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बाहर  : अव्य० [सं० बहिस् का दूसरा रूप बहिर] [वि० बाहरी] १. किसी क्षेत्र, घेरे, विस्तार आदि की सीमा से परे। किसी परिधि से कुछ अलग, दूर या हटकर। अंदर और भीतर का विपर्याय। जैसे—यह सामान कमरे के बाहर रख दो। पद—बाहर-बाहर=बिना किसी क्षेत्र घेरे विस्तार के अन्दर आये हुए। बिना अन्तुर्भुक्त हुए। जैसे—वे पटने, से लौटे तो पर बाहर-बाहर लखनऊ चले गये। २. किसी देश या स्थान की सीमा से अलग या दूर अथवा किसी दूसरे देश या स्थान में जैसे—महीने में दस-बारह दिन तो उन्हें दौरे पर बाहर ही रहना पड़ता है। ३. किसी प्रकार के अधिक्षेत्र, मर्यादा संपर्क आदि से भिन्न या रहित। अलग। जैसे—हम आपसे किसी बात में बाहर नहीं है, अर्थात् आप जो कहेगें या चाहेगें हम वही करेगें। ४. बगैर। सिवा। (क्व०) पुं० [हिं० बाहना] वह आदमी जो कुएँ की जगत् पर खड़ा रहकर मोट का पानी नाली में उलटता या गिराता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहरजामी  : पुं० [सं० बाह्ययामी] ईश्वर का सगुण। रूप राम, कृष्ण इत्यादि अवतार।
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बाहरला  : वि०=बाहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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बाहरी  : वि० [हिं० बाहर+ई (प्रत्यय)] १. बाहर की ओर का। बाहर वाला। भीतरी का विपर्याय। २. जो अपने देश, वर्ग या समाज का न हो। पराया और भिन्न। जैसे—बाहरी आदमी। ३. जो ऊपर या केवल से देखने भर को हो। जिसके अन्दर कुछ तथ्य न हो। जैसे—कोरा बाहरी ठाट-बाट। ४. बिलकुल अलग या भिन्न। उदाहरण—पंच हँसिहै री हो तो पचन तें बाहरी।—देव।
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