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ल  : व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान के विचार से तालव्य, घोष, अल्पप्राण, ईषत्स्पृष्ट तथा अन्तःस्थ व्यंजन। पुं० [सं०√ली+ड] १. इन्द्र। पृथ्वी। प्रत्यय०कुछ स्थानों के नाम के साथ ‘कूल’ के संक्षिप्तक के रूप में प्रयुक्त। जैसे—काबुल (कुमा, +कूल) गोमल (गोमत+कूल)।
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लउआ  : पुं० =लौआ (कद्दू या घीया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लउटी  : स्त्री० =लकुटी (छड़ी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लऊक  : पुं० [अ० लऊक] चाटकर खाने की औषधि। अवलेह।
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लंक  : स्त्री० [सं०] कमर। कटि। पुं० [?] ढेर। राशि। जैसे—देखते-देखते उसने किताबों का लंक लगा दिया। क्रि० प्र०—लगाना। स्त्री० =लंका (द्वीप)।
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लक  : पुं० [सं०√लक् (आस्वाद)+अच्] १. ललाट। २. जंगली। धान की बाल।
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लंक-टंकटा  : स्त्री० [सं०] १. सुकेश राक्षस की माता और विद्युतकेश की कन्या का नाम। २. पुराणानुसार सन्ध्या की कन्या का नाम।
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लक-दक  : पुं० [फा०] ऐसा मैदान जहाँ पेड़, पौधे और घास न हों। चटियल मैदान। बंजर। वि० बहुत अधिक अलंकरणों से लदा हुआ।
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लंक-दीप  : पुं० =लंका (द्वीप)।
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लंक-नाथ  : पुं० [सं० लंकानाथ] १. रावण। २. विभीषण।
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लंक-लाट  : पुं० [अं० लांग क्लाथ] एक प्रकार का चिकना मोटा कपड़ा।
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लकड़  : पुं० [हि० लकड़ी] १. हिं० लकड़ी का व संक्षिप्त रूप जो उसे यौ० शब्दों के आरम्भ में लगाने पर प्राप्त होता है। जैसे—लकड़हारा। २. पूर्वजों के कुछ संबंध सूचक नामों के साथ लगनेवाला एक शब्द जो ‘पर’ से भी ऊपर की स्थिति का वाचक होता है। जैसे—लकड़-दादा, लकड़-नाना।
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लकड़-दादा  : पुं० [हिं० लकड़+दादा] [स्त्री० लकड़-दादी] पर-दारा से बडा दादा।
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लकड़बग्घा  : पुं० [हिं० लकड़+बाघ] भेड़िये की जाति का एक पशु।
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लकड़हारा  : पुं० [हिं० लकड़+हारा (प्रत्यय)] वह व्यक्ति जो जंगल से लकड़ियाँ काटकर अपनी जीविका चलाता हो।
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लकड़ा  : पुं० [हिं० लकड़ी] १. सूखकर लकड़ी की तरह सख्त हो जाना। २. लकड़ी की तरह बिलकुल दुबला हो जाना। ३. (अंग, रोगी आदि) ऐंठकर लकड़ी की तरह कड़ा होना।
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लकड़ी  : स्त्री० [सं० लगुड़] १. वृक्षों, झाड़ियों आदि के तनों और डालियों का वह कड़ा और ठोस अंश जो छाल के नीचे रहता है, और काट लिये जाने पर प्रायः जलाने तथा इमारतें बनाने के काम आता है। काठ। काष्ठ २. उक्त का वह काटा और सुखाया हुआ रूप जो प्रायः चूल्हे आदि में जलाने के काम आता है। ईधन। ३. कुछ विशिष्ट प्रकार के वृक्षों आदि की वह पतबी और लंबी शाखा जो काटकर छड़ी डंडे आदि के रूप में लाई जाती है, और जिससे चलने में सहारा लिया जाता तथा आवश्यकता होने पर किसी पर आघात या प्रहार भी किया जाता है। वि० सूखा हुआ। पद—लकड़ी सा=बहुत दुबला पतला। मुहावरा—(किसी को) लकड़ी देना=किसी मृत शरीर या शव को चिता पर रखकर जलाना। (पदार्थ का) सूखकर लकड़ी होना=अपेक्षित कोमलता से रहित होकर कठोर या कड़ा होना। जैसे—सबेरे की रखी हुई रोटी सूखकर लकड़ी हो गई है। (व्यक्ति का) सूख कर लकड़ी होना=चिंता, धनाभाव, रोग आदि के कारण शरीर का बहुत ही क्षीण या दुर्बल होना। लकड़ी चलाना=लाठी से मार पीट करना।
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लंकनायक  : पुं० =लंकनाथ।
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लकब  : पुं० [अ० लकब] १. उपाधि। खिताब। पदवी। २. उपनाम।
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लकरी  : स्त्री० =लकड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लक़लक़  : पुं० [अ०] लंबी गर्दनवाला एक पक्षी। ढेंक। वि० बहुत दुबला-पतला।
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लकलका  : पुं० [अ० लक़लक़ा] १. साँप की बोली। २. साँपों, आदि के बार बार जीभ हिलाने की क्रिया। ३. चच्चाकांक्षा। ४. दबदबा। रोब।
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लकवा  : पुं० [अ० लकवा] १. एक प्रकार का प्रसिद्ध वात रोग जिसमें रोगी का मुँह टेढ़ा हो जाता है। २. पक्षाघात। क्रि० प्र०—मारना।
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लकसी  : स्त्री० [हिं० लकड़ी+अँकुसी] फल आदि तोड़ने की ऐसी लग्गी जिसके सिरे पर अंकुसी लगी रहती हैं।
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लंका  : स्त्री० [सं०√रम् (रमण)+क, बा, रस्यल, +टाप्] १. भारत के दक्षिण का एक प्रसिद्ध द्वीप जहाँ पहले रावण का राज्य था। लोगों का विश्वास है कि रावण के समय यह टापू सोने का था। २. मध्यकालीन साहित्य में आधुनिक सिंहल से भिन्न एक और द्वीप, जिसे लंगबालूस भी कहा जाता था। ३. शिंबी धान्य। ४. असबरग। ५. काला चना। ६. वृक्ष की शाखा। डाली।
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लका  : पुं० [अ० लक़ा] १. चेहरा। आकृति। २. लक्का कबूतर।
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लंका-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. रावण। २. विभीषण।
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लकाटी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की नर बिल्ली जिसके अंडकोशों में से एक प्रकार का मुश्क निकलता है।
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लंकाधिपति  : पुं० [सं० लंका-अधिपति, ष० त०] रावण।
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लंकारि  : पुं० [सं० लंका-अरि, ष० त०] रामचन्द्र।
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लंकारिका  : स्त्री० [सं०] असबरग।
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लंकाल  : पुं० [?] शेर। सिंह। (डि०) उदाहरण—बारह बरसा बापरौ, लहै बैर लंकाल।—कविराज सूर्यमल।
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लंकिनी  : स्त्री० [सं०] रामचरित मानस में वर्णित एक राक्षसी जिसे हनुमान जी ने लंका में प्रवेश करते समय घूँसे से मारा था।
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लकीर  : स्त्री० [सं० रेखा] १. वह चिन्ह जो लंबाई के बल में कुछ दूर तक बना या बनाया गया हो। जैसे—कलम से कागज पर या वाण से जमीन पर लकीर खींचना। क्रि० प्र०—खींचना।—बनाना। २. कोई ऐसा चिन्ह जो दूर तक रेखा के समान बना हो। ३. अक्षरों आदि की पंक्ति। सतर। ४. बहुत दिनों से रेखा आदि के रूप में चली आई हुई प्रणाली, प्रथा या रीति। पद—लकीर का फकीर=वह जो बिना समझे-बूझे किसी प्राचीन प्रथा पर चलता हो। आँखे बन्द करके पुराने ढंग पर चलनेवाला। मुहावरा—लकीर पीटना=बिना समझे-बूझे पुरानी प्रथा पर चलना।
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लकुच  : पुं० [सं०√लक् (आस्वाद)+उचन्]=लकुट।
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लकुट  : पुं० [सं०√लक्+उटन्] लाठी। छड़ी। पुं० [सं० लकुच] १. मध्यम आकार का एक प्रकार का वृक्ष जिसका फल गुलाब-जामुन के समान होता है। २. उक्त वृक्ष का फल जो खाया जाता है। लुकाठ। लखोट।
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लकुटिया  : स्त्री० =लकुटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लकुटी  : स्त्री० [सं० लकुट+ङीष्] छोटी लाठी। छड़ी।
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लकुरी  : स्त्री० =लकुटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंकूर  : पुं० =लंगूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लंकेश  : पुं० [सं० लंका-ईश, ष० त०] १. लंका के अधिपति, रावण। २. विभीषण।
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लंकेश्वर  : पुं० [सं० लंका-ईश्वर, ष० त०] लंकेश।
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लंकोई  : स्त्री० =असबरग।
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लकोटा  : पुं० [देश] एक प्रकार का पहाड़ी बकरा जिसके बालों से शाल, दुशाले आदि बनाये जाते हैं।
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लंकोदय  : पुं० [सं०] ज्योतिष में भारत के उत्तर में रोहीतक (आधुनिक रोहतक) मध्य में उज्जयिनी और दक्षिण में लंका से होकर जानेवाली देशांतर रेखा पर का सूर्यादय काल जो पंचागों में प्रामाणित माना जाता है।
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लक्कड़  : पुं० [हिं० लकड़ी] बड़ी और मोटी लकड़ी। काठ का बड़ा कुंदा।
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लक्का  : पुं० [फा० लका] एक प्रकार का कबूतर जो छाती उभार कर चलता है, और जिसकी पूँछे पंखे सी होती हैं।
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लक्खना  : वि० [सं० लक्षण] [स्त्री० लक्खनी] लक्षणोंवाला। उदाहरण—कुआँरि बतीसौं लक्खनी अस सब माँह अनूप।—जायसी।
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लक्खा  : वि० [हि० लाख] [वि० स्त्री० लक्खी] १. जिसमें एक ही तरह के लाखों चीजें हों। जैसे—आमों का लक्खा बगीचा। २. जो लाखों में से एक हो। बहुत बढ़ा-चढ़ा। जैसे—लक्खा योद्धा, लक्खी बेसवा (बहुत ही चतुर और धूर्त दुश्चरित्र स्त्री या वेश्या)। ३. दे० ‘लक्खी’।
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लक्खी  : वि० [हिं० लाख (संख्या)] १. लाख (संख्या) से सम्बन्ध रखनेवाला। लाख या लाखों का। २. जिसके पास लाख या लाखों रुपये हों। लखपती। वि० [हिं० लाख=लाक्षा] लाख के रंग का। लाखी। पुं० उक्त प्रकार के रंग का घोड़ा।
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लक्त  : वि० [सं०√रक्त] लाल। सुर्ख।
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लक्तक  : पुं० [सं० लक्त+कन्] १. अलता, जो स्त्रियाँ पैरों में लगाती हैं। अलक्तक। २. कपड़े का बहुत फटा हुआ छोटा टुकड़ा। चिथड़ा। लत्ता।
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लक्ष  : वि० [सं०√लक्ष (दर्शन)+अच्] सौ हजार। एक लाख। पुं० १. वह जिस पर दृष्टि रखकर काम किया जाय। २. पैर। ३. चिन्ह । निशान। ४. अस्त्रों का एक प्रकार का संहार।
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लक्षक  : वि० [सं०√लक्ष+ण्वुल-अक] लक्षित करनेवाला। पुं० [सं०√लक्ष् (दर्शन)+ण्वुल] वह शब्द जो संबंध या प्रयोजन से अपना अर्थ सूचित करे।
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लक्षण  : पुं० [सं०√लक्ष्+ल्युट—अन] १. किसी पदार्थ की आकृति आदि से दिखाई देनेवाली वह विशेषता जिसके द्वारा वह पहचाना जाय। चिन्ह निशान। असार। जैसे—आकृति से बुद्धिमता के या आकाश में वर्षा के लक्षण दिखाई देना। विशेष—चिन्ह और लक्षण में मुख्य अंतर यह है कि चिन्ह तो सदा मूर्त और स्पष्ट होता है, पर लक्षण प्रायः अमूर्त और अस्पष्ट होता है। इसके सिवा चिन्ह का प्रयोग तो भूत, प्रस्तुत या वर्तमान के संबंध में होती है परन्तु लक्षण का प्रयोग भावी घटनाओं आदि के प्रसंग में ही होता है। २. किसी वस्तु या व्यक्ति में होनेवाला कोई ऐसा गुण या विशेषता जो सहसा औरों में दिखाई देती हो। (ट्रेट) जैसे—यही सब तो प्रतिभा के लक्षण हैं। ३. शब्दों में पदों, वाक्यों आदि की ऐसी परिभाषा या व्याख्या, जिससे उसकी ठीक ठीक स्थिति या स्वरूप प्रकट होता हो। जैसे—साहित्य में किसी अलंकार के लक्षण बतलाना। ४. शरीर में दिखाई पड़नेवाले वे चिन्ह आदि जो किसी रोग के सूचक हों। जैसे—इस रोगी में क्षय के सभी लक्षण दिखाई देते हैं। ५. सामुद्रिक के अनुसार शरीर के वे चिन्ह जो शुभाशुभ फलों के सूचक माने जाते हैं। जैसे—यदि हाथ में अमुक लक्षण हो तो आदमी बहुत धनी होता है। ६. शरीर में होनेवाला एक विशेष प्रकार का काला दाग जो बालक के गर्भ में रहने के समय सूर्य या चन्द्रग्रहण लगने के कारण बन जाता है। लच्छन। ७. आचार व्यवहार आदि के ऐसे ढंग या प्रकार जो भले या बुरे होने के सूचक हों। जैसे—इस लड़के के लक्षण अच्छे नहीं दिखाई देते। ८. नाम। संज्ञा। ९. दर्शन। १॰. सारस पक्षी। पुं० लक्ष्मण।
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लक्षण-कार्य  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी चीज या बात की पहचान बतलाने के लिए उसके गुणों, विशेषताओं आदि का वर्णन करना। २. परिभाषा।
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लक्षणक  : पुं० [सं० लक्षण+कन्] चिन्ह। निशान।
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लक्षणा  : स्त्री० [सं०√लक्ष्+न, अडागम,+अच्+टाप्] शब्द की तीन शक्तियों में से दूसरी शक्ति जो अभिधेय से भिन्न परन्तु उसी से संबंधित दूसरा अर्थ प्रकट करती है। जैसे—मोहन गधा है। यहां गधा अपने अमिधेय अर्थ में विशिष्ट पशु का वाचक नहीं बल्कि उसी विशिष्ट पशु की ज्ञान-हीनता का सूचक है।
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लक्षणी (णिन्)  : वि० [सं० लक्षण+इनि] १. जिसमें कोई लक्षण या चिन्ह हो। लक्षणोंवाला। २. लक्षण जाननेवाला।
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लक्षण्य  : वि० [सं० लक्षण+यत्] १. लक्षण या चिन्ह बतलानेवाला। २. लक्षण या चिन्ह का काम देनेवाला।
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लक्षना  : स्त्री० =लक्षणा। स०=लखना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लक्षा  : स्त्री० [सं० लक्ष+टाप्] एक लाख की सूचक संख्या।
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लक्षि  : स्त्री० =लक्ष्मी। पुं० =लक्ष्य।
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लक्षित  : भू० कृ० [सं०√लक्ष्+क्त] १. लक्ष्य या ध्यान में आया या लाया हुआ। जिसकी ओर लक्ष गया हो। २. जिसकी ओर दूसरों का ध्यान लगाया गया हो। निर्दिष्ट। ३. अनुभव से जाना या समझा हुआ। ४. किसी प्रकार के लक्षण या चिन्ह से युक्त। ५. जिस पर चिन्ह लगाया गया हो। पुं० वह अर्थ जो शब्द की लक्षणा शक्ति द्वारा ज्ञात होता है।
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लक्षित-लक्षणा  : स्त्री० [सं० स० त०] शब्द की वह शक्ति जो मुख्यार्थ को छोड़कर लक्ष्यार्थ का ग्रहण कराती है।
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लक्षितव्य  : वि० [सं०√लक्ष्+तव्य] १. जिसकी ओर लक्ष्य होना उचित हो। २. जिस पर चिन्ह किया जाने को हो। ३. जिसकी परिभाषा की जाने को हो।
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लक्षिता  : स्त्री० [सं० लक्षित+टाप्] साहित्य में वह नायिका जिसके लक्षणों से उसका पर-पुरुष प्रेम जानकर किसी सखी ने उस पर प्रकट किया हो।
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लक्षितार्थ  : पुं० [सं० लक्षित-अर्थ, कर्म० स०] शब्द की लक्षणा-शक्ति से निकलनेवाला अर्थ।
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लक्षी  : स्त्री० [सं० लक्ष+ङीष्] गंगोदक नामक सवैया का दूसरा नाम। वि० अच्छे चिन्हों या लक्षणोंवाला।
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लक्ष्म (क्ष्मन्)  : पुं० [सं०√लक्ष्+मनिन्] १. चिन्ह । २. दाग। ३. विशेषता। ४. परिभाषा। ५. सारस पक्षी। ६. लक्ष्मण। वि० प्रधान। मुख्य।
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लक्ष्मण  : पुं० [सं० लक्ष्मन+अच्] १. लक्ष्मन। चिन्ह । २. सुमित्रा के गर्भ से उत्पन्न राजा दशरथ के एक पुत्र जो शेषनाग के अवतार माने जाते हैं। ३. दुर्योधन का एक पुत्र। ४. सारस। ५. नाग। वि० १. लक्षण या चिन्ह से युक्त। २. भाग्यवान्। ३. उन्नतिशील।
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लक्ष्मण-रेखा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] ऐसी रेखाकार सीमा जो किसी प्रकार लाँघकर पार न की जा सकती हो। (लक्ष्मण जी की खींची हुई उस रेखा के आधार पर जो उन्होंने सोने के हिरन का पीछा करने से पहले सीता के चारों ओर खींची थी)।
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लक्ष्मण-लीक  : स्त्री० =लक्ष्मण रेखा।
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लक्ष्मणा  : स्त्री० [सं० लक्ष्मण+टाप्] १. श्री कृष्ण की एक पत्नी जो भद्रदेश के राजा बृहत्सेन की पुत्री थी। २. दुर्योधन की एक कन्या। ३. श्रीकृष्ण के पुत्र सांब की पत्नी। ४. एक प्रकार की जड़ी जो पुत्रदा मानी जाती है। यह जड़ी चौड़े पत्ते तथा श्वेत कंदवाली होती है तथा पर्वतों पर पायी जाती है। इसका कंद औषध के लिए प्रयोग में आता है। नागपत्री। पुत्रदा।
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लक्ष्मी  : स्त्री० [सं०√लक्ष्+ई, मुट्-आगम] १. भगवान् विष्णु की पत्नी जो धन की अधिष्ठाती देवी मानी गई हैं। कमला। पद्या। २. धन-संपत्ति। दौलत। ३. शोभा। श्री। ४. दुर्गा। ५. सीता का नाम। ६. धन-धान्य बढ़ाने वाली भाग्यवती स्त्री। ७. घर की मालकिन या स्वामिनी के लिए आदरसूचक संबोधन या संज्ञा। ८. कमल। पद्य। ९. हलदी। १॰. शमी वृक्ष। ११. मोती। १२. सफेद तुलसी। १३. मेढ़ासिंगी। १४. ऋद्धि नामक ओषधि। १५. वृद्धि नामक ओषधि। १६. मोक्ष की प्राप्ति। १७. फलने-फूलनेवाला अथवा फला-फूला हुआ वृक्ष। फूलदार वृक्ष। १८. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो रगण एक गुरु और एक लघु अक्षर होता है। १९. आर्याछंद के २६ भेदों में से पहला भेद जिसके प्रत्येक चरण में २७ गुरु और तीन (३) लघु वर्ण होते हैं।
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लक्ष्मी-कांत  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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लक्ष्मी-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] लाल कमल जिसमें लक्ष्मी का निवास माना जाता है।
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लक्ष्मी-जनार्दन  : पुं० [सं० मध्य० स०] काले रंग के एक प्रकार के शालग्राम जिन पर चार चक्र बने होते हैं।
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लक्ष्मी-टोड़ी  : स्त्री० [सं० लक्ष्मी+हिं० टोड़ी] एक प्रकार की संकर रागिनी जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।
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लक्ष्मी-ताल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. संगीत में १८ मात्राओं का एक ताल जिसमें १५ आघात और तीन खाली होते हैं। २. श्रीताल नामक वृक्ष।
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लक्ष्मी-धर  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु। २. स्रग्विणी छंद का दूसरा नाम।
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लक्ष्मी-नारायण  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. लक्ष्मी और नारायण की युगल-मूक्ति २. लक्ष्मी जनार्दन नामक चक्र-चिन्ह युक्त तथा कृष्ण वर्ण शालग्राम।
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लक्ष्मी-नृसिंह  : पुं० [मध्य० स०] दो चक्र और वनमाला धारण किए हुए विष्णु की एक मूर्ति।
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लक्ष्मी-पति  : पुं० [ष० त०] १. विष्णु। नारायण। २. श्रीकृष्ण। ३. राजा। ४. लौंग का पेड़। ५. सुपाडी का पेड़।
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लक्ष्मी-पुत्र  : पुं० [ष० त०] धनवान् व्यक्ति। अमीर। २. सीता के पुत्र लव और कुश। ३. कामदेव। ४. माणिक्य या लाल नामक रत्न ५. घोड़ा।
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लक्ष्मी-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. पद्य। कमल। २. लौंग। ३. माणिक। लाल।
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लक्ष्मी-पूजा  : स्त्री० [ष० त०] दीपावली के रोज रात में लक्ष्मी की की जानेवाली पूजा।
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लक्ष्मी-फल  : पुं० [ब० स०] बेल। श्रीफल।
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लक्ष्मी-रमण  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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लक्ष्मी-वल्लभ  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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लक्ष्मी-वार  : पुं० [ष० त०] गुरुवार।
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लक्ष्मी-वीज  : पुं० [ष० त०] वीज (मंत्र)।
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लक्ष्मी-सहज  : पुं० [ष० त०] १. चन्द्रमा। २. कपूर। ३. इंद्र का घोड़ा। ४. शंख।
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लक्ष्मी-सहोदर  : पुं० [ष० त०]=लक्ष्मी-सहज।
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लक्ष्मीक  : वि० [सं० लक्ष्मी√कै (शोभित होना)+क] १. धनवान्। अमीर। २. भाग्यवान्।
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लक्ष्मीवत्  : पुं० [सं० लक्ष्मी+मतुप्, म-व०] १. नारायण। विष्णु। २. धनवान् व्यक्ति। ३. कटहल का पेड़। ४. अश्वत्थ। पीपल।
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लक्ष्मीवान् (वत्)  : वि० [सं० लक्ष्मी+मतुप्०] १. धनवान्। २. सुन्दर। पुं० १. विष्णु। २. कटहल। ३. रोहित वृक्ष।
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लक्ष्मीश  : पुं० [लक्ष्मी-ईश, ष० त०] १. विष्णु। २. धनवान्। अमीर। ३. आम का पेड़।
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लक्ष्य  : पुं० [सं०√लक्ष् (दर्शन)+ण्यत्] १. वह वस्तु जिस पर किसी उद्देश्य की सिद्धि के विचार से दृष्टि रखी जाय। निशान। जैसे—(क) चिड़िया को लक्ष्य करके उस पर ढेला फेंकना या तीर चलाना। (ख) किसी को लक्ष्य करके उपहास या व्यंग की बात करना। २. वह काम या बात जिसकी सिद्धि अभीष्ट हो और इसीलिए जिस पर दृष्टि या ध्यान रखा जाय। उद्देश्य। जैसे—जीवन भर धन संग्रह ही एक मात्र लक्ष्य रहा। ३. प्राचीन भारत में अस्त्रों आदि का एक प्रकार का संहार। ४. वह जिसका अनुमान किया गया हो या किया जाय। अनुमेय। ५. शब्द की लक्षणा शक्ति से निकलनेवाला अर्थ। ६. बहाना। हीला। वि० १. देखने योग्य। दर्शनीय। २. लाख।
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लक्ष्य-भेद  : पुं० [ष० त०]=लक्ष्य-वेध।
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लक्ष्य-वीथी  : स्त्री० [ष० त०] १. वह उपाय या कर्म जिससे जीवन का उद्देश्य सिद्ध होता हो। २. ब्रह्मलोक जाने का मार्ग। ३. देव-ध्यान।
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लक्ष्य-वेध  : पुं० [ष० त०] चलते या उड़ते हुए जीव या पदार्थ पर निशाना लगाना।
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लक्ष्य-वेधी (धिन्)  : पुं० [सं० लक्ष्य√विध् (बेधना)+णिनि] जो लक्ष्य-वेध करता हो उड़ते या चलते हुए पदार्थ या जीवों पर निशाना लगानेवाला।
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लक्ष्य-साधन  : पुं० [ष० त०] १. कोई काम करने से पहले उसके सब अंग या ऊँच-नीच अच्छी तरह देखना। २. अस्त्र चलाने से पहले अच्छी तरह देख लेना जिससे वह निशाने या लक्ष्य पर ठीक जाकर लगे। (साइटिंग)
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लक्ष्यज्ञ  : पुं० [सं० लक्ष्य√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो किसी लक्ष्य की पूर्ति या सिद्धि के लिए अग्रसर तथा प्रयत्नशील हो। २. वह जो यह जानता हो कि मेरा लक्ष्य क्या है।
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लक्ष्यज्ञत्व  : पुं० [सं० लक्ष्यज्ञ+त्व] १. वह ज्ञान जो चिह्रों को देखने से उत्पन्न हो। २. वह ज्ञान जो दृष्टांत के आधार पर प्राप्त हो।
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लक्ष्यता  : स्त्री० [सं० लक्ष्य+तल्+टाप्] लक्ष्य होने की अवस्था धर्म या भाव। लक्ष्यत्व।
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लक्ष्यत्व  : पुं० [सं० लक्ष्य+त्व]=लक्ष्यता।
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लक्ष्यार्थ  : पुं० [सं० लक्ष्य-अर्थ, मध्य० स०] शब्द की लक्षणा शक्ति से निकलनेवाला अर्थ। किसी शब्द का वाच्य अर्थ से भिन्न किन्तु उससे संबद्ध अर्थ।
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लक्ष्योपमा  : स्त्री० [सं० लक्ष्य-उपमा, मध्य० स०] साहित्य में उपमा अलंकार का एक भेद जिसमें सम, समान आदि शब्दों या इनके वाचक अन्य शब्दों का प्रयोग न करके यह कहा जाता है कि यह वस्तु अमुक कोटि या वर्ग की है, उसे लज्जित करती है, उससे होड़ करती है अथवा इसने उससे अमुक गुण या बात चुरा या छीन ली हो।
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लख-पेड़ा  : वि० [हिं० लाख+पेड़] (बाग) जिसमें लाख के लगभग अर्थात् बहुत अधिक पेड़ हों।
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लखड़ा  : पुं० =रखटी (एक प्रकार का ऊख)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखण  : पुं० १. =लक्षण। २. =लक्ष्मण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखधर  : पुं० =लाक्षागृह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखन  : स्त्री० [हिं० लखना] लखने की क्रिया या भाव। पुं०=लक्ष्मण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखना  : स० [सं० लक्ष] १. लक्षण देखकर अनुमान कर लेना। २. जरा सा या एक झलक देखकर ही जान या समझ लेना। ३. देखना। ४. इस प्रकार का ध्यान देते हुए देखना कि औरों को पता न चलने पावे। उदाहरण—आज लखना कि देखता है या नहीं तुम्हारी ओर।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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लखपती  : पुं० [सं० लक्ष+पति] वह जिसके पास लाखों रुपयों की संपत्ति हो। बड़ा अमीर या धनवान्।
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लखमी-तात  : पुं० [सं० लक्ष्मी-तात] समुद्र (डिं०)।
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लखमी-वर  : पुं० [सं० लक्ष्मी+वर] विष्णु। (डि०)
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लखर  : पुं० [देश] काकड़ा सिंगी (वृक्ष)।
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लखराऊँ (बँ)  : पुं० [हिं० लाख] =लख-पेड़ा (बाग)।
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लखलख  : वि० [फा० लकलक] क्षीण-काय। दुबला-पतला।
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लखलखा  : पुं० [फा० लखलखः] १. अंबर, अगर तथा कस्तूरी का वह मिश्रण जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि इसके सुँघाये जाने पर बेहोशी दूर होती है। २. उक्त के आधार पर बेहोशी दूर करनेवाला कोई सुगंधित पदार्थ। जैसे—गुलाब जल छिड़की हुई चिकनी मिट्टी आदि।
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लखलखाना  : अ० [अनु०] अधिक भूख से विकल होना। भूखःप्यास से बिलखना।
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लखलुट  : वि० [हिं० लाख+लुटाना] लाखों रुपये लुटा देनेवाला, अर्थात् बहुत बड़ा अपव्ययी।
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लखवट  : पुं० =लुकाठ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लखाई  : स्त्री० =लखाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखाउ  : पुं० =लखाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखाघर  : पुं० =लाक्षा-गृह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखाना  : स० [हिं० लखना का प्रे०] १. किसी को कुछ लखने में प्रवृत्त करना। २. दिखलाना। अ० १. लखने में आना। लखा जाना। २. दिखाई देना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखाव  : पुं० [हिं० लखना] १. लखने या लखे जाने की अवस्था या भाव। २. पहचान। लक्षण। ३. चिन्ह । निशान। ४. दृश्य। नजारा।
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लखित  : वि० =लक्षित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखिमी  : स्त्री० १. =लक्ष्मी। २. =धन-संपत्ति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लखिया  : वि० [हिं० लखना+इया (प्रत्यय)] लखने अर्थात् देखने या ताड़नेवाला।
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लखी  : पुं० =लाखी (घोड़ा)।
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लखुआ  : पुं० [हिं० लाखा+उआ (प्रत्यय)] १. गेहूँ की फसल को हानि पहुँचानेवाला लाल रंग का एक कीड़ा। २. लाल मुँहवाला बंदर। वि०=लखिया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखेदना  : स० १. =खदेड़ना। २. =लथेड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखेरा  : पुं० [हिं० लाख+एरा (प्रत्यय)] १. लाख की चूड़ियाँ बनानेवाला कारीगर। २. हिन्दुओं में उक्त प्रकार का काम करनेवाली एक जाति।
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लखोखा  : पुं० [वि० लाखो+लाख] कई लाख। जैसे—उनके पास लखोखा रुपए हैं।
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लखोखापति  : पुं० [हिं० लखोखा+सं० पति] वह जिनके पास कई लाख रुपए हों। विशेष—साधारणतः लखपती से लखोखापति बहुत अधिक धनवान् होता है।
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लखोट, लखोठ  : पुं० =लुकाठ।
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लखौट  : स्त्री० [हिं० लाख+औट (प्रत्यय)] लाख की चूड़ी आदि जो स्त्रियाँ हाथों में पहनती हैं।
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लखौटा  : पुं० [हिं० लाख+औटा (प्रत्यय)] १. एक प्रकार का बढ़िया उबटन जिसमें केसर, चंदन आदि मिला रहता है। २. वह छोटा डब्बा जिसमें स्त्रियाँ टिकली, सिंदूर आदि प्रसाधन और सौभाग्य की छोटी-मोटी चीजें रखती हैं। पुं० =लिखावट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लखौरी  : स्त्री० [सं० लक्ष, हिं० लाख (संख्या)] १. किसी देवता को उसके प्रिय वृक्ष की एक लाख पत्तियाँ या फल आदि चढ़ाने की क्रिया या भाव। जैसे—शिव जी को बेलपत्र की या लक्ष्मी नारायण को तुलसी की ‘लखौरी’ चढ़ाना। क्रि० प्र०—चढ़ाना। स्त्री० [हिं० लाख (संख्या)+औरी (प्रत्यय)] १. एक प्रकार की छोटी पतली ईट जो प्रायः पुराने मकानों में पाई जाती है। नौ-तेरही ईट। ककैया ईट। विशेष—यह पहले प्रति लाख ईटों के भाव से बिकती थी, इसीलिए लखौरी कहलाती थी। स्त्री० [सं० लाक्षा, हिं० लाख+औरी (प्रत्यय)] भँवरी द्वारा अपने रहने के लिए बनाया हुआ मिट्टी का घरौंदा।
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लख्त  : पुं० [फा० लख्त] टुकड़ा। खण्ड। जैसे—लख्ते जिगर=कलजे का टुकड़ा, अर्थात् परम प्रिय (प्रायः सन्तान के लिए प्रयुक्त)।
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लंग  : पुं० [फा०] लँगड़ापन। मुहावरा—लंग खाना=चलने में कुछ लँगड़ाना। पुं० [सं०√लंग् (गति) +अच्] १. मेल। योग। २. उपपति या प्रेमी। स्त्री० =लांग।
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लग  : स्त्री० [हिं० लगना] १. लगे हुए होने की अवस्था या भाव। २. किसी काम या बात की गहरी धुन। लगन। ३. अनुराग। प्रेम। अव्य० १. निकट। पास। २. तक। पर्यन्त। ३. लिए। वास्ते। ४. साथ। सह।
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लंग-ग्रीव  : वि० [सं० ब० स०] लंबी गरदनवाला। पुं० ऊँट।
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लंग-बालूस  : पुं० [?] १. मध्यकालीन साहित्य में लंका द्वीप। २. दे० ‘लंका’।
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लग-भग  : अव्य० [हिं० लग+अनु० भग] मान, संख्या समय आदि की अनुमानित अवधि या मात्रा बहुत कुछ निश्चित भाव से द्योतित करनेवाला अव्यय। जैसे—(क) इस काम में लगभग सौ रुपये लगेगे। (ख) वे वहाँ लगभग चार महीने रहे।
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लग-लग  : स्त्री० [हिं० लगना] १. किसी प्रकार की लगावट या आरंभिक या हलका रूप। २. किसी प्रकार के संबंध की ऐसी बातचीज जो अभी चल रही हो। जैसे—उनके लड़के का अभी ब्याह तो नहीं हुआ है पर लग-लग लगी है, अर्थात् बात-चीत चल रही है। वि० [अव्य० लकलक] १. बहुत दुबला-पतला। २. कोमल। सुकुमार।
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लंगक  : पुं० [सं० लंग+क] उपपति। यार।
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लगजिश  : स्त्री० [फा० लग्रजिश] १. फिसलन। २. लड़खड़ाहट। ३. भूल-चूक।
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लंगटा  : वि० [स्त्री० +लँगटी०] =नंगटा (नंगा) उपेक्षासूचक।
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लगड़-पेंच  : पुं० =दांव-पेंच। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंगड़ा  : वि० =लँगडा। पुं० =लंगर।
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लँगड़ा  : वि० [फा० लंग०] [स्त्री० लँगड़ी, भाव० लँगड़ापन] १. जिसका एक पैर बेकार हो गया हो या टूटा हो। २. पैर में किसी प्रकार का कष्ट, दोष या विकार होने के कारण जो लचककर चलता हो। ३. जिसका कोई एक आधार नष्ट या विकृत हो गया हो, और इसीलिए जो ठीक तरह से या सीधा खड़ा न रह सकता हो। ३. (पैर) जो टूटने के कारण या किसी और प्रकार का टेढ़ा हो गया हो। पुं० पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में होनेवाला एक प्रकार का बढ़िया मीठा आम और उसका पेड़।
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लँगड़ाना  : अ० [हिं० लंगड़ी] चोट आदि के फलस्वरूप चलने में दोनों या चारों पैरों का ठीक-ठीक और बराबर न बैठना बल्कि किसी एक पैर का कुछ रुक या दबकर पड़ना। लँगड़े होने के कारण कुछ दबते और कुछ उचकते हुए चलना।
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लँगड़ापन  : पुं० [हिं० लँगड़ा+पन (प्रत्यय)] लँगड़े होने की अवस्था या भाव।
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लँगड़ी  : स्त्री० [हिं० लँगड़ा] एक प्रकार का छंद। वि० [हिं० लँगर] बलवान्। शक्तिशाली। (डि०)
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लगढग  : अव्य, =लगभग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लगण  : पुं० [सं०] पलक पर होनेवाली एक तरह की गाँठ। पुं०=लग्न। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लगंत  : स्त्री० [हिं० लगना+अंत (प्रत्यय)] १. लगने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. किसी काम या बात के लिए लगनेवाली धुन। लगन। ३. स्त्री-प्रसंग। संभोग (बाजारू)।
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लगदी  : स्त्री० [देश] छोटे बच्चों के गू, मूत्र आदि से सुरक्षित रखने के लिए बिस्तर पर बिछाया जानेवाला कपड़ा।
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लंगन  : पुं० =लँघन।
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लगन  : स्त्री० [हिं० लगना] १. लगने की क्रिया या भाव। २. एकाग्र भाव से किसी काम या बात की ओर ध्यान या मन लगने की अवस्था या भाव। एकान्त ध्यान और प्रवृत्ति की लौ। जैसे—आजकल तो उन्हें कविताएँ लिखने की लगन लगी है, अर्थात् उनका सारा ध्यान कविताएं लिखने की ओर है। उदाहरण—भूखे गरीब दिल की खुदा से लगन न हो। नजीर। ३. श्रृंगारिक क्षेत्र में, प्रगाढ़ प्रेम। बहुत अधिक मुहब्बत। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। पुं० [सं० लग्न] १. विवाह के लिए स्थिर किया हुआ कोई शुभ मुहुर्त या साइत। मुहावरा—लगन धरना या रखना=विवाह का मुहुर्त या समय निश्चित करना। २. वे विशिष्ट दिन और महीने जिनमें हिन्दुओं के यहाँ विवाह होना निश्चित विहित है। सहालग। जैसे—आजकल लगन-बरात के दिन हैं, इसलिए मजदूर कम मिलते हैं। ३. दे० ‘लग्न’। पुं० [फा०] १. ताँबे या पीतल की एक प्रकार की थाली जिसमें रखकर मोमबत्ती जलाई जाती है। २. किसी प्रकार की बड़ी थाली या परात। ३. मुसलमानों में ब्याह की एक रीति जिसमें विवाह से पहले थालियों में मिठाइयाँ आदि भरकर वर के यहाँ भेजी जाती हैं।
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लगन-पत्री  : स्त्री० [सं० लग्न-पत्रिका] कन्या-पक्ष द्वारा वर-पक्षवालों के यहाँ भेजा जानेवाला वह पत्र या लेख जिसमें विवाह संबंधी विभिन्न कृत्यों का समय लिखा होता है।
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लगनवट  : स्त्री० [हिं० लगन] श्रृंगारिक क्षेत्र में किसी के साथ होनेवाला प्रेम-सम्बन्ध।
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लगना  : अ० [सं० लग्न] १. एक पदार्थ के तल या पार्श्व का दूसरे पदार्थ के तल या पार्श्व के साथ आंशिक अथवा पूर्ण रूप से मिलना या सटना। संलग्न होना। सटना। जैसे—(क) किताब की जिल्द पर कपड़ा या कागज लगना। (ख) दीवार पर तसवीरें लगना। (ग) किसी के गले (या पैरों) लगना। २. एक चीज का दूसरी चीज (पर या में) जडा, जोड़ा, टाँका बैठाया रखा या सटाया जाना। जैसे—(क) लिफाके पर टिकट, तसवीर में चौखटा या साड़ी में गोटा लगना। (ख) दीवार में खिड़की या दरवाजा लगना। (ग) मकान में नल या बिजली लगना। (घ) दरवाजे में कुंडी लगना। ३. किसी चीज का उपयोग में आने के लिए यथा स्थान आकर जमना, बैठना या स्थित होना। जैसे—नाव में पाल लगना, बाँश में झंडी लगना। ४. किसी तल पर किसी गाढ़े तरल पदार्थ का लेप आदि के रूप में अथवा यों ही जमाया या पोता जाना। जैसे—पैरों में महावर लगना, दीवारों पर पलस्तर या रंग लगना, चीजों पर निशान लगना, माथे पर तिलक लगना, कपड़ों में कीचड़ लगना। ५. किसी प्रकार की गति की दशा में एक चीज का पासवाली दूसरी चीज से रगड़ खाना या संपृक्त होना। जैसे—(क) यंत्र के पहिए का किसी डंडे या दूसरे पहिए में लगना। (ख) चलते समय घोड़े का पैर लगना, अर्थात् एक पैर का दूसरे से टकराना या रगड़ा खाना। ६. किसी रूप में शामिल या सम्मिलित होना। जैसे—(क) पुस्तक में परिशिष्ट लगना। (ख) कु्त्ते का बिल्ली के पीछे लगना। मुहावरा—(किसी के पीछे या साथ) लग चलना=अनुगामी या संगी साथी बनना। जैसे—तुम्हें तो जिससे कुछ प्राप्ति होगी, उसी के पीछे लग जाओगे। (किसी के पीछे) लगना= किसी का भेद लेने या रहस्य जानने अथवा उसे किसी प्रकार की हानि पहुँचाने के लिए छिपकर उसके पीछे चलना। पीछा करना। जैसे—आजकल पुलिस उनके पीछे लगी है। ७. किसी अनिष्ट या कष्टदायक तत्त्व, या बात का किसी के साथ संबद्ध या संलग्न होना। जैसे—क) किसी के पीछे कोई आफत या जहमत लगना। (ख) किसी को रोग या लू लगना। (ग) भूत या प्रेत लगना। मुहावरा—लगी लिपटी बात कहना=ऐसी बात कहना जो अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी दूसरी बात के साथ संबद्ध हो। अस्पष्ट और भ्रामक या द्वयर्थक बात कहना। ८. आवरण, निरोध आदि के रूप में रहनेवाली चीज या उसके विभागों का इस प्रकार आकर कहीं गिरना, बैठना या सटना कि उसके नीचे या पीछे की चीज छिप या ढक जाय अथवा बंद हो जाय। आवरण का आकर यथा स्थान बैठना। जैसे—दरवाजे के किवाड़ या कुंडी लगना, आँख की पलकें या संदूक का ढक्कन लगना (बंद होना)। ९. किसी काम, चीज या बात का व्यक्ति का ऐसे स्थान पर पहुँचना या ऐसी स्थिति में आना कि उसका उपयोग, परिणाम, सार्थकता या सिद्धि हो सके। जैसे—(क) काम ठिकाने या पार लगना। (ख) डाकखाने में पारसल या रजिस्ट्री लगना। (ग) खाने पीने की चीजों का अंग लगना (अर्थात् शरीर को पुष्ट करना)। १॰. किसी चीज का ऐसे क्रम या रूप में आना या प्रस्तुत होना कि उसका नियमित और यथोचित उपयोग हो सके। जैसे—(क) दूकान या बाजार लगना। (ख) कमरे में मेज-कुर्सी या गद्दी, तकिया बिछौना आदि लगना। (ग) पान या उसके बीड़े लगना। ११. किसी चीज का अनिवार्य या आश्यक रूप से उपयोग में आते हुए व्यय होना। काम में आकर समाप्त होना। जैसे—(क) इस काम में १00 (या दो महीने) लगेगे। (ख) इस पुस्तक की ५00 प्रतियाँ तो सरकार में ही लग जायँगी। (ग) दोनों मकान कर्ज चुकाने में लग गये। १२. व्यक्ति का कार्य में लगकर उसका संपादन करना। जैसे—सबेरा होते ही वह अपने काम में लग जाता है। पद—लगकर=अच्छी और पूरी तरह से। खूब मन लगाकर। जैसे—लगकर इलाज करोगे तभी तुम अच्छे होगे। १३. किसी काम या पद पर नियुक्त या नियोजित होना। कर्तव्य से संबद्ध होना। जैसे—(क) किसी का काम या नौकरी लगना। (ख) किसी जगह चौकी या पहरा लगना। १४. किसी प्रकार के आघात या प्रहार की चोट या वार का किसी अंग, शरीर या स्थान पर पडना। जैसे—(क) गोली, ०थप्पड़ मुक्का या लाठी लगना। (ख) मन में किसी की बात लगना। मुहावरा—लगती हुई बात कहना=ऐसी बात कहना जिससे किसी के मन पर आघात हो या चोट लगे। मर्म-भेदी बात कहना। जैसे—चार आदमियों के सामने इस तरह की लगती हुई बात नही कहनी चाहिए। १५. धारदार या नुकीली चीज की धार या नोक शरीर में गड़ना, चुभना या धँसना। जैसे—(क) हजामत बनाते समय गाल पर उत्सरा लगना। (ख) पैर में काँटा लगना। (ग) जानवर का दाँत या नाखून लगना। १६. किसी चीज या बात का प्रयुक्त होने पर अपना ठीक और पूरा काम करना अथवा प्रभाव या फल दिखलाना। जैसे—(क) इस बीमारी में कोई दवा लगती ही नहीं। (ख)यह ताली इस ताले में लग जायगी। १७. किसी के साथ इस प्रकार की बातचीत या व्यवहार करना कि वह कुढ़े या चिढ़े अथवा लड़ने पर उतारु हो । छेड़खानी या छेड़छाड़ करना। जैसे—किसी बड़े के साथ उद्दंडता या धृष्टता की बातें करना। अश्लीलता की और बढ़-बढ़कर बातें करना। जैसे—यह नौकर घर-भर के मुँह लगा है, अर्थात् सबसे बढ़-बढ़कर बातें करता है। १८. किसी ऐसे काम, चीज या बात का संबंध का आरम्भ होना जो कुछ अधिक समय तक निरंतर चलता या बना रहे। जैसे—(क) कचहरी, दरबार या मेला लगना। (ख) नया महीना या साल लगना। (ग)किसी काम या बात की आदत या चस्का लगना। (घ) किसी से प्रेम, लड़ाई-झगड़ा या होड़ लगना। मुहावरा—(किसी से) लगी होना=पहले से चले आनेवाले उक्त प्रकार के कार्य या संबंध का बराबर पूर्ववत् चलते रहना। जैसे—उन दोनों में बहुत दिनों से लगी हैं (अर्थात् उसमें प्रेम, लडाई, होड़ आदि का भाव बराबर चला आ रहा है)। १९. किसी विषय में या किसी व्यक्ति पर किसी चीज या बात का आरोप या प्रयोग होना। जैसे—(क) किसी पर कोई अभियोग या कलंक लगना। (ख) किसी अपराध में कोई धारा या किसी विषय में कोई नियम लगना। (ग) एक के दोष के लिए दूसरे का नाम लगना। २॰. लाक्षणिक रूप में और मुख्यतः धार्मिक क्षेत्र में कोई अनिष्ट बात या स्थिति अनिवार्य रूप से किसी के जिम्मे पड़ना या होना। निश्चित रूप से किसी अनिष्ट या असद् बात का भागी बनना या होना। जैसे—दोष, पाप, , सूतक या हत्या लगना। २१. किसी काम चीज या बात की किसी रूप में मानसिक या शारीरिक अनुभूति या प्रतीति होना। जान पडना। जैसे—(क) गरमी, जाड़ा या डर लगना। (ख) खाने-पीने की चीज का खट्टा या मीठा लगना। (ग) किसी आदमी, काम, चीज या बात का अच्छा या बुरा लगना। २२. किसी प्रकार की मानसिक वृत्ति का दृढ़ता या स्थिरतापूर्वक किसी ओर प्रवृत्त होना। जैसे—(क) काम में जी या मन लगना। (ख) ईश्वर का ध्यान लगना। (ग) घर पहुँचने की चिंता लगना। २३. किसी काम या बात का क्रियात्मक रूप धारण करना या घटित होना। जैसे—ग्रहण लगना, ढेर लगना, देर लगना, नैवेद्य लगना, समाधि लगना, सेंध लगना। २४. किसी प्रकार की क्रिया की पूर्णता, सिद्धि या स्थापना होना। जैसे—बाजी या शर्त लगना, क्रम या सिलसिला लगना। २५. किसी प्रकार के उपयोग या व्यवहार के लिए अपेक्षित या आवश्यक होना० जैसे—(क) इस महीने घर में दो मन अनाज लगेगा। (ख) यह पुस्तक शास्त्री परीक्षा के पाठ्य-क्रम में लगी है। (ग) जब काम लगे तब आकर यह सामान ले जाना। २६. पारिवारिक संबंध या रिश्ते के विचार से किसी रूप में किसी के साथ संबद्ध होना। जैसे—वह भी रिश्ते में हमारे भाई ही लगते हैं। २७. लिखने-पढ़ने के क्षेत्र में, किसी पद, वाक्य या शब्द का ठीक-ठीक अर्थ या आशय समझ में आना। जैसे—किसी चौपाई या श्वोक का अर्थ लगना। २८. गणित के क्षेत्र में कोई क्रिया ठीक और पूरी उतरना। ठीक तरह से हिसाब होना। जैसे—जोड़ या बाकी लगना। २९. आर्थिक क्षेत्र में अनिवार्य रूप से किसी प्रकार का दातव्य या देन निश्चित होना अथवा हिस्से लगना। जैसे—(क) कर, जुरमाना या महमूल लगना। (ख) उधार लिए हुए रुपयों पर सूद लगना। (ग) रोजगार में दाँव पर रुपए लगना। ३॰. यानों, सवारियों आदि के संबंध में किसी स्थान पर आकर टिकना, ठहरना या रुकना। जैसे—(क) किनारे पर नाव या जहाज लगना। (ख) दरवाजे पर गाड़ी या पालकी लगना। (ग) प्लेटफार्म पर इंजन या रेलगाड़ी के डिब्बे लगना। ३१. जहाजों, नावों आदि के संबंध में चलते समय छिछले पानी में नीचे की जमीन या तल के साथ इस प्रकार उनका पेंदा टिकना या सटना कि उनकी गति रुक जाय। टिकना। जैसे—रास्ते में पानी छिछला होने के कारण नाव कई जगह लग गई। ३२. वनस्पतियों आदि के संबंध में उनके आवश्यक अंग अंकुरित या प्रस्फुटित होना। जैसे—फल०फूल या मंजरी लगना। ३३. पेड़-पौधों आदि के संबंध में किसी स्थान पर जमकर जीवित रहना और फलना-फूलना। जैसे—(क) कहीं से आया हुआ पेड़ बगीचे में लगना० (ख) क्यारी में गुलाब की कलमें लगना। ३४. सेंद्रिय पदार्थों के संबंध में किसी प्रकार के दबाव, रोग विकार संघर्ष आदि के कारण सडायँध उत्पन्न होना। गलने या लड़ने की क्रिया का आरंभ होना। जैसे—(क) घोड़े की पीठ या बैल का कंधा लगना, अर्थात् उसमें घाव होना। (ख) बरसात में पड़े-पड़े फलों का लगना, अर्थात् उनका सड़ना आरम्भ होना। ३५. किसी पदार्थ में ऐसा रासायनिक विकार उत्पन्न होना जिससे उसकी आयु तथा शक्ति दिन पर दिन क्षीण होने लगती है। जैसे—(क) दीवार में नोना लगना। (ख) लोहे में जंग या मोरचा लगना। ३६. किसी पदार्थ में ऐसे कीडे आदि उत्पन्न होना या बाहर से आकर सम्मिलित होना जो उस चीज का खाकर या और किसी प्रकार नष्ट करते हों। जैसे—(क) लकड़ी में घुन या दीमक लगना। (ख) ऊनी या रेशमी कपड़ों में कीड़े लगना। ग) गुड़ में च्यूँटे या मिठाई में च्यूँटियाँ लगना। ३७. खाद्य पदार्थों के संबंध में, कडी आँच पाने या जल आदि कम होने के कारण उबाले या पकाये जाने वाले पदार्थ का कुछ अंश बरतन के पेदें में जम, चिपक या सट जाना। जैसे—हलुआ चलाते रहो, नहीं तो लग जायगा। ३८. गौ, भैस बकरी आदि दूध देनेवाले पशुओं का दुहा जाना। जैसे—यह भैस दिन भर में तीन बार लगती है। ३९. आक्रामक या घातक जीवों, व्यक्तियों आदि का प्रायः स्थान विशेष पर आते रहना और चोट करना, अथवा कष्ट या हानि पहुँचना। जैसे—(क) इस रास्ते में डाकू लगते हैं। (ख) इस जंगल में भालू (या शेर) लगते हैं। (ग) छत पर (या बगीचे में) मच्छर लगते हैं। ४0०किसी चीज या दाम का भाव आँका जाना। मूल्यांकन होना। जैसे—इस अँगूठी का बाजार में जो दाम लगे, वह मुझे दे देना। ४१. स्त्री के साथ प्रसंग, मैथुन या संभोग करना। (बाजारू)। विशेष—(क) इस क्रिया का प्रयोग बहुत सी संज्ञाओं और क्रियाओं के साथ अलग अलग प्रकार के अर्थों में होता है। और इसीलिए तात्त्विक दृष्टि से ऐसे प्रयोगों की गणना मुहा०में होती है। जैसे—किसी चीज पर दाँत या निगाह लगना, किसी काम या चीज में हाथ लगना, कोई चीज हाथ लगना आदि। (ख) अनेक अवसरों पर यह क्रिया दूसरी क्रियाओंे के संयो० क्रि० वे रूप में भी लगकर अनेक प्रकार के अर्थ देती है। अधिकतर ऐसे अवसरों पर इसका प्रयोग यह सूचित करता है कि किसी ऐसी क्रिया का आरंभ हुआ है जो अभी कुछ समय तक चलती या होती रहेगी। जैसे—(क) कुछ कहने, पढ़ने, बोलने या लिखने लगना। (ख) चलने, दौड़ने या भागने लगना। (ग) झगड़ने या लड़ने लगना आदि।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
लगना। ३. उतनी भूमि जितनी एक असामी को जोतने-बोने आदि के लिए मिली हो अथवा उसके अधिकार में हो। ४. चमड़े आदि की वह लंबी पट्टियाँ या रस्सियाँ जो घोड़ों, बै  :
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
लगनि  : स्त्री० =लगन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
लंगनी  : स्त्री० =अलगनी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
लगनी  : स्त्री० [फा० लगन] १. छोटी थाली। तश्तरी। रिकाबी। २. पानदान के अन्दर की पान रखने की छोटी तश्तरी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
लगनीय  : वि० [सं०√लग् (मिलना)+अनीयर्] जो संबद्ध या संयुक्त किया जा सके। लगाये जाने के योग्य।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
लगमात  : स्त्री० =लगमात्रा।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
लगमात्रा  : स्त्री० [हिं० लगना+सं० मात्रा] स्वरों के वे चिन्ह जो उच्चारण के लिए व्यंजनों में जोड़े जाते हैं। जैसे—ए का ओ का। पुं० १. वह जो किसी के साथ उक्त प्रकार से प्रायः या सदा लगा रहता हो। २. स्त्री का उपपति। यार। (परिहास या व्यंग्य) उदाहरण—अच्छे ही किये ढूँढ़े के पैदा ये दुगाना। लगमात्रे दोनों है तरहदार हमारे।—जान साहब।
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लंगर  : वि० [?] १. नटखट। २. दुष्ट। पाजी।
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लंगर  : पुं० [फा० मि० अं० एन्कर] १. लोहे का बना हुआ एक प्रकार का बहुत बड़ा काँटा जिसे नदी, समुद्र आदि में गिराकर नाव, जहाज आदि रोके जाते हैं। पद—लंगरगाह। मुहावरा—लंगर उठाना=जहाज या नाव का लंगर उठाकर चलने को तैयार होना। लंगर छोड़ना, डालना या फेंकना=जहाज या नाव ठहराने अथवा रोकने के लिए लंगर गिराना। २. लकड़ी का वह कुंदा जो किसी हरहाये पशु विशेषतः गौ के गले में रस्सी से इसलिए बाँध दिया जाता है कि वह भागकर दूर न जा सके। ठेंगुर। ३. लोहे में इसलिए बाँधी जाती थी कि वे भाग न सकें। क्रि० प्र०—डालना। पड़ना। ४. रस्सी तार आदि से बाँधी और लटकती हुई कोई भारी चीज, जिसका व्यवहार कई प्रकार की कलों में उनकी गति ठीक रखने के लिए होता है। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना। ५. जहाजों पर काम आनेवाला बड़ा और मोटा रस्सा। ६. बागडोर। लगाम। ७. चाँदी का बना हुआ तोड़ा जो पैर में पहना जाता है। ८. किसी चीज के नीचे का भारी और मोटा अंग का अंश। ९. कमर के नीचे का भाग। १॰. पहलवानों के पहनने का लँगोटा। मुहावरा—लंगर बाँधना=पहलवान बनने के उद्देश्य से कसरत करना और कुश्ती लड़ना। ११. वह उभरी हुई रेखा, जो अंडकोश के नीचे के भाग से आरम्भ होकर गुदा तक जाती है। सीयन। सीवन। १२. अंडकोष (बाजारू)। १३. कपड़े की सिलाई में वे टाँके, जो दूर-दूर इसलिए डाले जाते हैं जिसमें मोड़ा हुआ कपड़ा अथवा एक साथ सिये जानेवाले पल्ले अपने स्थान से हट जायँ। इस प्रकार के टाँके पक्की सिलाई के पूर्व डाले जाते हैं, इसलिए इसे कच्ची सिलाई भी कहते हैं। क्रि० प्र०—डालना।—भरना। १४. वह स्थान जहाँ बहुत लोगों को भोजन एक साथ पकता है। १५. वह पका हुआ भोजन जो प्रायः नित्य किसी निश्चित समय पर आगंतुकों, दरिद्रों आदि को बाँटा जाता है। पद—लंगर खाना। क्रि० प्र०—देना।—बाँटना।—लगाना। १६. ऐसा व्यक्ति या स्थान जिसके द्वारा किसी को संकट के समय आश्रय मिलता हो। वि० जिसमें अधिक बोझ हो। भारी वजनी। वि० लँगर (दुष्ट और पाजी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लगर  : पं०=लग्घड़ (शिकारी पक्षी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंगर-गाह  : पुं० [फा०] किनारे पर का वह स्थान जहाँ लंगर डालकर जहाज ठहराये जाते हैं। बन्दरगाह। विशेष—यद्यपि फा में गाह (जगह) स्त्री ही है फिर भी हिन्दी में उससे बने हुए बन्दरगाह, लंगरगाह आदि शब्द प्रायः पुं० रूप में ही प्रचलित हैं।
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लँगरई  : स्त्री० [हिं० लँगर] लँगर (अर्थात् दुष्ट या पाजी) होने की अवस्था या भाव। नटखटी। पाजीपन। शरारत। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लंगरखाना  : पुं० [फा०] वह स्थान जहाँ आगन्तुकों या दरिद्रों को बना-बनाया भोजन बाँटा जाता हो।
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लँगराई  : स्त्री० [हिं० लंगर+आई (प्रत्यय)] लंगर अर्थात् दुष्ट या पाजी होने की अवस्था, क्रिया या भाव। नटखटी। शरारत।
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लँगराना  : अ०=लँगड़ाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लँगरैया  : स्त्री० =लँगराई।
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लंगल  : पुं० [सं०√लंग्+कलच्] हल।
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लगव  : वि० =लगो (झूठ)।
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लगवाना  : स० [हिं० लगाना का प्रे०] १. किसी को कुछ लगाने में प्रवृत्त करना। २. संभोग करना (बाजारू)।
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लगवार  : पुं० [हिं० लगना=प्रसंग करना+वार (प्रत्यय)] स्त्री का उपपति। यार। आशना।
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लगवीयत  : स्त्री० [अ० लग्व्निवयत] बेहूदगी।
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लगहर  : पुं० [हिं० लाग+हर (प्रत्यय)] ऐसा काँटा या तराजू जिसमें पासंग हो और इसीलिए जिससे तौलने पर चीज अपेक्षया कम तुलती हो।
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लगा  : पुं० [हिं० लगना] किसी के साथ लगा रहनेवाला, और फलतः तुच्छ या हीन व्यक्ति (बाजारू)। जैसे—लगे की मूँछे, उखड़वाऊँगी। (स्त्रियाँ)
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लगा-लगी  : स्त्री० [हिं० लगना] १. लगने अर्थात् प्रेम-संबंध चलता होने की अवस्था या भाव। २. मेल-जोल। हेल-मेल। ३. लांग-डाँट।
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लगा-सगा  : पुं० [हिं० लगना+सगा अनु०] १. संपर्क। संबंध। २. अनुचित या गुप्त संबंध।
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लगाई  : पुं० [हिं० लगना] १. लगने या लगने लगे की अवस्था भाव या मजदूरी। २. इधर की बात उधर लगाने की क्रिया या भाव।
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लगाई-बुझाई  : स्त्री० [हिं० लगाना+बुझाना] कहीं झगड़ा खड़ा करना और फिर इधर-उधर की बातें करके उसे शान्त करने का प्रयत्न करना।
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लगाई-लुतरी  : स्त्री० [हिं० लगाना+लुतरा] आपस में झगड़ा कराने के लिए झूठी-सच्ची बातें इधर-उधर करते फिरना।
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लगाऊ  : वि० [हिं० लगाना] लगानेवाला।
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लगातार  : अव्य० [हिं० लगना+तार=सिलसिला] बराबर एक के बाद एक। सिलसिलेवार। निरंतर। सतत। जैसे—वह दिन भर लगातार काम करता रहा।
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लगान  : स्त्री० [हिं० लगना या लगाना] १. लगने या लगाने की क्रिया या भाव। २. किसी के साथ लगे या सटे हुए होने की अवस्था या भाव। लाग। जैसे—इस मकान में बगल वाले मकान से लगान पड़ती है। ३. वह स्थान जहाँ मजदूर आदि सुस्ताने के लिए अपने सिर पर का बोझ उतार कर रखते हैं। टिकान। ४. वह स्थान जहाँ नावें आकर ठहरती हैं और मल्लाह विश्राम करते हैं। ५. किसी की टोह में उसके पीछे लगने की क्रिया या भाव। जैसे—उसके पीछे तो पुलिस की लगान लगी है। ६. भूमि पर लगनेवाला वह कर जो खेतिहरों की ओर से जमींदार या सरकार को मिलता है। राजस्व। भूकर। जमाबंदी। पोत। विशेष—इस अन्तिम अर्थ में यह शब्द अधिकतर पुं० रूप में ही प्रयुक्त होता दिखाई देता है।
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लगाना  : स० [हिं० लगना का स०] १. एक पदार्थ के तल या पार्श्व को दूसरे पदार्थ के तल या पार्श्व के पास इस प्रकार पहुँचाना कि वह आंशिक या पूर्ण रूप से उसके साथ मिल या सट जाय। संलग्न करना। सटाना। जैसे—पुस्तक पर जिल्द या दीवार पर कागज लगाना। २. एक चीज को दूसरी चीज पर जोडऩा, टाँकना, बैठाना या रखना। जैसे—(क) तस्वीर पर या दरवाजे पर शीशा लगाना। (ख) टोपी या पगड़ी कलंगी लगाना। (ग) घड़ी में नया पुरजा या नई सूई लगाना। ३. कोई चीज ठीक तरह से काम में लाने के लिए उसे यथास्थान खड़ा या स्थित करना। जैसे—(क) जहाज या नाव में पाल लगाना। (ख) दरवाजे के आगे परदा लगाना। ४. किसी तल पर कोई गाढ़ा तरल पदार्थ, पोतना या फेरना या मलना। लेप करना। जैसे—(क) खिड़कियों या दरवाजों में रंग लगाना। (ख) पैरों या हाथों में मेंहदी लगाना। (ग) शरीर के किसी अंग में तेल या दवा लगाना। (घ) जूते पर पालिश लगाना। ५. किसी रूप में कोई चीज किसी के पीछे या साथ सम्मिलित करना। जैसे—पुस्तक में कोई अनुक्रमणिका या परिशिष्ट लगाना। ६. किसी व्यक्ति का भेद लेने या उससे कोई उद्देश्य सिद्ध कराने के लिए किसी को उसके पीछे या साथ नियुक्त करना। जैसे—क) किसी के पीछे जासूस लगाना। (ख) किसी से कोई काम कराने लिए उसके पीछे आदमी लगाना। ७. कोई अनिष्ट या कष्टदायक तत्त्व या बात किसी के साथ संबद्ध या संलग्न करना। जैसे—(क) किसी के पीछे कोई आफत या मुकदमा लगाना। (ख) किसी को कोई बुरी आदत या व्यसन लगाना। ८. आवरण, निरोधन आदि के रूप में काम में आनेवाली चीज इस प्रकार यथा स्थान बैठाना कि उससे रुकावट हो सके। जैसे—(क) कमरे के किवाड़ या दरवाजे लगाना अर्थात् कमरा बन्द करना। (ख) डिबिया या संदूक का ढक्कन लगाना अर्थात् डिबिया का संदूक बन्द करना। ९. किसी काम, चीज या बात या व्यक्त को ऐसे स्थान या स्थिति में पहुँचाना या लाना कि उसका ठीक, उपयोग सार्थकता या सिद्धि हो सके। जैसे—(क) नाव किनारे पर या पार लगाना। (ख) मनीआर्डर या रजिस्ट्री लगाना। (ग) किसी आदमी को काम या नौकरी पर लगाना। १॰. चीज (या चीजें) ऐसे क्रम से या रूप में रखना कि नियमित रूप से उसका यथोचित्त उपयोग हो सके। जैसे—(क) आलमारी में किताबें या फर्श पर गद्दी-तकिया लगाना। (ख) पंगत के आगे पत्तल लगाना। (ग) दूकान या बिस्तर लगाना। ११. किसी पदार्थ का उपभोग करने के लिए उसे ठीक स्थान पर रखना। जैसे—(क) सिर पर टोपी या पगड़ी लगाना। (ख) सहारे के लिए पीठ के पीछे या हाथ के नीचे तकिया लगाना। १२. कोई चीज या उसके उपकरण किसी विशिष्ट क्रम या विधान से यथा स्थान स्थित करना जैसे—(क) पुस्तकों का क्रम लगाना। (ख) बीड़ा लगाने के लिए पान लगाना, अर्थात् पान पर कत्था, चूना आदि रखकर उसे मोड़ना। १३. किसी चीज का उपयोग करते हुए उसका व्यय करना। जैसे—(क) ब्याह शादी में रुपये लगाना। (ख) काम में समय लगाना। (ग) काम करने में देर लगाना, अर्थात् अधिक समय व्यय करना। १४. किसी को किसी कर्तव्य, कार्य, पद आदि पर नियुक्त या नियोजित करना। मुकरर करना। जैसे—(क) किसी जगह पर पहरा लगाना। (ख) किसी को काम या नौकरी पर लगाना। १५. आघात या प्रहार करने के लिए अस्त्र, शस्त्र आदि उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचाना। जैसे—(क) किसी को थप्पड़ या मुक्का लगाना। (ख) किसी पर गोली का निशाना लगाना। (ग) किसी चीज पर दाँत या नाखून लगाना। १६. कोई कार्य पूरा करने के लिए किसी प्रकार के उपकरण या साधन का उपयोग या प्रयोग करना। जैसे—(क) कमरा बन्द करने के लिए किवाड़ कुंडी या सिटकिनी लगाना। (ख) दरवाजे में ताला या ताले में ताली लगाना। १७. किसी की कोई झूठी-सच्ची निन्दा की बात किसी दूसरे से जाकर कहना। कान भरना। जैसे—इधर की बात उधर लगाना। पद—लगाना-बुझाना=आपस में लोगों को लडाना या फिर समझा बुझा कर शांत करना। १८. किसी प्रकार का कार्य या व्यवहार आरंभ करना। जैसे—(क) किसी को किसी बात की आदत या चसका लगाना। (ग) भाई भाई में झगड़ा लगाना। मुहावरा—(किसी को) मुँह लगाना=किसी के साथ इतनी नरमी या रियायत का व्यवहार करना कि वह अशालीनता की उद्दंतापूर्ण या दृष्टता की बातें और व्यवहार करने लगे। जैसे—नौकरों को बहुत मुँह लगाना ठीक नहीं है। १९. किसी विषय में या व्यक्ति पर किसी चीज या बात का आरोप करना। जैसे—(क) किसी पर अभियोग या दोष लगाना। (ख) किसी विषय में कोई धारा या नियम लगाना। (ग) स्वयं काम बिगाड़कर दूसरे का नाम लगाना। २॰. किसी प्रकार की शारीरिक अनुभूति कराना या अपेक्षा उत्पन्न करना। जैसे—किसी दवा का प्यास या भूख लगाना। २१. मानसिक वृत्ति को किसी ओर ठीक तरह से प्रवृत्त करना। जैसे—(क) किसी काम या बात में मन लगाना। (ख) पूजन या भजन में ध्यान लगाना। (ग) आसन या समाधि लगाना। २२. किसी काम या बात को क्रियात्मक रूप देना। घटित करना। जैसे—(क) कपडों या किताबों का ढेर लगाना। (ख) किसी का दाह-कर्म करने के लिए चिता लगाना अथवा चिता में आग लगाना। (ग) देर, बाजी या शर्त लगाना। (घ) नैवेद्य या भोग लगाना। २३. किसी पद, वाक्य या शब्द का अर्थ या आशय समझकर स्थिर करना। जैसे—(क) चौपाई या श्लोक का अर्थ लगाना। (ख) किसी की बातों का कुछ का कुछ अर्थ लगाना। २४. गणित की कोई क्रिया ठीक तरह से पूरी या सम्पन्न करना। जैसे—जोड़, बाकी या हिसाब लगाना। २५. किसी पर कोई दायित्व या देन नियत या स्थिर करना जैसे—(क) कर या जुरमाना लगाना। (ख) किसी के जिम्मे कर्ज या देन लगाना। २६. यान या सवारी किसी स्थान पर टिकाना, ठहराना या रोकना। जैसे—बंदरगाह में जहाज लगाना। २७. पेड़, पौधे बीज आदि भूमि में इस प्रकार स्थापित करना कि वे जम या लगकर बढ़े और फूले-फलें। जैसे—बगीचे में आम या गुलाब लगाना। २८. गौएँ, भैसें आदि दुहना। जैसे—यही ग्वाला मुहल्ले भर की गौएँ लगाता है। २९. कोई चीज देखकर लेने के लिए उसका दाम या भाव कहना या निश्चित करना। मूल्यांकन करना। जैसे—मैने तो उस मकान का दाम दस हजार लगाया है। ३॰. यंत्रों आदि के संबंध में कल-पुरजे ठीक तरह से चारा काटने या रूई धुनने की मशीन लगाना। ३१. किसी प्रकार से बैठाकर उन्हें काम करने के योग्य बनाना। जैसे—आटा पीसने, काम में प्रवृत्त या रत करना। जैसे—सामान ढोने के लिए मजदूर लगाना। ३२. ऐसा कार्य करना जिसमें बहुत से लोग एकत्र या सम्मिलित हों। जैसे—तुम तो जहाँ जाते हो वहाँ भीड़ (या मेला) लगा देते हो। ३३. किसी के साथ किसी प्रकार का संबंध स्थापित करना। जैसे—(क) किसी से दोस्ती लगाना। (ख) किसी के साथ कोई रिश्ता लगाना। मुहावरा—किसी को लगा कर कुछ कहना या गाली देना=बीच में किसी का संबंध स्थापित करके किसी प्रकार का आरोप करना। जैसे—किसी की माँ-बहन को लगाकर कुछ कहना बहुत बड़ी नीचता है। ३४. शरीर का कोई अंग ऐसी स्थिति में लाना कि वह अपना काम ठीक तरह से कर सके। जैसे—काम में हाथ लगाना।
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लगाम  : स्त्री० [फा०] १. जोते जानेवाले घोड़े के मुँह में लगाया जानेवाला एक प्रकार का अर्ध चंद्राकार ढाँचा जिससे रासें बँधी होती है। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—लगाना। मुहावरा—जबान या मुँह में लगाम न होना=बिना सोचे-समझे बकने की आदत होना। २. बाग। रास। मुहावरा—(किसी के पीछे) लगाम लिये फिरना=धरने-पकड़ने के उद्देश्य से किसी का पीछा करना। ३. कोई ऐसी चीज या बात जो किसी को नियंत्रण में रखती हो। जैसे—उनकी जबान (या मुँह) में लगाम तो है ही नहीं, अर्थात् वे अपनी बोलचाल पर नियंत्रण नहीं रख सकते। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—लगाना।
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लगामी  : स्त्री० [फा० लगाम+हिं० ई (प्रत्यय)] गाय-भैस, घोड़े, बकरी आदि पशुओं के मुँह पर बाँधी जानेवाली वह जाली जिसके फल-स्वरूप वे कुछ काटने या खाने से वंचित हो जाते हैं।
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लगाय  : स्त्री० [हिं० लगना+आय (प्रत्यय)] १. लगावट। २. प्रेम। संबंध। उदाहरण—तिन सौ क्यों कीजिए लगाय।—सूर। अव्य० तक। पर्यंन्त।
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लगायत  : अव्य०=लगाय।
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लगार  : स्त्री० [हिं० लगना+आर (प्रत्यय)] १. काम करने-कराने का बँधा हुआ ढंग या प्रकार। बंधी। बंधेज। २. क्रम सिलसिला। ३. लगाव। संबंध। ४. प्रीति। लगाव। ५. वह जिससे किसी प्रकार का घनिष्ट संबंध हो। ६. किसी दूसरे के लिए रहस्य मय बातों का पता लगानेवाला दूत। ७. वह स्थान जहाँ से जुआरियों को जुए के अड्डे पर पहुँचाया जाता हो। ठिकाना। वि० १. किसी के पीछे या साथ लगा रहनेवाला। २. किसी के साथ प्रेम आदि का संबंध रखनेवाला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लगाव  : पुं० [हिं, ०लगना+आव (प्रत्यय)] १. किसी के साथ लगे होने की अवस्था, गुण या भाव। २. सम्बन्ध। वास्ता। ३. प्रेम सम्बन्ध।
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लगावट  : स्त्री० [हिं० लगना+आवट (प्रत्यय)] १. लगने या लगे हुए होने का भाव या स्थिति। २. लगाव। संबंध। ३. श्रृंगारिक क्षेत्र का अनुराग, प्रेम या संबंध।
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लगावन  : स्त्री० =लगाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लगावना  : स०=लगाना।
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लगि  : अव्य० [हिं० लग] १. तक। पर्यन्त। २. निकट। पास। उदाहरण—साँठ नाहिं लगि बात को पूछा।—जायसी। ३. के लिए। वास्ते। उदाहरण—कौड़ी लगि नग की रज छानत।—सूर। स्त्री० =लग्गी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लगित  : भू० कृ० [सं०√लग् (संग)+क्त] १. लगा या लगाया हुआ। २. संयुक्त। संबद्ध। ३. प्राप्त। ४. प्रविष्ठ।
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लंगी  : स्त्री० [फा० लंग=लँगड़ा] कुश्ती का एक दाँव जिसमें अपनी एक टाँग लँगड़ी करके विपक्षी की टाँग में अड़ाकर उसे गिराया जाता है।
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लगी  : स्त्री० [हिं० लगना] १. वह अवस्था जिसमें पर-स्त्री पुरुष मे सम्बन्ध स्थापित हो। २. लाग-डाँट। (दे०) स्त्री० =लग्गी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लगी-बदी  : स्त्री० [हिं० लगना+बदना] १. वह प्रेमपूर्ण या मित्रतापूर्ण अवस्था जिसमें दोनों पक्ष एक दूसरे के कहे अनुसार दूसरो से बातचीत या व्यवहार करते हैं। २. लाग-डाँट। (दे०)
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लगु  : अव्य०=लगि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लगुआ  : वि० =लग्गू।
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लगुड़  : पुं० [सं०√लग्+उलच्, ल—ड] १. डंडा। २. लाठी। ३. लोहे का एक प्रकार का डंडा जिसे प्राचीन काल में पैदल सिपाही हाथ में रखते थे। ४. लाल कनेर।
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लगुड़ी (लिन)  : वि० [सं० लगुड़+इनि] दंडधारी। स्त्री० ‘लगुड़’ का स्त्री० अल्पा०। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंगुरा  : पुं० [?] एक तरह का धान्य।
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लगुल  : पुं० [सं० लांगूल] १. लाठी। लगुड़। २. शिश्न (डिं०)
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लगुवा  : वि० =लग्गू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंगूर  : पुं० [सं० लांगूलिन्] १. एक प्रकार का बन्दर जिसका मुँह और हाथ-पैर काले, सारा शरीर भूरा या सफेद और दुम बहुत लंबी होती है, जिससे वह प्रायः कोडे की तरह आघात करता है। २. दुम। पूँछ।
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लगूर (गूल)  : स्त्री० =लाँगूल (पूँछ)। पुं० =लंगूर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंगूर-फल  : पुं० [हिं० लंगूर+सं० फल] नारियल।
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लँगूरी  : स्त्री० [हिं० लंगूर+ई (प्रत्यय)] १. घोड़े की एक प्रकार की चाल जिसमें वह लंगूरों की तरह उछल-उछल कर चलती हैं। २. वह इनाम जो चोरी गए हुए मवेशियों का पता लगाने पर दिया जाता है।
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लंगूल  : पुं० [सं० लांगूल] पूँछ। दुम।
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लगे  : अव्य० [हिं० लगना] १. निकट। पास। २. तक। पर्यन्त। (पूरब)।
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लगे-लगे  : पुं० [हिं० लगाना] बंदर। विशेष—प्रायः बन्दरों के आने पर लोग ‘लगे लगे’ कर कर उन्हें भगाने के लिए चिल्लाते है। इसी से इसका यह अर्थ हुआ। है।
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लगै  : अव्य० [हिं० लगना] १. के लिए। वास्ते। उदाहरण—लगै मेल्यिहौ रुपमणी।—प्रिथीराज। २. तक। पर्यंन्त।
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लगो  : वि० [अ] १. जो किसी काम का न हो। २. असंगत और बेतुका। स्त्री० बिलकुल झूठी और व्यर्थ की बात।
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लंगोचा  : पुं० [?] कीमे से भरकर तली हुई जानवर की आँत। कुलमा। गुलमा।
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लँगोट  : पुं० [सं० लिंग+पट] [स्त्री० लँगोटी] कमर में बाँधने का एक प्रकार का वस्त्र, जिससे केवल उपस्थ ढका जाता है। रुमाली। पद—लँगोट बंद। मुहावरा—लंगोट का ढीला=जो सुयोग मिलने पर पर-स्त्री से निस्संकोच संभोग कर सकता हो। लँगोट का सच्चा=जो कभी पर-स्त्री से संभोग न करता हो।
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लँगोट-बंद  : वि० [हिं०] [भाव० लँगोटबंदी] जिसने स्त्री-संभोग या पर-स्त्री संभोग न करने की प्रतिज्ञा कर रखी हो।
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लँगोटा  : पुं० =लँगोट।
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लँगोटी  : स्त्री० [हिं० लँगोट] १. छोटा लँगोट। २. वह छोटा-सा कपड़ा, जो बच्चों की कमर में उपस्थ आदि ढकने के लिए बाँधा जाता है। पद—लँगोटिया यार=उस समय का मित्र जब कि दोनों लंगोटी बाँधकर फिरते थे। बचपन का मित्र। ३. गरीबों, साधुओं आदि के पहनने का बहुत छोटा पतला वस्त्र। कोपीन। पद—लँगोटी में मस्त=पास में कुछ न रहने पर भी प्रसन्न रहनेवाला। मुहावरा—लँगोटी पर फाग खेलना=पास में कुछ भी न होने पर या बहुत ही कम धन होने पर भी आनंद-मंगल और भोग-विलास करना। (किसी की) लँगीटी बँधवाना=बहुत दरिद्र कर देना। इतना धनहीन कर देना कि पास में पहनने की लँगोटी के सिवा और कुछ न रह जाय। (किसी की) लँगोटी बिकवाना=इतना दरिद्र कर देना कि पहनने को लँगोटी तक न रह जाय।
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लगोहाँ  : वि० [हिं० लगना+औहाँ (प्रत्यय)] १. जिसमें लगन या लगने की कामना या प्रवृत्ति हो। लगने का आकांक्षी। २. रिझवार।
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लग्गत  : स्त्री० [हिं० लगना] १. व्यापार में लगाया हुआ धन। पूँजी। (इन्वेस्टमेन्ट) २. दे० ‘लागत’।
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लग्गा  : पुं० [सं० लगुड़] [स्त्री० अल्पा० लग्गी] १. कई प्रकार के कार्यों में काम करनेवाला लंबा बाँस। जैसे—नाव चलाने का लग्गा। २. पेड़ से फल तोड़ने का लग्गा। मुहावरा—लग्गे से पानी पिलाना=बिलकुल अलग या बहुत दूर रहकर नाम मात्र के लिए थोड़ी सी या नहीं के बराबर सहायता करना। ३. फरसे के आकार का काठ का एक उपकरण जिससे कीचड़, घास आदि समेटते या हटाते हैं। पुं० [हिं० लगना] १. कार्य आरम्भ करने के लिए उसमें हाथ लगाने की क्रिया या भाव। जैसे—मकान बनाने में लग्गा लग गया है। ३. किसी दाँव पर जुआरी से भिन्न किसी और व्यक्ति द्वारा लगाया जानेवाला धन। ३. बराबरी की टक्कर या मुकाबला। (लखनऊ)। मुहावरा—लग्गा खाना=किसी की टक्कर या बराबरी का होना। जैसे—इन बातों में वह तुमसे लग्गा नहीं खा सकता। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना।
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लग्गू  : वि० [हिं० लगना] १. लगनेवाला। २. किसी के साथ रहने या आने-जानेवाला। जैसे—पिछलग्गू। पुं० स्त्री० का उपपति या यार। (बाजारू) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लग्गू-बज्झू  : पुं० [हिं० लगना+बझना] वे लोग जो किसी बड़े आदमी के साथ लगे रहते हों और उसकी हाँ में हाँ मिलाते रहते हों।
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लग्घड़  : पुं० [देश] १. एक प्रकार का छोटा चीता जो पशुओं का शिकार करने के लिए पाला और सधाया जाता है। २. बाज की जाति का भूरे रंग का एक प्रकार का शिकारी पक्षी जो प्रायः तीतर, बटेर आदि पकड़कर खाता है।
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लग्घा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० लग्घी] =लग्गा।
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लग्घी  : स्त्री० १. =लग्गी। २. वह बांस जिससे नदी के तल पर टेक लगाकर नाव किसी ओर बढ़ाई जाती है।
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लग्न  : वि० [सं०√लग् (लगना)+क्त, नि० त-न] १. किसी के साथ या लगा या सटा हुआ। २. लज्जित। शर्मिंदा। २. आसक्त। पुं० १. फलित ज्योति में किसी राशि के पूर्वी या उदय क्षितिज पर लगे हुए या वर्तमान होने की स्थिति जो सभी कामों और बातों में शुभाशुभ फल देनेवाली मानी जाती है। विशेष—सूर्य प्रत्येक राशि में एक-एक महीने रहता है। अतः जिस राशि का सूर्य जिन दिनों होता है वही राशि उन दिनों उसके उदय क्षितिज अर्थात् पूर्वी क्षितिज पर रहती हैं, परन्तु पृथ्वी अपने अक्ष पर बराबर घूमती रहती है इसलिए दिन रात में बारहों राशियाँ दो-दो घंटों के लिए पूर्वी क्षितिज पर आती रहती है। यही दो घंटे का समय हर राशि का लग्नकाल माना जाता है। उदाहरणार्थ-यदि सूर्योदय के समय मेष लग्न हो तो उसके दो-दो घन्टे बाद वृष, मिथुन, कर्क आदि राशियों का लग्न-काल होता जाता है। परन्तु सूर्य और पृथ्वी दोनों अपनी कक्षा पर आगे भी बढ़ते रहते हैं और दिनमान भी घटता-बढ़ता रहता है। इसके फलस्वरूप प्रत्येक राशि का लग्न-काल भी प्रतिदिन प्रायः ४ मिनट आगे बढ़ता रहता है। जितने समय तक कोई राशि पूर्वी तथा उदय क्षितिज पर स्थित रहती है उतना समय उसी राशि के नाम से अभिहित होता है। जैसे—यदि कहा जाय कि कन्या लग्न में विवाह होगा तो उसका आशय यह होगा कि जिस समय कन्या राशि पूर्वी या उदय क्षितिज पर स्थित होगी, उस समय विवाह होगा। २. कोई शुभ काम करने के लिए फलित ज्योतिष के अनुसार निश्चित किया हुआ मुहुर्त। जैसे—यज्ञोपवीत या विवाह का लग्न। ३. विवाह। ब्याह। ४. वे दिन जिसमें फलित ज्योतिष के अनुसार विवाह आदि कृत्य विहित होते हैं। ५. बंदीजन सूत। ६. दे० ‘लगन’।
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लग्न-कंकण  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह कंकण या मंगल-सूत्र जो विवाह के पूर्व वर और कन्या के हाथ में बाँधा जाता है।
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लग्न-कुंडली  : स्त्री० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष में वह चक्र या कुंडली जिससे यह जाना जाता है कि किसी के जन्म के समय कौन-कौन से ग्रह किस किस राशि में स्थित थे। जन्म-कुंडली।
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लग्न-दण्ड  : पुं० [सं०] गाने या बजाने के समय स्वर के मुख्य अंश या श्रुतियों को आपस में एक दूसरे से अलग न होने देना और सुन्दरता से उनका संयोग करना। लाग-डाँट। (संगीत)
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लग्न-दिन  : पुं० [सं० ष० त०] वह दिन जिसमें विवाह का मुहुर्त निकला हो।
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लग्न-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र जिसमें विवाह संबंधी कृत्यों तथा उनके समय का विवरण रहता है।
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लग्न-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ष० त०]=लग्नपत्र।
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लग्न-पत्री  : स्त्री० =लग्न पत्र।
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लग्नक  : पुं० [सं० लग्न+कन्] १. वह जो किसी की जमानत करे। प्रतिभू। जामिन। २. संगीत में एक प्रकार का राग जो हनुमान के मत से मेघ राग का पुत्र है।
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लग्नायु (स्)  : स्त्री० [सं० लग्न-आयुस्, मध्य० स०] फलित ज्योतिष में लग्न-कुंडली के अनुसार स्थिर होनेवाली आयु।
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लग्नेश  : पुं० [सं० लग्न-ईश, ष० त०] किसी लग्न का स्वामी ग्रह। (ज्यो०)
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लग्नोदय  : पुं० [सं० लग्न-उदय, ष० त०] १. किसी लग्न का उदय अर्थात् आरम्भ होना। २. किसी लग्न के उदय होने का समय।
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लंघक  : वि० [सं०√लंध् (गति)+ण्वुल्-अक] १. लाँघनेवाला। अतिक्रमण कापनेवाला। २. नियम भंग करनेवाला।
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लंघन  : पुं० [√लंघ्+ल्युट—अन०] १. लाँघने की क्रिया या भाव। उल्लंघन करना। २. बिना कुछ खाये पिये दिन-रात बिताना। उपवास या फाका करना। ३. घोड़े की एक प्रकार की चाल। ४. ऐसा उपाय जिससे मार्ग में पड़नेवाली बाधाएं व्यर्थ सिद्ध होती हों और काम जल्दी तथा सुभीते से होता हो।
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लंघनट  : पुं० [सं०] कलाबाजी के खेल दिखानेवाला नट।
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लंघना  : स०=लाँघना (पश्चिम)। वि० जिसने उपवास किया हो। भूखा।
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लंघनीय  : वि० [सं०√लंघ्+अनीयर्] १. जिसे लाँघा जा सके। जो लाँघे जाने के योग्य हो, अथवा लाँघा जाने को हो। २. जिसका उल्लंघन या अवज्ञा हो सके। ३. उपेक्षा या तिरस्कार के योग्य।
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लघमी पुष्प  : पुं० [सं० लक्ष्मी पुष्प०] पद्यराग मणि। लाल। माणिक्य। (डिं०)।
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लँघाना  : स० [हिं० लाँघना का प्रे०] १. किसी को लाँघने में प्रवृत्त करना। २. रास्ते की कठिनाइयों आदि से बचते हुए पार कराना या पहुँचाना।
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लंघित  : भू० कृ० [सं०√लंघ्+क्त] १. जिसे लाँघा गया हो। २. अतिक्रमित। ३. उपेक्षित तथा तिरस्कृत।
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लघिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० लघु+इमनिच्] १. लघु अर्थात् छोटे होने की अवस्था या भाव। २. आठ सिद्धियों में से एक, जिनकी प्राप्ति हो जाने पर मनुष्य लघुतम रूप धारण कर सकता है।
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लघु  : वि० [सं०√लघु (गति)+कु, न-लोप] [भाव० लघिमा, लघुता, लाघव] १. जो बड़ा न हो। छोटा। २. किसी की तुलना में छोटा। कनिष्ठ। जैसे—लघु मात्रा। ३. जिसमें उग्रता या तीव्रता न हो। कोमल। हलका। जैसे—लघु स्वर। ४. तीव्र गतिवाला। तेज चाल वाला। ५. अच्छा। बढ़िया। ६. सुन्दर। ७. जिसमें किसी प्रकार का सार या तत्त्व न हो। निःसार। ८. थोड़ा। कम। ९. तुच्छ। नीच। १॰. दुबला-पतला और कमजोर। दुर्बल। पुं० १. काला अगर। २. उशीर। खस। ३. पंद्रह क्षणों का समय। ४. पिंगल में ऐसा वर्ण जो एक ही मात्रा का हो। इसका चिन्ह (।) है। ५. ह्रस्व स्वर। (व्याकरण) ६. बारह मात्राओं का प्राणायाम। ७. ज्योतिष में हस्त आश्विनी और पुष्य नक्षत्र।
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लघु-कटाई  : स्त्री० [सं० लघु-कंटकी] भटकटैया।
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लघु-करण  : पुं० [सं० ष० त०] किसी काम चीज या बात को छोटा या हलका करना। छोटे आकार-प्रकार में लाना। संक्षिप्त करना। (कम्यूटेशन)
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लघु-कर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] मूर्व्वा। मरोड़-फली।
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लघु-काय  : पुं० [सं० ब० स०] बकरा। वि० छोटे शरीरवाला।
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लघु-काष्ठ  : पुं० [कर्म० स०] वह छोटा डंडा जिससे बड़े-बड़े का वार रोका जाता है।
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लघु-क्रम  : पुं० [कर्म० स०] जल्दी-जल्दी चलने की क्रिया। तेज चाल।
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लघु-गण  : पुं० [कर्म० स०] अश्विनी, पुष्य और हस्त इन तीनों नक्षत्रों का समूह।
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लघु-गति  : वि० [ब० स०] तेज चलनेवाला।
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लघु-चंदन  : पुं० [कर्म० स०] अगर नाम की सुगंधित लकड़ी।
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लघु-चित्त  : वि० [ब० स०] चंचल चित्तवाला।
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लघु-चेता (तस्)  : वि० [ब० स०] तुच्छ या छोटे विचारोंवाला। नीच हेय।
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लघु-जांगल  : पुं० [सं०] लवा (पक्षी)।
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लघु-तुपक  : स्त्री० [सं०] एक तरह की छोटी बंदूक। तमंचा।
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लघु-द्राक्षा  : स्त्री० [कर्म० स०] किशमिश।
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लघु-नामा (मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] अगर नामक सुगन्धित लकड़ी।
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लघु-पंचक  : पुं० [सं० कर्म० स०] शालिपर्णी, पिठवन, कटाई (छोटी), कटेहरी (बड़ी) और गोखरू इन पाँचों की जड़ों का समाहार।
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लघु-पत्र  : पुं० [ब० स०] कमीला।
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लघु-पत्री  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] अश्वत्थ वृक्ष।
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लघु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] १. मूर्व्वा। मरोड़फली। २. शतमूली। शतावर।
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लघु-पाक  : वि० [कर्म० स०] (खाद्य पदार्थ) जो सहज में जल्दी में पच जाय।
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लघु-पुष्प  : पुं० [ब० स०] भुई कदंब।
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लघु-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] पीला केवड़ा। स्वर्ण केतकी।
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लघु-प्रयत्न  : वि० [ब० स०] बहुत थोड़ा प्रयत्न करनेवाला। फलतः अकर्मण्य और आलसी।
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लघु-फल  : पुं० [ब० स०] गूलर (वृक्ष)।
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लघु-मति  : वि० [ब० स०] १. जिसे बहुत थोड़ी बुद्धि हो। २. छोटे या तुच्छ विचारोंवाला।
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लघु-मान  : पुं० [कर्म० स०] नायक के किसी दूसरी स्त्री से बातचीत करने मात्र से नायिका द्वारा उस पर प्रकट किया जानेवाला रोष।
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लघु-मांस  : पुं० [ब० स०] तीतर (पक्षी)।
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लघु-मेरु  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में एक प्रकार का ताला।
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लघु-लता  : स्त्री० [कर्म० स०] १. करेले की बेल। २. अनन्त मूल।
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लघु-वृत्ति  : वि० [कर्म० स०] छोटे या हलके विचारोंवाला।
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लघु-शंका  : स्त्री० [कर्म० स०] मूत्रोत्सर्ग। पेशाब करना।
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लघु-शंख  : पुं० [कर्म० स०] घोंघा।
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लघु-हस्त  : वि० [ब० स०] १. जो बहुत जल्दी-जल्दी बाण चला सकता हो। अच्छा धनुर्धर। २. फुर्ती से और अच्छा काम करनेवाला।
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लघुच्छदा  : स्त्री० [ब० स०] बड़ी शतावर।
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लघुतम  : वि० [सं० लघु+तमप्] सबसे छोटा।
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लघुतम-समापवर्त्य  : पुं० [कर्म० स०] वह सबसे छोटी संख्या जो दो या अधिक संख्याओं से पूरी-पूरी बँट जाय।
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लघुता  : स्त्री० [सं० लघु+तल्+टाप्] लघु होने की अवस्था या भाव। लघुत्व। छोटाई।
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लघुत्तमापवर्त्य  : पुं० [सं० कर्म० स०]=लघुतम समापवर्त्य।
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लघुत्व  : पुं० [सं० लघु+त्व] लघु होने की अवस्था या भाव। लघुता।
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लघुद्रावी (विन्)  : पुं० [सं० लघु√द्रु (गति)+णिनि] पारा।
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लघुपाकी (किन्)  : पुं० [सं० लघुपाक+इनि] चेना नामक कदन्न। वि० =लघुपाक।
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लघुभुक् (भुज्)  : वि० [सं० लघु√भुज् (खाना)+क्विप्] कम खानेवाला। अल्पाहारी।
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लघुमना (नस्)  : वि० [ब० स०] छोटे या तुच्छ मन (अर्थात् विचारों) वाला।
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लंघ्य  : वि० [सं०√लंघ्+ण्यत्] १. जिसे लाँघ सके। २. जिसे लंघन या उपवास करा सकें।
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लंच  : पुं० [अ०] दोपहर के समय किया जानेवाला भोजन।
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लच  : स्त्री० =लचक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लचक  : स्त्री० [हिं० लचकना] १. लचकने की क्रिया या भाव। लचन। झुकाव। जैसे—कमर की लचक। क्रि० प्र०—खाना। २. वह गुण जिसके कारण कोई चीज लचकती या झुकती है। ३. कमर आदि में लचकने के कारण होनेवाली पीड़ा। क्रि० प्र०—खाना। स्त्री० [दे०] एक प्रकार की बड़ी नाव।
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लचकना  : अ० [?] १. किसी लम्बी चीज का दबाव आदि के फलस्वरूप मध्य भाग पर से कुछ झुकना या मुड़ना। २. चलते समय कमर का थोड़ा झुकना या मुड़ना जो सौंदर्य सूचक माना जाता है।
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लचकनि  : स्त्री०=लचक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लचका  : पुं० [हिं० लचकना] १. लचकने के कारण लगनेवाला आघात। क्रि० प्र०—आना।—लगना। २. लचक। २. जल-विहार के काम आनेवाली एक प्रकार की नाव। ४. कपड़े पर टाँका जानेवाला एक प्रकार का साज जो सुनहला और रुपहला दोनों प्रकार का होता है।
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लचकाना  : स० [हिं० लचकना] किसी पदार्थ को लचकने में प्रवृत्त करना। झुकाना। लचाना।
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लचकीला  : वि० =लचीला।
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लचकौहाँ  : वि० [हिं० लचकना+औहाँ (प्रत्यय)] १. जो रह-रह कर लचकता हो। २. लचकने की प्रवृत्ति रखनेवाला। ३. लचीला।
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लचन  : स्त्री० =लचक।
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लचना  : अ, =लचकना।
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लचलचा  : वि० =लचीला।
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लचाका  : पुं० १. =लचक। २. =लचका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लचाकेदार  : वि० [हिं० लचाका+फा० दार (प्रत्यय)] मजेदार। बढ़िया (बाजारू)।
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लचाना  : स० [हिं० लचना का स० रूप०] लचने या लचकने में प्रवृत्त करना। लचकाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लचार  : वि० =लाचार।
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लचारी  : स्त्री० [हिं० अचार] आम का एक प्रकार का खट्टा अचार जिसमें तेल नहीं छोड़ा जाता है। स्त्री० [?] १. भेंट। २. एक तरह का गीत। स्त्री० =लाचारी।
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लचीला  : वि० [हिं० लचना+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० लचीली] जो दबाये जाने पर कुछ या अधिक झुक या मुड़ जाता हो। परन्तु दबाव छूटने पर फिर अपनी सामान्य स्थिति प्राप्त कर लेता हो।
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लचुई  : स्त्री० =लुच्ची (मैदे की पूरी)।
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लच्छ  : पुं० =लक्ष। वि० =लक्ष (लाख)। स्त्री० =लक्ष्मी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लच्छण  : पुं० [सं० लक्षण] १. स्वभाव। (डिं०) २. लक्षण। (डिं०) पुं० =लक्ष्मण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लच्छन  : पुं० १. =लक्षण। २. =लक्ष्मण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लच्छना  : स्त्री० =लक्षणा।
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लच्छमण  : वि० [सं० लक्ष्मीवान्] धनवान्। अमीर। (डिं०) पुं० =लक्ष्मण।
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लच्छमी  : स्त्री० =लक्ष्मी।
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लच्छा  : पुं० [अनु०] [स्त्री, अल्पा० लच्छी] १. कुछ विशेष प्रकार से लगाये गये बहुत से तारों या डोरों का समूह। गुच्छे या धब्बे के रूप में लगाए हुए तार। जैसे—रेशम का लच्छा, सूत का लच्छा। २. किसी चीज के सूत की तरह ऐसे लंबे और पतले कटे हुए टुकड़े जो आपस में उलझकर मिल जाते हों। जैसे—अदरक, गरी, पेठे या प्याज का लच्छा। ३. किसी उबाली या पकायी हुई गाढ़ी चीज के रूप के लंबोतरे अंश को प्रायः आपस में मिले रहते हैं। जैसे—मलाई या रबड़ी के लच्छे। ४. मैदे की एक प्रकार की मिठाई जो प्रायः पतले लंबे सूत की तरह और देखने में उलझी हुई डोर के समान होती है। ५. पतली और हलकी जंजीरों से बना हुआ एक प्रकार का गहना जो हाथ या पैर में पहना जाता है। ६. एक प्रकार का घटिया और मिलावटी केसर।
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लच्छा-साख  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की संकर रागिनी।
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लच्छि  : स्त्री० =लक्ष्मी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लच्छि-निवास  : पुं० [सं० लक्ष्मी निवास] विष्णु। नारायण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लच्छित  : वि० =लछित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लच्छिनाथ  : पुं० [सं० लक्ष्मीनाथ] लक्ष्मीपति। विष्णु। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लच्छिमी  : स्त्री०=लक्ष्मी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लच्छी  : स्त्री० [हिं० लच्छा का स्त्री० अल्पा०] सूत, रेशम, ऊन, कलाबत्तू इत्यादि की लपेटी हुई गुच्छी। अट्टी। छोटा लच्छा। पुं० [?] एक प्रकार का घोड़ा। स्त्री० =लक्ष्मी।
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लच्छेदार  : वि० [हिं० लच्छा+फा० दार (प्रत्यय)] १. (खाद्य पदार्थ) जिसमें लच्छे पड़े या बने हों। लच्छोंवाला। जैसे—लच्छेदार रबड़ी। २. (बात) जो चिकनी-चुपड़ी तथा मजेदार हो।
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लछन  : पुं० =लक्षण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लछना  : अ०=लखना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लछमन  : पुं० =लक्ष्मण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लछमन-झूला  : पुं० [हिं० लक्ष्मन+झूला] १. बदरीनारायण के मार्ग में एक स्थान जहाँ पहले पुरानी चाल का रस्सों का एक लटकौवाँ पुल था, जिसे झूला कहते थे। २. रस्सों या तारों आदि का वह पुल जो बीच में झूले की तरह नीचे लटकता हो। झूला पुल। ३. एक प्रकार की बल या लता।
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लछमना  : स्त्री० =लक्ष्मणा।
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लछमी  : स्त्री० =लक्ष्मी।
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लछारा  : वि० [?] १. लम्बा। २. बड़ा।
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लछियाना  : स० [हिं० लच्छा] डोरे, सूत आदि का लच्छा या लच्छी बनाना। अ० डोरे सूत की तरह के पदार्थों के लच्छे या लच्छी के रूप में आना या बनाना। अ० [सं० लक्ष] दिखाई देना। प्रकट या लक्षित होना। उदाहरण—लच्छन चिन्हन जो लछिआई।—नंददास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंज  : पुं० [सं०√लंज्+अच्] १. पैर। पाँव। २. काछ। लाँग। ३. दुम। पूँछ। ४. लंपटता। ५. सोता। स्रोत।
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लज  : स्त्री० =लाज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लजना  : अ०=लजाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लजनी  : स्त्री० [हिं० लजाना] लजालू का पौधा।
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लजवंत  : वि० =लाजवंत।
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लजवंती  : स्त्री० =लाजवंती।
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लजवाना  : स० [हिं० लजाना] दूसरे को लज्जित करना। सरमिन्दा करना।
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लंजा  : स्त्री० [सं० लंज+टाप्] १. लक्ष्मी। २. निद्रा। नींद। ३. सोता। ४. कुलटा। पुंश्चली।
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लजाधुर  : वि० [सं० लच्छाधर] जो बहुत अधिक लज्जा करे। लज्जा वान्। शर्मीला। पुं० =लजालू। (पौधा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लजाना  : अ, ० [हिं० लाज] लाज या शर्म से सिर नीचा करना। लज्जित होना। स० किसी को लज्जित करना।
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लजार-सजारु  : पुं० [सं० शल्य०] शल्य।
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लजारू  : वि० पुं० =लजालू।
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लजालू  : पुं० [सं० लज्जालु] हाथ डेढ़ हाथ ऊँचा एक काँटेदार छोटा पौधा जिसकी पत्तियाँ छूने से सिकुड़कर बंद हो जाती है, और फिर थोड़ी देर में धीरे-धीरे फैलती है। छुई-मुई। वि० प्रायः बहुत लज्जा करनेवाला। लज्जाशील।
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लजावन  : वि० [हिं० लजाना=लज्जित करना] लज्जित करनेवाला।
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लजावनहार  : पुं० [हिं० लजावन] लज्जित करनेवाला।
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लजावना  : वि० [हिं० लजाना] १. लजाने या लज्जित करनेवाला। लजानेवाला। लजीला स०=लजाना (लज्जित करना)।
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लँजिका  : स्त्री० [सं०√लंज्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] वेश्या। रंडी।
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लजियाना  : अ० स०=लजाना।
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लजीज  : वि० [अ० लज़ीज़] (पदार्थ) जो स्वाद में बहुत अच्छा हो। स्वादिष्ट।
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लजीला  : वि० [हिं० लाज+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० लजीली] शरमानेवाला। लज्जाशील।
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लजुरी  : स्त्री० [सं० रज्जु, माग, लज्जु] १. कूएँ से पानी खींचने की डोरी। २. रस्सी।
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लजोर  : वि० =लजीला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लजौना  : वि० [हिं० लज्जा] १. लज्जित करनेवाला। २. दे० ‘लजौहाँ’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लजौहाँ  : वि० [सं० लज्जावह] [स्त्री० लजौंही] लाज से युक्त।
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लज्ज  : स्त्री० [सं० रज्जु]१. कुएँ से पानी निकालने की रस्सी। २. नकेल। ३. लगाम। स्त्री० =लज्जा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लज़्ज़त  : स्त्री० [अ० लज़्ज़त] १. लजीज होने की अवस्था या भाव। २. खाने-पीने की वस्तुओं का स्वाद। जायका।
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लज्ज़तदार  : वि० [अ० लज्जत+फा० दार] स्वादिष्ट। जायकेदार।
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लज्जरी  : स्त्री० [सं० लजिरि] लजालू लता लज्जावंती।
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लज्जा  : स्त्री० [सं०√लज्ज् (लजाना)+अ+टाप्] [वि० लज्जित] १. अन्तःकरण की वह वृत्ति जिससे स्वभावतः या किसी निन्दनीय आचरण की भावना के कारण दूसरों के सामने वृत्तियाँ संकुचित हो जाती हैं, तथा चेष्टा मंद पड़ जाती हैं। मुँह से बात नहीं निकलती, सिर तथा दृष्टि नीची हो जाती है। लाज। शर्म। हया। मुहावरा—(किसी की बात की) लज्जा करना=किसी बात की बड़ाई की रक्षा का ध्यान करना। मर्यादा या विचार करना। जैसे—अपने कुल की लज्जा करो। २. मान। मर्यादा। प्रतिष्ठा। जैसे—ईश्वर ने लज्जा रख ली। क्रि० प्र०—बचाना।—रखना।
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लज्जा-पट  : पुं० [मध्य० स०] घूँघट।
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लज्जा-प्रद  : वि० [ष० त०] (कृत्य या बात) जिसके कारण उसके कर्ता को लज्जित होना पड़े।
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लज्जा-प्रिया  : स्त्री० [तृ० त०] केशव के अनुसार मुग्धा नायिका के चार भेदों में से एक।
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लज्जा-शील  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जिसे स्वभावतः लज्जा आती हो।
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लज्जा-शून्य  : वि० [तृ० त०] लज्जा से रहित। निर्लज्ज।
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लज्जा-हीन  : वि० [तृ० त०] लज्जाशून्य।
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लज्जालु  : पुं० [सं० लज्जा+आलु] लजालू नाम का पौधा। लाजवंती। वि० जो बहुत अधिक शरमाता हो। लज्जाशील। जैसे—लज्जालु स्त्री०
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लज्जावंत  : वि० [सं० लज्जावंत] जिसे या जिसमें लज्जा का भाव हो। लजीला।
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लज्जावती  : स्त्री० [सं० लज्जा+मतुप्, म-व+ङीष्] लजालू नाम का पौधा। वि० लज्जावान् का स्त्री।
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लज्जावान् (वत्)  : वि० [सं० लज्जा+मातुप, म-व] [स्त्री० लज्जावती] जिसके अधिक व प्रायः लज्जा होती हो। शर्मदार। हयादार।
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लज्जित  : भू० कृ० [सं० लज्जा+इतच्] १. किसी प्रकार के अपराध दोष या हीन-भावना के फलस्वरूप जो दूसरों के सम्मुख घबराये हुए चुप-चाप खड़ा हो। जिसे लज्जा हुई हो। ३. जो अपने दूषित कृत्य के लिए अपने को अपमानित तथा लज्जा का पात्र समझता हो।
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लज्या  : स्त्री० =लज्जा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लट  : स्त्री० [सं० लट्ट, या लट्वा] १. मुँह या गालों पर लटकता हुआ चिकने तथा परस्पर चिपके हुए सिर के बालों का गुच्छा। अलका। जुल्फ। मुहावरा—लट छटकाना=स्त्रियों के सिर के बाल खोलकर इधर-उधर गिरा या फैला देना। (किसी के नीचे) लट दबना=किसी की अधीनता या दबाव में होना। २. सिर के उलझे और एक गुथे हुए बाल। स्त्री० [हिं० लटना] लटने की क्रिया या भाव। स्त्री० =लपट (लौ)।
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लट-जीरा  : पुं० [हिं० लट+जीरा] १. अगहन में होनेवाला एक प्रकार का धान और उसका चावल। २. अपामार्ग। चिचड़ा।
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लट-पट  : स्त्री० [हिं० लटपटाना] १. लटपटाने की अवस्था या भाव। २. अनुचित या दूषित उद्देश्य की सिद्धि के लिए होनेवाला नया-नया मेल-जोल या संबंध। वि०=लटपटा।
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लट-पटा  : वि० [हिं० लटपटाना] [स्त्री० लटपटी] १. जोश, मस्ती, यौवन, लापरवाही आदि के कारण इधर-उधर गिरता-पड़ता या लड़खड़ाता हुआ। ठीक और सीधे तरह से न चलता हुआ। जैसे—लटपटी चाल। २. जो ठीक वँधा न रहने के कारण ढीला होकर नीचे की ओर खिसक आया हो। जो चुस्त और दुरुस्त न हो। ढीला-ढाला। ३. जो ठीक तरह से सँवार या सजाकर नहीं बल्कि अल्हड़पन से बनाया लगाया गया हो। जैसे—लटपटी पाग (पगड़ी)। ४. (कथन, बात या शब्द) जिसका ठीक, पूरा और स्पष्ट उच्चारण न हुआ हो। ५. अस्तव्यस्त। अव्यस्थित। अंड-बंड। ६. थकावट, दुर्बलता आदि के कारण बहुत ही शिथिल और हारा हुआ। ७. रसेदार खाद्य पदार्थ जो न बहुत गाढ़ा हो और न बहुत पतला। जैसे—लटपटी, तरकारी, लटपटा हलुआ। ८. गींजा और मसला हुआ। मला-दला।
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लटक  : स्त्री० [हिं० लटकना] १. लटकने की क्रिया या भाव। नीचे की ओर गिरता-सा रहने का भाव। झुकाव। २. चलने, फिरने आदि में शरीर के अंगों में पड़नेवाली लचक जो स्त्रियों में प्रायः सुन्दर जान पड़ती है। ३. अंगों की मनोहर चेष्टा। ४. बात-चीत करने या गाने आदि में दिखाई देनेवाली कोमल भावी भंगी। ५. मन की आकस्मिक उद्वेग। जैसे—बैठे बैठे तुम्हें यह क्या लटक सूझी। ६. ढालू जमीन। ढाल (पालकी के कहार)। वि० (गति) जिसमें लटक हो। उदाहरण—साँवलिया की लटक चाल मोरे मन में बस गई रे।—गीत।
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लटकन  : पुं० [हिं० लटकना] १. लटकने की क्रिया या भाव। नीचे की ओर झूलते रहने का भाव। २. लटकती हुई कोई वस्तु। ३. नाक में पहनने का एक प्रकार का गहना जो झूलता रहता है। ४. रत्नों का वह गुच्छा जो कलँगी में लगाते थे। ५. मालखंभ की एक कसरत जिसमें दोनों पैरों के अँगूठे में बेत फँसाकर पिंडली को लपेटते हुए नीचे की ओर लटकते हैं। ६. कोई ऐसा फालतू पदार्थ या व्यक्ति जो किसी महत्वपूर्ण पदार्थ या व्यक्ति के साथ यों ही लगा रहता है या लगा फिरता हो। २. अंडकोश (बाजारू)। पुं० १. एक प्रकार का पेड़ जिसमें लाल रंग के फूल लगते हैं २. उक्त रगं के फूलों से सुगंधित बीज जिन्हें पानी में पीसने से गेरुआ रंग निकलता है। इस रँग से प्रायः कपड़े रँगते हैं।
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लटकना  : अ० [सं० लडन] १. किसी पदार्थ या व्यक्ति का ऐसी स्थिति में आना या होना कि उसका एक सिरा या अंग किसी ऊँचे आधार में अटका या फँसा हुआ हो और शेष भाग अधर में नीचे की ओर हो। २. किसी सीधी, खड़ी टिकी या बनी हुई वस्तु का कोई भाग किसी ओर थोड़ा झुकना। जैसे—(क) बरामदा आगे की ओर कुछ लटक गया है। (ख) बेहोशी में उसका सिर पीछे की ओर लटक गया था। पद—लटक या लटकती चाल=ऐसी चाल जिसमें मस्ती, हर्ष आदि के कारण आदमी झूमता हुआ चलता हो। ३. किसी काम, बात या व्यक्ति का ऐसी स्थिति में आना, रहना या होना कि उसके संबंध में आवश्यक और उचित निर्णय न हो अथवा अभीष्ट सिद्ध न हो। असमंजस या दुविधा की स्थिति में अपेक्षया अधिक समय तक पड़ा या बना रहना। जैसे—(क) अदालतों में मुकदमे बरसों लटके रहते हैं। (ख) नौकरी की दरख्वास्त देने पर उसे महीनों लटके रहना पड़ा। संयो० क्रि०—रहना। ४. परीक्षा में अनुत्तीर्ण होना और इस प्रकार पहलेवाली कक्षा में ही रुका रहना। संयो० क्रि०—रहना। वि० [स्त्री० लटकनी] लटकवाली मनोहर अंग-भंगी से युक्त। उदाहरण—बंझ जाइ खग ज्यों प्रिय छबि लटकनी लस।—सूर।
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लटकवाना  : स० [हिं० लटकाना का प्रे०] लटकाने का काम दूसरे से कराना।
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लटंका  : पुं० [देश] एक प्रकार का बांस जो बरमा से आता है।
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लटका  : पुं० [हिं० लटक] १. ऐसी चाल जिसमें मनोहर लटक हो। २. बात-चीत आदि में दिखाई देनेवाली जनानी चेष्टा या हाव-भाव और स्वरों का उतार-चढ़ाव। जैसे—उन्होंने बड़े लटके से कहा कि हम नहीं जायँगे। ३. उपचार, चिकित्सा, तंत्र-मंत्र आदि के क्षेत्र में कोई ऐसी छोटी प्रक्रिया या विधि जिसमें जल्दी और सहज में उद्देश्य सिद्ध होता हो। जैसे—उन्हें वैद्यक के ऐसे सैकड़ों लटके मालूम हैं। ४. एक प्रकार का चलता गाना। ५. अंडकोश। (बाजारू)।
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लटकाना  : स० [हिं० लटकना का स०] १. किसी को लटकाने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना कि कोई या कुछ लटक। जैसे—कपड़ा या हाथ लटकाना। संयो० क्रि० देना।—रखना।—लना। २. किसी खड़ी वस्तु को किसी ओर झुकाना। नत करना। ३. कोई काम पूरा न करके अनिश्चित दशा में अधिक समय तक पड़ा रहने देना। ४. किसी व्यक्ति को कोई आशा में रखकर उसका उद्देश्य या कार्य पूरा न करना। असमंजस या दुविधा की स्थिति में रखना। संयो० क्रि०—रखना।
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लटकीला  : वि० [हिं० लटक+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० लटकीली] लटकता और लहराता हुआ। जैसे—लटकीली चाल।
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लटकू  : पुं० [देश] एक प्रकार का पेड़ जिसकी छाल से रंग निकलता है।
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लटकौआँ  : वि० [हिं० लटकाना] जो लटकाया जाता हो। जैसे—लटकौआँ फानूस।
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लटना  : अ० [सं० लड़=हिलना, डोलना] १. परिश्रम, रोग आदि के कारण बहुत ही शिथिल, दुर्बल और प्रायः असमर्थ सा होना। अशक्त और असमर्थ होना। संयो० क्रि०—जाना। २. बेचैन या विकल होना। अ० [सं० लल, लड=ललचाना] १. लेने के लिए लपकना लालायित होना। २. अनुरागपूर्वक प्रवृत्त होना। ३. किसी काम या बात में लिप्त या लीन होना।
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लटपटान  : स्त्री० [हिं० लटपटाना] १. लटपटाने की क्रिया या भाव। लड़खड़ाहट। २. आकर्षक और मनोहर गति या चाल।
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लटपटाना  : अ० [सं० लड=हिलना-डोलना+पत्=गिरना] १. दुर्बलता, मन्दता लापरवाही आदि के कारण ठीक और सीधे ढंग से न चलकर इधर-उधर झुके पड़ना। लड़खडाना। उदाहरण—उठे पर पैर उनके लटपटाये।—मैथिलीशरण। संयो० क्रि०—जाना। २. अपने स्थान पर दृढ़तापूर्वक जमे, टिके या ठहरे न रहकर इधर-उधर होते रहना। विचलित होना। डिगना। ३. सहसा चूक या भूल जाने के कारण इधर-उधर हो जाना। लड़खडाना जैसे—बोलने में जीभ या चलने में पैर लटपटाना। ४. अपने आप को सँभाल न सकने के कारण किसी पर विवश भाव से आसक्त या मोहित होना। ५. किसी काम या बात में लिप्त या लीन होना।
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लटा  : वि० [सं० लट्ट] [स्त्री० लटी] १. लोलुप। लंपट। २. गिरा हुआ। पतित। ३. लंपट और व्यभिचारी। ४. बदमाश। लुच्चा। ५. तुच्छ। हीन। ६. नीच। हेय। ७. खराब। बुरा। ८. बहुत दुबला-पतला या कमजोर।
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लटा-पटा  : पुं० [हिं० लटपट] १. व्यर्थ की चीज। २. व्यर्थ की बातें। ३. आडंबर। ढोंग। उदाहरण—बाहर का अनावश्यक लटा-पटा मुझसे सहा नहीं जाता—अज्ञेय। वि० बहुत ही क्षीण, या हीन। पद—लटे पटे दिन=कठिनाई या कष्ट के दिन।
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लटा-पटी  : स्त्री० [हिं० लटपटाना] १. लटपटाने की क्रिया या भाव। २. लड़ाई-झगड़ा। ३. गुत्थम-गुत्था। भिड़ंत।
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लटा-पोट  : वि० =लोट-पोट।
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लटिया  : स्त्री० [हिं० लट] सूत आदि का छोटा लच्छा लच्छी। मुहावरा—लटिया करना=सूत की आँटी बनाना।
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लटियासन  : पुं० [हिं० लट+सन्] पटसन।
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लटी  : स्त्री० [हिं० लटा=बुरा] १. बुरी बात। २. झूठी या व्यर्थ की बात। गप। मुहावरा—लटी मारना=गप्प हाँकना। ३. भक्तिन। ४. वेश्या।
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लटुआ  : पुं० =लट्टू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लटुक  : पुं० =लकुट (वृक्ष और फूल)।
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लटुरी  : स्त्री० दे० ‘लटूरी’।
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लटू  : पुं० =लट्टू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लटूरा  : पुं० [हिं० लट्टू] कुप्पा। पुं० [हिं० लट] [स्त्री० लटूरी] बड़े-बड़े बालों की उलझी हुई लट। जटा। वि० जिसके सिर पर बड़े-बड़े बालों की लट हो। जटावाला। जैसे—लटूरा जोगी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लटूरिया  : वि० [हिं० लट] लटों अर्थात् लम्बे बालोंवाला। पुं० भूत-प्रेत या हौआ (बच्चों को डराने के लिए)। वि० लटूरा।
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लटूरी  : स्त्री० [हिं० लट] विशेषतः छोटे बच्चों के बालों की लट।
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लटोरा  : पुं० [देश] एक प्रकार का पक्षी जिसकी गर्दन और मुँह काला। डैने नीलापन लिए हुए भूरे और दुम काली होती है। इसके कई भेद होते हैं। जैसे—मटिया, कजला, खाखला। पुं० =लसोड़ा।
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लट्ट-पट्ट  : वि० =लट-पट। वि०=लथ-पथ।
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लट्टू  : पुं० [देश] १. लकड़ी का एक गोल खिलौना जिसके मध्य भाग में कील जड़ी रहती है तथा जो चलाये जाने पर उक्त कील पर घूमने या चक्कर लगाने लगता है। २. कोई ऐसा खिलौना जो इस प्रकार घूमता रहता हो। ३. लाक्षणिक अर्थ में, व्यक्ति जिसमें किसी के प्रति उत्कट प्रेम हो तथा जो उसके कारण बावला हो रहा हो। मुहावरा—(किसी पर) लट्टू होना=किसी पर पूरी तरह से मोहित होना। ४. शीशे का वह गोलाकार उपकरण जिसके अन्दर बिजली के द्वारा प्रकाश उत्पन्न होता है। बल्ब।
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लट्टू दार  : वि० [हिं० लट्टू+फा० दार] जिस पर या जिसमें लट्टू के आकार की गोल रचना बनी या लगी हो। जैसे—लट्टूदार छड़ी, लट्टूदार पगड़ी (एक विशेष प्रकार की पगड़ी जिसके अगले ऊपर भाग का कपड़ा लट्टू की तरह लपेटा हुआ रहता है।)
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लट्ठ  : पुं० [सं० यष्टि, प्रा० लट्ठि] बड़ी लाठी। मोटा लम्बा डंडा। पद—लट्ठबाज, लट्ठमार। मुहावरा—(किसी के पीछे) लट्ठ लिए फिरना= (क) किसी के साथ इतना वैर या शत्रुता होना कि मिलते ही उसे घायल करके मार डालने को जी चाहता हो। (ख) लाक्षणिक रूप में पूरी तरह से किसी के विपक्ष में या विरुद्ध रहना। जैसे—अक्ल के पीछे लट्ठ लिए फिरना, अर्थात् इतना निर्बुद्धि होना कि मानों बुद्धिमता से वैर ठान रखा हो। वि० बहुत बड़ा निर्बुद्धि या मूर्ख। जैसे—यह नौकर तो निरा लट्ठ है।
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लट्ठबाज  : वि० [हिं० लट्ठ+फा० बाज़] [भाव० लट्ठबाजी] लाठी से लड़नेवाला। लठैत।
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लट्ठबाज़ी  : स्त्री० [हिं० लट्ठ+फा० बाज़ी] लाठियों से होनेवाली मार-पीट।
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लट्ठमार  : वि० [हिं० लट्ठ+मारना] १. (व्यक्ति) जो बहुत बड़ा उजड्ड और उद्दंड हो। २. (कथन या बात) जिसमें नम्रता शालीनता, सौजन्य आदि का पूर्ण अभाव हो।
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लट्ठर  : वि० [हिं० लट्ठ] १. कठोर। कड़ा। २. कर्कश।
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लट्ठा  : पुं० [हिं० लट्ठ] १. लकड़ी का बहुत बड़ा मोटा और लंबा टुकड़ा। बल्ला। शहतीर। जैसे—तालाब के बीच में लगा हुआ लट्ठा, सीमा का सूचक लट्ठा। २. धरन। ३. वह ५॥ फुट लंबा बाँस जिससे जमीन नापी जाती है। पद—लट्ठाबंदी (दे०) ४. लंकलाट (कपड़ा) (पश्चिम)।
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लट्ठा-बंदी  : स्त्री० [हिं० लट्ठा+फा० बंदी] लट्ठे अर्थात् ५॥ फुट लंबे बाँस के द्वारा जमीन की जानेवाली नाप-जोख।
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लट्व  : पुं० [सं०√लट् (बालभाव)+क्वन्०] १. घोड़ा। २. एक प्रकार का राग (संगीत)।
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लट्वा  : पुं० [सं० लट्व+टाप्] १. बालों की लट्। २. एक प्रकार का करंज। ३. कुसुभ। ४. गौरा पक्षी। ५. एक प्रकार का बाजा। ६. चित्र बनाने की कूँची। तूलिका। ७. पुश्चली। व्यभिचारिणी।
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लंठ  : वि० [देश०] [भाव० लंठई] १. जिसमें कुछ भी बुद्धि न हो। परम मूर्ख। २. उजड्ड।
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लठ  : पुं० =लट्ठ।
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लंठई  : स्त्री० [हिं० लंठ] लंठ होने की अवस्था या भाव। लंठपन।
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लठियल  : वि० [हिं० लाठी+इयल (प्रत्यय)] (व्यक्ति) जो लाठी धारण किये रहता हो। लठैत।
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लठिया  : स्त्री० [हिं० लाठी का अल्पा०] छोटी लाठी, छड़ी या डंडा।
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लठैत  : पुं० [हिं० लठ+ऐत (प्रत्यय)] वह जो लाठी चलाकर लड़ने का अभ्यस्त हो। लाठी की लड़ाई लडनेवाला। लट्ठबाज।
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लठैती  : स्त्री० [हिं० लठैत] लाठियों से लड़ने और मार-पीट करने की क्रिया या भाव। लट्ठबाजी।
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लंड  : पुं० [सं०√लंड् (ऊपर फेंकना)+घञ्] गू। विष्ठा। पुं० [सं० लिंग] पुरुष की जनेन्द्रिय। लिंग।
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लड़  : पुं० [सं० यष्टि, प्रा० लट्ठि] [स्त्री० अल्पा० लड़ी] १. सीध में गुथी हुई या एक दूसरे से लगी हुई एक ही प्रकार की वस्तुओं की पंक्ति। माला। जैसे—मोतियों का लड़। सिकड़ी का लड़। २. रस्सी आदि के रूप में बटा हुआ लंबा खंड। जैसे—तीन लड़ का रस्सा। ३. कतार। पंक्ति। श्रेणी। ४. किसी के साथ घनिष्ठता या दृढ़तापूर्वक गुथे या मिले हुए होने की अवस्था या भाव। मुहावरा—(किसी के साथ) लड़ मिलना=मेल-मिलाप करना। मित्रता स्थापित करना। (किसी के) लड़ में रहना=गुट या दल में रहना। ५. दे० ‘लड़ी’।
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लड़-बावर  : वि० [स्त्री० लड़-बावरी] लाड़-बावला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लड़-बावला  : वि० [सं० लड़=लड़कों का सा+बावला] [स्त्री० लड़बावली] जिसमें अभी लड़कपन और नासमझी की बहुत सी बातें या लक्षण हों। निरा अल्हड़ या मूर्ख।
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लड़इता  : वि० =लड़ैता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लड़क  : पुं० हिं० लड़का का वह संक्षिप्त रूप जो उसे समस्त पदों के आरम्भ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—लड़क-बुद्धि।
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लड़क-खेल  : पुं० [हिं० लड़का+खेल] १. बालकों का खेल। २. लड़कों के खेल की तरह का बहुत ही सहज या साधारण काम।
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लड़क-बुद्धि  : स्त्री० [हिं० लड़का+सं० बुद्धि] बालकों की-सी समझ। अपरिपक्व बुद्धि। अज्ञता। नासमझी।
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लड़क-बुध  : स्त्री० =लड़क-बुद्धि।
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लड़कई  : स्त्री० =लड़कपन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लड़कपन  : पुं० [हिं० लड़का+पन] १. ‘लड़का’ होने की अवस्था या भाव। बाल्यावस्था। जैसे—वह लड़कपन से ही बहुत चतुर था। २. लडकों का-सा आचरण या व्यवहार, जिसमें बुद्धि का परिपाक न दिखाई देता हो। जैसे—तुम इतने बड़े हुए पर अभी तक तुम्हारा लड़कपन नहीं गया।
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लड़का  : पुं० [सं० लाड़िक] [स्त्री० लड़की] १. थोड़ी अवस्था का मनुष्य। वह जिसकी उमर कम हो। वह जो अभी तक युवक न हुआ हो। बालक। २. औरस नर संतान। पुत्र। बेटा। पद—लड़का बाला=संतान। बाल-बच्चा। लड़कों का खेल=बहुत ही छोटा सहज और साधारण काम। मुहावरा—लड़का जनना=नर संतान प्रसव करना।
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लड़का-बाला  : [हिं० लड़का+सं० बाला] १. लड़का या लड़की। पुत्र और पुत्री दोनों अथवा इनमें से कोई एक औलाद। संतान। २. कुटुंब। परिवार।
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लड़काई  : स्त्री० =लड़कई (लड़कपन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लड़कानि  : स्त्री० =लडकपन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लड़किनी  : स्त्री० =लड़की। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लड़की  : स्त्री० [हिं० लड़का] १. पुरुष जाति का मादा बच्चा। बच्ची। विशेष—वृद्ध तथा प्रौढ़ स्त्रियों को छोड़कर शेष अवस्थावाली स्त्रियों के लिए भी इसका प्रयोग होता है। जैसे—(क) इस लकड़ी ने एम० ए० पास किया है। (ख) इस लड़की के दो बच्चे हैं। २. पुत्री। बेटी। जैसे—वह अपनी लड़की को साथ लेते गए हैं। ३. अल्पवयस्क या युवा नौकरानी।
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लड़कीवाला  : पुं० [हिं० लड़की+वाला (प्रत्यय)] १. वह जिसके यहाँ लड़की या लड़कियाँ हों। २. कन्या-पक्ष। ‘वर-पक्ष’ का विरुद्धार्थक। जैसे—लड़कीवालों से जो शर्ते बनता है वह लड़की को देते हैं।
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लड़केवाला  : पुं० [हिं०] विवाह संबंध में वर का पिता या उसका अभिभावक अथवा संरक्षक। वर-पक्ष।
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लड़कोरी (कौरी)  : वि० [हिं० लडका+औरी (प्रत्यय)] (स्त्री) जिसकी गोद में बच्चा हो। पुत्रवती।
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लड़खड़ाना  : अ० [सं० लड़=डोलना+खड़ा] [भाव० लड़खड़ाहट] चलते समय सीधे स्थित न रह सकने के कारण इधर-उधर झुक पड़ना। चलने में झोंका खाना। डगमगाना। डिगना। जैसे—तेज चलने में वह (या उसका पैर) लड़खड़ाया और वह गिरते-गिरते बचा। संयो० क्रि०—जाना। २. चलते समय डगमगा कर गिरना। झोंका खाकर नीचे आ जाना। ३. कोई काम करते समय किसी अंग का बीच में ठीक तरह से काम कर सकने के कारण इधर-उधर होना। विचलित होना। जैसे—(क) बोलने में जबान लड़खड़ाना। (ख) कुछ उठाते समय हाथ लड़खड़ाना।
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लड़खड़ाहट  : स्त्री० [हिं० लड़खड़ाना+आहट (प्रत्यय)] लड़खड़ाने की क्रिया या भाव। डगमगाहट।
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लड़खड़ी  : स्त्री० =लड़खड़ाहट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लडंग  : स्त्री० [हिं० लड़०] १. लड़ी। लड़। २. पंक्ति। कतार। पुं० [?] झुंड। समूह। जैसे—गौओं या घोड़ों का लडंग।
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लडंत  : स्त्री० [हिं० लड़ना] १. लड़ने की क्रिया या भाव। जैसे—पतंगों की लड़ंत पहलवानों की लडंत। २. लड़ाई-झगड़ा। ३. विरोधी दलों से होनेवाला मुकाबला या सामना।
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लडंता  : वि० [हिं० लडंत] [स्त्री० लडंती] १. कुश्ती आदि लड़ने वाला। जैसे—लडंता पहलवान। २. लड़ाई-झगड़ा करनेवाला।
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लड़ना  : अ० [सं० रणन] [भाव० लड़ाई] १. आपस में शारीरिक बल का प्रयोग करते हुए एक दूसरे को घायल करने, चोट पहुँचाने या मार डालने के उद्देश्य से घात-प्रतिघात करना। लड़ाई करना। भिड़ना। जैसे—पशुओं या सैनिकों का आपस में लड़ना। २. आपस में एक-दूसरे को गिराने, दबाने, नीचे दिखाने आदि के लिए ऐसी क्रिया, आचरण या व्यवहार करना जिसमें शक्ति का प्रयोग होता हो। जैसे—कचहरी में मुकदमा लड़ना। ३. आर्थिक, बौद्धिक, शारीरिक आदि बलों का प्रयोग करते हुए विपक्षी या विरोधी को परास्त करने या हराने के लिए उपाय या क्रिया करना। जैसे—(क) शास्त्रार्थ के समय पंडितों का आपस में लड़ना। (ख) अखाड़े में पहलवानों का लड़ना। ४. अपने पक्ष या स्थापन करने के लिए अशिष्टतापूर्वक बातचीत या वाद-विवाद करना। झगड़ना। जैसे—ये लोग जरा-जरा सी बात पर रोज यों ही घंटों लड़ते रहते हैं। पद—लड़ना-भिड़ना। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना।—बैठना। ५. दो वस्तुओं का वेग के साथ एक दूसरे से जा लगना। टक्कर खाना। टकराना। भिड़ना। जैसे—रेलगाड़ियों का लड़ना, मोटर से बैलगाड़ी का लड़ना। ६. दो ऐसे अंगों का परस्पर रगड़ खाना जिनमें वस्तुतः कुछ दूरी होना चाहिए। जैसे—(क) टायर का रिम से लड़ना। (ख) जाँघों का लड़ना। ७. ऐसी स्थिति में आना, पहुँचना या होना जिसमें हार-जीत का प्रश्न हो अथवा निकट विरोधी परिस्थियों का सामना करना पड़ता हो। जैसे—(क) किसी काम में जान लड़ना। (ख) किसी बात में बुद्धि लडना। (ग) रोजगार में रुपये या जूए में माल लड़ना। ८. ऐसी स्थित में आना या पहुँचना कि ठीक तरह से बराबरी या सामना हो अथवा किसी प्रकार की अनुकूलता या समानता सिद्धि होती हो। जैसे—(क) किसी से आँखें लड़ना। (ख) एक ही बात से दूसरे की बात लड़ना। मुहावरा—हिसाब लड़ना= (क) जोड़, बाकी आदि का लेखा या हिसाब ठीक और पूरा उतरना। (ख) किसी काम या बात के लिए अनुकूल या उपयुक्त अवसर मिलना या सुभीता निकलना। ९. किसी जानवर का आकर काटना या डंक मारना। जैसे—उसे कुत्ता (या बिच्छू) लड़ गया है (पश्चिम)।
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लड़बड़ा  : वि० [अनु०] १. लटपटा। २. नपुंसक। २. ढीला-ढाला।
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लड़बड़ाना  : अ०=लड़खड़ाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लड़बौरा  : वि० [हिं० लड़-बोरी]=लड़बावला।
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लड़ाई  : स्त्री० [हिं० लड़ना+आई (प्रत्यय)] १. आपस में लड़ने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. वह क्रिया या स्थिति जिसमें लोग आपस में मार-पीट करके दूसरों को घायल करने या मार डालने का प्रयत्न करते है। भिड़ंत। ३. वह स्थिति जिसमें विरोधी दलों या पक्षों के लोग विशेषतः सशस्त्र सैनिक एक दूसरे को मार डालने या घायल करने का प्रयत्न करते हैं। जैसे—राज्यों के सीमा क्षेत्रों में प्रायः लड़ाइयाँ होती रहती हैं। पद—लड़ाई का मैदान=वह स्थान जहाँ एकत्र होकर सैनिक युद्ध करते हों युद्ध-क्षेत्र। समर-भूमि। मुहावरा—लड़ाई पर जाना=योद्धा या सैनिक के रूप में रणक्षेत्र में युद्ध करने के लिए जाना। ४. ऐसी स्थिति जिमसें आपस में एक-दूसरे को दबाने या हटाने का प्रयत्न करते हों। जैसे—आज-कल दोनों भाई कचहरी की लड़ाई लड़ रहे हैं। ५. ऐसी स्थिति जिसमें आपस में अशिष्टतापूर्ण वाद-विवाद और कटु शब्दों का प्रयोग होता हो। तकरार। हुज्जत। जैसे—पंचायत (या सभा) में लोग बातें क्या करते थे, लड़ाई लड़ते थे। ६. ऐसी स्थिति जिसमें आपस में बहुत अधिक वैमनस्य और वैर-विरोध हो, तथा पारस्परिक सामाजिक व्यवहार आदि बन्द हों। जैसे—इधर महीनों से दोनों भाइयों में गहरी लड़ाई चल रही है। ७. किसी वस्तु पर अधिकार प्राप्त करने या अपना पक्ष ठीक सिद्ध करने के लिए होनेवाली वाद-विवादात्मक बल-परीक्षा या बल-प्रयोग। जैसे—हमें तो यही पता नहीं चलता कि आप लोगों में लड़ाई किस बात की है। पद—लड़ाई-झगड़ा, लडाई-भिड़ाई। ८. दो वस्तुओं का वेग के साथ एक दूसरी से जा लगना। टक्कर। (क्व०)
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लड़ाका  : वि० [हिं० लड़ना+आका (प्रत्यय)] [स्त्री० लड़ाकी] १. युद्ध में लड़नेवाला योद्धा। सिपाही। २. बात-चीत में या प्रायः सबसे लड़ाई-झगड़ा करनेवाला।
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लड़ाकू  : वि० [हिं० लड़ना] १. युद्ध में व्यवह्रत होनेवाला। लड़ाई में काम आनेवाला। जैसे—लड़ाकू जहाज। २. दे० ‘लड़ाका’।
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लड़ाना  : स० [हिं० लड़ना का प्रे०] १. किसी को या औरों को मारने-काटने या युद्ध करने में प्रवृत्त करना। २. कलह, लड़ाई-झगड़ा या विरोध में प्रवृत्त करना। जैसे—दोनों भाइयों को तुम्हीं लड़ा रहे हो। ३. पहलवानों का अपने शिष्यों को अभ्यास कराने के लिए अपने साथ कुश्ती लड़ाने में प्रवृत्त करना। जैसे—यह पहलवान रोज अखाड़े में बीसियों लड़को को लड़ाता था। ४. कौशल, बल, बुद्धि आदि की परीक्षा करने के लिए दो चीजों या जीवों को किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा या होड़ में प्रवृत्त करना। जैसे—पतंग, बटेर, मुरगा या मेढ़ा लड़ाना। ५. अपना कोई अंग दूसरे के उसी अंग के सामने लाकर बराबरी करना या उससे संबंध रखनेवाली किसी प्रकार की परीक्षा करना। जैसे—आँखें लड़ाना, पंजा लड़ाना ६. विकट परिस्थियाँ पार करने के लिए कौशल, चातुरी, बुद्धि आदि का प्रयोग करना। जैसे—(क) तरकीब या युक्ति लड़ाना। (ख) दिमाग या बुद्धि लड़ाना। ७. एक वस्तु को दूसरी से वेग या झटके के साथ मिलाना। टक्कर खिलाना। भिड़ना। ८. दो रेखाओं को एक दूरी से छुआना या टकराना। स० [हिं० लाड़=प्यार] लाड़-प्यार करना। दुलार करना। प्रेम से चुपकारना।
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लड़ायता  : वि० [स्त्री० लड़ायती]=लड़ैता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंडी  : स्त्री० [हि० लंड०] दुश्चरित्रा स्त्री। कुलटा।
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लड़ी  : स्त्री० [हिं० लड़ का स्त्री० अल्पा०] १. सीध में गुथी हुई या एक दूसरे से लगी हुई एक ही प्रकार की वस्तुओं की पंक्ति। माला। जैसे—मोतियों की लड़ी। २. डोरी, रस्सी आदि की रचना में उन कई विभागीय तारों आदि में से प्रत्येक जिन्हें बटकर डोरी या रस्सी बनाई जाती है। ३. किसी काम चीज या बात का ऐसा क्रम, श्रृंखला या सिलसिला जो लगातार कुछ दूर तक चला चले। जैसे—(क) टीलों या पहाड़ियों की लड़ी। (ख) बातों की लड़ी। ४. फूलों की पतली गुथी हुई माला। दे० ‘लड़’।
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लड़ीला  : वि० =लाड़ला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लडुआ  : पुं० =लड्डू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लँडूरा  : वि० [देश] [स्त्री० लँडूरी] १. (पक्षी) जिसकी पूँछ न हो अथवा काट दी गई हो। २. जिसका कोई शोभा जनक अंग नष्ट हो गया हो या रह गया हो।
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लड़ैता  : वि० [हिं० लाड़=प्यार+ऐता (प्रत्यय)] [स्त्री० लड़ैती] १. जिसे बहुत लाड़-प्यार से पाला-पोसा गया हो। लाड़ला। २. प्यारा। प्रिय। ३. बहुत लाड़-प्यार के कारण जिसका आचरण और व्यवहार कुछ बिगड़ गया हो। पुं० [हिं० लड़ना] योद्धा।
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लंडो  : स्त्री० =लंडी (कुलटा)।
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लड्डुक  : पुं० [सं०] लड्डू।
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लड्डू  : पुं० [सं० लड्डूक] १. छोटे गेंद के आकार की कोई गोलाकार बँधी हुई मिठाई। जैसे—खोए, बूँदी या बेसन का लड्डू। पद—ठग के लड्डू=किसी को धोखे में लाकर अपना लाभ करने के लिए की जानेवाली युक्ति या साधन (मध्य युग में ठग लोग यात्रियों को जहरीले या नशीले लड्डू धोखे से खिलाकर उन्हें बेहोश कर देते थे और तब उनका माल लूट लेते थे। इसी आधार पर यह पद बना है।) मुहावरा—मन के लड्डू खाना=मन ही मन यह समझकर झूठी आशा में प्रसन्न होना कि हमें अमुक शुभ फल की प्राप्ति होगी या हमारा अमुक अभीष्ट सिद्ध हो जायगा। २. शून्य संख्या का सूचक शब्द। (परिहास) जैसे—उन्हें अँग्रेजी से लड्डू मिला है। ३. किसी प्रकार की अच्छी और लाभदायक बात। जैसे—वहाँ जाने से तुम्हें कौन सा लड्डू मिल जायगा।
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लड्याना  : स० [हिं० लाड़=प्यार] लाड़-प्यार या दुलार करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लढ़ा  : पुं० [हिं० लुढ़कना] [स्त्री० अल्पा० लढ़िया] बैलगाड़ी।
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लढ़िया  : स्त्री० [हिं० लुढ़ना, लुढकाना] बैलगाड़ी।
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लढ़िया  : पुं० [देश] वह दलाल जो दुकानदार से मिला रहता है। और ग्राहकों को धोखा देकर उसका माल बिकवाता हो।
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लढ़ियापन  : पुं० [हिं० लढ़िया+पन (प्रत्यय)] १. लढ़िया होने की अवस्था या भाव। २. चालाकी। धूर्त्तता।
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लत  : स्त्री० [अ० इल्लत] बुरी टेक। क्रि० प्र०—पडना।—लगना। स्त्री० [हिं० लात०] ‘लात’ का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौ० के आरम्भ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—लतखोर, लत-मर्दन। स्त्री० =लता।
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लत-खोर  : वि० [हिं० लात+फा० खोर खानेवाला] (व्यक्ति) जो प्रायः लात खाता अर्थात् घुड़की-झिड़की आदि सुनते रहने का अभ्यस्त हो गया हो। जो निर्लज्ज बना रहकर बुरी आदतें न छोड़ता हो या ठीक तरह से काम न करता हो। पुं० =लत-खोरा।
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लत-खोरा  : पुं० [हिं० लत+फा० ख़ोर=खानेवाला] [स्त्री० लतखोरिन] दरवाजे पर खड़ा हुआ पैर पोंछने का कपड़ा या पायदाज। पावदान। वि० =लतखोर।
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लत-मर्दन  : स्त्री० [हिं० लात+सं० मर्दन] १. पैरों से कुचलने या रौंदने की क्रिया या भाव। २. लातों से किसी को मारने की क्रिया या भाव।
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लतड़ी  : स्त्री० =लतरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लतपत  : वि० =लथपथ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लतर  : स्त्री० [सं० लत] १. लता। बेल। २. चित्रकला में लता की आकृति या अंकन।
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लतरा  : पुं० [देश] एक प्रकार का मोटा अन्न। बरबरा। रेवँछ।
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लंतरानी  : स्त्री० [अ०] शेखी में आकर कही जानेवाली लंबी-चौड़ी तथा आत्म-प्रशंसा सूचक बात।
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लतरी  : स्त्री० [हिं० लतर] एक प्रकार की घास या पौधा जो खेतों में मटर के साथ बोया जाता है। इसी के बीज खेसारी कहलाते हैं, जो गरीब लोग खाते हैं। स्त्री० [हिं० लात] १. पुरानी चाल की एक तरह की हलकी जूती। २. फटा-पुराना जूता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लतहा  : वि० [हिं० लात+हा (प्रत्यय)] [स्त्री० लतही] (पशु) जो लात मारता हो। जैसे—लतहा घोड़ा।
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लता  : स्त्री० [सं०√लत् (लपेटना)+अच्+टाप्] १. ऐसे विशिष्ट प्रकार के पौधे की संज्ञा जिनके कांड और शाखाएं पतली नरम तथा लचीली होती हैं तथा जो किसी आधार के सहारे खड़ी होती हैं, और आधार के अभाव में जमीन पर फैल जाती हैं। जैसे—अंगूर की लता। २. कोमल कांड या शाखा। जैसे—पद्यलता। ३. सुंदरी स्त्री।
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लता-कर  : पुं० [मध्य० स०] नाचने में हाथ हिलाने का एक प्रकार।
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लता-करंज  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का करंज या कंजा। कंट-करेज।
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लता-कस्तूरी  : स्त्री० [मध्य० स०] दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का पौधा जिसके अंगों का उपयोग वैद्यक में होता है।
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लता-कुँज  : पुं० [ष० त०] लताओं से छाया हुआ स्थान।
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लता-गृह  : पुं० [मध्य० स०] लता-कुंज। (दे०)
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लता-जाल  : पुं० [ष० त०] बहुत-सी लताओं के योग से बना हुआ जाल या उसके नीचे का छायादार स्थान।
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लता-जिह्न  : पुं० [ब० स०] सर्प। साँप।
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लता-तरु  : पुं० [उपमित स०] १. नारंगी का पेड़। २. ताड़ का पेड़। ३. शाल वृक्ष। साखू।
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लता-पता  : पुं० [सं० लतापत्र] १. लता और पत्ते। पेड़-पत्ते। पेड़ों और पौधों का समूह। २. पौधों, वनस्पतियों आदि की हरियाली। ३. जड़ी-बूटी। ४. निकम्मी और रद्दी चीजें।
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लता-पनस  : पुं० [ब० स०] तरबूज।
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लता-पाश  : पुं० =लता-जाल।
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लता-फल  : पुं० [सं० ब० स०] पटोल। परवल।
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लता-बंध  : पुं० [ब० स०] कामशास्त्र में संयोग का एक आसन। बंध या मुद्रा।
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लता-भवन  : पुं० =लता-कुंज।
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लता-मंडप  : पुं० [मध्य० स०] छाई हुई लताओं से बना हुआ मंडप या छायादार स्थान।
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लता-मणि  : पुं० [उपमित स०] प्रवाल। मूँगा।
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लता-यष्टि  : स्त्री० [उपमित स०] मंजिष्ठा। मंजीठ।
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लता-वृक्ष  : पुं० [उपमित स०] सलई का पेड़। शल्लकी।
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लता-वेष्ट  : पुं० [लता-आवेष्ट, ब० स०] १. काम शास्त्र में एक प्रकार का रति-बंध या आसन। २. पुराणानुसार द्वारकापुरी के पास का एक पर्वत। वि० लताओं से घिरा हुआ।
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लता-साधन  : पुं० [तृ० त०] तंत्र या वाम मार्ग में एक प्रकार की साधना जिसमें प्रधान अधिकरण लता अर्थात् स्त्री होती है।
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लतांगी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. कर्कटश्रृंगी। काकड़ासींगी। २. संगीत में कर्णाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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लताड़  : स्त्री० [हिं० लताड़ना] १. लताड़ने की क्रिया या भाव। २. कठिनता। दिक्कत। ३. परेशानी। हैरानी। ४. दे० ‘लाथड़’।
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लताड़ना  : स० [हिं० लात] १. लातों या पैरों से कुचलना। रौंदना। २. लातों से मारना। ३. किसी लेटे हुए व्यक्ति के विशिष्ट अंगों पर खड़े होकर धीरे-धीरे इस प्रकार चलना कि उसकी पीड़ा या थकावट दूर हो जाय और उसे आराम मिले। ४. तंग या परेशान करना।
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लतापर्णी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] १. तालमूल। २. मधूरिका। मेवड़ी।
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लताफ़त  : स्त्री० [अ०] १. लतीफ होने की अवस्था या भाव। सूक्ष्मता। २. कोमलता। ३. उत्तमता। ४. स्वादिष्टता।
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लतार्क  : पुं० [लता-अर्क, ब० स०] प्याज का पौधा।
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लतिका  : स्त्री० [सं० लता+कन्+टाप्, इत्व] छोटी लता। बेल।
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लतियर  : वि० =लतियल (लतखोर)।
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लतियल  : वि० [हिं० लात+इयल (प्रत्यय)] १. जो लतियाया जाता हो अथवा जो बिना लतियाये जाने से सीधे रास्ते पर न चलता हो। २. जिसे लात खाने अर्थात् घुड़की झिड़की सुनने और मार खाने की आदत पड़ गई हो।
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लतियाना  : स० [हिं० लात+आना (प्रत्यय)] १. पैरों से दबाना या रौंदना। २. लातों से मारना। स० [हिं० लत्ती] लत्ती या डोरी से लट्टू को लपेटना। उदाहरण—लतियावहु जे तौ लट्टन लौं तेतहिं गाजै।—रत्न०।
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लतिहर (हल)  : वि० =लतियल।
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लतीफ़  : वि० [अ०]१. जायकेदार। स्वादिष्ट। २. मजेदार। रसमय। ३. कोमल। मुलायम। ४. सुपाच्य (भोजन) ५. उत्तम। बढ़िया।
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लतीफ़ा  : पुं० [अ० लतीफः] १. हास्यपूर्ण छोटी कहानी। चुटकुला। २. हंसी की अनोखी या विलक्षण बात।
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लत्त  : स्त्री० =लता।
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लत्ता  : पुं० [सं० लत्तक] १. फटा-पुराना कपड़ा। चीथड़ा। २. कपड़े का टुकड़ा। पद—कपड़ा-लत्ता। मुहावरा—लत्ता (या लत्ते) लेना=किसी की हँसी उड़ाते हुए उसे बहुत ही उपेक्ष्य सिद्ध करना। स्त्री० =लता।
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लत्तिका  : स्त्री० [सं०√लत् (आघात)+क्विन्+कन्+टाप्] गोधा। गोह (जन्तु)।
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लत्ती  : स्त्री० [हिं० लात] पशुओं द्वारा लात से किया जानेवाला आघात। स्त्री० [हिं० लत्ता] १. कपड़े की लम्बी धज्जी। २. गुड्डी या पतंग के नीचेवाले कोने में बाँधी जानेवाली कपड़े की धज्जी। ३. सूत की वह डोरी जो लट्टू नचाने के लिए उस पर लपेटी जाती है। ४. बांस में बँधी हुई कपड़े की धज्जी जिसे ऊँचा करके कबूतर उड़ाते हैं।
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लथ-पथ  : वि० [अनु०] १. जो किसी तरल पदार्थ से बहुत अधिक भींग या तर हो गया हो। जैसे—खून से लथपथ, पसीने से लथपथ २. कीचड़, धूल, मि्ट्टी आदि से सना हुआ।
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लथाड़  : स्त्री० [हिं० लथाड़ना] १. लथाड़ना की क्रिया या भाव। २. जमीन पर घसीटने की क्रिया। ३. गहरी डाँट-फटकार। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—पड़ना। ४. बुरी तरह से होनेवाली हार। क्रि० प्र०—पड़ना। ५. बहुत बड़ी हानि।
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लथाड़ना  : स०=लथेड़ना। स०=लताड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लथेड़ना  : स० [देश] १. अच्छे तथा साफ सुथरे कपड़ों को धूल-मिट्टी में लेट अथवा खेल-कूद कर बहुत अधिक गंदा करना। २. किसी को इस प्रकार घसीटना कि उस पर धूल-मिट्टी लिबड़ जाय। ३, कुश्ती, लड़ाई आदि में जमीन पर गिरा या पटककर दुर्दशा करना। ४. बहुत बुरी तरह से दिक, तंग या परेशान करना। ५. घुड़की, झिड़की आदि देकर अपमानित करना। भर्त्सना करना। संयो० क्रि०—डालना।
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लद-लद  : अव्य० [अनु०] किसी भारी चीज के गिरने के संबंध में, लद लद शब्द करते हुए। जैसे—आँधी में बहुत से पेड़ों के फल लद-लद गिर गये।
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लदन  : स्त्री० [हिं० लदना] लदने की क्रिया या भाव। लदान।
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लदना  : अ० [हिं० लादना का अ०] [भाव० लदान] १. लादा या भार से युक्त किया जाना। बोझ से युक्त होना। २. भारी चीजों का यान या सवारी पर रखा जाना। जैसे—गाड़ी, नाव या बैल पर सामान लादना। ३. किसी चीज या कई तरह की चीजों के भार से युक्त होना। जैसे—ऋण से लदना, गहनों से लदना, बैलगाड़ी का लदना, फलों से लदना। ४. किसी भारी या वजनी चीज का दूसरी चीज के ऊपर होना या रखा जाना। किसी वस्तु के ऊपर बोझ के रूप में पड़ना या रखा जाना। जैसे—उसकी पीठ पर दो बच्चे भी लदे हुए थे। ५. सजा पाकर कैद भोगने के लिए जेल-खाने जाना। जैसे—दोनों चोर साल-साल भर के लिए लद गए। ६. गत या मृत होना। पर-लोक सिधारना। (उपेक्षा सूचक और बाजारू) जैसे—चलो आज वह भी लद गये। संयो० क्रि०—जाना।
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लदनी  : स्त्री० =लदान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंदराज  : पुं० [?] एक तरह का मोटी चादर।
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लदवाना  : स० [हिं० लादना का प्रे०] किसी को लादने में प्रवृत्त करना। लादने का काम दूसरे से कराना।
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लदा-फँसा  : वि० [हिं० लदना+फँदना] बोझ से भरा या लदा और जगह-जगह से फँसा या बँधा हुआ।
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लदाई  : स्त्री० [हिं० लादना] लादने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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लदाऊ  : वि० [हिं० लादना] लदानेवाला। वि० =लद्द। पुं० =लदाव।
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लदान  : स्त्री० [हिं० लादना] १. लादे जाने की क्रिया या भाव। (लोडिग) २. एक बार में लादा या लाद कर ले जाया जानेवाला। सामान।
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लदाना  : स० [हिं० लादना का प्रे०] लादने का काम दूसरे से कराना। पुं० एक पर एक चीजें लादकर लगाया हुआ ढेर। क्रि० प्र०—लादना।
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लदाव  : पुं० [हिं० लादना] १. लादने की क्रिया या भाव। २. लादा हुआ बोझा या भार। ३. छत पाटने का वह प्रकार जिसमें कड़ियाँ या धरनें नहीं लगती, केवल ईंट या पत्थर एक दूसरे पर टेढ़े तिरछे लादकर मेहरबान के आकार की पाठन की जाती है। कड़े की पाटन। जैसे—इस मकबरे की छत लदाव की है।
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लदुआ  : वि० =लद्दू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लद्दू  : वि० [हिं० लादना] १. जिस पर केवल बोझ लादा जाता हो। लदा हुआ। भार ढोनेवाला। २. जो सवारी नहीं, बल्कि बोझ ढोता हो। जैसे—लद्दू घोड़ा, ०लद्दू बैल, लद्दू नाव।
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लद्धड़  : वि० [हिं० लदना=भारी होना] [भाव० लद्धड़पन] १. भारी भरकम होने के कारण जिसमें तेजी या फुरती न हो। जैसे—लद्धड़ आदमी, लद्धड़ घोड़ा। २. आलसी निकम्मा और सुस्त। जैसे—लद्धड़ नौकर।
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लद्धड़पन  : पुं० [हिं० लद्धड़+पन (प्रत्यय)] लद्धड़ होने की अवस्था या भाव।
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लद्धना  : स० [सं० लब्ध, प्रा० लद्ध=प्राप्त] प्राप्त होना। मिलना।
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लध्वासी (शिन्)  : वि० [सं० लघु√अश् (खाना)+णिनि, उप० स०] कम खानेवाला। अल्पाहारी।
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लध्वी  : स्त्री० [सं० लघु+ङीष्] १. बेर नामक फल। २. असबरग। स्पृक्का। स्त्री० =लघु-शंका। (महाराष्ट्र) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लनतरानी  : स्त्री० =लंतरानी (डींग)।
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लना  : पुं० [देश] १. एक प्रकार का पेड़ जिससे पंजाब में सज्जी निकाली जाती है। इसका एक भेद ‘गोरालना’ है। २. शीरा।
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लनी  : स्त्री० [देश] १. पान की बारी में की क्यारी। २. दे० ‘लना’।
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लंप  : पुं० [अं० लैम्प] पाश्चात्य ढंग का विशेष प्रकार का दीपक जिसमें प्रकाश बढ़ाने और फैलाने के लिए प्रायः शीशे की चिमनी लगी रहती है।
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लप  : स्त्री० [अनु] १. लपने अर्थात् लटकने की क्रिया या भाव। २. पदार्थों का वह गुण या स्थिति जिसमें वे बीच से लपते या लचककर झुकते हैं। क्रि० प्र०—खाना। ३. किसी चमकीली चीज के लपने के कारण रह-रहकर उत्पन्न होनेवाली चमक। मुहावरा—लप मारना=उक्त प्रकार की स्थिति में आने के कारण चमकना। लप-लप करना= (क) रह-रहकर बीच में लपना या लचकाना। (ख) रह-रहकर चमक उत्पन्न करना। जैसे—कटार, तलवार या हीरे का लप लप करना। पुं० [देश] १. दोनों हथेलियों को मिलाकर बनाया हुआ संपुट जिसमें कोई वस्तु रखी जा सके। अंजुलि। २. उतनी वस्तु जितनी उक्त संपुट में आती हो। जैसे—एक लप आटा। पुं० [दे] एक प्रकार की घास जिसे सुरारी भी कहते हैं।
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लपक  : स्त्री० [हिं० लपकना] लपकने या लचककर चलने की क्रिया या भाव। स्त्री० [अनु० लप से] चमक। दीप्ति। जैसे—गहनों या रत्नों की लपक, बिजली की लपक। स्त्री० =लपट (आग की)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लपकना  : अ० [हिं० लपक] १. सहसा बहुत जल्दी तेजी या फुरती से आगे बढ़ना। जैसे—(क) चोर को पकड़ने के लिए लोगों का लपकना। (ख) कोई चीज पाने या लेने के लिए किसी का हाथ लपकना। २. जल्दी-जल्दी पैर उठाते हुए तेजी से आगे बढ़ना या चलना। जैसे—सब लोग लपके हुए मेले की तरफ जा रहे थे। पद—लपककर=(क) बहुत तेजी या फुरती से। (ख) जल्दी-जल्दी आगे बढ़कर। जैसे—बाज ने लपक कर चिडि़या को पकड़ लिया। स०फुरती से आगे बढ़कर कोई चीज उठा या ले लेना। जैसे—उसने ऊपर ही ऊपर अँगूठी लपक ली।
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लपकपन  : पुं० [हिं० लपकना +पन (प्रत्यय)] लपककर कुछ उठा लेने या किसी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करने की मनोवृत्ति।
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लपका  : पुं० [हिं० लपकना] १. लपकने की क्रिया या भाव। २. वह जिसे लपककर चीजें उठा लेने का अभ्यास और आदत हो। उचक्का। ३. आवारा और लुच्चा आदमी। ४. किसी तरह की बुरी, आदत टेव या बान। चस्का। लत। क्रि० प्र०—पड़ना।—लगना।
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लपकाना  : स० [हिं० लपकाना का स०] किसी को लपकने अर्थात् फुरती से आगे बढ़ने में प्रवृत्त करना। जैसे—(क) किसी को पकड़ने के लिए आदमी लपकाना। (ख) कोई चीज उठाने के लिए हाथ लपकाना।
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लपकी  : स्त्री० [हिं० लपकाना] १. लपकाने की क्रिया या भाव। २. एक प्रकार की सीधी सिलाई।
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लपकेबाजी  : स्त्री० =लपकपन।
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लपझप  : वि० [अनु० लप+हिं० झपट] १. स्थिर न रहनेवाला। चंचल। चपल। २. अधीर और उतावला। ३. तेज। फुरतीला। ४. बेढंगा और भद्दा। जैसे—लप-झप चाल अव्य० बहुत जल्दी या तेजी से। २. बेढंगी और भद्दी तरह से। स्त्री० ऐसी चंचलतापूर्ण या चपल स्थिति या स्वभाव जिसमें आवश्यक या उचित से अधिक चालाकी या तेजी हो। लपकपन।
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लंपट  : वि० [सं०√रम् (क्रीड़ा)+अटन्=पुक्, रस्य, लः] जो कामुक होने के कारण जगह-जगह व्यभिचार करता फिरता हो। पुं० स्त्री का उपपति। यार।
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लपट  : स्त्री० [सं० लोक, हिं० लौ+पट=विस्तार] तेज आग जलने पर उसमें से निकलकर ऊपर उठनेवाली जलती हुई वायु की लहर। आग की लौ। अग्नि लिखा। क्रि० प्र०—उठना।—निकलना। २. तपी हुई या लू का रह-रहकर आनेवाला झोंका। जैसे—जेठ में दोपहर को आग की लपटें लगती हैं। क्रि० प्र०—आना।—लगना। ३. किसी प्रकार की गंध से भरा हुआ वायु का झोंका। जैसे—क्या अच्छी गुलाब की लपट आ रही है। स्त्री० =लिपट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंपटता  : स्त्री० [सं० लंपट+तल्+टाप्] लंपट होने की अवस्था या भाव। दुराचार। कुकर्म।
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लपटना  : अ०=लिपटना।
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लपटा  : पुं० [हिं० लपसी] १. गाढ़ी गीली वस्तु। २. कड़ी। ३. लपसी। ४. लेई। ५. थोडा बहुत लगाव या संबंध।
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लपटाना  : स०=लिपटाना। अ, ०=लिपटाना। स०=लपेटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लपटीला  : वि० [हिं० लपटना] [स्त्री० लपटीली] रह-रहकर लपटनेवाला। वि० =रपटीला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लपटौआँ  : पुं० [हिं० लपटना] एक प्रकार की घास जिसके बाल कपड़ों में लिपटकर फँस जाते हैं।
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लपन  : पुं० [सं०√लह् (कहदा)+ल्युट—अन] १. मुख। मुँह। २. कहना या बोलना। भाषण। स्त्री० [हिं० लपना] लपने की क्रिया या भाव। लप।
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लपना  : अ० [अनु० लप-लप] १. बेंत या लचीली छड़ी का एक छोर पकड़कर जोर से हिलाये जाने से इधर-उधर झुकना। झोंक के साथ इधर-उधर लचना। २. झुकना या लचना। संयो० क्रि०—जाना। ३. हैरान होना। मुहावरा—लपना-झपना=परेशान होना। अ०=लपकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लपलपाना  : अ० [अनु० लप झप] लप लप शब्द करना। अ० [हिं० लपना] १. किसी लचीली चीज के हिलने या हिलाये जाने पर उसके किसी अंग या अंश का बीच से थोड़ा झुकना। बार-बार या रह-रहकर लचकना या लचना। जैसे—छड़ी तलवार या बेंत का लपलपाना। २. किसी लंबी कीमत वस्तु का इधर-उधर हिलना डुलना या किसी वस्तु के अन्दर से बार-बार निकलना। जैसे—साँप की जीभ का लपलपाना। मुहावरा—(किसी की) जीभ लपल-पाना=कुछ कहने, खाने आदि की प्रबल उत्सुकता या प्रवृत्ति होना। बहुत अधिक लिप्सा या लोभ होना। स० किसी लचीली चीज को पकड़कर इस प्रकार हिलाना कि कुछ चमक निकले। जैसे—(क) भाँजने के समय तलवार लपलपाना। (ख) किसी को मारने से पहले बेंत लपलपाना। (ग) साँप का अपनी जीभ लपलपाना।
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लपलपाहट  : स्त्री० [हिं० लपलपाना+आहट (प्रत्यय)] १. लपलपाने की क्रिया या भाव। लचीली छड़ी या टहनी आदि का झोंक के साथ इधर-उधर लपकना। २. उक्त प्रकार की क्रिया के कारण उत्पन्न होनेवाली चमक। जैसे—तलवार की लपलपाहट से आँखें चौंधियाना।
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लपसी  : स्त्री० [सं० लप्सिका] १. एक प्रकार का पतला हलुआ। २. उक्त प्रकार का वह रूप जिसमें चीनी के घोल के स्थान पर नमक का घोल मिलाया गया हो। ३. कोई गाढ़ा तरल पदार्थ।
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लपहा  : पुं० [देश] पान की बेल में लगनेवाली गेरुई (रोग)।
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लंपाक  : पुं० [सं०] १. लंपट। दुराचारी। २. पुराणानुसार उत्तर पश्चिमी भारत के मुरंड देश का एक नाम।
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लपाना  : सं० [अनु० लपलप] १. किसी चीज को लपने में प्रवृत्त करना। २. लचीली छड़ी आदि को झोंक के साथ इधर-उधर लचाना। ३. आगे की ओर बढ़ाना या सरकाना।
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लपित  : भू० कृ० [सं०√लप् (कहना)+क्त] कहा या बोला हुआ। उक्त। कथित।
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लपेट  : स्त्री० [हिं० लपेटना] १. लपेटने की क्रिया या भाव। २. लपेटे हुए होने की अवस्था या भाव। ३. लपेटनेवाली चीज का हर बार का फेरा या बन्धन। ४. वह चिन्ह या निशान जो लपेटी हुई चीज के उस अंश पर पड़ता है, जहाँ से वह किसी ओर मुड़ती है। तह या परत में सिरे पर पड़नेवाला मोड़ या उसका निशान। ५. ऐंठन। बल। मरोड़। ५. किसी मोटी लंबी वस्तु की मोटाई के चारों ओर का विस्तार। घेरा। परिधि। जैसे—इस खम्भे की लपेट ३. फुट है। ६. किसी प्रकार की उलझन, घुमाव-फिराव या चक्कर की ऐसी स्थिति जिसमें कुछ या कोई आकर उलझता या फँसता हो। जैसे—(क) वह भी इस मुकदमें की लपेट में आ गए हैं (ख) उनकी बातों की लपेट में मत आना। पद—लपेट-झपेट। ७. कुश्ती का एक पेंच।
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लपेट-झपेट  : स्त्री० [हिं० लपेटना-झपेटना] ऐसी स्थिति जिसके फल-स्वरूप कोई आकर उलझता या फँसता हो और उस पर किसी प्रकार का आघात होता हो। जैसे—उत्पात (या उपद्रव) की लपेट-झपेट में बहुत से लोग आ गए थे।
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लपेटन  : स्त्री० [हिं० लपेटना] १. लपेटने की क्रिया या भाव। लपेट। २. लपेटने के फल-स्वरूप पड़नेवाला फेरा या बल। ३. उलझन। ४. ऐंठन। पुं० १. वह वस्तु जिसे किसी वस्तु के चारों ओर घुमा या लपेटकर बाँधते हैं। २. बेठन। ३. पैरों में उलझनेवाली चीज (पालकी के कहार) ४. जुलाहों का तूर या बेलन नामक उपकरण।
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लपेटना  : स० [सं० लिप्त] १. कोई पतली और लंबी चीज किसी दूसरी चीज के चारों ओर घुमाकर इस प्रकार बाँधना कि उस दूसरी चीज का कुछ या सारा तल ढक जाय। वेष्टित करना। जैसे—(क) खंभे पर कपड़ा लपेटना। (ख) बाँस पर डोरी या रस्सी लपेटना। २. मोड़े हुए कपड़े, कागज आदि के अन्दर करके बंद करना। कपड़े आदि के अन्दर बाँधना। जैसे—पुस्तक लपेटकर रख दो। ३. डोरी, सूत या कपड़े की सी फैली हुई वस्तु को तह पर तह मोड़ते या घुमाते हुए संकुचित करना। समेटना। जैसे—तागा लपेटकर उसकी गोली या लच्छी बनाना। ४. किसी को चारों ओर से घेरकर इस प्रकार कसना या जकड़ना कि वह कुछ कर न सके या बेदम हो जाय। जैसे—उसे ऐसा लपेटो कि वह भी याद करे। ५. अच्छी तरह पकड़ या बाँधकर अपने वश में करना। ६. उलझन, झंझट या बखेड़े में डालना या फँसाना। जैसे—उसने इस मामले में कई आदमियों को लपेटा है। ७. किसी तल पर कोई चीज पोतना या लगाना। जैसे—सारे शरीर में कीचड़ या भभूत लपेटना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना।
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लपेटनी  : स्त्री० [हिं० लपेटना] जुलाहों की लपेटन नाम की लकड़ी। लपेटना। तूर।
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लपेटवाँ  : वि० [हिं० लपेटना] १. जो लपेटा गया हो या लपेटकर बनाया गया हो। २. जो लपेटा जा सकता हो। ३. जिसके अन्दर कुछ लपेटा गया हो। ४. जिसमें बहुत कुछ घुमाव-फिराव या लपेट हो। चक्करदार। जैसे—लपेटवीं बात-चीत।
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लपेटा  : पुं० =लपेट।
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लपेटुआँ  : वि० =लपेटवाँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लपेत  : पुं० [सं] बाल रोगों के अधिष्ठाता एक देवता। (पारस्कर गृह्य सूत्र)।
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लप्पड़  : पुं० =थप्पड़।
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लप्पा  : पुं० [देश] १. छत में लटकती हुई वह लकड़ी जिसमें करघे की बहुत सी रस्सियाँ बाँधी जाती है २. एक प्रकार का गोटा। (जरी का)। पुं० =लप।
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लप्सिका  : स्त्री० [सं] लपसी।
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लफंगा  : वि० [फा० लफ़ंग] १. लंपट। व्यभिचारी। २. बहुत बड़ा चरित्रहीन या दुश्चरित्र। परम कुमार्गी और तुच्छ या हीन। ३. बहुत बड़ा बदमाश या लुच्चा। शोहदा।
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लफटेंट  : पुं० [अं० लेफ्टिनेंट] १. सेना का एक छोटा अफसर। २. किसी का अधीनस्थ कर्मचारी या कार्यकर्ता।
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लफना  : अ०=लपना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लफ्ज़  : पुं० [अ० लफ़्ज] भाषा में प्रयुक्त होनेवाला सार्थक शब्द।
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लफ्जी  : वि० [अ० लफ्ज़ी] लफ्ज या शब्द से संबंध रखनेवाला। शाब्दिक। जैसे—लफ्जी माने=शब्दार्थ।
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लफ्फाज  : वि० [अ० लफ़्फ़ाज] १. खूब लच्छेदार बातें करनेवाला। बातूनी। २. बहुत बढ़-बढ़कर बातें बनाने या डींग हाँकनेवाला।
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लफ़्फ़ाज़ी  : स्त्री० [अ] १. लफ्फाज होने की अवस्था या भाव। वाचालता। २. बात-चीत में होनेवाला आडंबरपूर्ण शब्दावली का प्रयोग।
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लंब  : वि० [सं०√लंब् (लटकना आदि)+अच्] १. जो किसी तल से किसी ओर इस प्रकार सीधा गया हो कि उसके दो समकोण बनते हों। (पर्पेन्डिकुलर) २. नीचे की ओर झूलता या लटकता हुआ। पुं० १. किसी रेखा पर खड़ी और सीधी गिरनेवाली रेखा। २. कोई लंबी और बिलकुल सीधी रेखा। ३. ज्योतिष में ग्रहों को एक गति। ४. एक राक्षस जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था। इसी को ‘प्रलंबासुर’ भी कहते हैं। ५. नाचनेवाला। नर्तक। ६. एक प्राचीन मुनि। ७. स्त्री का पति। स्वामी। ८. शुद्ध राग का एक भेद। ९. अंग। अवयव। १॰. विलम्ब। देर। वि० =लंबा।
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लब  : पुं० [फा] १. ओष्ठ। ओंठ। होंठ। २. होंठ पर की थूक। जैसे—लब लगाकर लिफाफा बन्द करना अच्छा नहीं। ३. जलाशय आदि का किनारा या तट। ४. बरतन आदि में ऊपरवाले सिरे का घेरा। पद—लबालब। ५. किसी चीज का किनारा या सिरा। जैसे—लबे सड़क=सड़क के ठीक किनारे पर।
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लंब-कर्ण  : वि० [सं० ब० स०] लंबे कानोंवाला। जिसके कान लंबे हों। पुं० १. बकरा। २. हाथी। ३. राक्षस। ४. बाज नामक पक्षी। ५. गधा। ६. खरगोश। ७. अंकोल वृक्ष।
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लंब-तड़ंग  : वि० [सं० लंब-ताड़-अंग] १. ताड़ के समान लंबा। बहुत लंबा। २. विशालकाय और हृष्ट-पुष्ट।
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लंब-पयोधरा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] कार्तिकेय की एक मातृका।
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लब-लहका  : वि० [हिं० लपना+लहकना] [स्त्री० लबलहकी] १. किसी वस्तु को देखते ही उसकी ओर लपकनेवाला। अधीर और लालची। २. अकारण और व्यर्थ हर चीज इधर-उधर करनेवाला।
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लब-लहजा  : पुं० [फा० लब+लहज़ः] उच्चारण करने या बोलने का ढंग।
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लंबक  : पुं० [सं०√लंब+कन्] १. किसी पुस्तक का अध्याय या परिच्छेद। २. मुँह में होनेवाला एक प्रकार का रोग। ३. फलित ज्योतिष में, एक प्रकार के योग जिनकी संख्या १५ कही गई है।
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लबझना  : अ०=उलझना।
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लबड़-धोंधों  : स्त्री० [हिं० लबाड़+धूम] १. झूठ-मूठ का हलका। व्यर्थ का गुल-गपाड़ा। २. वास्तविक बात को दबाकर झूठ-मूठ इधर-उधर की की जानेवाली बातें। बड़ी-बड़ी बातें बनाकर असल काम या बात टालना। क्रि० प्र०—मचाना। ३. उक्त प्रकार की बातें करनेवाला व्यक्ति। (पश्चिम) ४. कुव्यवस्था। ५. अन्याय। अंधेर।
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लबड़ना  : अ० [हिं० लबाड़] १. झूठ बोलना। लबाड़ी करना। २. गप हाँकना। अ० स०=लिबड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लबदा  : पुं० =लबेदा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंबन  : पुं० [सं०√लंब्+ल्युट—अन] १. लंबा करने की क्रिया या भाव। २. लटकने या झूलने की क्रिया या भाव। ३. किसी काम या बात को टालते हुए दूर करना या हटाना। ४. गले में पहनने का ऐसा हार जो नाभि तक लटकता हो। ५. अवलंब। आश्रय। सहारा। ६. कफ। बलगम।
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लबनी  : स्त्री० [देश] १. वह हाँड़ी जिसमें ताड़ के पेड़ का रस चुआया जाता है। ताड़ी चुआने की हाँड़ी। २. बड़ी डोई।
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लंबमान  : वि० [सं०√लंब्+शानच्] दूर तक गया या फैला हुआ। लंबाई में या सीधे बल।
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लंबर  : पुं० =नंबर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंबरदार  : पुं० =नंबरदार।
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लबरा  : वि० [स्त्री० लबरी] झूठ बोलनेवाला।
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लबलबी  : स्त्री० =लिबलिबी।
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लंबा  : वि० [सं० लंब] [स्त्री० लंबी, भाव० लंबाई] १. (पदार्थ) जिसका एक सिरा उसके दूसरे सिर से अधिक दूरी पर हो। जिसके दोनों सिरों के बीच का विस्तार बहुत हो। ‘चौड़ा’ का विपर्याय। जैसे—लंबा कपडा लंबे बाल, लंबी लाठी। पद—लंबा-चौड़ा= (क) जिसका आयतन और विस्तार दोनों बहुत अधिक हों। जैसे—लंबा-चौड़ा मैदान। (ख) अनावश्यक और असाधारण रूप से व्यर्थ बढ़ाया हुआ। जैसे—लंबी-चौड़ी बातें करना। २. जो ऊपर की ओर दूर तक उठा हो। अपेक्षया अधिक ऊँचाईवाला। जैसे—लंबा आदमी, लंबा पेड़, लंबा बाँस आदि। ३. बीचवाले अवकाश, काल आदि के विचार से जो नाप या मान में अधिक हो। जो कम या थोडा न हो। जैसे—लंबी अवधि, लंबा सफर, लंबा स्वर। मुहावरा—(किसी को) लंबा करना= (क) पीछा छुड़ाने के लिए किसी को चलता करना या दूर हटाना। धता बताना। जैसे—जब वह बहुत गिड़गिड़ाने लगा, तब मैने उसे एक रूपया देकर लंबा किया। (ख) इतना मारना पीटना कि आदमी बेसुध होकर जमीन पर गिर पड़े। लंबा साँस लेना=बहुत अधिक दुःखी या निराश होने पर दीर्घ निःश्वास लेना। ठंढ़ी साँस लेना। लंबा या लंबे होना=पीछा छुड़ाने या जान बचाने के लिए कही से चल देना। खिसक या हट जाना। जैसे—आप तो एक बात कहकर लंबे हुए, और वह मेरी जान खाने लगा। ४. आयतन, या विस्तार के विचार से किसी निश्चित मान का। जैसे—गज भर लंबा साँप, दस हाथ लंबी रस्सी। ५. जिसका विस्तार किसी नियत या साधारण मान से अधिक हो। जैसे—लंबी कहानी, लंबा खर्च, लंबा वादा। ६. जो किसी बात में अपने पूरे विस्तार तक आगे बढ़ा या खिंचा हुआ हो। जैसे—हाथ लंबा करो तो देखें कि कहाँ चोट लगी है। मुहावरा—लंबी तानना=लंबाई के बल सीधे लेटकर, खूब पैर फैलाकर और चादर आदि ओढकर या ऊपर तानकर निश्चित भाव से सोना।
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लंबा-हाथ  : पुं० [हिं०] १. ऐसा हाथ या उसकी अंगी व्यक्ति जिसकी पहुँच या प्रभाव बहुत दूर तक हो। २. ऐसी चाल या दाँव जिसमें बहुत अधिक प्राप्ति या स्वार्थ-सिद्धि हुई या होती हो। जैसे—इस बार तो तुमने लंबा हाथ मारा। क्रि० वि०—मारना।
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लंबाई  : स्त्री० [हिं० लंबा] १. लंबा होने की अवस्था या भाव। लंबा-पन। २. किसी वस्तु का सबसे बड़ा आयाम या पक्ष (चौड़ाई और मोटाई से भिन्न)।
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लबाड  : वि० [सं० लपन=बकना] १. झूठा। मिथ्यावादी। २. गप्पी।
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लबाड़िया  : वि० =लबाड़।
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लबाड़ी  : स्त्री० [हिं० लबाड़] १. व्यर्थ की कही जानेवाली झूठी बातें। २. गप। वि० =लबाड़।
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लबादा  : पुं० [फा० लबादः] १. रूईदार चोगा। दगला। २. अँगरखै की तरह का एक प्रकार का भारी और लंबा पहनावा। अवा। चोंगा।
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लंबान  : स्त्री० =लंबाई।
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लंबाना  : स० अ० [हिं० लंबा] लंबा करना। लंबा होना।
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लबाब  : वि० [अ०] खालिस। बेमेल। शुद्ध। पुं० १. सारभाग। सारांश। २. गूदा। मगज।
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लंबायमान  : वि० [सं० लंबमान] १. लंबा किया हुआ। २. लंबाई के बल लेटा हुआ।
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लबार  : वि० =लबाड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लबारी  : स्त्री० =लबाड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लबालब  : वि० [फा] लब अर्थात् किनारे या किनारों तक भरा हुआ। जैसे—लबालब भरा हुआ तालाब।
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लबासी  : वि० =लबाड़। स्त्री० =लबाड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लंबिका  : स्त्री० [सं०√लंब्+ण्वुल-अक+टाप्] गले के अन्दर की घंटी। कौआ।
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लंबित  : भू० कृ० [सं०√लंब+क्त] १. लंबा किया हुआ। २. निश्चय, विचार आदि के लिए कुछ समय तक रोका या टाला हुआ। स्थगित किया हुआ। पेन्डिंग। ३. लटकता हुआ। ४. लंब के रूप में आया हुआ। ५. आधारित। पुं० गोश्त। मांस।
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लंबी  : वि० हिं० लंबा का स्त्री० रूप। मुहा० दे० ‘लंबा’ के अन्तर्गत।
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लबी  : स्त्री० =राब (गुड़ या शीरा)।
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लंबुक  : पुं० [सं०] लंबक (योग)।
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लंबू  : वि० [हिं० लंबा] जो आकार में अपेक्षया अधिक ऊँचा हो (परिहास और व्यंग्य)। पुं० [?] चिता पर रखे हुए मृत शरीर को जलाने के लिए उसमें आग लगाना। मृत का दाहकर्म। क्रि० प्र०—देना।
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लंबूषा  : स्त्री० [सं०] सात लड़ियोंवाला हार।
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लबेद  : पुं० [सं० वेद का अनु०] १. ऐसी बात जो वेद शास्त्रों से सम्मत न हो, बल्कि उनके विरुद्ध भले ही हो। २. फालतू और व्यर्थ की बात। वि० वेद विरुद्ध बातें कहनेवाला।
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लबेदा  : पुं० [सं० लबेद] [स्त्री० अल्पा० लबेदी] मोटा तथा बड़ा डंडा।
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लबेदी  : स्त्री० [हिं० लबेद] लबेद के रूप में होनेवाला आचरण, कृत्य या व्यवहार।
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लबेरा  : पुं० =लसोड़ा।
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लंबोतरा  : वि० [हिं० लंबा] जो प्रायः गोलाकार होने पर कुछ-कुछ लंबा हो। जिसमें गोलाई के साथ लंबाई भी हो। जैसे—लंबोतरा मोती।
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लंबोदर  : वि० [सं० लंब-उदर, ब० स०] १. लंबे या मोटे पेटवाला। २. बहुत अधिक खानेवाला। पेटू। पुं० गणेश।
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लंबोष्ठ  : वि० [सं० लंब-ओष्ठ, ब० स०] लंबे होंठोंवाला। पुं० १. ऊँट। २. एक देवता।
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लब्ध  : भू० कृ० [सं०√लभ् (पाना)+क्त] १. मिला या प्राप्त किया हुआ। २. उपार्जित किया या कमाया हुआ। ३. भाग करने से निकला हुआ शेषफल। भाग फल। ४. जिसने पाया या प्राप्त किया हो। यौ० के आरम्भ में। जैसे—लब्ध-काम, लब्ध कीर्ति आदि। पुं० दस प्रकार के दासों में से एक प्रकार का दास (स्मृति)।
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लब्ध-दक्ष  : पुं० [ब० स०] जिसने किसी निशने पर वार किया हो। २. जिसे अभिप्रेत वस्तु प्राप्त हो गई हो।
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लब्ध-प्रतिष्ठ  : वि० [ब० स०] जिसने किसी कार्य या क्षेत्र में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की हो। प्रतिष्ठित। सम्मानित।
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लब्ध-प्रशमन  : पुं० [ष० त०] मिले हुए धन का सत्पात्र को दिया जानेवाला दान। (मनु०)
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लब्ध-वर्ण  : पुं० [सं] वह जिसने वर्णों (अक्षरों और शब्दों) का ज्ञान प्राप्त किया हो, अर्थात् पंडित।
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लब्धव्य  : वि० [सं√लभ् (प्राप्ति)+तव्य] प्राप्त किये जाने के योग्य।
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लब्धा (व्धृ)  : वि० [सं√लभ् (पाना)+तृच्] प्राप्त करनेवाला। स्त्री०=विप्रलब्धा (नायिका)।
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लब्धांक  : पुं० [लब्ध-अंक, कर्म० स०] भागफल। (दे०)
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लब्धि  : स्त्री० [सं√लभ् (पाना)+क्तिन्] १. लब्ध होने की अवस्था या भाव। प्राप्ति। २. भागफल। लब्धांक।
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लंभ  : पुं० [सं०√लभ् (प्राप्ति)+घञ्, नुम्] प्राप्ति।
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लंभन  : पुं० [सं०√लभ्+ल्युट—अन, नुम्] १. ध्वनि। शब्द। २. कलंक। लांछन।
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लभन  : पुं० [सं√लभ् (प्राप्ति)+ल्युट—अन] [वि० लभ्य, लब्ध] प्राप्त करना। हासिल करना। पाना।
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लंभनीय  : वि० [सं०√लभ्+अनीयस्, नुम्] १. प्राप्त किये जाने के योग्य।
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लभस  : पुं० [सं√लभ् (प्राप्ति)+असच्] १. घोड़े के पिछले पैर बाँधने की रस्सी। पिछाड़ी। २. धन। ३. मँगन। याचक।
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लंभित  : भू० कृ० [सं०√लभ्+क्त, नुम्] प्राप्त किया हुआ। २. दिया हुआ। ३. कहा हुआ।
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लभ्य  : वि० [सं√लभ् (प्राप्ति)+यत्] १. जो पाया जा सके या मिल सके। २. उचित। न्याय-संगत।
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लभ्यांश  : पुं० [सं० लभ्य-अंश, कर्म० स०] आर्थिक लाभ या उसका अंश। मुनाफा। लाभ। (प्रॉफिट)
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लम  : वि० [हिं० लंबा] लंबा का उपसर्ग की तरह प्रयुक्त वह संक्षिप्त रूप जो यौ० शब्दों के आरम्भ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—लम-छड़ लम-ढेंक, लम-तडंग।
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लम-गजा  : पुं० [हिं० लम+गज] इकतारा नाम का बाजा।
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लम-गिरदा  : पुं० [हिं० लम+फा० गिर्द] एक तरह की मोटी रेती जो नारियल की जटा रेतने के काम आती है।
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लम-गोड़ा  : वि० [हिं० लम+गोड़=पाँव] जिसकी टांगे लम्बी हों।
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लम-घिचा  : वि० [हिं० लम+घींच=गर्दन] [स्त्री० लामघिची] लंबी गर्दनवाला।
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लम-चिंता  : पुं० [हिं० लम (लंबा)+चिन्ती] तेदुएँ की तरह का एक प्रकार का पहाडी हिंसक पशु जिसके शरीर पर बड़ी-बड़ी काली चित्तियों के धब्बे होते हैं।
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लम-छड़  : पुं० [हिं० लम+छड़] १. बरछा। भाला। २. कबूतर उड़ाने की लग्गी। ३. पुरानी चाल की लंबी बन्दूक। वि० पतला और लंबा।
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लम-टंगा  : वि० [हिं० लम+टाँग] [स्त्री० लमटंगी] लंबी टाँगोंवाला। जैसे—लंबटंगी धोबिन। पुं० सारस पक्षी।
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लम-तड़ंग  : वि० [हिं० लंबा+ताड़+अंग] [स्त्री० लमतडंगी] बहुत लंबा या ऊँचा और हृष्ट-पुष्ट। जैसे—लमतडंग आदमी।
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लमई  : स्त्री० [देश] एक तरह की मधुमक्खी।
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लमक  : पुं० [सं√रम् (क्रीड़ा)+क्वुन्, अक-र-ल] १. जार। उपपति। २. लंपट। व्यभिचारी। स्त्री० [हिं० लमकना] लमकने की क्रिया या भाव।
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लमकना  : अ० [हिं० लंबा] लंबाई के बल नीचे की ओर लटकना। (पश्चिम) अ०=लपकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लमचा  : पुं० [देश] एक प्रकार की बरसाती घास।
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लमछुअ  : वि० [हिं० लम] [स्त्री० लमछुई] साधारण से कुछ अधिक लम्बा। जैसे—गोरी रंगत, बड़ी-बड़ी आँखें लमछुई नाक। (लखनऊ) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लमजक  : पुं० [सं० लमज्जक] कुश की तरह की एक सुगंधित घास जो औषध के काम आती है। लामज।
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लमज्जुक  : पुं० =लमजक।
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लमटींग  : वि० [हिं० लम+ढेंक] बहुत अधिक लंबा। पुं० =लम-ढेंक।
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लमःढेंक  : पुं० [हिं० लम+ढेंक (पक्षी)] सारस की तरह का पर उससे भी बड़ा एक प्रकार का पक्षी। हर-गीला।
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लमती  : स्त्री० [हिं० लम] कुछ दूर का स्थान। (पूरब)
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लमधर  : पुं० [हिं० लम+धार] कुदाल के मुँह पर का टेढ़ा भाग।
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लमधी  : पुं० [हिं० समधी का अनु०] १. संबंध के विचार से समधी का पिता। २. समधी के विचार से समधी का दूसरा समधी।
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लमहा  : पुं० [अ० लमह] निमेष। पल। क्षण।
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लमाना  : स० [हिं० लम+आना (प्रत्यय)] १. लंबा करना। २. दूर तक आगे बढ़ाना। अ० बहुत आगे या दूर निकल जाना।
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लय  : पुं० [सं०√ली (मिलना)+अच्] १. एक पदार्थ का दूसरे में मिलकर उसमें पूरी तरह से समा जाना। अपनी सत्ता गवाँकर दूसरे में विलीन होना। विलय। २. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ मिलना या संश्लिष्ट होना। ३. कार्य के आगे कारण में समाविष्ट होना या फिर कारण के रूप में परिणत होना। ४. दार्शनिक क्षेत्र में, वह स्थिति जिसमें सृष्टि की सभी चीजों का समाप्त होकर अव्यक्त प्रकृति के रूप में परिणत या विलीन होना। प्रलय। ५. किसी पदार्थ का होनेवाला लोप या विनाश। ६. नियत समय तक किसी अधिकार या सुभीते का उपयोग न करने के कारण उस अधिकार या सुभीते के फलभोग से वंचित होने का भाव या स्थिति। (लैप्स) ७. चित्त की वृत्तियों को सब ओर से हटाकर एक ओर प्रवृत्त होना। एकाग्र भाव से किसी ध्यान में डूबना। ८. ठहराव। स्थिरता। ९. मूर्च्छा। बेहोशी। १॰. छिपना। लुकना। ११. पाटा जिससे खेत के ढेले तोड़कर मिट्टी बराबर करते हैं। (वैदिक) स्त्री० [सं० लय से लिंग-विपर्यय] १. कविता और संगीत में गति या प्रवाह और यति या विराम पर आश्रित वह तत्व जो नियमित रूप से होनेवाले उतार-चढ़ाव तथा आपेक्षिक पुनरावृत्तियों से उत्पन्न होता और कृतियों (कविता, पाठ, गायन, नृत्य आदि) में विशेष प्रकार की कोमलता, माधुर्य और लावण्य का आविर्भाव करता है। गति सामंजस्य। (रिदिम)। विशेष—तात्त्विक दृष्टि से इसका मुख्य संबं उस काल से है जो कविताओं, गीतों, मंत्रों आदि के स-स्वर उच्चारण में लगता है और इसी को नियंत्रित या संयत रखने के लिए संगीत में ताल से सहायता ली जाती है। २. शास्त्रीय संगीत में लगनेवाले समय के विचार से जल्दी, धीरे या सहज में गाने का ढंग या प्रकार जिसके ये तीन भेद कहे गये हैं।—विलंबित, मध्य और द्रुत। (दे० ये शब्द) ३. संगीत में स्वरों के उच्चारण की दृष्टि से गाने का प्रकार। जैसे—वह बहुत मधुर लय में गाता या बजाता है। मुहावरा—लय देखना=गाने-बजाने नाचने आदि में लय का ठीक और पूरा ध्यान रखना। स्त्री०=लौ (लगन) उदाहरण—मन ते सकल वासना भागी। केवल रामचरण लय लागी।—तुलसी। क्रि० प्र०—लाना।
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लय-लीन  : वि० =लव-लीन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लयक  : वि० [सं० लय] १. लय से संबंध रखनेवाला। २. संगीत की लय के रूप में अथवा उसके ढंग पर होनेवाला (रिदिमकल) जैसे—नाड़ी या हृदय का लयक स्पंदन।
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लयन  : पुं० [सं०√ली+ल्युट—अन] १. लय होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. विश्राम। ३. शान्ति। ४. आड़ या आश्रय में होने की क्रिया या भाव। ५. आश्रय या विश्राम का स्थान।
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लयार्क  : पुं० [सं० लय-अर्क, मध्य० स०] प्रलय काल का सूर्य।
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लयिक  : वि० =लयक।
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लर  : स्त्री० =लड़ (कड़ी) उदाहरण—टेढ़ी पाग, लर लटके।—मीराँ।
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लरकई  : स्त्री० [हिं० लरका=लड़का] १. लड़काई। लड़कपन। ३. लड़कों का सा आचरण व्यवहार या स्वभाव।
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लरकना  : अ० [सं० लड़न=झूलना] १. लटकना। २. झुकना। ३. खिसक कर नीचे आना। संयो० क्रि०—आना।—पड़ना।—जाना।
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लरका  : पुं० =लड़का। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लरकाना  : स० [हिं० लरकना] किसी को लरकने में प्रवृत्त करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लरकिनी  : स्त्री० =लड़की। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लरखरनि  : स्त्री० =लड़खड़ाहट।
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लरखराना  : अं० लड़खड़ाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लरज  : पुं० [हिं० लरजना] सितार के छः तारों में से पाँचवाँ तार जो पीतल का होता है।
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लरजना  : अ० [फा० लर्ज़=कंप] १. कांपना। थरथराना। २. इधर-उधर हिलना। संयो० क्रि०—उठना।—जाना।—पड़ना। ३. डर जाना। दहल जाना।
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लरजाँ  : वि० [फा०] काँपता हुआ। कंपित। पुं० [फा० लर्ज] १. कँपकँपी। थरथराहट। २. भूकंप। भूचाल। ३. जूड़ी बुखार जिसके आने पर रोगी थर-थर काँपने लगता है।
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लरजिश  : स्त्री० [फा० लरजिश] कँपकँपी। थरथराहट।
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लरझर  : वि० [हिं० लड़+झड़ना] १. बरसता हुआ। २. बहुत अधिक प्रचुर।
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लरना  : अ०=लड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लरनि  : स्त्री० [हिं० लड़ना] लड़ने की क्रिया, ढंग या भाव। लड़ाई।
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लराई  : स्त्री० =लड़ाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लराका  : वि० =लड़ाका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लरिक-लोरी  : स्त्री० [हिं० लरिका+लोल=चंचल] १. लड़कों का-सा खेल। २. खेलवाड़।
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लरिकई  : स्त्री० =लरकई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लरिका  : पुं० [स्त्री० लरकिनी, लरिकी]=लड़का। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लरिकाई  : स्त्री० =लरकई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लरिकिनी  : स्त्री० =लड़की।
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लरी  : स्त्री० =लड़ी।
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लल  : स्त्री० =ललसा। स्त्री० [देश] १. झूठी बात। २. धोखा देने के लिए कही जानेवाली बात। जैसे—तुम उनकी लल में आकर दस रुपये गंवा बैठे।
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लल-जिह्व  : वि० [सं० ललज्जिह्व] १. जीभ लपलपाता हुआ। २. भयंकर। भीषण। पुं० १. कुत्र। २. ऊँट।
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लल-मुँहा  : वि० [हिं० ललन+मुँहाँ] लाल मुँहवाला। पुं० बन्दर।
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ललक  : स्त्री० [हिं० ललकना] ललकने की अवस्था, गुण या भाव।
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ललकना  : अ० [देश] १. किसी वस्तु को पाने की गहरी इच्छा या लालसा करना। २. अभिलाषा। चाह से भरा हुआ होना।
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ललकार  : स्त्री० [हिं० ललकारना] १. ललकारने की क्रिया या भाव। २. प्रतियोगिता, लड़ाई आदि के लिए किसी का किया जानेवाला आह्वान या किया जानेवाला आमंत्रण। यह कहना कि आओ सामने करके देख लो। ३. किसी को किसी पर आक्रमण करने के लिए दिया जानेवाला प्रोत्साहन या बढ़ावा।
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ललकारना  : स० [देश] १. प्रतियोगिता, लड़ाई आदि के लिए किसी को आमन्त्रित या आहूत करना। २. किसी को किसी से लड़ने के लिए बढ़ावा देना।
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ललकित  : वि० [हिं० ललक] गहरी चाह से भरा हुआ (असिद्ध रूप)।
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ललचना  : अ० [हिं० लालच+ना (प्रत्यय)] १. लालच या लोभ से ग्रस्त होना। २. किसी दूसरे की अच्छी चीज देखकर उसे प्राप्त करने के मोह से अधीर होना। ३. किसी पर आसक्त मोहित या लुब्ध होना।
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ललचाना  : स० [हिं० ललचना] १. ऐसा काम करना जिससे किसी के मन में किसी काम चीज या बात की प्राप्ति या सिद्धि का लालच उत्पन्न हो। २. कोई चीज दिखाकर किसी के मन में लोभ का भाव जाग्रत करना तथा उसे वह चीज न देकर अधीर या उत्सुक करना। ३. अपने रूप-रंग, हाव-भाव से किसी के मन में अनुराग या मोह उत्पन्न करना। अ०=ललचना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ललचौहाँ  : वि० [हिं० लालच+औहाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० ललचौहीं] लालच से भरा हुआ। ललचाया हुआ। जिससे प्रबल लालसा प्रकट हो।
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ललछौहाँ  : वि० [हिं० लाल+छाँह=छाया] जिसमें हलके लाल रंग की झलक हो। उदाहरण—ललछौहें सूखे पत्ते की समानता पर लेता है।—महादेवी।
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ललंतिका  : स्त्री० [सं०√लल्+शतृ+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. नाभि तक लटकती हुई माला या हार। २. गोह नामक जंतु।
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ललदेया  : पुं० [देश] अगहन में तैयार होनेवाला एक प्रकार का धान।
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ललन  : पुं० [सं०√लल् (चाहना)+ल्युट—अन] १. प्यारा बालक। दुलारा लड़का। २. बालक। लड़का। ३. प्रेमी का प्रेम सूचक सम्बोधन। ४. केलि। क्रीड़ा। ५. साखू का पेड़। साल वृक्ष। ६. चिरौंजी का पेड़। पयार।
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ललना  : स्त्री० [सं०√लल्+णिच्+ल्यु—अन+टाप्] १. सुन्दर स्त्री०। कामिनी। २. जिह्वा। जीभ। ३. बौद्ध हठ योग में इड़ा नाड़ी का एक नाम। ४. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में भगण, मगण और दो सगण होते हैं। पुं० ‘ललन’ का संबोधन कारकवाला रूप। हे ललन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ललना-चक्र  : पुं० [सं० उपमित स०] परवर्ती हठ-योगिनी के अनुसार शरीर के अन्दर का एक कमल या चक्र। (अष्ट कमल और षट्-चक्र से भिन्न)।
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ललना-प्रिय  : पुं० [सं० कर्म० स०] कदंब (पेड़)।
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ललनिका  : स्त्री० [सं० ललना+कन्+टाप्, इत्व] ललना। स्त्री।
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ललनी  : स्त्री० [सं० नलिनी] १. बाँस की नली या पोर। २. पतली नली।
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ललही-छठ  : स्त्री० [सं० हल षष्ठी] भाद्र कृष्ण पक्ष की छठ या षष्ठी तिथि।
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लला  : पुं० [हिं० लाल] [स्त्री० लली] हिं० लाल का सम्बोधन कारकवाला। रूप। उदाहरण—लला, फिर आइहौ खेलन होरी।—पद्याकर। २. प्यारी का दुलारा लड़का। ३. बालक। लड़का। ४. प्रिय अथवा प्रेमी के लिए प्रेम-सूचक सम्बोधन।
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ललाई  : स्त्री० [हिं० लाल (प्रत्यय)] लाली। लालिमा।
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ललाट  : पुं० [सं० लल√अट् (गति)+अण्] १. भाल। माथा। २. किस्मत। तकदीर। भाग्य। ३. किस्मत में लिखी हुई बात। भाग्य का लेख।
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ललाट-रेखा  : स्त्री० [सं० ष० त०] कपाल या भाग्य का लेख जो मस्तक पर ब्रह्या का किया हुआ चिन्ह माना जाता है। भाग्य-लेख।
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ललाटाक्ष  : पुं० [सं० ललाट-अक्षि, ब० स०+षच्] शिव, जिनका एक तीसरा नेत्र ललाट पर माना जाता है।
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ललाटाक्षी  : स्त्री० [सं० ललाटाक्ष+ङीष्] दुर्गा।
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ललाटिका  : स्त्री० [सं० ललाट+कन्+टाप्, इत्व] १. माथे पर बाँधने का टीका नामक गहना। २. टीका। तिलक।
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ललाट्य  : वि० [सं० ललाट+यत्] १. ललाट का। २. ललाट के लिए प्रयुक्त।
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ललाना  : अ० [हि० लाल] लाली पकड़ना। लाल रंग से युक्त होना। उदाहरण—ललाती सांझ के नाम की अकेली तारिका अब नहीं कहता।—अज्ञेय। स० लाल रंग में रँगना। अ०=ललचना। स०=ललचाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ललाम  : वि० [सं० (लड़√विलास)+क्विप्√अम् (प्राप्ति)+अण्, ड—ल] [स्त्री० ललामा] १. मनोहर। सुन्दर। २. अच्छा। उत्तम। बढ़िया। ३. प्रधान। मुख्य। ४. लाल रंग का। सुर्ख। पुं० १. अलंकार। गहना। २. रत्न। ३. चिन्ह। निशान। ४. झंडे का डंडा। द्वज। ५. सींग। ६. घोड़ा। ७. घोड़े को पहनाया जानेवाला गहना ८. घोड़े या गाय के माथे पर किसी रंग का चिन्ह। टीका। ९. घोडे, शेर आदि की गरदन पर के बाल। अयाल। १॰. प्रभाव। पुं० =नीलाम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ललामक  : पुं० [सं० ललाम+कन्] माथे पर लपेटने की माला।
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ललामी  : स्त्री० [सं० ललाम+ङीष्] कान में पहनने का एक गहना। स्त्री० [हिं० ललाम+ई (प्रत्यय)] १. ललाम होने की अवस्था या भाव। सुन्दरता। २. लाली। सुर्खी।
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ललित  : वि० [सं०√लल् (इच्छा)+क्त] [स्त्री० ललिता] १. मनोहर। सुन्दर। २. कोमल। ३. अभिलषित ४. प्रिय। प्यारा। ५. चलता या हिलता हुआ। पुं० १. श्रृंगार रस का एक कायिक हाव। २. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें किसी प्रस्तुत कार्य का प्रत्यक्ष रूप से वर्णन न करके उल्लेख होता है कि प्रस्तुत कार्य पर ठीक बैठ जाय। ३. एक प्रकार का विषम वर्णवृत्त जिसके पहले चरण में सगण, जगण, सगण, लघु दूसरे चरण में नगण, सगण, जगण, गुरु, तीसरे में नगण, नगण, सगण, सगण और चौथे में सगण, जगण, सगण, जगण होता है। ४. षाडव जाति का एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा गया है और जिसमें निषाद स्वर नहीं लगता तथा धैवत और गांधार के अतिरिक्त और सब स्वर कोमल लगते हैं।
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ललित-कला  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह कला जिसके अभिवंयजन में सुकुमारता और सौंदर्य की अपेक्षा हो और जिसकी सृष्टि मुख्यतः मनोविनोद के लिए हो। (फाइन आर्टस) जैसे—चित्र कला, संगीत आदि।
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ललित-कांता  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] दुर्गा।
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ललित-गौरी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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ललित-पद  : वि० [सं० ब० स०] (कथन या रचना) जिसमें सु्न्दर पद या शब्द हों। पुं० ‘सार’ नामक छंद का दूसरा नाम।
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ललित-पुराण  : पुं० [सं० मध्य० स०] =ललित विस्तर (बौद्ध ग्रन्थ)।
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ललित-विस्तर  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ जिसमें गौतम बुद्ध का चरित्र वर्णित है।
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ललित-व्यूह  : पुं० [सं० ब० स०] १. बौद्ध शास्त्र के अनुसार एक प्रकार की समाधि। २. एक बोधिसत्व का नाम।
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ललित-साहित्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा साहित्य जो उपयोगी या ज्ञानवर्द्धक होने की अपेक्षा भाव-प्रवण अधिक होता है। मनोरंजक साहित्य।
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ललितई  : स्त्री०=ललिताई। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ललिता  : स्त्री० [सं० ललित+टाप्] १. पार्वती का एक नाम। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण, जगण और रगण होते हैं। ३. संगीत में एक प्रकार की रागिनी जो दामोदर और हनुमत के मत से मेघराग की और सोमेश्वर के मत से वसंत राग की पत्नी है। ४. राधिका की मुख्य सखियों में से एक। ५. कस्तूरी।
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ललिता-पंचमी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] आश्विन् महीने की शुक्ला पंचमी जिसमें ललिता देवी (पार्वती) की पूजा होती है।
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ललिता-षष्ठी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] भाद्र कृष्ण षष्ठी जिस दिन स्त्रियाँ पुत्र की कामना से या पुत्र के हितार्थ ललिता देवी (पार्वती) का पूजन और वृत करती हैं।
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ललिता-सप्तमी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] भादों सुदी सप्तमी। भाद्रशुक्ल सप्तमी।
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ललिताई  : स्त्री० =लालित्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ललितार्थ  : वि० [सं० ललित-अर्थ, ब० स०] श्रृंगार रस प्रधान (रचना)।
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ललितोपमा  : स्त्री० [सं० ललिता-उपमा, कर्म० स०] साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें उपमेय और उपमान की समता दिखलाने के लिए सम, समान, तुल्य, लौ, इव आदि के वाचक पद न रखकर ऐसे पद लाये जाते हैं, जिनसे बराबरी, मुकाबला, मित्रता, निरादर, ईर्ष्या आदि के भाव प्रकट होते हैं।
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ललिया  : पुं० [हिं० लाल+इया (प्रत्यय)] लाल रंग का बैल। स्त्री० =लली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लली  : स्त्री० [हिं० लाल का स्त्री०] १. लड़की के लिए प्यार का शब्द। २. दुलारी पुत्री या बेटी। ३. नायिका या प्रेमिका के लिए प्रेमसूचक संबोधन।
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ललौहाँ  : वि० [हि० लाल+औहाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० ललौंही] कुछ कुछ लाली लिये हुए। प्रायः लाल। लल-छौहाँ।
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लल्लर  : वि० [सं] हकलानेवाला।
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लल्ला  : पुं० [हिं० लाल, लला] [स्त्री० लल्ली] १. लड़के या बेटे के लिए प्यार का शब्द। २. दुलारा लड़का।
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लल्लो  : स्त्री० [सं० ललना] जीभ। जिह्वा। जबान। (स्त्रियों में प्रयुक्त, उपेक्षासूचक) जैसे—इसकी लल्लों बहुत चलती है।
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लल्लो-चप्पो  : स्त्री० [हिं० लल्लो+अनु० चप्पो] किसी के प्रसन्न रखने के लिए उसके अनुकूल कही जानेवाली चिकनी —चुपड़ी बात। ठकुरसुहाती।
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लल्लो-पत्तो  : स्त्री० =लल्लो-चप्पो।
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लल्हरा  : पुं० [देश] एक प्रकार का पौधा जिसकी पत्तियों का साग खाया जाता है।
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लव  : वि० [सं०√लू+अप्] बहुत ही अल्प या थोड़ा। उदाहरण—मोह निशा लव नहीं वहाँ पर।—निराला। पुं० १. काटने या छेदने की क्रिया । २. विनाश। ३. रामचन्द्र के दो यमज पुत्रों में से एक पुत्र का नाम। ४. काल का एक बहुत छोटा मन जो दो काष्ठा अर्थात् छत्तीस निमेष का होता है। (कुछ लोग एक निमेष के साठवें भाग को लव मानते हैं)। ५. किसी चीज की बहुत ही छोटी या थोड़ी मात्रा। बहुत ही थोड़ा परिणाम। पद—लव भर=बहुत ही थोड़ा। ६. लवा नाम की चिड़िया ७. लवंग। लौंग। ८. जातीफल। ९. ज्वरांकुश या लामज्जक नामक तृण। १॰. पक्षियों के शरीर से कतरकर निकाला जानेवाला ऊन, पर या बाल। ११. सुरा गाय की पूंछ के बाल जिनकी चँवर बनती हैं।
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लव-लासी  : स्त्री० [हिं० लव=प्रेम+लासी=लसी, लगाव] १. लौ अर्थात् प्रेम संबंध स्थापित करने की प्रबल इच्छा या आकांक्षा। २. किसी प्रकार का थोड़ा बहुत या नाम मात्र का संबंध।
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लव-लीन  : वि० [हिं० लय+लीन] किसी के प्रेम में लीन। प्रेम में मग्न।
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लव-लेश  : पुं० [सं० ष० त०] १. अत्यन्त अल्प-मात्रा। बहुत थोड़ा परिणाम। २. बहुत थोड़ा या नाममात्र का संबंध। जैसे—इसमें प्रेम का लवलेश भी नहीं है।
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लवक  : वि० [सं०√लू+ण्वुल्-अक] काटनेवाला।
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लवकना  : अ०=लौकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लवका  : स्त्री० [हिं० लौकना] १. लौका। बिजली। २. चमक।
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लवंग  : पुं० [सं०√लू (छेदन)+अंगच्] लौंग नामक वृक्ष और उसकी कलियाँ या फूल।
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लवंग-लता  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. लौंग का पेड या उसकी शाखा। २. एक प्रकार की बंगला मिठाई।
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लवण  : पुं० [सं०√लू+ल्यु—अन, पृषो, णत्व] १. नमक। लोन। २. दे० ‘लवणासुर’। ३. दे० ‘लवण’ समुद्र। वि० १. नमकीन। २. लावण्ययुक्त। सुन्दर। सलोना। ३. खारा।
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लवण-त्रय  : पुं० [सं० ष० त०] इन तीन प्रकार के नमकों का समूह सैधव, विट् और साँचर।
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लवण-भास्कर  : पुं० [सं० उपमित स०] वैद्यक में एक प्रकार का पाचक चूर्ण।
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लवण-मेह  : पुं० [सं० मध्य० स०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का प्रेमह जिसमें पेशाब के साथ लवण के समान स्राव होता है।
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लवण-यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का यंत्र जिसमें ओषधियों का पाक बनाया जाता है। (वैद्यक)
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लवण-वर्ष  : पुं० [सं० मध्य० स०] कुश द्वीप का एक खण्ड। (पुराण)
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लवण-समुद्र  : पुं० [सं० ष० त०] सात समुद्रों में से खारे पानी का एक समुद्र। (पुराण)
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लवणा  : स्त्री० [स्त्री० लवण+टाप्] १. दीप्ति। आभा। २. महाज्योतिष्मती नाम की लता। ३. चुक। ४. चँगेरी। ५. अमलोनी नामक शाक। ६. लूनी नदी का पुराना नाम।
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लवणाकर  : पुं० [सं० लवण-आकर, ष० त०] १. नमक की खान। २. सौंदर्य का आगार।
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लवणाचल  : पुं० [सं० लवण-अचल, मध्य० स०] पहाड़ के रूप में लगाया हुआ नमक का ढेर जो दान किया जाता है।
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लवणाब्धि  : पुं० [सं० लवण-आब्धि, ष० त०]=लवण-समुद्र।
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लवणार्व  : पुं० [सं०] १. =लवण-समुद्र। २. समुद्र। सागर।
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लवणालय  : पुं० [सं० लवण-आलय, ष० त०] आधुनिक मथुरा नगरी का प्राचीन नाम। मधुपुरी।
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लवणासुर  : पुं० [सं० लवण-असुर, कर्म० स०] एक राक्षस जो मधु का पुत्र था तथा जिसने मधुपुरी नगरी (आधुनिक मथुरा) को बसाया था। इसका वध शत्रुघ्न ने किया था।
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लवणित  : भू० कृ० [सं० लवण+इतच्] १. नमक से युक्त किया हुआ। जिसमें नमक डाला गया हो। २. सुन्दर।
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लवणिम (मन्)  : स्त्री० [सं० लवण+इमनिच्] १. नमकीनी। सलोनापन। २. सौंदर्य।
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लवणोत्तम  : पुं० [सं० लवण-उत्तम, स० त०] सेंधा नमक।
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लवणोदक  : पुं० [सं० लवण-उदक, मध्य० स०] १. नमक मिला हुआ पानी। २. खारे पानी वाला समुद्र। क्षार समुद्र।
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लवणोदधि  : पुं० [सं० लवण-उदधि, ष० त०] लवण समुद्र।
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लवन  : पुं० [सं०√लू (छेदन)+ल्युट—अन] [वि० लवनीय, लव्य] १. काटना। २. छेदना। २. खेत की फसल की कटाई। लवनी। लुनाई। लौनी। ४. खेत की फसल काटने के बदले में मिलनेवाला अन्न या धान।
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लवना  : स० [हिं० लुनना] [भाव० लवनाई] १. पकी हुई फसल काटना। लुनना। २. खेत में काटकर रखे हुए डंठलों को बटोरना।
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लवनाई  : स्त्री० =लोनाई (लावण्य)।
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लवनी  : स्त्री० [सं० लवन+ङीष्] शरीफे का पेड़ और फल। स्त्री० [हि० लवना] पकी हुई फसल काटने की क्रिया, भाव और मजदूरी। लुनाई। स्त्री० =नवनीत (मक्खन)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लवनीय  : वि० [सं०√लू+अनीयर्] जो लवने अर्थात् काटे जाने के योग्य हो।
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लवर  : स्त्री० = लौर (आग की लपट)।
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लवली  : स्त्री० [सं० लव√ला (आदान)+क+ङीष्] १. हरफाखेरी नाम का पेड़ और उसका फल। २. एक विषम वर्णवृत्त जिसके पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे चरणों में क्रमशः १६, १२, ८ और २0 वर्ण होते हैं।
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लवा  : पुं० [सं० लव] तीतर की जाति का एक पक्षी जो तीतर से बहुत छोटा होता है। पुं० =लावा (लाजा)।
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लवाई  : स्त्री० [देश] नई ब्याई हुई गाय। स्त्री० =लुनाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लवाजमा  : पुं० [अ० लवाज़िम] १. किसी के साथ रहनेवाला दल और साज-सामान। साथ में रहनेवाली भीड़-भाड़ या बहुत सा सामान। जैसे—इतना लावाजमा साथ लेकर क्यों चलते हों। २. विशेष रूप से वे व्यक्ति और साज—समान जो सेना के साथ रहते या चलते हैं। सेनापरिधान। (एकाउट्रिमेंट) ३. आवश्यक और उपयोगी सामान।
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लवाना  : स० [हिं० लेना+जाना] अपने साथ ले जाना। उदाहरण—जा दिन तें मुनि गए लवाई।—तुलसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लवारा  : पुं० [हिं० लवारी] गाय का बच्चा।
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लवासी  : वि० [?] १. बकवादी। २. बद-चलन। लंपट।
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लवेंडर  : पुं० [अं०] कपड़ों और बालों में लगाने के लिए एक प्रकार का सुगंधित तरल पदार्थ जो एक पौधे के फूलों से तैयार किया जाता है।
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लवेरी  : स्त्री० [?] १. दुधार गाय। २. विशेषतः ऐसी गाय जिसके आगे बच्चा हो तथा जो दूध भी देती हो। (पश्चिम) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लव्य  : वि० [सं०√लू+यत्] =लवनीय।
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लशकर  : पुं० [फा० लश्कर] १. सेना। फौज। २. प्राणियों या मनुष्यों का बहुत बड़ा दल या समूह। पद—लाव-लश्कर। ३. सैनिक पड़ाव। छावनी। ४. जहाजों पर काम करनेवाले लोगों का वर्ग।
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लशकरी  : वि० [फा० लश्कर] १. लश्कर संबंधी। लश्कर या सेना का। फौजी। २. लश्कर में काम करनेवाला या लश्कर का सदस्य। पुं० १. सैनिक। सिपाही। २. जहाज पर काम करनेवाला आदमी। जहाजी। स्त्री० जहाज पर काम करनेवाले लोगों की बोली।
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लशकारना  : स० [अनु० लश० लश] मुँह में लशलश शब्द करते हुए शिकारी कुत्ते को शिकार पर झपटने के लिए उत्तेजित करना।
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लशटम-पशटम  : क्रि० वि० =लस्टम-पस्टम।
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लशुन (शुन  : पुं० [सं०√अश् (भोजन)+उनन्=अ-ल] लहसुन।
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लश्कर  : पुं० =लशकर।
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लश्करी  : वि० पुं० स्त्री० =लशकरी।
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लषण  : वि० [सं०√लष् (चाहना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० लषित] इच्छा करनेवाला।
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लषन  : पुं० =लखन (लक्ष्मण)।
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लषन  : पुं० =लक्खन।
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लषना  : स०=लखना।
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लष्षी  : वि० पुं० =लक्खी। स्त्री० =लक्ष्मी।
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लस  : पुं० [सं०√लस् (सटना)+क] १. चिपकने या चिपकाने का गुण। श्लेषण। चिपचिपाहट। २. लासा। ३. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में रक्त का वह अंश या तत्त्व जिसके फलस्वरूप कुछ जीव-जन्तु कई विशिष्ट लोगों से बचे रहते हैं। सौम्य (सीरम) वि० दे० ‘सौम्य विज्ञान’। ४. दे० ‘लसी’।
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लसक  : पुं० [सं० लासक] नाचनेवाला। नर्तक।
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लसकर  : पुं० =लश्कर।
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लसदार  : वि० [सं० लस+फा० दार (प्रत्यय)] जिसमें लस हो। लसनेवाला। लसीला।
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लसन (नि)  : स्त्री० [हिं० लसना] १. लसने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. छटा। शोभा। ३. चमक। दीप्ति।
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लसना  : स० [सं० लसन] कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु के साथ इस प्रकार सटाना कि वह अलग न हो। चिपकाना। लेसना। जैसे—लिफाफे पर टिकट लसना। संयो० क्रि०—देना। अ० १. चिपकना। २. शोभित होना। फबना। ३. विराजमान होना। ४. प्रकाशमान होना। चमकना।
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लसम  : वि० [देश] जिसमें खोट या मेल हो। खोटा या दूषित।
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लसरका  : पुं० [हिं० लस] बहुत ही साधारण या जैसे-तैसे चलता रहनेवाला संपर्क या संबंध। क्रि० प्र०—लगाना।—लगा रहना।
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लसलसा  : वि० [हिं० लस] [स्त्री० लसलसी] गोंद की तरह चिपकनेवाला। चिपचिपा। लसीला।
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लसलसाना  : अ० [हिं० लस] लस से युक्त होने के कारण चिपकना।
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लसलसाहट  : स्त्री० [हिं० लसलसा] लसदार होने की अवस्था या भाव। चिपचिपाहट।
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लसिका  : स्त्री० [सं० लस+कन्+टाप्, इत्व] १. लाला। २. थूक। २. पेशी।
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लसित  : भू० कृ० [सं०√लस् (चमकना, क्रीड़ा)+क्त] १. शोभित। २. प्रकट। ३. क्रीड़ाशील।
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लसी  : स्त्री० [हि० लस] १. चिपचिपाहट। चेप। लस। २. ऐसी अवस्था जिसमें किसी प्रकार के आकर्षण, लाभ आदि के कारण साथ लगे रहने की इच्छा या प्रवृत्ति हो। जैसे—कुछ न कुछ लसी है, तभी तो तुम उसके साथ लगे रहते हों। ३. साधारण मेल-जोल या संपर्क। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। स्त्री०=लस्सी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लसीका  : स्त्री० =लसिका।
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लसीला  : वि० [हिं० लस+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० लसीली] लसदार। जिसमें लस हो। चिपचिपा। वि० [हिं० लसना] जो लस रहा हो, अर्थात् शोभायुक्त। सुन्दर।
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लसुन  : पुं० =लहसुन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लसुनिया  : पुं० =लहसुनिया।
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लसोड़ा  : पुं० [हिं० लस=चिपचिपाहट] १. एक प्रकार का छोटा पेड़। २. उक्त पेड़ के फल जो बेर के-से होते हैं। इनमें लसदार गूदा होता है, और ओषधि में इनका प्रयोग होता है। ३. लाक्षणिक अर्थ में किसी के साथ लगा रहनेवाला व्यक्ति।
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लसौटा  : पुं० [हिं० लासा+औटा (प्रत्यय)] चिड़ियाँ फंसाने की वह लग्गी जिस पर लासा लगा होता है।
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लस्टम-पस्टम  : अव्य० [अनु] १. बहुत ही मंद गति तथा साधारण रूप से। जैसे—तैसे। जैसे—अब-तक लस्टम-पस्टम थोड़ा बहुत काम हो ही रहा है।
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लस्त  : वि० [सं०√लस् (क्रीड़ा)+क्त] १. क्रीड़ित। २. शोभायुक्त। सुन्दर। ३. फबता या भला लगता हुआ। वि० [सं० श्लथ] १. थका हुआ। शिथिल। श्रम या थकावट से ढीला। जैसे—चलते-चलते शरीर लस्त हो गया। २. जिसमें कुछ करने की शक्ति न रह गई हो। अशक्त।
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लस्तक  : पुं० [सं० लस्त+कन्] धनुष का मध्य भाग।
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लस्तकी (किन्)  : पुं० [सं० लस्तक+इनि] धनुष।
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लस्तगा  : पुं० [हिं० लस+लगाव] १. बहुत थोड़ा सम्पर्क या संबंध। २. क्रम। सिलसिला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लस्सान  : वि० [अ] [भाव० लस्सानी] १. अधिक बोलनेवाला। वाचाल। २. लच्छेदार बातें कहनेवाला।
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लस्सी  : स्त्री० [सं० लप्सिका] दही का घोल विशेषतः वह घोल जिसे मथकर मक्खन निकाल लिया गया हो। वि० लाक्षणिक अर्थ में, तरल। पतला। स्त्री० =लसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लहक  : स्त्री० [हिं० लहकना] १. लहकने की क्रिया या भाव। २. आग की लपट। ३. चमक। ४. छबि। शोभा।
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लहकना  : अ० [सं० लता=हिलना-डोलना का अनु०] १. हवा में इधर-उधर हिलना। झोंके खाना। लहराना। २. हवा का झोंका आना। हवा कुछ जोर से चलना। उदाहरण—तीर ऐसे त्रिविध समीर लागे लहकन।—देव। ३. आग का प्रज्वलित होना। दहकना। संयो० क्रि०—उठना। ४. दे० ‘ललकना’।
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लहका  : पुं० =लचका (पतला गोटा)।
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लहकाना  : स० [हिं० लहकना] १. हवा में इधर-उधर हिलना-डुलना। झोका खाना। २. उत्तेजित करना। उकसाना। भड़काना। ३. प्रज्वलित करना। दहकाना। ४. लालसा से युक्त या उत्कंठित करना। संयो० क्रि०—देना।
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लहकारना  : स०=लहकाना।
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लहकौर  : स्त्री० [हिं० लहना+कौर (ग्रास)] १. विवाह की एक रस्म जिसमें वर कन्या के मुख में और कन्या-वर के मुख में ग्रास डालती हैं। २. उक्त अवसर पर गाये जानेवाले गीत ३. वर-वधू को कोहबर में खेलाये जानेवाले खेल।
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लँहगा  : पुं० =लहँगा।
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लहँगा  : पुं० [हिं० लंक=कमर+अंगा] १. कमर के नीचे का सारा अंग ढकने के लिए स्त्रियों का एक घेरदार पहनावा। घाघरा। २. उक्त प्रकार का वह आधुनिक पहनावा जिसे स्त्रियाँ धोती या साड़ी के नीचे पहनती हैं। साया।
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लहजा  : पुं० [अ० लहज़ः] १. स्वरों के उतार-चढ़ाव की दृष्टि से, बोलने का ढंग। २. कोई बात कहने का ऐसा ढंग जो शब्दों या स्वर के ढंग से अच्छा या बुरा लगे। ३. बहुत थोड़ा समय। क्षण या पल। लमहा।
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लहटोरा  : पुं० [?] एक प्रकार की खाकी या सफेद रंग की चिड़िया। जिसकी दुम लम्बी और बीच में काली होती है। यह कीड़े-मकोड़े, टिड्डे तथा छोटी-मोटी चिड़ियाँ खाती है।
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लहठी  : स्त्री० [हिं० लाह=लाक्षा] लाख की चूड़ी।
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लहँड़ा  : पुं० [?] जन्तुओं का झुंड। गल्ला। जैसे—भेड़-बकरियों का लहँड़ा। उदाहरण—सिंहन के लहँड़े नहीं, हंसन की नहिं पाँत।—कबीर।
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लँहदा  : स्त्री० =लहँदा।
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लहँदा  : पुं० =लहँदी।
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लहँदी  : स्त्री० [पं० लहँदा=पश्चिम दिशा] पश्चिमी पंजाब की बोली जो लंडा लिपि में लिखी जाती है। हिंदकी।
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लहन  : पुं० १. =लहना (प्राप्तव्य)। २. =कंजा (वनस्पति)।
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लहनदार  : पुं० [हिं० लहना+फा० दार] वह मनुष्य जिसका कुछ लहना किसी पर बाकी हो। अपना प्राप्य धन पाने या लेने का अधिकारी व्यक्ति।
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लहना  : स० [सं० लमन्, प्रा० लहन] १. प्राप्त करना। लाभ करना। पाना। २. आधिकारिक रूप से वह धन जो किसी से प्राप्य हो या किसी की ओर बाकी निकलता हो। पावना। पद—लहना-पावना=औरों को दिया हुआ ऐसा धन जो आधिकारिक रूप से प्राप्य हो। ३. भाग्य। स० [सं० लवन] १. काटना। छेदना। २. खेत की फसल काटना। ३. कतरना, छीलना या तराशना। स०=लहाना। अ० [सं० लसन] कही हुई बात या सोची हुई युक्ति का ठीक मौके पर बैठकर अभिप्राय की सिद्धि में सहायक होना। जैसे—यहाँ तो तुम्हारी बात (या तरकीब) लह गई अर्थात् ठीक सिद्ध हुई।
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लहनी  : स्त्री० [हिं० लहना] १. प्राप्य धन। लहना। २. भाग्य का फलभोग। ३. कसेरों का बरतन छीलने का एक औजार।
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लहबर  : पुं० [?] १. लंबी और ढीली पोशाक। जैसे—चोगा, लबादा आदि। २. एक तरह का तोता। ३. छड़ी। ४. झंडा। निशान।
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लहबरी  : पुं० [हिं० लहबर] एक तरह का तोता।
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लहम  : पुं० [अ] मांस। गोश्त।
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लहमा  : पुं० [अं० लहमा] समय का बहुत छोटा विभाग। निमेष। पल।
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लहर  : स्त्री० [सं० लहरी] १. तरल पदार्थों में हवा लगने पर उनके तल के कुछ अंश में उत्पन्न होनेवाली वह गति जो कुछ घुमावदार या टेढ़ी रेखाओं के रूप में किसी ओर चलती, फैलती या बढ़ती है। तरंग। मौज। हिलोर। जैसे—तालाब, नदी या समुद्र में उठनेवाली लहरें। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—मारना।—लेना। मुहावरा—लहर लेना=समुद्र के किनारे लहर में स्नान करना। २. किसी पदार्थ के ऊपरी तल में होनेवाली उक्त प्रकार की गति या कंप। जैसे—धान के पौधों में लहरें उठ रही थी। ३. मन में उत्पन्न होनेवाली कोई आवेगपूर्ण प्रवृत्ति। उमंग। जैसे—जनता में आनन्द की लहर उठ रही थीं। ४. सहसा मन में उत्पन्न होनेवाली इच्छा या प्रवृत्ति। मन की मौज। जैसे—मन में जब जो लहर उठी, तब वह काम कर डाला। ५. यथेष्ट मात्रा में मन को प्राप्त होनेवाला आनन्द, प्रसन्नता या हर्ष। जैसे—दो तीन दिन वहाँ अच्छी लहर ली। पद—लहर-बहर। क्रि० प्र०—आना।—लेना। ६. किसी पदार्थ में उत्पन्न होनेवाला वह सूक्ष्म कंप जो किसी दिशा में कुछ दूर तक बढ़ता चला जाता हो। जैसे—ध्वनि या प्रकाश की लहर। ७. कोई ऐसी गति जिसमें क्रमशः रह-रहकर कुछ उतार-चढ़ाव या घुमाव-फिराव होता रहता हो। जैसे—(क) साँप लहर मारता हुआ चलता है। (ख) हवा में सुगंध की लहरें आ रही थीं। क्रि० प्र०—देना।—मारना। ८. उक्त प्रकार या रूप की रेखा या रेखाएँ। जैसे—धूप-छांह के कपड़े में कई रंगों की लहरे उठती हैं। ९. शरीर में होनेवाली कोई ऐसी पीड़ा जो कभी कुछ हलकी हो जाती और कभी तेज हो जाती हो। जैसे—साँप के काटने पर शरीर में लहर आती है जिससे वह विष के प्रकोप से विकल होकर उठ-उठकर भागने लगता है। विशेष—दे० ‘तरंग’ और ‘मौज’ भी।
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लहर-पटोर  : पुं० [हिं० लहर+पट] १. एक तरह का धारीदार रेशमी कपड़ा। २. स्त्रियों के पहनने का लहँगा और चोली।
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लहर-बहर  : स्त्री० [हिं० लहर+अनु० बहर] १. आनन्द। मौज। २. वैभव और परम सुख की स्थिति।
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लहरदार  : वि० [हिं० लहर+फा० दार (प्रत्यय)] १. जिसकी आकृति लहर या लहरों जैसी हो। २. जिस पर उक्त आकृति या आकृतियाँ बनी हुई हों।
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लहरना  : अ०=लहराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लहरा  : पुं० [हिं० लहर] १. लहर। तरंग। २. आनन्द। मौज। क्रि० प्र०—लेना। ३. गाना-नाचना आरम्भ होने से पहले बजाई जानेवाली बाजों की वह गत वातावरण को संगीतमय करने या समाँ बाँधने के लिए बजाई जाती है। पुं० [?] एक प्रकार की घास। पुं० =लहँगा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लहराना  : अ० [हिं० लहर+आना (प्रत्यय)] १. तरल पदार्थों का लहरों से युक्त होना। लहरें उठना। तरंगित होना। जैसे—तालाब या नदी का (अथवा उसके पानी का) लहराना। २. किसी तल या विस्तार में रह-रहकर ऐसी कंपन युक्त गति होना जो कभी कुछ ऊपर नीचे या इधर-उधर भी होती है या चलती हो। जैसे—(क) खेतों में फसल या हरियाली का लहराना। (ख) हवा में झंडा या सिर के बाल लहराना। ३. लहरों की तरह कभी कुछ इधर और कभी कुछ उधर होते हुए उठना, चलना या बढ़ना। जैसे—(क) सांप लहराता हुआ चलता है। (ख) पहाड़ी झरने या रास्ते लहराते हुए चलते हैं। (ग) हवा चलने पर आग की लपटे लहराती है। ४. मन की लहर अर्थात् उमंग या उल्लास में आना। जैसे—वसंत ऋतु की हवा लगने पर मन लहराने लगता है। ५. कोई चीज पाने या लेने के लिए मन लहराना। ६. किसी प्रकार की छवि या शोभा से युक्त होना। फबना। लसना। जैसे—पर्वतों पर (या वन में) प्रकृति की शोभा लहरा रही थी। स० [हिं० लहर+आना (प्रत्यय)] १. हवा के झोके में लहरों की तरह इधर-उधर हिलाना-डुलाना या हिलने-डुलने के लिए छोड़ देना। जैसे—सिर के बाल लहराना। २. सीधे न चलकर लहरों की तरह इधर-उधर होते हुए झोके खाते हुए चलना या बढ़ना। ३. किसी चीज को हाथ में लेकर इधर-उधर गति देना। जैसे—बच्चों को गोद में लहराना।
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लहरि  : स्त्री० [सं० ल√ह्र+इन्]=लहर।
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लहरिया  : पुं० [हिं० लहर+इया (प्रत्यय)] १. लहर की आकृति की रेखाओं का समूह। २. वह कपड़ा जिस पर लहरों के आकार की आकृतियाँ हों। स्त्री० =लहर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लहरियादार  : वि० [हिं० लहरिया+दार (प्रत्यय)] (वस्त्र आदि) जिस पर लहरिया बना हो।
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लहरिल  : वि० [सं० लहर]=लहरदार।
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लहरी  : स्त्री० [सं, लहरि+ङीष्] १. लहर। तरंग। हिलोर। मौज। वि० [हिं० लहर+ई (प्रत्यय)] १. मन की तरंग के अनुसार काम करनेवाला। २. सदा प्रसन्न रहनेवाला। खुशमिजाज।
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लहरी-रव  : [सं० ब० स०] समुद्र। उदाहरण—लहरिऊँ लिये जणि लहरीरव।—प्रिथीराज।
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लहरीला  : वि०=लहरदार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लहल  : पुं० [?] एक प्रकार का राग जो दीपक राग का पुत्र कहा गया है।
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लहलहा  : वि० [हिं० लहलहाना] [स्त्री० लहलही] १. फूल-पत्तों से भरा और सरस लहलहाता हुआ। हरा भरा। २. परम प्रसन्न और प्रफुल्ल।
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लहलहाट  : स्त्री० [हिं० लहलहाना] १. लहलहाते हुए होने की अवस्था या भाव। २. हरियाली। जैसे—मैं इस हवा में क्या क्या बरसात की बहारें। सब्जों की लहलहाहट बागात की बहारें।—नजीर।
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लहलहाना  : अ० [हिं० लहरना (पत्तियों का)] १. लहरानेवाली हरी पत्तियों से भरना। फूल-पत्तियों से सरस और सजीव दिखाई देना। हरा-भरा होना। २. सूखे पेड़ पौधों का फिर से हरा-भरा होना। पनपना संयो० क्रि०—उठना।—जाना। ३. आनन्द या हर्ष से पूर्ण होना। प्रफुल्ल होना। ४. दुबले शरीर का फिर से सबल या हृष्ट-पुष्ट होना। संयो० क्रि०—उठना।
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लहली  : स्त्री० [देश] वह दल-दल जो किसी जलाशय के सूखने पर रह जाती है।
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लहसुआ  : पुं० [देश] एक प्रकार की बरसाती घास जिसकी साग या रोटी बनाकर गरीब लोग खाते हैं। कन-कौआ। पुं० लिसोड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लहसुन  : पुं० [सं० लशुन] १. मसाले के काम आनेवाली प्याज की तरह की एक गाँठ और उसका पौधा। २. शरीर पर होनेवाला उक्त के आकार का एक प्रकार का चिन्ह या लक्षण। ३. मानिक का एक दोष जिसे संस्कृत में ‘अशोभक’ कहते हैं।
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लहसुनिया  : पुं० [हिं० लहसुन] धूमिल रंग का एक प्रकार का रत्न या बहूमूल्य पत्थर। रुद्राक्षक।
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लहा  : पुं० =लाह।
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लहा-छेह  : पुं० [?] नृत्य की क्रियाओं में से चौथी क्रिया। नाच की एक गति। इसमें मुख्यतः बहुत तेजी या फुरती दिखाई जाती है उदाहरण—लहा-छेह अति गतिन की सबनि लखे सब पाय।—बिहारी। वि० १. तीव्र गतिवाला। २. चंचल।
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लहाना  : स० [सं० लभन] प्राप्त कराना। मिलाना। स० [हिं० लहना] १. ऐसे ढंग से बात कहना या उक्ति करना कि अभिप्राय सिद्ध हो जाय। २. कोई चीज ठीक जगह पर बैठाना या लगाना। स० [?] गँवाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लहालह  : वि० =लहलहा।
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लहालोट  : वि० [हिं० लाभ, लाह+लोटना] १. हँसी से लोटता हुआ। २. आनन्द या प्रसन्नता से भरा हुआ। ३. प्रेम में विभोर।
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लहास  : स्त्री० =लाश।
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लहासन  : स्त्री० [देश] वह काली भेड़ जिसकी कनपटी से माथे तक का भाग लाल होता है। (गड़रिये)
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लहासी  : स्त्री० [सं० लभस, प्र० लहस=रस्सी] १. वह मोटी रस्सी जिससे नाव या जहाज बाँधे जाते हैं। २. डोरी। रस्सी। ३. रास्ते मे निकली हुई पेड़-पौधों की खूंटियाँ। (पालकी के कहार)
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लहि  : अव्य, [हिं० लहना+प्राप्त होना, पहुँचना] पर्य्यंत। तक।
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लहीम  : वि० [अ] १. लहम अर्थात् मांस से युक्त। मांसल। २. हृष्ट-पुष्ट। मोटा-ताजा।
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लहु  : वि० [सं, लहु] १. छोटा। २. अल्प। कम। थोड़ा। उदाहरण—माघ लहुलहु सीत लागे।—ग्राम्य गीत।
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लहुरा  : वि० [सं० लघु, प्रा०लहु+रा (प्रत्यय)] [स्त्री० लहुरी] वय में छोटा। कनिष्ठ। जैसे—लहुरा भाई।
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लहू  : पुं० [सं० लोह, हिं० लोहू] शरीर में का रक्त। रुधिर। खून। पद—लहू-लुहान। मुहावरा—(खाना पीना) लहू करना=किसी का मन इतना अधिक दुःखी कर देना कि उसे खाना-पीना तक बहुत बुरा लगने लगे। लहू का घूँट पीना=बहुत अधिक मानसिक कष्ट चुपचाप मन में ही दबा रखना या सह लेना। (किसी के) लहू का प्यासा होना=किसी से इतना अधिक वैर या शत्रुता होना कि उसके प्राण तक ले लेने को जी चाहे (आँखों से) लहू टपकना=बहुत अधिक क्रोध के कारण आँखें लाल होना। (शरीर से) लहू टपकना=शरीर में यथेष्ट बल-वीर्य होने के कारण उसका रंग लाल होना। (किसी का) लहू पीना=किसी को बहुत अधिक तंग या दुःखी करना। लहू लगाकर शहीदों में मिलना=बिना कुछ भी त्याग या परिश्रम किये अपने आपको बडे़ लोगों में गिनना या समझना।
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लहू-लुहान  : वि० [हिं० लहू+अनु, लुहान] आघात, क्षत आदि के कारण जिसका सारा शरीर लहू से भर गया हो। रक्ताक्त।
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लहेरा  : पुं० [हिं० लाह=लाख+एरा (प्रत्यय)] १. वह जो लाख की चूड़ियाँ आदि बनाने या चीजों पर लाह का रंग चढ़ाने का काम करता हो। २. वह अंगरेज जो रेशमी कपड़े रँगने का काम करता हो। पुं० [?] एक प्रकार का सदाबहार पेड़ जिसकी लकड़ी बढ़िया और मजबूत होने के कारण मेज-कुर्सियाँ आदि बनाने के काम आती है।
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लहेसना  : स०=लेसना (चिपकाना या सटाना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ला  : प्रत्यय [अ०] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के आरम्भ में लगकर अभाव या राहित्य सूचित करता है। जैसे—ला-जबाव, ला-परवाह, ला-वारिस आदि।
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ला-खिराज  : वि० [फा०] (भूमि) जिसका खिराज अर्थात् लगान न देना पड़े। कर या लगान से मुक्त।
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ला-खिराजी  : स्त्री० [फा० लाखिराज+ई (प्रत्यय)] १. वह भूमि जिस पर खिराज या लगान न देना पड़े। २. कर या लगान से होनेवाली छूट। वि०=ला-खिराज।
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ला-जबान  : स्त्री० [अ+फा०] गाली।
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ला-जबाव  : वि० [फा०] १. जिसके जवाब अर्थात् जोड़ या बराबरी का और कोई न हो। अनुपम। बेजोड़। २. (व्यक्ति) जो जवाब या उत्तर न दे सकता हो। निरुत्तर। ३. (बात) जिसका जवाब या उत्तर न दिया जा सकता हो।
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ला-पता  : वि० [अ० ला+हिं० पता] १. जिसका पता न लगे। खोया हुआ। २. जो इस प्रकार कहीं चला गया या छिप गया हो कि किसी तरह उसका पता न लगा सके। ३. (पत्र आदि) जिस पर पता न लिखा गया हो और यों ही डाक में छोड़ दिया गया हो। क्रि० प्र०—रहना।—होना।
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ला-परवाह  : वि० [अ+फा०] [भाव० लापरवाही] १. जिसे किसी बात की परवाह या चिंता न हो। निश्चिन्त। बे-फिक्र। २. जो अपने काम पर ठीक तरह से ध्यान न देता हो। असावधान।
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ला-परवाही  : स्त्री० [अ० ला+फा० परवाह] १. लापरवाह होने की अवस्था या भाव। बे-फिक्री। २, असावधानी। प्रमाद।
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ला-बुद  : वि० [अ०] जरूरी। आवश्यक।
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ला-बुदी  : वि० =लाबुद।
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ला-वबाल  : वि० [अ० ला+फा० वबाल] १. ला-परवाह। २. आवारा। ३. अविचारी।
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ला-वबाली  : स्त्री० [अ+फा०] १. ला-वबाल होने की अवस्था या भाव। २. आवारागर्दी। ३. अविचार
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ला-वल्द  : वि० [फा०] [भाव०-लावल्दी] जो पिता न हो अर्थात् जिसके आगे सन्तान न हो। निःसन्तान।
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ला-वारिस  : वि० [अ०] [भाव० ला-वारिसी] १. (व्यक्ति) जिसका कोई वारिस अर्थात् उत्तराधिकारी न हो। २. (वस्तु) जिसे संभावकर न रखा गया हो और जो यों ही इधर-उधर पड़ी रहती हो। ३. (माल) जिसकी देख-रेख करनेवाला या मालिक न हो।
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ला-वारिसी  : स्त्री० [अ० ला-वारिस] ला-वारिस होने की अवस्था या भाव। वि० =ला-वारिस।
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ला-सानी  : वि० [अ०] जिसका सानी या जोड़ का कोई न हो। अद्वितीय। बेजोड़।
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लाइ  : पुं० [सं० अलात=लुक, प्रा० अलाप] अग्नि। आग। स्त्री० [हिं० लाना] लगन। लगावट।
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लाइक  : वि० =लायक।
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लाइची  : स्त्री० =इलायची।
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लाइट  : स्त्री० [अं०] रोशनी। प्रकाश। उजाला।
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लाइट-हाउस  : पुं० [अं०] प्रकाश गृह। प्रकाश-स्तम्भ।
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लाइन  : स्त्री० [अं०] १. अवली। पंक्ति। कतार। २. रेखा। लकीर। ३. रेल की पटरी। ४. घरों की वह पंक्ति जिनमें सिपाही रहते हैं। बैरिक। मुहावरा—लाइन सपुर्द करना=किसी सिपाही पर कोई आरोप होने पर उसका विचारार्थ लाइन या बैरक में भेजा जाना।
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लाइब्रेरियन  : पुं० [अं०] पुस्तकाध्यक्ष।
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लाइब्रेरी  : स्त्री० [अं०] पुस्तकालय।
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लाइसेंस  : पुं० [अं०] १. कोई विशेष कार्य करने के लिए दिया जानेवाला अनुज्ञापत्र। २. अनुज्ञा।
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लाई  : स्त्री० [सं० लाजा] धान, बाजरे आदि को सुखाकर और गरम बालू में भूनकर बनाई हुई खील। लावा। पद—लाई का सत्तू=उक्त प्रकार की खीलों को पीसकर बनाया हुआ सत्तू जो बहुत जल्दी हजम होता और इसीलिए दुर्बल रोगियों को खिलाया जाता है। स्त्री० [हिं० लाना=लगाना] १. आपस में विरोध उत्पन्न कराने या एक को तुच्छ या बुरा सिद्ध करने के लिए एक की बात दूसरे से जाकर कहना। इधर की बात उधर लगाना। चुगली। पद—लाई-लुतरी। क्रि० प्र०—लगाना।
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लाई-लुतरी  : स्त्री० [हिं] १. चुगली। २. शिकायत। वि० स्त्री० एक की बात दूसरे से कह करके आपस में विरोध कराने अथवा एक की दृष्टि में दूसरे को तुच्छ या हीन सिद्ध करनेवाली (स्त्री)।
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लाउड-स्पीकर  : पुं० [अं०] बिजली की सहायता से चलनेवाला एक प्रकार का प्रसिद्ध यंत्र जिसके द्वारा सब तरह की आवाजें इच्छानुसार तेज अथवा धीमी की जा सकती है।
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लाऊ  : पुं० =लौआ (घिया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाँक  : स्त्री० [सं० लक=डंठल या बाल] १. ताजी कटी हुई फसल। २. भूसा। स्त्री० लंक (कमर) उदाहरण—फटै धर प्रेत बटै सिर फाँक, लटै मन केक उहै उर लाँका।—कविराजा सूर्यमाल।
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लाकड़ा  : पुं० [स्त्री० लाकड़ी] =लकड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाकुटिक  : वि० [सं० लकुट+ठञ्-इक] लकुट या डंडा धारण करनेवाला। पुं० १. पहरेदार। चाकर। सेवक।
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लाक्षण  : वि० [सं० लक्षण+अण्] लक्षण संबंधी। लक्षण का।
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लाक्षणिक  : वि० [सं० लक्षण+ठक्—इक] १. लक्षण संबंधी। २. जिससे लक्षण प्रकट हों। ३. लक्षणों से युक्त। ४. अर्थ या प्रयोग जो शब्द की लक्षणा शक्ति पर आश्रित या उससे संबद्ध हो। ५. लक्षण के रूप में होनेवाला। पुं० १. वह जो लक्षणों का ज्ञाता हो। लक्षण जाननेवाला। २. ऐसा छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३२ मात्राएँ होती है।
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लाक्षण्य  : वि० [सं० लक्षण+ण्यञ्] १. लक्षण-संबंधी। २. लक्षण बतलानेवाला। ३. लक्षणों का ज्ञान रखनेवाला।
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लाक्षा  : स्त्री० [सं०√लक्ष्य+अ+टाप्] लाख नामक लाल पदार्थ जो कुछ वृक्षों पर कीड़े बनाते हैं। दे० ‘लाख’।
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लाक्षा-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] लाख का वह गृह जिसे दुर्योधन ने पाँडवों को जला देने की इच्छा से बनवाया था पर इसमें आग लगने से पहले ही सूचना पाकर पांडव लोग इसमें से निकल गये थे।
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लाक्षा-रस  : पुं० [सं० ष० त०] महावर जो पहले पानी में लाख उबाल कर बनाते थे।
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लाक्षा-वृक्ष  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. ढाक। पलास। २. कौशाम्र। कोसम।
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लाक्षिक  : वि० [सं० लाक्षा+ठक्—इक] १. लाक्षा संबंधी। लाख का। २. लाख का बना हुआ।
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लाख  : वि० [सं० लक्ष, प्रा० लाख] जो संख्या में सौ हजार हो। पद—लाक टके की बात=अत्यन्त उपयोगी तथा मूल्यवान् बात। पुं० सौ हजार की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—१,०००,०० मुहावरा—लाख से लीख होना=धन कुबेर का निर्धन होना। क्रि० वि० बहुत अधिक। बहुतेरा। जैसे—मैंने उन्हें लाख समझाया पर उन्होंने कुछ सुनी नहीं। स्त्री० [सं० लाक्षा] लाल रंग का एक प्रसिद्ध पदार्थ जो पलास, पीपल आदि के वृक्षों की टहनियों पर कई प्रकार के लाख कीड़ों की कुछ प्राकृतिक क्रियाओं से बनता है, और जिसका उपयोग चूडि़याँ आदि बनाने, पत्थर और लोहे को जोड़कर एक करने तथा रंग आदि बनाने के कामों में होता है। लाह।
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लाखना  : अ० [हिं० लाख] १. बरतनों के छेदों पर लाख लगाकर उन्हें बंद करना। २. लाख के घोल से मिट्टी के बरतनों पर लेप करना। स०=लखना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाखपती  : पुं०=लखपती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाखा  : पुं० [हिं० लाख] १. लाख का बना हुआ एक प्रकार का रंग जिसे स्त्रियाँ सुन्दरता के लिए होठों पर लगाती हैं क्रि० प्र०—जमाना।—लगाना। २. गेहूँ के पौधों में लगनेवाला एक रोग जिससे पौधे की नाल लाल रंग की होकर सड़ जाती है। इसे गेरुआ या कुकुहा भी कहते हैं। क्रि० प्र०—लगना। ३. मारवाड़ के एक प्रसिद्ध वैष्णव भक्त। वि० [स्त्री० लाखी] लाख के रंग का। जैसे—लाखी गाय।
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लाखागृह  : पुं०=लाक्षागृह। (दे०)
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लाखी  : वि० [हिं० लाख+ई (प्रत्यय)] लाख के रंग का। मटमैला। लाखा। पुं० उक्त प्रकार का मटमैला लाल रंग।
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लाखों  : वि० [हिं० लाख] १. कई लाख। २. अत्यधिक, विशेषतः असंख्य।
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लाँग  : स्त्री० [सं० लांगूल] पहनी हुई धोती या लँगोट का वह छोर जिसे जाँघों के नीचे से निकाल कर पीछे कमर में खोंसा जाता है। काछ।
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लाग  : स्त्री० [हिं० लगना] १. लगे हुए होने की अवस्था या भाव। लगाव। संपर्क। संबंध। जैसे—इस मकान में बगल वाले मकान से लाग है, अर्थात् उसमें से इसमें सहज में कोई आ सकता हो। २. मानसिक दृष्टि से होनेवाली किसी प्रकार की लगावट। जैसे—अनुराग, प्रेम, लगन आदि। ३. प्रतिस्पर्धा। होड़। पद—लग-डाँट। ४. दुश्मनी। बैर। शत्रुता। ५. कोई ऐसा उपाय, तरकीब या उक्ति जो अन्दर-अन्दर या गुप्त रूप से काम करती हो, और ऊपर सहसा न दिखाई देती हो। जैसे—(क) आग का खेल। (ख) जादू टोना या मंत्र-तंत्र। ६. उक्त के आधार पर एक प्रकार का ऐसा स्वाँग, जिसमें विशेष कौशल हो और जो जल्दी समझ में न आवे। जैसे—किसी के पेट या गरदन के आरपार (वास्तव में नही, बल्कि कौशल से दिखलाने भर के लिए) तलवार या कटार गई हुई दिखलाना। ७. वह नियत धन जो विवाह आदि शुभ अवसरों पर ब्राह्मणों, भाटों, नाइयों आदि को अलग अलग रस्मों के संबंध में दिया जाता है। ८. खाने-पीने का कच्चा सामान। रसद। (बुन्देल) ९. भूमि-कर। लगान। १॰. धातुओं को फूँककर तैयार किया हुआ रस। भस्म। ११. एक प्रकार का नृत्य। १२. वह चेप जिससे चेचक का अथवा इसी प्रकार का और कोई टीका लगाया जाता है। वि० काम में आने या लग सकने के योग्य। उदाहरण—तुरी लाग ले ताकि तिम।—प्रिथीराज। अव्य० [सं० लग्न] १. तक। पर्यंत। २. निकट। पास। ३. लिए। वास्ते। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लाग-डाँट  : स्त्री० [सं० लग्न-दण्ड या हिं० लाग-वैर+डाँट] १. आपस में होनेवाली ऐसी प्रतिस्पर्धा पूर्ण स्थिति जिसमें कुछ वैर-विरोध का भाव भी सम्मिलित हो। २. दे० ‘लग्न-दण्ड’ (नृत्य)।
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लाग-दाँट  : स्त्री०=लाग-डाँट। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लाग-लपेट  : स्त्री० [हिं०] १. संपर्क। संबंध। २. वह तत्त्व या भाव जो किसी बात में अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा या लगा हुआ हो। ३. विशेषतः ऐसी बात जिसमें धोखा-धडी की कोई और बात भी छिपी हो।
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लागत  : स्त्री० [हिं० लगना] १. किसी पदार्थ के निर्माण में होनेवाला व्यय। जैसे—इस कारखाने पर ५0 हजार लागत बैठी है। क्रि० प्र०—आना।—बैठना।—लगना। २. वह पूँजीगत व्यय जो विक्रयार्थ बनाई हुई किसी वस्तु पर पड़ता है और जिसमें श्रम, पूँजी, व्यवस्था आदि का पुरस्कार भी सम्मिलित होता है।
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लागना  : वि० [हिं० लगना] किसी के पीछे लगा रहनेवाला। पुं० १. वह व्यक्ति जो टोह लेने के लिए किसी के पीछे लगा हुआ हो। २. व्याध। शिकारी। अ०=लगना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लागर  : वि० [फा० लागर] [भाव० लागरी] दुबला-पतला और कमजोर। अशक्त और कृश।
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लाँगल  : पुं० [सं०√लंग् (गति)+कलच्, पृषो० सिद्धि] १. खेत जोतने का हल। २. शुक्ल पक्ष की द्वितीया और उसके कुछ दिन बाद दिखाई देनेवाले चन्द्रमा के दोनों श्रृंग या नुकीले सिरे। ३. पुरुष का लिंग। शिश्न। ४. ताड़ का पेड़। ५. जहाज या नाव का लंगर। ६. एक प्रकार का पौधा और उसके फूल।
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लांगल-चक्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] फलित ज्योति में, हल के आकार का एक प्रकार का चक्र जिसकी सहायता से भावी फसल के संबंध में शुभाशुभ फल जाना जाता है।
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लांगल-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] हरिस।
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लांगल-ध्वज  : पुं० [सं० ब० स०] बलराम।
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लांगलक  : पुं० [सं० लांगल+कन्] हल की आकृति का वह चीरा जो भगंदर रोग में लगाया जाता है। (सुश्रुत)
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लांगलि  : पुं० [सं० लांगली] १. कलियारी नाम का जहरीला पौधा। २. मंजीठ। ३. जल पीपल। ४. पिठवन। ५. केवाँच। ६. गजपीपल। ७. चव्य। ८. महाराष्ट्री लता। ९. ऋषभक नामक अष्टवर्ग की ओषधि।
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लांगलिक  : पुं० [सं० लांगल+ठन्—इक] एक प्रकार का स्थावर विष। वि० लांगल अर्थात् हल-संबंधी।
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लांगलिका  : स्त्री० =लांगली (कलियारी)।
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लांगली (लिन्)  : पुं० [सं० लांगल+इनि] १. श्री बलराम जी। २. नारियल। ३. साँप। स्त्री० [लागंल+ अच्+ङीष्] १. एक नदी का नाम। (पुराण)। २. कलियारी। ३. मंजीठ। ४. पिठवन। ५. केवाँच। कौंछ। ६. जलपीपल। ७. गजपीपल। ८. चाव। चव्य। ९. महाराष्ट्री लता। १॰. ऋषभक नामक अष्ट वर्ग की ओषधि।
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लाँगा  : पुं० =लहँगा।
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लागि  : अव्य० [हिं० लगना] १. कारण हेतु। २. निमित। लिए। वास्ते। ३. तक। पर्यन्त। स्त्री० =लग्गी। स्त्री० =लगन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लागुडिक  : वि० [सं० लगुड+ठक्-इक] जो हाथ में डंडा लिये हो। पुं० पहरेदार। प्रहरी।
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लागू  : वि० [हिं० लगना] १. जो लग सकता हो या लगाया जा सकता हो। प्रयुक्त होने के योग्य। चरितार्थ होनेवाला। जैसे—वही नियम यहाँ भी लागू होता है। (मराठी से गृहीत) २. जो किसी प्रकार किसी के साथ लगा रहता हो। सम्बद्ध। जैसे—(क) बुरे दिनों में कोई लागू नहीं होता। (ख) सब जीते जी लागू है। ३. वैरी। शत्रु। जैसे—क्यों उसकी जान के लागू हो रहे हो। ४. (पशु) जो किसी से बदला लेने का अवसर ढूँढ़ता रहता हो। ५. किसी जगह बराबर शिकार मिलते रहने से परच जाना। मुहावरा—(जानवर) लागू बनना या होना=जानवर विशेषतः हिंसक जानवर का शिकार पाने के लिए परच जाना। जैसे—चीता उस गाँव में लागू हो गया है।
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लांगूल  : पुं० [सं०√लंग्+ऊलच्] १. पूँछ। दुम। २. लिंग। शिश्न।
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लांगूली (लिन्)  : पुं० [सं० लांगूल+इनि] १. बंदर। २. ऋषभ नामक ओषधि।
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लागे  : अव्य०=लागि।
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लाँघन  : स्त्री० [हिं० लाँघना] १. लाँघने या लाँघे जाने की अवस्था, क्रिया या भाव। जैसे—बच्चे पर लाँघन पड़ना। २. वह स्थिति जिसमें कोई चीज या जगह किसी ने लाँघी हो। जैसे—ऐसी औरतों की तो लाँघन भी बचानी चाहिए, अर्थात् उनकी लाँघी हुई चीज या जगह भी नहीं लाँघनी चाहिए। क्रि० प्र०—पड़ना।
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लाँघना  : स० [सं० लंघन] १. डग भरकर या छलाँग लगाकर अवकाश, या स्थान पार करना। जैसे—घोड़े का नाला लाँघना। २. डग भर कर या छलाँग लगाकर किसी खाद्य वस्तु के ऊपर से होकर जाना जो अनुचित माना जाता है। जैसे—किसी की थाली लाँघना। ३. अवकाश, स्थान आदि को पीछे छोड़ते हुए आगे निकलना। जैसे—गाड़ी पहाड़ों को लाँघती हुई जा रही थी। ४. नर पशु का मादा के साथ संभोग करना। जैसे—यह घोड़ी अभी लाँघी नहीं गई है।
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लाँघनी उड़ी  : स्त्री० [हिं० लाँघना+उड़ी=कुदान] मालखंभ की एक प्रकार की कसरत।
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लाघव  : पुं० [सं० लघु+अण्] १. लघु होने की अवस्था या भाव। २. छोटा या संक्षिप्त करने की क्रिया या भाव। थोड़े शब्दों में अधिक भाव प्रकट करना। (ब्रेविटी) ४. हाथ की चालाकी या सफाई। पद—हस्त लाघव। ५. नीरोगता। ६. हल्कापन। ७. नपुंसक। ८. फुर्ती। अव्य० जल्दी या फुरती से और सहज में।
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लाघविक  : वि० [सं० लाघव+ठक्—इक] १. लघु रूप में आया हुआ। २. लगु रूप में होनेवाला। ३. संक्षिप्त।
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लाघवी  : स्त्री० [सं० लाघवी+हिं० ई (प्रत्यय)] १. फुरती। शीघ्रता। २. हाथ में चालकी या सफाई।
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लाँच  : स्त्री० [देश] रिश्वत। घूस। उत्कोच। (महाराष्ट्र)
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लाचार  : वि० [फा] [भाव० लाचारी] १. जिसके पास कोई चारा या उपाय न हो। निरुपाय। मजबूर। जैसे—पास में पैसा न होने से वह लाचार है। २. जो असमर्थता के फलस्वलरूप कुछ कर-धर या कहीं आ-जा न सकता हो। असमर्थ। अव्य० निरुपाय या विवश होकर। जैसे—लाचार वह वहाँ से चल पड़ा।
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लाचारी  : स्त्री० [फा०] १. लाचार होने की अवस्था या भाव। विवशता। २. असमर्थतापूर्ण स्थिति।
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लाँची  : पुं० [सं० लाँच] एक प्रकार का धान।
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लाची  : स्त्री० [हिं० इलायची] १. एक प्रकार का सुगंधित धान और उसका चावल। २. इलायची।
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लाचीदाना  : पुं०=इलायचीदाना।
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लाँछन  : पुं० [सं०√लांछ् (चिह्नित करना)+ल्युट—अन] १. चिन्ह । निशान। २. दाग। धब्बा। ३. कोई निन्दनीय या बुरा काम करने पर चरित्र पर लगनेवाला धब्बा। कलंक। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। ४. ऐब। दोष।
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लाछन  : पुं० १. =लांछन। २. =लक्षण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाँछना  : स्त्री० =लांछन।
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लांछित  : भू० कृ० [सं० लांछ्+क्त] १. जिस पर लांछन लगा हो। कलंकित। २. चिन्हों से युक्त। ३. अलंकृत।
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लाछी  : स्त्री०=लक्ष्मी।
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लाज  : पुं० [सं०√लाज् (भर्त्सना)+अच्] १. खस। उशीर। २. पानी में भिगोया हुआ चावल। ३. धान का लावा। खील। स्त्री० [सं० लज्जा] १. लाज। शरम। हया। पद—लाज के जहाज=अत्यन्त लज्जाशील। उदाहरण—बिना ही अनीति रीति लाज के जहाज के।—भूषण। मुहावरा—लाजो मारना=लज्जा के मारे सिर न उठा सकना। २. प्रतिष्ठा। मान-सम्मान। मुहावरा—लाज रखना=प्रतिष्ठा बचाना। अप्रतिष्ठित न होने देना। लाज बचाना रखना या सम्हालना=लज्जित या तिरस्कृत होने से बचाना। (किसी की) लाज होना=किसी की प्रतिष्ठा, रक्षा आदि का भार अपने ऊपर लेना। स्त्री० [सं० रज्जु] १. रस्सी। २. कूएँ से पानी खींचने का रस्सा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाज-पेया  : स्त्री० [सं०] खोई या लावे की माँड़। खील का माँड़।
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लाज-भक्त  : पुं० [सं० ष० त०] लाज पेया जो पथ्य रूप में रोगी को दिया जाय।
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लाज-शक्तु  : पुं० [सं० ष० त०] खोई या लावे का सत्तू।
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लाज-होम  : पुं० [सं० तृ०त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का होम, जिसमें खोई या धान का लावा आहुति में दिया जाता था।
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लाजक  : पुं० [सं० लाज+कन्] धान का लावा।
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लाजना  : अ० [हिं० लाज+ना (प्रत्यय)] लज्जित होना। शरमाना। स० किसी को लज्जित या शरमिन्दा करना। लजाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाजवंत  : वि० [हिं० लाज+वंत (प्रत्यय)] [स्त्री० लाजवन्ती] लज्जाशील। हयादार।
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लाजवंती  : स्त्री० [हिं० लजालू] १. लज्जाशील स्त्री। २. लजालू नाम का पौधा। छुई-मुई।
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लाजवर्द  : पुं० [सं० राजवर्त्तक से फा०] [वि० लाजवर्दी] १. प्रायः जंगाली या हलके नीचे रंग का एक प्रसिद्ध बहुमूल्य पत्थर या रत्न जिसके तल पर सुनहली चित्तियाँ होती हैं, रावटी। २. विलायती नील जो गंधक के मेल से बनता और बहुत बढ़िया तथा गहरा होता है।
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लाजवर्दी  : वि० [फा०] लाजवर्द के रंग का। गहरा नीला।
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लाजा  : स्त्री० [सं० लाज+टाप्] १. चावल। २. भूने हुए धान की खील। लावा।
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लाजिम  : वि० [अं० लाजिम] आवश्यक और उचित। कर्त्तव्य के विचार के अपरिहार्य।
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लाजिमी  : वि० =लाजिम।
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लाँझ  : स्त्री० [देश] बाधा। विघ्न।
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लाट  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश जहाँ अब भडौच अहमदाबाद आदि नगर है। गुजरात का एक भाग। २. उक्त देश का निवासी। ३. कपड़ा, विशेषतः फटा-पुराना कपड़ा। ४. ‘लाटानुप्रास’। स्त्री० [हिं० लट्ठ ?] १. ऊँचा, बड़ा और मोटा खम्भा। जैसे—तालाब के बीच में गाड़ी हुई लाट। २. उक्त प्रकार की कोई वास्तुरचना। मीनार। जैसे—कुतुबमीनार की लाट। ३. वह लम्बा बाँध जो किसी मैदान के पानी के बहाव को रोकने के लिए बनाया जाता है० पुं० [अ० लार्ड] ब्रिटिश शासन में भारत के किसी प्रान्त या देश का सबसे बड़ा शासक। गर्वनर। पुं० [अं० लांट] व्यापारिक क्षेत्र में कटी-फटी, टूटू-फूटी या पुरानी रखी हुई बहुत-सी चीजों का वह विभाग या समूह जो एक ही साथ रखा, बेचा या नीलाम किया जाय। पद—लाट-घाट, लाट-बंदी। पुं०=लाठ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाट-घाट  : पुं० [अ० लाट=ढेर+हिं० घाट=स्थान] व्यापारिक क्षेत्र में वह स्थिति जिसमें कटा-फटा या रहतिया माल एक साथ सस्ते दामों पर थोक बेच दिया गया हो। जैसे—इस दूकान में तो अधिकतर लाट-घाट का ही माल रहता है।
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लाट-बंदी  : स्त्री० [अं० लाँट+फा० बंदी] चीजों के अलग-अलग विभाग करके उनकी राशि या वर्ग बनाने की क्रिया या भाव।
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लाटा  : पुं० [देश] भुने हुए महुए और तिलों को कूटकर बनाए हुए लड्डू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाटानुप्रास  : पुं० [सं० लाट-अनुप्रास, मध्य० स०] एक प्रकार का शब्दालंकार जिसमें शब्दों की पुनरुति तो होती है परन्तु अन्वय में हेर-फेर करने से तात्पर्य भिन्न हो जाता है। जैसे—पूत सपूत तो क्यों धन संचय। पूत कपूत तो क्यों धन संचय। (कहा०)
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लाटिक  : स्त्री० =लाटी (साहित्यिक शैली)।
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लाटी  : स्त्री० [सं० लाट+अच्+ङीष्] संस्कृत साहित्य में रचना की वह विशिष्ट प्रणाली या शैली जो लाट तथा उसके आस-पास के देशों में प्रचलित थी और जो वैदर्भी तथा पांचाली के मध्य की रीति थी, और गौड़ी की ही तरह भयानक, रौद्र, वीर आदि उग्र रसों के लिए उपयुक्त मानी जाती थी। लाटिका। स्त्री० [अनु० लटलट=गाढ़ा या चिपचिपा होना।] वह अवस्था जिसमें मुँह थूक और होंठ सूख जाते हैं। क्रि० प्र०—लगना।
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लाटीय  : वि० [सं० लाट+छ-ईय] लाट नामक देश का। लाटक।
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लाठ  : स्त्री० [सं० यष्टि, पुं० हिं० लट्ठ] १. कोल्हू में लगी हुई वह बल्ली जो बराबर घूमती रहती है। २. दे० ‘लाट’।
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लाठा-लाठी  : स्त्री० [हिं० लाठी०] आपस में लाठियों से होनेवाली मार-पीट या लड़ाई।
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लाठी  : स्त्री० [सं० यष्ठी, प्रा० लट्ठी] ठस या ठोस बाँस का ६-७ फुट लंबा टुकड़ा। क्रि० प्र०—चलना।—बाँधना।—मारना। २. लाक्षणिक रूप में, सहारा। जैसे—यही लड़का तो बुढ़ापे की लाठी है।
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लाठी-चार्ज  : पुं० [हिं० +अं० ] लोगों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस का भीड़ आदि पर लाठियाँ चलाना।
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लाँड़  : पुं० =लंड (शिश्न)।
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लाड (ड़)  : पुं० [सं० ललन] बच्चों को प्रसन्न करने या रखने के लिए प्रेमपूर्वक व्यवहार। दुलार। क्रि० प्र०—करना।—लड़ाना।
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लाड़-लड़ा  : पुं० [देश] एक प्रकार का साँप जो प्रायः वृक्षों पर रहता है।
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लाड़-लड़ैता  : वि० [हिं० लाड+लड़ाना] १. जिसका बहुत अधिक लाड़ किया गया हो। २. प्यारा। दुलारा।
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लाड़ला  : वि० [हिं० लाड़+ला (प्रत्यय)] [स्त्री० लाड़ली] जिसका या जिसके साथ बहुत लाड़ किया जाय। प्यारा। दुलारा।
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लाड़ा  : स्त्री० [हिं० ला़ड़] [स्त्री० लाड़ी] वर। दूल्हा। (पश्चिम)।
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लाड़ी  : स्त्री० [सं० लाड़ा का स्त्री०] नव-विवाहिता वधू। दुल्हन। उदाहरण—लिखमी सकी रुक्मणी लाडी।—प्रिथीराज।
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लाडू  : पुं० [हिं० लड्डू] १. लड्डू। मोदक। २. दक्षिणी नांरगी।
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लाडो  : स्त्री० [हिं० लाड] ऐसी लड़की या युवती जिसका बहुत लाड हुआ हो या होता हो।
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लात  : स्त्री० [?] १. पैर के नीचे का भाग। पाँव। २. उक्त अंग से किया जानेवाला आघात या प्रहार। पदाघात उदाहरण—काहू लात चपेटन केहु।—तुलसी। क्रि० प्र०—जड़ना।—देना।—मारना।—लगाना। मुहावरा—लात खाना=(क) पैरों की ठोकर या मार सहना। (ख) मार खाना। लात चलाना=पैर से आघात या प्रहार करना। लात जाना=गौ भैस आदि का दूध देते समय दुहने वाले को लात मारकर दूर हट जाना। (किसी चीज को या पर) लात मारना=बहुत ही तुच्छ समझकर दूर करना या हटाना। जैसे—वह नौकरी को लात मार कर घर चला गया। (खाट या रोग को) लात मार कर खड़ा होना=बहुत अधिक रुग्णावस्था में से विशेषतः स्त्रियों का प्रसव के उपरांत, नीरोग होकर चलने-फिरने के योग्य होना।
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लातर  : स्त्री० [हिं० लतरी] पुराना जूता।
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लातरना  : अ० [हि० लात] १. चलते-चलते थक जाना। २. पथ-भ्रष्ट होना। उदाहरण—थिर नृप हिन्दुस्थान, लातरना मग लोभ लग।—दुरसाजी।
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लातीनी  : वि० [अ०] लैटिन देश का। पुं० लैटिन देश का निवासी। स्त्री० लैटिन देश की भाषा।
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लाथ  : पुं० [?] बहाना। हीला।
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लाद  : स्त्री० [हिं० लादना] १. लादने की क्रिया या भाव। लदाई। पद—लाद-फाँद। २. मिट्टी का वह ढोंका जो पानी निकालने की ढेंकी के दूसरे सिरे पर लगा रहता है। स्त्री० [?] १. उदर। पेट। मुहावरा—लाद निकलना=पेट का फूल कर आगे निकलना। तोंद निकलना। २. अंतड़ी। आँत।
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लाद-फाँद  : स्त्री० [हिं० लादना+फाँदना] चीज लादने और बाँधने की क्रिया या भाव।
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लादना  : स० [सं० लब्ध, प्रा० लाद्ध=प्राप्त+ना (प्रत्यय)] १. किसी आदमी, जानवर या चीज पर बहुत सी वस्तुएँ ढेर या भार के रूप में रखना। जैसे—गाड़ी या बैल पर माल लादना। २. किसी पर उसकी इच्छा के विरुद्ध अथवा बलपूर्वक किसी प्रकार का दायित्व या भार रखना। ३. किसी पर आवश्यक या उचित से अधिक दायित्व या भार रखना। जैसे—उसने सारा काम मुझ पर लाद दिया है। संयो० क्रि०—देना। ४. कुश्ती लड़ते समय विपक्षी को अपनी पीठ पर उठा लेना। (पहल०) संयो० क्रि०—लेना।
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लादिय  : पुं० [हिं० लादना+इया (प्रत्यय)] वह जो गाड़ी, पशु आदि पर बोझ लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता हो।
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लादी  : स्त्री० [हिं० लादना] १. पशु पर लादा जानेवाला बोझ। २. कपड़ों की वह गठरी जो धोबी गधे पर लादता है। क्रि० प्र०—लादना। ३. बहुत बड़ी गठरी।
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लाधना  : स० [सं० लब्ध, प्रा० लाद्ध] प्राप्त करना या पाना। उदाहरण—देवाधि देव चै लाधै दूबै।—प्रिथीराज।
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लाधा  : वि० [हिं० लाधना] १. कठिनता से प्राप्त किया हुआ। २. अच्छा। बढ़िया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लान  : पुं० [अं० लॉन] वह समतल मैदान जिसमें घास उगी हुई हो।
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लान-टेनिस  : पुं० [अं०] गेंद का एक प्रकार का खेल जो लॉन अर्थात् छोटे मैदान में खेला जाता है।
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लानंग  : पुं० [देश] एक प्रकार का अंगूर जो कमाऊँ और देहरादून में होता है। इससे अर्क निकाला और शराब बनाई जाती है।
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लानत  : स्त्री० [अ० लअनत] दूषित या निन्दनीय आचरण या व्यवहार करने पर किसी को कही जानेवाली तिरस्कारपूर्ण बातें। क्रि० प्र०—देना।—पड़ना०-भेजना।
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लानती  : वि० [हिं० लानत+ई (प्रत्यय)] १. जो सदा लानत मलमत सुनने का अभ्यस्त हो। सदा फटकार सुननेवाला। २. परम निन्दनीय और घृणित दुराचारी।
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लाना  : स० [हिं० लेना+आना, ले आना] १. कोई वस्तु उठाकर या व्यक्ति को अपने साथ चलाकर कही से ले आना या पहुँचना। संयो० क्रि०—देना। २. समक्ष या सामने लाकर उपस्थित करना। जैसे—किसी के सामने कोई मामला या विषय लाना। २. उत्पन्न या पैदा करना। स० [हिं० लाय=आग (प्रत्यय़)] आग लगाना। जलाना। स० [हिं० लगाना] १. संलग्न करना। लगाना। दिन लगाना उदाहरण—मन सुख पैहो हरि चित लाए। २. समय व्यतीत करना। दिन लगाना। उदाहरण—हरि गए परदेश बहुत दिन लाए री। पुं० किसी पर लगाया हुआ अपना दोष या लांछन। जैसे—किसी पर लाने लगाना। क्रि० प्र०—लगाना।
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लाना-बंदी  : स्त्री० [हिं० लाना=लगाना+फा० बंदी] खेत की वह पैमाइश जो जोते जानेवाले हलों की संख्या के विचार से की जाती है।
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लाने  : अव्य० [हिं० लाना=लगाना] वास्ते। (लिए बुदेल०)
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लाप  : पुं० [सं०√लप् (कथन)+घञ्] बोलना। कथन। जैसे—वार्तालाप।
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लांपट्य  : पुं० [सं० लंपट+ष्यञ्] लंपटता।
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लापसी  : स्त्री०=लपसी।
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लापिका  : स्त्री० [सं०√लप्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] १. एक तरह की पहेली जिसके ये दो भेद होते हैं—अंतर्लापिका और बहिर्लापिका।
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लापी (पिन्)  : वि० [सं०√लप्+णिनि] १. बोलनेवाला। २. पश्चात्ताप करनेवाला।
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लाप्य  : वि० [सं०√लप्+ण्यत्] १. बोलने या कहने योग्य। २. जिससे बात-चीत की जा सके। संभाष्य।
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लाफ़  : स्त्री० [फा०] १. लंबी-चौड़ी बातें हाँकने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार कही जानेवाली बात। डींग।
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लाबर  : वि०=लबार।
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लाँबा  : वि० [स्त्री० लाँबी]=लंबा।
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लाभ  : पुं० [सं०√लभ् (प्राप्ति)+घञ्] १. कोई चीज हाथ में आना। प्राप्त होना। मिलना। प्राप्ति। लब्धि। जैसे—पुण्य का लाभ होना। (गेन)। २. किसी प्रकार का होनेवाला हित। उपकार। फायदा। (बेनिफिट) जैसे—दवा से होनेवाला लाभ। ३. रोजगार आदि में होनेवाला मुनाफा (प्रॉफिट)।
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लाभ-कारक  : वि० [सं० ष० त०] जिससे लाभ होता हो। फल करानेवाला। फायदेमंद।
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लाभ-दायक  : वि० [सं० ष० त०] जो लाभ कराता हो। लाभ देनेवाला।
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लाभ-मद  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह मद या अहंकार जिसके कारण मनुष्य अपने आपको लाभवाला और दूसरे को हीन-पुण्य समझे। (जैन)
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लाभ-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] जन्म-कुंडली में लग्न ग्यारहवाँ स्थान जो धन-धान्य, संतान, विद्या, आयु आदि का सूचक होता है। (फलित ज्योतिष)
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लाभकारी (रिन्)  : वि० [सं० लाभ√कृ+णिनि] लाभकारक।
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लाभांतराय  : पुं० [सं० लाभ-अंतराय, स० त०] वह अंतराय कर्म जिसके उदय होने से मनुष्य के लाभ में विघ्न पड़ता है। (जैन)
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लाभार्थी (थिन्)  : पुं० [सं० लाभ√अर्थ (चाहना)+णिनि] १. वह जो किसी प्रकार के लाभ की कामना करता हो। २. दे० हिताधिकारी।
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लाभालाभ  : पुं० [सं० लाभ-अलाभ, द्व० स०] लाभ और अलाभ। हानि-लाभ। (प्रॉफिट ऐंड लॉस)।
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लाभांश  : पुं० [सं० लाभ-अंश, ष० त०] लाभ का वह अंश जो किसी कारखाने के हिस्सेदारों को उनके द्वारा लगाई हुई पूँजी के अनुपात में मिलता है। (डिविडेन्ड)
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लाम  : पुं० [फा०] १. सेना फौज। मुहावरा—लाम बाँधना=किसी पर चढ़ाई करने के लिए सेना इकट्ठी करना। पुं० [अ०] अरबी वर्ण-माला में ल् (लघुतम) ध्वनि की इकाई के सूचक अक्षर की संज्ञा। पद—लाम-काफ=गन्दी, बेहूदी और वाहियात बात। अप-शब्द। क्रि० प्र०—कहना।—बकना। मुहावरा—लाम बाँघना=चढ़ाई के लिए सेना तैयार करना। २. जन समूह। भीड़-भाड़। मुहावरा—लाम बाँधना=बहुत से लोगों को इकट्ठा करना। क्रि० वि० दूरी पर दूर।
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लाम-बंदी  : स्त्री० [हिं० लाम+फा० बंदी] सेनाओं को शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित कर युद्धार्थ प्रयाण के लिए तैयार रखना। युद्ध-सन्नाह। (मोबिलाइज़ेशन)
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लामज  : पुं० [सं० लामज्जक] खस की तरह की पीले रंग का एक प्रकार का तृण जो ओषधि के रूप में काम आता है।
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लामज्जक  : पुं० [सं०√ला+क्विप्, ला-मज्जा, ब० स०,+कप्] १. लामज नामक तृण। २. उशीर। खस।
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लामन  : पुं० [?] १. झूलना या लटकना। २. लहँगा। उदाहरण—लामन लिखियो सोतली चलत फिरत रंग जाय।—गीत।
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लामा  : पुं० [ति, ब्लामा=मठाधीश] तिब्बत में बौद्ध धर्मावलंबियों के गुरु जो वहाँ के सर्वोच्च शासक भी हैं। जैसे—दलाई लामा, पंचन-लामा। पुं० [पेरू देश की भाषा] घास खाने और पागुर करनेवाला एक प्रकार का जंतु जो ऊँट की तरह होता है। यह दक्षिणी अमेरिका में पाया जाता है। इसका थूक विषैला होता है, इसे पानी की आवश्यकता नहीं होती। वि० [स्त्री० लामी]=लंबा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लामी  : स्त्री० [देश] राजपूताने का एक प्रकार का फल जो तरकारी बनाने के काम आता है।
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लामे  : अव्य० [हिं० लाम=दूर] १. कुछ दूरी पर। २. एक ओर। हटकर। जैसे—लामे रखना। (पूरब)
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लाय  : स्त्री० [सं० अलात, प्रा० अलाप] १. आग की लपट। ज्वाला। लौ। २. अग्नि। आग।
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लायक  : वि० [अ०] [भाव० लायकी] १. उचित। ठीक। वाजिब। २. उपयुक्त। मुनासिब। ३. गुणवान। गुणी। ४. कुछ कर सकने के योग्य। समर्थ।
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लायकियत  : स्त्री० [अ०] लायक होने की अवस्था या भाव। लायकी। योग्यता।
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लायकी  : स्त्री० [अ० लायक+ई (प्रत्यय)] १. लायक होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. योग्यता।
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लायची  : स्त्री० =इलायची।
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लायन  : पुं० [हिं० लगाना=बदले में देना] १. नकद दाम देकर बेची जानेवाली वस्तु। २. वह वस्तु जिसे रेहन रखकर ऋण लिया गया हो।
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लार  : स्त्री० [सं० लाला] १. मुँह में से तार के रूप में निकलनेवाली थूक। मुहावरा—लार टपकाना= कोई चीज देखकर या सुनकर उसे पाने के लिए लालायित होना। २. लसीला पदार्थ। लासा। लुआब। ३. किसी को जाल या धोखे में फँसानेवाली चीज या बात। मुहावरा—लार लगाना=किसी को जाल या धोखे में फँसाने का उपाय या काम करना। स्त्री० [?] अवली। कतार। पंक्ति। अव्य० [राज० लैर=पीछे] किसी के पीछे या साथ लगकर। उदाहरण—दिया लिया तेरे सँग चलेगा, और नहीं तेरे लार।
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लारी  : स्त्री० [अं०] बड़ी मोटर गाड़ी, जिसमें विशेष रूप से सवारियाँ और उनका सामान ढोया जाता है। अव्य०=लार (पीछे या सँग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लारू  : पुं० =लाडू (लड्डू)।
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लारे  : अव्य० [?] १. वास्ते। लिए। २. आधार पर। उदाहरण—राग को आदि जिती चतुराई सुजान कहै सब याही के लारे।—सुजान।
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लार्ड  : पुं० [अं०] १. परमेश्वर। ईश्वर। २. मालिक। ३. जमींदार। ४. इंगलैंड के राजा द्वारा उच्च कोटि के कार्यकर्ताओं को प्रदान की जानेवाली एक उपाधि।
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लाल  : पुं० [सं० लालक से] १. छोटा और प्रिय बालक। प्यारा बच्चा। २. पुत्र बेटा। उदाहरण—तेरै लाल मेरो माखन खायो।—सूर। ३. बालक। लड़का। ४. प्रिय व्यक्ति। ५. श्रीकृष्ण का एक नाम। पुं० [सं० लालन] दुलार। लाड। स्त्री० १. =लालसा। २. =लार। पुं० [अ० लअल] १. माणिक या मानिक नामक रत्न। २. मानिक का रंग। मुहावरा—लाल उगलना=बोलने के समय बहुत अच्छी और प्यारी बातें कहना। वि० १. उक्त रत्न के रंग का। रक्त वर्ण का। सुर्ख। जैसे—लाल कपड़ा, लाल कागज। २. आवेश, क्रोध तथा लज्जा आदि के कारण जिसका वर्ण रक्त हो गया हो। जैसे—आँखें या चेहरा लाल होना। तप कर लाल अंगारा होना। मुहावरा—लाल पड़ना या होना=क्रुद्ध होना। नाराज होना। ३. (चौसर के खेल में गोटी) जो चारों ओर से घूमकर बिलकुल बीच वाले खाने में पहुँच गई हो, और जिसके लिए कोई चाल बाकी न रह गई हो। मुहावरा—(किसी की) गोटी लाल होना=यथेष्ट प्राप्ति या फल सिद्ध होना। ४. (चौसर के खेल का खिलाडी) जिसकी सब गोटियाँ बीच के घर में पहुँच चुकी हों और जिसे कोई चाल चलना बाकी न रह गया हो। ऐसा खिलाड़ी जीता हुआ समझा जाता है ५. (खिलाड़ी) जो खेल में औरों से पहले जीत गया हो। ६. धन-सम्पत्ति, सन्तान आदि से परम सुखी। मुहावरा—लाल होना या लालो लाल होना=यथेष्ट सम्पन्न और सुखी होना। पुं० १. एक प्रसिद्ध छोटी चिड़िया जिसका शरीर कुछ भूरापन लिये लाल रंग का होता है इसकी मादा को ‘मुनियाँ’ कहते हैं। २. चौपायों के मुँह में होनेवाला एक प्रकार का रोग।
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लाल अगिन  : पुं० [हिं० लाल+अगिन] भूरे लाल रंग का एक पक्षी, जिसका गला नीचे की ओर सफेद होता है।
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लाल अंबारी  : स्त्री० [हि० लाल+अम्बारी] एक प्रकार का पटुआ जिसके बीज दवा के काम आते हैं।
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लाल आलू  : पुं० [हिं० लाल+आलू] १. रतालू। २. अरुई। घुइयाँ।
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लाल इलायची  : स्त्री० [हिं० लाल+इलायची] बड़ी इलायची।
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लाल कच्चू  : पुं० [हि० लाल+कच्चू] गजकर्ण आलू। बंडा।
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लाल कलमी  : पुं० [हिं० लाल+कलमी] चाँदनी या गुल चाँदनी नाम का पौधा और उसका फूल।
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लाल कीन  : पुं० =नानकीन।
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लाल कोठी  : स्त्री० [हिं०] व्यभिचारिणी स्त्रियों का अड्डा जहाँ वे कसब कमाती हैं।
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लाल घास  : स्त्री० [हिं० लाल+घास] गोमूत्र नामक तृण।
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लाल चीता  : पुं० [हिं० लाल+चीता] लाल फूलों वाला चित्रक या चीता।
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लाल चीनी  : पुं० [हिं० लाल+चीनी] एक प्रकार का कबूतर, जिसका सारा शरीर सफेद और सिर पर बहुत सी लाल बिदियाँ होती हैं।
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लाल पानी  : पुं० [हिं० लाल+पानी] शराब। मद्य।
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लाल पिलका  : पुं० [हिं० लाल+पिलका] सफेद डैनों तथा दुमवाला लाल रंग का एक प्रकार का कबूतर।
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लाल पेठा  : पुं० [हि० लाल+पेठा] कुम्हड़ा।
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लाल सागर  : पुं० [हिं० लाल+सं० सागर] भारतीय महासागर का वह अंश जो अरब और अफ्रीका के बीच में पड़ता है और जिसके पानी में कुछ ललाई झलकती है।
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लाल-ग्रंथि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] मुँह के अन्दर की वे ग्रन्थियाँ जो लाला या लार उत्पन्न करती हैं। (सैलिवरी ग्लैण्ड)।
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लाल-चंदन  : पुं० [हिं०+सं०] रक्त चंदन।
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लाल-पगड़ी  : स्त्री० [हिं०] पुलिस का सिपाही या अधिकारी। (उत्तर-प्रदेश)
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लाल-पतंग  : पुं० [हिं०] कपास के पौधों में लगनेवाला एक प्रकार का लाल कीड़ा।
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लाल-फीता  : पुं० [हिं०] १. लाल रंग की पट्टी या फीता जिससे सरकारी कार्यालयों में कागज-पत्र, नत्थियाँ आदि बाँधी जाती हैं। २. लाक्षणिक और व्यंग्यात्मक रूप से सरकारी कार्यों के संपादन निर्णय आदि में लगनेवाली अनावश्यक देर। दीर्घ-सूत्रता (रेडटेप)।
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लाल-बीबी  : स्त्री० [हिं०] सैनिकों की परिभाषा में निम्न कोटि की और कसब कमानेवाली वेश्या।
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लाल-बुझक्कड़  : पुं० [हिं० लाल+बूझना] ऐसा मूर्ख व्यक्ति जो वास्तव में जानता तो कुछ भी न हो, फिर भी अटकल-पच्चू और ऊट-पटांग अनुमान लगाकर दुरूह बातों का कारण तथा समस्याओं का समाधान करने में न चूकता हो।
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लाल-बेग  : पुं० [हिं० लाल+तु० बेग] १. एक कल्पित पीर। २. लाल रंग का एक प्रकार का कीड़ा।
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लाल-बेगी  : पुं० [हिं०] लाल बेग नामक पीर का अनुयायी अर्थात् मुसलमान भंगी।
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लाल-भक्त  : पुं० [हिं० लाल+सं० भक्त] खोई या लावा का पकाया हुआ भात, जो रोगियों को पथ्य में दिया जाता है।
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लाल-भरेंड़ा  : पुं० [हिं०] एक तरह का छोटा झाड़।
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लाल-मन  : पुं० [हिं० लाल+मणि] १. श्रीकृष्ण। २. लाल रंग का एक प्रकार का तोता जिसकी चोंच गुलाबी, दुम काली और डैने हरे होते हैं।
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लाल-मिर्च  : पुं० [हिं] १. एक तरह का छोटा पौधा जिसमें फली के आकार के फल होते हैं। जो आरम्भ में हरे तथा पकने पर लाल हो जाते हैं। २. उक्त पौधे की फली अथवा उसकी बुकनी जो कटु, तीक्ष्ण स्वादवाली होती है और नमकीन व्यंजनों में डाली जाती है।
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लाल-मुनियाँ  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की छोटी चिड़िया।
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लाल-मुरगा  : पुं० [हिं०] १. एक प्रकार का पहाड़ी शिकारी पक्षी जिसका शिकार किया जाता है। २. गुल-मखमली नाम का पौधा और उसका फूल। मयूर-शिखा।
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लाल-मुँहाँ  : पुं० [हिं०] मुँह में निकलने वाले रंग के छाले जिसकी गिनती रोग में होती है। निनावाँ का एक प्रकार। वि० लाल मुँहवाला।
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लाल-मूली  : स्त्री० [हिं० लाल+मूली] शलजम। शलगम।
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लाल-लाडू  : पुं० [हिं० लाल=लाडू-लाडू] एक प्रकार की नारंगी।
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लाल-विष  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा जंतु जिसके मुँह की लार में विष रहता हो। जैसे—मकड़ी, छिपकली आदि।
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लाल-शक्कर  : स्त्री० [हिं० लाल+शक्कर] बिना साफ की हुई चीनी। खाँड़।
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लाल-सफरी  : स्त्री० [हिं०] अमरूद।
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लाल-समुद्र  : पुं० =लाल सागर।
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लाल-सर  : पुं० [हिं० लाल+सर] एक प्रकार का पक्षी जिसकी गरदन और सिर लाल रंग का होता है।
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लाल-साग  : पुं० [हिं० लाल+साग] मरसा नाम का साग।
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लाल-सिखी  : पुं० [हिं० लाल+शिखा] मुर्गा।
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लाल-सिरा  : पुं० [हिं० लाल+सिरा=सिर] एक प्रकार की बत्तख जिसका सिर लाल होता है।
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लालक  : वि० [सं०√लल (इच्छा)+ण्वुल—अक] (लालन अर्थात्) दुलार-प्यार करनेवाला। पुं० विदूषक।
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लालच  : पुं० [सं० लालसा] [वि० लालची] कोई चीज पाने या लेने के लिए मन में होनेवाली ऐसी अत्यधिक चाह या लालसा जो अनुचित या अशोभन होने के कारण सहसा औरो पर प्रकट न की जा सकती हो। लौलुपतापूर्ण लोभ। जैसे—बहुत लालच करना अच्छा नहीं होता।
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लालचहा  : वि० =लालची।
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लालची  : वि० [हिं० लालच+ई (प्रत्यय)] बहुत लालच करनेवाला। लोभी।
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लालटेन  : स्त्री० [अं० लैटर्न] किसी प्रकार का ऐसा आधान या उपकरण जिसमें तेल भरने का खजाना और जलाने के लिए बत्ती लगी रहती है और जलती हुई बत्ती को बुझाने से बचाने के लिए चारों ओर शीशे का अथवा और किसी प्रकार का आवरण भी लगा रहता है। कंडील।
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लालड़ी  : स्त्री० [हिं० लाल (रत्न)+ड़ी (प्रत्यय)] नत्थ, बाली आदि में लगाया जानेवाला एक तरह का नग।
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लालदाना  : पुं० [हिं० लाल+दाना] लाल रंग की खसखस पूरब)।
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लालन  : पुं० [सं०√लाल् (इच्छा)+णिच्+ल्युट—अन] यथेष्ट प्रेम पूर्वक बालकों का आदर करना। लाड़-प्यार। पद—लालन पालन। पुं० [हिं० लाल] १. प्रिय। पुत्र। प्यारा बेटा। २. बालक। लड़का। स्त्री० [?] चिरौजी। पयाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लालना  : स० [सं० लालन] १. लाड़ या दुलार करना। उदाहरण—लालन जोग लखन लघु लोने।—तुलसी। २. पालन-पोषण करना। पालना। उदाहरण—कलप बेलि जिमि बहु विधि लाली।—तुलसी।
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लालनीय  : वि० [सं०√लल्+णिच्+अनीयर्] जिसका लालन करना उचित हो या किया जाने को हो।
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लालरी  : स्त्री० =लालड़ी।
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लालसा  : स्त्री० [सं०√लस् (दीप्ति)+यङ्, द्वित्व, +अ+टाप्] १. बहुत दिनों से मन में बनी रहनेवाली इच्छा। साध। जैसे—माँ के दर्शनों की लालसा पूरी न हो सकी। २. गर्भिणी की इच्छा। दोहद। ३. अनुनय। ४. खेद। ५. एक प्रकार का वृत्त।
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लालसी  : वि० [सं० लालसा+ई (प्रत्यय)] लालसा या अभिलाषा करनेवाला।
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लाला  : स्त्री० [सं०√लल् (इच्छा)+णिच्+अच्+टाप्] मुँह से निकलनेवाली लाल। थूक। पुं० [सं० लालक] १. प्रायः कायस्थों, वनियों, पंजाबियों आदि के नाम के पहले लगनेवाला आदर-सूचक शब्द। जैसे—लाला लाजपत राय। २. बातचीत में प्रुयक्त होनेवाला एक प्रकार का आदरसूचक संबोधन। मुहावरा—(किसी से) लाला भइया करना=किसी को आदरपूर्वक संबोधन करते हुए उससे बातचीत करना या उसे समझाना-बुझाना। बीच-बीच में लाला, भइया आदि मर्यादा सूचक संबोधन करते हुए बातें करना। जैसे—तुम्हें लाला भइया करके उनसे अपना नाम निकालना चाहिए। ३. कायस्थ जाति या कायस्थों का सूचक शब्द। जैसे—ये लाला लोग बहुत चतुर होते हैं। ४. छोटे बच्चों के लिए प्रेमसूचक संबोधन। पुं० [फा०] पोस्ते का लाल रंग का फूल जिसमें प्रायः काली खसखस पैदा होती है। गुले लाला। वि०=लाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाला स्रव  : पुं० [सं० ष० त०] १. मुँह से लार बहना। २. वह जिसके मुँह से लार बहती है। जैसे—छिपकली, मकड़ी।
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लाला-प्रमेह  : पुं० [सं० ष० त०] प्रमेह का वह प्रकार जिसमें पेशाब लाला (लार) की तरह तार बाँधकर होता है।
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लाला-मेह  : पुं० =लाला प्रमेह।
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लाला-स्राव  : पुं० [सं० ष० त०] १. मुँह से थूक या लार गिरना। २. मकड़ी का जाला।
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लालाटिक  : वि० [सं० ललाट+ठक्—इक] १. ललाट अर्थात् मस्तक संबंधी। २. लाक्षणिक अर्थ में, नियति या भाग्य से संबंधित अथवा उस पर आधारित। ३. सतर्क। ४. निकम्मा। व्यर्थ। पुं० १. कामशास्त्र में एक प्रकार का आलिंगन। २. सेवक।
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लालायित  : भू० कृ० [सं० लाला+क्यच्+क्त] १. जिसके मुँह में बहुत अधिक लालच के कारण लाला अर्थात् लार या पानी भर आया हो। २. जिसका अच्छी तरह लालन अर्थात् दुलार या लाड़ किया गया हो।
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लालि  : स्त्री० =लालसा। उदाहरण—ये सोरहौ सिंगार बरनि के करहिं देवता लालि।—जायसी।
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लालित  : भू० कृ० [सं०√लल् (इच्छा)+णिच्+क्त] १. जिसका लालन किया गया हो। दुलारा हुआ। २. जो पाला-पोसा गया हो।
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लालितक  : पुं० [सं० लालित+कन्] वह प्रिय जीव या प्राणी जिसका लालन-पालन किया गया हो।
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लालित्य  : पुं० [सं० ललित+ष्यञ्] १. ललित होने की अवस्था, गुण या भाव। २. रमणीयता। ३. हाव-भाव।
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लालिनी  : स्त्री० [सं०√लल्+णिनि+ङीष्] कामुक स्त्री।
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लालिमा  : स्त्री० [हिं० लाल] लाल होने की अवस्था या भाव। लाली।
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लाली  : स्त्री० [हिं० लाल+ई (प्रत्यय)] १. लाल होने की अवस्था या भाव। अरुणता। ललाई। लालपन। सुर्खी। २. इज्जत, प्रतिष्ठा या सम्मान जिसके बने रहने पर चेहरा लाल रहता है। रौनक। शोभा। (प्रायः चेहरे या मुँह के साथ प्रयुक्त) जैसे—चलो, तुम्हारे चेहरे (या मुँह) की लाली रह गई, अर्थात् प्रतिष्ठा बनी रह गई। नष्ट नहीं होने पाई। ४. यश। कीर्ति। ५. पकी ईटों का चूर्ण। सुर्खी। पुं० [सं० लालिन] १. लालन पालन करनेवाला व्यक्ति। २. व्यक्तियों को कुमार्ग पर ले जानेवाला पुरुष।
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लाले  : पुं० बहु० [हिं० लाला] अभिलाषाएँ। मुहावरा—(किसी चीज के) लाले पड़ना=अप्राप्य या दुष्प्राप्य वस्तु के लिए बहुत अधिक तरसना। जान के लाले पड़ना=विकट या संकट पूर्ण स्थिति में पहुँचना।
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लालो  : पुं० =लाले।
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लाल्य  : वि० [सं०√लल् (इच्छा)+णिच्+यत्] लालनीय।
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लाल्हा  : पुं० दे० ‘मरसा’ (साग)।
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लाव  : पुं० [सं०√लू (छेदना)+ण] १. लवा नामक पक्षी। २. लौंग। ३. काटने की क्रिया या भाव। स्त्री० [देश या सं० रज्जू] मोटा रस्सा। मुहावरा—लाव चलाना=चरसे के द्वारा कूएँ से पानी निकालकर खेत सींचना। २. उतनी भूमि जितनी एक दिन में एक चरसे से सींची जा सके। ३. लंगर में बांधने का रस्सा। ४. डोरी। रस्सी। पुं० [हिं० लावा] ऋण के रूप में किसी को दिया जानेवाला धन। मुहावरा—लाव उठाना= (क) चीज बंधक रखकर उधार देना। (ख) कष्ट के समय खेतिहरों की सहायता करने के लिए उन्हें धन देना। लाव-लगाना=उधार लिया हुआ रुपया, अन्नादि देकर चुकाना। स्त्री० [हिं० लाव=आग] अग्नि। आग।
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लावक  : पुं० [सं० लाव+कन्] लवा (पक्षी)। पुं० [देश] १. चावल की जाड़े की फसल। २. चरसा। ३. उतना समय जितना एक बार मोट खींचने में लगता है।
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लावण  : पुं० [सं० लवण+अण्] सुँघनी। नस्य। वि० १. लवण संबंधी। नमक का। २. जिसमें नमक मिला हो। नमकीन। ३. (ओषधि आदि) जिसका लवण या नामक के द्वारा संस्कार हुआ हो।
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लावणिक  : पुं० [सं० लवण+ठअ—इक] १. वह जो नमक बनाता या बेचता हो। नमक का प्यापारी। २. नमक रखने का बर्तन। नमकदान। वि० =लावण।
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लावण्य  : पुं० [सं० लवण+ष्यञ्] १. लवण का धर्म या भाव। नमक-पन। २. शील या स्वभाव की उत्तमता। ३. आकृति आदि में होनेवाली नमकीनी। चेहरे या शरीर का नमक अर्थात् सलोनापन।
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लावण्या  : स्त्री० [सं० लावण्य+अच्+टाप्] ब्राह्मी (बूटी)।
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लावदार  : वि० [हिं० लाव=आग+फा० दार (प्रत्यय)] भरी हुई तोप। पुं० वह जो पुरानी चाल की तोपों में बत्ती लगाकर उन्हें चलाता या छोड़ता था।
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लावनता  : स्त्री० =लावण्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लावना  : स० [हिं० लगना] १. लगना। स्पर्श करना। उदाहरण—अंतर पट दे खोल सबद उर लावरी।—कबीर। २. पूरा करना। उदाहरण—नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।—तुलसी।
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लावनि  : स्त्री० [सं० लावण्य] लावण्य। सुन्दरता। स्त्री० =लावनी।
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लावनी  : स्त्री० [सं० लावणी] १. संगीत में देशी रागों के अंतर्गत एक उपराग जिसका विकास मगध के पास लावणक नामक प्रदेश के लोक-गीतों में हुआ था। उसके कई भेद हैं। यथा—लावनी कलिंगड़ा, लावनी जंगला, लावनी भूपाली, लावनी रेखता आदि। २. लोक में प्रचलित उपराग के वे विशिष्ट प्रकार जो प्रायः चंग या डफ बजाकर उसके साथ गाये जाते हैं। ३. उक्त प्रकार की वह कविता या गीत जो चंग या डफ बजाकर गाया जाता हो।
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लावनी-बाज  : पुं० [हिं०+फा०] [भाव० लावनी-बाजी] वह जो चंग या डफ पर लावनियाँ गाता हो।
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लावा  : पुं० [सं० लाजा] ज्वार, धान, रामदाने आदि को बालू में भूनने पर तैयार होनेवाला वह रूप जिसमें दाने-फूटकर फैल जाते हैं। मुहावरा—(किसी पर) लावा मेलना= (क) किसी को अधिकार या वश में करने के लिए मंत्र पढ़ते हुए उस पर लावा फेंकना। (ख) अधिकार या वश में करना। वि० [हिं० लावना] लगाई-बुझाई करनेवाला। जो पक्षों में झगड़ा खड़ा करनेवाला। पुं० [हिं० लवना] फसल काटनेवाला मजदूर। पुं० =लवा। पुं० [अं० लाबत] राख, पत्थर और धातु आदि मिला हुआ वह द्रव पदार्थ जो प्रायः ज्वालामुखी पर्वतों के मुख से विस्फोट होने पर निकलता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लावा-परछन  : पुं० [हिं०] एक वैवाहित रीति जिसमें कन्या की झोली अथवा उसके हाथ में पकड़ी हुई डलिया में उसके भाई लावा डालते या छोड़ते हैं। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लावा-लुतरा  : वि० [हिं०] इधर की बाते उधर लगाकर लोगों को आपस में लड़ानेवाला।
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लावाणक  : पुं० [सं०] मगध का निकटवर्ती एक देश।
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लावु  : पुं० [हिं० अलावू] कद्दू। घीया। लौआ।
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लाव्य  : वि० [सं०√ल् (छेदन)+ण्यत्] लवने अर्थात् काटने के योग्य।
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लाश  : स्त्री० [फा०] १. किसी प्राणी का मृत शरीर। शव। जैसे—हाथी की लाश। २. क्षत-विक्षत तथा मृतप्राय शरीर। जैसे—लाशें तड़प रही थीं। ३. लाक्षणिक अर्थ में, बहुत भारी व्यक्ति।
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लाशा  : वि० [फा०] अति दुर्बल, क्षीणकाय। पुं० मृत शरीर। लाश। शव।
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लाष  : स्त्री० =लाख (लाक्षा)।
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लाषना  : स०=लाखना।
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लास  : पुं० [सं०√लस् (शोभित होना)+घञ्] १. एक प्रकार का नाच। २. थिरकने या मटकने की क्रिया या भाव। ३. जूस। रस। शोरबा। पुं० [हिं० लसना] १. लसने अर्थात् सुन्दर जान पड़ने की अवस्था या भाव २. छवि। शोभा। ३. चमक। दीप्ति। पुं० [?] उस छड़ के दोनों कोने जो पाल बाँधने के लिए मस्तूल में लटाकाया जाता है (लश०) मुहावरा—लास करना=चलती हुई नाव को रोकने के लिए डाँड़ों को बहते पानी में बेड़े बल में ठहराना। (लश०) स्त्री०=लाश। (शव) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लासक  : पुं० [सं०√लस् (क्रीड़ा+ण्वुल—अक] १. लास्य अर्थात् कोमल अंग-भंगी से युक्त नृत्य करनेवाला नर्तक। २. मयूर। मोर। ३. शिव। ४. घड़ा। मटका। ५. एक रोग जिसमें शरीर का कोई अंग बराबर हिलता-डुलता रहता है। वि० १. नाचनेवाला। २. हिलता-डुलता रहनेवाला। ३. खेलवाड़ी। ४. क्रीड़ा रस।
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लासकी  : स्त्री० [सं० लासक+ङीष्] नर्तकी।
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लासकीय  : वि० [सं० लासक+छ—ईय] १. लासक संबंधी। २. लासक रोग से ग्रस्त या पीड़ित।
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लासन  : पुं० [अं० लौशिग] जहाज बाँधने का मोटा रस्सा। लहासी। पुं० [सं०] नाचने की क्रिया या भाव।
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लासा  : पुं० [हिं० लास] १. कोई लसवाला या लसीला पदार्थ। विशेषतः ऐसा पदार्थ जिसके द्वारा दो चीजें परस्पर चिपकाई जाती हैं। २. वह लसीला पदार्थ जिससे बहेलिये चिड़ियाँ फँसाते हैं। चेंप। लोपन। मुहावरा—लासा लगाना=किसी को फँसाने की युक्ति रचना। लासा होना=सदा साथ लगे रहना। ३. वह साधन जिससे किसी को फँसाया जाय।
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लासि  : पुं० =लास्य।
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लासिक  : वि० [सं० लास+ठन्—इक] [स्त्री० लासिका] नाचनेवाला।
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लासिका  : स्त्री० [सं० लासिक+टाप्] १. नर्तकी। २. वेश्या। ३. उपरूपक का एक भेद।
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लासी  : स्त्री० [देश०] गेहूँ, सरसों आदि की फसल में लगनेवाला एक तरह का काला छोटा कीड़ा।
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लासु  : स्त्री० =लाश।
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लास्य  : पुं० [सं०√वस् (क्रीड़ा)+ण्यत्] १. नृत्य। नाच। २. दो प्रकार के नृत्यों में से एक। (दूसरा प्रकार तांडव कहलाता है) विशेष—लास्य वह नृत्य कहलाता है, जिसमें कोमल अंग-भंगियों के द्वारा मधुर भावों का प्रदर्शन होता है, और जो श्रृंगार आदि कोमल रसों को उद्दीप्त करनेवाला होता है। इसमें गायन तथा वादन दोनों का योग रहता है। वि० कोमल तथा मधुर। जैसे—स्वरों में र की ध्वनि लास्य है।
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लाह  : स्त्री० [सं० लाक्षा] लाख। चपड़ा। स्त्री० [?] चमक। दीप्ति। पुं० =लाभ।
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लाहक  : वि० [हिं० लाह] १. इच्छा करने या चाहनेवाला। २. लाभ के रूप में प्राप्त होनेवाला। ३. आदर या कदर करनेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाहन  : पुं० [देश] १. पशुओं को खिलाया जानेवाला महुए का फल जिसमें से मद्य खींच लिया गया हो। २. जूसी और महुए को मिलाकर उठाया हुआ खमीर। ३. किसी चीज का और किसी तरह उठाया हुआ खमीर। ३. किसी चीज का और किसी तरह उठाया हुआ खमीर। ४. गौओं आदि के ब्याने पर उन्हें पिलाई जानेवाली दवाएँ। ५. खलिहान में अनाज ढोकर लाने की मजदूरी।
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लाहल  : अव्य०=ला हौल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाहा  : पुं० =लाह (लाभ)।
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लाही  : वि० [हिं० लाहा] लाल या लाखी रंग का। स्त्री० १. लाल रंग के वे छोटे कीड़े जो लाख बनाते हैं। २. ऊख की फसल में लगनेवाला लाल रंग का एक तरह का छोटा कीड़ा। स्त्री० [देश] १. सरसों। २. काली सरसों। ३. तीसरी बार साफ किया हुआ शोरा। स्त्री० =लाई (धान, बाजरे आदि का लावा)।
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लाहु  : पुं० =लाहु (लाभ)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लाहौरी नमक  : पुं० [हिं०] सेंधा नमक।
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लाहौल  : अव्य० [अ०] अरबी के एक प्रसिद्ध वाक्य का पहला शब्द जिसका व्यवहार प्रायः भूत-प्रेत को भगाने या किसी बात के संबंध में परम उपेक्षा अथवा घृणा प्रकट करने के लिए किया जाता है। पूरा वाक्य इस प्रकार है— ‘लाहौल वला कूव्वत इल्ला बिल्लाह’ जिसका अर्थ है, ईश्वर के सिवा और किसी में कुछ सामर्थ्य नहीं है। मुहावरा—लाहौल पढ़ना= (क) उक्त वाक्य का उच्चारण करना। (ख) परम उपेक्षा, घृणा या तिरस्कार सूचित करना।
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लिए  : अव्य, ० [?] ‘के’ संबंध सूचक से युक्त होकर ‘के लिए’ रूप में प्रयुक्त होनेवाला सम्प्रदाय कारक का विभक्ति चिन्ह। जैसे—राम के लिए फल मैं लाया हूँ। विशेष—‘इसलिए’ आदि में ‘इस’ के बाद वाले ‘के’ का लोप हो गया है।
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लिकटी  : स्त्री० [?] चिन्ह अंकित करने का आब-रंग नामक रंग।
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लिकिन  : पुं० [देश] लंबी टाँगों वाला मटमैले रंग का एक पक्षी।
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लिकुच  : पुं० =लकुच।
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लिक्खाड़  : पुं० [हिं० लिखना] खूब मँजा हुआ और बहुत लिखनेवाला लेखक।
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लिक्षा  : स्त्री० [सं०√लिश् (गति)+श, कित्त्व+टाप्] १. जूँ का अंडा। २. प्राचीन काल का एक बहुत छोटा परिणाम, जो किसी के मत से चार अणुओं के बराबर, किसी के मत से आठ बाल के बराबर और किसी मत से राई या सरसों के छठे भाग के बराबर होता है।
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लिखतम  : स्त्री० [हिं० लिखना] १. लिखावट। २. लिखा-पढ़ी। उदाहरण—इनकी लिखतम का, इनकी बात का कोई भरोसा नहीं।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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लिखधार  : वि० [हिं० लिखना+धार (प्रत्यय)] लिखनेवाला। पुं० मुहर्रिर। लेखक।
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लिखन  : स्त्री० [हिं० लिखना] १. लिखने की क्रिया या भाव। २. लेख। ३. लिखावट। ४. भाग्य का खेल। ५. दे० ‘लिखत’।
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लिखना  : स० [हिं० लिखन] १. किसी ताल पर वर्ण, रेखाएं, फूल, पत्तियाँ आदि अंकित करना। २. कलम पेंसिल आदि की सहायता से कागज, दफ्ती आदि पर कोई बात लेख या विचार अक्षरों या वर्णों के द्वारा अंकित करना। लिपिबद्ध करना। मुहावरा—(किसी के) नाम लिखना=यह लिखना कि अमुक वस्तु या रकम अमुक व्यक्ति के जिम्मे है। पद—लिखा पढ़ी=शिक्षित व्यक्ति। ३. किसी साहित्यिक कृति की रचना करना। ४. कूँची आदि की सहायता से चित्र विशेषतः रंग-चित्र बनाना। उदाहरण—लिखित सुधाकर लिखि गा राहू।—तुलसी।
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लिखनी  : स्त्री० =लेखनी (कलम)।
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लिखवाई  : स्त्री० [हिं० लिखवाना] लिखने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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लिखवाना  : स० [हिं० लिखना] किसी दूसरे को लिखने में प्रवृत्त करना। लिखने का काम किसी से कराना।
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लिखवार  : वि० [हिं० लिखना] लिखनेवाला। पुं० लेखक।
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लिखहार  : वि० [हिं० लिखना+हार (प्रत्यय)] १. लिखनेवाला। लेखक। २. हिसाब-किताब या लेखा रखनेवाला।
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लिखा  : पुं० [हिं० लिखना] वह जो कुछ लिखित रूप में हो। जैसे—भाग्य में लिखा। वि० जिसे लिखना आता हो। जैसे—पढ़ा-लिखा।
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लिखा-पढ़ी  : स्त्री० [हिं० लिखना+पढ़ना] १. लिखने और पढ़ने की क्रिया या भाव। २. पत्रों का आना और उनके उत्तर जाना। पत्र-व्यवहार। ३. अनुबन्ध संधि, समझौते आदि की शर्तों का लिखा हुआ होना।
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लिखाई  : स्त्री० [हिं० लिखना] १. लिखने की क्रिया, ढंग या भाव। पद—लिखाई-पढ़ाई=लिखने-पढ़ने आदि की शिक्षा। २. लिखी हुई लिपि और उसकी बनावट। ३. चित्र अंकित करने की क्रिया या भाव। ४. चित्र-कला में कोई विशिष्ट परिरूप या तरह अंकित करने की क्रिया या भाव। जैसे—कमखाब की लिखाई=भूमिका आदि का ऐसी अंकन जो देखने में कमखाब की तरह जान पड़े।
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लिखाना  : स० [हिं० लिखना] १. किसी को कुछ लिखने में प्रवृत्त करना। लिखने का काम कराना। २. किसी को लिखना सिखलाना। अथवा लिखने का अभ्यास कराना।
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लिखावट  : स्त्री० [हिं० लिखना+आवट (प्रत्यय)] १. लिखने का प्रकार या ढंग। २. किसी के हाथ के लिखे हुए अक्षर। हस्तांक। (हैंड-राइटिंग)।
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लिखित  : स्त्री० [हिं० लिखना] १. लिखने की क्रिया या भाव। २. लिखे हुए होने की अवस्था या भाव। मुहावरा—लिखत पढ़त होना=लिखा-पढ़ी में होना। ३. वह दस्तावेज जो विधिक दृष्टि से प्रामाणिक माना जा सकता हो। आपस में की हुई लिखा-पढ़ी। (इंस्टूमेंट) ५. भाग्य का लेख। अव्य०=लिखित।
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लिखित  : अव्य० [सं] एक पद जिसका प्रयोग हस्तलिखित ग्रन्थों के अंत में या चित्रों के नीचे उनके लेखक या चित्रकार के नाम के पहले उनका कर्त्तव्य सूचित करने के लिए होता था।
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लिखित  : भू० कृ० [सं० लिख (लिखना)+क्त] १. लिखा हुआ। लिपिबद्ध किया हुआ। अंकित। २. जो लेख या लेख्य के रूप में हो। लेख्य (डाक्युमेंट्स) पुं० १. लिखी हुई बात। लेख। २. लिखा हुआ प्रमाण पत्र। सनद।
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लिखितक  : पुं० [सं० लिखित] एक प्रकार की प्राचीन लिपि जिसके अक्षर चौकोर होते थे। इसके लेख खुतन (मध्य एशिया) में पाये गये शिलों में मिलते हैं।
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लिखिमी  : स्त्री० =लक्ष्मी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लिखेरा  : वि० =लिखनेवाला।
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लिंग  : पुं० [सं०√लिंग (गति)=घञ् वा अच्] [वि० लैगिंक] १. कोई ऐसा चिन्ह या निशान जिससे किसी काम, चीज या बात की पहचान होती है। लक्षण। २. किसी वर्ग या समूह का प्रतिनिधित्व करने वाला तत्व, पदार्थ या बात। प्रतीक। ३. न्याय-शास्त्र में कोई ऐसी चीज या बात जिसमें किसी प्रकार की घटना या तथ्य का ठीक अनुमान या कल्पना होती हो अथवा प्रमाण मिलता हो। साधक हेतु। जैसे—धूम भी अग्नि का एक लिंग है। अर्थात् धूआँ दिखाई पड़ने पर आग का अनुमान होता या प्रमाण मिलता है। विशेष—हमारे यहाँ न्याय शास्त्र में यह चार प्रकार का कहा गया है- (क) संबद्ध जैसे—आग के साथ रहने वाला धुआँ उसका संबद्ध लिंग है। (ख) गौ, बैल आदि के सिर में लगे रहने वाले सींग उनके न्यस्त लिंग हैं। (ग) मनुष्य के साथ लगी रहनेवाली भाषा उसका सहवर्ती लिंग है और (घ) किसी अच्छी या बुरी बात के साथ विपरीत रूप में लगी रहनेवाली बुरी या अच्छी बात उसका विपरीत लिंग है। जैसे—गुण या अवगुण पाप और पुण्य आदि। ४. मीमांसा में वे छह लक्षण जिनके आधार पर लिंग का निर्णय होता है। यथा-उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता, अर्थवाद और उपपत्ति। ५. सांख्य में मूल प्रकृति जिसमें सारी विकृतियाँ फिर से लीन होती हैं। ६. लोक-व्यवहारों में अर्थ की दृष्टि से जीव-जन्तुओं पेड़-पौधों अथवा पुरुष या स्त्री वाले दो प्रसिद्ध विभागों में से प्रत्येक विभाग। वह स्थिति जिसके कारण या द्वारा हम किसी को नर या मादा अथवा पुरुष या स्त्री कहते और मानते हैं। (सेक्स) ७. उक्त के आधार पर वह तत्त्व जो पुरुषों और स्त्रियों को अपनी काम-वासना पूरी करने अथवा संतान उत्पन्न करने में प्रवृत्त करता है (सेक्स) ८. व्याकरण के क्षेत्र में शब्द-गत दृष्टि से संज्ञाओं और सर्वनामों (तथा उनसे संबद्ध क्रियाओं और विशेषणों) का वह वर्गीकरण जिनसे यह सूचित होता है कि कोई संज्ञा या सर्वनाम पुरुष जाति का वाचक है या स्त्री जाति का। विशेष—संस्कृत, मराठी, फारसी, अँगरेजी आदि अनेक भाषाओं में पुंलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग ये तीन लिंग होते हैं। परन्तु हिन्दी उर्दू, पंजाबी आदि अनेक भाषाओं में स्त्रीलिंग और पुंलिंग ये दो ही लिंग होते हैं। बंगला आदि कुछ भाषाओं में यह लिंग तत्त्व संज्ञाओं तक ही परिमित रहता है, सर्वनामों, विशेषणों, क्रियाओं आदि के रूपों पर लिंग-भेद का कोई प्रभाव नही पड़ता, सभी लिगों में उनके रूप एक से रहते हैं। ९. साहित्य में पदों, वाक्यों आदि में शब्दों की वह स्थिति जिसमें यह सूचित किया जाता है कि पद या वाक्य में आये हुए दूसरे शब्दों के साथ किसी विशिष्ट शब्द का कैसा अथवा क्या संबंध है। विशेष—इसका विशेष विवेचन काव्य-प्रकाश में देखा जा सकता है। १॰. पुरुष की जननेन्द्रिय या गुह्य इंद्रिय। उपस्थ। शिश्न। ११. शिव का एक विशिष्ट प्रकार का प्रतीक या मूर्ति जो पुरुष की जननेन्द्रिय के रूप में होती है। विशेष—हमारे यहाँ शिव के दो रूप माने गये हैं। पहला निष्क्रिय और निर्गुण शिव जो अलिंग कहा गया है और दूसरा जगत् की उत्पत्ति करने वाला शिव जो लिंग रूप है। इसी दूसरे और लिंग या प्रकृति के मूल कारण वाले रूप में शिव को ‘लिंगी’ भी कहते हैं। और इसी रूप में भारत में उनकी पूजा होती है (विशेष दे० ‘लिंग-पूजा’)। १२. वह छोटी डिबिया या पिटारा जिसमें लिंगायत लोग शिव-लिंग की मूर्ति बंद करके गले में पहने या लटकाये रहते हैं। १३. देवता की प्रतिमा या मूर्ति। विग्रह। १४. वेदान्त में आत्मा का वह बहुत छोटा और सूक्ष्म रूप जो शरीर के ढांचे के आकार का होता और मृत्यु के उपरांत शरीर के बाहर निकलता है। दे० ‘लिंग-शरीर’। १५. दे० ‘लिंग-पुराण’।
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लिंग-देह  : पुं० = [सं० मध्य० स०]=लिंग-शरीर।
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लिंग-देही (हिन्)  : पुं० [सं० लिंगदेह+इनि] वह जिसका मन, कर्म और वचन सब एक रूप हों।
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लिंग-नाश  : पुं० [सं० ष० त०] १. ऐसी अवस्था जिसमें किसी लिंग अर्थात् चिन्ह या लक्षण की पहचान न हो सकती हो। २. अंधकार। ३. अंधता। अन्धापन।
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लिंग-पुराण  : पुं० [सं० मध्य० स०] अठारह पुराणों में से एक प्रसिद्ध पुराण जिसमें शिव और उनके लिंग की पूजा का माहात्म्य वर्णित है।
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लिंग-पूजक  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो लिंग-पूजा (देखें) करता हो। (फेल्लिसिस्ट)।
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लिंग-पूजा  : स्त्री० [सं० ष० त०] पुरुष की जनन-शक्ति के प्रतीक के रूप में लिंग की पूजा करने की प्रथा जो अनेक प्राचीन जातियों में प्रचलित थी और अब भी हिन्दुओं में जो शिव-लिंग की पूजा के रूप में प्रचलित है। (फेल्लिसिज्म)। विशेष—प्राचीन काल में, अरब, जापान, मिस्र, रोम, यूनान आदि अनेक देशो में पुरुष की जननेन्द्रिय या लिंग ही सारे जगत् का मूल कारण माना जाता था और इसीलिए वहाँ भी ईश्वर या स्रष्टा देवता के रूप में लिंग की ही पूजा होती थी। यहाँ तक कि काबुल के पुराने मंदिरों में बहुत से ऐसे लिंग निकले हैं जो भारतीय शिव-लिंग से बहुत कुछ मिलते हैं। वैदिक काल में अनेक अनार्य भारतीय जातियों में भी यह लिंग पूजा प्रचलित थी।
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लिंग-वृत्ति  : पुं० [सं० ब० स०] जो केवल लिंग अर्थात् चिन्ह या वेश बनाकर जीविका चलाता हो। आडम्बरी। वि० झूठे चिन्ह धारण करके जीविका चलानेवाला। ढोंगी। स्त्री० १. लिंग अर्थात् चिन्ह धारण करके जीविका उपार्जित करना। २. ढोंग करना।
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लिंग-शरीर  : पुं० [मध्य० स०] हिन्दू शास्त्रों के अनुसार मृत्यु के उपरान्त प्राणी की आत्मा को आवृत्त रखनेवाला वह सूक्ष्म शरीर जो पाँचों, प्राणों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों सूक्ष्मभूतों, मन, बुद्धि और अहंकार से युक्त होता है परन्तु स्थूल अन्नमय कोश से रहित होता है। लोक-व्यवहार में इसी को सूक्ष्म-शरीर कहते हैं। विशेष—कहते हैं कि जब तक पुनर्जन्म न हो या मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक यह शरीर बना रहता है।
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लिंगता  : स्त्री० [सं० लिंग+तल्-टाप्] लिगं से युक्त होने की अवस्था या भाव।
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लिगदी  : स्त्री० [देश०] कमजोर छोटी घोड़ी।
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लिंगधर  : पुं० [सं० ष० त०] १. लिंगी अर्थात् चिन्ह धारण करनेवाला व्यक्ति। २. ढोंगी व्यक्ति।
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लिंगन  : पुं० =आलिंगन।
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लिंगवद्धिनी  : स्त्री० [सं० लिंग√वृध् (बढ़ना)+णिच्+णिनि+ङीष्] अपामार्ग। चिचड़ा।
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लिंगवस्ति  : पुं० [सं० मध्य० स०] =लिगार्श (रोग)।
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लिंगवान् (वत्)  : [सं० लिंग+मतुप्] जो लिगं अर्थात् चिन्ह या लक्षण से युक्त हो। लक्षण युक्त। पुं० शैवों का लिंगायत सम्प्रदाय।
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लिंगशरीरी (रिन्)  : वि० [सं० लिंग शरीर+इनि] लिंग-शरीरधारी।
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लिगस्थ  : पुं० [सं० लिंग√स्था (ठहरना)+क] ब्रह्मचारी। (मनुस्मृति)।
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लिंगांकित  : पुं० [सं० लिंग-अंकित, तृ० त०]=लिंगायत शैव सम्प्रदाय।
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लिंगानुशासन  : पुं० [सं० लिंग-अनुशासन, ष० त०] वह शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि वाक्य रचना में कौन सा शब्द किस अवस्था में किस लिंग में प्रयुक्त होता है। विशेष—हमारे यहाँ की संस्कृत, पालि, प्राकृत, आदि पुरानी भाषाओं में एक ही शब्द भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न लिंगों में प्रयुक्त होता था। यथा—पाले या हिम के अर्थ में ‘शिशिर’ शब्द पुं० शीत काल के अर्थ में ‘पुन्नपुंसक’ (देखें) और शीतलता से युक्त पदार्थ के अर्थ में विशेष्यलिंग (देखें) होता है। यही बात कुछ शब्दों में पर्यायों के संबंध में भी होती है। यथा-स्त्री शब्द स्त्री-लिंग है और ‘कलत्र’ नपुंसक लिंग है। इन सब विभेदों के कारण और नियम बतलाना ही ‘लिंगानुशासन’ कहलाता है।
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लिंगायत  : पुं० [हिं०] १. एक प्रसिद्ध शैव सम्प्रदाय। २. उक्त सम्प्रदाय का अनुयायी।
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लिंगार्चन  : पुं० [सं० लिंग-अर्चना, ष० त०]=लिंगपूजा।
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लिंगार्श (स्)  : पुं० [सं० लिंग-अर्शस्, ष० त०] पुरुष की जननेन्द्रिय का एक रोग।
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लिंगित  : भू० कृ० [सं०√लिंग+क्त] लिंग अर्थात् चिन्ह या लक्षण से युक्त किया हुआ।
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लिंगिनी  : स्त्री० [सं० लिंग+इनि+ङीष्] एक प्रकार की लता जिसे पंच गुरिया कहते हैं।
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लिंगी (गिन्)  : वि० [सं० लिंग+इनि] [स्त्री० लिंगिनी] लिंग अर्थात् चिन्ह या चिन्हों से युक्त। लिंगधारी। पुं० १. शिव। महादेव। २. शिवलिंग का उपासक या पूजक। शैव। ब्रह्मचारी। ४. परमात्मा। ५. ढोंगी। ६. हाथी। ७. दे० ‘लिंग-देही’। स्त्री० [सं० लिंग] छोटा शिव लिंग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लिंगेंन्द्रिय  : पुं० [सं० लिंग-इन्द्रिय, मध्य० स०] पुरुषों की मूत्रेन्द्रिय। लिंग।
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लिचेन  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो पानी में होती है।
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लिच्चड़  : वि० =लीचड़।
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लिच्छिवि  : पुं० [सं०] २000 वर्ष पूर्व का एक प्राचीन भारतीय राजवंश जिसका मगध, नैपाल, कोशल आदि पर शासन था।
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लिंट  : पुं० [अ०] एक तरह का मुलायम जालीदार कपड़ा जो घाव पर दवा आदि लगाकर रखा जाता है।
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लिटाना  : स०=लेटना।
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लिटोरा  : पुं० =लसोढ़ा।
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लिट्ट  : पुं० [हिं० लिट्टी का पु० रूप] बड़ी लिट्टी (पकवान)।
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लिट्टी  : स्त्री० [देश] टिकिया के आकार की वह गोल छोटी रोटी जो आग पर आटे के पेड़े को सेंकने से तैयार होती है।
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लिठोर  : पुं० [देश] एक प्रकार का नमकीन पकवान।
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लिड़बिड़ा  : वि० [देश] १. कमजोर। २. नपुंसक।
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लिडार  : पुं० [देश] श्रृंगाल। गीदड़। वि० कायर। डरपोक।
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लिडौरी  : स्त्री० [देश] वे दाने हो दँवरी के बाद की बालों में लगे रह जाते हैं।
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लिपटना  : अ० [सं० लिप्त] १. किसी चीज का दूसरी चीज के चारों ओर घूमते हुए उसके साथ इस प्रकार लगना कि सहसा दोनों अलग न हो सकें। जैसे—लता का वृक्ष में लिपटना। २. एक चीज की दूसरी चीज पर इस प्रकार लगना, सटना या संलग्न होना कि जल्दी दोनों अलग न हो सकें। जैसे—(क) पुत्र का पिता के गले से लिपटना। (ख) पैरों में कीचड़ लिपटना। २. अपनी सारी शक्ति लगाते हुए किसी काम में प्रवृत्त होना। जैसे—चारों आदमी लिपट जाओं जो सन्ध्या तक यह काम पूरा हो जाय ४. किसी काम, चीज या बात में इस प्रकार उलझना या फँसना कि जल्दी से छुटकारा न हो सके। जैसे—अभी तो वे अपने मुकदमे में ही लिपटे हुए है। ५. किसी रूप में लपेटा हुआ होना। जैसे—कागज में लिपटे हुए रुपये रखे हैं। ६. किसी के साथ झगड़ा या तकरार करने में प्रवृत्त होना। उलझना। जैसे—झगड़ा तो तुम्हारा उनसे हैं, मुझसे क्यों व्यर्थ लिपटते हो। संयो० क्रि०—जाना।
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लिपटाना  : स० [हिं० लिपटाना का स०] १. एक वस्तु को दूसरी के चारों ओर लपेटना। २. संग्लन करना। सटाना। परिवृत्त करना। ३. आलिंगन करना। गले लगाना। अ०=लिपटना। उदाहरण—जिमि जीवहिं माया लिपटानी।—तुलसी।
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लिपड़ा  : वि० [हिं० लेप] लेई की तरह गीला और चिपचिपा। पुं० =लुगड़ा (फटा पुराना कपड़ा)।
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लिपड़ी  : स्त्री० =लिबड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लिपना  : अ [हिं० लीपना का अ०] १. लेप से युक्त होना। २. लेपा जाना। ३. किसी गाढ़ी चीज का किसी तल पर अव्यवस्थित रूप में लगकर फैलना। संयो० क्रि०—जाना।
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लिपवाना  : स० [हिं० लीपना] लीपने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को लीपने में प्रवृत्त करना।
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लिपाई  : स्त्री० [हिं० लिपना] लिपाने या लीपने की क्रिया, भाव या मजदूरी। पोताई।
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लिपाना  : स०=लिपवाना।
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लिपि  : स्त्री० [सं० लिप् (लीपना)+इन्, कित्त्व] १. लेप करने की क्रिया या भाव। लीपना। २. लिखने की क्रिया या भाव। ३. किसी लघुतम ध्वनि का सूचक अक्षर। जैसे—क्, ख्, ग् आदि। ४. किसी भाषा के लघुतम ध्वनि अक्षरों का समूह जो लिखने में प्रयुक्त होते हों।
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लिपि-काल  : पुं० [सं० ष० त०] किसी ग्रंथ या लेख का वह समय (सन् या संवत्) जब कि वह लिखा गया हो
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लिपि-फलक  : पुं० [सं० ष० त०] काठ, धातु, पत्थर आदि का वह टुकड़ा या फलक जिस पर कोई लिपि या लेख अंकित किया गया हो।
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लिपि-बद्ध  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] [भाव० लिपिबद्धता] १. लिपि या लेख के रूप में लाया हुआ। लिखित। २. (कथन या बात) जिसकी लिखा-पढ़ी हो चुकी हो।
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लिपिक  : पुं० [सं० लिपिकर] वह जो किसी कार्यालय में पत्रों की प्रतिलिपियाँ या साधारण पत्र आदि लिखता हो। मुहर्रिर। लेखक। (क्लर्क)।
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लिपिकर  : पुं० [सं० लिपि√कृ+ट] १. प्राचीन भारत में, वह शिल्पी जो शिलाओं आदि पर लेख अंकित करता या उकेरता था। २. दे० ‘लिपिक’।
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लिपिका  : स्त्री० [सं० लिपि+कन्+टाप्] लिपि। लिखावट।
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लिपिकार  : पुं० [सं० लिपि√कृ+अण्] लिखनेवाला। लेखक। लिपिक।
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लिपी  : स्त्री० [सं० लिपि+ङीष्]=लिपि।
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लिप्त  : वि० [सं०√लिप्+क्त] १. (पदार्थ) जिस पर लेप हुआ हो। २. (पदार्थ) जिससे लेप किया गया हो। पोता हुआ। ३. जो किसी के साथ इस प्रकार लगा हो कि जल्दी उससे अलग न हो सके। जैसे—भोग में लिप्त होना।
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लिप्तक  : वि० [सं० लिप्त+कन्] विष में बुझाया हुआ। पुं० विष में बुझाया हुआ। बाण।
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लिप्ता  : स्त्री० [सं० लिप्त+टाप्] १. ज्योतिष के अनुसार काल का एक मान जो प्रायः एक मिनट के बराबर होता है। २. अंश का साठवाँ भाग।
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लिप्तिका  : स्त्री० =लिप्ता।
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लिप्सा  : स्त्री० [सं०√लभ् (प्राप्ति)+सन्, द्वित्व+अ+टाप्] प्राप्ति की इच्छा। पाने की चाह।
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लिप्सित  : भू० कृ० [सं०√लभ्+सन्, द्वित्वादि+क्त] चाहा हुआ।
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लिप्सु  : वि० [सं०√लभ्+सन्, द्वित्व+उ] लिप्सा करने या चाहनेवाला। इच्छुक।
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लिफलगी  : स्त्री०=सिफलापन।
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लिफ़ाफ़ा  : पुं० [अ०] १. कागज की बनी हुई वह प्रसिद्ध चौकोर थैली जिसके अन्दर चिट्ठी या कागज-पत्र रखकर कहीं भेजे जाते हैं। जैसे—लिफाफे में बंद करके पत्र डाकखाने में छोड़ देना। २. किसी प्रकार का उपरी आवरण विशेषतः ऐसा आवरण जो दोष या वास्तविक स्थिति छिपाने के लिए प्रयुक्त होता हो। मुहावरा—लिफाफा खुल जाना=भेद या रहस्य खुल जाना। छिपी हुई बात प्रकट हो जाना। ३. शरीर पर धारण किये जानेवाले अच्छे कपड़े (बाजारू)। ४. झूठी तड़क-भड़क। आडम्बर। मुहावरा—लिफाफा बनाना=झूठा आडम्बर खड़ा करना। ५. जल्दी नष्ट हो जानेवाली और दिखावटी चीज। काजू-भोजू चीज। जैसे—यह खाली लिफाफा ही है (अर्थात् इसमें तत्त्व या वास्तविकता बहुत कम है)।
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लिफ़ाफ़िया  : वि० [हिं० लिफाफा] जो ऊपर से देखने भर को अच्छा या भव्य हो, पर अन्दर से थोथा या सारहीन हो।
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लिबड़ना  : अ० [अनु०] कपड़े, हाथ आदि से किसी गीली चीज का चिपकना या लगना। जैसे—उँगलियों में आटा या पैरों में कीचड़ लिबड़ना। स० लथ-पथ करना। अव्यवस्थित रूप में पोतना या लगाना।
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लिबड़ी  : स्त्री० [अ० लिवरी] १. कपड़ा-लत्ता। २. छोटा-मोटा सामान।
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लिबड़ी-बतान  : पुं० [अं० लिवरी+वर्दी+बटन, =सिपाहियों का डंडा] घर-गृहस्थी का सामान। (उपेक्षा और तुच्छता का सूचक)।
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लिबरल  : वि० [अं०] उदार नीतिवाला। पुं० कोई ऐसा राजनीतिक दल जिसके विचार अपेक्षया अधिक उदार हों।
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लिबलिबी  : स्त्री० [अनु०] १. यंत्रों आदि में कोई ऐसा खटका जिसे खींचने या दबाने से कोई कमानी निकलती हो या कोई पुरजा चलता हो २. तमंचे, पिस्तौल, बँदूक आदि में नीचे की तरफ का वह खटका या सिटकनी जिसे खींचने से घोड़ा गिरता और उसके आगे की गोली निकलकर निशाने की तरफ बढ़ती हो। (ट्रिगर)।
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लिबास  : पुं० [अ०] शरीर पर पहनने के कपड़े। पोशाक।
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लियाक़त  : स्त्री० [अ०] १. लायक होने की अवस्था या भाव। योग्यता। २. व्यक्तियों में होनेवाला किसी तरह का गुण या योग्यता। ३. शक्ति या सामर्थ्य। ४. व्यवहार आदि की भद्रता। शालीनता।
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लिलकना  : अ०=ललकना।
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लिलाट  : पुं० =ललाट।
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लिलार  : पुं० [सं० ललाट] १. कुएँ का वह सिरा जहाँ मोट का पानी उलटते हैं। २. दे० ‘ललाट’।
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लिलारी  : पुं० [हिं० नील, लील+कार] रँगरेज।
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लिलाही  : पुं० [देश] हाथ का बटा हुआ देशी सूत।
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लिलोही  : वि० [सं० लाल=चहकना] लालची। लोभी।
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लिव  : स्त्री० =लौ (लगन)।
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लिवाना  : स० [हिं० लाना का प्रे०] १. आते समय किसी को अपने साथ लेते आना। २. उठा कर कोई चीज किसी के यहाँ ले जाना। स० [हिं० लेना का प्रे०] १. लेने का काम दूसरे से कराना। ग्रहण कराना। २. थमाना। पकड़ना। संयो० क्रि०—देना।
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लिवाल  : पुं०=लेवाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लिवैया  : पुं० [हिं० लेना] कोई चीज लेने विशेषतः खरीद कर लेनेवाला व्यक्ति। वि० [हि० लिवाना] लिवानेवाला।
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लिशकना  : अ० [अनु०] बहुत तेजी से चमकना। (पश्चिम) जैसे—तलवार लिशकना, बिजली लिशकना। उदाहरण—वह खंजर इस तरह लिशक रहा था कि मैं आपसे क्या कहूं।—सआदत्त हसन मन्टो।
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लिशकाना  : स० [अनु०] तेज चलक निकलना। खूब चमकाना। (पश्चिम)।
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लिसना  : अ, ०=लसना। उदाहरण—ता मधि माथे में हीरा गुह्यो। सु गई गड़ि केसन की छबि सौं लिसि।—देव।
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लिसान  : स्त्री० [अ०] जीभ। जबान। बोली।
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लिसोड़ा  : पुं० [हिं० लस=चिपचिपा गूदा] १. मँझोले आकार का एक प्रकार का पेड़ जिसके पत्ते बीड़ियाँ बनाने के काम आते हैं। २. उक्त वृक्ष का फल जो प्रायः छोटे बेर के बराबर होता और खाँसी दमे आदि रोगों में गुणकारी माना जाता है। लभरा। लिटोरा। लसोड़ा।
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लिस्ट  : स्त्री० [अं०] सूची।
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लिह  : वि० [सं०√लिह् (आस्वादन)+क] चाटनेवाला (बहुधा समस्त पदों के अन्त में प्रयुक्त)
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लिहना  : स०=लिखना। स०=लेना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लिहाज  : पुं० [अ० लिहाज] १. व्यवहार या बरताव में किसी बात या व्यक्ति का आदरपूर्वक रखा जानेवाला ध्यान। जैसे—बड़ों का लिहाज करना सीखो। २. किसी बात का किसी रूप में रखा जानेवाला ध्यान। जैसे—(क) इस नुस्खे में खाँसी का भी लिहाज रखा गया है। (ख) मैने उसकी गरीबी का लिहाज करके उसे छोड़ दिया। ३. शील, संकोच आदि के विचार से रखा जानेवाला ध्यान। जैसे—काम-बिगड़ जाने पर वह किसी का लिहाज न करेगा, सबको निकाल देगा। ३. तरफदारी। पक्षपात। ५. लज्जा। शर्म। हया। क्रि० प्र०— करना।—रखना।
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लिहाजा  : अव्य० [अ०] अतः। इसलिए।
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लिहाड़ा  : वि० [देश] १. बेहूदा और वाहियात (व्यक्ति) २. निकम्मा या निरर्थक (पदार्थ)।
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लिहाड़ी  : स्त्री० [देश] किसी को बहुतों में उपहासास्पद सिद्ध करने के लिए किया जानेवाला मजाक। मुहावरा—(किसी की) लिहाड़ी लेना=किसी को तुच्छ या निन्दनीय ठहराते हुए उसका उपहास करना।
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लिहाफ  : पुं० [अ० लिहाफ़] जाड़े के दिनों में सोते समय ओढ़ने की रूईदार भारी और मोटी रजाई।
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लिहित  : वि० [सं० लीढ़] चाटा हुआ।
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लीक  : स्त्री० [सं० लिख्] १. लंबी, पतली रेखा के रूप में बना हुआ अथवा बनाया हुआ चिन्ह। लकीर। जैसे—(क) गिनती या संख्या सूचित करने के लिए खींची जानेवाली लीक। उदाहरण—भट मँह प्रथम लीक जन जासू।—तुलसी। (ख) कच्ची जमीन पर आने-जानेवाली बैलगाड़ियों के पहिओं के कारण बनी हुई लीक। (ख) खेतों जंगलों आदि में आदमियों के आने-जाने के कारण पग-डंडियों के रूप में बनी हुई लीक। उदाहरण—लीक-लीक गाड़ी चलै लीकै चलै कपूत। मुहावरा—लीक करना या खींचना=प्राचीन परम्परा के अनुसार किसी प्रकार की प्रतिज्ञा करने अथवा अपने कथन की दृढ़ता या पुष्टि सूचित करने के लिए जमीन पर तर्जनी उँगली आदि से छोटी सीधी रेखा खींचना या बनाना। लीक पकड़ना=आदमियों, गाड़ियों आदि के आने-जाने से बनी हुई लीक पर चलते हुए कहीं जाना। जैसे—यही लीक पकड़कर सीधे चले जाओ। २. आचरण या लोक-व्यवहार के क्षेत्र में बहुत दिनों से चली आई हुई कोई परम्परा, रीति या विधि जो कुछ प्रसंगों में तो प्रतिष्ठा या मर्यादा की सूचक होती है और कुछ प्रसंगों में त्याज्य तथा निंदनीय भी मानी जाती है। उदाहरण—(क) नन्द-नन्दन के नेह-मेह जिन लोक-लीक लोपी।—सूर। (ख) अजहुँ गाव स्रुति चिन्ह कै लीका।—तुलसी। मुहावरा—लीक पीटना= (क) किसी पुरानी चली आई हुई निकम्मी प्रथा या रीति का बिना सोचे-समझे अनुकरण करते चलना। जैसे—अशिक्षित, गँवार आदि अब भी ब्याह-शादी में वह पुरानी लीक पीटते चलते हैं। (ख) कोई दुर्घटना या हानि हो चुकने के उपरान्त उसके अवशिष्ट चिन्हों आदि पर अपना रोष-प्रकट करना। जैसे—साँप तो चला गया, अब लीक पीटने से क्या होगा। लीक लीक चलना=पुरानी परिपाटी या प्रथा का पालन करना। उदाहरण—लीक लीक गाड़ी चलै लीकै चलैं कपूत। ३. किसी काम या बात के संबंध में नियत की हुई मर्यादा। सीमा। हद। ४. दुष्कर्म, दुर्नाम आदि का सूचक चिन्ह। कलंक की रेखा। लांछन। उदाहरण—तिहि देखत मेरो पट काढ़त लीक लगी तुम काज।—सूर। क्रि० वि०—लगना। स्त्री० [देश] मटियाले रंग की एक चिड़िया जो बत्तख से कुछ छोटी होती है।
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लीकति  : स्त्री०=लीक।
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लीख  : स्त्री० [सं० लिक्षा] जूँ का अंडा।
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लीग  : स्त्री० [अ०] १. जातियों, देशों राष्ट्रों आदि के योग्य से बनी हुई ऐसी सभा या संस्था जो सबके सामूहिक कल्याण का ध्यान रखती हो। जैसे—लीग आँफ नेशन मुस्लिम लीग आदि। २. भारतीय राजनीति में मुस्लिम लीग जिसके आंदोलन से भारत का बँटवारा और पाकिस्तान की स्थापना हुई थी। ३. दूरी की एक नाप जो स्थल में प्रायः तीन मील और समुद्र में प्रायः साढ़े तीन मील लंबी होती है।
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लीग आफ नेशन्स  : स्त्री० दे० ‘राष्ट्र-संघ’।
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लीगी  : वि० [अं० लीग] १. किसी लीग का सदस्य। २. भारतीय राजनीति में मुसलिम लीग का अनुयायी या सदस्य।
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लीचड़  : वि० [देश] १. जो कोई काम जल्दी-जल्दी तथा ठीक समय पर न कर सकता हो। सुस्त। काहिल। २. निकम्मा फालतू। ३. जल्दी पीछा न छोड़नेवाला। ४. लेन-देन के व्यवहार के विचार से बहुत ही तुच्छ प्रकृति का।
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लीची  : स्त्री० [चीनी ली-चू] १. एक प्रकार का सदा बहार बड़ा पेड़। २. इस पेड़ का फल जो खाने में बहुत मीठा होता है। फल के छिलके के ऊपर कटावदार दाने और अन्दर गूदे के सिवा मोटी गुठली होती है।
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लीझा  : वि० [देश] [स्त्री० लीझी] १. नीरस। निस्सार। २. व्यर्थ का। निकम्मा। फालतू।
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लीझी  : स्त्री० [देश] १. शरीर पर लगाये हुए उबटन को हथेली से रगड़ने पर छूटनेवाली मैल की बत्ती। २. सीठी। फोक।
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लीडर  : पुं० [अं०]=नेता।
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लीडरी  : स्त्री० [अं० लीडर से०] नेतृत्व। (परिहास और व्यंग्य)।
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लीढ  : भू० कृ० [सं०√लिह् (आस्वादन)+क्त] चाटा या खाया हुआ। चखा हुआ। आस्वादित।
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लीतड़ा  : पुं० [हिं० चिथड़ा] फटा हुआ पुराना जूता।
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लीथो  : पुं० [अं०] चित्रों, पुस्तकों आदि की छपाई का वह प्रकार जिसमें छापी जानेवाली चीज, चित्र या लेख पहले हाथ से कागज पर अंकित करते या लिखते हैं और तब उसकी प्रतिकृति एक विशेष प्रकार के पत्थर पर उतार कर छापते हैं। पत्थर का छापा।
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लीथोग्राफ  : पुं० [अ०] लीथो की छपाई।
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लीद  : स्त्री० [कश्मीरी लेद] ऊँट, गधे, घोडे, हाथी आदि पशुओं का मल।
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लीन  : वि० [सं०√ली (लय)+क्त, त—नः] [भाव० लीनता] १. जिसका लय हो चुका हो। जो किसी में समा गया हो। २. जो किसी काम में इस प्रकार लगा हुआ हो कि उसे और कामों या बातों का ध्यान या चिन्ता न रहे। ३. अधिकार या सुभीता जो नियत अवधि तक उपयोग में न आने के कारण हाथ से निकल गया हो। (लैप्स्ड)
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लीनता  : स्त्री० [सं० लीन+तल्+टाप्] १. लीन होने की अवस्था या भाव। २. जैनों में, वह अवस्था जब वे उदासीनतापूर्वक रहते हैं।
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लीनो टाइप मशीन  : स्त्री० [अ०] छापे के अक्षर बैठने का एक प्रकार का यन्त्र।
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लीन्हे  : अव्य० [हिं० लीन्ह=लिया] १. लिए। वास्ते। २. चक्कर या फेर में पड़कर। उदाहरण—कंचन मनि तजि काँचहि सेंतत या माया के लीन्हें।—सूर।
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लीपना  : स० [सं० लेपन] १. किसी चीज पर गाढ़े या पतले तरल पदार्थ का लेप करना। जैसे—जमीन पर गोबर लीपना। २. लिखे हुए गीले अक्षरों की स्याही को कागज, पट्टी आदि पर इस प्रकार फैलाना कि वह गंदी हो जाय। ३. चौपट या बरबाद करना। मुहावरा—लीप-पोत कर बराबर करना=पूरी तरह से चौपट या नष्ट करना।
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लीपा-पोती  : स्त्री० [हिं०] १. गोबर आदि से जमीन, दीवार आदि लीपने या पोतने की क्रिया या भाव। २. किसी के कुकर्म या दुष्कर्म के लिए उसे दण्ड न देकर ऐसी कारवाई करना कि वह दण्ड का भागी ही न रह जाय। ३. करा-धरा काम चौपट या नष्ट करना।
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लीबर  : वि० [?] १. मैल, कीचड़ आदि से भरा हुआ। पुं० १. गंदगी। मैलापन। २. कीचड़। ३. आँखों की कीचड़।
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लीम  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का चीड़ जिसमें से तारपीन या अलकतरा निकलता हो। २. एक प्रकार का पक्षी।
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लीर  : स्त्री० [?] १. किसी कपड़े में से निकाली हुई पट्टी या धज्जी। २. फटे हुए या रद्दी कपड़े का छोटा टुकड़ा। ३. चिथड़ा।
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लील  : पुं० [सं० नील] १. नील। २. नीले रंग का घोड़ा। वि० नीला। विशेष—लील के यौ० के लिए दे ‘नील’ के यौ०। पुं० [हिं० लीलना] लीलने की क्रिया या भाव।
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लीलक  : पुं० [हिं० लील] वह हरा चमड़ा जो देशी जूतों की नोक पर लगाया जाता है। वि० नीला।
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लीलना  : स० [सं० गिलन या लीन] १. निगलना। २. किसी की सम्पत्ति आदि पूरी तरह से हड़प कर जाना। सयो०क्रि०-जाना।—लेना।
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लीलम  : पुं० =नीलम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लीलया  : क्रि० वि० [सं० लील शब्द का तृतीयान्त रूप] १. लीला के रूप में। २. खेल या खेलवाड़ के रूप में। ३. बिना किसी परिश्रम के। बहुत ही सहज में। अनायास।
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लीलहिं  : क्रि० वि० =लीलया। उदाहरण—लीलहिं नाघऊँ जलनिधि खारा।—तुलसी।
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लीला  : स्त्री० [सं०√ली (लय)+क्विप्, ली√ला (आदान)+क+टाप्] १. कोई ऐसा काम या व्यवहार जो चित्त की उमंग से केवल मनोरंजन के लिए किया जाय। केलि। क्रीड़ा। खेल। जैसे—बाल-लीला। २. लड़कों का खेलवाड़। ३. लड़कों के खेलवाड़ की तरह का बहुत ही साधारण या सुगम काम। ४. किसी प्रकार के विलास की इच्छा और उसके फल-स्वरूप किये जानेवाला अनेक प्रकार के आचरण, कार्य या व्यवहार। जैसे—यह सब ईश्वर की लीला है। विशेष—दार्शनिक क्षेत्रों में माना जाता है कि लीला ऐसी वृत्ति या व्यापार है जिसका आनन्द प्राप्ति के सिवा और कोई अभिप्राय या उद्देश्य नहीं होता। इसीलिए कहते हैं-सृष्टि और प्रलय सब ईश्वर की लीला ही है अवतार धारण करने पर इस लोक में आकर भगवान् जो कृत्य करते है, उन सब की गिनती भी भक्ति मार्ग में लीलाओं में ही होती है। ५. लोक-व्यवहार में वे सब कृत्य जो भगवान् के किसी अवतार के कार्यों के अनुकरण पर अभिनय या नाटक के रूप में लोगों को दिखाये जाते हैं। जैसे—कृष्ण-लीला, रामलीला आदि। ६. उक्त प्रकार के अभिनय का कोई ऐसा अंग या अंश जो इकाई के रूप में अभिनीत होता है। जैसे—गो-चरण लीला, चीर हरण लीला, धनुष-यज्ञ लीला आदि। ७. श्रृंगारिक क्षेत्र में नायिकाओं का एक हाव जिसमें वे मधुर आंगिक चेष्टाओं के द्वारा नायक की बात-चीत, वेष-भूषा आदि का अनुकरण या नकल करती है। जैसे—(क गोपी का कृष्ण वेष धारण करके वंशी बजाना। (ख) पत्नी का अपने पति के वेष में कुरसी पर बैठना आदि। विशेष—साहित्य शास्त्र में इसकी गिनती नायिका के दस स्वभावज अलंकारों में की गई है। ८. कोई अदभुत या रहस्यपूर्ण काम या व्यापार। उदाहरण—छाया पथ में तारक द्युति सी मिल मिल की मृदु लीला।—प्रसाद। ९. कोई ऐसा काम, चीज या बात जो वास्तविक के अनुकरण पर केवल मनोविनोद के लिए बना हो या होता हो। (यौ० के आरम्भ में। (जैसे—लीलाकलह, लीलाभरण लीलालघु (दे०)। १॰. बारह मात्राओं का एक प्रकार का छंद जिसके अंत में एक जगण होता है। ११. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में भगण, नगण और एक गुरु होता है। १२. चौबीस मात्राओं का एक प्रकार का छंद जिसमें ७+७+७+३ के विराम से २४ मात्राएँ और अंत में सगण होता है। १३. विशेषक नामक छंद का दूसरा नाम। वि० [स्त्री० लीली]=नीला। पुं० नीले या काले रंग का घोड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लीला-कलह  : पुं० [सं० च० त०] वह कलह या लड़ाई झगड़ा जो वास्तविक न हो बल्कि केवल दूसरों के लिए या बनावटी हो। जैसे—चाण्क्य ने एक बार चन्द्रगुप्त के साथ लीला-कलह का आयोजन किया था।
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लीला-पुरुषोत्तम  : पुं० [सं० मध्य० स०] श्रीकृष्ण।
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लीला-भरण  : पुं० [सं० लीला-आभरण, च० स०] केवल क्रीड़ा या मनोविनोद के लिए बनाया हुआ किसी चीज का आभूषण। जैसे—फूलों का कंगन, फूलों की टोपी या मुकुट।
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लीला-स्थल  : पुं० [सं० ष० त०] लीला या क्रीड़ा करने का स्थान।
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लीलामय  : पुं० [सं० लीला+मयट्] क्रीड़ा से भरा हुआ। क्रीड़ायुक्त। जैसे—लीला-मय भगवान्।
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लीलायुध  : पुं० [सं० लीला-आयुध, त० त०] ऐसा आयुध जो वास्तविक न हो, बल्कि खेल या खिलवाड़ के लिए हो।
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लीलावतार  : पुं० [सं० लीला-अवतार, च० त०] भगवान् के वे सब अवतार जो इस पृथ्वी पर अब तक हुए हैं और जिनमें उन्होंने अनेक प्रकार की लीलाएँ की है। इनकी संख्या २४ मानी जाती है।
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लीलावती  : स्त्री० [सं० लीला+मतुप्+ङीष्] १. लीला या क्रीड़ा करनेवाली। विलासवती। २. प्रसिद्ध ज्योतिर्विद भास्कराचार्य की पत्नी का नाम जिसने लीलावती नाम की गणित की एक पुस्तक बनाई थी। पीछे भास्कराचार्य ने भी इस नाम की एक पुस्तक बनाई थी। ३. संपूर्ण जाति की एक रागिनी। (संगीत) ४. ३२ मात्राओं का एक प्रकार का छंद, जिसमें लघु-गुरु का विचार नहीं होता।
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लीलावान् (वत्)  : वि० [सं० लीला+मतुप्] १. क्रीड़ाशील। २. बहुत ही रमणीय तथा सुन्दर।
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लीलैव  : क्रि० वि० [सं० लीला-एव] लीला करते हुए अर्थात् खेलवाड़ में ही। बहुत सहज रूप में। उदाहरण—लीलैव हर को धनु साँध्यो।—केशव।
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लीलोद्यान  : पुं० [सं० लीला-उद्यान, च० त०] १. वह उद्यान या स्थान जहाँ रामलीला होती है। २. क्रीड़ा-क्षेत्र।
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लीवर  : पुं० [अ०] १. यंत्रों में लगा हुआ कोई ऐसा खटका जिसके आघात से कोई पुरजा चलता हो अथवा किसी प्रकार की कोई और क्रिया होती हो। २. पेट के अन्दर का तिल्ली या यकृत नामक अंग। मुहावरा—लीवर होना या बढ़ना=यकृत में सूजन आना जो रोग माना जाता है।
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लीह  : स्त्री० [हिं० लीक] १. रेखा। लकीर। २. चिन्ह, निशान। ३. लकीर की तरह का बना हुआ छोटा पतला और लम्बा रास्ता लीक।
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लुआठा  : पुं० [सं० लोक=चमकना, प्रज्जवलित होना+काष्ठ] [स्त्री० अल्पा० लुआठी] वह लंबी पतली लकड़ी जिसका एक सिरा जल रहा हो।
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लुआब  : पुं० [अ०] चिपचिपा अंश। लासायुक्त अंश।
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लुआर  : स्त्री० =लू।
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लुक  : पुं० [सं० लोक=चमकना] १. वह लेप जिसे फेरने से वस्तुओं पर चमक आ जाती है। चमकदार रोगन। वार्निश। क्रि० वि०—फेरना। २. आग की लपक। ज्वाला। लौ।
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लुकंजन  : पुं० =लोपांजन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लुकंदर  : वि० [हिं० लुकना] १. (वह) जो लुक-छिप जाता हो। २. फलतः सामना या मुकाबला न करनेवाला। भग्गू।
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लुकना  : अ० [सं० लुक=लोप] ऐसी जगह जाकर रहना, जहाँ कोई देख न सके। आड़ में होना। छिपना। संयो० क्रि०—जाना।—रहना। पद—लुक-छिपकर-ऐसे प्रकार से या रूप में जिसमें लोग देख न सकें। चोरी से।
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लुकमा  : पुं० [अ० लुकमा] भोजन का उतना अंश जितना एक बार मुँह में डाला या लिया जाय। कौर। ग्रास। निवाला।
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लुक़मान  : पुं० [अ०] कुरान में वर्णित एक हकीम जो अपनी बुद्धिमत्ता के लिए प्रसिद्ध है।
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लुकरी  : स्त्री० =लुकारी।
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लुकसाज़  : पुं० [हिं० लुक=चमकीला+फा० साज़] १. वह जो लुक अर्थात् चमकदार लेप बनाता या लगाता हो। २. एक प्रकार का चमड़ा जो सिझाया और चमकीला किया हुआ होता है।
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लुका-छिपी  : स्त्री० [हिं० लुकना+छिपना] १. लुकने-छिपने की क्रिया या भाव। २. लुकने-छिपने का बच्चों का एक खेल।
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लुकाठ  : पुं० [चीनी लु+क्यू से सं० लकुट] १. एक प्रकार का पेड़ जिसके फल आमड़े के बराबर और खाने में खट्टे-मीठे होते हैं। २. उक्त फल।
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लुकाना  : स० [हिं० लुकना] [भाव० लुकाना] लुकने में प्रवृत्त करना। छिपाना। अ०=लुकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लुकारी  : स्त्री० [हिं० लुक] १. फूस का पूला या लकड़ी जिसका एक छोर जलता हो। मशाल की तरह जलती हुई लकड़ी। २. अग्नि। आग।
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लुकाव  : पुं० [हिं० लुकाना] लुकाने की क्रिया या भाव।
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लुकेठा  : पुं० =लुआठा।
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लुकोना  : स०=लुकाना।
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लुक्क  : पुं० =लुक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लुक्का  : पुं० [हिं० लुकना] लुक छिपकर दुष्कर्म करनेवाला या दुष्ट व्यक्ति। उदाहरण—हमने न मालूम तुम सरीखे कितने लुक्कों को तो चुटकी से ही मसल दिया है।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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लुखिया  : स्त्री० [?] १. धूर्त औरत। २. पुंश्चली। ३. वेश्या। ४. कुलटा।
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लुगड़ा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० लुगड़ी]=लूगा (कपड़ा)।
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लुगड़ी  : स्त्री० [देश] पीठ पीछे की जानेवाली निंदा। चुगली। स्त्री० हिं० ‘लुगाड़ा’ का स्त्री।
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लुगत  : स्त्री० [अ०] १. भाषा। जबान। २. ऐसा शब्द जिसका अर्थ स्पष्ट या प्रसिद्ध न हो। ३. शब्द कोश। अभिधान।
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लुगदा  : पुं० [देश] [स्त्री० अल्पा० लुगदी] गीले चूर्ण का पिंड या लौद।
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लुगरा  : पुं० =लुग्गा (कपड़ा)।
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लुगवी  : वि० [अ०] १. लुगत-सम्बन्धी। शब्दकोश का। २. शब्द कोशों में आया हुआ। कोश-गत। ३. (शब्द का अर्थ) जो मूल वास्तविक या व्युत्पत्तिक हो।
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लुंगा  : पुं० [देश] पंजाब में धान रोपने की एक रीति। माय। पुं० =लुँगाड़ा (लुच्चा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लुगाई  : स्त्री० [हिं० लोग का स्त्री] =औरत।
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लुंगाड़ा  : पुं० [देश] १. लुच्चा। २. आवारा और बदचलन।
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लुगात  : स्त्री० [अ० लुगत का बहु] शब्दों और उनके अर्थों का संग्रह। शब्द कोश।
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लुंगी  : स्त्री० [हिं० लँगोट या लाँग] १. टखनों तक लटकती हुई कमर में बाँधी जानेवाली ढाई गज लंबी छोटी धोती या बड़ा अँगोछा। तहमत। २. कपड़े का टुकड़ा जो हजामत बनाते समय नाई इसलिए पैर पर आगे डाल देता है जिसमें बाल उसी पर गिरे। ३. खारुआ नामक लाल कपड़ा। स्त्री० [?] मोर की तरह का एक पहाड़ी पक्षी।
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लुगी  : स्त्री० [हिं० लूगा] १. छोटा कपड़ा। २. फटा पुराना कपड़ा। ३. लहँगे आदि का चौड़ा किनारा।
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लुग्गा  : पुं० दे० ‘लूगा’।
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लुघड़ना  : अ०=लुढ़कना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लुचकना  : स० [सं० लुंचन] झटके के साथ छीनना। सं० क्रि०—लेना।
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लुंचन  : पुं० [सं०√लुंच (उखाड़ना)+ल्युट—अन] १. चुटकी से पकड़ कर झटके के साथ उखाड़ना। नोचना। उत्पटान। जैसे—केशलुंचन। २. जैन यतियों की एक क्रिया जिसमें उनके सिर के बाल चुटकी से पकड़कर नीचे जाते हैं। ३. काटना। तराशन।
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लुचरी  : स्त्री० =लुच्ची (मैदे की पूरी)।
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लुचवाना  : स०=नोचवाना।
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लुंचित  : भू० कृ०[सं०√लुंच+क्ति] नोचा उखाडा काटा या छीला हुआ।
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लुंचित-केश  : पुं० [सं० ब० स०] जैन यति या साधु जिसके सिर के बाल नोच लिये गये होते हैं। वि० जिसके सिर के बाल नोचे हुए हों।
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लुचुई  : स्त्री० =लुच्ची (मैदे की पूरी)।
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लुच्चा  : वि० [सं० लुंचा, हिं० लुचकना] [स्त्री० लुच्ची] १. दूसरे के हाथ से वस्तु लुचककर भागनेवाला। चाई। २. कमीना दुष्ट और पाजी। ३. दुराचारी। लफंगा। शोहदा।
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लुच्ची  : स्त्री० [?] मैदे की बनी हुई एक प्रकार की बहुत बड़ी तथा पतली पूरी। वि० हिं० लुच्चा का स्त्री० रूप।
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लुंज  : वि० [सं० लुंचन=काटना, उखाड़ना] १. बिना हाथ पैर का। लँगड़ा। लूला। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो कोई कामधाम न करता हो बल्कि यों ही बैठा रहता हो। ३. (वृक्ष) जिसके पत्ते, डालियाँ आदि काट ली गई हों।
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लुंजा  : वि० =लुंज।
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लुज्जा  : पुं० [देश] समुद्र में का गहरा स्थल। (लश०)
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लुटकना  : अ० [हिं० लु़ढ़कना] १. लुढ़कना। २. मारा-मारा फिरना। ३. इधर-उधर फेका-पटका रहना।
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लुटत  : स्त्री० =लूट।
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लुटना  : अ० [सं० लुट्=लुटना] १. (व्यक्ति या वस्तु का) लूट लिया जाना। मुहावरा—घर लुटना=घर की सब सामग्री का लूटा जाना या औरों के द्वारा अपहृत होना। २. कोई अत्यन्त प्रिय और बहुमूल्य वस्तु छिन या हाथ से निकल जाना।
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लुटपुटना  : अ०=लटपटाना।
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लुटरना  : अ० [हिं० लोटना] १. लोटना। २. लुढ़कना। ३. बिखर कर इधर-उधर गिरना। छिटकना। छितराना।
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लुटरा  : वि० [स्त्री० लुटरी] घुँघराला। उदाहरण—लुटरी, खुली अलक रज धूसर बाँहें आकर लिपट गई।—प्रसाद।
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लुटाना  : स० [हिं० लूटना का प्रे०] १. किसी को ऐसी स्थिति में लाना कि वह लूटा जाय। २. अपनी चीज या माल इस प्रकार दूसरों के सामने करना या रखना कि वे मनमाने रूप से उस पर अधिकार कर सकें। जैसे—उन्होंने लाखों रुपए यों ही लुटा दिये। ३. बरबाद करना। व्यर्थ में फेकना या व्यय करना। ४. बहुत ही थोड़े या नाम मात्र के मूल्य पर औरों को अपनी चीजें देना। सस्ते भाव से बेचना। ५. खुलकर बाँटना या दान करना।
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लुटावना  : स०=लुटाना।
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लुटिया  : स्त्री० [हिं० लूटना+एरा (प्रत्यय)] छोटा लोटा। मुहावरा—लुटिया डूबना=सारा काम नष्ट होना या बुरी तरह से बिगड़ जाना।
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लुटेरा  : पुं० [हिं० लूटना+एरा (प्रत्यय)] १. वह जो दूसरों की धनसंपत्ति लूटकर अपनी जीविका चलाता हो। डाकू। २. वह दूकानदार जो बहुत महँगा सौदा देता हो या डंडी मारता हो।
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लुट्टस  : स्त्री० =लूट।
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लुंठक  : पुं० [सं०√लुंठ (स्तेय)+ण्वुल् —अक] लुटेरा।
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लुंठन  : पुं० [सं०√लुंठ्+ल्युट—अन] १. लूटना। २. लुढ़कना। वि० =लुंठित।
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लुठन  : पुं० [सं०]=लुंठन।
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लुठना  : अ० १. =लुढ़ना। २. =लोटना।
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लुंठा  : स्त्री० [सं०√लुंठ+क्त] १. लूटा या चुराया हुआ। (माल)। २. लूटा हुआ (व्यक्ति) ३. लुढका हुआ।
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लुठाना  : स० १. =लुढ़काना। २. =लोटना।
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लुंठी  : स्त्री० [सं०√लुंठ्+इन्+ङीष्] गधे या घोड़े का जमीन पर लेटना।
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लुंड  : पुं० [सं० लुंड् (स्तेय)+अच्] चोर। पुं० =रुंड। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लुंड-मंड  : वि० [सं० रुंड+मुंड] १. जिसका सिर, हाथ, पैर आदि कटे हों, केवल धड़ का लोथड़ा रह गया हो। २. जिसके हाथ-पैर कटे हों। लँगड़ा या लूला। ३. जिसके आवश्यक या उपयोगी अंग कट गये हों। ४. गठरी आदि की तरह गोल-मोल किया हुआ।
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लुड़कना  : अ०=लुढ़कना।
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लुड़काना  : स०=लुढ़कना।
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लुड़की  : स्त्री० =लुटकी।
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लुड़खुड़ाना  : अ०=लड़खड़ाना।
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लुंडा  : वि० [सं० रुंड] [स्त्री० अल्पा० लुंडी] १. जिसकी पूँछ पर बाल न हों। (बैल) २. जिसके पर और पूँछ के बाल कट कर या झड़ गये हों। (पक्षी)। पुं० [हिं० लुंडी] बड़ा लुंडा या गोला।
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लुंडिका  : स्त्री० [सं०√लुंड+इन्+कन्+टाप्] गोल पिंड। लुंडी।
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लुंडियाना  : स० [हि० लुंडी०] सूत, रस्सी आदि को लुंडी या गोले के रूप में लपेटना। लुंडी के रूप में लाना।
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लुंडी  : स्त्री० [सं० लुंडिका] लपेटे हुए सूत का गोलाकार पिंडी।
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लुढ़कना  : अ० [सं० लुंठन, हिं० लुढ़ना+क] १. सीधे खड़े न रहकर जमीन पर गिरते हुए इस प्रकार किसी ओर इधर-उधर होते हुए बढ़ना कि कभी कोई अंग नीचे हो और कभी कोई अंग ऊपर। ढुलकना। जैसे—(क) जमीन पर रखा हुआ लोटा लुढ़कना। (ख) पहाड़ी पर से आदमी का या पत्थर का लुढ़ककर नीचे आना। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना। २. किसी ओर या पर झुकना। आकृष्ट होना। ३. मर जाना। जैसे—इस बार हैजे में सैकड़ों आदमी लुढ़क गये। ३. धन का व्यर्थ ध्यय होना। जैसे—जरा-सी बीमारी में सैकड़ों रुपये लुढ़क गये। संयो० क्रि०—जाना।
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लुढ़काना  : स० [हिं० लुढ़कना का० स०] किसी को लुढ़कने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कुछ या कोई लुढ़के। संयो० क्रि०—देना।
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लुढ़की  : स्त्री० [हिं० लुढ़कना] बहुत गाढ़े दही में घोरी गई भाँग। स्त्री० =लुरकी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लुढ़ना  : अ०=लुढ़कना।
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लुढ़ाना  : स०=लुढ़काना।
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लुढियाना  : स०१. =लुँडियाना। २. =लुढ़काना।
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लुतरा  : वि० [देश] [स्त्री० लुतरी] १. इधर की बात उधर लगाने वाला चुगलखोर। २. दुष्ट पाजी।
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लुत्ती  : स्त्री० =लूती (लुआठी)।
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लुत्थ  : स्त्री० =लोथ।
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लुत्फ़  : पुं० [अ०] १. अनुग्रह। कृपा। दया। २. किसी काम या बात से मिलनेवाला आनन्द या सुख। मजा। क्रि० प्र०—आना।—मिलना। मुहावरा—लुत्प उठाना=आनन्द या मजा लेना। २. किसी चीज या बात में होनेवाला कोई विशिष्ट और सुखद गुण। खास खूबी।
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लुनना  : स० [सं० लवन=काटना, लून=कटा हुआ+ना] १. पकी खड़ी फसल की कटाई करना। लुनाई करना। २. चुनना। ३. काटकर या और किसी प्रकार अलग या दूर करना हटाना। ४. नष्ट या बरबाद करना। उदाहरण—दीपक हजारन अंध्यार लुनियतु है।—देव।
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लुनाई  : स्त्री० [हिं० लुनना] लुनने की क्रिया, भाव या मजदूरी। [हिं० लोन=नोन] नमकीन। लावण्य।
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लुनेरा  : पुं० [हिं० लुनना] खेत की फसल काटने या लुननेवाला मजदूर। पुं०=नोनिया (जाति)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लुपड़ी  : स्त्री० =लुगड़ी।
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लुपना  : अ० [सं० लुप] १. लुप्त या गायब होना। छिपना। लुकना।
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लुप्त  : भू० कृ० [सं०√लुप् (छेदन)+क्त] १. जो अन्तर्हित हो गया हो या छिप गया हो। गायब। २. जो न रह गया हो। जिसका लोप हो गया हो। पुं० चोरी का धन या माल।
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लुप्त-मास  : पुं० [सं०] हिंदू पांचांग की चांद्र गणना में वह मास जिसका सर्वथा लोप होता है और जिसका नाम ही पंचांग में नही आने पाता। क्षय मास से भिन्न। विशेष—ऐसा मास बहुत कम और बहुत दिनों पर होता है।
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लुप्ताकार  : पुं० [सं० लुप्त-आकार, कर्म० स०] संस्कृत वर्णमाला का एक चिन्ह जो आधे अ का सूचक होता है इसका रूप यह है—ऽ।
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लुप्तोपमा  : स्त्री० [सं० लुप्त-उपमा, कर्म०स] उपमा अलंकार का वह प्रकार या भेद जिसमें उपमेय, उपमान धर्म और उपमान शब्द में से कोई एक नहीं होता।
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लुबधना  : अ० [सं० लुब्ध] लुब्ध होना।
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लुंबिनी  : स्त्री० [सं०] कपिलवस्तु के पास का एक वन या उपवन जहाँ गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था।
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लुबुध  : वि०=लुब्ध। पुं०=लुब्धक (बहेलिया या शिकारी)।
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लुबुधना  : अ० [हिं० लुबुध+ना (प्रत्यय)] लुब्ध होना।
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लुब्ध  : वि० [सं०√लुभ् (लोभ करना)+क्त] १. किसी प्रकार के लोभ में आया या पड़ा हुआ। २. जो किसी पर विशेष रूप से आसक्त हुआ हो। ३. मन में किसी चीज या बात का बहुत लोभ या वासना रखनेवाला। जैसे—धन-लुब्ध। रूप-लुब्ध।
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लुब्धक  : पुं० [सं० लुब्ध+कन्] १. व्याध। बहेलिया। २. शिकारी। ३. उत्तरी गोलार्द्ध का एक बहुत चमकीला तारा। (आधुनिक)
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लुब्धना  : अ०=लुबुधना। (लुब्ध होना)।
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लुब्धापति  : स्त्री० [सं० ष० त०] केशव के अनुसार प्रौढ़ा नायिका का भेद। ऐसी प्रौढ़ा नायिका जो पति और कुल के सब लोगों से लज्जा करे।
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लुब्ब  : पुं० [अ०] १. सारभाग। २. गूदा।
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लुब्ब-लुबाब  : पुं० [अ०] १. गूदा। सार। २. सारभाग। सारांश।
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लुभाना  : अ० [हिं० लोभ+आना (प्रत्यय)] १. कुछ या किसी को पाने के लिए लोभ से युक्त होना। लालच या लालसा में पड़ना। २. उक्त अवस्था के कारण तन-मन की सुध भूलना। मोह में पड़ना। ३. किसी पर आसक्त या मोहित होना। संयो० क्रि०—जाना। स० १. अपने गुण, रूप आदि के कारण किसी के मन में लोभ या लालसा उत्पन्न करना। २. किसी के मन में लोभ या लालसा उत्पन्न कराना। ३. किसी के मन में अपने प्रति अनुराग आसक्ति या प्राप्ति की कामना उत्पन्न करना और फलतः ऐसी दशा में लाना कि वह सुध-बुध भूल जाय। मोह से युक्त करना। संयो० क्रि०—लेना।
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लुभावना  : वि० [हिं० लुभाना] [स्त्री० लुभावनी] मन को मोहित या लुब्ध करनेवाला। मनोहर। सुन्दर। अ० स०=लुभाना।
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लुभित  : भू० कृ० [सं० लुभ्+क्त] १. लोभ में आया या पड़ा हुआ। २. मुग्ध। ३. घबराया हुआ।
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लुभौहाँ  : वि० [हिं० लुभाना+औहाँ (प्रत्यय)] १. प्रायः लुब्ध होनेवाला। २. दे० ‘लुभावना’।
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लुर  : पुं० [?] १. ईरानी नसल की एक पहाड़ी जाति जो अपने उजड्डपन के लिए प्रसिद्ध है। २. शुअर। वि० बहुत बड़ा उजड्ड या मूर्ख।
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लुरकना  : अ०१. =लुढ़कना। २. =लटकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लुरका  : पुं० [हिं० लुरकना=लरकना] झुमका (कान का गहना)।
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लुरकी  : स्त्री० =लुढ़की। स्त्री० [हिं० लुरकना] कान में पहनने की बाली। मुरकी
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लुरना  : अ० [सं० लुलनी झूलना] १. ऊपर से तनी चली आई हुई वस्तु का इधर-उधर हिलना-डुलना। लरकना। झूलना। लहरना। २. झुका या ढलक पड़ना। ३. अचानक आ पड़ना या आ पहुँचना। ४. प्रवृत्त होना। ५. मुग्ध या मोहित होना। संयो० क्रि०—पड़ना।
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लुरियाना  : अ० [हिं० लुरना] १. प्रेम-पूर्वक स्पर्श करना। २. थपथपाना।
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लुरी  : स्त्री० [हिं० लेरुआ=बछड़ा] ऐसी गाय जिसे ब्याये कुछ ही दिन हुए हों।
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लुलन  : पुं० [सं०√लुल् (विमर्दन)+ल्युट] [वि० लुलित] हिलना-डोलना। झूलना।
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लुलना  : अ० [सं० लुलन] १. हिलना-डुलना। २. झूलना। ३. लहराना।
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लुलित  : भू० कृ० [सं०√लुल् (हिलना)+क्त] १. लटकता या झूलता हुआ आदोलन। २. अशांत। ३. बिखरा हुआ। ४. दबाया हुआ। ५. ध्वस्त। ६. सुन्दर।
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लुलुआना  : अ० [अनु० लुल्लू से] लूलू कह करके किसी का उपहास करना।
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लुवार  : स्त्री० =लुआर (लू)।
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लुहँगी  : स्त्री० =लोहाँगी।
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लुहना  : अ० [सं० लुभन] लुब्ध या मोहित होना।
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लुहनी  : पुं० [देश] अगहन में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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लुहाँगी  : स्त्री० =लोहाँगी।
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लुहार  : पुं० =लोहार।
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लुहारा  : पुं० [हिं० लोहार] १. वह स्थान जहाँ बैठकर लोहार काम करते हों। २. लोहारों की बस्ती या मुहल्ला।
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लुहारिन  : स्त्री० [हिं० लुहार] लुहार या लोहार जाति की स्त्री।
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लुहारी  : स्त्री० [हिं० लुहार+ई (प्रत्यय)] १. लुहार का काम या पेशा। लोहे की चीज बनाने का काम। २. लोहार जाति की स्त्री। लोहारिन।
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लुहुर  : स्त्री० [सं० लघु, हिं० लहुरा] छोटे कानोंवाली भेंड़।
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लू  : स्त्री० [सं० लूक, हिं० लौ] ग्रीष्म ऋतु में चलनेवाली बहुत गरम हवा। क्रि० वि०—मारना।—लगना २. उक्त का वह कुप्रभाव जिसमें व्यक्ति ज्वर से पीड़ित होता तथा जलन से छटपटाने या तड़पने लगता है।
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लूक  : स्त्री० [सं० लुक=जलन] १. अग्नि की ज्वाला। आग की लपट। २. जलती हुई लकड़ी। लुत्ती। ३. दे० ‘लू’। स्त्री० [सं० उल्का] आकाश से छूटकर गिरनेवाला तारा।
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लूकना  : स० [हिं० लूक+ना (प्रत्यय)] आग लगना। जलाना। अ०=लुकना (छिपना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लूका  : पुं० [सं० लुक=जलना] [स्त्री० अल्पा० लूकी] १. आग की लौ या लपट। २. लुआठी। लूती। मुहावरा—(किसी के मुँह में) लूका लगाना=तुच्छ समझकर दूर हटाना। मुँह फूँकना। (स्त्रियों की गाली)
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लूकी  : स्त्री० [हिं० लूका] १. आग की चिनगारी। स्फुलिंग। २. दे० ‘लूका’।
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लूक्ष  : वि० =रूक्ष (रूखा)।
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लूखा  : वि० [स्त्री० लूखी]=रूखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लूगड़  : पुं० [हिं० लूगा] १. वस्त्र। कपड़ा। २. चादर।
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लूगा  : पुं० [सं० लत्तक] १. कपड़ा। वस्त्र। २. विशेषतः फटा-पुराना कपड़ा। ३. धोती।
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लूघा  : पुं० [देश] वह व्यक्ति जो ठगों के साथ रहकर उन लोगों की लाशें गाड़ने के लिए गड्ढे खोदता था, जिन्हें ठग लोग मार डालते थे।
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लूट  : स्त्री० [हिं० लूटना] १. लूटने की क्रिया या भाव। २. किसी को डरा-धमका कर या मार-पीटकर जबरदस्ती उसकी चीजें छीन लेना। पद—लूट-खसोट, लूट-पाट, लूट-मार (दे०) ३. आज-कल किसी की विवशता से लाभ उठाकर अनुचित रूप से अपना आर्थिक लाभ करना। जैसे—यहाँ के दुकानदारों ने तो लूट मचा रखी है। क्रि० प्र०—पड़ना।—मचना।—मचाना। ४. किसी को लूटने से मिलनेवाला धन या संपत्ति।
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लूट-खसोट  : स्त्री० [हिं०] बहुत से लोगों का किसी की चीज़ें लूट या छीन लेना। क्रि० प्र०—मचना।
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लूटक  : पुं० =लुटेरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लूटना  : स० [सं० लुट=लूटना] १. बलात् अथवा डरा-धमका कर किसी की धन संपत्ति उससे ले लेना या छीन लेना। जैसे—लुटेरों ने राह चलते मुसाफिरों को लूट लिया। २. किसी के घर, मकान दूकान आदि में अनाधिकार प्रवेश कर उसमें रखा हुआ सामान उठा ले जाना। जैसे—उपद्रवियों का सारा बाजार लूटना। ३. फेंकी लुटाई अथवा किसी के अधिकार या बंधन से निकली हुई वस्तु को हस्तगत करना। जैसे—(क) गुड्डी या पतंग उड़ाना। (ख) पैसे लूटना। ४. अन्याय या धोखे से किसी का धन अपहरण करना। जैसे—नौकर-चाकरों का नवाब साहब को लूटना। ५. उचित से बहुत अधिक मूल्य लेना। अधिक दाम लेकर बेचना। जैसे—आज-कल के दुकानदार ग्राहकों को खूब लूटते हैं। ६. किसी रूप में किसी का सब कुछ या बहुत कुछ मनमाने ढंग से लूट से ले लेना। जैसे—मजा लूटना। ७. किसी को अपने प्रति मोहित या लुब्ध करना, अथवा इस प्रकार अपना बनाना कि वह वशीभूत हो जाय।
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लूटा  : पुं० =लुटेरा (उदाहरण—लोभी लौंद़ मुकरवा झगरू बड़ा पढैलो लूटा।—सूर।
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लूटि  : स्त्री० =लूट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लूण  : पुं० [सं० लवण] नमक।
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लूत  : पुं० [इबरानी] यहूदियों के एक पैगम्बर।
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लूता  : स्त्री० [सं०√लू (छेदन)+तन्+टाप्] १. मकड़ी। २. मकड़ी के स्पर्श के विष के कारण शरीर में पड़नेवाले फफोले। मकड़ी का रोग। वृक्का। च्यूँटी। पुं० =लूका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लूतामय  : पुं० [सं०√लूता+मयट्] मकड़ी नामक रोग।
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लूती  : पुं० [अ०] वह जो अस्वाभाविक रूप से मैथुन करे। बालकों के साथ संभोग करनेवाला। लौडेबाज। पुं०=लूता।
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लून  : वि० [सं०√लू (छेदन)+क्त, त-न] कटा हुआ। छिन जैसे—लून-पक्ष=जिसके पर कटें हों। पुं० =नोन (नमक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लूनक  : पुं० [हि० लोन] १. सज्जी खार। २. अमलोनी का साग।
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लूनना  : स०=लुनना (लुनाई करना)।
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लूबरर  : स्त्री० =लोमड़ी। वि० =लूमर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लूँबरी  : स्त्री० =लोमड़ी।
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लूम  : पुं० [सं०√छू (छेदन)+मक्] १. लांगूल। पूँछ। दुम। २. चक्कर। फेरा। उदाहरण—आता लूम लेता हुआ पूर्ण घट नीचे से।—मैथिलीशरण गुप्त। २. सम्पूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। पुं० [?] कला-बत्तू की लच्छी। पुं० [अं०] कपड़ा बुनने का करघा।
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लूम-विष  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसे जन्तु जिनकी दुम या पूँछ में विष हों। जैसे—बिच्छू।
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लूमड़ी  : स्त्री० =लोमड़ी।
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लूमना  : अ० [सं० लूम] १. लरकाना। झूलना। २. लहरना। ३. (बादलों का) घिरना। ४. चक्कर खाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लूमर  : वि० [देश] अवस्था में बड़ा। वयस्क। जैसे—इतने बड़े लूमर हुए पर बात करने का शऊर न आया।
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लूर  : पुं० [?] कोई काम ठीक तरह से करने का ढंग। शऊर। जैसे—तुम्हें तो किसी बात का लूर नहीं है।
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लूरना  : अ०=लुरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लूला  : वि० [सं० लून=कटा हुआ] [स्त्री० लूनी] १. जिसका हाथ कट गया हो या बेकाम हो गया हो। बिना हाथ का। लुंजा। टुंडा। २. जो कुछ भी करने में असमर्थ हो।
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लूलू  : वि० [देश] परम मूर्ख। निरा बेवकूफ। मुहावरा—(किसी को) लूलू बनाना=किसी को बेवकूफ बनाकर उसका उपहास करना। पुं० बच्चों को डराने के लिए ‘जूजू’ ‘हौआ’ आदि की तरह के एक कल्पित विकट जीव की संज्ञा।
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लूसना  : स० [?] मटिया-मेट करना। चौका लगाना। उदाहरण—सब ग्रंथनि वे पढै जो सो सब लूस।—रत्नाकर। स०=लूटना। अ० दे० ‘ललचाना’ (पश्चिम)।
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लूह  : स्त्री० =लू।
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लूहर  : स्त्री० =लू।
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ले  : अव्य० [सं० लग्न, हिं० लग, लगि] तक। पर्यंन्त। अव्य० [हि० लेना] संबोधन के रूप में प्रयुक्त होनेवाला शब्द जिसका अर्थ होता है—(क) अच्छा ऐसा ही सही। जैसे—ले मै ही यहाँ से चला जाता हूँ। (ख) अब समझ में आया न। जैसे—ले कैसा फल मिला।
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ले-दे  : स्त्री० [हिं० लेना+देना] १. लेने और देने की क्रिया या भाव। २. लेन-देन। २. सांसारिक काम-धन्धे और झगड़े-बखेड़े। उदाहरण—हर एक पड़ा है अपनी ले दे में।—बच्चन।
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ले-निहार  : वि० =लेनदार।
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ले-पालक  : पुं० [हिं० लेना+पालना] १. किसी दूसरे का ऐसा लड़का जो अपने आप लड़के की तरह रखकर पाला-पोसा गया हो। २. गोद लिया हुआ लड़का। दत्तक पुत्र।
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लेइ  : अव्य० [सं० लग्न, हिं० लगि] तक। पर्यंन्त।
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लेई  : स्त्री० [सं० लेहिन, लेही या लेह्य] १. पानी में घुले हुए किसी चूर्ण को गाढा करके बनाया हुआ लसीला पदार्थ। जैसे—अवलेह, लपसी आदि। २. घुला हुआ आठा या मैदा जो आग पर पकाकर गाढ़ा और लसदार बना लिया जाता है और कागज आदि चिपकाने के काम आता है। ३. गाढ़ा घोला हुआ चूना और बरी या बालू और सीमेंट जो इमारत बनाते समय ईंटों आदि की जोड़ाई के काम आता है। गारा।
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लेई-पूँजी  : स्त्री० [हिं० स०] सारी धन संपति।
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लेओ  : स० हि० लेना क्रिया का विधि-वाला रूप। लो। उदाहरण—चूर्ण करो। गत संस्कारों को लेओ प्राण उबार।—पन्त।
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लेक्चर  : पुं० [अ०] व्याख्यान। वक्तृता। क्रि० प्र०—देना। मुहावरा—लेक्चर झाड़ना=लगातार कुछ समय तक बढ़-बढ़कर उपदेशात्मक बातें कहते चलना।
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लेक्चरबाज  : पुं० [अं+फा०] [भाव० लेकचरबाजी] १. उपदेशात्मक बातें दूसरों से कहते रहनेवाला व्यक्ति। २. प्रायः व्याख्यान देते रहनेवाला।
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लेक्चरबाजी  : स्त्री० [अं० लेक्चर+फा० बाजी] खूब या प्रायः लेक्चर देने की क्रिया (व्यंग)।
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लेक्चरर  : पुं० [अं०] लेक्चर या व्याख्यान देनेवाला। २. विश्व-विद्यालय का उप-प्राध्यापक।
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लेख  : पुं० [सं०√लिख् (लिखना)+घञ्] १. लिखे हुए अक्षर। २. लिखावट। ३. लिखी हुई बात, विचार या विषय। ४. दैनिक, मासिक आदि पत्रों में छपनेवाला सामयिक निबंध। जैसे—आज के अखबार में राजा जी का भी लेख है। ५. कोई ऐसी लिखी हुई आज्ञा या आदेश जो नियम या विधान के अनुसार किसी बड़े अधिकारी ने प्रचलित किया हो। (रिट्) ६. ताम्र-पत्रों, शिला-लेखों सिक्कों आदि में लिखी हुई बातें या विवरण। (इनस्क्रिप्सन) ७. लेखा। हिसाब। वि० =लेख्य। पुं० [सं० लेखर्षभ] देवता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेख-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. लिखित पत्र। लिखा हुआ कागज। २. दस्तावेज। लेख्य।
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लेख-प्रणाली  : स्त्री० [सं० ष० त०] लिखने की शैली या ढंग।
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लेख-शैली  : स्त्री० [सं० ष० त०] लिखने की वह विशिष्ट शैली (देखें) जो लेखक की विशेषताओं से युक्त होती है।
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लेखक  : पुं० [सं०√लिख्+ण्वुलक—अक] [स्त्री० लेखिका] १. वह जो लिखता हो। लेखन कार्य करनेवाला। जैसे—कहानी लेखक, समाचार लेखक। २. वह जो मनोरंजन या जीविका के लिए कहानियाँ उपन्यास, लेख साहित्यिक ग्रन्थ आदि लिखता हो। साहित्य-जीवी। ३. किसी गद्य या कृति का रचयिता।
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लेखन  : पुं० [सं०√लिख्+ल्युट—अन] [वि० लेखनीय, लेख्य] १. अक्षर आदि लिखने का कार्य। अक्षर-विन्यास। अक्षर बनाना। २. अक्षर आदि लिखने की विद्या या कला। ३. तूलिका से चित्र आदि अंकित करने की क्रिया या विद्या। चित्रांकन। ४. किसी रूप में किसी प्रकार के चिन्ह आदि अंकित करना। जैसे—नख-लेखन=नाखूनों से खरोचकर किसी प्रकार की आकृति या चिन्ह बनाना। ५. हिसाब करना। लेखा लगाना। कूतना। ६. कै या वमन करना। छर्दन। ७. ताड़-पत्र और भोजपत्र जिन पर प्राचीनकाल में लेख आदि लिखे जाते थे। ८. वैद्यक में वह क्रिया जिससे शरीर के अन्दर की धातुएँ तथा मल या विकार या तो पतले करके शरीर के बाहर निकाले जाते या अन्दर ही अन्दर सुखाये जाते हैं। ९. उक्त प्रकार की क्रियाएँ करनेवाली दवा या ओषधि। १॰. वैद्यक के शस्त्र द्वारा कोई दूषित अंग काटना या छेदना। चीर-फाड़। ११. खाँसी नामक रोग।
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लेखन-वस्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वैद्यक में पिचकारी की सहायता से शरीर के अन्दर की धातुओं और वातादि दोषों को पतला करने की क्रिया।
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लेखन-सामग्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] लिखने के काम आनेवाली चीजें या सामग्री। जैसे—कागज, कलम, स्याही आदि (स्टेशनरी)।
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लेखनहार  : वि० [हि० लेखन+हिं० हार (प्रत्यय)] लिखनेवाला। उदाहरण—आपुहि कागद आपु मसि आपुहि लेखनहार।—कबीर।
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लेखना  : स० [सं० लेखन] १. अक्षर, चित्र या चिन्ह बनाना। लिखना। २. लेखा या हिसाब करना। गणित की क्रिया करना। ३. किसी को गिनती के योग्य या महत्त्वपूर्ण समझना। ४. मन ही मन कोई बात सोचना-समझना या निश्चित करना। ५. प्राप्त या भोग करना। उदाहरण—स्वर्ग का लाभ यहीं मै लेखूँ।—मैथिलीशरण गुप्त।
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लेखनिक  : पुं० [सं० लेखन+ठन्-इक] १. लेखक। २. पत्रवाहक। ३. वह निरक्षर या असमर्थ जो लेख आदि पर स्वयं हस्ताक्षर न करके दूसरों से उन पर अपना नाम लिखवाता हो।
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लेखनिका  : स्त्री० [सं० लेखनिक+टाप्]=लेखनी।
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लेखनी  : स्त्री० [सं० लेखन+ङीष्] वह वस्तु जिससे लिखे या अक्षर बनावें। वर्ण तूलिका। कलम। मुहावरा—लेखनी उठाना=कुछ लिखना आरम्भ करना। लेखनी चलाना=लिखना।
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लेखनीय  : वि० [सं०√लिख् (लिखना)+अनीयर्] लिखे जाने के योग्य।
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लेखपाल  : पुं० [सं० लेख√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्०] वह सरकारी कर्मचारी जो गाँवों के खेतों और उनकी उपज, लगान आदि का लेखा रखता हो। (पुराने पटवारियों की नई संज्ञा)।
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लेखर्षभ  : पुं० [सं० लेख-ऋषभ, स० त०] देवताओं में श्रेष्ठ, इन्द्र।
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लेखहार  : पुं० [सं० लेख√हृ (हरण)+अण्] चिट्ठी ले जानेवाला। पत्रवाहक।
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लेखा  : पुं० [सं० लेख, हिं० लिखना] १. वह लेख जो आय-व्यय की धन-राशि आदि से संबंध रखनेवाले अंकों या संख्याओं से युक्त होता है। हिसाब (एकाउन्ट) २. इस बात का विचार कि कुल चीजें कितनी और किस अनुपात में हैं। जैसे—कितनी चीजें आई है, उन सब का लेखा तैयार करो। क्रि० प्र०—लगाना।—लिखना। मुहावरा—(किसी का) लेखा चुकाना=हिसाब करने पर जो बाकी निकलता हो, वह देकर चुकता करना। लेखा डालना=बही आदि में कोई नया खाता खोलना या बढ़ाना। नया खाता डालना। लेखा डेवढ़ करना= (क) हिसाब-चुकता करना। देन चुकाना। (ख) जमा या खर्च की मदें बराबर करके हिसाब पूरा करना। (ग) चौपट या नष्ट करना। (व्यंग्य) ३. राशियों, संख्याओं आदि के संबंध में किया जानेवाला अनुमान। कूत। ४. किसी के महत्त्व मान योग्यता आदि के संबंध में मन में किया जानेवाला विचार। मुहावरा—(किसी के) लेखे=किसी के ध्यान, विचार या समक्ष के अनुसार। जैसे—हमारे लेख उसका आना और न आना दोनों बराबर है। किसी लेखे=किसी ढंग, प्रकार या साधन से। किसी तरह। उदाहरण—सब कर मरनु बना एहि लेखे।—तुलसी। ५. जीवन-निर्वाह व्यवहार आदि के संबंध रखनेवाली दशा या स्थिति। जैसे—ऊँचे पर चढ़ देखा घर घर एकहि लेखा (कहा०)। स्त्री० [सं०√लिख् (लिखना)+अ+टाप्] १. लिपि। लिखावट। २. रेखा। जैसे—चन्द्र लेखा।
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लेखा-कर्म  : पुं० [सं० ष० त०] आय, व्यय आदि का हिसाब लिखने या रखने का काम (एकाउन्टेसी)।
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लेखा-चित्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] अनेक रेखाओंवाला वह बड़ा चौकोर अंकन जो किसी घटना या व्यापार में होते रहनेवाले उतार-चढ़ाव या परिवर्तन अथवा कुछ तथ्यों के पारस्परिक संबंध का सूचक होता है। (ग्राफ) जैसे—जन्म-मरण, तेजी-मंदी, आयात-निर्यात आदि का लेखा चित्र।
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लेखा-परीक्षक  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो किसी विषय व्यक्ति संस्था आदि के लेख या हिसाब-किताब को जाँचता हो (आडीटर)।
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लेखा-परीक्षण  : पुं० [सं०] किसी प्रकार के कार-बार लेन-देन या आय-व्यय आदि की जाँच करने की क्रिया या भाव। (आंडिटिंग)
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लेखा-पुस्तिका  : स्त्री० [सं०] वह पुस्तिका जो बैंक की ओर से उन लोगो को मिलती है जिनके रुपए बैंक में जमा होते हैं और जिसमें उनके खाते के लेन-देन की सब रकमें लिखी रहती हैं। (पासबुक) २. दे० ‘लेखा-बही’।
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लेखा-बही  : स्त्री० [हिं० लेखा+बही] वह बही जिसमें रोकड़ के लेन-देन का ब्यौरा लिखा रहता है। (एकाउन्ट बुक)
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लेखा-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह विद्या या शास्त्र जिसमें, इस बात का विवेचन होता है कि सब तरह के लेखे या हिसाब किस तरह से रखे या लिखे जाते हैं (एकाउन्टेन्सी)।
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लेखाकार  : पुं० [सं०] वह जो किसी महाजनी, कोठी संस्था आदि के आय-व्यय या लेन-देन का लेखा लिखता हो। (एकाउन्टेन्ट)
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लेखागार  : पुं० [सं० लेखा-आगार] वह स्थान विशेषतः किसी राज्य या सरकार का वह स्थान जहाँ शासन तथा सार्वजनिक हित से संबंध रखनेवाले सब प्रकार के लेख्य इसलिए सुरक्षित रखे जाते हैं कि आवश्यकता पड़ने पर प्रमाण या साक्ष्य के रूप में उपस्थित किये जा सकें। (आकिव्ज)
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लेखाध्यक्ष  : पुं० [सं० लेखा-अध्यक्ष, ष० त०] लेखाकार।
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लेखापाल  : पुं० [सं० लेखा√पाल् (रखना)+णिच्+अण्] वह जो आय-व्यय आदि लिखने का काम करता हो। बही-खाते आदि लिखनेवाला कर्मचारी। (एकाउन्टेन्ट)
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लेखिका  : स्त्री० [सं० लेखक+टाप्, इत्व] स्त्री लेखक।
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लेखित  : भू० कृ० [सं०√लिख् (लिखना)+णिच्+क्त] लिखवाया हुआ।
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लेखी (खिन्)  : वि० [सं० लेख+इनि] लिखने की क्रिया करनेवाला। जैसे—चित्रकार, लेखक आदि। स्त्री० [सं० लेख] १. खाते में लिखे जाने की क्रिया या भाव। इंदराज। २. खाते में लिखी जाने-वाली रकम या मद। (एन्ट्री)
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लेखे  : अव्य० दे० ‘लेखा’ के अन्तर्गत मुहा०।
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लेख्य  : वि० [सं०√लिख् (लिखना)+ण्यत्] १. लिखे जाने के योग्य। जो लिखा जा सके। २. जो लिखा जाने को हो। ३. जो लेख के रूप में और फलतः प्रामाणिक हो। दस्तावेजी। (डाक्यूमेन्टरी) पुं० १. लिखी हुई को बात या विषय। लेख। २. विविध क्षेत्रों में, कोई ऐसा लेख जो प्रमाण या साध्य के रूप में काम आता या आ सकता हो। दस्तावेज। (डाक्यूमेन्ट) ३. चित्रकला में, वह रेखाचित्र जो कोयले, खड़िया, रंग आदि की सहायता से अंकित होता है और जिसमें किसी घटना, दृश्य आदि के संबंध में चित्रकार के आन्तरिक भाव व्यक्त होते हैं। (ड्राइंग)
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लेज़म  : स्त्री० [फा०] १. कमान जिससे धनुष चलाने का अभ्यास किया जाता है। २. वह कमान जिसमें लोहे की जंजीर और कटोरियाँ रहती हैं और जिससे पहलवान लोग कसरत करते हैं। क्रि० प्र०—भाँजना।—हिलाना।
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लेजरंग  : पुं० [लेज ?+हिं० रंग] मरकट या पन्ने की एक रंगत जो उसका गुण मानी जाती है।
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लेजुर  : स्त्री० [सं० रज्जु, मागधी प्रा० लेज्जु] १. रस्सी। डोरी। २. कूएँ से पानी खींचने की डोरी या रस्सी।
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लेजुरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का अहरना धान जिसका चावल बहुत दिनों तक रहता है। पुं०=बड़ी लेजुरी (रस्सी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेजुरी  : स्त्री०=लेजुर।
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लेट  : पुं० [देश०] १. सुरखी, कंकड़, और चने अथवा कंकड़ तथा सीमेंट का वह सम्मिश्रण, जो फर्श बनाने के लिए जमीन पर बिछाया जाता है। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। वि० [अ०] जो देर से आया हो अथवा जिसने आने में देर लगाई हो। जैसे—आज गाड़ी लेट है।
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लेट-पेट  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चाय।
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लेटना  : अ० [सं० लुंठन, हिं० लोटना] १. विश्राम करने के लिए हाथ-पैर और सारा शरीर लंबाई के बल पसार जमीन या किसी सतह पर टिका कर पड़ रहना। जमीन या बिस्तरे से पीठ लगाकर बदन की सारी लंबाई उस पर ठहराना। पौढ़ना। जैसे—जाकर चारपाई पर लेट रहो, तबीयत ठीक हो जाएगी। संयो० क्रि०—जाना।—रहना। २. खड़े बल में रहनेवाली चीज या बगल की ओर झुककर ज़मीन पर गिरना या जमीन से सटना। जैसे—आँधी में पेड़ों या फसल का लेटना। संयो० क्रि०—जाना। ३. किसी पदार्थ का ठीक दशा में न रहकर बिगड़ जाना या खराब होना। ४. मर जाना। (बाजारू)
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लेटर  : पुं० [अं०] १. अक्षर। २. चिट्ठी।
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लेटर-बक्स  : पुं० [अं० लेटर-बक्स] १. डाकखाने का वह संदूक जिसमें कहीं भेजने के लिए लोग चिट्ठियाँ डालते हैं। २. प्रायः घरों के दरवाजों पर लगी हुई वह पेटी या संदूक जिसमें डाकिये या और लोग आकर मालिक माकान की चिट्ठियाँ छोड़ या डाल जाते हैं। पत्र-पेटी।
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लेटाना  : स० [हिं० लेटना का प्रे०] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई लेट जाय। २. खड़ी चीज को जमीन पर बेड़े बल में रखना या फैलाना।
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लेंड़  : पुं० [सं० लेण्ड] मल की बँधी हुई कड़ी बत्ती। बँधा हुआ और सूखा मल (शौच के समय का)।
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लेड  : पुं० [अ०] सीसा नामक धातु। पुं० [अं०] प्रायः दो अंगुल चौड़ी सीसे की ढली हुई पतली पटरी या पट्टी जो छापाखाने में अक्षरों की पंक्तियों के बीच में (अक्षरों की ऊपर नीचे होने से रोकने के लिए) लगाई जाती है।
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लेंड़ी  : स्त्री० [हि० लेंड़] १. मल की बँधी हुई कड़ी छोटी बत्ती। २. दे० ‘मेंगनी’।
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लेडी  : स्त्री० [अं०] १. भले घर की स्त्री। महिला। २. इंगलैंड में किसी लार्ड या सरकार की पत्नी के नाम से पहले लगनेवाली उपाधि। जैसे—लेटी मिन्टो।
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लेंडुआ  : पुं० [देश] बच्चों का मतवाला। (देखें) नाम का खिलौना।
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लेथो  : पुं०=लीथो।
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लेद  : पुं० [देश०] एक प्रकार के गीत जो बुन्देलखण्ड में माघ फागुन में गाये जाते हैं।
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लेदार  : पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
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लेदी  : स्त्री० [देश०] १. जलाशयों के किनारे रहनेवाली एक प्रकार की छोटी चिड़िया। २. घास का वह पूला जो हल के नीचे के भाग में इसलिए बाँध देते हैं कि कूँड़ अधिक चौड़ी न होने पावे।
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लेन  : स्त्री०=लेजुरी (रस्सी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेन  : पुं० [हिं० लेना] १. लेने की क्रिया या भाव। पद—लेन-देन। २. वह धन जो किसी से लिया जाने को हो। पावना। लहना।
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लेन-देन  : पुं० [हि० लेना+देना] १. लेन और देन को व्यवहार। आदान-प्रदान। २. व्यापारिक और सामाजिक क्षेत्रों में किसी को कुछ देने या कुछ लेने का व्यवहार। जैसे—हमारा उनका लेन-देन बहुत दिनों से बन्द है। ३. लोगों को रुपये उधार देने और फिर उससे सूद सहित मूल धन लेने का व्यवसाय। महाजनी। जैसे—उनके यहाँ पुश्तों से लेन-देन चलता है।
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लेनदार  : पुं० [हि० लेना+फा० दार (प्रत्यय)] १. वह जो अधिकारतः या न्यायतः किसी से अपना हक अथवा उसे दी हुई चीज ले सकता हो। २. वह जो किसी से उधार दिया हुआ धन पाने का अधिकारी हो। महाजन।
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लेना  : स० [सं० लभन, पुं० हि० लहना] १. जो वस्तु कोई दे रहा हो, उसे ग्रहण या प्राप्त करना। किसी की दी हुई चीज अपने अधिकार या हाथ में लेना। जैसे—किसी से दान या धन लेना। पद—लेना एक न देना दो=कोई प्रयोजन संबंध या सरोकार नहीं है। कुछ गरज या वास्ता नहीं है। जैसे—लेना एक न देना दो, हम क्यों व्यर्थ इस प्रपंच में पड़ने जाएँ। मुहावार—लेने के देने पड़ना=प्राप्ति, लाभ आदि की आशा से कोई काम करने पर उलटे पास का कुछ खोना या गँवाना अथवा कष्ट या संकट में पड़ना। जैसे—वह चले तो थे चोरी पकड़ने पर उन्हें उलटे लेने के देने पड़े। २. कोई चीज किसी प्रकार या किसी रूप में अपने अधिकार या हाथ में करना। हस्तगत करना। जैसे—(क) बाजार से कपड़े (या किताबे) मोल लेना। (ख) किराये पर मकान लेना। ३. कोई चीज अपने अंग पर धारण करना या किसी रूप में रखना। जैसे—(क) हाथ में घडी या छाता लेना। (ख) कन्धे पर या गोद में बच्चा लेना। मुहावरा—ले लेना=अधिकृत कर लेना। बल प्रयोग से प्राप्त कर लेना। जैसे—(क) थोड़े ही दिनों में अंग्रजों ने सारा पंजाब ले लिया। (ख) डाकुओं ने उसका सारा धन ले लिया। ४. उधार के रूप में या माँगकर प्राप्त करना। जैसे—महाजनों से रुपये ले लेकर काम चलाना। ५. खाने-पीने की चीज मुँह में रखकर गले के नीचे या पेट में उतारना। सेवन करना। जैसे—रोगी का दवा या दूध लेना ६. किसी प्रकार का उत्तरदायित्व प्रतिज्ञा या भार अंगीकृत करना। निर्वाह वहन आदि के लिए उत्तरदायी बनना या कृत संकल्प होना। जैसे—क) किसी काम या उत्तरदायित्व या पद का भार लेना। (ख) व्रत, शपथ या संन्यास लेना। मुहावरा—(अपने आपको) लिये दिये रहना=अपने आपको इस प्रकार संभालकर रखना कि कोई अनुचित या अशिष्टतापूर्ण आचरण या व्यवहार न होने पावे। (अपने) ऊपर लेना=निर्वाह वहन आदि का भार ग्रहण करना। जैसे—उसका सारा ऋण (या भार) मैने अपने ऊपर ले लिया है। ७. अमूर्त, बातों विचारों, विषयों आदि के संबंध में किसी रूप में गृहीत या प्राप्त करना। जैसे—(क) किसी से परामर्श या सलाह लेना। (ख) किसी के मन की थाह लेना। (ग) किसी का आर्शीवाद या गालियां लेना। मुहावरा—ले-देकर= (क) सब कुछ हो जाने पर अंत में। जैसे—ले-देकर यह बदनामी ही हाथ आई। ले दे करना=(क) कहा सुनी, तकरार या हुज्जत करना। जैसे—भठियारों की तरह यह ले-दे करना ठीक नहीं है। (ख) किसी कार्य की पूर्ति या सिद्धि के लिए बहुत परिश्रम या प्रयत्न करना। जैसे—इतनी ले-दे करने पर तब कहीं दिन भर में यह काम पूरा हुआ है। ८. भागनेवाले का पीछा करते हुए उसके पास पहुँचकर उसे पकड़ना जैसे—(क) इतने में सिपाहियों ने वहाँ पहुँचकर उसे पकड़ लिया। (ख) लेना, जाने या पावे। ९. किसी काम या बात की सिद्धि करते हुए उसके संबंध में कोई क्रिया करना। (कुछ विशिष्ट संयो० कि० के साथ प्रुयक्त) जैसे—ले चलना, ले जाना, ले भागना, ले रखना, ले लेना आदि। मुहावरा—ले उड़ना=(क) कहीं से कुछ लेकर इस प्रकार अलग या दूर होना कि कोई समझ न पावे। जैसे—कही से कोई बात सुन पाई, और ले उड़े। (ख) कहीं से कुछ लेकर उसे अपना बताते या बनाते हुए आंडबरपूर्वक अपना पौरुष या योग्यता प्रकट करना। ले डालना=खराब, चौपट या नष्ट करना। जैसे—(क) तुमने यह किताब भी ले डाली अर्थात् नष्ट कर दी। (ख) इस गोटे ने तो साड़ी की सारी शोभा ही ले डाली अर्थात् बिगाड़ दी। ले डूबना या ले बीतना=स्वयं या समाप्त करना। जैसे—उनकी यह चालाकी ही उन्हें ले डूबेगी या ले बीतेगी। (कोई काम या बात) ले बैठना=अच्छा काम या बात छोड़कर किसी तुच्छ या साधारण काम या बात मे लग जाना। जैसे—तुम भी यह कहाँ का झगड़ा (या पचड़ा) ले बैठे। (किसी को या कोई चीज अपने साथ) ले बैठना=किसी काम, चीज या बात का अपने दोष, भार आदि के कारण स्वयं नष्ट होते हुए दूसरे को भी अपने साथ नष्ट करना। जैसे—(क) यह छज्जा सारा मकान ले बैठेगा। (ख) यह दुर्व्यसन उनका सारा कार-बार ले बैठेगा। ले लेना=उद्देश्य की सिद्धि अथवा कार्य की समाप्ति के बहुत निकट तक पहुँच जाना। जैसे—बहुत सा काम हो चुका है अब ले ही लिया है, अर्थात् समाप्ति में अधिक विलंब नहीं है। १॰. किसी प्रकार या किसी रूप में एकत्र या प्राप्त करना। जैसे—(क) बगीचे से फूल लेना। (ख) लोगों से चन्दा लेना। (ग) कहीं से लड़का गोद लेना। मुहावरा—ले पालना=कन्या या पुत्र के रूप में अपने पास रखकर पालन-पोषण करना। ११. किसी वस्तु या व्यक्ति का ठीक और पूरा उपभोग करना अथवा उसे काम में प्रवृत्त करना। जैसे—(क) यह काम बहुत परिश्रम लेता है। (ख) उसे नौकरों से काम लेना नहीं आता। १२. प्रतियोगिता होड़ आदि में विजयी या सफल होना। जैसे—किसी से बाजी लेना या ले जाना। १३. कुछ विशिष्ट इंद्रियों के संबंध में किसी बात या विषय का ग्रहण करना। जैसे—अपने मन में किसी देवता या फूल का नाम लो। मुहावरा—(कोई बात) कान में लेना=सुनना (क्व०) १४. अतिथि का सत्कार या स्वागत करने के लिए आगे बढ़कर उससे मिलना। अगवानी या अभ्यर्थना करना। जैसे—उन्हें लेने के लिए बहुत से लोग स्टेशन पहुँचे थे। १५. किसी का उपहास करते हुए उसे लज्जित करना और तुच्छ या हीन सिद्ध करना। मुहावरा—(किसी को) आड़ें हाथों लेना=बहुत अधिक उपहास या भर्त्सना करते हुए निरुतर करना। (किसी का) लिया जाना=उपहासास्पद और लज्जाजनक स्थिति में लाया जाना। जैसे—आज वह वहाँ अच्छी तरह लिया गया। १६. स्त्री के साथ मैथुन या संभोग करना (बाजारू) मुहावरा—(किसी का) लिया जाना=मैथुन या संभोग की स्थिति में लाया जाना। (किसी को) ले पड़ना=किसी को अपने साथ लेटाकर उससे संभोग करना। विशेष—रखना, लगाना आदि की तरह लेना का भी बहुत सी क्रियाओं के साथ संयो० क्रि० के रूप में प्रयोग होता है और ऐसे अवसरों पर य़ह प्रायः उस क्रिया की पूर्ति या समाप्ति का सूचक होता है। जैसे—उठा लेना, कह लेना, खा लेना, सुन लेना आदि। कुछ अवस्थाओं में यह इस बात का भी सूचक होता है कि कर्ता कोई क्रिया बहुत ही कठिनता से जैसे—जैसे अथवा भद्दे या बहुत ही साधारण रूप में कोई क्रिया पूरी करने में समर्थ होता है। जैसे—(क) वह भी टूटी-फूटी हिन्दी पढ़ या बोल लेता है। (ख) मैं भी कुछ कुछ संस्कृत समझ लेता हूँ। (ग) रोगी अब सौ दो सौ कदम चल लेता है।
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लेना-देना  : पुं० [हि०] १. लेने और देने की क्रिया या भाव। लेन-देन। मुहावरा—लिये-दिये=साथ में लिये हुए। साथ लेकर। उदाहरण—विचरूँगी व्योम में भी उनको लिये-दिये।—मैथिलीशरण गुप्त। ले-देकर=सब बातों के हो चुकने पर। अंत में। जैसे—सब ले-देकर यही कलंक हाथ आया। (किसी से कुछ) लेना देना होना=कोई संबंध या सरोकार होना। जैसे—वह जहन्नुम में जाय, हमें उससे क्या लेना-देना है। २. वास्ता। संबंध। सरोकार। पद—ले-दे=आपस में होनेवाली कहा-सुनी या हुज्जत। जैसे—इतनी ले दे के बाद भी नतीजा कुछ न निकला।
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लेप  : पुं० [सं० लिप् (लीपना)+घञ्] १. गीली या घोली हुई वस्तु जो किसी दूसरी चीज पर पोती जाने को हो। २. इस प्रकार पोती हुई वस्तु की परत। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—लगाना। ३. शरीर पर लगाया जानेवाला उबटन। बटना। ४. लगाव। संपर्क।
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लेप-कामिनी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] साँचे में ढली हुई स्त्री की मूर्ति।
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लेपक  : वि० [सं०√लिप्+ण्वुल्-अक] लेप करने अर्थात् पोतने या लगानेवाला कारीगर। पुं० १. चूना छूनेवाला मिस्तरी। ३. साँचा बनानेवाला कारीगर।
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लेपकार  : वि० पुं० [सं० लेप√कृ (करना)+अण्]=लेपक।
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लेपन  : पुं० [सं०√लिप्+ल्युट—अन] [वि० लेपिता, लेप्य, लिप्त] १. लेप लगाना। २. चूना छूना।
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लेपना  : स० [सं० लेपन] पतले या गाढ़े घोल में उँगलियों कूची या पुचारा भिगोकर किसी अंग दीवार, छत, चूल्हे-चौके या और किसी पदार्थ पर इस प्रकार फेरना या लगाना कि उस पर उक्त घोल की एक परत चढ़ या जम जाय। लीपना।
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लेपनीय  : वि० [सं०√लिप्+अनीयर्] जो लेप के रूप में लगाया जा सके या लगाया जाने को हो।
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लेपी (पिन्)  : वि० [सं०√लिप्+णिनि] लेप करनेवाला। पुं०=लिपिक।
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लेप्टिनेट  : वि० [अं०] (अधिकारी) जो किसी दूसरे अधिकारी से पद में कुछ घटकर हो तथा विशिष्ट अवसरों पर उसका प्रतिनिधित्व करता हो और उसकी अनुपस्थिति में उसके सब अधिकार ग्रहण करता हो। जैसे—लेफ्टिनेंट-गवर्नर, लेफ्टिनेन्ट कर्नल। पुं० १. एक सैनिक पद जो कप्तान के पद से घटकर होता है। २. उक्त पद पर काम करनेवाला अधिकारी।
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लेप्य  : वि० [सं०√लिप्+ण्यत्] १. जो लेप के रूप में लगाया जा सकता हो। २. जिस पर लेप लगाया जा सकता हो। ३. साँचे में ढाले-जाने के योग्य।
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लेप्य-नारी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. वह स्त्री जिसने चंदन आदि का लेप लगाया हो। २. पत्थर या मिट्टी की बनी हुई स्त्री की प्रतिकृति या मूर्ति।
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लेबर  : पुं० [अं०] १. श्रम (बौद्धिक और शारीरिक) २. श्रमिक वर्ग। ३. श्रमिकों का संघटन या समुदाय।
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लेबर-यूनियन  : स्त्री० [अं०] मजदूरों या श्रमिकों का संघ या संस्था। श्रमिक।
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लेबरर  : पुं० [अं०] मजदूर। श्रमिक।
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लेबुल  : पुं० [अं०] किसी चीज पर लगी हुई वह परची जिस पर उस चीज का विवरण लिखा होता है।
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लेबोरेटरी  : स्त्री० [अं०] दे० ‘प्रयोगशाला’।
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लेमन-चूस  : पुं० [अं० लेमन-जूस] १. बच्चों के खाने के लिए चीनी की वह छोटी टिकियाँ जिनमें नींबू का सत्त आदि पड़ा रहता है। २. चूसी जानेवाली चीनी की गोली या टिकिया।
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लेमनेड  : पुं० [अं०] पाश्चात्य ढंग से बनाया हुआ नींबू का वह शरबत जो बोतलों में बन्द करके बाजारों में बेंचा जाता है। मीठा पानी।
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लेमर  : पुं० [अं०] बन्दरों से मिलता-जुलता अफ्रीका का एक प्रकार का जन्तु जो पेड़ों पर रहता है।
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लेमू  : पुं० [फा०] नींबू।
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लेरु, लेरुआ  : पुं० [?] गौ, बकरी, भेड़, भैस आदि का बच्चा।
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लेला  : पुं० [?] [स्त्री० लेली] १. बच्चा। २. शिशु। (पश्चिम)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेलिह  : पुं० [सं०√लिह् (आस्वादन)+यङ्, लुक्, द्वित्व, लेलिह+अच्] १. जूँ। लीख। २. साँप।
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लेलिहान  : वि० [सं०√लिह्+यङ्, दित्व, लोलिह+शानच्] १. चखने या चाटनेवाला। २. ललचाया हुआ। पुं० १. बार-बार चाटना। २. लप-लप करना। लपलपाना। ३. शिव का एक नाम या रूप। ४. सर्प। साँप।
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लेलिह्य  : वि० [सं०√लिह्=यङ्, लुक्, द्वित्व, लेलिह=ण्यत्] १. बार-बार चाटे जाने के योग्य। २. जो लप लप करता या कर सकता हो।
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लेव  : पुं० [सं० लेप] १. दाल-भात आदि पकाने की डेगची या हाँड़ी के निचले बाहरी अंश पर किया जानेवाला मिट्टी का लेप। २. लेप। मुहावरा—लेव चढ़ाना=आदमी का मोटा होना। (व्यंग्य)
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लेवक  : पुं० [देश] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती है।
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लेवरना  : वि०=लेवारना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेवा  : वि० [हिं० लेना] लेनेवाला। जैसे—नाम-लेवा, जान-लेवा। पुं० [सं० लेप्य, हिं० लेप] १. किसी चीज पर चढ़ाया जानेवाला मिट्टी आदि का लेप। लेव। २. गीली मि्टटी जो लेपने या लेवा लगाने के काम आती हो। गिलावा। क्रि० प्र०—लगाना। ३. अधिक पानी विशेषतः वर्षा के कारण खेत का गिलाव। ४. थन। ५. नाव की पेंदी पर का वह तख्ता जो सिरे से पतवार तक लगाया जाता है। पुं०=लेव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेवा-देई  : स्त्री०=लेन-देन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेवार  : पुं० [सं०] अग्रहर। पुं०=लेव या लेवा (गिलाव)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेवारना  : स० [हिं० लेवार] १. लेप लगाना। लेपना। २. आग पर चढ़ाने से पहले बरतन के पेदें में लेवा लगाना।
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लेवाल  : वि० [हिं० लेना+वाला] १. लेनेवाला। जैसे—नाम लेवाल =नाम लेनेवाला। २. खरीदनेवाला। खरीददार। बेचवाल का विपर्याय।
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लेश  : पुं० [सं०√लिश् (कम होना)+घञ्] १. अणु। २. किसी चीज का बहुत थोड़ा अंश। ३. सूक्ष्मता। ४. चिन्ह। निशान। ५. लगाव। संबंध। ६. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी दोष के साथ अच्छाई का या अच्छाई के साथ दोष का भी उल्लेख होता है। ७. एक प्रकार का गाना। वि० थोड़ा।
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लेशी (शिन्)  : वि० [सं० लिश्+णिनि] जिसमें किसी दूसरी चीज का लेश या सूक्ष्म अंश हो।
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लेशोक्त  : वि० [सं० लेश-उक्त, तृ० त०] संक्षेप में या संकेत रूप में कहा हुआ।
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लेश्या  : स्त्री० [सं० लिश्+ण्यत्+टाप्] जैनियों के अनुसार जीव की वह अवस्था जिसमें वह कर्मों से बँधती है।
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लेष  : पुं० १. =लेस। २. =लेश।
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लेषना  : स०=लेखना।
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लेषनी  : स्त्री०=लेखनी।
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लेंस  : पुं० [अं०] शीशे का ऐसा तल जो प्रकाश की किरणों को एकत्र या केन्द्रीभूत करता हो। जैसे—चश्मे का लेंस, फोटोग्राफी का लेंस।
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लेस  : स्त्री० [सं० श्लेष] १. लसीला पदार्थ। २. लासा ३. लेसने की क्रिया या भाव। ४. लगाव। संबंध। उदाहरण—निरखि नवोढ़ा नारितन छटत लरिकई लेस।—बिहारी।
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लेसना  : स० [सं० लेश्या (दीप्ति) प्रा० लेस्या, या स० लसा] जलाना जैसे—दीया लेसना। स० [हिं० लेस या लस] १. कोई चिपचिपी चीज लगाकर चिपकाना या सटाना। जैसे—दीवार पर कागज लेसना। २. लेप लगाना। पोतना। ३. दीवार पर मिट्टी का गिलावा पोतना। ४. किसी की निन्दासूचक या लड़ाई-झगड़ा करनेवाली बात दूसरे से जाकर कहना। जैसे—हमने तुमको यों ही एक बात कही थी, तुमने वहाँ जाकर उनसे लेस दी।
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लेह  : पुं० [सं०√लिञ्+घञ्] १. चाटकर खाई जानेवाली चीज। २. अवलेह। ३. ग्रहण का एक भेद जिसमें पृथ्वी की छाया (या राहु) सूर्य या चंद्र बिम्ब को जीभ के समान चाटती हुई जान पड़ती है।
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लेंहड़  : स्त्री० =लेहड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेंहड़ा  : पुं० [देश] जंगली जानवरों का झुंड। विशेषतः शेरों का झुंड।
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लेहँड़ा  : पुं० लहँड़ा (जन्तुओं का)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेहन  : पुं० [सं०√लिह् (आस्वादन)+ल्युट—अन] जीभ से चाटना।
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लेहना  : पुं० [हिं० लहना] १. खेत में कटे हुए शस्य या फसल का वह अंश जो काटने वाले मजदूरों को मजदूरी के रूप में दिया जाता है। २. कटी हुई फसल की वह डंठल जो नाई, धोबी आदि को दिया जाता है। ३. डंठल या पयाल आदि की वह मात्रा जो उठाने वाले के दोनों हाथों में आ सके। ४. दे० ‘लहवा’। स० [सं० लेहन] चाटना। स०=लेसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेहसित  : वि० [हिं० लसना] १. शोभा देने या सुन्दर लगनेवाला। २. किसी से मिश्रित या युक्त। उदाहरण—लखती लाल की ओर लाज लेहसित नैननि सों।—रत्नाकर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लेहसुआ  : पुं०=लहसुआ (घास)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेहाज़ा  : अव्य० [अं०] इसलिए। इस वास्ते। इस कारण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेहाड़ा  : वि०=लिहाड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लेहाड़ी  : स्त्री० =लिहाड़ी।
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लेहाफ़  : पुं०=लिहाफ।
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लेही (हिन्)  : वि० [सं०√लिह् (आस्वादन)+णिनि] चाटनेवाला।
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लेह्य  : पुं० [सं०√लिह् (आस्वादन)+ण्यत्] १. वह पदार्थ जो चाटकर खाया जाता है। जैसे—अचार, चटनी आदि, (यह भोजन के छः प्रकारों में से एक है) २. अवलेह। वि० (पदार्थ) जो चाटकर खाया जाता हो।
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लै  : स्त्री० =लय (संगीत की) पुं० =लय (लीनता) अव्य०=लौ (तक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लैंग  : वि० [सं० लिंग+अण्] लिंग-संबंधी। लिंग का।
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लैंगिक  : पुं० [सं० लिंग+ठक्—इक] वैशेषिक दर्शन के अनुसार अनुमान। प्रमाण। वह ज्ञान जो लिंग द्वारा प्राप्त हो। इसी को न्याय में अनुमान कहते हैं। वि० १. लिंग-सम्बन्धी। लिंग का। लैंग। २. स्त्रीया पुरुष के लिंग या जननेन्द्रिय से संबंध रखनेवाला। योनि-संबंधी। (सेक्सुअल)
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लैटिन  : स्त्री० इटली देश की प्राचीन भाषा जो किसी समय सारे यूरोप में विद्वानों तथा पादरियों की भाषा थी। इसका साहित्य बहुत उन्नत था इसीलिए अब भी इसका अध्ययन किया जाता है। वि० प्राचीन रोम नगर से संबंध रखनेवाला।
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लैंड़ो  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार का छायादार घोड़ा-गाड़ी।
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लैन  : स्त्री० =लाइन।
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लैप  : पुं० [अं०] दीपक। चिराग। लंप।
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लैपा  : पुं० [हि० लपना] वह धान जो अगहन में काटा जाता है। जड़हन। शाली। लवक। स्त्री० =लाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लैर  : पुं० [?] किसी आदमी या चीज का पिछला भाग। पीछा (राज०) अव्य० १. साथ-साथ। २. पीछे-पीछे।
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लैरू  : पुं० [?] बछड़ा।
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लैल  : स्त्री० [फा०] रात। पद—लैलोनिहार=रात और दिन।
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लैला  : स्त्री० [फा०] १. लैला-मजनूँ की प्रेम कहानी की प्रसिद्ध नायिका और मजनूँ की प्रेमिका। २. प्रेयसी। ३. सुन्दरी।
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लैस  : पुं० [हिं० लेस] एक प्रकार का सिरका। २. लंबी नोकवाला एक प्रकार का तीर। ३. कमानी। वि० [अं० लेस] १. वर्दी और हथियारों से सजा हुआ। कटिबद्ध। तैयार। २. सब प्रकार के आयोजन, सामग्री आदि से युक्त और काम में लाये जाने के योग्य। स्त्री० कपड़ों पर टाँकने का किसी प्रकार का कामदार बेल-बूटों वाला फीता या बेल।
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लैसंस  : पुं० [अं० लाइसेंस] अनुज्ञा। (दे०)
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लॉकेट  : पुं० [अं०] १. जंजीर आदि में शोभा के लिए लगाया जानेवाला लटकन। २. गले में पहनी जानेवाली वह स्वर्णामाला जिसमें लटकन भी हो।
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लॉटरी  : स्त्री० [अं०] रुपये या सामान के रूप में पुरस्कार देने की व्यवस्था जिसमें बिके हुए टिकटों या दिये हुए कूपनों के संख्याओं की चिट्ठी डालकर विजेता का नाम निश्चित किया जाता है।
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लों  : अव्य०=लौं।
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लो  : अव्य० [हिं० लेना] लीजिए की तरह प्रयुक्त एक निरर्थक अव्यय जिसका प्रयोग सहसा सुनी हुई कोई आश्चर्यजनक बात किसी दूसरे को सुनाते समय किया जाता है। जैसे—लो और सुनो।
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लोइ  : स्त्री० [सं० रोयि, प्रा० लोई] १. प्रभा। दीप्ति। २. आग की लौ। पुं० १. =लोक। २. =लोग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोइन  : पुं० १. =लोचन। (आँख) २. लावण्य।
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लोई  : स्त्री० [सं० लोप्ती, प्रा० लोबी] गुँधे हुए आटे का उतना अंश जो एक रोटी बनाने के लिए निकालकर गोली के आकार का बनाया जाता है और जिसे बेलकर रोटी बनाते हैं। स्त्री० [सं० लोभीय=लोई] १. एक प्रकार का कंबल जो पतले ऊन से बुना जाता है और साधारणत कंबल से कुछ अधिक लंबा और चौड़ा होता है। २. कबीर की तथा-कथित पत्नी का नाम। प्रवाद है कि यह नवजात शिशु के रूप में किसी को लोई में लपेटी हुई मिली थी इसी से इसका यह नाम पड़ा था।
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लोक  : पुं० [सं०√लोक (दर्शन)+घञ्] १. कोई ऐसा स्थान जिसका बोध देखने से होता है। जगह। २. जगत् या संसार। ३. विश्व का कोई विशिष्ट भाग या स्थान जिसमें कुछ अलग प्रकार के जीव या प्राणी रहते हैं। जैसे—जीवलोक। देवलोक। ब्रह्मलोक। मनुष्यलोक। ४. पुराणानुसार किसी विशिष्ट देवता के रहने का वह स्थान जहाँ मरने पर उसके भक्त जाकर रहते हैं। जैसे—विष्णुलोक। विशेष—हमारे यहाँ अनेक दृष्टियों से कई प्रकार के लोक माने गये हैं, और उनकी अलग-अलग संख्याएँ कही गई है। मूलतः तीन ही लोक माने जाते थे, स्वर्ग, पृथ्वी, और पाताल। पर आगे चलकर चौदह लोक माने जाने लगे जिसमें से सात हमारे ऊपर और सात हमारे नीचे कहे गये हैं। ऊपर से सात लोक ये है—भूलोक, भ्रुवर्लोक, स्वर्लोक, महलोंक, जनर्लोक तपर्लोक और सत्यलोक या ब्रह्मलोक। नीचे के सात लोकों के नाम क्रमात् ये हैं—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल। ४. उक्त के आधार पर कोई विशिष्ट दिशा या प्रांत। पद—लोक-पाल। ६. सारी मानवजाति। ७. किसी राजा या राज्य के अधीन रहनेवाले लोग। प्रजा। ८. किसी देश या स्थान में रहनेवाले सब मनुष्यों का वर्ग, समाज या समूह। लोग। ९. देश का कोई प्रान्त या विभाग। प्रदेश। १॰. लोगों में प्रचलित प्रणाली, प्रथा या रीति। ११. जीव। प्राणी। १२. देखने की इन्द्रिय या शक्ति। दृष्टि। १३. कीर्ति। यश। पुं० [?] बत्तख की तरह का एक प्रकार का बड़ा पक्षी।
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लोक-कंटक  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो समाज का कलंक, विरोधी या हानिकारक हो। दुष्ट प्राणी। २. कोई ऐसा काम या बात जिसमें लोगों को कष्ट होता हो। (नुएज़ेन्स)। वि० जन-साधारण को कष्ट देने या पीड़ित करनेवाला।
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लोक-कथा  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोक विशेषतः ग्राम्य लोगों में प्रचलित कोई प्राचीन गाथा।
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लोक-कर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. महेश।
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लोक-काम  : वि० [सं० लोक√कम् (चाहना)+णिङ्, +अण्, उप० स०] किसी विशेष लोक में जाने की कामना करनेवाला।
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लोक-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] जिसे जन साधारण ने अपनाकर स्वीकृत कर लिया हो। लोक में प्रचलित तथा प्रिय।
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लोक-गति  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोकाचार।
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लोक-गाथा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] परंपरा से चले आये हुए वे गीत आदि जो लोक में प्रचलित हों।
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लोक-गीत  : पुं० [सं० मध्य० स० या ष० त०] गाँव-देहातों में गाये जानेवाले जन-साधारण के वे गीत जो परम्परा से किसी जन-समाज में प्रचलित तथा लय-प्रधान हों। (फोक साँग) जैसे—भिन्न-भिन्न ऋतुओं में त्यौहारों पर अथवा धार्मिक उत्सवों, संस्कारों आदि के समय गाये जानेवाले गीत।
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लोक-घोषणा  : स्त्री० [सं० ष० त०] सब लोगों की जानकारी के लिए की जानेवाली घोषणा। (मैनिफ़ेस्टी)।
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लोक-चक्षु (स्)  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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लोक-जीवन  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. घरेलू जीवन से भिन्न वह चर्या जिसमें व्यक्ति सार्वजनिक महत्त्व के कार्यों में संलग्न रहता है। २. वह अवधि या भोग-काल जिसमें कोई व्यक्ति सार्वजनिक कार्य करता है। (पब्लिक लाइफ़)।
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लोक-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० लोकतांत्रिक] वह शासन-प्रणाली जिसमें जन-साधारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अपने राष्ट्र या राज्य पर शासन करता हो जनता का शासन। (डिमोक्रेसी)
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लोक-तंत्रिक  : वि० [सं० लोकतांत्रिक] लोकतन्त्र-संबंधी। (डिमोक्रेटिक)
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लोक-दूषण  : वि० [सं० ष० त०] १. लोगों को हानि पहुँचानेवाला। २. लोगों में दोष निकालनेवाला।
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लोक-धर्म  : पुं० [सं० ष० त०] वास्तविक धर्म से भिन्न वे बातें या कृत्य जो जन-साधारण में प्राय धर्म के रूप में प्रचलित हों। जैसे—तंत्र-मंत्र भूत-प्रेत की पूजा-वीर पूजा आदि।
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लोक-धारिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] पृथ्वी।
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लोक-धुनि  : स्त्री० [सं० लोक-ध्वनि] अफवाह। किवदंती।
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लोक-नाट्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] शास्त्रीय नियमों से बननेवाले नाटकों से भिन्न वे नाटक या अभिनय जो जन-साधारण बिना नाट्य-कला सीखे अपनी उद्भावना से बनाते और जन-साधारण को दिखलाते हैं। जैसे—कठपुतली का नाच, नौटंकी रामलीला आदि।
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लोक-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मा। २. लोकपाल। ३. गौतम बुद्ध।
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लोक-निर्माण  : पुं० [सं० ष० त०] लोक वस्तु।
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लोक-नृत्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] शास्त्रीय नृत्य-कला से रहित ऐसे नाच जो गाँव देहात के लोग उमंग में आकर नाचते हैं। (फोक डान्स) जैसे—अहीरों, धोबियों आदि के नृत्य, मणिपुरी सन्थाली आदि नृत्य।
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लोक-पद  : पुं० [सं०] लोक या जनता की सेवा से सम्बन्ध रखनेवाला राजकीय पद या ओहदा। (पब्लिक आफिस)
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लोक-पाल  : पुं० [सं० लोक√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] १. दिक्पाल। २. नरेश।
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लोक-पितामह  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्मा।
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लोक-प्रत्यय  : पुं० [सं० ब० स०] वह जो संसार में सर्वत्र दिखाई देता या मिलता हो।
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लोक-प्रवाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. ऐसी साधारण बात जो संसार के सभी लोग कहते और समझते हों। २. लोक में प्रचलित प्रवाद या किवदंती।
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लोक-प्रवाही (हिन्)  : वि० [सं० लोक-प्रवाह, ष० त०+इनि] लोगों की प्रवृत्ति या रूख देखकर उसी के अनुसार चलनेवाला।
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लोक-प्रिय  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० लोक-प्रियता] १. जो जन-साधारण को प्रिय तथा रुचिकर प्रतीत होता हो। २. समाज के बहुमत की पसंद या रुचि के अनुकूल होनेवाला। जैसे—लोकप्रिय-साहित्य।
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लोक-प्रियता  : स्त्री० [सं० लोकप्रिय+तल्+टाप्] लोकप्रिय होने की अवस्था या भाव। (पॉपुलेरिटी)
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लोक-बंधु  : पुं० [सं० ष० त०] १. शिव। २. सूर्य।
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लोक-बाह्य  : वि० [सं० ष० त०] १. जो इस लोक या संसार में न होता या न दिखाई देता हो। २. जो साधारण जन समाज में न होता हो। ३. बिरादरी या समाज से निकाला हुआ। ४. झक्की। सनकी।
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लोक-भावन  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोक की रचना करनेवाला। २. लोक की भलाई करनेवाला।
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लोक-भावना  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोक अर्थात् जनता का उपकार, सेवा आदि करने की भावना या वृत्ति। (पब्लिक स्पिरिट)
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लोक-मत  : पुं० [सं० ष० त०] किसी बात या विषय में देश या समाज में रहनेवाले सब अथवा अधिकतर लोगों का मत, राय या विचार। समाज के बहुत से लोगों का ऐसा मत जो किसी एक दल या वर्ग का नहीं बल्कि समष्टि के विचार या हित का सूचक हो। (पब्लिक ओपीनियन)
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लोक-माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. लक्ष्मी। २. गौरी।
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लोक-यात्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] संसार में रहकर लोगों के साथ व्यवहार करना।
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लोक-रक्षक  : वि० [सं० ष० त०] सब लोगों की रक्षा करनेवाला। पुं० १. राजा। २. शासक।
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लोक-रंजन  : पुं० [सं० ष० त०] सब को प्रसन्न तथा सुखी रखना। वि० सबको प्रसन्न तथा सुखी रखनेवाला।
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लोक-रंजनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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लोक-लीक  : स्त्री० [सं० लोक+हिं० लीक] लोक में प्रचलित प्रथाएँ और मर्यादा।
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लोक-लोचन  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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लोक-वदंती  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] लोक में प्रचलित चर्चा। अफवाह। किवदंती।
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लोक-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. कहावत। २. किवदंती। अफवाह।
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लोक-वार्ता  : स्त्री० [सं० ष० त०] इतिहास पुरातत्व आदि के अध्ययन का वह अंग जिसमें लोक में प्रचलित पुरानी धारणाओं, प्रथाओं, विश्वासों आदि से संबंध रखनेवाली बातों का विचार या विवेचन होता है। (फोकलोर)
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लोक-वास्तु  : पुं० [सं० ष० त०] १. राज्य या शासन का वह विभाग जो लोक के उपयोग तथा कल्याण के लिए इमारतें, नहरें सड़के आदि बनाता है। (पब्लिक वर्क्स) २. जन साधारण तथा राजकीय विभागों के काम में आनेवाली इमारते, सड़के आदि।
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लोक-वाहक  : पुं० [सं० ष० त०] जनता का सामान ढोने के लिए प्रयुक्त मोटर गाडियाँ आदि (पब्लिक कैरियर)।
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लोक-विरुद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] (आचरण, कथन या कार्य) जो लोक में प्रचलित न हो और इसीलिए ठीक न माना जाता हो।
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लोक-विश्रुत  : वि० [सं० स० त०] संसार भर में अर्थात् सब जगह प्रसिद्ध। जनद्विख्यात।
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लोक-वेद  : पुं० [सं०, लोक और वेद से] हिन्दुओं में प्रचलित वे पौराणिक आचार-विचार जिन्हें लोक वेदों के विधान के समान ही आवश्यक और मान्य समझते हैं।
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लोक-व्यवहार  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह व्यवहार जो लोक में सब लोगों से मेल-जोल बनाए रखने के लिए करना पड़ता है। लोकाचार। २. समाज की मर्यादा के विचार से किया जानेवाला शिष्ट व्यवहार।
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लोक-शांति  : स्त्री० [सं० स० त०] लोक अर्थात् जन-साधारण या समाज में बनी रहनेवाली ऐसी शांति जिसमें किसी प्रकार का उत्पात, उपद्रव या लडा़ई-झगड़ा न हो। (पब्लिक पीस)
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लोक-शासन  : पुं० [सं० ष० त०] देश या राज्य का ऐसा शासन या सरकार जो लोक-मत के आधार पर चलती हो। जन-तन्त्र। (पापुलर गवर्नमेंट)
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लोक-श्रुति  : स्त्री० [सं० ष० त०] जनश्रुति। अफवाह।
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लोक-संग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] १. सब लोगों को प्रसन्न रखकर उन्हें अपने साथ मिलाये रखना। २. संसार के सभी लोगों के कल्याण या मंगल का ध्यान रखना। ३. लोगों को अपनी ओर मिलाना या अपने पक्ष में करना।
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लोक-संग्रही (हिन्)  : वि० [सं० लोक-संग्रह+इनि] जो सब लोगों को प्रसन्न रखकर अपने पक्ष में करता हो।
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लोक-सत्ता  : स्त्री० [सं० ष० त०] लोक-तांत्रिक शासन-प्रणाली के द्वारा लोक या सारी जनता को प्राप्त होनेवाली सत्ता।
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लोक-सत्ताक  : वि० =लोक-सत्तात्मक।
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लोक-सत्तात्मक  : वि० [सं० लोकसत्ता-आत्मन्, ब० स०+कप्] १. लोकसत्ता संबंधी। लोक सत्ता का। २. (देश या राज्य) जिसमें लोक तांत्रिक शासन प्रणाली प्रचलित हो।
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लोक-सदन  : पुं० [सं० ष० त०] लोक सभा। (दे०)
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लोक-सभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. प्रतिनिधि सत्तात्मक या प्रजातन्त्र शासन में साधारण जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की वह सभा जो देश के लिए विधान आदि बनाती है। २. भारतीय संविधान में उक्त प्रकार की केन्द्रीय सभा (हाउस आफ पीपुल्स) ३. इंग्लैड़ में उक्त प्रकार की सभा (हाउस आफ कामन्स)।
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लोक-संस्कृति  : स्त्री० [सं० ष० त०] साधारण जन-समाज में प्रचलित ये सब बातें जो सिद्धान्ततः संस्कृति के क्षेत्र से संबद्ध हों।
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लोक-सिद्ध  : वि० [सं० ष० त०] इतिहास या शास्त्र-सम्मत न होने पर भी जिसे जन-साधारण ठीक मानता हो। जन सामान्य में मान्य और प्रचलित।
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लोक-सेवक  : पुं० [सं० स० त०] १. वह जो लोक अर्थात् जनता की सेवा या हित के कामों में लगा रहता हो। वह अधिकारी या कर्मचारी जो राज्य या शासन की ओर से जनता की सेवा और हित के लिए नियुक्त हो (पब्लिक सर्वेन्ट)।
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लोक-सेवा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. जन-साधारण की सेवा अर्थात् उपकार या हित के लिए निःस्वार्थ भाव से किये जानेवाले काम। २. राज्य या शासन की नौकरी जो वस्तुतः जन साधारण की सेवा या हित के लिए होती है। (पब्लिक सर्विस)।
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लोक-सेवा-आयोग  : पुं० [सं० ष० त०] राज्य द्वारा नियुक्त कुछ व्यक्तियों का वह आयोग या समिति जिसके जिम्मे राजकीय सेवाओं से सम्बन्ध रखनेवाले पदों पर नियुक्त करने के लिए प्रार्थियों में से उपयुक्त तथा योग्य व्यक्ति चुनने का काम होता है। (पब्लिक सर्विस कमीशन)
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लोक-स्वास्थ्य  : पुं० [सं०] सार्वजनिक रूप से जनता या लोगों का स्वास्थ्य (पब्लिक हेल्थ)।
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लोक-हार  : पुं० [सं० लोक√हृ (हरण)+अण्, उप० स०] संसार का नाश करनेवाले शिव।
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लोक-हित  : पुं० [सं० ष० त०] लोक-सेवा। (दे०)
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लोककार  : पुं० [सं० लोक√कृ+अण्, उप० स०] ब्रह्म, विष्णु और महेश।
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लोकचार  : पुं० =लोकाचार।
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लोकंजन  : पुं० =लोपांजन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोकजित्  : पुं० [सं० लोक√जि (जय)+क्विप्, तुगागम] गौतम बुद्ध।
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लोकज्ञ  : वि० [सं० लोक√ज्ञा (जानना)+क] १. लोगों की प्रवृत्तियों, मनोभाव आदि जानेवाला। २. लौकिक या सांसारिक व्यवहारों में कुशल। दुनियादार।
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लोकटी  : स्त्री० =लोमड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोकतांत्रिक  : वि० [सं० लोकतंत्र+ठक्-इक]=लोक-तांत्रिक।
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लोकंदा  : पुं० [हिं० लोकना] [स्त्री० लोकंदी] १. विवाह के कन्या में डोले के साथ दास या दासी भेजने की क्रिया। २. वह दास जो कन्या के डोले के साथ उसकी सेवा के लिए भेजा जाता है। ३. चंचल चरित्रहीन और दुष्ट व्यक्ति। उदाहरण—नंद को पूत वह धूत लोकंदा।
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लोकन  : पुं० [सं०√लोक (देखना)+ल्युट—अन] अवलोकन।
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लोकना  : स० [?] १. उड़ती गिरती या फेंकी हुई वस्तु को जमीन छूने से पहले ही हवा में पकड़ लेना। जैसे—उछाला हुआ गेंद या कटी हुई पतंग लोकना। बीच में उड़ा या हड़प लेना। पुं० [स्त्री० लोकती] दे० ‘लोकंदा’।
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लोकनी  : स्त्री० =लोकंदी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोकनीय  : वि० [सं०√लोक् (दर्शन)+अनीयर्] अवलोकन करने योग्य। दर्शनीय।
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लोकल  : वि० [अं०] १. (निवासियों की दृष्टि से उनके) नगर या गाँव की सीमा के अन्दर-अन्दर होनेवाला। जैसे—लोकल पालिटिक्स। २. जिसका संबंध किसी विशिष्ट गाँव, नगर आदि में ही सीमित हो। जैसे—लोकल पोस्टकार्ड।
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लोकसुंदर  : वि० [सं० स० त०] जो सब की दृष्टि में अच्छा हो। पुं० गौतम बुद्ध।
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लोकाचार  : पुं० [सं० लोक-आचार, ष० त०] १. वह व्यवहार जो दूसरों से सामाजिक संबंध बनाए या स्थिर रखने के लिए आवश्यक समझा जाता हो। २. दे० ‘लोक व्यवहार’।
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लोकाचारी (रिन्)  : वि० [सं० लोकाचर+इनि] १. लोकाचार का आचरण या पालन करनेवाला। २. दिखावटी आचरण या व्यवहार करनेवाला। ढोंगी ३. लोक को प्रसन्न रखनेवाला आचरण अथवा व्यवहार करनेवाला। दुनियादार। स्त्री० =लोकाचार।
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लोकाट  : पुं० =लुकाट।
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लोकांतर  : पुं० [सं० अन्य-लोक, मयू० स०] वह लोक जहाँ मरने पर जीव जाता है। पर-लोक।
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लोकांतरण  : पुं० [सं० लोकांतर+णिच्+ल्युट—अन] इस लोक से हटकर दूसरे लोक में कर देना।
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लोकांतरित  : भू० कृ० [सं० लोकांतर+णिच्+क्त] १. जो इस लोक से दूसरे लोक में चला गया हो। २. जो मर चुका हो।
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लोकाधिक  : वि० [सं० लोक-अधिक, पं० त०] लोक अर्थात् संसार से परे या बाहर अर्थात् असाधारण।
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लोकाधिप  : पुं० [सं० लोक-अधिप, ष० त०] १. लोकपाल। २. बुद्ध।
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लोकाना  : स० [हिं० लोकने का प्रे०] ऊपर से फेंकना। उछालना।
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लोकानुग्रह  : पुं० [लोक-अनुग्रह, स० त०] लोगों का कल्याण। लोकहित।
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लोकापवाद  : पुं० [सं० लोक-अपवाद, स० त०] लोक-निंदा। बदनामी।
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लोकायत  : पुं० [सं० लोक-आयत=विस्तीर्ण] १. वह जो इस लोक के अतिरिक्त दूसरे लोक को न मानता हो। २. भारतीय दर्शन में एक प्राचीन भूतवादी नास्तिक सम्प्रदाय जिसके प्रवर्तक देव-गुरु बृहस्पति कहे जाते हैं। इसलिए इसे बार्हस्पत्य भी कहते हैं। प्रवाद है कि बृहस्पति ने असुरों का नाश कराने के लिए ही उनमें इस मत का प्रचार किया था। विशेष—कुछ लोगों का मत है कि किसी समय लोक में इसी नास्तिक मत का सबसे अधिक प्रचार था। इसीलिए इसका नाम लोकायत पड़ा। इस मत का मुख्य सिद्धान्त यह है कि आत्मा, परलोक, नरक और स्वर्ग की कल्पनाएँ मिथ्या हैं, और वर्णाश्रम आदि का विधान व्यर्थ है। ३. चार्वाक दर्शन, जिसमें परलोक या परोक्षवाद का खंडन है। ४. दुर्मिल छंद का एक नाम।
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लोकायतिक  : वि० [सं० लोकयत+ठन्—-इक] लोकायत सम्बन्धी। लोकायत का। पुं० १. लोकायत सम्प्रदाय का अनुयायी। २. नास्तिक।
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लोकालोक  : पुं० [सं० लोक-आलोक, कर्म० स०] पुराणानुसार एक पर्वत जो सातों समुद्रों और द्वीपों को चारों ओर से घेरे हुए है, और जिसके उस पार घोर अंधकार है। बौद्ध ग्रन्थों में इसी को चक्रवाल कहा गया है।
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लोकित  : वि० [सं०√लोक (दर्शन)=क्त] देखा हुआ।
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लोकेश्वर  : पुं० [सं० लोक-ईश्वर, ष० त०] १. लोक का स्वामी। परआत्मा। २. गौतम बुद्ध।
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लोकैषणा  : स्त्री० [सं० लोक-एषणा, ष० त०] १. सांसारिक अभ्युदय की कामना। समाज में प्रतिष्ठा और यश की कामना। २. स्वर्ग सुख की कामना।
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लोकोक्ति  : स्त्री० [सं० लोक-उक्ति, मध्य० स०] १. लोक में समान रूप से प्रचलित बात। कहावत। मसला। २. साहित्य में एक अलंकार जो उस समय माना जाता है जब लोकोक्ति के प्रयोग से काव्य में अधिक रोचकता आ जाती है।
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लोकोत्तर  : वि० [सं० लोक-उत्तर, पं० त०] लोक में होनेवाले पदार्थों या बातों से अधिक बढ़कर या श्रेष्ठ। जो इस लोक में न होता हो। (पदार्थ या बात)
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लोकोपकार  : पुं० [सं० लोक-उपकार, ष० त०] लोक या जन साधारण के उपकार, लाभ या हित के नाम।
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लोकोपकारी (रिन्)  : वि० [सं० लोकोपकार+इनि] १. लोगों का उपकार करनेवाला। २. लोकोपकार-संबंधी। २. जिनमें लोगों का उपकार होता हो।
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लोकोपयोगि-सेवा  : स्त्री० [सं० उपयोगिनी-सेवा, कर्म० स० लोक-उपयोगि-सेवा, ष० त०] वह सेवा या कार्य जो जनता के लिए विशेष उपयोगी या काम का का हो। जैसे—नगर की जल-कल व्यवस्था, बिजली, सफाई आदि के काम (पब्लिक युटिलिटि सर्विस)।
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लोखड़ी  : स्त्री० =लोमड़ी।
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लोखर  : पुं० [हिं० लोहा+खण्ड] १. नाई के औजार। जैसे—छुरा, कैची नहरनी आदि। २. बढ़इयों, लोहारों आदि के लोहे के औजार। ३. दुकानदारी के लोहे के बटखरे।
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लोग  : पुं० [सं० लोक] [स्त्री० लुगाई] १. बहुत से मनुष्यों का दल, वर्ग समूह या समाज। २. दे० ‘लोक’।
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लोग-बाग  : पुं० [हिं० लोग-बाग (अनु०)] साधारण लोग। जन-साधारणर (बहु०में प्रयुक्त)।
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लोगाई  : स्त्री०=लुगाई (स्त्री)।
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लोच  : स्त्री० [हिं० लचक] १. वह गुण जिसके कारण कोई चीज दबाने पर दब जाती हो और दबाव न रहने पर फिर अपना सामान्य रूप प्राप्त कर लेती हो। २. कोमलता। मृदुता। ३. कोमलता पूर्ण सौन्दर्य। पुं० [सं० लुचन] जैन साधुओं का अपने सिर के बालों को उखाड़ना। लुंचन। स्त्री०=रुचि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोचक  : वि० [सं०√लोच् (दर्शन)+ण्वुल्—अक] १. जिसका आहार दूध हो। २. मूर्ख। बेवकूफ। पुं० १. आँख का तारा या पुतली। २. काजल। ३. मांस-पिंड। ४. माथे पर पहनने का एक गहना। ५. केला। ६. सांप की केंचुली। ७. धनुष की पतंचिका।
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लोचन  : पुं० [सं०√लोच्+ल्युट—अन] आँख। नेत्र। नयन। वि० चमकनेवाला।
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लोचना  : स० [सं० लोचन] १. प्रकाशित करना। चमकाना। २. इच्छा या कामना करना। ३. किसी में किसी बात का अनुराग या रुचि उत्पन्न करना। ४. विचार करना। सोचना। ५. देखना। अ० १. इच्छा, कामना, या रुचि होना। २. तरसना या ललचाना। ३. शोभा देना। फबना। ४. तृप्त होना। उदाहरण—लोचन उतावरे हैं, लोचै हाय कैसे हो।—घनानंद। पुं० दर्पण। शीशा। विशेषतः हज्जामों के पास रहनेवाला शीशा। मुहावरा—(कहीं) लोचना भेजना= नाई या हज्जाम के द्वारा संबंधियों आदि के यहाँ शुभ समाचार अथवा धार्मिक संस्कार का निमंत्रण भेजना।
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लोचून  : पुं०=लोह-चून।
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लोजंग  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की नाव।
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लोट  : स्त्री० [हिं० लोटना] १. लोटने की क्रिया या भाव। मुहावरा—लोट मारना या लगाना=लेटना। (किसी पर) लोट होना= (क) आसक्त या मोहित होना। (ख) विकल होना। २. जलाशय के किनारे पर का घाट। ३. बिजली। पुं०=नोट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोट-पटा  : पुं० [हिं० लोटना+पाटा] १. विवाह के समय पीढ़ा या स्थान बदलने की रीति। इससे वर के स्थान पर वधू को और वधू के स्थान पर वर को बैठाया जाता है। २. किसी को धोखा देने के लिए किया जानेवाला उलट-फेर या दाँव-पेंच।
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लोट-पोट  : स्त्री० [हिं० लोटना] लेटे-लेटे करवटें बदलने या लोटने की क्रिया या भाव। वि० १. हँसते-हँसते अपने को संभाल न सकने के कारण लोट जानेवाला। २. बहुत अधिक प्रसन्न। ३. उलटा-पुलटा हुआ। विपर्यस्त। ४. छिन्न-भिन्न किया हुआ।
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लोटन  : वि० [हि० लोटना] १. लोटने अर्थात् जमीन पर उलटबाजी लगानेवाला। जैसे—लोटन कबूतर। २. लुढ़कनेवाला। स्त्री० १. लोटने की क्रिया या भाव। २. छोटी कंकड़ियाँ जो तेज हवा चलने पर इधर-उधर लुढ़कने लगती है। ३. कटीली झाड़ी। ४. एक प्रकार की सज्जी। पुं० एक तरह का कबूतर जो चोंच से पकड़कर जमीन पर लुढ़काये जाने पर लोटने लगता है। २. एक प्रकार का छोटा हल।
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लोटना  : अ० [हिं० लोट] १. थकावट आदि मिटाने के उद्देश्य से लेटे-लेटे पेट और पीठ के बल लुढ़कना या उलटे-पुलटे होते रहना। २. क्रोध, जिद, दुःख, शोक आदि के कारण उक्त प्रकार से पड़कर इधर-उधर होना। मुहावरा—लोट जाना=(क) मर जाना या मृतप्राय हो जाना। (ख) दिवालिया हो जाना। (किसी बात) पर लोटना=जिद करना। हठ करना। ३. अधिक प्रसन्नता के फलस्वरूप इधर-उधर गिरना पड़ना। जैसे—हँसते-हँसते लोट जाना। ४. किसी पर पूरी तरह से आसक्त होना। संयो० क्रि०—जाना। अ० [हिं० लोटना] मुकर जाना।
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लोटा  : पुं० [हिं० लोटना] [स्त्री० अल्पा० लुटिया] धातु का एक प्रकार का प्रसिद्ध गोलाकार बरतन जो पानी रखने के काम आता है। पद—बे पेंदी का लोटा=ऐसा व्यक्ति जिसका अपना कोई मत या सिद्धान्त नहीं होता, वरन् जो दूसरों की बातों पर इधर-उधर ढुलकता फिरता हो।
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लोटिया  : स्त्री०=लुटिया।
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लोटी  : स्त्री० [हिं० लोटा+ई (प्रत्यय)] १. लोटे के आकार का वह बरतन जिससे तामोली पान सींचते हैं। २. छोटा लोटा। लुटिया। स्त्री० [हिं० लूटना] १. लूटने की क्रिया या भाव। लूट। २. वह अवस्था जिसमें हर कोई किसी चीज पर लूटने के लिए झपटता हो। (पश्चिम) क्रि० प्र०—मचना।
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लोडन  : पुं० [सं०√लोड् (मंथन)+ल्युट—अन] [भू० कृ० लोडित] १. हिलाने डुलाने या क्षुब्ध करने की क्रिया। २. मंथन।
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लोड़ना  : स० [पं० लोड़=आवश्यकता] आवश्यकता होना। दरकार होना।
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लोढना  : स० [सं० लुंचन] १. (पौधे से फूल) तोड़ना। २. (कपास) ओटना।
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लोढ़ा  : पुं० [सं० लोष्ट] [स्त्री० अल्पा० लोढ़िया पत्थर का वह लंबोतरा टुकड़ा जिससे सिल पर रखकर चीजें पीसी जाती हैं। बट्टा। पद—लोढ़ा ढाल=पूरी तरह से चौपट या नष्ट किया हुआ। मुहावरा—लोढ़ा डालना या ढालना=कुचल या पीसकर नष्ट या बरबाद करना।
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लोढ़िया  : स्त्री० [हिं० लोढ़ा का स्त्री० अल्पा०] छोटा लोढ़ा।
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लोढ़ी  : स्त्री० [पं०] १. मकर संक्रान्ति से पहले वाले दिन का एक त्योहार जिसमें रात के समय अग्नि की पूजा होती है। (पश्चिम) २. उक्त त्यौहार के उपलक्ष्य में गाये जानेवाले गीत।
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लोण  : पुं० [सं०] लोनी साग। पुं० लोन (नमक)।
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लोत-तंत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० लोकतंत्र+इनि] लोकतंत्र के सिद्धान्तों का प्रतिपादक या समर्थक। (डैमोक्रैट)
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लोथ  : स्त्री० [सं० लोष्ट या लोठ] किसी प्राणी का मृत शरीर। लाश। शव। मुहावरा—(किसी का) लोथ डालना=किसी को मारकर उसका शव जमीन पर गिराना।
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लोथ-पोत  : वि०=लथ-पथ।
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लोथड़ा  : पुं० [हि० लोथ+ड़ा] शरीर से कटकर अलग गिरा हुआ मांस का ऐसा बड़ा टुकड़ा जिसमें हड्डी न हो। मांस पिंड।
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लोथारी  : स्त्री० [सं० लुंठन] १. कम पानी में से नाव को खींचते या धीरे-धीरे खेते हुए किनारे लगाना। (लश०)
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लोथारी-लंगर  : पुं० [हिं० लोथारी+हिं० लंगर] जहाज का सबसे छोटा लंगर जो उस समय डाला जाता है, जहाँ यह जानना अभिप्रेत होता है कि यह किनारे पर जाने का मार्ग है या नहीं।
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लोद  : स्त्री०=लोध (वृक्ष)।
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लोंदा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० लोंदी] १. गीले पदार्थ का वह अंश जो ढेले की तरह बँधा हो। जैसे—घी का लोंदा, दही का लोंदा, मिट्टी का लोंदा। २. गली या घुली हुई वस्तु की वह अवस्था या आकृति जो उसे गलने के बाद ठण्डा होने के लिए छोड़ने पर प्राप्त होती है।
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लोदी  : पुं० [?] पठानों की एक जाति।
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लोध  : स्त्री० [सं० लोध्र] १. पर्वतीय प्रदेश में होनेवाला एक प्रकार का बड़ा पेड़ जिसकी छाल रंगने के काम आती है।
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लोधरा  : पुं० [सं० लोध्र] एक प्रकार का ताँबा।
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लोधी  : पुं०=लोदी।
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लोध्र  : पुं० [सं०√रुध् (रोकना)+रन्, लत्व] १. लोध नामक वृक्ष। २. एक प्राचीन जाति। ३. लोधरा नाम का ताँबा।
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लोध्र-तिलक  : पुं० [सं० ष० त०] १. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जो उपमा का एक भेद कहा गया है।
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लोन  : पुं० [सं० लवण] १. लवण। नमक। मुहावरा—(किसी चीज को) लोन चराना=नमकीन बनाना। जैसे—आम की लोन चराना। (किसी का) लोन न मानना=किसी का उपकार न मानना। कृतघ्न होना। (किसी का) लोन निकालना=कृतघ्नता का नमक हरामी फल भोगना। पुं० [अं०] ऋण।
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लोन-हरामी  : वि०=नमक हराम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोना  : वि० [हिं० लोन] [भाव० लोनाई] १. नमकीन। सलोना। २. लावण्ययुक्त। सुन्दर। पुं० १. नमक की तरह का वह सफेद पदार्थ जो सीड़ के कारण ईंट, पत्थर मिट्टी आदि की दीवारों में लगता है। इससे दीवार कमजोर होकर झड़ने लगती हैं। यह रोग प्रायः नींव की ओर से आरम्भ होता है और क्रमशः ऊपर बढ़ता है। नोना। क्रि० प्र०—लगना। २. वह धूल या मिट्टी जो लोना लगने पर दीवार से झड़कर गिरती है। यह खाद के रूप में खेत में डाली जाती है। क्रि० प्र०—झडना। ३. खार मिली हुई वह मिट्टी जिससे शोरा बनता है। ४. वह क्षार जो चने की पत्तियों पर इकट्ठा होता है, और जिसके कारण उसकी पत्तियाँ चाटने में खट्टी जान पड़ती हैं। ५. घोंघे की जाति का एक प्रकार का कीड़ा जो प्रायः नाव के पेदे में चिपका हुआ मिलता है। ६. अमलोनी नामक घास जिसका प्रयोग धातु सिद्ध करने में करते हैं। उदाहरण—कहाँ सो खोए बीरौ लोना।—जायसी। स० खेत में की तैयार फसल काटना। लवना। स्त्री० एक कल्पित चमारी जिसके नाम से ओझा लोग मंत्र आदि पढ़ते हैं।
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लोनाई  : स्त्री० १. =लुनाई। २. =लवनी।
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लोनारा  : पुं० [हि० लोन०] वह स्थान जहाँ नमक निकलता बनता या बनाया जाता या मिलता हो।
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लोनिका  : स्त्री० =अमलोनी (साग)।
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लोनिया  : स्त्री० =अमलोनी (साग)। पुं० =नोनियाँ (जाति)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोनी  : स्त्री० =अमलोनी।
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लोप  : पुं० [सं०√लुप् (काटना)+घञ्] १. किसी चीज के न रह जाने की अवस्था या भाव। जैसे—कार्यों का लोप होना। २. न मिलने की अवस्था या भाव। अभाव। ३. अदृश्य होने की अवस्था या भाव। अदर्शन। ४. व्याकरण के चार प्रधान नियमों में से एक जिसके अनुसार शब्द के साधन में कोई वर्ण उड़ा या हटा दिया जाता है।
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लोप-विभ्रम  : पुं० [सं० तृ० त०] दे० ‘भूल-चूक’ (हिसाब की)।
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लोपक  : वि० [सं०√लुब्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. लोप करनेवाला। २. बाधक। पुं० भाँग। विजया।
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लोपन  : पुं० [सं०√लुप्+णिच्+ल्युट—अन] १. लोपन करने की क्रिया या भाव। २. छिपाना। ३. नष्ट करना। न रहने देना।
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लोपना  : स० [सं० लोपन] १. लुप्त करना। छिपाना। २. न रहने देना। नष्ट करना। ३. उपेक्षा करना अ० लुप्त होना।
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लोपा  : स्त्री० [सं०√लुप् (काटना)+णिच्+अच्+टाप्] १. विदर्भ नरेश की पालिता कन्या और अगस्त्य की पत्नी। २. अगस्त्य मण्डल के पास उदित होनेवाला एक प्रकार का तारा।
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लोपांजन  : पुं० [सं० लोप-अंजन, मध्य० स०] एक प्रकार का कल्पित अंजन जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि इसे लगाने से लगानेवाला अदृश्य हो जाता है, उसे कोई देख नहीं सकता।
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लोपापक  : पुं० [सं० लोप-आपक, ष० त०] [स्त्री० लोपापिका] गीदड़। सियार।
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लोपामुद्रा  : स्त्री० [सं० न√मुद्+रा+क+टाप्=अमुद्रा, लोप-अमुदा, स० त०] १. अगस्त ऋषि की स्त्री जो उन्होंने स्वयं सब प्राणियों के उत्तम उत्तम अंगों को लेकर बनाई थी और तब विदर्भ राज को सौंप दी थी। युवती होने पर अगस्त्य जी ने इसी से विवाह किया। एक तारा जो दक्षिण में अगस्त्य मंडल के पास उदय होता है
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लोपी (पिन्)  : वि० [सं०√लुप्+णिनि] १. लोप करनेवाला। २. छिपानेवाला। नष्ट करनेवाला। ३. जिसका लोप हो सके। जैसे—मध्यम पद लोपी समास।
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लोप्ता (तृ)  : वि० [सं०√लुप्+तृच्] लोप करनेवाला।
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लोफर  : पुं० [अं०] १. आवारा। २. लफँगा। ३. टुकड़-गदाई।
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लोबान  : पुं० [अं०] एक प्रकार के वृक्ष का सुगन्धित गोंद। इसका वृक्ष अफ्रीका के पूर्वी किनारों पर, और अरब के दक्षिणी समुद्र तट पर होता है। यह जलाने के काम के सिवा दवाओं के काम आता है। धूना।
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लोबानी  : वि० [अं०] लोबान संबंधी। लोबान का। २. जिससे लोबान निकलता हो। ३. लोबान के रंग का, सफेद। पुं० लोबान की तरह का सफेद रंग।
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लोबिया  : पुं० [अं०] एक प्रकार का बड़ा सफेद बीड़ा जिसके बीजों से दाल और दालमोट बनाते हैं।
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लोबिया-कंजई  : पुं० [हिं० लोबिया+कंजई] गहरा हरा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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लोभ  : पुं० [सं०√लुभ् (लोभ करना)+घञ्] [स्त्री० लुब्ध, लोभी] १. दूसरे की चीज पाने या लेने की प्रबल कामना या लालसा। २. कुछ प्राप्त करने की ऐसी प्रबल लालसा जिसकी पूर्ति हो जाने पर भी तृप्ति या संतोष न हो। पूरी हो जाने पर भी बनी रहनेवाली कामना या लालसा (ग्रीड)। ३. जैन धर्म से वह कर्म जिसके फलस्वरूप मनुष्य किसी प्रकार का त्याग नहीं कर सकता। ४. कंजूसी। ५. कृपणता।
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लोभन  : पुं० [सं०√लुभ्+ल्युट—अन] १. लालच। लोभ। २. सोना। स्वर्ण।
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लोभना  : अ० [हिं० लोभ] लुब्ध होना। मुग्ध होना। लुभाना। उदाहरण—भौंर चारों ओर रहे गंध लोभि के बार के।—भारतेन्दु। स० लुब्ध या मुग्ध करना। लुभाना।
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लोभनीय  : वि० [सं०√लुभ्+अनीयर्] १. जिसके प्रति लोभ हो सके। २. लुभानेवाला। मनोहर। आकर्षण।
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लोभाना  : अ० स०=लुभना। वि० =लुभावनी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लोभार  : वि० =लुभावना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लोभित  : भू० कृ० [सं०√लुभ्+णिच्+क्त] लुभाया हुआ। जो लुब्ध किया गया हो।
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लोभी (भिन्)  : वि० [सं० लोभ+इनि] १. जिसे किसी बात का लोभ हो। २. जो प्रायः अधिक लोभ करता हो। लालची। ३. लुभाया हुआ। लुब्ध (ग्रीड़ी)।
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लोभ्य  : वि० [सं०√लुभ्+ण्यत्]=लोभनीय।
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लोम  : पुं० [सं०√लू (छेदन)+मनिन्] १. शरीर पर के छोटे-छोटे बाल। रोएँ। रोम। २. केश। बाल। पुं० [सं० लोमश] लोमड़ी।
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लोम-कर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] शशक। खरगोश।
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लोम-कूप  : पुं०=रोमकूप।
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लोम-नाशक  : वि० [सं० ष० त०] (औषध या पदार्थ) जिसे लगाने से शरीर के रोएँ या बाल झड़ जाते हों।
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लोम-विलोम  : पुं० [सं०] साहित्य में एक प्रकार का शब्दालंकार जिसमें किसी पद या वाक्य की रचना इस प्रकार की जाती है कि सीधी तरह से पढ़ने से तो उसका अर्थ निकलता ही है, उलटी तरह से अर्थात् अन्त से आरम्भ करके पढ़ने पर भी उसका कुछ भिन्न अर्थ निकलता है। जैसे—‘चोर सबे निमि काल फल’ को उलटी तरह से पढ़े तो रूप होगा।—लै फल कामिनि बेस रची।
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लोम-हर्षण  : पुं० [सं० ष० त०] १. पुराणों के अनुसार व्यास के एक शिष्य का नाम जो उग्रस्रवा के पुत्र थे। इन्हीं को सूत भी कहते हैं। २. रोमांच। वि०=रोम-हर्षक।
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लोमड़ी  : स्त्री० [सं० लोभटक] १. कुत्ते की तरह का एक जंगली हिंसक पशु, जिसकी चालाकी बहुत प्रसिद्ध है। २. लाक्षणिक अर्थ में, चालाक स्त्री।
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लोमध्न  : पुं० [सं० लोमन√हन् (मारना)+क] सिर का गंजा नामक रोग। वि०=लोम नाशक।
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लोमपाद  : पुं० [सं० ब० स०] अंग देश के एक राजा जो दशरथ के मित्र थे। रोमपाद।
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लोमपादपुर  : पुं० [सं० ष० त०] चंपा नगरी (आधुनिक भागलपुर) का एक पुराना नाम।
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लोमश  : पुं० [सं० लोमन+श] १. एक ऋषि जिन्हें पुराणों में अमर माना गया है। महाभारत के अनुसार ये युधिष्ठिर के साथ तीर्थयात्रा को गये थे और उन्हें सब तीर्थों का वृत्तान्त इन्होंने बतलाया था। २. भेड़ा। मेष। वि० बड़े-बड़े रोमों या रोओंवाला।
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लोमश-मार्जार  : पुं० [सं० कर्म० स०] गंध-बिलाव।
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लोमशा  : स्त्री० [सं०] १. वैदिक काल की एक स्त्री जो कई मंत्रों की रचयिता मानी जाती है। २. काक-जंघा। ३. बच। ४. अतिबला। ५. केवाँच।
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लोमस  : पुं०=लोमश।
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लोमहर्षक  : वि०=लोमहर्षक।
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लोमांच  : पुं० =रोमांच।
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लोमाश  : पुं० [सं० लोमन्√अश् (भोजन)+अण्] [स्त्री० लोमाशिका] गीदड़। श्रृंगाल।
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लोय  : पुं० [सं० लोक] लोग। पुं०=लोयन (लोचन)। स्त्री० =लौ (लपट)। अव्य०=लौ (तक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोयन  : पुं० [?] लासा, जिससे चिड़ियाँ फँसाई जाती हैं।
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लोर  : वि० [सं० लोल] १. लोल। चंचल। २. अभिलाषी। इच्छुक। पुं० [सं० लोल] १. कान का कुंडल। २. लटकन। पुं० =रोर। (शब्द)।
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लोरना  : अ० [सं० लोल] १. चंचल होना। २. इधर-उधर झूलना लहराना या हिलाना। ३. पाने के लिए उत्सुक होना। ललकना। ४. पाने के लिए तेजी से आगे बढ़ना। लपकना। ५. लिपटना। ६. झुकना। ७. लोटना। स० १. चलायमान या चंचल करना। २. हिलाना-डुलाना। ३. नत करना। झुकाना। ४. किसी को नम्र अथवा विनीत करना अथवा बनाना। स० [?] निर्मल या स्वच्छ करना। उदाहरण—हमरा जीवन निंदकु लोरै।—कबीर।
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लोरिक  : पुं० [?] १. उत्तर प्रदेश में प्रचलित एक गीत-कथा का नायक जो आमीर जाति का था, और जिसका प्रेम किसी दूसरे आभीर की चन्दा नामक पत्नी से हो गया था। २. प्रेमी।
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लोरी  : स्त्री० [सं० लाल] वे गीत जो स्त्रियाँ छोटे बच्चों को सुलाने के लिए गाती हैं। ललबी। पुं० [?] एक प्रकार का तोता।
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लोल  : वि० [सं०√लोड् (विक्षिप्त होना)=अच्, ड-लः] १. हिलता हुआ। कंपायमान। २. चंचल। ३. परिवर्तनशील। ४. क्षणिक। ५. उत्सुक। पुं० १. समुद्र में उठनेवाली बहुत बड़ी तथा ऊँची लहर। २. लिंगेन्द्रिय। स्त्री० [?] चोच।
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लोल-कर्ण  : वि० [सं० ब० स०] जो हर किसी की बात सुनकर सहज में ही उस पर विश्वास कर लेता हो। कान का कच्चा।
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लोल-जिन्ह  : वि० [सं० ब० स०] लालची। लोभी। पुं० साँप।
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लोल-दिनेश  : पुं० [सं० कर्म० स०] लोलार्क।
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लोलक  : पुं० [सं० लोल से] १. नथ, बाली आदि में पिरोया जानेवाला लटकन लरकन। २. कान की लौ। लोलकी। ३. घंटी या घंटे के बीच लगा हुआ वह लरकन जो हिलाने से इधर-उधर टकराकर शब्द उत्पन्न करता है।
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लोलकी  : स्त्री० [हिं० लोलकी] कान के नीचे का वह कोमल भाग जिसमें छेद करके कुण्डल, बाली आदि पहनते हैं।
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लोलना  : अ० [सं० लोल] इधर-उधर लहराना या हिलना-डुलना।
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लोला  : स्त्री० [सं० लोल+टाप्] १. चिह्वा जीभ। २. लक्ष्मी। ३. मधु नामक दैत्य की माता। ४. एक योगिनी। ५. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में मगण, सगण, मगण, भगण और अंत में दो गुरु होते हैं। ६. एक प्रकार का छोटा डंडा जिसके दोनों सिरों पर लट्टू लगे रहते हैं।
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लोलार्क  : पुं० [सं० लोल-अर्क, कर्म० स०] बारह आदित्यों में से एक आदित्य।
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लोलित  : भू० कृ० [सं०√लुल् (विमर्दन)+घञ्, =लोल+इत्] १. हिला या हिलाया हुआ। २. क्षुब्ध।
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लोलिनी  : स्त्री० [सं० लोल+इनि-ङीष्] चंचल या चपल स्त्री।
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लोलुप  : वि० [सं०√लुभ्+यङ्, लुक्, द्वित्वादि+अतच्] [भाव० लोलुपता] लोभी। लालची। २. चटोरा। ३. परम उत्सुक। जैसे—युद्ध लोलुप।
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लोलुपता  : स्त्री० [सं० लोलुप+तल्+टाप्] लोलुप होने की अवस्था या भाव।
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लोलुपत्व  : पुं० [सं० लोलुप+त्व]=लोलुपता।
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लोवा  : स्त्री० =लोमड़ी। स्त्री० [सं० लोपाक] लोमड़ी। पुं० =लवा (पक्षी)।
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लोशन  : पुं० [अंस०] घोल।
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लोष्ट  : पुं० [सं०√लोष्ट् (ढेर करना)+घञ्] १. पत्थर। २. मिट्टी आदि का ढेला। ३. चित्र का काम देनेवाली कोई वस्तु ४. लोहे में लगनेवाला जंग। मोरचा।
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लोष्ट-लौह  : पुं० [सं० उपमित० स०] दे० ‘कच्चा लोहा’।
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लोष्टध्न  : पुं० [सं० लोष्ट√हन्+क] खेतों में मिट्टी के ढेले तोड़ने का पटेला। पाटा।
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लोह  : पुं० [सं०√लू (छेदन)+ह (करण)] १. लोहा नामक धातु। २. रक्त। लहू। ३. लाल बकरा। ४. मछली फँसाने का काँटा। ५. हथियार। ६. अगर। वि० ताँबे के रंग का लाल। २. लोहे का बना हुआ।
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लोह-किट्ट  : पुं० [सं० ष० त०] लोह चून। (दे०)
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लोह-चून  : पुं० [सं० लोह+चूर्ण] १. लोहे की मैल जो गलाने पर निकलती है। लोह किट्ट। २. लोहे को काटने, रेतने आदि पर निकलने वाले उनके छोटे-छोटे कण।
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लोह-जाल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. लोहे की बनी हुई जाली या जाल। २. योद्धाओं का पहनने का झिलम। ३. आज-कल बीच में खड़ा किया हुआ ऐसा आवरण या व्यवस्था जिसके कारण अन्दर की स्थिति आदि का बाहर वालों को पता न चल सके। (आयरन कर्टेन)
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लोह-नाल  : पुं० [सं० ब० स०] नाराच (अस्त्र)।
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लोह-पाश  : पुं० [सं० मध्य० स०] लोहे की जंजीर या सिक्कड़।
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लोह-बंदा  : पुं० दे० ‘लोहाँगी’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोह-लंगर  : पुं० [हिं० लोहा+लंगर] १. जहाज का लँगर। २. बहुत भारी वस्तु।
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लोह-शंकु  : पुं० [सं० ष० त०] १. लोहे का काँटा। २. एक नरक।
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लोहकार  : पुं० [सं० लोह√कृ (करना)+अण्, उप० स०] लोहार।
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लोहँड़ा  : पुं० [सं० लीह-भांड] [स्त्री० लोहँड़ी] लोहे का एक प्रकार का बड़ा तसला।
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लोहड़ा  : पुं० =लोढ़ा। पुं०=लोहँड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोहड़ी  : स्त्री० =लोढ़ी (त्यौहार)।
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लोहद्रावी (विन्)  : पुं० [सं० लोह√द्रु (गति)+णिच्+णिनि] १. सुहागा। २. अम्लबेंत।
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लोहबान  : पुं० =लोहबान। पुं० [हिं० लोहा] युद्ध।
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लोहस  : वि० [सं० लोह से] (द्रव्य) जिसमें लोहे का भी कुछ अंश या मेल हो। (फेरस)
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लोहसार  : पुं० [सं० ष० त०] १. पक्का लोहा। फौलाद। २. फौलाद की जंजीर।
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लोहा  : पुं० [सं० लोह] १. प्रायः काले रंग की एक प्रसिद्ध धातु जिससे अनेक प्रकार के अस्त्र, उपकरण बरतन, यंत्र आदि बनाये जाते हैं। (आयरन)। पद—लोहे की स्याही, लोहे के चने (दे० स्वतंत्र पद)। २. उक्त धातु से बने हुए अस्त्र जो युद्ध में शत्रुओं को काटने-मारने के काम आते हैं। जैसे—कटार, तलवार भाला आदि। मुहावरा—लोहा गहना=किसी से लड़ने के लिए हथियार उठाना। लोहा बजना=तलवारों भालों आदि से युद्ध या लड़ाई होना। मार-काट होना। लोहा बरसना=युद्ध-क्षेत्र में अस्त्रों आदि का बहुत अधिकता से उपयोग होना। घमासान युद्ध होना। (किसी का) लोहा मानना=किसी काम या बात में किसी की योग्यता, शक्ति आदि की श्रेष्ठता अधिक योग्य या शक्तिशाली समझना। (किसी से) लोहा लेना= (क) किसी से डटकर मार-पीट युद्ध या लड़ाई करना। (ख) किसी के सामने उसके बल, योग्यता आदि का मुकाबला करना। टक्कर लेना। भिड़ना। लोहा सहना=लोहा लेना। (राज०)। ३. लोहे का बना हुआ कोई उपकरण। लोहे की चीज या सामान। जैसे—लोहे का रोजगार लोहे की दूकान। ४. लाल रंग का बैल। वि० [स्त्री० लोही] १. लाल। २. बहुत अधिक कठोर या कड़ा।
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लोहा-सारंग  : पुं० [हिं०] लगलग की जाति का एक प्रकार का पक्षी।
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लोहाँगी  : स्त्री० [हिं० लोहा+अंग+ई] ऐसी लाठी जिसके ऊपरी या निचले अथवा दोनों सिरों पर लोहा लगा हो। (इसका प्रयोग प्रायः मार-पीट के लिए होता है)।
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लोहाना  : अ० [हिं० लोहा+आना (प्रत्यय)] किसी चीज का अधिक समय तक लोहे का बरतन में रखे रहने के कारण लोहे के गुण, रंग स्वाद आदि से युक्त होना। पुं० वैश्यों की एक जाति।
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लोहार  : पुं० [सं० लौहकार] [स्त्री० लोहारिन या लोहाइन] एक जाति जो लोहे की चीजें बनाने का काम करती है।
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लोहारखाना  : पुं० [हिं० लोहार+फा० खानः] वह स्थान जहाँ बैठकर लोहार लोग लोहे की चीजें बनाते हैं।
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लोहारी  : स्त्री० [हिं० लोहार+ई (प्रत्यय)] लोहार अथवा लोहे की चीजें बनाने का काम या पेशा।
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लोहित  : वि० [सं०√रुह् (उगना)+इतन्, र—ललम्] १. लाल रंग का। लाल। २. ताँबे का बना हुआ। पुं० १. लाल रंग। २. लाल चंदन। ३. मंगल ग्रह। ४. साँप। ५. एक तरह का हिरन। ६. ब्रह्मपुत्र नदी। ७. पलक संबंधी एक रोग। ८. गौतम बुद्ध का एक नाम।
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लोहित-चंदन  : पुं० [सं० उपमित० स०] केसर।
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लोहित-मृत्तिका  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] गेरू।
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लोहित-सागर  : पुं० [सं०] अफरीका और अरब के बीच का वह समुद्र जो पहले भू-मध्य सागर से पृथक् था, पर अब बीच में स्वेज नहर बन जाने से उक्त सागर के साथ संबंद्ध हो गया। (रेड सी)
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लोहितक  : पुं० [सं० लोहित+कन्] १. पद्मराग या लाल की तरह का एक प्रकार का घटिया रत्न। २. फूल नामक धातु। ३. आधुनिक रोहतक नगर का पुराना नाम। ४. दे० ‘लोहित’।
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लोहिताक्ष  : पुं० [सं० लोहित-अक्षि० ब० स०,+षच्] १. एक तरह का साँप। २. कोयल। ३. विष्णु। ४. काँख। कोख। ५. चूतड़। नितंब।
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लोहिताक्षक  : पुं० [सं०] एक तरह का साँप।
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लोहितांग  : पुं० [सं० लोहित-अंग, ब० स०] १. मंगल ग्रह। २. कांपिल्ल वृक्ष।
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लोहिताश्व  : पुं० [सं० लोहित-अश्व, ब० स०] १. अग्नि। २. शिव।
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लोहितिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० लोहित+इमनिच्] रंग के विचार से लोहित होने की अवस्था या भाव। लालिमा। लाली।
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लोहितोद  : पुं० [सं० लोहित-उदक, ब० स० उदादेश] एक नरक। (पुरा०)
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लोहित्य  : पुं० [सं०] १. ब्रह्मपुत्र नदी। २. पुराणानुसार एक समुद्र जो कुश द्वीप के पास है। ३. एक प्राचीन जनपद या बस्ती।
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लोहिनी  : स्त्री० [सं० लोहित+ङीष्, न—आदेश] लाल वर्णवाली स्त्री।
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लोहिया  : वि० [हिं० लोहा+इया (प्रत्यय)] १. लोहे का बना हुआ। २. लाल रंग का। जैसे—लोहिया घोड़ा। पुं० १. लोहे की चीजों का व्यापार करनेवाला व्यक्ति। लोहे का रोजगारी। २. राजस्थानी वैश्यों की एक जाति। ४. लाल रंग का बैल।
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लोही  : वि० [सं० लोहिन्] [स्त्री० लोहिनी] लाल रंग का सुर्ख। स्त्री० [सं० लोह] प्रभात के समय की लाली। मुहावरा—लोही फटना=प्रभात के समय सूर्य कि किरणों की लाली दिखाई देना। पौ फटना। स्त्री० १. =लोई (चुगली)। २. =लोई (ऊनी चादर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लोहू  : पुं० =लहू (रक्त)।
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लोहे की स्याही  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार का काला रंग जो शीरे में लोह-चून का खमीर उठाकर बनाई जाती और कपड़ों की छपाई, रँगाई आदि में काम आती है।
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लोहे के चने  : पुं० [हिं०] बहुत ही कठिन, दुष्कर तथा श्रम-साध्य काम। मुहावरा—लोहे के चने चबाना=उतना ही दुस्साध्य तथा लगभग असंभव कार्य करना जितना लोहे के चने चबाना होता है।
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लोहोत्तम  : पुं० [सं० लोह-उत्तम, स० त०] सोना।
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लोह्य  : पुं० [सं०] पीतल।
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लौं  : अव्य० [हिं० लग का स्थानिक रूप] १. तक। पर्यंन्त २. तुल्य। बराबर। समान। ३. किसी की तरह या भाँति। (व्रज०)
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लौ  : स्त्री० [सं० लयी] १. आग की लपट। ज्वाला। २. दीपों की टेम। दीप-शिखा। स्त्री० दे० ‘लगन’। क्रि० प्र०—लगना।
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लौ-जोरा  : पुं० [हिं० लौ+जोड़ना] आग की लौ या लपट की सहायता से धातुओं के टुकड़े जोड़नेवाला। कारीगर।
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लौआ  : पुं० [सं० लावुक०] कद्दू। घीआ।
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लौंकड़ा  : पुं० [?] अविवाहित नव-युवक। कुँआरा। जवान। पद—लौकड़ा वीर=हनुमान।
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लौकना  : अ०=लौकना (दिखाई पड़ना)।
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लौकना  : अ० [सं० लोकन] १. चमकना। उदाहरण—होइ अँधियार बीजु खग लौ कै जबहिं चीरगहि झाँपु।—जायसी। २. आँखों में चकाचौंथ होना। ३. दिखाई पड़ना। ४. लपलपाना (जीभ का)।
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लौका  : पुं० [सं० लावुक] [स्त्री० लौकी] कद्दू। स्त्री० [हि० लौकना] १. चमक। दीप्ति। २. कांति। शोभा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लौकांतिक  : पुं० [सं०] पाँचवे स्वर्ग में बास करनेवाला जीव (जैन)।
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लौकायतिक  : पुं० [सं० लोकायत+ठक्—इक] १. लोकायत (दर्शन) का अनुयायी। २. नास्तिक।
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लौकिक  : वि० [सं० लोक+ठक्—इक] १. लोक संबंधी। २. इस लोक अर्थात् पृथ्वी से सम्बन्ध रखनेवाला। ऐहिक। सांसारिक। ३. लोक व्यवहार से संबंध रखनेवाला। व्यावहारिक। पुं० सात मात्राओं के छंदों की संज्ञा।
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लौकिक-विवाह  : पुं० [सं० कर्म० स०] धर्म, संप्रदाय आदि का विचार छोड़कर केवल कानून या विधि द्वारा निश्चित नियमों के अनुसार होने वाला विवाह। (सिविल मैरेज)।
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लौकी  : स्त्री० [सं० लावुक] १. कद्दू। घीआ। २. भभके में लगाई जानेवाली वह नली जिससे शराब चुआई जाती है।
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लौक्य  : वि० [सं० लोक+ष्यञ्] १. लोक-संबंधी। लौकिक। २. सब जगह समान रूप से पाया जानेवाला या होनेवाला। सामान्य।
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लौंग  : पुं० [सं० लवंग] १. एक प्रकार का वृक्ष जो दक्षिणी भारत, जावा, मलाया आदि में अधिकता से होता है। २. उक्त वृक्ष की कली जो खिलने से पहले ही तोड़कर सुखा ली जाती है और मसालों तथा दवाओं में सुगन्धि तथा गुण के लिए मिलाकर काम में लाई जाती है। ३. उक्त कली के आकार-प्रकार का आभूषण जो नाक तथा कान में पहना जाता है।
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लौंग-चिंड़ा  : पुं० [सं० लौंग+चिड़ा=चिड़िया] एक प्रकार का कवाब जो बेसन में मिलाकर बनाया जाता है। २. आग पर सेंककर फुलाई हुई रोटी। फुलका।
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लौंग-मुश्क  : पुं० [हिं० लौंग+मुश्क] एक प्रकार का पौधा और उसका फूल।
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लौंग-लता  : स्त्री० [सं० लवंग-लता] समोसे के आकार की मैदे की एक तरह की मिठाई जिसमें खोआ भरा रहता तथा ऊपर से लौंग भी खोंसा जाता है।
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लौंगरा  : पुं० [हिं० लौंग] एक तरह का साग जिसमें लौंग की तरह की कलियाँ लगती है।
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लौंगिया  : वि० [हिं० लौंग] १. लौंग की तरह का छोटा पतला और लंबा। जैसे—लौंगिया फूल, लौंगिया मिर्च। २. लौंग (कली) के रंग का। पुं० कुछ मटमैलापन लिये हुए एक प्रकार का काला रंग। (क्लोव)
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लौंगिया-मिर्च  : स्त्री० [हिं० लौंग+मिर्च] एक प्रकार की बहुत कड़वी मिर्च जिसका पौधा बहुत बड़ा और फल लौंग के आकार के छोटे-छोटे होते हैं। मिरची।
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लौछार  : स्त्री० [हिं० बौछार] १. कटाक्ष, व्यंग आदि की हलकी रंगत या पुट। जैसे—उसमें हास्य रस की अच्छी लौछार है। २. किसी पर किया जानेवाला कटाक्ष या व्यंग। जैसे—उनकी बातों में कई आदमियों पर लौछार था।
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लौज  : पुं० [अ० लौज़] १. बादाम। २. पिसे हुए बादाम की एक प्रकार की बरफी।
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लौंजी  : स्त्री० [सं० लून=काटा हुआ] आम की फाँक जो अचार चटनी आदि के काम आती है। स्त्री० =न्योंजी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लौट  : स्त्री० [हिं० लोटना] १. लौटने की क्रिया या भाव। २. लौटे अर्थात् उलटे किये अथवा घुमाए हुए होने की अवस्था या भाव। घुमाव।
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लौट-पौट  : स्त्री० [हिं० लौट+अनु० पौट] १. कपड़े आदि की ऐसी छपाई जिसमें दोनों ओर एक से बेल-बूटे दिखाई पड़े। वह छपाई जिसमें उलटा सीधा न हो। दो-रुखी छपाई। २. उलटने-पलटने की क्रिया या भाव। स्त्री० =लोट-पोट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लौट-फेर  : पुं० [हिं० लौट+फेर] १. इधर का उधर हो जाना। २. बहुत बड़ा परिवर्तन। उलट-फेर।
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लौटना  : अ० [हिं० उलटना] १. एक स्थान से किसी दिशा में जाकर फिर उसी स्थान पर वापस आना। जैसे—शहर या विदेश से घर लौटना। २. पीछे की ओर घूमना। मुड़ना। ३. किसी को काम चलाने के लिए किसी चीज का वापस मिलना। स०=उलटना (पलटना)।
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लौटान  : स्त्री० [हिं० लौटना] लौटने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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लौटाना  : स० [हिं० लौटना का स०] १. जो कहीं से आया हो, उसे लौटने अर्थात् वहीं जाने में प्रवृत्त करना। जो जहाँ से आया हो, उसे वहीं वापस भेजना। जैसे—किसी के नौकर को जवाब देकर लौटाना। २. किसी से ली हुई चीज उसे वापस करना या देना जैसे—दुकानदार के यहाँ से आई हुई चीज लौटाना। संयो० क्रि०—देना। स=उलटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लौटानी  : स्त्री० [हिं० लौटना] लौटने की क्रिया या भाव। पद—लौटानी में=लौटते समय। लौटती बार।
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लौंठा  : पुं० [हिं० लुआठा] ऐसा हृष्ट-पुष्ट नवयुवक जिसे कुछ भी बुद्धि या समझ न हो।
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लौंड़ा  : पुं० [?] [स्त्री० लौंड़ी लौंडिया] १. छोकरा। बालक। लड़का। २. अबोध और नासमझ अथवा छिछोरा नवयुवक। ३. ऐसा लड़का जिसके साथ लोग अस्वाभाविक मैथुन करते हों।
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लौड़ा  : पुं० [सं० लोल या हिं० लंड] पुरुष की मूतेन्द्रिय। लिंग।
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लौंड़ापन  : पुं० [हिं० लौंड़ा+पन (प्रत्यय)] १. लौंडा होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी नासमझी जिसमें छिछोरापन या लड़कपन भी मिला हो।
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लौड़ी  : स्त्री० [हिं० लौंडा+ई (प्रत्य)०] १. वह बालिका या स्त्री जो दूसरों के यहाँ छोटे-छोटे काम करने के लिए नौकर हो। दासी।
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लौंडेबाज  : वि० [हिं० लौंड़ा+फा० बाज़] [भाव० लौंडेबाज़ी] १. (पुरुष) जो बालकों के साथ प्रकृति विरुद्ध संभोग करता हो। २. (स्त्री) जो नव-युवकों से प्रेम रखती हो। (बाजारू)
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लौड़ेबाजी  : स्त्री० [हिं० लौंड़ा+फा० बाज़ी] १. लौड़ेबाज होने की अवस्था या भाव। २. लौंडेबाज़ का अप्राकृतिक कार्य।
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लौड़ो-घेरी  : स्त्री० [हिं० लौड़ा+घेरना] ऐसा दुश्चरित्रा स्त्री जिसके पास प्रायः नवयुवक आते-जाते रहते हों। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लौंद  : पुं० [?] अधिमास। मलमास।
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लौद, लौदरा  : पुं० [सं० नव=डाली] [स्त्री० लौदड़ी, लौदरी] अरहर आदि की नरम डाली जिससे छानी छाने का काम लेते हैं। (दुआब व अंतर्वेद)।
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लौंदरा  : पुं० [हिं० लव=बालू] वह पानी जो ग्रीष्म ऋतु में वर्षा आरम्भ होने के पूर्व बरसता है। लवंद। दौगरा।
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लौंदी  : स्त्री० [देश] वह करछी जिससे खँडसार के शीरे का पाग चलाया जाता है। (बुंदेल०)
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लौन  : पुं० =लोंदा।
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लौंन  : पुं० १. =लवन। २. =लौंद। ३. =लोन (नमक)।
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लौन  : पुं० [सं० लवण] नमक। मुहावरा—(किसी का) लौन मानना=जिसने पालन-पोषण किया हो उसके प्रति कृतज्ञ या निष्ठ रहना। उदाहरण—बड़े भए तब लौन मानि यह जहँ-तहँ चलत भगाई।—सूर। (उक्त पद में यह मुहा० व्यंग्यात्मक रूप से आया है)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लौनहार  : पुं० [हिं० लौन+हार (प्रत्यय)] [स्त्री० लौनहारिन] खेत काटनेवाला। लवनी या लौनी करनेवाला।
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लौना  : स० [सं० लवन] खेत की फसल काटना। लवना। स्त्री० =लवनी। पुं० [?] जलाने की लकड़ी। ईधन। पुं० [सं० लूम या रोम] वह रस्सी जिसमें किसी पशु को भागने से रोकने के लिए उसका एक अगला और एक पिछला पैर बाँधा जाता है।
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लौनी  : स्त्री० [हिं० लौना] १. फसल की कटनी। कटाई। लवनी। २. फसल के कटे हुए डंठलों का मुट्ठा। स्त्री० [सं० नवनीत] मक्खन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लौमना  : पुं० =लौना।
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लौमनी  : स्त्री० १. =लौना। २. =लौनी।
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लौरी  : स्त्री० [?] बछिया।
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लौल्य  : पुं० [सं० लोल+ष्यञ्] १. लाल होने की अवस्था या भाव। लोलता। चंचलता। २. लालच। लोभ।
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लौस  : पुं० [फा०] १. किसी काम या बात में लिप्त होना। लीनता। २. मिलावट। २. धब्बा। ३. लगाव सम्पर्क।
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लौह  : पुं० [सं० लोह+अण्] १. लोहा। २. शस्त्रास्त। वि० लोहे का। लौह-संबंधी। स्त्री० [अ०] १. तख्ती। २. पुस्तक का पृष्ठ।
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लौह-पट  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. लोहे का परदा। २. ऐसी व्यवस्था जिसकी आड़ में होनेवाली बातें किसी प्रकार दूसरों पर प्रकट न हो सकती हों (आयरन कर्टेन)।
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लौह-युग  : पुं० [सं० मध्य० स०] संस्कृति के इतिहास में वह युग जब उपकरण तथा अस्त्र-शस्त्र लोहे के ही बनते थे। अन्य धातुओं का आविष्कार नहीं हुआ था। (आयरन एज)।
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लौह-सार  : पुं० [सं० ष० त०] रासायनिक प्रक्रिया से बनाया हुआ एक प्रकार का लवण जो लोहे से बनाया जाता है और औषधियों में काम आता है।
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लौहकार  : पुं० [सं० लौह√कृ+अण्] लोहार।
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लौहज  : वि० [सं० लौइ√जन् (उत्पत्ति)+ड] लोहे से निकला या बना हुआ।
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लौहाचार्य  : पुं० [सं० लौह-आचार्य, ष० स०] धातुओं के तत्त्व जाननेवाला। वह जो धातु विद्या का अच्छा ज्ञाता हो।
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लौहासव  : पुं० [सं० लौह-आसव, मध्य० स०] लोहे के योग बनाया जानेवाला आसव।
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लौहिक  : वि० [सं० लौह+ठक्—इक] १. लोहे का बना हुआ। लोहे का। २. लोहे से सम्बन्ध रखनेवाला। ३. दे० ‘लोहस’।
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लौहित  : पुं० [सं० लोहित+अण्] शिव का त्रिशूल।
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लौहिताश्व  : पुं० [सं० लोहिताश्व+अण्] १. अग्नि। २. शिव।
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लौहित्य  : पुं० [सं० लोहित+ष्यञ्] १. एक प्रकार का धान जिसके चावल प्रदेश लाल रंग के होते हैं। २. ब्रह्मपुत्र नदी। ३. बरमा की सीमा पर स्थित प्रदेश का प्राचीन नाम। ४. लाल समुद्र या लाल सागर का पुराना नाम।
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ल्याना  : स०=लाना (पश्चिम)।
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ल्यारी  : पुं० [देश०] भेड़िया।
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ल्यौ  : स्त्री० =लौ।
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ल्वारि  : स्त्री० =लुआर (लू)।
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ल्हासा  : पुं० =लासा।
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ल्हीक  : स्त्री० १. =लीख। २. =लीक।
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ल्हेसना  : अ० स०=लसना (चिपकाना)।
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ल्हेसित  : वि० =लेहसित (फबनेवाला)।
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