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शब्द का अर्थ

अर्थ  : पुं० [सं०√अर्थ (याचन आदि)+अच्] १. अभिप्राय, उद्देश्य या लक्ष्य। २. वह अभिप्राय, भाव या वस्तु जिसका बोध पाठक या श्रोता को कोई शब्द, पद, या वाक्य पढ़ने या सुनने पर अथवा कोई भाव भंगी या संकेत देखने पर होता है। माने। (मीनिंग) ३. धन-संपत्ति। ४. जन्म-कुंडली में लग्न से दूसरा घर। ५. पाँचों इंद्रियों के ये पाँच विषय-गंध, रूप, रस, शब्द और स्पर्श। वि० सामाजिक क्षेत्र में, लोगों के स्वकीय अधिकारों और उपचारों से संबंध रखनेवाला, (आपराधिक, राजनीतिक आदि से भिन्न। (सिविल) जैसे—अर्थ-व्यवहार। (सिविल केस) अव्य० लिए। वास्ते। जैसे—यह संपत्ति देव-कार्य के अर्थ समर्पित है।
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अर्थ-कर  : वि० [सं० अर्थ√कृ (करना)+ट] [स्त्री० अर्थकरी] १. जिसका कुछ अर्थ हो। २. अर्थ या धन के विचार से उपयोगी या लाभदायक। जैसे—अर्थ-कर व्यवसाय या अर्थकरी विद्या आदि।
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अर्थ-काम  : वि० [सं० अर्थ√कम् (चाहना)+अण्] १. धन की कामना या इच्छा करनेवाला। २. किसी प्रकार के स्वकीय उपयोग या हित पर दृष्टि रखनेवाला।
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अर्थ-किल्बिषी (षिन्)  : वि० [सं० अर्थ-किल्बिष, ष० त० अर्थकिल्बिष+इनि] लेन-देन में सच्चा व्यवहार न करनेवाला। बेईमान।
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अर्थ-कृच्छ्  : पुं० [ष० त०] १. धन का अभाव या कमी। २. आय से व्यय अधिक करने पर होनी वाली धन की कमी।
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अर्थ-गत  : वि० [तृ० त०] अर्थ के क्षेत्र में आने या उससे संबंध रखनेवाला।
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अर्थ-गर्भित  : वि० [तृ० त०] (कथन, वाक्य या शब्द) जिसमें एक या कई अर्थ हों या हो सकते हों। (पिथी)।
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अर्थ-गृह  : पुं० [ष० त०] धन रखने का स्थान। कोष। खजाना।
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अर्थ-गौरव  : पुं० [ष० त०] पद या वाक्य में होनेवाली अर्थ की उत्कृष्टता और गंभीरता।
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अर्थ-चिंतक  : वि० [ष० त०] १. अर्थ (माने) का चिंतन करनेवाला। २. धन या लाभ की चिंता या विचार करनेवाला।
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अर्थ-चिंतन  : पुं० [ष० त०] १. अर्थ अथवा धन पैदा करने का उपाय सोचना। २. अर्थ या आशय के संबंध में होनेवाला चिंतन या विचार। ३. धन या लाभ के संबंध में होनेवाली चिंता या चिंतन।
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अर्थ-चिंता  : स्त्री०=अर्थचिंतन।
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अर्थ-जात  : वि० [अर्थ-जात, ष० त०+अच्] १. अर्थ या आशय से युक्त। २. जिसके पास बहुत धन हो। धनी।
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अर्थ-तत्त्व  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान के विचार से वह शब्द जिसमें कोई अर्थ निहित होता है अथवा जो किसी पदार्थ, भाव या विचार का वाचक होता है। (सेमेन्टीम) विशेष—भाषा में दो प्रकार के शब्द होते हैं। कुछ शब्द तो पदार्थों भावों आदि के सूचक होते हैं। और कुछ ऐसे शब्द होते हैं जो उक्त शब्दों को केवल जोड़ते हैं, परन्तु जिनका कुछ आशय नहीं होता है। पहले प्रकार के शब्दों को अर्थ तत्त्व और दूसरे प्रकार के शब्दों को संबंध तत्त्व कहा जाता है। जैसे-‘समाज का स्वरूप’ पद में समाज और स्वरूप शब्द तो अर्थ तत्त्व है क्योंकि ये कुछ विचारों का उदबोध कराते हैं। और का संबंध तत्त्व है क्योंकि यह अर्थ तत्त्वों द्वारा अभिव्यक्त विचारों के परस्पर संबंध का सूचक है।
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अर्थ-दंड  : पुं० [ष० त०] १. अधिकारी या शासन के द्वारा किसी अपराधी या दोषी को मिलने वाला वह दंड जिसके फलस्वरूप उसे कुछ अर्थ या धन चुकाना पड़ता है। जुरमाना। २. उक्त प्रकार से दंड के रूप में दी जानेवाली धन
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अर्थ-दर्शक  : पुं० [ष० त०] धन-संबंधी व्यवहारों को देखने या उन पर विचार करनेवाला अधिकारी।
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अर्थ-दूषण  : पुं० [ष० त०] १. अनुचित रूप से या व्यर्थ धन खर्च करना। अपव्यय। २. अनुचित रूप से किसी का धन या संपत्ति छीन लेना। ३. पदों० वाक्यों, शब्दों आदि में अर्थ संबंधी दोष निकालना।
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अर्थ-न्यायालय  : पुं० [ष० त०] वह न्यायालय जिसमें अर्थ या धन या संपत्ति संबंधी विवादों या व्यवहारों की सुनवाई होती हो दीवानी। कचहरी। (सिविल कोर्ट)
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अर्थ-पति  : पुं० [ष० त०] १. कुबेर। २. राजा। ३. धनवान। अमीर।
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अर्थ-पिशाच  : पुं० [ष० त०] वह जिसे धन संग्रह का बहुत अधिक लोभ हो। बहतु बड़ा कंजूस और धन-लोलुप।
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अर्थ-प्रकृति  : स्त्री० [ष० त०] नाटक में वह चमत्कारपूर्ण बात जो कथावस्तु को कार्य की ओर बढ़ाने में सहायक होती है। यह पाँच प्रकार की कही गई है-बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य।
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अर्थ-प्रक्रिया  : स्त्री० [ष० त०] किसी विवाद के संबंध में होनेवाली कारवाई या प्रक्रिया। (सिविल प्रोसिड्योर)
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अर्थ-प्रसर  : पुं० [ष० त०] अर्थ-न्यायालय का वह आदेश पत्र या प्रसार जिसमें किसी व्यक्ति के नाम कोई लेख या वस्तु न्यायालय के सामने उपस्थित करने की आज्ञा होती है। (सिविल प्रोसेस)
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अर्थ-बंध  : पुं० [ष० त०] १. छंदों, पदों, वाक्यों आदि की सार्थक रचना। २. आज-कल किसी काम या बात के लिए होनेवाला आर्थिक आयोजन या व्यवस्था, मुख्यतः राष्ट्रों व्यापारियों, संघों आदि में पारस्परिक हित के विचार से होनेवाला आर्थिक समझौता। (डील)
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अर्थ-बुद्धि  : वि० [ब० स०] जो अपने ही अर्थ (स्वार्थ या हित) पर ध्यान रखता हो। मतलबी। स्वार्थी।
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अर्थ-भूत  : पुं० [तृ० त०] वेतन लेकर काम करनेवाला नौकर।
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अर्थ-मंत्री (न्त्रिन्)  : पुं० [ष० त०] किसी राज्य, संघ या संस्था का (निर्वाचित या मनोनीत) वह मंत्री जो उसके अर्थ-सबंधी कार्यों की व्यवस्था और संचालन करता हो। (फाइनेंस सेक्रेटरी या मिनिस्टर)
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अर्थ-वक्रोक्ति  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘वक्रोक्ति’।
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अर्थ-वाद  : पुं० [ष० त०] १. न्याय में, तीन प्रकार के वाक्यों में से एक, जिसमें कोई काम करने का विधान किया जाता है या कुछ करने या कराने का उल्लेख होता है। इसके परकृति, पुराकल्प, निंदा और स्तुति ये चार भेद कहे गये है। २. नियमावली, विधान आदि के आरंभ की वे बातें जिनसे उस नियमावली या विधान का अर्थ (उद्देश्य या प्रयोजन) प्रकट तथा स्पष्ट होता है। (प्रिएम्बुल)
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अर्थ-विकार  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान और व्याकरण में, शब्दों के अर्थों में होनेवाला परिवर्तन या विकार। (सेमैन्टिक चेंज)
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अर्थ-विचार  : पुं० [ष० त०] शब्दार्थिकी।
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अर्थ-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] १. दे० ‘अर्थ-शास्त्र’। २. दे० ‘अर्थ-विधान’।
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अर्थ-विधान  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान और व्याकरण का वह अंग या शास्त्र जिसमें इस बात का विचार होता है कि शब्दों में अर्थ किस प्रकार लगते, हटते, बदलते और विकसित होते हैं। (सेमैन्टिक्स) यिं० दे० ‘शब्दार्थिकी’।
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अर्थ-विधि  : स्त्री० [ष० त०] राज्य की ओर से जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया हुआ कानून या विधि। (सिविल-लाँ)
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अर्थ-व्यवहार  : पुं० [ष० त०] दीवानी मुकदमा।
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अर्थ-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि समाज बनाकर रहनेवाले लोगों की आर्थिक क्रियाएँ और व्यवहार किस प्रकार चलते हैं और वे उपयोगी पदार्थों का उत्पादन, उपभोग, वितरण और विनिमय किस प्रकार करते हैं, अथवा उन्हें किस प्रकार व्यवस्थित रूप से ये सब काम करने चाहिए। (एकनाँमिक्स)
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अर्थ-श्लेष  : पुं० [स० त०] साहित्य में, श्लेष अलंकार के दो भेदों में से एक जिसमें किसी वाक्य का एक ही अर्थ एक से अधिक पक्षों में घटित होता है और उन पक्षों के वाचक मुख्य शब्दों के पर्याय रख देने पर भी श्लेष में कोई बाधा नहीं होती। जैसे—सुखदा, सिकदा, अर्थदा, जसदा, रस-दातारि। रामचंद्र की मुद्रिका, किधौं परम गुरूनारि, में यदि मुद्रिका और गुरू-नारि शब्दों के प्रर्याय रख दिये जाएँ तो भी श्लेष ज्यों का त्यों बना रहेगा।
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अर्थ-सचिव  : पुं० [ष० त०] दे० ‘अर्थमंत्री’।
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अर्थ-सिद्धि  : स्त्री० [ष० त०] अभीष्ट अथवा उद्देश्य सिद्धि होना। कार्य या प्रयत्न ठीक और पूरा उतरना।
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अर्थ-हीन  : वि० [तृ० त०] १. (शब्द या पद) जिसमें कोई अर्थ न हो अथवा जिसका कोई अर्थ न हो। २. सार या सत्त्व से रहित (पदार्थ)। ३. धनहीन। निर्धन। (व्यक्ति)।
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अर्थक  : वि० [सं० आर्थिक] १. अर्थ या धन से संबंध रखनेवाला। आर्थिक। २. अर्थ या मतलब से संबंध रखनेवाला। ३. अर्थ या धन उपार्जित करने- करानेवाला।
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अर्थघ्न  : वि० [सं० अर्थ√हन् (हिंसा)+ट] १. अर्थ का नाश करनेवाला। २. धन का अपव्यय करनेवाला। फजूल-खरच।
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अर्थचर  : पुं० [सं० अर्थ√चर् (गति)+ट] राज्य या शासन का सेवक। सरकारी नौकर।
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अर्थतः  : अव्य० [सं० अर्थ+तस्] आशय, भाव आदि के विचार से। २. वास्तव में। सचमुच।
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अर्थद  : वि० [सं० अर्थ√दा (देना)+क] १. अर्थ या धन देनेवाला। २. अपयोगी या लाभकारी। पुं० १. कुबेर। २. गुरु को धन देकर उसके बदले में पढ़नेवाला शिष्य।
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अर्थन  : पुं० [सं० अर्थ (माँगना)+वल्युट्-अन] माँगने या याचने की क्रिया या भाव।
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अर्थना  : स० [सं०√अर्थ+णिच्+युच्-अन-टाप्] याचना करना। माँगना।
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अर्थनीय  : वि० [सं०√अर्थ (याचना)+अनीयर] (पदार्थ) जो माँगे जाने के योग्य हो या माँगा जा सके।
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अर्थवत्ता  : स्त्री० [सं० अर्थ+मतुप्, वत्व, अर्थवत्+तल्-टाप्] १. अर्थवान या धनसंपन्न होने की अवस्था या भाव। संपन्नता। २. पदों, वाक्यों, शब्दों आदि की वह अवस्था जिसमें वे विशिष्ट अर्थ या आशय से युक्त होते हैं।
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अर्थवान् (वत्)  : वि० [सं० अर्थ+मतुप् वत्व] [भाव० अर्थवत्ता] १. (वाक्य या शब्द) जो अर्थ (माने) से युक्त हो। विशिष्ट अर्थ या मतलब वाला। २. धनवान। अमीर।
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अर्थशास्त्री (स्त्रिन्)  : पुं० [सं० अर्थसास्त्र+इनि] वह जो अर्थशास्त्र का ज्ञाता हो। तथा उसके नियमों और सिद्धांतों का अध्ययन, प्रतिपादन या विवेचन करता हो। (इकनॉमिस्ट)
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अर्थागम  : पुं० [अर्थ-आगम, ष० त०] १. आय, धन, संपत्ति आदि की प्राप्ति होना। २. किसी विभाग या व्यापार में कर, विक्री आदि से होनेवाली आय। (प्रोसीड्स) ३. किसी शब्द में कोई और या नया अर्थ, आशय या भाव आकर लगना।
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अर्थांतर  : पुं० [सं० अर्थ-अन्तर, मयू० स०] प्रस्तुत सिद्ध या स्पष्ट अर्थ के अतिरिक्त कोई और या दूसरा अर्थ।
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अर्थातर-न्यास  : पुं० [ब० स०] १. साहित्य में एक अलंकार जिसमें वैधर्म्य या साधर्म्य दिखलाते हुए सामान्य कथन की विशेष कथन के द्वारा और विशेष कथन की सामान्य कथन के द्वारा अभिपुष्टि की जाती है। २. न्याय में, एक प्रकार का निग्रह स्थान।
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अर्थातिक्रम  : पुं० [अर्थ-अतिक्रम, ष० त०] हाथ में आई या मिली अच्छी चीज छोड़ देना।
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अर्थातिशय  : पुं० [अर्थ-अतिक्रम, ष० त०] दे० ‘अर्थविधान’।
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अर्थात्  : अव्य० [सं० अर्थ+आत्] १. (इस पद या शब्द का) अर्थ या माने होता है कि। अर्थ यह है कि। जैसे—सं० अश्व, फा० अस्प, अर्थात् घोड़ा। २. (जो कहा गया है उसका) अभिप्राय या आशय है कि। मतलब यह कि। जैसे-अर्थात् अब आप उनसे नहीं मिलेंगे।
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अर्थाधिकरण  : पुं० [अर्थ-अधिकरण, ष० त०] दे० ‘अर्थ-न्यायालय’।
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अर्थाधिकारी (रिन्)  : पुं० [अर्थ-अधिकारी, ष० त०] १. वह जिसके अधिकार में कोष (खजाना) हो। कोष की देख-रेख करनेवाला। खजानची। २. आर्थिक विषयों का आधिकारिक ज्ञाता। ३. अर्थ-मंत्री।
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अर्थानर्थापद  : पुं० [अर्थ-अनर्थ, द्व० स०, अर्थानर्थ-आपद, ष० त०] कौटिल्य के अनुसार राज्य की वह स्थिति जिसमें एक ओर तो लाभ हो सकता हो और दूसरी ओर राज्य के नष्ट हो जाने या दूसरे के हाथ में चले जाने की संभावना हो।
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अर्थाना  : स० [सं० अर्थ] १. पद या वाक्य का अर्थ लगाना। २. ब्योरे की सब बातें अच्छी तरह समझाकर कहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अर्थानुबंध  : पुं० [अर्थ-अनुबंध, ष० त०] आर्थिक दृष्टि से कुछ लोगों समुदायों या राष्ट्रों में होनेवाला समझौता। अर्थ-बंध।
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अर्थानुवाद  : पुं० [अर्थ-अनुवाद, ष० त०] न्याय में, बार-बार ऐसी बात कहना जिसका विधान पहले से विधि ने ही कर रखा हो।
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अर्थानुसंधान  : पुं० [अर्थ-अनुसंधान, ष० त०] शब्द या पदों के अर्थों को ढूँढ़ने या समझने का प्रयत्न करना। अनुवचन।
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अर्थान्वित  : वि० [अर्थ-अन्वित, तृ० त०] १. अर्थ या आशय से युक्त। २. महत्त्वपूर्ण। ३.धनवान्। सम्पन्न।
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अर्थापत्ति  : पुं० [अर्थ-आपत्ति, ष० त०] १. मीमांसा में ऐसा प्रमाण जिससे एक बात कहने से दूसरी बात आप से आप सिद्ध हो जाए। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी बात या तथ्य के आधार पर एक दूसरी ही बात या तथ्य स्थिर हो जाता है। जैसे-सारा मकान जल गया से दूसरा अर्थ स्थिर होगा उसमें का सब सामान जल गया। ३. लोक-व्यवहार में, किसी घटना या बात से निकलने वाला ऐसा निष्कर्ष जो बहुत कुछ ठीक और संभावित जान पड़ता हो। यह मान लिया जाना कि इसका यही अर्थ या आशय हो सकता है। (प्रिजम्पशन, उक्त सभी अर्थों के लिए)।
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अर्थापत्ति-सम  : पुं० [तृ० त०] न्याय में, वादी के उत्तर में यह कहना कि यदि तुम मेरा प्रतिपादित अमुक सिद्धांत मानोगे तो तुम्हें दोष लगेगा। (यह जाति या दोषों के २४ भेदों में से एक है)
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अर्थापदेश  : पुं० [अर्थ-अपदेश, ष० त०] शब्दों के मूल अर्थ छूटने और उनमें नये अर्थ लगने की क्रिया या भाव।
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अर्थापन  : पुं० [सं०√अर्थ+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] पदों या शब्दों के अर्थ लगाने बतलाने अथवा उनकी व्याख्या करने की क्रिया या भाव। (इन्टरप्रेटेशन)
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अर्थार्थी (र्थिन्)  : पुं० [अर्थ-अर्थी, ष० त०] १. वह जो किसी प्रकार के अर्थ या उद्देश्य सिद्धि की कामना करता हो। २. वह जो धन लेना चाहता हो या माँगता हो। ३. चार प्रकार के भक्तों में से एक जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए भगवान की भक्ति करता है। (ऐसा भक्त निकृष्ट माना गया है)।
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अर्थालंकार  : पुं० [अर्थ-अलंकार, स० त०] साहित्य में, (शब्दालंकार से भिन्न) ऐसा अलंकार जिसमें अर्थसंबंधी अनूठापन या चमत्कार हो। विशेष
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अर्थिक  : वि० [सं० अर्थिन्+कन्] १. जिसके मन में कोई अर्थ (कामना या चाह) हो। २. धन की कामना करने वाला। ३. दे० ‘अभ्यर्थी’।
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अर्थित  : भू० कृ० [सं० √अर्थ्(याचना)+क्त] १. चाहा या माँगा हुआ। २. प्रार्थित। ३. जिसका अर्थ माने किया या लगाया गया हो।
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अर्थिता  : स्त्री० [सं० अर्थित+टाप्] किसी से कुछ माँगने की अवस्था या भाव।
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अर्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० अर्थ+इनि] १. चाहने या माँगनेवाला। २. जो किसी इष्ट की प्राप्ति में संलग्न हो अथवा उद्देश्य या प्रायोजन से युक्त हो। (यौ० के अंत में)। जैसे—अधिकारार्थी, काय्यार्थी आदि। ३. अर्थ-न्यायालय में वाद उपस्थित करनेवाला। वादी। मुद्दई। ४. धनी। पुं० नौकर। सेवक। स्त्री० दे० ‘अरथी’ (रथी)।
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अर्थोपचार  : पुं० [अर्थ-उपचार, ष० त०] किसी प्रकार की हानि या क्षति के बदले में अर्थ-न्यायालय द्वारा होनेवाला उपचार या कराई जानेवाली क्षति-पूर्ति। (सिविल रमेडी)
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अर्थ्य  : वि० [सं०√अर्थ्+यत्] १. जिसकी चाह या कामना की गई हो अथवा की जा सके। २. उचित या उपयुक्त। ३. बुद्धिमान। ४. धनी। पुं० शिलाजीत।
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अर्थ्यक  : पुं० [सं० अर्थ्य+कन्] दे० ‘प्राप्यक’।
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