहुत ही उपयोगी और आवश्यक हैं। ११. रेखा। लकीर। १२. किसी प्रकार की व्यवस्था करने के नियम। १३. वह मूल कारण या बात जिससे कुछ और चीजें या बातें निकली हों।
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सूत्र-कंठ  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो गले में यज्ञ-सूत्र या यज्ञोपवीत पहनता हो या पहने हो। २. ब्राह्यण। ३. कबूतर। ४. खंजन पक्षी।
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सूत्र-कर्म (र्मन्)  : पुं० [सं०] १. बढ़ई का काम। २. मेमार या राज का काम।
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सूत्र-कृमि  : पुं० [सं०] आँतों में उत्पन्न होनेवाले एक प्रकार के धागे की तरह पतले कीड़े जो शरीर में अनेक विकार उत्पन्न करते हैं। (थ्रेडवर्म)
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सूत्र-कोण  : पुं० [सं०] डमरू।
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सूत्र-कोश  : पुं० [सं०] सूत्र की अंटी। लच्छी।
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सूत्र-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं०] धागों की सहायता से कठपुतलियाँ नचाने का काम, जो ६४ कलाओं के अन्तर्गत माना गया है।
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सूत्र-ग्रंथ  : पुं० [सं०] १. ऐसा ग्रंथ जिसमें सूत्रों का संग्रह हो। २. सूत्र रूप में प्रस्तुत किया हुआ ग्रंथ।
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सूत्र-ग्रह  : वि० [सं०] सूत धारण या ग्रहण करनेवाला।
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सूत्र-तर्कटी  : स्त्री० [सं०] सूत कातने का तकला। टेकुवा।
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सूत्र-धार  : पुं० [सं० सूत्र√धृ (धारण करना)+अण्] १. प्राचीन भारत में मूलतः वह व्यक्ति जो अपने हाथ में कपड़े या बँधे हुए सूत्रों अर्थात डोरो की सहायता से कठपुतलियाँ नचाता और उनके तमाशे दिखाता था। २. परवर्ती काल में नाट्यशाला का वह प्रधान व्यवस्थापक, जो नटों को अभिनय—कला सिखाकर उनसे अभिनय कराता और रंग—मंच की व्यवस्था करता था। ३. लाक्षणिक रूप में वह व्यक्ति, जिसके हाथ में किसी कार्य की सारी व्यवस्था हो। ४. पुराणानुसार एक प्राचीन वर्णसंकर जाति, जिसकी उत्पत्ति शूद्रा माता और विश्वकर्मा पिता से कही गई है और जो प्रायः बढ़ई का काम करती थी। ५. बढ़ई सुतार। ६. इन्द्र का एक नाम।
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सूत्र-पिटक  : पुं० [सं०] बौद्ध सूत्रों का एक प्रसिद्ध संग्रह। दे० ‘त्रिपिटक’।
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सूत्र-पुष्प  : पुं० [सं०] कपास का पौधा जिसके फूलों डोड़ों से सूत बनता है।
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सूत्र-भृत  : पुं० =सूत्रधार।
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सूत्र-यंत्र  : पुं० [सं०] करघा। २. करघे की ढरकी। ३. सूत का बुना हुआ जाल।
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सूत्र-वीणा  : स्त्री० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की वीणा, जिसमें बजाने के लिए तार की जगह सूत्र लगे रहते थे।
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सूत्र-वेष्ठन  : पुं० [सं०] १. करघा। २. सूतों की बुनाई।
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सूत्र-शाख  : पुं० [सं०] शरीर।
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सूत्र-शाला  : स्त्री० [सं०] वह स्थान या कारखाना जहाँ सूत काता, तैयार किया या बनाया जाता है।
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सूत्रक  : पुं० [सं०] १. सूत्र। तंतु। २. माला या हार। ३. सेवई नामक पकवान। ४. लोहे के तारों का बना हुआ कवच।
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सूत्रकर्त्ता  : पुं० [सं० सूत्रकर्तृ] सूत्र—ग्रंथ का रचियता। सूत्र प्रणेता।
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सूत्रकार  : पुं० [सं०] १. वह जिसनें सूत्रों में किसी ग्रंथ की रचना की हो। सूत्र-रचयिता। २. बढ़ई। ३. जुलाहा। ४. मेमार। राज। ५. मकड़ी।
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सूत्रण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सूत्रित] सूत्र बनाने या बटने की क्रिया या भाव।
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सूत्रधारी (रिन्)  : वि० [सं०] सूत्र धारण करनेवाला। स्त्री० सूत्रधार की स्त्री। नटी।
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सूत्रपी  : वि० [स० सूत्र] सूत्र जानने या रचनेवाला।
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सूत्रला  : स्त्री० [सं०] तकला। टेकुवा।
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सूत्रवाप  : पुं० [सं०] सूत से कपड़ा बुनने की क्रिया। वपन। बुनाई।
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सूत्रा  : स्त्री० [सं० सूत्रकार] मकड़ी। (अनेकार्य)
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सूत्रांग  : पुं० [सं०] उत्तम काँसा।
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सूत्रांत  : पुं० [सं०] बौद्ध सूत्रों की संज्ञा।
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सूत्रांतक  : वि० [सं०] बौद्ध सूत्रों का ज्ञाता या पंडित।
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सूत्रात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार की परम सूक्ष्म वायु जो धनंजय से भी अधिक सूक्ष्म कही गई है। ३. जीवात्मा।
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सूत्राध्यक्ष  : पुं० [सं०] कपड़ों के व्यपार या व्यवसाय का अध्यक्ष। (कौ०)
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सूत्रामा(मन्)  : पुं० [सं०] इन्द्र।
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सूत्राली  : स्त्री० [सं०] १. सूत को लपेटकर बनाई जानेवाली माला। हार। २. गले में पहने की मेखला।
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सूत्रिका  : स्त्री० [सं०] १. सेवई। २. हार। माला।
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सूत्रिता  : भू० कृ० [सं०] १. सूत से बाँधा या नत्थी किया हुआ। २. सूत्रों के रूप में कहाँ या लाया हुआ। ३.क्रम या सिलसिले में लगाया हुआ।
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सूत्री (त्रिन्)  : वि० [सं०] समस्त पदों के अन्त में–(क) जिसमें सूत्र हों। सूत्रों से युक्त। जैसे–त्रिसूत्री योजना। (ख) नियमों से युक्त। जैसे–दीर्द्यसूत्री। पुं० १. काक। कौआ। २. दे० ‘सूत्रधार’।
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सूत्रीय  : वि० [सं०] १. सूत्र—संबंधी। सूत्र का। २. सूत्रों से युक्त। सूत्री।
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सूथन  : स्त्री० [देश०] १. पाजामा। सुथना। पुं० एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत अच्छी होती है। खेऊँ।
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सूथनी  : स्त्री० [सुथना का स्त्री० अल्पा०] १. स्त्रियों के पहनने का पाजामा। सुथना। स्त्री० =सुथनी। (कन्द)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूथार  : पुं०=सुतार (बढ़ई)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूद  : पुं० [सं० √षूद् (नष्ट करना)+अच्] १. रसोइया। सूपकार। पाचक। २. पकी हुई दाल, रसेदार तरकारी आदि। ३. सारथि का काम या पद। सारथ्य। ४. अपराध। दोष। ५. एक प्राचीन जनपद। ६.उक्त जनपद का सूचक पद जो व्यक्तिवाचक नामों के साथ उत्तर पद के रूप में लगता था। जैसे–दामोदर सूद। ७. आज—कल खत्रियों और कुछ दूसरी जातियो के वर्गो का नाम। ८. लोध। पुं० [फा०] १. लाभ। फायदा। २. ऋण के रूप में दिये हुए धन के उपभोग के बदले में दिया या लिया जानेवाला वह धन जो मूल धन के अतिरिक्त होता है। ब्याज। (इन्टरेस्ट) क्रि० प्र०–चढना।–बढना।–लगना। पद–सूद दर सूद। (देखें) पुं० =शूद्र। उदा०–तुम कत बाम्हन, हम कत सूद।–कबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूद-कर्म (न्)  : पुं० [सं०] भोजन बनाना। खाना पकाना।
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सूद-दर-सूद  : पुं० [फा०] १. उधार दिये हुए धन के सूद या ब्याज पर भी जोड़ा जानेवाला सूद या ब्याज। चक्रवृद्धि। शिखा—वृद्धि। (कम्पाउंड इन्टरेस्ट) २. उक्त के अनुसार ब्याज जोडने की प्रक्रिया या रीति।
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सूद-शाला  : स्त्री० [सं० सूदशाला] रसोई-घर। पाकशाला। (डिं०)
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सूद-शास्त्र  : पुं० [सं०] भोजन बनाने की कला। पाक-शास्त्र।
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सूदक  : वि० [सं०] सूदन। (दे० )
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सूदखोर  : पुं० [फा०] [भाव० सूदखोरी] १. वह जो अत्यधिक व्याज की दर पर ऋण देता हो। २. वह जिसकी जीविका मिलनेवाले ब्याज से चलती हो।
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सूदता  : स्त्री० [सं०] सूद अर्थात रसोइए का काम, पद या भाव। रसोईदारी।
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सूदत्व  : पुं० [सं०]=सूदता।
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सूदन  : वि० [सं०] १. नष्ट करने या मार डालनेवाला। जैसे–मधुसूदन, रिपुसूदन। २. प्रिय। प्यारा। पुं० १. नाश या हनन। २. फकना।
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सूदना  : स० [सं० सूदन] १. नष्ट करना। २. मार डालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूदर  : पुं०=शूद्र। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूदा  : पुं० [देश०] मध्य युग में ठगों के गिरोह का वह आदमी जो यात्रियों को फुसलाकर अपने दल में ले आता था।
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सूदाध्यक्ष  : पुं० [सं०] रसोइयों का मुखिया या सरदार। पाकशाला का अधिकारी।
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सूदित  : भू० कृ० [सं०] १. जो मार डाला गया हो। हत। २. नष्ट किया हुआ। विनष्ट। ३. आहत। घायल।
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सूदी  : वि० [फा० सूद] १. सूद से संबंध रखनेवाला अथवा सूद के रूप में होनेवाला। २. (पूंजी या रक्म) जो सूद या ब्याज पर लगी हो। ब्याजू। ३. (कर्ज) जो सूद पर लिया गया हो।
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सूद्र  : पुं०=शूद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूध  : पुं० [सं० सौध] महल। प्रासाद। उदा०–मणि दीपक करि सूघ मणि।–प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० १.=सूधा। २.=सीधा। वि० =शुद्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूधन  : पुं० [सं० शोधन] शुद्ध करना। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूधना  : अ० [सं० शुद्ध] १. ठीक या सत्य सिद्ध होना। २. शुद्ध होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=शोधना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूधरा  : वि०=सूधा (सीधा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूंधी  : स्त्री० [सं० शोधन] सज्जी मिट्टी।
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सूधे  : अव्य० [हिं० सूधा] सीधी तरह से या सीध रूप में।
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सून  : वि० [सं०] १. प्रशव किया हुआ। २. उत्पन्न। जात। ३. खिलाहुआ। विकसित। (फूल) पुं० १. जनन। प्रसव। २. पुत्र। बेटा। ३. प्रसून। फूल। ४. फल। वि० [सं० शून्य] १. रहित। हीन। २. निर्जन। सूना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सून-नायक  : पुं० [सं०] कामदेव।
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सून-शर  : पुं० [सं०] कामदेव।
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सूनरी  : स्त्री० [सं० सु+नर] सुखी स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सुंदरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूनसान  : वि०=सुनसान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूना  : वि० [सं० शून्य] [स्त्री० सूनी] १. (स्थान) जहाँ लोगों की चहल—पहल या आना—जाना बिलकुल न हो। जनहीन। निर्जन। जैसे–सूना घर। २. (पदार्थ या रचना) जो किसी आवश्यक, उपयुक्त या शोभन तत्त्व अथवा वस्तु के आभाव के कारण अप्रिय जान पड़े या खटके। जैसे–सीता बिना रसोइयाँ सूनी।–गीत। मुहा०–सूना लगना या सूना—सूना लगना= किसी वस्तु या व्यक्ति के अभाव के कारण निर्जीव मालूम होना। उदास मालूम होना। स्त्री० [सं० सून—टाप्] १. पुत्री। बेटी। २. वध। हत्या। ३. धर्मशास्त्र के अनुसार घर—गृहस्थी की ऐसी जगह जहाँ अनजान में प्रायः छोटे—छोटे जावों की हत्या होती रहती है। जैसे–अनाज कूटने—पीसने की जगह, रसोई आदि। दे० ‘पंच—सूना’। ४. वह स्थान जहाँ मांस के लिए पशुओं की हत्या की जाती हो। कसाई—खाना। ५. खाने के लिए मांस बेचने का काम। ६. हाथी के अंकुश का दस्ता। पुं० एकांत या निर्जन स्थान।
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सूना-दोष  : पुं० [सं०] वह दोष जो अनजान में गृहस्थी के कामों में होनेवाली जीव—हत्या के कारण होता है। दे० ‘पंच—सूना’।
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सूनापन  : पुं० [हिं० सूना+पन (प्रत्य०)] सूना होने की अवस्था या भाव।
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सूनिक  : पुं० [सं०] जीव—हत्या करनेवाला। पुं० १. कसाई। २. शिकारी।
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सूनी  : पुं० [सं० सूनिन्] मांस बेचनेवाला। बूचड़।
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सूनु  : पुं० [सं०] १. पुत्र। बेटा। २. औलाद। सन्तान। ३. छोटा। भाई। अनुज। ४. दौहित्र। नाती। ५. सूर्य। ६. आक-मदार। ७. वह जो यज्ञों में सोम का रस निकालता था।
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सूनू  : स्त्री० [सं०] पुत्री। बेटी।
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सूनृत  : पुं० [सं०] १. सत्य और प्रिय भाषण (जो जैन धर्मानुसार सदाचार के पाँच गुणों में से एक है।) २. आनन्द। प्रसन्नता। वि० १. प्रिय और सत्य। २. अनुकूल। ३. दयालु।
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सून्मद  : वि०=सून्माद।
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सून्माद  : वि० [सं०] जिसे उन्माद रोग हुआ हो। पागल।
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सूप  : पुं० [सं०] १. खाने के लिए पकाई हुई दाल। २. उक्त प्रकार का दाल या पतला पानी या रस। ३. रसेदार तरकारी। ४. पात्र। बरतन। ५. सूपकार। पाचक। रसोइया। ६. तीर। वाण। पुं० [सं० शर्प] अनाज फटकने का बना हुआ पात्र। सरई या सीक का छाज। पद–सूप भर=ढेर—सा। बहुत। पुं० [देश०] कपड़ या सन का झाड़ू, जिससे जहाज के डक आदि साफ किये जाते हैं। (लश०) पुं० [अ० सूफ=ऊन] १. एक प्रकार का काला कपड़ा। २. दे० ‘सूफ’।
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सूप  : पुं० [सं०] १. सोमरस निकालने की क्रिया। २. यज्ञ। जैसे–राजसूय।
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सूप-झरना  : पुं० [हिं० सूप+झरना] अनाज फटकने का एक प्रकार का सूप जिसका तल झरने की तरह छेददार होता है। इससे बारीक अनाज नीचे गिर जाता है, और मोटा ऊपर रह जाता है।
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सूप-तीर्थ  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा जलाशय जिसमें नहाने के लिए अच्छी सीढ़ियाँ बनी हों।
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सूप-नखा  : स्त्री० =शूर्पणखा।
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सूप-पर्णी  : स्त्री० [सं०] बनमूँग। मुँगवन। मुद्रपर्णी।
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सूप-शास्त्र  : पुं० [सं०] भोजन बनाने की कला। पाक—शास्त्र।
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सूप-स्थान  : पुं० [सं०] पाकशाला। रसोइघर।
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सूपक  : पुं० [सं० सूप] रसोइया। सूपकार।
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सूपकार  : पुं० [सं०] रसोइया। पाचक।
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सूपकारी  : पुं०=सूपकार।
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सूपच  : पुं० =श्वपच (चांडाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूपड़ा  : पुं० [हिं० सूप] सूप। छाज। (डिं०)
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सूपा  : पुं० [हिं० सूप] सूप। छाज।
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सूपिक  : पुं० [सं०] १. पकी हुई दाल या तरकारी का रसा। २. रसोइया। सूपकार।
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सूप्य  : वि० [सं०] १. सूप—संबंधी। सूपका। २. जिस का सूप, अर्थात रस या शोरबा बनाया जा सकता हो। पुं० रसेदार तरकारी आदि।
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सूफ  : पुं० [अ० सूफ़] १. ऊन। २. वह सत्ता जो देशी काली स्याही वाली दवात में डाला जाता है। पुं०=सूप (अनाज फटकने का)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूफिया  : पुं० [अ० सूफि़यः] मुसलमान साधुओं का एक सम्प्रदाय।
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सूफियाना  : वि० [अ० सूफ़ियाना] सूफयों की तरह का सादा, परन्तु सुन्दर।
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सूफी  : वि० [अ० सूफी़] १. ऊनी वस्त्र पहननेवाला। २. पवित्र और स्वच्छ। ३. निरपराध। निर्दोष। पुं० १. मुसलमानों का एक रहस्यवादी सम्प्रदाय, जो यह मानता है कि मनुष्य पवित्र और स्वच्छ रहकर तपस्या और साधना के द्वारा ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। इसमें यह भी माना जाता है कि जीवात्मा में परमात्मा के साथ मिलने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इसके चार मुख्य भेद हैं; यथा–मिश्ती, कादिरी, सुहरा वरदी और नक्श बंदी। २. उक्त सम्प्रदाय का अनुयायी।
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सूब  : पुं० [देश०] ताँबा। (सुनार)
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सूबड़ा  : पुं० [सं० सुवर्ण] वह चाँदी जिसमें ताँबे और जस्ते का मेल हो। (सुनार)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूबा  : पुं० [फा० सूबः] १. किसी देश का कोई विशिष्ट खंड या भाग। प्रांत। प्रदेश। २. दे० ‘सूबेदार’।
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सूबेदार  : पुं० [फा० सूबा+दार (प्रत्य०)] [भाव० सूबेदारी] १. किसी सूबे या प्रांत का प्रधान अधिकारी या शासक। प्रादेशिक शासक। २. सेना विभाग में वह सैनिक जिसके अधीन कुछ और सैनिक भी रहते हों।
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सूबेदारी  : स्त्री० [फा०] १. सूबेदार होने की अवस्था या भाव। २. सूबेदार का पद।
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सूभर  : वि० [सं० शुभ्र] १. सफेद। २. सुन्दर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूम  : पुं० [सं०] १. दूध। २. जल। पानी। ३. आकाश। ४. स्वर्ग। पुं० [सं० कुसुम] फूल। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अ० शूभ=अशुभ] कंजूस। कृपण।
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सूमड़ा  : वि० पुं० [स्त्री० सूमड़ी] सूम। कंजूस।
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सूमां  : स्त्री० [देश०] टूटी हुई चारपाई की रस्सी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूमी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा पेड़ जिसकी लकड़ी इमारतों में लगती और मेज, कुर्सी आदि बनाने के काम में आती है। इसे रोहन और सोहन भी कहते हैं।
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सूर  : पुं० [सं०] [स्त्री० सूरी] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. बहुत बड़ा पंडित। आचार्य। ४. वर्तमान अवसर्पिणी के सत्रहवें अर्हत् कुंथु के पिता का नाम। (जैन) ५. छप्पय छंद के ७१ भदों में से ५४ वाँ भेद जिसमें १६ गुरु, १२॰ लघु, कुल १३६ वर्ण और १५२ मात्राएँ होती हैं। ६. मसूर। ७.दे० ‘सूरदास’। वि० अन्धे या नेत्र-हीन व्यक्ति के लिए आदरसूचक विशेषण। पुं० [सं० शूकर, प्रा० शअर] १. सूअर। २. भूरे रंग का घोड़ा। पुं० [देश०] पठानों का एक भेद। जैसे–शेरशाह शूर। पुं० १.=शूर (वीर)। २.=शूल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूर-कंद  : पुं० [सं०] जमीकंद। सूरन। ओल।
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सूर-कांत  : पुं० =सूर्यकांत।
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सूर-कुमार  : [सं० सूर=शूरसेन+कुमार=पुत्र] वसुदेव।
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सूर-पुत्र  : पुं० [सं०] सूर्य—पुत्र। (१. सुग्रीव। २. कर्ण। ३. शनि)।
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सूर-बीर  : पुं० =शूर-वीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूर-मुखी  : पुं० स्त्री० =सूरजमुखी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूर-सुता  : स्त्री० [सं०] यमुना।
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सूर-सूत  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य के सारथि, अरुण।
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सूरज  : वि० [सं० सूर+ज] सूर अर्थात सूर्य से उत्पन्न। पुं० १. शनि। २. सुग्रीव। पुं० [सं० शूर+ज] सूर अर्थात बहादुर या वीर की संतान। पुं० [सं० सूर्य] १. सूर्य। रवि। मुहा०–सूरज को दीपक दिखाना=(क) जो स्वयं अत्यन्त कीर्तिशाली या गुणवान् हो, उसे कुछ बतलाना। (ख) जो स्वयं प्रसिद्ध या विख्यात हो, उसका सामान्य परिचय देना। सूरज पर धूल फेंकना=किसी साधु व्यक्ति पर कलंक लगाना या उसका उपहास करना। २. एक प्रकार का गोदना जो स्त्रियाँ दाहिनें हाथ में गुदाती हैं। पुं० दे० ‘सूरदास’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरज-तनी  : स्त्री० =सूर्य—तनया (यमुना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरज-भगत  : पुं० [सं० सूर्य+भक्त] असम और नेपाल की एर प्रकार की गिलहरी जो भिन्न-भिन्न ऋतुओं के अनुसार रंग बदलती है।
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सूरज-मुखी  : पुं० [सं० सूर्यमुखी] १. एक प्रकार का पौधा जिसमें पीले रंग का बहुत बड़ा फूल लगता है। २. उक्त पौधे का फूल जिसका मुख सबेरे से संध्या प्रायः सूर्य की ओर ही रहता है। ३. आतिशी शीशा। (देखें) ४. ऐसा व्यक्ति जिसके शरीर का वर्ण लाल और आँखें प्रकृत या साधारण से कुछ भिन्न रंग की और अप्रसम हों। (एल्बाइनो) विशेष–ऐसे लोगों का शरीर और बाल प्रायः सफेद रंग के और आँखें नीले या पीले रंग की होती है। स्त्री० १. उक्त प्रकार की फूल के आकार की एक प्रकार की आतिशबाजी। २. जलूसों, राज—दरबारों आदि में प्रदर्शन और शोभा के लिए रहनेवाला एक प्रकार का पंखा, जिस पर सलमे-सितारे आदि से सूर्य की आकृति बनी रहती है। ३. सुबह या शाम के समय सूर्य के आस-पास दिखाई पड़नेवाली हलकी बदली।
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सूरज-सुत  : पुं० =सूर्य-पुत्र। (१. सुग्रीव। २. कर्ण। ३.शनि।)
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सूरज-सुता  : स्त्री० =सूर्य-सुता (यमुना)।
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सूरजजी  : पुं० [स० सूर्य+हिं० जी] राजस्थान, मालवे आदि में प्रचलित एक प्रकार के गीत जो शिशु के जन्म के दसवें दिन सूर्य की पूजा के समय गायें जाते हैं।
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सूरजा  : स्त्री० [सं०] सूर्य की पुत्री यमुना।
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सूरंजान  : पुं० [फा०] केसर की जाति का एक पौधा जिसका कंद दवा के काम में आता है। यह दो प्रकार का होता है। मीठा और कड़ुआ।
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सूरण  : पुं० [सं०] सूरन। जमीकंद।
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सूरत  : स्त्री० [अ०] १. जीव-जन्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदि की आकृति या रूप जिससे उसकी पहचान होती है। शकल (विशेषत
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सूरत-परस्त  : वि० [अ० सूरः] [भाव० सूरत-परस्ती] १. रूप का उपासक। २. सौन्दर्योपासक। ३. मूर्ति-पूजक।
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सूरत-हराम  : वि० [अ०+फा०] १. जो अपने सौन्दर्य से दूसरों को मुसीबत में डालता हो। २. जो शक्ल-सूरत से अच्छा, परन्तु तात्त्विक दृष्टि से निस्तार हो।
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सूरताई  : स्त्री० =शूरता (वीरता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरति  : स्त्री०=सूरत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सुरति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरतिखपरा  : पुं० [सूरती=सूरत शहर का०+सं० खर्पटी] खपरिया नामक खनिज द्रव्य।
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सूरदास  : पुं० [सं०] १. कृष्ण-भक्ति शाखा के प्रसिद्ध वैष्णव कवि जो ‘सूरसागर’, ‘साहित्य लहरी’, आदि काव्य ग्रंथों के रचयिता माने जाते हैं। ये जन्मान्ध थे। [जन्म १५४॰ वि० –मृत्यु १६२॰ वि० ] २. लाक्षणिक अर्थ में अन्धा व्यक्ति।
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सूरन  : पुं० [सं० सूरण] एक प्रसिद्घ कंद जो स्वाद में कसैला तथा गुण में अग्नि दीपक और अर्श रोगनाशक होता है। ओल। जमी-कंद।
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सूरपनखा  : स्त्री०=शूर्पनखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरमल्लार  : पुं० [सूरदास (कवि)+मल्लार (राग)] सारंग और मल्लार के योग से बना हुआ एक संकर राग जो वर्षा ऋतु में दिन के दूसरे पहर में गाया जाता है।
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सूरमस  : पुं० [सं०] १. संभवतः असम-देश की सूरमा नदी की दून और उपत्यका का पुराना नाम। २. उक्त उपत्यका का निवासी।
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सूरमा  : पुं० [सं० सूर] [भाव० सूरमापन] योद्धा। वीर। बहादुर।
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सूरसावत  : पुं० [सं० शूर+सामंत] १. युद्ध—मंत्री। २. नायक। सरदार।
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सूरसुत  : पुं० [सं०] १. शनि ग्रह। २. सुग्रीव।
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सूरसेन  : पुं० =शूरसेन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरसेनपुर  : पुं० [सं० शूरसेन+पुर] मथुरा नगरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरा  : पुं० [हिं० सुंडी] अनाज के गोले में पाया जानेवाला एक प्रकार का कीड़ा, जिससे अनाज को किसी प्रकार की हानि नहीं होती। अनाज के व्यपारी इसे मांगलिक समझते हैं। पुं० [अ०] कुरान के प्रकरणों में से कोई एक प्रकरण।
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सूराख  : पुं० [फा०] १. छेद। छिद्र। २. छोटी कोठरी या घर। (लश०)
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सूरापण  : पुं०=सूरमापन। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरि  : पुं० [सं०] १. यज्ञ करनेवाला पुरोहित। ऋत्वज्। २. बहुत बड़ा पंडित या विद्वान् आचार्य। ३. बृहस्पति का एक नाम। ४. कृष्ण का एक नाम। ५. सूर्य। ६. यादव।
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सूरिंजान  : पुं०=सूरंजान।
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सूरी (रिन्)  : पुं० [सं०] १. विद्वान्। पंडित। आचार्य। २. जैन विद्वान् यतियों की उपाधि। स्त्री० [सं०] १. विदुषी। पंडिता। २. सूर्य की पत्नी। ३. कुंती। ४. राई। स्त्री० [सं० शूल] भाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=सूली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरुज  : पुं० =सूर्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूरुवाँ  : पुं० =सूरमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =शोरबा।
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सूरेठ  : पुं० [देश०] एक हाथ लंबी खपची जिससे बहेलिये चोंगे में से लासा निकालते थे।
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सूर्मि,सूर्मी  : स्त्री० [सं०] १. लोहे की बनी हुई स्त्री की मूर्ति। २. पानी बहने की नली।
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सूर्य  : पुं० [सं०] १. हमारे सौर जगत का वह सबसे उज्जवल बड़ा और मुख्य ग्रह, जिसकी अन्य सब ग्रह परिक्रमा करते और जिससे सब ग्रहों को ताप तथा प्रकाश प्राप्त होता है। दिनकर। प्रभाकर। विशेष–हमारे यहाँ यह बहुत बड़ा देवता माना गया है और छाया तथा संज्ञा नाम की इसकी दो पत्नियाँ कही गई हैं, और इसके रथ का सारथि अरुण माना गया है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह जलती हुई गैसों का बहुत बड़ा गोला है जो समस्त सौर जगत् को ऊर्जा तथा जीवनी—शक्ति प्रदान करता है। पृथ्वी से यह ९३॰॰॰,॰॰॰ मील की दूरी पर है। इसका व्यास ८॰५,॰॰॰ मील है और यह पृथवी से १३॰॰,॰॰॰ गुना बड़ा है, परन्तु इसका घनत्व पृथ्वी के घनत्व के घनत्व का चौथाई ही है। मुहा०–सूर्य को दीपक दिखाना=जो स्वयं परम प्रसिद्ध, महान् या श्रेष्ठ हों, उसके संहंध में कुछ कहना, बतलाना या उसका परिचय देना। सूर्य पर थूकना=जो बहुत महान् हो, उसके संबंध में कोई अनुचित या निंदनीय बात कहना। २. पुराणानुसार सूर्यो की संख्या बारह होने के कारण, साहित्य में बारह की संख्या का सूचक। ३. अपने क्षेत्र या विषय का बहुत बड़ा कृती, ज्ञाता या पंडित। ४. आक। मदार।
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सूर्य श्री  : पुं० [सं०] विश्वेदेवा में से एक।
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सूर्य स्नान  : पुं० [सं०] धूप—स्नान।
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सूर्य-कमल  : पुं० [सं०] सूरजमुखी फूल।
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सूर्य-कर  : पुं० [सं०] सूर्य की किरण।
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सूर्य-काल  : पुं० [सं०] सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक का समय। २. दिन का समय। ३. फलित ज्योतिष में, शुभाशुभ का विचार करने के लिए एक प्रकार का चक्र।
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सूर्य-क्रांत  : पुं० [सं०] १. संगीत में एक प्रकार का ताल। २. एक प्राचीन जनपद।
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सूर्य-ग्रह  : पुं० [सं०] १. सूर्य। २. सूर्य पर लगनेवाला ग्रहण। ३. राहु। ४. केतु। ५. घड़े का पेंदा।
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सूर्य-ग्रहण  : पुं० [सं०] १. पृथ्वी और सूर्य के बीच में चन्द्रमा के आ जाने और सूर्य आड़ में हो जाने के कारण होनेवाला ग्रहण। (सोलक इक्लिप्स) २. हठयोग की परिभाषा में, वह अवस्था जब प्राण पिंगला नाड़ी से होकर कुंडलिनी में पहुँचते हैं।
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सूर्य-चित्रक  : पुं० [सं०] एक प्रकार का उपकरण या यंत्र जिससे सूर्य के चित्र लिए और उसके ताप की घनता नापी जाती है। (हीलियोग्राफ)
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सूर्य-चित्रीय  : वि० [सं०] १. सूर्य के चित्र से संबंध रखनेवाला। २. सूर्य—चित्रण से संबंध रखनेवाला। (हीलियोग्राफिक)
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सूर्य-तनय  : पुं० [सं०] सूर्य—पुत्र।
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सूर्य-तनया  : स्त्री० [सं० ष० त०] यमुना।
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सूर्य-ताप  : पुं० [सं०] सूर्य की किरणों से उत्पन्न होनेवाला ताप या गरमी जिससे वातावरण गरम होता है; और जीव—जंतुओं, वनस्पतियों आदि की जीवनी शक्ति प्राप्त होती है। आतप। (इन्सोलेशन)
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सूर्य-तापिनी  : स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
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सूर्य-ध्वज  : पुं० [सं०] शिव का एक नाम।
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सूर्य-नंदन  : पुं० [सं०] १. शनि। २. कर्ण। ३. सुग्रीव।
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सूर्य-नमस्कार  : पुं० [सं०] आज-कल एक विशिष्ट प्रकार का व्यायाम जो सूर्योदय के समय धूप में खड़े होकर किया जाता है।
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सूर्य-नाड़ी  : स्त्री० [सं०] पिंगला नाड़ी। (हठयोग)
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सूर्य-पर्व्व (न्)  : पुं० [सं०] किसी नई रात्रि में सूर्य के प्रवेश करने का काल। सूर्य—संक्रांति।
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सूर्य-पाद  : पुं० [सं०] सूर्य की किरण।
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सूर्य-पुत्र  : पुं० [सं०] १. शनि। २. यम। ३. वरुण। ४. अश्विनी-कुमार। ५. सुग्रीव। ६. कर्ण।
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सूर्य-पुत्री  : स्त्री० [सं०] १. यमुना। २. बिजली। विद्युत्।
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सूर्य-प्रदीप  : पुं० [सं०] एक प्रकार का ध्यान या समाधि। (बौद्ध)
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सूर्य-प्रभ  : वि० [सं०] सूर्य के समान प्रभावाला। पुं० योग में एक प्रकार की समाधि।
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सूर्य-प्रशिष्य  : पुं० [सं०] राजा जनक का एक नाम।
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सूर्य-फणि  : पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में, एक प्रकार का चक्र, जिससे कोई कार्य प्रारम्भ करते समय उसका शुभाशुभ परिणाम निकालते हैं।
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सूर्य-भक्तक  : तुं० [सं०] १. सूर्य का उपासक। २. गुल-दुपहरिया। बन्धूक।
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सूर्य-भ्राता  : पुं० [सं० सूर्यभ्रातृ] ऐरावत हाथी का एक नाम।
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सूर्य-मणि  : पुं० [सं०] सूर्यकांत मणि।
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सूर्य-रश्मि  : पुं० [सं०] १. सूर्य की किरण। २. सविता नामक वैदिक देवता।
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सूर्य-लता  : स्त्री० [सं०]=सूर्य—वल्ली।
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सूर्य-लोक  : पुं० [सं०] सूर्य का लोक। विशेष–ऐसा प्रवाद है कि वीर गति प्राप्त होने के उपरान्त योद्धा इसी लोक में आते हैं।
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सूर्य-वन  : पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ।
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सूर्य-वर्चस्  : वि० [सं०] सूर्य की भाँति अर्थात बहुत अधिक प्रकाशमान्।
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सूर्य-वल्लभा  : स्त्री० [सं०] १. हुरहुर। आदित्यभक्ता। २. कमलिनी।
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सूर्य-वल्ली  : स्त्री० [सं०] १. अंधाहुली। अर्कपुष्पी। २. क्षीर काकोली।
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सूर्य-वंश  : पुं० [सं०] क्षत्रियों की दो आदि और प्रधान वंशों में से एक जिसका आरम्भ इक्ष्वाकु से माना जाता है।
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सूर्य-वंशीय  : पुं० [सं०]=सूर्यवंश संबंधी।
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सूर्य-विकोलन  : पुं० [सं०] हिन्दुओं में एक प्रकार का मांगलिक कार्य जिसमें चार महीने के बच्चे को सूर्य के दर्शन कराये जाते हैं।
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सूर्य-वृक्ष  : पुं० [सं०] १. आक। मदार। २. अंधाहुली।
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सूर्य-व्रत  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का व्रत जो सूर्य भगवान् को प्रसन्न करने के लिए रविवार को किया जाता है। २. ज्योतिष में, एक प्रकार का चक्र।
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सूर्य-शिष्य  : पुं० [सं०] १. याज्ञवल्क्य का एक नाम। २. राजा जनक का एक नाम।
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सूर्य-संक्रमण  : पुं० [सं०]=सूर्य—संक्रांति।
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सूर्य-संक्रांति  : स्त्री० [सं०] सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश, जो एक पर्व माना गया है। संक्राति।
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सूर्य-संज्ञ  : पुं० [सं०] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. केसर। ४. ताँबा। ५. एक प्रकार का मानिक।
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सूर्य-सारथि  : पुं० [सं०] (सूर्य का सारथि) अरुण।
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सूर्य-सावणि  : पुं० [सं०] मार्कण्डेय पुराण के अनुसार आठवें मनु का नाम। ये सूर्य और संज्ञा के गर्भ से उत्पन्न (औरस) माने गये हैं।
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सूर्य-सुत  : पुं० [सं०]=सूर्य—पुत्र।
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सूर्यकांत-मणि  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कल्पित रत्न या मणि। कहतें हैं कि जब यह धूप में रखा जाता है, तब इसमें से आग निकलने लगती है। सूर्यमणि। २. सूरजमुखी शीशा। आतशी शीशा। ३. आदित्यपर्णी।
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सूर्यकांति  : स्त्री० [सं०] १. सूर्य की दीप्ति या प्रकाश। २. तिल का फूल। ३. आदित्यपर्णी नाम का पौधा और उसका फूल।
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सूर्यकालानल  : पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में, मनुष्य का शुभाशुभ जानने का एक प्रकार का चक्र।
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सूर्यज  : वि० [सं०] सूर्य से उत्पन्न। पुं० १. शनिग्रह। २. यम। ३. सावर्णि। ४. कर्ण। ५. सुग्रीव। ६. रेवंत।
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सूर्यजा  : स्त्री० [सं०] यमुना नदी।
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सूर्यपति  : पुं० [सं०] सूर्यदेवता।
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सूर्यपत्र  : पुं० [सं०] १. ईसरमूल। अर्कपत्री। २. हुरहुर। ३. आक। मदार।
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सूर्यपर्णी  : स्त्री० [सं०] १. ईसरमूल। अर्कपत्री। २. बनउड़द। मखवन।
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सूर्यभक्ता  : स्त्री० [सं०] हुरहुर। आदित्य भक्ता।
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सूर्यभा  : वि० [सं०] सूर्य के समान अर्थात बहुत अधिक प्रकाशमान।
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सूर्यमाल  : पुं० [सं०] शिव का एक नाम।
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सूर्यमास  : पुं० =सौर मास।
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सूर्यमुखी (खिन्)  : पुं० , स्त्री० सूरजमुखी।
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सूर्यर्क्ष  : पुं० [सं०] वह नक्षत्र जिसमें सूर्य की स्थिति हो।
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सूर्यवंशी (शिन्)  : पुं० [सं०] सूर्यवंश में जन्म लेनेवाला।
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सूर्यवान् (वत्)  : पुं० [सं०] रामायण में उल्लिखित एक पर्वत
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सूर्यवार  : पुं० [सं०] रविवार।
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सूर्यसावित्र  : पुं० [सं०] विश्वेदेवों में से एक।
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सूर्यसूक्त  : पुं० [सं०] ऋग्वेद का एक सूत्र, जिसमें सूर्य की स्तुति है।
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सूर्यसूत  : पुं० [सं०] सूर्य का सारथि, अरुण (देव)।
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सूर्या  : स्त्री० [सं०] १. सूर्य की पत्नी, संज्ञा। २. नव विवाहिता स्त्री। नवोढ़ा। ३. इन्द्र—वारुणी।
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सूर्याकर  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद। (रामायण)
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सूर्याक्ष  : पुं० [सं०] विष्णु। वि० सूर्य के समान नेत्रोंवाला।
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सूर्याणी  : स्त्री० [सं०] सूर्य की पत्नी, संज्ञा।
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सूर्यातप  : पुं० [सं०] १. सूर्यतप। २. धूप। घाम।
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सूर्यात्जम  : पुं० [सं०] सूर्य—पुत्र।
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सूर्यायाम  : पुं० [सं०] सूर्यास्त का समय।
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सूर्यालोक  : पुं० [सं०] १. सूर्य का प्रकाश। २. धूप।
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सूर्यावर्त  : पुं० [सं०] १. अधकपारी या आधासीस नाम का सिर का दर्द। २. हुरहुर। ३. सुवर्चला। ४. गज पिप्पली। ५. एक प्रकार का जल—पात्र। ६. बौद्धों में एक प्रकार की समाधि।
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सूर्यांशु  : पुं० [सं०] सूर्य की किरण।
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सूर्याश्म (श्मन्)  : पुं० [सं०] सूर्यकान्त मणि।
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सूर्याश्व  : पुं० [सं०] सूर्य का घोड़ा।
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सूर्यास्त  : पुं० [सं०] १. सूर्य का अस्त होना। २. सूर्य के अस्त होने का समय।
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सूर्याह्व  : पुं० [सं०] १. तांबा। ताम्र।। २. आक। मदार। ३. महेनद्र वारुणी।
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सूर्यृ-भक्त  : पुं० [सं०] बंधूक नाम का पौधा और उसका फूल। गुल-दुपहरिया।
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सूर्येन्दुसंगम  : पुं० [सं०] अमावस्या, जिसमें सूर्य और इन्दु अर्थात चन्द्रमा एक ही राशि में स्थित रहते हैं।
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सूर्योच्च  : पुं० [सं०]=रवि—उच्च।(देखें)
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सूर्योदय  : पुं० [सं०] १. सूर्य का उदित होना या निकलना। २. सूर्य के उदित होने का समय। प्रातः काल। सवेरा।
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सूर्योदय-गिरि  : पुं० [सं०]=उदयाचल।।
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सूर्योदयन  : पुं० [सं०]=सूर्योदय।
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सूर्योद्यान  : पुं० [सं०] सूर्यवन नामक तीर्थ।
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सूर्योपनिषद्  : स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
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सूर्योपस्थान  : पुं० [सं०] सूर्य की एक प्रकार की उपासना।
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सूर्योपासक  : पुं० [सं०] सूर्य की उपासना करनेवाला। सूर्यपूजक। सौर।
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सूर्योपासना  : स्त्री० [सं०] सूर्य की अराधना, उपासना या पूजा।
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सूल  : पुं० [सं० शूल] १. बरछा। भाला। सांग। २. कोई नुकीली चीज। ३. किसी नुकीली चीज के गड़ने सी की पीड़ा। ४. पेट की शूल नामक पीड़ा या रोग। क्रि० प्र०–उठना। ५. माला के ऊपर का फ़ुँदन। ६.=दे० शूल। वि० =वसूल। (दलालों की बोली)।
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सूलधर, सूलधारी  : पुं० =शूलधर (शिव)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूलना  : स० [हिं० सूल+ना (प्रत्य०)] १. भाले से छेदना। २. नुकीली चीज चुभाना। ३. कष्ट देना। पीड़ित करना। अ० १. कोई नुकीली चीज गड़ना या चुभना। २. कष्ट पाना। पीड़ित होना।
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सूलपानि  : पुं०=शलपाणि (शिव)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूली  : स्त्री० [सं० शूल] १. प्राणदंड की एक प्राचीन प्रणाली जिसमें दंडित मनुष्य एक नुकीले लोहे के डंडे पर बैठा दिया जाता था और उसके सिर पर मुँगरे से आघात किया जाता था। इससे नीचे से ऊपर तक उसका सारा शरीर छिद जाता था और वह मर जाता था। क्रि० प्र०–चढ़ना।–चढ़ाना।–देना।–पाना।–मिलना। २. आज—कल फाँसी नामक प्राणदंड। ३. बहुत अधिक कष्ट या पीड़ा की स्थिति। मुहा०–प्राण सूली पर टँगा रहना=किसी प्रकार की दुबधा में पड़ने के कारण बहुत अधिक मानसिक कष्ट होना। जैसे–जब तक लड़का लौटकर नहीं आया था, तब तक प्राण सूली पर टँगे थे। ३. एक प्रकार का नरम लोहा जिसके छड़ बनाये जाते हैं। (लुहार) ४. दक्षिण दिशा। (लश०) पुं० =शूली (शिव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूवना  : अ० [सं० स्रवण] प्रवाहित होना। बहना। स० प्रसव करना। जनना। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० सूआ (तोता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूवर  : पुं० =सूअर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूवा  : पुं० [?] फारसी संगीत के अन्तगर्त २४ शोभाओं में से एक। पुं० =सूआ, (तोता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूंस  : स्त्री० [सं० शिशुमार] प्रायः आठ-दस हाथ लंबा एक प्रसिद्ध बड़ा जल-जन्तु, जिसके जहड़े में तीस दाँत होते हैं।
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सूस  : पुं० [सं० शिशुमार]=सूँस (जल—जन्तु)।
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सूसमार  : पुं० [सं० शिशुमार] सूँस (जल—जन्तु)।
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सूसला  : पुं० [सं० शश] खरगोश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूसि  : पुं० =सूँस (जल—जन्तु)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सूसी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का धारीदार कपड़ा।
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सूंह  : अव्य०=सौहें (सामने)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूहवा  : वि० =सधवा (स्त्री)। पुं० =सूहा (राग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सूहा  : पुं० [हिं० सोहना] एक प्रकार का चमकीला गहरा लाल रंग। (ब्राइट रेड) वि० [स्त्री० सूही] उक्त प्रकार के लाल रंग का। लाल। सुर्ख। पुं० [सं० सुहव ?] संगीत में ओड़व-षाड़व जाति का एक राग जो दिन के दूसरे पहर के अन्त में गाया जाता है।
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सूहा-टोड़ी  : स्त्री० [हिं० सूहा+टोड़ी] संगीत में सम्पूर्ण जाति की एक संकर रागिनी।
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सूहा-बिलावल  : पुं० [हिं० सूहा+बिलावल] संगीत में सम्पूर्ण जाति का एक संकर राग।
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सूहा-श्याम  : पुं० [हिं० सूही+श्याम] संगीत में सम्पूर्ण जाति का एक संकर राग।
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सृक  : पुं० [सं०] १. शूल। २. बरछा। भाला। ३. तीर। बाण। ४. वायु। हवा। ५. कमल। पुं० [सं० सृक] माला या हार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सृकंडू  : स्त्री० [सं०] खाज या खुजली नामक रोग। कंडु।
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सृकाल  : पुं० =श्रृगाल (गीदड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सृक्कणी, सृक्किणी  : स्त्री० [सं०] होठों का कोना। मुँह का कोना।
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सृक्व (न्)  : पुं० [सं०] होठों का छोर। मुँह का कोना।
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सृंग  : पुं० =श्रृंग (चोटी)।
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सृग  : पुं० [सं० सृक] १. बरछा। भाला। २. तीर। बाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० स्रक्] माला या हार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सृंगवेरपुर  : पुं० =श्रृंगवेरपुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सृगाल  : पुं० =श्रृगाल (गीदड़)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) विशेष–‘सृगाल’ के यौ० के लिए दे० ‘श्रृगाल’ के यौ०।
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सृंगी  : पुं० =श्रृंगी (ऋषि)।
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सृजक  : पुं० [सं०] सृजन (सर्जन) करनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सृजंगो  : पुं० [गढ़वाली] भाँग का वह पौधा जिसमें बीज लगे हों।
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सृजन  : पुं० [सं० सृज, सर्जन] १. सृष्टि करने अर्थात जन्म देने की क्रिया या भाव। सर्जन। रचना। २. उत्पत्ति। सृष्टि। ३. छोड़ना या निकालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सृजनहार  : पुं० [सं० सृज, सर्जन+हिं० हार] सृजन (सर्जन) करनेवाला। सृष्टिकर्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सृजना  : स० [सं० सृज+हिं० ना (प्रत्य०)] सृष्टि करना। जन्म देना। उत्पन्न करना, रचना या बनाना।
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सृंजय  : पुं० [सं०] १. देववात का एक पुत्र। (ऋग्वेद) २. मनु का एक पुत्र। ३. पुराणानुसार एक प्राचीन राजवंश जिसमें धृष्टद्युम्न हुए थे।
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सृज्य  : वि० [सं०] १. जो उत्पन्न किया जाने को हो। २. जो सृजन किये जाने के योग्य हो। ३. छोड़े या निकाले जाने के योग्य।
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सृणि  : पुं० [सं०] १. चन्द्रमा। २. शत्रु। स्त्री० हाथी को वश में करनेवाला, अंकुश।
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सृणीक  : पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. अग्नि। ३. वज्र। ४. मदोन्मत्त व्यक्ति।
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सृणीका  : स्त्री० [सं०] थूक। लार।
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सृत  : भू० कृ० [सं०] १. जो खिसक गया हो। सरका हुआ। २. जो चला गया हो। पुं० चकमा देकर शत्रु पर शस्त्र से प्रहार करना।
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सृता  : स्त्री० [सं०] सृति। (दे० )
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सृति  : स्त्री० [सं०] १. जाने या खिसकने की क्रिया या भाव। २. आवागमन। ३. जाने का मार्ग। पथ। ४. आचरण। ५. जन्म। ६. निर्माण।
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सृत्वन्  : पुं० [सं०] १. खिसकने या सरकने की क्रिया या भाव। २. बुद्धि। ३. प्रजापति।
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सृत्वर  : वि० [सं०] १. जो जा या चल रहा हो। २. चलता हुआ। गतिशील।
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सृत्वरी  : स्त्री० [सं०] १. नदी। धारा। २. माता।
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सृप  : पुं० [सं०] चन्द्रमा।
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सृप्त  : भू० कृ० [सं०] खिसका या फिसला हुआ।
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सृप्र  : वि० [सं०] १. चिकना। स्निग्ध। २. जिस पर हाथ या पैर फिसलता हो। पुं० १. चन्द्रमा। २. मधु । शहद।
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सृप्रा  : स्त्री० [सं०]=सिप्रा (नदी)।
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सृमर  : वि० [सं०] १. जो चल रहा हो। २. गतिशील। पुं० एक प्रकार का पशु। (कदाचित बालमृग)
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सृविंनी  : स्त्री० =स्रग्वग्णी (छंद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सृष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. बनाया या रचा हुआ। २. उत्पन्न या पैदा किया हुआ। ३. मिला हुआ। युक्त। ४. छोड़ा या निकाला हुआ। त्यागा हुआ। परित्यक्त। ६. जिसके संबंध में दृढ़ निश्चय या संकल्प किया हो। ७. अलंकृत। भषित। पुं० तिन्दुक या तेंदू का वृक्ष।
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सृष्ट-मारुत  : वि० [सं०] वैद्यक में पेट की वायु को निकालनेवाला (औषध या खाद्य पदार्थ)।
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सृष्टपत्तन  : पुं० [सं०] एक प्रकार की मंत्र—शक्ति।
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सृष्टि  : स्त्री० [सं०√सृज् (सर्जन करना)+क्तिन्] १. बना या रचरक तैयार करने की क्रिया या भाव। निर्माण। रचना। २. उत्पत्ति। पैदाइश। ३. वह चीज जो बनाकर या पैदा करके तैयार की गई हो। ४. जगत या संसार का आविर्भाव या उत्पत्ति। ५. यह सारा विश्व और इसमें के सभी चर और अचर प्राणी तथा पदार्थ। (क्रियेशन, उक्त सभी अर्थो में) ६. निसर्ग। प्रवृत्ति। ७. उदारता या दानशीलता। ८. एक प्रकार की ईंट जो यज्ञ की वेदी के लिए बनाई जाती थी। ९. गंभीर का पेड़।
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सृष्टि-तत्त्व  : पुं० [सं०] सृष्टि—विज्ञान।
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सृष्टि-विज्ञान  : पुं० [सं०] वह विज्ञान जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि ब्रह्माण्ड में ग्रह, तारे, नक्षत्र आदि किस प्रकार उत्पन्न होते, बढ़ते और अन्त में नष्ट होते हैं। (कास्मोलोजी)
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सृष्टि-शास्त्र  : पुं० =सृष्टि—विज्ञान।
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सृष्टिकर्ता  : पुं० [सं० सृष्टिकर्त्तृ] १. सृष्टि या संसार की रचना करनेवाला, ब्रह्मा। २. ईश्वर। परमात्मा।
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सृष्ट्यंतर  : पुं० [सं०] चार वर्गो के अन्तगर्त अंतर—जातीय विवाह से उत्पन्न होनेवाली संतान।
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से  : विभ० [प्रा० सुंतो, पुं० हिं० सेंति] १. करण और अपादान कारक का चिन्ह। तृतीया और पंचमी की विभक्ति, जिसका प्रयोग इन अर्थो में होता है।–(क) द्वारा; जैसे–हाथ से देना, (ख) आपेक्षिक मान में कम या अधिक; जैसे–इससे कम, (ग) सीमा का आरम्भ; जैसे–यहाँ से। मुहा०–(स्त्री का किसी पुरुष) से रहना=पर—पुरुष से संभोग करना। उदा०–मीर गुल से अब के रहने में हुई वह बेकली। टल गई क्या नाफदानी पेड़ पत्थर हो गया।–जानसाहब। २. पुरानी हिन्दी और बोलचाल में, कहीं—कहीं सप्तमी या अधिकरण के चिन्ह ‘पर’ की तरह प्रयुक्त। उदा०–कहहिं कबीर गूँगे गुर खाया, पूछे से का कहिया।–कबीर। वि० हिं० ‘सा’ (समान) का बहु०। जैसे—थोड़े से कपड़े, बहुत से लोग। सर्व० हिं० ‘सो’ (वह) का बहु०। स्त्री० [सं०] १. सेवा। २. कामदेव की पत्नी रति का एक नाम।
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सेई  : स्त्री० [हिं० सेर] अनाज नापने का काठ का एक गहरा बरतन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) सर्व० [हिं० से (वह)+ई (प्रत्य०)] वही। उदा०–सेई तुम सेई हम कहियत।–कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेउ  : पुं० १. दे० ‘सेव’ (पकवान)। २. दे० ‘सेब’ (फल)। ३. दे० ‘शिव’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेउवा  : स्त्री०=सेवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेक  : पुं० [हिं० सेंकना] १. सेंकने की क्रिया या भाव। २. ताप। गरमी। ३. शरीर के किसी रुग्ण अंग पर गर्म चीज से पहुँचाई जानेवाली गर्मी। (फ़ोमेन्टेशन) ४. किसी प्रकार का सामान्य कष्ट, विपत्ति या संकट। (पश्चिम) जैसे–ईश्वर करे, तुम्हें जरा भी सेंक न लगे। क्रि० प्र०–आना।–लगना। स्त्री० [हिं० सींक] लोहे की कमानी जो छीपी कपड़े छापने के काम में लाते हैं।
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सेक  : पुं० [सं०] १. पानी से सींचने की क्रिया या भाव। सिंचाई। २. पानी का छिड़काव। ३. अभिषेक। ४. तेल आदि की मालिश। (वैद्यक) पुं० =सेंक। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेक-पात्र  : पुं० [सं०] पानी छिड़कने या सींचने का पात्र या बरतन।
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सेकंड  : पुं० [अं०] एक मिनट का ६॰ वाँ भाग। वि० गिनती में दो के स्थान पर पड़नेवाला। दूसरा।
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सेकड़ा  : पुं० [देश०] वह छाबुक या छड़ी, जिससे हलवाहे बैल हाँकते हैं। पैना।
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सेकतव्य  : वि० [सं०] १. छिड़के या सीचे जाने के योग्य। २. मालिश के योग्य।
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सेंकना  : स० [सं० श्रेषण=जलाना, तपाना] १. आँच के पास या आग पर रखकर भूनना। जैसे–रोटी सेंकना। २. आँच के पास या ताप के सामने रखकर गरम करना। जैसे–(क) सरदी में अँगाठी से हाथ—पैर सेंकना। (ख) खुली जगह में बैठकर धूप सेंकना। ३. कपड़ा, रूई, आदि गरम करके पीडि़त अंग पर उसका ताप पहुँचाना। जैसे–पेट या फोड़ा सेंकना। (फ़ोमेन्टेशन) मुहा०–आँखें सेंकना=रूपवती या सुन्दरी स्त्री को बारंबार देखकर तृप्त या प्रसन्न होना।
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सेंकाई  : स्त्री० [हिं० सेंकना] सेंकने का क्रिया या भाव।
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सेंकी  : स्त्री० [फा० सीनी, हिं० सनहकी] तश्तरी। रकाबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेकुआ  : पुं० [देश०] काठ के दस्ते का लंबा करछी या डौआ, जिससे हलवाई दूध औटाते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेक्ता  : वि० [सं० सेक्तृ] [स्त्री० सेक्त्री] १. सींचनेवाला। २. गौ, घोड़ी आदि में गर्भधान करानेवाला। पुं० स्त्री का पति। शौहर।
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सेक्रेटरियट  : पुं० [अं०]=सचिवालय।
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सेक्रेटरी  : पुं० [अं०] १. मंत्री। २. सचिव।
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सेक्शन  : पुं० [अं०] १. विभाग। जैसे–इस दरजे में दो सेक्सन हैं। २. धारा।
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सेख  : वि०, पुं० =शेष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =शेख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेखर  : पुं०=शेखर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=शिखर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेखी  : स्त्री०=शेखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंगर  : पुं० [सं० श्रृंगार] १. एक प्रकार का पौधा जिसकी फलियों की तरकारी बनती है। २. उक्त पौधे का फली। ३. बबूल की फली। ४. एक प्रकार का अगहनी घान। पुं० क्षत्रियों की एक जाति।
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सेंगरा  : पुं० [फा० सग या सं० श्रृंखल ?] मोटे बाँस का वह छोटा टुकड़ा जिसकी सहायता से पेशराज लोग मिलकर भारी धरनें, पतेथर आदि उठाते हैं। विशेष–सेंगरें में मोटे रस्से बाँधे जाते हैं और उन्ही रस्सों पर धरनें, पत्थर आदि लटकाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाये जाते हैं। पुं० संगरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेगा  : पुं० [अ० सेगः] १. किसी काम या बात का कोई विशिष्ट विभाग या शाखा। २. व्यवस्था शासन आदि का महकमा।
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सेगुन  : पुं०=सागोन (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेगोन, सेगौन  : पुं० [देश०] मटमैले रंग की वह लाल मिट्टी जो नालों के पास पाई जाती है। पुं० =सागौन (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेग्य  : पुं० [सं०] शीतलता। ठंडक। वि० ठंढा। शीतल।
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सेच  : पुं० [सं०] १. सिचाई। २. छिड़काव।
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सेचक  : वि० [सं०] १. सेचन करने का या सींचनेवाला। २. छिड़कनेवाला। तर करनेवाला। पुं० बादल। मेघ।
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सेचन  : पुं० [सं०√सिच् (सीचना)+ल्युट्–अन] १. पानी से सीचने की क्रिया या भाव। सिंचाई करना। २. पानी छिड़कना। ३.पानी के छींटे मारना। ४. अभिषेक। ५. धातुओं की ढलाई। ६. वह कड़ाही नुमा छोटा बरतन जिससें नाव में का पानी बाहर फेंका जाता है।
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सेचनक  : पुं० [सं०] अभिषेक।
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सेचनी  : स्त्री० [सं०] पानी भरने का बरतन। जैसे–डोल, बालटी आदि।
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सेचनीय  : वि० [सं०] जिसका सेचन हो सके या होने को हो।
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सेचित  : भू० कृ० [सं०] जो सींचा गया हो। तर किया हुआ।
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सेच्य  : वि० [सं०]=सेचनीय।
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सेज  : स्त्री० [सं० शय्या प्रा० सज्जा] १. बिछौना, विशेषतः सुन्दर और कोमल बिछौना। २. साहित्यिक तथा श्रृंगारिक क्षेत्र में वर या वधू का बिछौना। क्रि० प्रा०–करना।
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सेजपाल  : पुं० [हिं० सेज+पाल] प्राचीन काल में, वह सैनिक जो राजा की शय्या पर पहरा देता था।
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सेजरिया  : स्त्री०=सेज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेजा  : पुं० [देश०] आसाम और बंगाल में होने वाला एक प्रकार का पेड़ जिस पर टसर के कीड़े पाये जाते हैं।
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सेजिया,सेज्या  : स्त्री०=सेज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंजी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।(पंजाब)
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सेझ  : स्त्री०=सेज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेझदादि  : पुं०=सह्याद्रि (पर्वत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेझदारि  : पुं०=सह्याद्रि (पर्वत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेझना  : अ० [सं० सेधन=दूर करना, हटाना] दूर होना। हटना स० दूर करना। हटाना।
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सेंट  : स्त्री० [?] दूध की धार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अ०] १. खुशबू। २. सुगंधिपूर्ण द्रव्य। जैसे–इत्र।
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सेट  : पुं० [सं०] एक प्राचीन तौल या मान। पुं० [अं०] एक साथ पहनी या काम में लाई जानेवाली चीजों का समूह। कुलक। जैसे–गहनों का सेट, कपड़ों का सेट, बरतनों का सेट। पुं,=सेंठा।
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सेटना  : अ० [सं० श्रुत] किसी का महत्त्व, मान आदि स्वीकार करना या मनाना।
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सेंटर  : पुं० [अ०] केन्द्र। (दे० )
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सेटिल  : वि० [अं० सेटिल्ट] १. (झगड़ा या विवाद) जो निपट गया हो। २. जो निश्चित या तै हो गया हो।
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सेटिलमेंट  : पुं० [अं०] १. खेती के लिए भूमि को नापकर उसका राजकर निर्धारित करने का काम। बंदोबस्त। २. आपस में होनेवाला निपटारा या समझौता। ३. नई बसाई हुई जगह।
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सेंट्रल  : वि० [अ०] केन्द्रीय। (दे० )
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सेठ  : पुं० [सं० श्रेष्ठी] [स्त्री० सेठानी] १. बहुत बड़ा कोठीवाला, महाजन, व्यापारी या साहूकार। २. बहुत बड़ा धनवान् या सम्पन्न व्यक्ति। ३. खत्रियों की एक जाति। ४. सुनारों का अल्ल या जातिनाम। ५. दलाल। (डिं०)
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सेठन  : पुं० [देश०] झाड़ू। बुहारी।
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सेंठा  : पुं० [देश०] १. मूँज या सरकंडे के सींक का निचला मोटा मजबूत हिस्सा जो मोढ़े आदि बनाने के काम में आता है। कन्ना। २. एक प्रकार की घास, जो प्रायः छप्पर छाने के काम आती है। ३. वह पोली लकड़ी जिससें जुलाहे ऊरी फँसाते हैं। डाँड़।
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सेठा  : पुं० [हिं० सेठा] सरकंडे का निचला भाग।
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सेठानी  : स्त्री० [हिं० सेठ+आनी (प्रत्य०)] १. सेठ की पत्नी। २. महाजन स्त्री।
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सेड़ा  : पुं० [देश०] भादों में होनेवाला एक प्रकार का धान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेड़ी  : स्त्री० [सं० चेटि, प्रा० चेड़ि, हिं० चेरी] सखी। (डिं०)
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सेंढ़  : पुं० [देश०] सुनारी के काम में आनेवाला एक प्रकार का खनिज पदार्थ।
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सेढ़  : पुं० [अं० सेल] बादवान। पाल। (लश०)। क्रि० प्र०–खोलना।–चढ़ाना।–तानना।–बाँधना।–लगाना। मुहा०–सेढ़ बजाना=पाल में से हवा निकालना जिससे वह लपेटा जा सके। (लश०) सेढ़ सपटाना=रस्सा खींचकर पाल तानना।
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सेढ़खाना  : पुं० [सं० सेल=फा० खाना] १. जहाज में वह कमरा या कोठरी जिसमें पाल भरे रहते हैं। २. वह स्थान जहाँ पाल बनाये जाते हैं।
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सेढ़ा  : पुं० [देश०] सेड़ा नामक भादों मास में होनेवाला धान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेत  : वि०=श्वेत (सफेद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=सेतु।
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सेंत—मेंत  : अव्य० [हिं० सेंत+मेंत (अनु०)] १. बिना दाम दिये सेंत में। २. बिना कुछ किये या दिये। मुफ्त में। ३. फजूल। व्यर्थ।
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सेतकुली  : पुं० [सं० श्वेतकुलीय] सर्पों के अष्ट कुल में एक। सफेद जाति के नाग।
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सेतदीप  : पुं०=श्वेतदीप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंतना  : स०=संतान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतना  : स०=सैंतना (संचित करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतबंध  : पुं०=सेतुबंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतवा  : पुं० [सं० शक्ति, हिं० सितुही] अफीम काछने की लोहे की कलछी।
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सेतवारी  : स्त्री० [सं० सिक्ता,=बालू+बारी (प्रत्य०)] हरापन लिए हुए बलुई चिकनी मिट्टी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतवाह  : पुं० [सं० श्वेतवाहन] १. अर्जुन। २. चन्द्रमा। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेता  : वि० [सं० श्वेत] [स्त्री० सेती] सफेद। उदा०–सेतो सेतो सब भलो सेतो बसो न केस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंति  : विभ० आधुनिक हिन्दी की ‘से’ विभक्ति का पुराना रूप । स्त्री० =सती।
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सेतिका  : स्त्री० [सं० साकेत] अयोध्या नगरी का एक नाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंती  : स्त्री० [सं० संहति=(क) किफायत। २. ढेर या राशि।] ऐसी स्थिति जिसमें या तो (क) पास का कुछ भी व्यय न करना पड़े। (ख) कुछ भी परिश्रम करना पड़े, अथवा (ग) अनायास ही कोई चीज बहुत अधिक मात्रा या संख्या में प्राप्त हो। मुहा०–सेंती या सेंती—मेंती का=(क) जिसके लिए कुछ भी परिश्रम नकरना पडा़ हो। मुफ्त का या मुफ्त में। जैसे–उन्हें बाप—दादा का सेंती का माल मिला है। (ख) जिसके लिए कुछ भी व्यय न करना पडा हो। उदा०–सखा संग लीन्हेंज सेंति के फिरत रैन दिन बन में छाये।–सूर। (ग) जो बहुत अधिक मात्रा या मान में उपस्थित या प्रस्तुत हो। उदा०–दधि मै परी सेंति की चींटी, मो पै सबै कढ़ाई।–सूर। (घ) बिलकुल अकारण या व्यर्थ में। जैसे–इसके लिए कोई सेंती का प्रयत्न क्यों करे। प्रत्य० [प्रा० सुंतो, पंचमी विभक्ति] पुरानी हिन्दी की करण और अपादान की विभक्तिः से। उदा०–राजा सेंति कुंवर सब कहहीं। अस अस मच्छ समुद महँ अहहीं।–जायसी।
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सेती  : अव्य० [प्रा० सुत] १. किसी के प्रति। को। २. द्वारा। विभ० दे० ‘से’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतु  : पुं० [सं०] १. बाँधने की क्रिया या भाव। बन्धन। २. नदी आदि पार करने के लिए बनाया हुआ रास्ता। पुल। ३. दूर रहनेवाली दो चीजों को आपस में मिलानेवाला अंग या रचना। (ब्रिज)। ४. पानी की रुकावट के लिए बँधा हुआ बाँध। ५. खेत की मेड़। ६. सीमा। हद। उदा०–राखहिं निज श्रुति सेतु।–तुलसी। ७. सीमा की सूचक किसी प्रकार की रचना । जैसे–डाँड़, मेड़ आदि। ८. ओंकार या प्रणव की एक संज्ञा। ९. ग्रन्थ की टीका या व्याख्या। १॰. वरुण वृक्ष। बरना। वि० =श्वेत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतु-कर  : पुं० [सं०] सेतु या पुल बनानेवाला।
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सेतु-कर्म (न्)  : पुं० [सं०] सेतु या पुल बनाने का काम।
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सेतु-दुति  : पुं० [सं० श्वेतद्युति] चन्द्रमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतु-पथ्य  : पुं० [सं०] दुर्गम स्थानों में जानेवाली सड़क। ऊँची—नीची पहाड़ी घाटियों में जानेवाली सड़क। (कौ०)
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सेतुक  : पुं० [सं०] १. पुल। २. जलाशय का धुस्स। बाँध। ३. वरुण नामक वृक्ष। बरना।
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सेतुज  : पुं० [सं०] दक्षिणापथ के एक स्थान का नाम।
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सेतुपति  : पुं० [सं०] दक्षिण भारत के पुराने रामनद राज्य के राजाओं की वंश परम्परागत उपाधि।
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सेतुप्रद  : पुं० [सं०] कृष्ण का एक नाम।
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सेतुबंध  : पुं० [सं०] १. पुल बनाने या बाँधने की क्रिया। २. नहर। ३. वह पथरीला मार्ग जो रामेश्वरम् से कुछ दूर आगे लंका की ओर समुद्र में बना हुआ है। प्रवाद है कि इसे नील और उनके साथियों ने श्रीरामचन्द्र जी के लंका पर चढ़ाई करने के समय बनाया था।
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सेतुबंध रामेश्वर  : पुं० [सं०] भारत की दक्षिणी सीमा का वह स्थान जहा लंका पर चढ़ाई करने के लिए रामचन्द्र ने पुल बनाया और शिवलिंग स्थापित किया था।
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सेतुवा  : पुं० =सूस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =सेहुँवा (चर्म रोग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतुशैल  : पुं० [सं०] दो देशो के बीच का सीमा—सूचक पर्वत। सरहद का पहाड़।
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सेंथा  : पुं० =सेंठा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेथिया  : पुं० [तेलगू चेहि, चेट्टिया, हिं० सेठिया] आँख, गुदा, मूत्रेन्दिय आदि संबंधी रोगों की चिकित्सा करनेवाला। चिकित्सक। (दक्षिण)
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सेंथी  : स्त्री० [सं० शक्ति] छोटा भाला। बरछी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंद  : स्त्री० =सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेद  : पुं०=स्वेद (पसीना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेदज  : वि० [स्वेदज] पसीने से उत्पन्न होनेवाला कीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेदरा  : पुं० [फा० सेह=तीन+दर=दरवाजा] वह मकान, जिसके तीन तरफ खुली जमीन हो। तिदरी।
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सेंदुर  : पुं० [सं० सिन्दूर] ईंगुर की बुकनी जो प्रायः सौभाग्यवती स्त्रियाँ माँग में लगाती हैं। सिंदूर। क्रि० प्र०–भरना।–लगाना। मुहा०–सेंदुर चढ़ना=स्त्री का विवाह होना। सेंदुर पहनना=माँग में सिंदूर भरना या लगाना। (किसी की माँग में) सेंदुर देना=किसी स्त्री० की माँग में सिंदूर डालकर उससे विवाह करना या उसे अपनी पत्नी बनाना।
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सेंदुरदानी  : स्त्री० [हिं० सेंदुर+फा० दानी] सिंदूर रखने का छोटा डिब्बा। सिंदूर की डिबिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंदुरा, सेंदुरिया  : वि० , पुं०=सिंदूरिया।
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सेंदुरी  : वि० स्त्री० [हिं० सेंदुर+ई (प्रत्य०)] सिंदूरी गाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंद्रिय  : वि० [सं०] १. जिसमें इन्द्रियाँ हों। इन्द्रियोंवाला। जैव। (जीव या जन्तु) (आर्गनिक) २. पुंस्त्व या पौरुष से युक्त।
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सेंध  : स्त्री० [सं० संधि] १. चोरी करने के लिए मकान की दीवार में किया हुआ बड़ा छेद, जिसमें से होकर चोर किसी कमरे या कोठरी में घुसता है। संधि। नकब। क्रि० प्र०–देना।–मारना।–लगाना। २. इस प्रकार छेद करके की जानेवाली चोरी। क्रि० प्र०–लगना। स्त्री० [देश०] १. गोरख ककड़ी। फूट। २. कचरी नामक फल। पेहँटा।
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सेध  : पुं० [सं०] मनाही। निवारण।
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सेधक  : वि० [सं०] हटाने या रोकनेवाला।
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सेंधना  : स० [हिं० सेंध] चोरी करने के उद्देश्य से दीवार में छेद करके मकान में घुसनें के लिए रास्ता बनाना।
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सेधा  : स्त्री० [सं०] साही नाम का जन्तु।
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सेंधा नामक  : पुं० [सं० सैंधव] एक प्रकार का नमक जो पश्चिमी पाकिस्तान की खानों से निकलता है। सैंधव। लाहौरी नमक।
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सेंधिया  : वि० [हिं० सेंध] दीवार में सेंध में लगाकर चोरी करनेवाला। जैसे–सेंधियाँ चोर। पुं० [?] १. ककड़ी की जाति की एक बेल जिसमें तीन—चार अंगुल लम्बे छोटे—छोटे फल लगते हैं। कचरी। सेंध। पेहँटा। २. फूट नामक फूल। ३. एक प्रकार का विष। पुं० =सिंधिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंधी  : स्त्री० [सिंध (देश०)] १. खजूर। २. खजूर की शराब। स्त्री०=सेंधिया (फल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंधुआर  : पुं०=सिंधुआर (जन्तु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंधुर  : पुं०=सिंदुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेन  : पुं० [सं०] १. तन। शरीर। २. जीवन। ३. प्राचीन भारत में, व्यक्तियों के अन्त में लगनेवाला एक पद। जैसे–शूरसेन। ४. चार प्रकार के दिगम्बर जैन साधुओं में से एक। ५. बंगाल का सिद्ध राजवंश जिसने ११ वीं से १५ वीं शताब्दी तक राज्य किया था। ६. बंगाल की वैद्य नामक जाति का अल्ल। वि० १. जिसके सिर पर कोई मालिक हो। सनाथ। २. अधीन। आश्रित। वि० =सेना (फौज)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =श्येन (बाज पक्षी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेनप  : पुं० [सं० सेनापति] सेनापति।
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सेनपति  : पुं०=सेनापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेना  : स्त्री० [सं०] १. युद्ध के लिए सिखाए हुए और अस्त्र—शस्त्र से सजे हुए सैनिकों या सिपाहियों का बड़ा दल या समूह। फौज। पलटन। (आर्मी)। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य या कार्य की सिद्धि के लिए संघटित किया हुआ कोई बड़ा दल या समूह। जैसे–बालसेना, मुक्ति सेना, वानर सेना आदि। ३. इन्द्र का वज्र।। ४. भाला। ५. साँग। ६. इन्द्राणी। ७. वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे अर्हत् शंभव की माता का नाम। (जैन) ८. प्राचीन भारत में स्त्रियों के नाम के साथ लगनेवाला एक पद। जैसे–बसंतसेना। स० [सं० सेवन] १. सेवा—टहल करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०–चरणसेना=(क) पैर दबाना। (ख) तुच्छ चाकरी या सेवा करना। २. आराधना या उपासना करना। ३. औषध आदि का नियमित रूप से प्रयोग या व्यवहार करना। ४. पवित्र स्थान पर निरन्तर वास करना। जैसे–काशी या वृन्दावन सेना। ५. यों ही किसी चीज पर बराबर पड़े रहना। जैसे–चारपाई सेना। ६. मादा पक्षी का गरमी पहुँचाने के लिए अपने अंड़ो पर बैठना। ७. कोई चीज व्यर्थ लेकर बैठे रहना। (व्यंग्य)।
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सेना-कक्ष  : पुं० [सं०] सेना का पार्श्व। फौज का बाजू।
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सेना-कर्म  : पुं० [सं०] १. सेना का संचालन तथा व्यवस्था। २. सैनिक सेवा का काम।
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सेनांग  : पुं० [सं०] १. सेना के चार अंगों (हाथी, घोड़े, रथ और पैदल) में से हर एक । २. सैनिकों का छोटा दल या टुकड़ी। सेना का विभाग।
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सेनागोप  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में, वह व्यक्ति जो सेना रखता था।
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सेनाग्र  : पुं० [सं०] सेना का अग्रभाव। फौज का अगला हिस्सा।
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सेनाग्रणी  : पुं० [सं०] १. सेना का अग्रणी या प्रधान नायक २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सेनाचर  : पुं० [सं०] १. सैनिक। २. शिविर। में रहनेवाला सौनिक।
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सेनाजयंती  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सेनाजीवी (विन्)  : पुं० [सं०] सेना में रहकर अपनी जीविका चलानेवाला सैनिक। सिपाही। योद्धा।
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सेनादार  : पुं० [सं० सेना+फा० दार] सेना—नायक। फौजदार।
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सेनाधिकारी  : पुं० [सं०] फौज का अफसर। सेना का अधिकारी।
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सेनाधिप  : पुं० [सं०]=सेनापति।
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सेनाधिपति  : पुं० [सं०]=सेनापति।
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सेनाधीश  : पुं० [सं०] सेनापति।
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सेनाध्यक्ष  : पुं० [सं०] फौज का अफसर। सेनापति।
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सेनानायक  : पुं० [सं०] सेना का अफसर। फौजदार।
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सेनानी  : पुं० [सं०] १. सेनापति। सिपहसालार। २. कार्तिकेय का एक नाम। ३. एक रुद्र का नाम। ४. जूआ खेलने का एक प्रकार का पासा।
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सेनापति  : पुं० [सं०] १. सेना का नायक। फौज का अफसर। सिपहसालार। २. कार्तिकेय, जो देवताओं की सेना के प्रधान अधिकारी माने गये हैं। ३. शिव का एक नाम।
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सेनापत्य  : पुं० [सं०] सेनापति होने की अवस्था, पद या भाव।
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सेनापरिधान  : पुं० [सं०] सेना के साथ रहने वाले आवश्यक व्यक्तियों का सारा सामान। लवाजमा। (एकाउन्टरमेन्ट)
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सेनापाल  : पुं० [सं० सेनापाल] सेनापति।
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सेनाभक्त  : पुं० [सं०] सेना के लिए रसद और बेगार। (को०)
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सेनाभक्ति  : स्त्री० [सं०] प्राचीन भारत में, वह कर जो राजा या राज्य का ओर से सेना के भरण—पोषण के लिए लिया जाता था।
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सेनामणि  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नटकी पद्धति का एक राग।
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सेनामनोहरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सेनामुख  : पुं० [सं०] १. सेना का अगला भाग २. सेना का एक विभाग, जिसमें तीन हाथी, ९ घोड़े और १५ पैदल सवार रहते थे। ३. नगर के मुख्य द्वार के सामने का बाहरी रास्ता।
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सेनायोग  : पुं० [सं०] सैन्य—सज्जा। फौज की तैयारी।
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सेनावास  : पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ सेना रहती हो। छावनी। २. खेमा। डेरा। शिविर।
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सेनावाह  : पुं० [सं०] सेनानायक।
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सेनाव्यूह  : पुं० [सं०] युद्धकाल में विभिन्न स्थानों पर की गई सेना के विभिन्न अंगों की स्थापना या नियुक्ति। सैन्य—विन्यास। दे० ‘व्यूह’।
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सेनि  : स्त्री०=श्रेणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेनिका  : स्त्री० [सं० श्येनिका] १. बाज पक्षी की मादा। मादा बाज पक्षी। २. श्येनिका नामक छन्द।
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सेनी  : स्त्री० [फा० सीनी] १. तश्तरी। रकाबी। २. एक विशेष प्रकार की नक्काशीदार तश्तरी। स्त्री० [सं० श्येनी] १. बाज पत्री की मादा। मादा बाज पक्षी। स्त्री० [सं० श्रेणी] १. अवली। पक्ति। २. सीढ़ी। ३. दे० ‘श्रेणी’। पुं० [?] विराट् के यहाँ अज्ञातवास करते समय का सहदेव का रखा हुआ कल्पित नाम।
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सेनुर  : पुं० =सिंदूर।
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सेनूं  : पुं० [हिं० नैनूँ का अनु०] नैनूँ की तरह का एक प्रकार का बूटीदार कपड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेनेट  : स्त्री० दे ‘सीनेट’।
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सेनेटर  : पुं० =सीनेटर।
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सेफ  : पुं० [अं०] लोहे की मोटी चादर का बना हुआ एक प्रकार का छोटा अल्मारीनुमा बक्स, जिसमें रोकड़ और बहुमूल्य पदार्थ रखे जाते हैं। वि० [अं०] सुरक्षित। पुं० =शेफ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेब  : पुं० [फा०] १. नाशपाती की जाति का मझोले आकार का एक पेड़। २. उक्त पेड़ का फल, जो मेवों में गिना जाता है। पुं० =सेव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंबर  : पुं०=सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंभा  : पुं० [देश०] घोड़ों का एक बात रोग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेम  : स्त्री० [सं० शिंबी] एक प्रकार की फली, जिसकी तरकारी खाई जाती है।
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सेम का गोंद  : पुं० [हिं०] एक प्रकार के कचनार का गोंद, जो इंद्रिय जुलाब और स्त्रियों का रुका हुआ रज खोलने के लिए उपयोगी माना जाता है।
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सेमई  : पुं० [हिं० सेम] सेम की तरह का हल्का सब्ज रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का। स्त्री०=सेवई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेमंतिका  : स्त्री०=सेमंती।
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सेमंती  : स्त्री० [सं०] सफेद गुलाब का फूल। सेवती।
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सेमर  : पुं० [देश०] दलदली जमीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेमल  : पुं० [सं० शाल्मलि] १. एक बहुत बड़ा पेड़, जिसके फल में से एक प्रकार की रुई निकलती है। २. उक्त वृक्ष के फल की रुई, जो रेशम की तरह चिकनी और मुलायम होती है। (सिल्क—कॉटन) पद–सेमल का सूआ=व्यर्थ का काम या परिश्रम करके उसके बुरे परिणाम से दुःखी होने और पछतानेवाला। (सेमल के बीज में चोंच मारनेवाले तोते के दृष्टांत पर) उदा०–कतहूँ सुवा होत सेमर कौ, अंतहि कपट न बचिवो।–सूर।
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सेमल—मूसला  : पुं० [सं० शाल्मलि—मूल] सेमल की जड़।
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सेमा  : पुं० [हिं० सेम] बड़ी सेम।
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सेमार  : पुं० =सिवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेमिटिक  : पुं० [अं०] दे० ‘सामी’ (साम का देश)।
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सेर  : पुं० [?] १. एक मान या तौल, जो सोलह छटाँक या अस्सी तोले की होती है। मन का चालीसवाँ भाग। मुहा०–सेर का सवा सेर मिलना=किसी अच्छे या जबरदस्त का उससे भी बढ़कर अच्छे या जबरदस्त से मुकाबला या सामना होना। २. पानी की १॰६ ढोलियों का समूह। (तमोली)। पुं० (देश०) एक प्रकार का धान, जो अगहन महीने मे तैयार हो जाता है और जिसका चावल बुहत दिनों तक रह सकता है। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली। वि० [फा०] जिसका पेट या मन भर गया हो। तृप्त। पुं०=शेर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेरन  : स्त्री० [देश०] पहाड़ी देशों में होनेवाली एक प्रकार की घास।
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सेरवा  : पुं० [सं० शट ?] वह कपड़ा, जिससे हवा करके अन्न बरसाते समय भूसा उडाया जाता है। झूली। पुं० [हिं० सिर] चारपाई या बिस्तर का सिरहाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० सेराना=ठंडा करना, शांत करना] दीवाली के प्रातः काल ‘दरिद्दर’ (दरिद्रता) भगाने की रस्म, जो सूप बजाकर की जाती है।
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सेरही  : स्त्री० [हिं० सेर] एक प्रकार का कर या लगान, जो किसान को फसल की उपज के अपने हिस्से पर देना पड़ता था।
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सेरा  : पुं० [हिं० सेर] चारपाई की वह पाटी, जो सिरहाने की ओर रहती है। पुं० [फा० सेराब] आबपाशी की हुई जमीन। पुं० =सेढ़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेराना  : अ०, स०=सिराना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेराब  : वि० [फा०] [भाव० सेराबी] १. पानी से तर किया या भरा हुआ। सींचा हुआ।
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सेराबी  : स्त्री० [फा०] सेराब करने की क्रिया या भाव।
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सेराह  : पुं० [सं०] दूध की तरह सफेद रंगवाला घोड़ा।
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सेरी  : स्त्री० [फा०] सेर होने अर्थात अच्छी तरह तृप्त और संतुष्ट होने की अवस्था, क्रिया या भाव। तृप्त। स्त्री० [सं० श्रेणी] लंबी पतली गली। (राज०) स्त्री० [हिं० सेर] सेर भर का बटखरा या बाट। (पश्चिम)
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सेरीना  : स्त्री० [हिं० सेर] अनाज या चारे का वह हिस्सा जो असामी जमींदार के देता था।
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सेरुआ  : पुं० [?] १. वैश्य। (सुनार)। २. वेश्याओं की परिभाषा में वह व्यक्ति, जो मुजरा सुनने आया हो। पुं०=सेरवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेरू  : पुं० [सं० सेलु] लिसोड़े का पेड़। लभेड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० सिर] चारपाई में सिरहाने और पैताने की ओर की लकड़ियाँ। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेल  : पुं० [सं० शल, प्रा० सेल] बरछा। भाला। साँग। पुं० [सं० सिलना=एक पौधा जिसके रेशों से रस्से बनते थे] १. एक प्रकार का सन का रस्सा, जो पहाड़ों में पुल बनाने के काम में आता है। २. हल में लगी हुई वह नली, जिसमें से होकर कूंड में भरे हुए बीज जमीन पर गिरते हैं। पुं० [?] नाव से पानी उलोचने का काट का बरतन। स्त्री० [?] १. गले में पहनने की माला। २. एक प्रकार की समुद्री मछली, जिसके ऊपरी जबड़े बहुत तेज धार वाले होते हैं। पुं० [सं० शेल] तोप का वह गोला, जिसमें गोलियाँ आदि भरी रहती हैं। (फौजी)। पुं० [अं०] बिक्री। विक्रय। पद–सेल टैक्स=बिक्री—कर।
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सेलखड़ी  : स्त्री० =सिलखड़ी (खड़िया)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेलग  : पुं० [सं०] लुटेरा। डाकू।
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सेलना  : अ० [प्रा० सेल=जाना] मर खाना। चल बसना।
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सेला  : पुं० [सं० शल्लक, शल्क=छिलका; मछली का सेहरा] १. रेशमा चादक या दुपट्टा। २. एक प्रकार का रेशमी साफ़ा। पुं० [सं० शालि] भुँजिया चावल।
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सेलार  : पुं०=सेलिया (घोड़ा)।
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सेलिया  : पुं० [सं० सेराह] सफेद घोड़ा। सेराह।
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सेली  : स्त्री० [हिं० सेल] बरछी। स्त्री० [हिं० सेला] १. छोटा दुपट्टा। २. गाँती। ३. गोरखपंथियों में वे ऊँनी धागे, जिनमें गले में पहनने की सोंग की सीटी (नाद या श्रृंगीनाद) बँधी रहती है। ४. ऊन, रेशम या सूत की वह माला जो योगी लोग गले में पहनते या सिर पर लपेटते हैं। ५. गलें में पहनने का एक प्रकार का गहना। स्त्री० [सं० शल्क=मछली का सेहरा] एक प्रकार की मछली। स्त्री० [देश०] दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का पेड़, जिसकी लकड़ी से खेती के औजार बनाये हैं।
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सेलून  : पुं० [सं०] १. उत्सवों आदि के लिए सजाया हुआ बड़ा कमरा। २. जहाजों में ऊँचे के यात्रियों के रहने का कमरा। ३. विशिष्ट प्रतिष्टित यात्रियों के लिए बना हुआ रेल का बढ़िया डिब्बा। ४. आमोद—प्रमोद, क्षौरकर्म, मद्यपान आदि के लिए बना हुआ बढ़िआ और सजाया हुआ कमरा।
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सेलो  : पुं० [देश०] खेती की ऐसी जमीन जिस पर वृक्ष आदि की छाया पड़ती हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेल्ला  : पुं०=सेल (भाला)।
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सेल्ह  : पुं०=सेल (भाला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेल्हा  : पुं० [स० शाल] एक प्रकार की अगहनी धान जिसका चावल बहुत दिनों तक रह सकता है। पुं० [स्त्री० अल्का० सेल्ही]=सेला (भाला)।
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सेव  : पुं० [सं० सेविका] सूत के रूप में बना हुआ आटे, मैदे आदि का एक पकवान। पुं० [?] खेत की हलकी या कम गहरी जोताई। ‘अवाई’ का विपर्याय। पुं० =सेब (फल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सेवा।
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सेव-दाना  : पुं० [हिं०] सोयाबीन के दाने।
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सेंवई  : स्त्री० =सेवईं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवँई  : स्त्री०=सेवई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवई  : स्त्री० [सं० सेविका] मैदे के सुखाये हुए बहुत पतले सूत के से लच्छे जो घी में तलकर या दूध में पकाकर खाये जाते हैं। क्रि० प्र०–पूरना।–बढ़ना। स्त्री० [सं० श्यामक, हिं० सावाँ] एक प्रकार की लंबी घास, जिसकी बालें चारे के काम आती हैं। कही—कही इसके दाने या बीज बाजरे के साथ मिलाकर खाये भी जाते हैं। सेवन।
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सेवक  : वि० [सं०] [स्त्री० सेविका] किस की सेवा या खिदमत करनेवाला जैसे–देश—सेवक, समाज-सेवक। पुं० [स्त्री० सेविका, सेवकिन, सेवकी] १. वह जो किसी की सेवा करने के काम पर नियुक्त हो। नौकर। २. वह जो किसी की छोटी—मोटी सेवाएँ या टहल करने के काम पर नियुक्त हो।चाकर। परिचारक। ३. वह जो किसी देवता या विशिष्ट रूप से अराधक, उपासक या पूजक हो। देवता का भक्त। ४. वह जो किसी वस्तु का सेवन अर्थात उपभोग या व्यवहार करता हो। जैसे–मद्य सेवक। ५. वह जो धार्मिक दृष्टि से किसी विशिष्ट पवित्र स्थान में नियमित या स्थायी रूप से रहता हो। जैसे–तीर्थ—सेवक। ६. सिलाई का काम करनेवाला व्यक्ति। दरजी। ७. अनाज आदि रखने का बोरा।
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सेवकाई  : स्त्री० [सं० सेवक+हिं० आई (प्रत्य०)] १. ब्रह्यणों साधु—महात्माओं की दृष्टि से, अनेक सेवकों, शिष्यों, यजमानों आदि का वर्ग या समूह। २. सेवा। टहल। उदा०–इहै हमार बड़ी सेवकाई।–तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवग  : पुं०=सेवक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवड़ा  : पुं० [हिं० सेब+ड़ा (प्रत्य०)] १. मैदे का एक प्रकार का मोटा सेव या पकवान। पुं० [सं० श्वेतपट] १. एक प्रकार के देवता। २. एक प्रकार के जैन साधु।
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सेवँत  : पुं० [सं० सामंत] एक राग जो हनुमत के अनुसार मेघ राग का पुत्र है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवति  : स्त्री० =स्वाती (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवती  : स्त्री० [सं० सेमंती] सफेद गुलाब। वि० उक्त गुलाब की तरह सफेद। पुं० सफेद रंग।
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सेवन  : पुं० [सं०] [वि० सेवति, सेवनीय, सेव्य, कर्ता सेवी] १. परिचर्या। टहल। सेवा। २. उपासना। आराधना। ३. नियमित रूप से किया जानेवाला प्रयोग या व्यवहार।। इस्तेमाल। जैसे–औषध का सेवन। ४. बराबर किसी बड़े के पास या किसी पवित्र स्थान पर रहना। जैसे–काशी-सेवन। ५. उपभोग। जैसे–मद्य-सेवन, स्त्री-सेवन। ६. कपड़े सीने का काम। सिलाई। पुं०=सेवई (घास)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवना  : स०=सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) सं० [सं०सेवन] सेवा—टहल करना। स० दे० ‘सेना’।
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सेवनी  : स्त्री० [सं०] १. सूई। सूची। २. सिलाई के टाँके। सीअन। सीवन। ३. शरीर के अंगो में सीअन की तरह दिखाई पड़नेवाला जोड़। ४. जूही। स्त्री० =सेविका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवनीय  : वि० [सं०] १. जिसका सेवन करना आवश्यक या उचित हो। २. पूज्य। ३. जो सीये जाने के योग्य हो।
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सेंवर  : पुं० =सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवँर  : पुं०=सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवरा  : पुं० १.=सेवड़ा। २.=सेहरा। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवरी  : स्त्री० =शबरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवल  : पुं० [देश०] ब्याह की एक रस्म।
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सेवा  : स्त्री० [सं०] १. बडे़ पूज्य स्वामी आदि को सुख पहुँचाने के लिए किया जाने वाला काम। परिचर्या। टहल। मुहा०–सेवा मे=बड़े के समने आदरपूर्वक । २. सेवा या नौकर होने की अवस्था या काम। नौकरी। ३. व्यक्ति संस्था आदि से कुछ वेतन लेकर उनका कुछ काम करने की क्रिया या भाव। नौकरी। ४. किसी लोकोपयोगी वस्तु विषय कार्य आदि में रुची होने के कारण उसके हित, वृद्धि, उन्नति आदि के लिए किया जाने वाला काम। जैसे–साहित्य—सेवा आदि। ५. सार्वजनिक अथवा राजकीय कार्यो का कोई विशेष विभाग जिसके लिए कोई विशेष प्रकार का काम हो। जैसे–वैचारिक—सेवा (जुडिशियल सर्विस)। साधविक सेवा। (इक्जिक्यूटिव सर्विस) ६. इस प्रकार में किसी में काम करने वालो का समूह या वर्ग। (सर्विस उक्त सभी अर्थों के लिए) ७. धार्मिक दृष्टि से देवताओं की मूर्तियों आदि को स्नान कराना, फूल चढ़ना, भोग लगाना आदि। जैसे–ठाकुर जी की सेवा। ८. किसी के पालन—पोषण, रक्षण, संवर्धन आदि के लिए किये जाने वाले उपयुक्त काम। जैसे–गौ की सेवा, पोड़—पौधो की सेवा। ९. उपभोग। जैसे–स्त्री—सेवा। १॰. आश्रम। शरण। जैसे–वे बहुत दिनो तक महाराज की सेवा में पड़े रहे।
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सेवा-काकु  : स्त्री० [सं०] सेवा कैल में स्वर परिवर्तन या आवाज बदलना। (अर्थात कभी जोर से बोलना, कभी मुलामियत सो, कभी क्रोध से और कभी दुख भाव से।)
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सेवा-काल  : पुं० [सं०] वह अवधि, जिसमें कोई सेवा में नियुक्त रहा हो। (पीरियड आफ सर्विस)
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सेवा-टहल  : स्त्री० [सं० सेवा+हिं० टहल] ‘बड़ों’, रोगियों आदि की परिचर्या। खिदमत। सेवा-शुश्रुषा।
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सेवा-पंजी  : स्त्री० [सं०] वह पंजी या पुस्तिका जिसमें सेवकों विशेषतः राजकीय सेवको के सेवा काल की कुछ मुख्य बातें लिखी जाती है। (सर्विस बुक)
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सेवा-पद्धति  : स्त्री० [सं०] वैष्णव संप्रदायों में देवताओं आदि की सेवा—पूजा की कोई विशिष्ट प्रणाली।
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सेवा-बंदगी  : स्त्री० [सं० सेवा+फा० बंदगी] १. साहब—सलामत। २. आराधना। पूजा।
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सेवा-भाव  : पुं० [सं०] सेवा विशेषतः उपकार करने की भावना। जैसे–वे साहित्य—साधना सेवा-भाव से ही करते है।
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सेवा-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] सेवा या नौकरी करके जीविका उपार्जन करना या जीवन बिताना।
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सेवाजन  : पुं० [सं०] सेवा करने वाले व्यक्ति।
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सेवांजलि  : स्त्री० [सं०] कर—संपुट या अंजलि में भरी या रखी वस्तु गुरु, देवता आदि को समर्पण करना।
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सेवाती  : स्त्री० =स्वाती (नक्षत्र)।
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सेवादार  : पुं० [सं०+फा०] [भाव० सेवादारी] १. वह सिक्ख जो किसी सिख गुरू की सेवा में रहकर परम निष्टा और श्रद्धा—भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करता था। २. आज—कल वह सिक्ख जो गुरुद्वारे में रहकर गुरुग्रंथ साहब की पूजा आदि के काम पर नियुक्त रहता है। द्वारपाल।
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सेवादास  : पुं० [सं०] [स्त्री० सेवा—दासी] छोटी—छोटी सेवाएँ करने वाला नौकर। टहलुआ।
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सेवाधर्म  : पुं० [सं०] सेवक का धर्म।
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सेवाधारी  : पुं० =सेवादार।
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सेवापन  : पुं० [सं० सेवा+हिं० पन (प्रत्य०)] सेवा करने की क्रिया, ढंग या भाव।
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सेवाय  : अव्य०=सिवा (अतिरिक्त)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवायत  : पुं० [हिं० सेवा] वह जो किसी देव मूर्ति की सेवा आदि के काम पर नियुक्त हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवार  : स्त्री० [सं० शैवाल] १. नदियों, तालों आदि में होने वाली लंबे, कड़े तथा तेज किनारो वाली घास। २. मिट्टी की तहें जो किसी नदी आस पास जमी हों। पुं० पान। (सुनार)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवारा  : पुं०=सेवड़ा (पकवान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवाल  : स्त्री०=सेवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवावाद  : पुं० [सं०] खुशामद। चापलूसी।
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सेवावादी  : पुं० [सं०] खुशामदी। चापलूस।
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सेवि  : पुं० [सं०] १. बदर—फल। बेर। २. सेव नामक फल। वि० १.=सेवी। २.=सेव्य। ३.=सेवित।
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सेविं—बैंक  : पुं० [अ०] आधुनिक अर्थ व्यवस्था में वह संस्था जिसमें लोग अपनी बचत के रूप में जमा करते हैं और उस पर ब्याज भी प्राप्त करते हैं।
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सेविका  : स्त्री० [सं०] १. सेवा करने वाली स्त्री। दासी। परिचारिका। नौकरानी। २. सेवई नामक व्यंजन।
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सेवित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी सेवा या टहल की गई हो। उपचरित। २. जिसकी आराधना, उपासना या पूजा की गई हो। ३. जिसकी सेवा अर्थात उपयोग या व्यवहार किया गया हो। ४. आश्रित। ५. उपभुक्त। पुं० १. बेर। २. सेव (फल) ।
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सेवितव्य  : वि० [सं०]=सेव्य।
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सेविता  : स्त्री० [सं०] १. सेवक का कर्म। सेवा। दास—वृत्ति। २. आराधना। उपासना। ३. आश्रय। पुं० [सं० सेवितृ] सेवक।
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सेवी (विन्)  : वि० [सं०] १. सेवा करने वाला। २. आराधना या पूजा करनेवाला। ३. किसी वस्तु या स्थान का सेवन करनेवाला।
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सेवें  : पुं० [देश०] एक प्रकार का ऊँचा पेड़ जिसकी लकड़ी कुछ पीलापन या ललाई लिए सफेद रंग की, नरम, चिकनी, चमकीली और मजबूत होती है। कुमार।
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सेवोपहार  : पुं० दे० ‘आनुतोषक’।
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सेव्य  : वि० [सं०] [स्त्री० सेव्या] १. जिसकी सेवा करना आवश्यक, उचित या उपयुक्त हो। २. जिसकी आराधना, उपासना या पूजा करना आवश्यक, उचित या उपयुक्त हो। ३. जिसका सेवन अर्थात उपभोग या व्यवहार करना आवश्यक, उचित या उपयुक्त हो। ४. जिसकी रक्ष करना आवश्यक या उचित हो। ५. जिसका उपभोग या भोग करना आवश्यक या उचित हो। पुं० १. स्वामी। मालिक। २. उशीर। खस। ३. अश्वत्थ। पीपल। ४. हिज्जल नामक वृक्ष। ५. लमज्जक नामक घास, या तृण। ६. गौरैया पक्षी। चिड़ा। ७. सुगंधवाला। ८. लाल चंदन। ९. समुद्री नमक। १॰. जल। पानी। ११. दही। १२. पुरानी चाल की एक प्रकार की शराब।
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सेव्य-सेवक भाव  : पुं० [सं०] उस प्रकार का भाव, जिस प्रकार का वस्तुतः सेव्य या सेवक के बीच रहता हो या रहना चाहिए। स्वामी और सेवक तथा उपास्य और उपासक के बीच का पारस्परिक भाव।
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सेव्या  : स्त्री० [सं०] १. बंदा या बाँदा नामक जो दूसरे पेड़ो पर रहकर पनपती हैं। २. आँवला। ३. एक प्रकार की जंगली धान।
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सेशन कोर्ट  : पुं० [अ०]=सत्र—न्यायालय।
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सेंशर  : पुं० [अं०] १. यह कहना कि तुमने यह दोष या भूल की है। २. निंदात्मक भर्त्सना।
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सेश्वर  : वि० [सं०] १. ईश्वरयुक्त। २. जिसमें ईश्वर का अंश या सत्ता मानी गई गो।
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सेष  : पुं० १.=शेष। २.=शेख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेषुक  : वि० [सं०] तीर या बाण से युक्त।
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सेस  : वि०, पुं० =शेष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेस-रंग  : पुं० [सं० शेष+रंग] सफेद रंग (शेष नाग का रंग सफेद माना गया है।)
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सेंसर  : पुं० [अं०] १. वह सरकारी अफसर जिसें पुस्तकें, समाचार—पत्र आदि छापने या प्रकाशित होने, नाटक खेले जाने, चित्रपट दिखाये जाने पर या तार से कहीं भेजे जाने के पूर्व उन्हें देखने या जाँचने और टोकने का अधिकार होता है। २. उक्त प्रकार की जाँच का काम।
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सेसर  : पुं० [फा०सेह=तीन+सर=बाजी] १. ताश का एक प्रकार का खेल जिसमें तीन—तीन ताश हर आदमी को बांटे जाते हैं। और उसकी बिंदियों की जोड़ पर हार—जीत होती है। २. जालसाजी। ३. धोखेबाजी।
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सेंसर—बोर्ड  : पुं० [सं०] सेंसर करनेवाले अधिकारियों की समिति।
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सेसरिया  : वि० [हिं० सेसर+इया (प्रत्य०)] छल—कपट करके दूसरों का माल मारनेवाला। जालिया।
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सेसी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा पेड़ जिसकी लकड़ी के सामान बनतें हैं। पगूर।
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सेसूंचन  : पुं० [सम्√सूच् (सूचना देना)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसूचित] [वि० संसूचनीय, संसूच्य] १. प्रकट या जाहिर करना। २. बतलाना। ३.भेद खोलना। ४. समझाना-बुझाना। ५. डाँटना डपटना। फटकार बताना।
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सेंह  : स्त्री०=सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेह  : वि० [फा०] दो और एक तीन। यौ.के आरंभ में। जैसे—सेह खानी। सेह हजारी। पुं० =सेहा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेह-हजारी  : पुं० [फा०] एक उच्च पर जो मुसलमान बादशाहों के समय में सरदारों और दरबारियों को मिलता था। (ऐसे लोग या तो तीन हजार सेवक या सैनिक रख सकते थे। अथवा तीन हजार सैनिक के नायक होते थे।)
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सेहखाना  : पुं० [फा० सेह=तीन+खाना=घर] ऐसा घर जिसमें तीन घर हों। तिमंजिला मकान।
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सेहत  : स्त्री० [अ०] [वि० सेहती] १. सुख। चैन। राहत। २. तंदुरस्ती। स्वास्थ्य। ३. रोग से रहित होने की अवस्था। आरोग्य। क्रि० प्र०–पाना।–मिलना।
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सेहत-खाना  : पुं० [सं० सेहत+फा० खाना] पेशाब आदि करने या नहाने धोने के लिए जहाज में बनी हुई एक छोटी सी कोठरी।
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सेहती  : वि० [अ० सेहत] १. सेहत अर्थात स्वास्थ संबधी। २. स्वस्थ।
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सेहथना  : स० [सं० सह+हस्त=सहस्त+ना (प्रत्य०)] १. हाथ से लीप कर साफ करना। सैंतना। २. झाड़ू देना। बुहारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेहर  : पुं० [अ० सेह्र] जादू-मंतर। टोना-टोटका। पुं०=शेखर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेहरा  : पुं० [हिं० सिर+हार] १. विवाह के समय वर को पहनाने के लिए फूलों या सुनहले-रुपहले तारों आदि की बड़ी मालाओं की पंक्ति या पुंज। २. विवाह का मुकुट। मौर। क्रि० प्र०–बँधना।–बाँधना। पद–सेहरा बँधाइ=वह धन या नेग जो दूल्हे को सेहरा बाँधने पर दिया जाता है। सेहरे जलवे का बीबी=वह स्त्री जिसके साथ रीति पूर्वक सेहरा बाँधकर और धूम-धाम से बारात निकालकर विवाह किया गया हो। (उपपत्नी यी रखली से भिन्न) मुहा०–(किसी काम या बात का) किसी के सिर सेहरा बाँधना=किसी कार्य के सफलतापूर्ण संपादन का श्रेय प्राप्त होना। किसी काम या बात का यश मिलना। ३. विवाह के समय वर पक्ष से गाये जाने वाले मांगलिक गीत या पढ़े जाने वाले पद्य। ४. मछली के शरीर पर सीपी की तरह चमकीले छिलके जो जो छोटे—छोटे टुकड़ो के रूप में निकलते हैं। (फि़श—स्केल) ५. चित्रकला में सजावट के लिए उक्त आकार प्रकार का अंकन।
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सेहरा  : स्त्री० [सं० शफरी] छोटी मछली। सहरी।
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सेहराबंदी  : स्त्री० [हिं० सेहरा=फा० बंदी] विवाह के अवसर पर बरात निकलने से पहले वर को सेहरा बाँधने का धार्मिक और सामाजिक कृत्य।
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सेहवन  : पुं०=सेहुआँ (रोग)।
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सेंहा  : पुं० [हिं० सेंध] कूआँ खोदने का पेशा करने वाला मजदूर। कुईरा। स्त्री०=सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेहा  : पुं० [हिं० सेंध] कूआँ खोदनेवाला मजदूर।
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सेहिथान  : पुं० [हिं० सेहियान] खलियान साफ करने वाला कूँचा।
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सेंही  : स्त्री०=सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेही  : स्त्री० [सं० सेधा, सेधी]=साही (जंतु)।
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सेहुँआँ  : पुं० [?] एक प्रकार का चर्म रोग, जिसमें शरीर पर भूरी-भूरी महीन चित्तियाँ सी पड़ जाती हैं।
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सेहुआन  : पुं० [देश०] एक प्रकार का करम कल्ला, जिसके बीजों से तेल निकालता है।
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सेंहुड़  : पुं० [सं० सेहुण्ड] थूहर।
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सेहुँड़  : पुं० [सं० सेहुण्ड] थूहर का पेड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सै  : स्त्री० [सं० सत्त्व] १. तत्त्व। सार। २. बल—वीर्य। ओज। शक्ति। ३. प्राप्ति। लाभ। ४. वृद्धि। बढ़ती। वि० [सं० शत] सौ।
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सैकंट  : पुं० [सं० शतकंटक] बबूल की जाति का एक पोड़ जिसकी छाल सफेद होती है। धौला। खैर। कुमतिया।
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सैकड़ा  : पुं० [सं० शतकाण्ड, प्रा० सयकंड] सौ का समूह या समष्टि। जैसे–चार सैकड़े आम।
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सैकड़े  : अव्य० [हिं० सैकड़ा] प्रति सौ के हिसाब से। प्रतिशत। फीसदी। जैसै–ब्याज की दर २) सैकड़े है। वि० सैकड़े के रूप में होनेवाला। जैसे–दो सैकड़े आम खरीदे जायँगे।
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सैकड़ों  : वि० [हिं० सैकड़ा] १. कई सौ। २. बहुत अधिक।
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सैकत  : वि० [सं०] [स्त्री० सैकती] १. सिकता या रेत से संबेध रखने वाला। २. रेतीला। बलुआ। बालुकामय। ३. बालू से बना हुआ। पुं० १. नदी आदि का रेतीला तट। रेती। २. केतीली जमीन या मिट्टी।
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सैकतिक  : पुं० [सं०] १. साधु। संन्यासी। श्रपणक २. कलाई, गले आदि में बाँधा जाने वाला गंड़ा। मंगलसूत्र। वि० १. सिकता या रेत से संबंध रखनेवाला। २. मरीचिका या संदेह में पड़ा रहने वाला।
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सैकती (तिन्)  : वि० [सं०] सिकता—युक्त। रेतीला बलुआ। (तट या भूमि)
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सैकल  : पुं० [अ०] धातु के बरतन। हथियार आदि साफ करके और उन्हे चमकाने का काम।
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सैकलगर  : पुं० [अ० सैकल+फा० गर] बरतनों, हथियारों आदि पर सैकल करनेवाला कारीगर। सिकलीगर।
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सैका  : पुं० [सं० सेक (पात्र)] [स्त्री० अल्पा० सैकी] १. घड़े की तरह का मिट्टी का एक बरतन जिससे कोल्हू से गन्ने का रस निकाल कर पकाने के लिए कड़ाहे में डालते हैं। २. मिट्टी का वह छोटा बरतन जिससे रेशम रँगने का रंग ढाला जाता है। ३. रबी की कटी हुई फसल का ढेर या राशि। पुं० [सं० शत०, हिं० सै] घास, डंठलों आदि के सौ पुलों का समूह।
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सैक्य  : वि० [सं०] १. ऐक्य अर्थात् एकता से युक्त। २. सिंचाई से संबंध रखनेवाला। पुं० एक प्रकार का बढ़िया पीतल।
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सैक्षव  : वि० [सं०] ईख के रस आदि से युक्त, अर्थात मीठा।
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सैक्सन  : पुं० [अ०] योरप की एक प्राचीन जाति जो पहले जर्मनी के उत्तरी भाग में रहती थी; पर पाँचवीं और छठी शताब्दी में जो इंगलैंड पर धावा करके वहाँ जा बसी थी।
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सैंगर  : पुं०=सेंगर।
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सैचान  : पुं०=सचान। (बाज)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैजन  : पुं०=सहिजन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैढ़  : पुं० [देश०] गेहूँ की कटी हुई फसल, जो दाँई गई हो, पर औसाई न गई हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैण  : पुं० [सं० स्वजन] मित्र। (डिं०] पुं० =सैन (संकेत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैंणर  : पुं० [सं० स्वामी+नर=साई—नर] पति। (डिं०]
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सैंतना  : सं० [सं० संचय] १. संचित करना। इकट्ठा करना। उदा०–कंचन मनि तजि काँचहि सैंतत या माया के लीन्हें।–सूर। २. हाथों से समेटना। ३. सँभाल और सहेज कर लेना। ४. सँभाल कर ठीक जगह पर रखना। उदा०–(क) सैंतति महरि खिलौना हरि के।–सूर। (ख) मानों संध्या के प्रकाश को जंगल और पहाड़ सैंत रखने की होड़ सी लगा रहें हों।–वृंदावनलाल वर्मा। ५ रोसई—घर में चौका लगाना और बरतन साफ करके ठीक जगह पर रखना। ६. आघात करना। ७. मार डालना। (बाजारू)
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सैतव  : वि० [सं० सेतु संबंधी। सेतु का।
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सैंतालीस  : वि० [सं० सप्तचत्वारिंशत, पा० सत्तचत्तालीसति, प्रा० सत्तालीस] जो गिनती में चालीस से सात अधिक हो। इसमें चालीस और सात। पुं० उक्त की संख्या जो, अंको में इस प्रकार लिखी जाती है–४७।
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सैतालीसवाँ  : वि० [हिं० सैंतालीस+वाँ (प्रत्य०)] जो क्रम या गिनती मे सैंतालीस के स्थान पर आता या पड़ता हो।
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सैंतीस  : वि० [सं० सप्तत्रिंशत्, पा० सत्ततिंसति, प्रा० सत्तिंसइ] जो गिनती में तीस से सात अधिक हो। तीस और सात। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो, अंको में इस प्रकार लिखी जाती हो–३७।
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सैंतीसवाँ  : वि० [हि० सैंतीस+वाँ(प्रत्य०)] जो क्रम या गिनती में सैंतीस के स्थान पर आता या पड़ता हो।
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सैंथी  : स्त्री० [सं० शक्ति] छोटा भाला। बरछी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैथी  : स्त्री० [सं०]=सैंथी (बरछी)।
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सैद  : पुं० [अ०] १. वह जानवर जिसका शिकार किया जाता हो या जो जाल में फसाया जाता हो। २. किसी के जाल या फँदे में फसे हुए होने की अवस्था या भाव। पुं०=सैयद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैदपुरी  : स्त्री० [सैदलपुर स्थान] एक फ्रकार की नाव, जिसके आगे और पीछे दोनों ओर के सिक्के लंबे होते हैं।
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सैंदूर  : वि० [सं०] १. सिंदूर से रंगा हुआ। २. सिंदूर के रंग का।
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सैद्धांतिक  : वि० [सं०] १. सिद्धांत के रूप में होनेवाला। २. सिद्धांत संबंधी। पुं० १. सिद्धांतो के अनुसार चलने वाला व्यक्ति। सिद्धांतो का पालन करनेवाला। २. तांत्रिक।
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सैंधव  : वि० [सं०] १. सिंधु देश संबंधी। सिंध का। २. सिंध देश में होने या पाया जाने वाला। ३. सिंधु अर्थात समुद्र संबंधी। समुद्र का। ४. समुद्र मे उत्पन्न होने या पाया जाने वाला। पुं० १. सिंध देश का निवासी। २. सिंध देश का घोड़ा। ३. सेंधा नमक। ४. राजा जयद्रथ का एक नाम।
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सैंधवक  : वि० [सं०] सैंधव संबंधी।
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सैंधवपति  : पुं० [सं० सैंधव+पति] जयद्रथ का एक नाम ।
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सैंधवायन  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषी। २. उक्त ऋषी के वंशज।
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सैंधवी  : स्त्री० [सं०] संपूर्ण जाति की एक रागिना, जो भैरव राग की पुत्र—वधु मानी गई है।
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सैंधी  : स्त्री० [सं०] १. खजूर या ताड़ का रस। २. उक्त को सड़ा कर बनाई जानेवाली शराब।
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सैंधू  : स्त्री०=सैंधवी।
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सैंध्रक  : वि० [सं०] सिध्रक (वृक्ष) की लकड़ी का बना हुआ।
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सैन  : स्त्री० [सं० संज्ञपन] १. संकेत विशेषतः शरीर के किसी अंग से किया जाने वाला संकेत। २. चिन्ह। निशान। ३. लक्षण। पुं० [सं० श्येन] १. बाज पक्षी। २. एक प्रकार बगला। पुं०=शयन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैन-भोग  : पुं० =शयन भोग (देवताओं का)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैनक  : पुं० [फा० सनी, सहनक] रिकाबी। तश्तरी। पुं० =सैनिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सहनक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैनप  : पुं० =सेनापति।
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सैनपति  : पुं० =सेनापति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैनयीकरण  : पुं० [सं० सैनिक+करण] लोगो को सैनिक बनाने तथा सैनिक सामग्री से सज्जित करने का काम। (मिलिटराइजे़शन)
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सैना  : स्त्री०=सेना। स०=सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैनानीक  : वि० [सं०] सेना के अग्र भाग का।
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सैनान्य  : पुं० [सं०] सेनानी या सेना पति का कार्य या पद। सैनापत्य। सेनापतित्व।
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सैनापति  : पुं०=सेना पति।
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सैनापत्य  : पुं० [सं०] सेनापति का कार्य या पद। सैनापत्य। वि० सेनापति संबंधी।
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सैनिक  : वि० [सं०] १. सेना संबंधी। सेना का। (मिलिटरी) जैसे–सैनिक न्यायालय, सैनिक आयोजन। २. जो सेना के लिए उपयुक्त हो, उसके ढंग पर चलता हो या उसके प्रति अनुरक्त हो। (मार्शल) पुं० १. सेना या फौज में रहकर युद्ध करने वाला सिपाही। फौजी आदमी। २. वह जो किसी प्राणी का वध करने के लिए नियुक्त किया गया हो। ३. पहरेदार। संतरी।
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सैनिक-न्यायालय  : पुं० सैनिक विभाग का वह विशिष्ट न्यायालय, जो साधारणतः सेना विभाग में होने वाले अपराधों का विचार और न्याय करता है। (कोर्ट मार्शल)
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सैनिक-सहचारी  : पुं० राजदूत के साथ रहने वालावह अधिकारी जो सामरिक दृष्टि से उसका सलाहकार और सहायक हो। (मिलिटरी एटेची)
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सैनिकता  : स्त्री० [सं०] १. सैनिक या योद्धा होने की अवस्था या भाव। २. सैनिक सामग्री से युक्त और युद्ध करने की शक्ति का भाव या दशा। ३. यह विश्वास या सिद्धांत कि सैनिक बल को सहायता से सब काम निकाले जा सकते हैं। (मिलिटरिज्म) ४. युद्ध। लड़ाई।
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सैनिका  : स्त्री० [सं० श्येनिका] एक प्रकार का छंद।
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सैनिकीकरण  : पुं० दे० ‘सैन्यीकरण’।
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सैनिटोरियम  : पुं० दे० ‘आरोग्य निवास’।
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सैनी  : पुं० [सेनाभगत नाई] नाई। हज्जाम। स्त्री०=सेना (फौज)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैनेय  : वि०=सैन्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सैनेश, सैनेस  : पुं० [सं० सैन्य+ईश=सैन्येश] सेनापति।
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सैन्य  : वि० [सं०] सेना का। पुं० १. सैनिक। २. सेना। ३. पहरेदार। संतरी। ४. छावनी। शिविर।
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सैन्य-क्षोभ  : पुं० [सं० ष० त०] १. सैनिको में होने या फैलने वाला क्षोभ। २. सैनिक विद्रोह। गदर।
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सैन्य-नायक  : पुं० [सं० ष० त०] सेनापति।
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सैन्य-पति  : पुं० [स० ष० त०] सेनापति।
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सैन्य-पाल  : पुं० [सं०] सेनापति।
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सैन्य-वास  : पुं० [सं०] सेना का पड़ाव। छावनी। शिविर।
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सैन्य-वियोजन  : पुं० दे० ‘विसैन्यीकरण’।
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सैन्य-सज्जा  : स्त्री० [स० ष० त०] युद्ध के लिए होनेवाली सैनिक तैयारी। लाम-बंदी। युद्ध के लिए हथियारों से लैस होना।
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सैन्यवाद  : पुं० [सं०] यह वादा या सिद्धांत कि राज्य के नागर तथा राजनीतिक आदर्श सैनिक आदर्शों के अनुसार स्थिर होने चाहिए और राज्य को सदा सैनिक दृष्टि से पूर्ण सबल तथा समर्थ रहना चाहिए। (मिलिटरिज़्म)
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सैन्यवादी  : वि० [सं०] सैन्यवाद संबंधी। जैसै–सैन्यवादी नीति। पुं० वह जो सैन्यवाद का अनुयायी या समर्थक हो। (मिलिटरिज्म)
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सैन्याधिपति  : पुं० [सं०] सेनापति।
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सैन्याध्यक्ष  : पुं० [सं०] सेनापति।
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सैफ  : स्त्री० [अ० सैफ़] तलवार।
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सैफग  : पुं० [सं० शतफल ?] लाल देवदार
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सैफा  : पुं० [अ० सैफ़] जिल्दसाजों का एक औजार, जिससे किताबों का हाशिया काटतें हैं।
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सैफी  : वि० [अ० सैफ=तलवार] १. तलवार की तरह टेढ़ा। वक्र। आड़ा। तिरक्षा।
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सैंबल  : पुं०=सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैम  : पुं० [देश०] धीवरों के एक देवता या भूत।
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सैमंतिक  : पुं० [सं०] सीमंत अर्थात माँग संबंधी। पुं० सिंदूर।
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सैयद  : पुं० [अ०] [स्त्री० सैयदा, सैयदानी, सैदानी] १. मुहम्मद साहब के नाती हुसैन के वंश का आदमी। २. मुसलमानों के चार वर्गों या जातियों में से जूसरी जाति।
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सैंयाँ  : पुं०=सैयाँ(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैयाँ  : पुं० [सं० स्वामी, हिं० साई] १. स्त्री का पति। स्वामी। २. प्रियतम।
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सैया  : स्त्री०=शय्या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैयाद  : पुं० [अ०] १. वह जो पशु—पक्षियों को जाल में फँसाता हो। चिड़ीमार। बहेलिया। २. व्याघ्र। शिकारी। ३. मछुआ।
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सैयार  : वि० [अ०] [भाव० सैयारी] सैर या भ्रमण करनेवाला।
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सैयारा  : पुं० [अ० सैयारः] आकाश में परिक्रमा करने वाला तारा। नक्षत्र या ग्रह।
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सैयाह  : पुं० [अ०] [भाव० सैयाही] सियाहत अर्थात पर्यटन करनेवाला पर्यटक।
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सैर  : स्त्री० [फा०] १. मन बहलाने के लिए साफ जगह में घूमना—फिरना। मनोरंजन या वायु-सेवन के लिए भ्रमण। परिमार्गन। (एक्सकर्सन) २. मित्र मंडली का शहर या बस्ती के बाहर केवल मौज लेने के लिए होने वाला खान—पान आदि। गोष्ठी। ३. बहार। मौज। आनंद। ४. कौतुकपूर्ण और मनोरंजक दृश्य। ५. असाढ़—सावन में गाये जाने वाले अक प्रकार के लोक-गीत। (बुंदेल०) ६. रासलीला की तरह का एक प्राकर का अभिनय। (बुंदेल०)
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सैर-गाह  : पुं० [फा०] सैर करने की अच्छी और खुली जगह।
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सैर-सपाटा  : पुं० [फा० सैर+हिं० सपाटा] सैर करने के लिए इधर—उधर घूमना—फिरना।
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सैरंद्रिका  : स्त्री० [सं०] परिचारिका। दासी।
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सैरंध्र  : पुं० [सं०] [स्त्री० सैरंध्री] १. घर ग्रहस्ती में काम करनेवाला नौकर। २. एक संकर जाति जो स्मृतियों में दस्यु (पुरुष) और अयोगवी (स्त्री) से उत्पन्न कही गई है।
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सैरंध्री  : स्त्री० [सं०] १. सैरध्र जाति की स्त्री। २. अंतःपुर की दासी।
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सैरा  : पुं० [फा० सैर] १. हाथ से अंकित चित्रो में भूमिका के रूप में वह प्राकृतिक दृष्य, जिसके आगे व्यक्तियों या घटनाओं आदि चित्र अंकित होता है। २. आसाढ़ में गाया जाने वाला एक प्रकार का लोक गीत। (बुंदेल०)
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सैरि  : पुं० [सं०] १. कार्तिक महीना। २. पुराणानुसार एक प्राचीन जनपद।
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सैरिक  : पुं० [सं०] १. हलवाहा। हलधर। किसान। कृषक। २. हल में जोता जानेवाला बैल। ३. आकाश। वि० सीर अर्थात हल से संबंध रखनेवाला।
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सैरिंध्र  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक प्राचीन जनपद। २. दे० ‘सैरंध्र’।
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सैरिंध्री  : स्त्री० =सैरंध्री।
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सैरिभ  : पुं० [सं०] १. आकाश। २. इंद्र की पुरी या लोक। ३. भैंसा नामक पशु।
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सैरिभी  : स्त्री० [सं०] भैंस। महिषी।
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सैरीय  : पुं० [सं०] कटसरैया। झिंटी।
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सैल  : स्त्री० [फा० सैर] १. मनोविनोद के लिए किया जाने वाला पर्यटन। सैर। स्त्री० [अ०] १. पानी का बहाव। २. बाढ़। सैलाब। पुं० १. शैल। २. सैला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैल-सुता  : स्त्री०=शैलसुता (पार्वती)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सैलकुमारी  : स्त्री०=शैलकुमारी (पार्वती)।
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सैलजा  : स्त्री०=शैलजा (पार्वती)।
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सैलवेशन आर्मी  : स्त्री० [अ०]=मुक्ति सेना। (दे०)
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सैला  : पुं० [सं० शल्य] [स्त्री० अल्पा० सैली] १. लकड़ी की वह गुल्ली या पच्चड़ जो किसी छेद या संधि में ठोका जाय। किसी छेद मे डालने या फँसाने का टुकड़ा। मेख। २. लकड़ी की बड़ी मेख। खूँटा। ३. नाव की पतवार की मुठिया। ४. लकड़ी की वह खूँटी जो बैलगाड़ी में कंधावार के पास दोनो ओर लगी होती हैं और जिसके कारण बैल अपनी गरदन इधर—उधर नहीं कर सकता। ५. यह मुँगरी जिससे कटी हुई फसल के डंठल दाना झाड़ने के लिए पीटते हैं। ६. जलाने की लकड़ी का छोटा टुकड़ा। चैला। पुं० [फा० सैर] मध्य प्रदेश के गोड़ों और भीलों का एक प्रकार का नृत्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैलात्मजा  : स्त्री० [सं० शैलात्मजा] पार्वती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सैलानी  : वि० [हिं० सैल (=सैर)+आनी (प्रत्य०)] १. जो बहुत अधिक सैर करता हो। २. इधर-उधर घूमता फिरता रहनेवाला।
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सैलाब  : पुं० [फा०] नदियों आदि की बाढ़।
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सैलाबा  : पुं० [फा० सैलाब] वह फसल जो पानी में डूब गई हो।
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सैलाबी  : [फा०] १. सैलाब संबंधी। सैलाब या बाढ़ का। जैसे–सैलाबी पानी। २. (जमीन जिसकी सिंचाई सैलाब या बाढ़ के पानी से होती हो। स्त्री० =सीड़ (सील)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैली  : स्त्री० [हिं० सैला] १. ढाक की जड़ की रेशो की बनी रस्सी। २. एक प्रकार का टोकरी। वि०=सैलानी।
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सैलूख  : पुं० [स्त्री० सैलूखी]=शैलूश (अभिनेता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सैलून  : पुं० =सेलून।
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सैव  : वि० , पुं० =शैव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैंवर  : पुं०=साँभर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैवल  : पुं०=शैवल (पौधा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सैवलिनी  : स्त्री० =शैवलिनी (नदी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सैवाल  : स्त्री० [सं० शैवाल] १. सेवार। जाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सैविक  : वि० [सं०] सेवा—संबंधी। सेवा का।
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सैव्य  : पुं० =शैव्य (घोड़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैसक  : वि० [सं०] १. सीसे से संबंध रखनेवाला। २. सीसे का बना हुआ।
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सैसब  : पुं० [भाव० सैसवता]=शैशव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सैंह  : वि० [सं०] १. सिंह संबंधी। सिंह का। २. सिंह की तरह। क्रि० वि०=सौंह (सामने)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैंहथी  : स्त्री०=सैंथी (बरछी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैहथी  : स्त्री० [सं० शक्ति]=सैंथी (बरछी)।
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सैंहल  : वि० [सं०] [सं० सैंहली] सिंहली। (दे० )
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सैंहली  : स्त्री० [सं०] सिंहली पीपल।
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सैहा  : पुं० [सं० सेक=सिंचाई+हिं० हा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० सैही] पानी, रस आदि डालने का मिट्टी का बरतन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैंहिक  : पुं० [सं०] सिंहिका से उत्पन्न, राहू। वि० =सैंह।
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सैंहिकेय  : पुं० [सं०] (सिंहिका के पुत्र) राहु।
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सैहुँड़  : पुं०=सेहुँण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सैंहूँ  : पुं० [हिं० गेहूँ का अनु०] गेहूँ के वे दाने जो छोटे, काले और बेकार होते हैं।
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सों  : प्रत्य० [प्रा० सुन्तो] करण और अपादान कारक का चिह्न। द्वारा से। क्रि० वि० १. संग। साथ। २. समक्ष। सामने।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) सर=सो (वह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सौंह (सौंगंद)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० =सा (सदृश)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सो  : सर्व० [सं० सः या सा+उ] जो के साथ आने वाला संबंध-सूचक शब्द। वह। अव्य० इसलिए। अतः। जैसे–वह आ गया, सो मैं उससे बात करने लगा। वि० दे० ‘सा।’(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं०] पार्वती का एक नाम।
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सोअना  : अ०=सोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =सोना (स्वर्ण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोअर  : स्त्री=सौरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोआ  : पुं० [सं० मिकेया] १. एक पौधा। २. उक्त पौधे की पत्तियाँ जिनका साग बनाया जाता है। पद–सोआ—पालक=सोआ और पालक का भाग।
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सोंइटा  : पुं० =चिमटा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोई  : स्त्री० [सं० स्रोत, हिं० सोता] वह जमीन या गड्ढा जहाँ बाढ़ या नदी का पानी रुका रह जाता है और जिसमें अगहनी धान की फसल रोपी जाती है। डाबर। वि० सर्व०=(वह ही)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० सो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोक  : पुं० [देश०] चारपाई बुनने के समय बुनावट में वह छेद जिसमें से रस्सी या निवार निकालकर कसते है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =शोक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोकन  : पुं० =सोखन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोकना  : अ० [सं० शोक+हिं० ना (प्रत्य०)] शोक विह्वल होना। स०=सोखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोकनी  : वि० [?] कालापन लिए सफेद रंग का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १. कालापन लिए सफेद रंग। २. उक्त रंग का बैल।
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सोकार  : पुं० [हिं० सोकना, सोखना] वह स्थान जहाँ पर मोट का पानी गिराया जाता है। जिससे वह खेत तक पहुँच जाय। चौंढा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोकित  : वि० [सं० शोक] जिसे शोक हुआ हो या हो रहा हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोखक  : वि० [सं० शोषक] १. शोषण करने वाला। शोषक। २. नाशक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोखता  : वि० , पुं० =सोख्ता।
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सोखन  : पुं० [देश०] १. स्याही के लिए सफेद रंग का बैल। सोकनी। २. एक प्रकार का जंगली धान जो नदियों के रेतीले तट पर होता है।
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सोखना  : स० [सं० शोषण] १. किसी चीज का जल या दूसरे तरल पदार्थ को अपने में खीच लेना। जैसे–आटे का घी सोखना। २. पीना। (व्यंग्य) पुं० =सोख्ता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोखा  : वि० [सं० सूक्ष्म या चोखा] ? चतुर। चालाक। होशियार। पुं० जादूगर।
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सोखाई  : स्त्री० [हिं० सोखना] १. सोखने की क्रिया या भाव। २. सोखने की पारिश्रमिक या मजदूरी। स्त्री० [हिं० सोखा] जादूगर।
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सोख्त  : स्त्री० [फा०] जलन।
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सोख्ता  : वि० [फा० सोख्तः] १. जला हुआ। २. बहुत अधिक दुखी या सन्तप्त। पुं० स्याही सोखनेवाला एक प्रकार का मोटा खुरदरा कागज। स्याही—चूस। स्याही—सोख। (ब्लॉटिंग पेपर)
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सोग  : पुं० [स० शोक] १. किसी के मरने से होने वाला दुःख। शोक। मुहा०–सोग मनाना=उक्त दु
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सोगंद  : स्त्री०=सौगंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोगन  : स्त्री० [हिं० सौगंध] सौगंध। कसम। (राज०) उदा०–थानें सोगन म्हारी।–मीराँ।
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सोगवार  : वि० [हिं० सोग (शोक)+वार (प्रत्य०)] [भाव० सोगवारी] सोग अर्थात शोक से युक्त।
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सोगवारी  : स्त्री० [हिं० सोगवार] मृतक का शोक मनाने की अवस्था, क्रिया या भाव। जैसे–अभी तो उनका जवान लड़का मरा है। साल भर उसी की सोगवारी रहेगी।
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सोगिनी  : वि० स्त्री० [हिं० सोग] विरह के कारण शोक करने वाली शोकाकुल। शोकमाना।
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सोगी  : वि० [सं० शोक, हिं० सोग] [स्त्री० सोगिनी] जो शोक मना रहा हो। शोक विह्वल।
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सोंच  : पुं० =सोंच।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोच  : स्त्री० [हिं० सोचना] १. सोचने की क्रिया या भाव। २. यह बात जिसके संबंध में कोई बराबर सोचता रहता हो। ३. चिंता। फिक्र। ४. दुख। रंज। ५. पछतावा। पश्चाताप।
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सोच-विचार  : पुं० [हिं० सोच+सं० विचार] सोचने और समझने या विचार करने की क्रिया या भाव।
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सोचक  : पुं० [सं० सौचिक] दरजी। (डिं०)
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सोचना  : अ० [सं० शोचन] १. किसी विषय पर मन में विचार करना। जैसे–ठीक है, हम सोचेगें। २. विशेषतः किसी कार्य, परिणाम या प्रणाली के विषय मे विचार करना। जैसे–वह सोच रहा था कि आगे पढूँ या नौकरी करूँ। ३. चिंता या फिक्र में पड़ना। जैसे–वह अपनी बूढ़ी माँ के बारे में सोचता रहता है। स० कल्पना करना। अनुमान करना। जैसे–उसने एक युक्ति सोची है।
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सोंचर नमक  : पुं० [सं० सौवर्चल फा० नमक]=काला नमक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोचाई  : स्त्री० [हिं० सोचना] सोचने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोचाना  : स०=सुचाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोचु  : पुं० सोच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोच्छ्रास  : वि० [सं०] १. उच्छ्वास—युक्त। २. हाँफता हुआ। अव्य० गहरा साँस लेते हुए।
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सोंज  : स्त्री० =सौंज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोज  : स्त्री० [हिं० सूजना] वह विकार जो सूजेस हुए होने का सूचक होता है। पुं० [फा०] १. जलन। दाह। २. तीव्र मानसिक कष्ट या वेदना। ३. ऐसा मरसिया या शोक—सूचक शब्द जो लय सुर मे गाकर पढ़ा जाता हो। (मुसल०) स्त्री० =सौंज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोजन  : पुं० [फा०] १. सुई। २. काँटा। (लश०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोजना  : अ० [हिं० सजना] शोभा देना। भला जान पड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोजनी  : स्त्री० =सुजनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोजा  : पुं० [हिं० सावज] शिकार करने के योग्य पशु या पंछी।
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सोजि  : वि० [हिं० सो+जु] १. वह भी। २. वही।
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सोजिश  : स्त्री० [फा०] सूजन। शोथ।
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सोझ  : वि० ,=सोझा।
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सोझण  : पुं० =शोधन। (राज०)।
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सोझना  : स० [सं० हिं० सोघता] १. शुद्ध करना। शोधना। २. ढूँढना।
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सोझा  : वि० [सं० सम्मुख, म० प्रा० समुज्झ] [स्त्री० सोझी] १. जो ठीक सामने की ओर गया हो। २. सरल प्रकृति का। सीधा।
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सोंझिया  : पुं० =सझिया (साझीदार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोंट  : पुं० =सोंटा(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)।
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सोंट  : पुं० [सं० शुंड या हिं० सटना] [स्त्री० अल्पा० सोंटी] १. मोटी-लोबी साधी लकड़ी या बाँस जो हाथ मे लेकर चलतें हैं। मोटी छड़ी। डंडा। लट्ठ। मुहा०–सोंटा चलाना या जमाना=सोंटे से प्रहार करना। २. भाँग घोटने का मोटा डंडा। भंग घोटना। ३. लोबिये का पौधा। ४. ऐसा लट्ठा जिससे मस्तूल बनाया जा सके। (लश०)
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सोंट-बरदार  : पुं० [हिं० सोंटा=फा० बरदार] सोंटा या आसा लेकर किसी राजा या अमीर की सवारी के साथ चलने वाला। आसाबरदार। बल्लमदार।
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सोंटना  : स० [?] सुधारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोटा  : पुं० १.=सोंटा। २.=सुअटा (तोता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोंठ  : स्त्री० [सं० शुण्ठी] सुखाया हुआ अदरक। शुण्ठी। वि० १. जो जान बूझकर बिलकुल चुप हो गया हो। २. बहुत बड़ा कंजूस। पुं० चुप्पी। मौन। मुहा०–सोंठ मारना=बिलकुल चुप हो जाना। सन्नाटा खीचना।
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सोंठ-मिट्टी  : स्त्री० [सोंठ?+हिं० मिट्टी] एक प्रकार की पीली मिट्टी जो तालों या धान के खेतों में पाई जाती है। यह काहिस बनाने के काम आती है।
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सोंठूराय  : पुं० [हिं० सोंठ+राय=राजा] बहुत बड़ा कंजूस। (व्यंग्य)
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सोंठौरा  : पुं० [हिं० सोंठ+औरा (प्रत्य०] एक प्रकार का सूजी का लड्डू जिसमें मेवों के सिवा सोंठ भी पड़ी रहती है। यह प्रायः प्रसूता स्त्रियों को खिलाया जाता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोडा  : पुं० [अ०] एक प्रकार का क्षार जो सज्जी को रासयनिक क्रिया से साफ करके बनाते हैं।
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सोडा-वाटर  : पुं० [अ०] एक प्रकार का पाचक पेय जो प्रायः मामूली पानी में कारबोनिक एसिड मिला कर के बनाते हैं और बोतल में हवा के जोर से बंद करके रखते हैं। खारा पानी।
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सोढ़  : भू० कृ० [सं०] सटा हुआ। वि० सहनशील।
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सोढर  : वि० [हिं० सु+ढरना=झुकना, अनुरक्त होना] १. जो सहज में किसी ओर प्रवृत्त या अनुरक्त होता हो। २. बेवकूफ। मूर्ख।
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सोढव्य  : वि० [सं०] सहन करने योग्य। सत्य।
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सोढी (ढिन्)  : वि० [सं०] १. सहनशील। २. समर्थ। सशक्त।
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सोणक  : वि० [सं० शोण] लाल रंग का। सुर्ख। (डिं०)
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सोणत  : पुं० [सं० सोणित] खून। लोहू। रक्त। (डिं०]
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सोत  : पुं० =स्रोत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोता  : पुं० [सं० स्रोत] [स्त्री० अल्पा० सोतिया] १. जल के बराबर बहनेवाली या निकलनेवाली छोटी धारा। झरना। चश्मा। जैसे–पहाड़ का सोता, कूएँ का सोता। २. नदी की छोटी शाखा।
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सोतिया  : स्त्री० [हिं० सोता=इया (प्रत्य०)] पानी का छोटा सोता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोतिहा  : वि० [हिं० सोता+इहा (प्रत्य०)] कुँआ या तालाब जिसमें नीचे से सोते का पानी आता हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोती  : स्त्री० [हिं० सोता का स्त्री० अल्पा०] १. पानी का छोटा सोता। २. किसी नदी से निकली हुई छोटी धारा। जैसे–गंगा की सोती। स्त्री० =स्वाती (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =श्रोत्रिय (ब्राह्मणों की एक जाति)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोत्कंठ  : वि० [सं० स०+उत्कंठा] जिसे विशेष उत्कंठा या प्रबल उत्सुकता हो। क्रि० प्र० विशेष उत्कंठा या गहरी उत्कंठा से।
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सोत्कर्ष  : वि० [सं०] १. उत्कर्ष युक्त। उत्तम।
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सोत्प्रास  : वि० [सं०] १. बढाकर कहा हुआ। अतिरंजित। २. व्यंग्यपूर्ण। पुं० १. प्रिय या मधुर बात। २. खुशामद से भरी बात। ३. जोर की हँसी। ठहाका।
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सोत्संग  : वि० [सं०] शोकाकुल। दुःखित।
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सोंत्सव  : वि० [सं०] १. उत्सव—युक्त। २. उत्सव—सहित। २. खुश। प्रसन्न।
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सोत्साह  : अव्य० [सं० स०+उत्साह] उत्साहपूर्वक। उमंग से।
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सोत्सुक  : वि० [सं०] उत्सुकता से युक्त। उत्कंठित।
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सोत्सेक  : वि० [सं०] अभिमानी। घमंडी।
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सोथ  : पुं० =शोथ (सूजन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोदकुंभ  : पुं० [सं०] पितरों के उद्देश्य से किया जाने वाला एक प्रकार का कृत्य।
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सोदन  : पुं० [देश०] वह कागज जिसमें छोटे—छोटे छेद करके बेल—बूटे बनाए जाते हैं। और राखी की सहयता से कपड़े पर छापते हैं। (कढ़ाई—बुनाई)।
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सोदप  : वि० [सं०] १. जो बढ़ोत्तरी की ओर हो। २. ब्याज या सूत समेत। वृद्धि—युक्त। पुं० वह मूल धन जिसमें ब्याज या सूद भी मिल गया हो।
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सोदर  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सोदरा] एक ही उदर से जन्म लेने वाले। सगे। जैसे–ये तीनो सोदर भाई हैं। पुं० सगा भाई।
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सोदरा (री)  : स्त्री० [सं०] सहोदरा भागिनी। सगी बहिन।
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सोदरीय  : वि०=सोदर।
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सोदर्य  : वि० [सं०] सहोदर। सोदर। सगा। पुं० सगा भाई।
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सोंध  : अव्य.=सौंह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोध  : पुं० [सं० सौध] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद का नाम। २. राज—प्रसाद (महल)। (डिं०) पुं० =शोध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोधक  : वि०, पुं० =शोधक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोधणी  : स्त्री० [सं० शोधनी] झाड़ू। बुहारी। मार्जनी। (डिं०)
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सोधन  : पुं० =सोधन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोधना  : स० [सं० शोधन] १. शुद्ध या साफ करना। सोधन करना। २. शुद्धता की जाँच करने की परीक्षा करना। उदा०–सिय लौं सोधति तिय तनहि लगनि जगनि की ज्वाल।–बिहारी। ३. दोष या बूल दूर करना। ४. तलाश करना। पता लगाना। ढूँढना। उदा०–सोधेउ सकल विश्व मनमाहिं।–तुलसी। ५. अच्ठी तरह गणना या विचार करके अथवा खूब सोच समझकर कोई निर्णय अथवा निश्चय करना या परिणाम निकालना। ६. कुछ संस्तार करके साधुओं में ओषध रूप काम में लाने के योग्य बनाना। ७. ठीक या दुरुस्त करना। ८. ऋण या देन चुकाना। ९. मैथुन या संभोग करके।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोधन्वा (न्वन्)  : पुं० [सं०] १. सुधन्वा के पुत्र, ऋभु। २. एक प्राचीन वर्ण—संकर जाति।
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सोधवाना  : स०=शोधवाना।
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सोधस  : पुं० [सं० स०+उद] १. जलाशय, ताल आदि। २. किनारे पर का जल।
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सोंधा  : वि० [सं० सुगंध] [स्त्री० सोंधी] १. सुगंध युक्त। सुगंधित। खुशबूदार। २. मिट्टी के नये बरतन या सूखी जमीन पर पानी पड़ने या चना बेसन आदि भुनाने से निकलने वाली सुगंध से युक्त अथवा उसके समान। जैसै–सेंधी मिट्टी, सोंधा चना। पुं० १. एक प्रकार का सुगंधित मसाला जिससे स्त्रियाँ सिर के बाल धोती हैं। २. एक प्रकार का सुगंदित मसाला जिससे बंगाल में स्त्रियाँ नारियल के तेल से उसे सुगंधित करने के लिए मिलाती है। पुं० =सुगंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोधाना  : स० [हिं० सोधना का प्रे० रूप] सोधने का काम दूसरे से कराना। किसी को सोधने में प्रवत्त करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोंधिया  : पुं० [हिं० सोंधा=सुगंधित+इया (प्रत्य०)] सुगंध तृण। रोहिष घास।
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सोंधी  : पुं० [हिं० सेंधा] एक प्रकार का बढ़िया धान जो दलदली जमीन में होता है। वि० [सं० सुगंध] मीठी—मीठी सुगंध वाला। जैसे–सोंधी मिठाई।
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सोधी  : स्त्री० [सं० शुद्ध या शुद्धि या हिं०सुध का पुराना रूप] १. शुद्ध करने की क्रिया या भाव। शोधना। शुद्धि। उदा०–दादू सोधी नाहिं सरीर की कहै अगम की बात।–दादूदयाल. २. परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान। केवल ज्ञान। उदा०–सतगुरु थैं सोधी भई, तब पाया हरि का खोज।–दादूदयाल। ३. याद। स्मृति। ४. ईश्वर या भगवान का ध्यान या स्मरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोंधु  : वि०=सोंधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोन  : पुं० [सं० शोण] एक प्रसिद्ध नद का नाम जो मध्य प्रदेश की अमरकंटक की अधित्यका से निकला है और मध्य प्रदेश तथा बुंदेलखंड होता हुआ बिहार में दानापुर से १॰ मील उत्तर में गंगा में मिला है। शोणभद्र नद। वि० रक्तवर्ण का। लाल। स्त्री० [हिं० सोना=स्वर्ण] एक प्रकार की सदाबहार लता जिसमें पीले फूल लगतें हैं। वि० हिं० ‘सोना’ का संक्षिप्त रूप जो यौ० शब्दों के पहले लगकर प्रायः पीले रंग का वाचक होता है। जैसे–सोन-जर्द, सोन-जूही आदि। पुं०=सोना (स्वर्ण)। उदा०–मारग मानुस सोन उछाया।–जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० रसोनक] लहसुन। (डिं०) पुं० [देश०] एक प्रकार का जल-पक्षी।
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सोन-किरवा  : पुं० [हिं० सोन+किरवा=कीड़ा] १. चमकीले तथा सुनहरें परों वाला एक प्रकार का कीड़ा। २. जुगनूँ।
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सोन-केला  : पुं० [हिं० सोना+केला] चंपा केला। सुवर्ण कदली। पीला केला।
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सोन-गढ़ी  : पुं० [सोनगढ़ (स्थान)] एक प्रकार का गन्ना।
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सोन-गहरा  : वि० , पुं० [हिं० सोना+गहरा] गहरा सुनहला (रंग)।
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सोन-गेरू  : पुं० दे० ‘सोना गेरी’।
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सोन-चंपा  : पुं० [हिं० सोना+चंपा] पीला चंपा। सुवर्ण चंपा। स्वर्ण चंपा।
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सोन-चिरी  : स्त्री० [हिं० सोना+चिरी=चिड़िया] १. नटी। २. नर्तकी।
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सोन-जरद (जर्द)  : वि० [हिं० सोना=स्वर्ण+फा० जर्द=पीला] सोने की तरह पीले रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग। (गोल्डेन यलो)
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सोन-जूही  : स्त्री० [हिं० सोना+जूही] एक प्रकार की जूही जिसके फूल हलके पीले रंग के और अधिक सुगंधित होते हैं।
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सोन-पेडुकी  : स्त्री० [हिं० सोना+पेड़ुकी] एक प्रकार का पक्षी जो सुनहला पन लिए हरे रंग का होता है।
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सोनकीकर  : पुं० [हिं० सोना+कीकर] कीकर की जाति का एक प्रकार का बहुत बड़ा पेड़।
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सोनभद्र  : पुं०=(सोन) नद।
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सोनवाना  : वि० [हिं० सोना+वाना (प्रत्य०)] [स्त्री० सोनावानी] १. सोने का बना हुआ। २. सोने के रंग का। सुनहला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोनहला  : वि०=सुनहला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोनहा  : पुं० [सं० शनु=कुत्ता] १. कुत्ते की जाति का एक छोटा जंगली हिंसक जंतु जो झुंड में रहता है। २. एक प्रकार का पक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोनहार  : पुं० [देश०] एक प्रकार का समुद्री पक्षी।
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सोना  : पुं० [सं० स्वर्ण] १. एक प्रसिद्ध बहु—मूल्य पीला धातु जिसके गहने आदि बनते हैं। स्वर्ण। कांचन। (गोल्ड) पद–सोने की कटार=ऐसी चीज जो सुंदर होने पर भी घातक या हानिकारक हो। सोने की चिड़िया=ऐसा संपन्न व्यक्ति जिससे बहुत कुछ धन प्राप्त किया जा सकता हो। मुहा०–सोने का घर मिट्टी करना=बहुत अधिक धन—संपत्ति व्यर्थ और पूरी तरह से नष्ट करना। सोने में घुन लगना=परम असंभव बात होना। सोने में सुगंध होना=किसी बहुत अच्छी चीज में और भी कोई ऐसा गुण या विशेषतः होना कि जिससे उसका महत्व या मूल्य और भी बढ़ जाय। विशेष–लोक में भूल से इसी की जगह ‘सोने में सुहागा होना’ भी प्रचलित है। २. बहुत सुंदर या बहुमूल्य पदार्थ। ३. राजहंस। स्त्री० [?] प्रायः एक हाथ लंबी एक प्रकार की मछली जो भारत और वरमा की नदियों में पाई जाती हैं। पुं० [?] मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष। अ० [सं० शयन] १. लेटकर शरीर और मस्तिष्क को विश्राम देने वाली निद्रा की अवस्था में होना। नींद लेना। मुहा०–सोते-जागते=हर समय। २. शरीर का किसी अंग का एक ही स्थिति में रहने के कारण कुछ समय के लिए सुन्न हो जाना। जैसे–पैर या हाथ सोना। ३. किसी विषय या बात की ओर से उदासीन होकर चुप या निष्क्रिय रहना।
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सोना-कुत्ता  : पुं०=सोनहा (जंतु)।
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सोना-गेरु  : पुं० [हिं० सोना+गेरू] एक प्रकार का गेरू जो मामूली गेरू से अधिक लाल, चमकीला और मुलायम होता है।
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सोना-पठा  : पुं० [हिं० शोण+हिं० पाठा] एक प्रकार का ऊँचा वृक्ष जो भारत और लंका के सर्वत्र में होता है और जिसके कई भेद होते हैं। श्योनक।
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सोना-पेट  : पुं० [हिं० सोना+पेट=गर्भ] सोने की खान।
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सोना-फूल  : पुं० [हिं० सोना+फूल] आसाम और खसिया पहाड़ियों पर होने वाली एक प्रकार की झाड़ी।
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सोना-मक्खी  : स्त्री० [सं० स्वर्णमक्षिका] १. मक्षिका नामक खनिज पदार्थ का वह भोद जो पीला होता है। (देखें मक्षिका) २. रेशम का एक प्रकार का कीड़ा।
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सोना-माखी  : स्त्री० =सोनामक्खी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोनापुर  : पुं० [हिं०] स्वर्ग। मुहा०–सोनापुर सिधारना=मर जाना।
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सोनार  : पुं० =सुनार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोनारी  : पुं० [?] संगीत में पन्द्रह मात्राओं का एक ताल जिसमें पाँच आघात और तीन खाली होते हैं।
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सोनित  : पुं० =सोणित (खून)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोनी  : पुं० [देश०] तनु की जाति का एक वृक्ष। पुं० =सुनार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोनैया  : स्त्री० [देश०] देवदाली। घघरबेल। बंदाल।
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सोप  : पुं० [देश०] एक प्रकार की छपी हुई चादर। पुं० [अ०] साबुन। पुं० [अ० स्वाब] बुहारी। झाड़ू। (लश०)।
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सोप-सर्प  : वि० [सं०] [स्त्री० सोपसर्पा] १. उठान या उभार कर आया हुआ। २. काम—वासना से युक्त। गरमाया हुआ।
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सोपकरण  : वि० [सं०] सभी प्रकार के उपकरणों या साज सामान से युक्त। जैसे–सोपकरण शय्या।
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सोपकार  : पुं० [सं०] ब्याज—सहीत। असल मैं सूद।
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सोपचार  : वि० [सं०] शिष्टतापूर्वक बर्ताव करने वाला। अव्य० उपचार—पूर्वक।
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सोपत  : पुं० [सं० सूपपत्ति]=सुभीता।
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सोंपना  : स०=सौंपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोपर्णेय  : पुं० [सं०] सुपर्णी के पुत्र, गरुड़।
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सोपाक  : पुं० [सं०] १. काष्ठौषधि बेचनेवाला। वनौषधि बेचनेवाला। २. चांडाल। श्वपच। शवपाक।
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सोपाधि (क)  : वि० [सं०] उपाधि (दे० ) से युक्त।
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सोपाधिकप्रदान  : पुं [सं०] ऋण लेने वाले से ऋण की रकम बिना दिये अपनी चीज ले लेना।
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सोपान  : पुं० [सं०] सीढ़ी। जीना। २. जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति का उपाय या साधन।
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सोपान-कूप  : पुं० [सं० मध्य० स०] सीढ़ीदार कूँआ। बावली।
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सोपानक  : पुं० [सं०] सोने के तार में पिरोई हुइ मोंतियों की माला।
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सोपानावरोहण-न्याय  : पुं० [सं०] एक प्रकार का न्याय या कहावत जिसका प्रयोग ऐसे प्रसंगो में होता है, जहाँ सीढियों की तरह क्रम-क्रम से एक-एक स्थल पार करते हुए आगे बढ़ना अभीष्ट होता है।
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सोपानित  : भू० कृ० , वि० [सं०] सोपान से युक्त किया हुआ। सीढ़ियों से युक्त।
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सोपारी  : स्त्री० =सुपारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोपाश्रय  : वि० [सं०] जो आश्रय या आलंब से युक्त हो। अव्य० आश्रय या अवलंब का उपयोग करते हुए। पुं० योग में एक प्रकार की समाधि।
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सोफता  : पुं० [हिं० सुभीता] १. एकांत स्थान। निराली जगह। २. अवकाश का समय। फुरसत का समय। ३. चिकित्सा के फलस्वरूप रोगो आदि में होने वाली कमी।
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सोफा  : पुं० [अ०] एक प्रकार का बढिया गद्देदार कोच यो लंबी बेंच जिसपर दो या तीन आदमी आराम से ढासना लगाकर बैठ सकते हैं।
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सोफा़-सेट  : पुं० [अ०] कमरों की सजावट के लिए रखा जाने वाला एक प्रकार का जोड़ जिसमें साधारणतः एक सोफा और वैसी ही दो, तीन या चार कुर्सियाँ होती है।
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सोफियाना  : वि० [सं० सूफी+पा इयाना (प्रत्य०)] १. सूफियों का। सूफी-संबधी। २. सूफियों की तरह का अर्थात सुंदर और स्वच्छ सूफियाना।
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सोफी  : पुं०=सूफी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोबन  : पुं० =सुवर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोभ  : पुं० [सं०] स्वर्ण में गंधर्वों के नगर का नाम। स्त्री०=शोभा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोभन  : वि०, पुं०=शोभन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोभना  : अ० [सं० शोभन] शोभित होना। भला लगना। सोहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोभनीक  : वि० =शोभन (सुन्दर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोभर  : पुं० [?] वह कोठरी या कमरा जिसमें स्त्रियाँ प्रसव करती हैं। सौरी। सूतिकागार।
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सोभा  : स्त्री०=शोभा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोभाकारी  : वि०=शोभन (सुंदर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोभांजन  : पुं०=शोभांजन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोभायमान  : वि० =शोभायमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोभार  : वि० [सं० स+हिं० उभार] उभारदार। क्रि० वि० उभरते हुए। उभरकर।
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सोभिक्ष्य  : पुं० [सं०]=सुभिक्ष।
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सोभित  : वि० =शोभित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोम  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन भारतीय लता जिसके रस का सेवन वैदिक ऋषी विशेषतः यज्ञों के समय मादक पदार्थ के रूप में करते थे। २. हठ-योग में, तालू की जड़ में स्थित चंद्रमा से निकलने वाला रस। विशेष दे० ‘अमृत’। ३. एक प्राचीन वैदिक देवता। ४. चंद्रमा। ५. सोमवार। ६. अमृत। ७. जल। ८. कुबेर। ९. यम। १॰ .वायु। हवा। ११. सोम-यज्ञ। १२. वह जो सोमयज्ञ करता हो। १३. एक प्राचीन पर्वत। १४. एक प्रकार की ओषधि। १५. आकाश। १६. स्वर्ग। १७. आठ वसुओं में एक वसु। १८. पितरों का एक गण या वर्ग। १९. स्त्री का विवाहित पति। २॰. स्त्रियों में होने वाला एक प्रकार का रोग। २१. यज्ञ की सामग्री। २२. काँजी। २३. माँड। २४. संगीत में एक प्रकार का राग जो मालकोश राग का पुत्र कहा गया है। २५. एक प्रकार का ऊँचा और बड़ा पेड़ जिसकी लकड़ी चिकनी और मजबूत होती तथा चीरी जाने पर लाल हो जाती है। २६. दक्षिणी भारत की पथराली भूमि में होने वाला एक प्रकार का क्षुप जिसकी डालों में पत्ते कम और गाँठें अधिक होती हैं।
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सोम-कर  : पुं० [सं० सोम+कर] चंद्रमा की किरण। चंद्र किरण।
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सोम-कांत  : पुं० [सं०] चंद्रकांत मणि। वि० १. जो चंद्रमा के समान प्रिय और सुंदर हो। २. जिसे चंद्रमा प्रिय हों।
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सोम-काम  : पुं० [सं०] सोम-पान करने की इच्छा। वि० सोम-पान की कामना करने वाला।
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सोम-क्रिय  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सोम-क्षय  : पुं० [सं०] १. चंद्रमा की कलाओं का घटना। २. अमावस्या, जिसमें चंद्रमा के दर्शन नहीं होते।
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सोंम-खड्डक  : पुं० [सं०] नेपाल में एक प्रकार का शैव साधु।
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सोम-गर्भ  : पुं० [सं०] विष्णु।
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सोम-गिरि  : पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक पर्वत। २. मेरु—ज्योति। ३. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सोम-ग्रह  : पुं० [सं०] १. चंद्रमा का ग्रहण। चंद्रग्रहण। २. घोड़ों का एक ग्रह जिससे ग्रस्त होने पर वे काँपा करते हैं।
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सोम-ग्रहण  : पुं० [सं०] चंद्र—ग्रहण।
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सोम-चमस  : पुं० [सं०] सोमपान करने का पात्र।
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सोम-देवत (त्य)  : वि० [सं०] जिसके देवता सोम हों।
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सोम-दैवत  : पुं० [सं०] मृगशिरा (नक्षत्र)।
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सोम-धारा  : स्त्री० [सं०] १. आकाश। आसमान। २. स्वर्ग। ३. आकाश—गंगा।
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सोम-धेय  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद। (महाभारत)।
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सोम-पर्व (न्)  : पुं० [सं०] १. सोमपान करने का उत्सव या पुण्य काल। २. कोई ऐसा पर्व जिसमें लोग सोम पीतें थे।
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सोम-पान  : पुं० [सं०] सोम रस पान करना।
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सोम-पुत्र  : पुं० [सं०] सोम या चंद्रमा के पुत्र, बुध।
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सोम-पुरुष  : पुं० [सं०] १. सोम का रक्षक। २. सोम का अनुचर या भक्त।
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सोम-प्रताप  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सोम-प्रदोष  : पुं० [सं०] सोमवार को पड़नेवाला प्रदोष (ब्रत); जो विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया है।
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सोम-प्रभ  : पुं० [सं०] सोम या चंद्रमा के समान प्रभाव वाला। परमकांतिमान।
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सोम-प्रभावी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक रागिनी।
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सोम-भैरवी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सोम-मंजरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सोम-मद  : पुं० [सं०] सोमरसपान करने से होने वाला नशा।
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सोम-मुखी  : पुं० [सं०] संगीत मे कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सोम-यज्ञ  : पुं० [सं०] एक प्रकार का त्रैवार्षिक यज्ञ जिसमें मुख्यतः सोम रस पिया जाता था।
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सोम-योनि  : पुं० [सं०] १. देवता। २. ब्राह्मण। ३. पीला चंदन।
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सोम-रस  : पुं० [सं०] १. वैदिक काल में सोम नामक लता का रस जो ऋशी मुनि आदि पीते थे। २. हठयोग मे, तालु—मूल स्थित में माने जाने वाले चंद्रमा से निकलने वाला रस जो योगी लोग जीभ उलटकर और उसे तालु—मूल तक ले जाकर पान करते है।
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सोम-राज्य  : पुं० [सं०] चंद्रलोक।
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सोम-लता  : स्त्री० [सं०] १. सोम नामक वनस्पति की लता। २. गिलोय। गुडुच।
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सोम-लोक  : पुं० [सं०] चंद्रलोक।
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सोम-वल्क  : पुं० [सं०] १. सफेद खैर। २. कायफल। ३. सरंज। ४. रीठा करंज। ५ बबूल।
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सोम-वल्लरी  : स्त्री० [सं०] १. सोम नामक लता। २. ब्राह्मी। ३. एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, जगण, रगण, जगड़ और रगण होते हैं। इसे ‘चामर’ और ‘तूण’ भी कहते हैं।
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सोम-वल्लिका  : स्त्री० [सं०] १. बकुची। सोमराजी। २. सोमलता।
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सोम-वंश  : पुं० [सं०] १. युधिष्ठिर का एक नाम। २. क्षत्रियों का चंद्रवंश।
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सोम-वायव्य  : पुं० [सं०] अक ऋषी-वंश का नाम।
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सोम-वीथी  : स्त्री० [सं०] चंद्र-मंडल।
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सोम-सलिल  : पुं० [सं०] सोमलता का रस।
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सोम-सव  : पुं० [सं०] यज्ञ मे किया जाने वाला एक प्रकार का कृत्य जिसमें सोम का रस निकाला जाता था।
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सोम-संस्था  : स्त्री० [सं०] सोम यज्ञ का एक प्रारंभिक कृत्य।
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सोम-सार  : पुं० [सं०] १. सफेद खैर। श्वेत खदिर। २. कीकर। बबूल।
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सोम-सिद्धांत  : पुं० [सं०] १. एक बुद्ध का नाम। २. फलित ज्योतिष।
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सोम-सिंधु  : पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।
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सोम-सुत  : वि० पुं० [सं०] सोमरस निकालनेवाला। पुं० यज्ञ मे सोमरसकी आहुती देने वाला ऋत्विज।
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सोम-सुत  : पुं० [सं०] चंद्रमा के पुत्र, बुध।
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सोम-सुता  : पुं० [सं०] (चंद्रमा की पुत्री) नर्मदा नदी।
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सोम-सुंदर  : वि० [सं०] चंद्रमा के समान सुंदर। बहुत सुंदर।
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सोम—दीपक  : पुं० [सं०] संगीत मे कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सोमक  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषी का नाम। २. पुराणानुसार कृष्ण का पुत्र। ३. स्त्रियों का सोम नामक रोग।
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सोमकल्प  : पुं० [सं०] पुराणानुसार २१ वें कल्प का नाम।
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सोमज  : वि० [सं०] चंद्रमा से उत्पन्न। पुं० १. बुध नामक ग्रह. २. दूध।
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सोमजाजी  : पुं० [सं० सोमयाजी] सोम याग करनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोमदभवा  : स्त्री० [सं०] नर्मदा नदी का एक नाम।
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सोमदिन  : पुं० [सं० सोम=दिन] सोमवार। चंद्रवार।
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सोमदेव  : पुं० [सं०] १. सोम नामक देवता।। २. चंद्रमा।
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सोमधार  : पुं० [सं०] पितरों का एक गण या वर्ग।
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सोमन  : पुं० [सं० सौमन] एक प्रकार का अस्त्र।
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सोमनस  : पुं० =सौमनस्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोमनाथ  : पुं० [सं०] १. प्रसिद्ध द्वादश ज्योतिर्लिंगो में से एक। २. काठियावाड़ के दक्षिणी तट पर स्थित एक प्राचीन नगर जहाँ उक्त ज्योतिर्लिंग का मंदिर है। इस मंदिर के अतुल धन—रत्न की प्रसिद्ध सुनकर सन १॰२४ ई० में महमूद गजनवी इसे ध्वस्त करके यहाँ से करोड़ों की सम्पत्ति गजनी ले गया था। अब स्वतंत्र भारत में इस मंदिर का जीर्णोद्धार हो गया है।
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सोमनेत्र  : वि० [सं०] १. जिसका नेता या रक्षक सोम हो। जिसकी आँखे सोम के समान हो।
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सोमप  : वि० [सं०] १. सोम—रस पीने वाला। २. जिसने यज्ञ में सोमरस का पान किया हो। पुं० १. वह जिसने सोम यज्ञ किया हो, अथवा जो सोम यज्ञ करता हो। सोमायजी। २. विश्वेदेवों मे से एक का नाम। ३. एक प्राचीन ऋषी वंश। ४. पितरों का वर्ग। ५. कार्तिकेय का एक अनुचर। ६. एक पौराणिक जनपद।
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सोमपति  : पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम।
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सोमपत्र  : पुं० [सं०] कुश की तरह की एक घास। डाभ। दर्भ।
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सोमपद  : पुं० [सं०] १. एक लोक। (हरिवंश) २. महाभारत काल का एक तीर्थ।
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सोमपा  : वि० , पुं० =सोमप।
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सोमपायी (यिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सोमपायिनी] सोम रस पीनेवाला।
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सोमपाल  : पुं० [सं०] सोम के रक्षक, गन्धर्व लोग।
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सोमपेय  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का यज्ञ जिसमें सोमपान किया जाता था। २. सोमपान।
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सोमबंधु  : पुं० [सं०] १. सूर्य। २. बुध ग्रह। ३. कुमुद।
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सोमभवा  : स्त्री० [सं०] नर्मदा (नदी)।
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सोमभू  : वि० [सं०] १. सोम से उत्पन्न। २. जो चंद्रवंश में उत्पन्न हुआ हो। चंद्रवंशी। पुं० १. चंद्रमा के पुत्रवधु। २. जैनों के चौथे कृष्ण वसुदेव का एक नाम।
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सोमभूपाल  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सोमयाजी (जिन्)  : पुं० [सं०] १. वह जो सोम योग करता हो। सोम पान करने वाला।
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सोमरा  : पुं० [देश०] जुते हुए खेत का दुबारा दोबारा जोता जाना। दो चरस।
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सोमराज  : पुं० [सं०] चंद्रमा।
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सोमराजी  : स्त्री० [सं०] १. बकुची। २. एक प्रकार कगा समवृत्त वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में दो रगण होते हैं। यथा–गुनी, एक रूपी, सुनि बेद गावै। महादेव जाकौं सदाचित्त लावैं।–केशव।
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सोमराष्ट्र  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद।
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सोमल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सखिया जिसे सफेद संबुल भी कहते हैं।
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सोमलक  : पुं० [सं०] पुष्पराग मणि। पुखराज।
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सोमवती  : स्त्री० [सं०] १. एक प्राचीन तीर्थ। २. दे० सोमवती अमावस्या।
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सोमवती अमावस्या  : स्त्री० [सं०] १. सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या जो पुराणों के अनुसार पुण्य तिथि मानी गई है। प्रायः लोग इस दिन गंगा स्नान और दान-पुण्य करते हैं।
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सोमवत्  : वि० [सं०] [स्त्री० सोमवती] १. सोमयुक्त। २. चंद्रमा से युक्त (ग्रह)। ३. चंद्रमा के समान शीतल या सुंदर।
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सोमवर्धस  : पुं० [सं०] विश्वेदेव में से एक। वि० सोम के समान तेज वाला।
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सोमवल्ली  : स्त्री० [सं०] १. गिलोय। गुडुची। २. सोमराजजी। बकुची। ३. पाताल गरुड़ी। छिरेंटी। ४. ब्राह्मी। ५. सुदर्शन नामक पौधा। ६. कठकरंज। लता करंज। ७. गज-पीपल। ८. वन-कपास। ९. सोमलता।
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सोमवंशीय  : वि० [सं०] १. चंद्रवंश में उत्पन्न। २. चंद्रवंश संबंधी।
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सोमवंश्य  : वि० [सं०] सोमवंशीय।
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सोमवार  : पुं० [सं०] सात वारों में से एक वार जो अर्थात चंद्रमा का दिन माना जाता है। यह रविवार के बाद और मंगलवार के पहले पड़ता है। चंद्रवार।
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सोमवारी  : वि० [सं० सोमवार] सोमवार संबंधी। सोमवार का। जैसे–सोमवारी बाजार, सोमवारी अमावस्या। स्त्री०=सोमवती अमावस्या।
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सोमवृक्ष  : पुं० [सं०] १. कायफल। कटहल। २. सफेद खैर।
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सोमसुत्र  : पुं० [सं०] शिलिंग की जलधरी से जल निकलने का स्थान या नाली।
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सोमा  : स्त्री० [सं०] सोम लता। २. एक पौराणक नदी।
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सोमाख्य  : पुं० [सं०] लाल कमल।
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सोमांग  : पुं० [सं०] सोम-याग का एक अंग।
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सोमाद  : वि० [सं०] १. सोमभक्षण करने वाला। सोमपायी।
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सोमापूषण  : पुं० [सं०] [वि० सोमापौष्ण] सोम और पूषण नामक देवता।
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सोमापौष्ण  : पुं० [सं०] सोम और पूषण संबंधी।
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सोमाभ  : वि० [सं०] जिसमें चंद्रमा की-सी आभा हो। स्त्री० चंद्रमा की किरणें। चंद्रावली।
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सोमायन  : पुं० [सं०] महीने भर का एक वृत जिसमें २७ दिन दूध पीकर रहने और तीस दिन तक उपवास करने का विधान है।
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सोमारुद्र  : पुं० [सं०] [वि० सौमारौद्र] सोम और रुद्र नामक देवता।
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सोमारौद्र  : वि० [सं०] सोम और रुद्र संबंधी।
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सोमार्च्ची  : पुं० [सं० सोमार्च्चिस्] स्वर्ग मे देवताओं का एक प्रासाद। (रामा०)
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सोमार्द्धधारी (रिन्)  : पुं० [सं०] (मस्तक पर अर्द्ध चंद्र धारण करने वाले) शिव।
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सोमाल  : वि० [सं०] कोमल। नरम। मुलायम।
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सोमावती  : स्त्री० [सं०] चंद्रमा की माता का नाम। स्त्री० =सोमवती अमावस्या।
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सोमांशु  : पुं० [सं०] १. चंद्रमा की किरण। २. सोम लता का अंकुर। ३. सोमयज्ञ का कृत्य।
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सोमाष्टमी  : स्त्री० [सं०] सोमवार को पड़ने वाली अष्टमी तिथि। इस दिन व्रत का विधान है।
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सोमास्त्र  : पुं० [सं०] चंद्रमा का अस्त्र।
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सोमाह  : पुं० [सं०] चंद्रमा का दिन, सोमवार।
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सोमाहुत  : वि० [सं०] १. जिसे सोम की आहुती दी गई हो। २. जिसकी सोमरस से तृप्ति हो गई हो।
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सोमाहुति  : स्त्री० [सं०] यज्ञ कुंड मे दी जीने वाली सोम की आहुती। पुं० मंत्र दृष्टा भार्गव का एक नाम।
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सोमाह्वा  : स्त्री० [सं०] महा—सोमलता।
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सोमी (मिन्)  : वि० [सं०] १. जिसमे सोंम हो। सोम—युक्त। २. यज्ञ मे सोम की आहुती देनेवाला। पुं० सोमायाजी।
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सोमीय  : वि० [सं०] १. सोम—संबंधी। सोम का। २. सोमरस से युक्त।
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सोमेंद्र  : वि० [सं०] सोम और इंद्र संबंधी।
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सोमेश्वर  : पुं० [सं०] १. एक शिवलिंग जो काशी में स्थापित है। २. श्रीकृष्ण का एक नाम। ३. दे० ‘सोमनाथ’।
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सोमोत्पत्ति  : पुं० [सं०] १. चंद्रमा का जन्म। २. अमावस्या के उपरांत चंद्रमा का फिर से निकलना।
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सोमोदभव  : पुं० [सं०] (चंद्रमा को उत्पन्न करने वाले) श्रीकृष्ण का एक नाम। वि० चंद्रमा से उत्पन्न।
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सोमौनी  : स्त्री०=सोमवती अमावस्या।
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सोम्य  : वि० [सं०] १. सोम-संबंधी। सोम का। २. सोम से युक्त। ३. जो सोम पान कर सकता हो या जिसे सोम पान करने का अधिकार हो। ४. यज्ञ मे सोम की आहुति देने वाला। ५. अच्छा। सुंदर।
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सोय  : सर्व०=सो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोया  : पुं०=सोआ (साग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोयाबीन  : पुं० दे० ‘भटवाँस’।
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सोर  : पुं० [फा० शोर] १. कोलाहल। हल्ला। २. प्रसिद्धि। ख्याति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० शटा] पोड़ों की जड़। मूल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] बारूद (राज०)। उदा०–उठै सोर फाला अनल, आभ धुआँ आँधियार।–बाँकी दास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [तामिल शुड़ा, तेलुगु सोर] हाँगर की जाति की एक प्रकार की बहुत भीषण और बड़ी समुद्री मछली। (शार्क)। पुं० [सं०] वक्र गति। टेढ़ी चाल।
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सोर-भखी  : स्त्री० [सं० शूरभक्षी] तोप या बंदूक। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोरंजान  : स्त्री० =सुरंजान (ओषधि)। पुं० =सूरंजन (सुपारी का पेड़)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोरट्ट  : पुं०=सोरठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोरठ  : पुं० [सं० सौराष्ट्र] १. सौराष्ट्र (प्रदेश)। २. उक्त प्रदेश की प्रचीन राजधानी, सूरत। ३. ओड़व जाति का एक राग जो हिडोल का पुत्र कहा जाता है। मुहा०–खुली सोरठ कहना=खुलेआम कहना। कहने मे संकोच या भय न करना।
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सोरठ-मल्लार  : पुं० [हिं० सोरठ+मल्लार] सोरठ और मल्लार के योग से बना हुआ एक संकर राग।
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सोरठा  : पुं० [सं० सौराष्ट्र, हिं० सोरठ (देश)] अड़तालीस मात्राओं का एक छंद जिसके पहले और तीसरे चरण मे ग्यारह-ग्यारह और दूसरे तथा चौथे चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ होती हैं। इसके समचरणों मे जगण का निषेध है। दोहे के चरणों को आगे पीछे कर देने से सोरठा हो जाता है।
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सोरठी  : स्त्री० [सोरठ (देश)] संगीत में एक रागिनी जो मेघराग की पत्नी कही गई है। वि० सोरठा संबंधी सोरठ का।
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सोरण  : वि० [सं०] जो स्वाद में उग्र हो। विशेषतः खट्टा और चरपरा।
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सोरनी  : स्त्री० [सं० शोधनी] १. झाड़ू। बुहारी। २. जलाये हुए शव की राख बहाने का संस्कार।
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सोरबा  : पुं० =शोरबा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोरभ  : पुं० =सौरभ (सुगंध)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोरह  : वि० , पुं० =सोलह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोरहिया  : स्त्री० [हिं० सोलह ?] पुरानी चाल की एक प्रकार की नाव जो सोलह हाथ की चौड़ी होती थी। स्त्री० =सोरही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोरही  : स्त्री० =सोलह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोरा  : पुं० शोरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोराना  : अ० [हिं० सोर=जड़] बोई हुई चीज मे सोर या जड़ निकालना। उदा०–तुम्हारा आलू सोरा कर ऐसा ही रह जायगा।–जयशंकर प्रसाद।
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सोराष्ट्र  : पुं० [सं०] [वि० सौराष्ट्रिक] १. गुजरात-कठियावाड़ का प्राचीन नाम। सूरत के आस पास का प्रदेश। सोरठ देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त। ४. संगीत में सोरठ नाम का राग। ५. काँसा नामक धातु। ६. कुँदरू नामक गंध द्रव्य। वि० सोरठ या सौराष्ट्र देश का।
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सोरी  : स्त्री० [सं० स्रवण=बहना या चूना] बरतन में का महीन छेद जिसमे होकर पानी बह जाता हो।
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सोर्मि, सोर्मिक  : वि० [सं०] तरंग—युक्त।
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सोल  : वि० [सं०] १. शीतल। ठंडा। २. कसैला, खट्टा और तिक्त या तीता। पुं० १. शीतल। ठंढक। २. स्वाद। जायका।
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सोलंकी  : पुं० [देश०] क्षत्रियों का एक प्राचीन राजवंश जिसने बहुत दिनों तक गुजरात पर शासन किया था।
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सोलपंगो  : पुं० [हिं० सोलग+पग] केकड़। (डिं०)
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सोलह  : वि० [सं० षोडस, प्रा० सोलस, सोरह] जो गिनता में दस से छः अधिक हो। षोडस। पुं० उक्त संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है।–१६। मुहा०–सोलहो आने=कुल का कुल। सब का सब। सोलह—सोलह गड़े सुनाना=खूब गालियाँ देना।
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सोलह-नहाँ  : पुं० [हिं० सोलह+नहँ=नख] एक प्रकार का ऐबी हाथी जिसके १६ नाखून होते हैं।
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सोलह-सिंगार  : पुं० [हिं० सोलह+सिंगार] स्त्रियों के पूरा श्रंगार करने के लिए बताए हुए सोलह कार्य-अंग मे उबटन लगाना, नहाना; स्वच्छ वस्त्र धारण करना; बाल सँवारना; काजल लगाना; सिंदूर से माँग भरना; महावर लगाना; भाल पर तिलक लगाना; चिबुक पर तिल बनाना; मेंहदी लगाना; इत्र आदि सुगंधित द्रव्य लगाना; आभूषण पहनना; फूलों की माला पहनना; मिस्सी लगाना; पान खाना और होठों को लाल करना। मुहाः सोलह सिंगार सजाना=बनना-ठनना।
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सोलहवाँ  : वि० [हिं० सोलह+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० सोलहवीं] संख्या के विचार से १६ की जगह पड़ने वाला।
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सोलही  : स्त्री० [हिं० सोलह+ई (प्रत्य०)] १. सोलह चित्ती कौड़ियाँ। २. उक्त कौड़ियों से खेला जाने वाला जूआ। ३. पैदावार की १६—१६ अँटियों या पूलों के रूप में होने वाली गिनती।
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सोला  : पुं० [?] एक प्रकार की रेशमी धोती। २. एक प्रकार का बडा झाड़ जिसकी डालियाँ बहुत मजबूत और सीधी होता हैं। विशेष–सोला हैट नामक अँगरेजी ढँग का टोप इसी की डालियों से बनता है।
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सोलाना  : स०=सुलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोलाली  : स्त्री० [?] पृथ्वी। (डिं०)
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सोल्लास  : वि० [सं०] उल्लास—युक्त। प्रसन्न। आनंदित। अव्य० उल्लास—पूर्वक। हर्ष से भर जाना। बहुत प्रसन्न होकर।
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सोवज  : पुं० १.=सावज २.=सौजा।
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सोवडू  : पुं० [सं० सूत,-प्रा० सूड़आ] सूतिकागार। सौरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोवणी  : स्त्री० [सं० शोधनी] बुहारी। झाडू। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोवन  : पुं० [हिं० सोवना] सोने की क्रिया या भाव। शयन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० १.=शोभन। २.=सुनहला। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोवना  : वि० [हिं० सोना=स्वर्ण] १. सोने के रंग का। सुनहला। २. सोने का। उदा०–चोच मढाऊँ थारी सोवनी री।–मीराँ। अ०=सोना (शयन करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोवनार  : स्त्री० [सं० शयनागार] सोने का कमरा। शयनागार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोंवनिया  : पुं० [सं० सुवर्ण] नाक में पहनने का एक प्रकार का आभूषण।
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सोवरी  : स्त्री०=सौरी (सूतिकागार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोवा  : पुं०=सोआ (साग)।
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सोवाना  : स०=सुलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोवियत  : पुं० [रूसी सोविएट] १. परिषद। सभा। २. प्रतिनिधियों की सभा। ३. आज—कल समाजवाद के सिद्धांतों पर आश्रित रूप की वह शासन प्रणाली जिसमें सभी छोटे—छोटे क्षेत्रों में मजदूर, सैनिकों आदि के चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में सारे अधिकार रहते हैं। यहीं लोग जिले की शासन परिषद के प्रतिनिधि चुनतें हैं। फिर जिलें की परिषदें प्रांत के शासन के लिए और तब प्रांतीय परिषदें केन्द्रीय शासन के लिए प्रतिनिधि चुनती हैं। वि० (स्थान) जहाँ उक्त प्रकार की शासन प्रणाली प्रचलित हो। जैसे–सोविएट रूस।
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सोवैया  : पुं० [हिं० सोचना+इया (प्रत्य०)] सोनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोशल  : वि० [अ०] १. समाज—संबंधी। सामाजिक। जैसे–सोशल कानफ्रेंस। २. समाज के लोगों के साथ हेल—मेल बढ़ाकर रहनेवाला। समाजशील। जैसे–सोशल लड़का।
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सोशलिज्म  : पुं० =समाजवाद।
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सोशलिस्ट  : पुं० =समाजवादी।
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सोषक  : वि०=शोषक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोषण  : पुं० =शोषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोषना  : स०=सोखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोषु  : वि० [हिं० सोखना] सोखनेवाला। शोषक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोष्णीष  : पुं० [सं०] ऐसा घर जिसके अग्रभाग में बरामदा भी हो।
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सोष्यंती  : स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके शीघ्र ही प्रसव होने को हो। आसन्न—प्रसवा।
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सोष्यंती-कर्म  : पुं० [सं० सोष्यंती-कर्मन्] आसन्न प्रसवा स्त्री के संबंध में किया जानेवाला कृत्य या संस्कार।
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सोस  : वि० [सं० शुष्क] १. सूखा। २. सोखने वाला। शोषक। पुं०=शोषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोसन  : पुं० [फा० सौसन] १. एक पौधा जो कश्मीर में होता है। २. उक्त पौधे का फूल।
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सोसनी  : वि० [फा० सौसन] सोसन के फूल के रंग का। लाली लिए नीला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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सोसाइटी सोसायटी  : स्त्री० [अ०] १. समाज। २. संगत। सोहबत। ३. सार्वजनिक संस्था।
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सोस्मि  : अव्य.=सोऽमस्मि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोह  : स्त्री०=सौंह (सौगंद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=सौंह (सामने)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहँ  : स्त्री=सौंह (कसम)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० सौंह (सामने)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहंग  : अव्य=सोहम्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =सांस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहगिन (नी)  : स्त्री०=सुहागिन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहगिल  : स्त्री०=सुहागिन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहगी  : स्त्री० [हिं० सोहाग] विवाह के पूर्व कन्या के लिए घर पक्ष वालों की तरफ से भेजी जाने वाली चीजें जो सौभाग्य सूचक मानी जाती हैं।
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सोहगैला  : पुं० [हिं०सुहाग या सोहाग] [स्त्री० अल्पा० सोहगैली] लकड़ी की वह कँगूरेदार जिसमे विवाह के दिन सिंदूर भरकर देते हैं। सिंदूरा।
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सोहंज  : दे०=सोऽहम्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोंहट  : वि० [?] सीधा—सादा। सरल।
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सोहड़  : पुं०=सुभट।(राज०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहन  : वि० [सं० शोभन, प्रा० सोहण] [स्त्री० सोहनी] अच्छा लगने वाला। सुंदर। सुहावना। पुं० १. सुन्दर पुरुष। २. स्त्री के लिए उसका पति या प्रेमी। पुं० एक प्रकार का बड़ा जंगली वृक्ष। स्त्री० =सोहन चिड़िया। पुं० [?] एक प्रकार का रंदा।
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सोहन-चिड़िया  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार का बड़ा पक्षी जिसका माँस स्वादिष्ट होता है।
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सोहन-पापड़ी  : स्त्री० [हिं० सोहन+पापडी़] मैदे की बनी हुयी एक प्रकार की मिठाई जो जमें हुए कतरों या लच्छों के रूप में होती है।
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सोहन-हलुआ  : पुं० [हिं० सोहन+हलुआ] एक प्रकार की बहुत बढ़िया और स्वादिष्ट मिठाई जो जमें हुए कतरों के रूप में और घी से तर होती है।
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सोहना  : अ० [सं० शोभा] सुशोभित होना। फाबना। वि० [स्त्री० सोहनी] सुंदर और सुहावना। पुं० [फा० सोहान] कसेरों का छेद करने का एक औजार। स० [सं० शोधन] १. साफ करना। २. निराई करना।
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सोहनी  : स्त्री० [हिं० सोहना] १. झाड़। बुहारी। २. खेत में की जानेवाली निराई। ३. निराई करते समय गाया जानेवाला गीत। ४. आधी रात के बाद गाई जाने वाली एक रागिनी।
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सोहनी  : वि० स्त्री० =सोहनी।
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सोहबत  : स्त्री० [अ०] १. संग—साथ। संगत। पद–सोहबत का फल=वह बात (विशेषतः बुरी बात) जो बुरी संगत के कारण सीखी गयी हो। २. स्त्री—प्रसंग। संभोग।
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सोहबतदारी  : स्त्री० [अ०+फा०] स्त्री—प्रसंग। संभोग।
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सोहबती  : वि० [अ० सुहबत] जिससे सोहबत हो। साथी। संगी।
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सोहंम  : अव्य०=सोहम्।
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सोहमस्मि  : अव्य०=सोऽहमस्मि।
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सोहर  : पुं० [हिं० सोहना, सोहला] १. घर में संतान होने पर गाया जाने वाला मंगल गीत। २. उक्त अवसर पर गाये जाने वाले गीतों की संज्ञा। ३. मांगलिक गीत। स्त्री० [?] नाव का फर्श। २. पाल खीचने की रस्सी। विशेष–खिलौना (गीत) और सोहर में यह अंतर है कि सोहर में तो पुत्र जन्म की पूर्व-पीठिका का उल्लेख होता है; परंतु खिलौना में उत्तर-पीठिका का उल्लेख होता है। इसमें आनंद और उत्साह का मात्रा अधिक होती है।
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सोहरत  : स्त्री० =शोहरत (प्रसिद्धि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहराना  : स०=सहलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहला  : पुं०=सोहर (गीत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहली  : स्त्री० [?] माथे पर पहनने का एकस गहना। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहाइन  : वि०=सुहावना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहाई  : स्त्री० [हिं० सोहना=आई (प्रत्य०)] १. सोहने की क्रिया या भाव। निराई करना। २. निराई करने की मजदूरी।
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सोहाग  : पुं०=सुहाग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहागा  : पुं०=सुहागा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहाता  : वि० [हिं० सोहाना] [स्त्री० सोहानी] १. सोहानेवाला। फबनेवाला। २. सत्य।
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सोहान  : पुं० [फा०] रेती नामक औजार।
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सोहाना  : अ०=सुहाना (भला लगना)। अ० [सं० सहन] बरदाश्त होना। जैसे–आपकी बात उनको नहीं सोहाती। (पश्चिम)
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सोहापा  : वि०=सुहावना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहारद  : पुं०=सौहार्द (सदभाव्)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहारी  : स्त्री० [हिं० सोहाना=रचना] पूरी नाम का पकवान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहाल  : पुं० =सुहाल (पकवान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहाली  : स्त्री० [?] ऊपर के दाँतो का मसूड़ा। ऊपरी दाँतों के निकलने की जगह। स्त्री० =सोहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहावटी  : स्त्री० [हिं० सोहाना ?] १. पत्थर की वह पटिया या लकड़ी यो मोटा तख्ता जो खिड़की या दरवाजे के ऊपरी भाग पर पाटन के रूप में लगा रहता है। करगहना। २. ईटों आदि की उक्त प्रकार की जोड़ाई या सीमेंट आदि की ऐसी रचना। (लिन्टेल)
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सोहावन  : वि०=सुहावना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहावना  : वि०=सुहावना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अ० सुहाना (भला लगना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहासित  : वि० [सं० सुभाषित] प्रिय लगने वाला। रुचिकर। पुं० चापलूसीं की बातें। ठकुर—सुहाती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहि  : अव्य०=सौंह (सामने)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहिल  : पुं०=सुहेल (अगस्त्य तारा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहिला  : पुं०=सोहला (सोहर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोंही  : अव्य०=सौंह (सामने)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोहीं (हैं)  : अव्य०=सौंह (सामने)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोंहै  : अ०=सौंह।
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सोहौटी  : स्त्री० =सोहावटी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सोऽपि  : वि० [सं० सः+अपि] १. वह भी। २. वही।
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सोऽहमस्मि  : अव्य० [सं० सः+अहम+अस्मि] वही मैं हूँ–अर्थात मैं ही ब्रह्मा हूँ। (वेदांत का एक प्रसिद्ध सैद्धांतिक वाक्य)
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सोऽहम्  : अव्य०=सोऽहमस्मि।
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सौं  : अव्य० १. दे० ‘सों’। २. दे० ‘सा’ (समान)। उदा०–हरि सौं ठाकुर और न जन कौ।–सूर। ३. दे० ‘सौंह’ (सामने)। स्त्री० =सौंहि (शपथ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौ  : वि० [सं० शत] जो गिनती में पचास का दूना हो। नब्बे और दस। शत। पुं० उक्त की संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है–१॰॰। पद–सौ की एक बात यौ सौ की सीधी एक बात=ठीक और सार-भूत बात। वास्तविक तात्पर्य। सौ जान से=पूरी शक्ति से। सब तरह से। अव्य० सा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौक  : वि० [हिं० सौ+एक] सौ के लगभग। अर्थात बहुत-सा। उदा०–लीन्हीं सौक माला, परे अंगुरिन जप-छाला।–सेनापति। पुं०=शोक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=सोत (सपत्नी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौकन  : स्त्री०=सौत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौकन्य  : वि० [सं०] सुकन्या—संबंधी। सुकन्या का।
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सौकर  : वि० [सं०] [स्त्री० सौकरी] १. सूकर या सूअर संबंधी। सूअर का। २. सुअर की तरह का। ३. सूअर या वाराह अवतार से संबंध रखने वाला। पुं० वाराह सेन नामक तीर्थ।
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सौकरक  : पुं० [सं०] सौकर तीर्थ।
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सौकरायण  : पुं० [सं०] शिकारी। व्याघ। अहेरी।
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सौकरिक  : पुं० [सं०] १. सूअर, रीछ आदि का शिकार करनेवाला। शिकारी। २. शिकारी अहेरी। ३. सुअरों का व्यापार। वि० सुअर संबंधी। सुअर का।
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सौकरीय  : वि० [सं०] सुअर संबंधी। सुअर का।
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सौकर्य  : पुं० [सं०] १. सुकर होने की अवस्था, गुण या भाव। सुकरता। सुसाध्यता। २. सुभीता। ३. कुशलता। दक्षता। पुं० [सं० सूकर+ता] सूकर अर्थात सूअर होने की अवस्था गुण या भाव।
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सौंकारा  : पुं० [सं० सकाल] प्रातः काल। सवेरा। तड़का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंकारे, सौंकेरे  : अव्य० [सं० सकाल, पुं० हिं० सकारे] १. तड़के। सबेरे। २. उचित या ठीक समय से कुछ पहले।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सौकीन  : वि० =शौकीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौकुमारक  : पुं० [सं०] सौकुमार्य।
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सौकुमार्य  : पुं० [सं०] १. सुकुमार होने की अवस्था, गुण या भाव। सुकुमारता। २. यौवन। जवानी। ३. काव्य का एक गुण जो ग्राम्य और श्रुति—कटु शब्दों का त्याग करने पर सुंदर तथा कोमल शब्दों का प्रयोग करने से उत्पन्न होता है। ४. यौवन काल। जवानी। वि० =सुकुमार।
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सौकृति  : पुं० [सं०] १. एक गोत्र—प्रवर्तक ऋषी। २. उक्त ऋषी का गोत्र।
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सौकृत्य  : पुं० [सं०] १. यज्ञादि पुण्य कर्म का सम्यक् अनुष्ठान। २. दे० ‘सौकर्म’।
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सौकृत्यायन  : पुं० [सं०] वह जो सुकृत्य के गोत्र या वंश मे उत्पन्न हुआ हो।
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सौक्तिक  : वि० [सं०] १. सूक्त—संबंधी। सुक्त का। २. सूक्त के रूप में होनेवाला। पुं० =शौक्तिक।
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सौक्ष्म  : पुं० =सूक्ष्मता।
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सौक्ष्मक  : पुं० [सं०] छोटा घोड़ा।
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सौक्ष्म्य  : पुं० [सं०]=सूक्ष्मता।
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सौख  : पुं० [सं०] सुख का गुण, धर्म या भाव। आराम। पुं० =शौक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौख शायिक  : पुं० [सं०] वैतालिक। स्तुति पाठक। बंदी।
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सौखा  : वि० [हिं० सुख] सहज। सुगम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौखिक  : वि० [सं०] १. सुख—संबंधी। २. सुख के रूप में होनेवाला। ३.सुख चाहनेवाला। सुखार्थी।
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सौखी  : पुं० [फा० शोख या शौकीन] गुंडा। बदमाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौखीन  : वि० =शौकीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौख्य  : पुं० [सं०] १. सुख का गुण, धर्म या भाव। सुखता। सुखत्व। २. सुख। आराम।
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सौख्यद  : वि० [सं०]=सुखदायी। सौख्य देनेवाला।
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सौख्यदायी (यिन्)  : वि० [सं०] सुखदायी।
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सौगत  : पुं० [सं०] सुगत (बुद्ध) का अनुयायी। बौद्ध। वि० सुगत संबंधी। सुगत का।
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सौगतिक  : पुं० [सं०] १. बौद्ध धर्म का अनुयायी। २. बौद्ध भिक्षु। ३. नास्तिक। ४. नास्तिकता।
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सौगंद  : स्त्री० [सं० सौगंध] शपथ। कसम। सौंह। क्रि० प्र०–खाना।–देना।
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सौगंध  : पुं० [सं०] १. सुगंधित तेल, इत्र आदि का व्यापार करनेवाला, गंधी। २. सुगंध। खुशबू। २. एक प्राचीन वर्ण-संकर जाति। ४. अगिया घस। भूतृण। वि० सुगंधित। खुशबूदार। स्त्री० =सौगंद (शपथ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौगंधक  : पुं० [सं०] नीला कमल। नील कमल।
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सौगंधिक  : वि० [?] सुगंधवाला। पुं० [सं०] १. नील कमल। २. लाल कमल। ३.सफेद कमल। ४. गंध-तृण। राम-कपूर। ५. रूसा नामक घास। ६. गंधक। ७. पुखराज नामक रत्न। ८. सुगंधित तेल, इत्र आदि का व्यवसायी। गंधी। ९. एक प्रकार का कीड़ जो श्लेष्मा से उत्पन्न होता है। (चरक) १॰. एक प्रकार का नपुंसक जिसे पुरुष की इंद्री अथवा स्त्री की योनि सूँघने से उद्दीपन होता है। नासायोनि। (वैद्यक) ११. दालचीनी, इलायची और तेजपत्ता इन तीनों का समूह। त्रिसुगंधित। १२. एक पौराणिक पर्वत। वि० =सुगंधित।
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सौगंधिका  : स्त्री० [सं०] अलकापुरी की एक नदी।
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सौगंध्य  : पुं० [सं०] सुगंधि का भाव या धर्म। सुगंधता। सुगंधत्व।
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सौगम्य  : पुं० [सं०] सुगम होने की अवस्था, गुण या भाव। सुगमता। आसानी।
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सौगरिया  : पुं० [?] क्षत्रीयों की एक जाति या वंश।
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सौगात  : स्त्री० [तु०] किसी प्रदेश विशेष की कोई नई चीज जो उपहार के रूप में किसी को भेजी या दी जाती है। तोहफा।
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सौगाती  : वि० [हिं० सौगात] १. जो सौगात के रूप में हो या सौगात के रूप में दिया गया हो। जैसे–सौगाती सेब। २. जो सौगात के रूप में दिये जाने के योग्य हो। अर्थात बहुत बढिया।
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सौंघाई  : स्त्री० [हिं० सोहागा=सस्ता] अधिकता। बहुतायत। ज्यादती।
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सौच  : पुं०=शौच।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंचन  : स्त्री० [सं० शौच] मल—त्याग। शौच।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंचना  : स० [सं० शौच] १. शौच करना। मल—त्याग करना। २. मल त्याग के उपरांत हाथ-पैर आदि धोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंचर  : पुं०=सोंचर (नमक)।
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सौंचाना  : स० [हिं० सौंचाना का प्रे०] शोच करना या मल त्याग करना। (मुख्यतः बच्चों के संबंध में प्रयुक्त)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौचिक  : पुं० [सं०] सूचि कर्म या सिलाई द्वारा जीविका निर्वाह करने वाला, अर्थात दरजी। सूचिक।
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सौचिक्य  : पुं० [सं०] सूचिक का कार्य। दरजी का काम। कपड़े आदि सीने का काम। सिलाई।
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सौचिति  : पुं० [सं०] वह जो सुचित के अपत्य हो।
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सौंज  : स्त्री० [फा० साज] साज (सामान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सौज  : वि० [सं० सौजस्] शक्तिशाली। बलवान्। ताकतवर। स्त्री० [फा० साग] साज—सामान। उपकरण। सामग्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौजना  : अ०=सजना (शोभित होना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौजन्य  : पुं० [सं०] सुजन होने की अवस्था, गुण या भाव। सुजनता। भलमनसत।
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सौजन्यता  : स्त्री०=सौजन्य (असिद्ध रूप)।
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सौंजा  : पुं० [हिं० सौंपना] १. सुपुर्द करना। सौंपना। २. जोतने बोने के लिए किसी को खेत देना। ३. आपस में होने वाला परामर्श या समझौता। पुं० [सं० श्वापद] जंगली (विशेषतः शिकारी) जानवर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौजा  : पुं० =सावज (शिकार का जानवर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौजात  : पुं० [सं०] सुजात के वंश में उत्पन्न व्यक्ति। वि० सुजात संबंधी। सुजात का।
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सौड़  : पुं०=सौड़ (चादर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंड़ (ड़ा)  : [हिं० सोना+ओढना] ओढने का (विशेषतः सोते समय ओढने का) भारी कपड़ा। जैसे–रजाई, लिहाफ आदि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंण  : पुं०=शकुन (राज०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंत  : स्त्री० [सं० सपत्नी] किसी स्त्री की दृष्टि से उसके पति या प्रेमी दूसरी पत्नी या प्रेमिका। सपत्नी। पद–सौतिया डाह। (दे० ) वि० [सं०] १. सूत से संबंध रखनेवाला। सूत का। २. सूत से बना हुआ। सूती।
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सौतन  : स्त्री० =सौत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौतापा  : पुं० [हिं० सौत+आपा (प्रत्य०)] १. सौत होने की अवस्था या भाव। सौतपन। २. सौतों में होने वाली पारस्परिक ईर्ष्या या डाह। सौतिया डाह।
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सौति  : पुं० [सं०] सूत के अपत्य, कर्ण। स्त्री० =सौत (सपत्नी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौतिन  : स्त्री० =सौत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौतिया  : वि० [हिं० सौत+इया (प्रत्य०)] सौत संबंधी। सौत का। पद–सौतिया डाह।
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सौतियाडाह  : स्त्री० [हिं०] सौतों में होने वाली पारस्परिक ईर्ष्या या डाह।
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सौतुक (तुख)  : पुं० =सौंतुख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंतुख  : अव्य० [सं० सम्मुख] १. आँखो के आगे। प्रत्यक्ष। सामने। २. आगे। सामने। पुं० आगा। सामना।
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सौतेला  : वि० [हिं० सौत+एला (प्रत्य०)] [स्त्री० सौतेली भाव० सौतेलापन] १. सौत से उत्पन्न। सौत का। जैसै–सौतेला लड़का। २. जो सौत के संबंध के विचार से नाते या रिश्ते में किसी स्थान पर पड़ता हो। जैसे–सौतेला भाई; अर्थात माँ की सौत का लड़का। सौतेली माँ अर्थात किसी की माँ की सौत।
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सौत्य  : पुं० [सं०] सूत या सारथि का काम। वि० १. सूत या सारथि से संबंध रखनेवाला। २. सुत्य अर्थात सोम के अभिषेक सं संबंध रखने वाला।
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सौत्र  : वि० [सं०] १. सूत—संबंधी। सूत का। २. सूत्र—संबंधी। सूत्रों का या सूत्रों के रूप में लिखा हुआ। पुं० ब्राह्मण।
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सौत्रांतिक  : पुं० [सं०] बौद्धों का एक भेद।
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सौत्रामण  : वि० [सं०] [स्त्री० सौत्रामणि] इंद्र—संबंधी। इंद्र का। पुं० एक प्रकार का एकाह यज्ञ।
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सौत्रामणि  : स्त्री० [सं०] इंद्र के प्रीत्यर्थ किया जाने वाला एक प्रकार का यज्ञ। पुं० पूर्व।
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सौत्रामणिक  : वि० [सं०] सौत्रामणि से संबंध रखनेवाला।
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सौत्रिक  : वि० [सं०] सूत्रों से संबंध रखनेवाला। २. सूत से बना या बुना हुआ। सूती। पुं० १. वह जो कते हुए सूत बेचने का व्यापार करता हो। २. जुलाहा। ३. सूत्रों से बुना हुआ कपड़ा या कोई चीज।
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सौदक्ष  : वि० [सं०] १. सुदक्ष—संबंधी। सुदक्ष का। २. सुदक्ष से उत्पन्न।
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सौदक्षेय  : पुं० [सं०] सुदक्ष के अपत्य या वंशज।
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सौदंति  : वि० [सं०] सुदंत संबंधी। पुं० सुदंत के अपत्य का वंशज।
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सौदंतेय  : पुं० [सं०]=सौदंति।
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सौदत्त  : वि० [सं०] १. सुदत्त संबंधी। सुदत्त का। २. सुदत्त से उत्पन्न।
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सौंदन  : स्त्री० [हिं० सौदना] रेह मिले पानी में कपड़े भिगोना। (धोबी)
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सौंदना  : स० [सं० संधम्=मिलना] १. सौंदन का काम करना। २. दे० ‘सानना’।
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सौंदर्ज  : पुं० =सौंदर्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंदर्य  : पुं० [सं०] १. सुंदर होने की अवस्था, गुण या भाव। सुंदरता। खूबसूरती। २. किसी वस्तु का वह गुण या तत्व समूह जो उसके आकार या रूप को आकर्षक और नेत्रों के लिए सुखद बनता है। सुंदरता (ब्यूटी)। विशेष–यह तत्व प्रायः व्यक्तिगत रुचि और विचार पर आश्रित रहता है, और कला के क्षेत्र तक की ही परिमित नहीं है। ३. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सौदर्य  : वि० [सं०] १. जो एक हा उदर से उतपन्न हुए हों। सहोदर। २. सहोदरों का। ३. सहोदरों-जैसा। पुं० भाई-चारा। भातृत्व।
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सौंदर्यता  : स्त्री०=सौंदर्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंदर्यवाद  : पुं० [सं०] यह मत या सिद्धांत की कला में सौंदर्य की ही प्रधानता होनी चाहिए और मनुष्य की रुची उसी के प्रति रहनी चाहिए। (एस्थिटिसिज्म)
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सौंदर्यवादी  : वि० [सं०] सौंदर्यवाद—संबंधी। सौंदर्यवाद का। पुं० वह जो सौंदर्यवाद का अनुयायी, पोषक या समर्थक हो।
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सौंदर्यविज्ञान  : पुं० [सं०]=सौंदर्य—शास्त्र।
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सौंदर्यशास्त्र  : पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें कलात्मक कृतियों, रचनाओं आदि से अभिव्यक्त होनेवाला अथवा उनमें निहित रहनेवाले सौंदर्य का तात्विक, दार्शनिक और मार्मिक विवेचन होता है। (एस्थेटिक्स) विशेष–किसी सुंदर वस्तु को देखकर हमारे मन में जो आनन्ददायिनी अनुभूति होती है। उसके स्वभाव और स्वरूप का विवेचन तथा जीवन की अन्यान्य अनुभूतियों के साथ उसका समन्वय स्थापित करना इनका मुख्य उद्देश्य होता है।
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सौदा  : पुं० [अ०] १. खरीदने और बेचने की चीज। क्रय-विक्रय की वस्तु। माल। यौ०–सौदा-सुल्फ (सुलुक)=खरीदने की चीजें या वस्तुएँ। कई तरह की चीजें। सौदा सूत=सौदा-सुलुफ। २. खरीदने-बेचने या लेन-देन की बात-चीत या व्वहार। ३. ऐसा व्यवहार जिसमें किसी का कोई काम या हित करके उसके बदले में उससे अपना कोई काम या हित कराया जाता हो। मुहा०–सौदा करना या पटाना=बात-चीत करके लेन-देन, आदान-प्रदान आदि का कोई व्यापार या व्यवहार पक्का या स्थिर करना। ४. खरीदने या बेचने की बात-चीत पक्की करना। (बार्गेन, उक्त सभी अर्थों में) जैसे–उन्होने पचास गाँठ का सौदा किया। पद–सौदागर (देखें)। ५. काँट—छाट कर साफ किये हुए वे पान जो ढोली में सड़ गये हों। (तंबोली)। ६. यूनानी चिकित्सा-पद्धति में माने हुए शरीर के चार दूषित तत्वों में से एक जिसका रंग काला कहा गया है। ७. उन्माद या पागपन नामक रोग जो उक्त दूषित तत्व के प्रकोप से उत्पन्न माना गया है।
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सौदाई  : [ अ० सौदा+ई (प्रत्य०)] जिसे सौदा या पागलपन हुआ हो। पागल। बावला। मुहा०–(किसी का) सौदाई होना=(किसी के प्रेम में) पागल—सा हो जाना।
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सौदाकारी  : स्त्री० [अ० फा०] १. सौदा खरीदने या बेचने अथवा उसके निश्चय करने के संबंध में होनेवाली बातचीत। (बार्गेनिंग) २. दे० ‘सौदेबाजी’।
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सौदागर  : पुं० [फा०] [भाव० सौदागरी] रोजगारी। चीजें खरीदने और बेचने या व्यापार करनेवाला। व्यापारी।
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सौदागर-बच्चा  : पुं० [फा० सौदागर+हिं० बच्चा] ऐसा पुत्र या वंशज जो स्वयं भी सौदागरी करता हो। पुश्तैनी सौदागर।
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सौदागरी  : स्त्री० [फा०] सौदागर का काम, पद या भाव। व्यापार। व्यवसाय। रोजगार।
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सौदामनी  : स्त्री० [सं०] १. बिजली। विद्युत। २. विशेषतः माला के आकार की विद्युत् या बिजली। ३. संगीत में एक प्रकार की रागिनी जो मेघ राग की सहचरी कही गई हो।
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सौदामनीय  : वि० [सं०] १. सौदामनी या विद्युत से संबंध रखनेवाला। २. सौदामनी या विद्युत्-सा।
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सौदामिनी  : स्त्री० =सौदामनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौदामिनीय  : वि० [सं०]=सौदामनी संबंधी।
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सौदामेय  : पुं० [सं०] सुदामा के अपत्य का वंशज।
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सौदाम्नी  : स्त्री० =सौदामनी।
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सौदायिक  : पुं० [सं० सुदाय+ठक्–इक] १. विवाह के समय वधू को उसके माता—पिता तथा संबंधियों के द्वारा मिलनेवाला धन। २. इस अवसर पर वधू को दिया जानेवाला उपहार।
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सौदेबाजी  : स्त्री० [अ० सौदा+फा० बाजै (प्रत्य०)] (खूब समझ-बूझकर या अड़कर अथवा अपने लाभ का पूरा ध्यान रखकर किसी ठहराव लेनदेन या व्यवहार के संबंध में की जानेवाली बात-चीत। (बारगेनिंग)
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सौदेव  : पुं० [सं०] सुदेव के पुत्र, दिवोदास।
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सौद्युम्नि  : पुं० [सं०] सुद्युम्न के वंशज।
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सौंध  : पुं०=सौध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सुगंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौध  : वि० [सं०] १. सुधा से बना हुआ। २. सफेदी या पलस्तर किया हुआ। पुं० १. वह ऊँचा और बड़ा पक्का मकान जिस पर चूना पुता हो। २. प्रासाद। महल। ३. प्राचीन भारत में धवलग्रह का वह ऊपकी भाग (वासभवन से भिन्न) जो केवल रानियों के उठने—बैठने के लिए रक्षित रहता था। ४. चाँदी। रजत। ५. दूधिया पत्थर। दुग्धपाषाण।
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सौधकार  : पुं० [सं०] सौध अर्थात प्रासाद या भवन बनानेवाला कारीगर। राज। मेमार।
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सौंधना  : स० [सं० सुगंधि] सुगंधित करना। सुवासित करना। वासना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० सौंदना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौधना  : स०=सोधना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौधन्य  : वि० [सं०] १. सुधन—संबंधी। २. सुधन से उत्पन्न।
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सौधर्म  : पुं० [सं०] १. सुधर्म का गुण या भाव। २. सुधर्म का पालन। ३. सुजनता। साधुता। ४. जैनों के अनुसार देवताओं का निवास स्थान। कल्प—भवन।
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सौधर्मज  : पुं० [सं०] सौधर्म से उत्पन्न एक प्रकार के देवता। (जैन) वि० सौधर्म में उत्पन्न।
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सौधर्म्य  : पुं० [सं०] १. सुधर्म का गुण या भाव। २. भलमनसत। सज्जनता। ३. ईमानदारी।
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सौंधा  : वि० , पुं० =सोंधा। उदा०–गंधी को सौंधने नहीं, जन—जन होथ बिकाय।–नन्ददास।
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सौधा  : वि० [हिं० मँहगा का अनु०] सस्ता। अल्प मूल्य का। कम दाम का। ‘मँहगा’ का विपर्याय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौधाकर  : वि० [सं०] सुधाकर या चंद्रमा-संबंधी। चांद्र।
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सौधात  : पुं० [सं०] ब्राह्मण और भृज्जकंठी से उत्पन्न संतान।
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सौधातिक  : पुं० [सं०] सुधाता के वंशज।
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सौधार  : पुं० [सं०] नाट्यशास्त्र के अनुसार नाटक के चौदह भागों में से एक।
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सौधावति  : पुं० [सं०] सुधावति के अपत्य।
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सौंधी  : वि० [?] १. अच्छा। २. उचित। ठीक। वाजिब।
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सौधृतेय  : पुं० [सं०] सुधृति के वंशज।
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सौन  : वि० [सं०] १. सून या सूना से संबंध रखनेवाला। २. पशु—पक्षियों के वध या हत्या से संबंध रखनेवाला। पुं० १. कसाई। बूचड़। २. बिल्ली के लिए रखा हुआ ताजा मांस। अव्य० [सं० सम्मुख] प्रत्यक्ष। सामने।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौनक  : पुं० =शौनक (ऋषी)।
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सौनंद  : पुं० [सं०] बलराम के मूसल का नाम।
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सौनंदी (दिन्)  : पुं० [सं०] सौनंदधारी बलराम।
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सौनन  : स्त्री० =सौंदन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंनना  : स०=सौंदना।
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सौनसेन  : पुं० =शूरसेन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० शौरसेन] आधुनिक ब्रजमंडल। शौरसेन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौनहोत्र  : पुं० =शौनहोत्र।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सौना  : पुं० =सोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =सौंदन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सौनाग  : पुं० [सं०] वैयाकरणों की एक शाखा, जिसका उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में है।
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सौनामि  : पुं० [सं०] वह जो सुनाम के गोत्र से उत्पन्न हुआ हो।
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सौनिक  : पुं० [सं०] १. माँस बेचनेवाला। कसाई। वैतंसिक। मांसिक। २. बहेलिया। ब्याध।
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सौंनी  : पुं०=सुनार।
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सौनीतेय  : पुं० [सं०] सुनीति के पुत्र, ध्रुव।
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सौंपना  : स० [सं० समर्पण, प्रा० सउप्पण] १. किसी के अधिकार में देना। २. पूरी तरह से और सदा के लिए किसी को दे देना। ३. समर्पण करना।
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सौपभीला  : वि० [सं० सौरभ+ईला (प्रत्य०)] १. सौरभ या सुगंधि से युक्त। २. सब प्रकार से सुंदर और सुखद। उदा०–उनका पूरा सदन उसने सौरभीला बनाया।–हरिऔध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सौपरिव  : वि० [सं०] सुपर्व संबंधी। सुपर्व का।
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सौपर्ण  : पुं० [सं०] १. पन्ना। मरकत। २. सोंठ। ३. ऋग्वेद का एक सूक्त। ४. गरुण के अस्त्र का नाम। ५. गरुण पुराण का एक नाम। वि० सुपर्ण संबंधी। सुपर्ण का।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सौपर्ण्य  : पुं० [सं०] सुपर्ण पक्षी (बाज या चील) का स्वभाव या धर्म। वि० सौपर्ण।
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सौपाक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन वर्ण शंकर जाति।
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सौपिक  : वि० [सं०] १. सूप या व्यंजन से संबंध रखनेवाला। २. जिसमें सूप या शोरबा मिला या लगा हुआ हो। शोरबेदार।
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सौपिष्ट  : पुं० [सं०] वह जो सुपिष्ट के गोत्र से उत्पन्न हुआ हो।
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सौपुष्पि  : पुं० [सं०] वह जो सुपुष्प के गोत्र से उत्पन्न हुआ हो। सुपुष्प का गोत्रज।
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सौप्तिक  : वि० [सं० सुप्क+ठक्–इक] सुप्ति या नींद संबंधी। पुं० १. रात के समय किया जाने वाला आक्रमण। २. सोते हुए व्यक्ति पर किया जाने वाला आक्रमण।
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सौप्रजास्त्व  : पुं० [सं०] अच्छी संतानो का होना। अच्छी औलाद होना।
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सौप्रतीक  : वि० [सं०] सुप्रतीक दिग्गज संबंधी। २. हाथ से संबंधा रखनेवाला। हाथी का।
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सौंफ  : स्त्री० [सं० शतपुष्पा] १. पाँच—छः फुट ऊँचा एक पौधा जिसकी पत्तियाँ सोए की पत्तियों के समान ही बहुत बारीक और फूल सोए के समान ही रुछ पीले होते हैं। फूल लंबे सींको मे गुच्छों के रूप में लगतें हैं। २. उक्त पौधे के समान जो जीरे के रूप में होते हैं और मसाले के काम में आते हैं।
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सौंफिया  : स्त्री० [हिं० सौंफ=इया (प्रत्य०)] १. सौंफ की बनी हुइ शराब। २. रूसा नाम की घस जब कि वह पुरानी और लाल हो जाती है।
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सौंफी  : वि० [हिं० सौंफ] सौंफ संबंधी। सौंफ का। स्त्री० =सौंफिया (शराब)।
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सौबल  : पुं० [सं०] गांधार देश के राजा सुबल का पुत्र, शकुनि। वि० सुबल संबंधी। सुबल का।
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सौबलक  : पुं० [सं०]=सौबर (शकुनि)।
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सौबली  : स्त्री० [सं०] सुबल की पुत्री, गांधारी (धृतराष्ट्र की पत्नी)।
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सौबलेय  : पुं० [सं०]=सौबल (शकुनि)।
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सौबिगा  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बुलबुल जो ऋतु के अनुसार रंग बदलती है।
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सौबीर  : पुं०=सौवीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौभ  : पुं० [सं०] १. राजा हरिश्चंद्र की उस कल्पित नगरी का नाम जो आकाश में मानी गई है। कामचारिपुर (महाभारत) २. प्राचीन भारत में, शाल्वों का एक नगर या जनपद।
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सौभग  : पुं० [सं०] १. सुभग होने की अवस्था, धर्म या भाव। सौभाग्य। खुशकिस्मती। २. सुख। ३. धन-संपत्ति। सुन्दरता। वि० सुभग संबंधी। सुभग का।
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सौभद्र  : वि० [सं०] सुभद्रा-संबंधी। पुं० १. सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु। २. वह युद्ध जो सुभद्राहरण के समय हुआ था। ३. एक प्राचीन तीर्थ।
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सौभद्रेय  : पुं० [सं०] १. सुभद्रा के पुत्र, अभिमन्यू। २. बहेड़ा।
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सौभर  : पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषी।
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सौभरायण  : पुं० [सं०] वह जो सौभर के गोत्र से उत्पन्न हुआ हो। सौभर का गोत्रज।
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सौंभरि  : पुं०=सौभरि।
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सौभरि  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषी जो बड़े तपस्वी थे। (भागवत)
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सौभागिनी  : स्त्री० [सं० सौभाग्य] सधवा स्त्री। सुहागिन।
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सौभागिनेय  : पुं० [सं०] प्रिय पत्नी का पुत्र।
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सौभाग्य  : पुं० [सं०] १. अच्छा भाग्य। उत्तम प्रारब्ध। अच्छी किस्मत। २. यथेष्ट सुख। ३. कल्याण। मंगल। ४. स्त्रियों के पक्ष में वह अवस्था जिसमें उसका पति जीवित और वर्तमान रहता है। अहिवात। सुहाग। ५. सिंदूर जो सौभाग्यवती स्त्रियों का मुख्य चिन्ह है। ६. अनुराग। प्रेम। ७. धन-संपत्ति ८. सुंदरता। ९. शुभ-कामना। १॰. सफलता। ११. एक प्रकार का व्रत जो सब तरह से सुखी रहने के लिए किया जाता है। १२. ज्योतिष में, विष्कंभ आदि सत्ताइस योगों मे से चौथा योग जो बहुत शुभ माना जाता है। १३. एक प्रकार का पौधा। १४. सुहाग।
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सौभाग्य तृतिया  : स्त्री० [सं०] भाद्र शुक्ल पक्ष की तृतिया जो स्त्रियों के लिए बहुत पवित्र मानी गई है। हरितालिका तीज।
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सौभाग्य-व्रत  : पुं० [सं०] फागुन शुक्ल तृतिया को किया जाने वाला एक प्रकार का व्रत।
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सौभाग्यवती  : स्त्री० [सं०] (स्त्री०) जिसका सौभाग्य या सुहाग बना हो। जिसका पति जीवित और वर्तमान हो। सधवा। सुहागिन। २. अच्छे भाग्यवाली।
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सौभाग्यवान (वत्)  : वि० [सं०] [स्त्री० सौभाग्यवती] १. जिसका भाग्य अच्छा हो। अच्छे भाग्य वाला। खुशकिस्मत। खुशनसीब। २. सब प्रकार से सुखी और सम्पन्न।
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सौभासिक  : वि० [सं०] चमकीला। प्रकाशमान्।
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सौभिक  : पुं० [सं०] द्रुपद का एक नाम।
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सौभिक  : पुं० [सं०] जादूगर। इंद्रजालिक।
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सौभिक्ष  : वि० [सं०] सुभिक्ष या सुसमय लानेवाला। पुं० घोड़ों को होनेवाला एक प्रकार का शूल रोग।
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सौभूत  : पुं० [सं०] एक प्राचीन स्थान जो संभवतः केकय देश में था।
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सौभेय  : पुं० [सं०] सौभ जनपद या नगर का निवासी।
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सौभेषेज  : वि० [सं०] जिसमें सुभेषज या उत्तम ओषधियाँ हो। उत्तम औषधियों से युक्त।
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सौभ्रात्र  : पुं० [सं०] अच्छा भाई-चारा। सुभ्रातृत्व।
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सौम  : वि० [सं०] १. सोमलता-संबंधी। २. सोम अर्थात चंद्रमा संबंधी। वि० =सौम्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौमंगल्य  : पुं० [सं०] १. सुमंगल। कल्याण। २. मांगलिक द्रव्य या सामग्री।
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सौमंत्रिण  : पुं० [सं०] वह जिसके अच्छे मंत्री हो।
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सौमन  : पुं० [सं०] एक प्रकार का अस्त्र (रामायण)। २. सुमन। फूल।
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सौमनस  : वि० [सं०] १. सुमन या फूल संबंधी। २. फूलों का बना हुआ। ३. फूल के जैसा सुंदर और कोमल। पुं० १. आनन्द। प्रसन्नता। २. अनुग्रह। कृपा। ३. पश्चिम दिशा के दिग्गज। ४. कर्म मास या सावन की आठवीं तिथी। ५. अस्त्रों को निष्फल करने का एक संहारक अस्त्र। ६. जायफल।
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सौमनस्य  : वि० [सं०] आनन्द देने वाला। प्रसन्न करने वाला। पुं० १. प्रसन्नचित्तता। प्रसन्नता। आनन्द। २. आपस में होनेवाला सद्भाव। ३. किसी विषय की सुबोधता। ४. श्राद्ध में पुरोहित या ब्राह्मण के हाथ में फूल देना। (भागवत)
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सौमायन  : पुं० [सं०] (सोम अर्थात चंद्रमा के पुत्र) बुध।
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सौमिक  : वि० [सं०] १. सोम रस से किया जाने वाला (यज्ञ)। २. सोम यज्ञ संबंधी। ३. चंद्रमा संबंधी। (ल्यूनर) जैसे–सौमिक ग्रहण। पुं० १. चांद्रायण व्रत करनेवाला। २. सोंम रखने का पात्र।
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सौमिकी  : स्त्री० [सं०] १. यज्ञ के समय सोम का रस निचोड़ने की क्रिया। २. एक प्रकार का यज्ञ जिसमें दीक्षणीयेष्टि भी करते हैं।
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सौमित्तिका  : स्त्री० [सं०] १. पालकी, रथ आदि के ऊपर उन्हें ढकने के लिए डाला जानेवाला कपड़ा। ओहार। २. घोड़े, हाथी आदि की पीठ पर डाला जानेवाला कपड़ा। झूल।
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सौमित्र  : वि० [सं०] सुमित्रा-संबंधी। सुमित्रा का। पुं० १. सुमित्रा के पुत्र, लक्ष्मण। २. दोस्ती। मित्रता।
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सौमित्रा  : स्त्री०=सुमित्रा।
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सौमित्रि  : पुं० [सं०] [वि० सौमित्रीय] सुमित्रा के पुत्र, लक्ष्मण।
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सौमित्रीय  : वि० [सं०] लक्ष्मण संबंधी।
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सौमिलिक  : पुं० [सं०] बौद्ध भिक्षुओं का एक प्रकार का दंड जिसमें रेशम का गुच्छा लगा रहता है।
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सौमी  : स्त्री०=सौम्यी (चाँदनी)।
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सौमुख्य  : पुं० [सं०] १. सुमुखता। चित्त की प्रसन्न अवस्था। २. प्रसन्नता।
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सौमेंद्र  : वि० [सं०] सोम और इंद्र का। सोम और इंद्र—संबंधी।
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सौमेधिक  : वि० [सं०] १. सुमेध से युक्त। २. दिव्य ज्ञान—संपन्न। जिसे दिव्य ज्ञान हो। पुं० सिद्ध पुरुष।
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सौमेरु  : वि० [सं०] सुमेरु संबंधी। सुमेरु का।
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सौमेरुक  : वि० पुं० [सं०] सोना। सुवर्ण। वि०=सौमेरु।
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सौम्य  : वि० [सं० सोम+ष्यञ्] [स्त्री० सौम्या] १. सोम संबंधी। २. चंद्रमा संबंधी। ३. सोमलता संबंधी। ४. सोम नामक देवता से संबंध रखनेवाला। ५. शीतल और स्निग्ध। ६. कोमल ठंढा और रसीला। ७. कोमल, नम्र तथा शांत प्रकृतिवाला। ८. उत्तर दिशा का। ९. मांगलिक। शुभ। १॰. प्रसन्न। ११. मनोहर। सुंदर। १२. उज्वल। चमकीला। प्रकाशमान्। पुं० १. सोमयज्ञ। २. चंद्रमा के पुत्र, बुध। ३. ब्राह्मण। ४. ब्राह्मणों के पितरों का एक वर्ग। ५. एक प्रकार का कृच्छ् व्रत। ६. पुराणानुसार एक द्वीप। ७. एक प्रकार का दिव्यास्त्र। ८. साठ संवत्सरों में से एक। ९. मृगशिरा नक्षत्र। १॰. मार्गशीर्ष मास। अगहन। ११. फलित ज्योतिष में से वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर, और मीन राशियाँ जो सौम्य प्रकृतिवाली मानई गई हैं। १२. पुराणानुसार सातवें युग की संज्ञा। १३. आयुर्वेद में लाल होने से पहले रक्त की अवस्था या रूप। १४. आधुनिक विज्ञान में, रक्त का वह अंश या तत्व जिसके फलस्वरूप जीव—जंतु कुछ विशिष्ट रोगो से रक्षित रहते हैं। लस। (सीरम) दे० ‘सौम्य विज्ञान’। १५. पित्त। १६. बायाँ हाथ। १७. बाई आँख। १८. हथेली का मध्य भाग। १९. सज्जनता और सुशीलता। २॰. गूलर।
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सौम्य-कृच्छ्  : पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत जिसमें पाँच दिन क्रम से खली (पिण्याक) भात, मट्ठे, जल और सत्तू पर रहकर छठे दिन उपवास करना पड़ता है।
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सौम्य-गोल  : पुं० [सं०] उत्तरी गोलार्द्ध।
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सौम्य-ग्रह  : पुं० [सं० मध्य० स०] चंद्र, बुध, वृहस्पति और शुक्र ग्रहों में से हर एक। विशेष–फलित ज्योतिष में से गिनती शुभ ग्रहों में होती है।
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सौम्य-ज्वर  : पुं० [सं०] एक प्रकार का ग्रह जिसमें कभी शरीर गरम हो जाता है और कभी ठंडा। (वैद्यक)
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सौम्य-शिखा  : स्त्री० [सं०] छंद-शास्त्र में मुक्तक विषम वृत्त के दो भेदों में से एक जिसके पूर्व दल में १६ गुरु वर्ण और उत्तर दल में ३२ लघु वर्ण होते हैं।
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सौम्यगंधा  : स्त्री० [सं०] सेवती।
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सौम्यता  : स्त्री० [सं०] १. सौम्य होने की अवस्था, गुण या भाव। २. सुशीलता। ३. सुंदरता। ४. शीतलता।
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सौम्यत्व  : पुं०=सौम्यता।
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सौम्यदर्शन  : वि० [सं०] जो देखने मे सुंदर हो। प्रिय-दर्शन।
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सौम्यवार  : पुं० [सं०] बुधवार।
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सौम्यविज्ञान  : पुं० [सं०] वह विज्ञान जिसमें औषध के काम के लिए जीवों के रक्त से सौम्य बनाने का विवेचन होता है। विशेष–अनेक जीव जंतुओं के रक्त में से कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जो उन्हे कुछ विशिष्ट रोगों से रक्षित रखते हैं। जैसे–बकरी के रक्त में क्षय रोग और कबूतर के रक्त में पक्षाघात आदि से रक्षित रखनेवाले कुछ विशिष्ट तत्व होते हैं। जो ‘सौम्य’ कहलाते हैं। सौम्यविज्ञान इसी प्रकार के तत्वों की परीक्षा करके और उसके रूप में उन्हे निकालकर क्षीण प्राणियों के शरीर में इसलिए प्रविष्ट करते हैं कि वे उन रोगों से रक्षित रहें।
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सौम्या  : स्त्री० [सं०] १. दुर्गा का एक नाम। २. मृगशिरा नक्षत्र। ३. मोती। ४. आर्या छंद का एक भेद। ५. ब्राह्मी। ६. बड़ी इंद्रायन। ७. रुद्रजटा। ८. बड़ी मालकंगनी। ९. पाताल गारुड़ी। १॰ .धुँधची। ११. कचूर। १२. मोतिया। १३. शालिपर्णी। सरिवन।
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सौम्यी  : स्त्री० [सं०] चाँदनी। चंद्रिका।
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सौंर  : पुं० [हिं० सौरी] मिट्टी के बरतन भाड़े आदि जो संतानोत्पत्ति के दसवें दिन (अर्थात सूतक हटने पर) तोड़ दिये जाते हैं। स्त्री०=सौरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौर  : वि० [सं० सूर या√सृ (गत्यादि)+अण] १. सूर्य संबंधी। सूर्य का। २. जिसकी गणना सूर्य के परिभ्रमण के आधार पर होता हो। जैसे–सौर मास, सौर-वर्ष। ४. सूर्य के प्रभाव से होनेवाला। (सोलर) ५. सूर या देवता से संबंध रखनेवाला। ६. सुरा या मद्य से संबंध रखने वाला। जैसे–सौर ऋण अर्थात वह ऋण जो सुरा या मद्य पीने के लिए दिया जाता था। पुं० १. सूर्य का उपासक या भक्त। २. शनि ग्रह जो सूर्य का पुत्र माना गया है। ३. पुराणानुसार बीसवें कल्प का नाम। ४. तुंबरू। ५. धनियाँ। ६. दाहिनी आँख। ७. यम। स्त्री० [सं० शाट, हिं० सौंड] चादर। ओढ़ना। उदा०–कुस साँथरि भई और सुपेता।–जायसी। स्त्री० =सौरी (मछली)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अ०] १. बैल या साँड़। २. वृष राशि।
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सौर जगत  : पुं० [सं०] हमारे सूर्य और उसकी परिक्रमा करनेवाले नौ ग्रहों, अट्ठाइस उपग्रहों आदि का वर्ग या समूह जो आकाशचारी पिंडो में स्वतंत्र इकाई के रूप में हैं। (सोलर सिस्टम)
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सौर-दिन  : पुं० [सं०] एक सूर्योदय के आरंभ से दूसरे सूर्योदय के पूर्व तक का समय, जो पूरा अक दिन के रूप मे माना जाता है। इसी को सावन दिन भी कहते हैं।
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सौर-परिकर, सौर-परिवार  : पुं० दे० ‘सौर जगत’।
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सौर-मास  : पुं० [सं०] एक सूर्य-संक्रांति से दूसरी सूर्य-संक्रांति तक का सारा समय जो लगभग ३॰ या ३१ दिनो का होता है। विशेष–सौर गणना के अनुसार कार्तिक, माघ, फागुन और चैत ३॰-३॰ दिनों के, मार्ग शीर्ष और पौष २९-२९ दिनों के, आषाढ़ ३२ दिनों का और शेष सब मास ३१-३१ दिनों के होते हैं।
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सौर-वर्ष  : पुं० [सं०] उतना काल जितना सूर्य को मेष, वृष आदि बारह राशियों में भ्रमण करने में लगता है। एक मेष संक्रांति से दूसरी मेष संक्राति तक का समय। (सोलर इयर)
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सौर-सावन याम  : पुं० दे० ‘सावन मास’ के अंतर्गत।
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सौंरई  : स्त्री० [हिं० साँवरा] साँवलापन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौरज  : पुं० [सं०] १. तुंबुरू। तुंबरू। २. धनियाँ। पुं०=शौर्य (शूरता)।
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सौरण  : वि० [सं०] सूरन-संबंधी।
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सौरत  : वि० [सूरत+अण्] १. सुरति से संबंध रखनेवाला। २. सुरति के परिणामस्वरूप होनेवाला। पुं० १. रति-क्रीड़ा। सुरति। २. रति-सुख।
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सौरत्य  : पुं० [सं०] १. नायक। २. योद्धा।
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सौरध्री  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का तंबूरा या सितार।
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सौरना  : स० [सं० स्मरण, हिं० सुमरना] स्मरण करना। चिंतन करना। ध्यान करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=सँवरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौरपत  : पुं० [सं०] सूर्योपासक। सूर्य-पूजक।
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सौरभ  : वि० [सं०] १. सुरभि संबंधी। सुगंधित। २. सुरभि (गाय) संबंधी अथवा उससे उत्पन्न। पुं० १. सुरभि का भाव या धर्म। सुगंध। खुशबू। महक। २. केसर। ३. तुंबरू। ४. धनियाँ। ५. बोल नामक गंध-द्रव्य। ६. आम।
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सौरभक  : पुं० [सं०] एक प्रकार का वर्ण-वृत्त, जिसके पहले चरण में सगण, जगण, सगण, और लघु, दूसरे में नगण, सगण, जगण और गुरु, तीसरे में रगण, नगण, भगण और गुरु तथा चौथे में सगण, जगण, सगण, जगण और गुरु होता है।
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सौरभित  : भू० कृ० [सं० सौरभ] सौरभ से युक्त। सुगंधित।
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सौरभी  : स्त्री० [सं०] १. सुरभि नाम की गाय की पुत्री। २. गाय। गौ।
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सौरभेय  : वि० [सं०] सुरभि-संबंधी। सुरभि का। पुं० सुरभि का पुत्र अर्थात वृष या साँड़।
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सौरभेयक  : पुं० [सं०] साँड़। वृष।
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सौरभेयी  : स्त्री० [सं०] गाय। गौ।
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सौरभ्य  : पुं० [सं०] १. सुरभि का गुण या भाव। सुपभिता। २. सुगंध। खुशबू। ३. सुंदरता। ४. कीर्ति। यश। ५. कुबेर का एक नाम।
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सौरमंडल  : पुं०=सौर-जगत।
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सौरव  : वि० [सं०] स्वर-संबंधी।
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सौरस  : पुं० [सं०] १. सुरसा का अपत्य या पुत्र। २. जूँ नाम का कीड़ा। ३. तरकारी आदि का नमकीन रस या शोरबा। वि० सुरसा-संबंधी। सुरसा का।
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सौरसेय  : पुं० [सं०] कार्तिकेय या स्कंद का एक नाम।
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सौरसैंधव  : वि० [सं०] १. गंगा का। गंगा संबंधी। २. गंगा से उत्पन्न। पुं० १. भीष्म जो गंगा से उत्पन्न हुए थे। २. सूर्य का घोड़ा।
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सौरस्य  : पुं० [सं०] सुरस अर्थात रसपूर्ण तथा स्वादिष्ट होने की अवस्था या भाव।
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सौंरा  : वि० =साँवला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सौंराई  : स्त्री० =साँवलापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सौराज्य  : पुं० [सं०] १. अच्छा राज्य सुराज्य। २. अच्छा शासन।
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सौराटी  : स्त्री० [सं०] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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सौराष्ट्र-मृत्तिका  : स्त्री० [सं०] गोपीचंदन।
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सौराष्ट्रक  : पुं० [सं०] १. सौराष्ट्र या सोरठ प्रदेश का रहनेवाला। २. एक प्रकार का विष। ३. पंच लौह। वि० =सौराष्ट्रिक।
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सौराष्ट्रिक  : वि० [सं०] १. सौराष्ट्र संबंधी। २. सौराष्ट्र में होनेवाला। पुं० सौराष्ट्र का निवासी।
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सौराष्ट्री  : स्त्री० [सं०] १. गोपीचंद्र। २. सौराष्ट्र की भाषा।
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सौराष्ट्रेय  : वि० [सं०] सोरठ प्रदेश का। गुजरात-काठियावाड़ का।
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सौरास्त्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का दिव्यास्त्र।
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सौरि  : पुं० [सं०] १. सूर्य के पुत्र, शनि। २. असन या विजैसार नामक वृक्ष। ३. दक्षिण भारत का एक प्राचीन जनपद। पुं०=शौरि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौरिक  : पुं० [सं०] १. शनैश्चर ग्रह। २. स्वर्ग। ३. वह ऋण जो सुरा या शराब पीने के लिए लिया गया हो। वि० १. सुर अर्थात देवता-संबंधी। २. सुरा-संबंधी। ३. स्वर्ग का। स्वर्गीय।
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सौरिंध्र  : पुं० [सं०] [स्त्री० सौरिंध्री] १. ईशान कोण में स्थित एक जनपद। (बृहत्संहिता) २. उक्त जनपद का निवासी।
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सौरिरत्न  : पुं० [सं०] नीलम नामक मणि।
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सौरी  : स्त्री० [सं० सूति-ग्रह] वह कोठरी, जिसमें स्त्री बच्चा प्रसव करती है। सूतिकागार। जच्चा खाना। (लेबर रूम) मुहा०–सौरी कमाना=नाइन चमारी आदि का सौरी में जाकर प्रसूता की सेवा सुश्रुषा-करना। स्त्री० [सं०] १. सूर्य की पत्नी। २. गाय। स्त्री०=शफरी (मछली)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौरीय  : वि० [सं०] सूर्य-संबंधी। सूर्य का। सौर। पुं० १. एक प्रकार का वृक्ष जिसमें विषैला गोंद निकलता है। २. उक्त वृक्ष का विष।
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सौरेयक  : पुं० [सं०] सफेद कटसरैया। श्वेत झिंटी।
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सौर्य  : वि० [सं०] १. सूर्य—संबंधी। सूर्य का। २. सूर्य से उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. सूर्य का पुत्र शनिदेव। २. साठ संवत्सरों में से एक। ३. हिमालय की चोटी का एक नाम।
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सौर्य-याम  : वि० [सं०] सूर्य और यज्ञ संबंधी। सूर्य और यम का।
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सौर्योदयिक  : वि० [सं०] सूर्योदय-संबंधी।
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सौल  : पुं० [सं० शकुल] एक प्रकार की बड़ी मछली जिसका सिर साँप के सिर की तरह होता है। पुं०=साहुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौलंकी  : पुं०=सोलंकी (राजवंश)।
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सौलक्षण्य  : पुं० [सं०] शुभ या अच्छे लक्षणों का होना। सुलक्षणता। सुलक्षणों से युक्त होने की अवस्था, गुण या भाव। सुलक्षणता।
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सौलभ्य  : पुं० [सं०] सुलभता।
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सौली  : स्त्री०=सौल (मछली)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौल्विक  : पुं० [सं०] धातु के बरतन आदि बनानेवाला अर्थात ठठेरा।
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सौव  : पुं० [सं०] अनुशासन। आदेश। वि० १. ‘स्व’ से संबंध रखनेवाला। २. निज का। अपना। ३. स्वर्गीय।
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सौवर्चल  : वि० [सं०] सुवर्चल प्रदेश-संबधी। सुवर्चल का। पुं० १. सोंचर (नमक)। २. सज्जी।
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सौवर्चल  : स्त्री० [सं०] रुद्र की पत्नी की नाम।
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सौवर्चस  : वि० [सं०]=सुवर्चस (दीप्तिमान्)।
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सौवर्ण  : वि० [सं०] १. स्वर्ण-संबंधी। सोने का। २. सोने का बना हुआ। ३. जो तौल में एक स्वर्ण या एक कर्ष भर हो। पुं० १. स्वर्ण। सोना। २. सोना तौलने की एक पुरानी तौल जो एक कर्ष या १६ माशे के बराबर होती थी। ३. सोने की बाली।
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सौवर्णिक  : वि० [सं०] सुवर्ण-संबंधी। पुं० सुनार।
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सौवर्णिका  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का विषैला कीड़ा। (सुश्रुत)
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सौवर्ण्य  : पुं० [सं०] १. ‘सुवर्ण’ होने की अवस्था, गुण या भाव। २. वर्णों का शुद्ध और सुन्दर उच्चारण।
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सौवस्तिक  : वि० [सं०] स्वस्ति कहने अर्थात मंगल-कामना करनेवाला। पुं० कुल-पुरोहित।
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सौवाध्यायिक  : वि० [सं०] स्वाध्याय-संबंधी। पुं० स्वाध्यायी।
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सौवासिनी  : स्त्री०=सुवासिनी (भद्र स्त्री)।
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सौवास्तव  : वि० [सं०] १. सुवास्तु अर्थात भवन निर्माण की कुशलता से युक्त। अच्छी कारीगरी का (मकान)। २. अच्छे स्थान पर बना हुआ (मकान)।
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सौविद  : पुं० [सं०] अंतःपुर या रनिवास का रक्षक। कंचुकी। सुविद।
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सौविदल्ल  : पुं०=सौविद।
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सौवीर  : पुं० [सं०] १. सिंधु नदी के आसपास के प्रचीन प्रदेश का नाम। २. उक्त प्रदेश का निवासी या राजा। ३.संगीत में कर्णाटकी पद्धति का एक राग। ४. जौं की काँजी और फल। ५. बेर का पेड़। ६. जयद्रथ।
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सौवीरक  : पुं० [सं०] १. जयद्रथ का एक नाम। २. सौवीर।
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सौवीरा  : स्त्री०=सौवीरी।
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सौवीरांजन  : पुं० [सं० सौवीर+अंजन] सौवीर प्रदेश में होनेवाला प्रसिद्ध सुरमा।
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सौवीरी  : स्त्री० [सं०] १. संगीत में एक प्रकार की मूर्च्छना। २. सौवीर की एक राजकुमारी।
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सौवीर्य  : पुं० [सं०] १. ‘सुवीर’ होने की अवस्था, गुण या भाव। पराक्रम। बहादुरी। २. सौवीर का राजा। वि० बहुत बड़ा वीर।
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सौव्रत्य  : पुं० [सं०] १. सुव्रत का भाव। २. एक निष्ठा। भक्ति। ३. आज्ञा-पालन।
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सौशम्य  : पुं० [सं०] सुशुमता। सुशांति।
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सौशल्य  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद। (महाभारत)
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सौशील्य  : पुं० [सं०] सुशीलता।
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सौश्रय  : पुं० [सं०] ऐश्वर्य। वैभव।
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सौश्रवास  : पुं० [सं०] १. सुश्रवा के अपत्य, उपगु। २. अच्छी कीर्ति। सुयश। वि० कीर्तिशाली। यशस्वी।
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सौश्रुत  : वि० [सं०] १. सुश्रुत-संबंधी। सुश्रुत का। २. सुश्रुत का बनाया या रचा हुआ। ३. सुश्रुत के गोत्र से उत्पन्न।
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सौषिर  : पुं० [सं०] १. दाँतों तथा मसूड़ों का एक रोग। २. वाद्य-यंत्र जो हवा के जोर से या फूँकने पर बजता हो। जैसे–बाँसुरी आदि।
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सौषिर्य  : पुं० [सं०]=सुषिरता (पीलापन)।
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सौषुम्न  : वि० [सं०] १. सुषुम्ना नाड़ी से संबंध रखने या उसमें होनेवाला। (स्पाइनल) पुं० सूर्य की एक विशष्ट किरण।
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सौष्ठव  : पुं० [सं०] १. सुष्ठ होने की अवस्था, गुण या भाव। सुष्ठुता। २. सुंदरता। ३. तेजी। ४. नृत्य में एक प्रकार की मुद्रा।
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सौसन  : पुं० =सोसन। पुं० [फा०] १. फारस देश का एक पौधा जिसमें लाली लिए नीले रंग के फूल लगते हैं। २. उक्त का फूल।
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सौसनी  : वि० पुं०=सोसनी। वि० [फा० सौसन] १. सौसन-संबंधी। २. सौसन-जैसा। ३. सौसन के रंग का।
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सौंसे  : वि० [सं० समस्त] सब। कुल। पूरा। (पुं० हिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सौस्थित्य  : पुं० [सं०] १. अच्छी स्थिति में होने की अवस्था या भाव। २. फलित ज्योतिष में ग्रहों की अच्छी या शुभ स्थिति।
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सौस्नातिक  : वि० [सं०] यज्ञ के अंत में यजमान का याज्ञिक से यह प्रश्न कि स्नान सफल हो गया न ?
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सौस्वर्य  : पुं० [सं०] सु-स्वर होने की अवस्था या भाव। सु-स्वरता।
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सौंह  : स्त्री० [हिं० सौगंध] शपथ। कसम। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० प्र०–करना।–खाना।–देना। अव्य०=सोंहें।
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सौहँ  : स्त्री० [सं० शपथ, प्रा० सबह] शपथ। कसम। अव्य० समझ सामने।
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सौंहन  : पुं०=सोहन।
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सौहन  : पुं० [देश०] पैसे का चौथाई भाग। छदाम। टुकड़ा। (सुनार) पुं०=सोहन।
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सौहर  : पुं० =१. शौहर। २.=सोहर (गीत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौहरा  : पुं० [हिं० सुसर] १. ससुर। श्वसुर। २. ससुराल। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौहाँग  : पुं० [देश०] दो भर का बाट या बटखरा। (सुनार)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौहार्द  : पुं० [सं०] १. सुहृद् का भाव। मित्रता। मैत्री। दोस्ती। २. सुहृद अर्थात मित्र का पुत्र।
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सौहार्द-व्यंजक  : पुं० [सं०] मैत्रीभाव को प्रकट करनेवाला।
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सौहार्द्य  : पुं० [सं०] सौहार्द।
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सौहित्य  : पुं० [सं०] १. तृप्ति। संतोष। २. पूर्णता। ३. सुंदरता।
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सौंही  : स्त्री० [?] एक प्रकार का हथियार। अव्य०=सौंहें (सामने)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सौहीं  : स्त्री० [फा० सोहन] १. एक प्रकार की रेती। २. एक प्रकार का अस्त्र या हथियार। अन्य०=सौंह (सामने)।
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सौहृद  : वि० [सं०] सुहृद् या मित्र-संबंधी। पुं० १. सुहृद। मित्र. २. एक प्राचीन जनपद।
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सौहृद्य  : पुं० [सं०] सौहार्द। मित्रता। दोस्ती।
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सौहोत्र  : पुं० [सं०] सुहोत्र के अपत्य अजमीड़ और पुरमीड़ नामक वैदिक ऋषी।
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सौह्य  : वि० [सं०] सुह्म देश का।
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स्कंद  : पुं० [सं०] [वि० स्कंदित] १. निकलना या बाहर आना। २. विनाश। ध्वंस। ३. कार्तिकेय जो देवों के सेनापति और युद्ध के देवता माने जाते हैं। ४. शरीर। देह। ५. तरल पदार्थ का वह रूप जो उसके गाढ़े होकर गाँठ के रूप में जमने पर प्राप्त होता है। (क्लाट) जैसे–रक्तस्कंद। ६. पारा। ७. शिव। ८. पंडित। विद्वान। ९. राजा। १॰. नदी या तट का किनारा। ११. बालकों के नौं प्राणघातक ग्रहों या रोंगों में से एक।
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स्कंद-गुप्त  : पुं० [सं०] गुप्तवंश के एक प्रतापी तथा प्रसिद्ध सम्राट जिनका राज्य-काल ई० ४५॰ से ४६७ तक माना जाता है।
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स्कंद-जननी  : स्त्री० [सं०] (स्कंद या कार्तिकेय की माता) पार्वती।
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स्कंद-पुराण  : पुं० [सं०] अठारह पुराणों में से एक प्रसिद्ध पुराण।
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स्कंद-माता  : स्त्री० [सं० स्कंदमातृ] (स्कंद की माता) दुर्गा।
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स्कंद-षष्ठी  : स्त्री० [सं०] १. चैत सुदी छठ जो कार्तिकेय के देव सेनापति पर अभिषिक्त होने की तिथी मानी जाती है। २. तांत्रिकों एक देवी जो स्कंद की पत्नी मानी गई हैं।
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स्कंदक  : वि० [सं०] उछलने या उछालने वाला। पुं० १. सैनिक। सिपाही। २. एक प्रकार का प्राचीन छंद।
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स्कंदजित्  : पुं० [सं०] (स्कंद को जीतनेवाले) विष्णु।
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स्कंदता  : स्त्री० [सं०] स्कंद का धर्म या भाव।
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स्कंदत्व  : पुं० =स्कंदता।
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स्कंदन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्कंदित, वि० स्कंदनीय] १. बाहर होना। निकलना। २. पेट का मल बाहर निकालना। रेचन। ३. सोखना। शोषण। ४. जाग। गम। ५. शरीर के रक्त का जमना।
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स्कंदपस्मार (रिन्)  : वि० [सं०] जो स्कंदपस्मार से ग्रस्त हो।
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स्कंदापस्मार  : पुं० [सं०] एक प्रकार का बालग्रह या रोग।
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स्कंदित  : भू० कृ० [सं०] निकला हुआ। गिरा हुआ। झड़ा हुआ। स्खलित। पतित।
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स्कंदी  : वि० [सं० स्कंदिन्] १. बहने या गिरनेवाला। पतनशील। २. उछलने या कूदने वाला।
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स्कंदेश्वर  : पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ।
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स्कंदोपनिषद्  : स्त्री० [सं०] एक उपनिषद का नाम।
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स्कंध  : पुं० [सं०] १. मोढ़ा। कंधा। २. वृक्ष के तने का वह ऊपरी भाग जिसमें डालियाँ निकलती हैं। कांड। (स्टेम) ३. कोई ऐसा मूल और बड़ा अंग जिसके साथ दूसरे छोटे अंग या उपांग लगे हों। (स्टेम) ४. शाखा। डाल। ५. समूह। झुंड। ६. वह स्थान जहाँ विक्रय उपयोग आदि के लिए बहुत-सी चीजें जमा रहती हैं। (स्टाक) ७. ग्रंथ का वह विभाग जिसमें कोई पूरा विषय हो। ८. शरीर। देह। ९. युद्ध। लड़ाई। १॰. हिंदू दर्शन शास्त्र में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। १२. मार्ग। रास्ता। १३. राज्याभिषेक के समय काम आनेवाली सामग्री। १४. राजा। १५. आचार्य। १६. आपस में होनेवाला करार या संधि। १७. आर्या छंद का एक भेद। १८. सफेद चील।
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स्कंध-चाप  : पुं० [सं०] विहंगिका। बहँगी।
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स्कंध-देश  : पुं० [सं०] १. कंधा। २. हाथी के शरीर का वह भाग जिस पर महावत बैठता है। ३. तना।
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स्कंध-पंजी  : स्त्री० [सं०] वह पंजी या बही जिसमें स्कंध या भण्डार में रखी हुइ वस्तुओं का विवरण हो। (स्टाक-बुक)
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स्कंध-पथ  : पुं० [सं०] पगडंडी।
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स्कंध-परिनिर्वाण  : पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार शरीर के पाँचों स्कंधो का नाश। मृत्यु।
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स्कंध-पाल  : पुं० [सं०] वह अधिकारी जो किसी स्कंध या भंडार की देख-रेख आदि के लिए नियत हो। (स्टोर कीपर)
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स्कंध-फल  : पुं० [सं०] १. नारियल का पेड़। २. गूलर।
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स्कंध-बीज  : पुं० [सं०] ऐसी वनस्पति या वृक्ष जिसके स्कंध से ही शाखाएँ निकलकर जमीन तक पहुँचती और वृक्ष का रूप धारण करती हों। जैसे–बड़, पाकर आदि।
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स्कंध-मणि  : पुं० [सं०] एक प्रकार का यंत्र या तावीज।
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स्कंध-मार  : पुं० [सं०] बौद्धों के चार मारों अर्थात काम देवों में से एक।
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स्कंध-वाहक  : वि० [सं०] कंधे पर बोझ उठानेवाला। जो कंधे पर रखकर बोझ ढोता हो। पुं०=स्कंद-वाह।
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स्कंधक  : पुं० [सं०] आर्या गीत या स्वधा नामक छंद का नाम।
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स्कंधज  : पुं० [सं०] १. सलई। शल्लकी वृक्ष। २. बड़ का पेड़। वट-वृक्ष।
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स्कंधरुह  : पुं० [सं०] वट वृक्ष। बड़ का पेड़।
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स्कंधवाह  : पुं० [सं०] १. वह जो कंधो पर माल ढोता हो। २. ऐसा पशु जो कंधो के बल बोझ खीचता हो। जैसे–बैल, घोड़ा आदि।
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स्कंधा  : स्त्री० [सं०] १. पेड़ की डाल। शाखा। २. लता। बेल।
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स्कंधाक्ष  : पुं० [सं०] कार्तिकेय के अनुसार देवताओं का एक गण।
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स्कंधावार  : पुं० [सं०] १. प्राचीन भारत मे, किसी बड़े राजा की वह सारी छावनी या पड़ाव जिसमें घोड़े, हाथी, सेना, सामंत और छोटे या बाहर से आये हुए राजाओं के शिविर आदि होते थे। २. सेना का पड़ाव। छावनी। ३. सेना। ४. वह स्थान जहाँ यात्री, व्यापारी आदि डेरा डाले पड़े हों।
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स्कंधी  : वि० [सं० स्कंधित] कांड से युक्त। तने से युक्त। पुं० पेड़। वृक्ष।
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स्कंधोपनेय  : पुं० [सं०] राजाओं में होनेवाली एक प्रकार की संधि जिसमें नियत या निश्चित बातें क्रम-क्रम से और कुछ दिनों में पूरी होती थीं। (कौ०)
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स्कंध्य  : वि० [सं०] स्कंध-संबंधी। स्कंध का।
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स्कन्न  : वि० [सं०] १. गिरा हुआ। पतित। च्युत। स्खलित। जैसे–स्कन्न-वीर्य। २. गया या बीता हुआ। गत। ३. सूखा हुआ। शुष्क।
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स्कब्ध  : वि० [सं०] सहारा देकर ठहराया या रोका हुआ।
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स्कंभ  : पुं० [सं०] १. खंभा। स्तंभ। २. परमेश्वर जो सारे विश्व को धारण किये हुए हैं।
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स्काउट  : पुं० [सं०] १. चर। भेदिया। ३. दे० ‘बाल-चर’।
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स्कांद  : वि० [सं०] स्कंद-संबंधी। स्कंद का। पुं०=स्कंद पुराण।
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स्कांधी (धिन्)  : पुं० [सं०] स्कंध के शिष्य या उनकी शाखा के अनुयायी।
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स्कालर  : पुं० [सं०] १. वह जो स्कूल में पढ़ता हो। छात्र। विद्यार्थी। २. बहुत बड़ा अध्ययनशील और विद्वान्।
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स्कालरशिप  : पुं० [अ०]=छात्र—वृत्ति।
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स्कीम  : स्त्री० [अ०]=योजना।
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स्कूल  : पुं० [अ०] १. वह विद्यालय जहाँ किसी भाषा, विषय या कला आदि की आरंभिक या सामान्य शिक्षा दी जाती हो। मदरसा। २. किसी ज्ञान या विज्ञान की कोई विशिष्ट शाखा और उसके अनुयायियों का वर्ग। शाखा।
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स्कूली  : वि० [अं० स्कूल+हिं० ई (प्रत्य०)] १. स्कूल—संबंधी। स्कूल में होनेवाला। जैसे–स्कूली पढ़ाई। २. स्कूल जाने वाला। जैसे–स्कूली लड़का।
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स्क्रू  : पुं० [अ०] वह कील या काटा जिसके नुकीले आधे भाग पर चक्कर दार गराड़ियाँ बनी होती हैं और जो ठोंक कर नहीं, बल्कि घुमाकर जड़ा जाता है। पेच। क्रि० प्रा०–कसना।–खोलना।–जड़ना।–लगना। पद–स्क्रू होल्डर=पेचकस।
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स्खदन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्खदित] १. फाड़ना। चीरना। टुकड़े—टुकड़े करना। विदारण। २. वध। हत्या। ३.कष्ट देना। उत्पीड़न। ४. स्थिरता।
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स्खलन  : पुं० [सं०] १. अपने स्थान से नीचे आना या गिरना। पतन। २. मार्ग से च्यूत या विचलित होना। विशेष दे० विचलन। ३.काम में गलती या भूल जाना। ४. वंचित या विफल होना। ५. बोलने में हकलाना। ६.रगड़। संघर्ष।
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स्खलित  : भू० कृ० वि० [सं०] १. अपने स्थान से गिरा हुआ। च्यूत। पतित। २. खिसका या फिसला हुआ। ३.चूका हुआ। ४. डगमगाया हुआ। विचलित। पुं० प्राचीन भारत में धर्मयुद्ध के नियम को छोड़कर युद्ध में चल कपट या घात करना।
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स्खलीकरण  : पुं० [सं०] १. स्खलित करने की क्रिया या भाव। २. उपेक्षा। लापरवाही।
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स्टाक  : पुं० [अ०] १. बिक्री करने के लिए संचित करके रखा हुआ माल। २. वह माल जो घर में हो और बिका न हो। जैसे-उसकी दुकान में स्टाक कम है। ३.वह स्थान जहाँ उक्त प्रकार की वस्तुएँ रहती हों। भंडार। ४. वह धन या पूँजी जो व्यापारी लोग या उनका कोई समूह किसी काम में लगाता हो। ५. साझे के काम में लगाई हुई पूँजी।
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स्टांप  : पुं० [अ०] १. ठप्पा। २. कागजों आदि पर की जाने वाली मोहर। ३.कुछ निश्चित मूल्य का कागज का कोई ऐसा टुकड़ा या कागज जिसपर राजकीय ठप्पा या मोबर छपी हो। जिसका मूल्य किसी प्रकार के शुल्क के रूप में चुकाया जाता हो। जैसे-डाक का टिकट, अदालतों में अभियोग पत्र उपस्थित करने का सरकारी कागज आदि।
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स्टाफ़  : पुं० [अ०] किसी कार्यालय विभाग या संस्था के कार्य कर्ताओं का वर्ग या समूह. अमला।
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स्टाल  : पुं० [अ०] १. प्रदर्शिनी, मेले आदि में वह छोयी दुकान जिसपर बेचने के लिए चीजें सजाई रहती हैं। २. छोटी दुकान।
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स्टीम  : पुं० [अ०] भाप। वाष्प। मुहा-(किसी मे) स्टीम भरना=आवेश उत्साह आदि से युक्त करना। जोश दिलाना।
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स्टीम इंजन  : पुं० [अ०] भाप से चलनेवाला इंजन।
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स्टीमर  : पुं० [अ०] नदियों में चलने वाला एक प्रकार का छोया जहाज जो भाप से चलता है।
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स्टूल  : पुं० [अ०] एक प्रकार की ऊँची छोटी चौकी।
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स्टेज  : पुं० [अ०] १. रमग-मंच। २. मंच।
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स्टेट  : पुं० [अ०] १. राज्य। २. किसी संघ राज्य की कोई इकाई। राज्य। ३.अँगरेजी। शासन में भारतीय देशी रियासत। पुं० [अ० एस्टेट] १. बड़ी जमींदारी। २. किसी की सारी जंगम और स्थावर संपत्ति। जौसे-वह दस ला का स्टेट छोड़कर मरे थे।
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स्टेशन  : पुं० [अ०] १. वह स्थान जहाँ रेलगाड़ियाँ, मोटरें आदि यात्री को उतारने चढ़ाने के लिए ठहरती या रुकती हों। जैसे—रेलवे—स्टेशन, बस—स्टेशन। २. किसी विशेष कार्य के संचालन के लिए नियत स्थान। अवस्थान।
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स्टोंव  : पुं० [अ०] एक विशेष प३कार का आधुनिक चूल्हा जो खजाने में भरे हुए तेल, गैस आदि से या बिजली के द्वारा गरम होकर ताप उत्पन्न करता है।
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स्ट्राइक  : स्त्री० [अ०] कर्मचारियों आदि की हड़ताल।
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स्तन  : पुं० [सं०] स्त्रियों यो मादा पशुओं की छाती में दूध निकलता है। जैसे—गो का सतन। क्रि० प्र०—पिलाना।—पीना।
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स्तन-कलश  : पुं० [सं०उपमि०स०] कलश कीतरह गोल और बड़े या मोटे स्तन।
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स्तन-कील  : पुं० [सं०] स्त्रियों की छाती में होने वाला थनैला नाम का फोड़ा।
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स्तन-चूचुक  : पुं० [सं०] स्तन यो कूच के ऊपर की घुंडी। चूची। ढेंपनी।
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स्तन-दात्री  : वि० स्त्री० [सं०] (छाती का) दूध पिलानेवाली।
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स्तन-पतन  : पुं० [सं० ष० त०] स्तन का ढीला पड़ना या लटकना।
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स्तन-पान  : पुं० [सं०] स्तन पान कराना। स्तन चूसकर दूध पीना।
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स्तन-बाल  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जनपद। (विष्णु पुराण) २. उक्त देश का निवासी।
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स्तन-भर  : पुं० [सं०] १. स्थूल या पुष्ट स्तन। बड़ी और भारी छाती। २. ऐसा पुरुष जिसकी छातियाँ स्त्रियों की छातियों की सी बड़ी या मोटी हो।
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स्तन-भव  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रति-बंध या संभोग का आसन।
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स्तन-मध्य  : पुं० [सं०] स्त्रियों के दोनो स्तनो के बीच का स्थान या गडढा।
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स्तन-मुख  : पुं० [सं०] स्तन या कूच का अगला भाग। चूचुक। चूची।
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स्तन-रोग  : पुं० [सं०] गर्भवती और प्रसूतियों के स्तनों में होनेवाला रोग।
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स्तन-विद्रधि  : पुं० [सं०] स्तन पर होनेवाला फोड़ा। थनैली।
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स्तन-वृंत  : पुं० [सं०] स्तन या कूच का अग्र भाग। चूचुक। चूची।
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स्तन-शिखा  : स्त्री० [सं०]=स्तनवृंत्त।
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स्तन-शोष  : पुं० [सं०] स्त्रियों में होनेवाला एक प्रकार का रोग जिससे उनके स्तन सूख जाते हैं।
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स्तनन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्तनित] १. ध्वनि। नाद। शब्द। आवाज। २. बादलों की गड़गड़ाहट। ३. कराहने की आवाज। कराह।
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स्तनप  : वि०, पुं० =स्तनपायी।
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स्तनपायी (यिन्)  : वि० [सं०] स्तनपान करने वाला। स्तन चूसकर दूध पीनेवाला। पुं० १. वह स्तन पान करता हो। दूध पीने वाला बच्चा। २. वे जो माता का दूध पीते या दूध पीकर बड़े होते है। ३. उक्त प्रकार के जीवों का वर्ग।
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स्तनाग्र  : पुं० [सं०] स्तन का अगला भाग। चूचुक।
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स्तनांतर  : पुं० [सं०] १. हृदय। दिल। २. स्त्रियों के स्तन पर होनेवाला एक प्रकार का चिन्ह जो वैधव्य का सूचक माना जाता है। (सामुद्रिक)
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स्तनाभुज  : वि०, पुं०=स्तनपायी।
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स्तनाशुक  : पुं० [सं०] कपड़े की चौड़ी पट्टी जिससे स्त्रियों स्तन बाँधती हैं।
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स्तनित  : पुं० [सं०] १. मेघ-गर्जन। बादलों की गरज। २. आवाज। ध्वनि। शब्द। ३. ताली बजाने का शब्द। करतल ध्वनि। भू० कृ० १. ध्वनित। २. ध्गर्जित।
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स्तनित-कुमार  : पुं० [सं०] १. भुवनाधीश नामक जैन देवों का अक वर्ग। २. उक्त वर्ग का कोई देवता।
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स्तनी (निन्)  : वि० [सं०] स्तनों वाला। स्तन-युक्त।
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स्तनोत्तरीय  : पुं० [सं० पु.त०] प्राचीन काल की वह पट्टी जो स्त्रियाँ स्तनो पर बाँधती थी। कुचांशुक। स्तनांशुक।
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स्तन्य  : वि० [सं०] १. स्तन-संबंधी। स्तन का। २. जो स्तन में हो। पुं० १. माता का दूध। २. दूध।
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स्तन्य-त्याग  : पुं० [सं०] माता का दूध पीना छोड़ना।
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स्तन्य-दान  : पुं० [सं०] स्तन पिलाना। स्तन का दूध पिलाना।
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स्तन्य-पान  : पुं० [सं०] स्तन-पान।
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स्तन्य-पायी (यिन्)  : वि० पुं० =स्तनपायी।
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स्तन्य-रोग  : पुं० [सं०] माता के दूध के कारण होनेवाला रोग। स्तनपान करने से होने वाला रोग।
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स्तन्य-स्त्राव  : पुं० [सं०] १. वात्सल्य भाव से विह्वल होने पर आप से आप स्तनो मे दूध बहने लगता है। २. इस प्रकार बहने वाला दूध।
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स्तन्यदा  : वि० [स्त्री० ] जिसके स्तनों में से दूध निकलता हो। दूध देने वाली।
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स्तन्यप  : वि० [सं०] [स्त्री० स्तन्यपा] स्तन का दूध पीनेवाला। स्तनपायी। पुं० दूध पीता बच्चा। शिशु।
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स्तंब  : पुं० [सं०] १. ऐसा पौधा जिसकी जड़ से कई पौधे निकले और जिसमें कड़ी लकड़ी या डंठल न हो। गुल्म। २. घास का पूला। ३.रोहतक या रोहेड़ा नामक वृक्ष।
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स्तंबक  : पुं० [सं०] १. गुच्छा। २. नक—छिकनी।
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स्तंबपुर  : पुं० [सं०] ताम्रलिप्तपुर का एक नाम।
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स्तब्ध  : वि० [सं] [भाव.स्तब्धता] १. जो जड़ या अचल हो गया हो। जड़ी भूत। निश्चेष्ट। सुन्न। २. अच्छी तरह जकड़ा या बँधा हुआ। ३.दृढ़। पक्का। मजबूत। ४. धीमा। मंद। सुस्त। ५. दुराग्रही। हठी। ६. अक्खड़ और अभिमानी। पुं० वंशी के छः दोषो में से एक दिसमें उसका स्वर कुछ धीमा होता है।
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स्तब्ध-पाद  : वि० [सं०] [भाव.स्तब्धपादता] जिसके पैर जकड़ गयें हों। लँगड़ा। पंगु।
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स्तब्ध-मति  : वि० [सं०] मंदबुद्धि। कुंद-जहन
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स्तब्धता  : स्त्री० [सं०] १. स्तब्ध होने की अवस्था। जड़ता। २. दृढ़ता। ३. बहरापन।
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स्तब्धि  : स्त्री० [सं०] स्तब्धता।
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स्तंभ  : पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० स्तंभिका] १. खंबा। २. वह व्यक्ति, तत्व या तथ्य जो किसी संस्था, कार्य, सिद्धांत आदि के आधार के रूप में हो। जैसेःआप उस संस्था के संतंभ हो। ३. समाचार के पन्नो के पृष्ठों सारणियों आदि खड़े बल का वह निभाग, जिसमें उबर से नीचे तक कुछ विशेष बातें अंक आदि होते है। ४. समाचार पत्रों में उक्त प्रकार के विभागों का वह वर्ग जिसमें किसी विशेष विषय का प्रतिपादन या निरूपण होता है। जैसे—संपादकीय स्तंभ, स्थानिक स्तंभ आदि (कालम, उक्त सभी अर्थों के लिए) ५. पेड़ का तना। ६. [वि० स्तंभित] किसी कारण या घटना (जैसे हर्ष, लज्जा, भय आदि।) से अंगो का बिलकुल शिथिल होजाना। ७. साहित्य में उक्त आधार पर माने जाने वाला एक सात्विक अनुभाव जिसमें भय, रोग, लज्जा, विषाद, हर्ष आदि के कारण शरीर सुन्न हो जाता है और उसमें अंग संचालन की शक्ति नहीं रह जाती है। ८. जड़ता। अचलता। ९. प्रतिबंध। रुकावट। १॰. तंत्र में किसी शक्ति को रोकने वाला प्रयोग। ११. अभिमान। घमंड। १२. आदि रोगों के कारण होने वाली मूर्च्छा।
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स्तंभ-तीर्थ  : पुं० [सं०] आधुनिक खंभात नगर का एक प्राचीन नाम।
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स्तंभ-लेखक  : पुं० [सं०] वह जो प्रायः भिन्न-भिन्न सामयिक पत्रों के स्तंभों के लिए लेख आदि लिखता हो। (कालमिस्ट)
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स्तंभ-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] प्राणों को जहाँ का तहाँ रोक देना, जो प्राणायाम का एक अंग है।
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स्तंभक  : वि० [सं०] १. स्तंभन करने या रोकने वाला। रोधक। २. कब्जियत करने वाला। ३.वीर्य को गिराने या स्खलित होने से कुथ समय तक रोक रखने वाला। पुं० १. खंभा। २. शिव का एक नाम।
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स्तंभकी (किन्)  : पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता है। स्त्री० एक देवी का नाम।
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स्तंभन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्तंभित] १. रोकने की क्रिया या भाव। रुकावट। अवरोध। २. वीर्य आदि को स्खलित होने या मल को पेट से बाहर निकलने से रोकना। ३.वीर्यपात रोकने की दवा। ४. जड़ या निश्चेष्ट करना। जड़ीकरण। ५. किसी की चेष्टा, क्रिया या शक्ति रोकने वाला तांत्रिक प्रयोग। ६.काम देव के पाँचों बाणों में से एक। ७. गिरने से रोकने के लिए लगाया जानेवाला सहारा।
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स्तंभनी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का इंद्र जाल या जादू, जिससे लोगों को स्तंभित वा जड़ कर दिया जाता था।
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स्तंभनीय  : वि० [सं०] जिसका स्तंभन हो सके या होने को हो।
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स्तंभि  : पुं० [सं०] समुद्र। सागर।
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स्तंभिका  : स्त्री० [सं०] १. चौकी या आसन का पाया। २. छोटा खंभा। खँभिया।
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स्तंभित  : भू० कृ० [सं०] १. जो जड़ या अचल कर दिया गया हो या हो गया हो। जड़ीभूत। निश्चल। २. निस्तब्ध। सुन्न। ठहरा या रुका हुआ।
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स्तंभिनी  : स्त्री० [सं०] यौग के अनुसार पाँच धारणाओं में से एक।
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स्तंभी (भिन्)  : वि० [सं०] १. स्तंभो या खंभो से युक्त। दे० स्तंभक। पुं० समुद्र। सागर।
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स्तंभोत्कीर्ण  : वि० [सं०] जो खंभो में खोदकर बनाया गया हो। (आकृति, मूर्ति आदि)
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स्तमित  : वि० [सं०] १. भीगा हुआ। तर। नम। आर्द्र। २. निश्चल। स्थिर। ३.शांत। ४. प्रसन्न। ५. संतुष्ट। पुं० १. आर्द्रता। तरी। नमी। २. निश्चलता।
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स्तर  : पुं० [सं०] १. एक दूसरी के ऊपर पड़ी या लगी हुई तह। परत। २. ऊपर का वह सपाट भाग, जो कुछ दूर तक समान रूप से चला गाया हो और जो वैसे जूसरे भागों से अलग या स्वतंत्र हो गया हो। तल। (लेवेल) जैसै—देश या समाज का स्तर। ३.भूमि आदि का एक प्रकार का विभाग जो भिन्न-भिन्न कालों से बनी हुई उसकी तहों के आधार पर किया गया हो। (स्ट्रेटा) ४. शय्या। सेज।
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स्तरण  : पुं० [सं०] १. फैलाना या बिखेरना। २. वह स्थिति जिसमें कोई वस्तु स्तरों या रपतों के रूप में बनी हुई होती हैं। ३. भू-विज्ञान में प्राकृतिक कारणों से प्रथ्वी के धरातल पर्वत आदि के भिन्न-भिन्न स्तरों का बनना या बनावट। ५. बिछौना। बिस्तर।
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स्तरणीय  : वि० [सं०] १. फैलाये या बिखेरे जाने योग्य। २. बिछाए जाने योग्य।
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स्तरिमा (मन्)  : पुं० [सं०] पलंग। शय्या।
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स्तरी  : स्त्री० [सं०] १. धुआँ। धूम्र। २. ऐसी गाय जो दूध न दे रही हो।
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स्तर्य  : वि० =स्तरणीय।
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स्तव  : पुं० [सं०] १. किसी देवता का छंदबद्ध स्वरूप-कथन या गुण-गान। स्तुति। स्तोत्र। जैसे—शिव-स्तव, दुर्गास्तव। २. ईश-प्रार्थना।
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स्तवक  : पुं० [सं०] १. फूलों का गुच्छा। २. एक या अनेक तरह के बहुत से फूलों को सजाकर बनाया हुआ रूप, जिसे शोभा के लिए मेजों आदि पर रखते हैं। गुलदस्ता। ३. ढेर। राशि। ४. मोर का पंख। ५. पुस्तक का अध्याय या परिच्छेद। ६. स्तोत्र। स्तव। वि० स्तवसा स्तुति करनेवाला।
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स्तवन  : पुं० [सं०] १. स्तुति करने की क्रिया या भाव। २. स्तुति।
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स्तवनीय  : वि० [सं०] जिसका स्तव या स्तुति की जा सके या की जाने को हो।
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स्तवरक  : पुं० [सं०] १. कमखाब की तरह का पुराना रेशमी कपड़ा। २. घेरा।
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स्तविक  : भू० कृ० [सं०] १. फूलों के गुच्छों, गुलदस्तों, फूल-मालाओं आदि से युक्त या सजा हुआ।
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स्तवितव्य  : वि० [सं०] स्तवनीय।
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स्तविता (तृ)  : पुं० [सं०] स्तुति करने वाला। गुण-गान करने वाला।
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स्तव्य  : वि० [सं०=स्तवनीय।
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स्तान  : पुं० [सं० स्थान से फा०] [वि० स्तानी] एक स्थान वाचक शब्द जो कुछ जातियों, पदार्थों आदि के नामों में अंत में लगकर उनके रहने या होने के स्थान का अर्थ देता है। जैसे-अफगानिस्तान, हिन्दुस्तान, गुलिस्तान, चमनिस्तान आदि।
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स्तावक  : वि० [सं०] १. स्तव या स्तुति करने वाला। गुण-कीर्तन करने-वाला प्रशंसक। उदा०—स्तावक, स्तुत्य, निन्द्य और निंदक जब कि सभी हैं एक।–पंत। २. खुशामद करने वाला। पुं० बंदीजन। भाट।
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स्ताव्य  : वि० [सं०] स्तव के योग्य। स्तुत्य।
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स्तीर्ण  : वि० [सं०] १. फैला या बिखेरा हुआ। छितराया हुआ। २. लंबा—चौड़ा। विस्तृत। पुं० शिव का एक अनुचर।
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स्तुत  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी स्तुति की गई हो। २. प्रशंसित। ३. चूआ या बहा हुआ। पुं० १ शिव। २. स्तुति।
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स्तुति  : स्त्री० [सं०] १. आदर-भाव से किसी के गुणों का कथन करना। जैसे—देवता की स्तुति करना। २. वह पद या रचना जिसमें किसी देवता आदि का गुण कथन हो। ३. प्रशंसा। तारीफ। बड़ाई। ४. दुर्गा का एक नाम। पुं० शिव का एक नाम।
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स्तुति-पाठक  : पुं० [सं०] बंदी जिसका काम प्राचीन काल में राजाओं की स्तुति या यशोगान। गुणगान।
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स्तुति-वादक  : पुं० [सं०] १. स्तुति या प्रशंसा करनेवाला। प्रशंसक। २. खुशामदी।
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स्तुतिवाद  : पुं० [सं०] पशंसात्नक कथन। यशोगान। गुणगान।
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स्तुत्य  : वि० [सं०] १. स्तुति या प्रशंसा का अघिकारी या पात्र। प्रशंसनीय। २. जिसकी स्तुति या प्रशंसा होने को हो या होनी चाहिए।
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स्तुभ  : पुं० [सं०] १. अक प्रकार की अग्नि। २. बकरा।
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स्तूप  : पुं० [सं०] १. मिट्टी, पत्थर आदि का ऊँचा ढूह। २. वह ढूह या टीला जो भगवान् बुद्धया किसी बौद्ध महात्मा की अस्थि, दांत, केश आदि स्मृति-चिह्नो को सुरक्षित रखने के लिए उनके ऊपर बनाया गया हो। ३. ऊँचा ढेर। ४. केश—गुच्छ। बालों की लट। ५. इमारत मे लगा हुआ बहुत बड़ा शहतीर।
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स्तृत  : भ० कृ० [सं०] १. ढका हुआ। आच्छादित। २. फैला हुआ। विस्तृत।
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स्तृति  : स्त्री० [सं०] १. ढँकने की क्रिया। आच्छादन। २. फैलाने की क्रिया।
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स्तेन  : पुं० [सं०] १. चोर। डाकू। तस्तर। २. चोरी। ३.चोर नामक गंध द्रव।
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स्तेय  : पुं० [सं०] चोरी। वि० चुराया हुआ।
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स्तेयी (यिन)  : पुं० [सं०] १. चोर। चूहा। २. सुनार।
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स्तैन  : पुं० =स्तैन्य।
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स्तैन्य  : पुं० [सं०] १. चुराने या डाका डलने का काम। २. दे० ‘स्तेन’।
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स्तोक  : वि० [सं०] १. थोड़ा। जरा। २. कुछ। कम। ३. छोटा। ४. नीचा। पुं० १. बूँद। बिंदु। २. चातक। पपीहा।
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स्तोतक  : पुं० [सं०] १. पपीहा। चातक। २. वत्सनाग नामक विष। बाछनाग।
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स्तोतव्य  : वि० [सं०] स्तव या स्तुति का अधिकारी या पात्र। स्तुत्य।
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स्तोता (तृ)  : वि० [सं०] १. स्तुति करनेवाला। २. उपासना करने वाला। ३. प्रार्थना करने वाला। पुं० विष्णु का एक नाम।
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स्तोत्र  : पुं० [सं०] १. स्तव। स्तुति। २. वह रचना विशेषतः पद्यवद्ध रचना जिसमे किसी देवता आदि की स्तुति की गई हो। जैसे—दुर्गा—स्तोत्र, शिव—स्तोत्र।
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स्तोत्रिय, स्तोत्रीय  : वि० [सं०] स्तोत्र संबंधी। स्तोत्र का।
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स्तोभ  : पुं० [सं०] १. सामवेद का एक अंग। २. अवज्ञा, उपेक्षा या तिरस्कार। ३. स्तंभन।
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स्तोभित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी स्तुति की गई हो। स्तुत। २. जिसका जय—जयकार किया गया हो।
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स्तोम  : पुं० [सं०] १. स्तुति। २. यज्ञ। ३. वह जो यज्ञ करता हो। ४. ढेर। राशि। ५. मस्तक। ६.धन—संपत्ति। ७. अनाज। अन्न। ८. पुरानी चाल की एक प्रकार की ईट। ९. ऐसा डंडा जिसमें लोहे की नोक लगी हो। लोहासी। १॰. दस धन्वन्तर। अर्थात चालीस हाथ की एक माप। वि० चेढ़ा वक्र।
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स्तोमायन  : पुं० [सं०] यज्ञ मे बलि दिया जानेवाला पशु।
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स्तोमीय  : वि० [सं०] स्तोम-संबंधी। स्तोम का।
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स्तोम्य  : वि० [सं०]=स्तुत्य।
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स्तौपिक  : पुं० [सं०] १. किस महापुरुष के वे अस्थि, चिह्न जिन पर स्तूप बनाया गया हो। (बौद्ध) २. वह मार्जनी जो जैन यति अपने साथ रखते हैं।
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स्तौभ  : वि० [सं०] स्तोभ-संबंधी। स्तोभ का।
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स्तौभिक  : वि० [सं०] स्तोभ से युक्त। जिसमें स्तोभ हो।
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स्त्यान  : वि० [सं०] १. समूहों में इकट्ठा किया हुआ। २. कठोर। ३. घना। ४. चिकना। ५. ध्वनि या शब्द करने वाला। पुं० १. घनापन। घनता। २. आवाज। शब्द। ३. सत्कर्म के प्रति होने वाला आलस्य। ४. अमृत।
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स्त्येन  : पुं० [सं०] १. चोर। २. डाकू। ३.अमृत।
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स्त्यैन  : पुं० [सं०] १. चोर। डाकू। वि० कम। थोड़ा।
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स्त्रिग  : पुं०=सृक (माला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्त्रियम्मन्य  : वि० [सं०] जो अपने को स्त्री मानता या समझता हो।
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स्त्रियोपयोगी  : वि० [सं० स्त्री० +उपयोगी, शुद्ध और सिद्ध रूप स्त्र्युपयोगी] जो विशेष रूप से स्त्रियों के काम का हो। जैसे—स्त्रियोपयोगी साहित्य।
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स्त्री  : स्त्री० [सं०] [भाव.स्त्रीत्व, वि० स्त्रैण] १. मनुष्य जाति की वयस्क मादा। पुरुष का विपर्याय। २. उक्त जाति की कोई विशेष सदस्या। जैसे –पुरुष स्त्री का गुलाम बन जाता है। ३.पत्नी। जोरू। ४. मादा जंतु। पुरुष या नर का विपर्याय। ५. अक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो—दो गुरु वर्ण होते हैं। कामा। ५. दीमक। ६.प्रियंगुलता। ७.व्याकरण में स्त्रीलिंग का संक्षिप्त रूप। स्त्री० =इस्त्री।
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स्त्री-करण  : पुं० [सं०] १. स्त्री बनना। पत्नी बनाना। २. संभोग। मैथुन।
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स्त्री-गमन  : पुं० [सं०] स्त्री-संभोग। मैथुन।
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स्त्री-ग्रह  : पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार बुध, चंद्र और शुक्र ग्रह जो स्त्री जाति के माने गये हैं।
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स्त्री-चंचल  : वि० [सं०] १. कामुक। कामी। २. लंपट।
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स्त्री-चिन्ह  : पुं० [सं०] वे सब बाते या चिह्न जिससे यह माना जाता है कि प्राणी स्त्री जाति का है।
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स्त्री-चौर  : पुं० [सं०] लंपट। वियभिचारी।
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स्त्री-जननी  : स्त्री० [सं०] केवल लड़कियों को जन्म देने वाली स्त्री। (मनु)
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स्त्री-जित्  : वि० [सं०] (ऐसा पुरुष) जो पत्नी की जी-हुजूरी करता हो।
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स्त्री-देहार्द्ध  : पुं० [सं०] शिव जिनके आधे अंग में पार्वती का होना माना गया है।
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स्त्री-धन  : पुं० [सं०] ऐसा धन जिस पर स्त्रियों का विशेष रूप से अधिकार हो और जो पुरुष को न मिल सकता हो। यह छः प्रकार का कहा गया है—अन्वाधेय, बंधुदत्त, भौतिक, सौदायिक, शुल्क, परिणाम, लावण्यार्जित र पादवन्दनिक।
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स्त्री-धर्म  : पुं० [सं०] १. स्त्री या पत्नी का कर्तव्य। २. स्त्री का राजस्वला होना। रजोदर्शन। ३. मैथुन। संभोग। ४. स्त्रियों से संबंध रखने वाला नियम या विधान।
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स्त्री-धर्मिणी  : स्त्री० [सं०] रजस्वला स्त्री० ।
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स्त्री-धूर्त  : पुं० [सं०] स्त्री को छलने वाला पुरुष।
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स्त्री-ध्वज  : वि० [सं०] जिसमें स्त्रियों के चिह्न हों। स्त्री के चिह्नो से युक्त। पुं० हाथी।
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स्त्री-पर  : वि० [सं०] कामुक। विषयी। पुं० व्याभिचारी पुरुष।
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स्त्री-पुर  : पुं० [सं०] अंतःपुर। जनानखाना।
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स्त्री-पुष्प  : पुं० [सं०] स्त्री का राज।
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स्त्री-प्रसंग  : पुं० [सं०] मैथुन। संभोग।
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स्त्री-प्रिय  : पुं० [सं०] १. आम का पेड़। २. अशोक। वि० जिसे स्त्री प्यार करती हो।
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स्त्री-प्रेक्षा  : स्त्री० [सं०] ऐसा खेल तमाशा जिसमें स्त्रियोँ ही जा सकती हों।
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स्त्री-भय  : वि० [सं०] १. जनाना। २. जनखा।
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स्त्री-भोग  : पुं० [सं०] मैथुन। प्रसंग।
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स्त्री-मंत्र  : पुं० [सं०] ऐसा मंत्र जिसके अंत में स्वाहा हो।
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स्त्री-रत्न  : स्त्री० [सं०] लक्ष्मी।
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स्त्री-राज्य  : पुं० [सं०] ऐसी राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था जिसमें सब प्रकार के अधिकार और कार्य स्त्रियों के हाथों में ही रहते हों, पुरुषों के हाथ में कुछ भी सत्ता न रहती हो। (जाइनार्की)
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स्त्री-लिंग  : पुं० [सं०] १. हिंदी व्याकरण में दो लिंगो में से एक जो स्त्री जाति का अथवा किसी शब्द के अल्पार्थक रूप का वाचक होता है। (फैमिनिन) जैसे—लड़का का स्त्रीलिंग लड़की या छुरा का स्त्री० लिंग छुरी है। २. स्त्री का चिह्न अर्थात भग या योनि।
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स्त्री-वण  : पुं० [सं०] योनि। भग।
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स्त्री-वश (श्य)  : वि० [सं०] (पुरुष) जो स्त्री के वश में हो।
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स्त्री-वास (सस्)  : पुं० [सं०] ऐसा वस्त्र जो रतिबंध या संभोग के समय लिए उपयुक्त हो।
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स्त्री-विषय  : पुं० [सं०] संभोग। मैथुन।
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स्त्री-व्रत  : पुं० [सं०] अपनी स्त्री के अतिरिक्त दूसरी स्त्री की कामना न करना। एक स्त्री—परायणता। पत्नी-व्रत।
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स्त्री-संग  : पुं० [सं०] संभोग। मैथुन।
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स्त्री-संग्रहण  : पुं० [सं०] किसी स्त्री से बलात संभोग करना। व्याभिचार।
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स्त्री-संभोग  : पुं० [सं०] स्त्री० प्रसंग। मैथुन।
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स्त्री-सुख  : पुं० [सं०] १. स्त्री का सुख। २. मैथुन। संभोग। ३. सहिजन।
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स्त्री-सेवन  : पुं० [सं०] संभोग। मैथुन।
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स्त्रीता  : स्त्री=स्त्रीत्व।
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स्त्रीत्व  : पुं० [सं०] १. ‘स्त्री’ होने की अवस्था गुण, धर्म या भाव। औरतपन। २. गुण, धर्म आदि के विचार से स्त्रियों का सा होने का भाव। जनानापन। ३. शब्दों के अंत में लगने वाला स्त्रीलिंग का सूचक प्रत्यय। (व्याकरण)
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स्त्रीपण्योपजीवी  : पुं० =स्त्र्याजीव।
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स्त्रीमद्रिय  : स्त्री० [सं०] स्त्री की योनि। भग।
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स्त्रीवार  : पुं० [सं०] सोम, बुध और शुक्रवार। (ज्योतिष में चंद्र, बुध और शुक्र ये तीनों स्त्री ग्रह माने गये हैं, अतः इनके वार भी स्त्री वार कहे जाते हैं।
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स्त्रै-राजक  : पुं० [सं०] स्त्री-राज्य का निवासी।
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स्त्रैण  : वि० [सं०] १. स्त्री० संबंधी। स्त्रियों का। २. स्त्रियों का-सा। स्त्रियों की तरह का। ३. स्त्री या पत्नी के वश में रहनेवाला। स्त्री-रत (पुरुष)। ४. सदा स्त्रियों की मंडली में रहने की प्रकृति रखनेवाला।
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स्त्रैणकी  : स्त्री० [सं० स्त्रैण से] चिकित्सा शास्त्र की वह शाखा जिसमे स्त्रियों के रोगो विशेषतः उनकी जननेन्द्रिय के रोगो के निदान और चिकित्सा का विवेचन होता है। (जैनिकॉलोजी)
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स्त्र्याजीव  : पुं० [सं०] १. वह पुरुष जो स्त्री या स्त्रियों की संपत्ति का भोग करता हो। स्त्री या स्त्रियों से वेश्या-वृत्ति कराकर दलाली खानेवाला व्यक्ति।
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स्त्र्याध्यक्ष  : पुं० [सं०] रानियों की देख–रेख करने वाला और अंतःपुर का प्रधान अधिकारी।
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स्त्र्युपयोगी  : वि० [सं० स्त्री+उपयोगी] विशेष रूप से स्त्रियों के उपयोग में आनेवाला। (भूल से स्त्रियोपयोगी रूप में प्रचलित)
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स्थ  : प्रत्य [सं०] एक प्रत्यय जो शब्दों के अंत में लगकर अर्थ देता है–(क) स्थित। जैसे–तटस्थ। (ख) उपस्थित। वर्तमान। जैसे–कंठस्थ। (ग) किसी विशिष्ट स्थान में रहने या होनेवाला। जैसे–आत्मस्थ, काशीस्थ। (घ) लीन। रत। मान। जैसे–ध्यानस्थ।
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स्थकित  : वि० [हिं० थकित] थका हुआ। शिथिल। ढीला।
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स्थग  : पुं० [सं०] १. धूर्त। २. ठग।
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स्थगन  : पुं० [सं०] [वि० स्थगित] १. छिपाना या ढाँकना। २. सभा की बैठक, बात की सुनवाई अथवा और कोई चलता हुआ काम कुछ समय के लिए रोक रखना। (ऐडजोर्नमेंट) ३. विचार आदि के लिए कुछ समय तक रोकना। (निलंबन)
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स्थगनक प्रस्ताव  : पुं० [सं०] वह प्रस्ताव जो विधायिकी सभाओं आदि में यह कहकर उपस्थित किया जाता है कि और काम छोड़कर पहले इसी पर विचार होगा। (ऐडजोर्नमेंट मोशन)
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स्थगिका  : स्त्री० [सं०] १. पनडब्बा। पानदान। ३. अँगूठे, उँगलियों और लिंगेन्द्रिय के आग्रभाग पर के घाव पर बाँधी जानेवाली (पनडब्बे के आकार की) एक प्रकार की पट्टी। (वैद्यक)
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स्थगित  : भू० कृ० [सं०] १. ढका हुआ। आच्छादित। २. ठहराया या रोका हुआ। ३.जो कुछ समय के लिए रोक दिया गया हो। मिलतवी। (एडजोर्न्ड) ४. छिपा हुआ। गुप्त। ५. बंद किया या रोका हुआ।
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स्थगी  : स्त्री० [सं०] स्थगिका।
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स्थंडिल  : पुं० [सं०] १. भूमि। जमीन। २. यज्ञ के लिए साफ की हुई भूमि। ३. सीमा। हद। ४. मिट्टी का ढेर। ५. एक प्राचीन ऋषि।
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स्थंडिल-शय्या  : स्त्री० [सं०] (व्रत के कारण) भूमि या जमीन पर सोना। भूमि-शयन।
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स्थंडिलशायी  : पुं० [सं० स्थंडिल-शायिन्] वह जो व्रत के कारण भूमि या यज्ञ स्थल पर सोता हो।
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स्थंडिलेशय  : पुं० [सं०] दे० ‘स्थंडिलशायी’।
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स्थपनी  : स्त्री० [सं०] भौहों के मध्य का स्थान जिसकी गिनती मर्मस्थानों में होती है।
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स्थपित  : पुं० [सं०] १. राजा। २. सामंत। ३. शासक। ४. अंतःपुर का रक्षक। कंचुकी। ५. वास्तुशास्त्र ज्ञाता या पंडित। ६. रथ बनाने वाला कारीगर। ७. सारथी। ८. वह जिसने वृहस्पति–सवन नामक यज्ञ किया हो। ९. कुबेर। १॰. बृहस्पति। वि० प्रधान। मुख्य।
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स्थपुट  : वि० [सं०] १. कुबड़ा। कुब्ज। २. पीड़ित। विपन्न। ३. कठिन स्थिति में पड़ा हुआ। पुं० कुबड़ा।
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स्थरीकरण  : पुं० [सं०] १. स्थिर करने की क्रिया या भाव। २. घटती-बढ़ती रहनेवाली वस्तुओं का स्वरूप या मानक स्थिर करना। (स्टैबिलाइजे़शन) जैसे–मूल्य या भाव का स्थिरीकरण। ३. पुष्टि। समर्थन।
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स्थल  : वि० [सं०] [वि० स्थलीय] १. भूमि। जमीन। २. भूमि का खंड या विभाग। भू–भाग। ३. जल से रहित भूमि। खुश्की। (लैण्ड) जैसे–स्थल मार्ग से जाने में बहुत दिन लगेंगे। ४. स्थान। जगह। (स्पेस) ५. ऐसी जगह जिसमें जल बहुत कम हो। निर्जल और मरुभूमि। ६. कोई ऐसी जगह जहाँ कोई विशेष बात, रचना आदि हो या होने को हो। (साइट) ७. अवसर। मौका। ८. टीला। ढूह। ९. खेमा। तंबू। १॰. पुस्तक का अध्याय या परिच्छेद।
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स्थल-कंद  : पुं० [सं०] जंगली सूरन। कटैला जमीकंद।
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स्थल-कंद  : पुं० [सं०] १. लाल लहसुन। २. जमीकंद। सूरन। ३. हाथी कंद। ४. मान कंद। ५. मुखालु।
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स्थल-कमलिनी  : स्त्री० [सं०] स्थल कमल का पौधा।
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स्थल-चर  : वि० [सं०] स्थलचर पर रहने या विचरण करनेवाला। ‘जल–चर’ और ‘नभ–चर’ से भिन्न।
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स्थल-डमरुमध्य  : पुं० [सं०] दाहिने और बाएँ पानी से घिरा हुआ, स्थल का वह लम्बा भाग, जो दोनों ओर के दो बड़े स्थलों के बीच में हो और उन्हे मिलाता हो।
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स्थल-नलिनी  : स्त्री०=स्थल-कमलिनी।
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स्थल-पद्म  : पुं० [सं०] १. स्थल-कमल। २. मान–कच्चू। ३. गुलाब।
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स्थल-पद्मिनी  : स्त्री०=स्थल-कमलिनी।
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स्थल-युद्ध  : पुं० [सं०] जमीन पर होनेवाला युद्ध। हवाई और समुद्री युद्ध से भिन्न।
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स्थल-रुहा  : स्त्री० [सं०] स्थल-कमल।
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स्थल-विहंग  : पुं० [सं०] स्थल पर विचरण करनेवाला मुर्ग, मोर आदि पक्षी।
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स्थल-सेना  : स्त्री० [सं०] स्थल या जमीन पर लड़नेवाली फौज। पैदल सिपाही घुड़सवार आदि। (आर्मी)। वायु और जल सेना से भिन्न।
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स्थल–कमल  : पुं० [सं०] १. स्थल में होनेवाला एक प्रकार का पौधा जिसमें कमल जैसे फूल लगते हैं। २. उक्त पौधे का फूल।
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स्थल–काली  : स्त्री० [सं०] दुर्गा की एक सहचरी।
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स्थल–कुमुद  : पुं० [सं०] कनेर। करवीर।
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स्थलग  : वि० [सं०]=स्थलचर।
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स्थलगामी (मिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्थल–चारिणी]=स्थलचर।
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स्थलचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्थल-चारिणी]=स्थलचर।
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स्थलज  : वि० [सं०] १. स्थल में उत्पन्न होनेवाला। २. स्थल का सूखी जमीन पर रहनेवाला। (टेरेस्ट्रिअल)
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स्थला  : स्त्री० [सं०] जल-शून्य भू-भाग। स्थल।
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स्थलालेख्य  : पुं० [सं० स्थल+आलेख्य] किसी स्थल का रेखा-चित्र। (साइट प्लान)।
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स्थली  : स्त्री० [सं०] १. जल-शून्य भू-भाग। खुश्क जमीन। भूमि। २. ऊँची सम भूमि। ३. जगह। स्थान। ४. ऐसा मैदान जिसमें सुन्दर प्राकृतिक दृश्य हो।
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स्थली देवता  : पुं० [सं०] ग्राम–देवता।
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स्थलीय  : वि० [सं०] १. स्थल या भूमि–संबंध। स्थल का। जमीन का। २. दे० ‘स्थानीय’।
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स्थलेशय  : पुं० [सं०] (स्थल अर्थात भूमि पर सोनेवाला) कुरंग, कस्तूरी मृग आदि जन्तु।
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स्थलौक (स्)  : पुं० [सं०] स्थल-चर जीव-जन्तु।
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स्थवि  : पुं० [सं०] १. थैला या थैली। २. स्वर्ग। ३. अग्नि। ४. फल। ५. जंगल। ६. जुलाहा। ७. कोढ़ी।
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स्थविर  : पुं० [सं०] [भाव० स्थविरता] १. लकड़ी टेककर चलनेवाला बुड्ढा। २. बौद्ध भिक्षुओं का एक सम्प्रदाय। ३. ब्रह्या। ४. कदंब। ५. छरीला। वि० वृद्ध और पूज्य।
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स्थविरा  : स्त्री० [सं०] १. वृद्ध और पूज्य स्त्री। २. गोरखमुखी।
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स्थाई  : वि०=स्थायी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्थांडिल  : वि० [सं०] व्रत के कारण भूमि पर शयन करनेवाला।
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स्थाणव  : वि० [सं०] स्थाणु अर्थात वृक्ष के तने से बना या उत्पन्न।
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स्थाणवीय  : वि० [सं०] स्थाणु या शिव संबंधी। शिव का।
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स्थाणु  : पुं० [सं०] १. पेड़ का ऐसा धड़ जिसके ऊपर की डालियाँ और पत्ते आदि न रह गये हों। ठूँठ। २. खंभा। ३. शिव का एर नाम। ४. ग्यारह रुद्रों में से एक। ५. एक प्रजापति। ६. एक प्रकार का बरछा या भाला। ७. धूप–घड़ी का काँटा। ८. स्थवर पदार्थ। ९. जीवक नामक अष्ट–वर्गीय ओषधि। १॰. दीमक की बाँबी। ११. घोड़े का एक प्रकार का रोग जिसमें उसकी जाँघ में व्रण या फोड़ा निकलता है। १२. कुरुक्षेत्र के थानेश्वर नामक स्थान का प्राचीन नाम जो किसी समय बुहत प्रसिद्ध तीर्थ माना जाता था। वि० अचल। स्थावर।
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स्थाण्वीश्वर  : पुं० [सं०] स्थाणु तीर्थ में स्थित एक प्रसिद्ध शिवलिंग। (वामन पुराण)
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स्थाता (तृ)  : वि० [सं०] १. स्थित या स्थर रहनेवाला। दृढ़। २. अचल।
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स्थान  : पुं० [सं०] [वि० स्थानिक, स्थानीय] १. स्थिति। ठहराव। २. खुला हुआ भूमि-भाग। जमीन। मैदान। ३. निश्चित और परिमित स्थितवाला वह भू-भाग जिसमें कोई बस्ती, प्राकृतिक रचना या कोई विशेष बात हो। जगह। स्थल। (प्लेस) जैसे–वहाँ देखने योगोय अनेक स्थान है। ४. रहने की जगह। (मकान, घर आदि)। ५. सेवा या लोकोपकार आदि के काम करने की जगह। पद। ओहदा। (पोस्ट) ६. बैठने का वह विशिष्ट स्थान जो निर्वाचित अथवा प्रति–निधित्व करनेवाले लोगों के लिए होता है। ७. देवालय, आश्रम या इसी प्रकार का कोई पवित्र स्थान। ८. अवसर। मौका। ९. देश। प्रदेश। १॰. मुँह के अंदर का वह अंग या स्थल जहाँ से किसी वर्ण या शब्द का उच्चारण हो। जैसे–कंठ, तालू, मूर्धा, दंत, ओष्ठ। (व्याकरण) ११. किसी राज्य के मुख्य आधार या बल जो चार माने गये हैं। यथा–सेना, कोष नगर और देश। (मनु०) १२. प्राचीन भारतीय राजनीति में, वह स्थिति जब युद्ध यात्रा न करके राजा लोग किसी उद्देश्य से चुप–चाप या बड़े उदासीन भाव से बैठे रहते थे। १३. आखेट में शरीर की एक प्रकार की मुद्रा (यह आसन का एक भेद माना गया है)। १४. अभिनय में अभिनेता का कार्य या चरित्र। १५. अवस्था। दशा। १६. गोदाम। भंडार। १७. कारण। हेतु। १८. किला। दुर्ग। १९. ग्रंथ का अध्याय या परिच्छेद।
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स्थान-चिंतक  : पुं० [सं०] वह सैनिक अधिकारी जो सेना के पड़ाव डालने, चौकी बनाने आदि के उद्देश्य से स्थान-स्थान आदि की व्यवस्था करता है।
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स्थान-च्युत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० स्थान–च्युति] १. जो अपने स्थान से गिर, हट या अलग हो गया हो। २. पद से हटाया हुआ। पद-च्युत।
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स्थान-पदिक  : वि० [सं०] नियमित रूप से या प्रायः किसी स्थान अथवा प्रदेश में होने या पाया जानेवाला। (एन्डेमिक) जैसे–स्थान-पदिक रोग।
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स्थान-पाल  : पुं० [सं०] १. स्थान या देश का रक्षक। २. चौकीदार। पहरेदार।
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स्थान-भ्रष्ट  : भू० कृ० [सं०] स्थान–च्युत।
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स्थानक  : पुं० [सं०] १. अवस्था। स्थिति। २. रूपक में कोई विशेष स्थिति। जैसे–पताका स्थानक। ३. जगह। स्थान। ४. नगर। शहर। ५. दरजा। पद। ६. वृक्ष का थाला। आल-बाल। ७. फेन। ८. नृत्य में एक प्रकार की मुद्रा।
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स्थानकवासी  : पुं० [सं०] जैनों में एक विशिष्ट संप्रदाय।
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स्थानविद  : वि० [सं०] जो किसी स्थान का जानकार हो।
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स्थानस्थ  : वि० [सं०] १. किसी स्थान पर टिका या टिककर रहनेवाला। २. स्थानीय।
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स्थानांतर  : पुं० [सं०] १. प्रकृत या प्रस्तुत से भिन्न कोई और स्थान। दूसरा स्थान। २. एक स्थान से दूसरे स्थान जाने की क्रिया या भाव। बदली।
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स्थानांतरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्थानांतरित] किसी वस्तु या व्यक्ति को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर पहुँचाना, देखना या भेजना। बदली। (ट्रान्सफ़रेन्स)
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स्थानांतरित  : भू० कृ० [सं०] जो अपने स्थान पर से हटाकर दूसरे स्थान पर भेज दिया गया हो। (ट्रान्सफ़र्ड)
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स्थानाध्यक्ष  : पुं० [सं०] वह व्यक्ति जिसपर किसी स्थान की रक्षी का भार हो। स्थान-रक्षक।
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स्थानापत्ति  : स्त्री० [सं०] स्थानापन्न होने की अवस्था या भाव। किसी की जगह पर या बदले में काम करना।
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स्थानापन्न  : वि० [सं०] १. जिसनें किसी दूसरे स्थान का ग्रहण किया हो। २. शासनिक क्षेत्र में किसी अधिकारी की अस्वस्थता, अनुपस्थिति या अविद्यमानता में उसके स्थान पर अस्थाई रूप से काम करनेवाला। (आफि़शिएटिंग)
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स्थानिक  : वि० [सं०] १. स्थान संबंधी। २. किसी स्थान विशेष में ही होनेवाला। जिसका क्षेत्र किसी स्थान तक ही सीमित हो। स्थानीय। जैसे–स्थानिक शब्द। पुं० १. स्थानृ-रक्षक। २. देव मंदिर का प्रबंधक।
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स्थानिक अधिकरण  : पुं० [सं०] किसी विशेष स्थान पर रहनेवाले अधिकारियों का समूह वर्ग या निकाय। (लोकल ऑथॉर्रटी)
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स्थानिक कर  : पुं० [सं०] किसी स्थान विशेष पर लगने वाला कर। (लोकल टैक्स)
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स्थानिक स्वराज्य  : पुं०, दे० ‘स्थानिक स्वायत्त शासन’।
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स्थानिक स्वायत्त शासन  : पुं० [सं०] १. लोक तंत्र शासन प्रणाली में शहरों कसबों गाँव आदि के लोगो द्वारा की जाने वाली अपने यहाँ की शासन-व्यवस्था। २. उक्त शासन का अधिकारी। ३. उक्त शासन-प्रणाली। (लोकल सेल्फ़ गवर्नमेंट)
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स्थानिक-परिषद  : स्त्री० [सं०] किसी बस्ती के निवासियों के प्रतिनिधियों की वह परिषद या सभा जिस पर वहाँ के कुछ विशेष्ट लोक-हित संबंधी सार्वजनिक कार्यों का भार हो। (लोकल बोर्ड)
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स्थानी (निन्)  : वि० [सं०] १. स्थान या पद से युक्त। २. उपयुक्त। ३. स्थाई।
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स्थानीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्थानीकृत] इधर-उधर या दूर तक फैले हुए कार्यों, व्यापारों आदि को नियंत्रित करके एक केन्द्र या स्थान में आबद्ध या सीमित करना। (लोकलाईजे़शन)
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स्थानीकृत  : भू० कृ० [सं०] जो या जिसका स्थानीकरण हुआ या किया गया हो। (लोकलाइज्ड)
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स्थानीय  : वि० [सं०] १. उस स्थान या नगर का जिसके संबंध में कोई उल्लेख हो। उल्लखित, वक्ता या लेखक के स्थान का। मुकामी। स्थानिक। (लोकल) जैसे–स्थानीय पुलिस कर्मचारी। स्थानीय समाचार। किसी स्थान पर ठहरा हुआ। स्थित। पुं० १. नगर। शहर। २. प्राचीन भारत मे ८॰॰ गावोँ के बीच में बना हुआ किला या गढ़।
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स्थानीय स्वशासन  : पुं० [सं०]=स्थानिक स्वायत्त शासन।
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स्थानेश्वर  : पुं० [सं०] १. कुरुक्षेत्र का थानेश्वर नामक स्थान जो किसी समय तक प्रसिद्ध तीर्थ था। २. स्थानाध्यक्ष।
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स्थापक  : वि० [सं०] १. स्थापन या स्थापना करने वाला। २. मूर्तियाँ आदि बनानेवाला। ३. अमानत या धरोहर रखनेवाला। ४. दे० संस्थापक। पुं० भारतीय नाट्यशास्त्र में वह नट जो पूर्व रंग में सूत्र धार के मंगला चरण करके चले जाने पर वैष्णव रूप में आकर नाटक की कथावस्तु के काव्यार्थ की स्थापना करता अर्थात सूचना देता है।
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स्थापत्य  : पुं० [सं०] १. स्थपित का अर्थात मकान आदि बनाने का कार्य। राजगीरि। मेमारी। २. भवन बनाने की विद्या। वास्तु विज्ञान। अंतःपुर का रक्षक।
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स्थापत्य वेद  : पुं० [सं०] १. चार उपवेदों में से एक जिसमें वास्तुशिल्प या भवन निर्माण कला का विषय वर्णित है। कहते हैं कि यह विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से निकाला था।
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स्थापन  : पुं० [सं०] [वि० स्थापनीय, भू० कृ० स्थापित, कर्ता० स्थापक] १. उठाना या खड़ा करना। २. दृढ़तापूर्वक जमाना, रखता या बैठाना। जैसे–वृक्ष या देवता का स्थापन। ३. दृढ़ या पुष्ट आधार पर स्थिर करना। स्थायी रूप देना। ४. कोई नई संस्था या व्यापारिक कार-बार खड़ा करना। (एस्टैब्लिशमेंन्ट) ५. किसी को किसी पद पर काम करने के लिए लगाना या नियत करना। (पोस्टिंग) ६. कोई मत या विचार इस प्रकार युक्तिपूर्वक लोगो के सामने रखना कि वह ठीक या प्रामाणिक जान पड़े। प्रतिपादन। ७. (शरीर का) रक्षा या आयुवृद्धि का उपाय। ८. रक्त-स्त्राव रोकने का उपाय। ९. समाधि। १॰. प्रसवन। ११. रहने की जगह। घर। मकान। १२. अनाज का ढेर। १३. दे० ‘स्थापना’।
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स्थापना  : स्त्री० [सं०] १. स्थापित करने की क्रिया या भाव। स्थापना। २. तर्क, प्रमाण, युक्ति आदि के द्वारा अपना पक्ष या मत ठीक सिद्ध करते हुए दूसरों के सामने रखना। अपना पक्ष स्थापित करना। निरूपण। प्रतिपादन। (एस्टैब्लिशमेंट) ३. इकट्ठा या जमा करना। ४. भारतीय नाट्य-शास्त्र के पूर्वरंग में सूत्र धार के द्वारा मंगलाचरण हो चुकने पर स्थापक नामक नट के द्वारा इस बात का सूचित किया जाना कि नाटक की कथावस्तु और उसका काव्यार्थ क्या है। ५. जैन धर्म में किसी मूर्ति में देवता, व्यक्ति आदि का आरेप करना। स० ठीक तरह से जमाना, बैठाना या रखना। स्थापित करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्थापनिक  : वि० [सं०] १. स्थापन संबंधी। स्थापन का। २. एकत्र या जमा किया हुआ।
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स्थापनीय  : वि० [सं०] स्थापित किये जाने योग्य। जिसका स्थापन हो सके या होने को हो।
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स्थापयितव्य  : वि० [सं०]=स्थापनीय।
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स्थापयिता (तृ)  : वि० [सं०]=स्थापक।
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स्थापित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी स्थापना की गई हो। कायम किया हुआ। २. इकट्ठा या जमा किया हुआ। ३. सँभालकर रखा हुआ। रक्षित। ४. निर्धारित या निश्चित। ५. व्यवस्थित। ६. विवाहित। ७. दृढ। पक्का। मजबूत।
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स्थापी (पिन्)  : पुं० [सं०] प्रतिमा निर्माण करने या मूर्ति बनानेवाला कारीगर।
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स्थाप्य  : वि० [सं०]=स्थापनीय। पुं० १. देवता आदि की मूर्ति। देव-प्रतिमा। २. अमानत। धरोहर।
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स्थाय  : पुं० [सं०] १. वह जिसमें कोई चीज रखी जाय। वह जिसमें धारिता शक्ति हो। २. जगह। स्थान।
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स्थाया  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी। धरती।
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स्थायिक  : वि० [सं०] १. स्थायी। २. विश्वसनीय।
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स्थायिता  : स्त्री०=स्थायित्व।
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स्थायित्व  : पुं० [सं०] १. स्थायी होने का अवस्था, गुण धर्म, भाव। २. किसी वस्तु विशेषतः सेवा या नौकरी के पद आदि पर होने वाला ऐसा अधिकारी जो कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार सुरक्षित और नियत काल के लिए स्थायी हो। (टेन्योर)
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स्थायी  : वि० [सं०] १. किसी स्थान पर स्थित होनेवाला। २. सदा स्थित रहनेवाला। हमेशा बना रहनेवाला। (परमानेन्ट) जैसे–स्थायी पद। ३. बहुत दिनों तक चलनेवाला। टिकाऊ। ४. स्थायी भाव। (दे०)
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स्थायी कोष  : पुं० [सं०] किसी संस्था आदि का वह कोष या धन राशि जो उसे स्थायी रूप से बनाए रखने के लिए क्रम-क्रम से बराबर संचित होती रहती है और इसका उपयोग उस संस्था को पुष्ट रूप देने और स्थायी बनाए रखने में होता है।
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स्थायी निधि  : स्त्री० [सं०] १. वह निधि जो कोई काम चलाए चलने के लिए स्थापित की गई हो और जिसके ब्याज मात्र से वह काम चलता हो। २. स्थायी कोष। (एन्डाउमेंट)
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स्थायी भाव  : पुं० [सं०] साहित्य में वे मूल तत्व जो मूलतः मनुष्यों के मन में प्रायः सदा निहित रहते और कुछ विशिष्ट अवसरों पर अथवा कुछ विशिष्ट कारणों से स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। जैसे–प्रेम, हर्ष या उससे उत्पन्न होनेवाला हास्य, खेद, दुःख, शोक, भय, वैराग्य आदि। इन्ही तत्वों या भावों के आधार पर साहित्य के ये नौ रस स्थिर हुए हैं–श्रंगार, हस्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और शांत। इन्ही रसों में मूल तथा स्थायी रूप से स्थापित रहने और किसी दूसरे भाव के आने पर भी प्रबलता तथा स्पष्ट रूप से होने के कारण ये भाव स्थायी कहलाते हैं।
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स्थायी समिति  : स्त्री० [सं०] १. वह समिति जो स्थायी रूप से बनी रहकर काम करने के लिए नियुक्त की गई हो। २. किसी सम्मेलन या महासभा आदि की यह समिति जो उक्त सम्मेलन या महासभा के अगले अधिवेशन तक सब कार्यों की व्यवस्था के लिए चुनी जाती है। (स्टैंडिंग कमिटि)
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स्थायीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्थायीकृत] १. किसी वस्तु, कार्य या बात को स्थायी रूप देना। २. किसी पद पर अस्थायी रूप से अथवा परीक्षण के रूप में काम करने वाले व्यक्ति को उस पर स्थायी रूप से नियत करना। ३. उक्त कार्य के लिए दी जानेवाली आज्ञा या स्वीकृति। (कन्फ़र्मेशन)
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स्थाल  : पुं० [सं०] १. पात्र (बरतन)। २. बड़ी थाली। थाल। ३. देगची। पतीला। ४. दाँत का खोखलापन।
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स्थाली  : स्त्री० [सं०] १. मिट्टी के बरतन जो भोजन बनाने और खाने पीने के काम में आते हों। जैसे–कसोरा, तश्तरी, हाँडी आदि। २. मिट्टी की वह तश्तरी जिसमें यज्ञ के समय सोम का रस निचोड़ा जाता था। ३. थाली। ४. खीर। ५. पाटला नामक वृक्ष।
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स्थाली-पाक  : पुं० [सं०] १. आहुति के लिए एक प्रकार का चरु जो दूध में चावल या जौं डालकर पकाने से बनता था। २. वैद्यक में लोहे की एक पाकविधि।
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स्थाली-पुलाक-न्याय  : पुं० [सं०] एक प्रकार का न्याय या कहावत जिसका प्रयोग यह आशय सूचित करने के लिए होता है कि हाँडी में उबाले हुए चावलों का एक दाना देखने से यह पता चलता है कि चावल अच्छी तरह से पके हैं या नहीं। जैसे–मैंने उनका एक ही व्याख्यान सुनकर स्थाली पुलाक-न्याय से सब विषयों में उनका मत जान लिया।
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स्थाल्य  : वि० [सं०] १. स्थल-संबधी। २. स्थल होने वाला। पुं० १. अन्न। २. जड़ी–बूटी।
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स्थावर  : वि० [सं०] [भाव० स्थावरता] १. इस प्रकार जड़ा, रखा या लगाया हुआ कि हट न सके। २. जो सदा एक ही जगह जमा रहता हो और वहाँ से कभी हटता न हो। (‘जंगम’ का विरु०) ३. अचल। गैर मनकूला। (इम्मूवेबुल) ४. उक्त प्रकार के पदार्थों से उत्पन्न होने या संबंध रखने वाला। जैसे–स्थावर विष। पुं० १. अचल संपत्ति। जैसे–खेत, बाग, मकान आदि। २. पर्वत। ३. अचेतन पदार्थ। जैसे–मिट्टी, बालू आदि। ४. वह पारिवारिक वस्तु जिसे बेचने का अधिकार किसी को नहीं होता है। ५. स्थूल शरीर।
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स्थावर-नाम  : पुं० [सं०] वह पाप कर्म जिसके उदय से जीव स्थावर काय (स्थूल शरीर) में जन्म ग्रहण करते हैं। (जैन)
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स्थावर-राज  : पुं० [सं०] हिमालय।
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स्थावर-विष  : पुं० [सं०] वह विषय जो वृक्षों की जड़ों, पत्तों, फल, फूल, छाल, दूध, सार, गोंद, धातु और कंद में होता है। स्थावर पदार्थों में होने वाला जहर। (वैद्यक)
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स्थावरता  : स्त्री० [सं०] स्थावर होने का अवस्था, गुण या भाव।
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स्थाविर  : पुं० [सं०] वृद्धावस्था। वार्धक्य। बुढ़ौती।
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स्थाविर-लगुडन्याय  : पुं० [सं०] जैसे वृद्ध की लाठी निशाने पर नहीं पहुँचती वैसे यदि कोई बात लक्ष्य तक पहुँचाने में विफल हो, तो यह न्याय प्रयुक्त होता है।
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स्थित  : भू० कृ० [सं०] [भाव० स्थिति] १. किसी पर खड़ा या ठहरा या बना हुआ। जैसे–दिल्ली स्थित मकान। २. बना हुआ। जैसे–प्रयाग स्थित पारिवारिक सदस्य। ३. दृढ। पक्का। जैसे–स्थित प्रज्ञ। ४. प्रतिष्ठित या प्रतिस्थापित किया हुआ। ५. बैठा हुआ। ६. ऊपर की ओर उठा हुआ। ७. अचल। ८. उपस्थित। मौजूद। पुं० १. अवस्थान। निवास। २. कुल या परिवार की मर्यादा।
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स्थित-घी  : वि० [सं०] १. स्थिर बुद्धिवाला। २. सोच–समझ कर निश्चय करने और उस पर स्थिर रहने वाला। ३. सुख–दुःख में विचलित या विह्वल न होनेवाला।
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स्थित-पाठ्य  : पुं० [सं०] नाट्य शास्त्र में विरही नायक या नायिका का एकांत में बैठकर दुखी मन से आप ही आप बातें करना या बड़बड़ाना।
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स्थित–प्रज्ञ  : वि० [सं०] १. जिसकी विवेक-बुद्धि स्थिर हो। २. सब प्रकार के मनों विकारों से रहित या शून्य और सदा आत्मा में ही प्रसन्न तथा संतुष्ट रहनेवाला।
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स्थितता  : स्त्री० [सं०] स्थित होने की अवस्था, गुण या भाव। स्थिति।
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स्थिति  : स्त्री० [सं०] [वि० स्थित] १. स्थित होने की क्रिया, दशा या भाव। रहना या होना। अवस्थान। अस्तित्व। २. एक ही स्थान पर या एक ही रूप में बना रहना। टिकाव। ठहराव। ३. आपेक्षिक, आर्थिक, सामाजिक आदि दृष्टियों से समझी जाने वाली किसी विषय या व्यक्ति की अवस्था। दशा। हलत। जैसे–(क) आज–कल उनकी स्थिति अच्छी नहीं है। (ख) देश की रीजनीतिक (या सामाजिक) स्थिति बिलकुल बदल गई है। ४. पद, मर्यादा आदि के विचार से समाज में किसी को प्राप्त होनेवाला स्थान। (पोजीशन) ५. किसी व्यक्ति संस्था आदि की वह विधिक दशा या मर्यादा जो उसे अपने क्षेत्र में कुछ निश्चित सीमा में प्राप्त होती है, और जो उसके पद सम्मान आदि की सूचक होती है। (स्टेटस) ६. वे बातें जो कोई पक्ष में अपने वक्तव्य, अभियोग, आरोप आदि के संबंध में कहता या उपस्थित करता है। (केस) जैसे–इस विषय में मैं अपनी स्थिति आपको बतला चुका हूँ। ७. निवास-स्थान। ८. अस्तित्व। ९. पालन–पोषण। १॰. नियम या विधान। ११. विचारणीय विषय का निर्णय या निष्पत्ति। १२. मर्यादा। १३. सीमा। हद। १४. छुटकारा। निवृत्ति। १५. ढंग। तरीका। १६. आकृति। रूप।
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स्थिति-गणित  : पुं० [सं०] गणित की वह शाखा जिसमें सांख्यिकी विवरण संग्रहीत तथा वर्गीकृत किये जाते हैं और विशेष रूप से पदार्थों की साम्यावस्था पर प्रभाव डालनेवाली शक्तियों का अंको में विवेचन होता है। (स्टैटिस्टिक्स)
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स्थिति-शील  : वि० [सं०] [भाव० स्थितिशीलता] १. बराबर एक ही स्थिति में होता या बना रहनेवाला। २. जो किसी स्थिति में पहुँचकर ज्यों का त्यों रह जाय। (स्टेटिक)
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स्थिति-स्थापक  : वि० [सं०] [भाव० स्थिति-स्थापकता] १. दाब हट जाने पर फिर ज्यों का त्यों हो जानेवाला। नमनीय। लचीला। २. दे० ‘तन्यक’।
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स्थितिता  : स्त्री० [सं०] १. स्थिति का भाव या धर्म। २. स्थिरता।
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स्थितिमान् (मत्)  : वि० [सं०] १. जिसमें दृढ़ता या धीरता हो। २. स्थायी। ३. धार्मिक।
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स्थिर  : वि० [सं०] [भाव० स्थिरता] १. सदा एक ही दशा, रूप या स्थित मे रहने वाला। अचर। निश्चल। (कांस्टेन्ट) २. बहुत दिनों तक या सदा ज्यों का त्यों बने रहने वाला। स्थायी। (स्टैबल) ३. इस प्रकार निश्चित किया हुआ जिसमें जल्दी या सहज में कोई परिवर्तन या हेर-फेर न हो सके। जैसे–मत स्थिर करना। ४. जो किसी स्थान पर पहुँचकर स्थायी रूप से रुक या ठहर गया हो। एक ही जगह पर बहुत दिनों तक टिका रहने वाला। (स्टेशनरी) ५. जिसमें किसी प्रकार का उद्वेग, चंचलता आदि न हो। धीर। शांत। ६. (प्रस्ताव या विचार) जो निश्चय के रूप में लाया गया हो। निश्चित। ७. एक ही स्थान पर जड़ा, बैठा या लगाया हुआ। ८. स्थायी। ९. विश्वसनीय। पुं० १. शिव। २. देवता। ३. मोक्ष। ४. पर्वत। ५. वृक्ष। ६. शनिग्रह। ७. ज्योतिष में एक प्रकार का योग। ८. ज्योतिष में वृष, सिंह, वृश्चिक, और कुंभ ये चारों राशियाँ स्थिर मानी गयीं हैं। ९. एक प्रकार का मंत्र जिसमें शास्त्र अभिमंत्रित किये जाते थे। १॰. वह कर्म जिससे जीव को स्थिर अवयव प्राप्त होते हैं। (जैन) ११. वृष। साँड़। १२. घौ का पेड़।
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स्थिर गंध  : [सं०] जिसकी सुगंध स्थिर रहती हो। स्थिर या स्थायी गंध युक्त। पुं० चंपक चंपा।
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स्थिर-गंधा  : स्त्री० [सं०] १. केवड़ा। केतकी। २. पाटला। पाढर।
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स्थिर-चक्र  : पुं० [सं०] मंजुघोष या मंजुकी नामक प्रसिद्ध बोधिसत्व का एक नाम।
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स्थिर-चित्र  : वि० [सं०] १. जिसका मन स्थिर या दृढ हो। २. उत्तेजित, विचलित, या विह्वल न होनेवाला।
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स्थिर-चेतना  : वि०=स्थिर-चित्त।
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स्थिर-जीवी (विन्)  : पुं० [सं०] कौआ जिसका जीवन बहुत दीर्घ होता है।
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स्थिर-दंष्ट्र  : पुं० [सं०] १. साँप। सर्प। २. ध्वनि। ३. विष्णु का वाराह अवतार।।
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स्थिर-पत्र  : पुं० [सं०] १. श्रीताल वृक्ष। २. हिंताल वृक्ष।
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स्थिर-पुष्प  : पुं० [सं०] १. चंपक वृक्ष। चंपा। २. बकुल। मौलसिरी। ३. तिल-पुष्पी।
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स्थिर-बुद्धि  : वि० [सं०] जिसकी बुद्धी स्थिर हो। ठहरी हुई बुद्धिवाला। दृढचित्त।
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स्थिर-मति  : वि०=स्थिर-बुद्धि।
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स्थिर-मूल्य  : पुं० [सं०] किसी वस्तु का वह निश्चित मूल्य जिसमें कमीबेशी न हो सकती हो। (फिक्सड् प्राइस)
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स्थिर-यौवन  : वि० [सं०] [स्त्री० स्थिरयौवना] जिसका यौवन-काल या जवानी अधिक दिनों तक बनी रहे। पुं० विद्याधर।
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स्थिर-यौवना  : वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री) जिसका यौवन अपेक्षया अधिक समय तक बना या स्थिर रहे।
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स्थिरता  : स्त्री० [सं०] १. स्थिर रहने या होने की अवस्था, गुण या भाव। २. दृढता। मजबूती। ३. धीरता। ४. स्थायित्व।
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स्थिरत्व  : पुं० =स्थिरता।
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स्थिरमना  : वि०=स्थिर-चित्त।
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स्थिरा  : स्त्री० [सं०] १. दृढ चित्तवाली स्त्री०। २. पृथ्वी। ३. काकोली। ४. बनमूँग। ५. सेमल। ६. मूसाकानी। ७. माषपर्णी। मखवन।
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स्थिरात्मा (त्मन्)  : वि० [सं०] दृढ़ चित्तवाला।
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स्थिरायु  : वि० [सं०] १. जिसकी आयु बहुत अधिक हो। चिरजीवी। २. अमर। पुं० सेमल का पेड़।
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स्थूण  : पुं० [सं०] १. थूनी। २. खंभा।
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स्थूणा  : स्त्री० [सं०] १. थूनी। २. खंभा। ३. पेड़ का ठूँठ। ४. लोहे का पुतला। ५. निहाई। ६. एक प्रकार का रोग।
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स्थूणाकर्ण  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना। २. एक प्रकार का तीर। ३. एक प्रकार का रोग ग्रह।
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स्थूणापक्ष  : पुं० [सं०] सेना की एक प्रकार की व्यूह-रचना।
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स्थूणीय, स्थूण्य  : वि० [सं०] स्तंभ-संबंधी।
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स्थूल  : वि० [सं०] [भाव० स्थूलता] १. भारी ओर मोटे अंगोवाला। मोटा। सूक्ष्म का विपर्याय। २. तुरंत या बिना परिश्रम समझ में आनेवाला। ३. जिसमें छोटे और बारीक अंगो का विचार न हो। (रफ़) ४. मोटे हिसाब से अनुमान किया या ध्यान में आया हुआ। (रफ़) ५. अभी जिसमें लागत व्यय आदि न निकाला गया हो। ‘पक्का’ का विपर्याय। (ग्रास) जैसे–स्थूल आय। ६. जिसमें तल सम न हो। ७. मूर्ख। पुं० १. वह पदार्थ जिसका साधारणतयः इंद्रियों द्वारा ग्रहण हो सके। वह जो स्पर्श, घ्राण, दृष्टि आदि की सहायता से जाना जा सके। गोचर-पिंड। २. वैद्यक के अनुसार शरीर की सातवीं त्वचा। ३. अन्नमय कोष। ४. ढेर। राशि। समूह। ५. विष्णु। ६. शिव का एक गण। ७. कटहल। ८. कंगनी। प्रियंगु। ९. ईख। ऊख। १॰. एक प्रकार का कदंब।
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स्थूल-कंटक  : पुं० [सं०] बबूल की जाति का एक प्रकार का पेड़ जिसे आरी भी कहते हैं।
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स्थूल-जंघा  : स्त्री० [सं०] नौ प्रकार की समिधाओं में से एक। (गृह्यसूत्र)
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स्थूल-जिह्वा  : वि० [सं०] जिसकी जीभ बहुत बडी़ हो। पुं० एक प्रकार के भूत।
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स्थूल-जीराक  : पुं० [सं०] मँगरैला।
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स्थूल-तंदूर  : पुं० [सं०] एक प्रकार का मोटा धान।
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स्थूल-देह  : पुं० [सं०]=स्थूल-शरीर।
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स्थूल-नास (नासिक)  : पुं० [सं०] सूअर। शूकर। वि० लंबी नाकवाला।
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स्थूल-पत्र  : पुं० [सं०] १. दौना नामक क्षुप। दमनक। २. सप्तपर्ण। छतिवन।
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स्थूल-पर्णी  : स्त्री० [सं०] सत्यपर्ण। छतिवन।
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स्थूल-पाद  : पुं० [सं०] १. वह जिसे श्लीपद या फिलपा रोग हो। २. हाथी।
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स्थूल-पुष्प  : पुं० [सं०] १. वक या अगस्त नामक वृश्र। २. गुलमखमली। झंटुक।
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स्थूल-पुष्पी  : स्त्री० [सं०] शंखिनी। यवतिका।
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स्थूल-फल  : पुं० [सं०] १. सेमल। शाल्मलि। २. बड़ा नीबू।
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स्थूल-फला  : स्त्री० [सं०] १. शणपुष्पी। वनसनई। २. सेमल।
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स्थूल-भद्र  : पुं० [सं०] जैनियों का भेद या वर्ग। श्रुतकेवलिक।
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स्थूल-मरिच  : पुं० [सं०] शीतलचीनी कबाबचीनी कक्कोल।
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स्थूल-रोग  : पुं० [सं०] मोटा होने का रोग। मोटाई की व्याधि।
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स्थूल-लक्ष  : पुं० [सं०] [भाव० स्थूललक्षिता] १. वह जो बहुत अधिक दान करता हो। बहुत बड़ा दानी। २. पंडित। विद्वान। ३. कृतज्ञ।
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स्थूल-लक्षिता  : स्त्री० [सं०] १. दानशीलता। २. पांडित्य। विद्वता। ३. कृतज्ञता।
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स्थूल-लक्ष्य  : पुं० [सं०] १. वह जो बहुत अधिक दान करता हो। बहुत बड़ा दाता। २. किसी विषय ऊपरी या मोटी बातें बताना।
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स्थूल-शर  : पुं० [सं०] रामशर।
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स्थूल-शरीर  : पुं० [सं०] वेदांत के अनुसार जीव या प्राणी के तीन प्रकार के शरीरों में से वह जो भौतिक तत्वों या हाड़-मांस का बना होता है और जो प्राण, बुद्धि, मन, कर्मेंद्रियों तथा ज्ञानेंद्रियों से युक्त होता है। जीव इसी शरीर में जन्म लेता है और संसार के सब काम करता है। विशेष–शेष दोने कारण शरीर और सूक्ष्म कहलाते हैं।
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स्थूल-शालि  : पुं० [सं०] एक प्रकार का मोटा चावल। स्थूल तंडुल।
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स्थूल-हस्त  : पुं० [सं०] हाथी की सूँड़। वि० लंबे या मोटे हांथोवाला।
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स्थूल–दर्भ  : पुं० [सं०] मूँज नामक तृण।
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स्थूल–दर्शक  : पुं० [सं०] सूक्ष्म-दर्शक यंत्र।
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स्थूलता  : स्त्री० [सं०] १. स्थूल होने की अवस्था, गुण या भाव। स्थूलत्व। २. मोटाई। ३. भारीपन।
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स्थूलत्व  : पुं०=स्थूलता।
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स्थूला  : स्त्री० [सं०] १. बड़ी इलायची। २. गजपीपल। ३. सौंफ। ४. मुनक्का। ५. कपास। ६. ककड़ी। ७. सोआ नामक साग।
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स्थूलात्र  : पुं० [सं०] पेड़ु के अंदर की एक बड़ी आँतड़ी।
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स्थूलाम्र  : पुं० [सं०] कलमी आम।
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स्थूलास्य  : पुं० [सं०] साँप। ऊँट।
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स्थूली (लिन्)  : पुं० [सं०] ऊँट।
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स्थूलोच्चय  : पुं० [सं०] हाथी का मध्यम चाल, जो न बहुत तेज हो और न बहुत सुस्त हो।
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स्थूलोदर  : वि० [सं०] बड़ी तोंदवाला।
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स्थेय  : वि० [सं०] स्थापित किये जाने के योग्य। जो स्थापित किया जा सके या किया जाने को हो। पुं० १. पुरोहित २. विवाह आदि का निर्णायक। न्यायकर्ता या पंच।
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स्थैर्य  : पुं० [सं०] १. स्थिरिता। २. दृढ़ता।
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स्थौर  : पुं० [सं०] १. स्थिरता। २. दृढ़ता। ३. उतनी सामग्री जितनी एक बार मे अपनी या किसी की पीठ पर लाद कर ले जाते हैं। खेप।
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स्थौल्य  : पुं० [सं०] १. स्थूल होने की अवस्था या गुण या भाव। स्थूलता। २. शरीर की देह-वृद्धि जो वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग है। मोटापा। ३. भारीपन।
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स्नपन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्नापित] नहाने की क्रिया। स्नान।
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स्नसा  : स्त्री० [सं०] स्नायु।
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स्नात  : भू० कृ० [सं०] जिसने स्नान किया हो। नहाया हुआ। जैसे–चन्द्रिका स्नात। पुं०=स्नातक।
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स्नातक  : पुं० [सं०] १. वह जिसने विद्या का अध्ययन और ब्रह्मचर्य व्रत समाप्त कर लिया हो। २. वह जिसने किसी महाविद्यालय की कोई परीक्षा पारित की हो (ग्रैजुएट)।
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स्नातकोत्तर  : वि० [सं०] (अध्ययन या परीक्षा) जो स्नातक हो जाने के उपरान्त और आगे हो (पोस्ट ग्रैजुएट)।
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स्नातव्य  : वि० [सं०] जिसे स्नान कराना आवश्यक या उचित हो।
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स्नान  : पुं० [सं०] [वि० स्नात] १. स्वच्छ या शीतल करने के लिए सारा शरीर जल से धोना या जलराशि में प्रवेश करना। नहाना। २. धार्मिक दृष्टि से (क) कुछ दिनों तक बराबर नियमपूर्वक किसी जलाशय में जाकर वहाँ की जानेवाली उक्त क्रिया। जैसे–कार्तिक स्नान, माघ स्नान आदि। (ख) कुछ विशिष्ट अवसरों या पर्वों पर उक्त कार्य के संबंध में किसी तीर्थ या पवित्र स्थान में लगनेवाला मेला। जैसे–कुंभ स्नान, प्रयाग स्नान आदि। ३. धूप, वायु आदि के सामने इस प्रकार बैठना, लेटना या होना कि सारे शरीर पर उसका पूरा प्रभाव पड़े। जैसे–वायु-स्नान, आतप-स्नान। ४. इस प्रकार किसी वस्तु पर किसी दूसरी वस्तु का पड़नेवाला प्रभाव या सार। जैसे–चन्द्रमा की चांदनी में पृथ्वी का स्नान (बाथ)।
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स्नान-गृह  : पुं० [सं०] नहाने का कमरा। गुलसखाना। हमाम।
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स्नान-तृण  : पुं० [सं०] कुछ जिसे हाथ में लेकर नहाने का शास्त्रों में विधान है।
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स्नान-वस्त्र  : पुं० [सं०] वह वस्त्र जिसे पहनाकर स्नान किया जाता है (बेदिंग सूट)।
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स्नान-शला  : स्त्री० [सं०] स्नान-गृह। गुसलखाना।
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स्नान–यात्रा  : स्त्री० [सं०] ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को होनेवाला एक उत्सव जिसमें विष्णु को महास्नान कराया जाता है। इस दिन जगन्नाथजी के दर्शन का बहुत महात्म्य कहा गया है।
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स्नानागार  : पुं० [सं०] स्नान-गृह।
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स्नानी (निन्)  : वि० [सं०] स्नान करनेवाला। स्त्री०=स्नान-गृह।
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स्नानीय  : वि० [सं०] १. जो नहाने के योग्य हो। २. जल जिसमें स्नान किया जा सके।
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स्नानोदक  : पुं० [सं०] नहाने के काम में आनेवाला जल। नहाने का पानी।
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स्नापक  : वि० [सं०] स्नान करने या नहलानेवाला। पुं० वह सेवक जो स्वामी को स्नान कराता हो अथवा स्नान करने के लिए जल आदि लाता हो।
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स्नापन  : पुं० [सं०] स्नान कराना। नहलाना।
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स्नापित  : भू० कृ० [सं०] नहलाया हुआ।
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स्नायन  : पुं० [सं०] स्नान। नहाना।
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स्नायविक  : वि० [सं०] स्नायु-संबंधी। स्नायु का (नर्बस)।
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स्नायवीय  : वि० [सं०] स्नायु-संबंधी। स्नायविक। पुं० आँख, पैर, हाथ आदि कर्मेन्द्रियाँ।
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स्नायी (यिन्)  : वि० [सं०] १. धनुष की डोरी। २. दे० तांत्रिक’ (नर्व)।
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स्नायु-वर्म(न्)  : पुं० [सं०] आँख का एक प्रकार का रोग जिसमें उसकी कौड़ी या सफेद भाग पर एक छोटी गाँठ सी निकल आती है (वैद्यक)।
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स्नायु-शूल  : पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग, जिसमें स्नायु में शूल के समान तीव्र वेदना होती है।
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स्नायुक  : पुं० [सं०] नहरुआ नामक रोग।
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स्निग्ध  : वि० [सं०] [भाव.स्निग्धता] १. जिसमें स्नेह या प्रेम हो। २. जिसमें स्नेह या तेल रहता हो या लगा हो। चिकना। (ऑयली) ३. जो अपने तेलवाले अंश और चिकनेपन के कारण यंत्रों के पहियों, पुरजों आदि को सरलतापूर्वक चलने में सहायता देता हो (ल्युब्रिकेटिंग)। पुं० १. लाल रेंड़। २. धूपसरल या सरल नामक वृक्ष। ३. गन्धाबिरोजा। ४. दूध पर की मलाई।
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स्निग्ध-दारु  : पुं० [सं०] १. देवदारु का पेड। २. धूपसरल। ३. शाल वृक्ष।
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स्निग्ध-पत्र  : पुं० [सं०] १. घृतकरंज। घीकतंज। २. गुच्छ कंरज। ३. भगवतवल्ली। ४. माजुरघास।
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स्निग्ध-पत्रा  : पुं० [सं०] १. बेर। २. पालक का साग। ३. अमलोनी। ४. काश्मरी। गंभारी।
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स्निग्ध-पत्री  : स्त्री० [सं०]=स्निग्धपत्रा।
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स्निग्ध-पर्णी  : स्त्री० [सं०] १. पृश्निपर्णी। पिठवन। २. मरोड़ फली। मूर्वा।
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स्निग्ध-फल  : पुं० [सं०] गुच्छ करंज।
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स्निग्ध-फला  : स्त्री० [सं०] १. फूट नामक फल। २. नकुलकंद। नाकुली।
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स्निग्ध-मज्जक  : पुं० [सं०] बादाम।
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स्निग्ध-राजि  : पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप जिसकी उत्पत्ति काले साँप और राजमती जाति की साँपिनी से होती है (सुश्रुत)।
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स्निग्धता  : स्त्री० [सं०] १. स्निग्ध या चिकना होने की अवस्था, गुण या भाव। चिकनापन। चिकनाहट। २. प्रेमुपूर्ण भाव या व्यवहार से युक्त होने की अवस्था या गुण।
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स्निग्धत्व  : पुं०=स्निग्धता।
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स्निग्धबीज  : पुं० [सं०] यशब गोल। ईशवगोल।
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स्निग्धा  : स्त्री० [सं०] १. मेदा नामक अष्टवर्गीय ओषधि। २. अस्थि के अन्दर का गूदा। मज्जा। ३. विक्रंकत।
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स्नुषा  : स्त्री० [सं०] १. पुत्र-वधू। लड़के की स्त्री। २. थूहड़।
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स्नुहा (ही)  : स्त्री० [सं०] थूहड़।
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स्नेय  : वि० [सं०] १. जिसमें या जिससे स्नान किया जा सके। २. जो स्नान करने को हो या जिसे स्नान करना आवश्यक या उचित हो।
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स्नेह  : पुं० [सं०] १. चिकना पदार्थ। चिकनाहटवाली चीज। जैसे–घी, तेल, चरबी आदि। २. प्रेमियों, हमजोलियों बच्चों आदि के प्रति होनेवाला प्रेम–भाव। ३. कोमलता। मुलायमत। ४. सिर के अन्दर का गूदा। मज्जा। ५. एक प्रकार का राग जो हनुमत के मत से हिंडोल राग का पुत्र है। ६. सरसों। ७. दही या दूध पर की मलाई।
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स्नेह-पात्र  : वि० [सं०] [वि० स्नेहपात्री] जो स्नेह का पात्र या भाजन हो। जिसके प्रति स्नेह हो।
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स्नेह-पान  : पुं० [सं०] १. तेल पीना। २. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार की क्रिया जिसमें कुछ विशिष्ट रोगों में तेल, घी, चरबी आदि पीने का विधान है।
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स्नेह-फल  : पुं० [सं०] तिल।
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स्नेह-बीज  : पुं० [सं०] चिरौंजी।
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स्नेह-मापक  : पुं० [सं०] एक प्रकार का यंत्र जिससे यह पता चलता है कि दूध में स्नेह या चिकनाई (मक्खन, घी आदि का अंश) कितना होता है। (बुटाइरोमीटर)
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स्नेह-मीन  : पुं० [सं०] एक प्रकार की बड़ी मछली जिसका मांस खाया जाता है और चरबी का उपयोग कई प्रकार के रोगों में पौष्टिक ओषधि के रूप में होता है। (कॉड)
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स्नेह-वस्ति  : स्त्री० [सं०] १. वह वस्ति या पिचकारी जिसमें तेल भर कर गुदा के द्वारा रोगी के शरीर में प्रविष्ट किया जाता है। (वैद्यक) २. उक्त क्रिया का भाव।
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स्नेह-वृक्ष  : पुं० [सं०] देवदारु।
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स्नेह-सार  : पुं० [सं०] मज्जा नामक धातु। अस्थिसार।
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स्नेहक  : पुं० [सं०] १. वह तेल या चिकना पदार्थ जो यंत्रों के पहियों आदि में सरलता से चलाने के लिए डाला जाता है (लूब्रिकेन्ट)। २. प्रेमी। स्नेही। वि० १. स्निग्ध या चिकना करनेवाला। २. स्नेही।
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स्नेहन  : पुं० [सं०] १. किसी चीज में स्नेह या तेल लगाने अथवा उसे चिकना करने की क्रिया या भाव। चिकनाना। २. यंत्रों आदि के अंगों और पहियों में उन्हें सरलता से चलाने के लिए तेल डालना। (ल्युब्रिकेशन) ३. किसी चीज से चिकनाहट उत्पन्न करना या लाना। ४. शरीर में तेल लगाना। ५. नवनीत। मक्खन। ६. कफ। श्लेष्म।
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स्नेहनीय  : वि० [सं०] १. जिस पर तेल लगाया जा सके। २. जिसके साथ स्नेह किया जा सके।
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स्नेहल  : वि० [सं०] १. स्नेह-पूर्ण। २. कोमल। ३. चिकना।
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स्नेहांश  : पुं० [सं०] दीपक। चिराग।
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स्नेहिक  : वि० [सं०] १. स्नेह युक्त। चिकना। २. रोगनदार।
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स्नेहित  : भू० कृ० [सं०] १. स्नेह से युक्त किया हुआ। २. जिसे किसी का स्नेह प्राप्त हो। ३. जिस पर चिकनाई लगाई गई हो।
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स्नेही (हिन्)  : वि० [सं०] १. जो स्नेह करता हो। २. जिससे स्नेह किया जाता हो। पुं० १. मित्र। २. लेप आदि करनेवाला चिकित्सक। ३. चित्रकार।
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स्नेहोत्तम  : पुं० [सं०] तिल का तेल।
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स्नेह्य  : वि० [सं०] जिसके साथ स्नेह किया जा सके। स्नेह या प्रेम का अधिकारी या पात्र।
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स्प (र्द्ध) र्धन  : पुं० [सं०]=स्पर्धा करने की क्रिया या भाव।
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स्प (र्द्ध) र्धनीय  : वि० [सं०] १. जिसमें स्पर्धा की जा सके। २. जिसके विषय में स्पर्धा की जा सके।
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स्पंज  : पुं० दे० ‘इस्पंज’।
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स्पंजी  : वि० दे० ‘इस्पंजी’।
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स्पंद  : पुं० [सं०] [वि० स्पंदित] १. धीरे-धीरे हिलना या काँपना। २. स्पंदन की क्रिया में होनवाला हल्का आघात या फड़क। (पल्स) विशेष दे० ‘स्पंदन’।
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स्पंदन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्पंदित] १. रह-रहकर धीरे-धीरे हिलना या काँपना। २. जीवों के शरीर में रक्त प्रवाह या संचार के कारण कुछ रुक-रुककर होनेवाली वह लपक गति जो हृदय के बार–बार फूलने और संकुचित होने के आघात या खटक के रूप में उत्पन्न होता है। (बीट) जैसे–नाड़ी या हृदय का स्पंदन। ३. भौतिक क्षेत्रों में किसी प्रक्रिया से होनेवाला उक्त प्रकार का व्यापार या स्थिति। फड़क। (पल्सेशन)
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स्पंदित  : भू० कृ० [सं०] जिसमें स्पंदन उत्पन्न हुआ हो अथवा उत्पन्न किया गया हो। हिलता या काँपता हुआ।
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स्पंदिनी  : स्त्री० [सं०] १. रजस्वला स्त्री। २. बराबर या सदा दूध देती रहनेवाली गौ। ३. काम-धेनु।
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स्पंदी (दिन्)  : वि० [सं०] जिसमें स्पंदन हो। हिलने, काँपने या फड़कनेवाला। स्पंदशील।
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स्परांटो  : स्त्री०=एस्परांटो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्परिट  : स्त्री० [अं०] १. शरीर में रहनेवाली आत्मा। २. वह सूक्ष्म शरीर जिसका निवास स्थूल शरीर के अन्दर माना जाता है। ३. आवेश, उत्साह आदि से युक्त जीवनी शक्ति। ४. किसी पदार्थ का सत्त या सार। जैसे–स्पिरिट एमोनिय=नौसादार का सत्त। ५. दे० ‘सुरासव’
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स्पर्द्धा  : स्त्री० [सं०] [भू० कृ० स्पर्द्धित] १. रगड़। संघर्ष। २. प्रतियोगिता आदि में किसी से होनवाली होड़। ३. सामर्थ्य या योग्यता से अधिक कुछ करने या पाने की इच्छा। ४. किसी में कोई अच्छी बात देखकर सद्भावपूर्वक उसके समान होने की कामना। (एम्यूलेखन) साहस। हौसला। ५. ईर्ष्या। डाह। ७. बराबरी। समता।
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स्पर्द्धी (र्द्धिन)  : वि० [सं०] स्पर्द्धा करनेवाला। पुं० ज्यामिति में किसी कोण में की उतनी कमी जिसकी पूर्ति से वह कोण १८॰ अंश का अथवा अर्द्ध-वृत होता है।
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स्पर्धा  : स्त्री०=स्पर्द्धा।
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स्पर्धित  : भू० कृ० =स्पर्द्धित।
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स्पर्धी  : वि०=स्पर्द्धी।
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स्पर्श  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्पर्शित, स्पृष्ट] १. त्वचा का वह गुण जिससे छूने, दबने आदि का अनुभव होता है। २. एक वस्तु के तल का दूसरी वस्तु के तल से सटना या छूना (टच)। ३. व्याकरण के उच्चारण करते समय जीभ कुछ ऊपर उठकर और तालु को स्पर्श करके बहुत थोड़े समय के लिए श्वास रोक देती है। (‘क’ से ‘म’ तक के व्यंजनों का उच्चारण इसी प्रयत्न से होता है)। ४. ग्रहण के समय सूर्य अथवा चन्द्रमा पर छाया पडने लगना। ग्रहण का आरंभ। ‘मोक्ष’ का विपर्याय। ५. संभोग का एक प्रकार का आसन या रति-बंध। ६. दान। ७. वायु। हवा। ८. कष्ट। पीड़ा।
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स्पर्श-ग्राह्य  : वि० [सं०] [भाव० स्पर्श-ग्राह्यता] स्पर्श द्वारा जिसे जाना तथा समझा जाता हो। (टैक्टाइल)
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स्पर्श-जन्य  : वि० [सं०] १. स्पर्श के परिणाम स्वरूप होनेवाला। जैसे–स्पर्श जन्य सुख। २. छुतहा। संक्रामक।
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स्पर्श-मणि  : पुं० [सं०] पारस-पत्थर।
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स्पर्श-रेखा  : स्त्री० [सं०] ज्यामिति में वह सरल रेखा, जो किसी वृत्त को किसी एक विन्दु पर स्पर्श करती हुई (बिना उस वृत्त को कहीं से काटे) एक ओर से दूसरी ओर निकल आती है। (टैनजेन्ट)
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स्पर्श-संघर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं०] शब्दों के उच्चारण में होनेवाला प्रयत्न। जिसमें पहले श्वास नली के साथ जीभ का थोड़ा स्पर्श और तब कुछ संघर्ष होता है। (एफ्रिकेट) जैसे–च् या ज् का उच्चारण।
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स्पर्श-संचारी (रिन्)  : पुं० [सं०] शुक्र रोग का एक भेद।
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स्पर्श-हानि  : स्त्री० [सं०] शूक रोग में रुधिर के दूषित होने के फलस्वरूप लिंग के चमड़े में स्पर्श-ज्ञान न रह जाना।
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स्पर्श–कोण  : पुं० [सं०] ज्यामिति में वह कोण जो किसी वृत्त पर खींची हुई स्पर्श रेखा के कारण उस वृत्त और स्पर्श रेखा के बीच में बनता है।
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स्पर्श–दिशा  : स्त्री० [सं०] वह दशा जिधर से सूर्य या चन्द्रमा को ग्रहण लगा हो या लगने का हो। चन्द्रमा या सूर्य पर ग्रहण की छाया आने अर्थात् स्पर्श का आरम्भ होने की दशा।
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स्पर्शतन्मात्र  : पुं० [सं०] स्पर्श भूत का आदि, अमिश्र और सूक्ष्म रूप। दे० ‘तन्मात्र’।
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स्पर्शता  : स्त्री० [सं०] स्पर्श का धर्म या भाव। स्पर्शत्व।
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स्पर्शन  : पुं० [सं०] १. स्पर्श करने या छूने की क्रिया या भाव। २. देने की क्रिया। दान। ३. लगाव। सम्बन्ध। ४. वायु। हवा।
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स्पर्शना  : स्त्री० [सं०] छूने की शक्ति या भाव।
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स्पर्शनीय  : वि० [सं०] जिसे स्पर्श किया या छुआ जा सके। स्पृश्य।
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स्पर्शनेंद्रिय  : स्त्री० [सं०] वह इन्द्रिय जिससे स्पर्श किया जाता है। छूने की इन्द्रिय। त्वक्।
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स्पर्शा  : स्त्री० [सं०] दुश्चरित्रा स्त्री। छिनाल। पुंश्चली।
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स्पर्शाक्रामक  : वि० [सं०] स्पर्श होने पर आक्रमण करनेवाला। संक्रामक। छुतहा।
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स्पर्शाज्ञ  : वि० [सं०] जिसे स्पर्श की अनुभूति न होती हो।
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स्पर्शास्पर्श  : पुं० [सं०] १. स्पर्श और अस्पर्श। छूना या न छूना। २. छूआछूत का भाव।
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स्पर्शिक  : वि० [सं०] १. स्पर्श करनेवाला। २. जिसे छूने से ज्ञान प्राप्त होता है। पुं० वायु। हवा।
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स्पर्शी (शिन्)  : वि० [सं०] स्पर्श करनेवाला। छूनेवाला। जैसे–हृदय-स्पर्शी।
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स्पर्शेन्द्रिय  : स्त्री० [सं०] वह इन्द्रिय जिससे स्पर्श का ज्ञान होता है। त्वचा। चमड़ा।
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स्पर्शोपल  : पुं० [सं०] पारस पत्थर। स्पर्श-मणि।
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स्पष्ट  : वि० [सं०] [भाव० स्पष्टता] १. जिसे देखने समझने, सुनने आदि में नाम की भी कोई कठिनता या बाधा न हो। बिलकुल साफ। २. (बात या व्यवहार) जिसमें किसी तरह का छल-कपट या धोखा न हो। चालाकी, दांव-पेंच आदि से रहित और सत्यतापूर्ण। जैसे–(क) आपसी व्यवहार सदा स्पष्ट होना चाहिए। (ख) तुम्हें जो कुछ कहना हो, वह स्पष्ट कर दो। पुं० १. फलित ज्योतिष में ग्रहों का वह स्फुट-साधन जिससे यह जाना जाता है कि जन्म के समय अथवा किसी और विशिष्ट काल में कौन सा ग्रह किस राशि के कितने अंश, कितनी कला और कितनी विकला में था। इसकी आवश्यकता ग्रहों का ठीक-ठीक फल जानने के लिए होती है। २. व्याकरण में, वर्णों के उच्चारण का एक प्रकार का प्रयत्न जिसमें दोनों होंठ एक-दूसरे से छू जाते हों। जैसे–प या म के उच्चारण में स्पष्ट प्रयत्न होता है।
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स्पष्ट–कथन  : पुं० [सं०] व्याकरण की दृष्टि से कथन का वह प्रकार जिसमें किसी द्वारा कही हुई बात का उल्लेख ठीक उसी रूप में बिना किसी प्रकार का व्याकरणगत अंतर उपस्थित किये किया जाता है। (डायरेक्ट स्पीच)
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स्पष्टका  : पुं० [सं०] संभोग आदि के समय आलिंगन का एक प्रकार।
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स्पष्टतया  : अव्य० [सं०] १. स्पष्ट रूप से। साफ-साफ। २. स्पष्ट शब्दों में।
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स्पष्टता  : स्त्री० [सं०] १. स्पष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। जैसे–उसकी बातों की स्पष्टता ने सभी को प्रभाविक किया। २. सफाई।
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स्पष्टवक्ता  : वि० [सं०] १. स्पष्ट बात या बातें कहनेवाला। २. बिना भय या संकोच के बातें कहनेवाला।
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स्पष्टवादी (दिन्)  : वि० [सं०] [भाव० स्पष्टवादिता] स्पष्टवक्ता। (दे०)
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स्पष्टीकरण  : पुं० [सं०] [वि० स्पष्टीकृत] १. कोई बात इस प्रकार स्पष्ट या साफ करना कि उसके संबंध में कोई भ्रम न रहे। (एल्यूसिडेशन)। २. जो बात स्पष्ट होने से रह गई हो उसे इस प्रकार स्पष्ट करना कि औरों का भ्रम दूर हो जाय। (क्लैरिफि़केशन)। ३. इस प्रकार भ्रम दूर करने के उद्देश्य से कही जानेवाली बात। ४. किसी अपने किये हुए कार्य के विषय में आपत्ति होने पर यह बतलाना कि किन कारणों से यह काम इस रूप में किया गया है। विवृत्ति। व्याख्या। (एक्सप्लेनेशम)
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स्पष्टीकार्य  : वि० [सं०] जिसका स्पष्टीकरण करना आवश्यक या उचित हो।
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स्पष्टीकृत  : भू० कृ० [सं०] जिसका स्पष्टीकरण हुआ हो। साफ या खुलासा किया हुआ।
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स्पष्टीक्रिया  : स्त्री० [सं०] ज्योतिष में वह क्रिया जिससे ग्रहों का किसी विशिष्ट समय में किसी राशि के अंश, कला, विकला आदि में अवस्थान जाना जाता है।
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स्पहणीय  : वि० [सं०] जिसके लिए स्पृहा अर्थात् अभिलाषा या कामना की जा सके। वांछनीय, अर्थात् उत्तम, गौरवपूर्ण या प्रशंसनीय।
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स्पीकर  : पुं० [अं०] १. वह जो व्याख्यान देता हो। वक्ता। २. कुछ विशिष्ट राज्यों में विधान-सभा या सभापति। ३. एक प्रकार का उच्चभाषक की तरह का यंत्र जो प्रेषित की हुई ध्वनि-तरंगों को शब्दों में बदल कर कहता है।
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स्पीच  : स्त्री० [अं०] भाषण। व्याख्यान।
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स्पीड  : स्त्री० [अं०] गति। चाल।
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स्पृक्का  : स्त्री० [सं०] १. असबरग। २. लजालू। लज्जावंती। ३. ब्राह्मी। ४. मालती। ५. सेवती। ६. गंगापुत्री। पानी-लता।
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स्पृश  : वि० [सं०] स्पर्श करनेवाला। छूनेवाला।
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स्पृश्य  : वि० [सं०] १. जिसे स्पर्श कर सकें। जो छुआ जा सके। २. जिसे छूने में कोई दोष या पाप न माना जाता हो।
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स्पृश्या  : स्त्री० [सं०] हवन की नौ समिधाओं में से एक।
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स्पृष्ट  : भू० कृ० [सं०] जिसे छुआ गया हो। पुं० व्याकरण में वर्णों के उच्चारण का एक प्रकार का आभ्यन्तर प्रयत्न। विशेष–क् से म् तक के वर्णों का उच्चारण इसी प्रयत्न से होता है।
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स्पृष्टास्पृष्टि  : स्त्री० [सं०] १. एक दूसरे को छूना। २. छुआछूत।
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स्पृष्टि  : स्त्री० [सं०] छूने की क्रिया या भाव। स्पर्श।
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स्पृष्टी (टिन्)  : वि० [सं०]=स्पर्शी।
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स्पृहण  : पुं० [सं०]=स्पृहा।
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स्पृहयालु  : वि० [सं०] १. जो स्पृहा या कामना करे। स्पृहा करनेवाला। २. लोभी। लालची।
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स्पृहा  : स्त्री० [सं०] किसी अच्छे काम, चीज या बात की प्राप्ति अथवा सिद्धि के लिए मन में होनेवाली अभिलाषा इच्छा या कामना।
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स्पृहित  : वि० [सं०] १. जिसकी प्राप्ति की अभिलाषा की गई हो। २. जो स्पृहा या ईर्ष्या का विषय हो।
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स्पृही (हिन्)  : वि० [सं०] १. स्पृहा अर्थात् कामना या इच्छा करनेवाला। २. स्पर्धा करनेवाला।
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स्पृह्य  : वि० [सं०]=स्पृहणीय।
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स्पेशल  : वि० [अं०] विशेष। (दे०) पुं० १. विशेष अवसर पर चलनेवाली गाड़ी। २. विशेष अधिकारी को ले चलनेवाली गाड़ी।
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स्पेशलिष्ट  : पुं० [अ०] किसी विद्या या विषय का विशेषज्ञ।
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स्प्रिंग  : स्त्री० [सं०] यंत्रों या यांत्रिक उपकरणों में लगनेवाली कमानी।
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स्प्रिंगदार  : वि० [अं० स्प्रिंग+फा० दार (प्रत्य०)] जिसमें स्प्रिंग या कमानी लगी हो। कमानीदार।
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स्प्लिट  : पुं० [अं०] वह पटरी जो मोच निकले या हड्डी टूटे हुए अंग पर बाँधी जाती है। (आधुनिक चिकित्सा)।
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स्फट  : पुं० [सं०] १. फट-फट शब्द। २. साँप का फन।
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स्फटिक  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का सफेद बहुमूल्य पारदर्शी पत्थर या रत्न, जिसका व्यवहार मालाएँ, मूर्तियाँ तथा दस्ते आदि बनाने में होता है। इसके कई भेद और रंग होते हैं। बिल्लौर। (पेबुल) २. सूर्यकांत मणि। ३. काँच। सीशा। ४. कपूर। ५. फिटकरी।
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स्फटिका  : स्त्री० [सं०] फिटकरी।
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स्फटिकाचल  : पुं० [सं०] कैलास पर्वत जो दूर से देखने में स्फटिक के समान जान पड़ता है।
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स्फटिकाद्रि  : पुं० [सं०]=स्फटिकाचल (कैलास)।
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स्फटिकी  : स्त्री० [सं०]=फिटकरी।
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स्फटिकीरण  : पुं० दे० ‘मणिभीकरण’।
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स्फटिकोपल  : पुं० [सं०] स्फटिक। बिल्लौर।
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स्फटित  : भू० कृ० [सं०] फटा हुआ। विदीर्ण।
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स्फटी  : स्त्री० [सं०] फिटकरी।
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स्फरण  : पुं० [सं०] १. काँपना। फड़कना। २. प्रवेश करना।
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स्फाटक  : पुं० [सं०] १. स्फटिक। बिल्लौर। २. पानी की बूँद।
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स्फाटिक  : वि० [सं०] स्फटिक संबंधी। बिल्लौर का। पुं०=स्फटिक।
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स्फार  : वि० [सं०] १. बहुत अधिक। प्रचुर। विपुल। उदा०–ऊपर हरीतिमा नभ गुंजित, नीचे चन्द्रातप छना स्फार।–पन्त। २. बड़ा और विस्तृत। पुं० १. अधिकता। २. विस्तार।
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स्फारण  : पुं०=स्फुरण।
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स्फीत  : वि० [सं०] [भाव० स्फीतता, स्फीति] १. बढ़ा हुआ। वर्द्धित। २. फूला या उभरा हुआ। जैसे–गर्व से स्फीत वक्षःस्थल। ३. समृद्ध। सम्पन्न। ४. इस रूप में फूला हुआ कि बाहर से देखने में तो बड़ा या भारी जान पड़े परन्तु अन्दर अपेक्षया कम तत्त्व या सार हो। (इम्फलेटेड)
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स्फीतता, स्फीति  : स्त्री० [सं०] स्फीत होने की अवस्था, गुण या भाव। स्फीतता। (इन्फ्लेशन)
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स्फुट  : वि० [सं०] [भाव० स्फुटता] १. फूटा या टूटा हुआ। २. खुला या खिला हुआ। विकसित। ३. स्पष्ट। व्यक्त। ४. शुक्ल। सफेद। ५. अनिश्चित प्रकारों या वर्गों का। फुटकर। पुं० जन्म-कुंडली में यह दिखाना कि कौन सा ग्रह किस राशि में कितने अंश, कितनी कला और कितनी विकला में है। (फलित ज्योतिष)
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स्फुटता  : स्त्री० [सं०] स्फुट होने की अवस्था, गुण या भाव।
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स्फुटत्व  : पुं० [सं०]=स्फुटता।
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स्फुटन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्फुटित] १. फटना या फूटना। २. विकसित होना। खिलना।
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स्फुटा  : स्त्री० [सं०] साँप का फन।
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स्फुटिका  : स्त्री० [सं०] १. किसी चीज का टूटा हुआ या काटकर निकाला हुआ अंश। २. फूट नामक फल। ३. फिटकरी।
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स्फुटित  : भू० कृ० [सं०] १. फूटा हुआ। २. विकसित। खिला हुआ। ३. मुँह से कहकर अथवा और किसी प्रकार स्पष्ट रूप से प्रकट या व्यक्त किया हुआ।
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स्फुटित-कांड-भग्न  : पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार हड्डी टूटने का वह रूप जिसमें उसके टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाते हैं।
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स्फुटी  : स्त्री० [सं०] १. पादस्फोट नामक रोग। पैर की बिवाई फटना। २. फूट नामक फल।
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स्फुटीकरण  : पुं० [सं० स्फुट+करण] स्फुट अर्थात् प्रकट, व्यक्त या स्पष्ट करने की क्रिया या भाव।
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स्फुर  : पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. स्फुरण।
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स्फुरण  : पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ का जरा-जरा काँपना, लहराना, या हिलाना। २. अंग का फड़कना। ३. स्फूर्ति।
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स्फुरण  : स्त्री० [सं०] अंगों का फड़कना।
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स्फुरति  : स्त्री०=स्फूर्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्फुरना  : अ० [सं० स्फुरण] १. प्रकट या व्यक्त होना। २. काँपना, फड़कना, या हिलना। ३. मन में कोई बात सहसा उत्पन्न होना।
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स्फुरित  : भू० कृ० [सं०] जिसका या जिसमें स्फुरण हो।
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स्फुलिंग  : पुं० [सं०] वह जनता हुआ चमकीला कण, जो जलती हुई या जोर से रगड़ी जानेवाली चीजों में से निकलकर उड़ता हुआ दिखाई देता है। चिनगार। (स्पार्क)
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स्फुलिंगिनी  : स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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स्फुलिंगी  : वि० [सं०] जिसमें से स्फुलिंग निकलते हों या निकल रहे हों।
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स्फूर्ज  : पुं० [सं०] १. अचानक होनेवाले स्फोट। २. बादलों की गड़गड़ाहट। मेघ-गर्जन। ३. इन्द्र का वज्र। ४. नायक-नायिका का प्रथम मिलन जिसमें आनन्द के साथ भय भी मिला होता है।
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स्फूर्जन  : पुं० [सं०] १. बादल की गरज। २. तिंदुक या तेदू नामक वृक्ष।
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स्फूर्जा  : स्त्री०=स्फूर्ज।
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स्फूर्त  : भू० कृ० [सं०] १. जो स्फूर्ति के फलस्वरूप हुआ हो। २. मन में अचानक आया हुआ।
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स्फूर्ति  : स्त्री० [सं०] १. धीरे-धीरे हिलना। फड़कना। स्फुरण। २. किसी काम या बात के लिए मन में होनेवाला किसी विचार का आकस्मिक आविर्भाव। ३. तेजी। फुरती।
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स्फोट  : पुं० [सं०] [वि० स्फुट] १. अंदर से भर जाने के कारण किसी वस्तु के ऊपरी आवरण का फटना या उसमें की चीज का वेगपूर्वक बाहर निकलना। फूटना। (इरप्शन) जैसे–ज्वालामुखी का स्फोट। २. शरीर पर होनेवाला फोड़ा। ३. साधना के क्षेत्र में उपाधिरहित शब्दतत्त्व। ओंकार। प्रणव। ४. मोती।
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स्फोटक  : वि० [सं०] स्फोट उत्पन्न करनेवाला। पुं० १. शरीर में होनेवाला फोड़ा। २. भिलावाँ।
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स्फोटन  : पुं० [सं०] १. स्फोट उत्पन्न करने की क्रिया या भाव। २. विदीर्ण करना। फाड़ना। ३. सामने लाना। प्रकट करना। ४. सुश्रुत के अनुसार वायु के प्रकोप से सिर में होनेवाली पीड़ा, जिसमें वह फटता हुआ सा जान पड़ता है।
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स्फोटवाद  : पुं० [सं०] [स्फोटवादी] यह दार्शनिक मत या सिद्धान्त की सारी सृष्टि की उत्पत्ति स्फोट अर्थात् अनित्य देवी शब्द से ही हुई है।
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स्फोटा  : स्त्री० [सं०] १. साँप का फन। २. सफेद अनन्तमूल।
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स्फोटिक  : पुं० [सं०] पत्थर, जमीन आदि तोड़ने फोड़ने का काम।
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स्फोटिका  : स्त्री० [सं०] छोटा फोड़ा। फुंसी।
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स्फोरण  : पुं० [सं०]=स्फुरण।
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स्मय  : पुं० [सं०] अभिमान। घमंड। वि० अद्भुत। विलक्षण।
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स्मर  : पुं० [सं०] १. कामदेव। मदन। २. याद। स्मृति। ३. संगीत में शुद्ध राग का एक भेद।
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स्मर-कथा  : स्त्री० [सं०] श्रृंगार रस की बातें।
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स्मर-कार  : वि० [सं०] कामवासना उद्दीप्त करनेवाला।
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स्मर-कूप  : पुं० [सं०] भग। योनि।
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स्मर-गृह  : पुं० [सं०] भग। योनि।
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स्मर-चक्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रतिबंध।
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स्मर-चंड  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रतिबंध।
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स्मर-दशा  : स्त्री० [सं०] साहित्य में वह दशा जो प्रेमी और प्रेमिका के न मिलने पर उसके विरह में होती है। विरह की अवस्था।
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स्मर-दहन  : पुं० [सं०] १. कामदेव को भस्म करनेवाले शिव। २. शिव के द्वारा कामदेव के भस्म किये जाने की घटना।
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स्मर-दीपन  : वि० [सं०] जिससे काम उत्तेजित हो। कामोत्तेजक।
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स्मर-ध्वज  : पुं० [सं०] १. पुरुष का लिंग। २. एक प्रकार का बाजा।
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स्मर-प्रिया  : स्त्री० [सं०] कामदेव की प्रिया, रति।
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स्मर-मंदिर  : पुं० [सं०] भग। योनि।
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स्मर-यम  : वि० [सं०] १. प्रेम या वासना से युक्त। २. प्रेम या वासना से उद्भूत।
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स्मर-वल्लभ  : पुं० [सं०] अनिरुद्ध का एक नाम।
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स्मर-वीथिका  : स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
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स्मर-शासन  : पुं० [सं०] कामदेव।
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स्मर-शास्त्र  : पुं० [सं०] कामशास्त्र।
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स्मर-स्तंभ  : पुं० [सं०] पुरुषेन्द्रिय।
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स्मर-हर  : पुं० [सं०] शिव। महादेव।
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स्मरण  : पुं० [सं०] [वि० स्मरणीय, भू० कृ० स्मृत] १. किसी ऐसी देखी-सुनी या बीती हुई बात का फिर से याद आना या ध्यान होना जो बीच में भूल गई हो, या ध्यान में न रह गई हो। कोई बात फिर से याद आने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०–आना।–करना।–दिलाना।–रखना।–रहना।–होना। ३. भक्ति के नौ प्रकारों में से एक, जिसमें उपासक अपने इष्टदेव को बराबर याद करता रहता या मन में उसका ध्यान रखता है। ३. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें पहले की देखी हुई कोई चीज या सुनी हुई कोई बात उसी प्रकार की कोई चीज देखने या बात सुनने पर फिर से याद आने या मन में उसका ध्यान आने का उल्लेख होता है। यथा–मैं पाता हूँ मधुर ध्वनि में गूँजने में खगों के। मीठी तानें परम प्रिय की मोहिनी वंशिका की।–अयोध्याप्रसाद उपाध्याय। विशेष–इस अलंकार को कुछ लोगों ने स्मृति भी कहा है।
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स्मरण  : पुं० [सं०] स्मरण कराने की क्रिया या भाव। याद दिलाना।
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स्मरण-पत्र  : पुं० [सं०] कोई बात स्मरण करने के लिए लिखा जानेवाला पत्र। (रिमाइंडर)
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स्मरण-शक्ति  : स्त्री० [सं०] वह मानसिक शक्ति जो अपने सामने होनेवाली घटनाओं और सुनी जानेवाली बातों को ग्रहण करके मन में रक्षित रखती हैं और आवश्यकता पड़ने, प्रसंग आने पर फिर हमारे मन में स्पष्ट कर देती है। याद रखने की शक्ति। याददाश्त। (मेमरी)
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स्मरणाशक्ति  : स्त्री० [सं०] भगवान् के स्मरण में होनेवाली आसक्ति जिसके कारण भक्त दिन-रात भगवान् या इष्टदेव का स्मरण करता है। उदा०–(यह भक्ति) एक रूप ही होकर गुणमहात्मासक्ति, रूपासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणसक्ति, दासासक्ति, संख्यासक्ति, कांतासक्ति, वात्सल्यासक्ति, आत्मनेवेदनासक्ति, तन्मयासक्ति, और परमविरहासक्ति रूप से एकादश प्रकार की होती है।–हरिशचन्द्र।
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स्मरणी  : स्त्री० [सं०] सुमिरनी।
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स्मरणीय  : वि० [सं०] (घटना या बात) जो स्मरण रखी जाने के योग्य हो। याद रखने लायक। जैसे–यह दृश्य भी सदा स्मरणीय रहेगा।
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स्मरता  : स्त्री० [सं०] १. स्मर या कामदेव का भाव या धर्म। २. स्मरण रखने की शक्ति। स्मृति।
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स्मरना  : पुं० [सं० स्मरण+ना (प्रत्य०)] १. स्मरण करना। याद करना। २. सुमिरना।
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स्मरवती  : स्त्री० [सं०] स्त्री जिससे प्यार किया जा रहा हो।
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स्मरसख  : वि० [सं०] जिससे काम की उत्तेजना हो। कामोद्दीदीक। पुं० १. चन्द्रमा। २. वसंत।
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स्मरांकुश  : पुं० [सं०] पुरुष की लिंगेद्रिय। लिंग।
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स्मरागार  : पुं० [सं०] भग। योनि।
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स्मरारि  : पुं० [सं०] कामदेव के शत्रु, महादेव।
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स्मरासव  : पुं० [सं०] १. ताड़ में से निकलनेवाला ताडी नामक मादक द्रव्य। २. थूक। लाला।
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स्मर्ण  : पुं०=स्मरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्मर्तव्य  : वि० [सं०]=स्मरणीय।
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स्मर्ता (तृ)  : वि० [सं०] स्मरण करने या याद रखनेवाला।
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स्मर्य  : वि० [सं०]=स्मरणीय।
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स्मशान  : पुं०=श्मशान।
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स्माम्युपकारक  : पुं० [सं०] घोड़ा। अश्व।
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स्मारक  : वि० [सं०] स्मरण करनेवाला। पुं० १. वह कार्य, पदार्थ या रचना जो किसी की स्मृति बनाये रखने के लिए हो। यादगार। (मेमोरियल) २. वह चीज जो किसी को अपना स्मरण बनाये रखने के लिए दी जाय। यादगार। ३. वह पत्र जो किसी बड़े आदमी को कुछ बातों का स्मरण कराने या कुछ बातें स्मरण रखने के लिए दिया जाय। (मेमोरियल) ४. दे० ‘स्मारिका’।
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स्मारक-ग्रंथ  : पुं० [सं०] वह ग्रंथ जो किसी महापुरुष की स्मृति बनाये रखने के लिए प्रस्तुत करके उसे भेंट किया गया हो। (कमेमोरेशन वॉल्यूम)
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स्मारिका  : स्त्री० [सं०] १. किसी महत्वपूर्ण घटना या समारोह स्थान आदि को रक्षित रखने के उद्देश्य से प्राप्त की हुई कोई वस्तु। २. उक्त से सम्बद्ध विवरणात्मक विशेषतः सचित्र पुस्तिका। (सुवेनीर) ३. दे० ‘स्मरणपत्र’।
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स्मारित  : पुं० [सं०] ऐसा साक्षी जिसका नाम कागज-पत्र पर न लिखा हो, परन्तु जिसे प्रार्थी अपने पक्ष के समर्थन के लिए स्वयं स्मरण करके बुलावे।
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स्मारी (रिन्)  : वि० [सं०] १. स्मरण रखनेवाला। २. स्मरण कराने या याद दिलानेवाला।
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स्मार्त  : वि० [सं०] १. स्मृति संबंधी। स्मृति का। याद किया हुआ। २. स्मृति या स्मृतियों में उल्लिखित। पुं० १. वह जो स्मृतियों का ज्ञाता हो। २. वह जो स्मृतियों में बतलाये हुए धार्मिक विधानों का पालन करता हो।
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स्मार्तिक  : वि० [सं०] स्मृति संबंधी। स्मृतिका।
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स्मित  : पुं० [सं०] मंद हास्य। धीमी हँसी। वि० १. हँसता हुआ। २. खिला हुआ। विकसित।
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स्मिति  : स्त्री० [सं०] मंदहास्य। मुस्कराहट।
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स्मिति-चर  : वि० [सं०] मुस्कराता हुआ चलनेवाला। उदा०–उड़ती फिरतीं मुख के नभ में, स्मिति के आतप में ज्यों स्मितिचर।–पन्त
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स्मितित  : वि० [सं०] हँसता या मुस्कराता हुआ।
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स्मृत  : भू० कृ० [सं०] १. स्मरण किया हुआ। २. स्मृति में आया हुआ। ३. स्मृति में आया हुआ।
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स्मृति  : स्त्री० [सं०] [वि० स्मृत, स्मृति] १. स्मरण-शक्ति जिससे बीती हुई बातें मन में किसी रूप में बनी रहती है। (मेमरी) २. बीती हुई बातों का वह ज्ञान जो स्मरण शक्ति के द्वारा फिर से एकत्र या प्राप्त होता हो। याद। अनुस्मरण। (रिफ्लेक्शन) ३. साहित्य में (क) किसी पुरानी या भूली हुई बात का फिर से याद आना, जो एक संचारी भाव माना गया है। (ख) प्रिय के संबंध की देखी या सुनी हुई बातें रह-रहकर याद आना, जो पूर्व राग की दस दशाओं में से एक है। सिर झुकाकर नीचे देखना, भौंहे चढ़ना आदि इसके अनुभाव कहे गये हैं। ४. धर्म दर्शन, आचार, व्यवहार आदि से संबंध रखनेवाले हिन्दू धर्म-शास्त्र जिनकी रचना ऋषि-मुनियों ने वेदों का स्मरण या चिंतन करके की थी। ५. उक्त प्रकार के अठारह मुख्य ग्रन्थों के आधार पर १८ की संख्या का सूचक शब्द। ६. एक प्रकार का छंद। ७. स्मरण नामक अलंकार या दूसरा नाम।
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स्मृति-उपायन  : पुं०=स्मारिका (पदार्थ या पुस्तिका)।
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स्मृति-चित्र  : पुं० [सं०] वह चित्र जो किसी व्यक्ति या घटना आदि की सामान्य स्मृति के आधार पर बनाया जाय और जिसमें भाव की अपेक्षा रूप या दृश्य आदि की ही प्रधानता हो।
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स्मृति-चिह्न  : पुं० [सं०] कोई ऐसा तत्त्व या पदार्थ जो किसी वस्तु या व्यक्ति की स्मृति बनाये रखने के लिए बचा हो अथवा दिया या लिया गया हो। निशानी।
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स्मृति-पत्र  : पुं० [सं०] १. वह पत्र पुस्तिका आदि जिसमें किसी विषय की कुछ मुख्य-मुख्य बातें स्मरण रखने या कराने के विचार से एकत्र की गई हों। २. दे० ‘ज्ञापन-पत्र’।
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स्मृति-शास्त्र  : पुं० [सं०] स्मृति नाम का धर्मशास्त्र।
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स्मृति-शेष  : वि० [सं०] जिसकी केवल स्मृति रह गई हो,अस्तित्व न रह गया हो। पुं० किसी बहुत पुरानी चीज का वह थोड़ा सा टूटा-फूटा और बचा हुआ अंश,जो उस चीज का स्मरण कराता हो (रेलिक)।
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स्मृति–कारक  : पुं० [सं०] ऐसा औषध जिसके सेवन से स्मरण-शक्ति तीव्र होती हो (वैद्यक)।
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स्मृतिकार  : पुं० [सं०] स्मृति या धर्मशास्त्र बनानेवाला आचार्य।
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स्यंद  : पुं० [सं०]=स्यंदन।
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स्यंदन  : पुं० [सं०] १. तरल पदार्थ का चूना,टपकना,बहना या रसना। क्षरण। २. गलकर तरल होना। ३. शरीर से पसीना निकलना। ४. चलना या जाना। गमन। ५. वायु। हवा। ६.जल। पानी। ७. चित्र। तसवीर। ८. घोड़ा। ९. चन्द्रमा। १॰. एक प्रकार का मंत्र, जिससे अस्त्र मंत्रित किये जाते थे। ११. गत उत्सर्पिणी के २३वें अर्हत् का नाम। (जैन) १२. तिनिश वृक्ष। १३. तिन्दुक वृक्ष। तेंदू।
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स्यंदनिका  : स्त्री० [सं०] १. छोटी नदी। नहर। २. थूक या लार की बूँद।
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स्यंदनी  : स्त्री० [सं०] १. थूक। लार। २. वह नाडी जिसके द्वारा मूत्र शरीर के बाहर निकलता है।
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स्यंदिनी  : स्त्री० [सं०] १. वह गाय जिसने एक साथ दो बच्चों को जन्म दिया हो। २. थूक। लार।
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स्यंदी (दिन्)  : वि० [सं०] १. चूने,बहने या रिसनेवाला। २. तेज चलनेवाला।
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स्यँध  : स्त्री०=संधि।
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स्यंभ  : पुं०=सिंह।
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स्यमंत-पंचक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ,जहाँ भागवत् के अनुसार परशुराम ने पितरों का रक्त से तर्पण किया था।
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स्यमंतक  : पुं० [सं०] पुराणोक्त एक प्रसिद्ध मणि जिसकी चोरी का झूठा आरोप श्रीकृष्ण पर लगा था। विशेष-कहा गया है कि सत्राजित् यादव ने सूर्य भगवान् को प्रसन्न करके उनसे मणि प्राप्त की थी, जो नित्य २००० पल सोना देती थी। जब उसका भाई प्रसेनजित् इसे गले में पहनकर जंगल में शिकार खेलने गया,तब शेर उसे उठाकर जांबवंत की गुफा में ले गया,जहाँ उस मणि के प्रकार से सारी गुफा जगमगा उठी। सत्राजित् कहने लगा कि श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मारकर वह मणि ले ली है। श्रीकृष्ण वह मणि ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जांबवंत की गुफा में पहुँचे। वहाँ जांबवंत ने उस मणि के साथ अपनी कन्या जांबवंती भी उन्हें अर्पित कर दी। जब श्रीकृष्ण वह मणि लाकर सत्राजित् को ही,तब उसने भी प्रसन्न होकर उस मणि समेत अपनी कन्या सत्यभामा श्रीकृष्ण को अर्पित कर दी। पर श्रीकृष्ण ने वह मणि नहीं ली। बाद में शतधन्वा ने सत्राजित् को मारकर वह मणि ले ली। पर अंत में शतधन्वा भी श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया और इस प्रकार वह मणि फिर सत्यभामा को मिल गई।
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स्यमिक  : पुं० [सं०] १. चीटियों या दीमकों का बनाया हुआ मिट्टी का घर। बाँबी। वल्मीक। २. एक प्रकार का वृक्ष।
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स्यमिका  : स्त्री० [सं०] १. नील का पौधा। २. एक प्रकार का कीड़ा।
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स्यमीक  : पुं० [सं०] १. समय। काल। २. जल। पानी। ३. बादल। मेघ। ४. दीमकों का भीटा। ५. एक प्राचीन राजवंश।
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स्यात्  : अव्य. [सं०] शायद।
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स्याद्वाद  : पुं० [सं०] १. जैन दर्शन जिसमें नित्यता, अनित्यता,सत्व असत्व आदि में से किसी एक को निश्चित न मानकर कहा जाता है कि स्याद् यही हो,स्याद वही हो। इसे अनेकान्तवाद भी कहते हैं। २. उक्त के आधार पर जैन धर्म का दूसरा नाम।
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स्याद्वादी  : वि० [सं०] स्याद्वाद-संबंधी। स्याद्वाद का। पुं० स्याद्वाद मत का अनुयायी,पोषक या समर्थक, अर्थात् जैन।
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स्यान  : वि०=स्याना।
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स्यानप  : स्त्री=सयानपन।
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स्यानपत  : स्त्री० [हिं० स्याना+पत(प्रत्यय)] १. बहुत चालाकी सयाने या चतुर होने की अवस्था, गुण या भाव। २. चालाकी। धूर्तता।
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स्यानपन  : पुं०=सयानपन।
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स्याना  : पुं०वि०=सयाना।
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स्यानाचारी  : स्त्री० [हिं० स्याना+चारी (प्रत्यय)] १. वह नियमित उपहार या कर मध्य युग में गाँव के मुखिया को मिलता था। २. सयानापन।
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स्यानापन  : पुं०=सयानपन।
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स्यापा  : पुं० [फा०स्याहपोश] १. किसी की मृत्यु पर शोक के कारण होनेवाला रोना-पीटना। २. पश्चिम भारत की कुछ विशिष्ट जातियों में मरे हुई मनुष्य के शोक में कुछ काल तक घर की तथा नाते-रिश्ते की स्त्रियों के प्रति दिन एकत्र होकर रोने और शोक मनाने की रीति। मुहावरा-स्यापा पड़ना=(क) रोना चिल्लाना मचाना। (ख) स्थान का बिलकुल उजाड़ या सुनसान हो जाना।
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स्याबत  : वि०१. दे० ‘साबित’। २. ‘साबुत’।
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स्याबास  : अव्य,=शाबास।
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स्याम  : पुं० [सं०श्याम] भारतवर्ष के पूर्व के एक देश का नाम। वि० पुं०=श्याम।
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स्यामक  : पुं० =श्यामक (वृक्ष)।
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स्यामकरन  : पुं०=श्यामकर्ण।
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स्यामता  : स्त्री०=श्यामता।
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स्यामल  : वि=श्याम।
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स्यामलता  : स्त्री०=श्यामलता।
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स्यामा  : स्त्री०=श्यामा।
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स्यामालिया  : पुं०=साँवलिया।
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स्यामि (मी)  : पुं०=स्वामी।
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स्यार  : पुं० [सं०श्रृंगाल] [स्त्री०स्यारनी,स्यारी] १. गीदड़। सियार। २. रहस्य संप्रदाय में जगत् या संसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्यार-काँटा  : पुं० [स्यार+हिं०काँटा] सत्यानासी। स्वर्णक्षीरी।
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स्यारपन  : पुं० [हिं० सियार+पन (प्रत्यय)] सियार या गीदड़ का सा स्वभाव। श्रृगालवृत्ति।
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स्यारलाठी  : स्त्री० [हिं०स्यार+लाठी] अमलतास।
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स्यारी  : स्त्री० [सं० शीत-काल] १. जाड़े के दिन। शीत-काल। २. खरीफ (फसल)। स्त्री० हिं० स्यार की स्त्री।
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स्याल  : पुं० [सं०] पत्नी का भाई। साला। पुं० [सं०शीतकाल] जाड़े के दिन। (पश्चिम)। पुं०=श्रृंगाल (गीदड़)।
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स्याल  : पुं० [सं०√श्यै (प्राप्त होना)+कालन्, बाहु] १. पत्नी का भाई। साला। २. बहनोई। पुं०=श्रृंगाल।
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स्याल-काँटा  : पुं०=स्यालकाँटा।
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स्यालक  : पुं० [सं०] स्मबन्ध के विचार से पत्नी का भाई। साला।
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स्याला  : पुं० [देश] बहुतायत। अधिकता। ज्यादती। पुं०=स्याल (शीतकाल)।
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स्यालिका  : स्त्री० [सं०] पत्नी की छोटी बहन। साली।
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स्यालिया  : पुं० [हिं०सियार] सियार। गीदड। श्रृगाल।
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स्याली  : स्त्री० [सं०] संबंध के विचार से पत्नी की बहन। साली।
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स्याली  : पुं० [सं०स्याल,हि.साला] पत्नी का भाई। साला।
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स्यालीपति  : पुं० [सं०] साली का पति। साढ़ू।
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स्यालू  : पुं० [हि.सालू] स्त्रियों के ओढ़ने की चादर। ओढ़नी। उपरैनी।
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स्यावाज  : पुं०=सावज (शिकार)।
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स्याह  : वि० [फा०] काला। कृष्ण वर्ण। पुं० काले रंग का घोड़ा।
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स्याह-कलम  : पुं० [फा०] मुगल चित्रशैली के एक प्रकार के बिना रंग भरे रेखाचित्र जिनमें एक एक बाल तक अलग-अलग दिखाया जाता है और होठों, आँखों और हथेलियों में नाममात्र की और बहुत हलकी रंगत रहती है (लान ड्राइंग)।
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स्याह-कांटा  : पुं० [फा० स्याह+हिं० काँटा] किंगरई नाम का कटीला पौधा। दे० ‘किंगरई’।
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स्याह-गोश  : वि० [फा०] काले कानवाला। जिसके काम काले हों। पुं० बन-बिलाव नामक जंगली जंतु।
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स्याह-जबान  : पुं० [फा० स्याह+जबान] वह हाथी या घोड़ा जिसकी जबान स्याह या काली हो। (ऐसे जानवर ऐबी समझे जाते हैं)।
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स्याह-जीरा  : पुं० [फा०स्याह+हिं० जीरा] काला जीरा।
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स्याह-तालू  : पुं० [फा० वह हाथी या घोड़ा जिसका स्याह+हि.तालू] तालू बिलकुल स्याह या काला हो। ऐसे हाथी-घोड़े ऐसी समझे जाते हैं।
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स्याह-दिल  : वि० [फा०] दिल का काला। खोटा। दुष्ट।
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स्याह-भूरा  : वि० [फा०स्याह+हिं०भूरालू] काला (रंग)।
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स्याहपोश  : पुं० [फा०] वह व्यक्ति जिसने शोक या मातम मनाने के उद्देश्य से काले वस्त्र पहने हों (मुसलमान)।
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स्याहा  : स्त्री० [फा०] १. स्याह अर्थात् काले होने की अवस्था, गुण या भाव। कालापन। कालिमा। मुहावरा-स्याही जाना=बेलों का कालापन जाना। जवानी बीतना और बुढ़ापा आना। स्याही छाना=चेहरे का रंग काला पडना। २. कालिख। कलौंछ। क्रि० –प्र०–पोतना।–लगाना। ३. वह प्रसिद्ध रंगीन तरल अथवा कुछ गाढ़ा पदार्थ,जो लिखने या कपड़े,कागज आदि छापने के काम में आता है। रोशनाई। (इंक)। विशेष-स्याही यद्यपि निरुक्ति के विचार से काली ही होगी,पर लोक व्यवहार में नीली, लाल, हरी आदि स्याहियाँ भी होती है। ४. कड़ुए तेल के धुएँ से पारा हुआ एक प्रकार का काजल जिससे शरीर के अंगों में गोदना गोदते हैं। स्त्री०=साही (जंतु)।
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स्याही-चूस  : पुं० [हि.]=सोख्ता (कागज)।
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स्याही-सोख  : पुं० [हिं०] =सोख्ता (कागज)।
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स्युवक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद। (विष्णुपुराण)।
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स्यू  : स्त्री० [सं०] सूत। वस्त्र।
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स्यूत  : वि० [सं०] [भाव.स्यूति] १. बुना हुआ। २. सीया हुआ। पुं० थैला।
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स्यूति  : स्त्री० [सं०] १. कपड़े आदि सीने की क्रिया या भाव। सिलाई। सियन। ३.थैली। ४. संतान।
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स्यून  : पुं० [सं०] १. किरण। रश्मि। २. सूर्य। ३. थैली।
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स्यूम  : पुं० [सं०] १. किरण। रश्मि। २. जल। पानी।
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स्यों  : अव्य. [सं०सह,पुं०हि.सौ] १. सहित। साथ। उदाहरण-कहूँ हंसिनी हंस स्यों चित्त चोरै।–केशव। २. पास। समीप। उदाहरण-विनती करै आइहौ दिल्ली।–चितवर कै मौहिं स्यो है किल्ली।–जायसी। विशेष दे० ‘सौं’।
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स्योती  : स्त्री०=सेवती (सफेद गुलाब)।
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स्योन  : पुं० [सं०] १. किरण। रश्मि। २. सूर्य। ३. सुख। ४. थैला।
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स्योनाक  : पुं० [सं०]=श्योनाक (सोना-पाढ़ा)।
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स्योरंजनी  : पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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स्रक्  : स्त्री० [सं०] १. फूलों की माला। २. विशेष रूप से फूलों की ऐसी माला जिसे सिर पर लपेटते हैं। ३.ज्योतिष में एक प्रकार का योग। ४. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में चार नगण और एक सगण होता है। तथा छठें और नवें वर्णों पर यति होती है।
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स्रग  : स्त्री०=स्रक।
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स्रगाल  : पुं०=श्रृंगाल (सियार)।
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स्रग्दाम (न्)  : पुं० [सं०] वह डोरा या सूत जिसमें माला के फूल पिरोये रहते हैं।
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स्रग्धर  : वि० [सं०] पुष्प-हार धारण करनेवाला।
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स्रग्धरा  : स्त्री० [सं०] १. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में म र भ न य य य) ऽऽऽ ऽ।ऽ ऽ॥ ।।। ।ऽऽ ।ऽऽ।ऽऽ होता है और ७,७,७ पर यति होती है। २. बौद्धों की एक देवी।
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स्रग्वान्(वत्)  : वि० [सं०] १. जो माला पहने हो। २. जो स्रक् नामक माला पहने हो।
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स्रग्विणी  : स्त्री० [सं०] १,.एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार रगण होते हैं। २. एक देवी का नाम।
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स्रग्वी(विन्)  : वि० [सं०] जो माला पहने हो। मालाधारी।
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स्रज  : पुं० [सं०] एक विश्वदेवा का नाम। स्त्री०=स्रक् (माला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रजन  : पुं० [सं० सर्जन] रचना या सृष्टि करना। सर्जन।
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स्रजना  : स०=सृजना (सृष्टि करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रणिता  : वि० [सं० शोणित] लाल।
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स्रद्धा  : स्त्री०=श्रद्धा।
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स्रपाटी  : स्त्री० [?] पक्षी की चोंच।
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स्रम  : पुं०=श्रम।
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स्रव  : पुं० [सं०] १. बहाव। प्रवाह। २. झरना। क्षरण। ३. पेशाब। मूत्र। पुं० दे० श्रवण।
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स्रवण  : पुं० [सं०] [वि० स्रवणीय] १. बहने की क्रिया या भाव। बहाव। प्रवाह। २. गर्भ का समय से पहले गिरना। गर्भपात। ३. स्तन जिससे दूध निकलता है। छाती (क्व.)। उदाहरण–बिनु स्रवणा खीर पिला उआ।–कबीर। ४. पसीना।। ५. मूत्र। पेशाब।
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स्रवण-क्षेत्र  : पुं० [सं०] वह सारा क्षेत्र जहाँ का वर्षा-जल एकत्र होकर किसी नदी के मूल का रूप धारण करता हो। अपवाह–क्षेत्र। जाली। (कैचमेन्ट एरिया)।
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स्रवंती  : स्त्री० [सं०] १. नदी। २. एक प्रकार की वनस्पति।
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स्रवद्गर्भा  : वि० [सं०] (स्त्री या मादा पशु) जिसका गर्भ गिर गया हो।
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स्रवन  : पुं० १. =स्रवण। २. =श्रवण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रवना  : अ० [सं० स्रवण] १. बहना। चूना। टपकना। २. गिरना। उदाहरण–अति गर्व गनई न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ तें।–तुलसी। स०१. बहाना। २. गिराना। उदाहरण–चलत दशानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुररवनी।–तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रवा  : स्त्री० [सं०] १. मरोड़फली। मूर्वा। २. जीवंती। डोडी।
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स्रष्टव्य  : वि० [सं०] जिसकी सृष्टि होने को हो या हो जानी चाहिए।
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स्रष्टा  : वि० [सं० स्रष्ट्र] १. सृष्टि या रचना करनेवाला। निर्माता। रचयिता। पुं० १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव।
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स्रष्ट्रता  : स्त्री० [सं०] सृष्टि करने का कार्य या भाव।
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स्रष्ट्रत्व  : पुं० [सं०]=स्रष्टता।
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स्रंस  : पुं० [सं०] १. गिरना। २. पतत होना। ३. फिसलन।
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स्रसतर  : पुं० [सं० स्रस्तर] घास–पात का विलछवन (डि०)।
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स्रंसन  : वि० [सं०] १. गिराये या नीचे लानेवाला। २. गर्भपात करनेवाला। ३. दस्तावर। पुं० [भू० कृ० स्रंसित] १. गिरना। पतन होना। २. गर्भपात। ३ .दस्त लानेवाली दवा।
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स्रंसिनी  : स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का योनि-रोग जिसमें प्रसंग के समय योनि बाहर निकल आती है, और गर्भ नहीं ठहरता (भावप्रकाश। २. गर्भस्राव।
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स्रंसी(सिन्)  : वि० [सं०] १. गिरनेवाला। पतनशील। २..असमय में गिरनेवाला (गर्भ)। पुं० १. सुपारी का पेड़। २. पीलू वृक्ष।
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स्रस्त  : भू० कृ० [सं०] १. अपने स्थान से गिरा हुआ। च्युत। २. शिविल। ढीला। उदाहरण–तान,सरिता वह स्रस्त अरोर।–निराला। ३. तोड़ा फोड़ा हुआ। ४. आहत। घायल। उदाहरण–थके, टूटे, गरुड़ से स्रस्त पन्नगराज जैसे–दिनकर। ५. अलग किया हुआ। ६,.धंसा हुआ। जैसे–स्रस्त नेत्र। ७. हिलता हुआ। स्रस्तर
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स्रस्ति  : स्त्री० [सं०] स्रस्त होने की अवस्था,क्रिया या भाव।
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स्राकिशमिशी  : स्त्री० [फा०] हलके बैंगनी रंग का एक प्रकार का छोटा अंगूर,जो क्वेटे में होता है और जिसको सुखाकर किशमिश बनाते हैं।
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स्राध  : पुं०=स्राद्ध।
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स्राप  : पुं० =शाप।
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स्रापित  : भू० कृ० =शापित।
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स्राव  : पुं० [सं०] १. जीव–जंतुओं और पेड़–पौधों के भीतरी अंगों से निकलनेवाला वह तरल पदार्थ या रस, जो विशेष उद्देश्य सिद्ध करता है (सीक्रेशन)। २. गर्भपात। गर्भस्राव। ३. वृक्षों आदि का निर्यास।
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स्रावक  : वि० [सं०] [स्त्री० स्राविका] १. चुआनेवाला। २. बहाने या निकालनेवाला। पुं० काली (गोल)। मिर्च। पुं० =श्रावक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रावकत्व  : पुं० [सं०] पदार्थों का वह गुण या धर्म जिसके कारण कोई अन्य पदार्थ उनमें से होकर निकल या रस जाता है।
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स्रावगी  : पुं० =सरावगी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रावण  : पुं० [सं०] [वि० स्रावित] १. बहा या चुआकर निकालना। २. दे० अभिस्रावण। वि० [सं०]=स्रावक। पुं०=श्रावण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रावणी  : स्त्री० [सं०] ऋद्धि नामक अष्टवर्गीय औषध। स्त्री०=श्रावणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रावित  : भू० कृ० [सं०] स्राव के रूप में चुआया या निकाला हुआ।
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स्रावी(विन्)  : वि० [सं०] १,.चुआनेवाला। २. बहानेवाला।
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स्राव्य  : वि० [सं०] जो चुआया,टपकाया या बहाया जा सके।
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स्रिंग  : पुं० [सं० श्रृंग] चोटी शिखर।
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स्रिजन  : पुं०=सर्जन।
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स्रुक्  : स्त्री० [सं०] स्रुवा (दे० )।
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स्रुगा  : पुं० =स्वर्ग। (डि०)।
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स्रुग्जिह्व  : पुं० [सं०] अग्नि।
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स्रुत  : भू० कृ० [सं०] बहा या चुआ हुआ। क्षरित। वि०=श्रुत। उदाहरण–तदपि जथा स्रृत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी।–तुलसी।
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स्रुति  : स्त्री० [सं०] बहाव। क्षरण। स्त्री०=श्रुति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रुतिमाथ  : पुं० [सं० श्रुति+हिं० माथ] विष्णु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रुव  : पुं० [सं०] एक प्रकार की छोटी स्रुवा।
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स्रुवा  : स्त्री० [सं०] १. लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में कंधी या आहुति देते हैं। २. सलई का पेड़। ३. मरोड़ फली।
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स्रू  : स्त्री० [सं०] १. स्रुवा (दे० )। २. झरना। प्रपात।
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स्रेनी  : स्त्री० =श्रेणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्रोणि  : पुं० [सं०] नितंब। चूतड़।
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स्रोत  : पुं० [सं० स्रोतस्] १. पानी का बहाव। धारा। २. विशेषतः तीव्र धारा। ३. पानी का सोता। झरना। ४. आधार या साधन,जिससे कोई वस्तु बराबर निकलती या आती हुई किसी को मिलती रहे। (सोर्स)। ५. वंश–परंपरा। ६.वैद्यक के अनुसार शरीर के वे छिद्र या मार्ग जो पुरुषों में प्रधानतः ९ और स्त्रियों में ११ माने गये थे। इनके द्वारा प्राण, अन्न, जल, रस, रक्त,मांस,मेद,मल,मूत्र,शुक्र और आर्तव का शरीर में संचार होना माना जाता है।
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स्रोत आपत्ति  : स्त्री० [सं०] बौद्ध शास्त्र के अनुसार निर्वाण साधना की प्रथम अवस्था जिसमें सांसारिक बंधन शिथिल होने लगते हैं।
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स्रोत–आपन्न  : वि० [सं०] जो निर्वाण साधना की प्रथम अवस्था पर पहुँचा हो।
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स्रोत–पत  : पुं० [सं०स्रोत+पति] समुद्र (डि.)।
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स्रोतस्य  : पुं० [सं०] १. शिव का एक नाम। २. चोर।
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स्रोतस्वती  : स्त्री० [सं०] १. धारा। २. नदी।
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स्रोतस्विनी  : स्त्री० [सं०] १. धारा। २. नदी।
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स्रोता  : पुं० =श्रोता (सुननेवाला)।
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स्रोतोंऽजन  : पुं० [सं०] आँखों में लगाने का सुरमा।
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स्रोन  : पुं० =श्रवण।
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स्रोनित  : पुं० =शोणित (रक्त)।
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स्रौतिक  : पुं० [सं०] सीप। शुक्ति।
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स्लिप  : स्त्री० [अं०] कागज का वह छोटा टुकड़ा जिस पर कुछ लिखा जाता हो। चिट।
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स्लीपर  : पुं० [अं०] १. एक प्रकार की जूती जो एड़ी की ओर से खुली होती है। चट्टी। बड़ी धरन। ३. रेलगाड़ियों में वह डिब्बा जिसमें से यात्रियों के सोने के लिए जगह आरक्षित होती है।
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स्लेज  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार का बिना पहिए की गाड़ी,.जो बर्फ पर घसीटती हुई चलती है।
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स्लेट  : स्त्री० [सं०] लोहे की चद्दर या काले पत्थर की बनी हुई चौरस पतली पटरी जिस पर बच्चे चाक आदि से लिखते हैं।
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स्वः  : पुं० [सं०] १. अपनापन। आत्मत्व। निजत्व। २. भाई–बन्धु। गोती। ३,.स्वर्ग। ४. विषाद। ५. धन–सम्पत्ति। ६.विष्णु का एक नाम। वि० अपना। निज का।
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स्व  : वि० [सं०] [भाव.स्वत्व] १. अपना। निज का। (सेल्फ)। यौ,. के आरंभ में। जैसे–स्वतंत्र स्वदेश। २. आपसे आप होने वाला। जैसे–स्वचावलित। प्रत्यय.एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लगातार ता, त्व आदि की भाँति भाव–वाचकता (जैसे–निजस्व,परस्व) या प्राप्य धन (जैसे–धर्मस्व,राजस्व, स्वामित्व) आदि का अर्थ देतदा है। सर्व.आप। स्वयं।
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स्व करणभाव  : पुं० [सं०] किसी वस्तु पर बिना अपना स्वत्व सिद्ध किये अधिकार करना। बिना हक साबित किये कब्जा करना।
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स्व-गुप्ता  : वि० स्त्री० [सं०] १. जो अपेन आप को लुप्त रखता हो। छिपाता हो। २. केवाँच। कौंछ। स्त्री० लजालू। लज्जालू।
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स्व-ग्रह  : पुं० [सं०] बावकों को होनेवाला एक प्रकार का रोग।
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स्व-चर  : वि० [सं०] जो खुद चलता हो।
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स्व-प्रमितिक  : वि० [सं०] जो बिना किसी की सहायता के अपना सारा काम स्वयं करता हो। जैसे–सूर्य आप ही प्रकाश देता है।
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स्व-बरन  : वि० =स्वर्ण।
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स्व-बीज  : वि० [सं०] जो अपना बीज या कारण आप ही हो। पुं० आत्मा।
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स्व-योनि  : वि० [सं०] जो अपना कारण अथवा अपनी उत्पत्ति का उद्गम आप ही हो।
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स्व-रक्षा  : स्त्री० [सं०] किसी प्रकार के आक्रमण से स्वयं या अपने आप की जानेवाली अपनी रक्षा। (सेल्फ़ डिफ़ेन्स)
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स्व-रुचि  : वि० [सं०] अपनी ही रुचि या प्रवृत्ति के अनुसार सब काम करनेवाला। मन-मौजी। स्त्री० अपनी रुचि।
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स्व-विवेक  : पुं० [सं०] कुछ विशिष्ट नियमों और बंधनों के अधीन रह कर उचित-अनुचित और युक्त-अयुक्त का विचार करने की शक्ति। (डिस्क्रीशन)
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स्व-शासन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्वशासित] १. अपने अधिक्षेत्र में शासन, राजनीतिक प्रबन्ध आदि स्वयं करने का पूरा अधिकार। (सेल्फ़ गवर्नमेंट) २. दे० ‘स्वायत्त-शासन’।
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स्व-संभूत  : वि० [सं०] जो स्वयं से उत्पन्न हो। स्वयंभू।
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स्व-समुत्थ  : वि० [सं०] अपने ही देश में उत्पन्न, स्थित या एकत्र होनेवाला। जैसे–स्व-समुत्थ कोष। स्व-समुत्थ बल।
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स्व-संवेद्य  : वि० [सं०] जिसका संवेदन स्वयं ही किया जा सके।
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स्व–अर्जित  : भू० कृ० [सं०] जिसका अर्जन किसी ने आप किया हो। स्वंय प्राप्त किया हुआ। (सेल्फ एक्वायर्ड)।
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स्व–कंपन  : पुं० [सं०] वायु। हवा।
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स्व–चल  : वि० [सं०] १. आस से आप चलनेवाला। २. (कार्य) जो बिना किसी चेतन–प्रेरणा के अथवा आप से आप या प्राकृतिक रूप से होता है (आँटोमेटिक)। ३. दे० स्वचालित। पुं० प्रायः मनुष्य के आकार का एक प्रकार का यंत्र, जो अंदर के कलपुरजों के द्वारा इधर–उधर चलता–फिरता और कई तरह के काम करता है (आँटोंमेटन)।
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स्व–चालक  : वि० [सं०] (यंत्र या उसका कोई अंग) जो बिना किसी विशिष्ट प्रक्रिया के केवल साधारण खटके आदि की सहायता से स्वयं चलत या यंत्र को चलाता हो (सेल्फ स्टार्टर)।
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स्व–चालित  : वि० [सं०] (यंत्र) जिसके अंदर ऐसे कल–पुरजे लगे हों कि एक पुरजा चलाने से ही वह आप से आप चलने या कई काम करने लगता है (आँटोमेटिक)।
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स्व–जन्मा (न्मन्)  : वि० [सं०] जो अपने आप उत्पन्न हुआ या जन्मा हो। अपने आप से उत्पन्न या जनमा हुआ। (ईश्वर आदि)
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स्व–जातीय  : वि० [सं०] १. किसी की दृष्टि से उसी की जाति या वर्ग का। जैसे–अपने स्वजातियों के साथ खान-पान करने में कोई हानि नहीं है। २. एक ही जाति या वर्ग का। जैसे–ये दोनों वृक्ष स्वजातीय है।
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स्व–प्रकाश  : वि० [सं०] जो स्वयं प्रकाशमान् हो। पुं० निजी प्रकाश।
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स्वक  : वि० [सं०] अपना। निजी। पुं० १. अपनी संपत्ति। २. स्वजन।
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स्वकरण  : पुं० [सं०] किसी चीज पर अपना स्वत्व जताना। दावा करना (कौ.)।
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स्वकर्म  : पुं० [सं०] १. अपना काम। २. अपना कर्त्तव्य और धर्म।
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स्वकर्मी (मिन्)  : वि० [सं०] १. अपना काम करनेवाला। २. अपने कर्तव्य और धर्म का पालन करनेवाला। ३. स्वार्थी।
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स्वकीय  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वकीया] अपना। निजी। पुं० स्वजन।
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स्वकीया  : वि० सं०स्वकीय का स्त्री रूप। स्त्री० साहित्य में वह नायिका जो विवाहिता हो तथा अपने ही पति से अनुराग करती हो। परकीया का विपर्याय।
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स्वक्ष  : वि० =स्वच्क्ष।
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स्वंग  : पुं० [सं०] आलिंगन।
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स्वगत  : अव्य. [सं०] आप ही आप। स्वतः। वि० १. अपने में ग्रहण किया हुआ। २. मन में आया हुआ। पुं० स्वगत कथन (दे०)
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स्वगत–कथन  : पुं० [सं०] १. मन में आई हुई बात। २. मन में आई हुई बात कहना। ३. भारतीय नाटकों में तीन प्रकार के संवादों में से एक,जिसमें अभिनेता कोई बात ऐसे ढंग से कहता है कि मानो दूसरे अभिनेता या पात्र उसकी बात सुन ही न रहे हो और वह मन ही मन कुछ कह अथवा सोच-समझ रहा हो। इसे अक्षाव्य भी कहते हैं। (सोलिलोक्वी)। विशेष–इस प्रकार वह मानों दर्शकों पर अपने मनोभाव प्रकट कर देता है। आधुनिक नाटकों में इस प्रकार का कथन या संवाद अच्छा नहीं माना जाता।
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स्वचित्त–कारु  : पुं० [सं०] वह शिल्पी जो किसी श्रेणी के अन्तर्गत होते हुए भी स्वतंत्र रूप से काम करता हो। स्वतंत्र कारीगर। (कौ)
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स्वचेतन  : पुं०=स्वस्त्ययन।
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स्वच्छ-भास  : वि० [सं०] स्वच्छ प्रकाशवाला। उदाहरण–गृहस्थी सीमा के स्वच्छ भास।–निराला।
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स्वच्छ–मणि  : पुं० [सं०] बिल्लौर। स्फटिक।
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स्वच्छक  : वि० [सं०] १. स्वच्छ करनेवाला (क्लीनर)। २. बहुत साफ या चमकीला।
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स्वच्छता  : वि० [सं०] १. स्वच्छ होने की अवस्था, गुण या भाव। २. निर्मलता। विशुद्धता। ३..सफाई विशेषतः शरीर और आसपास की वस्तुओं–स्थानों आदि की ऐसी सफाई,जो स्वास्थ्य रक्षा के लिए आवश्यक हो (सैनिटेशन)।
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स्वच्छंद  : वि० [सं०] [भाव.स्वच्छंदता] १. इच्छा मौज या रुचि के अनुसार अथवा सनक में आकर काम करनेवाला। २. किसी प्रकार के अंकुश,नियंत्रण या मर्यादा का ध्यान न रखते हुए मनमाने ढंग से आचरण या व्यवहार करनेवाला। ३. नैतिक और सामाजिक दृष्टि से अनुचित तथा निंदनीय आचरण या व्यवहार करनेवाला। भ्रष्ट चरित्रवाला। (वाँन्टन)। ४. (जीव जंतु या प्राणी) जो बिना किसी प्रकार की अड़चन या बाधा के जहाँ चाहे वहाँ विचरण करता फिरता हो। ५. (पेड़ पौधे या वनस्पति) जो जंगलों और मैदानों में आप से आप उत्पन्न हो। क्रि० वि० बिना किसी भय विचार या संकोच के। पुं० कार्तिकेय या स्कंद का एक नाम।
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स्वच्छंदचारिणी  : स्त्री० [सं०] १. दुश्चरित्रा स्त्री। पुंश्चली। २. वेश्या। रंडी।
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स्वच्छंदचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वच्छंदचारिणी] १. अपनी इच्छा के अनुसार चलनेवाला। स्वेच्छाचारी। मनमौजी। २. मनमाने ढंग पर इधर–उधर घूमता रहनेवाला।
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स्वच्छना  : स० [सं० स्वच्छ] स्वच्छ या निर्मल करना। साफ करना।
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स्वच्छा  : स्त्री० [सं०] श्वेत दूर्वा। सफेद दूब।
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स्वच्छी  : वि० =स्वच्छ।
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स्वछंदता  : स्त्री० [सं०] स्वच्छंद होने की अवस्था,गुण या भाव। विशेष–स्वच्छंदता, स्वतंत्रता और स्वाधीनता का अन्तर जानने के लिए स्वाधीनता का विशेष।
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स्वज  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वजा] १. स्वयं उत्पन्न होनेवाला। २. जिसे स्वयं उत्पन्न किया हो। ३. स्वाभाविक। प्राकृतिक। पुं० १. पुत्र। २. पसीना। ३. खून।
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स्वंजन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्वंजित] आलिंगन करना। गले लगाना।
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स्वजन  : पुं० [सं०] १. अपने परिवार के लोग। आत्मीय जन। २. सगे–संबंधी। रिश्ते–नाते के लोग। रिश्तेदार।
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स्वजनता  : स्त्री० [सं०] १. स्वजन होने का भाव। आत्मीयता। २. नातेदारी। रिश्तेदारी।
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स्वजा  : स्त्री० [सं०] पुत्री। बेटी।
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स्वजात  : वि० [सं०] अपने से उत्सव। पुं० पुत्र। बेटा।
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स्वजाति  : स्त्री० [सं०] अपनी जाति। अपनी कौम। २. अपनी किस्म। अपना प्रकार।
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स्वतः  : अव्य,. [सं०स्वतस्] आर से आप। अपने आप। आप ही। स्वयं। जैसे–मैने स्वतः उसे रुपये दे दिये।
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स्वतंत्र  : वि० [सं०] [भाव.स्वतंत्रता] १. जिसका तंत्र या शासन अपना हो। फलतः जो किसी तंत्र अर्थात् दबाव या शासन में न हो। २. जो बिना किसी प्रकार के दबाव या नियंत्रण के स्वयं सोच–समझ कर सब काम कर सकता हो। ३. जो किसी प्रकार के दबाव या बंधन में न पड़ा हो। जो बिना बाधा या रुकावट के इधर–उधर आ जा सकता हो। आजाद (फ्री)। ४. (काम या बात) जिसमें किसी दूसरे का अवलंब, आधार या आश्रय न लिया गया हो। जैसे– (क) स्वतंत्र रूप से कवित करना या ग्रंथ लिखना। (ख) स्वतंत्र मतदान। ५. जो औरों के सम्पर्क आदि से रहित या सबसे अलग हो। जैसे–इस मकान में दोनों किरायेदार के आने–जाने के स्वतंत्र मार्ग है। ६. अलग। जुदा। भिन्न। जैसे–ये दोनों प्रश्न एक दूसरे से स्वतंत्र है। ७. नियमों, विधियों आदि के बंधन से मुक्त या रहित। ८. (व्यक्ति) जो ऐसे राज्य का नागरिक या प्रजा हो, जिसमें निरंकुश या स्वेच्छाचारी शासन न हो। (फ्री)। जैसे–जब से भारत स्वाधीन हुआ है, तब से यहाँ के निवासी भी स्वतंत्र नागरिक हो गये हैं। ९. बालिग। वयस्क। सयाना।
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स्वतंत्रता  : स्त्री० [सं०] १. स्वतंत्र रहने या होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें बिना किसी बाहरी दबाव, नियंत्रण या बंधन के स्वयं अपनी इच्छा से सोच-समझकर सब काम करने का अधिकार होता है। आजादी। (फ्रीडम)। ३. वह अवस्था जिसमें बिना किसी प्रकार की राजकीय या शासनिक बाधा या रोक-टोक के सभी उचित और संगत काम या व्यवहार करने का अधिकार होता है। स्वातन्त्र्य। आजादी। (लिबर्टी)। जैसे–भारत में सब को धर्म,भाषण और विवेच संबंधी स्वतंत्रता प्राप्त है। विशेष–स्वच्छंदता, स्वतन्त्रता और स्वाधीनता का अंतर जानने के लिए दे० स्वाधीनता का विशेष।
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स्वतोविरोधी  : वि० [सं०स्वतः+विरोधी] अपना ही विरोध या खंडन करनेवाला।
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स्वत्त्व  : पुं० [सं०] १. स्व का भाव। अपमान। २. वह अधिकार जिसके आधार पर कोई चीज अपने पास रखी या किसी से ली या माँगी जा सकती हो। अधिकार। हक। (राइट)। ३. वह स्थिति जिसमें किसी वस्तु या विषय के हानि-लाभ के किसी व्यक्ति का विशेष रूप से संबंध हो। हित।
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स्वत्त्वाधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वात्त्वाधिकारिणी] १. वह जिसे किसी बात का पूरा स्वत्त्व या अधिकार प्राप्त हो। २. स्वामी। मालिक।
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स्वत्व-शुल्क  : पुं० [सं०] वह आवर्त्तक और नियतकालिक धन, जो किसी भूमि के स्वामी किसी नई वस्तु के आविष्कारक किसी ग्रंथ के रचयिता अथवा ऐसे ही और किसी व्यक्ति को इसलिए बराबर मिलता रहता है कि दूसरे लोग उसकी वस्तु या कृति से आर्थिक लाभ उठाने का अधिकार या स्वत्त्व प्राप्त कर लेते हैं (रायल्टी)।
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स्वत्वाधिकार  : पुं० [सं०स्वत्व+अधिकार] वह अधिकार,जो स्वत्व के रूप में हो। दे० ‘स्वत्व’।
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स्वदन  : पुं० [सं०] १. खा या चखकर स्वाद लेना। आस्वादन। २. लोहा।
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स्वदेश  : पुं० [सं०] अपना देश। मातृभूमि। वतन।
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स्वदेशाभिष्यंदव  : पुं० [सं०] राष्ट्र में जहाँ आबादी बहुत अधिक हो गई हो,वहाँ से कुछ जनता को दूसरे प्रदेश में बसाना (कौ.)।
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स्वदेशी  : वि० [सं०स्वदेशीय] १. अपने देश में होनेवाला। जैसे–स्वदेशी कपड़ा। २. अपने देश से संबंध रखनेवाला।
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स्वध  : पुं० [सं०] १. अपना धर्म। २. अपना कर्तव्य और कर्म।
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स्वधर्म  : पुं० [सं०] १. अपना धर्म या संप्रदाय। २. अपना उचित कर्त्तव्य।
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स्वधर्म-शास्त्र  : पुं० व्यक्तिक विधि।
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स्वधा  : स्त्री० [सं०] पितरों के निमित्त दिया जानेवाला अन्न या भोजन। पितृ–अन्न। २. दक्ष की एक कन्या,जो पितरों की पत्नी कही गई है। अव्य.,एक शब्द या मंत्र जिसका उच्चारण देवताओं या पितरों को हवि देने के समय किया जाता है। जैसे–तस्मैस्वधा।
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स्वधाधिप  : पुं० [सं०] अग्नि।
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स्वधाशन  : पुं० [सं०] पितृगण। पितर।
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स्वधिति  : पुं० स्त्री० [सं०] १. कुल्हाड़ी। कुठार। २. व्रज।
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स्वधिष्ठान  : वि० [सं०] अच्छी स्थिति या स्थान से युक्त।
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स्वधिष्ठित  : भू० कृ० [सं०] १. जो ठहने या रहने के लिए अच्छा हो। २. अच्छी तरह सिखलाया या सघाया हुआ हो।
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स्वधीत  : भू० कृ० [सं०] अच्छी तरह पढ़ा हुआ। सम्यक् रूप से अध्ययन किया हुआ।
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स्वन  : पुं० [सं०] शब्द। ध्वनि। आवाज।
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स्वन-चक्र  : पुं० [सं०] संभोग का एक प्रकार का आसन या रतिबन्ध।
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स्वनंदा  : स्त्री० [सं०] दुर्गा।
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स्वनाना  : स० [सं०स्वप्न+हिं० आना (प्रत्यय)] स्वप्न देना। स्वप्न दिखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वनाम-धन्य  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जो अपने नाम से ही धन्य या प्रसिद्ध हो।
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स्वनामा (मन्)  : वि० [सं०] स्वनाम धन्य।
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स्वनि  : पुं० [सं०] १. शब्द। आवाज। २. अग्नि। आग।
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स्वनिक  : वि० [सं०] शब्द करनेवाला।
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स्वनित  : भू० कृ० [सं०] ध्वनित। शब्दित। पुं० १. आवाज। २. शब्द। ३. बादलों की गरज। ४. किसी प्रकार का जोर का शब्द या गड़गड़ाहट।
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स्वन्न  : पुं० [सं०] १,उत्तम अन्न। २. अच्छा आहार या भोजन।
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स्वपच  : पुं० =श्नपच (चांडाल)।
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स्वःपथ  : पुं० [सं०] (स्वर्ग का मार्ग) मृत्यु।
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स्वपन  : पुं० [सं०] १. सोने की क्रिया या भाव। २. सोने की अवस्था। निद्रा। नींद। ३. सपना। स्वप्न।
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स्वपना  : पुं० =सपना (स्वप्न)।
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स्वपनीय  : वि० [सं०] निद्रा के योग्य। सोने लायक।
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स्वप्तव्य  : वि० [सं०] निद्रा के योग्य।
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स्वप्न  : पुं० [सं०] १. सोने की क्रिया या अवस्था। निद्रा। नींद। २. सोये रहने की दशा में मानसिक दृष्टि के सामने आनेवाली कुछ विशिष्ट असंबद्ध और काल्पनिक घटनाएँ, चित्र और विचार। सोये रहने पर दिखाई दनेवाली ऐसी विचित्र घटनाएँ,जो अवास्विक होती है। सपना। ख्वाब। ३. उक्त प्रकार से दिखाई देनेवाली घटनाओँ का सामूहिक रूप। सपना। ख्वाब। ४. मन ही मन की जानेवाली बड़ी-बडी कल्पनाएँ और बाँधे जानेवाले बाँधनूँ। (ड्रीम अंतिम तीनों अर्थों के लिए)। जैसे–आप तो उसी तरह रईस बनने के स्वप्न देखा करते हैं।
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स्वप्न स्थान  : पुं० [सं०] सोने का कमरा। शयन-गृह। शयनागार।
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स्वप्नक  : वि० [सं०स्वप्नज] सोनेवाला। निद्राशील।
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स्वप्नदर्शन  : पुं० [सं०] साहित्य में वह अवस्था,जब किसी को स्वप्न में कोई देखता है और इसी देखने के फलस्वरूप उसके प्रति मन में उस पर अनुरक्त होता है।
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स्वप्नदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं०] १. स्वप्न देखनेवाला। २. स्वप्नदर्शन करनेवाला। ३. मन ही मन बड़ी–बड़ी कल्पनाएँ उसके प्रति मन में और बड़े–बड़े बाँधनू बाँधनेवाला (ड्रीमर)।
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स्वप्नदोष  : पुं० [सं०] निद्रावस्था में श्रृंगारिक स्वप्न देखने पर वीर्यपात होना। जो एक प्रकार का रोग है।
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स्वप्नांतिक  : पुं० [सं०] वह चेतना जो स्वप्न देखने के समय होती है।
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स्वप्नादेश  : पुं० [सं०] वह आदेश जो किसी को किसी बड़े स्वप्न में मिला हो।
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स्वप्नालु  : वि० [सं०] जिसे नीद आ रही हो। निद्राशील। निद्रालु।
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स्वप्नावस्था  : स्त्री० [सं०] १. वह अवस्था जिसमें स्वप्न दिखाई देता है। २. धार्मिक क्षेत्र में लाक्षणिक रूप से सांसारिक जीवन की अवस्था, जो स्वप्न के समान अवास्तविक और निस्सार मानी गई है।
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स्वबीज  : पुं० [सं०] आत्मा।
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स्वभाउ  : पुं० =स्वभाव।
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स्वभाव  : पुं० [सं०] [वि० स्वाभाविक] १. अपना या निजी भाव। २. किसी पदार्थ का वह क्रियात्मक गुण या विशेषतता जो उसमें प्राकृतिक रूप से सदा वर्तमान रहती है। खासियत। जैसे–अग्नि का स्वभाव पदार्थों को जलाना और जल का स्वभाव उन्हें ठंडा करना है। ३. जीव–जन्तुओं और प्राणियों का वह मानसिक रूप या स्थिति, जो उसकी समस्त जाति में जन्मजात होती और सदा प्रायः एक ही तरह काम करती हुई दिखाई देती है। प्रकृति। (नेचर उक्त दोनों अर्थों में) जैसे–चीते, भालू और शेर स्वभाव से ही हिंसक होते हैं। ४. मनुष्य के मन में वह पक्ष, जो बहुत कुछ जन्मजात तथा प्राकृतिक होता है और जो उसके आचार–व्यवहार आदि का मुख्य रूप से प्रवर्तक होता और उसके जीवन में प्रायः अथवा सदा देखने में आता है। मिजाज (डिस्पोजीशन)। जैसे–वह स्वभाव से ही क्रोधी (चिड़चिड़ा दयालु और शांत) है। ५. आदत। बान। (हैबिट) जैसे–तुम्हारा तो सबसे लड़ने का स्वभाव पड़ गया है। क्रि० प्र०–पड़ना।–होना।
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स्वभाव-कृपण  : पुं० [सं०] ब्रह्मा का एक नाम।
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स्वभाव-दक्षिण  : वि० [सं०] जो स्वभाव से ही मीठी–मीठी बातें करने में निपुण हो।
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स्वभाव-सिद्ध  : वि० [सं०] स्वभाव से ही होनेवाला। प्राकृतिक। स्वाभाविक सहज।
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स्वभावज  : वि० [सं०] जो स्वभाव या प्रकृति से उत्पन्न हुआ हो। प्राकृतिक। स्वाभाविक। सहज।
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स्वभावज अलंकार  : पुं० [सं०] साहित्य में संयोग श्रृंगार से प्रसंग में स्त्रियों की कुछ विशिष्ट आकर्षक या मोहक अंग भंगियां और बातें, जिनसे उनकी आंतरिक भावनाएँ प्रकट होती है, और इसीलिए जिनकी गिनती उनके अलंकारों में होती है। लोक में इसी तरह की बातों को हाव कहते हैं। दे० हाव। विशेष–यह नायिकाओं के सात्त्विक अलंकारों के तीन भेदों में से एक है।
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स्वभावतः (तस्)  : अव्य. [सं०] स्वभाव के फलस्वरूप। स्वाभाविक अर्थात् प्रकृतिजन्य रूप से। जैसे–उसे इस प्रकार झूठ बोलते देखकर मुझे स्वभावतः क्रोध आ गया।
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स्वभाविक  : वि० =स्वाभाविक।
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स्वभावी  : वि० [सं०स्वभाविन्] [स्त्री० स्वभाविनी] १. स्वभाव वाला। जैसे–उग्र स्वभावी। क्षमा-स्वभावी। २. मनमाना आचरण करनेवाला। ३. मनमौजी।
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स्वभावोक्ति  : स्त्री० [सं०] साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें किसी वस्तु या व्यक्ति की स्वभाविक क्रियाओं,गुणों विशेषताओं आदि का ठीक उसी रूप में वर्णन किया जाता है जिस रूप में वे कवि को दिखाई देती है। यथा–बिहँसति सी दिये कुच आँचर बिच बाँह। भीजे पट तट को चली न्हान सरोवर माँह।–बिहारी। विशेष–इसमें किसी जातिवाचक पदार्थ के स्वाभाविक गुणों का वर्णन होता है,इसीलिए कुछ लोग इस अलंकार को जाति भी कहते हैं। कुछ आचार्यों ने इसके सहज और प्रतिज्ञाबद्ध नाम के दो भेद भी माने हैं।
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स्वभू  : वि० पुं० =स्वयंभू।
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स्वयं  : वि० [सं० स्वयम्] १. सर्वनाम जिसके द्वारा वक्ता अपने व्यक्तित्व पर जोर देते हुए कोई बात कहता है। जैसे–मैं स्वयं वहाँ गया था। २. अपने आप सब काम करनेवाला। जैसे–स्वयं चालित,स्वयंगामी। स्वयंभर। अव्य. १. एक आप से आप। बिना किसी जोर या दबाव के। जैसे–सव्यं बातें खुल जायँगी।
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स्वयं-ज्योति  : वि० [सं०] आप से आप प्रकाशमान् होने या चमकनेवाला। पुं० पर ब्रह्म। परमात्मा।
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स्वयं-दूत  : [सं०] साहित्य में वह नायक जो स्वयं अपना प्रेम या वासना नायिका पर प्रकट करता हो।
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स्वयं-दूतिका-स्वयं दूती  : स्त्री० [सं०] वह परकीया नायिका, जो अपना दूतत्व आप ही करती हो। नायक पर स्वयं ही वासना प्रकट करनेवाली परकीया नायिका।
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स्वयं-पाक  : पुं० [सं०] अपनी उदर–पूर्ति के लिए भोजन स्वयं बनाना।
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स्वयं-पाकी  : पुं० [सं०] १. अपना भोजन स्वयं बनाने वाला व्यक्ति। २. ऐसा व्यक्ति जो खुद बनाया हुआ ही भोजन करता हो और दूसरों के हाथ का बनाया हुआ न खाता हो।
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स्वयं-प्रकाश  : वि० [सं०] जो स्वतः प्रकाशित हो। पुं० १. ज्योतिपुंज। २. परमात्मा।
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स्वयं-प्रभ  : पुं० [सं०] भावी २४ अर्हतों में से चौथे अर्हत् का नाम। (जैन) वि० स्वयं–प्रकाश।
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स्वयं-प्रभा  : स्त्री० [सं०] इन्द्र की एक अप्सरा, जिसे मय दानव हर लाया था और जिसके गर्भ से मंदोदरी उत्पन्न हुई थी।
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स्वयं-प्रमाण  : वि० [सं०]जो आप ही अपने प्रमाण के रूप में हो और जिसके लिए किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता न हो। जैसे–वेद आदि स्वयं प्रमाण हैं।
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स्वयं-फल  : वि० [सं०] जो आप ही अपना फल हो अर्थात् किसी दूसरे कारण से उत्पन्न न हुआ हो।
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स्वयं-भर  : वि० [सं०] १. अपने आप को या अपने में का रिक्त स्थान आप ही भरनेवाला। २. (पिस्तौल या बंदूक) जो अपने अंदर रखी हुई गोलियों में से क्रमशः एक–एक गोली आप ही लेकर छोड़े (सेल्फ लोडिंग)।
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स्वयं-भु  : पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. अज। २. वेद। ४. जैनियों के नौ वासुदेवों में से एक। ५. स्वयंभू।
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स्वयं-भुक्ति  : पुं० [सं०] धर्मशास्त्र में पाँच प्रकार के साक्षियों में से ऐसा साक्षी, जो बिना बुलाये आकर किसी बात की गवाही दे।
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स्वयं-वरण  : पुं० [सं०] कन्या को अपने इच्छानुसार अपने लिए पति चुनना या वरण करना।
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स्वयं-सिद्ध  : वि० [सं०] [भाव० स्वयं-सिद्धि] (बात या तत्त्व) जो किसी तर्क या प्रमाण के बिना आप ही ठीक और सिद्ध हो। सर्वमान्य। (एग्जिओमेटिक)
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स्वयं-सिद्धि  : स्त्री० [सं०] [वि० स्वयं सिद्ध] वह सर्वमान्य सिद्धान्त या तत्त्व, जिसे सिद्ध या प्रभावित करने की कोई आवश्यकता न हो। (एग्जियम)
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स्वयं-सेवक  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वयं-सेविका] १. व्यक्ति, जो किसी सेवा-कार्य में अपनी इच्छा से लगता हो। २. किसी ऐसे संगठन का सदस्य, जिसका मुख्य उद्देश्य लोगों की सेवा करना हो। (वालन्टियर)
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स्वयं–तथ्य  : पुं० [सं०]ऐसा तथ्य या बात जो स्वयं ही ठीक और सिद्ध हो और जिसे ठीक या सिद्ध करने के लिए किसी प्रकार के तर्क प्रमाण आदि की अपेक्षया आवश्यकता न हो। (एक्जिअम)।
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स्वयं–दत्त  : पुं० [सं०] ऐसा पुत्र जो अपने माता–पिता के मर जाने अथवा उनकी मृत्यु के उपरांत अथवा उनके द्वारा परित्यक्त होने पर अपने आप को किसी के हाथ सौंप दे और उसका पुत्र बन जाय। (धर्मशास्त्र)।
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स्वयंभू-रमण  : पुं० [सं०] अंतिम महाद्वीप और उसके समुद्र का नाम। (जैन)
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स्वयंभूत  : भू० कृ० [सं०] जिसने अपना निर्माण स्वयं किया हो। जो अपनी इच्छा शक्ति से अवतीर्ण हुआ या अस्तित्व में आया हो। स्वयंभू।
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स्वयमर्ज्जित  : पुं० [सं०] स्वयं कमाया हुआ धन या संपत्ति। अपनी कमाई।
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स्वयमुक्ति  : पुं० [सं०] पाँच प्रकार के साक्षियों में से एक प्रकार का साक्षी। ऐसा साक्षी, जो बिना वादी या प्रतिवादी के बुलाये स्वयं ही आकर किसी घटना या व्यवहार के संबंध में कुछ बातें कहे। (व्यवहार)
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स्वयमुपगत  : पुं० [सं०] वह जो अपनी इच्छा से किसी का दास हो गया हो। (धर्मशास्त्र)
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स्वयमेव  : अव्य० [सं०] आप ही आप। खुद ही। स्वयं ही।
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स्वयंवर  : पुं० [सं०] १. स्वयं वरण करना। स्वयं चुनना। २. प्राचीन काल में वह उत्सव या समारोह, जिसमें कन्या स्वयं अपने लिए उपस्थित व्यक्तियों में से वर को वरण करती थी। ३. कन्या द्वारा स्वयं अपने लिए वर वरण करने की रीति या विधान।
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स्वयंवरा  : स्त्री० [सं०] ऐसी कन्या, जिसने अपने पति का वरण अपनी इच्छा से किया हो।
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स्वयंवह  : पुं० [सं०] ऐसा बाजा, जो चाबी देने पर आप से आप बजे। वि० स्वयं अपने आप को वहन करनेवाला।
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स्वयंवादि-दोष  : पुं० [सं०] न्यायालय में झूठी बात बार-बार दोहराने का अपराध।
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स्वयंवादी  : पुं० [सं०] मुकदमे में जिरह के समय कोई झूठ बात बार-बार दोहरानेवाला व्यक्ति।
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स्वयंसेवा  : स्त्री० [सं०] १. अपनी इच्छा या अंतःप्रेरणा से की जानेवाली दूसरों की सेवा। २. अपना काम स्वयं करना।
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स्वयंसेवी  : पुं०=स्वयं-सेवक।
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स्वर  : पुं० [सं०] [वि० स्वरिक, स्वरित, भाव० स्वरता] १. कोमलता, तीव्रता, उतार-चढ़ाव आदि से युक्त वह शब्द, जो प्राणियों के गले अथवा एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आघात पड़ने से निकलता है। २. स्वर-तंत्रियों के ढील पड़ने और तनने के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न होनेवाली कंठध्वनि। सुर। (साउन्ड) मुहा०–स्वर फूँकना=कोई ऐसा काम या बात करना, जिसका दूसरे पर पूरा प्रभाव पड़े अथवा वह अनुयायी या वशवर्ती। हो जाय। स्वर मिलाना=किसी सुनाई पड़ते हुए स्वर के अनुसार स्वर उत्पन्न करना। ३. संगीत में, उक्त प्रकार के वे सात निश्चित शब्द या ध्वनियाँ जिनका स्वरूप, तन्यता, तीव्रता आदि विशिष्ट प्रकार से स्थिर हैं। यथा-षड़ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। विशेष–साम वेद में सातों स्वरों के नाम इस प्रकार हैं–क्रुष्ट, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, मंद और अतिस्वार (या अतिस्वर) हैं। परन्तु यह उनका अवरोहण क्रम है और आजकल के म, ग, रे, स, नि, व, प के समान है। मुहा०–स्वर उतारना=स्वर नीचा या धीमा करना। स्वर चढ़ाना=स्वर ऊँचा या तेज करना। स्वर निकालना=कंठ या बाजे से स्वर उत्पन्न करना। स्वर भरना=अभ्यास के लिए किसी एक ही स्वर का कुछ समय तक उच्चारण करना। ३. व्याकरण में, वह वर्णनात्मक ध्वनि या शब्द जिसका उच्चारण बिना किसी दूसरे वर्ण की सहायता के आप से आप होता है और जिसके बिना किसी व्यंजन का उच्चारण नहीं हो सकता। (वॉवेल) यथा–अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ और औ। विशेष–आज-कल का ध्वनि-विज्ञान बतलाता है कि कुछ अवस्थाओं में बिना स्वर की सहायता के भी कुछ व्यंजनों का उच्चारण संभव है। ४. वेदपाठ में होनेवाले शब्दों का उतार-चढ़ाव जो उदात्त, अनुदात्त और स्वरित नामक तीन प्रकारों का होता है। ५. साँस लेने के समय नाक से निकलनेवाली वायु के कारण उत्पन्न होनेवाला शब्द। ६. आकाश।
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स्वर कलानिधि  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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स्वर-कर  : पुं० [सं०] ऐसा पदार्थ जिसके सेवन से गले का स्वर मधुर और सुरीला होता है।
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स्वर-क्षय  : पुं०=स्वर-भंग।
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स्वर-ग्राम  : पुं० [सं०] संगीत में, सा से नि तक के सातों स्वरों का समूह। सप्तक।
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स्वर-तंत्री  : स्त्री० [सं०] स्वर-सूत्र। (दे०)
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स्वर-नलिका  : स्त्री० [सं०] स्वर-सूत्र। (दे०)
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स्वर-नाभि  : पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा।
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स्वर-पत्तन  : पुं० [सं०] सामवेद।
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स्वर-पात  : पुं० [सं०] १. किसी शब्द का उच्चारण करने में उसके किसी वर्ण पर कुछ ठहरना या रुकना। २. उचित वेग, रुकाव आदि का ध्यान रखते हुए होनेवाला शब्दों का उच्चारण (एक्सेन्ट)
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स्वर-प्रधान  : वि० [सं०] ऐसा रोग जिसमें स्वर का ही आग्रह या प्रधानता हो। ताल की प्रधानता न हो।
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स्वर-बद्ध  : भू० कृ० [सं०] स्वरों में बाँधा हुआ (संगीत)।
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स्वर-ब्रह्मा  : पुं० [सं०] ब्रह्मा की स्वर में होनेवाली अभिव्यक्ति।
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स्वर-भंग  : पुं० [सं०] १. उच्वारण में होनेवाली बाधा या अस्पष्टता। २. आवाज या गला बैठना, जो एक रोग माना गया है। ३. साहित्य में हर्ष, भय, क्रोध, मद आदि से गला भर आना अथवा जो कुछ कहना हो उसके बदले मुख से और कुछ निकल जाना, जो एक सात्त्विक अनुभाव माना गया है।
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स्वर-भंगी (गिन्)  : पुं० [सं०] १. वह जिसे स्वरभंग रोग हुआ हो। २. वह जिसका गला बैठ गया हो और मुँह से साफ आवाज न निकलती हो। ३. एक प्रकार का पक्षी।
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स्वर-भाव  : पुं० [सं०] संगीत में, बिना अंग-संचालन किये केवल स्वर से ही दुःख-सुख आदि के भाव प्रकट करने की क्रिया। (यह चार प्रकार के भावों में एक माना गया है।)
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स्वर-भूषणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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स्वर-मंडलिका  : स्त्री० [सं०]=स्वर-मंडल।
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स्वर-यंत्र  : पुं० [सं०] गले के अंदर का वह अवयव या अंश जिसकी सहायता या प्रयत्न से स्वर या शब्द निकलते हैं। (लैरिंक्स)
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स्वर-रंजनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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स्वर-लहरी  : स्त्री० [सं०] १. ऊँचे-नीचे स्वरों की वह लहर या क्रम जो प्रायः संगीत आदि के लिए उत्पन्न की जाती है। २. संगीत में, वह झंकार या आलाप, जो कुछ समय तक एक ही रूप में होता है।
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स्वर-लालिका  : स्त्री० [सं०] बाँसुरी या मुरली।
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स्वर-लिपि  : स्त्री० [सं०] संगीत में किसी गीत, तान, राग, लय आदि में आनेवाले सभी स्वरों का क्रमबद्ध लेख। (नोटेशन)
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स्वर-वेधी  : वि०=शब्द-वेधी।
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स्वर-शास्त्र  : पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें स्वर-संबंधी सब बातों का विवचेन हो। स्वर-विज्ञान।
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स्वर-शून्य  : वि० [सं०] [भाव० स्वर-शून्यता] (ध्वनि) जिसमें मधुरता, संगीतमयता या लय न हो।
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स्वर-संक्रम  : पुं० [सं०] संगीत में, स्वरों का आरोह और अवरोह। स्वरों का उतार और चढ़ाव।
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स्वर-संधि  : स्त्री० [सं०] व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान में, दो या अधिक पास-पास आनेवाले स्वरों का मिलकर एक होना। स्वरों का मेल।
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स्वर-समुद्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का पुराना बाजा, जिसमें बजाने के लिए तार लगे होते थे।
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स्वर-साधन  : पुं० [सं०] संगीत में, बार-बार कंठ से उच्चारण करते हुए प्रत्येक स्वर ठीक तरह से निकालने की क्रिया या भाव।
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स्वर-सूत्र  : पुं० [सं०] गले और छाती से अंदर का सूत्र के आकार का वह अंग, जिसकी सहायता से स्वर या आवाज निकलती है। (वोकल कॉर्ड)
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स्वरक्षु  : स्त्री० [सं०] वक्षु नदी का एक नाम।
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स्वरंग  : पुं०=स्वर्ग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वरघ्न  : पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार वायु के प्रकोप से होनेवाला गले का एक रोग जिसके कारण गले से ठीक स्वर नहीं निकलता। गला बैठना।
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स्वरता  : स्त्री० [सं०] १. ‘स्वर’ होने का भाव। २. ‘स्वरित’ होने की अवस्था या भाव। (सोनोरिटी)
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स्वरनादी (दिन्)  : पुं० [सं०] मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला बाजा। (संगीत)
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स्वरभेद  : पुं० [सं०] स्वर भंग (दे०)।
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स्वरमंडल  : पुं० [सं०] वीणा की तरह का एक बाजा जिसका प्रचार आजकल बहुत कम हो गया है।
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स्वरवाही (हिन्)  : पुं० [सं०] वह बाजा या बाजों का समूह जो स्वर उत्पन्न करता हो। ताल देनेवाले बाजों से भिन्न। जैसे–वंशी, वीणा, सारंगी, आदि (ढोल, तबले, मँजीरे आदि से भिन्न)।
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स्वरस  : पुं० [सं०] १. वैद्यक में, पत्ती आदि को भिगोकर और अच्छी तरह कूट, पीस और छानकर निकाला हुआ रस। २. किसी चीज का अपना प्राकृतिक स्वर।
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स्वरसादि  : पुं० [सं०] ओषधियों को पानी में औटाकर तैयार किया हुआ काढ़ा। कषाय।
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स्वरा  : स्त्री० [सं०] ब्रह्मा की बड़ी पत्नी जो गायत्री को सपत्नी कही गई है।
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स्वरागम  : पुं० [सं० स्वर+आगम] निरुक्त में किसी शब्द के दो वर्णों के बीच में किसी प्रकार कोई स्वर आ लगना। जैसे–कर्म से करम रूप बनने में अ का स्वरागम हुआ है।
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स्वराघात  : पुं० [सं० स्वर-आघात] किसी शब्द का उच्चारण करने, किसी को पुकारने, कुछ कहने, गाने आदि के समय किसी व्यंजन या स्वर पर साधारण से अधिक जोर देने या अधिक प्राण-शक्ति लगाने की क्रिया या भाव (ऐक्सेन्ट)। विशेष–साधारणतः ध्वनियों पर होनेवाला आघात या प्राण-शक्ति का प्रयोग हो प्रकार का होता है। पहले प्रकार में तो जिज्ञासा विधि, निषेध, विस्मय, संतोष, हर्ष आदि प्रकट करने के लिए होता है। उदा०–हरणार्थ जब हम कहते हैं–हम जायेंगे–तो कभी तो हमें ‘हम’ पर जोर देना अभीष्ट होता है, जिसका आशय होता है–हम अवश्य जाएँगे, बिना गये नहीं मानेंगे। ध्वनियों पर दूसरे प्रकार का आघात वह होता है, जिसमें या तो मात्रा खींचकर बढ़ाई जाती है (जैसे–क्या, जी, हाँ–आदि या उच्चारण ही कुछ अधिक या कम जोर लगाकर किया जाता है। वैदिक मंत्रों के उच्चारण के संबंध में जो उदात्त, अनुदात्त और स्वरित नामक तीन भेद हैं, वे इसी प्रकार के अन्तर्गत आते हैं। पाश्चात्य देशों की अँगरेजी आदि कुछ आर्य परिवारवाली भाषाओं में शब्दों के उच्चारण का शुद्ध रूप बतलानेवाला कुछ विशिष्ट प्रकार का स्वराघात भी होता है, जो छपाई-लिखाई आदि में एक विशिष्ट प्रकार का स्वराघात भी होता है, जो छपाई-लिखाई आदि में एक विशिष्ट प्रकार का स्वराघात भी होता है, जो छपाई-लिखाई आदि में एक विशिष्ट प्रकार के चिह्न (‘) से सूचित किया जाता है।
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स्वराजी  : पुं० [सं० स्वराज्य] १. वहो जो ‘स्वाराज्य’ नामक राजनीतिक पक्ष या दल का हो। २. स्वराज्य-प्राप्ति के लिए आन्दोलन तथा प्रयत्न करनेवाले राजनीतिक दल का मनुष्य। वि० स्वराज्य संबंधी। स्वराज्य का।
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स्वराज्य  : पुं० [सं०] १. अपना राज्य। अपना देश। २. वह अवस्था जिसमें शासन-सत्ता विदेशी शासकों के हाथ से निकलकर देशवासियों के हाथों में आ चुकी होती है।
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स्वराट्  : वि० [सं०] जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो। पुं० १. ईश्वर। २. ब्रह्मा। ३. वहा राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य-शासन प्रणाली प्रचलित हो। ४. ऐसा वैदिक छंद जिसके सब पादों में से मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों।
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स्वरांत  : वि० [सं०] (शब्द) जिसके अंत में कोई स्वर हो। जैसे–माला, रोटी आदि।
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स्वरांतर  : पुं० [सं०] दो स्वरों के उच्चारण के बीच का अन्तर या विराम।
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स्वरापगा  : स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मन्दाकिनी।
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स्वराभरण  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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स्वरालाप  : पुं० [सं० स्वर+आलाप] संगीत में ऊँचे-नीचे स्वरों को नियत और नियमित रूप से लयदार और सुन्दर बनाकर उच्चारण करने की क्रिया या भाव।
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स्वरालाप  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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स्वरांश  : पुं० [सं०] संगीत में, स्वर का आधा या चौथाई अंग।
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स्वराष्टक  : पुं० [सं०] संगीत में, एक प्रकार का संकर रोग जो बंगाली, भैरव, गांधार, पंचम और गुर्जरी के मेल से बनता है।
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स्वराष्ट्र  : वि० [सं०] जिसका संबंध अपने राष्ट्र से हो। फलतः अन्य राष्ट्रों, उपनिवेशों से संबंध न रखनेवाला। (होम) जैसे–स्वराष्ट्र मंत्रालय; स्वराष्ट्र मंत्री। पुं० १. अपना राष्ट्र या राज्य। २. सुराष्ट्र नामक प्राचीन देश। ३. तामस मनु के पिता, जो पुराणानुसार एक सार्वभौम राजा थे और जिन्होंने बहुत से यज्ञादि किए थे।
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स्वराष्ट्र मंत्री  : पुं० [सं०] किसी देश की सरकार या मंत्रिमण्डल का वह सदस्य जिसके अधीन राष्ट्र की आन्तरिक व्यवस्था और सुरक्षा-संबंधी विभागों की देख-रेख और संचालन हो। (होम मिनिस्टर)
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स्वरित  : वि० [सं०] १. (अक्षर या वर्ण) जो स्वर से युक्त हो। जिसमें स्वर हो या लगा हो। २. जिसमें कुछ ऊँचा और स्पष्ट रूप से सुने जाने के योग्य स्वर हो। ३. जो अच्छे या मधुर स्वर से युक्त हो। ४. (स्थान) जिसमें स्वर भर या गूँज रहा हो। (सोनोरस) पुं० व्याकरण में स्वरों के उच्चारण के तीन प्रकारों या भेदों में से एक। स्वर का ऐसा उच्चारण जो न तो बहुत ऊँचा या तीव्र हो और न बहुत नीचा या कोमल हो। मध्यम या सम-भाव से स्वरों का होनेवाला उच्चारण। (शेष दो भेद उदात्त और अनुदात्त कहलाते हैं)
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स्वरितत्व  : पुं० [सं०] स्वरित का गुण, धर्म या भाव।
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स्वरु  : पुं० [सं०] १. वज्र। २. यज्ञ। ३. सूर्य की किरण। ४. तीर। बाण। ५. एक प्रकार का विच्छू।
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स्वरुप  : पुं० [सं०] [वि० स्वरूपी] १. किसी चीज का वह पक्ष, जिसमें वह उपस्थित या प्रस्तुत होती है। रंग, रूप सामग्री आदि से भिन्न। २. किसी वस्तु, विषय, व्यक्ति का अपना या निजी आकार-प्रकार तथा बनावट, जो समान तत्त्वधारी वस्तुओं के आकार-प्रकार तथा बनावट से भिन्न तथा स्वतन्त्र होती है। आकृति। रूप। शक्ल। ३. उक्त के आधार पर किसी देवता या देवी का बना हुआ चित्र या मूर्ति। जैसे–वैष्णव भक्तों की स्वरूप-सेवा। ४. लीला आदि में किसी देवता या देवी का वह रूप, जो किसी पात्र या व्यक्ति ने धारण किया हो। जैसे–वाक्य का यह स्वरूप व्याकरण सम्मत नहीं है। ६. पंडित। विद्वान्। ७. आत्मा। ८. प्रकृति। स्वभाव। वि० १. सुन्दर। खूबसूरत। २. तुल्य। समान। अव्य० (किसी के) तौर पर या रूप में। जैसे–प्रमाण-स्वरूप कोई मंत्र कहना या ग्रंथ का उद्धरण सामने रखना। पुं०=सारूप्य (मुक्ति)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वरूप दया  : पुं० [सं०] जैनों में ऐसी दया या जीवरक्षा जो वास्तविक न हो केवल इहलोक और परलोक में सुख पाने के लिए लोगों की देखा-देखी की जाय।
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स्वरूप प्रतिष्ठा  : स्त्री० [सं०] जीव का अपनी स्वाभाविक शक्तियों और गुणों से युक्त होना।
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स्वरूप संबंध  : पुं० [सं०] ऐसा संबंध जो किसी से उसके अपने स्वरूप के समान होने की अवस्था में माना जाता है।
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स्वरूपज्ञ  : पुं० [सं०] वह जो परमात्मा और आत्मा का वास्तविक स्वरूप जानता हो। तत्त्वज्ञ।
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स्वरूपता  : स्त्री० [सं०] स्वरूप का गुण, धर्म या भाव।
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स्वरूपमान  : वि०=स्वरूपवान् (सुन्दर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वरूपवान्  : वि० [सं० स्वरूपवत्] [स्त्री० स्वरूपवती] जिसका स्वरूप अच्छा हो। सुन्दर। खूबसूरत।
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स्वरूपाभास  : पुं० [सं०] कोई वास्तविक स्वरूप न होने पर भी उसका आभास होना। जैसे–गंधर्वनगर या मरीचिका जिसका वास्तव में अस्तित्व न होने पर भी उनके रूप का आभास (स्वरूपाभास) होता है।
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स्वरूपासिद्ध  : वि० [सं०] जो स्वयं अपने स्वरूप से ही असिद्ध होता हो। कभी सिद्ध न हो सकनेवाला।
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स्वरूपी (पिन्)  : वि० [सं०] १. स्वरूपवाला। स्वरूपयुक्त। २. जो किसी के स्वरूप के अनुसार बना हो अथवा जिसने किसी का स्वरूप धारण किया हो। पुं०=सारूप्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वरूपोपनिषद्  : स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
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स्वरेणु  : स्त्री० [सं०] सूर्य की पत्नी संज्ञा का एक नाम।
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स्वरोचिस्  : पुं० [सं०] पुराणानुसार स्वारोचिष् मनु के पिता जो कलि नामक गंधर्व के पुत्र थे और वरूथिनी नाम की अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
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स्वरोद  : पुं०=सरोद (बाजा)।
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स्वरोदय  : पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसके द्वारा इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आदि नाडियों के श्वासों के आधार पर सब प्रकार के शुभ और अशुभ फल जाने जाते हैं। दाहिने और बाएँ नथुने से निकलते हुए श्वासों को देखकर शुभ और अशुभ फल कहने की विद्या।
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स्वर्  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग। २. परलोक। ३. आकाश।
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स्वर्ग  : पुं० [सं०] [वि० स्वर्गीय] १. हिंदुओं के अनुसार ऊपर के सात लोकों में से तीसरा लोक, जिसका विस्तार सूर्यलोक से ध्रुवलोक तक कहा गया है और जिसमें ईश्वर तथा देवताओं का निवास माना गया है। यह भी माना जाता है कि पुण्यात्माओं और सत्कर्मियों की मृत्यु होने पर उनकी आत्माएँ इसी लोक में जाकर निवास करती हैं। देवलोक। पद–स्वर्ग की धार=आकाश-गंगा। मंदाकिनी। मुहा०–स्वर्ग के पथ पर पैर रखना=(क) यह लोक छोड़कर परलोक के लिए प्रस्थान करना। मरना। (ख) जान जोखिम में डालना। स्वर्ग छना=स्वर्ग के सुख का इसी जीवन में अनुभव करना। उदा०–मदोन्मत्ता महर्षि-मुख देख थी स्वर्ग छूती।–हरिहौध। स्वर्ग जाना या सिधारना=परलोकगामी होना। मरना। २. अन्य धर्मों के अनुसार इसी प्रकार का वह विशिष्ट स्थान जो आकाश में माना जाता है। बिहिश्त (हेवेन)। विशेष–भिन्न-भिन्न धर्मों में स्वर्ग की कल्पना अलग-अलग प्रकार से की गई है। तो भी प्रायः सभी धर्मों के अनुसार इसमें ईश्वर, देवताओ, देवदूतों और पवित्र आत्माओं का निवास माना जाता है और यह सभी प्रकार के सुखों और सौन्दर्यों का भंडार कहा गया है। ३. बोल-चाल में पृथ्वी के ऊपर का वह सारा विस्तार, जिसमें सूर्य, चाँद, तारे, बादल आदि निकलते, डूबते या उठते-बैठते हैं। ४. कोई ऐसा स्थान, जहाँ सभी प्रकार के सुख प्राप्त हों और नाम को भी कोई कष्ट या चिंता न हो। जैसे–यहाँ तो हमें स्वर्ग जान पड़ता है। ५. आकाश। आसमान। पद–स्वर्ग-सुख=सभी प्रकार का बहुत अधिक सुख। मुहा०–(किसी चीज का) स्वर्ग छूना=बहुत अधिक ऊँचा होना। जैसे–वहाँ की अट्टालिकाएँ स्वर्ग छूती थीं। ६. ईश्वर। ७. सुख। ८. प्रलय।।
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स्वर्ग काम  : वि० [सं०] जो स्वर्ग की कामना रखता हो। स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाला।
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स्वर्ग गमन  : पुं० [सं०] स्वर्ग सिधारना। मरना।
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स्वर्ग गिरि  : पुं०=स्वर्णगिरि (सुमेरु पर्वत)।
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स्वर्ग तरु  : पुं० [सं०] १. कल्पतरु। २. पारिजात। परजाता।
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स्वर्ग धेनु  : स्त्री० [सं०] कामधेनु।
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स्वर्ग नदी  : स्त्री० [सं० स्वर्ग+नदी] आकाश गंगा।
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स्वर्ग पति  : पुं० [सं०] स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र।
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स्वर्ग पुरी  : स्त्री० [सं०] इन्द्र की पुरी, अमरावती।
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स्वर्ग भूमि  : स्त्री० [सं०] १. एक प्राचीन जनपद जो वाराणसी के पश्चिम ओर था। २. ऐसा स्थान जहाँ स्वर्ग का-सा आनन्द और सुख हो।
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स्वर्ग मंदाकिनी  : स्त्री० [सं०] आकाशगंगा। मंदाकिनी।
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स्वर्ग लोकेश  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र। २. तन। शरीर।
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स्वर्ग स्त्री  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वर्ग-गत  : भू० कृ०, वि० [सं०] जो स्वर्ग चला गया हो। मरा हुआ। स्वर्गीय।
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स्वर्ग-गति  : स्त्री० [सं०] स्वर्ग जाना। मरना।
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स्वर्ग-गामी (मिन्)  : वि० [सं०] १. स्वर्ग की ओर गमन करनेवाला। स्वर्ग जानेवाला। २. जो स्वर्ग जा चुका अर्थात् मर चुका हो। मृत। स्वर्गीय।
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स्वर्ग-तंरगिणी  : स्त्री० [सं०] स्वर्ग की नदी, मंदाकिनी। आकाश-गंगा।
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स्वर्ग-पताली  : स्त्री० [सं० स्वर्ग+पाताल] ऐसा बैल जिसका एक सींग सींधा ऊपर को उठा हुआ और दूसरा सीधा नीचे की ओर झुका हुआ हो।
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स्वर्ग-योनि  : पुं० [सं०] यज्ञ, दान आदि वे शुभ कर्म, जिनके कारण मनुष्य स्वर्ग जाता है।
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स्वर्ग-लाभ  : पुं० [सं०] स्वर्ग की प्राप्ति।। स्वर्ग पहुँचाना। मरना।
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स्वर्ग-लोक  : पुं० दे० ‘स्वर्ग’।
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स्वर्ग-वधू  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वर्ग-वाणी  : स्त्री० [सं० स्वर्ग+वाणी] आकाशवाणी।
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स्वर्गगा  : स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मंदाकिनी।
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स्वर्गति  : स्त्री० [सं०] स्वर्ग की ओर जाने की क्रिया। स्वर्ग-गमन।
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स्वर्गद  : वि० [सं०] जो स्वर्ग पहुँचाता हो। स्वर्ग देनेवाला।
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स्वर्गदायक  : वि०=स्वर्गद।
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स्वर्गरूढ़  : भू० कृ०, वि० [सं०] स्वर्ग सिधारा हुआ। स्वर्ग पहुँचा हुआ। मृत। स्वर्गवासी।
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स्वर्गरोहण  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग की ओर जाना या चढ़ना। २. मरकर स्वर्ग जाना।
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स्वर्गवास  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग में निवास करना। स्वर्ग में रहना। २. मर कर स्वर्ग जाना। मरना। जैसे–आज उनका स्वर्गवास हो गया।
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स्वर्गवास  : पुं० [सं०]=स्वर्गवास।
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स्वर्गवासी (सिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वर्गवासिनी] १. स्वर्ग में रहनेवाला। २. जो मरकर स्वर्ग जा चुका हो। मृत। स्वर्गीय।
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स्वर्गसार  : पुं० [सं०] ताल के चौदह मुख्य भेदों में से एक। (संगीत)
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स्वर्गस्थ  : भू० कृ०, वि० [सं०] १. स्वर्ग में स्थित। स्वर्ग का। २. जो मरकर स्वर्ग जा चुका हो। मृत। स्वर्गीय।
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स्वर्गापगा  : स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मंदाकिनी।
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स्वर्गामी (मिन्)  : वि० [सं० स्वर्गमिन्]=स्वर्गगामी।
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स्वर्गि-गिरि  : पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत, जिसके श्रृंग पर स्वर्ग की स्थिति मानी जाती है।
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स्वर्गिक  : वि०=स्वर्गीय।
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स्वर्गी (गिन्)  : वि० [सं०]=स्वर्गीय। पुं० देवता।
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स्वर्गीय  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वर्गीया] १. स्वर्ग-संबंधी। स्वर्ग का। २. स्वर्ग में रहने या होनेवाला। ३. जो मरकर स्वर्ग चला गया हो। (मृत व्यक्ति के लिए आदरसूचक) ४. जिसकी मृत्यु अभी हाल में अथवा कुछ ही दिन पहले हुई हो। (लेट) ५. जिसमें लौकिक पवित्रता या सौन्दर्य की पराकाष्ठा हो। दिव्य। जैसे—स्वर्गीय रूप।
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स्वर्ग्य  : वि० [सं०] स्वर्ग-संबंधी। स्वर्ग तक पहुँचानेवाला।
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स्वर्चन  : पुं० [सं०] ऐसी अग्नि जिसमें से सुन्दर ज्वाला निकलती हो।
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स्वर्जि  : स्त्री० [सं०] १. सज्जी मिट्टी। २. शोरा।
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स्वर्जिक  : पुं० [सं०] सज्जी मिट्टी।
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स्वर्जिकाक्षार  : पुं० [सं०] जिसने स्वर्ग पर विजय प्राप्त कर ली हो। स्वर्गजेता। पुं० एक प्रकार का यज्ञ।
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स्वर्ण  : पुं० [सं०] १. सुवर्ण या सोना नामक बहुमूल्य धातु। कनक। २. धतूरा। ३. नाग केसर। ४. गौर स्वर्ण नामक साग। ५. कामरूप देश की एक नदी। वि० सोने की तरह का पीला।
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स्वर्ण ग्रीवा  : स्त्री० [सं०] कालिका पुराण के अनुसार एक पवित्र नदी जो नाटक शैल के पूर्वी भाग से निकली हुई मानी गई है।
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स्वर्ण नाभ  : पुं० [सं०] एक प्रकार के शालग्राम।
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स्वर्ण पत्र  : पुं० [सं०] सोने का पत्तर या तबक।
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स्वर्ण पाटक  : पुं० [सं०] सुहागा जिसके मिलाने से सोना गल जाता है।
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स्वर्ण फला  : स्त्री० [सं०] स्वर्ण कपाली। चंपा केला।
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स्वर्ण मय  : वि० [सं०] १. स्वर्ण से युक्ति। २. जो बिलकुल सोने का हो। जैसे–स्वर्णमय सिंहासन।
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स्वर्ण मानक  : पुं०=स्वर्णमान।
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स्वर्ण मीन  : पुं० [सं०] सुनहले रंग की एक प्रकार की मछली।
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स्वर्ण लता  : स्त्री० [सं०] १. मालकंगनी। ज्योतिष्मती। २. पीली जीवंती।
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स्वर्ण वर्णा  : स्त्री० [सं०] १. हलदी। २. दारुहलदी।
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स्वर्ण वल्ली  : स्त्री० [सं०] १. सोनावल्ली। रक्तफला। २. पीली जीवंती।
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स्वर्ण शिख  : पुं० [सं०] स्वर्णचूड़ या नीलकंठ नामक पक्षी।
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स्वर्ण-कूट  : पुं० [सं०] हिमालय की एक चोटी।
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स्वर्ण-केतकी  : स्त्री० [सं०] पीली केतकी।
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स्वर्ण-गिरि  : पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत।
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स्वर्ण-गैरिक  : पुं० [सं०] सोनोगेरू।
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स्वर्ण-चूड़, स्वर्ण-चूल  : पुं० [सं०] नीलकंठ नामक पक्षी।
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स्वर्ण-जयंती  : स्त्री० [सं०] किसी व्यक्ति, संस्था आदि या किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के जन्म या आरम्भ होने के ५0 वर्ष पूरा होने पर होनेवाली जयंती (गोल्डेन जुबली)।
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स्वर्ण-द्वीप  : पुं० [सं०] आधुनिक सुमात्रा द्वीप का मध्ययुगीन नाम।
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स्वर्ण-पर्पटी  : स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रसिद्ध औषध, जो संग्रहणी रोग के लिए सबसे अधिक गुणकारी मानी जाती है।
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स्वर्ण-पुष्प  : पुं० [सं०] १. अमलतास। २. चंपा। ३. कीकर। बबूल। ४. कैथ। ५. पेठा।
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स्वर्ण-पुष्पा  : स्त्री० [सं०] १. कलिहारी। लागली। २. सातला नामक थूहर। ३. मेढ़ा-सिंगी। ४. अमलतास। ५. पीली केतकी।
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स्वर्ण-पुष्पी  : स्त्री० [सं०] १. स्वर्ण-केतकी। पीला केवड़ा। २. अमलतास। ३. सातला।
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स्वर्ण-प्रस्थ  : पुं० [सं०] पुराणानुसार जंबू द्वीप का एक उपद्वीप।
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स्वर्ण-फल  : पुं० [सं०] धतूरा।
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स्वर्ण-बीज  : पुं० [सं०] धतूरे का बीज।
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स्वर्ण-भाज  : पुं० [सं०] सूर्य।
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स्वर्ण-माक्षिक  : पुं० [सं०] सोनामक्खी नामक उपधातु।
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स्वर्ण-माता  : स्त्री० [सं० स्वर्णमातृ] हिमालय की एक छोटी नदी।
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स्वर्ण-मान  : पुं० [सं०] अर्थशास्त्र में, सिक्कों के संबंध की वह प्रणाली जिसमें कोई देश अपनी मुद्रा की इकाई या मानक का अर्ध सोने की एक निश्चित तौल के अर्ध के बराबर रखता है। (गोल्ड स्टैन्डर्ड) विशेष–जिस देश में यह प्रणाली प्रचलित रहती है, वहाँ (क) या तो सोने के ही सिक्के चलते हैं या (ख) ऐसी मुद्रा चलती है, जो तत्काल सोने के सिक्कों में बदली जा सकती है या (ग) लोग अपना सोना देकर टकसाल से उसके सिक्के ढलवा सकते हैं।
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स्वर्ण-मुखी (खिन्)  : स्त्री० [सं०] १. मध्ययुग में, 6४ हाथ लंबी, ३२ हाथ ऊँची और ३२ हाथ चौड़ी नाव। २. सनाय।
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स्वर्ण-मुद्रा  : स्त्री० [सं०] सोने का सिक्का। अशरफी।
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स्वर्ण-यूथिक, स्वर्ण-यूथी  : स्त्री० [सं०] पीली जूही। सोनजूही।
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स्वर्ण-रंभा  : स्त्री० [सं०] स्वर्ण कदली। चंपा केला।
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स्वर्ण-रस  : पुं० [सं०] १. मध्यकालीन तांत्रिकों और रासायनिकों की परिभाषा में ऐसा रस, जिसके स्पर्श से कोई धातु सोना बन जाता हो या बन सकती हो। २. परवर्ती रहस्यवादी साधकों या संप्रदायों में वह क्रिया या तत्त्व, जिसमें मन की चंचलता नष्ट होती हो और वह पूर्ण रूप से शांत हो जाता हो।
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स्वर्ण-रेखा  : स्त्री०=सुवर्ण-रेखा (नदी)।
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स्वर्ण-वज्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का लोहा।
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स्वर्ण-वर्ण  : पुं० [सं०] १. कण-गुग्गल। २. हरताल। ३. सोना गेरू। ४. दारुहलदी।
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स्वर्ण-विंदु  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. एक प्राचीन तीर्थ।
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स्वर्ण-श्रृंगी (गित्)  : पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत जो सुमेरु पर्वत के उत्तर ओर माना जाता है।
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स्वर्ण-सिंदूर  : पुं०=रस-सिंदूर।
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स्वर्णकर्ष  : पुं० [सं०] सोने की एक प्राचीन तौल जो किसी के मत से दश माशे की और किसी के मत से सोलह माशे की होती थी।
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स्वर्णकाय  : वि० [सं०] जिसका शरीर सोने का अथवा सोने का-सा हो। पुं० गरुड़।
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स्वर्णकार  : पुं० [सं०] १. एक जाति जो सोने-चाँदी के आभूषण आदि बनाती है। २. सुनार।
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स्वर्णकारी  : स्त्री० [हिं० स्वर्णकार] सोने-चाँदी के गहने आदि बनाने का व्यवसाय। सुनारी।
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स्वर्णज  : वि० [सं०] १. सोने से उत्पन्न। २. सोने का बना हुआ। पुं० १. राँगा वंग। २. सोनामक्खी।
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स्वर्णजीवी (विन्)  : पुं० [सं०] स्वर्णकार। सुनार।
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स्वर्णद  : वि० [सं०] १. स्वर्ण या सोना देनेवाला। २. स्वर्ण या सोना दान करनेवाला।
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स्वर्णदी  : स्त्री० [सं०] १. मंदाकिनी। स्वर्गंगा। २. कामाख्या के पास की एक नदी।
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स्वर्णाकर  : पुं० [सं०] सोने की खान।
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स्वर्णाचल  : पुं० [सं०] उड़ीसा प्रदेश का भुवनेश्वर नामक तीर्थ।
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स्वर्णाद्रि  : पुं० [सं०]=स्वर्णाचल।
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स्वर्णाभ  : वि० [सं०] १. सोने की सी आभा या चमकवाला। २. सोने के रंग का। सुनहला। ३. (प्रतिभूति) जो सब प्रकार से सुरक्षित हो और जिसके डूबने या व्यर्थ होने की कोई आशंका न हो। (गिल्टएज्ड) पुं० हरताल।
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स्वर्णारि  : पुं० [सं०] १. गंधक। २. सीमा नामक धातु।
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स्वर्णिम  : वि० [सं०] सोने का। सुनहला।
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स्वर्णुली  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का क्षुप। हेमपुष्पी। सोनुली।
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स्वर्णोपधातु  : पुं० [सं०] सोनामक्खी नामक उपधातु।
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स्वर्धनी  : स्त्री० [सं०] गंगा।
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स्वर्नगरी  : स्त्री० [सं०] स्वर्ग की पुरी, अमरावती।
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स्वर्नदी  : स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा।
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स्वर्पति  : पुं० [सं०] स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र।
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स्वर्भानु  : पुं० [सं०] १. सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम। २. राहु नामक ग्रह।
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स्वर्लोक  : पुं० [सं०] स्वर्ग।
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स्वर्वधू  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वर्वापी  : स्त्री० [सं०] गंगा।
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स्वर्वेश्या  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वर्वैद्य  : पुं० [सं०] स्वर्ग के वैद्य, अश्विनीकुमार।
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स्वल्प  : वि० [सं०] बहुत ही अल्प या कम। बहुत थोड़ा। पुं० नखी नामक गन्ध द्रव्य।
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स्वल्प-विराम ज्वर  : पुं० [सं०] ठहर ठहर कर थोड़ी देर के लिए उतरकर फिर आनेवाला ज्वर।
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स्वल्प-व्यक्ति तंत्र  : पुं० दे० ‘अल्प-तंत्र’।
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स्वल्पक  : वि० [सं०]=स्वल्प।
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स्वल्पायु (स्)  : वि० [सं०] जिसकी आयु बहुत अल्प या थोड़ी हो। अल्पजीवी।
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स्वल्पाहार  : पुं० [सं०] बहुत कम या थोड़ा भोजन करना।
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स्वल्पाहारी (रिन्)  : वि० [सं०] बहुत कम या थोड़ा भोजन करनेवाला।
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स्वल्पिष्ठ  : वि० [सं०] १. अत्यन्त अल्प। बहुत ही कम। २. बहुत ही छोटा।
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स्ववरन  : पुं०=सुवर्ण (सोना)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्ववर्णी रेखा  : स्त्री०=सुवर्ण रेखा (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्ववश  : वि० [सं०] [भाव० स्ववशता] १. जो अपने वश में हो। स्वतन्त्र। २. जितेन्द्रिय।
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स्ववशता  : स्त्री० [सं०] स्ववश होने की अवस्था, गुण या भाव।
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स्ववश्य  : वि० [सं०] [भाव० स्ववश्यता] जो अपने ही वश में हो। अपने आप पर अधिकार रखनेवाला।
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स्ववासिनी  : वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री) जो अपने घर में रहती हो। स्त्री० वह कुँआरी या विवाहिता कन्या, जो वयस्क होने के उपरान्त अपने पिता के घर में ही रहती हो।
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स्वशुर  : पुं०=श्वसुर।
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स्वःसरित (ा)  : स्त्री० [सं०] गंगा।
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स्वसा (सृ)  : स्त्री० [सं०] भगिनी। बहन।
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स्वसित  : वि० [सं०] बहुत काला।
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स्वःसुंदरी  : स्त्री० [सं०] अप्सरा।
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स्वसुर  : पुं०=ससुर।
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स्वस्ति  : अव्य० [सं०] १. शुभ हो। (प्रायः शुभ-कामना प्रकट करने के लिए पत्रों के आरम्भ में) २. कल्याण हो। मंगल हो। भला हो। (आशीर्वाद) ३. मान्य है। ठीक है। स्त्री० १. कल्याण। मंगल। २. सुख। ३. ब्रह्मा की तीन पत्नियों में से एक।
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स्वस्ति-मुख  : वि० [सं०] जिसके मुख से शुभ, सुख देनेवाली या आशीर्वादपूर्ण बातें निकलती हों। पुं० १. ब्राह्मण। २. राजाओं का स्तुति-पाठक। बंदी।
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स्वस्ति-वाचक  : वि० [सं०] १. जो मंगल-सूचक बात करता हो। २. आशीर्वाद देनेवाला।
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स्वस्ति-वाचन  : पुं० [सं०] मंगल-कार्यों के आरम्भ में किया जानेवाला एक प्रकार का धार्मिक कृत्य, जिसमें कलश-स्थापन, गणेश का पूजन और मंगल-सूचक मंत्रों का पाठ किया जाता है।
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स्वस्तिक  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बहुत प्राचीन मंगल-चिह्न जो शुभ अवसरों पर दीवारों आदि पर अंकित किया जाता है। आज-कल इसका यह रूप प्रचलित है ()। साथिया। २. सामुद्रिक में, शरीर के किसी अंग पर होनेवाला उक्त प्रकार का चिह्न जो बहुत शुभ माना जाता है। ३. एक प्रकार का मंगल-द्रव्य जो विवाह आदि के समय भिगोये हुए चावल पीसकर तैयार किया जाता है और जिसमें देवताओं का निवास माना जाता है। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का यंत्र जो शरीर के गड़े हुए शल्य आदि बाहर निकालने के काम आता था। ५. वैद्यक में घाव या फोड़े पर बाँधी जानेवाली एक प्रकार की तिकोनी पट्टी। ६. वास्तु-शास्त्र में ऐसा घर, जिसमें पश्चिम एक और पूर्व ओर दो दालान हों। ७. साँप के फन पर की नीली रेखा। ८. हठयोग की साधना में एक प्रकार का आसन या मुद्रा। ९. प्राचीन काल की एक प्रकार की बढ़िया नाम, जो प्रायः राजाओं की सवारी के काम आती थी। १॰. चौमुहानी। ११. लहसुन। १२. रतालू। १३. मूली। १४. सुसना नामक साग। शिरियारी।
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स्वस्तिका  : स्त्री० [सं०] चमेली।
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स्वस्तिकृत  : पुं० [सं०] शिव। महादेव। वि० कल्याणकारी। मंगलकारक।
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स्वस्तिद  : वि० [सं०] मंगलकारक। पुं० शिव का एक नाम ।
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स्वस्तिमती  : स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका। वि० [सं०] ‘स्वस्तिमान’ का स्त्री।
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स्वस्तिमान् (मत्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वस्तिमती] १. सब प्रकार से सुखी। २. भाग्यवान्।
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स्वस्त्ययन  : पुं० [सं०] एक प्रकार का धार्मिक कृत्य, जो किसी विशिष्ट कार्य की अशुभ बातों का नाश करके मंगल की स्थापना के विचार से किया जाता है।
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स्वस्थ  : वि० [सं०] [भाव० स्वस्थता] १. जो स्वयं अपने बल पर या सहारे से खड़ा हो। २. फलतः आत्म-निर्भर। ३. जो शारीरिक दृष्टि से आत्म-निर्भर हो। फलतः जिसमें आलस्य, रोग, विकार आदि न हों। तन्दुरुस्त (हेल्दी)। ४. जिसमें किसी प्रकार की त्रुटि न हो। (साउन्ड) जैसे–स्वस्थ प्रज्ञ। ५. सामाजिक या मानसिक स्वास्थ्य का रक्षक। जैसे–स्वस्थ साहित्य।
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स्वस्थ-चित्त  : वि० [सं०] जिसका चित्त स्वस्थ हो। मानसिक दृष्टि से स्वस्थ।
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स्वस्थता  : स्त्री० [सं०] १. स्वस्थ होने की अवस्था या भाव। तंदरुस्ती। २. सावधानता।
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स्वस्रीय  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वस्रीया] स्वसृ अर्थात् बहन का लड़का। भानजा।
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स्वहाना  : अ०=सुहाना (भला लगना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=सुहावना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वांकिक  : पुं० [सं०] ढोल, मृदंग आदि ऐसे बाजे बजानेवाले, जो अपने अंक या गोद में रखकर बजाये जाते हों।
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स्वाक्षर  : पुं० [सं०] १. अपने ही हाथों से लिखे हुए अक्षर। अपना हस्तलेख। २. (किसी का) अपने हाथ से लिखा हुआ कोई छोटा लेख या हस्ताक्षर, जिसे लोग अपने पास स्मृति के रूप में रखते हैं। (ऑटोग्राफ) ३. हस्ताक्षर।
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स्वाक्षरित  : भू० कृ० [सं०] १. जिस पर किसी ने अपने हाथ से अपना नाम, पता, लेख आदि लिख रखा हो। २. दस्तखत किया हुआ। हस्ताक्षर ये युक्त। (साइन्ड)
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स्वांग  : पुं० [सं० स्व+अंग] १. किसी दूसरे की वेश-भूषा अपने अंग पर इसलिए धारण करना कि देखने में लोगों को वही दूसरा व्यक्ति जान पड़े। कृत्रिम रूप से दूसरे का धारण किया हुआ भेस। रूप भरने की क्रिया या भाव। जैसे–(क) रामलीला में राम और लक्ष्मण के स्वाँग। (ख) अभिनय में दुष्यंत और शकुंतला के स्वाँग। २. विशेषतः उक्त प्रकार से धारण किया जानेवाला वह भेस या रूप, जो या तो केवल मनोरंजन के लिए हास्यजनक हो या जिसका उद्देश्य दूसरों का उपहास करना अथवा हँसी उड़ाना हो। जैसे–(क) बाल-विवाह या वृद्ध-विवाह का स्वाँग। (ख) नाक-कटैया या रामलीला के जुलूस में निकलनेवाले स्वाँग। ३. जन साधारण में प्रचलित एक प्रकार का संगीत-रूपक जो किसी लोककथा पर आधारित होता है। जैसे–पूरनमल या राजा हरिश्चन्द्र का स्वाँग। ४. कोई बहाना बनाकर दूसरों को भ्रम में डालने या अपना कोई काम निकालने के लिए धारण किया जानेवाला झूठा रूप। जैसे–बीमारी का स्वाँग रचकर घर बैठना। क्रि० प्र०–बनना।–रचना। मुहा०– स्वाँग लाना=किसी दूसरे का भेस बनाकर या कोई कृत्रिम रूप धारण करके सामने आना। जैसे–जन्म भर में एक स्वाँग भी लाये तो कोढ़ी का। (कहा०)
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स्वांग  : पुं० [सं०] अपना ही अंग।
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स्वागत  : पुं० [सं०] १. किसी मान्य या प्रिय के आने पर आगे बढ़कर आदरपूर्वक उसका अभिनन्दन करना। अभ्यर्थना। (रिसेप्शन) २. उक्त अवसर पर पूछा जानेवाला कुशल-मंगल। उदा०–स्वागत पूँछि निकट बैठारे।–तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) ३. किसी के कथन, विचार आदि को अच्छा या अनुकूल समझकर ग्रहण अथवा मान्य करने की क्रिया या भाव। जैसे–हम आपके इस विचार (या सम्मति का) स्वागत करते हैं। ४. एक बुद्ध का नाम। अव्य० आप के आगमन पर (हम) आप का अभिनन्दन करते हैं। जैसे–स्वागत ! स्वागत ! बन्धुवर, भले पधारे आप।
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स्वागत-पतिका  : स्त्री० [सं०] वह नायिका जो अपने पति के परदेश से लौटने से प्रसन्न होकर उसके स्वागत के लिए प्रस्तुत हो। आगतपतिका। (नायिका के अवस्थानुसार दस भेदों में से एक।)
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स्वागत-प्रिया  : पुं० [सं०] वह नायक जो अपनी पत्नी के परदेश से लौटने से उत्साहपूर्वक और प्रसन्न होकर उसका स्वागत करने के लिए प्रस्तुत हो।
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स्वागत-समिति  : स्त्री० [सं०] वह समिति, जो किसी बड़े सम्मेलन आदि में आनेवालों के स्वागत-सत्कार के लिए बनती है (रिसेप्शन कमिटी)।
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स्वागतक  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वागतिका] १. वह जिस पर गत सज्जनों के स्वागत और सत्कार का भार हो। (रिसेप्शनिस्ट) २. घर का वह मालिक, जो आगत सज्जनों का स्वागत-सत्कार करता हो। (होस्ट)
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स्वागतकारिणी सभा  : स्त्री०=स्वागत-समिति।
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स्वागतकारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वागतकारिणी] स्वागत या अभ्यर्थना करनेवाला। पेशवाई करनेवाला।
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स्वागता  : स्त्री० [सं०] चार चारणों का एक समवृत्त वर्णिक छन्द, जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, नगण, भगण, और दो गुरु होते हैं। यथा–राज-राजा दशरत्थ तनैजू। रामचन्द्र भव-इन्द्र बने जू।–केशव।
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स्वागतिक  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वागतिका] स्वागत करनेवाला। आनेवाले की अभ्यर्थना या सत्कार करनेवाला। पुं० घर का वह मालिक, जो किसी विशिष्ट अवसर पर अपने यहाँ आये हुए लोगों का स्वागत-सत्कार करता हो (होस्ट)।
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स्वागतिका  : स्त्री० [सं०] १. स्वागत करनेवाली गृहस्वामिनी। २. आजकल हवाई जहाजों में वह स्त्रियाँ, जो यात्रियों की सेवा और सत्कार के लिए नियुक्त होती हैं। (एयर होस्टेस)
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स्वागती  : पुं०=स्वागतक।
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स्वाँगना  : स० [हिं० स्वाँग] बनावटी वेश या रूप धारण करना। स्वाँग बनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाँगी  : पुं० [हिं० स्वाँग] १. वह जो स्वाँग रचकर जीविका उपार्जन करता हो। नकल करनेवाला। नक्काल। २. बहुरूपिया। वि० अनेक प्रकार के रूप धारण करनेवाला।
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स्वांगीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्वांगीकृत] १. किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु या वस्तुओं को इस प्रकार पूर्णतः अपने प में मिला लेना कि वे उसके अंग के रूप में हो जायँ। आत्मीकरण।
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स्वाग्रह  : पुं० [सं० स्व+आग्रह] १. अपने संबंध में होनेवाला आग्रह। जिसके फलस्वरूप कोई अपना विचार प्रकट करता हो या अपने लिए उपयुक्त स्थान ग्रहण करने का प्रयत्न करता हो। (एसर्शन)
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स्वाग्रही (हिन्)  : वि० [सं०] जिसमें स्वाग्रह की धारणा या भावना प्रबल हो (एसर्टिव)।
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स्वाच्छ  : वि० [सं०] [भाव.स्वच्छता] १. जिसमें किसी प्रकार की मैल या गंदगी न हो। निर्मल। साफ। २. उज्जवल। शुभ। चमकीला। ३. नीरोग। स्वस्थ। ४. स्पष्ट। ५. पवित्र। शुद्ध। ६. निष्कपट। पुं० १. बिल्लौर। स्फटिक। २. मोती। मुक्ता। ३. अभ्रक। अबरक। स्वर्णमाक्षिक। रौप्यमाक्षिक। ४. सोनामक्खी। ५. रूपामक्खी। ६. सोने और चाँदी का मिश्रण। ७. विमल नामक उपधातु। ८.बेर का पेड़। बदरीवृक्ष। ९.विमल नामक उपधातु।
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स्वाच्छंद्य  : पुं०=स्वच्छंदता।
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स्वाजन्य  : पुं०=स्वजनता।
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स्वाजन्य, स्वाजीव्य  : वि० [सं०] (स्थान या देश) जहाँ जीविका के लिए कृषि, वाणिज्य आदि साधन यथेष्ट और सुलभ हों। जैसे—स्वाजीव्य देश।
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स्वांत  : पुं० [सं०] १. अपना अंत या मृत्यु। २. अपना प्रदेश या राज्य। ३. अंतःकरण। मन। ४. मन की शांति। ५. गुफा।
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स्वात  : स्त्री० [सं० सुवास्तु] अफगानिस्तान की एक नदी। स्त्री०=स्वाति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वांतज  : पुं० [सं०] १. कामदेव। २. प्रेम।
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स्वातंत्र  : पुं०=स्वातंत्र्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वातंत्र्य  : पुं०=स्वतंत्रता।
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स्वातव्य-युद्ध  : पुं० [सं०] वह युद्ध, जो अपने देश को विदेशी शासन से मुक्त करके स्वतन्त्र बनाने के लिए किया गया हो, या किया जाय (वार ऑफ़ इन्डिपेन्डेन्स)।
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स्वांतःसुखाय  : अव्य० [सं०] केवल अपना अंतःकरण या मन प्रसन्न करने के लिए। अरनी ही तृप्ति या संतोष के लिए।
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स्वाति  : स्त्री० [सं०] आकाशस्थ पन्द्रहवाँ नक्षत्र, जो फलित ज्योतिष के अनुसार शुभ माना जाता है। वि० जिसका जन्म स्वाति नक्षक्ष में हुआ हो।
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स्वाति-पंथ  : पुं० [सं० स्वाति+पथ] आकाश-गंगा।
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स्वाति-योग  : पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में, आषाढ़ के शुक्ल-पक्ष में स्वाति नक्षत्र का चन्द्रमा के हाथ होनेवाला योग।
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स्वाति-सुत  : पुं० [सं० स्वाति+सुत] मोती। मुक्ता। विशेष–लोगों का विश्वास है कि जब सीपी में स्वाति-नक्षत्र की वर्षा की बूँद पड़ती है, तब उसमें मोती पैदा होता है।
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स्वाति-सुवन  : पुं०=स्वाति-सुत।
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स्वातिकारी  : स्त्री० [सं०] कृषि की देवी (पारस्कर गृह्य-सूत्र)।
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स्वाती  : स्त्री०=स्वाति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाद  : पुं० [सं०] १. कोई चीज खाने या पीने पर जबान या रसनेन्द्रिय को होनेवाली अनुभूति। जायका। (टेस्ट) जैसे–नींबू का स्वाद खट्टा होता है। २. किसी काम, चीज या बात से प्राप्त होनेवाला आनन्द। रसानुभूति। मजा। सुख। जैसे–उन्हें दूसरों की निन्दा करने में बहुत स्वाद आता है। क्रि० प्र०–आना।–मिलना।–लेना। मुहा०–स्वाद चकना=किसी को उसके हुए अनुचित कार्य का दंज देना। बदला लेना। जैसे–मैं भी तुम्हें इसका स्वाद चखाऊँगा। ३. आदत। अभ्यास। जैसे–भीख माँगने का उन्हें स्वाद पड़ गया है। क्रि० प्र०–पड़ना। ४. इच्छा। कामना। चाह। ५. मीठा रस। (डिं०)
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स्वादक  : पुं० [सं० स्वाद] वह जो भोज्य पदार्थ प्रस्तुत होने पर देखने के लिए चखता है कि उन सबका स्वाद ठीक है या नहीं।
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स्वादन  : पुं० [सं०] १. चखना। स्वाद लेना। २. किसी काम या बात का आनन्द या रस लेना।
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स्वादनीय  : वि० [सं०] १. जिसका स्वाद लिया जाने को हो या लिया या सकता हो। २. स्वादिष्ट।
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स्वादित  : भू० कृ० [सं०] जिसका स्वाद लिया जा सकता हो। चखा हुआ। ३. स्वादिष्ट। ३. जो प्रसन्न हो गया हो।
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स्वादित्व  : पुं० [सं०] स्वाद का भाव। स्वादु।
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स्वादिमा (मन्)  : स्त्री० [सं०] १. सुस्वादुता। २. माधुर्य।
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स्वादिष्ट, स्वादिष्ठ  : वि० [सं० स्वादिष्ठ] जिसका जायका या स्वाद बहुत अच्छा हो। जो खाने में बहुत अच्छा जान पड़े।
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स्वादी (दिन्)  : वि० [सं०] १. स्वाद चखनेवाला। २. आनन्द के लिए रस लेने वाला। रसिक। वि०=स्वादिष्ट (पश्चिम)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वादीला  : वि० [सं० स्वाद+ईला (प्रत्य०)] स्वाद-युक्त। स्वादिष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वादु  : पुं० [सं०] १. मधुर रस। मीठा रस। २. मधुरता। मिठास। ३. गुड़। ४. महुआ। ५. कमला नींबू। ६. चिरौंजी। ७. बेर। ८. जीवक नामक अष्टवर्गीय ओषधि। ९. अगर की लकड़ी। अगरु। १॰. काँस नामक तृण। ११. दूध। १२. सेंधा नमक। सैंधव लवण। वि० १. मधुर मीठा। २. स्वादिष्ठ। ३. सुन्दर। स्त्री० द्राक्षा। दाख।
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स्वादु-फल  : पुं० [सं०] १. बेर। बदरी फल। २. धामिन वृक्ष। धन्व। वृक्ष।
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स्वादु-फला  : स्त्री० [सं०] १. बेर। बदरी। वृक्ष। २. खजूर। ३. दाख। ४. शतावर। ५. अमड़ा।
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स्वादुकंद  : पुं० [सं०] १. सफेद पिंडालू। २. कोबी। केऊँआ। केमुक।
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स्वादुकर  : पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति (महाभारत)।
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स्वादुगंधा  : स्त्री० [सं०] लाल सहिजन। रक्त शोभांजन।
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स्वादुता  : स्त्री० [सं०] १. स्वादु का गुण, धर्म या भाव। २. मधुरता।
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स्वादुलुंगी  : स्त्री० [सं०] मीठा नींबू।
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स्वादेशिक  : वि० [सं०] स्वदेशी।
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स्वाद्य  : वि० [सं०] जिसका स्वाद लिया जा सके या लिया जाने को हो। चखे जाने के योग्य।
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स्वाद्वम्ल  : पुं० [सं०] १. नारंगी का पेड़। नागरंग वृक्ष। २. कदंब वृक्ष।
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स्वाधाप्रिय  : पुं० [सं०] अग्नि।
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स्वाधाभुक्  : पुं० [सं०स्वधाभुज्] १. पितर। २. देवता।
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स्वाधाभोजी (जिन्)  : पुं० [सं०] पितृगण। पितर।
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स्वाधिकार  : पुं० [सं० स्व+अधिकार] १. किसी व्यक्ति या समाज की दृष्टि से उसका अपना अधिकार। २. स्वाधीनता। स्वतन्त्रता।
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स्वाधिपत्य  : पुं० [सं० स्व+आधिपत्य] किसी दूसरे के अधीन न होकर परम स्वतन्त्र रहने की अवस्था या भाव।
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स्वाधिष्ठान  : पुं० [सं० स्व+अधिष्ठान्] हठयोग के अनुसार शरीर के आठ चक्रों में से दूसरा, जिसका स्थान शिशन का मूल या पेड़ू है। यह मूलाधार और मणिपुर के बीच छः दलों के और सिंदूर वर्ण का माना गया है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार इसी केन्द्र की ग्रंथियों से यौवन और शरीर में प्रजनन-शक्ति उत्पन्न और विकसित होती है (हाइपोगैस्टिक प्लेक्सस)।
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स्वाधीन  : वि० [सं०] [भाव० स्वाधीनता] १. जो अपने अधीन हो। जैसे–स्वाधीन पतिका, अर्थात् वह नायिका जिसका पति उसके वश में हो। २. जो प्रत्येक दृष्टि से आत्म-निर्भर हो। जो किसी के अधीन अर्थात् पराधीन न हो। जैसे–स्वाधीन राष्ट्र। ३. अपनी इच्छा के अनुसार काम करने में स्वतन्त्र। निरंकुश। वि०=अधीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाधीन-पतिका  : स्त्री० [सं०] साहित्य में वह नायिका, जिसका पति उसके वश में हो। विशेष–इसके मुग्धा, मध्या, प्रौढ़ा और परकीया ये चार भेद हैं।
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स्वाधीन-भर्तृकी  : स्त्री०=स्वाधीन-पतिका।
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स्वाधीनता  : स्त्री० [सं०] १. स्वाधीनता होने की अवस्था, धर्म या भाव। ‘पराधीनता’ का विपर्याय। आजादी। २. ऐसी स्थिति, जिसमें व्यक्तिय़ों राष्ट्रों आदि को बाहरी नियंत्रण, दबाव, आदि प्रभाव से मुक्त होकर अपनी इच्छा से सब काम करने का अधिकार प्राप्त होता है और वे किसी बात के लिए दूसरों के मुखोपेक्षी नहीं होते। सब प्रकार से आत्म-निर्भर होने की अवस्था या भाव (इन्डिपेंडेंस)। विशेष–स्वाधीनता, स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता में मुख्य अन्तर यह है कि स्वाधीनता का प्रयोग राजनीतिक और वैधानिक क्षेत्रों में यह सूचित करने के लिए होता है कि अपने सब कामों की व्यवस्था या संचालन करने का किसी को पूरा अधिकार है। स्वतन्त्रता मुख्यतः लौकिक और सामाजिक क्षेत्रों का शब्द है और इसमें परकीय तन्त्र या शासन से मुक्त या रहित होने का भाव प्रधान है। स्वच्छन्दता मुख्यतः आचारिक और व्यवहारिक क्षेत्रों का शब्द है और इसमें शिष्ठ सम्मत नियमों और विधि-विधानों के बंधनों से रहित होने का प्रभाव प्रधान है।
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स्वाधीनी  : स्त्री०=स्वाधीनता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाध्याय  : पुं० [सं०] १. वेदों की निरंतर और नियमपूर्वक आवृत्ति या अभ्यास करना। वेदाध्ययन। धर्म-ग्रंथों का नियम-पूर्वक अनुशीलन करना। २. किसी गंभीर विषय या अच्छी तरह किया जानेवाला अध्ययन या अनुशीलन। ३. वेद।
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स्वाध्यायी (यिन्)  : वि० [सं०] स्वाध्याय करनेवाला।
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स्वान  : पुं० [सं०] शब्द। आवाज। पुं०=श्वान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाना  : सं०=सुलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वानुभव  : पुं० [सं०] ऐसा अनुभव जो अपने को हुआ हो।
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स्वानुभूति  : स्त्री० [सं०] १. ऐसी अनुभूति जो अपने को हुई हो। २. धार्मिक क्षेत्र में, परब्रह्म के तत्त्व का परिज्ञान।
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स्वानुरूप  : वि० [सं०] [भाव० स्वानुरूपता] १. अपने अनुरूप। २. योग्य। ३. सहज।
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स्वाप  : पुं० [सं०] १. नींद। निद्रा। २. स्वप्न। ३. अज्ञान। ४. निष्पंदता।
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स्वापक  : वि० [सं०] नींद लानेवाला। निद्राकाराक।
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स्वापद  : पुं०=श्वापद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=स्वापक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वापन  : पुं० [सं०] १. सुलाना। २. प्राचीन काल का एक अस्त्र, जिससे शत्रु निद्रित किये जाते थे। ३. ऐसी दवा, जिसे खाने से नींद आ जाती हो। वि० नींद लाने या सुलानेवाला। निद्राकारक।
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स्वापराध  : पुं० [सं०] अपने प्रति किया जानेवाला अपराध।
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स्वापी (पिन्)  : वि० [सं०] स्वापक।
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स्वाप्तिक  : वि० [सं०] १. स्वप्न में होने या उससे संबंध रखनेवाला। २. स्वप्न के कारण या फलस्वरूप होनेवाला।
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स्वाप्न  : वि० [सं०] स्वप्न संबंधी। स्वप्न का।
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स्वाप्निल  : वि० [सं०] स्वप्न के रूप में होनेवाला। २. स्वप्न के समान जान पड़नेवाला। ३. सोया हुआ। सुस्त।
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स्वाब  : पुं० [अं.] कपड़े या सन की बुहारी या झाड़ू जिससे जहाज के डेक आदि साफ किये जाते हैं (लश०)।
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स्वाभाव  : पुं० [सं०] स्व का अभाव।
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स्वाभाविक  : वि० [सं०] १. जो स्वभाव से उत्पन्न हुआ हो। जो आप ही हुआ हो। प्राकृतिक। (नैचुरल)। २. जो या जैसा प्रकृति के या स्वाभाव के अनुसार साधारणतः हुआ करता हो। जैसे–तुम्हें उनकी बात पर क्रोध आना स्वाभाविक था।
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स्वाभाविकी  : वि० [सं०]=स्वाभाविक।
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स्वाभाव्य  : वि० [सं०] स्वयं उत्पन्न होनेवाला। आप ही आप होनेवाला। स्वयंभू।
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स्वाभिमान  : पुं० [सं०] १. अपनी जाति, राष्ट्र, धर्म आदि का सद् अभिमान। अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का अभिमान। आत्म-गौरव। (सेल्फ़-रेस्पेक्ट)
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स्वाभिमानी (निन्)  : वि० [सं०] जिसमें स्वाभिमान हो। स्वाभिमानवाला।
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स्वामि कार्तिक  : पुं० [सं०] १. कार्तिकेय। स्कंद। उदा०–धरे चाप इखु हाथ स्वामि कार्तिक बल सोहत।–गोपाल। २. छः आघात और दस मात्राओं का ताल जिसका बोल इस प्रकार है–धा धिं धो गे ना ग तिं न तिराकेट तिंना तिंना तिंना केत्ता धिंना।
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स्वामि-भृत्य न्याय  : पुं० [सं०] नौकर के काम से जब मालिक खुश होता है, तो नौकर भी निहाल हो जाता है; अतएव दूसरों का काम सिद्ध हो जाने पर यदि अपना भी कार्य सिद्ध हो जाय तो या प्रसन्नता हो तो यह न्याय प्रयुक्त होता है।
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स्वामिकता  : स्त्री०=स्वामित्व।
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स्वामित्व  : पुं० [सं०] १. वह अवस्था जिसमें कोई किसी वस्तु का स्वामी या मालिक होता है। मालिक होने का भाव। मालिकी। (ओनरशिप) २. प्रभुता। प्रभुत्व।
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स्वामित्व चिह्न  : पुं० [सं०] वह चिह्न जो यह सूचित करता हो कि अमुक वस्तु अमुक आदमी की है। (प्रापर्टी मार्क)
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स्वामिन  : स्त्री०=स्वामिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वामिनी  : स्त्री० [सं०] १. ‘स्वामी’ का स्त्री०। २. वल्लभ संप्रदाय में राधिकाजी की एक संज्ञा।
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स्वामिस्व  : पुं० [सं०] १. वह धन जो किसी वस्तु के स्वामी को आधिरूप से मिलता हो या मिलने को हो। २. दे० ‘स्वत्व-शुल्क’।
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स्वामिहीन-भूमि  : स्त्री० [सं०] वह भूमि, जिसका कोई अधिकारी, शासक या स्वामी न हो; जैसी कभी-कभी दो राज्यों की सीमाओं पर हुआ करती है (नौ मैन्स लैण्ड)।
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स्वामिहीनत्व  : पुं० [सं०] किसी वस्तु के सम्बन्ध की वह स्थिति, जिसमें उसका कोई स्वामी न मिल रहा हो। चीज के लावारिस होने की अवस्था या भाव। ला-वारिसी (बोना वैकेशिया)।
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स्वामी  : पुं० [सं० स्वामिन्] [स्त्री० स्वामिनी, भाव० स्वामित्व] १. वह जिसे किसी वस्तु पर पूरे और सब प्रकार के अधिकार प्राप्त हों। धनी। मालिक। (ओनर, प्रोपाइटर) २. घर का प्रधान व्यक्ति। ३. पति। शौहर। ४. साधु, संन्यासी आदि का संबोधन। ५. ईश्वर। ६. राजा। ७. सेनापति। ८. शिव। ९. विष्णु। १॰. स्वामीकार्तिक। ११. गरुड़। १२. गत उत्सर्पिणी के ११ वें अर्हत् का नाम।
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स्वाम्नाय  : वि० [सं०] जो परंपरा से चला आ रहा हो। परंपरागत।
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स्वाम्य  : पुं० [सं०] स्वामी होने की अवस्था, गुण या भाव (ओनरशिप)।
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स्वायत शासन  : पुं० [सं०] [वि० स्वायत्तशासी] १. राजनीति या शासन की दृष्टि से स्थानिक क्षेत्रों में अपने सब काम आप करने की स्वतन्त्रता (ऑटोनोमी) २. दे० ‘स्थानिक-स्वशासन’।
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स्वायत्त  : वि० [सं०] [भाव० स्वायत्तता] १. जिस पर अपना अधिकार हो। २. जिसे स्थानीय स्वाशासन का अधिकार या शक्ति प्राप्त हो (ऑटॉनोमस)।
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स्वायत्त-शासी  : वि० [सं०] (देश) जिसे शासन स्वयं ही करने का अधिकार प्राप्त हो (ऑटॉनोमस)।
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स्वायत्तता  : स्त्री० [सं०] अपनी सरकार बनाने का अधिकार। स्थानीय स्वशासन का अधिकार (ऑटोनोमी)।
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स्वायंभुव  : पुं० [सं०] पुराणानुसार चौदह मनुओं में से पहला मनु, जो स्वयंभू ब्रह्मा से उत्पन्न माने गये हैं।
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स्वायंभुवी  : स्त्री० [सं०] ब्राह्मी (बूटी)।
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स्वायंभू  : पुं०=स्वायंभुव।
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स्वार  : पुं० [सं०] १. घोड़े के घर्राटे का शब्द। २. बादल की गरज। मेघ-ध्वनि। वि० स्वर-सम्बन्धी। स्वर का। पुं०=सवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वारक्ष्य  : वि० [सं०] जिसकी सहज में रक्षा की जा सकती हो।
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स्वारथ  : वि० [सं० सार्थ] सफल। सिद्ध। फलीभूत। सार्थक। जैसे–चलिए, आपका परिश्रम स्वारथ हो गया। पुं०=स्वार्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वारथी  : वि०=स्वार्थी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वारसिक  : वि० [सं०] १. (काव्य) जो सुरस युक्त हो। २. (काम या बात) जिसमें अच्छा रस मिलता हो। ३. प्राकृतिक। स्वाभाविक।
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स्वारस्य  : पुं० [सं०] १. सरसता। रसीलापन। २. आनन्द। मजा। ३. स्वाभाविकता।
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स्वाराज्य  : पुं० [सं०] १. स्वर्ग का राज्य या लोक। स्वर्ग। २. स्वाधीन राज्य।
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स्वाराट्  : पुं० [सं० स्वाराज्य] स्वर्ग के राजा, इन्द्र।
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स्वारी  : स्त्री०=सवारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वारोचिष  : पुं० [सं०] मनु जो स्वरोचिष के पुत्र थे। विशेष दे० ‘मनु’।
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स्वार्जित  : वि० [सं०] अपना अर्जित किया या कमाया हुआ (सेल्फ़-एक्वायर्ड)।
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स्वार्थ  : पुं० [सं०] [वि० स्वार्थिक, कर्ता स्वार्थी, भाव० स्वार्थता] १. अपना अर्थ या उद्देश्य। अपना मतलब। २. अपना हित साधने की उग्र भावना। ३. ऐसी बात, जिसमें स्वयं अपना लाभ या हित हो। मुहा०–(किसी बात में) स्वार्थ लेना=किसी होनेवाले काम में अनुराग रखना (आधुनिक, पर भद्दा प्रयोग)। ४. विधिक क्षेत्रों में, किसी वस्तु या संपत्ति के साथ होनेवाला किसी व्यक्ति का वह संबंध जिसके अनुसार उसे उस वस्तु या संपत्ति पर अथवा उससे होनेवाले लाभ आदि पर स्वामित्व अथवा इसी प्रकार का और कोई अधिकार प्रापत रहता है (इन्टरेस्ट)। वि०=स्वारथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वार्थ-त्याग  : पुं० [सं०] (दूसरे के हित के लिए कर्तव्य बुद्धि से) अपने स्वार्थ या हित को निछावर करना। किसी भले काम के लिए अपने हित या लाभ का विचार छोड़ना।
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स्वार्थ-त्यागी (गिन्)  : वि० [सं० स्वार्थत्यागिन्] जो (दूसरों के हित के लिए कर्तव्य-बुद्धि से) अपने स्वार्थ या हित को निछावर कर दे। दूसरे के भले के लिए अपने हित या लाभ का विचार न रखेनावाला। स्वार्थ त्याग करनेवाला।
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स्वार्थ-पंडित  : वि० [सं०] बहुत बड़ा स्वार्थी या खुदगरज। परम स्वार्थी।
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स्वार्थ-परता  : स्त्री० [सं०] स्वार्थपर होने की अवस्था या भाव। खुदगरजी।
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स्वार्थ-परायण  : वि० [सं०] [भाव० स्वार्थ-परायणता] १. जो अपने स्वार्थो की सिद्धि में रत रहता हो। २. अन्य कर्मों या बातो की अपेक्षा अपने स्वार्थ को अधिक महत्त्व देनेवाला।
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स्वार्थ-परायणता  : स्त्री० [सं०] स्वार्थ-परायण होने की अवस्था, गुण या भाव। स्वार्थपरता। खुदगरजी।
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स्वार्थ-साधक  : वि० [सं०] अपना मतलब साधनेवाला। अपना काम निकलानेवाला। खुदगरज। स्वार्थी।
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स्वार्थ-साधन  : पुं० [सं०] अपना प्रयोजन सिद्ध करना। अपना काम या मतलब निकालना।
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स्वार्थता  : स्त्री० [सं०] स्वार्थ का धर्म या भाव। स्वार्थपरता। खुदगरजी।
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स्वार्थपर  : वि० [सं०] दो केवल अपना स्वार्थ या मतलब देखता हो। अपना स्वार्थ या मतलब साधनेवाला। स्वार्थी। खुदगरज।
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स्वार्थांध  : वि० [सं०] [भाव० स्वार्थांधता] १. जो अपने स्वार्थ के फेर में पड़कर अंधा हो रहा हो और भले-बुरे का ध्यान न रखता हो।
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स्वार्थिक  : वि० [सं०] १. स्वार्थ से संबंध रखनेवाला। २. जिससे अपना अर्थ या काम निकले। २. लाभदायक। (प्रॉफिटेबुल) ४. वाच्यार्थ से युक्त। (कथा या वाक्य)। ५. अपने अर्थ या धन से किया या लिया हुआ (कार्य या पदार्थ)।
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स्वार्थी (थिन्)  : वि० [सं०] १. मात्र अपने स्वार्थों की सिद्धि चाहनेवाला। २. जिसमें परमार्थ-भावना न हो। खुदगरज।
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स्वाल  : पुं०=सवाल।
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स्वाल्प  : पुं० [सं०] स्वल्प होने की अवस्था या भाव। स्वल्पता। वि०=स्वल्प।
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स्वावलंबन  : पुं० [सं०] अपनी समर्थता से आत्म-निर्भर होने की अवस्था, गुण या भाव।
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स्वावलंबी (बिन्)  : वि० [सं०] १. जिसमें स्वावलंबन की भावना हो। २. जिसनें अपनी समर्थता से आत्म-निर्भरता अर्जित की हो।
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स्वाश्रित  : वि० [सं०]=स्वावलंबी।
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स्वाँस  : पुं०=साँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वास  : पुं०=श्वास (साँस)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वाँसा  : पुं० [देश०] वह सोना जिसमें ताँबे का खोट हो। ताँबे के खोटवाला सोना। पुं०=साँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वासा  : स्त्री० [सं०] श्वास। साँस। श्वास।
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स्वास्थिकी  : स्त्री०=स्वास्थ्य-विज्ञान।
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स्वास्थ्य  : पुं० [सं०] १. स्वस्थ अर्थात् नीरोग होने की अवस्था, गुण या भाव। नीरोगता। तन्दुरुस्ती।। जैसे–उनका स्वास्थ्य आज-कल अच्छा नहीं है। २. मन की वह अवस्था, जिसमें उसे कोई उद्वेग, कष्ट या चिन्ता न हो। (हेल्थ)
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स्वास्थ्य-निवास  : पुं० [सं०] विशेष रूप से निश्चित या निर्मित वह स्थान, जहाँ जाकर लोग स्वास्थ्य-सिधार के लिए रहते हैं। आरोग्य-नवास (सैनेटोरियम)
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स्वास्थ्य-रक्षा  : स्त्री० [सं०] ऐसी स्वच्छतापूर्ण आचरण और व्यवहार जिससे स्वास्थ्य अच्छा बना रहे, बिगड़ने न पाये (सैनिटेशन)।
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स्वास्थ्य-विज्ञान  : पुं० [सं०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें शरीर को नीरोग और स्वस्थ बनाये रखने के नियमों और सिद्धांतों का विवेचन हो। (हाईजीन)
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स्वास्थ्यकर  : वि० [सं०] जिससे स्वास्थ्य अच्छा बना रहे। तंदुरुस्त करनेवाला। आरोग्य-वर्द्धक। जैसे–देवघर स्वास्थकर स्थान है।
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स्वाहा  : अव्य० [सं०] एक शब्द जिसका प्रयोग देवताओं को हवि देने के समय मंत्रों के अन्त में किया जाता है। जैसे–इंद्राय स्वाहा। वि० १. जो जलाकर नष्ट कर दिया गया हो। २. जिसका पूरी तरह से अन्त या नाश कर दिया गया हो। पूर्णतः विनष्ट। जैसे–कुछ ही दिनों में उसने लाखों रुपयों की सम्पत्ति स्वाहा कर दी। स्त्री० अग्नि की पत्नी।
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स्वाहा-ग्रसण  : पुं० [सं० स्वाहा+ग्रसन्] देवता (डिं०)
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स्वाहा-प्रिय  : पुं० [सं०] अग्नि।
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स्वाहापति  : पुं० [सं०] स्वाहा के पति, अग्नि देवता।
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स्वाहाभुक्  : पुं० [सं० स्वाहाभुज्] देवता।
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स्वाहार  : पुं० [सं०] अच्छा आहार या भोजन।
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स्वाहार्ह  : वि० [सं०] १. स्वाहा के योग्य। हवि पाने के योग्य। २. जो स्वाहा किया अर्थात् पूरी तरह से जलाया या नष्ट किया जा सके या किया जाने को हो।
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स्वाहाशन  : पुं० [सं०] देवता।
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स्विदित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे स्वेद या पसीना निकला हो। २. जिसका स्वेद या पसीना निकाला गया हो। ३. पिघला या पिघलाया हुआ।
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स्विन्न  : वि० [सं०] १. स्वीकार या अंगीकार या अंगीकार करना। २. उबला, पका या सीझा हुआ।
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स्वीकरण  : पुं० [सं०] १. स्वीकार या अंगीकार करना। अपनाना। २. कबूल करना। मानना। ३. स्त्री को पत्नी के रूप में ग्रहण करना।
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स्वीकरणीय  : वि० [सं०] स्वीकृत किये या माने जाने के योग्य।
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स्वीकर्त्तव्य  : वि० [सं०]=स्वीकरणीय।
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स्वीकर्त्ता (तृ)  : वि० [सं०] स्वीकार करनेवाला। मंजूर करनेवाला।
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स्वीकार  : पुं० [सं०] १. अपना बनाने या अपनाने की क्रिया या भाव। अंगीकार। २. ग्रहण करना। लेना। परिग्रह। ३. कोई बात मान लेना। कबूल या मंजूर करना। ४. किसी बात की प्रतिज्ञा करना या वचन देना।
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स्वीकारना  : स० [सं० स्वीकार] १. स्वीकार करना। मानना। २. ग्रहण करना। लेना। ३. अपनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वीकारात्मक  : वि० [सं०] (कथन) जिससे कोई बात स्वीकृत की गई या मानी गई हो। (अफ़र्मेटिव)
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स्वीकारोक्ति  : स्त्री० [सं०] वह कथन या बयान, जिसमें अपना अपराध स्वीकृत किया जाय। दोष, अपराध, पाप आदि की स्वीकृति। अपने मुँह से कहकर यह मान लेना कि हमने अमुक अनुचित या बुरा काम किया है। (कन्फ़ेशन)
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स्वीकार्य  : वि० [सं०] जो स्वीकृत किया या माना जा सके। माने जाने के योग्य।
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स्वीकृच्छ्र  : पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का व्रत, जिसमें तीन-तीन दिन तक क्रमशः गोमूत्र, गोवर तथा जौ की लप्सी खाकर रहते थे।
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स्वीकृत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० स्वीकृति] १. जिसे स्वीकार कर लिया गया हो। जिसके संबंध में स्वीकृति दी जा चुकी हो (सै कैशन्ड)। २. ग्रहण किया या माना हुआ। प्रतिपन्न। मंजूर। (ऐक्सेप्टेड) ३. जिसे आविकारिक रूप से मान्यता मिली हो। मान्य। मान्यताप्राप्त। (रिकग्नाइज़्म)
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स्वीकृति  : स्त्री० [सं०] १. स्वीकार करने की क्रिया या भाव। सम्मति। उदा०–(क) राष्ट्रपति ने उस बिल पर अपनी स्वीकृति दे दी है। (ख) उनकी स्वीकृति से यह नियुक्ति हुई है। २. प्रस्ताव, शर्ते आदि मान लेने या उपहार, देन आदि ग्रहण करने की क्रिया या भाव। (ऐक्सेप्टेन्स) ३. बड़ों, अधिकारियों आदि के द्वारा छोटों की प्रार्थना आदि मान लेने की क्रिया या भाव। मंजूरी। (सैन्कशन) क्रि० प्र०–देना।–माँगना।–मिलना।–लेना।
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स्वीय  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वीया] स्वकीय। अपना। पुं० स्वजन। आत्मीय। संबंधी। नाते-रिश्तेदार।
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स्वीया  : स्त्री० [सं०] स्वकीया।
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स्वे  : वि०=स्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वेच्छया  : अव्य० [सं०] अपनी इच्छा से और बिना किसी दबाव के। स्वेच्छापूर्वक। (वालन्टरिली) जैसे–स्वेच्छया किया हुआ काम।
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स्वेच्छा  : स्त्री० [सं०] अपनी इच्छा। अपनी मर्जी। जैसे–वे सब काम स्वेच्छा से करते हैं।
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स्वेच्छा-मृत्यु  : वि० [सं०] १. अपनी इच्छा से आप मरनेवाला। २. जिसने मृत्यु को इस प्रकार वश में कर रखा हो कि अपनी इच्छा से ही मरे, इच्छा न हो तो न मरे। पुं० भीष्म पितामह, जिन्हें उक्त प्रकार का मनोबल या शक्ति प्राप्त थी।
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स्वेच्छा-सेवक  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वेच्छा-सेविका] दे० ‘स्वयंसेवक’।
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स्वेच्छाचार  : पुं० [सं०] भले-बुरे का ध्यान रखे बिना मन-माना या आचरण करना। जो जी में आये, वहीं करना। यथेच्छाचार।
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स्वेच्छाचारिचा  : स्त्री० [सं०] स्वेच्छाचार का भाव या धर्म।
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स्वेच्छाचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वेच्छाचारिणी] स्वेच्छाचार अर्थात् मन-माना काम करनेवाला। निरंकुश। अबाध्य। जैसे–वहाँ के राज-कर्मचारी बहुत स्वेच्छाचारी हैं।
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स्वेच्छित  : भू० कृ० [सं०] जो किसी की अपनी अच्छा के अनुकूल या अनुरूप हो। मन-चाहा।
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स्वेटर  : पुं० [अं०] बनियाइन या गंजी आदि की तरह का एक प्रकार का ऊनी पहनावा, जो कमीज के ऊपर तथा कोट आदि के नीचे पहना जाता है।
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स्वेत  : वि०=श्वेत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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स्वेत-रंगी  : स्त्री० [सं० श्वेत+हिं० रंगी] कीर्ति। यश। (डिं०)
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स्वेद  : पुं० [सं०] १. पसीना। २. साहित्य में, रोष, लज्जा, हर्ष, श्रम आदि से शरीर का पसीने से भर जाना, जो एक सात्विक अनुभाव माना गया है। ३. भाप। वाष्प। ४. वह प्रक्रिया, जिससे कोई वस्तु भाप आदि की सहायता से आर्द्र या तर की जाती हो। (बाथ) जैसे–उष्मा-स्वेद। (देखें) ५. गरमी। ताप।
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स्वेद जल  : पुं० [सं०] पसीना। प्रस्वेद।
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स्वेदक  : वि० [सं०] पसीना लानेवाला। प्रस्वेदक। पुं० १. कांतिसार लोहा। २. दे० ‘प्रस्वेदक’।
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स्वेदकारी  : वि० [सं०]=स्वेदक।
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स्वेदज  : वि० [सं०] १. पसीने से उत्पन्न होनेवाला। २. गर्म भाप या उष्ण वाष्प से उत्पन्न होनेवाला। (जूँ, लीक, खटमल, मच्छर आदि कीड़े-मकोड़े)।
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स्वेदन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० स्वेदित] १. पसीना निकलना। २. पसीना निकालना या लाना। ३. ओषधियाँ शोधने का एक यंत्र। (वैद्यक)
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स्वेदनत्व  : पुं० [सं०] स्वेदन का गुण, धर्म या भाव।
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स्वेदनिका  : स्त्री० [सं०] १. तवा। २. रसोई-घर। ३. अरक, शराब आदि चुआने का भभका।
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स्वेदांबु  : पुं० [सं०]=स्वेद जल (पसीना)।
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स्वेदायन  : पुं० [सं०] रोग-तूप। लोम-छिद्र।
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स्वेदित  : भू० कृ० [सं०] १. स्वेद या पसीने से युक्त। २. जिसे किसी प्रकार की भाप सा बफारा दिया गया हो।
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स्वेदी (दिन्)  : वि० [सं०] पसीना लानेवाला। प्रस्वेदक।
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स्वेद्य  : वि० [सं०] जिसे पसीना लाया जा सके या लाया जाने को हो।
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स्वेष्ट  : वि० [सं०] जो अपने आप को इष्ट या प्रिय हो।
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स्वै  : वि० [सं० स्वीया] अपना। निजा का। (डिं०) सर्व०=सो।
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स्वैच्छिक  : वि० [सं०] १. जो किसी की अपनी या निज़ी इच्छा से अनुसार हो। २. किसी की निजी इच्छा से सम्बन्ध रखनेवाला। (वॉलेन्टरी)
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स्वैर  : वि० [सं०] १. अपने इच्छानुसार चलनेवाला। मन-माना काम करनेवाला। यथेच्छाचारी। २. मनमाना। यथेच्छा। ३. धीमा। मन्द।
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स्वैरचार  : पुं० [सं०] मन-माना आचरण। स्वेच्छाचार।
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स्वैरचारिणी  : स्त्री० [सं०] १. मन-माना काम करनेवाली स्त्री। २. व्यभिचारिणी स्त्री।
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स्वैरचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वैरचारिणी] मनमाना काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी। निरंकुश।
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स्वैरचारी (रिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० स्वैराचारिणी] १. मन-माना काम करनेवाला। २. व्यभिचारी। लंपट।
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स्वैरता  : स्त्री० [सं०] मन-माना आचरण करने की अवस्था या भाव।
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स्वैरवर्ती  : वि० [सं० स्वैरवर्तिन्]=स्वेच्छाचारी।
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स्वैरवृत  : वि० [सं०] स्वेच्छाचारी।
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स्वैराचार  : पुं० [सं०] [वि० स्वैराचारी] ऐसा मनमाना आचरण जो नैतिक, धार्मिक, सामाजिक आदि नियमों या बंधनों की उपेक्षा करके किया जाय।
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स्वैरालाप  : पुं० [सं०] मौज में आकर की जानेवाली इधर-उधर की बात-चीत। गप-शप।
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स्वैरिणी  : स्त्री० [सं०] व्यभिचारिणी स्त्री। पुंश्चली।
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स्वैरिणी  : स्त्री० [सं०] यथेच्छाचारिचा। स्वच्छंदता। स्वाधीनता।
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स्वैरिंध्री  : स्त्री०=सौरिंध्री।
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स्वैरी (रिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० स्वैरिणी] १. वह जो मनमाना आचरण करता हो। २. दुराचारी। बदचलन। ३. व्यभिचारी।
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स्वोतविरोध  : पुं० [सं०स्वतः+विरोध] आप ही अपना विरोध या खंडन करना।
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स्वोदय  : पुं० [सं०] किसी आकार्शाय पिंड का विशेष स्थान पर उदित होना।
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स्वोपार्जित  : वि० [सं०] स्वयं उपार्जन किया हुआ। अपना कमाया हुआ। जैसे–उनकी सारी संपत्ति स्वोपार्जित है।
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स्वोरपार्जन  : पुं० [सं० स्व+उपार्जन] [भू० कृ० स्वोपार्जित] स्वयं या अपने बाहु बल से अपने लिए कुछ अर्जन करना। स्वयं प्राप्त करना या कमाना।
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स्व्पन-गृह  : पुं० [सं०] सोने का कमरा। शयनागार। शयन–गृह।
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