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शब्द का अर्थ

वृत्त  : वि० [सं०√वृ (वरण करना)+क्त] १. जो किसी काम के लिए नियुक्त किया गया हो। मुकर्रर किया हुआ। २. ढका हुआ। ३. प्रार्थित। ४. स्वीकृत। ५. गोलाकार। पुं०=व्रत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वृत्त  : वि० [सं०√वृत्त (व्यवहार करना)+क्त] १. जो अस्तित्व में आ चुका हो। २. जो घटित हो चुका हो। ३. मृत। ४. गोल। पुं० १. धर्म या वेद-शास्त्र के अनुकूल आचरण या व्यवहार। २. वृत्तान्त। हाल। ३. चरित्र। ४. वर्णिक छंद। (दे०) ५. वह क्षेत्र जो चारों ओर से किसी ऐसी रेखा से घिरा हो जिसका प्रत्येक बिंदु उस क्षेत्र के मध्य बिंदु से समान अन्तर पर हो। गोल। मंडल। ६. ज्यामिति में उक्त प्रकार की रेखा जो किसी क्षेत्र को घेरती हो। (सर्किल अन्तिम दोनों अर्थों में) ७. स्तन का अग्र भाग। ८. गुंडा नाम की घास। ९. सफेद ज्वार। १॰. अंजीर। सतिवन। ११. कछुआ। १२. वृत्ति। १३. वृत्तासुर।
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वृत्त-खंड  : पुं० [सं० ष० त०] ज्यामिति में किसी वृत्त का वह अंश या खंड जो चाप तथा दो अर्द्ध व्यासों से घिरा हो। (सेक्टर)
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वृत्त-गंधि  : स्त्री० [सं०] साहित्य में ऐसा गद्य जिसमें अनुप्रासों की अधिकता होती है तथा जो पद्य का सा आनन्द देता है।
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वृत्त-चित्र  : पुं० [सं०] आजकल सिनेमा का वह चित्र जिसमें किसी विशिष्ट कार्य या घटना के मुख्य-मुख्य अंग-उपांग अथवा ब्योरे की और बातें लोगों की जानकारी या ज्ञानवृद्धि के लिए दिखाई जाती है। (डाक्यूमेंन्टरी फिल्म) जैसे—दुर्गापुर के लोहे के कारखाने या राष्ट्रपति की जापान यात्रा का वृत्त-चित्र।
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वृत्त-चेष्टा  : स्त्री० [सं०] १. स्वभाव। प्रकृति। मिजाज। २. चाल-ढाल।
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वृत्त-पत्र  : पुं० [सं०] १. वह पंजी जिसमें दैनिक कार्यो, घटनाओं आदि का संक्षिप्त उल्लेख हो। २. किसी संस्था या सभा के निश्चर्यों कार्यों आदि के विवरण अथवा तत्संबंधी लेख आदि प्रकाशित करनेवाला सामयिक पत्र। (जर्नल)। २. पुत्रदानी नाम की लता।
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वृत्त-फल  : पुं० [सं०] १. कोई गोलाकार फल। २. काली या गोल मिर्च। ३. अनार। ४. बेर। ५. कपित्थ। कैथ। ६. लाल चिचड़ा। ७. करंज। ८. तरबूज। ९. खरबूजा।
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वृत्तक  : पुं० [सं० वृत्त+कन्] १. ऐसा गद्य जिसमें कोमल तथा मधुर अक्षरों और छोटे-छोटे समासों का व्यवहार किया गया हो। २. छंद।
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वृत्तपर्णी  : स्त्री० [सं० वृत्तपर्ण+ङीष्] १. पाठा। पाढ़ा। २. बड़ी शंखपुष्पी।
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वृत्तपुष्प  : पुं० [सं०] १. सिरिस का पेड़। २. कदंब। ३. भू-कदंब। ४. जल-बेंत। ५. सेवती। ६. मोतिया। ७. चमेली।
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वृत्तपुष्पा  : स्त्री० [सं० वृत्तपुष्प+टाप्] १. नागदमनी। २. सेवती।
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वृत्तफला  : स्त्री० [सं० वृत्तफल+टाप्] १. बैंगन। भंटा। २. आँवला।
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वृत्तबंध  : पुं० [सं०] छंदोबद्ध रचना।
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वृत्तवान् (वत्)  : वि० [सं० वृत्त+मतुप्, म-व] जिसका आचरण उत्तम हो। सदाचारी।
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वृत्तशाली (लिन्)  : वि० [सं०]=वृत्तवान्।
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वृत्ता  : स्त्री० [सं० वृत्त+टाप्] १. झिंझरीट नाम का क्षुप। २. रेणुका नामक वनस्पति। ३. प्रियंगु। ४. मांस-रोहिणी। ५. सफेद सेम। ६. नाग दमनी।
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वृत्तांत  : पुं० [सं०] १. किसी घटना, वस्तु, विषय स्थिति आदि की जानकारी करने के उद्देश्य से उससे संबद्ध कही या बतलाई जानेवाली बातें या किया जानेवाला वर्णन। २. समाचार। हाल।
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वृत्तानुवर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं०+वृत्त+अनु√वृत्त (व्यवहार करना)+णिनि] वृत्तवान्। (दे०)
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वृत्तानुसारी (रिन्)  : वि० [सं० वृत्त+अनु√सृ (गमन आदि)+णिनि] शुभ आचरण करनेवाला।
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वृत्तार्ध  : पुं० [सं० ष० त०] वृत्त का आधा भाग जो व्यास तथा चाप से घिरा होता है।
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वृत्ति  : स्त्री० [सं०√वृ (वरण करना)+क्तिन्] १. वह जिसने कोई चीज घेरी या ढकी जाय। २. नियुक्ति। ३. छिपाना। गोपन।
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वृत्ति  : स्त्री० [सं०√वृत्त+क्तिन्] १. चक्कर खाना। घूमना। २. किसी वृत्त या गोल की परिधि। वृत्त। ३. वर्तमान होने की अवस्था, दशा या भाव। ४. चित्त, मन आदि का कोई व्यापार। जैसे—चित्तवृत्ति। ५. उक्त के आधार पर योग में चित्त की विशिष्ट अवस्थाएँ जो पाँच प्रकार की मानी गई है। यथा-क्षिप्त, मूढ विक्षिप्त, एकाग्र और विरुद्ध। ६. कोई ऐसी क्रिया गति जिसके फलस्वरूप कुछ होता हो। कार्य। व्यापार। ६. कोई काम करने का ढंग या प्रकार। ७. आचरण और व्यवहार तथा इनसे संबंध रखनेवाला शास्त्र। आचार-शास्त्र। ८. वह कार्य या व्यापार जिसके द्वारा किसी की जीविका चलती हो। जीवन निर्वाह का साधन। धंधा। पेशा। जैसे—आकाश, वृत्ति, यजमानी वृत्ति, वेश्यावृत्ति, सेवावृत्ति आदि। ९. जीविका निर्वाह भरण पोषण आदि के लिए नियमित रूप से मिलनेवाला धन। जैसे— छात्रवृत्ति। १॰. किसी ग्रन्थ विशेषतः सूत्रग्रन्थ का अर्थ और आशय स्पष्ट करनेवाली संक्षिप्त परन्तु गंभीर टीका या व्याख्या। जैसे—अष्टाध्यायी की कोशिका वृत्ति। ११. शब्दों की अभिधा, लक्षणा और व्यंजना नाम की अर्थ-बोधक शक्तियाँ। शब्द-शक्ति। १२. व्याकरण में ऐसी गूढ़ वाक्य-रचना जिसकी व्याख्या करनी पड़ती हो। १३. नाटको में आशय और भाव प्रकट करने की एक विशिष्ट शैली जिसे कुछ आचार्य काव्य की रीतियों के अन्तर्गत और कुछ शब्दालंकार के अन्तर्गत मानते हैं। विशेष—प्राचीन आचार्य कायिक और मानसिक चेष्टाओं को ही वृत्ति मानते थे, परन्तु परवर्ती आचार्यों ने इसे विकसित और विस्तृत करके इन्हें काव्यगत रीतियों के समकक्ष कर दिया था, और इनके ये चार भेद कर दिये थे-कौशिकी, आरभटी, भारती और सात्वती तथा अलग-अलग रसों के लिए इनका अलग-अलग विधान कर दिया गया था। नाटको में भिन्न-भिन्न रसों के साथ अलग-अलग वृत्तियों का संबंध होने के कारण प्रत्येक रस के लिए अनुकूल और उपर्युक्त वर्ण रचना को भी ‘वृत्ति’ कहने लगे थे, जिससे वृत्यनुप्रास पद बना है। परवर्ती आचार्यों ने इन वृत्तियों का नाटकों के सिवा काव्य में भी आरोप किया था, और इनके उपनागरिका, कोमला, परुषा आदि भेद निरूपित किये थे। नाट्यशास्त्र की प्रवृत्ति, और वृत्ति के लिए दे० प्रवृत्त ६ का विशेष। १५. वृत्तान्त। हाल। १६. प्रकृति। स्वभाव। १७. प्राचीन काल का एक प्रकार का संहारक अस्त्र।
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वृत्ति-कर  : पुं० [सं० ष० त०] वह कर जो कोई पेशा या वृत्ति करनेवाले लोगों पर लगता है। पेशे पर लगनेवाला कर (प्रोफेशन टैक्स)।
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वृत्ति-विरोध  : पुं० [सं० स० त] भारतीय साहित्य में रतना का एक दष जो उस समय माना जाता है जब वृत्तियों (विशेष दे० वृत्ति ५ और ६) के नियमों का ठीक तरह से पालन नहीं होता। जैसे—श्रृंगार रस के वर्णन में परुष वर्णों का प्रयोग करना वृत्ति-विरोध है।
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वृत्तिकार  : पुं० [सं० वृत्ति√कृ+घञ्] वह जिसने वार्तिक लिखा हो। व्याख्या ग्रन्थ लिखनेवाला।
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वृत्तीय  : वि० [सं०] १. वृत्ति संबंधी। वृत्ति का। २. जो वृत्त के रूप में हो। गोलाकार।
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