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क  : हिंदी वर्णमाला का पहला व्यंजन, जो भाषा-विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि से कंठ्य, स्पर्शी, अल्पप्राण तथा अघोष माना गया है। तद्वित उपसर्ग के रूप में यह (क) कुछ संस्कृत क्रियाओं के अंत में लगकर उनके कर्ता कारक का सूचक होता है, जैसे—प्रबंध से प्रबंधक, व्यवस्थापन से व्यवस्थापक आदि। (ख) कुछ संस्कृत संज्ञाओं के अंत में लगकर यह उनके छोटे या बुरे रूप का वाचक होता है, जैसे—कूप से कूपक (छोटा कुआँ) अश्व से अश्वक (बुरा घोड़ा)। (ग) कहीं-कहीं यह ‘से युक्त’ या ‘वाला’ का भी बोधक होता है, जैसे—रूपक (रूप से युक्त या रूपवाला)। विशेष—कुछ हिंदी शब्दों में प्रत्यय के रूप में लगकर यह (क) किसी भाव,स्थान,स्थिति आदि का सूचक होता है जैसे—बैठना से बैठक (बैठने की क्रिया, भाव या स्थान)। और (ख) किसी वस्तु के हलके रूप का भी सूचक होता है, जैसे—ठंढ से ठंढक। पुं० [सं० कच् (दीप्ति) अथवा कै (शब्द)+ड] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. दक्ष प्रजापति। ४. सूर्य। ५. अग्नि। ६. कामदेव। ७. वायु। ८. प्रकाश। ९. यम। १॰. आत्मा। ११. मन। १२. शरीर। १३. शब्द। १४. जल। १५. राजा। १६. धन-संपत्ति। १७. मोर। १८. मेघ। १९. समय।
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कं  : पुं० [सं० कम् (चाहना)+विच्] १. जल। पानी। २. सुख। ३. सिर। ४. आग। ५. सोना। स्वर्ण। ६. कामदेव।
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कइ  : अव्य०=क्या। (राज०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कइक  : वि० [हिं० कई+एक] अनेक। कई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कइत  : पुं० =कैंथ (कसैला फल)। क्रि० वि०-कित (किस ओर। कहाँ।) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कइन, कइनी  : स्त्री० [सं० कंचिका] बांस की टहनी या शाखा।
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कइर  : पुं० करील (कँटीली झाड़ी)।
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कइसन  : वि०=कैसा। क्रि० वि०=कैसे।
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कई  : वि० [सं० कति, प्रा० कइ] एक या दो से अधिक, किन्तु अनिश्चित छोटी संख्या का सूचक विशेषण। कुछ। स० अवधी में करना क्रिया के भूतकालिक रूप (किया) का स्त्री। उदाहरण—बहुत हौं ढीठयौ कई।—तुलसी। अव्य० [सं० कदापि] कभी। किसी समय। उदाहरण—कीध न इबड़ी ढील कई।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कउ  : विभ०=को। (पुं० हिं०)। वि०=कोई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कउतक (तुक)  : पुं० =कौतुक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कउँध  : स्त्री०=कौंध (बिजली की चमक)।
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कउँधना  : अ०=कौंधना।
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कँउधा  : पुं० [हिं० कौंधना] १. वह जो कौंधे या चमके। बिजली। २. कौंध। (बिजली की चमक)।
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कउरा  : वि०=कडुआ। पुं०=कौरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कउवा  : पं०=कौआ।
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कंक  : पुं० [सं० कक् (गति)+अच्] १. सफेद रंग की चील। २. बगला। ३. क्षत्रिय। ४. छद्मवेशी ब्राह्मण। बना हुआ ब्राह्मण। ५. युधिष्ठिर का उस समय का नाम, जब वे अज्ञातवास के समय ब्राह्मण बनकर राजा विराट् के यहाँ रहते थे। ६. एक प्राचीन देश। ७. एक प्रकार के केतु या पुच्छल तारे, जिनकी संख्या ३ २ कही गई है। ८. यमराज। ९. मृत्यु। पुं० [सं० कंकट] १. कवच। उदाहरण—जुमझ्झि कंक मज्जि कोन सार अंग षटयं।—चंदबरदाई। २. युद्ध। समर। उदाहरण—करि कंक संक आसुर बिडर, कहर बत्तता दिन कलिय।—चंदबरदाई।
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कंक-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. कंक नामक पक्षी या सफेद चील का पर, जो प्राचीन काल में बाणों में लगाया जाता था। २. ऐसा तीर या बाण, जिसमें उक्त पर लगा हो।
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कंक-पत्री  : पुं० [सं० कंकपत्र+ङीष्] बाण। तीर।
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कंक-मुख  : वि० [ब० स०] जिसका मुँह बगले की तरह हो। पुं० एक प्रकार की चिमटी।
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ककई  : स्त्री०=कंघी। स्त्री०=केकयी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंकट  : पुं० [सं० कक्+अटन्] १. कवच। २. अंकुश। ३. सीमा। हद।
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कंकड़  : पुं० [सं० कर्कर, प्रा० कक्कर, गु० मरा० कंकर, सि० कँकिरो, पं० कक्कर, ने० बँ, काँकर] [स्त्री० अल्पा० कंकड़ी, वि० कँकड़ीला, कँकरीला] १. पत्थर और मिट्टी के योग से बने हुए एक प्रकार के रोड़े जो सड़क बनाने और चूना, बरी आदि तैयार करने के काम आते हैं। २. पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े, जो छतें, सड़कें आदि बनाने के काम में आते हैं। ३. किसी कड़ी चीज का कोई बहुत छोटा टुकड़ा। ४. नीलम, पन्ने, हीरे आदि रत्नों का वह अनगढ़ टुकड़ा, जो अभी घिस कर सुडौल न किया गया हो। ५. वह सूखा या भुना हुआ तमाकू का पत्ता, जो चिलम पर सुलगा कर धूम-पान के काम में आता है। पद—कंकड़-पत्थर=कूड़ा-करकट।
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ककड़ासींगी  : स्त्री०=काकड़ासींगी।
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ककड़ी  : स्त्री० [सं० कर्कटी, पा० कक्कटी] १. जमीन पर फैलनेवाली एक प्रसिद्ध बेल या लता, जिसमें पतले, लंबे फल लगते हैं। २. बेल के फल। मुहावरा—(किसी को) ककड़ी=खीरा समझना=बहुत तुच्छ या हेय समझना।
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कंकड़ीला  : वि० [हिं० कंकड़] १. (मार्ग या रास्ता) जिसमें कंकड़ पड़े या बिछे हुए हों। २. कंकड़ों से भरा हुआ। ३. कंकड़ों से बना हुआ।
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कंकण  : पुं० [सं० कम्कण् (शब्द करना)+अच्] १. चाँदी सोने आदि का बना हुआ एक गोला कार आभूषण, जिसे स्त्रियाँ कलाई पर पहनती हैं। कंगन। २. लोहे का कड़ा, जो हाथ या पैर में पहना जाता है। ३. विवाह के समय वर-वधू के हाथों में रक्षार्थ बाँधा जानेवाला एक धागा, जिसमें लोहे के छल्ले के साथ सरसों आदि की पोटली, पीले कपड़े में बँधी रहती हैं। ४. संगीत में एक प्रकार का षाड़व राग। ५. संगीत में एक प्रकार का राग।
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कंकणास्त्र  : पुं० [सं० कंकण-अस्त्र, उपमि० स०] एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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कंकणी  : स्त्री० [सं० कंकअण् (शब्द)+अच्-ङीष्] चील नामक पक्षी। (राज०) स्त्री० किंकिणी।
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कंकत  : पुं० [सं० कक्+अतच्] १. बाल झाड़ने का कंघा। २. एक प्रकार का विषाक्त जंतु।
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ककता  : पुं० [स्त्री० ककनी]=कंगन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंकत्रोट  : पुं० [सं० कंकत्रुट् (टूटना)+णिच्+अच्] एक प्रकार की मछली। कौआ मछली।
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कंकन  : पुं० [सं० कं०+कं] आकाश। पुं०=कंकण।
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ककनूँ  : पुं० दे० ‘कुकनुस’।
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ककमारी  : स्त्री० =काकमारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ककराली  : स्त्री० [सं० कक्ष, पा० कक्ख, हिं० काँख+वाली(प्रत्य)] काँख में होनेवाला फोड़ा। कँखौरी।
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ककरी  : स्त्री०=ककड़ी।
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कंकरीट  : स्त्री० [अं० कांक्रीट] १. कंकड़, बालू, सीमेंट आदि से बना हुआ मसाला, जो इमारत के काम आता है। २. छोटी कंकडियाँ।
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कंकरीला  : वि०=कँकड़ीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ककरेजा  : पुं० [स्त्री० ककरेजी]=काकरेजा।
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कँकरेत  : वि०=कँकड़ीला। स्त्री० =कंकरीट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ककरौल  : पुं० [सं० कर्कोटक, प्रा० कक्कोडक] ककोड़ा। खेखसा (तरकारी)।
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ककसा  : स्त्री० [सं० कर्कशा, प्रा० कक्कसा] एक प्रकार की मछली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ककहरा  : पुं० [हिं० क अक्षर से] १. ‘क’ से ‘ह’ तक के अक्षरों या वर्णों का समूह। २. वह कविता जिसके चरण या पद क्रमशः ‘क’ से ‘ह’ तक के सभी अक्षरों या वर्णों से आरम्भ होते चलतें हों। ३. किसी विषय या विद्या का आरम्भिक ज्ञान या रूप।
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ककहा  : पुं० [स्त्री० ककही]=कंघा।
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कका  : पुं० =काका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ककाटिका  : स्त्री० [सं० कृ√काटिका पृषो० सिद्धि] सिर का पिछला भाग।
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कंकाल  : पुं० [सं० कम्कल् (प्रेरित करना)+णिच्+अच्] सारे शरीर की हड्डियों का ढाँचा। ठठरी।
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कंकालमाली (लिन्)  : वि० [सं० कंकाल-माला, ष० त०+इनि] हड्डियों की माला या मुंडमाल पहनने वाला। पुं० १. शिव। २. भैरव।
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कंकालास्त्र  : पुं० [कंकाल-अस्त्र, ष० त०] प्राचीन काल का एक अस्त्र जो हड्डी से बनता था।
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कंकालिनी  : स्त्री० [सं० कंकाल+इनि-ङीष्] १. दुर्गा। २. दुष्ट और झगड़ालू स्त्री। कर्कशा।
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कंकाली  : पुं० [सं० कंकाल+इनि] एक प्रकार के भिक्षुक। स्त्री० [कंकाल+ङीष्]=कंकालिनी।
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कंकु  : पुं० [सं० कंक्+उन्] कंगनी नाम का अन्न।
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ककुद्  : पुं० [सं० क√कु(शब्द)+क्विप्, तुक्] १. चोटी। शिखर। २. बैल के कंधों पर का डिल्ला। २. राजचिन्ह। वि० १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. प्रधान। मुख्य।
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ककुद्यान् (मत्)  : पुं० [सं० ककुद्+मतुप्] १. बैल। २. ऋषभ नामक ओषधि ३. एक प्राचीन पर्वत।
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ककुना  : पुं० [स्त्री० ककुनी] १. =कंगन। २. =कँगनी।
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ककुभ  : पुं० [सं० क√स्कुभ् (विस्तार करना)+क, पृषो० सिद्धि] १. शिखर। २. दिशा। ३. अर्जुन वृक्ष। ४. वीणा के ऊपर का मुड़ा हुआ अंश या भाग। ५. संगीत में एक प्रकार का राग। ६. तीन चरणों का एक छंद जिसके पहले चरण में ८, दूसरे में १२ और तीसरे में १८ वर्ण होते हैं।
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ककुभ बिलावल  : पुं० [हिं० ककुभ+बिलावल] षाड़वसंपूर्ण जाति का एक राग जो दिन के पहले पहर में गाया जाता है।
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ककुभा  : स्त्री० [सं० ककुभ+टाप्] १. दिशा। २. दक्ष की एक कन्या जो धर्म को ब्याही थी। ३. एक रागिनी जो मालकोश राग की पत्नी कही गई है।
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कंकुष्ठ  : पुं० [सं० कंकुस्था (ठहरना)+क] एक प्रकार की पहाड़ी मिट्टी।
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ककेड़ा  : पुं० [सं० कर्कटक, प्रा० कक्कटक] १. दे० ‘ककोड़ा’। २. दे० ‘चिचड़ा’।
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कँकेर  : पुं० [देश] एक प्रकार का पान, जिसमें कुछ कडुआपन होता है।
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ककेरुक  : पुं० [सं०√कक् (मगनादि)+क्विप्, कक्-एर, कर्म० स० ककेर+उक] आमाशय या पेट में होनेवाला एक प्रकार की कीड़ा।
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कंकेलि  : पुं० [कम्-केलि, ब० स०] अशोक का पेड़।
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ककैया  : स्त्री० [हिं० ककही] एक प्रकार की पुरानी ईंट, जिसका आकार कंघी जैसा होता था।
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ककोड़ा  : पुं० [सं० कर्कोटक, पा० कक्कोडक] एक प्रकार की लता और उसके फल। ककरौल। खेखसा।
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ककोरना  : स० [हिं० कोड़ना] १. कुरेदना। खुरचना २. घुमाना। मोड़ना। ३. सिकोड़ना। अ० १. कुरेदा या खुरचा जाना। २. विक्षुब्ध होना। कचोटना। उदाहरण—तुम बिन देखैं मेरो हिय ककोरत।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ककोरा  : पुं० =ककोड़ा (लता)।
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कंकोल  : पुं० [सं०√कंक्+ओलच्] १. शीतल चीनी की जाति का एक पेड़। २. उक्त वृक्ष का फल।
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कंकोली  : स्त्री० [सं० कंकोल+ङीष्]=कक्कोल।
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कक्क  : पुं० =काका (चाचा)।
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कक्कड़  : पुं० [सं० कर्कर] सुखाई हुई सुरती या भुरभुरा चूर, चिलम पर रखकर जिसका धुआँ पिया जाता है।
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कक्का  : पुं० [सं० केकभ] काश्मीर राज्य का एक प्रदेश, जिसके निवासी कक्कर कहलाते हैं। स्त्री० [सं०√कक्क (हास)+अच्+टाप्] दुंदुभी। नगाड़ा। पुं० [स्त्री० कक्की] =काका (चाचा)। पुं० [हिं० क वर्ण] सिख जिनके यहाँ कंघा, कर्द, केस, कड़ा और कच्छ इन पंच ककारों का प्रचलन है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कक्की  : स्त्री० [देश०] कठ सेमल नाम का वृक्ष।
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कक्कोल  : पुं० [सं०√कक् (गति)+क्विप्√कुल (जमना)+ण, कक्-कोल, कर्म० स०] कनखुजूरा।
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कक्खट  : वि० [सं०√कक्ख (हास)+अटन्] १. ठोस। कठोर।
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कक्खटी  : स्त्री० [सं०√कक्ख्+अटन्, गौरा० ङीष्] खड़िया।
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कक्ष  : पुं० [सं०√कष्( हिंसा)+स] १. किसी वस्तु के अलग-बगल का भाग। पार्श्व भाग। २. किसी इमारत या भवन का कोई भीतरी कमरा,खंड या भाग। ३. अंतःपुर। ४. काँख। बगल। ५. बगल में होने वाला फोड़ा। कखौरी। ६. कांस। ७. जंगल का भीतरी भाग। ८. सूखी घास। ९. दीवारों के बीच का कोना। पाखा। १॰. नाव का एक वह विशिष्ट भाग जो कमरे के रूप में होता है। ११. पाप। दोष। १२. चादर, दुपट्टे आदि का आँचल। १३. कमरबन्द। १४. तराजू का पलड़ा। १५. कछार। १६. काछ। लाँग। १७. दे० ‘कक्षा’।
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कक्षा  : स्त्री० [सं० कक्ष+टाप्] १. परिधि। घेरा। २. आकाश में ग्रहों के भ्रमण करने का गोलाकार मार्ग। (आँरबिट) ३. विद्यार्थियों का वह वर्ग या श्रेणी जिसमें उन्हें एक साथ तथा एक ही प्रकार की शिक्षा दी जाती है। दर्जा। (क्लास) ४. घर की दीवार। ५. कछौटा। ६. काँख। बगल। ७. काँख में होनेवाला फोड़ा। कखौरी। ८. तुलना। बराबरी। ९. दहलीज। १॰. हाथी बाँधने का रस्सा। ११. एक पुरानी तौल जो लगभग एक रत्ती के होती थी।
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कक्षीवान् (वत्)  : पुं० [सं० कक्ष्या+मतुप्, नि० सिद्धि] एक वैदिक ऋषि का नाम।
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कक्षोत्था  : स्त्री० [सं० कक्ष-उद्√स्था+क+टाप्] नागरमोथा।
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कक्ष्या  : स्त्री० [सं० कक्ष+यत्+टाप्] १. आँगन। २. हाथी बाँधने का रस्सा। ३. हाथी का हौदा। ४. चमड़े या ताँत की डोरी या तस्मा। ५. नाड़ी। ६. प्रासाद। महल। ७. ड्योढ़ी। दहलीज। ८. घुँघची। ९. बराबरी। समानता। १॰. उद्योग। प्रयत्न।
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कंख  : पुं० [सं०√कम्खल् (संचय)+ड] १. फल भोग। २. भोग।
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कंखना  : अ० [सं० कांक्षा] किसी बात की इच्छा या कामना होना। अ०=काँखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कँखवारी  : स्त्री० [हिं० काँख]=कँखौरी।
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कखवाली  : स्त्री०=कँखौरी (फोड़ा)।
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कँखौरी  : स्त्री० [हिं० काँख] १. काँख। २. काँख या बगल में होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा।
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कखौरी  : स्त्री० [हिं० काँख] १. काँख या बगल में होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा। २. काँख। बगल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंग  : पुं० [सं० कंकट] जिरह बख्तर।
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कगदही  : स्त्री० [हिं० कागज (द)+ही (प्रत्यय)] छोटा बस्ता जिसमें कागज-पत्र आदि बाँध कर रखे जाते हैं।
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कंगन  : पुं० [सं० प्रा०, गु० मरा० कंकण, सिं० कंगणु, पं० कंगण० बँ० उ० काँकन, कांगन, का० काकम, कंगुन] १. चाँदी, सोने आदि का बना हुआ गोलाकार आभूषण, जो स्त्रियाँ कलाई पर पहनती हैं। २. सिखों के पहनने का लोहे का कड़ा या चक्र।
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कँगना  : पुं० [सं० कंगु] एक प्रकार की पहाड़ी घास। पुं०=कंगन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँगनी  : स्त्री० [हिं० कँगना] १. हाथ में पहनने का छोटा कंगन। २. दीवारों के ऊपरी भाग में (छत के पास) शोभा के लिए उभार कर निकाली हुई पट्टी या लकीर। (कार्निस) ३. किसी चीज में बनाई हुई, उक्त आकार की कोई आकृति या रचना। नुकीले, कँगूरों या दाँतोंवाला गोल चक्कर। जैसे—नैचे की कँगनी, परात की कँगनी आदि। स्त्री० [सं० कंगु] एक प्रकार का कंदन्न, जिसके दाने गोल और बहुत छोटे होते हैं।
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कगर  : पुं० [सं० क=जल और अग्र] [स्त्री० अल्पा० कगरी] १. नदी, तालाब आदि का ऊँचा किनारा। २. खेत की ऊँची मेंड़। ३. किसी वस्तु का कुछ ऊँचा उठा हुआ किनारा या सिरा। ४. सीमा। हद। जैसे—मैं तो आत्मवध की कगर पर पहुँच चुकी हूँ।—वृन्दावनलाल। ५. किसी ओर कुछ हटकर या अलग स्थान। ६. टीला। ढूह। क्रि० वि० १. किनारे या सिरे पर। २. निकट। पास, समीप। ३. किसी ओर अलग और कुछ दूर हटकर।
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कगरे  : क्रि० वि० [हिं० कगर] १. किनारे पर या किनारे के पास। २. किनारे-किनारे। ३. अलग होकर या पीछे हटकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंगल  : पुं० १. =कंगाल। २. =कंग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंगला  : वि० पुं० =कंगाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँगही  : स्त्री० =कंघी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँगहेरा  : पुं० =कँधेरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कगार  : पुं० [हि० कगर] १. कोई ऊँचा और ढालुआँ भू-भाग। टीला। २. नदी का ऊँचा ढालुआँ किनारा।
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कँगारू  : पुं० [आस्ट्रे] आस्ट्रेलिया में होनेवाला एक प्रकार का जंतु जो अपने बच्चों को अपने पेट की थैली में रख लेता है।
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कंगाल  : पुं० [सं० कंकाल] १. वह व्यक्ति, जिसके पास कुछ भी धन न हो या न रह गया हो। अत्यंत निर्धन। बहुत गरीब। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो कुछ दे या बतला न सकता हो।
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कंगाली  : स्त्री० [हिं० कंगाल] कंगाल या निर्धन होने की अवस्था या भाव।
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कगिरि  : पुं० [देश] एक वृक्ष जिसमें से निकलने या रसनेवाले तरल पदार्थ से रबर बनता है। (दे० ‘रबर’)।
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कंगु  : पुं० [सं० क√अंग् (गति)+णिच्+कु] कँगनी नाम का कदन्न।
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कँगुनी  : स्त्री० =कँगनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँगुरिया  : स्त्री० =कानी उँगली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँगुरी  : स्त्री० =कानी उँगली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंगूर  : पुं० =कँगूरा।
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कँगूरा  : पुं० [फा० कुंगरः] १. चोटी। शिखर। २. पुरानी इमारत की चहारदीवारी में बने हुए वे छोटे-छोटे वुर्ज, जिसमें खड़े होकर सिपाही आक्रमणकारियों से लड़ते थे। ३. ऐसी छपाई, बुनाई या नक्काशी जिसमें उक्त प्रकार की आकृति बनी हो।
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कँगूरेदार  : वि० [फा० कुँगरादार] जिसमें कँगूरे या शिखर बने हों।
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कग्ग  : पुं० [?] गाड़ी। उदाहरण—सकट व्यूह सजि सुभर, कग्ग चामुंड अग्ग करि।—चंदवरदाई। पुं० =काग (कौआ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कग्गद  : पुं० =कागज (कागज)।
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कग्गर  : पुं० १. =कागर। २. =कगार।
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कंघा  : पुं० [हिं० कंघी से] बड़ी कंघी।
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कंघी  : स्त्री० [सं० कंकती, प्रा० कंकई] १. सींग आदि का बना हुआ लंबे-दाँतों वाला एक उपकरण, जिससे सिर के बाल झाड़े तथा सँवारे जाते हैं। मुहावरा—कंघी-चोटी करनास्त्रियों का, कंघी से बाल झाड़कर उनकी चोटी आदि गूँथना। (बनाव-सिंगार करने का सूचक) २. उक्त आकार का जुलाहों का एक प्रसिद्ध औजार, जिसके रंध्रों में से ताने के सूत आर-पार निकाले हुए होते हैं और जिसके कारण वे आपस में उलझने नहीं पाते। ३. एक प्रकार का जंगली पौधा, जिसकी पत्तियाँ दवा के काम आती हैं।
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कघुती  : स्त्री० [हिं० कागद (कागज)] एक प्रकार की झाड़ी जिसकी पत्तियों और डंठलों से कागज बनाया जाता था। अरैली।
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कँघेरा  : पुं० [हिं० कंघा+एरा (प्रत्यय)] वह व्यक्ति, जो कंघी बनाता हो। कंघी बनानेवाला कारीगर।
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कच  : पुं० [सं०√कच् (शोभित होना)+अच्] १. बाल, विशेषतः सिर के बाल। केश। २. झुंड। समूह। ३. बादल। मेघ। ४. सूखा घाव या फोड़ा। ५. बृहस्पति का पुत्र जिसके प्रति देवयानी के प्रेम की कथा प्रसिद्ध है। ६. सुंगध-बाला। पुं० [अनु०] १. धँसने या चुभने का शब्द। जैसे—कच् से चाकू या सूई चुभाना। २. कुश्ती का एक दाँव या पेंच। मुहावरा—कच बाँधना=किसी की बगल से हाथ ले जाकर उसके कंधे पर चढ़ाना और उसकी गरदन दबाना। वि० १. हिं० ‘कच्चा’ का व्यवहार समास में होता है। संक्षिप्त रूप जिसका कच-दिला, कच-लोहा आदि। २. हिं० ‘काँच’ का संक्षिप्त रूप जिसका प्रयोग उक्त प्रकार से समस्त पदों में होता है। जैसे—कच-लोन।
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कचक  : स्त्री० [हिं० ‘कच’] १. अंग या शरीर में लगनेवाली ऐसी चोट जिससे चमड़े या मांस को कुछ क्षति पहुँचे। २. हड्डी आदि का अपने स्थान से जरा-सा हट-बढ़ जाना।
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कचकच  : स्त्री० [अनु०] व्यर्थ का झगड़ा या बकवाद। जैसे—हमें हर समय की कचकच अच्छी नहीं लगती।
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कचकचाना  : अ० [अनु० कचकच] १. कचकच शब्द करना। २. धँसाने या चुभाने का शब्द करना। अ० =किचकिचाना।
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कचकड़  : पुं० [हि० कच्छ=कछुवा+सं० कांड=हड्डी] १. कछुए का ऊपरी कड़ा और मोटा आवरण। खोपड़ी। २. ह्रेल आदि बड़ी-बड़ी मछलियों की हड्डी जिससे खिलौने आदि बनते हैं।
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कचकना  : अ० [हि०कचक+ना (प्रत्यय)] १. किसी अंग या वस्तु का दब जाना या कुचल जाना। २. दरार पड़ना। ३. टूटना-फूटना। स०=कुचलना।
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कचकाना  : स० [हि० कचकना] १. किसी अंग या वस्तु को इस प्रकार कुचलना, दबाना या मसलना कि वह टूट-फूट या विकृत हो जाय। २. धसाँना या भोंकना।
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कचकेला  : पुं० =कठकेला।
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कचकोल  : पुं० [फा० कशकोल] दरियाई नारियल का बना हुआ कमंडल या पात्र जिसमें साधु आदि भिक्षा लेते हैं।
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कचंगल  : पुं० [सं०√कच् (दीप्ति)+अंगलच्] १. पुराणानुसार एक समुद्र का नाम। २. वह बाजार जहाँ मुक्त व्यापार होता हो।
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कचड़ा  : पुं० दे० ‘कचरा’।
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कचदिला  : वि० [हि० ‘कच्चा’+फा० दिल] कच्चे दिलवाला (जिसमें धैर्य, साहस आदि का अभाव हो)।
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कंचन  : पुं० [सं० काञ्चन] १. सोना। स्वर्ण। मुहावरा—(कहीं या किसी के यहाँ) कंचन बरसना=बहुत अधिक आय और धन-संपत्ति होना। २. धन-संपत्ति। दौलत। ३. धतूरा। ४. लाल कचनार। [स्त्री० कंचनी] ५. एक प्रकार की पहाड़ी जाति, जिसकी स्त्रियाँ प्रायः वेश्यावृत्ति करती हैं। वि० १. सोने के रंग का। २. सुंदर और स्वच्छ। ३. बिलकुल नीरोग और स्वस्थ। वि०=अकिंचन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कचनार  : पुं० [सं० काँचन] १. एक प्रसिद्ध पेड़ जिसमें फलियाँ तथा फूल लगते हैं। २. उक्त पेड़ में लगनेवाली फलियाँ और फूल।
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कंचनिया  : स्त्री० [हिं० कंचन] एक प्रकार का कचनार। वि० १. कंचन या सोने से बना हुआ। २. कंचन या सोने के रंग का। पीला।
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कंचनी  : स्त्री० [सं० कंचन] १. कंचन जाति की स्त्री, जो प्रायः वेश्यावृत्ति करती है। २. रंडी। वेश्या। उदाहरण—कंचन से तन कंचनी स्याम कंचुकी अंग।—रहीम। ३. अप्सरा।
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कचपच  : स्त्री०=कच-पच या किच-पिच। (बहुत अधिक कहासुनी) वि०=गिचपिच। (अस्पष्ट या अव्यवस्थित रूप में भरा हुआ)।
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कचपचिया  : स्त्री०=कचपची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कचपची  : स्त्री० [हि० कचपच] १. कृत्तिका नक्षत्र। उदाहरण—जौ बासर कौ निसि कहै, तौ कचपची दिखाव।—रहीम। २. एक प्रकार के चमकीले बुंदे जिन्हें स्त्रियाँ माथे पर लगाती है।
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कचबची  : स्त्री०=कचपची।
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कचबची, अमौआ  : पुं० [हि० कचरी+अमौआ] आम की कचरी-जैसा रंग, जो कुछ हरापन लिये बादामी होता है। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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कचर पचर  : स्त्री० [अनु०] =कचपच। वि०=गिचपिच। अस्पष्ट।
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कचर-कचर  : स्त्री० [अनु०] १. वह ध्वनि या शब्द जो कच्चे फलों आदि के खाने से होता है। २. व्यर्थ का झगड़ा या बकवाद। कच-कच। क्रि० वि० उक्त प्रकार की ध्वनि या शब्द से युक्त।
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कचरकूट  : पुं० [हि० कचरना+कूटना] १. अच्छी तरह कूटना, पीटना या मारना। २. खूब जी भरकर या मनमाने ढंग से किया जानेवाला भोजन।
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कचरघान  : पुं० [हि० कचरना+घान] १. अनेक प्रकार की छोटी-छोटी वस्तुओँ का ढेर। २. बहुत से छोटे-छोटे लड़कों-बच्चों का समूह। ३. जम या भिड़कर होनेवाली लड़ाई। घमासान।
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कचरना  : सं० [सं० कच्चरण] १. पैरों से मसलना या रगड़ना। कुचलना। रौंदना। २. बहुत अधिक भोजन करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कचरा  : पुं० [सं० कच्चर=मैला अथवा हिं० कच्चा] १. ऐसी वस्तु जो अभी पकी न हो, बल्कि अपने आरंभिक रूप में हो। २. कच्चा खरबूजा या फूट। ३. कच्ची ककड़ी। ४. सेमल का डोडा। ५. उड़द या चने की पीठी। ६. किसी वस्तु का निकृष्ट या रद्दी अंश। कूड़ाकरकट। ७. अनाज आदि चुनने पर उसमें का निकला हुआ निकम्मा अंश। ८. एक प्रकार का समुद्री सेवार।
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कचरी  : स्त्री० [हि० कचरा] १. ककड़ी की जाति की एक लता जिसके फलों की तरकारी बनती है। २. तरकारियों (जैसे—आलू, शलगम आदि) और फलों (जैसे—ककड़ी, तरबूज आदि) के काटकर सुखाये हुए पतले छोटे टुकड़े जो प्रायः तलकर खाये जाते हैं।
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कचलहू  : पुं० [हि० कच्चा+लहू (रक्त)] घाव में रस-रसकर निकलता रहनेवाला रक्त या लहू।
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कचला  : पुं० [सं० कच्चर=मलिन] १. गीली मिट्टी। गिलावा। २. कीचड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कचलोन  : पुं० [हि० काँच+लोन] एक प्रकार का नमक जो काँच की भट्ठियों में से निकलने वाले क्षार से बनता है।
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कचलोहा  : पुं० [हि० कच्चा+लोहा] [स्त्री० कचलोही] १. कच्चा लोहा। २. ऐसा घात या वार जो हलका पड़ा हो।
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कचलोहू  : पुं० =कच-लहू।
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कचवचिया  : स्त्री०=कचपची।
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कचवाट  : स्त्री०=कचाहट।
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कचवाँसी  : स्त्री० [हि० कच्चा=बहुत छोटा+अंश] जमीन नापने का एक मान जो एक बिस्वाँसी का बीसवाँ भाग होता है।
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कचवाहा  : पुं० [सं० कच्छ] राजपूतों की एक प्रसिद्ध जाति।
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कचहरी  : स्त्री० [सं० कृत्यगृह, पा० किच्चम, प्रा० कच्च, बँ० काचारी, सिह० कचरी, तेल० कचेली, गुज० मरा० कचेरी] १. वह स्थान जहाँ राजा या कोई बड़ा अधिकारी बैठकर व्यवस्था, शासन आदि के कार्य करता हो। २. दरबार। राज-सभा। ३. आज-कल वह स्थान जहाँ न्यायाधिकारी बैठकर वाद-विवादों का निर्णय या विचार करता है। अदालत। न्यायालय। (कोर्ट) ४. कोई बड़ा कार्यालय या दफ्तर। (आँफिस)।
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कचाई  : स्त्री० [हिं० कच्चा+ई (प्रत्यय)] १. कच्चे होने की अवस्था या भाव। कच्चापन। २. कमी। त्रुटि। ३. अपक्वता या अपूर्णता।
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कचाटुर  : पुं० [सं० कच√अट् (घूमना)+उरच्] बन-मुरगी।
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कचाना  : अ० [हि० कच्चा] डर कर या हिम्मत हारकर पीछे हटना। कच्चा पड़ना। स० ऐसा काम करना या बात कहना जिससे कोई धैर्य या साहस छोड़ दे।
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कचायँध  : स्त्री० [हि०कच्चा+गंध] किसी वस्तु की वह गंध या महक,जिससे उसके कच्चे होने का पता चलता हो। कच्ची अवस्था में रहने पर निकलने वाली गंध। (खाद्य-पदार्थों, फलों आदि के संबंध में)।
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कचार  : पुं० कछार।
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कचारना  : स० [अनु] पछाड़ या पटक कर पानी से कपड़े धोना, या उन्हें साफ करना।
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कचालू  : पुं० [हि० आलू का अनु०] १. एक प्रकार का बंडा। २. उक्त बंडे की बनी हुई तरकारी। ३. एक प्रकार का व्यंजन जो आलू बंडे आदि कंदों या अमरूद आदि फलों के टुकड़ों में नमक-मिर्च और खटाई मिलाकर बनाया जाता है।
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कचावट  : पुं० [हि० कच्चा+आवट (प्रत्यय)] १. कच्चापन। कचाई। २. कच्चे आम की जमाई हुई खटाई।
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कचाहट  : स्त्री० [हि० कच्चा] कच्चे होने की अवस्था या भाव। कच्चापन। कचाई।
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कंचिका  : स्त्री० [सं० कञ्च (चमकना)+ण्वुल्-अक-टाप्] १. एक प्रकार की फुंसी या फुंड़िया। २. बांस की छोटी टहनी।
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कचिया  : स्त्री०=हँसिया (दाँती)।
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कचिया नमक  : पुं०=कच-लोन।
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कचियाना  : अ० [हि० कच्चा] १. कच्चा पड़ना या होना। कचाना। २. डरकर साहस छोड़ना। हिम्मत हारना। ३. लज्जित होना। सं० १. कच्चा करना। २. किसी को साहस या हिम्मत से रहित करना। ३. लज्जित करना।
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कचीची  : स्त्री० [अनु०] क्रोध आदि के समय दाँत पीसने की स्थिति। मुहावरा—कचीची बँधना या बैठना (रोग आदि के कारण) जबड़े पर जबड़ा या दाँत पर दांत बैठना। कचीची बटना=क्रोध दिखलाने के लिए जबड़े या जबड़ा या दाँत रखकर उन्हें दबाना। स्त्री०=कचपची।
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कंचु  : पुं०=काँच (शीशा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कचु  : स्त्री० [सं० कच् (चमकना)+उ] बंडा नामक कंद।
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कंचुआ  : पुं० [सं० कंचुक] अंगिया। चोली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंचुक  : पुं० [सं० कञ्च् (बंधनादि)+उकन्] १. जामे या अचकन की तरह का एक पुराना पहनावा, जो घुटनों तक लंबा होता था। २. स्त्रियों की अंगिया या चोली। ३. कपड़ा। वस्त्र। ४. कवच। बकतर। ५. साँप की केंचुली।
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कंचुकित  : वि० [सं, कंचुक+इतच्] १. जिसके ऊपर कंचुक हो। कंचुक से युक्त। २. कपड़े आदि से ढका हुआ। ३. जो जिरह या बकतर पहने हो।
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कंचुकी (किन्)  : पुं० [सं० कंचुक+इनि] १. प्राचीन काल के राजाओं की दासियों का अध्यक्ष या प्रधान अधिकारी और अंतःपुर का रक्षक। २. द्वारपाल। ३. साँप। ४. ऐसा अन्न, जिसके ऊपर छिलका रहता हो। जैसे—चना जौ आदि। स्त्री० [सं० कंचुक] १. अंगिया। चोली। २. साँप की केचुली।
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कंचुरि  : स्त्री०=केंचुली। (साँप की)।
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कंचुलिका  : स्त्री० [सं० कञ्चुली+कन्-टाप्-ह्रस्व]=कंचुली (चोली)।
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कंचुली  : स्त्री० [सं० कञ्च्+उलच्-ङीष्] १. अंगिया। चोली। २. साँप की केंचुली।
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कचुल्ला  : पुं०=कटोरा।
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कँचुवा  : पुं०=केंचुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कचूमर  : पुं० [हि० कच-कच (कुचलना या चुभाना) से अनु०] १. किसी वस्तु का वह रूप, जो उसे खूब कूटने या कुचलने पर प्राप्त होता है। मुहावरा—(किसी का) कचूमर निकालना=किसी को इतना मारना या पीटना कि वह अधमरे के समान हो जाय। २. कच्चे आम के गूदे को कुचल या कूटकर बनाया हुआ अचार। मुहावरा—(किसी चीज का) कचूमर निकालना किसी वस्तु को ऐसी बुरी तरह से काम में लाना कि उसकी पूरी दुर्दशा हो जाय।
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कचूर  : पुं० [सं० कर्चूर] हल्दी की जाति का एक पौधा, जिसकी जड़ दवा के काम आती है। वि० उक्त जड़ की तरह गहरा लाल या हरा० पुं० =कचोरा (कटोरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँचेरा  : पुं० [हिं०काँच+एरा(प्रत्यय)] वह जो काँच की चीजें बनाता हो।
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कचेरा  : पुं० =कँचेरा (काँच की चीजें बनानेवाला)।
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कचेल  : पुं० [सं०√कच् (बाँधना)+एलच्] १. वह डोरी, जिसमें किसी पुस्तक के पृष्ठ बँधे हों। २. कागज का वह आवरण, जिसमें पुस्तकें आदि बाँधी जायँ। जिल्द।
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कँचेली  : स्त्री० [सं० देश] एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष।
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कचेहरी  : स्त्री०=कचहरी।
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कचोकना  : स० [अनु०] किसी को कोई नुकीली चीज गड़ाना या चुभाना
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कचोका  : पुं० [हिं० कचोकना] कोई नुकीली चीज गड़ाने या चुभाने की क्रिया या भाव।
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कचोट  : स्त्री० [हिं० कचोटना] १. कचोटने की क्रिया या भाव। २. किसी के दुर्व्यवहार के कारण मन में बार-बार या रह-रहकर होनेवाली वेदना।
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कचोटना  : अ० [अनु०] १. किसी दुःखद बात से बार-बार या रह-रहकर मन में पीड़ा या वेदना होना। २. गड़ना। स० चिकोटी काटना।
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कचोना  : स० [अनु०] नुकीली चीज चुभाना या धँसाना।
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कचोरा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० कचोरी] =कटोरा।
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कचोरी  : स्त्री०=कचौरी।
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कचौड़ी  : स्त्री०=कचौरी।
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कचौरी  : स्त्री० [तमिल कच-दाल+पूरिका, प्रा० कचउरिया] १. ऐसी पूरी, जिसके अन्दर उरद आदि की पीठी भरी हो। २. ऐसी चीज, जिसके अन्दर कोई दूसरी चीज दबी पड़ी हो। जैसे—कचौरीदार कड़ाऐसा कड़ा, जिसके अन्दर चाँदी और सोना हो।
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कच्चर  : वि० [सं० कु√चर्(गति)+अच्, कु=कत्] गंदा या मैला कुचैला।
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कच्चा  : वि० [सं० कच्चर=बुरा, प्रा० कच्छरो, सि० कचिरो, गुज० काजर, कचरो, मरा० कचरा, बँ० काँचा] [स्त्री० कच्ची] १. फलों, फसलों आदि के संबंध में, जो अभी अच्छी तरह बढ़कर काटने, तोड़ने या काम में लाने योग्य न हुआ हो। जो अभी पका न हो। अपक्व। जैसे—कच्चा आम, कच्चे दाने (अनाज के) आदि। २. खाद्य पदार्थ, जो अभी आग पर पकाया न गया हो अथवा जिसके ठीक तरह से पकने में अभी कुछ कसर हो और फलतः जो अभी खाने के योग्य न हुआ हो। अरंधित। जैसे—कच्चे चावल, कच्ची रोटी आदि। मुहावरा—किसी को कच्चा खा या चबा जाना=बहुत अधिक क्रोध या रोष में आकर ऐसी भाव-भंगी दिखलाना कि मानों अभी खा ही जायेंगे। ३. जो अभी आग पर या आग में रखकर अच्छी तरह पकाया या पक्का न किया गया हो। यों ही धूप आदि में सुखाया गया हुआ। जैसे—कच्ची ईट, कच्चा घड़ा आदि। ४. जिसमें अपेक्षित या उचित दृढ़ता, पक्वता अथवा पुष्टता का अभाव हो। जैसे—कच्ची दीवार, कच्चा धागा या सूत आदि। ५. जिसका अभी तक पूरा या यथेष्ट अबिवर्धन या विकास न हुआ हो। जो अभी पूर्णता या प्रौढ़ता तक न पहुँचा हो। जैसे—कच्ची उमर। कच्ची समझ। मुहावरा—कच्चा गिरना या जाना=आरंभिक अवस्था में ही गर्भपात या गर्भ-स्राव होना। ६. जो कुछ ही समय तक काम में आ सकता या बना रह सकता हो। जो टिकाऊ या स्थायी न हो। जैसे—कच्चा गोटा,कच्चा रंग। ७. जिसकी रचना अभी अस्थायी रूप से हुई हो और जो बाद में दृढ़ या पूर्ण किया जाने को हो। जैसे—कच्चा चिट्ठा, कच्ची सिलाई आदि। ८. जिसे पूर्णता तक पहुँचने के लिए अभी कुछ या कई प्रक्रियाओं की अपेक्षा हो। जैसे—कच्चा चमड़ा, कच्चा रेशम, कच्चा लोहा। ९. जो किसी तरह से ठीक, पूरा या प्रामाणिक न माना जा सकता हो। जैसे—कच्चा काम, कच्चा हाथ, कच्चा हिसाब। १॰. कला, विद्या आदि के संबंध में, जिसने किसी बात या विषय का अभी तक अच्छा अध्ययन या अभ्यास न किया हो अथवा जिसकी जानकारी अधूरी हो। जैसे—यह लड़का अभी हिसाब में कच्चा है। ११. जो प्रामाणिक या शिष्ट-सम्मत न हो। जैसे—ऐसी कच्ची बात मुँह से मत निकाला करो। मुहावरा—(किसी को) कच्ची-पक्की सुनाना=ऐसी बातें कहना जो शिष्ट सम्मत न हों। खरी-खोटी कहना। (कोई बात) कच्ची पड़ना=अप्रामाणिक, अविश्वासनीय या मिथ्या ठहरना। १२. जिसमें धैर्य,बल,साहस आदि का अभाव हो। जैसे—कच्चा दिल। १३. तौल आदि के संबंध में, जो सब जगह ठीक या मानक न माना जाय, बल्कि उससे कुच कम या हल्का हो और जिसका प्रचलन थोड़े क्षेत्र में होता हो। जैसे—कच्चा मन, कच्चा सेर। विशेष—अधिकतर अवस्थाओं में यह शब्द ‘पक्का’ का विपर्याय होता है और ‘पक्का’ की ही तरह भिन्न-भिन्न पदों और प्रसंगों में भिन्न-भिन्न प्रकार के अर्थ या आशय प्रकट करता है, जो उन पदों के अन्तर्गत देखे जा सकते हैं। पुं० १. ताँबें का एक प्रकार का पुराना छोटा सिक्का जो प्रायः पैसों की जगह चलता था। २. किसी काम, चीज या बात का खड़ा किया हुआ आरंभिक रूप। खाका। ढाँचा। ३. लेख या लेख्य का वह आरंभिक रूप जिसमें अभी काट-छाँट, परिवर्तन, परिवर्द्धन या संशोधन होने को हो। प्रालेख। मसौदा। ४. कपड़े आदि सीने के समय उनमें दूर-दूर की जानेवाली कमजोर और हलकी सिलाई जो बाद में काटकर निकाल दी जाती है। ५. भारतीय महाजनी ढंग से ब्याज या सूद लगाने के हिसाब में, वह अंक या संख्या जो प्रतिदिन और प्रति रुपये के हिसाब से स्थिर हो या हाथ लगे। पुं० [कच्च से अनु०] ऊपर और नीचे के जबड़ों के जोड़ जो कनपटी के पास होता है। मुहावरा—कच्चा बैठना=बेहोशी के समय या रोग के रूप में दाँतों पर दाँत इस प्रकार जमकर बैठना कि मुँह न खुल सके।
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कच्चा असामी  : पुं० [हिं० कच्चा+फा० असामी] १. वह असामी जिसे कुछ या थोड़े समय के लिए खेत जोतने बोने के लिए दिया गया हो। २. ऐसा व्यक्ति जो लेन-देन में खरा न हो। ३. अपनी बात में न रहनेवाला व्यक्ति।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्चा कागज  : पुं० [हिं० कच्चा+अ० कागज] १. एक प्रकार का देशी कागज जो घोंटा हुआ नहीं होता। २. लेख्य, जिसका निबंधन (रजिस्टरी) न हुआ हो। ३. प्रालेख। मसौदा।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्चा कोढ़  : पुं० [हिं०] १. खुजली। २. आतशक या गरमी नामक रोग।
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कच्चा माल  : पुं० [हिं०+अ०] कारखानों में काम आने वाले वे खनिज या वानस्पतिक पदार्थ, जो अपने आरंभिक या प्राकृतिक रूप में हों और जिन्हें मशीनों द्वारा ठीक करके या बनाकर उनसे दूसरी वस्तुएँ बनाई जाती हों। (रा मेटीरियल)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्चा-घड़ा  : पुं० [हिं०] वह घड़ा, जो आँवें में पकाया न गया हो, केवल धूप में सुखाया गया हो। मुहावरा—कच्चे घड़े में पानी भरना=ऐसा काम करना जो स्थायी न हो। (कच्चे घड़े में पानी भरने पर वह गल जाता है, जिससे घड़ा भी नष्ट होता है और पानी भी।)
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कच्चा-चिट्ठा  : पुं० [हिं०] १. वह विवरण या वृत्तांत जिसमें किसी व्यक्ति की गुप्त या छिपी हुई दुर्बलताएँ बतलाई गई हों, अथवा सब बातें ज्यों कि त्यों कही गई हों। २. आय-व्यय, हानि-लाभ आदि के विवरण का वह प्रारंभिक रूप जो अभी जाँचकर ठीक किया जाने को हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्चापन  : पुं० [हिं० कच्चा+पन (प्रत्यय)] कच्चे होने की अवस्था, गुण या भाव। कचाई।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्ची  : स्त्री०=कच्ची रसोई।
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कच्ची कुर्की  : स्त्री० [हिं० कच्चा+तु० कुर्की] वह कुर्की, जो प्रायः महाजन लोग अपने मुकदमें का फैसला होने से पहले ही इस आशंका से जारी कराते हैं कि कहीं मुकदमे के फैसला होने तक प्रतिवादी अपना माल-असबाब इधर-उधर न कर दे। (दे० ‘कुर्की’)।
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कच्ची गोटी  : स्त्री० [हिं०] चौसर के खेल में वह गोटी, जो अभी आगे बढ़ रही हो और जिसके पूगने में अभी देर हो। मुहावरा—कच्ची गोटी खेलना=ऐसा काम करना, जो समझदारी का न हो और जिसमें आगे चलकर धोखा खाना पड़े।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्ची गोली  : स्त्री०=कच्ची गोटी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्ची जाकड़  : स्त्री० [हिं०] वह बही, जिसमें जाकड़ दिये जानेवाले का ब्यौरा लिखा जाता है।
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कच्ची नकल  : स्त्री० [हिं०] किसी कार्यालय के लेख्य आदि की ऐसी नकल, जो अनधिकारिक या निजी रूप से ली गई हो और जिस पर उस कार्यालय की मोहर या उसके अध्यक्ष के हस्ताक्षर न हों और इसी लिए जो प्रमाणिक न मानी जाती हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्ची निकासी  : स्त्री० [हिं० कच्ची+निकासी] किसी कारखानें, संस्था आदि की वह कुल आय, जिसमें से व्यय आदि निकाला न गया हो। (ग्राँस एसेट्स)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्ची मित्ती  : स्त्री० [हिं०] किसी को ऋण देने तथा चुकता पाने की मितियाँ, जिनका ब्याज या सूद जोड़ा नहीं जाता।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्ची रसोई  : स्त्री० [हिं०] ऐसा भोजन या व्यंजन, जो घी या दूध आदि में न पकाया गया हो, बल्कि पानी में पकाया गया हो, इसलिए जिसके संबंध में छूआछूत मानी जाती हो। (सनातनी हिंदू)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कच्ची रोकड़  : स्त्री० [हिं०] वह बही, जिसमें प्रतिदिन का आय-व्यय स्मृति के लिए टाँक या लिख दिया जाता है।
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कच्ची वही  : स्त्री० [हिं०] वह बही, जिसमें लिखा हुआ हिसाब यों ही याद रखने के लिए टाँका गया हो और नियमित रूप से लिखा न होने के कारण पूर्णतया ठीक या प्रामाणिक न हो।
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कच्ची शक्कर  : स्त्री०=कच्ची चीनी।
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कच्ची सिलाई  : स्त्री० [हिं०] १. वे अस्थायी टाँके, जो पक्का बखिया करने से पहले कपडे़ के जोड़ को अस्थायी रूप से लगाये रखने के लिए भरे जाते हैं। लंगर। २. पुस्तकों की वह सिलाई जो सब फर्मों को एक साथ ऊपर-नीचे रखकर की जाती है। (जुजबन्दी सिलाई से भिन्न)।
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कच्ची-चीनी  : स्त्री० [हिं०] राब को सुखाकर तैयार की हुई चीनी, जो कुछ हरे रंग की होती है खाँड़। शक्कर।
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कच्चू  : स्त्री० [सं० कंचु०] १. अरबी या घुइयाँ नामक कंद। २. बंड़ा नामक कंद।
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कच्चे बच्चे  : पुं० [हिं०] १. कम अवस्था के बच्चे। छोटे-छोटे बच्चे। २. छोटे-छोटे बाल बच्चे।
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कच्चे-पक्के दिन  : पद [हिं०] चार या पाँच महीने का गर्भकाल।
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कच्छ  : पुं० [सं० कच् (बाँधना)+छ अथवा कछू (दीप्ति)+ड] १. अनूप देश। २. कछार। ३. पश्चिमी भारत में गुजरात का एक प्रसिद्ध अंतरीप। ४. उक्त देश का निवासी। वि० कच्छ देश का। स्त्री० कच्छ देश की भाषा। पुं० [सं० कक्ष] १. धोती की लाँग। २. कुश्ती का एक पेंच। ३. छप्पय छंद का एक भेद। ४. दे० ‘कक्ष’। पुं० [सं० कच्छप] १. कछुवा। २. तुन का पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत जल्दी जलती है। उदाहरण—राम-प्रताप हुतासन कच्छ विपच्छ समीर-समीर दुलारो।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कच्छ-शेष  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का दिंगबर जैन।
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कच्छप  : पुं० [सं० कच्छ√पा (पीना)+क] १. कछुवा। २. विष्णु के २४ अवतारों में से एक जो कछुए के रूप में हुआ था। ३. कुबेर की नौ निधियों में से एक। ४. मद्य बनाने का एक प्रकार का भबका। ५. एक रोग जिसमें तालु में एक प्रकार की गाँठ निकल आती है। ६. दोहे का एक प्रकार या भेद जिसमें ८ गुरु और ३२ लघु होते हैं।
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कच्छपिका  : स्त्री० [सं० कच्छप+कन्-टाप्, इत्व] १. पित्त बिगड़ने में होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर के किसी अंग में छोटे-छोटे चकते निकल आते हैं। इसमें बहुत जलन होती है। २. प्रमेह के कारण होनेवाली एक प्रकार की फुड़ियाँ।
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कच्छपी  : स्त्री० [सं० कच्चप+ङीष्] १. कच्छप जाति के जंतु की मादा। २. सरस्वती की वीणा का नाम।
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कच्छा  : पुं० [सं० कच्छ] १. एक प्रकार की बहुत बड़ी नाव। २. कई या बहुत-सी नावों को एक साथ बाँधकर तैयार किया हुआ बेड़ा। [सं० कच्छ] एक प्रकार का जाँघिया।
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कच्छी  : वि० [हिं० कच्छ] कच्छ देश में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। पुं० १. कच्छ देश का निवासी। २. कच्छ देश का घोड़ा। स्त्री कच्छ देश की भाषा।
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कच्छु  : स्त्री० [सं०√कष् (हिंसा)+ऊ, छ आदेश, पृषो ह्रस्व] खुजली का रोग। पुं०=कछुआ।
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कच्छू  : पुं०=कछुआ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कछ  : पुं० [कच्छप] १. कछुआ नामक जंतु। २. भगवान का कच्छप या कूर्म नामक अवतार। उदाहरण—मछ कछ होय जलै नहिं डोला।—कबीर। पुं० दे० ‘काछा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कछना  : पुं० १. दे० ‘कछनी’। २. दे०‘काछ’। स० काछना।
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कछनी  : स्त्री० [हिं० काछना] १. घुटने तक अथवा घुटने के ऊपर चढ़ाकर बाँधी जानेवाली धोती अथवा कोई वस्त्र। २. उक्त प्रकार से धोती या वस्त्र बाँधने का ढंग। ३. छोटी धोती।
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कछरा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० कछरी] दे० ‘कमोरा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कछराली  : स्त्री०=कखराली (कखौरी)।
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कछव  : पुं० [सं० कर्दम] कीचड़। पुं०=कछुआ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कछवारा  : पुं० [हिं० कछी+बाड़ा] १. वह स्थान जहाँ काछी तरकारियाँ बोते हैं। २. काछियों के रहने का स्थान।
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कंछा  : पुं० [सं० कंछी] पौधे का कल्ला। कोंपल।
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कछान  : पुं० [हिं० काछना] काछा काछने की क्रिया, ढंग या भाव।
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कछाना  : स० [हिं० काछा] किसी को कछनी काछने में प्रवृत्त करना। पुं० =काछा।
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कछार  : पुं० [सं० कच्छ] [स्त्री, अल्पा० कछारी] १. नदी अथवा समुद्र के किनारे की तर या नीची भूमि। (एल्यूवियल लैंड) २. आसाम राज्य का एक प्रदेश।
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कछियाना  : पुं० [हिं० काछी+आना प्रत्यय] काछियों के रहने का स्थान। स०=काछना।
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कंछी  : स्त्री० [सं० कंचिका] पौधे का कोंपल। कल्ला।
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कछु  : वि०=कुछ (ब्रज)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कछुआ  : पुं० [सं० कश्यप, कच्छप० प्रा० कच्छभ, मु० कच्छवो, कासवो, सिं० कछउँ, कछूँ० बँ० काछिम, मरा० कासव, कांसव] एक प्रसिद्ध जंतु जो जल और स्थल दोनों में समान रूप से रहता है,पर जल में अधिक सुखी रहता है। इसकी पीठ पर ढाल के आकार की कड़ी खोपड़ी होती है।
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कछुक  : वि० [हिं० कछु (=कुछ)+एक प्रत्यय] कुछ थोड़ा। उदाहरण—कछुए बनाइ भूप सन भाषे।—तुलसी।
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कछुवा  : पुं०=कछुआ (जंतु)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कछुवै  : अव्य=कुछ भी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कछू  : वि०=कुछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कछौटा  : पुं० [हिं० काछा+औटा प्रत्यय] [स्त्री० अल्पा० कछौटी] १. कमर में पहनने का काछा। कछनी। उदाहरण—हँसति धँसति जलधार कसति कोउ कलित कछौटा।—रत्ना। २. धोती पहनने का वह ढंग जिसमें दोनों लाँगे घुटनों तक चढ़ाकर और कसकर पीछे की ओर खोंसी जाती हैं। पुं० [सं० कक्ष] काँख। बगल।
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कछौहा  : पुं० =कछार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंज  : पुं० [सं०√कम्जन्(उत्पन्न होना)+ड] १. कमल। २. ब्रह्मा। ३. अमृत। ४. सिर के बाल। केश। पुं० दे० ‘कंजा’ (कँटीली झाड़ी)।
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कज  : वि० [फ़ा०] टेढ़ा। वक्र। पुं० १. टेढ़ापन। वक्रता। २. ऐब। दोष। ३. कमी। त्रुटि। पुं० =कार्य (काम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंज-नाभ  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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कंजई  : वि० [हिं० कंजा] १. कंजे की फली के रंग का। कुछ नीलापन लिये काला। २. दे० ‘ककरेजी’ (रंग)। पुं० वह घोड़ा, जिसकी आँखे कंजे रंग की हों।
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कंजक  : पुं० [सं० कंजकै (मालूम होना)+क] [स्त्री० कंजकी] एक प्रकार का पक्षी।
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कंजका  : स्त्री० [सं० कन्यका] कुँवारी लड़की।
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कजकोल  : पुं० [फा० कशकोल] भिक्षुओं का कपाल या खप्पर, जिसमें वे भिक्षा लेते हैं। भिक्षापात्र।
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कंजज  : पुं० [सं० कंज्जन्+ड] ब्रह्मा।
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कंजड़  : पुं०=कंजर।
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कंजन  : पुं० [सं०√कम्जन्+णिच्+अण्] १. ब्रह्मा, जिनकी उत्पत्ति कमल से मानी गई है। २. कामदेव। ३. एक प्रकार का पक्षी।
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कजनी  : स्त्री० [?] वह उपकरण, जिससे खुरचकर ताँबे आदि के बरतन साफ किये जाते हैं। खरदनी।
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कजपूती  : स्त्री० =कयपूती (एक प्रकार का पेड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंजर  : पुं० [सं० कम्√जृ (जीर्ण होना)+विच्+अच्] १. सूर्य। २. हाथी। ३. उदर। ४. ब्रह्मा। ५. मोर। ६. संन्यासी। पुं० [हिं० कंचन] [स्त्री० कंजरिन्, कंजरी] एक प्रसिद्ध यायावर अनार्य और असभ्य जाति, जिसकी गणना अपराधशील जातियों में होती है। कहीं-कहीं इस जाति की स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति भी करती हैं।
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कजरवा  : पुं० =काजल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कजरा  : वि० [हिं० काजल] १. काजल के रंग का। काला। २. काजल से युक्त। कजरारा। पुं० काले रंग की आँखोंवाला बैल। पुं०=काजल। उदाहरण—गोरी नैनों में तेरे कजरा फला।—गीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कजराई  : स्त्री० [हिं० काजल] काले या काजल के रंग के होने की अवस्था, गुण या भाव। कालापन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कजरारा  : वि० [हिं० काजर+आरा प्रत्यय] १. जिसमें काजल लगा हो अथवा जो काजल से युक्त हो। (मुख्यतः नेत्र) २. जो काला या काजल के रंग जैसा हो। जैसे—कजरारे बादल।
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कजरियाना  : स० [हिं० काजर=काजल] १. बच्चों को नजर से बचाने के लिए उनके माथें पर बिंदी लगाना। २. आँखों में काजल लगाना। ३. काला करना। ४. चित्रकला में अंधकार या अंधेरी रात दिखलाने के लिए चित्र पर काला रंग लगाना।
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कंजरी  : स्त्री० [हिं० कंजर] १. कंजर जाति की स्त्री। २. रंडी। वेश्या (पश्चिम)।
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कजरी  : स्त्री० १. =कजली। २. =कदली। पुं० एक प्रकार का धान और उसका चावल जो काले रंग का होता है।
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कजरौटा  : पुं० =कजलौटा।
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कंजल  : पुं० [सं० कंज् (समर्थ होना)+कलच्] एक प्रकार का पक्षी।
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कजलबाश  : पुं० [तु०] मुगलों की एक जाति, जो बहुत लड़ाकू होती है।
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कजला  : पुं० [हिं० काजल] १. काले रंग का एक प्रकार का पक्षी। २. वह बैल, जिसकी आँखों पर काला घेरा हो। ३. खरबूजे की एक जाति। वि० =कजरा। पुं० =काजल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कजलाना  : अ० [हिं० काजल] १. काजल से युक्त होना। २. काजल के रंग का, अर्थात् काला पड़ना या होना। ३. आग या कोयलों का बुझने पर होना। झँवाना। स०१. काजल से युक्त करना। काजल लगाना। २. काला करना।
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कजली  : स्त्री० [हिं० काजल] १. वह कालिख, जो दिया जलने पर उसके ऊपर जमती है, और जिससे काजल बनता है। २. ऐसी गौ, जिसकी आँखें काजल के रंग की अर्थात् काली हों। ३. ऐसी भेंड़, जिसकी आँख के चारों ओर काले बालों का घेरा हो। ४. उत्तर-प्रदेश, बिहार आदि में वर्षा ऋतु में गाये जानेवाले एक प्रकार के लोकगीत, जिनकी बीसियों धुनें होती हैं। ५. भादों बदी तीज को होनेवाला स्त्रियों का एक त्योहार, जिसमें वे प्रायः रात-भर उक्त प्रकार के गीत गाती और नाचती है। मुहावरा—कजली खेलना=स्त्रियों का घेरा या झुरमुट बनाकर झूमते हुए कजलियाँ गाना। ६. जौ के वे नये अंकुर, जो उक्त त्योहार पर स्त्रियाँ अपनी सखियों और संबंधियों में बाँटती हैं। ७. वैद्यक में एक ओषध, जिसे गंधक और पारे के योग से बनाते है, और जिसका उपयोग भस्म या रस प्रस्तुत करने में होता है। ८. एक प्रकार का गन्ना। ९. एक प्रकार की मछली। १॰. वनस्पतियों आदि का एक रोग, जिससे उनकी पत्तियों, फूलों आदि पर काली धूल-सी जम जाती है।
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कजली-तीज  : स्त्री० [हिं० कजली+तीज] भादों बदी तीज,जिस दिन स्त्रियाँ रात-भर कजली गाती और नाचती हैं।
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कजली-बन  : पुं० [सं० कदलीवन] १. केले का जंगल। २. आसाम का एक जंगल जो अच्छे हाथियों के लिए प्रसिद्ध है।
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कजलोटा  : पुं० [सं० कज्जल-पात्र या हिं० काजल+औटा (प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० कजलौटी] १. काजल रखने का एक प्रकार का डडोदार लोहे का पात्र। २. गोदना गोदने की स्याही रखने का पात्र।
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कजही  : स्त्री० दे० ‘कायजा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंजा  : पुं० [सं० करंज] एक कँटीली झाड़ी, जिसकी फली औषध के काम आती है। वि० [सं० कंजी] १. कंजे की फली के रंग का। गहरा खाकी। २. जिसकी आँखे उक्त रंग की हों।
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कजा  : स्त्री० [सं० कांजी] काँजी। माँड़। स्त्री० [अ०] मौत। मृ्त्यु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कजाक  : पुं० [तु० कज्जाक] [वि०, भाव० कजाकी] डाकू। लुटेरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कजाकी  : स्त्री० [फा०] १. कजाक या लुटेरे का काम। २. लूटमार और बहुत बड़ी जबरदस्ती का काम। ३. छल-कपट। धोखेबाजी।
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कंजाभ  : वि० [सं० कंज-आभा, ब० स०] कमल के समान आभा या कांतिवाला। पुं० कमल जैसी आभा या कांति।
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कंजार  : पुं० [सं० कम्√जृ+णिच्+अण्] दे० ‘कंजर’।
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कंजारण्य  : पुं० [सं० कंज-अरण्य, ष० त०] कमलों का वन।
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कंजावलि  : स्त्री० [कंज-आवलि, ब० स०] एक वर्णवृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में भगण, नगण दो जगण और अंत में एक लघु होता है।
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कजावा  : पुं० ऊँठ की पीठ पर रखी जानेवाली काठी, जिस पर लोग बैठते या सामान रखते हैं।
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कंजास  : पुं० [?] कूड़ा-कर्कट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कजि  : क्रि० वि० [हिं० काज] कार्य के लिए। वास्ते। उदाहरण—कमल तणा मकरंद कजि।—प्रिथीराज।
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कंजिका  : स्त्री० [सं० कंज्+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] एक प्रकार का पौधा।
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कजिया  : पुं० [अ०] १. झगड़ा। लडा़ई। २. झंझट। बखेड़ा।
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कँजियाना  : अ० [हिं० कंजा] १. कंजई रंग का बनना या होना, कुछ नीलापन लिए काला पड़ना। २. दहकते हुए उपले या कोयलों का बुझना या बुझने को होना। झँवाना।
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कजी  : स्त्री० [फा] १. टेढें होने की अवस्था या भाव। टेढ़ापन। २. ऐब। दोष। ३. कसर। त्रुटि।
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कँजुवा  : पुं०=कँड़वा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंजूस  : पुं० [सं० कण+हिं० जूस] [भाव० कंजूसी] ऐसा व्यक्ति, जो पास में धन होने पर भी अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसका उपयोग न करता हो अथवा जो कष्ट सहकर और हीन अवस्था में रहकर भी धन का संग्रह करता चलता हो। कृपण। सूम।
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कंजूसी  : स्त्री० [हिं० कंजूस] कंजूस होने की अवस्था, गुण या भाव।
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कँजैला  : वि० [हिं० काँदाकीचड़+ला(प्रत्य)] १. कीचड़ से भरा हुआ। २. गंदा। मलिन।
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कज्ज  : पुं० =कार्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कज्जल  : पुं० [सं० कु-जल, ब० स० कद् आदेश] १. आँखों में लगाने का काजल या अंजन। २. सुरमा। ३. दीपक आदि की कालिख। कजली। ४. बादल। मेघ। ५. चौदह मात्राओं का एक छंद जिसके अंत में एक गुरु और एक लघु होता है।
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कज्जल-ध्वज  : पुं० [ब० स०] दीपक।
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कज्जलरोचक  : पुं० [सं० कज्जल√रुच् (दीप्ति)+णिच्+अच्+कन्] दीअट। दीपाधार।
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कज्जलित  : भू० कृ० [सं० कज्जल+इतच्] १. कज्जल या काजल से युक्त किया हुआ। जिसमें काजल लगा हो। २. काला।
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कज्जली  : स्त्री० [सं० कज्जल+क्विप्+अच्-ङीष्] १. एक प्रकार की मछली। २. एक प्रकार का द्रव्य, जो गंधक तथा पारे के योग से बनाया जाता है। ३. स्याही।
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कज्जाक  : पुं० [तु] डाकू० लुटेरा।
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कज्जाकी  : स्त्री० दे० ‘कजाकी’।
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कंट  : वि० [सं०√कंट् (गति)+अच्] कँटीला। पुं० काँटा।
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कट  : पुं० [सं०√कट् (वर्षण करना)+अच्] १. हाथी की कनपटी या गंडस्थल। २. नरकट, सरकंडे आदि वनस्पतियों के लंबे-लंबे कांड या डंठल, जिनकी चटाइयाँ आदि बनाई जाती हैं। ३. उक्त कांडों या डंठलों की बनी हुई चटाइयाँ। ४. लाश। शव। ५. अरथी। ६. श्मशान। ७. ऋतु। ८. उपयुक्त अवसर। ९. एक प्रकार का काला रंग, जो कसीस, बहेड़े, हर्रे आदि के योग से बनाया जाता है। वि० [सं०√कट्) (गति)+अच्] १. बहुत अधिक। अतिशय। २. उग्र। उत्कट। वि० १. काटनेवाला। (यौ० के अंत में) जैसे—गिरहकट। २. हि० काटना का संक्षिप्त रूप, जिसका प्रयोग कुछ समस्त पदों के आरंभ में होता है। जैसे—कट-रखना। (दे०) पुं० [अं० कट० मि० हिं० काट] काटने का ढंग या भाव। जैसे—कमीज या कुरते का कट।
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कट-कट  : स्त्री० [अनु] १. भय, शीत आदि के कारण ऊपर तथा नीचे के दाँतों के आपस में टकराने से उत्पन्न होनेवाला शब्द। २. लाक्षणिक अर्थ में, दो पक्षों में होनेवाली कहा-सुनी, तू-तू, मैं-मैं या लड़ाई-झगड़ा। ३. अन-बन। बिगाड़।
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कट-कबाला  : पुं० [हिं० कटना+अ० कबाला] किसी के पास कोई चीज बंधन या रेहन रखकर इस शर्त पर ऋण लेना कि या तो नियत समय के अन्दर ऋण चुकता करके वह चीज छुड़ा लेगें, नहीं तो वह चीज उसकी हो जायगी जिसके पास वह बंधक रखी गई है। मियादी बै।
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कट-करंज  : पुं० [सं० करंज] कंजा नामक पौधा। वि० दे० ‘कंजा’।
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कट-कुटी  : स्त्री० [मध्य० स०] कुटी। झोपड़ी।
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कट-कोल  : पुं० [ब० स०] उदालदान। पीकदान।
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कट-खना  : वि० [हिं० काटना+खाना] १. काट खानेवाला। प्रायः काट लेनेवाला (जंतु या पशु) जैसे—कटखना कुत्ता, कटखना तोता आदि। २. लाक्षणिक अर्थ में (ऐसा व्यक्ति) जो बात-बात पर काटने को दौड़ता (अर्थात् बुरी तरह लड़ने को तैयार होता) हो।
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कंट-फल  : पुं० [मध्य० स०] १. गोखरू। २. कटहल। ३. धतूरा। ४. करंज का पेड़।
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कँट-बाँस  : पुं० [हिं० काँटा+बाँस] एक प्रकार का पतला तथा ठोस बाँस जिसकी लाठियाँ बनाई जाती हैं।
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कंटक  : पुं० [सं० कंट्+ण्वुल्-अक] १. पेड़-पौधों आदि की डालियों में उगनेवाला ऐसा ठोस नुकीला किन्तु बारीक अंकुर, जो शरीर में चुभ सकता हो। काँटा। २. ऐसी वस्तु, जिसका सिरा नुकीला हो। ३. ऐसी वस्तु, जो लोगों के मार्ग में बाधा या रुकावट उत्पन्न करती हो। ४. कोई ऐसा कार्य या बात, जो दूसरों के सुख-सुभीते, स्वास्थ्य आदि में बाधक हो। दूसरों को कष्ट पहुँचानेवाली बात। (नूएजेन्स) ५. मछली फँसाने की एक प्रकार की टेढ़ी अँकुसी। ६. शरीर में होनेवाला रोमांच।
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कटक  : पुं० [सं०√कट्+वुन्-अक] १. झुंड। समूह। २. फौज। सेना। ३. सैनिक छावनी। शिविर। ४. पैर में पहनने का कड़ा। ५. पर्वत का मध्य भाग। ६. चूतड़। नितंब। ७. समुद्री नमक। ८. चटाई। ९. गाड़ी का पहिया। चक्र। १॰. कंकड़। ११. जंजीर। श्रृंखला। १२. हाथी के दाँतों पर जड़ा जानेवाला छल्ला या बंद। सामी। १३. पैर में पहनने का कड़ा। (हिं०) पुं० उड़ीसा प्रदेश का एक मुख्य नगर।
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कटक-बंध  : पुं० [सं० कटक+हिं० बंध=बाँधनेवाला] १. सेनापति। २. व्यूह रचना। उदाहरण—कटक बंध नह घणाकिध।—प्रिथीराज।
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कंटक-शोधन  : पुं० [ष० त०] १. शरीर आदि में चुभे या धंसे हुए कांटे बाहर निकालना। २. किसी प्रकार की बाधा विघ्न, रूकावट आदि या कोई कष्टदायक तत्त्व दूर करना।
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कटकई  : स्त्री० [सं० कटक+हिं० ई (प्रत्यय] १. फौज। सेना। २. सेना या दल-बल के साथ चलने की तैयारी।
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कटककारी (रिन्)  : पुं० [सं० कटक√कृ (करना)+णिनि] सेनानायक। सेनापति। उदाहरण—विबुध को सौध अति रुचिर मंदिर निकट सत्वगुन प्रमुख त्रय कटककारी।—तुलसी।
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कटंकट  : पुं० [सं०√कटकट् (आवरण)+खच्,मुम्] १. आग। २. सोना। ३. गणेश। ४. शिव। ५. चित्रक वृक्ष।
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कटकटाना  : अ० [हिं० कट-कट से] कुद्ध होने पर ऊपर तथा नीचे के दाँतों का बजना। स० क्रोध में आकर दाँत पीसना।
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कटकटिया  : स्त्री० [अनु] एक प्रकार का बुलबुल (पक्षी)। वि० [हिं० कट-कट से] १. कट-कट (शब्द) करनेवाला। २. लड़ाई-झगड़ा करनेवाला।
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कटकना  : पुं० =कटकीना (चाल, युक्ति)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटकाई  : स्त्री०=कटकई (सेना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंटकाकीर्ण  : वि० [सं० कंटक-आकीर्ण,तृ०त०] १. (मार्ग या रास्ता) जो काँटों से भरा हुआ हो। २. जिसमें बहुत-सी कष्ट-प्रद बाधाएँ हों। जैसे—राष्ट्रों की उन्नति (या स्वतंत्रता) का मार्ग बहुत कंटकाकीर्ण होता है। (थार्नी)।
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कंटकार  : पुं० [सं० कंटक√ऋ (गति)+अण्] १. शाल्मलि। सेमल। २. एक प्रकार का कीकर या बबूल। ३. कटेरी। भटकटैया। ४. एक प्रकार की मछली, जिसकी रीढ़ के काँटे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करनेवाले होते हैं। (प्लोटोसस)।
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कंटकारिका  : स्त्री० [सं० कंटक√ऋ+ण्वुल्-अक-टाप्, इत्व]=कंटकार।
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कंटकाल  : पुं० [सं० कंटक√अल् (पर्याप्त)+अच्] १. कटहल। २. कांटों से घिरा या बना हुआ घर।
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कंटकित  : वि० [सं० कंटक+इतच्] १. काँटों से युक्त। काँटेदार। कँटीला। २. जिसके शरीर के बाल खड़े-खड़े हों० जैसे—साही। ३. जिसे रोमांच हुआ हो।
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कंटकिनी  : स्त्री० [सं० कंटक+इनि-ङीष्] भटकटैया।
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कंटकी (किन्)  : वि० [सं० कंटक+इनि] १. काँटेदार। २. कँटीला। स्त्री० [कंटक+ङीष्] १. एक प्रकार की छोटी मछली। कँटवा। २. खैर का पेड़। ३. मैनफल। ४. बाँस। ५. बार का पेड़। ६. गोखरू। ७. कोई काँटेदार पेड़।
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कटकीना  : पुं० [हिं० काट+कीना] चालाकी से भरी हुई छोटी या साधारण युक्ति। जैसे—किसी कटकीने से अपना काम निकालो।
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कटघरा  : पुं० [हिं० काठ+घर] १. काठ का बना हुआ घर। २. न्यायालयों आदि में काठ या लकड़ियों का बना हुआ वह घेरा या जँगला जिसमें अभियुक्त, गवाह आदि खड़े होकर अपना बयान देते हैं। ३. पिंजड़ा।
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कटजीरा  : पुं० [सं० कणजीरक] एक प्रकरा का काले रंग का जीरा।
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कटड़ा  : पुं० [सं० कटार] भैंस का पड़वाँ। कट्टा। पुं० =कटरा (चौकोर बाजार)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटत  : स्त्री० [हिं० कटना] १. कटने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज की बाजार में होनेवाली बिक्री या खपत।
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कटताल  : पुं० =कठ-ताल।
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कटती  : स्त्री० १. =कटत। २. =कटौती।
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कटन  : स्त्री० [हिं० कटना] १. कटने या काटे जाने की क्रिया या भाव। २. प्रेम। उदाहरण—फिरत जो अटकत कटनि बिन, रसिक सुरसन खियाल।—बिहारी। ३. दे० ‘काट’।
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कटनंस  : पुं० [हिं० काटना+नाश] काटकर नष्ट करने की क्रिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटना  : अ० [सं० कर्त्तन, प्रा० कट्टन] १. किसी वस्तु का किसी दूसरी धारवाली चीज या हथियार से दो या कई भागों में विभक्त किया जाना। जैसे—चाकू से तरकारी काटना, तलवार से सिर काटना। २. किसी जीवित प्राणी का किसी धारवाली वस्तु से इस प्रकार विभक्त किया जाना कि वह मर जाय। जैसे—(क) रेल से यात्री का कटना। (ख) युद्ध में सैनिकों का कटना। (ग) बूचड़खाने में बकरे-बकरियों का कटना। ३. किसी वस्तु के कई अंशों या किसी अंश का किसी ढंग या रीति से अलग किया जाना। जैसे—जेब कटना, फसल कटना। ४. दो या कई भागों में विभक्त होना। जैसे—ताश की गड्डी कटना। ५. बहुत पीसा जाना। जैसे—सिल पर भाँग या मसाला कटना। ६. (समय) गुजरना, बीतना या समाप्त होना। जैसे—दिन या रात कटना। ७. रेखा या लकीर खींचने के कारण किसी लेख का रद्द या व्यर्थ होना। अपने पूर्व रूप या स्थिति में न रह जाना। जैसे—पाठशाला से लड़के का या सूची में से पुस्तक का नाम कटना। ८. लंबी रेखा या रेखाओं के रूप में विभक्त होकर किसी काम के लिए तैयार होना या बनना। जैसे—कपड़ें में से कमीज का कुरता कटना, खेत में क्यारियाँ कटना। ९. रेखा के रूप में बनी हुई किसी चीज में से शाखा के रूप में निकलकर किसी ओर जाना। जैसे—गंगा में से नहर कटना,बड़ी सड़क में से छोटी सड़क कटना। १॰. रास्ते में किसी का साथ छोड़कर अलग या दूर हो जाना। खिसक जाना। चलता बनना। जैसे—जब देखो, तब तुम यों ही कट जाते हो। ११. उपयोग में आने के कारण धीरे-धीरे व्यय होना। जैसे—बात-की-बात में सौ रुपए कट गये। १२. न रह जाना। नष्ट हो जाना। मिट जाना। उदाहरण—तुव हित होई कटै भवबंधन।—तुलसी। १३. ताश के खेल में, किसी बड़े पत्ते के सामने छोटे पत्तों का निरर्थक या व्यर्थ होना। १४. मन-ही-मन दुखी होना। जैसे—हम लोगों को बातचीत करते देखकर वह कटता हैं। १५. अपमान, विफलता आदि के कारण मन-ही-मन लज्जित होना। झेंपना। जैसे—पते की बात सुनकर वह कट गया। १६. आसक्त या मोहित होने के कारण सुध-बुध भूल जाना, अथवा विरह में क्षीण होना। उदाहरण—मन-मोहन छबि पर कटी, कहै कटयानी देह।—बिहारी। १७. (गणित में) किसी बड़ी संख्या का छोटी संख्या से इस प्रकार भाग लगना या विभक्त होना कि शेष कुछ भी न बचे। जैसे—४ का २ से या २५ का ५ से कटना।
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कटनास  : पुं० [देश] नीलकंठ नामक पक्षी। पु०=कटनंस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटनि  : स्त्री०=कटन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कटनी  : स्त्री० [हिं० कटना] १. काटे जाने की क्रिया या भाव० जैसे—फसल की कटनी। मुहावरा—कटनी मारना=जोतने से पहले खेत में से घास-फूस या झाड़-झंखाड़ काटना। २. काटने का पारिश्रमिक या मजदूरी। ३. कोई चीज काटने का छोटा औजार। ४. सीधा रास्ता छोड़कर कभी इधर और कभी उधर जाने की क्रिया। क्रि० प्र०-मारना।
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कटपीस  : पुं० [अं०] कपड़े के नये थानों में से अलग किये हुए छोटे-छोटे टुकड़े जो किसी कारण से कट-फट कर अलग हो गये हों, और इसी लिए सस्ते बिकते हों।
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कटपूतना  : स्त्री० [सं० कट√पू (शुद्ध करना)+क्विप् कटपू√तन् (फैलाना)+अच्-टाप्] एक प्रकार की पूतना या प्रेत-आत्मा।
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कटफरेस  : पुं० [सं० कट+फेश] ऐसा ताजा या नया माल जो किसी कारण से थोड़ा-बहुत कट-फट गया हो या कुछ खराब या दागी हो गया हो और इसी लिए सस्ता बिकता हो।
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कटंब  : पुं० [सं०√कट्+अम्बच्] १. एक प्रकार का बाजा। २. बाण।
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कटभी  : स्त्री० [सं० कट√भा (चमकना)+ड-ङीष्] १. छोटी ज्योतिष्मती लता। २. अपराजिता। ३. कँटीला शिरीष। पुं० [देश] मझोले आकार का एक प्रकार का फलदार वृक्ष। करभी।
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कटमालिनी  : स्त्री० [सं० कट-माला, ष० त०+इनि-ङीष्] अंगूर से बनाई हुई शराब।
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कंटर  : पुं० [अं० डिकैंटर] शीशे की बनी हुई एक प्रकार की सुराही जिसमें शराब अथवा कई प्रकार के पेय सुगंधित द्रव्य रखे जाते हैं। पुं०=कनस्टर।
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कटर  : स्त्री० [सं० कट=घास-फूस] एक प्रकार की घास। वि०=कट्टर। वि० [अं०] काटनेवाला। पुं० १. वह जिससे कुछ काटें। २. छोटा चाकू। ३. एक प्रकार की छोटी नाव। पन-सुइया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटरना  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मछली।
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कटरा  : पुं० [हिं० कठ+घरा] छोटा चौकोर बाजार। पुं० =कटड़ा। (भैस का नर बच्चा)।
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कटरिया  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का धान। स्त्री० [हिं० कटार] छोटी कटारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटरी  : स्त्री० [देश] १. धान की फसल का रोग २. नदी के किनारे एक ऐसी दलदल जिसमें नरकट उत्पन्न होता हो।
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कटरेती  : स्त्री०=कठ-रेती।
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कटल्लू  : वि० [हिं० काटना] काटनेवाला पुं० कसाई। बूचड़।
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कटवाँ  : वि० [हिं० कटना+वाँ (प्रत्यय)] १. जिसमें कटाव हो। जैसे—कटवाँ बेल। २. (ब्याज) जो हर रकम और उसके बाकी पड़ने के दिनों के हिसाब से अलग-अलग जोड़ा जाय।
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कटवा  : पुं० [हिं० कांटा] एक प्रकार की छोटी मछली जिसके गलफड़ों के पास काँटे होते हैं। पुं०=कठला।
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कटवाना  : स० [हिं० काटना का प्रे० रूप] किसी को कोई चीज काटने में प्रवृत्त करना। काटने का काम दूसरे से कराना।
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कटवाँस  : पुं० =कठ-बाँस।
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कटसरैया  : स्त्री० [सं० कटसरिका] अड़से की जाति का एक कँटीला पौधा, जिसमें रंग-बिंरगी फूल लगते हैं।
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कटहर  : पुं० =कटहल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कटहरा  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की छोटी मछली। पुं०=कटघरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटहरी  : स्त्री० [हिं० कटहल] छोटा कटहल। वि० १. कटहल संबंधी। २. जिसमें कटहल की सी गंध हों। जैसे—कटहरी चंपा।
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कटहरी चंपा  : पुं० [हिं० कटहल+चंपा (फूल)] एक प्रकार का चंपा जिसकी गंध कटहल की सी मिलती-जुलती और तीव्र परन्तु मीठी होती है।
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कटहल  : पुं० [सं० कंटकिफल] १. एक प्रसिद्ध पेड़ जिसमें बहुत बड़े-बड़े ऐसे लंबे लंबोत्तर फल लगते हैं, जिनका छिलका कड़ा तथा काँटेदार होता है। २. उक्त फल, जिसका अचार और तरकारी बनाई जाती है। (जैकफ्रूट)।
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कटहला  : पुं० [हिं० कटहल] १. वह आभूषण जिसमें कटहल के छिलके जैसी दानेदार कटाई या खुदाई की गयी हो। २. उक्त प्रकार की कटाई या खुदाई।
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कटहा  : वि० [हिं०√काटना+हा (प्रत्यय)] १. (जंतु या जीव) जिसे लोगों को काटने की आदत पड़ गयी हो। जैसे—कटहा कुत्ता, कटहा घोड़ा। २. (व्यक्ति) जो बात-बात में क्रुद्ध होकर इस प्रकार लड़ने लगता हो कि मानो काट खायेगा। पुं० [सं० कट्ट-कंकाल (या शव)] अंत्येष्टिक्रिया के समय का दान लेनेवाला ब्राह्मण। महापात्र। महाब्राह्मण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंटा  : पुं० [सं० कांड] वह पतली तथा छोटी लकड़ी जिसके एक सिरे पर चपड़ा या लाख लगा रहता है और जिससे चुड़िहारे चूड़ियाँ रँगते हैं।
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कटा  : उभय० [हिं० काटना] १. काटने की क्रिया या भाव० उदाहरण—…ठाढ़ी अटा पै कटा करती हो।—ठाकुर। २. मार-काट। ३. वध। हत्या। ४. बहुत-से लोगों की एक साथ होनेवाली हत्या। सार्विक हत्या। (मैसेकर)
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कटा-कटी  : स्त्री० [हिं० काटना+कटना] १. मार-काट। २. आपस में होनेवाला ऐसा भीषण विरोध, विवाद या शत्रुता, जिसमें एक दूसरे को काट या मारकर समाप्त कर देना चाहते हों।
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कटा-छनी  : स्त्री० [हिं० कटना या काटना+छनना या छानना] १. कुछ लोगों में आपस में होनेवाली मार-काट। २. आपस में होनेवाला गहरा विवाद अथवा कटुतापूर्ण उत्तर-प्रत्युत्तर।
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कटाइक  : वि० [हिं० काटना] १. काट करने या काटनेवाला। २. काट खानेवाला। कटहा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंटाइन  : स्त्री० [सं० कात्यायिनी] १. चुंडैंल। २. कर्कश या लड़ाकी स्त्री। वि० [?] बिलकुल ठीक या पक्का।
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कटाई  : स्त्री० [हिं० काटना] १. कोई चीज कटने या काटने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. पकी हुई तैयार फसल को काटने की क्रिया, भाव या मजदूरी। स्त्री०=भटकटैया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटाउ  : पुं० =कटाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटाक्ष  : पुं० [सं० कट√अक्ष् (व्याप्ति)+अच्] १. देखने का भाव। चितवन। जैसे—कृपा-कटाक्ष। २. विशेषतः कुछ तिरछी नजर से देखने की क्रिया या भाव। ३. वे काली रेखाएँ, जो शोभा के लिए आँखों के नीचे खींची जाती हैं। ४. किसी को खिन्न, दुखी या लज्जित करने के लिए कही जानेवाली कोई व्यंग्यपूर्ण बात। (सरकैस्ज्म)।
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कटाग्नि  : स्त्री० [सं० कट-अग्नि, ष० त०] घास-फूस की आग।
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कटाच्छ  : पुं० =कटाक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कटाछ  : पुं० =कटाक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटान  : स्त्री० [हिं०काटना] १. काटने की क्रिया या भाव। कटाई। २. काटने का ढंग या प्रकार। कटाव।
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कटाना  : स० [हिं० काटना का प्रे० रूप] १. काटने का काम किसी से कराना। २. ऐसा काम करना जिससे कोई कुछ काटने में प्रवृत्त हो या काटने के लिए विविश हो।
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कंटाप  : पुं० [हिं० कनटोप] किसी वस्तु का अगला या सामनेवाला भारी भाग या सिरा।
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कँटाय  : स्त्री० [सं० किंकिणी] एक प्रकार का कँटीला पेड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँटार  : वि०=कँटीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटार  : (ी) स्त्री० [सं० कट्टार] प्रायः एक बित्ता लंबा एक प्रकार का दुधारा शस्त्र या हथियार जो छोटी तलवार की तरह होता है। पुं० कटास (जंतु)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटारा  : पुं० [हिं० कटार] १. बड़ी कटार। २. इमली की फली। ३. ऊँट कटारा नामक पौधा।
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कटारिया  : पुं० [हिं० कटार] मध्य युग में एक प्रकार का रेशमी कपड़ा, जिसमें कटार जैसी धारियाँ बनी होती थीं।
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कंटाल  : पुं० [सं० कंट√अल् (पर्याप्त)+अच्] एक प्रकार की वनस्पति। रामबाँस।
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कटाली  : स्त्री० =भटकटैया।
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कटाव  : पुं० [हिं० काटना] १. किसी वस्तु के कटने या काटे जाने की अवस्था, ढंग,भाव या रूप। जैसे—नदी या पहाड़ का कटाव। (इरोजन) २. कसीदे, पच्चीकारी आदि में फूल-पत्तियाँ आदि बनाने के लिए की जानेवाली कटाई। ३. बेल-बूटे आदि बनाने का काम।
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कटावदार  : वि० [हिं० कटाव+दार (प्रत्यय)] १. जिसके किनारे आरी के दाँतों की तरह जगह-जगह कटे हुए हों। जैसे—कटावदार झालर या पत्ती। २. (वस्तु) जिस पर बेल-बूटे काटे या खोदे गये हों।
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कटावन  : पुं० [हिं० काटना] १. काटने की क्रिया या भाव। २. किसी वस्तु का कटा हुआ छोटा टुकड़ा। कतरन।
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कटाष्पना  : स० [सं० कटाक्ष] कटाक्ष करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कटास  : पं० [हिं० काटना] एक प्रकार का बनबिलाव। स्त्री० काटने की प्रवृत्ति या रुचि। स्त्री० =कटार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटाह  : पुं० [सं० कट-आ√हन् (हिंसा)+ड] १. बड़ी कड़ही। कड़ाहा। २. कछुए के ऊपर का कठोर आवरण। खपड़ा। ३. कूआँ। ४. नरक। ५. कुटी। झोंपड़ी। ६. ऐसा भैंसा जिसके सींग निकलने लगे हों। ६. टीला।
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कटि  : स्त्री० [सं०√कट् (ढकना)+इन] १. मनुष्य के शरीर का वह मध्य भाग जो पेट और चूतड़ों के बीच में होता है। कमर। २. किसी वस्तु का मध्य भाग। ३. चूतड़। नितंब। ४. देव-मंदिर का दरवाजा। ५. हाथी का गंडस्थल। ६. पीपल। वि० [हिं०कटीला] काट करनेवाला। उदाहरण—बड़े नयन कटि भृकुटि भाल बिसाल।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कटि-जेब  : स्त्री० [सं० कटि+फा० जेब=शोभा] करधनी।
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कटि-बद्ध  : वि० [ब० स०] १. जिसने कोई काम करने को कमर कस ली हो। उद्यत। २. तत्पर।
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कटि-बंध  : पुं० [ष० त०] १. कमरबंद। पटका। २. भूगोल में, गरमी-सरदी के विचार से किये हुए पृथ्वी के पाँच भागों में से हर एक। (ट्रापिक) जैसे—उष्ण कटिबंध, शीत कटिबंध आदि।
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कटि-रोहक  : पुं० [ष० त०] हाथी चलानेवाला। फीलवान।
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कटि-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] सूत की वह डोरी, जो कमर में पहनी या बाँधी जाती है। सूत की करधनी।
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कंटिका  : स्त्री० [सं०√कंट्+ण्वुल्-अक-टाप्,इत्व] सूई के आकार की छोटी पतली या नोक दार तीली, जिससे कागज आदि नत्थी किये जाते हैं। आलपीन। (पिन)।
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कटिका  : स्त्री० [सं० कटि+कन्-टाप्] नितंब। चूतड़।
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कँटिया  : स्त्री० [हिं० काँटी] १. लोहे आदि से बना हुआ गोला तथा नुकीला छोटा काँटा, जो दीवार लकड़ी आदि में गाड़ा या धँसाया जाता है। छोटा काँटा। कील। २. मछली फँसाने की नुकीली अँकुसी। ३. बहुत-सी अंकुसियों के गुच्छे के रूप में बना हुआ वह उपकरण, जिसकी सहायता से कुँए में गिरे हुए लोटे, बालटियाँ, हंडे आदि निकालते हैं। ४. इमली की ऐसी छोटी फली, जिसमें बीज न पड़े हों।
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कटिया  : स्त्री० [हिं० काटना] १. नगीनों को काट-छाँट कर सुडौल करनेवाला। २. छोटे-छोटे टुकड़ों में कटा हुआ चौपायों का चारा। ३. भैंस का मादा बच्चा। स्त्री०=कँटिया (काँटा का स्त्री० अल्पा०)।
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कँटियाना  : अ० [हिं० काँटा] १. काँटों से युक्त होना। २. रोमांचित होना। उदाहरण—मन-मोहन छबि पर कटी कहै कँटयानी देह। स० १. (दीवार लकड़ी आदि में) काँटे लगाना। काँटों से युक्त करना। २. रोमांचित करना।
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कटियाना  : स्त्री० [हिं० काँटा] पुलकित या रोमांचित होना। स० पुलकित या रोमांचित करना।
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कटियाली  : स्त्री० [सं० कंटकारि] भटकटैया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कटी  : स्त्री० [सं० कटि+ङीष्] पिप्पली। स्त्री०=कटि (कमर)।
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कटीरा  : पुं०=कतीरा (गोंद)।
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कटील  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का कपास।
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कँटीला  : वि० [हिं० काँटा+ईला (प्रत्यय)] १. जो काँटों से युक्त हो। जैसे—कँटीला पौधा। २. जिसमें काँटे लगे या जड़े हों। जैसे—कँटीला तार।
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कटीला  : वि० [हिं० काट+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० कटीली] १. कटा करने या काटने वाला। जैसे—कटीली आँखें। २. धारदार। तेज। ३. खटकने, गड़ने या चुभनेवाला। जैसे—कटीला व्यंग्य। ४. अच्छी काट, तराश, बनावट या सज-धजवाला। जैसे—कटीला जवान। पुं०=कतीरा (गोंद)।
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कटु  : वि० [सं०√कट्+उ] १. जिसके स्वाद में कडुवापन या तीक्ष्णता हो। चिरायते, नीम आदि की तरह के स्वादवाला। चरपरा। लगनेवाला। अप्रिय। जैसे—कटु वचन, कटु व्यवहार। ४. कष्टदायक। जैसे—कटु सत्य। ५. काव्य में, रस के विरुद्ध वर्णों की योजना। जैसे—श्रृंगार रस में ट, ठ, ड आदि वर्ण। पुं० वैद्यक में छः प्रकार के रसों में से एक जो चिरायते, नीम आदि की तरह के स्वाद का होता है।
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कटु-छंदक  : पुं० [सं० ब० स०] उत्कट या तीक्ष्ण गंध या स्वादवाला कंद। जैसे—अदरक, मूली, लहसुन आदि।
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कटु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०ङीष्] भड़भाँड़। सत्यानाशी।
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कटु-फल  : पुं० [ब० स०] कायफल।
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कटु-रव  : पुं० [ब० स०] मेंढक।
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कटुआँ  : पुं० [हिं० काटना] १. धान की फसल में लगनेवाला काले रंग का छोटा कीड़ा। २. महाजनी लेन-देन में, ब्याज जोड़ने का वह ढंग या प्रकार जिसमें हर रकम का अलग-अलग और पूरे दिनों का हिसाब लगाया जाता है। मितीकाटा।
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कटुआ  : वि० [हिं० काटना] १. काटकर टुकड़े-टुकड़े किया हुआ। विभक्त किया हुआ। २. जो काटकर बना हो। ३. जिसका कुछ अंश काटकर निकाल लिया गया हो। जैसे—कटुआ दही (जिसके ऊपर की मलाई काटकर निकाल ली गई हो)। ४. काटनेवाला।
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कटुका  : वि० =कटु।
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कटुता  : स्त्री० [सं० कटु+तल्-टाप्] १. कटु होने की अवस्था या भाव। कटुत्व। कड़आपन। २. विरोध, वैमनस्य, वैर आदि के कारण दो पक्षों में एक दूसरे के प्रति होनेवाली दुर्भावना। जैसे—उन लोगों के व्यवहार से कटुता आ गई है।
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कटुत्व  : पुं० [सं० कटु+त्व] =कटुता।
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कटुभाषी (षिन्)  : वि० [सं० कटु√भाष् (बोलना)+णिनि] अप्रिय कष्टदायक बातें कहने वाला।
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कटुर  : पुं० [सं०√कट्+उरन्] छाछ। मट्ठा।
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कटुष्ण  : विं० [सं० कु-उष्ण, कुगचि सं०० आदेश] कम या थोड़ा गरम। कुनकुना। (विशेषतः तरल पदार्थ)
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कटूक्ति  : स्त्री० [सं० कटु+उक्ति, कर्म० स०] कडुई या अप्रिय बात। ऐसी उक्ति या बात जो किसी को कष्ट देती हो। अप्रिय कटु या कड़वी बात।
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कटूमर  : स्त्री० [सं० कटु ?] जंगली गूलर या उसका पेड़।
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कटूरना  : अ० [हिं० कटु+घूरना ?] उपेक्षा और क्रोधपूर्वक किसी की ओर देखना।
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कँटेरी  : स्त्री० [सं० कंटकी] भटकटैया।
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कटेरी  : स्त्री०=भटकटैया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँटेला  : पुं०=कठकेला।
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कटेली  : स्त्री० [देश] कपास की एक जाति या प्रकार।
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कटैया  : पुं० [हिं० काटना] काटने या काट करनेवाला। स्त्री० काटने की क्रिया या भाव। जैसे—नक-कटैया। स्त्री०=भटकटैया।
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कटैला  : पुं० [?] एक प्रकार का घटिया रत्न।
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कंटोप  : पुं०=कनटोप।
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कटोर  : पुं० [सं०√कट्+ओलच्, ल=र] मिट्टी का बरतन।
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कटोरदान  : पुं० [हिं० कटोरा+फा० दान प्रत्यय] ऐसा कटोरा जिस पर ढक्कन भी लगा हो।
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कटोरा  : पुं० [सं० कटोर] [स्त्री० अल्पा० कटोरी] नीची दीवार, खुले मुँह और चौड़े पेदें का एक प्रसिद्ध बरतन। मुहावरा—कटोरा चलाना=एक प्रकार की तांत्रिक प्रक्रिया जिसमें मंत्रबल से कटोरा इस प्रकार खिसकाया जाता है कि वह चारों ओर बैठे हुए उस व्यक्ति के पास जाकर रूक जाता है जिसने कोई चीज चुराई हो।
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कटोरिया  : स्त्री०=कटोरी।
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कटोरी  : स्त्री० [कटोरा का अल्पा] १. छोटा कटोरा। २. उक्त आकार का कपड़े का वह टुकड़ा जो स्त्रियों की कुरतियों, चोलियों आदि में उस स्थान पर लगाया जाता है जहाँ पहनने के समय उनके स्तन रहते हैं। ३. वनस्पति विज्ञान में, उक्त कटोरी के आकार का पत्तियों का वह घेरा जिसमें फूलों के दल या पंत्तियाँ निकलती हैं। ४. कटोरी के आकार का धातु का वह अंश जो कटार, तलवार आदि की मूठ में उसके ऊपर बना रहता है। ५. कटोरी के आकार-प्रकार की कोई छोटी वस्तु। जैसे—कपड़े पर टाँके जानेवाले सितारों की कटोरियाँ।
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कटोल  : वि० [सं०=कट्+ओलच्] कडुआ। कटु। पुं० चांडाल।
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कटौती  : स्त्री० [हिं० काटना+औती (प्रत्य०] १. किसी चीज के कटने या काटे जाने की क्रिया या भाव। २. आजकल मुख्य रूप से, किसी को दिये जानेवाले धन (देन, वेतन आदि) में से किसी उद्देश्य या कारण से उसका कुछ अंश कम करने या काट लेने की क्रिया या भाव। (कट) ३. उक्त प्रकार से काटा हुआ या कम किया हुआ धन। पद—कटौती का प्रस्ताव =आजकल विधान सभाओं आदि में, किसी विभाग के कार्यों के संबंध में असंतोष प्रकट करने के लिए उसके खर्च की माँग में से कुछ अंश काट लेने या कुछ रकम घटा देने का प्रस्ताव। (कट मोशन)।
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कटौसी  : स्त्री० =कटवाँसी। (एक प्रकार का बाँस)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कट्टर  : वि० [हिं० काटना] १. काट खानेवाला। कटहा। २. (व्यक्ति) जो अपने मत, विचार, सिद्धांत आदि पर अंधविश्वास और उद्दंडतापूर्वक दृढ़ रहता हो अथवा उसका समर्थन करता हो और अपने विरोधियों से लड़ने के लिए तैयार रहता हो। (बिगाँट) ३. दृढ़प्रतिज्ञ। हठ-धर्मी।
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कट्टहा  : पुं० [सं० कटशव+हिं० हा (प्रत्य०] अंत्येष्टि क्रिया के समय का दान लेनेवाला ब्राह्मण। महापात्र। महाब्राह्मण।
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कट्टा  : वि० [हिं० काठ] १. मोटा-ताजा। हट्टा-कट्टा। २. बलवान। बलिष्ठ। पुं० १. सिर के बालों में पड़ने या होनेवाला एक कीड़ा। जूँ। २. जबड़ा। मुहावरा—(कोई चीज किसी के) कट्टे लगना=बुरी तरह हाथ से निकल कर किसी दूसरे के हाथ में पहुँच जाना अथवा नष्ट या व्यर्थ हो जाना। जैसे—यह घड़ी तो तुम्हारे कट्टे लग गई। (अर्थात् तुम्हें मिल गई या तुम्हारे कारण नष्ट हो गई)। पुं० [?] [स्त्री० कट्टी] भैंस का बच्चा। (पश्चिम)।
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कट्टार  : पुं० [सं० कट्ट√ऋ (गति)+अण्] कटार।
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कट्टी  : वि० [सं० कष्टिट] जिसे कष्ट पहुँचा हो। पीड़ित।
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कट्ठना  : स० १. काटना। २. काढ़ना। अ०=कटना।
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कट्ठा  : पुं० [हिं० काठ] १. खेत या जमीन नापने का एक पुराना नाप जो पाँच और चार अंगुल लंबा और इतना ही चौड़ा होता है। २. अनाज तौलने का एक मान जो पाँच सेर का होता है। ३. काठ का वह बरतन जिसमें उक्त मान के अनुसार पाँच सेर अनाज आता है। ४. धातु गलाने की भट्ठी। दबका। ५. एक पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत कड़ी होती है। ६. एक प्रकार का गेहूँ जो मध्यम श्रेणी और लाल रंग का होता है।
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कट्फल  : पुं० [सं०√कट्+क्विप्, कट-फल (ब० स०)] कायफल।
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कट्याना  : अ० [सं० कंटक, हिं० कटियाना] कंटकित या रोमांचित होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंठ  : पुं० [सं०√कण् (शब्द करना)+ठ] १. गरदन। गला। २. गले का वह भीतरी भाग जिसके अंदर वे नलियाँ होती हैं जिनसे भोजन पेट में जाता है और आवाज या स्वर निकलता है। ३. गले से निकली हुई आवाज या स्वर। मुहावरा—कंठ फूटना=(क) वर्णों के स्पष्ट उच्चारण का आरंभ होना। बोलने लगना। (ख) मुँह से शब्द निकलना। ४. तोते आदि पक्षियों के गले पर लाल, नीली आदि कई रंगों की वृत्ताकार लकीर। हँसली। ५. किनारा। तट। ६. मैनफल। वि० (कविता बात आदि) जो जबानी याद हो। कंठस्थ। जैसे—उन्हें सारी गीता कंठ है।
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कठ  : पुं० [सं०√कठ् (कष्ट से जीवन बिताना)+अच्] १. एक प्रसिद्ध वैदिक ऋषि जो वैशंपायन के शिष्य थे। कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा जिसका प्रवर्त्तन उक्त ऋषि ने किया था। ३. एक प्रसिद्ध उपनिषद् जो कुछ लोगों के मत से अथर्ववेद से और कुछ लोगों के मत से कृष्ण यजुर्वेद से संबंद्ध है। ४. काठ का एक प्रकार का पुराना बाजा। वि० [हिं०काठ का संक्षिप्त रूप] एक विशेषण जो कुछ समस्त पदों के रूप में अर्थ देता है-१. काठ का बना हुआ। जैसे—कठ-घरा, कठ-पुतली। २. काठ से संबंध रखनेवाला। जैसे—कठ-रेती। ३. काठ की तरह कठोर या कडा़। (अन्नों, फलों आदि के संबंध में उनके निकृष्ट या अखाद्य होने का सूचक) जैसे—कठ-केला, कठ-जामुन। ४. काठ की तरह शुष्क और फलतः निर्मम या निष्ठुर और हृदयहीन। जैसे—(कठ-कलेजा (कठोर हृदयवाला), कठ-बाप (सौतेला पिता जो प्रायः संतान के प्रति निष्ठुर होता है), कठमुल्ला (बिना कुछ समझे बूझे धार्मिक नियमों या बंधनों का पालन करनेवाला)। ५. काठ की तरह जड़ और फलतः किसी बात की चिंता या परवाह न करनेवाला। जैसे—कठ-मस्त। पुं० [सं० कठ्=कष्ट] १. कष्ट। तकलीफ। दुःख। २. परिश्रम। मेहनत।
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कठ-कीली  : स्त्री० [हिं० काठ+कीली] १. काठ की बनी हुई कील या खूँटी। २. पच्चर।
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कंठ-कुब्ज  : पुं० [ब० स०] एक प्रकरा का सन्निपात। (वैद्यक)
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कंठ-कूणिका  : स्त्री० [उपमि० स०] वीणा।
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कठ-केला  : पु० [हिं० काठ+केला] एक प्रकार का जंगली केला जिसका फल काठ की तरह कड़ा होता है।
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कठ-कोला  : पु०=कठ-फोड़ा (पक्षी)।
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कंठ-गत  : वि० [द्वि० त०] गले तक या गले में आया हुआ। जैसे—किसी के प्राण कंठगत होना।
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कठ-गुलाब  : पुं० [हिं० काठ+गुलाब] एक प्रकार का जंगली गुलाब।
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कठ-घरा  : पुं० [हिं० काठ+घेरा] १. काठ का बना हुआ जँगलेदार घेरा। २. वह बड़ा पिंजरा जिसमें शेर, चीते आदि बन्द किये जाते हैं।
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कठ-घोड़ा  : पुं० [हिं० काठ+घोड़ा] १. काठ का बना हुआ घोड़ा। २. खेल तमाशे आदि के लिए बनाया हुआ काठ का ऐसा घोड़ा जिस पर अभिनेता लोग सवारी करते है। लिल्ली घोड़ी।
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कठ-जामुन  : पुं० [हिं० काठ+जामुन] १. जामुन वृक्ष की एक जाति जिसके फल खट्टे तथा काट की तरह कड़े होते हैं। २. उक्त वृक्ष का फल।
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कंठ-तालव्य  : वि०=कंठ्य-तालव्य।
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कठ-फोड़वा  : पुं० =कठ-फोड़ा (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठ-फोड़ा  : पुं० [हिं० काठ+फोड़ना] एक प्रकार का छोटा पक्षी जिसकी चोंच नुकीली तथा लंबी होती है। यह प्रायः अपनी चोंच से वृक्षों के तने खोदा करता है तथा उनमें से निकलनेवाले कीड़े-मकोड़े खाता है।
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कठ-फोर  : पुं० =कठ-फोड़ा।
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कठ-बंधन  : पुं० [हिं० काठ+बंधन] हाथी के पैरों में बाँधी जानेवाली बेड़ी जो काठ की बनी होती है। अँदुआ।
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कठ-बाप  : पुं० [हिं० काठ+बाप] काठ की तरह कठोर हृदय वाला अर्थात् सौतेला बाप, जिसे अपनी पत्नी के उन बच्चों से कोई प्रेम नहीं होता जो उस स्त्री के पहले पति से उत्पन्न हुए हों।
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कठ-बाँस  : पुं० [हिं० काठ+बाँस] एक प्रकार का बाँस जो प्रायः ठोस होता है और जिस पर बहुत पास-पास गाँठें होती हैं।
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कठ-बेर  : पुं० [हिं० काठ+बेर] घूँट नामक पेड़ जिसकी छाल चमड़ा रँगने के काम आती है।
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कठ-बेल  : पुं० [हिं० काठ+बेल] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसके फल बेल के आकार के परन्तु उससे कुछ छोटे तथा बहुत कड़े होते हैं। २. उक्त वृक्ष के फल।
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कंठ-मणि  : पुं० [मध्य० स०] १. कंठहार। २. घोड़े के गले के पास होने वाली एक भौंरी।
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कठ-मलिया  : पुं० [हिं० काठ+माला] उन वैष्णवों या साधुओं के लिए उपेक्षासूचक पद जो केवल दिखाने के लिए काठ के बने हुए मनकों की माला पहनते हैं। दिखावटी या नकली साधु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कठ-मस्त  : पुं० [हिं० काठ+मस्त] [भाव० कठमस्ती] १. ऐसा व्यक्ति जो काठ की तरह जड़ या आस-पास की सब बातों से उदासीन या बेखबर रहता हो। वह जिसे किसी बात की चिंता या ध्यान न हो। २. व्यभिचारी।
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कंठ-माला  : स्त्री० [मध्य० स०] गले में होनेवाला एक प्रकार का रोग, जिसमें जगह-जगह गिल्टियाँ निकल आती हैं। (स्क्रॉफ्यूला)
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कठ-मुल्ला  : पुं० [हिं० काठ+मुल्ला] १. वह मुल्ला, जो काठ के मनकों की माला फेरता हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, अनपढ़, मूर्ख या नकली धर्म-गुरु या मौलवी।
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कठ-रेती  : स्त्री० [हिं० काठ+रेती] काठ या लकड़ी रेतने की रेती।
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कठ-वल्ली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा की एक उपनिषद्।
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कंठ-शूल  : पुं० [स० त०] घोड़े के गले की एक भौंरी।
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कंठ-श्री  : स्त्री० [मध्य० स०] १. गले में पहनने का एक प्रकार का जड़ाऊ गहना। २. कंठी। माला।
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कंठ-सिरी  : स्त्री० कंठ-श्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंठ-हार  : पुं० [ष० त०] १. गले में पहनने का हार। २. ऐसी वस्तु जो किसी से सदा चिपकी या लगी रहे तथा जिससे जल्दी पीछा न छूटे।
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कठंगर  : वि० [हिं० काठ+अंग] १. जिसके अंग काठ के बने हों। २. काठ की तरह दृढ़ अंगोंवाला। बहुत ही हष्ट-पुष्ट या मोटा-ताजा।
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कठंजरा  : पुं० [सं० काष्ठ-पंजर] १. लकड़ियों का बना हुआ ढाँचा। २. कठघरा। उदाहरण—अठारह भार कोट कठंजरा लाइलें।—गोरखनाथ।
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कठड़ा  : पुं० [हिं० काठ] काठ का चौंड़े मुँह तथा ऊँची दीवारवाला बड़ा बरतन। कठौता। पुं० =कठघरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठताल  : पुं० =करताल।
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कठपुतली  : स्त्री० [हिं० काठ+पुतली] १. काठ की बनी हुई पुतली जिसे डोरे या तार की सहायता से नचाया जाता है। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा व्यक्ति जो दूसरों के इशारे पर नाचता हो। वह जिसे अपनी सूझ-बूझ न हो जो दूसरों के कहने के अनुसार चलता हो।
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कठमर्द  : पुं० [सं० कठ√मृद् (चूर्ण करना)+अण्] शिव।
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कठर  : वि० [सं०√कठ्+अरन्] कठोर। कड़ा। सख्त।
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कठरा  : पुं०=कठघरा। पुं० [स्त्री० कठरी] =कठड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठरिया  : स्त्री० [हिं० कोठरी] छोटी कोठरी।
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कठला  : पुं० [सं० कंठ+हिं० ला (प्रत्यय)] गले में पहनने का एक प्रकार का आभूषण जिसमें सोने-चाँदी के मनके गुँथे होते हैं।
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कठलोना  : पुं० [स्त्री० कठलोनी]=कठड़ा।
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कठवत  : स्त्री०=कठौत।
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कंठस्थ  : वि० [सं० कंठ्स्था (ठहरना)+क] १. गले में आकर अटका, ठहरा या रुका हुआ। २. जबानी याद किया हुआ। जैसे—पाठ कंठस्थ होना।
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कँठहरिया  : स्त्री०=कंठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँठहरी  : स्त्री०=कंठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंठा  : पुं० [हिं० कंठ] १. बड़ी कंठी, जिसमें बड़े-बड़े मनके होते हैं। २. काले, लाल आदि रंग की वह रेखा, जो कई प्रकार के पक्षियों के गले में रहती है। ३. अँगरखे या कुरते का वह गोलाकार भाग, जो गले पर पड़ता है।
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कंठाग्र  : वि० [कंठ-अग्र, ष० त०] (कविता, पद्य आदि) जो जबानी याद किया गया हो। कंठस्थ।
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कठारा  : पुं० [सं० कंठकिनारा+हिं० आरा (प्रत्यय)] ताल, नदी आदि का किनारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कठारी  : स्त्री० [हिं० काठ+आरी (प्रत्यय)] १. काठ का बरतन। २. कमंडल।
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कंठाल  : पुं० [सं०√कंठ् (स्मरण करना)+आलच्] १. नाव। २. कुदाल। ३. युद्ध।
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कठासी  : स्त्री० [सं० कट√आस्+णिनि] मुर्दों के गाड़ने की जगह। कबरिस्तान।
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कठिठ्या  : स्त्री० [सं० काष्ठा] १. घेरा। २. सीमा। (राज०)।
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कठिन  : वि० [सं० कठ्+इनच्] [भाव० कठिनता] १. (कार्य) जो सरलता या सुगमता से न किया जा सके। जिसे पूरा करने में अधिक परिश्रम शक्ति तथा समय अपेक्षित हो। मुश्किल। २. (बात, वाक्य शब्द आदि) जो बोधगम्य हो। जो सहज में समझ में न आता हो। (डिफिकल्ट) ३. कठोर। कड़ा। सख्त। ४. कठोर-हृदय। उदाहरण—मातु चिराव कठिन की नाई।—तुलसी। स्त्री०=कठिनता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कठिनई  : स्त्री० [हिं० कठिन] १. कठिनता। २. विकट परिस्थिति। मुहावरा—कठिनाई ठानना=कठिन या विकट परिस्थिति उत्पन्न करना। झंझट या बखेड़ा खड़ा करना। उदाहरण—नैननि निपट कठिनई ठानी।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठिनता  : स्त्री० [सं० कठिन+तल्-इन] १. कठिन होने की अवस्था, गुण या भाव। २. काम में होनेवाली अड़चन या बाधा। ३. ऐसी दशा या परिस्थिति, जिसमें प्रसंग सामने आतें हों और जिससे पार पाने के लिए विशेष कौशल, धैर्य, परिश्रम अपेक्षित हों। (डिफिकल्टी)
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कठिनत्व  : पुं० [सं० कठिन+त्व]=कठिनता।
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कठिनाई  : स्त्री०=कठिनता।
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कठिनी  : स्त्री० [सं० कठिन+ङीष्] १. खड़िया मिट्टी। २. हाथ की सबसे छोटी उँगली।
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कठिया  : वि०=काठा। स्त्री० [हिं० काठ] एक प्रकार की भाँग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठियाना  : अ०=कठुआना।
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कठिहारा  : पुं० [हिं० काठ+हारा (प्रत्यय)] [स्त्री० कठिहारिन] लकड़हारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंठी  : स्त्री० [कंठा का अल्प० रूप] १. छोटी गुरियों की माला। छोटा कंठा। २. तुलसी आदि के बहुत छोटे दानों की वह माला, जो वैष्णव लोग किसी मत में दीक्षित होने के समय पहनते हैं, और जिसके उपरांत वे विशिष्ट आचार-विचारपूर्वक रहते हैं। मुहावरा—कंठी तोड़ना=वैष्णवत्व का त्याग करके फिर से मछली-मांस आदि खान लगना। (किसी को) कंठी देना या बाँधना=चेला बना कर वैष्णव धर्म में दीक्षित करना। कंठी ले लेना=वैष्णव धर्म में दीक्षित होकर आचार-विचारपूर्वक रहना। ३. कुछ पक्षियों के गले की वह गोल धारी, जो देखने में कंठी या माला की तरह होती है। हँसली। जैसे—तोते या मोर की कंठी। वि० [सं० कंठ+इनि] कंठ या ग्रीवा से संबंध रखने या उसमें होनेवाला।
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कंठी-रव  : पुं० [ब० स०] १. सिंह। शेर। २. कबूतर। ३. मतवाला हाथी।
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कठीर  : पुं० [सं० कंठीरव] सिंह। (डिं०)।
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कठुआना  : अ० [हिं० काठ] १. सूखकर काठ की तरह कठोर या कड़ा होना। जैसे—फलों का कठुआना, सरदी से हाथ-पैर कठुआना। २. सूखकर लकड़ी होना। क्षीण होना। स० काठ की तरह कठोर या कड़ा करना।
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कठुला  : पुं० =कठला।
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कठुवाना  : अ०=कठुआना।
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कठूमर  : पुं० [हिं० काठ+ऊमर] जंगली गूलर।
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कठेठ  : (ा) वि० [हिं० काठ+एठ(प्रत्यय)] [स्त्री० कठेठी] १. कठोर, सख्त। २. अप्रिय। कटु। ३. कठोर अंगोंवाला अर्थात् बलवान, हृष्ट-पुष्ट।
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कठेठी  : स्त्री० १. =कठोरता। २. =कठिनता।
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कठेल  : पुं० [हिं० काठ+एल (प्रत्यय)] १. धुनियों की कमान जिसमें ऊन या रूई धुनते समय धुनकी को बाँधकर लटकाते हैं। २. केसरों का एक औजार।
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कठैला  : पुं० =कठौता।
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कठोटा  : पुं० =कठौत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठोदर  : पुं० [हिं० काठ+उदर] एक रोग जिसमें पेट कड़ा होकर फूलने या बढ़ने लगता है।
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कठोर  : वि० [सं०√कठ्+ओरन्] [भाव० कठोरता, स्त्री० कठोरा] १. (पदार्थ) जिसका तल इतना कड़ा हो कि सहज में दबाया या धँसाया न जा सके। जो दबाने से दबे नहीं। ‘कोमल’ या ‘मुलायम’ का विपर्याय। सख्त। २. (कार्य) जिसे पूरा करने में विशेष आयास, मनोयोग आदि की आवश्यकता हो। जो सहज में निबाहा न जा सके। कठिन। कड़ा। जैसे—कठोर परिश्रम। ३. (बात या व्यवहार) जो उग्र तथा कष्टदायक होने के कारण अप्रिय या असह्य हो। जैसे—कठोर दंड, कठोर वचन। ४. जिसका अनुसरण निर्वाह या पालन सहज में न हो सके। जैसे—कठोर नियम, कठोर व्रत। ५. (व्यक्ति अथवा उसका कार्य या मन) जिसमें उदारता, दया, प्रेम आदि कोमल तथा मानवोचित्त गुणों या विशेषताओं का अभाव हो। जैसे—कठोर व्यवहार, कठोर हृदय।
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कठोरता  : स्त्री० [सं० कठोर+तल्-टाप्] १. कठोर होने की अवस्था, गुण या भाव। कड़ापन। २. कार्य, व्यवहार आदि में होनेवाली कड़ाई। सख्ती।
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कठोरताई  : स्त्री०=कठोरता।
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कठोरपन  : पुं० =कठोरता।
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कठोरीकरण  : पुं० [सं० कठोर+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट-अन] किसी कोमल वस्तु को कठोर करने या बनाने की क्रिया या भाव। कठोर करना या बनाना।
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कठोल  : वि० [सं०√कठ्+ओलच्] =कठोर।
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कठौत  : स्त्री० [हिं० काठ+औता (प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० कठौती] चौड़ें मुँह का काठ का बना हुआ कटोरा या बरतन। कठरा।
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कठौता  : पुं० कठौत।
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कठ्ठना  : अ० [सं० कर्षण] बाहर आना। निकलना। उदाहरण—कठ्ठी वे घटा करे कालाहणि।—प्रिथीराज। स० निकालना (राज०)।
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कंठ्य  : वि० [सं० कंठ+यत्] कंठ संबंधी। गले का। पुं० वह वर्ण, जिसका उच्चारण कंठ से होता हो। जैसे—अ, क, ख, ग, घ, ङ, ह और विसर्ग।
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कंठ्य-तालव्य  : वि० [द्व० स०] (वर्ण) जिसका उच्चारण कंठ तथा तालु दोनों के योग से होता हो। (गठरोपैलेटल) जैसे—‘ए’ और ‘ऐ’ वर्ण।
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कंठ्यौष्ठ्य  : वि० [कंठ्य-औष्ठ्य, द्व० स०] (व्याकरण के अनुसार वह वर्ण) जिसका उच्चारण कंठ और ओंठ से एक साथ किया जाय।
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कँड  : पुं० [सं० कर्ण] नाव की पतवार। जैसे—गँडहारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कड़  : पुं० [देश] १. कुसुम या बर्रे नाम का पौधा। २. उक्त पौधे के बीज, जिनका तेल निकाला जाता है। स्त्री० [सं० कटि] कमर। (डिं०)।
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कड़क  : स्त्री० [कड़-कड़ से अनु] १. कड़-कड़ शब्द उत्पन्न करने की क्रिया या भाव। २. उक्त प्रकार से उत्पन्न होने वाला शब्द। ३. वह पीड़ा जो रुक-रुक कर हो। कसक। ४. तड़प। ५. गाज। वज्र। ६. घोड़े की सरपट चाल। ७. एक प्रकार का मूत्र रोग जिसमें रुक-रुककर और जलन के साथ पेशाब होता है। पुं० [सं०√कड्+अच्+कन्] समुद्री नमक।
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कड़क बाँका  : पुं० [हिं० कड़क+बाँका] १. वह योद्धा या सैनिक जो युद्ध में विपक्षी को ऊँचे स्वर में ललकारता हो। २. छैला।
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कड़क-बिजली  : स्त्री० [हिं० कड़क+बिजली] १. कान में पहनने का एक प्रकार का आभूषण। २. एक प्रकार की बंदूक। ३. एक प्रकार की आतिशबाजी जिसमें बिजली की सी कड़क तथा चमक होती है। ४. एक प्रकार का उपकरण जिससे किसी रोग की चिकित्सा के लिए शरीर में बिजली पहुँचाई जाती है।
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कड़कड़  : पुं० [अनु] १. दो वस्तुओँ के जोर से टकराने पर होनेवाला शब्द। २. किसी वस्तु के टूटने-फूटने, जलने आदि पर होनेवाला शब्द।
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कड़कड़ाता  : स० [अनु०] किसी वस्तु का कड़-कड़ शब्द उत्पन्न करना। जैसे—बादलों का कड़कड़ाना। २. किसी वस्तु को इस प्रकार दबाना या तोड़ना कि वह कड़कड़ शब्द करने लगे। जैसे—किसी की हड्डी पसली कड़कड़ाना। ३. किसी वस्तु को इस प्रकार गरम करना कि उसमें कड़-कड़ शब्द होने लगे। जैसे—घी कडकड़ाना। अ० कड़-कड़ शब्द होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कड़कड़ाहट  : स्त्री० [हिं० कड़कड़+आहट (प्रत्यय)] १. कड़कड़ाने की क्रिया या भाव। २. कड़-कड़ शब्द।
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कड़कना  : अ० [हिं० कड़-कड़ से अनु०] १. कड़-कड़ शब्द होना। २. किसी वस्तु का चिटकना या फटकना। ३. क्रोधपूर्वक तथा गरजकर किसी से कुछ कहना। ४. रेशमी कपड़ें का तह पर से फटना।
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कड़कनाल  : स्त्री० [हिं० कड़क+नाल] एक प्रकार की चौड़े मुँहवाली पुरानी तोप जो दागे जाने पर घोर शब्द करती थी।
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कड़का  : पुं० [हिं० कड़क] किसी वस्तु के टकराने, टूटने, फटने आदि से होनेवाला जोर का शब्द।
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कड़खा  : पुं० [सं० कर्ष] १. सैंतीस मात्राओं का एक छंद। २. सैनिकों को उत्साहित करने के लिए युद्ध क्षेत्र में गाया जानेवाला गीत जो प्रायः उक्त छंद में होता है। ३. विजय-गान।
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कड़खैत  : पुं० [हिं० कड़खा+एत (प्रत्यय)] युद्ध-क्षेत्र में कड़खा गानेवाला चारण या भाट।
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कडंगा  : वि० [हिं० काठ+अंग] १. जिसके अंग कड़े अर्थात् मजबूत हों। बट्टा-कट्टा। २. अक्खड़। उद्दंड।
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कड़छा  : पुं० [स्त्री० कड़छी] =कलछा।
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कँडन  : पुं० [सं०√कंड् (तोड़ना)+ल्युट-अन] १. कूटना। २. मारना-पीटना। ३. छाँटना।
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कंडनी  : स्त्री० [सं० कंडन+ङीष्] ऊखल और मूसल जिनसे धान आदि कूटते हैं।
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कड़बड़ा  : वि० [सं० कर्वर=कबटा] चितकबरा (दे०)।
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कड़बा  : पुं० [?] लोहे का वह गोल घेरा जिससे हलके फाल के ऊपर इसलिए लगाते हैं कि जोताई बहुत गहरी न हो।
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कड़बी  : स्त्री० [?] ज्वार के डंठल जो गौओं-भैसों के चारे के रूप में खिलाये जाते हैं।
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कँड़रा  : पुं० [सं० कंदल] मूली,सरसों आदि का मोटा डंठल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंडरा  : स्त्री० [सं०√कंड्+अरन्-टाप्] १. वह मोटी नस, जिसमें से रक्त चलता है। २. डोरी की तरह का मांस-तंतुओं का वह बंधन जो मांस-पेशियों को हड्डियों के साथ जोड़े या मिलाये रखता है। (टेण्डन, सिन्यू)।
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कडला  : पुं० [हिं० कड़ा+ला (प्रत्य)] बच्चों के पहनने का छोटा कड़ा।
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कड़वा  : वि० [स्त्री० कड़वी]=कड़आ।
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कड़वी  : स्त्री०=कड़बी।
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कड़हन  : पुं० [हिं० कठघान] एक प्रकार का मोटा धान और उसका चावल।
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कँड़हारा  : पुं० [सं० कर्णधार] नाविक। माँझी। उदाहरण—ज कहँ अइस होहिं कँडहारा।—जायसी।
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कंडा  : पुं० [सं० स्कंदन=मलत्याग] १. गाय, भैंस आदि का सूखा या सुखाया हुआ गोबर। २. पाथा हुआ गोबर। उपला। मुहावरा—कंडा हो जाना=(क) बहुत ही सूख जाना। (ख) क्षीण या दुर्बल होना। (ग) मर जाना। ३. सूखा मल।
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कड़ा  : वि० [सं० कडु] [स्त्री० कड़ी, भाव० कड़ाई] १. (पदार्थ) जिसके कणों, तंतुओं, संयोजक अवयवों आदि की बनावट या संघात इतना घना,ठोस या दृढ़ हो कि उसे काटा,तोड़ा,दबाया या लचाया न जा सके और इसलिए जिसमें कुछ गड़ाना या धँसाना बहुत कठिन हो। कठोर। सख्त। ‘कोमल’ या ‘मुलायम’ विपर्याय। जैसे—कड़ी जमीन, कड़ा तख्ता, कड़ा लोहा। २. (पदार्थ) जिसमें आर्द्रता या जलीय अंश सूखकर इतना कम हो या इतना कम बच रहा हो कि उसे सहज में मनमाना रूप न दिया जा सके। जैसे—कड़ा (गूँधा हुआ) आटा, कड़ा चमड़ा। ३. (अन्न या फल) जो अभी अच्छी तरह गला, घुला या पका न हो। जैसे—कड़ा आम, कड़ा केला, पकाये हुए चावल का कड़ा दाना। ४. (पदार्थ) जो अपने स्थान पर इस प्रकार गड़, जम या धँसकर बैठा हो कि सहज में इधर-उधर हटाया-बढ़ाया न जा सके। चारों ओर से अच्छी तरह कसा हुआ। ‘ढीला’ का विपर्याय। जैसे—किसी यंत्र का कोई कड़ा पुरजा या पेंच, किसी प्रकार की कड़ी गाँठ या बंधन। ५. (पदार्थ) जिसमें उग्र परिणाम या तीव्र प्रभाव उत्पन्न करने का गुण या शक्ति हो। तेज। जैसे—कड़ी दवा,कड़ी शराब। ६. (तत्त्व) जिसमें उग्रता, तीव्रता या विकटता नियमित या साधारण से अधिक हो और इसलिए जो अप्रिय, असह्य या कष्टप्रद जान पड़े। जैसे—कड़ी आँच या धूप, कड़ी गरमी, कड़ा जाड़ा। ७. जिसमें कोमलता, मधुरता सरसता आदि के बदले कठोरता, कर्कशता, रूक्षता आदि बातें अधिक हों। जैसे—कड़ा व्यवहार, कड़ा स्वभाव। ८. जिसमें कठोरता, दृढ़ता या सतर्कता का अधिक ध्यान रखा जाता हो। जैसे—कड़ी निगाह, कड़ा पहरा। ९. जो अपनी उचित,नियत या निर्धारित मात्रा, मान या सीमा से आगे बढ़ा हुआ हो। असाधारण। जैसे—कड़ी उमर, कड़ा तगादा, कड़ी मेहनत, कड़ा सूद। १॰. जिसका अनुसरण या पालन कठोरता या दृढ़तापूर्वक होता हो या होना आवश्यक या उचित हो। जिसका उल्लंघन अनुचित, दंडनीय या निंदनीय हो। जैसे—कड़ी आज्ञा, कड़ा नियम। ११. (व्यक्ति) जो नियम, परिपाटी, प्रथा, व्यवस्था आदि के पालन में उपेक्षा या शिथिलता न करता हो अथवा न सह सकता हो। जैसे—कड़ा मालिक, कडा़ हाकिम। १२. (व्यक्ति) जो सहज में भावुकता या कोमल मनोवृत्तियों से प्रभावित न होता हो अथवा जो विकट परिस्थितियों में भी बिना विचलित हुए धैर्य, साहस आदि से काम लेता हो। जैसे—कड़े दिल का आदमी। १३. (व्यक्ति) शारीरिक दृष्टि से हष्ट-पुष्ट। तगड़ा। १४. (कार्य) जिसमें विशेष आयास, परिश्रम, मनोयोग आदि की आवश्यकता हो और इसलिए जो सहज में हर किसी से न हो सकता हो। दुस्साध्य। मुश्किल। जैसे—कड़ा काम, कड़ी नौकरी। १५. (कार्य या व्यवहार) जिससे उग्रता, क्रोध, तिरस्कार या रोष सूचित होता हो। जैसे—कड़ा जवाब, कड़ी बात। पुं० [सं० कटक] [स्त्री० कड़ी] १. बड़े और मोटे छल्ले की तरह का एक प्रसिद्ध वृत्ताकार गहना जो हाथों की कलाइयों या पैरों में पिंडलियों के नीचे पहना जाता है। वलय। २. उक्त प्रकार का वह बड़ा छल्ला जो कुछ चीजों में उन्हें उठाने या पकड़ने के लिए या छतों आदि में कोई चीज लटकाने के लिए लगा रहता है। जैसे—कंडाल या कड़ाही का कड़ा। ३. छत पाटने का वह ढंग या प्रकार जिसमें वह बिना कड़ियाँ या शहतीर लगाये केवल गारे,चूने आदि से बनाई जाती है। जैसे—इस मकान के सब कमरों में कड़े की पाटन है। ४. एक प्रकार का कबूतर।
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कड़ाई  : स्त्री० [हिं० कड़ा+आई (प्रत्यय)] १. कड़े होने की अवस्था, गुण या भाव। कड़ापन २. कठोरता, सख्ती। जैसे—नौकरों के साथ की जानेवाली कड़ाई।
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कड़ाकड़  : क्रि० वि० [हिं० कड़-कड़ से अनु०] लगातार कड़-कड़ शब्द करते हुए। जैसे—कुत्ते का कड़ाकड़ हड्डी चबाना।
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कड़ाका  : पुं० [हिं० कड़ा से अनु०] १. बहुत जोर से होनेवाला कड़ शब्द जो प्रायः किसी चीज के गिरने, टूटने आदि से होता है। जैसे—बिजली का कड़ाका। पद—कड़ाके का बहुत जोर का। प्रचंड। जैसे—कड़ाके की गरमी या सरदी। २. उपवास। फाका।
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कड़ाबीन  : स्त्री० [तु० कराबीन] एक प्रकार का छोटा बंदूक जो प्रायः कमर में बाँधी या लटकाई जाती है। झोंका।
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कंडारी  : पुं० [सं० कर्णधारिन्] जहाज का मांझी (लश०)।
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कंडाल  : पुं० [सं० कंडोल] १. पानी रखने का, लोहे-पीतल आदि का बड़ा, गोलाकार तथा गहरा बरतन। २. कैंची की तरह का जुलाहों का एक औजार, जिससे वे ताने पर पाई करते हैं। पुं० [फा० करनाय] तुरही की तरह का एक बाजा।
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कडाह  : पुं० [सं० कटाह] १. कड़ी कड़ाही। कड़ाहा। २. (कड़ाही में बना होने के कारण) हलुआ। (सिक्ख)
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कड़ाहा  : पुं० [सं० कटाह, प्रा० कड़ाह] [स्त्री० अल्पा० कड़ाही] पीतल लोहे आदि का बना हुआ गोल पेंदे, खुले मुँह तथा ऊँची दीवारों का एक प्रसिद्ध पात्र जिसमें खाने-पीने की चीजें तली या पकाई जाती हैं।
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कड़ाही  : स्त्री० [हिं० कड़ाहा] छोटे आकार का छिछला कड़ाहा। मुहावरा—कड़ाही चढ़ना=किसी विशेष अवसर पर इष्टमित्रों को खिलाने-पिलाने के लिए पूरी, तरकारी, मिठाई आदि बनाना। कड़ाही में हाथ डालना =(क) अग्निपरीक्षा देना। (ख) जान-बूझकर संकट मोल लेना।
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कड़ि  : स्त्री० १. =कली। २. =कड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंडिका  : स्त्री० [सं०√कंड्+ण्वुल्-अक-टाप्] १. वेद की ऋचाओं का समूह। २. वैदिक ग्रंथों का कोई छोटा खंड या परिच्छेद।
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कड़ियल  : वि० [हिं०कड़ा] १. बहुत कड़े दिलवाला। साहसी। २. हट्टा-कट्टा। हष्ट-पुष्ट। जैसे—कड़ियल जवान। पुं० [?] छोटे कड़े या हाँड़ी का वह नीचेवाला टुकड़ा जिसमें आँच रखकर दबाई जाती है।
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कड़िया  : स्त्री० [सं० कांड] अनाजों का वह सूखा डंठल जिसके बीज झाड़ लिये गये हों।
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कड़िहा  : वि०=कढ़िहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंडिहार  : पुं० [सं० कर्णधार] केवट। मल्लाह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंडी  : स्त्री० [हिं० कंडा] १. जलाने का छोटा कंडा। उपली। २. पेट से निकलनेवाला बहुत सूखा मल। सुछा।
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कड़ी  : स्त्री० [हिं० कड़ा (आभूषण)] १. जंजीर, लड़ी आदि के उन गोल छल्लों में से हर एक जिनके आपस में एक दूसरे में गुथे, जड़े या पिरोये रहने से वह जंजीर या लड़ी बनती है। २. उक्त छल्लों के आपस में गुथे, जड़े या पिरोये जाने से बना हुआ रूप। जंजीर। श्रृंखला। ३. धातु का कोई छोटा वलय, जिसमें चीजें टाँगी, फँसाई या लटकाई जाती हैं। ४. घोड़े की लगाम जिसमें आगे की ओर गोल कड़ी या छल्ला लगा रहता है। उदाहरण—हरि घोड़ा, ब्रह्मा कड़ी बासुकि पीठि पलान।—कबीर। ५. लाक्षणिक अर्थ में, लगातार या क्रम से चलती रहने वाली घटनाओं,बातों आदि में से हर एक। जैसे—(क) बीच में मत बोलिए नहीं तो बातों की कड़ी टूट जायगी। (ख) यह भी इस घटना क्रम की एक कड़ी है। ६. गीत आदि का कोई एक चरण। स्त्री० [सं० कांड, हिं० कांड़ी] १. छतों आदि की पाटन में लगनेवाली छोटी धरन। मुहावरा—कड़ी बोलना=धरन का अकारण आप-से-आप चट-चट शब्द करना। (गृहस्थ के लिए अशुभ या शकुन) २. बकरी, भेंड़ आदि की छाती की हड्डी। स्त्री० [हिं० कड़ा=कठिन] कष्ट। संकट। जैसे—कड़ी उठाना, कड़ी झेलना, कड़ी सहना।
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कड़ी धरती  : स्त्री० [हिं०] १. ऐसा प्रदेश जहाँ के लोग हट्टे-कट्टे होते हों। २. ऐसा प्रदेश या स्थान जहाँ अनेक प्रकार के कष्टों या संकटों का सामना करना पड़ता हो।
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कड़ी सजा  : स्त्री० [हिं०+फा०] १. किसी प्रकार का कठोर दंड। जैसे—नौकर या लड़के को कड़ी सजा देना। २. न्यायालय द्वारा दिया हुआ किसी अपराधी को ऐसा दंड जिसमें उसे कारावास में कठोर परिश्रम भी करना पड़ता है। सपरिश्रम कारावास। (रिगरस इम्प्रिजन्मेंट)
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कड़ीदार  : वि० [हिं० कड़ी+फा० दार(प्रत्यय)] १. जिसमें कड़ी बुनी या लगी हो। छल्लेदार। २. जिसमें कड़ियों की तरह की आकृतियाँ या बेल-बूटे बने हों। जैसे—कड़ीदार कसीदा।
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कंडील  : स्त्री० [अ० कंदील] एक प्रकार का आधान, जिसमें दीपक जलाया जाता है। दीपाधार।
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कंडीलिया  : स्त्री० [अ० कंदील या पुर्त्त० गंडील] समुद्र में चट्टानों के पास जहाजों को सावधान करने के लिए बना हुआ ऊँचा धरहरा, जिसके ऊपर रोशनी की जाती है। प्रकाश-गृह। (लाइट हाउस)।
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कंडु  : पुं० [सं०√कंड्+उ] खाज।
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कड़ुआ  : वि० [सं० कटुक, प्रा० कडुअ] [भाव० कड़ुआपन, कड़ुआहट, स्त्री० कड़ुई] १. जो स्वाद में अधिक झालदार तथा तीक्ष्ण होने के कारण अप्रिय हो। जो खाने या पीने में असह्य हो। ‘मीठा’ का विपर्याय। जैसे—कड़ई दवा। २. लाक्षणिक अर्थ में, (ऐसी बात) जो अप्रिय तथा कटु हो। जैसे—कड़ुई बात। मुहावरा—(धन) कड़ुआ करना=अनिच्छापूर्वक रुपए खर्च करना या लगाना। जैसे—अब सौ रुपए कड़ुए करो तो काम चले। (किसी से) कड़ुआ पड़ना या होना (क) असंतुष्ट होने पर क्रुद्ध होना। (ख) बुरा बनना। पद—कड़ुए कसैले दिन (क) अकाल, दुर्भिक्ष या रोग के दिन। दुर्दिन। (ख) स्त्रियों के लिए गर्भवती रहने का समय। ३. उग्र या कड़े स्वभाववाला। क्रोधी। पद—कड़ुआ मुँह-वह व्यक्ति जो मुँह से अप्रिय और कड़ी बात निकालता हो। उदाहरण—रहिमन कडुए मुखन को किरियै यही उपाय।—रहीम।
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कड़ुआ तेल  : पुं० [हिं० कड़ुआ+तेल] सरसों का तेल जो बहुत झालदार होता है।
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कड़ुआना  : अ० [हिं० कड़ुआ] १. किसी चीज का कड़ुआ होना। २. कुद्ध या नाराज होना। बिगड़ना। ३. किसी वस्तु की झाल आँखों में लगने पर अथवा अधिक समय तक जागते रहने पर आँखों में चुन-चुनाहट या जलन होना। जैसे—प्याज या मिर्च पीसी जाने पर या रात भर न सोने से आँखें कडुआना।
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कड़ुआहट  : स्त्री० [हिं० कड़ुआ+हट (प्रत्यय)] कड़ुवा होने की अवस्था, गुण या भाव। कड़ुआपन।
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कड़ुई खिचड़ी  : स्त्री० =कड़ुई रोटी।
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कड़ुई रोटी  : पद—स्त्री० [हिं०] जिस घर में किसी की मृत्यु हुई हो, उस घर के लोगों के लिए इष्ट-मित्रों या संबंधियों के यहाँ से आया हुआ भोजन (घर में भोजन न पकने की दशा में)।
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कंडुक  : पुं० [सं० कंडु√कै+क] १. भिलावाँ। २. तमाल।
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कंडुयन  : पुं० [सं०√कंड्+यक्+ल्युट-अन] [वि० कंडूयनक] खुजली।
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कँडुवा  : पुं० [हिं० कांदो या सं० कंडु] बालवाले अन्नों का एक रोग। कंजुआ। झीटी। पुं० १. =कँडुआ। २. =कंडु (खुजली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंडू  : पुं० [√कंडू (खुजलाना)+क्विप्]=कंडु।
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कड़ू  : वि०=कड़ुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कड़ूगा  : वि० [हिं० कड़ा+अंग]=कड़ंगा।
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कंडूल  : वि० [सं० कंड्+लच्] खाज या खुजली पैदा करनेवाला। पुं० ओल। जमीकंद।
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कड़ूला  : पुं० [हिं० कड़ा+अला (प्रत्य)] १. बच्चों के हाथ में पहनने का छोटा कड़ा। २. हाथ में पहनने का साधारण कड़ा। उदाहरण—बाजूबंद कड़ूला सोहै।—मीराँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कड़े लोट (न्)  : पुं० [हिं० कड़ा+लोटना] मालखंभ की एक करसत।
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कँडेरा  : पुं० [सं० कांड=शर] एक प्राचीन जाति, जो तीर-कमान बनाती थी, पर अब रुई धुनने का काम करती है।
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कड़ेरा  : पुं० दे० ‘खरादी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कड़ोड़ा  : पुं० =करोड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंडोल (क)  : पुं० [सं०√कंड्+ओल्] १. बाँस आदि का बना हुआ टोकरा। २. भंडार-गृह।
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कंडोल-वीणा  : स्त्री० [उपमि० स०] चांडाल की वीणा। किंगरी।
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कंडौर  : पुं० =कंडौरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंडौरा  : पुं० [हिं० कंडा+औरा (प्रत्य)] १. वह स्थान, जहाँ कंडे या उपले थापे जाते हैं। २. वह स्थान, जहाँ सूखे हुए उपले या कंडे रखे जाते हों। ३. कंडों या उपलों का ढेर।
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कड्ढ़ा (ढ़ू)  : वि० [हिं० काढ़ना] १. काढ़ने या निकालनेवाला। २. ऋण या कर्ज लेनेवाला।
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कढ़त  : स्त्री० [हिं० कढ़ना] १. कढ़ने या काढ़ने की क्रिया या भाव। २. बाहर निकलने या निकालने की क्रिया या भाव। निकासी। (विशेषतः बिक्री की चीजों या माल के संबंध में)।
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कढ़ना  : अ० [सं० कर्षण, पा० कड्ढन] १. बाहर आना या निकलना। उदाहरण—इधर गोकुल से जनता कढ़ी।—हरिऔध। मुहावरा—कढ़ जानास्त्री का किसी प्रेमी के साथ निकल या भाग जाना। २. उदय होना। ३. (प्रतिद्वंद्विता में) आगे निकल जाना। स० काढ़ना। (बाहर निकालना)। अ० [सं० क्वथन] दूध आदि तरल पदार्थों का आग पर औटकर गाढ़ा होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कढ़नी  : स्त्री० [सं० कर्षणी, प्रा० कड्ढनी] १. वह रस्सी जिससे दूध, दही आदि मथकर उसमें से मक्खन निकालने के लिए मथानी घुमाई जाती है। नेती। २. जमीन की वह अंतिम जोताई जिसके बाद उसमें अनाज बोया जाता है।
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कढ़रा (ला) ना  : स० [हिं० काढ़ना+लाना] काढ़ने का काम किसी से कराना, किसी को कुछ काढ़ने में प्रवृत्त करना। (दे० ‘काढ़ना’) जैसे—कसीदा कढ़वाना, दूध कढ़वाना, किसी के घर से कोई स्त्री कढ़वाना आदि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कढ़ाई  : स्त्री० [हिं०कढ़ना या काढ़ना] कढ़ने या काढ़ने की क्रिया, ढंग भाव या मजदूरी। (दे० ‘कढ़ना’ और ‘काढ़ना’) स्त्री०=कड़ाही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कढ़ाना  : स० [हिं० काढ़ना का प्रे०] १. किसी को कुछ काढ़ने में प्रवृत्त करना। कढ़वाना। २. गाने-बजाने वालों की बोल-चाल में (क) किसी को प्रोत्साहित करके गाने-बजाने में प्रवृत्त करना। (ख) कोई गाना आरंभ करना। ३. नाचने, गाने और पेशा कमाने वाली स्त्रियों की बोलचाल में किसी नई स्त्री को गाने-बजाने या पेशा कमाने के काम में प्रवृत्त करके आगे बढ़ाना या सामने लाना।
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कढ़ाव  : पुं० [हिं० काढ़ना] १. कढ़ने या काढे़ जाने की क्रिया, प्रकार या भाव। २. ऐसा काम जिसमें सूई तागे आदि से काढ़कर बेल-बूटे आदि बनाये गये हों। ३. कपड़े पर कढ़े या बने हुए बेल-बूटों का उभार। पुं० =कड़ाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कढ़ावना  : स० =कढ़वाना या कढ़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कढ़िराना  : स० =कढ़राना (घसीटकर या धक्का देकर निकालना या निकलवाना)। उदाहरण—सूर तबहुँ न द्वार छाँडैं डारिहौ कढ़िराए।—सूर।
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कढ़िहार  : वि० [हिं० काढ़ना=निकालना+हार(वाला) प्रत्यय] १. निकालनेवाला। २. विपत्ति आदि से उद्धार करनेवाला। ३. उधार या ऋण काढ़ने अर्थात् लेनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कढ़ी  : स्त्री० [हिं० कढ़ना=उबालना] एक प्रकार का प्रसिद्ध तरल व्यंजन या सालन जो घुले हुए बेसन को उबालकर बनाया जाता है। मुहावरा—बासी कढ़ी में उबाल आना=शक्ति, सामर्थ्य आदि के अभाव में भी आवेश या उत्साह उत्पन्न होना। पद—कढ़ी का सा उबाल=ऐसा आवेश, उत्साह या क्रोध जो बहुत सहज में ठंडा पड़ जाय या जाता रहे।
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कढ़ुआ  : वि० [हिं० काढ़ना] १. काढ़ा या निकाला हुआ। २. औटाकर गाढ़ा किया हुआ। ३. जिस पर बेल-बूटें आदि बनाये गये हों। ४. कहीं से काढ़ या निकालकर लाया हुआ। ५. किसी उद्देश्य से काढ़ या निकालकर अलग रखा हुआ। पुं० १. ऋण। कर्ज। २. [स्त्री० कढ़ुई] वह पात्र जिससे बड़े तथा गहरे पात्रों में से चीजें निकाली जाती हैं।
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कढ़ुई  : स्त्री० [हिं० काढ़ना] मिट्टी का छोटा पुरवा जिससे बरतन में से कोई चीज निकाली जाती हैं। वि० कहीं से उड़ा या निकालकर लाई हुई (स्त्री०)।
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कढ़ेरना  : पुं० [हिं० काढ़ना] वह उपकरण जिससे नक्काशी करने वाले धातु आदि के बरतनों पर गोल लकीरें आदि बनाते हैं।
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कढ़ैया  : वि० [हिं० काढ़ना] १. काढ़नेवाला। २. विपत्ति आदि से निकालने या बचानेवाला। स्त्री० =कड़ाही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कढ़ोरना  : स० [सं० कर्षण या हिं० काढ़ना] १. बलपूर्वक बाहर निकालना। २. घसीटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कण  : पुं० [सं०√कण् (गति)+अच्] १. किसी कड़ी या ठोस वस्तु का कोई बहुत छोटा अंश या दाना। जैसे—बालू के कण। (पार्टिकल) २. किसी जैव या सेंद्रिय पदार्थ अथवा उसके अंग का कोई बहुत छोटा टुकड़ा। जैसे—रक्त कण। ३. अनाज का दाना या उसका टुकड़ा। ४. किसी चीज के ऊपर उभरा या निकला हुआ छोटा या महीन अंश। दाना। ५. दे० ‘केलास’।
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कणकच  : पुं० [?] १. करंज। कंजा। २. केवाँच। कौंछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कणगच  : पुं० =कणकच।
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कणजीरक  : पुं० [सं० कण-जीर, कर्म० स०,×कन्] एक प्रकार का सफेद जीरा।
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कणप  : पुं० [सं० कण√पा (पीना)+क] बरछा। भाला।
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कणयर  : पुं०=कनेर।
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कणा  : स्त्री० [सं० कण+टाप्] १. छोटा कण या बहुत छोटा टुकड़ा। २. पीपल।
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कणाटीर  : पुं० [सं० कण√अट् (गति)+ईरन्] खंजन पक्षी।
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कणाद  : पुं० [सं० कण√अद् (खाना)+अण्] वैशेषिक दर्शन के रचयिता प्रसिद्ध मुनि जिन्हें उलूक भी कहते थे। २. सुनार।
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कणिक  : पुं० [सं० कण+ठन्-इक] [स्त्री० अल्पा० कणिका] १. अनाज का दाना या उसका टुकड़ा। २. गेहूँ, चावल आदि की बालें। ३. गेहूँ के आटे से बना हुआ पकवान या भोजन। ४. जल-कण। पानी की बूँद। ५. शत्रु। दुश्मन।
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कणियर  : पुं० कनेर।
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कणिष्ठ  : वि०=कनिष्ठ।
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कणी  : स्त्री०=कनी।
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कणीकरण  : पुं० [सं० कण+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट-अन] दे० ‘केलासन’।
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कणीसक  : स्त्री० [सं० कणिक] गेहूँ,चावल जौ आदि की बालें।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कणेर  : पुं० [सं०√कण्+एर्] कनेर। (पेड़ और फूल)।
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कण्व  : पुं० [सं०√कण्+क्वन्] १. एक वैदिक ऋषि जो शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा के प्रवर्त्तक थे। २. कश्यप गोत्र में उत्पन्न एक प्रसिद्ध ऋषि जिन्होंने अपने आश्रम में शकुंतला को पुत्री की तरह पाला था।
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कंत  : पुं० [सं० कांत] १. पत्नी या स्त्री की दृष्टि से उसका पति या स्वामी। २. रहस्य संप्रदाय में, (क) काया या शरीर। (ख) जीव। (ग) परमात्मा।
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कत  : पुं० [सं० क√तन् (विस्तार)+ड] १. निर्मली। २. रीठा। पुं० [अ० कत] किसी चीज की विशेषतः सरकंडे आदि की कलम का वह अगला भाग जो लिखने के लिए कुछ तिरछा काटा जाता है। वि० [सं० कियत्] १. कितना। २. बहुत अधिक। अव्य० [सं० कुतः] १. किस जगह। कहाँ। २. किस लिए। क्यों।
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कतई  : क्रि० वि० [अ०] १. निपट। निरा। बिलकुल। २. कदापि। हरगिज। वि० पूर-पूरा और साफ या अंतिम। जैसे—कतई इन्कार, कतई हुकुम।
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कतक  : पुं० [सं० क√तक् (हँसना)+घ] १. निर्मली। २. रीठा। वि० केतक। (कितना)।
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कतकी  : वि० [सं० कार्तिक (मास)] कार्तिक संबंधी। कार्तिक का। जैसे—कतकी पूर्णिमा। स्त्री० कार्तिक में पकनेवाली फसल। उदाहरण—कतकी की फसल तक निर्वाह कैसे करूँगा ?-वृंदावनलाल वर्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कतना  : अ० [हिं० =कातना] (रेशम, सूत आदि का) काता जाना। स० कातना। वि० कितना।
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कतनी  : स्त्री० [हिं० कातना] १. कांतने की क्रिया, भाव या मजदूरी कताई। २. सूत कातने की तकली।
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कतन्ना  : स० १. =कातना। २. =कतरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कतन्नी  : स्त्री० १. दे० ‘करतनी’। २. दे० ‘चरखी’।
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कतर-ब्योंत  : स्त्री० [हिं० कतरना+ब्योंत] १. कतर या काटकर अपनी आवश्यकता या ब्योंत के अनुसार कोई चीज उपयुक्त बनाने की क्रिया या भाव। काट-छाँट। २. उलट-फेर। हेर-फेर। ३. किसी बात के संबंध में किया जानेवाला सोच-विचार। ४. युक्ति।
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कतरछाँट  : स्त्री०=कतर-ब्योंत।
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कतरन  : स्त्री० [हिं० कतरना] १. कतरने की क्रिया, ढंग या भाव। २. किसी वस्तु के वे छोटे-छोटे टुकड़े जो किसी कारण विशेष से उस वस्तु से काटकर अलग किये गये हों। जैसे—(क) कपड़े या कागज की कतरन। (ख) गरी का कतरन।
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कतरना  : स० [सं० कर्तन या कृंतन] १. कपड़े कागज या लोहे आदि की चद्दरों को कैंची से काटकर दो या कई टुकड़ों में विभक्त करना। २. लाक्षणिक अर्थ में, बीच में से काटना। जैसे—बात कतरना। ३. किसी प्रकार काट या निकालकर अलग करना। जैसे—पाँच रुपए आप ने भी उसमें से कतर लिये। ४. दे० ‘कुतरना’। पुं० [स्त्री० अल्पा० कतरनी] बड़ी कतरनी या कैंची।
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कतरनाल  : स्त्री० [हिं० कतरना+नाल=चरखी] एक प्रकार की दोहरी गड़ारीवाली चरखी।
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कतरनी  : स्त्री० [हिं० कतरना या सं० कर्त्तनी] दो फलोंवाला एक प्रसिद्ध उपकरण जिससे कपड़े,कागज आदि काटे जाते हैं। कैंची। मुहावरा—कतरनी की तरह (या कतरनी सी) जबान चलना=बहुत जल्दी-जल्दी और अनावश्यक रूप से और कुछ उद्दंडतापूर्वक मुँह से बातें निकालना। २. लुहारों, सुनारों आदि की कैची की तरह का वह औजार जिससे वे धातु की चादरें या पत्तर काटते हैं। ३. कोई चीज काटने वाला औजार। जैसे—जुलाहों, तमोलियों, मोचियों आदि की कतरनी। स्त्री० [?] दक्षिण भारत की नदियों में पायी जानेवाली एक प्रकार की मछली।
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कतरवाँ  : वि० [हिं० कतरना+वाँ (प्रत्यय)] १. जो कतर या काट कर निकाला या बनाया गया हो। २. घुमाव-फिराव वाला। टेढ़ा-तिरछा।
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कतरवाई  : स्त्री० [हिं० कतरवाना+आई (प्रत्यय)] १. कतरवाने की क्रिया या भाव। (क्व०) २. कतरवा कर तैयार कराने का पारिश्रमिक या मजदूरी। जैसे—इस कमीज या कोट की कतरवाई पाँच रुपए है।
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कतरवाना  : स० [हिं० कतरना] दूसरे को कोई चीज कतरने में प्रवृत्त करना। कतरने का काम दूसरे से करवाना।
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कतरा  : पुं० [अ० कतरः] जल या तरल पदार्थ की बूँद। टीप। पुं० [हिं० कतरना] कट या टूटकर निकला हुआ अथवा कतर या काटकर निकाला हुआ छोटा टुकड़ा। जैसे—पत्थर का कतरा। २. एक प्रकार की बड़ी नाव।
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कतराई  : स्त्री० [हिं० कतरना] १. कतरवाई (दे०) २. कतराकर जाने की क्रिया या भाव।
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कतराना  : अ० [हिं० ‘कतरना’ का प्रे० रूप] [भाव० कतराई] १. कतरने का काम किसी से कराना। कतरवाना। २. किसी की निगाह बचाते हुए दूर से या चुपके से किसी और निकल जाना।
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कतरी  : स्त्री० [सं० कर्त्तरी=चक्र] १. कोल्हू का पाट, जिस पर बैठकर बैल हाँके जाते हैं। कातर। २. हाथ में पहनने का एक प्रकार का गहना। ३. एक प्रकार का औजार जिससे दीवारों में कारनीस बनायी जाती है। ४. दे० ‘कतली’। स्त्री० [१] वह यंत्र जिसकी सहायता से जहाज पर नावें रखी जाती हैं। (लश०।)
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क़तल  : पुं० [अ० क़त्ल] तलवार आदि से किसी व्यक्ति को काट डालने की क्रिया या भाव। वध। हत्या। पद—कतले आमसार्वजनिक रूप से लोगों का किया जानेवाला वध। सार्वजनिक हत्या।
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क़तलबाज  : पुं० [अ० कत्ल+फा० बाज] जल्लाद। वधिक। वि० कतल करने या किसी प्रकार जान मारनेवाला।
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कतला  : पुं० [सं० कर्त्तन या हिं० कतरा] [स्त्री० अल्पा कतली] किसी चीज का कटा हुआ चौकोर बड़ा टुकड़ा। जैसे—बरफी का कतला।
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कतलाम  : पुं० =कतलेआम।
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कतली  : स्त्री० [हिं० कतला] १. चीनी का शीरा पका कर उसमें गरी की करतनें, तरबूज के बिए, बादाम आदि डालकर जमाई हुई बरफी। २. उक्त का कटा हुआ चौकोर छोटा टुकड़ा। ३. दे० ‘कतरी’।
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कतवाना  : स० [हिं० कातना का प्रे० रूप] कातने का काम किसी दूसरे से कराना। कातने में किसी को प्रवृत्त करना।
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कतवार  : पुं० [सं० कच्चर, प्रा० कच्चवार] १. घर की सफाई करने पर निकलने वाला कूड़ा-करकट। २. लाक्षणिक अर्थ में,अनुपयोगी तथा व्यर्थ की बटोरी हुई वस्तुएँ। वि० [हिं० कातना] कातनेवाला।
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कतवारखाना  : पुं० [हिं० कतवार+फा० खाना] कूड़ा-करकट फेंकने का सार्वजनिक स्थान।
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कतहुँ (हूँ)  : अव्य० [हिं० कत+हूँ] कहीं। क्रि० वि० [हिं० कत+हूँ] १. किसी स्थान पर। २. किसी जगह। कहीं। २. कहीं-न-कहीं।
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कंता  : पुं० =कंत।
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कता  : स्त्री० [अ० कतअ] १. किसी चीज के बनने बनाने का ढंग। तर्ज। बनावट। २. पहनने के कपड़ों की कतर-ब्योंत या काट-छाँट। ३. अरबी फारसी या उर्दू में कोई छोटा पद्य या उसका चरण। ४. चित्रकला में वह कृति जिसमें बेल-बूटे से घिरे हुया कोई पद्य लिखा हो। ५. दे० ‘किता’।
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कताई  : स्त्री० [हिं० कातना] १. कातने की क्रिया, ढंग या भाव। (स्पिनिंग) २. कातने का पारिश्रमिक या मजदूरी। ३. कोई काम व्यर्थ ही अधिक समय लगाकर धीरे-धीरे या कई बार करते रहना।
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कतान  : पुं० [१] १. एक प्रकार का बहुत बढ़िया कपड़ा जो पहले अलसी की छाल से बनता था। २. एक प्रकार का बढ़िया रेशमी कपड़ा जिससे दुपट्टे या साड़ियाँ बनती हैं।
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कताना  : स० [हिं० कातना का प्रे० रूप] कातने का काम किसी से कराना। कतवाना।
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कंतार  : पुं० =कंतार(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कतार  : स्त्री० [अ०] १. पंक्ति। माला। २. झुंड। समूह।
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कतारा  : पुं० [सं० कांतार, प्रा० कंतार] [स्त्री० अल्पा, कतारी] १. एक प्रकार का लाल ऊख जो बहुत लंबा होता है। २. इमली की फली।
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कतारी  : स्त्री०=कतार। (पंक्ति)। स्त्री० [अ० कतऽ] ढंग। तरीका। प्रकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंति  : स्त्री० [सं० कांता] कांता (स्त्री)।
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कति  : वि० [सं० किम्+डित] १. किस मानका। कितना। २. (गिनती में) कितने। ३. न जाने कितने। बहुत अधिक। सर्व० कौन। स्त्री० [सं० कृति] क्रीड़ा। खेल। उदाहरण—बालकति करि हंस चौ बालक।—प्रिथीराज। अव्य० =कित। (किधर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंति  : स्त्री०=कांति (चमक) उदाहरण—कहां क्रंति प्राक्रम कहा,सत्ति पयंपहु तंत।—चंदबरदाई।
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कतिक  : वि० [सं० कति+क ( प्रत्यय)] १. कई एक। कितने ही। २. न जाने कितने। (संख्या या मान में अज्ञात) ३. =कितना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कतिधा  : वि० [सं० कति+धा] अनेक प्रकार का । क्रि० वि० अनेक प्रकार से।
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कतिपय  : वि० [सं० कति+अयच्, पुकआगम्] १. कितने ही। कई एक। २. जो गिनती में कम हों। थोड़े से। जैसे—कतिपय विद्वानों का यह मत है।
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कतीरा (ला)  : पुं० [देश] गूल नामक वृक्ष का गोंद जो प्रायः औषध के रूप में काम आता है। (ट्रैगेकान्थ)
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कतेक  : वि० [सं० कति+हिं० एक] १. गिनती में कई। अनेक। उदाहरण—कतेक जतन विहि आवि समारल।—विद्यापति। २. थोड़े से। कुछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कतेब  : स्त्री० [फा० किताब] १. पुस्तक। किताब २. धर्म-ग्रंथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कतौनी  : स्त्री० [हिं० कातना] १. कातने की क्रिया, ढंग, भाव या मजदूरी। २. अनावश्यक रूप से और बार-बार कुछ करते या कहते रहने की क्रिया या भाव। ३. तुच्छ और व्यर्थ का काम।
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कत्तई  : क्रि० वि० दे० ‘कतई’।
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कत्तर  : पुं० [?] वह डोरी जिससे स्त्रियाँ अपने केश बाँधती या गूँथती हैं। चोटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कत्तरी  : स्त्री० [सं० कर्त्तरी] कैचीं।
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कत्तल  : पुं० [हिं० कतरा,या अ० कतरः =टुकड़ा] १. काटकर अलग किया हुआ छोटा टुकड़ा। कतरा। २. ईंट, पत्थर आदि का छोटा टुकड़ा।
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कत्ता  : पुं० [सं० कर्तृ का वृहदर्थक रूप] १. बाँस काटनेवालों का बाँका नाम का औजार। २. एक प्रकार का बड़ा चाकू या छोटी तलवार। ३. चौपड़ खेलने का पासा।
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कत्तारी  : पुं० [सं० कांतार] मझोले आकार का एक प्रकार का सदाबहार पेड़।
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कत्तावा  : पुं० =कत्तारी।
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कत्ती  : स्त्री० [सं० कर्तरी] १. एक प्रकार की छोटी तलवार जिसका फल बिलकुल सीधा होता है। २. कटारी। ३. काटने या कतरने का कोई औजार। जैसे—कतरनी, चाकू आदि। स्त्री० [?] पगड़ी बाँधने का वह ढंग या प्रकार जिसमें उसका कपड़ा पतली बत्ती की तरह बट या लपेटकर काम में लाया जाता है।
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कत्थ  : पुं० [हिं० कत्था] १. कत्था। खैर। २. एक विशेष प्रकार का स्याही का काला रंग। (रँगरेज)।
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कत्थई  : वि० [हिं० कत्था] कत्थे या खैर के रंग का। खैरा। (रंग)।
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कत्थक  : पुं० =कथक (जाति)।
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कत्थना  : स्त्री० [सं०√कत्थ्+णिच्+युच्-अन, टाप्] डींग। स० [सं० कथन] कथन करना। कहना।
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कत्था  : पुं० [सं० क्वाथ] १. पान पर लगाकर अथवा पान के साथ खाया जाने वाला एक प्रकार का प्रसिद्ध घन पदार्थ जो कीकर की वृक्षों की लकड़ियों को उबालकर तैयार किया जाता है। खैर। २. वे वृक्ष जिनकी लकड़ियों से उक्त पदार्थ निकलता है। (कैटेच्यू)।
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कत्ल  : पुं० दे० ‘कतल’।
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कंथ  : पुं० =कंत। वि० =कांत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कथं  : क्रि०वि० [सं० किम्+थमु] किस प्रकार। कैसे।
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कथ  : पुं० [हिं० कत्था] =कत्था। स्त्री०=कथा (बात) उदाहरण—कही स्रवणि सँभली कथ।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कथ-कीकर  : पुं० [हिं० कत्था (खैर)+कीकर] एक प्रकार का कीकर या वकल जिसकी छाल से कत्था या खैर निकाला जाता है।
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कथक  : पुं० [सं०√कथ (कहना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. वह जो कथा अर्थात् किस्से या कहानियाँ सुनाने का काम करता हो (कथावाचक या पौराणिक से भिन्न) २. प्राचीन रंग मंच में वह नट या पात्र जो आरम्भ में नाटक की पूरी कथा सुनाया करता था। ३. एक आधुनिक जाति जो प्रायः वैश्याओं आदि को गाना, नाचना आदि सिखाने का काम करती है। कत्थक। ४. एक विशेष प्रकार का नृत्य, जिसकी कला का विकास मुख्यतः उक्त जाति का किया हुआ है।
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कथक्कड़  : पुं० [सं० कथा+कड़ (प्रत्यय)] प्रायः बहुत अधिक या लम्बी-चौड़ी कथाएँ कहने या सुननेवाला व्यक्ति।
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कथंचित्  : क्रि० वि० [सं० कथम्+चित्] शायद।
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कथन  : पुं० [सं० कथ+ल्युट-अन] [वि० कथित] १. कोई बात मुँह से उच्चारित करने या कहने की क्रिया या भाव। कहना। बोलना। २. वह जो कुछ कहा गया हो। कही हुई बात। उक्ति। ३. किसी के सम्बन्ध में कही हुई ऐसी बात जो अभी प्रमाणित न हुई हो। (एलीगेशन) ४. किसी विषय में किसी का दिया हुआ वक्तव्य। बयान। (स्टेटमेंट) ५. उपन्यास का एक भेद या प्रकार जिसमें उसका नायक या कोई पात्र आदि से अन्त तक कोई कथा कहता चलता है।
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कंथना  : स० [हिं० कंथा] कंथा या कथरी पहनना। उदाहरण—जेहि कारन गियँ कांथरि कंथा।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कथना  : स० [सं० कथन] १. कोई बात कहना। कथन। करना। २. किसी की खुलकर विस्तार-पूर्वक निन्दात्मक बातें कहना। बुराई। करना। जैसे—किसी के दोष कथना।
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कथनी  : स्त्री० [सं० कथन+हिं० ई (प्रत्यय)] १. मुँह से कही हुई बात। कथन। जैसे—उनकी कथनी और करनी में बहुत अन्तर है। २. कोई बात बार-बार कहने की प्रक्रिया या भाव।
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कथनीय  : वि० [सं०√कथ्+अनीयर] १. कहे जाने के योग्य। जो कथन के रूप में आ सके या लाया जा सके। २. निंदनीय। बुरा। (क्व०)।
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कथंभूत  : वि [सं० सुप्सुपा स०] किस प्रकार का। कैसा।
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कथमपि  : क्रि० वि० [सं० कथम्-अपि, द्व० स०] १. किसी प्रकार। जैसे—तैसे। २. बहुत कठिनता से। ३. हिंदी में कभी-कभी भूल से कदापि के अर्थ में भी प्रयुक्त।
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कथरी  : पुं० [सं० कथा+हिं० री (प्रत्यय)] फटे-पुराने तथा छोटे-छोटे चिथड़ों को जोड़ तथा सीकर बनाया हुआ ऐसा वस्त्र, जिसे गरीब या भिखमंगे ओढ़ते और बिछाते हों। गुदड़ी।
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कंथा  : स्त्री० [सं०√कंम् (चाहना)+थन्-टाप्] [स्त्री० कंथारी] फटे-पुराने कपड़ों को सीकर बनाया हुआ ओढ़ना। गुदड़ी। स्त्री० [शक भाषा का कंथनगर] नगर या बस्ती का वाचक एक शब्द, जो कुछ नामों के साथ उत्तर-पद के रूप में लगता था। ईरान के ताशकंद, यारकंद, समरकंद आदि में का ‘कंद’ इसी का विकृत रूप है।
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कथा  : स्त्री० [सं० कथ+अङ-टाप्] १. वह जो कहा जाय। कही जानेवाली या कही हुई बात। २. वह पौराणिक आख्यान जिसका कुछ अंश वास्तविक या सत्य हो और कुछ अंश कल्पित, तथा जो धर्मोंपदेश के रूप में लोगों को विस्तृत व्याख्या करके सुनाया जाय। मुहावरा—कथा बैठाना=ऐसी व्यवस्था करना कि कोई कथावाचक या पौराणिक नियत रूप से कुछ समय तक बैठकर लोगों को पौराणिक कथाएँ सुनाया करे। ३. प्राचीन साहित्य में, उपन्यास का वह प्रकार या भेद, जिसमें उसका कर्ता आदि के अन्त तक कोई घटना सुनाता चलता है। ४. किसी घटना की चर्चा। जिक्र। ५. समाचार। हाल। ६. कहा-सुनी वाद-विवाद। मुहावरा—(किसी की) कथा चुकाना=किसी का वध या हत्या करके उसके कारण होनेवाले उपद्रवों का अंत करना।
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कथा-पीठ  : पुं० [उपमि० स०] १. कथा की प्रस्तावना। २. वह आसन या स्थान जहाँ बैठकर कथावाचक या व्यास कथा सुनाते हों।
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कथा-प्रबंध  : पुं० [ष० त०] १. किसी कथा की वे मूल्य बातें, जिनसे कथा का स्वरूप प्रस्तुत होता है। २. कथा की सब बातें अच्छे ढंग और ठीक क्रम से रखने का भाव या स्थिति।
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कथा-वस्तु  : स्त्री० [ष० त०] १. उपन्यास, कहानी, नाटक आदि की वे सभी मुख्य बाते, जिनसे उनका स्वरूप प्रस्तुत होता है। (प्लॉट) २. विस्तृत अर्थ में, वे सभी मुख्य बातें, जो किसी साहित्यिक रचना में आयी हों या उसका विषय बनी हों।
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कथा-वार्त्ता  : स्त्री० [द्व० स०] १. पौराणिक और धार्मिक कथाए और उनकी चर्चा। २. बातचीत।
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कथांतर  : पुं० [सं० कथा-अंतर, मयू० स०] १. ऐसी स्थिति जिसमें उद्दिष्ट या प्रस्तुत कथा को छोड़कर कोई दूसरी कथा कही जाय। २. अप्रासंगिक या गौण कथा।
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कथानक  : पुं० [सं०√कथ+आनक] १. छोटी कथा या कहानी। २. किसी रचना। (जैसे—उपन्यास, कथा नाटक आदि) की आदि से अंत तक की सब बातों का सामूहिक रूप। वि० दे० ‘कथावस्तु’।
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कथानिका  : स्त्री० [सं० कथानक+टाप्-इत्व] संस्कृत में, उपन्यासों का एक भेद।
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कथामुख  : पुं० [कथा-आमुख, ष० त०] कथा या किसी साहित्यिक रचना की प्रस्तावना।
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कंथारी  : स्त्री० [सं० कंथा√ऋ (गति)+अण्-ङीष्] =कंथा (गुदड़ी)।
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कथिक  : पुं०=कथक।
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कथित  : वि० [सं० कछ+क्त] १. जिसका कथन या वर्णन हुआ हो। जो कहा गया हो। कहा हुआ। २. (बात या व्यक्ति) जिसके संबंध में कोई ऐसी बात कही गई हो या कहीं जाती हो, जिसकी प्रामाणिकता या सत्यता अभी विवादास्पद या संदिग्ध हो। जो कहा तो गया हो, पर ठीक न सिद्ध हो। (एलेजड) पुं० मृदंग के बाहर प्रबंधों में से एक।
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कंथी  : पुं० [सं० कंथा से] १. गुदड़ी ओढ़ने या पहननेवाला साधु। २. भिखमंगा। स्त्री० [सं० कथा] छोटी कथा।
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कथी  : स्त्री०=कथनी।
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कथीर  : पुं० [सं० कस्तीर, पा० कत्थीर] राँगा नामक धातु।
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कथीला  : पुं०=कथीर।
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कथोद्धात  : पुं० [कथा-उद्धात, ष० त०] १. कथा का आरंभ। प्रस्तावना। २. नाटक आरंभ करने का वह प्रकार, जिसमें सूत्रधार के मुंह से निकली हुई कोई बात सुनते ही, उसी के आधार पर कोई पात्र रंग-मंच पर आकर अभिनय आरंभ कर देता है।
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कथोपकथन  : पुं० [कथा-उपकथन सं० त०] १. दो या दो से अधिक व्यक्तियों में होनेवाली बाच-चीत। वार्तालापय़। २. किसी उपन्यास, कथा, कहानी आदि को पात्रों में आपस में होनेवाली बात-चीत।
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कथ्य  : वि० [सं०√कथ+यत्] १. जो कहा जा सके। कहे जाने के योग्य। २. जो कहना उचित हो।
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कंद  : पुं० [सं०√कंद् (विकल करना)+णिच्+अच्] १. पौधों का वह गूदेदार और बिना रेशे का तना, जो जमीन पर फैला हुआ या उसके अन्दर छिपा रहता है और प्रायः खाने के काम आता है। (राइजोम) जैसे—गाजर, मूली, सूरन आदि। २. मेघ। बादल। ३. एक वर्णवृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में चार यगण और एक लघु होता है। ४. छप्पय छंद का एक भेद। ५. एक प्रकार का योनि रोग। पुं० [फा०] एक प्रकार की जमाई हुई चीनी। पुं० दे० ‘कंथा’ (स्थानवाचक उत्तर-पद)।
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कद  : अव्य० [सं० कदा] किस समय। कब। उदा०—कदकद मँगलू बोवै धान। सूखा डाला हे भगवान।—कहा०। पुं० [सं० क=जल√दा (देना)+ क] बादल। मेघ। स्त्री० [फा० कद्द] १. मन में रखा जानेवाला द्वेष। २. वैर-विरोध। शत्रुता। ३. ईर्ष्या। डाह। लपुं० [अ० कद्] किसी वस्तु की ऊँचाई या लंबाई का विस्तार। जैसे—नाटे कद का आदमी, ऊँचे कद का पेड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंद-मूल  : पुं० [ब० स०] एक पौधा जिसकी जड़ उबालकर तरकारी बनाई जाती है।
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कंद-सार  : पुं० [ब० स०] १. इंद्र का उपवन। २. हिरन की एक जाति।
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कंदक  : पुं० [सं० कंद+कन्] पालकी।
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कदक  : पुं० [सं० कै√कै (भासित होना)+क] १. धूप, वर्षा आदि से बचने के लिए लगाया हुआ चँदोआ। २. डेरा।
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कदक्षर  : पुं० [सं० कु-अक्षर, कुगति स०, कद् आदेश] १. बुरा या अशुभ अक्षर। २. गंदी या दूषित लिखावट।
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कदत्र  : पुं० [सं० कु-अत्र, कुगति सं० कद् आदेश] घटिया या तुच्छ प्रकार का अन्न जो रोगकारण होता है। जैसे—कोदो, खेसारी, मसूर आदि।
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कदधव  : पुं० [सं० कदध्वा] अनुचित या बुरा मार्ग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंदन  : पुं० [सं०√कंद्+ल्युट-अन] क्षय। नाश।
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कदन  : पुं० [सं०√कद्+णिच्+ल्युट्—अन] १. मृत्यु। मौत २. विनाश। ३. युद्ध। ४. लड़ाई झगड़ा। ५. वध। हत्या। ६. मार-काट। हिंसा। ७. कष्ट। दुःख। वि० [√कद्+णिच्+ल्यु—अन] मार डालने या नष्ट करनेवाला। (यौ० के अंत में) जैसे—मदन-कदन।
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कंदन  : पुं० [सं०√क्रंद् (रोना)+ल्युट-अन] १. विलाप करना। रोना। २. लड़ने-भिड़ने के लिए ललकारना।
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कदपत्य  : पुं० [सं० कु—अपत्य, कुगति सं, कद् आदेश] अयोग्य या बुरी संतान।
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कदंब  : पुं० [सं०√कद् (रोदन, आह्वान)+अम्बच्] १. कदम नामक वृक्ष। २. उक्त वृक्ष के छोटे तथा गोल फल। ३. झुंड। समूह। ४. ढेर। राशि।
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कदब  : पुं०=कदंब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कदंब नट  : पुं० [ब० स० ?] इस प्रकार का राग जिसमें सब शुद्ध स्वक लगते हैं। (संगीत)।
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कदंबपुष्पी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] गोरखमुंडी।
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कदम  : पुं० [अ० कदम] १. पाँव। पैर। मुहा०—कदम उठाना=(क) चलने के लिए पैर उठाकर आगे बढ़ाना। (ख) लाक्षणिक रूप में, कोई कार्य करने के लिए उसका कोई आरंभिक अंश पूरा करना या उसका प्रयत्न करना (किसी के) कदम चूमना=किसी को बहुत प्रतिष्ठित या मान्य समझकर उसके प्रति आदर या श्रद्धा प्रकट करना। कदम छूना=आदर या श्रद्धापूर्वक किसी के आगे नतमस्तक होना। प्रणाम करना। कदम बढ़ाना=चलने के समय चाल तेज करना। (किसी जगह) कदम रखना=(क) किसी स्थान पर पहुँचना या उसमें प्रवेश करना। (ख) पदार्पण करना। (आदरार्थक) २. उतनी दूरी जितनी चलने के समय एक बार पैर उठाकर आगे रखने में पार की जाती है। चलने में दो पैरों के बीच का अवकाश या स्थान। डग। (स्टेप) ३. चलने नाचने आदि में हर बार पैर उठाने की किया या भाव। ४. घोड़े की एक विशिष्ट प्रकार की चाल, जिसमें ठीक या भाव। ४. घोड़े की एक विशिष्ट प्रकार की चाल, जिसमें ठीक कम से हर बार पैर उठता है। (दौड़ने से भिन्न) पुं० [सं० कदंब] १. कदंब नामक वृक्ष। २. इस वृक्ष का छोटा गोल फल। (दे० कदंब)।
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कदमचा  : पुं० [फा० कदमचा] पाखाने आदि में दोनों ओर बने हुए वे स्थान, जिन पर पैर रखकर बैठते है।
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कदमबाज  : वि० [अ+फा०] (वह घोड़ा) जो कदम मिलाकर अर्थात् ठीक चाल चलता हो। (दौड़ता न हो)।
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कदमा  : स्त्री० [हि० कदम] कदंब के फूल के आकार की एक प्रकार की मिठाई।
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कंदर  : पुं० [सं० कम्√दृ (विदारण)+अप्] १. कदरा। (दे०)। २. अंकुश।
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कदर  : पुं० [सं० क√द्व (विदारण)+अच्] १. लकड़ी चीरने का आरा। २. हाथी चलाने का अंकुश। ३. कंकड़ी आदि चुभने के कारण पैर में पड़नेवाली गाँठ। गोखरू। ४. सफेद खैर का पेड़। स्त्री० [अ० कद्र०] १. मात्रा। मान। २. आदर। प्रतिष्ठा। संमान। ३. महत्त्व।
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कदरई  : स्त्री०=कायरता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कदरज  : पुं० [सं० कदर्य्य] एक प्रसिद्ध पापी। वि०=कदर्य्य।
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कदरदान  : विं० [अ०+फा०] १. किसी का महत्त्व समझकर उसकी प्रतिष्ठा या संमान करने वाला। २. जो किसी के गुणों का ठीक और पूरा महत्त्व आँक सकेय।
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कदरदानी  : स्त्री० [अ०+फा०] कदरदान होने की अवस्था या भाव।
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कदरमस  : स्त्री० [सं० कदन+हिं० मस (प्रत्य०) १. मारपीट। २. लड़ाई। झगड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंदरा  : स्त्री० [सं० कंदर+टाप्] जमीन के अंदर या पहाड़ में खोदा हुआ अथवा प्राकृतिक रूप से बना हुआ बहुत बड़ा गड्ढा। गुफा। खोह।
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कदरा  : वि० [हिं० कादर] १. कायर। डरपोक। २. डरा हुआ। भयभीत। उदा०—तुम बिन पिय अति कदरा।—भारतेंदु। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कदराई  : स्त्री०=कायरता।
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कंदराना  : अ० [हिं० कंदरी] कीचड़ की तरह गंदा और मैला होना। स० गंदा या मैला करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कदराना  : अ० [हिं० कादर] १. कायरता दिखलाना। साहस या हिम्मत छोड़ना। २. डरना। स० किसी में कायरता या डर का भाव करना। किसी को कायर होने में प्रवृत्त करना।
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कँदरी  : स्त्री० [सं० कर्दम] १. कीचड़। २. इमारत के काम के लिए सड़ाकर कूटा हुआ चूना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कदरो  : स्त्री० [देश०] मैना की तरह का एक पक्षी।
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कदर्थ  : पुं० [सं० कु-अर्थ, कुगति सं०, कद् आदेश] निकम्मी या रद्दी चीजे। कू़ड़ा-करकट वि० १. अनुचित या बुरे अर्थवाला। २. निकम्मा या रद्दी। ३. कुत्सित। बुरा।
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कदर्थना  : स्त्री० [सं० कु-अर्थना, कुगति सं० कद आदेश] १. बुरी या हीन दशा। २. दुर्गति। दुर्दशा।
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कदर्थित  : भू० कृ० [सं० कु-अर्थित कुगति सं०, कद आदेश] १. जिसकी निंदा या बुराई की गई हो। २. जिसकी दुर्दशा हुई हो।
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कंदर्प  : पुं० [सं० कम्√दृप् (मत्त होना)+अच्] १. कामदेव। २. संगीत में रुद्राताल का एक प्रकार या भेद।
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कंदर्प-कूप  : पुं० [ष० त०] योनि।
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कंदर्प-दहन  : पुं० [ष० त०] शिव।
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कंदर्प-मथन  : पुं० =कंदर्प-दहन।
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कदर्य  : वि० [सं० कु-अर्थ, कुगति सं० कद् आदेश] १. कंजूस। कृपण। २. कायर। डरपोक। ३. बुरा। हीन। उदा०—हृदय सोचता कैसे उनका मिटे कदर्य पराभव।—पंत
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कदर्यता  : स्त्री० [सं० कदर्य+तल्—टाप्] १. कदर्य होने की अवस्था या भाव। २. कंजूसी। कृपणता। ३. कायरता। ४. हीनता।
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कंदल  : पुं० [सं०√कंद्+कलच्] १. नया अँखुआ। २. कपाल। सिर। ३. सोना। स्वर्ण। ४. वाद-विवाद।
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कंदला  : पुं० [सं० कंदल-सोना] १. चाँदी, सोने आदि का पतला तार। २. चाँदी की गुल्ली या छड़, जिससे तारखश तार बनाते हैं। ३. एक प्रकार का कचनार। स्त्री० =कंदरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंदला-कश  : पुं० [हिं० कंदला+फा० कश] तार खींचनेवाला। तारकश।
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कंदलाकशी  : स्त्री० [हिं० कंदलाकश] तार खींचने का काम तारकशी।
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कंदली  : स्त्री० [सं० कंदल+ङीष्] १. एक पौधा, जिसमें सफेद रंग के फूल लगते हैं। २. एक प्रकार का हिरन। ३. कमलगट्टा। ४. केला। ५. पताका।
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कदली  : स्त्री० [सं०√कद्+कलच्—ङीप्] १. केला नामका पौधा या उसका फल। २. पूर्वी भारत में होनेवाला एक प्रकार का बड़ा वृक्ष। ३. वह बड़ा झंडा, जो हाथी पर चलता है। ४. एक प्रकार का हिरन।
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कदंश  : पुं० [सं० कु-अंश, कुगति सं, कद् आदेश] खराब, बुरा या रद्दी अंश।
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कदह  : पुं० [अ] कटोरा। प्याला।
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कंदा  : पुं० १. दे०‘ कंद’ २. दे० ‘शकरकंद’।
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कदा  : कि० वि० [सं० किम्+दा, कादेश] किस समय। कब।
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कंदाकार  : पुं० [सं० कंद-आकार, ष० त०] बादलों की घटा। मेघमाला।
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कदाकार  : वि० [सं० कु-आकार, ब० सं० आदेश] जिसका आकार या रूप बुरा या बेढब हो। बे-डौल।
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कदाख्य  : वि० [सं० कु-आख्या, व० सं० कद् आदेश] कुख्यात। बदनाम।
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कदाच  : कि० वि०=कदाचित्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कदाचन  : कि० वि० [सं० कदा-चन, द्व० स०] १. किसी समय। कभी। २. कदाचित्। शायद।
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कदाचार  : पुं० [सं० कृ-आचार, कुगति सं० कद् आदेश] ऐसा आचार या आचरण जो दूषित या हीन हो। खराब चाल-चलन।
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कदाचि  : अव्य०=कदाचित्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कदाचित्  : अव्य०—[सं० कदा—चित्, द्व० सं०] १. एक अव्यय जो अनिश्चयात्मक रूप से किसी कार्य या बात की संभावना सूचित करता है। हो सकता है कि। शायद। जैसे—कदाचित् आप भी वहाँ जाना चाहेंगे। २. अगर। यदि। (क्व०)
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कदापि  : कि वि० [सं० कदा-अपि, द्व० स०] किसी अवस्था में भी। कभी। (केवल नकारात्मक प्रसंगों में) जैसे—वहाँ कदापि न जाऊँगा।
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कदामत  : स्त्री० [अ०] १. प्राचीनता। पुरानापन। २. प्राचीन काल।
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कदाहार  : पुं० [सं० कु—आहार, कुगति सं०, कद् आदेश] दूषित या निकृष्ट भोजन।
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कदी  : वि० कद्द=हठ] जिद्दी। हठी। अव्य०=कभी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंदी (दिन्)  : पुं० [सं० कंद+इनि] सूरन।
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कंदीत  : पुं० [प्रा०] एक प्रकार के देवगण जो वाणव्यंतर के अंतर्गत माने गये हैं। (जैन)।
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कदीम  : वि० [अ०] पुराना। प्राचीन। पुं० [?] लोहे का वह छड़ जिसकी सहायता से भारी चीजे इधर-उधर खिसकाई जाती हैं। (लश०)
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कदीमी  : विं० [अ०] पुराने समय का। पुराना।
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कंदील  : स्त्री० [अ०] १. एक प्रकार का पुराना आधान, जिसमें दीपक जलाया जाता था। २. लालटेन। ३. जहाज में वह स्थान जहाँ लोग पाखाना फिरते हैं, और जिसके पास पानी का भण्डार रहता है।
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कंदु  : पुं० [सं० स्कंद(गति)+उ,सलोप] १. भाड़। २. गेंद।
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कंदुआ  : पुं० [हिं० कांदो] एक रोग जिससे गेहूँ, जौ , धान आदि की बालों पर काली भुकड़ी जम जाती है।
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कंदुक  : पुं० [सं० कम्दा (देना)+डु+कन्] १. गेंद। २. गोल तकिया। ३. सुपारी। ४. कंद नामक वर्णवृत्त।
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कदू  : पुं० =कद्दू।
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कदूरत  : पुं० [अ०] १. किसी चीज में जमा हुआ मैल। २. मन में होने वाला दुर्भाव। मन-मोटाव।
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कँदूरी  : स्त्री० [सं० कन्दूरी] कुँदरू। बिंबाफल। स्त्री० [फा०] मुसलमानों में वह भोजन, जिसे सामने रखकर फातिहा पढ़ा जाता है और जो बाद में बाँटा जाता है।
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कदे  : अव्य० [सं० कदा] १. कब। २. कभी। पद—कदे-कदे=कभी-कभी।
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कंदेब  : पुं० [देश] पुन्नाग या सुलताना चंपा की तरह का एक वृक्ष, जिसके तने से नावों के मस्तूल बनते हैं।
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कँदेलिया  : स्त्री० [?] एक प्रकार की भैंस, जो कम दूध देती है।
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कंदोत  : पुं० [सं० कंद-ऊत, स० त०] सफेद कमल।
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कंदोरा  : पुं० [हिं० गांड+डोरा] कमर में पहनने की करधनी या तागा।
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कद्  : विं० [सं० समास में कु का आदेश रूप] १. खराब या बुरा जैसे—कदंश। २. घटिया। रद्दी। जैसे—कदत्र।
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कद्दावर  : [फा०] लंबे-चौड़े कद या आकार-प्रकारवाला। बड़े डील-डौल का। (विशेषतः व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त)
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कद्दी  : वि०=(कभी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कद्दु  : पुं० [फा० कदू] घोया या लौकी की जाति का एक प्रसिद्ध गोल फल जिसकी तरकारी बनती है।
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कद्दूकश  : पुं० [फा०] एक उपकरण जिससे कद्दु आदि तरकारियों की महीन लच्छियाँ निकाली जाती है।
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कद्दूदाना  : पुं० [फा० कदू+दान] पेट में होनेवाले छोटे-छोटे सफेद कीड़े जो मल के साथ निकलते हैं।
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कद्र  : स्त्री०=कदर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंद्रप  : पुं० =कंदर्प (कामदेव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कद्रु  : स्त्री [सं० कद्+रु] कश्यप ऋषि की एक स्त्री जो साँपों की माता मानी गई है।
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कद्रुज  : पुं० [सं० कद्रु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] कद्रु के गर्भ से उत्पन्न, नाग या सांप।
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कंध  : पुं० [सं० स्कंध] १. डाली। शाखा। २. कंधा। ३. आश्रय। सहारा। उदाहरण—बंध नाहिं और कंध न कोई।—जायसी।
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कंधनी  : स्त्री० =करधनी।
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कंधर  : पुं० [सं० कम्√धृ (धारण करना)+अच्] १. गरदन। २. बादल।मेघ। ३. मोथा। मुस्तक।
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कंधरा  : स्त्री० [सं० कंधर+टाप्] गरदन।
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कंधा  : पुं० [सं० स्कंन्ध, पा० प्रा० खन्ध० गु० खाँद, खांधो, पं० कन्नहा, उ० बँ० काँध, सिह० कंद, सि० कांधों, मरा० खाँदा] १. मनुष्य के शरीर की बाँह का वह ऊपरी भाग या जोड़, जो गले के नीचे धड़ से जुड़ा रहता है। मुहावरा—कंधा डालना=भार न उठा सकने के कारण हारकर बैठ या रुक जाना। (किसी को) कंधा देना=(किसी काम में) शव को कंधे पर उठाकर अंत्येष्टि के लिए ले जाना। भार आदि उठाने के काम में सहारा या सहायक होना। कंधे से कंधा छिलना=बहुत अधिक भीड़ होना। २. बैल की गर्दन का वह भाग, जिस पर जूआ रखा जाता है। मुहावरा—(बैलों आदि का) कंधा लगना=जूए की रगड़ से कंधे पर घाव हो जाना।
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कंधार  : पुं० [सं० गांधार] अफगानिस्तान के एक प्रदेश और उसकी राजधानी का नाम। पुं० [सं० कर्णधार] केवट। मल्लाह। वि० पार उतारने या लगानेवाला।
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कंधारी  : वि० [हिं० कंधार] जिसका संबंध कंधार देश से हो। कंधार देश का। जैसे कंधारी अनार। पुं० १. कंधार देश का निवासी। २. कंधार देश का घोड़ा। स्त्री० कंधार देश की बोली।
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कँधावर  : स्त्री० [हिं० कंधा+आवर प्रत्यय] १. जूए का वह भाग, जो गाड़ी, हल आदि में जोते जानेवाले बैलों के कंधे पर रखा जाता है। २. कंधे पर रखी जानेवाली चादर। मुहावरा—कंधावर डालना=चादर या दुपट्टा जनेऊ की तरह कंधे पर डालना। ३. किसी चीज में का वह तस्मा या रस्सी, जिसकी सहायता से वह चीज कंधे पर लटकाई जाती है।
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कधी  : कि० वि०=कभी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कँधेला  : पुं० [हिं० कंधा] धोती या साड़ी का वह भाग, जो कंधे पर पड़ता या रहता है। मुहावरा—कँधेला डालना=साड़ी का पल्ला सिर पर रखकर कंधे पर रखना या लटकाना।
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कँधेली  : स्त्री० [हिं० कंधा] १. घोड़े का वह गोलाकार साज, जो उसे एक्के, गाड़ी आदि में जोतने के समय उसके कंधों पर रखकर गले में डाला जाता है। २. घोड़े, बैल आदि की पीठ पर उसे छिलने आदि से बचाने के लिए रखी जानेवाली गद्दी।
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कँधैया  : स्त्री० [हिं० कंधा से] १. कंधा। २. बच्चों आदि को कंधे पर बैठाकर कहीं ले चलने की क्रिया, स्थिति या भाव। ३. बच्चों का एक खेल, जिसमें दो लड़के अपनी बाँहों पर किसी दूसरे लड़के को बैठाकर ले चलते हैं। पुं० कन्हैया (श्रीकृष्ण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कन  : पुं० [सं० कण] १. किसी चीज का बहुत छोटा अंश या टुकड़ा। जैसे जल या बालू का कण। २. अनाज का दाना या उसका टुकड़ा। ३. अनाज। अन्न। उदा०—कन देवो सौप्यो ससुर बहू थुरहथी जानि।—बिहारीं। ४. देवता का प्रसाद। ५. भिक्षा में मिला हुआ अन्न। ६. अनाज में से चुनकर निकाले हुए छोटे टुकड़े या दाने। कना। ७. शारीरिक बल या शक्ति। ८. किसी वस्तु का सार। हीर। पद—[हि० कान] हिन्दी ‘कान’ का संक्षिप्त रूप जो यौगिक पदों के आरंभ में लगकर ये अर्थ देता है—(क) कान में संबंध रखनेवाला। कान का। जैसे—कन-खोदनी, कन-रसिया। (ख) जिसमें कान की तरह का कोई अंश बाहर निकला हो। जैसे—कन कौआ। कन-खजूरा। पद—[हि० काना] हिंदी ‘काना’ का संक्षिप्त रूप जो यौगिक पदोंके आरंभ में लगकर यह अर्थ देता है—कानी उँगली या उसकी तरह का। जैसे—कनगुरिया। पुं० [हिं० कान] पतंग का कन्ना।
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कन-कना  : वि० [हिं० कन+क—ना (प्रत्य)] १. जरा से आधात से टूट जानेवाला। ‘चीमड़’ का विपर्याय। २. कनकनाहट या हलकी-खुजली उत्पन्न करनेवाला। चुनचुनानेवाला ३. चिड़चिड़े स्वभाववाला।
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कन-फुसकी  : स्त्री०=कानाफूसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनई  : स्त्री०=[सं० कांड वा कंदल] नई शाखा। कल्ला। स्त्री० [सं० कर्दम] १. कीचड़ २. गीली मिट्टी। कन उँगली—स्त्री०=कानी उँगली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनउड़  : वि०=कनौड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कनंक  : पुं०=कनक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कनक  : पुं० [सं०√कन् (दीप्ति)+वुन,—अक] १. सोना। स्वर्ण। २. धतूरा। ३. छप्पय नामक छंद का एक प्रकार या भेद। ४. खजूर। ५. नागकेसर। ६. टेसू। ७. पलाश। पुं० [सं० कणिक] १. गेहूँ। (पश्चिम)। २. अनाज। अन्न उदा०—लंगर के दाता अरु भूखन कनक देत...।—सेनापति।
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कनक चंपा  : स्त्री० [सं०+हिं०] एक प्रकार का चंपा (पेड़ और फूल)। कनियारी।
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कनक जीरा  : पुं० [सं०+हिं०] एक प्रकार का बढ़िया धान।
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कनक-कदली  : पुं० [मध्य० सं०] एक प्रकार का केला।
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कनक-कलश  : पुं० [मध्य० स०] दे० ‘कलश’ ४.।
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कनक-कशिपु  : पुं०=हिरण्यकश्यप।
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कनक-कूट  : पुं० [उपमि० सं०] सुमेरु पर्वत।
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कनक-गिरि  : पुं० [ष० त०] सुमेरु पर्वत।
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कनक-दंड  : पुं० [मध्य० सं०] राजा का छत्र जिसका डंडा सोने का होता था।
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कनक-पत्र  : पुं० [मध्य० सं०] कान में पहनने का एक गहना।
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कनक-पुरी  : स्त्री० [मध्य० सं०] रावण के समय की लंका जो सोने की मानी गई है।
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कनक-फल  : पुं० [ष० त०] १. धतूरे का फल। २. जमाल गोटा।
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कनक-शैल  : पुं० [मध्य० सं०] सुमेरु पर्वत।
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कनक-सूत्र  : पूं० [ष० त०] सोने का तार।
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कनकटा  : विं० [हिं० कान+कटना] [स्त्री० कन-कटी] १. जिसका कान कटा हुआ हो। बूचा। २. कान काटनेवाला।
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कनकटी  : स्त्री० [हिं० कान+कटना] एक रोग जिसमें कान का पिछला भाग कट जाता है।
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कनकनाना  : अ० [अनु] १. किसी तीक्ष्ण पदार्थ का शरीर के किसी अंग में लगकर हलकी खुजली, चुनचुनी या सुरसुरी उत्पन्न करना। जैसे—सूरन खाने से गला कनकनाना। २. रोमांचित होना। अ० [हिं० कान] कान खड़े करना। चौकन्ना होना।
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कनकनाहट  : स्त्री० [हिं० कनकनाना] कनकनाने का भाव। हलकी खुजलाहट। कनकनी।
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कनकनी  : स्त्री०=कनकनाहट
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कनकली  : स्त्री० [सं०+हिं०] कान या नाक में पहनने की लौंग।
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कनका  : पुं० [सं० कणिक] किसी चीज का विशेषतः अन्न के दाने का छोटा टुकड़ा।
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कनकाचल  : पुं० [सं० कनक-अचल, ष० त०] सुमेरु पर्वत।
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कनकानी  : पुं० [देश०] घोड़ों की एक जाति।
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कनकांबर  : विं० [सं० कनक-अंबर, ब० स०] [स्त्री० सनकांबरी] जो सुनहरे या जरी के कपड़े पहने हो।
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कनकी  : स्त्री० [सं० कणिक] १. चावलों के छोटे-छोटे कण या टुकड़े २. किसी चीज का बहुत छोटा कण या टुकड़ा।
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कनकूत  : पुं० [सं० कण+हि० कूतना] आँकने या कूतने की क्रिया या भाव। जैसे—खेत की उपज की कनकूत।
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कनकैया  : पुं०=कनकौआ।
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कनकौआ  : पुं० [हिं० कन्ना+कौवा] १. कागज की बहुत बड़ी गुड्डी। पतंग। २. एक प्रकार का बरसाती साग।
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कनखजूरा  : पुं० [हिं० कान+खर्जु=एक कीड़ा] प्रायः एक बित्ता लंबा एक प्रसिद्ध जहरीला कीड़ा जिसके सैकड़ों पैर होते हैं और जो जमीन पर रेंग कर चलता है। गोजर।
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कनखा  : पुं० [सं० काण्ड=शाखा] १. कोंपल। २. छोटी टहनी या शाथा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनखियाना  : सं० [हि० कनखी० १. कनखियों से देखना। २. कनखी या तिरछी नजर से संकेत करता।
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कनखी  : स्त्री० [हिं० कान+आँख] १. देखने का वह ढंग मुद्रा या स्थिति जिसमें पुतली को कान की ओर अर्थात् कोने या सिरे पर ले जाकर देखा जाता है। २. उक्त प्रकार से देखते हुए किया जानेवाला संकेत। कि० प्र०—मारना। लगाना।
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कनखुरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की घास।
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कनखैया  : स्त्री०=कनखी।
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कनखोदनी  : स्त्री० [हिं० कान+खोदना] लंबे तार की तरह का वह उपकरण जिससे कान का मैल निकाला जाता है।
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कनगुरिया  : स्त्री० [हिं० कानी+उँगली] हाथ या पैर की सब से छोटी अर्थात् कानी उँगली। छिगुली।
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कनछेदन  : पुं० [हिं० कान+छेदना] हिंदुओं का एक संस्कार जिस में छोटा बालक के कान छेदे या बेधे जाते हैं। कर्णवेध।
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कनटक  : पुं० [हि० कण+टकटक] कंजूस। कृपण। उदा०—बाप कनटक, पूत हातिम।—कहा०। पुं०=कंटक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनटोप  : पुं० [हि० कान+टोप या तचोना] एक प्रकार की टीपी जिससे सिर के अतिरिक्त दोनों कान भी ढक जाते हैं।
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कनतूतुर  : पुं० [देश०] मेंढक की तरह का एक प्रकार का जहरीला जंतु।
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कनधार  : पुं०=कर्णधार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कनपटी  : स्त्री० [हिं० कान+सं० पट] प्राणियों की आँख और कान के बीच का स्थान।
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कनपेड़ा  : पुं० [हिं कान+पेड़ा] एक रोग जिसमें कान के नीचे के भाग में सूजन हो जाती है तथा गिल्लिटायाँ पड़ जाती है। (यह चेतक या माता का एक भेद माना गया है।
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कनफटा  : पुं० [हिं० कान+फटना] गोरखपथी साधु जिनके कान फटे होते हैं। (कानों में बिल्लौर के बाले पहनने के लिए कान फाड़े जाते हैं।)।
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कनफुँकवा  : पुं०=कनफुँका। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कनफुँका  : पुं० [हिं० कान+ फूँकना] १. ऐसे व्यक्ति के लिए उपेक्षा-सूचक शब्द, जो लोगों के कान में मंत्र फूँक कर उन्हें दीक्षा देने का व्यवसाय करता हो। २. ऐसा व्यक्ति जिसने उक्त प्रकार के गुरु से दीक्षा ली हो।
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कनफूल  : पुं० [हिं० कान+फूल] कान में पहनने का एक आभूषण जिसका आकार फूल का-सा होता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनफोड़ा  : पुं० [सं० कर्णस्फोट] एक लता जो दवा के काम में आती है।
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कनबिधा  : पुं० [हिं० कान+बेधना] १. जिसका छिदा या बिधा हुआ हो। २. कान छेदने या बेधनेवाला।
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कनभेंड़ी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार के सन का पौधा।
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कनमनाना  : अ० [अनु०] १. सोने की अवस्था में कुछ हिलना-डुलना। २. किसी को आहट पाकर कुछ हिलना-डुलना। ३. किसी के विरुद्ध बहुत दबकर या धीरे से कोई चेष्टा या प्रयत्न करना।
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कनमैलिया  : पुं० [हिं० कान+मैल+इया (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जिसका पेशा लोगों के कानों का मैल निकालना हो।
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कनय  : पुं०=कनक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनयर  : पुं०=कनेर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कनयून  : पुं० [?] एक प्रकार का सफेद काश्मीर चावल।
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कनरई  : स्त्री [?] गुलू नामका पेड़ जिससे कतीरा गोंद निकाता है। कनरश्याम पुं० [हिं, कान्हड़ा+श्याम] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जिसमें सब शुद्घ स्वर लगते हैं।
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कनरस  : पुं० [हिं० कान+रस] मन लगाकर अच्छी-अच्छी बातें, गीत आदि सुनने की प्रवृत्ति या रुचि।
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कनरसिया  : पुं० [हिं० कान+रसिया] वह जिसे गाना-बजाना आदि सुनने का बहुत शौक है। उदा०—ये कन-रसिये मूढ़ सराहत स्वरहि तदपि हैं।—रत्ना०।
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कनवई  : स्त्री० [सं० कण] १. छोटा टुकट़ा। कण। २. सेर का सोलहवा भाग। छटाँक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनवज्ज  : पुं०=कन्नौज।
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कनवा  : पुं०=कनवई। वि०=काना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनवास  : पुं० [अ० कैनवस] एक प्रकार का बढ़िया मोटा कपड़ा, जिस पर प्रायः तैल-चित्र आदि अंकित किए जाते हैं।
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कनवाँसा  : पुं० [सं० कन्या+ वश या फा०नवासा का अनु०] नाती या नवासे का पुत्र। पड़ नाती।
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कनवी  : स्त्री० [सं० कण, हि० कन] एक प्रकार की कपास जिसमें से बहुत छोटे-छोटे बिनौले निकलते हैं।
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कनसलाई  : स्त्री० [हिं० कान+सलाई]१. कनखजूरे की तरह का एक छोटा कीड़ा। २. कुश्ती का एक दाँव या पेंच।
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कनसार  : पुं० [हिं० कासा+आर (प्रत्य०) धातु के पत्तरों पर बेल-बूटे, लेख आदि खोदनेवाला व्यक्ति।
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कनसाल  : पुं० [हिं० कोन+सालना] चारपाई के पायों के ऐसे छेद, जो छेदते समय कुछ तिरछे हो गये हों और इसीलिए जिनसे चारपाई कुछ टेढ़ी या तिरछी हो जाय।
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कनसीरी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का वृक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनसुई  : स्त्री० [हिं० कान+सुनना] १. चोरी से या छिपकर किसी की बातों का आहट या टोह लेने के लिए कान लगाकर सुनने की क्रिया या भाव। २. आहट। कि० प्र०—लेना।
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कनस्तर  : पुं० [अं० कनिस्टर] टीन का बना हुआ एक प्रकार का छोटा चौकोर आधार या पात्र जिसमें घी, तेल आदि रखते हैं। पीपा।
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कनहार  : पुं०=कर्णधार। (मल्लाह)।
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कना  : पुं० [सं० कण] [स्त्री० अल्पा० कनी] १. अन्न का दाना। २. किसी चीज का छोटा टुकड़ा। कण। ३. ऊख में होनेवाला एक प्रकार का रोग। पुं०=सरकंडा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनाअत  : पुं० [अ०] संतोष।
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कनाई  : स्त्री० [सं० कांड] १. वृक्ष या पौधे की पतली डाल या शाखा। छोटी टहनी। २. कल्ला। कोंपल। स्त्री० [?] रस्सी के सिरे का वह फंदा जिसमें पशुओं का गला फँसाया जाता है। स्त्री० दे० ‘कन्नी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनाउड़ा  : वि०=कनौड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कनाखन  : विं० कनखीं (आँख का इशारा)। उदा०—सखि तन कुँवरि कनापन चहै।—नंददास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कनागत  : पुं० [सं० कन्यागत (सूर्य)] क्वार के महीने का कृष्णपक्ष, जिसमें पितरों का श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष।
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कनात  : स्त्री० [तु०] [विं० कनाती] कोई स्थान घेरने के लिए उसके चारों ओर लगाया जानेवाला मोटा कपड़ा जो दीवार का काम देता है। (प्राचीन भारत में इसे तिरस्करिणी कहते थे)। स्त्री०=कनाअत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनाना  : अ० [हिं० कना= ऊख का एक रोग] ऊख की फसल में कना नामक रोग लगना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनार  : पुं० [देश] ठंढ या सरदी लगने से घोड़ों को होनेवाला एक रोग।
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कनारा  : पुं० [कन्नड़ देश] दक्षिण भारत का एक प्रदेश जो आधुनिक केरल राज्य के अंतर्गत है। कन्नड़।
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कनाल  : पुं० [देश०] घुमाबँ के आठवें भाग अथवा बीधे के चौथाई भाग के बराबक जमीन की एक नाप। (पंजाब)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनावड़ा  : विं०=कनौड़ा।
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कनासी  : स्त्री० [सं० कण-आशी] १. नारियल की खोपड़ी को रगड़ कर साफ करने की रेती। २. वह रेती जिससे आरे के दाँते रेतकर तेज किए जाते हैं।
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कनिआरी  : स्त्री० [सं० कर्णिकार] कनक चंपा का पेड़ और उसका फूल।
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कनिक  : स्त्री० [सं० कणिक] १. गेहूँ। २. गेहूँ का आटा।
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कनिका  : पुं०=कनका।
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कनिगर  : पुं० [हिं० कानि+फा० गर] मर्यादा या लोक-लज्जा का ध्यान रखने वाला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कनियाँ  : स्त्री० [सं० कन्या] बहू। (पूरब) स्त्री० [सं० स्कंध] १. बच्चों को इस प्रकार गोद में लेना कि उनका सिर उठानेवाले के कंधे से सट जाय। २. कोड़। गोद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनियाना  : अ० [हिं० कोना] १. आँख बचाकर किसी ओर निकल जाना। कतराना। २. गुड्डी या पतंग का किसी ओर झुकना। कन्नी खाना सं० बच्चे को गोद में लेकर उसका सिर अपने कंधे से लगाना।
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कनियार  : पुं०=[सं० कर्णिकार] कनकचंपा का वृक्ष और उसका फूल।
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कनिष्ठ  : विं० [सं० युवन् या अल्प+इष्ठन्, कनादेश] १. जो अवस्था, वय आदि के विचार से औरों की तुलना में छोटा हो। बाद में या सबके पीछे उत्पन्न हुआ हो। (यंगर) ‘ज्येष्ठ’ का विपर्याय। २. जो पद, मर्यादा, योग्यता आदि के विचार से दूसरों से घटकर हो। (जूनियर) ‘वरिष्ठ’ का विपर्याय। ३. जो विद्वान् या श्रेष्ठ न हो। ‘वृद्ध’ का विपर्याय। ४. सब से छोटा या हलका। तुच्छ। हीन।
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कनिष्ठक  : पुं० [सं० कनिष्ठ√कै (भासित होता)+क] एक प्रकार का तृण। वि०=कनिष्ठ।
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कनिष्ठा  : स्त्री० [सं० कनिष्ठ+ टाप,] १. कई पत्नियों में से वह जो सब से छोटी हो अथवा सब के बाद में ब्याही गई हो। २. साहित्य में वह पत्नी या स्त्री जिस पर नायक या पति का प्रेम अपेक्षया कम हो। ३. सब से छोटी उँगली। कानी उँगली।
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कनिष्ठिका  : स्त्री० [सं० कनिष्ठ+कन्—टाप्, इत्व]=कनिष्ठा।
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कनी  : स्त्री० [सं० कण] १. किसी चीज का बहुत छोटा टुकड़ा। कण। जैसे—चावल की कनी। २. हीरे या किसी और रत्न का बहुत ही छोटा टुकड़ा। मुहा०—कनी खाना या चाटना=हीरे का बहुत छोटा टुकड़ा खा लेना, जिससे कभी-कभी शरीर की आँतें कट जाती हैं और फलतः खानेवाले की मृत्यु हो जाती है। ३. पकाये हुए चावल का वह अंश जो गलने से रह गया हो। ४. पसीने की बूँद।
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कनीज  : स्त्री० [फा०] दासी। लौड़ी।
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कनीन  : विं० [सं०√कन्+ ईनन्] १. युवा। २. वयस्क।
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कनीनक  : पुं० [सं० कनीन+कन्] [स्त्री० कनीनिका] युवक।
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कनीनी  : स्त्री० =[सं० कनीन+ङीष्]=कनीनिका।
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कनीयस्  : वि० [सं० युवन् वा अल्प+ईयसुन्, कन् आदेश] [स्त्री० कनीयसी]=कनिष्ठ।
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कनीर  : पुं०=कनेर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनु  : पुं०=कण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनुका  : पुं०=कनूका।
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कनूका  : पुं० [सं० कणक] [स्त्री० अल्पा० कनकी] १. किसी चीज का बहुत छोटा टुकड़ा। कण। २. अनाज का दाना। उदा०—कहो कौन पै कढ़त कनूकी जिन हठि भुसी पछोरी।—सूर।
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कने  : कि० वि० [सं० कोण या करणें ?] १. ओर। तरफ। २. निकट। पास। समीप।
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कनेखी  : स्त्री०=कनखी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनेठा  : विं० [हिं० कान+ऐंठना] १. जिसकी एक आँख एक ओर और दूसरी आँख दूसरी ओर खिंची हुई हो। ऐंसा-ताना। २. काना। पुं० किसी चीज का बाहर निकला हुआ अंश। कान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनेठी  : स्त्री [हिं० कान+ऐंठना] १. हलका दंड़ मरोड़ने की सजा। किं० प्र० खाना।—देना।—लगाना।
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कनेती  : स्त्री० [देश०] रुपया। (दलाल)।
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कनेर  : पुं० [सं० कणर] १. नुकीली तथा लंबी पत्तियोंवाला एक प्रकार का प्रसिद्ध वृक्ष। २. उक्त वक्ष में लगनेवाले लंबोतरे फूल जो पीले लाल, सफेद आदि कई रंगों के होते हैं।
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कनेरिया  : वि० [हिं० कनेर] जिसका रंग कनेर के फूल के सदृश कुछ कालापन लिये पीला या लाल हो। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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कनेरी  : स्त्री० [अं० कैनरी (टापू)] एक प्रकार की छोटी पीली चिड़िया जिसका स्वर बहुत मधुर होता है।
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कनेव  : पुं० [हिं० कान] ऐसी स्थिति जिसमें कोई चीज कुछ इस प्रकार टेढ़ी हो जाय कि किसी ओर उसका कोना कान की तरह बाहर निकल आवे। जैसे—चारपाई या चौकी का कनेव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कनै  : पुं० [सं० कनक, प्रा० कणय, कनय, कनै] सोना। स्वर्ण। उदा०—बिजुरी कनै कोट चहुपासा।—जायसी।
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कनोई  : स्त्री० [हिं० कान] कान का मैल। खूँट।
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कनोखा  : वि० [हिं० कनखी] [स्त्री० कनोखी] (नेत्र) जो देखने के समय सीधा न रहे, बल्कि एक कोने की ओर बढ़कर कुछ तिरछा हो जाता हो।
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कनोखी  : स्त्री०=कनखी। उदा०—तनिक कनोखी अँखियों से। मैथिलीशरण गुप्त।
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कनोतर  : विं० [हिं० कोन=नौ+सं० उत्तर] जो गिनती में उन्नीस हो। (दलाल)
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कनौजिया  : वि० [हिं० कन्नौज+इया (प्रत्य०)] कन्नौज में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। जैसे—कनौजिया भाषा। पुं० १. कन्नौज का निवासी। २. कान्यकुब्ज ब्राह्मण।
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कनौठा  : पुं० [हिं० कोना+औठा (प्रत्य०)] १. कोना। कोण। २. किनारा। पार्श्व। बगल। पुं० [सं० कनिष्ठ] १. भाई-बंद। आत्मीय। २. पट्टीदार हिस्सेदार।
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कनौड़  : स्त्री० [हिं० कनौड़ा] १. कनौड़े या खंडित होने की अवस्था या भाव। २. कलंक। ३. लज्जा। संकोच। ४. तुच्छता। हीनता।
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कनौड़ा  : विं० [हिं० काना+औढ़ा (प्रत्य०)] [स्त्री० कनौड़ी] १. जिसकी एक आँख खराब या फूटी हो। काना। २. जिसका कोई अंग खंडित या टूटा-फूटा हो। ३. जो अपने किसी दोष या बुराई के कारण लोक में निदनीय समझा जाता हो या बदनाम हो। ४. जो किसी विकट स्थिति में पड़ने के कारण पछता रहा हो या लज्जित हो। ५. किसी के उपकार या एहसान से दवा हुआ। दबैल। ६. तुच्छ। हीन। ७. असमर्थ। पुं० वह दास या नौकर जो खरीदा गया हो।
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कनौती  : स्त्री० [हिं० कान+औती (प्रत्य०)] १. पशुओं के कान या उनके कानों की नोक। २. कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में (पशुओं का) कान उठाये रखने या खड़े करने का ढंग। मुहा०—कनौती उठाना=चौकन्ने होकर कान खड़े करना। कनौती बदलना=बैठने का ढंग या मुद्राबदलना। ३. कान में पहनने की छोटी बाली।
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कनौनिका  : स्त्री० [सं० कनीन+कन्—टाप्० इत्त्व] १. आँख की पुतली के बीच में का छोटा काला दाग। तारा। २. कन्या। ३. कानी उँगली।
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कन्नड़  : पुं० [?] दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध प्रदेश। वि० उक्त प्रदेश में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला पुं० उक्त प्रदेश का निवासी। स्त्री०—उक्त प्रदेश की भाषा।
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कन्ना  : पुं० [स० कर्ण प्रा० कण्ण] [स्त्री० कन्नी] १. किसी वस्तु का कान की तरह निकला हुआ कोई कोना। जैसे—पतंग का कन्ना। २. पतंग उड़ाने के लिए उसके बीच में बाँधा जानेवाला डोरा। ३. किनारा। सिरा। जैसे—जूते का कन्ना। पुं० [सं० कर्णक=वनस्पति का एक रोग] वनस्पति का एक रोग जिससे उसकी लकड़ी तथा फलों आदि में कीड़े पड़ जाते हैं। पुं० [सं० कर्णक] चावलों आदि का छोटा टुकड़ा या दाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कन्नी  : स्त्री० [हिं० कन्ना] १. किनारा। सिरा। मुहा०—कन्नी काटना=किसी से हटकर उसकी ओर ध्यान न देते हुए, धीरे से या चुपचाप निकल जाना। २. पतंग का किनारा। मुहा०—कन्नी खाना या मारना=पतंग का एक किनारे की ओर झुकना। ३. पटैले या हेंगे की वह खूटी जिसमें रस्सी बाँधी जाती है। स्त्री०=करणी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कन्नौज  : पुं० [सं० कान्यकुटज, प्रा० कण्णउज्ज] उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पश्चिम का एक नगर और उसके आस-पास का प्रदेश।
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कन्नौजी  : वि० [हिं० कन्नौज] कन्नौज में रहने, होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। स्त्री० कन्नौज प्रदेश की बोली।
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कन्यका  : स्त्री० [सं० कन्या+टाप्, ह्नस्व]=कन्या।
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कन्यस  : पुं० [स०√कन्+यक्, कन्य√सो (निश्चित करना)+क] [स्त्री० कन्यसी] सब से छोटा भाई।
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कन्या  : स्त्री० [सं० कन्य+टाप्] १. अविवाहिता लड़की। क्वाँरी लड़की। २. पुत्री। बेटी। ३. बाहर राशियों में से छठी राशि जिसमें उत्तरा फाल्गुनी के अंतिम तीन चरण, पूरा हस्त और चित्रा के प्रथम दो चरण है। (विर्गो) ४. घीकुआँर। ५. बड़ी इलायची। ६. वाराही-कंद। गंठी। ७. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार गुरु होते हैं। ८. दे० ‘कन्या-कुमारी।’
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कन्या कुमारी  : स्त्री० [सं० कन्या+कुमारी] भारत के दक्षिण में रामेश्वर के निकट का एक अंतरीप। रास-कुमारी।
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कन्या-कुब्ज  : पुं० [ब० स०] कान्यकुब्ज देश।
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कन्या-गत  : वि० [द्वि० त०] (वह बालक) जिसका जन्म क्वाँरी कन्या के गर्भ से हुआ हो।
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कन्या-दान  : पुं० [ष० त०] विवाह में वर को कन्या देने की रीति। माता-पिता द्वारा कन्या का वर को दिया जाना। मुहा०—कन्या-दान लेना=कन्या-दान का शास्त्रोक्त फल प्राप्त करने के लिए वर को कन्यादान करने की क्रिया या रीति।
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कन्या-धन  : पुं० [ष० त०] वह धन जो स्त्री को अविवाहित होने अर्थात् कन्या रहने की अवस्था में मिला हो। (स्त्री-धन का एक प्रकार)।
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कन्या-पुर  : पुं० [ष० त०] अंतःपुर। जनानखाना।
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कन्या-शुल्क  : पुं० [मध्य० सं०] वह धन जो कन्या के पिता को उसकी कन्या लेने के समय बदले में दिया जाता है।
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कन्यापाल  : पुं० [सं० कन्या√पाल् (पालना)+णिच्+अच् उप०स०] १. कुमारी लड़कियों को बेचने का व्यवसाय करनेवाला पुरुष। २. बंगालियों की एक जाति जो अब पाल कहलाती है।
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कन्यारासी  : विं० [सं० कन्याराशीय] १. जिसके जन्म के समय चंद्रमा कन्याराशि में हो। २. सत्यानाशी। ३. तुच्छ। निकम्मा।
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कन्यावानी  : स्त्री० [सं० कन्या+हिं० वानी (प्रत्य०)] सूर्य के कन्याराशि में रहने के समय होनेवाली वर्षा जो अच्छी समझी जाती है।
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कन्याशील  : पुं० [कन्या-अलीक, मध्य० सं० ] कन्या के विवाह के संबंध में बोला जानेवाला झूठ। (जैन)
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कन्ह  : पुं० [सं० कृष्ण] १. श्रीकृष्ण। २. पृथ्वीराजकालीन एक प्रसिद्ध सरदार।
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कन्हड़ी  : स्त्री० [सं० कर्णाटी] १. कर्णाट देश की स्त्री। २. कर्णाट देश की भाषा।
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कन्हाई  : पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह] श्रीकृष्ण।
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कन्हावर  : पुं० =कँधावर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कन्है  : अव्य०=कने (के पास)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कन्हैया  : पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह] १. श्रीकृष्ण। २. प्रिय व्यक्ति। ३. बहुत सुन्दर व्यक्ति। ४. एक प्रकार का पहाड़ी पेड़।
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कंप  : पुं० [सं०√कंप् (काँपना)+घञ्] १. भय, शीत आदि के कारण शरीर के अंगों के बार-बार या रह-रहकर हिलने की क्रिया या भाव। २. साहित्य में क्रोध, भय हर्ष आदि के कारण शरीर में होनेवाला कंपन या थर्राहट, जिसकी गिनती सात्त्विक अनुभावों के अंतर्गत होती है। ३. प्राकृतिक या भू-गर्भस्थ कारणों से पृथ्वी के किसी भाग का थोड़ी देर के लिए रह-रहकर काँपना या हिलना। थर्राहट। (क्वेक) जैसे—भूंकंप, समुद्र-कंप आदि। पु० [अं० कैप] १. सैनिकों आदि का अस्थायी निवास स्थान। छावनी। २. यात्रियों के ठहरने का स्थान। पड़ाव। डेरा।
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कप  : पुं० [सं० क=जल√पा (रक्षण)+क] १. वरुण देवता। २. असुरों या दैत्यों की एक जाति।
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कंप-मापक  : पुं० [सं० ष० त०]=भूकंप-मापक।
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कंप-विज्ञान  : पुं० [सं० ष०त०]=भूकंप-विज्ञान।
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कँपकँपी  : स्त्री० [हिं० काँपना] भय, शीत आदि के कारण शरीर में होनेवाला कंपन या थर्राहट, जिसमें एक प्रकार की स्वरता होती है। कंपन।
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कपकपी  : स्त्री० =कँप कँपी।
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कपट  : पुं० [सं० क√पट् (आच्छादन)+अच्ञ] १. मन में होनेवाला वह दुराव या छिपाव जिसके कारण किसी को उचित, ठीक या पूरी बात नहीं बतलाई जाती। २. वह दूषित मनोवृत्ति जिसमें किसी को धोखा देने या हानि पहुँचाने का विचार छिपा रहता है। ३. मिथ्या और छलपूर्ण आचरण या व्यवहार। (डिसेप्शन; उक्त सभी अर्थो में) विशेष—विधिक दृष्टि से यह उपधा से इस बात में भिन्न है कि यह विशुद्ध नैतिक या मानसिक दोष है और केवल निजी या व्यक्तिगत व्यवहारों तक परिमित रहता है। वि० छल से युक्त। छलपूर्ण। जैसे—कपट लेख्य, कपट वेश। उदा०—कपट नेह मन हरत हमारे।—सूर।
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कपट-कन  : पुं० [सं० कपट-कण] १. चिड़िया फँसाने के लिए बिखेरा हुआ अन्न। २. किसी को फसाने के लिए बिछाया हुआ जाल। (लाक्षणिक) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कपट-पुरुष  : [सं० ष० त०] बाँस, हँडिया, आदि का बनाया हुआ वह पुतला जो खेतों में इसलिए लगाया जाता है कि पशु-पक्षी उसे आदमी समझकर उससे डरें और दूर रहें। धोखा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कपट-प्रबंध  : पुं० [मध्य० स०] वह कार्य या योजना जो कपटपूर्वक किसी को धोखा देने के लिए की गई हो।
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कपट-लेख्य  : पुं० [मध्य० सं०] जाली लेख्य। नकली दस्तावेज।
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कपट-वेश  : पुं० [मध्य० सं० ] दूसरों को छलने या धोखा देने के लिए धारण किया हुआ नकली रूप। छद्यवेश।
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कपटना  : सं० [सं० कपट] छल या धोख से किसी चीज में से कुछ अंश निकाल लेना। सं० [सं० कल्पन] काट या निकाल कर अलग करना।
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कपटा  : पुं० [सं० कपट] १. धान ती फसल को नुकसान पहुँचाने वाला एक कीड़ा। २. तमाकू के पत्ता में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। वि० जिसके मन में कपट हो। कपटी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कपटिक  : वि० [सं० कपट+ठन्—इक] कपटी।
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कपटी (टिन्)  : वि० [सं० कपट+इनि] [स्त्री० कपटिन] १. जिसके मन में कपट हो। २. कपट-पूर्वक दूसरों को धोखा देनावाला। ३. बुरे विचारवाला। स्त्री० [सं०√कप् (चलना)+ अटन्+ङीष] एक अंजुली की मात्रा। वि० पुं० दे० ‘कपटा’।
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कपड़  : पुं० हिं० कपड़ा का संक्षिप्त रूप जो समस्त पदों में पूर्व पद के रूप में लगता है। जैसे—कपड़-गंध, कपड़-छान आदि।
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कपड़-कोट  : पुं० [हिं० कपड़+कोट (किला)] खेमा। तंबू।
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कपड़-खसोट  : पुं० [हिं० कपड़ा+खसोटना] [भाव० कपड़-खसोटी] दूसरों के कपड़े तक उतार या छीन लेनेवाला अर्थात् बहुत अधिक धूर्त्त और लोभी।
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कपड़-गंध  : स्त्री० [हिं० कपड़ा+गंध] कपड़ा जलने से निकलनेवाली दुर्गध।
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कपड़-छन  : पुं०=कपड़-छान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कपड़-छान  : पुं० [हिं० तपड़ा +छानना] १. महीन कपड़े में से किसी पिसे हुए चूर्ण को छानने की किया या भाव। २. वह वस्तु जो उक्त प्रकार से छानी गई हो।
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कपड़-मिट्टी  : स्त्री० [हिं० कपड़ा+मिट्टी] वैद्यक में धातु या ओषधि फूँकने के संपुट पर गीली मिट्टी के लेप के साथ कपड़ा लपेटने की किया। कपड़ौटी।
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कपड़-विदार  : पुं० [हिं० कपड़ा+सं० विदारण] १. दरजी। २. रफूगर। (र्डि०) ३. दे० ‘कपड़-खसोट’।
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कपड़ा  : पुं० [सं० कर्पण; प्रा० कप्पड़ ; दे० प्रा० कंपड़े; र्सि० कपग; मरा० गुं० बँ०, उ० कापंड ; पं० कप्पड़ा] १. ऊन, रूई, रेशन आदि के तागों अथवा वृक्षों की छालों के तंतुओं से बुना हुआ पदार्थ जो ओढ़ने, बिछाने, पहनने आदि के काम आता है। (क्लाथ) २. पहनावा। पोशाक। मुहा०—(किसी के) कपड़े उतार लेना=किसी का सब कुछ छीन या लूट लेना। कपड़े छीनना=पल्ला छुड़ाना। पीछा छुड़ाना। (अपने) कपड़े रँगना=गेरुए वस्त्र पहनकर त्यागी या साधु बनना। (स्त्रियों का) कपड़ों से होना=मासिक धर्म में होना। एकवस्त्रा होना। रजस्वला होना।
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कपड़ौटी  : स्त्री०= कपड़-मिट्टी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंपति  : पुं० [सं०√कंप्+अति] समुद्र।
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कंपन  : पुं० [सं०√कंप्+ल्युट-अन] काँपने या थरथराने की क्रिया या भाव। २. किसी वस्तु आदि का कुछ समय के लिए निरंतर हिलते-डुलते या काँपते रहना। जैसे—प्रकाश या ध्वनि में होनेवाला कंपन। ३. एक प्राचीन अस्त्र।
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कँपना  : अ०=काँपना।
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कँपनी  : स्त्री०=कँपकँपी।
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कँपनी  : स्त्री० [अं०] १. कुछ व्यक्तियों के द्वारा मिल-जुलकर स्थापित की हुई कोई व्यापारिक मंडली या संस्था। जैसे—ईस्ट इंडिया कंपनी। २. भारत का वह शासन, जो ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा घोषित था। ३. भारत का अँगरेजी काल का शासन। उदाहरण—सर कंपनी का कट के बिके आध आने में। ४. दे० ‘मंडली’।
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कपनी  : स्त्री०=कँपकँपी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंपमान  : वि० [सं०√कंप्+शानच्]=कंपायमान।
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कपरा  : पुं० =कपड़ा। पुं० = कपार (कपाल)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कपरिया  : पुं० [सं० कपाली] एक छोटी जाति।
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कपरौटी  : स्त्री० =कपड़-मिट्टी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कपर्द  : पुं० [सं० पर्,√पर्व् (पूर्ण करना)+क्विप्, वलोप, क-पर्√दै (शुद्ध करना)+क] १. शिव का जटाजूट २. कौड़ी।
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कपर्दक  : पुं० [सं० कपर्द+ कन्] कौड़ी।
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कपर्दिका  : स्त्री० [सं० कपर्द+कन्+टाप्, इत्व] कौड़ी।
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कपर्दिनी  : स्त्री० [सं० कपर्द+इनि+ङीप्] १. पार्वती। २. दुर्गा।
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कपर्दी (र्दिन्)  : पुं० [सं० कपर्द+ इनि] १. जटाजूटधारी शिव। २. ग्यारह रुद्रों में से एक।
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कपसा  : स्त्री० दे० ‘काबिस’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कपसेठा  : पुं० [हिं० कपास+एठा] कपास के सूखे हुए डंठल या पौधे जो जलाने के काम आते हैं।
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कंपा  : पुं० [हिं० काँपा] १. बाँस की वे छोटी तिलियाँ,जिनमें लासा लगाकर बहेलिया चिड़ियाँ फँसाते हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा चंगुल, जाल या फंदा, जिसमें किसी को फँसाया जाय। मुहावरा—कंपा मारनाकिसी को फँसाने के लिए जाल फैलाना।
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कपाट  : पुं० [सं० क√पट् (गति)+णिच्+अण्] १. दरवाजे में लगे हुए पल्ले। किवाड़ा। २. दरवाजा। द्वार। ३. किली नली, खाने आदि के ऊपर ढकने के रूप में लगा हुआ कोई ऐसा पटल या फलक जो एक ओर से दाब पड़ने पर उस नली या खाने में से निकलने वाली चीज (जैसे—पानी, भाप, हवा आदि) पर नियंत्रण रखता और उसका प्रवाह रोक रखता है। (वॉल्व) ४. हठयोग में (क) सुषुम्ना नाड़ी (ख) ब्रह्मरंध्र और (ग) मोक्ष का द्वार।
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कपाट-बन्ध  : पुं० [उपमि० सं० ] एक प्रकार का चित्र काव्य जिसमें किसी छंद के अक्षर इस प्रकार सजाकर लिखे जाते हैं कि उनसे बंद द्वार की आकृति बन जाती है।
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कपाट-मंगल  : पुं० [हिं०] मंदिर का द्वार बन्द करना या होना। (वल्लभकुल)।
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कँपाना  : स० [हिं० काँपना का प्रे] किसी को काँपने में प्रृवत्त करना। डराना। दहलाना।
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कंपायमान  : वि० [सं० कंपमान] १. जो काँप रहा हो। २. हिलता-डुलता या थरथराता हुआ।
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कपार  : पुं० [सं० कपाल] १. खोपडी। २. सिर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कपाल  : पुं० [सं० क√पाल् (रक्षण)+अण्] १. सारे सिर के ऊपरी भाग में और अगल-बगल रहनेवाली वह अर्द्घ गोलाकार हड्डी जिसके अन्दर मस्तिष्क के सब अवयव रहते हैं। खोपड़ी। (स्कूल) पद—कुपाल-क्रिया (देखें )। २. मस्तक। ललाट। ३. अदृष्ट। भाग। ४. घड़े आदि के नीचे या ऊपर का टूटा हुआ अर्द्ध-गोलाकार भाग खपड़ा। ५. भिक्षुकों का मिट्टी का बना हुआ भिक्षा-पात्र खप्पर। ६. यज्ञों में देवताओं के लिए पुरोडाश पकाने का पात्र। ७. कछुए का खोपड़ा। ८. एक प्रकार का कोढ़। ९. एक प्रकार का पुराना अस्त्र। १॰. ढाल।
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कपाल-केतु  : पुं० [उपमि० सं०] बृहत्सहिता के अनुसार एक धूम्रकेतु जिसका उदय अशुभ माना गया है।
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कपाल-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] हिन्दुओं में शव जलाने के समय का एक संस्कार जिसमें शव का अधिकांश जल चुकने पर उसकी खोपड़ी बाँस लकड़ी आदि से तोड़ने या फोड़ते हैं। विशेष—आधुनिक दृष्टि से इसका उद्देश्य सम्भवतः यह होता है कि आत्मा को शरीर से संबद्ध रखनेवाला बंधन या सूत्र टूट जाय।
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कपाल-माली (लिन्)  : पुं० [सं० कपाल-माला, ष० त० +इनि] खोपड़ियों की माला पहननेवाले शिव।
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कपाल-संधि  : स्त्री० [मध्य० स०] १. खोपड़ी की हड्डियों का जोड़। २. ऐसी संधि जो दोनों पक्षों के अधिकार बराबर मानकर की गई हो।
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कपालक  : पुं०= कापालिका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कपालि  : पुं० [सं० क√पाल,+ इनि] शिव।
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कपालिक  : पुं० दे० ‘कापालिक’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कपालिका  : स्त्री० [सं० कपाल + कन् ;+ टाप्, इत्व] १. खोपड़ी। २. घड़े के नीचे आ ऊपर का टूटा हुआ भाग। ३. दाँतों में होनेवाला एक रोगा। स्त्री० [ सं० कापालिक=शिव] काली। रणचंडी।
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कपालिनी  : स्त्री० [सं० कपाल+इनि+ङीप्] दुर्गा। शिवा।
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कपाली (लिन्)  : पुं० [सं० कपाल +इनि] १. शिव। महादेव। २. भैरव। ३. ठोकरा लेकर भीख माँगनेवाला भिक्षुक। ४. एक प्राचीन वर्णसंकर—जाति कपरिया।
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कंपास  : स्त्री० [अं० कम्पास] १. घड़ी के आकार का एक यंत्र, जो दिशाओं का ज्ञान कराता है। दिक्सूचक यंत्र। कुतुबनुमा। २. वृत्त बनाने का परकार।
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कपास  : स्त्री० [सं० कार्पास, कर्पास; प्रा० कप्पास; पं० कपाह; गु० कापुस ; सिंह० कपु; ब० कपास ; मरा० कापूस] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके ढोंढ़ (फल) में से कई निकलती है। २. इस पौधे के फलों के तंतू जिनसे सूत काता जाता है। मुहा०—दही के दोखे कपास खाना=कुछ को कुछ समझकर धोखे में उसका उपभोग करना।
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कपासी  : वि० [र्हि० कपास] कपास के फूल के रंग जैसा। बहुत हलके पीले रंग का। पुं० कपास के फूल की भाँति बहुत हलका पीला रंग। स्त्री० [देश०] १. भोटिया बादाम नामक वृक्ष और उसका फल। २. एक प्रकार का छोटा पौधा।
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कपि  : पुं० [सं√कम्प् (गति)+ इ, मलोप+इ] १. बंदर। २. हाथी। ३. कंजा। करंज। ४. शिलारस नाम की सुगधित ओषधि। ५. सूर्य।
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कपि-कच्छु  : स्त्री० [ब० स०] केवाँच। कौंछ।
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कपि-केतन  : पुं०=कपिकेतु।
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कपि-केतु  : [ब० स०] अर्जुन जिनकी पताका पर हनुमानजी का चित्र बना था।
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कपि-ध्वज  : पुं० [ब० स०] अर्जुन।
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कपि-प्रभु  : पुं० [ष० त०] बंदरों के स्वामी (क) सुग्रीव (ख) राम।
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कपि-रथ  : पुं० (ब० सं०) १. अर्जुन। २. श्रीरामचन्द्र।
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कपि-लता  : स्त्री० [मध्य० सं०] =केवाँच। (कौंछ)।
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कपिकंदुक  : पुं० [सं० कपि√कंद्+उक] कपाल। खोपड़ी।
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कपिखेल  : स्त्री० [सं० कपिलता] केवाँच। कौंछ।
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कंपित  : वि० [सं०√कंप्+क्त] १. काँपता हुआ। २. डरा हुआ। भयभीत। ३. कँपाया हुआ।
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कपित्थ  : पुं० [सं० कपि√स्था (ठहरना) +क, पृषो० सिद्धि] १. कैथ का पेड़ और उसका फल। २. नृत्य में एक प्रकार का हस्तक।
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कंपिल  : पुं० [सं०√कंप्+इलच्] १. रोचनी। सफेद। नौसादार। फर्रुखाबाद जिले का एक पुराना नगर, जो पहले दक्षिण पांचाल की राजधानी था, कहते हैं कि द्रौपदी का स्वयंवर यही हुआ था।
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कपिल  : वि० [सं०√कन् (कान्ति)+इलच् पादेशः] [स्त्री० कपिला] १. ताँबे के रंग जैसा। भूरे या मटमैले रंग का। तामड़ा। २. जिसके भूरे बाल हों। ३. सफेद। ४. भोला-भाला। पुं० १. अग्नि। २. कुत्ता। ३. चूहा। ४. शिलाजीत। ५. महादेव। ६. सूर्य। ७, विष्णु। ८. इस प्रकार का शीशम। ९. पुराणानुसार एक मुनि जिन्होंने सगर के ६.,००० पुत्रों को भस्म किया था। ११. कुश-द्वीप के एक खंड या वर्ष का नाम।
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कपिल-द्युति  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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कपिल-वस्तु  : पुं० [ब० सं०] मगध की एक प्राचीन राजधानी जहाँ गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था और जो इस समय के बस्ती जिले में है।
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कपिल-स्मृति  : स्त्री० [मध्य० सं०] सांख्य-सूत्र।
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कपिलता  : स्त्री० [सं० कपिल+तल्+टाप्] १. मटमैलापन। २. ललाई। ३. पीलापन। ४. सफेदी।
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कपिला  : स्त्री० [सं० कपिल+अच्० टाप्] १. वह गाय जिसके शरीर पर भूरे या सफेद रंग के बाल हों। २. एक प्रकार की जोंक। ३. एक प्रकार की च्यूँटी। मांटा। ४. दक्षिण-पूर्व के दिग्गज की पत्नी। ५. दक्ष प्रजापति की एक कन्या। ६. रेणुका नाम की सुगधित ओषधि।
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कपिलागम  : पुं० [कपिल-आगम, मध्य० सं०] सांख्य-शास्त्र।
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कपिलांजन  : पुं० [कपिल-अंजन ब० सं०] शिव।
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कपिलाश्व  : पुं० [कपिल-अश्व, कर्म, सं०] १. भूरे या सफेद रंग का घोड़ा। २. [ब० स०] इंद्र जिनके घोड़े का रंग सफेद माना जाता है।
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कपिल्ल  : पुं० [सं०√कंप्+इल्ल] एक ओषधि, जिसे कमीला भी कहते हैं।
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कपिश  : वि० [सं० कपि+श] १. मटमैले या भूरे रंगवाला। कुछ काला और कुछ पीला। २. लाली लिये हुए कुछ भूरे रंग का।
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कपिशा  : स्त्री० [सं० कपिश+टाप्] १. भूरा रंग। २. एक प्रकार की शराब। ३. एक प्राचीन नदी का नाम। उदा०—कपिशा हुई थी लाल तेरा पानी पान कर।—प्रासाद। ४. कश्यप ऋषि की एक स्त्री। ५. एक प्राचीन प्रदेश जो आज-कल उत्तरी अफगानिस्तान है।
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कपींद्र  : पुं० [कपि-इंद्र, ष० त०] कपियों के राजा। जैसे—जांबवान, बाली, सुग्रीव० हनुमान आदि।
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कपीश  : पुं० [कपि-ईश, ष० त०]=कपींद्र।
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कंपू  : पुं०=कंप (छावनी)।
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कपूत  : पुं० [सं० कुपुत्र] १. बुरे आचरणोंवाला पुत्र। नालायक बेटा। २. वह व्यक्ति जो अपने कुल को कलंकित करे।
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कपूती  : स्त्री० [हिं, कपूत] कपूत होने की अवस्था। कपूतपन।
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कपूर  : पुं० [सं० कर्पूर; पा० कप्पुर; जावा कापूर] सफेद रंग का एक दाह्य सुंगधित धन पदार्थ जो हवा में रखने से भाप बनकर उड़ जाता है। (कैम्फर) मुहा०—कपूर खाना=विष खाना।
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कपूर-धूर  : स्त्री० [हिं० कपूर+धूल] पुरानी चाल का एक प्रकार का बढ़िया कपड़ा। उदा०—स्यामल कपूर-धूर की ओढ़नी ओढ़े अड़ि।—केशव।
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कपूर-मणि  : पुं० =तृण-मणि (कहरुवा)।
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कपूरकचरी  : स्त्री० [दे० ‘कपूर’+कचरी] एक प्रकार की सुंगधित लता जिसकी जड़ दवा के काम आती है। गंधमूली। गंधपलाशी।
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कपूरकाट  : पुं० [दे० ‘कपूर’+ काट] एक प्रकार का बढ़िया, सुंगधित जड़हन धान।
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कपूरा  : वि० [हिं० कपूर] सफद (चौपायों के रंग के लिए)। पुं० १. बकरे का अंडकोश (कसाई)। २. एक प्रकार का सफेद धान और उसका चावल।
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कपूरी  : वि० [हिं० कपूर] १. कपूर का बना हुआ। जैसे—कपूरी माला। २. कपूर की तरह के हलके पीले रंग का। पुं० १. केसर, फिटकिरी और हरर्सिहार के फूलों से बननेवाला एक प्रकार का हलका पीला रंग। २. एक प्रकार का लंबोतरा सफेद पान। स्त्री० पहाड़ों पर होनेवाली एक बूटी।
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कंपेस  : पुं० [?] राजा पृथ्वीराज का एक उप-नाम या उपाधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कपोत  : पुं० [सं०√कब् (वर्ण)+ओतच्, प आदेश] [स्त्री० कपोती] १. कबूतर। २. परेवा। पंडुकी। ३. पक्षी। चिड़िया। ४. भूरे रंग का कच्चा सुरमा।
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कपोत-पालिका  : स्त्री० [ष० त०] १. वह खानेदार अलमारी जिसमें कबूतरों को रखा जाता है। दरबा। २. कबूतरों के बैठने की छतरी।
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कपोत-वृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] जो कुछ मिले वह सब तुरन्त खर्च कर डालने की वृत्ति। संचय न करने की वृत्ति।
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कपोत-व्रत  : पुं० [ष० त०] दूसरों का अत्याचार बिलकुल चुपचाप (कबूतरों की तरह) सह लेने या दूसरों के अन्याय के विरुद्ध कुछ न कहने का व्रत।
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कपोतांजल  : पुं० [कपोत-अंजन०, उपमि० स०] सुरमा (धातु)।
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कपोती  : वि० [हिं० कपोत] कपोत के रंग का। खाकी।
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कपोल  : पुं० [सं०√कंप्+ओलच्, नलोप] १. मुख का वह मांसल भाग जो मुँह के दोनों ओर आँख, नाक, चिबुक तथा मुँह के बीच में स्थित होता है। गाल। २. नृत्य या नाट्य में कपोल की चेष्टा या भाव-भंगी जो सात प्रकार की कही गई हैं। यथा—लज्जा, भय, क्रोध, हर्ष, क्षोभ, उत्साह और गर्व के समय तथा प्राकृतिक या स्वाभाविक।
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कपोल-कल्पना  : स्त्री० [ष० त०] ऐसी बात जो केवल मन से गढ़ी गई हो और जिसका कोई वास्तविक आधार न हो। मन-गढ़ंत।
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कपोल-कल्पित  : वि० [तृ० त०] (ऐसी बात) जो बिना किसी आधार के अपने मन से बना ली गई हो। कल्पना पर आधारित तथा मनगढ़ंत।
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कपोल-दुआ  : पुं० दे० ‘गल-तकिया’।
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कप्तान  : पुं० [अ० कैप्टेन] १. सेनानायक। २. खेल में प्रत्येक दल का नायक। नेता। ३. जहाज का प्रधान अधिकारी।
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कप्पन  : वि० [सं० कल्पन] १. काटनेवाले। २. नष्ट करनेवाले। उदा०—कालंक राइ कप्पन विरद, महन रंभ चाहत घर।—चन्दबरदाई। पुं०=कफन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कप्पर  : पुं०=कपड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कप्परिया  : पुं० [सं० कार्पटिक] कपड़ा बेचनेवाला। बजाज। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कफ  : पुं० [स० क√फल् (फलना)+ड] १. लेई की तरह गाढ़ा और लसीला वह तरल पदार्थ जो खाँसने पर मुँह के रास्ते बाहर निकलता है। बलगम। २. वैद्यक के अनुसार शरीर के अन्दर की एक धातु जो आमाशय, हृदय, कंठ, सिर और संधियों में रहती है। इनके नाम क्रमशः ये हैं—क्लेदन, अवलंबन, रसन, स्नेहन और श्लेष्मा। पुं० [अं०] कमीज या कुरते में की वह अगली दोहरी सिली हुई पट्टी जिसमें बटन लगाये जाते हैं अथवा बटन लगाने के लिए छेद किये जाते हैं। पुं० [फा०] १. झाग। फेन। २. लोहे का वह अर्द्ध चंद्राकार टुकड़ा जिससे ठोंककर चकमचक में आग झाड़ते वा निकालते हैं। नाल।
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कफ-क्षय  : पुं० [ष० त०] वह कफ जो क्षय या यक्ष्मा के रोगी खाँसने पर थूकते हैं।
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कफ-गुल्म  : पुं० [ष० त०] पेट में होनेवाला एक रोग।
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कफ-ज्वर  : पुं० [मध्य० स०] कफ के विकार से होनेवाला ज्वर या बुखार।
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कफगीर  : पुं० [फा०] एक प्रकार की कलछी (प्रायः लकड़ी की) जिससे किसी उबलती हुई चीज का झाग या फन निकालते हैं।
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कफघ्न  : वि० [सं० कफ√हन् (मारना)+टक्] (ओषधि या पदार्थ) जिससे कफ का नाश हो। कफ-नाशक।
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कफन  : पुं० [अ०] सिला हुआ अथवा बिना सिला हुआ वह कपड़ा जिसमें शव को लपेटकर दफनाया या जलाया जाता है। मुहा०—कफन को कौड़ी न होना वा न रहना=अत्यन्त दरिद्र होना। कफन को कौड़ी न रखना=जो कुछ कमाना वह सब खर्च कर देना। कफन फाड़कर उठाना=(क) मुर्दे का जी उठना। (ख) सहसा उठ पड़ना। (व्यंग्य) कफन फाड़ कर चिल्लाना=सहसा तथा बहुत जोर से चिल्लाना या बोलना। कफन सिर से बाँधना या लपेटना=मरने के लिए तैयार होना।
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कफन-खसोट  : वि० [सं० ‘कफन’+खसोट] १. (ऐसा व्यक्ति) जो शव के कपड़े तक उतार ले। २. लाक्षणिक अर्थ में बहुत ही कंजूस। लुटेरा या लोभी।
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कफन-खसोटी  : स्त्री० [अ० कफन+खसोटना] १. श्मशान पर मुर्दों का कफन फाड़कर लिया जानेवाला कर। २. बहुत ही बुरी तरह से धन इकट्ठा करने की वृत्ति।
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कफन-चोर  : पुं० [हिं० कफन+चोर] कब्र खोदकर कफन चुरानेवाला व्यक्ति। बहुत तुच्छ और दुष्ट चोर।
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कफनाना  : सं० [अ० कफन+आना (प्रत्य०)] शव के चारों ओर कफन लपेटना।
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कफनी  : स्त्री० [हिं० कफन] १. वह कपड़ा जो शव के गले में लपेटा या बाँधा जाता है। २. साधुओं के पहनने का एक कपड़ा जो बिना सिला हुआ होता है।
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कफल  : वि० [सं० कफ+लच्] कफ से युक्त। कफवाला।
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कफस  : पुं० [अ०] १. पिंजरा। दरबा। २. बंदीगृह। कैदखाना। ३. बहुत तंग और सँकरी जगह। ४. शरीर या उसका पिंजर। (आध्यात्मिक पक्ष में)
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कफालत  : पुं० [अ०] १. जिम्मेदारी। २. जमानत। पद—कफालतनामा=जमानतनामा।
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कफाशय  : पुं० [कफ-आशय, ष० त०] शरीर के वे स्थान (जैसे—अमाशय, कंठ आदि) जिनमें कफ रहता है। (दे० ‘कफ्’)
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कफी (फिन्)  : वि० [सं० कफ+इनि] १. (व्यक्ति) जिसे कफ का रोग हो। २. जो कफ से युक्त हो। पुं० हाथी।
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कफीना  : पुं० [अ० कफ] जहाज के फर्श पर लगे हुए लकड़ी के तख्ते।
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कफ़ील  : पुं [अ०] वह जो किसी की कफालत या जमानत करे। जमानतदार। जामिन।
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कफोणि  : स्त्री० [सं० क√फण् (स्फुरण होना)+इन् पृषो० सिद्धि] कोहनी।
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कफोदर  : पुं० [कफ-उदर, ब० स०] पेट का एक रोग जो कफ बढ़ने से होता है।
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कंब  : स्त्री० [सं० कंबा] हाथ में रखने की छड़ी या छोटा डंडा।
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कब  : अव्य० [सं० कदा] किस समय ? किस वक्त ? (प्रश्नात्मक) पद—कब का, कब के, कब से=बहुत देर से। जैसे—हम कब के (या कब से) तुम्हारे आसरे बैठे हैं। कब-कब=बहुत कम। प्रायः नहीं। जैसे—हम कब-कब आपके यहाँ आते हैं ? कब ऐसी हो, कब ऐसा करें=ज्योंही ऐसा हो त्योंही ऐसा करे। जैसे—कब वह मरे कब तुम मालिक बनो। विशेष—काकु अलंकार के रूप में प्रयुक्त होने पर ‘कब’ का अर्थ ‘कभी नहीं’ या ‘कदापि नहीं’ हो जाता है। जैसे—बीत गये सूखे में सावन भी भादौं भी, बादल तो आयेंगे, नदियाँ कब उमड़ेंगी।
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कबक  : पुं० [फा०] चकोर।
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कंबख़त  : वि० [फा०] अभागा। भाग्यहीन।
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कंबख्ती  : स्त्री० [फा०] १. भाग्य-हीनता। अभाग्य। २. दुर्भाग्य। ३. कष्ट, दुर्दशा या नाश का समय। शामत। जैसे—जब गीदड़ की कंबख्ती आती है, तब वह शहर की तरफ दौड़ता है। पद—कंबख्ती का माराजिसे दुर्भाग्य ने प्रेरित करके किसी काम के लिए आगे बढ़ाया हो।
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कबड्डी  : स्त्री० [देश०] एक प्रसिद्ध भारतीय खेल जिसमें किसी स्थान को दो बराबर हिस्सों में बाँटकर दो दल अपना-अपना क्षेत्र बना लेते हैं। फिर क्रमशः एक क्षेत्र का खिलाड़ी दूसरे क्षेत्र में एक ही साँस में जाता है और विपक्षी दल के किसी खिलाड़ी को छूकर अपने क्षेत्र में लौट आने का प्रयत्न करता है।
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कबंध  : पुं० [सं० क√बंध् (बंधन)+अण्] १. ऐसा खाली धड़ जिसके ऊपर का सिर कट गया हो। रुंड। २. राहु नासक ग्रह जिसका सिर कटकर अलग हो चुका था। ३. पुराणानुसार एक प्रसिद्ध राक्षस जिसका सिर उसके धड़ के ऊपर नहीं, बल्कि उसके पेट के अन्दर था और जिसे रामचन्द्र ने दंडतवन में मारा था। ४. प्राचीन भारत में ऐसा योद्धा जो सिर कट जाने पर खाली धड़ से ही कुछ समय तक तलवार चलाता या लड़ता रहता था। ५. उदर। पेट। ६. बादल। मेघ। ७. जल। पानी। ८. एक प्रकार के केतु जो गिनती में 8 कहे गये हैं। ९. एक प्राचीन मुनि का नाम।
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कबंधज  : पुं० [सं० कबंध√जन् (उत्पन्न होता)+ड] वह व्यक्ति जिसका जन्म ऐसे कुल में हुआ हो जिसके किसी पूर्वज ने सिर कट जाने पर भी धड़ से ही युद्ध किया हो। कबंध के वंशज। जैसे—जोधपुर के राठौर कबंधज हैं।
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कबंधी (धिन्)  : पुं० [सं० कबंध+इनि] १. मरुत्। २. कात्यायन ऋषि।
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कंबर  : पुं०=कंबल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबर  : अव्य० [कब+रे] १. किसी समय। कब। २. दुबारा कब। उदा०—तुमसे हमकूं कबर मिलोगे।—मीराँ। स्त्री० दे० ‘कब्र’।
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कबरा  : वि०=चित-कबरा।
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कबरिस्तान  : पुं० [फा० कब्रिस्तान] वह स्थान जहाँ मृत शरीर या शव गाड़े जाते हैं।
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कबरी  : स्त्री०=कवरी (चोटी)
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कंबल  : पुं० [सं०√ कंब् (गति)+कलच्, पा० प्रा० कम्बल, पू० हिं० कमली, कामरी, पं० उ० बँ० कम्बल, गु० कांबलो, मरा० कांबले, कामलें] १. ऊन से बुनी हुई एक प्रकार की बहुत मोटी चादर जो प्रायः ओढ़ने-बिछाने के काम आती है। २. एक प्रकार का बरसाती कीड़ा। कमला। ३. =गल-कंबल। (पशुओं का)।
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कबल  : अव्य० [अ० कब्ल] पहले। पूर्व। पेश्तर।
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कबहुँ  : क्रि० वि०=कभी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबहुँक  : क्रि० वि० १. कभी। २. कभी-कभी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबा  : पुं० [अ०] चोगे की तरह का एक प्रकार का लंबा ढीला पहनावा।
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कबाई  : पुं०=कब। स्त्री०=कब्र। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबाड  : पुं० [सं० कर्पट, प्रा० कप्पट=चिथड़ा] १. टूटी-फूटी या व्यर्थ की वस्तुओं का ढेर। २. अंड-बंड काम या व्यवसाय।
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कबाड़खाना  : पुं० [हिं०+फा०] १. वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार की बहुत-सी टूटी-फूटी तथा व्यर्थ की वस्तुएँ रखी गई हों। २. ऐसा स्थान जहां बहुत-सी चीजें अव्यवस्थित रूप में बिखरी पड़ी हों।
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कबाड़ा  : पुं० [हिं० कबाड] १. कूड़ा-कर्कट। २. झंझट। बखेड़ा। ३. अनुपयोगी या व्यर्थ का काम। उदा०—नहिं जानऊँ कछु अउर कबारू (कबाड़ा)।—तुलसी।
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कबाड़िया  : पुं० [हिं० कबाड़] १. वह जिसका व्यवसाय टूटी-फूटी या पुरानी वस्तुएँ खरीदना तथा बेचना हो। २. तुच्छ या निकृष्ट कार्य अथवा व्यवसाय करनेवाला व्यक्ति। वि० १. झगड़ालू। २. क्षुद्र। नीच।
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कबाड़ी  : पुं०=कबाड़िया।
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कबाब  : पुं० [अ०] सीकों पर भूनकर पकाया हुआ मांस। मुहा०—कबाब करना=बहुत कष्ट या दुःख देना। संतप्त करना। जलाना। कबाब होना=क्रोध से जल-भुन जाना। जैसे—मेरी बात सुनते ही वह कबाब हो गये।
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कबाब-चीनी  : स्त्री० [अ० कबाबा+हिं० चीनी] एक प्रकार की झाड़ी और उसके गोल छोटे दाने जो दवा के काम आते हैं।
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कबाबी  : वि० [अ० कबाब] १. कबाब बनाने तथा बेचनेवाला। २. कबाब खानेवाला। मांसभक्षी। जैसे—शराबी, कबाबी।
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कबाय  : =कबा (पहनावा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबायली  : पुं० [अ०] १. काबुल का रहनेवाला व्यक्ति। (काबुली)। २. पश्चिमी पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम में कुछ फिरकों के व्यक्ति। ३. किसी कबीले का आदमी। (दे० ‘कबीला’)
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कबार  : पुं० १.=कबाड़। २. दे० ‘कारोबार’। पुं० [देश०] एक प्रकार की झाड़ी या छोटा-पेड़।
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कबारना  : स०=उखाड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबारा  : पुं०=कबाड़ा।
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कबाल  : स्त्री० [देश०] खजूर का रेशा जिससे रस्से आदि बनते हैं।
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क़बाला  : पुं० [अ०] वह लेख्य जिसके द्वारा किसी की धन संपत्ति आदि का अधिकार दूसरे को मिलता हो। जैसे—बैनामा।
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कबाहट  : स्त्री० दे० ‘कबाहत’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबाहत  : स्त्री० [अ०] १. बुराई। खराबी। २. कठिनता। मुश्किल। ३. अड़चन। बाधा। ४. झंझट। बखेड़ा।
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कबि  : पुं०=कवि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबिका  : स्त्री०=कविका (लगाम)।
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कबित  : पुं०=कवित्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबिलनवी  : स्त्री०=किबलानुमा (दिग्दर्शक यंत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कबिलास  : पुं० [सं० क=स्वर्ग+विलास=ऐश्वर्य] १. स्वर्ग। उदा०—सात सहस हस्ती सिंहली। जिमि कबिलास एरापति बली।—जायसी। २. राजमहल के सब से ऊपरी भाग का वह विशिष्ट स्थान जहाँ राजा-रानी रहते थे। उदा०—सात खंड ऊप कबिलासू।—जायसी।
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कबीठ  : पुं० [सं० कपित्थ, प्रा० कविट्ठ] कैथ (पेड़ और फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबीर  : वि० [अ०] १. महान्। श्रेष्ठ। २. वयोवृद्ध। पुं० १. आचार्य रामानंद के एक प्रसिद्ध शिष्य जो ज्ञानमार्गी और संत कवि थे। इन्हीं के नाम से कबीर-पंथ नामक सम्प्रदाय चला। २. होली के समय गाया जानेवाला एक प्रकार का अश्लील गाना।
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कबीर-पंथी  : वि० [हिं० कबीर+पंथ] १. महात्मा कबीर के सिद्धांतों को माननेवाला। २. कबीर-पंथ का सदस्य।
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कबील  : पुं० [अ०] १. मनुष्य। २. समुदाय।
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कबीला  : पुं० [अ० कबीलः] १. झुंड। समूह। २. किसी एक कुल के सब लोग। जन। ३. पश्चिमी पाकिस्तान में रहनेवाली जातियाँ जो उक्त प्रकार के कुलों या जनों में बँटी हुई हैं। ४. कुटुंब। परिवार। स्त्री०=पत्नी। स्त्री।
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कंबु  : पुं० [सं०√कंम् (चाहना)+उ, बुक् आगम] १. शंख। २. शंख की बनी हुई चूड़ी। ३. घोंघा। ४. सीपी। ५. हाथी।
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कंबु-कंठी  : स्त्री० [कंबु-कंठ, ब० स० ङीष्] ऐसी स्त्री, जिसकी गरदन शंख के आकर-जैसी सुंदर और सुडौल हो।
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कंबु-ग्रीव  : वि० [ब० स०] शंख-जैसे सुन्दर और सुडौल गलेवाला। सुराहीदार गरदनवाला।
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कंबुक  : पुं० [सं० कंबु+कन्]=कंबु।
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कबुलवाना  : स० [हिं० कबूलना का प्रे० रूप] १. किसी को कोई बात कबूल या स्वीकार करने में प्रवृत्त करना। २. दबाव डालकर किसी से कोई बात कहलवाना।
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कबुलाना  : स०=कबुलवाना।
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कबूतर  : पुं० [फा० सं० कपोतः] [स्त्री० कबूतरी] मझोले आकार का एक प्रसिद्ध पक्षी जो कई जातियों और रंगों का होता है। मुहा०—कबूतर की तरह लोटना=बहुत व्याकुल होना। तड़पना।
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कबूतर-झाड़  : पुं० [हिं० कबूतर+झाड़] पितपापड़े की तरह की एक झाड़ी।
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कबूतरखाना  : पुं० [फा०] एक प्रकार की खानेदार अलमारी जिसमें बहुत-से पालतू कबूतर रखे जाते हों। बड़ा दरबा।
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कबूतरबाज  : वि० [फा०] कबूतर पालने का शौकीन। कबूतर पालने तथ उड़ानेवाला।
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कबूतरबाजी  : स्त्री० [फा०] कबूतर पालने तथा उड़ाने की लत या शौक।
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कबूतरी  : स्त्री० [फा० कबूतर] १. कबूतर की मादा। २. नाचनेवाली स्त्री। नर्तकी। ३. सुंदर स्त्री। (बाजारू)
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कबूद  : वि० [फा०] नीला। कासनी। पुं० ऐसा बंसलोचन जो नीले रंग का हो। नीलकंठी।
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कबूदी  : वि० [फा०] नीलेरंग का। आसमानी।
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कबूल  : पुं० [अ०] कबूलने अर्थात् मानने या स्वीकार करने की क्रिया या भाव।
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कबूलना  : स० [अ० कबूल+ना (प्रत्य०)] स्वीकार करना। कही, देखी या सुनी हुई बात को मानना। यह कहना कि हाँ ऐसा हुआ था। स्वीकार करना।
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कबूलियत  : स्त्री० [अ० कुबुलियत] वह स्वीकृति-पत्र जो खेत का पट्टा लेनेवाला व्यक्ति लिखकर उस व्यक्ति को देता है जिससे वह खेत का पट्टा लिखाता है।
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कबूली  : स्त्री० [फा०] चने की दाल और चावल के योग से बनाई खिचड़ी।
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कबै  : क्रि० वि०=कभी। (व्रज) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंबोज  : पुं० [सं०√कंब्+ओज्] [वि० कांबोज] आधुनिक सोवियत रूस के अंतर्गत उस प्रदेश का पुराना नाम, जिसमें आज-कल पामीर और बदख्शाँ हैं।
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कबौ  : क्रि० वि०=कभी। (पूरब) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कब्ज  : पुं० [अ०] १. पकड़कर अधिकार में करने की क्रिया या भाव। मुहा०—रूह कब्ज होना=होश गुम होना। रूह कब्ज करना=पकड़कर खींचना। ले जाना। २. पेट का वह विकार जिसके कारण पाखाना साफ नहीं होता। कोष्ठबद्धता। ३. मुसलमानी शासनकाल का एक सरकारी नियम, जिसके अनुसार कोई फौजी अफसर फौज के लिए किसी ज़मींदार से लगान वसूल करता था। ४. वह राजाज्ञा जिसके अनुसार फौजी अफसर को उक्त प्रकार से रुपया वसूल करने का अधिकार मिलता था।
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कब्जा  : पुं० [अ० कब्ज] १. किसी वस्तु पर होनेवाला ऐसा अधिकार जिसके अनुसार उस वस्तु का उपभोग किया जाता है। (पजेशन) जैसे—खेत या मकान पर होनेवाला कब्जा। २. औजार या हथियार का वह भाग जो हाथ या मुट्ठी में पकड़ा जाता है। मूठ। जैसे—कटार या तलवार का कब्जा। मुहा०—कब्जे पर हाथ डालना या रखना=कटार, तलवार आदि खींचने के लिए मूठ पर हाथ रखना। ३. लोहे पीतल आदि का बना हुआ एक प्रसिद्ध उपकरण जिससे चौखट के साथ पल्ले को कजा साजा है तथा जिसके कारण पल्ला घूमता है। कोंढा। ४. उक्त प्रकार का काम देनेवाला कोई उपकरण। ५. भुजदंड। मुश्क। ६. कुश्ती का एक पेच।
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कब्जादार  : पुं० [फा०] १. वह अधिकारी जिसका किसी चीज पर कब्जा हो। २. दखीलकार असामी। (अवध)। वि० (वस्तु) जिसमें कोई पल्ला खोलने और बंद करने के लिए कब्जा (कोढ़ा) लगा हो।
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कब्जियत  : स्त्री० [अ०] पेट में होनेवाला वह विकार जिसके कारण ठीक तरह से मल नहीं उतरता। कोष्ठबद्धता।
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कब्जुल वसूल  : पुं० [फा०] वह कागज जिस पर वसूल की हुई रकम लिखकर दी जाती है। भरपाई की रसीद।
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कब्र  : स्त्री० [अ०] १. शव को गाड़ने या दफनाने के लिए खोदा जाने वाला गढ्डा। मुहा०—कब्र का मुँह झाँकना या झाँक आना=मरते-मरते बचना। २. उक्त गड्ढें के ऊपर स्मृति के लिए बनाया हुआ चबूतरा। मुहा०—कब्र में पैर या पाँव लटकाना=(क) बहुत बुड्ढे होना। (ख) मरण समय निकट आना। कब्र से उठ कर आना=मरते मरते बचना। नया जीवन पाना।
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कब्रिस्तान  : पुं० [फा०] शव गाड़ने या दफनाने के लिए नियत स्थान।
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कब्ल  : अव्य [अ०] १. पहले। पेश्तर। २. आगे। पूर्व।
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कंभारी  : स्त्री० [सं० कं√भृ (धारण)+अण्-ङीष्० उप० स०] गँभारि का पेड़।
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कभी  : अव्य० [हिं० कब+ही] १. किसी क्षण। किसी समय। (अज्ञात या अनिश्चित काल के संबंध में) पद—कभी का=बहुत देर से। कभी-कभी=(क) रह-रह कर कुछ काल के अंतर पर। (ख) बहुत काम। जब-तब। कभी-कभार=कभी-कभी। कभी-न-कभी=किसी-न-किसी समय। किसी अनिश्चित अवसर पर। कभी-कबात=कभी-कभी। २. किसी अवसर पर। जैसे—अब कभी ऐसा नहीं करूँगा।
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कंभु  : पुं० [सं० कम्√भृ (भरण करना)+डु] खास।
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कभू  : अव्य०=कभी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कम  : वि० [फा०] १. मान, मात्रा, विस्तार आदि के विचार से जो किसी से घटकर या थोड़ा हो। ‘अधिक’ का विपर्याय। मुहा०—कम करना=(क) थोड़ा करना। घटाना। (ख) गणित में बड़ी संख्या में से छोटी संख्या घटाकर बाकी निकालना। २. जो उतना न हो जितना साधारणतया होता हो या होना चाहिए। जितना अपेक्षित या आवश्यक हो, उससे घटकर या थोड़ा। पद—कम-से-कम=जितना कम हो सकता हो। ३. बुरा [यौ० के आरंभ में) जैसे—कम्बख्त। अव्य० इतने थोड़े अवसरों पर कि प्रायः नहीं के बराबर। बहुधा नहीं। जैसे—ऐसा बहुत काम होता है।
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कम असल  : वि० [फा० कम+अ० अस्ल] १. नीच कुल में उत्पन्न। २. दोगला। वर्णसंकर।
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कम-अक्ल  : वि० [फा० कम+अक्ल] १. कम बुद्धिवाला। २. बुद्धिहीन।
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कम-बख्ती  : स्त्री० [फा०] १. भाग्यहीनता। अभाग्य। २. दुर्भाग्य।
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कमकर  : पुं० [सं० कर्मकार या हिं० काम+करना] १. काम, विशेषतः सेवा-संबंधी छोटे-मोटे काम करनेवाला। (लेबरर) जैसे—कहार, हलवाहे आदि। २. दे० ‘कर्मकार’।
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कमकस  : वि० [हिं० काम+कसर] १. काम में कसर करनेवाला। ठीक प्रकार से काम न करनेवाला। २. आलसी। सुस्त।
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कमखर्च  : वि० [फा०] [भाव० कम-खर्ची] कम या थोड़ा खर्च करने वाला। किफायत से काम चलानेवाला। मितव्ययी।
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कमखाब  : पुं० [फा० कमख्वाब] एक प्रकार का मोटा रंगीन, बूटीदार रेशमी कपड़ा।
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कमखुराक  : वि० [फा०+अ०] कम खानेवाला। मिताहारी।
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कमखोरा  : पुं० [फा० कम+अ० खोर] चौपायों के मुँह में होनेवाला एक रोग जिसमें वे खा नहीं सकते।
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कमंगर  : पुं० [फा० कमानगर] १. कमान अर्थात् धनुष बनानेवाला कारीगर। २. खिसकी या टूटी हुई हड्डियाँ बैठानेवाला चिकित्सक। ३. चितेरा। चित्रकार। वि० किसी कला में प्रवीण। निपुण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमंगरी  : स्त्री० [फा० कमानगर] १. कमान (धनुष) बनाने की कला या विद्या। २. खिसकी या टूटी हुई हड्डी बैठाने का काम। ३. चित्रकारी। ४. कार्य-कुशलता। निपुणता। ५. कारीगरी।
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कमंचा  : पुं० [फा० कमानचः] बढ़इयों का (कमान की तरह का) एक उपकरण जिसकी रस्सी में बरमा लपेटकर उसे घुमाते हैं।
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कमचा  : पुं० [हिं० कमची] बड़ी कमची। पुं०=कमचा।
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कमची  : स्त्री० [सं० कंचिका] १. बाँस आदि की पतली लचीली टहनियाँ अथवा उनकी काटी हुई पट्टियाँ जिनसे टोकरियाँ पंखे आदि बनाये जाते हैं। २. पतली लचीली छड़ी। ३. टीन, कच्चे लोहे आदि की वह दिखावटी तलवार जो अभ्यास, खेल-तमाशे आदि में काम आती है। मुहा०—कमची तानना=(क) डराना धमकाना। (ख) बंदरघुड़की देना।
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कमच्छा  : सत्री०=कामाख्या।
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कमजोर  : वि० [फा०] १. जिसमें जोर या बल कम हो। अधिक काम करने या चलने-फिरने में असमर्थ। २. जो किसी कला या कार्य में प्रथम-स्तर से घटकर या नीचे हो। जैसे—लिखने-पढ़ने में कमजोर लड़का। ३. लाक्षणिक अर्थ में जिसमें आत्मबल न हो या कम हो।
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कमजोरी  : स्त्री० [फा०] कमजोर होने की अवस्था या भाव।
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कमटा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का काँटेदार छोटा पौधा।
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कमठ  : पुं० [सं०√कम्+अठन्] [स्त्री० कमठी] १. कछुआ। २. बाँस। ३. साधुओं का तूँबा। ४. चमड़े में मढ़ा हुआ एक प्रकार का पुराना बाजा।
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कमठा  : पुं० [सं० कमठ+टाप्] १. कछुआ। २. बड़ी छड़ी या लाठी।
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कमठी  : स्त्री० [सं० कमठ=बाँस] बाँस की काटी हुई वे पतली लचीली धज्जियाँ या पट्टियाँ जिनसे टोकरियाँ, पंखे आदि बनाये जाते हैं। पुं० [सं० कमठ+ङीप्] कछुई। स्त्री०=कमची।
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कमंडल  : पुं० [सं० कमंडलु] १. दरियाई नारियल का बना हुआ एक प्रकार का जल-पात्र। २. उक्त आकार-प्रकार का ताँबे, पीतल आदि का बना हुआ पात्र।
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कमंडली  : वि० [हिं० कमंडल+ई (प्रत्य०)] १. (साधु) जो हाथ में कमंडल रखता हो। २. पाखंडी। आडंबरी। पुं० ब्रह्मा।
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कमंडलु  : पुं० [सं० क—मंड, ष० त०, कमंड√ला (लेना)+डु]=कमंडल।
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कमती  : वि०=कम। स्त्री०=कमी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमंद  : स्त्री० [फा० खमंद] १. एक प्रकार का फंदा जिसकी सहायता से जंगली पशु आदि फँसाए जाते हैं। २. वह रस्सा जिसके सहारे चोर, डाकू आदि ऊँचे मकानों पर चढ़ते हैं। फंदा। पुं०=कबंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कमध  : पुं०=कबंध (बिना सिर का धड़)।c
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कमधुज  : पुं० [हिं० कबंधज] १. वह योद्धा जो सिर कट जाने पर भी अपने धड़ से लड़ता रहा हो। २. उक्त योद्धा के वंशज।
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कमन  : वि० [सं०√कम्+णिङ—युच्] कमनीय। सुंदर। उदा०—जाही कमन रूप सब चाहै।—जायसी। पुं०=कामदेव।
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कमनचा  : पुं०=कमंचा।
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कमनसीब  : वि० [फा०+अ०] जिसका नसीब या भाग्य अच्छा न हो। बद-किस्मत।
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कमना  : अ० [फा० कम] (किसी वस्तु का) आवश्यकता से कम पड़ना या कम होना। थोड़ा होना।
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कमनी  : वि०=कमनीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमनीय  : वि० [सं०√कम् (कामना करना)+अनीयर्] १. जिसकी या जिसके लिए कामना की जाय या की जा सके। चाहने योग्य। २. सुंदर।
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कमनैत  : पुं० [फा० कमान+हिं० ऐत (प्रत्य०)] कमान या धनुष चलाने में निपुण व्यक्ति।
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कमनैती  : स्त्री० [फा० कमान+हि० ऐती (प्रत्य०)] कमान या धनुष चलाने की कला या विद्या।
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कमबख्त  : वि० [फा०] १. अभागा। भाग्यहीन। २. बुरे भाग्यवाला। (अभिप्राय या गाली के रूप में प्रयुक्त)
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कंमर  : स्त्री० =कमर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमर  : स्त्री० [फा०] १. मनुष्यों के शरीर का वह पतला मध्य भाग जो पेट और चूतड़ के बीच में होता है। मुहा०—कमर कसना=(क) कोई काम करने के लिए उद्यत या प्रस्तुत होना। (ख) उतारू या कटिबद्ध होना। कमर खोलना=(क) थक जाने पर विश्राम करना। (ख) निरासा या हताश होने पर किसी काम से विरत होन। कमर-टूटना=किसी प्रकार के मानसिक आघात आदि के कारण शक्ति या साहस न रह जाना। कमर-तोड़ना=किसी को ऐसा आघात या हानि पहुँचाना कि उसमें शक्ति या साहस न रह जाय। कमर बाँधना=कमर कसना। (दे०)। कमर बैठ जाना=कमर टूटना (दे०)। कमर सीधी करना=निरंतर बहुत परिश्रम करते रहने के बाद विश्राम करने के लिए लेटना। २. पशु-पक्षियों आदि के शरीर का मध्य भाग। जैसे—शेर या हिरन की कमर। मुहा०—कमर करना—(क) घोड़ों आदि की अपनी कमर इस प्रकार उछालना या हिलाना कि सवार हिल जाय या गिरने लगे । (ख) कबूतरों आदि का कलाबाजी करना। ३. किसी वस्तु के बीच का पतला मध्य भाग। जैसे—झारी की कमर। वि० [सं०√कम्+अरच्] १. इच्छुक। २. कामुक।
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कमर कोटा  : पुं० दे० ‘कमर बल्ला’।
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कमर तेगा  : पुं० [फा० कमर+हिं० तेग] कुश्ती का एक दाँव या पेंच।
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कमर दोआल  : स्त्री० [फा० कमर+दोआल] चमड़े का वह तसमा जिससे घोड़े की पीठ पर जीन आदि कभी जाती है।
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कमर पट्टी  : स्त्री० [फा० कमर+हिं० पट्टी] १. वह पट्टी जो पहनने के कपड़ों के उस भाग में लगाई जाती है जो कमर पर पड़ता है। २. दे० ‘कमरबंद’।
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कमर-तोड़  : पुं० [फा० कमर+हिं० तोड़ाना] १. कुश्ती का एक पेंच। २. एक प्रकार की ओषधि जो स्त्रियों के लिए पौष्टिक मानी गई है।
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कमरकस  : पुं० [हिं० कमर+फा० कश] पलास का गोंद जो पुरुषों के लिए पुंसत्व वर्धक और पौष्टिक माना गया है।
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कमरख  : पुं० [सं० कर्मरंग, पा० कम्मरंग] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसमें फाँकोंवाली पीले लंबोतरे फल लगते हैं। २. उक्त वृक्ष के फल जो बहुत खट्टे होते हैं।
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कमरखी  : वि० [हिं० कमरख] १. कमरख-संबंधी। २. कमरख के रंग का अर्थात् पीला। ३. (ऐसी वस्तु या रचना) जिसमें कमरख के फल की तरह फाँकें बनी हों। उभरी हुई फाँकोंवाला। जैसे—कमरखी हाँडी। पुं० १. कमरख के रंग की तरह का पीला रंग। २. वस्तु आदि में कमरख की उभरी हुई फाँकों की तरह की बनावट या रचना।
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कमरंग  : पुं०=कमरख (फल)।
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कमरचंडी  : स्त्री० [फा० कमर+सं० चंडी] तलवार। (डिं०)।
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कमरपेटा  : पुं० [फा० कमर+हिं० पेटा] १. मालखंभ की एक प्रकार की कसरत। २. कुश्ती का एक दाँव या पेंच।
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कमरबंद  : पुं० [फा०] १. लंबा कपड़ा जिससे कमर बाँधते हैं। पुटकी। २. कमर में बाँधने का तसमा या फीता। पेटी। ३. इजारबंद। नाड़ा। ४. किसी चीज के बीच में बाँधी जानेवाली डोरी या रस्सी। ५. वह रस्सा जिससे एक जहाज दूसरे जहाज के साथ बाँधा जाता है। (लश०)
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कमरबंध  : पुं० [फा० कमर+हिं० बाँधना] १. कमरबंद। २. कुश्ती का एक पेंच।
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कमरबल्ला  : पुं० [फा० कमर+बल्ला] १. खपड़े की छाजन में वह लकड़ी जो मध्य भाग में रहती है। कमरबस्ता। कमरबड़ेरा। २. ऊँची और बड़ी दीवारों में टेक या सहारा देने के लिए उस के साथ सटाकर बनाई छोटी ढालुआँ दीवार। पुश्ता।
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कमरबस्ता  : वि० [फा०] जो कमर कस या बाँध कर कोई काम करने के लिए तैयार हो। कटि-बद्ध। पुं० दे० ‘कमर बल्ला’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमरा  : पुं० [लै० कैमेरा] १. किसी इमारत या भवन का वह अंश या विभाग जो चारों ओर से दीवारों आदि से घिरा हो तथा ऊपर से छाया हो। बड़ी कोठरी। पुं० दे० ‘कैमरा’। पुं०=कंबल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमरिया  : पुं० [फा० कमर] एक प्रकार का नाटा पर बलिष्ठ हाथी। स्त्री०=कमली (छोटा कंबल) स्त्री०=कमर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमरी  : पुं० [हिं० कमर] घोड़ों का एक रोग जिसमें उनकी पीठ काँपने लगती है और वे बोझ नहीं सह सकते। स्त्री०=कमली (छोटा कंबल) स्त्री० [हिं० कमर] १. कमर या बीचवाले भाग में बाँधी जानेवाली रस्सी या और कोई चीज। २. छोटी कुरती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमरेँगा  : पुं० [दे०] एक प्रकार की बँगला मिठाई।
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कमल  : पुं० [सं०√कम्+णिङ्+कलच्] १. जलाशय में होनेवाला एक प्रसिद्ध पौधा तथा उसके फूल जो चौड़ी पंखुड़ियोंवाले तथा अति मनोहर और सुगंधित होते हैं। मुहा०—(किसी का) कमल खिलना=प्रसन्न होना। २. उक्त फूल के आकार का एक मांस-पिंड जो पेट में दाहिनी ओर होता है। क्लोम। ३. हठयोग के अनुसार शरीर के अंदर कुछ विशिष्ट स्थान जो चक्र कहलाते हैं। (दे० ‘चक्र’) ४. आँख का डेला। ५. एक प्रकार का पित्त रोग जिसमें सारा शरीर विशेषतः आँखें पीली पड़ जाती हैं। पीलिया। पीलू। (जाइन्डाइस) ६. योनि के अदर की एक गाँठ जिसका आकार कमल के फूल का-सा होता है। मुहा०—कमल उलट जाना=बच्चेदानी का मुँह उलट जाना। ७. मूत्राशय। ८. संगीत में ध्रुवताल का एक प्रकार या भेद। ९. एक राग जो दीपक राग का पुत्र कहा गया है। १॰ छः मात्राओं का एक छंद। ११. छप्पय का एक प्रकार या भेद। १२. जल। पानी। १३. ताँबा। १४. शीशे का बना हुआ एक प्रकार का फूलदार आधान जिसमें मोमबत्तियाँ जलाई जाती हैं। १५. ऐसा रत्न-खंड जिसमें कमल के फूल की तरह पहल कटे हों।
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कमल अंडा  : पुं० =कमलगट्टा।
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कमल-ककड़ी  : स्त्री० [सं० कमल+हिं० ककड़ी] कमल का डंठल या नाल। भसींड।
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कमल-कंद  : पुं० [पं० त०] कमल की जड़ जिसकी तरकारी बनाई जाती है। भसौंड।
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कमल-गट्टा  : पुं० [सं० कमल+हिं० गट्टा] कमल के बीज जिनके अंदर मीठी गरी या गूदा होता है।
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कमल-गर्भ  : पुं० [ष० त०] कमल का छत्ता जिसमें बहुत-से बीज होते हैं।
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कमल-नयन  : वि० [ब० स०] जिसके नयन कमल की पंखुड़ियों के समान लंबे तथा सुंदर हों। बहुत ही सुंदर नेत्रोंवाला। पुं० विष्णु।
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कमल-नाभ  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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कमल-नाल  : स्त्री० [ष० त०] कमल का डंठल या नाल जिसकी तरकारी बनती है। भसींड।
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कमल-बंध  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसमें किसी छंद के अक्षर इस प्रकार सजाये जा सकते हैं कि कमल की-सी आकृति बन जाय।
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कमल-बंधु  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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कमल-बाई  : स्त्री० [हिं० कमल+बाई (वायु)] कमल या पीलिया नामकर रोग।
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कमल-भव  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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कमल-भू०  : [सं० कमल√भू० (होना)+क्विप्] ब्रह्मा।
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कमल-योनि  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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कमल-वन  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ बहुत-से ऐसे जलाशय हों जिनमें कमल खिले हों।
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कमल-वायु  : स्त्री० [कर्म० स० ?] कमल या पीलिया नामक रोग।
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कमलक  : पुं० [सं० कमल+कन्] छोटा कमल।
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कमलज  : पुं० [सं० कमल√जन्+ड] ब्रह्मा।
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कमला  : स्त्री० [सं० कमल+टाप्] १. लक्ष्मी। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसे रति-पद भी कहते हैं। पुं० १. बड़ी नारंगी। संतरा। २. पौधों आदि में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। ३. दे० ‘ढोला’ (कीड़ा)। पुं० [सं० क्रमेलक] ऊँट। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमला-कांत  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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कमला-पति  : पुं० [ष० त०] लक्ष्मी के पति अर्थात् विष्णु।
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कमलाकर  : पुं० [कमल-आकर, ष० त०] कमलों से भरा हुआ जलाशय।
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कमलाकार  : वि० [कमल-आकार, ब० स०] जिसका आकार कमल की तरह हो। पुं० छप्पय नामक छंद का एक भेद या प्रकार।
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कमलाक्ष  : वि० [कमल-अक्षि, ब० स०] [स्त्री० कमलाक्षी] कमल के समान आँखोंवाला। कमल नयन। पुं० कमल-गट्टा।
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कमलाग्रजा  : स्त्री० [कमला-अग्रजा, ष० त०] लक्ष्मी की बड़ी बहन, दरिद्रा।
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कमलालया  : स्त्री० [कमल-आलय, ब० स०, टाप्] लक्ष्मी जिसका आसन कमल है।
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कमलावती  : स्त्री० [सं० कमल+मतुप्, ङीष्] पद्मावती छंद का दूसरा नाम।
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कमलासन  : पुं० [कमल-आसन, ब० स०] १. ब्रह्मा। २. दे० ‘पद्मासन’ (योग का एक आसन)।
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कमलिनी  : स्त्री० [सं० कमलिन्+ङीष्] १. छोटा कमल। २. वह जलाशय या ताल जिसमें कमल फूले हों।
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कमलिनी-कांत  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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कमली (लिन्)  : पुं० [सं० कमल+इनि] ब्रह्मा। स्त्री० दे० ‘कुमुदिनी’। स्त्री० [हिं० कंवल] छोटा और हलका कंबल, विशेषतः साधुओं आदि के ओढ़ने का कंबल।
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कमलेक्षण  : पुं० [सं० कमल-ईक्षण, ब० स०] विष्णु।
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कमलेच्छन  : पुं० [सं० कमलेक्षण] विष्णु। उदा०—‘चारि बरदानि तजि पाइ कमलेच्छन के’।—सेनापति।
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कमलेश  : पुं० [कमल-ईश, ष० त०] १. कमलों के स्वामी, सूर्य। २. कमला या लक्ष्मी के स्वामी, विष्णु।
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कमवाना  : स० [हिं० कमाना का प्रे० रूप] कमाने का काम किसी दूसरे से कराना। (दे० ‘कमाना’)
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कमसिन  : वि० [फा०] [भाव० कमसिनी] अल्पवयस्क। छोटी उमर का।
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कमसिनी  : स्त्री० [फा०] कम-सिन या अल्प-वयस्क होने की अवस्था या भाव।
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कमहा  : पुं० [हिं० काम+हा (प्रत्य०)] १. बहुत काम करनेवाला। कर्मठ। २. दे०‘ कमेरा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमाइच  : स्त्री०=कमाची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमाई  : स्त्री० [हिं० कमाना] १. कमाने की क्रिया या भाव। २. वह जो कुछ कमाया जाय। उपार्जित किया हुआ धन या संपत्ति। ३. कोई अर्जित तत्त्व या वस्तु। जैसे—पिछले जन्म की कमाई।
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कमाऊ  : वि० [हिं० कमाना] धन उपार्जन करनेवाला। रुपया कमाने या पैदा करनेवाला।
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कमागर  : पुं०=कमंगर। (कमान बनानेवाला) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमाच  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। २. दे० ‘कौछ’
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कमाची  : स्त्री० १.=कमची। २.=कमानी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमाँत  : पुं० [सं० कर्म-अंत, ष० त०] १. काम का अंत या समाप्ति। २. [ब० स०] जोती हुई भूमि। ३. कर्मशाला। कारखाना।
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कमाँतिक  : पुं० [सं० कर्म-अंतिक, ब० स०] कर्मचारी।
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कमान  : स्त्री० [फा०] १. धनुष। मुहा०—(किसी की) कमान चढ़ना=(क) यथेष्ट उन्नति, प्रभुत्व आदि का समय होना। (ख) त्यौरी में बल पड़ना। आँखें चढ़ाना। (क्रोध-सूचक) २. इंद्र-धनुष। ३. मेहराब। ४. बंदूक। ५. तोप। ६. मालखंभ की एक कसरत। ७. कालीन बुनने वालों का एक औजार। ८. ज्योतिषियों का एक यंत्र जिससे तारों की बीच की पारस्परिक दूरी नापी जाती है। स्त्री० [अ० कमांड] १. आदेश। हुकुम। २. सैनिक सेवाओं से संबंध रखनेवाली आज्ञा या आदेश। ३. सैनिक कर्त्तव्य और सेना। जैसे—सैनिकों का कमान पर जाना। मुहा०—कमान बोलना=सैनिकों को नौकरी या लड़ाई पर जाने की आज्ञा देना।
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कमानगर  : पुं० [भाव० कमानगरी]=कमंगर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमानचा  : पुं० [फा०] १. छोटी कमान। २. सारंगी आदि बजाने की कमानी। ३. रूई धुनने की धुनकी। ४. मेहराब।
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कमानदार  : पुं० [अं० कमांड+फा० दार] सौनिक अधिकारी। फौजी अफसर। वि०=मेहराबदार।
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कमाना  : सं० [सं० क्रम; प्रा० कम्मवण; दे० प्रा० कम्मवइ; गु० कमाहबू; सिं० कमनु; मरा० कमविणें] १. कुछ काम (उद्यम या व्यापार-व्यवसाय) करके उसके द्वारा इस प्रकार आर्थिक लाभ करना कि उससे खाने-पीने आदि का खर्च चले। उपार्जन करना। २. धार्मिक क्षेत्र में, अच्छे-बुरे आचरणों आदि के द्वारा शुभ या अशुभ फल देने वाले कर्म संचित करना। जैसे पाप या पुण्य कमाना। ३. उद्यम, परिश्रम आदि करके किसी चीज को अधिक उपयोगी अथवा ठीक तरह और पूरा काम देने के योग्य बनाना। जैसे—खेत, चमड़ा या लकड़ी कमाना। विशेष—प्रायः इस शब्द का प्रयोग तुच्छ सेवा-संबंधी कार्यों के लिए होता है। जैसे—कसब कमाना=वेश्यावृत्ति के द्वारा धन उपार्जित करना। दाढ़ी कमाना=मूँड़ना। पाखाना कमाना=पाखाने का मल उठाकर कहीं दूर फेंकने के लिए जाना आदि। ४. (स्त्री० का) वेश्यावृत्ति करके धन उपार्जित करना। स्त्री० [फा० कम] कम करना। घटाना। जैसे—किसी चीज का दाम कमाना=कम करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमानियर  : पुं० [अं० कमांडर] सैनिक अधिकारी। फौजी अफसर।
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कमानिया  : पुं० [फा० कमान] कमान या धनुष चलानेवाला व्यक्ति। वि० १. कमान (मेहराब) से युक्त। २. कमानी से युक्त। कमानीदार।
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कमानी  : स्त्री० [फा० कमान] १. ऐसा तार, पत्तर अथवा इसी प्रकार की कोई और तन्यकया लचीली वस्तु जो दाब पड़ने पर दब जाती हो और दाब हटने पर फिर अपने स्थान पर आ जाती हो। (स्प्रिंग) २. वह वस्तु जिसका रूप कमान की तरह हो अथवा जो किसी तरफ से झुकी हुई या टेढ़ी हो। जैसे—(क) सारंगी की कमानी, बढ़ई की कमानी। (ख) चश्में की कमानी, छाते की कमानी। ३. कमर बाँधी जाने वाली एक प्रकार की पेटी जिसे आँत उतरने के रोगी इसलिए बाँधते हैं कि आँत उतरने न पावे।
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कमानीदार  : वि० [फा०] जिसमें कमानी लगी हो। जैसे—कमानीदार एक्का।
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कमारी  : स्त्री० [हिं० किनारा] १. पालकी ढोनेवाले कहारों की बोली में, रास्ते में पड़ा हुआ काँटा। २. दे० ‘किनारी’। वि० स्त्री०=कन्नड़ी।
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कमाल  : पुं० [अ०] १. कोई अद्भुत, अनोखा या साहसपूर्ण काम किसी बहुत ही कौशल से संपन्न करने का भाव। २. उक्त प्रकार से पूरा किया हुआ काम। ३. कबीर के बेटे का नाम। वि० बहुत ज्यादा। अतिशय।
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कमाला  : पुं० [अ० कमाल] पहलवानों की वह कुश्ती जो केवल कमाल या कौशल दिखाने के लिए होती है।
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कमालियत  : स्त्री० [अ०] १. परिपूर्णता। २. कौशल, शिल्प आदि में होने वाली दक्षता या निपुणता।
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कमासुत  : वि० [हिं० कमाना+सुत (प्रत्य०)] यथेष्ट धन कमानेवाला। कमाऊ। जैसे—कमासुत पुत्र।
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कमिश्नर  : पुं० [अं०] आयुक्त (दे०)।
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कमिश्नरी  : स्त्री० [अं०] प्रमंडल (दे०)।
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कमी  : स्त्री० [फा०] १. कम होने की अवस्था, गुण या भाव। २. त्रुटि। ३. अभाव। जैसे—इस नगरी में एक सुयोग्य डाक्टर की कमी। ४. घाटा। हानि। ५. कम किये जाने अथवा घटाने की क्रिया या भाव। ह्रास। पद—कमी-बेशी—ऐसी मात्रा या संख्या जो कम भी हो सकती हो या अधिक भी।
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कमीज  : स्त्री० [अ० कमीस, फा० शेमीज] कुरते की तरह का एक प्रकार का विदेशी पुरुषेय पहनावा जिसमें कली तथा चौबगले नहीं होते परन्तु गले में कालर होता है। (शर्ट)
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कमीन  : स्त्री० [फा०] घात अथवा हमला करने के लिए छिपकर बैठना। पुं० [फा० कमीना] छोटी जाति का आदमी। वि०=कमीना।
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कमीनगाह  : स्त्री० [फा०] वह स्थान जहाँ घात लगाने या वार करने के लिए लोग छिपकर बैठते हैं। जैसे—डाकुओं या शिकारियों की कमीनगाह।
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कमीना  : वि० [फा० कमीनः] १. बहुत ही तुच्छ या हीन विचारोंवाला। २. दूसरों से अनुचित तथा निंदनीय व्यवहार करनेवाला। ३. नीच। क्षुद्र।
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कमीनापन  : पुं० [फा० कमीना+पन (प्रत्य०)] कमीना होने की अवस्था या भाव।
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कमीला  : पुं० [सं० कपिल्ल] १. एक प्रकार का छोटा पेड़ जिसके फल गुच्छों में लगते हैं। २. उक्त पेड़ के फल।
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कमीशन  : पुं० [अं० कमिशन] १. दे० ‘आयोग’। २. ‘छूट’। ३. दे० ‘दलाली’।
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कमीस  : स्त्री०=कमीज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमुकंदर  : पुं० [सं० कार्मुकं=शिव का धुनष+हिं० दर] श्री राम जिन्होंने शिव का धनुष तोड़ा था।
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कंमुद  : पुं० =कुमुद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमून  : पुं० [अ०] जीरा।
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कमूनी  : वि० [अ० कमून] १. जिसमें जीरा पड़ा या मिला हो। २. जीरे का बना हुआ। जैसे—जवारिश कमूनी।
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कमेटी  : स्त्री० [अं० कॅमिटि]=समिति।
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कमेरा  : पुं० [हिं० काम+एरा (प्रत्य०)] १. छोटे-मोटे काम करनेवाला व्यक्ति। कर्मकार। मजदूर। २. तुच्छ सेवाएँ करनेवाला नौकर।
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कमेला  : पुं० [हिं० कमाना+एला प्रत्य०] वह स्थान जहाँ पशु काटे जाते हों। बूचड़खाना। मुहा०—कमेला करना=वध या हनन करना। पुं० दे० ‘कमीला’।
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कमेहरा  : पुं० [हिं० कमा] १. मिट्टी का बना हुआ वह साँचा जिसमें कसकुट आदि की चूड़ियाँ ढाली जाती हैं। २. दे० ‘कमेरा’।
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कमोड़ा  : पुं० [हिं० काम]=काम (दलाल)।
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कंमोद  : पुं० =कुमुद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कमोद  : पुं० ?=कुमुद। उदा०—कोई कमोद परसहि कर पाया। जायसी। २.=कामोद (राग)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कमोदिक  : पुं० [सं० कामोदिक=एक राग] १. कामोद राग गानेवाला गवैया। २. गवैया। गायक।
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कमोदिन  : स्त्री०=कुमुदिनी।
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कमोरा  : पुं० [सं० कुंभ+हि० ओरा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० कमोरिया, कमोरी] घड़े के आकार का एक प्रकार का मिट्टी का बरतन जिसमें दूध-दही, पानी आदि रखते हैं।
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कमोरिया  : पुं० [सं० कर्मार] एक प्रकार का छोटा, पतला और हलका बाँस। स्त्री०=छोटा कमोरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कम्मल  : पुं०=कम्बल।
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कम्मा  : पुं० [देश०] ताड़पत्र पर लिखा हुआ लेख या लेख्य।
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कम्युनिज्म  : पुं० [अं०]=साम्यवाद।
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कम्युनिस्ट  : वि०, पुं० [अं०]=साम्यवादी।
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कयपूती  : स्त्री० [मला० क्यु=पेड़+पुती=सफेद] एक सदाबहार पेड़ जो सुमात्रा, जावा आदि पूर्वी द्वीप-समूहों से भारत में आया है।
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कया  : स्त्री०=काया। अव्य०=क्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कयाम  : पुं० [अ० कियाम] १. किसी स्थान पर ठहरने, रुकने या विश्राम करने की क्रिया या भाव। २. वह स्थान जहाँ ठहरा, रुका या विश्राम किया जाय। ३. स्थिरता। ४. निश्चय।
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कयामत  : स्त्री० [अ० कियामत] १. ईसाइयों तथा मुसलमानों के धर्मों के अनुसार सृष्टि का वह अन्तिम दिन जिसमें सब मुरदे कब्रों से उठ खड़े होंगे तथा ईश्वर उनका न्याय करेगा। २. प्रलय। ३. लाक्षणिक अर्थ में, आफत। विपत्ति। मुहा०—कयामत ढाना या बरपा करना=जगब ढाना। बहुत बड़ी आफत खड़ी करना। पद—कयामत का=हद दरजे का। (ख) बहुत अधिक।
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कयास  : पुं० [अ०] १. अनुमान। २. कल्पना। मुहा०—कयास में आना=कुछ-कुछ समझ में आना। कयास लगाना, लगाना या दौड़ाना=अटकल लगाना। अनुमान या कल्पना करना।
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कयासी  : वि० [अ०] १. कयास या अनुमान के आधार पर स्थिर किया हुआ। २. कल्पित। काल्पनिक।
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कर  : पुं० [सं०√कृ (बिखेरना)+अप्] १. मनुष्य के शरीर का हाथ। मुहा०—कर गहना=(क) किसी के पालन-पोषण अथवा किसी को सहारा देने के लिए उसका हाथ पकड़ना। (ख) उक्त उद्देश्य से किसी के साथ विवाह करना। २. सूर्य, चंद्र आदि के प्रकाश की किरणें। ३. हाथी की सूँड़। ४. ओला। ५. राज्य द्वारा अपने काम के लिए प्रजा से उगहा हुआ धन। यह धन व्यक्तियों की आय, संपत्ति, व्यापार, क्रय-विक्रय आदि के अनुपात से वसूल किया जाता है। (टैक्स) जैसे—आयकर, संपत्तिकर, बिक्रीकर आदि। वि० [स्त्री० करी] करने, देने या बनानेवाला। (समस्त पदों के अन्त में) जैसे—दिनकर, भयकर, सुखकर आदि। पुं० [सं० कर=वध करना] [स्त्री० करी] वध या हत्या करनेवाला व्यक्ति। वधिक। प्रत्य० [?] अवधी में संबंध कारक का चिन्ह। का। जैसे—तिनकर। क्रि० वि० [हिं०] पूर्वकालिक क्रिया के अन्त में पूर्व क्रिया की समाप्ति का सूचक। जैसे खा कर, उठ कर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कर-कंटक  : पुं० [स० त०] उँगलियों का नाखून। नख।
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कर-कलश  : पुं० [सं० उपमि० स०] अँजुली।
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कर-ग्रह  : पुं० [ष० त०] १. राज्य का लोगों पर कर लगाना। २. किसी का हाथ पकड़ना। ३. पाणिग्रहण। विवाह।
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कर-तल  : पुं० [प० त०] [स्त्री० कर-तली] १. हाथ की हथेली। पद—करतल ध्वनि=दोनों हाथों की हथेलियों को एक दूसरे पर मारने से होनेवाला शब्द। ताली। २. चार मात्राओं के गण डगण का रूप जिससे पहली दो मात्राएँ लघु और तब अन्त में एक गुरु होता है। जैसे—हरिजू। छप्पय छंद का एक भेद।
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कर-ताल  : पुं० [सं० ष० त०] १. दोनों हथेलियों के टकराने से उत्पन्न होनेवाला शब्द। ताली। २. [ब० स०] लकड़ी, काँसे आदि का बना हुआ ताल देने का एक प्रसिद्ध बाजा जिसका एक-एक जोड़ा हाथ में लेकर बजाते हैं। झाँझ, मजीरा।
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कर-पल्लव  : पुं० [ष० त०] उँगली।
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कर-पीड़न  : पुं० [ब० स०] पाणिग्रहण। विवाह।
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कर-पुट  : पुं० [ष० त०] अँगुली (दे०)।
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कर-पृष्ठ  : पुं० [ष० त०] हथेली का पिछला भाग।
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कर-भूषण  : पुं० [ष० त०] हाथ में पहनने का गहना।
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कर-माला  : स्त्री० [उपमि० सं०] १. हाथ में लेकर जप करने की माला। २. उँगलियों के पोर जिन पर (माला के अभाव में) लोग जप की गिनती करते हैं। पुं० [देश०] अमलतास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कर-संपुट  : पुं० [ष० त०] १. हथेली की अंजलि। २. विनती के समय किसी के आगे हाथ जोड़ने की मुद्रा। उदा०—सिर नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर-संपुट किये।—तुलसी।
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करइत  : पुं०=करैत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करई  : स्त्री० [हिं० करवा] छोटा करवा। स्त्री० [सं० करक] एक प्रकार की छोटी चिड़िया जो गेहूँ के पौधे काट-काटकर गिराया करती है।
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करंक  : पुं० [सं० क-रंक, ष० त०] १. मस्तक। २. मिट्टी का करवा। ३. कमंडलु। ४. नारियल की खोपड़ी। ४. अस्थि-पंजर। ठठरी।
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करक  : पुं० [सं०√कृ (विक्षेप)+वुन्—अक] १. दरियाई नारियल का बना हुआ कमंडलु। २. कचनार का वृक्ष और उसकी फली। ३. पलास। ४. मौलसिरी। ५. करील का पेड़। ६. अनार। ७. ठठरी। ८. हड्डी। स्त्री० १. दे० ‘कड़क’। २. दे० ‘कसक। ३. दे० साँट’।
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करकच  : पुं० [देश०] समुद्र के पानी को सुखाकर तैयार किया हुआ नमक। समुद्री नमक।
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करकट  : पुं० [हिं० कूड़ा का अनु०] १. कूड़ा। २. टूटी-फूटी और रद्दी चीजें।
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करकट  : पुं० [सं० करट+कन्] कौआ।
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करकटिया  : स्त्री० [सं० कर्करेटु]=करकरा (चिड़िया)।
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करकना  : अ०=कड़कना। वि०=करकरा (खुरखुरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करकर  : पुं०=करकच। वि० दे० ‘करकरा’।
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करकरा  : पुं० [सं० कर्करेटु] सारस की जाति की काले रंग की चिड़िया। वि० [सं० कर्कर] १. जो बहुत छोटे-छोटे कणों के रूप में हो। २. जिसके रवे छूने में गड़ते हों। खुरखुरा। वि०=करारा।
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करकराहट  : स्त्री० [हिं० करकरा+आहट] १. करकरे या करारे होने की अवस्था, गुण या भाव। २. कोई करारी चीज खाने से होनेवाला शब्द। ३. आँख में किरकिरी पड़ने की-सी पीड़ा।
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करकरी  : स्त्री०=किरकिरी।
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करकस  : [स्त्री० करकसा]=कर्कश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करका  : पुं० [सं० करक+टाप्] ओला। पत्थर।
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करका-घन  : पुं० [सं० मध्य स०] ओले बरसाने वाले मेघ। उदा०—‘आह ! घिरेगी हृदय लहलहे खेतों पर करका-घन सी’।—प्रसाद।
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करका-चतुर्थी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०]=करवा चौथ।
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करका-पात  : पुं० [सं० ष० त०] आकाश से ओले या पत्थर बरसना।
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करखना  : अ० [सं० कर्षण] १. अपनी ओर खींचना। २. आवेश या जोश में आना। उदा०—जा दिन सिवाजी गाजी नेक करखत है।—भूषण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करखा  : पुं० [सं० कर्ष] १. उत्तेजना। २. बढ़ाना। ३. लाग-डाँट। ४. आवेश। जोश। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं० १. दे० ‘कालिख’। २. दे० ‘कड़खा’ (युद्धगान)।
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करखाना  : अ० [हिं० कालिख] १. कालिख से युक्त होना। २. काला पड़ना। उदा०—पर्यो अंग अंध-जर्यौ कहँ कोउ करखायौ।—रत्ना०। स० कालिख लगाना या काला करना। पुं०=कारखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करंग  : पुं०=करंक।
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करग  : पुं० [सं० कर-अग्र] हाथ का अगला भाग। हथेली। उदा०—कामणि करग सुवाण कामरा।—प्रिथीराज।
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करगता  : स्त्री० [सं० कटि-गता] कमर से पहनी जानेवाली करधनी।
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करगहना  : पुं० [सं० कर+हिं० गहना] खिड़की या दरवाजे के चौखटे के ऊपरी भाग में रहने वाली वह चौड़ी लकड़ी या पत्थर जिसके ऊपर दीवार बनती है।
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करगहा  : पुं०=करघा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करगही  : स्त्री० [हिं० कारा, काला+अंग] १. एक प्रकार का जड़हन पान जो अगहन में तैयार होता है। स्त्री० [हिं० करघा] एक प्रकार का कर जो पहले जुलाहों पर उनके करघा की संख्या के हिसाब से लगता था।
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करँगा  : पुं० [हिं० कारा (ला)+अंग] [स्त्री० अल्पा० करँगी] एक प्रकार का मोटा धान जिसकी भूसी कुछ काले रंग की होती है। वि० काले अंगों वाला। काला।
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करगी  : स्त्री० [सं० कर-ग्रहण] एक प्रकार की खुरचनी जिससे कोई जमी हुई या दानेदार वस्तु खुरची जाती है। स्त्री० [देश०] १. पानी की बाढ़। २. ओला। पत्थर।
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करघा  : पुं० [फा० कारगाह, पुं० हिं० करगह] हाथ से कपड़ा बुनने का एक प्रसिद्ध यंत्र। खुड्डी। (हैंडलूम)
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करचंग  : पुं० [हिं० कर+चंग] करताल की तरह का ताल देने का एक बाजा।
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करछा  : पुं० [हिं० करौंछा=काला] एक प्रकार की चिड़िया। पुं०=कलछा (बड़ी कलछी)।
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करछाल  : स्त्री०=उछाल (छलाँग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करछिया  : स्त्री० [हिं० करोंछ=काला] बगले की जाति की एक सफेद चिड़िया जिसकी चोंच और पैर काले होते हैं।
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करछी  : स्त्री०=करछी।
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करछुल (ा)  : पुं०=करछुल (बड़ी कलछी)।
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करछुली  : स्त्री०=कलछी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करछैयाँ  : वि० [हिं० काला+छाया] जिसका रंग कुछ कालापन लिये हुए हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करंज  : पुं० [सं० क√रञ्ज् (शोभा देना)+णिच्+अण्] १. एक प्रकार की झाड़ी जिसकी फली औषध के काम आती है। कंजा। २. एक छोटा जंगली पेड़। ३. एक प्रकार की आतिशबाजी। पुं० [सं० कलिंग मि० फा० कुलंग] मुरगा।
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करज  : वि० [सं० कर√जन् (प्रादुर्भाव)+ड] कर से उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. नाखून। २. उँगली। ३. नख नामक सुगंधित द्रव्य। ४. करंज। कंजा। पुं० [अ० कर्ज०] ऋण।
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करंजखाना  : पुं० [हिं० करंज+खाना (घर)] वह स्थान जहाँ बहुत से मुरगे और मुर्गियाँ पाली जाती हों।
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करंजा  : पुं०=करंज। वि०=करजुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करंजुआ  : पुं० [सं० करंज] दे० ‘करंज’ वा ‘कंजा’। वि० [सं० करंज] करंज के रंग का। खाकी रंगवाला। पुं० खाकी रंग। पुं० [देश०] १. एक प्रकार की वनस्पति जो ऊख, बाँस या शर जाति के दूसरे पौधों में निकलती है। घमोई। २. जौ के पौधे का एक रोग।
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करजोड़ी  : स्त्री० [सं० कर+हिं० जोड़ना] हत्थाजोड़ी नाम का वनस्पति।
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करट  : पुं० [सं०√कृ+अटन्] १. हाथी की कनपटी। २. केसर का फूल। ३. कौआ। ४. नास्तिक। ५. नीच धंधा करनेवाला आदमी। ६. मृत व्यक्ति के दसवें (कहीं ग्यारहवें या बारहवें) दिन किया जानेवाला पहला श्राद्ध।
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करंटा  : पुं०=किरंटा।
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करटा  : स्त्री० [सं० करट+टाप्] ऐसी गाय जिसे दुहना बहुत कठिन हो।
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करटी (टिन्)  : पुं० [सं० करट+इनि] हाथी।
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करंड  : पुं० [सं०√कृ० (करना)+अण्डन्] १. वह छत्ता जिसमें मधुमक्खियाँ रहती हैं। शहद का छत्ता। २. तलवार। ३. कारंडव नाम का हंस। ४. बाँस आदि की वह टोकरी या पिटारी जिसमें साँप रखे जाते हैं। ५. एक प्रकार की चमेली। हजारा चमेली। पुं० [सं० कुरविंद] कुहल पत्थर, जिस पर अस्त्र रगड़कर तेज किये जाते हैं।
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करड़-करड़  : स्त्री०=कड़कड़।
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करंडक  : पुं० [स० करंड+कन्] [स्त्री० अल्पा० करंडिका] बाँस आदि की बनी हुई छोटी टोकरी या पिटारी जिसमें साँप रखे जाते हैं।
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करड़ा  : वि०=कड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करंडी  : स्त्री० [हिं० अंडी] कच्चे रेशम की बनी हुई चादर।
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करण  : पुं० [सं०√कृ (करना)+ल्युट्—अन] १. किसी कार्य को क्रियात्मक रूप देना। काम का रूप देकर पूरा करना। जैसे—केन्द्रीयकरण, राष्ट्रीयकरण। २. वह जो कुछ किया जाय। काम। ३. वह माध्यम या साधन जिससे कोई वस्तु उत्पन्न या निर्मित की जाय अथवा कोई काम पूरा किया जाय। काम करने के साधन। (इन्स्ट्रुमेण्ट) जैसे—औजार, हथियार आदि। ४. व्याकरण में एक कारक। (दे० ‘करण कारक’)। ५. विधिक क्षेत्र में, वह लेख्य जो किसी कार्य, प्रक्रिया, संविदा आदि का सूचक हो और जिसके द्वारा कोई अधिकार या दायित्व उत्पन्न, अंतरहित, अभिलिखित, निर्धारित, परिमित या विस्तारित होता हो। साधन-पत्र। (इन्स्ट्रुमेण्ट) जैसे—दान-पत्र, राजीनामा आदि करण हैं। ६. गणित में, सह संख्या जिसका पूरे अंकों में वर्गमूल न निकलता हो। ७. इंद्रिय। ८. देह। ९. अंतःकरण। १॰ स्थान। ११. हेतु। १२. नृत्य में, हाथ हिलाकर भाव बताने की क्रिया। इसके ये चार भेद हैं—आवेष्टित, उद्वेष्टित, व्यावर्त्तित और परिवर्त्तित। १३. गणित ज्योतिष की एक क्रिया। १४. एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति वैश्य पिता और शूद्रा माता से कही गई है। कहते हैं कि इस जाति के लोग लिखने-पढ़ने का काम करते थे। तिरहुत में अब भी करण लोग पाये जाते हैं। १५. कायस्थों का एक अवांतर भेद। १६. असम, बरमा, और स्याम की एक जंगली जाति।
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करण-कारक  : पुं० [सं० मयु० स०] व्याकरण में एक कारक जो वाक्य में आई हुई ऐसी संज्ञा के रूप तथा स्थिति का बोधक होता है जिससे वाक्य में बतलाई हुई क्रिया पूरी या संपन्न होती हो। इसके आगे ‘से’ विभक्ति लगती है। (इन्स्ट्रुमेण्टल केस) जैसे—‘हम पैर से चलते और हाथ से खाते हैं’ में ‘पैर’ और ‘हाथ’ करण कारक में हैं, क्योंकि चलने और खाने की क्रियाएँ उनके द्वारा होती हैं।
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करणाधिप  : पुं० [सं० करण-अधिप, ष० त०] १. करण (अर्थात् इंद्रियों) का स्वामी, आत्मा, २. करण (अर्थात् कार्यकर्त्ताओं) का अधिकारी या स्वामी। कार्याधिकारी, अफसर।
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करणि  : पुं० [सं० कर्णिकार] कनकचंपा का फूल। स्त्री० [सं० करण] १. काम। २. करतूत। करनी।
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करणी  : स्त्री० [सं० करण+ङीष्] १. करण नामक संकर जाति की स्त्री। २. गणित में, वह संख्या जिसका पूरा-पूरा वर्गमूल न निकल सके।
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करणीय  : वि० [सं०√कृ+अनीयर्] [स्त्री० करणीया] १. जो किये जाने या करने के योग्य हो। जो किया जाने को हो। २. जो कर्त्तव्यस्वरूप हो। जिसे करना आवश्यक हो।
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करतब  : पुं० [सं० कर्त्तव्य या हिं० करना] १. किया हुआ काम। २. कोई ऐसा अनोखा, कौशलपूर्ण, बड़ा या श्रमसाध्य काम जो सहज में सब लोगों से न हो सकता हो। करामात। जैसे—कारीगर, जादूगर या पहलवान के करतब। ३. दूषित या निंदनीय काम। करतूत। करनी। (व्यंग्य) जैसे—हमें क्या मालूम कि यह आपका करतब है। उदा०—अब तौ कठिन कान्ह के करतब, तुम हौ हँसति कहा कहि लीवौ।—तुलसी।
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करतबिया  : वि०=करतबी।
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करतबी  : वि० [हिं० करतब] १. काम करनेवाला। २. अच्छा और बड़ा काम (करतब) कर दिखलाने वाला।
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करतरी  : स्त्री०=कर्त्तरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करतली  : स्त्री० [सं० करतल] १. करतल। हथेली। २. हथेलियों के पारस्परिक आघात से होनेवाला शब्द। ताली। ३. बैलगाड़ी में हाँकनेवाले के बैठने की जगह। स्त्री० [सं० कर्त्तरी] कैची।
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करतव्य  : पुं०=कर्त्तव्य।
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करता  : वि० [सं० कर्त्ता] काम करनेवाला। कर्त्ता। पद—करता-धरता=घर-गृहस्थी, संस्था आदि में वह सर्व-प्रधान या मुख्य व्यक्ति जो उसके सब कार्यों का स्वामी के रूप में संचालन करता हो। पुं० [?] उतनी दूरी जहाँ तक चलाया या फेंका हुआ शस्त्र जाता हो। पल्ला। जैसे—गोली या तीर का करता।
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करतार  : पुं० [सं० कर्त्तार] इस संसार का सृजन करनेवाला ईश्वर। सृष्टिकर्त्ता। पुं० दे० ‘करताल’। पुं० दे० ‘कटार’। उदा०—जैसे अति तीछन करतार।—नन्ददास।
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करतारी  : स्त्री० [हिं० करतार] ईश्वर के अद्भुत काम या लीला। स्त्री० [सं० कर-ताल] १. हाथ से बजाई जानेवाली ताली। थपोड़ी। २. कर-ताल। उदा०—राम कथा सुन्दर करतारी।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करतारू  : पुं०=कर्त्तार।
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करतालिका  : स्त्री० [सं० करताली+कन्—टाप्, ह्रस्व] ताली।
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करताली  : स्त्री० [सं० करताल+ङीष्]=कर-ताल।
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करती  : स्त्री० [सं० कृति] मरे हुए बछड़े के आकार का बनाया हुआ वह रूप जो प्रायः ग्वाले दूध दूहने के लिए प्रस्तुत करते हैं।
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करंतीना  : पुं० [अं० क्वारंटाइन] वह अलग स्थान जिसमें किसी संक्रामक रोग से पीड़ित व्यक्ति कुछ समय तक सबसे अलग या दूर रखे जाते हैं।
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करतूत  : स्त्री० [हिं० करना+ऊत (प्रत्य०)] १. किया हुआ काम। (क्व०) २. बोल-चाल में, कोई बुरा या निंदनीय काम। (व्यंग्य) जैसे—यह उन्हीं की करतूत हो सकती है।
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करतूति  : स्त्री०=करतूत।
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करतूती  : वि० [हिं० करतूत] करतूत करनेवाला। स्त्री०=करतूत। उदा०—ऊँच निवास, नीच करतूती।—तुलसी।
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करतोया  : स्त्री० [कर-तोय, मध्य० स०+अच्—टाप्] असम देश की एक नदी।
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करद  : वि० [सं० कर√दा (देना)+क] १. राज्य या शासन को कर देनेवाला। कर अदा करनेवाला। २. सहायता या सहारा देनेवाला। पुं० १. अपने से किसी बड़े राजा या राज्य की अधीनता स्वीकृत करके उसे कर देनेवाला राजा या राज्य। २. मालगुजारी देनेवाला किसान। स्त्री० [फा० कारदा] एक प्रकार का बड़ा चाकू या छुरी। उदा०—पटकूं मूंछां पाण, कै पटकूं निज तन करद।—पृथ्वीराज।
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करदम  : पुं०=कर्दम।
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करदल  : पुं० [देश०] एक वृक्ष जिसकी छाल चिकनी और कुछ पीली होती है।
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करदा  : पुं० [हिं० गर्द] १. बिक्री की वस्तुओं में मिला हुआ कूड़ा-करकट। २. वे वस्तुएँ जिनमें कूड़ा-करकट मिला हो। ३. मूल्य में होने वाली वह कमी जो उक्त वस्तुएँ बेचने के समय विक्रेता को करनी पड़ती है। ४. तौल से अधिक दी जानेवाली किसी वस्तु की वह मात्रा जो ग्राहक के संतोष के लिए दी जाती है। ५. किसी कूटी या पीसी हुई वस्तु के बचे हुए कुछ मोटे रवे। ६. बट्टा। ७. छूट। ८. अदला-बदली।
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करदौना  : पुं०=दौना (तेज गंधवाला एक पौधा)।
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करधन  : स्त्री० १.=करधनी। २.=कमर (‘करधन’ के इस दूसरे अर्थ के मुहा० के लिए दे० ‘कमर’ के मुहा०)।
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करधनी  : स्त्री० [सं० कटि-आधानी] १. सोने-चाँदी आदि का बना हुआ कमर में पहनने का एक प्रसिद्ध आभूषण जिसमें कई लड़ियाँ या पूरी पट्टी होती है। २. कई लड़ों का सूत जो कमर में पहना जाता है। पुं० [हिं० काला+धान] एक प्रकार का मोटा धान।
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करधर  : पुं० [सं० कर=वर्षोपल-धर =धारण करनेवाला, ष० त०] १. बादल। २. [देश०] महुए के फल की रोटी। महुअरी।
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करन  : पुं० [देश०] एक ओषधि जो स्वाद में कुछ खटमिट्ठी होती है। जरिश्क। पुं० [सं० करण] १. करने की किया या भाव। २. करने योग्य काम। कर्त्तव्य। उदा०—धर्म अधर्म अधर्म धर्म करिअकरन करन करैं।—सूर। ३. दे० ‘करण’। वि० (यौ० के अन्त में) करनेवाला। जैसे—मंगलकरन। पुं०=कर्ण।
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करनधार  : पुं०=कर्णधार।
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करनफूल  : पुं० [सं० कर्ण+हिं० फूल] फूल के आकार-प्रकार का एक आभूषण जो स्त्रियाँ कान में पहनती हैं। कान में पहनने का फूल। करनबेध—पुं०=कर्ण-वेध (कन-छेदन नामक संस्कार)।
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करना  : सं, [सं० करोति, प्रा० करेई] १. किसी कार्य या किया को आगे बढ़ाना या चलाना। किसी कार्य का संपादन। जैसे—(क) नया काम या रोजगार करना। (ख) कसरत या व्यायाम करना। (ग) श्राद्ध करना। मुहा०—कर जाना या कर गुजरना=कोई विलक्षण या साहसपूर्ण काम करना या कर बैठना। २. किसी बात या वस्तु का अर्जन। जैसे—नाम,० पुण्य या यश करना। ३. कर्त्तव्य का पालन करना। निबाहना। जैसे—कचहरी करना, नौकरी करना। ४. किराये या भाड़े पर ठहराना। जैसे—(क) टाँगा या रिक्शा करना। (ख) सवारी करना। ५. भोजन आदि बनाना या पकाना। जैसे—पूरी-तरकारी या रसोई करना। ६. सँवारना या सजाना। जैसे—(क) कंघी करना। (ख) श्रृंगार करना। ७. किसी कार्य या बात के संबंध में होनेवाली आवश्यक क्रिया का संपादन। जैसे—सिर करना=कंधी-चोटी करना। कोई वस्तु एक आधार या पात्र में से दूसरे में रखना। ले जाना। जैसे—(क) चीजें इधर-उधर करना। (ख) गगरे का पानी बाल्टी में करना। ९. एक समय बिताकर दूसरा समय लाना। जैसे—(क) जाग कर सवेरा करना। (ख) घर लौटने में रात करना। १॰ पति या पत्नी के रूप में अपने साथ रखना। जैसे—एक छोड़कर दूसरा (या दूसरी) करना। ११. किसी वस्तु पर कुछ पोतना, लगाना या लीपना जैसे—दरवाजे पर रग करना। १२. किसी प्रकार के कार्य, व्यापार आदि की पूर्ति या संपादन।—जैसे—(गौ का) गोबर करना=हगना; या (लड़के का) पेशाब करना (त्याग या विसर्जन। पुं० [हि० करनी का पुं०] १. करनी। कृत्य। २. रचनाशक्ति। पुं० [सं० करुण] बिजौरे की तरह का एक बड़ा और लंबोतरा नीबू। पुं० [सं० कर्ण] १. सुदर्शन के वर्ग का एक प्रकार का पौधा जिसकी अनेक जातियाँ और फूलों के अनेक रंग होते हैं। २, उक्त पौधे का फूल। पुं० =करनाय (बाजा)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करनाई  : स्त्री० [अ० करनाय] तुरही।
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करनाट  : पुं० =कर्णाट।
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करनाटक  : पुं० [सं० कर्णाटक]=कर्णाटक।
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करनाटकी  : पुं० [सं० कर्णाटकी] १. करनाटक प्रदेश का निवासी। २. कसरत दिखानेवाला नट। कलाबाज। ३. जादूगर। इंद्रजाली। स्त्री० ? करनाटक की भाषा। २. कलाबाजी। ३. इंद्रजाल। जादूगरी। वि० करनाटक (देश) का।
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करनाय  : पुं० [अ० करनाय] १. तुरही या सिंधा नाम का बाजा। २. भोपा। ३. एक प्रकार का ढोल।
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करनाल  : स्त्री० [र्हि० कर=हाथ+नाल=तोप] हाथ से चलाई जाने-वाली तोप।
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करनी  : स्त्री० [हिं, करना] १. वह जो कुछ किया गया हो। कर्म। कार्य करने की कला, विद्या या शक्ति। उदा०—उन्हे सौं मैं पाई जब करनी जायसी। ३. बोल-चाल में, अनुचित या हीन आचरण या व्यवहार ४. अन्त्येष्टि किया। ५. राजगीरों का एक प्रसिद्ध उपकरण जिसमें वे गारा या मसाला उठाकर दीवारों आदि पर थोपते, पोतते या लगाते हैं।
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करनैल  : पुं० [अं० कर्नल] एक प्रकार का सैनिक पदाधिकारी।
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करपर  : वि० [सं० कृपण] कंजूस। पुं० =खप्पर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करपरी  : स्त्री० [देश०] १. पीठी की पकौड़ी। २. पीठी की बरी।
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करपलई  : स्त्री०=करपल्लवी (विद्या)।
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करपल्लवी  : स्त्री० [सं० करपल्लव+ङोष्] उँगलियों के संकेत से भाव प्रकट या प्रदर्शित करने की कला या विद्या।
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करपल्लौ  : पुं०= करपल्लवी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करपा  : पुं० [देश०] अनाज के ऐसे पौधे जिनमें बाल लगी हो। लेहना।
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करपान  : पुं० [देश०] एक चर्मरोग, जिससे देह या शरीर पर लाल-लाल दाने निकल आते हैं। पुं०=कृपाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करपाल  : पुं० [सं० कर√पाल् (बचाना)+णिच्+अण्] कृपाण। (दे०)
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करपिचकी  : स्त्री० [सं० कर=हाथ+हिं० पिचकी (पिचकारी)] १. दोनों हथेलियों के बीच में पानी भरकर जोर से दबाते हुए छोड़ी जानेवाली पिचकारी। २. दोनों हथेलियों का उक्त प्रकार की मुद्रा।
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करफूल  : पुं० [हिं० कर +फूल] दाना, जिसकी गंध उत्कट या तेज होती है।
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करंब  : पुं० [सं०√कृ+अम्बच्] १. मिश्रण। २. एक प्रकार की मांड।
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करबच  : पुं० [देश०] पशुओं की पीठ पर रखा जानेवाला वह थैला जिसमें सामान भरा जाता है। खुरजी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करबर  : वि० [सं० कर्बुर] १. चित-कबरा। २. रंग-बिरंगा। स्त्री० [सं० कलरव] १. हो-हल्ला। शोर-गुल। २. लड़ाई-झगड़ा। ३. झझट। बखेड़ा। ४. कप्ट। संकट। उदा०—ईस अनेक करबरें टारीं।—तुलसी।
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करबरना  : अ० [सं० कलरव] १. पक्षियों आदि का कलरव करना। २. हो-हल्ला करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करबराना  : अ०, सं०=खड़बड़ाना।
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करबला  : स्त्री० [अ०] १. अरब का वह स्थान जहाँ हुसेन मारे तथा दफनाये गये थे। २. वह स्थान जहाँ ताजिये दफन किये जाँय। ३. ऐसा उजाड़ स्थान जहाँ पानी तक न मिले।
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करबस  : पुं० [देश०] दरियाई घोड़े की खाल से बनाया हुआ चाबुक।
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करंबित  : वि० [सं० करंब+इतच्] १. मिला हुआ। मिश्रित। २. बना या गढ़ा हुआ। ३. सजाकर गूथा, पिरोया या बाँधा हुआ।
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करबी  : स्त्री०=कड़वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करबुर  : वि० पुं० =करबर।
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करबूस  : पु० [?] घोड़े की जीन या चारजामे में टँगी हुई रस्सी या तसमा जिसमें हथियार आदि लटकाये जाते हैं।
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करबोटी  : पुं० [दें०] एक प्रकार की चिड़िया।
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करंभ  : पुं० [सं० क√रभ् (सींचना)+घञ्, मुम्] १. वह भोजन जो दही में मिलाकर अथवा दही के साथ खाया जाय। २. एक प्रकार का मांड।
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करभ  : पुं० [सं० कर√भा (दीप्ति)+क] १. कलाई से कानी उँगली। तक हाथ का बाहरी हिस्सा। २. ऊँट का बच्चा। ३. हाथी का बच्चा। ४. ऊँट। ५. नख नामक सुगंधित द्रव्य। ६. कमर। ७. दोहे का एक भेद।
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करभक  : पुं० [सं० करभ+ कन्] ऊँट।
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करभा  : पु०=करभ। पुं० [देश०] जंगली जातियों का एक प्रकार का गाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) करभी (भिन्) पुं० [सं० करभ+इनि] हाथी। स्त्री० [सं० करभ+ ङीष्] ऊँटनी।
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करभीर  : पुं० [सं० करभिन्√ईर्+(प्ररेणा देना)+अण्] सिंह। शेर।
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करभोरु  : पुं० [सं० करभ-ऊरु, उपमि० सं०] हाथी की सूँड़ की तरह सुडौल (अर्थात् सुन्दर) जाँघ। वि० [ब० स०] हाथी की सूँड़ जैसी सुडौल जाँघवाली (स्त्री)। सुन्दर जाँघवाली।
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करम  : पुं० [सं० कर्म] १. कर्म (दें०)। पद—कर्मभोग—वह कष्ट या दुःख जो अपने किये हुए कर्मों के कारण हो। मुहा०—करम भोगना=अपने किये का फल भोगना। २. कर्म का फल। भाग्य। कर्म रेख—भाग्य में लिखी हुई बात। मुहाँ०—करम फूटना=भाग्य मंद होना। करम ठोंकना=अपने भाग्य को दोषी ठहराना। पुं० [अ०] १. कृपा। २. उदारता। ३. क्षमा। ४. एक प्रकार का गोंद या गुग्गुल जो अफ्रीका से आता है। इसे ‘बदा करम’ भी कहते हैं। पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष। पुं०=कम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करम-चंद  : पुं० [सं० कर्म] किस्मत। भाग्य। (भाग्य को व्यक्ति मानते हुए, उसके व्यक्तित्व की सूचक संज्ञा)
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करमई  : स्त्री० [देश०] कचनार की जाति का एक झाड़ीदार वृक्ष।
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करमकल्ला  : पुं० [अ० करम+हिं० कल्ला] गोभी की तरह का एक फूल जिसमें केवल पत्तों का बड़ा संपुट होता है और जिसकी तरकारी बनती है। पात-गोभी। बंदगोभी।
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करमट्ठा  : वि० [सं० कर=हाथ+मट्ठा=मंद] कृपण। कंजूस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करमठ  : वि०=कर्मठ (बहुत काम करनेवाला)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करमरिया  : स्त्री० [पुर्त० कलमरिया] समुद्र में हवा के गिर जाने से लहरों का शांत हो जाना।
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करमर्दक  : पुं० [सं० कर मृद् (चूर्ण करना)+ अण्, करमर्द+ कन्] १. करौंदा। २. आँवला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करमा  : पुं०=कैमा।
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करमात  : पुं० [सं० कर्म] भाग्य। किस्मत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करमाली (लिन्)  : पुं० [सं० करमाला+इनि] सूर्य।
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करमिया  : वि०=करमी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करमी  : वि० [सं० कर्मी] १. कर्म करनेवाला। २. कर्मठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करमुखा  : वि० दे० ‘कलमुँहा’। पुं० दे० ‘लगूर’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करमैल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का तोता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करमोद  : पुं० [सं० मोद-कर] एक प्रकार का धान।
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करर  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का जहरीला कीड़ा। २. रंग के अनुसार घोड़े का एक भेद। ३. एक प्रकार का जंगली कुसुम (या बरैं)।
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कररना, करराना  : अ० [अनु०] १. किसी वस्तु का कर-कर शब्द करते हुए टूटना। २. कर्कश शब्द करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कररी  : पुं० [सं० कर्बुर] बनतुलसी। स्त्री० [सं० कुररी] बटेर की तरह की एक चिड़िया।
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कररुह  : पुं० [सं० कर रुह, (पैदा होना)+क] नाखून।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करला  : पुं० =कल्ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करली  : स्त्री० [सं० करील] कोमल पत्ता। कल्ला। कोंपल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करवट  : स्त्री० [सं० करवर्त्त, प्रा० करवट्ट] १. बैठने, लेटने आदि में शरीर का वह पार्श्व या बल जिस पर शरीर का सारा भार पड़ता है। जैसे—देखें, ऊँट किस करवट बैठता है। २. सोने के समय उस हाथ का पार्श्व या बल जिसके सहारे वह उस दशा में रहता है जबकि वह चित या पट नहीं रहता। विशेष—करवट यदा या तो दाहिनी होती है यै बाईं, उल्टे या सीधे सोने में इसका प्रयोग नहीं होता। मुहा०—करवट तक न लेना=किसी को आवश्यकता की पूर्ति, कर्त्तव्य के पालन आदि के लिए कुछ भी प्रयत्न न करना। जैसे—हम महीनों एक काम के लिए उनके यहाँ दौड़े; पर उन्होंने कभी करवट तक न ली। करवट बदलना=(क) लेटे या सोये रहने की दशा में दाहिने बल से बाएँ या प्रथिकमात् घूमना। एक पार्श्व या बल से दूसरे पार्श्व या बल होना। (ख) लाक्षणिक अर्थ में, एक दल या पक्ष छोड़ कर दूसरे दल या पक्ष में जाना या होना। (ग) जिस स्थिति में हो, उससे हटकर दूसरी स्थिति में होनाय़। पलटा खाना। जैसे—इतने दिनों बाद उनके भाग्य ने करवट बदली है। (किसी चीज का) करवट लेना=सीधे खड़े या स्थित न रह कर किसी ओर गिरना, झुकना या लुढ़कना। जैसे—जहाज या नाव का करवट लेना। (सोने के समय) करवट बदलना=चिन्ता, विकलता आदि के कारण, नींद नहाने पर बाद पहलू या पार्श्व बदलना। करवटों में रात काटना=चिंता, व्याकुल आदि के कारण जाग कर रात बिताना। पुं० [सं० करपत्र, प्रा० करवत्त] बड़ी लड़कियाँ चीरने का एक प्रकार का बड़ा आरा। मुहा०—करवट लेना=उक्त प्रकार के आरे के नीचे लेटकर सिर कटाना या प्राण देना। पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसका गोंद जहरीला होता है। जसूँद।
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करवत  : पुं० [सं० करपत्र, प्रा० करवत्त] दे० ‘करवट’ (बड़ा आरा)।
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करवर  : स्त्री० [हिं० करवट=आरा] १. कठिनाई। २. विपत्ति। संकट।
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करवरना  : अ० [सं० कलरव] १. पक्षियों का कलरव करना। चहकना। २. शोर मचाना। हल्ला करना।
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करवा  : पुं० [सं० करक] १. धातु या मिट्टी का बना हुआ लोटे के आधार का एक छोटा पात्र, जिसमं टोंटी लगी होती है। २. जहाज में लगाने की लोहे की कोनिया या घोड़िया (लश०)। पुं० [सं० कर्क=केकड़ा] एक प्रकार की मछली।
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करवा गौर  : स्त्री०=करवा चौथ।
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करवा चौथ  : [सं० करका चतुर्थ] कार्तिक कृष्ण चतुर्थी। विशेष—इस दिन सधवा स्त्रियाँ सौभाग्य की रक्षा के लिए व्रत रखती है।
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करवानक  : पुं० [सं० कलर्विक] गौरैया या चटक नामक पक्षी।
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करवाना  : सं० = कराना। (करना किया का प्रेर०)
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करवार (ल)  : स्त्री० [सं० कर√वृ (वरण करना)+अण्] [स्त्री० करवाली] १. तलवार। २. नाखून। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करवीर  : पुं० [सं० कर√वीर्, (विकम)+अण्] १. कनेर का पेड़ या फूल। २. तलवार। ३. श्मशान। ४. दृषद्वती नदी के किनारे की एक प्राचीन नगरी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करवैया  : वि० [हिं० करना+वैया (प्रत्य०)] (काम) करने-धरने वाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करश्मा  : पुं० [फा० करिश्मः] कोई बहुत बड़ा और विलक्षण काम। अद्भुत कृत्य। करामात।
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करष  : पुं० [सं० कर्ष] १. खिचाव। २. मन में होनेवाला द्वेष या विरोध। मनमोटाव। ३. आवेश। ४. जोश। ५. कोध।
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करषक  : पुं०=कृषक। वि०=कर्षक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करषना  : अ० [सं० कर्षण] १. अपनी ओर खींचना या खींच कर निकालना। २. शोषण करना। सोखना। ३. बुलाना। ४. समेटना।
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करसना  : सं०=करषना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करसान  : पुं०=किसान (खेतिहर)।
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करसायर (ल)  : पुं० [सं० कृष्णसार] काला हिरन।
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करसी  : स्त्री० [सं० करीप] १. उपला। कंड़ा। २.उपले की आग ३. उपले की राख।
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करह  : पुं०=कली (फूल की)।
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करहंच  : पुं० =करहंस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करहंत  : पुं० =करहंस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करहनी  : पुं० [देश०] अगहन में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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करहंस  : पुं० [सं० उपमि० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नगण, सगण और एक लघु होता है।
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करहा  : पुं० [देश०] अगहन में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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करहा  : पुं० [देश०] सफ़ेद सिरिस का पेड़।
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करहाटक  : पुं० [सं० कर√हट् (चमकना)+णिच-अण्+कन् १. कमल की नाल। भसींड़। २. कमल का छत्ता। ३. मैनफल।
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करा  : वि० [स्त्री० करी]=कड़ा। स्त्री०=कला। स्त्री० [?] सौरी नामक मछली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कराई  : स्त्री० [हिं० करना] १. कोई काम करने या कराने की किया या भाव। २. काम करने या कराने का पारिश्रमिक। स्त्री० [हिं० केराव=मटर] १. अरहर, चने, मटर आदि की दाल दलने पर निकले हुए छिलके। भूसी। २. अनाज आदि फटकने पर निकलनेवाली भूसी। स्त्री० [हिं० कारा= काला] काले होने की अवस्था या भाव। कालापन। कालिमा।
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कराँकुल  : पुं० [सं० कलांकुर] जलाशयों के किनारे रहनेवाला कूँज नामक पक्षी।
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कराघात  : पुं० [सं० कर-आघात, तृ० त०] १. हाथ से किया हुआ आघात। २. प्रहार। वार।
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कराड़  : पुं० [सं० केतारः=कय करनेवाला] १. कय-विकय करने-वाला व्यक्ति। २. वैश्यों की एक जाति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कराँत  : पुं० [सं० करपत्र, प्रा० करवत्त] [स्त्री० अल्पा० कराती] आरा, जिससे लकड़ी चीरते हैं।
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करात  : पुं० [अं० कैरेट] चार ग्रेन की एक पाश्चात्य तौल।
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कराँती  : पुं० [हिं० कराँत] वह जो आरे से लकड़ियाँ चीरता हो। आराकश। स्त्री० छोटा आरा।
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कराना  : सं० [हिं० करना का प्रे० रूप] ऐसा उपाय करना जिससे कोई व्यक्ति कोई काम करे। किसी को कुछ करने में प्रवृत्त करना।
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कराबा  : पुं० [अ० करावः] १. घड़े के आकार का शीशे का एक बड़ा पात्र जिसमें अरक आदि तरल पदार्थ रखे जाते हैं। २. उक्त का वह रूप जिसकी सहायता से अरक उतारे या खीचे जाते हैं।
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कराबीन  : स्त्री० [तु०] पुरानी चाल की एक प्रकार की छोटी बंदूक जो कमर में बाँध या लटकाकर रखी जाती थीं।
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करामात  : स्त्री० [अ० करामात का बहु०] लोगों को आश्चर्यचकित करनेवाला कोई ऐसा अद्भूत या असाधारण काम जो देखने में लोकोत्तर-सा जान पड़े।
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करामाती  : वि० [हिं० करामात] १. करामात-संबंधी। २. जिसमें करामात हो। ३. (व्यक्ति) जो करामात कर दिखलाता हो। पुं० १. सिद्ध पुरुष। २. ऐंद्रजालिक। जादूगर।
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करायजा  : पुं०=कुटज (वनस्पति)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करायल  : वि० [हिं० कारा= काला] जिसका रंग कुछ काला हो। पुं० १. मँगरैला। २. वह तेल जिसमें राल घोली हुई हो।
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करार  : पुं० [अ० करार] १. स्थिरता। २. धैर्य या शांति जिससे मन स्थिर होता है। पुं० =इकरार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)वि० =करारा। पुं० [सं० करट] कौआ। उदा०—रटहिं कुभाँति कुखेत करारा।—तुलसी। पु०=कगार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करारना  : अ० [अनु०, सं० करट] कर-कर अर्थात् कठोर शब्द निकलना या होना। स० कर-कर शब्द करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करारा  : वि० [हिं० कड़ा] [भाव० करारापन] १. कठोर। कड़ा। २. (वस्तु) जो खाने में स्वादिष्ट हो तथा कुरकुर बोले। ३. (प्राणी) जो स्वास्थ्य के विचार से चंगा या हष्ट-पुष्ट हो। ४. (कार्य या व्यापार) जो बहुत उग्रष उत्कट या तेज हो। जैसे—करारा जवाब, करारी मार। पुं०=करा (कौआ)। पुं०= कगार। उदा०—लखन दीख पय उतर करारा।—तुलसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करारोप  : पं० [सं० कर-आरोप, ष० त०] दे० ‘अवाप्ति’।
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करारोप्य  : वि० [सं० कर-आरोप्य, ष० त०] दे० ‘अवाप्य’।
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कराल  : वि० [सं कर√अल् (पर्याप्त होना)+ अच्] १. बड़-बड़े दातोंवाला २. डरावनी आकृतिवाला। भीषण रूपवाला। ३. बहुत ऊँचा। पुं० १. राल मिला हुआ तेल। करायल। गर्जन। २. दाँतों का एक रोग।
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कराला  : स्त्री० [सं० कराल+टाप्] १. चंडी या दुर्गा का एक नाम। २. अनंत मूल। सारिवा।
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करालिका  : स्त्री० [सं० कराल+कन्-टाप्, इत्व] चंड़ी या दुर्गा।
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कराली  : स्त्री० [सं० कराल+ङीष्] १. अग्नि की ७ जिह्वाओं में से एक। २. चंडी या दुर्गा। वि० स्त्री० भीषण रूपवाली। जैसे—काली कराली।
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कराव (ा)  : पुं० [हिं० करना] विधवा स्त्री से किया जानेवाला विवाह। उदा०—बियाह न कराव० झूठ मूठ का चाव।—कहा०।
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करावल  : पुं० [तृ० ] घुड़सवाल पहरेदार। संतरी। २. सेना के वे सिपाही जो विपक्षी या शत्रु का भेद लेने के लिए भेजे जाते हैं।
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कराह  : स्त्री० [हिं० कराहना] १. कराहने की किया या भाव। २. कराहने से उत्पन्न होनेवाला शब्द। पुं० =कड़ाह (कटाह)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कराहत  : स्त्री० [अ०] वीभत्स बात या वस्तु को देखकर मन में होने वाली घृणा।
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कराहना  : अ० [अनु०] असह्य पीड़ा या वेदना के समय मनुष्य का आह-आह आदि शब्द करना। आह, ऊह आदि करना।
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कराहा  : पुं० =कड़ाह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करि  : विभ० =को। उदा०—सत्रु न काहू करि गने।—तुलसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करि-वदन  : पुं० [सं० ब० स०] गणेश।
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करिअ  : पुं०=करिआ।
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करिआ  : पुं० =[सं० कर्णिक प्रा० कड्डिअ] नाव की पतवार। वि० १. =काला। २.=करवैया।
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करिका  : स्त्री० [सं० कर+ठन्—इक्, टाप्] नाखून की खरोंच से शरीर में होनेवाला क्षत या घाव।
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करिखई  : स्त्री० =कालिख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करिखा  : पुं०= कालिख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करिगह  : पुं० =करघा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करिण  : पुं० [सं० करिन,] [स्त्री० करिणी] हाथी।
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करिणी  : स्त्री [सं० कर+इनि, ङीप्]१. हाथी। हथिनी। २. वह कन्या जिसका जन्म वैश्य पिता और शूद्रा माता से हुआ हो।
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करिंद  : पुं० [सं० करींद्र] बहुत बड़ा और बढ़िया हाथी।
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करिनिका  : स्त्री० [सं० कर्णिका] करन फूल। उदा०—मधि कमनीय करिनिका सब सुख सुन्दर कन्दर।—नंददास।
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करिनी  : स्त्री० =करिणी।
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करिबदन  : पुं० [सं० करिवदन] गणेशजी।
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करिया  : पुं० [सं० कर्ण] १. पतवार। २. केवट। मल्लाह। ३. कर्णधार। उदा०—सागर जगत जहाज कौ करिया केशवदास।—केशव। वि० [हिं० काला] काले रंगका। काला उदा०—करिया मुँह करि जाहि अभागे।—तुलसी। पुं० ऊख में लगनेवाला एक रोग जिससे वह काला पड़ जाता है।
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करियाई  : स्त्री० १. =कालापन। २.=कालिख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करियारी  : स्त्री० [सं० कलिकारी] कलियारी (जहरीला पौधा)। स्त्री० = लगाम (घोड़े की)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करिल  : स्त्री० [हिं० कोंपल] नया कल्ला। कोंपल। वि० =काला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करिवार  : पुं० [सं० करवाल] तलवार।
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करिहाँ  : स्त्री० [सं० कटि भाग] कमर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करिहारी  : स्त्री० =कलियारी। (पौधा) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करिहाँव  : स्त्री० [सं० कटिभाग] १. कमर। २. कोल्हू का बीच वाला गराड़ीदार भाग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करी (रिन्)  : पुं० [सं० कर+ इनि] [स्त्री० करिणी] हाथी। स्त्री० [हिं०] चौपाई या चौपैया नामक छंद। स्त्री०=कड़ी। स्त्री० =कली। उदा०—कँवल करी तू पहुमिनि गै निसि भएहु बिहानय।—जायसी। वि० स्त्री० [सं०√कृ (करना) +अच्—ङीष्। १. करनेवाली (यौ० शब्दों के अन्त में)। जैसे —प्रलयंकरी। २. प्राप्त या उत्पन्न करनेवाली। जैसे—अर्थकरी विद्या। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करींद्र  : पुं० [सं० करिन्-इन्द्र, ष० त०] १. ऐरावत। २. बहुत बड़ा और बढ़िया हाथी।
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करीना  : पुं० [अ० करीनः] १. काम करने का ढँग। तरीका। २. रीति-व्यवहार। ३. कम। तरतीब। पुं० [?] पत्थर पढ़ने की टाँकी। पुं०=किराना (मसाला)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करीप  : पुं० [सं० करिप] महावत।
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करीब  : कि० वि० [अ०] १. निकट। पास। २. प्रायः। लगभग। जैसे—करीब दस सेर। पद—करीब-करीब =प्रायः लगभग।
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करीबी  : वि० [अ] निकट या पास का (संबंध या सबधी)।
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करीम  : वि० [अ०] करम का दया करनेवाला। दयालु। पुं० ईश्वर का एक नाम।
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करीर  : पुं० [सं०√कृ (फेंकना) +ईरन्] बाँस का अँखुला या कल्ला। पु०=करील (वृक्ष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करील  : पुं० [सं० करीर] एक प्रकार की प्रसिद्ध काँटेदार झाँड़ी जिसमें पत्ते नहीं होते।
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करीश  : पुं० [सं० ष० त०] बहुत बड़ा हाथी। गजराज। गजेन्द्र।
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करीष  : पुं० [सं०√क+ ईषन्] बिना पाथा हुआ उपला। कंड़ा।
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करीषिणी  : स्त्री० [सं० करीष +इनि, ङीप्] लक्ष्मी।
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करीस  : पुं० [सं० करीश] बहुत बड़ा हाथी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करुआ  : पुं० [देश०] दालचीनी की जाति का एक वृक्ष। पुं० [स्त्री० अल्पा० करुई] मिट्टी का छोटा टोंटीदार बरतन। वि० [स्त्री० करुई]= कड़ुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करुआई  : स्त्री०=कड़ुआपन। उदा०—घूमहू तजहि सहज करुआई।—तुलसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करुखी  : स्त्री० [हिं० कु+ फा० रुख] रोष आदि की सूचक कड़ी या तिरछी नजर। स्त्री०=कनखी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करुण  : वि० [सं०√कृ (करना) + उनन्] १. करुणा से युक्त। करुणा हो। दुःखद। जैसे—करुण दृश्य। पुं० १. साहित्य में नौ रसों में से एक जिसके अधिष्ठाता देवता वरुण कहे गये है। विशेष— मन में इस रस का संचार उस विकट दुःख के कारण होता है जो वियोग। शोक आदि से उत्पन्न होता है। इसका आलंबन वियोग, उद्दीपन वियुक्त व्यक्ति की किसी वस्तु का दर्शन या उसकी चर्चा और अनुभाव रोना-कलपना आदि कहे गये हैं। २. एक बुद्ध का नाम। ३. परमेश्वर। ४. एक प्राचीन तीर्थ। ५. करना नीबू या उसका पेड़।
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करुणा  : स्त्री० [सं० करुण+टाप्] किसी असमर्थ, असहाय, दुःखी अथवा संकट में पड़े हुए व्यक्ति को देखकर मन में होनेवाली उसके दुःख की ऐसी अनुभूति जो उसका कष्ट या दुःख दूर करने की प्रेरणा करती हो। (कम्पैशन)
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करुणा  : वि० =कड़ुआ। पुं० =करुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करुणा-दृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] ऐसी दृष्टि जिससे करुणा प्रकट होती हो।
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करुणा-निधान (निधि)  : वि० [ष० त०] जिसका हृदय करुणा से भरा हो। दूसरों पर सदा करुणा करनेवाला।
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करुणाकर  : वि० [सं० करुणा-आकर ष० त०] दूसरों के दुःख से दुःखी होनेवाला अर्थात् अत्यन्त दयालु।
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करुणामय  : विं० [सं० करुणा+मयट्] करुणा से युक्त या भरा हुआ।
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करुणार्द्र  : विं० [सं० करुणा-आर्द्र, तृ० त०] जिसका मन करुणा से आर्द्र या द्रवित हो रहा हो या हो जाता हो।
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करुणी (णिन्)  : वि० [सं० करुणा+इनि] करुणा या दया का अधिकारी का पात्र। जिस पर करुणा की जानी चाहिए।
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करुना  : स्त्री० =करुणा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करुबेल  : स्त्री० [सं० कारुवेल] इंद्रायण की बेल या लता।
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करुर  : वि०=कड़ुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करुल  : पुं० [देश०] जलाशयों के पास रहनेवाली एक प्रकार की बड़ी चिड़िया।
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करुवार  : पुं० [हिं० कलवारी] एक प्रकार का डाँड़ जिससे नाव खेते हैं। पुं० [देश०] लोहे का बना हुआ एक प्रकार का अँकुड़ा जिससे पत्थर या लकड़ियाँ जोड़ी या जकड़ी जाती है।
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करू  : वि० = कडुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करूर  : वि० कूर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करूला  : पुं० = कडूला (हाथ में पहनने का कड़ा)। पुं० [?] एक प्रकार का घटिया सोना। पुं० =कुल्ला (मुँह में पानी भरकर बाहर फेंकने की क्रिया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करूष  : पुं० [सं० कृ+ऊषन्] गंगा के किनारे का वह प्राचीन वन जिसमें राम को ताड़का मिली थी।
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करेजा  : पुं० =कलेजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करेजी  : स्त्री०=कलेजी।
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करेणु  : पुं० [सं०√कृ+ एणु] १. हाथी। २. कर्णिकार वृक्ष। कनेर।
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करेणुका  : स्त्री० [सं० करेणु+कन्=टाप्] हथिनी।
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करेनुका  : स्त्री०= करेणुका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करेब  : स्त्री० [अं० केप] एक प्रकार का बढ़िया चिकना पतला रेशमी कपड़ा।
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करेमू  : पुं० [सं० कलंबु] पानी में होनेवाला एक प्रकार का साग।
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करेर  : वि० [स्त्री० करेरी]=कड़ा (कठोर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करेरा  : वि० [स्त्री० करेरी]=कड़ा (कठोर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करेरुआ  : पुं० [देश०] एक प्रकार की काँटेदार लता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करेल  : पुं० [हिं० करना ?] एक प्रकार का बड़ा मुगदर जो दोनों हाथों से घुमाया जाता है।
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करेला  : पुं० [सं० कारवेल्ल] १. एक प्रसिद्ध लता जिसके लंबोतरे फलों की तरकारी बनाई जाती है। २. उक्त लता के लंबोतरे फल। ३. माला या हुमेल की लंबी गुरिया। ४. एक प्रकार की आतिशबाजी।
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करेली  : स्त्री० [हिं० करेला] १. छोटा करेला। २. एक जंगली लता।
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करेवा  : पुं० [हिं० करना] कुछ जातियों में विझवा स्त्री से किया जानेवाला विवाह।
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करैत  : पुं० [हिं० करा (काला)] काला साँप।
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करैल  : स्त्री० [हिं, कारा (काला) १. जलाशयों के किनारे की काली मिट्टी। २. जलाशयों का तट या वह भूमि जहाँ काली मिट्टी हो। पुं० [सं० करीर] १. बाँस का नरम कल्ला। २. डोम कौआ।
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करैला  : पुं० [स्त्री० करैली] =करेला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करोंट  : स्त्री० =करवट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करोट  : पुं० [सं० क√रुट् (द्युति)+ अच्] खोपड़े की हड्डी। खोपड़ा। स्त्री० [स्त्री० करोटी]=करवट।
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करोटन  : पुं० [अ० कोटन] पौधों का एक विशिष्ट वर्ग जिसकी पत्तियाँ सुन्दर होती हैं। विशेष—उक्त वर्ग के पौधे बगीचों में सुंदरता के लिए लगाये जाते हैं।
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करोटी  : स्त्री० [सं० करोट+ङीप] खोपड़ी। स्त्री० करवट।
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करोड़  : पुं० [सं० कोटि] १. सौ साल की संख्या। २. उक्त संख्या का सूचक अंक। वि० १. जो गिनती में सौ लाख हो। २. बहुत अधिक। असंख्य।
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करोड़ खुख  : वि० [हिं० करोड+खुख] झूठ-मूठ लाखों-करोंड़ों रुपयों की बातें करनेवाला।
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करोड़पति  : पुं० [हिं० करोड़+सं० पति] व्यक्ति जिसके पास कई करोड़ की संपत्ति हो।
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करोड़ी  : पुं० [हिं० करोड़] १. रोकड़िया। तहबीलदार। २. (मध्य-काल में) वह अधिकारी जो लगान आदि उगाहने का काम करता ता। ३. करोड़पति।
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करोत  : पुं० =करौत।
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करोती  : स्त्री० =करौती।
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करोदना  : सं०=१. कुरेदना। २. खुरचना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करोना  : सं० [सं० क्षुरण=खरोचना] १. कुरेदना। २. खुरचना।
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करोनी  : स्त्री० [हिं० करोना] १. करोने या खुरचने की क्रिया या भाव। २. खुरपी या झरनी की तरह का उपकरण जिससे कोई चीज (विशेषतः कड़ाही, तवे आदि पर जमी हुई चीज) खुरचकर निकाली जाती है। ३. उक्त प्रकार से खुरची जानेवाली वस्तु। खुरचन।
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करोर  : वि०, पुं, =करोड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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करोला  : पुं० [?] भालू। रीछ (र्डि०) पुं०=करवा (मिट्टी का छोटा पात्र)।
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करौछा  : वि० [हिं० कारा (काल)+औंछा (प्रत्य०)] काले रंग का। काला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करौंजी  : स्त्री० =कलौंजी।
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करौंट  : स्त्री० =करवट।
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करौता  : पुं० [स्त्री० अल्पा० करौती]= करौत। स्त्री० [हिं० काला] करैल मिट्टी। करैली।
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करौती  : स्त्री० [हिं० करवा] १. शीशे की प्याली। २. शीशा गलाने की भट्टी। स्त्री० [हिं, करौता] छोटी आरी।
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करौंदा  : पुं० [सं० करमर्द्द; पा० करमद्द; पं० हिं० करवँद] १. एक प्रकार का काँटेदार पौधा जिसमें छोटे गोल फल लगते हैं। जिनका आधा भाग लाल और आधा सफेद होता है। २. उक्त फल जो स्वाद में खट्टे होते हैं। ३. कान के पास होनेवाली करौंद के आकार की गिलटी।
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करौंदिया  : वि० [हिं० करौंदा] करौंदें के रंग जैसा। कुछ कालापन लिये हलका लाल। पुं० उक्त प्रकार का रंग। [सं० करपत्र] [स्त्री० अल्पा० करौती] लकडी चीरने का आरा। वि० [हिं० करना=पति या पत्नी के रूप में रखना] १. (स्त्री) जिसे किसी पुरुष ने बिना ब्याह किये यों ही घर में रख लिया हो। २. (पुरुष) जिसे किसी स्त्री ने बिना विवाह किये यों ही पति के रूप में अपने साथ रख लिया हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करौना  : पुं० [हिं० करोना=खुरचना] नक्काशी के काम में खुरचने या खोदने की लोहे की कलम। पुं० =करौंदा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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करौल  : पुं० [अ० करावल] १. बंदूक से शिकार खेलनेवाला शिकारी। २. वे जगली लोग जो शिकार के लिए पशुओं को हाँककर शिकारी के सामने लाते हैं।
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करौली  : स्त्री० [सं० करवाली] एक प्रकार की बड़ी छुरी जो शरीर में भोंकने के काम आती हैं।
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कर्क  : पुं० [सं०√कृ+क] १. केकड़ा। २. बारह राशियों मे से चौथी राशि जिसमें पुनर्वसु का अंतिम चरण और पुष्य तथा आश्लेषा नक्षत्र होते हैं। (कैंसर)। २. काकड़ासिंगी। ४. अग्नि। आग। ५. दर्पण। शीशा। ६. घड़ा। ७. पश्चिमी ईराम के कर्किआ प्रदेश का पुराना नाम।
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कर्कट  : पुं० [सं०√कर्क, (हास) +अटन्] [स्त्री० कर्कटी] १. प्रसिद्ध जल-जंतु जिसके आठ पैर होते हैं। केकड़ा। २. कर्क राशि। ३. एक प्रकार का सारस जिसे करकरा भी कहते हैं। ४. कमल-नाल। भसींड। ५. सँड़सी। ६. कर्कटार्बुद (दे०)। ७. नृत्य में, एक प्रकार का हस्तक। ८. गणित में वृत्त की त्रिज्या।
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कर्कट-श्रृंगी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] काकड़ासिंगी।
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कर्कटार्बुद  : पुं० [कर्कट-अर्बुद, कर्म० स०] एक प्रकार का गाँठदार फोड़ा जो बहुत ही कष्टदायक और प्रायः घातक होता है। (कैंसर) विशेष—प्रायः कर्कट के पैरों की तरह इसकी शाखा के रूप में गाँठें चारों ओर फैलने लगती हैं।
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कर्कटी  : स्त्री० [सं० कर्क√अट् (गति)+इन्-ङीष्] १. मादा कच्छप। कछुई। २. ककड़ी नामक फल। ३. सेमल का फल। ४. बंदाल नामक लता। ५. तरोई। ६. काकड़ासिंगी। ७. छोटा घड़ा या हँड़िया। ८. साँप।
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कर्कटु  : पुं० [सं०√कर्क्+अटु] एक प्रकार का सारस।
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कर्कंधु  : पुं० [सं० कर्क√धा (धारण करना)+ कु, नि, मुम्] १. बेर का फल। २. सूखा कुआँ।
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कर्कर  : पुं० [सं० कर्क√रा (देना+ क] १. कंकड़। २. कुंजर नाम का पत्थर। ३. एक प्रकार का नीलम। ४. दर्पण। शीशा। वि० १. कड़ा और खुरदुरा। २. करारा। ३. बहुत थोड़े दबाव से टूटनेवाला। पुं० दे० ‘कुरंड’।
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कर्करी  : स्त्री० [सं० कर्कर+ङीष्] १. झारी। २. ककड़ी।
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कर्करेटु  : पुं० [सं० कर्क√रेट् (भाषण) +उन्] एक प्रकार का सारस।
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कर्कश  : वि० [सं० कर्क+ श] [स्त्री० कर्कशा] १. कड़ा। कठोर। २. खुरदरा। ३. (स्वर या ध्वनि) जो बहुत ही अप्रिय, कटु तथा तीव्र हो। ४. (व्यक्ति) जो अप्रिय या कटु बातें कहता हो तथा हर बात में उग्रतापुर्वक लड़ने-झगड़ने लग जाता हो। ५. कूर (व्यक्ति)। पुं० १. कमीला नामक पेड़। २. ईख। ऊख। ३. खड्ग। ४. तलवार।
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कर्कशता  : स्त्री [सं० कर्कश+ तल्—टाप्] कर्कश होने की अवस्था, गुण या भाव।
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कर्कशा  : स्त्री० [सं० कर्कश+ टाप्] वृश्चिकाली का पौधा। वि० स्त्री० (ऐसी स्त्री) जिसका स्वभाव बहुत ही उग्र हो और जो प्रायः सब से और हर बात में लड़ाई-झगड़ा करती रहती हो। दुष्ट स्वभाववाली और लड़ाकी।
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कर्केतन  : पुं० [सं० कर्क√तन् (फैलना)+अच्, अलुक सं०] जमुर्रद नामक रत्न।
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कर्कोट  : पुं० [सं०√कर्क्+ओट] १. बेल का पेड़। २. ककोड़ा। खेखसा। ३. कश्मीर का एक प्राचीन राज-वंश।
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कर्कोटी  : स्त्री० [सं० कर्कोट+ ङीष्] १. बनतरोई। २. ककोड़ा। खेखसा। ३. देवदाली। बंदाल।
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कर्चरिका  : स्त्री० [सं० क√चर् (गति) +क, पृषो० सिद्ध] कचौरी नामक पकवान।
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कर्ची  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
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कर्च्चूर  : पुं० [सं० कर्ज्√ऊर, पृषो० सिद्धि] १. सोना। सुवर्ण। २. कचूर।
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कर्ज  : पुं० [अ०] उधार लिया हुआ धन। ऋण। मुहा०—कर्ज उतारना=ऋण चुकाना। (किसी का) कर्ज खाना=किसी के अधीन, उपकृत या ऋणी होना। (व्यंग्य) जैसे ही हाँ, मैने तो आप का कर्ज ही खाया है जौ आप का हुकुम मानूँ। (कोई काम करने के लिए) कर्ज खाये बैठे रहना=सदा और सब प्रकार से उद्यत या प्रस्तुत रहना। जैसे—वह तो तुम्हारी बुराई करने के लिए कर्ज खाये बैठे है।
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कर्जदार  : विं० [फा०] जिसने किसी से कुछ धन उधार लिया हो ऋणी।
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कर्ण  : पुं० [सं०√कर्ण् (भेदन)+ अच् या√क (बिखेरना) +नन्] १. प्राणियों के शरीर का वह अवयव या इंद्रिय जिसके द्वारा वे सुनते हैं। कान। २. उक्त इंद्रिय के ऊपर का या बाहरी चौड़ा भाग। कान। ३. नाव की पतवार। ४. कुंती का बड़ा पुत्र जो उसके कुमारी रहने की दशा में सूर्य के अंश से उत्पन्न हुआ था। ५. गणित में, वह रेखा जो किसी चतुर्भूज के आमने-सामने के कोणों को मिलाती हो। ६. छप्पर का एक भेद। ७. पिंगल में चार मात्राओं वाले गणों की एक संज्ञा।
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कर्ण-कटु  : विं० [स० त०] १. जो कानों को अप्रिय, उग्र या कुट प्रतीत होता हो। २. कानों में खटकनेवाला।
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कर्ण-कुहर  : पुं० [मध्य० स०] कान के बीच का वह छेद जिससे शब्द अन्दर पहुँचता है।
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कर्ण-घंट  : पुं० [ब० स०] शिव के एक प्रकार के उपासक जो इसलिए अपने कानों में घंटी या घंटा बाँधें रहते थे कि उसके रव में विष्णु का नाम दब जाय और उनके कानों में न पहुँचने पावे। घंटाकर्ण।
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कर्ण-नाद  : स्त्री० [मध्य० स०] १. कान में सुनाई पड़ती हुई गूँज। २. एक प्रकार का रोग जिसमें कान में हर दम कुछ गूँज सुनाई पड़ती हैं।
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कर्ण-परम्परा  : स्त्री० [ष० त०] सुनी-सुनाई हुई बात के बहुत-से लोगों में फैलने की परपरा।
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कर्ण-पिशाची  : स्त्री० [ष० त०] एक तांत्रिक देवी जिसे सिद्ध कर लेने पर मनुष्य सब बातें सुन तथा जान लेता है।
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कर्ण-पुर  : पुं० [ष० त०] आधुनिक भागलपुर का पुराना नाम (अंग-देश की प्राचीन राजधानी)। चंपा नगरी।
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कर्ण-मूल  : पुं० [ष० त०] १. कान की जड़ या नीचे वाला भाग। २. उक्त स्थान में होनेवाला कनपेड़ा नामक रोग।
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कर्ण-मृदंग  : पुं० [मध्य० सं०] कान के अन्दर की चमड़े की वह झिल्ली जिस पर आघात होने से शब्द सुनाई पड़ता है। (ईयर ड्रम)
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कर्ण-वर्जित  : वि० [तृ० त०] जिसे कान न हों। कर्णहीन। पुं० सर्प। साँप।
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कर्ण-वेध  : पुं० [ष० त० ] हिंदुओं में एक संस्कार जिसमें छोटे बालकों (विशेषतः लड़कियों के) के कान छेदे जाते हैं। कन-छेदन।
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कर्ण-स्त्राव  : पुं० [ष० त० ] १. कान बहने का रोग। २. कान में से निकलने या बहनेवाला मवाद।
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कर्ण-हीन  : वि० [तृ० तृ०] जिसे कान न हों। बिना कानों का। पुं० साँप।
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कर्णक  : पुं० [सं०√कर्ण,+ण्वुल्—अक] १. किसी चीज में कान की तरह बाहर निकला हुआ अंग। २. वृक्ष की डालियाँ और पत्ते। ३. एक प्रकार की लता। ४. एक प्रकार का सन्निपात जिसमें रोगी बहरा हो जाता है। (वैद्यक)
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कर्णधार  : पुं० [सं० कर्ण√धृ (धारण) +णिच् +अण्] १. वह मल्लाह जिसके हाथ में नाव की पतवार रहती है। २. केवट। मल्लाह। ३. पतवार। ४. वह व्यक्ति जिसके हाथ में किसी बड़े काम की सारी व्यवस्था हो।
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कर्णपाली  : स्त्री० [सं० कर्ण√पाल् (रक्षा करना) + अण्-ङीप्] १. कान का नीचे की ओर लटकनेवाला बाहरी कोमल भाग। कान की लौ। २. कान में पहनने का एक आभूषण। बाली।
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कर्णपूर  : पुं० [सं० कर्ण√पूर् (पूर्ण करना) +अण्] १. सिरिस का पेड़। २. अशोक वृक्ष। ३. नीला कमल। ४. करनफूल।
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कर्णाट  : पुं० [सं० कर्ण√अट् (गति) +अच्] १. दक्षिण भारत का कर-नाटक नामक प्रदेश। २. संपूर्ण जाति का एक राग जो मेध राग का पुत्र कहा गया है।
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कर्णाटक  : पुं० [सं० कर्णाट+ कन् ] =कर्णाट।
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कर्णाटी  : स्त्री० [सं० कर्णाट+ ङीष्] १. कर्णाट देश की स्त्री। २. कर्णाट देश की भाषा ३. हंसपदी लता। संपूर्ण जाति की एक शुद्ध रागिनी जो मालव या किसी मत से दीपक राग की पत्नी है। ५. शब्दालंकार अनुप्रास की एक वृत्ति जिसमें केवल कवर्ग के अक्षर आते हैं।
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कर्णादर्श  : पुं० [कर्ण-आदर्श, ष० त०] कान में पहनने का फूल। करनफूल।
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कर्णारि  : पुं० [कर्ण-अरि, ष० त०] कर्ण के शत्रु, अर्जुन।
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कर्णिक  : वि० [सं० कर्ण+ठन्—इक] १. (प्राणी) जिसे कान हों। कानोंवाला। २. (व्यक्ति) जिसके हाथ में कर्ण या पतवार हो। पुं० कर्णधार। माँझी।
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कर्णिका  : स्त्री० [सं० कर्ण + कन्—टाप्, इत्व] १. कान में पहनने की बाली। २. कमल का छत्ता। ३. सफेद गुलाब। सेवती। ४. अरनी का पेड़। ५. मेठासींगी। ६. लिखने की कलम। लेखनी। ७. हाथ में की बीच की उँगली। ८. पौधों, वृक्षों आदि का वह डंठल जिसमें फल-फूल लगते हैँ। ९. हाथी की सूंड की नोक। १॰ एक पकार का योनि-रोग।
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कर्णिकाचल  : पुं० [सं० कर्णिका-अचल० मध्य० स०] सुमेरु पर्वत।
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कर्णिकार  : पुं० [सं० कर्णि√कृ (करना)+अण्] १. कनकचंपा का पेड़ और फूल। २. एक प्रकार का अलतास।
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कर्णी  : स्त्री० [सं० कर्ण+ङीष्] १. एक प्रकार का बाण जिसका अगला भाग (नोक) कान के आकार का होता था।
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कर्णी (र्णिन्)  : वि० [सं० कर्ण+इनि] १. कानवाला। जिसे कान हों। २. बड़े कानोंवाला। पुं० १. पुराणानुसार सात वर्ष पर्वतों में से एक। २. कर्णधार, माँझी।
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कर्णोंपर्णिका  : स्त्री, [सं०—कर्ण-उपकर्ण, सुस्सुपा सं० +ठन्—इक्, टाप्,]= कर्ण परंपरा। (देखें)
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कर्तृक  : भू० कृ० [सं० ब० स० में आने पर कर्त्तृ+कप्] (किसी के द्वारा) निर्मित, पूर्ण या संपादित किया हुआ। जैसे—दैव-कर्त्तृक=ईश्वर का किया हुआ।
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कर्तृत्व  : पुं० [सं० कर्तृ + त्व] १. कर्ता होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव। पद—कर्तृव्य शक्ति=करने, बनाने, संपादित करने आदि की शक्ति। २. किया। ३. कर्त्ता का धर्म। ४. दर्शनशास्त्र मे कार्य में उपादान के विषय में ज्ञान प्राप्त करने या कोई काम करने की इच्छा; और उसके लिए होनेवाला प्रयत्न या प्रवृत्ति।
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कर्त्तन  : पुं० [सं०√कृत् (छेदन)+ ल्युट्-अन] १. कतरने या काटने की किया या भाव। २. (सूत) कातने की किया या भाव।
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कर्त्तनी  : स्त्री० [सं० कर्त्तन+ङीप्] कतरने या काटने का उपकरण। कतरनी। कैची।
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कर्त्तब  : पुं० १=करतब। २. कर्त्तव्य।
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कर्त्तरि प्रयोग  : [सं० व्यस्त पद] व्याकरण में क्रिया का ऐसे रूप में होनेवाला प्रयोग जिसमें वह कर्त्ता के पुरुष, लिंग और वचन के अनुसार बदलती है। (एक्टिव वायस) जैसे—लड़का आता है; लड़की आती है।
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कर्त्तरी  : स्त्री० [सं०√कृत् (छेदन)+घञ्, कर्त्त√रा (देना)+ क, ङीष्] १. कैंची। कतरनी। २. कटार। ३. ताल देने का एक प्रकार का पुराना बाजा। ४. फलित ज्यौतिष में एक प्रकार का योग।
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कर्त्तव्य  : [सं०√कृ (करना) +तत्यत्] १. ऐसा काम जो किया जाने को हो या किये जाने के योग्य हो। २. ऐसा काम जो किया जाने को हो या किये जाने के योग्य हो। २. ऐसा काम जिसे पूरा करना अपने लिए परम आवश्यक और धर्म के रूप में हो। ३. ऐसा कृत्य जिसे संपादित करने के लिए लोग विधान या शासन द्वारा बँधे हों। (ड्यूटी, दिन करने के लिए लोग विधान या शासन द्वारा बँधे हों। (ड्यूटी, उक्त सभी अर्थों मे)
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कर्त्तव्य-विमूढ़  : वि० [सं० त०] (व्यक्ति) जिसे अपने कर्त्तव्य का कुछ भी ज्ञान न हो। जो यह न समझे कि क्या करना चाहिए।
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कर्त्तव्यता  : स्त्री० [सं० कर्त्तव्य+तल्—टाप्] कर्त्तव्य का भाव या स्थिति। २. कर्म-कांड करानेवाले ब्राह्मण को दी जानेवाली दक्षिणा।
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कर्त्ता (र्त्तृ)  : विं० [सं०√कृ (करना) तृच्] १. करने, बनाने या रचने-वाला। जैसे—सृष्टि कर्ता। २. किसी प्रकार का कार्य या किया करनेवाला। जैसे—दान-कर्ता, यज्ञ-कर्त्ता। पुं० १. धर्मशास्त्र और विधिक क्षेत्रों में, वह व्यक्ति जो घर या परिवार में सबसे बड़ा हो और स्वामी के रूप में सब काम करता हो। २. व्याकरण के ६ कारकों में से पहला कारक जो कोई काम करनेवाला व्यक्ति का बोधक होता है। (नामिनेटिव केस,) जैसे—‘कृष्ण ने दान दिया।’ में ‘कृष्ण’ कर्त्ताकारक में हैं क्योंकि दान देने का काम उसी ने किया।
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कर्त्ताधर्त्ता  : पुं० [सं० व्यस्त पद] १. ऐसा व्यक्ति जो किसी विषय के सभी काम प्रधान या मुख्य रूप से करता हो। २. वह व्यक्ति जिसे किसी विषय में पूरे अधिकार प्राप्त हों या सौंपे गयें हों।
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कर्त्तार  : पुं० =करतार।
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कर्त्तृ  : पुं० =कर्ता।
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कर्त्तृ-प्रधान-वाक्य  : पुं० [कर्तृ-प्रधान, ब० स०, कर्तृ-प्रधान-वाक्य कर्म० सं०] व्याकरण में, वह वाक्य जिसमें कर्त्ता का स्थान प्रधान हो। जैसे—रामलाल पानी पीता है।
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कर्त्तृ-वाचक  : वि० [ष० त० ] व्याकरण में कर्त्ता का बोध करानेवाला (पद या शब्द)।
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कर्त्तृवाची (चिन्)  : वि० [सं० कर्तृ√वच् (बोलना)+णिनि] (पद या शब्द) जिससे कर्ता का बोध हो। (व्या०)
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कर्त्तृवाच्य  : पुं० [ब० स०] व्याकरण में क्रिया के विचार से वाच्य के तीन रुपों में से एक जो इस बात का सूचक होता है कि दो कुछ कहा गया हैं, वह कर्ता की प्रधानता के विचार से है। (ऐक्टिव वॉयस) जैसे—राम ने पुस्तक पढ़ी।
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कर्द  : पुं० [सं०√कर्द् (कुत्सित शब्द) +अच्] कर्दम। कीचड़। स्त्री० [फा० करद] चाकू। छुरी।
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कर्दम  : पुं० [सं०√कर्द्+ अम] १. कीचड़। कीच। २. गोश्त। मांस। ३. पाप। ४. छाया। ५. स्वायंभुव मन्वंतर के एक प्रजापति।
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कर्दमित  : वि० [सं० कर्दम+इतच्] कीचड़ से लथपथ। गँदला।
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कर्दमिनी  : स्त्री० [सं० कर्दम+ इनि ङीप्] कीचड़ से भरी या दलदली जमीन।
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कर्दमी  : स्त्री० [सं० कर्दम+ङीष्] चैत्र मास की पूर्णिमा।
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कर्नल  : पुं० [अ०] एक प्रकार का सैनिक अधिकारी अथवा उसका पद।
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कर्नेता  : पुं० [देश०] रंग के अनुसार घोड़े का एक भेद।
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कर्पट  : पुं० [सं०√कृ (विक्षेप )+विच्, कर्-पट कर्म० स०] १. पुराना चिथड़ा। गूदड। २. पुराणानुसार एक पर्वत।
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कर्पटिक  : पुं० [सं० कर्पट+ठन्—इक] भीख माँगनेवाला व्यक्ति जो प्रायः चिथड़े या फटे कपड़े पहने रहता है।
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कर्पटी (टिन्)  : पुं० [सं० कर्पट+ इनि]=कर्पटिक।
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कर्पण  : पुं० [सं०√कृप् (सामर्थ्य)+ल्युट्—अन] एक प्रकार का प्राचीन शस्त्र।
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कर्पर  : पुं० [सं√कृप् (सामर्थ्य)+ल्युट्—अन] एक प्रकार का प्राचीन शस्त्र।
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कर्पर  : पुं० [सं०√कृप,+अरन्] १. कपाल। खोपड़ी। २. खप्पर। ३. कछुए की खोपड़ी। ४. कडाही। ५. गूलर। ६. एक प्रकार का पुराना अस्त्र।
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कर्परी  : स्त्री० [सं० कर्पर+ङीष्] खपरिया (तूतिया)।
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कर्पास  : पुं० [सं०√कृ(करना)+ पास] कपास।
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कर्पिजल  : पुं० [सं० कपि√जु (गति)+ अच्, पृषो० सिद्धि] १. चातक। पपीहा। २. गौरा या चटक नामक पक्षी। ३. भरदूल। भरुही। ४. तीतर। ५. एक प्राचीन मुनि का नाम। वि० पीले या हरताली रंग का।
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कर्पिद  : पुं०=कपींद्र (कपीश)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कर्पूर  : पुं० [सं०+कृप, (सामर्थ्य)+ऊर] कपूर।
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कर्पूर-गौरी  : स्त्री० [उपमि० सं०] संगीत में एक प्रकार की संकर रागिनी।
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कर्पूरनालिका  : स्त्री० =[कर्पूर-नाल, ब० स०, +कन्—टाप्, इत्व] प्राचीन काल का एक प्रकार का पकवान।
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कर्पूरमणि  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का सफेद खनिज पदार्थ जो औषध के काम में आता है।
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कर्ब व जबार  : पुं० [अ०] पास-पड़ोस। निकट के गाँव या बस्ती।
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कर्बर  : विं० पुं० =कर्बुर।
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कर्बुदार  : पुं० [सं० कर्बु√दृ (विदीर्ण करना)+णिच्+अच्] १. लिसोड़ा। २. सफेद कचनार। ३. आबनूस का पेड़। तेंदू।
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कर्बुरा  : स्त्री० [सं० कर्बुर+टाप्] १. बनतुलसी। बबरी। २. कृष्ण तुलसी।
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कर्बुरी  : स्त्री० [सं० कर्बुर+ङीष्] दुर्गा।
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कर्म (न्)  : पुं० [सं०√कृ (करना)+मनिन्] १. वह जो कुछ किया जाय। किया जानेवाला काम या बात। काम कार्य जैसे—दुष्कर्म, सत्कर्म। २. हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार प्राणियों के द्वारा पूर्व जन्मों में किये हुए ऐसे कार्य जिनके फल वह इस समय भोग रहा हो अथवा आगे चलकर भोगने को हो। भोग्य। ३. वे कार्य जिन्हें पूरा करना धार्मिक दृष्टि से कर्त्तव्य समझा जाता हो। जैसे—यजन-याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह स्मार्त्त कर्म है। ४. हठयोग में धौति, वस्ति, नेति, न्योली आदि कियाएँ। ५. ऐसे सब कार्य जो किसी को स्वतःतथा स्वाभाविक रूप से सदा करने पड़ते है। जैसे—इंद्रियों का कर्म अपने विषयों का ग्रहण तथा भोग करना है। ६. धार्मिक क्षेत्र में ऐसे कार्य जिन्हें करने का शास्त्रीय विधान हो। जैसे—चूड़ाकर्म। यौ०—कर्मकांड (दे०) ७. मृतक की आत्मा को शांति प्राप्त कराने या उसे सदगति दिलाने के उद्देश्य से किये जानेवाले कार्य या संस्कार। जैसे—अत्येष्टि कर्म। विशेष—हमारे यहाँ के शास्त्रों में कर्म का विचार अनेक दुष्टियों में हुआ है। मीमांसा के इसके दो भेज किये गये हैं।—गुण-कर्ण और प्रधान कर्म। योगसूत्र में इसके विहित, निषिद्ध और मिश्र ०ये तीन रूप कहे गये हैं। वैशेषिक में यह ६ पदार्थों में से एक माना गया है। जैन दर्शन में इशकी उत्पत्ति जीव औ पुदगल के आदि संबंद से मानी गई है। ८. कोई प्रशंसनीय या स्तुत्य काम। ९. व्यंग्य के रूप में, कोई अनुचित या हास्यास्पद काम। करतूत। जैसे—अभी न जाने आपने और कितने ऐसे कर्म किये होंगे। १॰ व्याकरण में किसी वाक्य का वह पद फल होता है। (ऑब्जेक्टिव) जैसे—मैंने उसे पुस्तक दी।’’ में का ‘पुस्तक’ कर्म है; क्योंकि मेरे द्वारा देने की जो किया हुई है उसा प्रभाव या फल पुस्तक पर हुआ है। वि० अच्छी तरह और पूरा-पूरा काम करनेवाला। (यौगिक पदों के आरंभ में पूर्व-पद के रुप में) जैसे—कर्म-कार्मुक= अच्छी तरह या पूरा काम देनेवाला अर्थात् बढ़िया धनुष।
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कर्म-करण  : पुं० [ष० त०] चमड़े की चीजें बनाने का काम।
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कर्म-कांड  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. पूजा, यज्ञ, संस्कारों आदि से संबंध रखनेवाले धार्मिक कर्म या कृत्य। २. वे शास्त्र जिनमें उक्त कर्मों के संपादन की रीतियों या विधानों का विवेचन है। ३. उक्त विधानों के अनुसार होनेवला पूजन आदि कृत्य।
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कर्म-कारक  : वि० [ष० त०] कर्म करनेवाला। पुं० १. कर्मकार। २. व्याकरण में किसी पद या शब्द की वह स्थिति जो उसे कर्म (देखे’ कर्म’१॰) होने की दशा में प्राप्त होती है। (आब्जेक्टिव केस)।
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कर्म-क्षय  : पुं० [ष० त०] भूतकाल में किये हुए कर्मों का वह क्षय या नाश जो उनके विपरीत कर्म करने से होता है। जैसे—दान से पापों का कर्मक्षय; व्यभिचार से तपस्या का कर्म-क्षय।
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कर्म-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] १. कार्य करने का स्थान। २. कार्य-क्षेत्र (दे०)। ३. भारतवर्ष, जो हिदू धर्मशास्त्रों के अनुसार कर्म करने का मुख्य क्षेत्र माना गया है।
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कर्म-गुण०  : पुं० [ष० त०] अच्छी तरह काम करने की क्षमता या योग्यता।
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कर्म-गृहीत  : विं० [तृ० त० या मध्य० स०] जो कोई अनुचित या दंडनीय काम करता हुआ पकड़ा जाय। (रेड-हैंडेड)
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कर्म-घात  : पुं० =कर्मक्षय।
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कर्म-चांडाल  : पुं० [तृ० त०] ऐसा व्यक्ति जो नीचे कर्म करने के कारण चांडालों के समान माना जाय। जैसे—कृतध्न, चुगलखोर, पर-दिनक आदि। (स्मति)।
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कर्म-देव  : पुं० [त० त०] उपनिषदों के अनुसार वैदिक कर्म करनेवाले तैंतीस देवताओं का एक वर्ग।
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कर्म-निष्ठ  : विं० [ब० स०] १. अपने काम या कर्त्तव्यपालन में शुद्ध हृदय से और बराबर लगा रहनेवाला। २. अपने कार्य को धर्म-स्वरुप समझकर पूरा करनेवाला। कर्म में आस्था रखनेवाला। ३. धर्म-शास्त्रों में बतलाये हुए धार्मिक कर्म और कर्त्तव्य अच्छी तरह और बराबर करता रहनेवाला।
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कर्म-पंचमी  : स्त्री० [ष० त०] ऐक प्रकार की संकर रागिनी जो देशकार, ललित, बसंत और हिदोल के योग से बनी हुई कही गई है।
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कर्म-पाक  : पुं० [ष० त०] पहले के किये हुए कर्मों का फल।
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कर्म-प्रधान  : वि० [ब० स०] १. जिसमें कर्म की प्रधानता हो। २. भौतिक पदार्थों, उनके कार्यों अथवा उनसे होनेवाली अनुभूतियों से संबंध रखनेवाला। (ऑब्जेक्टिव )
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कर्म-प्रधान-वाक्य  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा वाक्य जिसमें कर्म ही मुख्य रूप से कर्त्ता की तरह आया हो।
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कर्म-फल  : पुं० [ष० त०] १. किये हुए कार्मों का फल। २. भूत काल में अथवा पूर्व जन्म में किये हुए कर्मों के अनुसार मिलनेवाले फल। में अथवा पूर्व जन्म में किये हुए कर्मों के अनुसार मिलनेवाले फल।
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कर्म-बंध  : पुं० [तृ० त०] जन्म और मरण का बंधन जो किये हुए कर्मों के फल-स्वरूप होता है।
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कर्म-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वह क्षेत्र या स्थान जहाँ धार्मिक कर्म या कृत्य होते हों। २. कर्म-क्षेत्र (भारतवर्ष)।
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कर्म-भोग  : पुं० [ष० त०] पहले के लिये हुए कर्मों का फल-भोग।
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कर्म-मास  : पुं० [ष० त०] तीन दिनों का सावन महीना। सावन मास (देखे)।
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कर्म-योग  : [√सं० क (हिंसा)+ मनिन्—कर्म, कर्म-युग, मध्य० स०] कलियुग।
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कर्म-योग  : पुं० [सं० त०] दार्शनिक क्षेत्र में, वह मत या सिद्धांत जिसके अनुसार मनुष्य सब प्रकार के शास्त्र-विहित तथा शुभ कर्मों का आचरण बिलकुल निर्लिप्त होकर करता है; और इस बात का विचार नहीं करता कि या काम पूरा उतरेगा या नहीं अथवा इसका शुभ फल मुझे मिलेगा या नहीं। फलाफल का विचार किये बिना अपने कर्त्तव्य के पालन में बराबर लगे रहने का नियम या व्रत। (श्रीमदभगवद् गीता में इस मत का विशेष रूप से प्रतिरपादन हुआ है।)
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कर्म-रंग  : पुं० [ब० स०] १. कमरख का वृक्ष और उसका फल।
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कर्म-रेख  : स्त्री० =कर्म-रेखा।
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कर्म-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] भाग्य में लिखी हुई रेखाएँ जिनका फल भोगना पड़ता है।
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कर्म-वध  : पुं० [तृ० त०] चिकित्सा में की जानेवाली ऐसी असावधानी या भूल जिससे रोगी को हानि पहुँचे।
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कर्म-वाच्य  : स्त्री० [ब० स०] व्याकरण में क्रिया के विचार से वाक्य के तीन रूपों में से एक जो इस बात का सूचक होता है कि जो कुछ कहा गया है वह कर्म के विचार से है (न कि कर्त्ता के विचार से)। (पैंसिव वॉयस) जैसे—पुस्तक को राम ने पढ़ा।
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कर्म-वाद  : पुं० [ष० त०] १. मीमांसा-दर्शन, जिसमें कर्म ही प्रधान माना गया है। २. दे० ‘कर्म-योगी’।
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कर्म-विपाक  : पुं० [ष० त०] पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार मिलनेवाला फल।
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कर्म-वीर  : वि० [स० त०] जिसने प्रशंसनीय तथा स्तुत्य काम किये हों। जो काम करने में बहादुर हो।
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कर्म-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ कारीगर या शिल्पी बैठकर काम करते हों। (वर्क-शाप)
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कर्म-शील  : पुं० [ब० स०] १. वह जो बराबर अच्छे कामों में लगा रहे। २. धर्मशास्त्रों में वह जो फल की अभिलाषा छोड़ स्वभावतः काम करे। कर्मवान् कर्म-शूर वि०=कर्मवीर।
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कर्म-शौच  : पुं० [स० त०] विनय। नम्रता।
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कर्म-संग  : पुं० [स० त०] कर्मों और उनके फलों के प्रति होनेवाली आसक्ति।
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कर्म-संन्यास  : पुं० [ष० त०] [वि० कर्मसंन्यासी] १. सब प्रकार के कर्मों का व्याग। २. वह व्रत या सिद्धांत जिसमें सब प्रकार के नित्य, नैमित्तिक आदि कर्म तो किये जाते हैं पर उनके फलों की कामना नहीं की जाती।
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कर्म-संन्यासी (सिन्)  : पुं० [सं० कर्मसंन्यास+इनि] कर्म-संन्यास के सिद्धांतों के अनुसार चलने और जीवन बितानेवाला व्यक्ति।
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कर्म-साक्षी (क्षिन्)  : वि० [ष० त०] (ऐसा गवाह या साक्षी) जिसके सामने कोई काम हुआ हो। पुं० धर्मशास्त्रों में अग्नि, जल, चंद्रमा, सूर्य आदि ऐसे देवता जो प्राणियों के सब कर्म साक्षी बनकर देखते रहते हैं।
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कर्म-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. कर्मशाला। २. कर्मभूमि। ३. फलित ज्योतिष में कुंडली में लग्न से दसवाँ स्थान जो मनुष्य के पद, मर्यादा, राजसम्मान आदि का सूचन होता है।
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कर्म-हीन  : वि० [तृ० त०] १. जो कोई अच्छा काम न करता हो या न कर सकता हो। २. जिसका कर्म (भाग्य) अच्छा न हो। अभागा। भाग्यहीन।
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कर्मकर  : पुं० [सं० कर्मन्√कृ+ट] १. कर्म या कार्य करनेवाला प्राणी। २. मजदूर। श्रमिक। कमकर। ३. प्राचीन भारत में सेवकों की एक जाति या वर्ग।
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कर्मकांडी (डिन्)  : पुं० [सं० कर्मकांड +इनि] १. ब्राह्मण, जो कर्मकांज का पंडित हो। २. पूजन, यज्ञ आदि कर्म करनेवाला ब्राह्मण। ३. वह जो कर्मकांड के अनुसार पूजन आदि कराता हो।
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कर्मकार  : पुं० [सं० कर्मन्√कृ+अण्, उप० स०] १. एक प्राचीन वर्णकंसर जाति। २. आजकल कई तरह के कारीगरों का सामाजित नाम। ३. वह जिससे जबदरस्ती और बिना कुछ पारिश्रमिक दिये काम कराया जाय। बेगार। ४. नौकर। सेवक। ५. बैल।
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कर्मचारी (रिन्)  : पुं० [सं० कर्म√चर्, (गति) +णिनि] वह व्यक्ति जो किसी दूसरे व्यक्ति या संस्था के द्वारा किसी कार्य के संपादन के लिए पारिश्रमिक या वेतन पर नियुक्त किया गया हो। पद—कर्मचारी-संघ=उक्त व्यक्तियों का ऐसा संघटन या संस्था जो उनके हितों की रक्षा के लिए बनी हो।
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कर्मज  : वि० [सं० कर्म√जन् (पैदा होना)+ड] १. कर्म से उत्पन्न। २. पूर्व-जन्म के कर्मों के फल के रूप में होनेवाला। पुं० १. कलियुग। २. बड़ का पेड़। ३. पूर्व जन्म के पापों के फल-स्वरूप होनेवाला रोग।
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कर्मठ  : वि० [सं० कर्मन् +अठंच्] १. जो बराबर और अच्छी तरह सब या बहुत काम करता रहता हो। २. जिसने बहुत-से अच्छे तथा बड़े-बड़े काम किये हों। ३. कर्म-निष्ठ। ४. जो धर्म-शास्त्रों आदि में बतलाये हुए सब काम ठीक और पूरी तरह से करता हो। कर्म-निष्ठ। पुं०=कर्म-कांडी।
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कर्मणा  : कि० वि० [सं० कर्मन् का करण कारक का रूप] १. कर्म के विचार से। कर्मों के आधार पर। जैसे—जाति-भेद मूलतः कर्मणा था। २. कर्मों के द्वारा। कियात्मक रूप में। जैसे—कर्मणा पाप, पुण्य या सेवा करना।
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कर्मण्य  : वि० [सं० कर्मन्+यत्] १. अच्छी तरह या पूरा काम करने में कुशल या दक्ष (व्यक्ति)। २. धर्म या शास्त्र के अनुसार जो किये जाने के योग्य हो (कार्य)। ३. कर्म या कार्य-संबंधी।
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कर्मण्यता  : स्त्री० [सं० कर्मण्य+तल्—टाप्] कर्मण्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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कर्मण्या  : स्त्री० [सं० कर्मण्य+टाप्] १. किये हुए काम के बदले में मिलने-वाला धन। जैसे—पारिश्रमिक, मजदूरी, वेतन आदि। २. किराया भाड़ा।
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कर्मद  : पुं० [सं०] एक सूत्रकार ऋषि।
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कर्मधारय-समास  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में तत्पुरुष समास का एक भेद। विशेष—इस प्रकार के तत्पुरुष समास का विग्रह करने पर उसके दोनों पदों में कर्ताकारक की विभक्ति लगनी चाहिए।
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कर्मना  : कि० वि०=कर्मणा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कर्मप्रधान-क्रिया  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसी क्रिया जिसमें कर्म ही मुख्य होकर कर्त्ता के समान आता हो और जिसमें लिंग तथा वचन में उसी के अनुसार विकार होता हो।
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कर्मयोगी (गिन्)  : पुं० [सं० कर्मयोग+इनि] १. व्यक्ति, जो कर्मयोग आ अनुयायी हो और उसका ठीक तरह से पालन करता हो। २. शुद्ध हृदय से और मन लगाकर बड़े-बडे काम करनेवाला व्यक्ति।
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कर्मवादी (दिन्)  : पुं० [सं० कर्मवाद+इनि] १. मीमांसा दर्शन का अनुयायी या ज्ञाता। २. कर्मकांड करनेवाला ब्राह्मण। ३. भाग्यवादी।
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कर्मवान् (वत्)  : वि० [सं० कर्म+मतुप्] १. जिसने बहुत-से-अच्छे तथा स्तुत्य काम किये हों। २.=कर्मनिष्ठ।
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कर्मा  : वि० [सं० कर्मन् सं] करनेवाला (यौ० शब्दों के अंत में)। जैसे—पापकर्मा। पुण्यकर्मा।
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कर्मादान  : पुं० [सं० कर्म-अदान, ष० त०] वे कर्म या व्यापार जो जैन साधुओं के लिए वर्जित हैं। ये १५ हैं—इंगला कर्म० वन कर्म, साकट वा साड़ी कर्म, भाड़ी कर्म, स्फोटिक कर्म-कोड़ी कर्म, दंतकुवाणिज्य, लाक्षाकुवाणिज्य, रसकुवाणिज्य, केशकुवाणिज्य, विषकुवाणिज्य, यंत्र-पीड़न, निर्लाछन, दावाग्नि—दान-कर्म, शोषण-कर्म और असतीपोषण।
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कर्मार  : पुं० [सं० कर्म√ऋ (गति)+अण्] १. मेमार, लुहार, सुनार आदि कारीगर। २. एक प्रकार का पतला हलका बाँस। कमोरिया बाँस।
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कर्मिष्ठ  : वि० [सं० कर्मिन्+ इष्ठन्] १. अच्छी तरह सब काम करने-वाला। २. कर्मनिष्ठ।
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कर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० कर्म+इनि] [स्त्री० कर्मिणी] १. कर्म करनेवाला। २. क्रियक। सक्रिय। ३. धार्मिक क्षेत्र में फल की आकांक्षा से यज्ञ आदि कर्म करनेवाला। पुं० वह जो छोटे-छोटे काम या सेवाएँ करके जीविका चलाता हो। जैसे—कारीगर, मजदूर आदि।
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कर्मीर  : पुं० [सं० कर्म+ ईरन्] १. किर्मीर। नारंगी रंग। २. कहीं एक तरह का और कहीं दूसरी तरह का रंग।
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कर्मीला  : वि० [सं० कर्म+हिं० प्रत्य० ईला] [स्त्री० कर्मीकी] अच्छा, बड़ा या बहुत काम करनेवाला। कर्मशील और परिश्रमी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कर्मेद्रिय  : स्त्री० [सं० कर्म-इंद्रिय, मध्य० स०] शरीर के वे अंग या अवयव (ज्ञानेद्रियों से भिन्न) जो कर्म या कार्य करते हैं और गिनती में पाँच है। यथा—हाथ, पैर, वाणी, गुदा और उपस्थ।
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कर्मोपघाती (तिन्)  : वि० [सं० कर्म-उपघातिन्, ष० त०] दूसरों के काम में बाधा पहुँचानेवाला। काम बिगाड़नेवाला।
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कर्रा  : पुं० [सं० कराल=फैलाना] जुलाहों का सूत फैलाकर तानने का काम। वि० =कड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कर्राना  : अ० [हि० कर्रा] कड़ा होना। कठोर होना। सख्त होना। अ० [हिं० करकर] करकर शब्द होना। स० करकर शब्द करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कर्री  : स्त्री० [देश०] बड़े पत्तोंवाला एक प्रकार का वृक्ष जिसके पत्ते चारे के काम आते हैं।
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कर्वट  : पुं० [सं०√कर्व् (दर्प)+अट] १. पहाड़ की ढाल। २. गाँव। ३. गाँवों में लगनेवाले बाजार। पैठ। ४. मंडी। स्त्री०=करवट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कर्वर  : वि० [सं०√कृ (विक्षेप, वध)+वरच्] चितकबरा। पुं० [स्त्री० कर्वरी] १. पाप। २. राक्षस। ३. बाध। ब्याध।
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कर्वरी  : स्त्री० [सं० कर्वर+ङीष्] १. दुर्गा। २. रात। ३. बाध की मादा। बाधिन। ४. राक्षसी।
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कर्शन  : पुं० [सं०√कृश् (क्षीण होना)+ णिच् +ल्युट्-अन] कृश अर्थात् क्षीण, दुर्बल या शक्तिहीन करना।
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कर्शित  : वि० [सं०√कृश+णिच+क्त] १. जो कृश या क्षीण कर दिया गया हो। २. अशक्त। सामर्थ्यहीन।
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कर्ष  : पुं० [सं०√कृष् (खींचना) +अच् वा घञ्] अपनी ओर खींचना या घसीड़ना। २. आपस में होनेवाला दुर्भाव या तनातनी। मन-मुटाव। ३. कोध। रोष। ४. खेत की जोताई। ५. रेखा या लकीर खींचना। ६. बहेड़ा। ७. एक प्रकार का पुराना सिक्का जिसे ‘दूण’ भी कहते थे। ८. एक पुरानी तौल जो १६ माशे की होती थी।
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कर्ष-कर्म (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] चित्रकला में घोटाई नाम की किया विशेष दे० घोटाई।
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कर्ष-फल  : पुं० [ब० स०] १. बहेड़ा। २. आँवला।
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कर्षक  : वि० [सं०√कृष (खींचना) +ण्वुल्—अक्] १. खींचने या घसीटनेवाला। २. हल जोतनेवाला।
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कर्षक  : वि० [सं० कृष्+उकञ् बा०] खींचनेवाला। पुं० दे० ‘चुबक’।
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कर्षण  : पुं० [सं०√कृष्+ल्युट्—अन] [वि० कर्षित, कर्षी, कर्षक, कर्षणीय, कर्ष्य] १. किसी वस्तु को अपनी ओर या अपने पास खींच या घसीटकर लाने की किया या भाव। २. खरोंचकर लकीर बनाना। ३. खेत में हल जोतना। ४. खेती-बारी का काम।
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कर्षणि  : स्त्री० [सं०√कृष्+अनि] व्यभिचारिणी स्त्री। कुलटा।
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कर्षना  : सं० [सं० कर्षण] खींचना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कर्षित  : भू० कृ० [सं०√कृष्+णिच्+क्त] [स्त्री० कर्षिता] १. अपनी ओर खींच या घसीटकर लाया हुआ। २. खींचा या खिचा हुआ। ३. जोता हुआ (खेत)।
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कर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं०√कृष+णिनि] [स्त्री० कर्षिणी] १. कर्षण करने या खींचनेवाला। २. (खेत) जोतनेवाला।
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कर्षुकीय  : वि० [सं० कर्षुक+छ—ईय] कर्षुक या चुंबक से संबंध रखनेवाला। चुंबकीय (देखें)।
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कर्षू  : पुं० [सं०√कृष्+ऊ] १. कंडे की आग। २. खेती-बारी। ३. जीविका। स्त्री० १. छोटा ताल। २. नदी। ३. नहर। ४. यज्ञकुंड।
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कर्हि  : कि० वि० [सं० किम्+र्हिल्, कादेश] कब ? किस समय ?
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कर्हि-चित्  : कि० वि० [सं० द्व० स०] १. किसी समय। कभी। २. कदाचित्। शायद कभी।
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कल  : पुं० [सं०√कल् (शब्द)+ घञ्, अवृद्धि (नि०)] १. अव्यक्त और अस्पष्ट परन्तु मधुर ध्वनि। जैसे—नदियों का कल-नाद, पक्षियों का कल-रव, रमणी का कल-कंठ। २. वीर्य। ३. चार मात्राओं का काल। ४. पितरों का एक वर्ग। ५. शिव। ६. साल का वृक्ष। वि० १. मनोहर। सुन्दर सुहावना। प्रिय। मधुर। २. कोमल। पुं० [सं० कल्यम्० कल्ये,√कल्; पा० प्रा० कल्लम् कल्हि; का० काल; बँ० काल; उ० काला; पं० कल्ल; सिं० कल्ह; गु० कलि] १. आज के दिन से ठीक पहले का बीता हुआ दिन। जैसे—कल हम वहाँ गये थे। पद—कल का= बहुत थोड़े दिनों या समय का। जैसे—कल का लड़का हमें सिखाने चला है। २. आज के दिन के ठीक बाद आनेवाला दूसरा दिन। जैसे—कल वहाँ जाकर पुस्तक ले आना। मुहा०—आज-कल करना=कोई काम या बात टालने के लिए यह कहते रहना कि आज कर देंगे, कल कर देंगे। केवल बादे करके टालते चलना। जैसे—आज-कल करते-करते तो आपने महीनों बिता दिये। ३. आज के बाद या भविष्य में आनेवाला कोई अनिश्चित दिन या समय। जैसे—(क) आज का काम कल पर टालना ठीक नहीं। (ख) जो करना हो वह तुरन्त कर डालो, कल न जाने क्या हो। पद—कल को=आनेवाले किसी निश्चित समय में। जैसे—(क) आनेवाली पीढ़ियाँ कल को कह सकती हैं कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए कुछ न किया। (ख) आज तो आप ऐसा कहते हैं, पर कल को आप बदल गये तो ? कि० वि० कलके दिन। कल के रोज। जैसे— (क) वह आया था। (ख) कल चले जाना। स्त्री० [सं० कल्प, प्रा० कल्ल] १. नीरोग या रोग-रहित होने की अवस्था या भाव। अच्छा स्वास्थ्य। तंदुरुस्ती। २. आराम, चैन और सुख से रहने की दशा। जैसे—जब से वह बात सुनी है तब से कल पड़ रही है। कि० प्र०— आना।—पड़ता।—पाना। पद—कल से=(क) शांत भाव से और सुखपूर्वक। जैसे—कल से बैठना सीखो। (ख) धीरे से और युक्तिपूर्वक अथवा सहज भाव से। जैसे—कल से बातें करके अपना काम निकालना। ३. तुष्टि, धैर्य और संतोष की स्थिति। ४. ढंग। तरकीब। युक्ति। जैसे—तुम्हें तो कल, बल और छल सभी आते हैं। स्त्री० [सं० प्रा० कला; गु० सिं०, पं० कल; मरा० कल] १. अँग। अवयव। जैसे—ऊँट की कोई कल सीधी नहीं होती। २. पहलू। पार्श्व। बल। जैसे—देखे ऊँट किस कल बैठता है। मुहा०—कल-बेकल होना=किसी प्रकार की अव्यवस्था होना कम बिगड़ना। ३. अनेक प्रकार के पहियों, पुरजों, पुरजों पेचों आदि के योग से बना हुआ कोई ऐसा उपकरण जिससे कोई शिल्पीय कार्य जल्दी, सहज में या सुगमता से होता हो या कोई चीज बनाकर तैयार होती हो। (मशीन) जैसे—ऊख पेरने, कपड़े सीने या दियासलाई बनाई की कल। पद—कल का पुतला=सब प्रकार से किसी दूसरे के अधीन या वश में रहकर काम करनेवाला व्यक्ति। ४. उक्त उपकरण या यंत्र का कोई ऐसा विशिष्ट अंग, पुरजा या पेच जिसे घुमाने, चलाने, दबाने आदि से वह चलने लगता हो या कोई विशिष्ट किया करने लगता हो। जैसे—बंदूक का घोड़ा ही उसे चलानेवाला कल है। मुहा०—(किसी की) कल उमेठना, घुमाना या फेरना=ऐसी युक्ति करना जिससे कोई व्यक्ति कुछ करने या न करने में प्रवृत्त हो। (किसी की) कल के हाथ में होना=किसी का किसी दूसरे के अधीन या वश में होना। जैसे—उनकी कल तो तुम्हारे हाथ में हैं। पद—कल-पुरजा, कल-पुरजें। ५. वह नल जिसमें घर-गृहस्थी के कामों के लिए दूर से पानी आता है। (वाटर पाइप) ६. उक्त का वह अगला भाग जिसमें पानी निकालने और बन्द करने के लिए टोंटी लगी होती हैं। (वाटर टैप) वि० हिं० ‘काला’ शब्द का संक्षिप्त रूप जिसका प्रय़ोग यौगिक शब्द बनाने में पूर्व-पद के रुप में होता है। जैसे—कलजिब्भा, कलदुमा, कलमुँहा, कल-सिरा आदि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं० [सं० कर] १. किरण। २. चमक। दीप्ति। (राज०) उदा०—बल प्रचंड बल मंड ज्वाल विकराल काल कल।—चंदबरदाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)स्त्री० [सं० कलह] लड़ाई-झगड़ा या वाद-विवाद। (राज०)
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कल कूणिक  : वि० [कल कूणिका] =कलकूजक।
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कल पोटिया  : स्त्री० [हिं० काला+पोटा] एक प्रकार की चिड़िया जिसका पपोटा (अर्थात् आँख के ऊपर की पलक) काले रंग का होता है।
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कल-कंठ  : वि० [ब० स०] [स्त्री० कलकंठी] १. जिसके गले की बनावट बहुत सुन्दर हो। २. जिसका स्वर बहुत ही मधुर या मनोहर हो। पु० १. कोयल। २. हंस। ३. कबूतर।
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कल-कल  : पुं० [सं० कल—द्वित्व=कल-कल] १. नदियों, स्त्रोंतो, आदि के बहने आदि से होनेवाली अव्यक्त, कोमल तथा मधुर ध्वनि। स्त्री० [अनु०] बोलचाल में आपस में प्रायः या बराबर होता रहनेवाला झगड़ा। जैसे—रोज की कल-कल घर को खा जाती है। पुं० [सं०] साल का गोंद। राल। स्त्री० [हिं० कल्लाना] शरीर के किसी अंग में होनेवाली हलकी खुजलीं, चुनचुनाहट या सुरसुरी।
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कल-कूजक  : वि० [ष० त०] [स्त्री० कलकूजिका] १. मधुर ध्वनि करनेवाला। २. मृदुभाषी।
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कल-कूट  : पुं० दे० ‘काल-कूट’।
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कल-घोष  : वि० [ब० स०] प्रिय तथा मधुर शब्द करनेवाला। पुं० कोयल।
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कल-धूत  : पुं० [तृ०त०] १. चाँदी। २. सोना।
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कल-धौत  : वि० [तृ० त०] सुनहला। सोने का। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. चाँदी। रजत। ३. मधुर या मनोहर ध्वनि।
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कल-ध्वनि  : स्त्री० [ब० स०] कोमल, प्रिय या मधुर ध्वनि। सुरीली आवाज। पुं० १. कबूतर। २. मोर।
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कल-नाद  : वि० [ब० स०] मंद और मधुर स्वरवाला। पुं० १. मधुर ध्वनि। २. हंस।
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कल-रव  : पुं० [कर्म० स०] १. पक्षियों के चहकने के कोमल और मधुर शब्द। २. किसी प्रकार की मधुर तथा रसीली ध्वनि। ३. [ब० स०] कोयल। ४. कबूतर।
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कल-हंस  : पुं० [मध्य० स०] १. हंस। २. राजहंस। ३. ईश्वर। परमात्मा। ४. अच्छा या श्रेष्ठ राजा। ५. एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक सगण, एक जगण, दो सगण और एक गुरु क्रमशः होते हैं। ६. राजपूतों की एक जाति। ७. एक प्रकार का संकर राग।
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कल-हास  : पुं० [मध्य स०] चार प्रकार के हासों में से एक जिसमें कोमल और मधुर ध्वनि होती है।
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कलइया  : स्त्री०=कलैया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलई  : स्त्री० [अ०] १. सफेद रंग का प्रसिद्घ खनिज पदार्थ। राँगा। २. पीतल आदि के बरतनों को उजला बनाने तथा चमकाने के लिए उक्त खनिज पदार्थ का प्रस्तुत किया हुआ चूर्ण। ३. उक्त चूर्ण से बरतनों आदि पर किया जानेवाला पतला या हलका लेप। ४. चित्रकला में ऐसा चूर्ण या बुकनी जिसे चिपकाने या लगाने से वह चाँदी की तरह चमकता है। ५. दीवारों आदि पर होने वालों चूने की पुताई। सफेदी। ६. लाक्षणिक अर्थ में तथ्यों या वास्तविकता को छिपाने के लिए उन पर चढ़ाया हुआ आकर्षक किंतु मिथ्या आवरण। किसी एक रूप को छिपाने या ढकने के लिए धारम किया हुआ दूसरा दिखावटी भड़कीला रूप। मुहा०—कलई उधड़ना या खुलना=किसी के आंतरिक तथा वास्तविक स्वरूप या रहस्य का दूसरों को पता लगता। कलई न लगना=चाल या युक्ति का सफल न होना। ७. ऊपरी तथा दिखावटी तड़क-भड़क।
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कलईगर  : पुं० [फा०] १. पीतल-आदि के बरतनों पर कलई करनेवाला कारीगर। २. लाक्षणिक अर्थ में वह व्यक्ति जो वास्तविक तथ्यों को छिपाने के लिए बहुत सुन्दर तथा आकर्षक बाहरी रूप बनाता हो।
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कलईदार  : वि० [फा०] कलई किया हुआ (पात्र या बरतन)।
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कलऊ  : पुं०=कलियुग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंक  : पुं० [सं०√कल् (गति)+ क्विप्, कल्-अंक, कर्म० सं०] [विं० कलंकित, कलंकी] १. दाग। धब्बा। २. कोई ऐसा अनुचित कर्म या कार्य जिससे ख्याति, प्रतिष्ठा या मर्यादा पर बट्टा लगता हो। अपयश या कुख्याति करानेवाला कार्य या उसका लक्षण।
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कलक  : पुं० [अ० कल्क] १. घबराहट। बेचैनी। २. खेद। दुःख। पुं० [सं०] झरने के जल के गिरने या नदियों के बहने से होनेवाला शब्द कल-नाद। पुं०=कल्क।
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कलकना  : स० [हिं० कलकल=शब्द] १. कलकल या मघुर शब्द करना। २. बहुत जोर से चिल्लाना। चीत्कार करना। अ० शब्द होना।
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कलकलाना  : सं० [अन्] कल-कल शब्द करना। अ० १. कल-कल शब्द होना। २. शरीर के किसी अंग में हलकी खुजली, चुनचुनी या सुरसुरी होना। जैसे—हाथ या पैर कलकलाना। ३. लाक्षणिक रूप में किसी प्रकार की प्रवृत्ति होना। जैसे—चपत लगाने के लिए हाथ कलकलाना, मार खाने के लिए पीठ कलकलाना।
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कलंकष  : पुं० [सं० कर√कष्+ खच्(बा०) मुम् र को ल] १. शेर। सिंग। २. एक प्रकार का पुराना बाजा।
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कलंकांक  : पुं० [सं० कलंक-अंक, ब० स०] १. वह जिसके अंक या शरीर में कोई कलंक (दाग या धब्बा) हो। २. चंद्रमा में दिखाई पड़नेवाला दाग या धब्बा।
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कलकानि  : स्त्री० [अ० कलक=रंज] १. मन में होनेवाली घबराहट। चितां। बेचैनी। २. दुःख। स्त्री० [हिं० कलकल] कलह। झगड़ा।
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कलंकित  : वि० [सं० कलकं+इतच्] १. जिस पर कोई कलंक लगा हो या लगाया गया हो। कलंक से युक्त। २. कोई अनुचित या निंदनीय काम करने पर जिसकी लोक या समाज में कुख्याति या बदनामी हुई हो। जिस पर कलंक लगा हो। ३. (लोहा अथवा और कोई धातु) जिस पर जंग लगा हो अथवा मैल जमा हुआ हो।
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कलंकी (किन्)  : विं० [सं० कलंक+इनि] [स्त्री० कलंकिनी] कोई अपराध या दुष्कर्म करने के कारण जिस पर कलंक लगा हो और इसीलिए जो दूषित या निदनीय समझा जाता हो। पुं०=कल्कि (अवतार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंकुर  : पुं० [सं० क√लंक् (गति)+णिच्+उरच्] पानी का भँवर।
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कलक्टर  : पुं० [अ० कलेक्टर] राज्य द्वारा नियुक्त किसी जिले या मंडल का प्रधान शासक। वि० एकत्र करनेवाला। जैसे—टिकट कलक्टर, बिल कलक्टर।
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कलक्टरी  : स्त्री० [हि० कलक्टर] १. कलक्टर का कार्य या पद। २. कलक्टर का कार्यालय । वि० कलक्टरसंबंधी। कलक्टर का। जैसे—कलक्टरी कचहरी।
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कलंगड़ा  : पुं० [सं० कर्लिग] १. तरबूज। २. दे० ‘कर्लिंगड़ा’ (राग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंगा  : पुं० [हिं० कलगी] १. ठठेरों की वह छेनी जिससे वे नक्काशी करते हैं। २. छीपियों का वह ठण्पा जिससे वे कलगे के आकार का बूटा छापते हैं। ३. दे० ‘कलगा’।
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कलगा  : पुं० [तु० कलगी] भरसे की तरह का एक पौधा। मुर्गकेश। जटाधारी। पुं० बड़ी कलगी (देखें)।
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कलंगी  : स्त्री०=कलंगी।
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कलगी  : स्त्री० [तु०] १. कुछ पक्षियों के सिर के ऊपर निकला हुआ परों, बालों आदि का गुच्छा या ऐसी ही और कोई बनावट जो बहुत ही सुन्दर लगती है। चोटी। जैसे—मुरगे या बाज की कलगी। २. कई प्रकार के पक्षियों के बहुत ही कोमल और सुन्दर पर जो पहले राजे-महाराजे अपनी टोपियों और पगड़ियों आदि में आगे की ओर शोभा के लिए उगाते थे। ३. किसी चीज में आगे या ऊपर की ओर निकला हुआ उक्त प्रकार का कोई सुन्दर अंग या अंश। ४. चोटी। शिखर। ५. लाक्षणिक अर्थ में किसी विशेष बात की सूचक कोई वस्तु। ६. लावनी की रचना का एक विशिष्ट ढंग या प्रकार।
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कलंगो  : स्त्री० [हिं० कली+अंग] जगली भाँग का वह भेद जिसमें फूल नहीं होते, केवल बीज होते हैं। (जिसमें फूल भी लगते हैं, उसे फुलंगों कहते हैं।)।
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कलचिड़ा  : पुं० [हिं० काला=सुन्दर+चिड़िया] [स्त्री० कलचिड़ी] एक प्रकार की बड़ी चिड़िया जिसका पेट काला और चोंच लाल होती है। इसकी बोली बहुत मधुर होती है।
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कलछा  : पुं० [सं० कर+रक्षा, हि० करछा] [स्त्री० अल्प० कलछी] बड़ी कलछी। (दे० ‘कलछी’)
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कलछी  : स्त्री० [सं० कर+रक्षी] पीतल, लोहे आदि का बना हुआ बड़े चम्मच के आकार का लंबी डंडीवाला एक प्रसिद्घ उपकरण जिससे बटलोई आदि में परनेवाले व्यंजन चलाये जाते और पक जाने पर निकाले जाते हैं।
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कलछुल  : स्त्री०=कलछी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलछुला  : पुं० [हिं० कलछा] लोहे का बना हुआ एक प्रकार का बहुत बड़ा कलछा जिससे भड़भूचे चने आदि भूनते हैं।
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कलछुली  : स्त्री०= कलछी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंज  : पुं० [सं० क√लंज् (भाषण)+ अण्] १. तमाकू का पौधा। २. हिरन। ३. पक्षी का मांस। ४. एक पुरानी तौल जो १॰ पल की होती थी।
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कलज  : पुं० [सं० कल√जन् (उत्पन्न होना)+ड] मुर्गा।
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कलजिब्भा  : वि० [हि० काला+जिहवा या जीभ] १. (पशु) जिसकी जीभ काली हो। विशेष—प्रायः ऐसा पशु अशुभ, ऐबी तथा दोषी समझा जाता है। जैसे—कलजिब्भा हाथी। २. (व्यक्ति) जिसके मुँह से निकली हुई अमांगलिक या अशुभ बात प्रायः ठीक उतरती या निकलती हो।
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कलजीहा  : वि०=कलजिब्भा।
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कलजुग  : पुं०=कलियुग।
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कलझँवा  : वि०[हिं० काला+झाँवाँ] १. झाँवें की तरह ऐसे काले रंग वाला जो झुलसा हुआ-सा जान पडे़। २. गहरे काले रंग का। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलट्ट्र  : पुं०=कलक्टर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलठोरा  : वि० [हिं० काला+ ठोर=चोंच] काली चोंच वाला। पुं० सफेद रंग का वह कबूततर जिसकी चोंच काली हो।
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कलत  : स्त्री० [सं० कलव] पत्नी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलत्र  : पुं० [सं०√गड् (सींचना)+ अत्रन्, ग=क, ड=ल] [वि० कलत्रवान, कलत्री] १. स्त्री। पत्नी। भार्या। २. चूतड़। नितब। ३. किला। दुर्ग।
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कलथरा  : पुं० [देश०] करघे की चक नामक लकड़ी। (दे० ‘चक’)
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कलंदर  : पुं० [अ० कलंदर] १. एक प्रकार के मुसलमान फकीर। २. मुसलमान मदारी जो बंदरों, भालओं आदि के तमाशे दिखाते फिरते हैं। ३. दे० ‘कलंदरा’।
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कलंदरा  : पुं० [अ० कलन्दरः] १. एक प्रकार का कपड़ा जो सूत, रेशम और टसर के मेल से बनता है। २. खेमे में लगी हुई वह खूँटी जिस पर कपड़े आदि टाँगे जाते है। ३. वह खूँटा जिससे खेमे की रस्सियाँ खींच कर बाँधी जाती हैं। पुं० [अं० =कैलेंडर] १. जंतरी। पंचांग। २. अभियोगों की वह सूची जो अभियुक्त का विचार करने से पहले प्रस्तुत की जाती है। (चार्जशीट)।
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कलंदरी  : वि० [हिं० कलंदरा+ई (प्रत्य०) ] कलंदर-संबंधी। कलदरों का। पुं० वह खेमा जिसमें कलंदरे या खूँटियाँ लगी हों।
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कलदार  : वि० [हिं० कल+ दार] जिसमें किसी प्रकार की कल या पेज लगा हो। पुं० टकसाल में कल या यंत्र की सहायता से बना हुआ रुपया।
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कलदुमा  : वि० [हिं० काला+फा० दुम] जिसकी दुम या पूँछ काली हो। जैसे—कल-दूमा कबुतर या बैल।
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कलंधर  : पुं० [सं० कलाधर] चन्द्रमा।
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कलधुरि (ी)  : पुं० दक्षिण भारत का एक प्राचीन राजवंश जिसके शासन में कर्णाट, चेदि, दाहल, मंडल आदि प्रदेश थे।
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कलन  : पुं० [सं०√कल् (गति, शब्द, संख्या)+ल्युट्—अन] १. ग्रहण या धारण करना। २. अच्छी तरह जानना या समझना। ३. कोई चीज तैयार या बनाना। ४. अच्छी तरह लगा था। सजाकर जमाना बैठाना या रखना। ५. गणना करना। हिसाब लगाना। ६. आचरण। ७. लगाव। संबंध। ८. कौर। ग्रास। ९. ऐब। दोष। १॰. दाग। धब्बा। ११. बेंत। १२. गर्भ में शुक और शोणित संयोग से पहले-पहल बननेवाला वह रूप जिससे आगे चलकर कलल बनता है।
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कलना  : स्त्री० [सं०√कल्+ णिच्+युच्—अन, टाप्] १. ग्रहण करने या लेने की किया या भाव। २. ज्ञान। ३. रचना। बनावट। विशेषतः सुन्दर बनावट या रचना। उदा०—देव-सृष्टि की सुख-विभावरी तारों की कलना थी।—प्रसाद। सं० [सं० कलन] १. कलन करना। गिनती करना। गिनना। २. हिसाब लगाना।
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कलप  : पु० [सं० कलाप] झुंड। समूह। उदा०—करी चीह चिक्कार करि कलप भग्गे।—चंदबरदाई। पुं० [सं० कल्प=रचना] १. कलफ। माँड़ी। २. खिजाब। ३. दे० ‘कल्प’।
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कलप-बिरिछ  : पुं० =कल्प-वृक्ष।
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कलप-बेलि  : स्त्री०=कल्पवल्ली (कल्प-वृक्ष)।
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कलपंत  : पुं०=कल्पांत।
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कलपत्तर  : पुं० [सं० कल्पतरु] एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष जिसकी सफेद लकड़ी बहुत मजबूत होती है।
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कलपना  : सं० [सं० कल्पन] १. केवल अनुमान के आधार पर और अपने मन में किसी बात का स्वरुप बनाना या स्थिर करना। कल्पना करना उदा०—कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई।—तुलसी। २. किसी का ध्यान करना। उदा०—ब्रह्मादिक सनकादि महामुनि कलपत दीड़ कर जोरि। सूर। ३. रचना करना। गढ़ना। बनाना। ४. कतर या काटकर अलग करना। उदा०—कलपि माथ जेहि दीन्ह सरीरु।—जायसी। ५. पेड़-पौधों की कलम काटकर उसे नई जगह लगाना। उदा०—सोरह सिंगार कै नवेलिन सहेलिन हूँ कीन्ही केलि मन्दिर में कलपति केरे हैं।—पद्याकर। अ० बहुत अधिक कष्ट या दुःख में पड़ने पर रह-रह कर संतप्त होना और अपने मनस्ताप की चर्चा करते हुए बिलखना। बराबर मन तड़पते रहने पर विलाप करना। जैसे—किसी के अत्याचार से पीड़ित होकर अथवा किसी के वियोग या शोक में कलपना। उदा०—नेकु तिहारे निहारे बिना कलपै जिय पल धीरज लेखौ।—पद्याकर। पद—रोना-कलपना (देखें ‘रोना’ के अन्तर्गत)। स्त्री० बहुत दुःखी होने पर उक्त प्रकार से कलपने, तड़पने या विकल होने की किया या भाव। मुहा०—(किसी की) कलपना लेना=ऐसा अनुचित काम करना जिससे कोई कलपे तथा कलप कर कोसे। किसी को कलपा कर उसका अभिशाप लेना।
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कलपनी  : स्त्री० [सं० कल्पनी] कतरनीय़। कैंची। (डिं०)
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कलपांत  : पुं०=कल्पांत।
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कलपाना  : सं० [हिं० कलपना का प्रेर०] १. किसी को कलपने में प्रवृत्त करना। २. ऐसा अनुचित या निर्दयतापूर्ण काम करना, जिससे कोई बहुत दुःखी होकर कलपने लगे।
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कलपून  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सदाबहार वृक्ष जिसकी लकड़ी लाल रंग की होती और इमारत के कामों के लिए अच्छी समझी जाती है।
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कलप्ना  : पुं० [मला० कलपा=नारियल] किसी-किसी नारियल के बीच में से निकलनेवाली नीलापन लिये हुए सफेद रंग की एक कड़ी वस्तु जिसे ‘नारियल या मोती’ भी कहते हैं।
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कलप्पना  : अ० स०=कलपना।
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कलफ  : पुं० [अ० मि० सं० कल्प] चावल, अरारोट आदि को पकाकर बनाई हुई पतली लेई जिसे धुले कपड़ों पर लगाकर उनकी तह कड़ी की जाती है। माँड़ी।
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कलफदार  : वि० [हिं० कलफ+फा० दार] (वस्त्र) जिस पर कलफ या माँडी लगी हो।
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कलफा  : स्त्री० [देश०] मलाबार की दारचीनी की छाल जो चीन की दारचीनी में उसे सस्ता करने के लिए मिलाई जाती है। पुं० =कल्ला (कोंपल) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलंब  : पुं० [सं०√कल् (क्षेप) +अम्बच्] १. कदंब। २. शेर। सरपत। ३. साग का डंठल।
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कलब  : पुं० [देश,] टेसू के फूलों को उबालकर बनाया जानेवाला एक प्रकार का रंग। पुं० [अ० कल्ब] हृदय। (क्व०)
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कलंबक  : पुं० [सं०√कड् (मद)+ अम्बच्,+कन्, ड=ल] एक तरह का कदंब।
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कलबल  : पुं० [सं० कला+ बल] १. काम निकालने के लिए किये जाने-वाले दाँव-पेच या युक्तियाँ। जैसे—उसे बहुत-से कल-बल आते हैं। २. बनाव-सिंगार। ३. अस्पष्ट उच्चारण या शब्द। ४. हो-हल्ला। शोर।
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कलंबिका  : स्त्री० [सं० कलंब+ ङींप्, कलंबी√कै (शब्द)+ क—टाप्, ह्वस्व] गले के पीछे की नाड़ी। मन्या।
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कलबीर  : पुं० =अकलबीर। (एक पौधा)
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कलबूत  : पुं० [फा० कालबुद] मिट्टी, लकड़ी, लोहे आदि का बना हुआ वह ढाँचा या साँचा जिस पर चढ़ा या रखकर जूते, टोपियाँ, पगड़ियाँ आदि तैयार की जाती है।
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कलभ  : पुं० [सं० कर√भा (दीप्ति)+क, र=ल या√कल्+अभच्] [स्त्री० कलभी] १. हाथी या हाथी का बच्चा। २. ऊँट या ऊँट का बच्चा। उ० किसी पशु का बच्चा। ४. धतूरा।
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कलभक  : पुं० [सं० कलभ+कन्] हाथी का बच्चा।
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कलम  : स्त्री० [सं०√कल्+कमच् अथवा√कल्+णिच्+अम। अ० या कलम] १. छड़ के छोटे टुकड़े के रूप में बना हुआ वह प्रसिद्ध उपकरण या साधन जिसके द्वारा स्याही की सहायता से कागज आदि पर अक्षर शब्द, वाक्य आदि लिखे और लकीरें, बेल-बूटे आदि बनाये जाते हैं। विशेष—(क) यह शब्द संस्कृत में पुल्लिंग होने पर भी अरबी कलम के कारण उर्दू के प्रभाव से हिन्दी में स्त्रीलिंग ही माना जाता है। (ख) पहले लोहे की नुकीली कलमें होतीं थीं, जिनमें ताड़-पत्र आदि पर अक्षर बनाये जाते थे। आगे चलकर किलक, सरकंडे तथा कुछ बड़े पक्षियों के परों की कलमें बनने लगीं थी, जिनका अगला भाग छीलकर नुकीला कर दिया जाता था और उनके बीच का अंश काटकर दो भागों में विभक्त कर दिया जाता था, जिससे स्याही सहज में कागज पर उतरने लगती थी। फिर पाश्चात्य देशों में इसी प्रकार की पीतल, लोहे की छोटी जीभियाँ बनने लगी थी, जो कलमों के अगले भाग में फँसा दी जाती थी। अब अधिकार ऐसी कलमों का प्रचलन है जिनमें स्याहीं का खजाना भीतरी भाग में बना रहता है, जिसमें से स्याही आप-से-आप उतरती है। मुहा०—कलम चलना=लिखने का काम होना। लिखा जाना। कलम चलाना=लिखने का कार्य आरम्भ करना। लिखने लगना कलम तोड़ना=लिखने की ऐसी योग्यता या शक्ति दिखाना कि लोग दंग रह जाँ। (उर्दू के शायरों की बोल-चाल से गृहीत) (किसी लेख पर) कलम फेरना=किसी प्रकार की लिखावट या लेख पर रेखा या रेखाएँ खींचकर उन्हें निरर्थक, रद्द या व्यर्थ करना। जैसे—आपने तो उनके सारे लेख पर कलम फेर दी। (अर्थात्) उसे व्यर्थ कर दिया। २. उक्त के आधार पर लिखने का यथेष्ट कौशल, ढंग योग्यता या शक्ति या उसका परिचायत तत्त्व। लिखने का कौशल या उसकी सूचक विशिष्टता। जैसे—आपकी कलम भला कहीं छिप सकती है। ३. परों० बालों आदि की बनी हुई कूँची जिससे चित्रकार चित्र बनाते हैं। ४. उक्त के आधार पर चित्रकारी का विशिष्ट क्षेत्र, प्रकार या शैली। जैसे—पहाड़ी (या राजस्थानी) कलम के चित्र। ५. किसी पेशेवाले का वह औजार उपकरण जिससे वे बेल-वूटे आदि उकेरते या नकाशते हैं। जैसे—(क) कमेरों, संग-तराशों या सुनारों की कलम। (ख) शीशा काटनेवालों की हीरे की कलम। ६. शीशे के वे छोटे पहलदार और लंबोतरे टुकड़े जो शीशे के झाड़-फानूसों के नीचे शोभा के लिए कटकाये जाते हैं। ७. पेड़-पौधों की वे टहनियाँ जो काटकर दूसरी जगह इसीलिए गाड़ी या लगाई जाती है। कि उनसे उसी प्रकार के नये पेड़-पौझे उगें। ८. उक्त प्रकार से काटकर लगाई हुई टहनी से उगा हुआ पेड़ या पौधा। मुहा०—कलम करना=किसी चीज का कोई अंग काटकर उससे अलग करना। जैसे—अगर सर को तो यों सरको, कलम कर गो मेरे सर को।—कोई शायर। कलम कराना=कटवा डालना। उदा०—कलम रुकै तो कर कलम कराइए।—कोई कवि। ९. नौसादर, शोरे आदि के जमें हुए छोटे, नुकीले, लंबोतरे टुकड़े या रवे। रवा। केलास। (क्रिस्टल) १॰. दाढ़ी (हजामत) बनाने में कनपटियों पर बालों की वह लम्बी रेखा जो कान के मध्य भाग के पास से काटकर अलग कर दी जाती है और जिसके नीचे गालों पर के बाल मूँड़कर साफ कर दिये जाते हैं। ११. एक प्रकार की बाँसुरी या वंशी। १२. फुलझड़ी नाम की आतिशबाजी जो देखने में लिखने की कलम की तरह होती है।
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कलमकार  : पुं० [फा०] १. कलम की सहायता से किसी प्रकार की कला, शिल्प, आदि की रचना करनेवाला कारीगर या शिल्पी। २. एक प्रकार का बाफ्ता (कपड़ा)।
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कलमकारी  : स्त्री० [फा०] कलम की सहायता से की जानेवाली कारीगरी। जैसे—कागज या बरतन पर बनाये हुए बेल-बूटे आदि।
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कलमख  : पुं० =कल्मष।
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कलमतराश  : पुं० [फा०] वह चाकू या छुरी जिससे मुख्यतः कलमें तराशकर लिखने के योग्य बनाई जाती हैं।
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कलमदान  : [फा०] लकड़ी, लोहे, शीशे आदि का बना हुआ वह आधान जिसमे कलमें तथा दावातें रखी जाती हैं।
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कलमना  : स० [हिं० कलम] कलम करना। काटना। तराशना।
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कलमबंद  : वि० [अ०+फा०] लिखा हुआ। लिखित। पुं० चित्र आदि अंकित करने की कलम या कूँची बनानेवाला कारीगर।
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कलमलना  : अ० [अनु०] १. इधर-उधर से दबने के कारण अंगों का आगे-पीछे हिलना-डोलना। २. बेचैन होना। ३. विचलित होना। घबराना।
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कलमलाना  : अ०=कलमलना।
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कलमस  : पुं०=कल्मष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलमा  : पुं० [अ०] १. वाक्य। २. मुँह से निकली हुई कोई बात। वचन। ३. इस्लाम धर्म में मुहम्मद साहब का एक प्रसिद्ध वाक्य (ला इलह इल्लिल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलिल्लाह=उस एक ईश्वर के सिवा और कोई ईश्वर या देवता नहीं है; और मुहम्मद साहब उस ईश्वर के रसूल, पैगम्बर या दूत हैं) जो इस्लाम धर्म का मूलमंत्र माना गया है और जिसका शुद्ध हृदय से उच्चारण कर लेने पर यह माना जाता है कि यह आदमी मुसलमान हो गया। मुहा०—कलमा पढ़ना=उक्त वाक्य का विधिपूर्वक उच्चारण करके इस्लाम धर्म का अनुयायी बनना।
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कलमास  : वि० [सं० कल्माष] चितकबरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलमी  : वि० [फा०] १. (लेख) जो कलम से लिखा गया हो। हस्तलिखित। (छापे आदि से भिन्न) २. (चित्र) जो कलम या कूची से अंकित किया गया हो। (फोटो, मुद्रण आदि से भिन्न) ३. (पौधा या वृक्ष) जो कहीं से कलम के रूप में काटकर लाया और लगाया गया हो तथा उसमें लगनेवाले फल या फूल। जैसे—कलमी आम, कलमी गुलाब। ४. (रासायनिक पदार्थ) जो कलम या रवे के रूप में जमा या जमाया हुआ हो। जैसे—कलमी शोरा। स्त्री० [सं० कलम्बी] करेमू नाम का साग।
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कलमी शोरा  : पुं० [हिं० कलमी+शोरा] साफ किया हुआ शोरा जो कलमों या रवों के रूप में होता है।
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कलमुँहा  : वि० [हिं० काला+मुँह] १. जिनका मुँह काला हो। काले मुँहवाला। जैसे—कलमुँहा बन्दर=लंगूर। २. जिसके मुँह पर कालिख लगी हो; अर्थात् जिसे कलंक या लांछन लगा हो। ३. अशुभ या अमांगलिक बातें कहनेवाला।
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कलया  : स्त्री० [सं० कला] झोंके से सिर नीचे और पैर ऊपर करके उलट जाने की क्रिया या भाव। कलाबाजी। क्रि० प्र०—खाना।—मारना।
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कलरिन  : स्त्री० [कल्लर से] कल्लर जाति की स्त्री० जो प्रायः जोंक लगाने का काम करती है।
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कलल  : पुं० [सं०√कल्+कलच्] गर्भाशय में रज और वीर्य के संयोग से बननेवाली पतली झिल्ली। स्त्री०=कलकल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कललज  : पुं० [सं० कलल√जन् (पैदा होना)+ड] १. गर्भ में बच्चे का वह रूप जो कलल के विकसित होने पर बनता है। २. राल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलवरिया  : स्त्री० [हिं० कलवार] कलवार की दूकान जहाँ शराब बिकती है।
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कलवार  : पुं० [सं० कल्यपाल, प्रा० कल्लवाल] [स्त्री० कलवारिन] एक जाति जिसका धंधा शराब बनाना और बेचना है।
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कलविंक  : पुं० [सं० कल√बंक (रोना)+अच्, पृषो० इत्व] १. गौरैया या चटक नामक पक्षी। चिड़ा। २. तरबूज।
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कलश  : पुं० [सं० कल√श् (गति)+ड (बा०)] [स्त्री० अल्प० कलशी] १. घड़ा। गगरा। २. मंदिरों आदि के शिखर पर लगा हुआ वह कँगूरा जो कलश या घड़े के आकार का होता है। ३. ऊपर उठी हुई चीज का सब से ऊपरी भाग। चोटी। सिरा। ४. एक पुरानी तौल जो सेर के लगभग होती थी। द्रोण। ५. नृत्य में एक प्रकार की भंगिमा। ६. हठयोग में आत्मा या हृदय रूपी कमल। ७. एक छंद जो चौपाई और त्रिभंगी अथवा त्रिभंगी और नित्या के मेल से बनता है। वि० सब में श्रेष्ठ। शिरोमणि। उदा०—शुभ सूरज कुल-कलश नृपति दशरथ भये।—केशव।
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कलशी  : स्त्री० [सं० कलश+ङीष्] १. छोटी कलसी। गगरी। २. छोटा कलश (देखें)। ३. एक प्रकार का पुराना बाजा।
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कलस  : पुं० [सं० क√लस् (शोभित होना)+अच्]=कलश।
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कलसा  : पुं० [सं० कलश] [स्त्री० अल्पा० कलसी] पानी रखने का बड़ा घड़ा।
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कलसिरा  : वि० [हिं० कलह+शील ?] [स्त्री० कलसिरी] झगड़ालू। लड़ाका।
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कलसिरी  : स्त्री० [हिं० काला+सिर] एक प्रकार की चिड़िया जिसका सिर काले रंग का होता है।
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कलसी  : स्त्री० [सं० कलस+ङीष्] १. छोटा कलसा या घड़ा। २. वास्तु, शिल्प आदि में छोटे-छोटे कँगूरों आदि की बनावट। कलैश।
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कलसी-सुत  : पुं० [मध्य० स०] अगस्त्य ऋषि, जिनके संबंध में यह माना जाता है कि इनका जन्म घड़े में से हुआ था।
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कलह  : पुं० [सं० कल√हन् (मारना)+ड] [वि० कलहकार; कलहकारी, कलही] १. घर के लोगों में अथवा दो घरों में होनेवाला नित्य का झगड़ा या विवाद। २. युद्ध। ३. तलवार का म्यान।
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कलह-प्रिय  : वि० [ब० स०] जिसे कलह या लड़ाई झगड़ा करना ही अच्छा लगता हो। झगड़ालू। पुं० नारद मुनि का एक नाम।
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कलहकार  : वि० [सं० कलह√कृ (करना)+अण्]=कलहकारी।
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कलहकारी (रिन्)  : वि० [सं० कलह√कृ+णिनि] [स्त्री० कलहकारिणी] जो स्वभावतः दूसरों से लड़ता-झगड़ता रहता हो। झगड़ालू।
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कलहंतरिता  : स्त्री०=कलहांतरिता।
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कलहनी  : स्त्री० [हिं० कलहिनी] प्रायः कलह करनेवाली या झगड़ालू स्त्री।
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कलहांतरिता  : स्त्री० [कलह-अंतरिता, तृ० त०] साहित्य में वह नायिका जो अपने पति या प्रेमी से कलह या झगड़ा करने के उपरांत पछताती हो।
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कलहार (ा)  : वि० [स्त्री० कलहारी]=कलही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलहिनी  : वि० [सं० कलहिन्+ङीष्] (स्त्री) जो घर में प्रायः कलह या झगड़ा करती हो। लड़ाकी। स्त्री०=शनि की पत्नी का नाम।
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कलही (हिन्)  : वि० [सं० कलह+इनि] [स्त्री० कलहिनी] प्रायः कलह या लड़ाई-झगड़ा करता रहनेवाला। झगड़ालू।
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कलाँ  : वि० [फा०] १. आकार, विस्तार आदि में बड़ा। दीर्घाकार। २. वय में बड़ा।
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कला  : स्त्री० [सं०√कल्+अच्, टाप्] १. किसी चीज का बहुत छोटा अथवा सबसे छोटा अंश या संयोजक भाग। २. चन्द्रमा के प्रकाश और विंब के घटते-बढ़ते रहने के विचार से उसका सोलहवाँ अंश या भाग। विशेष—हमारे यहाँ चन्द्रमा की सोलह कलाएँ मानी गई हैं जिनके अलग अलग नाम हैं और जिनके क्रमशः बढ़ते रहने से पूर्णिमा और घटते चलने से अमावस्या होती है। ३. उक्त के आधार पर १६ की संख्या या वाचक शब्द। ४. सूर्य के परिभ्रमण मार्ग और उसमें पड़नेवाली राशियों के विचार से उसका बारहवाँ अंश या भाग जो प्रायः एक महीने में पूरा होता है। ५. राशि चक्र के प्रत्येक अंश का साठवाँ भाग। (डिग्री) ६. काल या समय का एक बहुत छोटा मान विभाग जो किसी के मत से एक मिनट से कुछ कम बहुत छोटा मान या विभाग जो किसी के मत से एक मिनट से कुछ कम का, किसी के मत से डेढ़ मिनट से कुछ अधिक का और किसी के मत से दो मिनट से भी अधिक का माना गया है। ७. मूल-धन का ब्याज या सूद जो (चन्द्रमा की कला की तरह) बराबर बढ़ता चलता है। ८. छंदशास्त्र में गणना के विचार से प्रत्येक अक्षर या मात्रा। जैसे—द्विकल या त्रिकल पद। ९. वैद्यक में शरीर के अन्तर्गत सात धातुओं में किसी या हर धातु की संज्ञा। (देखें ‘धातु’) जैसे—मांस, भेद, रक्त आदि कलाएँ (या धातुएँ) १॰. गर्भ का वह रूप जो कलम (देखें) कहलाता है। ११. शरीर के अन्दर की वह झिल्ली जो भिन्न-भिन्न अंगों के बीच में रहकर उन्हें एक दूसरे से पृथक् रखती है। (मेम्ब्रेन) १२. आज-कल अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर अच्छी तरह, नियम तथा व्यवस्थापूर्वक और संबद्ध सिद्धान्तों का ध्यान रखते हुए कोई काम ठीक तरह से करने या कोई कृति प्रस्तुत करने का कौशल या चतुरता। ऐसा कर्तृत्व जिसमें उद्भावना के सहारे कोई कार्य प्रशंसनीय तथा आकर्षक या मनोहर रूप में संपन्न या संपादित किया जाय। हुनर। (आर्ट) विशेष—व्यापक दृष्टि से देखने पर मनुष्य के प्रत्येक कार्य में कला अपेक्षित होती है। इसीलिए हमारे यहाँ शैव तंत्र में ६४ कलाओं का निरूपण किया गया है। जैसे—गाना, नाचना, बाजे बजाना, अभिनय करना, कविता करना, चित्र बनाना, फूलों आदि से सुन्दर आकृतियाँ बनाना, अंग, वस्त्र आदि रँगना और उनके रँगने के लिए उपकरण बनाना, ऋतुओं आदि के अनुसार सजावट करना, कपड़े, गहने और सुगंधित द्रव्य बनाना, जादू या हाथ की सफाई के अथवा शारीरिक व्यायाम के खेल दिखाना, सीना-पिरोना, कपड़ों पर बेल-बूटे बनाना, धातु, पत्थर, लोहे आदि की चीजें बनाना, तर्क-वितर्क और बात-चीत करना, चारपाई, पलंग आदि बुनना, चाँदी, सोना, रत्न आदि परखना, पशु-पक्षियों आदि की चिकित्सा और पालन-पोषण करना और उन्हें तरह-तरह के काम सिखाना, अनेक प्रकार की बोलियाँ और भाषाएँ समझना तथा बोलना, प्राकृतिक घटनाओं आदि के आधार पर और उनके संबंध में भविष्यवाणी करना, आदि-आदि सभी प्रकार के कौशल-जन्य तथा सुरुचिपूर्ण काम और बातें कला के क्षेत्र में आती हैं। इसी आधार पर आज-कल काव्य-कला, चित्र-कला, लेखन-कला, वास्तु-कला आदि सैकड़ों पद प्रचलित हो गये हैं। १३. अध्ययन और अनुशीलन का वह अंग या क्षेत्र जो मनुष्य को अपने जीवन-निर्वाह तथा उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त करने के योग्य तथा समर्थ बनाता है। (आर्ट्स) १४. नटों या बाजीगरों के अथवा और लोगों के सभी प्रकार के अनोखे करतब या कार्य। मुहा०—कला करना=नटों आदि का अनेक प्रकार के करतब और कौशल दिखाना। उदा०—ज्यों बहु कला काछि दिखरावै, लोभ न छूटत नट कै। १५. सभा-समितियों आदि में होनेवाले कार्यों का पूरा या यथा-तथ्य विवरण। (मिनट) १६. शिव का नाम। १७. अक्षक या वर्ण। १८. लगाव। संबंध। १९. जीभ। जिह्वा। २॰० नाव। नौका। २१. स्त्री० का रज। २२. महत्त्व या श्रेष्ठता का सूचक तेज। विभूति। २३. छटा। शोभा। २४. ज्योति। प्रभा। २५. एक प्रकार का नृत्य। २६. मनुष्य की पाँचों कर्मेन्द्रियों, पांचों ज्ञानेंद्रियों, प्राण और बुद्धि या मन का समूह। (भिन्न-भिन्न आचार्यों या शास्त्रों के मत से इन सोलहों संयोजक अंशों या तत्त्वों के नामों, रूपों आदि में कुछ अंतर भी है।
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कला-कुशल  : वि० [स० त०] किसी कला में बहुत ही चतुर या होशियार (व्यक्ति)।
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कला-कृति  : स्त्री० [मध्य० स०] कलापूर्ण कृति या रचना।
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कला-केलि  : पुं० [ब० स० कामदेव।
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कला-कौशल  : पुं० [ष० त०] १. किसी कला में कुशल होने की अवस्था या भाव। २. कारीगरी। ३. दस्तकारी। शिल्प।
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कला-क्षय  : पुं० [ष० त०] १. कृष्णपक्ष में चन्द्रमा की कलाओं का धीरे-धीरे घटना। २. क्रमशः या धीरे-धीरे होनेवाला क्षय या ह्रास।
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कला-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] कामरूप देश का एक प्राचीन तीर्थ।
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कला-चिकित्सा  : स्त्री० [तृ० त०] एक नवीन चिकित्सा-प्रणाली जिसमें रोगियों के मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य के सुधार के लिए उन्हें किसी कला-संबंधी काम में लगाया जाता है (आर्टथैरैपी)।
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कला-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. किसी कला या कई कलाओं का ज्ञाता। २. चन्द्रमा।
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कला-निधि  : पुं० [ष० त०] १. अनेक कलाओं का पूर्ण ज्ञाता या पंडित। २. चन्द्रमा।
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कला-न्यास  : पुं० [ष० त०] तंत्र में शिष्य के शरीर पर किया जाने वाला एक प्रकार का न्यास।
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कला-पंजी  : स्त्री० [ष० त०] सभा-समितियों आदि की बैठकों के कार्यविवरण लिखने की पंजी या रजिस्टर (मिनिट बुक)।
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कला-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह भवन जिसमें प्रदर्शन के लिए कलासंबंधी अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुएँ और मुख्यतः चित्रकला की आकृतियाँ रखी रहती हों। (आर्टगैलरी)।
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कलाई  : स्त्री० [सं० कलाची] १. हथेली और कोहनी के बीच का उतना भाग जहाँ कड़े, चूड़ियाँ आदि पहनी जाती हैं। गट्टा। मणिबंध। २. सिले हुए कपड़े का उतना भाग जितना कलाई पर पड़ता है। स्त्री० [सं० कलापी] १. सूत आदि का लच्छा। २. घास आदि का पूला। ३. नई फसल के तैयार होने पर कुल-देवताओं की की जाने वाली पूजा। ४. दे० ‘कलावा’। स्त्री० [सं० कुलत्थ] उरद। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलाकंद  : पुं० [फा०] खोये की एक प्रकार की बड़ी बरफी।
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कलाकर  : पुं० [सं० कला-आकर, ष० त० ?] अशोक की तरह का एक पेड़। देवदारी।
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कलाकार  : पुं० [सं० कला√कृ+अण्] [भाव० कलाकारिहा, कलाकारी] १. वह जो किसी कला का ज्ञाता हो। २. कोई कलापूर्ण कृति बनानेवाला। (आर्टिस्ट) ३. अभिनेता। नट।
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कलाकारिता  : स्त्री० [सं० कलाकार+इनि+तल्—टाप्] कलाकार का काम या भाव।
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कलाकारी  : स्त्री०=कलाकारिता।
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कलांकुर  : पुं० [?] १. कराकुल पक्षी। २. चौर्य-शास्त्र के रचयिता एक प्राचीन आचार्य।
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कलाकुल  : पुं० [सं० कला आ√कुल् [इकट्ठा होना)+अच् ?] हलाहल विष।
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कलाँच  : पुं० [तु० कल्लाश] दरिद्र। निर्धन।
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कलाची  : स्त्री० [सं० कला√अच् (गति)+अण्, ङीष् (गौरा०)] १. हाथ की कलाई। २. कलछी।
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कलाजंग  : पुं० [हिं कला+जंग] कुश्ती में एक प्रकार का पेंट या दाँव।
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कलाजाजी  : स्त्री० [सं० कला√जन्+उ-कलाज,+आ√जन्+ड, ङीष् (गौरा०)] मँगरैला।
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कलाटीन  : पुं० [सं० कलाट+ख=ईन्] खंजन की तरह का एक पक्षी।
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कलांतर  : पुं० [सं० अन्या-कला=अंश, सुप्सुपा स०] सूद। ब्याज।
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कलातीत  : वि० [सं० कला-अतीत, द्वि० त०] जो सब प्रकार की कलाओं से ऊपर या परे हो। पुं० ईश्वर का एक नाम।
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कलात्मक  : वि० [कला-आत्मन्, ब० स०, कप्] १. कला-संबंधी। कला से युक्त। २. (ऐसी कृति या रचना) जो बहुत ही सुन्दर हो तथा कलापूर्ण ढंग से बनाई गई हो। (आर्टिस्टिक)।
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कलादक  : पुं० [सं० कला-आ√दा (देना)+क, कलाद+कन्] सुनार।
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कलादा  : पुं० [सं० कलाप, हिं० कलावा] हाथी के कंधे और गले के बीच का वह स्थान जिस पर महावत बैठता है। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलाधर  : पुं० [सं० कला√धृ (धारण करना)+अच्] १. वह जो अनेक कलाओं या विद्याओं का ज्ञाता हो अथवा किसी कला में विशेष रूप से प्रवीण हो। २. चन्द्रमा। ३. शिव। ४. दंडक छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में एक गुरु और एक लघु के क्रम से १५ गुरु और १५ लघु वर्ण होते हैं और तब अन्त में एक गुरु होता है।
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कलाप  : पुं० [सं० कला√आप् (पाना)+अण्] १. एक ही प्रकार की बहुत-सी चीजों या बातों का समूह। जैस—कार्य-कलाप। केश-कलाप। २. किसी चीज को या बहुत-सी चीजों को एक में बाँधनेवाली चीज। ३. घास-फूस आदि का गट्ठा या पूला। ४. कमरबंद। पेटी। ५. करधनी। ६. कलाई पर बाँधा जानेवाला सूत का लच्छा। कलावा। ७. किसी प्रकार का कार्य या व्यापार। ८. आभूषण। गहना। जेवर। ९. शोभा या सौंदर्य बढ़ानेवाली कोई चीज या बात। १॰. वेद की एक शाखा। ११. कातंत्र व्याकरण का एक नाम। १२. एक प्रकार का पुराना अस्त्र। १३. चन्द्रमा। १४. मोर की पूँछ। १५. तरकश। तूण। १६. एक प्रकार का संकर राग। (संगीत)
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कलापक  : पुं० [सं० कलाप+कन्] १. हाथी के गले या पैर में बाँधा जानेवाला रस्सा। २. ऐसे चार श्लोकों का वर्ग या समूह जिनका अन्वय एक साथ होता हो। ३. प्राचीन भारत में ऐसा ऋण जो यह कहकर लिया जाता था कि यह कलाप अर्थात् मोर के नाचने के समय अर्थात् वर्षा ऋतु में चुकाया जायगा। ४. दे० ‘कलाप’।
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कलापट्टी  : स्त्री० [पुर्त० कलफेटर] जहाजों की पटरियों को दरजों या संधियों में सन आदि भरने का काम। (लश०)
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कलापिनी  : स्त्री० [सं० कलाप+इनि, ङीष्] १. रात्रि। २. मोर की मादा। मोरनी। ३. नागरमोथा।
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कलापी (पिन्)  : वि० [सं० कलाप+इनि] १. जिसके पास तूणोर या तरकश हो। २. गिरोह या झुंड में रहनेवाला (जीव या प्राणी)। पुं० १. मोर। २. कोयल। ३. बरगद का पेड़।
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कलाबत्तू  : पुं० [तु० कलाबतून] [वि० कलाबतूनी] १. रेशम पर चढ़ाया या लपेटा जानेवाला पतला, महीन, सुनहला तार। २. रेशम पर सुनहले तार लपेटकर बनाया हुआ डोरा या फीता।
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कलाबाज  : वि० [हिं० कला+फा० बाज] कलापूर्ण ढंग से अद्भुत शारीरिक खेल खिलानेवाला व्यक्ति।
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कलाबाजी  : स्त्री० [हिं० कला+फा० बाजी] १. कलाबाज की कोई क्रिया या खेल। २. सिर नीचे तथा पैर ऊपर करके उलट जाने की क्रिया या खेल। क्रि० प्र०—खाना।
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कलाबीन  : पुं० [देश०] असम देश का एक बहुत ऊँचा वृक्ष जिसके फल चाल मुँगरा या मुँगरा चाल कहलाते हैं। (इसके फूलों का तेल चर्म रोग का नाशक माना गया है।)
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कलाभृत्  : पुं० [सं० कला√भृ (धारण करना)+क्विप्] चन्द्रमा।
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कलाम  : पुं० [अ०] १. वाक्य। २. उक्ति। कथन। ३. बात-चीत। वार्त्तालाप। ४. किसी काम या बात के लिए दिया जानेवाला वचन। वादा। ५. आपत्ति। एतराज।
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कलाम-मजीद  : पुं० [अ०] कुरान शरीफ। (मुसलमानों का धर्मग्रंथ)
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कलामोचा  : पुं० [देश०] बंगाल में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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कलाय  : पुं० [सं० कला√अय् (गति)+अण्] मटर।
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कलाय-खंज  : पुं० [ब० स०] एक रोग जिसमें जोड़ों की नसें ढीली पड़ जाती हैं और जिसके फलस्वरूप अंग सदा हिलते-डुलते रहते हैं।
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कलायन  : पुं० [कला-अयन, ब० स०] नर्तक।
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कलार  : पुं०=कलाल (कलवार)।
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कलारी  : स्त्री० [हिं० कलवार] १. कलवार जाति की स्त्री। २. वह स्थान जहाँ शराब बनाई या बेची जाती है। कलवरिया।
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कलाल  : पुं० [सं० कल्यपाल] [स्त्री० कलालिन] शराब बनाने और बेचनेवाली एक प्रसिद्ध जाति। कलवार।
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कलालखाना  : पुं० [हिं०+फा०] वह स्थान जहाँ शराब बनाई तथा बेची जाती है। मद्यशाला।
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कलाव  : पुं०=कलावा।
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कलावंत  : पुं० [सं० कलावान्] १. वह व्यक्ति जो किसी कला का अच्छा ज्ञाता या विशेषज्ञ हो। २. वह व्यक्ति जो कोई काम बहुत ही कलापूर्ण ढंग से करता हो। ३. मध्य युग के बहुत बड़े तथा प्रसिद्ध गवैये अथवा उनके वंशज। ४. कलाबाज।
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कलावती  : स्त्री० [सं० कला+मतुप्, ङीष्, वत्व] १. तुंबरु नामक गंधर्व की वीणा का नाम। २. तंत्र में एक प्रकार की दीक्षा। ३. गंगा का एक नाम। स्त्री० [हिं० कल (पानी की)] पानी की कल या उसमें से आनेवाली जलराशि। (परिहास) जैसे—कलावती में होनेवाला स्नान।
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कलावा  : पुं० [सं० कलापक, प्रा० कलावअ] [स्त्री० अल्पा० कलाई] १. सूत का लपेटा हुआ लच्छा। २. लाल, पीले आदि रंगों से रँगा हुआ सूत का डोरा या लच्छा जो मांगलिक अवसरों पर हाथ की कलाई में तथा घड़े आदि कुछ वस्तुओं पर बाँधा जाता है। ३. वह रस्सी जो हाथी के गले में पड़ी रहती है और जिसमें पैर फँसा कर महावत उसे हाँकते हैं।
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कलावान (वत्)  : वि० [सं० कला+मतुप्] [स्त्री० कलावती] किसी अथवा कई कलाओं का अच्छा ज्ञाता (व्यक्ति)।
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कलाविक  : पुं० [सं० कल-आ-वि√कै (शब्द)+क] मुर्गा।
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कलास  : पुं० [सं० कल√आस् (उपवेशन)+घञ्] प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल।
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कलासी  : पुं० [सं० कला] १. दो वस्तुओं को सटाने अथवा सटाकर जोड़ने से बननेवाली रेखा जो उस जोड़ की सूचक होती है। २. जोड़-तोड़ या साट-गाँठ बैठाने की युक्ति। जैसे—यहाँ तुम्हारी कोई कलासी नहीं लगेगी।
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कलाहक  : पुं०=काहल (बड़ा ढोल)।
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कलि  : पुं० [सं०√कल् (गिनना)+इन्] १. पुराणानुसार चार युगों में से अंतिम युग जो इस समय चल रहा है। और जो नैतिक तथा धार्मिक दृष्टि से परम निकृष्ट कहा गया है। (दे० ‘कलियुग’) २. कलह, क्लेश, दुराचार, पाप आदि की सूचक संज्ञा। ३. पुराणानुसार क्रोध का एक पुत्र जो अहिंसा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था और जिसके भय तथा मृत्यु नाम के दो पुत्र थे। ४. एक पौराणिक गंधर्व जाति जिसे जूआ खेलने का बहुत शौक था। ५. शिव का एक नाम। ६. पिंगल में टगण का एक भेद जिसमें क्रम से दो गुरु और तब दो लघु (ऽऽ।।) होते हैं। ७. तरकश। तूणीर। ८. पासे का वह पहल या पार्श्व जिस पर एक ही बिंदी होती है। ९. बहेडे़ का फल या बीज। वि० काला। श्याम। क्रि० वि० [हिं० कल=सुख] १. आराम या चैन से। सुखपूर्वक। उदा०—सुऐ तहाँ दिन दस कलि काटी।—जायसी। २. निश्चयपूर्वक। उदा०—कै कलि कस्यप कूख जानि उपज्यौ किरनाकर।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलि-कर्म  : पुं० [ष० त०] १. निंदनीय या बुरा काम। २. युद्ध। संग्राम।
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कलि-कारक  : वि० [ष० त०] १. झगड़ा करनेवाला। झगड़ालु। २. झगड़ा लगाने या वैर-विरोध करनेवाला। पुं० नारद मुनि का एक नाम।
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कलि-तरु  : पुं० [मध्य० स०] १. पाप रूपी वृक्ष। २. बबूल का पेड़।
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कलि-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] बहेड़े का पेड़।
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कलि-नाथ  : पुं० [ष० त०] संगीत के एक आचार्य का नाम।
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कलि-पुर  : पुं० [ष० त०] १. एक प्राचीन स्थान जहाँ पद्मराग या मानिक की प्रसिद्ध खान थी। २. उक्त स्थान का पद्मराग या मानिक।
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कलि-प्रिय  : वि० [ब० स०] १. झगड़ालू। २. दुष्ट या नीच प्रकृति का। पुं० १. नारद मुनि। २. बन्दर। ३. बहेड़े का पेड़।
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कलि-मल  : पुं० [ष० त०] १. कलुष। २. पाप।
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कलि-युग  : पुं० [मयू० स०] पुराणानुसार चार युगों में से चौथा युग जो आज-कल चल रहा है। विशेष—कहा जाता है कि इसका आरम्भ ईसा के स्वर्गारोहण से ३१॰२ वर्ष पूर्व हुआ था; और यह सब मिलकर ४३२॰॰॰ वर्षों तक रहेगा। यह भी कहा गया है कि इस युग में धर्म का एक ही चरण रह जायगा और इस में अधर्म तथा पाप की बहुत प्रवलता रहेगी।
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कलि-वर्ज्य  : वि० [स० त०] धर्म-शास्त्रों के अनुसार (काम या बात) जिसका अनुष्ठान या आचरण कलियुग में निषिद्ध या वर्जित हो० जैसे—अश्वमेघ, गोमेघ, मांस का पिंडदान, देवर से नियोग आदि बातें कलि-वर्ज्य हैं।
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कलिअल  : पुं० [सं० कल-कल] १. पक्षियों के चहकने का शब्द। २. कल-रव। मधुरध्वनि। उदा०—कूझड़ियाँ कलिअल कियउ।—छोलामारू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलिक  : पुं० [सं० कल+ठन्—इक्] क्रौंच (पक्षी)।
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कलिका  : स्त्री० [सं० कलि+कन्, टाप्] १. फूल का आरंभिक बिना खिला हुआ अंकुरा। कली। २. एक प्रकार का पुराना बाजा सिर पर चमड़ा मढ़ा होता था। वीणा का सब से नीचेवाला भाग। ४. संस्कृत में एक विशिष्ट प्रकार की पद—रचना, जो ताल और लय से युक्त होती है। ५. कलौंजी या मँगरैला नामक दाने या बीज। ६. बहुत छोटा अंश या भाग। ७. समय का वह बहुत छोटा भाग, जिसे कला या मुहूर्त कहते हैं।
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कलिकान  : वि० [?] हैरान। परेशान। स्त्री०=कलिकानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलिकानी  : स्त्री० [?] परेशानी। हैरानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलिकापूर्व  : पुं० [कलिका-अपूर्व, मध्य० स०] कोई ऐसी बात जिसके आदि और अन्त अथवा अस्तित्व, मूल आदि का कुछ भी ज्ञान या निश्चय न हो। जैसे—जन्म, मृत्यु, स्वर्ग आदि।
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कलिकारी  : स्त्री० [सं० कलि+कृ (करना)+अण्—ङीप्] कलियारी विष।
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कलिकाल  : पुं० [मयु० स०] कलियुग।
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कलिंग  : पुं० [सं० कलि√गम् (जाना)+ड] १. आधुनिक आंध्रप्रदेश के उस भाग का प्राचीन नाम जो समुद्र के किनारे-किनारे कटक से मद्रास तक फैला है। २. उक्त प्रदेश का निवासी। ३. सिरिस का पेड़। ४. पाकर वृक्ष। ५. तरबूजे। ६. कुटज। कुरैया। ७. कलिंगड़ा नामक राग। वि० कलिंग देश का।
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कलिंगड़ा  : पुं० [सं० कलिंग] रात के चौथे पर में गाया जानेवाला संपूर्ण जाति का एक राग।
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कलिंगा  : पुं० [सं० कलिंग] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी छाल रेचक होती है। तेवरी।
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कलिंज  : पुं० [सं० क√लंज् (तिरस्कार करना)+अण्, नि० सिद्धि] नरकट (वनस्पति)।
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कलिंजर  : पुं०=कालिंजर।
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कलिजुग  : पुं०=कलियुग।
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कलित  : वि० [सं०√कल्+क्त] १. धीरे से अथवा अस्पष्ट रूप से कहा हुआ। २. जिसका कलन (ज्ञान या परिचय) हो चुका हो। जाना हुआ। ज्ञात। विदित। ३. ग्रहण या प्राप्त किया हुआ। ४. सजाया हुआ। सज्जित। ५. मनोहर। सुंदर।
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कलिंद  : पुं० [सं० कलि√दा (देना)+खच्, मुम्] १. सूर्य। २. हिमालय की वह चोटी जिससे यमुना नदी निकलती है। ३. तरबूज। ४. बहेड़ा।
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कलिंद-तनया  : स्त्री० [सं० ष० त०]=कलिंदजा।
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कलिंदजा  : स्त्री० [सं० कलिंद√जन् (पैदा होना)+ड—टाप्] कलिंग पर्वत की पुत्री अर्थात् उससे निकली हुई युमना नदी।
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कलिंदी  : स्त्री०=कालिंदी (युमना नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलिमल-सरि  : स्त्री० [प० त०] कर्मनाशा नदी।
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कलिया  : पुं० [अं० कलियः] १. पशुओं का वह कच्चा मांस जो पकाकर खाया जाता हो। २. खाने के लिए पकाया हुआ मांस।
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कलियाना  : अ० [हिं० कली] १. (पौधे या वृक्षों में) नई कलियाँ लगना। २. (पक्षियों का) नये परों से युक्त होना।
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कलियारी  : स्त्री० [सं० कलिहारी] एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ की गाँठ बहुत जहरीली होती है।
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कलियुगाद्या  : पुं० [कलियुग-आद्या, ष० त०] माघ की पूर्णिमा जिसमें कलियुग का आरंभ माना गया है।
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कलियुगी (गिन्)  : वि० [सं० कलियुग+इनि] १. कलियुग में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २. जिसमें कलियुग के गुण या विशेषताएँ (झूठ, पाप, बेईमानी आदि बातें ) मुख्य या स्पष्ट रूप से हों।
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कलिल  : वि० [सं०√कल्+इलच्] १. मिला-जुला। मिश्रित। २. घना। ३. गहन। दुर्गम। पुं० १. ढेर। राशि। २. झुंड। समूह।
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कलिहारी  : स्त्री० [सं० कलि√हृ (हरण करना)+अण्—ङीष्] कलियारी (पौधा)। वि० [सं० कलह+हारी (ा) प्रत्य०] बहुत अधिक झगड़ा करनेवाली। (स्त्री)।
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कली  : स्त्री० [सं० कलि+ङीष्] १. फूल का वह आरंभिक तथा अविकसित रूप जिसमें पंखड़ियाँ अभी खिली या खुली न हों। मुहा०—दिल की कली खिलना=अभिलाषा या लालसा पूरी होने पर बहुत अधिक प्रसन्न होना। २. वैष्णवों का एक प्रकार का तिलक जो देखने में फूल की कली की तरह का होता है। ३. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी किशोरी जिसका यौवन अभी पूर्ण रूप से विकसित न हुआ हो। पद—कच्ची कली। ४. चिड़ियों के नये निकले हुए छोटे पर। ५. कपड़े का कटा हुआ वह लंबोतरा तिकोना टुकड़ा, जो सीये जानेवाले कपड़ों को अधिक खुला तथा विस्तृत बनाने के लिए उसके जोड़ों के साथ टाँका जाता है। जैसे—अँगिया या कुरते की कली। ६. हुक्के का वह नीचेवाला भाग जिसमें पानी रहता है और जिसके ऊपर गड़गड़ा लगा रहता है। स्त्री० [अ० कलई] १. कुछ विशिष्ट प्रकार के पत्थरों के टुकड़ों के फूँके जाने पर बननेवाले चूने के ढोंके। २. दे० ‘कलई’।
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कलीट  : वि० [हिं० काला] काला-कलूटा (व्यक्ति)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलीत  : वि०=कलित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलींदा  : पुं० [सं० कलिंग] तरबूज।
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कलीरा  : पुं० [सं० कली+हिं० रा (प्रत्य०)] कौड़ियों, गरी के गोलों, छुहारों आदि को पिरोकर बनाई हुई माला जो त्योहार, विवाह आदि के समय भेंट दी जाती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलील  : वि० [अ० क़लील] [भाव० किल्लत] मान या मात्रा में बहुत कम। अल्प। थोड़ा।
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कलीसा  : पुं० [यू० इकलीसिया] मसीही लोगों का उपासना-गृह। गिरिजा।
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कलीसाई  : वि० [हिं० कलीसा] मसीही-संबंधी। मसीही। पुं० ईसा मसीह के मत के अनुयायी। ईसाई। मसीही।
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कलीसिया  : पुं० [यू० इकलीसिया] मसीही लोगों की धर्ममंडली या धार्मिक समुदाय।
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कलुआबीर  : पुं० [हिं० कलुआ=काला+बीर] ओझाओं या झाड़-फूँक करनेवालों की एक कल्पित प्रेतात्मा।
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कलुख  : पुं०=कलुष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलुखाई  : स्त्री०=कलुष।
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कलुखी  : वि०=कलुषी। स्त्री०=कलुष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलुष  : पुं० [सं०√कल्+उपच्] [षि० कलुषित, कलुषी] १. काले अर्थात् दूषित या मलिन होने की अवस्था या भाव। मलिनता। मैल। जैसे—मन का कलुष। २. अपवित्रता। ३. कोई बुरी बात या दूषित भाव। ऐब। दोष। ४. पातक। पाप। ५. क्रोध। गुस्सा। ६. भैंसा। ७. कलंक। बदनामी। वि० [स्त्री० कलुषा, कलुषी] १. गँदला। मैला। २. गर्हित। निंदनीय। बुरा। ३. दोषी। ४. पापी।
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कलुष-चेता (तस्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. जिसके मन में कलुष या पाप हो। २. जिसकी प्रवृत्ति बराबर बुरे कामों की ओर रहती हो।
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कलुष-योनि  : पुं० [ब० स०] वर्णसंकर। दोगला।
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कलुषाई  : स्त्री० [सं० कलुष+हिं० आई प्रत्य०] १. बुद्धि की मलिनता। २. अपवित्रता। अशुद्धता।
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कलुषित  : वि० [सं० कलुष+इतच्] १. जो कलुष से युक्त हो। गंदा और मैला। २. अपवित्रता। ३. खराब। निंदित। बुरा। ४. दुःखी ५. क्षुब्ध। ६. काला। कृष्ण।
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कलुषी  : (षिन्) वि० [सं० कलुष+इनि] १. (व्यक्ति) जो मानसिक या शारीरिक दृष्टि से अपवित्र या मलिन हो। २. दोषी। ३. पापी।
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कलूटा  : वि० [हिं० काला+टा (प्रत्य०)] [स्त्री० कलूटी] जिसका वर्ण घोर काला हो। पद—काला-कलूटा=बहुत अधिक या बिलकुल काला।
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कलूना  : पुं० [देश०] पंजाब में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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कलूला  : पुं०=कुल्ला (मुँह से निकाला हुआ पानी)।
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कलेऊ  : पुं०=कलेवा।
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कलेजई  : पुं० [हिं० कलेजा] कसीस; मजीठ, हर्रे आदि के योग से बनाया जानेवाला एक प्रकार का रंग। चुनौटिया। वि० उक्त रंग का। उक्त रंग-संबंधी।
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कलेजा  : पुं० [सं० यकृत से विपर्यय के कारण कृत्य, प्रा० कृज्ज] १. जंतुओं और मनुष्यों के धड़ के अन्दर का एक विशिष्ट अंग जो प्रायः पान के आकार का होता और भाथी की तरह सदा उभरता और दबता रहता है। और जिसकी इस क्रिया के फलस्वरूप सारे शरीर में रक्त का संचार होता है। हृदय। (हार्ट) विशेष—शरीर के इसी अंग में मन का निवास माना जाता है; इसलिए कुछ अवस्थाओं में और प्रायः मुहावरों में इसका अर्थ (क) मन या हृदय (ख) उदारता, प्रेम आदि तथा (ग) जीव तथा साहस भी होता है। जैसे—(क) जी चाहता है कि तुम्हें कलेजे में रख लूँ। (ख) जरा जी कड़ा करके यह काम कर डालो। मुहा०—कलेजा उछलना=किसी आकस्मिक और प्रबल मनोविकार (जैसे—प्रसन्नता, भय आदि) अथवा मानसिक आघात आदि के कारण उक्त अंग का जल्दी-जल्दी और जोर से चलने लगना। कलेजा उड़नाँ=आशंका, भय या विकलता के कारण होश ठिकाने न रहना। सुध-बुध भूल जाना। कलेजा उलटना=पीड़ा, रोग आदि के कारण ऐसा जान पड़ना कि अब उक्त अंग का काम बंद हो जायगा अर्थात् मृत्यु हो जायगी। कलेजा काँपना=बहुत भयभीत होने के कारण जी दहलना। कलेजा काढ़कर रख देना=अपने आपको सब प्रकार से किसी के लिए निछावर कर देना। कलेजा खानाँ=किसी को इतना तंग या दिक करना कि वह परेशान हो जाय। कलेजा छेदना या बींधनाँ=बहुत कठोर या चुभती हुई बातें कहकर मर्मबेधी आघात करना। कलेजा छलनी होना=बहुत अधिक कष्ट के कारण ऐसी स्थिति होना कि मानों कलेजे में जगह-जगह बहुत-से छेद हो गये हों। जैसे—किसी की गालियों या शापों से या बार-बार के मानसिक कष्ट या दुःख के कारण विशेष संताप होना। कलेजा टूटना या टुकड़े-टुकड़े होना=(क) बहुत अधिक मानसिक कष्य या संताप होना। (ख) उत्साह या साहस न रह जाना। कलेजा ठंडा या तर होना=अभिलाषा या इच्छा पूरी होने के कारण तृप्ति, शांति या संतोष होना। कलेजा थामकर बैठ या रह जाना=प्रबल मानसिक आघात के कारण कुछ करने-धरने में असमर्थ हो जाना। कलेजा बहलना=बहुत भयभीत होने के कारण अस्थिर तथा विकल होना। कलेजा धकधक करना=कलेजा धड़कना। कलेजा धक से हो जाना=सहसा कोई अनिष्ट बात सुनने से कुछ समय के लिए हृदय की गति रुक जाना। कलेजा धड़कनाँ=आशंका, भय, रोग आदि के कारण कलेजे में धड़कन होना। कलेजा निकलना=कष्ट, वेदना आदि के कारण ऐसा जान पड़ना कि शरीर के अन्दर कलेजा रह ही नहीं गया। (किसी के आगे) कलेजा निकाल कर रखना या रख देना=(दे०) कलेजा काढ़कर रख देना। (किसी का) कलेजा निकालना=(क) किसी की परम प्रिय वस्तु या सर्वस्व-हरण करना। (ख) बहुत अधिक, कष्ट पहुँचाना। व्यथिक करना। कलेजा पक जाना=कष्ट या दुःख सहते-सहते बहुत ही अधीर या असमर्थ और विकल हो जाना। कलेजा पसीजना=किसी को दुःखी देखकर दयार्द्र होना। हृदय-द्रवित होना। कलेजा फटना=बहुत अधिक मार्मिक कष्ट या वेदना होना। कलेजा बैठ जानाँ=मानसिक आघात आदि के कारण अक्रिय और असमर्थ-सा हो जाना। कलेजा बैठा जाना=ऐसा जान पड़ना कि अब प्राण न बचेंगे। (अपना) कलेजा मलना=मानसिक आघात या प्रहार होने पर अपने मन को धीरज बँधाने के लिए उस पर हाथ फेरना। (किसी का) कलेजा मलना=किसी को बहुत अधिक कष्ट पहुँचाना या दुःखी करना। कलेजा मसोस कर रह जाना=बहुत कुछ चाहते हुए भी असमर्थ या विवश होने के कारण कुछ कर न सकना। परम असमर्थता का अनुभव करना। कलेजा मुँह को आना=बहुत अधिक विकलता के कारण ऐसा जान पड़ना कि अब हम न बचेंगे। बहुत अधिक चिंतित और दुःखी होना। कलेजा सुलगना=मानसिक कष्ट या क्लेश के कारण मन का निरंतर खिन्न और दुःखी रहना। कलेजा हिलना=कलेजा दहलना। कलेजे पर साँप लोटना=किसी अप्रिय या असह्य घटना के कारण बहुत अधिक मानसिक कष्ट होना। कलेजे पर हाथ धर (या रख) कर देखना=अंतरात्मा या विवेक का ध्यान रखते हुए न्याय या सत्य की ओर ध्यान देना। कलेजे में आग लगना=बहुत अधिक हार्दिक कष्ट या दुःख होना। (किसी के) कलेजे में पैठना या घुसना=किसी के मन की थाह लेने के लिए उससे मेल-जोल बढ़ाना। पद—पत्थर का कलेजा=(क) ऐसा हृदय जो किसी का दुःख देखकर पसीजता न हो। (व्यक्ति) जिसमें दया, ममता या सहानुभूति न हो। (ख) ऐसा हृदय जो कष्ट सहने में यथेष्ट समर्थ हो। कलेजे का टुकड़ा=परम प्रिय वस्तु या व्यक्ति। २. उक्त अंग का ऊपरी या बाहरी भाग। छाती। वक्षस्थल। मुहा०—कलेजे से लगाकर रखना=बहुत ही प्रेम, यत्न या स्नेह से बराबर अपने पास या साथ रखना। ३. जीवट। साहस। हिम्मत। मुहा०—कलेजा बढ़ जाना=साहस या हिम्मत बढ़ जाना।
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कलेजी  : स्त्री० [हिं० कलेजा] १. पशु-पक्षियों के कलेजे का मांस, जो खाने में स्वादिष्ट माना जाता है। २. उक्त मांस की बनी हुई तरकारी या सालन।
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कलेवर  : पुं० [सं० अलुक् स०] १. मनुष्य के शरीर का सारा ऊपरी या बाहरी भाग (आत्मा, प्राण आदि से भिन्न)। चोला। देह। शरीर। मुहा०—कलेवर चढ़ाना=गणेश, महावीर आदि देवताओं की मूर्ति पर घी में मिले सेंदुर का इस प्रकार लेप करना कि उनके सारे शरीर पर एक नया स्तर चढ़ जाय। कलेवर बदलना=(क) एक शरीर त्याग कर दूसरा शरीर धारण करना। चोला बदलना। (ख) पुराना रूप छोड़ कर बिलकुल नया रूप धारण करना। (ग) उपचार, चिकित्सा आदि से रोगी शरीर का पूर्ण रूप से नीरोग होना। (घ) हर बारहवें वर्ष अथवा आषाढ़ में मल-मास होने पर जगन्नाथजी की पुरानी मूर्ति का हटाया जाना और उसके स्थान पर नई मूर्ति का स्थापित होना। २. ऊपरी या बाहरी ढाँचा।
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कलेवा  : पुं० [सं० कल्यवर्त, प्रा० कल्लवह] १. सवेरे किया जाने वाला जलपान या हलका भोजन। मुहा०—कलेवा करना=बहुत ही तुच्छ या साधारण समझ कर खा या निगल जाना। २. वह भोजन जो यात्री कहीं जाने के समय रास्ते के लिए अपने साथ रख लेते हैं। ३. विवाह के बाद की एक रसम जिसमें वर अपने साथियों के साथ ससुराल में जल-पान या भोजन करने जाता है। खिचड़ी।
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कलेस  : पुं०=क्लेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कलेसुर  : पुं०=कलसिरा।
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कलै  : पुं० [सं० कल] १. अवसर। २. इच्छा। उदा०—बरषै हरषि आपनै कलै।—नंददास। क्रि० वि० १. कल या चैन से। २. अपनी अच्छा से। स्वेच्छापूर्वक।
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कलोर  : स्त्री० [सं० कल्या ?] ऐसी जवान बछिया (गौ) जो अभी गाभिन न हुई हो।
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कलोल  : स्त्री० [सं० कल्लोल] आमोद-प्रमोद या क्रीड़ा के लिए की जाने वाली थोड़ी-बहुत उछल-कूद।
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कलोलना  : अ० [हिं० कलोल] कलोल या क्रीड़ा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कलौंछ  : स्त्री०=कलौंस।
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कलौंजी  : स्त्री० [सं० काला-जाजी] १. एक प्रकार का पौधा, जिसके बीज ‘मंगरैला’ कहलाते और मसाले के काम में आते हैं। २. मँगरैला नामका मसाला। ३. समूचे करेले, परवल, बैंगन आदि का वह रूप जो उनके अन्दर मिर्च-मसाले भर कर और उन्हें घी या तेल में तलने या भूनने पर प्राप्त होता है।
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कलौंस  : स्त्री० [हिं० काला+औंस (प्रत्य०)] १. हलका कालापन। हलकी कालिमा। २. कलंक। वि० जिसका रंग कुछ हलका काला हो।
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कल्क  : पुं० [सं०√कल् (गति)+क] १. किसी चीज का बारीक चूरा। पूर्ण। बुकनी। २. पीठी। ३. अवलेह। चटनी। ४. गूदा। ५. पाखंड। ६. दुष्टता। शठता। ७. मल। ८. मैल। ९. गृह। विष्ठा। १॰. पाप। ११. बहेड़ा।
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कल्क-फल  : पुं० [ब० स०] अनार।
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कल्की (ल्किन्)  : पुं० [सं० कल्क+इनि] कलियुग के अन्त में कुमारी कन्या के गर्भ से जन्म लेनेवाला विष्णु का भावी दसवाँ अवतार। (पुराण)
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कल्प  : पुं० [सं०√कृप् (कल्पना+णिच्+अच् वा घञ्] १. मांगलिक और शुभ कृत्य, नियम तथा विधि-विधान। (विशेषतः वेदों में बतलाये हुए) २. वेदों के छः अंगों में से एक, जिसमें बलिदान, यज्ञ आदि से संबंध रखनेवाली विधियाँ बतलाई गई हैं। ३. हिंदू पंचांग के अनुसार काल या समय का एक बहुत बड़ा विभाग जो एक हजार महायुगों अर्थात् ४ अरब ३२ करोड़ मानव वर्षों का कहा गया है। विशेष—हमारे यहाँ प्रत्येक कल्प ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है, और ऐसे ३६॰ दिनों का ब्रह्मा का एक वर्ष होता है। कहते हैं कि अब तक ब्रह्मा के ऐसे ५॰ वर्ष बीत चुके हैं; और आज कल ५१ वें वर्ष के पहले महीने का पहला दिन चल रहा है, जिसका नाम श्वेत वाराह कल्प है। ऐसे प्रत्येक कल्प में एक हजार महायुग होते हैं; और प्रत्येक महायुग के चार अलग-अलग विभाग ही युग कहलाते हैं। प्रत्येक कल्प के अन्त में, जिसे कल्पांत कहते हैं, भौतिक सृष्टि का अंत या प्रलय होता है। ४. आधुनिक पुरा-शास्त्र और भू-शास्त्र के क्षेत्रों में, करोड़ों अरबों वर्षों का वह विशिष्ट काल-विभाग, जो कई युगों में विभक्त रहता है और जिसमें पृथ्वी की कुछ स्वतन्त्र प्रकार की विकासात्मक स्थितियाँ होती हैं। (एरा) जैसे—आदि कल्प, उत्तर कल्प, मध्य कल्प, नव कल्प (देखें)। विशेष—ये नामकरण हमारे यहाँ के पुराने कल्पों और युगों के आधार पर ही हुए हैं। पर आधुनिक वैज्ञानिक एक तो इनकी उस प्रकार की पुनरावृत्ति नहीं मानते, जिस प्रकार की हिंदू पंचांग में मानी गई है; दूसरे वे अपने कल्पों और युगों के लक्षण पृथ्वी के विशुद्ध विकासात्मक रूपों या विभागों की दृष्टि से स्थिर करते हैं। ५. प्रलय। ६. ग्रंथों आदि का कोई प्रकरण या विभाग। ७. मनुष्य का शरीर। ८. वैद्यक में ऐसा उपचार या चिकित्सा जो सारे शरीर अथवा उसके किसी अंग को बिलकुल नये सिरे से ठीक या पूरी तरह से नीरोग तथा स्वस्थ करने के लिए की जाती है। जैसे—कायाकल्प, नेत्रकल्प आदि। ९. एक प्रकार का नृत्य। १॰. दे० ‘कल्पवृक्ष’। वि० जो यथेष्ट, पूर्ण या वास्तविक न होने पर भी बहुत कुछ किसी दूसरे की बराबरी का या समान हो। तुल्य, समान (यौ० के अन्त में)। जैसे—ऋषिकल्प, देवकल्प।
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कल्प-तरु  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-पादप  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-भव  : पुं० [ब० स०] जैन-शास्त्रानुसार जैनों में एक प्रकार के देवगण जो संख्या में बारह हैं।
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कल्प-लता (लतिका)  : स्त्री० [ष० त०] १. कल्पवृक्ष। २. हठयोग में उन्मनी मुद्रा; अर्थात् मन को परमात्मा में लगाने की अवस्था।
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कल्प-वास  : पुं० [मध्य० स०] माघ महीने में गंगा-तट पर संयमपूर्वक निवास करना।
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कल्प-विटप  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. पुराणानुसार स्वर्ग का एक वृक्ष जिसकी छाया में पहुँचते ही सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की बहुत उदारतापूर्वक सहायता करता हो। बहुत बड़ा दानी। ३. एक प्रकार का वृक्ष जो बहुत अधिक ऊँचा, घेरदार और दीर्घजीवी होता है।
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कल्प-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] वह सूत्र ग्रंथ, जिस में यज्ञादि कार्यों तथा गृह्य कर्मों का विधान हो।
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कल्प-हिंसा  : स्त्री० [मध्य० स०] वह हिंसा जो अन्न पकाने, पीसने आदि के समय होती है। (जैन) विशेष—यह हिंदुओं के पंचसूना के ही समान है।
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कल्पक  : वि० [सं० कल्प से] १. कल्प-संबंधी। २. वेदों में बतलाये हुए नियमों, विधि-विधानों आदि के अनुसार होनेवाला। वि० [सं० कल्पन से] १. कल्पना-संबंधी। २. कल्पना करनेवाला। पुं० [√कृप्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. नाई। हज्जाम। २. कूचर।
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कल्पकार  : वि० [सं० कल्प√कृ (करना)+अण्] १. विधि-विधानों आदि की रचना करनेवाला। २. कल्प-शास्त्र का रचनेवाला। गृह्य श्रौत सूत्र का रचयिता। जैसे—कल्पकार ऋषि का मत है।
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कल्पन  : पुं० [सं०√कृप्+णिच्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु को बनाने, रचने अथवा उसे कोई दूसरा रूप देने की क्रिया या भाव। २. किसी अमूर्त्त भावना या विचार को कल्पना के आधार पर मूर्त्त रूप देना। कल्पना करना। ३. धारदार औजारों से कतरना तथा काटना। ४. वह चीज जो सजावट के लिए किसी दूसरी चीज पर बैठाई या लगाई जाय।
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कल्पनक  : वि० [सं० कल्पना से] १. कल्पना से युक्त (कार्य)। २. (व्यक्ति) जिसकी कल्पना-शक्ति बहुत प्रबल हो अथवा जो सदा कल्पना करता रहता हो।
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कल्पना  : स्त्री० [सं० कृप्+णिच्+यच्—अन, टाप्] १. किसी वस्तु को बनाना या रचना। विशेष दे० ‘कल्पन’। २. वह क्रियात्मक मानसिक, शक्ति, जिसके द्वारा मनुष्य अनोखी और नई बातों या वस्तुओं की प्रतिमाएँ या रूप-रेखाएँ अपने मानस-पटल पर बनाकर उनकी अभिव्यक्ति काव्यों, चित्रों, प्रतिमाओं आदि के रूप में अथवा और किसी प्रकार के मूर्त्त रूप में करता है। (इमैजिनेशन) ३. उक्त प्रकार से प्रस्तुत की हुई कृति या रूप-रेखा। ४. गणित में कुछ समय के लिए किसी मात्रा या राशि को वास्तविक या सत्य मान लेना। (सपोजीशन) ५. मनगढ़ंत बात। पद—कोरी कल्पना=ऐसी कल्पित बात, जिसका कोई आधार न हो। अ० स०=कल्पना।
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कल्पनी  : स्त्री० [सं० कल्पन+ङीष्] कतरनी। कैंची।
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कल्पनीय  : वि० [सं०√कृप्+णिच्+अनीयर्] जिसकी कल्पना की जा सकती हो। कल्पना में आने के योग्य। (इमैजिनेबुल)
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कल्पशाखी (खिन्)  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्पांत  : पुं० [कल्प-अन्त, ष० त०] सृष्टि के जीवन में प्रत्येक कल्प का अंत जिसमें प्रलय होता है और सभी जीवधारियों का अंत हो जाता है।
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कल्पित  : वि० [सं०√कृप्+णिच्+क्त] १. जिसकी कल्पना की गई हो। कल्पना के आधार पर प्रस्तुत किया हुआ। २. कुछ समय के लिए अथवा यों ही काम चलाने के लिए वास्तविक या सत्य माना हुआ। ३. मन गढ़ंत। ४. नकली। बनावटी।
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कल्पितोपमा  : स्त्री० [कल्पित-उपमा कर्म० स०] उपमालंकार का एक भेद, जिसमें कवि उपमेय के लिए कोई उपयुक्त उपमान न मिलने पर किसी कल्पित उपमान से उसकी उपमा दे देता है। इसे ‘अभूतोपमा’ भी कहते हैं।
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कल्फा  : पुं० [फा० कफ=झाग, गाज] १. अफीम का पसेव जिससे मदक बनता है। २. वह कपड़ा जिस पर (मदक बनाने के लिए) अफीम फैलाते हैं।
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कल्ब  : पुं० [अ०] १. हृदय। दिल। २. किसी वस्तु का मध्य भाग। विशेषतः सेना का मध्य भाग। ३. बुद्धि। ४. खोटी चाँदी या सोना।।
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कल्मष  : पुं० [सं० कर्मन्√पी (नष्ट करना)+क, र=ल] १. ऐसा कार्य जिससे किसी पवित्र या शुभ कार्य का महत्त्व नष्ट हो जाय। अघ। पाप। २. मल। मैल। ३. दोष। बुराई। ४. पीव। मवाद। ५. एक नरक का नाम।
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कल्माष  : वि० [सं०√कल्+क्विप्,√मष् (हिंसा)+णिच्—अच] रंग-बिरंगा विशेषतः सफेद और काले रंग के चिह्नों या धब्बोंवाला। जो कुछ सफेद और कुछ काला हो। चितकबरा। पुं० १. उक्त रंग। २. अग्नि का वह रूप। ३. राक्षस।
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कल्माषी  : स्त्री० [सं० कल्माष+ङीष्] यमुना नदी का एक नाम।
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कल्य  : वि० [सं०√कल् (गीत)+यत्] १. जिसे किसी प्रकार का रोग न हो। नीरोग। स्वस्थ। हट्टा-कट्टा। २. चतुर। होशियार। ३. कुशल। दक्ष। ४. मंगलकारक। शुभ। ५. गूँगा और बहरा। पुं० १. स्वास्थ्य। २. प्रातःकाल। सवेरा। ३. आनेवाला दिन। ४. बीता हुआ दिन। कल। ५. मदिरा। शराब। ६. मंगल-कामना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्यपाल  : पुं० [सं० कल्य√पाल् (पालना)+णिच्+अण्] [स्त्री० कल्यपाली] मंदिरा या शराब त्रुआने तथा बेचनेवाला व्यक्ति।
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कल्यवर्त्त  : पुं० [सं० कल्य√वृत् (बरतना)+णिच्+अप्] सवेरे किया जानेवाला जलपान। कलेवा।
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कल्या  : स्त्री० [सं०√कल्+णिच्+यक्—टाप्] १. मदिरा। शराब। २. हरीतकी या हरें का पौधा। ३. बघाई। ४. वह बछिया जो बरदाने के योग्य हो गई हो। कलोर। ५. बड़ी या मुख्य नहर। कुल्या। (मेन कनाल)
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कल्याण  : पुं० [सं० कल्य√अण् (शब्द करना)+घञ्] १. सब प्रकार से होनेवाली भलाई तथा समृद्धि। २. शुभ-कर्म। ३. सोना। ४. संगीत में, संपूर्ण जाति का एक राग जो किसी के मत से श्रीराग का और किसी के मत से मेघराग का पुत्र है तथा जिसके गाने का समय रात का पहला पहर है।
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कल्याण-कामोद  : पुं० [द्व० स०] कल्याण और कामोद के मेल से बना हुआ एक संकर राग। (संगीत)
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कल्याण-नट  : [द्व० स०] कल्याण और नट के मेल से बना हुआ एक संकर राग। (संगीत)
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कल्याण-भार्य  : पुं० [ब० स०] ऐसा व्यक्ति जिसकी कई पत्नियाँ मर चुकी हों; अथवा जिसका विवाह होने पर कुछ ही दिनों में पत्नी मर जाती हो।
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कल्याणक  : वि० [सं० कल्याण+कन्]=कल्याणकर।
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कल्याणकर  : वि० [सं० कल्याण√कृ+ट] कल्याण करनेवाला।
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कल्याणकारी (रिन्)  : वि० [सं० कल्याण√कृ+णिनि] [स्त्री० कल्याणकारिणी] कल्याण या मंगल करनेवाला। शुभ।
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कल्याणी  : वि० [सं० कल्याण+ङीष्] १. कल्याण या मंगल करनेवाली। २. भाग्यशालिनी। ३. रूपवती। सुन्दरी। स्त्री० १. कामधेनु। २. गाय। गौ। ३. एक देवी का नाम। ४. माषपर्णी।
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कल्यान  : पुं=कल्याण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्यापाल  : पुं०=कल्यपाल।
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कल्योना  : पुं०=कलेवा (जलपान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्ल  : वि० [सं०√कल्ल (शब्द)+अच्] बहरा। पुं० १. बहरापन। २. शब्दों का अस्पष्ट उच्चारण।
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कल्लर  : पुं० [?] स्त्री० कल्लरिन, कलरिन] १. एक जाति जिसके पुरुष और स्त्रियाँ छोटे-छोटे व्यापारों के सिवा शरीर में जोंक लगाने का भी काम करती हैं। २. ऊसर जमीन। ३. नोनी मिट्टी। लोना। ४. रेह। ५. भिखारी। (क्व०)।
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कल्लह  : पुं०=कल्ला (जबड़ा)। स्त्री० कलह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्ला  : पुं० [सं० करौर] १. पेड़-पौधों आदि में निकलनेवाले पत्ते, फल या फूल का आरंभिक रूप। अंकुर। पुं० [सं० कुल्य] वह छोटा कूआँ या गड्ढा जिसके पानी से पान का भीटा सींचा जाता है। १. पुं० [फा० कल्लः] गाल का भीतरी भाग। जबड़ा। मुहा०—कल्ला चलना=(क) भोजन होना। मुँह चलना। (ख) मुँह से बहुत बातें निकलना। जबान चलना। किसी का कल्ला दबाना=बहुत बोलने से रोकना। कल्ला फुलाना=मुँह की ऐसी आकृति बनाना जिससे अप्रसन्नता या रोष सूचित हो। मुँह फुलाना। कल्ला मारना=(क) बहुत बढ़-चढ़कर या उद्दंडतापूर्वक बातें करना। (ख) डींग हाँकना। शेखी बघारना। २. दाढ़। ३. जबड़े से गले तक का अंश। जैसे—कल्ले तो मुस्करा ही रहे हैं।—वृंदावनलाल वर्मा। ४. पशु के उक्त स्थान का मांस। (कसाई)। ५. लंप का ऊपरी वह जालीदार भाग जिसमें बत्ती जलती है (बर्नर)। पुं०=कलह।
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कल्लाँच  : वि० [तु० कल्लाच] १. गुंडा। बदमाश। लुच्चा। २. परम दरिद्र। कंगाल।
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कल्लातोड़  : वि० [हिं० कल्ला+तोड़ना] १. (व्यक्ति) जिसमें प्रबल आघात करने की शक्ति हो। २. (उत्तर या बात) जिसके आगे किसी का मुँह बन्द हो जाय। ३. पूरी तरह से दबा लेनेवाला। प्रबल। विकट।
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कल्लादराज  : वि० [फा०] [भाव० कल्लादराजी, कल्लेदराजी] उद्दंडतापूर्वक और बहुत बढ़-बढ़कर बातें करनेवाला। मुँहजोर। वाचाल।
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कल्लादराजी  : स्त्री० [फा०] उद्दंडतापूर्वक और बहुत बढ़-बढ़कर बातें करना। मुँहजोरी। वाचालता।
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कल्लाना  : अ० [सं० कड् या कल्=संज्ञाशून्य होना] १. आघात, पीड़ा आदि के कारण शरीर के किसी अंग में जलन और सनसनी होना। जैसे—थप्पड़ लगने से गाल कल्लाना। २. (मन में) रह-रहकर दुःख या व्यथा होना। जैसे—जी कल्लाना।
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कल्लि  : स्त्री०=कली (फूल की)।
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कल्लू  : वि० [हिं० काला] (व्यक्ति) जिसका रंग बहुत अधिक काला हो। (उपेक्षा तथा व्यंग्य का सूचक) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्लेदराज  : वि०=कल्लादराज़।
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कल्लेदराजी  : स्त्री०=कल्लादराज़ी।
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कल्लोल  : पुं० [सं०√कल्ल (शब्द करना)+ओलच्] १. जल की तरंग। लहर। हिलोर। २. मन की लहर। मौज। ३. विपक्षी। शत्रु।
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कल्लोलना  : अ०=कलोलना। उदा०—सहज बैर बिसराइ आइ कलकुल कल्लोलत।—रत्ना०।
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कल्लोलिनी  : स्त्री० [सं० कल्लोल+इनि, ङीष्] नदी, जिसमें तरंगें उठती हों।
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कल्ह  : पुं०=कल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्हक  : स्त्री० [देश०] कबूतर के आकार की लाल रंग की एक प्रकार की चिड़िया।
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कल्हण  : पुं० [अपभ्रंश] संस्कृत के एक प्रसिद्ध कश्मीरी कवि और पंडित जो राजतरंगिणी नामक ग्रंथ के रचयिता थे।
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कल्हर  : पुं०=कल्लर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्हरना  : अ० [हिं० कल्हारना का अ० रूप] कड़ाही में कल्हारा जाना। कड़ाही में या तवे पर तला जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कल्हार  : स्त्री० [हिं० कल्हाराना] कल्हारने की क्रिया, ढंग या भाव। पुं० [सं० कह्लार] १. एक प्रकार का पौधा और उसके फूल। २. कमल।
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कल्हारना  : स० [हिं०] कड़ाही में डालकर या तवे पर रखकर कोई चीज तलना, छानना या भूनना। अ०=कराहना। अ० [सं० कल्ल=शोर] चिल्लाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कवई  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो सूखी जमीन पर पलटे खाती हुई एक जलाशय से दूसरे जलाशय में चली जाती है। सुंभा।
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कवक  : पुं० [सं० कु (शब्द)+अच्+कन्] १. भोजन का कौर। ग्रास। २. कुकुरमुत्ता। ३. फूलों आदि का गुच्छा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कवच  : पुं० [सं० क√वञ्च् (ठगना)+अच्] [भू० कृ० कवचित, वि० कवची] १. ऐसा आवरण जो बाहरी आघात से रक्षा करने के लिए हो। २. लोहे की कड़ियों और लड़ियों का बना हुआ वह आवरण जो योद्धा लोग लड़ाई के समय आघातों से अपना शरीर रक्षित रखने के लिए पहनते थे। बरकत। वर्म। सँजोया (आर्मर)। ३. लड़ाई के जहाजों, गाड़ियों आदि पर रक्षा के लिए लगी हुई लोहे की मोटी चादरें। ४. फलों, वनस्पतियों आदि की ऊपरी छाल या छिलका। ५. तंत्र में वे मंत्र जो आपत्तियों में अपनी अथवा अपने अंगों की रक्षा के उद्देश्य से पढ़े जाते हैं। ६. भोजपत्र आदि पर लिखा हुआ उक्त प्रकार का कोई मंत्र जो गंडे, जंतर, तावीज आदि के रूप में कमर गले, बाँह आदि में पहना जाता है। ७. युद्ध-क्षेत्र में बजनेवाला डंका या नगाड़ा। पटह। ८. पाकर का वृक्ष। वि० (समस्त पदों के अन्त में) जिसमें किसी उग्र प्रभाव से स्वयं रक्षित रहने अथवा आवृत्त पदार्थ को रक्षित रखने का गुण या शक्ति हो (प्रूफ)। जैसे—अग्नि-कवच, जल-कवच आदि।
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कवच-धारी (रिन्)  : वि० [सं० कवच√धृ (धारण करना)+मिनि] [स्त्री० कवचधारिणी] जिसने कवच धारण किया या पहना हो। कवची। जैसे—कवचधारी योद्धा या सैनिक।
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कवच-पत्र  : [ब० स०] भोजपत्र जिस पर कवच (मंत्र आदि) लिखे जाते हैं।
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कवचित  : भू० कृ० [सं० कवच+इतच्] १. जिस पर रक्षा के लिए कवच चढ़ाया या लगाया गया हो। २. आज-कल (ऐसा यान या सैनिक) जो ऐसे उपकरणों से सज्जित हो कि उस पर बाहरी आघातों का सहज में प्रभाव न पड़े (आर्मर्ड)। जैसे—कवचित यान।
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कवचित-यान  : पुं० [सं० कर्म० स०] युद्ध में काम आनेवाली वह गाड़ी जो, तोपों, तोपचियों आदि से सुसज्जित होती है और जिस पर इसलिए लोहे की मोटी चादरें होती हैं कि बाहरी गोलों-गोलियों की मार का उन पर सहज में प्रभाव न पड़े (आर्मर्ड कार)।
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कवची (चिन्)  : वि० [सं० कवच+इनि] [स्त्री० कवचिनी] १. जिस पर किसी प्रकार का कवच चढ़ा या लगा हो। कवच से युक्त। २. दे० ‘कवचधारी’। पुं० शिव।
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कवटी  : स्त्री० [सं०√कृ+अटन्, ङीष्] दरवाजे का पल्ला। कपाट। किवाड़ा।
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कवन  : सर्व०=कौन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कवयिता (तृ)  : पुं० [सं० कवि+क्विप्+तृप्] [स्त्री० कवियित्री] कवि।
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कवयित्री  : स्त्री० [सं० कवयितृ+ङीष्] वह स्त्री जो कविताओं की रचना करती हो। स्त्री कवि।
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कँवर  : पुं० =[स्त्री० कँवरी]=कुँवर (कुमार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कवर  : वि० [सं०√कु+अरत्] १. मिला हुआ। मिश्रित। २. चितकबरा। रंगबिरंगा। पुं० १. बालों का गुच्छा। जूड़ा। २. फूल का गुच्छा। गुलदस्ता। स्तवक। पुं० कौर। ग्रास। उदा०—सहस सवाद सो पावै, एक कवर जो स्राइ।—जायसी। पुं० [अं०] १. वह आवरण जिसमें कोई चीज ढकी अथवा जिसमें कोई चीज लपेटी जाय। २. पुस्तक का आवरण का पृष्ठ। ३. लिफाफा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कवर-पुच्छ  : पुं० [ब० स०] [स्त्री० कवर-पुच्छी] मयूर। मोर।
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कवरना  : स०=कौरना (भूनना या सेंकना)।
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कँवरी  : स्त्री० [?] पचास पानों की गड्डी। (तमोली)। स्त्री०=कवरी (बालों की चोटी)।
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कवरी  : स्त्री० [सं० कवर+ङीष्] १. बालों को गूँथकर बनाई हुई चोटी या जूड़ा। उदा०—भींग रहा है रजनी का वह सुन्दर कोमल कवरी भार।—प्रसाद। २. वन-तुलसी।
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कँवरू  : पुं० =कमल (रोग)।
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कवर्ग  : पुं० [सं० मध्य० स०] [वि० कवर्गीय] क से ङ तक के पाँच अक्षरों या वर्णों का वर्ग या समूह, जिनका उच्चारण कंठ से होता है।
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कँवल  : पु०=कमल। पुं० =कौर (ग्रास)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कवल  : पुं० [सं० क√वल् (चलना)+अच्] [वि० कवलित] १. खाने के समय अन्न की उतनी मात्रा जितनी एक बार उँगलियों से उठाकर मुँह में रखी जाती है। कौर। ग्रास। २. जल की उतनी मात्रा जितनी कुल्ला करने के लिए मुँह में ली जाती है। ३. एक प्रकार की मछली जिसे ‘कौआ’ कहते हैं। ४. कर्ष नाम की पुरानी तौल। पुं० [?] १. एक प्रकार का फोड़ा। २. एक प्रकार की चिड़िया। ३. वाराह। शूकर। उदा०—कवल बदन रवि तेजकर, लक्खन संचि बतीस।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कवलग्रह  : पुं० [सं० कवल√ग्रह् (ग्रहण)+अच्] १. कुल्ला करने के लिए मुँह में लिया जानेवाला पानी का एक घूँट। २. १६ माशे की कर्ष नाम की पुरानी तौल।
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कवलन  : पुं० [सं० क√वल्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० कवलित] खाने, चबाने, निगलने या हड़पने के लिए कोई चीज मुँह में रखना।
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कवलिका  : स्त्री० [सं० कवल+कन्, टाप्, इत्व] १. कपड़े का वह टुकड़ा जो घाव या फोड़े पर लगाया जाता है। पट्टी। २. कपड़े की वह गद्दी जो घाव या फोड़े के ऊपर रखकर बाँधी जाती है। (पैड)।
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कवलित  : भू० कृ० [सं० कवल+णिच्+क्त] १. जो खाने, चबाने या निगलने के लिए मुँह में रख लिया गया हो। २. खाया या निगला हुआ।
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कवल्य  : पुं० [सं० केवल+ष्यञ्] १. केवल अर्थात् निर्लिप्त या विशुद्ध होने की अवस्था या भाव। २. शास्त्रों में विद्या और अविद्या तथा उनके सब कार्यों से अलग होकर ब्रह्म में लीन होना, जो जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति दो प्रकार का माना गया है। निःश्रेयस्। ३. मुक्ति। मोक्ष। ४. एक उपनिषद् का नाम।
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कवष  : पं० [सं०√कृ (शब्द)+अपच्] १. डाल। २. एक प्राचीन ऋषि।
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कवा  : अव्य० [हिं० कई+बार] कई बार। उदाहरण—कैवा आवत इहि गली, रहौं चलाइ चलै न।—बिहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कवाट  : पुं० [सं० क√वट् (आवरण)+अण्] १. दरवाजे का पल्ला। कपाट। किवाड़। २. दरवाजा।
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कँवाड़  : पुं० =किवाड़ (ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कवाम  : पुं० [अं० किवाम=मूल] १. पका कर गाढ़ा किया हुआ रस। अवलेह। २. चाशनी। शोरा। ३. खाने के तमाकू या सुरती का बनाया हुआ अवलेह।
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कवायद  : पुं० [अ० कायदः का बहु०] १. किसी काम या बात के कायदे या नियम। २. व्याकरण, जिसमें भाषा-रचना के नियम होते हैं। स्त्री० सिपाहियों, सैनिकों आदि का वह अभ्यास जो उन्हें व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ने, लड़ने-भिड़ने आदि के ढंग सिखाने के लिए कराया जाता है।
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कवार  : पुं० [सं० क√वृ (वरण करना)+अण्] १. कमल। २. एक प्रकार का जल-पक्षी।
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कवारिय  : पुं०=कबाड़ी। (फुटकर चीजों का दूकानदार)। उदा०—कवरत्त तत्त विहरति तुरत, जनुकि कवारिय पट्टुपट।—चन्दबरदाई।
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कँवासा  : पुं० [हिं० नवासा (नाती) का अनु०] लड़की के लड़के अर्थात् नाती का लड़का। पड़-नाती।
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कवाह  : पुं० [सं० क√वह् (बहना)+णिच्+अण्] पानी बहने की बड़ी नाली। (चैनल)।
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कवि  : पुं० [सं०√कव् (स्तुति)+इन्] १. वह जो कविता या काव्य की रचना करता हो (पोएट)। २. ऋषि। ३. ब्रह्मा। ४. सूर्य। ५. शुक्राचार्य। ६. उल्लू।
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कवि-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. भृगु के एक पुत्र का नाम। २. शुक्राचार्य।
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कवि-प्रसिद्धि  : स्त्री० [स० त०] भारतीय कवियों में परंपरा से चली आई हुई कुछ ऐसी प्रसिद्ध बातें जो वस्तुतः ठीक न होने पर भी ठीक मान ली गई हैं। जैसे—चकवा चकई का दिन में साथ-साथ और रात में अलग-अलग रहना; केले से कपूर निकलना; बाँस, साँप, हाथी आदि में भी मोती होना आदि-आदि।
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कवि-शेखर  : पुं० [ष० त०] संगीत में ताल के ६॰ मुख्य भेदों में से एक।
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कवि-समय  : पुं० [ष० त०] कवियों में परम्परा से चली आई हुई वर्णनसंबंधी कुछ विशिष्ट परिपाटियाँ या मान्यताएँ जिनमें देश, काल आदि के विरुद्ध बातों का वर्णन भी अनुचित या दूषित नहीं माना जाता। जैसे—स्त्री के पदाघात से अशोक के फूलने का वर्णन आदि। (दे० वृक्ष-दोहद)
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कविक  : पुं० [सं० कवि+कन्] १. लगाम। २. एक प्रकार का फलदार वृक्ष। ३. उक्त वृक्ष का छोटा रसीला फल जिसे कहीं-कहीं जामरूल भी कहते हैं।
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कविका  : स्त्री० [सं० कविक+टाप्] १. लगाम। २. केवड़ा। ३. कवई नाम की मछली।
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कविता  : स्त्री० [सं० कवि+तल, टाप्] कवि की वह लय-प्रधान साहित्यिक कृति या रचना, जो छंदों में होती है। काव्य। शायरी। (पोएट्री)
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कविताई  : स्त्री०=कविता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कवित्त  : पुं० [सं० कवित्व] १. कविता। २. घनाक्षरी छंद का एक नाम। (दे० ‘घनाक्षरी’)
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कवित्व  : पुं० [सं० कवि+त्व] १. काव्य का गुण, भाव या विशिष्ट रूप। २. काव्य-रचना की क्रिया, गुण या शक्ति।
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कविनासा  : स्त्री०=कर्मनाशा (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कविराज  : पुं० [ष० त०] १. कवियों का राजा अर्थात् श्रेष्ठ कवि। २. चारण या भाट। ३. अच्छा और शिक्षित वैद्य (बंगाल)।
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कविराय  : पुं०=कविराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कविलास  : पुं०=कविलास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कवीठ  : पुं० [सं० कपीप्ट, प्रा० कविट्ठ] कैथ नामक वृक्ष और उसका फल।
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कवींद्र  : पुं० [कवि-इंद्र, ष० त०] कवियों का राजा अर्थात् बहुत बड़ा अथवा सब कवियों में श्रेष्ठ कवि।
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कवेरा  : वि० [?] [स्त्री० कवेरिन] १. देहाती। २. गँवार।
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कवेल  : पुं० [सं० क√विल् (फैलना)+अण्] कमल।
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कवेला  : पुं० [अ० किबला] दिग्दर्शक यंत्र की वह कील जिस पर सुई घूमती है। (लश०) पुं० [हिं० कौआ+एला (प्रत्य०)] कौए का बच्चा।
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कवोष्ण  : पुं० [सं० कु-उष्ण, गति स०, कु=कव् आदेश] कुनकुना।
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कव्य  : पुं० [सं०√कु (शब्द)+यत्] १. वह अन्न जो पितरों के उद्देश्य से किसी को दिया जाय। २. वह द्रव्य जिससे पितरों के लिए पिंड बनाया जाय।
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कव्यवाह  : पुं० [सं० कव्य√वह् (ढोना)+अण्] पितृ यज्ञ के समय की अग्नि जिसमें पिंड से आहुति दी जाती है।
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कश  : पुं० [सं०√कश् (शब्द)+अच्] [स्त्री० कशा] चाबुक। पुं० [फा०] १. खींचने की क्रिया या भाव। २. धूम्रपान में मुँह के अन्दर एक बार धुआँ खींचने की क्रिया या भाव। फूँक। दम। जैसे—तंबाकू के दो कश लगा लो। वि० खींचनेवाला। (यौ० के अन्त में।) जैसे—धुआँकश।
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कश-मकश  : स्त्री० [फा०] १. दोनों ओर से अपनी-अपनी तरफ खींचे जाने की क्रिया या भाव। खींचातानी। २. असमंजस या दुविधा की स्थिति। आगा-पीछा। सोच-विचार। ३. भीड़ में होनेवाला धक्कमधक्का।
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कशकोल  : पुं०=कजकोल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कशा  : स्त्री० [सं० कश+टाप्] १. रस्सी। २. कोड़ा। चाबुक।
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कशाघात  : पुं० [सं० कश-आघात, तृ० त०] १. कोड़े या चाबुक से किया जानेवाला आघात। २. ऐसी तीव्र प्रेरणा जो कोई काम करने के लिए विवश कर दे।
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कशित  : वि०=कृश।
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कशिपु  : पुं० [सं०√कश्+कु, नि० सिद्धि] १. बिछौना। २. तकिया। ३. आसन। ४. पहनावा। पोशाक। ५. अनाज। अन्न। ६. पकाया हुआ चावल। भात। पुं०=हिरण्यकशिपु।
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कशिश  : पुं० [फा०] १. खींचे जाने की क्रिया, ढंग या भाव। २. खिंचाव। ३. आकर्षण शक्ति। ४. तनाव।
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कशीदा  : पुं० [फा० कशीदः] सूई-धीगे से कपड़े पर बेल-बूटे आदि बनाने का काम। क्रि० प्र०—काढ़ना।
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कशेरुक  : पुं० [सं० क√शृ (हिंसा)+उ, एर् आदेश+कन्] कसेरू का पौधा और उसका फल।
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कशेरुका  : स्त्री० [सं० कशेरुक+टॉप्] पीठ के बीच में हड्डियों की गाँठों की माला या श्रृंखला। रीढ़।
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कश्चित्  : वि० [सं० कः+चित्] कोई। सर्व० १. कोई। २. किसी।
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कश्ती  : स्त्री० [फा०] १. नाव। नौका। २. दे० ‘किश्ती’।
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कश्मल  : पुं० [सं०√कश्—कल, मुट्] १. बेहोशी। मूर्च्छा। २. पाप। ३. अंबरवारी। वि० १. गंदा। मैला। २. दूषित। बुरा।
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कश्मीर  : पुं० [सं०√कश्+ईरन्, मुट्] भारतीय संघ का एक राज्य जो पंजाब के उत्तर हिमालय की तराई में स्थित है तथा जो अपनी प्राकृतिक सुषमा के लिए जगत्-विख्यात है।
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कश्मीरज  : पुं० [सं० कश्मीर√जन् (पैदा होना)+ड] केसर।
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कश्मीरी  : वि० [सं० कश्मीर+हिं० ई० (प्रत्य०)] १. कश्मीर-संबंधी। कश्मीर का। २. कश्मीर देश में बना हुआ। पुं० [स्त्री० कश्मीरिन] कश्मीर देश का निवासी। स्त्री० १. कश्मीर देश की बोली या भाषा। २. एक प्रकार की बढ़िया चटनी जो सिरका डालकर बनाई जाती है।
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कश्य  : पुं० [सं० कशा+य] १. अश्व। २. घोड़े का पुट्टा। ३. मद्य।
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कश्यप  : पुं० [सं० कश्य√पा (पीना)+क] १. एक प्रजापति का नाम। २. सप्तर्षि मंडल के एक तारे का नाम। ३. एक प्रसिद्ध वैदिक ऋषि जिनके मंत्र ऋग्वेद में हैं। ४. कछुआ। ५. एक प्रकार की मछली। ६. एक प्रकार का हिरन। वि० १. काले दाँतोंवाला। २. मद्यप। शराबी।
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कश्यप-नंदन  : पुं० [ष० त०] १. कश्यप ऋषि का पुत्र। २. विष्णु के गरुड़ का नाम।
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कष  : पुं० [सं०√कष् (वध)+अच्] १. जाँचने के लिए कसने की क्रिया या भाव। २. कसौटी का पत्थर। ३. सान रखने का पत्थर। कुरुंड।
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कंषना  : स० [सं० कांक्षा] १. इच्छा करना। चाहना। २. देखना।
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कषा  : स्त्री=कशा (कोड़ा)।
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कषाकु  : पुं० [सं०√कष्+आकु] १. अग्नि। २. सूर्य।
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कषाय  : वि० [सं०√कष्+आय] १. कसैले स्वादवाला। आँवले, फिटकिरी आदि के स्वादवाला कसैला। २. रँगा हुआ, विशेषतः गेरू के रंग में रँगा हुआ। गैरिक। जैसे—कषाय वस्त्र। ३. खुशबूदार। सुगंधित। पुं० १. कोई चीज जिसका स्वाद कसैला हो। २. सब प्रकार के दूषित मनोविकार। (जैन) ३. कलियुग। ४. गोंद। ५. काढ़ा। क्वाथ। ६. सोनापाढ़ा (वृक्ष)।
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कषायित  : भू० कृ० [सं० कषाय+इतच्] १. जिसमें कषाय आ गया हो या लाया गया हो। कसैला किया हुआ। २. गेरू के रंग में रँगा हुआ। गैरिक। ३. जो दूषित मनोविकारों से युक्त होने के कारण बिगड़ा हुआ हो।
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कषित  : वि० [सं०√कष्+णिच्+क्त] १. खिंचा या खींचा हुआ। २. जिसे कष्ट पहुँचा हो। ३. जिसकी क्षति या हानि हुई हो।
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कषे (से) रुका  : स्त्री०=कशेरुका।
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कष्ट  : पुं० [सं०√कष् (हिंसन)+क्त] १. मन में होनेवाला वह अप्रिय तथा दुःखद अनुभव जो किसी प्रकार के अभाव के कारण होता है। जैसे—(क) उन्हें आँखों का कष्ट है। (ख) आजकल कष्ट में दिन बीत रहे हैं। २. दुःख। पीड़ा। ३. आपत्ति। मुसीबत। ४. पाप। दुष्टता। ५. श्रम। वि० १. हानिकर। २. बुरा। ३. कठिन। ४. दुःखी। ५. जो संबंध में पत्नी या माता के पक्ष का हो। जैसे—कष्ट-भोगिनेय, कष्टमातुल (देखें)।
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कष्ट-कल्पना  : स्त्री० [मध्य० स०] कोई पक्ष सिद्ध करने के लिए की जानेवाली ऐसी कल्पना या दी जानेवाली ऐसी युक्ति जो बहुत दूर की हो तथा बहुत खींच-तानकर ही घटाई या ठीक सिद्ध की जा सकती हो। जबरदस्ती खड़ी की हुई दलील।
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कष्ट-कारक  : वि० [ष० त०]=कष्टकर।
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कष्ट-भागिनेय  : पुं० [मध्य० स०] पत्नी की बहन (साली) का लड़का।
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कष्ट-मातुल  : पुं० [मध्य० स०] सौतेली माँ का भाई।
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कष्ट-साध्य  : वि० [तृ० त०] जिसके साधन में अधिक श्रम करना तथा कष्ट सहना पड़ता हो। बहुत कठिनता से पूरा होनेवाला। (काम)
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कष्टकर  : वि० [सं० कष्ट√कृ (करना)+ट] १. कष्ट देने या पहुँचानेवाला। २. जिसे करने में कठिनाई या कष्ट होता हो।
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कष्टार्तव  : पुं० [कष्ट-आर्तव मध्य० स०] स्त्री का ऐसा रज-स्राव जो बहुत कष्ट सो होता हो।
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कष्टार्थ  : पुं० [कष्ट-अर्थ, मध्य० स०] १. ऐसा शब्द, जिसका अर्थ खींच-तानकर निकाला गया हो या निकाला जाता हो। २. उक्त प्रकार से निकाला हुआ अर्थ।
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कष्टी (ष्टिन्)  : वि० [सं० कष्ट+इनि] १. जो कष्ट में पड़ा हो। दुःखी। पीड़ित। २. (स्त्री) जिसे प्रसव की वेदना हो रही हो।
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कष्ष  : पुं०=कक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कंस  : पुं० [सं०√कम् (इच्छा)+स] १. काँसा नामक धातु। २. काँसे का बना हुआ कोई छोटा पात्र। ३. सुराही। ४. मँजीरा। ५. मथुरा के राजा उग्रसेन का पुत्र जो श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया था। ६. प्राचीन भारत की आढ़क नाम की तौल या माप।
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कस  : पुं० [सं० कच्, कष्; प्रा० कस; सिं० कश; पं० कस्स; गु०, मरा०, सिंह० कस] १. कसने (अर्थात् जाँचने के लिए रगड़कर देखने) की क्रिया, प्रकार या भाव। २. कस या रगड़कर (अर्थात् खूब अच्छी तहर) की जानेवाली जाँच या परख। कठिन या विकट परीक्षा। ३. उक्त प्रकार की क्रियाएँ करने का उपकरण या साधन। ४. कसौटी नामक काला पत्थर जिस पर कस या रगड़कर सोना परखते हैं। ५. कस या रगड़कर की जानेवाली जाँच या परीक्षा का परिणाम या फल। जैसे—तपाकर सोने का कस देखना। ६. तलवार की लचक जो उसकी उत्तमता की परख करने के लिए देखी जाती है। स्त्री० [हिं० कसना] १. बाँधने के लिए बन्धन या रस्सी कसने या खींचने की क्रिया या भाव। २. वह चीज जिससे कोई दूसरी चीज कसकर बाँधी जाय। जैसे—एक्के या घोड़ा-गाड़ी की कस। उदा०—कस छूटी छुद्र-घंटिका...।—प्रितीराज। ३. कसने या बाँधने के लिए लगाया जानेवाला जोर या बल। ताकत। शक्ति। उदा०—रहि न सक्यौ, कस करि रह्यौ, बस करि लीन्हीं भार।—बिहारी। पद—कस कर=शक्ति लगाकर। जोर से। ४. किसी को बाँधकर अपने वश में रखने की अवस्था या भाव। अख्तियार। काबू। दबाव। जैस—यह काम (या व्यक्ति) हमारे कस का नहीं है। पद—कस का=जिस पर अधिकार या वश चलता हो। मुहा०—किसी को कस में करना या रखना=अधिकार, दबाव या वश में करना या रखना। ५. अवरोध। रुकावट। रोक। पुं० [हिं० कसाव=कसैलापन] १. ऐसा कसैलापन जो कहीं से उतर या खिंचकर किसी चीज में आता हो। जैसे—खाने-पीने की चीजों में ताँबे या पीतल का कस उतर आता है। २. स्वाभाविक कसैलापन। जैसे—आँवले के मुरब्बे में भी कुछ-न-कुछ कस रहता ही है। ३. उतरा या निकला हुआ अर्क या सार। जैसे—अब कुछ भी कस नहीं रह गया। वि०=कैसा ? क्रि० वि० १. =कैसे ? २. =क्यों ? उदा०—सो कासी सेइअ न कस ?—तुलसी। पुं० [फा०] १. मनुष्य। व्यक्ति। २. सहायक और मित्र। पक्का साथी। पद—बे-कस (देखें)।
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कंस-ताल  : पुं० [कर्म० स०] झाँझ।
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कस-बल  : पुं० [हिं० कस+बल] १. किसी चीज की गठन, बनावट और कार्य करने की शक्ति। जैसे—तलवार का कस-बल देखना। २. किसी विषय की अच्छी कर्मण्यता या योग्यता। ३. (व्यक्ति का) साहस। हिम्मत।
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कंस-शत्रु  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण।
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कसई  : स्त्री०=कसी (पौधा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कंसक  : पुं० [सं० कंस+कन्] १. काँसे का बना हुआ बरतन। २. दे० ‘कंसिक’।
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कसक  : स्त्री० [सं० कस्=आघात, चोट] १. मन में होनेवाला वह मानसिक कष्ट या वेदना जो किसी बीती या पुरानी दुःखद घटना या बात के स्मरण होने पर बहुत समय तक रह-रहकर होती रहती है। टीस। साल। २. हलका किंतु मीठा दर्द। ३. दूसरों के कष्ट या पीड़ा के कारण होनेवाली सहानुभूतिपूर्ण अनुभूति। उदा०—छुरी चलावत हैं गरे, जे बे-कसक कसाब।—रसनिधि। ४. मन में दबा हुआ ऐसा द्वेष या वैर जो रह-रहकर व्यथित करता हो और प्रायः बदला चुकाने के लिए प्रेरित करता रहता हो। मुहा०—कसक निकालना या मिटाना=बदला चुकाकर तृप्त या शांत होना। ५. उक्त प्रकार की कोई अभिलाषा, कामना या वासना।
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कसकन  : स्त्री०=कसक।
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कसकना  : अ० [हिं० कसक] १. किसी पुरानी दुःखद बात का स्मरण होने पर रह-रहकर मन में कष्ट या व्यथा होना। कसक होना उदा०—काँटै लौं कसकत हिये, गड़ी कँटीली भौंह।—बिहारी। २. दूसरों के कष्ट का सहानुभूतिपूर्ण अनुभव या ज्ञान होना। उदा०—नंद-कुमारहिं देखि दुखी छतिया कसकी न कसाइन तेरी।—पद्माकर।
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कसकुट  : पुं० [हिं० काँस+कुट=टुकड़ा] ताँबे और जस्ते के मेल से बनी हुई एक प्रसिद्ध मिश्रित धातु जिसके बरतन आदि बनते हैं। काँसा।
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कसगर  : पुं० [फा० कासागर] एक मुसलमान जाति जो मिट्टी के बरतन आदि बनाती है।
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कसट  : पुं०=कष्ट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कसदार  : वि० [हिं० कस=ताकत, शक्ति] १. बलवान। शक्तिशाली। २. जो अच्छी तरह कसकर जाँचा जा चुका हो; फलतः (क) उत्तम या श्रेष्ठ। (ख) अनुभवी या चतुर। (ग) जँचा हुआ। उदा०—इन पर लक्ष्मीबाई के उन कसदार दो सौ सवारों का सपाटा पड़ा।—वृंदावनलाल वर्मा।
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कसन  : स्त्री० [हिं० कसना] १. कसने की क्रिया, ढंग या भाव। २. कसे होने की अवस्था या स्थिति। कसावट। ३. वह चीज जिससे कोई दूसरी चीज कसकर बाँधी गई हो। ४. घोड़े का तंग नामक साज। ५. कष्ट। क्लेश। पीड़ा।
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कसनई  : स्त्री० [सं० कृष्ण] एक प्रकार की छोटी चिड़िया जिसके डैने काले और चोंच लाल होती है।
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कसना  : स० [सं० कर्षण; प्रा० कस्सण] १. बंधन आदि इस प्रकार कसकर खींचना कि वह और भी दृढ़ या पक्का हो जाय। जकड़ने या बाँधने के लिए बंधन कड़ा करना। जैसे—चलने के लिए कमर कसना। २. कोई चीज कहीं रखकर उसे दृढ़ता से बाँधना। जैसे—घोड़े पर जीन या साज कसना। पद—कसकर=(क) अच्छी तरह और खूब जोर से दबाते हुए। जैसे—गठरी या बिस्तर कसकर बाँधना। उदा०—कस-कस बाँधु सौत, ढीले बाँधूँ बालमा।—स्त्रियों का गीत। (ख) पूरा जोर या शक्ति लगाकर। जैसे—कसकर थप्पड़ या बेंत लगाना। (ग) पक्का और पूरा, बल्कि इससे भी कुछ अधिक। जैसे—वह गाँव यहाँ से कसकर चार कोस है। ३. किसी को इस प्रकार जकड़कर और दृढ़तापूर्वक बंधन या वश में लाना अथवा किसी स्थान पर स्थित करना कि वह तनिक भी इधर-उधर न होने पावे। जकड़कर बाँधना, बैठाना या लगाना। जैसे—(क) किसी कल या यंत्र के पुरजे और पेंच कसना। (ख) घोड़े पर सवारी करना। ४. आवश्यक उपकरणों आदि से युक्त करके अपने काम के लिए तैयार करना। जैसे—शेर पर चलाने के लिए बंदूक कसना। पद—कसा-कसाया=सब तरह से तैयार और दुरुस्त। पूर्णरूप से प्रस्तुत। ५. किसी आधान या पात्र में कोई चीज ठूँस या दबाकर उसे अच्छी तरह या पूरा भरना। जैसे—गाड़ी में मुसाफिर कसना, बोरे में बरतन कसना। ६. तलवार या उसके लोहे की उत्तमता परखने के लिए उसे जगह-जगह दबाना या लचाना। अ० १. बंधन का इस प्रकार कड़ा होना या खिंचना कि वह अधिक जकड़ जाय या पक्का हो जाय। जैसे—रस्सी अधिक कस गई है, जरा ढीली कर दो। मुहा०=कसकर रहना=अपने आप को वश में रख कर आचरण या व्यवहार करना। उदा०—रहि न सक्यौ, कसु कर रह्यौ, बस करि लीन्हों भार।—बिहारी। २. उक्त क्रिया के फलस्वरूप बँधे हुए अंग, पदार्थ आदि का चारों ओऱ से बहुत दबना या जकड़ा जाना। जैसे—कमर बहुत कस गई है; पेटी जरा ढीली कर दो। ३. पहनने के कपड़ों आदि का इतना छोटा या तंग होना कि उससे कोई अंग दबे या अच्छी तरह इधर-उधर न हो सके। जैसे—इस कुरते का गला जरा कसता है। ४. आधान या पात्र का इतना अधिक भरा होना कि उसमें कुछ भी अवकाश या रिक्त स्थान न रह जाय। जैसे—(क) सारा कमरा आदमियों से कस गया था। (ख) मटका अचार से कसा हुआ है। ५. सब तरह से तैयार या दुरुस्त किया हुआ। पूर्ण रूप से प्रस्तुत। उदा०—डोली-डंडा कसा धरा, मैं नहीं जाती री, मेरा माँ।—स्त्रियों का गीत। पद—कसा-कसाया=सब तरह से तैयार या प्रस्तुत। पुं० [स्त्री० अल्पा० कसनी] १. वह चीज जिससे कोई दूसरी चीज कस या दबाकर बाँधी जाय। कसने का उपकरण या साधन। जैसे—पट्टा, रस्सी आदि। २. विस्तृत अर्थ में किसी चीज का गिलाफ या बेठ। स० [सं० कषण] १. जोर से घिसना या रगड़ना। जैसे—पत्थर पर चंदन कसना। २. छोटे-छोटे टुकड़े करने के लिए किसी चीज पर रगड़ना। जैस—कद्दूकस पर कद्दू कसना। ३. सोना परखने के लिए उसका कुछ अंश कसौटी पर रगड़ना। जैसे—सोना जाने कसे, आदमी जाने बसे।——कहा०। ४. भले-बुरे की परख करने के लिए किसी प्रकार की कठिन या विकट परीक्षा लेना। उदा०—सूर प्रभु हँसत अति प्रीति उर में बसत, इन्द्र को कसत हरि जगत धाता।—सूर। ५. खोआ बनाने के लिए दूध को औटकर गाढ़ा करते हुए उसे कड़ाही में बराबर रगड़ते हुए चलाना। ६. घी, तेल आदि में कोई चीज अच्छी तरह तलना या भूनना। ७. किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए किसी कष्ट या क्लेश पहुँचाना। पीड़ित करना। जैसे—तपस्या से शरीर कसना। उदा०—भरत भवनि बसि तप तन करहीं।—तुलसी। ८. अपने लाभ या हित के लिए ऐसा उपाय या कार्य करना, जिससे दूसरा कोई दबे या घाटे में रहे अथवा उसे कष्ट हो। जैसे—(क) उन्हें जरा और कसो तो बाकी रुपए भी मिल जायेंगे। (ख) जो सस्ता सौदा बेचेगा, वह तौल में जरूर कसेगा। (ग) इतना दाम कसना ठीक नहीं। ९. शरीर को कष्ट सहने के योग्य बनाना। उदा०—करहिं जोग-जप-तन कसहीं।—तुलसी। पुं० [?] एक प्रकार का जहरीला मकड़ा।
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कसनि  : स्त्री०=कसन।
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कसनी  : स्त्री० [हिं० कसना] १. कसने की क्रिया या भाव। (दे० ‘कसना’) उदा०—कसनी दै कंचन किया ताप लिया ततकार।—कबीर। २. वह चीज जिससे कोई दूसरी चीज कसी, जकड़ी या बाँधी जाय। कसने का उपकरण। जैसे—डोरी, पट्टा, रस्सी आदि। ३. वह कपड़ा जिसमें कोई चीज बाँधी या लपेटी जाय। बेठन। ४. स्त्रियों की अंगिया या चोली जो बंदों से कस कर बाँधी जाती है। ५. कसौटी, जिस पर कस कर सोना परखते हैं। ६. अच्छी तरह या कस कर की जानेवाली जाँच। विकट परीक्षा। ७. एक प्रकार की हथौड़ी। स्त्री० [सं० कर्षणी] कसेरों की एक प्रकार की हथौड़ी।
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कसपत  : पुं० [देश०] काले रंग का कूटू। काला फाफर।
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कसब  : पुं० [अ०] १. परिश्रम। मेहनत। २. कारीगरी। कौशल। ३. पेशा। व्यवसाय। ४. दुष्चरित्रा स्त्रियों का व्यभिचार के द्वारा धन कमाना। क्रि० प्र०—कमाना।
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कसबा  : पुं० [अ० कस्बः] [वि० कसबाती] ऐसी बस्ती जो गाँव से कुछ बड़ी और शहर से छोटी हो।
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कसबाती  : वि० [अ० कसबा] १. कसबे में रहने या होनेवाला। (गँवार और नागरिक के बीच का) २. कसबे का निवासी।
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कसबिन  : स्त्री०=कसबी (वेश्या)।
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कसबी  : स्त्री० [अ० कसब] १. कसब अर्थात् व्यभिचार करके जीविका निर्वाह करनेवाली स्त्री। २. रंडी। वेश्या। स्त्री० [हिं० कसना] वह पट्टा या फीता जिससे ऊँट की पीठ पर कजाबा कसा जाता है।
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कसबीखाना  : पुं० [फा०] कसबी या कसबियों के रहने और व्यभिचार कराने का स्थान। वेश्यालय।
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कसम  : स्त्री० [अ०] ईश्वर को साक्षी मानकर कही जानेवाली बात। शपथ। सौगंध। मुहा०—कसम उतारना=ऐसा उपचार या कार्य करना, जिससे कसम के उत्तरदायित्त्व से मुक्ति हो जाय। कसम पूरी न करने के कारण होनेवाले दोष का परिहार करना। कसम खाना=शपथ या सौगंध करना। शपथपूर्वक कहना या प्रत्रिज्ञा करना। कसम तोड़ना=(क) शपथपूर्वक कोई बात कहकर पूरी न करना। (ख)=कसम उतारना। कसम देना या दिलाना=किसी को शपथ देकर उसके द्वारा उसे बाँधना या बाध्य करना। कसम लेना=कसम या शपथपूर्वक किसी से कोई बात कहलाना। किसी काम या बात की शपथ कराना या लेना। पद—कसम खाने को=नाममात्र को। बहुत थोड़ा या यों ही। जैसे कसम खाने को आप भी वहाँ हो आये। (अर्थात् गये और तुरन्त चले आये।)
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कसमस  : स्त्री०=कसमसाहट। स्त्री० [अनु०] १. कसमसाने की क्रिया या भाव। २. थोड़ा-बहुत इधर-उधर हिलने की क्रिया या भाव। ३. बहुत सामान्य रूप से की जानेवाली कोई चेष्टा।
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कसमसाना  : अ० [अनु०] १. बहुत थोड़ा या नाममात्र को इधर-उधर हिलना-डुलना। जैसे—यह घंटों से यों ही पड़ा है, कसमसाया तक नहीं। २. बहुत ही थोड़ी या हलकी-सी चेष्टा या प्रयत्न करना। ३. कुछ करने के लिए थोड़ा-बहुत उत्सुक या सक्रिय होना।
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कसमसाहट  : स्त्री० [हिं० कसमसाना] कसमसाने की क्रिया या भाव। कसमस।
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कसमसी  : स्त्री०=कसमस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कसमा-कसमी  : स्त्री० [हिं० काम] १. परस्पर शपथपूर्वक की हुई प्रतिज्ञा। २. दूसरे को कोई काम करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ देखकर स्वयं भी वैसा ही या उससे उलटा काम करने के लिए आपस में खाई जानेवाली कसमें।
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कसमिया  : क्रि० वि० [अ० कस्मिः] कसम खाकर। शपथपूर्वक।
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कसर  : स्त्री० [अ०] १. किसी चीज या बात का ऐसा अभाव या कमी जिसकी पूर्ति आवश्यक जान पड़ती हो। जैसे—(क) अभी इसमें एक आँच की कसर है। (ख) जो इतने में कसर करे तो यह ले अपनी माला। हमसे भूखे भजन न होगा।—कहा०। मुहा०—कसर करना, छोड़ना या रखना=कुछ अंश, काम या बात बाकी रहने देना। त्रुटि करना। कसर न करना, न छोड़ना या न रखना=सब तरह से पूरा कर देना। कोई बात बाकी न रहने देना। २. किसी काम में अभाव, न्यूनता आदि के कारण होनेवाली त्रुटि या दोष। नुक्स। विकार। जैसे—कोष्ठबद्धता के कारण पेट में कसर पड़ना। ३. ऐसी कमी या न्यूनता जो किसी चीज के छीजने, सूखने आदि के कारण अथवा उसमें का निरर्थक अंश निकालकर उसे उपयोगी बनाने अथवा ठीक करने में होती है। जैसे—चुनने, फटकारने आदि के कारण अनाजों में कसर पड़ती है। ४. लेन-देन व्यापार आदि में होनेवाली थोड़ी या सामान्य हानि। टोटा। जैसे—(क) गेहूँ का पूरा बोरा ले लो; मन भर लेने में आठ आने की कसर पड़ेगी। (ख) उन्हें रुपए उधार देने में हमें ब्याज की कसर पड़ेगी। मुहा०—कसर खाना या सहना=घाटे में रहना। घाटा सहना। कसर निकालना=एक जगह का घाटा दूसरी जगह से पूरा करना। ५. मन में छिपाकर रखा हुआ साधारण द्वेष या वैर। मुहा०—(किसी) कसर निकालना=किसी की कुछ हानि करके अपने पुराने द्वेष, वैर या शत्रुता का बदला चुकाना। (आपस में) कसर पड़ना=पारस्परिक सद्व्यवहार में मन-मुटाव के कारण अन्तर आना। पुं० [देश०] कुसुम या बर्रे का बौधा।
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कसर हट्टा  : पुं० [हिं० कसेरा+हट्ट वा हाट] वह स्थान जहाँ कसेरों की दूकानें हों और ताँबे-पीतल आदि के बरतन बिकते हों।
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कसरत  : स्त्री० [अ० कसीर का भाव० रूप] १. किसी चीज या बात के (कसीर अर्थात्) बहुत अधिक होने की अवस्था या भाव। प्रचुरता। जैसे—यहाँ मच्छरों की बहुत कसरत है। २. कुछ निश्चित प्रकार और रूप की ऐसी आंगिक या शारीरिक क्रियाएँ जो स्वास्थ्य की रक्षा और सुधार अथवा शारीरिक बल या शक्ति बढ़ाने के उद्देश्य से की जाती है। व्यायाम। (एक्सरसाइज) जैसे—(क) डंड, बैठक, मुद्गर भाँजना, नियमित रूप से सवेरे-सन्ध्या टहलना या दौड़ना आदि। (ख) आँखों की कसरत, पैरों या हाथों की कसरत। ३. लाक्षणिक रूप में कोई ऐसा आयास या परिश्रम जिसमें शरीर के किसी अंग पर बहुत जोर पड़ता हो या उसे असाधारण रूप से या बहुत अधिक काम करना पड़ता हो। जैसे—दिमागी कसरत।
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कसरती  : वि० [अ० कसरत] १. कसरत या व्यायाम करनेवाला। जैसे—कसरती पहलवान। २. जो कसरत या व्यायाम के फलस्वरूप पुष्ट हुआ हो। जैसे—कसरती शरीर।
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कसरवानी  : पुं० [सं० काँस्या वणिक] बनियों की एक जाति।
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कसली  : स्त्री० [सं० कष्=खोदना] एक प्रकार का छोटा फावड़ा।
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कंसवती  : स्त्री० [सं० कंस+मतुप्-ङीष्] उग्रसेन की कन्या का नाम।
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कसवाई  : स्त्री० [हिं० कसना] १. कसवाने की क्रिया या भाव। २. कसवाने का पारिश्रमिक।
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कसवाना  : स० [हिं० कसना का प्रे०] कोई चीज कसने में किसी को प्रवृत्त करना। कसने का काम किसी से कराना।
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कसवार  : पुं० [सं० कोशकार] ऊख की एक जाति या वर्ग।
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कसहँड़  : पुं० [हिं० काँस+हंडा] काँस के बरतनों के टूटे-फूटे अंश।
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कसहँड़ा  : पुं० [हिं० काँसा] [स्त्री० कसहँड़ी] काँसे आदि का बना हुआ चौड़े मुँहवाला एक प्रकार का बरतन।
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कँसहँड़ी  : स्त्री० [सं० काँसा+हाँड़ी] देग या बटलोही के आकार का एक बरतन।
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कसाई  : पुं० [अ० कस्साब] [स्त्री० कसाइन] १. वह जो पशुओं आदि की हत्या करके उनका माँस बेचने का व्यवसाय करता हो। बूचड़। (बुचर)। मुहावरा—कसाई के खूँटे बँधना=ऐसी जगह पहुँचना जहाँ पर निर्दयता या निष्ठुरता का व्यवहार होना अवश्यंभावी हो। बहुत ही कठोर हृदय व्यक्ति से पाला पड़ना। जैसे—यदि तुमने उनके यहाँ लड़की का ब्याह किया तो लड़ाई कसाई के खूँटे से बँध जायगी। पद—कसाई का पिल्ला-बहुत मोटा-ताजा या ह्रष्ट-पुष्ट। (उपेक्षा और व्यंग्य)। २. परम निष्ठुर और निर्दय व्यक्ति। स्त्री० [हिं० कसना] १. कसने की क्रिया या भाव। २. कसने का पारिश्रमिक।
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कसाईखाना  : पुं० [हिं० कसाई+फा० खानः] वह स्थान जहाँ मांस-विक्रय के उद्देश्य से पशुओं का वध होता है।
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कसाकस  : क्रि० वि० [हिं० कसना] अच्छी तरह कसकर। वि० अच्छी तरह कसा या भरा हुआ। जैसे—कसाकस भीड़ होना।
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कसाकसी  : स्त्री० [हिं० कसना] १. खूब अच्छी तरह कसे होने की अवस्था या भाव। जैसे—आज मंदिर में साकसी की भीड़ थी। २. आपस में होनेवाली बहुत अधिक तनातनी या द्वेष।
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कसाना  : अ० [हिं० काँसा या कसाव] कसाव या कसैले स्वाद से युक्त होना। जैसे—काँसे या पीतल के बरतन में रखी हुई तरकारी का कसाना। स०=कसवाना।
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कसाफ़त  : स्त्री० [अ०] १. गाढ़ापन। २. स्थूलता। २. गंदगी। मैलापन। ४. मैल।
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कसार  : पुं० [सं० कृसर] चीनी मिलाकर घी में भूना हुआ आटा। पंजीरी।
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कंसाराति  : पुं० [सं० कंस-अराति, ष० त०] श्रीकष्ण।
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कंसारि  : पुं० [सं० कंस-अरि, ष० त०] श्रीकृष्ण।
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कसाला  : पुं० [सं० कष=पीड़ा, दुख] १. कष्ट। तकलीफ। २. परिश्रम। मेहनत। ३. वह खटाई जिसमें सुनार गहने रखकर साफ करते हैं।
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कसाव  : पुं० [सं० कषाय] कसैलापन। पुं० [हिं० कसना] १. कसे जाने की क्रिया, भाव या स्थिति। २. खिंचाव। तनाव।
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कसावट  : स्त्री० [हिं० कसना] १. कसने, कसाने या कसे हुए होने की अवस्था या भाव। २. अच्छी गठन, बनावट और कार्य करने की योग्यता या शक्ति। कस-बल। जैसे—इसके शरीर की कसावट का ही मोल है।
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कसावड़ा  : पुं०=कसाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कसावर  : पुं० [?] एक प्रकार का देहाती बाजा।
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कंसिक  : वि० [सं० कंस+टिठन्-इक] काँसे का बना हुआ।
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कसिया  : स्त्री० [देश] भूरे रंग की एक प्रकार की चिड़िया।
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कसियाना  : अ० [हिं० कस=कसाव] काँरों, ताँबे आदि के बरतन में रखी हुई किसी वस्तु का कसैला होना। कसाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कसी  : पुं० [सं० कशकु] गवेधुक नाम का पौधा। स्त्री० १. =कस्सी। २. =कुसी।
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कसीटना  : स० [सं० कष्] १. कसना। २. रोकना। उदाहरण—प्राण ही कूँ धारि धारणा कसीटियतु है।—सुन्दर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कसीदा  : पुं० [फा० कशीदः] १. कपड़े पर सूई-डोरे से पशु पक्षियों के चित्र, बेल-बूटे आदि काढ़ने या बनाने का काम। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा महीन काम जिसे पूरा करने में आँखों पर बहुत जोर पड़ता हो। क्रि० प्र०-काढ़ना।—निकालना। पुं० [अ० कसीदः] उर्दू फारसी आदि की एक प्रकार की कविता, जिसमें प्रायः किसी की स्तुति या निन्दा होती है। (इसमें क्रम से १७ पंक्तियों का होना आवश्यक माना गया है।)
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कंसीय  : वि० [सं० कंस+छ-ईय] १. काँस संबंधी। काँसे का। २. काँसे के पात्र से संबंध रखनेवाला।
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कसीर  : वि० [अ] मान-मात्रा, संख्या आदि के विचार से बहुत अधिक प्रचुर।
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कसीस  : पुं० [सं० कासीस] एक प्रकार का खनिज पदार्थ जो लोहे का विकारी रूप होता है। (विट्रिआल)। स्त्री० [फा० काशिश, मि० सं० कर्ष] १. आकर्षण। खिंचाव। २. तनाव। ३. कठोरता और निर्दयता का व्यवहार। उदाहरण—सजीवन हौ, करौ पै कसीसै।—आनन्दघन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कसीसना  : स० [फा० कशिश, हिं० कसीस] १. खींचना। २. चढ़ाना या तानना। उदाहरण—सांस हिएँ न समाय सकोचनि, हाय इते पर बान कसीयत।—घनानंद।
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कंसुआ  : पुं० [हिं० कांस] कांसे के रंग का (भूरा) एक कीड़ा, जो ईख, ज्वार, बाजरे आदि की फसल को हानि पहुँचाता है।
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कंसुभ  : वि० [सं० कुसुंभ] कुसुंभ के फूल के रंग का। कुसुंभी।
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कंसुला  : पुं० [हिं० काँसा] [स्त्री० अल्प० कंसुली] काँसे का एक चौखूँटा टुकड़ा, जिसके पहलों में गोल-गोल गड्ढे होते हैं, जिससे सुनार घुँघरू बनाते हैं किटकिरा। पाँसा।
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कँसुवा  : पुं०=कंसुआ।
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कसून  : पुं० [देश] ऐसा घोड़ा जिसकी आँखे कंजी (खाकी) हों। सुलेमानी घोड़ा।
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कसूँभ  : पुं० =कुसुम।
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कसूँभी  : वि० [हिं० कुसम] १. कुसुम (पौधे या फूल) के रंग का। २. कुसुभ के फूलों के रंग से रँगा हुआ।
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कसूमर (ल)  : पुं० =कुसुम। वि०=कसूँभी।
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कसूर  : पुं० [अ] १. अपराध। २. दोष। ३. किसी प्रकार की विशेषतः अनजान में होनेवाली त्रुटि या भूल।
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कसूरमंद  : वि०=कसूरवार।
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कसूरवार  : वि० [फा०] जिसने कोई कसूर (अपराध, दोष या भूल) किया हो। अपराधी। दोषी।
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कसेई  : स्त्री०=कसी (पौधा)।
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कसेरहट्टा  : पुं०=कसरहट्टा।
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कसेरा  : पुं० [हिं० काँसा+एरा (प्रत्य०)] [स्त्री० कसेरिन] वह जो पीतल के बरतन आदि बनाता और बेचता हो।
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कसेरू  : पुं० [सं० कशेरू] एक प्रकार के मोथे की जड़ जो गाँठों के रूप में होती है और मीठी तथा स्वादिष्ट होने के कारण फल के रूप में खाई जाती है।
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कसैया  : वि० [हिं० कसना] १. कसने या जकड़ कर बाँधनेवाला। २. कसौटी आदि पर कसने अथवा किसी प्रकार से जाँच या कठिन परीक्षा करनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कसैला  : वि० [हिं० कसाव+ऐला (प्रत्यय)] [स्त्री० कसैली] स्वाद में ऐसा जिसके खाने से जीभ में हलकी ऐंठन,चुनचुनी या कुछ तनाव होता हो। जिसका स्वाद आँवले,फिटकरी,सुपारी आदि के स्वाद का-सा हो।
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कसैलापन  : पुं० [हिं० कसैला+पन(प्रत्यय)] कसैले होने की अवस्था या भाव।
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कसैली  : स्त्री० [हिं० कसैला] सुपारी।
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कसोरा  : पुं० [अ० सुकरः] [हिं० काँसा+ओरा प्रत्यय] १. काँसे का बना हुआ चौड़े मुँहवाला छोटा कटोरा या प्याला। २. उक्त के आकार-प्रकार का मिट्टी का एक प्रसिद्ध छोटा बरतन।
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कसौंजा  : पुं० [सं० कासमर्द्द, पा० कासमद्द] एक प्रकार का बरसाती पौधा। कासमर्द।
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कसौंजी  : स्त्री०=कसौंजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कसौंटी  : स्त्री० [सं० कषपट्टी, प्रा० कसवट्टी] १. काले रंग का एक प्रकार का पत्थर जिस पर रगड़कर सोने की उत्तमता परखी जाती है। (टच-स्टोन) २. कोई ऐसा मानक आधार जिससे किसी वस्तु का ठीक-ठीक महत्त्व या मूल्य आँका जाता हो। (क्राइटेरियन) जैसे—सत्य का आचरण चरित्र की पहली कसौटी है।
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कसौंदा  : पुं० =कसौंजा।
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कसौंदी  : स्त्री०=कसौंजा।
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कस्तँ  : पुं० =कस्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कस्तरी  : स्त्री० [फा० कासा] चौड़े मुँहवाला मिट्टी का एक प्रकार का बरतन जिसमें दूध आदि पदार्थ उबाला जाता है।
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कस्तीर  : पुं० [सं० क√तृ+अच्, नि० सुट्] टीन।
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कस्तूर  : पुं० [सं० कस्तूरी] १. कस्तूरी मृग। २. कई प्रकार के जंतुओ की नाभि या दूसरे अंगो से निकलने वाले सुगंधित पदार्थ जो प्रायः कस्तूरी की तरह के होते है।
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कस्तूरा  : पुं० [सं० कस्तूरी] १. कस्तूरी मृग। (देखें) २. लोमड़ी की तरह का एक प्रकार का जंतु। ३. कश्मीर से असम तक पाया जानेवाला भूरे रंग का एक सुरीला पक्षी जो प्रायः झुंड में रहता है। ४. वह सीपी जिसमें से मोती निकलता है। ५. एक प्रकार की सुगंधित और बलकारक ओषधि जो पोर्ट ब्लेयर की चट्टानों से खुरचकर निकाली जाती है। ६. जहाज में जड़े हुए तख्तों का जोड़ या संधि।
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कस्तूरिका  : स्त्री० [सं० कस्तूरी+कन्-टाप्, ह्रस्व] कस्तूरी।
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कस्तूरिया  : पुं० [हिं० कस्तूरी] कस्तूरी मृग। वि०१. कस्तूरी-संबंधी। कस्तूरी का। २. जिसमें कस्तूरी मिली हो। ३. कस्तूरी के रंग का। मुश्की।
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कस्तूरी  : स्त्री० [सं०√कस् (गति)+ऊर, तुट्, ङीष्] एक बहुत प्रसिद्ध और उत्कृष्ट सुगंधवाला पदार्थ जो नर कस्तूरी मृग (देखें) की नाभि के पास की थैली में पाया जाता है, और जिसका उपयोग अनेक प्रकार के सुगंधित द्रव्य तथा औषध बनाने में होता है। मुश्क। (मस्क)।
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कस्तूरीमृग  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. हिरन की जाति का एक प्रकार का छोटा बिना सींगवाला जंतु जिसका रंग गहरा और चटकीला भूरा होता है जिसके शरीर पर मट-मैले रंग की चित्तियाँ होती हैं। यह नेपाल, पश्चिमी असम और भूटान तथा मध्य एशिया के घने जंगलों में पाया जाता है। इस जाति के नर जन्तुओं में नाभि के पास एक छोटी गोल थैली होती है जिसके अन्दर कस्तूरी (देखें) भरी रहती है। (मस्क डीअर) २. गंध मार्जार। मुश्क। बिलाव।
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कस्द  : पुं० [अ०] १. इरादा। विचार। २. दृढ़ या पक्का निश्चय। संकल्प।
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कस्दन्  : अव्य० [अ०] इच्छा या विचार करके। जानबूझकर।
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कस्ब  : पुं० =कसब।
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कस्मिया  : क्रि० वि० [अ० कस्मियः] कसम खाकर। शपथपूर्वक।
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कस्सर  : स्त्री० [हिं० कसना मि० अ० कासर] लंगर खींचने या उठाने का काम। (लश०)।
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कस्सा  : पुं० [?] १. बबूल की छाल जिससे चमड़ा सिझाते हैं। २. उक्त छाल से बनानेवाली एक प्रकार की शराब। वि० [हिं० कसना] कम। थोड़ा। (पश्चिम) जैसे—कस्सा तौलना।
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कस्साब  : पुं० [अं०] कसाई।
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कस्सी  : स्त्री० [सं० कशा=रस्सी] १. जमीन नापने की रस्सी, जो दो कदम या ४ ९¼ इंच के बराबर होती है। २. जमीन का उक्त नाप। स्त्री० [सं० कषण] एक प्रकार का छोटा फावड़ा जिससे माली जमीन खोदते हैं। कुसी।
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कहँ  : प्रत्य० [सं० कक्ष, पा० कच्छ] के लिए। वास्ते। क्रि० वि०=कहाँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कह  : वि० [सं० कः] क्या। उदाहरण—मैं कह करौं सुतहिं नहीं बरजति।—सूर। पुं० [सं० कथ] १. आवाज। शब्द। २. कोलाहल। शोर। (राज०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कह-मुकरी  : स्त्री० दे० ‘मुकरी’।
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कहकहा  : पुं० [अ० अनु] एक साँस में बहुत जोर से होनेवाली ऐसी हँसी जिसमें बहुत शब्द भी होता है। ठहाका।
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क़हक़हा  : दीवार
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कहकहाहट  : स्त्री० [अ० कहकह=अट्टहास] जोर की हँसी। कहकहा। उदाहरण—हुइ रहियौ कहकहाहट।—प्रिथीराज।
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कहगिल  : स्त्री० [फा० काह=घास+गिल=मिट्टी] मिट्टी की दीवारों आदि पर लगाने का वह गारा जिसमें घास-फूस या भूसा मिला होता है।
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कहत  : पुं० [अ०] अकाल। दुर्क्षिभ।
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कहँतरी  : स्त्री० [?] मिट्टी का बरतन।
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कहतसाली  : स्त्री० [अ० कहत+साल] दुर्क्षिभ का समय। अकाल के दिन।
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कहन  : स्त्री० [सं० कथन] १. कथन। उक्ति। २. वचन। ३. कहावत। ४. लोक में प्रचलित कोई पद या पद्य का चरण।
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कहना  : स० [सं० कथ, प्रा० कह, कध, कत्थ, कहिज्ज, गु० कहवूं, पं० कैना, सिं० कहनुँ, मरा० कथणें] १. मुँह से सार्थक पद,वाक्य या शब्द का उच्चारण करना। बोलना। जैसे—कुछ कहो तो सही। २. अपना उद्देश्य भाव० विचार आदि शब्दों में व्यक्त करना। जैसे—(क) मुझे जो कुछ कहना था वह मैंने कह दिया। (ख) अब अपनी कहानी कहेगें। मुहावरा—कहना बदना=(क) किसी बात का निश्चय करना। (ख) प्रतिज्ञा करना। कहना-सुनना=बातचीत या वार्तालाप करना। पद—कहने की बात=महत्त्वपूर्ण बात। कहने को=क) नाममात्र को। यों ही। जैसे—कहने को ही यह नियम चल रहा है। (ख) यों ही काम चलाने या बात टालने के लिए। जैसे—उन्होंने कहने को कह दिया कि हम ऐसा नहीं करेंगे। कहने-सुनने को=कहने को। ३. घोषणा करना। जैसे—राष्ट्रपति ने रात को रेडियो पर कहा है कि स्थिति सुधरते ही यह आदेश लौटा लिया जायगा। ४. चेष्टा, संकेत आदि से अपना आंतरिक भाव जतलाना। जैसे—ये आँखें कुछ कह रही हैं। ५. समाचार या सूचना देना। जैसे—उनका नौकर अभी-अभी यह कह गया है। ६. नाम रखना। पुकारना। जैसे—उन्हें लोग राय साहब कहने लगे हैं। ७. बतलाना या समझाना-बुझाना। जैसे—कई बार उससे कहा गया है पर उनकी समझ में नहीं आता। पद—कहना-सुनना-(क) समझाना-बुझाना। (ख) प्रार्थना करना। ८. बातों में बहलाना या भुलाना। बहकाना। जैसे—इसके संगीसाथी जो कुछ कहते हैं वही यह करता है। मुहावरा—(किसी के) कहने या कहने-सुनने में आना=किसी की अर्थहीन या झूठी बातों को ठीक मानकर उनके अनुसार चलना। (किसी के) कहने पर चलना=आदेश, उपदेश आदि के अनुसार काम करना। ९. अनुचित या अनुपयुक्त कहना। भली-बुरी बातें कहना। जैसे—जो एक कहेगा, वह चार सुनेगा। पुं० १. कथन। बात। २. आज्ञा। आदेश। ३. अनुरोध। प्रार्थना।
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कहनाउत  : स्त्री०=कहनावत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कहनाम  : पुं० [हिं० कहना] १. किसी की कही हुई बात। उक्ति। कथन। २. कहावत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहनावत  : स्त्री० [हि० कहना+आवत (प्रत्य०)] १. किसी की कही हुई बात उक्ति। कथन। उदाहरण—सुनहु सखी राधा कहनावति।—सूर। २. दे० ‘कहावत’।
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कहनि  : स्त्री०=कहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहनी  : स्त्री० [सं० कथनी, प्रा० कहनी] १. उक्ति। कथन। बात। २. कथा। कहानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहनूत  : स्त्री०=कहनावत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहर  : पुं० [अ० कह्र] १. आपत्ति। विपत्ति। संकट। २. विकट क्रोध। प्रकोप। मुहावरा—कहर करना=बहुत ही भयानक, भीषण या विकट काम करना। (किसी पर) कहर करना=बहुत बड़ा अत्याचार या अनर्थ करना। किसी को बहुत बड़ी विपत्ती या संकट में डालना। कहर टूटना=बहुत बड़ी विपत्ति या संकट आना। (किसी पर) कहर ढाना या तोड़ना=किसी को अपने भीषण प्रकोप का पात्र या भाजन बनाना। कुद्ध होकर ऐसा काम करना जिससे कोई बहुत बड़े संकट मे फँसे। पद—कहर का=(क) बहुत अधिक भयानक, भीषण या विकट। (ख) बहुत ही अद्भुत या अनोखा। परम विलक्षण। (ग) बहुत बड़ा-चढ़ा। महान। ३. खलबली। हलचल। मुहावरा—कहर मचना=बहुत बड़ा उत्पात या उपद्रव होना। वि० [अ० कह्रहार] १. अगम। अपार। २. घोर। भयंकर। ३. बहुत प्रबल या विकट।
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कहरना  : अ०=कराहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहरवा  : पुं० [हिं०कहार] १. पाँच मात्राओं का एक ताल। २. दादरे की तरह का एक प्रकार का गीत जो उक्त ताल पर गाया जाता है। ३. उक्त ताल पर होनेवाला नाच। विशेष—संभवतः कहरवा नामक गीत पहले कहारों आदि में ही प्रचलित था।
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कहरी  : वि० [अ० कहर+ई (प्रत्यय)] १. कहर संबधी। २. कहर या आफत ढानेवाला। (व्यक्ति)। ३. बहुत उग्र या तीव्र (गुण, प्रभाव, स्वभाव आदि)।
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कहरुबा  : पुं० [फा०] १. गोंद की तरह का एक पदार्थ जिसे कपड़े आदि पर रगड़कर घास या तिनके के पास रखने से उस कपड़े में चुंबक की-सी शक्ति आ जाती है। तृण-मणि। २. एक प्रकार का सदाबहार वृक्ष, जिसका गोंद राल या धूप कहलाता है।
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कहल  : पुं० [देश] १. बरसात में हवा बंद होने के कारण उत्पन्न होनेवाली गरमी। उमस। २. कष्ट। ३ संताप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहलना  : अ० [हिं० कहल] १. उमस के कारण बेचैन या विकल होना। २. आकुल होना। अकुलाना। ३. आलस्य, संकोच आदि के कारण किसी काम से दूर रहना या बचना।
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कहलवाना  : स०=कहलाना।
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कहलाना  : स० [कहना का प्रे० रूप] १. कहने का काम किसी दूसरे से कराना। किसी को कुछ कहने में प्रवृत्त करना। जैसे—मैंने तो आपके सामने उसमें सब बातें कहला ली हैं। २. किसी के द्वारा किसी के पास संदेशा भेजना। जैसे—किसी को भेजकर उन्हें कहला दो कि कल आवें। अ० किसी का किसी नाम से पुकारा जाना या प्रसिद्ध होना। कहा जाना। जैसे—यह कपड़ा गवरून कहलाता है। अ० [हिं० कहल] उमस, गरमी, आदि से व्यथित या व्याकुल होना। उदाहरण—कहलाने एकत बसत, अहि मयूर, मृग, बाघ।—बिहारी।
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कहवाँ  : वि०=कहाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहवा  : पुं० [अ०] १. एक प्रकार का क्षुप जिसके सफेद फूलों में से निकले हुए दाने या बीजों से एक प्रकार का पेय बनता है। २. उक्त वृक्ष के दाने या बीज। ३. उक्त दानों या बीजों को भूनकर उनसे बनाया हुआ (चाय की तरह का) पेय पदार्थ (काँफी, उक्त सभी अर्थों के लिए)
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कहवाखाना  : पुं० [अ०+फा०] वह स्थान जहाँ पेय के रूप में कहवा बिकता है। (कॉफी हाउस)।
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कहवाना  : स०=कहलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहवैया  : वि० [हिं० कहना+वैया प्रत्यय] जो किसी से कुछ कहे। कहनेवाला।
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कहाँ  : अव्य० [वैदिक० सं० कुह, म० सं० कुत्र; पा० कुत्थ० पं० कित्थे, बँ० कोथाय, मरा० कुठें, सिं० कित्थी] १. एक प्रश्न-वाचक अव्यय जिसका प्रयोग मुख्यतः स्थान के संबंध में जिज्ञासा या प्रश्न के प्रसंग में होता है। किस स्थान पर? किस जगह जैसे—अब यहाँ से आप कहाँ जायेंगे? २. किसी अवधि,सीमा या स्थिति के संबध में प्रश्नावाचक अव्यय। जैसे—(क) अब कहाँ तक उनकी प्रतीक्षा की जाय। (ख) लिखिएगा वह काम कहाँ तक पहुँचा है। ३. उपेक्षा,तिरस्कार आदि के प्रसंगों में किसी अज्ञात या अनिश्चित स्थान का वाचक अव्यय। जैसे—(क) अजी बैठे रहो,तुम वहाँ कहाँ जाओगे। (ख) यह बला तुमने कहाँ से अपने पीछे लगा ली। पद—कहाँ…कहाँ…=पारस्परिक बहुत अधिक अन्तर या भेद का सूचक पद। जैसे—कहाँ बिहारी सतसई कहाँ यह तुक-बंदी। कहाँ का=(क)किसी उपेक्ष्य या नगण्य स्थान का। जैसे—तुमने यह झगड़ा अपने पीछे लगा लिया (ख) काकु से,कहीं का नहीं। जैसे—वह कहाँ का पंडित है जो तुम्हें व्याकरण पढ़ावेगा। (ग) कुछ भी नहीं। बिलकुल नहीं। जैसे—जब लड़के को ताश का शौक लग गया तब कहाँ का पढ़ना और कहाँ का लिखना। कहाँ का कहाँ=प्रस्तुत प्रसंग या स्थान से बहुत दूर। जैसे—आप भी कहाँ की बात कहाँ ले गये। कहाँ का…कहाँ का=ऐसे अज्ञात या अनिश्चित स्थान, जिन में परस्पर बहुत अधिक अन्तर या भेद हो। जैसे—यह तो संयोग से भेंट हो गयी,नहीं तो कहाँ के आप और कहाँ के हम। कहाँ की बात=यह बिलकुल अनहोनी या निराधार बात है। कहाँ तक=किस अवधि, परिमाण या सीमा तक, अर्थात् इससे आगे बढ़ना ठीक या संभव नहीं। जैसे—अब कहाँ तक कहा जाय, यही समझ लीजिए कि वह हद से ज्यादा झूठा है। पुं० [अनु] बहुत छोटे बच्चों के रोने का शब्द।
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कहा  : पुं० [हिं० कहना] १. कही हुई बात। उक्ति। कथन। पद—कहा-सुनी। २. आज्ञा। आदेश। जैसे—बड़ों का कहा माना करो। स्त्री०=कथा। सर्व०=क्या (व्रज) जैसे—मोसों तोसों अब कहा काम।—गीत। क्रि० वि० किस प्रकार का। कैसा।
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कहा-सुना  : पुं० [हिं० कहना+सुनना] अनजान में या भूल से कही हुई कोई अप्रिय या अनुचित बात या हो जानेवाला कोई अनुचित या असंगत व्यवहार। जैसे—हमारा कहा-सुना माफ करें।
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कहा-सुनी  : स्त्री० [हिं० कहना+सुनना] आपस में कही और सुनी जानेवाली, अप्रिय या अशिष्ट बातें। झगड़े या विवाद का आरंभिक या हलका रूप।
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कहाउ  : पुं० =कहा। (उक्ति)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहाउति  : स्त्री०=कहावत।
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कहाकही  : स्त्री०=कहा-सुनी।
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कहाका  : पुं०=कहकहा।
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कहाना  : स०=कहलाना।
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कहानी  : स्त्री० [सं० कथनिका, प्रा० कहाणिआ, सिं० मरा, कहाणी] १. मौखिक या लिखित, कल्पित या वास्तविक तथा गद्य या पद्य में लिखी हुई कोई भाव प्रधान या विषय-प्रधान घटना, जिसका मुख्य उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन करना, उन्हें कोई शिक्षा देना अथवा किसी वस्तु-स्थिति से परिचित कराना होता है। (स्टोरी) २. कोई झूठी या मनगढंत बात। मुहावरा—कहानी जोड़ना=आवश्यकता से अधिक और प्रायः अरुचिकर या निरर्थक वृत्तांत। पद—राम-कहानी-लंबा=चौड़ा वृत्तांत। ३. =कथा।
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कहार  : पु० [सं० कं=जल+हार या स्कंधभार] [स्त्री० कहारिन, कहारी] लोगों के यहाँ पानी भरकर तथा उनकी छोटी-छोटी सेवाएँ करके जीविका चलानेवाली एक जाति। इस जाति के लोग डोली आदि भी ढोते हैं।
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कहारा  : पुं० [सं० स्कंधभार] बड़ा टोकरा। दौरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहाल  : पुं० [देश] एक प्रकार का बाजा।
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कहावत  : स्त्री० [हिं०कह=कही हुई बात+वत प्रत्यय] १. ऐसा बँधा हुआ लोक-प्रचलित कथन या वाक्य, जिसमें किसी तथ्य या अनुभूत सत्य का चमत्कारपूर्ण ढंग से प्रतिपादन या प्रस्थापन किया गया हो। जैसे—(क) नाच न आवै आँगन टेढ़ा। (ख) चिराग तले अँधेरा। २. किसी को भेजा हुआ विशेषतः मृत्यु-संबंधी संदेश।
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कहिअ  : क्रि० वि० [हिं० काहे, सं० कथम्] किसलिए। क्यों। उदाहरण—ऐसे पितर तुम्हारे कहि अहि आपन कहिअ न लेही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कहिया  : क्रि० वि० [सं० कर्हि] किस दिन। किस रोज। स्त्री० [?] कलईगरों का एक औजार जिससे वे राँगा रखकर धातु के बरतन आदि जोड़ते हैं।
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कहीं  : अव्य० [हिं० कहाँ] १. ऐसी जगह जिसका कुछ ज्ञान या निश्चय न हो। अनजानी जगह, किसी अज्ञात स्थान पर। जैसे—थोड़ी देर हुई वे कहीं चले गये हैं। पद—कहीं और=किसी दूसरे स्थान पर। जैसे—यह ओषधि यहाँ तो नहीं किन्तु कहीं और अवश्य मिलेगी। २. ऐसा स्थान जिसका स्पष्ट रूप से निरूपण या निर्धारण न किया गया हो। जैसे—यह पुस्तक भी कहीं रख दो। पद—कहीं का=न जाने किस जगह का। (उपेक्षा, तिरस्कार आदि का सूचक। जैसे—पाजी कहीं का। कहीं का कही=एक जगह से हट कर दूसरी जगह बिलकुल अलग या बहुत दूर। जैसे—दो ही वर्षों में नदी कहीं की कहीं चली गई। कही-कही=कुछ अवसरों या स्थानों में। जैसे—कहीं कहीं य़ह भी पाठ मिलता है। कहीं न कहीं=किसी-न-किसी स्थान पर। जैसे—तुझे ढूँढ़ ही लेगे कहीं-न-कहीं।—गीत। मुहावरा— कहीं का न रहना=(क) किसी भी काम या पद के योग्य न रह जाना। (ख) सब तरफ से गया बीता या नगण्य हो जाना। जैसे—आपके फेर में पड़कर हम कहीं के न रहे। ३. किसी अज्ञात परन्तु संभावित अवस्था या दशा में। जैसे—(क) कहीं यह दवा तुमने खा ली होती तो अनर्थ हो जाता। (ख) जल्दी चलो, कहीं गाड़ी निकल न जाय। ४. बहुत अधिक बढ़कर। जैसे—यह उससे कहीं बढ़कर है। ५. (काकु से) कदापि नहीं। कभी नहीं। जैसे—ऐसा कहीं हो सकता है।
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कही  : स्त्री० [हिं० कहना] १. उक्ति। कथन। उदाहरण—कहत न परत कही।—सूर। २. उपदेश, विधि आदि के रूप में कही हुई बात। उदाहरण—एक न लगत कही काहू की, कहति कहति सब हारी।—नारायण स्वामी।
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कहुँ  : क्रि० वि०=१. किसी जगह। कहीं। २. के लिए। वास्ते। उदाहरण—अंत काल कहुँ भारी।—कबीर। विभ०=को।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कहुआ  : पुं० [सं० कीह] १. अर्जुन नामक वृक्ष। पुं० [सं० क्वाथ] घी, चीनी, मिर्च, और सोंठ को पकाकर बनाया हुआ अवलेह जो जुकाम या सरदी होने पर खाया जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहुला  : वि०=काला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहुँवै  : क्रि० वि०=कहीं। (ब्रज)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कहूँ  : क्रि० वि०=कहीं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कह्यारी  : स्त्री० [हिं० कहना] कहने या बात करने का ढंग। उदाहरण—आछी आछी बात कहै आछियँ कह्यारी सों।—केशव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कह्र  : पुं० दे० ‘कहर’।
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कह्लार  : पुं० [सं० क√ह्लाद (प्रसन्न होना)+अच् (पृषो०) द=र] सफेद कमल।
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का  : प्रत्य० [विभक्तिप्रत्यय] [स्त्री की] षष्ठी विभक्ति का चिन्ह जो संबंध का सूचक होता है। जैसे—राम का घोड़ा। अव्य०=क्या (प्रश्नवाचक) सर्व० ब्रजभाषा में ‘कौन’ का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने से पहले प्राप्त होता है। जैसे—काकों, कासों।
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काँ-काँ  : पुं० [अनु] १. कौए के बोलने का शब्द। २. लाक्षणिक अर्थ में शोरगुल।
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काइ  : अव्य० [सं० कः] १. क्या। २. चाहे। (राज०)।
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काइच  : पुं० =कायस्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काइयाँ  : वि० [हिं० चाइयाँ का अनु०] बहुत अधिक चालाक या धूर्त्त। (व्यक्ति)।
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काइयाँ  : वि० [हिं० चाइयाँ का अनु०] बहुत बड़ा चालाक या धूर्त।
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काँई  : अव्य० [सं० किम] किसलिए। क्यों। सर्व० किसको। किसे। (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काई  : स्त्री० [सं० कावार] १. एक प्रकार की प्रसिद्ध बहुत छोटी वनस्पति जो जल में उगकर उसके कंकड़ों, पत्थरों आदि पर जम जाती है और जिस पर पैर पड़ने से आदमी और जानवर प्रायः फिसल जाते हैं। मुहावरा—काई की तरह फट जाना=बिलकुल छिन्न-भिन्न होकर इधर-उधर हो जाना। २. कोई ऐसा मैल जो कहीं अच्छी तरह जम या बैठ गया हो। जैसे—पहले इन बरतनों पर की काई छुड़ालो तब तीर्थ-यात्रा करने निकलना। ३. दरिद्रता आदि के कारण उत्पन्न दुर् अवस्था। जैसे—कुछ काम-धंधा करना सीखो जिससे घर की काई छूटे। ४. मन में एकत्र कलुष दुर्भाव पाप आदि मल। मलीनता। जैसे—पहले अपने मन की काई छुड़ा लो, तब तीर्थ-यात्रा करने निकलो।
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काउ  : अव्य०=काऊ (कभी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काउरू  : स्त्री०=काँवर।
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काऊ  : अव्य० [सं० कदा] कभी। सर्व० १. =कोई। २. =कुछ (ब्रज०)। पुं० =काहू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काँक  : पुं० [सं० कंकु] कँगनी नाम का अन्न। पुं० [सं० कंक] सफेद चील।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काक  : पुं० [सं० कै (शब्द करना)+कन्] १. कौआ नामक प्रसिद्ध पक्षी। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो बहुत अधिक चालाक या धूर्त हो। २. माथे पर तिलक लगाकर बनाई हुई आकृति। पुं० =काग (वृक्ष और उसकी छाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काक-गोलक  : पुं० [ष० त०] कौए की आँख की पुतली। विशेष—ऐसा प्रवाद है कि कौए की एक पुतली होती है जिसे वह आवश्यकतानुसार आँखों या गोलकों में पहुंचा सकता है।
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काक-जंघा  : स्त्री० [ब० स०] १. एक प्रकार की वनस्पति। चकसेनी। मसी। २. मुगवन नाम की लता। ३. गुंजा। घुँघची।
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काक-दंत  : पुं० [ष० त०] वैसी ही अनहोनी या असंभव बात जैसी कौए के दाँत होने की चर्चा।
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काक-ध्वज  : पुं० [ब० स०] बाड़वानल बाड़वाग्नि।
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काक-नासा (नासिका)  : स्त्री० [ब० स०] काक-जंघा नामक वनस्पति।
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काक-पक्ष  : पुं० [ब० स०] बालों के वे पट्टे जो पुराने जमाने में दोनों ओर कानों के ऊपर रक्खे जाते थे।
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काक-पद  : पुं० [ब० स०] १. लिखने में एक प्रकार का चिन्ह जो लेख में पंक्ति के नीचे यह सूचित करने के लिए लगाया जाता है कि यहाँ वह पद या शब्द छूट गया है जो उसके ऊपर लिखा गया है। इसका रूप यह है -^। २. हीरे का एक प्रकार का दोष।
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काक-फल  : पुं० [ब० स०] नीम का पेड़ जिसके फल (नीम कौड़ी) कौए खाते हैं।
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काक-बंध्या  : स्त्री० [उपमि० स०] ऐसी स्त्री जो एक संतान प्रसव करने के बाद बाँझ हो गई हो। एक बाँझ।
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काक-बलि  : स्त्री० [मध्य० स०] श्राद्ध के समय भोजन का वह अंश जो कौओं को दिय़ा जाता है। कागौर।
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काक-माता (तृ)  : स्त्री० [ष० त०]=काकमाची।
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काक-रव  : पुं० [ष० त०] १. कौए का शब्द। २. [ब० स०] लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो व्यर्थ में अथवा जरा-सी बात होने पर होहल्ला मचाने लगे। ३. कायर या डरपोक व्यक्ति।
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काँकड़ा  : पुं० [हिं० कंकड़] १. कपास का बीज। विनौला। २. कंकड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काकड़ा  : पुं० [सं० कर्कट, प्रा० कक्कड़] १. बारहसिंघे की जाति का गाढ़े कत्थई रंग का एक जंगली पशु जो लगभग २॰-२२ फुट ऊंचा तथा ३ फुट लंबा होता है। २. एक प्रकार का पहाड़ी पेड़।
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काकड़ासींगी  : स्त्री० [सं० कर्कटश्रृंगी] एक प्रकार की पर-जीवी वनस्पति जो काकड़ा नामक वृक्ष पर चढ़कर फैलती और बढ़ती है और जिसका ओषधि में उपयोग होता है।
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काकतंड़ी  : स्त्री० [सं० काक√तुण्ड् (नष्ट करना)+अण्-ङीष्] कौआटोंटी (पौधा)
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काकतालीय  : वि० [सं० काकताल+छ-ईय] ठीक उसी प्रकार अचानक और आप-से-आप संयोगवश तथा सहसा हो जानेवाला जिस प्रकार किसी कौए के बैठते ही ताड़ का कोई फल गिर पड़ता है।
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काकतालीय न्याय  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का सिद्धांत सूचक न्याय या कहावत जिसका प्रयोग ऐसे अवसरों पर होता है जब कोई एक बड़ी घटना संयोगवश बहुत बड़ी घटना के साथ या एक ही समय में हो जाती है और दोनों घटनाओं में कार्य-कारण संबंध का धोखा होने की संभावना रहती है।
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काकंदि  : स्त्री० [सं० ] आधुनिक कोकंद देश का पुराना नाम।
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काकपदी (दिन्)  : वि० [सं० काक-पद, ष० त०+इनि] काकपद के आकार या रूप का। इस आकार का-^
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काकपुष्ट  : पुं० [तृ० त०] कोयल।
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काकब  : पुं० =काकपक्ष।
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काकभुशुंडि  : पुं० एक राम-भक्त ब्राह्मण जो लोमश ऋषि के शाप से कौआ हो गए थे।
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काकमाची  : स्त्री० [सं० काक√मञ्च् (धारण करना)+अण्, ङीष् (पृषो) नलोप] मकोय नामक पौधा और उसका फल।
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काकमारी  : स्त्री०=ककमारी (लता)।
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काँकर  : पुं० [स्त्री० काँकरी]=कंकड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काँकरी  : स्त्री० [हिं०काँकर का अल्प०] छोटा कंकड़। मुहावरा—काँकरी चुनन=घोर, चिंता वियोग आदि के समय पागलों की तरह चुपचाप सिर झुकाकर बैठे रहना या समय बिताने के लिए जमीन पर पड़ी हुई कंकड़ियाँ उठा-उठाकर इधर-उधर करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काकरी  : स्त्री०=कंकड़ी।
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काकरूक  : पुं० [सं० कु√कृ (करना)+ऊक, कु०=क] १. उल्लू। २. पत्नी का आज्ञाकारी और भक्त। जोरू का गुलाम।
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काँकरेच  : स्त्री० [?] गौओं, बैलों की एक जाति या नसल।
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काकरेज  : पुं० [फा०] एक प्रकार का गहरा काला रंग जिसमें ऊदे या नीले रंग की भी कुछ छाया होती हो। वि० उक्त प्रकार के रंग का। काकरेजी।
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काकरेजा  : पुं० [फा०] काकरेज रंग का कपड़ा।
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काकरेजी  : वि० [फा०] ऐसा गहरा काला जिसमें ऊदे या नीलेपन की भी कुछ झलक हो। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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काकल  : पुं० [कु-कल, ब० स० कु=क] [वि० काकली] १. गले के अंदर की घंटी। २. कौआ।
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काकली  : स्त्री० [सं० कु-कलि, प्रा० स० कु०=क, काकलि+ङीष्] १. ऐसी कल या नाद जो मंद तथा मधुर हो। कोमल तथा प्रिय ध्वनि या स्वर। २. संगीत में ऐसा मन्द तथा मधुर स्वर जो यह जानने के लिए उत्पन्न किया जाता है कि कोई जाग रहा है या सो रहा है। ३. घुँघची। ४. साठी धान। ५. काकली द्राक्षा (देखें)।
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काकली-द्राक्षा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. एक प्रकार का छोटा अंगूर या दाख जिसे सुखा कर किशमिश बनाते हैं। २. किशमिश।
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काकली-निषाद  : पुं० [सं० मध्य० स०] संगीत में निषाद स्वर का एक विकृत रूप।
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काकली-रव  : पुं० [ब० स०] [सं० काकली-रवा] कोयल।
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काकलोद  : स्त्री० [सं० आकुलता] मन में होनेवाली किसी प्रकार की आकुलता या विकलता।
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काका  : पुं० [फा० काका=बड़ा भाई] [स्त्री० काकी] १. पिता का छोटा भाई। चाचा। २. छोटा बच्चा। (पश्चिम)। स्त्री० [सं० काक+अच्, टाप्] १. कांकजंघा। मसी। २. काकोली। ३. घुँघची। ४. कठ-गूलर। कठमर। ५. मकोय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काका-कौआ  : पुं० =काकातुआ।
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काकाक्षिगोलक  : पुं० [काक-अक्षिगोलक, ष० त०]=काकगोलक (दे०)।
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काकाक्षिगोलक-न्याय  : पुं० [सं० कर्म० स०] उस स्थिति का सूचक नियम या सिद्धांत जिसमें कोई तत्त्व या बात दोनों ओर या पक्षों में समान रूप से ठीक बैठती हो। (अर्थात् उसी प्रकार बैठती हो जिस प्रकार लोकमान्यता के अनुसार कौए की एक पुतली उसके दोनों गोलकों में फिरती है।) काकातुआ पुं० [मला० ककाटू] तोते की जाति का एक बड़ा पक्षी जो प्रायः अपनी सुन्दरता के लिए पाला जाता है।
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काकांगा  : स्त्री० [सं० काक-अंग, ब० स० टाप्] काकजंघा।
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काकारि  : पुं० [काक-अरि, ब० स०] उल्लू।
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काकिणी  : स्त्री० [सं०√कक् (लौल्य)+णिनि, ङीष्, णत्व] १. प्राचीन भारत में मुद्रा का एक मान जो पण का चौथाई भाग अर्थात् २॰ कौड़ियों का होता था। २. एक प्राचीन तौल जो एक माशे की चौथाई होती थी। ३. कौड़ी। ४. गुंजा। घुँघची।
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काकिनी  : स्त्री०=काकिणी।
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काकिल  : पुं० [सं० कु√कृ (विक्षेप)+क, ऋ=इर्, र=ल, कु०=क] मधुर ध्वनि या स्वर। काकली।
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काकी  : स्त्री० [सं० काक+ङीष्] काक अर्थात् कौए की मादा। स्त्री० [हिं० काक] १. काका या चाचा की पत्नी। चाची। २. छोटी बच्ची या लड़की। (पश्चिम)।
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काकु  : पुं० [सं०√कक्+अण्] १. वह विचित्र या परिवर्तित ध्वनि जो आश्चर्य, कष्ट, क्रोध, भय आदि के कारण मुँह से निकलती है। ऐसी बात जो अप्रत्यक्ष रूप से किसी का मन दुखाती हो। २. वक्रोक्ति अलंकार का एक भेद, जिसमें किसी की काकु उक्ति में कही हुई बात का दूसरे द्वारा अन्य अर्थ कल्पित किया जाता है। जैसे—नव रसाल वन विहरण सीला। सोह कि कोकिल विपिन करीला।—तुलसीदास।
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काकु-वक्रोक्ति  : स्त्री० [कर्म० स०] दे० काकु।
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काकुत्स्थ  : पुं० [सं० ककुत्स्थ+अण्] ककुत्स्थ राजा के वंश में उत्पन्न व्यक्ति। २. श्रीराम -चन्द्रजी।
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काकुद  : पुं० [सं० काकु√दा (देना)+क] तालु।
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काकुन  : स्त्री०=कंगनी (अन्न)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काँकुनी  : स्त्री०=कँगनी।
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काकुल  : पुं० [फा०] कनपटी पर लटकते हुए ऐसे लंबे बाल जो सुंदर जान पड़ें। जुल्फ। मुहावरा—काकुल छोड़ना=बालों की जुलफें इधर-उधर निकालना या लटकाना। काकुल झाड़ना=बालों में कंघी करना।
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काकोदर  : पुं० [काक-उदर, ब० स०] [स्त्री० काकोदरी] साँप।
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काकोल  : पुं० [सं० कु√कुल् (पीड़ित करना)+घञ्, कु०=का] एक प्रकार का विष।
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काकोली  : स्त्री० [सं० काकोल+ङीष्] एक प्रकार की वनस्पति जिसका कंद औषध के काम आता है।
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काकोलूकीय-न्याय  : पुं० [सं० काक-उलूक, द्व० स० काकोलूक+छ-ईय, काकोलूकीय-न्याय, कर्म० स०] ऐसी स्थिति जो इस बात की सूचक हो कि यहाँ दोनों पक्षों में वैसा ही वैर है जैसे स्वभावतः कौवे और उल्लू में होता है।
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कांक्षा  : स्त्री० [वि० कांक्षनीय, कांक्षी, भू० कृ० कांक्षित]=आकांक्षा।
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कांक्षित  : वि० [सं०√कांक्ष् (चाहना)+क्त] जिसकी कांक्षा या इच्छा की गई हो।
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काँक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं०√कांक्ष्+णिनि] काँक्षा या इच्छा करनेवाला। आकांक्षी।
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काँख  : स्त्री० [सं० कक्ष] घड़ और बाँह के बीच का वह भाग जो कंधे के नीचे पड़ता और गड्ढे के रूप में होता है।
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काँखना  : अ० [अनु०] १. मल-त्याग के समय आँतों या पेट को इस प्रकार कुछ जोर से दबाना कि मुंह से आह या ऊँह शब्द निकले। २. कठिन या विशेष परिश्रम का काम करते समय उक्त प्रकार की चेष्टा या शब्द करना। (व्यंग्य)।
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काँखसोती  : स्त्री० [हिं० काँख+सं० श्रोत्र, प्रा० सोत] जनेऊ की तरह कंधे पर दुपट्टा डालने का ढंग।
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कांखी  : वि०=कांक्षी (आकांक्षी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काग  : स्त्री० [सं० काक] १. कौआ। वायस। २. श्राद्ध आदि में कौओं को दिया जानेवाला उनका अंश। जैसे—कागै, काग, न भिखारी भीख।—कंजूस के संबंध में कहा०। पुं० [अं० कार्क] १. बबूल की जाति का एक बड़ा पेड़ जिसकी मुलायम लचीली और हलकी छाल से बोतलों, शीशियों आदि के मुंह बंद करने के लिए डाट बनते हैं। २. उक्त वृक्ष की छाल से बने हुए वे गोलाकार डाट जो बोतलों, शीशियों आदि के मुँह बंद करने के काम आते हैं।
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कागज  : पुं० [अ०] [वि० कागजी] १. कपड़े के चिथड़ों कई प्रकार की घासों, बाँसों आदि को गलाकर उनके गूदे से बनाया जानेवाला एक प्रसिद्ध पदार्थ जिस पर कलम, पेंसिल आदि से लिखा जाता है। मुहावरा—कागज काला करना=(क) कागज पर कुछ लिखना। (ख) यों ही या व्यर्थ मे लिखना। कागज रँगना=बहुत-से कागजों को व्यर्थ का विस्तार करते हुए लिख-लिखकर भरना। कागज के (या कागजी) घोड़े दौड़ाना=केवल पत्र आदि लिखकर कहीं या किसी के पास भेजना। पद—कागज की नाव=ऐसी वस्तु जिसका अस्तित्व बहुत ही अस्थायी या क्षणिक हो। २. ऐसी आवश्यक पत्र, लेख्य आदि जिनका कुछ विधिक महत्त्व हो। जैसे—वकील को कागज दिखाना पद—कागज पत्र=दस्तावेज। ३. समाचार-पत्र (बंगाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कागजात  : पुं० [अ० कागज का बहु०] बहुत-से कागज-पत्र।
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कागजी  : वि० [अ० कागज] १. कागज का बना हुआ। २. कागज पर लिखकर किया जानेवाला। जैसे—कागजी कार्रवाही। ३. कागज पर लिखा हुआ। जैसे—कागजी सबूत। ४. कुछ विशिष्ट फलों के संबंध में जिनका छीलका पतला, मुलायम या हलका होता हो। जैसे—कागजी नींबू, कागजी बादाम। पुं० कागज-विक्रेता।
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कागजी बादाम  : पुं० [फा०] एक प्रकार का बादाम जिसका ऊपरी छिलका अपेक्ष्या पतला तथा मुलायम होता है। (कड़े और मोटे छिलकेवाला बादाम ‘काठा’ कहलाता है।)
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कागजी-नीबू  : पुं० [हिं०] पतले तथा मुलायम छिलकेवाला एक प्रकार का बढ़िया नीबू।
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काँगड़ा  : पुं० [सं० केकय] पश्चिमी हिमालय का एक पहाड़ी प्रदेश जिसमें एक छोटा ज्वालामुखी पर्वत है। पुं० [सं० कंक] मटमैले रंग का एक पक्षी जिसकी चोटी काले रंग की होती है।
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काँगड़ी  : स्त्री० [हिं० कांगड़ा] एक प्रकार की छोटी दस्तेदार कश्मीरी अँगीठी। विशेष—प्रायः ठंढ़ से बचने के लिए पहाड़ों पर रहनेवाले लोग काम करते समय अपने कलेजे और पेट को गरम रखने के लिए इसे गले में लटकाए रहते हैं।
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कागद  : पुं० =कागज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काँगनी  : स्त्री०=कँगनी।
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कागभुसुंड, कागभुसुंडि  : =काकभुसुंडि।
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कागमारी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की नाव।
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कागर  : पुं० [अ० कागज] १. लिखने का कागज। उदाहरण—सात सरग जौं कागर करई।—जायसी। २. पक्षियों के पंख या पर जो कागज की तरह पतले और हलके होते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कागरी  : वि० [हिं० कागर=कागज] १. कागज की तरह पतला और हलका। २. तुच्छ। हीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काँगरू  : पुं० =कँगारू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कागल  : पुं० =कागज। उदाहरण—लिखि राखे कागल नख लेखरिया।—प्रिथीराज।
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कागला  : पुं० [सं० कालक] १. गले की घंटी। २. कौआ। (राज)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कांगही  : स्त्री०=कंघी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कागा  : पुं० [सं० काक] काक (कौए) का संबोधन कारक में होनेवाला रूप। जैसे—कागा, नैन निकाल दूँ, पिया पास ले जाव।
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कागाबासी  : स्त्री० [हिं० काग+बासी] सवेरे-सवेरे पी जानेवाली भाँग। पुं० काले रंग का एक प्रकार का मोती।
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कागारोल  : पुं० [हिं० काग=कौवा+रोर=शोर] कौओं की तरह मचाया जानेवाला हो-हल्ला। बहुत अधिक और बेढंगा हुल्लड़ या शोरगुल।
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कागिया  : स्त्री० [देश] तिब्बत में होनेवाली एक प्रकार की भेड़। पुं० [हिं० काग=कौआ] बाजरे की फसल में लगनेवाला एक प्रकार का काला कीड़ा।
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कांगुरा  : पुं० कँगूरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कागौर  : पुं० [सं० काकबलि] पितरों कें श्राद्ध आदि फसल में कव्य का वह भाग जो कौए के लिए निकाला जाता है।
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कांग्रेस  : स्त्री० [अं०] १. वह महासभा जिसमें भिन्न-भिन्न स्थानों के प्रतिनिधि एकत्र होकर सार्वजनिक विषयों पर विचार-विमर्श करते हैं। २. एक प्रसिद्ध अखिल भारतीय संस्था जिसके प्रयत्न से भारत को अँगरेजी शासन से स्वतंत्रता मिली है।
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कांग्रेसी  : वि० [हिं० कांग्रेस] कांग्रेस में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। पुं० कांग्रेस का कार्यकर्त्ता अथवा उसका सदस्य।
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काँच  : स्त्री० [सं० कक्ष, प्रा० कच्छ] १. धोती का वह सिरा जो दोनों जाँघों के बीच में से ले जाकर कमर में खोंसा जाता है। लाँग। मुहावरा—काँख खोलना=(क) साहस छोड़कर किसी काम से पीछे हटना, फलतः अपनी कायरता प्रकट करना। (ख) प्रसंग या संयोग करना। २. गुदेंद्रिय के भीतर का भाग। गुदाचक। गुदावर्त। मुहावरा—काँच निकलना=आघात, दुर्बलता, परिश्रम आदि के कारण गुदा-चक्र का बाहर निकल आना जो एक प्रकार का रोग है। पुं० [सं० काच] एक प्रसिद्ध चमकीला, पारदर्शक और स्वच्छ पदार्थ जो बालू (रेह) सोडा, चूने आदि के योग से बनाया जाता है और जिससे चूडियाँ दर्पण, बोतलें आदि बनते हैं। शीशा। (ग्लास)। स्त्री० [हिं० कच्चा] कच्ची धातु।
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काच  : पुं० [सं०√कच्(बंधन)+घञ्] १. शीशा। २. काला नमक। ३. मोम। ४. खारी मिट्टी। ५. आँख का एक रोग।
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काच-मणि  : पुं० [उपमि० स० या मयू० स०] बिल्लौर। स्फटिक।
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काच-मल  : पुं० [ष० त०] काला नमक या सोडा।
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काच-लवण  : पुं० [मध्य० स०] काला नमक।
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काचक  : पुं० [सं० काच+कन्] १. काँच। शीशा। २. पत्थर। ३. खार।
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कांचन  : पुं० [सं०√कांच् (दीप्ति)+ल्युट-अन] [वि० कांचनीय] १. सोना। स्वर्ण। २. धन-संपत्ति। ३. ऐश्वर्य। ४. कचनार। ५. चंपा। ६. नागकेसर। ७. गूलर। ८. धतूरा। वि० १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. परम सुन्दर।
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कांचन-गिरि  : पुं० [ष० त०] सुमेरु पर्वत।
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कांचन-पुरुष  : पुं० [ष० त०] सोने की वह मूर्ति जो मृतक के श्राद्ध के समय शय्या पर रखकर दान की जाती है।
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कांचनक  : पुं० [सं० काँचन+कन्] १. हरताल। २. चंपा। (पौधा और फूल)।
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कांचनचंगा  : पुं० [सं० कांचनश्रृंग] नैपाल और शिकम के बीच में स्थित हिमालय की एक चोटी।
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कांचनार  : पुं० [सं० कांचन√ऋ(गति)+अण्] कचनार।
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कांचनी  : स्त्री० [सं० कांचन+ङीष्] १. हल्दी। २. गोरोचन। वि०=कांचनीय।
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कांचनी (ली)  : स्त्री० केंचुली।
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कांचनीय  : वि० [सं० कांचन+थ-ईय] १. सोने से या सोने का बना हुआ। कंचन या कांचन का। २. जिसने सोने की-सी आभा हो।
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काचरी (ली)  : स्त्री० १=केंचुली। २. =कचरी।
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काँचा  : वि० [सं० काँच] जो काँच के समान जल्दी टूट जानेवाला हो। वि० दे० ‘कच्चा’।
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काचा  : वि०=कच्चा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काचिक  : पुं० [सं०√कांच्+इन्+कन्] काँजी।
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कांची  : स्त्री० [सं०√कांच्+इन्+ङीष्] १. स्त्रियों के पहनने की एक प्रकार की करधनी जिसमें छोटी-छोटी घंटियाँ लगी होती है। २. प्राचीन भारत की सात पवित्र नगरियों में से एक कांजीवरम्। ३. घुँघची। ४. कपड़ों पर टाँकने का गोटा-पट्टा।
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काची  : स्त्री० [हिं० कच्चा] १. मिट्टी की हाँड़ी जिसमें दूध उबाला तथा रखा जाता है। २. तीखुर, सिघाड़े आदि का हलुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काँचुअ  : स्त्री० [सं० कंचुकी] अँगिया। चोली।
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काँचुरी (ली)  : स्त्री०=कंचुली। उदाहरण—ज्यों काँचुरी भुअंगय तजही।—सूर।
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काँचू  : पुं० [सं० कंचुल] केंचुली। स्त्री०=कंचुकी। (चोली)। वि० [हिं० काँच] १. (पदार्थ) जो काँच की तरह भंगुर हो। २. (व्यक्ति) जिसे काँच का रोग हो। ३. विकट अवसरों पर कांच खोल देनेवाला अर्थात् कायर या डरपोक। वि० कच्चा।
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काचो  : वि०=कच्चा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काछ  : स्त्री० [सं० काक्षः] १. पेड़ू और जाँघ तथा उसके नीचे का स्थान। २. धोती का वह भाग जो कमर में खोंसा जाता है। लाँग। ३. अभिनय के समय नटों का वेश धारण करना। मुहावरा—काछ काछना=भेस बनाना। पुं० =कोख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काछन  : =स्त्री० [हिं० काछना] काछने की क्रिया या भाव। स्त्री०=काछनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काँछना  : स०=काछना।
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काछना  : स० [हिं० काछ] १. धोती आदि के एक या दोनों पल्लों या लाँगों को दोनों टाँगों के बीच में से पीछे की ओर निकाल कर कमर में कस कर खेंसना। २. भेस बदलना या भेस धारण करना। ३. सजा कर तैयार करना। उदाहरण—ऊपर नाच अखारा काछा।—जायसी। स० [सं० कषण] उँगली या हथेली से कोई तरल पदार्थ समेट कर इकट्ठा करना या उठाना। जैसे—कटोरी में से घी या तेल काछना।
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काछनी  : स्त्री० [हिं० काछना] १. धोती पहनने का वह ढंग जिसमें दोनों ओर की लाँगे पीछे की ओर खोंसी जाती है। २. उक्त प्रकार से पहनी हुई धोती। ३. घाघरे की तरह का एक प्रकार का पहनावा जो प्रायः घुटनों तक का होता है।
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काँछा  : स्त्री० [सं० कांक्षा] [वि० काँछी]=आकांक्षा। पुं० =काछा।
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काछा  : पुं० [सं० कक्ष, प्रा० कच्छ] १. पेड़ू के नीचे और रागों के बीच का स्थान। मुहावरा—(चलने में) काछा लगाना=दोनों रानों का आपस में रगड़ खाना। २. धोती का वह अंश जो उक्त स्थान पर ले जाकर पीछे की ओर खोंसा जाता है। लाँग। मुहावरा—काछा कसना=कोई काम करने के लिए कमर कसकर तैयार होना। काछा खोलना-(क) साहस या हिम्मत छोड़ना। कायरता दिखाना। (ख) संभोग करना। काछा लगना=धोती के उक्त अंग की रगड़ के कारण रान में या उसके आस-पास घाव या फुंसियाँ होना। ३. अभिनय के समय का नटों का वेश। ४. बदला या बनाया हुआ भेस। मुहावरा—काछा कछना=भेस बनाना। स्वाँग रचना। उदाहरण—(क) सब काछ कसे सब नाच नचे उस रसिया छैल रिझाने को।—नजीर। (ख) जैसा काछा काछिए वैसा नाच नाचिए।—काह।
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काछी  : पुं० [सं० कच्छ=जलप्राय देश] तरकारी बोने और बेचनेवालों की एक जाति। वि०=कच्छी (कच्छ देश का)। वि० [हिं० काछ=कक्ष] काछ या कोखवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काछू  : पुं० =कछुआ। उदाहरण—चेला मच्छ, गुरु जिमि काछू।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काछे  : क्रि० वि० [सं० कक्ष, प्रा० कच्छ] निकट। पास। नजदीक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काज  : पुं० [सं० कार्य, प्रा० कज्ज] १. वह जो कुछ किया जाय। काम। कार्य। मुहावरा—किसी के काज घटना=काम आना। उदाहरण—सब विधि घटब काज मैं तोरे।—तुलसी। काज सँवारना=किसी के बिगड़े हुए या अधूरे काम को ठीक प्रकार से संपादित करना। २. कोई मंगल या शुभ कार्य। ३. व्यवसाय। व्यापार। ४. प्रयोजन। हेतु। पुं० [पुर्त्त कासा] सिले हुए कपड़ों में बनाये जानेवाले वे छेद जिनमें बटन आदि फँसाये या लगाये जाते हैं।
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काजर  : पुं० =काजल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काजररानी  : पुं० [देश] अगहन में होनेवाला एक प्रकार का धान। उदाहरण—रामभोग औ काजररानी।—जायसी।
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काजरी  : स्त्री०=कजरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काजल  : पुं० [सं० पा० प्रा० कज्जलम्, उ० पं० कज्जल, गु० मरा० काजल, ने० गाजल, बं० काजल] आँखो में लगाने का काले रंग का वह प्रसिद्ध पदार्थ जो तेल, घी, आदि में जलने से होनेवाले धुँए को जमाकर तैयार किया जाता है। विशेष—यह प्रायः आँखों का सौंदर्य बढ़ाने अथवा आँख का कोई साधारण रोग दूर करने के लिए लगाया जाता है। क्रि०प्र-डालना।—लगाना। मुहावरा—आँखों में काजल घुलाना=अच्छी तरह और बहुत काजल लगाना। काजल पारना=दीपक के धूँए की कालिख को काजल के रूप में जमाकर इकट्ठा करना। काजल सारना=आँखों में काजल लगाना। पद—काजल का तिल=काजल की वह छोटी बिंदी जो स्त्रियाँ शोभा के लिए गाल, चिबुक आदि पर लगाती हैं। काजल की ओबरी या कोठरी=ऐसा दूषित या बुरा स्थान जहाँ जाने पर कलंक लगना अवश्यंभावी हो। उदाहरण—काजल की कोठरी में कैसहू सयानो जाय, काजर की रेख एक लागिहै पै लागिहै।
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कांजिक  : पुं० [सं० कु-अंजिका, ब० स० कु=क० आदेश] १. काँजी। २. चावल का ऐसा माँड़ जिससे खमीर उठने लगा हो। पचुई।
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काँजी  : स्त्री० [तामिल काडशी=माँड़ से सं०क√अंज्(आँजना)+अण्+ङीष्] १. ऊख के रस (सिरका) में नमक राई आदि डालकर तैयार किया जानेवाला एक प्रसिद्ध पेय पदार्थ जो स्वाद में खट्टा होता है। २. मट्ठे या दही का पानी। छाछ। ३. बिगड़ा या फटा हुआ दूध।
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काजी  : पुं० [अ०] वह व्यक्ति या अधिकारी जो मुसलमानी धर्म के अनुसार धर्म-अधर्म संबंधी विवादों का निर्णय करता हो।
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काँजी हाउस  : पुं० [अं० काइन-हाउस] वह सरकारी या अर्द्ध सरकारी पशु-शाला जहां लोगों के छूटे या बहके हुए पशु पकड़ कर रख जाते हैं।
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काजू  : पुं० [कोंक काज्जु] १. एक वृक्ष जिसके फलों की गिनती सूखे मेवों में होती है। २. उक्त वृक्ष का फल जो बादाम की तरह परन्तु सफेग रंग का होता है।
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काजू-भोजू  : वि० [हिं० काज+भोग] ऐसी कमजोर या साधारण चीज जिससे बहुत ही कम समय तक और साधारण काम लिया जा सके। टिकाऊ का विपर्याय।
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काजै  : अव्य० [सं० कार्य्य] लिए। वास्ते। (ब्रज०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काँट  : पुं० =काँटा।
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काट  : स्त्री० [हिं० काटना] १. कैंची, छुरी, तलवार आदि से काटने की क्रिया या भाव। जैसे—तलवार अच्छी काट करती है। पद—काट-कूट, काट-छाँट, मार-काट (दे०)। २. सीये जानेवाले कपड़ों को काटने का विशिष्ट ढंग या प्रकार। कटाव। जैसे—नई काट की कमीज का कुरता। ३. किसी जीव के काटने अथवा किसी वस्तु के लगने से होनेवाला घाव, छरछराहट या जलन। जैसे—बंदर या मच्छर की काट। ४. ऐसी क्रिया या योजना जो किसी के आघात, युक्ति आदि को रोकने या खण्डन करने के लिए की जाय। जैसे—कुश्ती में किसी दाँव-पेंच की काट। ५. ऐसी क्रिया या योजना जो किसी पर आघात या वार करने के लिए की जाय। ६. कपटपूर्ण आचरण, युक्ति या व्यवहार। चालबाजी। ७. किसी वस्तु को आवश्यक या उपयुक्त रूप देने अथवा किसी स्थिति को अपने अनुकूल बनाने के लिए की जानेवाली क्रिया या युक्ति कतर-ब्योंत। ८. वह अंश जो किसी चीज में से कट-छँटकर और किसी प्रकार निकलकर अलग हो गया हो। तरछट। जैसे—एक बोतल तेल में से तनी काट निकली है। ९. गणित में कलम या लकीर से कोई अंक, पद, लेख आदि काटने की क्रिया या भाव। १॰. अंक, लेख आदि को रद करने के लिए खींची जानेवाली लकीर।
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काट-कपट  : पुं० [हिं० काट+कपट] किसी को काटकर अलग-अलग करने अथवा किसी प्रकार की हानि पहुँचाने के लिए की जानेवाली कपटपूर्ण युक्ति।
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काट-कूट  : स्त्री० [हिं० काट-कूट अनु] १. किसी चीज विशेषतः लेख आदि में जगह-जगह काटे-छांटे और घटाये-बढ़ाये हुए होने की अवस्था,क्रिया या भाव। जैसे—इस कापी में बहुत जगह काट-कूट हुई है। २. दे०-काट-छाँट।
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काट-छाँट  : स्त्री० [हिं० काटना+छांटना] १. काटने और काटकर छाँटने या निकालने की क्रिया, भाव या ढंग। जैसे—(क) पुस्तक मसौदे या लेख मे होनेवाली काट-छांट। (ख) हिसाब की काट-छाँट। २. ऐसी चीज की बनावट या रचना का ढंग अथवा प्रकार जिसमें प्रायः फालतू अंश काट या छाँटकर अलग किये जाते हों अथवा आवश्यक तथा उपयोगी अंश बचा लिये जाते हों। जैसे—कमीज, कुरते या मूर्ति की काट-छाँट। ३. किसी प्रकार से की जानेवाली कमी-वेशी या घटाव-बढ़ाव।
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काट-फाँस  : स्त्री० [हिं० काटना+फाँसना या फँसाना] १. किसी को काटकर अलग करने और किसी को फँसाकर अपने वश में लाने की क्रिया या भाव। २. कपट-पूर्ण युक्तियाँ। कतर-ब्योतं। चाल-बाजी। ३. लोगों को आपस में लड़ाने आदि के लिए चली जानेवाली चालें या की जानेवाली युक्तियाँ।
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काटकी  : स्त्री० [हिं० काट+की] काठ की बनी हुई वह छड़ी जिसे मदारी हाथ में लेकर बंदर, भालू आदि नचाते हैं।
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काँटन  : स्त्री० [हिं० काटना] मार-काट। उदाहरण—पुनि सलार काँटन मति माहाँ।—जायसी।
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काटन  : स्त्री०=कतरन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काटना  : सं० [सं० कर्त्तन, प्रा० कट्टन] [भाव० कटाई, कटाव] धारदार औजारों, शस्त्रों आदि के प्रसंग में-१. किसी चीज पर इस प्रकार आघात, करना कि वह दो या अधिक टुकड़ों अथवा भागों मे बँटकर अलग हो जाय। जैसे—कुल्हाड़ी से पेड़ या उसकी डालें काटना,तलवार से किसी का सिर या हाथ काटना, छेनी से चाँदी या सोने की सिल काटना आदि। उदाहरण—(क) काटइ निज कर सकल सरीरा।—तुलसी। (ख) छन मँह प्रभु के सायकन्हि काटे विकट विशाच-तुलसी। २. किसी कड़ी या भारी चीज को इस प्रकार दबाना, रगड़ना या रेतना कि किसी चीज के बीच का तल या स्तर कई टुकडों या भागों में बँटकर अलग हो जाय। जैसे—(क) कैंची से कपड़ा या कागज काटना। (ख) हँसिया से घास या फसल काटना। पद—काटो तो खून नहीं=किसी भीषण, लज्जाजनक या विकट परिस्थिति में पड़ने अथवा ऐसी ही कोई बात सुनने पर किसी व्यक्ति का ऐसी दशा में हो जाना कि मानो उसके शरीर में रक्त (अर्थात् जीवन का मूल तत्त्व या लक्षण) रह ही नहीं गया। किसी अनिष्ट घटना या बात के कारण निश्चेष्ट सुन्न या स्तब्ध हो जाना। ४. किसी आधार या तल में इस प्रकार गड्डे या रेखाएँ बनाना कि उनमें से किसी चीज के आने-जाने या निकलने के लिए मार्ग बन जाय अथवा ऐसे ही और कामों के लिए विभाग बन जाएँ। जैसे—किसी प्रदेश में नहर या सड़क काटना, खेत या बगीचे में क्यारियाँ काटना। ५. इधर-उधर से कतर या छाँटकर किसी उद्दिष्ट या उपयोगी रूप में लाना। जैसे—थान में से कुरता या कमीज काटना,झाड़ियों में से मोर,शेर आदि की आकृतियाँ बनाना। (कट,उक्त सभी अर्थों के लिए) जीव—जंतुओं या प्राणियों के प्रसंग में- ६. किसी चीज पर इस प्रकार जोर से दांत गड़ाना कि उसमें का कुछ अंश कटकर अलग हो जाय या मुँह में आ जाय। कुतरना जैसे—बच्चों का दाँतों से फल या रोटी काटना, चूहों का कपड़े या कागज काटना। ७. किसी के शरीर पर उक्त क्रिया इस प्रकार करना कि उसमें क्षत या घाव हो जाय। जैसे—आदमी को कुत्ते या बंदर का काटना। मुहावरा—(किसी को) काटने दौड़ना=बहुत क्रोध में भरकर या खिजला कर इस प्रकार आवेशपूर्ण कटु बातें कहना कि देखनेवाले समझें कि यह जानवरों की तरह काटने पर उतारू है। जैसे—उसका स्वभाव इतना चिड़चिड़ा हो गया है कि वह बात-बात में काटने दौड़ता है। ८. किसी के शरीर में इस प्रकार दांत या डंक गड़ाना या धँसाना कि उसमें जहर भर जाय अथवा जलन या पीड़ा होने लगे। जैसे—खटमल बर्रे, मच्छर या साँप का काटना। ९. कुछ विशिष्ट प्रकार के कीडों-मकोड़ों का कोई चीज कुतरकर खा जाना। जैसे—कीड़े-मकोड़ें का ऊनी या रेशमी कपड़े अथवा पुस्तकों की जिल्द काटना। (बाइट अंतिम चारों अर्थों के लिए) फुटकर प्रसंगों और लाक्षणिक रूपों में- १॰. आगे बढ़ने या मार्ग निकालने के लिए बल या वेग के द्वारा सामनेवाली चीज या तत्त्व इधर-उधर करना या हटाना। जैसे—नदी-नालों का अपने रास्ते में के पहाड़ काटना, नाव का आगे बढ़ने के लिए पानी काटना, हवाई जहाज का उड़ने के समय हवा काटना। ११. दबाव, रगड़ या ऐसी ही और किसी क्रिया से ऐसा जोर पहुँचाना कि कुछ अंश अपने मूल आधार से अलग हो जाय। जैसे—गुड्डी या पतंग लड़ाने में किसी की डोर या नख काटना,घोड़े का बाल बाँधकर शरीर में से मसा काटना। १२. जोर लगाकर इस प्रकार घिसना,पीसना या रगड़ना कि किसी चीज के बहुत ही छोटे-छोटे या बारीक अंश या टुकड़े हो जायँ। जैसे—सिल पर (बट्टे से) भाँग या मसाला काटना। १३. नाम, पद, लेख आदि पर ऐसा चिन्ह्र या रेखा बनाना कि उस क्षेत्र या प्रसंग में उसका कोई अस्तित्व या महत्व न रह जाय अथवा उसका होना न होने के बराबर हो जाय। जैसे—विद्यालय से लड़के का अथवा सूची में से पुस्तक का नाम काटना। १४. किसी क्रिया या प्रकार से कोई अंग या अंश अलग करना या निकाल लेना। जैसे—रेलगाड़ी में से डिब्बा काटना। अनुपस्थिति के कारण नौकर का वेतन काटना। १५. अनुचित अथवा आपत्तिजनक रूप से कहीं से कुछ उड़ा, निकाल या हटा लेना। जैसे—चोरों का रेल के डब्बे में से माल काटना, लुच्चों और शोहदों का रईसों के साथ लगकर माल काटना। मुहावरा—(किसी का) गला काटना=चालाकी या छल-कपट से किसी का धन या संपत्ति लेकर उसे दरिद्र या दीन बनाना। जैसे—हजारों गरीबों का गला काटकर ही तो लोग लखपती और करोड़पती बनते हैं। १६. किसी कठोर,तीक्ष्ण या तीव्र पदार्थ का शरीर में लगकर या उससे रगड़ खाकर उसमें चुन-चुनाहट, छरछराहट या कष्टदायक संवेदन उत्पन्न करना। जैसे—(क) तंग जूता पैर में काटना। (ख) सूरन की तरकारी गला काटती है (अर्थात्) उसमें चुनचुनाहट उत्पन्न करती है। (ग) जाड़ें में ठंडा पानी या ठंढ़ी हवा काटती है। १७. किसी काम चीज या बात का अप्रिय या अरुचिकर होने के कारण बहुत ही कष्टदायक प्रतीत होना। जैसे—परिश्रम का काम तो तुम्हें काटता है। मुहावरा—किसी चीज का काटे खाना=बहुत ही अप्रिय या कष्टदायक जान पड़ना। जैसे—बच्चों के न रहने से घर काटे खाता है। १८. कहीं जमी,बैठी या लगी हुई चीज को किसी प्रकार वहाँ से निकाल या हटाकर अलग या दूर करना। जैसे—साबुन लगाकर कपड़ें का मैल काटना। १९. गुण, प्रभाव, शक्ति आदि से अथवा किसी क्रिया या प्रकार से किसी चीज या बात का अन्त या समाप्ति करना। बिलकुल न रहने देना। जैसे—तीर्थ-यात्रा या देव-दर्शन करके अपने पाप काटना। २॰०चलकर रास्ता पार करना। जैसे—पहले आधा रास्ता तो काट लो,तब बैठकर सुस्ताना। मुहावरा—चक्कर काटना=(क) किसी घेरे या परिधि में बार-बार घूमना। (ख) बार-बार कहीं जाना और वहाँ से आना। जैसे—महीनों से उनके यहाँ चक्कर काट रहे हैं पर वे कुछ सुनते ही नहीं। २१. कष्टपूर्वक या जैसे—तैसे दिन (अथवा समय) बिताना। जैसे—(क) इधर-उधर की बातों में सारा दिन काटना। (ख) गरीबी में समय काटना। (ग) कारागार या जेल में सारी उमर काटना। २२. एक रेखा के ऊपर से किसी भिन्न दिशा से दूसरी रेखा इस प्रकार ले जाना कि दोनों के मिलन-बिंदु के चारों ओर कोण बन जाएँ। जैसे—(ज्यामिति में) एक रेखा से दूसरी रेखा काटना। २३. किसी रास्ते पर से या सामने से (रेखा बनाते हुए) निकल जाना। (अमांगलिक या अशुभ सूचक) जैसे—यात्रा के समय किसी काने आदमी या बिल्ली का आकर रास्ता काटना। मुहावरा—किसी का रास्ता काटना=किसी की गति या मार्ग में बाधक होना। रुकावट डालना। (किसी की) बात काटना=जब कोई कुछ कह रहा हो,तब बीच में बोलकर उसकी बात में बाधक होना। जैसे—जब कोई बोल रहा हो तब बीच में उसकी बात काटकर बोलने लगना अच्छा नहीं होता। २४. किसी के कथन, मत, विचार या सिद्धांत को अप्रामाणिक या असत्य सिद्ध करके उसका खंडन करना। अमान्य ठहराना या बतलाना। जैसे—आपकी नई खोज ने तो अब तक के सभी मत काट दिये हैं। २५. गणित में किसी छोटी संख्या से किसी बड़ी संख्या को भाग देना कि शेष कुछ न बचे। जैसे—२५ को ५ या ४॰ को ८ से काटना।
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काटर  : वि० [सं० कठोर] १. कड़ा। कठोर। २. कट्टर। वि० [हिं० काटना] काटनेवाला। काटू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काँटा  : पुं० [सं० कटक] [वि० कँटीला] १. कुछ विशिष्ट प्रकार के पेड़-पौधों की डालियों तनों,पत्तों आदि पर उगनेवाला वह कड़ा, नुकीला और लंबा अंश जो अधिकतर सीधा और कभी-कभी कुछ टेढ़ा या मुड़ा हुआ भी होता है और जिसमें मुख्यतः काठवाला तत्त्व प्रधान होता है। कंटक। (थार्न) जैसे—गुलाब, नागफली, बबूल बेर या बेल का काँटा या काँटे। विशेष—शरीर के किसी अंग में कांटा चुभ जाने पर उसमें तब तक जलन और पीड़ा होती है जब तक वह निकल नहीं जाता। मुहावरा—(मार्ग हृदय आदि में का) काँटा निकलना=कष्ट देनेवाली अड़न या बाधा (अथवा विरोधी या शत्रु) का अलग या दूर होना या किसी प्रकार नष्ट हो जाना कांटा-सा(या काँटे=सा) खटकना-उसी प्रकार कष्टदायक होना जिस प्रकार शरीर में गड़ा या चुभा हुआ काँटा होता है। जैसे—(क)उनका उस दिन का व्यवहार आजतक मुझे काँटे सा खटक रहा है। (ख) यह दुष्ट लड़का सब की आँखों में कांटे-सा खटकता है। (किसी वस्तु का) सूखकर काँटा होना=बहुत कड़ा या नुकीला होकर ऐसा होना कि गड़ने लगे अथवा ठीक तरह से काम न दे सके। (किसी व्यक्ति का) सूखकर काँटा होना=चिंता दुर्बलता रोग आदि के कारण सूखकर दुबला-पतला हो जाना। (किसी के लिए या रास्ते में) काँटे बिछाना या बोना=किसी के कार्य या मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएँ या विघ्न खड़े करना अर्थात् बहुत अधिक शत्रुता का व्यवहार करना। उदाहरण—जो तोकों काँटा बुवै,ताहि बोउ तू फूल।—कबीर। विशेष—इस मुहावरे का प्रयोग दूसरों के अतिरिक्त स्वयं अपने लिए भी होता है। जैसे—हम ने आप ही आप ही अपने रास्ते में काँटे बिछाये (या बोये) हैं। काँटों पर लोटना=प्रायः ईर्ष्या, द्वेष, संताप आदि के प्रसंगों में ऐसी मानसिक कष्टपूर्ण स्थिति में रहना या होना कि मानों बैठने रहने या सोने की जगह पर बहुत काँटे बिछे हों, अर्थात् बहुत अधिक मानसिक कष्ट भोगना। जैसे—मैं तो यहाँ काँटों पर लेटती हूँ और सौत वहाँ फूलों से तुलती है। स्त्रियाँ। कांटों में घसीटना=(क) दूसरे के पक्ष में किसी को बहुत अधिक मानसिक या शारीरिक कष्ट पहुँचाना। (ख) स्वयं अपने पक्ष में विशेष आदर, प्रशंसा, सम्मान आदि होने पर अपनी नम्रता जतलाते हुए यह सूचित करना कि आप मुझे बहुत अधिक लज्जित कर रहे हैं। जैसे—आप तो मेरी इतनी बड़ाई करके मुझे काँटों में घसीटते हैं। पद—कांटे पर की ओस=बहुत ही थोड़े समय तक टिकने या ठहरने वाला (अर्थात् क्षणभंगुर) वैभव सुख या सुभीता। रास्ते का कांटा=किसी काम या बात में कष्टदायक रूप में सामने आनेवाली बाधा या व्यक्ति। जैसे—उस चुगलखोर के यहाँ से चले जाने से तुम्हारें रास्ते का काँटा निकल गया। २. उक्त के आधार पर जीभ अथवा शरीर के किसी अंग पर निकलनेवाला छोटा नुकीला अंकुर जो प्रायः फुंसी की तरह कष्टदायक होता और चुभता है। जैसे—व्यास रोग आदि के कारण गले या जीभ में कांटे पड़ना। (अर्थात् इन अंगों का सूखकर कड़ा और खुरदुरा हो जाना।) विशेष—प्रायः पशु-पक्षियों के गले में या जीभ पर रोग के रूप में इस प्रकार के काँटे निकल आते हैं; और यदि उपचार या चिकित्सा करके वे निकाले या नष्ट न किये जाएँ तो उनके कारण पशु-पक्षी मर भी जाते हैं। मुहावरा—(पशु या पक्षी को) कांटा लगना=उक्त प्रकार का रोग होना। ३. [स्त्री० अल्पा० कँटिया, काँटी] वानस्पतिक कांटे के आकार या रूप के आधार पर किसी धातु विशेषतः लोहे का वह पतला लम्बा टुकड़ा जिसका एक सिरा नुकीला और दूसरा चपटा होता है और जिसका उपयोग किसी कड़ी चीज को वैसी ही दूसरी चीज पर ठोंककर जड़ने या बैठाने के लिए होता है। कील। (नेल) ४. उक्त के आकार-प्रकार की कोई कड़ी, नुकीली और लंबी चीज। जैसे—साही नामक जंतु के शरीर पर काँटे घड़ी में लगे हुए घंटा, मिनट आदि बतलाने वाले काँटे, तराजू की डंडी के ऊपर बीचोंबीच लगा हुआ काँटा जो तौल की अधिकता और न्यूनता सूचित करता है। ५. उक्त के आधार पर किसी प्रकार का तराजू विशेषतः चाँदी, सोना, हीरे आदि जवाहिरात तौलने का छोटा तराजू। (स्केल) उदाहरण—मैं तौल लिया करती हूँ नजरों में हर इक को। काँटा सी हूँ, आँखें हैं तराजू से जियादह।—कोई शायर। मुहावरा—काँटे की तौल=हर तरह से बिलकुल ठीक, पक्का या पूरा। न तो आवश्यकता औचित्य आदि से कुछ भी कम और न कुछ भी अधिक। जैसे—आपकी हर बात कांटे की तौल होती है। ६. अँकुड़े या अँकुसी की तरह की कोई ऐसी कड़ी और नुकीली चीज जिसका सिरा कुछ झुका या मुड़ा हुआ हो। जैसे—कमीज या कोट के बटन, लगाने के काँटे, स्त्रियों के कान या नाक में पहनने के काँटे, मछली फँसाने का काँटा, कुएँ में गिरा हुआ डोल या लोटा निकालने का काँटा, पटहारों का गहने गूँथने का काँटा आदि। मुहावरा—काँटा डालना या लगाना=(क) जलाशय में से मछली फँसाने या कुएँ में से लोटा निकालने के लिए उसमें काँटा डालना। (ख) लाक्षणिक रूप में किसी को अपने जाल या फंदे में फँसाने के लिए कोई युक्ति करना। ७. पंजे के आकार का खेतिहारों का काठ का एक औजार जिससे वे घास भूसा इधर-उधर हटाते हैं। ८. उक्त प्रकार या रूप का धातु का एक छोटा उपकरण जिससे उठा-उठाकर पाश्चात्य देशों के लोग भोजन के समय चीजें खाते हैं। जैसे—इतना पढ़-लिखकर तुमने भी बस छुरी काँटे से खाना ही सीखा है। ९. एक प्रकार की आतिशबाजी जिसमें एक लम्बी लकड़ी के सिरे पर दोनों ओर दो डालें लगी रहती हैं। १॰. गणित में वह क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि जो गणना की गई है वह ठीक है या नहीं। ११. उक्त के आधार पर गुणन-फल की शुद्धि की परीक्षा के लिए की जानेवाली वह क्रिया जिसके लिए पहले एक खडी़ लकीर बनाकर फिर उसे बेड़ी लकीर से काटते हैं। १२. कोई ऐसी प्रतियोगिता जो ईर्ष्या,द्वेष या वैर भाव से की जाय अथवा जिसका उद्देश्य प्रतियोगी को हराने के सिवा और कुछ न हो। जैसे—पहलवानों की काँटे की कुश्ती। अर्थात् ऐसी कुश्ती जिसमें वे सारी शक्ति लगाकर एक दूसरे को हराने का प्रयत्न करते हों। १३. किसी प्रकार के काँटे से अथवा किसी प्रकार की प्रतियोगिता में लगा या सहा हुआ कोई आघात या वार। १४. कैदियों को पहनाई जानेवाली हथकड़ी, बेड़ी और डंडा। मुहावरा—काँटा खाना=(क)किसी प्रकार की प्रतियोगिता में बुरी तरह से परास्त होना। (ख) कैद की सजा भुगतना जैसे—अभी तो हाल में वह कांटा खाकर आया है।
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काँटा-चूहा  : पुं० [हिं० काँटा+चूहा] एक छोटा जानवर जिसकी पीठ छोटे-छोटे काँटों से भरी होती है।
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कांटा-बाँस  : पुं० [हिं० काँटा+बाँस] एक प्रकार का कँटीला बाँस। मगर बांस। नाल बाँस।
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काँटी  : स्त्री० [हिं० काँटा का स्त्री अल्पा०] १. किसी प्रकार का छोटा काँटा। २. छोटी कँटिया। अँकुड़ी। ३. साँप पकड़ने की वह लकड़ी जिसमें अँकुड़ी लगी होती है। ४. बेड़ी और हथकडी़। मुहावरा=काँटी खाना-कैद या जेल की सजा भुगतना। ५. वह रूई जो धुनने पर भी बिनौलों के साथ लगी रह जाती है। ६. लड़कों का एक प्रकार का खेल जिसमें वे डोरे में कंकड़ आदि बाँधकर लड़ाते हैं। लंगर।
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काटुक  : पुं० [सं० कटुक+अण्] १. अम्लता। खटास। २. कटुता। कडुआपन।
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काटू  : वि० [हिं० काटना] १. (पशु) काट खानेवाला। २. (व्यक्ति) जो हर बात में काटने को दौड़े। चिड़िचड़ा। ३. डरावना। भयानक। पुं० [अं० कैश्यूनट] हिजली बदाम नाम का वृक्ष।
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काठ  : पुं० [सं० काष्ठ, प्रा० कट्ठ, गु० पं० बं० काठ, सि० काठु, सिंह० कट,० का० कूट, मरा० काठी] १. वह पदार्थ जिससे वृक्षों, झाड़ियों आदि के तने शाखाएँ आदि बनी होती हैं। लकड़ी। यौ०-काठ-कबाड़। (देखें)। पद—काठ का उल्लू=बहुत बड़ा या निरा बेवकूफ। वज्र मूर्ख। काठ का घोड़ा=(क) अरथी या टिकठी जिस पर रखकर शव को अंत्येष्टि के लिए ले जाते हैं। (ख) बैसाखी जिसके सहारे लंगड़े-लूले चलते हैं। काठ की हाँड़ी=ऐसी वस्तु जिससे एकाध बार से अधिक काम न लिया जा सके। (छल-कपट आदि के प्रसंग में) क्या हुआ जो वे झूठ बोलकर एक बार मुझ से रुपए ले गये। काठ की हाँड़ी बार-बार नहीं चढ़ती। उदाहरण—हाँड़ी काठ की चढ़ै न दूजी बार। विशेष—यदि कोई काठ की हाँड़ी बनाकर उसमें कोई चीज पकाना चाहे वह अधिक-से-अधिक एक ही बार और वह भी जैसे—तैसे अपना काम चला सकता है। इसी तथ्य के आधार पर यह पद बना है। २. चूल्हे आदि में जलाने की लकड़ी। ईधन। ३. मध्य युग में लकड़ी का एक प्रकार का उपकरण, जिसमें बहुत बड़ी और भारी लकडी में दो छेद करके उसमें अपराधी या दंडित व्यक्ति के पैर इस प्रकार फँसा दिये जाते थे कि वह उठ-बैठ या भाग न सके। कलंदरा। मुहावरा—(किसी को) काठ मारना=किसी को दंड देने के लिए उसके पैरों में उक्त उपकरण लगाना या फँसाना। काठ में (किसी के) पाँव ठोंकना या देना=अपराधी या दंडनीय व्यक्ति के पैर उक्त प्रकार के उपकरण में फँसाकर उसे एक स्थान पर बैठा देना। (एक प्रकार का दंड) काठ में (अपने) पाँव डालना या देना-जान=बूझकर किसी बहुत बड़ी विपत्ति या संकट में पड़ना। ४. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी वस्तु जो सूख करकाठ के समान कठोर या निष्चेष्ट हो गई हो। मुहावरा—(किसी को) काठ मार जाना=आश्चर्य, कष्ट, शोक आदि की दशा में स्तब्ध हो जाना। जैसे—यह बात सुनते ही मुझे तो काठ मार गया। (वस्तु का) काठ होना=सूखकर इतना कड़ा हो जाना कि काम में आने के योग्य न रह जाय। (व्यक्ति का) काठ होना=(क) बेहोशी, मौत आदि के कारण जड़वत, निश्चेष्ट या संज्ञा-शून्य होना। चेतना-रहित होनाः (ख) बहुत अधिक आश्चर्य, भय आदि के कारण स्तंभित होना। (ग) काठ की तरह सूख जाना। दुर्बल होना। ५. कठ-पुतली। उदाहरण—कतहुँ पखंडी काठ नचावा।—जायसी।
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काठ-कटौअल  : स्त्री० [हिं० काठ+काटना] आँख-मिचौनी की तरह का लड़कों का एक खेल, जिसमें उन्हें दौड़-दौड़ कर किसी काठ को छूना पड़ता है।
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काठ-कवाड़  : पुं० [हिं० काठ+कवाड़] काठ की बनी परन्तु (क) टूटी-फूटी वस्तुएँ। (ख) टूटा-फूटा तथा निरर्थक सामान।
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काठ-कोड़ा  : पुं० [हिं० काठ+कोड़ा] मध्य-युग का एक प्रकार का दंड जिसमें किसी के पाँव में काठ डालकर ऊपर से उसे कोड़ों से मारते थे। क्रि० प्र०-चलना।
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काठ-कोयला  : पुं० [हिं० काठ+कोयला] वृक्षों की लकड़ियाँ जलाकर तैयार किया जानेवाला कोयला। (चारकोल)।
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काठड़ा  : पुं० [स्त्री० काठड़ी]=कठड़ा (कठौता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काठनीम  : पुं० [हिं० काठ+नीम] एक प्रकार का वृक्ष, जिसे गंधेल भी कहते हैं।
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काठबेर  : पुं० दे० ‘घूँट’ (वृक्ष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काठबेल  : स्त्री० [हिं० काठ+बेल] इंद्रायन की जाति की एक बेल।
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कांठली  : स्त्री० [सं० कंठ-अवलि] १. गले में पहनने का कंठा। २. कंठे के आकार का मेघों का समूह। उदाहरण—काली करि काँठलि ऊजल कोरण।—प्रिथीराज।
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काँठा  : पुं० [सं० कंठ] १. गला। २. गले का एक आभूषण। ३. तोते के गले में बनी हुई लाल नीली मंडलाकार रेखा। ४. किनारा। तट। ५. पार्श्व। बगल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काठा  : वि० [हिं० काठ] १. काठ का बना हुआ। २. (फल) जिसका ऊपरी छिलका बहुत कड़ा और मोटा हो, अथवा जिसका गूदा काठ के समान कड़ा हो। जैसे—काठा बादाम, काठा केला।
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काठिन्य  : पुं० [सं० कठिन+ष्यञ्]=कठिनता।
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काठियावाड़  : पुं० [हिं० काँठ=समुद्रतट+बाड़=द्वार] पश्चिमी भारत का एक प्रदेश जो आधुनिक द्विभाषी बम्बई राज्य के अन्तर्गत है।
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काठियावाड़ी  : पुं० [हिं० काठियावाड़] १. काठियावाड़ का निवासी। २. काठियावाड़ का घोड़ा। स्त्री० काठियावाड़ की बोली या भाषा। वि० काठियावाड़ का। काठियावाड़ संबंधी।
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काठी  : स्त्री० [हिं० काठ] १. ऊँटों, घोड़ों आदि की पीठ पर कसने की जीन जिसमें नीचे की ओर काठ लगा रहता है। यह आगे और पीछे की ओर कुछ उठी होती है। २. शरीर की गठन या बनावट। ३. कटार, तलवार आदि की म्यान। ४. छड़ी। लकड़ी। (राज।) वि० [काठियावाड़] काठियावाड़ का (घोड़ा)।
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काठू  : पुं० [हिं० काठ] कूटू की तरह का एक पौधा।
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काठों  : पुं० [हिं० काठ] पंजाब में होनेवाला एक प्रकार का मोटा धान।
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कांड  : पुं० [सं० कण्(दीप्ति)+ड,दीर्घ] १. किसी वस्तु का कोई खंड या भाग। २. वनस्पतियों के तने का दो गाँठों के बीच का भाग। पोर। ३. वृक्षों का तना। ४. वनस्पतियों या वृक्षों की डालियाँ। ५. किसी कार्य या कृति का कोई भाग। ६. किसी ग्रन्थ या पुस्तक का कोई अध्याय या प्रकरण। ७. सरकंडा। ८. गुच्छा। ९. समूह। वृंद। १॰. हाथ या टाँग की लंबी हड्डी। ११. धनुष के बीच का मोटा भाग। १२. बाण। तीर। १३. छड़ी। डंडा। १४. जल। १५. निर्जन स्थल। १६. अवसर। १७. प्रपंच। १८. बहुत बड़ी दुर्घटना। कोई अप्रिय या अशुभ घटना। जैसे—हत्या-कांड। वि० कुत्सित। बुरा।
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कांड तिक्त  : पुं० [स० त०] चिरायता।
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कांड-त्रय  : पुं० [ष० त०] वेद के तीन विभाग जिसको कर्मकांड उपासनाकांड और ज्ञानकांड कहते हैं।
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कांड-पृष्ठ  : पुं० [ब० स०] १. बहुत बड़ा या भारी धनुष। २. कर्ण के धनुष का नाम। ३. योद्धा। सैनिक। ४. वह ब्राह्मण जो तीर तथा दूसरे अस्त्र-शस्त्र बनाकर जीविका उपार्जन करता हो। ५. वह जो अपना कुल छोड़कर किसी दूसरे के कुल में जा मिले।
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कांड-भग्न  : पुं० [स० त०] वैद्यक में आघात आदि से हड्डी का टूटना। (फ्रैक्चर)
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कांडधार  : पुं० [सं० कांड√धृ (धारण)+णिच्+अच्] १. पाणिनि के अनुसार एक प्राचीन प्रदेश। २. उक्त प्रदेश का निवासी।
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कांड़ना  : स० [सं० कंडन (=रौंदकर अनाज की भूसी अलग करना)] १. पैरों से कुचलना। रौंदना। २. धान कूटकर उसमें का चावल और भूसी अलग करना। (धान) कूटना। ३. खूब पीटना या मारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कांडर्षि  : पुं० [कांड-ऋषि, ष० त०] वेद के किसी कांड या विभाग (कर्म, ज्ञान और उपासना) का विवेचन करनेवाला ऋषि।
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कांडवान् (वत्)  : पुं० [सं० कांड+मतुप्] तीर चलाने या छोड़नेवाला योद्धा।
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कांडा  : पुं० [सं० कांड] [स्त्री० अल्पा० काँड़ी] १. लकडी का लंबा लट्ठा। २. छोटा सूखा डंठल। पुं० [सं० कर्णक] १. लकड़ियों, वनस्पतियों आदि में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। २. दाँतों में लगनेवाला कीड़ा। वि०=काना।
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कांडिका  : स्त्री० [सं० कांड+ठन्-इक, टाप्] १. पुस्तक का कोई खंड या विभाग। २. एक प्रकार का अन्न। ३. एक तरह का कुम्हड़ा।
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काँड़ी  : स्त्री० [सं० कांड] १. कुछ विशिष्ठ प्रकार के वृक्षों का वह लंबा पतला तना जो बाँस या हल्के शहतीर की तरह छाजन आदि के काम में आता है। पद—काँड़ी कफन=शव की अर्थी बनाने की सामग्री। २. जहाजों, नावों, आदि के लंगर में का लोहे का लंबा डंडा। ३. मछलियों का झुंड या झोल। छाँवर। ४. किसी चीज का कोई छोटा लंबा टुकड़ा। डंडी। डाँड़ी। उदाहरण—औ सोनहा सोने की डाँड़ी। सारदूर रूपे की काँड़ी।—जायसी। स्त्री० [पं०कंडन] भूमि में बनाया हुआ वह गड्ढा जिसमें रखकर धान कूटा जाता है।
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काड़ी  : स्त्री० [सं० काण्ड] १. अरहर का सूखा डंठल या पौधा। रहटा। २. दे० काँड़ी।
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काढ़ना  : स० [सं० कर्षण, प्रा० कड्ढण] १. आधार, पात्र आदि में से कोई चीज बाहर निकालना। जैसे—कूएँ में से पानी काढ़ना। २. आवरण हटाकर दिखाना। सामने लाना। ३. घी, तेल आदि में कोई चीज तलना। ४. सूई-धागे से कपड़े पर बेल-बूटे निकालना या बनाना। ५. लकड़ी पत्थर आदि पर बेल-बूटे बनाना। उरेहना। ६. उधार लेना। जैसे—ऋण काढ़ना। स० [सं० क्वाथन] किसी तरल पदार्थ को उबाल या औटाकर गाढ़ा करना। जैसे—काढ़ा या दूध काढ़ना।
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काढ़ा  : पुं० [हिं० काढ़ना=औटाना] वनस्पतियों, विशेषतः ओषधियों को उबालकर निकाला हुआ रस। क्वाथ। जोशांदा। (डिकाँक्शन)।
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काण  : वि० [सं०√कण् (बन्द करना)+घञ्] काना। एकाक्ष। पुं० =कान। स्त्री०=कानि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काणएली  : स्त्री० [सं० ] अपवित्र स्त्री।
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काणेय  : पुं० [सं० काणा+ढक्-एय] कानी स्त्री का बेटा।
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काणेर  : पुं० [सं० काणा+ढक्-एर]=काणेय।
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काण्व  : वि० [सं० कण्व+अण्] कण्व ऋषि से संबंध रखनेवाला। कण्व का। पुं० कण्व ऋषि के अनुयायी या वंशज।
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कांत  : वि० [सं०√कन् (दीप्ति) वा कम (इच्छा)+क्त] १. कोमल और मनोहर। २. प्रिय और रुचिकर। ३. सुन्दर। पुं० १. वह जो किसी से अनुराग रखता या प्रेम करता हो। प्रेमी। २. पति। स्वामी। जैसे—लक्ष्मीकांत। ३. विष्णु। ४. शिव। ५. कार्तिकेय। ६. चंद्रमा। ७. वसन्त ऋतु। ८. कुंकुम। ९. हिंजल का पेड़। १॰०कांतिसार लोहा।
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कात  : पुं० [सं० कर्त्तन, प्रा० कत्तन] १. भेड़ों के बाल काटने की कैंची। २. मुरगे के पैर में निकलनेवाला काँटा।
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कांत-पक्षी  : (क्षिन्)
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कांत-पाषाण  : पुं० [कर्म० स०] चुंबक पत्थर।
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कांत-लौह  : पुं० [कर्म० स] कातिसार लोहा।
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कातक  : पुं० =कार्तिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कातंत्र  : पुं० [सं० कु-तंत्र, ब० स० कु=कादेश] सर्ववर्मा का बनाया हुआ एक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ। कलाप व्याकरण।
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कातना  : स० [सं० कृत, पा० कत्त, पं० कत्तना, गु० कातबूँ, मरा० कातणें] [भाव० कताई] चरखे या तकली की सहायता से अथवा यों ही हाथ से ऊन, रूई रेशम आदि के रेशों से बटकर धागा या सूत बनाना (स्पिनिंग)। मुहावरा—महीन कातना=बहुत गढ़-गढ़कर और बारीकी से (अर्थात् अपना विशेष कौशल या योग्यता दिखलाते हुए) बातें करना। (व्यंग्य और हास्य)।
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कातर  : वि० [सं० क-आ√तृ (तरना)+अच्] [भाव० कातरता] १. भय से काँपता हुआ। भयभीत। २. डरपोक। भीरू। ३. जो कष्ट या दुःख में पड़ने पर निराश या हतोत्साह होने के कारण अधीर हो रहा हो। जैसे—कतार भाव से प्राणरक्षा की प्रार्थना करना। पुं० [सं० कर्तृ=कातने या घूमनेवाला] १. कोल्हू में वह तख्ता जिस पर आदमी बैठकर आगे जुते हुए बैलों को हाँकता है और जो जाठ के साथ-साथ चारों ओर घूमता है। २. घड़ों आदि को बाँधकर बनाया हुआ बेड़ा। घड़नैल। पुं० [सं० कर्त्तरी] बंदर या भालू का जबड़ा। (कलंदर)। स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली।
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कातरता  : स्त्री० [सं० कातर+तल्,टाप्] १. कतार होने की अवस्था या भाव। २. कष्ट या दुःख के समय होनेवाली विकलता। बेचैनी। ३. अधीरता।
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कातरोक्ति  : स्त्री० [सं० कातर-उक्ति, ष० त०] दुःख या संकट में पड़कर और अधीर या निराश होकर दीनपूर्वक कही जानेवाली बात या की जानेवाली प्रार्थना।
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कातर्य  : पुं० [सं० कातर+ष्यञ्]=कातरता।
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कांता  : स्त्री० [सं० कांत+टाप्] १. प्रिय या सुन्दरी स्त्री। २. प्रेमिका। ३. पत्नी। भार्या।
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काता  : पुं० [हिं० कातना] १. काता हुआ सूत। तागा। २. एक प्रकार की मिठाई जो देखने में बहुत महीन कते हुए सूत के लच्छों की तरह होती है। बुढ़िया का काता। पुं० [सं० कर्त्तन] बाँस काटने या छीलने का एक प्रकार का औजार।
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कांतार  : पुं० [सं० कांत√ऋ (गति)+अण्] १. बहुत घना और भीषण जंगल या वन। २. बहुत ही उजाड़ और भयावना स्थान। ३. दुरूह या विकट मार्ग। ४. केतारा। ऊख। ६. बाँस। ६. छिद्र। छेद। ७. दरार। संधि।
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कांतारक  : पुं० [सं० कांतार+कन्] केतारा। (ईख)।
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कांतासक्ति  : स्त्री० [कांत-आसक्ति, स० त०] अपने को पत्नी या प्रेयसी तथा परमात्मा को पति या प्रेमी मानकर की जानेवाली भक्ति।
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कांति  : स्त्री० [सं०√कम् (चमकना)+क्तिन्] १. मनुष्य (विशेषतः स्त्री) के स्वरूप की छवि, शोभा या सौंदर्य। दैहिक या वैयक्तिक श्रृंगार या सजावट और उसके कारण बननेवाला मोहक रूप। २. प्रेम से युक्त तथा वर्णित शारीरिक सौंदर्य। ३. आभा। प्रकाश। ४. शोभा। सौंदर्य। ५. चन्द्रमा की १६ कलाओं में से एक जो उसकी पत्नी भी मानी गई है। ६. आर्या चंद का एक भेद जिसमें १६ लघु और २५ गुरु मात्राएँ होती हैं।
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कातिक  : पुं० [सं० कार्तिक] कार्तिक मास। पुं० [?] एक प्रकार का बड़ा तोता।
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कांतिकर  : वि० [सं० कांति√कृ (करना)+ट] कांति (शोभा या सौंदर्य) बढ़ानेवाला। सुशोभित करनेवाला।
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कातिकी  : वि०=कार्तिकी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कातिग  : पुं० =कार्तिक।
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कांतिभृत्  : पुं० [सं० कांति√भृ (धारण करना)+क्विप्] चन्द्रमा।
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कांतिमान् (मत्)  : वि० [सं० कांति+मतुप्] १. कांति से युक्त। २. चमकीला।
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कातिल  : वि० [अ०] १. कत्ल या हत्या करनेवाला। हत्यारा। २. प्राण लेने या प्राण संकट में डालनेवाला। बहुत अधिक घातक।
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कातिव  : पुं० [अ०] १. लेखों आदि की प्रतिलिपि करनेवाला व्यक्ति। २. वह जिसने कोई दस्तावेज या लेख्य लिखा हो अथवा जो लेख्य आदि लिखने का व्यवसाय करता हो।
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कांतिसुर  : पुं० [सं० सुरकांति] सोना। स्वर्ण।
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काँती  : स्त्री० [सं० कर्त्तरी] १. कैंची। २. छुरी। ३. बिच्छू का डंक। स्त्री०=कांति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काती  : स्त्री० [सं० कत्त्वी, प्रा० कत्ती] १. कैंची। जैसे—लोहारों या सुनारों की काती। २. चाकू। छुरी। उदाहरण—तजि ब्रजलोक पिता अरू जननी कंठ लाय गरु काती।—सूर। ३. एक प्रकार की छोटी तलवार।
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कातीय  : वि० [सं० कात्यायन+छ-ईय, फक्, प्रत्यय का लुक्] कात्यायन-संबंधी।
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कात्य  : वि० [सं० कत+य़ञ्] कत ऋषि संबंधी। पुं० १. कत ऋषि के गोत्र का व्यक्ति। २. दे० ‘कात्यायन’।
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कात्यायन  : पुं० [सं० कत+यञ्+फक्-आयन] [स्त्री० कात्यायिनी] १. व्याकरण के एक प्रसिद्ध आचार्य, जिन्होंने वार्तिक लिखकर पाणिनी के सूत्रों की अभिपूर्ति की थी। २. एक ऋषि जो सामाजिक और धार्मिक विधियों के आचार्य माने गये हैं।
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कात्यायनी  : स्त्री० [सं० कात्यायन+ङीष्] १. कत गोत्र में उत्पन्न स्त्री। २. कात्यायन ऋषि की पत्नी। ३. वह विधवा जो कषाय वस्त्र पहनती हो। ४. दुर्गा की एक मूर्ति या रूप।
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कात्यायनीय  : वि० [सं० कात्यायन+छ-ईय] कात्यायन द्वारा रचित (ग्रन्थ)।
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काथ  : पुं० १.=कत्था (खैर)। २. [स्त्री० काथरी]=कंथा (गुदड़ी)।
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कांथरि  : स्त्री=कथरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कांदन  : पुं० [सं० कंडन] मारकाट। उदाहरण—पुनि सलार काँदन मतिमाँहा।—जायसी। पुं० [सं० क्रंदन] रोना-पीटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काँदना  : अ० [सं० क्रंदन] रोना, विशेषतः चिल्लाकर या जोर से रोना। स० [सं० कंडन] १. रौंदना। २. पानी मिलाकर गूँथना। उदाहरण—पहिलहि काहि न काँदहु आटा।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कादंब  : वि० [सं० कदंब+अण्] १. कदंब-संबंधी। कदंब या कदम (वृक्ष या फल) का। २. कदंब या समूह-संबंधी। सामूहिक। पुं० १. कदंब का पेड़ या फल। कदम। २. प्राचीन काल की एक प्रकार की मदिरा जो कदंब ०या कदम से बनती थी। २. ईख। ऊख। ४. तीर। बाण। ५. एक प्रकार का हंस। कलहंस। ६. दक्षिण भारत का एक प्राचीन राजवंश।
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कादंबर  : पुं० [सं० कादंब√ला (आदान)+क,र=ल] १. एक प्रकार की मदिरा जो कदंब के फूलों से बनाई जाती थी। २. हाथी का मद। गजमद। ३. दही के ऊपर की मलाई। ४. ईख के रस का गुड़।
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कादंबरी  : स्त्री० [सं० कु-अंबर,ब० स० कु=क, कदंबर=बलराम+अण्, ङीष्] १. कोकिल। कोयल। २. मैना पक्षी। ३. मदिरा। शराब। ४. वाणी। ५. वाणी की देवी।। सरस्वती। ६. बाणभट्ट की लिखी हुई एक प्रसिद्ध कथा या कहानी जो उसकी नायिका के नाम पर बनी थी।
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कादंबिनी  : स्त्री० [सं० कादंब+इनि, ङीष्] १. बादलों का समूह। मेघवाला। २. मेघ राग की एक रागिनी।
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कादर  : वि० [सं० कातर] १. कायर। डरपोक। २. अधीर। ३. बेचैन। विकल। उदाहरण—कादर करत मोहिं बादर नये नये।
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काँदला  : पुं० [हिं० काँदा] १. कीचड़। २. मैल। वि० गँदला। मैला। पुं० =कँदला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काँदव  : पुं० =काँदो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कांदव  : पुं० [सं० कंदु+अण्] चूल्हे या कड़ाही में भूनी हुई चीज।
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कादव  : पुं० =काँदो। (कीचड)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कांदविक  : पुं० [सं० कांदव+ठक्-इक] १. खाद्य पदार्थ बनाने और बेचनेवाला व्यक्ति। २. हलवाई।
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काँदा  : पुं० [सं० कंद] १. एक प्रकार का गुल्म जिसमें प्याज की-सी गाँठ पड़ती है। २. प्याज। पुं० =काँदो (कीचड़)।
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कादा  : पुं० [?] लकड़ी की पटरी जो जहाज के शहतीरों और कड़ियों के नीचे उन्हें जकड़े रखने के लिए जड़ी रहती है। (लश०)
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कादिम  : पुं० =कर्दम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कादिर  : वि० [अ०] १. कुदरत या शक्ति रखनेवाला। शक्तिशाली और समर्थ। २. भाग्यवान। पुं० ईश्वर का एक नाम।
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कादिरी  : स्त्री० [अ०] स्त्रियों के पहनने की एक प्रकार की कुरती या चोली।
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काँदू  : पुं० =काँदो।
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काँदो  : पुं० [सं० कर्दम, पा० कद्दम] कीचड़। पंक। पुं० [सं० कादविक] बनियों की एक जाति।
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कादो  : पुं० [सं० कर्दम, प्रा० कद्दम] १. कीचड़। २. गारा। उदाहरण—करि ईट नीलमणि कादों कुदण।—प्रिथीराज।
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काद्रवेय  : पुं० [सं० कद्रु+ढक्-एय] अनंत, तक्षक, वासुकी, शेष आदि सर्प जो कद्रु से उत्पन्न कहे गये हैं और जिनका निवास पाताल में माना गया है।
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कांध  : पुं० १. =कंधा। २. =कान्ह। (श्रीकृष्ण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काँधना  : स० [हिं० काँध] १. कंधों पर या अपने ऊपर लेना, रखना, उठाना। उदाहरण—मैं होइ भेंड़ मारू सिर काँधा।—जायसी। २. ठानना। मचाना। उदाहरण—जौ पहिलैं मन मान न काँधिअ। जायसी। ३. अंगीकार या ग्रहण करना। सहन करना। सहना।
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काँधर  : पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ड] कृष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काँधा  : पुं० =कान्हा (श्रीकृष्ण)। पुं० =कंधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काँधी  : स्त्री० [हिं० काँधा] कंधा। मुहावरा—काँधी मारना=(क) घोड़े का अपनी गरदन को इतने जोर से झटका देना कि सवार का आसन हिल जाय। (ख) टाल-मटोल करना।
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काँन  : पुं० १. =कान्ह (श्रीकृष्ण) २. =कान (सुनने की इंद्रिय)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कान  : पुं० [सं० कण, पा० प्रा० कण्ण, पं० कन्न, उ० गु० मरा० कान, कन्न, कनु, सि० कण] १. प्राणियों की वह इंद्रिय जिसके द्वारा वे शब्द सुनते हैं। श्रवण की इंद्रिय। श्रुति। श्रोत्र। विशेष—यह इंद्रिय सिर में प्रायः आँखों के दोनों ओर होती है। जो प्राणी अंडे देते है उनके कान प्रायः अन्दर धँसे होते हैं, और जो प्रत्यक्ष सन्तान का प्रसव करते हैं उनके कान बाहर निकले हुए होते हैं। मुहावरा—कान उठाना, ऊँचे करना या खड़े करना=पशुओं आदि के संबंध में शत्रु की आहट मिलने या संकट की संभावना होने पर कान ऊपर उठाना जो उनके सचेत होने का सूचक है। कान उड़ जाना या उड़े जाना=कान फटना (दे०)। (किसी के) कान उमेठना-दंड देने के हेतु किसी का कान मरोड़ना या मसलना। (अपने) कान उमेठना-भविष्य में कोई काम न करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करना। (किसी बात पर) कान करना=ध्यानपूर्वक कोई बात सुनना और उसके अनुसार आचरण करना। कान कतरना=कान काटना। (दे०)। (किसी के) कान काटना=चालाकी या धूर्त्तता में किसी से बहुत बढ़कर होना। जैसे—ये तो बड़े-बड़े धूर्तों के कान काटते हैं। कान का मैल निकलवाना=अच्छी तरह बात सुन सकने के योग्य बनना। (व्यंग्य) जैसे—जराकान का मैल निकलवा लो, तब तुम्हें सुनाई पड़ेगा। (अपने) कान खड़े करना=चौकन्ना या सचेत होना। (दूसरे के) कान खड़े् करना=चौकन्ना या सचेत करना। कान खाना या खा जाना=बहुत शोरगुल या हो-हल्ला करके तंग या परेशान करना। (किसी के) कान खोलना=किसी को चौकन्ना या सजग करना। (किसी बात पर) कान देना या धरना=ध्यान से किसी की बात सुनना और उसके अनुसार आचरण करना। (किसी का) कान धरना=१. जे० कान उमेठना। २. दे० कान पकड़ना कान न दिया जाना=इतना जोर का करूण या विकट शब्द होना कि सहा न जा सके। कान पकड़ना=कान उमेठना (दे०)। किसी को कहीं से कान पकड़ कर निकाल देना=अनादरपूर्वक या बेइज्जत करके किसी को कहीं से निकाल या हटा देना। (अपने) कान पकड़ना=किसी प्रकार का कष्ट या दंड भोगने पर भविष्य में वैसा काम न करने अथवा सचेत रहने की प्रतिज्ञा करना। (किसी के) कान पकड़ना=किसी को दोषी पाकर उसे भविष्य के लिए सचेत करना और कड़े दंड की धमकी देना। कान पर जूँ रेंगना=कोई घटना या बात हो जाने पर (उदासीनता,उपेक्षा आदि के कारण) उसका कुछ भी ज्ञान या परिचय न होना। कान पाथना=चुपचाप और बिना विरोध किये, सिर झुकाकर कहीं से चले या हट जाना। (किसी के) कान फूँकना=(क) किसी को अपना चेला बनाने के लिए उसे दीक्षा देना। (ख) दे० (किसी के) कान भरना। कान या कान का परदा फटना=घोर शब्द होने के कारण कानों को बहुत कष्ट होना। कान बजना=कान में साँय-साँय शब्द सुनाई पड़ना जो एक प्रकार का रोग है। (किसी के) कान भरना=किसी के विरुद्ध किसी से ऐसी बातें चोरी से कहना कि वे बातें उसके मन में बैठ जायँ। कान मलना=दे० कान उमेठना (किसी के) कान में कौड़ी डालना=किसी को अपना दास या गुलाम बनाना। (प्राचीन काल में दासता का चिन्ह्र) (किसी के) कान में (कोई बात) डाल देना=कोई बात कह, बतला या सुना देना। जैसे—उनके कान में भी यह बात डाल दो। (अर्थात् उनसे भी कह दो)। कान में तेल या रूई डालकर बैठना=कोई बात सुनते रहने पर भी उपेक्षापूर्वक उसकी ओर ध्यान न देना। (किसी के) कान में पारा या सीसा भरना=दंड-स्वरूप किसी को बहरा करने के लिए उसके कानों में पारा या गरम सीसा डालना। (प्राचीन काल) (किसी का किसी के) कान लगना=किसी के साथ सदा लगे रहकर चुपके-चुपके उससे तरह-तरह की झूठी सच्ची बातें कहते रहना। (किसी ओर) कान लगाना=कोई बात सुनने के लिए किसी ओर ध्यान देना या प्रवृत्त होना। कान तक न हिलना=चुपचाप सब कुछ सहते हुए तनिक भी प्रतिकार या विरोध न करना। चूँ तक न करना। कान हो जाना-कान खड़े हो जाना। चौकन्ने या सचेत हो जाना। कानोकान खबर न होना=जरा भी खबर न होना। कुछ भी पता न लगना जैसे—घर में चार-चार आदमियों की हत्या हो गई,पर किसी को कानोकान खबर न हुई। कानों पर हाथ धरना या रखना=कानों पर हाथ रखकर किसी बात से अपनी पूरी अनभिज्ञता प्रकट करना। यह सूचित करना कि हम इस संबंध में कुछ भी नहीं जानते अथवा इससे हमारा कुछ भी संबंध नहीं है। पद—कान का कच्चा=ऐसा व्यक्ति जो बहुत सहज में या सुनते ही किसी बात पर विश्वास कर ले। २. सुनने की शक्ति। श्रवण-शक्ति। जैसे—तुम्हें तो कान ही नहीं है तुम सुनोगे क्या। ३. कान के ऊपर पहना जानेवाला एक गहना जिससे कान ढँक जाते हैं। झाँप। ४. किसी चीज में कान की तरह ऊपर उठा या बाहर निकला हुआ उसका कोई अंग या अँश जो प्रायः उस चीज के असम या टेढ़ें होने का सूचक होता है। कनेव। जैसे—चारपाई या चौकी का कान, तराजू का कान (अर्थात् पासंग)। ५. पुरानी चाल की तोपों, बन्दूकों आदि में कुछ ऊपर उठा हुआ और प्याली के आकार का वह गड्ढा जिसमें रंजक रखी जाती थी। प्याली रंजकदानी। पुं० [सं० कर्ण] नाव की पतवार जिसका आकार प्रायः कान का-सा होता है। स्त्री०=कानि (देखें)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कानक  : वि० [सं० कनक+अण्] १. कनक-सबंधी। कनक का। २. कनक अर्थात् सोने का बना हुआ। ३. सुनहला। पुं० जमाल गोटा।
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कानकुब्ज  : पुं० =कान्यकुब्ज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कानड़ा  : वि०=काना। पुं० =कान्हड़ा। (राग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कानन  : पुं० [सं०√कन् (दीप्ति)+णिच्+ल्युट्-अन] १. बहुत बड़ा जंगल या वन। २. घर। मकान। ३. निवास स्थान।
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कानफरेंस  : स्त्री० [अं०] सम्मेलन। (दे०)।
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कानस्टेबुल  : पुं० [अं०] आरक्षी या पुलिस-विभाग का सिपाही।
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काना  : वि० [सं० काण] [स्त्री० कानी] १. (प्राणी) जिसकी कोई आँख खराब या विकृत हो चुकी हो या किसी प्रकार फूट चुकी हो। एकाक्ष। २. (पदार्थ) जो किसी उपयोगी अंग के टूट-फूट जाने के कारण निकम्मा और भद्दा हो गया हो। त्रुटि या दोष से युक्त। जैसे—कानी कौड़ी। ३. (तरकारी या फल) जिसमें ऊपर से छेद कर कीडे़ अंदर घुसे हों अथवा अंदर से बाहर निकले हों। जैसे—काना बैंगन, काना सेब। पद—कान-कुतरा (देखें)। वि० [सं० कर्ण] जिसका कोई कोना या सिरा कान की तरह बाहर निकला हो। जैसे—कानी चारपाई। पुं० [सं० कर्ण] १. लिखने में आकार की मात्रा जो अक्षरों के आगे लगाई जाती है। जैसे—लिखते समय काना-मात्रा ठीक से लगाया करो। २. पासे का वह अंग या पार्श्व जिस पर एक ही बिंदी होती है। ३. पासे का वह दाँव जो उस दशा में आता है जब पासे का वह भाग ऊपर होता है जिस पर एक ही बिंदी होती है। जैसे—हमारे तीन काने हैं, और तुम्हारा पौ बारह है। अव्य=कहाँ (बुंदेल०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काना-कानी  : स्त्री०=कानाफूसी।
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काना-कुतरा  : वि० [हिं० काना+कुतरना] जो खंडित या विकलांग होने के कारण कुरूप या भद्दा हो। जैसे—काना-कुतरा फल, काना-कुतरा लड़का।
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काना-गोसी  : स्त्री०=कानाफूसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काना-बाती  : स्त्री० [हिं० कान+बात] १. किसी के कान में चुपके से और धीरे से कही जानेवाली कोई बात। (दे० ‘कानाफूसी’) २. बच्चों को हँसाने के लिए एक प्रकार का विनोद, जिसमें उन्हें कान में बात कहने के बहाने से अपने पास बुलाकर उनके कान में जोर से कुर्र या ऐसा ही और कोई शब्द करते हैं, जिससे उनके कान झन्ना जाते हैं और वे हँसकर दूर हट जाते हैं।
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कानाफुसकी  : स्त्री०=कानाफूसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कानाफूसी  : स्त्री० [हिं० कान+अनु,० ‘फुस’ ‘फुस’] १. किसी के कान में बहुत धीरे से इस प्रकार कुछ कहना कि दूसरों को केवल फुस-फुस शब्द होता जान पड़े। २. उक्त प्रकार से होनेवाली बात-चीत, जो दूसरों से छिपा कर और बहुत धीरे-धीरे की जाय।
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कानि  : स्त्री० [?] १. कुल समाज आदि की मर्यादा या लोक-लज्जा का ऐसा ध्यान जो सहसा किसी बुरे काम में न पड़ने दे। लोक-लज्जा। मुहावरा—कानि पड़ना=कुल, समाज आदि की मर्यादा के अनुसार आचरण करना। २. बड़ों का अदब, लिहाज या संकोच। उदाहरण—सेवक सेवकाई जानि जानकीस मानै कानि।—तुलसी।
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कानिष्ठिक  : वि० [सं० कनिष्ठिका+अण्] वय, विस्तार आदि में सब से छोटा। पुं० सब से छोटी उँगली। कनिष्ठिका।
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कानी उँगली  : स्त्री० [सं० कनीनी] सब से छोटी उँगली। कनिष्ठिता।
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कानी हाउस  : पुं० =काँजी हाउस।
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कानी-कौड़ी  : स्त्री० [हिं० कानी+कौड़ी] १. ऐसी कौड़ी जिसे माला में पिरोने के लिए बीच में छेदा गया हो। २. लाक्षणिक अर्थ में बिलकुल नगण्य या परम हीन वस्तु। जैसे—हम अब तुम्हें कानी कौड़ी भी न देंगे।
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कानीन  : पुं० [सं० कन्या+अण्, कनीन आदेश] १. वह व्यक्ति जो कुमारी कन्या के गर्भ से (अर्थात् उसके विवाह के पहले) उत्पन्न हुआ हो। २. राजा कर्ण। (महाभारत)।
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कानून  : पुं० [यू० केनान से अ०, मि० अं० कैनन] [वि० कानूनी] १. किसी काम, बात या व्यवस्था के संबंध में बना हुआ निश्चित नियम। जैसे—कुदरत का कानून २. दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि क्षेत्रों में किसी काल, देश या विषय के सार्विक तथ्यों और सिद्धांतों के आधार पर बने हुए ऐसे निश्चित नियम जो विशिष्ट परिस्थितियों में सदा ठीक घटते हों। ३. देश अथवा राज्य में व्यवस्था, शांति और सुरक्षा बनाये रखने के लिए शासन या प्रभु-सत्ताधारी संस्था के द्वारा बनाया हुआ ऐसा नियम-समूह जिसका पालन वहाँ के सभी निवासियों के लिए अनिवार्य और आवश्यक होता है और जिसकी उपेक्षा या उल्लंघन करने वाला दंड का भागी होता है। आईन। विधि। मुहावरा—कानून छाँटना-झूठ=मूठ के, निस्सार और व्यर्थ के ऐसे तर्क उपस्थित करना, जिनका संबंध नियम, विधान आदि के क्षेत्रों से हो। ४. उक्त प्रकार के बने हुए समस्त नियमों, विधानों आदि का सामूहिक रूप। ५. उक्त प्रकार के नियमों, विधानों आदि का कोई ऐसा अंग या शाखा, जो किसी विशिष्ट कार्य-क्षेत्र या व्यवहार के संबंध में हो। जैसे—दीवानी, कानून फौजदारी कानून, शहादत (गवाही) का कानून आदि। ६. किसी वर्ग या समाज में प्रचलित सर्व-मान्य नियम और रूढ़ियाँ। (लाँ उक्त सभी अर्थों के लिए) ७. एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा जिसमें बजाने के लिए पटरिओं पर तार लगे होते हैं।
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कानूनगो  : पुं० [फा०] माल या राजस्व विभाग का वह क्षेत्रीय अधिकारी, जिसके अधीन पटवारी या लेखपाल काम करते हैं।
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कानूनदाँ  : पुं० [फा०] प्रायः सब प्रकार के कानून जाननेवाला व्यक्ति। कानून का ज्ञाता। विधिज्ञ।
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कानूनन्  : क्रि० वि० [अ०] विधान या नियम के अनुसार। कानून के मुताबिक।
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कानूनिया  : वि० [अ० कानून] व्यर्थ के कारण बना-बनाकर अथवा कानून और नियम बतला कर झगड़ा या हुज्जत करनेवाला।
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कानूनी  : वि० [अ० कानून] १. कानून संबंधी। कानून का। विधिक। जैसे—कानूनी बहस,कानूनी सलाह। २. व्यर्थ के कारण निकालकर झगड़ा या हुज्जत करनेवाला (व्यक्ति)।
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कान्यकुब्ज  : पुं० [सं० कन्या-कुब्जा, ब० स० कन्यकुब्ज+अण्] १. आधुनिक कन्नौज के आस-पास के प्रदेश का पुराना नाम। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त देश के निवासी ब्राह्मणों का वर्ग।
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कान्ह  : पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ड] श्री कृष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कान्हड़ा  : पुं० [सं० कणटि] संपूर्ण जाति का एक राग जो मेघ राग का पुत्र माना गया है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कान्हड़ी  : स्त्री० [सं० कर्णाटी] एक रागिनी जो दीपक राग की पत्नी कही गई है।
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कान्हम  : पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह=काला] भड़ौंच प्रदेश की काली मटियार जमीन जो कपास की खेती के लिए बहुत उपयुक्त है।
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कान्हमी  : स्त्री० [हि० कान्हम] भड़ौच प्रदेश की कान्हम भूमि में उपजनेवाली कपास।
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कान्हर  : पुं० [सं० कर्ण] कोल्हू के कातर पर लगी हुई वह बेड़ी लकड़ी जो कोल्हू की कमर से लगकर चारों ओर घूमती है। पुं० [सं० कृष्ण] श्रीकृष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कान्हरा  : पुं० =कान्हड़ा।
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काँप  : पुं० [सं० कल्प, प्रा० कप्प, पा० कप्पो, गु० बँ० काँप, सि० कापु, मरा० काप] १. बाँस आदि को काटकर बनाई जानेवाली पतली तथा लचीली तीली। २. गुड्डो या पतंग में लगाई जानेवाली बाँस की अर्द्धगोलाकार तीली। ३. सूअर का खाँग। ४. हाथी का दाँत। ५. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना जिससे प्रायः सारा कान ढक जाता है।
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कापटद्य  : पुं० [सं० कपट+ष्यञ्] १. कपटी होने की अवस्था या भाव। २. कपट।
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कापटिक  : वि० [सं० कपट+ठक्-इक] जिसके मन में कपट हो। कपटी।
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कापड़ी  : पुं० [सं० कपर्द्दिन्, प्रा० कपद्दी] [स्त्री० कापड़िन] एक प्रकार के यात्री जो गंगोत्तरी के काँवर पर जल लेकर सब तीर्थों में चढ़ाने के लिए चलते हैं। उदाहरण—कापड़ी संन्यासी तीरथ भ्रमाया न पाया नृबाँष पद का भेव।—गोरखनाथ।
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कापथ  : पुं० [सं० कु-पथिन्, कुप्रा० स० अच्, कु=का आदेश] बुरा मार्ग या रास्ता। कुपथ।
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काँपना  : स० [सं० कंपन] १. शीत आदि के कारण शरीर का रह-रहकर बराबर थोड़ा हिलते रहना। थरथराना। २. क्रोध, भय आदि के कारण शरीर का उक्त प्रकार से हिलना। थर्राना। ३. बहुत अधिक भयभीत होना। जैसे—हम तो उनके सामने जाते काँपते हैं।
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कापर  : कपड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काँपा  : पुं० १. =काँप। २. =कंपा।
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कापाल  : पुं० [सं० कपाल+अण्] १. एक प्राचीन अस्त्र। २. प्राचीन भारतीय राजनीति में ऐसी पारस्परिक संधि जिसमें दोनों पक्षों के अधिकार समान माने गये हों।
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कापालिक  : वि० [सं० कपाल+ठक्-इक] कपाल-संबंधी। पुं० १. भैरव या शक्ति के उपासक एक प्रकार के तांत्रिक जो अपने हाथ में कपाल या मनुष्य की खोपड़ी लिये रहते हैं। २. बंगाल में रहनेवाली एक पुरानी वर्ण-संकर जाति। ३. वैद्यक में एक प्रकार का कोढ़ जिसमें शरीर का चमड़ा कड़ा,काला और रूखा होकर फटने लगता है।
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कापालिका  : स्त्री० [सं० कापालिक+टाप्] एक प्रकार का पुराना बाजा जो मुँह से बजाया जाता था।
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कापाली  : पुं० [सं० कपाली] [स्त्री० कापालिनी] १. शिव। २. एक वर्ण संकर जाति।
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कापिक  : वि० [सं० कपि+ठक्-इक] १. कपि या बंदर संबंधी। २. बंदरों का सा। बंदरों की तरह का।
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कांपिल  : पुं० [सं० कंपिल+अण्] एक प्राचीन प्रदेश जो किसी समय पांचाल का दक्षिणी भाग था। (आज-कल फर्रूखाबाद के आस-पास)
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कापिल  : वि० [सं० कपिल+अण्] १. कपिल संबंधी। कपिल का। २. कपिल काव्य या उनके दर्शन का अनुयायी। ३. भूरा। पुं० १. कपिल मुनि कृत सांख्य-दर्शन। २. भूरा रंग।
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कांपिल्य  : पुं० [सं० कम्पिला+ण्य] दे० ‘कांपिल’।
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कापिश  : पुं० [सं० कपिशा+अण्] प्राचीन भारत में माधवी के फूल से बनाई जानेवाली एक प्रकार की मदिरा।
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कापिशी  : स्त्री० [सं० कापिश+ङीष्] एक प्राचीन देश जहाँ कापिश नाम की मदिरा अच्छी बनती थी। (पाणिनी)।
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कापिशेय  : पुं० [सं० कपिशा+ठक्-एय] पिशाच। भूत-प्रेत।
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कापी  : स्त्री० [अं०] १. किसी लेख आदि की हुई नकल। प्रतिरूप। २. चित्र, पुस्तक आदि की प्रतिलिपि ३. चित्र, पुस्तक आदि की प्रति। ४. वह कोरी या सादी पुस्तिका जिस पर कुछ लिखा जाता हो। ५. छपने आदि के लिए दिया जानेवाला हस्तलेख। स्त्री० [अं० कैप] गराड़ी लश०)।
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कापीनवीस  : पुं० [अं० कापी+फा० नवीस=लिखनेवाला] १. कापी अर्थात् लेखों की नकल या प्रतिलिपि लिखनेवाला लेखक। २. वह लेखक जो लीथो के छापे के लिए सुन्दर अक्षरों में लेख लिखता है।
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कापुरुष  : पुं० [सं० कु-पुरुष, कुप्रा० स० कु=का] १. तुच्छ या हीन व्यक्ति। २. कायर या भीरु पुरुष।
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कापेय  : वि० [सं० कपि+ढक्-एय] [स्त्री० कापेया] कपि या बंदरसंबंधी। कापिक। पुं० शौनक ऋषि का एक नाम।
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कापोत  : वि० [सं० कपोत+अण्] १. कबूतर संबंधी। २. कबूतर के रंग जैसा।
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काप्य  : पुं० [सं० कपि+य़ञ्] १. कपि नामक ऋषि का प्रवर्तित गोत्र। २. उक्त ऋषि के गोत्र का व्यक्ति। ३. आंगिरम् ऋषि।
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काफ  : पुं० [अ०] १. उर्दू वर्णमाला का एक व्यंजन। २. पश्चिमी एशिया का एक प्रसिद्ध पर्वत (काकेशस)।
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काफल  : पुं० [सं० कु-फल,ब० स० का आदेश] कायफल।
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काफिया  : पुं० [अ० काफियः] १. कविता या पद्य में अंतिम चरणों में मिलाया जानेवाला अनुप्रास। अंत्यानुप्रास तुक। सज। मुहावरा—काफिया तंग करना=(क) इतना तंग या दुःखी करना कि उद्धार का मार्ग न दिखाई दे। छक्के छुड़ाना। (ख) बहुत परेशान या हैरान, करना। नाकों दम करना। २. दो शब्दों का ऐसा रूप-साम्य जिसमें अंतिम मात्राएँ और वर्ण एक ही होते हैं। जैसे—कोड़ा, घोड़ा और तोड़ा, या गोटी चोटी और रोटी का काफिया मिलता है। मुहावरा—काफिया मिलाना=(क) शब्दों का अनुप्रास या तुक मिलाना। (ख) किसी चीज या बात के सामने कोई ऐसी चीज या बात ला रखना जो महत्त्व, योग्यता रूप आदि के विचार से ठीक वैसी ही हो। (किसी के साथ) काफिया मिलाना=किसी के साथ दोस्ती या मेल-जोल करके उसे ठीक अपने समान बनाना अथवा स्वयं उसके सामान बन जाना।
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काफियाबंदी  : स्त्री० [अ० काफियः+फा०बंदी] १. तुक या काफिया जोड़ना। अनुप्रास मिलाना। २. बहुत ही साधारण कोटि की कविता करना। तुकबंदी करना।
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काफिर  : वि० [अ०] १. ईश्वर का अस्तित्व न माननेवाला। नास्तिक। २. जो दया धर्म आदि का कुछ भी ध्यान न रखता हो। अत्याचार, अनर्थ या उपद्रव करनेवाला वाली। जैसे—काफिर जवानी। पुं० १. मुसलमानों की दृष्टि में ऐसा व्यक्ति जो इस्लाम का अनुयायी हो। २. काफिरिस्तान नामक देश में रहनेवाली जाति। ३. उक्त जाति का व्यक्ति।
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काफिरिस्तान  : पुं० [अ०] अफगानिस्तान का एक प्रदेश जिसमें काफिर जाति बसती है।
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काफिरी  : वि० [अ०] काफिरो का-सा। काफिर संबंधी। स्त्री० १. काफिर होने की अवस्था या भाव। काफिरापन। २. काफिर काति या काफिरिस्तान देश की बोली या भाषा।
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काफिला  : वि० [अ०] यात्रा, व्यापार आदि के उद्देश्य से पैदल चलनेवाले यात्रियों का समूह।
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काफी  : वि० [अ०] जितना अपेक्षित या आवश्यक हो ठीक उतना। पूरा। यथेष्ट। पुं० संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें गांधार कोमल होता है। यह रात के दूसरे पहर में गाया जाता है। स्त्री० [अं०] कहवा।
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काफूर  : पुं० [सं० कर्पूर, हिं० कपूर] [वि० काफूरी] कपूर। मुहावरा—काफूर होना या हो जाना=(क) इस प्रकार चल देना कि जल्दी किसी को पता भी न चले। (ख) चटपट गायब हो जाना।
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काफूरी  : वि० पुं० =कपूरी।
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काँब  : स्त्री० [सं० कल्प, हिं० काँप] छड़ी (राज०।)
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काब  : स्त्री० [तु०] छोटी थाली। रिकाबी।
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काबर  : स्त्री० [हिं० कबरा] एक प्रकार की भूमि जिसकी मिट्टी में रेत भी मिली रहती है। दोमट। खाभर। वि०=चित-कबरा।
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काबला  : पुं० [अं० केबिल=रस्सा] वह बड़ा पेच जिसके ऊपर ढेबरी या बालटू कसा जाता है। (लश०)
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काबा  : पुं० [अ० कअबः] मक्के (सरूदी अरब में, मक्का नामक नगर) की वह प्रसिद्ध मसजिद जहाँ सारे संसार के मुसलमान दर्शन और परिक्रमा करने के लिए जाते है। (इसी स्थान की यात्रा करना हज करना कहलाता है)।
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काबि  : स्त्री०=कविता। पुं० =काव्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काबिज  : वि० [अ०] १. जिसने किसी वस्तु पर कब्जा या अधिकार कर लिया हो। अधिकार जमानेवाला। २. किसी की जमीन या मकान में रहकर उसका उपभोग करनेवाला (आँकुपेंट) ३. पेट के मल का अवरोध या कब्जियत करनेवाला। (औषध या खाद्य पदार्थ)
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काबिल  : वि० [अ०] [भावकाबिलियत] १. योग्य। २. (व्यक्ति) जो किसी विषय का अच्छा ज्ञाता या विशेषज्ञ हो। विद्वान। पढ़ा-लिखा तथा सुयोग्य (व्यक्ति)।
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काबिलीयत  : स्त्री० [अ०] १. योग्यता। २. लियाकत। ३. पांडित्य। विद्वता।
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काबिस  : पुं० [सं० कपिश] १. लाल रंग की एक प्रकार की मिट्टी। २. उक्त मिट्टी से बना हुआ रंग जिससे कुम्हार मिट्टी के बरतन रँगते हैं।
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काबुक  : स्त्री० [फा०] पक्षियों,विशेषतः कबूतरों के रहने का खाना या दरबा।
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काबुल  : पुं० [सं० कुभा] [वि० काबुली] १. अफगानिस्तान की एक नदी जो अटक के पास सिंधु नदी में गिरती है। २. उक्त नदी पर स्थित एक नगर जो अफगानिस्तान की राजधानी है।
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काबुली  : वि० [हिं०काबुल] १. काबुल का। काबुल संबंधी। जैसे—काबुली पहनावा। काबुली बोली। २. काबुल में उत्पन्न होने या वहाँ से आनेवाला। जैसे—काबुली मेवे। पुं० काबुल अथवा अफगानिस्तान का निवासी। स्त्री०काबुल अथवा अफगानिस्तान की बोली या भाषा।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
काबुली बबूल  : पुं० [हिं०काबुली+बबूल] बबूल के वृक्षों की एक जाति।
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काबुली मस्तगी  : स्त्री० [फा०] एक वृक्ष का गोंद जो गुण,रूप आदि में रूमी मस्तगी के समान होता है।
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काबू  : पुं० [तु०] १. अधिकार। वश। जैसे—यह बात हमारे काबू की नहीं है। उदाहरण— जब तक करूँ बाबू बाबू। तब तक करूँ अपने काबू।—कहा०। २. जोर। बल। जैसे—उन पर हमारा कोई काबू नहीं है। ३. काम निकालने का अच्छा और अनुकूल अवसर। दाँव। मुहावरा—(किसी के) काबू पर चढ़ना=ऐसी विवशता की स्थिति में होना कि कुछ भी जोर या वश न चल सके। जैसे—जिस दिन तुम उनके काबू पर चढ़ोगे, उस दिन वे तुम से पूरा बदला चुका लेगें।
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कांबोज  : वि० [सं० कंबोज+अण्] १. कंबोज देश (अर्थात् गांधार के आस-पास) का। कंबोज देश-संबंधी। पुं० कंबोज देश का निवासी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
काम  : पुं० [सं०√कम् (चाहना)+णिङ्+घञ्] [वि० कामुक, कामी, काम्य] १. किसी इष्ट बात की सिद्धि या वासना की पूर्ति के संबंध में मन में होनेवाली इच्छा या चाह। अभिलाषा, कामना, मनोरथ। २. अपने अपने विषयों के भोग की ओर होनेवाली इंद्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति जो धार्मिक क्षेत्र में चातुर्वर्ग या चार पदार्थों में से एक मानी गई है। विशेष—हमारे यहाँ धर्म, अर्थ काम और मोक्ष ये चार ऐसे पदार्थ कहे गये हैं जिनकी सिद्धि मनुष्य के जीवन में होना आवश्यक भी है और स्वाभाविक भी। ऐसे प्रसंगों में काम की प्राप्ति या सिद्धि का यह आशय होता है कि इंद्रियों की इष्ट, संगत और स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ चरितार्थ और पूरी होती रहें। ३. संभोग या स्त्री-प्रसंग की कामना। मैथुन या सहवास की इच्छा या प्रवृत्ति। ४. पुरुष और स्त्री के पारस्परिक संभोग या संयोग की इच्छा या कामना का देवता जिसे कामदेव भी कहते हैं। विशेष—रूप के विचार से यह कुमारोचित सुन्दरता का आदर्श और प्रतीक माना गया है, और इसकी पत्नी रति स्त्रियों की सुन्दरता की प्रतीक कही गई है। भिन्न-भिन्न आचार्यों या ग्रन्थों के मत के ०यह धर्म,ब्रह्मा अथवा संकल्प का पुत्र है। कहते हैं कि जब इसने शिवजी के मन पर अपना प्रभाव डालना चाहा था तब उन्होंने इसे भस्म कर डाला था। पर बाद में रति के विलाप करने पर वर दिया था कि अब यह शरीर-रहित होकर सदा जीवित रहेगा। तभी से इसे अनंग भी कहते हैं। ५. महादेव। शिव। ६. बलदेव का एक नाम ७. प्रद्युम्न का एक नाम जो परम सुन्दर होने के कारण कामदेव के अवतार कहे गये हैं। ८. वीर्य। शुक्र। ९. चार चरणों का एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में दो दीर्घ मात्राएँ होती हैं। १॰. रचना के विचार से एक विशिष्ट प्रकार का देव-मंदिर। (वास्तु)। पुं० [सं० कर्म, प्रा० पा० पं० कम्म, गु० मरा० काम० सिह० कमु] १. वह जो कुछ किया जाय,किया गया हो अथवा किया जाने को हो। क्रिया के परिणाम के रूप में होनेवाला किसी प्रकार का कार्य, कृत्य या व्यापार। जैसे—मनुष्य हरदम किसी-न-किसी काम में लगा रहता है। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य से अथवा किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए किया जानेवाला कोई कार्य या कृत्य। जैसे—दफ्तर का काम करके आने पर घर का काम करना पड़ता है। मुहावरा—काम अटकना=बाधा के कारण काम का बीच में कुछ समय के लिए रूकना। जैसे—अब तो रुपए के बिना काम अटक रहा है। (किसी वस्तु का) काम करना=अपनी उपयोगिता, गुण या प्रभाव दिखलाना। जैसे—यह दवा तीन घंटे में अपना काम करेगी। कान चलना=(क) किसी कार्य का आरम्भ होना। (ख) किसी कार्य का बराबर संपादित होता रहना। जैसे—इमारत का काम बराबर चल रहा है। (किसी चीज से) काम चलाना या निकालना=आवश्यक वस्तुओं के अभाव में किसी दूसरी चीज में से जैसे—तैसे कार्य का निर्वाह करना। जैसे—कपड़ा न मिलने पर कागज से ही काम चलाना या निकालना। काम निकलना-(क) आवश्यकता पूरी होना। (ख) उद्देश्य या प्रयोजन सिद्ध होना। काम बनना=उद्दिष्ट रूप में या ठीक तरह से कार्य पूरा या सिद्ध होना। जैसे—(क) यदि वे किसी तरह राजी हो जायँ तो काम बन जाय। (ख) चलों, तुमने तो अपना काम बना लिया। (किसी आदमी या चीज से) काम लेना=उपयोग में लाकर उद्देश्य या कार्य सिद्ध करना। जैसे—जब तक कोई अच्छा नौकर नहीं मिलता तब तक इसी लड़के से काम लो। (किसी का) काम हो जाना=इतना अधिक परिश्रम या भार पड़ना कि मानों प्राणों पर संकट आ गया हो। जैसे—आज तो दिन भर लिखते-लिखते (या दौड़ते-दौड़ते) हमारा काम हो गया। ३. कोई ऐसा कार्य जिसकी पूर्ति या संपादन से कोई कृति प्रस्तुत होती हो। जैसे—इमारत का काम,कोश का काम। ४. व्यापार, सेवा आदि का कोई ऐसा कार्य जो जीविका-निर्वाह के लिए किया जाता हो। जैसे—(क) आज-कल उनके हाथ में कोई काम नहीं है। (ख) उनके पास जाने पर तुम्हें कोई काम मिल जायगा। ५. कोई ऐसा कार्य जिसके लिए बहुत अधिक कौशल, परिश्रम या योग्यता की आवश्यकता होती हो। पद—(कुछ करना) काम रखता है=(इस काम में) बहुत अधिक कौशल, परिश्रम या योग्यता अपेक्षित है। जैसे—ऐसा ग्रन्थ लिखना काम रखता है। ६. कोई ऐसी कृति या रचना जिसमें कर्त्ता ने उत्कृष्ट कौशल दिखलाया या विशेष परिश्रम किया हो। जैसे—कसीदे या जरदोजी का काम,पच्चीकारी या मीनाकारी का काम। ७. किसी कृति या रचना में दिखाई पड़नेवाला कर्त्ता का कौशल, परिश्रम या योग्यता (उसके उपादान से भिन्न) जैसे—जरा इन बेल-बूटों में कारीगर का काम तो देखो। ८. किसी कृति या रचना में लगा हुआ प्रधान या मुख्य उपादान अथवा सामग्री। जैसे—(क) उस मकान में ऊपर से नीचे तक पत्थर (या लकड़ी) का ही काम है। (ख) ऐसा कपड़ा लाओ जिसमें जरी (या रेशम) का काम हो। ९. उपयोग। प्रयोग। व्यवहार। मुहावरा—(किसी चीज, बात या व्यक्ति का) काम आना उपयोगी या व्यवहार के योग्य होना। जैसे—आखिर आपकी दोस्ती और किस दिन काम आवेगी। विशेष— हिंदी का यह मुहावरा उर्दू के उस (काम आना) मुहावरे से भिन्न है जिसका अर्थ होता है—लड़ाई-झगड़े में मारा जाना। इसे अंतिम मुहावरे के विवेचन और उदाहरण के लिए देखें नीचे फा०काम का अर्थ-वर्ग। काम में आना=उपयोग या व्यवहार में आना, प्रयुक्त या व्यवह्रत होना। जैसे—इतने दिनों से सँभालकर रखी हुई पुस्तक आज काम में आई है। काम लेना=(क) उपयोग या व्यवहार में लाना। जैसे—आप इस पुस्तक से भी कुछ काम ले सकते हैं। (ख) काम में लगाना। जैसे—आज इस नये आदमी से काम लेकर देखो। काम निकालना=किसी युक्ति से अपना उद्देश्य या मनोरथ सिद्ध करना। जैसे—तुमने तो बातों-बातों में ही अपना काम निकाल लिया। काम बनना=उद्देश्य या प्रयोजन सिद्ध होना। जैसे—चलो,तुम्हारा काम तो अब बन ही गया। पद—काम का=जिसका अच्छा या यथेष्ट उपयोग पूरा होता हो। जैसे—यह आदमी तो बहुत काम का निकला। १॰. ऐसा पारस्परिक संबंध या संपर्क जिससे कोई उद्देश्य पूरा होता हो। मतलब। वास्ता। सरोकर। जैसे—तुम्हें इन सब झगड़ों से क्या काम। उदाहरण—जाओ, जाओ, मोसों तोसों अब कहा काम। गीत। मुहावरा—अपने काम से काम रखना=अपने काम या प्रयोजन के सिवा और किसी बात से मतलब या संबंध न रखना। जैसे—वह जो चाहें सो करें, तुम अपने काम से काम रखो। (किसी के) काम पड़ना=इस प्रकार का संपर्क या संबंध होना कि बल, बुद्धि आदि की परीक्षा हो और उसके फलस्वरूप कुछ कटु अनुभव हो। पाला या साबिका पड़ना। जैसे—अभी तुम्हें किसी उस्ताद से काम नहीं पड़ा है नहीं तो इस तरह बढ-बढ़कर बातें न करते। उदाहरण—चंदन पड़ा चमार घर नित उठ कूटै चाम। चंदन रोवै सिर धुनै पड़ा नीच से काम। पुं० [सं० काम से फा०] १. इच्छा। कामना। २. इरादा। विचार। ३. अभिप्राय,उद्देश्य। मुहावरा—(किसी व्यक्ति का) काम आना=मार-काट या लड़ाई-झगड़े में मारा जाना। हत होना। जैसे—पहले महायुद्ध में साठ लाख आदमी काम आये थे। (किसी व्यक्ति का) काम चमाम करना=कौशल अथवा बल से किसी का अस्तित्व मिटाना। किसी के जीवन का अंत करना। जैसे—बेगम ने लौंड़ी से जहर दिवलवाकर अपनी नई सौत का काम तमाम कर दिया। विशेष—ये मुहावरे उर्दू से हिंदी में आये हैं इसलिए ये सं० काम के अर्थ-वर्ग में नही बल्कि फा० काम के अर्थ-वेग में रखे गये हैं। इनका आशय यही होता है कि किसी उद्देशय या प्रयोजन की सिद्धि में किसी के अस्तित्व या जीवन का उपयोग हुआ था अथवा किया गया था, अर्थात् उसकी बलि चढ़ी थी।
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काम-कला  : स्त्री० [ष० त०] १. मैथुन। रति। २. कामदेव की पत्नी रति। ३. तंत्रोपचार में शिव और शक्ति की प्रतीक सफेद और लाल बिन्दियों या बिंदुओं का संयोग।
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काम-कूट  : वि० [ब० स०] १. कामुक। २. व्यभिचारी। पुं० [ष० त०] १. कामुकता। २. वेश्यावृत्ति।
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काम-चलाऊ  : वि० [हिं० काम+चलाना] १. (ऐसी वस्तु) जो टिकाऊ न होने पर भी कुछ समय तक के लिए काम में आ सके। २. जैसे—तैसे कुछ काम चला देनेवाला।
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काम-चोर  : वि० [सं० काम+चोर] जो अपने कर्त्तव्य या कार्य से जी चुराता हो। जैसे—काम चोर नौकर।
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काम-ज्वर  : पुं० [मध्य० स०] वह ज्वर जो काम-वासना की पूर्ति न होने अथवा अधिक समय तक ब्रह्मचर्य का पालन करने की दशा में होता है। (वैद्यक)।
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काम-तरु  : पुं० [मध्य० स०] १. कल्प-वृक्ष (दे०) २. बंदाल या बाँदा जो दूसरे वृक्षों पर चढ़कर पलता है।
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काम-तिथि  : स्त्री० [मध्य० स०] त्रयोदशी जो कामदेव की पूजा की तिथि कही गयी है।
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काम-दव  : पुं० [कर्म० स०] कामाग्नि (काम-वासना)।
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काम-दहन  : पुं० [ष० त०] १. शिवजी के द्वारा कामदेव के जलाये जाने की घटना। २. शिव।
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काम-दान  : पुं० [मध्य० स०] १. किसी की इच्छा या रुचि के अनुकूल भेंट की जानेवाली वस्तु। २. वेश्याओं का ऐसा नाच-रंग जिसमें लोग सब काम छोड़कर लीन हो रहे हों।
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काम-दूती  : स्त्री० [ष० त०] १. परवल की बेल। २. नागदंती नाम की घास।
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काम-देव  : पुं० [मयू० स०] पुराणों के अनुसार एक देवता जो काम-वासना के अधिष्ठाता माने गये हैं। इनकी पत्नी रति थी। शिव ने इन्हें अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिया था। वसंत इनका साथी, कोयल वाहन और अस्त्र फूलों का धनुष-बाण कहा गया है। अनंग, मदन, मन्मथ। २. उक्त की प्रेरणा से जाग्रत होनेवाली कामवासना। ३. वीर्य।
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काम-धाम  : पुं० [सं० कर्म-धर्म से] १. तरह-तरह के काम। काम-काज। २. रोजगार। व्यवसाय।
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काम-धेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] १. पुराणानुसार एक प्रसिद्ध गौ जो समुद्र मंथन के समय समुद्र में से निकलनेवाले चौदह रत्नों में से एक थी। और जो सब प्रकार की कामनाएँ पूरी करनेवाली कही गई है। सुरभी। २. वसिष्ठ की नंदिनी नामक गाय,जिसके लिए उन्हें विश्वामित्र से युद्ध करना पड़ा था। ३. दान के लिए सोने की बनाई हुई गौ की मूर्ति। ४. रहस्य संप्रदाय में मन की वृत्ति,जो सभी प्रकार के फल दे सकती है।
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काम-ध्वज  : पुं० [ष० त०] मछली जो कामदेव के झंडे पर बनी रहती है।
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काम-बाण  : पुं० [ष० त०] कामदेव के ये पाँच बाण-मोहन, उन्मादन, संतापन, शोषण और निश्चेष्टकरण।
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काम-भूरुह  : पुं० [मध्य० स०] कल्पवृक्ष।
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काम-रिपु  : पुं० [ष० त०] कामदेव के शत्रु अर्थात् शिव।
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काम-रुचि  : पुं० [ब० स०] सब प्रकार के अस्त्रों को व्यर्थ करनेवाला एक अस्त्र जो विश्वामित्र से श्रीरामचन्द्रजी को मिला था।
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काम-रूप  : वि० [ब० स०] जो इच्छानुसार अनेक प्रकार के रूप धारण कर सकता हो। पुं० १. देवता। २. एक प्राचीन राज्य जो करतोया नदी से असम प्रदेश और हिमालय तथा चीन तक फैला हुआ था। इसकी राजधानी प्रागज्योतिष में थी। इसी में कामख्या देवी का मंदिर है। ३. एक प्राचीन अस्त्र, जिससे शत्रु के फेंके हुए अस्त्र विफल किए जाते थे। ४. २६ मात्राओं का एक छंद जिसमें क्रमशः ९, ७ और १॰ के अन्तर पर यति और अन्त में गुरु-लघु होता है। ५. बरगद की तरह का एक बड़ा पेड़।
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काम-लोक  : पुं० [मध्य० स०] बौद्धों के अनुसार एक लोक।
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काम-वन  : पुं० [ष० त०] १. वह वन जिसमें तपस्या करते समय शिवजी ने कामदेव को भस्म किया था। २. मथुरा के पास का एक प्रसिद्ध तीर्थ।
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काम-वर  : वि० [सं० ] मनोहर। सुंदर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काम-शर  : पुं० [ष० त०] १. कामबाण। (दे०) २. आम।
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काम-शास्त्र  : पुं० [मध्य० स०] वह शास्त्र जिसमें स्त्री और पुरुष के संभोग के प्रकारों रीतियों पारस्परिक आकर्षक तथा प्रेम-संबंधी बातों का विवेचन होता है।
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काम-सुत  : पुं० [ष० त०] अनिरूद्ध जो कामदेव के अवतार मानेजाने वाले प्रद्युम्न के पुत्र थे।
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कामकाज  : पुं० [हिं० काम+काज=कार्य] कई प्रकार के काम। काम-धंधा।
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कामकाजी  : पुं० [हिं० काम+काज] वह जो प्रायः काम-धंधे में लगा रहता हो या जिसके हाथ में अनेक काम रहते हों।
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कामकृत  : वि० [कामकृत] १. अपनी इच्छा के अनुसार काम करनेवाला। २. [च० त०] काम-वासना या विषय भोग से संबंध रखने या उसके कारण होनेवाला। जैसे—कामकृत ऋण, कामकृत रोग।
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कामग  : वि० [सं० काम√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० कामगा] १. अपनी कामना या इच्छा के अनुसार काम करनेवाला। २. मनमाना आचरण करनेवाला। स्वेच्छाचारी। ३. कामुक। ४. व्यभिचारी। पुं० कामदेव
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कामगार  : पुं० १. मजदूर। २. कामदार (कार्याधिकारी)।
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कामचर  : पुं० [सं० काम√चर् (गति)+ट] १. अपनी अच्छा के अनुसार हर जगह पहुँच सकनेवाला। २. स्वेच्छापूर्वक विचरने या घूमने-फिरने वाला।
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कामचार  : पुं० [सं० काम√चर्+घञ्] [वि० कामचारी] १. स्वेच्छाचार। २. कामुकता। ३. स्वार्थता।
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कामचारी (रिन्)  : वि० [सं० काम√चर्+णिनि] १. अपनी इच्छानुसार विचरण करनेवाला। २. जब जहाँ चाहे तब वहाँ पहुँच सकने वाला। जैसे—देवगण कामचारी होते हैं। ३. काम-वासना की तृप्ति के लिए मनमाना आचरण करनेवाला। कामुक। लंपट।
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कामज  : वि० [सं० काम√जन्+ड] काम या वासना से उत्पन्न। जैसे—कामज व्यसन। पुं० क्रोध।
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कामजित्  : वि० [सं० काम√जि (जीतना+क्विप्] काम को जीतने या उस पर विजय प्राप्त करनेवाला। पुं० १. महादेव० शिव। २. कार्तिकेय। ३. जैनों में जिनदेव।
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कामड़िया  : पुं० [सं० कम्बल] संत रामदेव के अनुयायी साधु।
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कामणि  : स्त्री० [सं० कामिनी] सुन्दर स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कामतः  : क्रि० वि० [सं० काम+तस्] इच्छा, उद्देश्य या कामना से। जान-बूझकर कर या स्वेच्छा से।
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कामत  : स्त्री० [अ० क्रामत] ऊँचाई के विचार से आकार। कद।
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कामता  : पुं० [सं० कामद] चित्रकूट के पास का एक गाँव। स्त्री० [सं० ] काम का भाव। कामत्व। पुं० =कामदगिरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कामद  : वि० [सं० काम√दा (देना)+क] कामना पूरा करनेवाला। इच्छाओं की पूर्ति करनेवाला। जैसे—कामद मणि, कामद यज्ञ। उदाहरण—कामद भे गिरि रामप्रसादा।—तुलसी। पुं० १. ईश्वर २. सूर्य। ३. कार्तिकेय।
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कामद-गिरि  : पुं० [कर्म० स०] चित्रकूट में एक पर्वत जो सभी कामनाएँ पूरी करनेवाला कहा गया है।
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कामद-मणि  : पुं० [कर्म० स०] चिंतामणि नामक पौराणिक रत्न।
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कामदगाई  : स्त्री०=कामधेनु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कामदा  : स्त्री० [सं० काम√दा (देना)+क+टाप्] १. कामना पूर्ण करनेवाली एक देवी का नाम। २. कामधेनु। ३. चैत्र-शुक्ला एकादशी। ४. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, यगण, जगण तथा गुरु होता है।
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कामदानी  : स्त्री० [सं० काम+दान (प्रत्यय)] १. कपड़े आदि पर बादलों के तारों, सलमें, सितारे आदि से बनाया जानेवाला बेल-बूटों का काम। २. वह कपड़ा जिस पर उक्त प्रकार का काम बना हो। जैसे—कामदार टोपी। पुं० प्रधान कर्मचारी या कारिन्दा।
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कामदुधा  : स्त्री० [सं० काम√दुह् (दुहना)+क-टाप्] कामधेनु।
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कामधुक्  : वि० [सं० काम√दुह्+क्विप्] इच्छानुसार या मनमाना फल देनेवाला। स्त्री०=कामधेनु।
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कामन  : वि० [सं०√कम्+णिङ+ल्युट-अन] कामुक।
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कामना  : स्त्री० [सं०√कामि+युच् टाप्] १. अभीष्ट या हार्दिक इच्छा। जैसे—हमारी कामना है कि तुम फलो-फूलो। २. ऐसी इच्छा, जिसकी पूर्ति होने पर विशेष आनन्द तथा सुख मिलता हो। (विश्)।
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कामनी  : स्त्री०=कामिनी।
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कामपरता  : स्त्री० [सं० काम-पर, स० त०+तल्-टाप्] कामुकता।
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कामपाल  : वि० [सं० काम√पाल् (पालन करना)+णिच्+अण्] कामनाओं की पूर्ति करनेवाला। पुं० १. श्रीकृष्ण। २. बलराम। ३. महादेव। शिव।
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कामयाब  : वि० [फा] [भाव कामयाबी] जिसे सफलता हुई हो। सफल।
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कांमर  : स्त्री० १=कांवर (बँहगी)। २. =कंबल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कामर  : पुं० =कंबल।
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कामरान  : वि० [फा] जिसका उद्देश्य या प्रयत्न सिद्ध होल गया हो। सफल।
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कामरि  : स्त्री०=कमली (छोटा कंबल)।
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कामरी  : स्त्री० [सं० कंबल] छोटा कबंल। कमली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कामरु  : पुं० =कामरूप।
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कामरूपत्व  : पुं० [सं० कामरूप+त्व] एक प्रकार की सिद्धि जिससे साधक में अनेक प्रकार के मन-माने रूप धारण करने की शक्ति आती है।
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कामरूपी (पिन्)  : वि० [सं० कामरूप+इनि] [स्त्री० कामरूपिणी] १. इच्छानुसार रूप धारण करनेवाला। मायावी। २. सुन्दर।
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कामल  : पुं० [सं०√कम (चाहना)+णिच्+कलच्] १. वसंत ऋतु। २. कामला या पीलू नामक रोग। पीलिया। वि० कामी। कामुक।
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कामला  : पुं० [सं० कामल] कमल या पीलिया नामक रोग।
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कामली  : स्त्री०=कमली।
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कामवती  : स्त्री० [सं० काम+मतुप्, ङीष्] दारुहल्दी। वि० [कामवान का स्त्री रूप] रूपवती स्त्री। सुन्दरी।
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कामवान् (वत्)-  : वि० [सं० काम+मतुप्] [स्त्री० कामवती] १. जिसके मन में कामना हो। २. रूपवान। सुंदर।
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कामसखा  : पुं० [सं० कामसख] कामदेव का मित्र वसंत। (ऋतु)।
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कामा  : स्त्री० [सं० काम+टाप्] १. कामिनी स्त्री० २. एक वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में दो गुरु होते हैं। जैसे—ध्याये, राधा, त्यागे बाधा। पुं० [अं० कॉमा] अल्प विराम (दे०)।
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कामाक्षी  : स्त्री० [काम-अक्षि, ब० स० षच् प्रत्यय ङीष्] १. दुर्गा की एक मूर्ति। २. असम का एक प्रदेश जहाँ उक्त मूर्ति स्थापित है।
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कामाख्या  : स्त्री० [काम-आख्या, ब० स०] दुर्गा की एक मूर्ति।
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कामाग्नि  : स्त्री० [काम-अग्नि, उपमित० स०] उत्कट या तीव्र कामवासना। संभोग की प्रबल इच्छा।
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कामातुर  : वि० [काम-आतुर, तृ० त०] जो काम-वासना के कारण बहुत आतुर या विकल हो रहा हो।
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कामात्मज  : पुं० [काम-आत्मज, ष० त०] प्रद्युम्न (कामदेव का अवतारी रूप) के पुत्र अनिरुद्ध।
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कामाद्रि  : पुं० [काम-अद्रि, मध्य० स०] असम देश का एक पर्वत।
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कामांध  : वि० [काम-अंध, तृ० त०] जो काम-वासना के कारण अंधा अर्थात् विवेक से रहित हो रहा हो। परम कामातुर।
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कामानुज  : पुं० [काम-अनुज, ष० त०] काम-वासना के कारण उत्पन्न होनेवाला तामस भाव या मनोविकार।
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कामायनी  : स्त्री० [सं० काम-अयन, ष० त० कामायन+ङीष्] १. स्त्री। २. [काम+फक्-आयन, ङीष्] कामगोत्र में उत्पन्न स्त्री० ३. पुराणानुसार कामदेव और रति की कन्या, जिसका विवाह वैवस्वत् मनु से हुआ था।
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कामायुध  : पुं० [काम-आयुध, उपमित स०] १. कामदेव का अस्त्र। काम-बाण। २. आम (वृक्ष और फल)।
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कामारथी  : पुं० =कामार्थी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कामारि  : पुं० [काम-अरि, ष० त०] कामदेव के शत्रु महादेव।
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कामार्त  : वि० [काम-आर्त, तृ० त०]=कामातुर।
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कामावशायिता  : स्त्री० [सं० काम-अव√शी (निश्चय करना)+णिच्+तल्, टाप्] सत्य संकल्पता जो योगियों की आठ सिद्धियों या ऐश्वर्यों में से है।
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कामावसयिता  : स्त्री० [सं० काम-अव√सो (अंत करना)+णिच्+णिनि+तल्, टाप्]=कामावशायिता।
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कामिक  : वि० [सं० काम+ठन्-इक]=कामित।
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कामिका  : स्त्री० [सं० कामिक+टाप्] श्रावण कृष्ण एकादशी।
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कामित  : वि० [सं० कम् (चाहना)+णिच्+क्त] जिसकी कामना की गई हो। अभिलषित। स्त्री०=कामना।
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कामिनियाँ  : पुं० [देश] एक प्रकार का छोटा पेड़ जिसकी राल से एक प्रकार का लोबान बनता है।
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कामिनी  : स्त्री० [सं० काम+इनि, ङीष्] १. ऐसी स्त्री जिसके मन में कामवासना हो। कामवती। २. सुंदरी स्त्री, जिसकी कामना की जाय या की जा सके। ३. कृपालु या स्नेहमयी स्त्री। ४. मालकोस राय की एक रागिनी। ४. मदिरा। शराब। ६. पेड़ों पर होनेवाला परगाछा। बाँदा। ७. दारूहल्दी। ८. एक प्रकार का वृक्ष, जिसकी लकड़ी से मेज, कुरसियाँ बनती है।
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कामिनी कांत  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का वर्णवृत्त।
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कामिनी मोहन  : पुं० [ष० त०] स्रग्विणी छंद का दूसरा नाम।
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कामिल  : वि० [अ०] १. पूरा। पूर्ण। २. कुल। सब। ३. समूचा। सारा। ४. जिसने किसी कार्य या विषय में पूर्ण योग्यता प्राप्त की है। पूर्ण ज्ञाता।
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कामी (मिन्)  : वि० [सं० काम+इनि] [स्त्री० कामिनी] १. जिसके मन में कोई कामना हो। उदाहरण—जहाँ मनुज पहले स्वतन्त्रता से हो रहा साम्य का कामी।—दिनकर। २. काम-वासना में रत रहनेवाला। विषयी। पुं० १. विष्णु का एक नाम। २. चंद्रमा। ३. चकवा या चक्रवाक पक्षी। ४. कबूतर। ५. गौरैया या चिड़ा नामक पक्षी। ६. सारस।
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कामुक  : वि० [सं०√कम्+उकञ्] [स्त्री० कामुका] १. कामना या इच्छा करनेवाला। चाहनेवाला। २. जिसके मन में प्रायः कामवासना रहती हो। कामी। विषयी। पुं० १. अशोकवृक्ष। २. माधवीलता। ३. गौरैया या चिड़ा पक्षी।
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कामुका  : स्त्री० [सं० कामुक+टाप्] एक प्रकार का मातृका दोष, जो बालकों को रोग के रूप में उनके जन्म के बारहवें दिन, बारहवें महीने या बारहवें वर्ष होता है। (वैद्यक)।
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कामुकी  : स्त्री० [सं० कामुक+ङीष्] १. कामवती स्त्री। २. व्यभिचारिणी।
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कामेश्वरी  : स्त्री० [काम-ईश्वरी, ष० त०] १. कामाख्या की पाँच मूर्तियों या रूपों मे से एक। २. तंत्र में एक भैरवी का नाम।
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कामोद  : पुं० [कु-आमोद, ब० स० कु-क आदेश] रात के पहले पहर में गाया जानेवाला संपूर्ण जाति का एक राग, जो मालकोस का पुत्र माना गया है।
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कामोद-कल्याण  : पुं० [ब० स०] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जो कामोद और कल्याण के योग से बनता है तथा जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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कामोद-तिलक  : पुं० [ब० स०] रात के पहले पहर में गाया जानेवाला बाड़व जाति का एक संकर राग, जो कामोद और तिलक के योग से बनता है।
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कामोद-नट  : पुं० [ब० स०] संपूर्ण जाति का एक संकर राग, जो कामोद और नट के योग से बनता है।
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कामोद-सामन्त  : पुं० [ब० स०] रात के तीसरे पहर में गाया जानेवाला बाड़व जाति का एक राग, जो कामोद और सामंत के योग से बनता है।
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कामोदक  : पुं० [काम-उदक, मध्य० स०] किसी मृत प्राणी, विशेषतः किसी मित्र या दूर के संबंधी को दी जानेवाली जलांजलि।
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कामोदा  : स्त्री० [सं० कामोद+टाप्] दे० ‘कामोदी’।
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कामोदी  : स्त्री० [सं० कामोद+ङीष्] रात के दूसरे पहर में गाई जाने वाली संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो कामोद की स्त्री मानी गई है।
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कामोद्दीपक  : वि० [काम-उद्दीपक, ष० त०] (वस्तु या स्थिति) जो मनुष्य के मन में काम-वासना जगावे या तीव्र करे।
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कामोद्दीपन  : पुं० [काम-उद्दीपन, ष० त०] १. काम-वासना को उद्दिप्त या तीव्र करना। २. काम-वासना का उद्दीप्त या तीव्र होना।
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कामोन्माद  : पुं० [सं० काम-उन्माद, मध्य० स०] युवकों और युवतियों को होनेवाला वह उन्माद रोग जो काम-वासना की पूर्ति न होने के कारण होता है।
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काम्य  : वि० [सं०√कम्+णिङ+यत्] १. जिसकी कामना की गई हो अथवा की जा सके। जो कामना किये जाने के योग्य हो। २. जो किसी की इच्छा या रुचि के अनुकूल या अनुसार हो। ३. प्रिय,सुन्दर और सुखद। ४. जिससे अथवा जिसके द्वारा कामना की सिद्धि होती हो अथवा हो सकती हो। जैसे—काम्य धर्म। ५. जो अपनी इच्छा से होता हो या हो सकता हो। जैसे—काम्य मरण।
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काम्य-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] किसी उद्देश्य या कामना की सिद्धि के लिए किया जानेवाला कोई अनुष्ठान या कार्य।
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काम्य-मरण  : पुं० [कर्म० स०] १. अपनी इच्छा से अर्थात् जब जी चाहे तब मरना। २. मुक्ति।
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काम्या  : स्त्री० [सं० √कम्+णिङ्+क्वय्, टाप्] १. कामना। २. प्रयोजन। ३. उद्देश्य।
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काम्येष्टि  : स्त्री० [सं० काम्या-इष्टि, कर्म० स०] वह यज्ञ जो किसी कामना की पूर्ति के लिए किया जाता हो। जैसे—पुत्रेष्टि।
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काय  : पुं० [सं०√चि (इकट्ठा करना)+घञ्, नि० सिद्धि] १. काया (दे०)। २. बौद्ध भिक्षुओं का संघ। ३. [क+अण्, इत्व, वृद्धि] प्रजापति के उद्देश्य से दी जानेवाली हाव। ४. प्राजापत्य विवाह। ५. कनिष्ठा उँगली के नीचे का स्थान जिसे प्राजापति तीर्थ भी कहते हैं। ६. उद्देश्य या लक्ष्य। ७. पूँजी। मूलधन। अव्य० प्रश्नवाचक अव्यय। क्या। (बुदेल) जैसे—काय जू ! (संबोधन)।
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काँय-काँय  : स्त्री० [अनु०] १. कौए के बोलने का शब्द। २. अप्रिय तथा कर्कश ध्वनि। जैसे—काँय-काँय मत करो।
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काय-चिकित्सा  : स्त्री० [ष० त०] आयुर्वेद में चिकित्सा के आठ प्रकारों या विभागों में से तीसरा, जिसमें शरीर के अंगों और उनमें होनेवाले रोगों (जैसे—उन्माद, ज्वर आदि) का विवेचन और उसकी चिकित्सा का विधान है।
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काय-बंध  : पुं० [सं० ष० त०] कमरबन्द। पटका।
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काय-व्यूह  : पुं० [उपमित० स०] १. युद्ध आदि में व्यक्तियों को खड़ा करके बनाया हुआ मोरचा या रचा हुआ व्यूह। २. [स० त०] वैद्यक में शरीर के अन्दर कफ, पित्त और अस्थि, मज्जा, माँस, शुक्र, स्नायुओं आदि का क्रम या विभाग अथवा उनका विवेचन। ३. योगियों की एक क्रिया, जिसमें वे अपने कर्मों के भोग के लिए प्रत्येक अंग और इंद्रियों का अलग ध्यान या विचार करते हैं।
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कायक  : वि० [सं० काय+वुअ-अक]=कायिक।
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कायक्क  : वि०=कायिक।
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कायजा  : पुं० [अ० कायजा] १. घोड़े के साज का वह अंश जो उसकी दुम में फँसाया जाता है। २. घोड़े की लगाम में बँधी हुई वह डोरी,जो खरहरा करते समय घुमा कर उसकी दुम में फंसाई जाती है। ३. डोरी आदि का कोई फंदा जो कहीं फँसाया जाता हो।
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कायथ  : पुं० =कायस्थ (जाति)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कायदा  : पुं० [अ० कायदः] १. कोई काम करने का अच्छा और अव्यस्थित या शिष्ट-सम्मत ढंग प्रकार प्रणाली या रीति। सलीका। जैसे—हर काम कायदे से होना चाहिए। २. चीजे आदि रखने का अच्छा और व्यवस्थित क्रम या ढंग। करीना। जैसे—सब चीजें कायदे से कमरे में रखी थीं। ३. किसी बात या विषय में परम्परा से चली आई चाल या प्रथा। जैसे—दुनिया (या भले आदमियों) का यही कायदा है। ४. आचरण, व्यवहार आदि के लिए निश्चित किये हुए नियम या विधान। विधि। जैसे—(क) सरकारी कर्मचारियों के लिए अब नये कायदे बने है। (ख) जानवरों का यही कायदा है। उदाहरण—आपके जैसा मिजाज और कायदा उन्होंने नहीं पाया है।—वृन्दावनलाला वर्मा। ५. पढ़ने-लिखने के क्षेत्र में किसी विषय की आरंभिक या पहली पुस्तक (उर्दू) जैसे—अँगरेजी, उर्दू या हिन्दी का कायदा (या कायदे की पुस्तक)।
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कायफर  : पुं० =कायफल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कायफल  : पुं० [सं० कटुफल] एक प्रसिद्ध वृक्ष, जिस की सुगंधित छाल दवा और मसालों के काम में आती है।
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कायम  : वि० [अ०] १. किसी नियत स्थान पर टिका या ठहरा हुआ। स्थिर। २. निर्मित, प्रचलित या स्थापित किया हुआ। जैसे—बच्चों के लिए स्कूल कायम करना। ३. निर्धारित या निश्चित करना। जैसे—राय या हद कायम रखना। ४. दृढ़। पक्का। जैसे—अब हम भी अपने इरादे कपर कायम हैं। ५. जो अपने प्रस्तुत या वर्त्तमान रूप या स्थिति में ज्यों-का-त्यों रहे या रहने दिया जाय। जैसे—शतरंज की बाजी आज यहीं कायम रहे, कल फिर आगे खेल होगा। मुहावरा—(शतरंज की बाजी) कायम उठाना=शतंरज की बाजी को इस प्रकार समाप्त करना, जिसमें किसी पक्ष की हार जीत न हो।
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कायम-मिजाज  : वि० [अ०] (व्यक्ति) जिसके स्वभाव में अव्यवस्था, चंचलता आदि का अभाव हो। स्थिर-चित्त।
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कायम-मुकाम  : वि० [अ०] १. जो किसी के स्थान पर अस्थायी रूप से अथवा प्रतिनिधि बनकर काम करता हो। स्थानापन्न। २. कायम। स्थिर। (बोलचाल)।
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कायर  : वि० [सं० कातर] १. जिसमें उत्साह, बल या साहस का अभाव हो। २. किसी बड़े काम या बात से डर जानेवाला। डरपोक। ३. जो असमर्थ न होने पर भी घबराकर या और किसी कारण से किसी काम से पीछे हटे या मुंह मोड़ ले। ४. डरपोक।
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कायरता  : स्त्री० [सं० कातरता] कायर होने की अवस्था, या भाव।
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कायल  : वि० [अ०] १. किसी के तर्क या विचार को ठीक समझकर मान लेने वाला। २. बात का उत्तर न दे सकने के कारण चुप हो जानेवाला। मुहावरा—(किसी को) कायल करना=अपने तर्क से या समझा-बुझा कर अपने अनुकूल करना।
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कायली  : स्त्री० [अ० कायल] (तर्क में) कायल होने की अवस्था या भाव। जैसे—कायली-माकूली की बात करो। पद—कायली-माकूली=किसी की तर्कसिद्धि बात मान लेना। स्त्री० [सं० कायरता] १. ग्लानि। २. लज्जा। शरम। स्त्री० [सं० क्ष्वेलिका, पा० ख्वेलिका] दही मथने की मथानी। (डिं०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कायस्थ  : वि० [सं० काय√स्था (ठहरना)+क] काय या शरीर में रहनेवाला। पुं० १. जीवात्मा। २. परमात्मा। ३. एक प्रसिद्ध जाति, जो अपने आपको चित्रगुप्त की संतान कहती है। इस जाति के लोग प्रायः लिखने-पढने आदि का काम करते है। ४. उक्त जाति का व्यक्ति।
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कायस्था  : स्त्री० [सं० कायस्थ+टाप्] १. हरीतकी। हड़। २. आँवला। ३. काकोली।
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काया  : स्त्री० [सं० काय] [वि० कायिक] १. जीव, जंतु, मनुष्य आदि का भौतिक या स्थूल ढाँचा। हाड़-माँस का बना हुआ शरीर। देह। २. वृक्ष का तना। ३. किसी वस्तु का बाहरी रूप या ढाँचा। जैसे—वीणा की काया। मुहावरा—काया पलट देना=किसी टूटी-फूटी वस्तु को फिर से नया रूप देना। पूरी तरह से बदल कर रूपांतरित करना। ४. संघ। समुदाय। ५. कानून के अनुसार बनी हुई कोई संस्था (बॉड़ी उक्त सभी अर्थों में)
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कायाकल्प  : पुं० [सं० कायाकल्प] १. कोई ऐसी क्रिया या व्यवस्था जिससे काया की पूरी तरह से शुद्धि हो जाय और वह अपना काम ठीक तरह से करने लगे। २. वैद्यक में उक्त उद्देश्य से की जानेवाली कुछ विशिष्ट प्रकार की चिकित्सा, जिसमें वृद्ध शरीर मे भी फिर से नया यौवन या नई शक्ति आ जाती है।
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कायापलट  : पुं० [हिं० काया+पलटना] १. आकार-प्रकार में होनेवाला बहुत बड़ा परिवर्तन या रूपांतरण। २. एक रूप या शरीर छोड़कर दूसरा रूप या शरीर धारण करना।
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कायिक  : वि० [सं० काय+ठक्-इक] १. काया या शरीर में होने या उससे संबंध रखनेवाला। जैसे—कायिक अनुभाव या भाव, कायिक रोग। २. काया या शरीर के द्वारा किया जाने अथवा होनेवाला। जैसे—कायिक पाप या पुण्य। ३. काय या संघ से संबंध रखनेवाला (बौद्ध)।
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कायिक-अनुभाव  : पुं० [कर्म० स०] १. दे० अनुभाव। २. दे० दे० ‘हाव’।
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कायिका  : स्त्री० [सं० कायिक+टाप्] काय अर्थात् मूल-धन पर मिलने वाला ब्याज। सूद।
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कायिका-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] प्राचीन भारत में वह व्यवस्था जिसमें किसी से लिए हुए ऋण का ब्याज चुकाने के लिए ऋणी व्यक्ति उसके बदले में महाजन के कुछ काम या तो स्वंय कर देता था या अपने पशुओं आदि से करा देता था (स्मृति)।
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कायोढज  : पुं० [सं० काय-ऊढ, तृ० त० कायोढ़√जन् (पैदा करना)+ड] प्राजापत्य विवाह से उत्पन्न पुत्र।
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कायोत्सर्ग  : पुं० [काय-उत्सर्ग, ब० स०] जैन शिल्प में अर्हत की वह खड़ी मूर्ति जो वीतराग अवस्था में हो।
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कार  : पुं० [सं०√कृ (करना)+घञ्] १. कोई काम करने की क्रिया या भाव। जैसे—अंगीकार, उपकार, चमत्कार। २. पति। स्वामी। ३. पूजा की बलि। ४. बरफ से ढका हुआ पहाड़। ५. प्रयत्न। ६. किसी कार्य या व्रत का अनुष्ठान ७. बल। शक्ति। ८. संकल्प। ९. वध। हत्या। १॰. वर्णमाला के अक्षरों या वर्णों अथवा ध्वनियों का सूचक शब्द। जैसे—चीत्कार, फूत्कार। वि० करने, बनाने या रचनेवाला। जैसे—ग्रन्थकार, चर्मकार, स्वर्णकार। विशेष—इसी अर्थ में यह फारसी में भी ठीक इसी रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे—जिनाकार, रजाकार। पुं० [सं० कार्य से फा०] १. काम। कार्य। जैसे—कारगुजारी, कारबार, कार्रवाई आदि। २. कठिन और परिश्रम साध्य काम। वि० [सं० कार से० फा०] करनेवाला। कर्त्ता। जैसे—काश्तकार, पेशकार। वि० [हिं० काला] काला। कृष्ण। उदाहरण—रावन पाय जो जिउ धरा दुवौ जगत महँ कार।—जायसी। पुं० अंधकार। अँधेरा। स्त्री० [अं०] किसी प्रकार की गाड़ी, विशेषतः मोटर गाड़ी।
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कार-परदाज  : पुं० [फा०] [भाव० कारपरदाजी] १. किसी की ओर से उसका प्रतिनिधि बनकर काम करनेवाला। कारिंदा। २. प्रबंधकर्त्ता।
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कारक  : वि० [सं०√कृ+ण्वुल्-अक] [स्त्री० कारिका] १. एक शब्द जो यौगिक शब्दों के अन्त में लगकर ये अर्थ देता है-(क) करने वाला। जैसे—गुणकारक, हानिकारक। (ख) उत्पन्न करने या प्राप्त करानेवाला। जैसे—सुखकारक। २. आज-कल किसी के स्थान पर या किसी के प्रतिनिधि के रूप में काम करनेवाला (ऐंक्टिग) पुं० व्याकरण में संज्ञा और सर्वनाम शब्दों की वह स्थिति जो वाक्य में क्रिया के साथ उनका संबंध सूचित करती है। (केस) इसके ६ भेद कहे गये हैं-कर्त्ता, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण। (देखें ये शब्द)।
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कारक-दीपक  : पुं० [सं० मध्य० स०] साहित्य में दीपक अलंकार का एक भेद, जिसमें अनेक क्रियाओं के एक ही कारक होने का उल्लेख होता है। जैसे—बता अरी ! अब क्या करूँ रचूँ रात से रार। भय खाऊँ आँसू पियूँ मन मारूँ झख मार।—मैथिली शरण।
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कारक-हेतु  : पुं० [कर्म० स०] न्याय में वह कारण या हेतु, जिससे कोई कार्य हुआ हो या होता हो।
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कारकुन  : पुं० [फा०] १. किसी के प्रतिनिधि के रूप में काम करनेवाला। १. किसी की ओर से प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। कारिंदा।
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कारखाना  : पुं० [फा०] १. वह स्थान, जहां कोई चीज बनाई या तैयार की जाती हो। २. वह इमारत या भवन, जिसमें यन्त्रों आदि की सहायता से किसी वस्तु का अधिक परिमाण में उत्पादन किया जाता हो। (फैक्टरी) जैसे—कपड़े या दियासलाई का कारखाना। ३. बराबर चलता या होता रहनेवाला काम। जैसे—दुनिया का यही कारखाना है।
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कारखी  : स्त्री०=कालिख। उदाहरण—जानि जिय जोवो जो न लागै मुँह कारखी।—तुलसी।
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कारगर  : वि० [फा०] ठीक तरह से काम करके अपना गुण, प्रभाव या फल दिखानेवाला। जैसे—दवा का कारगर होना।
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कारगह  : पुं० =करघा।
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कारगाह  : पुं० [फा०] १. कारीगरों मजदूरों आदि के बैठकर काम करने की जगह। कारखाना। २. वह स्थान जहाँ जुलाहे बैठकर कपड़े बुनने आदि का काम करते हैं।
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कारगुजार  : वि० [फा०] [स्त्री० कारगुजारी] हर काम अच्छी तरह से पूरा कर दिखानेवाला।
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कारगुजारी  : स्त्री० [फा०] १. वह स्थिति जिसमें कोई कठिन काम बहुत अच्छी तरह पूरा किया गया हो। कर्मठता। कर्मण्यता। २. उक्त प्रकार से किया हुआ कोई कठिन या बड़ा काम।
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कारचोब  : पुं० [फा०] [वि० संज्ञा, कारचोबी] १. लकड़ी का वह चौकठा, जिस पर कपड़ा फैलाकर कसीदे, जरदोजी आदि का काम किया जाता है। अड्डा। २. उक्त प्रकार के चौखटे पर तैयार होनेवाला काम। ३. उक्त प्रकार का काम करनेवाला कारीगर। जरदोज।
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कारचोबी  : वि० [फा०] १. (कपड़ा) जिस पर कारचोब का काम हुआ हो। २. जिस पर सलमे-सितारे के बेल-बूटे बने हों। ३. कारचोब संबंधी। स्त्री० कारचोब का काम। सलमे सितारे आदि के बनाये हुए बेल-बूटे।
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कारज  : पुं० [सं० कार्य़] काम। कार्य।
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कारजी  : वि० [हिं० कारज] १. किसी काम में लगा रहनेवाला। २. किसी का कार्य करनेवाला। उदाहरण—ऐसे हैं ये स्वामि-कारजी तिनकौं मानत स्याम।—सूर।
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कारटा  : पुं० [सं० करट] कौआ। काग।
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कारटून  : पुं० [अं०] व्यंग्य-चित्र। (दे०)
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कारंड  : पुं० [सं०√रम् (कीड़ा)+ड, कु-रंड, कुप्रा० स०]=करंडव।
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कारड  : पुं० =कार्ड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कारंडव  : पुं० [सं० कारण्ड√वा (गति)+क] बत्तख या हंस की जाति का एक पक्षी।
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कारण  : पुं० [सं०√कृ+णिच्+ल्युट-अन] १. कोई ऐसी घटना, परिस्थिति या बात जो कोई परिणाम,प्रभाव या फल उत्पन्न करे। वजह। सबब। (काँज) जैसे—(क) धूएँ का कारण आग है। (ख) गरमी के कारण पौधे सूख गये हैं। २. वह उद्देश्य तथ्य या बात जिसे ध्यान में रखकर अथवा जिसके विचार से कोई काम किया जाय। हेतु। जैसे—आप अपने वहाँ जाने का कारण बतलायें। ३. आदि। मूल। जैसे—ईश्वर या ब्रह्म की इस सृष्टि का कारण है। ४. साधन। ५. काम। कार्य। ६. किसी को कष्ट पहुँचाने के उद्देश्य से किया जानेवाला तांत्रिक उपचार। जैसे—लड़के पर किसी ने कुछ कारण कर दिया है ७. पूजन आदि के उपरांत किया जानेवाला मद्यपान। (तंत्र) ८. प्रयाण। ९. एक प्रकार का गीत। १॰. शिव। ११. विष्णु।
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कारण-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. कारणों या हेतुओं की श्रंखला। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें पदार्थों का वर्णन कारण और कार्य की परम्परा के रूप में होता है। क्रमशः पहले का कथन बाद के कथन का कारण बनता जाता है अथवा उत्तरोत्तर के कथन पूर्व-पूर्व कथित पदार्थों के कारण होते हैं। जैसे—बिनु विश्वास भगति नहिं, तेहि बिनु द्रवहिं न राम। राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीवन लह विश्राम।—तुलसी।
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कारण-शरीर  : पुं० [कर्म० स०] वेदांत के अनुसार चित्त, अहंकार और जीवात्मा के योग से बना हुआ सूक्ष्म शरीर, जो स्थूल शरीर के अन्दर रहता है। यह इंद्रियों की विषय-वासना आदि से निर्लिप्त रहता या रहित होता है।
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कारणा  : स्त्री० [सं० कृ (हिंसा)+णिच्+युच्-अन+टाप्] १. कष्ट। पीड़ा। २. यम-यातना। ३. उत्तेजना।
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कारणिक  : पुं० [सं० कारण+ठक्-इक] १. वह जो किसी विषय की परीक्षा या विचार करता हो। २. विधिक क्षेत्र में प्रार्थना-पत्र आदि लिखनेवाला लिपिक। वि० १. कारण-संबंधी २. कारण के रूप में घटने या होनेवाला।
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कारणिकता  : स्त्री० [सं० कारणिक+तल्-टाप्] १. कारण या कारणिक होने की अवस्था या भाव। २. कार्य के साथ कारण का रहनेवाला संबंध। (कॉजैलिटी)
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कारणोपाधि  : पुं० [सं० कारण-उपाधि, ब० स०] ईश्वर। (वेदातं)।
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कारतूस  : पुं० [पुर्त्त० कारटूश] बंदूक, रिवाल्वर आदि में रखकर चलाई जानेवाली धातु,द फ्ती आदि की बनी हुई खोली जिसमें धातु की गोली और बारूद भरा होता है। (कारट्रिज।)
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कारंधमी (मिन्)  : पुं० [सं० कार√ध्मा (बजाना)+इनि० पृषो० सिद्धि] रसायन की क्रिया के द्वारा लोहे या किसी धातु को सोना बनानेवाला कीमियागर।
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कारन  : अव्य० [सं० कारण] लिए। वास्ते। उदाहरण—कामरूप केहि कारन आवा।—तुलसी। पुं० =कारण। वि० करनेवाला। (यौ० के अन्त में) जैसे—हितकारन। पुं० [सं० कारुण्य] करुण स्वर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कारनामा  : पुं० [सं० कारनामः] १. किया हुआ कोई अच्छा और बड़ा काम। २. किसी के किये हुए बड़े-बड़े कामों का उल्लेख या लिखित विवरण।
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कारनिस  : स्त्री० [अं०] दीवार के ऊपरी भाग में सुन्दरता के लिए बाहर की ओर निकाला हुआ थोड़ा-सा अंश। कँगनी। कगर।
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कारनी  : पुं० [सं० कारण] वह जो कुछ करे या करावे। किसी काम का कर्त्ता। वि० १. कारण के रूप में होने या प्रेरणा करनेवाला। प्रेरक। २. भेद करनेवाला। भेदक। ३. बुद्धि पलटनेवाला।
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कारपरदाजी  : स्त्री० [फा०] १. कारपरदाज होने की अवस्था, पद या भाव। २. कार्य-पटुता।
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कारबन  : पुं० [अं०] रसायन शास्त्र में एक अघात्वीय तत्त्व जो भौतिक सृष्टि के मूल तत्त्वों में से एक है और जो कारबोनिक एसिड गैस, कोयले हीरे आदि में पाया जाता है।
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कारबार  : पुं० [फा०] १. काम-काज। २. व्यवसाय। रोजगार।
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कारबारी  : वि० [फा०] कार-बार संबंधी। जैसे—कार-बारी बातचीत। पुं० १. कार-बार या व्यवसाय करनेवाला। व्यवसायी। २. कारिंदा।
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कारभ  : वि० [सं० करभ+अण्] करभ अर्थात् ऊँट-संबंधी। करभ का।
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कारमन  : पुं० =कार्मण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कारयिता (तृ)  : पुं० [सं० कृ+णिच्+तृच्] [स्त्री० कारयित्री] १. कर्त्ता। २. बनाने, रचने या सृष्टि करनेवाला।
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काररवाई  : स्त्री० [फा०] १. किसी कार्य के संपादन करने के समय होनेवाली आवश्यक क्रियाएँ। जैसे—अदालती काररवाई, जलसे की काररवाई। २. किसी सभा, संस्था आदि के कार्यों का अभिलेख या विवरण। जैसे—पिछली बैठक की काररवाई पढ़कर सुनाई जाय। ३. अनुमति या गुप्त रूप से चली हुई चाल या किया हुआ प्रयत्न। जैसे—यह सब उन्हीं की काररवाई है।
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कारवाँ  : पुं० [फा०] पैदल यात्रियों का समूह। काफिला। (दे०)।
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कारवेल्ल  : पुं० [सं० ] करेला।
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कारसाज  : वि० [फा०] [संज्ञा कारसाजी] १. सब काम ठीक प्रकार से पूरा करनेवाला। अच्छे ढंग या युक्ति से काम करनेवाला। २. बिगड़ा हुआ काम बनाने या सँवारनेवाला।
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कारसाजी  : स्त्री० [फा०] १. कारसाज होने या काम पूरा उतारने की क्रिया या भाव। २. किसी को हानि पहुँचाने के लिए गुप्त रूप से किया हुआ चालबाजी का कोई काम या युक्ति।
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कारस्तानी  : स्त्री० दे० ‘कारस्तानी’।
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कारा  : स्त्री० [सं०√कृ (विक्षेप)+अङ्, गुण, दीर्घ (नि०)] १. बंधन। २. वह स्थान जहाँ शासन द्वारा दंडित अपराधियों को बंदी बनाकर रखा जाता है। कारागार। कारागृह। (जेल)। स्त्री० दूती। वि० काला। वि० [हिं० आकार] आकार या रूपवाला। जैसे—नाना बाहन नाना कारा।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कारा-गृह  : पुं० [कर्म० स०] कारागार। जेलखाना।
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कारा-दंड  : पुं० [ष० त०] वह दंड जो किसी को कारागार में बन्द रखने के रूप में दिया जाय। कैद की सजा।
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कारा-पथ  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन देश जो वाल्मीकि के अनुसार लक्ष्मण के पुत्र अंगद और चित्रकेतु के अधिकार में था।
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कारा-रुद्ध  : पुं० [स० त०] जो कारागार में बन्द किया गया हो। (इंप्रिजंड)।
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कारा-रोधन  : पुं० [स० त०] १. कारागार में बन्द करने या होने की क्रिया या भाव। २. कैद की सजा।
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कारा-वास  : पुं० [स० त०] कारा या कारागार में रहने की अवस्था, दंड या भाव। (इंप्रिजनमेंट)
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कारागार  : पुं० [कारा-आगार, कर्म० स०] जेलखाना। बंदीगृह।
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कारागारिक  : वि० [सं० कारागार+क-इक] कारागार संबंधी। पु० वह व्यक्ति जो कारागार संबंधी सब व्यवस्थाएँ करता हो। कारागार का प्रधान अधिकारी (जेलर)।
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कारापाल  : पुं० [सं० कारा√पाल् (पालन करना)+णिच्+अण्] कारागार का प्रधान अधिकारी। जेलर।
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काराबंदी  : पुं० [सं० काराबंद्ध] वह अपराधी जिसे कारगार में बन्द किया गया हो। कैदी।
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कारिक  : पुं० [देश] करघे की वह लकड़ी जो ताने को सँभाले रहती है। खरकूत।
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कारिका  : स्त्री० [सं०√कृ (करना)+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] १. नाचनेवाली स्त्री। नर्तकी। २. व्यवसाय। व्यापार। ३. संस्कृत साहित्य में वह श्लोक जिसमें बहुत सी बातों, नियमों आदि को सूत्र रूप में कहा गया हो। ४. एक प्रकार का संकीर्ण राग।
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कारिख  : स्त्री० १. =कालिख। २. =काजल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कारिणी  : वि० स्त्री० [सं० कारिन्+ङीष्] करनेवाली। जैसे—प्रबंधकारिणी समिति।
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कारित  : वि० [सं० कृ+णिच्+क्त] किसी के द्वारा कराया हुआ।
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कारिता  : पुं० [सं० कारित+टाप्] ब्याज की वह दर जो उचित या विधिक दर से अधिक हो।
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कारिंदा  : पुं० [फा० कारिंदः] [भाव० कारिंदगरी] १. कर्मचारी। २. वह व्यक्ति जो किसी के प्रतिनिधि के रूप में उसका काम करता या देखता-भालता हो।
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कारिस्तानी  : स्त्री० [सं० कारस्तानी] १. कार्रवाई। २. परोक्ष रूप से या छिपकर की हुई कोई चालबाजी या युक्ति। ३. अनुचित काम।
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कारी (रिन्)  : वि० [सं०√कृ+णिनि] [स्त्री० कारिणी] (शब्दों के अन्त में) १. करनेवाला। जैसे—विनाशकारी। २. अनुसरण या पालन करनेवाला। जैसे—आज्ञाकारी। स्त्री० कोई काम करने की क्रिया या भाव। जैसे—चित्रकारी। वि० [फा०] १. अपना प्रभाव या फल दिखलानेवाला। गुणकारी। २. घातक या मर्मभेदी।
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कारीगर  : पुं० [फा०] [संज्ञा० कारीगरी] वह जो छोटे-मोटे उपकरणों की सहायता से कोई कलापूर्ण कृति तैयार करता हो। शिल्पकार। जैसे—बढ़ई, लोहार, सोनार आदि।
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कारीगरी  : स्त्री० [फा०] १. कारीगर होने की अवस्था या भाव। २. कारीगर का वह गुण,सूझ या शक्ति, जिससे किसी कृति में जान आती हो।
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कारीष  : पुं० [सं० करीष+अण्] गोबर का ढेर। वि० १. गोबर संबंधी। २. गोबर से बनने या होनेवाला।
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कारु  : पुं० [सं०√कृ+उण्] १. कारीगर। शिल्पी। २. जुलाहा। बुनकर।
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कारुक  : पुं० [कारू+कन्] दे० ‘कारु’।
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कारुज  : पुं० [सं० कारु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. कारीगर की बनाई कोई कृति या वस्तु। २. शरीर के तिल आदि। ३. [क-आ√रूज् (भंग)+क] हाथी का बच्चा। ४. गेरू। ५. वाल्मकि। ६. फेन।
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कारुणिक  : वि० [सं० करुणा+ठक्-इक] १. करुणा से युक्त। २. जिसे देखकर मन में करुणा उत्पन्न होती हो। जैसे—कारुणिक दृश्य। ३. (व्यक्ति) जिसमें करुणा हो। दयार्द्र।
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कारुण्य  : पुं० [सं० करुण+ष्यञ्] करुण होने की अवस्था या भाव। करुणा।
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कारुनीक  : वि०=कारुणिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कारुपथ  : पुं० =कारापथ।
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कारूँ  : पुं० [अ०] १. मुसलमानी कथाओं के अनुसार हजरत मूसा का चचेरा भाई जो बहुत संपत्तिशाली होते हुए भी परम कृपण था। पद—कारूँ का खजाना=अनंत संपत्ति। २. ऐसा व्यक्ति जो धनी होते हुए भी बहुत कृपण हो।
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कारूती  : स्त्री० [अ०] एक प्रकार का मलहम जो हकीम लोग बनाते हैं।
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कारूनी  : स्त्री० [?] घोड़ों की एक जाति।
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कारूप  : वि० [सं० करूष+अण्] करूष देश-संबंधी। करूष देश का। पुं० करूष देश का निवासी।
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कारूरा  : पुं० [अ० कारूरः] १. फुँकनी, शीशी जिसमें रोगी का मूत्र चिकित्सक को दिखाने के लिए रखा जाता है। २. रोगी का मूत्र या पेशाब, जो उक्त शीशी में भरकर चिकित्सक को दिखाया जाता है। ३. पेशाब। मूत्र। ४. शत्रु पर फेंकी जानेवाली बारूद की कुप्पी।
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कारो  : वि०=काला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कारोंछ  : स्त्री०=कलौंछ।
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कारोबार  : पुं० =कारबार (व्यवसाय)।
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कार्कश्य  : पुं० [सं० कर्कश+ष्यञ्]=कर्कशता।
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कार्ज  : पुं० =कार्य।
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कार्ड  : पुं० [अं०] मोटे कागज या दफ्ती का कोई टुकड़ा, विशेषतः चौकोर टुकड़ा। जैसे—ताश या निमन्त्रण का कार्ड, पोस्टकार्ड आदि।
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कार्ण  : वि० [सं० कर्ण+अण्] कर्ण या कान संबंधी। पुं० कान में पहना जानेवाला आभूषण।
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कार्तयुग  : वि० [सं० कृतयुग+अण्]कृतयुग से संबंध रखनेवाला। पुं० [कृत+अण्, कार्त-युग, कर्म० स०] सत्ययुग।
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कार्तवीर्य  : पुं० [सं० कृतवीर्य+अण्] माहिष्मती के राजा कृतवीर्य का पुत्र सहस्रार्जुन, जिसे परशुराम ने मारा था।
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कार्तिक  : पुं० [सं० कृत्तिका+अण्] १. चांद्र संवत् का आठवाँ और सौर संवत् का सातवाँ महीना जो क्वार के बाद और अगहन के पहले पड़ता है। २. वह संवत्सर जिसमें बृहस्पति कृत्तिका तथा रोहिणी नक्षत्र में हो।
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कार्तिकी  : स्त्री० [सं० कार्तिक+ङीष्] कार्तिक मास की पूर्णिमा।
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कार्तिकेय  : पुं० [सं० कृत्तिका+ढक्-एय] कृत्तिका नक्षत्र में उत्पन्न होने वाले शिव तथा पार्वती के पुत्र स्कंद, जो युद्ध के देवता माने जाते हैं।
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कार्दम  : वि० [सं० कर्दम+अण्] १. कर्दम या कीचड़ संबंधी। कर्दम का। २. कर्दम या कीचड़ से युक्त। ३. गंदा। मैला।
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कार्पट  : पुं० [सं० कर्पट+अण्] १. वह जिसने फटे-पुराने वस्त्र पहने हों। २. भिखमंगा। ३. याचना करनेवाला व्यक्ति। याची।
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कार्पटिक  : पुं० [सं० कर्पट+ठक्-इक] १. यात्री। २. यात्रियों का समूह। ३. गंगा आदि नदियों का जल लाकर जीविका चलानेवाला व्यक्ति। ४. अनुभवी व्यक्ति।
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कार्पण्य  : पुं० [सं० कृपण+ष्यञ्]=कृपणता।
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कार्पास  : वि० [सं० कर्पास+अण्] १. कपास या रूई का बना हुआ। २. कपास संबंधी। पुं० सूती कपड़ा।
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कार्पासिक  : वि० [सं० कर्पास+ठक्-इक]=कार्पास।
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कार्म  : वि० [सं० कर्मन्+ण] १. कर्म-संबंधी। कर्म का। २. कर्म के रूप में संपन्न होनेवाला। जैसे—कार्मभार=उतना भार जितना कार्य रूप में ढोया जाय या ढोया जा सके। ३. कर्म करनेवाला। कर्मशील। ४. उद्योगी। मेहनती। वि० [सं० कृमि से] कृमि संबंधी। कीड़ों का।
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कार्मण  : पुं० [सं० कार्मण+अण्] ऐसे कर्म जिनमें मंत्र-तंत्र आदि से मारण, मोहन वशीकरण आदि प्रयोग किये जाते हैं। वि० कार्य-कुशल। दक्ष।
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कार्मण्य  : पुं० [सं० कर्मन्+ष्यञ्]=कर्मण्यता।
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कार्मना  : पुं० [सं० कार्मण] मंत्र-तंत्र के मारण मोहन, आदि प्रयोग कृत्या।
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कार्मिक  : पुं० [सं० कर्मन्+ठक्-इक] वह वस्त्र जिसकी बुनावट में ही शंख, चक्र स्वस्तिक आदि के चिन्ह बनाये गये हों। २. कर्म या कार्य करनेवाला व्यक्ति। वि० जो कर्म या कार्य में लगा हो।
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कार्मिक-संघ  : पुं० [ष० त०] काम करनेवालों अर्थात् कर्मचारियों मजदूरों आदि का संघ।
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कार्मुक  : वि० [सं० कर्मन्+उकञ्] बाँस या लकड़ी का बना हुआ। पुं० १. धनुष। २. इन्द्रधनुष। ३. रूई धुनने की धुनकी। ४. धनुराशि। ५. परिधि का कोई भाग। चाप। योगसाधना में एक प्रकार का आसन। ७. एक प्रकार का शहद। ८. बाँस।
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कार्य  : पुं० [सं०√कृ+ण्यत्] १. वह जो कुछ किया गया हो या किया जाय। (वर्क) २. किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जानेवाला प्रयत्न। ३. जीविका, व्यवसाय सेवा आदि के विचार से किया जानेवाला काम (विशेष दे काम) ४. कर्त्तव्य। ५. परिणाम या फल। ६. नाटक का प्रधान प्रयोजन या साध्य। ७. नाटक की पाँच अर्थ प्रकृतियों में से अंतिम अर्थ प्रकृति, जिसकी पाँच अवस्थाएँ होती हैं और जो मुख्य कथावस्तु तथा नाटक की लक्ष्य-सिद्धि का विकास क्रमशः प्रकट करती हैं। ८. पाश्चात्य नाट्यसिद्धांतों के अनुसार किसी नाटक की घटनाओं की श्रंखला। ९. धन के लेन-देन का झगड़ा या विवाद। दीवानी मुकदमा। १॰. ज्योतिष में जन्म लग्न से दसवाँ स्थान।
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कार्य-कर्त्ता (र्तृ)  : पुं० [ष० त०] १. काम करनेवाला व्यक्ति। २. कर्मचारी। ३. किसी संस्था, सभा आदि का प्रबन्ध-अधिकारी। ४. किसी कार्य में विशेष रूप में अग्रसर होकर काम करनेवाला व्यक्ति। जैसे—सामाजिक कार्य-कर्त्ता।
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कार्य-कारण-भाव  : पुं० [कार्य-कारण, द्व० स० कार्य-कारण-भाव, ष० त०] वह भाव या संबंध जो कारण का कार्य से और कार्य का कारण से होता है।
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कार्य-कुशल  : वि० [स० त०] (व्यक्ति) जो कोई कार्य सुचारू रूप से तथा अपेक्षया कम समय में और कौशलपूर्वक पूरा करता हो।
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कार्य-क्रम  : पुं० [ष० त०] १. किसी उत्सव, समारोह आदि की कार्यवाहियों की पहले से तैयार की हुई क्रमिक सूची। २. उक्त प्रकार की सूची के अनुसार होनेवाला कोई कार्य। ३. मनोरंजन या मनोविनोद के लिए होनेवाला कोई कार्य। (प्रोग्राम, उक्त सभी अर्थों में)।
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कार्य-क्षम  : वि० [स० त०] जो कोई कार्य करने अथवा उत्तरदायित्व निभाने के लिए उपयुक्त योग्य तथा समर्थ हो।
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कार्य-चिंतक  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारत में वह अधिकारी जो स्थानीय प्रबंध करता था। (स्मृति)।
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कार्य-दर्शन  : पुं० [ष० त०] अपने अथवा औरों के लिए हुए कामों को इस दृष्टि से देखना कि वे ठीक हुए हैं या नहीं।
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कार्य-दर्शी (र्शिन्)  : पुं० [सं० कार्य√दृश् (देखना)+णिनि] वह व्यक्ति जो दूसरों के कार्यों का अवलोकन, निरीक्षण या मूल्यांकन करता हो। दूसरों का काम अच्छी तरह देखनेवाला।
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कार्य-दिवस  : पुं० [ष० त०] १. काम करने का दिन, अर्थात् ऐसा दिन जो छुट्टी का न हो। २. उक्त दिन का उतना भाग (या समय) जिसमें (या जितने समय तक) किसी कर्मचारी या सेवक को नियोक्ता का काम करना पड़ता है और जिसकी गिनती एक पूरे दिन में होती है। (वर्किंग डे)।
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कार्य-पंचक  : पुं० [ष० त०] ईश्वर के ये पाँच काम-अनुग्रह, तिरोभाव, आदान, स्थिति और उद्भव।
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कार्य-परिषद्  : स्त्री० [ष० त०] वह परिषद् जो किसी कार्य की व्यवस्था संचालन आदि करती हो।
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कार्य-पालिका  : स्त्री० [ष० त०] शासन का वह विभाग जो संसद् द्वारा पारित विधियों को कार्य-रूप में बलवत् करता तथा उनका निष्पादन करता हो। (एक्जिक्यूटिव)।
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कार्य-प्रणाली  : स्त्री० [ष० त०] कोई कार्य करने का मान्य, स्वीकृत अथवा रूढ़िगत ढंग या प्रणाली।
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कार्य-भार  : पुं० [ष० त०] किसी कार्य या पद का उत्तरदायित्व। किसी कार्य के निर्वाह तथा संचालन की पूरी जिम्मेदारी (चार्ज)।
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कार्य-भारी (रिन्)  : पुं० [सं० कार्यभार+इनि] वह व्यक्ति जिसने अपने ऊपर किसी कार्य, पद आदि के निर्वाह तथा संचालन की पूरी जिम्मेदारी या भार लिया हो। (इनचार्ज)।
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कार्य-विवरण  : पुं० [ष० त०] सभा, समिति आदि में जो कार्य हो चुके हों, उनका लेखा या विवरण। (प्रोसीडिंग्स)।
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कार्य-सम  : पुं० [स० त०] तर्क में ऐसी मिथ्या आपत्ति या कुतर्क, जिसमें इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता है कि ऐसा प्रभाव या फल असम या विषम परिस्थियों में भी उत्पन्न हो सकता है। (न्याय-दर्शन में इसे चौबीस जातियों के अंतर्गत माना गया है)।
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कार्य-समिति  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी कार्य-विशेष के निर्वाह या संचालन के लिए बनी हुई समिति। २. किसी संस्था या सभा की प्रबन्धकारिणी समिति। (वर्किंग कमेटी)।
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कार्य-सूची  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी कार्य के निर्वाह के लिए उसके सब अंगों-उपांगो की क्रम से बनाई हुई सूची, जिसके अनुसार काम किया जाता हो। (एजेंड़ा)।
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कार्य-स्थगन-प्रस्ताव  : पुं० [ष० त०] किसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करने के लिए विधान सभा में रखा जानेवाला वह प्रस्ताव, जिसमें सदस्यों से प्रार्थना की जाती है कि अन्य कार्य छोड़कर पहले इसी आवश्यक विषय पर विचार किया जाय। (एडजर्नमेंट मोशन)।
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कार्य-हेतु  : पुं० [ष० त०] १. वह मूल उद्देश्य जिससे प्रेरित होकर कोई काम किया जाय। २. वह कारण या हेतु जिससे कोई कार्य या व्यवहार (मुकदमा) न्यायालय के सामने विचार के लिए रखा जाय। (काँज आफ ऐक्शन)।
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कार्यकारी (रिन्)  : वि० [सं० कार्य√कृ+णिनि] १. विशेष रूप से कोई काम करनेवाला। २. किसी के स्थान पर अस्थायी रूप से काम करनेवाला अधिकारी। ३. दे० ‘कार्यकर्त्ता’।
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कार्यक्षमता  : स्त्री० [सं० कार्यक्षम+तल्-टाप्] कार्यक्षम होने की अवस्था, गुण या भाव।
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कार्यतः  : क्रि० वि० [सं० कार्य+तस्] क्रियात्मक ढंग से। कार्य रूप में।
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कार्यवाही (हिन्)  : वि० [सं० कार्य√वह् (वहन करना)+णइच्+णिनि] कार्य या पद का भार वहन करनेवाला। स्त्री०=कार्रवाई।
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कार्याकार्य  : पुं० [सं० कार्य-अकार्य, द्व० स०] अच्छे और बुरे सभी तरह के कार्य-कर्तव्य और अकर्तव्य सभी प्रकार के कर्म।
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कार्याधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० कार्य-अधिकारी, ष० त०] वह अधिकारी जो किसी विशेष कार्य का निर्वाह और संचालन करता हो।
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कार्याधिप  : पुं० [सं० कार्य-अधिप, ष० त०] १. कार्य निरीक्षक। २. प्रश्न का निर्णायक ग्रह (ज्यौं०)।
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कार्याध्यक्ष  : पुं० [सं० कार्य-अध्यक्ष, स० त०] किसी कार्य या विभाग का प्रधान अधिकारी।
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कार्यान्वित  : वि० [सं० कार्य-अन्वित, तृ० त०] कार्य रूप में अर्थात् व्यवहार में लाया हुआ। किया हुआ।
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कार्यार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० कार्य√अर्थ+णिनि] १. कार्य की सिद्धि चाहनेवाला। २. प्रार्थना या विनती करनेवाला। ३. नियुक्ति के लिए आवेदन करनेवाला। ४. मुकदमें की पैरवी करनेवाला।
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कार्यालय  : पुं० [सं० कार्य-आलय, ष० त०] वह भवन या स्थान जहाँ व्यावसायिक, शासनिक, साहित्यिक आदि कार्य होते हों तथा जहाँ उक्त कार्यों के निर्वाह के लिए कुछ लोग नियमित रूप से काम करते हों। दफ्तर। (आफिस)।
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कार्यावली  : स्त्री० [सं० कार्य-अवली, ष० त०] उन कार्यों की सूची जो किसी सभा-समिति में किसी एक दिन अथवा किसी एक अधिवेशन या बैठक में विचारार्थ रखे जाने को हों। कार्य-सूची। (एजेंडा)।
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कार्यी (यिन्)  : वि० [सं० कार्य+इनि] कार्यार्थी।
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कार्येक्षण  : पुं० [सं० कार्य-ईक्षण, ष० त०] दूसरों के किये हुए कामों का निरीक्षण।
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कार्रवाई  : स्त्री०=काररवाई।
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कार्ष  : पुं० [सं० कृषि+ण] कृषक। खेतिहर।
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कार्षक  : पुं० [सं० कार्ष+कन् या√कृष्+क्वुन्-अक, वृद्धि]=कार्य।
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कार्षापण  : पुं० [सं० कार्य आपण, ष० त० या ब० स०] एक प्रकार का पुराना सिक्का जो पहले ताँबे का बनता था, पर आगे चलकर चांदी और सोने का भी बनने लगा था।
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कार्षिक  : पुं० [सं० कर्ष+ठञ्-इक]=कार्षापण।
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कार्ष्ण  : वि० [सं० कृष्ण+अण्] १. कृष्ण-संबंधी। कृष्ण का। २. कृष्ण द्वैपायन-संबंधी। ३. कृष्ण मृग-संबंधी।
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कार्ष्णायन  : पुं० [सं० कृष्ण+फक्-आयन०] १. व्यासवंशीय ब्राह्मण। २. वसिष्ठ गोत्र का ब्राह्मण।
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कार्ष्णि  : पुं० [सं० कृष्ण+ष्यञ्] १. कृष्ण का पुत्र, प्रद्युम्न। २. कामदेव।
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काल  : पुं० [सं०√कल् (गिनना)+णिच्+अच्+अण् (कृष्ण वर्ण या तद्विशिष्ट के अर्थ में) कु√ला (लेना)+क, कु=का] १. दो क्रियाओं, घटनाओं आदि के बीच का अवकाश जिसकी गणना वर्ष, मास, दिन, रात, घड़ी पल आदि के रूप में की जाती है। समय। (टाइम)। मुहावरा—काल-गूदड़ी सीना=समय बिताना। उदाहरण—तुम्हरे रुख फेरे करुणानिधि काल गुदरियाँ सीएँ।—सूर। पद—काल पाकर=कुछ समय बीतने पर। कुछ दिनों बाद। २. काल की कोई निश्चित अवधि मान या बिन्दु। जैसे—उदयकाल, जन्म-काल, शासन काल। ३. काल या समय की कोई ऐसी अवधि जो किसी घटना की सूचक या उसके लगभग हो। जैसे—प्रातःकाल, सायंकाल। ४. किसी काम या बात के लिए उपयुक्त अवसर या निश्चित समय। ५. वह अवधि जिसके बीतने के समय किसी बात का अन्त या समाप्ति होती है, अथवा कोई नई घटना घटित होती है। जैसे—काल सब को खा जाता है। ६. उक्त के आधार पर किसी के अन्त या विनाश का समय। ७. प्राणियों के संबंध में उनका अंत या मृत्यु। मौत। जैसे—उसका काल आ गया था इसी से उसकी मृत्यु हो गई। ८. मृत्यु के देवता, यमराज। मुहावरा—(किसी का) काल के गाल में जाना=मर जाना। मौत आना। (किसी के) सिर पर काल नाचना=मृत्यु या विनाश की निकटता। ९. शिव या महाकाल। १॰. काला नाग जिसके काटने से मृत्यु अवशंयभावी होती है। ११. व्याकरण में क्रियाओं के रूपों से सूचित होनेवाला वह तत्त्व जिसे पता चलता है कि अमुक घटना या बात किस समय से संबंध रखती है, अर्थात् हो चुकी है हो रही है या अभी होने को है। विशेष—इसी आधार पर इसके, भूत, वर्तमान और भविष्य ये तीन विभाग किये गये हैं। १२. ज्योतिष में एक योग जो यात्रा आदि कार्यों के लिए अशुभ गया है। १३. शनिदेवता। १४. लोहा। वि० [सं०] १. काला। कृष्ण। २. घोर। विकट। उदाहरण—है मैंने भी रो-रोकर काटी वियोग की काल रात्रि। भगवतीचरण वर्मा। ३. बहुत बड़ा। जैसे—काल जुआरी। पुं० अकाल (दुर्भिक्ष) क्रि० वि०=कल। (आनेवाला अथवा बीता हुआ दिन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काल-कंठ  : पुं० [ब० स०] १. शिव। महादेव। २. मोर। मयूर। ३. नीलकंठ पक्षी। ४. खंजन।
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काल-कवलित  : वि० [तृ० त०] जो काल का ग्रास बना हो, अर्थात् मृत। मरा हुआ।
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काल-कवि  : पुं० [कर्म० स०] अग्नि।
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काल-केतु  : पुं० [उपमित० स०] पुराणानुसार एक राक्षस का नाम।
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काल-क्रम  : पुं० [सं० ष० त०] कार्यों, घटनाओं, तथ्यों आदि का वह क्रम जो उनके क्रमात् घटित होने के विचार से लगाया जाता है। (क्रोनालॉजी)।
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काल-क्षेप  : पुं० [ष० त०] काल या समय बिताना। दिन काटना या गुजारना।
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काल-खंड  : पुं० [ष० त०] १. काल का कोई विभाग। अवधि। २. परमेश्वर। उदाहरण—मानो कीन्हीं काल ही की कालखंड खंडना।—केशव।
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काल-गंगा  : स्त्री० [कर्म० स०] १. यमुना नदी, जिसके जल का रंग काला हो। कालिन्दी। २. लंका की एक नदी का नाम।
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काल-गंडैत  : पुं० [हिं० काला-गंडा] वह विषधर साँप जिसके शरीर पर काले गंडे या चित्तियाँ बनी होती है।
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काल-चक्र  : पुं० [ष० त०] समय का बराबर पलटते या बदलते रहना जो एक चक्र या पहिये के घूमने के समान माना गया है। २. काल का उतना अंश जितना एक उत्सर्पिणी और आवश्यकता में लगता है। (जैन) ३. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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काल-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] समय की गति, स्थिति आदि की जानकारी और पहचान। समय-कुसमय की पहचान।
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काल-ज्वर  : पुं० [उपमित० स०] एक प्रकार का घातक ज्वर, जो मरुमक्षिकाओं के काटने से होता है। और जिसमें प्लीहा तथा यकृत की वृद्धि, रक्ताल्पता, जलोदर, रक्त-स्राव आदि होते हैं। काला अजार।
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काल-तुष्टि  : स्त्री० [ष० त०] सांख्य के अनुसार मनुष्य को उपयुक्त या नियत समय आने पर मिलने या होनेवाली संतुष्टि।
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काल-दंड  : पुं० [ष० त०] यमराज का दंड।
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काल-दर्श  : पुं० [सं० कालादर्श] काल-गणना की वह प्रणाली जिसके अनुसार वर्ष, मास आदि का परिमाण या विस्तार निश्चित होता है। (कैंलेंडर) जैसे—अरबी, भारतीय या रोमन कालदर्श।
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काल-धर्म  : पुं० [ष० त०] १. मृत्यु। २. अवसान। विनाश। ३. समय के अनुसार घटनाओं के घटित होने का प्राकृतिक या स्वाभाविक गुण या धर्म। जैसे—बरसात के दिनों में वर्षा होना।
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काल-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. महादेव। शिव। २. काल-भैरव।
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काल-निर्यास  : पुं० [कर्म० स०] गुग्गुल।
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काल-निशा  : स्त्री० [कर्म० स०] १. अँधेरी और भयावनी रात। २. कार्तिकी अमावस्या की रात्रि। दिवाली की रात।
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काल-नेमि  : पुं० [उपमि० स०] १. एक राक्षस जो रावण का मामा था और जिसने हनुमान जी को उस समय छलना चाहा था जब वे संजीवनी लाने जा रहे थे। २. एक पौराणिक दानव जिसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था और जो अन्त में विष्णु के हाथों मारा गया था। (कहते हैं कि यह अपना शरीर चार भागों में बाँटकर हर शरीर से अलग-अलग काम करता था)।
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काल-पाश  : पुं० [ष० त०] १. समय का बन्धन। २. समय का वह नियंत्रण या बन्धन, जिसके अनुसार भूत-प्रेत कुछ समय तक किसी का कोई अनिष्ट नहीं कर सकते। ३. यमराज का पाश, बंधन या फंदा। यमपाश।
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काल-पुरुष  : पुं० [उपमित० स०] १. समय का कल्पित मानवी रूप। २. ईश्वर का विराट् रूप। ३. मृत्यु के देवता। काल देवता। ४. लोहे की वह मूर्ति जो संकट टालने के लिए दान की जाती है। ५. आकाश का एक नक्षत्र-मंडल।
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काल-प्रमेह  : पुं० [कर्म० स०] प्रमेह का एक भेद, जिसमें रोगी को काली पेशाब होती है।
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काल-फल  : पुं० [उपमित० स०] इंद्रायन या नारू, जिसे खाने से प्राणी मर जाता है।
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काल-भैरव  : पुं० [ब० स०] १. शिव। २. शिव के मुख्य गणों में से एक गण।
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काल-मेघ  : पुं० [कर्म० स०] एक पौधा जिसकी छाल और जड़ दवा के काम आती हैं।
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काल-मेह  : पुं० [ब० स०] एक उग्र तथा घातक विषम ज्वर जिसमें रोगी को प्रस्वेद, पैत्तिक वमन अतिसार आमाशय के ऊपरी भाग में पीड़ा आदि होती है। (ब्लैक वाँटर फीवर)।
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काल-यवन  : पुं० [उपमित० स०] पुराणानुसार एक यवन राजा जो कृष्ण और यादवों का घोर शत्रु था और जिसे कृष्ण ने छल से मुचकुंद के द्वारा जीते-जी भस्म करवा दिया था।
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काल-यापन  : पुं० [ष० त०] १. समय का काटना या बिताना। २. जानबूझ कर किसी काम में देर लगाना या विलम्ब करना।
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काल-युक्त  : पुं० [तृ० त०] साठ संवत्सरों में से बावनवाँ संवत्सर (हिन्दू पंचांग)।
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काल-रात्रि  : स्त्री० [कर्म० स०] १. प्रलय की रात,जिसमें सारी सृष्टि नष्ट हो जाती है और जिसे ब्रह्मा की रात्रि भी कहते हैं। २. बहुत अंधेरी और भयावनी रात। ३. मृत्यु की रात। ४. दीवाली की रात। ५. दुर्गा की एक मूर्ति या रूप।
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काल-वाचक  : वि० [ष० त०] समय सूचित करनेवाला। समय का प्रबोधक। जैसे—कालवाचक क्रिया-विशेषण अथवा विशेषण।
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काल-विपाक  : पुं० [ष० त०] १. किसी काम या बात की अवधि या समय पूरा होना अथवा उसके घटित होने का नियत समय आना। २. काल या नियति का वह विधान जो अपरिहार्य और अवश्यंभावी होता तथा अपने समय पर नियत काम करके रहता है। होनहार। होनी।
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काल-वृद्धि  : स्त्री० [तृ० त०] समय बीतने पर ब्याज या सूद का बहुत अधिक या इतना बढ़ जाना कि वह मूलधन के बराबर या उससे भी अधिक हो जाय।
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काल-वेला  : स्त्री० [ष० त०] १. शनिग्रह का भोग-काल, जो प्रायः घातक सिद्ध होता है। २. ज्योतिष में वह योग या समय जिसमें कोई धार्मिक या शुभ काम करना निषिद्ध होता है।
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काल-सर्प  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा साँप जिसके काटने से प्राणी अवश्य और तुरन्त मर जाय। २. लाक्षणिक रूप में ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की बड़ी-से-बडी हानि कर सकता हो।
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काल-सूत्र  : पुं० [उपमित० स०] अट्ठाइस मुख्य नरकों में से एक।
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काल-सेन  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार वह डोम जिसने राजा हरिशचन्द्र को मोल लिया था।
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कालक  : पुं० [सं०√कल् (प्रेरणा)+णिच्+थवुल्-अक] १. तैतीस प्रकार के केतुओं में से एक। २. आँख की पुतली। ३. पानी का साँप। डेड़हा। ४. पूर्वी भारत का एक प्राचीन देश। ५. यकृत। जिगर। ६. बीजगणित में दूसरी अव्यक्त राशि। वि० काले रंग का। काला।
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कालका  : स्त्री० [सं० काल+क, टाप्०] दक्ष प्रजापति की एक कन्या जिसका विवाह कश्यप से हुआ था और जिससे नरक तथा कालक नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए थे।
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कालकूट  : पुं० [सं० काल-कूट, उपमित स० अथवा० काल√कूट् (उपताप)+अण्] १. समुद्र मन्थन के समय निकला हुआ परम भीषण विष जिसे शिवजी ने पान किया था। २. भीषण विष। बहुत तेज जहर। ३. एक प्रकार का बहुत भीषण वानस्पतिक विष। काल। बछनाग। ४. सींगिया की जाति का एक पौधा जिसकी जड़ विषाक्त होती है। ५. उत्तर भारत के एक पर्वत का नाम। ६. इस पर्वत के आस-पास का प्रदेश, जिसमें आजकल के देहरादून और कालसी नामक स्थान है।
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कालकोठरी  : स्त्री० [हिं० काल+कोठरी] १. जेलखाने की वह बहुत छोटी और अँधेरी कोठरी जिसमें भीषण अपराध करनेवाले कैदी रखे जाते हैं। (सालिटरी सेल) २. बहुत ही अँधेरी और तंग जगह।
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कालक्रमिक  : वि० [सं० कालक्रम+ठक्-इक] (कार्यों घटनाओं आदि की सूची) जो कालक्रम के विचार से प्रस्तुत हो। २. काल-क्रम-संबंधी।
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कालचक्रयान  : पुं० [सं० ] एक बौद्ध संप्रदाय जिसे कुछ विद्वान वज्ज्रयान का एक भेद मानते हैं।
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कालंजर  : पुं० [सं० काल√जृ (जीर्ण होना)+णिच्+अच्, मुम्] कालिंजर।
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कालज्ञ  : पुं० [सं० काल√ज्ञा (जानना)+क] १. वह व्यक्ति जिसे भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों का ज्ञान हों। २. ज्योतिषी। ३. वह जो समय की गति, स्थिति आदि ठीक तरह से पहचानता हो। ४. मुर्गा।
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कालपट्टी  : स्त्री० [पुर्त० कोलाफटी] जहाज की दरार या संधि भरने के लिए उसमें सन आदि ठूसने का काम।
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कालपर्णी  : स्त्री० [काल-पर्ण, ब० स० ङीष्] काली तुलसी।
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कालबंजर  : पुं० [सं० काल+हिं० बंजर] ऐसी परती जमीन जो बहुत दिनों से जोती बोई न गई हो, और फिर सहज में जोती बोई न जा सकती हो।
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कालबूत  : पुं० दे० ‘कलबूत’।
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कालम  : पुं० [अं०] स्तंभ (दे०)।
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कालमुख  : पुं० [सं०] एक प्राचीन शैव सम्प्रदाय जिसके अनुयायी शिव के नीलकंठ कृष्णवर्ण और मुण्डमालीधारी रूप की उपासना करते थे।
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कालर  : पुं० [अं०] १. पहनने के कपड़ों में वह पट्टीदार अंश जो गले के चारों ओर रहता है। २. पशुओं आदि के गले में बाँधने का पट्टा। पुं० दे० कल्लर। वि० दे० काला। उदाहरण—चाँच कटाऊँ पपइया रे ऊपरि कालर लूण।—मीराँ।
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कालवाची (चिन्)  : वि० [सं० काल√वच् (बोलना)+णिनि]=काल-वाचक।
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कालसिर  : पुं० [हिं० काल+सिर] जहाज के मस्तूल का ऊपरी सिर।
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काला  : वि० [सं० काल, कालक, पा० बँ० कालो, प्रा० कालअ, उ० कला, पं० काला, सि० कारो, ग० कालू, मरा० काला] [स्त्री० काली] १. जो काजल, कोयले या धूएँ के रंग का हो। कृष्ण। श्याम। जैसे—काला कपड़ा, काला आदमी। पद—काले सिर का=जिसके बाल अभी न पके हों। हष्ट-पुष्ट या नौजवान आदमी। २. जिसमें प्रकाश न हो। प्रकाश रहित। प्रकाश-शून्य। जैसे—काली कोठरी,काली गुफा। ३. (व्यक्ति) जिसके मन में कपट या छल हो। जैसे—काला हृदय। ४. अस्वच्छ। मलिन। ५. अनुचित या बुरा। निंदनीय। जैसे—काली करतूत। ६. जिसका संबंध किसी अनुचित या निषिद्ध बात से हो। जैसे—काली सूची (दे०)। ७. जिस पर किसी प्रकार का कलंक या लांछन लगा हो। जैसे—यह काला मुंह लेकर अब कहाँ जाओगे। ८. बहुत ही अनर्थकारी, भीषण या विकट। जैसे—काला चोर। पद—काले कोसों=बहुत दूर। जैसे—उनका घर तो काले कोसों है। पुं० [सं० कालसर्प] १. काला साँप, जो बहुत जहरीला होता है। काल-सर्प। २. साधारणतः कोई सांप। विशेष—प्रायः लोग साँप का नाम अशुभ समझते हैं, इसी से प्रायः उसे काला कहते हैं। जैसे—उसे काले ने डस लिया है।
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काला आदमी  : पुं० [हिं०] १. गरम देश का रहनेवाला व्यक्ति, जिसका रंग काला या गेहुँआ होता है। विशेष—यह पद गोरी जाति विशेषतः अंगरेज लोग भारतीयों सामियों आदि के लिए उपेक्षा और घृणा सूचित करने के लिए प्रयुक्त करते थे। २. कुत्सित और लांछित व्यक्ति।
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काला नमक  : पुं० [हिं० काला+नमक] हर्रे, हड़, बहेड़े सज्जी आदि के योग से बनाया जानेवाला एक प्रकार का नमक, जो रंग में काला तथा पाचक होता है।
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काला पहाड़  : पुं० [हिं० काला+पहाड़] १. बहुत भारी और विकट वस्तु। २. बहुत दुस्साध्य काम। ३. बहुत असह्र कष्ट या वेदना।
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काला-नाग  : पुं० [हिं० काला+नाग] १. काले रंग का नाग या साँप, जो बहुत जहरीला होता है। २. ऐसा कुटिल या धूर्त व्यक्ति जो औरों की बहुत हानि कर सकता हो। खोटा या दुष्ट व्यक्ति।
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काला-बाजार  : पुं० =काल-ज्वर।
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काला-मोहरा  : पुं० [हिं० काला+मोहरा] सींगिया की जाति का एक पौधा,जिसकी जड़ विषैली होती है।
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कालाकंद  : पुं० [हिं० काला+सं०कद ?] एक प्रकार का धान, जिसका चावल सैकड़ों वर्षों तक रक्खा जा सकता है। पुं० =कलाकंद।
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कालाकलूटा  : वि० [हिं० काला+कलूटा] बहुत अधिक काला और कुरूप।
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कालाक्षर  : पुं० [सं० काल-अक्षर, कर्म० स०] [वि० कालाक्षरिक कालाक्षरी] ऐसे गूढ़ अथवा विकट अक्षर या लेख आदि पढ़कर उनका अर्थ समझ में न पढ़ सकता हो।
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कालाक्षरिक  : वि० [सं० कालाक्षर+ठक्-इक]=कालाक्षरी।
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कालाक्षरी (रिन्)  : वि० [सं० कालाक्षर+इनि] (व्यक्ति) जो बहुत ही अस्पष्ट, गुप्त, गूढ़ या रहस्यपूर्ण लेख आदि पढ़कर उनका अर्थ समझ लेता हो। जैसे—कालाक्षरी पंडित।
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कालांग  : वि० [काल-अंग, ब० स०] काले रंग का। काला। पुं० खड्ग। तलवार।
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कालागुरु  : पुं० [सं० काल-अगुरु, कर्म० स०] काला अगर।
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कालाग्नि  : पुं० [काल-अग्नि, कर्म० स०] १. सृष्टि का नाश करनेवाली अग्नि। प्रलयकाल की अग्नि। २. इस अग्नि के अधिष्ठाता देवता। रुद्र। ३. पंचमुखी रुद्राक्ष। विशेष—अग्नि शब्द सं० में पुं० होने पर भी हिन्दी में स्त्री माना जाता है। इसलिए पहले अर्थ में कालाग्नि का प्रयोग भी हिन्दी में प्रायः स्त्रीलिंग रूप में ही होता है।
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कालाग्रह  : पुं० =कारावास (जेल)।
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कालाचोर  : पुं० [हिं० काला+चोर] १. बहुत बड़ा और नामी चोर। २. बहुत बुरा आदमी। जैसे—हम चाहें तो अपनी चीज काले चोर को दे दें।
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कालांजन  : पुं० [काल-अंजन, कर्म० स०] एक प्रकार का सुरमा।
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कालाजीरा  : पुं० [हिं० काला+जीरा] १. एक प्रकार का जीरा, जिसका रंग काला होता है, और जो सफेद जीरे से अधिक सुगंधित होता है। स्याह जीरा। पर्वत जीरा। २. एक प्रकार का बढ़िया धान और उसका चावल।
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कालांतर  : पुं० [काल-अंतर, मयू० स०] १. अंतराल। २. उल्लिखित समय से भिन्न या बाद का समय। वि० कुछ समय के बाद अपना प्रभाव दिखलानेवाला। जैसे—कालांतर विष।
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कालांतर-विष  : पुं० [ब० स०] ऐसा जन्तु या प्राणी जिसके काटने पर विष कुछ दिन बाद अपना प्रभाव दिखाता हो। जैसे—पागल कुत्ता, चूहा आदि।
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कालांतरित  : वि० [सं० काल-अंतरित, तृ० त०] १. जिसका काल या समय टल गया हो। २. जिसे बने बहुत समय हो गया हो। पुराना। जैसे—कालांतरित पुराण।
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कालातिपात  : पुं० [काल-अतिक्रमण, ष० त०] १. समय का उचित या नियत से अधिक बीतना। २. दे० ‘कालातिक्रमण’।
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कालातिरेक  : पुं० [काल-अतिरेक, ष० त०] कालातिपात।
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कालातिल  : पुं० [हिं० काला+तिल] वह तिल, जिसके दाने काले होते हैं (सफेद तिल से भिन्न)। मुहावरा—काला तिल चबाना=किसी के अधीन दबैल या वशवर्ती होना। २. शरीर के किसी अंग में होनेवाला वह छोटा काला दाग, जो देखने में तिल के समान जान पड़ता है। विशेष—सामुद्रिक में भिन्न-भिन्न अंगों के विचार से यह शुभ और अशुभ माना जाता है। साधारणतः स्त्रियों के कुछ विशिष्ट अंगों पर यह उनका सौंदर्य बढ़ाता है।
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कालातीत  : वि० [सं० काल-अतीत, द्वि० त०] १. जो काल से परे हो। २. जिसका नियत या निर्धारित समय बीत गया हो और इसलिए जिसका महत्त्व या वैधता न रह गई हो। (टाइम वार्ड)। पुं० न्याय में पाँच प्रकार के हेत्वाभासों में से एक जिसमें अर्थ किसी देश काल के विचार से ठीक न हो और इसी कारण हेतु असत् ठहरता हो। (यह एक प्रकार का बाघ है जो साध की अप्रामाणिकता या अभाव सूचित करता है)।
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कालात्मा (त्मन्)  : पुं० [काल-आत्मन्, ब० स०] परमात्मा।
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कालादाना  : पुं० [हिं० काला+दाना] १. एक लता, जिसमें नीले रंग के फूल लगते हैं। २. उक्त लता के बीज जो बहुत ही रेचक होते हैं।
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कालादेव  : पुं० [हिं० काला+फा० देव] १. बहुत ही काले रंग का एक कल्पित देव या विशालकाय व्यक्ति। २. काले रंग का बहुत हष्ट-पुष्ट व्यक्ति।
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कालाधतूरा  : पुं० [हिं० काला+धतूरा] १. एक प्रकार का बहुत विषैला धतूरा, जिसके फल और बीज काले होते है। २. उक्त धतूरे के फल या बीज।
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कालाध्यक्ष  : पुं० [काल-अध्यक्ष, ष० त०] सूर्य जिनके उदय और अस्त से काल या समय का ज्ञान होता है।
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कालानल  : पुं० [काल-अनल, कर्म० स०]=कालाग्नि।
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कालानुक्रम  : पुं० [सं० काल-अनुक्रम, ष० त०] [वि० कालानुक्रमिक]=काल-क्रम।
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कालापान  : पुं० [हिं० काला+पान] ताश के पत्तों में हुक्म नामक रंग।
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कालापानी  : पुं० [हिं० काला+पानी] १. बंगाल की खाड़ी का वह अंश, जहाँ का पानी काला होता है। २. अंड मन नामक द्वीप जहाँ ब्रिटिश शासन के वे कैदी रखे जाते थे जिन्हें आजीवन देश निकाले का दंड दिया जाता था और जिन्हें जहाज पर उक्त कालापानी पार करना पड़ता था। ३. देश-निकाले या द्वीपान्तर वास का दंड। ४. मदिरा। शराब।
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कालायनी  : स्त्री० [सं० काल+फक्-आयन, ङीष्] दुर्गा।
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कालावधि  : स्त्री० [काल-अवधि, ष० त०] कोई काम करने या होने के लिए नियत निर्धारित या निश्चित किया हुआ समय। अवधि। (पीरियड)।
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कालाशुद्धि  : स्त्री० [काल-अशुद्धि, ष० त०] ऐसा काल, समय या स्थिति जो किसी प्रकार अशुद्ध या दूषित होने के कारण शुभ कामों के लिए वर्जित हो।
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कालाशौच  : पुं० [काल-अशौच, मध्य० स०] पिता, माता, गुरुजनों आदि के मरने पर होनेवला अशौच जो श्राद्ध आदि हो चुकने के बाद भी प्रायः एक वर्ष तक चलता है।
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कालास्त्र  : पुं० [काल-अस्त्र, कर्म० स०] ऐसा अस्त्र, जिसके प्रहार से शत्रु का घात या विनाश निश्चित हो। काल के मुख में पहुँचानेवाला अस्त्र।
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कालाहणि  : वि० [सं० काल+अहन्] १. प्रलयकालीन। २. भयानक। भीषण। उदाहरण—कठ्ठी बे घटा करे कालाहणि।—प्रिथीराज।
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कालि  : क्रि० वि० [सं० कल्य०] १. आज से पहले वाले दिन। २. आज के बाद आनेवाला दिन। कल (देखें)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कालि-काला  : क्रि० वि० [हिं० कालि+काल] कदाचित्। कभी। किसी समय।
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कालिक  : वि० [सं० काल+ठञ्-इक०] १. किसी विशिष्ट काल से संबंध रखनेवाला। जैसे—पूर्वकालिक, मध्यकालिक। २. उचित, उपयुक्त या नियत समय पर होने वाला। ३. रह-रहकर कुछ निश्चित समय पर होनेवाला। (पीरिआँडिक) पुं० १. नाक्षत्र मास। २. काला चंदन। ३. कौंच पक्षी। ४. कलेजा (डिं०) ५. ऐसी पत्रिका या समाचार-पत्र जिसका प्रकाशन नियमित रूप से होता है। तथा जिसमें प्रतिदिन के अथवा उस काल से संबंधित समाचार या सूचनाएँ रहती हो । (पीरिआडिकल जरनल)
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कालिका  : स्त्री० [सं० काल+ठन्-इक, टाप्] १. कालापन। २. कालारंग। ३. स्याही, विशेषतः काली स्याही। ४. कालिमा। ५. बादलों की घटा। मेघ-माला। ६. काली मिट्टी। ७. काले रंग की हर्रे। ८. जटामासी। ९. शरीर पर के रोओं की पंक्ति। रोमावली। १॰. आँख की पुतली। ११. आँख में का काला तिल। १२. दुर्गा की एक मूर्ति जो रण-क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी मानी गई है। १३. चार वर्ष की वह बालिका, जिसका किसी उत्सव पर उक्त देवी के रूप में पूजा की जाती हो। १४. दक्ष की कन्या का नाम। १५. मादा बिच्छू। १६. बिच्छुआ नामक घास। १७. कौए की मादा। १८. काकोली। १९. श्यामा नामक पक्षी। २॰. कान की एक विशेष नस। २१. मादा श्रृंगाल। सियारिन। गीदड़ी।
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कालिका-पुराण  : पुं० [मध्य० स०] हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध उपपुराण जिसमें कालिका देवी के माहात्म्य का वर्णन है।
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कालिका-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] वह ब्याज जो नियमित रूप से तथा निश्चित काल बीतने पर दिया या लिया जाय।
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कालिकेय  : पुं० [सं० कालिका+ढक्-एय] दक्ष की कन्या। कालिका से उत्पन्न असुरों की एक जाति।
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कालिख  : स्त्री० [सं० कालिका] १. किसी चीज पर जमनेवाला धुएँ का अथवा और किसी प्रकार का काला मैल। २. लाक्षणिक रूप में ऐसी बात या वस्तु, जिससे किसी पर बहुत ही लज्जाजनक रूप में कलंक या धब्बा लगता हो। जैसे—किसी के मुंह पर कालिख लगना।
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कालिंग  : वि० [सं० कलिंग-अण्] १. कलिंग देश में उत्पन्न होनेवाला। २. कलिंग संबंधी। पुं० १. कलिंग देश का निवासी। २. कलिंग देश का राजा। ३. हाथी। ४. साँप। ५. तरबूज।
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कालिंगड़ा  : पुं० [सं० कलिंग०] संपूर्ण जाति का एक राग, जिसके गाने का समय रात का अंतिम पहर माना गया है। कलिंगड़ा।
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कालिज  : पुं० [अं०]=कालेज। पुं० [?] एक प्रकार का चकोर।
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कालिंजर  : पुं० [सं० कालंजर] बाँदा जिले के पास का एक प्रदेश और उससे संलग्न एक पर्वत-श्रेणी।
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कालिंद  : वि० [सं० कलिंद या कालिंदी+अण्] कलिंद या कालिंदीसंबंधी। पुं० [कालि=जलराशि√या (देना)+क, पृषो० मुम्०] तरबूज।
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कालिंदक  : पुं० [सं० कालसिंद+कन्] तरबूज।
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कालिंदी  : पुं० [सं० कलिंद+अण्-ङीष्०] १. यमुना नदी जो कलिंद पर्वत से निकली है। २. लाल निसोथ। ३. उड़ीसा का एक वैष्णव सम्प्रदाय। ४. संगीत में ओड़व जाति की एक रागिनी।
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कालिंद्री  : स्त्री०=कालिंदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कालिब  : पुं० [अ०] १. किसी वस्तु का ढाँचा। २. टीन या लकड़ी का वह गोल ढाँचा जिस पर चढ़ाकर टोपियाँ दुरूस्त की जाती हैं। ३. देह। शरीर। ४. दे० ‘कलबूत’।
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कालिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० काल+इमानिच्] १. काले होने की अवस्था, गुण या भाव। कालापन। २. अंधकार। अँधेरा। ३. कालिख। ४. कलंक। लांछन।
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कालिय  : पुं० [सं० क-आ√ली (छिपना)+क] एक बहुत बड़ा और भीषण साँप जो यमुना में रहता था और जिसका दमन कृष्ण ने किया था।
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काली  : स्त्री० [सं० काल+ङीष्] १. चंडी या दुर्गा का एक रूप। कालिका। २. दस महाविद्याओं में से एक। ३. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक। ४. हिमालय की एक नदी। ५. अँधेरी रात। पुं० =कालिय (नाग)।
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काली अंछी  : स्त्री० [देश] एक कँटीली झाड़ी जिसमें पत्तियाँ १२-१३ अंगुल लंबी तथा दाँतेदार होती हैं।
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काली जबान  : स्त्री० [हिं० काली+फा० जबान] ऐसी जबान जिससे निकली हुई अमांगलिक या अशुभ बात प्रायः पूरी उतरती हो।
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काली जीरी  : स्त्री० [सं० कणजीर] १. एक प्रकार का पौधा जिसकी फलियों के दाने या बीज ओषधि के रूप में काम आते हैं। बनजीरा। २. उक्त पौधे की फलियों के दाने। कारीजीर।
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काली बेल  : स्त्री० [हिं० कालीबेल] १. एक प्रकार की लता जिसमें छोटे छोटे हरे फूल लगते हैं। २. उक्त लता के फूल।
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काली मिट्टी  : स्त्री० [सं० काली+मिट्टी] एक प्रकार की चिकनी काली मिट्टी जो लीपने-पोतने और सिर मलने के काम में आती हैं।
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काली मिर्च  : स्त्री० [सं० काली+मिर्च] एक प्रसिद्ध पौधे के छोटे गोल दाने, जो स्वाद में मिर्च की तरह कडुए होने के कारण मसाले के काम में आते हैं। गोलमिर्च।
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काली शीतला  : स्त्री० [सं० काली+सं० शीतला] एक प्रकार की शीतला(चेचक) जिसमें शरीर पर मोटे-मोटे काले दाने निकलते हैं।
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काली सूची  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] १. ऐसे लोगों की सूची जिन्होंने कुछ अवैधानिक नियम-विरुद्ध या निंदनीय कार्य किये हों। २. ऐसे लोगों की सूची जो किसी दृष्टि या विचार से परित्यक्त माने गये हों। ३. अपराधी या दंडित व्यक्तियों की सूची। (ब्लैक लिस्ट)।
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काली हर्रे  : स्त्री० [सं० काली+हर्रे] जंगी हर्रे। छोटी हर्रे।
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कालीची  : स्त्री० [सं० काली√चि (चयन)+ड, ङीष्] वह भवन जिसमें बैठकर यमराज प्राणियों के पाप-पुण्य आदि का विचार करते हैं। यमराज का न्यायालय।
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कालीदह  : पुं० [सं० कालिय+हिं० दह] वृन्दावन में यमुना का एक दह या कुंड जिसमें कालिय नाग रहा करता था।
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कालीन  : वि० [सं० काल+ख-ईन] किसी काल-विशेष में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। जैसे—मध्यकालीन, समकालीन। पुं० [अ०] ऊन सूत आदि का बना हुआ एक प्रकार का मोटा बिछावन जिस पर रंग-बिरंगे बेल-बूटे बने रहते हैं। गलीचा। (प्राचीन भारत में इसे पलिका कहते थे)।
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कालीय  : वि० [सं० काल+छ-ईय] १. काल-संबंधी। २. काल का। ३. दे० कालीन। पुं० काला चंदन। पुं० =कालिय।
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कालीयक  : पुं० [सं० कालीय+कन्] १. पीला चंदन। २. केसर। ३. दारू हल्दी। ४. काली अगर।
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कालुष्य  : पुं० [सं० कलुष+ष्यञ्] कलुष या काले होने की अवस्था या भाव।
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कालू  : स्त्री० [?] सीप के अंदर रहनेवाला कीड़ा। लोना। कीड़ा। वि०=काला।
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कालेज  : पुं० [अं०] वह विद्यालय जहाँ कुछ या कई विषयों की पढ़ाई अंग्रेजी ढंग से बी० ए० या एम० ए० तक होती हो। महाविद्यालय।
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कालेय  : वि० [सं० कलि+ढक्-एय] कलियुग में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। पुं० [कला+ढक्-एय] १. यकृत्। २. काले चंदन की लकड़ी। ३. केसर
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कालेयक  : पुं० [सं० कालेय+क] १. काला चंदन। २. चंदन की लकड़ी। ३ पीलिया की तरह का एक रोग। ४. कुत्ता
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कालेश  : पुं० [काल-ईश, ष० त०] १. सूर्य। २. शिव।
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कालोंच  : स्त्री०=कलौंछ।
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कालोनी  : स्त्री० [अं०] उपनिवेश (दे०)।
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कालौंछ  : स्त्री० कलौंछ (या कलौंस)।
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काल्प  : वि० [सं० कल्प+अण्] कल्प संबंधी। पुं० कचूर।
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काल्पनिक  : वि० [सं० कल्पना+ठञ्-इक] १. कल्पना संबंधी। २. (बात या विषय) जो केवल कल्पना से निकला या बना हो। अर्थात् जिसका कोई वास्तविक आधार न हो। कल्पित। फरजी। मनगढंत। (इमैजिनरी) ३. कल्पना करनेवाला। (व्यक्ति)।
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काल्य  : वि० [सं० काल+यत्] १. ठीक समय पर होनेवाला। सामयिक। २. [कल्प+अण्] प्रातःकाल संबंधी। ३. शुभ।
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काल्ह  : क्रि० वि० पुं० =कल।
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काल्हि  : क्रि० वि०=कल।
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काव  : सर्व०=कोई।
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काँव-काँव  : पुं० [अनु०]=काँयँ-काँयँ।
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काँवर  : स्त्री० [सं० काँवाँरथी से] एक विशेष प्रकार की बहँगी जिसमें बाँस के टुकड़े के दोनों सिरों पर पिटारियाँ बँधी रहती हैं और जिसमें सामान रखकर काँवाँरथी तीर्थ-यात्रा करने निकलते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कावर  : पुं० [सं० काम, प्रा० काव, गु० मरा० कावड़] नाविकों की एक प्रकार की छोटी बरछी जिससे वे बड़ी-बड़ी मछलियों का शिकार करते हैं।
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काँवरा  : वि० [पं० कमला=पागल] [स्त्री० काँवरी] १. घबराया हुआ। भौचक्का। हक्काबक्का। २. विकल। व्याकुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काँवरिया  : पुं० [हिं० काँवरि] वे कहार या मजदूर जो काँवर बहँगी पर पानी या दूसरे सामान लादकर ले चलते हैं। स्त्री०=कांवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कावरी  : पुं० [?] रस्सी का फंदा जिसमें कोई चीज बाँधी जाय़। (लश०।)
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काँवरू  : पुं० [सं० कामरूप] कामरूप (देश) पुं० =कमल। (रोग) वि०=काँवरा।
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कावा  : पुं० [फा०] घोड़े को एक वृत्त में चक्कर देने की क्रिया या भाव। मुहावरा—कावा काटना=(क) घोड़े का (चलने या दौड़ने का अभ्यास करने के लिए) एक वृत्त में चक्कर लगाना। (ख) किसी अनुचित उद्देश्य की सिद्धि के लिए बराबर किसी स्थान पर या उसके आस-पास आते-जाते रहना। कावे देना=घोड़े को चलने या दौड़ने का अभ्यास कराने के लिए एक वृत्त में चक्कर खिलाना।
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काँवारथी  : पुं० [सं० कामार्थी] वह तीर्थ-यात्री जो अपनी कोई कामना पूरी कराने के उद्देश्य से कंधे पर काँवर उठाकर तीर्थ-यात्रा के लिए चलता हो।
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कावेर  : पुं० [क=सूर्य-आ=ईषत्-वेर=अंग, ब० स०] केसर।
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कावेरी  : स्त्री० [सं० क-जल-वेर, ब० स० कवेर+अण्, ङीष्] १. दक्षिण भारत की एक प्रसिद्ध नदी। २. रंडी। वेश्या। ३. हल्दी। ४. संपूर्ण जाति की एक रागिनी।
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काव्य  : पुं० [सं० कवि+ष्यञ्] १. कविता (दे०) २. व्यापक अर्थ में किसी कवि की वह पद्यात्मक साहित्यिक रचना जिसमें ओजस्वी कोमल और मधुर रूप में ऐसी अनुभूतियाँ कल्पनाएँ और भावनाएँ व्यक्ति की गई हों। जो मन को मनोवेगों और रसों से परिपूर्ण करके मुग्ध करनेवाली हों। (पोएम)। विशेष—(क) काव्य हमारे यहाँ दो प्रकार का माना गया है-गद्यकाव्य और पद्यकाव्य परन्तु साधारणतः लोक में पद्यकाव्य ही काव्य कहलाता है। (ख) वर्णित विषय तथा आकार के विषय से पद्यकाव्य दो प्रकार का कहा गया है-खण्डकाव्य और महाकाव्य। (ग) प्रभाव या फल के विचार से अथवा रस का उपभोग करने वाली इन्द्रियों के विचार से भी इसके दो भेद माने गये हैं-दृश्य काव्य और श्रव्य काव्य। ३. ऐसा ग्रन्थ या पुस्तक जिसमें उक्त प्रकार की रचना हो। ४. रोला छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण की ग्यारहवीं मात्रा लघु रहती है। इसकी छठीं आठवीं अथवा दसवीं मात्रा पर यति होना चाहिए। ५. [कवि+ण्य] शुक्राचार्य। ६. तामस मन्वन्तर के एक ऋषि।
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काव्य-लिंग  : पुं० [ष० त०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी बात को सिद्ध करने के लिए प्रमाण स्वरूप कोई कारण बतलाया जाता है। उदाहरण—पुत्र मेरे परवश हो, मंत्र में पडे हैं जब कृष्ण और कृष्णा के तब तो नियति अवलम्ब अब मेरी है।—लक्ष्मीनारायण मिश्र।
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काव्य-हास  : पुं० [ब० स०]=प्रहसन।
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काव्या  : स्त्री० [सं० √कव् (वर्णन करना)+ण्यत्, टाप्] १. अक्ल। बुद्धि। २. पूतना।
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काव्यार्थापत्ति  : स्त्री० [काव्०-अर्थापत्ति, ष० त०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी दुष्कर अर्थ की सिद्धि के वर्णन से साधारण अर्थ की सिद्धि स्वतः होने का कथन होता है। उदाहरण—तुम माता हो कि अन्य हो, पूजनीया मेरी हो सदैव जाति नारी की मातृभाव से ही पूजता मैं रहा।—लक्ष्मीनारायण मिश्र।
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काश  : पुं० [सं०√काश् (दीप्ति)+अच्] १. काँस (दे०) नामक घास। २. खाँसी। ३. एक प्रकार का चूहा। ४. एक प्राचीन मुनि। स्त्री० [तु०] फलों आदि का कटा हुआ लंबा टुकड़ा। अव्य० [फा०] यदि ईश्वर ऐसा करे या करता। जैसे—काश आप वहाँ न गये होते।
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काशि  : पुं० [सं०√काश्+इन्] १. मुट्ठी। २. सूर्य। ३. ज्योति। स्त्री० १. प्रकाश। २. काशी। ३. एक प्राचीन जनपद जिसकी राजधानी वाराणसी थी।
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काशि-राज  : पुं० [ष० त०] १. काशी का राजा। २. राजा दिवोदास जो काशी के पहले राजा कहे गये हैं। ३. धन्वन्तरि।
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काशिक  : वि० [सं० काशि+ठञ्-इक] [स्त्री० काशिका] १. प्रकाश करनेवाला। २. प्रकाश से युक्त। प्रकाशमान् प्रदीप्त।
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काशिका  : स्त्री० [सं०√काश्+णिच्+ण्वुल्-अक, टाप्] १. काशी नगरी या पुरी। २. पाणिनीय व्याकरण की एक प्रसिद्ध टीका या वृत्ति।
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काशी  : स्त्री० [सं० काशि+ङीष्] उत्तर भारत की एक प्रसिद्ध नगरी, जो भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्र है और जिसे आजकल बनारस या वाराणसी कहते हैं।
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काशी-करवट  : पुं० [सं० काशी-करपत्र, प्रा० करवत] काशीस्थ एक तीर्थ-स्थान जहाँ प्राचीन काल में लोग आरे के नीचे कटकर अपना प्राण देना बहुत पुण्य समझते थे। उदाहरण—सूरदास प्रभु जो न मिलेगे लैहों करवट काशी।—सूर। मुहावरा—काशी करवट लेना=काशी में पहुँचकर वहाँ के प्रसिद्ध आरे से अपना गला इस उद्देश्य से काटना कि अगले जन्म में हमारी कामना पूर्ण हो।
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काशीफल  : पुं० [सं० ] कुम्हड़ा। कद्दू।
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काश्त  : स्त्री० [फा०] १. खेती-बारी का काम। कृषि। २. किसी दूसरे की जमीन कुछ समय तक जोतने-बोने के कारण किसान को उस पर प्राप्त होनेवाला अधिकार। मुहावरा—(किसी जमीन पर) काश्त लगना=वह अवधि पूरी होना जिसके बाद किसी किसान को दूसरे की भूमि पर स्थायी रूप से उसे जोतने-बोने का अधिकार प्राप्त होता है।
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काश्तकार  : पुं० [फा०] १. खेती-बारी करनेवाला व्यक्ति। किसान। खेतिहर। २. वह व्यक्ति जिसने जमींदार को लगान देकर उसकी जमीन पर खेती करने का स्वत्व प्राप्त किया हो (टेंनेट)।
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काश्तकारी  : वि० [फा० काश्तकार से] १. काश्तकार संबंधी। काश्तकार का। जैसे—काश्तकारी हक। २. खेती-बारी संबंधी। स्त्री० १. काश्तकार होने की अवस्था या भाव। २. काश्तकार का काम। खेती-बारी। ३. वह भूमि जिसपर काश्तकार का अधिकार हो। ४. काश्तकार का उक्त अधिकार।
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काश्मरी  : स्त्री० [सं०√काश् (चमकना)+वनिप्, ङीष्, र, आदेश, पृषो० मत्व] गंभारी नामक वृक्ष।
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काश्मीर  : पुं० [सं० कश्मीर+अण्] १. एक देश जो भारतीय संघ के अन्तर्गत पश्चिम उत्तर सीमा पर स्थित है और जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है। कश्मीर। २. पुष्करमूल। ३. केसर। ४. सुहागा। वि० कश्मीर का। कश्मीर-संबंधी।
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काश्मीरा  : पुं० [सं० काश्मीर से] १. एक प्रकार का ऊनी कपड़ा। २. एक प्रकार का अंगूर।
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काश्मीरी (रिन्)  : वि० [सं० काश्मीरी+इनि] १. कश्मीर में उपजने होने या बननेवाला। २. जिसका संबंध कश्मीर राज्य से हो। कश्मीर का। पुं० कश्मीर देश का निवासी। स्त्री० [कश्मीर+अच्, ङीष्] कश्मीर देश की भाषा।
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काश्यप  : वि० [सं० कश्यप+अण्] १. कश्यप प्रजापति के वंश या गोत्र का। २. कश्यप संबंधी। पुं० १. कश्यप ऋषि का गोत्र। २. वह जो उक्त गोत्र का हो। ३. एक बुद्ध का नाम जो गौतम बुद्ध से पहले हुए थे।
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काश्यपी  : स्त्री० [सं० काश्यप+ङीष्] १. पृथ्वी। भूमि। २. प्रजा।
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काश्यपेय  : पुं० [सं० कश्यप+ढक्-एय] १. सूर्य। २. अदिति के वंशज। ३. गरुड़।
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काष  : पुं० [सं० √कष् (कसना)+घञ्] सान का पत्थर।
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काषाय  : वि० [सं० कषाय+अण्] १. आम, कटहल, बहेड़े आदि कसैली वस्तुओं के रंग से रँगा हुआ। २. गेरू के रंग में रँगा हुआ। गेरूआ। जैसे—काषाय वस्त्र।
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काष्ठ  : पुं० [सं०√काश्+क्थन्] १. वृक्ष की लकड़ी। काठ। २. ईधन।
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काष्ठ-कदली  : स्त्री० [उपमित० स०] कठकेला। (दे०)।
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काष्ठ-कीट  : पुं० [मध्य० स०] वह कीड़े जो काठ में लगते हों। जैसे—घुन, दीमक आदि।
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काष्ठ-तक्षक  : पुं० [ष० त०] १. लकड़हारा। २. बढ़ई।
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काष्ठ-लेखक  : पुं० [ष० त०] घुन नाम का कीड़ा जो लकड़ी में छोटे-छोटे छेद कर देता है।
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काष्ठा  : स्त्री० [सं० काष्ठ+टाप्] १. पथ। मार्ग। २. सीमा। ३. ऊँचाई आदि की बहुत बढ़ी हुई मात्रा या सीमा। ४. उत्कर्ष। ५. ओर। दिशा। ६. चंद्रमा की कला। ७. काल या समय का एक मानदंड जो १८. पल का होता है। ८. कश्यप ऋषि की स्त्री जो दक्ष की कन्या थी।
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काष्ठिक  : वि० [सं० का्ष्ठ+ठन्+इक] काष्ठ-संबंधी।
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काष्ठिका  : स्त्री० [सं० का्ष्ठ+ङीष्+कन्, टाप्, ह्रस्व] १. काठ या लकड़ी का छोटा टुकड़ा। २. चैली।
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काष्ठीय  : वि० [सं० काष्ठ+छ-ईय] १. काठ या लकड़ी का बना हुआ (वुडन) २. जिसका संबंध काष्ठ से हो। ३. जैसे—काष्ठीय व्यापार।
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काष्णर्य  : पुं० [सं० कृष्ण+ष्यञ्०] कृष्णता। कालापन।
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काँस  : पुं० [सं० काश] १. परती अथवा ऊँची और ढलुई जमीन में होनेवाली एक प्रकार की लंबी घास जो शरद् ऋतु में फूलती है। उदाहरण—फूले कास सकल महि छाई।—तुलसी। मुहावरा—काँस में तैरना=मृग तृष्णा के फेर में पड़कर इधर-उधर भटकना। २. विकट या संकटपूर्ण स्थिति। मुहावरा—काँस में पड़ना या फँसना=विपत्ति या संकट में पड़ना या फँसना।
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कास  : पुं० [सं०√कास् (खाँसना)+घञ्] १. खाँसी। २. शोभांजन। सहिजन। पुं० =काँस।
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कास-कंद  : पुं० [मध्य० स०] १. हाथ-डेढ़ हाथ ऊँचा एक पौधा जो देखने में हरा-भरा होता है। २. उक्त पौधे के बीज जो दवा के काम आते हैं। वि० उक्त पौधे के फूल के रंग का गहरा नीला। पुं० १. उक्त फूल का रंग। गहरा नीला रंग। २. नीले रंग का कबूतर।
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कास-मर्द  : पुं० [सं० कास√मृद् (चूर्ण करना)+अण्, उप० स०] कसौंजा या कसौंदा (पौधा)।
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कासर  : पुं० [सं० क-आ√स् (गति)+अच्] [स्त्री० कासरी] भैंसा। महिष।
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काँसा  : पुं० [सं० कास्य] [वि० कांसी] एक मिश्र जातु जो ताँबे जस्ते आदि के योग से बनती है। कसकुट। यौ-कँसभरा-काँसे का गहना बनाने और बेचनेवाला। वि० [सं० कनिष्ठ] भीख माँगने का खप्पर या ठीकरा। उदाहरण—जब हाथ में लिया कांसा। तब भीख का क्या सांसा।—कहा०।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कासा  : पुं० [फा० कासः] १. प्याला। कटोरा। २. भिक्षापात्र।
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काँसागर  : पुं० [हिं० कांसा+फा० गर (प्रत्यय)] काँसे आदि के गहने बरतन आदि बनानेवाला (व्यक्ति)।
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काँसार  : पुं० =कांसागर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कासार  : पुं० [सं० कास् (चमकना)+आरन् या क-आसार, ब० स०] १. छोटा तालाब। तलैया। ताल। २. दंडक वृत्त का एक भेद जो २॰ रगण का होता है। पुं० =कसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कासालु  : पुं० [सं०√कास्+आलुच्] एक प्रकार का कंद या आलू। वि०=कसैला।
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कासिद  : वि० [अ०] १. इरादा या विचार करनेवाला। २. सीधे रास्ते जानेवाला। ३. संदेशा ले जानेवाला। ४. अप्रचलित। ५. खोटा।
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काँसी  : स्त्री० [सं० काश] धान के पौधे में होनेवाला एक रोग। स्त्री०=काँसा।
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कासी  : स्त्री०=काशी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कासीस  : पुं० [सं० कासी√सो (समाप्त करना)+क] हीरा-कसीस।
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कासु  : वि० [सं० कस्य हिं० का=कौन] १. किसका। २. किसको। किसे।
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काँसुला  : पुं० [हिं० काँसा] १. काँसे का वह चौकोर मोटा टुकड़ा जिस पर चारों ओर गढ्ढे आदि बने होते हैं और जिसकी सहायता से सुनार अर्द्ध-गोलाकार या गोलाकार चीजें बनाते हैं। २. काँसे या गिल्ट का बना हुआ गहना।
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कांस्य  : पुं० [सं० कांस+यञ्] कांसा। कसकुट। (धातु)। वि०१. काँसे का बना हुआ। २. काँसे से संबंध रखनेवाला। काँसे का।
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कांस्य-ताल  : पुं० [मध्य० स०] ताल या मँजीरा नामक बाजा।
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कांस्य-दोहनी  : स्त्री० [मध्य० स०] कांस्य का बना हुआ दूध दूहने का पात्र।
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कांस्य-मल  : पुं० [ष० त०] ताँबे-पीतल आदि धातुओं में लगनेवाला जंग या मोरचा।
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कांस्य-युग  : पुं० [ष० त०] पुरातत्त्व में प्रागैतिहासिक काल का वह विभाग जो प्रस्तर युग के बाद और लौह-युग के पहले माना जाता है और जिसमें औजार, हथियार आदि काँसे के ही बनते थे। ताम्रयुग। (ब्रांज एज)।
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कांस्यक  : पुं० [सं० कास्य+कन्] पीतल।
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कांस्यकार  : पुं० [सं० कास्य√कृ (करना)+अण्] कसेरा। ठठेरा।
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काह  : क्रि० वि० [सं० कः को] क्या पुं० [फा०] सूखी घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काहल  : पुं० [सं० कु-हल, ब० स० कु=कादेश] [स्त्री० काहली] १. मुरगा। २. नर बिल्ली। बिल्ला। बिलार। ३. अव्यक्त या अस्पष्ट शब्द। ४. जोर का शब्द। हुंकार। ५. एक प्रकार का बड़ा ढोल। वि०=काहिल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काहलि  : पुं० [सं० क-आ√हल् (देना)+इन्] शिव।
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काहलियाँ  : वि० [सं० कातर या फा० काहिल] १. कायर। डरपोक। २. अधीर। उदाहरण—डर ओले प्री रखियउ, मूँधा काहलियाँह।—ढो० मा।
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काहली  : स्त्री० [सं० काहलि+ङीष्] युवती।
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काहा  : क्रि० वि० [सं० कथं<प्रा०कत्थ>काहा] किस तरह या प्रकार का। कैसा। उदाहरण—मानसरोदक देखिए काहा।—जायसी। सर्व० किसको। किसे। उदाहरण—पुनि रूपवतं बखानौ काहा-जायसी। वि०=कैसा।
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काहि  : सर्व० [हिं० काँह] १. किसको। किसे। २. किससे।
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काहिल  : वि० [फा०] १. धीरे-धीरे या सुस्ती से काम करनेवाला। सुस्त। २. मंद बुद्धिवाला।
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काहिली  : स्त्री० [फा०] १. काहिल होने की अवस्था या भाव। सुस्ती।
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काही  : वि० [फा० काह-सूखी घास] घास के रंग का। कालापन लिये हुए हरा। पुं० उक्त प्रकार का रंग। स्त्री०=काई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काहु  : सर्व०=काहु।
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काहू  : सर्व० [सं० कः अथवा हिं० का+हू (प्रत्यय)] १. किसी। उदाहरण—जो काहू की देखहिं विपत्ती। २. किसी को। पुं० [फा०] गोभी की तरह का एक पौधा जिसके बीज दवा के काम आते हैं।
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काहे  : क्रि० वि० [सं० कथं, प्रा० कहँ] किसलिए। क्यों। पद—काहे को (क) किस अधिकार से। (ख) किस कारण या उद्देश्य से। उदाहरण—काहे को मेरे घर आये हो।—गीत।
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किं  : अव्य० दे० ‘किम्’।
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कि  : अव्य० [सं० किम्०] १. एक स्वरूप वाचक अव्यय जिससे किसी आश्रित वाक्य का आरंभ सूचित होता है। जैसे—(क) राम ने कहा कि श्याम आज हमारे घर आया था। (ख) बात यह है कि लोगों का स्वभाव एक-सा नहीं होता। २. अथवा। या। जैसे—तुम कपड़े लोगे कि रुपये। क्रि० वि० किस प्रकार। कैसे। (प्रायः अवधी कविताओं में)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किआह  : वि० [?] १. ताड़ के फके फल के रंग का। २. दे० हाँसुल।
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किउ  : अव्य=०-क्यों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किंकर  : पुं० [सं० कि√कृ (करना)+ट] [स्त्री० किंकरी] १. गुलाम। दास। २. नौकर। सेवक। ३. राक्षसों की एक प्राचीन जाति या वर्ग। ४. आज-कल, अस्पतालों आदि में एक प्रकार के कर्मचारी जो रोगियों की छोटी-छोटी सेवाओं के लिए नियत रहते हैं। (वार्ड ब्याय)। वि०=किंकर्त्तव्य-विमूढ़।
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किंकर्त्तव्य-विमूढ़  : वि० [स० त०] (व्यक्ति) जो कुछ ऐसी परिस्थितियों में फँसा हो जहाँ उसे यह पता चल रहा हो कि अब क्या करना चाहिए। जिसकी समझ में न आवे कि अब क्या कर्त्तव्य है।
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किंकिणी  : स्त्री० [सं० किं√कण् (शब्द)+इन्, ङीष्, पृषो० इत्व] १. छोटी घंटी। २. करधनी। जेवर। ३. एक प्रकार का खट्टा अंगूर या दाख। ४. कंटाय का वृक्ष।
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किंकिनी  : स्त्री०=किंकिणी।
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किकियाना  : क्रि० वि० [अनु०] १. कीं कीं या० कें कें शब्द करना। २. चिल्लाना। ३. रोना।
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किंकिर  : पुं० [सं० किं√कृ (विक्षेप)+क] १. कोकिल। कोयल। २. भौंरा। ३. घोड़ा। ४. कामदेव। ५. लालरंग। ६. हाथी का मस्तक।
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किंकिरा  : स्त्री० [सं० किंकिर+टाप्] रक्त। खून।
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किंकिरात  : पुं० [सं० किंकिर√अत् (गमन)+अण्, उप० स०] १. अशोक का पेड़। २. कटसरैया। ३. कामदेव। ४. तोता।
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किंक्क  : वि० [हिं० कित=कई+इक या एक] कितने ही। अनेक। उदाहरण—किंक्क सरण रह पाई किंक्क खल खंडणि खंडै।—चंदबरदाई।
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किक्यान  : पुं० [हिं० केकान] १. केकान देश। २. केकान देश का घोड़ा।
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किंगरई  : पुं० लाजवन्ती की जाति का एक कँटीला पौधा।
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किंगरी  : स्त्री० [सं० किन्नरी] १. सारंगी की तरह का एक छोटा बाजा, जिसे बजाकर जोगी भीख माँगते हैं। २. रहस्य संप्रदाय में काया या शरीर।
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किंगार  : पुं० =कगार।
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किंगिरी  : स्त्री०=किंगरी।
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किंगोरा  : पुं० [देश] दारू हल्दी की जाति की एक कँटीली झाड़ी।
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किंच  : अव्य० [सं० किम-च, द्व० स०] किंतु। लेकिन।
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किचकिच  : स्त्री० [अनु०] १. साधारण या तुच्छ बातों पर लोगों में प्रायः रहनेवाली तू-तू मैं, मैं। २. व्यर्थ की बातें। बकवाद।
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किचकिचाना  : अ० [अनु०] १. क्रोध में आकर या खिजलाकर दांत पीसना। २. कोई काम करने के समय सारी शक्ति लगाने के लिए दांत-पर-दांत रखना। जैसे—(क) किचकिचाकर पत्थर उठाना या ढकेलना। (ख) किचकिचाकर दांत काटना।
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किचकिचाहट  : पुं० [हिं० किचरिचाना] १. किचकिचाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. खिजलाहट।
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किचकिची  : स्त्री०=किचकिचाहट।
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किचड़ाना  : अ० [हिं० कीचड़+आना] कीचड़ से युक्त होना। जैसे—आँख किचड़ाना। स० कीचड़ से युक्त करना। जैसे—यह दवा आँख किचड़ा देगी।
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किंचन  : पुं० [सं० किं√चन् (शब्द करना)+अच्] पलास। अव्य०=किंचित्।
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किचर  : पिचर वि० गिचपिच।
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किंचित्  : वि० [सं० किम्-चित्त, द्व० स०] अल्प। कुछ। थोड़ा। यौ०=किंचिन्मात्र-बहुत ही थोड़ा। क्रि० वि० अल्प या कम मात्रा में। कुछ ही। बहुत थोड़ा।
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किछु  : वि०=कुछ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किछौ  : क्रि० वि० [सं० किंचित्०] कुछ भी। उदाहरण—तस जग किछौ न पावौं।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किंजलक  : पुं० =किजल्क।
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किजल्क  : पुं० [सं० किम्√जल (तेज होना)+क] १. कमल का पराग। २. कमल का केसर। ३. नागकेसर। वि० कमल के केसर के रंग का। हलका पीला।
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किटकिटाना  : अ० [अनु०] दाँत का बजाना। स० १. क्रोध से दाँत पीसना। २. किटकिट या व्यर्थ की कहासुनी अथवा झगड़ा करना।
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किटकिना  : पुं० [सं० कृतक] १. वह दस्तावेज जिसके द्वारा ठेकेदार अपने ठेके की चीज का ठीका अपनी ओर से दूसरे असामियों को देता है। २. सुनारों का एक ठप्पा। वि०=कटकीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किटकिनादार  : पुं० [हिं० किटकिना+दार०] वह व्यक्ति जो किसी वस्तु को ठेकेदार से ठेके पर ले।
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किटिभ  : पुं० [सं० किटि√भा (दीप्ति)+क०] जूं। (सिर के बालों का कीड़ा।
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किट्ट  : पुं० [सं०√किट् (गति)+क्त] १. धातु का मैल। कीट। २. तरल पदार्थ के नीचे जमनेवाला मैल। गाद। ३. किसी चीज के ऊपर जमा हुआ मैल। ४. पुरानी चाल का एक प्रकार का ऊनी कपड़ा। ५. पुरानी चाल की एक प्रकार की पेंसिल जिससे काजल, गोवर, लोहे के चूर्ण आदि की बनी हुई स्याही से चित्र अंकित किये जाते थे।
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किड़कना  : अ० [अनु०] खिसक या हट जाना।
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किण  : सर्व०=१. किसने। २. किन्होंने।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कित  : क्रि० वि० [सं० कुत्र] १. किस ओर। किदर। २. कहाँ। ३. ओर। तरफ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कितक  : क्रि० वि० [हिं० कितना+एक] कितना। वि० कितने ही। अनेक। कई।
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कितका  : वि० [सं० कियत्] एक सार्वनामिक विशेषण जो संज्ञाओं के पहले लगकर ये अर्थ देता है-(क) प्रश्नवाचक रूप में, किस परिणाम या मात्रा का (अथवा में) जैसे—इस काम में कितना सयम लगेगा (ख) मानवाचक रूप में, जितना हो सकता हो, उतना अर्थात् बहुत या यथेष्ट। जैसे—उसे कितना समझाया पर वह मानता ही नहीं। पद—कितना भी या ही=जितना हो सकता हो। बहुत अधिक। जैसे—वह कितना भी दे पर संतोष नहीं होता।—भारतेन्दु। कितने ही=अनेक। कई। जैसे—पृथ्वी के कितने ही अंश धीरे-धीरे ऊपर उठ रहे हैं।
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कितमक  : स्त्री०=किस्मत। (भाग्य) उदाहरण—कितमक लीष्या सोभो गवी।—नरपति नाल्ह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कितव  : पुं० [सं० कित√वा (गति)+क] १. जुआरी। २. छलिया। धूर्त्त। ३. उन्मत्त। पागल। बावला। ४. दुष्ट। पाजी। ५. धतूरा। ६. गोरोचन। ७. सिंधु के उस पार रहनेवाली एक प्राचीन जाति।
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किता  : पुं० [अ० कतअ] १. काटने की क्रिया, ढंग या भाव। २. सिलाई के लिए कपड़े में की जानेवाली काट-छांट। ३. बनावट आदि का ढंग। जैसे—टोपी अच्छे किते की है। ४. जमीन, मकान, लेख्य आदि की सूचक संख्या। अदद। जैसे—चार किता मकान, दो किता दस्तावेज। ५. प्रेदेश। भू-भाग।
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किताब  : स्त्री० [अ०] [वि० किताबी] १. कागज के पन्नों में लिखी हुई (मुद्रित या हस्तलिखित) कोई साहित्यिक कृति, जिसकी जिल्द बँधी हो। पुस्तक। ग्रंथ। २. धर्म-ग्रंथ। जैसे—ईसाइयों या मुसलमानों की किताब। ३. बही-खाता। जैसे—हिसाब-किताब ठीक करना।
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किताबत  : स्त्री० [अ०] लिखने की क्रिया या भाव। लिखने का काम। पद—खत किताबत (दे०)।
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किताबी  : वि० [अ० किताब] १. किताब या पुस्तक संबंधी। पुस्तकीय। जैसे—किताबी ज्ञान। २. किताब के आकार या रूप रंग का। जैसे—किताबी डिबिया। ३. किताब की तरह कुछ लंबोतरा। जैसे—किताबी चेहरा।
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किताबी कीड़ा  : पुं० [अ०+हि०] वह व्यक्ति जो सदा कुछ-न-कुछ पढ़ता रहता हो।
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कितिक  : वि० [सं० कियत] कितना। क्रि० वि० कितना ही। बहुत अधिक। उदाहरण—तऊ न मानत कितिक निहोरी।—सूर।
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किंतु  : अव्य० [किम्-तु, द्व० स०] १. एक अव्यय जो मिश्र या संयुक्त वाक्यों में प्रयुक्त होकर यह सूचित करता है कि अब जो बात कही जायगी वह पहले कही हुई बात से सकारण भिन्न या बेमेल है। जैसे—जी तो नहीं चाहता किंतु तुम्हारें कहने से चले चलते हैं। २. लेकिन। वरन्।
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कितेक  : वि० [सं० कियदेक] १. कितना या कितने। २. अनेक। बहुत।
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कितेब  : स्त्री० [अ० किताब] १. किताब। पुस्तक। ग्रंथ। २. धर्म-ग्रंथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कितेव  : पुं० =कैतव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कितै  : क्रि० वि० १. =कहाँ। २. =किधर (किस ओर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कितो  : (ौ) वि० [सं० कियत] [स्त्री० किती] कितना या कितने। उदाहरण—किती न गोकुल कुलबधू, काहि न केहि सिख दीन। क्रि० वि०=कितना।
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कित्ता  : वि० क्रि० वि०=कितना।
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कित्ति  : स्त्री०=कीर्ति। उदाहरण—फूलि कित्ति चौहान की जुम्गनि जुग्ग निवास। चंदबरदाई।
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कित्तीय  : स्त्री०=कीर्ति।
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किंदवंती  : स्त्री० [सं० किम्√वद् (बोलना)+झिच्-अन्त, ङीष्] १. ऐसी बात जिसे लोग परंपरा से सुनते चले आये हों, और जिसके संबंध में यह पता न चले कि वस्तुतः यह किसी की कही या निकाली हुई है। २. अफवाह। जनश्रुति। प्रवाद।
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किदारा  : पुं० =केदारा (राग)।
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किधर  : क्रि० वि० [सं० कुत्र] किस दिशा में। किस ओर। किस तरफ। पद—किधर आया, किधर गया=इसका कुछ निश्चय या पता नहीं कि कब क्या किस ओर से आया और कब क्या किस ओर गया। (अज्ञान अथवा उपेक्षा का सूचक)।
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किधौं  : अव्य० [सं० किम्, हिं० कि+कहुँ] अथवा। या तो। न जाने। उदाहरण—अब हैं यह पर्णकुटी किधौं और किधौं यह लक्ष्मन्न होय नहीं।
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किन  : सर्व० [सं० किण, मरा० किण-किणें] हिंदी ‘कि’ का बहुवचन। पद—किनहूँ=किसी ने भी। क्रि० वि० [सं० किम् न से] १. क्यों नहीं। उदाहरण—उठि किन उत्तर देत।—सूर। २. चाहे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किनंकना  : अव्य० [?] हिनहिनाना (घोड़ों का)।
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किनका  : पुं० [सं० कणिक] [स्त्री० अल्प० कनकी] किसी चीज का बहुत छोटा टुकड़ा। कण। जैसे—अनाज का किनका। चाँदी का किनका।
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किननाट  : स्त्री० [अनु०] आवाज। शब्द। उदाहरण—वपु नखत खुप्परिय किनन किननाट कुरंगिय।—चंदबरदाई।
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किंनर  : पुं० [कुगति० स०]=किन्नर।
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किनर-मिनर  : स्त्री०=आनाकानी। उदाहरण—इसलिए वे देने में किनर-मिनर कर रहे थे।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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किनवानी  : स्त्री० [?] छोटी-छोटी बूदों की झड़ी। फुहार।
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किनहा  : वि० [सं० कणिक, प्रा० कराणच्य+हा] अन्न या फल जिसमें कीड़े लगे या पड़े हों। काना।
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किनाती  : स्त्री० [?] एक प्रकार की चिड़िया जो नालों के किनारे रहती है।
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किनार  : पुं० =किनारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किनारा  : पुं० [फा० किनारः] [स्त्री० अल्पा० किनारी] १. किसी चीज या चौड़ाई की लंबाई के बल का वह सारा विस्तार जहाँ उस चीज का अंत होता है। किसी ओर का अंतिम सादा सिरा। जैसे—खेत, चौकी या तख्ते का किनारा। २. अधिक लंबी और कम चौड़ी वस्तु के वे दोनों सिरे, जहाँ उसकी चौड़ाई का अंत होता है। लंबाई के बल का सारा विस्तार या सिरा। जैसे—चादर या धोती का किनारा,नदी का किनारा। ३. किसी वस्तु के समूचे विस्तार का वह भाग जहाँ किसी दिशा में उसके विस्तार का अंत होता है। जैसे—पैसे या रुपए का किनारा,समुद्र का किनारा। मुहावरा—किनारे पहुँचना=अंत या समाप्ति के पास पहुँचना। किनारे लगाना-पूर्णता या समाप्ति तक पहुँचाना जैसे—इतने दिनों बाद आपने ही यह काम किनारे लगाया है। (किसी व्यक्ति को) किनारे लगाना=कष्ट या संकट से किसी का उद्धार या मुक्ति करना। ४. बगल। पार्श्व। मुहावरा—किनारा खींचना=संबंध तोड़कर अलग या दूर होना। किनारे न जाना-कुछ भी संपर्क या संबंध न रखना। किनारे बैठना या होना-बिना कोई सबंध रखे अलग या दूर रहना। ५. कपड़ों आदि में चौड़ाई का वह अंतिम विस्तार जिस पर शोभा या सजावट के लिए कुछ अलग प्रकार या रंग की बनावट अथवा बेल-बूटे आदि होते हैं। हाशिया। (बार्डर)।
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किनारी  : स्त्री० [हिं० किनारा] वस्त्रों आदि के किनारे पर लगाई जानेवाली रुपहले या सुनहले गोटे की पट्टी।
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किनारे  : क्रि० वि० [हिं० किनारा] १. सीमा पर। २. तट पर। पद—किनारे-किनारे=किसी किनारे से सटकर या उसके पास होते हुए। ३. अलग। मुहावरा—किनारे रहना=अलग या दूर रहना।
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किन्नर  : पुं० [सं० किम्-नर, कर्म० स०] [स्त्री० किन्नरी] १. पुराणानुसार देवलोक या स्वर्ग के एक प्रकार के गायक उपदेवता जिनका मुख घोड़े के समान कहा गया है। २. आज-कल गाने-बजाने का पेशा करनेवाली एक जाति।
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किन्नरी  : स्त्री० [सं० किन्नर+ङीष्] किन्नर जाति की स्त्री। स्त्री० [सं० किन्नरी=वीणा] १. एक प्रकार का छोटा तंबूरा। २. छोटी सारंगी।
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किन्ह  : सर्व०=किन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किन्हीं  : सर्व० [हिं० किन] किसी का बहुवचन रूप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किन्हों  : सर्व० [हि० किन] ‘किन’ का वह रूप जो उसे कर्त्ता होने की दशा में प्राप्त होता है। जैसे—आपसे किन्होंने कहा था ?
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किंपुरुष  : पुं० [किम्० पुरुष, कर्म० स०] १. मनुष्य की एक बहुत प्राचीन जाति या वर्ग। २. उक्त जाति के रहने का स्थान जो पुराणानुसार हिमालय और हेमकूट पर्वत के बीच में था। ३. किन्नर। वि० दोगला। वर्ण-संकर।
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किफायत  : स्त्री० [फा०] १. काफी या यथेष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। २. किसी चीज के उपभोग, व्यय आदि में की जानेवाली आवश्यक और उचित कमी। जैसे—किफायत से खर्च करना। ३. उक्त प्रकार से उपभोग या व्यय करने के फल-स्वरूप होनेवाली बचत जैसे—हमारी राय से चलते तो सौ रुपए की किफायत हो जाती। ४. किसी काम या बात में की जानेवाली कमी। जैसे—तुम तो हर काम में किफायत करना चाहते हो। क्रि० वि० कम मूल्य पर। थोड़े व्यय से। जैसे—दिल्ली में कपड़ा यहां से किफायत में मिलता हैं।
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किफायती  : वि० [अ० किफायत] १. किफायत अर्थात् कम खर्च करनेवाला। २. कम दाम में मिलनेवाला। सस्ता। जैसे—किफायती कपड़ा। किफायती जूता।
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किबलई  : स्त्री० [अ० किबला] पश्चिम दिशा। (लश०)।
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किबलनुमा  : पुं० [अ०]=किबलानुमा।
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किबला  : पुं० [अ० किबलाः] १. पश्चिम दिशा। २. मुसलमानों का पवित्र तीर्थ, मक्का। ३. पूज्य और वयस्क व्यक्ति।
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किबलानुमा  : पुं० [अ० किबलः+फा० नुमा=दर्शक] दिशाओं का ज्ञान कराने वाला यंत्र। कुतुबनुमा। दिग्दर्शक यंत्र।
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किंभूत  : वि० [सं० किम्० पुरुष, कर्म० स०] १. किस ढंग या प्रकार का। कैसा। २. अद्भुत। ३. भद्दा।
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किमति  : स्त्री०=कीमत।
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किमपि  : क्रि० वि० [सं० कमि्-अपि, द्व० स०] १. कुछ भी। २. किसी सीमा तक।
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किमरिक  : पुं० [अं० कैब्रिक] नैनसुख की तरह का एक प्रकार का चिकना सफेद कपड़ा।
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किमाकार  : वि० [सं० किम्-आकार, ब० स०] १. जिसका कोई निश्चित आकार या रूप न हो। २. रूप बदलता रहनेवाला। ३. भद्दा। भोंडा।
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किमाछ  : स्त्री०=कौंछ।
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किमाम  : पुं० [अ० किवाम] १. किसी वस्तु का गाढ़ा किया हुआ रस। अवलेह। जैसे—अफीम या सुरती का किमाम। २. खमीर।
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किमारखाना  : पुं० [अ० किमार+फा० खाना] जुआ खेलने का स्थान।
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किमारबाज  : वि० [अ० किमार+फा० बाज] जुआ खेलनेवाला।
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किमारबाजी  : स्त्री० [फा०] १. जुआ खेलने की क्रिया या भाव। २. जुए का खेल।
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किमाश  : पुं० [अ०] १. तर्ज। ढंग। २. गंजीफे के पत्ते का एक रंग जिसे ताज भी कहते हैं।
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किमि  : क्रि० वि० [सं० किम] किस प्रकार। कैसे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किमियागरी  : स्त्री० [अ०+फा] १. कीमिया बनाने की कला या विद्या। २. रसायनशास्त्र।
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किम्  : अव्य० [सं०√कु (शब्द करना)+डिमु] एक अव्यय जो कुछ शब्दों के आरंभ में लगकर खराब या बुरा होने का अर्थ देता है। जैसे—किम्दास (=बुरा नौकर) किम पुरुष (=हीन मनुष्य) सर्व० १. कौन। २. कैसा। क्रि० वि० क्यों ? किसलिए ?
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किम्मत  : स्त्री० [अ० कीमत० या० हिकमत० ?] १. चतुराई। होशियारी। २. वीरता। बहादुरी। स्त्री०=कीमत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कियत्  : वि० [सं० कमि्+वतुप् व-घ-इय,किम-कि] जो गुण मर्यादा सीमा आदि के विचार से बहुत बड़ा हो।
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कियारी  : स्त्री०=क्यारी (देखें)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कियाह  : पुं० [सं० कियान-हय, पृषो० सिद्धि] १. लाल रंग का घोड़ा। २. किरमिजी रंग जो थूहड़ पर रहनेवाले एक प्रकार के लाल कीड़ों को उबालकर बनाया जाता है। (कारमाइन)।
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किरका  : पुं० [सं० कर्कट=ककड़ी] कंकड़, पत्थर आदि का बहुत छोटा टुकड़ा। किरकिरी।
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किरकिटी  : स्त्री०=किरकिरी (छोटा कण)।
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किरकिन  : पुं० [देश] घोड़े या गधे का चमड़ा। वि० उक्त चमड़े का बना हुआ।
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किरकिरा  : वि० [सं० कर्कट] [स्त्री० किरकिरी] (वस्तु) जिसमें महीन और कड़े कंकड़ बालू के कण या रवे मिले हों। विशेष—किरकिरी वस्तु दाँतों से चबाई जाने पर जोर से किरकिर शब्द करती है और उसे खाना कठिन तथा हानिकर होता है। मुहावरा—मजा किरकिरा हो जाना=रंग में भंग हो जाना। आनंद में विघ्न पड़ना। पुं० लोहारों का बरमा, जिससे वे लोहे में छेद करते हैं।
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किरकिराना  : अ० [हिं० किरकिरा] १. किरकिरे खाद्य पदार्थ का मुंह में किरकिर शब्द करना। २. किरकिरी पड़ने की-सी-पीड़ा करना। ३. दे० ‘किटकिटाना’।
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किरकिराहट  : अ० [हिं० किरकिराना+आहट (प्रत्यय)] १. किरकिरा होने की अवस्था गुण या भाव। २. आँख मुँह आदि में किरकिरी पड़ने के कारण होनेवाली खटक या पीड़ा।
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किरकिरी  : स्त्री० [सं० कर्कर] १. किसी चीज विशेषतः कंकड़, धूल आदि का बहुत छोटा टुकड़ा। कण। २. अपमान। हतक। हेठी।
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किरकिल  : पुं० [सं० कृकलास] गिरगिट। पुं० =कृकल (शरीरस्थ वायु)।
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किरकिला  : पुं० [सं० कृकर] जलाशयों में से मछलियां पकड़र खानेवाली एक छोटी चिड़िया। (किंगफिशर)
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किरकी  : स्त्री० [सं० किंकिणी] एक प्रकार का आभूषण या गहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरखी  : स्त्री०=कृषि (खेती)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरच  : स्त्री० [सं० कृति=कैंची] १. एक प्रकार की छोटी पतली बरछी। २. किसी कड़ी चीज (जैसे—काँच मिट्टी, हीरे आदि) का बहुत छोटा नुकीला टुकड़ा। उदाहरण—कोमल कूकि कै कोकिल कूर करेजिन कौ किरचै करती क्यों।—देव। पद—किरच का गोला=वह गोला जिसके फटने पर अंदर भरे हुए लोहे-शीशे आदि के छोटे-छोटे टुकड़े चारों ओर फैलकर शत्रुओं को घायल कर देते हैं। (सैनिक)।
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किरचिया  : पुं० [देश] बगले की तरह का एक पक्षी।
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किरची  : पुं० [देश] १. एक प्रकार का बढ़िया रेशम। २. रेशम के डोरों का लच्छा। स्त्री०=छोटी किरच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरंटा  : पुं० [अं० किश्चियन] किरानी। मसीही। (उपेक्षा सूचक)
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किरण  : पुं० [सं०√कृ (बिखरना)+क्यु-अन] १. प्रकाश की रेखा। रश्मि। मुहावरा—किरण फूटना=दिन चढ़ना। सूर्योदय होना। २. बादले की झालर या तार।
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किरण-केतु  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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किरण-चित्र  : पुं० [मध्य० स०] किरणों की सहायता से आँखों की पुतलियों पर बननेवाला वह चिन्ह जो किसी चमकीले रंगीन पदार्थ पर से सहसा दृष्टि हटा लेने पर भी कुछ समय तक बना रहता है।
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किरणमाली (लिन्)  : पुं० [किरण-माला, ष० त०+इनि] सूर्य।
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किरत  : भू० कृ०=कृत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किरतम  : पुं० [सं० कृत या कृत्तिम] सांसारिक माया का झगड़ा प्रपंच या बंधन।
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किरतार  : पुं० =करतार।
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किरन  : स्त्री०=किरण।
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किरना  : अ० [सं० कीर्णन] १. किसी चीज में से उसके छोटे-छोटे अंश या कण धीरे-धीरे गिरना। जैसे—छत में से ऊपर का बालू या मिट्टी किरना। २. घार का कुंद या भोथरा होना। जैसे—चाकू की धार किरना। ३. झेंपते हुए अलग या दूर रहना। जैसे—वह मुझ से किरता है। ४. उछलना। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरनारा  : वि० [हिं० किरन+आरा] जिसमें से किरणें निकल रही हों। किरणोंवाला। उदाहरण— कर्निकार कल कुसुम कांति कोमल किरनारे।—रत्ना०।
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किरपन  : पुं० =कृष्ण (कंजूस)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किरपा  : स्त्री०=कृपा।
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किरपान  : स्त्री०=कृपाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किरम  : पुं० [सं० कृमि] १. कीट। कीड़ा। २. किरमिज नामक कीड़ा।
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किरमई  : स्त्री० [सं० कृमि] एक प्रकार की लाख।
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किरमाल  : पुं० =करवाल। (खड्ग या तलवार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किरमाला  : पुं० [अं० कृतमाल]=अमलतास।
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किरमिच  : पुं० [अं० केनवस] एक प्रकार का मोटा बढ़िया कपड़ा जिससे जूते, परदे, बैग आदि बनाये जाते हैं।
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किरमिज  : पुं० [सं० कृमि+ज] [वि० किरमिजी] १. एक प्रकार का मटमैला लाल रंग। किरिमदाने का चूर्ण। हिरमजी। दे० ‘किरिमदाना’। २. किरमिजी या मटमैले रंग का घोड़ा।
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किरमिजी  : वि० [सं० कृमिन्] किरमिज के रंग का। मटमैला। लाल।
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किरयात  : पुं० [सं० किरात] चिरायता।
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किरराना  : अ० [अनु०] १. क्रोध, रोष आदि से दांत पीसना। २. किर्रकिर्र शब्द करना।
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किरवार  : (ा) पुं० [सं० करवाल] खड्ग। तलवार। पुं० [सं० कृतमाल] अमलतास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किरसुन  : वि० पुं० =कृष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किरात  : पुं० [सं० किर√अत्(गमन)+अच्] १. चीनी-तिब्बती वंश के वे लोग जो बारत में आर्यों के आने से पहले हिमालय के पूर्वीय भागों तथा उसके आस-पास के प्रदेशों में आकर बसे थे। २. उक्त प्रदेश का पुराना नाम। ३. जंगली और असभ्य आदमी। ४. बौना। ५. चिरायता। ६. साईस। स्त्री० [अ० केरात] १. जवाहिरात की एक तौल जो लगभग ४ जौ के बराबर होती थी। २. एक बहुत छोटा पुराना सिक्का।
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किरात-पति  : पुं० [ष० त०] शिव।
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किराताशी  : पुं० [सं० किरात√अश् (खाना)+णिनि] गरुड।
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किराति  : स्त्री० [सं० किर√अत्+इन्] १. दुर्गा। २. गंगा।
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किरातिनी  : स्त्री० [सं० किरात+इनि, ङीष्] १. किरात आदि की स्त्री। २. जटामाँसी नामक पौधा।
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किराती  : स्त्री० [सं० किरात+ङीष्] १. किरात जाति की स्त्री। २. दुर्गा। ३. पार्वती। ४. स्वर्ग की गंगा। ५. कुटिनी। ६. रानियों के सिर पर चँवर डोलने वाली स्त्री।
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किरान  : क्रि० वि० [अ, किरान] निकट। पास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किराना  : पुं० [सं० क्रयाणक=क्रय करने के योग्य वस्तु] जीरा, नमक, मिर्च लौंग हल्दी आदि मसाले जो बनिये के यहाँ बिकते हैं। स० [हिं० किराना] हिंदी किरना क्रिया का प्रेरणार्थक और सकर्मक रूप। किसी चीज को किरने में प्रवृत्त करना। जैसे—सूप में अनाज रखकर उसमें से छोटे-छोटे दाना किराना (अर्थात् हिलाते हुए नीचे गिराना)।
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किराना  : स० [सं० कीर्णन] ऐसी क्रिया करना, जिससे किसी चीज में के छोटे-छोटे कण अथवा अंश निकलकर नीचे गिरें। जैसे—सूप में गेहूँ रख कर उसमें से अलसी कंकड़ी आदि किराना। पुं० [?] खाद्य पदार्थों में डाले जानेवाले (जीरा, मिर्च, लौंग, हलदी आदि) मसाले। (थोक और फुटकर बिक्री के विचार से) जैसे—किराना बाजार, किराने के व्यापारी।
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किरानी  : पुं० [अं० क्रिश्चियन] १. ईसाई। मसीही। २. वह व्यक्ति जिसके माँ-बाप में से कोई एक भारतीय और दूसरा युरोपियन हो। किरंटा। ३. कार्यालय में काम करने वाला लिपिक। वि० किरानी लोगों का। जैसे—ऐसी सुन्दर वेषभूषा छोड़कर ये सब क्या किरानी पोशाक करेंगी। -वृंदावनलाल वर्मा।
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किराया  : पुं० [अ० किरायः] १. किसी व्यक्ति की संपत्ति का भोग करने के बदले में उसे दिया जानेवाला धन। २. वह मजदूरी या पारिश्रमिक जो किसी की सेवाओं के उपभोग के बदले में दिया जाता है। भाड़ा। (रेण्ट) जैसे—मकान या सवारी का किराया। पद—किराये का टट्टू=दे भाड़े का ट्टटू।
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किरायेदार  : पुं० [फा० किरायादार] व्यक्ति, जिसने किसी की दूकान या मकान अपने भोग के लिए किराये पर ली हो। भड़ैत।
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किरार  : पुं० [सं० किरात ?] एक छोटी जाति। पुं०=करार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किराव  : पुं० =केराव (मटर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरावल  : पुं० [तु० करावल] १. वह शिकारी जो बंदूक से शिकार खेलता हो। २. वह व्यक्ति जो दूसरों को शिकार खेलाता हो। ३. सेना के आगे-आगे चलनेवाले सिपाही जो शत्रु-सेना के आगमन की थाह लेते रहते हैं।
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किरासन  : पुं० [अं० केरोसीन] मिट्टी का तेल। (खनिज)।
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किरि  : पुं० [सं०√कृ (विक्षेप)+इ] १. सूअर। २. बादल। अव्य [हिं० करना में का कर] मानो। जैसे। उत्प्रेक्षा, दृष्टांत आदि का सूचक शब्द। (राज)। उदाहरण—किरि कठचीज पूतली निजकारी।—प्रिथीराज।
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किरिच  : स्त्री०=किरच।
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किरिन  : स्त्री० किरण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरिम  : पुं० =कृमि।
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किरिमदाना  : पुं० [सं० कृमि+हिं० दाना] १. किरमिज नामक कीड़ा। २. उक्त कीड़ों से बननेवाला किरमिजी रंग।
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किरिया  : स्त्री०=कृपा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरिया  : स्त्री० [सं० क्रिया] १. क्रिया। २. मृतक का क्रिया कर्म। ३. कसम। सौगंध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरिरना  : अ०=किचकिचाना (क्रोध में दाँत पीसना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरिरा  : पुं० =कीड़ा। (खेल) उदाहरण—किरिरा किहैं पाव घनि मोखू।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरीट  : पुं० [सं० कु+ईटन्, कित्] १. प्राचीन भारत में माथे पर बाँधा जानेवाला कोई ऐसा आभूषण जो राजा या विजयी होने का सूचक हेता था। २. मुकुट। ३. एक वर्णवृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में आठ-आठ भगण होते हैं।
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किरीटधारी (रिन्)  : पुं० [सं० किरीट√धृ (धारण करना)+णिनि] राजा।
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किरीटमाली (लिन्)  : पुं० [सं० किरीट-माला, ष० त०+णिनि] अर्जुन।
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किरीटी (टिन्)  : पुं० [सं० किरीट+इनि] १. इंद्र। २. अर्जुन। ३. राजा। वि० जिसके सिर पर कीरटि हो।
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किरीरा  : स्त्री० दे० ‘कीड़ा’। उदाहरण—हँसहिं हंस औं करहिं किरीरा।—जायसी। पुं० =किरण। उदाहरण—सूर परस सों भयउ किरीरा।—जायसी। वि०=करारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किरोध  : पुं० =क्रोध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरोर  : वि० पुं० =करोड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किरोलना  : स० [सं० कर्त्तन] १. कुदेरना। २. खुरचना।
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किरौना  : पुं० [हिं० कीरा+औना (प्रत्यय)] १. छोटा कीड़ा। २. साँप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किर्च  : स्त्री०=किरच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किर्तनिया  : पुं० =कीर्त्तनियाँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किर्म  : पुं० [फा० मि० सं० कृमि] कीड़ा।
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किर्मीर  : पुं० [सं०√कृ+ईरन्, मुट् (नि०)] १. एक राक्षस जिसे भीमसेन ने मारा था। २. चितकबरा रंग। ३. नारंगी का वृक्ष। वि० चितकबरा।
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किर्मीर-जित्  : पुं० [सं० किर्मीर√जि (जीतना)+क्विप्] भीमसेन।
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किर्मीर-निसूदन  : पुं० दे० ‘किर्मीरजित्’।
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किर्मीर-सूदन  : पुं० दे० ‘किर्मीरजित्’।
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किर्रा  : स्त्री० [सं० कीर्ण] एक प्रकार की छेनी जिससे धातुओं पर पत्तियाँ और डालियाँ नकाशी जाती हैं।
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किल  : क्रि० वि० [सं०√किल+क] १. निश्चित रूप से। निश्चय ही। उदाहरण—कै श्रोणित कलित कपाल यह किल कापालिक काल को। -केशव। २. सचमुच। ३. अवश्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किलक  : स्त्री० [हिं० किलकना] १. निकलने की क्रिया या भाव। २. आनंदसूचक शब्द। हर्षध्वनि। किलकार। स्त्री० [फा० किलक] एक प्रकार का बढ़िया नरकट जिससे लिखने के लिए कलमें बनाई जाती हैं।
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किलकना  : अ० [अनु] १. बंदरों का प्रसन्न होने पर जोर-जोर से की-की शब्द करना। २. किलकारी मारना।
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किलकार  : स्त्री० [हिं० किलकना] १. बंदरों का की-की शब्द। २. बहुत प्रसन्न होकर चिल्लाने की क्रिया।
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किलकारना  : अ० [हिं० किलकार से] १. की-की शब्द करना। २. जोर से आवाज करना। चिल्लाना।
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किलकारी  : स्त्री०=किलकार।
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किलकिंचित  : पुं० [सं० किल-किम्-चित्, तृ० त०] साहित्य में संयोग श्रंगार के अन्तर्गत ११ भावों में से एक जिसमें नायिका की एक ही भाव-भंगी से कई भाव एक साथ सूचित होते हैं।
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किलकिल  : स्त्री० [अनु०] १. कलह। तकरार। २. व्यर्थ की कहा-सुनी या बकवाद। स्त्री०=किलकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किलकिला  : स्त्री० [सं०√किल्+क, द्वित्व, टाप्] किलकार। पुं० १. समुद्र की लहरों के टकराने से होनेवाला शब्द। २. प्राचीन कवियों के अनुसार एक समुद्र का नाम। पुं० [सं० कृकल] कौंड़िल्ला की जाति का एक छोटा पक्षी जो जलाशयों में से मछलियाँ पकड़कर खाता है। (किंगफिशर)
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किलकिलाना  : अ० [अनु०] [भाव० किलकिलाहट]=किलकारना।
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किलकी  : स्त्री० [फा० किलक=नरकट या कलम] बढ़इयों का एक औजार जिससे वे काष्ठ पर निशान लगाते हैं। स्त्री० [हिं० किलकना] १. किलकने की क्रिया या भाव। २. बेचैनी। विकलता। उदाहरण—धुनि सुनि कोकिल की बिरहिन को किलकी।—सेनापति।
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किलकैया  : पुं० [देश] चौपायों के खुरों में होनेवाला एक रोग। पुं० [हिं० किलकना] किलकने वाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किलचिया  : पुं० [देश] एक प्रकार का छोटा बगला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किलना  : अ० [हिं० कील] १. कीलों से जकड़ा जाना। कीला जाना। २. वश में किया जाना। ३. गति का रोका जाना। ४. प्रभाव का रोका या बन्द किया जाना। उदाहरण—विरह सर्प फिर तो स्वयं किला।—मैथिलीशरण।
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किलनी  : स्त्री० [सं० कीट, हिं० कीड़] एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो पशुओं के शरीर में चिपटा रहता है और उनका रक्त पीता है। किल्ली। (टिक)।
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किलबिलाना  : अ०=कुलबुलाना।
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किलमिख (ष)  : पुं० =कल्मष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किलमी  : पुं० [?] जहाज का पिछला खंड या भाग। २. उक्त खंड के मस्तूल का पाल।
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किलमोश  : पुं० [देश] दारुहल्दी नामक पौधा।
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किललाना  : अ०=चिल्लाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किलवा  : पुं० [देश] बड़ी कुदाल या फावड़ा। (रुहेलखंड)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किलवाई  : स्त्री० [देश] लकड़ी का बना हुआ एक प्रकार का छोटा फावड़ा। फरुई।
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किलवाँक  : पुं० [देश] काबुल देश के घोड़ो की एक जाति।
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किलवाना  : स० [हिं०कीलना] कीलने का काम किसी से कराना। (दे० ‘कीलना’)।
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किलवारी  : स्त्री० [सं० कर्ण] वह डाँडा जिससे छोटी नावों में पतवार का काम लिया जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किलविष  : पुं० =किल्विष।
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किलविषी  : वि० [सं० किल्विषी] १. अपराधी। २. पापी। ३. रोगी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किलसना  : अ० [सं० क्लेश] १. क्लेश से युक्त होना। कष्ट पाना या भोगना। २. मन में दुःखी होना। कुढ़ना। उदाहरण—साथ कहे रे बालका मत किलसै जी खोय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किलहँटा  : पुं० [पा० गिलाट या हिं० कलह ?] [स्त्री० किलहँटी] एक प्रकार की काली चिड़िया जो आपस में बहुत लड़ती है। सिरोही।
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किला  : पुं० [अ० किलऽ] १. वह बहुत बड़ी इमारत जो ऊँची-दीवारों गहरी खाइयों आदि से घिरी होती है और जिसमें प्राचीन काल तथा मध्य युग में सेनाएँ सुरक्षित रहकर रक्षात्मक युद्ध लड़ा करती थीं। गढ़। दुर्ग। (फोर्ट)। मुहावरा—किला टूटना=बहुत बडी़ अड़चन या कठिनता का दूर होना। दुःसाध्य या विकट कार्य पूरा होना। किला फतेह करना=कोई बहुत कठिन या दुस्साध्य काम पूरा करना। खिला बाँधना=(क) शतरंज के खेल में बादशाह को कुछ मुहरों के बीच में इस प्रकार रखना कि उसे शह न लग सके। (ख) चारों ओर से अपनी रक्षा का पूरा प्रबंध करना। २. कोई बहुत बड़ी, मजबूत तथा सुरक्षित इमारत।
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किलाना  : स०=किलवाना।
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किलाब  : पुं० =कलाप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किलाबंदी  : स्त्री० [फा०] १. शत्रु के आक्रमण के समय किले की सुरक्षा के लिए की जानेवली व्यवस्था। सुरक्षात्मक काररवाई। २. व्यूह-रचना। मोरचाबन्दी। ३. शतरंज के खेल में बादशाह को मोहरों से घेर कर इस प्रकार सुरक्षित रखना कि विपक्षी जल्दी मात न कर सके।
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किलावा  : पुं० [फा० कलाव, मि० सं० कलाप] १. तकली पर लिपटा हुआ सूत का लच्छा। २. हाथी के गले में पड़ी हुई वह रस्सी जिसे महावत पैरों में फँसाकर हाथी को चलाता है। ३. हाथी के कंधे जिन पर महावत बैठता है। ४. सुनारों का एक प्रकार का औजार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किलिक  : स्त्री० [फा० किलक] नरकट की जाति का एक पौधा, जिसकी डंठी से देशी चाल की कलम बनती है। पुं०=किल्क।
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किलेदार  : पुं० [अ०+फा०] किले का प्रधान अधिकारी।
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किलेदारी  : स्त्री० [अ०+फा०] किलेदार का कार्य या पद।
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किलेबन्दी  : स्त्री०=किलाबन्दी।
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किलोमीटर  : पुं० [अ०] दूरी की एक माप जो प्रायः ३ २८॰ फुट या एक मील के पंच-अष्टमांश के बराबर होती है।
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किलोर (ल)  : पुं० =कलोल।
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किलौनी  : स्त्री०=किलनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किल्लत  : स्त्री० [अ०] १. किसी वस्तु के कम मात्रा में मिलने या होने की अवस्था या भाव। कमी। अल्पता। २. कठिनता या कठिनाई से मिलने का भाव। दुर्लभता। ३. तंगी। ४. संकोच।
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किल्ला  : पुं० [सं० कील, कीलक] [स्त्री० किल्ली] १. जमीन में गाड़ा हुआ लकड़ी लोहे आदि का खूँटा जिसमें गाय, बैल आदि के गले में पहनाई हुई रस्सी बाँधी जाती हैं। कीला। मुहावरा—किल्ला गाड़ कर बैठना=(क) अटल होकर बैठना। (ख) हठ ठानना। २. लकड़ी की वह मेख जो जांते के बीचो बीच गड़ी रहती है और जिसके चारों ओर जाँचा घूमता है। कील। ३. दे० ‘कीला’।
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किल्लाना  : अ०=किलकारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किल्ली  : स्त्री० [हिं० कील] १. छोटा किल्ला या मेख। २. दीवारों में गाड़ी हुई लकड़ी आदि की खूँटी जिस पर कपड़े छिक्के आदि टाँगे जाते हैं। ३. मेख। ४. सिटकिनी। ५. किसी कल या पेंच का वह पुरजा या मुठिया जिसे घुमाने से वह चले। मुहावरा—किल्ली ऐंठना घुमाना या दबाना=(क) दाँव या पेंच चलाना। युक्ति लगाना। (ख) किसी को काम करने के लिए उत्तेजित या प्रवृत्त करना।
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किल्विष  : पुं० [सं०√किल्+टिषच्, वुक्, आगम] १. पाप। २. अपराध। दोष। ३. धोखा। ४. रोग। ५. विपत्ति।
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किल्विषी (षिन्)  : वि० [सं० किल्विष+इनि] १. पापी। २. अपराधी। ३. छली। ४. रोगी। ५. विपत्ति का मारा।
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किंवा  : अव्य० [किम्० वा० द्व० स०] या। अथवा।
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किवाँच  : पुं० =कौंछ।
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किवाट  : पुं० =कपाट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किवाड़  : (ा) पुं० [सं० कपाटम्, प्रा० मरा० कवाड़, गु० कमाड़, बं० उ० कवाट] [स्त्री० अल्पा० किवाड़ी] लकड़ी टिन या लोहे का बना हुआ दरवाजे का पल्ला, जो चौखट के साथ कब्जे आदि के द्वारा जकड़ा जाता है। पट। कपाट। मुहावरा—किवाड़ देना, भिड़ाना या लगाना=दरवाजा बन्द करना।
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किवाम  : पुं० =किमास (अवलेह)।
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किवार  : (ा) पुं० =किवाड़।
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किशनतालू  : पुं० [सं० कृष्ण तालु] काले तालूवाला हाथी (महावत)।
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किशमिश  : स्त्री० [फा०] [वि० किशमिशी] सुखाया हुआ छोटा बेदाना, अंगूर या दाख जिसकी गिनती मेवों में होती है।
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किशमिशी  : वि० [फा०] १. जिसमें किशमिश पड़ी हो। किसमिश से संबंधित। २. किशमिश से बननेवाला। जैसे—किशमिशी शराब। ३. किशमिश के रंग या स्वाद का। पुं० एक प्रकार का अमौआ रंग जो किशमिश के रंग की तरह का होता है।
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किशलय  : पुं० =किसलय।
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किंशुक  : पुं० [किम्० शुक, उपमित० स०] पलाश का पौधा या उसका फूल जिसका रंग गहरा लाल होता है।
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किशोर  : पुं० [सं०√कश् (शब्द)+ओर (नि०)] [स्त्री० किशोरी] १. ऐसा बालक जिसकी अवस्था अभी पन्द्रह वर्ष से कम हो। २. विधिक दृष्टि से ऐसा बालक जो अभी बालिग या वयस्क न हुआ हो। ३. पशु का छोटा बच्चा। ४. सूर्य। वि० बाल्यावस्था और युवावस्था के बीच का। (एडोलेसेंट)।
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किशोरक  : पुं० [सं० किशोर+कन्] छोटा बालक। बच्चा।
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किशोरी  : स्त्री० [सं० किशोर+ङीष्] १. बालिका। २. कुआँरी लड़की। ३. सुन्दर युवती।
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किश्त  : स्त्री० [फा०] १. कृषि-कर्म। खेती बारी। २. शतरंज के खेल में बादशाह का किसी मोहरे के घात में पड़ना। स्त्री०=किस्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किश्तवार  : पुं० [फा० किश्त=खेत+वार (प्रत्यय)] वह खाता या बही, जिसमें खेतों के क्षेत्रफल आदि का विवरण रहता है।
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किश्ती  : स्त्री० [फा० कश्ती] १. नाव। नौका। २. एक प्रकार की छिछली और लंबी तश्तरी। ३. शतरंज का एक मोहरा, जिसे हाथी भी कहते हैं।
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किश्तीनुमा  : वि० [फा०] किश्ती की तरह लंबोतरा। जिसके दोनों किनारे टेढ़े या धन्वाकार हों। जैसे—किश्तीनुमा टोपी।
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किष्किंध  : पुं० [सं० कि० कि√धा (धारण)+क, सुट्, षत्व, मलोप] १. मैसूर के आसपास के प्रदेश का पुराना नाम। २. एक पर्वत जो उत्तर प्रदेश में है।
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किष्किंधा, किष्किध्या  : स्त्री० [सं० किष्किन्ध+टाप्] [किष्किंन्ध,+यत्-टाप्] १. किष्किन्ध प्रदेश की राजधानी। २. किष्किन्ध पर्वत श्रेणी।
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किस  : सर्व० वि० [सं० किम्० से] कौन और क्या का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने के समय प्राप्त होता है। जैसे—किसका किसने आदि। क्रि० वि० [हिं० कैसे] किस प्रकार। (क्व०)
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किसन  : वि० पुं० =कृष्ण।
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किसनई  : स्त्री० [हिं० किसान+इनि (प्रत्यय)] किसान का काम। खेती-बारी।
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किसब  : पुं० =कसब।
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किसबत  : पुं० [अं०] वह छोटी थैली जिसमें नाई अपने उस्तरे, कैंची आदि रखते हैं।
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किसमत  : स्त्री०=किस्मत (भाग्य)।
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किसमिस  : स्त्री०=किशमिश।
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किसमी  : पुं० [अ० कसबी] श्रमजीवी। मजदूर। (राज०)।
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किसल, किसलय  : पुं० [सं० किम्√सल् (गति)+कयन्, पृषो० सिद्धि] पेड़-पौधों आदि में से निकलनेवाले छोटे नये पत्ते। कोमल पत्ता। कल्ला।
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किसान  : पुं० [सं० कृषाण, पं० मरा० किसाण] [भाव० किसानी] १. वह जो खेती-बारी का काम करता हो। खेतों को जोतने उनमें बीज बोने होने वाली फसल आदि का काम करनेवाला व्यक्ति। २. रहस्य० संप्रदाय में शरीर की इंद्रियाँ जो पाप-पुण्य करके बुरे-भले फल प्राप्त करती हैं।
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किसानी  : वि० १. =कृषि संबंधी। २. किसान संबंधी।
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किसिम  : स्त्री०=किस्म।
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किसी  : सर्व० [हिं० किस+ही०] ‘कोई’ का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने पर प्राप्त होता है जैसे—किसी आदमी को वहाँ भेज दो। वि ‘कोई’ का वह रूप जो विभक्ति लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—यह तो किसी काम का नहीं है। पद—किसी-न-किसी=यदि एकत नहीं तो दूसरा। कोई एक। जैसे—किसी-न-किसी ने तो किताब उठाई ही है।
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किसु  : सर्व० १. =किस० २. =किसका। ३. =किसको। किसे।
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किंसुख  : पुं० =किंशुक।
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किसुन  : पुं० =कृष्ण।
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किसोरक  : पुं० =किशोरक। (छोटा बच्चा या बालक) उदाहरण—ससिहिं चकोर किसोरक जैसे।—तुलसी।
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किसौ  : सर्व० [सं० किदृश, प्रा० किसउ]=किस। उदाहरण—वयण डेडराँ किसौ वस।—प्रिथीराज।
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किस्त  : स्त्री० [अ० किस्त] १. ऋण के भुगतान करने की वह प्रणाली जिसके अनुसार ऋणी को कुछ निश्चित अवधियों में ऋण को बराबर कई खंडों में चुकाना पड़ता है। २. ऋण या देय का उतना अंश जितना किसी एक अवधि में चुकाया या दिया जाय या चुकाये जाने को हो। ३. किसी वस्तु की प्राप्य कुल मात्रा का वह अंश जो किसी एक अवधि या समय में दिया या लिया जाय। (इन्स्टालमेन्ट)।
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किस्तबंदी  : स्त्री० [फा०] किस्त के रूप में अर्थात् कई बार में थोड़ा-थोड़ा करके देन आदि चुकाने या वसूल करने की प्रणाली।
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किस्तवार  : क्रि० वि० [फा०] १. किस्तों के रूप में। किस्त-किस्त करके। २. हर किस्त पर अलग-अलग।
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किस्ती  : वि० [अ०] किस्त-संबधी, किस्त का। स्त्री० दे० ‘किस्त’।
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किस्बत  : स्त्री० [अ०] १. पहनने के वस्त्र। २. कपड़े की बनी हुई वह थैली जिसमें दरजी हज्जाम आदि अपने औजार रखते हैं।
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किस्म  : स्त्री० [अ०] १. एक ही आकार-प्रकार के जीवों, वस्तुओं आदि का वह वर्ग या अंश जो कुछ या कई—गुणों अथवा दृष्टियों से एक कोटि या श्रेणी का माना जाता हो। प्रकार। जैसे—इन दोनो देशों के रीति-रिवाज एक ही किस्म के हैं। २. ढंग। तरीका।
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किस्मत  : स्त्री० [अ०] १. ‘तकसीस’ होने या बाँटे जाने की क्रिया या भाव। बँटवारा। विभाजन। २. प्रयत्न। भाग्)। मुहावरा—किस्मत आजमाना=कोई प्रयत्न करके यह देखना कि इससे हमें यथेष्ट लाभ होता है कि नहीं। किस्मत खुलना=सुख-सौभाग्य आदि का समय या स्थिति। किस्मत चमकना=सुख-सौभाग्य आदि की स्थिति आना। किस्मत जागना=कष्ट के दिन बीत जाने पर अच्छे और सुख-सौभाग्य के दिन आना। किस्मत फूटना-भाग्य का इतना मन्द हो जाना कि सब प्रकार के सुखों या सौभाग्य का अन्त हो जाय। किस्मत लड़ना=(क) ऐसी स्थिति में होना जिसमें भाग्यवान् और अभागे होने की परीक्षा हो। (ख) सुख और सौभाग्य का समय आना। पद—किस्मत का धनी=बहुत बड़ा भाग्यवान्। किस्मत का फेर=ऐसी स्थिति जिसमें भाग्य मंद पड़ जाय और सुख-सौभाग्य उतार पर हो। किस्मत का बदा या लिखा=वह जो कुछ अपने प्रारब्ध या भाग्य पर हो। किस्मत का हेठा=अभागा, भाग्यहीन। ३. किसी राज्य का वह भाग जिसमें कई जिले हों और जो एक कमिश्नर के अधीन हो। कमिश्नरी।
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किस्मतवर  : वि० [फा०] भाग्यवान्। भाग्यशाली।
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किस्सा  : पुं० [अं०] १. कोई कल्पित घटना या मनगढंत बात, जो विवरणात्मक रूप में कहीं बतलाई या लिखी जाय। कहानी। पद—किस्सा कोताह=सारांश यह कि। थोड़े में यह कि। ३. समाचार। हाल। ४. घटनाओं की परम्परा। जैसे—तुमने तो एक ही बात में सारा किस्सा खतम कर दिया। मुहावरा—किस्सा पाक होना=(बात या व्यक्ति का) अंत या समाप्ति होना। ५. झगड़ा। बखेड़ा।
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किह  : सर्व० १. =किस। (पू० हिं०)। उदाहरण—दादू ऐसा परम गुरु पाया किह संजोग।—दादू दयाल। २. कौन। अव्य०=कहाँ।
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किहनी  : स्त्री०=कहानी। (कथा) उदाहरण—साखी सबदी दोहरा कहि किहनी उपखान।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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किहि  : सर्व० [सं० किम् से] १. किसी को। उदाहरण—किहि करगि कुमकुमों कुंकुम किहि करि।—प्रिथीराज। २. किसको। ३. किसने।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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किहिन  : सर्व० वि०=किस। उदाहरण—किहिन वंस पृथिराज, उपजि जंपहि वड पंडिय।—चंदबरदाई।
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की  : विभ० [हिं०] संबंधकारक का चिन्ह का स्त्री रूप। अव्य० १. अथवा। कि। या तो। २. क्या। उदाहरण—बाँको गढ़ भड़ बाँकड़ा हलो किया की होय।—बाँकीदास। स० हिं० भूतकालिक क्रिया ‘किया’ का स्त्री० रूप।
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कीक  : पुं० [अनु०] १. चीत्कार। चिल्लाहट। २. शोर-गुल।
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कीकट  : पुं० [सं० की√कट् (गति)+अच्] [स्त्री० कीकटी०] १. मगधप्रदेश का प्राचीन वैदिक नाम। २. [कीकट+अच्] उक्त देश में बसनेवाली प्राचीन अनार्य जाति। ३. घोड़ा। वि० १. गरीब। निर्धन। २. कृपण। कंजूस। ३. लालची। लोभी।
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कीकना  : अ० [अनु०] १. रोते हुए बच्चों का की-की शब्द करना। २. चीत्कार करना। चिल्लाना।
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कीकर  : पुं० [सं० किकराल]=बबूल (वृक्ष)।
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कीकरी  : स्त्री० [हिं० कीकर] १. एक प्रकार का कीकर या बबूल जिसकी पत्तियाँ बहुत छोटी होती है। २. कपड़ों में सजावट के लिए की जानेवाली एक प्रकार की सिलाई, जिसमें कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर लहरियादार कँगूरे बनाये जाते हैं।
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कीकश  : पुं० [सं० की√कश् (गति)+अच्] चांडाल।
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कीकस  : वि० [सं० की√कस् (गति)+अच्] १. कठिन। २. कठोर। पुं० १. हड्डी। २. एक प्रकार का कीड़ा।
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कीका  : पुं० =कीकान।
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कीकान  : पुं० [सं० केकाण (देश)] १. भारत के पश्चिमोत्तर भाग का एक प्रदेश जो किसी समय घोड़ों के लिए प्रसिद्ध था। २. उक्त प्रदेश का घोड़ा। ३. घोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीच  : पुं० =कीचड़।
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कीचक  : पुं० [सं० की√चक् (तृप्ति)+अच्] १. खोखला या पोला बाँस। २. राजा विराट का साला जो उसका सेनापति भी था।
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कीचड़  : पुं० [हिं० कीच+ड़ (प्रत्य)] १. किसी स्थल पर पानी, मिट्टी आदि के जमा होने पर बननेवाला गाढ़ा घोल। कर्दम। पंक। मुहावरा—(किसी पर कीचड़ उछालना=किसी को अपमानित करने के लिए उसके संबंध में इधर-उधर की झूठी-सच्ची निंदात्मक बातें कहना। २. किसी तरल वस्तु में का गाढ़ा मल। जैसे—(क) आँख का कीचड़। (ख) तेल का कीचड़। ३. विपत्ति या संकट की स्थिति। मुहावरा—कीचड़ में फसना=विपत्ति या संकट में पड़ना।
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कीचा  : पुं० =कीच (कीचड़)।
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कीट  : पुं० [सं०√कीट् (बनधन)+अच्] जमीन पर रेंगनेवाले बिना हाथ-पैर के छोटे-छोटे जंतु। कीड़े। पद—कीट-पतंग=रेगने और उड़नेवाले कीड़े। पुं० [सं० प्रा० किट्ट, उ० किटकिट, मरा० सिं० कीट, गु० कीटू] किसी चीज पर जमा हुआ मैल।
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कीट-नाशक  : वि० [ष० त०] कीड़ों कीटाणुओं आदि को नष्ट करनेवाला (पदार्थ)।
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कीट-भृंग-न्याय  : पुं० [सं० कीच-भृंग, मय० स० कीटभृंग-न्याय, ष० त०] दो या अधिक वस्तुओं का उसी प्रकार मिलकर एक रूप हो जाना जिस प्रकार भौंरा किसी कीड़े को पकड़कर (लोक प्रवाद के अनुसार) उसे बिलकुल अपनी तरह का बना लेता है।
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कीट-भोजी (जिन्)  : पुं० [सं० कीट√भुज् (खाना)+णिनि, उप० स०] ऐसे जीव-जन्तु या पौधे जो कीड़े-मकोड़ो का भक्षण करते हों। (इन्सेक्टिवोरस)
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कीट-मणि  : पुं० [अपमि० स०] खद्योत। जुँगनू।
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कीट-विज्ञान  : पुं० [मध्य० स०] वह विज्ञान जिसमें कीड़ो मकोड़ो की नसलों आदि के संबंध में अध्ययन किया जाता है। (एन्टामालोजी।
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कीटक  : पुं० [सं० कीट+कन्] १. कीड़ा। २. मगध की एक प्राचीन जन-जाति।
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कीटज  : वि० [सं० कीट√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. कीड़ों से निकला या बना हुआ। २. कीड़ो द्वारा बनाया हुआ। पुं० रेशमी कपड़ा।
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कीटाण  : पुं० [सं० कीट-अणु, स० त०] ऐसे सूक्ष्म कीड़े जो कई प्रकार के रोगों के मूल कारण माने जाते हैं। (जर्म्स)।
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कीटिका  : स्त्री० [सं० कीट+कन्, टाप्, इत्व] १. छोटा कीड़ा। २. तुच्छ या हीन प्राणी।
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कीड़ना  : अ० [सं० कीड़न] कीड़ा करना। खेलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कीड़ा  : पुं० [सं० कीट, प्रा० कीड़] [स्त्री० कीड़ी] १. ऐसे छोटे-छोटे जन्तु जो जमीन पर रेगते और पंख होने पर आकाश में उड़ते हैं। ये प्रायः वनस्पतियों, कपड़ों आदि को खा जाते हैं। मुहावरा—(किसी चीज में) कीड़े पड़ना=किसी पदार्थ अथवा शरीर के किसी अंग का सड़-गल कर इतनी बुरी दशा में होना कि उसमें कीड़े उत्पन्न होने लगे। २. साँप। ३. लाक्षणिक अर्थ में किसी वस्तु का बिलकुल आरंभिक और बहुत छोटा रूप।
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कीड़ी  : स्त्री० [हिं० कीड़ा] १. छोटा कीड़ा। २. च्यूँटी।
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कीता  : भू० कृ० [सं० कृत] किया हुआ। स० हिं० ‘करना’ क्रिया का पुराना भूतकालिक रूप। किया। (पश्चिमी हिंदी)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीती  : स्त्री० १. कृति। उदाहरण—जासु सकल मंगलमय कीती।—तुलसी। २. कीर्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कीदहुँ  : अव्य०=किधौं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीनखाब  : पुं० =कमखाब। (कपड़ा)।
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कीनना  : स० [सं० कीणन] क्रय करना। खरीदना।
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कीना  : पुं० [फा० कीनः] मन में किसी के प्रति होनेवाला दुर्भाव। द्वेष। दुश्मनी।
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कीनाश  : पुं० [सं०√क्लिश् (कष्ट दोना)+कन्, ईत्व, ‘ल’ का लोप, ‘ना’ का आगम] १. यमराज की एक उपाधि। २. एक प्रकार का बन्दर। ३. किसान। खेतिहर। ४. कसाई। बधिक।
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कीनास  : पुं०=कीनाश।
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कीनिया  : वि० [फा० कीना] १. जिसके मन में किसी के प्रति कीना या द्वेष हो। २. कपटी। धोखेबाज। छली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीप  : स्त्री० [अ, कीफ] १. वह गावदुम चोंगी जिसकी सहायता से किसी तंग मुंहवाले बरतन में कोई तरल पदार्थ ढाला या भरा जाता है। २. इंजन या कल-कारखाने की चिमनी, जो उक्त आकार की होती है।
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कीमत  : वि० [अ०] [वि० कामती] १. किसी वस्तु को क्रय करने के लिए दिया जानेवाला धन। दाम। मूल्य। महत्त्व।
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कीमती  : वि० [अ०] १. अधिक कीमत या मूल्य का। मूल्यवान्। २. महत्त्वपूर्ण। जैसे—कीमती दस्तावेज।
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कीमा  : पुं० [अ० कीमा] १. खाने या पकाने के लिए मांस के काट-काट कर बहुत छोटे किये हुए टुकड़े। २. उक्त कटे हुए मांस को पकाकर बनाया हुआ व्यंजन।
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कीमिया  : स्त्री० [अ०] १. मध्ययुग में पश्चिमी एशिया और पूर्वी यूरोप में प्रचलित वह रासायनिक प्रक्रिया जो लोहे ताँवे आदि सस्ती धातुओं को सोने के रूप में परिवर्तित करनेवाले तत्त्व या पदार्थ की खोज के लिए की जाती थी। २. रसायन। ३. कोई ऐसी युक्ति जिसे कोई बड़ा उद्देश्य बहुत सहज में सिद्ध हो जाय। रामबाण।
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कीमियागर  : पुं० [अ०+फा] १. कीमिया या रसायन तैयार करनेवाला व्यक्ति। २. ताँबे,लोहे आदि को सोने में परिवर्तन करनेवाला व्यक्ति।
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कीमुख्त  : पुं० [अ०] गधे या घोड़े का चमड़ा,जो सिझाने पर कुछ हरे रंग का और दानेदार होता है।
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कीर  : पुं० [सं० की√ईर् (गति)+णिच्+अच्] १. तोता। शुक। २. बहेलिया। व्याध। ३. कश्मीर देश का एक नाम। ४. कश्मीर का निवासी।
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कीरतन  : पु०=कीर्तन।
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कीरतनिया  : पुं० [हिं० कीरतन-कीर्तन] वह जो प्रायः बजन आदि करता रहता हो, अथवा कीर्तन करने का व्यवसाय करता हो। कीर्त्तनकार।
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कीरति  : स्त्री०=कीर्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कीरति-कुमारी  : स्त्री०=राधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कीरा  : पुं० [स्त्री० कीरी]=कीड़ा।
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कीरात  : पुं० [अ०] चार जौ की एक तौल, जो प्रायः हीरे, जवाहरात और सोना तौलने के काम आती है। किरात। (कैरट)।
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कीरी  : स्त्री० कीर (व्याध) जाति की स्त्री। स्त्री०=कीड़ी (छोटा कीड़ा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीर्ण  : वि० [सं०√कृ (विक्षेप)+क्त] १. फैला या बिखेरा हुआ। २. ढका हुआ। ३. धरा या पकड़ा हुआ। ४. ठहरा हुआ। स्थित। ५. चोट खाया हुआ। आहत।
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कीर्तिदा  : स्त्री०=यशोदा (कृष्ण की माता)।
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कीर्तिवंत  : वि०=कीर्त्तिमान्।
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कीर्त्तन  : पु० [सं०√कृत्+ल्युट-अन, इत्व, दीर्घ] १. किसी के गुण, यश आदि का बार-बार या बराबर किया जानेवाला कथन या बखान। यशोवर्णन। गुण-कथन। २. ईश्वर या देवता के नाम और यश का बार-बार विशेषतः गाते-बजाते हुए किया जानेवाला कथन।
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कीर्त्तनकार  : पुं० [सं० कीर्त्तन√कृ (करना)+अण्] वह जो गा-बजाकर ईश्वर या देवताओं का कीर्त्तन करता हो। कीरतनिया।
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कीर्त्तनिया  : पुं०=कीरतनिया (कीर्त्तनकार)।
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कीर्त्ति  : स्त्री० [सं०√कृत्+इन् वा क्तिन्, इत्व, दीर्घ] १. पुण्य। २. किसी की वह ख्याति बड़ाई या यश जो उसे बहुत अच्छे और बड़े-बड़े काम करने पर प्राप्त होता है, और प्रायः अधिक समय तक बना रहता है। ३. वह अच्छा या बड़ा काम जिससे किसी के बाद उसका नाम हो। ४. दक्ष की एक कन्या, जो धर्म को ब्याही थी। ५. एक मातृका का नाम। ६. राधा की माता का नाम। ७. छन्द। ८. चमक, दीप्ति। ९. विस्तार। १॰. प्रसाद। ११. आर्या छन्द का एक भेद। १२. एक दस अक्षरों का वृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में तीन सगण और एक गुरु होता है। १३. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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कीर्त्ति-शेष  : वि० [ब० स०] इस संसार में अब जिसकी कीर्ति ही शेष रह गयी हो और कुछ न रह गया हो। जो कीर्ति छोड़कर नष्ट या समाप्त हो चुका हो।
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कीर्त्ति-स्तंभ  : पुं० [मध्य० स०] १. वह स्तंभ या वास्तु-रचना जो किसी की कीर्ति का स्मरण कराने और उसे स्थायी रखने के लिए बनाई गई हो। २. वह कृति जिससे किसी की कीर्ति बहुत दिनों तक बनी रहे। (मॉन्यूमेन्ट)।
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कीर्त्तित  : भू० कृ० [सं०√कृत्+क्त, इत्व, दीर्घ] १. जो कहा गया हो या जिसका वर्णन हुआ हो। कथित। वर्णित। २. जिसका या जिसके संबंध में कीर्त्तन हुआ हो। ३. प्रशंसित और प्रसिद्ध।
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कीर्त्तिमंत  : वि०=कीर्त्तिमान्।
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कीर्त्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० कीर्ति+मतुप्] १. जिसकी बहुत अधिक कीर्ति या यश हो। यशस्वी। २. जिसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली हो। प्रसिद्ध। मशहूर।
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कीर्त्तिवान्  : वि०=कीर्त्तिमान्।
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कीर्त्तिशाली (लिन्)  : वि० [सं० कीर्ति√शल् (गति)+णिनि] जिसकी विशेष कीर्त्ति हो। कीर्त्तिमान्।
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कील  : स्त्री० [सं०√कील् (ठोंकना, बाँधना आदि)+घञ्] १. लकड़ी, लोहे आदि का कोई ऐसा गोलाकार, लंबोतरा नुकीला टुकड़ा जो गाड़ने, फँसाने आदि के लिए बनाया गया हो। मेख। पद—कील-काँटा=किसी कार्य के संपादन के लिए आवश्यक उपकरण या उपयोगी सामग्री। जैसे—अब चट पट कील काँटे से लैस होकर चल पड़ो। २. कोई गोलाकार लंबोतर नुकीली चीज। जैसे—(क) कान या नाम में पहनने की कील या फूल। (ख) फुंसी या फोड़े के मुँह पर अड़ी हुई पीब की कील। (ग) मुहासे की मांस-कील। (घ) चक्की या जांते के बीच में लगी हुई कील या खूँटी। (ङ) कुम्हार के चाक में की कील आदि। ३. वैद्यक में, वह मूढ़-गर्भ जो योनि के मुँह पर आकर अटक गया हो। ४. कामशास्त्र में, स्त्री-प्रसंग का एक प्रकार का आसन। कीलासन। ५. आग की लपट। अग्नि-शिखा। ६. माला। ७. खंभा। ८. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ९. शिव का एक नाम। १॰. हाथ की कोहनी या उससे किया जानेवाला आघात। स्त्री० [देश] असम देश में होनेवाली एक प्रकार की देव-कपास। खुंगी।
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कील-मुद्रा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०]=कीलाक्षर। (लिपि)।
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कीलक  : वि० [सं०√कील्+ण्वुल-अक] १. कीलन करनेवाला। २. कीलनेवाला। पुं० १. बड़ी कील या काँटा। २. गौएँ आदि बाँधने का खूँटा। ३. ऐसा यंत्र या साधन, जो किसी का प्रभाव या शक्ति रोककर उसे व्यर्थ कर दे। ४. ज्योतिष में ६॰ संवत्सरों में से बयालीसवाँ संवत्सर। ५. मंच का मध्य भाग। ६. एक तांत्रिक देवता। ७. दुर्गा सप्तशती का पाठ करने के समय पढ़ा जानेवाला एक स्तव या स्त्रोत। ८. एक प्रकार के केतु या पुच्छल तारे।
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कीलन  : पुं० [सं०√कील्+ल्युट-अन] १. कील लगाकर बाँधने या रोकने की क्रिया या भाव। २. किसी क्रिया, गति या शक्ति को पूरी तरह से निष्फल या व्यर्थ करना। ३. वह उपचार जिससे किसी मंत्र की शक्ति रोककर व्यर्थ कर दी जाती है।
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कीलना  : स० [सं० कीलन] १. किसी चीज में कील अथवा कील जैसी कोई नुकीली वस्तु गाड़ना या ठोंकना। २. दो वस्तुओं को जोड़ने के लिए उसमें कील आदि ठोंकना। ३. कील आदि ठोंककर किसी चीज का मुँह बन्द करना। जैसे—तोप में कुंदा कीलना, बोतल में काग कीलना। ४. किसी की आगे बढ़ती हुई गति या शक्ति को बीच में रोकना। जैसे—मंत्र-बल से साँप को कीलना। उदाहरण—जानत हौं कलि तेरेऊ मनु-गन कीले।—तुलसी। ५. बहुत सी चीजों को एक में बाँधना, मिलाना या लगाना। उदाहरण—आधा बाजा, आधा गोला। सब को लेकर एक में कीला।—‘दफ्तर’ की पहेली।
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कीला  : पुं० [सं० कील] [स्त्री० अल्पा० कीली] १. बड़ी और मोटी। कील। जैसे—चक्की या चाक में का कीला। २. अर्गल। ब्योंड़ा।
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कीलाक्षर  : पुं० [सं० कील-अक्षर, मध्य० स०] एक प्रकार की बहुत पुरानी लिपि, जिसके अक्षर देखने में कील या काँटे के आकार-प्रकार के होते थे और जो किसी समय अक्कड़, असुरिया, ईरान बैबिलोन आदि देशों में प्रचलित थी। (क्यूनिफार्म)।
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कीलाल  : पुं० [सं० कील√अल् (गति)+अण्] १. पुराणानुसार देवताओं का एक पेय पदार्थ जो अमृत की तरह का कहा गया है। २. अमृत। ३. जल। पानी। ४. मधु। शहद। ५. खून। रक्त। ६. जानवर। पशु। वि० बन्धन काटने या दूर करनेवाला।
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कीलालप  : पुं० [सं० कीलाल√पा (पीना)+अण्] १. राक्षस। २. भ्रमर। भौंरा।
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कीलिका  : स्त्री० [सं० कील+कन्, टाप्, इत्व] १. वैद्यक में मनुष्य के शरीर की कुछ विशिष्ट हड्डियों, जो ऋषभ और नाराच से भिन्न प्रकार के स्नायुओं में बँधी हुई कही गई हैं। २. एक प्रकार का तीर या बाण।
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कीलित  : भू० कृ० [सं०√कील्+क्त] १. जिसमें कीलें जड़ी या लगी हो। २. जिसका प्रभाव या शक्ति किसी युक्ति से बाँध या रोक दी गई हो। जैसे—मंत्र-बल से कीलित सर्प।
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कीलिया  : पुं० [हि० कील] वह जो पुर या मोट चलाने के समय बैलों को हाँकता हो। पैरहा।
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कीली  : स्त्री० [सं० कील] १. छोटा कीला या खूँटा। २. किसी चक्र के बीच वाले छेद में लगी हुई कील या डंडा जिसके सहारे या चारों ओर वह चक्र घूमता है। ३. किसी प्रकार की वह केन्द्रीय शक्ति, जिसके बल पर उसके ऊपर बनी या लगी हुई चीज गोलाकार घूमती हो। धुरी। (एक्सिम) जैसे—पृथ्वी रात-दिन में एक बार अपनी कीली पर घूमती है। ४. छोटी अर्गला या ब्योंड़ा। ५. किसी चीज को बाँध या रोक रखनेवाली कोई चीज। उदाहरण—सुठि बँदि गाढ़ न निकसै कीली।—जायसी।
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कीश  : पुं० [सं० की√ईश् (समर्थ होना)+क] १. बंदर। २. चिड़िया। पक्षी। ३. सूर्य। वि० नंगा। नग्न।
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कीश-केतु  : पुं० [ब० स०] अर्जुन (पांडव)।
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कीश-ध्वज  : पुं०=कीश-केतु।
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कीश-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. सुग्रीव।
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कीस  : पुं० [फा० कीसः] वह थैली जिसमें गर्भ-स्थित होता है।
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कीसा  : पुं० [फा० कीसः] १. थैली। २. खरीता। ३. जेब।
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कु  : उप० [सं०√कु (शब्द)+डु] एक उपसर्ग जो संज्ञाओं के पहले लगकर निम्नलिखित अर्थ देता हैः-(क) कुत्सित और निंदनीय। जैसे—कुकर्म। (ख) अनुचित और बुरा। जैसे—कुपात्र,कुमार्ग। (ग) निकृष्ट। जैसे—कु-धातु, कु-धान्य। (घ) अशुभ या अनिष्ट कारक। जैसे—कुदिन, कुबेला। स्त्री० पृथ्वी।
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कु-कास  : पुं० [सं० कुगति० स०] लगातार होनेवाली एक प्रकार की खाँसी, जिसके साथ कुछ विलक्षण ‘खों-खों या हू-हू’ शब्द भी होता है। (हूपिंग कफ)।
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कुँ-कूँ  : पुं० [सं० कुंकुम] केसर। उदाहरण—कमनीय करे कूँ कूँ चौ निजकारि।—प्रिथीराज।
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कु-गहनि  : स्त्री० [सं० कु-ग्रहण] अनुचित आग्रह। व्यर्थ का और बुरा हठ। जिद।
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कु-तर्क  : पुं० [सं० कुगति० स०] अनुचित असंगत या बुरा तर्क।
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कु-दान  : पुं० [सं० कुगति० स०] १. अशुभ कार्य अथवा अशुभ अवसर पर दिया जानेवाला दान। २. कुपात्र को दिया जानेवाला दान।
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कु-पोषण  : पुं० [सं० कुगति० स०] शरीर के लिए ऐसा पोषण (देखेंगे) जो अनुपयुक्त और हानिकारक हो। (माल-न्यूट्रिशन)।
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कु-प्रबंध  : पुं० [सं० कुगति० स०] खराब या बुरा प्रबंध।
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कु-प्रयोग  : पुं० [सं० कुगति० स०] किसी वस्तु का अनुचित रूप या बुरी तरह से होनेवाला प्रयोग।
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कु-फल  : पुं० [सं० कुगति० स०] किसी कार्य या बात के मिलने या होनेवाला बुरा फल।
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कु-बलि  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] १. निंदनीय हीन, या बुरी बलि। २. बुरी तरह से चढ़ाई हुई बलि। उदाहरण—कुबरो करो कुबलि कैकेयो।—तुलसी।
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कु-बुद्धि  : वि० [सं० ब० स०] निकृष्ट बुद्धिवाला। दुर्बुद्धि। स्त्री० [कुगति० स०] १. बुरी या हानिकारक बुद्धि। २. मूर्खता।
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कु-भा  : स्त्री० [सं० कुगति स०] १. अप्रिय या बुरी आभा अथवा दीप्ति। २. ग्रहण के समय पड़नेवाली पृथ्वी की छाया। ३. काबुल नदी का पुराना नाम।
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कु-भाव  : पुं० [सं० कुगति० स०] अनुचित, दूषित या बुरा भाव। उदाहरण—भाव कुभाव अनख आलसहू।—तुलसी।
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कु-मुख  : पुं० [सं० ब० स०] १. रावण के दल का दुर्मुख नाम का योद्धा। २. सूअर। वि० बुरे मुख वाला। कुरूप।
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कु-मेरु  : पुं० [सं० उपमि० स०] पृथ्वी का दक्षिणी सिरा। दक्षिणी ध्रुव। (साउथ पोल)।
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कु-यश (स)  : पुं० [सं० कुगति० स०] अपयश। बदनामी।
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कु-रंगी  : वि० [हिं० कुरंग] १. बुरे या भद्दे रंगवाला। २. बुरे रंग ढंग या लक्षणोंवाला।
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कु-रव  : पुं० [सं० कुगति स०] १. बुरा शब्द। २. कर्कश स्वर। ३. [ब० स०] गीदड़। सियार। वि० कर्कश या खराब ध्वनि या स्वरवाला। पुं० =कुरवक।
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कु-वर्ष  : पुं० [सं० कुगति० स०] बहुत अधिक या घोर वर्षा। अतिवृष्टि।
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कु-वलय  : पुं० [सं० उपमि० स०] [स्त्री० कुवलयिनी] १. नील कुई। २. नील कमल। ३. भूमंडल। ४. अंसुरों का एक वर्ग।
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कु-व्यवहार  : पुं० [सं० कुगति० स०] किसी के प्रति किया जानेवाला अनुचित या निंदनीय व्यवहार।
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कु-शासन  : पुं० [सं० कुगति० स०] ऐसा शासन जिसके कारण देश में अव्यवस्था फैली हो। बुरा शासन।
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कु-संग  : पुं० [सं० कुगति स०] बुरे या हीन लोगों का संग या साथ। बुरी सोहबत।
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कु-समय  : पुं० [सं० कुगति स०] १. ऐसा समय जिसमें कोई अपनी जीविका का निर्वाह ठीक प्रकार से न कर पा रहा हो। कष्ट या दुःख के दिन। बुरा समय। २. वह समय जो काम करने के लिए उपयुक्त न हो। ३. नियत से आगे या पीछे का समय।
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कु-संस्कार  : पु० [सं० कुगति स०] ऐसे दूषित संस्कार जिनके कारण मनुष्य बुरी बातें सोचता तथा बुरे काम करता है।
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कु-सृति  : स्त्री० [सं० कुगति स०] १. इंद्रजाल। जादू के खेल। २. दुराचार। बद-चलनी। ३. पाजीपन। दुष्टता।
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कु-स्तुंबरू  : पुं० [सं० कु+तुम्बरु, कुगति स० सका आगम] धनिया।
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कुँअर  : पुं० [सं० कुमार] [स्त्री० कुँअरि] १. पुत्र। बेटा। जैसे—राजकुँअर। २. बालक। लड़का। ३. राजा का लड़का। राजकुमार। जैसे—कुँअर श्यामसिंह।
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कुँअर-बिलास  : पुं० [हिं०+सं०] एक प्रकार का बढ़िया धान और उसका चावल।
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कुँअरि  : स्त्री० १. कुमारी। २. राजकुमारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुँअरेटा  : पुं० [हिं० कुँअर+एटा] [स्त्री० कुँअरेटी] बड़े आदमी का बच्चा या लड़का। कुमार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुँआ  : पुं० =कूआँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुआ  : पुं० =कूआँ।
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कुँआ  : पुं० =कूआँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुआड़ी  : स्त्री० [सं० कु+आड़ी] संगीत की एक लय, जिसमें बराबर और ड्योढ़ी (आड़ी) दोनों लय होती है।
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कुँआर  : पुं० =क्वार (महीना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुआर  : पुं० दे० ‘आश्विन’।
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कुँआर-मग  : पुं० [हिं० कुमार+हिं० मग=मार्ग] आकाश-गंगा। (राज)। उदाहरण—मांग समाहि कुँआर मग।—प्रिथीराज। विशेष—राजस्थान में यह प्रवाद है कि आकाश में उक्त स्थान पर कुँआरे लड़के नमक ढोते हैं, इसी से यह नाम पड़ा है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुँआरा  : वि० [सं० कुमार] [स्त्री० कुँआरी] १. (युवक) जिसका अभी विवाह न हुआ हो। अ-विवाहित। २. (व्यक्ति) जिसने विवाह न किया हो। पुं० =क्वार (महीना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुआरा  : वि० [हिं० कुआर] [स्त्री० कुआरी] १. कुआर अर्थात् आश्विन मास से संबंध रखने या उसमें होनेवाला। जैसे—कुआरी धान। वि०=कुँवारा। वि० कुँवारी अवस्था में किया जानेवाला (वैवाहिक संबंध)।
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कुआरी  : स्त्री० [हिं० कुआर] आश्विन मास में पकनेवाला एक प्रकार का मोटा धान।
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कुइक  : सर्व० [हिं० कोई+एक] कोई। उदाहरण—परिभख्खन, रख्खिसन, कु क चीसन मुख सासन।—चंदबरदाई।
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कुइंदर  : पुं० [हिं० कुआँ+दर=जगह] कुएँ के दबने या बैठने से बना हुआ गड्ढा।
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कुँइयाँ  : स्त्री० [हिं० कूआँ] छोटा कुँआ।
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कुइयाँ  : स्त्री० [हिं० कूआँ] छोटा कूआँ।
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कुइला  : पुं० =कोयला।
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कुँई  : स्त्री० [सं० कुमुदिनी, प्रा० कुडई] कुमुदिनी। स्त्री०=छोटा कूँआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुई  : स्त्री०=कुमुदिनी। स्त्री०=कुइयाँ।
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कुकटी  : स्त्री० [सं० कुक्कुटी=सेमल] एक प्रकार की कपास,जिसकी रूई कुछ ललाई लिये होती है।
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कुकठ  : वि० [सं० कु-कथ्य] न कहने योग्य। अनुचित। उदाहरण—कुकठ कुमाण साँ जिण कहई रास।—नरपति नाल्ह।
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कुकड़-बेल  : स्त्री० [सं० कु-कटुवल्ली] बंदाल। (वनस्पति)।
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कुकड़ना  : अ० [हिं० कुक्कुट-मुर्गा] मुरगे की तरह दब या सिकुड़ जाना।
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कुकड़ी  : स्त्री० [सं० कुक्कुटी] १. तकुए पर से उतारा हुआ कच्चे सूत का लच्छा। अंटी। २. मदार का डोडा या फल। स्त्री० [सं० कुक्कुट] मुरगी। स्त्री०=खुखड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुकडूँकूँ  : स्त्री० [अनु०] मुरगा का बोल।
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कुकनुस  : पुं० [यू० कुकनू से फा०] एक कल्पित पक्षी, जिसके संबंध में यह कहा जाता है कि इसके गाने पर इसके मुँह से आग निकलती है जो स्वयं इसे ही भस्म कर देती है।
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कुकनू  : पुं० =कुकनुस।
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कुकभ  : पुं० [सं० कुक√भा+क] एक प्रकार की शराब।
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कुकर  : पुं० [अं०] एक प्रकार का बडा पात्र, जिसमें कई डब्बें होते हैं और जिसमें भाप की सहायता से दाल, चावल, तराकरी आदि चीजें अलग-अलग रखकर एक ही समय में पकाई जाती हैं। पुं० [स्त्री० कुकरी]=कुकुर (कुत्ता)। पुं० [स्त्री० कुकरी]=कुक्कुट (मुरगा) जैसे—जल कुकरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुकरी  : स्त्री० [?] १. घाव के ऊपर जमनेवाली झिल्ली। झिल्ली। २. दर्द। पीड़ा। स्त्री०=खुखड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुकरौंदा  : पुं० =कुकरौंधा।
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कुकरौंधा  : पुं० [सं० कुक्कुरद्रु] एक छोटा जंगली पौधा, जिसकी पत्तियां पालक की पत्तियों-जैसी पर कुछ बड़ी होती है और जो दवा के काम आता है। कुकुरमुत्ता।
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कुकर्म (न्)  : पुं० [सं० कुगति० स०] कुत्सित और निदनीयं कर्म। बुरा कर्म।
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कुकर्मी  : वि० [सं० कुकर्म+इनि] कुकर्म, अर्थात् कुत्सित तथा निंदनीय काम करनेवाला।
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कुकुत्संग  : पुं० [सं० कुंकुद√सद् (बैठना)+अच्, मुम् (पृषो)] गौतम बुद्ध से पहले होनेवाले एक बुद्ध।
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कुकुद  : पुं० [सं० कुकु√दा+क] विधिवत् तथा उपयुक्त साज-सज्जा से युक्त कर कन्यादान करनेवाला व्यक्ति।
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कुकुंदर  : पुं० [सं० कुंकु√दृ (विदारण)+णिच्+अच् (पृषो)] १. कुकरौंधा। २. चूतड़ पर का गड्ढा।
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कुकुभ  : पुं० [सं० कु√स्कुंभ (रोकना)+क(पृषो)] १. संगीत में एक राग। २. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३॰ मात्राएँ होती हैं।
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कुकुभा  : स्त्री० [सं० कुकुभ+टाप्] कुकुभ राग की एक रागिनी।
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कुंकुम  : पुं० [सं०√कुक् (आदान)+उमक्, मुम् (नि०)] १. केसर। २. रोली। ३. कुमकुमा।
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कुंकुमा  : पुं० १. =कुमकुमा। २. =कुंकुम।
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कुकुर  : पुं० [सं० ] १. यदुवंशियों की एक शाखा। २. राजपूताने के अन्तर्गत एक प्राचीन प्रदेश, जहां उक्त जाति के क्षत्रिय रहते थे। ३. कुत्ता। ४. गठिवन या शालपर्णी नामक वृक्ष।
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कुकुर-आलू  : पुं० [हिं० कुकुर+आलू] एक प्रकार की जंगली लता।
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कुकुर-खाँसी  : स्त्री० [हिं० कुक्कुर+खाँसी] एक प्रकार की सूखी खाँसी,जिसमें रोगी प्रायः खों-खों शब्द करता रहता है और जिसमें कफ नहीं निकलता। ढाँसी।
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कुकुर-खाँसी  : स्त्री०=कुकुरखाँसी।
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कुकुर-माछी  : स्त्री० [हिं० कुक्कर+माछी] एक तरह की मक्खी जो घोड़ों, बैलों आदि के शरीर में लगकर उन्हें काटती है।
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कुकुरदंत  : पुं० [सं० कुक्कुर-दंत] [वि० कुकुरदंता] वह दाँत जो किसी-किसी को किसी दाँत के नीचे आड़ा निकल आता है और जिससे होंठ कुछ उठ जाता है।
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कुकुरदंता  : वि० [हि० कुकुरदंत] जिसके मुँह में कुकुरदंत हो। कुकुर दंतवाला (व्यक्ति)
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कुकुरभंगरा  : पुं० [हिं० कुक्कुर+भँगरा] काली भँगरैया। (वनस्पति)।
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कुकुरमुत्ता  : पुं० [हिं० कुक्कुर+मूतना] एक छोटा जंगली पौधा, जिसमें से दुर्गन्ध निकलती है।
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कुकुरा  : स्त्री०=कुकड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुकुरौंछी  : स्त्री०=कुकुर-माछी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुँकुहँ  : पुं० =कंकुम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुँकुह-बानी  : वि० [हिं० कुकुम+बानी=वर्णी] कुंकुम के रंग का। केसरिया। उदाहरण—भै जेंवनार फिरा खँडवानी। फिरा अरगजा कुंकुहबानी।—जायसी।
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कुकुही  : स्त्री० [देश] बाजरे की फसल में होनेवाला एक रोग, जिसके कारण उसकी बालें काली पड़ जाती हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुकूण  : पुं० [सं० कुकूणक] आँखों का एक रोग, जिसमें पलकों के नीचे दाने निकल आते हैं।
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कुकूल  : पुं० [सं० ष० त० या कुगति० स०] १. भूसी की आग। २. भूसी। ३. चिनगारी। ४. कवच। ५. वह गड्ढा जिसमें लकड़ी के छोट- छोटे टुकड़े भरे हों।
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कुकूलाग्नि  : पुं० [सं० कुकूल-अग्नि, ष० त०] भूसी की आग। तुषानल।
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कुक्कुट  : पुं० [सं० √कुक्+क्विप्, कुक्√कुट्+क] १. मुरगा। २. जटाधारी या मुर्गकेश नाम का पौधा। ३. आग की चिनगारी। ४. आग की लपट।
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कुक्कुट-नाड़ी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] टेढ़ी नली के आकार का एक यंत्र जिससे एक पात्र या स्थान का पानी, दूसरे पात्र या स्थान में पहुँचाया जाता है।
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कुक्कुट-पाद  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन पर्वत, जिसे अब कुर्किहार कहते हैं।
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कुक्कुट-मस्तक  : पुं० [सं० ब० स०] चव्य या चाव नामक ओषधि।
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कुक्कुट-व्रत  : पुं० [सं० मध्य० स०] भादों शुक्ल सप्तमी को होनेवाला एक व्रत।
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कुक्कुट-शिख-  : पुं० [सं० ब० स०] कुसुम का वृक्ष या फूल।
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कुक्कुटक  : पुं० [सं० कुक्कुट+कन्] १. कुकुही। बनमुर्गी। २. प्राचीन भारत की एक वर्ण संकर जाति, जो शूद्र पिता और निषादी माता से उत्पन्न कही गई हैं।
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कुक्कुटांडक  : पुं० [सं० कुक्कुट-अंड, ष० त०+कन्] एक प्रकार का मीठा कसैला धान। दुद्धी।
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कुक्कुटाभ  : पुं० [सं० कुक्कुट-आभा, ब० स०] एक प्रकार का साँप।
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कुक्कुटासन  : पुं० [सं० कुक्कुट-आसन, उपमि० स०] योग का एक आसन।
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कुक्कुटी  : स्त्री० [सं० कुक्कुटी+ङीष्] १. मुरगी। २. पाखंड। ३. एक प्रकार का कीड़ा। ४. सेमल का वृक्ष।
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कुक्कुर  : पुं० [सं० कुक्√कुर् (शब्दे)+क] [स्त्री० कुक्कुरी] १. कुत्ता। २. एक प्राचीन ऋषि का नाम। यदुंवंशी क्षत्रियों की कुकुर नाम की शाखा। वि०=गाँठदार।
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कुक्ष  : पुं० [सं०√कुष् (निष्कर्ष)+क्स] १. पेट। उदर। २. पेट के बगल का भाग। कोख।
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कुक्षि  : स्त्री० [सं०√कुष्+क्सि०] १. पेट। उदर। २. पेट के बगल का भाग। कोख। ३. किसी चीज के बीचवाला भाग। ४. पेट से उत्पन्न होने वाले वंशज। औलाद। संतान। ५. गुफा। ६. राजा बलि का एक नाम। ७. इक्ष्वाकु के एक पुत्र का नाम। ८. राजा प्रियव्रत का एक नाम। ९. एक प्राचीन देश का नाम।
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कुक्षि-भेद  : पुं० [सं० ब० स०] ग्रहण के सात प्रकार के मोक्षों में से एक। (बृहत्संहिता)।
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कुक्षिंभरि  : वि० [सं० कुक्षि√भृ (भरना)+खि,मुम्] १. पेटू। २. स्वार्थी।
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कुखेत  : पुं० [सं० कुक्षेत्र, पा० कुखेत] दूषित या बुरा स्थान। खराब जगह।
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कुख्यात  : वि० [सं० कुगति० स०] बदनाम।
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कुख्याति  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] बदनामी।
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कुगति  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] बुरी दशा। दुर्दशा।
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कुगात  : पुं० [हिं० कु+गात=शरीर] निन्दनीय या बुरा शरीर। स्त्री०=कुगति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुघड  : वि० [हिं० कु+घड़ना=गढ़ना] १. जिसकी गढ़न या घड़न अच्छी न हो। २. कुरूप। भद्दी। जैसे—जनता के सांस्कृतिक जीवन को कुघड़, अस्वस्थ और पतनोन्मुख बनाया जाता है।
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कुघा  : स्त्री० [हिं० घा०=और] ओर। तरफ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुघाइ  : पुं० =कुघाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुघाट  : पुं० [हिं० कु+घाट] १. बुरा घाट या स्थान। २. बुरी दशा। उदाहरण—साँप अंगूठा मेल ज्यूँ, कदियक हुसी कुघाट-बाँकीदास।
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कुघात  : पुं० [हिं० कु+घात] १. अनुचित या बुरा अवसर। २. अनुचित रूप से चली हुई चाल या किया हुआ घात। ३. बहुत ही विकट अवसर पर या विकट रूप में किया जानेवाला घात या प्रहार।
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कुघाय  : पुं० =कुघाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुघाव  : पुं० [हिं० कु+घाव०] बहुत बुरी तरह से या मर्मस्थल पर आघात करके उत्पन्न किया हुआ घाव या जखम।
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कुच  : पुं० [सं०√कुच् (संपर्क)+क] स्त्रियों की छाती। स्तन। वि० १. सिकुड़ा हुआ। संकुचित। २. कंजूस। कृपण।
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कुच-कोर  : पुं० दे० ‘कुचाग्र’।
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कुच-मर्दन  : पुं० [सं० ष० त०] १. स्त्रियों के कुच या स्तन हाथ में लेकर दबाना। २. एक प्रकार का सन या पटुआ, जो रस्से बनाने के काम आता है।
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कुचकार  : पुं० [देश०] उत्तरी कश्मीर में होनेवाली एक प्रकार की भेड़। कुलंजा।
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कुचकी (किन्)  : पुं० [सं० कुचक+इनि] कुचक्र रचनेवाला।
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कुचकुचवा  : पुं० [अनु०] उल्लू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुचकुचा  : वि० [अनु०] [स्त्री० कुचकुची०] खाने में गीला कच्चा लगनेवाला। पिचपिचा।
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कुचकुचाना  : स० [अनु० कुचकुच] किसी को नुकीली चीज से बार-बार कोंचना। बार-बार कोई चीज चुभाना या धँसाना।
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कुचक्र  : पुं० [सं० कुगति० स०] किसी व्यक्ति अथवा कई व्यक्तियों द्वारा बनाई हुई ऐसी योजना जिसका उद्देश्य किसी की छलपूर्ण या रहस्यमय ढंग से हानि करना होता है। (प्लाट)। क्रि० प्र०-रचना।
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कुचंदन  : पुं० [सं० कुगति० स०] १. लाल चंदन। देवीचंदन। २. पटरंग। बक्कम (वृक्ष) ३. कुंकुम।
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कुंचन  : पुं० [सं०√कुंच (सिकुड़ना)+ल्युट्-अन] १. संकुचित होने या सिकुड़ने की क्रिया या भाव। २. बालों आदि का घुँघराला होना। ३. आँख का एक रोग, जिसमें पलकें कुछ सिकुड़ने लगती हैं।
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कुचना  : अ० [सं० कुचन०] सिकुड़ ना। अ० [हिं० कोचना०] किसी वस्तु का कोचा जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुचर  : वि० [सं० कु√चर् (गति)+अच्०] १. बुरी जगहों पर घूमने-वाला। २. व्यर्थ इधर-उधर मारा-मारा फिरनेवाला। आवारा। ३. दुष्कर्म, निंदा आदि करनेवाला।
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कुचरा  : पुं० =कूचा (झाड़ू)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुचलना  : स० [हिं० कुँचना०] १. किसी वस्तु या पदार्थ को इस प्रकार पीसना, मलना या रगड़ना कि वह बिलकुल महीन हो जाय। जैसे—आलू कुचलना। २. बार-बार आघात करते हुए इस प्रकार दबाना कि सब अंग बेकार हो जाय। जैसे—साँप का सिर कुचलना। ३. पैरों से उक्त प्रकार की क्रिया करना। रौंदना। ४. इस प्रकार अच्छी तरह दबाना या दमन करना कि जल्दी सिर न उठा सके। जैसे—प्रजा या शत्रु को कुचलना।
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कुचला  : पुं० [सं० कच्चीर] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसके बीज विषैले होते हैं। २. इस वृक्ष के बीज जो दवा के काम आते हैं। पुं० [हिं० कुचलना] कुचलकर बनाई हुई भोज्य वस्तु।
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कुचली  : स्त्री० [हिं० कुचलना] दाढ़ों और राजदंत के बीच के दाँत जिनसे खाने की चीजें कुचली जाती है। सीता दाँत।
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कुचाग्र  : पुं० [सं० कुच-अग्र, ष० त०] स्त्रियों के स्तन का अगला भाग। ढेंपी।
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कुचाल  : स्त्री० [सं० कु+हिं० चाल] १. बुरा और निंदनीय आचरण या चाल-चलन। २. दुष्टता। पाजीपन। ३. दुष्तापूर्वक चली हुई चाल या की हुई युक्ति।
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कुचालक  : वि० [सं० कुगति० स०] १. बुरा चालक। २. (वस्तु) जिसमें विद्युत ताप आदि का परिचालन उचित रूप में या सुगमता से न हो सके। कुसंवाहक। (बैड कंडक्टर)।
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कुचालिया  : पुं० =कुचाली।
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कुचाली  : पुं० [हिं० कुचाल] १. व्यक्ति, जिसका आचरण या चाल-चलन बुरा हो। कुमार्गा। २. दुष्ट-या पाजी व्यक्ति। वि० कुचाल करनेवाला।
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कुंचाशुक  : पुं० [सं० कुच-अंशुक, ष० त०] कुचों पर बाँधने की पट्टी। ‘स्तनोत्तरीय’ (देखे)
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कुचाह  : स्त्री० [सं० कु+हिं० चाह] कुत्सित अभिलाषा। बुरी इच्छा या चाह।
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कुचिक  : पुं० [सं०√कुच्+इकन्] ईशान कोण का एक प्राचीन देश। (संभवतः आधुनिक कूचबिहार।
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कुंचिका  : स्त्री० [सं०√कुंच (+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] १. घुँघची। गुंजा। २. कुंजी। ताली। ३. बाँस की छोटी टहनी। ४. एक प्रकार की मछली।
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कुंचित  : वि० [सं०√कुंच+क्त] १. सिकुड़ा हुआ। २. टेढ़ा या घूमा हुआ। ३. घुँघराला।
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कुचित  : वि० [सं०√कुच्+कितच्] १. सिकुड़ा हुआ। संकुचित। २. अल्प। थोड़ा।
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कुचिया  : स्त्री० [सं० कुचिका वा गु्ञिका] छोटी टिकिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुचिया-दाँत  : पुं० =कुचली (दाँत)।
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कुचिलना  : पुं० =कुचलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुचिला  : पुं० =कुचला।
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कुंची  : स्त्री० [सं० कुंचिका] ताला खोलने की ताली। कुंजी। चाभी।
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कुची  : स्त्री०=कुंजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुचील  : वि० [सं० कुचेल०] १. मैले कपड़ोंवाला। २. मैला-कुचैला। मलिन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुचीला  : वि०=कुचैला।
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कुचेल  : पुं० [सं० कुगति० स०] १. गंदा और मैला कपड़ा। २. पाठा या पाढ़ा नामक वृक्ष। वि० १. जो मैले-कुचैले कपड़े पहने हो। २. गंदा। मलिन।
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कुचेष्ट  : वि० [सं० ब० स०] १. बुरी चेष्टावाला। २. कुरूप। भद्दा। ३. बुरी चेष्टा या प्रयत्न करनेवाला।
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कुचेष्टा  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] [वि० कुचेष्ट] १. बुरी चेष्टा या प्रयत्न। २. बुरी चेष्टा या आकृति।
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कुचैन  : स्त्री० [सं० कु+हिं० चैन] १. चैन या सुख का अभाव। विकलता। बेचैनी। २. कष्ट। दुःख। वि० बेचैन। विकल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुचैला  : वि० [सं० कुचेल] [स्त्री० कुचैली] १. जो गंदे और मैले कपड़े पहने हो। २. गंदा। मलिन। मैला।
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कुचोद्य  : पुं० [सं० कुगति० स०] व्यर्थ की कहा-सुनी या तर्क-वितर्क। वितड़ा।
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कुच्चा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० कुच्ची]=कुप्पा। (चमड़े आदि का)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुच्छित  : वि०=कुत्सित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुछ  : सर्व० [सं० किंचित, पा० कोचि, प्रा० किंची, उ० किची, बँ० किछु, ब्रज, कछु] एक सर्वनाम जिसमें रूप-विकार नहीं होता और जिसका प्रयोग प्रसंग के अनुसार विशेषण, क्रिया-विशेषण और अव्यय के रूप में भी नीचे लिखे अर्थों में होता है- सर्वनाम रूप में-१. कोई अज्ञात अनिश्चित या अनिर्दिष्ट चीज (या बात)। जैसे—(क) तुम भी उन्हें कुछ दे आना। (ख) वहाँ जाने पर कुछ तो हो ही जायगा। (ग) उनसे से भी कुछ पूछ देखो। २. मान, संख्या आदि के विचार से, अनिश्चित या अनिर्दिष्ट अंश या भाग। जैसे—(क) कुछ तुम ले लो कुछ हमें दे दो। (ख) उस पुस्तक में कुछ बातें तुम्हारे काम की भी निकल आवेंगी। ३. किसी काम, चीज या बात का ऐसा सामूहिक रूप जो सब प्रकार से संतोषजनक हो। जैसे—(क) परमात्मा ने हमें सब कुछ दिया है। (ख) लड़कीवालों ने दहेज में कुछ नहीं दिया। ४. कोई अनुचित, कड़ी या खटकनेवाली बात। जैसे—यहाँ किसी की मजाल है तो तुम्हें कुछ कहे। ५. कोई हानिकारक चीज या बात। जैसे—(क) वह कुछ (किसी प्रकार का विष) खाकर सो रहा। (ख) लड़के को अंधेरे में मत भेजा करो, कहीं कुछ (भूत-प्रेत आदि की बाधा या कोई घातक बात) हो न जाय। (ग) इसे तो किसी ने कुछ (जादू-टोना आदि) कर दिया। विशेषण रूप में-१. अनिश्चित या अनिर्दिष्ट (पदार्थ परिमाण संख्या आदि) जैसे—(क) कुछ लोग आ चुके हैं। (ख) कुछ पुस्तकें हमारे लिए भी छोड़ देना। (ग) कभी किसी की कुछ भलाई भी किया करो। २. गिनती परिमाण आदि में अधिक नहीं। अल्प। कम। थोड़ा या थोड़े। जैसे—(क) कुछ बन्दर तो वहाँ भी पाये जाते हैं। (ख) इनमें चाँदी-सोने के भी कुछ बरतन हैं। (ग) इनके लिए भी कुछ जगह निकालनी पड़ेगी। ३. प्रतिष्ठा,महत्त्व,योग्यता आदि के विचार से किसी गिनती में आने योग्य। साधारण की तुलना में अच्छा या आगे बढ़ा हुआ। जैसे—(क) यदि शिक्षा आदि की ठीक व्यवस्था हो तो यह लड़का भी थोड़े दिनों में कुछ हो जायगा। (ख) यदि उन्होंने इस काम के सौ रुपए दिये तो कुछ नहीं किया। क्रिया-विशेषण रूप में-१. अज्ञात, अनिश्चित या अनिर्दिष्ट परिमाण, मात्रा या रूप में।—जैसे—(क) अभी तुम्हारा क्रोध कुछ शांत हुआ या नहीं। (ख) किसी ने तुम्हें कुछ जरूर बहकाया है। २. अल्प या सामान्य रूप में। जैसे—(क) यह कुरता तुम्हें कुछ छोटा होगा। (ख) तुम्हारी बात हमें कुछ ठीक नहीं जँचती। अव्यय रूप में-१. नियत, नियमित या वास्तविक रूप में। जैसे—यह कुछ तमाशा तो है नहीं २. किसी दशा प्रकार या रूप में। जैसे—हम लोग कुछ लड़ने तो बैठे नही हैं। ३. उपेक्षा, तिरस्कार, विस्मय आदि के प्रसंग में किसी प्रकार मान या रूप में। जैसे—वहाँ का हाल कुछ न पूछो। पद—कुछ एक=गिनती या संख्या में कम या थोड़े। जैसे—वहाँ भी कुछ एक लोग चले गये थे। कुछ ऐसा=साधारण से भिन्न और विलक्षण। जैसे—उन्होंने कुछ ऐसा ढोंग रचा कि सब लोग घबरा गये। कुछ का कुछ=जैसा था, उससे बिलकुल भिन्न या विपरीत। जैसे—(क) भूकंप के एक ही धक्के ने वहाँ कुछ का कुछ कर दिया। (ख) पाठशाला का प्रबंध लेते ही उन्होंने उसे कुछ का कुछ कर दिखाया। (ग तुमने हमारी बात का मतलब कुछ का कुछ समझ लिया। कुछ-कुछ=मात्रा या मान में,थोड़ा। जैसे—अब रोग कुछ-कुछ घट रहा है। कुछ न कुछ=ऐसा जिसका ठीक तरह से अवधारण या निश्चय न हो सके। जैसे—वहाँ भी तुम्हें कुछ न कुछ मिल ही जायगा। मुहावरा—(अपने आपको) कुछ लगाना या समझना=अभिमानपूर्वक यह समझना कि हम भी गण्य या मान्य हैं अथवा कुछ कर सकते हैं।
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कुंज  : पुं० [सं० कु√जन् (उत्पन्न होना)+ड, पृषो० सिद्धि] १. झाड़ियों, लताओं आदि से घिरा हुआ, प्रायः गोलाकार स्थान। २. हाथी का दाँत। पुं० [फा० मिं० सं० कुंज] १. कोना। २. छाजन में कोने पर पड़नेवाली लकड़ी। कोनिया। ३. चादरों, दुशालों आदि के चारों कोनों पर बनाये जानेवाले बूटे। कुंजक पुं० [सं० कंचुकी] कंचुकी। डेवढ़ी पर का वह चोबदार जो अंतःपुर में आता जाता हो। ख्वाजःसरा। पुं० =कंचुकी (अंतःपुर का पहरेदार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुज  : पुं० [सं० कु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. मंगल ग्रह जो पृथिवी का पुत्र अर्थात् उससे उत्पन्न कहा गया है। २. पेड़। वृक्ष। ३. नरकासुर का एक नाम। वि० लाल (मंगल का रंग लाल होने के कारण)।
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कुंज-कुटीर  : पुं० [उपमि० स०] किसी कुंज के अंदर रहने का स्थान। लता-गृह।
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कुंज-गली  : स्त्री० [सं० +हिं] १. बगीचों आदि में वह पगडंडी या तंग रास्ता जो झाड़ियों, लताओं आदि से छाया हुआ हो। २. बहुत पतली या सँकरी गली, जिसमें जल्दी धूप न आती हो।
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कुंज-पक्षी (क्षिन्)  : पुं० [मध्य० स०] नीलकंठ की तरह का एक प्रकार का पक्षी,जिसका घोंसला प्रायः कुंज के रूप में होता है। यह प्रायः झुंड बनाकर गाता-नाचता है।
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कुंज-बिहारी (रिन्)  : पुं० [सं० कुंज-वि√हृ (हरना)+णिनि, उप० स०] १. कुंजों में बिहार करनेवाला पुरुष। २. श्रीकृष्ण का एक नाम।
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कुंजड़  : पुं० =कुंदुर (गोंद)।
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कुँजड़ा  : पुं० [सं० कुंज+हिं० ड़ा(प्रत्य)] [स्त्री० कुँजड़ी, कुँजड़िन] १. तरकारी, फल आदि होने या बेचनेवाले लोगों की एक जाति। पद—कुँजड़े-कसाई=छोटी जातियों के लोग। २. तरकारी, फल साग आदि बेचनेवाला दूकानदार। पद—कुँजड़े का गल्ला=किसी पदार्थ, विशेषतः धन, आदि की ऐसी राशि, जिसके आय-व्यय या लेन-देन का कोई हिसाब न रहता हो।
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कुँजड़ियाना  : पुं० [हिं० कुँजड़ा] वह स्थान जहाँ कुँजड़े बैठकर तरकारी बेचते हैं। उदाहरण—मींटिंग क्या होगी, कुँजड़ियाना बन जायगा।—वृंदावनलाल वर्मा।
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कुजंत्र  : पुं० [सं० कुयंत्र०] १. खराब या बुरा यंत्र। २. दुष्ट उद्देश्य से किया जानेवाला जादू-मंतर या टोना-टोटका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुजंभ  : वि० [सं० ब० स०] लम्बे और भयंकर दाँतोवाला। पुं० प्रह्लाद के पुत्र एक असुर का नाम।
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कुजंभल  : पुं० [सं० कु-जम्भल, ष० त०] सेंध लगाकर चोरी करनेवाला व्यक्ति।
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कुजंमिल  : पुं० =कुजंभल।
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कुंजर  : पुं० [सं० कुंज+र] [स्त्री० कुंजरा, कुंजरी] १. हाथी। २. आठ दिग्गजों के कारण आठ की संख्या का वाचक शब्द। ३. हस्त नक्षत्र। ४. कच। बाल। ५. पीपल। ६. एक प्राचीन देश। ७. अंजना के पिता और हनुमान के नाना का नाम। ८. छप्पय के छंद का इक्कीसवाँ भेद जिसमें ५॰ गुरु और ५२ लघु अर्थात् कुल १॰२ वर्ण और १५२ मात्राएँ अथवा ५॰ गुरु और ४ ८ लघु अर्थात् कुल ९८ वर्ण और १४८ मात्राएँ होती है। ९. पाँच मात्राओं वाले छंदों के प्रस्तार में पहला प्रस्तार। वि० उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे—नर-कुंजर।
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कुंजर-कण  : स्त्री० [मध्य० स०] गज-पीपल (ओषधि)।
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कुंजर-दरी  : स्त्री० [ब० स०] मलय के पास के एक प्रदेश का पुराना नाम।
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कुंजर-पिपली  : स्त्री० [मध्य० स०] गज-पीपल (ओषधि)।
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कुंजरा  : स्त्री० [सं० कुंजर+टाप्] हथिनी।
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कुंजराराति  : पुं० [सं० कुंजर-अराति, ष० त०] हाथी का शत्रु, सिंह। शेर।
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कुंजरारोह  : पुं० [सं० कुंजर-आरोह, ष० त०] महावत। हाथीवान।
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कुंजराशन  : पुं० [सं० कुंजर-अशन, ष० त०] हाथी का भोज्य या खाद्य पीपल।
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कुंजरी  : स्त्री० [सं० कुंजर+ङीष्] हथिनी।
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कुंजल  : पुं० [सं० कु-जल, ब० स० पृषो० सिद्धि] काँजी। पुं० =कुंजर (हाथी)।
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कुंजा  : पुं० [अ० कूजाः] मिट्टी का पुरवा। चुक्कड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुजा  : स्त्री० [सं० कुंज+टाप्] १. जनक-पुत्री सीता। २. कात्यायनी। अव्य० [फा०] किस जगह। कहाँ।
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कुजात  : स्त्री०=कुजाति।
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कुजाति  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] १. नीच या बुरे कर्म करनेवाली जाति। २. समाज में छोटी या हीन समझी जानेवाली जाति। पुं० १. छोटी जाति का आदमी। २. अधम या पतित व्यक्ति। ३. जाति से निकाला हुआ व्यक्ति।
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कुजाम  : वि० [हिं० कु+जमना=जन्म लेना] १. जिसका जन्म बुरे कर्मों के फलस्वरूप हुआ हो। २. जारज। दोगला। पुं० [सं० कु+याम] बुरा अवसर या समय।
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कुजाष्टम  : पुं० [सं० कुज-अष्टम, ब० स०] जन्मकुंडली के आठवें घर में मंगल स्थित होने का एक योग। (ज्योतिष)
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कुंजिका  : स्त्री० [सं०√कुंज् (गति)+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] काला जीरा।
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कुंजित  : वि०=कूजित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुजिया  : स्त्री० [फा० कूजा=प्याला] मिट्टी का छोटा कूजा या पात्र। घरिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुंजी  : स्त्री० [सं० कुंञ्चिका, गु० कुंची, पं० सि० कुंजी, कुझ, बँ० कूजी, उ० कुंझी] १. वह उपकरण जिससे ताला खोला तथा बन्द किया जाता है। ताली। २. ताली जैसी कोई वस्तु। जैसे—घड़ी या मोटर की कुंजी। ३. ऐसा सरल साधन, जिसे कोई उद्देश्य सहज में सिद्ध होता हो। मुहावरा—(किसी की) कुंजी हाथ में होना=परिचालित करने का सूत्र हाथ में होना। ४. ऐसी सहायक पुस्तक जिसमें किसी दूसरी कठिन पुस्तक के अर्थ भाव आदि स्पष्ट किये गये हों। (की उक्त सभी अर्थों के लिए)।
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कुजून  : स्त्री० [सं० कु+हिं० जून (समय)] १. अनुपयुक्त या बुरा समय। २. देर। विलम्ब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुजोग  : पुं० [सं० कुयोग] १. अनुपयुक्त या बुरा लोग। बुरा मेल। २. अनुपयुक्त या बुरा समय।
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कुजोगी  : वि० [सं० कुयोगी] १. अच्छे योग या संपर्क से रहित। २. योग या संयम का ठीक तरह से पालन न करनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुज्जा  : पुं० दे० ‘कूजा’।
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कुज्झटि  : स्त्री० [सं० √कुज् (अपहरण करना)+क्विप्√झट् (समूह)+इन्, कर्म० स०]=कुज्झटी।
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कुज्झटिका  : स्त्री० [सं० कुज्झटि+कन्-टाप्]=कुज्झटी।
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कुज्झटी  : स्त्री० [सं० कुज्झटि+ङीष्] कोहरा।
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कुट  : पुं० [सं०√कुट् (कौटिल्य)+क] [स्त्री० कुटी] १. घर। गृह। २. दुर्ग या गढ़। ३. पत्थर तोड़ने का हथौड़ा। ४. कलश। ५. पहाड़। ६. वृक्ष। पुं० [सं० कूट=कूटना] १. कूटकर बनाया हुआ खंड। जैसे—तिलकुटा। २. पत्थर के टुकड़े। पुं० दे० ‘कालकूट’। स्त्री० [सं० कुष्ठ, प्रा० कुट्ठ] कश्मीर की ढालू पहाड़ियों पर होनेवाली एक प्रकार की मोटी झाड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुट-कारक  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० कुट-कारिका] नौकर। सेवक।
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कुटक  : पुं० [सं० कुट+अन्] वह डंडा जिससे मथानी की रस्सी लपेटी जाती है।
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कुटका  : पुं० [हिं० कूट=कूटना०] [स्त्री० अल्पा० कुटकी] १. किसी वस्तु का छोटा टुकड़ा। २. कसीदे में काढ़ा जानेवाला एक प्रकार का तिकोना बूटा। सिंघाड़ा।
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कुटकी  : स्त्री० [सं० कटुका] १. पश्चिमी और पूरबी घाटों में पाया जानेवाला एक पौधा, जिसका उपयोग औषध के रूप में होता है। २. शिमला और कश्मीर के पहाड़ों में पाई जानेवाली एक प्रकार की जड़ी। ३. कँगनी या चेमा नामक कदन्न। ४. एक प्रकार की छोटी चिड़िया जिसके शरीर का रंग ऋतु-भेद से बदलता रहता है। ५. एक प्रकार का छोटा कीडा या फतिंगा, जो प्राणियों के शरीर पर बैठकर काटता है। स्त्री० [हिं० कुटका=छोटा टुकड़ा०] किसी चीज का छोटा टुकड़ा। उदाहरण—गैणो तो म्हाँरे माला दोवड़ी और चंदन की कुटकी।—मीराँ।
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कुटंगक  : पुं० [सं० कु-अंगक, ष० त०, शक पररूप] लताओं से ढकने पर बननेवाला मंडप।
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कुटज  : पुं० [सं० कुट√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. एक प्रकार का जंगली पौधा और उसका फूल। कुरैया। उदाहरण—लसत कुटज धन चंपक पलास बन। सेनापति। २. इन्द्रयव का पेड़ जो प्रायः पहाड़ों पर होता है। ३. महर्षि अगस्त्य। ४. द्रोणाचार्य। ५. कमल।
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कुटंत  : स्त्री० [हिं० कूटना+त (प्रत्यय)] १. कूटने या कूटे जाने की क्रिया या भाव। कुटाई। २. बहुत मारे-पीटे जाने की क्रिया या भाव।
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कुटत्रक  : पुं० [सं० कुटन्नट का रूपान्तर] केवटी मोथा। कसेरू।
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कुटत्रट  : पुं० [सं० कुटन्√नट् (नर्तन)+अच्] १. स्योनाक छोंका। २. केवटी मोथा। कैवर्त्त मुस्तक।
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कुटन-पन  : पुं० [सं० कुट्टुन] १. स्त्रियों को बहकाकर पर-पुरुषों के पास ले जाने का काम। कुटने या कुटनी का पेशा। २. दो व्यक्तियों दलों आदि के बीच मे फूट डालने या झगड़ा लगाने का काम।
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कुटन-पेशा  : पुं० दे० ‘कुटनपन’।
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कुटनई  : स्त्री०=कुटनपन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटना  : पुं० [हिं०कुटनी] १. ऐसा व्यक्ति जो स्त्रियों को भगाकर पर-पुरुषों के पास ले जाता हो। दलाल। २. दो व्यक्तियों या दलो में फूट डालने या झगड़ा करानेवाला व्यक्ति। [हिं० ‘कूटना’ का अ० रूप०] कूटा जाना। पुं० [हिं० कूटना] वह उपकरण जिससे कोई चीज कूटी जाय।
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कुटनाई  : स्त्री० दे० ‘कुटनपन’।
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कुटनाना  : स० [हिं० कुटना०] १. कुटने या कुटनी का स्त्रियों को भुलावा देकर कुमार्ग पर ले जाना। २. कुटने या कुटनी की तरह गुप्त रूप से प्रलोभन देकर बहकाना।
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कुटनापन  : पुं० = कुटनपन ।
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कुटनापा  : पुं० दे० ‘कुटनपन’।
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कुटनी  : स्त्री० [सं० कुट्टिनी] १. वह स्त्री जिसका पेशा स्त्रियों को बहका कर पर-पुरुषों से मिलाना और इस प्रकार रुपया कमाकर जीविका निर्वाह करना होता है। (प्रोक्योरस) २. दो पक्षों में झगड़ा करानेवाली स्त्री।
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कुटनीपन  : पुं० =कुटनपन।
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कुटम  : पुं० =कुटुंब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटमैती  : स्त्री० [सं० कुटुम्ब] १. कुटुंबवालों की तरह का संबंध। आपसदारी का संबंध। २. नातेदारी। रिश्तेदारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटम्मस  : स्त्री० [हिं० कूटना] किसी को खूब मारने-पीटने की क्रिया या भाव।
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कुटर  : पुं० [सं०√कुट् (कुटिलता)+करन्] वह डंडा जिससे मथानी की रस्सी लिपटी रहती है।
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कुटर-कुटर  : पुं० [अनु०] १. दाँतो से कोई वस्तु चबाई जाने पर होनेवाला शब्द। २. दांतों के टकराने से होनेवाला शब्द। जैसे—चूहे की कुटर-कुटर।
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कुटल  : पुं० [सं०√कुट्+कलच्] घर का छाजन। वि०=कुटिल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटली  : स्त्री० [हिं० कूटना] एक उपकरण जिससे खेतों में निराई की जाती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटवा  : वि० [हिं० कूटना] कूटनेवाला। पुं० वह जो नर-पशुओं के अंड-कोश कूटकर उन्हें बधिया करने का काम करता हो।
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कुटवाना  : स० [हिं० कूटना का प्रे०] १. (कोई वस्तु) कूटने का काम दूसरे से कराना। २. (किसी व्यक्ति को) किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा पिटवाना।
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कुटवार  : पुं० [हं० कूटना] गिट्टी कूटने अथवा इसी प्रकार का कठोर काम करनेवाला व्यक्ति।
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कुटवाल  : पुं० =कोतवाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटवाली  : स्त्री०=कोतवाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटाई  : स्त्री० [हिं० कूटना] १. कोई वस्तु कूटने या कूटे जाने की क्रिया भाव या मजदूरी। २. अच्छी तरह मारने-पीटने या मारे-पीटे जाने की क्रिया या भाव।
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कुटार  : पुं० [?] नटखट टटू।
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कुटास  : स्त्री० दे० ‘कुटम्मस’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटिया  : स्त्री० [सं० कुटी] साधु-सन्तों के रहने की झोपड़ी। २. झोपड़ी। कुटी। ३. छोटा मकान। घर।
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कुटिल  : वि० [सं०√कुट्+इलच्] [स्त्री० कुटिला] १. टेढ़े आकार का। वक्र। २. मन में कपट, छल, द्वेष आदि रखने और छिपकर बदला चुकानेवाला। जो स्वभाव से सरल न हो। दुष्ट। उदाहरण—मो सम कौन कुटिल खल कामी।—सूर। पुं० १. एक वर्णवृत्त जिसके चरण में क्रमश- स, भ, न, य, ग, ग होते हैं। २. तगर का पौधा या फूल।
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कुटिल-कीट  : पुं० [सं० कर्म० स०] सांप।
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कुटिलक  : वि० [सं० कुटिल+कन्] टेढ़ा-मेढ़ा या मुढ़ा हुआ।
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कुटिलता  : स्त्री० [सं० कुटिल+तल्-टाप्] १. टेढ़ापन। वक्रता। २. स्वभाव से कुटिल होने की अवस्था या भाव। सरलता का विपर्याय। ३. दुष्टता। धोखेबाजी।
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कुटिलपन  : पुं० =कुटिलता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटिला  : स्त्री० [सं० कुटिल+टाप्] १. सरस्वती नदी। २. मध्य युग की एक पुरानी भारतीय लिपि। ३. असबर्ग नाम की ओषधि और गंधद्रव्य। ४. आयान घोष की बहन और राधिका की ननद का नाम।
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कुटिलाई  : स्त्री०=कुटिलता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटिलिका  : स्त्री० [सं० कुटिल+कन्, टाप्, इत्व] १. बिना कोई आहट किये और चुपचाप पैर दबाकर आने की क्रिया या भाव। २. लोहा गलाने की भट्ठी।
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कुटिहा  : वि० [हिं० कूट+हा] व्यंग्यपूर्ण और कूट बातें कहनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटी  : स्त्री० [सं०√कुट्+इन्,ङीष्] १. एकान्त या सूने स्थान में मिट्टी का बना और घास-फूस में छाया हुआ छोटा घर। झोपड़ी। पर्णशाला। २. ऋषियों,साधुओं आदि के रहने का उक्त प्रकार का स्थान। ३. घुमाव। मोड़। ४. फूलों का गुच्छा। ५. एक प्रकार की मदिरा या शराब। ६. मुरा नामक गन्धद्रव्य। ७. सफेद कुड़ा या कुटज।
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कुटी-उद्योग  : पुं० [मध्य० स०] ऐसे छोटे-मोटे काम जिन्हें लोग घर में ही करके जीविका निर्वाह के लिए धन कमा सकते है। (काटेज इन्डस्ट्री)। जैसे—खिलौने, दरी, साबुन आदि बनाने का काम।
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कुटी-प्रवेश  : पुं० [स० त०] कल्प-चिकित्सा के लिए विशेष रूप से बनाई हुई कुटी में रोगी का जाकर रहना। (आयुर्वेद)।
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कुटी-शिल्प  : पुं० [मध्य० स०] दे० ‘कुटीउद्योग’।
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कुटीका  : स्त्री० दे० ‘कुटी’।
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कुटीचक  : पुं० [सं० कुटी√चक्र (तृप्ति)+अच्] संन्यासी, जो जनेऊ और शिखा का त्याग नहीं करते। प्रायः ये लोग अपने घर का त्याग नहीं करते बल्कि उसी में अपना आश्रम बनाकर रहते हैं।
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कुटीचर  : वि० [सं० कुचर] कुटिल प्रकृति या स्वभाववाला। दुष्ट और धोखेबाज। पुं० चालबाज और दुष्ट व्यक्ति।
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कुटीर  : पुं० [सं० कुटी+र] दे० ‘कुटी’।
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कुटीरक  : पुं० [सं० कुटीर+कन्] कुटी।
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कुटीरोद्योग  : पुं० [सं० कुटीर-उद्योग, मध्य० स०] दे० ‘कुटी उद्योग’।
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कुटुनी  : स्त्री०=कुटनी।
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कुटुंब  : पुं० [सं०√कुटुम्ब (धारण और पोषण)+अच्] एक ही कुल या परिवार के वे सब लोग जो एक ही घर में मिलकर रहते हों।
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कुटुंब-कलह  : पुं० [तृ० त०] दे० ‘गृह-कलह’।
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कुटुंबक  : पुं० [सं० कुटुम्ब+कन्] १. कुटुंब। परिवार। २. एक प्रकार की घास।
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कुटुंबिनी  : स्त्री० [सं० कुटुबिन्+ङीष्] १. कुटुंब या परिवार की प्रधान स्त्री। २. बाल-बच्चेदार वाली स्त्री। ३. कफ-पित्त-नाशक और रक्तशोधक एक ज़ड़ी या छोटा झाड़। (आयुर्वेद)।
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कुटुंबी (बिन्)  : पुं० [सं० कुटुम्ब+इनि] [स्त्री० कुटुम्बिनी] १. कुटुंब या परिवारवाला। कुनबेवाला। २. एक कुटुंब के सब लोग। ३. वह जिसके साथ कुटुंब या परिवार का संबंध हो। नातेदार। रिश्तेदार।
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कुटुम  : पुं० =कुटुंब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुटुम-कबीला  : पुं० [हिं० कुटुम+अ० कबीलः] स्त्री-बच्चे भाई-भतीजे आदि परिवार के लोग।
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कुटेक  : स्त्री० [सं० कु+हिं० टेक] किसी काम के लिए किया जानेवाला अनुचित आग्रह या हट।
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कुटेव  : स्त्री० [सं० कु√हिं० टेव] बुरी आदत या बान।
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कुटौनी  : स्त्री० [हिं० कूटना] १. धान आदि अनाज कूटने का काम। पद—कुटौनी-पिसौनी=धान आदि कूटने, चक्की पीसने आदि का घर के छोटे काम परन्तु परिश्रम के काम। २. इस काम का पारिश्रमिक या मजदूरी।
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कुट्टक  : पुं० [सं०√कुट्ट (कूटना)+ण्वुल-अक] वह जो कोई चीज कूटने या पीसने का काम करता हो।
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कुट्टन  : पुं० [सं०√कुट्ट+ल्युट-अन] १. कूटना। काटना। ३. पीसना। ४. नृत्य, संगीत आदि में वह मुद्रा जिसमें वृद्धावस्था शीत आदि के कारण दाँत बजाकर दिखाया जाता है।
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कुट्टनी  : स्त्री० [सं० कुट्टन+ङीष्]=कुटनी।
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कुट्टनीयता  : स्त्री० [सं०√कुट्ट+अनीयर+तल्-टाप्] दे० ‘कुटनपन’।
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कुट्टमित  : पुं० [सं०√कुट्ट+घञ्+इमप्+इतच्] साहित्य में संयोग श्रंगार के अंतर्गत एक हाव जिसमें प्रिय के स्पर्श से मन में सुखी होने पर भी ऊपर से दिखावटी विकलता या विरक्ति प्रकट की जाती हो।
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कुट्टा  : पुं० [सं० कुट्टन=काटना] १. वह कबूतर या और कोई पक्षी जिसके पर काट दिये गये हों। २. पर या पैर बाँधकर जाल के नीचे बैठाया हुआ वह पक्षी जिसे देखकर दूसरे पक्षी उसके पास आते और जाल में फँसने लगते है। मुल्लह।
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कुट्टाक  : वि० [सं०√कुट्ट+षाकन्] दे० ‘कुट्टक’।
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कुट्टार  : पु० [सं०√कुट्ट+आरन] १. पर्वत। पहाड़। २. रति। संभोग। ३. अलगाव। पार्थक्या। ४. कंबल।
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कुट्टित  : भू० कृ० [सं०√कुट्ट+क्त] १. कटा हुआ। २. कूटा या पीसा हुआ।
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कुट्टिम  : भू० कृ० [सं०√कुट्ट+क्त] कंकड़-पत्थर आदि से कूटकर बनाया हुआ पक्का फर्श। गच। २. अनार नामक वृक्ष और उसका फल।
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कुट्टी  : स्त्री० [हिं० कूटना] १. पशुओं के लिए चारा काटने की क्रिया। २. उक्त प्रकार से काटा हुआ चारा। करबी। ३. कूटकर सड़ाया हुआ वह कागज जिससे खिलौने, दौरियां आदि बनाई जाती है। पुं० =कुट्टा (परकटा कबूतर)। स्त्री० [दाँतो से काटने के ‘कुट’ शब्द के अनुकरण पर] एक शब्द जिसका प्रयोग बालक खिलवाड़ में उस समय करते हैं जब वे किसी से कुछ या चिढ़कर उससे संबंध तोड़ने का भाव सूचित करना चाहते हैं। जैसे—जाओ, हमसे तुमसे कुट्टी अब हम तुम्हारे साथ नहीं खेलेंगे।
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कुट्टीर  : पुं० [सं०√कुट्ट+ईरन्] पहाड़ी।
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कुट्टीरक  : पुं० [सं० कुट्टीर√कै (प्रतीत होना)+क] कुटिया।
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कुंठ  : वि० [सं०√कुंठ (मंद होना)+अच्]=कुंठित।
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कुठ  : पुं० [सं०√कुठ्(छेदन)+क] वृक्ष।
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कुंठक  : वि० [सं०√कुंठ+ण्वुल्-अक] कुंठित बुद्धिवाला अर्थात् मूर्ख।
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कुठर  : पुं० [सं०√कुठ्+करन्] दे० ‘कुटर’।
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कुठला  : पुं० [सं० कोष्ठ, प्रा० कोट्ठ+ला (प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० कुठली] अनाज रखने के लिए मिट्टी का बना हुआ ऊँचा तथा बड़ा पात्र।
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कुंठा  : स्त्री० [सं०√कुंठ+णिच्+अङ्-टाप्] १. मनुष्य की अतृप्त तथा सुप्त भावना। २. ऐसी लज्जा या संकोच जो आगे बढ़ने में बाधक हो।
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कुठाँउ  : स्त्री०=कुँठाव।
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कुठाकु  : पुं० [देश०] कठफोड़वा पक्षी।
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कुठाट  : पुं० [सं० कु+हिं० ठाट] १. अनावश्यक या अनुचित तड़क-भड़क। २. बुरा प्रबंध। ३. बुरा सामान।
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कुठाटंक  : पुं० [सं० कुठारटंक, पृषो० सिद्धि] [स्त्री० अल्पा, कुठाटंका] कुल्हाड़ी।
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कुठाँय  : स्त्री०=कुठाँव।
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कुठाँय  : स्त्री०=कुठाँव।
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कुठार  : पुं० [सं० √कुठ्+आरन्] [स्त्री० कुठारी] १. कुल्हाड़ा। २. फसा। पुं० दे० ‘कुठला’।
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कुठारक  : पुं० [सं० कुठार+कन्] छोटी कुल्हाड़ी। कुठार-पाणि-पुं० [सं० ब० स०] परशुराम जो हाथ में कुठार रखते थे।
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कुठाराघात  : पुं० [सं० कुठार-आघात, ष० त०] १. कुल्हाड़ी लगने से होनेवाला आघात। २. लाक्षणिक रूप में ऐसा आघात जिससे किसी वस्तु या व्यक्ति की जड़ कट जाय या बहुत बड़ी हानि हो। ३. सर्वनाश।
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कुठारिक  : पुं० [सं० कुठार+ठन्-इक] लकड़ी काटने का काम करने वाला व्यक्ति। लकड़हारा।
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कुठारिका  : स्त्री० [सं० कुठार+कन्-टाप्, ह्रस्व] कुल्हाड़ी।
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कुठारी  : स्त्री० [सं० कुकुठार+ङीष्]=कुल्हाड़ी।
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कुठाली  : स्त्री० [सं० कुस्थाली] सुनारों की वह घरिया (मिट्टी का छोटा पात्र) जिसमें वे सोना, चाँदी आदि गलाते हैं।
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कुठाँव  : स्त्री० [सं० कु+हिं० ठाँव] १. बुरा स्थान। खराब जगह। २. घातक या भयप्रद स्थान। ३. शरीर का कोमल या सुकुमार। अंग। मर्मस्थल।
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कुठाहर  : पुं० दे० ‘कुठाँव’।
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कुठि  : पुं० [सं०√कुठ्+इन्] १. पेड़ । वृक्ष। २. पर्वत। पहाड़।
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कुंठित  : वि० [सं०√कुंठ+क्त] १. (वस्तु) जिसकी धार या नोक तीक्ष्ण या तेज हो। कुंद। २. (व्यक्ति) जिसकी बुद्धि मंद हो। जड़। ३. अवरुद्ध। गतिहीन। जैसे—कुंठित विचार-धारा। ४. (व्यक्ति) जो लज्जा, संकोच आदि के कारण आगे बढ़ने से रुक रहा हो।
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कुठिया  : स्त्री० [सं० कोष्ठ प्रा० कोट्ठ] अनाज रखने का मिट्टी का गहरा छोटा बरतन। छोटा कुठला। उदाहरण—उन्हीं की छाप कुठिया पर लगा दो।—वृदावनलाल वर्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुठिला  : स्त्री०=कुठला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुठी  : स्त्री० [देश] कुसुम या बर्रे नामक पौधे की एक जाति। कटाली।
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कुठेर  : पुं० [सं०√कुठं+एरक्, नलोप (बा०)] १. अग्नि। २. तुलसी।
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कुठेरक  : पुं० [सं० कुठेर√कै (प्रतीत होना)+क] सफेद तुलसी।
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कुठौर  : पुं० [सं० कु+हिं०ठौर] १. बुरा स्थान। कुठाँव। २. अनुपयुक्त अवसर। बेमौका।
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कुंड  : पुं० [सं०√कुंण (शब्द करना)+ड] १. छोटा तालाब। २. नदियों आदि में थोड़े-से घेरे में अधिक गहरा स्थान। ३. किसी स्थान पर किसी प्रकार का कुछ गहरा स्थान। उदाहरण—गढ़ तर सुरँग कुंड अवगाहा।—जायसी। ४. चौंड़े मुँह का गहरा बर्तन। कुंडा ५. प्राचीन काल का अनाज नापने का एक बड़ा पात्र। ६. होम करने के लिए खोदा हुआ गड्ढा या मिट्टी का बना हुआ वैसा पात्र। हवन कुंड। ७. बटलोई। ८. कमंडलु। ९. सधवा स्त्री का ऐसा पुत्र जो उसके जार या परपुरुष से उत्पन्न हुआ हो। जारज पुत्र। १॰. शिव का एक नाम। ११. धृतराष्ट के एक पुत्र का नाम। १२. खप्पर। १३. ज्योतिष में चंद्र-मंडल का एक प्रकार का रूप। पुं० [?] १. पूला गट्टा। २. लोहे की टोप। ३. हौंदा।
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कुड़  : पुं० [सं० कुष्ठ, पा० कुट्ठ] कुट या कूट नामक ओषधि। पुं० [सं० कूट] ढेर। राशि। पुं० [सं० कुड़] १. कुंड। २. हल में का जाँघा। अगवाँसी। पुं० =कुक्कुट। उदाहरण—सेही सियाल लंगूर बहु, कुड कर्दम भरि तर रहिय।—चन्दबरदाई।
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कुंड-कीट  : पुं० [उपमि० स०] १. ब्राह्मणी का जारज पुत्र। २. वह जिसने बिना विवाह किये किसी स्त्री को घर में रख लिया हो। ३. चार्वाक-दर्शन का अनुयायी या नास्तिक।
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कुंड-कील  : पुं० [उपमि० स०] नीच आदमी।
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कुंड-गोलक  : पुं० [ब० स०] काँजी।
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कुँड-पुजी  : स्त्री० [हिं० कुँड़+पुजी=पूजना]=कुँड-मुदनी।
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कुँड-मुँदनी  : स्त्री० [हिं० मुँड+मुदनी-मूँदना] रबी की बोआई समाप्त होने पर किसानों का मनाया जानेवाला उत्सव।
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कुड़क  : स्त्री० [फा० कुरक] ऐसी मुरगी जो अंडे न देती हो या अन्डे देना बन्द कर दे। वि० खाली। रहित। मुहावरा—कुड़क बोलना=निरर्थक या व्यर्थ हो जाना। वि०=कुरक या कुर्क।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुड़कना  : अ० [हिं० कुड़क] मुरगी का अंडा देना बंद करना। अ०=कुड़बुड़ाना।
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कुड़कुड़  : अ० [अनु] पशु-पक्षियों को खेतों आदि से भगाने का एक निरर्थक शब्द।
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कुड़कुड़ाना  : अ० [अनु] मन-ही-मन खींचकर अस्पष्ट रूप से बड़बड़ाना। कुड़बुड़ाना। स० कुड़-कुड़ शब्द करके पक्षियों आदि को खेतों से भगाना।
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कुड़कुड़ी  : स्त्री० [अनु] १. भूख आदि के कारण पेट में होनेवाली गुड़गुड़ाहट या विकलता। २. कोई बात जानने के लिए मन में होनेवाली उत्सुकता-पूर्ण विकलता।
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कुंडकोदर  : वि० [सं० कुंडक, कुंड+कन्, कुंडक-उदर, ब० स०] घड़े जैसे पेटवाला। पुं० शिव का एक गण।
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कुडंग  : पुं० [सं०√कुड्+अङच्] निकुंज।
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कुड़प  : पुं० =कुड़व।
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कुड़पना  : स० [हिं० कुंड=हल की लकीर] कँगनी के खेत को उस समय जोतना जब फसल थोड़ी उग आये।
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कुंडपायिनामयन  : पुं० [सं० कुंडपायिनाम्-अयन, अलुक्० स०] एक यज्ञ जिसके लिए यजमान २१ रात्रि तक दीक्षित रहता था।
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कुंडपायी (यिन्)  : पुं० [सं० कुंड√पा (पीना)+णिनि] १. ऐसा यजमान जो सोलह ऋत्विजों से सोमसत्र कराकर कुंडाकार चमसे से सोमपान कर चुका हो। २. उक्त के वंशज या शिष्य।
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कुड़बुड़ाना  : अ० [अनु] खिन्न या रुष्ट होने पर मन-ही-मन कुढ़ते हुए कुछ अस्पष्ट शब्द करना। बड़बड़ाना।
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कुडमल्  : पुं० [सं०√कुड्+कलच्, मुट्] १. कली। २. फूल। ३. एक नरक का नाम।
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कुँड़रा  : पुं० [सं० कुंडल] [स्त्री० अल्पा, कुँडरी] १. किसी वस्तु की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर मंडलाकार खींची हुई रेखा। २. उक्त प्रकार की वह रेखा जिसके अंदर खड़े होकर लोग शपथ करते हैं। ३. कई फेरे देकर मंडलाकार लपेटी हुई रस्सी या कपड़ा जिसे सिर पर रखकर बोझ या घड़ा आदि उठाते हैं। इँडुवा। गेंडुरी। ४. कुंडा। घड़ा।
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कुड़रिया  : स्त्री०=कुड़री।
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कुड़री  : स्त्री० [सं० कुंडली] १. ईडुरी। २. तीन ओर से जल से घिरी हुई जमीन। ३. दे० ‘कुंडली’।
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कुंडल  : पुं० [सं० कुंड√ला (आदान)+क] १. कान में पहना जानेवाला मंडलाकार प्रसिद्ध गहना, जो बड़े बाले की तरह होता है। २. चंद्रमा या सूर्य के चारों ओर दिखाई देनेवाले बादलों का गोल घेरा। ३. लकड़ी, लोहे आदि का कोई गोल घेरा या बंद, जो किसी चीज के चारों ओर अथवा मुँह पर सुरक्षा आदि के लिए लगाया जाता है। बंद। जैसे—कोल्हू, चरसे आदि का कुंडल। ४. किसी प्रकार की मंडलाकार आकृति या रचना। जैसे—साँप का कुंडल बनाकर बैठना। ५. दो मात्राओं और एक अक्षर का मात्रिक गण। (छंदशास्त्र) जैसे—मा। ६. एक सम मात्रिक छंद, जिसके प्रत्येक चरण में २२ मात्राएँ होती है और अंत में २ गुरु होते हैं।
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कुड़ल  : स्त्री० [सं० कुंचन] १. शरीर के किसी भाग में नस पर नस चढ़ जाने के कारण होने वाला तनाव और पीड़ा। नस पर नस चढ़े होने की स्थिति।
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कुंडलपुर  : पुं० =कुंडिनपुर।
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कुंडलाकार  : वि० [सं० कुंडल-आकार, ब० स०] जिसका आकार कुंडल या गेंडुरी की तरह गोल हो। मंडलाकार। वर्त्तुल।
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कुंडलिका  : स्त्री० [सं० कुंडली+तन्-टाप्, ह्रस्व] १. गोल रेखा। २. जलेवी नाम की मिठाई। ३. कुंडलिया छंद।
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कुंडलित  : वि० [सं० कुंडल+इतच्] जो कुंडल की तरह गोलाकार रूप में स्थित हो।
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कुंडलिनी  : स्त्री० [सं० कुंडल+इनि-ङीष्] १. हठ योग में नाभि के पास मूलाधार के नीचे प्रायः सुषुप्त अवस्था में रहनेवाली वह शक्ति जिसे साधना में जाग्रत किया जाता है और जिसके ब्रह्मरन्ध्र में पहुँच जाने पर योगी मुक्त और अमर जीवन प्राप्त करता है। २. इमरती या जलेबी नाम की मिठाई। ३. गुडुच। गिलोय। ४. सोमलता।
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कुंडलिया  : स्त्री० [सं० कुंडलिका] छः चरणों का एक मात्रिक छंद,जिसके पहले दो चरणों का एक मात्रिक छंद, पहले दो चरण दोहे के और अन्तिम चार रोले के होते हैं। इसके पहले चरण का पहला शब्द छठे चरण के अंत में भी होता है।
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कुंडली  : स्त्री० [सं० कुंडल+ङीष्] १. किसी प्रकार की गोल आकृति, रचना या रेखा। जैसे—साँप का कुंडली मारकर बैठना। २. फलित ज्योतिष में वह गोलाकार चक्र अथवा चौकोर लिखावट जिसमें यह दिखलाया जाता है कि किसी के जन्म के समय कौन-कौन से ग्रह किस-किस लग्न या स्थान में थे जिसके आधार पर उसके सारे जीवन के शुभाशुभ फल बतलाये जाते हैं। जन्म-पत्री का मुख्य और मूल भाग। ३. कुंडलिनी। ४. गेंडुरी। ५. डफली नाम का बाजा। ६. इमरती या जलेबी नाम की मिठाई। ७. गुडुच। गिलोय। ८. केवाँच। कौंछ। ९. कचनार। पुं० [सं० कुंडल+इनि] १. साँप। २. वरुण। ३. विष्णु। ४. मोर। ५. चितकबरा हिरन। ६. कुंडल। वि० १. जो कानों में कुंडल पहने हो। २. किसी प्रकार का कुंडल धारण करनेवाला।
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कुड़व  : पुं० [सं०√कुंड् (मापना)+कवन्, नलोप] १. अन्न मापने का एक पुराना मान जिसमें पाव भर के लगभग अन्न आता है। २. उक्त मान का पात्र।
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कुंडा  : पुं० [सं० कुंड] १. चौड़े मुंह का मिट्टी का बना हुआ बड़ा मटका। २. उक्त में भरकर देवी-देवताओं को चढ़ाया जानेवाला प्रसाद अथवा संबंधियों के यहाँ भेजी जानेवाली मिठाई। पुं० [सं० कुंडल] १. किवाड़ की चौखट में लगा हुआ कोढ़ा, जिसमें साँकल फँसाते हैं। २. कुश्ती का एक दाँव,जिसमें दाँव लगानेवाले के शरीर की मुद्रा कुंडलाकार हो जाती है। पुं० [?] जहाज के अगले मस्तूल का चौथा खंड। तिरकट। ताबर डोल।
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कुड़ा  : पुं० [सं० कुटज] इद्रजौ का वृक्ष। कुरैया। पुं० =कुढ़ा।
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कुंडाला  : पुं० [सं० कुंड] मिट्टी की वह कूँड़ी या पथरी जिसमें कलाबत्तू बनानेवाले टिकुरियों पर कलाबत्तू लपेटकर रखते हैं।
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कुड़ाली  : स्त्री० [सं० कुठारी] कुल्हाड़ी। (लश०)।
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कुंडाशी (शिन्)  : पुं० [सं० कुंड√अश् (भोजन करना)+णिनि] १. कुंडा। (जारज पुत्र) का अन्न खानेवाला व्यक्ति। २. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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कुंडि  : स्त्री० [सं० कुंड] लोहे का टोप। कूँड़। उदाहरण—संड-मुंड सब टूटहिं सिउँ बकतर औ कुंडि।—जायसी।
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कुड़ि  : पुं० [सं०√कुट्+इन्व] शरीर।
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कुंडिक  : पुं० [सं० ] धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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कुंडिका  : स्त्री० [सं० कुंड+कन्-टाप्, इत्व] १. पत्थर का बना हुआ बर्तन। कूँड़ी। पथरी। २. छोटा कुंड या तालाब। ३. कमंडल। ४. ताँबे का बना हुआ हवन पात्र। ५. एक उपनिषद् का नाम।
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कुंडिनपुर  : पुं० [सं० कुंडिन√कुंड+इनच्, कुंडिन-पुर, ष० त०] विदर्भ (बरार) का एक प्राचीन नगर।
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कुँडिया  : स्त्री० [सं० कुंड] शोरे के कारखाने का चौखूँटा गड्ढा। स्त्री०=कूँड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुड़िला  : स्त्री० [सं०√कुड्+इलच्, टाप्] पानी पीने या रखने का बरतन। जल-पात्र।
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कुंडी  : स्त्री० [सं०√कुंड+इन्-ङीष्] १. बड़े कटोरे के आकार का एक प्रकार का पात्र। कूँड़ी। २. दरवाजा बंद करने की जंजीर। मुहावरा—कुंडी खटखटाना=कुंडी से खट-खट शब्द करते हुए दरवाजा खोलने का संकेत करना। ३. जंजीर या श्रंखला की कोई कड़ी। ४. किसी प्रकार की मंडलाकार रचना। छल्ला। जैसे—घड़ी या लंगर में लगी हुई कुंडी। ५. मुर्रा, भैंस, जिसके सींग छल्ले की तरह घूमे हुए होते हैं।
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कुडी  : स्त्री० [सं०√कुट्+क, ङीष्] झोंपड़ी। कुटी।
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कुड़ी  : स्त्री० [पं०] दे० ‘लड़की’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुडुक  : वि० स्त्री०=कुड़क।
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कुंडू  : पुं० [देश] काले रंग का एक पक्षी, जिसका कंठ और मुँह सफेद तथा पूँछ पीली होती हैं।
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कुडेर  : स्त्री० [हिं० कुडेरना] कुरिया में से राब निकालने के लिए बनाई हुई नाली।
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कुडेरना  : स० [देश] राब के बोरों को एक दूसरे पर इस प्रकार रखना कि उनमें की जूसी बहकर निकल जाय।
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कुंडोदर  : पुं० [सं० कुंड-उदर, ब० स०] शिव का एक गण।
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कुडौल  : वि० दे० ‘बेडौल’।
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कुड्य  : पुं० [सं०√कुड्+यत्] १. दीवार। २. उत्सुकता।
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कुड्य-पुच्छा  : स्त्री० [ब० स०] छिपकली।
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कुड्य-मत्सी  : स्त्री० [उपमि० स०] छिपकली।
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कुड्य-मत्स्य  : पुं० [मध्य० स०] छिपकली।
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कुड्यच्छेदी (दिन्)  : पुं० [सं० कुड्य√छिद् (काटना)+णिनि] सेंध लगानेवाला चोर।
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कुढंग  : पुं० [सं० कु+हिं० ढंग] १. अनुचित या बुरा ढंग। २. बुरी चाल। अनरीत। वि० बुरे ढंग या प्रकार का।
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कुढंगा  : वि० [हिं० कुढंग०] [स्त्री, कुंढगी] १. जिसकी बनावट का ढंग ठीक न हो। बेंढंगा। २. कुरूप। भद्दा। ३. जो ठीक ढंग से काम न करता हो। बेढंगा। ४. जिसका आचरण या व्यवहार ठीक न हो।
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कुढंगी  : वि० [हिं० कुढंग०] कुमार्गी। आचरण-हीन।
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कुढ़न  : स्त्री० [हिं० कुढ़ना] कष्ट, विपत्ति आदि के कारण मन में होनेवाला संताप। कुढ़ने की क्रिया या भाव। मन-ही-मन होनेवाला दुःख या सन्ताप जिससे मनुष्य विकल तथा चिंतित बना रहे।
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कुढ़ना  : अ० [सं० कुद्ध, प्रा० कुड्ढ] [भाव० कुढ़न] १. किसी प्रकार का कष्ट पड़ने पर मन-ही-मन दुःखी या विकल होना। जैसे—पुत्र शोक में माता का कुढ़-कुढ़ कर मरना। २. किसी बात या व्यक्ति की ओर से मन ही मन दुःखी और विरक्त होना। जैसे—लड़के की नालायकी से कुढ़ना।
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कुढब  : वि० [सं० कु+हिं० ढब] १. बुरे ढंग या ढब का। बेढब। २. कठिन। विकट।
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कुँढ़वा  : पुं० [सं० कुंड़] मिट्टी की कुल्हिया। पुरवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुढ़ा  : पुं० [अ० करहा] सूजाक के रोग में पेशाब की नली में हो जानेवाली गाँठ, जिससे पेशाब रुकता और बहुत पीड़ा होती है।
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कुढ़ाना  : स० [हिं० कुढ़ना] किसी को कुढ़ने में प्रवृत्त करना। दुःखी और विकल करना।
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कुण  : पुं,० [सं०√कुण् (शब्द करना)+क] १. चील। २. जमी हुई मैल। किट्ट। सर्व०=कौन। (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुणक  : पुं० [सं० कुण्+कन्] पशु का छोटा बच्चा।
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कुणप  : पुं० [सं०√क्वण (शब्द)+कपन्, संप्रसारण] १. मृत शरीर। लाश। शव। २. बरछा। भाला। ३. राँगा। ४. इंदुदी या हिंगोट का वृक्ष।
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कुणपा  : स्त्री० [सं० कुणप+टाप्] छोटा भाला। बरछी।
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कुणपाशी (शिन्)  : पुं० [सं० कुणप√अश् (खाना)+णिनि] १. वह जीव या जन्तु जो मृत शरीर खाता है। जैसे—गिद्ध, गीदड़ आदि। २. एक प्रकार के प्रेत, जिनके संबंध में यह प्रसिद्ध है कि वे मृत शरीर खाते हैं।
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कुणि  : पुं० [सं०√कुण्+इन्] १. तुन का पेड़। २. वह जिसके हाथ टूटे हों या बेकाम हो गये हों।
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कुंत  : पुं० [सं० कु√उन्दं( भिगोना)+त (बा०)] १. भाला। बरछा। २. कौडिल्ला। गवेधुक (पक्षी) ३. जूँ नाम का कीड़ा। ४. किसी प्रकार का उग्र, क्रूर या प्रचंड मनोभाव।
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कुंतः (स्)  : अव्य० [सं० किम्+तसिल्, कु० आदेश] १. किस जगह। कहाँ। २. किस प्रकार। कैसे।
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कुतक  : पुं० =कुतका।
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कुतका  : पुं० [हि० गतका] १. मोटा डंडा। सेंटा। २. पुरी के साथ खेलने का गदका। ३. भाँग घोंटने का डंडा। भँग-घोंटना। ४. दाहिने हाथ का अँगूठा (परिहास और व्यंग्य) जैसे—किसी के कुतका दिखाना।
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कुतना  : अ० [हिं० कूतना का अ०] कूतने की क्रिया होना। कूता जाना।
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कुतप  : पुं० [सं० कु√तप् (तपना)+अच्] १. दिन का आठवाँ मुहूर्त। मध्याह्र। २. वे वस्तुएँ जिनकी (मध्याह्र के समय) श्राद्ध में आवश्यकता होती है। ३. सूर्य। ४. अग्नि। ५. एक प्रकार का पुराना बाजा। ६. बकरी के बालों का बना हुआ कंबल। ७. द्विज। ब्राह्मण। ८. अतिथि। मेहमान। ९. बहन का लड़का। भांजा।
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कुतब  : पुं० =कुतुब।
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कुतरन  : पुं० [हिं० कुतरना] कुतरा हुआ अंश या टुकड़ा। पुं० दे० ‘कतरन’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुतरना  : स० [सं० कर्त्तन=कतरना] १. दाँतों की सहायता से किसी चीज का थोड़ा-सा अंश काटकर अलग करना। जैसे—चूहों का कपड़े या कागज कुतरना। २. बीच में पड़कर किसी चीज का कुछ अंश अपने लिए निकाल लेना। जैसे—बीस रुपये में से पाँच तो आपने ही बीच में कुतर लिये।
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कुतरी  : स्त्री०=कथरी। (गुदड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुतर्की (र्किन्)  : पुं० [सं० कुतर्क+इनि] अनुचित, असंगत या व्यर्थ के तर्क करनेवाला। कठ-हुज्जती।
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कुंतल  : पुं० [सं० कुंत√ला (लेना)+क] १. सिर के बाल। केश। २. जौ। ३. हल। ४. प्याला। ५. एक प्रकार का सुंगधित द्रव्य। ६. सूत्रधार। ७. संगीत में संपूर्ण जाति का एक राग। ८. कोंकण और बरार के बीच का एक प्राचीन जनपद। ९. राम की सेना का एक बंदर। १॰. आज-कल के हैदराबाद के दक्षिण-पश्चिमी प्रदेश का पुराना नाम। वि० [स्त्री० कुंतला] जिसके सिर के बाल बड़े-बड़े हों।
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कुंतल-वर्द्धन  : पुं० [सं० वर्धन√वृध् (बढना)+णिच्+ल्यु-अन, कुंतल-वर्धन, ष० त०] भृंगराज या भंगरैया नामक वनस्पति, जिसका तेल सिर के बाल बढ़ाता है।
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कुंतलवाही (हिन्)  : पुं० [सं० कुंतल√वह् (ढोना)+णिनि] [स्त्री० कुंतलवाहिनी] वह जो राजाओं की सवारी के साथ भाला या बरछा लेकर चलता हो। भाला-बरदार। बरछैत। उदाहरण—कुंतलवाही निपुन साहसी सजग सजीले।—रत्ना०।
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कुंतला  : स्त्री० [सं० कुंतल+अच्-टाप्] लंबे केशोंवाली स्त्री।
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कुतला  : पुं० [हिं० कतरना] हँसिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुंतलिका  : स्त्री० [सं० कुंतल+ठन्-इक,टाप्,इत्व] १. एक प्रकार की वनस्पति। २. मक्खन आदि काटने या निकालने का चम्मच।
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कुंतली  : स्त्री० [सं० कुंत=भाला] १. चाकू। २. मधुमक्खी की एक जाति।
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कुतवार  : पुं० [हिं० कूतना+वार (प्रत्य)] कुतवार का काम, पद या पारिश्रमिक। स्त्री०-कोतवाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुतवाल  : पुं० =कोतवाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुतवाली  : स्त्री०=कोतवाली।
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कुंता  : =कुंती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुतार  : पुं० [सं० कु+हिं० तार] १. कार्य सिद्ध न होने की स्थिति। २. सुमति का अभाव। अंडस। असुविधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुताही  : स्त्री०=कोताही।
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कुंति  : पुं० [सं०√कम् (चाहना)+झिच्-अन्त्, नि० सिद्धि] मध्य प्रदेश का एक प्राचीन प्रदेश जो अवंति के पास था।
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कुंति-भोज  : पुं० [मध्य० स०] महाभारतकालीन एक राजा जिन्होंने पृथा को गोद लिया था।
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कुतिया  : स्त्री० [हिं० कुत्ती] १. कुत्ते की मादा। कूकरी। कुत्ती। २. लाक्षणिक अर्थ में बदचलन स्त्री।
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कुंती  : स्त्री० [सं० कुंति+ङीष्] कुरु-नरेश पाण्डु की ज्येष्ठ पत्नी, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और कर्ण की माता। स्त्री० [सं० कुंत] १. बरछी। भाला। २. =कुंतली। स्त्री० [देश] मध्य बंगाल, बरमा आदि देशों में होनेवाला कुंडा जाति का एक पेड़।
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कुतुक  : पुं० [सं०√कुत्+उकङ् (बा०)]=कौतुक।
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कुतुप  : पुं० [सं० कुतप, पृषो० सिद्धि] १. दिनमान का आठवाँ मुहुर्त। कुतप। २. चमड़े का कुप्पा या कुप्पी।
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कुतुब  : पुं० [अ० कुत्व] ध्रुव तारा।
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कुतुब-फरोश  : पुं० [अ० कुतुब-किताबें+फा० फरोश] पुस्तक-विक्रेता।
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कुतुबखाना  : पुं० [अ० कुतुब=किताब का बहु०+फा० खानः] पुस्तकालय।
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कुतुबनुमा  : पुं० [अ०] दिशा सूचक यंत्र, जिसकी सूई की नोक सदा उत्तर की ओर रहती हैं। दिग्दर्शक यंत्र।
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कुतुबशाही  : स्त्री० [अ० कुत्व+फा० शाह] पन्द्रहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के पाँच बहमनी राज्यों में से एक जिसकी राजधानी गोलकुंडा थी।
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कुतुरझा  : पुं० [देश] हरे रंग का एक पक्षी जिसकी चोंच पीठ और पैर लाल होते हैं।
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कुतुली  : स्त्री० [देश] इमली की कोमल फली जिसके बीज मुलायम होते हैं।
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कुतू  : स्त्री० [सं० कु√तन्+कू (बा०)] चमड़े की कुप्पी जिसमें तेल आदि तरल पदार्थ रखे जाते हैं।
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कुतूणक  : पुं० =कुथुआ।
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कुतूहल  : पुं० [सं० कुतू√हल्+अच्] [वि० कुतूहली] १. किसी नई और विलक्षण चीज या रहस्य-मयी बात को जानने, सीखने आदि के लिए मन में होनेवाली प्रबल इच्छा। किसी अद्भुत या विलक्षण विषय में होनेवाली जिज्ञासा। (क्यूरियासिटी) २. आश्चर्य। ३. कौतुककीड़ा।
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कुतूहली (लिन्)  : वि० [सं० कुतूहल+इनि] १. (व्यक्ति) जिसकी अनोखी और नई बातें सुनने, देखने आदि में स्वभावतः विशेष रुचि होती है (क्यरि्अ) २. जिसका मन खेलवाड़ों में रमता हो। खिलवाड़ी।
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कुत्तक  : स्त्री० [सं० कुतुक] १. कोई बात जानने की उत्सुकता। २. कौतुक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुत्ता  : पुं० [सं० कुक्कुर० प्रा० कुत्तु, कुत्ती, द्र० कुक्, कूगु, गु० कुत्रो, मरा० कुत्रा] [स्त्री० कुतिया, कुत्ती] १. गीदड़ भेड़िये आदि की जाति का एक प्रसिद्ध पालतू जानवर। २. लाक्षणिक अर्थ में तुच्छ, दुष्ट, लुच्चा या लोभी व्यक्ति। पद—कुत्ते की दुम=ऐसा व्यक्ति जो समझाने-बुझाने अथवा दंड दिये जाने पर भी अपनी बुरी आदतें न छोड़ता हों। हावरा-कुत्ते घसीटना=गर्हित या तुच्छ काम करना। ३. लपटौआ नाम की घास। ४. बंदूक का घोड़ा। ५. लकड़ी का वह टुकड़ा जिसके नीचे देने पर दरवाजा नही खुल सकता। सिटकिनी। ६. किसी यंत्र में का वह पुरजा जो किसी चक्कर को पीछे की ओर घूमने से रोकता है। ७. रहस्य संप्रदाय में काल या मृत्यु।
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कुत्ती  : स्त्री० [हिं० कुत्ता] कुत्ते की मादा। कुतिया।
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कुत्ते-खसी  : स्त्री० [हिं० कुत्ता+खसी] १. कुत्तों की तरह स्वार्थपूर्ण वृत्ति से नोचने-खसोटने की क्रिया। २. बहुत ही गर्हित और तुच्छ काम।
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कुत्र  : क्रि० वि० [सं० किम्+बल्] किस स्थान पर ? किस जगह। कहाँ।
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कुत्स  : पुं० [सं०√कुत्स+अच्] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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कुत्सन  : पुं० [सं०√कुत्स+ल्युट्-अन] [वि० कुत्सित] निंदा या भर्त्सना करना।
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कुत्सा  : स्त्री० [सं०√कुत्स+अ, टाप्] निंदा। बुराई।
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कुत्सित  : वि० [सं०√कुत्स+क्त] १. जिसकी निंदा या भर्त्सना की गई हो। निंदित। २. जो निंदा या भर्त्सना किये जाने का पात्र हो। अधम। नीच। पु० १. कुष्ठ नाम की ओषधि। २. कुड़ा। कोरैया।
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कुत्स्य  : वि० [सं०√कुत्स+ण्यत्] जिसकी निंदा या भर्त्सना की जानी चाहिए। निंदा का पात्र।
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कुथ  : पुं० [सं०√कुथ (निष्कर्ष)+क, नलोप] १. कंथा। (गुदड़ी)। २. कुश नामक घास। ३. हाथी की झूल। ३. पालकी या रथ के ऊपर आड़ करने के लिए डाला जानेवाला कपड़ा। ओहार
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कुथना  : अ० [हिं० कूथना] बहुत मार खाना। पीटा जाना।
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कुथरू  : पुं० [सं० कुतूण] आँख का एक रोग। कुथुआ (दे०)।
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कुथा  : स्त्री० [सं० कुथ+टाप्] कन्या।
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कुंथु  : पुं० [सं०√कुंथ् (श्लेष)+उन्] वर्तमान अवसर्पिणी का सत्रहवाँ अर्हत। (जैन)।
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कुथुआ  : पुं० [सं० कुतूणक] एक रोग जिसके कारण पलकों में छोटे-छोटे दाने पड़ जाते हैं और आँखें दुखने लगती हैं।
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कुंद  : पुं० [सं० कुं√दा (देना)+क, नि० मुम्] १. जूही की तरह का एक पौधा। २. इस पौधे के सफेद फूल जिनसे दाँतों की उपमा दी जाती है। ३. कनेर का पेड़। ४. कमल। ५. विष्णु। ६. कुंदुर नामक गोंद। ७. एक प्राचीन पर्वत। ८. नौ निधियों में से एक। ९. उक्त के आधार पर नौ की संख्या। १॰. खराद। उदाहरण—कुंदै फेरि जानि गिउ काढ़ी।—जायसी। वि० [फा०] १. गुठला। कुंठित। २. मंद।
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कुंद-जेहन  : वि० [फा० कुन्द+अ० जहन] जिसकी बुद्धि मंद या मोटी हो। पुं० मंद बुद्धिवाला व्यक्ति।
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कुदई  : स्त्री०=कोदों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुदकना  : अ० [हिं० कूदना] प्रसन्न होने पर छोटे-छोटे डग भरते हुए बार-बार उछलते चलना। उदाहरण—मेमनों से मेघों के बाल कुदरते थे प्रमुदित गिरि पर।—पंत।
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कुदक्का  : पुं० [हिं० कूदना] उछल-कूद। मुहावरा—कुदक्का मारना=(क) लंबी छलांग मारना। (ख) व्यर्थ इधर-उधर कूदते फिरना।
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कुंदण  : पुं० =कुंदन।
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कुंदणपुरि  : पुं० =कुंडिनपुर।
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कुंदन  : पुं० [सं० कुंद=श्वेतपुष्प] १. बहुत अच्छे और साफ सोने का पतला पत्तर, जो प्रायः अवलेह के रूप में होता है और जिसकी सहायता से गहनों में नगीने जड़े जाते हैं। २. शुद्ध और स्वच्छ सोना। वि० उक्त प्रकार के सोने की तरह शुद्ध, सुंदर और स्वच्छ।
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कुंदन-साज  : पुं० [हिं० कुंदन+फा० साज] १. सोने से कुंदन का पत्तर बनानेवाला। २. कुंदन की सहायता से नगीने जड़नेवाला। ज़ड़िया।
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कुंदनपुर  : पुं० =कुंडिनपुर।
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कुँदना  : पुं० [सं० कंडु] बाजरे के पौधों में लगनेवाला एक रोग, जिसमें बाल में दाने न पड़कर राख-सी उड़ने लगती है। कंडो।
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कुंदम  : पुं० [सं० कुंद√मा (मान)+क] बिल्ली का बिल्ला।
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कुंदर  : पुं० [सं० कु√दृ (विदारण)+अच्, नि० मुम्] १. ओषधि के काम आनेवाली एक प्रकार की घास। कंडूर। खरच्छद। (निघंटु) २. विष्णु का एक नाम।
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कुदरत  : स्त्री० [अ०] १. शक्ति। सामर्थ्य। २. ईश्वरीय शक्ति। ३. प्रकृति। पद—कुदरत का खेल=प्रकृति अथवा ईश्वर की अदभुत लीला। ४. रचना।
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कुदरती  : वि० [अ०] १. ईश्वर या प्रकृति संबंधी। ईश्वरीय या प्राकृतिक। २. स्वाभाविक।
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कुदरा  : पुं० [सं० कुद्दाल] कुदाल। उद-कुदरा खुरपा बेल...।—सूदन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुँदरू  : पुं० १. एक प्रकार की लता जिसमें परवल की तरह फल लगते हैं। २. उक्त लता के फल, जिसकी तरकारी बनती है। बिम्बा-फल।
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कुदर्शन  : वि० [सं० कुगति० स०] १. जो देखने में भला न जान पड़े। कुरूप। भद्दा। २. जिसे देखना अशुभ माना जाता हो।
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कुंदला  : पुं० [?] एक तरह का तंबू या खेमा।
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कुदलाना  : स० [हिं० कूदना]=कुदाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुंदा  : पुं० [सं० स्कंद से फा० कुंदः] १. वृक्षों आदि के तने या मोटी डालों का बड़ा और मोटा टुकड़ा, जो अभी चीरकर काम में लाने के योग्य न बनाया गया हो। २. उक्त प्रकार की लकड़ियों का वह जोड़ा जिसमें अपराधियों के पैर फँसाकर उन्हें एक जगह बैठा रखते थे। विशेष—इसी प्रकार के दंड को पैर में ‘काठ मारना’ कहते थे। ३. उक्त प्रकार की लकड़ी का वह मोंगरा जिससे कपड़ों पर कुंदी की जाती है। ४. उक्त प्रकार की लकड़ी का वह टुकड़ा जिस पर रखकर बढ़ई लकड़ियां गढ़ते हैं। ठीहा। निहठा। ५. लकड़ी का वह टुकड़ा जो बंदूक के पिछले भाग में लगा रहता है। ६. औजारों आदि का दस्ता या मूठ। बेंट। ७. लकड़ी का वह टुकड़ा जिससे खोआ बनाने के समय दूध चलाया और कड़ाही के तल से रगड़ा जाता है। ८. उक्त के आधार पर दूध से तैयार किया हुआ खोआ। मावा। मुहावरा—कुंदा कसना या भनना=दूध गाढ़ा करके उससे खोआ तैयार करना। ९. कुश्ती लड़ने के समय प्रतिपक्षी को नीचे गिराकर उसकी गरदन पर कलई और कोहनी के बीचवाले भाग से (जिसका रूप बहुत कुछ लकड़ी के कुंदे के समान होता है) रगड़ते हुए किया जानेवाला आघात। घस्सा। घिस्सा। रद्दा। विशेष—यह भी कसरत या व्यायाम का एक अंग है। इससे एक ओर तो ऊपर वाले पहलवान के हाथ मजबूत होते हैं, और दूसरी ओर नीचे गिरे हुए पहलवान की गरदन मोटी होती है। पुं० [सं० स्कंध=कंधा] १. गरदन के दोनों ओर के भाग या विस्तार। कंधा। मुहावरा—(पक्षियों का) कुंदे जोड़, तौल या बाँधकर नीचे उतरना=दोनों ओर के पर समेटकर नीचे आना या उतरना। २. गुड्डी या पतंग के वे दोनों कोने जो कमानी की सहायता से सीधे रखे जाते हैं। ३. पायजामें की कली, जिससे दोनों पाँवों के ऊपरी भाग बीच से जुड़े रहते हैं। पुं०=कुंडा।
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कुदाई  : वि० [हिं० कुदांव] १. अनुचित ढंग से अथवा अनुपयुक्त अवसर पर स्वार्थ साधने वाला। २. विश्वासघाती।
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कुदाई  : वि०=कुदाँई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुदान  : स्त्री० [हिं० कूदना] १. ऊँचे स्थान पर से नीचे स्थान पर कूद कर आने या प्रतिक्रमात् उछलकर जाने की क्रिया या भाव। २. उतनी दूरी जितनी एक बार में कूदकर पार की जाय। ३. वह स्थान जहाँ से अथवा जहाँ पर कूदा जाय (क्व०)
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कुदाना  : स० [हिं० कूदना] १. किसी को कूदने में प्रवृत्त करना। जैसे—घोड़ा कूदाना। २. किसी निर्जीव वस्तु को उछलने में प्रवृत्त करना। जैसे—गेंद कुदाना।
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कुदाम  : पुं० [सं० कु+हिं०दाम] खोटा या जाली सिक्का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुदाय  : पुं० =कुदाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुदार  : स्त्री०=कुदाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुदारी  : स्त्री०=कुदाली।
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कुदाल  : पुं० [सं० कुद्दाल, कुद्दार, प्रा० कुदृलपा० कुद्दाली, गु० कोदालों, सि० कोड्री, पं० कुदाल, बं० कोदाल, मरा कुदल, द्रा० कोडालि] [स्त्री० अल्पा० कुदाली] जमीन या मिट्टी खोदने का एक प्रसिद्ध उपकरण जिसमें लकड़ी का बेंट लगा होता है।
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कुदाली  : स्त्री०=कुदाल।
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कुदाँव  : पुं० [सं० कु+हिं० दाँव] १. जान बूझकर चली जानेवाली ऐसी अनुचित चाल जिससे किसी की बहुत बड़ी हानि हो सकती हो। २. विश्वासघात। ३. अनुपयुक्त अवसर या स्थान। ४. मर्म स्थान।
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कुदास  : पुं० [?] जहाज की पतवार का खंभा। (लश०)
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कुदिन  : पुं० [सं० कुगति० स०] १. ऐसा दिन या समय जिसमें कोई व्यक्ति कठिनाई या संकट में पड़ा हो। बुरे दिन। २. ऐसा दिन जिसमें कोई अशुभ घटना घटे। ३. दिन का वह परिमाण जो एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक होता है। सावन दिन।
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कुदिष्टि  : स्त्री०=कुदृष्टि।
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कुंदी  : स्त्री० [हिं० कुंदा] १. धुले या रंगे हुए कपड़ों को लकड़ी की मोगरी से कूटने की वह क्रिया जो उनकी तह जमाने और उनमें चमक तथा चिकनाई लाने के लिए की जाती है। २. उक्त के आधार पर किसी को अच्छी तरह मारने-पीटने की क्रिया।
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कुंदीगर  : पुं० [हिं० कुंदी+फा० गर] कपड़ों आदि की कुंदी करनेवाला कारीगर।
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कुंदु  : पुं० [सं० कुं√दृ (विदारण)+डु, बा० मुम्] चूहा।
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कुंदुर  : पुं० [सं० कुं√दृ+उरन्, मुम्] एक प्रकार का सुगंधित पीला गोंद जो सलई के पेड़ों से निकलता है। शल्लकीं-निर्यास।
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कुदूरत  : स्त्री० [अ०] १. द्वेष। २. मलिनता। मैल।
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कुदृष्टि  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] १. अनधिकारपूर्वक तथा बुरे उद्देश्य से किसी की ओर देखने की क्रिया। २. ऐसी दृष्टि जिसका परिमाण या फल बुरा हो। बुरी नजर।
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कुँदेरना  : स० [सं० कुदलन्=खोदना] खुरचना या छीलना। कुरेरना।
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कुँदेरा  : पुं० =कुनेरा।
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कुदेव  : पुं० [सं० कु=भूमि-देव=देवता स० त०] ब्राह्मण। पु० [सं० कु=बुरा+देव० कुगति० स०] १. राक्षस। २. जैनियों के अनुसार अन्य धर्मों के देवता।
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कुदौनी  : स्त्री० [हिं० कूदना] १. कूदने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुद्दाल (ल)  : पुं० =कुदाल।
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कुद्ध  : वि०=क्रुद्ध।
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कुद्रंक  : पुं० [सं० पृषो०] घंटाघर।
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कुद्रव  : पुं० [सं० कु√द्रु (गति)+अच्०] कोदों। पुं० [देश०] तलवार चलाने के ३२ हाथों में से एक।
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कुधर  : पुं० [सं० कुध्र] १. पर्वत। पहाड़। २. शेषनाग।
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कुधातु  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] १. बुरी धातु। २. मिश्रित धातु। ३. लोहा।
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कुधी  : वि० [सं० ब० स०] दुष्ट या बुरी बुद्धिवाला।
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कुनकुन  : वि०=कुनकुना।
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कुनकुना  : वि० [सं० कदुष्ण, प्रा० कउण्ह] (तरलपदार्थ) जो अधिक गरम न हो। थोड़ा या हलका गरम।
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कुनख  : पुं० [सं० ब० स०] एक रोग जिसमें नख खराब हो जाते और पककर गिर जाते हैं। स्त्री०=अनख।
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कुनखी (खिन्)  : वि० [सं० कुनख+इनि] १. जो कुनख रोग से पीड़ित हो। २. मलिन या बुरे नखोंवाला। वि०=अनखी।
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कुनना  : स० [सं० क्षुणन या घुणन=घुमाना] १. चमकीला या चिकना बनाने के लिए किसी वस्तु को खरीदना। जैसे—बरतन कुनना। २. खरोचना। छीलना।
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कुनप  : पुं० =कुणप।
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कुनबा  : पुं० [सं० कुंटुब, प्रा० कुडुंब] एक साथ रहनेवाले एक ही परिवार के सब लोग। मुहावरा—कुनबा जोड़ना=कोई असंगत और विलक्षण रचना प्रस्तुत करना। उदाहरण—कहीं की ईट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा।—कहावत।
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कुनबायती  : वि० [हिं० कुनबा] बड़े परिवारवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुनबी  : पुं० [सं० कुंटुब, हिं० कुनबा] एक हिन्दू जाति जो प्रायः खेती बारी करती है।
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कुनलई  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा कँटीला झाड़।
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कुनवा  : पुं० [हिं० कुनना] [स्त्री० कुनवी] खराद पर चढ़ाकर लकड़ी, लोहे आदि को कुनने या सुडौल करनेवाला व्यक्ति।
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कुनह  : स्त्री० [फा० कीनः] [वि० कुनही] किसी के प्रति मन में होनेवाली वह शत्रुतापूर्ण भावना जो बहुत दिनों से मन में दबी चली आ रही हो। पुराना द्वेष या वैर।
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कुनही  : वि० [हिं० कुनह] जिसके मन में किसी के प्रति कुनह हो।
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कुनाई  : स्त्री० [हिं० कुनाना=खरादना, खुरचना] १. लकड़ी, लोहे आदि का खराद, खुरच या छीलकर सुडौल बनाने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. लकड़ी, लोहे आदि के वे छोटे या महीन कण जो खरादने, खुरचने छीलने आदि से निकलते हैं। बुरादा। ३. कोयले आदि का महीन चूरा।
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कुनाभि  : पुं० [सं० कुगति० स०] १. नौ प्रकार की निधियों में से एक। २. बवंडर।
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कुनाम (न्)  : पुं० [सं० कुगति० स०] अपयश। बदनामी।
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कुनाल  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की पहाड़ी चिड़िया।
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कुनालिका  : स्त्री० [सं० कुनाल+ठन्-इक, टाप्, इत्व] कोयल।
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कुनित  : वि०=क्वणित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुनिया  : पुं० [हिं० कुनना] कुनवा (दे०)। वि० [हिं० कूतना] कूतनेवाला। स्त्री०=कोनिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुनेरा  : पुं० [हिं० कुनना] वह जो लकड़ी, लोहे आदि की कुनाई करता हो। खराद का काम करनेवाला व्यक्ति।
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कुनैन  : स्त्री० [अं० क्विनिन] सिनकोना नामक पेड़ की चाल के रस से बनाई जानेवाली एक पाश्चात्य औषध जो मलेरिया के कीटाणुओं का नाश करती है।
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कुन्नना  : अ० [फा० कीनः] क्रोध या रोष करना। उदाहरण—मनु मृगराज म्रिगीनि जानि कुन्नीय दिख्खिवलि।—चंदवरदाई।
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कुप  : पुं० [देश०] घास, भूसा पुआल आदि का ढेर जो खलिहान में लगाया जाता है।
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कुपक  : पुं० एक प्रकार का सुरीला पक्षी जो प्रायः पाला जाता है।
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कुपढ़  : वि० [सं० कु+हिं० पढ़ना] १. अनपढ़। अ-शिक्षित। २. बेवकूफ। मूर्ख।
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कुपत्थ  : पुं० =कुपथ्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुपत्थी  : वि० [सं० कुपथ्य] कुपथ्य करनेवाला। असंयमी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुपंथ  : वि० [सं० कुपथ] १. कुपथ। बुरा मार्ग। २. दुराचरण। निषिद्ध आचरण। ३. बुरा मत।
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कुपथ  : पुं० [सं० कुगति० स०] १. कुमार्गी। कु-पंथ। २. निषिद्ध आचरण। बुरी चाल।
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कुपंथी  : वि० [हिं० कुपथ+ई (प्रत्यय)] बुरे मार्ग पर चलनेवाला कुमार्गी।
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कुपथ्य  : पुं० [सं० कुगति० स०] १. स्वास्थ्य को हानि पहुँचानेवाला आहार-विहार। २. रोगी होने की दशा में किया जानेवाला उक्त प्रकार का आहार-विहार। पद—परहेजी।
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कुपा  : पुं० [स्त्री० कुप्पी] दे० ‘कुप्पा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुपाठ  : पुं० [सं० कुगति० स०] बुरी सलाह। किसी को अनुचित या बुरे काम के लिए दिया जानेवाला परामर्श या पढ़ाई जानेवाली पट्टी। कुमंत्रणा।
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कुपाठी (ठिन्)  : वि० [सं० कुपाठ+इनि] १. दूसरो को कुपाठ पढ़ानेवाला। २. जिसे दुष्ट उद्देश्य या बुरे काम के लिए सिखा-पढ़ाकर तैयार किया गया हो।
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कुपात्र  : पुं० [सं० कुगति० स०] धार्मिक दृष्टि से वह व्यक्ति जिसे दान देना शास्त्रों में निषिद्द हो। वि० १. बुरा या अयोग्य पात्र। २. अयोग्य। नालायक।
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कुपायण  : वि० [हिं० कोप] १. क्रोध से युक्त। २. बकवादी। उदाहरण—कहा कुपायण मुख कहै हमहीं दुरगत जाइ।—जटमल।
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कुपार  : पुं० [सं० अकूपार] समुद्र।
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कुपित  : वि० [सं०√कुप् (क्रोध करना)+क्त] १. कोप करनेवाला। जिसे गुस्सा चढ़ा हो। २. अप्रसन्न। नाराज।
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कुपीन  : पुं० =कौपीन।
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कुपुत्र  : पुं० [सं० कुगति० स०] अयोग्य या अनाज्ञाकारी पुत्र। कपूत।
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कुपूत  : वि० [कु+पूत] जो पूत अर्थात् पवित्र न हो। उदाहरण—भो अकरून करूनाकरौ यहि कपूत कलिकाल। पुं०=कुपुत्र।
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कुप्पक  : पुं० [सं० कोप] घोड़ों का एक रोग जिसमें ज्वर आता और नाक से पानी बहता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुप्पना  : अ० [सं० कोप] कोप या क्रोध करना। गुस्सा होना। उदाहरण—मुनि कुप्पिय प्रथिराज जान पुंछीय श्रप्पमलि।—चंदबरदाई।
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कुप्पल  : पुं० [देश०] एक प्रकार की सज्जी।
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कुप्पा  : पुं० [सं० कूपक, प्रा० कूपय, गु० कुप्पो, कन्न, कोप्पै, बँ० कुपी, मरा० कुप्पी] [स्त्री० अल्पा० कुप्पी] १. घी, तेल आदि रखने के लिए बना हुआ चमड़े का एक प्रकार का गोल या चौकोर बड़ा पात्र। २. लाक्षणिक अर्थ में मोटा-ताजा व्यक्ति। मुहावरा—(किसी का) फूलकर कुप्पा होना=(क) बहुत अधिक मोटा हो जाना। (ख) प्रसन्नता से फूले न समाना। (मुँह) कुप्पा होना=क्रोध या नाराजगी के कारण मुँह फूल जाना। (कोई चीज) कुप्पा होना=सूज जाना। सूजना।
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कुप्पासाज  : पुं० [हिं० कुप्पा+फा० साज] कुप्पे बनानेवाला कारीगर।
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कुप्पी  : स्त्री० [हिं० कुप्पा] छोटा कुप्पा।
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कुफुत  : पुं० [फा० कोफ्त] १. मन-ही-मन होनेवाली विकट चिंता। २. अफसोस। रंज।
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कुफुर  : पुं० [अ० कुफ्र] मुसलमानी मत से भिन्न या दूसरा मत। विशेष—दे० कुफ्र।
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कुफेन  : स्त्री० [सं० ब० स०] काबुल नदी का प्राचीन नाम।
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कुफ्र  : पुं० [अ० कुफ्र] १. इस्लाम धर्म या मत के अनुसार उससे भिन्न अन्य धर्म या मत। २. ऐसा आचरण,बात या सिद्धान्त जो इस्लाम-धर्म के प्रतिकूल या विरुद्ध हो। ३. दुराग्रह। हठ। ४. कृतध्नता।
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कुफ्ल  : पुं० [अ० कुफ्रल] ताला।
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कुफ्ली  : स्त्री० दे० ‘कुल्फी’।
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कुब  : पु०=कूबड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुबग  : पुं० [?] गिलहरी की तरह का एक प्रकार का छोटा जंतु जिसके शरीर पर चित्तियाँ होती है।
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कुबज  : वि०=कुब्ज। (टेढ़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुबजा  : स्त्री०=कुब्जा। वि० १. =कुब्ज (टेढ़ा) २. =कुबड़ा।
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कुबंड  : पुं० [सं० कोदंड] धनुष। वि० [हिं० कूबड़] टूटे या विकृत अंगोंवाला । विकलांग।
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कुबड़ा  : पुं० [सं० कुब्ज] [स्त्री० कुबड़ी] ऐसा व्यक्ति जिसकी पीठ आगे की ओर झुकी हुई हो। वि० झुका हुआ। टेढ़ा। वक्र। उदाहरण—चंद दूबरो कूबरो तऊ नखत तें बाढ़ि।—रहीम।
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कुबड़ापन  : पुं० [हिं० कुबड़ा+पन (प्रत्यय)] कुबड़े होने की अवस्था या भाव।
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कुबड़ी  : स्त्री० [हिं० कुबड़ा] १. ऐसी स्त्री जिसकी कमर आगे की ओर झुकी हो। २. ऐसी छड़ी जिसका ऊपरी भाग कुछ झुका हुआ हो। वि० टेढ़ी। वक्र।
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कुबत  : स्त्री० [सं० कु+हिं० बात] १. अनुचित, निदंनीय या बुरी बात। २. निन्दा। ३. बुरा आचरण या चाल-चलन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुबरी  : स्त्री० १. =कुबड़ी। २. =कुब्जा।
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कुबलयापीड़  : पुं० =कुबलयापीड़।
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कुबली  : स्त्री० [सं० कुवलय-भूमंडल (लाक्षणिक अर्थ में गोल)] गेंद की तरह गोल लपेटची हुई चीज। गोला।
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कुबहा  : वि० [हिं० कूबड़] १. (व्यक्ति) जिसकी पीठ पर कूबड़ हो। २. (पद्धार्थ) टेढ़ा। वक्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुबाक  : पुं० [सं० कुवाक्य] १. कुवचन। गाली। २. शाप। ३. अशुभ या बुरी बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुबानि  : स्त्री० [सं० कु+हिं० बान] अनुचित या बुरी आदत।
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कुबानी  : स्त्री० [सं० कु+बानी (वाणिज्य) बुरा वाणिज्य] दूषित या बुरा व्यवसाय। स्त्री० [सं० कु+वाणी] मुँह से निकली हुई अनुचित, अशुभ या बुरी बात।
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कुबासन  : स्त्री०=कुवासन।
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कुबिचार  : वि०=कुविचार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुबिचारी  : वि०=कुविचारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुबिजा  : स्त्री०=कुब्जा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुँबी  : स्त्री० [सं० कुंभी] १. कायफल। २. जल-कुंभी। २. एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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कुबुद  : पुं० [फा०-कबूद=चितकबरा] एक प्रकार का बगला।
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कुबेर  : पुं० =कुबेर।
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कुबेला  : स्त्री० [सं० कुवेला] १. अनुपयुक्त या बुरा समय। २. दुर्दिन।
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कुबोल  : पुं० [सं० कु+हिं० बोल] किसी को या किसी से संबंध में कही जानेवाली अनुचित, अशुभ या बुरा बात। बुरा वचन।
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कुबोलना  : पुं० [हिं० कुबोल] [स्त्री० कुबोलिनी] अनचुति, अशुभ या बुरी बातें कहने या बोलने वाला। कुभाषी।
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कुब्ज  : वि० [सं० कु√उब्ज् (सीधा करना)+अच्] [स्त्री० कुब्जा] १. जिसकी पीठ झुक गई हो या टोढ़ी हो। कुबड़ा। २. टेढ़ा। वक्र। पुं० एक रोग जिसमें पीठ कुछ टेढ़ी होकर आगे की ओर झुक जाती है।
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कुब्ज-कंठ  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का सन्निपात जिसमें रोगी के गले में पानी नहीं उतरता।
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कुब्जक  : पुं० [सं० कु√उब्ज्+ण्वुल्-अक] मालती। वि०=कुबड़ा।
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कुब्जा  : स्त्री० [सं० कुब्ज+टाप्०] १. कुबड़ी स्त्री। २. कंस की एक कुबड़ी दासी जो श्रीकृष्ण से प्रेम करती थी।
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कुब्जिका  : स्त्री० [सं० कुब्जक+टाप्, इत्व] १. आठ वर्ष की लड़की। २. दुर्गा का एक नाम।
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कुब्बा  : पुं० [हिं० कुबड़ा] [स्त्री० कुब्बी] कूबड़। डिल्ला। वि० १. टेढ़ा। २. कुबड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुंभ  : पुं० [सं० कुं√उभ् (पूर्ण करना)+अच्] १. धातु मिट्टी आदि का बना हुआ पानी रखने का घड़ा। कलश। विशेष—हमारे यहाँ जल से भरा हुआ घड़ा बहुत शुभ माना जाता है और इसी दृष्टि से इसका महत्त्व है। २. प्राचीन भारत में अन्न आदि की एक तौल या माप अर्थात् एक घड़ा भर अन्न। ३. मंदिरों आदि के शिखर पर होनेवाली (धातु, पत्थर आदि की) वह रचना, जिसकी आकृति औंधें घड़े के समान होती है। ४. हाथी के मस्तक के दोनों ओर के भाग,जो देखने में घड़े के आकार के होते हैं। ५. ज्योतिष में दसवी राशि, जिसमें कुछ तारों के योग से कुंभ या घड़े की-सी आकृति बनती हैं। ६. प्रति बारहवें वर्ष लगने वाला एक प्रसिद्ध पर्व जो सूर्य और बृहस्पति के कुछ विशेष राशियों में प्रविष्ट होने के समय पड़ता है और जिसमें उज्जैन, नासिक, प्रयाग, हरद्वार आदि तीर्थों में स्नान करने वाले यात्रियों की बहुत भीड़ होती है। ७. प्राणायाम की कुंभक नामक क्रिया, जिसमें हृदय को कुंभ मानकर बाहर की हवा खींचकर उसमें भरी जाती है। ८. वर्तमान अवसरर्पिणी के उन्नीसवें अर्हत् का नाम। (जैन)। ९. गौतम बुद्ध के पूर्व जन्म का एक नाम। १॰. प्रहलाद के पुत्र, दैत्य का नाम। ११. कुम्भकर्ण के एक पुत्र का नाम। १२. संगीत में एक राग जो श्रीराग का आठवाँ पुत्र कहा गया है। १३. वह व्यक्ति जिसने वेश्या रखी हो। १४. एक प्रकार का जंगली वृक्ष, जिसे कुंभी भी कहते हैं। १५. रहस्य संप्रदाय में हृदय रूपी कमल।
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कुंभ-कर्ण  : पुं० [ब० स०] एक प्रसिद्ध राक्षस, जो रावण का भाई और बहुत बड़ा बलवान था।
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कुंभ-जात  : वि० पुं० [पं० त०]=कुंभज।
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कुंभ-दासी  : स्त्री० [ष० त०] १. कुटनी। दूती। २. जल-कुंभी।
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कुंभ-मंडूक  : पुं० [स० त०] संसार के विस्तार से अपरिचित व्यक्ति। वह जो अपने ही परिमित क्षेत्र को सारा जगत् समझता हो।
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कुंभ-योनि  : पुं० [ब० स०] १. दे० ‘कुंभज’। २. गूमा नामक वृक्ष।
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कुंभ-संधि  : पुं० [स० त०] हाथी के मस्तक के बीचोबीच का गड्ढा, जिसके दोनों ओर के भाग कुंभ की तरह उठे हुए होते हैं।
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कुंभ-संभव  : पुं० [ब० स०] दे० ‘कुंभज’।
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कुंभ-हनु  : पुं० [ब० स०] रावण के दल का एक राक्षस।
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कुंभक  : पुं० [सं० कुंभ√कै (भासना)+क] प्राणायाम की वह क्रिया जिसमें साँस से हवा खींचकर उसे अन्दर रोक रखते हैं।
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कुंभकार  : पुं० [सं० कुंभ√कृ (करना)+अण्] १. मिट्टी का बर्तन तैयार करनेवाली एक जाति। कुम्हार। २. कुक्कुट। मुरगा।
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कुंभकारिका  : स्त्री० [सं० कुंभकारी+कन्-टाप्, ह्रस्व]=कुंभकारी।
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कुंभकारी  : स्त्री० [सं० कुंभकार+ङीष्] १. कुंभकार की स्त्री। २. मैनसिल। ३. कुलथी।
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कुंभज  : वि० [सं० कुंभ√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जिसकी उत्पत्ति घड़े से हुई हो। पुं० १. महर्षि अगस्त्य। २. वसिष्ठ। ३. द्रोणाचार्य (तीनों की उत्पत्ति घड़े से कही गई है।)
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कुँभड़ा  : पुं० =कुम्हाड़ा।
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कुंभनदास  : पुं० ब्रजभाषा के अष्टछाप के कवियों में एक प्रसिद्ध कवि तथा महात्मा।
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कुंभरी  : स्त्री० [सं० कुंभ√रा (देना)+क, ङीष्] दुर्गा का एक रूप।
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कुंभरेता (तस्)  : पुं० [ब० स०] अग्नि का रूप।
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कुंभला  : स्त्री० [सं० कुंभ√ला (आदाम)+क, टाप्] गोरखमुंडी।
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कुंभा  : स्त्री० [सं० कुंभ+टाप्] वेश्या। रंडी।
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कुंभाड़  : पुं० [सं० कुंभ-अंड, ब० स०] बाणासुर का एक मंत्री।
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कुंभार  : पुं० =कुम्हार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुंभिक  : पुं० [सं० कुंभ+ठन्-इक] नपुंसक पुरुष।
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कुंभिका  : स्त्री० [सं० कुंभिक+टाप्] १. जलाशयों में होनेवाली एक प्रकार की घास या वनस्पति, जो बहुत अधिक बढ़ती तथा फैलती है। जलकुंभी। २. वेश्या। ३. कायफल। ४. आँखों की कोरों पर होनेवाली एक प्रकार की छोटी-छोटी फुसियाँ।
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कुंभिनी  : स्त्री० [सं० कुंभ+इनि, ङीष्] १. पृथ्वी। २. जमालगोटा।
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कुंभिल  : पुं० [सं० √कुंभ्+लच् (शक०)] १. वह चोर जो किसी के घर में सेंध लगाकर घुसता हो। २. अवयस्क माता अथवा कच्चे गर्भ से उत्पन्न होनेवाला बच्चा। ३. साला। ४. एक प्रकार की मछली।
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कुँभिलाना  : अ०=कुम्हलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुंभी (भिन्  : वि० [सं० कुंभ+इनि] १. जिसके पास कुंभ अर्थात् मिट्टी का घड़ा हो। २. जिसका आकार-प्रकार कुंभ की तरह हो। पुं० १. हाथी। २. घड़ियाल। ३. गुग्गुल का पेड़ और उसका गोंद। ४. एक प्रकार का जहरीला कीड़ा। ५. बच्चों को कष्ट देनेवाला एक राक्षस। ६. एक प्रकार की मछली। ७. कुंभीपाक नामक नरक। स्त्री० [सं० कुंभ+ङीष्] १. छोटा कुंभ या घड़ा। २. कायफल गनियारी, दंती, पांडर, सलई, आदि के पेड़ जिनकी लकड़ी इमारती कामों में आती है और जिनसे सजावट की चीजें बनाई जाती है। ३. तरबूज। ४. बंसी।
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कुंभी-धान्य (क)  : पुं० [सं० ब० स० कप्] वह व्यक्ति जिसने कुंभ में इतना अन्न भरकर रख लिया हो जो उसके तथा उसके परिवार के छः दिन के उपभोग के लिए यथेष्ट हो।
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कुंभी-पुर  : पुं० [सं० कुंभीपुर] पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर का एक नाम।
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कुंभीक  : पुं० [सं० कुंभी√कै+क] १. एक तरह के नपुंसक। २. जलकुंभी। ३. पुन्नाग का पेड़।
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कुंभीका  : स्त्री० [सं० कुंभीक+टाप्] १. जलकुंभी (दे०) २. आँख में होनेवाली एक प्रकार की फुंसी। बिलनी। ३. लिंग में होनेवाला एक रोग।
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कुंभीनस  : पुं० [सं० ब० स०] [स्त्री० कुंभीनसा] १. कुंभ-जैसी नासिकावाला एक प्रकार का जहरीला साँप। २. एक प्रकार का जहरीला कीड़ा। ३. रावण।
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कुंभीनसि  : पुं० [सं० ब० स०, इत्व (पृषो)] शंबर असुर का एक नाम।
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कुंभीनसी  : स्त्री० [सं० कुंभीनस+ङीष्] सुमाली राक्षस की एक कन्या, जो कैतुमती से उत्पन्न हुई थी और जिसके गर्भ से लवण नामक असुर उत्पन्न हुआ था।
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कुंभीपाक  : पुं० [सं० ] १. पुराणानुसार एक प्रसिद्ध नरक, जिसमें पशु पक्षियों को मारनेवाले लोग खौलते हुए तेल के कड़ाहों में डाले जाते हैं। २. एक प्रकार का सन्निपात रोग, जिसमें नाक से काला खून जाता है।
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कुंभीमुख  : पुं० [सं० ब० स०] एक तरह का घाव या फोड़ा (चरक)।
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कुंभीर  : पुं० [सं० कुंभित्√ईर् (गति)+अण्] १. घड़ियाल की जाति का नक्र या नाक नामक एक जल-जन्तु। २. एक प्रकार का छोटा कीड़ा।
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कुंभीरक  : पुं० [सं० कुंभीर+कन्] चोर।
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कुंभीरासन  : पुं० [सं० कुंभीर-आसन, उपमि० स०] योग में एक आसन जिसमें जमीन पर चित लेटकर और पैर दूसरे पैर पर चढ़ाकर दोनों हाथ माथे पर रखते हैं।
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कुंभील  : पुं० [सं० कुंभ√ईर्+अण्, र-ल] १. =कुंभीर। २. =कुंभीरक।
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कुभृत  : पुं० [सं० कु√भृ (धारण करना)+क्विप्] १. पर्वत। २. शेषनाग का एक नाम। ३. सात की संख्या।
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कुँभेर  : स्त्री० [सं० कुंभ√ईर्+अच्] गँभारि का पेड़।
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कुंभोदर  : पुं० [सं० कुंभ-उदर, ब० स०] शिव का एक गण जिसने सिंह बनकर नन्दिनी पर आक्रमण किया था (रघुवंश)।
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कुंभोलूक  : पुं० [सं० कुंभ-उलूक, उपमि० स०] एक प्रकार का बहुत बड़ा उल्लू।
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कुमइत  : पुं० =कुम्मैत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुमक  : स्त्री० [तु०] १. सैनिक कार्यों के लिए अथवा सैनिकों आदि के रूप में मिलनेवाली सहायता। २. किसी प्रकार की मदद या सहायता।
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कुमकी  : वि० [तु० कुमक] कुमक का। स्त्री० वह प्रशिक्षित हथनी जिसकी सहायता से हाथी पकड़े जाते हों।
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कुमकुम  : पुं० [सं० कुकुंम] १. केसर। २. रोली। ३. नीबू के रस में भिगोई हुई हल्दी, जिसके छापे मांगलिक अवसरों पर लगाये जाते थे। ४. दे० ‘कुमकुमा’।
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कुमकुमा  : पुं० [तु० क़ुमकुमा] १. लाख का बना हुआ एक प्रकार का पोला गोला जिसमें अबीर, गुलाल आदि भरकर होली के दिनों में लोग एक दूसरे पर फेंकते हैं। २. उक्त आकार के काँच के पीले रंगीन गोले जो छतों में शोभा के लिए लटकाये जाते हैं। ३. छोटे या तंग मुँहवाला एक प्रकार का लोटा। ४. नक्काशी के काम के लिए सुनारों की एक प्रकार की टाँकी।
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कुमकुमी  : वि० [हिं० कुमकुमा] कुमकुमे के आकार का। गोल और पोला।
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कुंमठी  : स्त्री०=कमठी।
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कुमंत्रणा  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] अनुचित अथवा बुरी मंत्रणा या सलाह।
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कुमंत्रित  : वि० [सं० कुगति० स०] (व्यक्ति) जिसे बुरी मंत्रणा दी गई हो। (इल एडवाइज्ड)
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कुमरिया  : पुं० [?] हाथियों की एक जाति।
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कुमरी  : स्त्री० [अ०] पंडुक की जाति का एक पक्षी। बनमुर्गी।
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कुमलना  : अ०=कुम्हलाना।
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कुमसुम  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती और इमारत के काम आती है।
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कुमाइच  : स्त्री० [हिं० कुमाश] सारंगी बजाने की कमानी।
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कुमाच  : पुं० [अ० कुमाशः] १. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। उदाहरण—काम जु आवै कामरी का लै करै कुमाच।—तुलसी। २. गंजीफे में पत्तों का एक रंग। ३. मोटी और बेडौल रोटी।
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कुमार  : पुं० [सं०√कुमार् (खेलना)+अच्०] १. छोटा बालक, जिसकी अवस्था पाँच वर्ष तक की हो। २. युवक। ३. पुत्र। बेटा। ४. राजपुत्र। राजकुमार। ५. सनंदन, सनक, सुजात आदि ऋषि जिनके विषय में यह माना जाता है कि ये सदा बालक ही बने रहते हैं। ६. अग्नि। ७. अग्नि के एक पुत्र का नाम। ८. एक प्रजापति का नाम। ९. भारत वर्ष का पुराना नाम। १॰. सिंधु नद का एक नाम। ११. कार्तिकेय। १२. जैनों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के बारहवें जिन। १३. साईस्। १४. तोता। सुग्गा। १५. खरा सोना। १६. मंगल ग्रह। १७. एक ग्रह जो बच्चों के लिए भारी होता है। वि० [स्त्री० कुमारी] जिसका विवाह न हुआ हो। क्वारा।
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कुमार-तंत्र  : पुं० [मध्य० स०] आयुर्वेद का वह विभाग जिसमें बच्चों को होनेवाले रोगो का विवेचन है और उनकी चिकित्सा के उपाय बतलाये गये है। बालतंत्र।
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कुमार-भृत्या  : स्त्री० [ष० त०] १. वह विद्या जिसमें यह बतालाया जाता है कि गर्भिणी को सुखपूर्वक कैसे प्रसव कराया जाय (मिडवाइफरी) २. गर्भिणी अथवा नवजात शशुओं के रोगों की चिकित्सा
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कुमार-ललिता  : स्त्री० [ब० स०] १. सात अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसमें क्रमशः एक जगण, एक सगण और अन्त में एक गुरु होता है। २. बच्चों की कीड़ा या खेल।
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कुमार-लसिता  : स्त्री० [ब० स०] आठ अक्षरों का एक वर्णवृत्त।
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कुमार-वाहन  : पुं० [ष० त०] मयूर। मोर।
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कुमार-व्रत  : पुं० [ष० त] ब्रह्मचर्य व्रत का पालन।
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कुमारग  : पुं० =कुमार्ग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुमारबाज  : पुं० [अ० किमार=जूआ+फा० बाजी (प्रत्य)] जूआ खेलने वाला व्यक्ति। जुआरी।
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कुमारयु  : पुं० [सं० कुमार√या(गति)+कु (नि०)] राजकुमार। राज-पुत्र।
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कुमारसू  : स्त्री० [सं० कुमार√सू (उत्पत्ति)+क्विप्] पार्वती।
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कुमारामात्य  : पुं० [सं० कुमार-अमात्य, कर्म० स०] प्राचीन भारत में राज-परिवार का वह अधिकारी जो किसी मंत्री या दंड-नायक के अधीन या सहायक रूप में काम करता था।
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कुमारिक  : वि० [सं० कुमार+ठन्-इक] (व्यक्ति) जिसके यहाँ बहुत से बच्चे हों।
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कुमारिका  : स्त्री० [सं० कुमारी+कन्, टाप्, ह्रस्व] १. कुँआरी कन्या। कुमारी। २. पुत्री।
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कुमारिल् भट्ट  : पु० शाबर भाष्य के रयचिया तथा अन्य श्रौत सूत्रों के प्रसिद्ध टीकाकार जिनके बौद्ध गुरु के किये गये अपमान के प्रायश्चित स्वरूप तुषानल में जल मरने की कथा प्रसिद्ध है।
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कुमारी  : स्त्री० [सं० कुमार+ङीष्] १. बारह वर्ष की अवस्था की वह कन्या जिसका अभी विवाह न हुआ हो। २. पार्वती। ३. दुर्गा। ४. सीता। ५. भारत के दक्षिणी भाग का वह अंतरीप जहाँ पार्वती ने बैठकर शिव के लिए तपस्या की थी। ६. शाकद्वीप की एक नदी। ७. पृथ्वी का मध्य भाग। ८. रहस्य संप्रदाय में ऐसी माया या संपत्ति। जिसका भोग न किया जाता हो। ९. नव-मल्लिका। १॰. बाँझ ककोड़ी। ११. चचेली। १२. सेवती। १३. बड़ी इलायची। १४. घीकुमार। घृत कुमारी। वि० (बालिका) जिसका अभी विवाह न हुआ हो। कुँआरी।
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कुमारी-पूजन  : पुं० [ष० त०] कुमारी कन्या को देवी के रूप में मानकर उसकी की जानेवाली पूजा। (प्रायः नवरात्र आदि में)।
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कुमार्ग  : पुं० [सं० कुगति० स०] [वि० कुमार्गी] १. अनुचित या बुरा मार्ग। ऐसा मार्ग जिस पर चलना लोक में बुरा समझा जाता हो। २. अधर्म। ३. पाप।
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कुमार्गगामी (मिन्)  : वि० [सं० कुमार्ग√गम्+णिनि] १. कुमार्ग पर चलनेवाला। २. आचरण-भ्रष्ट। ३. अधर्मी। ४. पापी।
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कुमार्गी (मिन्)  : वि० [सं० कुमार्ग+इनि] [स्त्री० कुमार्गीनी] १. कुमार्ग पर चलनेवाला। २. आचरण भ्रष्ट। ३. अधर्मी। पापी।
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कुमालक  : पुं० [सं० कुमार+कन्, र=ल] १. एक प्राचीन देश जो आधुनिक मालवे के आस-पास था। २. उक्त देश का निवासी।
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कुमाला  : पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा वृक्ष।
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कुमीच  : वि० [हिं० कु+मीच=मृत्यु] बहुत दुर्दशा भोगकर या बुरी तरह से मरनेवाला। उदाहरण—कहा जानै कैबाँ मुवौ ऐसी कुमति कुमीच।—सूर। स्त्री० बहुत ही दुर्दशा भोगकर या बुरी तरह से होनेवाली मृत्यु।
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कुमुक  : स्त्री०=कुमक।
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कुमुद  : पुं० [सं० कु√मुद्+क] १. कुईं कोका। २. लाल कमल। ३. चाँदी। ४. विष्णु। ५. विष्णु के एक पार्षद का नाम। ६. एक नाग का नाम। ७. एक दिग्गज का नाम। ८. राम की सेना के एक बंदर का नाम। ८. संगीत में एक प्रकार का ताल। १॰. एक द्वीप का नाम। ११. एक केतु तारा। वि० १. कंजूस। २. लोभी। कुमुदनी स्त्री०=कुमुदनी।
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कुमुद-बंधु  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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कुमुदिक  : वि० [सं० कुमुद+ठन्-इक] १. कुमुद संबंधी। २. कुमुदों से पूर्ण या युक्त।
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कुमुदिका  : वि० [सं० कुमुद+ठन्-इक, टाप्] कट्फल।
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कुमुदिनी  : स्त्री० [सं० कुमुद+इनि-ङीष्] १. एक प्रकार का पौधा जिसमें कमल की तरह के सफेद पर छोटे फूल लगते हैं। २. उक्त पौधे के फूल जो रात के समय खिलते हैं। कुई। कोई। ३. वह स्थान जहाँ बहुत से कुमुद हों।
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कुमुदिनी-पति  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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कुमुद्  : पुं० [सं० कु√मुद् (प्रसन्न होना)+क्विप्]=कुमुद।
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कुमुद्वती  : स्त्री० [सं० कुमुद्+ड्मतुप्, म=व] १. षड्च स्वर की दूसरी श्रुति। २. कुश की पत्नी जो नागराज कुमुद की बहन थी।
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कुमेड़िया  : पुं० =कुमारिया (हाथी)।
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कुमेदान  : पुं० [अ० कुम्मः+फा० दान] मुसलमानी शासन काल में एक सैनिक पदाधिकारी। जैसे—शाही में अब्बा कुमेदान थे।
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कुमैड़  : पुं० [हिं० कु+मैड़-मेंड़] १. बुरा रास्ता। कुमार्ग। २. कपट। छल। धोखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुमैड़िया  : वि०=कुमार्गी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुमैत  : वि०, पुं० =कुम्मैत।
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कुमोद  : पुं० =कुमूद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुमोदक  : पुं० [सं० कु√मद्(हर्ष)+णिच्+ण्वुल्-अक] विष्णु।
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कुमोदनी  : स्त्री०=कुमुदिनी।
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कुम्मैत  : पुं० [तु० कुमेत] १. घोड़े का एक रंग जो कुछ कालापन लिये लाल होता है। लाखी। २. उक्त रंग का घोड़ा। कुरंग। हाँसल। हिनाई। वि० जिसका रंग कुछ कालापन लिये लाल हो।
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कुम्मैद  : पुं० वि०=कुम्मैत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुम्हड़ा  : पुं० [सं० कूष्माण्ड, पा० कुम्हंड, प्रा० कुंमड] १. बड़े रोएँदार तथा गोल पत्तोवाली एक प्रसिद्ध बेल जिसके फल बड़े और गोल होते हैं। २. उक्त बेल का फल जिसकी तरकारी बनती है। काशीफल। पद—कुम्हड़े बतिया=अशक्त या दुर्बल मनुष्य।
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कुम्हड़ौरी  : स्त्री० [हिं० कुम्हड़ा+ओरी] सफेद कुम्हड़े के कटे हुए छोटे-छोटे टुकड़ों की पीठी में लपेटकर तैयार की हुई बड़ियाँ जिनकी तरकारी बनती है।
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कुम्हरौटी  : स्त्री० [हिं० कुम्हार+औटी (प्रत्यय)] वह काली मिट्टी जिससे कुम्हार घड़े आदि बनाते हैं। जटाव।
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कुम्हलाना  : अ० [सं० कु+म्लान] १. वनस्पतियों आदि का अधिक ताप या शीत न सह सकने के कारण कुछ-कुछ सूखने पर होना। २. किसी वस्तु की ताजगी या हरापन जाता रहना। ३. चिन्ता, दुःख आदि के कारण किसी के चेहरे का रंग फीका पड़ना।
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कुम्हार  : पुं० [सं० कुंभ-कार, प्रा० कुम्भआर, कुम्भार, गु० मरा० सुंभार, सि० कुंमरू, पं० कुम्ह्यार, बँ० कुमार, सिह, कुबुकरू] [स्त्री० कुम्हारी, कुम्हारिन] १. एक जाति जो मिट्टी के बर्तन बनाती और उन्ही के द्वारा अपनी जीविका चलाती है। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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कुम्हारी  : स्त्री० [हिं० कुम्हार] १. कुम्हार की स्त्री। २. कम्हार का काम, पद या भाव। कुंभकारी (पाँटरी) वि० कुम्हार का। कुम्हार-संबंधी।
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कुम्ही  : स्त्री० [सं० कुंभी] जलकुंभी नाम की लता।
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कुम्हेरी  : स्त्री०=कुम्हारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुयोधन  : पुं० [सं० ब० स०] दुर्योधन का दूसरा नाम।
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कुयोनि  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] क्षुद्र जंतुओं की योनि। तिर्यग् योनि।
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कुर  : पुं० =कुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरं-लांछन  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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कुरआन  : पुं० =कुरान।
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कुरकनी  : स्त्री० [देश] गधे, घोड़े आदि पशुओं की खाल का अगला भाग।
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कुरंकर  : पुं० [सं० कुरम्√कृ (करना)+ट] सारस।
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कुरका  : स्त्री० [सं० कुर√कै (शब्द करना)+क-टाप्] १. चीड़ या सलई की लकड़ी। २. ताम्रपर्णी नदी के किनारे की एक प्राचीन नगरी।
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कुरकी  : स्त्री०=कुर्की।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरकुट  : पुं० =कुक्कुट। (मुरगा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरकुटा  : पुं० [देश] बहुत ही घटिया अन्न तथा उसका बना हुआ भोजन। उदाहरण—गंदक कहाँ कुरकुटा खावा।—जायसी।
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कुरकुड  : पुं० [देश] कनखुरा या रीहा नामक घास।
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कुरंकुर  : पुं० =कुरंकुर।
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कुरकुर  : पुं० [अनु] १. कुरकुरी वस्तु के टूटने पर होनेवाला शब्द। २. करारी या खस्ता चीज खाने पर होनेवाला शब्द।
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कुरकुरा  : वि० [अनु] १. (पदार्थ) जो कुरकुर शब्द करता हुआ टूटे। मुरमुरा। २. (खाद्य पदार्थ) जिसे खाने में कुरकुर शब्द हो। जैसे—कुरकुरे चने।
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कुरकुराहट  : स्त्री० [हिं० कुरकुर] कुरकुर शब्द करने या होने का भाव।
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कुरकुरी  : स्त्री० [अनु] १. पतली मुलायम तथा लचीली हड्डी। २. घोड़ों को होनेवाला एक रोग जिसके कारण उसका पाखाना और पेशाब बन्द हो जाता है।
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कुरखेत  : पुं० =कुरुक्षेत्र। पुं० [हिं० कुर+खेत] ऐसा खेत जिसमें बीज अभी न बोया गया हो। अथवा अभी बोया जाने को हो।
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कुरंग  : पुं० [सं० कु√रंग (गति)+अच्] [स्त्री० कुरंगी] १. तामड़े या बादामी रंग का हिरन। ३. बरवै नामक छंद का एक नाम। पुं० [सं० कु+हिं० रंग] १. बुरा रंग। २. बुरा लक्षण। वि० बुरे रंग का। बदरंग। वि० पुं०=कुम्मैत।
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कुरंग-सार  : पुं० [ष० त०] कुरंग अर्थात् हिरन की नाभि में से निकलने वाला सुगंधित द्रव्य। कस्तूरी।
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कुरंगक  : पुं० [सं० कुरन्+कन्] मृग।
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कुरंगम  : पुं० [सं० कुर√गम् (जाना)+खच्, मुम्]=कुरंग।
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कुरगरा  : पुं० [देश] राज-मजदूरों की एक प्रकार की छोटी थापी।
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कुरंगिन  : स्त्री० [सं० कुरंग] मादा हिरन। हिरनी।
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कुरंगिय  : पुं० १.=कुरंग। २.=कुलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरच  : पुं० [सं० क्रौंच] कराँकुल (पक्षी)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरचिल्ल  : पुं० [सं० कुर√चिल्ल (शिथिल होना)+अच्] केकड़ा।
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कुरज  : पुं० [सं० क्रौंच] कराँकुल। (पक्षी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरंट  : पुं० [सं०√कुर् (शब्द करना)+अंटक्] पीली कटसरैया।
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कुरट  : पुं० [सं०√कुर्+अटन्] १. चमड़े का व्यापार करनेवाला व्यक्ति। २. चमड़े की वस्तुएँ बनानेवाला कारीगर। ३. मोची।
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कुरंटिका  : स्त्री० [सं० कुरंट+कन्-टाप्, इत्व]=कुरंट।
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कुरंड  : पुं० [सं० कुरुर्विंद=माणिक] १. एक प्रकार का खनिज पदार्थ जिसके चूर्ण को लाख आदि में मिलाकर हथियार तेज करने की शान बनाई जाती है। २. उक्त खनिज पदार्थ तथा लाख आदि की सहायता से बनाई जानेवाली सान। (ह्रेट-स्टोन) पुं० [सं०√कुर्+अंडक्] १. साकुरुंड वृक्ष जो गुजरात में पाया जाता है। २. अखरोट का पेड़। अक्षोट वृक्ष। ३. अंड-वृद्धि का रोग।
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कुरंडक  : पुं० [सं० कुरंड+कन्] पीली कटसरैया।
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कुरड़ा  : पुं० [देश] [स्त्री० कुरड़ी] १. घोड़े की एक जाति जो अरबी तथा तुर्की के योग से उत्पन्न मानी जाती है। २. संकर जाति नस्ल का घोड़ा।
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कुरता  : पुं० [तु] [स्त्री० अल्पा० कुरती] कमीज के आकार का परन्तु ढीला-ढाला सिला हुआ एक प्रिसद्ध परिधान जिससे पूरा धड़ तथा दोनों बाहें ढक जाती हैं।
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कुरती  : स्त्री० [हिं० कुरता] १. स्त्रियों के पहनने का छोटा कुरता जिसमें प्रायः आगे की ओर बटन लगे रहते हैं। २. अँगिया या चोली के नीचे स्तन ढकने के लिए पहना जानेवाला एक परिधान।
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कुरथी  : स्त्री०=कुलथी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरन  : पुं० =कुरंड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरना  : अ० [हिं० कूरा-राशि] वस्तुओँ को एक जगह एकत्र करना तथा उनका ढेर लगाना। अ०=कुलरना (कलरव करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरबनही  : स्त्री० [हिं० कोर+बनाना] रुखानी के आकार का बढ्इयों का एक औजार जिससे वे लकड़ियों में कोर, नास आदि बनाते हैं।
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कुरंबा  : पुं० [देश] भेड़ों की एक जाति।
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कुरबान  : वि० [अ०] १. जो किसी अच्छे उद्देश्य की सिद्धि के लिए बलि चढ़ाया गया हो। निछावर। मुहावरा—कुरबान जाना=(किसी पर) निछावर होना।
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कुरबानी  : वि० [अ] १. किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए अथवा अपनी किसी मनःकामना की पूर्ति के लिए किसी इष्टदेव के सम्मुख किसी जीव या प्राणी को बलि चढ़ाने की क्रिया या भाव। २. किसी महान या स्तुत्य उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जानेवाला पूरा या बहुत बड़ा त्याग। ३. आत्म-बलिदान। आत्म त्याग।
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कुरंभ  : पुं० [?] कछुआ। उदाहरण—ढैक कुरंभ कुरंच, हंस सारस सुभ भासिय।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरमा  : पुं० =कुनबा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरर  : पुं० [सं०√कु (शब्द करना)+करच्] [स्त्री० कुररी] १. गिद्ध की तरह का पक्षी। २. कुराँकुल या कौंच नामक पक्षी। ३. टिट्टिभ। टिटिहरी।
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कुररा  : पुं० [सं० कुरर] [स्त्री० कुररी] १. कराँकुल। क्रौंच। २. टिटिहरी।
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कुररी  : पुं० [सं० कुरर+ङीष्] १. आर्या छंद का एक भेद जिसमें चार गुरु और उनचास लघु होते हैं। स्त्री० [सं० कुरर] सिलेटी रंग की तथा लंबी चोंचवाली एक प्रसिद्ध चिड़िया।
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कुरल  : पुं० [सं०√कु (शब्द करना)+करन्, र=ल] १. कराँकुल। क्रौंच (पक्षी) २. घुँघराले बाल। वि० घुँघराला (बाल)।
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कुरलना  : अ० [सं० कलरव वा कुरव, हि० कुर्र] पक्षियों का मधुर स्वर में बोलना। कलरव करना।
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कुरला  : पुं० =कुल्ला पुं० [सं० ] लाल फलों की कटसरैया।
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कुरलाना  : अ० [सं० करुणा] करुण स्वर में बोलना। आर्त्त-नाद करना। स० किसी को कुरलने में प्रवृत्त करना। अ०=कुरलना।
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कुरवक  : पुं० [सं० कुरव+कन्]=कुरव। पुं० १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसमें लाल फूल लगते हैं। लाल कुरैया। २. उक्त पौधे के फूल। ३. सफेद मदार और उसके फूल।
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कुरवा  : पुं० [सं० कुड़व] अनाज मापने का लकड़ी का बना हुआ एक बरतन। पुं० =कुरवक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरवारना  : स० [सं० कर्त्तन] १. खरोंचना। २. खोदना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरविंद  : पुं० =कुरुविंद।
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कुरषना  : पुं० [सं० करुष] चिढ़ना। रुष्ट होना।
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कुरसथ  : अ० [देश०] एक तरह की मटमैली खाँड़।
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कुरसा  : पुं० [देश०] १. जल्दी बढ़कर फैलनेवाला एक प्रकार का सुहावना वृक्ष। २. जंगली गोभी का पौधा। पुं० [सं० कुलिश] एक प्रकार की बड़ी मछली।
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कुरसी  : स्त्री० [अ०] १. चार पायोंवाली एक प्रकार की ऊँची चौकी जिस पर एक व्यक्ति बैठता है तथा जिसमें पीठ के सहारे के लिए पटरी लगी रहती है। (चेअर)। यौ०—आराम कुरसी=एक प्रकार की बड़ी कुरसी जिसपर आदमी लेट सकता है। मुहावरा—कुरसी तोड़ना=भार बनकर कुरसी पर बेकार बैठे रहना। २. वह स्थान जिस पर कोई अधिकारी बैठता हो। अधिकारी का पद। जैसे—आज तो कोई मंत्री की कुरसी पर बैठ सकता है। मुहावरा—(किसी को) कुरसी देना=आदरपूर्वक बैठाना। ३. इमारत या भवन का उतना निर्मित अंश जो जमीन में चबूतरे की तरह रहता है और जिसके ऊपर इमारत बनती है। (प्लिन्थ) ४. जहाज के मस्तूल के ऊपर की वे आड़ी तिरछी लकड़ियाँ जिन पर खड़े होकर मल्लाह पाल की रस्सियाँ तानते हैं। ५. नाव के किनारे-किनारे लगे हुए तख्ते जिन पर आदमी बैठते हैं। पादारक। ६. पीढ़ी। पुश्त। पद—कुरसीनामा (देखें)। ७. हुमेल के बीच की चौकोर चौकी। उरबसी। तावीज।
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कुरसीनामा  : पुं० [अ०] वंशवृक्ष जिसमें किसी वंश की पीढ़ियों के लोग अलग-अलग अपने पद के अनुसार दिखाये या लिखे जाते हैं।
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कुरा  : पुं० [अ० कुरह] घाव, रोग आदि के कारण शरीर के किसी अंग में पड़नेवाली गाँठ। स्त्री० [सं० कुरव] कटसरैया।
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कुराई  : स्त्री० [सं० कु+हिं० राह] १. बुरा रास्ता। कु-पथ। २. ऊबड़ खाबड़ मार्ग। पुं० =कुमार्गी। स्त्री० [देश०] अपराधियों के पाँवों में डालने का काठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरान  : पुं० [अ०] मुसलमानों का प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ जिसमें हजरत मुहम्मद की वाणियाँ संकलित हैं। मुहावरा—कुरान उठाना=कुरान हाथ में लेकर उसकी शपथ खाना।
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कुरारी  : स्त्री० [हिं० कुररी] टिटिहरी उदाहरण—बाएँ कुरारी दाहिन कूचा।—जायसी।
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कुराल  : पुं० [देश०] पहाड़ी प्रदेशों में होनेवाला एक वृक्ष।
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कुराह  : स्त्री० [सं० कु+फा० राह] [वि० कुराही] १. कु-पथ। कुमार्ग। २. ऊबड़-खाबड़ दूर का या विकट मार्ग।
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कुराहर  : पुं० [सं० कोलाहल] कोलाहल। शोर-शराबा। वि० [हिं० कुराह] बुरे रास्ते पर चलनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुराही  : वि० [हिं० कुराह+ई(प्रत्यय)] १. कुराह अर्थात् अनुचित या बुरे मार्ग पर चलनेवाला। कुमार्गी। २. दुराचारी। बदचलन।
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कुरिआरना  : स० [हिं० कुरेदना] कोई चीज निकालने के लिए कुछ काटना या खोदना। उदाहरण—सुख कुरिआर फरहरी खाना।—जायसी।
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कुरिद  : पुं० [?] दरिद्र। (डि०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरिया  : स्त्री० [सं० कुटी, कुटीका] १. फूस की झोपड़ी। कुटिया। मड़ई। २. छोटा गाँव। स्त्री० [हिं० कुरेना-ढेर लगाना] ढेर। राशि।
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कुरियाना  : स०१. =कुरेदना। २. =कुरेना (ढेर लगाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरियाल  : स्त्री० [सं० कल्लोल] चिड़ियों आदि का पंख खुजलाना। मुहावरा—कुरियाल में आना=आनन्द में मग्न होना। मौज में आना। कुरियाल में गुलेला लगना-रंग में भंग होना।
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कुरिल  : पुं० =कुरट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरिहार  : पुं० [सं० कोलाहल] शोर-गुल। उदाहरण—को नहिं करे कोल कुरिहारा। जायसी।
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कुरी  : पुं० [सं० कु√रा (दान)+क, ङीष्] १. चेना नामक कदन्न। २. अरहर की फलियाँ। पुं० [सं० कुल०] १. खानदान। वंश। २. मकान। घर। स्त्री० [हिं० कुरैना=ढेर लगाना] ढेर। राशि।
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कुरीति  : स्त्री० [सं० कुगति स०] १. अनुचित या बुरी प्रथा या रीति। ऐसी रीति जो समाज में अच्छी न समझी जाती हो। कुप्रथा। २. दुराचार। कुचाल। अनरीति।
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कुरीर  : पुं० [सं०√कृ (करना)+कीरन्, उत्व] संभोग। मैथुन।
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कुरु  : पुं० [सं०√कृ+कु, उत्व] १. आर्यों का एक प्राचीन कुल। २. एक प्राचीन प्रदेश जिसके अन्तर्गत कुरुराष्ट्र, कुरुक्षेत्र और कुरुजांगल ये तीन इलाके थे। ३. एक प्रसिद्ध राजा जिसके वंश में पाण्डु और धृतराष्ट्र हुए थे। ४. उक्त वंश में उत्पन्न पुरुष। पुं० =कर्त्ता। वि०=क्रूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरु-क्षेत्र  : पुं० [मध्य० स०] १. दिल्ली और अम्बाले के बीच के उस प्रदेश का प्राचीन नाम जहाँ महाभारत का युद्ध हुआ था। २. उक्त प्रदेश में स्थित एक तीर्थ जहाँ सूर्य-ग्रहण के समय स्नान करने के लिए लोग जाते है।
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कुरुआ  : पुं० [सं० कुडव] अन्न मापने का एक पात्र जिसमें लगभग दस छटाँक अन्न आता है।
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कुरुआर  : स्त्री० [हिं० कुरियाल] चिडियों आदि का मौज में पंख खुजलाना। उदा०-कोउ नहिं करै केलि कुरुआरा।—जायसी।
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कुरुई  : स्त्री० [सं० कुडव] बाँस या मूँज की छोटी डलिया। मौनो।
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कुरुख  : वि० [सं० कु+फा० रूख] १. जिसने किसी के प्रति उदारता दया प्रेम आदि का भाव छोड दिया हो। २. कुपित। नाराज।
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कुरुखेत  : पुं० =कुरुक्षेत्र।
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कुरुजांगल  : पुं० [द्व स०] एक प्राचीन प्रदेश जो पांचाल देश के पश्चिम में था।
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कुरुंट (क)  : पुं० [सं० कु√ रुण्ट् (चुराना)+अण् (कुरुण्ट+क)] लाल कटसरैया।
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कुरुंड  : पुं० [सं० कु√रुण्ड् (चुराना)+अण्] लाल कटसरैया। पुं० =कुरंड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरुंब  : पुं० [सं०√कृ+उम्बच्, उत्व] नारंगी का पेड़ और उसका फल।
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कुरुंबा  : स्त्री०, [सं० कुरुंब+टाप्] द्रोणपुष्पी।
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कुरुंबिका  : स्त्री० [सं० कुरुंब+कन्+टाप्, इत्व]=कुरुंबा।
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कुरुम  : पुं० [सं० कूर्म्म] कूर्म। कच्छप। उदा०-गवनत कुरुम पीठि कलमली। -जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरुल  : पुं० [सं० ] सिर के बालों की लट। पुं० =कुरंड।
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कुरुला  : स्त्री० [सं० कुरुल+टाप्] एक प्रकार का गमक। (संगीत)।
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कुरुविंद  : पुं० [सं० कुरु√विद् (लाभ)+श, मुम्] १. मोथा। २. नीलम और मानिक की तरह का एक रत्न जिसका चूर्ण पालिश के काम आता है। ३. दर्पण। शीशा। ४. उरद। ५. ईंगुर।
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कुरूप  : वि० [सं० ब स०] [स्त्री० कुरूपा] जिसका रूप या आकार अच्छा या सुडौल न हो। बदसूरत। बेडौल। भद्दा।
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कुरूपता  : स्त्री० [सं० कुरूप+तल्-टाप्] कुरूप होने की अवस्था या भाव।
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कुरेद  : स्त्री० [हिं० कुरेदना] १. कुरेदने की क्रिया या भाव। २. मन में होनेवाली खलबली या उत्कट जिज्ञासा। (परिहास)
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कुरेदना  : स० [सं० कर्त्तन] १. खुरचना या खरोचना। २. नीचे से कुछ निकालने के लिए ऊपर का कुछ अंश निकालना या हटाना। ३. लाक्षणिक रूप में किसी बात की टोह या रहस्य जानने के लिए किसी अन्य प्रासंगिक बात की उधेड़बुन करना।
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कुरेदनी  : स्त्री० [हिं० कुरेदना] छड़ की तरह का एक लंबा औजार जो भट्ठे की आग आदि कुरेदने का काम आता है०
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कुरेभा  : स्त्री० [सं० करभ=बच्चा] ऐसी गाय जो वर्ष में दो बार बच्चा देती हो।
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कुरेर  : स्त्री०=कुलेल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरेलना  : पुं० =कुरेदना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरेलनी  : स्त्री०=कुरेदनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरैत  : पुं० [हिं० कूरा=भाग या ढेर] [स्त्री० कुरैतिन] साझीदार। हिस्सेदार।
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कुरैना  : स० [हिं० कूरा] १. कूरा अर्थात् ढेर लगाना। २. दौरों, बोरों आदि में भरी हुई चीज एक स्थान पर गिराकर उसका ढेर लगाना। अ० ऊपर से ढेर के रूप में किसी चीज का नीचे आकर ढेर के रूप में गिरना या पड़ना। उदाहरण—जसुदा के कोरे एक बारक कुरै परी।—देव। पुं० ढेर। राशि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरैया  : स्त्री० [सं० कु़टज] १. सुन्दर फूलों तथा लंबी लहरदार पत्तियों वाला एक जंगली पौधा। कुटज। गिरिमल्लिका। २. उक्त पौधे के फूल। ३. उक्त पौधे के बीज जिन्हें इंद्र जौ कहते है और जो दवा के काम आते हैं।
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कुरौना  : अ०, स०, पुं० =कुरैना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुरौनी  : स्त्री० [हि० कूरा] ढेर। राशि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुर्क  : वि० [तु० कुर्क] [भाव० कुर्की] न्यायालय के आदेशानुसार दंडस्वरूप या देन आदि चुकाने के लिए राज्या या शासन द्वारा किसी अपराधी या देनदार का जब्त किया हुआ (माल या संपत्ति)।
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कुर्क-अमीन  : पुं० [तु० कुर्क+फा० अमीन] वह शासनिक कर्मचारी जो न्यायालय के आदेशानुसार अपराधियों देनदारों आदि का माल कुर्क करता हो।
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कुर्कनामा  : पुं० [तु० कुर्क+फा० नामा] न्यायालय द्वारा जारी किया हुआ वह अधिपत्र जिसमें शासन को किसी अपराधी या देनदार की संपत्ति कुर्क करने का अधिकार दिया जाता है।
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कुर्की  : स्त्री० [तु० कुर्क+ई (प्रत्यय)] किसी का माल या धन-संपत्ति कुर्क करने की क्रिया या भाव। विशेष—दे० आसंजन। मुहावार-कुर्की उठाना=कुर्क या जब्त किया हुआ माल छोड़ देना। कुर्की बैठाना=कुर्क करना।
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कुर्कुट  : पुं० [सं० कुर्√कुट् (कौटिल्य)+क] १. मुरगा। कुक्कुट। २. कूड़ा।
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कुर्कुर  : पुं० [सं० कुर√कुर् (शब्द)+क] कुत्ता।
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कुर्चिका  : स्त्री० [सं० कूर्चिका० पृषो, ह्रस्व] १. कंद में से निकलनेवाला दूधिया तरल पदार्थ। २. कूची।
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कुर्ता  : पुं० =कुरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुर्त्ती  : स्त्री०=कुरती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुर्दमी  : स्त्री० [देश] जहाज का रास्ता। आलात। (लश।)
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कुर्पास  : पुं० [सं० कुर्पर√अस् (होना)+घञ्, पृषो, सिद्धि] १. कुरती के आकार-प्रकार का लोहे आदि का बना हुआ कवच जिसे योद्धा छाती पर बाँधते थे। २. स्त्रियों के पहनने की अंगिया। चोली।
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कुर्पासक  : पुं० [सं० कुर्पास+कन्]=कुर्पास।
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कुर्ब  : पुं० [अ०] समीपता। सामीप्य।
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कुर्बर  : विं० [सं०√कर्ब् (गर्व करना)+ उरच्] जिस पर या जिसमें कई तरह के रंग एक साथ हों। चित-कबरा। रंग-बिरंगा। पुं० १. सोना। २. धतूरा। ३. पाप। ४. राक्षस। ५. जल। पानी। ६. कचूर। ७. जड़हन धान।
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कुर्बान  : पुं० =कुरबान।
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कुर्बानी  : स्त्री०=कुरबानी।
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कुर्मर  : पुं० [सं०√कुर्+क्विप्, कुर्√पृ (पूर्ति)+अच्] १. कोहनी। २. घटना।
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कुर्मी  : पुं० =कुरमी।
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कुर्मुक  : पुं० [सं० क्रमुक] सुपारी। (डि०)।
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कुर्रना  : अ० [सं० कलरव] १. पक्षियों का कलरव करना। २. मधुर स्वर में बोलना।
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कुर्री  : स्त्री० [देश] पटरा या हेंगा। (खेत में चलाने का)। स्त्री०=कुरकुरी।
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कुर्स  : पुं० [अ०] १. गोल टिकिया। जैसे—औषध आदि का। २. अरब देश का चाँदी का एक गोल सिक्का। पुं० [देश] एक प्रकार की घास जिसे बटकर रस्सी बनाई जाती है।
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कुर्सी  : स्त्री०=कुरसी।
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कुर्सीनामा  : पुं० =कुरसीनामा (वंशवृक्ष)
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कुल  : पुं० [सं०√कुल् (बन्ध)+क या कु√ला (लेना)+क] १. झुंड। समूह। २. एक ही पुरुष से उत्पन्न सब वंशज अथवा उनकी पीढ़ियों का वर्ग या समूह। खानदान। घराना। वंश। परिवार। (फैमिली) मुहावरा—(किसी का) कुल बखानना=किसी के कुल के लोगों को कोसना, गाली देना, उनकी निंदा करना अथवा उनके दोषों का उल्लेख करना। ३. एक ही मूल तत्त्व या पदार्थ के भिन्न-भिन्न वर्गों या शाखाओं का समूह। (फैमिली) ४. घर। मकान। ५. हठयोग में कुंडलिनी शक्ति। ६. वाम मार्ग। कौल धर्म। ७. तंत्र के अनुसार आकाश, काल, जल, तेज, प्रकृति, वायु आदि पदार्थ। ८. संगीत में एक प्रकार का ताल। ९. कुलीनों का राज्य। कुलीन तंत्र। (कौ०)। वि० [अ०] १. मान, मात्रा, संख्या आदि के विचार से जितने हों, उतने सब। जैसे—कुल बीस आदमी थे। २. पूरा। सारा। जैसे—यह कुल खुराफत उन्हीं की है।
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कुल-कंटक  : पुं० [ष० त०] ऐसा व्यक्ति जिसके बुरे आचरण के कुल के लोग दुःखी तथा संतप्त रहते हों।
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कुल-कर्त्ता (र्त्तृ)  : पुं० [ष० त०] किसी कुल का आदि पुरुष। मूल पुरुष।
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कुल-कलंक  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जो अपने बुरे आचरण से अपने कुल की मर्यादा नष्ट करता या उसमें कलंक लगाता हो। अपने वंश की कीर्ति में धब्बा लगानेवाला व्यक्ति।
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कुल-कुडंलिनी  : स्त्री० [ष० त०] तंत्र के अनुसार एक शक्ति जिसका एक अंश यह भौतिक संसार माना गया है।
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कुल-गुरु  : पुं० [ष० त०] १. वह जिसके कुल या वंश के लोग बराबर किसी दूसरे कुल या वंश के लोगों के गुरु होते आये हों। २. गुरुकुल का अध्यक्ष।
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कुल-तंतु  : पुं० [ष० त०] घर के सब लोगों का पालन-पोषण करनेवाला। मुख्य व्यक्ति।
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कुल-तंत्र  : पुं० [ष० त०] ऐसा राज्य या शासन प्रणाली जिसमें सब काम क्रियात्मक या वास्तविक रूपमें कुछ विशिष्ट लोग ही गुट बाँधकर और मिलकर चलाते हों। (आलिंगार्की)
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कुल-देव  : पुं० [ष० त०] कुलदेवता।
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कुल-देवता  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० कुलदेवी] वह देवता जिसकी पूजा तथा वंदना किसी कुल के लोग परंपरा से करते चले आ रहे हों।
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कुल-धर  : पुं० [ष० त०] पुत्र। बेटा।
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कुल-धर्म  : पुं० [ष० त०] ऐसा आचरण जिसे कुल के सब लोग सदा से करते चले आ रहे हो। कुल की रीति।
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कुल-धारक  : पुं० [ष० त०] पुत्र। बेटा।
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कुल-नक्षत्र  : पुं० [मद्य० स०] तंत्र के अनुसार ये नक्षत्र-भरणी, रोहिणी, पुष्य, मघा, चित्रा, विशाखा, उत्तराफाल्गुनी, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़, श्रवण और उत्तर भाद्रपद।
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कुल-नाम (न्)  : पुं० [ष० त०] वह संज्ञा जो कुल के सब पुरुषों के नामों के साथ लगती है। जाति या वंश-गत नाम। अल्ला। जैसे—उपाध्याय, त्रिवेदी आदि।
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कुल-नायिका  : स्त्री० [ष० त०] वाम मार्ग में ऐसी स्त्रियाँ जिनकी पूजा चक्र में बैठाकर की जाती है।
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कुल-पढ़ैया  : स्त्री० [फा० कुल-सब+हिं० पढ़ैया०] कुछ विशिष्ट अवसरों पर पढ़ी जाने वाली वह नमाज जिसमें किसी नगर या बस्ती के सब मुसलमान एक साथ सम्मिलित होते हों।
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कुल-पति  : पुं० [ष० त०] १. घर का स्वामी। २. प्राचीन भारत में गुरुकुल का वह प्रधान अधिकारी जो विद्यार्थियों को शिक्षा देता था और उनके भोजन वस्त्र आदि की भी व्यवस्था करता था। ३. आज-कल किसी विश्वविद्यालय का प्रधान। (चांसलर)।
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कुल-पर्वत  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार महेन्द्र, मलय, सह्य शुक्ति, ऋक्ष, विन्ध्य और पारियात्र इन सात पर्वतों का वर्ग।
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कुल-पूज्य  : वि० [तृ० त० या स० त०] १. जिसकी पूजा या आराधना किसी कुल के सब लोग करते हों। २. कुल में परंपरा से जिनकी पूजा होती चली आई हो।
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कुल-राज्य  : पुं० =कुल-तंत्र।
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कुल-वधू  : स्त्री० [मध्य० स०] उत्तम कुल की मर्यादा से रहनेवाली स्त्री। ऐसी वधू जो कुल के आचार का ठीक तरह से पालन करती है।
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कुल-संकुल  : पुं० [तृ० त०] पुराणानुसार एक नरक।
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कुल-संघ  : पुं० [ष० त०] कुल-तंत्र शासन प्रणाली में शासन चलानेवालों का संघ या समूह।
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कुलक  : पुं० [सं० कुल+कन्] १. एक साथ या एक ही स्थान पर होने, बनने प्रकाशित होनेवाली अथवा एक साथ काम आनेवाली वस्तुओं का समूह। (सेट) जैसे—(क) एक ही ग्रंथमाला के सब ग्रन्थों का कुलक। (ख) पहनने के सब कपड़ों का कुलक। २. संस्कृत में गद्य लिखने का एक ढंग या प्रकार। ३. दीया। दीपक। ४. हरा साँप। ५. परवल या उसकी लता। ६. कुचला नामक विष। ७. मकर तेंदुआ नामक वृक्ष।
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कुलकना  : अ०=निकलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलकानि  : स्त्री० [सं० कुल+हिं० कान=मर्यादा] कुल की प्रतिष्ठा, मर्यादा और लज्जा।
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कुलकुल  : पुं० [अनु] बोतल या सुराही में भरे हुए तरल पदार्थ को उँडेलने से होनेवाला शब्द।
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कुलकुलाना  : अ० [अनु] १. कुल-कुल शब्द होना। २. विकल और व्यथित होना। स० १. कुलकुल शब्द उत्पन्न करना। २. विकल और व्यथित करना।
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कुलकुली  : स्त्री० [अनु] १. =खुजली। २. =बेचैनी।
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कुलक्षण  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० कुलक्षणी] १. बुरे लक्षणोंवाला। २. अशुभ। पुं० [कुगति स०] दूषित या बुरा लक्षण।
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कुलक्षणी (णिन्)  : वि० [सं० कुलक्षण+इनि] बुरे लक्षणोंवाला। स्त्री०बुरे लक्षणोंवाली स्त्री।
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कुलखना  : वि० [स्त्री० कुलखनी]=कुलक्षण।
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कुलंग  : पुं० [फा०] १. मटमैले रंग का एक प्रकार का पक्षी। २. मुरगा। ३. सिर पर वार करने का एक पुराना हथियार जिसमें लोहे के डंडे में दूसरा टेढ़ा और नुकीला डंडा लगा रहता था। ४. बहुत लंबा या लंबी टाँगों वाला व्यक्ति। (परिहास और व्यंग्य)।
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कुलगारी  : स्त्री० [सं० कुल+हिं० गाली] १. किसी के सारे कुल को दी जानेवाली गाली। २. ऐसी निंदा या बदनामी की बात जिससे सारे कुल को कलंक लगता हो।
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कुलचंडी  : स्त्री० [ष० त०] एक देवी।
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कुलचा  : पुं० [फा० कलीचा] १. गुँधे हुए आटे में खमीर उठाकर बनाई जानेवाली एक प्रकार की मोटी रोटी। २. औरों से छिपाकर इकट्ठा किया हुआ धन। ३. तंबू या खेमें के डंडे के ऊपर का गोल लट्टू।
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कुलच्छन  : वि० पुं० =कुलक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलच्छनी  : वि० स्त्री०=कुलक्षणी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलंज  : पुं० =कुलंजन।
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कुलज  : पुं० [सं० कुल√जन् (पैदा होना)+ड] [स्त्री० कुलजा] १. अच्छे या उत्तम वंश से उत्पन्न व्यक्ति। २. परवल।
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कुलंजन  : पुं० [सं० कु√रञ्ज् (राग)+णिच्+ल्युट-अन] १. मुलेठी की जाति का एक पौधा जिसकी जड़ दवा के काम में आती है। २. पान के पौधे की जड़ जो दवा के काम आती है।
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कुलजा  : स्त्री० [देश] जंगली भेडों की एक जाति।
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कुलजात  : वि० [स० त०] १. किसी कुल या वंश से उत्पन्न होनेवाला। २. अच्छे कुल में उत्पन्न। कुलीन।
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कुलट  : वि० [सं० कुल√अट्+अच्] [स्त्री० कुलटा] बदचलन। व्यभिचारी। पुं० व्यभिचारिणी स्त्री का पुत्र। जारज संतान।
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कुलटा  : स्त्री० [सं० कुलट+टाप्] १. अनेक पर-पुरुषों से संबंध रखनेवाली स्त्री। दुराचारिणी। व्यभिचारिणी। २. साहित्य में वह नायिका जिसका संबंध अनेक पुरुषों से हो।
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कुलतारन  : वि० [सं० कुल+हिं० तारन] [स्त्री० कुलतारनी] कुल को तारने या उसका उद्दार करनेवाला। पुं० वह व्यक्ति जिससे कुल पवित्र होता हो। कुल का यश बढ़ानेवाला व्यक्ति।
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कुलती  : स्त्री०=कुलथी।
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कुलत्थ  : पुं० [सं० कुल√स्था (ठहरना)+क, पृषो० सिद्धि]=कुलथी।
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कुलत्थिका  : स्त्री० [सं० कुलत्थ+कन्-टाप्, इत्व]=कुलथी।
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कुलथ  : पुं० =कुलथी।
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कुलथी  : स्त्री० [सं० कुलत्थ] उरद की जाति का एक मोटा अन्न।
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कुलन  : स्त्री० [हिं० कल्लाना] १. दर्द। पीड़ा। २. टीस।
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कुलना  : अ०=कल्लाना। (शरीर के किसी अंग का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलनार  : पुं० [देश०] सुरमई रंग का एक प्रकार का खनिज पदार्थ।
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कुलफ  : पुं० [अ० कुल्फ] ताला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलफत  : स्त्री० [अ० कुल्फत] १. कष्ट देनेवाली मानसिक चिंता। २. विकलता।
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कुलफा  : पुं० [फा० खुर्फा, अ० कुल्फः] एक साग,जिसके पत्ते छोटे चौड़े और नुकीले होते हैं। पुं० [हिं० कुलफी] विशेष प्रकार से जमाया हुआ दूध जिसमें कई प्रकार की पौष्टिक तथा सुगंधित चीजें मिली होती हैं।
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कुलफी  : स्त्री० [हिं० कुलफ] १. धातु का वह टुकड़ा जो किसी चीज में घूमने अथवा उसे घुमाने के लिए पेंच से कसा जाता है। २. टीन, मिट्टी आदि का बना हुआ चोगा जिसमें दूध आदि भरकर बर्फ की सहायता से जमाते हैं। ३. उक्त प्रकार से जमाया हुआ दूध या कोई खाद्य तरल पदार्थ। ४. हुक्के में की वह गोल या टेढ़ी नली जिसके ऊपर नरकुल लगाकर नैचा बाँधा जाता है।
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कुलबाँसा  : पुं० [हिं० कुल+बाँस] करघे में का वह बाँस जिसमें कंछी लगी रहती है। (जुलाहे)
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कुलबुल  : पुं० [अनु०] [भाव० कुलबुलाहट] १. बोतल, सुराही आदि सँकरे मुँह तथा चौड़े पेंदेवाले पात्रों में भरे हुए तरल पदार्थ को उँडेलने पर होनेवाला शब्द। २. छोटे-छोटे कीड़ों के हिलने-डुलने की क्रिया या उससे होनेवाला शब्द। ३. किसी चीज के हिलने-डुलने की क्रिया तथा उस क्रिया से उत्पन्न होनेवाला शब्द।
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कुलबुलाना  : अ० [हि० कुलबुल] १. बहुत-से छोटे-छोटे कीड़ों, पक्षियों आदि का एक साथ रेंगना, हिलना-डोलना तथा शब्द करना। २. कुछ कहने के लिए अत्यधिक व्यग्र होना।
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कुलबुलाहट  : अ० [हि० कुलबुल] १. कुलबुल करने या कुलबुलाने की क्रिया या भाव।
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कुलबोरन  : वि० [हिं० कुल+बोरना] अपने कुकृत्य या दुराचरण से कुल को कलंकित तथा उसकी मर्यादा नष्ट करनेवाला (व्यक्ति)।
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कुलंभर  : पुं० [सं० कुल√भृ (भरण करना)+खच्, मुम्] सेंध लगानेवाला चोर।
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कुलवंत  : वि० [सं० कुलवत्] [स्त्री० कुलवंती] अच्छे कुल का। कुलीन।
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कुलवान्  : वि० [सं० कुल+मतुप्, म=व] [स्त्री० कुलवती] अच्छे कुल या वंश का। (व्यक्ति)। कुलीन।
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कुलशतावरग्राम  : पुं० [सं० कुल-शत, ष० त० कुलशत-अवर, पं० त० कुलशतावर-ग्राम, ष० त०] ऐसा गाँव जिसमें एक सौ से अधिक लोग रहते हों।
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कुलसन  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
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कुलह  : स्त्री० [फा० कुलाह] १. एक प्रकार की गोल टोपी जिसके बीच का भाग कुछ ऊपर उठा होता है। प्रायः इसके ऊपर पगड़ी बाँधी जाती है। २. शिकारी चिड़ियों की आँखों पर बाँधी जानेवाली पट्टी। अँधियारी। पुं० [सं० कुलधर] वंशधर। उदाहरण—तहुँ सु विजय सुर राजपति जादू कुलह अभग्ग।—चंदबरदाई।
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कुलहवरा  : पुं० [फा० कुलाह+बाला] बच्चों के पहनने की एक प्रकार की छोटी टोपी या कंटोप जिसके पिछले भाग में चुना हुआ लंबा कपड़ा पीठ पर लटकता रहता है।
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कुलहा  : पुं०=कुलह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलही  : स्त्री०=कुलहवरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुला  : पुं० =कुलह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलाकुल  : पुं० [सं० कुल-अकुल, द्व० स०] तंत्र के अनुसार कुछ निश्चित नक्षत्र, वार और तिथियाँ।
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कुलांगना  : स्त्री० [सं० कुल-अंगना, म्य० स०] भले घर की साध्वी स्त्री। कुलवधू।
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कुलांगार  : पुं० [सं० कुल-अंगार, उपमि० स०] अपने ही कुल का नाश करनेवाला व्यक्ति।
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कुलाँच  : स्त्री० [तु० कुलाच०] १. दोनों हाथों के बीच की दूरी। २. चौकड़ी। छलाँग।
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कुलाँचना  : अ० [हिं० कुलाँच] छलाँगे लगाना। चौकड़ी भरना।
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कुलाचल  : पुं० [सं० कुल-अचल, मध्य० स०]=कुलपर्वत।
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कुलाचार  : पुं० [सं० कुल-आचार, ष० त०] १. वह आचार या रीतिव्यवहार जिसे किसी कुल के लोग परंपरानुसार करते चले आ रहे हों। २. वाममार्गियों का धर्म। कौल धर्म।
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कुलाचार्य  : पुं० [सं० कुल-आचार्य, ष० त०] १. कुल-गुरु। २. पुरोहित।
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कुलाबा  : पुं० [अ० कुलाबः] १. लोहे का वह छ्ल्ला जिसके द्वारा पल्ले को चौखट में कसा या जकड़ा जाता है। पायजा। २. नाली। मोरी। ३. मछली फँसाने का काँटा।
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कुलाय  : पुं० [सं० कुल√अय् (गति)+घञ्] १. शरीर। २. घोंसला।
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कुलायिका  : स्त्री० [सं० कुलाय+ठन्-इक, टाप्] वह स्नान जहाँ पक्षी रखे या पाले जाते हों। चिड़ियाघर।
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कुलाल  : पुं० [सं० कुल√अल् (गति)+अण्] [स्त्री० कुलानी] १. वह जो मिट्टी के बरतन बनाता हो। कुम्हार। २. बनमुरगा। ३. उल्लू।
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कुलालिका  : स्त्री० [सं० कुलाली+कन्, टाप्, ह्रस्व] दे०‘कुलाली’।
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कुलाली  : स्त्री० [सं० कुलाल+ङीष्] कुम्हारिन। कुम्हार की स्त्री० स्त्री० [देश] दूरबीन। (डि०)
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कुलाह  : पुं० [सं० कुल-आ√हन् (मारना)+ड] १. वह घोड़ा जिसका रंग भूरा और घुटने तथा पैर काले हो। २. वाराह। उदाहरण—कलि अवतार कुलाह, असंपति पारन कंसह।—चंदबरदाई। ३. कमल। पुं०=कुलह।
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कुलाहक  : पुं० [सं० कुलाह+कन्] १. गिरगिट। २. एक प्रकार का शाक।
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कुलाहल  : पुं० =कोलाहल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलि  : वि०=कुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलिक  : पुं० [सं० कुल+ठन्-इक] १. किसी कुल का प्रधान व्यक्ति। २. वह कलाकार या शिल्पकार जिसका जन्म अच्छे कुल में हुआ हो। ३. घुँघची का पेड़। ४. वह नाग जिसका रंग हलके भूरे रंग का होता है तथा जिसके मस्तक पर अर्द्धचंद्र बना होता है। इसकी गिनती आठ महानगरों में होती है। ५. तालमखाना। ६. ज्योतिष के अनुसार दिन का वह भाग जिसमें कोई शुभ काम अथवा यात्रा आदि करना वर्जित होता है। ७. केंकड़ा। ८. एक प्रकार का विष।
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कुलिंग  : पुं० [सं० कु√लिंग (गति)+अच्] चिडि़या। पक्षी।
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कुलिंगक  : पुं० [सं० कुलिंग+कन्] चटक। चिड़ा।
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कुलिजन  : पुं० =कुलंजन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलिंद  : पुं० [सं० कुलि√दा+कन्, पृषो] १. उत्तर पश्चिमी भारत का प्राचीन प्रदेश। कुनिंद। २. उक्त प्रदेश का राजा। ३. उक्त प्रदेश का निवासी।
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कुलिया  : स्त्री० [सं० कुल्या] नहर में से निकला हुआ छोटा नाला। स्त्री० [हिं० कुल्हिया] छोटी और अँधेरी कोठरी।
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कुलिर  : पुं० [सं० √कुल्+इरन्]=कुलीर।
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कुलिश  : पुं० [सं० कुलि√शी (सोना)+ड] आकाश से गिरनेवाली बिजली। गाज। वज्र। २. कुठार। ३. हीरा। ४. राम, कृष्ण आदि अवतारों के चरणों में होनेवाला के प्रकार का चिन्ह जिसका आकार व्रज (अस्त्र) जैसा होता है। ५. एक प्रकार की मछली।
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कुलिश-धर  : पुं० [ष० त०] देवराज इंद्र जो हाथ में कुलीन या व्रज रखते हैं।
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कुलिश-नायक  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का रतिवंध।
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कुलिश-पाणि  : पुं० [ब० स०] =कुलिशधर।
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कुलिशासन  : पुं० [कुलिश-आसन, ब० स०] गौतमबुद्ध।
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कुलिशी  : स्त्री० [सं० कुलिश] वेदानुसार एक नदी जो आकाश के बीच में से होकर बहती है।
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कुलिस  : पुं० =कुलिश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुली  : पुं० [तु] सिर पर बोझ (विशेषतः यात्रियों का सामान) ढोनेवाला अकुशल मजदूर।
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कुली-कबाड़ी  : पु० [हि० कुली+कबाड़ी] मेहनत मजदूरी विशेषतः सिर पर बोझ ढोनेवाला अकुशल मजदूर।
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कुलींजन  : पुं० =कुंलजन।
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कुलीन  : वि० [सं० कुल+ख-ईन] [भाव, कुलीनता] १. (पवित्र) जिसका जन्म उच्च या उत्तम कुल में हुआ हो। २. (पशु) जो अच्छी नसल का हो। ३. पवित्र। शुद्ध। पुं० उच्च वर्ग के बंगाली ब्राह्मणों का एक वर्ग।
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कुलीन-तंत्र  : पुं० [सं० मध्य०स] वह शासन प्रणाली जिसमें किस देश का शासन उच्च कुल के लोग चलाते हैं। कुल-तंत्र।
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कुलीर  : पुं० [सं०√कुल (बाँधना)+ईरन्] केंकड़ा।
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कुलीश  : पुं० [सं० =कुलिश+पृषो० दीर्घ]=कुलिश।
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कुलुक  : पुं० [सं०√कुल+उलच्, ल=क] जीभ पर जमी हुई मैल।
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कुलुक्क गुंजा  : स्त्री० [सं० कु-लुक्का, स० त० कुलक्का-गुंजा, कर्म० स०] जलती हुई लकड़ी का टुकड़ा। लुकाठी।
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कुलुफ  : पुं० [अ० कुफल्] १. दरवाजे बंद करने के लिए लगाया जानेवाला ताला० २. धातु का अँकुड़ीदार टुकड़ा जिसमें कोई चीज फँसाई जाती हो।
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कुलुस  : पुं० [सं० कुलिश] एक प्रकार की मछली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुलू  : पुं० [सं० कुलूत] काँगड़े के समीप का एक प्रसिद्ध पहाड़ी प्रदेश। पुं० दे० ‘गुलू’।
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कुलूत  : पुं० [सं० ]=कुलू। पुं० आधुनिक कुलू प्रदेश का आधुनिक नाम।
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कुलेल  : स्त्री०=कलोल। (कीड़ा)।
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कुलेलना  : अ० [हिं० कुलेल] कुलेल या क्रीड़ा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुल्टू  : पुं० दे० ‘कुटू’ या ‘कोटू’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुल्थी  : स्त्री०=कुलथी।
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कुल्फ  : पुं० =कुलुफ।
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कुल्फी  : स्त्री०=कुलफी।
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कुल्माष  : पुं० [सं०√कुल+क्विप्, कुल-माष, ब० स०] १. एक प्रकार का मोटा अन्न० कुलथी। २. उरद। ३. वह अन्न जिसके दो दल या भाग होते है। दाल। जैसे—चना। ४. खिचड़ी। ५. काँजी। ६. एक प्रकार का रोग। ७. सूर्य का एक पारिपार्श्वक।
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कुल्य  : पुं० [सं० कुल+यत्] उत्तम कुल में जन्मा हुआ व्यक्ति। कुलीन।
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कुल्या  : स्त्री० [सं० कुल्य+टाप्] १. कुलीन स्त्री। २. छोटी नहर। ३. नाली। पनाला। ४. जीवंती नामक ओषधि।
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कुल्ल  : वि०=कुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुल्ला  : पुं० [सं० कवल] [स्त्री० कुल्ली] १. मुँह तथा दाँत साफ करने के लिए मुँह में पानी भरकर बाहर फेंकने की क्रिया या भाव। २. चुल्लू भर पानी जो कुल्ला करने के लिए एक बार मुंह में लिया जाय। ३. वह घोड़ा जिसकी पीठ की रीढ़ पर काले रंग की धारी हो। पुं० [फा० काकुल, सं० कुंतल] [स्त्री० कुल्ली] बाल। जुल्फ। पट्टा। पुं०=कुलह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुल्ली  : स्त्री० [हिं० कुल्ला]=कुल्ला। स्त्री० [फा० काकुल] जुल्फ।
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कुल्लुक  : पुं० [देश] एक प्रकार का बाँस जिसे बाँसिनी भी कहते हैं।
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कुल्लूक  : पुं० [सं० ] दिवाकर भट्ट के पुत्र जिन्होंने मनुसंहिता की टीका की है।
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कुल्वक  : पुं० =कुलुक।
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कुल्हड़  : पुं० [सं० कुल्हर] [स्त्री० कुल्हिया] मिट्टी का पका हुआ छोटा पात्र। चुक्कड़। पुरवा।
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कुल्हाड़ा  : पुं० [सं० कुठार] [स्त्री० अल्पा० कुल्हाड़ी] पेड़ काटने तथा लकड़ी चीरने का एक प्रसिद्ध औजार। (ऐक्स)।
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कुल्हाड़ी  : स्त्री० [हिं० कुल्हाड़ा का अल्पा०] १. छोटा कुल्हाड़ा। कुठार। टाँगी। २. बसूला। (लश०)।
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कुल्हारा  : पुं० =कुल्हाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुल्हिया  : स्त्री० [हिं० कुल्हड़] १. मिट्टी का छोटा कुल्हड़। २. बहुत छोटी या तंग कोठरी (परिहास)।
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कुल्हू  : पुं० =कुलू (देश)।
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कुव  : पुं० [सं० कु√वा (गति)+क] १. कमल। २. फूल।
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कुवंग  : पुं० [सं० कु-वंग, उपमि० स०] सीसा नामक धातु।
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कुवज  : पुं० [सं० कुव√जन् (पैदा होना)+ड] ब्रह्मा जो कमल से उत्पन्न माने गये हैं।
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कुवम  : पुं० [सं० कु√वम् (बरसाना)+अच्] सूर्य।
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कुँवर  : पुं० [सं० कुमार, प्रा० कुँवार, गु० कुमर, कुवर, कुवेर, सि० कुयारो, पं० राज० कँवर, सि० कुमरूबा, मरा० कुँवर] [स्त्री० कुँवरि] १. पुत्र। बेटा। लड़का। २. राजा का लड़का। राजकुमार। ३. कुँवारा लड़का। (क्व०)
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कुंवर-बेरास  : पुं० =कुँवर-विलास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुंवर-विलास  : पुं० [हिं० कुँवर+सं० विलास] एक प्रकार का धान और उसका चावल।
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कुँवरी  : स्त्री०=कुँवरि।
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कुँवरेटा  : पुं० [कुँवर+एटा (प्रत्य)] १. छोटा कुँवर या लड़का। २. छोटा राजकुमार।
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कुवल  : पुं० [सं० कु√वल् (गति)+अच्] १. जल। पानी। २. कुई। ३. मोती। ४. साँप का उदर।
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कुवलयापीड़  : पुं० [कुवलय-आपीड़, ब० स०] कंस का वह हाथी जिसका वध श्रीकृष्ण ने किया था।
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कुवलयाश्व  : पुं० [कुवलय-अश्व, ब० स०] राजा धुंधुमार।
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कुवलयिनी  : स्त्री० [सं० कुवलय+इनि-ङीष्] नीली कुई का पौधा। नीली कुई के पौधों या फूलों का समूह।
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कुँवाँ  : पुं० =कूआँ।
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कुवाँ  : पुं० =कूँआ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुवाक्य  : पुं० [सं० कुगति० स०] कुत्सित या बुरी बात। दुर्वचन।
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कुवाच्य  : वि० [सं० कुगति० स०] (बात) जो मुँह से कहना उचित न हो। न कहने योग्य (बात)। पुं० १. गाली। २. दुर्वचन।
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कुवाट  : पुं० =कपाट (राज०)
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कुवाण  : पुं० =कृपाण। पुं० [?] धनुष। (डि०)
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कुवाँर  : पुं० [सं० कु+पाटल] जंगली गुलाब का पौधा और उसका फूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुवार  : पुं० =कुआर (मास)।
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कुँवारा  : वि० [सं० कुमार, प्रा० कुँवार] [स्त्री० कुँवारी] जिसका अभी तक विवाह न हुआ हो। अ-विवाहित। कुँआरा।
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कुवारी  : वि० [स्त्री० हिं० कुवार]=कुआरी।
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कुवासना  : स्त्री० [सं० कुगति० स] अनुचित या बुरी इच्छा या वासना।
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कुवाहुल  : पुं० [सं० कु√वह (ढोना)+उलञ् (बा)] ऊँट।
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कुविचार  : पुं० [सं० कुगति० स] मन में होनेवाला कुत्सित, निंदनीय या बुरा विचार।
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कुविचारी (रिन्)  : वि० [सं० कुविचार+इनि] १. बुरी बातें सोचनेवाला। २. भली-भाँति तथा ठीक विचार न करनेवाला।
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कुविजा  : वि० [सं० कुब्ज] टेढ़ा-मेढ़ा। उदाहरण—कुविजा खप्पर हथ्यं रिद्ध सिद्धाय वचनयं मज्झं।—चंदबरदाई। स्त्री०=कुब्जा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुविंद  : पुं० [सं०√कुष् (खींच कर निकालना)+किन्दच्, ष=व] जुलाहा।
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कुवेणी  : स्त्री० [सं० कु√वेण् (रखना)+इन्-ङीष्] १. वेणी (चोटी) जो ठीक प्रकार से गूँथी न गई हो। २. मछलियाँ रखने की टोकरी।
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कुवेर  : पुं० [√कुवं (आच्छादित करना)+एरक्, नलोप] १. पुराणानुसार यक्षों, और किन्नरों के राजा के सौतेले भाई थे और इंद्र की निधियों के भंडारी माने जाते हैं। यही विश्व की समस्त संपत्ति के स्वामी माने जाते हैं। २. तुन का पेड़।
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कुवेराचल  : पुं० [कुवेर-अचल, मध्य० स०] कैलास पर्वत।
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कुवेराद्रि  : पुं० [कुवेर-अद्रि, मध्य० स०] कैलास पर्वत।
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कुवेल  : पुं० [सं० कुव=पुष्प+ई=शोभा√ला (आदान)+क] कमल।
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कुवेला  : स्त्री० [सं० कुगति० स०] १. अनुचित या अनुपयुक्त समय। २. बुरा समय। दुर्दिन।
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कुश  : पुं० [सं० कु√शी (सोना)+ड] [स्त्री० कुशा, कुशी] १. एक प्रकार की प्रसिद्ध घास जो पवित्र मानी जाती है और जिसका उपयोग धार्मिक कृत्यों, यज्ञों आदि में होता है। २. जल। पानी। ३. एक राजा जो उपरिचर वसु का पुत्र था। ४. भगवान राम के एक पुत्र का नाम। ५. पुराणानुसार के द्वीप। ६. बलाकाश्व का पुत्र। ७. हल की फाल। कुसी। वि० १. कुत्सित। २. पागल।
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कुश-कंडिका  : स्त्री० [तृ० त०] यज्ञ के समय अग्नि की वेदी या कुंड के चारों ओर कुश रखने की एक प्रक्रिया।
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कुश-केतु  : पुं० [ब० स०] १. ब्रह्मा। २. कुशध्वज (राजा)।
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कुश-द्वीप  : पुं० [मध्य० स०] १. सात द्वीपों में से एक जो घृत समुद्र से गिरा हुआ माना गया है। (पुराण) २. मध्यकालीन साहित्य में प्राचीन हब्स देश (हब्शियों का देश) जिसे आजकल एबिसीनिया कहते हैं।
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कुश-ध्वज  : पुं० [ब० स०] १. राजा ह्रस्वरोम का पुत्र और सरीध्वज जनक का छोटा भाई। २. बृहस्पति के पुत्र एक ऋषि।
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कुश-नाभ  : पुं० [ब० स०] राजा कुश का पुत्र और रामचन्द्र का पौत्र।
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कुश-पत्रक  : पुं० [ब० स०] फोड़ा चीरने का एक धारदार अस्त्र।
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कुश-पलवन  : पुं० [ब० स०] महाभारत में उल्लिखित एक तीर्थ।
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कुश-मुद्रिका  : स्त्री० [मध्य० स०] कुश नामक घास की बनी हुई एक प्रकार की अँगूठी जो धार्मिक कार्यों के समय पहनी जाती है। पवित्री।
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कुश-वन  : पुं० [मध्य० स०] ब्रजभूमि का एक वन।
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कुश-स्तरण  : पुं० [ष० त०] यज्ञकुंड के चारों ओर कुश बिछाने की क्रिया या भाव।
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कुश-स्थली  : स्त्री० [ष० त०] १. द्वारकापुरी। २. विंध्यप्रदेश में स्थित एक प्राचीन नगरी। कुशावती।
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कुश-हस्त  : वि० [ब० स०] जो श्राद्ध, तर्पण या दानादि के लिए हाथ में कुश लेकर उद्यत हो।
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कुशंडिका  : स्त्री० [सं० कुशम्√डी (प्राप्त होना)+क्विप्, विभक्ति का अलुक्+कन्-टाप्, ह्रस्व]=कुशकंडिका।
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कुशन  : पुं० [अं०] मोटा गद्दा।
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कुशप  : पुं० [सं०√कुश् (दीप्ति)+कपन् (बा)] पानी पीने का बरतन।
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कुशय  : पुं० [सं० कु√शी (सोना)+अच्] १. जलाशय। जलकुंड। २. पानी पीने का बरतन।
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कुशल  : वि० [सं० कुश+लच्] [भाव० कुशलता, कौशल, स्त्री० कुशला] १. (व्यक्ति) जो सब तरह के काम या बातें बहुत अच्छी तरह से करना जानता हो। भली भाँति कार्य संपादित करनेवाला। चतुर। होशियार। (स्किलफुल) २. (व्यक्ति) जिसने कोई काम अच्छी तरह करने की शिक्षा पाई हो। प्रशिक्षित तथा योग्य चतुर। (स्किल्ड) ३. पुण्यशील। पुं० [सं०] १. नीरोग तथा स्वस्थ होने की अवस्था या स्थिति। खैरियत। राजी-खुशी। जैसे—कुशल से तो हैं ? २. शिव। ३. कुशद्वीप का निवासी।
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कुशल-प्रश्न  : पुं० [ष० त०] किसी से यह पूछना कि आप कुशलपूर्वक या अच्छी तरह है न।
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कुशलता  : स्त्री० [सं० कुशल+तल्-टाप्] कुशल होने की अवस्था या भाव। २. चतुराई। होशियारी। ३. सकुशल या अच्छी तरह होने की अवस्था या भाव।
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कुशलाई  : स्त्री० दे० ‘कुशलता’।
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कुशलात  : स्त्री० [सं० कुशलता] किसी के कुशलपूर्वक या अच्छी तरह होने का समाचार।
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कुशली  : स्त्री० [?] १. अखुटा नामक वृक्ष। २. अमलोनी नामक वनस्पति।
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कुशली (लिन्)  : वि० [सं० कुशल+इनि] [स्त्री० कुशलिनी] १. जो कुशल हो। दक्ष। चतुर। २. नीरोग स्वस्थ।
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कुशवाहा  : पुं० [सं० कुशवाह] क्षत्रियों का एक भेद या वर्ग।
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कुशा  : स्त्री० [सं० कुश+टाप्] १. कुश नामक घास। (दे०) २. रस्सी। ३. एक प्रकार का मीठा नीबू। वि० [फा] १. खोलने या फैलानेवाला। जैसे—दिलकुशा। २. सुलझानेवाला। जैसे—मुश्किल कुशा।
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कुशाकर  : पुं० [सं० कुश-आ√कृ (बिखेरना)+अप्] यज्ञ की अग्नि।
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कुशाक्ष  : पुं० [कुश-आक्षि, ब० स०] बंदर।
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कुशांगुली (री) य  : स्त्री० [कुश-अंगुली (री) य, मध्य० स०] १. शुद्धता के विचार से अनामिका में पहनी जानेवाली ताँबे की मुँदरी। २. पवित्री। पैंती।
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कुशाग्र  : पुं० [कुश-अग्र, ष० त०] कुशा का अगला नुकीला भाग। वि० [सं०] कुश की नोक जैसा तीखा। अति तीक्ष्ण। नुकीला।
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कुशाग्र-बुद्धि  : वि० [ब०स] तीक्ष्ण बुद्धिवाला। जो बहुत जल्दी सब बातें समझ लेता हो।
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कुशादगी  : स्त्री० [फा०] कुशादा या विस्तृत होने की अवस्था या भाव। विस्तार।
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कुशादा  : वि० [फा०] [संज्ञा कुशादगी] १. चारों ओर से खुला हुआ या लंबा-चौड़ा। विस्तृत। २. फैला हुआ।
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कुशांब  : पुं० [सं० ] राजा कुश के पुत्र जिन्होंने कौशांबी नगरी बसाई थी।
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कुशांबु  : पुं० [सं० कुश-अंबु०, मध्य० स०] १. कुश के अगले भाग से टपकता हुआ जल जो पवित्र माना जाता है। २.=कुशांब।
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कुशारणि  : पुं० [कुश-अरणि, ब० स] दुर्वासा ऋषि।
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कुशावती  : स्त्री० [सं० कुश+मतुप्-ङीष्, म=व, दीर्घ] रामचन्द्र के पुत्र कुश की राजधानी।
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कुशावर्त  : पुं० [कुश-आवर्त, ब० स०] १. हरिद्वार में एक तीर्थ स्थान। २. एक ऋषि का नाम।
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कुशाश्व  : पुं० [कुश-अश्व, ब० स०] इक्ष्वाकु वंश का एक राजा।
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कुशासन  : पुं० [कुश-आसन, मध्य० स०] कुश नामक घास का आसन। कुश की चटाई।
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कुशिक  : पुं० [सं० कुश+ठन्-इक] १. एक प्राचीन आर्यवंश। २. उक्त वंश का व्यक्ति। ३. एक राजा जो गाधि के पिता और विश्वामित्र के दादा थे। ४. हल का अगला नुकीला भाग। फाल। कुसी। ५. बहेड़ा। ६. साखू या शाल नामक वृक्ष। ७. तेल की तलछट।
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कुशी (शिन्)  : वि० [सं० कुश+इनि] कुशवाहा। जिसके हाथ में कुश हो। पुं० वाल्मिकी ऋषि का एक नाम।
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कुशीद  : पुं० =कुसीद।
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कुशीनगर  : पुं० [सं०] भगवान बुद्ध का निर्वाण-स्थान जो आज-कल कसया कहलाता है।
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कुशीनार  : पुं० =कुशीनगर।
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कुशीलव  : पुं० [सं० कु-शील, कुगति० स०+व] १. कवि। २. चारण। भाट। ३. अभिनेता। नट। ४. गवैया। ५. वाल्मिकी ऋषि।
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कुशुंभ  : पुं० [सं० कु√शुंभ् (शोभित होना)+अच्] १. संन्यासियों का जलपात्र या कमंडल। २. घड़ा।
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कुशूल  : पुं० [सं०√कुस् (घेरना)+ऊलच्, पृषो० स०=श] १. अनाज रखने का कोठार। बखार। २. कड़ाही। ३. भूसी की आग। ४. एक राक्षस का नाम। पुं० [सं० कु+शूल] १. बुरा शूल या कांटा। २. भयंकर दर्द या पीड़ा जो बहुत कष्टदायक हो।
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कुशूल-धान्यक  : पुं० [ब० स०] वह गृहस्थ जिसके पास तीन वर्ष तक खाने भर को अन्न हो।
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कुशेश  : पुं० =कुशेशय।
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कुशेशय  : पुं० [सं० कुशे√शी (सोना)+अच्, अलुक्] १. कमल। २. कनक चंपा। ३. सारस। ४. एक पर्वत जो कुश द्वीप में स्थित माना गया है।
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कुशोदक  : पुं० [कुश-उदय, मध्य० स०] ऐसा जल जिसमें कुश घास की पत्तियाँ छोड़ी गई हों। (ऐसा जल पवित्र माना जाता है)।
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कुशोदका  : स्त्री० [कुश-उदय, ब० स०, टाप्] कुशद्वीप की एक देवी का नाम।
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कुश्तमकुश्ता  : पुं० [हिं० कुश्ती] लड़ने के समय आपस में गुथकर एक दूसरे को पटकने के लिए होनेवाले प्रयत्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुश्ता  : वि० [फा० कुश्तः] फूँका हुआ। पुं० रासायनिक क्रियाओं द्वारा धातुओं, रसों आदि को फूँककर तैयार की हुई भस्म जो पौष्टिक तथा स्वास्थ्य-वर्धक मानी जाती है।
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कुश्ती  : स्त्री० [फा०] एक प्रसिद्ध भारतीय खेल या व्यायाम जिसमें दो व्यक्ति अपने शारीरिक बल तथा दांव-पेंच से एक दूसरे को गिराकर चित करने का प्रयत्न करते हैं। मुहावरा—कुश्ती खाना=कुस्ती में हार जाना। कुश्ती बदना=दो पहलवानों में परस्पर यह निश्चय होना कि हम लोग कुश्ती लड़ेंगे। कुश्ती माँगना=(किसी को) अपने साथ कुश्ती लड़ने के लिए कहना या ललकारना। कुश्ती मारना=कुश्ती में विरोधी को चित गिरा देना और उसे जीतना। कुश्ती लड़ाना-किसी को कुश्ती लड़ने के ढंग तथा दांव-पेंच सिखलाना। पद—कुस्तमकुश्ता। (देखें)।
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कुश्तीबाज  : वि० [फा०] (व्यक्ति) जिसे कुश्ती लड़ने का शौक हो। पहलवान।
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कुषल  : वि० [सं०√कुष् (निष्कर्ष)+कलच्] कुशल। (दे०)।
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कुषाकु  : पुं० [सं०√कुष्+काकु] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. बंदर।
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कुषीतक  : पुं० [सं०] १. एक ऋषि। २. एक प्रकार का पक्षी।
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कुषीद  : वि० [सं०√कुस् (घेरना)+इदम्, पृषो० सिद्धि] उदासीन।
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कुषुंभ  : पुं० [सं०√कुषुभ् (क्षेप)+अच्, पृषो० सिद्धि] कीड़े-मकोड़े की वह थैली जिसमें उनका जहर भरा रहता है।
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कुष्ठ  : पुं० [सं० कुश्+क्थन्] १. एक संक्रामक रोग जिसमें शरीर की त्वचा, तंतु, नसें आदि मलने तथा सडने लगती हैं और इस प्रकार अंग बेकार हो जाते हैं। कोड़। (लेप्रेसी) २. कुट या कुड़ा नाम की ओषधि।
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कुष्ठ-केतु  : पुं० [ब० स०] भुई खेखसा नाम का लता। माकिंडिका।
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कुष्ठ-गंधि  : स्त्री० [ब० स०] एलुआ। (ओषधि)।
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कुष्ठ-सूदन  : पुं० [सं० कुष्ठ√सूद् (नष्ट करना)+णइच्+ल्यु-अन] अमलतास।
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कुष्ठध्न  : पुं० [सं० कुष्ठ√हन् (नष्ट करना)+टक्] हितावली नाम की ओषधि।
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कुष्ठध्नी  : स्त्री० [सं० कुष्ठध्न+ङीष्] कठूमर।
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कुष्ठहत्  : पुं० [सं० कुष्ठ√ह्व (हरण करना)+क्विप्] १. खैर का पेड़। २. विट् खदिर। वि० कुष्ठ नाशक।
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कुष्ठारि  : पुं० [कुष्ठ-अरि, ष० त०] १. आक या मदार का पत्ता। २. गंधक। ३. परवल। ४. दे,० कुष्ठह्रत। वि०=कुष्ठनाशक।
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कुष्ठालय  : पुं० [सं० कुष्ठ-आलय, ष० त०] वह भवन या चिकित्सालय जिसमें कोढ़ियों को रखकर चिकित्सा और सेवा-सुश्रुषा की जाती है।
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कुष्ठी (ष्ठिन्)  : पुं० [सं० कुष्ठ+इनि] [स्त्री० कुष्ठिनी] वह व्यक्ति जो कुष्ठ रोग से पीडि़त हो। कोढ़ी।
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कुष्मल  : पुं० [सं०√कुष्+क्मलन्] १. पत्ता। २. काटना या छेदना।
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कुष्मांड  : पुं० [सं० कु-उष्मन्-अंड, ब० स०] १. कुम्हड़ा। २. गर्भ स्थल। जरायु। ३. एक प्रकार के देवता जो शिव के अनुचर कहे गये हैं।
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कुष्मांडी  : स्त्री० [सं० कुष्मांड+ङीष्] १. पार्वती। २. यज्ञ की क्रिया। ३. ककोस।
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कुस  : पुं० =कुश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसंगति  : स्त्री० [सं० कुगति स०] दे० ‘कुसंग’।
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कुसगुन  : पुं० [सं० कु+हिं० सगुन] बुरा सगुन। असगुन।
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कुसना  : स० [सं० कुश] खेतों में उगी हुई घास आदि उखाड़ना। निराना।
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कुसमिसाना  : अ०=कसमसाना।
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कुसर  : पुं० [देश] पानी बेल या मूसल नामक लता की जड़ जो दवा के काम आती है। वि०=कुशल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसल  : वि० पुं० =कुशल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसलई  : स्त्री० १. =कुशलता। २. =कुशलात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसलछेम  : पुं० =कुशल-क्षेम।
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कुसलाई  : स्त्री० १. =कुशलता। २. =कुशलात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसलात  : स्त्री० १. =कुशलता। २. =कुशलात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसली  : स्त्री० [हिं० कसैली] १. आम की गुठली। २. आम की गुठली के आकार का एक पकवान। गोझा। वि०=कुशली।
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कुसवा  : पुं० [सं० कुश] धान की फसल में होनेवाला खैरा नामक रोग।
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कुसवारी  : पुं० [सं० कोशकार] १. रेशम का जंगली कीड़ा। २. रेशम का कोया।
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कुसवाहा  : [?] कोइरी (हिंदू जाति)। काछी। पुं० =कुशवाहा।
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कुससथली  : स्त्री०=कुश-स्थली।
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कुसाइत  : स्त्री० [सं० कु+अ० सायत] १. ऐसी साइत या मुहूर्त्त जो उत्तम न हो। बुरी साइत। २. अनुपयुक्त अवसर या समय।
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कुसाखी  : पुं० [सं० कु+शाखिन्=वृक्ष] खराब या बुरा पेड़। पुं० [सं० कु+साक्षी] खराब या बुरा गवाह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसांब  : पुं० =कुशांब।
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कुसारी  : स्त्री० दे० ‘कुसवारी’।
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कुसिया  : स्त्री०=कुसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसियार  : पुं० [सं० कोशकार] १. सफेद रंग का एक बढ़िया गन्ना। थून। २. ईख। गन्ना।
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कुसियारी  : पुं० =कुसवारी।
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कुसी  : स्त्री० [सं० कुशी] १. हल का नुकीला भाग। फाल। स्त्री०=खुशी (प्रसन्नता) उदाहरण—निस दिन होत कुसी।—मीराँ। वि०=खुश (प्रसन्न)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसीद  : पुं० [सं०√कुस् (श्लेष)+ईद, न गुणः (नि०)] [स्त्री० कुसीदा, वि० कुसीदिक] १. सूद पर रुपया देना। महाजनी। २. मूलधन का ब्याज या सूद। ३. ब्याज या सूद पर दिया जानेवाला धन। ४. लाल चंदन। वि० १. सूदखोर। २. सुस्त।
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कुसीद-वृद्धि  : स्त्री० [मध्य० स०] ब्याज।
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कुसीदजीवी (विन्)  : पुं० [सं० कुसीद√जीव् (जीना)+णिनि] महाजनी करने वाला। सूदखोर महाजन।
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कुसीदिक  : वि० [सं० कुसीद+ष्ठन्-इक] कुसीद या ब्याज-संबंधी। पुं० =कुसीद।
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कुसीनार  : पुं० =कुशीनगर।
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कुसुंब  : पुं० [सं० कुसुम्भ या कुसुम्बक] १. भारत, बरमा चीन आदि में पाया जानेवाला एक प्रकार का वृक्ष। २. दे० ‘कुसुम’।
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कुसुंबिया  : स्त्री० दे० ‘कुसुब’। वि० [हिं० कुसुंब] १. कुसुंब संबंधी। २. कुसुंब के रंग का।
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कुसुंभ  : पुं० [सं०√कुस्+उम्भ, गुणभाव (नि०)] १. कुसुम या बर्रे नाम का पौधा। २. केसर। कुमकुम।
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कुसुंभा  : पुं० [सं० कुसुंभ] १. कुसुम का रंग। २. अफीम और भाँग के योग से बननेवाला एक मादक पेय। स्त्री० [सं० कुसुंभ+टाप्] आषाढ़ शुक्ल पक्ष की छठ।
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कुसुंभी  : वि० [सं० कुसुंभ] कुसुम के रंग का। लाल।
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कुसुम  : पुं० [सं०√कुस्+उम, गुणाभाव (नि०)] [वि० कुसुमित] १. पुष्पों। फूल। २. स्त्रियों का रजस्राव। ३. लाल रंग। ४. ऐसा गद्य जिसमें छोटे-छोटे वाक्य हो। ५. वर्तमान अवसर्पिणी के छठे अर्हत् के गणधर। ६. एक राग जो मेघराग का पुत्र कहा गया है। ७. आँखों का एक रोग। ८. छंदशास्त्र में ठगण का छठा भेद जिसमें क्रमशः लघु, गुरु, और लघु (।ऽ॥) होते हैं। पुं० [सं० कुसुभ] एक प्रसिद्ध पौधा जो रबी की फसल के साथ बीजों या फूलों के लिए बोया जाता है। बर्रे। कुसुंब।
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कुसुम-कार्मुक  : पुं० [ब०स] कामदेव, जिनका धनुष फूलों का है।
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कुसुम-चाप  : पुं० =कुसुम-कार्मुक।
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कुसुम-पंचक  : पुं० [ष० त०] कामदेव के पाँच बाण।
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कुसुम-पल्ली  : स्त्री० [ष० त०] १. रजस्वली स्त्री। २. दे० ‘कुसुमपुर’।
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कुसुम-पुर  : पुं० [मध्य० स०] आधुनिक पटना नगर का प्राचीन नाम।
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कुसुम-बाण  : पुं० [ब०स] कामदेव।
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कुसुम-रेणु  : पुं० [ष० त०] पराग।
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कुसुम-विचित्रा  : स्त्री० [उपमित० स०] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः नगण, यगण, नगण और यगण होता है।
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कुसुम-शर  : पुं० [ब०स] कामदेव।
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कुसुम-स्तवक  : पुं० [ष० त०] दंडक छंद का वह भेद जिसमें प्रत्येक चरण में नौ या नौ से अधिक सगण होते हैं।
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कुसुमवान  : पुं० [सं० कुसुम-बाण] कामदेव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसुमाकर  : पुं० [कुसुम-आकर, ष० त०] १. वसंत ऋतु। २. फुलवारी। बगीचा। ३. छप्पय का एक भेद।
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कुसुमांजन  : पुं० [कुसुम-अंजन, मध्य० स०] जस्ते को फूँककर तैयार की हुई भस्म।
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कुसुमांजलि  : स्त्री० [कुसुम-अंजलि, मध्य० स०] फूलों से भरी हुई अजंली। पुष्पांजलि।
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कुसुमाधिप, कुसुमाधिराज  : पुं० [कुसुम-अधिप, कुसुम अधिराज, ष० त०] चंपा का पेड़।
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कुसुमायुध  : पुं० [कुसुम-आयुध, ब० स०] कामदेव।
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कुसुमाल  : पुं० [कुसुम-आ√ला (लेना)+क] चोर।
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कुसुमावलि  : स्त्री० [कुसुम-आवलि, ष० त०] फूलों का गुच्छा या समूह।
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कुसुमासव  : पुं० [कुसुम-आसव, ष० त०] १. फूलों का रस। मकरंद। २. मधु। शहद।
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कुसुमित  : वि० [सं० कुसुम+इतच्] १. (पौधा) जिसमें फूल लगें हों। २. खिला हुआ। (क्व०) ३. (स्त्री) जिसका रजस्राव हो रहा हो।
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कुसुमित-लता-वेल्लिता  : स्त्री० [कुसुमित-लता, कर्म० स, कुसुमितलता-वेल्लिता, उपमित० स०] एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, तगण, नगण, यगण, यगण और यगण होता है।
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कुसुमी  : वि० [सं० कुसुम] १. कुसुम संबंधी। कुसुम का। २. कुसुम के फूलों के रंग का। पीलापन लिये हुए लाल रंग का। जैसे—कुसुमी साड़ी।
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कुसुमेषु  : पुं० [कुसुम-इष्, ब० स०] कामदेव।
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कुसुली  : स्त्री०=कुसली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुसूत  : पुं० [सं० कु-सूत्र, प्रा० सुत्त] १. खराब या बुरा सूत। २. कु-प्रबंध।
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कुसूर  : पुं० [अ० क़ुसूर] १. भूल। २. अपराध। ३. दोष।
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कुसूरवार  : पुं० [अ०+फा] १. अपराधी। २. दोषी।
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कुसूल  : पुं० =कुशूल।
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कुसेस  : पुं० दे० ‘कुसेसय’।
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कुसेसय  : पुं० [सं० कुशेशय] कमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुस्तंबरु  : पुं० [सं० कुस्तंबरु] धनिया का बीज।
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कुस्ती  : स्त्री०=कुश्ती।
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कुस्तुभ  : पुं० [सं० कु√स्तुम्भ् (धारण)+क] विष्णु।
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कुस्सा  : पुं० [देश] कुदाल।
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कुह  : पुं० [सं०√कुह् (आश्चर्यित करना)+णिच्+अच्] कुवेर। पुं० [अनु] पक्षियों के कुहकने का शब्द।
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कुँह-कुँह  : पुं० =कुंकुम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहँ-कुहँ  : पुं० दे० ‘कुमकुम’।
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कुहक  : पुं० [सं०√कुह्+क्वुन्-अक] १. माया धोखा। २. जाल। ३. इंद्रजाल। ४. जादू की तरह अद्भुत जान पड़नेवाली कोई बात। ५. मेंढक। स्त्री० १. कुहकने की क्रिया या भाव। २. मुरगे की बाँग। ३. कोयल की कूक। वि० [स्त्री० कुहकिनी] १. मायावी। जैसे—लो कुहकिनी अपना कुहुक (कुहक) यह जागा।—मैथिलीशरण गुप्त। २. चालाक। धूर्त्त।
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कुहकना  : अ० [सं० कुहक वा कुहू] १. कोयल का कुहू-कुहू शब्द करना। पिहकना। २. पक्षियों का मधुर स्वर में बोलना।
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कुहकनी  : वि० [हिं० कुहकना] कुहकनेवाला। स्त्री० कोयल।
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कुहकुह  : पुं० =कुंकुम (केसर)।
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कुहकुहाना  : अ०=कुहकना।
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कुहक्क  : पुं० [?] ताल के आठ भेदों में से एक। जिसमें दो द्रुत और दो लघु मात्राएँ होती है। स्त्री०=कुहक।
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कुहँचा  : पुं० [हिं० कोहनी या पहुँचा] कलाई। पहुँचा।
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कुहन  : वि० [सं० कु√हन् (हिंसा गति)+अप्] १. ईर्ष्यालु। २. घमंडी। ३. पाखंडी। पुं० १. चूहा। २. साँप। ३. मिट्टी या शीशे का छोटा पात्र।
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कुहना  : स० [सं० कुह-नन=मारना] वध या हनन करना। जान से मार डालना। स०=कुहकना। पुं० [हिं० कुहकना] कोयल के मधुर बोल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहनी  : स्त्री०=कोहनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहप  : पुं० [सं० कुहू-अमावस्या+प] रजनीचर। राक्षस।
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कुहबर  : पुं० =कोहबर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहर  : पुं० [सं० कुह=विस्मय√रा (देना)+क] १. एक सर्प का नाम। २. छिद्र। छेद। ३. बिल। सूराख। ४. गुफा। ५. कंठनीय। पुं० [देश] एक प्रकार का शिकार (शिकारी पक्षी)।
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कुहरा  : पुं० =कोहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहराम  : पुं० [हिं० कहर+काम] १. संकट आदि के समय जन-समाज में होनेवाली भाग-दौड़ या हलचल। २. बहुत से लोगों का मिलकर रोना-कलपना।
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कुहरित  : पुं० [सं० कुहर+णिच्+क्त] १. कोयल की कूक। २. मैथुन के समय मुँह से निकलनेवाले सुख-पूर्ण निरर्थक शब्द।
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कुहरी  : स्त्री०=कोहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहलि  : पुं० [सं० कु√हल् (विलेखन)+इन्] पान।
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कुहसार  : पुं० [फा०] १. पर्वतीय प्रदेश। २. पर्वत।
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कुहा  : स्त्री० [सं०√कुह्+क, टाप्] कटुकी (ओषधि)
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कुहाड़ा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० कुहाड़ी]=कुल्हाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहाना  : अ० [सं० क्रोधन, पा० कोहन] १. क्रुद्ध होना। २. रूठना। स० किसी को अप्रसन्न या क्रुद्ध करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहाँर  : पुं० =कुम्हार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहारा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० कुहारी]=कुल्हाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहासा  : पुं० दे०=कोहरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहिर  : पुं० =कोहरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहिरा  : पुं० =कोहरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुही  : स्त्री० [सं० कुधि=एक पक्षी] एक प्रकार का शिकारी चिडिया,०जिसका आकार प्रकार बाज का सा होता है। पुं० [फा० कोही=पहाड़ी] घोड़े की एक जाति। वि० [हिं० कोह=क्रोध] क्रोधी। उदाहरण—कलहा कुही, मूष रोगी अरू काहूँ नैकुँ न भावै।—सूर। वि० [सं० कुहू] १. अँधकारपूर्ण। २. कृष्ण पक्ष का।
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कुहु  : स्त्री० [सं०√कुह् (विस्मित करना)+कु]=कुहू। पुं० [फा० कोही] पहाड़ी घोड़ा।
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कुहुक  : पुं० स्त्री० वि०=कुहक।
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कुहुकना  : अ०=कुहकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहुकबान  : पुं० [हिं० कुहुक+वाण] बाँस की कई पट्टियों को जोड़कर बनाया जानेवाला एक प्रकार का वाण, जिसके चलते समय कुहक जैसा शब्द निकलता है। उदाहरण—दिल्लीपति, आखेट चढ़ि, कुहुकबान हथनारि।—चंदबरदाई।
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कुहुकिनी  : स्त्री०=कुहकनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहुँचा  : पुं० दे० ‘पहुँचा’। (कलाई)।
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कुहूँ  : स्त्री०=कुहू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहू  : स्त्री० [सं० कुहू+ऊङ्] १. अमावस्या की अधिष्ठाती देवी या शक्ति। २. अमावस्या की रात। ३. कोयल की बोली। ४. व्लक्ष द्वीप की एक नदी। स्त्री० [हिं० कुहकना] १. कोयल की बोली। २. मोर की बोली।
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कुहू-कंठ  : पुं० [ब० स०] कोयल।
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कुहू-मुख  : पुं० [ब० स०] कोयल।
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कुहू-रव  : पुं० [ब० स०] कोयल।
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कुहूकबान  : पुं० =कुहुकबान।
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कुहेलिका  : स्त्री० [सं० कु√हेड् (वेष्टन)+इन्+कन्, टाप्, लत्व] कुहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहेली  : स्त्री० [सं० कु√हेड्+इन्, ङीष्, लत्व] कुहरा।
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कुहौं  : स्त्री० [सं० कुहू] १. कोयल की कूक। २. मोर की बोली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कुहौकुहा  : स्त्री०=कुहक (कोयल की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कू  : स्त्री० [सं०√कू(शब्द)+क्विप्] पिशाची।
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कूआँ  : पुं० [सं० कूप, कूप, गु० कुवो० सि० खुहु, का० कुह्० पं० खूह ने० कुआ, बं० उ० कूआ, मरा० कुवा] १. पानी निकालने के लिए जमीन में खोदा हुआ गहरा तथा गोल गड्ढा। मुहावरा—कूँआ खोदना=जीविका-निर्वाह के लिए परिश्रम और प्रयत्न करना। जैसे—यहाँ तो नित्य कुआँ खोदना और नित्य पानी पीना है। कूआँ चलाना=खेत सींचने के लिए कूएँ से पानी निकालना। कुआँ झाँकना=किसी खोज या प्रयत्न में चारों=ओर मारे-मारे फिरना। दौड़-धूप करना। कुएँ की मिट्टी कुएँ में लगना=(क) जहाँ की आमदनी वहीं खर्च होना। (ख) जहाँ की चीज हो वहीं के काम आना। कुएँ पर से प्यासे लौट आना=ऐसे स्थान पर से निराश लौटना जहाँ कोई काम बहुत सहज में हो सकता हो। कुएँ में बाँस डालना-किसी चीज की थाह लगाने या किसी को ढूँढ़ने के लिए अथक परिश्रम करना। कुएं में बोलना या कुएँ में से बोलना-इतने धीरे से बोलना कि सुनाई न पड़े। कूएँ में भाँग पड़ना=ऐसी स्थिति होना जिसमें सब लोग नशे की हालत में पागलों की तरह अनुचित आचरण या व्यवहार करने लगें। २. बहुत ही गहरी और अँधेरी जगह। ३. ऐसा स्थान या स्थिति जिसमें बहुत अधिक संकट की संभावना हो। मुहावरा—(किसी के लिए) कुआँ खोदना=किसी को फँसाने अथवा उसकी भारी हानि करने का प्रयत्न करना। कुएँ में गिरना=विपत्ति या संकट में पड़ना। कुएँ में गिराना या डालना=(क) नष्ट करना। (ख) विपत्ति या संकट में फँसाना। ४. रहस्य संप्रदाय में हृदय-रूपी कमल।
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कूईं  : स्त्री० [हिं० कुव+ईं प्रत्यय] १. जल में होनेवाला एक प्रसिद्ध पौधा जिसेक छोटे सुन्दर फल कमल की तरह के होते हैं। २. उक्त पौधे के फूल जो चाँदनी रात में खिलते हैं।
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कूक  : स्त्री० [हिं० कूकना (अ०)] १. कोयल या मोर की लंबी सुरीली ध्वनि। २. लंबी सुरीली ध्वनि। स्त्री० [हिं० कूकना (स)] घड़ी बाजे आदि को कूकने अर्थात् उनमें कुंजी देने की क्रिया या भाव।
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कूकड़  : पुं० =कुक्कुट (मुरगा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूकना  : अ० [सं० कूजन] १. कोयल, मोर आदि का कू-कू शब्द करना। २. कोयल या मोर की सी बोली बोलना। ३. सुरीली ध्वनि निकालना। स० [अनु] घड़ी, कमानीदार बाजे आदि चलाने के लिए उनकी चाबी या कुंजी घुमाकर उनमें दम भरना। कुंजी या चाबी देना।
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कूकर  : पुं० [सं० कुक्कुर] [स्त्री० कूकरी] कुत्ता। श्वान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूकर-निदिया  : स्त्री०=कूकरनींद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूकरकौर  : पुं० [हिं० कूकर+कौर] १. कुत्ते के निमित्त छोड़ा हुआ उच्छिष्ट भोजन या ग्रास। २. तुच्छ या हीन वस्तु।
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कूकरचंदी  : स्त्री० [हिं० कूकर+सं० चंड] एक प्रकार की जंगली जड़ी जिसके व्यवहार से कुत्ते के काटने पर होनेवाला घाव ठीक हो जाता है।
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कूकरनींद  : स्त्री० [हिं० कूकर+नींद] ऐसी नीदं जो हलकी-सी आहट होने पर भी उचट जाय।
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कूकरभँगरा  : पुं० [हिं० कूकर+हिं० भंगरा] १. काला। भँगरा। २. कुकरौंधा।
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कूकरमुत्ता  : पुं० =कुकुरमुत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूकरलेंड  : पुं० [हिं० कूकर+लेंड] कुत्तों और कुत्तियों का मैथुन।
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कूका  : पुं० [हिं० कूकना=जोर से चिल्लाना] १. सिक्खों का एक संप्रदाय जो सन् १८६७ में रामसिंह नाम के एक बढ़ई ने चलाया था, और जिसने आगे चलकर राजनीतिक रूप धारण किया था। नामधारी या निहंग संप्रदाय। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी व्यक्ति।
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कूकी  : स्त्री० [देश] फस को हानि पहुँचाने वाला एक प्रकार का कीड़ा।
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कूँख  : स्त्री०=कोख।
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कूख  : स्त्री०=कोख।
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कूँखना  : अ०=काँखना।
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कूँग  : पुं० [हिं० कुनना] कसेरों की एक प्रकार की खराद जिस पर वे बरतन खरादते और उन पर जिला अर्थात् पालिश करते हैं।
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कूँगा  : पुं० [देश] चमड़ा सिझाने के लिए बनाया हुआ बबूल की छाल का काढ़ा।
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कूँच  : स्त्री० [हिं० कूँचा] १. खस अथवा नारियल के रेसों का बना बुरूश जिससे जुलाहे ताने का सूत साफ करते हैं। २. लोहारों की बड़ी सँड़सी। स्त्री० [सं० कूचिका=नली] घोड़ानस (दे०) पुं०=कूच।
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कूँच  : स्त्री० [सं० क्रोच, पा० कौंच] १. जलशयों के किनारे रहनेवाला बगले के आकार का एक प्रसिद्ध पक्षी। कराँकुल।
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कूच  : पुं० [तु०] यात्रा आरंभ अथवा कहीं प्रस्थान करने की क्रिया या भाव। रवानगी। मुहावरा—(इस दुनिया से) कूच कर जाना=मर जाना। कूच का डंका या नक्कारा बजाना=राजा, सेना आदि का कहीं से प्रस्थान करना। कूच बोलना=अधीनस्थ सैनिकों आदि को कही से प्रस्थान करने का आदेश देना। पुं० [देश] पतझड़ के बाद महुए के पेड़ की टहनियों से निकलने वाला कलियों का गुच्छा। पुं० [सं० ] अविवाहित जवान स्त्री के स्तन। कुच। पुं० =कूँच (घोड़ा नस)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूँचना  : स० [हिं० कूँचा]=कुचलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूँचा  : पुं० [हिं० कुचलना] १. टूटे हुए जहाज के टुकड़े। २. भड़भूँजे का कलछा। पुं० =कूचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूचा  : पुं० [फा० कूचः] कम चौड़ा या छोटा रास्ता। सँकरा मार्ग। बड़ी गली। पुं० दे० ‘कूँचा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूचागर्दी  : स्त्री० [फा०] गलियों में इधर-उधर व्यर्थ घूमते-फिरते रहने की क्रिया या भाव।
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कूचिका  : स्त्री० [सं० कूच+कन्, टाप्, इत्व] १. कूँची। २. कुंजी। ताली।
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कूँची  : स्त्री०=कूची।
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कूची  : स्त्री० [सं० कूचिका] १. छोटा कूचा या झाड़। २. मूँज आदि का बनाया हुआ एक प्रकार का ब्रुश जिससे दीवारों पर सफेदी की जाती है। ३. चित्रकार की वह कलम जिससे वह चित्रों में रंग आदि भरता है। तूलिका। मुहावरा—कूची देना=चित्रों आदि में रंग भरना। स्त्री० [फा० कूचा] १. वह कुल्हिया जिसमें मिस्री जमाई जाती है। २. मिट्टी का वह बरतन जिसमें कोल्हू से निकला हुआ रस इकट्ठा होता है। स्त्री०=कुंजी (ताला खोलने की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूचुक  : पुं० [फा० काउचुक] कुछ विशिष्ट वृक्षों का वह दूधिया निर्यास जो सूखकर लचीला और रबर की तरह जल-कवच हो जाता है। (काउचुक)।
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कूज  : स्त्री० [हिं० कूजना] ध्वनि। शब्द।=कूजा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूँजड़ा  : पुं० [स्त्री० कूँजड़ी]=कुँजड़ा।
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कूजन  : स्त्री० [सं०√कूज् (अव्यक्त शब्द)+ल्युट-अन] [वि० कूजित] पक्षियों का कोमल और मधुर स्वर में बोलने की क्रिया या भाव।
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कूँजना  : अ०=कूजना।
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कूजना  : अ० [सं० कूजन] पक्षियों का कोमल और मधुर स्वर में बोलना।
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कूँजरा  : पुं० [स्त्री० कूँजरी]=कूँजड़ा।
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कूजा  : पुं० [फा० कूजाः] १. मिट्टी का अर्धवतुलाकार छोटा बरतन। कुल्हड़। २. उक्त पात्र में जमाई हुई मिस्री। पुं० [सं० कुब्जक] १. गुलाब के पौधों की एक जाति। २. उक्त जाति के गुलाब का फूल जिसका रंग गहरा लाल होता है।
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कूँझ  : स्त्री०=कूज।
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कूँट  : पुं० [?] पैर का बंधन। उदाहरण—करह झेकि दोनू चढ़या कूँट न सँभालेह।—ढोला मारू।
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कूट  : पुं० [सं०√कूज् (आच्छादित करना, जलाना आदि)+अच्] १. पहाड़ की ऊँची चोटी। जैसे—चित्रकूट। २. आगे की ओर निकला हुआ नुकीला सिरा। नोक। ३. सींग। ४. ढेर। राशि। जैसे—अन्नकूट। ५. हल की वह लकड़ी जिसमें फाल लगा होता है। ६. लोहे का बड़ा हथौड़ा। ७. हिरन आदि फँसाने का जाल। ८. म्यान में रखा हुआ हथियार। ९. छल। धोखा। १॰. वैर। ११. झूठ। १२. अगस्त्य ऋषि। १३. घड़ा। १४. नगर का द्वार। १५. साहित्य में ऐसा पद या रचना, जिसमें श्लिष्ट अथवा संबंध-सूचक सांकेतिक शब्दों का प्राधान्य हो और इसी लिए जिसका ठीक अर्थ जल्दी सब लोगों की समझ में न आता हो। जैसे—सूर के कूट। १६. कोई ऐसी रहस्यमय बात जिसका आशय या मतलब जल्दी समझ में न आता हो। उदाहरण—प्रश्न चित्रों का फैला कूट। ‘निराला’। १७. वह हास्य या व्यंग्य जिसमें कोई गूढ़ अर्थ या आशय छिपा हो। १८. निहाई। १९. टूटे हुए सीगोंवाला बैल। वि० [सं० ] १. झूठा मिथ्यावादी। २. छली। धोखा देनेवाला। ३. कृत्रिम। जाली। बनावटी। जैसे—कूट मुद्रा। ४. प्रधान। मुख्य। स्त्री० [हिं० कूटना] १. कोई चीज कूटने की क्रिया या भाव। २. कूटने की मजदूरी। पुं० दे० ‘कुट’ (ओषधि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूट-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] ऐसा काम जो दूसरों को छलने या धोखा देने के लिए किया गया हो।
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कूट-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] कूट-कर्म करने अर्थात् दूसरों को छलने या धोखा देनेवाला व्यक्ति।
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कूट-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] सामरिक दृष्टि से विक्षेप महत्त्व का कोई क्षेत्र (स्ट्रैटेजिक एरिया)
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कूट-तर्क  : पुं० [कर्म० स०] १. सीधी बात घुमाकर कहने की क्रिया। २. इस प्रकार की कही हुई बात। वाग्जाल।
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कूट-तुला  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसा तराजू जिसमें जान-बूझकर पासँग रखा गया हो, और इसलिए जिसमें चीज उचित से कम तुलती हो।
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कूट-नीति  : स्त्री० [कर्म० स०] व्यक्तियों अथवा राष्ट्रों के पारस्परिक व्यवहार में दाँव-पेंच की ऐसी नीति या चाल जो सहज में प्रकट या स्पष्ट न हो सके। छिपी हुई चाल। (डिप्लोमेसी)।
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कूट-पण  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा लेख्य या सिक्का जो असली या वास्तविक न हो, बल्कि जाल रचकर बनाया गया हो।
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कूट-पाठ  : पुं० [ब० स०] मृदंग के चार वर्णों में से एक वर्ण।
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कूट-पालक  : पुं० [सं० कूट√पाल् (रक्षण)+णिच्०+ण्वुल्-अक] पित्तज्वर।
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कूट-पाश  : पुं० [कर्म० स०] पक्षियों को फँसाने का जाल।
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कूट-पूर्व  : पुं० [मध्य० स०] हाथियों का त्रिदोषज ज्वर।
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कूट-प्रश्न  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर सहज में न दिया जा सके। २. पहेली।
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कूट-बंध  : पुं० [कर्म० स०] पक्षी आदि फँसाने का जाल।
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कूट-मान  : पु० [कर्म० स०] १. ऐसी तौल या मान जो पूरा या मानक न हो। ठीक नाप से कुछ बड़ा या छोटा नाप। २. उचित से हलका या भारी बटखरा।
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कूट-मुद्र  : पुं० [ब० स०] वह जो जाली मुद्रायँ, लेख्य, सिक्के आदि बनाता हो।
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कूट-मुद्रा  : स्त्री० [कर्म० स०] खोटा या जाली मुद्रा, लेख्य या सिक्का।
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कूट-मोहन  : पुं० [सं० कूट√मुह (मुग्ध होना)+णिच्+ल्यु-अन०] कार्तिकेय।
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कूट-युद्ध  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसा युद्ध या लड़ाई जिसमें धोखा देनेवाली चालें चली जाएँ। ‘धर्म-युद्ध’ का विपर्याय।
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कूट-योजना  : स्त्री० [कर्म० स०] षडंयंत्र।
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कूट-रूप  : पुं० [कर्म० स०] जाली सिक्का।
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कूट-लेख  : पुं० [कर्म० स०] जाली दस्तावेज या लेख्य।
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कूट-लेखक  : पुं० [कर्म० स०] जाली दस्तावेज बनानेवाला व्यक्ति।
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कूट-शाल्मलि  : पुं० [कर्म० स०] जंगली शाल्मलि (सेमर) का वृक्ष।
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कूट-शासन  : पुं० [कर्म० स०] जाली राजकीय आज्ञापत्र।
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कूट-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [कर्म० स०] झूठा गवाह।
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कूट-साक्ष्य  : पुं० [कर्म० स०] झूठी गवाही।
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कूट-स्थल  : पुं० [ष० त०] सामरिक दृष्टि से अधिक महत्त्व का कोई विशिष्ट केन्द्र या स्थान (स्ट्रैटेजिक प्वाइन्ट)
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कूट-स्वर्ण  : पुं० [कर्म० स०] १. खोटा या जाली सोना। २. ऐसे सोने का सिक्का।
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कूटक  : वि० [सं० कूट+कन्] किसी को छलने या धोखा देने के लिए कहा, किया या बनाया हुआ। जैसे—कूटक आख्यान।
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कूटता  : स्त्री० [सं० कूट+तल्-टाप्] १. कूट होने की अवस्था या भाव। २. कपट। छल। ३. झूठ ४. कठिनाई। दिक्कत।
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कूटत्व  : पुं० [सं० कूट+त्व]=कूटता।
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कूटन  : स्त्री० [हिं० कूटना] १. कूटने की क्रिया। २. कोई चीज कूटने पर बननेवाला उसका रूप।
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कूटना  : स० [सं० कुट्टन] १. किसी चीज पर इस प्रकार भारी चीज से बार-बार आघात करना कि उसके बहुत छोटे-छोटे टुकड़े हो जाय। जैसे—मसाला कूटना। २. धान को ऊखल में रखकर मूसल आदि से इस प्रकार बार-बार आघात करना कि उसकी भूसी अलग हो जाय। मुहावरा—(कोई चीज) कूट-कूट कर भरना=दबा-दबा कर किसी पात्र में कोई वस्तु अधिक-से-अधिक मात्रा में भरना। (किसी व्यक्ति में) कूट-कूटकर भरा होना=(किसी व्यक्ति में) कोई गुण या दोष बहुत अधिक मात्रा में होना। जैसे—चतुराई तो उसमें कूट-कूट कर भरी हुई है। ३. जोर-जोर से बराबर मारते रहना। खूब ठोंकना या पीटना। ४. टाँकी आदि से आघात करते हुए चक्की सिल आदि का तल इसलिए खुरदुरा करना कि उसमें चीजें अच्छी तरह पिस सकें। ५. बैल या भैसे का अंडकोश आघात से चूर-चूर करके उसे बधिया करना। ६. ऊँट का पैर मोड़कर उसे ऊपरी भाग में बाँधना।
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कूटस्थ  : वि० [सं० कूट√स्था (ठहरना)+क] १. जो कूट अर्थात् सबसे ऊँचे या श्रेष्ठ स्थान पर स्थित हो। २. अटल। अचल। ३. अविनाशी। ४. छिपा हुआ। ५. विकार रहित। निर्विकार। पुं० [सं० ] १. व्याघ्रनख नामक सुगंधित पदार्थ। २. जीव। ३. परमात्मा। ४. वेदान्त में चेतन का वह रूप जो अविद्या से आच्छन्न रहता है।
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कूटा  : पुं० [हिं० कूटना] १. वह व्यक्ति जो चीजें कूटने का काम करता हो। २. वह उपकरण जिससे चीजें कूटी जाती हों। कुटना।
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कूटाक्ष  : पुं० [सं० कूट-अक्ष, कर्म० स०] जूआ खेलने का ऐसा बनाया हुआ पासा जिससे अधिकतर कोई या कुछ विशिष्ट दाँव ही आते हों। (छलपूर्वक किसी को जीतने का साधन)
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कूटाख्यान  : पुं० [सं० कूट-आख्यान, कर्म० स०] १. कल्पित कथा। २. ऐसी कथा जिसमें कुछ ऐसे वाक्य हों जिनका कुछ अर्थ ही न लगता हो।
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कूटागार  : पुं० [सं० कूट-आगार, कर्म० स०] १. बौद्धों के अनुसार वह मंदिर जो मानुषी बुद्धों के लिए बना हो। २. छत के ऊपर की कोठरी। चौबारा। ३. तहखाना।
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कूटायुध  : पुं० [सं० कूट-आयुध, कर्म० स०] ऐसा आयुध या हथियार जो किसी दूसरी चीज के अन्दर छिपा हुआ हो। जैसे—गुप्ती जो ऊपर से देखने में छड़ी जान पड़ती है पर जिसके अन्दर बरछी रहती है।
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कूटार्थ  : वि० [सं० कूट-अर्थ, कर्म० स०] (लेख या वाक्य) जिसका अर्थ सहज में न जाना जा सके। पुं० लेख्य या वाक्य का उक्त प्रकार का अर्थ।
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कूटावपात  : पुं० [सं० कूट-अवपात० कर्म० स०] जंगली जानवरों को फँसाने के लिए बनाया हुआ गड्ढा जो ऊपर से घास-पात से ढका रहता है।
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कूटि  : स्त्री० [सं० कूट] कूट और व्यंग्यपूर्ण कथन या बात। उदाहरण—करहिं कूटि नारदहिं सुनाई।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटी  : स्त्री०=कुटी (पर्णशाला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटी  : पुं० [सं० कूट+हिं० ई (प्रत्यय)] १. जाली या नकली वस्तुएँ बनानेवाला। जालिया। २. फरेबी। ३. कुटना। स्त्री०=कुटनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटू  : पुं० [देश०] एक पौधा, जिसके बीजों का आटा फलाहार के रूप में खाया जाता है। कोटू।
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कूँड़  : स्त्री० [सं० कुड़] १. युद्ध के समय सिर पर पहनी जानेवाली लोहे की टोपी। खोद। २. मि्टटी, लोहे आदि का वह बड़ा और गहरा बरतन जिसके द्वारा कूँए में से सिचांई के लिए पानी निकाला जाता है। ३. उक्त के आकार का वह पात्र जिसके ऊपर चमड़ा मढ़कर तबले के साथ का ‘बायाँ’ बनाया जाता है। ४. हल जोतने के खेत में बनी हुई गहरी लकीर।
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कूड  : वि० [सं० कूट] १. असत्य। मिथ्या। झूठ। २. छलयुक्त। उदाहरण—करहउ कूड़इ मनि थकइ पग राखीयउ जाँणा।—ढोला मारू।
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कूँड़ा  : पुं० [सं० कूँड़] [स्त्री० कूँड़ी] १. पानी रखने का काठ या मिट्टी का बड़ा और गहरा पात्र। २. कटोरे आदि के आकार का कोई पात्र। जैसे—कठौला। ३. गमला। ४. रोशनी करने की एक प्रकार की शीशे की बड़ी हाँड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूड़ा  : पुं० [सं० कूट, प्रा० कूड=ढेर] १. कोई चीज (जैसे—कमरा, घर, सड़क आदि) झाड़ने-पोंछने, बुहारने पर निकलने वाली गंदी और रद्दी चीजें। कतवार। बुहारन। २. निकम्मी व्यर्थ की या रद्दी चीजें। पद—कूड़ा-करकट=गली, सड़ी व्यर्थ की अथवा रद्दी चीजें।
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कूड़ा-कोठ  : पुं० [हिं० कूड़ा+कोठा] वह स्थान या पात्र जिसमें कूड़ा फेंका जाता है। (डस्ट-बिन)
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कूड़ाखाना  : पुं० [हिं० कूड़ा+फा० खाना] कूड़ा फेंकने का स्थान।
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कूँड़ी  : स्त्री० [हिं० कूँड़ा] १. पत्थर की बनी हुई कटोरी। पथरी। पत्थर की प्याली। २. छोटी नांद। ३. कोल्हू के बीच का वह गड्ढा जिसमें जाट रहती है। स्त्री० [सं० कुंडली] एँडुरी जिसे सिर पर रखकर स्त्रियाँ घड़ा उठाती हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूढ़  : वि० [सं० कु+ऊह,=कूह० पा० कूथ] जिसकी समझ में कोई बात जल्दी आती ही न हो। बहुत बड़ा ना-समझ या मूर्ख। पुं० [सं० कुष्टि, प्रा० कुड्ढि] १. हल का वह भाग जिसके एक सिरे पर मुठिया और दूसरे सिरे पर खोंपी लगी रहती है। जाँघा। नगरा। हलपत। २. नली के द्वारा खेत में बीज बोने का प्रकार।
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कूढ़मग्ज  : वि० [हिं० कूढ़+फा० मगज्] बहुत बड़ा ना समझ या मूर्ख।
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कूण  : सर्व०=कौन। (राज०)
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कूणिका  : स्त्री० [सं०√कूण् (बोलना)+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] वीणा, सितार सारंगी आदि वाद्यों की वह खूँटी जिसमें तार बँधे रहते हैं।
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कूणित  : भू० कृ० [सं०√कूण्+क्त] १. जो बंद हुआ हो। २. सुकचा या सिकुड़ा हुआ।
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कूणितेक्षण  : पुं० [सं० कूणित-ईक्षण, ब० स०] बाज नामक पक्षी।
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कूत  : पुं० [सं० आकूत=आशय] १. किसी वस्तु का मान, मूल्य महत्त्व आदि आँकने का काम। २. कुछ कल्पना करने के लिए मन-ही-मन कुछ सोचने की क्रिया या भाव।
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कूतना  : स० [हि० कूत] किसी वस्तु का मान, मूल्य या महत्त्व अटकल या अनुमान से आँकना। अन्दाज लगाना। जैसे—खेत की पैदावार कूतना।
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कूँथना  : स० [सं० कुंथन=दुःख उठाना] १. कराहना। २. कबूतरों का गुटरगूँ शब्द करना।
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कूथना  : अ० [सं० कुंथन] १. कराहना। २. काँखना। स०=कूटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूद  : स्त्री० [हिं० कूदना] कूदने की क्रिया या भाव। जैसे—उछल-कूद।
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कूँदना  : स० दे० ‘कुनना’।
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कूदना  : अ० [सं० स्कुदन, प्रा० कुंदन] १. किसी ऊँचे स्थान से नीचे स्थान की ओर एकबारगी तथा बिना किसी सहारे के उतरना। जैसे—चबूतरे या छत पर से कूदना। २. किसी वस्तु के एक छोर से छलाँग भरकर उसे लाँघते हुए दूसरे छोर पर पहुँचना। जैसे—कूदकर नाला पार करना। ३. किसी काम या बात के बीच में झट से आ पहुँचना या दखल देना। ४. लाक्षणिक अर्थ में,बिना अधिकार या अनुमति लिए दूसरे के कामों या बातों में दखल देना। ५. अचानक कहीं आ पहुँचना। ६. ठीक प्रकार से काम न करके बीच-बीच में बहुत सी बातें छोड़ते हुए आगे बढ़ना।
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कूदा  : पुं० [हिं० कूदना] खेत या जमीन नापने का एक परिमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कून  : स्त्री० [फा०] मलद्वार। गुदा। पुं० १. दे० ‘कुंद’। २. दे० ‘कूग’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूनना  : स० दे० ‘कुनना’।
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कूना  : पुं० [सं० कुपण] १. मृत शरीर। शव। लाश। २. देह। शरीर। ३. बरछा। भाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूनी  : स्त्री० [हिं० कूँड़ी] कोल्हू के बीच का गड्ढा जिसमें ऊख के टुकड़े डालकर पेरे जाते हैं। कूँड़ी।
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कूप  : पुं० [सं०√कू (श्बद)+पक्, दीर्घ] १. कूआँ। २. छेद। सूराख। जैसे—रोम —कूप। ३. गहरा गड्ढा। ४. रहस्य संप्रदाय में हृदय-रूपी कमल। पुं० =कुप्पा।
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कूप-कच्छप  : पुं० [पात्रे समितादिवत् समा० (स० त०)]=कूप-मंडूक।
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कूप-चक्र  : पुं० [ष० त०]=कूप-यंत्र।
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कूप-मंडूक  : पुं० [पात्रे समितादिवत्, समा] १. कुएँ में रहनेवाला मेढक। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान क्षेत्र बहुत ही परिमित हो, अथवा जिसने अपना क्षेत्र छोड़कर बाहर का संसार न देखा हो।
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कूप-यंत्र  : पुं० [ष० त०] चरखी अथवा ऐसा ही कोई यंत्र जिसकी सहायता से कुएँ से पानी निकालते हैं।
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कूपक  : पुं० [सं० कूप+कन्] १. छोटा कूआँ। २. आजकल कूएँ के आकार-प्रकार का वह गड्ढा जो खानों में आने-जाने और उसमें से खनिज पदार्थ निकालने के लिए बनाया जाता है। (शैफ्ट) ३. चमड़े की बनी हुई तेल वा घी रखने की कुप्पी। ४. नाव बाँधने का खूँटा। ५. जहाज व नाव का मस्तूल। ६. चिता।
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कूपकार  : पुं० [कूप√कृ (करना)+अण्] कुआँ खोदने या बनानेवाला।
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कूपन  : पुं० [अं०] १. बही आदि में टँका या लगा हुआ कागज का वह टुकड़ा जो काटकर या निकालकर इसलिए संकेत रूप में किसी को दिया जाता है कि उसके द्वारा वह किसी प्रकार का प्राप्य या सुभीता प्राप्त कर सके। जैसे—राशन पाने का कूपन। २. मनीआर्डर फार्म का वह निचला भाग, जिसमें पानेवाले के लिए कोई समाचार या सूचना लिखी जाती है।
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कूँपली  : स्त्री० [हिं० कुप्पा] कुप्पी के आकार का लकड़ी का वह पात्र जिसमें स्त्रियाँ काजल, टिकली आदि सुहाग के सामान रखती है। (राज०)
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कूपार  : पुं० [सं० कु√धृ (भरना)+अण्, पूर्वदीर्घ] समुद्र।
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कूपी  : स्त्री० [सं० कूप+ङीष्] १. छोटा कुआँ। २. नाभि का गढ़ा। ३. कुप्पी।
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कूफी  : स्त्री० [अ०-कूफः=एक प्राचीन नगर] प्राचीन अरबी लिपि का एक प्रकार का भेद।
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कूब  : पुं० =कूबड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूबड़  : पुं० [सं० कूवर] १. पीठ के टेढ़ेपन के कारण होनेवाला उस पर का उभार जो एक प्रकार का रोग है। २. किसी चीज का उभारदार टेढ़ापन या गोलाई। हम्प। जैसे—ऊँट का कूबड़।
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कूबड़ा  : पुं० =कुबड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूबर  : पुं० [सं०√कू (शब्द)+व (व) रच्] १. कूबड़। २. बाँस, जो रथ या गाड़ी में जुआ बाँधे जाने के लिए लगता है। युगंधर। ३. रथ या गाड़ी का वह भाग जिस पर रथी या गाड़ीवान बैठता है। वि०=कुबड़ा।
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कूबर  : (ा) पुं० =कुबड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूबरी  : पुं० =कूबड़।
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कूबा  : पुं० =कूबड़। वि०=कूबड़ा।
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कूम  : पुं० [देश] एक प्रकार का पेड़, जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती है।
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कूमटा  : पुं० [देश] १. एक प्रकार की कपास। २. दे० ‘कूम’।
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कूर  : वि० [सं० कूर] [भाव० कूरता, कूरपन] १. जिसमें दया न हो। निर्दय। २. दुष्ट। ३. मूर्ख। ४. पापी। ५. डरावना। भयंकर। पुं० १. दे० ‘कूड़ा’। २. दे० ‘कूढ़’।
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कूरता  : स्त्री० [हिं० कूर+ता (प्रत्यय)] १. कूरता। २. कठोरता।
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कूरा  : पुं० [सं० कूट] [स्त्री०कूरी] १. ढेर। राशि। उदाहरण—जारि भए√भसम कौ कूरा।—कबीर। २. अंश। भाग। पुं० दे० ‘कूड़ा’।
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कूरी  : स्त्री० [हिं० कूरा का स्त्री अल्पा० रूप] १. छोटा ढेर। २. छोटा टीला।
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कूर्च  : पुं० [सं०√कुर (शब्द)+चट्, दीर्घ] १. कूँची। २. मोर का पंख। ३. नाक का ऊपरी भाग। ४. सिर।
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कूर्चक  : पुं० [सं० कूर्च+कन्] १. कूँची विशेषतः चित्रकार की। २. दाँत साफ करने की कूँची।
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कूर्चिका  : स्त्री० [सं० कूर्चक+टाप्, इत्व] १. कूँची। २. कुंजी। ३. कली। ४. सूई।
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कूर्दन  : पुं० [सं०√कूर्द (खेलना)+ल्युट-अन] खेलना कूदना।
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कूर्पर  : पुं० [सं०√कुर् +क्विप्, कुर्√पृ (पूर्ण करना)+अच्, दीर्घ] १. कोहनी। २. घुटना।
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कूर्म  : पुं० [सं० कु-ऊर्मि, ब० स० पृषो० सिद्धि] १. कच्छप। कछुआ। २. भगवान विष्णु का वह अवतार जिसमें उन्होंने कछुए का रूप धारण किया था। विष्णु का कूर्मावतार। ३. वह वायु जिसके बल से पलके खुलती और बन्द होती हैं।
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कूर्म-क्षेत्र  : पुं० [मध्य० स०] एक तीर्थ स्थान।
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कूर्म-पृष्ठ  : पुं० [ष० त०] कछुए की पीठ।
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कूर्मासन  : पुं० [सं० कूर्म-आसन, मध्य० स०] हठयोग में एक प्रकार का आसन, जिसमें शरीर की आकृति कछुए की-सी बना ली जाती है।
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कूर्मी  : स्त्री० [सं० कूर्म+ङीष्] कछुई।
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कूल  : पुं० [सं० √कूल्(आवृत्त करना)+अच्] १. तालाब, नदी, समुद्र आदि जलाशयों का किनारा। तट। २. नहर। ३. तालाब। ४. किसी वस्तु का सिरा। ५. किसी कार्य या बात की सीमा। यौ०-कूल-किनारा=किसी बात की ऐसी स्थिति जिसमें उसका निराकरण हो जाय। निबटारा। अव्य० निकट। समीप। पुं० [देश०] कपड़ा। वस्त्र।
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कूलंकषा  : स्त्री० [सं० कल√कष् (काटना)+खच्, मुम्, टाप्] नदी।
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कूलवती  : स्त्री० [सं० कूल+मतुप्, वत्व, ङीष्] नदी।
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कूला  : पुं० [देश] छोटी नहर। नाला।
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कूलिका  : स्त्री० [सं० कूल+कन्, टाप्, इत्व] वीणा सितार आदि का निचला भाग।
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कूलिनी  : स्त्री० [सं० कूल+इनि-ङीष्] नदी।
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कूल्टू  : पुं० दे० ‘कूटू’।
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कूल्हा  : पुं० [?] कमर या पेड़ू के दोनों ओर का कुछ उभरा हुआ भाग।
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कूल्ही  : स्त्री० [देश] पीतल।
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कूवटा  : पुं० [सं० कूप] १. कुआँ। २. दे० ‘कूप’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूवत  : स्त्री० [अं०] १. शारीरिक बल। शक्ति। २. किसी प्रकार की शक्ति। सामर्थ्य।
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कूवा  : पुं० =कुआँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूष्मांड  : पुं० [सं० कु-ऊष्मा-अण्ड, ब० स०] १. कुम्हड़ा। २. पेठा।
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कूह  : स्त्री० [अनु] १. हाथी के चिंघाड़ने से होनेवाला शब्द। २. चीख। चिल्लाहट। पुं० कोलाहल। शोर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूहना  : स० [सं० कु+हन] १. मारना-पीटना। २. बुरी तरह से हत्या करना। उदाहरण—कासी कामधेनु कलि कुहत कसाई है।—तुलसी।
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कूहा  : पुं० दे० ‘कोहरा’।
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कृकर  : पुं० [सं० कृ√कृ(करना)+ट] १. मस्तक की वह वायु जिसके वेग के कारण छींक आती है। २. शिव।
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कृच्छ्र  : पुं० [सं० √कृत्+रक्, छकार, आदेश] १. कष्ट। दुःख। २. पाप। ३. मूत्र-कृच्छ्र रोग। ४. एक प्रकार का व्रत। जिसमें पंचगव्य खाकर दूसरे दिन उपवास, किया जाता है। वि० कष्ट-साध्य।
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कृत  : भू० कृ० [सं०√कृ (करना)+क्त] १. पूरा या संपन्न किया हुआ। २. संपादित। ३. बनाया हुआ। निर्मित। रचित। ४. (लेख्य) जो किसी बड़े अधिकारी के सामने उपस्थित करके हस्ताक्षरित करा लिया गया हो। (प्राचीन काल में ऐसा ही लेख्य प्रमाणिक माना जाता था)। पुं० [सं० ] १. सतयुग। २. पंद्रह प्रकार के दासों में से एक। ३. एक प्रकार का पासा। ४. चार की संख्या।
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कृत-कर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०] दे० ‘कृतकार्य’।
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कृत-कार्य  : वि० [ब० स०] १. जिसका किया हुआ कार्य, पूरा संपन्न या सिद्ध हो चुका हो। २. ठीक प्रकार से अपना काम करने वाला । ४. चतुर।
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कृत-काल-दास  : पुं० [कृत-काल, कर्म० स० कृतकाल-दास, च० त०] कुछ काल या समय के लिए बना हुआ दास।
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कृत-कृत्य  : वि० [ब० स०] १. जिसने अपना कार्य पूरा कर लिया हो। २. जिसे अपने काम में पूरी सहायता मिली हो। ३. संतुष्ट तथा प्रसन्न।
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कृत-चेता (तस्)  : वि० [सं० ब० स०] किया हुआ उपकार माननेवाला। कृतज्ञा। ‘कृतघ्न’ का विपर्याय।
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कृत-दंड  : पुं० [ब० स०] यमराज।
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कृत-देवी (दिन्)  : वि० [सं० कृत√विद्(जानना)+णिनि] कृतज्ञ।
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कृत-निंदक  : वि० [ष० त०] उपकार करनेवाले की भी निंदा या बुराई करनेवाला।
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कृत-फल  : पुं० [ब० स०] १. शीतलचीनी। २. कोलशिंबी।
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कृत-माल  : पुं० [ब० स०] अमलतास।
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कृत-माला  : स्त्री० [ब० स०] दक्षिण भारत की एक नदी।
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कृत-मुख  : पुं० [ब० स०] पंडित। विद्वान।
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कृत-युग  : पुं० [कर्म० स०] सतयुग।
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कृत-वर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] १. राजा कृतवीर्य का भाई। २. वर्त्तमान अवसर्पिणी के तेरहवें अर्हत् के पिता (जैन)।
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कृत-विद्य  : वि० [ब० स०] १. जिसने अच्छी तरह अध्ययन करके किसी विद्या का पूरा ज्ञान प्राप्त किया हो। जो किसी विद्या का पूरा पंडित हो। (स्काँलर) २. जो कोई काम करने में पूरी तरह अभ्यस्त हो।
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कृत-वीर्य  : पुं० [ब० स०] कृतवर्मा का भाई, जो राजा कनक का पुत्र था।
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कृत-श्लेषण-संधि  : स्त्री० [कृत-श्लेषण, कर्म० स० कृतश्लेषण-संधि, मध्य० स०] मित्रों को बीच में डालकर की हुई ऐसी संधि जिससे युद्ध की संभावना न रह जाय। (कौ०)।
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कृत-संकल्प  : वि० [ब० स०] जिसने कोई काम करने का पक्का निश्चय या संकल्प कर लिया हो।
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कृत-सापत्नी  : स्त्री० [ब० स०] ऐसी स्त्री जिसके पति ने उसके जीते जी दूसरा विवाह कर लिया हो।
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कृत-हस्त  : वि० [ब० स०] हाथ से काम करने में निपुण। कुशल। दक्ष।
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कृतक  : वि० [सं०√कृत+क्वुन्-अक] १. किया हुआ। कृत। २. (वस्तु) जो छलपूर्वक किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करने के लिए बनाई गई हो। जाली। ३. कृत्रिम। ४. अनित्य। ५. दत्तक (पुत्र)।
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कृतकाज  : वि०=कृतकार्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृतकाम  : वि० [ब० स०] जिसकी इच्छा या कामना पूर्ण हो गई हो।
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कृतकारज  : वि०=कृतकार्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृतग्य  : वि०=कृतज्ञ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृतघन  : वि०=कृतघ्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृतघ्न  : वि० [सं० कृत√हन् (हिंसा)+टक्] [संज्ञा-कृतघ्नता] जो दूसरे के किये हुए उपकारों से अनभिज्ञ बनता हो। किसी के द्वारा अपने साथ की हुई भलाई भूल जानेवाला। एहसान या उपकार न माननेवाला। ‘कृतचेता’ या ‘कृतज्ञ’ का विपर्याय।
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कृतघ्नता  : स्त्री० [सं० कृतघ्न+तल्-टाप्] कृतघ्न होने की अवस्था या भाव।
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कृतघ्नताई  : स्त्री०=कृतघ्नता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृतघ्नी  : वि०=कृतघ्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृतज्ञ  : वि० [सं० कृत√ज्ञा (जानना)+क] [संज्ञा-कृतज्ञता] किसी के किये हुए अनुग्रह या उपकार को आदरपूर्वक स्मरण रखनेवाला एहसान माननेवाला।
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कृतज्ञता  : स्त्री० [सं० कृतज्ञ+तल्-टाप्] कृतज्ञ होने की अवस्था या भाव।
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कृंतन  : पुं० [सं०√कृत् (काटना)+ल्युट-अन, नुम्] काटने की क्रिया या भाव। कर्त्तन।
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कृंतनी  : स्त्री० [सं० कृन्तन+ङीष्] कैंची।
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कृतांक  : भू० कृ० [सं० कृत-अंक, ब० स०] जिस पर कोई अंक या चिन्ह्र लगाया गया हो। अंकित या चिन्हित किया हुआ।
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कृताकृत  : भू० कृ० [कृत-अकृत, द्व०स०] आधा तीहा किया हुआ। कुछ किया और कुछ छोड़ा हुआ। अधूरा। पुं० अधूरा काम।
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कृतांजलि  : वि० [कृत-अंजलि, ब० स०] जो हाथ जोड़े या बाँधे हुए हो।
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कृतांत  : वि० [कृत-अंत, ब० स०] १. पूर्ण या समाप्त करनेवाला। २. अंत या नाश करनेवाला। पुं० १. यमराज। २. मृत्यु। ३. पाप। ४. देवता।
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कृतांता  : स्त्री० [सं० कृतांत+टाप्] रेणुका नामक सुगंधित द्रव्य।
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कृतात्मा (त्मन्)  : पुं० [कृतृ-आत्मन्, ब० स०] १. शुद्ध आत्मावाला मनुष्य। महात्मा। २. पुण्य तथा स्तुत्य काम करनेवाला व्यक्ति।
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कृतात्यय  : पुं० [कृत-अत्यय, ष० त०] भोग द्वारा कर्मों का होने वाला नाश (सांख्य)।
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कृतान्न  : पुं० [कृत-अन्न, कर्म० स०] १. पकाया या पचाया हुआ अन्न।
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कृतापराध  : वि० [कृत-अपराध० ब० स०] जिसने कोई अपराध किया हो। अपराधी।
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कृताभिषेक  : वि० [कृत-अभिषेक, ब० स०] जिसका अभिषेक हो चुका हो। पुं० राजा।
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कृतार्घ  : पुं० [कृत-अर्घ, ब० स०] गत अवसर्पिणी के १९ वें अर्हत् का नाम (जैन)।
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कृतार्थ  : वि० [कृत-अर्थ, ब० स०] [भाव० कृतार्थता] १. जिसका उद्धेश्य सिद्ध हुआ हो। २. जो अपने उद्धेश्य की सिद्धि के कारण प्रसन्न या संतुष्ट हो। ३. संतुष्ट। ४. कुशल। ५. मुक्ति।
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कृतालक  : पुं० [कृत-अलक, ब० स०] शिव का एक गण।
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कृतालय  : वि० [कृत-आलय, ब० स०] जो अपने घर में बसा हुआ हो या रहता हो। पुं० मेढ़क।
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कृतावधि  : वि० [कृत-अवधि० ब० स०] जिसकी अवधि सीमा या हद नियत या निश्चित हो।
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कृताह्वान  : वि० [कृत-आह्ववान, ब० स०] जो कोई काम करने के लिए पुकारा, बुलाया या ललकारा गया हो।
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कृति  : स्त्री० [सं०√कृ+क्तिन्] १. वह जो कुछ किया गया हो। किया हुआ काम। कार्य। २. चित्र, ग्रन्थ वास्तु आदि के रूप में बनाई हुई वस्तु। ३. कोई अच्छा, बड़ा या प्रशंसनीय काम। ४. इंद्रजाल। जादू। ५. बीस अक्षरों वाले छंदों की संज्ञा। पुं० विष्णु का एक नाम।
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कृति-कर  : पुं० [ब० स०] रावण।
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कृति-स्वाध्य  : पुं० [ष० त०] दे० ‘स्वामित्व’।
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कृतिका  : स्त्री०=कृत्तिका।
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कृतिवास  : पुं० =तिवास।
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कृती (तिन  : पुं० [सं० कृत+इनि] १. ऐसा व्यक्ति जिसने बहुत बड़ा प्रशंसनीय अथवा स्तुल्य काम किया हो। २. वह जिसने पूर्व जन्म में अच्छे कर्म किये हुए हों। फलतः भाग्यवान्। वि० १. कुशल। दक्ष। २. पुण्यात्मा।
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कृतु  : वि०-कृत। पुं० =क्ततु।
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कृतोदक  : वि० [कृत-उदक, ब० स०] १. जो नहा चुका हो। स्नान। २. जिस पर जल पड़ चुका हो।
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कृतोद्वाह  : वि० [कृत-उद्वाह, ब० स०] जिसने विवाह कर लिया हो। विवाहित।
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कृत्त  : वि० [सं०√कृत्त (काटना)+क्त] १. कटा हुआ। विभक्त। २. अभिलषित।
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कृत्ति  : स्त्री० [सं०√कृत्+क्तिन्] १. मृगचर्म। २. चर्म। खाल। ३. भोजन पत्र। ४. कृत्तिका नक्षत्र।
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कृत्तिका  : स्त्री० [सं०√कृत्त+तकिन्, टाप्] १. २७ नक्षत्रों में से तीसरा नक्षत्र। २. छकड़ा।
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कृत्तिकांजि  : पुं० [सं० कृत्तिका-अञ्जि, ब० स०] अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े के मस्तक पर लगाया जानेवाला तिलक, जो शकटाकार होता था।
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कृत्तिवास  : पुं० [सं० कृत्ति√वस् (आच्छादन)+अण्, उप० स०] महादेव।
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कृत्तिवासा (सस्)  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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कृत्य  : पुं० [सं०√कृ (करना)+क्यपु, तुगागम] १. वह जो कुछ किया जाय। काम। २. वेद-विहित अथवा धार्मिक दृष्टि से किये जानेवाले कार्य। ३. वे कार्य जो किसी पदाधिकारी को विशेष रूप से विधिवत् करने पड़ते हैं। (फंक्शन)।
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कृत्यका  : स्त्री० [सं० कृत्य+कन्,टाप्] चुडैंल। डाकिनी।
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कृत्यवाह  : पुं० [सं० कृत्य√वह् (चलाना)+अण्] ऐसा व्यक्ति, जिसके जिम्मे या जिस पर कोई काम करने का भार हो। किसी पद पर रहकर उसके सब कार्य चलानेवाला। (फंक्शनरी)
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कृत्यविद्  : वि० [सं० कृत्य√विद् (जानना)+क्विप्, उप० स०] जिसे अपने कर्त्तव्यों या कृत्यों का ज्ञान हो।
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कृत्या  : स्त्री० [सं० कृत्य+टाप्] १. एक राक्षसी, जिसे तांत्रिक अपने अनुष्ठान से उत्पन्न करके किसी शत्रु को विनाश करने के लिए भेजते हैं। २. दुष्ट स्त्री। ३. अभिचार। ४. सर्वनाश करनेवाली कोई चीज या बात। उदाहरण—रिषि सक्रोध इक जटा उपारी। सो कृत्या भइ ज्वाला भारी।—सूर।
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कृत्या-दूषण  : पुं० [सं० ष० त०] १. कृत्या (किसी के किये हुए अभिचार अथवा राक्षसी) के प्रतीकार के लिए किया जानेवाला एक प्रकार का तांत्रिक कृत्य। २. कृत्या का दोष निवारण करनेवाली एक प्रकार की ओषधि। ३. कृत्या का दोष निवारण करनेवाले एक ऋषि।
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कृत्याकृत्य  : वि० [सं० कृत्य-अकृत्य, द्व० स०] कृत्य और अकृत्य। करने और न करने योग्य कार्य।
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कृत्रिम  : वि० [सं०√कृ+क्त्रि, मप्] १. जो प्राकृतिक न हो, बल्कि जिसे मनुष्य स्वंय किसी प्राकृतिक वस्तु के अनुकरण पर बनाया हो। जैसे—कृत्रिम दाँत, कृत्रिम सोना। २. दिखावटी। बनावटी। जैसे—कृत्रिम हँसी।
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कृत्रिम-धूप  : पुं० [कर्म० स०] अनेक प्रकार के सुगंधित द्रव्यों को मिलाकर बनाया जानेवाला एक प्रकार का धूप। दशांगादि धूप।
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कृत्स  : पुं० [सं०√कृत् (छेदन)+स] १. जल। २. समुदाय। ३. पाप।
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कृत्स्न  : वि० [सं०√कृत्+करन्] पूरा। संपूर्ण।
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कृदंत  : पुं० [सं० कृत-अंत, ब० स०] वह शब्द जो धातु में कृत् प्रत्यय लगाने से बनता है।
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कृप  : पुं० [सं०√कृप् (कल्पना करना)+अच्] १. वैदिक काल के एक राजर्षि। २. दे० ‘कृपाचार्य’।
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कृप-पात्र  : पुं० [ष० त०] ऐसा व्यक्ति जिस पर कोई विशेष रूप से कृपा करता हो। कृपा-भाजन।
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कृपण  : पुं० [सं० कृप+क्वुन्-अन] १. ऐसा व्यक्ति जो रुपया-पैसा जोड़ता चलता हो, परन्तु खर्च न करता हो। कंजूस। २. लालची। लोभी।
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कृपणता  : स्त्री० [सं० कृपण+तल्] कृपण होने की अवस्था या भाव।
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कृपणी  : वि० [सं० कृपण] दीन।
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कृपन  : पुं० =कृपण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृपनाई  : स्त्री०=कृपणता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृपया  : अव्य० [सं० कृपा की तू विभक्ति का रूप] कृपा या मेहरबानी करके। कृपापूर्वक।
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कृपा  : स्त्री० [√कृप्,+अङ्,टाप्] १. उदारतापूर्वक अथवा स्वभावतः दूसरों की भलाई करने की वृत्ति। २. उदारता या सज्जनतापूर्वक किया हुआ ऐसा कार्य जिससे किसी की भलाई होती हो। (काइन्डनेस)।
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कृपाचार्य  : पुं० [सं० कृप-आचार्य, कर्म० स०] गौतम ऋषि के पौत्र।
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कृपाण  : पुं० [सं०√कृप् (सामर्थ्य)+आनच्] [स्त्री० अल्पा० कृपाणी] १. छोटी तलवार प्रायः जैसी सिख लोग अपने पास रखते हैं। कटार। २. ३२ वर्णों का एक वर्णवृत्त जो मुक्तक दण्डक का एक भेद है तथा जिससे प्रत्येक चरण में आठ-आठ वर्णों पर यति होती है।
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कृपाणक  : पुं० [सं० कृपाण+कन्] दे० ‘कृपाण’।
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कृपाणिका-  : स्त्री० [सं० कृपाणक+टाप्, इत्व] छोटी तलवार। कटारी।
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कृपाणी  : स्त्री० [सं० कृपाण+ङीष्] छोटी तलवार।
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कृपायतन  : पुं० [कृपा-आयतन, ष० त०] सब पर बहुत कृपा करनेवाला। अत्यंत कृपालु।
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कृपाल  : वि०=कृपालु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृपालता  : स्त्री०=कृपालुता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृपालु  : वि० [सं० कृपा√ला (आदान)+डु] जो सब पर कृपा करता हो। कृपा करना जिसका स्वभाव हो।
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कृपालुता  : स्त्री० [सं० कृपालु+तल्-टाप्] कृपा का भाव। कृपालु होने की अवस्था या भाव।
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कृपिण  : =कृपण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृपिणता  : स्त्री०=कृपणता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कृपिन  : वि०=कृपण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कृपिनता  : स्त्री०=कृपणता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कृपिनाई  : स्त्री०=कुपणता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कृपी  : स्त्री० [सं० कृप+ङीष्०] कृपाचार्य की बहन जिसका विवाह द्रोणाचार्य से हुआ था और जिसके गर्भ से अश्वत्थामा उत्पन्न हुए थे।
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कृमि  : पुं० [सं०√क्रम् (चलना)+इन्, संप्रसारण] [वि० कृमिल] १. छोटा कीड़ा। जैसे—च्यूँटी जूँ आदि। २. लाख या लाह जो कीड़ों से बनती है। ३. किरमिच नाम का कीड़ा।
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कृमि-कोश  : पुं० [ष० त०] वे छोटे-छोटे प्राकृतिक आवरण जिसमें रेशम के कीड़े रहते हैं। कुसवारी। कोया।
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कृमि-भोजन  : पुं० [ष० त०] एक नरक।
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कृमि-राग  : पुं० [?] किरमिज या किमिजी नाम का रंग (कारमाइन)
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कृमि-रोग  : पुं० [मध्य० स०] पेट का रोग, जिसके कारण आमाशय और पक्वाशय में कीड़े या केंचुए पड़ जाते हैं।
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कृमि-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] दे० ‘कीट विज्ञान’।
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कृमि-शैल  : पुं० [ष० त०] दीमकों की बाँधी। विभोट। वल्मीक।
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कृमिक  : पुं० [सं० कृमि+कन्] छोटा कीड़ा।
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कृमिज  : वि० [सं० कृमि√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जो कृमि या कीड़ों से उत्पन्न हुआ या निकला हो। पुं० १. रेशम। २. अगर। ३. किरमिजी (रंग)।
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कृमिण  : वि० [सं० कृमि+न, इत्व] (वस्तु) जिसमें कीड़े पड़े या लगे हों। कृमियों या कीड़ों से युक्त।
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कृमितान  : पुं० [?] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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कृमिभोजी (जिन्)  : वि० [सं० कृमि√भुज् (खाना)+णिनि] कीड़ों का भक्षण करनेवाला।
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कृमिल  : वि० [सं० कृमि√ला (आदान)+क] कीड़ो से युक्त। कृमिण।
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कृमिला  : स्त्री० [सं० कृमिल+टाप्] वह स्त्री जिसके आगे बहुत से बच्चे हों।
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कृमिलाश्व  : पुं० [सं० कृमिल-अश्व, ब० स०] आजमीढ़-वंश का एक राजा (हरिवंश पुराण)।
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कृमिविज्ञानी (नि्न्)  : वि० पुं० [सं० कृमिविज्ञान+इनि] दे० ‘कीट-विज्ञान’।
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कृमीलक  : पुं० [सं० कृमि√ईर् (गति)+ण्वुल्-अक, र=ल] जंगली मूँग।
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कृश  : वि० [सं०√कृश् (पतला करना)+क्त, नि० सिद्धि] १. जिसका शरीर सूखा हुआ हो। दुबला-पतला। क्षीणकाय। २. दुर्बल। कमजोर। ३. अकिंचन। दरिद्र। ४. अल्प। थोड़ा। पुं० एक प्रकार का पक्षी।
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कृश-नास  : पुं० [ब० स०] शिव।
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कृशता  : स्त्री० [सं० कृश+तल्-टाप्] १. कृश अर्थात् दुबले-पतले होने की अवस्था या भाव। दुबलापन। २. कमजोरी। दुर्बलता। ३. अल्पता। न्यनता।
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कृशताई  : स्त्री०=कृशता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृशर  : पुं० [सं० कृश√रा (दान)+क] [स्त्री० कृशरा] १. तिल और चावल के योग से बनी हुई खिचड़ी। २. खिचड़ी। ३. लोबिया। मटर। ४. खेमारी।
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कृशरान्न  : पुं० [सं० कृशर-अन्न, कर्म० स०] खिचड़ी।
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कृशान  : पुं० पुं० दे० ‘कृशानु’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृशानु  : पुं० [सं०√कृश्+आनुक्] १. अग्नि। आग। २. चीता।
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कृशानुरेता (तस्)  : पुं० [ब० स०] शिव। महादेव।
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कृशाश्व  : पुं० [सं० कृश-अश्व, ब० स०] १. तृणविंदु वंश के एक राजर्षि। (भाग पुराण) २. दक्ष के एक जामाता का नाम।
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कृशाश्वी (श्विन्)  : पुं० [सं० कृशाश्व+इनि] १. कृशाश्व के नाट्य शास्त्र का अध्येता। २. अभिनेता। नट।
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कृशित  : वि० [सं० कृश] १. क्षीण काय। दुबला-पतला। २. कमजोर। दुर्बल।
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कृशोदर  : वि० [सं० कृश-उदर, ब० स०] [स्त्री० कृशोदरा, कृशोदरी] १. जिसका पेट या बीच का भाग पतला हो। २. पतली कमरवाला।
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कृशोदरी  : वि० [सं० कृशोदर+ङीष्] पतली कमरवाली। (स्त्री)।
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कृश्त्व  : पुं० [सं० कृश+त्व] कृशता (दे०)
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कृषक  : पुं० [सं०√कृष् (जोतना)+क्वुन्-अक] १. खेतों को जोतने-बोने तथा उनमें अन्न उपजाने वाला व्यक्ति। किसान। खेतिहर। (फार्मर) २. हल का फाल।
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कृषाण  : पुं० [सं०√कृष्+आनक् (बा)] किसान। कृषक। (दे०)।
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कृषि  : स्त्री० [सं० कृष्+इन्] [वि० कृष्य] १. खेतों को जोतने-बोने और उनमें अन्न आदि उपजाने का काम। खेती-बारी। २. जमीन की बोआई। ३. फसल।
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कृषि-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] खेतों को जोतने-बोने और उनमें अन्न आदि उपजाने का काम। खेती-बारी।
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कृषि-जीवी (विन्)  : वि० [सं० कृषि√जीव् (जीना)+णिनि] (व्यक्ति) जो अपनी जीविका खेती-बारी करके चलाता हो।
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कृषि-भूमि  : स्त्री० [कर्म० स०] जोती तथा बोयी हुई जमीन। कृषित भूमि।
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कृषि-यंत्र  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की गाड़ी जिसमें इंजन लगा रहता है और जो खेतों को जोतता तथा फसलें आदि काटता है। (ट्रक्टर)।
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कृषि-वर्ष  : पुं० [ष० त०] वर्ष का वह मान जो कृषि संबंधी कार्यों और फसल के विचार से स्थिर होता है। (एग्रिकलचरल ईयर)
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कृषिक  : पुं० [सं०√कृष्+किकन्] किसान। कृषक।
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कृषिकार  : पुं० [सं० कृमि√कृ (करना)+अण्, उप० स०] किसान। कृषक।
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कृषित  : भू० कृ० [सं० कृष्ट] १. (खेत) जो जोता-बोया गया हो। २. खेती करके उपाजाया गया हो। जो स्वयं या आप-से-आप न उगा हो, बल्कि जोत-बोकर उपजाया गया हो। (कल्टिवेटेड उक्त दोनों अर्थों में)।
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कृषी  : स्त्री०=कृषि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृषीवल  : पुं० [सं० कृषि+वलच्, दीर्घ] किसान। कृषक।
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कृष्कर  : पुं० [सं० कृष√कृ+टक्, पृषो० सिद्धि] शिव।
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कृष्ट  : वि० [सं०√कृष्+क्त] १. खिंचा या खींचा हुआ। २. जोता-बोया हुआ।
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कृष्ट-फल  : पुं० [ष० त०] खेत की पैदावार। फसल।
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कृष्टपच्य  : वि० [सं० कृष्ट√पच् (पाक)+क्यप्] खेत में पका हुआ (अन्न आदि)।
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कृष्टपाक्य  : वि० [सं० कृष्ट√पच्+ण्यत्]=कृष्टपच्य।
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कृष्टि  : स्त्री० [सं०√कृष्+क्तिन्] १. खीचने की क्रिया या भाव। २. आकृष्ट करना। ३. खेत आदि जोतने-बोने का काम। पुं० विद्वान व्यक्ति।
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कृष्टोप्त  : वि० [सं० कृष्ट-उप्त० स० त०] जोता या बोया हुआ। (खेत)।
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कृष्ण  : वि० [सं०√कृष् (खींचना)+नक्] [स्त्री० कृष्णा] १. काले या साँवले रंग का। काला। (ब्लैक) २. नीला। ३. बुरा तथा निदनीय। पु० १. यदुवंशी वासुदेव और भोजवंशी देवकी के पुत्र जो भगवान के आठवें अवतार माने गये हैं। श्रीकृष्ण। २. परब्रह्म। ३. वेदव्यास। ४. अर्जुन। ५. ऋग्वेद के द्रष्टा एक ऋषि। ६. महीने का अँधेरा पक्ष। ७. काला मृग। ८. कोकिल। ९. कौआ। १॰. कलियुग। ११. काला या नीला रंग। १२. काला अगरू। १३. पाप या अशुभ कर्म। १४. जूए में मिला हुआ धन। १५. एक असुर जो इंद्र के हाथों मारा गया था। १६. शाल्मलि द्वीप में रहनेवाले शूद्र। १७. काले नौ वसुदेवों में से एक। (जैन शास्त्र) १८. लोहा। १९. सुरमा। २॰. पीपल। २१. कालीमिर्च। २२. करौंदा। २३. कदम्ब। २४. एक तगण और एक लघु चार अक्षरों का एक वर्णवृत्त। २५. छप्पय का एक भेद। २६. चंद्रमा का कलंक दाग या धब्बा।
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कृष्ण-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] १. बुरा तथा निंदनीय कर्म। काली करतूत। २. ऐसे दुष्कर्म जो शास्त्रों में वर्जित हैं। ३. बिना किसी प्रकार की कामना के किया जानेवाला कर्म।
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कृष्ण-केलि  : स्त्री० [उपमि० स०] गुल अब्बास का पेड़ और उसका फूल।
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कृष्ण-गंगा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] दक्षिण भारत की कृष्णा नदी।
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कृष्ण-गति  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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कृष्ण-गिरि  : पुं० [कर्म० स०] दक्षिण का नीलगिरी नामक पर्वत।
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कृष्ण-गोधा  : स्त्री० [सं० कर्म०स०] एक प्रकार का जहरीला तथा घातक कीड़ा।
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कृष्ण-चंद्र  : पुं० [उपमि० स०] भगवान् कृष्ण (दे० कृष्ण ? )
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कृष्ण-चूर्ण  : पुं० [कर्म० स०] लोहे में लगनेवाला जंग। मोरचा।
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कृष्ण-चैतन्य  : पुं० [कर्म० स०]=चैतन्य (महाप्रभु)।
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कृष्ण-च्छवि  : स्त्री० [ब० स०] काले हिरन की खाल। पुं० काले रंग का बादल।
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कृष्ण-जटा  : स्त्री० [ब० स०] जटामासी (ओषधि)।
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कृष्ण-जीरक  : पुं० [कर्म० स०] काला जीरा।
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कृष्ण-देह  : वि० [ब० स०] जिसकी देह काले रंग की हो। पुं० भ्रमर। भौंरा।
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कृष्ण-द्वैपायन  : पुं० [कर्म० स०] महर्षि पराशर के पुत्र वेदव्यास जिन्होने महाभारत और पुराणों की रचना की थी।
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कृष्ण-धन  : पुं० [कर्म० स०] १. अनुचित या बुरे ढंग से प्राप्त किया हुआ धन। २. ऐसा धन जो किसी को फले नहीं।
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कृष्ण-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. पूर्णिमा और अमावस के बीच के १५ दिन। महीने का अँधेरा पाख। २. अर्जुन।
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कृष्ण-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०ङीष्] कालें पत्तोंवाली तुलसी।
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कृष्ण-पाक  : पुं० [ब० स०] करौंदा।
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कृष्ण-पिंगला  : स्त्री० [कर्म० स०] दुर्गा। वि० गहरे भूरे रंग का।
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कृष्ण-पुच्छ  : पुं० [ब० स०] रोहू मछली।
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कृष्ण-पुष्प  : [ब० स०] काला धतूरा।
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कृष्ण-फल  : पुं० [ब० स०] करौंदा। वि० जिसमें काले रंग के फल लगते हों।
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कृष्ण-फला  : स्त्री० [सं० कृष्णफल+टाप्] १. मिर्च की लता। २. जामुन का पेड़।
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कृष्ण-बीज  : पुं० [ब० स०] तरबूज। वि० जिसके बीज काले रंग के हों।
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कृष्ण-भक्त  : वि० [ष० त०] भगवान कृष्ण की भक्ति करनेवाला। भगवान् कृष्ण का उपासक।
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कृष्ण-भुजंग  : पुं० [कर्म० स०] करैत साँप, जो बहुत जहरीला होता है।
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कृष्ण-भू  : स्त्री० [ब० स०] १. वह स्थान, जहाँ की मिट्टी काली हो। २. वृदांवन की धरती।
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कृष्ण-भेदा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] कुटकी।
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कृष्ण-भोग  : पुं० [ष० त०] १. एक प्रकार का बढ़िया चावल। २. एक प्रकार का बढ़िया आम।
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कृष्ण-मंडल  : पुं० [कर्म० स०] आँख में का काला भाग अर्थात् पुतली।
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कृष्ण-मणि  : पुं० [कर्म० स०] नीलम।
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कृष्ण-मल्लिका  : स्त्री० [कर्म० स०] काले पत्तोंवाली तुलसी। कृष्णपर्णी।
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कृष्ण-मुख  : पुं० [ब० स०] लंगूर। वि० जिसका मुँह काला हो।
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कृष्ण-मृग  : पुं० [कर्म० स०] काले धब्बोंवाला हिरन।
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कृष्ण-यजुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] यजुर्वेद के दो भागों में से दूसरा।
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कृष्ण-याम  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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कृष्ण-रक्त  : पुं० [कर्म० स०] गहरा लाल रंग। वि० गहरे लाल। रंगवाला।
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कृष्ण-रुहा  : स्त्री० [सं० कृष्ण√रुह (उत्पन्न होना)+क, टाप्] जंतुका लता।
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कृष्ण-लवण  : पुं० [कर्म० स०] काला नमक।
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कृष्ण-लौह  : पुं० [कर्म० स०] १. चुंबक। २. लोहा।
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कृष्ण-वल्लिका  : स्त्री० [कर्म० स०] जतुका लता।
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कृष्ण-वेणी  : स्त्री० [कर्म० स०] कृष्णा नदी।
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कृष्ण-सख (ा)  : पुं० [ब० स०] अर्जुन।
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कृष्ण-सखी  : स्त्री० [ष० त०] १. द्रौपदी। २. काला जीरा।
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कृष्ण-सार  : पुं० [कर्म० स०] १. काले रंग का हिरन। २. शीशम का पेड़। ३. खैर का पेड़। ४. सेहुड़।
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कृष्ण-सारथि  : पुं० [ब० स०] अर्जुन।
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कृष्ण-सूची  : स्त्री० [कर्म० स०]=काली-सूची।
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कृष्ण-स्कंध  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का सदाबहार वृक्ष जिसे तमाल भी कहते हैं।
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कृष्णक  : पुं० [सं० कृष्ण+कन्] १. काले हिरन की खाल। काला मृगचर्म। २. काले रंग की सरसों।
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कृष्णकोहल  : पुं० [सं० कृष्णकोह√ला (आदान)+क] जुआरी।
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कृष्णगंधा  : स्त्री० [ब० स०] सहिजन।
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कृष्णगर्भ  : पुं० [ब० स०] कायफल नामक पौधा।
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कृष्णचूड़ा  : स्त्री० [ब० स०] १. एक प्रकार का कंटीला वृक्ष जिसमें लालरंग के फूल लगते हैं। २. गुंजा। घुंघची।
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कृष्णचूड़िका  : स्त्री० [सं० ब० स०+कप्, टाप्, इत्व]=कृष्णचूड़ा।
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कृष्णताम्र  : पुं० [कर्म० स०] चंदन की एक जाति या प्रकार।
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कृष्णतार  : पुं० [सं० कृष्णता√ऋ (गति)+अण्० उप० स०] एक प्रकार का हिरन।
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कृष्णपदी  : पुं० [ब० स० ङीष्] काले पैरोंवाली चिड़िया।
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कृष्णराज  : पुं० [ब० स०] भुजंगा। पक्षी।
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कृष्णला  : स्त्री० [सं० कृष्ण√ला (लेना)+क, टाप्०] १. घुँघची। २. शीशम का वृक्ष। ३. रत्ती (परिमाण या तौल)।
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कृष्णा  : स्त्री० [सं० कृष्ण+टाप्] १. द्रौपदी का एक नाम। २. काली (देवी)। ३. दक्षिण भारत की एक नदी। ४. काली दाख। ५. काले पत्तों वाली तुलसी। ६. काला जीरा। ७. पपरी नामक गंधद्रव्य। ८. कुटकी। ९. राई। १॰. एक प्रकार की जहरीली जोंक। ११. अग्नि की सात जिह्वाओं में एक। १२. एक योगिनी। १३. आँख की पुतली।
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कृष्णाचल  : पुं० [सं० कृष्ण-अचल, कर्म० स०] १. द्वारका के पास का रैंवतक पर्वत। २. दक्षिण भारत का नीलगिरी पर्वत।
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कृष्णाजिन  : पुं० [सं० कृष्ण-अजिन, ष० त०] १. काले हिरन की खाल। २. एक ऋषि का नाम।
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कृष्णाभिसारिका  : स्त्री० [कृष्ण-अभिसारिका, मध्य० स०] साहित्य में, वह अभिसारिका नायिका जो अँधेरी रात में प्रेमी से संकेत स्थान पर मिलने जा रही हो।
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कृष्णायस  : पुं० [कृष्ण-आयस, कर्म० स०] लोहा।
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कृष्णावास  : पुं० [सं० कृष्ण-आवास, ष० त०] पीपल का पेड़।
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कृष्णाष्टमी  : स्त्री० [सं० कृष्ण-अष्टमी, ष० त०] भादौं के अँधियारे पक्ष की अष्टमी, जो भगवान कृष्ण का जन्म दिन है।
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कृष्णिका  : स्त्री० [सं० कृष्ण+ठन्-इक, टाप्] १. राई। २. श्यामा पक्षी।
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कृष्णिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० कृष्ण+इमानिच्, टाप्] कालिमा।
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कृष्णी  : स्त्री० [सं० कृष्ण+ङीष्] अँधेरी रात।
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कृष्णोदर  : पुं० [सं० कृष्ण-उदर, ब० स०] काले पेटवाला एक प्रकार का साँप।
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कृष्न  : वि० पुं० =कृष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृष्य  : वि० [सं० कृष् (जोतना)+क्यप्] जोतने-बोने या खेती किये जाने के योग्य। (भूमि)।
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कृसर  : पु०=कृशर।
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कृसानु  : पुं० =कृशानु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कृसित  : वि०=कृशित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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के  : प्रत्यय [हिं० का] संबंध कारक ‘का’ विभक्ति का बहुवचन रूप। जैसे—आम के पेड़। सर्व० [सं० का०] १. कौन। उदाहरण—कहहु कहिहि के कीन्ह भला केइ ई।—तुलसी। किसने।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केँ  : वि० भ० दे० ‘के’। अव्य०=या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कें कें  : स्त्री० [अनु०] १. पक्षियों का आर्त्तनाद। २. कष्ट सूचक ध्वनि। ३. व्यर्थ की बातचीत। बकवाद।
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केइँ  : सर्व० [हिं० के] किसने। उदा०=अनहित तोर प्रिया कइँ कीन्हा।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केइ  : सर्व० [हिं० के] कौन। (अव०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केउ  : सर्व० [हिं० के+उ(प्रत्य)=भी] कोई। उदाहरण—मोहिं केउ सपनेहुँ सुखद न लागा।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केउँआ  : पुं० [सं० केमुक] १. कच्चू। २. चुंकदर। ३. शलगम।
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केउटा  : पुं० [सं० कर्कोट]=करैत (साँप)।
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केउटी  : वि०=केवटी।
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केउर  : पुं० =केयूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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केओ  : सर्व०=कोई (मैथिली)
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केक  : सर्व० [सं० ‘किम्’, के० ब० स० के का देश रूप] कई एक। अनेक। उदाहरण—ज़ड़ै उड़ि अग्नि झरै असि जोर, टरैं भट केक टरैं जिम ढोर।—कविराजा सूर्यमल। २. कितने ही। उदाहरण—कै पाखान गढ़ि केक मग, भ्रम तमाल पुछ्दत् फिरिय।—चन्दबरदाई। स्त्री० [अं०] एक प्रकार का युरोपीय पकवान।
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केकड़ा  : पुं० [सं० कर्कटकः] एक प्रसिद्ध जल-जंतु जिसके आठ पैर और दो पंजे होते हैं। (क्रैब) मुहावरा—केकड़े की चाल चलना=टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलना।
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केकय  : पु० [सं० ०] १. कश्मीर और उसके आसपास के प्रदेश का प्राचीन नाम। २. उक्त प्रदेश के निवासी। ३. उक्त प्रदेश के एक प्रसिद्ध राजा, जिनकी लड़की कैकेयी अयोध्या के राजा दशरथ को ब्याही थी, और जिनके गर्भ से भरत का जन्म हुआ था।
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केकयी  : स्त्री=कैकेयी।
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केकर  : पुं० [सं० के√कृ (करना)+अच्, अलुक्० स] १. ऐंचा। भेंगा। २. चार अक्षरों का एक तांत्रिक मंत्र। सर्व, किसका। (भोज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केकरा  : पुं० =केकड़ा। सर्व०=किसे (भोज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केकसी  : स्त्री०=कैकेसी।
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केका  : स्त्री० [सं० के√कै (शब्द)+ड, अलुक् स०] मयूर की कूक बोली। उदाहरण—केका के सुने तै प्रान एका के रहत है।—सेनापति।
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केकान  : पुं० [सं० ] १. एक प्राचीन देश का नाम। (संभवतः आजकल के फारस का खाकान) २. उक्त देश का घोड़ा।
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केकिनी  : स्त्री० [सं० केकिन+डीप्] [स्त्री० केकिनी] केको की मादा। मोरनी।
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केकी (किन्)  : पुं० [सं० केका+इनि] [स्त्री० केकिनी] मोर। मयूर।
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केचित्  : अव्य० [सं० के+चित्] १. कोई। २. कोई-कोई।
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केचुआ  : पुं० [सं० किचिलिक, प्रा० केचुओं] १. सूत की तरह पतला और लंबा एक बरसाती कीड़ा। २. सफेद रंग के वे छोटे कीड़े जो आँतों में पहुँचकर अंडे और बच्चे देते हैं तथा मल के साथ बाहर निकलते हैं। (राउंडवर्म)।
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केचुआ  : पुं० =केंचुआ।
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केचुआ छंद  : पुं० [हं० केंचुआ+सं० छंद] वह छंद जिसके चरणों की मात्राएँ बराबर या सम न हों। रबर छंद (परिहास और व्यंग्य)
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केचुल  : स्त्री०=केंचुली।
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केंचुली  : स्त्री० [सं० कंचुक] [विं० केंचुली] सर्प आदि के शरीर पर की वह झिल्लीदार खोली जो प्रतिवर्ष आप-से-आप उतर जाती है। मुहावरा—केंचुली बदलना=पुराना रूप छोड़कर नया रूप धारण करना। (परिहास और व्यंग्य) (साँप का) केंचुली में आना या भरना=केंचुली छोड़ने पर होना।
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केंचुवा  : पुं० =केंचुआ।
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केजा  : पुं० दे० ‘केना’।
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केडर्य्य  : पुं० [सं० कैटर्य्य, पृषो० सिद्धि] १. कायफल। २. करंज। ३. पूतिकरंज।
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केडवारी  : स्त्री० [हिं० केन-साग भाजी+वारी] १. वह स्थान जहाँ तरकारियाँ, साग आदि बोये जाते हैं। २. वह स्थान जहाँ नये-पौधे उगाये, रोपे या लगाये जाते हैं। नौरंगा। (नर्सरी)।
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केंड़ा  : पुं० =कैंड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केड़ा  : पुं० [सं० करीर=बाँस का कल्ला] १. अंकुर। कोपल। कल्ला। २. नया पौधा। ३. कटी हुई फसल आदि का गट्ठा। ४. नवयुवक।
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केणिक  : पुं० [सं० केणिक] तंबू। खेमा। (डिं०)
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केंत  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बेंत, जिससे छड़ियाँ बनती है।
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केत  : पुं० [सं०√कित् (निवास)+घञ्] १. घर। भवन। २. जगह। स्थान। ३. ध्वजा। ४. बुद्धि। ५. संकल्प। ६. परामर्श। सलाह। ७. अन्न। पुं० =केतक (केवड़ा)।
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केतक  : पुं० [सं०√कित्+ण्वुल्-अक] केवड़ा। वि० [सं० कति-एक] १. कई एक। अनेक। २. कितने ही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केतकर  : पुं० =केतक (केवड़ा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केतकी  : स्त्री० [सं० केतक+ङीष्] १. एक प्रकार का छोटा पौधा जिसकी लंबी पत्तियाँ, नुकीली और चिकनी होती हैं। केवड़ा। २. एक प्रकार की रागिनी। पुं० [हिं० कार्त्तिक] एक प्रकार का धान जो कार्तिक में पकता है। उदाहरण—रूप भाजुरी केतकी विकौरी।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केतन  : पुं० [सं०√कित्+ल्युट-अन] १. आह्वान २. निमंत्रण। ३. ध्वजा। ४. चिन्ह। ५. घर। ६. जगह। स्थान।
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केतपू  : पुं० [सं० केत√पू) पवित्र करना)+क्विप्] अन्न साफ करनेवाला मजदूर।
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केतला  : वि०=कितना। (राज०) उदाहरण—कुण जायौ सँगि हुआ केतला।—प्रिथीराज।
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केतली  : स्त्री० [अं० केटिल] एक प्रकार का टोंटीदार बरतन जिसमें पानी गरम करते हैं।
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केता  : वि० [सं० कियत्] [स्त्री० केती] किस मात्रा का। कितना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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केतारा  : पुं० [देश] एक तरह का ऊख।
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केतिक  : क्रि० वि० [सं० कति-एक] १. किस मात्रा में। कितना। २. कितना ही। बहुत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केतित  : वि० [सं०√केतु (बुलाना)+णिच्+क्त] १. बुलाया हुआ। आहूत। २. बसा हुआ।
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केती  : वि ०दे० ‘केता’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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केतु  : पुं० [सं०√चाय् (देखना)+तु, कि० आदेश] १. ज्ञान। २. दीप्ति। चमक। ३. ध्वजा। ४. निशान। ५. पुराणानुसार राहु नामक राक्षस का कबंध जो भारतीय ज्योतिष में नौ ग्रहों में माना जाता है। ६. कभी-कभी आकाश में उदित होनेवाला एक तारा जिसके प्रकाश की एक पूँछ सी दिखाई देती हैं। पुच्छल तारा। (कामेट)।
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केतु-कुंडली  : स्त्री० [ष० त०] बारह कोष्ठों का एक चक्र जिससे वर्ष के स्वामी का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। (ज्योतिष)
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केतु-तारा  : पु०० [कर्म० स०]=पुच्छल तारा। (दे० ‘केतु ६.’)।
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केतु-पताका  : स्त्री० [सं० त०] नौ कोष्ठों का एक चक्र जिससे वर्षेश का ज्ञान प्राप्त करते हैं (ज्योतिष)
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केतु-यष्टि  : स्त्री० [ष० त०] ध्वजदंड।
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केतु-रत्न  : पुं० [मध्य०स] लहसुनिया नामक रत्न।
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केतु-वसन  : पुं० [ष० त०] पताका। ध्वजा।
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केतु-वृक्ष  : पुं० [मद्य० स०] मेरु पर्वत के चारों ओर होनेवाला एक प्रकार का वृक्ष। (पुराण)।
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केतुकी  : स्त्री०=केतकी (धान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केतुजा  : स्त्री० [सं० केतु√जन् (उत्पन्न होना)+ड, टाप्] सुकेतु यक्ष की पुत्री ताड़का नामक राक्षसी।
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केतुमती  : स्त्री० [सं० केतु+मतुप्, ङीष्] १. एक प्रकार का वर्णार्द्ध समवृत्त जिसके विषम चरणों में सगण, जगण, सगण और एक गुरु होता है। २. रावण की नानी का नाम।
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केतुमान् (मन्)  : वि० [सं० केतु+मतुप्] [स्त्री० केतुमती] १. तेजस्वी। २. बुद्धिमान। ३. जिसके हाथ में पताका हो।
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केतो  : वि० [सं० कति] कितना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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केदली  : पुं० [सं० कदली] १. केले का पेड़। २. केला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केदार  : पुं० [सं० ब० स०] १. खेतों, बगीचों आदि की क्यारी। २. वृक्षों के नीचे का थाला। थाँवला। ३. हिमालय की प्रसिद्ध एक चोटी जो एक तीर्थ स्थान है। ४. शिवलिंग। ५. मेघराग का चौथा पुत्र। ६. ओड़व-षाड़व जाति का एक राग जो रात के दूसरे पहर में गाया जाता है।
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केदार-खंड  : पुं० [ष० त०] १. स्कंद पुराण का एक भाग, जिसमें केदारनाथ का माहात्म्य कहा गया है। २. पानी रोकने के लिए बाँधा हुआ बाँध।
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केदार-गंगा  : स्त्री० [मध्य० स०] गढ़वाल प्रदेश की एक नदी जो गंगा में मिलती है।
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केदार-नट  : पुं० [मध्य० स०] षाड़व जाति का एक संकर राग जो नट और केदार के योग से बनता है और रात के दूसरे पहर में गाया जाता है।
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केदारक  : पुं० [सं० केदार+कन्] साठी धान।
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केदारनाथ  : पुं० [ष० त०] हिमालय के केदार शिखर पर स्थित एक प्रसिद्ध शिवलिंग।
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केदारा  : पुं०=केदार (राग)
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केदारी  : स्त्री० [सं० केदार+ङीष्] दीपक राग की पाँचवी रागिनी।
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केंदु  : पुं० [सं० कुगति० स०] तेंदू का पेड़।
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केंदुवाल  : पुं० [सं० ब० स०] डाँड़, जिससे नाव खेते हैं।
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केंदू  : पुं० [सं० केन्दु] तेंदू (वृक्ष)
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केंद्र  : पुं० [सं० क√इन्द् (सम्पन्न होना)+र] १. किसी गोले या वृत्त के बीच का वह विंदु जिससे उस गोले या वृत्त की परिधि का प्रत्येक विंदु बराबर दूरी पर पड़ता हो। नाभि। २. किसी वस्तु के बीच का स्थान। मध्य भाग। ३. किसी उपकरण या यंत्र का वह बिंदु जिसके चारों ओर कोई चीज घूमती हो। ४. वह मूल या मुख्य स्थान जहाँ से चारों ओर दूर-दूर तक फैले हुए कार्यों की व्यवस्था तथा संचालन होता है। ५. वह स्थान जहाँ कोई चीज विशेष रूप से और बहुत अधिक मात्रा में उपजती, पनपती बनती या निर्मित होती हो। (सेन्टर उक्त सभी अर्थों के लिए) ६. किसी निश्चित अंश से ९॰, १८॰, २७॰ और ३६॰ अंशों के अंतर का स्थान। ७. जन्मकुंडली में ग्रहों का पहला, चौथा, सातवाँ और दसवाँ स्थान (ज्योतिष)।
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केद्रग  : वि० [सं० केद्र√गम् (जाना)+ड]=केद्रगामी।
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केंद्रगामी (मिन्)  : वि० [सं० केंद्र√गम्+णिनि] जो केद्र की ओर जा या बढ़ रहा हो।
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केंद्रण  : पुं० [सं० केन्द्र+णिच्+ल्युट-अन]=केन्द्रीकरण।
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केद्रस्थ  : वि० [सं० केन्द्र√स्ता(ठहरना)+क] जो केंद्र में स्थित हो
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केंद्रापग  : वि० [सं० केंद्र-अप√गम्+ड]=केन्द्रापसारी।
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केंद्राभिमुखी (खिन्)  : वि० [सं० केंद्र-अभिमुखी, ष० त०] जो किसी शक्ति की प्रेरणा से अपने केंद्र की ओर जाता या बढ़ता हो। (सेन्ट्रिपेटल)
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केंद्राभिसारी (रिन्)  : वि० [सं० केंद्र-अभि√सृ+णिनि०]=केंद्रापसारी।
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केंद्रिक  : वि० [सं० केंद्र+ठन्-इक] केंद्र में बनने, रहने या होनेवाला। (सेंन्ट्रिक)
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केंद्रिक  : भू० कृ० [सं० केंद्र+इतच्] केंद्र में लाया या स्थित किया हुआ (सेन्ट्रलाइज्ड)
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केंद्री (द्रिन्)  : वि० [सं० केंद्र+इनि] १. केंद्र का। केंद्र संबंधी। २. केंद्र में रहने या होनेवाला।
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केंद्रीकरण  : पुं० [सं० केंद्र+च्वि√कृ (करना)+ल्युट-अन] १. आस-पास की चीजों बातों आदि को केंद्र में लाने की क्रिया या भाव। केंद्रित करना। २. अधिकार या सत्ता एक व्यक्ति या संस्था के अधीन करना। (सेन्ट्रलाइजेशन)।
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केंद्रीभूत  : भू० कृ० [सं० केंद्र+च्वि√भू (होना)+क्त] जो किसी एक केंद्र में आकर एकत्र हुआ हो। या लाकर एकत्र किया गया हो।
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केंद्रीय  : वि० [सं० केंद्र+छ-ईय] १. केंद्र संबंधी। २. केंद्र या मध्यभाग का। ३. किसी राज्य या राष्ट्र के केंद्रस्थान या राजधानी से संबंध रखनेवाला (सेन्ट्रल) जैसे—केंद्रीय शासन। ४. प्रधान या मुख्य।
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केंद्रीय-शासन  : पुं० [कर्म० स०] किसी राष्ट्र या राज्य की वह सर्वप्रधान शासन-सत्ता या सरकार जिसका प्रमुख स्थान उसकी राजधानी में होता है और जो वहाँ के सारे देश का शासन या व्यवस्था करती है। (सेन्ट्रल गवर्नमेन्ट)
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केंद्रीय-सरकार  : स्त्री० दे० ‘केंद्रीय शासन’।
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केंद्रीयकरण  : पु०=केंद्रीकरण।
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केन  : सर्व० [किम्० शब्द का विभक्तयन्त रूप] १. किसी। २. कोई। पद—येन-केन=किसी-न-किसी प्रकार। जैसे—तैसे।
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केनना  : स० दे० ‘कीनना’।
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केना  : पुं० [सं० केणि=मोल लेना] १. खरीदने की क्रिया या भाव। खरीद। २. वह जो कुछ खरीदा जाय। सौदा। ३. देहात में फेरीवालों से तरकारी आदि खरीदने के लिए के लिए बदले में दिया जानेवाला अन्न। केजा। ४. साग, तरकारियाँ आदि।
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केनिपात  : पुं० [सं० के-नि√पत (गिरना)+णिच्+अच्] नाव खेने का डाँड़। बहना।
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केनिपातक  : पुं० [सं० केनिपात+कन्]=केनिपात।
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केबिन  : पुं० [अं०] १. किसी अधिकारी विशेषतः जहाज के अधिकारी का कमरा। २. जहाज में यात्रियों के बैठने के लिए बना हुआ घिरा स्थान।
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केम  : पुं० दे० ‘कदंब’। क्रि वि० [सं० किम्] कैसे किस प्रकार। वि० कैसा क्यों ? किस प्रकार का ? (गुज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केमद्रुक  : पुं० [यू० केनोड्रमस] चंद्रमा का एक योग।
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केमुक  : पुं० [सं० के√अम्(रोग)+उक, अलुक्० स०] बंडा नामक कंद।
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केयूर  : पुं० [सं० के√या (जाना)+ऊर, अलुक्० स०] बाँह पर पहना जानेवाला एक प्रकार का प्राचीन आभूषण। बाजूबंद।
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केयूर-बल  : पुं० [ब० स०] एक बौद्ध देवता।
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केयूरी (रिन्)  : वि० [सं० केयूर+इनि] जिसने केयूर अर्थात् बाजूबंद पहन हो।
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केर  : विभ० [सं० कृत] [स्त्री० केरी] अवधी भाषा की एक संबंध सूचक विभक्ति का। उदाहरण—नहिं निसिचर-कुल केर उबारा।—तुलसी।
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केरक  : पुं० [सं० ] महाभारत में उल्लिखित एक देश।
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केरल  : पुं० [सं० ] १. भारतीय गणराज्य के चौदह राज्यों में से एक जो दक्षिण भारत की कावेरी नदी के उत्तर में और पश्चिम घाट तक फैला हुआ है। २. उक्त प्रदेश का निवासी।
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केरली  : स्त्री० [सं० केरल+अच्+ङीष्] केरल राज्य की स्त्री। वि० केरल देश का। जैसे—केरली नारियल।
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केरा  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की बत्तक। पुं०=केला। विभ० [स्त्री० केरी] दे० ‘केर’ (का) उदाहरण—परम मित्र तापस नृप केरा।—तुलसी।
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केराना  : सं० [सं० किरण वा हिं० गिराना] सूप में अन्न पछोरकर बड़े और छोटे दाने अलग करना। पुं०=किराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केरानी  : पुं० =किरानी।
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केराया  : पुं० =किराया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केराव  : पुं० [सं० कलाम] मटर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केरावल  : पुं० =किरावल।
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केरी  : विभ० [सं० कृत, हिं० केरा का स्त्री०] अवधी भाषा की संबंधसूचक एक विभक्ति। उदाहरण—भुइँ भइ कुमति कैकई केरी।—तुलसी। स्त्री०=केलि। स्त्री० [देश] आम का कच्चा तथा छोटा फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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केरोसिन  : पुं० [अं०] मिट्टी का तेल।
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केल  : पुं० [सं० केलिक, प्रा० के लिय] एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष।
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केलक  : पुं० [सं०√केल् (कीड़ा करना)+ण्वुल्-अक] १. तलवार की धार पर चलने या नाचनेवाला व्यक्ति। २. नर्तक।
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केला  : पुं० [सं० कदल, प्रा० कयल] १. गरम प्रदेशों में होनेवाला एक प्रसिद्ध पौधा जिसके पत्ते बहुत लंबे तथा बड़े होते हैं। २. उक्त पेड़ का फल जो लंबा गूदेदार तथा मीठा होता है।
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केलास  : पुं० [सं० केला=विलास√सद् (बैठना)+ड] १. स्फटिक। २. किसी रसायनिक घोल या तत्त्व का वह छोटे-छोटे टुकड़ोंवाला कोणाकार रूप जो उसके सूखने या घन होने पर बनता है। राव। (क्रिस्टल)।
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केलास-नाथ  : पुं० [ष० त०] शिव।
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केलासन  : पुं० [सं० केलास से] रासायनिक घोल या तत्त्व का सूख तथा घन होकर छोटे-छोटे केलासों या रवों का रूप धारण करना। (क्रिस्टलाइजेशन)
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केलासीय  : वि० [सं० केलास+छ-ईय] १. केलासों की तरह सफेद तथा पारदर्शक। २. केलास-संबंधी।
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केलि  : स्त्री० [सं० √केलि+इन्] १. कोई ऐसी क्रिया जिससे मनोरंजन होता हो। कीड़ा। खेल। २. हँसी मजाक। ३. मैथुन। रति। ४. पृथ्वी। स्त्री० [सं० कदली] केला (वृक्ष और फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केलि-कला  : स्त्री० [मध्य० स०] १. सरस्वती की वीणा। २. मैथुन रति।
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केलि-मैथुन  : पुं० [मध्य० स०] मन में संभोग का विचार रखकर अथवा कामुक दृष्टि से स्त्रियों के साथ तरह-तरह के खेल खेलना।
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केलिक  : पुं० [सं० केलि+ठन्-इक] अशोक का पेड़। वि० [सं० केलि] १. केलि या क्रीड़ा संबंधी। २. केलि या क्रीड़ा करनेवाला।
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केलिकिल  : पुं० [सं० केलि√किल् (क्रीड़ा)+क] १. नाटक का विदूषक। २. शिव का एक अनुचर। स्त्री० रति।
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केली  : स्त्री०=केलि। स्त्री० [हिं० केला] १. छोटे फलों वाले केले के पौधों की एक जाति। २. उक्त पौधे के फल, जिनकी तरकारी बनती है।
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केलूराव  : पुं० =केल (वृक्ष)।
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केलो  : पुं० =केल। (वृक्ष)।
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केव  : पुं० =केल (वृक्ष)।
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केवई  : स्त्री० [हिं० केवा] कुमुदिनी। कुईं।
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केवका  : पुं० [सं० क्वक=ग्रास] एक प्रकार का मसाला।
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केवकी  : स्त्री०=केवटी।
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केवट  : पुं० [सं० कैवर्त्त, प्रा० केवट्ट] १. एक प्राचीन जाति जो क्षत्रिय पिता और वैश्य माता से उत्पन्न कही गई है। इस जाति के लोग नाव खेने का काम करते थे। २. उक्त जाति का व्यक्ति। ३. मल्लाह।
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केवटना  : स० [सं० कैवर्त्त] १. नाव खेना। २. पार उतारना। उदाहरण—एहवां मद श्री गोरष केवट था वदंत मछींद्र ना पूता।—गोरखनाथ।
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केवटी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का कीड़ा।
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केवटीदाल  : स्त्री० [हिं० केवट=एक संकर जाति+दाल] कई तरह की दालें जो एक में मिलाकर पकाई गई हों।
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केवटीमोथा  : पुं० [सं० कैवर्त्तमुस्ता] एक प्रकार का सुंगंधित मोथा।
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केवड़ई  : वि० [हिं० केवड़ा+ई (प्रत्य)] १. (पदार्थ) जिसमें केवड़ा पड़ा हो। २. जिसमें केवड़े की सी महक हो। ३. केवड़े के रंग का। पुं० एक प्रकार का हलका पीला रंग।
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केवड़ा  : पुं० [सं० केविका] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके पत्ते बहुत लम्बे पतले और घने होते है और फूल बहुत ही सुंगधित होते हैं। २. उक्त पौधे का फूल, जो कँटीला, लंबा और सुंगधित होता है। ३. उक्त पौधे के फूलों से उतारा हुआ अरक।
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केवड़ी  : वि० पुं० दे० ‘केवड़ई’।
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केवरा  : पुं० =केवड़ा।
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केवल  : वि० [सं०√केव् (सेवन)+कल] १. जिसका या जितने का उल्लेख किया जाय वही या उतना ही। जैसे—(क) वहाँ केवल साहित्यिक आये थे। (ख) वह केवल धोती पहने था। २. जिसमें उल्लिखित या कथित के सिवा और किसी का मेल या सहयोग न हो। निरा। जैसे—यह तो केवल पानी है। ३. वास्तविक और विशुद्ध। जैसे—केवल ज्ञान। अव्य० मात्र। सिर्फ। जैसे—यहाँ केवल सबेरे दूध मिलता है। पुं० [सं० केवली] १. ऐसा विशुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान जिसमें कुछ भी भ्रम या भ्रांति न हो। २. प्राणायाम का वह प्रकार या भेद (‘सहित’ से भिन्न) जिसमें पूरक और रोचक क्रियाएँ बिलकुल की ही नहीं जातीं। ३. सम्यक ज्ञान। (जन) ४. वास्तुकला में, स्तंभ के आधार अर्थात् कुंभी के ऊपर का ढाँचा।
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केवलव्यतिरेकी (किन्)  : पुं० [सं० केवल-व्यतिरेक, कर्म० स० इनि] एक प्रकार का अनुमान जिसे ‘शेषवत्’ (देखे) भी कहते हैं।
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केवलात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० केवल-आत्मा, कर्म० स०] १. निर्लिप्त तथा विशुद्ध आत्मा। २. ज्ञानी पुरुष। ३. ईश्वर जो पाप-पुण्य आदि सब से रहित हो।
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केवलान्वयी (यिन्)  : पुं० [सं० केवल-अन्वय, कर्म० स०] एक प्रकार का अनुमान जिसे ‘पूर्ववत्’ (देखें) भी कहते हैं।
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केवली (लिन्)  : पुं० [सं० केवल+इनि] १. मुक्ति का अधिकारी साधु। २. वह साधु जिसने मुक्ति प्राप्त कर ली हो। ३. तीर्थकार। (जैन)।
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केंवा  : पुं० [देश०] जलाशयों के किनारे रहनेवाला एक पक्षी। उदाहरण—केवा, सोंन, ढेक, बगलेदी। रहे अपूरि मीन जलभेदी।—जायसी।
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केवा  : पुं० [सं० कुव-कमल] १. कमल का पौधा और उसका फूल। २. केवड़ा। पुं० [सं० किंवा] आनाकानी। टाल-मटोल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केवाँच  : स्त्री०=कौंछ।
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केवाड़ (ा)  : पुं० =किवाड़ा।
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केवाण  : पुं० =कृपाण। (डिं०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केविका  : स्त्री० [सं०√केव् (गति)+ण्वुल्-अक, टाप्] सरगंधा नामक फूल और उसका पौधा।
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केवी  : वि० [सं० केऽपि] कोई दूसरा। अन्य। कोई। उदाहरण—कामिणि कहि काम कल कहिं केवी।—प्रिथीराज। स्त्री० [हिं० केवा] कमलिनी। पुं० [?] शत्रु। दुश्मन। उदाहरण—खाग त्य़ाग करि दयिता केवी दंत कुदाल।—जटमल।
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केश  : पुं० [सं०√क्लिश् (पीड़ित होना+अच्, ल का लोप] १. शरीर के किसी अंग के विशेषतः सिर पर के बाल। २. शेर और घोड़े की गरदनों पर होनेवाले बाल। अयाल। ३. रश्मि। किरण। ४. विश्व। ५. विष्णु। ६. सूर्य। ७. वरुण। ८. दे० ‘केशी’ (दैत्य)।
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केश-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] १. बालों को सँवारने, सजाने तथा चोटी जूड़ा आदि गूँथने या बाँधने आदि की कला या काम। २. मुंडन-संस्कार।
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केश-कल्प  : पुं० [ष० त०] १. सर के बालों को खिजाब, मेंहदी आदि से रँगना। २. केश रँगने की वस्तुएँ (हेयर-डाई)।
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केश-कीट  : पुं० [ष० त०] बालों में पड़नेवाला जूँ नामक कीड़ा।
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केश-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०] अपामार्ग। चिचड़ा।
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केश-पाश  : पुं० [ष० त०] १. सिर पर के बालों की लट। २. सिर के बालों का जूड़ा।
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केश-बन्ध  : पुं० [ष० त०] १. सिर के बालों या लटों को बाँधने की पट्टी। २. नृत्य में एक प्रकार का हस्तक जिसमें बालों का जूड़ा बाँधने का ढंग दिखाया जाता है।
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केश-भूषा  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘केश-विन्यास’।
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केश-मथनी  : स्त्री० [सं०√मथ् (मथना)+ल्युट्-अन, ङीष्, केश-मथनी, ष० त०] शमी नामक वृक्ष।
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केश-रंजन  : पुं० [ष० त०] १. बालों को रंगने का काम। २. भृंगराज। भँगरैया।
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केश-राज  : पुं० [सं० केश√राज् (शोभित होना)+घञ्] १. भुजंगा पक्षी। २. भँगरैया।
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केश-रूपा  : स्त्री० [ब० स०] पेड़ पर का बाँदा। बंदाल।
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केश-वपनीय  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का अतिरात्र यज्ञ।
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केश-वर्धिनी  : पुं० [ष० त०] सहदेवी नाम की बूटी। सहदेइया।
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केश-विन्यास  : पुं० [ष० त०] सिर के बालों को ठीक तरह से सँवार या सजाकर जूड़े आदि के रूप में बाँधना। (हेयर स्टाइल)।
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केश-हंत्री  : स्त्री [ष० त०] शमी का पेड़।
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केशक  : वि० [सं० केश+कन्] बालों को ठीक प्रकार से सँवारने की विद्या जाननेवाला। पुं० बहुत छोटा पतला बाल। रोआँ।
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केशट  : पुं० [सं० केश√अट् (गति)+अच्] १. विष्णु। २. कामदेव के पाँच बाणों में से एक। ३. बकरा। ४. खटमल।
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केशर  : पुं० =केसर।
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केशराम्ल  : पुं० [केशर-अम्ल, स० त०] १. अनार। २. बिजौरा। नीबू।
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केशरी (रिन्)  : पुं० [सं० केशर+इनि]=केशरी।
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केशरी-किशोर  : पुं० [ष० त०] हनुमान्।
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केशलुंच  : पुं० [सं० केश√लुञ्च् (हटाना)+अण्] एक प्रकार के जैन साधू जो अपने सिर के बाल नोचकर अलग करते हैं। वि० अपने बाल नोचनेवाला।
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केशव  : वि० [सं० केश√वा (गति)+ड] जिसके लंबे तथा सुंदर बाल हों। पुं० १. विष्णु। २. ब्रह्मा। ३. श्रीकृष्ण। ४. पुन्नाग का पेड़।
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केशव-वसन  : स्त्री० [ष० त०] पीतांबर।
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केशवायुध  : पुं० [सं० केशव-आयुध, ष० त०] १. भगवान विष्णु का आयुध। २. आम।
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केशवालय  : पुं० [सं० केशव-आलय, ष० त०] पीपल का पेड़। वासुदेव। वृक्ष।
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केशाकेशि  : स्त्री० [सं० केश-केश, ब० स०] दो आदमियों का एक दूसरे के बाल पकड़कर खींचना। झोंटा-झोंटौवल।
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केशांत  : पुं० [सं० केश-अंत, ब० स०] १. बाल का सिरा। २. मुंडन संस्कार।
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केशारुहा  : स्त्री० [सं० केश-आ√रुह (पैदा होना)+क, टाप्] सहदेवी बूटी। सहदेइया।
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केशि  : पुं० [सं० केशिन] केशी (असुर)।
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केशिक  : वि० [सं० केश+ठन्-इक] १. केशोंवाला। २. (व्यक्ति) जिसके लंबे तथा सुंदर बाल हों।
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केशिका  : स्त्री० [सं० केशिन्√कै (शब्द)+क-टाप्] १. शतावरी। २. किसी चीज के ऊपर के बहुत छोटे-छोटे रोएँ। (कपिलरी) जैसे—शरीर में रक्त-वाहिनी नसों पर केशिकाएँ होती हैं।
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केशिनी  : स्त्री० [सं० केश+इनि, ङीष्] लंबे तथा सुंदर बालोंवाली स्त्री। २. राजा सगर की एक रानी। ३. पार्वती की एक सखी। ४. एक प्राचीन नगरी। ५. जटामाँसी। ६. चोर। पुष्पी। (एक ओषधि)।
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केशी (शिन्)  : वि० [सं० केश+इनि] [स्त्री० केशिनी०] १. लंबे और सुन्दर बालोंवाला। २. किरणों या प्रकाश से युक्त। पुं० १. एक असुर जिसका वध श्रीकृष्ण ने किया था। २. घोड़ा। ३. सिंह। ४. एक यादव। स्त्री० [सं० केश+ङीष्] १. नील का पौधा। २. भूतकेश नामक ओषधि। ३. केवाँच। कौंछ। ४. एक वृक्ष जिसके पत्ते खजूर के पत्तों जैसे होते हैं।
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केश्य  : पुं० [सं० केश+यत्] काला अगर।
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केस  : पुं० [सं० केस] १. सिर के बाल। मुहावरा—केस न टार सकना=बाल न बाँका कर सकना। कुछ भी हानि न पहुँचा सकना। उदाहरण—सूर केस नहिं टारि सकै केउ दाँत पीसि जौ जग मरैं।—सूर। २. शरीर पर के बाल या रोएँ। पुं० [?] आँख का एक रोग जिसमें आँख के कोने में लाल मांस निकल आता है और जो धीरे-धीरे आँख को ढक लेता है। पुं० [अं०] १. कोई चीज रखने का छोटा घर। खाना। २. दुर्घटना। ३. अवस्था। स्थिति। ४. मुकदमा।
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केसई  : स्त्री०=कसई।
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केसर  : पुं० [सं० के√सृ (गति)+अच्०] १. फूलों के बीच में होनेवालें बालों की तरह के पतले सीकें। २. ठंडे देशो मे होनेवाला एक प्रसिद्ध छोटा पौधा, जिसके उक्त फल के सींके अपनी उत्कृष्ट सुंगधि के लिए सारे संसार में प्रसिद्ध हैं। कुकुम। जाफराना। (सैफन) ३. नागकेसर। ४. मौलसरी। ५. हींग का पेड़। ६. पुन्नाग। ७. स्वर्ग। ८. एक प्रकार का विष। ९. घोड़े, सिंह आदि जानवरों की गरदन पर के बाल। अयाल।
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केसराचल  : पुं० [सं० केसर-अचल, मध्य० स०] मेंरु पर्वत।
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केसराम्ल  : पुं० , [स०केसर-अम्ल, ब० स०] बिजौरा नीबू।
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केसरि  : पुं० [सं० केसरी] दे०‘केसरी’।
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केसरिका  : स्त्री० [सं० के√सृ+वुन्-अक, अलुक् स०] सहनेई नामक बूटी।
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केसरिया  : वि० [सं० केसर+हिं० इया (प्रत्य)] १. जिसमें केसर पड़ा हो। जैसे—केसरिया बरफी या भात। २. केसर के हलके रंग में रँगा हुआ। जैसे—केसरिया बाना। पुं० केसर की तरह पीला रंग।
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केसरिया बाना  : पुं० [हिं०] केसरिया रंग के वस्त्र जो मध्ययुग में राजपूत लोग पहनकर युद्ध में जाते थे।
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केसरी (रिन्)  : पुं० [सं० केसर+इनि] १. सिंह। शेर। २. घोड़ा। ३. नाग केसर। ४. हनुमानजी के पिता का नाम। वि०, पुं० =केसरिया।
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केसारी  : स्त्री० दे० ‘खेसारी’।
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केसु  : पुं० [सं० किंशुक्] पलाश। टेसू। उदाहरण—कनक संभु जनि केसु पूजला।—विद्यापति।
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केसू  : पुं० [सं० किंशुक्] टेसू। पलाश। ढाक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केहरि, केहरी  : पुं० दे० ‘केसरी’।
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केहा  : पुं० [सं० केका, प्रा० केआ] १. मोर। २. एक प्रकार का जंगली पक्षी।
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केहि  : सर्व० [सं० किं] १. किसे। किसको। २. किस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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केहुँ  : (हूँ) क्रि० वि० [सं० कथम्] किसी प्रकार। किसी भाँति।
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केहुनी  : स्त्री०=कोहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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केहू  : सर्व० [हिं० के] किसी को। उदाहरण—काहुहि लात चपेटन्हि केहू।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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केहूँ (हूँ)  : अव्य० [हिं० केहि] किसी प्रकार। २. कहीं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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केहूँ (हूँ)  : अव्य० [हिं० के] कोई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कै  : वि० [सं० कति, प्रा० कइ] किस मात्रा या मान का। कितना। जैसे—(क) वहाँ कै आदमी गये हैं। (ख) तुम्हें कै रुपये चाहिए। विभ० [सं० कृतः] १. संबंधकारक विभक्ति का, की या के। उदाहरण—धोबी कै सो कुकुर न घर को न घाट को।—तुलसी। २. के लिए। वास्ते। सर्व० १. कौन। २. किसने। उदाहरण—कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।—तुलसी। अव्य-[सं० कि] १. अथवा। वा। या। जैसे—केधों=या तो। २. कि। उदाहरण—काय मन बानी हूँ न जानी कै मतेई है।—तुलसी। स्त्री० [सं० कि] उलटी। वमन। जैसे—दवा खाते ही कै हो गई। पुं० [?] एक प्रकार का जड़हन धान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कैकर्य  : पुं० [सं० किंकर+ष्यञ्] किकंर होने की अवस्था या भाव। किंकरता।
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कैकस  : पुं० [सं० कीकस+अण्] राक्षस।
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कैकसी  : स्त्री० [सं० कैकस+ङीष्] रावण की माता का नाम।
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कैकेय  : पुं० [सं० केकय+अण्, इय० आदेश] [स्त्री० कैकेयी] केकय गोत्र का व्यक्ति।
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कैकेयी  : स्त्री० [सं० कैकेय+ङीष्] १. कैकेय गोत्र में उत्पन्न स्त्री। २. राजा दसरथ की एक रानी, जो केकय-नरेश की पुत्री और भरत की माता थी।
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कैगर  : पुं० [सं० कीकट-कीकर] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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कैंचा  : पुं० [हिं० कैंची] बड़ी और लंबी कैंची। वि० [हिं० काना+ऐंचा=कनैचा] जिसकी एक आँख की पुतली किसी एक ओर खिंची हुई हो। ऐंचा। भेंगा। पुं० ऐसा बैल जिसकें एक सींग खड़ा या सीधा और दूसरा झुका हुआ या टेढ़ा हो।
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कैंची  : स्त्री० [तुं०] १. दो फलोंवाला एक प्रसिद्ध उपकरण, जिसकी दोहरी धारों की दाब से बीच में रखी हुई चीज कट जाती है। (सीजर) जैसे—कपड़ा या कागज काटने की कैंची। मुहावरा—कैंची करना=काटना।—छाँटना। कैंची की तरह जबान चलना=मुँह से जल्दी-जल्दी, बहुत अधिक और उद्दंडतापूर्ण बातें निकलना। कैंची लगाना=कतरना या काटना। २. उक्त की बनावट के आधार पर आड़ी या तिरछी रखी जानेवाली ऐंसी तीलियाँ, घरनें लकड़ियाँ आदि जो किसी प्रकार की रचना को सँभालने के लिए उसके नीचे खड़ी या लगाई जाती हैं। जैसे—छत या छाजन की कैंची, पुल की कैंची। मुहावरा—कैंची लगाना=दो या अधिक तीलियों, लकड़ियों आदि को उक्त ढंग से एक दूसरे के साथ जडना या रखना या लगाना। ३. उक्त के आधार पर, किसी चीज या सवारी पर बैठने का वह ढंग जिसमें दोनों टाँगे नीचे लटकाकर उनके सिरे एक दूसरी की विपरीत दिशा में फैलायें जाते हैं। जैसे—घोड़े पर बैठकर कैंची बाँधना (अर्थात् दोनों जाँघों और टाँगों से उसका पेट अच्छी तरह दबा रखना। ४. उक्त के आधार पर, कुस्ती का एक पेंच जिसमें अपनी टाँगों से प्रतिपक्षी की कमर, टाँगे या पेट फँसाकर उसे नीचे दबाये रखते हैं। क्रि० प्र०-बाँधना। ५. मालखंभ की एक कसरत जिसमें खिलाड़ी मालखंभ को उक्त प्रकार या रूप से पैरों से जकड़कर पकड़ता है। स्त्री० [हिं० कैंचा=काना+ऐंचा या कनैंचा] किसी की आँख बचाकर या और किसी प्रकार उसके सामने से हटकर इधर-उधर होने की क्रिया या भाव। मुहावरा—कैंची काटना=(क) किसी की आँख बचाकर इधर-उधर हो जाना। कतराना। (ख) किसी से कुछ कहकर मुकर जाना। पीछे हटना।
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कैट  : वि० [सं० कीट+अण्] कीट अर्थात् कीड़े-मकोडे़ में होने वाले या उनसे संबंध रखने वाला। कीट-संबधी।
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कैटभ  : पुं० [सं० कीट√भा (प्रतीत होना)+ड+अण्] मधु नामक दैत्य का छोटा भाई जो विष्णु के हाथों मारा गया था।
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कैटभा  : स्त्री० [सं० कैटभ+टाप्] दुर्गा का एक नाम।
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कैटभारि  : पुं० [सं० कैटभ-अरि, ष० त०] विष्णु।
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कैटर्य्य  : पुं० [सं०√किट् (त्रास)+घञ्, केट√रा (देना)+क+ष्यञ्] १. कायफल। २. नीम। ३. मदनवृक्ष। ४. महानिंब।
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कैंडल  : पुं० [देश] बनतीतर पक्षी। स्त्री० [ अं०] मोमबत्ती।
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कैंड़ा  : पुं० [सं० कांड] १. कोई काम अच्छी तरह या कौशलपूर्वक करने का उपयुक्त ढंग या प्रकार। ढब। जैसे—हर काम करने का एक कैंडा होता है। उदाहरण—वह आँतों तले से बात को निकालने का कैंड़ा जानता था।—वृन्दावनलाल वर्मा। २. किसी चीज के आकार-प्रकार या बनावट का ऐसा ढंग जिसमें उक्त प्रकार के कौशल से काम लिया गया हो। जैसे—यह लोटा तो कुछ और ही कैंड़े का है। ३. वह उपकरण जिससे किसी प्रकार का निर्माण या रचना करने से पहले उसका रूप, विस्तार आदि निश्चित या स्थिर किया जाता है। जैसे—चारि बेद कडा कियो निरंकार कियो राहु।—कबीर। ४. नापने का पात्र। पैमाना। ५. किसी दीर्घकाल व्यापी विशिष्ट कार्य या परंपरा के विचार से उसके पूर्व-कालीन और उत्तर-कालीन विभागों में से हर विभाग। जैसे—इतना अवश्य था कि पिछले कैंडे की लिखावट उतनी अजनबी नहीं थी जितनी पहले कैंडे वालों की।—रामचंद्र शुक्ल। ६. चित्र-कला में चित्रित आकृतियों, दृश्यों वस्तुओं आदि के अंगों और उपागों का तुलनात्मक पारस्परिक अनुपात।
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कैत  : स्त्री० [हिं०कित] ओर। तरफ। दिशा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कैतक  : पुं० [सं० केतकी+अण्] केतक का फूल। वि० केतक-संबंधी।
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कैतव  : पुं० [सं० कितव+अण्] १. किसी को छलने या धोखा देने के लिए किया जानेवाला काम। २. जूँए के खेल में लगाया जानेवाला दाँव। ३. जूआ। ४. वैदूर्यमणि। लहसुनिया। ५. धतूरा। वि० १. छलने या धोखा देनेवाला। २. जूआ खेलने या दाँव लगानेवाला।
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कैतवक  : पुं० [सं० कैतय+कन्] जूए के खेल में की जानेवाली बेईमानी।
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कैतवापह्रुति  : स्त्री० [सं० कैतव-अपह्रति, तृ०त०] साहित्य में एक अलंकार, जो अपह्रुति का एक भेद माना गया है तथा जिसमें उपमेय के मिस उपमान का कुछ बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाता है। जैसे—वह क्या आयें, उनके बहाने साक्षात् ईश्वर ही वहाँ आ गया।
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कैंता  : पुं० [हिं० कित, पूर्वी हिं० कइत-ओर] वास्तु में पत्थर की वह पटिया जो फटी हुई दीवार को गिरने से रोकने के लिए उनके बीच में आड़ी लगाई जाती है।
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कैतुक  : वि० [सं० केतु+कञ्] १. केतु-संबंधी। केतु का० २. केतु से युक्त।
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कैतून  : स्त्री० [अ] वस्त्रों के किनारे टाँकी जानेवाली एक प्रकार की सुनहरी किनारी या पतली लैस।
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कैथ  : पुं० [सं० कपित्थ, प्रा० कइत्थ] १. छोटे या खट्टे फलोंवाला एक कँटीला पेंड। २. उक्त पेड़ का फल जो बेल से कुछ छोटा या मोटे छिलकेवाला होता है।
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कैथा  : पुं० =कैथ।
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कैथिन  : स्त्री० [सं० कायथ] कायथ (कायस्थ) जाति की स्त्री।
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कैंथी  : स्त्री० [हिं० कैथ] छोटी जाति का कैथ। स्त्री० [हिं० कायस्थ] बिहार राज्य में प्रचलित एक पुरानी लिपि जिसमें अक्षर नागरी लिपि जैसे ही हैं, परंतु उन पर शीर्ष रेखा नहीं होती।
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कैद  : स्त्री० [अ] १. बंधन। २. बंधन में रहने की अवस्था या भाव। ३. अपराधी को दंड़ देने के लिए बंद स्थान में रखना। कारावास। मुहावरा—कैद काटना या भोंगना=कारावास में दिन बिताना।
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कैदक  : स्त्री० [अ०]कागज की वह दफ्ती या पट्टी जिसमें कागज पत्र आदि बाँधकर रखे जाते हैं।
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कैदखाना  : पुं० [फा०] वह स्थान जहाँ दंडित अपराधी को कुछ नियत समय तक बंद करके रखा जाता है। जेलघर। (जेल, प्रिजन)।
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कैदतनहाई  : स्त्री० [सं० कैद+फा० तनहाई] वह कैद जिसमें कैदी को किसी एक कोठरी में अकेले रहना पड़ता है। अन्य कैदियों से अलग रहने की सजा।
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कैदमहज  : स्त्री० [अ] वह कैद जिसमें अपराधी को जेल-जीवन में परिश्रम न करना पड़ता हो, केवल बन्द रहना पड़ता हो। सादी कैद।
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कैदसख्त  : स्त्री० [अ० कैद+फा० सख्त] अपराधी को कारावास के दिनों में कठोर परिश्रम का काम करते रहने की सजा।
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कैदसोवारी  : स्त्री० [हि० कद+सोवारी] तबला बजाने में एक प्रकार की गत।
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कैदार  : वि० [सं० केदार+अण्] १. केदार प्रदेश में रहनेवाला। २. केदार संबंधी। पुं० १. पद्यकाष्ट। पद्याख। २. शालिधान्य।
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कैदी  : पुं० [अ०] १. वह जिसे कैद अर्थात् बंधन में रखा गया हो। २. वह अपराधी जिसे न्यायालय ने कैद रहने की सजा दी हो।
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कैदु  : अव्य० [हिं० कै=या+दु (धौं)] हो सकता है कि। कदाचित। कहीं। उदाहरण—हम कातर डराति अपने सिर कहुँ कलंक ह्रै कैदु।—सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कैधों  : अव्य० [हिं० कै+धौं] अथवा। या। वा।
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कैन  : स्त्री० [सं० कंचिका] बाँस या और किसी वृक्ष की लम्बी टहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कैना  : पुं० [देश] एक प्रकार का छोटा पौधा जिसकी पत्तियों का साग और पकौंड़े बनते हैं।
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कैनित  : स्त्री० [देश] एक खनिज पदार्थ जिसकी खाद बनती है।
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कैन्नर  : वि० [सं० किन्नर+अण्] किन्नरों का। किन्नर संबंधी।
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कैंप  : पुं० [अं०] १. सेना के ठहरने का स्थान। छावनी। २. पड़ाव।
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कैप  : स्त्री० [अं०] टोपी।
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कैप्टन  : पुं० =कप्तान।
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कैफ  : पुं० [अ०] वह वस्तु जिसके सेवन से नशा या बेहोशी आती हो। मादक द्रव्य।
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कैफियत  : स्त्री० [अ०] १. वर्णन। हाल। मुहावरा—कैफियत तलब करना=भूल आदि होने पर उसके कर्त्ता से उसके कारण आदि का विवरण माँगना। २. कोई विलक्षण या सुखद घटना।
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कैफी  : वि० [अ०] १. जिसने कैफ अर्थात् मादक द्रव्य का सेवन किया हो। २. मतवाला। पुं० शराब पीनेवाला व्यक्ति। शराबी।
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कैबर  : स्त्री० [देश] तीर का फल। गाँसी।
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कैंबा  : पुं० =कैमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कैबाँ (बा)  : अव्य० [हिं० कै=कई+वार] कई या कितनी ही बार। उदाहरण— कहा जानै कैबाँ मुवौ रे ऐंसें कुमनि कुमीच।—सूर।
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कैबार  : पुं० =किवाड़। उदाहरण—अबरू कैबार दे कै तोहि मूँदि मारौं एकै बार।—देव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कैम  : वि०=कायम। पुं० =कैमा।
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कैमा  : पुं० [सं० कदंब] एक प्रकार का कदंब जिसके पत्ते कचनार की तरह के होते हैं। करमा।
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कैमुतिक न्याय  : पुं० [सं० किमुत+ठक्-इक, कैमुतिक, न्याय, कर्म० स०] एक न्याय जो इस बात का सूचक होता है कि जब इतना बड़ा काम पूरा हो गया, तब इस छोटे से काम के पूरे होने में क्या संदेह है ?
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कैयक  : वि० [हिं० कई+एक] कई। अनेक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कैया  : पुं० [देश] १. कसेरों, लोहारों आदि का वह उपकरण जिससे वे टूटी हुई चीजें जोड़ने के लिए उनमें राँगा लगाते हैं। २. घी-तेल आदि नापने का एक छोटा पात्र। (मध्यभारत)।
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कैयो  : वि०=कई। (अनेक)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कैर  : पुं० =करील।
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कैरट  : पुं० [अं० मि० अ० किरात] १-३. १७ जौं की एक विदेशी तौल। २. सोने की बनी हुई चीजों में विशुद्ध सोने का अंश, मात्रा या मान। (२४ कैरेट का सोना विशुद्ध माना जाता है। यदि कोई चीज २॰ कैरट की कही जाय तो इसका अर्थ यह होगा कि इसमें २॰ हिस्सा सोना है और ४ हिस्सा दूसरी धातु का मेल है)।
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कैरव  : पुं० [सं० के√रु (शब्द)+अच्, केरव,+अण्] [स्त्री० कैरवी] १. कुमुद। कोई। २. सफेद कमल। ३. शत्रु। ४. धोखेबाज। ५. जुआरी।
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कैरव-बंधु  : पुं० [ष० त०] कैरवों (कुमुदों) का बंधु अर्थात् चंद्रमा।
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कैरवाली  : स्त्री० [सं० कैरव-आली, ष० त०] १. कैरवों का समूह। २. वह स्थान जहाँ बहुत-से कुमुद खिलें हों।
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कैरविणी  : स्त्री० [सं० कैरव+इनि, ङीष्] कुमुदिनी।
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कैरवी (विन्)  : स्त्री० [सं० कैरव=इनि] १. चाँदनी रात। २. चंद्रमा। ३. मेथी।
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कैरा  : पुं० [सं० कैरव+कुमुद] [स्त्री० कैरी] १. ऐसी सफेदी जिसमे कुछ ललाई की झलक हो। २. भूरा रंग। ३. ऐसा बैल जिसके सफेद रोयों के नीचे से चमड़े की ललाई झलकती हो। सोकन। सोकना। वि० १. भूरे रंग का। भूरा। २. भूरे रंग की आँखोंवाला। कंजा।
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कैराटक  : पुं० [सं० किर√अट् (गति)+अण्, किराट+कन्+अण्] वानस्पतिक वृक्ष का एक भेंद जिसके अन्तर्गत अफीम, कनेर आदि आते हैं।
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कैरात  : वि० [सं० किरात+अण्] १. किरातों में होने अथवा उनसे संबंध रखनेवाला। २. किरत देश का। पुं० १. किरात देश का राजकुमार। २. मोटा-ताजा आदमी। ३. चिरायता। ४. शंबर चंदन। ५. एक प्रकार का पक्षी विशेष। ६. शुद्ध राग का एक भेद। (संगीत) पुं० =कैरट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कैरातक  : वि० [सं० कैरात+कन्]=कैरात।
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कैरातिक  : वि० [सं० किरात+ठक्-इक]=कैरात।
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कैराल  : पुं० [सं० किर√अल् (पर्याप्त होना)+अण्, किराल,+अण्] वायविंडग (ओषधि)।
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कैरी  : वि० स्त्री० [हिं० कैरा] १. भूरे रंग की। २. जिसकी आँखें भूरी हों। स्त्री० १. आम में बौर के बाद लगनेवाले फल के टिकोरे। २. नकली या बनावटी फूल।
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कैल  : स्त्री० =केलि। पुं० =कल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कैंलडर  : पुं० [अ] दे० ‘दिनपत्र’ और ‘पंचांग’।
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कैलास  : पुं० [सं० के-लास, ब० स०+अण्] १. हिमालय की उत्तरी सीमा में स्थित एक चोटी जो सदा बरफ से ढकी रहती है और शिव का निवास-स्थान मानी जाने के कारण एक प्रसिद्ध तीर्थ है। २. स्वर्ग। ३. ऐसा षट्कोण देवमंदिर जिसमें कई शिखर हों। ४. वास्तु-शास्त्र में तीन खंडोंवाला बड़ा मकान या महल। ५. राजमहल। ६. शरीर में के आज्ञा-चक्र का एक नाम।
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कैलास-निकेतन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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कैलास-वास  : पुं० [सं० स०त०] मृत्यु।
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कैलासी  : पुं० [कैलास+हिं० (प्रत्यय)] १. कैलास पर रहनेवाले भगवान शिव। २. कुवेर का निवास-स्थान। वि० कैलास संबंधी।
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कैलेंडर  : पुं० दे० ‘दिनपत्र’ और ‘पंचांग’।
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कैलैया  : पुं० [सं० कोकिलाक्ष] तालमखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कैवर्त-मुस्तक  : पुं० [सं० मध्य स०] केवटी मोथा।
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कैवर्तिका  : स्त्री० [सं० कैवर्त्त+ङीष्+कन्-टाप्, ह्रस्व] एक प्रकार की लता।
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कैवर्त्त  : पुं० [सं० के√वृत् (बरतना)+अच्, अलुक्स०+अण्] १. मल्लाहों की एक जाति, जो भार्गव पिता और अयोगवी माता से उत्पन्न मानी जाती है। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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कैवर्त्तक  : पुं० [सं० कैवर्त+कन्]=कैवर्त्त।
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कैवल  : पुं० [सं० केवल+अण्] बायबिंडग।
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कैवल्य-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] ब्रह्म-विद्या का वह ज्ञान जो शंशय-रहित और स्थायी हो।
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कैशिक  : वि० [सं० केश+ठञ्-इक] १. जो केशों अर्थात् बालों या रोओं से युक्त हो। (कैपिलरी) २. जो बालों या रोओं जैसा हो अथवा उनकी तरह नरम हो। पुं० १. केश-समूह। २. श्रृंगार। ३. नृत्य का एक भेद जिसमें हाव-भावों से किसी की नकल उतारी जाती है।
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कैशिक-निषाद  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में निषाद स्वर का एक विकृत रूप, जो तीव्र निषाद से आरंभ होता है और जिसमें तीन श्रेणियाँ होती है।
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कैशिक-पंचम  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में पंचम स्वर का एक विकृति रूप जो संदीपनी नामक श्रुति से आरंभ होता है और जिसमें चार श्रुतियाँ लगती हैं।
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कैशिकी  : स्त्री० [सं० कैशिक+ङीष्] नाटक की मुख्य चार वृतियों में से एक वृत्ति,जिसमें नृत्य-गीत,भोग-विलास आदि के वर्णन होते हैं।
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कैशोर  : वि० [सं० किशोर+अञ्] किशोर संबंधी। पुं० बालक की दस वर्ष की अवस्था सेलेकर १५ वर्ष तक की अवस्था या अवधि।
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कैस  : पुं० [अ] अरब का एक प्रसिद्ध प्रेमी, जो बाल्यावस्था में ही लैला नाम की एक कन्या के प्रेम में पागल हो गया था, और इसीलिए जो ‘मजनू’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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कैसर  : पुं० [लै० सीजर] १. सम्राट। बादशाह। २. आस्ट्रिया, जर्मनी आदि देशों के महाराजाओं की उपाधि।
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कैसा  : वि० [सं० कीदृश, प्रा० केरस] [स्त्री० कैसी, क्रि० वि० कैसे] १. किस ढंग या प्रकार का। किस तरह का। २. किस आकार या रूपरंग का। ३. बहुत बढि़या। जैसे—वाह कैसी दलील दी गई है। ४. प्रश्न में निषेधार्थक किसी प्रकार का नही। जैसे—जब काम ही पूरा नहीं किया तब पूरा वेतन कैसा।
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कैसिक  : अ० [हिं० कैसा] किस तरह ? कैसे ?(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कैसे  : अव्य० [हिं० कैसा] १. किस ढंग या प्रकार से। जैसे—ये कपड़े तुम कैसे ले आये। २. किस अभिप्राय या उद्देश्य से ? किस लिए ? क्यों ? जैसे—कैसे आना हुआ ?
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कैसो  : वि०=कैसा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कैहूँ  : अव्य० [हिं० क-कैसे+हूँ (प्रत्यय)] किसी तरह। किसी प्रकार।
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को  : विभ० [?] १. कर्म और संप्रदान कारकों की विभक्ति का चिन्ह्र। जैसे—(क) उसको बुलाओ। (ख) मुझकों दो। २. कुछ अवस्थाओं में, के लिए। वास्ते। जैसे—नहाने को चलो। उदाहरण—हेतु कृसानु भानु हिमकर को।—तुलसी। ३. अवधी और ज में संबंध कारक का चिन्ह-का, की या के। उदाहरण—तेज प्रताप बढ़त कुँवरन को, जदपि सँकोंची बानि है।—तुलसी। सर्व० [सं० कः] कौन। उदाहरण—को बड़ छोट कहत अपराधू।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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को-दंड  : पुं० [सं०√कु (शब्द)+विच्, को-दंड, ब० स०] १. धनुष। २. धन-राशि। ३. भौंह। ४. एक प्राचीन देश।
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कोआ  : पुं० [सं० कोश] १. रेशम के कीड़ों का आवरण। कुसियारी। २. टसर नामक रेशम का कीड़ा। ३. धुने हुए ऊन की पोनी। ४. महुएँ का फल। ५. कटहल के पके हुए बीजकोश। ६. आँख की पुतली के चारों ओर का सफेद भाग। आँख का डेला। ७. आँख का कोना।
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कोआर  : पुं० [देश] कोरा नामक वृक्ष।
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कोइक  : वि० [देश० कोई+एक] कुछ। सर्व०=कोई।
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कोंइछा  : पुं० [देश] दे०‘खोइँछा’।
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कोइड़ार  : पुं० [हिं० कोरी (जाति)] १. साग-तरकारी आदि के खेत। २. कोरी जाति के लोंगों की बस्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोइँदा  : पुं० [हिं० कोआ] [स्त्री० कोइँदी] १. महुँए का पका हुआ फल। गोलैंदा। २. उक्त बीज का फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोइना  : पु०=कोइँदाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोइरी  : पुं० [हिं० कोयर-सागपात] तरकारी बोनेवाली कोइरी नामक जाति। काछी।
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कोइल  : स्त्री० [कुंडली] १. वह गोल छेददार लकड़ी जो मक्खन निकालने के समय दूध के मटके के मुँह पर रक्खी जाती है। २. करघे में वह लकड़ी जो ढरकी के बगल में लगी रहती है। (जुलाहा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोइलरि  : स्त्री०=कोयल।
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कोइला  : पुं० =कोयला।
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कोइलारी  : स्त्री० [हिं० कोलना] १. पशुओं के गले में डाली जानेवाली रस्सी का फंदा। २. लकड़ी का वह गोल कड़ा, जिसे हरहाये चौपायों के गँराव में इसलिए फँसा देते है कि झटका देने या खींचने से उनका गला दबे।
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कोइलाँस  : पुं० =कोइली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोइलि  : स्त्री० १. =कोयल। २. =कोइली।
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कोइलिया  : स्त्री०=कोयल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोइली  : स्त्री० [हिं० कोयल] १. वह कच्चा आम जिसमें पत्तों आदि की रगड़ के कारण काला दाग पड़ गया हो। २. आम की गुठली।
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कोंई  : स्त्री०=कुमुदनी।
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कोई  : सर्व० [सं० कोऽपि] १. दो या दो से अधिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदि में से ऐसी वस्तु या व्यक्ति, जिसका निश्चित उल्लेख या परिज्ञान न हो। कइलों में से चाहे जो। जैसे—(क) तुममें से कोई चला जाय। (ख) कोई आये तो मेरे पास भेज देना। पद—कोई न कोई=एक नहीं तो दूसरा। यह नही तो वह सही। जैसे—कोई आ ही जायगा। २. बहुतों में से हरएक, परन्तु अनिर्दिष्ट और अनिश्चित। जैसे—कोई नौकर भेज जो। वि० १. ऐसा हर एक जो अज्ञात हो। न जाने कौन एक। जैसे—कोई आदमी आकर यह चिट्टठी दे गया था। २. बहुतों में से चाहे जो एक। जैसे—कोई बात हुई हो तो बतलाओ। ३. ध्यान देने योग्य और विशिष्ट। जैसे—भला यह भी कोई बात है। ४. कुछ या थोड़ा। पद—कोई दम का मेहमान=थोड़े ही काल तक और जीनेवाला जो शीघ्र मरने को हो। क्रि० वि० करीब-करीब। लगभग। जैसे—कोई सौ आदमी आये थे। स्त्री० [सं० कोश] आँख का कोआ या डेला। उदाहरण—लि लोने लोइननु कै कोइनु होइन आजु।—बिहारी।
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कोई शायर।  :
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कोउ  : सर्व० =कोई। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोउक  : सर्व० [हिं० कोऊ+एक] १. कोई एक। २. कुछ लोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोऊ  : सर्व०=कोई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोक  : पुं० [सं०√कुक् (आदान)+अच्] [स्त्री० कोकी] १. चकवा पक्षी। सुरखाब। २. मेढ़क। ३. दे० ‘कोकदेव’। पुं० [फा०] कपड़े पर की कच्ची सिलाई।
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कोक-कला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. रति, केलि और संभोग की कला या विद्या। २. दे० ‘कोकशास्त्र’।
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कोक-देव  : पुं० [सं० कोक√दिव् (कीड़ा करना)+अच्, उप० स०] कामशास्त्र के एक प्रसिद्ध आचार्य जो कोकशास्त्र नामक ग्रन्थ के रचयिता थे।
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कोक-शास्त्र  : पुं० [मध्य० स०] आचार्य कोकदेव का लिखा हुआ कामशास्त्र नामक ग्रन्थ।
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कोकई  : पुं० [तुं० कोक] कौड़ी की तरह का ऐसा पीला रंग जिसमें कुछ गुलाबी या नीली झलक भी हो। (सीपिया) वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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कोकटी  : वि० [मैथिल] १. मुलायम सूत की, किन्तु बिना किनारीदार और जानु तक की चौड़ी धोती, जिसे पहले मिथिला में शिष्ट लोग पहनते थे। उदाहरण—कोकटी धोती पटुआ साग।—मैथिली लोकगीत। २. एक प्रकार का रंग, जो कुछ लाली लिए हलका पीला होता है। ३. उक्त रंग का कपड़ा।
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कोंकण  : पुं० [सं० ] १. दक्षिण भारत का एक छोटा प्रदेश, जो आधुनिक द्विभाषी बम्बई राज्य के अन्तर्गत है। २. उक्त देश का निवासी। ३. एक प्रकार का हथियार।
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कोंकणस्थ  : वि० [सं० कोंकण√स्था (रहना)+क] कोंकण का। पुं० महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों का एक वर्ग।
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कोंकणा  : स्त्री० [सं० कोकण+अच्+टाप्] परशुराम की माता। रेणुका।
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कोंकणी  : स्त्री० [सं० कोंकण+अच्-ङीष्] कोंकण प्रदेश की भाषा, जो मराठी की एक बोली या विभाषा मानी जाती है। वि० कोंकण (प्रदेश) संबंधी। पुं० कोकंण (प्रदेश) का व्यक्ति।
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कोकन  : पुं० [देश] एक प्रकार का बड़ा पेड़।
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कोकनद  : पुं० [सं० कोक√नद् (अव्यक्त शब्द)+अच्] १. लाल कमल। २. लाल कुमुद।
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कोकना  : स० [फा० कोक=कच्ची सिलाई] कच्ची सिलाई करना। कच्चा करना। लंगर डालना।
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कोकनी  : पुं० [सं० कोक=चकवा] एक प्रकार का तीतर। पुं० [सं० कोंकण] संतरे के पेड़ (तथा फल) की एक जाति। स्त्री दे० ‘कोकई’। वि० [तु० कोका ?] छोटा। नन्हा।
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कोकंब  : पुं० =कोकम (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोकम  : पुं० [देश] एक प्रकार का वृक्ष, जिसके सभी अंग खट्टे होते है और इसी लिए कुछ अंग अचार, चटनी आदि में पड़ते हैं।
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कोकला  : स्त्री० [सं० कोकिला] कोयल।
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कोकव  : पुं० [सं० कोक√वा (गति)+क] एक राग जो पूरबी बिलावल केदारा, मारू और देवगिरी के योग से बनता है।
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कोकवा  : पुं० [?] पूरबी भारत में होनेवाला एक प्रकार का बाँस।
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कोकहर  : पुं० [सं० कोक√हृ (हरण)+अच्] चंद्रमा।
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कोका  : पुं० [अं०] दक्षिणी अमेरिका का एक वृक्ष, जिसकी सुखाई हुई पत्तियाँ चाय या कहवे की तरह बलकारक मानी जाती हैं। पुं० स्त्री० [तु] एक ही धाय का दूध पीनेवाले अलग-अलग बच्चे। दूध-भाई या दूध-बहन। पुं० [सं० कोक] [स्त्री० कोकी] चकवा। पुं० [हिं० कूक] आह्वान। निमंत्रण। उदाहरण—महाकाल को दीन्हौ कोको।—भड्डरी। स्त्री० [?] नीली कुमुदिनी।
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कोकाबेरी-(बेली)  : स्त्री० [हिं० कोका+वेली] नीली कुमुदिनी।
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कोकामुख  : पुं० [सं० ] भारत का एक प्राचीन तीर्थ।
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कोकाह  : पुं० [सं० कोक-आ√हन् (हिसा)+ड] १. सफेद रंग के घोड़ों की एक जाति। २. उक्त जाति का घोड़ा।
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कोकिल  : पुं० [सं०√कुक् (आदान)+इलच्] १. कोयल। २. रहस्य संप्रदाय में (क) उत्तम मनोवृत्ति। (ख) मधुर भाषण या मीठा बोल। ३. नीलम की एक छाया। ४. एक प्रकार का जहरीला चूहा। ५. जलता हुआ अंगारा। ६. एक प्रकार का साँप। ७. छप्पयका १९ वाँ भेद, जिसमें ५२ गु०,४ ८ लघु (१॰॰ वर्ण) और १५२ मात्राएँ होती हैं।
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कोकिल-कंठ  : वि० [ब० स०] जिसका स्वर कोयल की तरह मधुर तथा सुरीला हो।
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कोकिल-नयन  : पुं० [ब० स०]=कोकिलाक्ष।
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कोकिल-रव  : पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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कोकिला  : स्त्री० [सं० कोकिल+टाप्] कोयल। पिक।
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कोकिला-प्रिय  : पुं० [ष० त०] संगीत में एक ताल, जिसमे क्रमशः एक प्लुत, एक लघु, एक प्लुत और तब एक प्लुत होती हैं।
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कोकिला-रव  : पुं० [ब० स०] ताल के ६॰ भेदों में से एक ।
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कोकिलाक्ष  : पुं० [सं० कोकिल-अक्षि, ब० स०] तालमखाना।
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कोकिलावास  : पुं० [सं० कोकिल-आवास, ष० त०] १. कोयल का घोंसला। २. आम का पेड़।
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कोकिलासन  : पुं० [सं० कोकिल-आसन, उपमि० स०] तंत्र के अनुसार एक प्रकार का आसन।
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कोकिलेष्टा  : स्त्री० [सं० कोकिल-इष्टा, ष० त०] बड़ा जामुन। फरेंदा।
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कोकिलोत्सव  : पुं० [सं० कोकिल-उत्सव, ब० स०] आम का वृक्ष।
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कोकी  : स्त्री० [सं० कोक+ङीष्] मादा चकवा।
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कोकीन  : स्त्री०=कोकेन।
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कोकीनची  : पुं० =कोकेनबाज।
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कोकुआ  : पुं० [सं० कोकाग्र] समष्ठिल नामक पौधा।
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कोकेन  : स्त्री० [अं०] कोका नामक वृक्ष की पत्तियों से तैयार की हुई एक प्रकार की ओषधि, जो गंध-हीन और सफेद रंग की होती है और जिसके प्रयोग से शरीर के अंग-सुन्न हो जाते हैं। लोग इसका प्रयोग पान के साथ नशे के रूप में करते हैं।
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कोकेनबाज  : वि० [हिं० कोकीन] वह जिसे कोकेन खाने का चसका हो। नशे के लिए कोकेन खानेवाला।
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कोको  : स्त्री० [अनु०] कौओं को बुलाने का शब्द। स्त्री० एक कल्पित पक्षी, जिसके नाम का प्रयोग बच्चों को डराने, बहलाने आदि के लिए होता है। अं० ताड़ की तरह एक प्रकार के फल का चूरा, जिससे चाय के ऐसा पेय बनाकर पिया जाता है।
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कोकोजम  : पुं० [अं०] साफ किया हुआ नारियल का तेल जो घी की तरह काम में लाया जाता है। वनस्पति घी।
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कोख  : स्त्री० [सं० कुक्षि, पा० कुच्ची, प्रा० कुच्छि, कुख्खी, गुं० कुख, सि० कुक्कि, पं० कुक्ख, मरा० कूस] १. पसलियों के नीचे पेट के दोनों तरफ का स्थान। २. उदर। पेट। मुहावरा—कोखे लगना या सटना=अधिक भूख लगने के कारण पेट का पीठ से चिपका हुआ दिखाई पड़ना। ३. गर्भाशय। मुहावरा—कोख उजड़ना=संतान का मर जाना। बच्चा मर जाना-(स्त्रियाँ) कोख खुलना=बहुत दिन की प्रतीक्षा के बाद संतान होना। बाँझपन मिटना। कोख बंद होना=(स्त्री का) बाँझ होना। संतान न होना। कोख माँग से ठंढ़ी या भरी पूरी रहना-सन्तान और पति का सुख देखते रहना (आशीर्वाद) कोख मारी जाना=दे० ‘कोख बंद होना’। पद—कोख की आँच=संतान का कष्ट या वियोग। कोख की बीमारी या रोग-संतति न होने या होकर मर जाने का रोग।
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कोखजली  : वि० [हिं० कोख+जलना] (स्त्री) जिसकी संतान जीवित न रहती हो (पुं० स्त्रियों को दिया जानेवाला एक प्रकार का अभिशाप या गाली)।
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कोखबंद  : वि० [हिं० कोख+बंद] (स्त्री) जिसे संतान न होती हो। बाँझ। वंध्या।
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कोगी  : पुं० [देश०] लोमड़ी के आकार का एक छोटा जानवर जो प्रायः झुंड में रहता और फसल खा जाता है। उसके झुंड प्रायः चीते, शेर आदि तक को मारकर खा जाते हैं।
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कोच  : पुं० [अं०] १. एक प्रकार की गद्देदार बड़ी और लंबी कुरसी जिस पर दो-तीन आदमी बैठ सकते हैं। २. चार पहियोंवाली एक प्रकार की घोड़ागाड़ी। पुं० [सं० ] एक संकर जाति। स्त्री० [हिं० कोचना] कोंचने की क्रिया या भाव।
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कोचकी  : पुं० [?] एक रंग जो लाली लिये भूरा होता है। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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कोंचना  : स० [सं० कुच-लिखना, खरोचना] १. नुकीली चीज चुभाना। २. (किसी वस्तु में) उक्त क्रिया से बहुत से छेद करना। जैसे—आँवला, आलू या परवल कोंचना।
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कोचना  : स० [सं० कुच०] १. नुकीली चीज बार-बार किसी वस्तु में धँसाना। २. बार-बार किसी को तंग करना। पुं० बड़ी कोचनी (औजार) दे० ‘कोचनी’।
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कोचनी  : स्त्री० [हिं० कोचना०] १. लोहे का एक प्रकार का दाँतेदार औजार जिससे तरकारियाँ, फल आदि कोंचे जाते हैं। २. लोहे का छोटा सूआ जिससे तलवार की म्यान पर का चमड़ा सीया जाता है। ३. वह छड़ी जिससे बैल हाँके जाते है।
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कोंचफली  : स्त्री०=कौंछ।
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कोचबकस  : पुं० [अं० कोच+बाक्स] घोड़ा-गाड़ी में वह ऊँचा स्थान जिस पर कोचवान बैठकर हाँकता है।
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कोचरा  : पुं० [देश०] दोनों ओर से नुकीली तथा अंगुल भर लंबी पत्तियों वाली एक लता।
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कोचरी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
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कोचवान  : पुं० [अं० कोचमैन] घोड़ा-गाड़ी, टाँगा आदि हाँकनेवाला व्यक्ति।
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कोंचा  : पुं० [हिं० कोंचना] १. कोंचने की क्रिया या भाव। २. वह नुकीली चीज,जिसमें कोंचा जाय। ३. बहेलिए की वह लम्बी छड़ी जिस पर चिड़ियाँ फँसाने के लिए लासा लगाया जाता है। ४. भड़मूँजें का बालू निकालने का कलछा।
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कोचा  : पुं० [हिं० कोचना] १. छुरी, तलावर आदि की नोक कोचने या चुभाने से होनेवाला घाव। २. चुभती या लगती हुआ बहुत तीखी बात।
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कोंचिड़ा  : पुं० [देश०] जंगली प्याज। कौड़ा।
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कोचिला  : पुं० =कुचला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोची  : पुं० [?] बबूल की जाति का एक जंगली पेड़। बनरीठा।
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कोचीन  : पुं० [देश०] दक्षिण भारत के केरल राज्य का एक प्रदेश।
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कोंछ  : स्त्री०=खोंच। पुं० =कौंछ।
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कोछ  : स्त्री० [सं० कक्ष] कोड़। गोद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोंछना  : स० [हिं० काछा] १. धोती के पल्ले में कोई चीज बाँधकर कमर में खोंसना। २. धोती या साडी का कुछ भाग चुनकर पेंडू पर खोंसना।
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कोंछियाना  : स०=कोंछना।
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कोंछी  : स्त्री० [हिं० काछा] साड़ी या धोती का वह भाग जिसे चुनकर स्त्रियाँ पेट के आगे खोंसती है। तिन्नी। नीबी। फुफुती।
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कोजागार  : पुं० [सं० को जागर्ति, पृषो० सिद्धि] आश्विन की पूर्णिमा। शरद पूनो। विशेष—इस रात को हिंदू लोग यह समझकर जागते हैं कि इसी रात को लक्ष्मीजी अवतरित होती हैं और जो मनुष्य जागता रहता है उसे धन-संपन्न कर देती हैं।
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कोट  : पुं० [सं०√कुट (टेढ़ा होना)+घञ्, प्रा० कोट्ट] १. सेना के रहने के लिए बना हुआ बड़ा पक्का भवन। दुर्ग। २. राजमहल। ३. परकोटा। प्राचीर। ४. रहस्य-संप्रदाय में शरीर। पुं० [अं०] अंग्रेजी ढंग का एक प्रसिद्ध पहनावा। पुं० [सं० कोटि] १. झुंड। समूह। २. लंबाई। विस्तार। उदाहरण—सुमिरत पट को कोट बढ़्यौ तब, दुख-सागर उबर्यौ।—सूर।
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कोट-चक्र  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का चक्र जिसका प्रयोग युद्ध से पहले अपने दुर्ग का शुभाशुभ परिणाम जानने के लिए किया जाता था ।(तंत्रशास्त्र)।
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कोट-तीर्थ  : पुं० [सं० मध्य० स०] चित्रकूट तथा गंधमादन पर्वत पर की पुण्य स्थलियाँ। उदाहरण—फिर कोटतीर्थ देवांगनादि।—निराला।
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कोटक  : वि० [सं०√कुट्+ण्वुल्-अक] १. कोट संबंधी। २. कोट भवन या झोपड़े बनानेवाला। पुं० एक जाति जो प्रायः बढ़ई का काम करती है। वि०=कोटिक।
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कोटगंधल  : पुं० [देश०] मजबूत और चिकनी लकड़ीवाला एक छोटा पेड़।
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कोटपाल  : पुं० [सं० कोट√पाल (रक्षा करना)+णिच्+अच्] दुर्ग की रक्षा करनेवाला सैनिक अधिकारी। किलेदार।
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कोटपीस  : स्त्री० [अ० कोर्टपीस०] ताश का एक प्रसिद्ध खेल जिसमें चार आदमी दो पक्ष बनाकर खेलते हैं।
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कोटभरिया  : स्त्री० [सं० कोष्ट+हिं० भरना] नाव के किनारों पर ऊपर की ओर जड़ी हुई लकडी।
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कोटर  : पुं० [सं० कोट√रा (दान)+क] १. पेड़ का वह खोखला अंश या भाग जिसमें पक्षी साँप आदि रहते हैं २. किले की रक्षा के लिए लगाया हुआ उसके आसपास का वन।
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कोटरा  : स्त्री० [सं० कोटर+टाप्] बाणासुर की माता का नाम।
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कोटरी  : स्त्री० [सं० कोट√री (गति)+क्विप्] दुर्गा। चंडिका।
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कोटवा  : पुं० [सं० कोट] छोटा दुर्ग। छोटा कोट। उदाहरण—रुंधयो साहि हिंदूनि नृप कोटव्वा लंगर गुनह।—चंदवरदाई।
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कोटवार  : पुं० १. =कोटपाल। २. =कोतवाल।
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कोटा  : पुं० [अ०] वह आनुपातिक अंश या भाग जो किसी या प्रत्येक सदस्य को नियत रूप में मिलने को हो। यथांश।
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कोटि  : स्त्री० [सं०√कुट्+इञ्०] १. धनुष का सिरा। २. अर्द्ध-चंद्र का सिरा। ३. अस्त्र की नोक या धार। ४. एक ही प्रकार की वस्तुओं या लोगों की वह श्रेणी या वर्ग जो क्रमिक उत्कृष्टता के विचार से बनाया गया हो। (ग्रेड) ५. किसी वाद-विवाद का पूर्व पक्ष। ६. किसी विचारणी या विवादग्रस्त बात के पक्ष और विपक्ष में कही जानेवाली हर तरह की बात या विचार। जैसे—इन सभी कोटियों में एक तत्त्व समान रूप से पाया जाता है। ७. उत्कृष्टता। ८. किसी ९॰ अंश के चाप के दो भागों में से एक। ९. किसी त्रिभुज या चतुर्भुज के आधार और कर्ण से भिन्न रेखा। १॰. राशि चक्र का तीसरा अंस या खंड। ११. असबर्ग नामक ओषधि। वि०=करोड़ (संख्या)।
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कोटि-क्रम  : पुं० [ष० त०] १. विकास क्रम की दृष्टि से किसी वस्तु या विषय की बनाई या लगाई जाने हुई कोटियाँ या वर्ग। २. तर्क में विचार प्रकट करने का ढंग या प्रकार।
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कोटि-च्युत  : वि० [पं० त०] १. (व्यक्ति) जो किसी ऊँची कोटि (या पद) से हटाकर निम्न कोटि में भेज दिया गया हो। २. जिसकी किसी कोटि से अवनति हुई हो। (डिग्रेडेड)
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कोटि-ज्या  : स्त्री० [मध्य० स०] ग्रहों की स्पष्टता के लिए बनाये जाने वाले एक प्रकार के क्षेत्र का एक विशिष्ट अंश।
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कोटि-तीर्थ  : पुं० [ब० स०] चित्रकूट का गंधमादन पर्वत पर का एक तीर्थ।
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कोटि-परीक्षा  : स्त्री० [मध्य० स०] किसी विभाग के कर्मचारियों की ली जानेवाली वह परीक्षा जिसमें उत्तीर्ण होने पर वे ऊँची कोटि में रखे जाते हैं। (ग्रेड इग्जामिनेशन)
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कोटि-बद्ध  : वि० [स० त०] १. किसी विशिष्ट कोटि में रखा हुआ। २. जो छोटी-बड़ी कोटियों में विभक्त हो। (ग्रेडेड)।
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कोटि-बंध  : पुं० [स० त०] बहुत-सी वस्तुओं, व्यक्तियों या कार्यकर्त्ताओं को उनके महत्त्व, विकास-क्रम, वे तन आदि के अनुसार अलग-अलग कोटियों में बाँधना या स्थान देना। कोटियाँ स्थिर करना। (ग्रेडेशन)।
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कोटिक  : वि० [संकोटि+क] १. कई करोड़। करोड़ों। २. बहुत अधिक। असंख्य।
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कोटिफली (लिन्)  : पुं० [सं० कोटि-फल, ष० त०+इनि] गोदावरी के संगम के निकट का एक प्रसिद्ध तीर्थ।
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कोटिशः (शस्)  : क्रि० वि० [सं० कोटि+शस्] अनेक प्रकार से। वि० असंख्य। बहुत अधिक।
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कोटी  : स्त्री० [सं०√कु+इन्, ङीष्]=कोटि। स्त्री० [अं० कोट] स्त्रियों के पहनने की चोली जिसकी आकृति कोट जैसी होती है।
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कोटीर  : पुं० [सं० कोटि√ईर् (गति)+अण्] १. किरीट। जटा।
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कोटीश्वर  : पुं० [सं० कोटि-ईश्वर, ष० त०] करोड़पति।
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कोटू  : पुं० [देश] एक प्रसिद्ध पौधा जिससे बीजों का आटा फलाहार में गिना जाता है। कुटू।
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कोट्ट  : पुं० =कोट।
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कोट्टवी  : स्त्री० [सं० कोट्ट√वा (गति)+क, ङीष्] १. दुर्गा। २. बाणासुर की माता। ३. नंगी स्त्री।
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कोट्टार  : पुं० [सं०√कुट्+अराक, पृषो० सिद्धि] १. किला। कोट। २. कूआँ या तालाब। ३. तालाब की सीढ़ियाँ। ४. लपट।
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कोट्यधीश  : पुं० [सं० कोट-अधीश, ष० त०] करोड़पति। बहुत बड़ा धनी।
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कोठ  : पुं० [सं० कुंठ (प्रतिघात)+अच्० नलोप० नि०] १. कोढ़ का एक प्रकार जिसमें शरीर पर बड़े तथा गोल चकते पड़ जाते हैं। २. बाँसों की बड़ी कोठी। वि० [सं०√कुंठ] १. (दाँत) जिससे कोई चीज चबाई न जा सके। कुंठित। २. इतना खट्टा (पदार्थ) जो चबाया न जा सके। ३. (दाँत) जो अधिक खट्टी वस्तु न चबा सकते हों।
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कोठड़ी  : स्त्री०=कोठरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोठर  : पुं० [सं०√कुठ्+अर्, पृषो० सिद्धि] अंकोल का पेड़।
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कोठर-पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] विधारा नाम की लता।
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कोठरा  : पुं० [हिं० कोठा] [स्त्री० अल्पा० कोठरी] १. बड़ी कोठरी। २. रहस्य संप्रदाय में देह या शरीर।
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कोठरी  : स्त्री० [हिं० कोठा (अल्पा० प्रत्यय)] चारों ओर से घिरा तथा छाया हुआ छोटा कमरा जिसमें प्रायः अंधेरा होता है।
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कोठा  : पुं० [सं० कोष्ठ, कोष्ठक, पा० कोठो, प्रा० कोठ्ठअ, उ० मरा० कोठा, पुं० कोठ्ठा, सिंह० कोटुव, कोठ] १. मकान या ऊपरी खंड या मंजिल। २. ऊपरी मंजिल पर बना हुआ बड़ा कमरा। ३. रंडियाँ या वेश्याओं का घर। यौ०-कोठेवाली=वेश्या। ४. बड़ी कोठी। ५. लाक्षणिक अर्थ में पेट। मुहावरा—कोठा बिगड़ना=अपच होना। कोठा भरना-पेट भरना। खूब खाना। कोठा साफ होना-दस्त होना। ६. कोठार। भंडार। ७. गर्भाशय।
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कोठाकुचाल  : पुं० [हिं० कोठा+कुचाल] हाथियों की एक बीमारी जिसमें उनकी भूख मर जाती है।
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कोठादार  : पुं० [हिं० कोठा+फा० दार] १. भंडारी। २. दे० दे० कोठीदार।
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कोठार  : पुं० [हिं० कोठा] अन्न, धन आदि रखने का स्थान। भंडार।
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कोठारी  : पुं० [हिं० कोठार+ई (प्रत्य)] कोठार या भंडार का अधिकारी। भंडारी।
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कोठी  : स्त्री० [सं० कोष्टिका, प्रा० कोट्ठिआ-या, पं० कोठ्ठी, उ० गु० मरा० सि० कोठी] १. बहुत ऊंचा पक्का तथा खुला हुआ मकान। २. वह मकान जिसमें कोई बहुत बड़ा कारोंबार या लेन-देन होता है। (फर्म)। मुहावरा—कोठी बैठना=कारोबार बंद होना। ३. अनाज रखने का कोठार। ४. किसी चीज का भंडार। उदाहरण—सोक कलंक कोठि जनि होहु।—तुलसी। ५. कुएँ, पुल आदि की रचना में वास्तु का वह अंश जो पानी के नीचे बहुत गहराई तक धँसाया जाता है। ६. बंदूक में का वह स्थान जिसमें बारूद रखी जाती है। ७. गर्भाशय। ८. बाँसो में का वह समूह जो किसी स्थान पर घेरा बाँधकर उगता है। स्त्री० [हिं० कोठा] कोल्हू के बीच का वह घेरा जिसमें डालकर ऊख के टुकड़े पेरे जाते हैं।
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कोठीवाल  : पुं० [हिं० कोठी+वाला (प्रत्यय)] बहुत बड़ा कारोबार करनेवाला व्यापारी, जिसकी कोठी चलती है।
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कोठीवाली  : स्त्री० १. =कोठीवाल या बहुत बड़े़ व्यापारी होने की अवस्था या भाव। २. उत्तर भारत में महाजनों में प्रचलित एक प्रकार की लिपि।
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कोड़  : पुं० [सं० कौतुक] १. आश्चर्य। उदाहरण—कीन्हेसि सुख और कोड़ अंनदू। -जायसी। २. =कुतूहल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोंड़ई  : पुं० [देश] बंगाल और दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का कँटीला झाड़।
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कोड़ना  : स० [सं० किंड-खंडित एक] खेत की मिट्टी खोदकर ऊपर-नीचे करना। गोड़ना।
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कोंड़रा  : स्त्री० [सं० कुंडल] लोहे का वह कड़ा, जो मोट के मुँह पर लगा रहता है। गोंडरा।
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कोंडरी  : स्त्री० [सं० कुंडली] हुडुक बाजे की वह लकड़ी जिस पर चमडा मढ़ा रहता है।
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कोड़वाना  : स० [हिं० कोड़ना का प्रे०] किसी को खेत या जमीन गोड़ने में प्रवृत्त करना। गोड़ने का काम दूसरे से कराना।
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कोंड़हा  : वि०, पुं० [हिं० कोंढ़ा] जिसमें कोंढ़ा या कुंडा लगा हो।
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कोड़ा  : पुं० [सं० कवर] १. चमड़े या सूत को बटकर बनाया हुआ एक मोटा चाबुक या साँटा जिससे जंगली जानवरों, कैदियों आदि को मारते पीटते हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में उत्तेजक या मर्म-स्पर्शी बात। पुं० [देश] एक प्रकार का पतला बाँस। (दक्षिण भारत) २. कुश्ती का एक पेंच।
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कोड़ाई  : स्त्री० [हिं० कोड़ना] १. खेत कोड़ने (गोड़ने) की क्रिया भाव या मजदूरी।
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कोड़ाना  : स० [हिं० कोड़ना का प्रे०] किसी को खेत कोड़ने में प्रवृत्त करना।
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कोड़ार  : [सं० कुंडल] १. कोल्हू के चारों ओर जड़ा हुआ लोहे का गोलबंद। कुंडरा। २. वह खेत जिसमें कोइरी लोग शाक-भाजी उपजाते हैं।
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कोड़ि  : स्त्री०=कोड़ी।
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कोड़िक  : पुं० [सं० कोड़=सूअर] एक जाति जो सूअर पालती है।
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कोड़ी  : स्त्री० [अं० स्कोर या सं० कोटि] १. बीस वस्तुओं का वर्ग या समूह। बीसी। जैसे—एक कोड़ी कपड़े। २. तालाब का वह पक्का निकास जिससे उसका फालतू पानी बाहर निकल जाता है।
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कोढ़  : [सं० कुष्ट० पा० कुट्ठम, प्रा० कठ, कोढ़, गु० कोहोड, कोड, सि० कोरिहो, पं० कोढ़ ने कोर, बँ० कु़, उ० कुडि, मरा० कोढ़, कोड] पित्त बिगड़ने और खून के खराब होनेवाला एक लंबा त्वचा संक्रामक रोग जिसमें शरीर के किसी अंग पर चकते पड़ने लगते है और वह अंग गलने लगता है। (लेप्रसी)। मुहावरा—कोढ़ चूना या टपकना=अँगों का गल कर गिरना। पद—कोढ़ में की खाज=बहुत अधिक दुःख के समय आनेवाला दूसरा कष्ट या विपत्ति।
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कोंढ़ा  : पुं० [सं० कुंडल] [स्त्री० कोढ़ी] धातु का वह छल्ला या कड़ा जिसमें कोई चीज अटकाई या लटकाई जाती है। पुं० =कुम्हड़ा।
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कोढ़ा  : पुं० [सं० कोष्ठ, प्रा० कोड्ढ्] खेतमें का वह स्थान जहाँ गोबर आदि एकत्र करने के लिए पशुओं को बाँधते हैं।
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कोढ़िन (ी)  : स्त्री० [हिं० कोढी] १. वह स्त्री जिसे कोढ़ हुआ हो। २. रहस्य संप्रदाय में माया जो मन को शुद्ध नहीं होने देती।
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कोढ़िया  : पुं० [हिं० कोढ़] तंबाकू के पत्तों का एक रोग जिससे उन पर दाग पड़ जाते हैं।
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कोढ़िला  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जिसके मुलायम और हलके डंठलों से दूल्हे को पहनाने के मौर बनाये जाते है।
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कोंढ़ी  : स्त्री० [सं० कोष्ठ] ऐसी कली जिसका मुंह बँधा हो। कली।
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कोढ़ी  : पुं० [हिं० कोढ़] [स्त्री० कोढ़िन] १. वह जो कोढ़ रोग से पीड़ित हो। वह जिसे कोढ़ हुआ हो। २. वह जो बहुत आलसी और निकम्मा हो। (व्यंग्य)।
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कोण  : पुं० [सं०√कुण (शब्द)+घञ्] १. वह आकृति जो भिन्न दिशाओं से आई हुई दो सीधी रेखाओं के एक बिन्दु पर मिलने से बनती है। कोना। २. उक्त दोनों रेखाओं के बीच का स्थान जिसकी नाप-जोख अंशों में होती है। ३. वह घन या ठोस पिंड जिसका आधार, (नीचेवाला भाग) ठीक वृत्ताकार और शीर्ष (चोटी) नोक के रूप में हो और आधार तथा शीर्ष के बीच में पड़ने वाला प्रत्येक बिन्दु उक्त दोनों को मिलानेवाली किसी सरल रेखा पर पड़ता हो। (कोन उक्त तीनों अर्थों के लिए) ४. दो दिशाओं के बीच की दिशा। ५. सारंगी की कमानी। ६. अस्त्रों की धार। ७. डंडा। लाठी। ८. वह लकड़ी जिससे ढोल पीटा जाता है। पुं० [यू० क्रोनस] १. शनिग्रह।। २. मंगल ग्रह।
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कोण-वृत्त  : पुं० [मध्य० स०] उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम या उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर जानेवाला देशांतर वृत्त।
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कोण-शंकु  : पुं० [सं० मध्य० स०] सूर्य की वह स्थिति जिसमें वह न तो कोण वृत्त में होता है और न उन्मंडल में ही। (ज्योतिष।)
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कोणनर  : पुं० दे० कोणशंकु।
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कोणप  : पुं० =कोणप।
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कोणस्पृग-वृत्त  : पुं० [सं० कोण√स्पृश (छूना)+क्विन्, कर्म० स०] ऐसा वृत्त जो किसी क्षेत्र के सब कोणों को स्पर्श करता हो।
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कोणाकोणि  : क्रि० वि० [सं० कोण-कोण, ब० स०] एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक।
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कोणाघात  : पुं० [सं० कोण-आघात, ब० स०] एक साथ दस हजार ढोलों और एक लाख हुडुकों के बजने का शब्द।
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कोणार्क  : पुं० [सं० कोण-अर्क, मध्य० स० उड़ीसा में स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ जहाँ सूर्य का बहुत ही भव्य तथा विशाल मंदिर है।
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कोणिक  : वि० [सं० कोण+ठन्-इक] १. कोण से युक्त। जिसमें कोण हो। २. कोण संबंधी। (एंग्युलर)
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कोणीय  : वि० [सं० कोण+छ-ईय]=कोणिक।
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कोत  : स्त्री०=कोद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोतर  : पुं० =कोटर (वृक्ष का खोखला भाग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोतरी  : स्त्री० [देश] एक तरह की मछली।
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कोतल  : पुं० [फा०] १. बिना सवार का सजा-सजाया घोड़ा। जलूसी घोड़ा। २. राजा की सवारी के लिए सजाया हुआ घोड़ा। वि० [फा०] खाली।
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कोतल-गारद  : पुं० [अं० क्वाटर-गार्ड] छावनी में वह स्थान जहाँ दंडित सिपाही निगरानी में रखे जाते हैं।
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कोतवाल  : पुं० [सं० कोटपाल] १. पुलिस का वह प्रधान कर्मचारी जिसके आधीन कई थाने और बहुत-से सिपाही होते हैं। २. अखाड़े पंचायत या बिरादरी का वह आदमी जिसका काम सब लोगों तक निमंत्रण, सूचनाएँ आदि पहुँचाना होता है।
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कोतवाली  : स्त्री० [हिं० कोतवाल+ई (प्रत्य)] १. कोतवाल का कार्यालय। २. कोतवाल का पद या कार्य। रखवाली। हिफाजत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोतह  : वि० [फा०] १. छोटा। २. कम।
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कोतह-गर्दन  : वि० [फा०] जिसकी गरदन छोटी हो। (ऐसा व्यक्ति प्रायः दूषित और दुष्ट माना जाता है)।
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कोता  : वि० [फा० कोतह] [स्त्री० कोती] १. छोटा। कम। थोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोताह  : वि० [फा०] १. छोटा। कम। थोड़ा।
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कोताही  : स्त्री० [फा०] १. अल्पता। कमी। २. त्रुटि। न्यूनता। कोर-कसर। जैसे—अपनी तरफ से कोताही न करना।
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कोति  : स्त्री० [सं० कुत्र=किधर] ओर। दिशा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोतिग  : वि० [सं० कोटिक] कई करोड़। करोड़ों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोंथ  : पुं० [देश] मिट्टी के बर्तनों आदि का वह पूर्व रूप जो मिट्टी को चाक पर रखने के बाद बनता है। (कुम्हार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोथ  : पुं० [सं०√कुथ् (क्लेश)+अच्] १. आँखों के आने या सूजने का एक रोग। कुथुआ। २. भगंदर।
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कोथमीर  : पुं० [?] हरा धनिया।
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कोथरी  : स्त्री०१. दे० ‘कथरी’। २. दे० ‘थैली’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोथला  : पुं० [हिं० कोठिला] [स्त्री० अल्पा० कोथली] १. बड़ा थैला। २. पेट। मुहावरा—कोथला भरना=पेट भरना।
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कोथली  : स्त्री० [हिं० कोथला] १. छोटा थैला। थैली। २. दे० ‘हिमयानी’।
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कोथी  : स्त्री० [देश] तलवार की म्यान के सिरे पर लगा हुआ धातु का छल्ला। म्यान की साम।
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कोद  : स्त्री० [सं० कोण] १. कोण। कोना। २. ओर। तरफ। दिशा। उदाहरण—एक कोद रघुनाथ उदार। भरत कोद विचार—केशव।
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कोदइत  : पुं० [हिं० कोदो+ऐत (प्रत्यय)] कोदो दलनेवाला।c
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कोदई  : स्त्री० [सं० कोद्रव] कोदो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोदन  : वि० [फा०] जिसकी समझ में जल्दी कोई बात न आती हो। मंद बुद्धिवाला। मूढ़।
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कोदरा  : पुं० =कोद।
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कोदरैता  : पुं० [हिं० कोदो+दरना] मिट्टी की बनी हुई वह चक्की जिसमें कोदो दला जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोदव  : पुं० [सं० कोद्रव] कोदो।
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कोदवला  : स्त्री० [हिं० कोदो] कोदो की तरह की एक प्रकार की घास।
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कोदह  : पुं० [सं० कोण] १. कोण। कोना। २. ओर। तरफ। दिशा।
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कोदैली  : स्त्री० [देश] मोर की मादा।
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कोदों, कोदो  : पुं० [सं० कोद्रव] एक प्रकार का मोटा अन्न जिसके दाने बहुत छोटे होते है तथा जिन्हें उबालकर गरीब लोग भात की तरह खाते हैं। मुहावरा—कोदो देकर पढ़ना या सीखना=अधूरी या गलत शिक्षा पाना। कोदो दलना=निकृष्ट परंतु बहुत मेहनत का काम करना। (किसी की) छाती पर कोदो दलना-किसी को दिखलाकर ऐसा काम करना जिससे उसे ईर्ष्या या जलन हो।
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कोद्रव  : पुं० [सं०√कु+विच्, को-द्रव, कर्म० स०] कोदो।
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कोध  : स्त्री०=कोद।
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कोंधनी  : स्त्री०=करधनी (गहना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोन  : पुं० [सं० कोण] कोना। मुहावरा—कोन देना=कोने पर से कोई चीज विशेषतः खेत जोतने के समय हल घुमाना। कोन मारना=खेत जोतने में छूटे हुए कोनों को जोड़ना। वि० [देश] आठ और एक। नौ। (दलाल की भाषा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोनलाय  : वि० [देश] दस और नौ। उन्नीस। (दलाल की भाषा।)
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कोनसिला  : पुं० [हिं० कोना+सिरा] कोनिया की छाजन में बैडेर के सिरे से दीवार के कोने तक तिरछी गई हुई मोटी लकड़ी।
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कोना  : पुं० [सं० कोण] १. भिन्न-दिशाओं से आई हुई दो सरल रेखाओं वस्तुओं आदि के एक स्थान पर मिलने से बननेवाली आकृति। २. उक्त रेखाओं वस्तुओं आदि के बीच का स्थान। अन्तराल। मुहावरा—कोना झाँकना=कोई काम या बात पड़ने पर भय या लज्जा से जी चुराते हुए इधर-उधर देखना। ३. नुकीला किनारा। ४. एकांत स्थान। ५. चौथाई भाग। (दलाल की भाषा)। मुहावरा—कोने में होना=चौथाई के हिस्सेदार बनना। पद—कोने से=चार आने फी रूपये के हिसाब से (मिलनेवाली दलाली)।
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कोनालक  : पुं० [सं० कोन√अल् (पर्याप्ति)+ण्वुल्-अक] एक प्रकार का जलपक्षी।
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कोनिया  : स्त्री० [हिं० कोना] १. किसी वस्तु विशेषतः दीवारों,छत्तों आदि में कोना या किनारा। २. वह उपकरण जो चित्रकला और वस्तु आदि में समकोण निर्धारित करने के काम में आता है। (सेट स्क्वेयर) ३. दीवार के कोनों के बीच चीजें रखने के लिए बैठाई हुई पटिया। पटनी। ४. चौड़ीदार दो मुहाँ नल का टुकड़ा जो दो विभिन्न दिशाओं की ओर जानेवाले नलों को जोड़ता है।
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कोने-दंड  : पुं० [हिं० कोना+दंड] दंड की तरह की एक प्रकार की कसरत जो घर के कोनो में दोनों ओर की दीवारों पर हाथ रखकर की जाती है।
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कोंप  : स्त्री० दे० ‘कोंपल’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोप  : पुं० [सं० कुप् (क्रोध करना)+घञ्] १. प्रायः किसी का दुराचार या दुष्कर्म देखकर मन को होनेवाला वह क्रोध जिसमें मनुष्य अपनापन भूल कर किसी को शाप या कठोर दंड देने पर उतारू होता है। २. क्रोध। गुस्सा। ३. दोष या मल का बिगड़ना। (वैद्यक)।
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कोप-भवन  : पुं० [ष० त०] वह कमरा या स्थान जहाँ कोई मनुष्य कोप करके या रूठकर जा बैठे।
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कोप-लता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कनफोड़ा नाम की बेल।
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कोपक  : वि० [सं०√कुप्+ण्वुल्-अक] १. कोप करनेवाला। २. कोप उत्पन्न करनेवाला।
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कोपड़  : पुं० [देश] पाटा। हेंगा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोंपन  : स्त्री० दे० ‘कोंपल’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोपन  : पुं० [सं०√कुप्+युच्-अन] कुपित करना या होना।
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कोपनक  : पुं० [सं० कोपन√कै (शब्द)+क] चोबा नामक गंध द्रव्य।
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कोंपना  : अ० [हिं० कोपल] पौंधों, वृक्षों आदि में नये अंकुर फूटना। कोंपल निकलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोपना  : क्रि० अ० [सं० कोप] कोप या क्रोध करना। कुपित होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोपयिष्णु  : वि० [सं०√कुप्+णिच्+इष्णुच् (बा)] कोप करनेवाला।
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कोंपर  : पुं० [हिं० कोंपल] १. डाल का पका या अधपका आम। २. ‘कोंपल’। पुं० [?] परात। उदाहरण—कोइ लोटा कोंपर लै आई। साहि सभा सब हाथ धोवाई।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोपर  : पुं० [सं० कपाल] वह बड़ा थाल जिसमें एक ओर पकड़ने के लिए कुंडा लगा रहता है। पुं० [हिं० कोपंल] डाल का पका हुआ आम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोंपल  : स्त्री० [सं० कोमल+पल्लव] पेड़, पौधों आदि में से निकलनेवाली नई मुलायम पत्तियाँ। कल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोपल  : पुं० [सं० कुडमल, प्रा० कुम्पल, गु० कोंपल, मरा० कोंभ, कोंब] वृक्ष की नई तथा कोमल पत्ती।
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कोपली  : वि० [हिं० कोपाल] कोपल के रंग का। कुछ कालापन लिये हुए लाल। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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कोपिलाँस  : पुं० [हिं० कोपल] आम की गुठली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोपी (पिन्)  : वि० [सं०√कुप्+णिनि] १. कोप करनेवाला। २. [सं० कोऽपि] कोई भी। पुं० १. जल के किनारे रहनेवाला एक पक्षी। २. संकीर्ण राग का एक भेद।
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कोपीन  : पुं० =कौपीन।
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कोप्तगर  : पुं० [सं०] लोहे की चीजों पर सोने-चांदी की पच्चीकारी करनेवाला।
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कोप्तगरी  : स्त्री० [फा०] पीतल लोहे आदि के पात्रों पर सोने या चाँदी की पच्चीकारी करने का काम।
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कोप्ता  : पुं० [फा० कोप्ता] मांस के कुटे अथवा दाल सब्जी आदि के पिसे हुए अंश को घी, तेल आदि में तलकर बनाया जानेवाला छोटा गोल पकवान जिसकी रसेदार तरकारी भी बनाई जाती है।
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कोफ्त  : पुं० [फा०] १. लोहे पर की जानेवाली सोने या चाँदी की पच्चीकारी। जरनिशाँ। २. मन-ही-मन होनेवाला दुःख। कुढ़न।
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कोबड़ी  : पुं० [देश] एक प्रकार का वृक्ष।
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कोबा  : पुं० [फा० कोबः] १. मोंगरी। २. दुरमुट। ३. चमड़ा कूटने का एक उपकरण।
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कोबिद  : पुं० =कोविद।
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कोबिदार  : पुं० =कोविदार।
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कोबी  : स्त्री०=गोभी स्त्री० [फा०] कूटने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोमता  : पुं० [देश] बबूल की जाति का एक सदाबहार वृक्ष जो प्रायः रेगिस्तान में होता है।
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कोमर  : पुं० [देश] खेत का अधिक बढ़ा या किसी ओर निकला हुआ लम्बा कोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोमल  : वि० [सं०√कु+कलच्, मुट्] १. जिसके देखने, सुनने अथवा स्पर्श होने से प्रिय अनुभूति तथा सुखद संवेदन होता है। जैसे—(क) कोमल किसलय, (ख) कोमल ध्वनि, (ग) कोमल अंग। २. जिसकी ऊपरी सतह मुलायम तथा नुकीली हो। ३. जो रहज में काटा, तोड़ा या मोड़ा जा सके। ४. मनोवृत्ति या हृदय जिसमें उदारता, दया प्रेम आदि सरल भाव पूरी तरह से हों (साँप्ट, उक्त सभी अर्थों के लिए) ५. (संगीत में स्वर) जो अपने साधारणमान से कुछ नीचा या हल्का हो। ‘तीव्र’ का विपर्याय। ६. अपरिपक्व कच्चा।
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कोमलता  : स्त्री० [सं० कोमल+तल्-टाप्] कोमल होने की अवस्था या भाव।
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कोमला  : स्त्री० [सं० कोमल+टाप्] १. साहित्य में एक वृत्ति या शैली जिसमें प्रसाद गुण की प्रधानता होती है। इसे ‘पांचालों’ भी कहते हैं। २. खिरनी (पेड़ और फल)।
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कोमलाई  : स्त्री०=कोमलता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोमलांग  : वि० [सं० कोमल-अंग० ब० स०] [स्त्री० कोमलांगी] कोमल और फलतः सुन्दर तथा सुखद अंगोंवाला।
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कोमलाभ  : वि० [सं० कोमल-आभा, ब० स०] कोमल आभावाला। उदाहरण—अलस, उनींदा-सा जग, कोमलाभ, दृग,-सुभग।—पंत।
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कोमासिका  : स्त्री० [सं० कु-उमा, कुगति० स० कोमा-आसिका, उपमि० स०] बढ़ते हुए फल के आरंभिक रूप। बतिया।
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कोय  : सर्व०=कोई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोयता  : पुं० [सं० कर्त्ता, प्रा०कत्ता=छुरा] ताड़ी चुआनेवालों का एक औजार, जिसमें वे पेड़ में छेव लगाते हैं।
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कोयर  : पुं० [सं० कोपल] १. साग-पात। २. पशुओं के खाने का हरा चारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोयल  : स्त्री० [सं० कोकिल] १. काले रंग की एक प्रसिद्ध बड़ी चिड़ियाँ जो वसन्त ऋतु में कूकती है। २. एक प्रकार की लता,जिसकी पत्तियाँ गुलाब की पत्तियों-जैसी होती हैं।
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कोयला  : पुं० [सं० कोकिल, गु० कोयलो, कोलसो, सि० कोइली, पुं० कोला,० मरा० कोड़सा] १. लकड़ी के जल चुकने के बाद बचा हुआ काले रंग का ठोस अंश, जो आग जलाने के काम आता है। २. उक्त आकार-प्रकार का एक प्रसिद्ध खनिज पदार्थ जो वृक्षों आदि के बहुत दिनों तक जमीन में गड़े रहने से बनता है। पत्थर का कोयला।
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कोयली  : पुं० [हिं० कोयल] कोयल के रंग की तरह का गहरा काला रंग। (जेट ब्लैक) वि०=उक्त प्रकार के रंग का।
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कोयष्टि  : पुं० [सं० क-यष्टि, ब० स० पृषो० सिद्धि] जलकुक्कुभ नामक पक्षी।
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कोया  : पुं० [सं० कोण] १. आँख का डेला। २. आँख का कोना। पुं० [सं० कोश] कटहल के अन्दर की गूदेदार गुठली जिसमें बीज रहता है। कटहल का बीज-कोश।
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कोर  : पुं० [सं० क्रोड़] गोद। उदाहरण—जसुदा कै कोरे एक बारक कुरै परी।—देव। स्त्री० [सं० कोण] १. नुकीला किनारा। मुहावरा—कोर दबना=(क) किसी प्रकार के दबाव या वश में होना। (ख) किसी के सामने दुर्बल या हीन ठहरना। २. वार। मुहावरा—कोर मारना=बढ़े हुए धारदार किनारे को कम या बराबर करना। (बढ़ई और संगतराश)। पद—कोर-कसर (दे०)। ३. कोना। गोशा। ४. द्वेष। वैर। ५. ऐब। दोष। स्त्री० [देश] १. खेत की जोताई। २. चैती फसल की पहली सिंचाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोर-कसर  : स्त्री० [हिं० कोर+फा० कसर] साधारण कमी या त्रुटि। छोटा ऐब या दोष।
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कोरई  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की घास जो हिमालय की ऊँची पहाड़ियों में होती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरक  : पुं० [सं०√कुल्+ण्वुल्-अक, ल=र] १. कली। २. फूल या कली के आधार के रूप में हरी पत्तियाँ। फूल की कटोरी। ३. कमल की नाल। ४. एक प्रकार की मछली।
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कोरंगा  : पुं० [देश] गोबर और मिट्टी पोतकर बनायी हुई एक प्रकार की दौरी।
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कोरंगी  : स्त्री० [सं०√कु (शब्द करना)+अंगच्-ङीष्] १. छोटी इलायची। २. पिप्पली।
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कोरंजा  : पुं० [हिं० कोरा+अनाज] नौकरों, मजदूरों आदि को भोजन के लिए दिया जानेवाला कच्चा अन्न।
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कोरंड  : पुं० [सं० कुल (अच्छी तरह स्थित होना)+अच्, ल=र, कोर-अंड, मध्य० स०] अंडवृद्धि का रोग।
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कोरड़ा  : पुं० =कोड़ा (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरण  : पुं० [हिं० कोर] १. किनारा। हाशिया। २. सफेद बादलों का समूह। (राज०।)
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कोरदूष  : पुं० [सं० कोर√दूष् (दूषित करना)+णिच्+अण्] कोदो।
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कोरना  : स० [हिं० कोर+ना] १. कोर या किनारा निकालना या बनाना। २. गढ़-छील कर ठीक करना। ३. खरोंचना। स०=कोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरनिश  : स्त्री० [तु० कुरकुश से फा०] झुककर अभिवादन या सलाम करना।
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कोरनी  : स्त्री० [हिं० कोर] १. किसी चीज में कोर या किनारा निकालने का काम। २. उक्तसभी काम करने का औजार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरम  : पुं० [अं०] किसी सभा, समिति के उतने सदस्यों की संख्या या उपस्थिति जो बैठक का काम आरंभ करने तथा चलाने के लिए विधितः आवश्यक हो।
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कोरमा  : पुं० [तु० कोर्मः] घी में भूना या पकाया हुआ बिना रसे का मास।
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कोरवा  : पुं० [देश] पान की खेती का दूसरा वर्ष। पुं० [हिं० कोरा] गोद। उदाहरण—जब होरिला कोरवा रहे तो हियरा हुलसात।—सुधाकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरसाकेन  : पुं० [देश] एक बड़ा और सुहावना पेड़।
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कोरहन  : पुं० [?] एक प्रकार का धान और उसका चावल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरहर  : वि०=कोरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरहा  : वि० [हिं० कोर+हा (प्रत्यय)] [स्त्री० कोरही] जिसका किनारा या नोक बनी हुई हो। वि० [हिं० कोरा] (छोटा बच्चा) जो प्रायः गोद में चढ़ा रहता है।
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कोंरा  : वि० [हिं० कोमल] [स्त्री० कोंरी] कोमल। मुलायम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरा  : वि० [सं० केवल] [स्त्री० कोरी] १. (वस्तु) जो अभी तक उपयोग या व्यवहार में न लाई गयी हो। बिलकुल ताजा और नया। जैसे—कोरा घड़ा। पद—कोरी घार या बाढ़=हथियार की वह धार जिसपर तत्काल सान चढ़ी हो और जिसका अभी तक उपयोग न हुआ हो। २. (कपडा अथवा मिट्टी का बरतन) जो अभी जल से धोया न गया हो जैसे—कोरा थान, कोरी धोती। पद—कोरा पिंडा=अविवाहित पुरुष का ऐसा शरीर जिसे किसी स्त्री या पुरुष ने बुरी वासना से स्पर्श न किया हो। ३. जिस पर अभी कुछ लिखा न गया हो। सादा। जैसे—कोरा कागज, कोरी बही। ४. जिसमें और किसी प्रकार के तत्त्व या लेश या सम्पर्क तक न हो। जैसे—कोरा उत्तर या जवाब (अर्थात् ऐसा स्पष्ट उत्तर या जवाब जिससे भविष्य के लिए कुछ भी आशा न रह जाय) ५. (व्यक्ति) जो सब प्रकार के गुणों शिक्षाओं संस्कारों आदि से रहित हो। जैसे—इतने बड़े-बड़े विद्वानों के साथ रहकर भी तुम सब तरह से कोरे ही रहे। उदाहरण—सरनागत वत्सल सत यों ही कोरो नाम धरायौ।—सत्यनारायण। ६. जिसे अभी तक या कहीं से कुछ भी प्राप्त न हुआ हो। जैसे—तुम भी वहाँ से कोरे लौट आये। ७. सब प्रकार के संपर्कों संबंधों आदि से रहित। निर्लिप्त। पुं० १. बिना किनारे की एक प्रकार की रेशमी धोती। २. एक प्रकार का सलमा। ३. ईख की पहली सिंचाई। पुं० [सं० करक] १. जलाशयों के पास रहनेवाली एक प्रकार की चिड़िया। २. एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष। पुं० [सं० क्रोड़] गोद। पुं० दे० ‘कोना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोराई  : स्त्री०=कोरापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरान  : पुं० =कुरान।
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कोरापन  : पुं० [हिं० कोरा+पन (प्रत्य०)] कोरे होने की अवस्था या भाव।
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कोराहर  : पुं०=कोलाहल। उदाहरण—काग कोराहर करहिं सोहावा।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरि  : वि०=कोटि।
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कोरिक  : वि० [सं० कोटि] १. कई करोड़। २. बहुत अधिक।
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कोरित  : भू० कृ० [सं० कोर+इतच्] १. जिसमें अंकुर या कला निकली हो। २. कूटा या चूर किया हुआ।
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कोरिया  : पुं० [?] एक प्रकार की जंगली जाति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरी  : पुं० [सं० कोल=सूअर] [स्त्री० कोरिन] कपड़ा बुननेवाली एक हिंदू जाति। स्त्री०=कोड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोरैया  : पुं० दे० ‘इन्द्र-जव’।
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कोरो  : पुं० [हिं०कोर] १. खपरैल आदि की छाजन में लगाई जानेवाली लंबी लकड़ी। काँड़ी। २. पान के भीटे के ऊपर की छाजन। ३. रेंड़ का सूखा पेड़।
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कोर्ट  : पुं० [अं०] कचहरी। न्यायालय (दे०) पुं० [अं० कोर्टयार्ड] टेनिस आदि पाश्चात्य खेल खेलने का मैदान।
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कोल  : पुं० [सं०√कुल्+अच्] १. सूअर। २. भगवान का वाराह नामक अवतार। ३. गोद। कोड़। ४. शररी का उतना अंश जो आलिंगन करते समय दोनों हाथों के बीच में पड़े। ५. बेर। ६. काली मिर्च। ७. चीता या चिचक नामक ओषधि। ८. शनिग्रह। ९. एक प्रकार की जंगली जाति।
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कोल-कंद  : पुं० [ब० स०] पुटालू नाम का एक कश्मीरी कंद।
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कोल-गिरि  : पुं० [मध्य० स०] दक्षिण भारत का कोलाचल पर्वत।
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कोल-पुच्छ  : पुं० [ब० स०] सफेद चील। कंक या काँक।
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कोल-बल  : पुं० [ब० स०] नख नामक गंध द्रव्य।
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कोल-शिंबी  : स्त्री० [ब० स०] सेम की फली।
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कोलक  : पुं० [सं०√कुल्+ण्वुल्-अक] १. अखरोट का पेड़। २. काली मिर्च। ३. शीतल चीनी। पुं० [?] एक प्रकार का छोटा लंबा औजार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोलतार  : पुं० [अं०] अलकतरा। (दे०)
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कोलना  : स० [सं० क्रोडन] लकड़ी=पत्थर आदि को बीच से खोदकर पोला करना। [?] विह्वल या बैचेन होना। घबराना। २. विचलित होने के कारण काम के योग्य न रहना। जैसे—मति कोलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोलपार  : पुं० [देश] मँझोले आकार का एक पेड़।
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कोलपाल  : पुं० [सं० कोश√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+अच्] १. खजाने का रक्षक। २. कोशाध्यक्ष।
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कोलंबक  : पुं० [सं०√कुल्+अम्बच्+कन्] १. वीणा या तूँबा और दंड।
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कोलसा  : पुं० दे० ‘इंगनी’।
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कोला  : स्त्री० [सं०√कुल्+ण्-टाप्] १. छोटी पीपल। पिप्पली। २. बेर का पेड़। ३. चव्य। पुं० [देश] गीदड़। पुं० [अं०] अफ्रीका में होने वाला एक प्रकार का पेड़ जिसके फल अखरोट जैसे और बलकारक होते हैं।
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कोलाहट  : पुं० [सं० कोल-आ√हट् (चमकना)+अच्] नृत्यकला में प्रवीण वह पुरुष जो इच्छानुसार अंगों को तोड़-मोड़ सकता और तलवार की धार पर नाच सकता, मुँह से मोती पिरो सकता और इसी तरह के अनेक कलापूर्ण काम कर सकता हो।
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कोलाहल  : पुं० [सं० कोल-आ√हल् (जोतना)+अच्] बहुत से लोगों के बोलने अथवा चीखने-चिल्लाने से होनेवाला घोर शब्द। शोर। २. एक प्रकार का संकर राग।
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कोलिआर  : पु० [देश] एक प्रकार का झाड़दार वृक्ष। घना काँटेदार।
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कोलिक  : पुं० [देश्यकूल (वस्त्र) से सं०] वह जो कपड़ा बुनता हो। जुलाहा।
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कोलियरी  : स्त्री० [अं०] पत्थर के कोयले की खान।
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कोलिया  : स्त्री० [सं० कोल=रास्ता] १. पतली गली। २. दो खेतों के बीच में पड़नेवाला छोटा खेत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोलियाना  : अ० [हिं० कोलिया] १. तंग गली में या उससे जाना। अ०=कौरियाना। पुं० [हिं० कोरी या कोली (जाति)+आना (प्रत्यय)] कोली जाति के लोगों का मुहल्ला या बस्ती।
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कोली  : स्त्री० [सं० क्रोड़] गोद। पुं० [सं० कोलिक] [स्त्री० कोलिन] हिंदू जुलाहा या बुनकर। कोरी।
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कोलैदा  : पुं० [सं० कोल=बैर+अंड] महुए का पका हुआ फल। गोलैदा।
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कोल्या  : स्त्री० [सं० कोल+यत्-टाप्] पिप्पली। छोटी पीपल।
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कोल्हाड़  : पु० [हिं० कोल्हू+आर (प्रत्य)] वह स्थान, जहाँ ईख पेरी जाती है और भट्ठे पर रस पकाकर गुड़ बनता है।
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कोल्हुआ  : पुं० [हिं० कूल्हा] कुश्ती का एक पेंच। पुं० =कूल्हा। पुं० =कोल्हू।
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कोल्हुआड़  : पुं० =कोल्हाड़।
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कोल्हू  : पुं० [हिं० कूल्हा] बीजों आदि को पेरकर उनका तेल और ईख गन्ने आदि पेरकर रस निकालने का एक यंत्र। मुहावरा—(किसी को) कोल्हू में डालकर पेरना=बहुत अधिक शारीरिक कष्ट या पीड़ा देना। कोल्हू काटकर मोंगरी बनाना=बहुत बड़ी हानि करके बहुत ही तुच्छ या साधारण लाभ का काम करना। पद—कोल्हू का बैल=(क) बहुत कठिन परिश्रम करनेवाला। (ख) बुद्धू। मूर्ख।
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कोल्हेना  : पुं० [देश] एक प्रकार का मोटा चावल। (पंजाब)।
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कोवत  : स्त्री०=कूवत। (राज०)
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कोंवर  : वि०=कोमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोंवल  : वि०=कोमल। उदाहरण—कोंवल कुटिल केस नग कारे।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कोवारी  : पुं० [देश] एक प्रकार का जलपक्षी।
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कोविद  : वि० [सं०√कु (शब्द)+विच् को√विद् (जानना) क] [स्त्री० कोविदा] अनुभवी, कुशल तथा पंडित। पुं० बहुत बड़ा विद्वान।
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कोविदार  : पुं० [सं० कु-वि√दृ (विदीर्ण करना)+अण्] कचनार का पेड़ और उसका फूल।
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कोश  : पुं० [सं०√कुश् (मिलना)+घञ्] १. वह आधार या पात्र जिसमें तरल पदार्थ रखा जाय अथवा पिया जाय। २. सामग्री या सामान रखने का पात्र। जैसे—खाना, संदूक आदि। ३. आवरण। खोती। म्यान। ४. किसी वस्तु का भीतरी अंश। ५. मकान का भीतरी वह कमरा, जिसमें अन्न आदि अथवा रुपए-पैसे रखे जाते हों। खजाना। ६. इस प्रकार इकट्ठा किया हुआ धन। ७. वह ग्रंथ जिसमें किसी विशेष क्रम से शब्द दियें हों और उनके आगे अर्थ दिये हों। ८. अंडकोश। ९. योनि। १॰. घाव पर बाँधने की पट्टी। ११. ज्योतिष में वह योग, जिस समय किसी घर में शनि, बृहस्पति तथा एक और कोई ग्रह हो। १२. रेशम का कोया। १३. कटहल का कोया। १४. कमल-गट्टा।
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कोश-कला  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह कला या विद्या, जिसमें शब्द-कोशों की रचना के सिद्धान्तों का विवेचन होता है। (लेक्सिकाँलोजी)
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कोश-कीट  : पुं० [मध्य० स०] रेशम का कीड़ा।
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कोश-नायक  : पुं० [ष० त०] खजाँची।
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कोश-पति  : पुं० [ष० त०] कोशाध्यक्ष।
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कोश-पान  : पुं० [तृ० त०] एक प्रकार की प्राचीन परीक्षा जिससे किसी के अपराधी होने या न होने की पहचान की जाती थी।
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कोश-रचना  : स्त्री० [ष० त०] शब्द-कोश आदि बनाने या तैयार करने का काम (लेक्सिकोग्राफी)
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कोश-विभाग  : पुं० [ब० स०] किसी प्रतिष्ठित संस्थान का वह विभाग जहाँ कोश-रचना का कार्य होता है। जैसे—हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग या नागरी प्रचारिणी सभा काशी का कोश-विभाग।
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कोश-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] अंडकोश के बढ़ने तथा फूलने का रोग।
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कोश-संधि  : स्त्री० [मध्य० स०] शत्रु को धन देकर उससे की जानेवाली संधि।
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कोशक  : पुं० [सं०√कुश्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. अंडा। २. अंडकोश।
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कोशकार  : पुं० [सं० कोश√कृ (करना)+अण्] १. शब्दकोश के लिए शब्दों का संग्रह तथा उनका संपादन करनेवाला। (लेक्सिकोग्राफर) २. कटार, तलवार आदि की म्यानें बनानेवाला। ३. धन रखने के लिए पात्र या संदूक बनानेवाला। ४. रेशम का कीड़ा, जो अपने रहने के लिए अपने ऊपर का आवरण या कोश बनाता है। ५. एक प्रकार की ईख। ६. ब्रह्मपुत्र के उस पार का एक प्राचीन देश।
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कोशकीट-पालन  : पु० [ष० त०] रेशम के कीड़े पालने का काम या उद्योग (सेरीकल्चर)
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कोशचक्षु  : पुं० [ब० स०] सारस पक्षी।
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कोशज  : पुं० [सं० कोश√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. रेशम। २. मोती। ३. घोंघे, शंख, सीप आदि में रहनेवाले जीव। वि० कोश में से उत्पन्न होने या निकनलेवाला।
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कोशफल  : पुं० [ब० स०] १. अंडकोश। २. जायफल। ३. ककड़ी, कद्दू कुम्हड़ा तरबूज आदि की लताएँ तथा उनके फल।
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कोशल  : पुं० [सं०√कुश्+कलच्, गुण (बा०)] १. भारत के एक प्राचीन प्रदेश का नाम,जो सरयू नदी के दोनों ओर आधुनिक अयोध्या के आसपास बसा था। २. कोशल देश में बसने वाली क्षत्रिय जाति। ३. अयोध्या। ४. संगीत में एक प्रकार का राग।
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कोशलिक  : पुं० [सं० कुशल+ठन्-इक] रिश्वत। घूस।
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कोशली  : वि० [सं० कोशलीय] कोशल संबंधी। कोशल का। पुं० कोशल प्रदेश का निवासी। स्त्री० कोशल देश की भाषा, अवधी का दूसरा नाम। विशेष दे० ‘अवधी’।
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कोशस्थ  : पुं० [सं० कोश√स्था (रहना)+क] पाँच प्रकार के जीवों में से एक प्रकार के जीव, जिसके अन्तर्गत शंख, घोंघें आदि ऐसे जीव हैं जो कोश में रहते हैं। (सुश्रुत)।
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कोशा (षा) धिप  : पुं० [सं० कोश (ष)-अधिप, ष० त०] खजांची।
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कोशांग  : पुं० [सं० कोश-अंग, ब० स०] एक प्रकार का सरकंडा।
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कोशागार  : पुं० [सं० कोश-आगार,ष०त०] १. वह कमरा या स्थान जहाँ धन-दौलत रखी जाती है। खजाना। २. किसी प्रकार की वस्तुओं का भंडार।
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कोशांड  : पुं० [सं० कोश-अंड, ब० स०] अंडकोश।
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कोशातक  : पुं० [सं० कोश√अत् (गति)+क्वुन्-अक] यजुर्वेद की कठ-शाखा का एक नाम।
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कोशातकी (किन्)  : [सं० कोशातक+इनि] १. व्यापारी। २. व्यापार। ३. वाडवाग्नि। स्त्री०=तरोई।
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कोशाधीश  : पुं० [सं० कोश-अधीश, ष० त०] खजांची।
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कोशाध्यक्ष  : पुं० [सं० कोश-अध्यक्ष, ष० त०] १. कोश या खजाने का प्रधान अधिकारी। खजांची। २. आजकल किसी संस्था का वह अधिकारी जिसके पास संस्था की सब आय सुरक्षा के लिए रखी जाती हो। (ट्रेजरर)।
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कोशांबी  : स्त्री०=कौशाम्बी।
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कोशाभिसंहरण  : पुं० [सं० कोश-अभिसंहरण, मध्य० स०] १. कोश की कमी पूरी करने के लिए प्रजा से विभिन्न प्रकार के कर उगाहने का काम। २. कर के रूप में धान्य आदि का तीसरा या चौथा भाग लेना।
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कोशाम्र  : पुं० [सं० कोश-आम्र,० उ पमि० स०] कोसम वृक्ष और उसका फल।
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कोशिका  : स्त्री० [सं० कोशी+कन्-टाप्, ह्रस्व] १. कटोरा। प्याला। २. गिलास।
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कोशिश  : स्त्री० [फा०] कोई काम करने के लिए विशेष रूप से किया जाने वाला प्रयत्न।
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कोशी  : स्त्री० [सं०√कुश्+अच्-ङीष्] १. कली। २. अनाज का टूँड़। ३. चप्पल या स्लीपर। वि० कोशयुक्त। पुं० आम का पेड़।
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कोष  : पुं० [सं० कुष (खींचना, निकालना)+घञ्]=कोश।
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कोष-वृद्धि  : पुं० [ष० त०] कोशवृद्धि।
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कोषकार  : पुं० [सं० कोष√कृ (करना)+अण्]=कोशकार।
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कोषाणु  : पुं० [सं० ] बहुत ही सूक्ष्म कणों या छोटे-छोटे कणों के रूप में वह मूल्य तत्त्व जिससे जीव-जन्तुओं के शरीर और खनिज पदार्थ आदि बने होते हैं। (सेल।)
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कोषाध्यक्ष  : पुं० [सं० कोष-अध्यक्ष, ष० त०]=कोशाध्यक्ष।
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कोषी  : स्त्री०=कोशी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोष्ठ  : पुं० [सं०√कुश्+थन्] १. चारों ओर से घिरा हुआ स्थान। कोठा। २. शरीर के अन्दर का वह भाग, जिसमें कोई विशिष्ट क्रिया शक्ति हो। जैसे—आमाशय, पक्वाशय आदि। ३. वह स्थान जहां अन्न रखा जाय। भंडार। ४. कोश। खजाना। ५. चहारदीवारी। ६. पेट का मध्य भाग। उदर। ७. एक विशेष प्रकार की खुली अलमारी, जिसमें कागज-पत्र अलग-अलग रखने के लिए कबूतर के दरबे की तरह के बहुत से छोटे-छोटे खाने बने रहते हैं। ८. शरीर के अन्दर के छः छक्रों में से एक नाभि के पास है। ९. दे० ‘कोष्ठक’।
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कोष्ठ-बद्ध  : वि० [स० त०] १. कोष्ठ में बन्द। २. पेट में रुका हुआ। (मल)।
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कोष्ठ-बद्धक  : वि० [सं० कोष्ठबंधक] मल को पेट में रोक रखनेवाला। मलावरोधक। कब्जियत करनेवाला। (कांस्टिपेटिव)
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कोष्ठ-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] पेट में रुका मल निकल जाने पर पेट का साफ होना।
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कोष्ठक  : पुं० [सं० कोष्ठ+कन्] १. दीवार आदि से घिरा हुआ स्थान। कोठा। २. भंडार। ३. () और [] {} चिन्हों में से कोई एक जिसमें अंक, शब्द पद आदि विशेष स्पष्टीकरण के लिए संकेत रूप में अथवा ऐसे ही किसी और उद्देश्य से रखे जाते हैं। (ब्रैकेट) ४. दे० ‘सारिणी’।
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कोष्ठपाल  : पुं० [सं० कोष्ठ√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+अच्] किसी नगर या स्थान की रक्षा करनेवाला अधिकारी।
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कोष्ठबद्धता  : स्त्री० [सं० कोष्ठबद्ध+तल्-टाप्] पेट में मल जमा हो कर रुके रहने का रोग, जिसमें पाखाना नहीं होता अथवा बहुत कम तथा कठिनाई से होता है। मलावरोधक। (कांस्टिपेशन)।
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कोष्ठागार  : पुं० [सं० कोष्ठ-आगार, उपमि० स०] १. भंडार। २. कोषागार।
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कोष्ठागारिक  : पुं० [सं० कोष्ठागार+ठन्-इक] १. भंडारी। २. कोषाध्यक्ष। खजांची।
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कोष्ठाग्नि  : स्त्री० [सं० कोष्ठ-अग्नि, मध्य० स०] पेट में रहनेवाली वह अग्नि या शक्ति जिसमें भोजन पचता है। जठराग्नि।
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कोष्ठी  : स्त्री० [सं० कोष्ठ+ङीष्] जन्मपत्री। (दे०)
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कोष्ण  : वि० [सं० कु-उष्ण, कुगति स० कादेश] हलका गरम। कदुष्ण। कुनकुना।
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कोंस  : पुं० [सं० कोश] लंबी फली। छीमी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोस  : पुं० [सं० क्रोश] लगभग दो मील के बराबर की एक माप। पद—कोसों या काले कोसों=बहुत दूर। मुहावरा—(किसी से) कोसों दूर रहना=किसी से बिलकुल अलग या दूर रहना। पुं० [सं० कोष] १. तलवार की म्यान। २. चारों ओर ढकने वाला आवरण। ३. दे० ‘कोश’।
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कोसना  : स० [सं० क्रोशष] जो दुखाये या सताये जाने पर किसी की अशुभ कामना करना। किसी को अपशब्द कहकर उसका बुरा मनाना। मुहावरा—पानी पीकर कोसना=बहुत अधिक कोसना। कोसना काटना=शाप और गालियाँ देना।
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कोसभ  : पुं० =कोसम।
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कोसम  : पुं० [सं० कोशाम्र] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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कोसल  : पुं० [सं०√कुस्+अलच्, गुण नि०]=कोशल।
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कोसलधनी (राज)  : पुं० =कोशलपति।
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कोसला  : स्त्री० [सं० कोशल+टाप्] कोशल देश की राजधानी, अयोध्या।
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कोसला  : स्त्री० [सं० कोसल+टाप्] कोसल की राजधानी अयोध्या।
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कोसली  : स्त्री० [सं० कोसल+ङीष्] पाड़व जाति की एक रागिनी, जिसमें ऋषभ वर्जित है।
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कोसा  : पुं० [हिं० कोश] मध्य प्रदेश में तैयार होनेवाला एक प्रकार का रेशम। पुं० [हिं० कोश] वह गाढ़ा रस जो चिकनी सुपारी बनाने के समय सुपारियों के उबालने पर निकलता है और जिसमें घटिया दरजे की सुपारियाँ रँगी और स्वादिष्ट बनाई जाती हैं। पुं०-१. =कसोरा। २. =कोश।
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कोसाकाटी  : स्त्री० [हिं० कोसना+काटना] किसी को कोसने, काटने की क्रिया या भाव। शाप के रूप में दी जानेवाली गालियाँ।
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कोसिया  : स्त्री० [हिं० कोसा] १. मिट्टी का छोटा कसोरा। २. तमोलियों की चूना रखने की कूड़ी।
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कोसिला  : स्त्री०=कौशल्या। स्त्री०=अयोध्या। (नगरी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोसिली  : स्त्री० [देश] पिराक या गुझिया नामक पकवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोसी  : स्त्री० [सं० कौशिकी] बिहार प्रदेश की एक प्रसिद्ध नदी, जो नेपाल के पहाड़ो से निकलकर चंपारन के समीप गंगा में मिलती है। स्त्री० [सं० कोशिका] अनाज के वे दाने जो बाल या फली में लगे रह जाते हैं। गूड़ी चँचरी।
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कोह  : पुं० [सं० क्रुद्द, कुढ्ढ० क्रुष्ट, गु० कूट, पा० कोधौ, प्रा० कोहो, उ० कोहा] क्रोध। गुस्सा। पुं० [फा] पर्वत। पहाड़। पुं० [सं० कुकुम, प्रा० कउह] अर्जुन वृक्ष।
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कोह-आदम  : पुं० [फा०] लंका के एक पहाड़ की वह चोटी जिस पर चरण चिन्ह बने है और जिसमें बौद्ध मुसलमान तथा हिंदू अपने-अपने विश्वास के अनुसार पवित्र तीर्थ मानते हैं।
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कोहकन  : वि० [फा०] १. पर्वत खोदनेवाला। २. लाक्षणिक रूप में बहुत बड़ा अथवा कठोर परिश्रम का काम करनेवाला।
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कोहकाफ  : स्त्री० [फा० कोह=पहाड़+अं० काफ] युरोप और एशिया के बीच का काकेशस पर्वत।
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कोंहड़ा  : पुं० =कुम्हड़ा।
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कोहँड़ा  : पु०=कुम्नहड़ा।
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कोंहड़ौरी  : स्त्री० [हिं० कोहड़ा+बरी] कुम्हड़े (या पेठे) को पीसकर बनाई हुई बरी।
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कोहँड़ौरी  : स्त्री०=कुम्हडौरी।
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कोहनी  : स्त्री० [सं० कफोणि] १. बाँह के बीच का वह जोड़ जहां से हाथ और कलाई मुड़कर ऊपर उठती है। २. हुक्के की निगाली में लगाई जानेवाली धातु की टेंढ़ी नली। ३. यंत्रों आदि में समकोण बनाने वाले दो नलों के बीच में मिलाने वाला टुकड़ा। (एल्बो)
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कोहनी-उड़ान  : स्त्री० [हिं० कोहनी+उड़ान] कुश्ती के एक पेंच जिसमें कोहनी के झटके से प्रतिद्वंद्वी के हाथ पकड़कर रद्दा लगाया जाता है।
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कोहनूर  : पुं० [फा० कोह+अं० नूर] १. भारत का एक प्रसिद्ध पुराना हीरा, जो अब इंग्लैण्ड के शाही ताज में लग गया है और कटता-कटता बहुत कुछ छोटा रह गया है। २. एक प्रकार का बढ़िया आम।
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कोहबर  : पुं० [सं० कोष्ठवर] वह स्थान, जहाँ शुभ अवसरों पर कुल-देवता बैठाए या स्थापित किये जाते हैं। विवाह के समय जहाँ कई प्रकार की लौकिक रीतियाँ होती हैं।
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कोहर  : पुं० [सं० कुहर] कूआँ। कूप।
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कोंहरा  : पुं० [देश] [स्त्री० कोंहरी] उबाले हुए चने या मटर की घुँघनी। पुं० =कुम्हार। उदाहरण—मोहिं का हँसेसि कि कोंहरहि।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोहरा  : पुं० [सं० कुही या कुहेड़ी] वायु-मंडल में मिले हुए जल के वे सूक्ष्म कण जो पृथ्वी तल से कुछ ऊपर उठकर भाप के रूप में जम जाते और धूएँ के रूप में दिखाई देते हैं। (फॉग)।
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कोहराम  : पुं० [अ० कहरआ से फा] १. कोई अनर्थकारी, दुखद या शोक-जनक घटना देख या बात सुनकर होनेवाला रोना-पीटना या विलाप। २. बहुत अधिक हल्ला-गुल्ला।
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कोहरी  : स्त्री० [देश] उबाले या तले हुए चने आदि की घूँघरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोहल  : पुं० [सं०√कुह (विस्मित करना)+कलच्, गुण] १. नाट्य-शास्त्र में प्रणेता एक मुनि, जिन्होंने सोमेश्वर से संगीत सीखा था। २. जौ की शराब। ३. एक प्रकार का पुराना बाजा।
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कोहा  : पुं० [सं० कोश=पात्र] ईख का रस,काँजी आदि रखने का बड़ा पात्र। नाँद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोहान  : पुं० [फा०] ऊँट की पीठ पर का डिल्ला। कूबड़।
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कोहाना  : अ० [हिं०कोह=क्रोध] १. क्रोध करना। नाराज होना। बिगड़ना। २. मान करना। रूठना। उदाहरण—तुम्हहिं कोहाब परम प्रिय अहई।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोंहार  : पुं० =कुम्हार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोहाँर  : पुं० =कुम्हार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कोहिल  : पुं० [देश] [स्त्री० कोही] नर शाही बाज।
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कोहिस्तान  : पुं० [फा०] पर्वतीय प्रदेश। पहाड़ी इलाका।
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कोहिस्तानी  : वि० [फा०] पर्वतीय। पहाड़ी।
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कोही  : वि० [हिं० कोह-क्रोध] क्रोध करनेवाला। क्रोधी। गुस्सेवर। वि० [फा०] पर्वतीय। पहाड़ी। स्त्री० [देश] एक प्रकार का बाज पक्षी की मादा।
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कोऽपि  : सर्व० [सं० कः और अपि व्यस्त पद] कोई।
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कौं  : अव्य० [स० कः] के लिए। वास्ते। उदाहरण—हरि सौं ठाकुर और न जन कौं।—सूर। विभ-को। (ब्रज)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौ  : अव्य०=कब। (ब्रज) जैसे—कौलों —कब तक। विभ०=को।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौआ  : पुं० [सं० काक, प्रा० काअ] १. काले रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी जो काँ काँ करता है। पद—कौआ गुहार या कौआ रोर=(क) व्यर्थ की बकबक। (ख) बहुत सोर। मुहावरा—कौआ उड़ाना=कही बैठे हुए कौए को उड़ाकर किसी प्रिय के आने या न आने का शकुन देखना। कौए उड़ाना=व्यर्थ के या अनावश्यक कार्य करना। २. बहुत चालाक तथा धूर्त व्यक्ति। चालबाज। ३. छाजन की वह लकड़ी, जो बँडेरी के सहारे के लिए लगाई जाती है। ४. गले के अन्दर का लटकता हुआ मास का छोटा टुकड़ा। घंटी। ललरी। अलिजिह्वा। मुहावरा—कौआ उठाना=बढ़ी या अधिक बढ़ी या लटकी हुई घंटी को दबाकर ऊपर चढ़ाना। ५. कनकुटकी नामक पेड़, जिसकी राल दवा और रँगाई के काम आती है। ६. सरकंडे का बना हुआ एक प्रकार का खिलौना। ७. एक प्रकार की मछली। ८. रहस्य संप्रदाय में मन।
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कौआ-ठोंठी  : स्त्री० [हिं० कौआ+ठोंठ=चोच] एक लता, जिसका फल कौए की चोंच के आकार का होता है।
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कौआ-परी  : स्त्री० [हिं०] कुरूप या काली स्त्री।
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कौआना  : अ० [हिं० कौआ] १. कौओं की तरह काँव-काँव करना। व्यर्थ शोर या हल्ला करना। २. सोते समय नींद में बड़बड़ाना। ३. चकित या भौंचक्का होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौआर  : पुं० [हिं० कौआ+सं० रव-शब्द] १. कौओं का काँव-काँव शब्द। २. शोर-गुल।
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कौआल  : पुं० [अ० कव्वाल] कौवाली गानेवाला व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौआली  : पुं०=कौवाली (गीत)।
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कौंक  : पुं० [सं]=कोंकण।
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कौंकण  : पुं० =कोंकण।
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कौंकिर  : स्त्री० [सं० कर्कर, हिं० कंकर] काँच-हीरे आदि का नुकीला छोटा टुकड़ा। कनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौकुच्यातिचार  : पुं० [सं० काकूक्त्यतिचार] वह वाक्य जिसके कहने, पढ़ने या बोलने से अपने तथा औरों के मन में काम, क्रोध आदि भाव उत्पन्न होते हों। (जैन)।
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कौकुत  : पुं० =कौतुक। (क्व) उदाहरण—देखि एक कौकुत हौ रहा।—जायसी।
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कौंकुम  : [सं० कुकुम+अण्] लाल रंग के और तीन पूँछ या चोटी वाले पुच्छल तारे जो मंगल के पुत्र माने जाते हैं।
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कौकृत्य  : पुं० [सं० कुकृत्य+अण्] कुकर्म। बुरा कर्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कौक्कुटिक  : पुं० [सं० कुक्कुट+ठक्-इक] १. मुरगे पालनेवाला व्यक्ति। २. ढोंगी।
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कौक्षेयक  : पुं० [सं० कुक्षि+ढकञ्+एय] तलवार।
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कौंच  : स्त्री० [सं० कच्छु]=कौंछ। पुं० =कोच।
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कौंच  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार की बड़ी कुरसी जिस पर तीन आदमियों के लिए बैठने का स्थान होता है। पुं० =कवच। उदाहरण—हाकौ सुणता हूलसै मरणौ कौच न माय।—कविराजा सूर्यमल।
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कौंचा  : पुं० [१] गन्ने का ऊपरी भाग जिसमें गाँठें अधिक होती है और जो स्वाद में अपेक्षया फीका होता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौंची  : स्त्री०=कमची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौचुमार  : स्त्री० [सं० कुचुमार+अण्] कुरूप को सुन्दर बनाने की कला या विद्या।
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कौंछ  : स्त्री० [सं० कच्छु] सेम की जाति की एक लता जिसकी फलियों के बीज जहरीले और शरीर से छू जाने पर जलन पैदा करने वाले होते हैं। केवाँच। कौंच।
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कौंजड़ा (रा)  : पुं० [स्त्री० कौंजड़ी (री)] दे० ‘कुंजड़ा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौटकिक  : पुं० [सं० कूट+कन्+ठञ्-इक] १. बहेलिया। २. मांस बेचनेवाला व्यक्ति।
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कौटभी  : स्त्री-[सं० कैटभी] दुर्गा।
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कौटल्य  : पुं० [सं० कुट√ला (लेना)+क, कुटल+यञ्] कौटिल्य।
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कौटवी  : स्त्री० [सं० कोट्टवी] नंगी स्त्री।
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कौटिक  : पुं० [सं० कूट+ठक्-इक]=कौटकिक।
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कौटिलिक  : पुं० [सं० कुटिलिका+अण्] १. बहेलिया। २. लुहार।
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कौटिलीय  : वि० [सं० कौटिल्य+छ-ईय] १. कौटिल्य कृत। २. कौटिल्य-संबंधी।
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कौटिल्य  : पुं० [सं० कुटिल+ष्यञ्] १. कुटिलता। २. टेढ़ापन। वक्रता। ३. कपट। छल। ४. बेईमानी। ५. गुप्तकाल के एक प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ और अर्थशास्त्र के रचयिता आचार्य चाणक्य का एक नाम।
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कौटीर  : वि० [सं० कुटीर+अण्] कुटीर संबंधी। कुटीर का।
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कौटीर्या  : स्त्री० [सं० कुटीर+ष्यञ्(स्वार्थ में)+टाप्] दुर्गा।
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कौटुंब  : वि० [सं० कुटुब+अण्] १. कुटुंब संबंधी। कुटुंब का। २. कुटुंब के भरण-पोषण के लिए आवश्यक। पुं० =कुटुंब।
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कौटुंबिक  : वि० [सं० कुटुंब+ठक्-इक] १. कुटुंब संबंधी। पारिवारिक। २. जिसका कुटुंब या परिवार हो।
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कौंठ्य  : पुं० [सं० कुंठ+ष्यञ्] १. कुंठ या कुंठित होने की अवस्था या भाव। २. शास्त्रों आदि का भोथरापन।
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कौंडल  : वि० [सं० कुंडल+अण्] कुंडल-संबंधी।
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कौंडलिक  : वि० [सं० कुंडल+ठक्-इक] कुंडलधारी।
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कौंड़ा  : पुं० [सं० कपर्दक, प्रा० कवड्डअ] बड़ी कौड़ी। मुहावरा—कौंड़े करना=कोई चीज बेचकर नगद दाम वसूल करना। पुं० [सं० कंड] वह गड्ढा, जिसमें तापने के लिए आग जलाते हैं। अलाव। पुं० [सं० कंदल] एक प्रकार का जंगली प्याज। कोंचिंडा। पुं० [देश] बूई नामक पौधा, जिसे जलाकर सज्जीखार निकालते हैं। वि०=कडुआ (पश्चिम)।
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कौंडिन्य  : पुं० [सं० कुंडिन+ष्यञ्] [स्त्री० कौंडिनी] कुंडिन मुनि का वंशज या उनके गोत्र का व्यक्ति।
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कौड़िया  : पुं० [हिं० कौडिल्ल] कौडिल्ला पक्षी। उदाहरण—नैन कौड़िया हिम समुद्र, गुरू सो तेहि महँ जोति।—जायसी। वि० [हिं० कौंड़ो] १. कौड़ी की तरह या रंग का। २. कीड़ा-संबंधी।
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कौड़ियाला  : वि० [हिं० कौड़ी] कौंड़ी के रंग का। २. गुलाबीपन लिये हुए हलका नीला। पुं० उक्त प्रकार का रंग। पुं० १. एक प्रकार का जहरीला साँप, जिसके शरीर पर कौड़ी के आकार की चित्तियाँ या दाग होते हैं। २. ऐसा धनवान्, जो बहुत बड़ा कंजूस हो। (परिहास और व्यंग्य) ३. ऊसर में होनेवाला एक प्रकार का पौधा।
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कौड़ियाली  : वि०, स्त्री०=कौड़ियाला।
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कौड़ियाहा  : वि० [हिं० कौड़ा] [स्त्री० कौड़ियाही] १. केवल कौड़ियों के लोभ से कुछ करनेवाला। २. परम तुच्छ और नीच।
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कौड़ियाही  : स्त्री० [हिं० कौड़ी] ईट, मिट्टी आदि ढोनेवाले मजदूरों की मजदूरी चुकाने का वह प्रकार जिसमें उन्हें प्रति खेप कुछ कौड़ियाँ मजदूरी के रूप में दी जाती थीं।
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कौड़िल्ला  : पुं० [हिं० कौड़ी] १. किलकिला नामक पक्षी जो मछलियाँ पकड़कर खाता है। २. कसी या गवेधुक नाम का पौधा।
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कौड़िहाई  : स्त्री०=कौड़ियाही।
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कौड़ी  : स्त्री० [सं० कपर्दिका, प्रा० कवड्डिआ] १. घोंघें की तरह का एक समुद्री कीड़ा जो अस्थिकोश में रहता है। २. उक्त कीड़े का अस्थिकोश जो सबसे कम मूल्य के सिक्के के रूप में चलता था। मुहावरा—कौड़ी का हो जाना=(क) मान-मर्यादा जाते रहना। (ख) परम निर्धन या हीन हो जाना। कौड़ी के तीन होना=बहुत ही तुच्छ या हीन होना। कौड़ी के मोल बिकना=बहुत सस्ता बिकना। कौड़ी को न पूछना=फालतू या बेकार समझकर मुफ्त में भी न लेना। कौड़ी-कौड़ी अदा करना, चुकाना या भरना=लिया हुआ ऋण पूरा-पूरा वापस लौटाना। एक कौड़ी भी बाकी न रखना। कौड़ी-कौड़ी जोड़ना=बहुत ही कष्ट और परिश्रम से धन इकट्ठा करना। कौड़ी फेरा करना या लगाना=जल्दी-जल्दी और बार-बार आते जाते रहना। पद—कौड़ी का=जिसका कुछ भी मूल्य न हो। परम तुच्छ। जैसे—यह कपड़ा कौड़ी काम का नहीं है। कौड़ी-कौड़ी को मुहताज-परम दरिद्र या निर्धन। ३. द्रव्य, धन रुपया पैसा। ४. कर, जो प्राचीन काल में कौड़ियों के रूप में लिया जाता था। ५. काँख, जंघा आदि में उभरने वाली गिल्टी। ६. आँख का डेला। ७. छाती के नीचे बीचोबीच की वह हड्डी जिस पर सबसे नीचे की दोनों पसलियाँ मिलती है। मुहावरा—कौड़ी जलना=भूख या क्रोध से शरीर जलना। ८. कटार की नोक। ९. जहाज का मस्तूल।
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कौड़ी गुड़गुड़  : पुं० [हिं० कौड़ी+गुड़० गुड़] लड़कों का एक प्रकार का खेल।
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कौड़ी जगनमगन  : पुं० =कौड़ी गुड़गुड़।
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कौड़ी जूड़ा  : पुं० [हिं० कौड़ी+जूड़ा] सिर पर पहनने का एक आभूषण। (स्त्रियाँ)।
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कौड़ेना  : पुं० [देश] [अल्प० कौड़ेनी] बरतनों पर नकाशी करने के लिए लोहे का एक औजार। पुं० =कौड़ियाला (वनस्पति)
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कौणप  : पुं० [सं० कुणप+अण्] [स्त्री० कौणपी] १. मृत शरीर खानेवाला राक्षस। २. वासुकी के वंश का एक सर्प। वि० बहुत बड़ा अधर्मी या पापी।
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कौणप-दंड  : पुं० [ब० स०] भीष्म।
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कौंतल  : वि० [सं० कुंतल+अण्] कुंतल देश संबंधी। कुंतल देश का।
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कौंतिक  : पुं० [सं० कुंत+ठक्-इक] कंत अर्थात् बरछा या भाला चलानेवाला।
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कौतिक  : पुं० =कौतुक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कौतिग  : पुं० =कौतुक। उदाहरण—घर का गुसाई चाहै काहे न बँधौ जौरा।—गोरखनाथ।
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कौंती  : स्त्री० [सं० कुंति+अण्-ङीष्] रेणुका नामक गंधद्रव्य।
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कौतुक  : पुं० [सं० कुतुक+अण्] [वि० कौतुकी] १. ऐसी अद्भुत या विलक्षण बात, जिसे देखकर आर्श्चय भी हो और जिसे जानने के लिए उत्सुकता भी हो। २. अचंभा। आश्चर्य। ३. मन-बहलाव दिल्लगी। विनोद। ४. उक्त से प्राप्त होनेवाला आन्नद या प्रसन्नता। ५. खेल-तमाशा और उससे मिलनेवाला मजा। ६. विवाह से पहले हाथ में पहना जानेवाला मांगलिक सूत्र। कंगन।
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कौतुकित  : भू० कृ० [सं० कौतुक+इतच्] जिसे कौतुक हुआ हो।
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कौतुकिया  : पुं० [हिं० कौतुक+इया (प्रत्य०)] १. अनेक प्रकार के कौतुक, खेल-तमाशे या हँसी-मजाक करने वाला। २. वह जिसका काम विवाह-संबंध स्थिर करना हो। जैसे—नाई, ब्राह्मण आदि।
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कौतुकी (किन्)  : वि० [सं० कौतुक+इनि] १. कौतुक करनेवाला। विनोदशील। २. खेल-तमाशे दिखानेवाला। ३. विवाह संबध स्थिर करनेवाला।
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कौतूह  : पुं० =कुतूहल।
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कौतूहल  : पुं० [सं० कुतूहल+अण्]=कुतुहल।
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कौंतेय  : पुं० [सं० कुंती+ढक्-एय] १. कुंती के पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन आदि। २. अर्जुन वृक्ष।
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कौत्स  : पुं० [सं० कुत्स+अण्] १. कुत्स ऋषि के पुत्र, जो जैमिनि के आचार्य थे। २. कुत्स ऋषि द्वारा रचित सामगान। वि० कुत्स संबंधी। कुत्स का।
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कौथ  : स्त्री० [हिं० कौन+सं० तिथि] १. कौन सी तिथि ? कौन तारीख ? (प्रश्नवाचक) जैसे—आज कौथ है ? २. क्या संबंध ? क्या वास्ता ?(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौथा  : वि० [हिं० कौन+सं० स्था (स्थान)] १. गणना में किस स्थान पर पड़नेवाला। (प्रश्नवाचक) जैसे—परीक्षा मे तुम्हारा कौथा स्थान आया ? २. कौन सा ?(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौथि  : स्त्री०=कौथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौथुम  : पुं० [सं० कुथुम+अण्] सामवेद की कौथुमी शाखा का अध्येता।
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कौथुमी  : स्त्री० [सं० कौथुम+ङीष्] सामवेद की एक शाखा जो कुथुम ऋषि के नाम पर है।
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कौदालीक  : पुं० [सं० कुदार+ईकन्, र=ल] १. एक वर्णसंकर जाति, जिसकी उत्पत्ति धीवर पिता और धोविन माता से कही गई है। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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कौद्रविक  : पुं० [सं० कोद्रव+ठञ्-इक] काला नमक।
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कौंध  : स्त्री० [हिं० कौंधना] १. कौंधने की क्रिया या भाव। २. बहुत ही थोड़े समय तक रहने वाली ऐसी चमक, जिससे आँखे चौंधियां जाएँ। जैसे—बिजली की कौंध। ३. बिजली।
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कौंधना  : अ० [सं० कनन=चमकना+अंध या सं० कबंध] कुछ क्षणों के लिए (बिजली का) चमकना।
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कौंधनी  : स्त्री०=करधनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौधनी  : स्त्री०=करधनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौंधा  : स्त्री० [हिं० कौंधना]=कौंध।
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कौन  : सर्व० [सं० कः, पुनः प्रा० कवण, गु० कोण] १. एक प्रश्नवाचक सर्वनाम जो किसी वस्तु व्यक्ति आदि के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए उपयुक्त होता है जैसे—(क) अभी यहाँ कौन आया था (ख) आज कौन पुस्तक लाऊँ। २. कोई व्यक्ति। जैसे—पता नहीं कौन इधर आया था। वि० किस तरह या प्रकार का।
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कौनप  : पुं० =कौणप।
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कौनि  : सर्व०, हि० कौन का स्त्री रूप। उदाहरण—तुलसिदास मोंकों बड़ों सोचु है तू जनम कौनि विधि भरि है।—तुलसी।
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कौनै  : सर्व० १. =किसने। २. =कौन। ३. =किम। ४. =किसने।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौनौ  : सर्व०=कोई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौप  : स्त्री०=कोंपल।
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कौप  : वि० [सं० कूप+अण्] कूप संबंधी। कूएँ का। पुं० कुएँ का पानी।
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कौपीन  : पुं० [सं० कूप+खञ्-ईन] १. लँगोटी जिसे ब्रह्मचारी और सन्यासी पहनते हैं। २. शरीर के वे भाग जो ऐसी लँगोटी से ढके जाते हैं। ३. पाप। ४. अनुचित या निन्दनीय कार्य।
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कौपोदकी  : स्त्री०=कौमोदकी।
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कौप्य  : वि० [सं० कूप+य़ञ्] कूप संबंधी। कुएँ का। पुं० कूएं का पानी।
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कौबेर  : वि० [सं० कुबेर+अण्] कुवेर-संबंधी। कुबेर का।
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कौबेरी  : स्त्री० [सं० कौबेर+ङीष्] १. कुबेर की शक्ति। २. उत्तर दिशा।
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कौब्ज्य  : पुं० [सं० कुब्ज+ष्यञ्] कुब्ज या कुबड़ होने की अवस्था या भाव। कुबड़ापन।
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कौंभ  : वि० [सं० कुंभ+अण्] कुंभ-संबंधी। कुंभ का।
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कौंभ-सर्पि (स्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] वैद्यक में, सौ वर्षों का पुराना घी जो बहुत गुणकारी माना गया है।
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कौम  : स्त्री० [अ] १. जाति। २. नसल। वंश। ३. समाज। राष्ट्र।
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कौम-परस्त  : वि० [अ०] १. कौम या जति का सेवक। २. राष्ट्रवादी।
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कौमकुम  : पुं० [सं० ] १. पुराणानुसार एक केतु तारा जो मंगल ग्रह का साठवाँ पुत्र कहा गया है। २. रक्त। लहू। खून।
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कौमार  : पुं० [सं० कुमार+अञ्] [सं० कौमारी] १. जन्म से पाँच वर्ष तक की अवस्था। कुमार। बालक। २. एक प्रकार की सृष्टि जो सनत्कुमार की रची हुई कही गई है।
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कौमार-बंधकी  : स्त्री० [ष० त०] वेश्या।
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कौमार-भृत्य  : पुं० [ष० त०] बालकों के पालन-पोषण और चिकित्सा संबंधी आयु्र्वेद-शास्त्र।
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कौमार-व्रत  : पुं० [ष० त०] सदा कुमार रहने अर्थात् विवाह न करने का व्रत या प्रतिज्ञा।
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कौमारक  : वि० पुं० =कौमारिक।
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कौमारिक  : पुं० [सं० कुमार+ठक्-इक] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। वि० कुमार संबंधी। कुमार का।
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कौमारिकेय  : पुं० [सं० कुमारिका+ढक्-एय] किसी कुमारी (अर्थात् अविवाहित) स्त्री के गर्भ से उत्पन्न व्यक्ति या संतान। कानीन।
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कौमारी  : स्त्री० [सं० कौमार+ङीष्] १. पहली विवाहित स्त्री,०जिससे कुमार-अवस्था में विवाह हुआ हो। २. पार्वती। ३. कार्तिकेय की सात मातृकाओं में एक । ४. वाराही कंद। गेंठी।
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कौमियत  : स्त्री० [अ०] जातीयता।
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कौमी  : वि० [अ०] १. किसी कौम या जाति संबंधी। जातीय। २. राष्ट्र संबंधी। राष्ट्रीय। पद—कौमी नारा=राष्ट्रीय जय-घोष।
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कौमुद  : पुं० [सं० कौ√मुद् (प्रसन्न होना)+क, अलुक्० स०] कार्तिक मास। कातिक।
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कौमुदिक  : वि० [सं० कुमुद+ठक्-इक] कुमुद-संबंधी।
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कौमुदिका  : स्त्री० [सं० कौमुदी+कन्-टाप्, ह्रस्व]=कौमुदी।
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कौमुदी  : स्त्री० [सं० कुमुद+अण्-ङीष्] १. चंद्रमा की चाँदनी। ज्योत्सना। २. कार्तिक मास की पूर्णिमा। ३. आजकल की दीवाली। दीपावली। ४. कुमुदिनी। कोई। ५. दक्षिण भारत की एक नदी। ६. किसी ग्रन्थ के गूढ़ तत्त्वों या विचारों पर प्रकाश डालनेवाली उसकी टीका या व्याख्या। ७. दे० ‘कौमुदी-महोत्सव’।
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कौमुदी-चार  : पुं० [ब० स०] कार्तिक पूर्णिमा। शरद पूर्णिमा।
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कौमुदी-पति  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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कौमुदी-महोत्सव  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारत में कौमुदी (अर्थात् कार्तिक मास की पूर्णिमा) के दिन होनेवाला एक त्योहार या महोत्सव।
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कौमोकदी  : स्त्री० [सं० कु-मोदक, ष० त० कुमोदक+अण्,-ङीष्] विष्णु की गदा का नाम।
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कौमोदी  : स्त्री० [सं० कु√मुद् (हर्ष)+णिच्+अच्, कुमोद+अण्, ङीष्]=कौमोदकी।
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कौंर  : पुं० [देश] बनखौर नामक वृक्ष।
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कौर  : पुं० [सं० कवल] १. हाथ की उँगलियों में लिया हुआ उतना भोजन जितना एक बार में मुँह में डाला जाय। ग्रास। निवाला। मुहावरा—(किसी के) मुँह का कौर छीनना=ऐसा हिस्सा छीनना जो अभी उसे मिल रहा हो। २. उतना अन्न जितना एक बार में चक्की में पीसने के लिए डाला जाता है। पुं० [?] एक प्रकार का पहाड़ी झाड़ या पौधा। स्त्री० [सं० कुमारी] कुमारी का वाचक और अपभ्रशं शब्द जो पंजाब, राजस्थान आदि में स्त्रियों के नाम में लगता है। जैसे—अमृतकौर, वेदकौर।
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कौरना  : सं० [हिं० कौड़ा] थोड़ा गरम करना या भुनना। सेंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौरव  : वि० [सं० कु+अञ्] [स्त्री०कौरवी] कुरु संबंधी। पुं० राजा कुरु के वंशज या सन्तान।
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कौरव-पति  : पुं० [ष० त०] दुर्योधन।
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कौरवेय  : पुं० [सं० कुरु+ठक्-एय] कुरु का वंशज।
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कौरव्य  : पुं० [सं० कुरु+ण्य] १. प्राचीन भारत का एक नगर। २. राजा कुरु के वंशज। कौरव।
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कौंरा  : वि० पुं० =काँवरा।
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कौरा  : पुं० [सं० कोल, क्रोड़] [स्त्री० कौरी] दरवाजे के इधर-उधर के वे भाग जिनसे खुले हुए किवाड़ों का पिछला भाग सटा रहता है। मुहावरा—कौरे लगना=(क) कोई बात चुपचाप सुनने या किसी की आहट के लिए द्वार के कोने में छिप कर खड़ा होना। (ख) किसी की घात में छिप कर रहना। (ग) रूठकर या मुँह फुलाकर दूर या अलग होना। पुं० [हिं० कौर=ग्रास] कुत्तों, अंत्यजों आदि को दिया जानेवाला भोजन का अंश। पुं० =कौड़ा।
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कौंरी  : स्त्री०=कँवरी।
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कौरी  : स्त्री० [सं० क्रोड़] १. अँकवार। गोद। मुहावरा—कौरी भरना या भरकर मिलना=आलिंगन करना। गले लगाना। २. अनाज की बालों आदि का वह पूला जो मजदूरों आदि को दिया जाता है। ३. एक प्रकार की मिठाई। उदाहरण—पेठा, पाक, जलेबी कौरी।—सूर। स्त्री०=कौड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौर्म  : वि० [सं० कूर्म+अण्] १. कूर्म-संबंधी। २. विष्णु के कूर्मावतार संबंधी। पुं० पुराणानुसार एक कल्प।
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कौंल  : पुं० =कमल।
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कौल  : वि० [सं० कुल+अण्] १. कुल संबंधी। २. अच्छे या उत्तम कुल या वंश का। उदाहरण—कौल काम बस कृपिन विमूढ़ा।—तुलसी। ३. वाममार्ग से संबंध रखनेवाला। पुं० १. कुलीन व्यक्ति। २. वाममार्गी। पुं० [सं० कमल] १. कमल। उदाहरण—कामकलित हिय कौल है, लाज ललित दृग कौल।—मतिराम। २. कटोरा। बड़ी कटोरी। (पश्चिम) पुं० कौर (ग्रास) पुं० [अ०] १. उक्ति। कथन। २. किसी बात के लिए दिया जानेवाला वचन। मुहावरा—कौल तोड़ना=दिये हुए वचन से पीछे हटना। कौल लेना=प्रतिज्ञा कराना वचन लेना। ३. सूफियों के एक प्रकार के गीत। पुं० [तु० करावल] सैनिक छावनी का मध्य भाग।
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कौलई  : वि० [हिं० कौला=संतरा] कौले अर्थात् संतरे के रंग का। नारंगी। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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कौलंज  : पुं० [यू० कूलंज] पसलियों के नीचे होनेवाला दर्द। वायुशूल।
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कौलटिनेय  : पुं० [सं० कुलटा+ढक्-एय, इनङ, आदेश]=कौलटेय।
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कौलटेय  : पुं० [सं० कुलटा+ढक्-एय] १. भिखारिणी स्त्री की संतान। २. कुलटा स्त्री की संतान।
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कौलटेर  : पुं० [सं० कुलटा+ढक्-एय]=कौलटेय।
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कौलदुमा  : वि० [हिं० कौल=कमल+दुमा=दुमदार] एक प्रकार का कबूतर।
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कौलव  : पुं० [सं०] ज्योतिष के ग्यारह कारणों में से तीसरा, जिसमें जन्म लेनेवाला गुणी और विद्वान परन्तु कृतघ्न होता है।
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कौंला  : पुं० [पं० कौल-कटोरी] कटोरा। उदाहरण—कबि विआस रस कौला पूरी। दूरिहि निअर भा दूरी।—जायसी। वि० [स्त्री० कौंली] १. कोमल। २. कुरकुरा। जैसे—कौंली हड्डी। पुं० =कमला (नीबू)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौलाँ  : पुं० =कौल (कटोरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौला  : पुं० [सं० कमला] १. कमला नीबू। २. एक प्रकार का संतरा। पुं० [सं० कोल-क्रोड़, गोद] दीवार की चौड़ाई का वह भाग जिसके साथ खुले हुए दरवाजे के पल्ले का पिछला भाग सटा रहता है। कौरा। पाखा। मुहावरा—कौले सींचना=मंगल कामना के लिए पूजा, यात्रा आदि के शुभ अवसरों पर दरवाजे के सामने और इधर-उधर पानी छिड़कना। विशेष—इस शब्द के अन्यान्य अर्थों के लिए दे० ‘कौरा’ और उसके मुहा०।
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कौलाचार  : पुं० [सं० कौल-आचार, कर्म० स०] वाममार्ग।
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कौलाल  : पुं० [सं० कुलाल+अण्] कुम्हार।
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कौलालक  : वि० [सं० कुलाल+वुञ्-अक] कुम्हार-संबंधी।
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कौलिक  : वि० [सं० कुल+ठक्-इक] कुल-संबंधी।
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कौलिया  : पुं० [देश] एक प्रकार का छोटा बबूल।
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कौलीन  : वि० [सं० कुल+खञ्-ईन]=कुलीन। पुं० १. कुलीनता। २. कलंक। बदनामी। ३. मनोविनोद के लिए कराई जानेवाली पशु-पक्षियों की लड़ाई। ४. जननेंद्रिय। ५. वाममार्गी।
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कौलीन्य  : पुं० [सं० कुलीन+ष्यञ्]=कुलीनता।
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कौलीय  : पुं० [सं० ] क्षत्रियों की एक प्राचीन जाति। कोली। (बौद्धग्रन्थ)।
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कौलीरा  : स्त्री० [सं० कुलीर+अण्-टाप्] काकड़ासिंगी। (पौधा)।
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कौलेयक  : वि० [सं० कुल+ढकञ्-एय] कुल-संबंधी। पुं० कुत्ता।
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कौलौ  : पुं० =कौलब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कौल्य  : वि० [सं० कुल+ष्यञ्] १. कुलीन २. शाक्त मत का अनुयायी।
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कौंवरा  : वि०=कोमल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कौवल  : पुं० [सं० कुवल+अण्] बेर।
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कौवा  : पुं० =कौआ।
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कौवाठोंणी  : स्त्री०=कौआठोंठी।
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कौवापरी  : स्त्री०=कौआपरी।
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कौवारी  : स्त्री० [देश] १. एक प्रकार की चिड़िया। २. कचूर की जाति का एक वृक्ष जिसमें गुच्छों में लाल फल लगते हैं। स्त्री०=कौवाली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कौवाल  : पुं० [अ,कवाल=एक प्रकार की बाँसुरी] वह जो कौवाली गाने में प्रवीण हो अथवा कौवाली गाने का पेशा करता हो।
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कौवाली  : स्त्री० [अ० कवाल=एक प्रकार की बाँसुरी] १. मुसलमानों में एक प्रकार के धार्मिक गीत जो प्रायः कई आदमी मिलकर गाते हैं। २. उक्त गीत की कुछ विशिष्ट धुनें। ३. इन धुनों में गाये जानेवाले गीत। ४. उक्त प्रकार के गीत गाने का पेशा।
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कौविंद  : पुं० [सं० कुविंद+अण्] [स्त्री० कौविदी] जुलाहा। बुनकर।
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कौश  : पुं० [सं० कुश+अण्] [वि० कौशेय। स्त्री कौशी] १. कुशद्वीप। २. एक गोत्र। ३. [कोश+अण्] ४. रेशमी वस्त्र।
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कौशल  : पुं० [सं० कुशल+अण्] १. कुशल होने की अवस्था या भाव। २. ठीक तरह के काम करने की योग्यता या समर्थता। ३. युक्तिपूर्वक अपना काम निकालने का ढंग। छल-बल से काम साधने का गुण। ४. कोशल प्रदेश का निवासी। वि० कोशल देश का।
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कौशल-बाध  : पुं० [सं० ष० त०] कार्यालयों की या राजकीय सेवा में उन्नति के मार्ग में वह बंधन जो अपना काम कुशलतापूर्वक करके पार करना पड़ता है। (एफिशिएन्शी बार)।
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कौशलिक  : पुं० [सं० कुशल+ठक्-इक] घूस। रिश्वत।
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कौशलिका  : स्त्री० [सं० कौशलिक+टाप्]=कौशली।
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कौशली  : स्त्री० [सं० कौशल+ङीष्] १. मित्रों से किया जानेवाला कुशल प्रश्न। २. उपहार। भेंट। वि० [सं०] अनेक प्रकार के कौशल जानने और करनेवाला।
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कौशलेय  : पुं० [सं० कौशल्या+ढक्-एय] कौशल्या के पुत्र, रामचंद्र।
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कौशल्य  : पुं० [सं० कुशल+ष्यञ्]=कौशल।
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कौशल्या  : स्त्री० [सं० कौशल+ष्यञ्-टाप्] १. कौशल के महाराज दशरथ की पत्नी तथा भगवान राम की माता। २. पुरुराज की स्त्री तथा जनमेजय की माता। ३. धृतराष्ट् की माता। ४. पंचमुखी आरती।
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कौशल्यायनि  : पुं० [सं० कौशल्या+फिञ्-आयन] कौशल्या के पुत्र, रामचंद्र।
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कौशांबी  : स्त्री० [सं० कुशांब+अण्-ङीष्] कुश के पुत्र कौशांब की बसाई हुई नगरी जो वत्सदेश की राजधानी थी।
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कौशिक  : वि० [सं० कुशिक+अण्] १. कुशिक वंश का। २. उल्लू से संबंधित। ३. (अस्त्र) जो क्रोध या म्यान में रखा हो। पुं० १. इन्द्र। २. राजा कुशिक के पुत्र गाधि जिनका जन्म इंद्र के अंश से हुआ था। ३. विश्वामित्र। ४. अथर्वेद का एक सूक्त। ५. मगध नरेश जरासंध का एक सेनापति। ६. कोशकार। ७. उल्लू ८. नेवला। ९. अश्वकर्ण नामक शालवृक्ष। १॰. रेशमी वस्त्र। ११. एक उपपुराण का नाम। १२. छः रागों में से एक राग। १३. श्रृंगार रस। १४. मज्जा। १५. गुग्गुल। १६. साँप पकड़नेवाला। मदारी।
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कौशिक-प्रिय  : पुं० [ष० त०] भगवान् राम का नाम।
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कौशिक-फल  : पुं० [मध्य० स०] नारियल का पेड़ और फल।
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कौशिका  : स्त्री० [सं० कोश+कन्+अण्-टाप्, इत्व] १. जल पीने का पात्र। जैसे—कटोरा।, गिलास आदि। २. गुग्गुल।
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कौशिकायुध  : पुं० [सं० कौशिक-आयुध, ष० त०] १. इंद्र का वज्र। २. इंद्र धनुष।
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कौशिकाराति  : पुं० [सं० कौशिक-अराति, ष० त०] कौआ।
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कौशिकी  : स्त्री० [सं० कुशिक+अण्-ङीष्] १. चंडिका देवी। २. राजा कुशिक की पोती और ऋचीक मुनि की स्त्री,जो अपने पति के साथ संदेह स्वर्ग गई थी। ३. संगीत में एक प्रकार की रागिनी। ४. कोसा नदी। ५. साहित्य में एक वृत्ति,जिसमे नृत्य गीत तथा भोगविलास आदि के वर्णन होते हैं। यह क ण, हास्य श्रृंगार आदि रसों के लिए उपयुक्त कही गई है।
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कौशिकी-कान्हड़ा  : पुं० [हिं० कौशिकी+कान्हड़ा] कौशिकी और कान्हड़ा के योग से बना हुआ एक संकर राग।
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कौशिल्य  : पुं० [सं० ] एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि।
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कौशिल्या  : स्त्री०=कौशल्या।
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कौशी-भैरव  : पुं० [सं० व्यस्त पद] एक प्रकार का संकर राग जो दिन के पहले पहर में गाया जाता है।
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कौशीधान्य  : पुं० [सं० व्यस्त पद] पौधे मे फूल के बाद लगनेवाले कोश से पैदा होनेवाले अन्न। जैसे—तिल, अलसी आदि।
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कौशीलव  : पुं० [सं० कुशीलव+अण् नट का कार्य अथवा पद।
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कौशेय  : वि० [सं० कोश+ढक्-एय] १. कोश-संबंधी। २. रेशमी। पुं० १. रेशम। २. रेशमी कपड़ा।
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कौश्मांडी  : स्त्री० [सं० कूश्मांड+अण्-ङीष्] एक विशिष्ट वैदिक ऋचा जो पवित्र करनेवाली कही गई है।
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कौषारव  : पुं० [सं० कुषारु+अण्] कुषारु मुनि के पुत्र, मैत्रेय।
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कौषिक  : पुं० [सं० कौशिक, पृषो० सिद्धि]=कौशिक।
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कौषिकी  : स्त्री० [सं० कौशिकी, पृषो० सिद्धि] १. एक देवी जिनकी उत्पत्ति काली के शरीर से हुई थी। २. =कौशिकी।
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कौषीतक  : पुं० [सं० कुषीतक+अण्] १. ऋग्वेद की एक शाखा के प्रवर्तक ऋषि। २. ऋग्वेद के अंतर्गत एक ब्राह्मण।
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कौषीतकी  : स्त्री० [सं० कौषीतक+ङीष्] १. अगस्तय मुनि की स्त्री का नाम। २. ऋग्वेद की एक शाखा। ३. ऋग्वेद के अंतर्गत एक उपनिषद्।
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कौषेय  : वि० [सं० कौशेय, पृषो० सिद्धि] १. रेशम से संबंध रखनेवाला। २. रेशम का बना हुआ। रेशमी। पुं० रेशम से बुना हुआ वस्त्र। रेशमी कपड़ा।
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कौष्ठेयक  : पुं० [सं० कोष्ठ+ढकञ्-एय] कोष्ठ (अर्थात् कोश और भंडार) की वृद्धि के लिए समय-समय पर लिया जानेवाला कर।
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कौंसल  : स्त्री०=कौंसिल।
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कौसल्या  : स्त्री०=कौशल्या।
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कौसिया  : पुं० [सं० कौशिक] सगीत में एक प्रकार का राग।
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कौंसिल  : स्त्री० [अं० काउन्सिल] १. कुछ विशिष्ट लोगों का वह समूह जो किसी विषय पर आधिकारिक रूप से विचार करता हो। २. परामर्श देनेवाली सभा या समिति।
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कौसिला  : स्त्री०=कौशल्या।
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कौसीद  : वि० [सं० कुसीद+अण्] कुसीद संबंधी। पुं० वह जो सूद-ब्याज की आय से अपना निर्वाह करता हो। सूदखोर।
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कौसीस  : पुं० [सं० कपिशीर्षक] कँगूरा। उदाहरण—कंचन कोट जरे कौसीसा।—जायसी।
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कौसुंभ  : पुं० [सं० कुसुंभ+अण्] १. एक प्रकार का जंगली फूल। २. एक प्रकार का साग।
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कौसुम  : वि० [सं० कुसुम+अण्] १. कुसुम संबंधी। २. जिसमें कुसुम या फूल लगे हुए हों। ३. फूलों का बना हुआ अथवा फूलों से बननेवाला। पुं० १. कुसुमांजन। २. पराग।
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कौसुरुविंद  : पुं० [सं० ] दस रात्रियों में पूर्ण होनेवाला एक यज्ञ।
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कौसेय  : पुं० =कौशेय।
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कौस्तुभ  : पुं० [सं० कु√स्तुभ (व्यक्ति)+अप्, कुस्तुभ,+अण्] १. एक प्रसिद्ध मणि जो समुद्र-मंथन के समय उसमें से निकली थी। २. एक प्रकार की तांत्रिक मुद्रा। ३. वैद्यक में एक प्रकार का तेल।
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कौस्तुभ-लक्षण  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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कौस्तुभ-वक्षाः (क्षस्)  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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कौह  : पुं० [सं० ककुभ] अर्जुन वृक्ष।
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कौंहर  : पुं० [देश] इंद्रायन की जाति का एक प्रकार का फल।
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कौहर  : पुं० [देश] इंद्रायन।
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कौंहरी  : स्त्री०=कौंहर।
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कौहा  : पुं० [?] छाजन में बँहेड़ी के सहारे के लिए लगाई जानेवाली लकड़ी।
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क्या  : सर्व० [सं० किम्, प्रा० कीअस, बँ० की, मरा० काय] एक प्रश्नवाचक सर्वनाम जो प्रसंग के अनुसार कई प्रकार से और प्रायः नीचे लिखे अर्थों में प्रयुक्त होता है-१. यह जानने पूछने या समझने के लिए कि कोई अभिप्रेत उद्दिष्ट या ज्ञेय बात या वस्तु किस प्रकार,रूप या वर्ग की है, उसकी मात्रा, मान, मूल्य या स्वरूप कितना या कैसा है, आदि। जैसे—(क) रुमाल में क्या लपेट रखा है। (ख) इस पुस्तक का क्या दाम है। (ग) तुम्हारें वहाँ पहुँचने पर क्या हुआ। २. तथ्य स्थिति आदि जानने के लिए प्रायः वाक्य के आरंभ में जैसे—(क) क्या तुम भी वहाँ जाओगे। (ख) क्या सवेरा हो गया ३. अभिप्रेत अथवा उद्दिष्ट परन्तु अव्यक्त तत्त्व बात या वस्तु की ओर संकेत करने के लिए। जैसे—मै अच्छी तरह समझता हूँ कि तुम्हारे मन में क्या है। ४. आश्चर्य-जनक या विलक्षण प्रसंगों में किसी प्रकार का अतिरेक, आधिक्य, श्रेष्ठता आदि सूचति करने के लिए क्रि० वि० या अव्यय रूप में। जैसे—(क) वाह आज तुमने क्या बात कही है कि तबीयत खुश हो गई। (ख) तुम कलकत्ते क्या हो आये, मानों स्वर्ग हो आये। (ग) क्या वह भी चला गया। ५. उपेक्षा-सूचक प्रसंगों में बहुत ही तुच्छ या हीन। कुछ भी नहीं। जैसे—(क) क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरवा। (ख) वह हमारे सामने क्या चीज है। (ग) भला अब हम वहां क्या जाएँ। ६. कुछ भी नहीं। बिलकुल नहीं। जैसे—अब वह क्या बचेगा। विशेष—(क) यद्यपि यह शब्द सर्वनाम है फिर भी इसके आगे विभक्ति नहीं लगती। (ख) संज्ञाओं के पहले लगकर यह प्रायः विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होता है। मुहावरा—क्या से क्या होना या हो जाना=जैसा पहले था, उससे बिलकुल भिन्न या विपरीत होना या हो जाना। जैसे—साल-भर में ही लड़का क्या से क्या हो गया। पद—ऐसा क्या=भला यह भी कोई बात है। ऐसा नहीं होना चाहिए। जैसे—ऐसा क्या। कुछ देर तो बैठें। सब कुछ-दे०नीचे क्या-क्या। क्या नहीं कहा और क्या-क्या नहीं किया। (अर्थात् प्रायः सभी कुछ कहा और किया) (ख) कैसे-कैसे परन्तु विलक्षण। जैसे—तुम भी क्या क्या बातें निकालते हो। क्या...क्या=दोनों एक-से या बराबर है। जैसे—जब काम करना ही है तब क्या दिन क्या रात। क्या जानें=हम नहीं जानते। हमें पता नहीं। जैसे—क्या जानें वह कहाँ चला गया। क्या नाम=बात-चीत के संग में, कुछ याद करने, सोचने आदि के अवसरों पर प्रायः निरर्थक रूप से प्रयुक्त होनेवाला पद। जैसे—हाँ, तो फिर क्या नाम, सब लोग साथ ही चले चलें।
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क्यार  : पुं० [सं० केदार] पेड़ का थाला। थाँवला। वि० संबंधकारक विभक्ति केर का बैसवाडी रूप। का। उदाहरण—मनुआँ देउ महोबै क्यार।
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क्यारी  : स्त्री० [सं० केदार] १. खेतों बगीचों आदि में थोड़ी-थोड़ी दूर पर मेड़ों से बनाये हुए वे विभाग जिनमें बीज बोये या पौधे लगाये जाते हैं। २. उक्त प्रकार का वह विभाग जिसमें नमक बनाने के लिए समुद्र का पानी भरते हैं। (बेड)
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क्याली  : स्त्री०=क्यारी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्यों  : अव्य० [सं० किम] १. किस अभिप्राय, उद्धेश्य या प्रयोजन से। जैसे—तुम वहाँ क्यों जाया करते हों। २. किस अधिकार से। जैसे—तुमने यह फल क्यो तोड़ा। ३. किस कारण से। किस लिए। जैसे—गर्मियों की छुट्टियों में तुम पहाड़ पर क्यों चले जाते। ४. किस तरह। किस प्रकार। कैसे। उदाहरण—इक रसना सोउ लोचन हानि, कहौ पार क्यों पाउँ।—हितवृंदावनदास। पद—क्योंकर=किस प्रकार। कैसे। क्योंकि-कारण यह है कि। इसलिए कि। क्यों नहीं=अवश्य ऐसा होना चाहिए अथवा है। क्यों न हो=(क) ठीक है ऐसा ही होना चाहिए। (ख) वाह क्या बात है। बहुत अच्छे।
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क्योंड़ा  : पुं० =केवड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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क्योलारी  : स्त्री०=कोइलारी।
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क्यौं  : अव्य०=क्यों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रक  : पुं० =कर्क।
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क्रकच  : पुं० [सं० क्र√कच् (शब्द)+अच्] १. ज्योतिष में वह योग, जिसमें वार और तिथि की संख्या का जोड़ १३ होता है। २. करील का पेड़। ३. ऐसा वृक्ष जो बहुत घना हो। ४. लकड़ी चीरने का आरा। ५. एक प्रकार का पुराना बाजा। ६. गणित में एक नियम ,जिसके अनुसार लकड़ी के तख्ते चीरने की मजदूरी निकाली जाती है। ७. एक नरक का नाम।
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क्रकच-पत्र  : पुं० [ब० स०] सागौन।
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क्रकच-पाद  : पुं० [ब० स०] गिरगिट।
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क्रकच-पृष्ठी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक प्रकार की मछली।
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क्रकचा  : स्त्री० [सं० ककच+अच्-टाप्] केतकी।
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क्रकर  : पुं० [सं० क्र√कृ (करना)+अच्] १. करील का पेड़। २. किलकिला पक्षी। ३. केकड़ा। ४. लकड़ी चीरने का आरा। ५. दरिद्र। निर्धन।
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क्रकुच्छंद  : पुं० [सं० ] भद्र नामक कल्प के पाँच बुद्धों में से पहले बुद्ध।
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क्रंत  : पुं० [सं० कान्त] कंत। पति। उदाहरण—धर धरत नारि क्रंतन क्रमन कूटि-कूटि दारुन छतिय।—चंदबरदाई।
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क्रत  : पुं० [सं० क्रतु] यज्ञ। भू० कृ०=कृत (किया हुआ)। पुं० [सं० कृत्य] कार्य। काम। उदाहरण—पंच घरी घर मद्धि रहै प्रव्वह क्रत भाजन।—चंदबरदाई।
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क्रतक  : पुं० [सं०] वासुदेव के एक पुत्र का नाम।
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क्रतु  : पुं० [सं०√कृ+कतु] १. यज्ञ। २. अश्वमेज्ञ यज्ञ। ३. विष्णु। ४. ब्रह्मा के मानस पुत्र एक प्रजापति। ५. जीव। ६. इंद्रिय। ७. संकल्प या निश्चय। ८. मनोरथ। अभिलाषा। ९. योग्यता। १॰. प्रेरणा। ११. प्रज्ञा या विवेक। १२. आषाढ़ महीना। १३. प्लक्ष द्वीप की एक नदी। १४. एक विश्वे देव। १५. कृष्ण के एक पुत्र।
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क्रतु-द्रुह  : पुं० [सं० क्रतु√द्रुह (द्वेष करना)+क, उप० स०] असुर।
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क्रतु-ध्वंसी (सिन्)  : पुं० [सं० क्रतु+√ध्वसं(नष्ट करना)+णिच्+णिनि, उप० स०] शिव, जिन्होनें दक्ष प्रजापति का यज्ञ-ध्वंस कर दिया था।
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क्रतु-पति  : पुं० [ष० त०] १. यज्ञ करनेवाला यजमान। २. विष्णु।
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क्रतु-पशु  : पुं० [ष० त०] घोडा।
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क्रतु-पुरुष  : पुं० =यज्ञपुरुष।
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क्रतु-यष्टि  : स्त्री० [उपमित० स०] एक प्रकार की चिड़िया।
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क्रतु-राज  : पुं० [ष० त०] १. ऐसा यज्ञ जो सब यज्ञों में श्रेष्ठ माना जाय। २. राजसूय यज्ञ। ३. अश्वमेघ यज्ञ।
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क्रतु-स्थला  : स्त्री० [ब० स० टाप्] यजुर्वेद में उल्लिखित एक अप्सरा।
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क्रतुभुक् (ज्)  : पुं० [सं० क्रतु√भुज् (खाना)+क्विप्, उप० स०] १. यज्ञ में देवताओं को अर्पण किया जानेवाला पदार्थ। २. देवता।
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क्रतुमय  : पुं० [सं० क्रतु+मयट्] यज्ञों का प्रेमी और प्रायः या सदा यज्ञ करता रहनेवाला। व्यक्ति। उदाहरण—मनु वह क्रतुमय पुरुष वही मुख संध्या की लालिमा पिये।—कामायनी।
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क्रतुविक्रयी (यिन्)  : पुं० [सं० क्रतु-वि√क्री (बेचना)+णिनि] यज्ञ करने से प्राप्त होने वाले पुण्य या फल बेचनेवाला व्यक्ति।
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क्रत्यन्त  : पुं० [सं० कृतान्त] यमराज। उदाहरण—तामस के पिक्खिय प्रबल, क्रोध, कलह क्रत्यन्त।—चंदबरदाई।
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क्रत्वर्थ  : पुं० [सं० क्रतु-अर्थ, नित्यसमास] शास्त्रों के नियमों के अनुसार अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखनेवाला यज्ञों का अर्थवाद और विधान।
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क्रथ  : पुं० १. स्कन्द का एक गण। २. एक असुर। ३. विदर्भ के यादव नरेश का पुत्र और कौशिक का भाई।
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क्रथकैशिक  : पुं० [सं०] १. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। २. एक प्राचीन जनपद। ३. क्रथ और कैशि्क के वंशज।
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क्रथन  : पुं० [सं०√क्रथ् (वध)+ल्युट-अन] १. काटना। २. वध करना। ३. एक प्रकार की देवयोनि। ४. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ५. एक दानव।
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क्रथनक  : पुं० [सं० क्रथन्+कन्] १. सफेद अगर। २. ऊँट।
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क्रदित  : भू० कृ०, [सं०√क्रंद+क्त] ललकारा। हुआ। आहूत।
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क्रद्दम  : पुं० [सं० कर्दम] १. कीचड़। २. संकट।
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क्रन्न  : पुं० [सं० कर्ण] कान। उदाहरण—दोऊ क्रन्न हस्ती चुवै रूद्धि भारी।—चंदबरदाई। सर्व०-कौन। उदाहरण—कहै ब्यास संभरी क्रन्न इह बत्त प्रमानं।—चंदबरदाई।
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क्रप  : पुं० [सं० ] १. दयालु व्यक्ति। २. कौरव-कुमारों के आचार्य कृप।
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क्रम  : पुं० [सं०√क्रम् (गति)+घञ्] १. डग। पग। २. डग भरने की क्रिया। चलना। ३. पशुओं आदि की वह स्थिति जो छलाँग भरने अथवा शत्रु पर आक्रमण करने से पहले बनती है। ४. कोई नियत या निश्चित पद्धति या योजना। तरतीब। सिलसिला। (आर्डर)। पद—क्रम क्रम से=(क) बारी-बारी से। (ख) धीरे-धीरे। ५. उचित रूप से तथा ठीक प्रकार से काम करने का ढंग। ६. वेदपाठ की एक विशिष्ठ प्रणाली। ७. नियम और विधान के अनुसार एक के बाद ठीक तरह से वैदिक कर्म करने की व्यवस्था। ८. साहित्य में एक अलंकार,जिसमें पहले कुछ वस्तुओं आदि का एक क्रम या सिलसिले से उल्लेख होता है और आगे ठीक इसी क्रम या सिलसिले से उन वस्तुओं सं संबंध रखनेवाले कार्यों या बातों का उल्लेख होता है। यथःसंभव। (रिलेटिव आर्डर) ९. वामन भगवान् का एक नाम। १॰. कल्प। ११. शक्ति। पुं० दे० कर्म। जैसे—मन-क्रम-वचन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रम-जटा  : स्त्री० [उपमित० स०] वेदपाठ की शैली।
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क्रम-दंडक  : पुं० [उपमित स०] वेदों के पाठ की शैली या ढंग।
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क्रम-पद  : पुं० [उपमित० स०] वेद पाठ का एक प्रकार का ढंग।
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क्रम-परिवर्तन  : पुं० [स० त०] क्रम में आगे या पीछे या पीछे से आगे होना। विपर्य्यय। (ट्रांसपोजीशन)
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क्रम-पाठ  : पुं० [ष० त०] संहिता और पाद दोनों को मिला कर किया जाने वाला वेद-पाठ।
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क्रम-पूरक  : पुं० [ष० त०] मौलसिरी का पेड़।
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क्रम-बद्ध  : वि० [स० त०] १. जो किसी क्रम या सिलसिले से न लगा हुआ हो। २. जिसका क्रम लगाया जा चुका हो।
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क्रम-भंग  : पुं० [ष० त०] किसी लगे हुए क्रम या बँधे हुए सिलसिले में होने वाला उलट-फेर। व्यक्तिक्रम। (डीरेंजमेंन्ट)।
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क्रम-संख्या  : स्त्री० [मध्य० स०] एक क्रम से लिखे जानेवाले नामों, बातों आदि के आरंभ में लिखी जानेवाली संख्या जो उन सब के क्रम की सूचक होती है। (सीरियल नंबर)।
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क्रम-संन्यास  : पुं० [मध्य० स०] यथाक्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमों में रह चुकने के बाद ग्रहण किया जानेवाला संन्यास। (अचानक किसी आश्रम से ग्रहण किये जानेवाले संन्यास से भिन्न।)
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क्रम-सूचक  : वि० [ष० त०] १. जिससे कोई क्रम, परंपरा या श्रृंखला सूचित होती हो। ३. (अंक या संख्या वाचक शब्द) जो क्रम के विचार से स्थान का सूचक हो। (आर्डिनल) जैसे—दूसरा, पाँचवाँ, सातवाँ आदि।
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क्रमक  : वि० [सं०√क्रम्+वुन्-अक] क्रम=वेदपाठ का अध्ययन करने वाला। पुं० [क्रम+कन्] १. एक ही प्रकार या वर्ग की चीजों का कुछ दूर तक चलनेवाला क्रम। माला। (सिरीज) २. किसी वस्तु या व्यक्ति के आने-जाने का निश्चित या स्थिर मार्ग। जैसे—नदी का क्रमक वायुयान का क्रमक। (कोर्स)।
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क्रमण  : पुं० [सं०√क्रम्+ल्युट-अन] १. पैर बढ़ाने या चलने की क्रिया या भाव। २. एक स्थान या स्थिति से दूसरे स्थान या स्थिति में जाना। ३. अतिक्रमण या उल्लंघन करना। ४. पारे के अठारह संस्कारों में से एक। (वैद्यक)।
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क्रमतः (स्)  : अ० [सं० क्रम्+तस्] १. क्रम-क्रम से थोड़ा-थोड़ा करके। धीरे-धीरे। (ग्रैजुअली) २. जो क्रम लगा हो उसी के अनुसार। किसी क्रम विशेष से। (सेक्सेसिवली)।
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क्रमना  : अ० [सं० क्रम] १. क्रम लगाना। २. क्रम से चलना। उदाहरण—क्रमिया अति ऊछाह करेउ।—प्रिथीराज।
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क्रमनासा  : स्त्री०=कर्मनाशा।
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क्रमशः (स्)  : अव्य० [सं० क्रम+शस्] १. नियत क्रम के अनुसार। सिलसिलेवार। २. एक-एक करके। बारी-बारी से। ३. थोड़ा-थोड़ा करके। क्रमतः।
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क्रमांक  : पुं० [सं० क्रम-संख्या, मध्य० स०]=क्रम संख्या।
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क्रमागत  : वि० [सं० क्रम-आगत, तृ० त०] १. ठीक क्रम या बारी से आया हुआ। २. परंपरागत। ३. जो क्रम-क्रम से होता आ रहा हो। और आगे भी इसी प्रकार कुछ समय तक होने को हो। (कन्टिन्यूड)।
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क्रमानुकूल  : क्रि० वि० [सं० क्रम-अनुकूल, ष० त०] १. जो किसी क्रम के अनुकूल या सिलसिले के मुताबित हो। सिलसिले वार। २. दे०‘क्रमात्’।
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क्रमानुसार  : क्रि० वि० [सं० क्रम-अनुसार, ष० त०] क्रम-क्रम से। क्रमात्।
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क्रमान्वय  : क्रि० वि० [सं० क्रम-अन्वय, ष० त०] एक-एक करके। सिलसिले से।
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क्रमि  : पुं० [सं०√क्रम्+इन्] १. कीड़ा। कृमि। २. पेट में कीड़े पड़ने का रोग।
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क्रमिक  : वि० [सं० क्रम+ठन्-इक] १. किसी क्रम से चलने या होनेवाला। क्रम-युक्त। जैसे—वंसानुक्रमिक। २. निश्चित क्रम के अनुसार लगातार एक-एक करके होनेवाला। एक के बाद एक आने या होनेवाला। ३. किसी एक के फलस्वरूप तुरंत उसके बाद होनेवाला। (कांन्सिक्यूटिव) ४. धीरे-धीरे या क्रम-क्रम से होनेवाला (ग्रैजुअल) ५. जिसमें उतार-चढ़ाव छोटाई-बड़ाई आदि का बना या लगा हुआ। (ग्रेजुएटेड) जैसे—वेतन का क्रमिक मान।
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क्रमु (क)  : पुं० [सं० √क्रम+उण्-कन्] १. सुपारी का वृक्ष। २. शहतूत का पेड़। ३. नागरमोथा।
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क्रमुकी  : स्त्री० [सं० क्रमुख+ङीष्] सुपारी।
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क्रमेल  : स्त्री० [सं० क्रम√एल् (गति)+अच्+कन्] १. ऊँट। २. शुतुर।
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क्रमोद्वेग  : पुं० [क्रम-उद्वेग, ब० स०] बैल।
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क्रम्य  : पुं० [सं० कर्म] कर्म। उदाहरण—अब मुझ क्रम्य सुफलियं दिकक सुफल रूप तपसीयं।—चंदबरदाई।
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क्रम्यना  : स० [सं० क्रमण] १. लाँघना। उल्लंघन करना। २. आक्रमण करना। ३. चलना।
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क्रय  : पुं० [सं०√क्री (खरीदना)+अच्] मोल लेने या खरीदने की क्रिया या भाव।
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क्रय-पंजी  : स्त्री० [ष० त०] बही या रोजनामचा, जिसमें प्रतिदिन का खरीद का ब्योरा हो। (परचेजेज जर्नल)
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क्रय-प्रपंजी  : स्त्री० [ष० त०] वह बही, जिसमें क्रय पंजी से समय-समय पर खरीदी गई वस्तुओं का अलग-अलग विवरण तैयार किया जाता है। (परचेजेज लेजर)
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क्रय-लेख्य  : पुं० [ष० त०] खरीदने बेचने के प्रमाणस्वरूप लिखा जाने वाला लेख्य। बैनामा। (सेल डीड)
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क्रय-लेख्यपत्र  : पुं० [ष० त०] पदार्थ के क्रय-विक्रय का सूचक लेख्य। बैनामा।
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क्रय-विक्रय  : पुं० [द्व० स०] खरीदने और बेचने का कार्य या व्यापार।
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क्रय-विक्रयिक  : पुं० [सं० क्रय-विक्रय+ठन्-इक] चीजें खरीदकर बेचने वाला। रोजगारी। व्यापारी।
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क्रयण  : पुं० [सं०√क्री+ल्युट-अन] खरीदने का काम। खरीद।
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क्रयविक्रयानुशय  : पुं० [सं० क्रयविक्रय-अनुशय, स० त०] वह मुकदमा या विवाद जो चीजों के खरीदे या बेचे जाने की बातों से संबंध रखता हो।
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क्रयारोह  : पुं० [क्रय-आरोह, ब० स०] वह स्थान जहाँ क्रय की हुई वस्तुएँ बेचने के लिए रखी जाती हैं। बाजार। हाट।
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क्रयिक  : वि० [सं० क्रय+इक] खरीदनेवाला। पुं० व्यवसायी। व्यापारी।
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क्रयिभ  : वि० [सं०] वस्तु के क्रय-विक्रय पर लगनेवाला कर (कौ०)।
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क्रयी यिन  : पु० [सं० क्रय+इनि] १. क्रय करने या खरीदनेवाला व्यक्ति। खरीददार। ग्राहक। २. व्यापारी।
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क्रय्य  : वि० [सं० क्री+यत्, नि० सिद्धि] (पदार्थ) जो खरीदा जाने को हो अथवा खरीदे जाने के योग्य हो।
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क्रवान  : पुं० =कृपाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रव्य  : पुं० [सं०√क्लव् (भय)+ण्यत्, र=ल] १. रद्दी या सड़ा हुआ मांस। २. मांस। गोश्त।
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क्रव्याद  : वि० [सं० क्रव्य√अद् (खाना)+अण्] सड़ा हुआ मांस अथवा शव खानेवाला। पुं० चिता की आग।
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क्राकचिक  : पुं० [सं० क्रकच+ठक्-इक] लकड़ी चीरनेवाला मजदूर।
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क्रांत  : वि० [सं०√क्रम (गति)+क्त] १. जिसके उपर से होकर अथवा जिसे लाँघ कर कोई गया हो। लाँघा या पार किया हुआ। २. जिससे आगे कोई दूसरा बढ़ गया हो। ३. जिसे किसी ने अभिभूत या वश में कर लिया हो। दबाया या दबोचा हुआ। पं० १. पैर। २. घोड़ा।
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क्रांतदर्शी (र्शिन्)  : पुं० [सं० क्रांत√दृश् (देखना)+णिनि] १. त्रिकाल दर्शी। २. ईश्वर। परमेश्वर।
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क्रांति  : स्त्री० [सं०√क्रम्+क्तिन्] १. किसी को लाँगकर अथवा किसी को अभिभूत करके उससे आगे बढ़ने या उस पर विजय प्राप्त करने की क्रिय़ा या भाव। २. राजनीति में वह स्थिति जिसमें विद्रोहियों ने सफलतापूर्वक शासन की बागडोर अपने हाथों में लेली हो। राज्यक्रांति। ३. कोई ऐसा बहुत बड़ा परिवर्तन जिससे किसी चीज का स्वरूप बिलकुल बदल जाय। जैसे—औद्योगिक क्रांति। (रिवोल्यूशन-उक्त दो अर्थों में) ४. पृथ्वी के चारों ओर सूर्य के घूमने का मार्ग। ५. नक्षत्रों की पारस्परिक दूरी।
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क्रांति-कक्ष  : पुं० =क्रांति-वृत्त।
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क्रांति-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] गणित में वह क्षेत्र जो ग्रहों की क्रांति निकालने के लिए बनाया जाता है।
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क्रांति-पात  : पुं० [ष० त०] वे बिन्दु जिन पर क्रांति वलय और खगोलीय विषुवत की रेखाएँ एक दूसरे को काटती हैं।
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क्रांति-भाग  : पुं० [ष० त०] खगोलीय नाड़ी-मंडल से क्रांति-मंडल के किसी बिन्दु की दूरी।
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क्रांति-मंडल  : पुं० [ष० त०]=क्रांति-वृत्त।
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क्रांति-वलय  : पुं० =क्रांति-वृत्त।
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क्राति-वृत्त  : स्त्री० [ष० त०] वह क्रमक या मार्ग जिस पर चलता हुआ सूर्य भ्रमण करता है।
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क्रांति-साम्य  : पुं० [ष० त०] ग्रहों की क्रांति में होनेवाला साम्य (ज्योति)।
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क्रांतिज्या  : स्त्री०=दे० ‘ज्या’।
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क्रांतिवादी (दिन्)  : पुं० [सं० क्रांति√वद् (बोलना)+णिनि] वह जो किसी अथवा किसी सम्यक् व्यवस्था में बहुत बड़ा परिवर्तन करना चाहता हो।
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क्राथ  : पुं० [सं०√क्रथ् (मारना)+घञ्] १. वध। हत्या। २. एक राजा जो राहुग्रह के अवतार माने जाते हैं। ३. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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क्रायकायिक  : पुं० =क्रयिक।
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क्रिकट  : पुं० [अं०] दे० ‘गेंद बल्ला’। (खेल)।
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क्रिचयन  : पुं० [सं० कृच्छ्चांद्रायण] चांद्रायण व्रत।
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क्रिमि  : पुं० [सं०√क्रम्+इन्, इत्व] कृमि।
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क्रिमि-भक्ष  : पुं० [ष० त०] एक नरक का नाम।
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क्रिमि-शैल  : पुं० [मध्य० स०]=वल्मीक।
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क्रिमिज  : पुं० वि० [सं० क्रिमि√जन् (उत्पन्न करना)+ड]=कृमिज।
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क्रिमिजा  : स्त्री० [सं० क्रमिज+टाप्] लाह। लाख।
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क्रिमिध्नी  : स्त्री० [सं० क्रिमि√हन् (मारना)+टक्, ङीष्] सोमराजी।
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क्रिमिनल  : वि० १. =आपराधिक। २. =अपराधशील।
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क्रिय  : वि० [सं० समास में] कुछ करता हुआ या करनेवाला। क्रियाशील। जैसे—निष्क्रिय, सक्रिय आदि। पुं० =मेष राशि।
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क्रियमाण  : वि० [सं०√कृ (करना)+शानच्] १. जो किया जा रहा हो। २. सक्रिय। पुं० कर्म के चार प्रकार में से एक। वे कर्म जो प्रस्तुत काल में किये जा रहे हों।
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क्रिया  : स्त्री० [सं० कृ+श, रिङ् आदेश] १. कोई कार्य चलते या होते रहने की अवस्था या भाव। २. कोई ऐसा विशिष्ट कार्य जो किया जा रहा हो या किया जाता हो। जैसे—अन्त्येष्टि क्रिया। ३. कोई काम करने का ढंग, तरीका या विधि। जैसे—पारे की शोधन क्रिया (एक्शन, उक्त सभी अर्थों में) ४. वे सब कार्य जो नित्य या नैमित्तिक रूप से किये जाते हों। जैसे—नित्य क्रिया-शौच, स्नान, पूजन आदि। ५. उपचार, चिकित्सा प्रायश्चित, शिक्षा आदि के रूप अथवा इनके संबंध में नियम और विधि के अनुसार होनेवाले कार्य। जैसे—शस्त्र क्रियाव्यवहार क्रिया (मुकदमें की कारवाई आदि) ६. व्याकरण में वे शब्द जो किसी कार्य घटना आदि के होने या किये जाने के वाचक होते हैं। (वर्ब) जैसे—आना, खाना, जलना, पीना, बोलना, हँसना, आदि।
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क्रिया-कलाप  : पुं० [ष० त०] १. शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट संस्कार और कर्म। २. किसी व्यक्ति के द्वारा किसी क्षेत्र या समय में होनेवाले कार्य। जैसे—उस ऐँद्रजालिक के क्रियाकलाप देखकर सब लोग दंग रह गए।
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क्रिया-कांड  : पुं० [ष० त०] वेदों के वे विभाग अथवा वे शास्त्र जिनमें करम-कांड के विधान बतलाये गये हैं।
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क्रिया-चतुर  : पुं० [सं० त०] साहित्य में श्रृंगार रस का आलंबन वह नायक जो अनेक प्रकार के कौशल या छल करके अपना कार्य सिद्ध करने में दक्ष हो।
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क्रिया-निष्ठ  : वि० [ब० स०] १. शास्त्रों में बतलाये हुए धर्म धर्म-कार्य आदि ठीक तरह से और नियमित रूप से करनेवाला। २. अपने कर्त्तव्य या काम में ठीक तरह लगा रहने और उसका निर्वाह करनेवाला।
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क्रिया-पटु  : वि० [स० त०] कार्यकुशल।
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क्रिया-पथ  : पुं० [ष० त०] उपचार-विधि।
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क्रिया-पद  : पुं० [मध्य० स०] १. व्याकरण में, क्रिया का वाचक पद या शब्द। २. शब्दों का ऐसा पद या समूह जो क्रिया के रूप में प्रयुक्त होता हो।
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क्रिया-पाद  : पुं० [उपमित० स०] १. धर्म-शास्त्र में व्यवहार या मुकदमें के चार पादों (अंगों) में से एक जिसमें प्रतिवादी की ओर से वादी के अभियोग का उत्तर मिल चुकने पर वादी अपने प्रमाण साक्षी आदि उपस्थित करता है। २. शैव-दर्शन में दीक्षा-विधि का अंगों और उपांगों सहित प्रदर्शन।
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क्रिया-फल  : पुं० [ष० त०] १. यज्ञ आदि कर्मों से प्राप्त होनेवाले फल जो पुण्य, स्वर्ग-प्राप्ति आदि के रूप में होता है। २. वेदांत में कर्म के चार फल या परिणाम। यथा-उत्पत्ति, आप्ति, विकृति, और संस्कृति।
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क्रिया-ब्रह्म  : पुं० [कर्म० स०] द्वैतवादियों के अनुसार ब्रह्म का वह रूप जो सब प्रकार की क्रियाएँ करनेवाला माना जाता है।
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क्रिया-मातृका-दोष  : पुं० [ष० त०] बालकों का एक रोग जिसमें उन्हें जन्म से दसवें दिन, मास, या वर्ष ज्वर, कंप और अधिक मलमूत्र होता है।
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क्रिया-योग  : पुं० [तृ० त०] १. कार्य या क्रिया के साथ होनेवाला संबंध। २. पुराणों के अनुसार देव-पूजा और मंदिर-निर्माण आदि धार्मिक कार्य। ३. योग के तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान तीन क्रियात्मक रूप। (योग-सूत्र) ४. व्याकरण में शब्दों का क्रिया के साथ होनेवाला योग का संबंध।
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क्रिया-लक्षण-योग  : पुं० [ष० त०] जप, ध्यान आदि के द्वारा अपनी आत्मा या ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करना।
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क्रिया-लोप  : पु० [ष० त०] शास्त्र विहित नित्य-नैमित्तिक कर्मों का अभाव अर्थात् न किया जाना।
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क्रिया-वाचक  : वि० [ष० त०] क्रिया का अर्थ देने वाला। (पद या शब्द)।
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क्रिया-विशेषण  : पुं० [ष० त०] व्याकरण में ऐसा शब्द जिसमें किसी क्रिया अथवा विशेषण के संबंध में कोई विशिष्ट बात सूचित होती हो अथवा उसके काल, प्रकार, रूप स्थान आदि का बोध होता हो। जैसे—‘बहुत बड़ा’ में का ‘बहुत’ कब चलना है में का ‘कब’ अथवा ‘वे अचानक आ पहुँचे’ में का ‘अचानक’ क्रिया विशेषण है।
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क्रिया-शक्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. कोई कार्य कर सकने की शक्ति या समर्थता। २. [कर्म० स०] वेदांत में, ईश्वर से उत्पन्न वह शक्ति जिसमें ब्रह्मांड की सृष्टि का होना माना जाता है।
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क्रिया-शील  : वि० [ब० स०] १. क्रिया या कार्यों में लगा रहने वाला। २. दे० ‘कर्म-निष्ठ’।
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क्रिया-संक्रांति  : स्त्री० [ष० त०] शिक्षण। विद्यादान।
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क्रिया-स्नान  : पुं० [मध्य० स०] धर्मशास्त्र की विधि से किया जानेवाला ऐसा स्नान जिससे तीर्थ स्नान का फल मिलता हो।
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क्रियाकार  : पुं० [सं० क्रिया√कृ+अण्] क्रिया या काम करनेवाला।
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क्रियातिपत्ति  : पुं० [सं० क्रिया-अतिपत्ति, ष० त०] साहित्य में एक काव्यालंकार जिसमें प्रकृत से भिन्न कल्पना करके किसी विषय का वर्णन किया जाता है।
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क्रियात्मक  : वि० [सं० क्रिया-आत्मन्, ब० स० कप्] १. क्रिया या कार्य के रूप में आया या किया हुआ। २. जिसका क्रिया या कार्य के रूप में उपयोग या व्यवहार हो सकता हो। (प्रैक्टिकल)
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क्रियाद्वेषी (षिन्)  : पुं० [सं० क्रिया√द्विष् (द्वेष करना)+णिनि] धर्मशास्त्र में वह प्रतिवादी जो प्रमाण, साक्षी आदि को बिलकुल न मानता हो।
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क्रियापंथ  : पुं० =कर्मकांड।
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क्रियापवर्ग  : पुं० [सं० क्रिया-अपवर्ग, ष० त०] कार्य का अन्त। समाप्ति।
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क्रियाभ्युपगम  : पुं० [सं० क्रिया-अभ्युपगम, ष० त०] खेत के मालिक तथा किसान में होनेवाला वह समझौता जिसके अनुसार किसान को फसल का आधा भाग खेत के स्वामी को देना होता है। अधिया। (मनुस्मृति)।
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क्रियार्थ  : पुं० [सं० क्रिया-अर्थ, ब० स०] यज्ञ आदि क्रियाओं और आचरण आदि कर्त्तव्यों के संबंध में प्रमाण या विधि के रूप में माने जानेवाले वाक्य।
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क्रियार्थक-संज्ञा  : स्त्री० [क्रिया-अर्थक, ब० स० क्रियार्थक-संज्ञा, कर्म० स०] व्याकरण में वह संज्ञा जो किसी कार्य या क्रिया का भी अर्थ देती हो। जैसे—कहना, खाना, सोना आदि। (बर्बल नाउन)
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क्रियावसन्न  : पुं० [क्रिया-अवसन्न, तृ० त०] साक्षी या प्रमाण के अभाव में हार जानेवाला वादी।
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क्रियावाची (चिन्)  : वि० [सं० क्रिया√वच् (बोलना)+णिनि]=क्रियावाचक।
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क्रियावादी (दिन)  : पुं० [सं० क्रिया√वद् (बोलना)+णिनि] न्यायालय में अभियोग लेकर आनेवाला व्यक्ति। अभियोग (मुकदमा) चलानेवाला व्यक्ति।
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क्रियावान्  : वि० [सं० क्रिया+मतुप्, वत्व] १. सक्रिय। २. कर्मनिष्ठ।
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क्रियाविदग्धा  : स्त्री० [स० त०] साहित्य में वह नायिका जो कुछ विशिष्ट क्रियाओं या कार्यों के द्वारा नायक पर अपना अभिप्राय या भाव प्रकट करे।
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क्रियेंद्रिय  : स्त्री० [क्रिया-इंद्रिय, मध्य० स०] कर्मेंन्द्रिय (दे०)।
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क्रिस  : वि० [स्त्री० कृसा]=कृश। उदाहरण—क्रिसा अंग मापित करल।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रिसल  : पुं० =कृष्ण। (राज०) उदाहरण—क्रिसल त्रिभंगी तन्न,धरयौ किस्सोरति रूपं।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रिस्तान  : पुं० [अं० क्रिश्चियन] ईसा के मत का अनुयायी। ईसाई।
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क्रिस्तानी  : वि० [हिं० क्रिस्तान+ई (प्रत्यय)] १. क्रिस्तान-संबंधी। २. ईसाई धर्म से संबंध रखनेवाला।
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क्रीट  : पुं० =किरीट।
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क्रीड  : पुं० =क्रीड़ा।
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क्रीडक  : वि० [सं०√क्रीड (खेलना)+ण्वुल्-अक] १. क्रीड़ा करनेवाला। २. खेलाड़ी।
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क्रीड़न  : पुं० [सं०√क्रीड़+ल्युट-अन] क्रीड़ा करने या खेलने का काम।
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क्रीड़नक  : पुं० [सं० क्रीडन+कन्] १. खिलौना। २. खेल-तमाशा। ३. खेलवाड़। उदाहरण—किंतु क्रीडनक का लोगों के लिए पक्षी का-सा जीवन।—निराला।
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क्रीड़ना  : अ० [सं० क्रीडन०] १. क्रीड़ा करना। २. खेलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रीडनीयक  : पुं० [सं०√क्रीड़+अनीयर+कन्]=क्रीडनक।
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क्रीडा  : स्त्री० [सं०√क्रीड़+अ-टाप्] १. मन बहलाने या समय बिताने के लिए किया जानेवाला कोई मनोरंजक काम। आमोद-प्रमोद। (प्ले)। २. ताल का एक मुख्य भेद। ३. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक यगण और एक गुरु होता है। वि० केवल क्रीड़ा के विचार से किया ,बनाया या रखा हुआ। (यौ० के आरंभ में) जैसे—क्रीड़ा-कोप, क्रीड़ा-पर्वत, क्रीड़ा-मृग आदि।
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क्रीड़ा-कानन  : पुं० [ष० त०] वह उद्यान जहां लोग क्रीडा मनो-विनोद आदि के लिए जाते हों।
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क्रीडा-कोप  : पुं० [ष० त०] केवल किसी को चिढ़ाने के लिए किया जानेवाला दिखावटी गुस्सा।
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क्रीडा-कौतुक  : पुं० [ष० त०] खेल-कूद। आमोद-प्रमोद।
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क्रीडा-गृह  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहां लोग केवल क्रीड़ा करने जाते हों। २. केलि-मंदिर।
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क्रीडा-चक्र  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में छः यगण होते हैं। महामोदकारी।
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क्रीडा-पर्वत  : पुं० [ष० त०] बाटिका आदि में बनाया जानेवाला नकली पहाड़।
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क्रीडा-मृग  : पुं० [ष० त०] केवल क्रीडा के लिए या शौक से पाला हुआ पशु।
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क्रीडा-यान  : पुं० =क्रीडा-रथ।
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क्रीडा-रत्न  : पुं० [ष० त०] रति-क्रिया।
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क्रीडा-रथ  : पु० [ष० त०] उत्सव आदि के समय फूलों से सजाया हुआ रथ।
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क्रीडा-वन  : =पुं० -क्रीडा-कानन।
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क्रीड़ा-शैल  : पुं० =क्रीडा-पर्वत।
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क्रीडा-स्थल  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ किसी ने क्रीड़ाएँ की हों। जैसे—मथुरा भगवान् कृष्णचन्द्र का क्रीड़ा-स्थल है। २. वह स्थान जहाँ तरह तरह की क्रीड़ाएँ या खेल होते हों। खेलने की जगह या मैदान। (प्ले-ग्राउन्ड)।
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क्रीड़ानक  : पुं० [सं० क्रीड़ा से] क्रीड़ा-स्थल। उदाहरण—क्रीड़ानक यह विश्व महत् जिसकी इच्छा का।—पंत।
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क्रीडानारी  : स्त्री० [ष० त०] वेश्या।
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क्रीडित  : वि० [सं०√क्रीड़+क्त] १. क्रीड़ा के रूप में किया हुआ। खेला हुआ। २. क्रीड़ा में बिताया हुआ। उदाहरण—क्रीड़ितवय विद्या ध्ययनांतर है संस्थित।—निराला।
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क्रीत  : भू० कृ० [सं०√क्री (खरीदना)+क्त] क्रय किया हुआ खरीदा या मोल लिया हुआ। पुं० १. पंद्रह प्रकार के दासों में से वह जो मोल लेकर दास बनाया गया हो। २. दे० ‘क्रीतक’। स्त्री०=क्रीर्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रीतक  : पुं० [सं० क्रीत+कन्] मनु के अनुसार बारह प्रकार के पुत्रों में से वह जो किसी से मोल लेकर अपना बनाया गया हो।
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क्रीतानुशय  : पुं० [सं० क्रीत-अनुशय, स० त०] कोई वस्तु खरीद चुकने पर उसे लौटाने के लिए होनेवाला विवाद। (धर्मशास्त्र)
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क्रीर  : स्त्री०=क्रीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रीलना  : अ०=क्रीड़ा करना। उदाहरण—हम पितु पुरिखा पुब्ब, नृपति कल्हन वन क्रीलत।—चंदबरदाई।
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क्रीला  : स्त्री०=क्रीड़ा।
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क्रुद्ध  : वि० [सं०√क्रुध् (क्रोध करना)+क्त] १. जिसे क्रोध हुआ हो या जो क्रोध कर रहा हो। २. जिसके मन में किसी के प्रति क्रोध हो।
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क्रुमुक  : पुं० [सं० क्रमुक, पृषो० सिद्धि] सुपारी।
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क्रुश्वा (श्वन्)  : पुं० [सं०√क्रुश् (रोना)+क्वनिप्] श्रृगाल। गीदड़।
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क्रुष्ट  : वि० [सं०√क्रुश्+क्त] १. बुलाया हुआ। आहूत। २. जिसे झिड़का गया हो।
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क्रूर  : वि० [सं०√कृत (काटना)+रक्, क्रू० आदेश] [स्त्री० क्रूरा] १. दूसरे को कष्ट पहुँचाकर सुखी या संतुष्ट होनेवाला। २. निर्मम तथा हिंसक कार्य करनेवाला। ३. दया-हीन। निर्दय। निष्ठुर। ४. नीच बुरा। ५. तीखा। तीक्ष्ण। ६. कड़। कठिन। ७. गरम। उष्ण। ८. घोर। (डिं०)। पुं० [सं० ] १. पका हुआ चावल। भात। २. लाल फूल का कनेर। ३. भूताकुंश । गाव-जवाँ। ४. बाज पक्षी। ५. सफेद चील। कंका। ६. ज्योतिष में, विषम राशियाँ। ७. दे० ‘क्रूर ग्रह’।
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क्रूर-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] १. वह व्यक्ति जो क्रूरतापूर्ण बुरे काम करता हो। २. तितलौकी। ३. अर्कपुष्पी। सूरजमुखी।
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क्रूर-कोष्ठ  : वि० [ब० स०] (रोगी) जिसका पेट तेज दस्तावर दवाओं से भी साफ न होता हो। कड़े कोठे या पेटवाला।
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क्रूर-गंध  : पुं० [ब० स०] गंधक।
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क्रूर-ग्रह  : पुं० [कर्म० स०] राहु, केतु, शनि, मंगल और रवि ये पाँचों ग्रह जिन्हें पाप-ग्रह भी कहते हैं।
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क्रूर-चरित  : वि० [ब० स०] क्रूर या निर्दयतापूर्ण कार्य करनेवाला।
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क्रूर-चेष्टित  : वि०=क्रूर चरित।
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क्रूर-दंती  : स्त्री० [ब० स०] दुर्गा का एक नाम।
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क्रूर-दिन  : पुं० [कर्म० स०] फलति ज्योतिष में शनि, मंगल आदि कुछ विशिष्ट दिन जो क्रूर माने जाते हैं।
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क्रूर-दृक् (ग्, श्)  : वि० [ब० स०] १. जिसकी दृष्टि से क्रूरता झलकती या टपकती हो। २. खल। दुष्ट। पुं० १. मंगल ग्रह। २. शनि ग्रह।
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क्रूर-धूर्त  : पुं० [कर्म० स०] काला धतूरा।
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क्रूर-रव  : पुं० [ब० स०] श्रृंगाल। गीदड़।
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क्रूर-रवी (दिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] द्रोणकाक। डोम कौआ।
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क्रूरता  : स्त्री० [सं० क्रूर+तल्-टाप्] १. क्रूर होने की अवस्था या भाव। २. कठोर तथा बुरे काम करने की क्षमता या वृत्ति। ३. दुष्टता।
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क्रूरा  : स्त्री० [सं० क्रूर+टाप्] लाल फूलवाली पुनर्नवा। गदहपुन्ना २. कौड़ी। ३. क्रूर स्वभाववाली स्त्री।
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क्रूराकृति  : वि० [सं० क्रूर-आकृति, ब० स०] डरावनी या भयानक आकृतिवाला। पुं० रावण।
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क्रूरात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० क्रूर-आत्मन्, ब० स०] दुष्ट-प्रकृति या दुःस्वभाववाला।
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क्रूस  : पुं० [अं० क्राँस] धन चिन्ह (+) की तरह का ईसाईयों का धर्म-चिन्ह।
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क्रेणी  : स्त्री० [सं०√क्री=नि]=क्रय।
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क्रेता (तृ)  : पुं० [सं०√क्री+तृच्] वह जो दूसरों से वस्तुएँ मोल लेता हो। खरीदनेवाला।
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क्रेतृ-संघर्ष  : पुं० [सं० ष० त०] माल खरीदने वालों की चढ़ा-ऊपरी या होड़। (कौ०)।
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क्रेय  : वि० [सं०√क्री+यत्०] क्रय किये जाने या खरीदे जाने के योग्य।
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क्रैडिन  : पुं० [सं० क्रीडिन+अन्] साकमेघ यज्ञ में मरूत देवता के उद्देश्य से दिया जानेवाला हवि।
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क्रोच-रंध्र  : पुं० [ष० त०] हिमालय पर्वत की एक घाटी।
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क्रोंच-रिपु  : पुं० [ष० त०] १. परशुराम। २. कार्तिकेय।
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क्रोचपदी  : स्त्री० [सं० ] एक प्राचीन तीर्थ।
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क्रोड़  : स्त्री० [सं०√क्रोड् (घना होना)+घञ्] १. वह अवकाश जो किसी को आलिंगन करने के समय दोनों बाहों के बीच में पड़ता है। २. पेट के आगे और जाँघों के ऊपर का भाग जिस पर बच्चे बैठाये जाते हैं। गोद। ३. किसी वस्तु के बीच का भाग। ४. पेड़ के तने में होनेवाला खोखला भाग। ५. शनिग्रह। ६. सूअर। शूकर। ७. वाराही कंद। गेंठी।
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क्रोड-कन्या  : स्त्री० [ष० त०] वाराही कंद।
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क्रोड-चूड़ा  : स्त्री० [ब० स०] बड़ी गोरखमुंडी। महाश्रावणिका।
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क्रोड-पत्र  : पुं० [मध्य००स०] किसी सामयिक पत्र के साथ छापकर बाँटा जानेवाला पत्र। अतिरिक्त पत्र। (सप्लीमेंट)
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क्रोड-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] भटकटैया। कटेरी।
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क्रोड-पाद  : पुं० [ब० स०] कछुआ।
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क्रोड-पाली  : स्त्री० [सं० क्रोड√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+अच्, ङीष्] वक्षःस्थल। छाती।
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क्रोड-मुख  : पुं० [ब० स०] गैंडा।
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क्रोडांक  : पुं० [सं० क्रोड-अंक, ब० स०] कच्छप। कछुआ।
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क्रोडांघ्रि  : पुं० [सं० क्रोड-अंघ्रि, ब० स०]=क्रोडांक।
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क्रोडी-मुख  : पुं० [ब० स०] गैंडा।
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क्रोडीकरण  : पुं० [सं० क्रोड+च्वि√कृ (करना)+ल्युट-अन, ईत्व] १. आलिंगन करना। गले लगाना। २. गोद में बैठाना या लेना।
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क्रोडेष्टा  : स्त्री० [सं० क्रोड-इष्टा, ष० त०] मोथा। मुस्तक।
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क्रोध  : पुं० [सं०√क्रुध् (कुपित होना)+घञ्] [वि० क्रुद्ध] १. कोई अनुचित, अन्यायपूर्ण अथवा हानिकारक काम या बात होने पर मन में उत्पन्न होनेवाला वह उग्र तथा तीक्ष्ण मनोविकार जिसमें प्रवृत्त होकर मनुष्य उस अनुचित या हानिकारक काम या बात करनेवाले को कुछ कठोर दंड देना चाहता है। कोप। गुस्सा। (ऐंगर) २. साहित्य में उक्त मनोविकार का वह रूप जो रौद्र-रस का स्थायी भाव माना गया है। ३. साठ संवत्सरों में से उनसठवें संवत्सर का नाम।
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क्रोध-भवन  : पुं० =कोप भवन।
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क्रोध-मूर्च्छित  : वि० [तृ० त०] जो क्रोध में आकर आपे से बाहर हो गया हो।
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क्रोध-वश  : क्रि० वि० [ष० त०] क्रोध में होने के कारण। पुं० १. एक राक्षस का नाम। २. काद्रवेय नामक साँपों में से एक साँप का नाम।
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क्रोध-वशा  : स्त्री० [ष० त०] दक्ष प्रजापति की एक कन्या।
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क्रोधज  : वि० [सं० क्रोध√जन् (उत्पन्न होना)+ड०] क्रोध से उत्पन्न होने वाला। पुं० मोह जिसकी उत्पत्ति क्रोध से मानी गई है।
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क्रोधना  : वि० [सं०√क्रुध+युच्-अन-टाप्] क्रोधी स्वभाववाली। अ० क्रुद्ध होकर किसी पर बिगड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रोधवंत  : वि० [सं० क्रोधवत्] १. क्रोध करनेवाला। २. क्रोध या गुस्से से भरा हुआ।
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क्रोधहा (हन्)  : पुं० [सं० क्रोध√हन् (मारना)+क्विप्] विष्णु।
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क्रोधा  : स्त्री० [सं० क्रोध+अच्-टाप्] दक्ष प्रजापति की एक कन्या।
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क्रोधित  : वि० [हिं क्रोध से] जो क्रोध से भरा हो। कुद्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्रोधी (धिन्)  : वि० [सं० क्रोध+अच्-टाप्] [स्त्री० क्रोधिनी] जिसे बहुत जल्दी अथवा बिना विशेष बात के गुस्सा आ जाता हो। प्रायः क्रोध करनेवाला। गुस्सावर। पुं० क्रोध नामक संवत्सर। स्त्री० संगीत में गांधार की दो श्रुतियों में से अंतिम।
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क्रोश  : पुं० [सं०√कुश+घञ्] कोस। (दूरी की नाप)।
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क्रोश-ताल  : पुं० [ब० स०] ढक्का नाम का बाजा।
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क्रोशन  : पुं० [सं०√क्रुश्+ल्युट-अन] १. चिल्लाने की क्रिया या भाव। २. चिल्लाहट।
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क्रोशिया  : पुं० [अं० क्राँचेट] लोहे, आदि की वह तीली या सलाई जिसकी सहायता से गंजी, मोजे, रूमाल आदि केवल हाथों से (करघे पर नहीं) बुने जाते हैं।
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क्रोष्टा (ष्टु)  : पुं० [सं०√क्रुश्+तुच्] [स्त्री० क्रोष्टी] गीदड़। श्रृंगाल।
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क्रोष्टु-फल  : पुं० [सं० ब० स०] इंगुदी।
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क्रोष्टु-शीर्ष  : पुं० [सं० ष०त०]=क्रोष्टु-शीर्षक।
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क्रोष्टु-शीर्षक  : पुं० [सं० ष० त०,+कन्] बात के प्रकोप से घुटनों में पीड़ा और सूजन होने का रोग।
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क्रोष्टुक  : पुं० [सं०√कश्+तुन्+कन्] गीदड़ (श्रृंगाल)
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क्रोष्ट्री  : स्त्री० [सं० क्रोष्टु+ङीष्, क्रोष्टु आदेश] १. गीदड़ी। श्रृंगाली। २. काली विदारी।
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क्रौंच  : पुं० [सं० क्रुंच+अण्] १. हलके भूरे रंग की एक प्रसिद्ध बड़ी चिड़िया जो ठंढे़ प्रदेशों में पानी के किनारे रहती है। कराँकुल। २. असम प्रदेश का एक पहाड़ जो हिमालय की ही एक शाखा है। ३. सात द्वीपों में से एक। (पुराण) ४. मयदावन के पुत्र का नाम। ५. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ६. अर्हतों की एक ध्वजा। ७. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में भ, म, स, भ, न, न, न, न,गण और एक गुरु होता है।
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क्रौंचदारण  : पुं० [सं० क्रौंच√दृ (विदारण)+णिच्+ल्यु-अन]=क्रौंचरिपु।
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क्रौंचादन  : पुं० [सं० क्रौच-अदन, ष० त०] मृणाल।
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क्रौंचादनी  : स्त्री० [सं० क्रौचादन+ङीष्] पद्यबीज। कमलगट्टा।
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क्रौचाराति  : पुं० [सं० क्रौच-अराति, ष० त०]=क्रौंचरिपु।
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क्रौंचारुण  : पुं० [सं० क्रौच-अरुण, उपमि० स०] युद्ध में एक प्रकार की व्यूह-रचना।
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क्रौंची  : स्त्री० [सं० क्रौच+ङीष्०] कश्यप ऋषि की एक कन्या।
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क्रौड  : वि० [सं० क्रौड+अण्] १. क्रोड़ संबंधी। कोड़ का। २. शूकर-संबंधी। ३. वाराह अवतार से संबंध रखनेवाला।
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क्रौर्य  : पुं० [सं० क्रूर+ष्यञ्] क्रूरता।
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क्रौशशतिक  : वि० [सं० क्रोशशत+ठञ्-इक] जो सौ कोस चला हो अथवा चल सकता हो। पुं० ऐसा गुरु या शिक्षक जिसके पास सौ कोस की दूरी से चलकर जाना उचित हो।
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क्लब  : पुं० [अं०] १. किसी वर्ग-विशेष के लोगों का संघटन या समुदाय जिसकी स्थापना किसी विशेष दृष्टि-कोण (जैसे—मनोरंजन, शोध आदि) से की गई हो। २. वह कमरा या भवन जिसमें स्थायी रूप से उक्त संघटन या समुदाय के सदस्य एकत्र होते हैं।
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क्लम  : पुं० [सं०√क्लम् (थक जाना)+घञ्]=क्लांति।
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क्लमथ  : पुं० [सं०√क्लम्+अथच्]=क्लांति।
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क्लर्क  : पुं० [अं०] किसी कार्यालय अथवा दूकान का वह कर्मचारी जो वहाँ का हिसाब-किताब रखता या चिट्ठी-पत्री लिखता हो। लिपिक।
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क्लर्की  : स्त्री० [अं० क्लर्क] क्लर्क का काम अथवा पद।
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क्लाउन  : पुं० [अं०] मसखरा या विदूषक।
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क्लांत  : वि० [सं०√क्लम्+क्तिन्] थका हुआ। शिथिल। श्रांत।
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क्लांति  : स्त्री० [सं०√क्लम्+क्तिन्] १. क्लांत होने की अवस्था या भाव। शिथिलता। थकावट। २. आयास। परिश्रम।
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क्लारनेट  : पुं० [अं०] बासुँरी की तरह का एक प्रकार का बड़ा बाजा।
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क्लास  : पुं० [अं०] १. =श्रेणीं। २. =वर्ग। ३. दरजा।
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क्लिगल  : पुं० [डि०] जिरहबख्तर। कवच।
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क्लिन्न  : वि० [सं० क्लिद् (गीला होना)+क्त] आर्द्र। नम।
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क्लिन्न-वर्त्म (न्)  : पुं० [ब० स०] आँखों से पानी गिरनें और पलकों में खुलजी होने का रोग।
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क्लिन्न-हृद  : वि० [ब० स०] कोमल हृदय। दयालु।
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क्लिप्  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार का छोटा उपकरण जो सटाये हुए कपडो़ बालों आदि को पकड़े रहता है। पंजा।
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क्लिशित  : भू० कृ,० [सं०√क्लिश् (कष्ट होना)+क्त] जिसे बहुत क्लेश हुआ हो।
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क्लिष्ट  : वि० [सं०√क्लिश्+क्त] १. क्लेशयुक्त कष्ट में पड़ा हुआ। २. (वाक्य या शब्द) जिसका अर्थ सहसा लोगों की समझ में न आता हो अथवा जिसका अर्थ लगाने में कुछ खींच-तान करनी पड़ती हो। कठिन। दुरुह। ३. (बात) जो पूर्वापर विरुद्ध या बेमेल हो। ४. नष्ट-भ्रष्ट। ५. मुरझाया हुआ।
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क्लिष्ट-कल्पना  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसी कल्पना या मन की उपज जो स्वतः सिद्ध या स्पष्ट न हो, बल्कि बहुत खींच तान या कठिनता से ठीक सिद्ध की जा सके।
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क्लिष्ट-कल्पित  : वि० [कर्म० स०] (मत या विचार) जो क्लिष्ट कल्पना से निकला हो। (फारफेच्ड)
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क्लिष्ट-घात  : पुं० [कर्म० स०] किसी को बहुत अधिक कष्ट पहुँचाकर उसके प्राण लेना।
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क्लिष्टता  : स्त्री० [सं० क्लिष्ट+तल्-टाप्] क्लिष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव।
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क्लिष्टत्व  : पुं० [सं० क्लिष्ट+त्व] १. क्लिष्टता० २. साहित्यक रचना का वह दोष जिसके कारण लोगों को उसका अर्थ समझने में बहुत कठिनता होती है।
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क्लिष्टवर्त्म  : पुं० =क्लिन्नवर्त्म।
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क्लिष्टा  : स्त्री० [सं० क्लिष्ट+अच्-टाप्] आत्मा को कष्ट देनेवाली चित्तवृत्तियाँ। (पतंजलि)।
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क्लिष्टि  : स्त्री० [सं०√क्लिश्+क्तिन्] १. क्लेश। २. नौकरी।
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क्लीत  : पुं० [सं०√क्लीव (मस्त होना)+क्त, नि० व का लोप] गंदी चीजों मे उत्पन्न होने वाले एक प्रकार की जहरीले कीड़े। (सुश्रुत)।
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क्लीतक  : पुं० [सं०√क्लीव, क्विप् नि० वलोप, क्ली√तक् (हँसना)+ अच्].जेठी मधु। मुलेठी।
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क्लीव  : वि० [सं०√क्लीव+क] १. (पुरुष) जिसमें स्त्री के साथ संभोग करने की शक्ति न हो। नपुंसक। नामर्द। २. कायर। डरपोंक।
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क्लीवता  : स्त्री० [सं० क्लीव+तल्-टाप्] १. क्लीव या नपुंसक होने की अवस्था या भाव। २. कायरता।
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क्लीवत्व  : पुं० [सं० क्लीव+त्व]=क्लीवता।
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क्लृप्त  : पुं० [सं०√कृप् (निश्चित करना)+क्त,ऋ=लृ-] नियत लगान, महसूल या कर।
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क्लेद  : पुं० [सं०√क्लिद्+घञ्] १. आर्द्रता। गीलापन। नमी। २. पसीना। ३. कष्ट। पीड़ा। उदाहरण—रहा न उसको क्लेद, मरण भी बना स्वर्ग का द्वार।—पंत।
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क्लेदक  : वि० [सं०√क्लिद्+णिच्+ण्वुल्-अक] पसीना लानेवाला। पुं० १. शरीर के अन्दर की दस प्रकार की अग्नियों में से एक। २. शरीर के अन्दर का वह कफ-रूपी तत्त्व जिससे पसीना आता है।
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क्लेदन  : पुं० [सं०√क्लिद्+णिच्+ल्युट-अन] १. आर्द्र या नम करना। २. शरीर में किसी युक्ति से पसीना लाना। (वैद्यक)
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क्लेदु  : पुं० [सं०√क्लिद्+उन्] १. चन्द्रमा। २. सन्निपात रोग।
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क्लेश  : पुं० [सं० क्लिश्+घञ्] १. वह कष्टपूर्ण मानसिक स्थिति जिसमें मनुष्य चिन्ताओं के कारण विकल तथा संतप्त रहता है। २. घर-गृहस्थी या आपस में होनेवाली कलह।
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क्लेश-कर  : वि० [सं० ष० त०] (काम या बात) जिससे क्लेश उत्पन्न होता हो।
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क्लेशक  : वि० [सं०√क्लिश्+णिच्+ण्वुल्-अक] क्लेश देनेवाला।
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क्लेशित  : वि० [सं० क्लेश+इतच्] जिसे क्लेश हुआ हो या हो रहा हो। बहुत ही दुखी।
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क्लेशी (शिन्)  : वि० [सं०√क्लिश्+णिनि] क्लेश उत्पन्न करनेवाला। क्लेशकर।
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क्लेष्टा (ष्ट्र)  : पुं० [सं०√क्लेश+तृच्] क्लेश देनेवाला।
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क्लेस  : पुं० =क्लेश। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्लैतकिक  : पुं० [सं० क्लीतक+ठञ्-इक] प्राचीन काल की वह मदिरा जो मुलेठी से बनाई जाती थी।
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क्लैव्य  : पुं० [सं० क्लीव+ष्यञ्] क्लीव होने की अवस्था या भाव। नपुसंकता। हिजड़ापन।
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क्लोम (न्)  : पुं० [सं०√क्लु (गति)+मनिन्] दाहिनी ओर का फेफड़ा। फुफ्फुस।
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क्लोरोफार्म  : पं० [अं०] एक प्रसिद्ध पाश्चात्य ओषधि जिसे सूँघ लेने से मनुष्य अचेत या बेहोश हो जाता है। (इसका उपयोग प्रायः शस्त्र चिकित्सा आदि के समय होता है)।
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क्व  : अव्य० [सं० किम्+अत्, कु० आदेश] कहाँ।
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क्वचित्  : अव्य० [द्व० स०] कदाचित् ही कोई। शायद ही कोई। बहुत कम वि० कहीं-कहीं या कभी-कभी परन्तु बहुत कम मिलने या होनेवाला। (रेअर) जैसे—क्वचित् प्रयोग।
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क्वण  : पुं० [सं०√क्वण् (शब्द)+अप्] वीणा का शब्द। उदाहरण—सरस्वती से स्वयं आपका सुन वीणा-क्वण।—पंत। २. घुघँरुओं के बजने का शब्द। ३. झंकार।
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क्वणन  : पुं० [सं०√क्वण+ल्युट-अन] १. बाजा बजने से होनेवाला शब्द। २. मिट्टी का छोटा बरतन।
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क्वणित  : भू० कृ० [सं०√क्वण्+क्त] १. जो बजा या बजाया गया हो। २. ध्वनित। गूंजता हुआ। पुं० ध्वनि का शब्द।
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क्वथ  : पुं० [सं०√क्वथ् (काढ़ा बनाना)+अच्]=क्वाथ।
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क्वथन  : पुं० [सं०√क्वथ्+ल्युट-अन] तरल पदार्थ आग पर चढ़ा कर औटाने या काढ़ने का काम।
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क्वथन-बिंदु  : पुं० =क्वथनांक।
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क्वथनांक  : पुं० [सं० क्वथन-अंक, ष० त०] ताप की वह बढ़ी हुई अवस्था, जिसमें तरल पदार्थ उबलने या खौलने लगते हैं। क्वथन-बिंदु।। (ब्वायलिंग प्वाइण्ट)
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क्वथित  : भू० कृ० [सं०√क्वथ्+क्त] औटा या औटाया हुआ।
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क्वथिता  : स्त्री० [सं० क्वथित+टाप्] १. घी में भूनी हुई हल्दी को दूध में पकाकर बनाया हुआ रसा। (वैद्यक) २. शहद में बननेवाला एक प्रकार का आसव।
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क्वंपु  : पुं० [सं० कु√अंग् (गति)+उण्]=कंगु। (अन्न)
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क्वाँचर  : पुं० [सं० कुचर] काम करने के समय बैठ-बैठ जानेवाला बैल। वि० कमजोर। दुर्बल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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क्वाचित्क  : वि० [सं० क्वचित्+कञ्] क्वचित् होने या मिलनेवाला, विरल।
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क्वाण  : पुं० [सं०√क्वण्+घञ्]=क्वणन।
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क्वाथ  : पुं० [सं०√क्वथ्+घञ्] १. औषधियों को पानी में उबालकर उनका निकाला हुआ गाड़ा रस। काढ़ा। जोशाँदा। २. व्यसन। ३. कष्ट। क्लेश।
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क्वाथोद्भव  : पुं० [सं० क्वाथ-उद्भव, ब० स०] रसौत।
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क्वान  : पुं० =क्वणन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्वाँर  : पुं० =कुआर (महीना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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क्वार  : पुं० आश्विन मास। पुं० वि०=कुमार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्वारछल  : पुं० [सं० कुमार, हिं० क्वारा+छल] क्वारापन। मुहावरा—(बालिका या युवती का) क्वारछल उतरना=प्रथम समागम करके कौमार्य भंग करना।
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क्वारपत  : पुं० =क्वारछल।
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क्वारपन  : पुं० [हिं० क्वारा+पन (प्रत्यय)] क्वाँरे या अविवाहित होने की अवस्था या भाव।
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क्वाँरा  : वि० [सं० कुमार, पा० कुमारी] [स्त्री० क्वाँरी] [भाव० क्वारापन] जिसका विवाह न हुआ हो अथवा जिसने विवाह न किया हो कुआँरा। कुमार।
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क्वारा  : वि० [सं० कुमार] [स्त्री० क्वारी] जिसका विवाह न हुआ हो अथवा जिसने विवाह न किया हो। अविवाहित।
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क्वारापन  : पुं० [हिं० क्वारा+पन] क्वारे होने की अवस्था या भाव।
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क्वासि  : पद [सं० क्व-असि, दीर्घ संधि] तू किस स्थान पर या कहाँ है।
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क्विनाइन  : पुं० =कुनैन। (ओषधि)।
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क्वैला  : पुं० =कोयला।
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क्वैलारी  : स्त्री०=कोइलरी।
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क्ष  : पुं० [सं०√क्षि (क्षय)+ड] १. खेत। २. किसान। ३. बिजली। ४. नृसिंह अवतार।
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क्षण  : पुं० [सं०√क्षण् (नष्ट करना)+अच्] १. काल का एक बहुत छोटा परिमाण जो प्रायः ४/५ सेकंड या तीस कला का होता है। २. एक बार पलक झपकने भर का समय। निमेष। ३. अवतार। मौका। ४. खाली समय। अवकाश।
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क्षण-द्युति  : स्त्री० [सं० ब० स०] विद्युत्। बिजली।
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क्षण-निःश्वास  : पुं० [ब० स०] सूँस नामक जल-जंतु।
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क्षण-प्रभा  : स्त्री० [ब० स०] बिजली। विद्युत्।
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क्षण-भंग  : पुं० [स० त०] १. बौद्धों का क्षणिकवाद सिद्धान्त। २. [ब० स०] संसार। वि०=क्षणभंगुर।
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क्षण-भंगुर  : वि० [पं० त०] १. एक अथवा कुछ ही क्षणों में नष्ट हो जानेवाला। २. नष्ट होनेवाला। अस्थायी।
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क्षण-मूल्य  : वि० [मध्य० स०] माल लेते ही तुरंत दिया जानेवाला मूल्य। नगद दाम।
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क्षणतु  : पुं० [सं० क्षण्+अतु] घाव। जखम।
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क्षणद  : पुं० [सं० क्षण√दा (दान)+क] १. जल। पानी। २. ज्योतिषी। ३. वह जिसे रात के समय दिखाई न देता हो।
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क्षणदा  : स्त्री० [सं० क्षणद+टाप्] १. रात्रि। रात। २. हल्दी।
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क्षणदाकर  : पुं० [सं० क्षणदा√कृ (करना)+ट] चन्द्रमा।
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क्षणन  : पुं० [सं०√क्षण्+ल्युट्—अन] १. मार डालना। २. घायल करना।
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क्षणरामी (मिन्)  : पुं० [सं० क्षण+√रम् (रमना)+णिनि] कबूतर।
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क्षणिक  : वि० [सं० क्षण+ठन्—इक] १. क्षण संबंधी। २. क्षणभर ठहरने या होनेवाला। ३. अस्थायी या अनित्य। पुं०=क्षणिकवाद।
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क्षणिक-वाद  : पुं० [ष० त०] बौद्धों का यह सिद्धान्त कि प्रत्येक वस्तु अथवा उसका कण या तत्त्व प्रतिक्षण नष्ट होकर फिर से नया बनता रहता है। सब चीजों को क्षणिक मानने का सिद्धान्त।
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क्षणिकता  : स्त्री० [सं० क्षणिक+तल्—टाप्] क्षणिक होने की अवस्था या भाव।
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क्षणिका  : स्त्री
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क्षणिनी  : स्त्री० [सं० क्षण+इनि+ङीप्] रात या रात्रि।
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क्षणी (णिन्)  : वि० [सं० क्षण+इनि] क्षण भर ठहरने या होने वाला।
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क्षत  : वि० [सं०√क्षण्+क्त] १. जिसे क्षति या हानि पहुँची हो। २. (व्यक्ति) जिसका आघात या चोट लगने से कोई अंग टूट या बिगड़ गया हो। घायल। ३. (वस्तु) जिसका कोई भाग टूट चुका हो। खंडित। पुं० आघात आदि से उत्पन्न होनेवाला घाव। जखम।
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क्षत-योनि  : वि० [ब० स०] (बालिका या स्त्री) जिसका कौमार्य खंडित हो चुका हो।
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क्षत-रोहण  : पुं० [ष० त०] जखम या घाव का भरना।
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क्षत-विक्षत  : वि० [कर्म० स०] १. (व्यक्ति) जिसे बहुत चोट लगी हो। बहुत घायल और लहूलुहान। २. (पदार्थ) अनेक आघातों अथवा भारी आघात के कारण जिसके सब अंग विकृत हो गये हों।
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क्षत-वृत्ति  : वि० [ब० स०] जिसकी वृत्ति या जीविका का साधन नष्ट हो चुका हो।
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क्षत-व्रण  : पुं० [मध्य० स०] आघात या चोट लगने से होनेवाला घाव।
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क्षत-व्रत  : वि० [ब० स०] जिसका व्रत खंडित हो चुका हो।
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क्षतघ्न  : पुं० [सं० क्षत√हन् (हिंसा)+टक्] कुकरौंधा।
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क्षतघ्नी  : स्त्री० [सं० क्षतघ्न+ङीप्] लाख। लाह।
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क्षतज  : वि० [सं० क्षत√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. क्षत या आघात से उत्पन्न होने वाला। जैसे क्षतज ज्वर। २. लाल। सुर्ख। पुं० १. खून। रक्त। २. पीव। मवाद। ३. वैद्यक में सात प्रकार की प्यासों में से एक जो घाव में से बहुत अधिक रक्त निकल जाने के कारण लगती है।
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क्षंतव्य  : वि० [सं० क्षम् (सहना)+तव्यत्] (बात या व्यक्ति) जो क्षमा किये जाने के योग्य हो। क्षम्य।
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क्षतहर  : पुं० [सं० क्षत√ह् (हरण)+ट] अगर का पेड़।
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क्षता  : वि० [सं० क्षत+टाप्] (कन्या) जिसका कौमार्य खंडित हो चुका हो।
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क्षंता (तृ)  : वि० [सं० अम्+तृच्] क्षमा करनेवाला। क्षमाशील।
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क्षतारि  : वि० [सं० क्षत-अरि, ब० स०] विजयी।
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क्षताशौच  : पुं० [सं० क्षत-अशौच, मध्य० स०] घायल या जख्मी होने के कारण लगनेवाला एक प्रकार का अशौच।
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क्षति  : स्त्री० [सं० √क्षण्+क्तिन्] १. आघात या चोट लगने से होने वाला घाव। २. कोई चीज खो जाने, खराब या क्षीण हो जाने अथवा किसी के द्वारा नष्ट किये जाने पर होनेवाली हानि। ३. व्यापार में होनेवाली हानि। घाटा। ४. कीर्ति या यश में लगनेवाला धब्बा। कलंक।
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क्षति-ग्रस्त  : वि० [तृ० त०] जिसकी किसी प्रकार की क्षति या हानि हुई हो।
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क्षति-पूर्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. हानि या घाटे का पूरा होना। २. वह धन जो किसी की हानि पूरी करने के बदले में उसे दिया जाय।
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क्षतोदर  : पुं० [सं० क्षत-उदर, ब० स०] एक रोग जिसमें आंतों में क्षत या घाव हो जाने पर जल भरने लगता है।
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क्षत्ता (त्तृ)  : पुं० [सं०√क्षद् (संभरण)+तृच] १. द्वारपाल। दरबान। २. मछली। ३. नियोग करनेवाला पुरुष। ४. दासी पुत्र। ५. एक प्राचीन वर्णसंकर जाति जिसकी उत्पत्ति शूद्र पिता और क्षत्रिय माता से कही गई है।
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क्षत्र  : पुं० [सं०√क्षण्+क्विप् क्षत्√त्रै (रक्षाकरना)+क] १. बल, शक्ति या सत्ता। २. शासित क्षेत्र। ३. योद्धा। ४. क्षत्रिय जति या उसका व्यक्ति। ५. शरीर। ६. घन। ७. जल। पानी। ८. तगर का वृक्ष।
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क्षत्र-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] ऐसे कर्म जिन्हें क्षत्रिय करते हों अथवा जो क्षत्रियों को करने चाहिए।
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क्षत्र-धर्म  : पुं० [ष० त०] १. क्षत्रियों के काम या धर्म। यथा—अध्ययन दान, प्रजापालन आदि। २. शौर्य। बहादुरी।
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क्षत्र-धर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०] क्षत्रियों के धर्म का पालन करनेवाला। पुं० योद्धा। वीर।
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क्षत्र-धृति  : पुं० [ष्० त०] १. सावन की पूर्णिमा को होनेवाला एक यज्ञ। २. राजसूय यज्ञ का एक भाग।
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क्षत्र-पति  : पुं० [ष० त०] किसी क्षत्र या राज्य का स्वामी। राजा।
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क्षत्र-बंधु  : पुं० [ष० त०] १. क्षत्रिय जाति का व्यक्ति। २. ऐसा व्यक्ति जो जन्म से तो क्षत्रिय हो, परन्तु क्षत्रियों के से कर्म न करता हो।
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क्षत्र-योग  : पुं० [ष० त०] ज्योतिष में एक योग। जो मनुष्य को प्रायः राजा या उसके समान बनाता है।
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क्षत्र-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] क्षत्रियों की विद्या अर्थात् युद्ध करने की कला या विद्या।
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क्षत्र-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] मुचकुन्द नामक वृक्ष।
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क्षत्र-वृद्ध  : पुं० [स० त०] तेरहवें मनु के पुत्र का नाम।
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क्षत्र-वृद्धि  : पुं० [ब० स०]=क्षत्रवृद्ध।
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क्षत्र-वेद  : पुं० [ष० त०] धनुर्वेद।
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क्षत्र-सव  : पुं० [ष० त०] १. केवल क्षत्रियों के करने योग्य यज्ञ। २. प्राचीन भारत का एक उत्सव जिसमें बलि चढ़ाई जाता थी।
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क्षत्रप  : पुं० [सं० क्षत्र√पा (रक्षण)+क] १. क्षत्रपति। राजा। २. शक अथवा पारस के प्राचीन साम्राज्य में मांडलिक राजाओं की उपाधि या पद। ३. राजा की ओर से किसी देश या प्रान्त का शासन करनेवाला प्रधान अधिकारी।
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क्षत्राणी  : स्त्री० [सं० क्षात्र+आनुक्, ङीप्] १. क्षत्रिय जाति की स्त्री। २. बहादुर या वीर स्त्री।
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क्षत्रांतक  : पुं० [सं० क्षत्र-अतंक ष० त०] परशुराम जिन्होंने क्षत्रियों का अन्त या नाश किया था।
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क्षत्रिनी  : स्त्री० [सं०] मजीठ। स्त्री०=क्षत्राणी।
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क्षत्रिय  : पुं० [सं० क्षत्र+घ—इय] [स्त्री० क्षत्रिया, क्षत्राणी] १. हिन्दुओं के चार वर्णों में से दूसरा वर्ण। इस वर्ण के लोगों का काम देश का शासन और शत्रुओं से उसकी रक्षा करना माना गया है। २. उक्त जाति का पुरुष। 3 राजा। ४. बल। शक्ति।
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क्षत्रियका  : स्त्री० [सं० क्षत्रिया√कन्+टाप्, ह्रस्व]=क्षत्रिया।
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क्षत्रियहण  : स्त्री० [सं० क्षत्रिय√हन् (हिंसा)+अच्, ण्त्व] परशुराम।
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क्षत्रिया  : स्त्री० [सं० क्षत्रिय+टाप्] क्षत्रिय जाति की स्त्री।
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क्षत्रियाणी  : स्त्री० [सं० क्षत्रिय+आनुक, ङीष्] क्षत्रिय की पत्नी।
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क्षत्रियिका  : स्त्री० [सं० क्षत्रिया+कन् टाप्, ह्रस्व]=क्षत्रिया।
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क्षत्रियी  : स्त्री० [सं० क्षत्रिय+ङीष्]=क्षत्रियाणी।
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क्षत्री  : पुं०=क्षत्रिय।
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क्षदन  : पुं० [सं० √क्षद् (भक्षण)+ल्युट्—अन] दाँत।
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क्षपण  : पुं० [सं०√क्षप् (फेंकना)+ल्युट—अन्] १. नष्ट करना। २. [क्षप्+णिच्+ल्यु—अन] जैन या बौद्ध भिक्षु।
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क्षपणक  : पुं० [सं० क्षपण+कन्] एक प्रकार के जैन भिक्षु या साधु जो प्रायः नंगे रहते हैं। वि० १. नंगा। २. निर्लज्ज।
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क्षपण्यु  : पुं० [सं०√क्षप्+अन्यु (बा०)] अपराध।
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क्षपा  : स्त्री० [सं०√क्षप्+अच्—टाप्] १. रात। २. २४ घंटों का एक मान। ३. हल्दी।
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क्षपा-घन  : पुं० [ष० त०] काला बादल।
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क्षपा-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. रात्रि के स्वामी अर्थात् चन्द्रमा। २. कपूर।
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क्षपा-पति  : पुं० [ष० त०]=क्षपानाथ।
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क्षपाकर  : वि० [सं० क्षपा√कृ (करना)+ट] रात करनेवाला। पुं० १. चन्द्रमा। २. कपूर।
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क्षपाचर  : पुं० [सं० क्षपा√चर् (गति)+ट] वह जो रात्रि में विचरण करता हो। जैसे—उल्लू, राक्षस आदि।
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क्षपाट  : पुं० [सं० क्षपा√अट् (गति)+अच्] राक्षस।
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क्षपांत  : पुं० [सं० क्षपा-अन्त, ष० त०] प्रभात। भोर।
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क्षपांध्य  : पुं० [सं० क्षपा-अन्त, ष० त०] रतौंधी।
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क्षपित  : वि० [सं०√क्षप् (क्षय)+णिच्+क्त] १. नष्ट किया हुआ। २. कुचला या दबाया हुआ।
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क्षम  : वि० [सं०√क्षम् (सहना)+अच्] १. बरदाश्त करनेवाला। सहनशील। सहिष्णु। २. चुप रहनेवाला। ३. समर्थ। सशक्त। ४. क्षमा करनेवाला।
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क्षमणीय  : वि० [सं०√क्षम्+अनीयर्] १. (अपराध या दोष) जो क्षमा किया जा सके। क्षम्य। २. चुपचाप तथा धैर्यपूर्वक सहने योग्य।
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क्षमता  : स्त्री० [सं० क्षम+तल्, टाप्] १. ऐसी मानसिक या शारीरिक शक्ति जिसके सहारे मनुष्य कोई काम करने में समर्थ होता है। सामर्थ्य। (पावर) २. उक्त की तरह का कोई काम करने का गुण या विशेषता। (एबिलिटी) ३. ग्रहण या धारण कर सकने की पात्रता
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क्षमना  : स० [हिं० क्षमा] क्षमा करना। माफ़ करना।
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क्षमनीय  : वि०=क्षमणीय।
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क्षमवाना  : स० [क्षमना का प्रेर०] १. अपने आपको क्षमा करना। २. किसी को क्षमा करने में प्रवृत्त करना। किसी को क्षमा दिलवाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्षमा  : स्त्री० [सं०√क्षम्+अङ्—टाप्] १. मन की वह भावना या वृत्ति जिससे मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाया हुआ कष्ट चुपचाप सहनकर लेता है, और कष्ट पहुँचानेवाले के प्रति मन में कोई विकार नहीं आने देता। २. किसी दोषी या अपराधी को बिना किसी प्रतिकार के छोड़ देने का भाव। माफी। ३. भूल का अपराध या होने पर अपनी भूल या अपराध स्वीकार करते हुए यह प्रर्थना करना कि हम अब फिर ऐसा काम नहीं करेंगे, इस बार हमें दयापूर्वक छोड़ दीजिए। ४. खैर का पेड़। ५. धरती। पृथ्वी। ६. दक्ष की एक पुत्री। ७. नदी। ८. एक की गिनती। ९. एक प्रकार का छन्द। १॰. दुर्गा का एक नाम। ११. राधिका की एक सखी।
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क्षमा-ज  : पुं० [सं० क्षमा√जन् (प्रादुर्भाव)+ड] मंगल ग्रह जो पृथ्वी से उत्पन्न माना गया है।
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क्षमा-दंश  : पुं० [ष० त०] सहिंजन का पेड़।
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क्षमा-मंडल  : पुं० [ष० त०] भूमंडल।
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क्षमा-शील  : वि० [ब० स०] जो प्रायः या सदा सब को क्षमा करता रहता हो।
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क्षमाई  : स्त्री० [हिं० क्षमा+ई] क्षमा करने की क्रिया या भाव।
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क्षमाना  : सं० [हिं० क्षमाना का प्रेर०] क्षमा या माफ करना। 2=क्षमना (क्षमा करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्षमापन  : पुं० [हिं० क्षमा+पन] क्षमा करने का काम या भाव। माफी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्षमाभुक (ज्)  : पुं० [सं० क्षमा√भुज् (भोग करना) क्विप्] राजा।
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क्षमाभृत्  : पुं० [सं० क्षमा √भृ (धारण) +क्विप्] पहाड़।
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क्षमालु  : वि० [सं०√क्षम्+आलुच्] सब को क्षमा करनेवाला। क्षमाशील।
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क्षमावना  : स० [हिं० क्षमना का प्रे०] क्षमा कराना। माफ़ कराना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्षमावान् (वत्)  : वि० [सं० क्षमा+मतुप्, म=व] क्षमा करनेवाला। पुं० वह व्यक्ति जिसमें अपराधी या दोषी को दंडित करने की क्षमता तो हो, फिर भी जो उसे दयापूर्वक छोड़ दे।
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क्षमाष्ट  : पुं० [सं० क्षमा-अष्ट ब० स०] चौदह प्रकार के तालों में से एक। (संगीत)
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क्षमित  : वि० [सं०√क्षम्+क्त] जिसे क्षमा मिल चुकी हो। जो क्षमा किया गया हो।
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क्षमितव्य  : वि० [सं०√क्षम्+तव्यत्] क्षमा करने योग्य। (दोष या व्यक्ति) जिसे क्षमा कर देना उचित हो। क्षमा का पात्र।
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क्षमिता (तृ)  : वि० [सं०√क्षम्+तृच्]=क्षमावान्।
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क्षमी (मिन्)  : वि० [सं०√क्षम्+घिनुण् १. क्षमा करनेवाला। क्षमाशील। २.=क्षम (समर्थ)।
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क्षम्य  : वि० [सं०√क्षम्+ण्यत्] १. (अपराध या व्यक्ति) जो क्षमा किये जाने के योग्य हो। २. (व्यक्ति) जिसने कोई अवैध काम न किया हो और इसीलिए जिसे विधिवत् दंडित न किया जा सकता हो। (धर्मशास्त्र)। ३. (बात या व्यवहार) जो दंडनीय न हो।
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क्षय  : पुं० [सं०√क्षि (नाश)+अच्] [भाव० क्षयित्व] १. किसी की क्रमशः तथा प्रकृतिशः होनेवाली अवनति तथा ह्रास। छीजन। २. अपचय। नाश। ३. यक्ष्मा नामक रोग। ४. अन्त। समाप्ति। ५. कल्प का अन्त। प्रलय। ६. प्रेम का स्थान। ७. संवत्सरों में अंतिम संवत्सर का नाम। ८. ऋण की राशि या बड़ी रकम। ९. राजा के अष्टवर्ग (ऋषि, बस्ती, दुर्ग, सेतु, हस्तिबंधन, खान कर ग्रहण और सेना) की अवनति या ह्रास। (नीतिशास्त्र) १॰. ऐसा चांद्र मास जिसमें सूर्य की दो संक्रातियाँ होती है। यह १४१ वें वर्ष में पड़ता है। (ज्योतिष)। ११. निवास स्थान। १२. घर। १३. दे० ‘तिथि-क्षय’।
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क्षय-कर  : वि [ष० त०]=क्षयंकर।
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क्षय-काल  : पुं० [ष० त०] प्रलय का समय।
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क्षय-कास  : पुं० [मध्य० स०] क्षय या यक्ष्मा रोग में होनेवाली खाँसी।
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क्षय-ग्रंथि  : स्त्री० [मध्य० स०] क्षय रोग में (आँतों में) पड़नेवाली गाँठ जो बहुत कष्टदायक होती है।
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क्षय-तरु  : पुं० [ष० त०] स्थाली नामक वृक्ष।
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क्षय-तिथि  : स्त्री० [मध्य० स०] वह तिथि जिसका क्षय हुआ हो। लुप्त तिथि। (हिन्दू पंचांग)
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क्षय-पक्ष  : पुं० [मध्य० स०] चांद्र मास का वह पक्ष जिसमें चन्द्रमा नित्य कुछ क्षीण होता है। कृष्णपक्ष। अँधेरा पक्ष।
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क्षय-मास  : पुं० [मध्य० स०] १४१ वें वर्ष में पड़ने वाला चांद्र मास जिसमें दो संक्रातियां होती हैं और जिसके तीन मास पहले और तीन मास बाद एक-एक अधिमास भी पड़ता है।
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क्षय-रोग  : पुं० [ष० त०] यक्ष्मा नामक रोग जिसमें शरीर धीरे-धीरे क्षीण होता चलता है।
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क्षय-वायु  : स्त्री
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क्षय-संपद्  : स्त्री० [मध्य० स०] संपत्ति का नाश सर्वनाश।
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क्षयंकर  : वि० [सं० क्षय√कृ (करना) +खच्, मुम्] क्षय या नाश करनेवाला। क्षयकारी।
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क्षयण  : पुं० [सं०√क्षि+ल्युट्—अन] १. क्षय होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. शांत जलाशय। ३. खाड़ी या बन्दर। ४. निवास स्थान।
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क्षयनाशिनी  : स्त्री० [सं० क्षय√नश् (नष्ट होना) णिच्+णिनि—ङीप्] जीवंती या डोडी का वृक्ष।
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क्षयवान् (वत्)  : वि० [सं० क्षय+ममुप्, वत्व] [स्त्री० क्षयवती] जिसका क्षय होने को हो या हो रहा हो। नाशवान्।
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क्षयषु  : पुं० [सं०√क्षि+अथुच्] खाँसी। कास।
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क्षयाह  : पुं० [सं० क्षय-अहन् मध्य स०] वह चांद्र दिन जो चांद्र तथा शौर पंचागों में मेल बैठाने के लिए छोड़ दिया जाता है। (ज्योतिष)
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क्षयिक  : वि० [सं० क्षय+ठन्—इक] १. जिसका क्षय हो रहा हो अथवा होने को हो। २. यक्ष्मा से पीड़ित।
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क्षयित  : भू० कृ० [सं० क्षय+इतच्] १. जिसका क्षय हुआ हो। २. क्षय रोग से पीड़ित।
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क्षयित्व  : पुं० [सं० क्षयिन्+त्व] क्षय होने की अवस्था या भाव।
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क्षयिष्णु  : वि० [सं०√क्षि+इष्णुच्] जिसका क्षय होने को हो या हो रहा हो। नष्ट होनेवाला।
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क्षयी (यिन्)  : [सं० क्षय+इनि] १. जिसका क्षय या नाश होने को हो। २. क्षय या यक्ष्मा नामक रोग से पीड़ित। पुं० १. चंद्रमा। २. क्षय या यक्ष्मा नामक रोग।
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क्षय्य  : वि० [सं०√क्षि+यत् नि० सिद्धि] क्षय होने के योग्य। जिसका क्षय हो सके।
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क्षर  : वि० [सं०√क्षर् [संचलन]+अच्] १. जिसका क्षरण होता हो या होने को हो। २. नाशवान्। नश्वर। पुं० १. जल। पानी। २. मेघ। बादल। ३. शरीर। देह। ४. जीवात्मा
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क्षर-स्फटिक  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार का स्फटिक।
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क्षरण  : पुं० [सं०√क्षर्+ल्युट्—अन] १. तरल पदार्थ का किसी पात्र में से बूँद-बूँद करके गिरना या रसना। चूना। २. झड़ना। ३. क्षीण होना। ४. छूटना।
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क्षरित  : भू० कृ० [सं० क्षर्+क्त] जिसका क्षरण हुआ हो।
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क्षरी (रिन)  : पुं० [सं० क्षर+इनि] वर्षाकाल। बरसात।
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क्षव  : पुं० [सं०√क्षु (छींकना)+अप्] १. छींक। खाँसी।
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क्षव-पत्रा  : स्त्री० [ब० स०] द्रोणपुष्पी। गूमा।
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क्षव-पत्री  :
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क्षवक  : पुं० [सं० क्षव+कन्] १. अपामार्ग। चिचड़ा। २. सरसों। राई ३. लाख। लाह।
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क्षवकृत्  : पुं० [सं० क्षव√कृ (करना)+क्विप्] नकछिकमी नामक पौधा।
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क्षवथु  : पुं० [सं०√क्षु+अथुच्] बहुत अधिक छींक आने का एक रोग।
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क्षविका  : स्त्री० [सं० क्षव+ठन्—इक्, टाप्] एक प्रकार का बनभंटा। कटाई।
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क्षा  : स्त्री० [सं०√क्षि (क्षय)+ड—टाप्] पृथिवी।
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क्षांत  : वि० [सं० क्षम्+क्त] [स्त्री० क्षांता] १. क्षमा करने वाला। क्षमाशील। २. सहनशील। पुं० १. एक ऋषि। २. एक व्याघ जिसे अपने गुरु गर्ग मुनि की गौएँ मार डालने के कारण शाप मिला था।
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क्षांता  : स्त्री० [सं० क्षांत+टाप्] पृथ्वी।
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क्षांति  : स्त्री० [सं० क्षम्+क्तिन्] १. क्षमा। २. सहिष्णुता। सहन-शीलता।
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क्षात्र  : वि० [सं० क्षत्र+अण्] क्षत्रिय-संबंधी। क्षत्रियों का। पुं०=क्षत्रियत्व।
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क्षात्रि  : पुं० [सं० क्षत्र+इञ्] क्षत्रिय पुरुष तथा किसी अन्य वर्ण की स्त्री से उत्पन्न होनेवाली संतान।
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क्षाम  : वि० [सं०√क्षै (नाश)+क्त, त=म] १. क्षीण। दुबला-पतला। २. बलहीन। ३. अल्प। थोड़ा। पुं० १. विष्णु का एक नाम। २. क्षय।
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क्षामा  : स्त्री
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क्षाम्य  : वि० [सं०√क्षम्+णिच्+यत्]= क्षम्य।
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क्षार  : पुं० [सं०√क्षर् (टपकना)+ण] १. दाहक, जारक आदि खनिज पदार्थों के योग से तथा रासायनिक प्रक्रिया द्वारा तैयार की हुई राख का नमक जो ओषधि के रूप में काम आता है। इस नमक के घोल से तेजाब का प्रभाव नष्ट किया जाता है। खार। (एलकली) २. उक्त से बनी हुई कोई ओषधि अथवा उसका कोई रूप-विकार। ३. नमक। ४. जवाखार। ५. शोरा। ६. सुहागा। ७. काला नमक। ८. कांच। ९. भस्म। १॰. रस या सत। ११. गुड़। १२. जल। १३. ठग। धूर्त्त। १४ दुष्ट। पाजी। वि० १. जो रसता हो। क्षरणशील। २. खारा।
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क्षार-कर्द्दम  : पुं० [ब० स०] एक नरक।
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क्षार-गुड  : पुं० [मध्य० स०] पांडु, प्लीहा आदि रोगियों को दी जानेवाली एक ओषधि।
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क्षार-गुण  : पुं० [कर्म० स०] खारापन।
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क्षार-त्रय  : पुं० [सं० ष० त०] सज्जी, शोरे और सुहागे का समूह।
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क्षार-दशक  : पुं० [ष० त०] सहिजन, मली, पलास आदि दस क्षारों का वर्ग।
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क्षार-द्रु  : पुं० [मध्य० स०] मोरवा नाम का वृक्ष।
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क्षार-नदी  : स्त्री० [मध्य० स०] नरक में खारे पानी की एक नदी। (पुराण)
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क्षार-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुआ नामक साग।
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क्षार-पत्रा  : स्त्री० [सं० क्षारपत्र+टाप्] चिल्ली नामक साग।
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क्षार-पाक  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में मोरवा पौधे से बना हुआ एक पाक जिसका प्रयोग फोड़ों का मवाद बहाने में होता है।
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क्षार-पाल  : पुं० [सं० क्षार√पाल् (बचाना)+णिच्+अच्] एक प्राचीन ऋषि।
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क्षार-भूमि  : स्त्री० [मध्य० स०] ऊसर।
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क्षार-मिति  : स्त्री० [ष० त०] वह रासायनिक प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि किसी पदार्थ में क्षार का अंश कितना है। (एलकैलिमेट्री)
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क्षार-मृत्तिका  : स्त्री० [मध्य० स०] रेह मिट्टी।
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क्षार-मेह  : पुं० [मध्य० स०] प्रमेह रोग का एक प्रकार या भेद।
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क्षार-लवण  : पुं० [कर्म० स०] खारा नमक।
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क्षार-वर्ग  : पुं० [ष० त०] सज्जीखार, सोहागे और शोरे का वर्ग या समूह।
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क्षार-श्रेष्ठ  : पुं० [स० त०] १. वज्रक्षार। खारी मिट्टी। रेह। २. मोरवा नामक वृक्ष। ३. पलाश। ढाक।
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क्षार-षट्क  : पुं० [ष० त०] धव, अपामार्ग, कोरैया, लांगलो, तिल और मोरवा, क्षारतत्त्ववाली इन छह औषधियों का समूह।
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क्षारक  : पुं० [सं०√क्षर्+ण्वुल्—अक] १. क्षार करने या जलाने वाला। दाहक। २. सेंद्रिय ऊतकों या तंतुओं को जलाने या नष्ट करने वाला। (कास्टिक) ३. सज्जी। ४. कलिका। ५. धोबी। ६. चिड़ियाँ फाँसाने का जाल। ७. चिड़ियों का पिंजड़ा। ८. मछलियाँ पकड़ने की खाँची या दौरी।
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क्षारक-रजत  : पुं० [कर्म० स०] चाँदी में से निकला हुआ एक विशेष तत्त्व जो चमड़ा जला देता है। (कास्टिक सिल्वर)
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क्षारण  : पुं० [सं०√क्षर्+णिच्+ल्युट्—अन] १. पारे का पन्द्रहवाँ संस्कार (दसेश्वर)। २. व्यभिचार आदि का अभियोग या कलंक लगाना। ३. तेजाब को प्रभावहीन करना। ४. दवारा करना या बनाना। ५. टपकाना।
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क्षाराक्ष  : पं० [सं० क्षार-अक्षि, मध्य० स०] काँच की बनी हुई नकली आँख। वि० [ब० स०] जो उक्त प्रकार की आँख लगाये हुए हो।
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क्षारागद  : पुं० [सं० क्षार-अगद, मध्य० स०] एक प्रकार की औषधि विशेष। (वैद्यक)।
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क्षाराष्टक  : पुं० [सं० क्षार-अष्टक, ष० त०] आठ विशिष्ट प्रकार के क्षारों का समूह।
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क्षारिका  : स्त्री० [सं०√क्षर्+ण्वुल्—अक, टाप्, इत्व] भूख।
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क्षारित  : भू० कृ०, [सं०√क्षर्+णिच्+क्त] १. जिसका क्षरण हुआ हो। २. जो क्षार के रूप में किया या लाया गया हो। ३. जिसे अपवाद या कलंक लगाया गया हो।
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क्षारीय  : वि० [सं० क्षार+छ—ईय] [भाव० क्षारीयता] क्षार से संबंध रखने या उससे युक्त रहनेवाला। (एलकलाइन)।
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क्षारीयता  : स्त्री० [सं० क्षारीय+तल्—टाप्] क्षारीय होने की अवस्था, गुण या भाव। (एलकलाइटी)।
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क्षारोद  : पुं० [सं० क्षार-उदक्, ब० स०, उदक्=उद ब० स०] १. खारा समुद्र। लवण समुद्र। २. ऐसा पदार्थ जिसमें क्षार का अंश हो। (अलकलायड)
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क्षालन  : पुं० [सं०√क्षल् (शोधन)+णिच्+ल्युट्—अन] १. पानी से कपड़े, बरतन आदि धोने की क्रिया या भाव। धुलाई। २. साफ़ करने का काम।
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क्षालित  : भू० कृ० [सं०√क्षल्+णिच्+क्त] १. धोया हुआ। २. साफ़ किया हुआ।
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क्षित  : वि० [सं०√क्षि (क्षय)+क्त]=क्षीण।
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क्षिति  : स्त्री० [सं०√क्षि+क्तिन्] १. रहने का स्थान। निवासस्थान। २. पृथ्वी। ३. कविता में एक की संख्या का वाचक शब्द। ४. क्षय। नाश। ५. पंचम स्वर की एक श्रुति। ६. धूलि। वि० दे० ‘भूमिज’।
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क्षिति-जंतु  : पुं० [ष० त०] केंचुवा।
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क्षिति-तनय  : पुं० [ष० त०] मंगल ग्रह।
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क्षिति-तल  : पुं० [ष० त०] पृथ्वी का तल धरातल।
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क्षिति-देव  : पुं० [स० त०] ब्राह्मण।
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क्षिति-पति  : पुं० [ष० त०] राजा।
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क्षितिज  : पुं० [सं० क्षित√जन् (प्रादुर्भाव)+ड] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर। ३. पेड़। वृक्ष। ४. केंचुवा। ५. पृथ्वीतल के चारों ओर की वह कल्पित रेखा या स्थान जहाँ पर पृथ्वी और आकाश एक दूसरे से मिलते हुए-से जान पड़ते हैं (होराइजन)।
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क्षितीश (श्वर)  : पुं० [क्षिति-ईश, ईश्वर ष० त०] राजा।
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क्षित्यदिति  : स्त्री० [क्षिति-अदिति, मध्य० स०] देवकी (कृष्ण की माता)।
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क्षित्यधिप  : पुं० [क्षिति-अधिप, ष० त०] पृथ्वी के स्वामी, राजा।
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क्षिद्र  : वि० [सं०√क्षिद् (विदारण)+रक्] तोड़ने-फोड़ने या नष्ट भ्रष्ट करनेवाला। फाड़नेवाला। पुं० १. सूर्य। २. रोग। ३. सींग।
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क्षिप  : वि० [सं०√क्षिप् (फेंकना)+क] फेंकने वाला। पुं० (कोई चीज) फेंकने की क्रिया या भाव।
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क्षिपक  : वि० [सं० क्षेपक+कन्] फेंकनेवाला। पुं० १. तीरंदाज। २. योद्धा।
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क्षिपण  : पुं० [सं०√क्षिप्+क्युन्—अन] १. कोई चीज गिराने या फेंकने की क्रिया या भाव। २. मारना। ३. आक्षेप करना। ४. अभियोग लगाना।
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क्षिपणी  : स्त्री० [सं०√क्षिप्+अनि, ङीप् (बा०)] १. ऐसा अस्त्र जो हाथ से अथवा किसी उपकरण से फेंक कर चलाया जाय। क्षेप्यास्त्र। (मिस्सिल वेपन) २. डाँड़।
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क्षिपा  : स्त्री० [सं०√क्षिप्+अङ्, टाप्] १. फेंकना २. रात।
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क्षिपुण  : पुं० [सं०√क्षिप्+अनुङ्] १. फेंक कर चलाया जानेवाला अस्त्र। २. वायु। ३. व्याघ।
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क्षिप्त  : वि० [सं०√क्षिप्+क्त] १. फेंका हुआ (अस्त्र)। २. (पदार्थ) जो इधर-उधर फेंका या बिखेरा गया हो। विकीर्ण। ३. भेजा हुआ। ४. अपमानित। ५. पतित। ६. उचटा हुआ। चंचल। ७. वातरोग-ग्रस्त। ८. पागल। विक्षिप्त। पं० चित्त की पाँच वृत्तियों में से एक जिसमें चित्त रजोगुण के द्वारा सदा अस्थिर रहता है। (दे० ‘चित्तभूमि’)।
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क्षिप्ता  : स्त्री० [सं०√क्षिप्+क्त, टाप्] रात्रि।
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क्षिप्ति  : स्त्री० [सं०√क्षिप्+क्तिन्] फेंकने की क्रिया या भाव।
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क्षिप्र  : अव्य० [सं०√क्षिप् (प्रेरणा)+रक] १. शीघ्र। जल्दी। २. तत्काल। तुरंत। वि० १. तेजी से चलता हुआ। २. अस्थिर। चंचल। पुं० १. शरीर में अँगूठे और तर्जनी या दूसरी ऊंगली के बीच का स्थान जो वैद्यक में मर्मस्थल माना गया है। २. एक मुहूर्त्त का पन्द्रहवाँ भाग।
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क्षिप्र-मूत्र  : पुं० [सं० ब० स०] जल्दी-जल्दी और बार-बार पेशाब होने का रोग। बहुमूत्र।
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क्षिप्र-श्येन  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का बाज पक्षी।
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क्षिप्र-हस्त  : वि [ब० स०] जिसका हाथ बहुत तेज चलता हो। बहुत जल्दी काम करनेवाला। कुशल। पुं० १. अग्नि। २. एक राक्षस।
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क्षिप्र-होम  : पुं० [मध्य० स०] जल्दी-जल्दी किया जाने वाला होम (जिसमें बहुत-सी बातें छोड़ दी जाती हैं)।
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क्षिप्रपाकी  : पुं० [सं० क्षिप्र√पच् (पाक)+घिनुण्, (बा०)] गर्दभांड नामक वृक्ष। पारस पीपल।
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क्षिया  : स्त्री० [सं०√क्षि (क्षय) +अङ्, टाप्]=क्षय।
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क्षीण  : वि० [सं०√क्षि+क्त, त=न, दीर्घ] [भाव० क्षीणता; क्षैण्य] १. जिसका क्षय हुआ हो। २. घटा हुआ या घटनेवाला। ३. जो रचना, स्वास्थ्य आदि की दृष्टि से बहुत ही दुबला-पतला या दुर्बल हो। ४ सूक्ष्म।
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क्षीण-कर  : वि० [ष० त०] क्षीण करनेवाला।
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क्षीण-काय  : वि० [ब० स०] (प्राणी) जो पतला-दुबला तथा दुर्बल हो।
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क्षीण-चंद्र  : पुं० [कर्म० स०] कृष्णपक्ष की अष्टमी से शुक्लपक्ष की अष्टमी तक का चन्द्रमा, जिसमें उसकी कलाएँ क्षीण रहती हैं।
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क्षीण-पाप  : वि० [ब० स०] वह जिसके पाप क्षीण या नष्ट हो चुके हों।
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क्षीण-प्रकृति  : वि० [ब० स०] क्षुद्र या तुच्छ प्रकृतिवाला।
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क्षीण-मध्य  : वि० [ब० स०] १. जिसका बीच का भाग पतला हो। २. पतली कमरवाला।
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क्षीणक-रोग  : पुं० [सं० क्षीणकररोग] कोई ऐसा रोग जिसमें रोगी का शरीर क्षीण होता जाता हो (वैस्टिंग डिजीज)
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क्षीणता  : स्त्री [सं० क्षीण+तल—टाप्] क्षीण होने की अवस्था या भाव।
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क्षीणार्थ  : वि० [सं० क्षीण-अर्थ, बस० स०] जिसकी संपत्ति नष्ट हो चुकी हो। निर्धन। गरीब।
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क्षीब  : वि० [सं०√क्षीब् (मद)+क्त, नि० सिद्धि] [स्त्री० क्षीबा] १. जिसने मदिरा पी हो। २. जो नशे में चूर हो।
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क्षीयमाण  : वि० [सं०√क्षि+यक्+शानच्] १. जिसका क्षय हो रहा हो। २. नाशवान्। नश्वर।
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क्षीर  : पुं० [सं०√घस् (खाना) +ईरन् घ=क, अलोप, षत्व] १. दूध। २. पौधों, वृक्षों आदि में से निकलनेवाला दूध-जैसा तरल सफेद पदार्थ। ३. कोई तरल पदार्थ। जैसे—जल। ४. खीर। ५. सरल वृक्ष का गोंद।
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क्षीर-कंठा (क)  : वि० [ब० स०] दूध पीनेवाला। दुधमुँहाँ।
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क्षीर-कंद  : पुं० [सं० ब० स०] क्षीरविदारी।
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क्षीर-काकोली  : स्त्री [उपमि० स०] एक प्रकार की जड़ी जो वीर्यवर्धक मानी जाती है।
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क्षीर-कांडक  : पं० [ब० स०] १. थूहर। २. मदार।
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क्षीर-खर्जूर  : पुं० [उपमि० स०] पिंडखजूर।
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क्षीर-घृत  : पुं० [मध्य० स०] दूध को मथकर निकाला हुआ मक्खन या उससे बनाया हुआ घी।
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क्षीर-तुंबी  : स्त्री० [मध्य० स०] लौकी।
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क्षीर-तैल  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में एक प्रकार का औषधिक तेल।
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क्षीर-दल  : पुं० [ब० स०] आक। मदार।
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क्षीर-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] दे० ‘क्षीरवृक्ष’।
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क्षीर-धेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] १. वह गाय जो दूध देती हो। २. दान के लिए घड़े आदि को स्थापित कर बनाई हुई एक प्रकार की कल्पित गौ। (पुराण)।
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क्षीर-निधि  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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क्षीर-नीर  : पुं० [द्व० स०] १. दूध और पानी। २. दूध और पानी का संमिश्रण। ३. आलिंगन।
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क्षीर-पर्णी  : स्त्री [ब० स०, ङीष्] आक। मदार।
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क्षीर-पलांडु  : पुं० [उपमि० स०] सफेद प्याज।
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क्षीर-पाक  : वि० [ब० स०] दूध में पका अथवा पकाया हुआ। पुं० वैद्यक में दूध में पकाई हुई कोई ओषधि।
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क्षीर-पुष्पी  : स्त्री० [स० ब० स०, ङीष्] शंखपुष्पी।
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क्षीर-फूली  : पुं० [सं०+हिं०] एक प्रकार का बढ़िया आम।
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क्षीर-भृत  : वि० [तृ० त०] जो केवल दूध पी कर निर्वाह करता हो। पुं० ऐसा नौकर जो अपनी मजदूरी दूध के रूप में लेता हो।
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क्षीर-विदारी  : स्त्री० [उपमि० स०] विदारी की तरह की एक औषधि जिसमें दूध निकलता है।
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क्षीर-वृक्ष  : [मध्य० स०] ऐसे वृक्ष जिनमें से दूध-जैसा तरल पदार्थ निकलता हो। जैसे—खिरनी, गूलर, पीपल, बरगद, महुआ आदि।
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क्षीर-व्रत  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा व्रत जिसमें केवल दूध पीया जाता हो।
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क्षीर-शर  : पुं० [ष० त०] दूध, दही आदि पर जमने वाली मलाई।
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क्षीर-शाक  : पुं० [ष० त०] १. फटा हुआ दूध। छेना। २. मक्खन।
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क्षीर-सागर  : पुं० [ष० त०] सात समुद्रों में से एक सुमद्र, जो दूध से भरा हुआ माना गया है (पुराण)।
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क्षीर-सार  : पुं० [सं० ष० त०] मक्खन।
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क्षीर-हिण्डीर  : पुं० [ष० त०] दूध का फेन।
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क्षीरज  : वि० [सं० क्षीर√जन् (प्रादुर्भाव)+ड] दूध से उत्पन्न होने या बननेवाला। पुं० १. दही। २. कमल। ३. चन्द्रमा। ४. शंख।
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क्षीरजा  : स्त्री० [सं० क्षीरज+टाप्] लक्ष्मी।
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क्षीरधि  : पुं० [सं० क्षीर√धा (धारणा)+कि] समुद्र।
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क्षीरस  : पुं० [सं० क्षीर√सी (अन्त करना)+क] दही, दूध आदि की मलाई।
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क्षीरा  : स्त्री० [सं० क्षीर+अच्, टाप्] काकोली नाम की जड़ी।
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क्षीराद  : पुं० [सं० क्षीर√अद् (खाना)+अण्] दूध पीनेवाला अर्थात् दुधमुँहा बच्चा।
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क्षीराब्धि  : पुं० [सं० क्षीर-अब्धि, ष० त०] क्षीर-सागर।
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क्षीरिक  : पुं० [सं० क्षीर+ठन्—इक] एक तरह का साँप।
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क्षीरिका  : स्त्री० [सं० क्षीरिक+टा] १. पिंडखजूर। २. वंशलोचन।
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क्षीरिणी  : वि० [सं० क्षीर+इनि—ङीप्] दूध देनेवाली। स्त्री० १. क्षीर-काकोली। २. खिरनी। ३. वृद्धी नाम की लता। ४. वराहक्रान्ता।
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क्षीरोद  : पुं० [सं० क्षीर-उदक्, ब० स०, उदक्=उद] क्षीर-सागर।
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क्षीरोद-तनय  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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क्षीरोद-तनया  : स्त्री० [ष० त०] लक्ष्मी।
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क्षीरोदक  : पुं० [सं० क्षीरोक√कै (प्रतीत होना)+क] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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क्षीरोदधि  : पुं० [सं० क्षीर-उदधि, ष० त०] क्षीरसागर।
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क्षीरौदन  : पुं० [सं० क्षीर-ओदन, मध्य० स०] १. दूध में पका या पकाया हुआ चावल। २. खीर (दे०)
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क्षीव  : वि० [सं०√क्षीव् (मत्त होना)√अच्] १. जो नशे में चूर हो। २. उन्मत्त। पागल। उत्तेजित।
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क्षुणी  : स्त्री० [सं०√क्षु (छींकना)+नि—ङीष्] पृथ्वी।
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क्षुण्ण  : वि० [सं०√क्षुद् (पीसना)+क्त] १. कुचला या रौंदा हुआ। २. जिसके अंग या अवयव खंडित अथवा छिन्न-भिन्न हो चुके हों। ३. अभ्यस्त। ४. अच्छी तरह से विचारा या सोचा हुआ।
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क्षुण्णक  : पुं० [सं० क्षुण्ण+कन्] एक प्रकार का ढोल जो अंत्येष्टि के समय बजाया जाता था।
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क्षुति  : स्त्री० [सं०√क्षु+क्तिन् छींक।
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क्षुत्  : स्त्री० [सं० √क्षुध् (भूखा होना) +क्विप्] भूख। क्षुधा। पुं० [सं०√क्विप्] छींक।
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क्षुद  : पुं० [सं०√क्षुद्र+क] १. आटा। २. मैदा।
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क्षुद्र  : वि० [सं०√क्षुद्+रक्] १. (व्यक्ति) जो निम्न श्रेणी अथवा निम्न या हीन विचारों का हो। अधम। नीच। पापी। २. क्रूर। ३. कंजूस। ४. निर्धन। ५. (वस्तु) जिसका महत्त्व या मान कुछ भी न हो। ६. छोटा। ७. थोड़ा। कम। पुं० १. शूद्र। २. चावल का कण।
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क्षुद्र-ग्रह  : पुं० [कर्म० स०] ज्योतिष में उन छोटे-छोटे और अनामी ग्रहों में से कोई (और हर एक) जो मंगल और बृहस्पति ग्रह के बीच में पड़ते और वहीं से सूर्य की परिक्रमा करते हैं। (एस्टिटॉयड)
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क्षुद्र-घंटिका  : स्त्री० [कर्म० स०] १. पुराने जमाने में पहनी जानेवाली घुँघरूदार करधनी। २. घुँघरू।
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क्षुद्र-चंदन  : पुं० [कर्म० स०] लाल चन्दन।
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क्षुद्र-जंतु  : पुं० [कर्म० स०] बहुत ही छोटा या सूक्ष्म जंतु। कीड़े-मकोड़े आदि।
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क्षुद्र-तुलसी  : स्त्री० [कर्म० स०] एक प्रकार की छोटी तुलसी।
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क्षुद्र-धान्य  : पुं० [कर्म० स०] कंगनी, कोदों आदि कुधान्य।
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क्षुद्र-पति  : पुं० [कर्म० स०] कुबेर।
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क्षुद्र-पत्रा  : स्त्री० [ब० स०] नोनी का साग। अमलोनी।
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क्षुद्र-पत्री  : स्त्री० [ब० स०] बच।
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क्षुद्र-प्रकृति  : वि० [ब० स०] १. दूषित या नीच प्रकृतिवाला। २. ओछा।
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क्षुद्र-फला  : स्त्री० [ब० स०] १. जामुन। २. इंद्रायण।
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क्षुद्र-बुद्धि  : वि० [व० स०] १. छोटी य तुच्छ बुद्धिवाला। २. मूर्ख।
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क्षुद्र-मुस्ता  : स्त्री० [कर्म० स०] कसेरू।
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क्षुद्र-रोग  : पुं० [कर्म० स०] छोटे रोग। जैसे—झाईं, फुंसी, मुहाँसा आदि। छोटे-मोटे रोग। (वैद्यक)
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क्षुद्र-श्वास  : पुं० [कर्म० स०] बहुत ही छोटे-छोटे साँस लेने का रोग, जो प्रायः भोजन की अधिकता, परिश्रम की कमी, दिन में सोने आदि के कारण होता है। (सुश्रुत)
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क्षुद्रक  : पुं० [सं० क्षुद्र+क] पंजाब के अन्तर्गत एक प्राचीन देश। वि०=क्षुद्र।
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क्षुद्रता  : स्त्री० [सं० क्षुद्र+तल्—टाप्] १. क्षुद्र होने की अवस्था या भाव। २. ओछापन। ३. तुच्छता। ४. नीचता।
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क्षुद्रम  : पुं० [सं० क्षुद्र√मा (मापना)+क] छः माशे की एक छोटी तौल। छदाम।
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क्षुद्रल  : वि० [सं० क्षुद्र+लच्] बहुत ही छोटा या तुच्छ। परम हीन।
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क्षुद्रहा  : पुं० [सं० क्षुद्र√हन् (मारना)+क्विप्] शिव का एक नाम।
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क्षुद्रा  : स्त्री [सं० क्षुद्र०+टाप्] १. बहुत ही निम्न या हीन विचारों वाली स्त्री। २. कुलटा। ३. वेश्या। ४. लोनी साग। ५. जटामासी। 6 भटकटैया। ७. सरधा नामक मधुमक्खी। ८. हिचकी। ९. एक प्रकार की छोटी नाव। १॰. कौड़ियाला। कौड़िल्ला।
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क्षुद्रांजन  : पुं० [सं० क्षुद्र-अंजन, कर्म० स०] आँवले आदि के योग से बनाया हुआ एक प्रकार का अंजन। (सुश्रुत)
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क्षुद्रात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० क्षुद्र-आत्मन्, ब० स०] क्षुद्र या हीन विचारोंवाला व्यक्ति।
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क्षुद्रांत्र  : पुं० [सं० क्षुद्र-अत्र, कर्म० स०] हृदय के पास की एक छोटी नाड़ी।
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क्षुद्रावली  : स्त्री० [सं० क्षुद्र-आबली, कर्म० स०]=क्षुद्र-घटिका।
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क्षुद्राशय  : वि० [सं० क्षुद्र-आशय, ब० स०] तुच्छ या नीच प्रकृतिवाला। कमीना। नीच।
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क्षुद्रिका  : स्त्री० [सं० क्षुद्र+कन्—टाप्, इत्त्व] छोटी घंटी।
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क्षुधा  : स्त्री० [सं० क्षुध्+टाप्] [वि० क्षुधित्, क्षुधालु] १. कुछ न खाने अथवा भूखे रहने के कारण होनेवाला वह कष्टप्रद संवेदन, जिसमें भोजन करने की उत्कट इच्छा होती है। भूख। २. किसी चीज या बात की विशेष अपेक्षा या आवश्यकता। ३. अतृप्ति।
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क्षुधा-नाश  : पुं० [ष० त०] अमाशय में सूजन होने या उसके पेशियों के दुर्बल होने आदि के कारण भूख बिलकुल न लगना, जो रोग माना जाता है। (एनोरेक्सिया)।
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क्षुधातुर  : वि० [सं० क्षुधा-आतुर, तृ० त०] जो क्षुधा से व्याकुल हो। बहुत अधिक भूखा।
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क्षुधालु  : वि० [सं०√क्षुध्+आलुच्] जिसे सदैव भूख लगी रहती हो। भुक्खड़।
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क्षुधावंत  : वि० [सं० क्षुधावान्] क्षुधा से पीड़ित। भूखा।
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क्षुधावती  : स्त्री० [सं० क्षुधा+मतुप्, वत्व, ङीप्] विशेष प्रकार से तैयार की हुई एक औषधि, जिसके खाने से भूख बढ़ती है।
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क्षुधित  : वि० [सं० क्षुधा+इतच्] जिसे भूख लगी हो। भूखा।
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क्षुध्  : स्त्री० [सं०√क्षुध् (भूखा होना)+क्विप्]=क्षुधा।
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क्षुप  : पुं० [सं०√क्षु+पक्] [स्त्री० क्षु] १. छोटी तथा घनी डालियों वाले वृक्षों का एक प्रकार या वर्ग। झाड़ी। (श्रव)। २. सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्री कृष्ण के पुत्र का नाम। ३. राजा इक्ष्वाकु के पिता।
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क्षुपक  : पुं० [सं० क्षुप+कच्] छोटा क्षुप। झाड़ी।
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क्षुब्ध  : वि० [सं०√क्षुभ् (चंचल होना)+क्त] १. जिसे या जिसमें क्षोभ हो। २. विकल। व्याकुल। ३. चंचल। चपल। ४. कुपित। क्रुद्ध।
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क्षुभा  : स्त्री० [सं०√क्षुभ्+क—टाप्] सूर्य के पारिषद् एक देवता।
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क्षुभित  : वि०=क्षुब्ध।
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क्षुमा  : स्त्री० [सं०√क्षु+मक्—टाप्] [वि० क्षौम] १. बाण। तीर। २. ऐसे पौधों का एक वर्ग जिनकी डालियाँ पतली, लम्बी तथा रेशेदार छालवाली होती हैं। ३. अलसी। ४. सनई। ५. नील का पौधा।
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क्षुर  : पुं० [सं०√क्षुर् (काटना)+क] १. प्राचीनकाल में तीरों की अगली नोक पर लगाई जानेवाली धारदार छुरी या हुक (बार्ब)। २. बाल मूड़ने का प्रसिद्ध उपकरण छुरा। ३. पशुओं का खुर। ४. गोखरू।
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क्षुर-धान  : पुं० [ष० त०] वह थैली या डिबिया, जिसमें नाई छुरा रखते हैं। किस्बत।
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क्षुर-धार  : पुं० [ब० स०] १. एक नरक का नाम। २. एक प्रकार का बाण। वि० तीक्ष्ण या तेज धारवाला। चोखा।
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क्षुर-पत्र  : पुं० [ब० स०] [स्त्री० क्षुरपत्रा, क्षुरपत्री] १. छुरे की तरह तेज धारवाला पत्ता। २. शर नामक तृण। ३. क्षुरधार बाण।
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क्षुर-पत्रा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पालक (साग)।
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क्षुर-पत्रिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्—टाप्, इत्व] पालकी। पालक (साग)।
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क्षुर-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] बच।
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क्षुरक  : पुं० [सं० क्षुर+कन्] छोटा क्षुर या छुरा (बाल मूँड़ने का)।
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क्षुरप्र  : वि० [सं० क्षुर√पृ (हिंसा)+क] जिस की धार छुरे का समान तेज हो। पुं० १. तेज धारवाली कोई वस्तु। जैसे छुरा, छुरी आदि। २. खुरपा।
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क्षुरा-भांड  : पुं० [ष० त०] दे० ‘क्षुरधान’।
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क्षुरिका  : स्त्री० [सं० क्षुर+ङीष्+कन्—टाप्, ह्रस्व] १. छुरी। चाकू। २. पालक नामक साग। ३. एक यजुर्वेदीय उपनिषद्।
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क्षुरी (रिन्)  : पुं० [सं० क्षुर+इनि] [स्त्री० क्षुरिणी] १. नाई। हज्जाम। २. खुरवाला पशु।
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क्षुल्ल  : वि० [सं० क्षुद्र√ला (लेना)+क] १. कम या थोड़ी मात्रा का। २. छोटा। जैसे—क्षुल्ल तात=पिता का छोटा भाई अर्थात् चाचा।
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क्षुल्लक  : पुं० [सं० क्षुल्ल+कन्] १. क्षुद्र। अधम।
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क्षुव  : पुं० [सं० क्षव] १. छींक। २. राईं। ३. लाही।
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क्षेत्र  : पुं० [सं०√क्षि+त्रन्] १. भूमि का वह खंड जो बोया जाता है। खेत। २. भूमि का कोई खंड या विभाग। प्रदेश। ३. समतल भूमि। ४. युद्ध-भूमि। ५. वह स्थान जहां से खनिज पदार्थ निकाले जाते हों। ६. रेखाओं या सीमाओं आदि से घिरा हुआ स्थान। ७. प्राकृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक आदि विचारों से कोई ऐसा भूभाग, जिस में कोई विशेषता हो, अथवा लाई या मानी गई हो। (जोन) ८. कोई ऐसा स्थान या मंडल जिसमें कोई विशेष कार्य या बात होती हो। जैसे—साहित्य के इस क्षेत्र के वे पूर्ण ज्ञाता हैं। ९. स्त्री, जिसमें वीर्य की स्थापना करके सन्तान उत्पन्न की जाती है। १॰. पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ, पाँचों कर्मेंद्रियाँ, मन, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संस्कार, चेतनता और घृति आदि से युक्त शरीर (गोता)। ११. तीर्थस्थान। १२. ढेर। राशि।
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क्षेत्र-गणित  : पुं० [ष० त०] गणित की वह शाखा, जिसमें खेतों के मापने और उनका क्षेत्रफल निकालने की विधियाँ बताई जाती हैं।
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क्षेत्र-पति  : पुं० [ष० त०] १. खेत का मालिक। २. खेतिहर। ३. जीवात्मा। ४. परमात्मा।
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क्षेत्र-पाल  : पुं० [सं० क्षेत्र√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+अण्] १. खेत की रक्षा करनेवाला व्यक्ति। २. पश्चिमी दिशा के भैरव द्वारपाल। ३. प्रबन्धकर्ता। व्यवस्थापक।
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क्षेत्र-फल  : पुं० [ष० त०] किसी क्षेत्र की लंबाई और चौड़ाई को गुणन करने से निकलनेवाला वर्गात्मक परिमाण। रकबा। (एरिया)
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क्षेत्रज  : वि० [सं० क्षेत्र√जन् (उत्पत्ति)+ड] खेत में उत्पन्न होनेवाला। पुं० धर्मशास्त्र के अनुसार बारह प्रकार के पुत्रों में से एक, जो किसी मृत या असमर्थ पुरुष की स्त्री ने दूसरे पुरुष के संयोग से उत्पन्न किया हो।
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क्षेत्रजा  : स्त्री० [सं० क्षेत्रज+टाप्] १. सफेद कंटकारी। २. एक प्रकार की ककड़ी। ३. गोमूत्र तृण। ४. शिल्पी नामक काम।
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क्षेत्रज्ञ  : पुं० [सं० क्षेत्र√ज्ञा (जानना)+क] १. क्षेत्र या शरीर का अधिष्ठाता जीवात्मा। २. परमात्मा। ३. किसान। ४. साक्षी। वि० किसी विषय का जानकार। ज्ञाता।
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क्षेत्रविद्  : पुं० [सं० क्षेत्र√विद् (जानना)+क्विप्] १. जीवात्मा। २. वह व्यक्ति जिसे विभिन्न भू-भागों का ज्ञान हो।
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क्षेत्राजीव  : पुं० [सं० क्षेत्र-आ√जीव् (जीना)+अच्] किसान। कृषक।
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क्षेत्राधिप  : पुं० [सं० क्षेत्र-अधिप, ष० त०] १. खेत का स्वामी। २. ज्योतिष में किसी राशि का स्वामी या देवता।
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क्षेत्रिक  : पुं० [सं० क्षेत्र+ठन्—इक] वह व्यक्ति जिसके पास खेत हो। वि०=क्षेत्रिय।
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क्षेत्रिय  : वि० [सं० क्षेत्र+घ—इय] १. क्षेत्र या खेत-संबंधी। २. खेत में होने अथवा उपजनेवाला। ३. जिसका संबंध किसी विशिष्ट भूभाग या कार्यक्षेत्र से हो। पुं० १. चरागाह। २. असाध्य रोग।
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क्षेत्री (त्रिन्)  : पुं० [स० क्षेत्र+इनि] १. खेत का स्वामी। २. स्वामी। ३. पति।
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क्षेद  : पुं० [सं० खेद] १. दुःख। २. शोक।
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क्षेप  : पुं० [सं०√क्षिप् (फेंकना)+घञ्] १. फेंकने की क्रिया। फेंकना। २. पीछे करना या बिताना। जैसे—काल-क्षेप। ३. वह जो कुछ फेंका जाय, विशेषतः एक बार में फेंका जाय। ४. आघात। ५. अतिक्रमण। ६. देर। विलंब। ७. निंदा।
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क्षेपक  : वि० [सं०√क्षिप्+ण्वुल्—अक] १. फेंकनेवाला। २. नष्ट या बरबाद करनेवाला। ३. निंदनीय। पुं० १. मल्लाह। २. [क्षप+कन्] वह अंश, जो बाद में किसी वस्तु, विशेषतः पुस्तक आदि में किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा बढ़ाया या मिलाया गया हो। जैसे—इस रामायण में कई क्षेपक हैं।
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क्षेपण  : पुं० [सं०√क्षिप्+ल्युट्—अन] १. कोई चीज फेंकने की क्रिया या भाव। २. गिराना। ३. मिलाना। ४. बिताना। गुजारना। जैसे—समय का क्षेपण।
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क्षेपणिक  : पुं० [सं० क्षेपणि+ठन्—इक] मल्लाह। नाविक।
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क्षेपणी  : स्त्री० [सं० क्षेपण+ङीप्] १. वह अस्त्र जो फेंककर चलाया जाय। २. डाँड़।
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क्षेपणीय  : वि० [सं०√क्षिप्+अनीयर्] फेंकने योग्य।
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क्षेप्ता  : (प्तृ) वि० [सं०√क्षिप्+तृच्] फेंकनेवाला।
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क्षेम  : पुं०=क्षेम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्षेम  : पुं० [सं√क्षि+मन्] १. किसी प्रकार की विपत्ति, संकट, हानि आदि से किसी की रक्षा करने का काम। (सेफ्टी) २. कुशल-मंगल। ३. सुख। ४. मुक्ति। ५. शांति के गर्भ से उत्पन्न धर्म का एक पुत्र। ६. फलित ज्योतिष में जन्म के नक्षत्र से चौथा नक्षत्र। ७. चोवा नामक गंध-द्रव्य।
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क्षेम-कल्याण  : पुं० [सं० द्व० स०] एक संकर राग, जो कल्याण और हम्मीर के संयोग से बनता है। (संगीत)
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क्षेम-फला  : स्त्री [ब० स०, टाप्] गूलर।
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क्षेमक  : पुं ० [सं० क्षेम+कन्] १. प्लक्ष द्वीप के एक वर्ष का नाम। २. शिव का एक गण। ३. एक नाग। ४. एक राक्षस।
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क्षेमंकर  : वि० [सं० क्षेम√कृ (करना)+खच्, मुम्] मंगलकारी।
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क्षेमकरी  : स्त्री० [सं० क्षेमकरी] सफेद चील।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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क्षेमंकरी  : स्त्री० [सं० क्षेमंकर+ङीष्] १. एक प्रकार की सफेद चील। २. एक देवी का नाम।
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क्षेमकरी  : स्त्री० [सं० क्षेमकर+ङीष्] दुर्गा का एक रूप।
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क्षेमवती  : स्त्री० [सं० क्षे+मतुप्, ङीप्] एक प्राचीन नगरी। (सम्भवतः गोरखपुर के पास का क्षेमराजपुर)
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क्षेमा  : स्त्री० [सं० क्षेम+टाप्] १. कात्यायिनी का एक नाम। २. एक अप्सरा का नाम।
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क्षेमासन  : पुं० [सं० क्षेम-आसन, मध्य० स०] एक प्रकार का आसन जिसमें दाहिने हाथ पर दाहिना पैर रखकर बैठते हैं। (तंत्र)
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क्षेमी  : (मिन्)
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क्षेमेंद्र  : पुं० [सं०] संस्कृत के प्रसिद्ध कश्मीरी कवि, कथाकार और आचार्य।
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क्षेम्य  : वि० [सं० क्षेम+यत्] १. कल्याणकारक। २. शांतिदायक। ३. स्वास्थ्यकर।
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क्षेम्या  : स्त्री [सं० क्षेम्य+टाप्] दुर्गा का एक रूप।
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क्षैण्य  : पुं० [सं० क्षीण+ष्यञ्] क्षीणता।
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क्षैप्र  : पुं० [सं० क्षिप्र+अण्] क्षिता।
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क्षैमिक  : वि० [सं० क्षेम+ठञ्—इक] क्षेम-संबंधी।
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क्षैय  : वि० [सं० क्षव्य] १. जिसका क्षय होने को हो। २. जिसका क्षय किया जाने को हो।
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क्षैरेय  : वि० [सं० क्षीर+ढञ्—एय] दूध से बना अथवा बनाया हुआ।
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क्षोड  : पुं० [सं०√क्षोड् (बाँधना)+घञ्] वह खूँटा, जिससे हाथी बाँधा जाता है। आलान।
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क्षोण  : पुं० [सं०√क्षि+ल्युट्—अन, पृषो० सिद्धि] १. वह जो हिल न सके अथवा चल फिर न सके। २. एक स्थान पर टिका रहनेवाला। ३. एक प्रकार का वीणा।
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क्षोणि  : स्त्री० [सं०√क्षै (नष्टकरना)+डोनि] १. पृथ्वी, जो सब का कल्याण करती है। २. एक की संख्या का सूचक शब्द।
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क्षोणिप  : पुं० [सं० क्षोणि√पा (पालन करना)+क] राजा।
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क्षोणी  : स्त्री० [सं० क्षोणि+ङीष्] पृथ्वी।
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क्षोणी-पति  : पुं० [ष० त०] राजा।
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क्षोद  : पुं० [सं०√क्षुद् (चूर्ण करना)+घञ्] १. चूर्ण। बुकनी। २. चूर्ण बनाने अथवा कोई चीज पीसने का काम। ३. जल। पानी।
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क्षोदित  : भू० कृ० [सं०√क्षुद्+णिच्+क्त] पीसा या चूर किया हुआ। पुं० पिसी हुई वस्तु। चूर्ण।
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क्षोभ  : पुं० [सं०√क्षुभ् (चंचल होना)+घञ्] १. शान्ति, स्थिरता आदि में पड़नेवाली बाधा। जैसे—जल में होनेवाला क्षोभ। खलबली। २. कोई आपत्तिजनक बात या व्यवहार होने पर मन में होने वाली दुःखजन्य विकलता। ३. असंतोष। ४. भय। ५. कंप। कँपकँपी। उदा०—तेज बढ़े निज राज को, अरि उर उपजे छोभ।—केशव। ६. क्रोध।
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क्षोभक  : पुं० [स०] कामाख्या के पास का एक पर्वत।
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क्षोभकृत्  : पुं० [सं० क्षोभ√कृ (करना)+क्विप्] साठ संवत्सरों में से छत्तीसवाँ संवत्सर। (ज्योतिष)
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क्षोभण  : पुं० [सं०√क्षुभ्र+णिच्+ल्यु—अन्] १. वह जो क्षोभ उत्पन्न करे। २. कामदेव का एक बाग। ३. विष्णु। ४. शिव।
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क्षोभिणी  : स्त्री० [सं०√क्षुभ्+णिच्+णिनि—ङीप्] निषाद स्वर की अंतिम श्रुति। (संगीत)
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क्षोभित  : वि० [सं क्षोभ+इतच्] जिसे क्षोभ हुआ हो। क्षुब्ध।
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क्षोभी (भिन्)  : वि० [सं० क्षोभ+इनि] क्षुब्ध होनेवाला।
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क्षोम  : पुं० [सं०√क्षु+मन्] १. दुमंजिले पर का कमरा। २. अटारी। ३. रेशम। ४. रेशमी कपड़ा।
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क्षोहण  : पुं०=अक्षौहिणी। उदा०—पंच क्षोहण जकइ मिलइ नरिंद।—नरपति नाल्ह।
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क्षौणि, क्षौणी  : स्त्री० [सं० क्षोणी] पृथ्वी।
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क्षौद्र  : पुं० [सं० क्षुद्र+अण्] १. क्षुद्रता। २. जल। ३. [क्षुद्रा+आञ्] छोटी मक्खी का मधु।
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क्षौद्र-प्रमेह  : पुं० [मध्य० स०] मधुमेह।
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क्षौद्रक  : पुं० [सं० क्षौद्र०+कन्] १. मधु। शहद। २. एक प्राचीन प्रदेश का नाम।
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क्षौद्रज  : पुं० [सं० क्षौद्र√जन् (उत्पत्ति)+ड] क्षुद्रा मधुमक्खी का मोम।
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क्षौद्रेय  : पुं० [सं० क्षौद्र+ढञ्—एय] मोम।
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क्षौम  : पुं० [सं० क्षोभ+अण्] १. प्राचीन काल में अलसी, सन आदि के रेशों से बननेवाला एक प्रकार का मोटा कपड़ा। २. कोई कपड़ा, विशेषतः रेशमी कपड़ा।
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क्षौमक  : पुं० [सं० क्षौम√कै (प्रतीत होना)+क] चोआ नामक गंध-द्रव्य।
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क्षौमिक  : स्त्री० [सं० क्षोभ+ठञ्—इक] १. अलसी, सन के रेशो को बटकर बनाई हुई करधनी। २. कथरी। गुदड़ी।
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क्षौमी  : स्त्री० [सं० क्षुमा+अण्—ङीप्] १. टाट की गुदड़ी। कथरी। 2 अलसी, सन आदि की बनी हुई कथरी।
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क्षौर  : पुं० [सं० क्षुर+अण्] १. छुरे से बाल मूँड़ने का काम। २. सिर के बाल काटने का काम। हजामत।
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क्षौर-मंदिर  : पुं० [ष० त०] हजामत बनवाने की दुकान। (बार्बर्स सैलून)
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क्षौरालय  : पुं० [क्षौर-आलय, ष० त०]= क्षौर-मंदिर।
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क्षौरिक  : पुं० [सं० क्षौर+ठन्—इक] नाई। हज्जाम।
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क्ष्मा  : स्त्री० [सं०√क्षम् (सहना)+अच्—टाप्, अलोप] १. पृथ्वी। धरती। २. एक की संख्या का सूचक शब्द।
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क्ष्वेड़  : पुं० [सं०√क्ष्विड् (प्यार करना)+घञ्] १. अव्यक्त या अस्पष्ट ध्वनि। २. ध्वनि। शब्द। ३. जहर। विष। ४. कान का एक रोग।
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क्ष्वेडा  : स्त्री० [सं० क्ष्विड्+घञ् वा अच्, टाप्] १. सिंहनाद। २. युद्ध का नाद। ३. बाँस।
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